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________________ ३०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ३४. दिट्ठीणं णिरओघुक्कस्सभंगो, सत्तमपुढविं चेवमस्सिदूण तत्थेदेसिमुक्कस्सपरूवणादो । पढमादिछपुढवीसासणाणमुक्कस्से भण्णमाणे- एक्को तिरिक्खो मणुस्सो वा पढमादिछसु पुढवीसु उववण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो ( २) विसुद्धो (३) उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिऊण आसाणं गदो (४) मिच्छत्तं गंतूगंतरिदो। सग-सगुक्कस्सद्विदीओ अच्छिय अवसाणे उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो उवसमसम्मत्तद्धाए एगसमयावसेसाए सासणं गंतूणुव्वट्टिदो । एवं समयाहियचदुहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाओ सगसगुक्कस्सद्विदीओ सासणाणुक्कस्संतरं होदि । __ एदेसि सम्मामिच्छादिट्ठीण उच्चदे - एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ अप्पिदणेरइएसु उववण्णो छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो (४) मिच्छत्तं सम्मत्तं वा गंतूगंतरिदो । सगढिदिमच्छिय सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो (५) । लद्धमंतरं । मिच्छत्तं सम्मत्तं वा गंतूण उव्यट्टिदो (६)। छहि ग्मिथ्यादृष्टि नारकियोंका उत्कृष्ट अन्तर नारकसामान्यके उत्कृष्ट अन्तरके समान है, क्योंकि, ओघवर्णनमें सातवीं पृथिवीका आश्रय लेकर ही इन दोनों गुणस्थानोंकी उत्कृष्ट अन्तरप्ररूपणा की गई है। प्रथमादि छह पृथिवियोंके सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर कहने पर-एक तिर्यंच अथवा मनुष्य प्रथमादि छह पृथिवियों में उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होकर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ (४)। फिर मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त होगया। पुनः अपनी अपनी पृथिवियोंकी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण रहकर आयुके अन्तमें उपशमसम्यकत्वको प्राप्त हुआ। उपशमसम्यक्त्वके कालमें एक समय अवशेष रह जाने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर निकला। इस प्रकार एक समयसे अधिक चार अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अपनी अपनी पृथिवीकी उत्कृष्ट स्थिति उस उस पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है । अब इन्हीं पृथिवियोंके सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकियोंका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैंमोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य विवक्षित पृथिवीके नारकियों में उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (४)। पुनः मिथ्यात्वको अथवा सम्यक्त्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ, और जिस गुणस्थानको गया उसमें अपनी आयुस्थितिप्रमाण रहकर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (५) । इस प्रकार अन्तरकाल प्राप्त होगया। पुनः मिथ्यात्वको अथवा सम्यक्त्वको प्राप्त होकर निकला (६)। इन छहों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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