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________________ (३४) षट्खंडागमकी प्रस्तावना पुस्तक ४, पृष्ठ ३१३ ९ शंका-पृ. ३१३ में- 'स-परप्पयासमयपमाणपडिवादीण-' पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है, इसके स्थानमें यदि ' सपरप्पयासयमणिपमाणपईवादीण' पाठ हो तो अर्थकी संगति ठीक बैठ जाती है? (जैनसन्देश, ३०-४-४२) समाधान-प्रस्तुत स्थल पर उपलब्ध तीनों प्रतियोंमें जो विभिन्न पाठ प्राप्त हुए और मूडबिद्रीसे जो पाठ प्राप्त हुआ उन सबका उल्लेख वहीं टिप्पणीमें दे दिया गया है। उनमें अधिक हेर-फेर करना हमने उचित नहीं समझा और यथाशक्ति उपलब्ध पाठोंपरसे ही अर्थकी संगति बैठा दी। यदि पाठ बदलकर और अधिक सुसंगत अर्थ निकालना ही अभीष्ट हो तो उक्त पाठको इस प्रकार रखना अधिक सुसंगत होगा- स-परप्पयासयपमाण-पडीवादीणमुवलंभा । इस पाठके अनुसार अर्थ इस प्रकार होगा- "क्योंकि स्व-परप्रकाशक प्रमाण व प्रदीपादिक पाये पाये जाते हैं ( इसलिये शब्दके भी स्वप्रतिपादकता बन जाती है )"। पुस्तक ४, पृष्ठ ३५० १० शंका-धवलराज खंड ४, पृष्ठ ३५०, ३६६ पर सम्मूर्च्छन जीवके सम्यग्दर्शन होना लिखा है । परन्तु लब्धिसार गाथा २ में सम्यग्दर्शनकी योग्यता गर्भजके लिखी है, सो इसमें विरोधसा प्रतीत होता है, खुलासा करिए। (नानकचन्द्र जैन, खतौली, पत्र १६-३-४२) समाधान-लब्धिसार गाथा दूसरीमें जो गर्भजका उल्लेख है, वह प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्तिकी अपेक्षासे है। किन्तु यहां उपर्युक्त पृष्ठोंमें जो सम्मूञ्छिम जीवके संयमासंयम पानेका निरूपण है, उसमें प्रथमोशमसम्यक्त्वका उल्लेख नहीं है, जिससे ज्ञात होता है कि यहां वह कथन वेदकसम्यक्त्वकी अपेक्षासे किया गया है। अतएव दोनों कथनोंमें कोई विरोध नहीं समझना चाहिए। पुस्तक ४, पृष्ठ ३५३ ११ शंका-आपने अपूर्वकरण उपशामकको मरण करके अनुत्तर विमानोंमें उत्पन्न होना लिखा है, जब कि मूलमें · उत्तमो देवो' पाठ है । क्या उपशमश्रेणीमें मरण करनेवाले जीव नियमसे अनुत्तरमें ही जाते हैं ? क्या प्रमत्त और अप्रमत्तवाले भी सर्वार्थसिद्धिमें जा सकते हैं ? (नानकचंद्र जैन खतौली, पत्र ता. १-४-३२) समाधान-इस शंका तीन शंकायें गर्मित हैं जिनका समाधान क्रमशः इस प्रकार है (१) मूलमें 'उत्तमा देवो' पाठ नहीं, किन्तु ' लयसत्तमो देवो' पाठ है । लयसत्तमका अर्थ अनुत्तर विमानवासी देव होता है। यथा-लवसत्तम-लवसप्तम-पुं० । पंचानुत्तरविमानस्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only • www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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