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शंका-समाधान
देवेसु । सूत्र० १ श्रु. ६ अ. । सम्प्रति लवसप्तमदेवस्वरूपमाह
सत्त लवा जइ आउं पहं पमाणं ततो उ सिझंतो। तत्तियमत्तं न हु तं तो ते लवसत्तमा जाया ॥ १३२ ॥ सम्वट्ठसिद्धिनामे उक्कोसठिई य विजयमादीसु । एगावसेसगब्भा भवंति लवसत्तमा देवा ॥ १३३ ।। व्य. ५ उ.
अभिधानराजेन्द्र, लवसत्तमशब्द. (२) उपशमश्रेणीमें मरण करनेवाले जीव नियमसे अनुत्तर विमानोंमें ही जाते हैं, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी निम्न गाथासे ऐसा अवश्य ज्ञात होता है कि चतुर्दशपूर्वधारी जीव लान्तव-कापिष्ठ कल्पसे लगाकर सर्वार्थसिद्धिपर्यंत उत्पन्न होते हैं । चूंकि 'शुक्ले चाये पूर्वविदः ' के नियमानुसार उपशमश्रेगीवाले भी जीव पूर्ववित् हो जाते हैं, अतएव उनकी लान्तवकल्पसे ऊपर ही उत्पत्ति होती है नीचे नहीं, ऐसा अवश्य कहा जा सकता है । वह गाथा इस प्रकार है
दसपुव्वधरा सोहम्मपहुदि सव्वट्ठसिद्धिपरियंत
चोइसपुव्वधरा तह लंतवकप्पादि वच्चंते ॥ ति. प. पत्र २३७, १६. (३) उपशमश्रेणीपर नहीं चढ़नेवाले, पमत्त अप्रमत्तसंयत गुणस्थानोंमें ही परिवर्तनसहस्रोंको करनेवाले साधु सर्वार्थसिद्धिमें नहीं जा सकते हैं, ऐसा स्पष्ट उल्लेख देखनेमें नहीं आया । प्रत्युत इसके त्रिलोकसार गाथा नं. ५४६ के 'सध्वट्ठो त्ति सुदिट्ठी महब्बई' पदसे द्रव्यभावरूपसे महाव्रती संयतोंका सर्वार्थसिद्धि तक जानेका स्पष्ट विधान मिलता है ।
पुस्तक ४, पृष्ठ ४११ १२ शंका--योग-परिवर्तन और व्याघात-परिवर्तनमें क्या अन्तर है ?
(नानकचन्द्र जैन, खतौली, पत्र ता. १-४-४२) समाधान-विवक्षित योगका अन्य किसी व्याघातके विना काल-क्षय हो जाने पर अन्य योगके परिणमनको योग-परिवर्तन कहते हैं। किन्तु विवक्षित योगका कालक्षय होनेके पूर्व ही क्रोधादि निमित्तसे योग-परिवर्तनको व्याघात कहते हैं। जैसे- कोई एक जीव मनोयोगके साथ विद्यमान है । जब अन्तर्मुहूर्तप्रमाण मनोयोगका काल पूरा हो गया तब वह वचनयोगी या काययोगी हो गया । यह योग-परिवर्तन है । इसी जीवके मनोयोगका काल पूरा होनेके पूर्व ही कषाय, उपद्रव, उपसर्ग आदिके निमित्तसे मन चंचल हो उठा और वह वचनयोगी या काययोगी हो गया, तो यह योगका परिवर्तन व्याघातकी अपेक्षासे हुआ। योग-परिवर्तनमें काल प्रधान है, जब कि व्याघात-परिवर्तनमें कषाय आदिका आघात प्रधान है । यही दोनोंमें अन्तर है।
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