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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ६, २२९. णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणि-विभंगणाणीसु मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २२९॥
अच्छिण्णपवाहत्तादो गुणसंकंतीए अभावादो ।
सासणसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ २३०॥
कुदो ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमय-पलिदोवमासंखेजदिभागेहि साधम्मादो । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २३१ ॥ कुदो ? णाणतरगमणे मग्गणविणासादो।।
आभिणिबोहिय-सुद-ओहिणाणीसु असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २३२ ॥
___ ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभंगज्ञानी जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २२९॥
- क्योंकि, इन तीनों अज्ञानवाले मिथ्यादृष्टियोंका अविच्छिन्न प्रवाह होनेसे गुणस्थानके परिवर्तनका अभाव है।
तीनों अज्ञानवाले सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है ॥ २३० ॥
क्योंकि, जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागकी अपेक्षा समानता है।
तीनों अज्ञानवाले सासादनसम्यग्दृष्टियोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २३१॥
क्योंकि, प्ररूपणा किए जानेवाले ज्ञानोंसे भिन्न शानोंको प्राप्त होने पर विवक्षित मार्गणाका विनाश हो जाता है।
आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानवालोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥२३२॥
१ ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभंगज्ञानिषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया एक जीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. २ सासादनसम्यग्दृष्टे नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १,८. ३ एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. ४ आभिनिबोधिकश्रुतावधिज्ञानिषु असंयतसम्यग्दृष्टे नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८.
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