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________________ १, ६, २२८. ] अंतराणुगमे अक्साइ - अंतर परूवणं [ ११३ अकसाईसु उवसंतकसायवीदरागछदुमत्थाणमंतरं केवचिरं कलादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयं ॥ २२४ ॥ सुगमे । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ २२५ ॥ उवसमसेढिविसयत्तादो । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २२६ ॥ ट्ठा ओदरिय अकसायत्ताविणासेण पुणो उवसंतपज्जाएण परिणमणाभावा । खीणकायवीद गछदुमत्था अजोगिकेवली ओघं ॥ २२७ ॥ सजोगिकेवली ओघं ॥ २२८ ॥ दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । एवं कसायमग्गणा समत्ता । अकपायियों में उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना faint अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है || २२४ ॥ यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है ।। २२५ ।। क्योंकि, यह गुणस्थान उपशमश्रेणीका विषयभूत है ( और उपशामकोंका उत्कृष्ट अन्तर इतना ही बतलाया गया है ) । उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ।। २२६ ॥ क्योंकि, नीचे उतरकर अकषायताका विनाश हुए विना पुनः उपशान्तपर्यायके परिणमनका अभाव है । अकषायी जीवों में क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ और अयोगिकेवली जिनोंका अन्तर ओघके समान है ।। २२७ ॥ सयोगिकेवली जिनोंका अन्तर ओघके समान है ।। २२८ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं । Jain Education International इस प्रकार कषायमार्गणा समाप्त हुई । १ अकषायेषु उपशान्तकषायस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स सि, २, ८. ३ शेषाणां त्रयाणां सामान्यवत् । स. सि. १, ८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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