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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ६, ९०. उक्कस्सेण एक्कत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥९०॥
सासणस्स तावुच्चदे- एक्को मणुसो दव्वलिंगी उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय सासणं गंतूण तत्थ एगसमओ अत्थि त्ति मदो देवो जादो । एगसमयं सासणगुणेण दिट्ठो। विदियसमए मिच्छत्तं गंतूणंतरिय एक्कत्तीसं सागरोवमाणि गमिय आउअंबंधिय उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो सासणं गदो । लद्धमंतरं । सासणगुणेणेगसमयमच्छिय विदियसमए मदो मणुसो जादो। तिहि समएहि ऊणाणि एक्कत्तीसं सागरोवमाणि सासणुक्कस्संतरं ।
सम्मामिच्छादिहिस्स उच्चदे- एक्को दवलिंगी अट्ठावीससंतकम्मिओ उवरिमगेवज्जेसु उववण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो (४) मिच्छत्तं गंतूणंतरिय एक्कत्तीस सागरोवमाणि गमिय आउअंबंधिय सम्मामिच्छत्तं गदो (५)। जेण गुणेण आउअं बद्धं, तेणेव गुणेण मदो मणुसो जादो (६)। छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि एक्कत्तीसं सागरोवमाणि सम्मामिच्छत्तस्सुक्कस्संतरं होदि ।
उक्त दोनों गुणस्थानवर्ती देवोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपमकाल है ॥९०॥
__ उनमेंसे पहले सासादनसम्यग्दृष्टि देवका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एक द्रव्यलिंगी मनुष्य उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हो करके और सासादनगुणस्थानको जाकर उसमें एक समय अवशेष रहनेपर मरा और देव होगया। वह देव पर्यायमें एक समय सासादनगुणस्थानके साथ दृष्ट हुआ और दूसरे समयमें मिथ्यात्वगुणस्थानको जाकर अन्तरको प्राप्त हो इकतीस सागरोपम बिताकर, आयुको बांधकर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः सासादन गुणस्थानको गया। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। तब सासादनगुणस्थानके साथ एक समय रहकर द्वितीय समयमें मरा और मनुष्य होगया। इस प्रकार तीन समयोंसे कम इकतीस सागरोपमकाल सासादनसम्यग्दृष्टि देवका उत्कृष्ट अन्तर होता है।
____ अब सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके सत्त्ववाला कोई एक द्रव्यलिंगी साधु उपरिम प्रैवेयकोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (४)। पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हो इकतीस सागरोपम बिताकर आगामी भवकी आयुको बांधकर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (५)। पश्चात् जिस गुणस्थानसे आयुको बांधा था, उसी गुणस्थानसे मरा और मनुष्य होगया (६)। इस प्रकार छह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम इकतीस सागरोपमकाल सभ्यग्मिथ्यादृष्टि देवका उत्कृष्ट अन्तर होता है।
१ उत्कर्षेणैकत्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १, ८.
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