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________________ १, ७, १.] भावाणुगमे णिदेसपरूवणं [ १९१ लद्धीओ सम्मत्तं चारित्तं दंसणं तहा णाणं । ठाणाइं पंच खइए भावे जिणभासियाई तु ॥ ८॥ लद्धी सम्मत्तं चारित्तं गाणं दंसणमिदि पंच ठाणाणि । तत्थ लद्धी पंच वियप्पा दाण-लाह-भोगुवभोग-वीरियमिदि । सम्मत्तमैयवियप्पं । चारित्तमेयवियप्पं । केवलणाणमेयवियप्पं । केवलदसणयवियप्पं । एवं खइओ भावो णववियप्पो' । खओवसमिओ भावो ठाणदो सत्तविहो । वियप्पदो अट्ठारसविहो। भणिदं च णाणण्णाणं च तहा सण-लद्धी तहेव सम्मत्तं । चारित्तं देसजमो सत्तेव य होति ठाणाई ॥ ९॥ णाणमण्णाणं दसणं लद्धी सम्मत्तं चारित्तं संजमासंजमो चेदि सत्त द्वाणाणि । तत्थ पाणं चउव्विहं मदि-सुद-ओधि-मणपज्जवणाणमिदि । केवलणाणं किण्ण गहिदं ? ण, तस्स खाइयभावादो । अण्णाणं तिविहं मदि-सुइ-विहंगअण्णाणमिदि । दमणं तिविहं चक्खु-अचक्खु-ओधिदंसणमिदि । केवलदसणं ण गहिदं । कुदो? अप्पणो विरोहिकम्मस्स दानादि लब्धियां, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, क्षायिक दर्शन, तथा सायिक ज्ञान, इस प्रकार क्षायिक भावमें जिन-भाषित पांच स्थान होते हैं ॥ ८॥ लब्धि, सम्यक्त्व, चारित्र, ज्ञान, दर्शन, ये पांच स्थान क्षायिकभावमें होते हैं। उनमें लब्धि पांच प्रकारकी है-क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, और क्षायिक वीर्य । क्षायिक सम्यक्त्व एक विकल्पात्मक है। क्षायिक चारित्र एक भेदरूप है। केवलज्ञान एक विकल्पात्मक है और केवलदर्शन एक विकल्परूप है। इस प्रकारसे क्षायिक भावके नौ भेद है । क्षायोपशमिकभाव स्थानकी अपेक्षा सात प्रकार और विकल्पकी अपेक्षा अठारह प्रकारका है। कहा भी है ___ज्ञान, अज्ञान, दर्शन, लब्धि, सम्यक्त्व, चारित्र और देशसंयम, ये सात स्थान क्षायोपशमिक भावमें होते हैं ॥९॥ शान, अज्ञान, दर्शन, लब्धि, सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम, ये सात स्थान क्षायोपशमिकभावके हैं। उनमें मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययके भेदसे ज्ञान चार प्रकारका है। शंका-यहांपर शानोंमें केवलज्ञानका ग्रहण क्यों नहीं किया गया ? समाधान- नहीं, क्योंकि, वह क्षायिक भाव है। कुमति, कुश्रुत और विभंगके भेदसे अज्ञान तीन प्रकारका है। चक्षु, अचक्षु और अवधिके भेदसे दर्शन तीन प्रकारका है। यहांपर दर्शनों में केवलदर्शनका ग्रहण नहीं १ज्ञानदर्शनदानलामभोगोपभोगवीर्याणि च । त. सू. २, ४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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