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छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, ६, ९४.
एवमसंजदसम्मादिस्सि वि । वरि पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊउक्कस्तद्विदीओ अंतरं होदि ।
६२ ]
सासणसम्मादिट्टि - सम्मामिच्छादिडणं सत्थाणोघं ॥ ९४ ॥
कुदो ? णाणाजीव पडुच्च जहणणेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुत्तं; उक्कस्सेण हि समएहि छहि अंतोमुहुतेहि ऊणाओ उक्कस्सद्विदीओ अंतरमिच्चे हि भेदाभावा । वरि सग-सगुक्कस्सट्ठिदीओ देसूणाओ उक्कस्संतरमिदि एत्थ वत्तव्वं, सत्थाणो घण्णहाणुववत्तीदो |
आणद जाव णवगेवज्जविमाणवासियदेवेसु मिच्छा दिट्टि असंजदसम्मादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पहुच णत्थि अंतरं, निरंतरं ॥ ९५॥
सुगममेदं सुतं ।
एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ९६ ॥
इसी प्रकार से असंयतसम्यग्दृष्टि देवों का भी अन्तर जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि उनके पांच अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण अन्तर होता है । उक्त स्वर्गौके सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंका अन्तर स्वस्थान ओके समान है ।। ९४॥
क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय, उत्कर्ष से पल्योपमका असंख्यातवां भाग अन्तर है; एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त अन्तर है, उत्कर्ष से दो समय और छह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण अन्तर है; इत्यादि रूपसे ओघके अन्तरसे इनके अन्तर में भेदका अभाव है । विशेष बात यह है कि अपनी अपनी कुछ कम उत्कृष्ट स्थितियां ही यहां पर उत्कृष्ट अन्तर है ऐसा कहना चाहिए; क्योंकि, अन्यथा सूत्रमें कहा गया स्वस्थान ओघ अन्तर बन नहीं सकता ।
आनतकल्पसे लेकर नवग्रैवेयकविमानवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ।। ९५ ।
यह सूत्र सुगम है 1
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ९६ ॥
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