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१०१] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ६, २०१. उप्पादिदो ? ण एस दोसो, जेण कालेण मिच्छत्तं गंतूण आउअं बंधिय अण्णवेदेसु उवबज्जदि, सो कालो सिज्झणकालादो संखेज्जगुणो त्ति कट्ट अणुप्पाइदत्तादो । उवरिल्लाणं पि एदं चेय कारणं वत्तव्यं । पमत्त-अप्पमत्तसंजदाणं पंचिंदियपज्जत्तभंगो । णवरि विसेसं जाणिय वत्तव्यं ।
दोण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ २०१॥
सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं ॥ २०२ ॥ एवं पि सुगमं । उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं ॥ २०३ ॥
संख्यात
उत्पन्न नहीं कराया, इसका क्या कारण है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जिस कालसे मिथ्यात्वको जाकर और आयुको बांधकर अन्य वेदियोंमें उत्पन्न होता है, वह काल सिद्ध होनेवाले कालसे
, इस अपक्षासे उसे मिथ्यात्वमें ले जाकर पुनः अन्य वेदियों में नहीं उत्पन्न कराया।
ऊपरके गुणस्थानोंमें भी यही कारण कहना चाहिए । पुरुषवेदी प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतोंका भी अन्तर पंचेन्द्रिय-पर्याप्तकोंके समान है। केवल इनमें जो विशेषता है उसे जानकर कहना चाहिए।
पुरुषवेदी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दो उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा इन दोनों गुणस्थानोंका अन्तर ओघके समान है ॥ २०१॥
यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥२०२ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर सागरोपमशतपृथक्त्व है ॥ २०३ ॥
१ द्वयोरुपशमकयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम् । स. सि. १, ८.
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