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________________ १, ६, २४०.] अंतराणुगमे मदि-सुद-ओहिणाणि-अंतरपरूवणं [१२१ सादिरेयाणि उक्कस्संतरं । एवं विसेसमजोएदूण उत्तं । विसेसे जोइज्जमाणे अंतरमंतरादो अप्पमत्तद्धाओ तासिं अंतर-बाहिरिया एक्का खवगसेढीपाओग्गअप्पमत्तद्धा तत्थेगदादो दुगुणा सरिसा त्ति अवणेदव्या । पुणो अंतरमंतराओ छ उवसामगद्धाओ अत्थि, तासिं बाहिरिल्लएसु अवसिट्ठसत्तसु अंतोमुहुत्तेसु तिण्णि खवगद्धाओ अवणेदव्या । एक्किस्से उवसंतद्धाए एगखवगद्धद्धं विसोहिदे अवसिझेहि अद्धटुंतोमुहुत्तेहि ऊणियाए पुव्यकोडीए सादिरेयाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि अंतरं होदि । ओधिणाणिपमत्तसंजदमप्पमत्तादिगुणं णेदूण अंतराविय पुव्वं व उक्कस्संतरं वत्तव्यं, णस्थि एत्थ विसेसो। ___अप्पमत्तस्स उच्चदे- एक्को अप्पमत्तो अपुव्वो (१) अणियट्टी (२) सुहुमो (३) उपसंतो (४) होदूण पुणो वि सुहुमो (५) अणियट्टी (६) अपुल्यो होद्ण (७) कालं गदो समऊणतेत्तीससागरोवमाउहिदिएसु देवेसु उववण्णो । तत्तो चुदो पुव्यकोडाउएम मणुसेसु उववण्णो । अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे अप्पमत्तो जादो । लद्धमंतरं (१)। तदो पमत्तो (२) अप्पमत्तो (३) । उवरि छ अंतोमुहुत्ता । अंतरस्स अब्भंतरिमाओ छ उवसामगद्धाओ अत्थि, तासिं अंतरबाहिरिल्लाओ तिणि खवगद्धाओ अवणेदव्वा । अंतर तेतीस सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर होता है । इस प्रकारसे यह अन्तर विशेषको नहीं जोड़ करके कहा है। विशेषके जोड़े जाने पर अन्तरके आभ्यन्तरसे अप्रमत्तसंयतका काल और उनके अन्तरका बाहिरी एक क्षपकश्रेणीके योग्य अप्रमत्तसंयतका काल होता है। उनसे एक गुणस्थानके कालसे दुगुणा सदृशकाल निकाल देना चाहिए । पुनः अन्तरके आभ्यन्तर छह उपशामककाल होते हैं । उनके बाहिरी अवशिष्ट सात अन्तर्मुहूतोंसे तीन क्षपक गुणस्थानोंवाले क्षपककाल निकाल देना चाहिए । एक उपशान्तकालमेंसे एक क्षपककालका आधा भाग घटा देनेपर अवशिष्ट साढ़े तीन अन्तर्मुहूर्तोंसे कम पूर्वकोटीसे साधिक तेतीस सागरोपमकालप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर होता है । अवधिज्ञानी प्रमत्तसंयतको अप्रमत्त आदि गुणस्थानमें ले जाकर और अन्तरको प्राप्त कराकर पूर्वके समान ही उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए, इसमें और कोई विशेषता नहीं है। तीनों ज्ञानवाले अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एक अप्रमत्तसंयत्त, अपूर्वकरण (१) अनिवृत्तिकरण (२) सूक्ष्मसाम्पराय (३) उपशान्तकषाय (४)हो करके फिर भी सूक्ष्मसाम्पराय (५) अनिवृत्तिकरण (६) और अपूर्वकरण हो कर (७) मरणको प्राप्त हुआ और एक समय कम तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ । वहांसे च्युत होकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। संसारके अन्तर्मुहूर्त अवशेष रह जाने पर अप्रमत्तसंयत हुआ । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ (१)। पश्चात् प्रमत्तसंयत (२) अप्रमत्तसंयत हुआ (३)। इनमें क्षपकश्रेणीसम्बन्धी ऊपरके छह अन्तर्मुहूर्त मिलाये । अन्तरके आभ्यन्तर उपशामकसम्बन्धी छह काल होते हैं। उनके अन्तरसे बाहिरी तीन क्षपककाल कम कर देना चाहिए। अन्तरके आभ्यन्तरवाले उपशान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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