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________________ १, ८, ५४. ] अप्पा बहुगागमे मणुस - अप्पा बहुगपरूवणं [ २७३ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । एत्थ खइयसम्मादिट्टीणमप्पाबहुअं णत्थि, सव्वित्थीसु सम्मादिट्ठीणमुववादाभावा, मणुसगइवदिरित्तण्णगईसु दंसणमोहणीयखवणाभावाच्च । सगदी मणुस - मणुसपज्जत्त- मणुसिणीसु तिसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा ॥ ५३ ॥ तिसु वि मणुसेसु तिणि वि उवसामया पवेसणेण अण्णोष्णमवेक्खिय तुल्ला सरिसा, चउवण्णमेत्तत्तादो । ते च्चेय थोवा, उवरिमगुणट्ठाणजीवावेक्खाए । उवसंतकसायवीदरा गछदुमत्था तेतिया चेव ॥ ५४ ॥ दो ? हेमिगुणट्ठाणे पडिवण्णजीवाणं चेय उव संतकसायवीदरागछदुमत्थपज्जाएण परिणामुवलंभा । संचयस्स अप्पाबहुअं किण्ण परूविदं ? ण, पवेसप्पाबहुएण चेय तदवगमादो | जदो संचओ णाम पवेसाहीणो, तदो पवेसप्पाब हुएण सरिसो संचयप्पा बहुओ ति पुध ण उत्तो । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। यहां पंचेन्द्रियतिर्यंच योनिमतियोंमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंका अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि, सर्व प्रकारकी स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि जीवोंका उपपाद नहीं होता है, तथा मनुष्यगतिको छोड़कर अन्य गतियों में दर्शनमोहनीयकर्मकी क्षपणाका भी अभाव है । मनुष्यगति में मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और अल्प हैं ॥ ५३ ॥ सूत्रोक्त तीनों प्रकारके मनुष्यों में अपूर्वकरण आदि तीनों ही उपशामक जीव प्रवेशसे परस्परकी अपेक्षा तुल्य अर्थात् सदृश हैं, क्योंकि, एक समय में अधिक से अधिक चौपन जीवोंका प्रवेश पाया जाता है । तथा, ये जीव ही उपरिम गुणस्थानोंके जीवोंकी अपेक्षा अल्प हैं । उपशान्तकपायवीतरागछद्मस्थ जीव प्रवेशसे पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ ५४ ॥ क्योंकि, अधस्तन गुणस्थानोंको प्राप्त हुए जीवोंका ही उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थरूप पर्यायसे परिणमण पाया जाता है । शंका- - यहां उपशामकोंके संचयका अल्पबहुत्व क्यों नहीं बतलाया ? समाधान — नहीं, क्योंकि, प्रवेशसम्बन्धी अल्पबहुत्वसे ही उसका ज्ञान हो जाता है। चूंकि, संचय प्रवेशके आधीन होता है, इसलिए प्रवेश के अल्पबहुत्वसे संचयका अल्पबहुत्व सदृश है, अतएव उसे पृथक् नहीं बतलाया । Jain Education International १ मनुष्यगतौ मनुष्याणामुपशमकादिप्रमत्तसंयतान्तानां सामान्यवत् । स. सि. १,८. २ अ प्रतौ ' पवेसहीणो ' आ-कप्रत्योः ' पवेसाहिणो ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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