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षट्खंडागमकी प्रस्तावना
संबंध था । फिर भी हमें पता चलता है कि भिन्न भिन्न शाखाओंसे आये हुए ग्रन्थोंकी सामान्य रूपरेखा तो एकसी है, किन्तु विस्तारसंबंधी विशेष बातों में उनमें विभिन्नता है । इससे पता चलता है कि भिन्न भिन्न शाखाओं में आदान-प्रदानका संबंध था, छात्रगण और विद्वान एक शाखासे दूसरी शाखामें गमन करते थे, और एक स्थानमें किये गये आविष्कार शीघ्र ही भारतके एक कोने से दूसरे कोने तक विज्ञापित कर दिये जाते थे ।
प्रतीत होता है कि बौद्ध धर्म और जैन धर्म के प्रचारने विविध विज्ञानों और कलाओंके अध्ययनको उत्तेजना दी। सामान्यतः सभी भारतवर्षीय धार्मिक साहित्य, और मुख्यतया बौद्ध व जैनसाहित्य, बड़ी बड़ी संख्याओं के उल्लेखोंसे परिपूर्ण है । बड़ी संख्याओंके प्रयोगने उन संख्याओंको लिखनेके लिये सरल संकेतोंकी आवश्यकता उत्पन्न की, और उसीसे दाशमिक क्रम ( The place-value system of notation ) का आविष्कार हुआ । अब यह बात निस्संशयरूपसे सिद्ध हो चुकी है कि दाशमिक क्रमका आविष्कार भारतमें ईसवी सन्के प्रारंभ काल के लगभग हुआ था, जब कि बौद्धधर्म और जैनधर्म अपनी चरमोन्नति पर थे । यह नया अंक क्रम बड़ा शक्तिशाली सिद्ध हुआ, और इसीने गणितशास्त्रको गतिप्रदान कर सुल्वसूत्रोंमें प्राप्त वेदकालीन प्रारंभिक गणितको विकासकी ओर बढ़ाया, और वराहमिहिर के ग्रंथों में प्राप्त पांचवी शताब्दी के सुसम्पन्न गणितशास्त्रमें परिवर्तित कर दिया ।
एक बड़ी महत्वपूर्ण बात, जो गणितके इतिहासकारों की दृष्टिमें नहीं आई, यह है कि यद्यपि हिन्दुओं, बौद्धों और जैनियों का सामान्य साहित्य ईसा से पूर्व तीसरी व चौथी शताब्दी से लगाकर मध्यकालीन समय तक अविच्छिन्न है, क्योंकि प्रत्येक शताब्दी के ग्रंथ उपलब्ध हैं, तथापि गणितशास्त्रसंबंधी साहित्यमें विच्छेद है । यथार्थतः सन् ४९९ में रचित आर्यभटीयसे पूर्व गणितशास्त्र संबंधी रचना कदाचित् ही कोई हो । अपवाद में बख्शालि प्रति ( BakhsaliManuscript ) नामक वह अपूर्ण हस्तलिखित ग्रंथ ही है जो संभवतः दूसरी या तीसरी - शताब्दीकी रचना है । किन्तु इसकी उपलब्ध हस्तलिखित प्रतिसे हमें उस कालके गणित - ज्ञानकी स्थितिके विषय में कोई विस्तृत वृत्तान्त नहीं मिलता, क्योंकि यथार्थ में वह आर्यभट, ब्रह्मगुप्त अथवा श्रीधर आदि के ग्रंथोके सदृश गणितशास्त्रकी पुस्तक नहीं है । वह कुछ चुने हुए गणित संबंधी प्रश्नोंकी व्याख्या अथवा टिप्पणीसी है । इस हस्तलिखित प्रतिसे हम केवल इतना ही अनुमान कर सकते हैं कि दाशमिकक्रम और तत्संबंधी अंकगणितकी मूल प्रक्रियायें उस समय अच्छी तरह विदित थीं, और पीछेके गणितज्ञोंद्वारा उल्लिखित कुछ प्रकारके गणित प्रश्न ( problems ) भी ज्ञात थे ।
यह पूर्व ही बताया जा चुका है कि आर्यभटीयमें प्राप्त गणितशास्त्र विशेष उन्नत है, क्योंकि उसमें हमको निम्न लिखित विषयोंका उल्लेख मिलता है- वर्तमानकालीन प्राथमिक
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