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षटूखंडागमकी प्रस्तावना यहां यह बात ध्यानमें रखने योग्य है कि चौथे गुणस्थान तक भावोंका प्ररूपण दर्शनमोहनीय कर्मकी अपेक्षा किया गया है। इसका कारण यह है कि गुणस्थानोंका तारतम्य या विकाश-क्रम मोह और योगके आश्रित है। मोहकर्मके दो भेद हैं- एक दर्शनमोहनीय और दूसरा चारित्रमोहनीय । आत्माके सम्यक्त्वगुणको घातनेवाला दर्शनमोहनीय है जिसके निमित्तसे आत्मा वस्तुस्वभावको या अपने हित-अहितको देखता और जानता हुआ भी श्रद्धान नहीं कर सकता है । चारित्रगुणको घातनेवाला चारित्रमोहनीयकर्म है। यह वह कर्म है जिसके निमित्तसे वस्तुस्वरूपका यथार्थ श्रद्धान करते हुए भी, सन्मार्गको जानते हुए भी, जीव उसपर चल नहीं पाता है। मन, वचन और कायकी चंचलताको योग कहते हैं। इसके निमित्तसे आत्मा सदैव परिस्पन्दनयुक्त रहता है, और कर्माश्रवका कारण भी यही है। प्रारम्भके चार गुणस्थान दर्शनमोहनीय कर्मके उदय, उपशम, क्षयोपशम आदिसे उत्पन्न होते हैं, इसलिए उन गुणस्थानोंमें दर्शनमोहकी अपेक्षासे ( अन्य भावोंके होते हुए भी ) भावोंका निरूपण किया गया है । तथापि चौथे गुणस्थान तक रहनेवाला असंयमभाव चारित्रमोहनीयकर्मके उदयकी अपेक्षासे है, अतः उसे आदयिकभाव ही जानना चाहिए। पांचवेंसे लेकर बारहवें तक आठ गुणस्थानोंका आधार चारित्रमोहनीयकर्म है अर्थात् ये आठों गुणस्थान चारित्रमोहनीयकर्मके क्रमशः, क्षयोपशम, उपशम और क्षयसे होते हैं, अर्थात् पांचवें, छठे और सातवें गुणस्थानमें क्षायोपशमिकभावः आठवें, नवें, दशवें और ग्यारहवें, इन चारों उपशामक गुणस्थानोंमें औपशमिकभाव; तथा क्षपकश्रेणीसम्बन्धी चारों गुणस्थानोंमें, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानमें क्षायिकभाव कहा गया है। तेरहवें गुणस्थानमें मोहका अमाव हो जानेसे केवल योगकी ही प्रधानता है और इसीलिए इस गुणस्थानका नाम सयोगिकेवली रखा गया है । चौदहवें गुणस्थानमें योगके अभावकी प्रधानता है, अतएव अयोगिकेवली ऐसा नाम सार्थक है। इस प्रकार थोड़े में यह फलितार्थ जानना चाहिए कि विवक्षित गुणस्थानमें संभव अन्य भाव पाये जाते हैं, किन्तु यहां भावप्ररूपणामें केवल उन्हीं भावोंको बताया गया है, जो कि उन गुणस्थानोंके मुख्य आधार हैं ।
आदेशकी अपेक्षा भी इसी प्रकारसे भावोंका प्रतिपादन किया गया है, जो कि ग्रंथावलोकनसे व प्रस्तावनामें दिये गये नकशोंके सिंहावलोकनसे सहजमें ही जाने जा सकते हैं ।
३ अल्पबहुत्वानुगम द्रव्यप्रमाणानुगममें बतलाये गये संख्या प्रमाणके आधार पर गुणस्थानों और मार्गणास्थानोंमें संभव पारस्परिक संख्याकृत हीनता और अधिकताका निर्णय करनेवाला अल्पबहुत्वानुगम नामक अनुयोगद्वार है। यद्यपि व्युत्पन्न पाठक द्रव्यप्रमाणानुगम अनुयोगद्वारके द्वारा ही उक्त अल्पबहुत्वका निर्णय कर सकते हैं, पर आचार्यने विस्ताररुचि शिष्योंके लाभार्थ इस नामका
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