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________________ पृष्ठ १७० १८६ २ धम्मभावो । १९८ २८-२९ अवथवरूप.... अंश २०४ १० संखेज्जाणंत २२४ १९ दयाधर्मसे.... हुए २१ क्योंकि, आप्त.... यथार्थ "" २२५ २२६ २३८ 39 २४६ ३६४ २५५ २७५ २८६ पंक्ति अशुद्ध २१ जाना जाता है कि........ अन्तररहित है । Jain Education International ९ सजोगिकेवली २८ पारिणामिकभावकी १६ कार्मणकाय योगियों में १७ कार्मणकाययोगी ८ पुधसन्तारंभो ५ -मतो १६ प्रमाणराशिसे... भाजित २८ सासादनसम्यग्दृष्टि जीव. संख्यातगुणित शुद्धिपत्र २९ असंख्यातवें (६३) शुद्ध जाना जाता है कि उपशमश्रेणी के समारोहण योग्य कालसे शेष उपशमसम्यक्त्वका काल अल्प है । धम्मभावो य । अवयवीरूप सम्यक्त्वगुणका तो निराकरण रहता है, किन्तु सम्यक्त्वगुणका अवयव रूप अंश असंखेजाणंत दयाधर्मको जाननेवाले ज्ञानियोंमें वर्तमान क्योंकि, दयाधर्मके ज्ञाताओंमें भी आप्त, आगम और पदार्थके श्रद्धानसे रहित जीवके यथार्थ सजोगिकेवली ( अजोगिकेवली ) भव्यत्वभावकी कार्मणका योगियों से अनाहारक पुधसुत्तारंभो -मेत्तो फलराशिसे इच्छाराशिको गुणित करके प्रमाणराशिसे भाजित सासादनसम्यग्दृष्टि जीव संयतासंयत मनुष्यनियोंसे संख्यातगुणित संख्यातवें For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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