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________________ २४८ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ८, १०. पुव्युत्तअप्पमत्तरासिणा पंचकोडि - तिण्णउइलक्ख - अट्ठाणउइसहस्स छन्भहियदोसदमेत्ताम्हि पमत्त सिम्हि भागे हिदे जं भागलद्धं सो गुणगारो । संजदासंजदा असंखेज्जगुणा ॥ १० ॥ कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तत्तादो | माणुसखेत्तव्यंतरे चेय संजदासंजदा होंति, णो बहिद्धा; भोगभूमिम्हि संजमासंजमभावविरोहा । ण च माणुसखेत्तब्भंतरे असंखेज्जाणं संजदासंजदाणमत्थि संभवो, तेत्तियमेत्ताणमेत्थावद्वाणविरोहा | तदो संखेज्जगुणेहि संजदासंजदेहि होदव्यमिदि ? ण, सयंपहपव्वदपरभागे असंखेज्ज - जोयणवित्थडे कम्मभूमिपडिभाए तिरिक्खाणमसंखेज्जाणं संजमासंजमगुणसहिदाणमुवलंभा । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? अंतो मुहुत्त गुणिदपमत्तसंजदरासी पडिभागो । सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ११ ॥ पूर्वोक्त अप्रमत्तराशिसे पांच करोड़ तिरानवे लाख, अट्ठानवे हजार, दो सौ छह संख्याप्रमाण प्रमत्तसंयतराशिमें भाग देनेपर जो भाग लब्ध आवे, वह यहांपर गुणकार है । प्रमत्तसंयतोंसे संयतासंयत असंख्यातगुणित हैं ॥ १० ॥ क्योंकि, वे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । 'शंका - संयतासंयत मनुष्यक्षेत्र के भीतर ही होते हैं, बाहर नहीं, क्योंकि, भोगभूमिमें संयमासंयमके उत्पन्न होंनेका विरोध है । तथा मनुष्यक्षेत्र के भीतर असंख्यात संयतासंयतोंका पाया जाना सम्भव नहीं है, क्योंकि, उतने संयतासंयतोंका यहां मनुष्य क्षेत्रके भीतर अवस्थान माननेमें विरोध आता है । इसलिए प्रमत्तसंयतोंसे संयतासंयत संख्यातगुणित होना चाहिए ? समाधान नहीं, क्योंकि, असंख्यात योजन विस्तृत एवं कर्मभूमिके प्रतिभागरूप स्वयंप्रभ पर्वतके परभागमें संयमासंयम गुणसहित असंख्यात तिर्यंच पाये जाते हैं । गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? अन्तर्मुहूर्त से प्रमत्तसंयतराशिको गुणित करनेपर जो लब्ध आवे, वह प्रतिभाग है । संयतासंयतों से सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥। ११ ॥ १ संयतासंयताः असंख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. २ प्रतिषु 'मेचा-' इति पाठः । ३ सासादनसम्यग्दृष्टथोऽसंख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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