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________________ [५३ १, ६, ७१.] अंतराणुगमे मणुस्स-अंतरपरूवणं अप्पमत्तस्स उक्कस्संतरं उच्चदे- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ अण्णगदीदो आगंतूण मणुसेसु उप्पज्जिय गम्भादिअट्ठवस्सिओ जादो । सम्मत्तं अप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो (१)। पमत्तो होदूगंतरिदो अद्वेतालीसपुधकोडीओ परिभमिय अपच्छिमाए पुब्धकोडीए बद्धदेवाउओ संतो अप्पमत्तो जादो । लद्धमंतरं (२)। तदो पमत्तो होदूण (३) मदो देवो जादो । तीहि अंतीमुहुत्तेहि अब्भहियअहवस्सेहि ऊणाओ अद्वेदालीसपुव्यकोडीओ उक्करसंतरं । पज्जत्त-मणुसिणीसु एवं चेव । णवरि पज्जत्तेसु चउर्वासपुवकोडीओ. मणुसिणीसु अट्टपुषकोडीओ त्ति वत्तव्यं । चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ७० ॥ कुदो ? तिविहमणुस्साणं चउब्धिहउवसामगेहि विणा एगसमयावट्ठाणुवलंभा । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ ७१ ॥ कुदो ? तिविहमणुस्साणं चउब्धिहउवसामगेहि विणा उक्कस्सेण वासपुधत्तावट्ठाणुवलंभादो। ____ अब अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला कोई एक जीव अन्य गतिसे आकर मनुष्यों में उत्पन्न होकर गर्भको आदि लेकर आठ वर्षका हुआ और सम्यक्त्व तथा अप्रमत्त गुणस्थानको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। पुनः प्रमत्तसंयत हो अन्तरको प्राप्त हुआ और अड़तालीस पूर्वकोटियां परिभ्रमण कर अन्तिम पूर्वकोटिमें देवायुको बांधता हुआ अप्रमत्तसंयत होगया। इस प्रकारसे अन्तर प्राप्त हुआ (२)। तत्पश्चात् प्रमत्तसंयत होकर (३) मरा और देव होगया । ऐसे तीन अन्तर्मुहूसे अधिक आठ वर्षोंसे कम अड़तालीस पूर्वकोटियां उत्कृष्ट अन्तर होता है। पर्याप्त मनुष्यनियों में इसी प्रकारका अन्तर होता है। विशेष बात यह है कि इन पर्याप्तमनुष्योंके चौवीस पूर्वकोटि और मनुष्यनियोंमें आठ पूर्वकोटिकालप्रमाण अन्तर कहना चाहिए। चारों उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ ७० ॥ क्योंकि, तीनों ही प्रकारके मनुष्योंका चारों प्रकारके उपशामकोंके विना एक समय अवस्थान पाया जाता है। चारों उपशामकोंका उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व अन्तर है ॥ ७१ ॥ फ्योंकि, तीनों प्रकारके मनुष्योंका चारों प्रकारके उपशामकोंके विना उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व रहनेवाला पाया जाता है। १ चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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