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________________ ५२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ६९. उक्कस्सेण पुवकोडिपुधत्तं ॥ ६९ ॥ मणससंजदासंजदाणं ताव उच्चदे- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ अण्णगदीदो आगंतूण मणुसेसु उववण्णो । अट्ठवस्सिओ जादो वेदगसम्मत्तं संजमासंजमं च समगं पडिवण्णो (१)। मिच्छत्तं गंतूगंतरिय अदालीसपुधकोडीओ परिभमिय अवसाणे देवाउअंबंधिय संजमासंजमं पडिवण्णो । लद्धमंतरं (२)। मदो देवो जादो । एवं अहवस्सेहि वे-अंतोमुहुत्तेहि य ऊणाओ अद्वेदालासपुधकोडीओ संजदासंजदुक्कस्संतरं होदि। पमत्तस्स उक्कस्संतरं उच्चदे- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ अण्णगदीदो आगंतूण मणुसेसु उववण्णो । गब्भादिअहवस्सेहि वेदगसम्मत्तं संजमं च पडिवण्णो अप्पमत्तो (१) पमत्तो होदूण (२) मिच्छत्तं गंतूगंतरिय अद्वेतालीसपुयकोडीओ परिभमिय अपच्छिमाए पुयकोडीए बद्धाउओ संतो अप्पमत्ते। होइंग पमत्तो जादो । लद्धमंतरं (३)। मदो देवो जादो। तिण्णिअंतोमुहुत्तब्भहियअट्ठवस्सेणूणअद्वेदालीसपुत्धकोडीओ पमत्तुक्कस्संतरं होदि। उक्त तीनों गुणस्थानवाले मनुष्यत्रिकोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटीपृथक्त्व है ॥ ६९॥ इनमेंसे पहले मनुष्य संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला कोई एक जीव अन्यगतिसे आकर मनुष्योंमें उत्पन्न हो आठ वर्षका हुआ। और वेदकसम्यक्त्व तथा संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। पुनः मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हो अड़तालीस पूर्वकोटियां परिभ्रमण कर आयुके अन्तमें देवायुको बांधकर संयमासंयमको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे उक्त अन्तर ब्ध हुआ (२)। पुनः मरा और देव हुआ। इस प्रकार आठ वर्ष और दो अन्तर्मुहूतौसे कम अड़तालीस पूर्वकोटियां संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है ___अब प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला कोई एक जीव अन्यगतिसे आकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। पुनः गर्भको आदि लेकर आठ वर्षसे वेदकसम्यक्त्व और संयमको प्राप्त हुआ। पश्चात् वह अप्रमत्तसंयत (१)प्रमत्तसंयत होकर (२) मिथ्यात्वमें जाकर और अन्तरको प्राप्त होकर, अड़तालीस पूर्वकोटियां परिभ्रमण कर अन्तिम पूर्वकोटिमें बद्धायुष्क होता हुआ अप्रमत्तसंयत होकर पुनः प्रमत्तसंयत हुआ। इस प्रकारसे अन्तर लब्ध होगया (३)। पश्चात् मरा और देव होगया। इस प्रकार तीन अन्तर्मुहूतौसे अधिक आठ वर्षसे कम अड़तालीस पूर्वकोटियां प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है। १ उत्कर्षेण पूर्वकोटीपृथक्त्वानि । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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