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( ५२ )
क्रम नं.
विषय
३
आदेश से भावानुगमनिर्देश २०६-२३८ १ गतिमार्गणा
२०६-२१६
( नरकगति )
२०६-२१२
३२ मारकी मिध्यादृष्टि जीवोंके
भाव
सम्यक्त्व
३३ सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हींके सदावस्थारूप उपशमसे, तथा प्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हींके सदवस्थारूप उपशमसे अथवा अनुदयोपशमले और मिथ्यात्वप्रकृतिके सर्वघाती स्पर्धकों के उदयसे मिथ्यादृष्टिभाव उत्पन्न होता है, इसलिए उसे क्षायोपशमिक क्यों न माना जाय ? इस शंकाका सयुक्तिक
समाधान
३४ नारकी सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके भाव
३५ जब कि अनन्तानुबन्धी कषायके उदयसे ही जीव सासादनसम्यग्दृष्टि होता है, तब उसे औदयिकभाव क्यों न कहा जाय ? इस शंकाका
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
पृष्ठ नं.
क्रम नं.
विषय
है, इस बातका स्पष्ट निरूपण ३९ प्रथम पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकी जीवोंके भावोंका निरूपण
२०६-२०७
समाधान
३६ नारकी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके भावका तदन्तर्गत शंका-समाधानपूर्वक निरूपण ३७ नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके भाव ३८ असंयतसम्यग्दृष्टि मारकयोंका असंयतत्व औदयिक
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२०९-२१२
( तिर्यंचगति) २१२-२१३ ४० सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रियतिर्यचपर्याप्त और पंचेन्द्रियतिर्यच योनिमती जीवोंके सर्व गुणस्थानसम्बन्धी भावोंका निरूपण तथा योनिमती तिर्यचोंमें क्षायिकभाव न पाये जाने का स्पष्टीकरण
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४४ भवनवासी, व्यन्तर ज्योतिषी देव और देवियोंके तथा सौधर्म-ईशानकल्पवासी देवियोंके भावोंका निरूपण ४५ सौधर्म-ईशानकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक देवोंके भावोंका विवरण
( मनुष्यगति ) ४१ सामान्यमनुष्य, पर्याप्तमनुष्य और मनुष्यनियोंके सर्वगुणस्थानसम्बन्धी भावोंका निरूपण
४२ लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य और तिर्यचोंके भावोंका सूत्रकारद्वारा सूत्रित न होनेका कारण ( देवगति ) २१४-२१६ ४३ चारों गुणस्थानवर्ती देवोंके
भाव
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२ इन्द्रियमार्गणा २१६-२१७ ४६ मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक पंचेन्द्रियपर्यातकोंके भावका
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