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७०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ६, ११७. एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहत्तं ॥ ११७॥
सुगममेदं सुत्तं, बहुसो उत्तत्तादो ।
उक्कस्सेण सागरोवमसहस्साणि पुबकोडिपुधत्तेणभहियाणि सागरोवमसदपुधत्तं ॥ ११८ ॥
सासणस्स ताव उच्चदे- एक्को अणंतकालमसंखेज्जलोगमेत्तं वा एइंदिएसु विदो असण्णिपंचिंदिएसु आगंतूण उववण्णो । पंचहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) भवणवासिय-वाणवेंतरेसु आउअंबंधिय (४) विस्संतो (५) कमेण कालं करिय भवणवासिय-वाणवेंतरदेवेसुप्पण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (६) विस्संतो (७) विसुद्धो (८) उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (९) सासणं गदो । आदी दिट्ठा । मिच्छत्तं गंतूणंतरिय सगढिदि परियट्टियावसाणे सासणं गदो । लद्धमतरं । तदो थावरपाओग्गमावलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिय कालं करिय थावरकाएसु उववण्णो आवलियाए असंखेज्जदिभागेण णवहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणिया सगट्ठिदी अंतरं ।
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमके असंख्यातवें भाग और अन्तर्मुहूर्त है ॥ ११७ ॥
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, बहुत वार कहा गया है।
उक्त दोनों गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रियोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटीपृथक्त्वसे अधिक एक हजार सागरोपम काल है, तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंका उत्कृष्ट अन्तर सागरोपमशतपृथक्त्व है ॥ ११८ ॥
इनमेंसे पहले सासादनसम्यग्दृष्टिका अन्तर कहते हैं- अनन्तकाल या असंख्यातलोकमात्र काल तक एकेन्द्रियोंमें रहा हुआ कोई एक जीव असंशी पंचेन्द्रियोंमें आकर उत्पन्न हुआ। पांचों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) भवनवासी या वानव्यन्तरोंमें आयुको बांधकर (४) विश्राम ले (५) क्रमसे मरण कर भवनवासी, या वानव्यन्तरदेवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (६) विशाम ले(७) विशुद्ध हो (८) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (९)। पनः सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुआ। इस प्रकार इस गुणस्थानका प्रारम्भ दृष्ट हुआ । पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हो अपनी स्थितिप्रमाण परिवर्तित होकर आयुके अन्तमें सासादन गुणस्थानको गया। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। पश्चात् स्थावरकायके योग्य आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक उनमें रह कर, मरण करके स्थावरकायिकोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार आवलोके असंख्यातवें भाग और नौ अन्तर्मुहौसे कम अपनी स्थिति ही इनका उत्कृष्ट अन्तर है।
१ एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहर्तश्च । स. सि. १,८. २ उत्कर्षेण सागरोपमसहस्रं पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकम् । स. सि. १,८.
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