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८०1 छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ६, १३७. एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १३७ ॥ एदं पि सुत्तं सुगमं चेय। उक्कस्सेण अड्डाइज्जपोग्गलपरियढें ॥ १३८॥
कुदो ? अप्पिदकायादो णिगोदजीवेसुप्पण्णस्स अड्डाइज्जपोग्गलपरियट्टाणि सेसकायपरिब्भमणेण सादिरेयाणि परिभमिय अप्पिदकायमागदस्स अड्डाइज्जपोग्गलपरियट्टमेत्तरुवलंभा ।
तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छादिट्टी ओघं ॥ १३९ ।।
कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण णत्थि अंतरं, णिरंतरं; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण वे छावहिसागरोवमाणि देसूणाणि; इच्चेदेहि मिच्छादिहिओघादो भेदाभावा ।
सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ १४० ॥
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥१३७॥ यह सूत्र भी सुगम ही है । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर अढ़ाई पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ॥ १३८ ॥
क्योंकि, विवक्षित कायसे निगोद जीवोंमें उत्पन्न हुए, तथा उसमें अढ़ाई पुद्गलपरिवर्तन और शेष कायिक जीवोंमें परिभ्रमण करनेसे उनकी स्थितिप्रमाण साधिक काल परिभ्रमणकर विवक्षित कायमें आये हुए जीवके अढ़ाई पुद्गलपरिवर्तन कालप्रमाण अन्तर पाया जाता है।
त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्तक जीवोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर ओघके समान है ॥ १३९॥
___ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है, निरन्तर है; एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त अन्तर है और उत्कर्षसे देशोन दो छयासठ सागरोपम अन्तर है। इस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीवोंके ओघ अन्तरसे इनके अन्तरमें कोई भेद नहीं है।
सकायिक और त्रसकायिक पर्याप्तक सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान अन्तर है ॥ १४०॥
१ त्रसकायिकेषु मिथ्यादृष्टेः सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिध्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८..
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