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________________ १, ७, ७.) भावाणुगमे संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तभाव-परूवणं [२.१. ओदइएण भावेण पुणो असंजदों ॥६॥ सन्मादिट्ठीए तिण्णि भाव भणिऊण असंजदत्तस्स कदमो भावो होदि त्ति जाणावणट्ठमेदं सुत्तमागदं । संजमघादीणं कम्माणमुदएण जेणेसो असंजदो तेण असंजदो त्ति ओदइओ भावो । हेडिल्लाणं गुणट्ठाणाणमोदइयमसंजदत्तं किण्ण परूविदं ? ण एस दोसो, एदेणेव तेसिमोदइयअसंजदभावोवलद्धीदो। जेणेदमंतदीवयं सुत्तं तेणते ठाइदूण अइकंतसव्वसुत्ताणमवयवसरूवं पडिवज्जदि, तत्थ अप्पणो अत्थित्तं वा पयासेदि, तेण अदीदगुणट्ठाणाणं सव्वेसिमोदइओ असंजमभावो अस्थि त्ति सिद्धं । एदमादीए अभणिय एत्थ भणंतस्स को अभिप्पाओ ? उच्चदे- असंजमभावस्स पज्जवसाणपरूवणमुवरिमाणमसंजमभावपडिसेहट्टं चेत्थेदं उच्चदे ।। ___ संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदा त्ति को भावो, खओवसमिओ भावो ॥७॥ किन्तु असंयतसम्यग्दृष्टिका असंयतत्व औदायकभावसे है ॥ ६॥ सम्यग्दृष्टिके तीनों भाव कहकर असंयतके उसके असंयतत्वकी अपेक्षा कौनसा भाव होता है, इस बातके बतलानेके लिए यह सूत्र आया है। चूंकि संयमके घात करनेवाले कर्मोके उदयसे यह असंयतरूप होता है, इसलिए 'असंयत' यह औदयिकभाव है। शंका-अधस्तन गुणस्थानोंके असंयतपनेको औदयिक क्यों नहीं कहा? समाधान—यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, इसी ही सूत्रसे उन अधस्तन गुणस्थानोंके औदयिक असंयतभावकी उपलब्धि होती है। चूंकि यह सूत्र अन्तदीपक है, इसलिए असंयतभावको अन्तमें रख देनेसे वह पूर्वोक्त सभी सूत्रोंका अंग बन जाता है। अथवा, अतीत सर्व सूत्रोंमें अपने अस्तित्वको प्रकाशित करता है, इसलिए सभी अतीत गुणस्थानोंका असंयमभाव औदयिक होता है, यह बात सिद्ध हुई। शंका-यह 'असंयत' पद आदिमें न कहकर यहांपर कहनेका क्या अभिप्राय है? समाधान—यहां तकके गुणस्थानोंके असंयमभावकी अन्तिम सीमा बतानेके लिए और ऊपरके गुणस्थानोंके असंयमभावके प्रतिषेध करनेके लिए यह असंयत पद यहांपर कहा है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत, यह कौनसा भाव है ? क्षायोपशमिक भाव है ॥७॥ १ असंयतः पुनरौदयिकेन भावेन । स. सि. १, ८. २ संयतासंयतः प्रमत्तसंयतोऽप्रमत्तसंयत इति च क्षायोपशमिको भावः। स. सि. १,८. देसविरदे पमत्ते इदरे य खओवसमियभावो दु । सो खलु चरित्तमोहं पडुच्च भणियं तहा उवरं । गो. जी. १३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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