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________________ २०० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ७, ५. तं जहा - मिच्छत्त सम्मामिच्छत्तसव्त्रघादिफद्दयाणं सम्मत्तदेसघादिफद्दयाणं च उवसमेण उद्याभावलक्खणेण उवसमसम्मत्तमुप्पज्जदि त्ति तमोवसमियं । एदेसिं चेव खरण उप्पण्णो खइओ भावो । सम्मत्तस्स देसवादिफदयाणमुदएण सह वट्टमाणो सम्मत्तपरिणामो खओवसमिओ । मिच्छत्तस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण सम्मामिच्छत्तस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेत्र संतोवसमेण अणुदओवसमेण वा सम्मत्तस्स देसघादिफद्दयाणमुदएण खओवसमिओ भावो त्ति केई भणति, तण्ण घडदे, अवत्तिदोसप्पसंगादो । कधं पुण घडदे ? जहट्ठियट्ठसद्दहणघायण सत्ती सम्मत्तफएस खीणा त्ति तेसिं खइयसण्णा । खयाणमुवसमो पसण्णदा खओवसमो । तत्थुप्पण्णत्तादो खओवसमियं वेद्गसम्मत्तमिदि घडदे । एवं सम्मत्ते तिष्णि भावा, अण्णे णत्थि । गदिलिंगादओ भावा तत्थुवलंत इदि चे होदु णाम तेसिमत्थित्तं, किंतु ण तेहिंतो सम्मत्तमुपज्जदि । तदो सम्मादिट्ठी वि ओदइयादिववएसं ण लहदि त्ति घेत्तं । जैसे - मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके सर्वघाती स्पर्धकोंके तथा सम्यक्त्वप्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोंके उदयाभावरूप लक्षणवाले उपशम से उपशमसम्यक्त्व उत्पन्न होता है, इसलिए ' असंयतसम्यग्दृष्टि ' यह भाव औपशमिक है । इन्हीं तीनों प्रकृतियोंके क्षयसे उत्पन्न होनेवाले भावको क्षायिक कहते हैं । सम्यक्त्वप्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोंके उदयके साथ रहनेवाला सम्यक्त्वपरिणाम क्षायोपशमिक कहलाता है । मिथ्यात्व के सर्वघाती स्पर्धकोंके उदद्याभावरूप क्षयसे, उन्हींके सदवस्थारूप उपशमसे और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, तथा उन्हींके सदवस्थारूप उपशम से अथवा अनुदयोपशमनसे, और सम्यक्त्वप्रकृतिकें देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे क्षायोपशमिक भाव कितने ही आचार्य कहते हैं, किन्तु यह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि, वैसा मानने पर अतिव्याप्ति दोषका प्रसंग आता है । शंका -- तो फिर क्षायोपशमिकभाव कैसे घटित होता है ? समाधान - - यथास्थित अर्थके श्रद्धानको घात करनेवाली शक्ति जब सम्यक्त्वप्रकृतिके स्पर्धकोंमें क्षीण हो जाती है, तब उनकी क्षायिकसंज्ञा है । क्षीण हुए स्पर्धकोंके उपशमको अर्थात् प्रसन्नताको क्षयोपशम कहते । उसमें उत्पन्न होनेसे वेदकसम्यक्त्व क्षायोपशमिक है, यह कथन घटित हो जाता है । इस प्रकार सम्यक्त्वमें तीन भाव होते हैं, अन्य भाव नहीं होते हैं । शंका - असंयतसम्यग्दृष्टिमें गति, लिंग आदि भाव पाये जाते हैं, फिर उनका ग्रहण यहां क्यों नहीं किया ? समाधान -- असंयतसम्यग्दृष्टिमें भले ही गति, लिंग आदि भावोंका अस्तित्व रहा आवे, किन्तु उनसे सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए सम्यग्दृष्टि भी औदयिक आदि भावोंके व्यपदेशको नहीं प्राप्त होता है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए । १ प्रतिषु ' पसण्णदो ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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