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________________ १, ६, ३.] अंतराणुगमे मिच्छादिट्ठि-अंतरपरूवणं मिच्छादिट्ठिणो सब्धकालमच्छंति त्ति उत्तं होदि । अधवा पजवट्ठियणयावलंबियजीवाणुग्गहणटुं णस्थि अंतरमिदि पडिसेहवयणं, दयट्ठियणयावलंबिजीवाणुग्गह8 णिरंतरमिदि विहिवयणं । एसो अत्थो उपरि सब्वत्थ वत्तयो । ___एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥३॥ _तं जधा- एको मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छत्त-सम्मत्त-संजमासंजम-संजमेसु बहुसो परियट्टिदो, परिणामपच्चएण सम्मत्तं गदो, सबलहुमंतोमुहुत्तंतं सम्मत्तेण अच्छिय मिच्छत्तं गदो, लद्धभंतोमुहुत्तं सवजहणं मिच्छत्तंतरं । एत्थ चोदगो भणदि-जं पढमिल्लमिणं मिच्छत्तं तं पुणो सम्मनुत्तरकाले ण होदि, पुव्बकाले वटुंतस्स उत्तरकाले पउत्तिविरोहा । ण च तं चे उत्तरकाले उप्पज्जइ, उप्पण्णस्स उप्पत्तिविरोहा । तदो अंतिल्लं मिच्छत्तं पढमिल्लं ण होदि त्ति अंतरस्स अभावो चेयेत्ति ? एत्थ परिहारो उच्चदेसच्चमेवमेदं जदि सुद्धो पज्जयणओ अवलंविज्जदि। किंतु णइगमणयमवलंबिय अंतरव्यतिरिक्त होनेके कारण विधिरूपसे मिथ्यादृष्टि जीव सर्व काल रहते हैं, यह अर्थ कहा गया है। अथवा, पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेवाले जीवोंके अनुग्रहके लिए 'अन्तर नहीं है। इस प्रकारका प्रतिषेधवचन और द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करनेवाले जीवोंके अनुग्रहके लिये 'निरन्तर' इस प्रकारका विधिपरक वचन कहा गया है। यह अर्थ आगेके सभी सूत्रोंमें भी कहना चाहिए। . एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥३॥ जैसे-एक मिथ्यादृष्टि जीव, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरतसम्यक्त्व, संयमासंयम और संयममें बहुतवार परिवर्तित होता हुआ परिणामोंके निमित्तसे सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, और वहां पर सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तकाल तक सम्यक्त्वके साथ रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण मिथ्यात्व गुणस्थानका अन्तर प्राप्त हो गया। शंका-यहां पर शंकाकार कहता है कि अन्तर करनेके पूर्व जो पहलेका मिथ्यात्व था, वही पुनः सम्यक्त्वके उत्तरकालमें नहीं होता है; क्योंकि, सम्यक्त्व प्राप्तिके पूर्वकालमें वर्तमान मिथ्यात्वकी उत्तरकालमें, अर्थात् सम्यक्त्व छोड़नेके पश्चात्, प्रवृत्ति होनेका विरोध है। तथा, वही मिथ्यात्व उत्तरकालमें भी उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि, उत्पन्न हुई वस्तुके पुनः उत्पन्न होनेका विरोध है। इसलिए सम्यक्त्व छूटनेके पश्चात् होनेवाला अन्तिम मिथ्यात्व पहलेका मिथ्यात्व नहीं हो सकता है, इससे अन्तरका अभाव ही सिद्ध होता है ? । समाधान-यहां उक्त शंकाका परिहार करते हैं-उक्त कथन सत्य ही है, यदि शुद्ध पर्यायार्थिक नयका अवलंबन किया जाय । किंतु नैगमनयका अवलंबन लेकर अन्तर १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि, १, ८. २ प्रतिषु म-प्रतिषु च 'पढममिल्लमिणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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