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________________ ४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, २. संगहासंगहवदिरित्ततब्धिसयाणुवलंभा। एवं मणम्मि काऊण ओघेणादेसेण येत्ति' उत्तं । एक्केण णिद्देसेण पज्जत्तमिदि चे ण, एकेण दुणयावलंबिजीवाणमुवयारकरणे उवायाभावा । ओघेण मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥२॥ 'जहा उद्देसो तहा णिद्देसो' त्ति णायसंभालटुं ओघेणेत्ति उत्तं । सेसगुणट्ठाणउदासट्ठो मिच्छादिट्ठिणिद्देसो । केवचिरं कालादो इदि पुच्छा एदस्स पमाणत्तपदुप्पायणफला । णाणाजीवमिदि बहुस्सु एयवयणणिदेसो कधं घडदे ? णाणाजीवडियसामण्णविवक्खाए बहूणं पि एगत्तविरोहाभावा । णत्थि अंतर मिच्छत्तपज्जयपरिणदजीवाणं तिसु वि कालेसु वोच्छेदो विरहो अभावो' णस्थि त्ति उत्तं होदि। अंतरस्स पडिसेहे कदे सो पडिसेहो तुच्छो ण होदि त्ति जाणावणटुं णिरंतरग्गहणं, विहिरूवेण पडिसेहादो वदिरित्तेण समाधान-क्योंकि, संग्रह (सामान्य) और असंग्रह (विशेष) को छोड़करके किसी अन्य नयका विषयभूत कोई पदार्थ नहीं पाया जाता है । इस उक्त प्रकारके शंका-समाधानको मनमें धारण करके सूत्रकारने 'ओघसे और आदेशसे' ऐसा पद कहा है। शंका-एक ही निर्देश करना पर्याप्त था ? समाधान नहीं, क्योंकि, एक निर्देशसे दोनों नयोंके अवलम्बन करनेवाले जीवोंके उपकार करनेमें उपायका अभाव है। ओघसे मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरंतर है ॥२॥ . 'जैसा उद्देश होता है, वैसा निर्देश होता है' इस न्यायके रक्षणार्थ 'ओघसे' यह पद कहा । मिथ्यादृष्टि पदका निर्देश शेष गुणस्थानोंके प्रतिषेधके लिए है। 'कितने काल होता है' इस पृच्छाका फल इस सूत्रकी प्रमाणताका प्रतिपादन करना है। - शंका-'णाणाजीवं' इस प्रकारका यह एक वचनका निर्देश बहुतसे जीवोंमें कैसे घटित.होता है? समाधान-नाना जीवों में स्थित सामान्यकी विवक्षासे बहुतोंके लिए भी एकवचनके प्रयोगमें विरोध नहीं आता। 'अन्तर नहीं है' अर्थात् मिथ्यात्वपर्यायसे परिणत जीवोंका तीनों ही कालोंमें व्युच्छेद, विरह या अभाव नहीं होता है, यह अर्थ कहा गया समझना चाहिए । अन्तरके प्रतिषेध करने पर वह प्रतिषेध तुच्छ अभावरूप नहीं होता है, किन्तु भावान्तरभावरूप होता है, इस बातके जतलानेके लिए 'निरन्तर' पदका ग्रहण किया है। प्रतिषेधसे १ प्रतिषु 'एत्ति' इति पाठः। २ सामान्येन तावत् मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. ३ प्रतिषु ' अभावा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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