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________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ४. परूवणा कीरदे, तस्स सामण्णविसेसुहयविसयत्तादो। तदो ण एस दोसो। तं जहा-पढमंतिममिच्छत्तं पज्जाया अभिण्णा, मिच्छत्तकम्मोदयजादत्तेग अत्तागर्म-पदत्थाणमसद्दहणेण एगजीवाहारत्तेण भेदाभावा । ण पुव्वुत्तरकालभेएण ताणं भेओ, तधा विवक्खाभावा । तम्हा पुव्वुत्तरद्धासु अच्छिण्णसरूवेण हिदमिच्छत्तस्स सामण्णावलंबणेण एकत्तं पत्तस्स सम्मत्तपज्जओ अंतरं होदि । एस अत्थो सव्वत्थ पउज्जिदव्यो । उक्कस्सेण वे छावट्ठिसागरोवमाणि देसूणाणि ॥४॥ एदस्स णिदरिसणं- एक्को तिरिक्खो मणुस्सो वा लंतय-काविट्ठकप्पवासियदेवेसु चोहससागरोवमाउद्विदिएसु उप्पण्णो । एकं सागरोवमं गमिय विदियसागरोवमादिसमए सम्मत्तं पडिवण्णो । तेरससागरोवमाणि तत्थ अच्छिय सम्मत्तेण सह चुदो मणुसो जादो । तत्थ संजमं संजमासंजमं वा अणुपालिय मणुसाउएणूणवावीससागरोवमाउछिदिएसु आरणच्चुददेवेसु उववण्णो । तत्तो चुदो मणुसो जादो। तत्थ संजममणुपालिय उवरिमगेवजे प्ररूपणा की जा रही है, क्योंकि, वह नैगमनय सामान्य तथा विशेष, इन दोनोंको विषय करता है, इसलिये यह कोई दोष नहीं है । उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-अंतरकालके पहलेका मिथ्यात्व और पीछेका मिथ्यात्व, ये दोनों पर्याय हैं, जो कि अभिन्न हैं, क्योंकि, मिथ्यात्वकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण; आप्त, आगम और पदार्थों के अश्रद्धानकी अपेक्षा तथा एक ही जीव द्रव्यके आधार होनेसे उनमें कोई भेद नहीं है। और न पूर्वकाल तथा उत्तरकालके भेदकी अपेक्षा भी उन दोनों पर्यायों में भेद है, क्योंकि, इस कालभेदकी यहां विवक्षा नहीं की गई है। इसलिए अन्तरके पहले और पीछेके कालमें अविच्छिन्न स्वरूपसे स्थित और सामान्य (द्रव्यार्थिकनय ) के अवलम्बनसे एकत्वको प्राप्त मिथ्यात्वका सम्यक्त्व पर्याय अन्तर होता है, यह सिद्ध हुआ। यही अर्थ आगे सर्वत्र योजित कर लेना चाहिए। मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागरोपम काल है ॥४॥ इसका दृष्टान्त-कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य चौदह सागरोपम आयुस्थितिवाले लांतव-कापिष्ट कल्पवासी देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहां एक सागरोपम काल बिताकर दूसरे सागरोपमके आदि समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। तेरह सागरोपम काल वहां पर रहकर सम्यक्त्वके साथ ही च्युत हुआ और मनुष्य होगया। उस मनुष्यभवमें संयमको, अथवा संयमासंयमको अनुपालन कर इस मनुष्यभवसम्बन्धी आयुसे कम बाईस सागरोपम आयुकी स्थितिवाले आरण-अच्युतकल्पके देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहांसे च्युत होकर पुनः मनुष्य हुआ। इस मनुष्यभवमें संयमको अनुपालन कर उपरिम १ प्रतिषु ' अस्थागम' इति पाठः। २ उत्कर्षेण द्वे षट्षष्ठी देशोने सागरोपमाणाम् । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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