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________________ १, ७, ७.] भावाणुगमे संजदासजद पमत्त अप्पमत्तभाव-परूवणं [२०३ उप्पज्जदि । वारसकसायाणं सव्वधादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण चद्संजुलण-णवणोकसायाणं सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदएण पमत्तापमत्तसंजमा उप्पजंति, तेणेदे तिण्णि वि भावा खओवसमिया इदि के वि भणंति । ण च एवं समंजसं । कुदो ? उदयाभावो उवसमो त्ति कट्ट उदयविरहिदसव्वपयडीहि द्विदि-अणुभागफद्दएहि अ उवसमसण्णा लद्धा । संपहि ण क्खओ अस्थि, उदयस्स विज्जमाणस्स खयव्ववएसविरोहादो। तदो एदे तिण्णि भावा उदओवसमियत्तं पत्ता । ण च एवं, एदेसिमुदओवसमियत्तपदुप्पायणसुत्ताभावा । ण च फलं दाऊण णिज्जरियगयकम्मक्खंडाणं खयव्यवएसं काऊण एदेसिं खओवसमियचं वोत्तुं जुत्तं, मिच्छादिद्विआदि सव्वभावाणं एवं सते खओवसमियत्तप्पसंगा। तम्हा पुग्विल्लो चेय अत्थो घेत्तव्यो, णिरवज्जत्तादो । दसणमोहणीयकम्मस्स उवसम-खय-खओवसमे अस्सिदूण संजदासंजदादीणमोवसमियादिभावा किण्ण परूविदा? ण, तदो संजमासंजमादिभावाणमुप्पत्तीए अभावादो। ण च एत्थ सम्मत्तविसया पुच्छा अत्थि, जेण दंसणहै । अनन्तानुबन्धी आदि बारह कषायोंके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हींके सदवस्थारूप उपशमसे चारों संज्वलन और नवों नोकषायोंके सर्वघाती स्पर्धकोके उदयक्षयसे, तथा उन्हींके सदवस्थारूप उदयसे और देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानसम्बन्धी संयम उत्पन्न होता है, इसलिए उक्त तीनों ही भाव क्षायोपशमिक हैं, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किन्तु उनका यह कथन युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि, उदयके अभावको उपशम कहते हैं, ऐसा अर्थ करके उदयसे विरहित सर्वप्रकृतियोंको तथा उन्हींके स्थिति और अनुभागके स्पर्धकोको उपशमसंक्षा प्राप्त हो जाती है। अभी वर्तमानमें क्षय नहीं है, क्योंकि, जिस प्रकृतिका उदय विद्यमान है, उसके क्षय संज्ञा होनेका विरोध है। इसलिए ये तीनों ही भाव उदयोपशमिकपनेको प्राप्त होते हैं। किन्तु ऐसा माना नहीं जा सकता है, क्योंकि, उक्त तीनों गुणस्थानों के उदयोपशमिकपना प्रतिपादन करनेवाले सूत्रका अभाव है। और, फलको देकर एवं निर्जराको प्राप्त होकर गये हुए कर्मस्कंधोंके 'क्षय' संज्ञा करके उक्त गुणस्थानोंको क्षायोपशमिक कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा होनेपर मिथ्यादृष्टि आदि सभी भावोंके क्षायोपशमिकताका प्रसंग प्राप्त हो जायगा। इसलिए पूर्वोक्त ही अर्थ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, वही निरवद्य (निर्दोष ) है। शंका-दर्शनमोहनीयकर्मके उपशम, क्षय और क्षयोपशमका आश्रय करके संयतासंयतादिकोंके औपशमिकादि भाव क्यों नहीं बताये गये ? समाधान नहीं, क्योंकि, दर्शनमोहनीयकर्मके उपशमादिकसे संयमासंयमादि भावोंकी उत्पत्ति नहीं होती। दूसरे, यहां पर सम्यक्त्व-विषयक पृच्छा (प्रश्न) भी नहीं है, १ प्रतिषु 'संजमो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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