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१, ६, १७७.] अंतराणुगमे आहार-मिस्स-कम्मइयकायजोगि-अंतरपरूवणं [९३ णाणाजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सगयएगसमय-मासपुधत्ततरेण', एगजीवं पडुच्च अंतराभावेण च तदो भेदाभावा ।।
आहारकायजोगीसु आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥१७ ॥
सुगममेदं । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ १७५॥ एवं पि सुगममेव । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १७६ ॥ तम्हि जोग-गुणंतरग्गहणाभावा ।
कम्मइयकायजोगीसु मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिहि-सजोगिकेवलीणं ओरालियमिस्सभंगो ॥ १७७ ॥
जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है इससे; असंयतसम्यग्दृष्टियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट मासपृथक्त्व अन्तर होनेसे, तथा एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अभाव होनेसे इन वैक्रियिकमिश्रकाययोगी सासादन और असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अन्तरमें कोई भेद नहीं है।
आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें प्रमत्तसंयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥१७४॥
यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है ॥ १७५ ॥ यह सूत्र भी सुगम ही है।
आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें प्रमत्तसंयतोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १७६ ॥
__क्योंकि, आहारककाययोग या आहारकमिश्रकाययोगमें अन्य योग या अन्य गुणस्थानके ग्रहण करनेका अभाव है।
__कार्मणकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवलियोंका अन्तर औदारिकमिश्रकाययोगियोंके समान है ॥१७७॥
१ प्रतिषु ' -पुधत्तसणेण' इति पाठः ।
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