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________________ २२४ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, ४५. णाणाणुवादेणमदिअण्णाणि-सुदअण्णाणि-विभंगणाणीसुमिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी ओघं ॥४५॥ __ कधं मिच्छादिट्ठिणाणस्स अण्णाणत्तं ? णाणकज्जाकरणादो । किं णाणकजं ? णादत्थसद्दहणं । ण तं मिच्छादिट्ठिम्हि अस्थि । तदो णाणमेव अण्णाणं, अण्णहा जीवविणासप्पसंगा। अवगयदवधम्मणाइसु मिच्छादिविम्हि सद्दहणमुवलंभए चे ण, अत्तागमपयत्थसद्दहणविरहियस्स दवधम्मणाइसु जहट्ठसदहणविरोहा । ण च एस ववहारो लोगे अप्पसिद्धो, पुत्तकज्जमकुणंते पुत्ते वि लोगे अपुत्तववहारदसणादो । तिसु अण्णाणेसु णिरुद्धेसु सम्मामिच्छादिद्विभावो किण्ण परूविदो ? ण, तस्स सद्दहणासदहणेहि ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभंगज्ञानी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि भाव ओघके समान हैं ॥ ४५ ॥ शंका-मिथ्यादृष्टि जीवोंके ज्ञानको अज्ञानपना कैसे कहा? समाधान-क्योंकि, उनका ज्ञान ज्ञानका कार्य नहीं करता है। शंका--ज्ञानका कार्य क्या है ? समाधान--जाने हुए पदार्थका श्रद्धान करना ज्ञानका कार्य है। इस प्रकारका ज्ञानकार्य मिथ्यादृष्टि जीवमें पाया नहीं जाता है। इसलिए उनके ज्ञानको ही अज्ञान कहा है। (यहांपर अज्ञानका अर्थ ज्ञानका अभाव नहीं लेना चाहिए) अन्यथा (ज्ञानरूप जीवके लक्षणका विनाश होनेसे लक्ष्यरूप) जीवके विनाशका प्रसंग प्राप्त होगा। शंका-दयाधर्मसे रहित जातियों में उत्पन्न हुए मिथ्यादृष्टि जीवमें तो श्रद्धान पाया जाता है (फिर उसके ज्ञानको अज्ञान क्यों माना जाय)? समाधान नहीं, क्योंकि, आप्त, आगम और पदार्थके श्रद्धानसे रहित जीवके दयाधर्म आदिमें यथार्थ श्रद्धानके होनेका विरोध है (अतएव उनका ज्ञान अज्ञान ही है)। शानका कार्य नहीं करने पर ज्ञानमें अज्ञानका व्यवहार लोकमें अप्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, पुत्रकार्यको नहीं करनेवाले पुत्र में भी लोकके भीतर अपुत्र कहनेका व्यवहार देखा जाता है। __ शंका–तीनों अज्ञानोंको निरुद्ध अर्थात् आश्रय कर उनकी भावप्ररूपणा करते हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका भाव क्यों नहीं बतलाया? समाधान नहीं, क्योंकि, श्रद्धान और अश्रद्धान, इन दोनोंसे एक साथ अनुविद्ध १ ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिविभंगज्ञानिनां xx सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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