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१, ७, ४४.] भावाणुगमे चदुकसाइ-अकसाइभाव-परूवणं
[ २२३ कसायाणुवादेण कोधकसाइ-माणकसाइ-मायकसाइ-लोभकसाईसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइयउवसमा खवा ओघं ॥४३॥
सुगममेदं । अकसाईसु चदुट्ठाणी ओघं ॥४४॥
चोदओ भणदि- कसाओ णाम जीवगुणो, ण तस्स विणासो अत्थि, णाण-दंसणाणमिव । विणासे वा जीवस्स विणासेण होदव्वं, णाण-दसणविणासेणेव । तदो ण अकसायत्तं घडदे इदि ? होदु णाण-दसणाणं विणासम्हि जीवविणासो, तेसिं तल्लक्षणत्तादो । ण कसाओ जीवस्स लक्खणं, कम्मजणिदस्स तल्लक्खणत्तविरोहा । ण कसायाणं कम्मणिदत्तमसिद्धं, कसायवड्डीए जीवलक्खणणाणहाणिअण्णहाणुववत्तीदो तस्स कम्मजणिदत्तसिद्धीदो । ण च गुणो गुणंतरविरोहे, अण्णत्थ तहाणुवलंभा । सेसं सुगमं ।
एवं कसायमग्गणा समत्ता । कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्पराय उपशामक और क्षपक गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥४३॥
यह सूत्र सुगम है। ___अकषायी जीवोंमें उपशान्तकषाय आदि चारों गुणस्थानवर्ती भाव ओघके समान हैं ।। ४४ ॥
शंका- यहां शंकाकार कहता है कि कषाय नाम जीवके गुणका है । इसलिए उसका विनाश नहीं हो सकता, जिस प्रकार कि ज्ञान और दर्शन, इन दोनों जीवके गुणोंका विनाश नहीं होता है। यदि जीवके गुणोंका विनाश माना जाय, तो शान और दर्शनके विनाशके समान जीवका भी विनाश हो जाना चाहिए । इसलिए सूत्रमें कही गई अकषायता घटित नहीं होती है ?
समाधान-शान और दर्शनके विनाश होनेपर जीवका विनाश भले ही हो जावे, क्योंकि, वे जीवके लक्षण हैं। किन्तु कषाय तो जीवका लक्षण नहीं है, क्योंकि, कर्मजनित कषायको जीवका लक्षण मानने में विरोध आता है। और न कषायोंका कर्मसे उत्पन्न होना असिद्ध है, क्योंकि, कषायोंकी वृद्धि होनेपर जीवके लक्षणभूत ज्ञानकी हानि अन्यथा बन नहीं सकती है। इसलिए कषायका कर्मसे उत्पन्न होना सिद्ध है। तथा गुण गुणान्तरका विरोधी नहीं होता, क्योंकि, अन्यत्र वैसा देखा नहीं जाता। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
इस प्रकार कषायमार्गणा समाप्त हुई। १ कषायानुवादेन क्रोधमानमायालोभकषायाणां xx सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २xxx अकषायाणां च सामान्यवत् । स. सि. १, ८. ३ प्रतिषु तदो शुकसायत्तं ' इति पाठः।
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