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२२२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ७, ४२. अवगदवेदएसु अणियट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवली ओघं ॥४२॥
एत्थ चोदगो भणदि- जोणि-मेहणादीहि समण्णिदं सरीरं वेदो, ण तस्स विणासो अस्थि, संजदाणं मरणप्पसंगा। ण भाववेदविणासो वि अस्थि, सरीरे अविणढे तम्भावस्स विणासाविरोहा । तदो णावगदवेदत्तं जुज्जदे इदि ? एत्थ परिहारो उच्चदे- ण सरीरमित्थि-पुरिसवेदो, णामकम्मजणिदस्स सरीरस्स मोहणीयत्तविरोहा । ण मोहणीयजणिदमवि सरीरं, जीवविवाइणो मोहणीयस्स पोग्गलविवाइत्तविरोहा । ण सरीरभावो वि वेदो, तस्स तदो पुधभूदस्स अणुवलंभा । परिसेसादो मोहणीयदव्वकम्मक्खंधो तज्जणिदजीवपरिणामो वा वेदो। तत्थ तज्जणिदजीवपरिणामस्स वा परिणामेण सह कम्मक्खंधस्स वा अभावेण अवगदवेदो होदि त्ति तेण णेस दोसो त्ति सिद्धं । सेसं सुगमं ।
एवं वेदमग्गणा समत्ता । अपगतवेदियोंमें अनिवृत्तिकरणसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक भाव ओषके समान हैं ॥ ४२ ॥
__ शंका-यहांपर शंकाकार कहता है कि योनि और लिंग आदिसे संयुक्त शरीर वेद कहलाता है। सो अपगतवेदियोंके इस प्रकारके वेदका विनाश नहीं होता है, क्योंकि, यदि योनि, लिंग आदिसे समन्वित शरीरका विनाश माना जाय, तो अपगतवेदी संयतोके मरणका प्रसंग प्राप्त होगा। इसी प्रकार अपगतवेदी जीवोंके भाववेदका विनाश भी नहीं है, क्योंकि, जब तक शरीरका विनाश नहीं होता, तब तक शरीरके धर्मका विनाश मानने में विरोध आता है । इसलिए अपगतवेदता युक्तिसंगत नहीं है ?
समाधान-अब यहां उपर्युक्त शंकाका परिहार कहते हैं- न तो शरीर, स्त्री या पुरुषवेद है, क्योंकि, नामकर्मसे उत्पन्न होनेवाले शरीरके मोहनीयपनका विरोध है। और न शरीर मोहनीयकर्मसे ही उत्पन्न होता है, क्योंकि, जीवविपाकी मोहनीयकर्मके पुद्गलविपाकी होनेका विरोध है। न शरीरका धर्म ही वेद है, क्योंकि, शरीरसे पृथग्भूत वेद पाया नहीं जाता। पारिशेष न्यायसे मोहनीयके द्रव्यकर्मस्कंधको, अथवा मोहनीयकर्मसे उत्पन्न होनेवाले जीवके परिणामको वेद कहते हैं। उनमें वेदजनित जीवके परिणामका, अथवा परिणामके साथ मोहकर्मस्कंधका अभाव होनेसे जीव अपगतवेदी होता है। इसलिए अपगतवेदता माननेमें उपर्युक्त कोई दोष नहीं आता है, यह सिद्ध हुआ। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
इस प्रकार वेदमार्गणा समाप्त हुई । - १xxx अवेवानां च सामान्यवत् । स. सि. १, ८.
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