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________________ १, ८, ३३८.] अप्पाबहुगाणुगमे खइयसम्मादिहि-अप्पाबहुगपरूवणं [३४१ खवा संखेज्जगुणा ॥ ३३३ ॥ खीणकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव ॥ ३३४ ॥ सजोगिकेवली अजोगिकेवली पवेसणेण दो वि तुल्ला तत्तिया चेव ॥ ३३५॥ एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च संखेज्जगुणा ॥ ३३६॥ गुणगारो ओघसिद्धो, खइयसम्मत्तविरहिदसजोगीणमभावा । अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा ॥ ३३७ ॥ को गुणगारो ? तप्पाओग्गसंखेज्जरूवाणि । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा ॥ ३३८ ॥ को गुणगारो ? दो रूवाणि । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३३३ ॥ क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ ३३४ ॥ सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, ये दोनों ही प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ ३३५ ॥ ये सूत्र सुगम हैं। सयोगिकेवली जिन संचयकालकी अपेक्षा संख्यातगुणित हैं ॥ ३३६ ॥ यहांपर गुणकार ओघ-कथित है, क्योंकि, क्षायिकसम्यक्त्वसे रहित सयोगिकेवली नहीं पाये जाते हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३३७ ॥ गुणकार क्या है ? अप्रमत्तसंयतोंके योग्य संख्यातरूप गुणकार है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३३८॥ गुणकार क्या है ? दो रूप गुणकार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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