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________________ १, ७, २.] भावाणुगमे मिच्छादिहिभाव-परूवणं [ १९५ उपशमश्रेणीवाले चारों उपशामकोंमें पृथक् पृथक् पैतीस भंग भावकी अपेक्षा होते हैं ॥ १३-१४॥ ___विशेषार्थ-ऊपर बतलाये गये भंगोंका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- औदयिकादि पांचों मूल भावोंमेंसे मिथ्यात्वगुणस्थानमें औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक, थे तीन भाव होते हैं। अतः असंयोगी या प्रत्येकसंयोगकी अपेक्षा ये तीन भंग हुए । इनके द्विसंयोगी भंग भी तीन ही होते हैं- औदयिक-क्षायोपशमिक, औदयिक-पारिणामिक और क्षायोपशमिक-पारिणामिक । तीनों भावोंका संयोगरूप त्रिसंयोगी भंग एक ही होता है । इन सात भंगोंके सिवाय स्वसंयोगी तीन भंग और होते हैं । जैसे- औदयिक-औदयिक, क्षायोपशामिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक पारिणामिक । इस प्रकार ये सब मिलाकर (३+३+१+३ = १०) मिथ्यात्वगुणस्थानमें दश भंग होते हैं। ये ही दश भंग सासादन और मिश्र गुणस्थानमें भी जानना चाहिए । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पांचों मूलभाव होते हैं, इसलिए यहां प्रत्येकसंयोगी पांच भंग होते हैं। पांचों भावोंके द्विसंयोगी भंग दश होते हैं। किन्तु उनमेंसे इस गुणस्थानमें औपशमिक और क्षायिकभावका संयोगी भंग सम्भव नहीं, क्योंकि, वह उपशमश्रेणीमें ही सम्भव है। अतः दशमेंसे एक घटा देने पर द्विसंयोगी भंग नौ ही पाये जाते हैं। पांचों भावोंके त्रिसंयोगी भंग दश होते हैं। किन्तु उनमेंसे यहांपर क्षायिक-औपशमिक-औदयिक, क्षायिक-औपशमिक-पारिणामिक और क्षायिक-औपशमिक-क्षायोपशमिक, ये तीन भंग सम्भव नहीं है, अतएव शेष सात ही भंग होते हैं । पांचों भावोंके चतुःसंयोगी पांच भंग होते हैं । उनमेंसे यहांपर औदयिक क्षायोपशमिक क्षायिक-पारिणामिक, तथा औदयिक क्षायापशामक-ऑपशमिक-परिणामिक, ये दो ही भग सम्भव है, शेष तीन नहीं। इसका कारण यह है कि यहांपर क्षायिक और औपशमिकभाव साथ साथ नहीं पाये जाते हैं। इसी कारण पंचसंयोगी भंगका भी यहां अभाव है। इनके अतिरिक्त स्वसंयोगी भंगोंमेंसे क्षायोपशमिक-क्षायोपशमिक, औदयिक-औदयिक और पारिणामिक-पारिणामिक, ये तीन भंग और भी होते हैं। औपशमिक और क्षायिकके स्वसंयोगी भंग यहां सम्भव नहीं हैं। इस प्रकार प्रत्येकसंयोगी पांच, द्विसंयोगी नौ, त्रिसंयोगी सात, चतुःसंयोगी दो और स्वसंयोगी तीन, ये सब मिलाकर (५+९+७+२+३ =२६) असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें छब्बीस भंग होते हैं। ये ही छब्बीस भंग देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें भी होते हैं। क्षपकश्रेणीसम्बन्धी चारों गुणस्थानों में औपशमिकभावके विना शेष चार भाव ही होते हैं। अतएव उनके प्रत्येकसंयोगी भंग चार, द्विसंयोगी भंग छह, त्रिसंयोगी भंग चार और चतुःसंयोगी भंग एक होता है। तथा चारों भावोंके स्वसंयोगी चार भंग और भी होते हैं। इस प्रकार सब मिलाकर (४+६+४+१+ ४ = १९) उन्नीस भंग क्षपकश्रेणीके प्रत्येक गुणस्थानमें होते हैं। उपशमश्रेणीसम्बन्धी चारों गुणस्थानों में पांचों ही मूल भाव सम्भव हैं, क्योंकि, यहांपर क्षायिकसम्यक्त्वके साथ औपशमिकचारित्र भी पाया जाता है। अतएव पांचों भावोंके प्रत्येकसंयोगी पांच भंग, द्विसंयोगी दश भंग, त्रिसंयोगी दश भंग, चतुःसंयोगी पांच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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