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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ७, ३. तदो मिच्छादिहिस्स ओदइओ चेव भावो अत्थि, अण्णे भावा णत्थि त्ति णेदं घडदे ? ण एस दोसो, मिच्छादिहिस्स अण्णे भावा णत्थि त्ति सुत्ते पडिसेहाभावा । किंतु मिच्छत्तं मोत्तूण जे अण्णे गदि-लिंगादओ साधारणभावा ते मिच्छादिट्टित्तस्स कारणं ण होति । मिच्छत्तोदओ एक्को चेव मिच्छत्तस्स कारणं, तेण मिच्छादिट्ठि त्ति भावो ओदइओ त्ति परूविदो।
सासणसम्मादिहि त्ति को भावो, पारिणामिओ भावों ॥३॥
एत्थ चोदओ भणदि- भावो पारिणामिओ त्ति णेदं घडदे, अण्णेहिंतो अणुप्पण्णस्स परिणामस्स अत्थित्तविरोहा । अह अण्णेहिंतो उप्पत्ती इच्छिज्जदि, ण सो पारिणामिओ, णिक्कारणस्स सकारणत्तविरोहा इदि । परिहारो उच्चदे । तं जहा- जो कम्माणमुदय-उवसम-खइय-खओवसमेहि विणा अण्णेहिंतो उप्पण्णो परिणामो सो पारिणामिओ भण्णदि, ण णिक्कारणो कारणमंतरेणुप्पण्णपरिणामाभावा । सत्त-पमेयत्तादओ भंग होते हैं और पंचसंयोगी एक भंग होता है। तथा स्वसंयोगी भंग चार ही होते हैं, क्योंकि यहांपर क्षायिकसम्यक्त्वके साथ क्षायिकभावका अन्य भेद सम्भव नहीं है। इस प्रकार सब मिलाकर (५ + १० + १० + ५ + १ + ४ = ३५) पैंतीस भंग उपशमश्रेणीके प्रत्येक गुणस्थानमें होते हैं।
इसलिए मिथ्यादृष्टि जीवके केवल एक औदयिक भाव ही होता है, और अन्य भाव नहीं होते हैं, यह कथन घटित नहीं होता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, 'मिथ्यादृष्टिके औदयिक भावके अतिरिक्त अन्य भाव नहीं होते हैं, इस प्रकारका सूत्र में प्रतिषेध नहीं किया गया है। किन्तु मिथ्यात्वको छोड़कर जो अन्य गति, लिंग आदिक साधारण भाव हैं, वे मिथ्यादृष्टित्वके कारण नहीं होते हैं। एक मिथ्यात्वका उदय ही मिथ्यादृष्टित्वका कारण है, इसलिए 'मिथ्यादृष्टि' यह भाव औदयिक कहा गया है।
सासादनसम्यग्दृष्टि यह कौनसा भाव है ? पारिणामिक भाव है ॥३॥
शंका-यहां पर शंकाकार कहता है कि 'भाव पारिणामिक है' यह बात घटित नहीं होती है, क्योंकि, दूसरोंसे नहीं उत्पन्न होनेवाले पारिणामके अस्तित्वका विरोध है। यदि अन्यसे उत्पत्ति मानी जावे तो पारिणामिक नहीं रह सकता है, क्योंकि, निष्कारण वस्तुके सकारणत्वका विरोध है ?
समाधान-उक्त शंकाका परिहार कहते हैं । वह इस प्रकार है- जो कौके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपमके विना अन्य कारणोंसे उत्पन्न हुआ परिणाम है, वह पारिणामिक कहा जाता है। न कि निष्कारण भावको पारिणामिक कहते हैं, क्योंकि,
१ सासादनसम्यग्दृष्टिरिति पारिणामिको भावः । स. सि. १, ८. विदिये पुण पारिणामिओ भावो। गो.जी. ११.
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