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________________ १, ६, २२३. ] अंतरागमे चदुकसाई - अंतरपरूवणं एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं णिरंतरं ॥ २२० ॥ उवरि उवसंतकसायरस चडणाभावा उवसंतगुणद्वाणपडिवज्जणे संभवाभावा । केवल ओघं ।। २२१ ॥ पडदे व अवगदवेदत्तणेण चेय खवा सुमखवा खीणकसायवीदरागछदुमत्था अजोगि [ १११ कुद ? अवगदवेदत्तं पडि उहयत्थ अत्थविसे साभावा । सजोगिकेवली ओघं ॥ २२२ ॥ सुगममेदं । Jain Education International एवं वेदमग्गणा समत्ता । कसायाणुवादेण कोधकसाइ-माणकसाइ-मायकसाइ-लोहकसाईसु मिच्छादिट्टि पहुडि जाव सुहुमसांपराइयउवसमा खवा त्ति मणजोगिभंगो ॥ २२३ ॥ उपशान्तकषायका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २२० ॥ क्योंकि, उपशान्तकषायवीतरागके ऊपर चढ़नेका अभाव है। तथा नीचे गिरने पर भी अपगतवेदरूपसे ही उपशान्तकषाय गुणस्थानको प्राप्त होना सम्भव नहीं है । अपगतवेदियोंमें अनिवृत्तिकरणक्षपक, सूक्ष्मसाम्परायक्षपक, क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ और अयोगिकेवली जीवोंका अन्तर ओघके समान है ।। २२१ ॥ क्योंकि, अपगतवेदत्वके प्रति ओघप्ररूपणा और वेदमार्गणाकी प्ररूपणा, इन दोनोंमें कोई अर्थकी विशेषता नहीं है । सयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है || २२२ ॥ यह सूत्र सुगम है । इस प्रकार वेदमार्गणा समाप्त हुई । कषायमार्गणाके अनुवादसे कोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायियों में मिथ्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्मसाम्पराय उपशामक और क्षपक तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवोंका अन्तर मनोयोगियोंके समान है ॥ २२३ ॥ १ एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ शेषाणां सामान्यवत् 1 स. सि. १, ८. ३ कषायानुवादेन क्रोधमानमायालोभकषायाणां मिथ्यादृष्टयायनिवृत्त्युपशम कान्तानां मनोयोगिवत् । द्वयोः क्षपकयोर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण संवत्सरः सातिरेकः । केवललोभस्य सूक्ष्मसाम्परायोपशमकस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एक्जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । क्षपकस्य तस्य सामान्यवत् । स. सि. १,८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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