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________________ २] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ६, १. मोत्तूण अप्पाणम्हि पयो । ट्ठवणंतरं दुविहं सम्भावासम्भावभेषण | भरह - बाहुवलीणमंतरमुल्लंतो दो सम्भाववणंतरं । अंतरमिदि बुद्धीए संकप्पिय दंड-कंड- कोदंडादओ असब्भावट्टत्रणंतरं । दव्वंतरं दुविहं आगम-आगमभेएग। अंतरपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो अंतरदव्यागमो वा आगमदन्तरं । गोआगमदतरं जाणुगसरीर-भविय-तव्यदिरित्तभेएण तिविहं । आधारे आधेयोवयारेण लद्भूतरसणं जाणुगसरीरं भविय वट्टमाण-समुज्झादभेrण तिविहं । कथं भवियस्स अणाहारदार ट्ठिदस्स अंतरववएसो ? ण एस दोसो, क्रूरपञ्जयाणाहारेसु त्रि तंदुलेसु एत्थ करववएसुवलंभा । कथं भूदे एसो ववहारो ? ण, रजपज्जायअणाहारे विपुरिसे राओ आगच्छदि विवहारवलंभा । भवियणो आगमदव्वंतरं भविस्सकाले अंतरपाहुडजाणओ संपहि संते वि उवजोए अंतरपाहुड अवगम यह शब्द नाम-अन्तरनिक्षेप है । स्थापना अन्तर सद्भाव और असद्भावके भेदसे दो प्रकारका है । भरत और बाहुबलिके बीच उमड़ता हुआ नद सद्भावस्थापना अन्तर है । अन्तर इस प्रकारकी बुद्धिसे संकल्प करके दंड, वाण, धनुष आदिक असद्भावस्थापना अन्तर है, अर्थात् दंड, वाणादिके न होते हुए भी तत्प्रमाण क्षेत्रवर्ती अन्तरकी, यह अंतर इतने धनुष है ऐसी जो कल्पना कर लेते हैं, उसे असद्भावस्थापना अन्तर कहते हैं । द्रव्यान्तर आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकारका है । अन्तर विषयक प्राभृतके शायक तथा वर्तमानमें अनुपयुक्त पुरुषको आगमद्रव्यान्तर कहते हैं। अथवा, अन्तररूपद्रव्यके प्रतिपादक आगमको आगमद्रव्यान्तर कहते हैं। नोआगमद्रव्यान्तर शायकशरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्त के भेदसे तीन प्रकारका है। आधारमें आधेयके उपचारसे प्राप्त हुई है अन्तरसंज्ञा जिसको ऐसा ज्ञायकशरीर भव्य, वर्तमान और समुत्यक्तके भेदसे तीन प्रकारका है । शंका- अनाधारतासे स्थित, अर्थात् वर्तमानमें जो अन्तरागमका आधार नहीं हैं ऐसे, भावी शरीरके ' अन्तर ' इस संज्ञाका व्यवहार कैसे हो सकता है ? समाधान — यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, कूर (भात) रूप पर्यायके आधार न होने पर भी तंदुलोंमें यहां, अर्थात् व्यवहारमें कूर संज्ञा पाई जाती है । शंका-भूत ज्ञायकशरीरके यह अन्तरका व्यवहार कैसे बनेगा ? समाधान — नहीं, क्योंकि, राज्यपर्यायके नहीं धारण करनेवाले पुरुषमें भी 'राजा आता है' इस प्रकारका व्यवहार पाया जाता है । भविष्यकाल में जो अन्तरशास्त्रका ज्ञायक होगा, परंतु वर्तमानमें इस समय उपयोग के होते हुए भी अन्तरशास्त्र के ज्ञानसे रहित है, ऐसे पुरुषको भव्य नोआगमद्रव्यान्तर कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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