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________________ १, ८, २११.] अप्पाबहुगाणुगमे चदुकसाइ-अप्पाबहुगपरूवणं [३१५ असंजदसम्मादिहि-संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे सम्मत्तप्पाबहुअमोघं ॥ २०८ ॥ एदेसिं जधा ओघम्हि सम्मत्तप्पाबहुअं उत्तं तधा वत्तव्यं, विसेसाभावादो । एवं दोसु अद्धासु ॥ २०९॥ जधा पमत्तापमत्ताणं सम्मत्तप्पाबहुअं परूविदं, तधा दोसु अद्धासु परूवेदव्वं । णवरि लोभकसायस्स एवं तिसु अद्धासु त्ति वत्तव्यं, जाव सुहुमसांपराइओ ति लोभकसायउवलंभा । एवं सुत्ते किण्ण परूविदं ? परूविदमेव पवेसप्पाबहुअसुत्तेण । तेणेव एसो अत्थो णव्वदि त्ति पुध ण परूविदो । सव्वत्थोवा उवसमा ॥ २१० ॥ खवा संखेज्जगुणा ॥ २११ ॥ दो वि सुत्ताणि सुगमाणि ।। चारों कषायवाले जीवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व ओघके समान है ॥ २०८॥ इन सूत्रोक्त गुणस्थानोंका जिस प्रकार ओघमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार यहांपर कहना चाहिए, क्योंकि, दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है। इसी प्रकार अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों गुणस्थानोंमें चारों कषायवाले जीवोंका सम्यक्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व है ॥ २०९ ॥ जिस प्रकारसे चारों कषायवाले प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतोंका सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पवहुत्व कहा है, उसी प्रकार अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दो गुणस्थानोंमें कहना चाहिए । किन्तु विशेषता यह है कि लोभकषायका इसी प्रकार अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व है, ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि, सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक लोभकषायका सद्भाव पाया जाता है। शंका--यदि ऐसा है, तो इसी प्रकारसे सूत्रमें क्यों नहीं प्ररूपण किया ? समाधान-प्रवेशसम्बन्धी अल्पबहुत्व सूत्रके द्वारा सूत्रमें उक्त बात प्ररूपित की ही गई है । और उसी प्रवेशसम्बन्धी अल्पबहुत्व सूत्रके द्वारा यह ऊपर कहा गया अर्थ जाना जाता है, इसलिए उसे यहांपर पृथक नहीं कहा है। चारों कषायवाले उपशामक जीव सबसे कम हैं ॥ २१० ॥ उपशामकोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २११ ।। ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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