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________________ १, ८, २५.] अप्पाबहुगाणुगमे ओघ-अप्पाबहुगपरूवणं [२५९ कारणं, दव्वाहियत्तादो । वेदगसम्मादिट्ठी णत्थि, तेण सह उवसमसेडीआरोहणाभावा । उवसंतकसाएसु सम्मत्तप्पाबहुगं किण्ण परूविदं ? ण एस दोसो, तिसु अद्धासु सम्मत्तप्पाबहुगे अवगदे तत्थ वि तदवगमादो । सुहं गहणटुं चदुसु उवसमाएसु ति किण्ण परूविदं १ ण, 'एगजोगणिद्दिवाणमगदेसो णाणुवट्टदि' त्ति णायादो उवरि चदुण्हमणुउतिप्पसंगा'। होदु चे ण, पडिजोगीणं चदुण्हमुवसामगाणमभावा। सव्वत्थोवा उवसमा ॥२५॥ कुदो ? थोवायुपदेसादो' संकलिदसंचयस्स वि थोवत्तस्स णायसिद्धत्तादो । सायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं, क्योंकि, क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंका यहां द्रव्यप्रमाण अधिक पाया जाता है। उपशमश्रेणीमें वेदकसम्यग्दृष्टि जीव नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि, घेदकसम्यक्त्वके साथ उपशमश्रेणीके आरोहणका अभाव है। शंका--उपशान्तकषाय गुणस्थानवी जीवोंमें सम्यक्त्वका अल्पबहुत्व क्यों नहीं कहा? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, तीनों उपशामक गुणस्थानोंमें सम्यक्त्वका अल्पबहुत्व ज्ञात हो जाने पर उपशान्तकषाय गुणस्थानमें भी उसका ज्ञान हो जाता है। शंका-सुख अर्थात् सुगमतापूर्वक ज्ञान होनेके लिए 'चारों उपशामक गुणस्थानोंमें' ऐसा सूत्र में क्यों नहीं कहा ? समाधान नहीं, क्योंकि, 'जिनका निर्देश एक समासके द्वारा किया जाता है उनके एक देशकी अनुवृत्ति नहीं होती है' इस न्यायके अनुसार आगे कहे जानेवाले सूत्रोंमें चारों गुणस्थानोंकी अनुवृत्तिका प्रसंग प्राप्त होगा। शंका-यदि आगे चारों उपशामकोंकी अनुवृत्तिका प्रसंग आता है, तो आने दो, क्या दोष है ? समाधान नहीं, क्योंकि, चारों उपशामकोंके प्रतियोगियोंका अभाव है। अर्थात जिस प्रकार अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंके भीतर उपशामक और उनके प्रतियोगी क्षपक पाये जाते हैं, उसी प्रकार चौथे उपशामक अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थानमें उपशामकोंके प्रतियोगी क्षपक नहीं पाये जाते हैं। अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें उपशामक जीव सबसे कम हैं ॥ २५ ॥ क्योंकि, अल्प आयका उपदेश होनेसे संचित होनेवाली राशिके स्तोकपना अर्थात् कम होना न्यायसिद्ध है। १ प्रतिषु ' उवसामए सुते' इति पाठः। ३ प्रतिषु 'थोवए पदेसादो' इति पाठः। २ प्रतिषु ' -मणउत्तिप्पसंगा' इति पाठः। ४ प्रतिषु संगलिदसंचयस्स' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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