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________________ छक्खंडागमे जीवाणं देसूण-चे-छावसिागरोवममेत्त उक्कस्संतरेण य तदो भेदाभावा । सासणसम्मादिट्टि सम्मामिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ २८३ ॥ कुदो १ णाणाजीवगयएगसमय-पलिदोवमासंखेज्जदिभागजहष्णुक्कस्संतरेहि साधम्मुवलंभा । १३६ ] एगजीवं पडुच्च जहणेण पलिदोवमस्स असं खेज्जदिभागो, अंतोमुहुत्तं ॥ २८४ ॥ [ १, ६, २८३. सुगममेदं । उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि देसूणाणि ॥ २८५ ॥ तं जहा - एको भमिदअचक्खुदंसणविदिओ असण्णिपंचिदिएसु उववण्णो । पंचहि पज्जतीहि पज्जत्तदो ( १ ) विस्तो ( २ ) विसुद्धो ( ३ ) भवणवासिय - वाणवेंतरदेवेसु अन्तर्मुहूर्तमात्र जघन्य अन्तर होनेसे और कुछ कम दो छ्यासठ सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर होनेकी अपेक्षा ओघसे कोई भेद नहीं है । चक्षुदर्शनी सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है || २८३ ॥ क्योंकि, नाना जीवगत जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमका असंख्यातवां भाग है; इस प्रकार इन दोनोंकी अपेक्षा ओघके साथ समानता पाई जाती है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त है || २८४ ॥ यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो हजार सागरोपम है ॥ २८५ ॥ जैसे- अचक्षुदर्शनकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण किया हुआ कोई एक जीव असशी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ। पांचों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो ( १ ) विश्राम ले ( २ ) विशुद्ध हो (३) भवनवासी या वानव्यन्तर देवोंमें आयुको बांधकर ( ४ ) विश्राम ले ( ५ ) १ सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टयोर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येय भागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्रे देशोने । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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