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________________ षट्खंडागमको प्रस्तावना सर्वत्र उपलब्ध होते हैं। हम यहां धवलाके अन्तर्गत अवतरणोंसे ली गई संख्याओंको व्यक्त करनेकी कुछ पद्धतियोंको उपस्थित करते हैं (१) ७९९९९९९८ को ऐसी संख्या कहा है कि जिसके आदिमें ७, अन्तमें ८ और मध्यमें छह वार ९ की पुनरावृत्ति है। (२) ४६६६६६६४ व्यक्त किया गया है- चौसठ, छह सौ, छयासठ हजार, छयासठ लाख, और चार करोड़। (३) २२७९९४९८ व्यक्त किया गया है- दो करोड़, सत्ताइस, निन्यानवे हजार, चारसौ और अन्ठान्नवे। इनमें से (१) में जिस पद्धतिका उपयोग किया है वह जैन साहित्यमें अन्य स्थानों में भी पायी जाती है, और गणितसारसंग्रहमें भी कुछ स्थानोंमें है। उससे दाशमिकक्रमका सुपरिचय सिद्ध होता है । (२) में छोटी संख्याएं पहले व्यक्त की गई हैं। यह संस्कृत साहित्यमें प्रचलित साधारण रीतिके अनुसार नहीं है। उसी प्रकार यहां संकेत-क्रम सौ है, न कि दश जो कि साधारणतः संस्कृत साहित्यमें पाया जाता है। किन्तु पाली और प्राकृतमें सौ का क्रम ही प्रायः उपयोगमें लाया गया है । (३) में सबसे बड़ी संख्या पहले व्यक्त की गई है। अवतरण (२) और ( ३) स्पष्टतः भिन्न स्थानोंसे लिये गये हैं। बडी संख्यायें- यह सुविदित है कि जैन साहित्यमें बड़ी संख्यायें बहुतायतसे उपयोगमें आई हैं । धवलामें भी अनेक तरहकी जीवराशियों ( द्रव्यप्रमाण) आदि पर तर्क वितर्क है। निश्चितरूपसे लिखी गई सबसे बड़ी संख्या पर्याप्त मनुष्योंकी है। यह संख्या धवलामें दो के छठे वर्ग और दो के सातवें वर्गके बीचकी, अथवा और भी निश्चित, कोटि-कोटि-कोटि और कोटि-कोटि-कोटि-कोटिके बीचकी कही गई है। याने - २२६ और २२७ के बीचकी। अथवा, और अधिक नियत- (१,००,००,०००) और (१,००,००,००० ) के बीचकी । अथवा, सर्वथा निश्चित- २२५४२२६ । इन जीवोंकी संख्या अन्य मतानुसार ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ है। १.ध.माग ३, पृष्ठ ९८, गाथा ५१ । देखो गोम्मटसार, जीवकांड, पृष्ट ६३३. २. ध. भाग ३, पृ. ९९, गाथा ५२. ३ ध. भाग ३, पृ. १००, गाथा ५३. ४ देखो- मणितसारसंग्रह १, २७. और भी देखो- दत्त और सिंहका हिन्दूगणितशास्त्रका इतिहास, जिल्द १, लाहौर १९३५, पृ १६. ५ दत्त और सिंह, पूर्ववत्, पृ. १४. ६ध. भाग ३, पृ. २५३. ७ गोम्मटसार, जीवकांड, (से. बु. जै. सीरीज)पृ. १०४, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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