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________________ २८ ] छक्खडागमे जीवद्वाणं [ १, ६, ३०. पंचमीए देसूणसत्तारससागरोवमाणि, छट्टीए देसूणवावीससागरोवमाणि, सत्तमीए देसूणतेत्तीससागरोवमाणि त्ति वत्तव्यं । णवरि दोहं पि गुणट्ठाणाणं सत्तमाए पुढवीए देसूणपमाणं छअंतोमुहुत्तमेत्तं । तं च णिरओघे परूविदमिदि णेह परुविज्जदे । सेसपुढवीसु मिच्छादिङ्कीर्ण सग-सगआउट्ठदीओ चदुहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाओ । के ते चत्तारि अंतोमुहुत्ता ? छ पज्जत्तीओ समाणणे एक्को, विस्समणे विदिओ, विसोहिआऊरणे तदिओ, अवसाणे मिच्छत्तं गदस्स चउत्थो अंतोमुहुत्तो । असंजदसम्मादिट्ठीणं सेसपुढवीसु सग गआउट्ठीओ पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाओ अंतरं हदि । तं जधा एक्को तिरिक्खो मस्सो वा अट्ठावीससंतकम्मिओ पढमादि जाव छट्टीसु उववण्णो छहि पज्जतीहि पज्जत्तदो ( १ ) विस्संतो ( २ ) विसुद्धो ( ३ ) सम्मत्तं पंडिवण्णो ( ४ ) सन्चलहुं मिच्छत्तं गंतू गंतरिदो । सगट्ठिदिमच्छिय उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो ( ५ ) सासणं गंतूणुव्वट्टिदो । एवं पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाओं सग-सगद्विदीओ सम्म कस्संतरं होदि । देशोन बाईस सागरोपम और सातवी में देशोन तेतीस सागरोपम अन्तर कहना चाहिए। विशेष बात यह है कि प्रथम और चतुर्थ, इन दोनों गुणस्थानोंका सातवीं पृथिवीम देशोनका प्रमाण छह अन्तर्मुहूर्तमात्र है । वह नारकियोंके ओघ वर्णनमें कह आये हैं, इसलिए यहां नहीं कहते हैं । शेष अर्थात् प्रथमसे लगाकर छठी पृथिवीतकी छह पृथि वियोंमें मिथ्यादृष्टि नारकियोंका उत्कृष्ट अन्तर चार अन्तर्मुहूतोंसे कम अपनी अपनी आयुस्थिति प्रमाण है । शंका- वे चार अन्तर्मुहूर्त कौनसे हैं ? समाधान- छहों पर्याप्तियोंके सम्यक् निष्पन्न करनेमें एक, विश्राम में दूसरा, विशुद्धिको आपूरण करनेमें तीसरा, और आयुके अन्त में मिथ्यात्वको प्राप्त होनेका चौथा अन्तर्मुहूर्त है । असंयतसम्यग्दृष्टियों का शेष पृथिवियों में पांच अन्तर्मुहतोंसे कम अपनी अपनी आयुस्थिति प्रमाण अन्तर होता है । वह इस प्रकार है- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक तिर्यच अथवा मनुष्य प्रथम पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तक कहीं भी उत्पन्न हुआ, और छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो ( १ ) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ ( ४ ) । पुनः सर्वलघुकालसे मिध्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ, और अपनी स्थिति प्रमाण मिध्यात्वमें रहकर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (५) । पुनः सासादन गुणस्थानमें जाकर निकला। इस प्रकार पांच अन्तर्मुहूर्तीसे कम अपनी अपनी पृथिवीकी स्थिति वहांके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है । १ प्रतिषु ' ऊणादे ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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