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________________ पृष्ठ २८ "" ४१ ७० ७२ 39 ७४ "" ८५ १२१ १४२ "" १४७ १६३ "" Jain Education International पंक्ति "" शुद्धिपत्र अशुद्ध ५ णामपत्तिडणं णाम पत्तिड्डी • २० जिनको ऋद्धि प्राप्त नहीं हुई है, जिनको ऋद्धि प्राप्त हुई है, . २९ विष्कंभ और आयामसे.. तिर्यग्लोक है, 19905 35 ( पुस्तक ४ ) २८ तिर्यंच पर्याप्त मिथ्यादृष्टि १२ तिर्यंच पर्याप्त जीव १३ 39 १३ मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मिथ्यादृष्टि मनुष्य योनिमती मिथ्यादृष्टि मनुष्य २ उसहो अजीवो १३ यह अजीब है, ६ प्रमाण से २२ २२ खंडित करके उसका ...... राशि १३ देखा जाता है, ( न कि यथार्थतः ).... किन्तु क्षीणमोही उतनी १६ किन्तु वे उस गुणस्थानमें १७ न कि वे ........सासादनसम्यदृष्टियों में उत्पन्न घनलोक, ऊर्ध्वलोक और अधोलोक, इन तीनों लोकोंके असंख्यातवें भाग क्षेत्र में विष्कंभ और आयामसे एक राजुप्रमाण ही तिर्यग्लोक है, तिर्यंच मिथ्यादृष्टि तिर्यच जीव शुद्ध "" खंडित करके जो लब्ध आवे उसके असंख्यातवें अथवा संख्यातवें भाग राशि देखा जाता है । इस प्रकारका स्वस्थानपद अयोगिकेवली में नहीं पाया जाता, क्योंकि, क्षीणमोही उसो अजिओ यह अजित है, प्रमाणसे किन्तु वे एकेन्द्रियों में न कि वे अर्थात् सासादनसम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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