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________________ १, ६, २३८.] अंतराणुगमे मदि-सुद-ओहिणाणि-अंतरपरूवणं [११९ गम्भोवक्कतिएसु उवसामेदि, णो सम्मुच्छिमेसु' त्ति चूलियासुत्तादो । ओहिणाणाभावो कुदो णव्वदे ? सम्मुच्छिमेसु ओहिणाणमुप्पाइय अंतरपरूवयआइरियाणमणुवलंभा । भवदु णाम सण्णिसम्मुच्छिमेसु ओहिणाणाभावो, कहमोघम्मि उत्ताणमाभिणिबोहियसुदणाणाणं तेसु संभवंताणमेवेदमंतर ण उच्चदे ? ण, तत्थुप्पण्णाणमेवंविहंतरासंभवादो। तं कुदो णव्वदे ? तहा अवक्खाणादो । अहवा जाणिय वत्तव्वं । गम्भोवक्कंतिएमु गमिदअद्वेतालीस (-पुरकोडि-) वस्सेसु ओहिणाणमुप्पादिय किण्ण अंतराविदो ? ण, तत्थ वि ओहिणाणसंभवं परूवयंतवक्खाणाइरियाणमभावादो। पमत्त-अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥२३८ ॥ समाधान-'पंचेन्द्रियोंमें दर्शनमोहका उपशमन करता हुआ गर्भोत्पन्न जीवोंमें ही उपशमन करता है, सम्मूछिमों में नहीं,' इस प्रकारके चूलिकासूत्रसे जाना जाता है। शंका-संशी सम्मूञ्छिम जीवोंमें अवधिज्ञानका अभाव कैसे जाना जाता है ? समाधान—क्योंकि, अवधिशानको उत्पन्न कराके अन्तरके प्ररूपण करनेवाले आचार्योंका अभाव है। अर्थात् किसी भी आचार्यने इस प्रकार अन्तरकी प्ररूपणा नहीं की। शंका-संशी सम्मूञ्छिम जीवोंमें अवधिज्ञानका अभाव भले ही रहा आये, किन्तु ओघप्ररूपणामें कहे गये, और संशी सम्मूञ्छिम जीवों में सम्भव आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञानका ही यह अन्तर है, ऐसा क्यों नहीं कहते हैं ? । समाधान नहीं, क्योंकि, उनमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके इस प्रकार अन्तर सम्भव नहीं है। शंका-यह भी कैसे जाना जाता है ? समाधान-क्योंकि, इस प्रकारका व्याख्यान नहीं पाया जाता है । अथवा, जान करके इसका व्याख्यान करना चाहिए। शंका-गर्भोत्पन्न जीवोंमें व्यतीत की गई अड़तालीस पूर्वकोटी वर्षोंमें अवधिशान उत्पन्न करके अन्तरको प्राप्त क्यों नहीं कराया ? समाधान नहीं, क्योंकि, उनमें भी अवधिज्ञानकी सम्भवताको प्ररूपण करनेवाले व्याख्यानाचार्योंका अभाव है। तीनों ज्ञानवाले प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतोंका अन्तर कितने काल होता है ! नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २३८ ॥ १ प्रमत्ताप्रमत्तयोर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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