________________
१२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ६, ८. दिट्ठी जादो (२)। वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय (३) अणंताणुबंधिं विसंजोजिय (४) दसणमोहणीयं खविय (५) अप्पमत्तो जादो (६)। तदो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादण (७) खवगसेढीपाओग्गविसोहीए विसुज्झिऊण (८) अपुव्वखवगो (९) अणियट्टिखवगो (१०) सुहुमखवगो (११) खीणकसाओ (१२) सजोगिकेवली (१३) अजोगिकेवली (१४) होदूण सिद्धो जादो । एवं समयाहियचोदसअंतोमुहुत्तेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियट्टे सासणसम्मादिट्ठिस्स उक्कस्संतरं होदि ।
सम्मामिच्छादिद्विस्स उच्चदे-एक्केण अणादियमिच्छादिविणा तिणि वि करणाणि कादण उवसमसम्मत्तं गेण्हतेण गमिदसम्मत्तपढमसमए अणंतो संसारो छिंदिगुण अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तो कदो । उवसमसम्मत्तेण अंतोमुहुत्तमच्छिय (१) सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो (२)। मिच्छत्तं गंतूगंतरिदो । अद्धपोग्गलपरियट्ट परिभमिय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो । तत्थेव अणंताणुबंधिं विसंजोइय सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो । लद्धमंतरं (३) । तदो वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय (४) दंसणमोहणीयं खवेदूण (५) अप्पमत्तो जादो (६)। पुणो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं करिय (७) खवगसेढीपाओग्ग
सम्यक्त्वको प्राप्त होकर (३) अनन्तानुवन्धीकषायका विसंयोजन कर (४) दर्शनमोहनीयका क्षयकर (५) अप्रमत्तसंयत हुआ (६)। पुनः प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानोंमें सहस्रों परावर्तनोंको करके (७) क्षपकश्रेणीके प्रायोग्य विशुद्धिसे विशुद्ध होकर (८) अपूर्वकरण क्षपक (९), अनिवृत्तिकरण क्षपक (१०), सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक (११), क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थ (१२), सयोगिकेवली (१३) और अयोगिकेवली (१४) होकरके सिद्ध होगया। इस प्रकारसे एक समय अधिक चौदह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन सासादनसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है।
अब सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कहते हैंएक अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने तीनों ही करण करके उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करते हुए सम्यक्त्व ग्रहण करनेके प्रथम समयमें अनन्त संसार छेदकर अर्धपुद्गलपरिवर्तन मात्र किया। उपशमसम्यक्त्वके साथ अन्तर्मुहूर्त रहकर वह (१) सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (२)। पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त हो अन्तरको प्राप्त हो गया। पश्चात् अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल प्रमाण परिभ्रमण कर संसारके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अवशेष रहने पर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, और वहांपर ही अनन्तानुबंधीकषायकी विसंयोजना कर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । इस प्रकारसे अन्तर उपलब्ध हो गया (३)। तत्पश्चात् वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर (४) दर्शनमोहनीयका क्षपण करके (५) अप्रमत्तसंयत हुआ (६)। पुनः प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानसम्बन्धी सहस्रों परावर्तनोंको करके (७) क्षपकश्रेणीके प्रायोग्य विशुद्धिसे विशुद्ध
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org