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षट्खंडागमकी प्रस्तावना
है, क्योंकि, उनमें मूल पाठके निर्णयकी त्रुटियां तो नहीं के बराबर मिलती हैं, और अनुवाद के भी मूलानुगामित्वमें कोई दोष नहीं दिखाये जा सके। हां, जहां शब्दोंकी अनुवृत्ति आदि जोड़ी गई है वहां कहीं कुछ प्रमाद हुआ पाया जाता है। पर एक ओर हम जब अपने अल्प ज्ञान, अल्प साधन-सामग्री और अल्प समयका, तथा दूसरी ओर इन महान् ग्रन्थोंके अतिगहन विषयविवेचनका विचार करते हैं तब हमें आश्चर्य इस बातका बिलकुल नहीं होता कि हमसे ऐसी कुछ भूलें हुई हैं, बल्कि, आश्चर्य इस बातका होता है कि वे भूलें उक्त परिस्थितिमें भी इतनी अल्प हैं । इस प्रकार उक्त छिद्रान्वेषी समालोचकोंके लेखोंसे हमें अपने कार्य में अधिक दृढ़ता और विश्वास ही उत्पन्न हुआ है और इसके लिये हम उनके हृदयसे कृतज्ञ हैं । जो अल्प भी त्रुटि या स्खलन जब भी हमारे दृष्टिगोचर होता है, तभी हम आगामी भागके शुद्धिपत्र व शंका-समाधानमें उसका समावेश कर देते हैं । ऐसे स्खलनादिकी सूचना करनेवाले सज्जनों के हम सदैव आभारी हैं । जो समालोचक अत्यन्त छोटी मोटी त्रुटियोंसे भी बचने के लिये बड़ी बड़ी योजनायें सुझाते हैं, उन्हें इस बातका ध्यान रखना चाहिये, कि इस प्रकाशनके लिये उपलब्ध फंड बहुत ही परिमित है और इससे भी अधिक कठिनाई जो हम अनुभव करते हैं, वह है समयकी । दिनों दिन काल बड़ा कराल होता जाता है और इस प्रकारके साहित्यके लिये रुचि उत्तरोत्तर हीन होती जाती है । ऐसी अवस्था में हमारा तो अब मत यह है कि जितने शीघ्र हो सके इस प्राचीन साहित्यको प्रकाशित कर उसकी प्रतियां सब ओर फैला दी जांय, ताकि उसकी रक्षा तो हो । छोटी मोटी त्रुटियों के सुधारके लिये यदि इस प्रकाशनको रोका गया तो संभव है उसका फिर उद्धार ही न हो पाये और न जाने कैसा संकट आ उपस्थित हो । योजनाएं सुझाना जितना सरल है, स्वार्थत्याग करके आजकल कुछ कर दिखाना उतना सरल नहीं है। हमारा समय, शक्ति, ज्ञान और साधन सब परिमित हैं । इस कार्यके लिये इससे अधिक साधन-सम्पन्न यदि कोई संस्था या व्यक्तिविशेष इस कार्य - भारको अधिक योग्यता के साथ सम्हालनेको प्रस्तुत हो तो हम सहर्ष यह कार्य उन्हें सौंप सकते हैं। पर हमारी सीमाओं में फिर हाल और अधिक विस्तारकी गुंजाइश नहीं है ।
प्रस्तुत खंडांशमें जीवस्थानकी आठ प्ररूपणाओंमेंसे अन्तिम तीन प्ररूपणाएं समाविष्ट हैं - अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । इनमें क्रमशः ३९७, ९३ व ३८२ सूत्र पाये जाते हैं। इनकी टीकामें क्रमशः लगभग ४८, ६५ तथा ७६ शंका-समाधान आये हैं । हिन्दी अनुवाद में अर्थको स्पष्ट करनेके लिये क्रमशः १, २ और ३ विशेषार्थ लिखे गये हैं । तुलनात्मक व पाठभेद संबंधी टिप्पणियोंकी संख्या क्रमशः २९९, ९३ और १४४ है । इस प्रकार इस ग्रंथ - भाग में लगभग १८९ शंका-समाधान, ६ विशेषार्थ और ५३६ टिप्पण पाये जावेंगे ।
सम्पादन-व्यवस्था व पाठ- शोधन के लिये प्रतियोंका उपयोग पूर्ववत् चालू रहा । पं. हीरालालजी शास्त्री यह कार्य नियतरूपसे कर रहे हैं । इस भागके मुद्रित फार्म
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