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________________ १९८) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, ४. सम्मामिच्छादिट्ठि त्ति को भावो, खओवसमिओ भावों ॥४॥ पडिबंधिकम्मोदए संते वि जो उवलब्भइ जीवगुणावयवो सो खओवसमिओ उच्चइ । कुदो ? सव्वघादणसत्तीए अभावो खओ उच्चदि । खओ चेव उवसमो खओवसमो, तम्हि जादो भावो खओवसमिओ । ण च सम्मामिच्छत्तुदए संते सम्मत्तस्स कणिया वि उव्वरदि, सम्मामिच्छत्तस्स सव्वधादित्तण्णहाणुववत्तीदो । तदो सम्मामिच्छत्तं खओवसमियमिदि ण घडदे ? एत्थ परिहारो उच्चदे- सम्मामिच्छत्तुदए संते सद्दहणासदहणप्पओ करंचिओ जीवपरिणामो उप्पज्जइ । तत्थ जो सद्दहणंसो सो सम्मत्तावयवो । तं सम्मामिच्छत्तुदओ ण विणासेदि ति सम्मामिच्छत्तं खओवसमियं । असद्दहणभागेण विणा सद्दहणभागस्सेव सम्मामिच्छत्तववएसो णत्थि त्ति ण सम्मामिच्छत्तं खओवसमियमिदि चे एवंविहविवक्खाए सम्मामिच्छत्तं खओवसमियं मा होदु, किंतु अवयव्यवयवनिराकरणानिराकरणं पडुच्च खओवसमियं सम्मामिच्छत्तदव्वकम्मं पि सव्वघादी चेव होदु, जच्चतरस्स सम्यग्मिथ्यादृष्टि यह कौनसा भाव है ? क्षायोपशमिक भाव है ॥ ४ ॥ शंका--प्रतिबंधी कर्मके उदय होनेपर भी जो जीवके गुणका अवयव (अंश) पाया जाता है, वह गुणांश क्षायोपशमिक कहलाता है, क्योंकि, गुणोंके सम्पूर्णरूपसे घातनेकी शक्तिका अभाव क्षय कहलाता है। क्षयरूप ही जो उपशम होता है, वह क्षयो. पशम कहलाता है। उस क्षयोपशममें उत्पन्न होनेवाला भाव क्षायोपशमिक कहलाता है। किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके उदय रहते हुए सम्यक्त्वकी कणिका भी अवशिष्ट नहीं रहती है, अन्यथा, सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके सर्वघातीपना बन नहीं सकता है। इसलिए सम्यग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक है, यह कहना घटित नहीं होता? ___ समाधान- यहां उक्त शंकाका परिहार करते हैं- सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके उदय होने पर श्रद्धानाश्रद्धानात्मक करंचित अर्थात् शबलित या मिश्रित जीवपरिणाम उत्पन्न होता है, उसमें जो श्रद्धानांश है, वह सम्यक्त्वका अवयव है। उसे सम्यग्मिथ्यात्व कर्मका उदय नहीं नष्ट करता है, इसलिये सम्यग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक है।। शंका-अश्रद्धान भागके विना केवल श्रद्धान भागके ही 'सम्यग्मिथ्यात्व' यह संशा नहीं है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक नहीं है ? समाधान-उक्त प्रकारकी विवक्षा होने पर सम्यग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक भले ही न होवे, किन्तु अवयवीके निराकरण और अवयवके अनिराकरणकी अपेक्षा वह क्षायोपशमिक है । अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्वके उदय रहते हुए अवयवीरूप शुद्ध आत्माका तो निराकरण रहता है, किन्तु अवयवरूप सम्यक्त्वगुणका अंश प्रगट रहता है । इस प्रकार क्षायोपशमिक भी वह सम्यग्मिथ्यात्व द्रव्यकर्म सर्वघाती ही होवे, क्योंकि, १ सम्यग्मिध्यादृष्टिरिति क्षायोपशमिको भावः । स. सि. १,८. मिस्से खओवसमिओ। गो.जी.११. २ प्रतिषु 'तं ओवसमियं' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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