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________________ षट्खंडागमकी प्रस्तावना क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. । क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. २३ पृथक्त्व शब्दका अर्थ वैपुल्य- ! अल्पबहुत्वका पृथक् पृथक् वाची कैसे लिया ? इस निरूपण शंकाका समाधान २६४ (देवगति) २८०-२८७ २४ सातों पृथिवियोंके नारकी जीवोंका पृथक् पृथक् अल्प | ३१ चारों गुणस्थानवर्ती देवोंका ___अल्पबहुत्व बहुत्व २८० २६५-२६७ २५ अन्तर्मुहूर्तका अर्थ असंख्यात ३२ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें आवलियां लेनेसे उसका अन्त देवोंका सम्यक्त्वसम्बन्धी मुहूर्तपना विरोधको क्यों अल्पबहुत्व २८०-२८१ नहीं प्राप्त होगा ? इस ३३ भवनवासी, व्यन्तर,ज्योतिषी, शंकाका समाधान २६६ । देव और देवियोंका, तथा (तियंचगति) २६८-२७३ | | सौधर्म-ईशानकल्पवासिनी २६ सामान्यतिर्यंच, पंचेन्द्रिय देवियोंका अल्पबहुत्व २८१-२८२ तिर्यंच, पंचेन्द्रियपर्याप्त और ३४ सौधर्म-ईशानकल्पसे लेकर पंचेन्द्रिययोनिमती तिर्योंके सर्वार्थसिद्धि तक विमानतदन्तर्गत अनेक शंकाओंके वासी देवोंके चारों गुणसमाधानपूर्वक अल्पबहुत्वका स्थानसम्बन्धी तथा सम्यक्त्वनिरूपण २६८-२७० सम्बन्धी अल्पबहुत्वका २७ असंयतसम्यग्दृष्टि और संय तदन्तर्गत शंका-समाधान पूर्वक पृथक् पृथक् निरूपण २८२-२८६ तासंयत गुणस्थानमें उक्त ३५ सर्वार्थसिद्धिमें असंख्यात चारों प्रकारके तिर्यंचोंका देव क्यों नहीं होते ? वर्षसम्यक्त्वसंबंधी अल्पबहुत्व २७०.२७३ पृथक्त्वके अन्तरवाले आन२८ असंयत तियंचोंमें क्षायिक तादि कल्पवासी देवोंमें सम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्य ग्दृष्टि जीव क्यों असंख्यात संख्यात आवलियोंसे भाजित पल्योपमप्रमाण जीव क्यों गुणित हैं, इस बातका सयुक्तिक निरूपण नहीं होते? इत्यादि अनेक २९ संयतासंयत तिर्यंचोंमें क्षायिक शंकाओंका सयुक्तिक और सम्यग्दृष्टियोंका अल्पबहुत्व सप्रमाण समाधान २८६-२८७ क्यों नहीं कहा? इस शंकाका __ २ इन्द्रियमार्गणा २८८-२८९ समाधान | ३६ पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय(मनुष्यगति) २७३-२८० पर्याप्त जीवोंका अल्पबहुत्व ३० सामान्य मनुष्य, पर्याप्त ३७ इन्द्रियमार्गणामें स्वस्थानमनुष्य और मनुष्यनियोंके अल्पबहुत्व और सर्वपरस्थानतदन्तर्गत शंका समाधान अल्पबहुत्व क्यों नहीं कहे ? पूर्वक सर्व गुणस्थानसंबंधी इस शंकाका समाधान २८९ २७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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