Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 03 Sootrakrut Mool evam Vrutti Part 1
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम नमो नमो निम्मलदसणस्स उ पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः भाग सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि 03 आगम - ०२ 'सूत्रकृत्' मूलं एवं वृत्ति: [१] मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से । "वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता श्री आगम मंदिर पालिताणा Show 22~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमानामानमा नमो नमो निम्मलदंसणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता ॐ पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजा _ आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855798253062751 ~3~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਸਹਸ ਨਸ਼ੇ ਨੂੰ ਸਰ ਕਰਨ आगम वाचना शताब्दी वर्ष यता ਮਹਾਨ ਸ਼ਹਾਲ ਸ ਬ ਤਸਕ ਸ਼ਹਿਰ ਸ਼ ਸ਼ ਸ਼ਾਸਤ ਸ ਨੂੰ ਰਾਸ ਗਸ਼ ਸ਼ ਸ਼ ਸ਼ ਸ਼ ਸਿੰਹਲ ~4 ~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाग-०३] श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रम् भाग-१ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: “सूत्रकृत्” मूलं एवं वृत्ति: [मूलं + भद्रबाहुस्वामी कृत् नियुक्ति; + शिलांकाचार्य रचित वृत्तिः] श्रुतस्कन्ध- १, अध्ययन- १ एवं २ [आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-३ श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट' Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र- मेधावी, समाधिमृत्यु प्राप्त, बहुमुखी प्रतिभाधारक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब • जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक अभ्यंतरतप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी गुरुभक्ति बुद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामुली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है | * चारित्र ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ़ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ - बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया। लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का प्राचीन लिपिओ का, व्याकरणन्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए | • एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर बिना किसी सहाय लिए हुए सिर्फ अकेले ही "जैन आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और निर्युक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया | फिर पालीताणामें आगम : मंदिर बनवाकर आरस पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें ताम्रपत्र पर भी अंकित करवाए और "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए । वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ । * सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, निर्युक्ति, अव चूरी, संस्कृत छाया आदि का भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयों के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत- प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की । कितने ही ग्रंथों की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्–श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की । * ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया । राजाओं को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईंओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था । * सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ७०० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ....ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"... ....मुनि दीपरत्नसागर...: ~6~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र - मार्ग-रागी, प्रवचन- पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब ••• परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये । फ़िर क्या ! शिष्यो कि संख्या बढती चली, बढ़ते हुए पुन्य के साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश प्राप्त बहोत आत्माओने संयम मार्ग का स्वीकार किया । खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था । आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य: परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे | *** ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेलु दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम' कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष} दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण बारबार चालु हो गया" अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनुं शरण " इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | ••• मुनि दीपरत्नसागर... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुई | आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुई । शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुंजयगिरिराज कि तलेटीमे स्थित है । वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है। जहां ४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्णों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण के शास्त्र वर्णन अनुसार आगम मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है । ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है । *** मुनि दीपरत्नसागर... 7~ पूज्य : Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब पज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु । | संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" के मद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई। उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन| अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें। :भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यो । के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस | | वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई। | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है। - मुनि दीपरत्नसागर । [कात्रेज]पूना, शंखेश्वर, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब (एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ .-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-.-. -. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः पृष्ठांक ०१२ ०२९ १६८ ०३५ १८७ ३८३ मूलाका: ८०६ सूत्रकृताङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम भाग-१ और २ नियुक्ति गाथा: २०५ मुलाक: विषय: | पृष्ठांक मूलांकः विषय: | पृष्ठांक | मूलांक: ___ श्रुतस्कंध-. *- अध्ययनं ३ उपसर्ग: १६४ *- अध्ययनं ९ धर्म ૩૬૨ *- अध्ययनं १ समयं १६५ | उद्देशक:-१- प्रतिकुल उपसर्ग: ४३७ -धर्म स्वरूपं, हिंसादिपंचकस्यउद्देशक:-१- पञ्च महाभूतः, १८२ | उद्देशक:-२- अनुकूल उपसर्ग: त्यागस्य उपदेश:, अनाचार-आत्माद्वैत, देहात्म, २०४ | उद्देशक:-३- परवादी वचनात् त्याग:, प्रव्रज्याविधानं -आत्माषष्ठ एवं अफालवादः आत्मिकदुखं अध्ययनं १० समाधि: ૦૨૮ उद्देशक:-२- नियति, अज्ञान, ०६९ | २२५ | उद्देशक:-४- यथावस्थित अर्थ | -प्राणातिपात आदि विरमणम्, -ज्ञान एवं क्रिया - वादः प्ररूपणं -आधाकर्माहार-स्त्री संगति: एवं ०६० उद्देशक:-३- जगत्कर्तृत्व, ०८९ | *- अध्ययनं ४ स्त्रीपरिज्ञा निदानादेः निषेधः, -त्रैराशिक एवं अनुष्ठानवादः २४७ | उद्देशक:-१.२ स्त्री परिषहः -एकत्व आदि भावनास्वरूपं ०७६ | उद्देशक:-४- लोकवादः १०५ *-अध्ययनं ५ नरकविभक्ति: *- अध्ययनं ११ मार्ग: ४०२ -असर्वज्ञवाद:, अहिंसा, चर्यादि | उद्देशक:-१- नरकवेदना २६३ ४९७ -मोक्षमार्गः, विरतिउपदेश:, *- अध्ययनं २ वैतालियं ३२७ | उद्देशक:-२-चतुर्गतिभमणं -भावसमाधि: ०८९ उद्देशक:-१- मनुष्यभवस्य- ११८ *- अध्ययनं ६ वीरस्तुति: २९४ *- अध्ययनं १२ समवसरणं ४२५ दुर्लभत्वं, -मोहादि-निर्वृति:. -महावीरप्रभो: गणवर्णनं २९६ ५३५ | -अज्ञानादि-वाद,भवनमण हेतुः -प्रथमं महाव्रतं आदिः *- अध्ययनं • कुशील परिभाषा ३१७ | -अनासक्ति उपदेश: उद्देशक:-२-परिसह-कषाय-जय | १३१ ३८१ |-हिंसा एवं तत कर्मफलं, *- अध्ययनं १३ यथातथ्य -परिग्रह-परिचयादी-निषेध: -बोधि दुर्लभत्वं, -मोक्ष एवं बंधस्वरूप. -समितिवर्णनम् -स्वसमय-परसमय वर्णनं, | -मद त्याग उपदेश: १४३ उद्देशक:-३- मुक्तिहेतुः,महाव्रत- | १५१ -आहार विधि-निषेध: *- अध्ययनं १४ ग्रन्थ: माहात्म्यं, कर्म फल-संवर एवं *- अध्ययनं ८ वीर्य ५८० ।-अपरिग्रह-ब्रह्मचर्य उपदेश:, निर्जरादिः ४११ -वीर्यस्य भेदवर्णनं, बाल एवं | -प्रश्नोत्तरविधि:, भाषाविवेकः, पंडित वीर्यम् |-सूत्रोच्चारणं व अर्थप्रतिपादनं पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित...आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ११६ ४७० ३४१ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पष्ठाक: मूलाङ्का: ८०६ मूलांक: विषय: *- अध्ययनं १५ आदानं ६०७ -मोक्षस्य उपाया:, -भवभमणनिषेध हेतुः *- अध्ययनं १६ गाथा ६३२ |-अनगार स्वरूपं ____ श्रुतस्कंध-२ *- अध्ययनं १ पुण्डरिक ६३३ -पुण्डरिक-उद्धरणं दृष्टांत एवं तद् भावस्य कथनं, देहात्मपञ्चमहाभूत-कारणिक आदि वाद कथनं सूत्रकृताङ्ग सूत्रस्य विषयानक्रम भाग-१ और २ नियुक्ति गाथा: २०५ पृष्ठांक: | मूलांक विषय: | मूलांक: विषय: | पृष्ठांक: *- अध्ययनं २ क्रियास्थानं *- अध्ययनं ५ आचारश्रुतं । ६४८ -त्रयोदश क्रियास्थानानि ७०५ -अनेकान्त वचनप्रयोगकरणं *- अध्ययनं ३ आहारपरिज्ञा -जीव अजीव आदि तत्त्वस्य ६७५ -विविध वनस्पतिकायस्य ___अस्तित्व-स्वीकारः उत्पति, तस्य आहारविधि: *- अध्ययनं ६ आर्द्रकीयं -जीवोत्पत्ति: तस्य आहार एवं ७३८ -गोशालक एवं आर्द्रकुमारस्य शरीर वर्णनं परस्पर वार्ता, शाक्य भिक्षु*- अध्ययनं ४ प्रत्याख्यानं सार्धं आर्द्रकुमारस्य संवादः -अप्रत्याख्यान स्वरूप, अध्ययनं नालंदीयं -प्रत्याख्यान हेतुः, षड् जीव -पेढालपुत्र एवं गौतमस्य निकाय हिंसा विरमणं परस्पर वार्ता ७९३ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित...आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्ति: । ~10~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सुत्रकृत् - मूलं एवं वृत्तिः ] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “सूत्रकृताङ्गसूत्र" के नामसे सन १९१७ (विक्रम संवत १९७३) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट' की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाइ है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अनुचित चेष्टा कर चुके है | इसी सूत्रकृतांगसूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से आचार्य श्री नयचंद्रसागरसूरिजीने भी छपवाया है, समुदाय की वफादारी निभाते हुए इस पूज्यश्रीने पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुन: संपादक रूप से पेश किया है | अपनी प्रस्तावनामें नयचंद्रसागरसूरिजी ने भी मेरी तरह उक्त बात का उल्लेख किया है। इसी सूत्रकृतांगसूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से पूज्य जम्बूविजयजी महाराजजीने श्री मोतीलाल बनारसीदास की तरफसे प्रकाशित करवाई है, जो की पुस्तक रूपसे बाईंडेड है, और परिशिष्टमें पूज्य श्री पन्यविजयजी संकलित शुद्धि-वृद्धि पत्रक दिया है। + हमारा ये प्रयास क्यों? - *आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कंध-अध्ययन-उद्देशक-मूलसूत्र-नियुक्ति आदि के नंबर लिख दिए, तार्किं पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस ] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है| अनेक पृष्ठो के नीचे विशिष्ठ फूटनोट लिखी है। शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-3 का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है | ......मुनि दीपरत्नसागर. ~11 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ], उद्देशक [], मूलं [], निर्युक्ति: [] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रक. १ उपोद्घात् निर्युक्तिः ॥ अर्हम् ॥ श्रीमद्गणधरवरसुधर्मस्वामिनिर्मितम् । श्रीमच्छीलाङ्काचार्य विहितविवरणयुतम् । श्रीसूत्रकृताङ्गम् । स्वपरसमयार्थसूचकमनन्तगमेपर्ययार्थगुणकलितम् । सूत्रकृतमङ्गमतुलं विवृणोमि जिनान्नमस्कृत्य ॥ १ ॥ व्याख्यातमङ्गमिह यद्यपि सूरिमुख्यैर्मत्या तथापि विवरीतुमहं यतिष्ये । किं पक्षिराजगतमित्यवगम्य सम्यक् तेनैव वाञ्छति पथा शलभो न गंतुम् ॥ २५ ॥ ये मय्यवज्ञां व्यधुरिद्धबोधा, जानन्ति ते किश्चन तानपास्य। मत्तोऽपि यो मन्दमतिस्तथाऽर्थी, तस्योपकाराय ममैष १ सरशपाठाः २ शब्दपर्यायाः ३ अभिषेयगुणाः ४ पक्षिराजगतमप्यवगम्येति प्र० ५ भी जो गौ वसन्ततिलका छन्दोऽनुशासने अ २ सू० १३१) For Parts On ~ 12 ~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्गं शीलाकाचायायत्तियुतं यत्नः ॥३॥ इहापसदसंसारान्तर्गतेनासुमताज्वाप्यातिदुर्लभं मनुजत्वं सुकुलोत्पत्तिसमग्रेन्द्रियसामग्र्याधुपेतेनाईदर्शनम् अशे- १ समयाघकोंच्छित्तये यतितव्यम् , कर्मोच्छेदश्च सम्यग्विवेकसव्यपेक्षः, असावप्याप्तोपदेशमन्तरेण न भवति, आप्तश्चात्यन्तिकाद्दोषक्ष-६॥ ध्ययने यात् , स चाहन्नेव, अतस्तत्प्रणीतागमपरिज्ञाने यत्रो विधेयः, आगमश्च द्वादशाङ्गादिरूपः, सोऽप्यार्यरक्षितमित्रैरैर्दयुगीनपुरुषानुग्रहबुया चरणकरणद्रव्यधर्मकथागणितानुयोगभेदाचतुर्धा व्यवस्थापितः, तत्राचाराङ्गं चरणकरणप्राधान्येन व्याख्यातम् , अधुनाऽवसरायात द्रव्यप्राधान्येन सूत्रकृताख्यं द्वितीयमङ्गं व्याख्यातुमारभ्यत इति । ननु चार्थस्य शासनाच्छास्त्रमिदं, शास्त्रस्य । चाशेषप्रत्यूहोपशान्त्यर्थमादिमङ्गल तथा स्थिरपरिचयार्थे मध्यमङ्गलं शिष्यप्रशिष्याविच्छेदार्थ चान्त्यमङ्गलमुपादेयं तचेह नोपलभ्यते, सत्यमेतत् , मङ्गलं हीष्टदेवतानमस्कारादिरूपम् , अस्य च प्रणेता सर्वज्ञः, तस्स चापरनमस्कार्याभावान्मङ्गलकरणे प्रयोजनामावाच्च न मङ्गलाभिधानं, गणधराणामपि तीर्थकदुक्तानुवादिखान्मङ्गलाकरणं, असदायपेक्षया तु सर्वमेव शास्त्रं मङ्गलम् । अथवा नियुक्तिकार एवात्र भावमङ्गलमभिधातुकाम आहतिस्थयरे य जिणवरे सुत्तकरे गणहरे यणमिऊणं । सूयगडस्स भगवओ णिति कित्तइस्सामि ॥१॥ गाथापूर्वार्द्धनेह भावमङ्गलमभिहितं, पश्चार्डेन तु प्रेक्षापूर्वकारिप्रवृत्त्यर्थ प्रयोजनादित्रयमिति, तदुक्तम्- "उक्तार्थ ज्ञातसंवन्धं ॥१॥ श्रोतुं श्रोता प्रवचते । शाखादौ तेन वक्तव्यः, सम्बन्धः सप्रयोजनः॥शा तत्र सूत्रकृतयेत्यभिधेयपदं, नियुक्ति कीयिध्ये इति १ तौ जौ गाविन्दवना ( छन्दो० २-१५४ ) २ इहापारससारेति प्र० ३ श्रोतारः । ४ टक्कप्रयोजनं ५ चान्द्रमतेन गिजन्ताकर्तर्यात्मनेपदभावान्न परस्मैपदि-18 | बादसाधुः प्रयोगोऽयमिति शश्यम् । सपरसमयसूचनार्थत्वात्सूत्रकृतशब्दख नाभिषेयत्वेऽस्य क्षतिः, वकृत्यपेक्षया नियुक्ति कीर्तयिष्य इति प्रयोजनोकिः । अनुक्रम 08092008sasa wwrajastaram.org उपोद्घात् नियुक्ति:, नियुक्ति रचना प्रतिज्ञा ~13~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रांक दीप प्रयोजनपदं, प्रयोजनप्रयोजनं तु मोक्षावाप्तिः, सम्बन्धस्तु प्रयोजनपदानुमेय इति पृथक नोक्तः, तदुक्तम् --"शास्त्र प्रयोजन चेति, सम्बन्धस्याश्रयावुभौ । तदुक्त्यन्तर्गतस्तस्माद्भिनो नोक्तः प्रयोजनात् ॥१॥” इति समुदायार्थः । अधुनाऽवयवार्थः कथ्यते-तत्र तीर्थ द्रव्यभावभेदाविधा, तत्रापि द्रव्यतीर्थ नद्यादेः समुत्तरणमार्गः, भावतीर्थं तु सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि, संसाराणेवादुत्तारकत्वात् , तदाधारो वा सङ्घः प्रथमगणधरो वा, तत्करणशीलास्तीर्थरास्तानत्वेति क्रिया । तत्रान्येपा-T8 मपि तीर्थकरखसंभवे तद्वयवच्छेदार्थमाह----'जिनवरानि ति रागद्वेषमोहजितो जिनाः, एवंभूताच सामान्यकेवलिनोऽपि भवन्ति, तद्वचवच्छेदार्थमाह-वरा:-प्रधानाः चतुर्विंशदतिशयसमन्वितत्वेन, तान्नखेति, एतेषां च नमस्कारकरणमागमार्थोपदेष्टुखेनोपकारिखात् , विशिष्टविशेषणोपादानं च शास्त्रस्य गौरवाधानार्थ, शास्तुःप्राधान्येन हि शास्त्रस्यापि प्राधान्यं भवतीति भावः । अर्थस्य । सूचनात्सूत्रं, सत्करणशीला: सूत्रकराः, ते च खयंबुद्धादयोऽपि भवन्तीत्यत आह-गणघरास्तांश्च नखे ति, सामान्याचार्याणां गणधरखेऽपि तीर्थकरनमस्कारानन्तरोपादानाद्गीतमादय एवेह विवक्षिताः। प्रथमश्चकारः सिद्धाधुपलक्षणार्थो द्वितीयः समुचिती। क्खाप्रत्ययस्य क्रियान्तरसन्यपेक्षखातामाह-खपरसमयभूचनं कृतमनेनेति सूत्रकृतस्तस्य,महार्थवचाद्भगवांस्तस्य,अनेन च सर्वज्ञप्रणीतसमावेदितं भवति । 'नियुक्ति कीर्तयिष्ये' इति योजनं युक्तिः-अर्थघटना, निश्चयेनाधिक्येन वा युक्तिनियुक्ति:-सम्यगर्थप्र-2 कटन मितियावत् ,निर्युक्तानां वा-सूत्रेष्वेव परस्परसम्बद्धवानामर्थानामाविर्भावनं,युक्तशब्दलोपानियुक्तिरिति, तां 'कीर्तयिष्यामि' अभिधास्य इति ।। इह सूत्रकृतस्य नियुक्ति कीर्तयिष्ये इत्यनेनोपक्रमद्वारमुपक्षित,तच 'इहापसदेत्यादिनेषदभिहितमिति, तदनन्तरं १ रामः समुत्तरणमार्गः प्र. १ जिनेखनुकत्या जिनवरानिति वरत्वयुधजिनेयुपादानं अनुक्रम उपोद्घात् नियुक्ति:, नियुक्ति रचना प्रतिज्ञा ~14~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्गं चार्षीय चियुत शीलाका १समयाध्ययन मूत्रकृत्पयायाः ॥२ ॥ || निक्षेपः, स च त्रिविधः, तद्यथा-ओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नवेति । तत्रौषनिष्पने निक्षेपेज, नामनिष्पन्ने |तु निक्षेपे सूत्रकृतमिति ॥ १॥ तत्र 'तत्त्वभेदपर्यायैाख्ये'त्यतः पर्यायप्रदर्शनार्थ नियुक्तिकदाह सूयगडं अंगाणं वितियं तस्स य इमाणि नामाणि । सूतगडं सुत्तकर्ड सूर्यगडं चेव गोण्णाई ॥२॥ सूत्रकृतमित्येतदङ्गानां द्वितीयं, तस्य चामन्येकाथिकानि, तद्यथा--मूतम् उत्पन्नमर्थरूपतया तीर्थकृयः ततः कृतं ग्रन्धरचनया | गणधरैरिति, तथा 'सूत्रकृत'मिति सूत्रानुसारेण तत्वावरोधः क्रियतेऽस्मिमिति, तथा 'मुनाकृत'मिति खपरसमयार्थसूचनं सूचा साऽस्मिकतेति, एतानि चास्य गुणनिष्पनानि नामानीति ॥ २॥ साम्प्रतं सूत्रकतपदयोनिक्षेपार्थमाह-- व्यं तु पोण्डयादी भावे सुत्तमिह सूयगं नाणं । सपणासंगहवित्ते जातिणिबजे य कस्थादी ॥३॥ नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यसूत्रं दर्शयति-'पोण्डयाइ'त्ति पोण्डगं च वनीफलादुत्पन्न कार्यासिकं, आदिग्रहणादण्डजवाल| जादेग्रहणं, भावमूत्रं तु 'इह' अस्मिन्नधिकारे सूचकं ज्ञानं-श्रुतज्ञानमित्यर्थः, तस्यैव स्वपरार्थसूचकलादिति । तच श्रुतज्ञानसूत्र | चतुर्की भवति, तयथा-संज्ञासूत्र संग्रहसूत्रं वृत्तनिवळू जातिनिबद्धं च, तत्र संज्ञासूत्रं यत् खसंकेतपूर्वकं निबद्ध, तपथा| "जे छए सागारियं न सेवे, सम्बामगंधं परिण्णाय णिरामगंधो परिचए" इत्यादि, तथा लोकेऽपि-पुद्गलाः संस्कारः क्षेत्रज्ञा|%8 इत्यादि । संग्रहसूत्रं तु यत्प्रभूतार्थसंग्राहक, तद्यथा-द्रव्यमित्याकारिते समस्तधर्माधर्मादिद्रव्यसंग्रह इति, यदिवा 'उत्पादव्य- सूबागडमिति पाये दीर्घहसामिति अन्धानुलोम्येन हसता, तथा चन पर्यायक्य । २भावस्त्रेण महानुसारेण निर्माणपयो गम्यते चू० । ३ यच्छेका स S सागारिकं (मैथुनं) न सेवेत, सर्वमामगन्धं परिहाय निरामगन्धः परिजजेत. (भामं विशोधि गन्धमविशोधि)४ उभए जससमए परसमए य चू० । अनुक्रम Sasa989992829283 Pagesraesoseseasee292906 २॥ Anuranorm | उपोद्घात् नियुक्ति:, 'सूयगड़' शब्दस्य पर्याया: ~15~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रांक दीप यधौव्ययुक्तं सदिति, वृत्तनिद्धसूत्रं पुनर्यदनेकप्रकारया वृत्तजात्या निवद्धं तद्यथा-धुद्धिजत्ति तिउहिजेत्यांदि, जातिनिबद्ध है। तु चतुर्दा, तद्यथा-कथनीय कथ्यमुत्तराध्ययनज्ञाताधर्मकथादि, पूर्वर्षिचरितकथानकायखात्तस्स, तथा गधं ब्रह्मचर्या-18॥ ध्ययनादि, तथा पर्च-छन्दोनिवद्धं, तथा गेयं यत् खरसंचारेण गीतिकापायनिबद्ध, तपथा कापिलीयमध्ययनं 'अधुवे | असासर्यमि संसारंमि दुक्खपउराए' इत्यादि ।। ३ ॥ इदानीं कृतपदनिक्षेपार्थ नियुक्तिकद्गाथामाह18 करणं च कारओ य कडं च तिण्हपि छक्कनिक्खेवो । व्वे खिले काले भावेण उ कारओ जीयो॥४॥ 81 इह कृतमित्यनेन कर्मोपातं, न चाकर्तेक कर्म भवतीत्यर्थात्कर्तुराक्षेपो धाखर्थस्य च करणस्य, अमीषां त्रयाणामपि प्रत्येक नामादिः पोढा निक्षेपः, तत्र गाथापश्चार्द्धनाल्पवक्तव्यखाचावत्करणमतिक्रम्य कारकस्य निक्षेपमाह, तत्र नामस्खापने प्रसिद्धसा-18 दिनात्य द्रव्यादिकं दर्शयति-'दव्वे' इति द्रव्यविषये कारकश्चिन्त्यः, स च द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्यभूतो वा कारको द्रव्यकारकः, तथा क्षेत्रे भरतादौ यः कारको यस्मिन् वा क्षेत्रे कारको व्याख्यायते स क्षेत्रकारका, एवं कालेऽपि योज्यम्, 'भावेन तु भावद्वारेण चिन्त्यमानो जीवोत्र कारको, यसारसूत्रस्य गणधरः कारकः, एतच नियुक्तिकदेवोत्तरत्र वक्ष्यति 'ठिह अणुभावे'त्यादौ ॥४॥" साम्प्रतं करणव्याचिण्यासया नामस्थापने मुक्ता ;न्यादिकरणनिक्षेपार्थ नियुक्तिकदाह दब्बं पओगवीसस पओगसा मूल उत्तरे चेव । उत्तरकरणं बंजण अस्थो उ उवक्खरो सब्बो ॥५॥ १ बुध्यतेवि घोटगेत् । २ वित्तबद्धं सिलोगादिबद्धं वा ।। ३ अधुवेऽशाश्वते संसारै दुःखप्रधुरतायाम् (दुःखप्रतुरे)। ४ सयाकरण मोसण्णाकरण च कटकर अदाकरणं पेलुकरणादि । eeeeeeeeeeeseceicest अनुक्रम सूत्र-कृत् पदयो: निक्षेपाः, 'करण' शब्दस्य निक्षेपा: ~16~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ध्ययने क सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचायिवृत्तियुतं सूत्राक ॥ ३ ॥ అeated 'द्रव्ये' द्रव्यविषये करणं चिन्त्यते, तद्यथा-द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्यनिमित्तं वा करणम्-अनुष्ठानं द्रव्यकरणं, तत्पुनधिा - १ समया[प्रयोगकरणं विस्रसाकरणं च, तत्र प्रयोगकरणं पुरुषादिव्यापारनिष्पाद्य, तदपि द्विविध-मूलकरणमुत्तरकरणं च, तत्रोत्तरकरणं ||8| गाथापश्चार्द्धन दर्शयति-उत्तरत्र करणमुत्तरकरणं-कर्णवेधादि, यदिवा तन्मूलकरणं घटादिकं येनोपस्करण-दण्डचक्रादिना रणनिक्षेपः अभिव्यज्यते-खरूपतः प्रकाश्यते तदुत्तरकरणं, कर्तरुपकारक: सर्वोऽप्युपस्कारार्थ इत्यर्थः ॥५॥ पुनरपि प्रपश्चतो मूलोचरकरणे प्रतिपादयितुमाहमूलकरणं सरीराणि पंच तिसु करणखंधमादीयं । दबिदियाणि परिणामियाणि विसओसहादीहिं॥६॥1॥ मूलकरणमौदारिकादीनि शरीराणि पश्च, तत्र चौदारिकवैक्रियाहारकेषु त्रिपूत्तरकरणं कर्णस्कन्धादिकं विषते, तथाहि'सीसमरोयर पिही दो बाहू ऊरुया य अडंग'त्ति त्रयाणामप्येतन्निष्पत्तिमूलकरणं, कर्णस्कन्धाद्यङ्गोपाङ्गनिष्पत्तिस्तूतरकरणं, कार्मणतेजसयोस्तु खरूपनिष्पत्तिरेव मूलकरणम्, अङ्गोपाङ्गाभावानोचरकरणं, यदिवा औदारिकरख कर्णवेधादिकमुत्तरकरणं, बैंक्रि-10 यस्स तूत्तरकरणम् – उत्तरवैक्रिय, दन्तकेशादिनिष्पादनरूपं वा, आहारकस्य तु गमनाथुत्तरकरणं, यदिवा औदारिकस्य मूलोत्तरकरणे गाथापबार्द्धन प्रकारान्तरेण दर्शयति–'द्रव्येन्द्रियाणि कलम्बुकापुष्पाधाकृतीनि मूलकरणं, तेषामेव परिणामिना विषोंपधादिभिः पाटवाघापादनमुत्तरकरणमिति ॥ ६॥ साम्प्रतमजीवाश्रितं करणमभिधातुकाम आह १ उपकारसमर्थ भवति संस्करणादित्यर्थः चू । २ कण्णवेहमाईयमिति टीकाकदहार्दम् । १ कालेन संपातनादि चिन्ता विस्तरेण चूणी न.यू. बत् ४ शीर्षमुर उदरं पृष्ठिः द्वौ बात उरू चाप्य अशानि । eraaraaragra80809093093809O अनुक्रम OR SAREauratonintimational 'करण' शब्दस्य निक्षेपा: एवं भेदा: ~17~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्तिः [७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 52392929 संघाय य परिसारणा य मीसे तहेब पडिसेहो। पडसंखसगढधूणा उद्धृतिरिच्छादिकरणं च ॥ ७ ॥ संघातकरणम् --- आतानवितानीभूततन्तुसंघातेन पटस्य, परिसाटकरणं - करपत्रादिना शङ्खस्य निष्पादनं, संघातपरिसाटकरणं शकटादेः, तदुभयनिषेधकरणं-स्थूणादेरूर्ध्वतिरचीनायापादनमिति ॥ ७ ॥ प्रयोगकरणमभिधाय विस्रसीकरणा|भिधित्सयाऽऽह- खंधे दुप्परसादिए अन्भेसु विजुमाईसु । णिष्कण्णगाणि दव्वाणि जाण तं बीससाकरणं ॥ ८ ॥ विसाकरणं साधनादिभेदाद्विधा, तत्रानादिकं धर्माधर्माऽऽकाशानामन्योऽन्यानुवेधेनावस्थानम्, अन्योऽन्य समाधानाश्रयणाच सत्यप्यनादित्वे करणखाविरोधः, रूपिद्रव्याणां च द्वयणुकादिप्रक्रमेण भेदसंघाताभ्यां स्कन्धतापत्तिः सादिकं करणं, पुद्गलद्रव्याणां च दशविधः परिणामः, तद्यथा—बंधनगतिसंस्थान भेदवर्णगन्धरसस्पर्शअगुरुलघुशब्दरूप इति, तत्र बन्धः स्निग्धरुक्षस्वात, गतिपरिणामो—देशान्तरप्राप्तिलक्षणः, संस्थानपरिणामः परिमण्डलादिकः पञ्चधा, भेदपरिणामः खण्डप्रतरचूर्णकानुतटिकोत्करिकाभेदेन पञ्चधैव, खंडादिखरूपप्रतिपादकं चेदं गाथाद्वयम्, तद्यथा - ' खंडेहि खंडभेयं पयरभेयं जहम्मपडलस्स । | चुष्णं चुण्णियभेयं अणुतडियं बंसवकलियं ॥ १ ॥ दुर्दुमि समारोहे भेए उच्केरिया य उकेरं । वीससपओगमीसगसंघाय विओग मूर्णि १] विधिविपर्ययेऽन्यथाभावः विविधा गतिर्वा भू० २ अचिता काचिद्विद्युदिति लक्ष्यतेऽनेन ३ खण्डानां खण्डभेदः प्रतरभेदो यथा तभेदोऽनुठिका वंशवस्कलिका ॥ १ ॥ शुष्कतडागे समारोहे भेदे उत्करिका चोत्कीर्णः । विधसाप्रयोगमिधसंघात वियोगो विविध गमः ॥ २४देसीति काष्ठघटनो वुन्द इति वि०प०। 'करण' शब्दस्य निक्षेपा: एवं भेदा: For Parts Only ~18~ nary or Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्राक त्तियुतं सूत्रकृताङ्ग विविहगमो॥२॥ वर्णपरिणामः पञ्चानां श्वेतादीनां वर्णानां परिणतिस्तद्वयादिसंयोगपरिणतिव, एतत्स्वरूपं च गाथाभ्योऽवसेयं, १समयाशीलाक्षा-8 ताश्चेमाः-'जई कालगमेगगुणं सुकिलयंपिय हविज बहुयगुणं । परिणामिजद कालं सुकेण गुणाहियगुणेणं ॥१॥ जइ सुफिलमे- ध्ययने कचायीय- गगुणं कालगदव्वं तु बहुगुणं जइ य । परिणामिजद मुक्कं कालेण गुणाहियगुणेणं ।।२।। जइ सुकं एकगुणं कालगदपि एकगुण-रणनिक्षपः मेव । कालोयं परिणाम तुलगुणचेण संभवइ ॥३॥ एवं पंचवि वण्णा संजोएणं तु वण्णपरिणामो । एकत्तीस भंगा सब्वेविय ते मुणे-18 ॥४॥ यव्वा ॥४॥ एमेव य परिणामो गंधाण रसाण तय फासाणं । संठाणाण य भेणिो संजोगेणं बहुविगप्पो ॥५॥ एकत्रिंशद्भङ्गा एवं पूर्यन्ते-दश द्विकसंयोगा दश त्रिकसंयोगाः पञ्च चतुष्कसंयोगा एकः पञ्चकसंयोगः प्रत्येक वर्णाश्च पञ्चेति । अगुरुलघुपरिणामस्तु परमाणोरारभ्य यावदनन्तानन्तप्रदेशिकाः स्कन्धाः सूक्ष्माः, शब्दपरिणामस्ततविततधनशुपिरभेदाचतुर्दा, तथा ताल्चोष्टपुटव्यापाराघभिनिवर्यब, अन्येऽपि च पुद्गलपरिणामाश्छायादयो भवन्ति, ते चामी-'छाया य आयवो वा उजोओ तहय अंधकारो य । एसो उ घुग्गलाणं परिणामो फंदणा चेव ।।१।।सीयाणाइपगासा छाया णाइचिया बहुबिगप्पा । उण्हो पुणपगासो णायव्यो आयवो नाम ||२|| यदि कालकमेकगुगं शुकमपि च भवेत् बकाणम् । परिणम्यते कालकं धनेन गुणाधिकगुणेन ॥१॥ यदि धममेकगुण कालकद्रव्यं तु बाहुगुणं यदि च । ॥४॥ परिणम्यवे श कालकेन गुणाधिकगुणेन ॥३॥ यदि छामेकगुणं कालकद्रव्यमप्येकगुणमेव । कापोतः परिणामः तुल्यगुणत्वेन संभवति ॥३॥ एवं पश्चापि वर्षाः संयोगेन तु वर्णपरिणामः । एकत्रिंशद्वजाः सर्वेऽपि च ते मुणितम्याः ॥ ४॥ एवमेव च परिणामो गन्धयो रसानां तथैव स्पर्शानाम् । संस्थानानां च भणितः संयोगेन बहुविकल्पः ॥ ५॥२ या चातपो वोद्योतस्तथैवान्ध कारव च। एष एव पुगलानां परिणामः स्पन्दनं चैव ॥१॥ शीता चातिप्रकाशा छाया अनादित्यिका बहुविकल्पा । उष्णः पुनः प्रकाशी झातम्म आतपो नाम ॥२॥ अनुक्रम 'करण' शब्दस्य निक्षेपा: एवं भेदा: ~19~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: नवि सीओ नवि उण्हो समो पगासोय होइ उजओओ । कालं महलं तमंपि य वियाण ते अंधयारंति ॥३॥ दब्बस्स चलण पफंदणा उ सा पुण गई उ निद्दिहा । वीससपओगमीसा अत्तपरेणं तु उभओचि ॥४॥ तथाऽनेन्द्रधनुर्विद्युदादिषु कार्येषु ल यानि पुगलद्रव्याणि परिणतानि तद्विस्रसाकरणमिति ॥८॥ मतं द्रव्यकरणम् , इदानी क्षेत्रकरणानिधित्सयाऽऽह ण विणा आगासेणं कीरइ जं किंचि खेत्तमागासं । वंजणपरियावणं उच्छुकरणमादियं बहुहा ॥९॥ 'क्षि निवासगत्योः' असादधिकरणे ट्रना क्षेत्रमिति, तच्चावगाहदानलक्षणमाकाशं, तेन चावगाहदानयोग्येन विना न किञ्चिदपि कर्तुं शक्यत इत्यतः क्षेत्रे करणं क्षेत्रकरणं, नित्यखेपि चोपचारतः क्षेत्रस्यैव करणं क्षेत्रकरणं, यथा गृहादावपनीते कृत-1 | माकाशमुत्पादिते विनष्टमिति, यदिवा 'व्यञ्जनपर्यायापन' शब्दद्वाराऽध्यातम् 'क्षुकरणादिक मिति इक्षुक्षेत्रस करणम् लाङ्ग-1 |लादिना संस्कार क्षेत्रकरणं, तच्च बहुधा-शालिक्षेत्रादिभेदादिति ॥ ९॥ साम्प्रतं कालकरणाभिधिस्सयाऽऽह -- | कालो जो जावइओ जं कीरह जमि जंमि कालंमि। ओहेण णामओ पुण करणा एकारस हवंति ॥१०॥ कालस्यापि मुख्यं करणं न संभवतीत्यौपचारिक दर्शयति-'कालो यो यावानिति' यः कश्चिद् घटिकादिको नलिकादिना 1 व्यवच्छिद्य व्यवस्थाप्यते, तद्यथा-पष्टयुदकपलमाना घटिका द्विघटिको मुहर्नखिंशन्मुहूर्तमहोरात्रमित्यादि, तत्कालकरणमिति, १ नापि शीतो नाप्युष्णः समः सकाशो भवति बोयोतः। कालं मलिनं तमोऽपि च विजानीहि तदन्पकार इति॥३॥ द्रव्यस्य चलनं प्रश्पन्दना तु सा पुनर्गतिस्तु 18 निविष्ठा । विधसाप्रयोगमिधाचात्मपराभ्यां तूभयतोऽपि ॥ ४॥ २ साहहिं भरकमाणहि गामो सेतीको भू.। ectstreestseeeeeeeeeeestoer अनुक्रम 'करण' शब्दस्य निक्षेपा: एवं भेदा: । ~ 20~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्तिः [१०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का चार्ययन नियुतं ॥ ५॥ Jan Eratur यद्वा-यत् यस्मिन् काले क्रियते यत्र वा काले करणं व्याख्यायते तत्कालकरणम्, एतदोषतः, नामतस्त्वेकादश करणानि ॥ १०॥ तानि चामूनि - यं च बालवं चेव, कोलवं तेत्तिलं तेहा । गरादि वणियं चैव, विडी हवइ सत्तमा ॥ ११ ॥ सउणि चड | प्ययं नागं किंसुग्धं च करणं भवे एयं । एते चत्तारि धुवा अन्ने करणा चला सत्त ॥ १२ ॥ चाउद्दसि रत्तीए | सउणी पडिवज्जए सदा करणं । तत्तो अहकमं खलु चउप्पयं णाग किंसुधं ॥ १३ ॥ ऐतद्गाथात्रयं सुखोन्नेयमिति ॥ ११ ॥ १२ ॥ १३ ॥ इदानीं भावकरणप्रतिपादनायाह--- भावे पओगबीसस पओगसा मूल उत्तरे चैव । उत्तर कमसुयजोवण वण्णादी भोजणादीसु ॥ १४ ॥ भावकरणमपि द्विधा - प्रयोगवित्रसाभेदात् तत्र जीवाश्रितं प्रायोगिकं मूलकरणं पञ्चानां शरीराणां पर्याप्तिः, तानि हि पर्या| प्तिनामकर्मोदयादौदयिके भावे वर्तमानो जीवः खवीर्यजनितेन प्रयोगेण निष्पादयति । उत्तरकरणं तु गाथापथार्द्धनाह उत्तरकरणं क्रमश्रुतयौवन वर्णादिचतुरूपं, तत्र क्रमकरणं शरीरनिष्पत्युत्तरकालं बालयुवस्थचिरादिक्रमेणोत्तरोत्तरोऽवस्थाविशेषः, श्रुतकरणं तु | व्याकरणादिपरिज्ञानरूपोऽवस्थाविशेषोऽपर कलापरिज्ञानरूपचेति, यौवन करणं कालकृतो वयोऽवस्थाविशेषो रसायनाद्यापादितो वेति, १] श्रीविलयनं प्र० । २ पक्खतिहियो दुगुणिआ दुरुवहीणा व सुरूपभि सप्तहिए देवतिथं तं चैव ख्वाहियं रति ॥ १ ॥ इति गाधानुसारेण करणयोजना ४x२=८-२६+ (विष्ट) १+७ (वधिक)- १०२, २०६+१८० (व.वि.) । 'करण' शब्दस्य निक्षेपाः एवं भेदाः, तद् अंतर्गत् एकादशाः करणा: For Parts Only ~ 21~ १ समया ध्ययने क रणनिक्षेपः ॥५॥ ayor Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक -], मूलं [-], नियुक्ति: [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: तथा वर्णगन्धरसस्पर्शकरणं विशिष्टेषु भोजनादिषु सत्सु यद्विशिष्टवर्णाद्यापादनमिति, एतब पुद्गलचिपाकित्वाद्वर्णादीनामजीवा-18 | श्रितमपि द्रष्टव्यमिति ।। १४ । इदानीं विस्रसाकरणाभिधित्सयाऽऽह-- घण्णादिया य वण्णादिएम जे के वीससामेला । ते हंति थिरा अथिरा छायातवदुद्धमादीसु ।। १५॥ 'वर्णादिका' इति रूपरसगन्धस्पर्शाः ते यदाऽपरेष्वपरेषां वा स्वरूपादीनां मिलन्ति ते वर्णादिमेलका विस्रसाकरणं, ते च मेलकाः |स्थिरा-असंख्येयकालावस्थायिनः, अस्थिराव-क्षणावस्थायिनः, सन्ध्यारागानेन्द्रधनुरादयो भवन्ति, तथा छायाखेनातपखेन च। पुद्गलानां विस्रसापरिणामत एव परिणामो भावकरणं दुग्धादेश्च स्तनप्रच्यवनानन्तरं प्रतिक्षणं कठिणाम्लादिभावेन गमनमिति 8॥१५॥ साम्प्रतं श्रुतज्ञानमधिकृत्य मूलकरणानिधित्सयाऽऽहमूलकरणं पुण सुते तिविहे जोगे सुभासुभे झाणे ।.ससमयमुएण पगयं अज्झवसाणेण य सुहेणं ॥१६॥ श्रुते' पुनः श्रुतग्रन्थे मूलकरणमिदं 'त्रिविधे योगे' मनोवाकायलक्षणे व्यापारे शुभाशुभे च ध्याने वर्तमानग्रन्थरचना18 क्रियते, तत्र लोकोत्तरे शुभध्यानावस्थितैग्रन्थरचना विधीयते, लोके खशुभध्यानाश्रितैर्ग्रन्थग्रथनं क्रियत इति, लौकिकग्रन्थस कर्मबन्धहेतुखात् कर्तुरशुभध्यायिसमवसेयम् , इह तु सूत्रकृतस्य तावत्स्वसमैयतेन शुभाध्यबसायेन च प्रकृतं, यस्माद्गणधरैः शुभ ध्यानावखितैरिदमङ्गीकृतमिति ॥ १६ ॥ तेषां च ग्रन्थरचनां प्रति शुभध्यायिनां कर्मद्वारेण योऽवस्थाविशेषस्तं दर्शयितु-श IS कामो नियुक्तिकृदाह समयेन प्र.। २ समयत्वेनेति पाठे योगसमुपयाय अन्यथा ससमयसमुचयः, शुभध्यानसमुचयोऽप्युभयत्र । ३रिदमझीकृत इति प्रा । staelcciseseckcececkewecenes अनुक्रम Recenticeseeeeeeees e JMEauratani . 'करण' शब्दस्य भेदा:, श्रुतज्ञाने मूलकरणं ~22~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक -], मूलं -], नियुक्ति: [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्गं शीलाकाचार्यांयत्तियुत १ समयाध्ययने श्रुते मूलकरणं सूत्रांक ॥६ ॥ ठिइअणुभाचे पंधणनिकायणनिहत्तदीहहस्सेसु । संकमउदीरणाए उदए वेदे उषसमे य ॥१७॥ तत्र कर्मस्थिति प्रति अजघन्योत्कएकर्मस्थितिभिर्गणधरै मूत्रमिदं कृतमिति, तथाऽनुभावो-विपाकस्तदुपेक्षया मन्दानुभावः, तथा वन्धमङ्गीकृत्य शानावरणीयादिप्रकृतीर्मन्दानुभावा बनद्भिः तथानिकाचयद्भिरेवं निधत्तावस्थामकुर्वद्भिः तथा दीर्घस्थि- |तिकाः कर्मप्रकृतीईसीयसीर्जनयद्भिः, तथोत्तरप्रकृतीर्वध्यमानासु संक्रामयन्निः, तथोदयवतां कर्मणामुदीरणां विदधानैरप्रमत्त| गुणस्यैस्तु सातासाताऽऽयूंष्यनुदीरयद्भिः, तथा मनुष्यगतिपश्चेन्द्रियजात्यौदारिकशरीरतदङ्गोपाङ्गादिकर्मणामुदये वर्तमानैः, तथा वेदमङ्गीकृत्य पुंवेदे सति,तथा 'उवसमे'त्ति सूचनात्सूत्रमिति थायोपशमिके भावे वर्तमानैर्गणधारिभिरिदं सूचकृतार धमिति | ॥ १७ ॥ साम्प्रतं खमनीषिकापरिहारद्वारेण करणप्रकारमभिधातुकाम आह .... सोऊण जिणवरमतं गणहारी काउ तकखओवसमं । अजझवसाणेण कर्य सूत्तमिणं तेण सूयगई ॥१८॥ 'श्रुखा' निशम्य जिनवराणां-तीर्थकराणां मतम्-अभिप्राय मातृकादिपदं 'गणधरैः' गौतमादिभिः कृला 'तत्र' ग्रन्थरचने क्षयोपशम, तत्प्रतिबन्धककर्मक्षयोपशमाद्दतावधानैरितिभावः, शुभाध्यवसायेन च सता कृतमिदं मूत्र तेन सूत्रकृतमिति ॥१८॥ हदानी कसिन योगे वर्तमानस्तीर्थनिर्भाषितं ? कुत्र वा गणधरैर्टन्धमित्येतदाह| वाइजोगेण पभासियमणेगजोगंधराण साहणं । तो वयजोगेण कयं जीवस्स सभावियगुणेण ॥१९॥ तत्र तीर्थकद्भिः क्षायिकज्ञानवर्तिभिर्वाग्योगेनार्थः प्रकर्षेण भाषितः प्रभापितो गणधराणां, ते च न प्राकृतपुरुषकल्पाः १ मातृकापदादिकं प्रा। Seeroeserpelaesesecaceed अनुक्रम कर्मस्थिति आदि, 'करण' शब्दस्य भेदा:, ~23~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक -], मूलं -], नियुक्ति: [१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: Baesesese |कि खनेकयोगधराः, तत्र योग:-क्षीराश्रवादिलब्धिकलापसंबन्धस्तं धारयन्तीत्यनेकयोगधरास्तेषा, प्रभाषितमिति सूत्रकताङ्गा-1| 1 पेक्षया नपुंसकता, साधवश्वात्र गणधरा एव गृपन्ते, तदुद्देशेनैव भगवतामर्थप्रभाषणादिति, ततोऽर्थ निशम्य गणधरैरपि वाग्यो-11 गेनैव कृतं, तब जीवस्य 'खाभाविकेन गुणेनेति' स्वसिन् भावे भवः स्वाभाविक प्राकृत इत्यथैः, प्राकृतभापयेत्युक्तं भवति, न| पुनः संस्कृतया ललिशप्रकृतिप्रत्ययादिविकारविकल्पनानिष्पनयेति ॥ १९ ॥ पुनरन्यथा मूत्रकृतनिरुक्तमाह अक्खरगुणमतिसंघायणाएँ कम्मपरिसाढणाए य । तदुभयजोगेण कयं सुत्तमिणं तेण सूत्तगडं ॥ २०॥ ॥R अक्षराणि-अकारादीनि तेषां गुण:-अनन्तगमपर्यायवचमुच्चारण वा, अन्यथार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वात् , मते:-मति-18 ज्ञानस्य संघटना मतिसंघटना, अक्षरगुणेन मतिसंघटना अक्षरगुणमतिसंघटना, भावश्रुतस्य द्रव्यश्रुतेन प्रकाशनमित्यर्थः, अक्ष-18 रगुणस्य वा मत्या-बुद्ध्या संघटना रचनेतियावत् तयाऽक्षरगुणमतिसंघटनया, तथा कर्मणां-ज्ञानावरणादीनां परिशाटना-जी-18 वप्रदेशेभ्यः पृथकरणरूपा तया च हेतुभूतया, सूत्रकृताङ्गं कृतमिति संबन्धः, तथाहि-यथा यथा गणधराः सूत्रकरणायोधर्म कुर्वन्ति | तथा तथा कर्मपरिशाटना भवति, यथा यथा च कर्मपरिशाटना तथा तथा ग्रन्धरचनायोयमः संपद्यत इति, एतदेव गाथापचा|र्धेन दर्शयति-'तदुभययोगेनेति' अक्षरगुणमतिसंघटनायोगेन कर्मपरिशाटनायोगेन च, यदिवा वाग्योगेन मनोयोगेन च कृतमिदं । सूत्रं तेन सूत्रकृतमिति ॥ २०॥ इहानन्तरं सूत्रकृतस्य निरुक्तमुक्तम्, अधुना सूत्रपदस्य निरुक्ताभिधित्सयाऽऽह सुत्तेण सुत्तिया चिय अत्धा तह सइयां य जुत्तो या तो बहुविहप्पैउत्ता एय पसिद्धा अणादीया ॥२१॥ १ प्रोताः २ युज्यमानाः ३ चढविहेण जाइयण पंचावयव विशेषेण वा चू० अनुक्रम KAneseneeRece सूत्रकृ.२ अन्यरूपेण 'सूत्रकृत' शब्दस्य नियुक्ति: ~24~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक -], मूलं -], नियुक्ति: [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक त्तियुतं ॥७॥ सूत्रकृताङ्गा अर्थस्य सूचनात्सूर्य तेन सूत्रेण केचिदर्थाः साक्षात्सूत्रिता-मुख्यतयोपात्ताः, तथाऽपरे सूचिता-अर्थापत्याक्षिताः साक्षानुपा-12 शीलाङ्का-181दानेऽपि दध्यानयनचोदनया तदाधारानयनचोदनावदिति, एवं च कृता चतुर्दशपूर्वविदः परस्परं पदस्थानपतिता मन्ति. चार्यांय ध्ययने सूतथा चोक्तम्-'अक्खरलभेण समा ऊणहिया हुंति मतिबिसेसेहिं । तेऽविय मईविसेसा सुयणाणऽम्मतरे जाण ॥१॥" तत्र ये। साक्षादपासास्तान् प्रति सर्वेऽपि तुल्याः, ये पुनः सूचितास्तदपेक्षया कश्चिदनम्तभागाधिकमर्थ वेश्यपरोऽसंख्येयभागाधिकमम्पः। संख्येयभागाधिक तथाऽन्यः संख्येयासंख्येयानन्तगुणमिति, ते च सर्वेऽपि 'युक्ता' युक्त्युपपनाः सूत्रोपासा एव वेदितव्याः, तथा चाभिहितम्-"तेऽविय मई विसेसे" इत्यादि, ननु किं सूत्रोपात्तेभ्योऽन्येऽपि केचनार्थाः सन्ति ! येन तदपेक्षया चतुर्दशपू-18 विदा पदस्थानपतितसमुपुष्यते, पाद विद्यन्ते, यतोऽभिहितम्-"पण्णवेणिजा भावा अणंतभागो उ अणमिलप्पाणं । पण्णवणिआणं पुण अर्णतभागो सुयनिबद्धो ॥१॥" यतश्चैवं ततस्ते अर्थो आगमे बहुविध प्रयुक्ता:-मरुपाताः केचन साक्षात्केचिद पच्या समुपलभ्यन्ते, यदिवा कचिद्देशग्रहणं कचित्सर्वार्थोपादानमित्यादि, यैश्च पदैस्ते अर्थाः प्रतिपाद्यन्ते तानि पदानि प्रक-18 शण सिद्धानि प्रसिद्धानि न साधनीयानि, तथाऽनादीनि च तानि नेदानीमुत्पाद्यानि, तथा चेयं द्वादशाङ्गी शब्दार्थरचनाद्वारेण विदेहेषु नित्या भरतैरावतेष्वपि शब्दरचनाद्वारेणैव प्रति तीर्थकरं क्रियते अन्यथा तु नित्यैव । एतेन च 'उच्चरितप्रध्वंसिनो वर्णो इत्येतनिराकृतं घेदितव्यमिति ॥ २१ ॥ साम्प्रतं सूत्रकृतस्य श्रुतस्कन्धाध्ययनादिनिरूपणार्थमाह ॥ ७॥ अक्षरलाभेन समा ऊनाधिका भवन्ति मतिविशेषैः । तानपि च मतिविशेषान् श्रुतझानाभ्यन्तरे जानीहि ॥१॥ २ प्रज्ञापनीया भावा अनन्तभाग एवानशामिलाप्यानाम् । प्रज्ञापनीयानां पुनरनन्तंभागः श्रुतनिबद्धः ॥१॥ अनुक्रम Deseceae 'सूत्र'शब्दस्य नियुक्ति: ~25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्तिः [२२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः दो चैव सुखंधा अज्झयणाई च हुंति तेवीसं । तेत्तिसुदेसणकाला आयाराओ द्वगुणमंगं ॥ २२ ॥ द्वावत्र श्रुतस्कन्धौ त्रयोविंशतिरध्ययनानि, त्रयस्त्रिंशदुद्देशनकालाः, ते चैवं भवन्ति - प्रथमाध्ययने चलारो द्वितीये त्रयस्तृतीये चत्वारः एवं चतुर्थपञ्चमयोद्व द्वौ तथैकादशस्खे कसरकेष्वेकादशैवेति प्रथमश्रुतस्कन्धे, तथा द्वितीयश्रुतस्कन्धे सप्ताध्ययनानि तेषां सप्तैवोदेशन कालाः, एवमेते सर्वेऽपि त्रयस्त्रिंशदिति, एतच्चाचाराङ्गाद्विगुणमङ्ग, पत्रिंशत्पदसहस्रपरिमाणमित्यर्थः ॥ २२ ॥ साम्प्रतं सूत्रकृताङ्गनिक्षेपानन्तरं प्रथमश्रुतस्कन्धस्य नामनिष्पन्ननिक्षेपाभिधित्सयाऽऽह निक्खेवो गाहाए चडव्विहो छव्विहो व सोलससु । निक्खेवो य सुयंमि य खंधे य चउब्विहो होइ ||२३|| इहाद्यश्रुतस्कन्धस्य गाथाषोडशक इति नाम, गाथाख्यं षोडशमध्ययनं यस्मिन् श्रुतस्कन्धे स तथेति, तत्र गाथाया नामस्थापनाद्रव्यभावरूपश्चतुर्विधो निक्षेपः, नामस्थापने प्रसिद्धे, द्रव्यगाथा द्विधा- आगमतो नोआगमतच, तत्र आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः 'अनुपयोगो द्रव्य मितिकुला, नोआगमतस्तु त्रिधा शशरीरद्रव्यगाथा भव्यशरीरद्रव्यगाथा ताभ्यां विनिर्मुक्ता च" सतहतरू बिसमे ण से हया ताण छड गह जलया। गाहाए पच्छद्धे भेओ छोति इककली ॥ १ ॥" इत्यादिलक्षणलक्षिता पत्रपुस्तका दिन्यस्तेति, भावगाथापि द्विविधा- आगमनोआगमभेदात्, तत्राऽऽगमतो गाथापदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः, नोआगमतस्त्विदमेव गाथारूयमध्ययनम् आगमैकदेशखादस्य । पोडशकस्यापि नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् षोढा निक्षेपः, तत्र नाम१ सप्त तरवः (चतुर्मात्रा गणाः) अष्टम ( गुरुः) विषमे न ( जगणः, तस्यापातकास्तासां षष्ठे नहीं ( चतुर्लघवः) जो वा गाधायाः पश्चार्थे मेदः षष्ठ एकल इति ॥ १॥ Education International श्रुतस्कन्ध एवं अध्ययनस्य निरुपणं For Park Use Only ~26~ rryp Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक -], मूलं -], नियुक्ति: [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृताङ्गं स्थापने क्षुण्णे, द्रव्यषोडशकं ज्ञशरीरभव्यशरीरविनिर्मुक्तं सचित्तादीनि षोडश द्रव्याणि, क्षेत्रषोडशकं षोडशाकाशप्रदेशाः, काल-8|१समया स्थापन कुणायपाडशकश शीलाङ्का षोडशकं पोडशं समयाः एतत्कालावस्थाथि वा द्रष्यमिति , भावपोडशकमिदमेवाध्ययनषोडशकं, क्षायोपशमिकभाववृत्तिला- ध्ययने अ | दिति । श्रुतस्कन्धयोः प्रत्येक चतुर्विधो निक्षेपः, स चान्यत्र न्यक्षेण प्रतिपादित इति नेह प्रतन्यते ॥ २३ ॥ साम्प्रतमध्ययनानां ध्ययनार्थात्तियुतं प्रत्येकमाधिकार दिदर्शयिषयाऽऽह धिकाराः ससमयपरसमयपरूवणा य णाऊण बुज्झणां चेव । संबुद्धस्सुवसग्गां थीदोसविवजणों चेव ॥२४॥ ॥८॥ उवसग्गभीरुणो धीवसस्स णरएसु होज उववाओ। एव महप्पा वीरो जयमाह तहा जएजाई ॥२५॥ परिचत्तनिसीलकुसीलसुसीलसविग्गसीलवं चेव । णाऊण वीरियदुर्ग पंडियवीरिए पयट्टेड (पयहिजो) ॥२६॥ धम्मो समाहि मैग्गो समोसदा उसु सववादीसु । सीसगुणदोसकहणा "गंधमि सदा गुरु निवासो ॥२७॥ आदाणिय संकलिया आदाणीयंमि आदयचरितं । अप्पग्गंधे पिंडियवयणेणं होई SP अहिगारो ॥२८॥ का तत्र प्रथमाध्ययने खसमयपरसमयप्ररूपणा, द्वितीये स्वसमयगुणान् परसमयदोषांश शाखा खसमय एव बोधो विधेय इति, | तृतीयाध्ययने तु संबुद्धः सन् यथोपसर्गसहिष्णुर्भवति तदभिधीयते, चतुर्थे स्त्रीदोषविवर्जना, पञ्चमे खयमाधिकारः, तूयथा| उपसर्गासहिष्णोः स्त्रीवंशवर्तिनोऽवश्यं नरकेपूपपात इति, षष्ठे पुनः 'एवमिति अनुकूलप्रतिकूलोपसर्गसहनेन खीदोषवजेनेन च ॥८॥ | भगवान् महावीरो जेतन्यस्य कर्मणः संसारख वा पराभवेन जयमाह ततस्तथैव यतं विधत्त यूयमिति शिष्याणामुपदेशो दीयते। १खीवशयस प्रक अनुक्रम 10i अध्ययनस्य अर्थाधिकार: ~27~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक -], मूलं -], नियुक्ति: [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: seeeees 18 सप्तमे खिदमभिहितं, तद्यथा-निःशीला-गृहस्थाः कुशीलास्तु-अन्यतीर्थिकाः पार्थस्थादयो वा ते परित्यक्ता येन साधुना स परित्यक्तनिःशीलकुशील इति, तथा सुशीला-उद्युक्तविहारिणः संविना:-संवेगमनास्तत्सेवाशीलः शीलवान् भवतीति, अष्टमे खेतत्प्रतिपाद्यते, तयथा-शाखा वीर्यद्वयं पण्डितवीर्ये प्रयत्नों विधीयत इति, नवमे अर्थाधिकारस्त्वयं, तथथा यथाऽवस्थितो धर्मः18 कथ्यते, दशमे तु समाधिः प्रतिपाद्यते, एकादशे तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मको मोक्षमार्गः कथ्यते, द्वादशे खयमाधिकारः,19 तद्यथा-'समवस्ता' अवतीर्णा व्यवस्थिताश्चतुर्यु मतेषु क्रियाक्रियाज्ञानवैनयिकाख्येष्वभिप्रायेषु त्रिपश्युत्तरशतत्रयसंख्याः | पापण्डिनः स्वीयं खीयमर्थ प्रसाधयन्तः समुत्थितास्तदुपन्यस्तसाधनदोषोद्भावनतो निराक्रियन्ते, त्रयोदशे खिदमभिहितं, तद्यथा-18 सर्ववादिषु कपिलकणादाक्षपादशौद्धोदनिजैमिनिप्रभृतिमतानुसारिषु कुमार्गप्रणेतृतं साध्यते, चतुर्दशे तु ग्रन्थाख्येऽध्ययनेऽयमर्था[धिकारः, तद्यथा-शिष्याणां गुणदोपकथना, तथा शिष्यगुणसम्पदुपेतेन च विनेयेन नित्यं गुरुकुलवासो विधेय इति, पञ्चदशे | त्वादानीयाख्येऽध्ययनेऽर्थाधिकारोऽयं, तद्यथा-आदीयन्ते-गृह्यन्ते उपादीयन्ते इत्यादानीयानि-पदान्यर्था वा ते च प्रागुपन्यस्तपदैरथैव प्रायशोत्र संकलिताः, तथा आयतं चरित्रं-सम्यक्चरित्रं मोक्षमार्गप्रसाधकं तच्चात्र व्यावर्ण्यत इति, पोडशे तु गाथा ख्येऽल्पग्रन्थेऽध्ययनेऽयमों व्यावयेते, तद्यथा-पञ्चदशभिरध्ययनर्योज्योऽभिहितः सोत्र 'पिण्डितवचनेन' संक्षिप्ताभिधानेन ६ प्रतिपाद्यत इति ॥ २८ ॥ 'गाहासोलसगाणं पिंडत्थो वण्णिओ समासेणं । इत्तो इकिकं पुण अज्झयणं कित्तयिस्सामि॥१॥ १ गुणानुरूपगु०प्र०९ गावापोजशकानां पिण्डाओं वर्णितः ( समुदायाः) समारीन । इत एकैकं पुनरध्ययन कीरोयिष्यामि ॥ १॥ ३ चूर्णिगाथा अनुक्रम Santaratino d अध्ययनस्य अर्थाधिकार: ~28~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं -, नियुक्ति: [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: MI प्रत सूत्राक सूत्रकृताङ्गं तत्राद्यमध्ययन समयाख्यं, तस्य चोपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमणमुपक्रम्यते वाऽनेन शास्त्र न्यासदेश- १ समयाशीलाका- निक्षेपावसरमानीयत इत्युपक्रमः,स च लौकिको नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदेन षडूप आवश्यकादिष्वेव अपश्चितः,शास्त्रीयो ध्ययने अचाययानुपूर्वीनामप्रमाणवक्तव्यतार्थाधिकारसमवताररूपः पोटैव,तत्रानुपूादीन्यनुयोगदारानुसारेण धेयानि तावद्यावत्समवतार नुयोगद्वात्तियुतं राणि तत्रैतदध्ययनमानुपूर्व्यादिषु यत्र यत्र समवतरति तत्र तत्र समवतारयितव्यं, तत्र दशविधायामानुपूर्ध्या गणनानुपूयां समवतरति, IS ॥९॥ सापि त्रिधा-पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी चेति, तत्रेदमध्ययनं पूर्वानुपू प्रथमं पश्चानुपूर्ध्या पोडशम् अनानुपूर्या तु॥ चिन्त्यमानमस्खामेवैकादिकायामेकोतरिकायां षोडशगच्छगताय श्रेण्यामन्योऽन्याभ्यासद्विरूपोनसंख्याभेदं भवति । अनानुपूा 31 |तु भेदसंख्यापरिज्ञानोपायोऽयं, तद्यथा-'एकाद्या गच्छपर्यन्ताः, परस्परसमाहताः । राशयस्तद्धि विज्ञेयं, विकल्पगणिते फलम् 18|॥१॥ प्रस्तारानयनोपायस्वयम्-"पुराणपुति हेहा समयाभेएण कुण जहाजेहं । उवरिमतुल्लं पुरओ नसेज पुवकमो सेसे || |तत्र-'गणितेज्त्यविभक्ते तु, लब्धं शेपैविभाजयेत् । आदावन्ते च तत् स्थाप्य, विकल्पगणिते क्रमात् ॥१॥' अयं श्लोकः शिष्य-18 |हितार्थे विवियते-तत्र सुखावगमार्थ पद पदानि समाश्रित्य तावत् श्लोकार्थों योज्यते, तत्रैवं१२३४५६ षट् पदानि स्थाप्यानि, एतेषां 8 परस्परताडनेन सप्त शतानि विंशत्युत्तराणि गणितमुच्यते, तमिन् गणितेऽन्त्योच षटकः तेन भागेहते विंशत्युत्तरं शतं लभ्यते, तचं ॥९॥ पण्णां पङ्कीनामन्त्यपको पटुकानां न्यसते, तदधः पञ्चकानां विंशत्युत्तरमेव शतम् , एवमधोधश्चतुष्कत्रिकद्विकैककानां प्रत्येक |विंशत्युत्तरशतं न्यस्यम्, एवमन्त्यपक्की सप्त शतानि विंशत्युत्तराणि भवन्ति, एपा च गणितप्रक्रियाया आदिरुच्यते, तथा यताति-11 ॥ शत्युत्तरं शतं लब्धं, तख च पुनः शेषेण पञ्चकेन भागेऽपहते लब्धा चतुर्विशतिः, तावन्तस्तावन्तथ पञ्चकचतुष्कत्रिकहिकेकका अनुक्रम Turasaram.org अध्ययनस्य अर्थाधिकारः, प्रथम अध्ययन-'समय'स्य आरम्भ: ~29~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं -, नियुक्ति: [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: weree80saew७० प्रत्येक पश्चमपलौं न्यस्याः यावद्विशत्युत्तरं शतमिति, सदधोऽग्रतो न्यस्तमई मुक्खा येऽन्ये तेषां यो यो महत्संख्यः स सोऽधस्ताच्चतु|विंशतिसंख्य एव तावत् न्यखो यावत्सप्त शतानि विंशत्युत्तराणि पश्चमपकावपि पूर्णानि भवन्ति, एषा च गणितप्रक्रिययैवान्त्यो-18 ऽभिधीयते, एवमनया प्रक्रियया चतुर्विशतेः शेषचतुष्ककेन भागे हृते षट् लभ्यन्ते, तावन्तश्चतुर्थपतौ चतुष्ककाः स्थाप्याः, तदधः षट् त्रिकाः, पुनर्दिका भूय एककाः, पुनः पूर्वन्यायेन पतिः पूरणीया, पुनः षट्कस्य शेषत्रिकेण भागे हते दो लभ्येते, तावन्मात्री त्रिको तृतीयपको, शेषं पूर्ववत्, शेषपविद्धये शेषमङ्कद्वयं क्रमोत्क्रमाभ्यां व्यवस्थाप्यमिति १२३४, २१३४,१३२४, ३१२४ २३१४, ३२१४, १२४३, २१४३, १४२३, ४१२३, २४१३, ४२१३, १३४२, ३१४२, १४३२, ४१३२, ३४१२, ४३१२, | २३४१,३२४१, २४३१, ४२३१, ३४२१,४३२१ तथा नाम्नि षड्विधनाम्यवतरति, यतस्तत्र पडू भावाः प्ररूप्यन्ते, श्रुतस्य च क्षायोपशमिकभाववर्तिखात् । प्रमाणमधुना-प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणं, तत् द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाच्चतुर्दा, तत्रास्थाध्ययनस्य क्षायोपश-18 | मिकभावव्यवस्थितलाद्भावप्रमाणेऽवतारः, भावप्रमाणं च गुणनयसंख्याभेदात्रिधा, तत्रापि गुणप्रमाणे समवतारः, तदपि जीवाजीवमेदाद् द्विधा, समयाध्ययनस्य च क्षायोपशमिकभावरूपत्वात् तस्य च जीवानन्यखाजीवगुणप्रमाणे समवतारः, जीवगुणप्रमाणमपि ज्ञानदर्शनचारित्रभेदात्रिविधं, तत्रास बोधरूपलात् ज्ञानगुणप्रमाणे समवतारः, तदपि प्रत्यक्षानुमानोषमानागमभेदाच्चतुद्धो, तत्रास्थागमप्रमाणे समवतारः, सोऽपि लौकिकलोकोत्तरभेदाद् द्विधा, तदस लोकोत्तरे समवतारः, तस्य च सूत्राथेतदुभयरूपत्वात्रैविध्यं, 18| (अस त्रिपरूत्वात् ) त्रिष्यपि समवतारः, यदिवा-आत्मानन्तरपरम्परभेदादागमखिविधः, तत्र तीर्थकृतामर्थापेक्षयाऽऽस्मागमो गणधराणामनन्तरागमस्तच्छिष्याणां परम्परागमः, सूत्रापेक्षया तु गणधराणामात्मागमस्तच्छिष्याणामनन्तरागमतदन्येषां परम्परागमः, अनुक्रम अध्ययनस्य अर्थाधिकारः, प्रथम अध्ययनस्य आरम्भ: ~30~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः: + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [ - ], मूलं [-], निर्युक्तिः [२८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचार्यीयनियुतं ॥ १० ॥ गुणप्रमाणानन्तरं नयप्रमाणावसरः, तस्य चेदानीं पृथक्त्वानुयोगे नास्ति समवतारो, भवेद्वा पुरुषापेक्षया, तथा चोक्तम् “मूंढनइयं सुयं कालियं तु ण णया समोरयति इहं । अहुने समोयारो णत्थि पुहुत्ते समोयारो ||१||" तथा "आसज उ सोयारं नए नयविसारउ बूया,” संख्याप्रमाणं वष्टधा - नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालपरिमाणपर्यवभावभेदात्, तत्रापि परिमाणसंख्यायां समवतारः, सापि कालिकदृष्टिवादभेदात् द्विधा, तत्रास्य कालिकपरिमाणसंख्यायां समवतारः, तत्राप्यङ्गानङ्गयोरङ्गप्रविष्टे समवतारः, पर्यवसंख्यायां त्वनन्ताः पर्यवाः, तथा संख्येयान्यक्षराणि संख्येयाः संघाताः संख्येयानि पदानि संख्येयाः पादाः संख्येयाः श्लोकाः संख्येया गाथाः संख्येया वेढा : संख्येयान्यनुयोगद्वाराणि । साम्प्रतं वक्तव्यतायाः समवतारचिन्त्यते सा च खपरसमयतदुभयभेदात्रिधा, तत्रेदमध्ययनं त्रिविधायामपि समवतरति । अर्थाधिकारो द्वेधा-अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्थाधिकारथ, तत्राध्य४यनार्थाधिकारोऽभिहितः, उद्देशार्थाधिकारं तु गाथान्तरितं निर्मुक्तिकृद्रक्ष्यति । साम्प्रतं निक्षेपावसरः, स च त्रिधा ओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नश्च तत्रधनिष्पन्नेऽध्ययनं तस्य च निक्षेप आवश्यकादी प्रबन्धेनाभिहित एव, नामनिष्पने समय इति नाम, तनिक्षेपार्थ निर्युक्तिकार आह- नाम ठवणां दविएँ खेते काले" कुर्तित्थसंगारे " । कुलंगणसंकरगंडी" बोद्धव्वो भावसमए य ॥ २९ ॥ नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकाल कुतीर्थसंगारकुलगणसंकरगण्डी भावभेदात् द्वादशधा समयनिक्षेपः, तत्र नामस्थापने क्षुष्णे, द्रव्यस १ वस्तुनः पर्यायाणां संभवतां निगमनं २ मूनयिकं (नयशून्यं) श्रुतं कालिकं तु न नयाः समवतरन्तीह अपृथक्त्वे समवतारो नास्ति पृथक्त्वे समवतारः ॥ १ ॥ ३ आसाद्य तु श्रोतारं नयान् नयविशारदो ब्रूयात् ॥ catan Internation अध्ययनस्य अर्थाधिकार:, 'समय' शब्दस्य निक्षेपा: For Pernal Use On ~31~ १ समया ध्ययने अनुयोगद्वाराणि ॥ १० ॥ war Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं -], नियुक्ति : [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: Mमयो द्रव्यस्य सम्यगयन-परिणतिविशेषः स्वभाव इत्यर्थः, तद्यथा-जीवद्रव्यस्योपयोगः पुद्गलद्रव्यस्य मूर्तखं धर्माधर्माकाशाना || गतिस्थित्यवगाहदानलक्षणः, अथवा यो यस्य द्रव्यस्थावसरो-द्रव्यस्योपयोगकाल इति, तद्यथा-'वर्षासु लवणममृतं शरदि जल गोषयश्च हेमन्ते । शिशिरे चामलकरसो घृतं वसन्ते गुडश्चान्ते ॥१॥ क्षेत्रसमय:-क्षेत्रम्-आकाशं तस्य समय:-स्वभावः, यथा 'ऐगेणवि से पुण्णे दोहिवि पुण्णे सयंपि माएजा । लक्खसएणवि पुण्णे कोडिसहस्सपि माएजा ॥१॥' यदिवा देवकुरुप्रभृतीना क्षेत्राणामीदशोऽनुभावो यदुत तत्र प्राणिनः सुरूपा नित्यसुखिनो निर्वैराश्च भवन्तीति, क्षेत्रस्य वा परिकर्मणावसरः क्षेत्रसमय | इति, कालसमयस्तु सुषमादेरनुभावविशेषः, उत्पलपत्रशतभेदाभिव्यङ्ग्यो वा कालविशेषः कालसमय इति, अत्र च द्रव्यक्षेत्रकाAA लप्राधान्यविषक्षया द्रव्यक्षेत्रकालसमयता द्रष्टव्येति, कुतीर्थसमयः पाखण्डिकानामात्मीयात्मीय आगमविशेषः तदुक्तं वाऽनुष्ठा नमिति, संगार:-संकेतस्तद्रूपः समयः संगारसमयः, यथा सिद्धार्थसारथिदेवेन पूर्वकृतसंगारानुसारेण गृहीतहरिशवो चलदेवः प्रतिबोधित इति, कुलसमय:-कुलाचारो यथा शकानां पितृशुद्धिः आभीरकाणां मन्थनिकाशुद्धिः, गणसमयो यथा मल्लानामयमाचारो-यथा यो घनाथो मल्लो नियते स तैः संस्क्रियते, पतितश्चोद्रियत इति, संकरसमयस्तु संकरो-भिन्नजातीयानां मीलकस्तत्र च समयः-एकवाक्यता, यथा वाममार्गादावनाचारप्रवृत्तावपि गुप्तिकरणमिति, गण्डीसमयो-यथा शाक्यानां भोज कालो भमरो मुगधं चंदणादि तित्तो निंबो कक्सटी पाहाणो चू० । २ एकेनापि स पूर्णी द्वाभ्यामपि पूर्णः शतमपि मायात् । लक्षशतेनापि पूर्णः कोटीसहरमापि मायात् ॥१॥ eserseneleaeedecededesese अनुक्रम SAREmiratinidanana समय' शब्दस्य निक्षेपा: ~32~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः: + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [ - ], मूलं [-], निर्युक्तिः [३०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र - [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृता शीलाङ्का चाय तियुर्त ॥ ११ ॥ Jan Educator उद्देश - अर्थाधिकार: नावसरे गण्डीताडनमिति भावसमयस्तु नोआगमत इदमेवाध्ययनम् अनेनैवात्राधिकारः, शेषाणां तु शिष्यमतिविकासार्थमुपन्यास इति ॥ २९ ॥ साम्प्रतं प्रागुपन्यस्तोद्देशार्थाधिकाराभिधित्सयाऽऽह महपंचभूय एकप्पए य तज्जीवतस्सरीरे य । तहय अगारगवाती अत्तच्छट्टो अफलवादी ॥ ३० ॥ वीए निर्यवाओ अण्णानिय तहय नाणवाईओ । कम्मं चयं न गच्छर चउच्विहं भिक्खुसमर्थमि ॥ ३१ ॥ तइए आहाकम्मं कडवाई जह य ते य बाईओ । किब्रुवमा य चउत्थे परप्पवाई अविरएसु ॥ ३२ ॥ अस्याध्ययनस्य चत्वार उद्देशकाः, तत्राद्यस्य षडर्थाधिकारा आद्यगाथयाऽभिहिताः, तद्यथा पञ्च भूतानि - पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशाख्यानि महान्ति च तानि सर्वलोकव्यापित्वात् भूतानि च महाभूतानि इत्ययमेकोऽर्थाधिकारः । तथा चेतनाचेतनं सर्वमेवात्मविवर्त इत्यात्माऽद्वैतवादः प्रतिपाद्यत इत्यर्थाधिकारो द्वितीयः । स चासौ जीवश्च तज्जीवः कायाकारो भूतपरिणामः, तदेव च शरीरं जीवशरीरयोरैक्य मितियावदिति तृतीयोऽर्थाधिकारः । तथाऽकारको जीवः सर्वस्याः पुण्यपापक्रियाया इत्येवंवादीति | चतुर्थोऽधिकारः । तथाऽऽत्मा यष्ठ इति पञ्चानां भूतानामात्मा पष्ठः प्रतिपाद्यत इत्ययं पञ्चमोऽर्थाधिकारः । तथाऽफलवादीतिन विद्यते कस्याचित् क्रियायाः फलमित्येवंवादी च प्रतिपाद्यत इति षष्ठोऽर्थाधिकार इति । द्वितीयोदेशके चलारोऽर्थाधिकाराः, | तद्यथा-नियतिवादस्तथाऽज्ञानिकमतं ज्ञानवादी च प्रतिपाद्यते, कर्म चयम्-उपचयं चतुर्विधमपि न गच्छति 'भिक्षुसमये ' शाक्यागमे इति चतुर्थोऽर्थाधिकारः । चातुर्विध्यं तु कर्मणोऽविज्ञोपचितम् - अविज्ञानमविज्ञातयोपचितम्, अनाभोगकृतमित्यर्थः, यथा मातुः स्तनाद्याक्रमणेन पुत्रव्यापत्तावप्यनाभोगान कर्मोपचीयते, तथा परिज्ञानं परिज्ञा केवलेन मनसा पर्यालोचनं, तेनापि For Pale Only ~ 33~ १ समया ध्ययने उदेशार्थाधिकाराः ॥ ११ ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं -], नियुक्ति : [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: coerceercene | कस्यचित्प्राणिनी व्यापादनाभावात् कर्मोपचयाभाव इति, तथा ईरणमीर्या-गमनं तेन जनितमीर्याप्रत्ययं तदपि कर्मोपचयं न गच्छति, प्राणिन्यापादनाभिसन्धेरभावादिति, तथा खप्नान्तिक-खमप्रत्ययं कर्म नोपचीयते, यथा स्वप्नभोजने तृप्त्यभाव इति । | तृतीयोदेशके खयमर्थाधिकारः, तद्यथा-आधाकर्मगतविचारस्तद्भोजिनां च दोषोपदर्शन मिति, तथा कृतवादी च मण्यते, तद्य था-ईश्वरेण कृतोऽयं लोका, प्रधानादिकृतो वा, यथा च ते प्रवादिन आत्मीयमात्मीयं कृतवादं गृहीलोत्थितास्तथा भण्यन्त इति 8 | द्वितीयोऽधिकारः, चतुर्थोद्देशकाधिकारस्त्वयं, तद्यथा-अविरतेपु-गृहस्थेषु यानि कृत्यानि-अनुष्ठानानि स्थितानि तैरसंयमप्रधानैः कर्तव्यैः 'परप्रवादी' परतीर्थिक उपमीयत इति । इदानीमनुगमः, स च द्वेधा-सूत्रानुगमो नियुक्त्यनुगमञ्च, तत्र नियुक्त्यनुगमत्रिविधः, तद्यथा-निक्षेपनियुक्त्यनुगम उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमय । तत्र निक्षेपनियुक्त्यनुगमोऽनुगतः, ओपनामनिष्पन्न निक्षेपयोरन्तर्गतसात्, तथा च वक्ष्यमाणस्य सूत्रस्य निक्षेप्यमानलात् । उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमस्तु पविशतिद्वारप्रतिपादकागाथाद्वयादवसेयः, तच्चेदम्-'उद्देसे निदेसे य' इत्यादि । सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमस्तु सूत्रे सति संभवति, सूत्रं च सूत्रानुगमे, स चावसरप्राप्त एव, तत्रास्खलितादिगुणोपेतं मूत्रमुचारणीय, तच्चेदम् १-पस्थिताः प्र. २ उसे निसे य निग्गमे सित्त काल पुरिसे य । कारण पश्चय लक्षण नए समोयारणाशुमए १॥ किं कइविई कस्स फर्हि केम कह किचिर हवा काल कइसंतरमविरलिभ भवायरिस फासण निरुत्ती ॥२॥ उदेशो निर्देशक निर्गम क्षेत्र काला पुरुषश्च । कारण प्रत्ययो लक्षण नयः समवतारोऽनुमतम् ॥१॥ किं कतिविध कस्ख फ केषु कथं कियाचिरं भवति कालम् । कति सान्तरमविरहितं भवा आकर्षाः स्पर्शना निक्तिः ॥२॥ ३ प्रसूनिर्निर्गमनमिल्ली, मेघने यथा चन्द्रो, न राजति नभस । उपोधातं विना शालं, तथा गाजते विधी ॥१॥४ संहिता लक्षिता 'संहिया य पर्व चेव पयत्थो पयविश्यहो । चालणा य पसिद्धी य deeeeee Peo अनुक्रम Scene SAREairatam a nd उद्देश-अर्थाधिकार: ~34~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [3] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], मूलं [गाथा - १], निर्युक्ति: [३२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृता शीलाङ्काचार्ययव चियुतं ॥ १२ ॥ Eraton बुझिजति तिउद्विजा, बंधणं परिजाणिया । किमाह बंधणं वीरो, किंवा जाणं तिउहई ? ॥ १ ॥ अस्य संहितादिक्रमेण व्याख्या - बुध्येतेत्यादि, सूत्रमिदं सूत्रकृताङ्गादौ वर्तते, अस्य चाचाराङ्गेन सहायं संबन्धः, तद्यथाआचारानेऽभिहितम्- 'जीवो छक्कायपरूवणा य तेसिं वtण बंधोत्ति' इत्यादि तत्सर्वं बुध्येतेत्यादि, यदिवेह केषाञ्चिद्वादिनां ज्ञानादेव मुक्तयवाप्तिरन्येषां क्रियामात्रात्, जैनानां तूमाभ्यां निःश्रेयसाधिगम इत्येतदनेन श्लोकेन प्रतिपाद्यते । तत्रापि ज्ञानपूर्विका क्रिया फलवती भवतीत्यादौ बुध्यतेत्यनेन ज्ञानमुक्तं त्रोटयेदित्यनेन च क्रियोक्ता, तत्रायमर्थो- 'बुध्येत' अवगच्छेत् बोधं विदध्यादित्युपदेशः, किं पुनस्तद्बुध्येतात आह-'बन्धन' बध्यते जीवप्रदेशैरन्योऽन्यानुवेधरूपतया व्यवस्थाप्यत इति बन्धनं-ज्ञानावरणाद्यष्टप्रकारं कर्म तद्धेतवो वा मिथ्यात्वाविरत्यादयः परिग्रहारम्भादयो वा न च बोधमात्रादभिलषितार्थावाप्तिर्भवतीत्यतः क्रियां दर्शयति तच बंधनं परिज्ञाय विशिष्टया क्रियया-संयमानुष्ठानरूपया 'चोटयेद्' अपनयेदात्मनः पृथकुर्यात्परित्यजेद्वा, एवं चाभिहिते जम्बूस्वाम्यादिको विनेयो बन्धादिखरूपं विशिष्टं जिज्ञासुः पप्रच्छ-'किमाह' किमुक्तवान् बन्धनं 'वीर' तीर्थक्रत् ?, किंवा 'जानन' अवगच्छंस्तद्बन्धनं त्रोटयति ततो वा त्रुय्यति १, इति श्लोकार्थः ॥ १ ॥ बन्धनप्रश्नस्वरूपप्रश्न निर्वचनायाहचित्तमंतमचित्तं वा, परिगिज्झ किसामवि । अन्नं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खा ण मुच्च ॥ २ ॥ इह बन्धनं कर्म तवाभिधीयन्ते तत्र न निदानंमन्तरेण निदानिनो जन्मेति निदानमेव दर्शयति, तत्रापि सर्वारम्भाः छव्विदं विद्धि लक्खणं ॥ १ ॥” इति व्याख्यालक्षणे तस्था एवादी प्रतिपादनात् ॥ १ एकान्तपरोक्ष भू० २ कर्मगो बन्धनत्वपक्षे ।। प्रथम अध्ययने प्रथम उद्देशस्य प्रथम सूत्रस्य (गाथायाः) आरम्भ: For Pass Use Only ~35~ १ समयाध्ययने बन्धप्रश्नोत्तरे ॥ १२ ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-२], नियुक्ति: [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रांक ||२|| दर्शयति, तत्रापि सर्वारम्भाः कर्मोपादानरूपाः प्रायश आत्मात्मीयग्रहोत्थाना इतिकृलादौ परिग्रहमेव दर्शितवान् , चित्तम्| उपयोगी शानं तद्विषते यस तञ्चित्तवन-द्विपदचतुष्पदादि, ततोऽन्यदचित्तवत्-कनकरजतादि, तदुभयरूपमपि परिग्रहं परिगृह ॥७॥ 'कृशमपि'स्तोकमपि तुणतुषादिकमपीत्यर्थः, यदिवा कसनं कसः-परिग्रहग्रहणबुझ्या जीवस्य गमनपरिणाम इतियापत् , तदेवं 1 खतः परिग्रहं परिगृह्यान्यान्वा ग्राहयिखा गृण्हतो वाऽन्याननुज्ञाय दुःखयतीति दुःखम्-अष्टप्रकारं कर्म तत्फलं या असातोदयादिरूपं तसाच मुच्यत इति, परिग्रहाग्रह एव परमार्थतोऽनर्थमूलं भवति, तथा चोक्तम्-"ममाहमिति चैप यावदभिमा-16 नदाहज्वरः, कृतान्तमुखमेव तावदिति न प्रशान्त्युन्नयः । यशःसुखपिपासितैरयमसावनोंत्तरैः, परैरपसदः कुतोऽपि कथमप्य-18 पाकृष्यते ॥१॥" तथा च "द्वेषस्यायतनं धृतेरपचयः क्षान्तेः प्रतीपो विधियाक्षेपस मुहन्मदस्य भवनं ध्यानस्य कष्टो रिपुः। दुःखस प्रभवः सुखख निधनं पापस्य वासो निजः, प्राज्ञस्यापि परिग्रहो ग्रह इव क्लेशाय नाशाय च ॥२॥" तथा च परिग्रहेचित्राशनष्टेषु कालाशोको प्राप्तेषु च रक्षणमुपभोगे चातृप्तिरित्येवं परिग्रहे सति दुःखात्मकावन्धनान्न मुच्यत इति ॥ २॥ परिग्रहवतधावश्यंभाव्यारम्भस्तसिंध प्राणातिपात इति दर्शयितुमाह सयं तिवायए पाणे, अदुवाऽन्नेहिं घायए । हणंतं वाऽणुजाणाइ, वर वडाइ अप्पणी ॥३॥ जस्सि कुले समुप्पन्ने, जेहिं वा संवसे नरे । ममाइ लुप्पई बाले, अण्णे अण्णेहि मुच्छिए ॥४॥यदिषा-प्रकारान्तरेण बन्धनमेवाह-सतीत्यादि', स परिग्रहवानसंतुष्टो भूयस्तदर्जनपरः समर्जितोपद्रवकारिणि च टीप अनुक्रम सूचक. ३ ~36~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-४], नियुक्ति: [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: त्तियुतं सूत्राक ||४|| सूत्रकृता 18| द्वेषमुपगतस्ततः 'स्वयम्' आरमना त्रिभ्यो मनोवाकायेभ्य आयुर्वलशरीरेभ्यो वा 'पातयेत्' च्यावयेत् 'प्राणान' प्राणिनः, शीलाङ्का |१समयाअकारलोपाद्वा अतिपातयेत् प्राणानिति, प्राणावामी-'पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छासनिश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दौते 8 ध्ययने खचाीयवृ भगवद्भिक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥१॥' तथा स परिग्रहाग्रही न केवलं खतो व्यापादयति अपरैरपि घातयति भतश्चान्यान् ? समय: समनुजानीते, तदेवं कृतकारितानुमतिभिः प्राण्युपमर्दनेन जन्मान्तरशतानुवन्ध्यात्मनो बैरे' वर्धयति, ततश्च दुःखपरम्परारूपाद । ॥१३॥ | बन्धनान्न मुच्यत इति । प्राणातिपातस्य चोपलक्षणार्थत्वात् मृपावादादयोऽपि बन्धहेतवो द्रष्टव्या इति॥३॥ पुनर्बन्धनमेवाश्रित्याह'जस्सि' मित्यादि, यस्मिन' राष्ट्रकूटादौ कुले जातो 'या' सहपांसुक्रीडितैयस्वैर्भार्यादिभिर्वा सह संवसेन्नरः, तेषु मातृपितृ| श्रातभगिनी भार्यावयस्यादिषु ममायमिति ममखवान् निधन 'लुप्यते विलुप्यते, ममखजनितेन कर्मणा नारकतिर्यअनुष्यामरल-॥ क्षणे संसारे प्रम्यमाणो बाध्यते-पीड्यते । कोऽसौ ?-'वाल' अज्ञः, सदसद्विवेकरहितसाद, अन्येष्वन्येषु च 'मूर्छितो Pal गृद्धोऽध्युपपनो, ममसबहुल इत्यर्थः, पूर्व तावन्मातापित्रोस्तदनु भार्यायां पुनः पुत्रादौ स्नेहवानिति ॥४॥ साम्प्रतं यदुक्तं प्राक्"किं वा जानन बन्धनं त्रोटयतीति,' अस्य निर्वचनमाह वित्तं सोयरिया चेव, सबमेयं न ताणइ । संखाए जीविअंचेवं, कम्मुणा उ तिउदृइ ॥५॥ 'वित्तं' द्रव्यं, तब सचित्तमचित्तं वा, तथा 'सोदर्या' भ्रातभगिन्यादयः, सर्वमपि च 'एतद्' वित्तादिक संसारान्तर्ग-101 | तस्यासुमतोऽतिकटुकाः शारीरमानसीवेदनास्समनुभवतो न 'त्राणाय रक्षणाय भवतीत्येतत् 'संख्याय' ज्ञाखा तथा 'जीवि-13 १ अप्रकार कर्म चू द्वाभ्यामाकलितः चू० । ३ मसवेदनाः प्रा। अनुक्रम ~37~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-५], नियुक्ति: [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक तंच' प्राणिनां खल्पमिति संख्याय-ज्ञपरिज्ञया, प्रत्याख्यानपरिक्षया तु सचित्ताचित्तपरिग्रहप्राण्युपघातस्वजनस्नेहादीनि। IS| बन्धनस्थानानि प्रत्याख्याय 'कर्मणः सकाशाद 'श्रुत्यति' अपगच्छत्यसौ, तुरवधारणे, त्रुटोदेवेति, यदिवा-'कर्मणा' ॥ क्रियया संयमानुष्ठानरूपया बन्धनाव्यति, कर्मणः पृथग्भवतीत्यर्थः ॥ ५॥ अध्ययनार्थाधिकाराभिहितसात्वसमयप्रतिपाद-18 नानन्तरं परसमयप्रतिपादनानिधित्सयाऽह एए गंथे विउक्कम्म, एगे समणमाहणा । अयाणंता विउस्सित्ता, सत्ता कामेहि माणवा ॥६॥ NI 'एतान् ' अनन्तरोक्तान ग्रन्थान् व्युत्क्रम्य ' परित्यज्य स्वरुचिविरचितार्थेषु ग्रन्थेषु सक्ताः 'सिताः' बद्धाः, एके, न सर्वे इति संबन्धः । ग्रन्थातिक्रमचैतेषां तदुक्तार्थानभ्युपगमात्, अनन्तरग्रन्थेषु चायमर्थोऽभिहितः तद्यथा-जीवा-18 स्तिसे सति ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धनं, तस्स हेतवो मिथ्याखाविरतिप्रमादादयः परिग्रहारम्भादया, तबोटनं च सम्यगद्-1 शेनाद्युपायेन, मोक्षसद्भाववेत्येवमादिका, तदेवमेके 'श्रमणाः शाक्यादयो बार्हस्पत्यमतानुसारिणव प्रोमणाः 'एतान्' अहे-1 १|| दुक्तान् ग्रन्थानतिक्रम्य परमार्थमजानाना विविधम्-अनेकप्रकारम् उत्-प्राबल्येन सिता-बद्धाः खसमयेष्वभिनिविष्टाः ।। तथा च शाक्या एवं प्रतिपादयन्ति, यथा- सुखदुःखेच्छाद्वेषज्ञानाधारभूतो नास्त्यात्मा कवित, किंतु विज्ञानमेवेकं विवर्तत इति, | क्षणिकाः सर्वसंस्कारा इत्यादि, तथा सांख्या एवं व्यवस्थिताः-सत्वरजस्तमसा साम्यावस्था प्रकृतिः, प्रकृतेर्महान् , महतोऽह १ परिवाजकादयः अथवा समणलिंगत्था मारणा समणीयासमा समका एव माहणा। అలరించాలని ||५|| अनुक्रम అధిక ~38~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [६] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-६ ], निर्युक्ति: [३२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ङ्कारः, तस्माद्गगथ षोडशकः, तस्मात्पोडशकादपि पञ्च भूतानि चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपमित्यादि, वैशेषिकाः पुनराहुः - द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाः पद पदार्था इति, तथा नैयायिकाः- प्रमाणप्रमेयादीनां पदार्थानामन्वयव्यतिरेकपरिज्ञानाभि:श्रेयसाधिगम इति व्यवस्थिताः, तथा मीमांसकाः - चोदनालक्षणो धर्मो, न च सर्वज्ञः कश्विद्विद्यते, मुक्त्यभावशेत्येवमाश्रिताः, चार्वाकारसेवमभिहितवन्तो, यथा--नास्ति कचित्परलोकयाथी भूतपञ्चकाव्यतिरिक्तो जीवाख्यः पदार्थों, नापि पुण्यपापे स्त ॐ इत्यादि । एवं चाङ्गीकृत्यैते लोकायतिकाः 'मानवाः' पुरुषाः 'सक्ता' गृद्धा अध्युपपन्ना: 'कामेषु' इच्छामदनरूपेषु, तथा ॥ १४ ॥ ४ चोचुः एतावानेव पुरुषो, यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे ! वृकपदं पश्य, यद्वदन्त्यबहुश्रुताः ॥ १ ॥ पिच खाद च साधु शो ६ भने !, यदतीतं वरगात्रि ! तत्र ते । नहि भीरु ! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥ २ ॥ एवं ते तत्रान्तरीयाः खसमयार्थवासितान्तः करणाः सन्तो भगवदर्हदुक्तं ग्रन्थार्थमज्ञातपरमार्थाः समतिक्रम्य स्वकीयेषु ग्रन्थेषु सिताः संबद्धाः कामेषु च | सक्ता इति ॥ ६ ॥ साम्प्रतं विशेषेण सूत्रकार एव चार्वा कमतमाश्रित्याऽऽद्द - सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चार्थीयपृ चियुतं Eucation Internation संति पंच महब्भूया, इहमेगेसिमाहिया । पुढवी आउ तेऊ वा, वाउ आगासपंचमा ॥ ७ ॥ एए पंच महब्भूया, तेब्भो एगोत्ति आहिया । अह तेसिं विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥८॥ 'सन्ति' विद्यन्ते महान्ति च तानि भूतानि च महाभूतानि, सर्वलोकव्यापित्वान्महत्त्वविशेषणम्, अनेन च भूता[१] लोकोऽयं । For Parts Only ~ 39~ १ समया ध्ययने प रसमयेषु चावकः ॥ १४ ॥ yor Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||2|| दीप अनुक्रम [<] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-८], निर्युक्ति: [३२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः भाववादिनिराकरणं द्रष्टव्यम्, 'इह' अस्मिन् लोके 'एकेषां' भूतवादिनाम् 'आख्यातानि' प्रतिपादितानि तत्तीर्थकृता तैर्वा भूतवादिभिर्वार्हस्पत्यमतानुसारिभिराख्यातानि – खयमङ्गीकृतान्यन्येषां च प्रतिपादितानि । तानि चामूनि तद्यथा-| पृथिवी कठिनरूपा, आपो द्रवलक्षणाः, तेज उष्णरूपं वायुश्चलनलक्षणः, आकाशं शुषिरलक्षणमिति, तच्च पञ्चमं येषां तानि तथा, एतानि साङ्गोपाङ्गानि प्रसिद्धलात् प्रत्यक्षप्रमाणावसेयत्वाच न कैश्चिदपोतुं शक्यानि । ननु च साङ्ख्या४ दिभिरपि भूतान्यभ्युपगातान्येव तथाहि सांख्यास्तावदेवमूचुः – सत्त्वरजस्तमोरूपात्प्रधानान्महान्, बुद्धिरित्यर्थः, महतोऽहङ्कारः - अहमितिप्रत्ययः, तस्मादप्यहङ्कारात्पोशको गण उत्पद्यते स चायम् - पश्च स्पर्शनादीनि बुद्धीन्द्रियाणि, वापाणिपादपायूपस्थरूपाणि पञ्च कर्मेन्द्रियाणि, एकादशं मनः, पञ्च तन्मात्राणि, तद्यथा - गन्धरसरूपस्पर्शशब्द तन्मात्राख्यानि तत्र मन्धतन्मात्रात्पृथिवी गन्धरसरूपस्पर्शवती रसतन्मात्रादापो रसरूपस्पर्शवत्यः, रूपतन्मात्राचेजो रूपस्पर्शवत्, स्पर्शतन्मात्राद्वायुः स्पर्शवान्, शब्दतन्मात्रादाकाशं गन्धरसरूपस्पर्श वर्जितमुत्पद्यत इति । तथा वैशेषिका अपि भूतान्यमिहितवन्तः, तद्यथा- पृथिवीत्वयोगात्पृथिवी, सा च परमाणुलक्षणा नित्या, व्यणुकादिप्रक्रमनिष्पन कार्यरूपतया खनित्या, चतुर्दशभिर्गुणै रूपरसगन्धस्पर्शसंख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरख गुरुखद्रवत्ववेगाख्यैरुपेता, तथाऽप्ययोगादापः, ताच रूपरसस्पर्श संख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वगुरुखस्वाभाविकद्रवस स्नेहवेगवत्यः, तासु च रूपं शुकमेव रसो मधुर | एव स्पर्शः शीत एवेति, तेजस्वाभिसंबन्धात्तेजः तच्च रूपस्पर्शसंख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्तनैमिचिकद्रवत्ववे १ आगोपालाशना प्र० Ja Eucation Ination For Park Use Only ~40~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-८], नियुक्ति: [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्गंगाख्यैरेकादशभिर्गुणैर्गुणवत् , तत्र रूपं शुक्लं भास्वरं च, स्पर्श उष्ण एवेति, वायुत्वयोगाद्वायुः, स चानुष्णशीतस्पर्शसंख्या-18/१ समयाशीलाका परिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्ववेगाख्यैर्नवभिर्गुणैर्गुणवान् हेल्कम्पशब्दानुष्णशीतस्पर्शलिङ्गा, आकाशमिति पारिभाचाीय पिकी संज्ञा एकत्वात्तस्य, तब संख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागशब्दाख्यैः पइभिर्गुणैर्गुणवत् शब्दलिङ्गं चेति, एवमन्यैरपि रसमयेषु त्तियुत चावांका वादिभिर्भूतसद्भावाश्रयणे किमिति लोकायतिकमतापेक्षया भूतपश्चकोपन्यास इति ?, उच्यते, सांख्यादिभिर्हि प्रधानात्साहङ्कारिक IS तथा कालदिगात्मादिक चान्यदपि वस्तुजातमभ्युपेयते, लोकायतिकैस्तु भूतपञ्चकन्यतिरिक्तं नात्मादिकं किश्चिदभ्युपग म्यते इत्यतस्तन्मताश्रयणेनैव सूत्रार्थो व्याख्यायत इति ॥७॥ यथा चैतत् तथा दर्शयितुमाह-'एए पंच महन्भूया' इत्यादि, 'एतानि' अनन्तरोक्तानि पृथिव्यादीनि पञ्च महाभूतानि यानि 'तेभ्यः' कायाकारपरिणतेभ्यः 'एक' कविचिद्रूपो भूताव्य|तिरिक्त आत्मा भवति, न भूतेभ्यो व्यतिरिक्तोऽपरः कश्चित्परपरिकल्पितः परलोकानुयायी सुखदुःखभोक्ता जीवाख्यः पदार्थो|ऽस्तीत्येवमाख्यातवन्तस्ते, तथा(ते)हि एवं प्रमाणयन्ति-न पृथिव्यादिव्यतिरिक्त आत्माऽस्ति, तद्ग्राहकप्रमाणाभावात् , प्रमाणं चात्र प्रत्यक्षमेव,नानुमानादिक,तनेन्द्रियेण साक्षादर्थस्य संबन्धाभावायभिचारसंभवः, सति च व्यभिचारसंभवे सदृशे च चाधासं-18 भवे तल्लक्षणमेव दृषितं स्यादिति सर्वत्रानाश्वासः, तथा चोक्तम्-"हस्तस्पादिवान्धेन, विषमे पथि धावता । अनुमानप्रधानेन, ॥१५॥ | विनिपातो न दुर्लभः ॥१॥" अनुमान चात्रोपलक्षणमागमादीनामपि, साक्षादर्थसंवन्धाभावाद्धस्तस्पर्शनेनेव प्रवृत्तिरिति । तस्मात्प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाण, तेन च भूतव्यतिरिक्तस्वात्मनो न ग्रहणं, यत्तु चैतन्यं तेषूपलभ्यते, तेव कायाकारपरिणतेप्वभि। इति प्र. हरणमित्यर्थः । अनुक्रम ~414 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-८...], नियुक्ति: [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| व्यज्यते, मद्याङ्गेषु समुदितेषु मदशक्तिवदिति, तथा-न भूतव्यतिरिक्तं चैतन्यं, तत्कार्यत्वाद , घटादिवदिति । तदेवं भूतव्यति-15 |रिक्तस्वाऽऽत्मनोऽभावागतानामेव चैतन्याभिव्यक्तिः, जलस बुख़ुदाभिव्यक्तिवदिति । केपाथिल्लोकायतिकानामाकाशस्थापि भूतत्वेनाभ्युपगमाद्भूतपञ्चकोपन्यासो न दोषायेति । ननु च यदि भूतव्यतिरिक्तोऽपरः कश्चिदात्माख्या पदार्थों न विद्यते, कथं तहिं मृत इति व्यपदेश इत्याशजवाह-अथैषां कायाकारपरिणतौ चैतन्याभिव्यक्ती सत्यां तदूर्ध्व तेषामन्यतमस्य 'विनाशे' | अपगमे वायोस्तेजसथोभयो 'देहिनो' देवदत्ताख्यस्य 'विनाश' अपगमो भवति, ततश्च मृत इति व्यपदेशः प्रवर्तते, न पुनर्जीवापगम इति भूताव्यतिरिक्तचैतन्यवादिपूर्वपक्ष इति ।। अत्र प्रतिसमाधानार्थ नियुक्तिकदाह पंचण्हं संजोए अण्णगुणाणं च चेयणाइगुणो । पंचिंदियठाणाणं ण अण्णमुणियं मुणइ अण्णो ॥ ३३॥ 'पश्चानां पृथिव्यादीनां भूतानां 'संयोगे' कायाकारपरिणामे चैतन्यादिक: आदिशब्दात् भाषाचमणादिका गुणो न | भवतीति प्रतिज्ञा, अन्यादयस्त्वत्र हेतुस्वेनोपाचार, दृष्टान्तस्वभ्यूह्यः, सुलभखात्तस्य नोपादानं । तत्रेदं चाबोंकः प्रष्टव्यः---यदे-18 तद्भतानां संयोगे चैतन्यमभिन्यज्यते तक तेषां संयोगेपि खातथ्य एवाऽऽहोवित्परस्परापेक्षया पारतध्ये इति , किंचातः १,1% न तावत्स्वातव्ये, यत आह--'अण्णगुणाणं चेति चैतन्यादन्ये गुणा येषां तान्यन्यगुणानि, तथाहि-आधारकाठिन्यगुणा | पृथिवी द्रवगुणा आपः पक्तृगुणं तेजः चलनगुणो वायुः अवगाहदानगुणमाकाशमिति, यदिवा प्रागभिहिता गन्धादयः पृथिIS च्यादीनामेकैकपरिहान्याऽन्ये गुणाश्चैतन्यादिति, तदेवं पृथिव्यादीन्यन्यगुणानि, चशब्दो द्वितीयविकल्पवक्तव्यतासूचनार्थः, चैतन्यगुणे साध्ये पृथिव्यादीनामन्यगुणानां सतां चैतन्यगुणस्य पृथिव्यादीनामेकैकस्याप्यभावान्न तत्समुदायाच्चैतन्याख्यो गुणः అనిపించింది yacasraerasacassaceae89939292eradi अनुक्रम [८] Enama ~42~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-८...],नियुक्ति: [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: भूत्रकृता सियतीति, प्रयोगस्त्वत्र-भूतसमुदायः सातम्ये सति धर्मिलेनोपादीयते, न तस्य चैतन्याख्यो गुणोऽस्तीति साध्यो धर्मः, समयाशीलाङ्का- | पृथिव्यादीनामन्यगुणखात्, यो योऽन्यगुणानां समुदायस्तत्र तत्रापूर्वगुणोत्पचिन भवतीति, यथा सिकतासमुदाये स्निग्धगुणस्य | ध्ययने पचायय- तैलस्य नोत्पत्तिरिति, घटपटसमुदाये चा न स्तम्भाधाविर्भाच इति, दृश्यते च काये चैतन्य, तदात्मगुणो भविष्यति न भूताना-1 रसमयेषु त्तियुतं II मिति । असिमेव साध्ये हेसन्तरमाह-'पश्चिन्दियठाणाणं'ति पञ्च च तानि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राख्यानीन्द्रियाणि तेषां | चाबोकः ॥१६॥ स्थानानि अबकाशास्तेषां चैतन्यगुणाभावान्न भूतसमुदाये चैतन्यम् , इदमत्र हृदयं लोकायतिकानां हि अपरस्य द्रएरनभ्युपगमादिन्द्रियाण्येव द्रष्टणि, तेषां च यानि स्थानानि:- उपादानकारणानि तेषामचिद्रूपसाच भूतसमुदाये चैतन्यमिति, इन्द्रियाणां | चामूनि स्थानानि, तपथा-श्रोत्रेन्द्रियस्थाकाशं सुपिरात्मकलात, घ्राणेन्द्रियस्य पृथिची तदात्मकखात्, चक्षुरिन्द्रियस तेजस्त-18 दूपखात् , एवं रसनेन्द्रियस्थापः स्पर्शनेन्द्रियस्य वायुरिति । प्रयोगबात्र-नेन्द्रियाण्युपलब्धिमन्ति, तेपामचेतनगुणारब्धखात्, यद्यदचेतनगुणारब्धं तत्चदचेतनं, यथा घटपटादीनि, एवमपि च भूतसमुदाये चैतन्याभाव एव साधितो भवति । पुनखन्तरमाह-18 'ण अण्णमुणियं मुणइ अण्णोति इहेन्द्रियाणि प्रत्येकभूतात्मकानि, तान्येवापरस्य द्रष्टुरभावाद् द्रणि, तेषां च प्रत्येकं खविषय-18 ग्रहणादन्यविषये चाप्रपत्तेर्नान्यदिन्द्रियज्ञातमन्यदिन्द्रियं जानातीति, अतो मया पश्चापि विषयाँ ज्ञाता इत्येवमात्मका संकलना-ARM६ प्रत्ययो न प्रामोति, अनुभूयते चायं, तसादेकेनैव द्रष्ट्रा भवितव्यम् , तस्मैच च चैतन्यं न भूतसमुदायस्येति, प्रयोगः पुनरेवं-न भूतसमुदाये चैतन्यं, तदारुधेन्द्रियाणां प्रत्येकविषयग्राहिले सति संकलनाप्रत्ययाभावात् , यदि पुनरन्यगृहीतमप्यन्यो गृहीयाद् || देवदत्तगृहीतं यज्ञदत्तेनापि गृह्येत, न चैतद् दृष्टमिष्टं वेति । ननु च खातथ्यपक्षेऽयं दोषः, यदा पुनः परस्परसापेक्षाणां संयो-19॥ अनुक्रम [८] ~434 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-८...], नियुक्ति: [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| eaerweneseeeeeeeeeseses गपारतच्याभ्युपगमेन भूतानामेव समुदितानां चैतन्याख्यो धर्मः संयोगवशादाविर्भवति, यथा किण्वोदकादिषु मधानेपु समुदितेषु प्रत्येकमविद्यमानापि मदशक्तिरिति, तदा कुतोऽस्य दोषस्थावकाश इति ?, अत्रोत्तरं गाथोपाचचशब्दाक्षिप्तमभिधीयते यत्तावदुक्तं यथा 'भूतेभ्यः परस्परसव्यपेक्षसंयोगभाग्भ्यश्चैतन्यमुत्पद्यते, तत्र विकल्पयामः-किमसौ संयोगः संयोगिभ्यो, भिन्नोऽभिन्नो वा, भिन्नश्चेषष्ठभूतप्रसंगो, न चान्यत् पञ्चभूतव्यतिरिक्तसंयोगाख्यभूतग्राहकं भवतां प्रमाणमस्ति, प्रत्यक्षस्यैवैकस्याभ्युपगमात्, | तेन च तस्याग्रहणात् , प्रमाणान्तराभ्युपगमे च तेनैव जीवस्यापि ग्रहणमस्तु, अथ अभिनो भूतेभ्यो संयोगः, तत्राप्येतश्चिन्तनीयं-किं भूतानि प्रत्येकं चेतनावन्त्यचेतनावन्ति चा?, यदि चेतनावन्ति तदा एकेन्द्रियसिद्धिः, तथा (च) समुदायस्य पञ्चप्रकारचैतन्यापत्तिः, अथाचेतनानि, तत्र चोक्तो दोषो, न हि यद्यत्र प्रत्येकमविद्यमानं तत्तत्समुदाये भवदुपलभ्यते, सिकतासु तैलवदित्यादिना । यदप्पत्रोक्तं यथा मद्यानेष्वविद्यमानाऽपि प्रत्येकं मदशक्तिः समुदाये प्रादुर्भवतीति, तदप्पयुक्तं, यतस्तत्र किण्वादिषु या च यावती च शक्तिरुपलभ्यते, तथाहि-किण्वे बुभुक्षापनयनसामर्थ्य अमिजननसामर्थ्य च उदकस्य । तृडपनयनसामर्थ्यमित्यादिनेति, भूतानां च प्रत्येकं चैतन्यानभ्युपगमे दृष्टान्तदाष्टान्तिकयोरसाम्यं । किंच-भूतचैतन्याभ्युपगमे || मरणाभावो, मृतकायेऽपि पृथ्व्यादीनां भूतानां सद्भावात् , नैतदस्ति, तत्र मृतकाये वायोस्तेजसो वाऽभावान्मरणसद्भावः इत्यशिक्षितस्योल्लापः, तथाहि-मृतकाये शोफोपलब्धेने वायोरभावः, कोषस्य च पक्तिखभावस्य दर्शनानानेरिति, अथ सूक्ष्मः कश्चिद्वायुविशेषोऽग्निर्वा ततोऽपगत इति मतिरिति, एवं च जीव एव नामान्तरेणाभ्युपगतो भवति, यत्किञ्चिदेतत् । तथा न भूतसमुदायमात्रेण चैतन्याविर्भावः, पृथिव्यादिष्येकत्र व्यवस्थापितेष्वपि चैतन्यानुपलब्धेः, अथ कायाकारपरिणती सत्यां तदभिव्यक्तिरि अनुक्रम [८] REscam era T urmeraryou ~44 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-८...], नियुक्ति: [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत त्तियुतं सूत्रकृताङ्गं व्यते, तदपि न, यतो लेप्यमयप्रतिमायां समस्तभूतसद्भावेऽपि जडखमेवोपलभ्यते । तदेवमन्वयव्यतिरेकाभ्यामालोच्यमानो नायं 8१ समयाशीलाका चैतन्याख्यो गुणो भूतानां भवितुमर्हति, समुपलभ्यते चार्य शरीरेषु, तस्मात् पारिशेष्यात् जीवस्यैवायमिति खदर्शनपक्षपातं 81 | ध्ययने पचार्यायव ॥ विहायानीक्रियतामिति । यथोक्तं प्राक्-'न पृथिव्यादिव्यतिरिक्त आत्मास्ति, तद्ग्राहकप्रमाणाभावात्, प्रमाणं चात्र प्रत्यक्ष | रसमयेषुमेबैक'मित्यादि, तत्र प्रतिविधीयते---यत्तावदुक्तं 'प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाण नानुमानादिक'मित्येतदनुपासितगुरोर्वचः, तथाहि पाकि IS अर्थाविसंवादकं प्रमाणमित्युच्यते, प्रत्यक्षस्य च प्रामाण्यमेवं व्यवस्थाप्यते-काश्चित्प्रत्यक्षव्यक्तीर्धर्मिलेनोपादाय प्रमाणयति-प्रमा णमेताः, अर्थोविसंवादकखाद्, अनुभूतप्रत्यक्षव्यक्तिवत्, न च ताभिरेव प्रत्यक्षव्यक्तिभिः खसंविदिताभिः परं व्यवहारयितु-| मयमीशः, तासां खसंविमिष्ठलात् मूक्ताच प्रत्यक्षस्य, तथा नानुमानं प्रमाणमित्यनुमानेनैवानुमाननिरासं कुर्वधावोकः कथं | नोन्मत्तः स्याद् , एवं ह्यसौ तदप्रामाण्यं प्रतिपादयेत् यथा-नानुमानं प्रमाण, विसंवादकखाद्, अनुभूतानुमानव्यक्तिवदिति, एत चानुमानम् , अथ परप्रसिद्धैतदुच्यते, तदप्ययुक्तं, यतस्तत्परप्रसिद्धमनुमानं भवतः प्रमाणमप्रमाणं वा, प्रमाणं चेत्कथमनुमान|| मप्रमाणमित्युच्यते, अथाप्रमाणं कथमप्रमाणेन सता तेन परः प्रत्याय्यते, परेण तस्य प्रामाण्येनाभ्युपगतखादिति चेद्, तदप्यः | साम्प्रतं, यदि नाम परो मौढ्यादप्रमाणमेव प्रमाणमित्यध्यवस्थति, किं भवताऽतिनिपुणेनापि तेनैवासौ प्रतिपाद्यते , यो बसो ॥१७॥ गुडमेव विषमिति मन्यते किं तस्य मारयितुकामेनापि बुद्धिमता गुड एव दीयते ?, तदेवं प्रत्यक्षानुमानयोः प्रामाण्याप्रामाण्ये व्यवस्थापयतो भवतोऽनिच्छतोऽपि बलादायातमनुमानस प्रामाण्यं । तथा स्वर्गापवर्गदेवतादेः प्रतिषेधं कुर्वन् भवान् केन प्रमा१प्तप्र. अनुक्रम [८] ~45 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-८...], नियुक्ति: [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक ||८|| न करोति ?, न तावत्प्रत्यक्षेण प्रतिषेधः कर्तुं पार्यते, यतस्तत्प्रत्यक्षं प्रवर्तमानं वा तनिषेधं विदध्यान्निवर्तमानं वा!, न ताव-12 प्रवर्तमानं, तस्याभावविषयखविरोधात् , नापि निवर्तमान, यतस्तच्च नास्ति तेन च प्रतिपत्तिरित्यसंगतं, तथाहि-व्यापकविनिIS वृत्तौ व्याप्यस्यापि (वि)निवृत्तिरिष्यते, न चार्वाग्दर्शिप्रत्यक्षेण समस्तवस्तुन्याप्तिः संभाव्यते, तत्कथं प्रत्यक्षविनिवृत्तौ पदार्थव्याय-18 तिरिति , तदेवं खर्गादेः प्रतिषेधं कुर्वता चार्वाकेणावश्यं प्रमाणान्तरमभ्युपगतं । तथाज्याभिप्रायविज्ञानाभ्युपगमादत्र स्पष्टमेव प्रमाणान्तरमभ्युपगतम् , अन्यथा कथं परावबोधाय शास्त्रप्रणयनमकारि चार्वाकणेत्यलमतिप्रसङ्गेन । तदेवं प्रत्यक्षादन्यदपि प्रमाणमस्ति, तेनात्मा सेत्स्यति, किं पुनस्तदिति चेद् , उच्यते, अस्त्यात्मा, असाधारणतद्गुणोपलब्धेः, चक्षुरिन्द्रियवत , चक्षुरिन्द्रियं | | हिन साक्षादुपलभ्यते, स्पर्शनादीन्द्रियासाधारणरूपविज्ञानोत्पादनशक्त्या खनुभीयते, तथाऽऽत्माऽपि पृथिव्यायसाधारणचैतन्य || गुणोपलब्धेरतीत्यनुमीयते, चैतन्यं च तस्यासाधारणगुण इत्येतत्पृथिव्यादिभूतसमुदाये चैतन्यस निराकृतसादवसेयं । तथा| | अस्त्यात्मा, समस्तेन्द्रियोपलब्धार्थसंकलनाप्रत्ययसद्भावात् , पञ्चगवाक्षान्यान्योपलब्धार्थसंकलनाविधाय्येकदेवदत्तवत् , तथाऽऽत्मा ४ अर्थद्रष्टा नेन्द्रियाणि, तद्विगमेऽपि तदुपलब्धार्थस्मरणात्, गवाक्षोपरमेऽपि तद्वारोपलब्धार्थसतदेवदत्तवत् , तथा अर्थापच्याऽ प्यात्माऽस्तीत्यवसीयते, तथाहि-सत्यपि पृथिव्यादिभूतसमुदाये लेप्यकर्मादौ न सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नादिक्रियाणां सद्भाव इति, शअत: सामादवसीयते-अस्ति भूतातिरिक्तः कश्चित्सुखदुःखेच्छादीनां क्रियाणां समवायिकारणं पदार्थः, स चात्मेति, तदेवं । |प्रत्यक्षानुमानादिपूर्विकाऽन्याऽप्यर्थापचिरभ्यूह्या, तस्सास्विदं लक्षणम्-प्रमाणषकविज्ञातो, यत्रार्थों नान्यथाभवन् । अदृष्ट कल्प-II १ चार्वाक्दर्शित । २ संसाध्यते प्रा ecedeseeseseatseasesesese 2008-0-800 अनुक्रम SAREmiratantra ~46~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-८...], नियुक्ति: [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृताङ्गं यदन्यं, सार्थापत्तिरदाहता ॥१॥" तथाऽगमादप्यस्तिसमवसेयं, स चायमागम:-"अस्थि मे आया उववाहए"इत्यादि । समयाशीलासा- यदिवा किमत्रापरप्रमाणचिन्तया ?, सकलनमाणज्येष्टेन प्रत्यक्षेणैवात्माऽस्तीत्यवसीयते, तद्गुणंस्य ज्ञानस्य प्रत्यक्षवाद , ज्ञान- ध्ययने पचाीयवृ-18 गुणख च गुणिनोऽनन्यखात् प्रत्यक्ष एवात्मा, रूपादिगुणप्रत्यक्षलेन पटादिप्रत्यक्षवत् , तथाहि-अहं सुख्यहं दुःख्येवमाद्य- रसमयेषु त्तियुतं | हंप्रत्ययग्राबधात्मा प्रत्यक्षः, अहंप्रत्ययस्य स्वसंविद्रूपत्वादिति, ममेदं शरीरं पुराणं कर्मेति च शरीरानेदेन निर्दिश्यमानखाद्, इत्या- चाबोक: ॥१८॥ | दीन्यन्यान्यपि प्रमाणानि जीवसिद्धावभ्यूह्यानीति । तथा यदुक्तं-'न भूतव्यतिरिक्तं चैतन्यं तत्कार्यवात् घटादिवदिति, एत दप्यसमीचीनं, हेतोरसिद्धवात् , तथाहि-न भूतानां कार्य चैतन्यं, तेषामतद्गुणवात् भूतकार्यचैतन्ये संकलनाप्रत्ययासंभवाच्च, 18 इत्यादिनोक्तप्रायम्, अतोऽस्त्यात्मा भूतव्यतिरिक्तो ज्ञानाधार इति स्थितम् ॥ ननु च किं ज्ञानाधारभूतेनात्मना ज्ञानाद्भिनेनाभि-॥ | तेन ।, यावता ज्ञानादेव सर्वसंकलनाप्रत्ययादिक सेत्स्यति, किमात्मनाऽन्तर्गदुकल्पेनेति, तथाहि-ज्ञानस्यैव चिद्रूपत्वाद् भूतैरचेतनैः कायाकारपरिणतैः सह संबन्धे सति सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नक्रियाः प्रादुष्प्यन्ति तथा संकलनाप्रत्ययो भवान्तरगमनं चेति, तदेवं व्यवस्थिते किमात्मना कल्पितेनेति, अत्रोच्यते, न ह्यात्मानमेकमाधारभूतमन्तरेण संकलनाप्रत्ययो घटते, तथाहि-प्रत्ये| कमिन्द्रियैः खविषयग्रहणे सति परविषये चाप्रवृत्तेः एकस्य च परिच्छेत्तुरभावात् मया पञ्चापि विषयाः परिच्छिन्ना इत्यात्मकस्य 10॥१८॥ | संकलनाप्रत्ययस्खाभाव इत्ति, आलयविज्ञानमेकमस्तीति चेद्, एवं सत्यात्मन एव नामान्तरं भवता कृतं स्यात् , न च ज्ञानाख्यो 2 गुणो गुणिनमन्तरेण भवतीत्यवश्यमात्मना गुणिना भाव्यमिति ॥ स च न सर्वव्यापी, तद्गुणस्य सर्वत्रानुपलभ्यमानखात्, घट १ अस्ति में आत्मौपपातिकः । 930092000000000393 अनुक्रम [८] म REatin-Oloma ~47~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-८...], नियुक्ति: [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: e प्रत Baeraareeeeeeeera02280 वत् । नापि श्यामाकतन्दुलमात्रोऽङ्गुष्ठपर्वमात्रो वा, तावन्मात्रस्योपात्तशरीराव्यापितात , खपर्यन्तशरीरव्यापिखेन चोपलभ्यमान| गुणवात् , तसात्स्थितमिदम्-उपात्तशरीरसक्पर्यन्तच्याप्यात्मेति । तस्स चानादिकर्मसंबद्धस्य कदाचिदपि सांसारिकस्यात्मनः खरूपेऽनवस्थानात् सत्यप्यमूर्तले मूर्तेन कर्मणा संबन्धो न विरुध्यते, कर्मसंवन्धाच सूक्ष्मवादरैकेन्द्रियद्वित्रिचतुष्पश्चेन्द्रियपर्याप्ताप-18 | र्याप्ताथवस्था बहुविधाः प्रादुर्भवन्ति । तस्य चैकान्तेन क्षणिकत्वे ध्यानाध्ययनश्रमप्रत्यभिज्ञानाथभावः एकान्तनित्यते च नारक| तिर्यअनुष्यामरगतिपरिणामाभावः स्यात् तस्मात्स्यादनित्यः स्थानित्य आत्मेत्यलमतिप्रसङ्गेन ॥ ८॥ साम्प्रतमेकात्माद्वैतवादमुद्दे| शार्थाधिकारप्रदर्शितं पूर्वपक्षयितुमाह जहा य पुढवीथूभे, एगे नाणाहि दीसइ । एवं भो ! कसिणे लोए, विन्नू नाणाहि दीसइ ॥९॥ दृष्टान्तबलेनवार्थस्वरूपावगतेः पूर्व दृष्टान्तोपन्यासः, यथेत्युपदर्शने, चशब्दोऽपिशब्दार्थे, स च भिन्नक्रम एके इत्यस्थानन्तरं द्रष्टव्यः, पृथिव्येव स्तूपः पृथिव्या वा स्तूपः पृथिवीसंघाताख्योऽवयवी, स चैकोऽपि यथा नानारूपः-सरित्समुद्रपर्वतनगरसनिवेशाद्याधारतया विचित्रो दृश्यते निनोन्नतमृदुकठिनरक्तपीतादिभेदेन वा दृश्यते, न च तस्य पृथिवीतत्त्वस्यैतावता भेदेन भेदो भवति, 'एवम् उक्तरीत्या 'भो इति परामत्रणे, कृत्वोऽपि लोका-चेतनाचेतनरूप एको विद्वान् वर्तते, इदमत्र हृदयं--एक एव छात्मा विद्वान् ज्ञानपिण्डः पृथिव्यादिभूताधाकारतया नाना दृश्यते, न च तस्यात्मन एतावताऽऽत्मतत्यभेदो भवति, तथा चोतम्-"एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥" तथा 'पुरुष एवेदं निं| Taaraatraeneraeroaenerasa90sa03029 अनुक्रम सूक्षक.४ SaintitatinA nd A muraryorg ~48~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-९], नियुक्ति: [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१०|| दीप अनुक्रम सूत्रकृताङ्ग सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यं उतामृतसस्पेशानो यदन्नेनातिरोहति, यदेजति यन्नेजति यह्रे यदु अन्तिके यदन्तरस्य सर्वस यत्सर्वस्वास ९१ समयाशीलाङ्का- बायतः' इत्यात्माद्वैतवादः॥९॥ अस्योचरदानायाह ध्ययने चायि अद्वैतनित्तियुतं एवमेगेत्ति जप्पंति, मंदा आरंभणिस्सिआ। एगे किच्चा सयं पावं, तिवं दुक्खं नियच्छइ ॥१०॥ राकरण ॥१९॥ 'एवमिति अनन्तरोक्तात्माद्वैतवादोपप्रदर्शनम् 'एके' केचन पुरुषकारणवादिनी 'जल्पन्ति' प्रतिपादयन्ति, किंभूतास्ते । इत्याह-'मन्दा' जडाः सम्यक्परिज्ञानविकलाः, मन्दलं च तेषां युक्तिविकलात्माऽद्वैतपक्षसमाश्रयणात् , तथाहि-ययेक एवात्मा स्थानात्मबहुसं ततो ये सच्चा:-प्राणिनः कृषीवलादयः 'एके' केचन आरम्भे-प्राण्युपमर्दनकारिणि व्यापारे नि:18 बिता-आसक्ताः संबद्धा अध्युपपन्नाः ते च संरम्भसमारम्भारम्भैः कृत्वा' उपादाय 'वयम्' आत्मना 'पापम्' अशुभप्रकृतिरू-13। 8 पमसातोदयफलं तीव्रदुःखं तदनुभवस्थानं वानरकादिकं नियच्छतीति, आर्षखाबहुवचनार्थे एकवचनमकारि, ततश्रायमर्थो-नि श्रयेन यच्छन्त्यवश्यंतया गच्छन्ति-प्राप्नुवन्ति त एवारम्भासक्ता नान्य इति, एतन्न स्वाद्, अपि सेकेनापि अशुभे कमेणि कृते सर्वेषां शुभानुष्ठायिनामपि तीब्रदुःखाभिसंबन्धः स्याद् , एकतादात्मन इति, न चैतदेवं दृश्यते, तथाहि-य एव कश्चिदसमञ्जस- १९ कारी स एव लोके तदनुरूपा विडम्बनाः समनुभव पलभ्यते नान्य इति, तथा सर्वगतले आत्मनो बन्धमोक्षाघभावः तथा प्रतिपाद्यप्रतिपादकविवेकाभावाच्छाखप्रणयनाभावश्च स्वादिति । एतदर्थसंवादिखात्प्राक्तन्येव नियुक्तिकगाथा व्याख्यायते, तद्यथा-पश्चानां पृथिव्यादीनां भूतानामेकत्र कायाकारपरिणतानां चैतन्यमुपलभ्यते, यदि पुनरेक एवात्मा ब्यापी साचदा [१०] REaratunana HAJanuary ~49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१०], नियुक्ति: [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११|| seseseeeeeeeeeseses घटादिष्वपि चैतन्योपलब्धिः स्यात् , न चैवं, तस्मान्नैक आत्मा, भूतानां चान्याऽन्यगुणवं न स्वाद्, एकस्सादात्मनोऽभिन्नबाद , तथा पञ्चेन्द्रियस्थानाना-पञ्चेन्द्रियाश्रितानां ज्ञानानां प्रवृत्तौ सत्यामन्येन ज्ञाखा विदितमन्यो न जानातीत्येतदपि न खाययेक | एवारमा स्थादिति ॥ १०॥ साम्प्रतं तजीवतच्छरीरवादिमतं पूर्वपक्षयितुमाह पत्तेअं कसिणे आया, जे बाला जे अ पंडिआ। संति पिच्चा न ते संति, नत्थि सत्तोववाइया ॥११॥ तज्जीवतच्छरीरवादिनामयमभ्युपगमः—यथा पञ्चभ्यो भूतेभ्यः कायाकारपरिणतेभ्यश्चैतन्यमुत्पद्यते अभिव्यज्यते वा, तेनैकैकं शरीरं प्रति प्रत्येकमास्मानः 'कृस्लाः सर्वेऽप्यात्मान एवमवस्थिताः, ये 'बाला' अज्ञाये च 'पण्डिताः सदसद्विवेकज्ञास्ते सर्वे | पृथग् व्यवस्थिताः, नोक एवात्मा सर्वव्यापिलेनाभ्युपगन्तव्यो, बालयण्डिताद्यविभागप्रसङ्गात् , ननु प्रत्येकशरीराश्रयखेनात्मबहुखमार्हतानामपीष्टमेवेत्याशवाह-'सन्ति' विद्यन्ते यावच्छरीरं विद्यन्ते तदभावे तु न विषन्ते, तथाहि कायाकारपरिणतेषु | भूतेषु चैतन्याविर्भावो भवति, भूतसमुदाय विघटने च चैतन्यापगमो, न पुनरन्यत्र गच्छचैतन्यमुपलभ्यते, इत्येतदेव दर्शयति'पिच्चा न ते संतीति 'प्रेत्य' परलोके न 'ते' आत्मानः 'सन्ति' विद्यन्ते, परलोकानुयायी शरीरादिनः स्वकर्मफलभोक्ता न कचिदात्माख्यः पदार्थोऽस्तीति भावः । किमित्येवमत आह-'नथि सत्तोववाइया' अस्तिशब्दस्तिङन्तप्रतिरूपको निपातो बहुवचने द्रष्टच्या, तदयमर्थ:-'न सन्ति' न विद्यन्ते 'सत्वा प्राणिन उपपातेन निचा औपपातिका-भवानवान्तरगामिनो न १ विचाटने प्र०।२० पलक्ष्यते । दीप अनुक्रम [११] 9000000000000000023029000 SARELatunmantharama Inurasaram.org ~50~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-११], नियुक्ति: [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक रीवा. ||१२|| दीप अनुक्रम [१२] सूत्रकृताङ्गं भवन्तीति तात्पर्यार्थः, तथाहि तदागमः-"विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्य संज्ञाऽस्ती"ति, 10१समयाशीलाङ्काननु प्रागुपन्यस्तभूतवादिनोऽस्य च तञ्जीवतच्छरीरवादिनः को विशेष इति ?, अत्रोच्यते, भूतवादिनो भूतान्येव कायाकारपरिणतानि । ध्ययने त जीवतच्छ. चार्यांय-1 धावनवल्गनादिकां क्रियां कुर्वन्ति, अस्य तु कायाकारपरिणतेभ्यो भूतेभ्यश्चैतन्याख्य आत्मोत्पद्यतेऽभिव्यज्यते वा, तेभ्यश्चाभिन्न | इत्ययं विशेषः ॥११॥ एवं च धर्मिणोऽभावाद्धर्मस्याप्यभाव इति दर्शयितुमाह--- ॥२०॥ नत्थि पुण्णे व पावे वा, नत्थि लोए इतो वरे।सरीरस्स विणासेणं, विणासो होइ देहिणो॥१२॥ 'पुण्यम्' अभ्युदयप्राप्तिलक्षणं तद्विपरीतं पापमेतदुभयमपि न विद्यते, आत्मनो धर्मिणोऽभावात् , तदभावाच नास्ति 'अतः || असाल्लोकात् 'पर' अन्योलोको यत्र पुण्यपापानुभव इति, अत्र चार्थे सूत्रकारः कारणमाह--'शरीरस्थ' कायस्थ 'बिनाशेन' भूतविघटनेन 'विनाश:' अभावो 'देहिन' आत्मनोऽप्यभावो भवति यतः, न पुनः शरीरे विनष्टे तस्मादात्मा परलोकं गत्वा पुण्यं । पापं वाऽनुभवतीति, अतो धर्मिण आत्मनोऽभावाचद्धर्मयोः पुण्यपापयोरप्यभाव इति, असिंबार्थे वहलो दृष्टान्ताः सन्ति, तद्य-|| था-यथा जलबुदुदो जलातिरेकेण नापर! कश्चिद्विद्यते तथा भूतव्यतिरेकेण नापरः कश्चिदात्मेति, तथा यथा कदलीस्तम्भस्य | बहिस्वगपनयने क्रियमाणे लपात्रमेव सर्व नान्तः कश्चित्सारोऽस्ति एवं भूतसमुदाये विघटति सति तावन्मानं विहाय नान्तः॥॥२०॥ | सारभूतः कबिदामाख्यः पदार्थ उपलभ्यते, यथा वाऽलातं भ्राम्यमाणमतदूपमपि चक्रबुद्धिमुत्पादयति एवं भूतसमुदायोऽपि ॥ वभिन्न प्रक। ~51~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१२], नियुक्ति: [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| esepeceisesesepercenergeroesea विशिष्टक्रियोपेतो जीवभ्रान्तिमुत्पादयतीति, यथा च स्वप्ने बहिर्मुखाकारतया विज्ञानमनुभूयते अन्तरेणैव बाह्यमर्थम् , एवमा-1 त्मानमन्तरेण तद्विज्ञानं भूतसमुदाये प्रादुर्भवतीति, तथा यथाऽऽदर्श स्वच्छतात्प्रतिविम्बितो बहिःस्थितोऽप्यर्थोऽन्तर्गतो लक्ष्यते, न । चासौ तथा, यथा च ग्रीष्मे भौमेनोष्मणा परिस्पन्दमाना मरीचयो जलाकारं विज्ञानमुत्पादयन्ति, एवमन्येऽपि गन्धर्वनगरादयः खस्वरूपेणातथाभूता अपि तथा प्रतिभासन्ते, तथाऽऽत्मापि भूतसमुदायस्य कायाकारपरिणतौ सत्यां पृथगसन्नेव तथा भ्रान्ति समुत्पादयतीति । अमीषां च दृष्टान्तानां प्रतिपादकानि केचित्सूत्राणि व्याचक्षते, अस्माभिस्तु सूत्राऽऽदर्शषु चिरन्तनटी कायां| चादृष्टयानोल्लिङ्गितानीति । ननु च यदि भूतव्यतिरिक्तः कश्चिदात्मा न विद्यते, तत्कृते च पुण्यापुण्ये न स्तः, तत्कथमेत| अगचियं घटते, तद्यथा-कविदीश्वरोऽपरो दरिद्रोऽन्यः सुभगोऽपरो दुर्भगः सुखी दुस्खी सुरूपो मन्दरूपो व्याधितो नीरो-1%81 गीति, एवंप्रकारा च विचित्रता किंनिबन्धनेति, अत्रोच्यते, स्वभावात् , तथाहि-कुत्रचिपिछलाशकले प्रतिमारूपं निप्पाधते, तच कुडमागरुचन्दनादिविलेपनानुभोगमनुभवति धूपायामोदं च, अन्यसिंस्तु पाषाणखण्डे पादक्षालनादि क्रियते, न च तयोः | पाषाणखण्डयोः शुभाशुभे स्तः, यदुदयात्स ताविधावस्थाविशेष इत्येवं स्वभावाअगद्वैचित्र्यं, तथा चोक्तम्-'कण्टकस्य च तीक्ष्णख, मयूरस्थ विचित्रता । वर्णाश्च ताम्रचूडाना, स्वभावेन भवन्ति हि ॥१॥" इति तजीवतच्छरीवादिमतं गतम् ॥१२॥ इदानीमकारकवादिमताभिधित्सयाऽऽह कुत्वं च कारयं चेव, सवं कुवं न विजई । एवं अकारओ अप्पा, एवं ते उ पगभिआ ॥ १३ ॥ दीप अनुक्रम [१२] SARERucatinilAsm ISMIRTH ~52~ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१३], नियुक्ति: [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृताङ्गं शीलाका गा- चायिवृ प्रत सूत्रांक ||१३|| ॥२१॥ SO902869088odases दीप अनुक्रम [१३]] कुर्वनिति स्वतन्त्रः कर्ताऽभिधीयते, आत्मनश्चामूर्तखान्नित्यत्रात् सर्वव्यापिखाच कर्तृवानुपपत्तिः, अत एव हेतोः कारयितृत्वम-९१ समयाप्यात्मनोऽनुपपन्नमिति, पूर्ववशब्दोऽतीतानागतकर्तृत्वनिषेधको द्वितीयः समुच्चयार्थः, ततश्चात्मा न खयं क्रियायां प्रवर्तते, नाप्यन्यं 8ध्ययने प्रवर्तयति, यधपि च खितिक्रिया मुद्राप्रतिबिम्बोदयन्यायेन [ जपास्फटिकन्यायेनच ] भुजिक्रियां करोति तथाऽपि समस्तक्रिया-181 कर्तृत्वं तस्य नास्तीत्येतदर्शयति-'सव्वं कुच्वं ण विजईत्ति 'सा' परिस्पन्दादिका देशादेशान्तरप्राप्तिलक्षणां क्रियां कुर्वन्नात्मा वादिख. न विद्यते, सर्वव्यापित्वेनामूर्तत्वेन चाकाशसेवात्मनो निष्क्रियत्वमिति, तथा चोक्तम्--"अकर्ता निर्गुणो भोक्ता, आत्मा साप-14 निदर्शने" इति । 'एवम्' अनेन प्रकारेणात्माऽकारक इति, 'ते' सांख्याः, तुशब्दः पूर्वेभ्यो व्यतिरेकमाइ, ते पुनः साङ्ख्या एवं ॥ 'प्रगल्भिताः' प्रगल्भवन्तो धावन्तः सन्तो भूयो भूयस्तत्र तत्र प्रतिपादयन्ति, यथा-"प्रकृतिः करोति, पुरुष उपके, तथा बुद्धध्यवसितमर्थ पुरुषधेतयते" इत्यायकारकवादिमतमिति ॥१३॥ साम्प्रतं तीवतच्छरीराकारकवादिनोर्मतं निराचिकीर्षुराह-19 जे ते उ वाइणो एवं, लोए तेसिं कओ सिया?। तमाओते तमं जंति, मंदा आरंभनिस्सिया॥१४॥ ॥२१॥ तत्र ये तावरछरीराव्यतिरिक्तात्मवादिनः 'एव'मिति पूर्वोक्तया नीत्या भूताव्यतिरिक्तमात्मानमभ्युपगतवन्तस्ते निराक्रियन्तेतत्र यत्तेस्तावदुक्तम्-'यथा न शरीरानिमोऽस्त्यात्मेति, तदसङ्गतं, यतस्तत्प्रसाधकं प्रमाणमस्ति, तचेदम्-विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरम् , आदिमत्प्रतिनियताकारत्वात् , इह यधदादिमत्प्रतिनियताकारं तत्तद्वियमानकर्तृकं दृष्टं, यथा घटा, यचाविषमानकरीक For P OW ~53~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१४], नियुक्ति: [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१४|| Reete तदादिमत्प्रतिनियताकारमपि न भवति, यथाऽकाशम् , आदिमत्प्रतिनियताकारस्य च सकर्तृत्वेन व्याप्तः, व्यापकनिवृत्ती व्याप्यस्य । विनिवृत्तिरिति सर्वत्र योजनीयम् । तथा विद्यमानाधिष्ठातृकानीन्द्रियाणि, करणत्वात् , यद्यदिह करणं तत्तद्विद्यमानाधिष्ठातृकं रएं, यथा दण्डादिकमिति, अधिष्ठातारमन्तरेण करणत्वानुपपचिः यथाऽऽकाशस्थ, हषीकाणां चाधिष्ठाताऽऽस्मा, स च तेभ्योऽन्य इति, तथा विद्यमानाऽऽदातृकमिदमिन्द्रियविषयकदम्बकम् , आदानादेयसद्भावात् , इह.यत्र यत्राऽऽदानादेयसद्भावस्तत्र तत्र विद्य| मान आदावा-ग्राहको दृष्टः, यथा.संदंशकायपिण्डयोस्तद्भिबोध्यस्कार इति, यश्चात्रेन्द्रियैः करणैर्विषयाणामादाता-ग्राहकः स तद्भिन्न आत्मेति, तथा विद्यमानभोक्तृकमिदं शरीरं, भोग्यत्वादोदनादिवत् , अत्र च कुलालादीनां मूर्तत्वानित्यत्वसंहतत्वदर्शनादात्मापि तथैव सादिति धर्मिविशेषविपरीतसाधनत्वेन विरुद्धाशङ्का न विधेया, संसारिण आत्मनः कर्मणा सहान्योज्ज्यानुवन्धतः ॥ कथश्चिन्मूर्तत्वाद्यभ्युपगमादिति, तथा यदुक्तम् 'नास्ति सवा औपपातिका' इति, तद्प्ययुक्तं, यतस्तदहर्जातवालकस्य यः स्तनाभि| लापः सोन्याभिलाषपूर्वकः, अभिलाषत्वात् , कुमाराभिलाषवत् , तथा बालविज्ञानमन्यविज्ञानपूर्वकं, विज्ञानत्वात् , कुमारविज्ञान-18 वत् , तथाहि-तदहर्जातवालकोऽपि यावत्स एवार्य स्तन इत्येवं नावधारयति तावनोपरतरुदितो मुखमर्पयति स्तने इति, अतोऽस्ति 48 बालके विज्ञानलेशः, स चान्यविज्ञानपूर्वकः, तच्चान्यद्विज्ञानं भवान्तरविज्ञानं, तस्मादस्ति सत्त्व औपपातिक इति । तथा यदभिहितं, 'विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यती'ति,तत्राप्ययमों-'विज्ञानघनो विज्ञानपिण्ड आत्मा 'भूतेभ्य उत्थायेति माक्तनकर्मवशात्तथाविधकायाकारपरिणते भूतसमुदाये तद्वारेण खकर्मफलमनुभूय पुनस्तद्विनाशे आत्मापि तदनु तेनाकारण। १नाक्षाणां प्रतिनियत आकारः, जम्बूद्वीपादिलोकस्थिति निषेधार्थमाविमश्यम् । Recenerdercedeseesesekesesesed दीप अनुक्रम [१४] caeeeeee SAREauratoninternational Hereasaramorg ~54~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१४], नियुक्ति: [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्गं शीलाकाचा-यत्तियुत ॥२२॥ ||१४|| दीप अनुक्रम [१४] विनश्यापरपर्यायान्तरेणोत्पद्यते, न पुनस्तरेव सह विनश्यतीति । तथा यदुक्तं-धर्मिणोऽभावात्तद्धर्मयोः पुण्यपापयोरभाव इति, 18|१समयातदप्यसमीचीनं, यतो धर्मी तावदनन्तरोक्तिकदम्बकेन साधितः, तत्सिद्धौ च तद्धर्मयोः पुण्यपापयोरपि सिद्धिवसेया जगद्वैचित्र्य- ध्ययने तदर्शनाच्च । यत्तु खभावमाश्रित्योपलशकलं दृष्टान्तलेनोपन्यस्तं तदपि तद्भोक्तुकर्मवशादेव तथा तथा संवृत्तमिति दुर्निवारः पुण्या-1 जीवत च्छरीर० पुण्यसद्भाव इति । येऽपि वहवः कदलीस्तम्भादयो दृष्टान्ता आत्मनोभावसाधनायोपन्यस्ताः तेऽप्यभिहितनीत्याऽऽत्मनो भूतन्यतिरिक्तस्य परलोकयायिनः सारभूतस्य साधितखात्केवलं भवतो चाचालतांप्रख्यापयन्ति इत्यलमतिप्रसङ्गेन । शेष सूत्रं वित्रियतेऽधुनेति । तदेवं 'तेषां भूतव्यतिरिक्तात्मनिहववादिनां योऽयं 'लोक' चतुर्गतिकसंसारो भवाद्भवान्तरगतिलक्षणः प्राक् प्रसाधितः सुभग| दुभंगमुरूपमन्दरूपेश्वरदारियादिगत्या जगढचित्र्यलक्षणश्च स एवंभूतो लोकस्तेषां 'कुतो भवेत् । कयोपपल्या घटेत । आत्मनी-1 जनभ्युपगमात्, न कथञ्चिदित्यर्थः, 'ते च नास्तिकाः परलोकयायिजीवाऽनभ्युपगमेन पुण्यपापयोश्वाभावमाश्रित्य यत्किञ्चनका-16 रिणोऽज्ञानरूपाचमसः सकाशादन्यत्तमो यान्ति, भूयोऽपि ज्ञानावरणादिरूपं महत्तरं तमः संचिन्वन्तीत्युक्तं भवति, यदिवा-तम 81 इव तमो- दुःखसमुद्घातेन सदसद्विवेकप्रध्वंसिखाद्यातनास्थानं तस्माद् एवंभूतात्तमसः परतरं तमो यान्ति, सप्तमनरकपृथिव्यां | रौरवमहारौरवकालमहाकालाप्रतिष्ठानाख्यं नरकाबास यान्तीत्यर्थः किमिति ?, यतस्ते 'मन्दा' जडा मूखोंः, सत्यपि युक्त्युपपने ॥२२॥ आत्मन्यसदभिनिवेशाचदभावमाश्रित्य प्राण्युपमर्दकारिणि विवेकिजननिन्दिते आरम्भे-व्यापारे निश्चयेन नितरां वा श्रिताःसंबद्धाः, पुण्यपापयोरभाव इत्याश्रित्य परलोकनिरपेक्षतयाऽऽरम्भनिश्रिता इति । तथा तजीवतच्छरीरबादिमतं नियुक्तिकारोपि| | निराचिकीर्षुराह--'पंचण्ह'मित्यादिगाथा प्राग्वदत्रापि ३३ ॥ साम्प्रतमकारकवादिमतमाश्रित्यायमनन्तर(रोक्त)श्लोको भूयोऽपि ~55~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१४|| दीप अनुक्रम [१४] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१४], निर्युक्तिः [३४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Eucation व्याख्यायते—ये एते अकारकवादिन आत्मनोऽमूर्तखनित्यत्वसर्वव्यापित्वेभ्यो हेतुभ्यो निष्क्रियत्वमेवाभ्युपपन्नाः तेषां य एष 'लोको' जरामरणशोकाक्रन्दनहर्षादिलक्षणो नरकतिर्यमनुध्यामरगतिरूपः सोऽयमेवंभूतो निष्क्रिये सत्यात्मन्यप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावे 'कुतः' कसाद्धेतोः स्यात् ?, न कथञ्चित्कुतश्चित्स्यादित्यर्थः, ततश्च दृष्टेष्टवाधारूपात्तमसोऽज्ञानरूपात्ते तमोऽन्तरं - निकृष्टं यातनास्थानं यान्ति, किमिति १, यतो 'मन्दा' जडाः प्राण्यपकारकाऽऽरम्भनिथितार्थ ते इति । अधुना निर्युक्तिकारोऽकारकवादिमतनिराकरणार्थमाह को वेई अकर्ष ? कयनासो पंचहा गई नस्थि । देवमनुस्सगयागड़ जाईसरणाश्याणं च ॥ ३४ ॥ आत्मनोऽकर्तृत्खात्कृतं नास्ति, ततश्राकृतं को वेदयते ?, तथा निष्क्रियले वेदनक्रियाऽपि न घटां प्राञ्चति, अथाकृतमप्यनुभूयेत तथा सत्यकृतागमकृतनाशापत्तिः स्यात् ततश्च एककृतपातकेन सर्वः प्राणिगणो दुःखितः स्यात् पुण्येन च सुखी स्यादिति, न चैतद् दृष्टमिष्टं वा, तथा व्यापितानित्यत्वाच्चात्मनः 'पञ्चधा' पञ्चप्रकारा नारकतिर्यअनुष्यामरमोक्षलक्षणा गतिर्न भवेत्, ततश्च भवतां सांख्यानां काषायचीवरधारणशिरस्तुण्डमुण्डनदण्डधारणभिक्षाभोजित्वपञ्चरात्रोपदेशानुसारयमनियमाद्यनुष्ठानं, तथा “पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो, यत्र तत्राश्रमे रतः । जटी मुण्डी शिखी वापि, मुच्यते नात्र संशयः ॥१॥" इत्यादि सर्वमपार्थकमाशोति तथा देवमनुष्यादिषु गत्यागती न स्यातां, सर्वव्यापित्वादात्मनः, तथा नित्यखाच विसरणाभावा जातिसरणादिका च क्रिया नोपपद्यते, तथा आदिग्रहणात् 'प्रकृतिः करोति पुरुष उपभुङ्गे' इति वजिक्रिया या समाश्रिता साऽपि न प्राप्तोति, तस्या अपि क्रिया| खादिति, अथ 'मुद्राप्रतिविम्वोदयन्यायेन भोगइति चेद्, एतत्तु निरन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, वाच्यत्रत्वात्, प्रतिबिम्बोदयस्या For Parts Only ~56~ anerary.org Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१४], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक का ||१४|| दीप अनुक्रम [१४] सूत्रकृताङ्गं पिच क्रियाविशेषत्वादेव, तथा नित्ये चाविकारिण्यात्मनि प्रतिविम्बोदयस्थाभावाद्यत्किश्चिदेतदिति ॥ ३४ ॥ ननु च भूजिक्रि-18 १ समया सिमस्तक्रि-ध्ययने अशीलाकरयामात्रेण प्रतिविम्बोदयमात्रेण च यद्यप्यात्मा सक्रियः तथापि न तावन्मात्रेणासाभिः सक्रियत्वमिष्यते, किं तर्हि , समस्तक्रि-18 चाय- यावखे सतीत्येतदाशव नियुक्तिकृदाह कारकवाचियुतं दिनिरा. | णहु अफलधोवणिच्छितकालफलत्तणमिहं अदुमहेऊ । णादुद्धथोचबुद्धसणे णगावित्तणे हेऊ ॥ ३५॥ . 18 ॥२३॥ 181 महु' नैवाफलत्वं द्रुमाभावे साध्ये हेतुर्भवति, नहि यदैव फलवांस्तदैव द्रुमः अन्यदा त्वद्रुम इति भावः, एवमात्मनोऽपि 18|| सुप्ताद्यवस्थायां यद्यपि कथश्चिनिष्क्रियत्वं तथापि नैतावता त्वसौ निष्क्रिय इति व्यपदेशमहेति, तथा स्तोकफलत्वमपि न वृक्षा-1 8 भावसाधनायालं, स्वल्पफलोऽपि हि पनसादिवृक्षव्यपदेशभाग्भवति, एवमात्माऽपि खल्पक्रियोऽपि क्रियावानेव, कदाचिदेषा मतिर्भवतो भवेत्-स्तोकक्रियो निष्क्रिय एव, यथैककार्षापणघनो न धनित्व(व्यपदेश)मास्कन्दति, एवमात्माऽपि खल्पक्रियत्वाद-18 क्रिय इति, एतदप्यचारु, यतोऽयं दृष्टान्तः प्रतिनियतपुरुषापेक्षया चो(त्रो पगम्यते समस्तपुरुषापेक्षया वा?, तत्र यद्यायः पक्षः तदा |सिद्धसाध्यता, यतः-सहस्रादिधनवदपेक्षया निर्धन एवासौ, अथ समस्तपुरुषापेक्षया तदसाधु, यतोऽन्यान् जरचीवरधारिणोऽपेक्ष्य || २३॥ 18| कापोपणधनोऽपि धनवानेव, तथाऽऽस्मापि यदि विशिष्टसामयोपेतपुरुषक्रियापेक्षया निष्क्रियोऽभ्युपगम्यते न काचित्क्षतिः सामा-18 न्यापेक्षया तु क्रियावानेव, इत्यलमतिप्रसङ्गेन, एवमनिश्चिताकालफलत्वाख्यहेतुद्वयमपि न पक्षाभावसाधकम् इत्यादि योज्य, 1 | चोच्यते प्र. ~57~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१४], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१५|| एवमदुग्धत्वस्तोकदुग्धस्वरूपावपि हेतू न गोत्वाभावं साधयतः, उक्तन्यायेनैव दार्शन्तिकयोजना कार्येति ३५ ॥ १४ ॥ साम्प्रतमात्मषष्ठवादिमतं पूर्वपक्षयितुमाह संति पंच महब्भूया, इहमेगेसि आहिया । आयछटो पुणो आहु, आया लोगे य सासए ॥ १५॥ 'सन्ति' विद्यन्ते 'पञ्च महाभूतानि पृथिव्यादीनि 'इह' अस्मिन्संसारे 'एकेषां वेदवादिना सांख्यानां शैवांधिकारिणां च, ॥ एतद् आख्यातम् आख्यातानि वा भूतानि, ते च वादिन एवमाहुः–एवमाख्यातबन्तः, यथा 'आत्मषष्ठानि' आत्मा षष्ठो येषां तानि आत्मषष्ठानि भूतानि विद्यन्त इति, एतानि चात्मषष्ठानि भूतानि यथाऽन्येषां वादिनामनित्यानि तथा नामीषामिति दर्शयतिआत्मा 'लोकश्च पृथिव्यादिरूपः 'शाश्वत: अविनाशी, तत्रात्मनः सर्वव्यापित्वादमूर्तत्वाचाकाशस्येव शाश्वतत्वं, पृथिच्यादीनां | च तद्रूपाप्रच्युतेरविनश्वरत्वमिति ॥ १५ ॥ शाश्वतत्वमेव भूयः प्रतिपादयितुमाह-- दुहओ ण विणस्संति, नो य उप्पजए असं । सोऽवि सबहा भावा, नियत्तीभावमागया ॥१६॥ 'ते' आत्मषष्ठाः पृथिव्यादयः पदार्था 'उभयत इति नितुकसहेतुकविनाशद्वयेन न विनश्यन्ति, यथा बौद्धानां स्वत एव IS| निर्हेतुको विनाशः, तथा च ते ऊचुः 'जातिरेच हि भावानां, विनाशे हेतुरिष्यते । यो जातश्च न च ध्वस्ती, नश्येत्पवात्स | केन च ॥१॥" यथा च वैशेषिकाणां लकुटादिकारणसानिध्ये विनाशः सहेतुका, तेनोभयरूपेणापि विनाशेन लोकात्मनोने *१ वैशेषिकाणां दीप अनुक्रम [१५] REairaniKUnd ~58~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१६], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: पा प्रत सूत्रांक ||१६|| त्रकृताविनाश इति तात्पर्यार्थः, यदिवा-'दुहओत्ति द्विरूपादात्मनः स्वभावाचेतनाचेतनरूपान्न विनश्यन्तीति, तथाहि-पृथिव्यते- समया जोबायवाकाशानि खरूपापरित्यागतया नित्यानि, 'न कदाचिदनीदर्श जगदि तिकृत्वा, आत्माऽपि नित्य एव, अकृतकत्वादिभ्यो ध्ययने आ हेतुभ्यः, तथा चोक्तम्-"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ॥१॥ मषष्ठवात्तियुतं अच्छेद्योऽयमभेद्योऽयमविकार्योज्यमुच्यते । नित्यः संततगः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥२॥" एवं च कृत्वा नासदुत्पद्यते, सर्वस्व दिनि. ॥२४॥ सर्वत्र सद्भावाद् असति च कारकव्यापाराभावात् सत्कार्यवादः, यदि च असदुत्पद्येत खरविषाणादेरप्युत्पत्तिः स्यादिति, तथा चोक्तम्- "असदकरणादुपादानग्रहणात्सर्वसंभवाभावात् । शक्तस्स शक्यकरणात्कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥१॥" एवं च कृत्वा मृत्पिण्डेऽपि घटोऽस्ति, तदर्थिनां मृत्पिण्डोपादानात् , यदि चासदुत्पद्येत ततो यतः कुतश्चिदेव स्वात्, नावश्यमेतदर्थिना मृत्पिपाण्डोपादानमेव क्रियेत इति, अतः सदेव कारणे कार्यमुत्पद्यत इति । एवं च कृत्वा सर्वेऽपि भावाः-पृथिव्यादय आत्मषष्ठाः 'निय-18 तिभावं' नित्यत्वमागता नाभावरूपतामभूत्वा च भावरूपता प्रतिपद्यन्ते, आविर्भावतिरोभावमात्रत्वादुत्पतिविनाशयोरिति, तथा 8 |चाभिहितम् -"नासतो जायते भावो, नाभावो जायते सतः" इत्यादि, अस्योत्तरं नियुक्तिकृदाह-'को वेएईत्यादिप्राक्तन्येव | गाथा, सर्वेपदार्थनित्यत्वाभ्युपगमे कर्तृत्वपरिणामो न स्यात् , ततश्चात्मनोऽकर्तृत्वे कर्मबन्धाभावस्तदभावाच्च को वेदयति, न कश्चित्सुखदुःखादिकमनुभवतीत्यर्थः, एवं च सति कृतनाशः स्यात् , तथा असतलोत्पादाभावे येयमात्मनः पूर्वभवपरित्यागेनाप-1॥ रभवोत्पत्तिलक्षणा पश्चधा गतिरुच्यते सा न स्यात् , ततश्च मोक्षगतेरभावाद्दीक्षादिक्रियाऽनुष्ठानमनथेकमापयेत, तथाअच्युतानु-13 १. मदायोऽय०प्र० । २ सर्वगतः प्रा। दीप अनुक्रम Poeserveseserseaseserest [१६] SAREauratoninternational ~59~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१६], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१७|| त्पनस्थिरैकस्वभावसे चात्मनो देवमनुष्यगत्यागती तथा विस्मृतेरभावात् जातिसरणादिकं च न प्रामोति, यत्रोक्तं सदेवोत्पद्यते । तदप्यसत् , यतो यदि सर्वथा सदेव कथमुत्पादः ?, उत्पादचेत् न तहिं सर्वदा सदिति, तथा चोक्तम्- "कर्मगुणव्यपदेशाः 16/प्रागुत्पत्तेने सन्ति यत्तस्मात् । कार्यमसद्विज्ञेयं क्रियाप्रवृत्तेच कर्तृणाम् ॥१।" तसात्सर्वपदार्थानां कथश्चिन्नित्यवं कथञ्चिदनित्यवं सदसत्कार्यवादश्चेत्यवधार्य, तथा चाभिहितम्-"सर्वव्यक्तिषु नियतं क्षणे क्षणेऽन्यखमथ च न विशेषः । सत्योचित्यपचित्योराक18|तिजातिव्यवस्थानात् ॥१॥" इति, नथा “नान्वयः स हि भेदखान भेदोऽवयवृत्तितः । मुनेदद्वयसंसर्गवृत्तिजात्यन्तरं घटः || Mou१॥" ॥१६॥ साम्प्रतं बौद्धमतं पूर्वपक्षयनियुक्तिकारोपन्यस्तमफलवादाधिकारमाविर्भावयन्नाह पंच खंधे वयंतेगे, बाला उ खणजोइणो । अपणो अणण्णो णेवाहु, हेउयं च अहेउयं ॥ १७ ॥ & 'एके' केचन वादिनो बौद्धाः 'पञ्च स्कन्धान बदन्ति' रूपवेदनाविज्ञानसंज्ञासंस्काराख्याः पञ्चैव स्कन्धा विद्यन्ते नापरः कश्चिदात्माख्या स्कंधोऽस्तीत्येवं प्रतिपादयन्ति, तत्र रूपस्कन्धः पृथिवीधाखादयो रूपादयश्च १ सुखा दुःखा अदुःखसुखा चेति | |वेदना वेदनास्कन्धः २ रूपविज्ञान रसविज्ञानमित्यादि विज्ञानं विज्ञानस्कन्धः ३ संज्ञास्कन्धः संज्ञानिमित्तोद्भाहणात्मकः प्रत्ययः ।। ४ संस्कारस्कन्धः पुण्यापुण्यादिधर्मसमुदाय इति ५।न तेभ्यो व्यतिरिक्तः कश्चिदात्माख्या पदार्थोऽध्यक्षेणाध्यवसीयते, तदन्यभिचारिलिङ्गग्रहणाभावात् , नाप्यनुमानेन, न च प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्तमर्थाविसंवादि प्रमाणान्तरमस्तीत्येवं बाला इव बालायथाऽवस्थितार्थापरिज्ञानात् बौद्धाः प्रतिपादयन्ति, तथा ते स्कन्धाः 'क्षणयोगिनः परमनिरुद्धः कालः क्षणः क्षणेन योगः-सं दीप अनुक्रम [१७]] అందించాలని ప్రతి 2009 सूत्रकृ.५ ~60~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |१७|| दीप अनुक्रम [१७] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१७], निर्युक्तिः [३५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चायry नियुतं ॥२५॥ बन्धः क्षणयोगः स विद्यते येषां ते क्षणयोगिनः क्षणमात्रावस्थायिन इत्यर्थः तथा च तेऽभिदधति-स्वकारणेभ्यः पदार्थ उत्पद्यमानः किं विनश्वरस्वभाव उत्पद्यतेऽविनश्वरस्वभावो वा ?, यद्यविनश्वरस्ततस्तद्वयापिन्याः क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रियाया अभावात् पदार्थस्यापि व्याप्यस्याभावः प्रसजति, तथाहि यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थतः सदिति, स च नित्योऽर्थक्रियायां प्रवर्तमानः क्रमेण वा प्रवर्तेत यौगपद्येन वा ?, न तावत्क्रमेण, यतो ह्येकस्या अर्थक्रियायाः काले तस्यापरार्थक्रियाकरणस्वभावो विद्यते वा न वा ?, यदि विद्यते किमिति क्रमकरणं ?, सहकार्यपेक्षयेति चेत् तेन सहकारिणा तस्य कचिदतिशयः क्रियते न वा ?, यदि क्रियते किं पूर्वस्वभाव परित्यागेनापरित्यागेन वा ?, यदि परित्यागेन ततोऽतादवस्थ्यापतेरनित्यत्वम्, अथ पूर्वस्वभावापरित्यागेन ततोऽ१तिशयाभावात्किं सहकार्यपेक्षया ?, अथ अकिञ्चित्करोऽपि विशिष्टकार्यार्थमपेक्षते, तदयुक्तं यतः 'अपेक्षेत परं कश्विद्यदि कुर्वीत किश्चन । यदकिश्चित्करं वस्तु कि केनचिदपेक्ष्यते १ ॥ १॥ अथ तस्यैकार्थक्रियाकरणकालेऽपरार्थक्रियाकरणस्वभावो विद्यते, तथा च सति स्पष्टैव नित्यताहानिः, अथासौ नित्यो यौगपद्येनार्थक्रियां कुर्यात् तथा सति प्रथमक्षण एवाशेषार्थक्रियाणां करणात् द्वितीयक्षणेऽकर्तृवमायातं तथा च सैवानित्यता, अथ तस्य तत्स्वभावत्वात्ता एवार्थक्रिया भूयो भूयो द्वितीयादिक्षणेष्वपि कुर्यात्, तदसाम्प्रतं कृतस्य करणाभावादिति, किंच-- द्वितीया दिक्षणसाध्या अध्यर्थाः प्रथमक्षण एवं प्राप्नुवन्ति, तस्य तत्स्वभा वखात्, अतत्स्वभावले च तस्यानित्यत्वापत्तिरिति । तदेवं नित्यस्य क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरहान स्वकारणेभ्यो नित्यस्योत्पाद इति । अथा नित्यस्वभावः समुत्पद्यते, तथा च सति विनाभावादायातमस्मदुक्तमशेषपदार्थजातस्य क्षणिकसं, तथा चोक्तम्- "जातिरेव हि भावानां विनाशे हेतुरिष्यते । यो जातच न च ध्वस्तो, नश्येत्पश्चात्स केन च १ ॥ १ ॥" ननु च सत्यप्यनित्यते यस्य Eaton lite For Parts Only ~ 61~ १ समयाध्ययने अफवाल दिबौद्धाः ।। २५ ।। wor Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१७|| दीप अनुक्रम [१७] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१७], निर्युक्तिः [३५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Eaton यदा विनाशहेतुसद्भावस्तस्व तदा विनाशः तथा च स्वविनाशकारणापेक्षाणामनित्यानामपि पदार्थानां न क्षणिकलमिति, एतच्चानुपासित गुरोर्वचः, तथाहि तेन मुद्गरादिकेन विनाशहेतुना घटादेः किं क्रियते १, किमत्र प्रष्टव्यम् । अभावः क्रियते, अत्र च प्रष्टव्यो देवानांप्रियः, अभाव इति किं पर्युदासप्रतिषेधोऽयमुत प्रसज्यप्रतिषेध इति १ तत्र यदि पर्युदासस्ततोऽयमर्थोभावादन्योऽभावो भावान्तरं— घटात्पटादिः सोऽभाव इति, तत्र भावान्तरे यदि मुद्गरादिव्यापारो न तर्हि तेन किश्चिद् घटस्य कृतमि ति, अथ प्रसज्यप्रतिषेधस्तदाऽयमर्थो - विनाशहेतुरभावं करोति, किमुक्तं भवति १ - भावं न करोतीति, ततथ क्रियाप्रतिषेध एव कृतः स्यात् न च घटादेः पदार्थस्य मुद्गरादिना करणं, तस्य स्वकारणैरेव कृतलात्, अथ भावाभावोऽभावस्तं करोतीति, तस्य तुच्छस्य नीरूफ्लात् कुतस्तत्र कारकाणां व्यापारः १ अथ तत्रापि कारकव्यापारो भवेत् खरशृङ्गादावपि व्याप्रियेरन् कारकाणीति । तदेवं विनाशहेतोरकिञ्चित्करलात् खहेतुत एवानित्यताक्रोडीकृतानां पदार्थानामुत्पत्तेर्विभहेतोधाभावात् क्षणिकलमवस्थितमिति । तुशब्दः पूर्ववादिभ्योऽस्य व्यतिरेक प्रदर्शकः, तमेव श्लोकपथार्धेन दर्शयति 'अण्णो अणण्णो' इति ते हि बौद्धा यथा|ऽऽत्मपष्ठवादिनः सांख्यादयो भूतव्यतिरिक्तमात्मानमभ्युपगतवन्तो यथा च चार्वाका भूताव्यतिरिक्तं चैतन्याख्यमात्मानमिष्टवन्तस्तथा 'नैवाहुः' नैवोक्तवन्तः, तथा हेतुभ्यो जातो हेतुकः कायाकारपरिणत भूतनिष्पादित इतियावत् तथाऽहेतुकोऽनाद्यपर्यवसितखान्नित्य इत्येवं तमात्मानं ते बौद्धा नाभ्युपगतवन्त इति ||१७|| तथाऽपरे बौद्धाश्रातुर्धातुकमिदं जगदाहुरित्येतद्दर्शयितुमाह पुढवी आउ तेऊ य, तहा वाऊ य एगओ । चत्तारि धाउणो रूवं, एवमाहंसु आवरे ॥ १८ ॥ For Parts Only ~62~ arrary.org Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१८], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम सूत्रकृताङ्गं181 पृथिवी घातुरापश्च धातुस्तथा तेजो वायुवेति, धारकखात्पोषकताच घातुखमेपाम्, 'एगओत्ति' यदैते चत्वारोऽप्येकाकारपरि-18|१ समयाशीला- णति विभ्रति कायाकारतया तदा जीवव्यपदेशमश्नुवते, तथा चोचुः-"चतुर्धातुकमिदं शरीरं, न तव्यतिरिक्त आत्माऽस्ती"ति, IST ध्ययने अफलवा. चायीय- 'एवमाहंसु यावरेत्ति' अपरे बौद्धविशेषा एवम् 'आहुः अभिहितवन्त इति, कचिद् 'जाणगा' इति पाठः, तत्राप्ययमों दिवीद्धाः चियुतं 'जानका' ज्ञानिनो वयं किलेत्यभिमानानिदग्धाः सन्तु एवमाहुरिति संबन्धनीयम् । अफलवादिलं चैतेषां क्रियाक्षण एवं कर्तुः सर्वात्मना नष्टलात् क्रियाफलेन सबन्धाभावादवसेयं, सर्व एव वा पूर्ववादिनोऽफलवादिनो द्रष्टव्याः, कैश्चिदात्मनो नित्यस्याविका॥२६॥ परिणोऽभ्युपगतखात् कैबिच्चारमन एवानभ्युपगमादिति । अत्रोत्तरदानार्थ प्राक्तन्येव नियुक्तिगाथा 'को बेए' ईत्यादि व्याख्यायते, यदि पञ्चस्कन्धव्यतिरिक्तः कश्चिदात्माख्यः पदार्थो न विद्यते ततस्तदभावात्सुखदुःखादिकं कोऽनुभातीत्यादिगाथा प्राग्वद्वधा| ख्येयेति, तदेवमात्मनोऽभावायोज्यं वसंविदितः सुखदुःखानुभवः स कस्य भवखिति चिन्त्यता, ज्ञानस्कन्धस्सायमनुभव इति चेत्, न, का तस्यापि क्षणिकखात्, शानक्षणस्य चातिसूक्ष्मसात् सुखदुःखानुभवाभावः, क्रियाफलवतोष क्षणयोरत्यन्तासंगतेः कृतनाशाकता भ्यागमापत्तिरिति, ज्ञानसंतान एकोऽस्तीति चेत् तस्यापि संतानिच्यतिरिक्तस्याभावाद्यत्किश्चिदेतत् , पूर्वेक्षण एवं उत्तरक्षणे वासनाIN|माधाय विनङ्खचतीति चेत् , तथा चोक्तम्-"यमिन्नेव हि संताने, आहिता कर्मवासना । फलं तत्रैव संधत्ते, कापासे रक्तता यथा|| IN||" अत्रापीदं विकल्प्यते--सा वासना किंक्षणेभ्यो व्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्तावा?, यदि व्यतिरिक्ता वासकखानुपपत्तिः, अथान्य-11।२६ । तिरिक्ता क्षणवत् क्षणक्षयित्वं तस्याः, तदेवमात्माभावे सुखदुःखानुभवाभावः स्याद् , अस्ति च सुखदुःखानुभवो, अतोऽस्त्यात्मेति, अन्यथा पञ्चविषयानुभवोत्तरकालमिन्द्रियज्ञानानां खविषयादन्यत्राप्रवृत्तेः संकलनाप्रत्ययो न स्यात् , आलयविज्ञानाद्भविष्यतीति [१८ ~63 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१८], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम चेदात्मैव तर्हि संशान्तरेणाभ्युपगत इति । तथा चौद्धागमोऽध्यात्मप्रतिपादकोऽस्ति, स चायम् - "इत एकनवते कल्पे, शक्त्या | मे पुरुषो हतः । तेन कर्मविपाकेन, पादे विद्धोऽसि भिक्षवः॥१॥" तथा "कृतानि कर्माण्यतिदारुणानि, तनूभवन्त्यात्म-10 शनि महणेन । प्रकाशनात्संवरणाच तेषामत्यन्तमूलोद्धरणं वदामि ॥१॥" इत्येवमादि, तथा यदुक्तं क्षणिकसं साधयता यथा 'पदार्थः कारणेभ्य उत्पद्यमानो नित्यः समुत्पद्यतेऽनित्यो वेत्यादि, तत्र नित्येप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकखभावे कारकाणां व्यापाराभा-18 13 वादतिरिक्ता बाचोयुक्तिरिति नित्यसपक्षानुत्पत्तिरेव, यच्च नित्यपक्षे भवताभिहितं 'नित्यस्य न क्रमेणार्थक्रियाकारिख नापि यो-18 गपयेनेति' तत्क्षणिकखेऽपि समान, यतः क्षणिकोऽप्यर्थक्रियायां प्रवर्तमानः क्रमेण योगपयेन वावश्यं सहकारिकारणसव्यपेक्ष ||2|| I एव प्रवर्तते, यतः 'सामग्री जनिका, न होकं किञ्चिदिति तेन च सहकारिणा न तस्य कश्चिदतिशयः कर्तुं पायेंते, धणस्यावि वेकखेनानाधेयातिशयखान, क्षणानां च परस्परोपकारकोपकार्यखानुपपत्तेः सहकारिताभावः, सहकार्यनपेक्षायां च प्रतिविशिकार्यानुपपत्तिरिति । तदेवमनित्य एव कारणेभ्यः पदार्थः समुत्पद्यत इति द्वितीयपक्षसमाश्रयणमेव, तत्रापि चैतदालोचनीयं-किं क्षणक्षयिखेनानित्यसमाहोखित्परिणामानित्यतयेति ?, तत्र क्षणक्षयिले कारणकार्याभावात् कारकाणां व्यापार एवानुपपन्नः कुतः131 क्षणिकानित्यस कारणेभ्य उत्पाद इति, अथ पूर्वक्षणात्चरक्षणोत्पादे सति कार्यकारणभावो भवतीत्युच्यते, तदयुक्तं, यतोऽसी | पूर्वक्षणो विनष्टो बोत्तरक्षणं जनयेदविनष्टो वा, न तावद्विनष्टः, तस्यासचाजनकखानुपपचे, नाप्यविनष्टः, उत्तरक्षणकाले पूर्वक्षणव्यापारसमावेशारक्षणभङ्गभङ्गापत्तेः, पूर्वक्षणो विनश्यस्तूत्तरक्षणमुत्पादयिष्यति तुलान्तयो मोनामवदिति चेत्, एवं तर्हि क्षणयोः स्पष्टवैककालताऽश्रिता, तथाहि-याऽसौ विनश्यवस्था साऽवस्थातुरभिन्ना उत्पादावस्थाऽप्युत्पित्सोः, ततश्च तयोविनाशोत्पादयो [१८ ~64~ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१८], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम सूत्रकताझं | यौंगपयाभ्युपगमे तद्धर्मिणोरपि पूर्वोत्तरक्षणयोरेककालावस्थायिखमिति, तद्धर्मताजभ्युपगमे च विनाशोत्पादयोरवस्तुखापचिरिति । १समयाशीलाकायचोक्तम्-'जातिरेव हि भावानामि'त्यादि, तत्रेदमभिधीयते-यदि जातिरेव-उत्पत्तिरेव भावाना-पदार्थानामभावे हेतुः, ध्ययने चाय-य ततोऽभावकारणस्य सनिहितत्वेन विरोधेनाघातसादुत्पत्यभावः, अथोत्पत्युत्तरकालं विनाशो भविष्यतीत्यभ्युपगम्यते, तथा सति अफलवात्तियुतं | दिबांद्वार उत्पत्तिक्रियाकाले तस्याभूतखात्पश्चाच्च भवननन्तर एव भवति न भूयसा कालेनेति किमत्र नियामकं?, विनाशहेखभाव इति चेत्, ॥२७॥ | यत उक्त-'निर्हेतुलाद्विनाशस्य स्वभावादनुबन्धिते'ति, एतदप्ययुक्तं, यतो घटादीनां मुद्गरादिव्यापारानन्तरमेव विनाशो भवन् | लक्ष्यते, ननु चोक्तमेवात्र तेन मुद्गरादिना घटादेः किं क्रियते ? इत्यादि, सत्यमुक्तं इदमयुक्तं तूतं, तथाहि-अभाव इति प्रसज्यप| युदास विकल्पद्वयेन योऽयं विकल्पितः पक्षद्वयेऽपि च दोषः प्रदर्शितः सोऽदोष एव, यतः पर्युदासपक्षे कपालाख्यभावान्तरकरणे, |घटख च परिणामानित्यतया तद्रूपतापत्तेः कथं मुद्गरादेर्घटादीन् प्रत्यकिश्चित्करखं ?, प्रसज्यप्रतिषेधस्तु भावं न करोतीति क्रियाप्रतिषेधात्मकोऽत्र नाश्रीयते, किं तर्हि ?, प्रागभावप्रध्वंसाभावतरेतरात्यन्ताभावानां चतुर्णा मध्ये प्रध्वंसाभाव एवेहाश्रीयते, तत्र ॥च कारकाणां व्यापारो भवत्येव, यतोऽसी वस्तुतः पर्यायोऽवस्थाविशेषो नाभावमात्र, तस्य चावस्थाविशेषस्य भावरूपत्वात्पूर्वोपम-10 शार्देन च प्रवृत्तत्वाध एव कपालादेरुत्पादः स एव घटादेविनाश इति विनाशस्य सहेतुकत्वमवखितम् , अपिच-कादाचित्कत्वेन ॥२७॥ विनाशस्य सहेतुकत्वमवसेयमिति, पदार्थव्यवस्थार्थ चावश्यमभावचातुर्विध्यमाश्रयणीयं, तदुक्तम्-"कायेंद्रव्यमनादिः स्यात्प्राग-18 भावस्पं निहवे । प्रध्वंसस चाभावस्थ, प्रच्यवेऽनन्ततां ब्रजेत् ॥१॥ सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे" इत्यादि । तदेवं | १ च भावस्थ प्र. [१८ REauraDAana A unmurary.org ~65~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१८], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१९|| क्षणिकस्य विचाराक्षमत्वात्परिणामानित्यपक्ष एव ज्यायानिति । एवञ्च सत्यात्मा परिणामी ज्ञानाधारो भवान्तरयायी भूतेभ्यः18 | कथश्चिदन्य एव शरीरेण सहान्योऽन्यानुवेधादनन्योऽपि, तथा सहेतुकोऽपि नारकतिर्यकमनुष्यामरभवोपादानकर्मणा तथा तथा विक्रियमाणसात् पर्यायरूपतयेति, तथाऽऽत्मस्वरूपाप्रच्युतेनित्यत्वादहेतुकोऽपीति । आत्मनश्च शरीरव्यतिरिक्तस्य साधितत्वात 'चतुर्दातुकमा शरीरमेवेदमित्येतदुन्मत्तप्रलपितमपकर्णयितव्यमित्यलं प्रसङ्गेनेति ॥ १८॥ साम्प्रतं पञ्चभूतात्माऽद्वैततजीवतच्छ|रीराकारकात्मषष्ठक्षणिकपश्चस्कन्धवादिनामफलवादित्वं वक्तुकामः सूत्रकारस्तेषां खदर्शनफलाभ्युपगमं दर्शयितुमाह9 अगारमावसंतावि, अरण्णा वावि पव्वया । इमं दरिसणमावण्णा, सव्वदुक्खा विमुच्चई ॥१९॥ 'अगार' गृहं तद् 'आवसन्तः' तसिस्तिष्ठन्तो गृहस्था इत्यर्थः, 'आरण्या वा' तापसादयः, 'प्रत्रजिताश्च' शाक्यादयः,18 | अपिः संभावने, इदं ते संभावयन्ति यथा-'इदम्' असदीयं दर्शनम् 'आपत्रा' आश्रिताः सर्वदुःखेभ्यो विमुच्यन्ते, आषेत्वा- 19 देकवचनं सूत्रे कृतं, तथाहि-पचभूतत जीवतच्छरीरबादिनामयमाशयः-यथेदमसदीय दर्शनं ये समाश्रितास्ते गृहस्थाः सन्तः सर्वेभ्यः शिरस्तुण्डमुण्डनदण्डाजिनजटाकाषायचीवरधारणकेशोल्लुश्चननाम्यतपश्चरणकायक्लेशरूपेभ्यो दुःखेभ्यो मुच्यन्ते, तथा चोचुः-"तपांसि यातनावित्राः, संयमो भोगवश्चनम् । अग्निहोत्रादिकं कर्म, बालकीडेव लक्ष्यत ॥ १॥" इति, सांख्यादयस्तु मोक्षवादिन एवं संभावयन्ति-यथा येऽसदीय दर्शनमकर्तृवात्माऽद्वैतपश्चस्कन्धादिप्रतिपादकमापनाः प्रबजितास्ते सर्वेभ्यो १ दगसोयरिआदओ चू. तणाणं उवासगाविवशंति आरोप्पगावि अगागमणम्मिणोय देवा तओ चेव गिधंति । दीप अनुक्रम [१९] eaderoesesectrocesterestaesesec ~66~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [२०] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१९], निर्युक्तिः [३५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचाययचियुतं ॥ २८ ॥ जन्मजरामरणगर्भपरम्पराऽनेकशारीरमानसातितीव्रतरासातोदयरूपेभ्यो दुःखेभ्यो विमुच्यन्ते, सकलद्वन्द्वविनिर्मोक्षं मोक्षमास्कन्दन्तीत्युक्तं भवति ॥ १९ ॥ इदानीं तेषामेवाफलवादित्वाविष्करणायाह ते णावि संधि णच्चा णं, न ते धम्मविओ जणा । जे ते उ वाइणो एवं, न ते ओहंतराऽऽहिया ॥२०॥ णावि संधिंचा णं, न ते धम्मविओ जणा । जे ते उ वाइणो एवं, न ते संसारपारगा ॥२१॥ न ते धम्मविओ जणा । जे ते उ वाइणो एवं, न ते गब्र्भस्स पारगा ||२२|| वि संधिच्चा णं, न ते धम्मविओ जणा । जे.ते उ वाइणो एवं, न ते जम्मस्स पारगा ॥२३॥ संधिचाणं, न ते धम्मविओ जणा । जे ते उ वाइणो एवं, न ते दुक्खस्स पारगा ॥२४॥ विधि चाणं, न ते धम्मविओ जणा । जे ते उ वाइणो एवं न ते मारस्स पारगा ॥ २५ ॥ ते पञ्चभूतवाद्यायाः 'नापि' नैव 'सन्धि' छिद्रं विवरं, 'च द्रव्यभावभेदाद्वेधा, तत्र द्रव्यसन्धिः कुव्यादेः भावसन्धिश्व ज्ञानावरणादिकर्मविवररूपः तमज्ञाला ते प्रवृत्ताः णमिति वाक्यालङ्कारे, यथा आत्मकर्मणोः सन्धिर्द्विधाभावलक्षणो भवति तथा अनुद्वैव ते वराका दुःखमोक्षार्थमभ्युद्यता इत्यर्थः, यथा त एवंभूतास्तथा प्रतिपादितं लेशतः प्रतिपादयिष्यते च यदिवा-सन्धानं | सन्धिः - उत्तरोत्तरपदार्थपरिज्ञानं तदज्ञाखा प्रवृत्ता इति, यतश्चैवमतस्ते न सम्यग्धर्मपरिच्छेदे कर्तव्ये विद्वांसो— निपुणा 'जनाः ' Internationa For Parts Only ~67~ १ समयाध्ययने मिध्यात्वफलं ॥ २८ ॥ wor Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२५|| दीप अनुक्रम [२५] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा - २५], निर्युक्तिः [३५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः EA पञ्चभूतास्तिलादिवादिनो लोका इति, तथाहि — क्षान्त्यादिको दशविधो धर्मस्तमज्ञात्रैवान्यथाऽन्यथा च धर्म प्रतिपादयन्ति यत्फलाभावाच्च तेषामफलवादिखं तदुत्तरग्रन्थेनोदेशकपरिसमाध्यवसानेन दर्शयति- 'ये ते स्विति' तुशब्दश्वशब्दार्थे य इत्यस्यानन्तरं प्रयुज्यते, ये च ते एवमनन्तरोक्तप्रकारवादिनो नास्तिकादयः, 'ओघो' भवौघः संसारस्तत्तरणशीलास्ते न भवन्तीति श्लोकार्थः ॥ | ॥ २० ॥ तथा च न ते वादिनः संसारगर्भजन्म दुःखमारादिपारगा भवन्तीति ॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥ २५ ॥ यत्पुनस्ते | प्राप्नुवन्ति तदर्शयितुमाह नाणाविहाई दुक्खाई, अणुहोति पुणो पुणो । संसारचक्कवालंमि, मच्छुवाहिजराकुले ॥ २६ ॥ उच्चावयाणि गच्छंता, गब्भमेस्संति णंतसो । नायपुत्ते महावीरे, एवमाह जिणोत्तमे ॥ २७ ॥ इति बेमि पढममायणे पढमो उद्देसो समत्तो ॥ 'नानाविधानि ' बहुप्रकाराणि 'दुःखानि' असातोदयलक्षणान्यनुभवन्ति पुनः पुनः, तथाहि - नरकेषु करपत्रदारणकुम्भीपाकतप्तायः शाल्मली समालिङ्गनादीनि तिर्यक्षु च शीतोष्णदमनाङ्कनताडनाऽतिभारारोपणक्षुत्तृडादीनि मनुष्येषु इष्टवियोगानिष्टसंप्रयोगशोकाक्रन्दनादीनि देवेषु चाभियोग्येर्ष्याकिल्विधिकखच्यवनादीन्यनेकप्रकाराणि दुःखानि ये एवंभूता वादिनस्त्रे पौनः १ प्रकारं कर्म चू For Penal Use On ~68~ janmayor Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-२७], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२७|| दीप अनुक्रम [२७] सूत्रकृतानं पुन्येन समनुभवन्ति, एतच्च श्लोकाई सर्वेत्तर श्लोकार्थेष्वायोज्यम् , शेपं सुगम यावदुद्देशकसमाप्तिरिति ॥ २६ ॥ नवरम् 'उच्चा- १ समया. शीलाका विचानी'ति अधमोत्तमानि नानाप्रकाराणि वासस्थानानि गच्छन्तीति, गच्छन्तो भ्रमन्तो गर्भाद्गर्भमेष्यन्ति यास्वन्त्यनन्तशो|3|| | उद्देशः२ चायीय IN निर्विच्छेदमिति नवीमीति सुधर्मखामी जम्बूस्वामिनं प्रत्याह-वीम्यहं तीर्थंकराज्ञया, न खमनीषिकया, स चाई प्रवीमि येन || नियतित्तियुतं | मया तीर्थकरसकाशाच्छ्रुतम् , एतेन च क्षणिकवादिनिरासो द्रष्टव्यः ॥२७॥ इति समयाख्यप्रथमाध्ययने प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥ वादः ॥२९॥ अथ प्रथमाध्ययने द्वितीय उद्देशकः प्रारभ्यते ॥ उक्तः प्रथमोद्देशकस्तदनु द्वितीयोऽभिधीयते, तस्य चायमभिसंबन्धः- इहानन्तरोद्देशके खसमयपरसमयग्ररूपणा कृता, इहाप्यध्ययनार्थाधिकारत्वात्सैवाभिधीयते, यदिवा-11 ऽनन्तरोदेशके भूतवादादिमतं प्रदर्य तन्निराकरणं कृतं, तदिहापि तदवशिष्टनियतिवाद्यादिमिथ्याष्टिमतान्युपदये निराक्रियन्ते, II अथवा प्रागुद्देशकेऽभ्यधायि यथा 'बंधनं बुध्येत तच त्रोटयेदिति तदेव च बन्धनं नियतिवाद्यभिप्रायेण न विद्यत इति प्रदश्यतेतदेवमनेकसंवन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि व्यावर्ण्य सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं मूत्रमुचारणीयं, तोदम् -1|| आघायं पुण एगेसिं, उववण्णा पुढो जिया । वेदयंति सुहं दुक्खं, अदुवा लुप्पंति ठाणउ ॥१॥ अस्स चानन्तरपरम्परसूत्रः संबन्धो वक्तव्यः, तत्रानन्तरसूत्रसंबन्धोऽयम्-इहानन्तरसूत्र इदमभिहितं, यथा 'पञ्चभूतस्क-1 2000వారాలలో SAMEnirahini अस्य पृष्ठे प्रथम अध्ययनस्य द्वितीय उद्देशकस्य आरम्भ: ~69~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-१], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| ececeaeesectictestersecest शन्धादिवादिनो मिथ्यात्वोपहतान्तरात्मानोऽसद्ग्रहाभिनिविष्टाः परमार्थावबोधविकलाः सन्तः संसारचक्रवाले व्याधिमृत्यु| जराकुले उच्चावचानि स्थानानि गछन्तो गर्भमेष्यन्त्यन्वेषयन्ति बाऽनन्तश' इति, तदिहापि नियत्यज्ञानिज्ञानचतुर्विधकर्माप-13 चयवादिनां तदेव संसारचक्रवालभ्रमणगान्वेषणं प्रतिपाद्यते । परम्परसूत्रं तु 'बुझेझे' त्यादि, तेन च सहायं संबन्धः-तत्र बुध्येतेत्येतत् प्रतिपादितम् , इहापि यदाख्यातं नियतिवादिभिस्तदुध्येत, इत्येवं मध्यसूत्रैरपि यथासंभवं संबन्धो लगनीय इति तदेवं पूर्वोत्तरसंवन्धसंबद्धस्वास्थ सूत्रस्थाधुनार्थः प्रतन्यते-पुनःशब्दः पूर्ववादिभ्यो विशेष दर्शयति, नियतिवादिनां पुनरेकेषामतदाख्यातं, अत्र च 'अविवक्षितकर्मका अपि अकर्मका भवन्तीति ख्यातेर्धातोर्भाचे निष्ठाप्रत्ययः तयोगे कर्तरि पष्ठी ततश्चाय|मर्थः-तैनियतिवादिभिः पुनरिदमाख्यातं, तेपामयमाशय इत्यर्थः, तद्यथा-'उपपना' युक्त्या घटमानका इति, अनेन च | | पञ्चभूततजीवतच्छरीरवादिमतमपाकृतं भवति, युक्तिस्तु लेशतः प्रान्दर्शितैव प्रदर्शयिष्यते च, पृथक् पृथक नारकादिभवेषु शरीरेषु वेति, अनेनाप्यात्माद्वैतवादिनिरासोऽवसेयः, के पुनस्ते पृथगुपपन्नाः ?, तदाह-'जीवा' प्राणिनः सुखदुःखभोगिनः, अनेन च पञ्चस्कन्धातिरिक्तजीवाभावप्रतिपादकबौद्धमतापक्षेपः कृतो द्रष्टव्यः, तथा ते जीवाः 'पृथक' पृथक् प्रत्येकदेहे व्यवस्थिताः सुखं दुःखं च 'वेदयन्ति' अनुभवन्ति, न वयं प्रतिप्राणि प्रतीतं मुखदुःखानुभवं निहुमहे, अनेन चाकवादिनो निरस्ता भवन्ति, अकर्तयेविकारिण्यात्मनि मुखदुःखानुभवानुपपत्तेरिति भावः । तथैतदस्माभिर्नापलप्यते 'अदुवे' ति अथवा ते प्राणिनः सुखं दुःखं चानुभवन्ति, 'विलुप्यन्ते' उच्छिद्यन्ते स्वायुषः प्रच्याव्यन्ते स्थानात्स्थानान्तरं संक्राम्यन्त इत्यर्थः,ततश्वीपपातिकत्वमप्यमाभिस्तेषां १न कर्मापचय प्र. Seesemes अनुक्रम [२८] REaram ana ~70~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-२], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रकृताङ्गं शीलाकाचायिय सुत्रांक ||२|| न निषिध्यते इतिश्लोकार्थः ॥१॥तदेवं पञ्चभूतास्तित्वादिवादिनिरासं कृत्वा यतैनियतिवादिमिराश्रीयते तच्छ्लोकद्वयेन दर्शयितुमाह १समया. न तं सयं कडं दुक्खं, कओ अन्नकडं च णं? । सुहं वा जइ वा दुक्खं, सेहियं वा असेहियं ॥२॥ उद्देशः२ नियतिसयं कडं न अण्णेहि, वेदयंति पुढो जिया । संगइअं तं तहा तेसिं, इहमेगेसि आहिअं ॥३॥ वादा | यत् तैः प्राणिभिरनुभूयते सुखं दुःखं स्थानविलोपन वा न तत् 'वयम्' आत्मना पुरुषकारेण 'कृतं निष्पादितं दुःखमिति || कारणे कार्योपचारात् दुःखकारणमेवोक्तम् , अस्य चोपलक्षणत्वात् सुखाद्यपि ग्राहां, ततश्चेदमुक्तं भवतियोऽयं सुखदुःखानुभवः || | स पुरुषकारकृतकारणजन्यो न भवतीति, तथा कुतः 'अन्येन' कालेश्वरखभावकर्मादिना च कृतं भवेत् 'ण'मित्यलकारे तथाहियदि पुरुषकारकृतं सुखानुभूयेत ततः सेवकवणिकर्षकादीनां समाने पुरुषाकारे सप्ति फलप्राप्तिवसदृश्यं फलाप्राप्तिश्च न भवेत् , | कस्सचित्तु सेवादिव्यापाराभावेऽपि विशिष्टफलावाप्तिदृश्यत इति, अतो न पुरुषकारात्किञ्चिदासाचते, किं तर्हि , नियतेरेवेति, | एतच द्वितीयश्लोकान्तेऽभिधासते नापि कालः कर्ता, तस्यैकरूपत्वाज्जगति फलवैचित्र्यानुपपत्तेः, कारणभेदे हि कार्यभेदो भवति || | नाभेदे, तथाहि-अयमेव हि भेदो भेदहेतुळ घटते यदुत विरुद्धधर्माध्यासः कारणभेदय, तथेश्वरककेपि सुखदुःखे न भवतः, | यतोऽसावीश्वरो मूर्तोऽभूतों का, यदि मूर्तस्ततः प्राकृतपुरुषस्खेव सर्वकर्तृलाभावः, अथामूर्तस्तथा सत्याकाशस्खेव सुतरां निष्क्रि-18" यत्वम्, अपिच-यासी रागादिमांस्ततोऽस्मदाद्यव्यतिरेकाद्विश्वस्थाकतव, अथासौ विगतरागस्ततस्तस्कृतं सुभगदुर्भगेश्वरदरिद्रादि | जगद्वैचित्र्यं न घटां प्राश्चति, ततो नेश्वरः कर्तेति, तथा स्वभावस्थापि सुखदुःखादिकर्तृत्वानुपपत्तिः, यतोऽसौ स्वभावः19 अनुक्रम [२९] deceaeroeseserce ~71 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-3], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्राक ||३|| पुरुषानिनोऽभिन्नो वा, यदि भिन्नो न पुरुषाश्रिते सुखदुःखे कर्तुमलं, तसान्नित्वादिति, नाप्यभिन्नः अभेदे पुरुष एच सात , तस्य चाकर्तृलमुक्तमेव । नापि कर्मणः सुखदुःखं प्रति कर्तृवं घटते, यतस्तत्कर्म पुरुषानिन्नमभित्र वा भवेत् १, अभिनं चेत्पुरुषमात्रतापत्तिः कर्मणः, तत्र चोक्तो दोषः, अथ भिन्न तरिक सचेतनमचेतनं वा?, यदि सचेतनमेकस्मिन् काये चैतन्यद्ध यापत्तिः, अथाचेतनं तथा सति कुतस्तस्य पाषाणखण्डस्येवास्वतन्त्रस्य सुखदुःखोत्पादन प्रति कर्तृखमिति, एतच्चोत्तरत्र व्यासेन-19 प्रतिपादयिष्यत इत्यलं प्रसङ्गेन । तदेवं सुखं 'सैद्धिक' सिद्धौ-अपवर्गलक्षणायां भवं यदिवा दुःखम्-असातोदयलक्षणमसैद्धिकं | सांसारिकं, यदिवा उभयमप्येतत्सुखं दुःखं वा, सचन्दनाङ्गनायुपभोगक्रियासिद्धौ भवं तथा कशाताडनानादिसिद्धौ भवं. | सैद्धिकं, तथा 'असैद्धिक' सुखमान्तरमानन्दरूपमाकसिकमनवधारितबानिमित्तम् एवं दुःखमपि ज्वरशिरोऽतिशूलादिरूपम-10 ॥जोत्थमसैद्धिक, तदेतदुभयमपि न खयं पुरुषकारेण कृतं नाप्यन्येन केनचित् कालादिना कृतं 'वेदयन्ति' अनुभवन्ति 'पृथक्जीवा' | पाणिन इति । कथं तर्हि तत्तेषामभूत् । इति नियतिवादी स्वाभिप्रायमाविष्करोति-"संगइयंति" सम्यकखपरिणामेन गतिः| यस्य यदा यत्र यत्सुखदुःखानुभवनं सा संगतिः नियतिस्तस्यां भवं सांगतिकं, यतश्चैवं न पुरुषकारादिकृतं सुखदुःखादि अत-| स्तत्तेषां प्राणिनां नियतिकृतं सांगतिकमित्युच्यते, 'हह' अस्मिन् सुखदुःखानुभववादे एकेषा वादिनाम् 'आख्यातं तेषामयमभ्युप-1 गमः, तथा चोक्तम्-"प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि || 8| प्रयत्ने, नाभान्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ॥१॥" ॥३॥ एवं श्लोकद्वयेन नियतिवादिमतमुपन्यस्थास्योत्तरदानायाह दीप अनुक्रम [३०] ~72~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-४], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रांक ||४|| सूत्रकताङ्गं एवमेयाणि जंपंता, बाला पंडिअमाणिणो। निययानिययं संतं, अयाणता अबुद्धिया ॥४॥ १समया शीलाङ्का उद्देशः २ चार्यायवृएवमेगे उ पासत्था, ते भुजो विप्पगब्भिआ । एवं उवढिआ संता, ण ते दुक्खविमोक्खया ॥५॥ नियतिवात्तियुतं दिमतं ॥३१॥ 'एवम्' इति अनन्तरोक्तस्योपप्रदर्शने 'एतानि' पूर्वोक्तानि नियतिवादाश्रितानि वचनानि 'जल्पन्तः' अभिदधतो बाला इव || 'बाला' अज्ञाः सदसद्विवेकविकला अपि सन्तः 'पण्डितमानिन' आत्मानं पण्डितं मन्तुं शीलं येषां ते तथा, किमिति त एवमुच्यत इति तदाह-यतो निययानिययं संतमिति'सुखादिकं किश्चिनियतिकृतम्-अवश्यंभाव्युदयप्रापितं तथा अनियतम्-आत्मपुरुष कारेश्वरादिप्रापितं सत् नियतिकृतमेवैकान्तेनाश्रयन्ति,अतोऽजानानाः सुखदुःखादिकारणं अबुद्धिका-बुद्धिरहिता भवन्तीति,तथाहि18 आर्हतानां किश्चित्सुखदुःखादि नियतित एव भवति–तत्कारणस्य कर्मणः कस्मिंश्चिदवसरेऽवश्यंभाव्युदयसद्भावानियतिकृतमित्यु| च्यते, तथा किश्चिदनियतिकृतं च-पुरुषकारकालेश्वरस्वभावकादिकृतं, तत्र कथञ्चित्सुखदुःखादेः पुरुषकारसाध्यत्वमप्याथीयते, || यतः क्रियातः फलं भवति, क्रिया च पुरुषकाराऽऽयचा प्रवर्तते, तथा चोक्तम्,-"न देवमिति संचिन्त्य, त्यजेदुधममात्मनः || ॥३ ॥ अनुद्यमेन कस्तैलं, तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति ॥१॥" यत्तु समाने पुरुषव्यापारे फलवैचित्र्यं दुपणखेनोपन्यस्तं तददुषणमेव, यतस्त-18 त्रापि पुरुषकारवैचित्र्यमपि फलवैचित्र्ये कारणं भवति, समाने वा पुरुषकारे यः फलाभावः कसचिद्भवति सोऽष्टकृतः, तदपि ॥४ चासाभिः कारणवेनाश्रितमेव । तथा कालोऽपि कर्ता, यतो बकुलचम्पकाशोकपुन्नागनागसहकारादीनां विशिष्ट एव काले पुष्प टीप अनुक्रम [३१] Recene Taraisaram.org ~73 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-५], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||५|| फलाद्युद्भवो न सर्वदेति, यच्चोक्तं 'कालस्सैकरूपताजगद्वैचित्र्यं न घटत' इति, तदसान् प्रति न दूपणं, यतोऽस्माभिर्न काल एवैकः कर्तृवेनाभ्युपगम्यते अपि तु कर्मापि, ततो जगद्वैचित्र्यमित्यदोषः । तथेश्वरोऽपि कर्ता, आत्मैव हि तत्र तत्रोत्पत्तिद्वारेण सकलज-18 II गवघापनादीश्वरः, तस्य सुखदुःखोत्पत्तिकसं सर्ववादिनामविगानेन सिद्धमेव, यश्चात्र मृर्तामूर्तादिकं दूषणमुपन्यस्तं तदेवभूते श्वरसमाश्रयणे दूरोत्सादितमेवेति । स्वभावस्थापि कथश्चित्कर्तृखमेव, तथाहि-आत्मन उपयोगलक्षणसमसंख्येयप्रदेशवं पुद्गलानां | |च मतलं धर्माधर्मास्तिकाययोर्गतिस्थित्युषष्टम्भकारिखममूर्तलं चेत्येवमादि स्वभावापादितं, यदपि चात्रात्मव्यतिरेकाच्यतिरेकरूपं । दुषणमुपन्यस्तं तददूषणमेव, यतः स्वभाव आत्मनोऽव्यतिरिक्ता, आत्मनोऽपि च कर्तृखमभ्युपगतमेतदपि खभावापादितमेवेति । ॥ तथा कर्मापि का भवत्येव, तद्धिजीवप्रदेशैः सहान्योन्यानुवेधरूपतया व्यवस्थितं कथञ्चिच्चात्मनोऽभिन्न, तशाचात्मा नारक| तिर्यश्मनुष्यामरभवेषु पर्यटन् सुखदुःखादिकमनुभवतीति । तदेवं नियत्यनियत्योः कर्तृले युक्त्युपपन्ने सति नियतेरेव कर्तृखमभ्युप गच्छन्तो निर्वृद्धिका भवन्तीत्यवसेयम् ॥ ४॥ तदेवं युक्त्या नियतिवादं दूषयित्वा तद्वादिनामपायदर्शनायाह-'एव'मिति | पूर्वाभ्युपगमसंसूचकः, सर्वस्मिन्नपि वस्तुनि नियतानियते सत्येके नियतिमेवावश्यंभाव्येव कालेश्वरादेनिराकरणेन निर्हेतुकतया | | नियतिवादमाश्रिताः, तुरवधारणे, त एव नान्ये, किंविशिष्टाः पुनस्ते इति दर्शयति-युक्तिकदम्बकादहि स्तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः परलोकक्रियापार्थस्था वा, नियतिपक्षसमाश्रयणात्परलोकक्रियावैयर्थ्य, यदिवा-पाश इव पाशा-कर्मबन्धनं, तच्चेह युक्तिविकल| नियतिवादग्ररूपणं तत्र स्थिताः पाशस्थाः, अन्येऽप्येकान्तवादिनः कालेश्वरादिकारणिकाः पार्श्वस्थाः पाशस्था वा द्रष्टव्या दीप अनुक्रम [३२] Cheeseaeeesereoes ~74 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-६], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक ||६|| सूत्रकृता इत्यादि, 'ते' पुनर्नियतिवादमाश्रित्यापि, भूयो विविधं विशेषेण वा 'प्रगल्भिता धाष्टोपगताः परलोकसाधकासु क्रियासुस शीलाङ्का- प्रवर्तते, पाष्टर्घाश्रयणं तु तेषां नियतिवादाश्रयणे सत्येव पुनरपि तत्प्रतिपन्थिनीषु क्रियासु प्रवर्तनादिति, ते पुनः 'एषमप्युप-10 उशा २ चार्यांय- | स्थिताः' परलोकसाधकासु क्रियासु प्रवृत्ता अपि सन्तो 'नात्मदुःखविमोक्षकाः' असम्यकप्रवृत्तवान्नात्मानं दुःखाद्विमोचय- नियतिवाचियुतं न्ति । गता नियतिवादिनः ॥ ५॥ साम्प्रतमज्ञानिमतं दूषयितुं दृष्टान्तमाह दिमतं ॥३२॥ जविणो मिगा जहा संता, परिताणेण वजिआ। असंकियाई संकंति, संकिआई असंकिणो॥६॥ यथा-'जविनो'वेगवन्तः सन्तो 'मृगा' आरण्याः पशवः परि समन्तात् वायते-रक्षतीति परित्राण तेन वर्जिता-रहिताः,8 | परित्राणविकला इत्यर्थः । यदिवा-परितानं-वागुरादिबन्धनं तेन तर्जिता-भयं ग्राहिताः सन्तो भयोभ्रान्तलोचनाः समा-181 | कुलीभूतान्तःकरणाः सम्यविवेकविकला 'अशङ्कनीयानि कूटपाशादिरहितानि स्थानान्यशाहोणि तान्येच 'शङ्कन्ते' अन-181 ISोत्पादकसेन गृह्णन्ति । यानि पुनः 'शङ्काहाणि' शंका संजाता येषु योग्यखातानि शकितानि-शङ्कायोग्यानिवागुरादीनि | तान्यशशिनः तेषु शङ्कामकुर्वाणाः, 'तत्र तत्र' पाशादिके संपर्ययन्त इत्युत्तरेण संबन्धमाशापुनरप्येतदेवातिमोहाविष्करणायाहपरियाणिआणि संकंता, पासिताणि असंकिणो। अण्णाणभयसंविग्गा, संपलिंति तर्हि तहिं ॥७॥ ॥३२॥ परित्रायते इति परित्राण तजातं येषु तानि तथा, परित्राणयुक्तान्येव शङ्कमाना अतिमूढत्वाद्विपर्यस्तबुद्धयः, वातपि भयमुत्प्रेक्षमाणाः, तथा 'पाशितानि' पाशोपेतानि-अनर्थापादकानि 'अशतिनः तेषु शङ्कामकुर्वाणाः सन्तः अज्ञानेन भयेन च। अनुक्रम [३३] ~75 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥७॥ दीप अनुक्रम [३४] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-७], निर्युक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[ ०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः Educator 'संविग्ग' ति सम्यग्व्याप्ता वशीकृताः, शङ्कनीयमशङ्कनीयं वा तथा परित्राणोपेतं पाशाद्यनर्थोपेतं वा सम्यविवेकेनाजानाना: 'तत्र तत्र' अनर्थबहुले पाशवागुरादिके बन्धने 'संपर्ययन्ते' सम्— एकीभावेन परि-समन्तादयन्ते यान्ति वा गच्छन्तीत्युक्तं भवति, तदेवं दृष्टान्तं प्रसाध्य नियतिवादाद्येकान्ताज्ञानवादिनो दार्शन्तिकलेनाऽऽयोज्याः, यतस्तेऽप्येकान्तवादिनो|ऽज्ञानिकाः त्राणभूतानेकान्तवादवर्जिताः सर्वदोषविनिर्मुक्तं कालेश्वरादिकारणवादाभ्युपगमेनानाशङ्कनीयमनेकान्तवादमाशङ्कन्ते शङ्कनीयं च नियत्यज्ञानवादमेकान्तं न शङ्कन्ते, 'ते' एवंभूताः परित्राणार्हेऽप्यनेकान्तवादे शङ्कां कुर्वाणा युक्तयाऽघटमानकमनबहुलमेकान्तवादमशङ्कनीयत्वेन गृह्णन्तोऽज्ञानावृतास्तेषु तेषु कर्मबन्धस्थानेषु संपर्ययन्त इति ॥ ७ ॥ पूर्वदोषैरतुष्यन्नाचार्यो दोषान्तरदित्सया पुनरपि प्राक्तनदृष्टान्तमधिकृत्याऽऽह - अह तं पवेज बज्झं, अहे बज्झस्स वा वए। मुश्चेज पयपासाओ, तं तु मंदे ण देहए ॥ ८ ॥ 'अथ' 'अनन्तरमसौ मृगस्तत् 'बज्झमिति' बद्धं बन्धनाकारेण व्यवस्थितं वागुरादिकं वा बन्धनं बन्धकत्वाद्बन्धमित्युच्यते, तदेवंभूतं कूटपाशादिकं बन्धनं यद्यसावुपरि प्रवेत् तद्धस्तादतिक्रम्योपरि गच्छेत् तस्य वदेर्बन्धनस्याधो (वा) गच्छेत्, तत एवं | क्रियमाणेऽसौ मृगः पदे पाशः पदपाशी वागुरादिवन्धनं तस्मान्मुच्येत यदिवा पदं कूटं पाशः प्रतीतस्ताभ्यां मुच्येत, कचित्पदपाशादीति पठ्यते, आदिग्रहणाद्वघताडनमारणादिकाः क्रिया गृह्यन्ते, एवं सन्तमपि तमनर्थपरिहरणोपायं 'मन्दों' जडोज्ञानावृतो न 'देहती 'ति न पश्यतीति ॥ ८ ॥ कूटपाशादिकं चापश्यन् यामवस्थामवाप्नोति तां दर्शयितुमाह For Parts Only ~76~ 299,9৬०४ jayr Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-९], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: Pae अहिअप्पाऽहियपण्णाणे, विसमंतेणुवागते । स बद्धे पयपासेणं, तत्थ घायं नियच्छइ ॥९॥ ॥१समयाशीलाङ्का TRI स मृगोऽहितात्मा तथाऽहितं प्रज्ञानं-बोधो यस्य सोऽहितप्रज्ञानः, स चाहितप्रज्ञानः सन् 'विषमान्तेन' कूटपाशादियुक्तेन 8 चायीयत्तियुतं प्रदेशेनोपागतः, यदिवा-विषमान्ते-कूटपाशादिके आत्मानर्मनुपातयेत् , तत्र चासौ पतितो बद्धन तेन कूटादिना पदपा दिमतं शादीननर्थबहुलानवखाविशेषान् प्राप्तः 'तत्र' बन्धने घातं' विनाशं 'नियछति' प्राप्नोतीति ॥९॥ एवं दृष्टान्तं प्रदश्य 16 सूत्रकार एव दाष्टोन्तिकमज्ञानविपाकं दर्शयितुमाह एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्टी अणारिआ । असंकिआई संकंति, संकिआइं असंकिणो ॥१०॥ एवमिति यथा मृगा अज्ञानामृता अनर्थमनेकशः प्राप्नुवन्ति, तुरवधारणे, एवमेव 'श्रमणाः केचित् पाखण्डविशेषाश्रिताः एके न सर्वे, किंभूतास्ते इति दर्शयति-मिथ्या-विपरीता दृष्टियेषामज्ञानवादिनां नियतिवादिनां वा ते मिथ्यादृष्टयः, तथा 'अनायो' आराधाताः सवेहेयधर्मभ्य इति आर्याः न आर्या अनार्या अज्ञानावृतखादसदनुष्ठायिन इतियावत् । अज्ञानावृतसं च दर्शयति--1|॥३३॥ RI 'अशक्षितानि' अशङ्कनीयानि सुधर्मानुष्ठानादीनि शङ्कमानाः, तथा 'शङ्कनीयानि' अपायबहुलानि एकान्तपक्षसमाश्रय-11 Tणानि, अशङ्किनो मृगा इव मूढचेतसस्तत्तदाऽऽरभन्ते यद्यदनाय संपद्यन्त इति ॥ १०॥ शङ्कनीयाशङ्कनीयविपर्यासमाह-- १० तेणुवायए इति पाठमाश्रित्य । अनुक्रम [३६] eeseakaeseseserecedeseseksee ~77~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-११], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११|| धम्मपण्णवणा जा सा, तं तु संकति मूढगा। आरंभाई न संकंति, अविअत्ता अकोविआ ॥११॥ धर्मस्य-धान्त्यादिदशलक्षणोपेतस या प्रज्ञापना-अरूपणा, 'तां तु' इति तामेव 'शङ्कन्ते' असद्धर्मप्ररूपणेयमित्येवमध्यवसन्ति, ये पुनः पापोपादानभूताः समारम्भास्तानाशङ्कन्ते, किमिति, यतः 'अव्यक्ता' मुग्धाः-सहजसद्विवेकविकलाः, तथा | 'अकोविदा' अपण्डिताः-सच्छाखावबोधरहिता इति ॥ ११॥ ते च अज्ञानावृता यन्त्राप्नुवन्ति तद्दर्शनायाह सबप्पगं विउक्कस्सं, सर्व णूमं विहूणिआ। अप्पत्तिअं अकम्मसे, एयमह मिगे चुए ॥ १२ ॥ सर्वत्राप्यात्मा यथासौ सर्वात्मको-लोभस्तं विधूयेति संबन्धः, तथा विविध उत्कर्षो गर्यो व्युत्कों—मान इत्यर्थः, तथा 'म ति माया तां विधूय, तथा 'अप्पत्तिय'ति क्रोधं विधूय, कषायविधूननेन च मोहनीयविधूननमावेदितं भवति, तदपगमा-12 चाशेषकर्माभावः प्रतिपादितो भवतीत्याह---'अकमीश' इति न विद्यते काशोऽस्सेत्यकर्माश:, स चाकर्माशो विशिष्टज्ञानाद्भ-18 वति नाज्ञानादित्येव दर्शयति-'एनमर्थ' कर्माभावलक्षणं मृग इव मृगः-अज्ञानी 'चुए'ति त्यजेत् , विभक्तिपरिणामेन का 18| असादेवभूतादात् च्यवेत्-भ्रश्येदिति ॥ १२ ॥ भूयोऽप्यज्ञानवादिना दोषाभिधित्सयाऽऽह जे एयं नाभिजाणंति, मिच्छदिट्ठी अणारिया । मिगा वा पासबद्धा ते, धायमेसंतिणंतसो॥ १३॥ 'ये' अज्ञानपक्षं समाश्रिता 'एन' कर्मक्षपणोपाय न जानन्ति' आत्मीयासहग्रहास्ता मिथ्यादृष्टयोऽनास्तेि मृगा इव पाश-1| दीप अनुक्रम :eseseeseservesesececenese [३८] thatana ~78~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-१३], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप सूत्रहत्ताबद्धा 'घातं विनाशम् 'एष्यन्ति' यास्वन्त्यन्वेषयन्ति वा, तद्योग्यक्रियानुष्ठानात् , 'अनंतश:' अविच्छेदेनेत्यज्ञानवादिनो गताः समया. ॥१३ ।। इदानीमज्ञानवादिना पणोद्विभावविषया स्ववाग्यरिता बादिनो न चलिष्यन्तीति तन्मताविष्करणायाहचायीयवृचियुतं ॥ माहणा समणा एगे, सवे नाणं सयं वए । सबलोगेऽवि जे पाणा, न ते जाणंति किंचण ॥१४॥नियतिवा एके केचन ब्राह्मणविशेषाः तथा 'श्रमणा' परिव्राजकविशेषाः सर्वेऽप्येते ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं-हेयोपादेयार्थाऽविर्भावक । ॥३४॥ परस्परविरोधेन व्यवस्थितं 'स्वकम् ' आत्मीयं बदन्ति, न च तानि बानानि परस्परविरोधेन प्रवृत्तखात्सत्यानि, तस्मादज्ञानमेव |श्रेयः, किं ज्ञानपरिकल्पनयति, एतदेव दर्शयति सर्वमिन्नपि लोके ये 'प्राणा: प्राणिनो न ते किश्चनापि सम्यगपेतवाचे(च)|| 'जानन्तीति विदन्तीति ।। १४ ।। यदपि तेषां गुरुपारम्पर्येण ज्ञानभायातं तदपि छिनमूलत्वादवितथं न भवतीति दृष्टान्त-18 द्वारेण दर्शयितुमाह-- मिलक्खू अमिलक्खुस्स, जहा वुत्ताणुभासए । ण हेउं से विजाणाइ, भासिअंतऽणुभासए ॥१५॥ यथा 'म्लेच्छ' आर्यभाषानभिज्ञः 'अम्लेच्छस्य' आर्यस्य म्लेच्छभाषानभिज्ञस यद्भाषितं तद् 'अनुभाषते' अनुवदति केवलं, न सम्यक् तदभिप्रायं वेत्ति, यथाऽनया विवक्षयाऽनेन भाषितमिति, न च 'हेतु निमित्त निश्चयेनासौ म्लेच्छस्तद्भाषितस्य जाना-19 ॥३४॥ |ति, केवलं परमार्थशून्यं तद्भाषितमेवानुभाषत इति ॥ १५ ॥ एवं दृष्टान्तं प्रदर्य दार्शन्तिकं योजयितुमाह एवमन्नाणिया नाणं, वयंतावि सयं सयं । निच्छयत्थं न याणंति, मिलक्खुब अबोहिया ॥ १६ ॥ अनुक्रम [४०] SARERatininematuana ~79~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-१६], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| IN यथा म्लेच्छः अम्लेच्छस्थ परमार्थमजानानः केवलं तद्भाषितमनुभाषते, तथा 'अज्ञानिका' सम्यग्ज्ञानरहिताः श्रमणा | SI बामणा वदन्तोऽपि खीयं स्वीयं ज्ञानं प्रमाणत्वेन परस्परविरुद्धार्थभाषणात निश्वयार्थ न जानन्ति, तथाहि ते स्वकीयं तीर्थकर ॥8॥ सर्वज्ञत्वेन निर्यि तदुपदेशेन क्रियासु प्रवर्तेरन्, न च सर्वज्ञविवक्षा अर्वाग्रदर्शिना ग्रहीतुं शक्यते, 'नासर्वज्ञः सर्वे जानातीति || न्यायात् , तथा चोक्तम्-"सर्वज्ञोऽसाविति ह्येतत्तत्कालेऽपि बुभुत्सुभिः । तज्ज्ञानक्षेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम् ॥१॥" | एवं परचेतोवृत्तीना दुरन्वयत्वादुपदेष्टुरपि यथावस्थितविवक्षया ग्रहणासंभवानिश्चयार्थमजानाना म्लेच्छवदपरोक्तमनुभाषन्त एव, ॥४॥ I'अयोधिका' बोधरहिताः केवलमिति, अतोऽज्ञानमेव श्रेय इति । एवं यावद्यावज्ज्ञानाभ्युपगमस्तावत्ताबद्गुरुतरदोषसंभवः, 18 तथाहियोऽवगच्छन् पादेन कस्यचित् शिरः स्पृशति तस्य महानपराधो भवति, यस्त्वनाभोगेन स्पृशति तसे न कविदपराध्यतीति, एवं चाज्ञानमेव प्रधानभावमनुभवति, न तु ज्ञानमिति ॥ १६ ॥ एवमज्ञानवादिमतमन्चेदानीं तदूषणायाहअन्नाणियाणं वीमंसा, अण्णाणे ण विनियच्छइ । अप्पणो य परं नालं, कुतो अन्नाणुसासि ? ॥१७॥ न ज्ञानमज्ञानं तद्विद्यते येषां तेऽज्ञानिनः, अज्ञानशब्दस्य संज्ञाशन्दवादा मत्वर्थीयः,गौरखरवदरण्यमिति यथा, तेषामज्ञानिनाम् । -अज्ञानमेव श्रेय इत्येवंवादिना, योऽयं 'विमर्शः पर्यालोचनात्मको मीमांसा वा-मातुं परिच्छेत्तुमिच्छा सा 'अज्ञाने' अज्ञान| विषये 'न णियच्छति' न निश्चयेन यच्छति-नावतरति, न युज्यत इतियावत् , तथाहि-यैर्वभूता मीमांसा विमर्शो चा किमेतज्ज्ञानं सत्यमुतासत्यमिति', यथा अज्ञानमेव श्रेयो यथा यथा च ज्ञानातिशयस्तथा तथा च दोषातिरेक इति सोऽयमेवंभूतो विमर्श दीप अनुक्रम [४३] ~80~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-१७], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत शीलाता सूत्रांक ||१७|| दीप अनुक्रम सूत्रकृताङ्ग स्तेषां न बुध्यते, एवंभूतस्य पर्यालोचनस्य ज्ञानरूपलादिति । अपिच तेऽज्ञानवादिन आत्मनोऽपि 'परं' प्रधानमज्ञानवादमिति समया. 'शासितुम' उपदेष्टुं 'नालं' न समर्थाः, तेपामज्ञानपक्षसमाश्रयणेनाज्ञत्वादिति, कुतः पुनस्ते स्वयमज्ञाः सन्तोऽन्येषां शिष्यलेनो- उद्देशः२ चायीय-18 II पगतानामज्ञानवादमुपदेष्टुमलं समर्था भवेयुरिति । यदप्युक्तं-'छिन्त्रमूलसात् म्लेच्छानुभाषणवत्सर्वमुपदेशादिक, तदप्ययुक्तं, ॥8॥ नियतिवातियुतं | यतोऽनुभाषणमपि न ज्ञानमृते कर्तुं शक्यते, तथा यदप्युक्तं 'परचेतोवृत्तीनां दुरन्वयवादज्ञानमेव श्रेय इति, तदप्यसत, यतो दिमत ॥३५॥ भवतैवाज्ञानमेव श्रेय इत्येवं परोपदेशदानाभ्युद्यतेन परचेतोवृत्तिज्ञानस्याभ्युपगमः कृत इति, तथाऽन्पैरप्यभ्यधायि-"आकारैरि जितर्गत्या. चेष्टया भापितेन च । नेत्रयविकारच, गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः॥१॥॥ १७ ॥ तदेवं ते तपखिनोज्ञानिन आत्मनः ॥ परेषां च शासने कर्तव्ये यथा न समर्थास्तथा दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह वणे मूढे जहा जंतू, मूढे णेयाणुगामिए । दोवि एए अकोविया, तिवं सोयं नियच्छइ ॥ १८॥ 'वने' अटव्यां यथा कश्चिन्मूढो 'जन्तुः प्राणी दिक्परिच्छेदं कर्तुमसमर्थः स एवंभूतो यदा परं मूढमेव नेतारमनुगच्छति तदा [ द्वावपि 'अकोविदौ सम्पग्रज्ञानानिपुणौ सन्तौ 'तीवम्' असचं 'स्रोतों गहनं शोकं वा 'नियच्छतो' निधयेन गच्छतः-प्रामुतः, | अज्ञानावृतखात् । एवं तेऽप्यज्ञानवादिन आत्मीयं मार्ग शोभनखेन निर्धारयन्तः परकीयं चाशोभनखेन जानानाः वयं मूढाः | | सन्तः परानपि मोहयन्तीति ॥ १८ ॥ असिनेवार्थे रष्टान्तान्तरमाह तेषां मते सम्यकया न ज्ञायते न युज्यते इति भावः । [४४] SAREauratonintentiational ~81~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-१८], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१९|| अंधो अंधं पहं णितो, दूरमद्धाणु गच्छइ । आवजे उप्पहं जंतू, अदुवा पंथाणुगामिए ॥ १९ ॥ यथा अन्धः स्वयमपरमन्धं पन्धानं नयन् 'दूरमध्वानं' विवक्षितादध्वनः परतरं गच्छति, तथोत्पथमापद्यते जन्तुरन्धा, अथवा |परं पन्थानमनुगच्छेत् , न विवक्षितमेवाधानमनुयायादिति ॥ १९ ॥ एवं दृष्टान्तं प्रसाध्य दाष्टोन्तिकमर्थ दर्शपितुमाह--- एवमेगे णियायट्री, धम्ममाराहगा वयं । अदुवा अहम्ममावजे, ण ते सवजुयं वए ॥ २०॥ 'एवमिति पूर्वोक्तार्थोपप्रदर्शने, एवं भावमूढा भावान्धाश्चैके आजीविकादयः 'नियायहीति नियागो-मोक्षः सद्धर्मो वा तद-1 र्थिनः, ते किल वयं सद्धर्माराधका इत्येवं संधाय प्रव्रज्यायामुद्यताः सन्तः पृथिव्यम्बुवनस्पत्यादिकायोपमर्दैन पचनपाचनादि8| क्रियासु प्रवृत्ताः सन्तस्तत्खयमनुतिष्ठन्ति अन्येषां चोपदिशन्ति येनाभिप्रेताया मोक्षावाप्तेभ्रंश्यन्ति, अथवाऽऽस्ता तावन्मोक्षाभा- 18| वः, त एवं प्रवर्तमाना 'अधर्म' पापमापोरन , संभावनायामुत्पनेन लिङ्प्रत्ययेनेतदर्शयति एतदपरं तेषामनर्थान्तरं संभाव्यते । | यदुत विवक्षितार्थाभावतया विपरीतार्थावाप्तेः पापोपादानमिति । अपिच-त एवमसदनुष्ठायिन आजीविकादयो गोशालकमतानु-181 सारिणोऽज्ञानवादप्रवृत्ताः सः प्रकारजुः---प्रगुणो विवक्षितमोक्षगमनं प्रत्यकुटिलः सर्वर्जु:-संयमः सद्धर्मो वा तं सर्वकं ते । 'न ब्रजेयुःन प्राप्नुयुरित्युक्तं भवति, यदिवा-सर्वर्जुकं-सत्यं तत्तेऽज्ञानान्धा ज्ञानापलापिनो न वदेयुरिति । एते चाज्ञानिकाः IS सप्तपष्टिभेदा भवन्ति, ते च भेदा अमुनोपायेन प्रदर्शनीयाः, तद्यथा-जीवादयो नव पदार्थाः, सत् असत् सदसत् अवक्तव्यः सदवक्तव्यः असदवक्तव्यः सदसवक्तव्य इत्येतैः सप्तभिः प्रकारैर्विज्ञातुं न शक्यन्ते, न च विज्ञातैः प्रयोजनमस्ति, भावना दीप eceseroeseroece6eceaesesekese eaceaereachestoreeseace अनुक्रम [४६] ~82~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-२०], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम मुत्रकृता चेयम्-सन् जीव इति को वेत्ति ? किंवा तेन ज्ञानेन, एन् जीव इति को वेत्ति ? किंवा तेन झातेनेत्यादि, एवमजीवादिष्वपि समया० शीलाझा- प्रत्येकं सप्त विकल्पाः, नव सप्तकाविषष्टिः, अमी चान्ये चखारत्रिषष्टिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, तद्यथा-सती भावोत्पचिरिति को उद्देशः२ चायीयवृ- जानाति ? किंवाऽनया ज्ञातया?, एवमसती सदसत्यवक्तच्या भावोत्पत्तिरिति को जानाति ? किंवाऽनया ज्ञातयेति, शेषविकल्प अज्ञानवाचियुतं दा त्रयं तूत्पत्युत्तरकालं पदार्थावयवापेक्षमतोऽत्र न संभवतीति नोक्तम् , एतच्चतुष्टयप्रक्षेपात्सप्तपष्टिभवति, तत्र सन् जीव इति को वेत्तीत्यस्यायमों-न कस्यचिद्विशिष्टं ज्ञानमस्ति योऽतीन्द्रियान् जीवादीनवभोत्स्यते, न च तैतिः किश्चित्कलमस्ति, तथाहियदि नित्यः सर्वगतोऽमूर्ती ज्ञानादिगुणोपेत एतद्गुणव्यतिरिक्तो वा ततः कतमस्य पुरुषार्थस्य सिद्धिरिति, तसादज्ञानमेव श्रेय इति ॥ २०॥ पुनरपि तदूषणाभिधित्सयाऽद्द एवमेगे वियकाहिं, नो अन्नं पजुवासिया । अप्पणो य वियकाहिं, अयमंजूहिं दुम्मई ॥ २१ ॥ 'एवम् अनन्तरोक्तया नीत्या एकेकेचनाज्ञानिका 'वितर्काभि:' मीमांसाभिः खोत्प्रेक्षिताभिरसत्कल्पनाभिः 'परम्' अ-12 न्यमार्हतादिकं ज्ञानवादिनं 'न पर्युपासते'न सेवन्ते खावलेपग्रहग्रस्ताः वयमेव तत्वज्ञानाभिज्ञानापरः कचिदित्येवं नान्यं पर्युपासत | इति । तथा आत्मीयक्तिरेवमभ्युपगतवन्तो-यथा 'अयमेव' अस्मदीयोऽज्ञानमेव श्रेय इत्येवमात्मको मार्गः 'अंजूरिति निर्दोष-11 खाद्यक्तः स्पष्टः, परस्तिरस्कर्तुमशक्यः, ऋजुर्वा-प्रगुणोऽकुटिलः, यथावस्थितार्थाभिधायिलाद , किमिति (ते) एवमभिदधतिः1 'हि'यस्मादर्थे यसाने 'दुर्मतयो' विपर्यस्तयुद्धय इत्यर्थः ॥२१॥ साम्प्रतमज्ञानवादिनां ज्ञानवादी स्पष्टमेवानाभिधित्सयाऽऽह-18 weseseneeroesesecesteroen Faceserserseseletenesenceae [४७] ॥३६॥ SARERaunintenarana ~834 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [४९] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-२२], निर्युक्तिः [३५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्र, ७ ৬৯১১৬১৬১ एवं तक्काइ साहिंता, धम्माधम्मे अकोविया । दुक्खं ते नाइतुति, सउणी पंजरं जहा ॥ २२ ॥ ' एवं ' पूर्वोक्तन्यायेन 'तर्कया' स्वकीयविकल्पनया 'साधयन्तः' प्रतिपादयन्तो धर्मे क्षान्त्यादिके अधर्मे च जीवोपमर्दा|पादिते पापे 'अकोविदा' अनिपुणा 'दुःखम्' असातोदयलक्षणं तद्धेतुं वा मिथ्यावाद्युपचितकर्मबन्धनं 'नातित्रोटयन्ति' | अतिशयेनैतद्व्यवस्थितं तथा ते न त्रोटयन्ति - अपनयन्तीति, अत्र दृष्टान्तमाह-यथा पञ्जरस्थः शकुनिः पञ्जरं त्रोटयितुं - पञ्जरबन्धनादात्मानं मोचयितुं नालम्, एवमसावपि संसारपञ्जरादात्मानं मोचयितुं नालमिति ॥ २२ ॥ अधुना सामान्येनैकान्तवादिमतदूपणार्थमाह सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं । जे उ तत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया ॥ २३ ॥ 'स्वकं स्वकम्' आत्मीयमात्मीयं दर्शनमभ्युपगतं 'प्रशंसन्तो' वर्णयन्तः समर्थयन्तो वा, तथा 'गर्हमाणा' निन्दन्तः परकीयां वाचं, तथाहि —सायाः सर्वस्थाविर्भावतिरोभाववादिनः सर्वं वस्तु क्षणिकं निरन्वयविनश्वरं चेत्येवंवादिनो बौद्धान् दूषयन्ति, तेऽपि नित्यस्य क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरहात् साङ्ख्यान् एवमन्येऽपि द्रष्टव्या इति । तदेवं 'ये' एकान्तवादिनः, तुरवधारणे भिन्नक्रमच, 'तत्रैव' तेष्वेवाऽऽत्मीयात्मीयेषु दर्शनेषु प्रशंसां कुर्वाणाः परवाचं च विगर्हमाणा 'विद्वस्यते' विद्वांस इवाऽऽचरन्ति, तेषु वा विशेषेणोशन्ति स्वशास्त्रविषये विशिष्टं युक्तित्रातं वदन्ति, ते चैवंवादिनः 'संसारं' चतुर्गतिभेदेन संसृतिरूपं विवि For Parts Only ~84~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-२४], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम सूत्रकृता धम्-अनेकप्रकारम् उत्-प्राबल्येन श्रिता:-संबद्धाः, तत्र वा संसारे उषिताः संसारान्तर्वतिनः सर्वदा भवन्तीत्यर्थः ॥२३॥साम्प्रतं18 १समया० शीलाका-18 यदुक्तं नियुक्तिकारेणोद्देशकार्थाधिकारे 'कर्म चयं न गच्छति चतुर्विधं भिक्षुसमय' इति, तदधिकृत्याह उद्देशः २ चायि चतुर्विधत्तियुतं अहावरं पुरक्खायं, किरियावाइदरिसणं । कम्मचिंतापणहाणं, संसारस्स पवडणं ॥२४॥ कमेचया भाव: ॥३७॥ 'अर्थ'त्यानन्तर्ये, अज्ञानवादिमतानन्तरमिदमन्यत् 'पुरा' पूर्वम् 'आख्यातं' कथितं, किं पुनस्तदित्याह-'क्रियाचादि-18 दर्शन' क्रियैव-चैत्यकर्मादिका प्रधान मोक्षाङ्गमित्येवं वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनस्तेषां दर्शनम्-आगमः क्रियावादिदर्शनं, किंभूतास्ते क्रियावादिन इत्याह-कर्मणि-ज्ञानावरणादिके चिन्ता-पर्यालोचनं कर्मचिन्ता तस्याः प्रणष्टा-अपगताः कर्मचिन्ताप्रणष्टाः, | यतस्ते अविज्ञानाघुपचितं चतुर्विध कर्मबन्धं नेच्छन्ति अतः कर्मचिन्तामणष्टाः, तेषां चेदं दर्शनं 'दुःखस्कन्धस्य' असातोदयप-18 | रम्पराया विवर्धनं भवति, कचित्संसारवर्धनमिति पाठः, ते ह्येवं प्रतिपद्यमानाः संसारस्य वृद्धिमेव कुर्वन्ति नोच्छेदमिति ॥२४॥ | यथा च ते कर्मचिन्तातो नष्टास्तथा दर्शयितुमाह जाणं कारणऽणाउट्टी, अबुहो जं च हिंसति । पुट्ठो संवेदइ परं, अवियत्तं खु सावजं ॥ २५ ॥ ॥३७॥ यो हि 'जानन्' अवगच्छन् प्राणिनो हिनस्ति, कायेन चानाकुट्टी, 'कुट छेदने आकुट्टनमाकुट्टः स विद्यते यथासावाकुट्टी नाकु-18 हवनाकुट्टी, इदमुक्तं भवति-यो हि कोपादेनिमित्तात् केवलं मनोव्यापारेण प्राणिनो व्यापादयति, न च कायेन प्राण्यवयवाना |% Recerseerecededesesercedese [५१] ~85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-२५], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२५|| छेदनभेदनादिके व्यापारे वर्तते न तस्यावा, तस्य कर्मोपचयो न भवतीत्यर्थः, तथा 'अबुधः' अजानानः कायव्यापारमात्रेण यं च हिनस्ति प्राणिनं तत्रापि मनोव्यापाराभावान्न कर्मोपचय इति, अनेन च श्लोकार्पेन यदुक्तं नियुक्तिकृता यथा--'चतुर्विध कर्म नोपचीयते भिक्षुसमय' इति, तत्र परिज्ञोपचितमविज्ञोपचिताख्यं भेदद्वयं साक्षादुपातं, शेष खीर्यापथस्वप्नान्तिकभेदद्वयं चशब्देनोपात, | तोरणमीर्या-गमनं तत्संबद्धः पन्था ईपिथस्तत्प्रत्ययं कर्मेर्यापथम् , एतदुक्तं भवति-पथि गच्छतो यथाकथश्चिदनभिसंधैर्यत्या-15 |णिव्यापादनं भवति तेन कर्मणवयो न भवति, तथा स्वभान्तिकमिति-स्वप्न एव लोकोक्त्या स्वप्नान्तः स विद्यते यस्य तत्व मान्तिक, तदपि न कर्मबन्धाय, यथा खमे भुजिक्रियायां तृप्त्यभावस्तथा कर्मणोऽपीति, कथं तर्हि तेषां कर्मोपचयो भवतीति, | उच्यते, यद्यसौ हन्यमानः प्राणी भवति हन्तुच यदि प्राणीत्येवं ज्ञानमुत्पद्यते तथैनं हन्मीत्येवं च यदि बुद्धिः प्रादुष्ष्याद् ॥१॥ एतेषु च सत्सु यदि कायचेष्टा प्रवर्तते तस्यामपि यद्यसी प्राणी व्यापायते ततो हिंसा ततश्च कर्मोपचयो भवतीति, एषामन्यतसाराभावेऽपि न हिंसा, न च कर्मचयः । अत्र च पश्चानां पदानां द्वात्रिंशद्भङ्गा भवन्ति, तत्र प्रथमभने हिंसकोऽपरेवेकत्रिंशत्व | हिंसकः, तथा चोक्तम्-"प्राणी प्राणिज्ञानं घातकचित्तं च तद्गता चेष्टा । प्राणैश्च विप्रयोगः पञ्चभिरापद्यते हिंसा ॥१॥"181 &|किमेकान्तेनैव परिज्ञोपचितादिना कोपचयो न भवत्येव , भवति काचिदव्यक्तमात्रेति दर्शयितुं श्लोकपश्चामाह--'पुट्ठो'त्ति तेन केवलमनोव्यापाररूपपरिज्ञोपचितेन केवलकायक्रियोत्थेन वाविज्ञोपचितेनेर्यापथेन खनान्तिकेन च चतुर्षिधेनापि कर्मणा 'स्पृष्ट' ईषच्छुप्तः संस्तत्कर्माऽसौ स्पर्शमात्रेणैव परमनुभवति, न तस्याधिको विपाकोऽस्ति, कुड्यापतितसिकतामुष्टिवत्स्पर्शानन्तरमेव । परिशटतीत्यर्थः, अत एव तस्य चयाभावोऽभिधीयते, न पुनरत्यन्ताभाव इति । एवं च कुखा तद् 'अव्यक्तम्' अपरिस्फुट, I दीप 99999999999090508 अनुक्रम [१२] SAREairain unsuranmaru ~86~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-२६], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचायिय प्रत सूत्रांक ||२६|| कर्मचया त्तियुतं ॥३८॥ दीप अनुक्रम [५३] 982820 खुरवधारणे, अन्यक्तमेव, स्पष्टविपाकानुभवाभावात् , तदेवमव्यक्तं सहावयेन-गर्येण वर्तते तत्परिझोपचितादिकर्मेति ॥ २५॥ समया० ननु च यद्यनन्तरोक्तं चतुर्विध कर्म नोपचयं याति कथं तर्हि कर्मोपचयो भवतीत्येतदाशकचाह-- Sil उद्देशः २ ___ संतिमे तउ आयाणा, जेहिं कीरइ पावगं । अभिकम्मा य पेसा य, मणसा अणुजाणिया ॥२६॥ चतुर्विध'सन्ति' विद्यन्ते अमूनि त्रीणि आदीयते-खीक्रियते अमीभिः कर्मेन्यादानानि, एतदेव दर्शयति-यैरादानः क्रियते' विधी- भाव: यते निष्पाद्यते 'पापकं' कल्मषं, तानि चामूनि, तद्यथा-'अभिक्रम्येति आभिमुख्येन वध्यं प्राणिनं कान्ला-तदाताभिमुख चित्तं विधाय यत्र खत एव प्राणिनं व्यापादयति तदेकं कर्मादान, तथापरं च प्राणिघाताय प्रेष्यं समादिश्य यत्प्राणिच्यापादन तद्वितीयं कर्मादानमिति, तथाऽपरं व्यापादयन्तं मनसाऽनुजानीत इत्येतत्तृतीयं कर्मादान, परिझोपचितादसायं भेदः-तत्र | केवलं मनसा चिन्तनमिह खपरेण व्यापाद्यमाने प्राणिन्यनुमोदनमिति ॥ २६ ॥ तदेवं यत्र स्वयं कृतकारितानुमतयः प्राणिधाते | क्रियमाणे विद्यन्ते क्लिष्टाध्यवसायस्व प्राणातिपातश्च तत्रैव कर्मोपचयो नान्यत्रेति दर्शयितुमाह एते उ तउ आयाणा, जेहिं कीरइ पावगं । एवं भावविसोहीए, निवाणमभिगच्छद ॥ २७॥ तुरवधारणे, 'एतान्येव' पूर्वोक्तानि त्रीणि व्यस्तानि समस्तानि वा आदानानि यैर्दुष्टाध्यवसायसव्यपेक्षैः पापकं कर्मोपचीयत ॥ ॥३८॥ | इति, एवं च स्थिते यत्र कृतकारितानुमतयः प्राणियपरोपणं प्रति न विद्यन्ते तथा 'भावविशुद्ध्या' अरक्तद्विष्टबुध्ध्या प्रवतेमानस्य सत्यपि प्राणातिपाते केवलेन मनसा कायेन चा मनोऽभिसंधिरहितेनोमयेन वा विशुद्धबुद्धेर्न कर्मोपचयः, तदभावाच 'निर्वाणं' 900000000000000000000000 | ~87~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-२७], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[२२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२८|| ॥ सर्वद्वन्द्वोपरतिखभावम् 'अभिगच्छति' आभिमुख्येन प्राप्नोतीति ॥२७॥ भावशुद्धचा प्रवर्तमानस्य कर्मवन्धो न भवतीत्यत्रार्थे । MEष्ट्रान्तमाह पुत्तं पिया समारब्भ, आहारेज असंजए । भुंजमाणो य मेहावी, कम्मणा नोवलिप्पइ ॥२८॥ | 'पुत्रम्' अपत्यं 'पिता' जनकः 'समारभ्य' च्यापाय आहारार्थ कस्याश्चित्तथाविधायामापदि तदुद्धरणार्थमरक्तद्विष्टः 'असं-1 यतो गृहस्थस्तत्पिशितं भुञ्जानोऽपि चशब्दस्थापिशब्दार्थलादिति, तथा 'मेधाव्यपि संयतोऽपीत्यर्थर, तदेवं गृहस्थो भिक्षुर्वा | शुद्धाशयः पिशिताश्यपि 'कर्मणा' पापेन 'नोपलिप्यते' नाश्लिष्यत इति यथा चात्र पितुः पुत्र व्यापादयतस्तत्रारक्तद्विष्टम-11 | नसः कर्मवन्धो न भवति तथाऽन्यस्याप्यरक्तद्विष्टान्तःकरणस्य प्राणिवधे सत्यपि न कर्मबन्धो भवतीति ॥२८॥ साम्प्र-18 मेतदूपणायाह मणसा जे पउस्संति, चित्तं तेसिं ण विजइ । अणवजमतहं तेसिं, ण ते संवुडचारिणो ॥ २९॥ इच्चेयाहि य दिहीहिं, सातागारवणिस्सिया । सरणंति मन्नमाणा, सेवंती पावर्ग जणा ॥३०॥ जहा अस्साविणिं णावं, जाइअंधो दुरूहिया । इच्छई पारमागंतुं, अंतरा य विसीयई ॥३१॥ 5000000000000000000000000 Searceaeeeeeeesesese दीप अनुक्रम [१५] REaratana marary.org ~88~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||३२|| दीप अनुक्रम [ ५९ ] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-३२], निर्युक्तिः [३५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्गं शीलाडा चार्वीय चियुतं ॥ ३९ ॥ एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठी अणारिया । संसारपारकंखी ते, संसारं अणुपरियहंति ॥ ३२ ॥ ( गाथा ॥ ५९ ॥ ) तिमि । इति प्रथमाध्ययने द्वितीयोदेशकः ॥ ये हि कुतश्चिन्निमित्तात् 'मनसा' अन्तःकरणेन 'प्रादुष्यन्ति' प्रद्वेषमुपयान्ति 'तेषां' बघपरिणतानां शुद्धं चित्तं न विद्यते, | तदेवं यत्तैरभिहितं यथा केवलमनः प्रद्वेषेऽपि 'अनवद्यं कर्मोपचयाभाव इति, तत् तेषाम् 'अतथ्यम्' असदर्थाभिधायितं, | यतो न ते संप्रतचारिणो, मनसोऽशुद्धखात्, तथाहि-- कर्मोपचये कर्तव्ये मन एव प्रधानं कारणं, यतस्तैरपि मनोरहित केवलकायव्यापारे कर्मोपचयाभावोऽभिहितः, ततश्च यत् यस्मिन् सति भवत्यसति तु न भवति तत्तस्य प्रधानं कारणमिति, ननु तवापि कायचेष्टारहितस्याकारणत्रमुक्तं, सत्यमुक्तम्, अयुक्तं तूक्तं, यतो भवतैव एवं भावशुद्धया निर्वाणमभिगच्छती ति भणता मनस एवैकस्य प्राधान्यमभ्यधायि, तथाऽन्यदप्यभिहितं — “चितमेव हि संसारो, रागादिक्लेशवासितम्। तदेव तैर्विनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते || १||” तथाऽन्यैरप्यभिहितं "मतिविभव ! नमस्ते यत्समखेऽपि पुंसां, परिणमसि शुभांशैः कल्मषांशैस्त्वमेव । नरकनगवर्त्म प्रस्थिताः कष्टमेके, उपचित शुभशक्त्या सूर्यसंभेदिनोऽन्ये ॥ १॥ तदेवं भवदभ्युपगमेनैव क्लिष्टमनोव्यापारः कर्मबन्धायेत्युक्तं भवति, तथेर्यापथेऽपि यद्यनुपयुक्तो याति ततोऽनुपयुक्ततैव क्लिष्टचित्ततेति कर्मबन्धो भवत्येव, अथोपयुक्तो याति ततोऽप्रमत्तखा| दबन्धक एव, तथा चोक्तम् - "उच्चालियंमि पाए इरियासमिवस्स संकमट्टाए । बावज्जेज कुलिंगी मरेज वं जोगमासज ||१|| १ उचालिते पादे यासमितेन संक्रमार्थाय व्यापयेत कुलिङ्गी श्रियेत तं योगमा साथ ॥ १ ॥ For Park Use Only ~89~ १ समया उद्देशः २ कर्मचयाभाववादिफलं ॥ ३९ ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-३२], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३२|| ISणे य तस्स तनिमित्तो बन्धो सुहुमोऽवि देसिओ समए । अणवो उ पयोगेण सबभावण सो जम्हा ॥२॥" खमान्तिकऽप्यशु चित्तसद्भावादीषद्वन्धो भवत्येव, स च भवताऽप्यभ्युपगत एव 'अव्यक्तं तत्सावद्य'मित्यनेनेति । तदेवं मनसोऽपि लिष्टस्सैकस्यैव व्यापारे बन्धसद्भावात् यदुक्तं भवता 'प्राणी प्राणिज्ञान'मित्यादि तत्सर्वं प्लवत इति, यदप्युक्तं-'पुत्रं पिता समारभ्ये'-18 त्यादि तदप्यनालोचिताभिधानं, यतो मारयामीत्येवं यावन्न चित्तपरिणामोऽभूत्तावन्न कविद्वयापादयति, एवंभूतचिचपरिणतेय | कथमसंक्लिष्टता, चित्तसंक्लेशे चावश्यंभावी कर्मबन्ध इत्युभयोस्संवादोऽवेति । यदपि च तैः कचिदुच्यते-यथा 'परव्यापादित18 पिशितभक्षणे परहस्ताऽऽकृष्टाङ्गारदाहाभाववन्न दोष' इति, तदपि उन्मत्तमलपितबदनाकर्णनीयं, यतः परव्यापादिते पिशितभ क्षणेऽनुमतिरप्रतिहता, तस्याश्च कर्मबन्ध इति, तथा चान्यैरप्यभिहितम्-"अनुमन्ता विशसिता, संहर्ता क्रयविक्रयी । संस्कार चोपभोक्ता च, घातकवाष्ट घातकाः ॥१॥" यच्च कृतकारितानुमतिरूपमादानत्रयं तैरभिहितं तजैनेन्द्रमतलवाखादनमेव तैर-13 कारीति । तदेवं कर्मचतुष्टयं नोपचयं यातीत्येवं तदभिदधानाः कर्मचिन्तातो नष्टा इति सुप्रतिष्ठितमिदमिति ॥ २९ ॥ अधुनै-18 तेषां क्रियावादिनामनर्थपरम्परा दर्शयितुमाह-'इत्येताभिः पूर्वोक्ताभिश्चतुर्विध कर्म नोपचयं यातीति 'दृष्टिभिः' अभ्यु-18 वगमैस्ते वादिनः 'सातगौरवनिःश्रिताः' सुखशीलतायामासक्ता यत्किञ्चनकारिणो यथालब्धभोजिनव संसारोद्धरणसमर्थ 'शरणम्' इदमस्मदीयं दर्शनम् 'इति' एवं मन्यमाना विपरीतानुष्ठानतया 'सेवन्ते' कुर्वते 'पापम् अवद्यम्, एवं वतिनोऽपि 18 | सन्तो जना इव जनाः प्राकृतपुरुषसटशा इत्यर्थः ॥३०|| अस्यैवार्थस्योपदर्शक दृष्टान्तमाह-आ-समन्तात्स्रवति तच्छीला चा| RI १ च तस्य तनिमित्तो बन्धः सूक्ष्मोऽपि दिष्टः समये । अनवधस्तु प्रयोगेण सर्वभावेन स यस्मात् ॥३॥ दीप अनुक्रम [१९] 11 ~90~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-३२], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३२|| सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचाीयत्तियुत ॥४०॥ आस्राविणी सच्छिद्रेत्यर्थः, तां तथाभूतां नावं यथा जात्यन्धः समारुह्य 'पारं' तटम् 'आगन्तुं' प्राप्नुमिच्छत्यसौ, तस्याशास्त्रा १समया. विणीत्वेनोदकप्लुतखात् 'अन्तराले' जलमध्य एव 'विषीदति चारिणि निमजति तत्रैव च पञ्चसमुपयातीति ॥३१॥ साम्प्रतं | | उद्देशः ३ दाटोन्तिकयोजनार्थमाह-'एच'मिति यथाऽन्धः सच्छिद्रां नावं समारूढः पारगमनाय नाल तथा श्रमणा एके शाक्यादयो| चतुर्विधमिथ्या-विपरीता दृष्टिर्येषां ते मिथ्यादृष्टयः तथा पिशिताशनानुमतेरनार्याःखदर्शनानुरागेण 'संसारपारकाक्षणो' मोक्षा-18 कर्मचयामिलापुका अपि सन्तस्ते चतुर्विधकर्मचयानभ्युपगमेनानिपुणखाच्छासनस्य 'संसारमेव चतुर्गतिसंसरणरूपम् 'अनुपर्यटन्ति' भाववादभूयोभूयस्तत्रैव जन्मजरामरणदीर्गत्यादिलेशमनुभवन्तोऽनन्तमपि कालमासते, न विवक्षितमोक्षमुखमानुवन्ति, इति ब्रवीमीति | पूर्ववदिति ॥ ३२ ॥ इति सूत्रकृताङ्गे समयाख्याध्ययनस्य द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥ फलं दीप अनुक्रम [५९]] ॥ अथ प्रथमाध्ययने तृतीयोद्देशकः प्रारभ्यते॥ द्वितीयोदेशकानन्तरं तृतीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-अध्ययनार्थाधिकारः खसमयपरसमयप्ररूपणेति, तत्रोद्दे||शकद्वयेन खपरसमयप्ररूपणा कृता अत्रापि सैव क्रियते, अथवाऽऽद्ययोरुद्देशकयोः कुटष्टयः प्रतिपादितास्तदोषाश्च तदिहापि | तेषामाचारदोषः प्रदर्श्यत इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि व्यावास्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुञ्चारणीयं, बच्चेदम् ticted ॥४०॥ अस्य पृष्ठे प्रथम अध्ययनस्य तृतीय उद्देशकस्य आरम्भ: ~91 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [६०] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [३], मूलं [गाथा - १], निर्युक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः E जं किंचि उ पूइकडं, सड्डीमागंतुमीहियं । सहस्संतरियं भुंजे, दुपक्खं चेव सेवइ ॥ १ ॥ तमेव अवियाणंता, विसमंसि अकोविया । मच्छा वेसालिया चेव, उदगस्सऽभियागमे ॥ २ ॥ उदगस्स पभावेणं, सुकं सिग्घं तमिंति उ । ढंकेहि य कंकेहि य, आमिसत्थेहिं ते दुही ॥ ३ ॥ एवं तु समणा एगे, बट्टमाणसुहेसिणो । मच्छा वेसालिया चैव, घातमेस्संति णंतसो ॥ ४ ॥ अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायं संबन्ध इहानन्तरोद्देशकपर्यन्तसूत्रेऽभिहितम्, 'एवं तु श्रमणा एके' इत्यादि, तदिहापि संबध्यते, एके श्रमणा यत्किञ्चित्पूतिकृतं भुञ्जानाः संसारं पर्यटन्तीति, परम्परसूत्रे लभिहितं 'बुझिअ' इत्यादि, यत्किञ्चित्पूतिकृतं तद्बुध्येतेति, एवमन्यैरपि सूत्रैरुत्प्रेक्ष्य संबन्धो योग्यः । अधुना सूत्रार्थः प्रतीयते- 'यत्किञ्चिदिति आहारजातं स्तोकमपि, आस्तां तावत्प्रभूतं तदपि 'प्रतिकृतम्' आधा कर्मादिसिक्थेनाप्युपसृष्टम्, आस्तां तावदाधाकर्म, तदपि न स्वयंकृतम्, अपि तु 'श्रद्धावता' अन्येन भक्तिमताऽपरान् आगन्तुकानुद्दिश्य 'ईहितं' चेष्टितं निष्पादितं तच्च सहस्रान्तरितमपि यो 'भुञ्जीत' अभ्य बहरेदसौ 'विपक्ष' गृहस्थपक्षं प्रत्रजितपक्षं चाऽऽसेवते, एतदुक्तं भवति - एवंभूतमपि परकृतमपरागन्तुकयत्यर्थं निष्पादितं यदाधाकर्मादि तस्य सहस्रान्तरितस्थापि योऽवयवस्तेनाप्युपसृष्टमाहारजातं भुञ्जानस्य द्विपक्षसेवनमापद्यते, किं पुनः य एते शाक्यादयः स्वयमेव सकलमाहारजातं निष्पाद्य स्वयमेव चोपभुञ्जते ?, ते च सुतरां द्विपक्षसेविनो भवन्तीत्यर्थः, यदिवा- 'द्विपक्ष'मिवि For Parts Only ~92~ p Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-४], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक गफलं ||४|| सूत्रकृताङ्ग ईपिथः सांपरायिकं च, अथवा-पूर्वबद्धा निकाचिताद्यवस्थाः कर्मप्रकृतीर्नयत्यपूर्वाश्चादने, तथा चागमः-"आहाकम्म|||१ समया० शीलाङ्का- भुञ्जमाणे समणे कइ कम्मपयडीओ बंधई, गोयमा ! अट्टकम्मपयडीओ बंधइ, सिढिलबंधणबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ। | उद्देशः३ चार्याय करेइ, चियाओ करेइ, उवचियाओ करेइ, हस्सठिइयाओ दीहठिइयाओ करेइ' इत्यादि । ततश्चैवं शाक्यादयः परतीथिकाः खयूत्तियुत थ्या वा आधाकर्म भुञ्जाना द्विपक्षमेवाऽऽसेवन्त इति भूत्रार्थः॥१॥ इदानीमेतेषां सुखैषिणामाधाकर्मभोजिनां कटुकविपाकावि॥४१॥ | भोवनाय श्लोकद्वयेन दृष्टान्तमाह-'तमेव आधाकोपभोगदोषम् 'अजानाना' विषमः अष्टप्रकारकर्मबन्धो भवकोटिभिरपि । 1|| दुर्मोक्षः चतुर्गेतिसंसारो वा तसिन्नकोविदाः, कथमेष कर्मबन्धो भवति ? कथं वा न भवति ? केन बोपायेनायं संसारार्णवस्तीर्यत । | इत्यत्राकुशलाः, तसिन्नेव संसारोदरे कर्मपाशावपाशिता दुःखिनो भवन्तीति । अत्र दृष्टान्तमाह-यथा 'मत्स्या' पृधुरो-॥3 माणो विशाल:--समुद्रस्तत्र भवा वैशालिकाः विशालाख्यविशिष्टजात्युद्भवा वा वैशालिकाः विशाला एव (वा) वैशालिका:18| बृहक्छरीरास्ते एवंभूता महामत्स्था 'उदकस्याभ्यागमे समुद्रवेला(यामागता)यां सत्या प्रयलमरुद्वेगोद्भूतोत्तुङ्गकल्लोलमालाऽपनुन्नाः || | सन्त उदकस प्रभावेन नदीमुखमागताः पुनर्वेलाऽपगमे तसिन्नुदके शुष्के वेगेनैवापगते सति बृहत्त्वाच्छरीरस्य तमिन्नेव धुनीमुखे ॥४॥ | विलमा अवसीदन्त आमिषानुभिः कवैश्व पक्षिविशेषैरन्यैश्च मांसवसार्थिभिर्मत्स्यबन्धादिभिर्जीवन्त एव विलुप्यमाना महान्तं ॥8॥ ॥४१॥ | दुःखसमुद्घातमनुभवन्तः अशरणा 'धातं' विनाशं 'यान्ति' प्राप्नुवन्ति, तुरवधारणे, प्राणाभावाद्विनाशमेव यान्तीति श्लोकद्व-1880 | १ आधाकर्म भुषानः श्रमणः कति कर्मप्रकृतीबध्नाति गौतम | अष्टकर्म प्रकृतीनाति. शिथिलबन्धनबद्धा गाठबन्धनबद्धाः करोति चिताः करोति उपचित्ताः | करोति हखकालस्थितिका दीर्घकालरिषतिकाः करोति । अनुक्रम [६३] ~93~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-४], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक ||५|| यार्थः ॥२-३॥ एवं दृष्टान्तमुपदर्य दार्शन्तिके योजयितुमाह-यथैतेऽनन्तरोक्ता मत्स्यास्तथा 'श्रमणाः' श्राम्यन्तीति श्रमणा 'एके' शाक्यपाशुपतादयः खयूथ्या वा, किंभूतास्ते इति दर्शयति-वर्तमानमेव सुखम्-आधाकर्मोपभोगजनितमेषितुं शीलं येषां ते वर्तमानमुखैषिणः, समुद्रवायसवत् तत्कालावाप्तसुखलवासक्तचेतसोऽनालोचिताधाकर्मोपभोगजनितातिकटुकदुःखौघानुभवा वैशालिकमत्स्या इव 'घातं' विनाशम् 'एष्यन्ति' अनुभविष्यन्ति 'अनन्तशः' अरहट्टघटीन्यायेन भूयो भूयः संसारोदन्वति निमजनोन्मजनं कुर्वाणा न ते संसाराम्भोधेः पारगामिनो भविष्यन्तीत्यर्थः ॥ ४ ॥ साम्प्रतमपराज्ञाभिमतोपप्रदर्शनायाह इणमन्नं तु अन्नाणं, इहमेगेसि आहियं । देवउत्ते अयं लोए, बंभउत्तेति आवरे ॥ ५॥ ईसरेण कडे लोए, पहाणाइ तहावरे । जीवाजीवसमाउत्ते, सुहदुक्खसमन्निए ॥६॥ सयंभुणा कडे लोए, इति वुत्तं महेसिणा । मारेण संथुया माया, तेण लोए असासए ॥७॥ 'इद'मिति वक्ष्यमाणं, तुशब्दः पूर्वेभ्यो विशेषणार्थः, 'अज्ञान'मिति मोहविजृम्भणम् –'इह' अस्मिन् लोके एकेषां न सर्वेषाम् |'आख्यातम्'अभिप्रायः,किं पुनस्तदाख्यातमिति तदाह-देवेनोप्तो देवोप्तः,कर्षकेणेव बीजवपनं कसा निष्पादितोऽयं लोक इत्यर्थः ।। || देवैवों गुप्तो-रक्षितो देवगुप्तो देवपुत्रो वेत्येवमादिकमज्ञानमिति, तथा ब्रमणा उप्लो वक्षोप्तोऽयं लोक इत्यपरे एवं व्यवस्थिताः तथाहि तेषामयमभ्युपगमः-प्रमा जगत्पितामहः, स चैक एच जगदादावासीत्तेन च प्रजापतयः सृष्टाः तैश्च क्रमेणैतत्सकलं जगदिति अनुक्रम [६४] ~94~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-७], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचा-यवत्तियुतं । ॥४२॥ ॥५॥ तथेश्वरेण कृतोऽयं लोकः, एवमेके ईश्वरकारणिका अभिदधति, प्रमाणयन्ति च ते-सर्वमिदं विमत्यधिकरणभावापन समया. उनुभुवनकरणादिकं धर्मिलेनोपादीयते, बुद्धिमत्कारणपूर्वकमिति साध्यो धर्मः, संस्थानविशेषवत्त्वादिति हेतुः, यथा घटादिरिति शउद्देशः३ दृष्टान्तोऽयं, यद्यत्संस्थानविशेषवत्तत्तदुद्धिमत्कारणपूर्वक दृष्टं, यथा देवकुलकपादीनि, संस्थानविशेषबच्च मकराकरनदीधराधरधरा- लाकूक| शरीरकरणादिकं विवादगोचरापन्न मिति, तसादुद्धिमत्कारणपूर्वकं, यश्च समस्तखास जगतः कर्ता स सामान्यपुरुषो न भवती-IRI तानिरासः त्यसावीश्वर इति, तथा सर्वमिदं तनुभुवनकरणादिकं धर्मिलेनोपादीयते, बुद्धिमत्कारणपूर्वकमिति साध्यो धर्मः, कार्यत्वाद् घटादिवत् , तथा खिसा प्रवृत्तेर्वा, वास्यादिवदिति । तथापरे प्रतिपन्ना यथा-प्रधानादिकृतो लोका, सत्त्वरजस्तमसा साम्या|वस्था प्रकृतिः, सा च पुरुषार्थ प्रति प्रवर्तते, आदिग्रहणाच 'प्रकृतेर्महान् ततोऽहङ्कारः तसाच गणः पोडशका तसादपि || षोडशकात्पश्चभ्यः पञ्च भूतानी'त्यादिकया प्रक्रियया सृष्टिर्भवतीति, यदिवा-आदिग्रहणात्स्वभावादिकं गृह्यते, ततश्चायमर्थ:-181 खभावेन कृतो लोकः, कण्टकादिक्ष्ण्यवत् , तथाऽग्ये नियतिकतो लोको मयूराङ्गाहवदित्यादिभिः कारणैः कृतोऽयं लोको॥४॥ | 'जीवाजीवसमायुक्तो' जीवैः-उपयोगलक्षण तथा अजीवैः-धर्माधर्माकाशपुद्गलादिकैः समन्वितः समुद्रधराधरादिक इति, पुनरपि लोकं विशेषयितुमाह-'सुखम् ' आनन्दरूपं 'दुःखम्' असातोदवरूपमिति, ताभ्यां समन्वितो-युक्त इति ॥ ६ ॥४२॥ | किंच-'सयंभुणा इत्यादि, स्वयं भवतीति खयम्भूः-विष्णुरन्यो वा, स चैक एवादावभूत, तत्रैकाकी रमते, द्वितीयमिष्टवान् , तचिन्तानन्तरमेव द्वितीया शक्तिः समुत्पन्ना, तदनन्तरमेव जगत्सृष्टिरभूद 'इति' एवं महर्षिणा 'उक्तम्' अमिहितम् , एवंचादि-15 नो लोकस्य कतारमभ्युपगतवन्तः । अपि च 'तेन' स्वयंभुवा लोक निष्पाचातिमारभयाधमाख्यो मारयतीति मारो पधायि, तेन । [६६] ~95 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-८], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक ||८|| Rमारेण 'संस्तुता कृता प्रसाधिता माया, तया च मायया लोका नियन्ते, न च परमार्थतो जीवस्योपयोगलक्षणस्य व्यापत्ति| रस्ति, अतो मायैषा यथाऽयं मृतः, तथा चार्य लोकः 'अशाश्वतः' अनित्यो विनाशीति गम्यते ॥ ७॥ अपि च माहणा समणा एगे, आह अंडकडे जगे । असो तत्तमकासी य, अयाणंता मुसं वदे ॥८॥ 'ब्राह्मणा' धिगजातयः 'श्रमणा' त्रिदण्डिप्रभृतयः 'एके' केचन पौराणिका न सर्वे, एवम् 'आहुः उक्तवन्तो, बदन्ति च यथा—जगदेतच्चराचरमण्डेन कृतमण्डकृतं अण्डाजातमित्यर्थः, तथाहि ते बदन्ति-यदा न किश्चिदपि वस्वासीत्-पदार्थ-18| शून्योऽयं संसार: तदा ब्रह्माऽपवण्डमसजत् , तसाच क्रमेण वृद्धात्पश्चाविधाभावमुपगतााधोविभागोऽभूत् , तन्मध्ये च सर्वाः | प्रकृतयोऽभूवन् , एवं पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशसमुद्रसरित्पर्वतमकराकरनिवेशादिसंस्थितिरभूदिति, तथा चोक्तम्- "आसीदिदं ।। तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतक्यमविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥१॥" एवंभूते चासिन् जगति 'असी' ब्रह्मा, तस्य भाव-18 |स्तत्वं--पदार्थजातं तदण्डादिप्रक्रमेण 'अकार्षीत् कृतवानिति । ते च ब्रामणादयः परमार्थमजानानाः सन्तो मृषा वदन्त एवं वदन्ति-अन्यथा च स्थितं तत्वमन्यथा प्रतिपादयन्तीत्यर्थः ॥८॥ अधुनतेषां देवोप्तादिजगद्वादिनामुत्तरदानायाह--- सएहिं परियापहि, लोयं ब्रूया कडेति यातत्तं ते ण विजाणंति, ण विणासी कयाइवि ॥९॥ 'स्वकै खकीयैः 'पर्यायैः' अभिप्रायैयुक्तिविशेषैः अयं लोकः कृत इत्येवम् 'भब्रुवन्' अभिहितवन्तः, तयथा-देवोतो अनुक्रम Raesesesed [EL] N ainauranorm ~96~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-९], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्गब्रह्मोप्त ईश्वरकृतः प्रधानादिनिष्पादितः खयम्भुवा व्यधायि तनिष्पादितमायया म्रियते तथाउण्डजवायं लोक इत्यादि, खकीयाभि- समया. शीलाक्षा- रुपपत्तिभिः प्रतिपादयन्ति-यथाऽस्मदुक्तमेव सत्यं नान्यदिति, ते चैवंचादिनो वादिनः सर्वेऽपि 'तत्त्वं' परमार्थ यथावस्थितलोक- | उद्देशः३ चायीय- खभावं 'नाभि (न वि)जानन्ति' न सम्यक विवेचयन्ति, यथाऽयं लोको द्रव्यार्थतया न विनाशीति-निर्मूलतः कदाचन, न || जगत्कने त्तियुतं चायमादित आरभ्य केनचित् क्रियते, अपि खयं लोकोऽभूद्भवति भविष्यति च, तथाहि-यत्ताबदुक्तं यथा 'देवोप्तोऽयं लोक' खबाद: ॥४३॥ इति, तदसंगतम् , यतो देवोप्तले लोकस्य न किञ्चित्तथाविधं प्रमाणमस्ति, न चाप्रमाणकमुच्यमानं विद्वजनमनांसि प्रीणयति, अपि च--किमसी देव उत्पनोज्नुत्पन्नो वा लोकं मजेत्, न तावदनुत्पन्नस्तस्य खरविषाणस्वासत्त्वात्करणाभावः, अथोत्पत्रः सजे-15 |त्तरिक खतोऽम्पती या', यदि खत एवोत्पन्नस्तथा सति तल्लोकस्यापि खत एवोत्पत्तिः किं नेष्यते', अथान्यत उत्पन्नः सन् | लोककरणाय, सोऽप्यन्योभ्यतः सोऽप्यन्योऽन्यत इत्येवमनवस्थालता नभोमण्डलव्यापिन्यनिवारितप्रसरा प्रसर्पतीति, अथासौ || | देवोऽनादिवानोत्पन्न इत्युच्यते, इत्येवं सति लोकोऽप्यनादिरेवास्तु, कोदोषः, किंच-असावनादिः सनित्योऽनित्यो वा स्यात् ।। | यदि नित्यस्तदा तस्स क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधान कर्तृतम्, अथानित्यस्तथा सति स्वत एवोत्पच्यनन्तरं विनाशिखादा-|| त्मनोऽपि न प्राणाय, कुतोऽन्यत्करणं प्रति तस्य व्यापारचिन्तेति, तथा किममूर्तो मूर्तिमान् वा?, यद्यमूर्तस्तदाऽऽकाशवदकर्तेब, I... अथ मूर्तिमान् तथा सति प्राकृतपुरुषस्येवोपकरणसव्यपेक्षस्य स्पष्टमेव सर्वजगदकईखमिति । देवगुप्तदेवपुत्रपक्षौ खतिफल्गुखादप-18 ॥४३॥ कणेवितव्याविति, एतदेव दूषणं ब्रह्मोतपक्षेऽपि द्रष्टव्यं, तुल्ययोगक्षेमतादिति । तथा यदुक्तम्-'तनुभुवनकरणादिकं विमत्यधि-| करणभावापन्नं विशिष्टबुद्धिमत्कारणपूर्वक, कार्यखाद्, घटादिवदिति तदयुक्त, तथाविधविशिष्टकारणपूर्वकत्वेन व्यायसिद्धेः, अनुक्रम paecseeseeeeesea [६८ For P OW ~97 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-९], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक ||९|| कारणपूर्वकत्वमात्रेण तु कार्य व्याप्तं, कार्यविशेपोपलब्धौ कारणविशेषप्रतिपत्तिर्गृहीतप्रतिबन्धस्यैव भवति, न चात्यन्तादृष्टे तथा प्रतीतिर्भवति, घटे तत्पूर्वकवं प्रतिपन्नमिति चेत् युक्तं तत्र घटस्य कार्यविशेषलप्रतिपत्तेः, न खेवं सरित्समुद्रपर्वतादौ बुद्धिमत्कार-1 णपूर्वकलेन संबन्धो गृहीत इति, नन्वत एव घटादिसंस्थानविशेषदर्शनवत्पर्वतादावपि विशिष्टसंस्थानदर्शनाद्बुद्धिमत्कारणपूर्वकलस्य | साधनं क्रियते, नैतदेवं युक्तं, यतो न हि संस्थानशब्दप्रवृत्तिमात्रेण सर्वस्व बुद्धिमत्कारणपूर्वकलावगतिर्भवति, यदि तु स्यात् मृद्धि-18 कारखाईल्मीकस्यापि घटवत्कुम्भकारकृतिः खात् , तथा चोक्तम्-"अन्यथा कुम्भकारेण, मृद्विकारस्य कस्यचित् । घटादेः कर-18 18 णात्सियेद्वल्मीकस्यापि तत्कृतिः॥१॥" इति, तदेवं यस्यैव संस्थान विशेषस्य बुद्धिमत्कारणपूर्वकवेन संबन्धो गृहीतस्तद्दर्शनमेव तथाविधकारणानुमापकं भवति न संस्थानमात्रमिति, अपिच-घटादिसंस्थानानां कुम्भकार एवं विशिष्टः कोपलक्ष्यते नेश्वरः, यदि पुनरीश्वरः सात् किं कुम्भकारेणेति !, नैतदस्ति, तत्रापीश्वर एव सर्वव्यापितया निमित्तकारणखेन व्याप्रियते, नन्वेवं दृगृहानिरदृष्टकल्पना स्यात् , तथा चोक्तम्- "शखौषधादिसंबन्धाच्चैत्रस्य व्रणरोहणे । असंवद्धख किं स्थायोः, कारणलं न कल्प्यते ॥१॥" तदेवं दृष्टकारणपरित्यागेनादृष्टपरिकल्पना न न्याय्येति, "अपिच-देवकुलावटादीनां यः कतों स साव-18 यवोऽव्याप्यनित्यो दृष्टः, तदृष्टान्तसाधितश्वेश्वर एवंभूत एव प्राप्नोति, अन्यथाभूतस्य च दृष्टान्ताभावाद्व्याप्यसिद्धेनानुमान-181 मिति, अनयैव दिशा स्थिसाप्रवृत्यादिकमपि साधनमसाधनमायोज्यं, तुल्ययोगक्षेमलादिति । यदपि चोक्तं 'प्रधानादिकृतोऽयं व | लोक' इति, तदप्यसंगतं, यतस्तत्प्रधानं कि मूर्तममूर्त वा, यद्यमृत न ततो मकराकरादेमूतसोद्भवो घटते, न ह्याकाशाकिश्चि-12 दुत्पद्यमानमालक्ष्यते, मूर्तामूर्तयोः कार्यकारणविरोधादिति, अथ मूर्त तत्कुतः समुत्पन्न, न तावत्खतो लोकस्यापि तथोत्पत्ति अनुक्रम [६८ ~98~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्" -अगसूत्र-२ (मूल+नियुक्ति :+वृत्ति :) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-९], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ९|| सूत्रकृताङ्गं प्रसङ्गात , नाप्यन्यतोऽनवस्थापत्तेरिति, यथाऽनुत्पन्नमेव प्रधानाद्यनादिभावेनाऽऽस्ते तल्लोकोऽपि किं नेष्यते ?, अपिच-सच्चर-18|१समया. शीलालजस्तमसां साम्यावस्था प्रधानमित्युच्यते, न चाविकृतात्प्रधानान्महदादेरुत्पतिरिष्यते भवद्धिा, न च विकृतं प्रधानन्यपदेशमास्क- उद्देशः३ चायीयय- न्दतीत्यतो न प्रधानान्महदादेरुत्पत्तिरिति, अपिच-अचेतनायाः प्रकृतेः कथं पुरुषार्थ प्रति प्रवृत्तिः ? येनाऽऽस्मनो भोगोपपत्त्या जगत्कने चियुतं मष्टिः स्वादिति, प्रकृतेरयं खभाव इति चेदेवं तर्हि स्वभाव एव बलीयान् यस्तामपि प्रकृति नियमयति, तत एव च लोकोऽ- स्ववादा प्यस्तु, किमदृष्टप्रधानादिकल्पनयेति ?, अथादिग्रहणात्खभावस्थापि कारणलं कैविदिष्यत इति चेदस्तु, न हि खभावोऽभ्युपग॥४४॥ म्यमानो नः क्षतिमातनोति, तथाहि -खो भावः स्वभावः-स्वकीयोत्पत्तिः, सा च पदार्थानामिष्यत एवेति । तथा यदुक्तं 'निय18| तिकृतोऽयं लोक' इति, तत्रापि नियमनं नियतिर्यद्यथाभवनं नियतिरित्युच्यते, सा चाऽऽलोच्यमाना न स्वभावादतिरिच्यते, यशा भ्यधायि-'स्वयम्भुवोत्पादितो लोक' इति, तदप्यसुन्दरमेव, यतः स्वयम्भूरिति किमुक्तं भवति !, किं यदाऽसौ भवति तदा | स्वतन्त्रोऽन्यनिरपेक्ष एव भवति अथानादिभवनात्खयम्भूरिति व्यपदिश्यते, तद्यदि स्वतत्रभवनाभ्युपगमस्तल्लोकसापि भवनं किं नाभ्युपेयते ।, किं स्वयम्भुवा ?, अथानादिस्ततस्तस्थानादिखे नित्यख, नित्यस्य चैकरूपलात्कलानुपपचिः, तथा वीतरागखात्तस्य संसारवैचित्र्यानुपपत्तिः, अथ सरागोऽसौ ततोऽस्मदाद्यव्यतिरेकात्सुतरां विश्वस्थाकर्ता, मूतोमूर्तादिविकल्पाश्च प्राग्वदायोज्या इति । यदपि चात्राभिहितं-'तेन मार समुत्पादितः, स च लोकं व्यापादयति', तदप्यकर्तृतस्याभिहितखात्प्रलापमात्र INo ||४४॥ |मिति । तथा यदुक्तम् 'अण्डादिक्रमजोऽयं लोक' इति, तदप्यसमीचीनं, यतो यास्वप्सु तदण्डं निसृष्टं ता यथाऽण्डमन्तरेणाभूवन् । तथा लोकोऽपि भूत इत्यभ्युपगमे न काचिद्धाधा दृश्यते, तथाऽसौ ब्रह्मा यावदण्डं सृजति तावल्लोकमेव कसानोत्पादयति ?, किम-15 अनुक्रम 2009 [६८ ~99~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) ཎྜཡྻཱཟླ अनुक्रम [६८] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-९], निर्युक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः नया कष्टया युक्त्यसंगतया चाण्डपरिकल्पनया १, एवमस्त्विति चेत् तथा केचिदभिहितवन्तो यथा ब्रह्मणो मुखाद्राह्मणाः समजायन्त बाहुभ्यां क्षत्रिया ऊरुभ्यां वैश्याः पद्भ्यां शूद्रा इति एतदप्ययुक्तिसंगतमेव, यतो न मुखादेः कस्यचिदुत्पत्तिर्भवन्त्युपलक्ष्यते, अथापि स्यात्तथा सति वर्णानामभेदः स्याद्, एकस्मादुत्पत्तेः, तथा ब्राह्मणानां कठतैत्तिरीयककलापादिकथ भेदो न स्याद्, एकसान्मुखादुत्पत्तेः एवं चोपनयनादिसद्भावो न भवेद् भावे वा स्वस्त्रादिग्रहणापत्तिः स्याद् एवमाद्यनेकदोषदुष्टलादेवं लोकोत्पत्तिर्नाभ्युपगन्तव्या । ततथ स्थितमेतत्-त एवंवादिनो लोकस्यानाद्यपर्यवसितस्योर्ध्वाधश्चतुर्दशरजुप्रमाणस्य वैशाखस्थानस्थकटिन्यस्तकरयुग्म पुरुषाकृतेरथोमुख मल्लका का रसप्तपृथिव्यात्मका धोलोकस्य स्थालाकारासंख्येयद्वीपसमुद्राधारमध्यलोकस्य मलंक समुद्रकाकारोर्ध्वलोकस्य धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवात्मकस्य द्रव्यार्थतया नित्यस्य पर्यायापेक्षया क्षणक्षयिण उत्पादव्ययधीच्यापादितद्रव्य सतत्त्वस्यानादिजीव कर्मसंबन्धापादितानेकभवप्रपञ्चस्याष्टविध कर्मविप्रमुक्ताऽऽत्मलोकान्तोपलक्षितस्य तत्त्वमजानानाः | सन्तो मृषा वदन्तीति ॥ ९ ॥ इदानीमेतेषामेव देवोप्तादिवादिनामज्ञानिलं प्रसाध्य तत्फलदिदर्शविषयाऽऽह अमणुन्नसमुप्पायं, दुक्खमेव विजाणिया । समुप्पायमजाणंता, कहं नायंति संवरं १ ॥ १० ॥ मनोनुकूलं मनोज्ञं शोभनमनुष्ठानं न मनोज्ञममनोज्ञम् - असदनुष्ठानं तस्मादुत्पादः -- प्रादुर्भावो यस्य दुःखस्य तदमनोज्ञसमुत्पादम् एवकारोऽवधारणे, स चैवं संबन्धनीयः --अमनोज्ञसमुत्पादमेव दुःखमित्येवं 'विजानीयात्' अवगच्छेत्प्राज्ञः, एत| दुक्तं भवति - स्वकृता सदनुष्ठानादेव दुःखस्योद्भवो भवति नान्यसादिति, एवं व्यवस्थितेऽपि सति अनन्तरोक्तवादिनोऽसदनुष्ठानो Ja Eucation Intention For Parts Only ~ 100~ aru Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-१०], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१०|| मूत्रकृताई शीलाताचाय-यत्तियुत दीप अनुक्रम [६९]] द्भवस्य दुःखस्स समुत्पादमजानानाः सन्तोऽज्यत ईश्वरादेवुःखस्योत्पादमिच्छन्ति, ते चैवमिच्छन्तः 'क' केन प्रकारेण दुःखस्य संवरं 8१ समया. -दुःखप्रतिघातहेतुं ज्ञास्यन्ति, निदानोच्छेदेन हि निदानिन उच्छेदो भवति, ते च निदानमेव न जानन्ति, तचाजानानाः कथं उद्देशः ३ दुःखोच्छेदाय यतिष्यन्ते ?, यलवन्तोऽपि च नैव दुःखोच्छेदनमवाप्स्यन्ति, अपि तु संसार एवं जन्मजरामरणेएवियोगायनेक-18|| कर्तृत्ववा| दुःखत्राताघाता भूयो भूयोरहट्टयटीन्यायेनानन्तमपि कालं संस्थास्यन्ति ॥१०॥साम्प्रतं प्रकारान्तरेण कृतवादिमतमेवोपन्यस्यन्नाह-| सुद्धे अपावए आया, इहमेगेसिमाहियं । पुणो किड्डापदोसेणं, सो तत्थ अवरज्झई ॥ ११ ॥ इह संवुडे मुणी जाए, पच्छा होइ अपावए । वियडंबु जहा भुजो, नीरयं सरयं तहा ॥ १२ ॥ 'इह' अस्मिन् कृतवादिप्रस्तावे त्रैराशिका मोशालकमतानुसारिणो येषामेकविंशतिसूत्राणि पूर्वगतत्रैराशिकसूत्रपरिपाट्या व्यव| स्थितानि ते एवं वदन्ति--यथाऽयमात्मा 'शुद्धो मनुष्यभव एव शुद्धाचारो भूखा अपगताशेषमलकलको मोक्षे अपापको || भवति–अपगताशेषकर्मा भवतीत्यर्थः, इदम् 'एकेषां गोशालकमतानुसारिणामाख्यातं, पुनरसावात्मा शुद्धताकमेकखराशिदयावस्थो भूखा क्रीडया प्रद्वेषेण वा स तत्र मोक्षस्थ एव 'अपराध्यति' रजसा लिप्यते, इदमुक्तं भवति तस्य हि खशासनपूजामुपलभ्यान्यशासनपराभव चोपलभ्य कीडोत्पद्यते-प्रमोदः संजायते, स्वशासनन्यकारदर्शनाच द्वेषः, ततोऽसौ क्रीडाद्धेपाभ्यामनुगतान्तरात्मा शनैः शनैर्निर्मलपटवदुपभुज्यमानो रजसा मलिनीक्रियते, मलीमसश्च कर्मगौरवाद्भूयः संसारेऽवतरति, Secemesekesesemese Scene 101॥४५॥ A asurary.com ~101~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-१२], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| अस्यां चावस्थायां सकर्मकखात्तृतीयराश्यवस्थो भवति ॥ ११॥ किं च–'इह' अस्मिन् मनुष्यभवे प्राप्तः सन् प्रव्रज्यामभ्युपेत्य संवृतात्मा यमनियमरतो जातः सन् पश्चादपापो भवति-अपगताशेषकर्मकलको भवतीति भावः, ततः खशासनं प्रचाल्य 1 मुक्त्यवस्थो भवति, पुनरपि स्वशासनपूजादर्शनानिकारोपलब्धेश्च रागद्वेषोदयात्कलुपितान्तरात्मा विकटाम्बुवद्-उदकवनीरजस्कं सद्वातोद्धतरेणुनिवहसंपृक्तं सरजस्कं-मलिनं भूयो यथा भवति तथाऽयमप्पात्माऽनन्तेन कालेन संसारोद्वेगाच्छुद्धाचारावस्थो भूत्वा ततो मोक्षावाप्ती सत्यामकर्मावस्खो भवति, पुनः शासनपूजानिकारदर्शनाद्रागद्वेषोदयात्सकर्मा भवतीति, एवं त्रैराशिकानां | राशित्रयावस्थों भवत्यात्मेत्याख्यातम् , उक्तं च-“दग्धेन्धनः पुनरुपैति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारितभीरुनिष्ठम् । मुक्तः | स्वयं कृतभवश्व परार्थशूरस्वच्छासनप्रतिहतेष्विह मोहराज्यम् ॥ १॥" इति ॥ १२ ।। अधुनैतदृषयितुमाह एताणुवीति मेधावी, बंभचेरेण ते वसे । पुढो पावाउया सवे, अक्खायारो सयं सयं ॥ १३ ॥ सए सए उबटाणे, सिद्धिमेव न अन्नहा । अहो इहेब वसवत्ती, सबकामसमप्पिए ॥ १४ ॥ 'एतान्' पूर्वोक्तान् वादिनोऽनुचिन्त्य 'मेधावी प्रज्ञावान् मर्यादाम्यवस्थितो वा एतदयधारयेत् यथा- नैते राशित्रयवादिनो | देवोप्तादिलोकवादिनच 'ब्रह्मचर्य तदुपलक्षिते वा संयमानुष्ठाने 'वसेयुः' अवतिष्ठेरनिति, तथाहि-तेपामयमभ्युपगमो यथा|| | खदर्शनपूजानिकारदर्शनात्कर्मबन्धो भवति, एवं चावश्यं तद्दर्शनस्य पूजया तिरस्कारेण योभयेन वा भाव्यं, तत्संभवाच कर्मोप 203930292easraeasera938092009 दीप अनुक्रम [७] ~1024 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-१४], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत उद्देशः ३ सूत्रांक ||१४|| दीप अनुक्रम [७३] सूत्रकृतार्थाचयस्तदुपचयाच शुयभावः शुद्ध्यभावाच मोक्षाभावः, न च मुक्तानामपगताशेषकर्मकलकानां कृतकल्यानामपगताशेषयथाव-| |१समया० शीलाङ्का- स्थितवस्तुतत्वानां समस्तुति निन्दानामपगतात्मात्मीयपरिग्रहाणां रागद्वेषानुषङ्गः, तदभावाच्च कुतः पुनः कर्मवन्धः , तद्वशाच चाय-यय- संसारावतरणमित्यर्थः, अतस्ते यद्यपि कथश्चिद् द्रव्यब्रह्मचर्ये व्यवस्थितास्तथापि सम्यग्ज्ञानाभावान्न ते सम्यगनुष्ठानमाज इति त्रिशशित्तियुर्त स्थितम् । अपिच-सर्वेऽप्येते प्रावादुकाः 'खकं खकम्' आत्मीयमात्मीयं दर्शनं खदर्शनानुरागादाख्यातार:-शोभनखेन कर्तृवाद निरासः प्रख्यापयितार इति, न च तत्र विदितवेद्येनास्था विधेयेति ।।१३।। पुनरन्यथा कृतवादिमतमुपदर्शयितुमाहते कृतवादिनः शैवैकदण्डिप्रभृतयः स्वकीये खकीये उपविष्ठन्त्यसिन्नित्युपस्थान-स्वीयमनुष्ठानं दीक्षागुरुचरणशुश्रूषादिकं तसिन्नेव 'सिद्धिम्' अशेपसांसारिकापश्चरहितस्वभावामभिहितवन्तो 'नान्यथा' नान्येन प्रकारेण सिद्धिरवाप्यत इति, तथाहि-शैवा दीक्षात एव मोक्ष इत्येवं व्यवस्थिताः, एकदण्डिकास्तु पञ्चविंशतितवपरिज्ञानान्मुक्तिरित्यभिहितवन्तः,तथाऽन्येऽपि वेदान्तिका ध्यानाध्ययनसमाधिमार्गानुष्ठानासिद्धिमुक्तवन्त इत्येवमन्येऽपि यथास्वं दर्शनान्मोक्षमार्ग प्रतिपादयन्तीति, अशेषद्वन्द्वोपरमलक्षणायाः सिद्धिप्राप्तेरधस्ता-18 त्-प्रागपि यावदद्यापि सिद्धिप्राप्तिन भवति तावदिहैव जन्मन्यसदीयदर्शनोक्तानुष्ठानानुभावादष्टगुणैश्वर्यसद्भावो भवतीति दर्शयति || |-आत्मवशे वर्तितुं शीलमखेति वशवर्ती-वशेन्द्रिय इत्युक्तं भवति, न बसौ सांसारिकैः स्वभावैरभिभूयते, सर्वे कामा-अभिलाषा अर्पिताः-संपन्ना यस्य स सर्वकामसमर्पितो, यान् यान् कामान् कामयते ते तेऽस्य सर्वे सिध्यन्तीतियावत् , तथाहि-सिद्धेरारादष्ट-18 IS॥४६॥ II गुणैश्वर्यलक्षणा 'सिद्धिर्भवति तद्यथा-अणिमा लधिमा महिमा प्राकाम्पमीशिवं वशित्वं प्रतिघातित्वं यत्र कामावसायिखमिति ॥ १४ ॥ तदेवमिहेवामदुक्तानुष्ठायिनोऽष्टगुणैश्वर्यलक्षणा सिद्धिर्भवत्यमुत्र चाशेषद्वन्द्वोपरमलक्षणा सिद्धिर्भवतीति दर्शयितुमाह A asurary.com ~103~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-१५], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१५|| desesepeaterceptseededesever सिद्धा य ते अरोगा य, इहमेगेसिमाहियं । सिद्धिमेव पुरो काउं, सासए गढिआ नरा ॥ १५॥ असंवुडा अणादीयं, भमिहिंति पुणो पुणो । कप्पकालमुवजंति, ठाणा आसुरकिब्बिसिया ॥१६॥ इति बेमि इति प्रथमाध्ययने तृतीयोद्देशकः ॥ गाथा पं. ७५॥ ये यमदुक्तमनुष्ठानं सम्यगनुतिष्ठन्ति तेऽसिन् जन्मन्पष्टगुणैश्वर्यरूपां सिद्धिमासाद्य पुनर्विशिष्टसमाधियोगेन शरीरत्यागं कृखा || 'सिद्धाश्च' अशेपद्वन्द्वरहिता अरोगा भवन्ति, अरोगग्रहणं चोपलक्षणम् , अनेकशारीरमानसद्वन्द्वैर्न स्पृश्यन्ते, शरीरमनसोरभावा-18 दिति, एवम् 'इह' अस्मिन् लोके सिद्धिविचारे वा 'एकेषां शैवादीनामिदम् 'आख्यातं' भाषितं, ते च शैवादयः 'सिद्धिमेव पुरस्कृत्य मुक्तिमेवाङ्गीकृत्य 'स्वकीये आशये' खदर्शनाभ्युपगमे 'अथिता।' संबद्धा अध्युपपन्नास्तदनुकूला युक्तीः प्रतिपादयन्ति, नरा इव नराः-प्राकृतपुरुषाः शास्त्रावबोधविकलाः खाभिप्रेतार्थसाधनाय युक्तीः प्रतिपादयन्ति, एवं तेऽपि पण्डितंमन्याः परमार्थमजानानाः स्वाग्रहप्रसाधिका युक्तीरुद्योषयन्तीति, तथा चोक्तम् –'आग्रही बत निनीपति युक्तिं, तत्र यंत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तियत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ॥ १॥।॥ १५॥ साम्प्रतमेतेषामनर्थप्रदर्शनपुरःसरं दूषणाभिधित्सयाऽहते हि पाखण्डिका मोक्षाभिसन्धिना समुत्थिता अपि 'असंवृता' इन्द्रियनोइन्द्रियैरसंयताः, इहाप्यमाकं लाभ इन्द्रियानुरोधेन सर्वविषयोपभोगादू, अमुत्र मुक्त्यवाप्तः, तदेवं मुग्धजनं प्रतारयन्तोऽनादिसंसारकान्तारं 'भ्रमिष्यन्ति' पर्यटिष्यन्ति खदुधरितो kectioerceaeeeeeeeeese दीप अनुक्रम [७४] Halasaram.org ~1044 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [७५] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा - १६], निर्युक्तिः [३५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का चार्ययनियुतं ॥ ४७ ॥ | पांच कर्मपाशावशापि (पाशि )ता: पौनःपुन्येन नरकादियातनास्थाने पृत्पद्यन्ते, तथाहि — नेन्द्रियैरनियमितैर शेष द्वन्द्वप्रयुतिलक्षणा सिद्धिरवाप्यते, याऽप्यणिमाद्यष्टगुणलक्षणैहिकी सिद्धिरभिधीयते साऽपि मुग्धजनप्रतारणाय दम्भकल्पैवेति, याऽपि च तेषां बालत| पोऽनुष्ठानादिना स्वर्गावाप्तिः साऽप्येवंप्राया भवतीति दर्शयति- 'कल्पकालं' प्रभूतकालम् 'उत्पद्यन्ते' संभवन्ति आसुरा:| असुरस्यानोत्पन्ना नागकुमारादयः, तत्रापि न प्रधानाः, किं तर्हि ?–'किल्विषिकाः' अधमाः प्रेष्यभूता अल्पर्धयोऽल्पभोगाः खल्पायुः सामर्थ्याद्युपेताश्च भवन्तीति । इति उद्देशकपरिसमाप्यर्थे, त्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १६ ॥ ७५ ॥ इति समयाख्याध्ययनस्य तृतीयोदेशकः समाप्तः ॥ अथ प्रथमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः प्रारभ्यते ॥ उक्तस्तृतीयोदेशकः, अधुना चतुर्थः समारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः - अनन्तरोदेशकेऽध्ययनार्थखात्खपरसमयवक्तव्यतोतेहापि सैवाभिधीयते, अथवाऽनन्तरोद्देश के तीर्थिकानां कुत्सिताचारखमुक्तमिहापि तदेवाभिधीयते, तदनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यायोद्देशकस्योपक्रमादीनि चखार्यनुयोगद्वाराण्यभिधाय सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयं तच्चेदम् एते जिया भो ! न सरणं, बांला पंडियमाणिणो । हिच्चा णं पुवसंजोगं, सिया किञ्चोव सगा ॥१॥ १ तावात प्र० २ जत्थ बालेऽवसीय प्र० । Education Internationa अस्य पृष्ठे प्रथम अध्ययनस्य चतुर्थ उद्देशकस्य आरम्भः For Pernal Use On ~ 105~ 299৬১৬ १ समया० उद्देशः ४ कृत्योपदेशवि० ॥ ४७ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [गाथा-२], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| तं च भिक्खू परिन्नाय, वियं तेसु ण मुच्छए । अणुक्कस्से अप्पलीणे, मज्झेण मुणि जावए ॥२॥ अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायं संबन्धस्तद्यथा, अनन्तरसूत्रेऽभिहितं-'तीथिका असुरस्थानेषु किल्विषा जायन्त' इति, किमिति ? यत एते जिताः परीषहोपसर्गः, परम्परसूत्रसंबन्धस्वयम्-आदाचिदमभिहितं 'बुध्येत त्रोटयेच्च' ततश्चैतदपि बुध्येत-यथैते | पञ्चभूतादिवादिनो गोशालकमतानुसारिणश्च जिताः परीषहोपसर्गः कामक्रोधलोभमानमोहमदाख्येनारिषड्वर्गेण चेति, एवमन्यैरपि सूत्रः संबन्ध उत्प्रेक्ष्यः । तदेवं कृतसंबन्धस्यास्य सूत्रस्पेदानीं व्याख्या प्रतन्यते-'एत' इति पञ्चभूतकात्मतञ्जीवतच्छरीरादिवादिनः कृतवादिनध गोशालकमतानुसारिणराशिकावं 'जिता' अभिभूता रागद्वेपादिभिः शब्दादिविषयैश्च तथा प्रबलम-13 हामोहोत्थाज्ञानेन च 'भो' इति विनेयामन्त्रणम् एवं वं गृहाण यथैते तीथिका असम्यगुपदेशप्रवृत्तखान कस्यचिच्छरणं भवितुमर्हन्ति न कश्चित्रातुं समर्था इत्यर्थः, किमित्येवं ?, यतस्ते बाला इव बालाः, यथा शिशवः सदसद्विवेकवैकल्याचत्किञ्चनका-| रिणो भाषिणव, तथैतेऽपि खयमज्ञाः सन्तः परानपि मोहयन्ति, एवम्भूता अपि च सन्तः पण्डितमानिन इति, कचित्पाठो 'जत्थ बालेऽवसीय'ति 'यत्र' अज्ञाने 'बाल:' अज्ञो लग्नः सववसीदति, तत्र ते व्यवस्थिताः यतस्ते न कस्यचित्राणायेति । यच्च तैर्विरूपमाचरितं तदुत्तरार्द्धन दर्शयति–'हित्वा'त्यक्खा, णमिति वाक्यालङ्कारे, पूर्वसंयोगो-धनधान्यस्वजनादिभिः संयोगस्तं त्यक्त्वा किल वयं निःसङ्गाः प्रबजिता इत्युत्थाय पुनः सिता-बद्धाः परिग्रहारम्भेष्यासक्तास्ते गृहस्थाः तेषां कृत्य-करणीयं पचनपाचनकण्डनपेषणादिको भूतोपमर्दकारी व्यापारस्तस्योपदेशस्तं गच्छन्तीति कृत्योपदेशगाः कृत्योपदेशका वा, यदिवा-'सिया इति आर्षखाबहुवचनेन व्याख्यायते 'स्युः भवेयुः कृत्यं-कर्तव्यं सावधानुष्ठानं तत्प्रधानाः कृत्या-गृहस्थास्तेपामुपदेशः Sasha9900099993 अनुक्रम [७७] auremarary.org ~106~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्" -अगसूत्र-२ (मूल+नियुक्ति :+वृत्ति :) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [गाथा-२], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक चियुत शवि० ||२|| सूत्रकृताङ्गं |संरम्भसमारम्भारम्भरूपः स विद्यते येषां ते कृत्योपदेशिकाः, प्रजिता अपि सन्तः कर्तव्यैर्गृहस्पेभ्यो न भिद्यन्ते, गृहस्सा इव 81 समया शीलाझा-श तेऽपि सर्वावस्थाः पञ्चमूनाग्यापारोपेता इत्यर्थः ॥ १॥ एवम्भूतेषु च तीर्थिकेषु सत्सु भिक्षुणा यत्कर्तव्यं तदर्शयितुमाह--'' 18| उद्देशः ४ अक्ष चाीयवृपाखण्डिकलोकमसदुपदेशदानाभिरतं 'परिज्ञाय' सम्यगवगम्य यथैते मिथ्याखोपहतान्तरात्मानः सद्विवेकशून्या नात्मने हिता-18 र कृत्योपदेयालं नान्यसै इत्येवं पर्यालोच्य भावभिक्षुः संयतो 'विद्वान् विदितवेद्यः तेषु 'न मूर्छयेत्' न मायं विदध्यात , न तैः।। ॥४८॥ सह संपर्कमपि कुर्यादित्यर्थः । किं पुनः कर्तव्यमिति पश्चार्द्धन दर्शयति-'अनुत्कर्षवानिति' अष्टमदस्थानानामन्यतमेनाप्युत्से-18 | कमकुर्वन् तथा 'अप्रलीनः' असंबद्धस्तीथिंकेषु गृहस्थेषु पार्श्वस्वादिषु वा संश्लेषमकुर्वन् 'मध्येन' रागद्वेषयोरन्तरालेन संचरन् |'मुनिः' जगत्रयवेदी 'यापयेद् आत्मानं वर्तयेत्, इदमुक्तं भवति–तीथिकादिभिः सह सत्यपि कथश्चित्संबन्धे त्यक्ताहङ्कारेण पर | तथा भावतस्तेष्यप्रलीयमानेनारक्तद्विष्टेन तेषु निन्दामात्मनश्र प्रशंसा परिहरता मुनिनाऽऽत्मा यापयितव्य इति ।।२।। किमिति ते तीर्थिकास्त्राणाय न भवन्तीति दर्शयितुमाहसपरिग्गहा य सारंभा, इहमेगेसिमाहियं । अपरिग्गहा अणारंभा, भिखू ताणं परिवए ॥३॥ ४ ॥४८॥ कडेसु घासमेसेजा, विऊ दत्तेसणं चरे । अगिद्धो विप्पमुक्को अ, ओमाणं परिवजए ॥४॥ सह परिग्रहेण धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिना वर्तन्ते तदभावेऽपि शरीरोपकरणादी मूछीवन्तः सपरिग्रहाः, तथा सहारम्भेणजीवोपमोदिकारिणा व्यापारेण वर्तन्त इति तदभावेऽप्यौदेशिकादिभोजिखात्सारम्भाः-तीर्थिकादयः, सपरिग्रहारम्भकलेनैव verseerseracaeserveerecederce अनुक्रम [७७] ~107~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [गाथा-४], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक ||४|| च मोक्षमार्ग प्रसाधयन्तीति दर्शयति-'इह' परलोकचिन्तायाम् एकेषां केपाश्चिद् 'आख्यातं' भाषितं, यथा किमनया शिरस्तुण्डमुण्डनादिकया क्रियया ?, परं गुरोरनुग्रहात्परमाक्षरावाप्तिस्तद्दीक्षावाप्तिर्वा यदि भवति ततो मोक्षो भवतीत्येवं भाषमाणास्ते न त्राणाय भवन्तीति । ये तु वातुं समर्थास्तान्पश्चार्द्धन दर्शयति-'अपरिग्रहाः' न विद्यते धर्मोपकरणारते शरीरोपभोगाय खल्पोऽपि परिग्रहो येषां ते अपरिग्रहाः, तथा न विद्यते सावध आरम्भो येषां तेनारम्भाः , ते चैवंभूताः कर्मलघवः खयं यान-18 पात्रकल्पाः संसारमहोदधेर्जन्तूतारणसमर्थास्तान् 'भिक्षुः'भिक्षणशील उद्देशिकाद्यपरिभोजी 'प्राण' शरणं परिः-समन्ताद-18 जेद्-गच्छेदिति ॥३॥ कथं पुनस्तेनापरिग्रहेणानारम्भेण च वर्तनीयमित्येतद्दर्शयितुमाह-गृहस्पैः परिग्रहारम्भद्वारेणाऽऽ-18 त्मार्थ ये निष्पादिता ओदनादयस्ते कृता उच्यन्ते तेषु कृतेषु-परकृतेषु परनिष्ठितेष्वित्यर्थः, अनेन च षोडशोद्गमदोषपरिहारः ।। |सूचितः, तदेवमुगमदोपरहितं प्रखत इति प्रास:-आहारस्तमेवंभूतम् 'अन्वेषयेत्' मृगयेत् याचेयेदित्यर्थः, तथा 'विद्वान् संयमकरणैकनिपुणः परैराशंसादोषरहितैर्यनिःश्रेयसवुद्ध्या दत्तमिति, अनेन पोडशोत्पादनदोषाः परिगृहीता द्रष्टव्याः, तदेवम्भूते दौत्यधात्रीनिमित्तादिदोपरहिते आहारे स भिक्षुः 'एषणां' ग्रहणैषणां 'चरेद' अनुतिष्ठेदिति, अनेनापि दशैषणादोषाः परि-181 गृहीता इति मन्तव्यं, तथा 'अगूखः' अनध्युपपनोमूछितस्तसिन्नाहारे रागद्वेषविप्रमुक्तः, अनेनापि च प्रासैषणादोषाः पञ्च || निरस्ता अवसेयाः, स एवम्भूतो मिक्षुः परेषामपमानं परावमदर्शिवं 'परिवर्जयेत्' परित्यजेत् , न तपोमदं ज्ञानमदं च कुर्या-18 दिति भावः ॥४॥ एवं नियुक्तिकारेणोद्देशकार्थाधिकाराभिहितं 'किचुवमा य चउत्थे' इत्येतत्प्रदर्थेदानीं परवादिमतमेवोदेशाथोधिकाराभिहितं दर्शयितुमाह अनुक्रम [७९] doessecevedeoeseoes सूत्रक.९ ~108~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||५|| दीप अनुक्रम [८] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [४], मूलं [गाथा-५ ], निर्युक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग श्रीलाङ्काचाययष्टनियुतं ॥ ४९ ॥ Seeeeee लोगवायं णिसामिज्जा, इहमेगेसिमाहियं । विपरीयपन्नसंभूयं, अन्नउत्तं तथाणुयं ॥ ५ ॥ अते निइए लोए, सासए ण विणस्सती । अंतवं णिइए लोए, इति धीरोऽतिपासइ ॥ ६ ॥ लोकानां - पाखण्डिनां पौराणिकानां वा वादो लोकवादः -- यथास्वमभिप्रायेणान्यथा वाऽभ्युपगमस्तं 'निशामयेत्' भृणुयात् जानीयादित्यर्थः, तदेव दर्शयति – 'इह' अस्मिन्संसारे 'एकेषां' केषाञ्चिदिदम् 'आख्यातम्' अभ्युपगमः । तदेव | विशिनष्टि विपरीता — परमार्थादन्यथाभूता या प्रज्ञा तथा संभूतं समुत्पन्नं, तत्वविपर्यस्तवृद्धिग्रथितमितियावत्, पुनरपि विशेषयति - अन्यैः - अविवेकिभिर्यदुक्तं तदनुगं यथावस्थितार्थविपरीतानुसारिभिर्यदुक्तं विपरीतार्थाभिधायितया तदनुगच्छतीत्यर्थः ॥ ५ ॥ तमेव विपर्यस्तबुद्धिरचितं लोकवाद दर्शयितुमाह-- नास्यान्तोऽस्तीत्यनन्तः, न निरन्वयनाशेन नश्यतीत्युक्तं भवतीति, तथाहियो याडगिह भवे स तादृगेव परभवेऽप्युत्पद्यते, पुरुषः पुरुष एवाङ्गना अङ्गनैवेत्यादि, यदिवा 'अनन्त' अपरिमितो निरवधिक इतियावत्, तथा 'नित्य' इति अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावो लोक इति, तथा शश्रद्भवतीति शाश्वतो व्यणुकादिकार्य| द्रव्यापेक्षयाऽशश्वद्भवन्नपि न कारणद्रव्यं परमाणुखं परित्यजतीति तथा न विनश्यतीति दिगात्माकाशाद्यपेक्षया । तथाऽन्तोऽस्यास्तीत्यन्तवान् लोकः, 'सप्तद्वीपा वसुन्धरे 'ति परिमाणोक्तेः, स च तादृक्परिमाणो नित्य इत्येवं 'धीरः' कश्चित्साहसिकोऽन्यथाभूतार्थप्रतिपादनात् व्यासादिरिवाति पश्यतीत्यतिपश्यति । तदेवंभूतमनेकभेदभिन्नं लोकवादं निशामयेदिति प्रकृतेन सम्बन्धः । तथा 'अपुत्रस्य न सन्ति लोका, ब्राह्मणा देवाः, श्वानो यक्षा, गोभिर्हतस्य गोमस्य वा न सन्ति लोका' इत्येवमादिकं निर्युक्तिकं | लोकवादं निशामयेदिति ॥ ६ ॥ किंच Education International For Parts Only ~109~ ৬৯৩ ১৬১৩৯ १ समया० उद्देशः ४ लोकवादाः ॥ ४९ ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [७], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: అene प्रत सूत्रांक 1 अपरिमाणं वियाणाई, इहमेगेसिमाहियं । सवत्थ सपरिमाणं, इति धीरोऽतिपासई ॥७॥ जे केइ तसा पाणा, चिटुंति अदु थावरा । परियाए अस्थि से अंजू , जेण ते तसथावरा ॥८॥ न विद्यते 'परिमाणम्' इयत्ता क्षेत्रतः कालतो वा यस्य तदपरिमाणं, तदेवंभूतं विजानाति कश्चित्तीर्थिकतीर्थक , एतदुक्तं | भवति-अपरिमितज्ञोऽसावतीन्द्रियद्रष्टा, न पुनः सर्वज्ञ इति, यदिवा-अपरिमितज्ञ इत्यभिप्रेतार्थातीन्द्रियदर्शीति, तथा चोक्तम्"सर्व पश्यतु वा मा वो, इष्टमर्थ तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञानं, तस्स नः कोपयुज्यते ॥१॥” इति, 'इह' असिँल्लोके 'एकेषां' सर्वज्ञापसववादिनाम् इदमाख्यातम् ' अयमभ्युपगमः, तथा सर्वक्षेत्रमाश्रित्य कालं वा परिच्छेद्य कर्मतापनमाश्रित्य सह परि-| माणेन सपरिमाणं-सपरिच्छेदं धी:-बुद्धिस्तया राजत इति धीर इत्येवमसौ अतीव पश्यतीत्यतिपश्यति, तथाहि ते मुक्ते--18 दिव्यं वर्षसहस्रमसौ ब्रह्मा खपिति, तस्थामवस्थायां न पश्यत्यसौ, तावन्मानं च कालं जागर्ति, तत्र च पश्यत्यसाविति, तदेवम्भूतो हैं। बहुधा लोकवादः प्रवृत्तः ॥ ७ ॥ अव चोत्तरदानायाह-ये केचन अखन्तीति त्रसा-द्वीन्द्रियादयः 'प्राणा' प्राणिनः सञ्चाः 181 'तिष्ठन्ति' त्रससमनुभवन्ति, अथवा 'स्थावरा' स्थावरनामकर्मोदयात् (याः) पृथिव्यादयस्ते, यद्ययं लोकवादः सत्यो भवेत् 8 | यथा यो यादृगसिन् जन्मनि मनुष्यादिः सोऽन्यस्मिन्नपि जन्मनि ताडगेव भवतीति, ततः स्थावराणां त्रसानां च तादृशले सति । दानाध्ययनजपनियमतपोऽनुष्ठानादिकाः क्रियाः सर्वा अप्यनार्थिका आपयेरन् । लोकेनापि चान्यथालमुक्तं, तद्यथा-"सबै एष १ कचित्तु पक्षे प्रकृतिभावमपीच्छत्तीति श्रीहेमचन्द्रसूर्युकेरक प्रकृतिभावसद्भावानापप्रयोगता। अनुक्रम [८२] r arao, ~110~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [८], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सत्राक ||८|| दीप अनुक्रम [८३] सूत्रकृताङ्ग शृगालो जायते यः सपुरीषो दबते" तसात् स्थावरजङ्गमानां खकृतकर्मवशात् परस्परसंक्रमणाद्यनिवारितमिति । तथा 'अनन्तो समया० शीलाङ्का-18| नित्यश्च लोकः' इति यदभिहितं, तत्रेदमभिधीयते---यदि खजात्यनुच्छेदेनास नित्यताभिधीयते ततः परिणामानित्यखममद- उद्देशः ४ चार्षीय भीष्टमेवाभ्युपगतं न काचित्क्षतिः, अथापच्युतानुत्पन्न स्थिरैकस्वभावलेन नित्यसमभ्युपगम्यते तन्न घटते, तस्याध्यक्षपाधितखात्, लोकवादचियुतं न हि क्षणभाविपर्यायानालिङ्गितं किश्चिद्वस्तु प्रत्यक्षेणावसीयते, निष्पर्यायस्य च खपुष्पस्पेवासद्रूपतैव स्यादिति । तथा शश्वद्भवन निरास ॥५०॥ कार्यद्रव्यस्थाऽऽकाशात्मादेवाविनाशिसं यदुच्यते द्रव्यविशेषापेक्षया तदप्यसदेव, यतः सर्वमेव वस्तूत्पादन्ययधीच्ययुक्तलेन । निविभागमेव प्रवर्तते, अन्यथा वियदरबिन्दस्व वस्तुलमेव हीयेतेति । तथा यदुक्तम्-'अन्तवाँल्लोकः सप्तद्वीपावच्छिन्नला'दि1. येतनिरन्तरोः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, न प्रेक्षापूर्वकारिणः, तद्ग्राहकप्रमाणाभावादिति । तथा यदप्युक्तम्---'अपुत्रस्य न सन्ति । लोका'इत्यादीत्येतदपि बालभाषितं, तथाहि-किं पुत्रसत्तामात्रेणैव विशिष्टलोकावाप्तिरुत तत्कृतविशिष्टानुष्ठानात् , तद्यदि | सत्तामात्रेण तत इन्द्रमहेकामुकग वराहादिभिर्याप्ता लोका भवेयुः, तेषां पुत्रबहससंभवात् , अथानुष्ठानमाश्रीयते, तत्र पुत्रद्वये सत्येकेन शोभनमनुष्ठितमपरेणाशोभनमिति तत्र का वार्ता ?, खकृतानुष्ठानं च निष्फलमापयेतेत्येवं यत्किञ्चिदेतदिति । तथा 'वानो यक्षा' इत्यादि युक्तिपिरोधिखादनाकर्णनीयमिति । यदपि चोक्तम्-'अपरिमाणं विजानाती'ति, तदपि न घटामियर्ति, | यतः सत्यप्यपरिमितासे यद्यसौ सर्वज्ञो न भवेत् सतो हेयोपादेयोपदेशदानविकलखावासी प्रेक्षापूर्वकारिभिराद्रियेत, तथाहि तस्य IN॥५०॥ | कीटसंख्यापरिक्षानमप्युपयोग्येव, यतो यथैतद्विषयेऽस्यापरिज्ञानमेवमन्यत्राध्या(पीत्या)शया हेयोपादेये प्रेक्षापूर्वकारिणः प्रवृत्तिर्न १ अन्तर-हदयं, विचारशूम्या इति तात्पर्यम् । १ कुकुर इति निकाण्डशेषः । ecemerce ~111~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [८४] [भाग-3] “सूत्रकृत्” श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१] उद्देशक [४], मूलं [८], निर्युक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः — - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) स्यात् तस्मात्सर्वज्ञत्वमेष्टव्यं । तथा यदुक्तं - 'स्वापबोधविभागेन परिमितं जानातीत्येतदपि सर्वजनसमानवे यत्किञ्चिदिति । यदपि च कैचिदुच्यते - यथा 'ब्रह्मणः स्वभावबोधयोर्लोकस्य प्रलयोदयौ भवत' इति, तदप्ययुक्तिसंगतमेव, प्रतिपादितं चैतत् प्रागेवेति न प्रतन्यते । न चात्यन्तं सर्वजगत उत्पादविनाशी विद्येते 'न कदाचिदनीदृशं जगदिति वचनात् । तदेवमनन्तादिकं | लोकवादं परिहृत्य यथावस्थितवस्तुस्वभावाविर्भावनं पश्चार्द्धेन दर्शयति-- ये केचन त्रसाः स्थावरा वा तिष्ठन्त्यस्मिन् संसारे तेषां | स्वकर्मपरिणत्याऽस्त्यसौ पर्याय: 'अंजू' इति प्रगुणोऽव्यभिचारी तेन पर्यायेण स्वकर्मपरिणतिजनितेन ते त्रसाः सन्तः स्थावराः संपद्यन्ते स्थावरा अपि च सत्वमभ्रुवते तथा त्रसाखसत्वमेव स्थावराः स्थावरलमेवाऽऽश्रुवन्ति, न पुनर्यो याडगिह स ताडगेवामुत्रापि भवतीत्ययं नियम इति ।। ८ ।। असिनेवार्थे दृष्टान्ताभिधित्सयाऽऽह Ja Eucation International उरालं जगतो जोगं, विवज्जासं पलिंति य । सबै अकंतदुक्खा य, अओ सबै अहिंसिता ॥ ९ ॥ एयं खु नाणिणो सारं, जन्न हिंसइ किंचण । अहिंसासमयं चेव, एतावन्तं वियाणिया ॥ १० ॥ 'उराल' मिति स्थूलमुदारं 'जगत' औदारिकजन्तुग्रामस्य 'योगं' व्यापारं चेष्टामवस्थाविशेषमित्यर्थः, औदारिकशरीरिणो हि जन्तवः प्राक्तनादवस्थाविशेषाद्गर्भकललार्बुदरूपाद् 'विपर्यासभूतं' बालकौमारयौवनादिकमुदारं योगं परि-समन्तादयन्तेगच्छन्ति पर्ययन्ते, एतदुक्तं भवति औदारिकशरीरिणो हि मनुष्यादेर्वालकौमारादिकः कालादिकृतोऽवस्थाविशेषोऽन्यथा चान्यथा च भवन् प्रत्यक्षेणैव लक्ष्यते, न पुनर्यादृक् प्राक् ताद्यगेव सर्वदेति, एवं सर्वेषां स्थावरजङ्गमानामन्यथाऽन्यथा च भवनं द्रष्टव्यमिति । For Parts Only ~ 112~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [१०], नियुक्ति: [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचार्गीयचियुत सूत्रांक ||१०|| अपि च-'सर्वे जन्तव आक्रान्ता-अभिभूता दुःखेन-शारीरमानसेनासातोदयेन दुःखाक्रान्ताः सन्तोऽन्यथावस्थाभाजो लभ्यन्ते,18|१समया. अतः सर्वेऽपि ते यथाऽहिंसिता भवन्ति तथा विधेयं । यदिवा-सर्वेऽपि जन्तवः 'अकान्तम्' अनभिमतं दुःखं येषां तेऽकान्त- उद्देशः ४ दुःखाः चशब्दात् प्रियसुखाच, अतस्तान् सर्वान न हिंसादित्यनेन चान्यथाखदृष्टान्तो दर्शितो भवत्युपदेशश्च दत्त इति ॥९॥ लोकवाद| किमर्थ सच्चान् न हिंस्यादित्याह-खुरवधारणे, एतदेव 'ज्ञानिनो' विशिष्टविवेकवतः 'सार' न्याय्यं यत कश्चन प्राणिजातं | निरास: स्थावरं जङ्गमं वा 'न हिनस्ति न परितापयति, उपलक्षणं चैतत् , तेन न मृषा यानादत्रं गृह्णीयानाब्रह्माऽऽसेवेत न परिग्रह। परिगृहीयान नक्तं भुञ्जीतेत्येतज्ज्ञानिनः सारं यन्त्र कर्माश्रवेषु वर्तत इति । अपि च-अहिंसया समता अहिंसासमता तां चैतावद्विजानीयात्, यथा मम मरणं दुःखं चाप्रियमेवमन्यस्यापि प्राणिलोकखेति, एवकारोऽवधारणे, इत्येवं साधुना ज्ञानवता प्राणिनां | परितापनाऽपद्रावणादि न विधेयमेवेति ॥ १० ॥ एवं मूलगुणानभिधायेदानीमुत्रगुणानभिधातुकाम आह वुसिए य विगयेगेही, आयाणं सं(सम्म रक्खए । चरिआसणसेज्जासु, भत्तपाणे अ अंतसों ॥११॥ एतेहिं तिहिं ठाणेहिं, संजए सततं मुणी। उक्कसं जलणं णूमं, मज्झत्थं च विगिंचए ॥ १२॥ ॥ समिए उसया साहु, पंचसंवरसंवुडे। सिएहि असिए भिक्खू , आमोक्खाय परिवएजासि॥१३॥त्तिवेमि।। ॥५१॥ seseceaseseesesesepes seseaeeeeeesesesesed दीप अनुक्रम [८५] विगयगिडी य प्र. २ आयआणीय सरक्याए । चू० ~113~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [८] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [४], मूलं [१३], निर्युक्तिः [३५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः विविधम्--- अनेकप्रकारमुषितः - स्थितो दशविधचक्रवालसामाचार्यां व्युषितः, तथा विगता-अपगता आहारादौ गृद्धिर्यस्यासौ विगतगृद्धिः साधुः, एवंभूतवादीयते स्वीक्रियते प्राप्यते वा मोक्षो येन तदादानीयं – ज्ञानदर्शनचारित्रत्रयं तत्सम्यग् रक्षयेद्-अनुपालयेत् यथा यथा तस्य वृद्धिर्भवति तथा तथा कुर्यादित्यर्थः । कथं पुनचारित्रादि पालितं भवतीति दर्शयति 'चर्यासनशय्यासु' चरणं चर्या - गमनं, साधुना हि सति प्रयोजने युगमात्रदृष्टिना गन्तव्यं, तथा सुप्रत्युपेक्षिते सुप्रमार्जिते चासने उपवेष्टव्यं तथा शय्यायां वसतौ संस्तारके वा सुप्रत्युपेक्षितप्रमार्जिते स्थानादि विधेयं, तथा भक्ते पाने चान्तशः सम्यगुपयोगवता भाव्यम्, इदमुक्तं भवति - ईर्ष्याभाषैषणाऽऽदान निक्षेपप्रतिष्ठापनासमितिषूपयुक्तेनान्तशो भक्तपानं यावद्दुद्गमादिदोषरहित| मन्वेषणीयमिति ॥ ११ ॥ पुनरपि चारित्रशुद्धयर्थं गुणानधिकृत्याह -- एतानि - अनन्तरोक्तानि त्रीणि स्थानानि, तद्यथा-- ईर्ष्यासमितिरित्येकं स्थानम्, आसनं शय्येत्यनेनादानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमितिरित्येतच्च द्वितीयं स्थानं, भक्तपानमित्यनेनैषणासमितिरुपाचा, भक्तपानार्थं च प्रविष्टस्य भाषणसंभवाद्भापासमितिराक्षिप्ता, सति चाहारे उच्चारप्रश्रवणादीनां सद्भावात्प्रतिष्ठापनासमि| तिरप्यायावेत्येतच तृतीयं स्थानमिति, अत एतेषु त्रिषु स्थानेषु सम्यम्यतः संयत आमोक्षाय परिव्रजेदित्युत्तरश्लोकान्ते क्रियेति । ' तथा 'सततम्' अनवरतम् 'मुनिः' सम्यक् यथावस्थितजगप्रयचेता उत्कृष्यते आत्मा दर्षाध्मातो विधीयतेऽनेनेत्युत्कर्षो-मानः, तथाऽऽत्मानं चारित्रं वा ज्वलयति दहतीति ज्वलनः क्रोधः, तथा 'शूम'मिति गहनं मायेत्यर्थः, तस्या अलब्धमध्यखादेवमभिधीयते, तथा आसंसारमसुमतां मध्ये अन्तर्भवतीति मध्यस्थो लोभः शब्दः समुच्चये, एतान् मानादींश्चतुरोऽपि कपायास्तद्विपाका For Parts Only ~114~ waryra Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [८] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [४], मूलं [१३], निर्युक्तिः [३५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का भिज्ञो मुनिः सदा 'विचिए 'ति विवेचयेद् - आत्मनः पृथक्कुर्यादित्यर्थः । ननु चान्यत्रागमे क्रोध आदावुपन्यस्यते, तथा क्षपकश्रेप्यामांरूढो भगवान् क्रोधादीनेव संज्वलनान् क्षपयति, तत् किमर्थमागमप्रसिद्धं क्रममुपादौ मानस्योपन्यास इति ?, अत्रोच्यते, चार्ययह माने सत्यवश्यंभावी क्रोधः क्रोधे तु मानः स्वाद्वा न बेत्यस्यार्थस्य प्रदर्शनायान्यथाक्रमकरणमिति ||१२|| तदेवं मूलगुणानुत्तरनियुतं ४ गुणाँधोपदर्श्याधुना सर्वोपसंहारार्थमाह-तुरवधारणे, पञ्चभिः समितिभिः समित एव साधुः, तथा प्राणातिपातादिपञ्चमहाव४] तोपेतखात्पञ्चप्रकार संवरसंवृतः, तथा मनोवाक्कायगुप्तिगुप्तः, तथा गृहपाशादिषु सिता - बद्धाः अवसक्ता गृहस्थास्तेष्वसितः - अनवबद्धस्तेषु मूच्छमकुर्वाणः पङ्काधारपङ्कजवत्चत्कर्मणाऽदिद्यमानो भिक्षुः- भिक्षणशीलो भावभिक्षुः 'आमोक्षाय' अशेषकर्मापगमलक्षणमोक्षार्थं परि-समन्तात् बजेः- संयमानुष्ठानरतो भवेस्त्वमिति विनेयस्योपदेशः । इति अध्ययनसमाप्तौ ब्रवीमीति गणघर एवमाह, यथा तीर्थकृतोक्तं तथैवाहं ब्रवीमि न खमनीषिकयेति । गतोऽनुगमः, साम्प्रतं नयास्तेषामयमुपसंहारः “संवेसिंपि नयाणं बहुविघव सवयं निसामित्ता । तं सवणयविशुद्धं जं चरणगुणडिओ साहू ॥ १ ।। ।। १३ ।। ८८ ।। इति सूत्रकृताशे समयाख्यं प्रथमाध्ययनं समाप्तम् ॥ ॥ ५२ ॥ Internationa १ प्रकर्षः २ सर्वेषामपि नयानां बहुविधवन्यतां निशम्य तत्सर्वनय विशुद्धं वचरणगुण (किवाज्ञान ) स्थितः साधुः ॥ १ ॥ For Parks Use Only अत्र प्रथम-श्रुतस्कंधस्य 'समय' आख्यम् प्रथम अध्ययन समाप्तम् ~ 115~ १ समया० उद्देशः ४ मूलोत्तर गुणपालन ॥ ५२ ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [१३...], नियुक्ति: [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ॥ अथ द्वितीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः प्रारभ्यते ॥ प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम उक्तं समयाख्यं प्रथममध्ययन, साम्प्रतं वैतालीयाख्यं द्वितीयमारभ्यते, अस्स चायमभिसंबन्धः-इहानन्तराध्ययने स्वसमय-18 गुणाः परसमयदोषाध प्रतिपादिताः, तांथ ज्ञात्वा यथा कर्म विदार्यते तथा बोधो विधेय इत्यनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्वाध्ययन18 स्वोपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भणनीयानि, तत्राप्युपक्रमान्तर्गतोऽधिकारो द्वेधा-अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्थाधिका कारच, तबाध्ययनार्थाधिकारः प्रागेव नियुक्तिकारेणाभाणि-'णाऊण बुज्झणा चेवे'त्यनेन गाथाद्वितीयपादेनेति, उद्देशार्थाधिकारं तु स्वत एव नियुक्तिकार उत्तरत्र वक्ष्यति, नामनिष्पन्नं तु निक्षेपमधिकृत्य नियुक्तिकदाह यालियंमि वेयालगो य वेयालणं वियालणियं । तिनिवि चउक्तगाई बियालओ एस्थ पुण जीवो ॥३६॥ IRL तत्र प्राकृतशैल्या यालियमिति र विदारणे इत्यस्य धातोविपूर्वस्य छान्दसखात् भावे पवुलप्रत्ययान्तय विदारकमिति क्रिया-1 वाचकमिदमध्ययनाभिधानमिति, सर्वत्र च क्रियायामेतत्रयं सन्निहितं, तद्यथा-कर्ता करणं कर्म चेति, अतस्तदर्शयति-विदारको विदारणं विदारणीयं च, तेषां त्रयाणामपि नामसापनाद्रव्यभावभेदाचतुर्दा निक्षेपेण त्रीणि चतुष्ककानि द्रष्टव्यानि, अत्र च नामस्थापने क्षुष्णे, द्रव्यविदारको यो हि द्रव्यं काष्ठादि विदारयति, भावविदारकस्तु कर्मणो विदार्यत्वात् नोआगमतो जीव-19 8 विशेषः, साधुरिति ॥ ३६ ।। करणमधिकृत्याऽऽह ఆరిన తిం00000000000 [८८ अत्र द्वितीयं 'वैतालीय' नामक अध्ययनं आरब्धं प्रथम एवं द्वितीय-अध्ययनस्य अभिसंबंधम्, वेयालीय शब्दस्य व्याख्या, ~116~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [१३...], नियुक्ति: [३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक त्तियुत दीप अनुक्रम सूत्रकृताङ्गं18 दब्धं च परसुमादी दसणणाणतवसंजमा भावे । दवं च दारुगादी भावे कम्मं वियालणियं ॥ ३७॥ वैतालीशीलासा 8 नामस्थापने क्षुण्णे द्रव्यविदारणं परवादि, भावविदारणं तु दर्शनज्ञानतपःसंयमाः, तेषामेव कर्मविदारणे सामर्थ्यमित्युक्तं या उद्देशा चाीय भवति, विदारणीयं तु नामस्थापने अनाहत्य द्रव्यं दादि, भावे पुनरष्टप्रकार कर्मेति ॥ ३७॥ साम्प्रतं 'वेतालिय'मित्येतस्य निरुक्तं दर्शयितुमाह निक्षपः ॥५३॥ | वेयालियं इह देसियंति वेयालियं तओ होइ । वेयालियं तहा वित्तमत्थि तेणेव य णिबद्धं ॥ ३८॥ इहाध्ययनेज्नेकधा कर्मणां विदारणमभिहितमितिकृदंतध्ययनं निरुक्तिवशाद्विदारकं ततो भवति, यदिवा-वैतालीयमित्य-18 ध्ययननाम, अत्रापि प्रवृत्ती निमित्तं-वैतालीयं छन्दोविशेषरूपं वृत्तमस्ति, तेनैव च वृत्चेन निषद्धमित्यध्ययनमपि वैतालीयं, तस्य चेदं लक्षणम् -चैतालीय लंगनैधनाः षडयुक्पादेऽष्टौ समे च लः । न समोऽत्र परेण युज्यते नेतः पद च निरन्तरा युजोः । ॥१॥" ॥ ३८ ॥ साम्प्रतमध्ययनस्योपोद्घात दर्शयितुमाह| कामं तु सासयमिणं कहियं अट्ठावयंमि उसभेणं । अट्ठाणउतिसुयाणं सोऊण तेवि पब्वया ॥ ३९॥ ॥५३॥ RI कामशब्दोऽयमभ्युपगमे, तत्र यद्यपि सर्वोऽप्यागमः शाश्वतः तदन्तर्गतमध्ययनमपि तथापि भगवताऽऽदितीर्थाधिपेनोत्पन्न| १ ओजे षण्मात्रा गन्ता युज्यष्टी न युजि पर संततं ला न समः परेण गो वैतालीयम् (छन्दोऽनुशासने अ०३-५३) तद्वतालीय छन्दः यत्र रगणलधुगुरुप्रान्ताः प्रथमतृतीययोः पद द्विवीयचतुर्थबोरी मात्राः, अत्र समसंख्यको लघुर्न परेण गुरुः कार्यः, इतवाविषमपादयोः षट् ला निरन्तरा नेति बैतालीयाथः । cceedeeseeeeeee [८८ वेयालीय शब्दस्य व्याख्या, अध्ययनस्य उपोद्घात: ~117~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [१], नियुक्ति: [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥२॥ दीप अनुक्रम [८९] दिव्यज्ञानेनाष्टापदोपरिव्यवस्थितेन भरताधिपभरतेन चक्रवर्तिनोपहतैरष्टनवतिभिः पुत्रैः पृष्टेन यथा भरतोऽसानाज्ञां कारयत्यतः किमस्माभिर्विधेयमित्यतस्तेषामगारदाहकदृष्टान्तं प्रदर्य न कथश्चिजन्तोभोंगेच्छा निवर्तत इत्यर्थगर्भमिदमध्ययनं 'कथितं' प्रतिपादितं, तेऽप्येतच्छुला संसारासारतामवगम्य विषयाणां च कटुविपाकतां निःसारतां च ज्ञात्वा मत्तकरिकर्णवच्चपलमायुर्गिरिनदीवेगसमं यौवनमित्यतो भगवदाज्ञैव श्रेयस्करीति तदन्तिके सर्वे प्रवज्यां गृहीतवन्त इति । अत्र 'उद्देसे निद्देसे य' इत्यादिः सर्वोऽप्युपोद्घातो भणनीयः ।। ३९ ।। साम्प्रतं उद्देशार्थाधिकार प्रागुल्लिखितं दर्शयितुमाह-- पढमे संबोहो अनिचया य बीमि माणवजणया । अहिगारो पुण भणिओतहा तहा बहविहो तत्थ ॥४॥ उद्देसंमि य तइए अन्नाणचियस्स अवचओ भणिओ। वजेयचो य सया सुहप्पमाओ जइजणेणं ॥ ४१ ।। | तत्र प्रथमोद्देशके हिताहितप्राप्तिपरिहारलक्षणो बोधो विधेयोऽनित्यता चेत्ययमर्थाधिकारः, द्वितीयोद्देशके मानो वर्जनीय इत्ययमर्थाधिकारः, पुनश्च तथा तथाऽनेकप्रकारो बहुविधं शब्दादावर्थेऽनित्यतादिप्रतिपादकोऽर्थाधिकारो भणित इति, तृतीयोदेशके अज्ञानोपचितस्य कर्मणोऽपचयरूपोर्धाधिकारो भणित इति यतिजनेन च सुखप्रमादो वर्जनीयः सदेति ॥४॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमे अस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् - संबुज्झह किं न बुज्झह?, संवोही खलु पेञ्च दुल्लहा।णो हूवणमंति राइओ,नो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥१॥ १ यद्यपि शिक्षायति बचनात्पादन बीत्वमेकचनान्वितं तथापि प्रतिपुत्रं प्रश्नोत्तरपार्थक्यविवक्षयान बहुत्वं । क्षेत्रमैत्राभ्यामेकविक्षसी दत्तमितिवत् । Balasa9280030093e | उद्देशानाम अर्थाधिकारः, द्वितीय-अध्ययनस्य प्रथम सूत्रस्य आरम्भ: ~118~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||R|| दीप अनुक्रम [९०] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [२], निर्युक्ति: [४१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का चार्ययव चियुतं ॥ ५४ ॥ | डहरा बुडा य पासह गब्भत्था वि चयंति माणवा सेणे जह वहयं हरे एवं आउखयंमि तुहई ॥२॥ तत्र भगवानादितीर्थकरो भरततिरस्कारागतसंवेगान् स्वपुत्रानुद्दिश्येदमाह, यदिवा – सुरासुरनरोरगतिरश्चः समुदिश्य प्रोवाच यथा- 'संबुध्यत्वं' यूयं ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणे धर्मे बोधं कुरुत यतः पुनरेवंभूतोऽवसरो दुरापः तथाहि मानुषं जन्म 8 तत्रापि कर्मभूमिः पुनरार्यदेशः सुकुलोत्पत्तिः सर्वेन्द्रियपाटवं श्रवणश्रद्धादिप्राप्तौ सत्यां स्वसंवित्यवष्टम्भेनाह - 'किं न बुध्यध्व' मिति, अवश्यमेवंविधसामग्र्यवाप्तौ सत्यां सकर्णेन तुच्छान् भोगान् परित्यज्य सद्धमें बोधो विधेय इति भावः, तथाहि "नि र्वाणादिसुखप्रदे नरभवे जैनेन्द्रधर्मान्विते, लब्धे खल्पमचारु कामजसुखं नो सेवितुं युज्यते । वैर्यादिमहोपलौघनिचिते प्राप्तेऽपि रत्नाकरे, लातुं स्वल्पमदीप्तिकाचशकलं किं साम्प्रतं साम्प्रतम् १ || १ ||" अकृतधर्मचरणानां तु प्राणिनां 'संबोधि:' सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रावाप्तिलक्षणा 'प्रेत्य' परलोकगतानां खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् सुदुर्लभव, तथाहि - विषयप्रमादवशात् सकृत् धर्मा-चरणाद् अष्टस्यानन्तमपि कालं संसारे पर्यटनमभिहितमिति । किंच-हुरित्यवधारणे, नैवातिक्रान्ता रात्रयः 'उपनमन्ति' पुनढौंकन्ते, न ह्यतिक्रान्तो यौवनादिकाल: पुनरावर्त्तत इतिभावः, तथाहि "भव कोटीभिरसुलभं मानुष्यं प्राप्य कः प्रमादो मे ? । न च गतंमायुर्भूयः प्रत्येत्यपि देवराजस्य || १ ||" 'नो' नैव संसारे 'सुलभं' सुप्रापं संयमप्रधानं जीवितं यदिवा-जीवितम् - आयुखुटितं सत् तदेव संधातुं न शक्यत इति वृत्तार्थः । संबोधश्व प्रसुप्तस्य सतो भवति, स्वापश्च निद्रोदये, निद्रासंबोधयोश्च नामा| दिशतुर्द्धा निक्षेपः, तत्र नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यभावनिक्षेपं प्रतिपादयितुं निर्युक्तिकृदाह Eucation International For Park Lise Only ~ 119~ २ बैताली या० उद्देशः १ आयुषो ऽनित्यता ॥ ५४ ॥ war Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक दव्वं निदावेओ दसणनाणतवसंजमा भावे । अहिगारो पुण भणिओ नाणे तवदसणचरिते ॥४२॥ इह च गाथायां द्रव्यनिद्राभावसंबोधव दर्शितः, तत्राधन्तग्रहणेन भावनिद्राद्रव्यबोधयोस्तदन्तर्वर्तिनोग्रहणं द्रष्टव्यं, तत्र द्वन्य-13 | निद्रा निद्रावेदो, वेदनमनुभवः दर्शनावरणीयविशेषोदय इतियावत् , भावनिद्रा तु ज्ञानदर्शनचारित्रशून्यता । तत्र द्रव्यबोधो| न्यनिद्रया सुप्तस्य बोधनं, भावे-भावविषये पुनर्बोधो दर्शनज्ञानचारित्रतपःसंयमा द्रष्टव्याः । इह च भावप्रबोधेनाधिकारः, II 10स च गाथापचार्द्धन सुगमेन प्रदर्शित इति । अत्र च निद्राचोधयोद्रव्यभावभेदाचत्वारो भक्का योजनीया इति ॥ ४२ ॥ १॥॥ | भगवानेव सर्वसंसारिणां सोपक्रमखादनियतमायुरुपदर्शयन्नाह---'डहराः' बाला एव केचन जीवितं त्यजन्ति, तथा प्रदाच|6 | गर्भसा अपि, एतत्पश्यत यूयं, के ते–'मानवा' मनुष्याः, तेषामेवोपदेशदानाईत्वात् मानवग्रहणं, बहपायत्वादायुषः सा खप्यवस्थासु प्राणी प्राणांस्त्यजतीत्युक्तं भवति, तथाहि-त्रिपल्योपमायुष्कस्यापि पर्याप्यनन्तरमन्तहर्तेनैव कस्यचिन्मृत्युरुपतिष्ठ-1181 | तीति, अपि च--"गर्भसं जायमान" मित्यादि । अत्रैव दृष्टान्तमाह-यथा 'इयेना' पक्षिविशेषो 'वर्सकं' तित्तिरजातीयं 'हरेत् || व्यापादयेद्, एवं प्राणिनः प्राणान् मृत्युरपहरेद, उपक्रमकारणमायुष्कमुपक्रामेत् , तदभावे वा आयुष्यक्षये 'व्यति' व्यवछियते जीवानां जीवितमिति शेषः ॥२॥ तथामायाहिं पियाहिं लुप्पइ, नो सुलहा सुगई य पेच्चओ। एयाई भयाई पेहिया, आरम्भा विरमेज सुबए ॥३॥ जमिणं जगती पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्पंति पाणिणो।सयमेव कडेहिं गाहइ,णोत्तस्स मुच्चेजऽपुट्टयं ॥४॥ ఎలాంట अनुक्रम [९० ere ~120~ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक || 8|| दीप अनुक्रम [९२] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [४], निर्युक्तिः [४२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चाय चियुतं ॥ ५५ ॥ Education Internat कश्चिन्मातापितृभ्यां मोहेन खजनस्नेहेन च न धर्म प्रत्युद्यमं विधत्ते स च तैरेव मातापित्रादिभिः 'लुप्यते' संसारे भ्राम्यते, तथाहि-- “विहितमलोहमहो महन्मातापितृपुत्रदारबन्धुसंज्ञम् । खेहमयमसुमतामदः किं बन्धनं शृङ्खलं खलेन यात्रा ? ॥ १ ॥" तस्य च स्नेहाकुलितमानसस्य सदसद्विवेक विकलस्य खजनपोषणार्थ यत्किञ्चनकारिण इहैव सद्भिर्निन्दितस्य सुगतिरपि 'प्रेत्य' जन्मान्तरे नो सुलभा, अपि तु मातापितृव्यामोहितमनसस्तदर्थं लिश्यतो विषयसुखेप्सोथ दुर्गतिरेव भवतीत्युक्तं भवति, तदेवमेतानि 'भयानि' भयकारणानि दुर्गतिगमनादीनि 'पेहिय'ति प्रेक्ष्य 'आरम्भात्' सावद्यानुष्ठानरूपाद्विरमेत् 'सुव्रतः' शोभनव्रतः सन, सुस्थितो वेति पाठान्तरम् ||३|| अनिवृत्तस्य दोषमाह 'यद्' यस्मादनिवृत्तानामिदं भवति, किं तत् ? - जगति' पृथिव्यां 'पुटो 'ति पृथग्भूता व्यवस्थिताः सावधानुष्ठानोपचितैः 'कर्मभिः' 'विलुप्यन्ते' नरकादिषु यातनास्थानेषु भ्राम्यन्ते, स्वयमेव च कृतैः कर्मभिः, न ईश्वरायापादितैः, गाहते नरकादिस्थानानि यानि तानि वा कर्माणि दुःखहेतुनि गाहते उपचिनोति, अनेन च हेतुहेतुमद्भावः कर्मणामुपदर्शितो भवति, न च 'तस्य' अशुभाचरितस्य कर्मणो विपाकेन 'अस्पृष्ट:' अच्छुतो 'मुच्यते' जन्तुः, कर्मणामुदयमननुभूय तपोविशेषमन्तरेण दीक्षा प्रवेशादिना न तदपगमं विधत्त इति भावः ॥ ४ ॥ अधुना सर्वस्थानानित्यतां दर्शयितुमाह देवा गंधवरक्खसा, असुरा भूमिचरा सरिसिवा राया नरसेट्टिमाहणा, ठाणा तेऽवि चयंति दुक्खिया ॥५॥ कामेहिण संथवेहि गिद्धा, कम्म सहा कालेण जंतवो। ताले जह बंधणचुए, एवं आउखयंमि तुहती ॥६॥ १. कामे हिय संघ हिय इति पु०, छन्दोऽनुलोमता पात्र, नवरं टीकाद्भिः इत्येतद् व्याख्यातं परं योन्ता औपच्छन्दसकम्' इति लक्षणं संगच्छते इति For Parts Only ~121~ २ वैतालीयाध्य० उद्देशः १ ।। ५५ ।। waryra Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६], नियुक्ति: [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत देवा-ज्योतिष्कसौधर्माद्याः, गन्धर्वराक्षसयोरुपलक्षणखादष्टप्रकारा व्यन्तरा गृह्यन्ते, तथा 'असुरा' दशप्रकारा भवनपतयः, ये चान्ये भूमिचराः सरीसृपाद्याः तिर्यञ्चः, तथा 'राजानः' चक्रवर्तिनो बलदेवबासुदेवप्रभृतयः, तथा 'नरा' सामान्यमनुष्याः 'श्रेष्ठिनः' पुरमहत्तराः ब्राह्मणाचते सर्वेऽपि खकीयानि स्थानानि दु:खिताः सन्तस्त्यजन्ति, यतः---सर्वेषामपि प्राणिनां प्राणपरित्यागे महहःखं समुत्पद्यत इति ॥ ५॥ किन-'कामहि' इत्यादि, 'कामैः' इच्छामदनरूपैस्तथा 'संस्तवैः' पूर्वापरभूतैः । |'गृद्धा' अध्युपपन्नाः सन्तः 'कम्मसह'त्ति कर्मविपाकसहिष्णव: 'कालेन' कर्मविपाककालेन 'जन्तवः' प्राणिनो भवन्ति, इदमुक्तं भवति-भोगेप्सोर्विषयाऽऽसेवनेन तदुपशममिच्छत इहामुत्र च क्लेश एव केवलं, न पुनरुपशमावाप्तिः, तथाहि"उपभोगोपायपरो वाञ्छति यः शमयितुं विषयतृष्णाम् । धावत्याक्रमितुमसौ पुरोऽपराहे निजच्छायाम् ॥१॥" नच तस्य मुमूर्षोः कामैः संस्तवैव त्राणमस्तीति दर्शयति-यथा तालफलं 'बन्धनात्' पृन्तात् च्युतम् अत्राणमवश्यं पतति, एवमसावपि 18 खायुषः क्षये 'त्रुव्यति' जीवितात् च्यवत इति ॥६॥ अपिचजे यावि बहुस्सुए सिया,धम्मिय माहणभिक्खुए सियाअभिणूमकडे हिं मुच्छिए,तिवं ते कम्मेहिं किच्चती || अह पास विवेगमुट्ठिए,अवितिन्ने इह भासई धुवं । णाहिसि आरं कओ परं, वेहासे कम्मेहिं किञ्चती ॥८॥ eaestaesesesesesesesesesesecen अनुक्रम [९४] न क्षतिः, तथापि वैतालीयप्रकरणगतत्वान प्राक्पतिज्ञा विरोषः, एवमन्यत्रापि विकल्पसमाहतेः सर्वजातियांकाभ्युपगमे च नाचपावमात्रस्य तथाले वतिः ~1224 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [८], नियुक्ति: [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुहताज शीलाङ्काचाय त्तियुत ॥५६॥ ये चापि 'बहुश्रुताः शाखार्थपारगाः तथा 'धार्मिका धर्माचरणशीलाः, तथा ब्रामणाः तथा 'भिक्षुका भिक्षाटनशीला:18ोली |'स्युः भवेयुः, तेऽप्याभिमुख्येन, ‘णूम न्ति कर्म माया वा तस्कृतैः असदनुष्ठानः 'मूछिता गृद्धाः 'तीब्रम्' अत्यर्थ, अत्र || याध्य. च छान्दसखाबहुवचनं द्रष्टव्यं, 'ते' एवंभूताः 'कर्मभिः सवेद्यादिभिः 'कृत्यन्ते' छिद्यन्ते पीडबन्त इतियावत् ।। ७॥ साम्प्रतं | उद्देशः१ ज्ञानदर्शनचारित्रमन्तरेण नापरो मोक्षमागोऽस्तीतित्रिकालविषयखात् सूत्रस्थाऽऽगामितीर्थिकधर्मप्रतिषेधार्थमाह-'अथे'त्यधिकारा-1 न्तरे बडादेशे एकादेश इति, 'अथे'त्यनन्तरं एतच्च 'पश्य' कश्चित्तीथिको 'विवेक' परित्यागं परिग्रहस्य परिक्षानं वा संसार-18 स्थाऽश्रित्य उत्थितः प्रव्रज्योत्थानेन, स च सम्पपरिज्ञानाभावादवितीर्णः संसारसमुद्रं तितीर्घः, केवलम् 'इह' संसारे | | प्रस्तावे वा शाश्वतत्वात् 'धुवो' मोक्षस्तं तदुपायं वा संयम भाषत एच न पुनर्विधत्ते तत्परिज्ञानाभावादिति भावः, तन्मार्गे || | प्रपन्नस्त्वमपि कथं ज्ञास्यसि 'आरम्' इहभवं कुतो वा 'परं' परलोकं यदिवा-आरमिति गृहस्थलं, परमिति प्रव्रज्यापर्यायं, | अथवा-आरमिति संसारं परमिति मोक्षं, एवम्भूतश्चान्योऽप्युभयभ्रष्टः, 'वहासित्ति अन्तराले उभयाभावतः खकृतैः कर्मभिः 'कृत्यते' पीब्यत इति ॥ ८॥ ननु च तीथिका अपि केचन निष्परिग्रहास्तथा तपसा निष्टतदेहाच, तत्कथं तेषां नो मोक्षावा-18 प्तिरित्येतदाशझ्याह ॥ ॥५६॥ जइ वि य णिगणे किसे चरे,जइविय भुंजिय मासमंतसो।जे इह मायाइ मिजई,आगंता गब्भाय गंतसो हा पुरिसोरम पावकम्मुणा,पलियंत मणुयाण जीवियं । सन्ना इह काममुच्छिया,मोहंजति नरा असंवुडा १० अनुक्रम [९६] ~1234 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [१०], नियुक्ति: [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१०|| यद्यपि तीर्थिकः कवितापसादिस्त्यक्तबाह्यगृहवासादिपरिग्रहत्वात् निष्किञ्चनतया नग्नः बक्त्राणाभावाश्च कृशः 'चरेत्' स्वकीयप्रव्रज्यानुष्ठानं कुर्यात् , यद्यपि च पठाटमदशमद्वादशादितपो विशेष विधत्ते यावद् अन्तशो मासं स्थिखा 'भो तथापि आन्तरकषायापरित्यागान मुच्यते इति दर्शयति-'या' तीर्थिक इह मायादिना मीयते, उपलक्षणार्थत्वात् कषायैर्युक्त इत्येवं परिच्छिद्यते, असौ 'गर्भाय' गर्भार्थमा-समन्तात् 'गन्ता' यास्यति 'अनन्तशो निरवधिक कालमिति, एतदुक्तं भवति–अकिश्वनोऽपि तपोनिष्टतदेहोऽपि कषायापरित्यागान्नरकादिस्थानात् तिर्यगादिस्थानं गर्भादर्भमनन्तमपि कालमग्निशर्मवत् संसारे| पर्यटनीति ॥ ९॥ यतो मिथ्यादृष्ट्युपदिष्टतपसाऽपि न दुर्गतिमार्गनिरोधो अतो मदुक्त एव मार्गे स्थेयमेतद्गर्भमुपदेशं दातुमाह'पुरिसो' इत्यादि, हे पुरुष ! येन 'पापेन कर्मणा' असदनुष्ठानरूपेण समुपलक्षितस्तत्रासकृत् प्रवृत्तवात् तस्मात् 'उपरम' नि वर्त्तख, यतः पुरुषाणां जीवितं सुबहपि त्रिपल्योपमान्तं संयमजीवितं वा पल्योपमस्यान्तः-मध्ये वर्तते तदप्यूनां पूर्वकोटिमि|| तियावत् , अथवा परि--समन्तात् अन्तोऽस्येति पर्यन्तं-सान्तमित्यर्थः, यश्चैवं तद्गतमेवावगन्तव्यं, तदेवं मनुष्याणां स्तोकं जीवि-1131 | तमवगम्य यावचन्न पर्येति तावद्धर्मानुष्ठानेन सफलं कर्त्तव्यं, ये पुनर्भोगस्वेहपके अवसन्ना-मना 'इह' मनुष्यभवे संसारे वा| कामेषु-इच्छामदनरूपेषु 'भूञ्छिता' अध्युपपन्नाः ते नरा मोहं यान्ति-हिताहितप्राप्तिपरिहारे मुद्यन्ति, मोहनीय वा कर्म | चिन्वन्तीति संभाव्यते, एतदसंवृताना--हिंसादिस्थानेभ्योऽनिवृत्चानामसंयतेन्द्रियाणां चेति ॥ १० ॥ एवं च स्थिते यद्विधेयं । 19 वद्दर्शयितुमाह 930002020902 eseseeseseeeeeeee दीप अनुक्रम [९८) Secterseksec ब्य ~124~ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [११], नियुक्ति: [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११|| दीप अनुक्रम स्त्रकृतानंजययं विहराहि जोगवं, अणुपाणा पंथा दुरुत्तरा। अणुसासणमेव पक्कमे, वीरोहिं संमं पवेइयं ॥११॥ २ वैतालीशीलाझाचायियविरया वीरा समुट्टिया, कोहकायरियाइपीसणा।पाणे ण हणंति सबसो, पावाओ विरयाऽभिनिव्वुडा १२६ याध्य उद्देशः१ त्तियुत 18|| खल्पं जीवितमवगम्य विषयांध क्लेशपायानवबुख्य छिच्चा गृहपाशवन्धनं 'यतमानः' यनं कुर्वन् प्राणिनामनुपरोधेन 'विहर। ॥५७॥ 18|| उयुक्तविहारी भव, एतदेव दर्शयति–'योगवानिति संयमयोगवान् गुप्तिसमितिगुप्त इत्यर्थः, किमित्येवं ?, यतः 'अणवः मक्ष्माः प्राणा:-प्राणिनो येषु पथिषु ते तथा ते चैवम्भूताः पन्थानोऽनुपयुक्तैर्जीवानुपमर्दैन 'दुस्तरा' दुर्गमा इति, अनेन ईयर्यासमितिरुपक्षिप्ता, अस्थायीपलक्षणार्थवाद अन्याखपि समितिषु सततोपयुक्तेन भवितव्यम् , अपिच 'अनुशासनमेव' यथा-10 गममेव सूत्रानुसारेण संयमं प्रति कामेत् , एतच्च सर्वेरेव 'वीरैः' अर्हद्भिः सम्यक् 'प्रवेदितं' प्रकर्षणाख्यातमिति ॥ ११॥ अथ | क एते वीरा इत्याह–'विरया' इत्यादि, हिंसाऽनृतादिपापेभ्यो ये विरताः, विशेषेण कर्म प्रेरयन्तीति वीराः, सम्पगारम्भपरित्यागेनोस्थिताः समुत्थिताः, ते एवम्भूताच 'क्रोधकातरिकादिपीषणाः तत्र क्रोधग्रहणान्मानो गृहीतः, कातरिका-माया | तद्ग्रहणालोभो गृहीतः, आदिग्रहणात् शेषमोहनीयपरिग्रहः, तत्पीपणा:-तदपनेतारः, तथा 'प्राणिनों' जीवान् सूक्ष्मेतरभेदभिबान् 'सर्वशो' मनोवाकायकर्मभिः 'न अन्ति' न व्यापादयन्ति, 'पापाच' सर्वतः साक्यानुष्ठानरूपाद्विरताः-नित्तास्ततश्च ॥५७॥ 'अभिनिवृत्ताः' क्रोधायुपशमेन शान्तीभूताः, यदिवाऽभिनित्ता इव अभिनिचा:-मुक्ता इव द्रष्टच्या इति ॥ १२॥ पुनरप्युपदेशान्तरमाह skskskseatsectstasses [९९]] ~125~ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [१३], नियुक्ति: [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप णविता अहमेव लुप्पए, लुप्पंती लोअंसि पाणिणो। एवं सहिएहिं पासए, अणिहे से पुटे अहियासए १३ १ धुणिया कुलियंव लेववं,किसए देहमणासणा इह ।अविहिंसामेव पचए, अणुधम्मो मुणिणा पवेदितो १४18 18| परीषहोपसर्गा एतद्भावनापरेण सोढव्याः, नाहमेवैकस्तावदिह शीतोष्णादिदुःखविशेषैः 'लुप्ये' पीव्ये अपि खन्येऽपि प्राणि18न' तथाविधास्तिर्यङ्मनुष्याः अखिल्लोके 'लुप्यन्ते' अतिदुःसहैदुःखैः परिताप्यन्ते, तेषां च सम्यग्विवेकाभावान्न निर्जराख्यफ लमस्ति, यतः-'क्षान्तं न क्षमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न संतोषता, सोडा दुःसहतापशीतपवनक्लेशा न तप्तं तपः । ध्यातं विचम-16 हर्निशं नियमित द्वन्द्व तच परं, तत्तत्कर्म कृतं सुखार्थिभिरहो तेस्तैः फलैर्वञ्चिताः ॥१॥ तदेवं लेशादिसहन सद्विवेकिनां 18 | संयमाभ्युपगमे सति गुणायैवेति, तथाहि-'कार्य क्षुत्प्रभवं कद नमशनं शीतोष्णयोः पात्रता, पारुष्यं च शिरोरुहेषु शयन मह्यास्तले केवले । एतान्येव गृहे वहन्त्यवनति तान्युन्नति संयमे, दोषावापि गुणा भवन्ति हि नृणां योग्ये पदे योजिताः एवं सहितो ज्ञानादिभिः स्वहितो वा आत्महितः सन् 'पश्येत्' कुशाग्रीयया बुद्ध्या पर्यालोचयेदनन्तरोदित, तथा निहन्यत इति है निह न निहोनिहा-क्रोधादिभिरपीडितः सन् स महासत्त्वः परीवहै। स्पृष्टोऽपि तान् 'अधिसहेत' मनःपीडां न विदध्यादिति, यदिवा 'अनिह' इति तपःसंयमे परीषहसहने वानिहितबलबीर्यः, शेषं पूर्ववदिति ॥ १३ ॥ अपिच 'धुणिया' १ अधिकं पृथरजनान् पश्यतीति चू. अनुक्रम [१०१] ~126~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [१४], नियुक्ति: [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: उद्देश सूत्रांक ||१४|| दीप सूत्रकृताङ्ग इत्यादि, 'धूत्वा' विधूय 'कुलिय' कडणकृतं कुष्यं 'लेपवत्' सलेप, अयमत्रार्थः-यथा कुड्यं गोमयादिलेपेन सलेप जाध-81२ वैतालीशीलाका- यमानं लेपापगमात् कृशं भवति, एवम् अनशनादिभिर्देहं 'कर्शयेत्' अपचितमांसशोणितं विदध्यात्, तदपचयाच कर्मणोऽप-18 याध्य. पापीय- चयो भवतीति भावः, तथा विविधा हिंसा विहिंसा न विहिंसा अविहिंसा तामेव प्रकर्षेण बजेत्, अहिंसाप्रधानो भवेदित्यर्थः चियुत | अनुगतो-मोक्षं प्रत्यनुकूलो धर्मोऽनुधर्मः असावहिंसालक्षणः, परीपहोपसर्गसहनलक्षणश्च धर्मों 'मुनिना' सर्वशेन 'प्रवेदितः। ॥५८॥ कथित इति ॥ १४ ॥ किञ्च सउणी जह पंसुगुंडिया,विहुणिय धंसयई सियं रय। एवं दविओवहाणवं,कम्मं खवह तवस्सिमाहणे॥१५॥ | उट्ठियमणगारमेसणं, समणं ठाणठिअंतवस्सिणं । डहरा वुड्डा य पत्थए,अवि सुस्सेण यतं लभेज णो१६ | 'शकुनिका' पक्षिणी यथा 'पांसुना' रजसा 'अवगुण्ठिता' खचिता सती अङ्ग 'विधूय' कम्पयित्वा तद्रजः 'सितम्' 8 अक्बद्धं सत् 'ध्वंसयति' अपनयति, एवं 'द्रव्यो' भथ्यो मुक्तिगमनयोग्यो मोक्षं प्रत्युप-सामीप्येन दधातीति उपधानम् अनशनादिकं तपः तदस्खास्तीत्युपधानवान् , स चैवम्भूतः 'कर्म ज्ञानावरणादिकं 'क्षपयति' अपनयति, 'तपस्वी' साधुः 'माहणति मा वधीरिति प्रवृत्तिर्यस्य स प्राकृतशैल्या माहणेत्युच्यत इति ॥१५॥ अनुकूलोपसर्गमाह-'उहिये'त्यादि, अगार 3 ॥५८॥ गृहं तदस नास्तीत्यनगारा तमेवम्भूतं संयमोत्थानेनैषणां प्रत्पुत्थित-प्रवृत्त, श्राम्यतीति श्रमणरतं, तथा 'स्थानस्थितम्' उत्त-। रोत्तरविशिष्टसंयमस्थानाध्यासिनं 'तपखिनं विशिष्टतपोनिष्टप्सदेहं तमेवम्भूतमपि कदाचित् 'डहरा' पुत्रनप्त्रादयः 'वृद्धाः पि अनुक्रम [१०२] ~127~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [१६], नियुक्ति: [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| तृमातुलादयः उनिष्कामयितुं 'प्रार्थयेयुः' याचेरन् , त एवमूचुः-भवता वयं प्रतिपाल्या न खामन्तरेणास्माकं कश्चिदस्ति वं|ST वाऽस्माकम् एक एव प्रतिपाल्पः, (इति) भणन्तस्ते जना अपि 'शुष्येयुः श्रमं गच्छेयुः, न च तं साधू विदितपरमार्थे 'लभेरन् । नैवाऽऽत्मसात्कुर्युः-नैवाऽऽत्मवशर्म विदध्युरिति ॥ १६ ॥ किश्चIS जइ कालुणियाणि कासिया,जइ रोयंति य पुत्तकारणा।दवियं भिक्खू समुट्रियं,णो लब्भंति ण संठवित्तए १७ जइविय कामेहि लाविया,जइणेज्जाहिण बंधिउंघराजइ जीविय नावकंखए,णोलभंति ण संठवित्तए१८|| यद्यपि ते मातापितपुत्रकलत्रादयस्तदन्तिके समेत्य करुणाप्रधानानि-विलापप्रायाणि चांस्यनुष्ठानानि वा कुर्युः, तथाहि-8 "णाहपियकंतसामिय अबल्लह दुल्लहोऽसि भुवर्णमि । तुह विरहम्मि य निकिव ! सुण्णं सर्वपि पडिहाइ ॥१॥ सेणी गामो गोही गणो व तं जत्थ होसि संणिहितो । दिप्पइ सिरिए सुपुरिस! किं पुण निययं घरद्दार? |" तथा यदि 'रोयंति यति रुदन्ति 'पुत्रकारणं' सुतनिमित्तं, कुलवर्धनमेकं सुतमुत्पाद्य पुनरेवं कर्तुमर्हसीति । एवं रुदन्तो यदि भणन्ति तं भिक्षु रागद्वेषरहितत्वान्मुक्तियोग्यत्वाद्वा द्रव्यभूतं सम्यक्संयमोत्थानेनोत्थितं तथापि साधु 'न लप्स्यन्ते' न शक्नुवन्ति प्रवज्यातो भ्रंशयितुं 18 भावाच्यावयितुं नापि संस्थापयितु-गृहस्थभावेन द्रव्यलिङ्गाक्यावयितुमिति ॥ १७॥ अपिच-'जइवि' इत्यादि, यद्यपि ते नाथ कान्त प्रिय खागिन् अतिवनम दुर्लभोऽसि भवने । तब विरहे च निष्कप |, शून्यं सर्वमपि प्रतिभाति ॥ १॥ श्रेणियामो गोष्टी मणो का त्वं यत्र भवसि सविहितः । दीप्यते त्रिया सुपुरुष 1 किं पुनर्निगं राहद्वारम् ॥२॥ sekeeseaesesekeesesesesen दीप अनुक्रम [१०४] Reseseaeesesesese ~128~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम [१०६] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [१८], निर्युक्तिः [४२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचार्ययष्टचियुतं ।। ५९ ।। निजास्तं साधुं संयमोत्थानेनोत्थितं 'कामैः- इच्छामदनरूपैः 'लावयन्ति' उपनिमन्त्रयेयुरुपलो भयेयुरित्यर्थः, अनेनानुकूलोपसग्रहणं, तथा यदि नयेयुर्वच्ध्वा गृहं णमिति वाक्यालङ्कारे । एवमनुकूलप्रतिकूलोपसगैरभिद्रुतोऽपि साधुः - 'यदि जीवितं लनाभिकाङ्गेत् यदि जीविताभिलाषी न भवेत् असंयमजीवितं वा नाभिनन्देत् ततस्ते निजास्तं साधुं 'णो लब्भंति'त्ति न भन्तेन प्राप्नुवन्ति आत्मसात्कर्तुं 'ण संठवित्तए 'ति नापि गृहस्थभावेन संस्थापयितुमलमिति ।। १८ ।। किच--- | सेहंति य णं ममाइणो, माय पिया य सुया य भारिया। पोसाहि ण पासओ तुमं, लोग परंपि जहासि पोसणो अन्ने अन्नेहिं मुच्छिया, मोहं जंति णरा असंवुडा । विसमं विसमेहिं गाहिया, ते पावेहिं पुणो पगब्भिया २० ते कदाचिन्मातापित्रादयस्तमभिनवप्रत्रजितं 'सेहत' ति शिक्षयन्ति 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे- 'ममाइणोति ममायमित्येवं स्नेहालवः, कथं शिक्षयन्तीत्यत आह-पश्य 'नः' अस्मान त्यन्तदुःखितांस्त्वदर्थं पोषकाभावाद्वा, खं च यथावस्थितार्थपश्यकःसूक्ष्मदर्शी, सश्रुतिक इत्यर्थः, अतः 'नः'अस्मान् 'पोषय' प्रतिजागरणं कुरु अन्यथा प्रब्रज्याऽभ्युपगमेनेहलोकस्त्यक्तो भवता अस्मत्प्रतिपालन परित्यागेन च परलोकमपि तं त्यजसि इति दुःखितनिजप्रतिपालनेन च पुण्यावाप्तिरेवेति, तथाहि - 'या गतिः क्लेशदग्धानां गृहेषु गृहमेधिनाम् । विभ्रतां पुत्रदारांस्तु, तां गतिं व्रज पुत्रक 1 ॥ १ ॥ " ॥ १९ ॥ एवं तैरुपसर्गिताः केचन १ खाविया उवनिमंत्रणा भू० Internationa For Penal Use On ~129~ २ बैताली याध्य० उद्देशः १ ।। ५९ ।। arra Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [२०], नियुक्ति: [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| | कातराः कदाचिदेतत्कुर्युरित्याह-'अन्ने' इत्यादि, 'अन्ये' केचनाल्पसत्त्वाः 'अन्यैः मातापित्रादिभिः 'मूञ्छिता' अध्युपपन्नाः | सम्यग्दर्शनादिव्यतिरेकेण सकलमपि शरीरादिकमन्यदित्यन्यग्रहणं, ते एवम्भूताः असंवृता नराः 'मोहं यान्ति' सदनुष्ठाने मुद्य|न्ति, तथा संसारगमनैकहेतुभूतखात् 'विषमः' असंयमस्तं 'चिवमैः' असंयतैरुन्मार्गप्रवृत्तखेनापायाभीरुभिः रागद्वेषैर्वा अनादि भवाभ्यस्ततया दुइच्छेद्यलेन विषमैः ग्राहिता-असंयम प्रति वर्तिताः, ते चैवम्भूताः 'पापैः कर्मभिः पुनरपि प्रवृचाः 'प्रगल्भि8 ताः' धृष्टतां गताः पापकं कर्म कुर्वन्तोऽपि न लज्जन्त इति ॥ २०॥ यत एवं ततः किं कर्तव्यमित्याहतिम्हा दवि इक्ख पंडिए, पावाओ विरतेऽभिणिबुडे। पणए वीरं महाविहि, सिद्धिपहं णेआउयं धुर्व ॥ २१॥ वेयालियमग्गमागओ, मणवयसाकायेण संवुडो। चिच्चा वित्तं च णायओ, आरंभं च सुसंवुडे चरे ॥२२॥ त्तिबेमि इति वैतालीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः (गाथाप्रम् १२०) यतो मातापित्रादिमूछिताः पापेषु कर्मसु प्रगल्भा भवन्ति तस्माद् द्रव्यभूतो भन्यः मुक्तिगमनयोग्यः रागद्वेषरहितो वा सन् 'ईक्षस्व तद्विपाकं पर्यालोचय 'पण्डितः' सद्विवेकयुक्तः 'पापात्' कर्मणोऽसदनुष्ठानरूपात् 'विरतः' निवृत्तः क्रोधादिपरि| त्यागाच्छान्तीभूत इत्यर्थः तथा 'प्रणता' प्रहीभूताः 'वीराः कर्मविदारणसमर्थाः 'महावीर्थि' महामार्ग, तमेव विशिनष्टि 'सिद्धिपर्थ ज्ञानादिमोक्षमार्ग तथा मोक्षं प्रति 'नेता' प्रापकं 'ध्रुवम्' अव्यभिचारिणमित्येतदवगम्य स एव मार्गोऽनुष्ठेयः, 18 नासदनुष्ठानप्रगल्भर्भाव्यमिति ॥ २१ ॥ पुनरप्युपदेशदानपूर्वकमुपसंहरनाह-'वेयालियमग्ग' इत्यादि, कर्मणां विदारणमार्ग दीप अनुक्रम [१०८] eatiseseaeceaeeeeeseene ~130~ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [२२], नियुक्ति: [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्गं शीलासा- चाय-1 त्तियुतं मागतो भूखा तं तथाभूतं मनोवाकायसंवृतः पुनः 'त्यक्त्वा ' परित्यज्य 'वित्तं' द्रव्यं तथा 'ज्ञातींश्च' स्वजनांध तथा साव- बारम्भं च सुष्ठु संवृत इन्द्रियैः संयमानुष्ठान चरेदिति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २२ ॥ इति बैतालीयद्वितीयाध्ययनस प्रथमोद्देशक | समाप्तः ॥ २ वैवाली| याध्य० उद्देशः २ सूत्रांक ||२२|| अथ द्वितीयाध्ययने द्वितीय उद्देशकः प्रारभ्यते ॥ दीप अनुक्रम [११०] प्रथमानन्तरं द्वितीयः समारभ्यते--असं चायमभिसंबन्धः, इहानन्तरोद्देशके भगवता वपुत्राणां धर्मदेशनाभिहिता, तदि-18 हापि सैवाध्ययनार्थाधिकारखान अभिधीयते, सूत्रस्य सूत्रेण सह संबन्धोऽयम् अनन्तरोक्तसूत्रे वाबद्रव्यखजनारम्भपरित्यागोभि हितः, तदिहाप्यान्तरमानपरित्याग उद्देशार्थाधिकारमुचितोऽभिधीयते, तदनेन संबन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्वादिसूत्र18 तयसं व जहाइ से रयं,इति संखाय मुणी ण मजईगोयन्नतरेण माहणे, अहसेयकरी अनेसी इंखिणी १॥ जो परिभवइ परं जणं,संसारे परिवत्तई मेहं । अदु इंखिणिया उपाविया,इति संखाय मुणीण भज्जई ॥२॥ १ नेसि. ३ चिरं पा ५ ॥६० FOR SARERaunintennatural अत्र द्वितीय-अध्ययनस्य द्वितीय उद्देशकस्य आरम्भ: ~131~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [२], नियुक्ति: [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| 2998 यथा उरगः खां खर्च अवश्य परित्यागार्हवात् 'जहाति' परित्यजति, एवमसावपि साधुः रज इव रजा----अष्टप्रकार कर्मी तदकषायिलेन परित्यजतीति, एवं कपायाभावो हि कर्माभावस कारणमिति 'संख्याय' ज्ञाला 'मुनि:' कालत्रयवेदी 'न मायति' मदं न याति, मदकारणं दर्शयति-'गोत्रेण' काश्यपादिना, अन्यतरग्रहणात् शेषाणि मदखानानि गृह्यन्त इति, 'माहण'त्ति साधुः, पाठान्तरं वा 'जे विउत्ति यो विद्वान्-विवेकी स जातिकुललामादिमिः न मायतीति, न केवलं स्वतो मदो न विधेयः, जुगुप्साऽप्यन्येषां न विधेयेति दर्शयति-'अर्थ' अनन्तरं असौ 'अश्रेयस्करी' पापकारिणी 'इंखिणि'त्ति निन्दा अन्येपामतो न कार्येति, 'मुणी न मजई' इत्यादिकस्य सूत्रावयवस्य सूत्रस्पर्श गाथाद्वयेन नियुक्तिकदाह-- तवसंजमणाणेसुषि जद माणो वजिओ महेसीहिं । अत्तसमुक्करिसत्धं किं पुण हीला उ अन्नेसि ॥४॥ जह ताव मिजरमओ, पडिसिद्धो अट्ठमाणमहणेहिं । अविसेसमयहाणा परिहरिपब्वा पयसेणं ॥ ४४ ॥ 'वेयालियस्स णित्ती सम्मत्ता तपासयमज्ञानेष्वपि आत्मसमुत्कर्षणार्थम्-उत्सेकार्थ यः प्रवृत्तो मानः यद्यसावपि तावद् 'वर्जिता त्यक्तो 'महर्षिभिः' महामुनिभिः, किंपुनर्निन्दाऽन्येषां न त्याज्येति । यदि तावनिर्जरामदोऽपि मोकगमनहेतुः | प्रतिषिद्धः 'अष्टमामथनैः अर्हद्भिरवशेषाणि तु 'मदस्थानानि जात्यादीनि 'प्रयत्नेन' सुतरां परिहर्तव्यानीति गाथाद्वयार्थः ॥ ४३-४४ ॥१॥ साम्प्रतं परनिन्दादोषमधिकृत्याह-'जो परिभवई' इत्यादि, यः कचिदविवेकी 'परिभवति अवज्ञयति, 'परं जनं' अन्य लोकम् आत्मव्यतिरिक्तं स तत्कृतेन कर्मणा 'संसारे चतुर्गतिलक्षणे भवोदधावरघट्टघटीन्यायेन 'परिवर्तते' निर्जराविशेषणम् । Recemesterestresses दीप अनुक्रम [११२] 996 SARERatinintamatural ~1324 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [२], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम [११२] सूत्रकृतानं| भ्रमति 'महद' अत्यर्थ महान्तं वा कालं, कचित् 'चिरम्' इति पाठः, 'अदु'ति अथशब्दो निपातः निपातानामनेकार्थखात अत ||२ चैतालीशीलाङ्का- ॥ इत्यसाथै वर्तते, यतः परपरिभवादात्यन्तिकः संसार: अतः 'इंखिणिया' परनिन्दा तुशब्दस्यैवकारार्थखात 'पापिकैय' दोप- याध्य ०. चा-यय वत्येव, अथवा स्वस्थानादधमस्थाने पातिका, तोह जन्मनि सुघरो दृष्यन्तः, परलोकेऽपि पुरोहितस्यापि श्वादिप्रत्पत्तिरिति. उदार त्तियुत इत्येवं 'संख्याय' परनिन्दा दोषवती ज्ञात्वा मुनिजात्यादिभिः यथाऽहं विशिष्टकुलोद्भवः श्रुतवान् तपस्वी भवांस्तु मत्तो हीन ॥६१॥ | इति न मावति ॥२॥ मदाभावे च यद्विधेयं तदर्शयितुमाह जे यावि अणायगे सिया, जेविय पेसगपेसए सिया।जे मोणपयं उवट्रिए, णो लज्जे समयं सया यरे ॥३॥ Iसम अन्नयरम्मि संजमे, संसुद्धे समणे परिवए। जे आवकहा समाहिए, दविए कालमकासि पंडिए uns यथापि कश्चिदास्तां तावत् अन्यो न विद्यते नायकोऽस्येत्यनायकः-स्वयंप्रभुचक्रवादिः 'स्यात्' भवेत् , यथापि प्रेष्यस्यापि । प्रेष्य:-तस्यैव राज्ञः कर्मकरस्यापि कमेंकरः, य एवम्भूतो मौनीन्द्रं पद्यते-गम्यते मोक्षो येन तत्पदं-संयमस्तम् उप-सामीप्येन || स्थितः उपस्थितः-समाश्रितः सोऽप्यलज्जमान उत्कर्षमकुर्वन् वा सर्वाः क्रिया:-परस्परतो बन्दनप्रतिवन्दनादिका विधत्ते, इद-12 मुक्तं भवति चक्रवर्तिनाऽपि मौनीन्द्रपदमुपस्थितेन पूर्वमात्मप्रेष्यप्रेष्यमपि बन्दमानेन लज्जा न विधेया इतरेण चोत्कर्ष इत्येवं 'समतां' समभावं सदा भिक्षुश्वरेत्-संयमोयुक्तो भवेदिति ॥३॥क पुनर्व्यवस्थितेन लज्जामदौ न विधेयाविति दर्शयितुमाह सिअ वृत्तिः। ~1334 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [४], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४|| ''समेति समभावोपेतः सामायिकादौ संयमे संयमखाने वा षट्स्थानपतितखात् संयमस्थानानामन्यतरसिन् संयमस्थाने छेदोपस्थापनीयादौ बा, तदेव विशिनष्टि-सम्यकशुद्धे सम्यकशुद्धो वा 'श्रमणः' तपस्वी लजामदपरित्यागेन समानमना वा 'परिब्रजेत्' संयमोयुक्तो भवेत् , स्यात्-कियन्तं कालम् ?, यावत् कथा-देवदत्तो यज्ञदत्त इति कथां यावत् , सम्यगाहित आत्मा ज्ञानादी येन स समाहितः समाधिना वा-शोभनाध्यवसायेन युक्तः, द्रव्यभूतो-रागद्वेषादिरहितः मुक्तिगमनयोग्यतया वा भव्यः, स एवम्भूतः कालमकार्षीत् 'पण्डितः' सदसद्विवेककलितः, एतदुक्तं भवति देवदत्त इति कथा मृतस्यापि भवति अतो यावन्मृत्युकालं तावल्लज्जामदपरित्यागोपेतेन संयमानुष्ठाने प्रवर्तितव्यमिति स्यात् ॥ ४॥ किमालम्ब्येतद्विधेयमिति, उच्यतेदूरं अणुपस्सिया मुणी, तीतं धम्ममणागयं तहा। पुटे परुसेहिँ माहणे, अवि हण्णू समयंमि रीयइ॥५॥ पण्णसमत्ते सया जए, समताधम्ममुदाहरे मुणी।सुहुमे उसयाअलूसए,णो कुज्झे णो माणि माहणे॥६॥ दूरवर्तिवाव दूरो-मोक्षस्तमनु-पश्चात् तं दृष्ट्वा यदिवा-दूरमिति-दीर्घकालम् 'अनुदृश्य' पर्यालोच्य 'मुनिः' कालत्रयवेत्ता दूरमेव दर्शयति–अतीतं 'धर्म' स्वभावं-जीवानामुच्चावचस्थानगतिलक्षणं तथा अनागतं च धर्म-स्वभावं पर्यालोच्य लज्जामदौ न विधेयौ, तथा 'स्पृष्टः' छुप्तः 'परुषैः दण्डकशादिभिर्वाग्भिर्वा 'माहणेचि मुनिः 'अवि हण्णू'त्ति अपि मार्यमाणः KOIL १ समगाहियासए पा । २ पन्हसमत्थे पा० दीप अनुक्रम [११४] ceoersectroecececeiceseroececease ~134 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [६], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृताङ्गं प्रत शीलाङ्का सत्राक ॥६२॥ स्कन्दकशिष्यगणवत 'समये संयमे रीयते तदुक्तमार्गेण गच्छतीत्यर्थः, पाठान्तरं वा 'समयाऽहियासए'चि समतया वाली सहत इति ॥ ५॥ पुनरप्युपदेशान्तरमाह-प्रज्ञायां समाप्तः प्रज्ञासमाप्त:-पटुप्रज्ञः, पाठान्तरं वा 'पण्हसमधे प्रश्नविषये | याध्य. प्रत्युत्तरदानसमर्थः 'सदा सर्वकालं जयेत् , जेयं कषायादिकमिति शेषः । तथा समया-समता तया धर्मम्-अहिंसादिलक्षणम् | उद्देशः २ "उदाहरेत्' कथयेत् 'मुनि यतिः सूक्ष्मे तु-संयमे यत्कर्तब्ध तस्य 'अलूषकः' अविराधकः, तथा न हन्यमानो वा पूज्यमानो वा क्रुध्येनापि 'मानी' गर्वितः स्वाद 'माहणो' यतिरिति ।। ६॥ अपिचबहुजणणमणमि संवुडो, सबट्रेहिंणरे अणिस्सिए । हरए व सया अणाविले, धम्म पादुरकासि कासवं ७ ॥ बहवे पाणा पुढो सिया, पत्तेयं समय समीहिया ।जो मोणपदं उवट्टिते, विरतिं तत्थ अकासि पंडिए ॥८ बहून् जनान् आत्मानं प्रति नामयति-प्रढीकरोति तैर्वा नम्यते -स्तूयते बहुजननमनो-धर्मः, स एव बहुभिर्जनैरात्मीयात्मीयाशयेन यथाऽभ्युपगमप्रशंसया स्तूयते-प्रशस्यते, कथम् ?, अत्र कथानकं राजगृहे नगरे श्रेणिको महाराजः,कदाचिदसी चतु-| |विधबुध्ध्युपेतेन पुत्रेण अभयकुमारेण सार्धमास्थानस्थितस्ताभिस्ताभिः कथाभिरासाञ्चके, तत्र कदाचिदेवम्भूता कथाऽभूत , तबथा| इह लोके धार्मिकाः बहवः उताधार्मिका इति !, तत्र समस्तपर्षदाभिहितम्-यथानाधार्मिका बहवो लोका धर्म तु शतानामपि || मध्ये कधिदेवैको विधत्ते, तदाकाभयकुमारेणोक्तं-यथा प्रायशो लोकाः सर्व एव धार्मिकाः, यदि न निश्चयो भवतां परीक्षा दीप अनुक्रम [११६] terestock १ उबेहिया प्र. ~135-~ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [११८] [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [८], निर्युक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र -[ ०२] अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः क्रियतां पर्षदाऽप्यभिहितम् - एवमस्तु ततोऽभयकुमारेण धवलेतरप्रासादद्वयं कारितं, घोषितं च डिण्डिमेन नगरे, यथा— यः कश्चिदिह धार्मिकः स सर्वोऽपि धवलप्रासादं गृहीतबलिः प्रविशतु, इतरस्त्वितरमिति, ततोऽसौ लोकः सर्वोऽपि धवलप्रासादमेव प्रविष्टो निर्गच्छंत्र कथं त्वं धार्मिकः ? इत्येवं पृष्टः कथिदाचष्टे - यथाऽहं कर्षकः अनेकशकुनिगणः मद्धान्यकणैरात्मानं प्रीणयति खल कसमागतधान्यकण भिक्षादानेन च मम धर्म इति, अपरस्वाह - यथाऽहं ब्राह्मणः षट्कर्माभिरतः तथा बहुशौचस्नानादिभिर्वेदविहितानुष्ठानेन पितृदेवांस्तर्पयामि, अन्यः कथयति - यथाऽहं वणिकुलोपजीवी भिक्षादानादिप्रवृत्तः, अपरस्विदमाह-यथाऽहं कुलपुत्रकः न्यायागतं निर्गतिकं कुटुम्बकं पालयाम्येव तावत् श्वपाकोऽपीदमाह-यथाऽहं कुलक्रमागतं धर्ममनुपालयामीति मनिश्रया च बहवः पिशितभुजः प्राणान् संधारयन्ति, इत्येवं सर्वोऽप्यात्मीयमात्मीयं व्यापारमुद्दिश्य धर्मे नियोजयति, तत्रापरमसितप्रासादं श्रावकद्वयं प्रविष्टं तच किमधर्माचरणं भवद्भ्यामकारीत्येवं पृष्टं सत् सकृन्मयनिवृत्तिभङ्गव्यलीकमकथयत्, तथा साधव एवात्र परमार्थतो धार्मिका यथागृहीतप्रतिज्ञानिर्वाहणसमर्थाः, अस्माभिस्तु – 'अवाप्य मानुषं जन्म, लब्ध्वा जैनं च शासनम् । कृता निवृत्ति मैद्यस्य, सम्यक् साऽपि न पालिता ॥ १ ॥ अनेन व्रतभङ्गेन मन्यमाना अधार्मिकम् । अधमाधममात्मानं, कृष्ण| प्रासादमाश्रिताः ॥ २ ॥ तथाहि - 'लज्जां गुणौघजननीं जननीमिवार्यामत्यन्तशुद्ध हृदयामनुवर्त्तमानाः । तेजखिनः सुखमभूनपि संत्यजन्ति, सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् || ३ || वरं प्रवेष्टुं ज्वलितं हुताशनं, नचापि भग्नं चिरसंचितव्रतम् । वरं हि मृत्युः सुविशुद्धचेतसो, नचापि शीलस्खलितस्य जीवितम् ॥ ४ ॥” इति तदेवं प्रायशः सर्वोऽप्यात्मानं धार्मिकं मन्यत इतिकृला १ आधारस्यापि कर्मचिचक्षया गयर्थत्वेन विशः कर्तरि क इति न प्रयमाशङ्का २ जातिपक्षीया मविपुलेयम् । ३ कर्मगो । प्र० । Eaton International For Pernal Use On ~136~ www.brary.org Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [८], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृताङ्गं शीलाका- चायचियुतं ॥६३॥ SO90393929 बहुजननमनो धर्म इति स्थितं, तसिंश्च 'संवृतः समाहितः सन् 'नर' पुमान् 'साथै बाह्याभ्यन्तरर्धनधान्यकलत्रममखा-18| वैतालीदिभिः 'अनिश्रित:' अप्रतिबद्धः सन् धर्म प्रकाशितवानित्युत्तरेण सह सम्बन्धः, निदर्शनमाह--हद इव स्वच्छाम्भसा भृतः याध्य. सदा 'अनाविल:' अनेकमत्स्यादिजलचरसंक्रमेणाप्यनाकुलोकलुषो वा क्षान्त्यादिलक्षणं धर्म 'प्रादुरकार्षीत्' प्रकट कृतवान् , उद्देशः २ यदिवा एवंविशिष्ट एव काश्यपं-तीर्थङ्करसंवन्धिनं धर्म प्रकाशयेत्, छान्दसखात् वर्तमाने भूतनिर्देश इति ॥ ७॥ स पहुजननमने धर्मे व्यवस्थितो याक धर्म प्रकाशयति तदर्शयितुमाह-यदिवोपदेशान्तरमेवाधिकत्याह-'बहवे'इत्यादि, 'बहवः' अन-18| न्ताः'प्राणा:दशविधप्राणभाक्लात्तदभेदोपचारात् प्राणिनः 'पृथर' इति पृथिव्यादिभेदेन सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्सनरकगत्या-18| दिभेदेन वा संसारमाथिताः तेषां च पृथगाश्रितानामपि प्रत्येकं समता-दुःखद्वेषिसं सुखप्रियवं च 'समीक्ष्य' दृष्ट्वा, यदिवा-'समतां' माध्यस्थ्यमुपेक्ष्य(त्य) यो 'मीनीन्द्रपदमुपस्थितः संयममाश्रितः स साधुः 'तन्त्र' अनेकभेदभिमप्राणिगणे दुःख|द्विपि मुखाभिलाषिणि सति तदुपघाते कर्तव्ये विरतिम् अकार्षीत कुर्याद्वेति, पापाडीनः-पापानुष्ठानात् दवीयान् पण्डित इति || ॥८॥ अपिचधम्मस्स य पारए मुणी, आरंभस्सय अंतए ठिए।सोयंतियणं ममाइणो, णो लब्भंति णियं परिग्गहं ९/87 इहलोगदुहावहं विऊ, परलोगे य दुहं दुहावह। विद्धंसणधम्ममेव तं, इति विजं कोऽगारमावसे ? ॥१०॥18॥ धर्मस्य-श्रुतचारित्रभेदभिन्नस्य पारं गच्छतीति पारगः-सिद्धान्तपारगामी सम्यक्चारित्रानुष्ठायी वेति, चारित्रमधिकृत्याह अनुक्रम [११८] ~137~ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [१०], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१०|| दीप अनुक्रम [१२०] Herereasaeasaereasacae000000 'आरम्भस्य' सावधानुष्ठानरूपस्य 'अन्ते' पर्यन्ते तदभावरूपे स्थितो मुनिर्भवति, ये पुननैवें भवन्ति ते अकृतधर्माः मरणे दुःखे वा समुत्थिते आत्मानं शोचन्ति, णमिति वाक्यालङ्कारे, यदिवेष्टमरणादौ अर्थनाशे वा 'ममाइणोति ममेदमहमस्य खामी-|| त्येवमध्यवसायिनः शोचन्ति, शोचमाना अप्येते 'निजम्' आत्मीयं परि-समन्तात् गृह्यते-आत्मसाफियत इति परिग्रहः-हिर| ण्यादिरिष्टस्वजनादिर्वा तं नष्टं मृतं वा 'न लभन्ते' न प्रामुवन्तीति, यदिवा धर्मख पारगं मुनिमारम्भस्यान्ते व्यवस्थितमेनमा| गत्य 'खजनाः' मातापित्रादयः शोचन्ति 'ममत्वयुक्ताः स्नेहालवः, न च ते लभन्ते निजमध्यात्मीयपरिग्रहबुद्ध्या गृहीतमिति, ॥९॥ अत्रान्तरे 'नागार्जुनीयास्तु' पठन्ति "सोऊण तयं उवडियं, केइ गिही बिग्घेण उहिया। धम्ममि अणुत्तरे मुणी, तंपि जिणिज्ज इमेण पंडिए ॥१॥" एतदेवाह-इह' अस्मिन्नेव लोके हिरण्यस्खजनादिकं दुःखमावहति 'विउत्ति विद्याः|जानीहि, तथाहि-'अर्थानामर्जने दुःखमर्जितानां च रक्षणे आये दुःखं व्यये दुःखं, धिगर्थं दुःखभाजनम् ॥१॥ तथाहि'रेवापयः किसलयानि च सल्लकीना, विन्ध्योपकण्ठविपिनं स्वकुलं च हिला । किं ताम्यसि द्विप! गतोऽसि वशं करिण्याः, स्नेहो 8 निवन्धनमनर्थपरम्परायाः॥१॥' परलोके च हिरण्यस्वजनादिममखापादितकर्मजं दुःखं भवति, तदप्यपरं दुःखमावहति, तदु-18 पादानकर्मोपादानादिति भावः, तथैतदुपार्जितमपि 'विध्वंसनधर्म विशरारुखभावं, गबरमित्यर्थः, इत्येवं 'विद्वान्' जानन् का सकर्णः 'अगारवास' गृहवासमावसेत् १, गृहपाशं वाऽनुबनीयादिति, उक्तं च-"दाराः परिभवकारा बन्धुजनो बन्धनं ५ ॥ विष विषयाः । कोऽयं जनस मोहो? ये रिपरस्तेषु सुहृदाशा ॥१॥"१०॥ पुनरप्युपदेशमधिकृत्याह १ त्रिपदबहुव्रीहिरत्र, अनसमासान्तथ द्विपदादेन । २ श्रुला तमुपस्थित केचिद्गृहिणो विमायोत्तिलेयुः । धर्मेऽनुसरे मुनिस्तानपि जयेवनेन पन्धितः ।। eceivececececenecticerseseats ~138~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [११], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११|| सूत्रकृताङ्ग शीलाका- चायत्तियुतं महयं पलिगोव जाणिया, जावि य वंदणपूयणा इहं। सुहमे सल्ले दुरुद्धरे, विउमंता पयहिज संथवं ॥ ११॥18|२ वैतालीएगे चरे(र) ठाणमासणे, सयणे एगे(ग)समाहिए सिया। भिक्खू उवहाणवीरिए,वइगुत्ते अज्झत्तसंवुडो१२|| याध्य 'महान्तं' संसारिणां दुस्त्यजखान्महता वा संरम्भेण परिगोपर्ण परिगोपः द्रव्यतः पङ्कादि: भावतोऽभिष्वङ्गः तं 'ज्ञात्वा | उद्देशः २ खरूपतः तद्विपाकतो वा परिच्छिद्य याऽपि च प्रव्रजितस्य सतो राजादिभिः कायादिभिर्वन्दना वखपात्रादिभिश्व पूजना तां 8 च 'इह' अस्मिन् लोके मौनीन्द्रे वा शासने व्यवस्थितेन कर्मोपशमजं फलमित्येवं परिज्ञायोत्सेको न विधेयः, किमिति', यतो|8| गर्वात्मकमेतत्सूक्ष्मं शल्यं वर्तते, मूक्ष्मताच 'दुरुद्धर' दुःखेनोद्धर्तुं शक्यते, अतः 'विद्वान् सदसद्विवेकज्ञस्तंचावत् 'संस्तव परिचयमभिष्वङ्गं परिजह्यात्' परित्यजेदिति । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-"पलिमंथ महं वियाणिया, जाविय बंदणपूयणा | इहं । सुहुमं सल्लं दुरुद्धर, तंपि जिणे एएण पंडिए ॥१॥" अस्य चायमर्थः साधोः खाध्यायध्यानपरस्सैकान्तनिःस्पृहस्स। | योऽपि चार्य परैः वन्दनापूजनादिकः सत्कारः क्रियते असावपि सदनुष्ठानस्य सद्तेर्वा महान् पलिमन्धो-विमः, आस्तां ताव| च्छन्दादिबभिष्वङ्गः, तमित्येवं परिज्ञाय तथा सूक्ष्मशल्यं दुरुद्धरं च अतस्तमपि 'जयेद्' अपनयेत् पण्डितः 'एतेन' वक्ष्यमाणे| नेति ॥ ११ ॥ 'एकः' असहायो ग्यत एकैल्लविहारी भावतो रागद्वेषरहितवरेत् , तथा 'स्थान' कायोत्सगोंदिकम् एक एव | १ ॥६४॥ दीप अनुक्रम [१२१] i १ आतां तावत् प्रतं तावत् प्र० । २ पलिमन्य (वि) महान्तं विज्ञाय याऽपिच बन्दनापूजनेह । सूक्ष्म पाल्यं दुरुधरं, वदपि गयेदेतेन पंडितः ॥1॥ प्राकृते खार्थे प्रत्ययागमे एका इति जावे प्रसिद्धत्वादनुकरणमेतत् । ~139~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [१२], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| कुर्यात् , तथा आसनेऽपि व्यवस्थितोऽपि रागद्वेपरहित एव तिष्ठेत् , एवं शयनेऽप्येकाक्येव 'समाहितः धर्मादिध्यानयुक्तः |'स्यात्' भवेत् , एतदुक्तं भवति-सर्वास्वप्यवस्खासु चरणस्थानासनशयनरूपासु रागद्वेषविरहात समाहित एव स्वादिति, तथा ॥ | भिक्षणशीलो भिक्षुः उपधान-तपस्तत्र वीर्य यस्य स उपधानवीर्यः-तपस्यनिहितबलवीर्य इत्यर्थः, तथा 'वारगुप्तः। |सुपर्यालोचिताभिधायी 'अध्यात्म' मनः तेन संवृतो भिक्षुभवेदिति ॥ १२॥ किश्चणो पीहेण यावपंगुणे, दारं सुन्नघरस्स संजए। पुटे ण उदाहरे वयं, ण समुच्छे णो संथरे तणं ॥१३॥ जत्थऽत्थमिए अणाउले, समविसमाई मुणीऽहियासए । चरगा अदुवावि भेरवा, अदुवा तत्थ सरीसिवा सिया ॥ १४ ॥ KR केनचिच्छयनादिनिमित्वेन शून्यगृहमाश्रितो भिक्षुः तस्य गृहस्व द्वारं कपाटादिनान स्थगयेनापि तथालयेत् , यावत् 'न याव-18 पंगुणे ति नोद्घाटयेत् , तत्रस्थोऽन्यत्र वा केनचिद्धर्मादिक मार्ग वा पृष्टः सन् सावद्यां वाचं 'नोदाहरेत्' न घूयात, आभि| ग्रहिको जिनकल्पिकादिनिरवद्यामपि न घूयात , तथा 'न समुच्छिन्द्यात्' तृणानि कनवरं च प्रमार्जनेन नापनयेत, नापि शय|नार्थी कश्चिदाभिग्राहिक: 'तृणादिकं संस्तरेत्' तृणैरपि संस्तारकं न कुर्यात् , किं पुनः कम्बलादिना?, अन्यो वा शुपिरतणं न | संस्तरेदिति ॥ १३ ॥ तथा भिक्षुर्यत्रैवास्तमुपैति सविता तत्रैव कायोत्सर्गादिना तिष्ठतीति यत्रास्तमितः, तथानाकुलः समुद्रव प्राकनोऽपिः शयनादिसमुच्चयाय अयं तूलस्थानादिसमुच्चयाय । 020 నాంది दीप अनुक्रम [१२२] ~140~ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [१४], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१४|| दीप सूत्रकृता अक्रादिभिः परीपहोपसर्गरक्षुभ्यन् 'समविषमाणि' शयनासनादीन्यनुकूलप्रतिकूलानि 'मुनिः यथावस्थितसंसारखभाववेत्ता। रवैतालीशीलाका- | सम्यग्-अरक्तद्विष्टतयाधिसहेत, तत्र च शून्यगृहादौ व्यवस्थितस्य तख चरन्तीति चरका-दंशमशकादयः अथवापि 'भैरवा याध्य चार्याय-1 भयानका-रक्षःशिवादयः अथवा तत्र सरीसृपाः 'स्युः भवेयुः, तत्कृतांश्च परीपहान् सम्यक् अधिषहेतेति ।। १४॥ साम्प्रतं उद्देशः २ चियुतं । त्रिविधोपसर्गाधिसहनमधिकृत्याह॥६५॥ तिरिया मणुया य दिवगा, उबसग्गा तिविहाऽहियासिया। लोमादीयं ण हारिसे, सुन्नागारगओ महामुणी । 1णो अभिकंखेज जीवियं,नोऽविय पूयणपत्थए सिया। अब्भत्थमुर्विति भेरवा,सुन्नागारगयस्स भिक्खुणो| 8 तैरवा' सिंहव्याघ्रादिकृताः तथा 'मानुषा' अनुकूलप्रतिकूलाः सत्कारपुरस्कारदण्डकशाताडनादिजनिताः, तथा 'दिब्व18 गाइति व्यन्तरादिना हास्यप्रद्वेषादिजनिताः, एवं त्रिविधानप्युपसर्गान् 'अधिसहेत' नोपसगैर्विकारं गच्छेत् , तदेव दर्श-10 यति-'लोमादिकमपि न हर्षेत्' भयेन रोमोद्गममपि न कुर्यात् , यदिवा-एवमुपसर्गाखिविधा अपि 'अहियासिय'ति अधि-18 सोढा भवन्ति यदि रोमोगमादिकमपि न कुर्यात् , आदिग्रहणात् दृष्टिमुख विकारादिपरिग्रहः, शून्यागारगतः, शून्यगृहव्यवस्थि-1%8 तस्य चोपलक्षणार्थत्वात् पितृवनादिस्थितो वा 'महामुनिः जिनकल्पिकादिरिति ।। १५ ।। किञ्च-स तैभैरवैरुपसगैरुदीणस्तो- ॥६५॥ तुद्यमानोऽपि जीवितं न अभिकाझेन, जीवितनिरपेक्षेणोपसर्गः सोढव्य इति भावः, न चोपसर्गसहनद्वारेण 'पूजाप्रार्थक:' प्रकर्षाभिलाषी 'स्यात्' भवेत् ,एवं च जीवितपूजानिरपेक्षेणासकृत् सम्यक सद्यमाणा भैरवा-भयानकाः शिवापिशाचादयोऽभ्यस्तभावं-10 अनुक्रम [१२४] ~1414 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [१६], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 929092800 प्रत सूत्रांक ||१६|| | खात्मता उप---सामीप्येन यान्ति-गच्छन्ति, तत्सहनाच भिक्षोः शून्यागारगतस्य नीराजितवारणस्येव शीतोष्णादिजनिता उप-IN IS सर्गाः सुसहा एव भवन्तीति भावः ॥ १६॥ पुनरप्युपदेशान्तरमाहNउवणीयतरस्स ताइणो, भयमाणस्स विविक्कमासणं। सामाइयमाहु तस्स जं, जो अप्पाण भएण दसए॥ उसिणोदगतत्तभोइणो,धम्मट्ठियस्स मुणिस्सहीमतो। संसग्गि असाहुराइहिं,असमाहीउ तहागयस्सवि उप-सामीप्येन नीतः-प्रापितो ज्ञानादावात्मा येन स तथा अतिशयेनोपनीत उपनीततरस्तस्य, तथा 'तापिन:' परात्मो-|| पकारिणः त्रायिणो वा- सम्यक्पालकस्य, तथा 'भजमानस्य' सेवमानस्य 'विविक्तं' खीपशुपण्डकविवर्जितम् आस्यते-स्थी। यते यस्मिमिति तदासन-वसत्यादि, तस्वम्भूतस्य मुनेः 'सामायिक' समभावरूपं सामायिकादिचारित्रमाहुः सर्वज्ञाः, 'यदू'। यस्मात् ततवारित्रिणा प्राग्व्यवस्थितखभावेन भाव्य, यश्चात्मानं 'भये' परिषहोपसर्गजनिते'न दर्शयेत्' तदीने भवेत् तस्य 8 सामायिकमाहुरिति सम्बन्धनीयं ।। १७ ॥ किञ्च-मुनेः 'उष्णोदकतप्तभोजिनः' त्रिदण्डोत्तोष्णोदकभोजिनः, यदिवा-- उष्णं सन्न शीतीकुर्यादिति तप्तग्रहणं,तथा श्रुतचारित्राख्ये धर्मे स्थितस्य 'हीमतोति ही:-असंयम प्रति लज्जा तद्वतोऽसंयमजुगुप्सावत इत्यर्थः, तस्यैवम्भूतस्य मुने राजादिभिः सार्द्ध यः 'संसर्गः' सम्बन्धोऽसावसाधुः अनर्थोदयहेतुखात् 'तथागनस्यापि यथोक्तानुष्ठायिनोऽपि राजादिसंसर्गवशाद् 'असमाधिरेव' अपध्यानमेव स्यात् , न कदाचित् खाध्यायादिकं भवेदिति ॥१८॥ परिहार्यदोषप्रदर्शनेन अधुनोपदेशाभिधित्सयाऽऽह दीप esesereeseseseaeseseedeeoceaeser अनुक्रम [१२६]] ~1424 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [१८], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक चा-यत् ||१८|| दीप सूत्रकृताङ्ग अहिगरणकडस्स भिक्खुणो, वयमाणस्स पसज्झ दारुणं । अट्रे परिहायतीबह, अहिगरणं न करेज पंडिए वैतालीशीलासा याध्य० सीओदर्ग पडि दुगुछिणो, अपडिण्णस्स लवावसैप्पिणो। उद्देशः २ चियुतं सामाइयमाहु तस्स जं, जो गिहिमत्तेऽसणं न भुंजती ॥ २०॥ 18 अधिकरणं-कलहस्तत्करोति तच्छीलश्चेत्यधिकरणकरः तस्यैवम्भूतस्य भिक्षोः तथाधिकरणकरी दारुणां वा भयानका वा 'प्रसह्य प्रकटमेव वाचं मुवतः सतः 'अर्थो मोक्षः तत्कारणभूतो वा संयमः स बहु 'परिहीयते' ध्वंसमुपयाति, इदमुक्त भवति-बहुना कालेन यदर्जितं विप्रकृष्टेन तपसा महत्पुण्यं तत्कलहं कुर्वतः परोपघातिनी च वाचं अवतः तत्क्षणमेव ध्वंसमुपयाति, तथाहि-जं अजियं समीखल्लयहिं तवनियमबभमइएहिं । मा हु तयं कलहंता छडेअह सागपत्तेहिं ॥१॥ इत्येवं मला मनागप्यधिकरणं न कुर्यात् 'पण्डितः' सदसद्विवेकीति ।।१९।। तथा शीतोदकम् -अप्रासुकोदकं तत्प्रति जुगुप्सकस्यापासुको| दकपरिहारिणः साधोः न विद्यते प्रतिज्ञा-निदानरूपा यस्य सोअतिज्ञोऽनिदान इत्यर्थः,लवं-कर्म तसात् अवसप्पिणोत्ति||अवसर्पिणः यदनुष्ठानं कर्मबन्धोपादानभूतं तत्परिहारिण इत्यर्थः, तस्यैवम्भूतस्य साधोर्यसाद यत् 'सामायिक' समभावलक्षण ॥६६॥ |माहुः सर्वज्ञाः, यश्च साधुः 'गृहमात्रे' गृहखभाजने कांस्यपात्रादौ न भुते तस्य च सामायिकमाहुरिति संबन्धनीयमिति ॥२०॥8॥ || किश्व-- नीओदपछि । २ सुकि । ३ यदर्जित कष्टैः (समीपप्रैः) तपोनियमनाचर्यमयैः । मा तत् कल दयन्तः स्याट शाकपत्रैः ॥१॥ अनुक्रम [१२८] seekeeserotice.. ~1434 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [२१], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२१|| शणय संखयमाहु जीवियं,तहविय बालजणो पगब्भहाबाले पापेहिं मिजती, इति संखाय मुणी ण मज्जती ॥ छंदेण पले इमा पया, बहुमाया मोहेण पाउडा। वियडेण पलिंति माहणे, सीउपहं वयसाऽहियासए ॥२२॥1॥ 'न च' नैव 'जीवितम्' आयुष्कं कालपर्यायेण त्रुटितं सत् पुनः 'संखय'मिति संस्कर्तुं तन्तुवत्संधातुं शक्यते इत्ये2वमाहुस्तद्विदः, तथाऽपि एवमपि ग्यवस्थिते 'बाल' अज्ञो जनः 'प्रगल्भते' पापं कुर्वन् पृष्टो भवति, असदनुष्ठानरतोऽपि न लजत इति, स चैवम्भूतो बालस्तैरसदनुष्ठानापादितैः 'पापैः कर्मभिः 'मीयते' तयुक्त इत्येवं परिच्छिद्यते, भ्रियते वा मेयेन धान्यादिना प्रस्थकवदिति, एवं 'संख्याय' ज्ञाखा 'मुनिः' यथावस्थितपदार्थानां वेत्ता 'न माद्यतीति' तेवसदनुष्ठानेष्वहं । | शोभनः कर्तेत्येवं प्रगल्भमानो मदं न करोति ॥२१॥ उपदेशान्तरमाह-'छन्दः' अभिप्रायस्तेन तेन खकीयाभिप्रायेण कुगतिग| मनैकहेतुना 'इमाः प्रजाः' अयं लोकस्तासु गतिषु प्रलीयते, तथाहि-छागादिवधमपि स्वाभिप्रायग्रहग्रस्ता धर्मसाधनमित्येवं || प्रगल्भमाना विद्धति, अन्ये तु संघादिकमुद्दिश्य दासीदासधनधान्यादिपरिग्रहं कुर्वन्ति, तथाऽन्ये मायाप्रधानः कुफुटैरसकृदु| स्प्रोक्षणश्रोत्रसर्शनादिभिर्मुग्धजनं प्रतारयन्ति, तथाहि-'कुकुटसाध्यो लोको नाकुफुटतः प्रवर्तते किश्चित् । तस्माल्लोकस्यार्थे | पितरमपि सकुकुटं कुर्यात् ।।१।। तथेयं प्रजा 'बहुमाया' कपटप्रधाना, किमिति ?-यतो मोहः-अज्ञानं तेन 'प्रावृता' आच्छा-1|| 18|| दिता सदसद्विवेकविकलेत्यर्थः, तदेतदवगम्य 'माहणे'चि साधुः 'विकटेन' प्रकटेनामायेन कर्मणा मोक्षे संयमे या प्रकर्षेण 181 १ वस्तादीनि प्रा । ३ कुरकः इति प्रा दीप अनुक्रम [१३१] सूक्षक, १२ ~1444 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [२२], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप सूत्रकृताङ्गलीयते-प्रलीयते, शोभनमावयुक्तो भवतीति भावः, तथा शीतं च उष्णं च शीतोष्णं शीतोष्णा वा-अनुकूलप्रतिकूलपरीषहा- २ बैतालीशीलाका- || स्तान् वाचा कायेन मनसा च करणत्रयेणापि सम्यगधिसहेत इति ॥ २२ ॥ अपिच याध्य चायीय उद्देशः २ त्तियत 18| कुजए अपराजिए जहा, अक्खेहि कुसलेहिं दीवयं। कडमेव गहाय णो कलिं,नो तीयं नोचेव दावरं ॥२३॥181 ॥६॥ एवं लोगंमि ताइणा, बुइए जे धम्मे अणुत्तरे। तं गिह हियंति उत्तम, कडमिव सेसऽवहाय पंडिए ॥२४॥ कुत्सितो जयोऽस्येति कुजयो-घूतकार!, महतोऽपि द्यूतजयस्य सद्भिनिन्दितवादनर्थहेतुखाञ्च कुत्सितखमिति, तमेव विशिनष्टि-18 अपराजितो दीव्यन् कुशलखादन्येन न जीयते अक्षैः वा-पाशकैः दीव्यन्-क्रीडंस्तत्पातज्ञः कुशलो-निपुणः, यथा असो | यूतकारोक्षः-पाशकैः कपर्दकैर्वा रममाणः 'कडमेचति चतुष्कमेव गृहीला तल्लब्धजयत्वात् तेनैव दीव्यति, ततोऽसौ तल्लब्धजयः सन्न 'कलिं' एक नापि 'त' त्रिकं च नापि 'बापरं द्विकं गृहातीति ।। २३ ।। दार्शन्तिकमाह-यथा यूतकार प्राप्तजय-18 खात सर्वोत्तम दीव्यश्चतुष्कमेव गृह्णाति एवमसिन् 'लोके मनुष्यलोके तायिना त्रायिणा वा-सर्वशनोक्तो योऽयं 'धर्म' क्षान्त्यादिलक्षणः श्रुतचारित्राख्यो वा नास्योत्तर:-अधिकोऽस्तीत्यनुत्तरः तमेकान्तहितमितिकसा सर्वोत्तमं च 'गृहाण विस्रोतसिकारहितः खीकुरु, पुनरपि निगमनार्थ तमेव दृष्टान्तं दर्शयति-यथा कश्चित् द्यूतकारः 'कृतं' कृतयुगं चतुष्कमित्यर्थः ॥६७॥ 'शेषम् एककादि 'अपहाय'त्यक्ता दीव्यन् गृह्णाति, एवं पण्डितोऽपि–साधुरपि शेष-गृहस्थकृप्रावचनिकपार्श्वस्थादिभावमपहाय सम्पूर्ण महान्तं सर्वोत्तम धर्म गृह्णीयादिति भावः ॥ २४ ॥ पुनरप्युपदेशान्तरमाह अनुक्रम [१३२] ~145 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [२५], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 899 प्रत सूत्रांक ||२५|| उत्तर मणुयाण आहिया, गामधम्मा(म्म)इइ मे अणुस्सुयं । जंसी विरता समुडिया, कासवस्स अणुधम्मचारिणो ॥ २५ ॥ बजे एय चरंति आहियं, नाएणं महया महेसिणा। ते उट्ठिय ते समुट्ठिया, अन्नोन्नं सारंति धम्मओ ॥ २६ ॥ उत्तरा:-प्रधानाः दुर्जयसात् , केषाम् ?-उपदेशाहबान्मनुष्याणाम् अन्यथा सर्वेषामेवेति, के ते?-'ग्रामधर्माः' शब्दादिविषया 18 मैथुनरूपा वेति, एवं ग्रामधर्मा उत्तरलेन सर्व राख्याताः, मयैतदनु-पश्चाच्छ्रतं, एतच्च सर्वमेव प्रागुक्तं यच्च वक्ष्यमाणं तन्ना मेयेनाऽदितीर्थकता पुत्रानुदिश्याभिहितं सत् पाश्चात्यगणधराः सुधर्मस्वामिप्रभृतयः वशिष्येभ्यः प्रतिपादयन्ति अती मयैतदSIनुश्रुतमित्यनवचं, यस्मिन्निति-कर्मणि स्यब्लोपे पञ्चमी सप्तमी वेति यान् प्रामधर्मानाश्रित्य ये घिरता, पंचम्यर्थे वा सप्तमी, येभ्यो वा विरताः सम्यक्संयमरूपेणोस्थिताः समुत्थितास्ते 'काश्यपस्य' ऋषभस्वामिनो वर्धमानस्वामिनो वा सम्बन्धी यो धर्मस्तदनुचारिणः, तीर्थकरप्रणीतधर्मानुष्ठायिनो भवन्तीत्यर्थः ।। २५॥ किच-ये मनुष्या 'एन' प्रागुक्तं धर्म ग्रामधर्मविरतिलक्षणं 'चरन्ति' कुर्वन्ति आख्यातं 'ज्ञातेन' शातपुत्रेण 'महये ति महाविषयस्य ज्ञानवानन्यभूतखात् महान् तेन, तथाऽनुकुलप्रतिकूलोपसर्गसहिष्णुतात् 'महर्षिणा' श्रीमद्वर्धमानस्वामिना आख्यातं धर्म ये चरन्ति ते एव संयमोत्थानेन-कुतीर्थिकपरिहारेणोत्थिताः तथा निङवादिपरिहारेण त एव सम्यक-कुमार्गदेशनापरित्यागेन उत्थिताः समुत्थिता इति, नान्ये कुप्राव१ सम्यक्त्वमावेशनापरि प्रा दीप अनुक्रम [१३५] Greeserseasoense SARERauninternational Tuestirary.com ~146~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२६|| दीप अनुक्रम [१३६ ] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [२], मूलं [२६], निर्युक्तिः [४४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र - [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचार्ययवृ चियुतं ॥ ६८ ॥ चनिका जमालिप्रभृतयश्चेति भावः, त एव च यथोक्तधर्मानुष्ठायिनः 'अन्योऽन्यं' परस्परं 'धर्मतो' धर्ममाश्रित्य धर्मतो वा | अश्यन्तं 'सारयन्ति' चोदयन्ति - पुनरपि सद्धर्मे प्रवर्तयन्तीति ।। २६ ।। किच- मा पेह पुरा पणामए, अभिकंखे उबहिं धुणित्तए । जे दूमण तेहिं णो णया, ते जाणंति समाहिमाहियं॥२७॥ णो काहिऍ होज संजए, पासणिए ण य संपसारए । नच्चा धम्मं अणुत्तरं, कयकिरिए णयावि मामए ॥ २८ ॥ दुर्गतिं संसारं वा प्रणामयन्ति – प्रदीकुर्वन्ति प्राणिनां प्रणामकाः - शब्दादयो विषयास्तान् 'पुरा' पूर्व भुक्तान् 'मा प्रेक्षख' मा स्मर, तेषां सरणमपि यसान्महतेऽनर्थाय अनागतांत्र नोदीक्षेत नाऽऽकादिति, तथा 'अभिकाङ्गेत्' अभिलषेद् अनारतं चिन्तयेदनुरूपमनुष्ठानं कुर्यात्, किमर्थमिति दर्शयति — उपधीयते - ढोक्यते दुर्गतिं प्रत्यात्मा येनासावुपधिः – माया अष्टप्रकारं वा कर्म तद् 'हननाय' अपनयनायाभिकाङ्क्षदिति सम्बन्धः, दुष्टधर्म प्रत्युपनताः कुमार्गानुष्ठायिनस्तीर्थिकाः, यदिवा- 'दूमण'चि | दुष्टमनःकारिण उपतापकारिणो वा शब्दादयो विषयास्तेषु ये महासत्त्वाः 'ननता' न प्रदीभूताः तदाचारानुष्ठायिनो न भवन्ति 'ते' सन्मार्गानुष्ठायिनो 'जानन्ति' विदन्ति 'समाधि' रागद्वेषपरित्यागरूपं धर्मध्यानं च 'आहितम्' आत्मनि व्यवस्थितम्, आ - समन्ताद्धितं वा त एव जानन्ति नान्य इति भावः ॥ २७ ॥ तथा 'संयतः प्रव्रजितः कथया चरति काधिकः गोचरादौ न भवेत्, यदिवा - विरुद्धां पैशून्यापादनीं ख्यादिकथां वा न कुर्यात्, तथा 'प्रश्नेन' राजादिकिंवृचरूपेण दर्पणादिप्रश्ननिमि For Parts Only ~ 147~ २ नैवाली याध्य० उद्देशः २ ॥ ६८ ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [२८], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 23erseeee प्रत सूत्रांक ||२८|| तरूपेण वा चरतीति प्राश्निको न भवेत् , नापिच 'संप्रसारक' देववृष्ट्यर्थकाण्डादिसूचककथाविस्तारको भवेदिति, किं कवेति दर्शयति-'ज्ञात्वा' अवबुद्ध्य नास्योत्तरो विद्यत इत्यनुत्तरस्तं श्रुतचारित्राख्यं धर्म सम्यग् अवगम्य, तस्य हि धर्मस्यैतदेव फलं | यदुत-विकथानिमित्तपरिहारेण सम्यक्रियावान खादिति, तदर्शयति-कृता-खभ्यस्ता क्रिया-संयमानुष्ठानरूपा येन स कतक्रियस्तथाभूतच नचापि 'मामको' ममेदमहमस्य खामीत्येवं परिग्रहाग्रही भवेदिति ॥ २८ ॥ किश्चछन्नं च पसंसणो करे,नय उकोस पगास माहणे।तेसिं सुविवेगमाहिए, पणया जेहिं सुजोसिअंधुयं॥२९॥ ॥४॥ अणिहे सहिए सुसंवुडे, धम्मट्टी उवहाणवीरिए।विहरेज समाहिइंदिए,अत्तहिअं खुदुहेण लगभइ॥३०॥18 'छन्नति माया तखाः खाभिप्रायाच्छादनरूपसात तां न कुर्यात्, चशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चयार्थः, तथा प्रशस्यते सर्वैर-18 प्पविगानेनाद्रियत इति प्रशसो-लोभस्तं च न कुर्यात् , तथा जात्यादिभिर्मदस्थानले घुप्रकृति पुरुषमुत्कर्षयतीत्युकर्षको-मानस्तमपि न कुर्यादिति सम्बन्धः, तथाऽन्तर्व्यवस्थितोऽपि मुख दृष्टिभूभाविकारैः प्रकाशीभवतीति प्रकाश:-क्रोधस्तं च 'माहणे |ति साधुन कुर्यात् , 'तेषां' कषायाणां यैर्महात्मभिः 'विवेक' परित्यागः 'आहितो' जनितस्त एव धर्म प्रति प्रणता इति, यदिवा-तेषामेव सत्पुरुषाणां सुष्टु विवेकः परिज्ञानरूप आहितः-प्रथितः प्रसिद्धिं गतः त एव च धर्म प्रति प्रणताः 'यैः' महा॥ सत्वैः सुष्टु 'जुष्टं' सेवितं धूयतेऽष्टप्रकारं कर्म तद्भूतं-संयमानुष्ठान, यदिवा-यैः सदनुष्ठायिभिः 'सुजोसिति सुष्टु क्षिप्त दीप अनुक्रम [१३८] M anmarary.com ~148~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [३०], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३०|| दीप अनुक्रम [१४०] सूत्रकृताङ्गंधूननाईखात् 'धूत' कर्मेति ॥ २९ ॥ अपि च-नियत इति स्त्रिहः न सिहः अस्निहः-सर्वत्र ममखरहित इत्यर्थः, यदिवा:--18 वैतालीशीलाका- परीषहोपसगैनिहन्यते इति निहः न निहोऽनिहा-उपसर्गेरपराजित इत्यर्थः, पाठान्तरं वा 'अणहे'ति नास्साघमस्तीत्यनघो, याध्य. चार्यांय- निरवद्यानुष्ठायीत्यर्थः, सह हितेन वर्तत इति सहितः सहितो-युक्तो वा ज्ञानादिभिः, स्वहितः आत्महितो वा सदनुष्ठानप्रवृत्तेः, उद्देशः २ त्तियुत तामेव दर्शयति-मुष्ठ 'संवृत' इन्द्रियनोइन्द्रियैर्विस्रोतसिकारहित इत्यर्थः, तथा धर्म:-श्रुतचारित्राख्यः तेनार्थ:-प्रयोजन स ॥ ६९॥ एव वाऽर्थः तवैव सनिर्यमाणलाव धर्मार्थः स यस्सास्तीति स धर्मार्थी तथा उपधान-तपस्तत्र वीर्यवान् स एवम्भूतो 'विहरेत् 18 संयमानुष्ठानं कुर्यात् 'समाहितेन्द्रियः' संयतेन्द्रियः, कुत एवं ?-यत आत्महितं दुःखेनामुमता संसारे पर्यटता अकृतधर्मानु-18 टानेन 'लभ्यते' अवाप्यत इति, तथाहि "न पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसि-1 तप्रतिमम् ॥ १॥" तथाहि-युगसमिलादिदृष्टान्तनीत्या मनुष्यभव एव तावत् दुर्लभः, तत्राप्यायेक्षेत्रादिकं दुरापमिति, अत 18 आत्महित दुःखेनावाप्यत इति मन्तव्यम् , अपिच-भूतेषु जङ्गमलं तस्मिन् पश्चेन्द्रियसमुत्कृष्टम् । तसादपि मानुष्यं मानुष्ये- 10 प्यार्यदेशव ॥१॥ देशे कुलं प्रधान कुले प्रधाने च जातिरुत्कृष्टा । जातौ रूपसमृद्धी रूपे च बलं विशिष्टतमम् ॥ २॥ भवति ||81 बले चायुष्कं प्रकृष्टमायुष्कतोऽपि विज्ञानम् । विज्ञाने सम्यक्त्रं सम्पक्खे शीलसंप्राप्तिः, ॥३॥ एतत्पूर्वश्रायं समासतो मोक्षसाध-18|| नोपायः । तत्र च बहु सम्प्राप्नं भवद्भिरल्पं च संप्राप्यम् ॥ ४॥ तत्कुरुतोयममधुना मदुक्तमार्गे समाधिमाधाय । त्यक्सा सङ्गम-1 ॥६९ ।। नार्य कार्य सद्धिः सदा श्रेयः ॥ ५॥ इति ॥ ३०॥ एतच्च प्राणिमिन कदाचिदवाप्तपूर्वमित्येतदर्शयितुमाह-- RI स तदर्थः प्रा। ~149~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||३१|| दीप अनुक्रम [१४१] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [२], मूलं [३१], निर्युक्तिः [४४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः Jain Education in हि णून पुरा अणुस्सुतं, अदुवा तं तह णो समुट्टियं । मुणिणा सामाइआहितं नाएणं जगसङ्घदंसिणा ॥ ३१ ॥ एवं मत्ता महंतरं, धम्ममिणं सहिया बहू जणा । गुरुण छंदाणुवत्ता, विरया तिन्न महोघमाहितं ||३२|| तिबेमि ॥ ( गाथाग्रम् १५२ ) यदेतत् 'मुनिना' जगतः सर्वभावदर्शिना ज्ञातपुत्रीयेण सामायिकादि 'आहितम्' आख्यातं, तत् 'नूनं' निचितं 'न हि' नैव 'पुरा' पूर्व जन्तुभिः 'अनुश्रुतं' श्रवणपथमायातं अथवा श्रुतमपि तत्सामायिकादि यथा अवस्थितं तथा नानुष्ठितं, पाठान्तरं वा 'अवितह 'न्ति अवितथं यथावनानुष्ठितमतः कारणादुसुमतामात्महितं सुदुर्लभमिति ॥ ३१ ॥ पुनरप्युपदेशान्तरमधिकृत्याह'एवम्' उक्तरीत्याऽऽत्महितं सुदुर्लभं 'मत्वा' ज्ञाला धर्माणां च महदन्तरं धर्मविशेषं कर्मणो वा विवरं ज्ञाखा, यदिवा 'महं| तरं'ति मनुष्यार्यक्षेत्रादिकमवसरं सदनुष्ठानस्य ज्ञाला 'एन' जैनं 'धर्म' श्रुतचारित्रात्मक, सह हितेन वर्तन्त इति सहिताज्ञानादियुक्ता बहवो जना लघुकर्माणः समाश्रिताः सन्तो 'गुरो:' आचार्यादेस्तीर्थङ्करस्य वा 'छन्दानुवर्त्तकाः' तदुक्तमार्गानु १ पा० अहुवाऽवित जो अणुहि । For Park Use Only ~150~ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [३२], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: छायिनो 'विरताः' पापेभ्यः कर्मभ्यः सन्तस्तीर्णा महौधम्' अपार संसारसागरमेवमाख्यातं मया भवतामपरैश्च वीर्थकृद्भिरन्ये- पाम् , इतिशब्दः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ३२ ॥ वैतालीयस्य द्वितीयोद्देशकः समाप्तः॥२॥ प्रत २ वैतालीयाध्य० उद्देशः ३ सूत्रांक शीलाका- चार्षीयचियुतं ॥७ ॥ ||३२|| ॥ अथ वैतालीयाध्ययनस्य तृतीयोद्देशकस्य प्रारम्भः ॥ दीप अनुक्रम [१४२] Poecence उक्तो द्वितीयोदेशकः, साम्प्रतं तृतीयः समारभ्यते अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोदेशकान्ते विरता इत्युक्तं, तेषां च कदाचित्परीपहाः समुदीर्येरचतस्तत्सहन विधेयमिति, उद्देशार्थाधिकारोऽपि नियुक्तिकारेणाभिहितः यथाऽज्ञानोपचितख कर्म-18 णोऽपचयो भवतीति, स च परीषहसहनादेवेत्यतः परीषहाः सोढच्या इत्यनेन संवन्धेनाऽऽयातस्यास्योद्देशकस्याऽऽदि सूत्रसंवुडकम्मस्स भिक्खुणो, जं दुक्खं पुटुं अबोहिए।तं संजमओऽवचिजई, मरणं हेच्च वयंति पंडिया ॥१॥18॥७॥ जे विन्नवणाहिऽजोसिया, संतिन्नेहिं समं वियाहिया।तम्हा उद्दति पासहो, अदक्खु कामाइ रोगवं ॥२॥ १ज तिरिय अहे तहा इति पा. REaratimlilona अत्र द्वितीय-अध्ययनस्य तृतीय उद्देशकस्य आरम्भ: ~151~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [२], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| selesed दीप संवृतानि-निरुद्धानि कर्माणि-अनुष्ठानानि सम्यगुपयोगरूपाणि वा मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगरूपाणि वा 18| यस्य 'भिक्षो।' साधोः स तथा तस्स यत् 'दुःखम्' असद्वेचं तदुपादानभूत वाऽष्टप्रकार कर्म 'स्पृष्ट'मिति बद्धस्पृष्टनिकाचित-12 मित्यर्थः, तच्चात्र 'अबोधिना' अज्ञानेनोपचितं सत् 'संयमतों मौनीन्द्रोक्तात् सप्तदशरूपादनुष्ठानादू 'अपचीयते' प्रतिक्षणं क्षयमुपयाति, एतदुक्तं भवति-यथा तटाकोदरसंस्थितमुदकं निरुद्धापरप्रवेशद्वारं सदादित्यकरसम्पर्कात् प्रत्यहमपचीयते, एवं संवृताश्रवद्वारस्य भिक्षोरिन्द्रिययोगकषायं प्रति संलीनतया संवृतात्मनः सतः संयमानुष्ठानेन चानेकभवाज्ञानोपचितं कर्म क्षीयते, ये च संवृतात्मानः सदनुष्ठायिनश्च ते 'हित्वा' त्यक्ता 'मरणं' मरणस्वभावमुपलक्षणखात् जातिजरामरणशोकादिकं त्यक्ता मोक्षं ब्रजन्ति 'पण्डिताः' सदसद्विवेकिनः, यदिवा-'पण्डिताः सर्वज्ञा एवं वदन्ति यत् प्रागुक्तमिति ॥१॥ येऽपिच तेनैव | भवेन न मोक्षमाग्नुवन्ति तानधिकृत्याह-'ये' महासत्त्वाः कामार्थिभिर्विज्ञाप्यन्ते यास्तदर्थिन्यो वा कामिनं विज्ञापयन्ति ता विज्ञापनाः-खियस्ताभिः 'अजुष्टा' असेविताः क्षयं वा-अवसायलक्षणमतीतास्ते 'सन्तीण: मुक्तैः समं व्याख्याताः,18 अतीर्णा अपि सन्तो यतस्ते निष्किञ्चनतया शब्दादिषु विषयेष्वप्रतिबद्धाः संसारोदन्वतस्तटोपान्तवर्तिनो भवन्ति, तस्माद् 'ऊ-18 | ध्वमिति' मोक्षं योपितपरित्यागाद्वोय यद्भवति तत्पश्यत यूयं । ये च कामान् 'रोगवदू' व्याधिकल्पान् 'अद्राक्षुः दृष्टवन्तस्ते || संतीर्णसमा व्याख्याताः, तथा चोक्तम्-"पुफैफलाणं च रसं सुराइ मंसस्स महिलियाणं च । जाणता जे विरया ते दुफरकारए18 १ झोषोऽवसानम् । २ खटान्त० प्र०।३ पुषफलानां च रसं मुराया मांसस्य महेलानां च । जानन्तो ये विरतासान् दुष्करकारकान् बन्दै ॥१॥ अनुक्रम [१४४] ~152~ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||R|| दीप अनुक्रम [१४४] [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [२], निर्युक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का चाय तियुतं ॥ ७१ ॥ वंदे ॥ १ ॥ तृतीयपादस्य पाठान्तरं वा 'उहुं तिरियं अहे तहा' ऊर्ध्वमिति - सौधर्मादिषु, तिरियमिति तिर्यक्लोके, अध | इति-भवनपत्यादौ, ये कामास्तान् रोगवदद्राक्षुर्ये ते तीर्णकल्पा व्याख्याता इति ॥ २ ॥ पुनरप्युपदेशान्तरमधिकृत्याहअग्गं वणिएहिं आहियं, धारंती राईणिया इहं । एवं परमा महवया, अक्खाया उ सराइभोयणा ॥३॥ जे इह सायाणुगा नरा, अज्झोववन्नाकामेहिं मुच्छिया । praणेण समं पगभिया, न वि जाणंति समाहिमाहितं ॥ ४ ॥ 'अर्थ' वर्ष प्रधानं रत्नवस्त्राभरणादिकं तद्यथा वणिग्भिर्देशान्तराद् 'आहितं' ढौकितं राजानस्तत्कल्पा ईश्वरादयः 'इह' अस्मिन्मनुष्यलोके 'धारयन्ति' विनति, एवमेतान्यपि महाव्रतानि रत्नकल्पानि आचार्यैः 'आख्यातानि' प्रतिपादितानि नियोजितानि 'सरात्रिभोजनानि' रात्रिभोजनविरमणषष्ठानि साधवो विभ्रति, तुशब्दः पूर्वरत्वेभ्यो महाव्रतरत्नानां विशेषापादक | इति, इदमुक्तं भवति — यथा प्रधानरत्नानां राजान एव भाजनमेवं महाव्रतरलानामपि महासत्त्वा एव साधवो भाजनं नान्ये | इति ॥ ३ ॥ किश्च ये नरा लघुप्रकृतयः 'इह' अस्मिन् मनुष्यलोके सातं- सुखमनुगच्छन्तीति सातानुगाः – सुखशीला ऐहिकामुष्मिकापाय भीरवः समृद्धिरससाता गौरवेषु 'अध्युपपन्ना' गृद्धाः तथा 'कामेषु' इच्छामदनरूपेषु 'मूच्छिता' कामोत्कटतृष्णाः कृपणो- दीनो वराकक इन्द्रियैः पराजितस्तेन समाः तद्वत्कामासेवने 'प्रगल्भिता' धृष्टतां गताः, यदिवा - किमनेन Eucation International For Parts Only ~ 153~ २ वैतालीयाध्य० उद्देशः ३ ॥ ७१ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [४], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: cel प्रत सूत्रांक ||४|| INI स्तोकेन दोपेणासम्यक्प्रत्युपेक्षणादिरूपेणास्मसंयमस्य विराधनं भविष्यत्येवं प्रमादवन्तः कर्तव्येष्ववसीदन्तः समस्तमपि संयम IS पटवन्मणिकुहिमवद्वा मलिनीकुर्वन्ति, एवम्भूताच ते 'समाधि' धर्मध्यानादिकम् 'आख्यात कथितमपि न जानन्तीति ॥४॥ पुनरप्युपदेशान्तरमधिकृत्याहवाहणजहा व विच्छए, अबले होइ गवं पचोइए। से अंतसो अप्पथामए, नाइवहइ अबले विसीयति ५/ एवं कामेसणं विऊ, अज सुए पयहेज संथवं । कामी कामे ण कामए, लद्धे वावि अलद्ध कण्हुई ॥६॥ 81 व्याधेन' लुब्धकेन 'जहा वत्ति यथा 'गवन्ति मृगादिपशुर्विविधम्-अनेकप्रकारेण कूटपाशादिना क्षत:-परवशी- 1101 ४ कृतः श्रमं वा ग्राहितः प्रणोदितोऽप्यबलो भवति, जातश्रमसात् गन्तुमसमर्थः, यदिवा-चाहयतीति वाहः-शाकटिकस्तेन यथा-18 | वदवहन् गौर्विविधं प्रतोदादिना क्षतः-प्रचोदितोऽप्यवलो-विषमपथादौ गन्तुमसमथों भवति, 'स चान्तशः' मरणान्तमपि । यावदल्पसामर्थ्यो नातीव बोहुं शक्रोति, एवम्भूतश्च 'अबलो भार वोहुमसमर्थः तत्रैव पवादी विषीदतीति ॥५॥ दार्शन्तिकमाह-'एवम् अनन्तरोक्तया नीत्या कामानां-शब्दादीनां विषयाणां या गवेषणा-प्रार्थना तस्यां कर्त्तव्यायां 'विद्वान्' निपुणः कामप्रार्थनासक्तः शब्दादिपके मनः स चैवम्भूतोऽद्य श्वो वा 'संस्तवं परिचयं कामसम्बन्धं प्रजयात् किलेति, एवमध्यवसाय्येव | सर्वदाऽवतिष्ठते, नच तान् कामान् अपलो बलीवर्दवत् विषम मार्ग त्यक्तुमल, किश्वन चैहिकामुष्मिकापायदर्शितया कामी १बचालो प्र० । २ याऽन्वेषणा प्र०1३ बाटो । नवल. प्र.। ४ नैवे०प्र० । అందించి వారిని ఇలా दीप अनुक्रम [१४६] Caesesesepeatestersecticeces ~154~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [६], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत चियुतं ||६|| सूत्रकृताङ्ग भूखोपनतानपि 'कामान्' शब्दादिविषयान् वैरखामिजम्चूनामादिवद्धा 'कामयेत' अभिलपेदिति, तथा क्षुल्लककुमारवत् २ वैतालीशीलाका-II |कुतश्चिनिमित्तात् 'सुङगाइय'मित्यादिना प्रतिबुद्धो 'लब्धानपि' प्राप्तानपि कामान् अलब्धसमान् मन्यमानी महासन्चतयाइ याध्य० चायिय-18 तनिस्पृहो भवेदिति ॥ ६॥ किमिति कामपरित्यागो विधेय इत्याशवाह उद्देशः ३ मा पच्छ असाधुता भवे, अचेही अणुसास अप्पगं। अहियं च असाहु सोयती, से थणती परिदेवती बहुं७ ॥७२॥ इह जीवियमेव पासहा,तरुण एवा(णे वा)ससयस्स तुट्टती।इत्तरवासे य बुज्झह,गिद्धनरा कामेसु मुच्छिया मा पश्चात्-मरणकाले भवान्तरे वा कामानुषङ्गाद् 'असाधुता' कुगतिगमनादिकरूपा 'भवेत् प्राप्नुयादिति, अतो विषयासनादात्मानम् 'अत्येहि त्याजय, तथा आत्मानं च 'अनुशाधि' आत्मनोऽनुशास्तिं कुरु, यथा हे जीव! यो हि 'असाधुः असाधुकर्मकारी हिंसानृतस्तेयादी प्रवृत्तः सन् दुर्गतौ पतितः अधिकम्-अत्यर्थमेवं शोचति, स च परमाधार्मिकैः कदर्शमानस्तिर्वक्षु वा क्षुधादिवेदनाग्रस्तोऽत्यर्थ 'स्तनति' सशब्द निःश्वसिति, तथा 'परिदेवते' विलपत्याकन्दति सुबहिति-हा मातर्मियत इति प्राता नैवास्ति साम्प्रतं कवित् । किं शरणं मे स्थादिह दुष्कृतचरितस्य पापस्य ॥१।। इत्येवमादीनि दुःखान्यसाधुकारिणः प्राप्नु-181 IR ॥७२॥ वन्तीत्यतो विषयानुषको न विधेय इत्येवमात्मनोऽनुशासनं कुर्विति सम्बन्धनीयं ॥ ७॥ किश्च-'इह' अस्मिन् संसारे आस्तां 18 तावदन्यज्जीवितमेव सकलसुखास्पदमनित्यताऽऽघातं आवीचिमरणेन प्रतिक्षणं विशरारुखभावं, तथा-सर्वायुःक्षय एव वा १दुबल वा. चू। Saesesepectatoesers दीप अनुक्रम [१४८] ~155 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [८], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक तरुण एव' युवैव वर्षशतायुरप्युपक्रमतोऽध्यवसाननिमित्तादिरूपादायुषः 'व्यति' प्रच्यवते, यदिवा-साम्प्रतं सुबहप्यायुर्वर्षशतं तच्च तस तदन्ते त्रुटयति, सब सागरोपमापेक्षया कतिपयनिमेषप्रायखात् इखरवासकल्प वर्तते-स्तोकनिवासकल्पमित्येवं बुध्यध्वं यूयं, तथैवम्भूतेऽप्यायुपि 'नरा.' पुरुषा लघुप्रकृतयः 'कामेषु' शब्दादिषु विषयेषु 'गृहा' अध्युपपन्ना मूर्षिछताः तत्रैवाऽऽसक्तचेतसो नरकादियातनास्थानमामुवन्तीति शेषः ।।८॥ अपिच जे इह आरंभनिस्सिया, आतदंडा(ड)एगंतलूसगा। गंता ते पावलोगय, चिररायं आसुरियं दिसं॥९॥ णय संखयमाहु जीवितं, तहवि य बालजणो पगभई। पञ्चुप्पन्नेण कारियं,को दटुं परलोयमागते ?॥१०॥ ये केचन महामोहाकुलितचेतसः 'इह' अस्मिन्मनुष्यलोके 'आरम्भे' हिंसादिके सावद्यानुष्ठानरूपे निश्चयेन श्रिताः-संवद्धा अध्युपपन्नास्ते आत्मानं दण्डयन्तीत्यात्मदण्डकाः, तथैकान्तेनैव जन्तूनां लूषका-हिंसकाः सदनुष्ठानस्य वा ध्वंसकाः, ते एवम्भूता गन्तारों यास्यन्ति 'पापं लोक' पापकर्मकारिणां यो लोको नरकादिः 'चिररात्रम्' इति प्रभूतं कालं तनिवासिनो भव-118 न्ति, तथा बालतपश्चरणादिना यद्यपि तथाविधदेवखापतिस्तथाऽप्यसुराणामियमासुरी तां दिशं यान्ति, अपरप्रेष्याः किल्पिपिका देवाधमा भवन्तीत्यर्थः ॥९॥ किश्च 'म च' नैव त्रुटितं जीवितमायुः 'संस्कर्तुं संधातुं शक्यते, एवमाहुः सर्वज्ञाः, तथाहि-दंडेकलियं करिन्ता वचंति हु राइओ य दिवसा य । आउं संवेल्लंता गया यण पुणो नियति ॥१॥" 'तथापि' एवमपि दमकलित पूर्वयो ममन्ति रात्रयच दिवसाय । आयुः संवेलयम्त्यः गताय पुनर्ग निवर्तन्ते ॥१॥ दीप अनुक्रम [१५०] सत्रक. umuraryom ~156~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [१०], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१०|| दीप अनुक्रम [१५२] सूत्रकृताङ्गं व्यवस्थिते जीवानामायुषि 'बालजन' अज्ञो लोको निर्विवेकतया असदनुष्ठाने प्रवृत्तिं कुर्वन् 'प्रगल्भते' धृष्टतां याति, असद- २ वैतालीशालाका | नुष्ठानेनापि न लज्जत इत्यर्थः, स चाज्ञो जनः पापानि कर्माणि कुर्वन् परेण चोदितो धृष्टतया अलीकपाण्डित्याभिमानेनेदमुत्तर-18 याध्य० 1 माह-'प्रत्युत्पन्नेन' वर्तमानकालभाविना परमार्थसता अतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नखेनाविद्यमानखात् 'कार्य' प्रयोजन, उद्देशः ३ तियुतं प्रेक्षापूर्वकारिभिस्तदेव प्रयोजनसाधकबादादीयते, एवं च सतीहलोक एव विद्यते न परलोक इति दर्शयति-का परलोकं दृष्ट्र-1 ॥७३॥ हायातः, तथा चोचुः-“पिप खाद च साधु शोभने!, यदतीतं वरगात्रि! तब ते । नहि भीरु! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं । कलेवरम् ॥१॥" तथा "एतावानेव पुरुषो, यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे ! वृकपदं पश्य, यद्वदन्त्यबहुश्रुताः ॥२॥” इति ।। ॥ १०॥ एवमैहिकसुखाभिलापिणा परलोकं निढुवानेन नास्तिकेन अभिहिते सत्युत्तरप्रदानायाह अदक्खुव दक्खुवाहियं,(त)सदहसु अदक्खुदंसणा!। हंदि हु सुनिरुद्धदसणे,मोहणिजेण कडेण कम्मुणा | दुक्खी मोहे पुणो पुणो, निविंदेज सिलोगपूयणं। एवं सहितेऽहिपासए, आयतुलं पाणेहिं संजए ॥१२॥ पश्यतीति पश्यो न पश्योऽपश्यः-अन्धस्तेन तुल्यः कार्याकार्याविवेचिवादन्धवत्तस्याऽऽमन्त्रणं हेऽपश्यवद्-अन्धसदृश। प्रत्यक्षस्यैवैकस्याभ्युपगमेन कार्याकार्यानभिज्ञ पश्येन- सर्वज्ञेन व्याहृतम्-उक्तं सर्वज्ञागर्म 'श्रद्धख' प्रमाणीकुरु, प्रत्यक्षस्यै-1 ॥७३॥ | बैकस्याभ्युपगमेन समस्तव्यवहारविलोपेन हन्त हतोऽसि, पितृनिबन्धनस्थापि व्यवहारस्सासिद्धेरिति, तथा अपश्यकस्य-असवेश| १ः परलोकं दर्शयति, कः पर.प्र. २ वदन्ति पा० అని ~157~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [१५४] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [३], मूलं [१२], निर्युक्तिः [४४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | स्याभ्युपगतं दर्शनं येनासावपश्यकदर्शनस्तस्याऽऽमन्त्रणं हेऽपश्यकदर्शन ! स्वतोऽग्दर्शी मवांस्तथाविधदर्शनप्रमाणश्च सन् कार्याकार्याविवेचितयाऽन्धवदभविष्यत् यदि सर्वज्ञाभ्युपगमं नाकरिष्यत्, यदिवा अदक्षो वा अनिपुणो वा दक्षो वा निपुणो वा यादृशस्तादृशो वाऽचक्षुर्दर्शनमस्यासावचक्षुर्दर्शन:- केवलदर्शन:- सर्वज्ञस्तस्माद्यदवाप्यते हितं तत् श्रद्धख, इदमुक्तं भवति - अनिपुणेन निपुणेन वा सर्वज्ञदर्शनोक्तं हितं श्रद्धातव्यं, यदिवा- है 'अदृष्ट' हे अर्वाग्रदर्शन ! द्रष्टा- अतीतानागतव्यवहितसूक्ष्मपदार्थदशिंना यव्याहृतम् - अभिहितमागमे तत् श्रद्धख, हे अदृष्टदर्शन अदक्षदर्शन । इति वा असर्वज्ञोक्तशासनानुयायिन् ! तमात्मीयमाग्रहं परित्यज्य सर्वज्ञोक्ते मार्गे श्रद्धानं कुर्विति तात्पर्यार्थः किमिति सर्वज्ञोक्ते मार्गे श्रद्धानमसुमान करोति ? येनैवमुपदि - श्यते, तनिमित्तमाह – 'हंदी' त्येवं गृहाण, हुशब्दो वाक्यालङ्कारे सुष्ठु - अतिशयेन निरुद्धम् - आवृतं दर्शनं - सम्यग् अवबोधरूपं यस्य स तथा केनेत्याह-मोहयतीति मोहनीयं मिथ्यादर्शनादि ज्ञानावरणीयादिकं वा तेन स्वकृतेन कर्मणा निरुद्धदर्शनः प्राणी सर्वज्ञोक्तं मार्ग न श्रद्धत्ते अतस्तन्मार्गश्रद्धानं प्रति चोद्यते इति ॥ ११ ॥ पुनरप्युपदेशान्तरमाह-दुःखम् - असातावेदनी| यमुदयप्राप्तं तत्कारणं वा दुःखयतीति दुःखं तदस्यास्तीति दुःखी सन् प्राणी पौनःपुन्येन मोहं याति सदसद्विवेक विकलो भवति, | इदमुक्तं भवति - असातोदयात् दुःखमनुभवन्नार्तो मूढस्तत्तत्करोति येन पुनः पुनः दुःखी संसारसागरमनन्तमभ्येति, तदेवम्भूतं मोहं परित्यज्य सम्यगुत्थानेनोत्थाय 'निर्विद्येत' जुगुप्सयेत् परिहरेदात्मश्लाघां स्तुतिरूपां तथा 'पूजनं' वस्त्रादिला भरूपं परिहरेत्, 'एवम्' अनन्तरोक्तया नीत्या प्रवर्त्तमानः सह हितेन वर्तत इति सहितो ज्ञानादियुक्तो वा संयतः प्रब्रजितोऽपरप्राणिभिः For Parts Only ~158~ nirary org Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [१२], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृताङ्गं తెలవారి प्रत सूत्रांक चाीय त्तियुतं | ||१२|| ॥७४ ।। ra aarada00 दीप सुखार्थिभिः 'आत्मतुलां' आत्मतुल्यता दुःखात्रियखसुखप्रियखरूपामाघेकं पश्येत् , आत्मतुल्यान् सर्वानपि प्राणिनः पाल-18| तालीयेदिति ॥ १२॥ किश्च याध्य गारंपिअ आवसे नरे,अणुपुत्वं पाणेहिं संजए । समता सवत्थ सुबते, देवाणं गच्छे सलोगयं ॥ १३ ॥ उद्देशः ३ सोचा भगवाणुसासणं,सच्चे तत्थ करेजुवक्कम। सवत्थ विणीयमच्छरे, उञ्छं भिक्खु विसुद्धमाहरे ॥१४॥ 'अगारमपि' गृहमप्यावसन्-गृहवासमपि कुर्वन् 'नरों' मनुष्यः 'आनुपूर्वमिति आनुपूर्व्या-श्रवणधर्मप्रतिपत्त्यादि| लक्षणया प्राणिषु यथाशक्या सम्यक यतः संयतः तदुपमद्दोनिवृत्तः, किमिति ? यतः 'समता' समभावः आत्मपरतुल्यता | 'सर्वत्र' यती गृहस्खे च यदिवैकेन्द्रियादी 'भ्रूयते' अभिधीयते आहेते प्रवचने, तां च कुर्वन् स गृहस्थोऽपि सुव्रतः सन् ! 'देवानां पुरन्दरादीनां 'लोक' स्थानं गच्छेत् , किं पुनर्यो महासचतया पश्चमहाव्रतधारी यतिरिति ॥ १३ ॥ अपिच-बानश्वर्यादिगुणसमन्वितस्य भगवतः-सर्वज्ञस्य शासनम्-आज्ञामागर्म वा 'श्रुत्वा' अधिगम्य 'तत्र' तमिबागमे तदुक्ते वा। संयमे सन्यो हिते सत्ये लघुकर्मा तदुपकर्म-तत्याप्युपायं कुर्यात्, किम्भूतः-सर्वत्रापनीतो मत्सरो येन स तथा सोऽरक्त-1 द्विष्टः क्षेत्रव(वा)स्तूपधिशरीरनिष्पिपासः, तथा 'उछति भैक्ष्यं विशुद्धं-द्विचखारिंशद्दोषरहितमाहारं गृह्णीयादभ्यवहरेद्वेति ॥७४॥ ॥ १४ ॥ किश्च१ श्रमग०प्र०२. वखोप.प्र. अनुक्रम [१५४] 0 SARERatinintenarama wirectorary.com ~159~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [१५], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥१५॥ | सत्वं नच्चा अहिट्ठए, धम्मट्ठी उवहाणवीरिए । गुत्ते जुत्ते सदाजए, आयपरे परमायतट्टिते ॥१५॥ वित्तं पसवो य नाइओ, तंबाले सरणं ति मन्नइ। एते मम तेसुवी अहं, नो ताणं सरणं न विजई ॥ १६ ॥ | 'सर्वम् एतद्धेयमुपादेयं च शाखा सर्वज्ञोक्त मार्ग सर्वसंवररूपम् 'अधितिष्ठेत् आश्रयेत् , धर्मेणार्थो धर्म एव वार्थः पर-18 | मार्थेनान्यस्थानर्थरूपखात् धर्मार्थः स विद्यते यस्थासौ धमार्थी-धर्मप्रयोजनवान् , उपधानंतपस्तत्र वीर्य यस्य स तथा अनि-181 गहितबलवीर्य इत्यर्थः, तथा मनोवाकायगुप्तः, सुप्रणिहितयोग इत्यर्थः, तथा युक्तो ज्ञानादिभिः 'सदा सर्वकालं यतेतास्मनि परसिंश्च । किविशिष्टः सन् १ अत आह-परम-उत्कृष्ट आयतो दीर्घः सर्वकालभवनात मोक्षस्तेनार्थिकः तदभि-15 लाषी पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टो भवेदिति ॥ १५ ॥ पुनरप्युपदेशान्तरमाह-'वित्तं' धनधान्यहिरण्यादि 'पशवः' करितुरगगोम| हिच्यादयो 'ज्ञातयः स्वजना मातापितृपुत्रकलत्रादयः तदेवद्वित्तादिकं 'बाल' अज्ञः शरणं मन्यते, तदेव दशयति-ममैते | वित्तपशुज्ञातयः परिभोगे उपयोक्ष्यन्ते, तेषु चार्जनपालनसंरक्षणादिना शेषोपद्रवनिराकरणद्वारणाहं भवामीत्येवं बालो मन्यते, न पुनर्जानीते यदर्थ धनमिच्छन्ति तच्छरीरमशाश्वतमिति, अपिच-"रिद्धी सहावतरला रोगजराभंगुरं हयसरीरं । दोहंपि गमणसीलाण किचिरं दोज संबंधो॥१॥" तथा "मातापित्सहस्राणि, पुत्रदारशतानि च। प्रतिजन्मनि वतेन्ते, कस माता पि दीप अनुक्रम [१५७] अधिः खभावतरला रोगजराभवरं इतकं शरीरम् । इयोरपि गमनशीलयोः कियधिरं भवेसंबन्धः ॥१॥ ~1604 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [१५८] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [३], मूलं [१६], निर्युक्तिः [४४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का चार्षीय नियु ।। ७५ ।। ताऽपि वा १ ॥ १ ॥ " एतदेवाह - 'नो' नैव वित्तादिकं संसारे कथमपि त्राणं भवति नरकादौ पततो, नापि रागादिनोपद्रुतस्य कचिच्छरणं विद्यत इति ॥ १६ ॥ एतदेवाह - अब्भागमितंमि वा दुहे, अहवा उक्कमिते भवंतिए । एगस्स गती य आगती, विदुमंता सरणं ण मन्नई ॥ १७॥ | सवे सयकम्म कप्पिया, अवियत्तेण दुहेण पाणिणो । हिंडंति भयाउला सढा, जाइजरामरणेहिऽभिदुता १८ | पूर्वोपातासात वेदनीयोदयेनाभ्यागते दुःखे सत्येकाक्येव दुःखमनुभवति, न ज्ञातिवर्गेण वित्तेन वा किञ्चित्क्रियते, तथाच -- "सयणस्सवि मज्झगओ रोगाभिहतो किलिस्सर इहेगो । सयणोविय से रोगं, न विरंच नेव नासेइ ॥ १ ॥" अथवा उपक्रम| कारणैरुपक्रान्ते स्वायुषि स्थितिक्षयेण वा भवान्तरे भवान्तिके वा मरणे समुपस्थिते सति एकस्यैव सुमतो गतिरागतिश्च भवति, | 'विद्वान' विवेकी यथावस्थितसंसारस्वभावस्य वेत्ता ईषदपि तावत् शरणं न मन्यते, कुतः १ सर्वात्मना त्राणमिति, तथाहि“एकस्य जन्ममरणे गतयश्च शुभाशुभा भवावर्ते । तस्मादाकालिकहित मे केनैवात्मनः कार्यम् ॥ १ ॥ ऐको करेइ कम्मं फलमचि | तस्सिकओ समणुहवइ । एको जायइ मरह य परलोयं एकओ जाइ ॥ २ ॥ " ॥ १७ ॥ अन्यच – सर्वेऽपि संसारोदरविवरवतिनः प्राणिनः संसारे पर्यटन्तः स्वकृतेन ज्ञानावरणीयादिना कर्मणा कल्पिताः – सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्त कै केन्द्रियादिभेदेन १ खजनस्यापि मध्यगतो रोगाभिहतः क्लिश्यति इहेकः । खजनोऽपि च तस्य रोगं न विरेचयति (हसयति) नैव नाशयति ॥ १ ॥ २ एकः करोति कर्म फलम| पि तस्यैककः समनुभवति । एको जायते म्रियते च परलोकमेकको याति ॥ १ ॥ Education internationa For Pasta Use Only ~ 161~ २ बैतालीयाध्य० उद्देशः ३ ॥ ७५ ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [१८], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रांक ||१८|| दीप व्यवस्थिताः, तथा तेनैव कर्मणैकेन्द्रियाद्यवस्थायाम् 'अव्यक्तेन' अपरिस्फुटेन शिरःशूलाद्यलक्षितस्वभावेनोपलक्षणार्थखात् प्रव्य तेन च 'दुःखेन' असातावेदनीयस्वभावेन समन्विताः प्राणिनः पर्यटन्ति-अरघघटीयत्रन्यायेन तारखेव योनिषु भयाकुलाः शठI|कर्मकारित्वात् शठा भ्रमन्ति जातिजरामरणैरभिद्रुता-गर्भाधानादिभिदुःखैः पीडिता इति ॥ १८ ॥ किश्च इणमेव खणं वियाणिया,णो सुलभं बोहिं च आहितं। एवं सहिएऽहिपासए,आह जिणे इणमेव सेसगा१९ अभविंसु पुरावि भिक्खुवो,आएसावि भवंति सुब्बता।एयाइं गुणाई आहु ते,कासवस्स अणुधम्मचारिणो।। इदमः प्रत्यक्षासन्नवाचिसात इमंद्रच्यक्षेत्रकालभावलक्षणं 'क्षणम्' अवसरं ज्ञाता तदुचितं विधेय, तथाहि-द्रव्यं जङ्ग-18 मत्वपञ्चेन्द्रियत्नसुकुलोत्पत्तिमानुष्यलक्षणं क्षेत्रमप्यार्य देशापविंशतिजनपदलक्षणं कालोऽप्यवसर्पिणीचतुर्थारकादिः धर्मप्रतिप-% चियोग्यलक्षणः भावश्च धर्मश्रवणतच्छ्रद्धानचारित्रावरणकर्मक्षयोपशमाहितविरतिप्रतिपयुत्साहलक्षयाः, तदेवंविधं क्षणम्| अवसर परिज्ञाय तथा 'बोधिं च सम्यग्दर्शनावाप्तिलक्षणां नो सुलभामिति, एक्माख्यांतमवगम्य तदवातौ तदनुरूपमेव कुयों| दिति शेषः, अकृतधर्माणां च पुनदुर्लभा बोधिः, तथाहि-लद्वेल्लियं च बोहिं अकरतो अणागयं च पत्थेतो । अन्नं दाई बोहिं लम्भिसि कयरेण मोल्लेणं ॥१॥" तदेवमुत्कृष्टतोऽपार्द्धपुद्गलपरावर्तप्रमाणकालेन पुनः सुदुर्लभा बोधिरित्येवं सहितो ज्ञानादिमिरधिपश्येत-बोधिसुदुर्लभत्वं पर्यालोचयेत् , पाठान्तरं वा 'अहियासए'त्ति परीपहानुदीर्णान् सम्यगधिसहेत । एतचाऽऽह १०ख्याता.प्र.२ लब्धां च मौधिमकुर्वन् अनागतां च प्रार्थयमानः । अन्या (तदा) प्रोधि लस्य से कतरेग मूल्येन १ ।।१।। अनुक्रम [१६०] Aucturary.com ~1624 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [२०], नियुक्ति: [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| ॥७६॥ दीप अनुक्रम [१६२] 18'जिनो'रागद्वेषजेता नाभेयोऽष्टापदे खान् सुतानुद्दिश्य, तथाऽन्येऽपि इदमेव शेषका जिना अभिहितवन्त इति ॥१९॥एतदाहशीलाका- हे भिक्षवः-साधवः, सर्वज्ञः खशिष्यानेवमामत्रयति, येऽभूवन्-अतिक्रान्ता जिना' सर्वज्ञाः 'आएसावित्ति आगमिष्याश्च || याध्य चार्यायः ॥ ये भविष्यन्ति, तान् विशिनष्टि--'मुत्रता' शोभनव्रताः, अनेनेदमुक्तं भवति-नेपामपि जिनत्वं सुबतत्वादेवायातमिति, ते उद्देशः ३ त्तियुत सर्वेऽप्येतान् अनन्तरोदितान् गुणान् 'आहुः' अभिहितवन्तः, नात्र सर्वज्ञानां कचिन्मतभेद इत्युक्तं भवति, ते च 'काश्यपस्य। ऋषभखामिनो बर्द्धमानखामिनो वा सर्वेऽप्यनुचीर्णधर्मचारिण इति, अनेन च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक एक एवं मोक्षमागे, | इत्यावदितं भवतीति ॥ २० ॥ अभिहितांश गुणानुदेशत आहतिविहेणवि पाणमा हणे,आयहिते अणियाण संवुडे । एवं सिद्धा अणंतसो,संपइ जे अ अणागयावरे॥२१॥ एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी अणुत्तरदंसी अणुत्तरनाणदंसणधरे । अरहा नायपुत्ते भगवं वेसालिए |वियाहिए ॥२२॥ तिबेमि ॥ इति श्रीवेयालियं बितीयमज्झयणं समत्तं ॥ (गाथायं. १७४)। 'त्रिविधेन' मनसा बाचा कायेन यदिवा-कृतकारितानुमतिभिर्वा 'प्राणिनो' दशविधप्राणभाजो मा हन्यादिति, प्रथममिदं । महाव्रतम् , अस्य चोपलक्षणार्थत्वात् एवं शेपाण्यपि द्रष्टव्यानि, तथाऽऽत्मने हित आत्महितः, तथा नास्थ स्वगोवात्यादिलक्षणं निदानमस्तीत्यनिदानः, तथेन्द्रियनोइन्द्रियैर्मनोवाकायैर्वा संवृतस्विगुप्तिगुप्त इत्यर्थः, एवम्भूतश्रावश्यं सिद्धिमयामोतीत्येतदर्शयति Satsersecreateelone SAREauratonintaimational ~163~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [१६४ ] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [३], मूलं [२२], निर्युक्तिः [४४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'एवम्' अनन्तरोक्तमार्गानुष्ठानेनानन्ताः 'सिद्धा' अशेषकर्मक्षयभाजः संवृत्ता विशिष्टस्थानभाजो वा, तथा 'सम्प्रति' वर्तमाने काले सिद्धिगमनयोग्ये सिध्यन्ति, अपरे वा अनागते काले एतन्मार्गानुष्ठायिन एव सेत्स्यन्ति, नापरः सिद्धिमार्गोऽस्तीति मा | वार्थः ॥ २१ ॥ एतच सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिप्रभृतिभ्यः स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादयतीत्याह- 'एवं से' इत्यादि 'एवम्' उद्देशकत्रयाभिहितनीत्या 'स' ऋषभखामी खपुत्रानुद्दिश्य 'उदाहृतवान्' प्रतिपादितवान्, नास्योत्तरं - प्रधानमस्तीत्यनुत्तरं तच्च त ज्ज्ञानं च अनुत्तरज्ञानं तदस्यास्तीत्यनुत्तरज्ञानी तथाऽनुत्तरदर्शी, सामान्यविशेषपरिच्छेदकावबोधस्वभाव इति, बौद्धमतनिरासद्वारेण ज्ञानाधारं जीवं दर्शयितुमाह- 'अनुत्तरज्ञानदर्शनघर' इति कथञ्चिद्भिन्नज्ञानदर्शनाऽऽधार इत्यर्थः, 'अर्हन' सुरेन्द्रादिपूजाह ज्ञातपुत्रो वर्द्धमानखामी अपभस्वामी वा 'भगवान्' ऐश्वर्यादिगुणयुक्तो विशाल्यां नगर्य्या वर्द्धमानोऽसाकमाख्यातवान्, ऋषभस्वामी वा विशालकुलोद्भवलाद्वैशालिकः, तथा चोक्तम्- “विशाला जननी यस्य, विशाल कुलमेव वा । विशालं प्रवचनं चास्य, तेन वैशालिको जिनः १ ॥ " एवमसी जिन आख्यातेति । इतिशब्दः परिसमाप्पर्थो, ब्रवीमीति उक्तार्थो, नयाः पूर्ववदिति ।। २२ ।। तृतीय उद्देशकः समाप्तः, तत्समाप्तौ च समाप्तं द्वितीयं वैतालीयमध्ययनं ॥ १ ( वचनं यस्य प्र. 114941 For Pal Use Only अत्र द्वितीय-अध्ययनं परिसमाप्तम् ~164~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: eeRee प्रत सूत्रांक ||२२|| सूत्रकताएं अथ तृतीयस्योपसर्गाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः प्रारभ्यते ॥ ३ उपसशीलाक्षा गोध्य चायत्तियुत उद्देशः१ उक्तं द्वितीयमध्ययनम् , अधुना तृतीयमारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरं खसमयपरसमयप्ररूपणाऽभिहिता, तथा ॥७ ॥ परसमयदोषान् खसमयगुणांश्च परिज्ञाय स्खसमये नोधो विधेय इत्येतच्चाभिहितं, तस्य च प्रतिबुद्धस्य सम्यगुत्थानेनोस्थितस्य । सतः कदाचिदनुकूलप्रतिकूलोपसर्गाः प्रादुर्भवेयुः, ते चोदीर्णाः सम्यक् सोढव्या इत्येतदनेनाध्ययनेन प्रतिपाद्यते, ततोऽनेन ? सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चखार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोाधिकारी द्वेषा अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्था-10 धिकारश्न, तत्राध्ययनार्थाधिकारः 'संबुद्धस्सुवसग्गा' इत्यादिना प्रथमाध्ययने प्रतिपादितः, उद्देशार्थाधिकारं तूनरत्र खयमेव | नियुक्तिकारः प्रतिपादयिष्यतीति, नामनिष्पन्नं तु निक्षेपमधिकृत्य नियुक्तिकृदाह उधसग्गंमि य छकं दब्वे चेयणमचेयणं दुविहं । आगंतुगो य पीलाकरो य जो सो उबस्सग्गो ॥४५॥ नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् उपसर्गाः षोढा, तत्र नामस्थापने क्षुण्णवादनादृत्य द्रव्योपसर्ग दर्शयति 'द्रव्ये द्रव्य-18 विषये उपसगों द्वेधा, यतस्तथ्यमुपसर्गकर्तृ चेतनाचेतनभेदात् द्विविधं, तत्र तिर्यमनुष्यादयः खावयवाभिघातेन यदुपसर्ग-18 14 यन्ति स सचिनद्रव्योपसर्गः, स एव काष्ठादिनेतरः । 'तत्त्वभेदपर्यायाख्ये ति, तत्रोपसर्ग उपतापः शरीरपीडोत्पादनमित्यादि-12 दीप 12000000000 elesedeoeseaeseseise अनुक्रम [१६४] ॥७७॥ अत्र तृतीय-अध्ययनं 'उपसर्ग'स्य आरम्भ:, द्वितीय एवं तृतीय-अध्ययनस्य अभिसंबंध:, उपसर्ग-शब्दस्य निक्षेपा: ~165~ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [१६४ ] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], मूलं [२२...], निर्युक्तिः [४६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः पर्यायाः, मेदाथ तिर्यमनुष्योपसर्गादयः नामादयश्च तत्त्वव्याख्यां तु निर्युक्तिकृदेव गाथापश्चार्द्धेन दर्शयति-अपरस्माद्दिव्यादेः आगच्छतीत्यागन्तुको योऽसावुपसर्गो भवति, स च देहस्य संयमस्य वा पीडाकारीति ।। क्षेत्रोपसर्गानाह तं बहुओ कालो एगंतद्समादीओ। भावे कम्मन्मुदओ, सो दुविहो ओघुवकमिओ ॥ ४६ ॥ यस्मिन् क्षेत्रे बहून्योघतः–सामान्येन पदानि - क्रूर चौरायुपसर्गस्यानानि भवन्ति तत्क्षेत्रं बहोघपदं, पाठान्तरं वा 'बोधभयं ' बहून्योषतो भयस्थानानि यत्र तत्तथा तच लाढादिविषयादिकं क्षेत्रमिति, कालस्खेकान्तदुष्पमादिः, आदिग्रहणात् यो यस्मिन् | क्षेत्रे दुःखोत्पादको ग्रीष्मादिः स गृह्यत इति, कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनामभ्युदयो भावोपसर्ग इति, स च उपसर्गः सर्वोऽपि सामान्येन अधिक पक्रमिकभेदात् द्वेधा, तत्रौषिकोऽशुभकर्मप्रकृतिजनितो भावोपसर्गो भवति, औपक्रमिकस्तु दण्डकशाशस्त्रादिनाऽसातावेदनीयोदयापादक इति ॥ तत्रौधिक पक्रमिकयोरुपसर्गयोरौपक्रमिकमधिकृत्याह कमिओ संयमविग्धकरे तस्थुवकमे पगयं । दब्वे चउब्विहो देवमणुयतिरियायसंवेत्तो ॥ ४७ ॥ उपक्रमणमुपक्रमः, कर्मणामनुदयप्राप्तानामुदयप्रापणमित्यर्थः, एतच्च यद्द्द्रव्योपयोगांत् येन वा द्रव्येणासातावेदनीयाद्यशुभं कर्मोदीर्यते यदुदयाञ्चाल्पसत्त्वस्य संयमविघातो भवति अत औपक्रमिक उपसर्गः संयमविघातकारीति, इह च यतीनां मोक्षं प्रति प्रवृत्तानां संयमो मोक्षानं वर्तते तस्य यो विनहेतुः स एवात्राधिक्रियत इति दर्शयति-तत्र - औधिक पक्रमिकयोरौ पक्रमिके Education International उपसर्ग - शब्दस्य निक्षेपा:, For Parts Only ~166~ Handorary org Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति : [४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप सूत्रकृताङ्गन 'प्रकृतं' प्रस्तावः तेनात्राधिकार इतियावत् , स च 'द्रव्ये' द्रव्य विषयश्चिन्त्यमानश्चतुर्विधो भवति, तद्यथा-दैविको मानुष-18३ उपस शीलाङ्का-8 तैरव आत्मसंवेदनशेति ॥ साम्प्रतमेतेषामेव भेदमाह गोध्य० चाीयवृ-18 त्तियुत | एकेको यचउविहो अहविहो बावि सोलसविहो वा। घडण जयणा व तेसिं एत्तो वोच्छ अहि(ही)यार(रा) ४८ || उद्देशः १ एकैको दिव्यादिः 'चतुर्विधा' चतुर्भेदः, तत्र दिव्यस्तावच हास्यात् प्रद्वेषात् विमर्शात् पृथग्विमात्रातति, मानुपा अपि ॥७८॥ हास्यतः प्रद्वेषाद्विमर्शात् कुशीलप्रतिसेवनातच, तैरचा अपि चतुर्विधाः, तद्यथा-भयात् प्रद्वेषाद् आहारादपत्यसंरक्षणात्, आत्मसंवेदनाः चतुर्विधाः, तद्यथा-घटनातो लेशनातः-अङ्गुल्याद्यवयवसंश्लेपरूपायाः स्तम्भनातः प्रपाताचेति, यदिवा-पातपित्तश्लेमसंनिपातजनितचतुर्धेति, स एव दिव्यादिचतुर्विधोऽनुकूलप्रतिकूलभेदात् अष्टधा भवति, स एव दिव्यादिः प्रत्येकं यचतुओं | प्रारदर्शितः स चतुर्णा चतुष्ककानां मेलापकात् षोडशभेदो भवति, तेषां चोपसर्गाणां यथा घटना सम्बन्धः प्राप्तिः प्राप्तानां चाधिसहनं प्रति यतना भवति तथाऽत ऊद्धेमध्ययनेन वक्ष्यते इत्ययमत्रार्थाधिकार इति भावः ॥ ४॥ उद्देशार्थी|धिकारमधिकृत्याह पढममि य पडिलोमा हुंती अणुलोमगा य बितियंमि (विइएणाईकया य अणुलोमा)। ॥७८॥ तइए अज्झत्तचिसोहणं च परवादिवयणं च ॥४९॥ हेउसरिसेहिं अहेउएहि समयपडिएहिं णिउणेहिं । सीलखलितपण्णवणा कया चउत्थंमि उद्देसे ॥५०॥ eeeeeeeeeeee अनुक्रम [१६४] उपसर्ग-शब्दस्य निक्षेपा:, उद्देशानाम् अर्थाधिकारः ~167~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥१॥ दीप अनुक्रम [१६५] eesesesesereeroese प्रथमे उद्देशके 'प्रतिलोमाः' प्रतिकूला उपसर्गाः प्रतिपाद्यन्त इति, तथा द्वितीये 'ज्ञातिकृताः' वजनापादिता अनुलोमा-अनुकू-18 ला इति, तथा तृतीये अध्यात्मविषीदनं परवादिवचनं चेत्ययमाधिकार इति, चतुर्थीदेशके अयमर्थाधिकारः, तद्यथा-'हतस-1 दृशैः' हेखामासैर्येऽन्यतैर्थिकैव्युद्राहिताः-प्रतारितास्तेषां शीलस्खलितानांच्यामोहितानां प्रज्ञापना-यथावस्थितार्थप्ररूपणा स्व|समयप्रतीतैनिपुणभणितेहेतुभिः कृतेति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुगार णीयं, तवेदम् सूरं मण्णइ अप्पाणं, जाव जेयं न पस्सती। जुज्झतं दढधम्माणं, सिसुपालो व महारहं ॥१॥ पयाता सूरा रणसीसे, संगामंमि उवट्टिते । माया पुत्तं न याणाइ, जेएण परिविच्छए ॥२॥ कचिल्लघुप्रकृतिः सङ्ग्रामे समुपस्थिते शूरमात्मानं मन्यते-निस्तोयाम्बुद इवात्मश्लाघाप्रवणो वाग्भिविस्फूर्जन् गर्जति, तद्यथान मत्कल्पः परानीके कश्चित् सुभटोऽस्तीति, एवं तावद्गति यावत् पुरोऽवस्थितं प्रोद्यतासिं जेतारं न पश्यति, तथा चोक्तम्-18 | "तावदजः प्रसुतदानगण्डः, करोत्यकालाम्बुदगर्जितानि । यावन सिंहस्य गुहास्थलीपु, लाङ्गलविस्फोटरवं शृणोति ॥१॥ दृष्टान्तमन्तरेण प्रायो लोकस्यार्थावगमो भवतीत्यतस्तदवगतये दृष्टान्तमाह-यथा मादीसुतः शिशुपालो वासुदेवदर्शनारपाक आत्मश्लाघाप्रधानं गर्जितवान् , पश्चाच्च युध्यमानं-शस्त्राणि व्यापारयन्तं दृढः-समर्थो धर्म:-स्वभावः सामाभङ्गरूपो यस स तथा तं, महान् रथोऽस्येति महारथः, स च प्रक्रमादत्र नारायणस्तं युध्यमानं दृष्ट्वा प्राग्गर्जनाप्रधानोऽपि क्षोभं गतः, एकाचवी Sasassooasaseases अत्र तृतीय-अध्ययने प्रथम-उद्देशकस्य आरम्भ: ~1684 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| सूत्रकृताङ्ग शालाका चापीय चियुतं ॥७९॥ दार्टान्तिकेपि योजनीयमिति । भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-वसुदेवसुसाएँ सुओ दमघोसणराहिवेण मद्दीए । जाओ K३. उपसउम्भुओऽभुयबलकलिओ कलहपत्तहो ॥ १॥ दहण तओ जणणी चउम्भुयं पुतमम्भुयमणग्छ । भयहरिसविम्हयमुही पुच्छइ | गाध्य उद्देशः१ मित्तियं सहसा ॥२॥णेमिचिएण मुणिऊण साहियं तीइ हाहिययाए । जह एस तुम्भ पुत्तो महाबलो दुज्जओ समरे ॥३॥ एयस्स यजं दहण होइ साभावियं भुयाजुयलं । होही तओ चिय भयं सुतस्स ते णत्थि संदेहो ॥ ४ ॥ सावि भयवेविरंगी पुत्तं दंसेइ जाव कण्हस्स । तावश्चिय तस्स ठियं पयइत्थं वरभुयाजुयलं ॥५॥ तो कण्हस्स पिउच्छा पुत्तं पाडेइ पायपीदमि । अवराहखामणस्थं सोवि सयं से खमिस्सामि ॥६॥ सिसुवालो वि हु जुन्वणमएण नारायणं असम्भेहिं । वयणेहिं भणह सोविहु18| खमइ खमाए समत्थोवि ॥ ७॥ अवराहसए पुण्णे वारिजंतो ण चिट्टई जाहे । कण्हेण तओ छिन्नं चकेणं उत्तमंग से ॥८॥ साम्प्रतं सर्वजनप्रतीतं वार्तमानिक दृष्टान्तमाह-'पयाया' इत्यादि, यथा वाग्मिविस्फर्जन्तः प्रकर्षण विकटपादपातं 'रणशि-18 दीप अनुक्रम [१६६] १ बसुदेवसमः सुतो दमघोषनराधिपेन मायाः । जातश्चतुर्भुजोऽमृतवलकलितः प्राप्तकसहार्थः॥१॥ष्ट्वा ततो जननी चतुर्भु पुत्रमतमनर्घम् । भयह पैने-16 पिराशी पृच्छति नैमित्तिकं सहसा ॥ २ ॥ नैमित्तिकेन मुणित्या साहितं तौ हष्टहदवाये । यथैव तव पुत्रो महाबलो दुर्जयः समरे ॥३॥ एतस्य च ये रष्ट्वा भवेत् || | साभाविक अजयुगलम् । भविष्यति तत एप भयं सुतर ते नास्ति संदेहः ॥४॥साऽपि भयवेपिरासी पुत्र परभुजयुगलम् ॥ ५॥ ततः कृष्णस्य पितृभ्यसा पुर्व पातयति पादपीठे। अपराधक्षामणार्थ सोऽपि शतं तस्य क्षमिष्ये ॥६॥ शिशुपाकोऽपि यौवनमदेन नारायण-21 मसभ्यः । बचनैर्भणति सोऽपि च क्षमते क्षमया समर्थोऽपि ॥ ७॥ अपराधशते पूर्ण वार्यमाणोऽपि न तिष्ठति गदा । कृष्णेन ततश्छिन्न बनेगोत्तमा तस्स . ~169 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम [१६६] रसि' संग्राममूर्धन्यग्रानीके याता-गताः, के ते?-'शरा' शरमन्या:-मुभटाः, ततः सत्रामे समुपस्थिते पतत्परानीकसुभट-18 मुक्तहेतिसङ्काते सति तत्र च सर्वस्वाकुलीभूतखात् 'माता पुत्रं न जानाति' कटीतो प्रश्यन्तं स्तनन्धयमपि न सम्यक् प्रति-18 जागतीत्येवं मातापुत्रीये सत्रामे परानीकसुभटेन जेत्रा चक्रकुन्तनाराचशक्त्यादिभिः परिः-समन्तात् विविधम्-अनेकप्रकार | क्षतो-हतश्छिन्नो वा यथा कश्चिदल्पसत्वो भामुपयाति दीनो भवतीतियावदिति ॥ २॥ दार्शन्तिकमाह एवं सेहेवि अप्पुटे, भिक्खायरियाअकोविए। सूरं मण्णति अप्पाणं, जाव लूहं न सेवए ॥३॥ जया हेमंतमासंमि, सीतं फुसइ सवगं। तत्थ मंदा विसीयंति, रज्जहीणा व खत्तिया ॥४॥ 'एच'मिति प्रक्रान्तपरामर्शार्थः, यथाऽसौ शूरंमन्य उत्कृष्टसिंहनादपूर्वक सङ्ग्रामशिरस्युपस्थितः पश्चाज्जेतारं वासुदेवमन्यं वा ॥8 युध्यमानं दृष्ट्वा दैन्यमुपयाति, एवं शिक्षकः' अभिनवप्रबजितः परीपहै। 'अस्पृष्टः' अच्छतः किं प्रवज्यायां दुष्करमित्येवं गर्जेन | 'भिक्षाचर्यायां' भिक्षाटने 'अकोविदः' अनिपुणा, उपलक्षणार्थवादन्यत्रापि साध्वाचारेऽभिनवप्रव्रजितलादप्रषीणः, स एव-8 म्भूत आत्मानं तावच्छिशुपालवत् शूरं मन्यते यावज्जेतारमिव 'रूक्षं संयम कर्मसंश्लेषकारणाभावात् 'न सेवते' न भजत इति, तत्प्राप्तौ तु बहवो गुरुकर्माणोऽल्पसत्त्वा भङ्गमुपयान्ति ।। ३ ।। संयमस रूक्षखप्रतिपादनायाह-'जया हेमंते' इत्यादि, 'यदा कदाचित् 'हेमन्तमासे' पौषादौ 'शीत' सहिमकणवातं 'स्पृशति' लगति 'तत्र' तस्मिन्नसझे शीतस्पशें लगति सति एके wirem araryorg ~170~ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [४], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत चार्याय ||४|| दीप 'मन्दा' जडा गुरुकर्माणो 'विषीदन्ति' दैन्यभावमुपयान्ति 'राज्यहीना' राज्यच्युताः यथा-क्षत्रिया राजान इवेति | ३.उपसशीलाङ्का-19 उष्णपरीषहमधिकृत्याह गोध्य० पुढे गिम्हाहितावेणं, विमणे सुपिवासिए । तत्थ मंदा विसीयंति, मच्छा अप्पोदए जहा ॥५॥ उद्देश: चियुतं सदा दत्तेसणा दुक्खा, जायणा दुप्पणोल्लिया। कम्मत्ता दुब्भगा चेव, इच्चाहंसु पुढोजणा॥६॥ ॥८ ॥ ___ 'ग्रीष्मे' ज्येष्ठापाढाख्ये अभितापस्तेन 'स्पृष्टः छप्तो व्याप्तः सन् 'विमनाः' विमनस्का, सुठ पातुमिच्छा पिपासा तां प्राप्तो- | नितरां तुडमिभूतो बाहुल्येन दैन्यमुपयातीति दर्शयति-तत्र' तस्मिनुष्णपरीषहोदये 'मन्दा' जडा अशक्ता 'विषीदन्ति' यथाश पराभङ्गमुपयान्ति, दृष्टान्तमाह-मत्स्या अल्पोदके विषीदन्ति, गमनाभावान्मरणमुपयान्ति, एवं सवाभावात्संयमात् भ्रश्यन्त इति, इदमुक्तं भवति--यथा मत्स्या अल्पखादुदकस्य ग्रीष्मामितापेन तप्ता अवसीदन्ति, एवमल्पसचाश्चारित्रप्रतिपत्तावपि जल्ल-19 मलक्केद क्लिन्नगात्रा पहिरुष्णाभितप्ताः शीतलान् जलाश्रयान् जलधारागृहचन्दनादीनुष्णप्रतिकारहेतूननुसरन्ते व्याकुलितचेतसः ॥ 18 संयमानुष्ठान प्रति विपीदन्ति ॥ ५॥ साम्प्रतं याच्चापरीषहमधिकृत्याह-'सदा दत्ते' इत्यादि, यतीनां 'सदा सर्वदा दन्त-16) शोधनाधपि परेण दसम् एषणीयम्-उत्पादाषणादोपरहितमुपभोक्तव्यमित्यतः क्षुधादिवेदनाोंना यावजीर्ष परदपणा |81 18| दुःखं भवति, अपिचेयं 'याच्या' याच्यापरीपहोऽल्पसचैदुःखेन 'प्रणोचते' त्यज्यते, तथा चोक्तम्-"खिज्जइ मुहलावणं १क्षीयते मुखलावण्यं वाचा गिलति (पूर्णति) कण्ठमथ्थे । कहकहकहित हृदयं देहीति पर भगतः ॥१॥ अनुक्रम [१६८] INuo sexe ~171~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [६], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||६|| वाया घोलेइ कंठमझमि । कहकहकहेइ हिययं देहित्ति परं भणतस्स ॥१॥ गतिभ्रंशो मुंखे दैन्य, गावखेदो विवर्णता । मरणे 18 यानि चिह्नानि, तानि चिहानि याचके ॥१॥" इत्यादि, एवं दुस्त्यज याच्यापरीपहं परित्यज्य गताभिमाना महासत्त्वा ब्रानाद्य भिवृद्धये महापुरुषसेवितं पन्धानमनुव्रजन्तीति । श्लोकपश्चार्द्धनाऽऽकोशपरीषहं दर्शयति'-पृधगजनाः' प्राकृतपुरुषा अनार्यकल्पा 18'इत्येवमाहुः इत्येवमुक्तवन्ता, वयथा-ये एते यतयः जल्लाविलदेहा लुश्चितशिरसः क्षुधादिवेदनाग्रस्तास्ते एते पूर्याचरितः कर्म-18 भिरातः पूर्वस्वकृतकर्मणः फलमनुभवन्ति, यदिवा-कर्मभि:-कृष्यादिभिराचा:-तत्कमसमर्थी उद्विग्राः सन्तो यतयः संवृत्ता इति, तथैते 'दुर्भगाः' सर्वेणैव पुत्रदारादिना परित्यक्ता निगेतिकाः सन्तः प्रवज्यामभ्युपगता इति ॥ ६॥ एते सद्दे अचायंता, गामेसु णगरेसु वा । तत्थ मंदा विसीयंति, संगामंमिव भीरुया ॥७॥ अप्पेगे खुधियं भिक्खू, सुणी डंसति लूसए । तत्थ मंदा विसीयंति, तेउपुट्ठा व पाणिणो ॥८॥ 'एतान् पूर्वोक्तानाक्रोशरूपान तथा चौरचारिकादिरूपान् शब्दान् सोडुमशक्नुवन्तो ग्रामनगरादौ तदन्तराले वा व्यवस्थिताः | 'तत्र' तसिन् आक्रोशे सति 'मन्दा' अज्ञा लघुप्रकृतयो 'विषीदन्ति' विमनस्का भवन्ति संयमाद्वा भ्रश्यन्ति, यथा भीरवः |'संग्रामे रणशिरसि चमकुन्तासिशक्तिनाराचाकुले रटत्पटहशहझल्लरीनादगम्भीरे समाकुलाः सन्तः पौरुषं परित्यज्यायशःपट-18 | हमङ्गीकृत्य भज्यन्ते, एवमाक्रोशादिशब्दाकर्णनादल्पसचाः संयमे विषीदन्ति ॥ ७॥ वधपरीपहमधिकृत्याह-'अप्पेगे' इत्या-11 Sapssssssses00000 दीप अनुक्रम [१७०] ~172~ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [८], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्ग शालाङ्का चार्गीयत्तियुत ॥ ८१॥ 9308993 दि, अपिः संभावने, एका कविषादिः लूषयतीति लूषकः प्रकृत्यैव क्रूरो भक्षका, 'खुधिय'ति क्षुधित-युभुक्षितं भिक्षामटन्तं ३.उपसभिक्षु 'दशति' भक्षयति दशनैरङ्गाबयवं विलुम्पति, 'तत्र' तस्मिन् श्वादिभक्षणे सति 'मन्दा' अज्ञा अल्पसत्त्वतया 'विषी- गोध्य.. दन्ति' दैन्यं भजन्ते, यथा 'तेजसा' अमिना 'स्पृष्टा' दह्यमानाः 'पाणिनो' जन्तवो बेदनार्ताः सन्तो विषीदन्ति-गात्रं उद्देशः१ |संकोचयन्त्यार्तध्यानोपहता भवन्ति, एवं साधुरपि क्रूरसवैरभिद्रुतः संयमाद् भ्रश्यत इति, दुःसहत्याद्वामकण्टकानाम् ॥ ८॥ पुनरपि तानधिकृत्याह अप्पेगे पडिभासंति, पडिपंथियमागता । पडियारगता एते, जे एते एव जीविणो॥९॥ अप्पेगे वइ जुजंति, नगिणा पिंडोलगाहमा । मुंडा कंडूविणटुंगा, उजल्ला असमाहिता ॥१०॥ अपिः संभावने, 'एके' केचनापुष्टधर्माण:-अपुण्यकर्माणः 'प्रतिभाषन्ते' युवते, प्रतिपथ:-प्रतिकूलसं तेन चरन्ति । प्रातिपन्थिकाः-साधुविद्वेषिणस्तद्भावमागताः कथश्चित्प्रतिपथे वा दृष्टा अनार्या एतद् बुवते, सम्भाव्यत ऐतदेवंविधाना, तद्यथा-प्रतीकार:-पूर्वोचरितस्य कर्मणोऽनुभवस्त मेके गताः-प्राप्ताः खकृतकर्मफलभोगिनो य एते' यतयः एवंजीविन' इति परगृहाण्यटन्ति अतोऽन्तप्रान्तभोजिनोऽदत्तदाना लुश्चितशिरसः सर्वभोगवश्चिता दुःखितं जीवन्तीति ।। ९ ॥ किश-अप्येके 18||८१ ॥ | केचन कुमृतिप्रसता अनार्या वाचं युञ्जन्ति-भाषन्ते, तद्यथा-एते जिनकल्पिकादयो नग्नास्तथा 'पिंडोलगपत्ति परपिण्डप्रा १ अमित प्र. शारिक्षय ०२ तदारयणिने ते चू०३ पिडेसु दीयमानेसु उलेति अधमा मधमजातया । उन्नाताः भष्टाः चु. cersercedeseseisersese दीप अनुक्रम [१७२] ~173~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप र्थका अधमा:-मलापिलखात् जुगुप्सिता 'मुण्डा' लुश्चितशिरसः, तथा-कचित्कण्डकृतक्षतै रेखाभिर्या विनष्टाङ्गा| विकृतशरीराः, अप्रतिकर्मशरीरतया वा कचिद्रोगसम्भवे सनत्कुमारबद्विनष्टाङ्गः, तथोद्गतो जल:-शुष्कप्रस्खेदो येषां ते उजल्ला:, तथा 'असमाहिता' अशोभना बीभत्सा दुष्टा वा प्राणिनामसमाधिमुत्पादयन्तीति ॥ १० ॥ साम्प्रतमेतद्धापकाणां चिपाकदर्शनायाह___ एवं विप्पडिबन्नेगे, अप्पणा उ अजाणया। तमाओ ते तमं जंति, मंदा मोहेण पाउडा ॥११॥ पुट्ठो य दंसमसएहिं, तणफासमचाइया । न मे दिट्टे परे लोए, जइ परं मरणं सिया ॥ १२ ॥ 'एवम्' अनन्तरीक्तनीत्या 'एके' अपुण्यकर्माणो 'विप्रतिपन्नाः' साधुसन्मार्गद्वेषिणः 'आत्मना' स्वयमज्ञाः, तुशब्दाद-18 न्येषां च चिवे किनां वचनमकुर्वाणाः सन्तस्ते 'तमसः' अज्ञानरूपादुत्कृष्टं तमो 'यान्ति' गान्ति, यदिवा-अधस्तादप्यधस्तनी गतिं गच्छन्ति, यतो 'मन्दा' ज्ञानावरणीये नावटब्धाः तथा 'मोहेन' मिध्यादर्शनरूपेण 'प्रावृता' आच्छादिताः सन्तः॥॥ खिड्गप्रायाः साधुविद्वेषितया कुमार्गगा भवन्ति, तथा चोक्तम्-“एक हि चक्षुरमलं सहजो विवेकस्तद्वद्भिरेव सह संवसतिदि-18 तीयम् । एतद् द्वयं भुवि न यस्य स तच्चतोजधरू स्थापमार्गचलने खलु कोऽपराधः॥१॥"॥ ११ ॥ दंशमशकपरीषहमधिकृत्याह-कचिस्सिन्धुताम्रलिप्स कोकणादिके देशे अधिका दंशमशका भवन्ति तत्र च कदाचित्साधुः पर्यटेस्तैः स्पृष्टश्च' भक्षितः तथा निष्किश्चनखात् तृणेषु शयानस्तत्स्पर्श सो हुमश कुवन् आतः सन् एवं कदाचिचिन्तयेत् , तद्यथा-परलोकार्थमेतहुष्करमनुष्ठान अनुक्रम [१७४] RELIGunintentration ~174~ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [१७६] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], मूलं [१२], निर्युक्तिः [५०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चार्ययचियुतं ॥ ८२ ॥ क्रियमाणं घटते, न चासौ मया परलोकः प्रत्यक्षेणोपलब्धः, अप्रत्यक्षत्वात् नाप्यनुमानादिनोपलभ्यत इति, अतो यदि परं | ममानेन क्लेशाभितापेन मरणं स्यात्, नान्यत्फलं किञ्चनेति ॥ १५ ॥ अपिच संतत्ता केसलोएणं, बंभचेरपराइया । तत्थ मंदा विसीयंति, मच्छा विट्ठा व केणे ॥ १३ ॥ आयदंडसमायारे, मिच्छासंठियभावणा । हरिसप्पओसमावन्ना, केई संतिऽनारिया ॥ १४ ॥ समन्तात् तप्ताः सन्तप्ताः केशानां 'लोच' उत्पाटनं तेन, तथाहि सरुधिरकेशोत्पाटने हि महती पीडोपपद्यते, तया चाल्पसच्चाः विस्रोतसिकां भजन्ते, तथा 'ब्रह्मचर्य' बस्तिनिरोधस्तेन च 'पराजिताः' पराभमाः सन्तः 'तत्र' तस्मिन् केशोत्पाटनेऽतिदुर्जयकामोद्रेके वा सति 'मन्दा' जडा-लघुप्रकृतयो विषीदन्ति संयमानुष्ठानं प्रति शीतलीभवन्ति, सर्वथा संयमाद् वा भ्रश्यन्ति यथा मत्स्याः 'केतने' मत्स्यबन्धने प्रविष्टा निर्गतिकाः सन्तो जीविताद् भ्रश्यन्ति एवं तेऽपि वराकाः सर्वकष कामपराजिताः संयमजीवितात् भ्रश्यन्ति ॥ १३ ॥ किञ्च - आत्मा दण्ड्यते-खण्ड्यते हितात् अश्यते येन स आत्मदण्डः 'समाचारः' अनुष्ठानं येषामनार्याणां ते तथा, तथा मिथ्या विपरीता संस्थिता-वाग्रहारूढा भावना- अन्तःकरण वृत्तिर्येषां ते मिथ्या| संस्थितभावना - मिथ्या खोपहतदृष्टय इत्यर्थः, हर्षश्च प्रद्वेषच हर्षप्रद्वेषं तदापन्ना रागद्वेषसमाकुला इतियावत् व एवम्भूता अ १ कडवसंठिया मच्छा पाणीए पडिनियत्ते ओयारिति खुणी एमादी Education Internation For Parts Only ~175~ ३ उपस गोध्य० उद्देशः १ ॥ ८२ ॥ wor Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१४], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१४|| नार्याः सदाचारं साधु क्रीडया प्रद्वेषेण वा क्रूरकर्मकारितात् 'लूषयन्ति' कदर्थयन्ति दण्डादिभिर्वाग्भिवेति ॥ १४ ॥ एतदेव दर्शयितुमाह अप्पेगे पलियंते सिं, चारो चोरोत्ति सुव्वयं । बंधति भिक्खुयं बाला, कसायवयणेहि य ॥१५॥ तत्थ दंडेणे संवीते, मुट्रिणा अदु फैलेण वा । नातीणं सरती बाले, इत्थी वा कुद्धगामिणी ॥१६॥ एते भो ! कसिणा फासा, फरुसा दुरहियासया। हत्थी वा सरसंवित्ता, कीवा वस गया गिहं ॥१७॥ तिबेमि ॥ इति तृतीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः॥ (गाथाग्रं० १९१) अपि संभावने, एके अनार्या आत्मदण्डसमाचारा मिथ्यासोपहतबुद्धयो रागद्वेषपरिगताः साधु 'पलियंते सिंति अनार्यदेशपर्यन्ते वर्तमान 'चारोनि चरोऽयं 'चौर' अयं स्तेन इत्येवं मला सुव्रतं कदर्थयन्ति, तथाहि-'बान्ति' रज्ज्वादिना संयम18| यन्ति 'भिक्षुक' भिक्षणशीलं 'याला' अज्ञाः सदसद्विवेकविकलाः तथा 'कषायवचनैश्च' क्रोधप्रधानकदुकवचनर्निर्भत्सेय न्तीति ॥ १५ ॥ अपिच-तत्र' तमिन्ननार्यदेशपर्यन्ते वर्तमानः साधुरनायः 'दण्डेन' यष्टिना मुष्टिना वा 'संवीतः' प्रह-181 तोऽधवा 'फलेन वा' मातुलिङ्गादिना खड्गादिना वा स साधुरेवं तैः कदय॑मानः कश्चिदपरिणतः 'बाल' अज्ञो 'ज्ञातीनां येषां परस्परविरोधः पू० २ खीलो दंडपहारो वा ३ वेदा Recenescccsekesesersekese दीप अनुक्रम [१७८] ~176~ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१७], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: गाध्य प्रत सूत्रांक सूत्रकृता शीलाचार्गीयत्तियुत ॥८३॥ ||१७|| खजनानां मरति, तद्यथा-यपत्र मम कश्चित् सम्बन्धी स्थात् नाहमेवम्भूतां कदर्थनामवाप्नुयामिति, दृष्टान्तमाह-यथा स्त्री ३ उपसक्रुद्धा सती खगृहात् गमनशीला निराश्रया मांसपेशीव सर्वस्पृहणीया तस्करादिभिरभिद्रुता सती जातपश्चात्तापा ज्ञातीनां सरति || एवमसावपीति ॥ १६ ॥ उपसंहारार्थमाह---भो इति शिष्यामवर्ण, य एत आदितः प्रभृति देशमशकादयः पीडोत्पादकलेन ||8|| उद्देशः २ | परीपहा एवोपसर्गा अभिहिताः 'कृत्स्ना संपूर्णा बाहुल्येन स्पृश्यन्ते-स्पर्शेन्द्रियेणानुभूयन्त इति स्पशों, कथम्भूताः'परुषाः' परुषैरनार्यैः कृतखात् पीडाकारिणः, ते चाल्पसत्वैर्दुःखेनाधिसह्यन्ते तश्विासहमाना लघुप्रकृतयः केचनाश्लाघामङ्गी|कृत्य हस्तिन इव रणशिरसि 'शरजालसंवीता' शरशताकुला भङ्गमुपयान्ति एवं 'क्लीया' असमर्था 'अवशाः परवशाः ।। कर्मायत्ता गुरुकर्माणः पुनरपि गृहमेव गताः, पाठान्तरं वा 'तिब्वसहे'त्ति ती बैरुपसर्गरभिद्रुताः 'शठाः' शठानुष्ठानाः संयम || | परित्यज्य गृहं गताः, इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १७ ॥ उपसर्गपरिज्ञायाः प्रथमोदेशक इति--- दीप अनुक्रम [१८१] erececeaecacaeesesese ॥ अथ तृतीयाध्ययनस्य द्वितीयोदेशकः प्रारभ्यते ॥ ।।८३॥ उक्तः प्रथमोदेशकः, साम्प्रतं द्वितीयः समारभ्यते-अस्स चायमभिसम्बन्धा, इहोपसर्गपरिक्षाध्ययने उपसर्गाः प्रतिपिपाद१.कुलाहाः प्र. SAREDuratininianmarama अत्र तृतीय-अध्ययनस्य द्वितीय-उद्देशकस्य आरम्भ: ~177~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥२॥ दीप विपिताः, ते चानुकूलाः प्रतिकूलाच, तत्र प्रथमोद्देशके प्रतिकूलाः प्रतिपादिताः, इह खनुकूलाः प्रतिपाद्यन्त इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्थास्योद्देशकस्यादिमूत्रम् अहिमे सुहमा संगा, भिक्खुणं जे दुरुत्तरा । जत्थ एगे विसीयंति, ण चयंति जवित्तए ॥१॥ अप्पेगे नायओ दिस्स, रोयंति परिवारिया। पोसणे ताय ! पुट्ठोऽसि, कस्स ताय! जहासिणे? ॥२॥ 'अथ' इति आनन्तये, प्रतिकूलोपसर्गानन्तरमनुकूलाः प्रतिपाद्यन्त इत्यानन्तर्यार्थः, ते 'इमें अनन्तरमेवाभिधीयमानाः प्रत्यशासनबाचित्खादिदमाऽभिधीयन्ते, ते च 'सूक्ष्मा: प्रायश्चेतोविकारकारिखेनान्तराः, न प्रतिकूलोपसर्गा इव वाहुल्येन शरीरविका-10 | रकारिखेन प्रकटतया यादरा इति, 'सङ्गा' मातापित्रादिसम्बन्धाः य एते 'भिक्षूणां' साधूनामपि 'दुरुत्तरा' दुर्लक्क्या-दुर|तिक्रमणीया इति, प्रायो जीवितविशकरैरपि प्रतिकूलोपसगैरुदीनुमाध्यस्थ्यमवलम्पयितुं महापुरुषः शक्यम्, एते खनुकूलोपस-1% र्गास्तानप्युपायेन धर्माच्यावयन्ति, ततो मी दुरुत्तरा इति, 'यत्र' येचूपसर्गेषु सत्सु 'एके' अल्पसवाः सदनुष्ठानं प्रति 'विषीदन्ति' शीतलविहारिवं भजन्ते सर्वथा चा संयमं त्यजन्ति, नैवात्मानं संयमानुष्ठानेन 'यापयितुं'-वर्तयितुं तस्मिन् वा | व्यवस्थापयितुं 'शकुवन्ति' समर्था भवन्तीति ॥१॥ तानेच सूक्ष्मसङ्गान् दर्शयितुमाह-'अपि: संभावने 'एके' तथाविधा 'ज्ञातयः' खजना मातापित्रादयः प्रवजन्तं प्रत्रजितं वा 'दृष्ट्वा' उपलभ्य 'परिवार्य' चेष्टयिखा रुदन्ति रुदन्तो पदन्ति च। १ यतः प्र. eeeeeesesesesesesesenesses अनुक्रम [१८२] ~178~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [२], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ३ उपसगोध्य० उद्देशः २ ||२|| दीप अनुक्रम [१८३] सूत्रकृताङ्गं दीनं यथा-बाल्यात् प्रभृति खमसामिः पोषितो वृद्धानां पालको भविष्यतीतिकृत्वा, ततोऽधुना 'न.' असानपि त्वं 'तात शीलाका- पुत्र 'पोषय' पालय, कस कृते-केन कारणेन कख वा बलेन तातासान् त्यजसि, नासाकं भवन्तमन्तरेण कश्चित्राता चाीय- | विद्यत इति ॥ २॥ किश्च-- त्तियुतं ॥४॥ पिया तेथेरओ तात!, ससा ते खुड्डिया इमा।भायरोते सगा तात!, सोयरा किं जहासिणे?॥३॥ मायरं पियरं- पोस, एवं लोगो भविस्सति। एवं खुलोइयं ताय ,जे पालंति य मायरं ॥४॥ हे 'तात! पुत्र ! पिता 'ते' तव 'स्थविरो' वृद्धः शेतातीकः 'खसा' च भगिनी तव 'क्षुल्लिका' लघ्वी अप्राप्तयौवना 'इमा' पुरोवर्तिनी प्रत्यक्षेति, तथा भ्रातरः 'ते' तव 'खका' निजास्तात ! 'सोदरा' एकोदराः किमित्यमान् परित्यजसीति ॥३॥ तथा 'मायरमित्यादि, 'मातरं जननीं तथा 'पितरं जनयितारं 'पुषाण' विभूहि, एवं च कृते तवेहलोकः परलो| कथ भविष्यति, तावेदमेव 'लौकिक' लोकाचीर्णम् , अयमेव लौकिकः पन्था यदुत-वृद्धयोर्मातापित्रोः प्रतिपालनमिति, S| तथा चोक्तम्-"गुरखो यत्र पूज्यन्ते, यत्र धान्यं सुसंस्कृतम् । अदन्तकलहो यत्र, तत्र शक्र! वसाम्यहम् ॥१॥"। इति ॥४॥"अपिच| १ सचा--वयपनिइसे चिति चू० २ वर्षशतमानः esesesercepccesscccepersecs Keelcersememesesesesesereek ॥८४॥ ~179~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक डरटseeeeeeeeee दीप अनुक्रम [१८६] उत्तरा महुरुल्लावा, पुत्ता ते तात ! खुड्डया। भारिया ते णवा तात!, मा सा अन्नं जणं गमे ॥५॥ एहि ताय! घरंजामो, मा य कम्मे सहा वयं। बितियंपि ताय! पासामो, जामु ताव सयं गिहं ॥६॥ 'उत्तरा' प्रधानाः उत्तरोत्तरजाता वा मधुरो-मनोज्ञ उल्लापः-आलापो येषां ते तथाविधाः पुत्राः 'ते तब 'तात' पुत्र! 'क्षुल्लका' लघवः तथा 'भार्या पत्नी ते 'नवा' प्रत्यग्रयौवना अभिनवोढा वा मा असौ खया परित्यक्ता सती अन्यं जनं । गच्छेत्-उन्मार्गयायिनी खाद्, अयं च महान् जनापवाद इति ॥ ५॥ अपिच-जानीमो वयं यथा सं कर्मभीरुस्तथापि 'एहि' ||आगच्छ गृहं 'यामो' गच्छामः । मा सं किमपि साम्प्रतं कर्म कृथाः, अपितु तव कर्मण्युपस्थिते वयं सहायका भविष्यामः-1 | साहाय्य करिष्यामः । एकवारं तावद्गृहकर्मभिर्भग्नस्तं तात! पुनरपि द्वितीयं वारं पश्यामो' द्रक्ष्यामो यदसाभिः सहायैर्भववो भविष्यतीत्यतो 'यामों' गच्छामः तावत् स्वकं गृहं कुर्वेतदस्मद्वचनमिति ॥ ६॥ किश्च गंतुंताय! पुणो गच्छे, ण तेणासमणो सिया। अकामगं परिकम्म, कोते वारेउमरिहति ? ॥७॥ जं किंचि अणगं तात!, तंपि सवं समीकतं । हिरणं ववहाराइ, तंपि दाहामु ते वयं ॥८॥ 'तात' पुत्र ! गला गृहं खजनवर्ग दृष्ट्वा पुनरागन्ताऽसि, नच 'तेन' एतावता गृहगमनमात्रेण समश्रमणो भविष्यसि, 'अ १ उत्तमा चू० र उत्सारितं चू. Desceesease ~180 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक 1411 दीप अनुक्रम [१८९] — - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) [भाग-3] “सूत्रकृत्” श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२], मूलं [८], निर्युक्तिः [५०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चाय चियुतं ॥ ८५ ॥ | कामगं ति अनिच्छन्तं गृहव्यापारेच्छारहितं 'पराक्रमन्तं' स्वाभिप्रेतानुष्ठानं कुर्बाणं कः 'त्वां' भवन्तं 'वारयितुं' निषेध - | यितुम् अर्हति' योग्यो भवति, यदिवा- 'अकामगं ति वार्द्धकावस्थायां मदनेच्छाकामरहितं पराक्रमन्तं संयमानुष्ठानं प्रति % कस्त्वामवसरप्राप्ते कर्मणि प्रवृत्तं धारवितुमईतीति ॥ ७ ॥ अन्यच्च - 'तात' पुत्र ! यत्किमपि भवदीयमृणजातमासीत्तत्सर्वमसाभिः सम्यग्विभज्य 'समीकृतं' समभागेन व्यवस्थापितं यदिवोत्कटं सत् समीकृतं सुदेयलेन व्यवस्थापितं यच्च 'हिरण्यं' द्रव्यजातं | व्यवहारादावुपयुज्यते, आदिशब्दात् अन्येन वा प्रकारेण तवोपयोगं यास्यति तदपि वयं दास्यामः, निर्धनोऽयमिति मा कृथा भयमिति ॥ ८ ॥ उपसंहारार्थमाह इच्चेवणं सुसहंति, कालुणीयसमुट्ठिया । विबद्धो नाइसंगेहिं, ततोऽगारं पहावइ ॥ ९ ॥ जहा रुक्खं वणे जायं मालया पडिबंधई । एव णं पडिबंधंति, णातओ असमाहिणा ॥ १० ॥ णमिति वाक्यालङ्कारे ‘इत्येव' पूर्वोक्तया नीत्या मातापित्रादयः कारुणिकैर्वचोभिः करुणामुत्पादयन्तः स्वयं वा दैन्यमुपस्थिताः 'तं' प्रव्रजितं प्रव्रजन्तं वा 'सुसेहंति'त्ति सुष्ठु शिक्षयन्ति व्युद्राहयन्ति, स चापरिणतधर्माऽल्पसच्चो गुरुकर्मा ज्ञातिसङ्गैविबद्धो मातापितृपुत्र कलत्रादिमोहितः ततः 'अगार' गृहं प्रति धावति - प्रवज्यां परित्यज्य गृहपाशमनुबध्नातीति ॥ ९ ॥ किश्वान्यत्-यथा वृक्षं 'वने' अटव्यां 'जातम्' उत्पन्नं 'मालया' वल्ली 'प्रतिवन्नाति' वेष्टयत्येवं 'णं' इति वाक्यालङ्कारे Education Intematon For Parts Only ~ 181~ ३ उपस मध्य० उद्देशः २ ॥ ८५ ॥ war Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१०], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१०|| दीप 'ज्ञातयः' खजनाः 'तं' यति असमाधिना प्रतिबध्नन्ति, ते तत्कुर्वन्ते येनास्यासमाधिरुत्पद्यत इति, तथा चोक्तम्-"अमित्तो मि-श्री सवेसेणं, कंठे घेत्तूण रोयइ । मा मित्ता ! सोग्गई जाहि, दोषि गच्छामु दुग्गई ॥१॥"॥१०॥ अपिचविबद्धो नातिसंगहिं, हत्थीवावी नवग्गहे । पिट्रतो परिसप्पंति, सुयगोच अदूरए ॥ ११ ॥ एते संगा मणूसाणं, पाताला व अतारिमा। कीवा जत्थ य किस्संति, नाइसंगेहिं मुच्छिया ॥१२॥ || विविध बद्धः-परवशीकृतः विबद्धो ज्ञातिसझै-मातापित्रादिसम्बन्धैः, ते च तस्य तसिन्नवसरे सर्वमनुकूलमनुतिष्ठन्तो धृतिमुस्पादयन्ति, हस्तीवापि 'भयग्रहे' अभिनवग्रहणे, (यथा स) धृत्युत्पादनार्थमिक्षुशकलादिभिरुपचर्यते, एवमसावपि सर्वानुकूले-18| रुपायैरुपचर्यते, दृष्टान्तान्तरमाह-यथाऽभिनवप्रसूता गौनिजस्तनन्धयस्य 'अदूरगा' समीपवर्तिनी सती पृष्ठतः परिसर्पति, एवं | तेऽपि निजा उत्प्रवजितं पुनर्जातमिव मन्यमानाः पृष्ठतोऽनुसर्पन्ति-तन्मार्गानुयायिनो भवन्तीत्यर्थः ॥११॥ सङ्गदोषदर्शनायाह'एते' पूर्वोक्ताः सज्यन्त इति सङ्गा:-मातृपित्रादिसम्बन्धाः कर्मोपादानहेतवः, मनुष्याणां 'पाताला इव' समुद्रा इवाप्रतिठितभूमितलखात ते 'अतारिमत्ति दुस्तराः, एवमेतेऽपि सङ्गा अल्पसच्चैर्दुःखेनातिलचन्ते, 'यत्र च येषु सङ्गेषु 'क्लीया' असमर्थाः 'क्लिश्यन्ति' लेशमनुभवन्ति, संसारान्तर्वर्तिनो भवन्तीत्यर्थः, किंभूता:-'ज्ञातिसझै पुत्रादिसम्बन्धैः 'मूछिता'। | गृद्धा अध्युपपन्नाः सन्तो, न पोलोचयन्त्यात्मानं संसारान्तवर्तिनमेवं क्लिश्यन्तमिति ॥ १२ ।। अपिच| अभिभित्ररेषेण कण्ठे राहीत्वा रोदिति । मा मित्र ! सुगातीर्याः हावपि गच्चायो हुगंतिम् ॥ १॥ अनुक्रम [१९१] ~1824 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१३], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: शीकाका प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप सूत्रकृता तं च भिक्खू परिन्नाय, सवे संगा महासवा । जीवियं नावकंखिज्जा, सोच्चा धम्ममणुत्तरं ॥ १३ ॥ ३ उपसअहिमे संति आवद्दा, कासवेणं पवेइया । बुद्धा जत्थावसप्पंति, सीयंति अबुहा जहिं ॥ १४ ॥ गोध्य. चायीय उद्देश २ त्तियुतं 'तंच शातिसङ्गं संसारैकहेतुं भिक्षुझपरिक्षया (शाखा ) प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् । किमिति ?, यतः 'सर्वेऽपि ये ॥८६॥ | केचन सङ्कास्ते 'महाश्रवा' महान्ति कर्मण आश्रवद्वाराणि वर्तन्ते । ततोऽनुकूलैरुपसगैंरुपस्थितैरसंयमजीवितं-गृहावासपाशं 'नाभिकाङ्केत्' नाभिलषेत्, प्रतिकूलैश्वोपसर्गः सनिर्जीविताभिलाषी न भवेद, असमञ्जसकारिखेन भवजीवितं नाभिकात् । | किं कृत्वा ! 'श्रुत्वा' निशम्यावगम्य, कम् ?-'धर्म' श्रुतचारित्राख्य, नास्योत्तरोऽस्तीत्यनुत्तरं-प्रधानं मौनीन्द्रमित्यर्थः ॥१३॥ | अन्यच्च-'अथे' त्यधिकारान्तरदर्शनार्थः, पाठान्तरं वा 'अहो' इति, तच्च विसये, 'इमें' इति एते प्रत्यक्षासनाः सर्वजनविदि| तखात् 'सन्ति' विद्यन्ते वक्ष्यमाणा आवर्तयन्ति-प्राणिनं भ्रामयन्तीत्यावर्ताः, तत्र द्रव्यावर्ता नद्यादेः भावावर्तास्तूत्कटमोहोद-19 | यापादितविषयाभिलाषसंपादकसंपत्प्रार्थनाविशेषाः, एते चावर्ताः 'काश्यपेन' श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामिना उत्पन्नदिव्यज्ञा-18 नेन 'आ(प्र)वेदिता' कथिताः प्रतिपादिताः 'यत्र' येषु सत्सु 'बुद्धा' अवगततच्या आवर्तविपाकवेदिनस्तेभ्यः 'अपसर्पन्ति' IR॥८६॥ Pअप्रमत्ततया तदूरगामिनो भवन्ति, अबुद्धास्तु निर्विवेकतया येष्ववसीदन्ति-आसक्ति कुर्वन्तीति ॥ १४ ॥ तानेबावर्तान दर्शयितुमाह अनुक्रम [१९४] ~183~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१५], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥१५॥ दीप अनुक्रम [१९६] seemesese Seserveesesesesecene रायाणो रायऽमच्चा य, माहणा अदुव खत्तिया । निमंतयंति भोगेहिं, भिक्खूयं साहुजीविणं ॥१५॥ हत्थऽस्सरहजाणेहि, विहारगमणेहि य । भुंज भोगे इमे सग्घे, महरिसी! पूजयामु तं ॥१६॥ 'राजान' चक्रवर्त्यादयो 'राजामात्याश्च' मन्त्रीपुरोहितप्रभृतयः तथा प्रामणा अथवा 'क्षत्रिया' इक्ष्वाकुवंशजप्रभृतयः, एते सर्वेऽपि 'भोगैः शब्दादिभिर्विषयैः 'निमन्त्रयन्ति' भोगोपभोग प्रत्यभ्युपगमं कारयन्ति, कम् ?-भिक्षुकं 'साधुजी-100 विणमिति साध्वाचारेण जीवितुं शीलमति ( साधुजीवी तं) साधुजीविन मिति, यथा ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिना नानाविधै-18 भोंगैश्वित्रसाधुरुपनिमचित इति । एवमन्येऽपि केनचित्सम्बन्धेन व्यवस्थिता यौवनरूपादिगुणोपेतं साधं विषयोदेशेनोपनिमन्त्रये-18 युरिति ।।१५।। एतदेव दर्शयितुमाह-हुस्त्यश्वरथयानैः तथा 'विहारगमनैः विहरणं क्रीडनं विहारस्तेन गमनानि विहारग-18 मनानि-उद्यानादौ क्रीडया गमनानीत्यर्थः, चशब्दादन्यैश्चेन्द्रियानुकूलैर्विषयैरुपनिमययेयुः, तद्यथा-भङ्ग 'भोगान्' शब्दादि| विषयान् 'इमान्' असाभिदौंकितान् प्रत्यक्षासनान् श्लाघ्यान्' प्रशस्तान् अनिन्द्यान् 'महर्षे' साधो! वयं विषयोपकरणढौ-15 | कनेन 'स्वा' भवन्तं 'पूजयामा' सत्कारयाम इति ॥ १६ ॥ किश्चान्यत् वत्थगंधमलंकार, इत्थीओ सयणाणि य । भुंजाहिमाई भोगाई, आउसो! पूजयामु तं ॥१७॥ जो तुमे नियमो चिपणो, भिक्खुभावंमि सुबया! । अगारमावसंतस्स, सबो संविजए तहा ॥१८॥ ~1844 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१८], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक चियुत ||१८|| दीप सूत्रकृताङ्गं 'वस्त्र चीनांशुकादि 'गन्धा कोष्टपुटपाकादयः, वस्त्राणि च गन्धाश्च चखगन्धमिति समाहारद्वन्द्वः तथा 'अलङ्कारम्'18/३ उपसशीलाका- कटककेयूरादिकं तथा 'स्त्रिया' प्रत्यग्रयौवनाः 'शयनानि च पर्यतूलीप्रच्छदपटोपधानयुक्तानि, इमान् भोगानिन्द्रियमनोऽनु-18 र्गाध्य कुलानमामिढौंकितान् 'भुक्ष तदुपभोगेन सफलीकुरु, हे आयुष्मन् ! भवन्तं 'पूजयामः' सत्कारयाम इति ॥ १७ ॥ अपि-18| उद्देशा २ च-यस्तया पूर्व 'भिक्षुभावे' प्रवज्यावसरे 'नियमो' महाव्रतादिरूपः 'चीर्णः अनुष्ठितः इन्द्रियनोइन्द्रियोपशममतेन हे सुव्रत ! स साम्प्रतमपि 'अगारं गृहम् 'आवसतः' गृहस्थमा सम्यगनुपालयतो भवतस्तथैव विद्यत इति, न हि सुकतदु-15| प्कृतस्यानुचीर्णख नाशोऽस्तीति भावः ॥ १८ ।। किञ्चचिरं दूइजमाणस्स, दोसो दाणिं कुतो तव ? । इच्चेव णं निमंति, नीवारेण व सूयरं ॥ १९ ॥ 18 चोइया भिक्खचरियाए, अचयंता जवित्तए । तत्थ मंदा विसीयंति, उज्जाणंसि व दुब्बला ॥२०॥ 'चिरं प्रभूतं कालं संयमानुष्ठानेन 'दहजमाणस्स'त्ति विहरतः सतः इदानीं' साम्प्रतं दोपः कुतस्तव ?, नैवास्तीति भावः, इत्येवं हस्त्यश्वरथादिभिर्वस्वगन्धालङ्कारादिभिश्च नानाविधैरुपभोगोपकरणैः करणभूतैः 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे 'तं' भिक्षु सा- ८७॥ || धुजीविनं 'निमन्त्रयन्ति' भोगबुद्धि कारयन्ति, दृष्टान्तं दर्शयति-यथा 'नीवारण' ब्रीहिविशेषकणदानेन 'सूकर' वराह - IS टके प्रवेशयन्ति एवं तमपि साधुमिति ॥ १९ ॥ अनन्तरोपन्यस्तवार्तोपसंहारार्थमाह-भिक्षणां-साधूनामुयुक्तविहारिणां || अनुक्रम [१९९] अलम ~185~ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [२०], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| चर्या-दशविधचक्रवालसामाचारी इच्छामिच्छेत्यादिका तया चोदिताः-प्रेरिता यदिवा भिक्षुचर्यया करणभूतया सीदन्तश्रोदिताः-तत्करणं प्रत्याचार्यादिकैः पौनःपुन्येन प्रेरितास्तचोदनामशक्कुबन्तः संयमानुष्ठानेनात्मानं 'यापयितुं' वर्तयितुमस-1 || मर्थाः सन्तः 'तत्र' तसिन् संयमे मोक्षकगमनहेतौ भवकोटिशतावाप्ते 'मन्दा' जडा 'विषीदन्ति' शीतलविहारिणो भवन्ति, | तमेवाचिन्त्यचिन्तामणिकल्प महापुरुषानुचीर्ण संयम परित्यजन्ति, दृष्टान्तमाह-ऊय यानमुद्यान-मार्गस्योनतो भाग उहङ्कमित्यर्थः तस्मिन् उद्यानशिरसि उक्षिप्तमहाभरा उक्षाणोऽतिदुर्बला यथाऽवसीदन्ति-ग्रीवां पातयिखा तिष्ठन्ति नोरिक्षप्तभरनिर्वा-1 हका भवन्तीत्येवं तेऽपि भावमन्दा उत्क्षिप्तपश्चमहाव्रतमारं वोडमसमर्थाः पूर्वोक्तभावावतः पराभग्ना विषीदन्ति ॥२०॥ किश्व अचयंता व लूहेणं, उवहाणेण तजिया । तत्थ मंदा विसीयंति, उजाणंसि जरग्गवा ॥ २१ ॥ एवं निमंतणं लद्धं, मुच्छिया गिद्ध इत्थीसु । अज्झोववन्ना कामेहि, चोइज्जता गया गिहं ॥ २२ ॥ तिबेमि ॥ इति उबसग्गपरिणाए बितिओ उद्देसो सम्मत्तो ।। ३-२॥ (गाथाग्रं० २१३) 'रूक्षेण संयमेनात्मानं यापयितुमशक्नुवन्तः तथा 'उपधानेन' अनशनादिना सबाह्याभ्यन्तरेण तपसा 'तर्जिता' बाधिताः सन्तः तत्र संयमे मन्दा विषीदन्ति 'उद्यानशिरसि' उहङ्कमस्तके 'जीणों दुर्बलो गौरिच, यूनोऽपि हि तत्रावसीदनं सम्भाव्यते ४ दीप अनुक्रम [२०१] बाधिता इति प्र०२ राणप्र० ~ 186 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [२२], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रता || किं पुनर्जरद्वस्वेति जीर्णग्रहणम् , एवमावर्तमन्तरेणापि धृतिसंहननोपेतस्य विवेकिनोऽप्यवसीदनं सम्भाव्यते, किं पुनरावर्ते- ३ उपसशीलाला- | रुपसर्गिताना मन्दानामिति ॥ २१ ॥ सर्वोपसंहारमाह-एवं पूर्वोक्तया नीत्या विषयोपभोगोपकरणदानपूर्वक निमन्त्रणा गाध्य. | विषयोपभोग प्रति प्रार्थनं 'लब्ध्वा' प्राप्य 'तेषु' विषयोपकरणेषु हस्त्यश्वरथादिषु 'मूञ्छिता' अत्यन्तासक्ताः तथा स्त्रीषु । उद्देशः ३ त्तियुत |'गृद्धा' दवावधाना रमणीरागमोहिताः तथा 'कामेषु' इच्छामदनरूपेषु 'अध्युपपन्ना।' कामगतचिचाः संयमेवसीदन्तोऽपरेणोयुक्तविहारिणा नोद्यमानाः-संयम प्रति प्रोत्साझमाना नोदनां सोदुमशक्नुवन्तः सन्तो गुरुकर्माणः प्रव्रज्या परित्यज्याल्पसचा गृहं गता-गृहस्थीभूताः । इतिः परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् ।।२२।। इति उपसर्गपरिज्ञाऽध्ययनस्य द्वितीय उद्देशः॥ ||२२|| दीप cekcersease अनुक्रम [२०३] अथ तृतीयस्योपसर्गाध्ययनस्य तृतीयोद्देशकः प्रारभ्यते ॥ --00-000| उपसर्गपरिज्ञायां उक्तो द्वितीयोद्देशकः, साम्प्रतं तृतीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोदेशकाभ्यामुपसगों|| अनुकूलप्रतिकूल भेदेनाभिहिताः, तैवाध्यात्मविषीदनं भवतीति तदनेन प्रतिपाद्यत इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्योदेशकस्यादि सूत्रम् अत्र तृतीय-अध्ययनस्य तृतीय-उद्देशकस्य आरम्भ: ~187~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [१], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥२॥ दीप जहा संगामकालंमि, पिटुतो भीरु वेहइ । वलयं गहणं णूमं, को जाणइ पराजयं ॥१॥ मुहुत्ताणं मुहुत्तस्स, मुहुत्तो होइ तारिसो। पराजियाऽवसप्पामो, इति भीरू उवेहई ॥२॥ दृष्टान्तेन हि मन्दमतीनां सुखेनवार्थावगतिर्भवतीत्यत आदावेव दृष्टान्तमाह-यथा कश्चिद् 'भी।' अकृतकरणः 'संग्राम-18 | काले' परानीकयुद्धावसरे समुपस्थिते 'पृष्ठतः प्रेक्षते' आदावेवापत्प्रतीकारहेतुभूतं दुर्गादिकं स्थानमवलोकयति । तदेव दर्श यति-'वलय'मिति यत्रोदकं वलयाकारेण व्यवस्थितम् उदकरहिता वा गर्ता दुःखनिर्गमप्रवेशा, तथा 'गहन धवादिवृक्षः | केटिसंस्थानीय ''मति प्रच्छन्नं गिरिगुहादिकं, किमित्यसावेवमवलोकयति ?, यत एवं मन्यते-तत्रैवम्भूते तुमुले सङ्ग्रामे सुभट-18 | सङ्कले को जानाति कस्यात्र पराजयो भविष्यतीति ?, यतो दैवायचाः कार्यसिद्धयः, स्तोकैरपि बहवो जीयन्त इति ॥१॥ किश्च-18 | मुहूर्तानामेकस्य वा मुहूर्तस्यापरो 'मुहूर्तः' कालविशेषलक्षणोऽवसरस्ताहर भवति यत्र जयः पराजयो वा सम्भाव्यते, तत्रैवं 8 व्यवस्थिते पराजिता वयम् 'अवसामो नश्याम इत्येतदपि सम्भाव्यते अस्सद्विधानामिति भीरुः पृष्ठत आपत्प्रतीकारार्थ । शरणमुपेक्षते ॥२॥ इति श्लोकद्वयेन दृष्टान्त प्रदर्य दार्शन्तिकमाह18] १ कटिस• प्र. २ बुद्धविषयस्थान गायोपेक्षेन्द्र जालानि क्षुद्रौपाया इमे प्रब इति श्रीदेगबन्दवचनादन दोपायपर उपेक्षिा desereesesesesesesecacaeee अनुक्रम [२०४] SAREauratonintamational ~188 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [३], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३|| सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचाीयत्तियुत ॥८९॥ दीप अनुक्रम [२०६] Receeseeecene एवं तु समणा एगे, अबलं नच्चाण अप्पगं । अणागयं भयं दिस्स, अविकप्पंतिमं सुयं ॥३॥ ३उपस गोध्य० को जाणइ विऊवातं, इत्थीओ उदगाउ वा । चोइजंता पवक्खामो,ण णो अस्थि पकप्पियं ॥nel उद्देश:३ 'एवम्' इति यथा सामं प्रवेष्टुमिच्छुः पृष्ठतोऽवलोकयति-किमत्र मम पराभग्रस्य बलयादिकं शरणं त्राणाय स्यादिति ?, एव-19॥ | मेव 'श्रमणाः' प्रजिता 'एके' केचनादृढमतयोऽल्पसचा आत्मानम् 'अवलं' यावज्जीवं संयमभारवहनाक्षम ज्ञाखा अनागत-॥१॥ मेव भयं 'दृष्ट्वा' उत्प्रेक्ष्य तद्यथा-निष्किञ्चनोऽहं किं मम वृद्धावस्थायां ग्लानाद्यवस्थायां दुर्भिक्षे वा त्राणाय स्थादित्येवमाजीविकाभयमुत्प्रेक्ष्य 'अवकल्पयन्ति' परिकल्पयन्ति मन्यन्ते-इदं व्याकरणं गणितं जोतिष्कं वैद्यकं होराशाख मत्रादिकं वा श्रुत-181 मधीतं ममावमादौ त्राणाय स्वादिति ॥३॥ एतचैतेऽवकल्पयन्तीत्याह-अल्पसत्त्वाः प्राणिनो विचित्रा च कर्मणां गतिः181 बहूनि प्रमादस्थानानि विद्यन्ते अतः 'को जानाति?' का परिच्छिनत्ति 'व्यापात' संयमजीवितात् अंश, केन पराजितस्य मम 181 संयमाद् भ्रंशः स्यादिति, किम् 'स्त्रीतः स्त्रीपरिषहात् उत 'उदकात्' स्नानाद्यर्थमुदकासेवनाभिलाषादू, इत्येचं ते वराकाः प्रक-18 ल्पयन्ति, न 'न' असाकं किञ्चन 'प्रकल्पित' पूर्वोपार्जितद्रव्यजातमस्ति यत्तस्यामवस्थायामुपयोग याखति, अतः 'चोद्य-|| मानाः परेण पृच्छचमाना हस्तिशिक्षाधनुर्वेदादिक कुटिलविण्टलादिकं वा 'प्रवक्ष्यामः कथयिष्यामः प्रयोक्ष्याम इत्येवं ते ॥८९॥ हीनसत्त्वाः सम्प्रधाये व्याकरणादौ श्रुते प्रयतन्त इति, न च तथापि मन्दभाग्यानामभिप्रेतार्थावाप्तिर्भवतीति, तथा चोक्तम् १अवकप्पंतीति टीका । १ वियागात इति टीकादमिप्रायः। ३ कुष्टकमण्डलादि । मुण्टसविण्टलादि। ~1894 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [४], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक //४|| |"उपशमफलाद्विद्यारीजात्फलं धनमिच्छता, भवति विफलो यद्यायासस्तदन्त्र किमद्भुतम् । न नियतफलाः कर्तुर्भावाः फलान्त-12 परमीशते, जनयति खलु बी/जं न जातु यवाङ्करम् ॥१॥इति"॥४॥ उपसंहारार्थमाह इच्चेव पडिलेहंति, वलया पडिलेहिणो। वितिगिच्छसमावन्ना, पंथाणं च अकोविया ॥५॥ जे उ संगामकालंमि, नाया सूरपुरंगमा । णो ते पिटुमुवेहिंति, किं परं मरणं सिया ? ॥६॥ 181 'इत्येवमिति पूर्वप्रक्रान्तपरामर्शार्थः, यथा भीरवः सङ्ग्रामे प्रविविक्षवो वलयादिकं प्रति उपेक्षिणो भवन्तीति, एवं प्रबजिता मन्दभाग्यतया अल्पसवा आजीविकामयाब्याकरणादिकं जीवनोपायत्वेन 'प्रत्युपेक्षन्ते' परिकल्पयन्ति, किम्भूताः-विचिकि-|| त्सा-चित्तविप्लुतिः-किमेनं संयमभारमुत्क्षिप्तमन्तं नेतुं वयं समर्थाः उत नेतीत्येवम्भूता, तथा चोक्तम्-"लुक्खमणुण्हमणिययं कालाइकंतभोयणं विरसं । भूमीसवणं लोओ असिणाणं बंभचेरं च ॥१॥" तां समापन्नाः-समागताः, यथा पन्थानं प्रति 'अकोविदा' अनिपुणाः, किमयं पन्था विवक्षितं भूभागं यास्यत्युत नेतीत्येवं कृतचित्तविष्टुतयो भवन्ति, तथा तेऽपि संयमIS मारवहन प्रति विचिकित्सां समापन्ना निमित्तगणितादिकं जीविकार्थ प्रत्युपेक्षन्त इति ॥५॥ साम्प्रतं महापुरुषचेष्टिते दृष्टान्त माह-ये पुनर्महासत्त्वाः, तुशब्दो विशेषणार्थः 'सजामकाले' परानीकयुद्धावसरे 'ज्ञाता:' लोकविदिताः, कथम् ?-'शूरपुर|माः शूराणामग्रगामिनो युद्धावसरे सैन्याग्रस्कन्धवर्तिन इति, त एवम्भूताः सनामं प्रविशन्तो 'न पृष्ठमुत्प्रेक्षन्ते' न दुगों कर्तुं भा०प्र० । २ रूक्षमनुष्णमनियतं काला तिकान्त भोजनं विरसम् । भूमिशयनं लोचोऽमानं अदाचर्य च ॥१॥ दीप १escesesesesetteeseaenes अनुक्रम [२०७] SAMEmirahini ~190~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [६], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्ग शीलाकाचार्यांय सूत्रांक त्तिपुतं ||६|| ॥९ ॥ दीप दिकमापत्राणाय पर्यालोचयन्ति, ते चाभङ्गकृतबुद्धयः, अपि खेवं मन्यन्ते-किमपरमत्रासाकं भविष्यति', यदि परं मरणं ३ उपसखात्, तच शाश्वतं यशःप्रवाहमिच्छतामस्वाक स्तोकं वर्तत इति, तथा चोक्तम्-"विशरारुभिरविनश्वरमपि चपैलः स्थास्नु वाञ्छता || गोध्य० विशदम् । प्राणैर्यदि शूराणां भवति यशः किं न पर्याप्तम् ॥१॥" ॥ ६ ॥ तदेवं सुभटदृष्टान्तं प्रदर्य दार्टान्तिकमाह- उद्देश। ३ एवं समुट्टिए भिक्खू , वोसिज्जाऽगारबंधणं । आरंभ तिरियं कद्दु, अत्तत्ताए परिवए ॥ ७॥ तमेगे परिभासंति, भिक्खूयं साहुजीविणं । जे एवं परिभासंति, अंतए ते समाहिए ॥८॥ यथा सुभटा ज्ञाता नामतः कुलतः शार्यतः शिक्षातश्च तथा सन्नबद्धपरिकराः करगृहीतदेतयः प्रतिभटसमितिमेदिनो म|| पृष्ठतोऽवलोकयन्ति, एवं 'भिक्षुरपि साधुरपि महासत्वः परलोकप्रतिस्पर्द्धिनमिन्द्रियकषायादिकमरिवर्ग जेतुं सम्पर-संपमोत्थानेनोत्थितः समुत्थितः, तथा चोक्तम्-“कोहं माणं च मायं च, लोहं पंचिंदियाणि य । दुजय चेवमप्पाणं, सबमप्पे जिए जियं ॥ १॥" किं कृता समुत्थित इति दर्शयति-व्युत्सृज्य' त्यक्ता 'अगारबन्धन' गृहपाशं तथा 'आरम्भ || सावधानुष्ठानरूपं 'तियकृत्वा' अपहस्त्य आत्मनो भाव आत्मखम्-अशेषकर्मकलङ्करहितलं तसै आत्मखाय, यदिवा-आ- |त्मा-मोक्षः संयमो वा तद्भावस्तस्यैतदर्थ परि-समन्ताद्ब्रजेव-संयमानुष्ठानक्रियायां दत्तावधानो भवेदित्यर्थः ॥७॥18|॥९॥ नियुक्तौ यदभिहितमध्यात्मविषीदनं तदुक्तम् , इदानीं परवादिवचनं द्वितीयमाधिकारमधिकृत्याह- 'त' मिति साधुम् 'एके ये मोधः मानव माया च लोभः पपेन्द्रियाणि च । दुर्जय चैवात्मनां सर्वमात्मनि जिते जितम् ॥ १॥ र हस्तयित्वा प्र० । ३ परिवादि प्रा। अनुक्रम [२०९] ~191~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [८], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक 19 परस्परोपकाररहितं दर्शनमापना अथाशलाकाकल्पाः, ते च गोशालकमतानुसारिण आजीविका दिगम्बरा वा, त एवं181 वक्ष्यमाणं परि-समन्तानापन्ते । तं भिक्षुकं साध्वाचारं साधु-शोभनं परोपकारपूर्वकं जीवितुं शीलमस स साधुजीविनमिति, 'ये ते अपुष्टधर्माण एवं वक्ष्यमाणं 'परिभाषन्ते' साध्वाचारनिन्दा विदधति त एवंभूता 'अन्तके' पर्यन्ते दूरे 'समाधे' मोक्षाख्यात्सम्यग्ध्यानात्सदनुष्ठानात् वा वर्तन्त इति ॥८॥ यत्ते प्रभाषन्ते तदर्शयितुमाह संबद्धसमकप्पा उ, अन्नमन्नेसु मुच्छिया । पिंडवायं गिलाणस्स, जं सारेह दलाह य ॥९॥ | एवं तुब्भे सरागत्था, अन्नमन्नमणुवसा । नटुसप्पहसब्भावा, संसारस्स अपारगा ॥१०॥ सम्-एकीभावेन परस्परोपकार्योपकारितया च 'बद्धाः पुत्रकलबादिस्नेहपाशः सम्बद्धा---गृहस्थास्तैः समः-तुल्यः कल्पो-व्यवहारोऽनुष्ठानं येषान्ते सम्बद्धसमकल्पा-गृहस्थानुष्ठानतुल्यानुष्ठाना इत्यर्थः, तथाहि-यथा गृहस्था परस्परोपकारेण | माता पुत्रे पुत्रोऽपि मात्रादावित्येवं 'मूच्छिता' अध्युपपन्नाः, एवं भवन्तोऽपि 'अन्योऽन्य' परस्परतः शिष्याचार्याद्युपकारक्रियाकल्पनया मूर्षिछताः, तथाहि-गृहस्थानामयं न्यायो यदुत-परस्मै दानादिनोपकार इति, न तु यतीनां, कथमन्योऽन्यं मूञ्छिता | इति दर्शयति-'पिण्डपातं' भैक्ष्यं 'ग्लानस्य' अपरस्य रोगिणः साधोः यद्-यस्मात् 'सारेह'त्ति अन्वेषयत, तथा 'दलाह8 यत्ति ग्लानयोग्यमाहारमन्विष्य तदुपकारार्थ ददध्वं, चशब्दादाचार्यादेः वैयावृत्यकरणाद्युपकारेण वर्तध्वं, ततो गृहस्थसमकल्पा १ अन्वेषयन्ते प्र. cesecesesexercersectsee दीप अनुक्रम [२११] ~1924 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [१०], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रांक ||१०|| दीप सूत्रकृताङ्गं इति ।। ९॥ साम्प्रतमुपसंहारव्याजेन दोषदर्शनायाह-एवं' परस्परोपकारादिना यूयं गृहस्था इव सरागस्था:-सह रागेण ३ उपसशीलाका- वर्तत इति सरागः-खभावस्तसिन् तिष्ठन्तीति ते तथा, 'अन्योऽन्य' परस्परतो वशमुपागताः-परस्परायचाः, यतयो हि नि: | गोध्य० चायाय | सङ्गतया न कस्यचिदायत्ता भवन्ति, यतो गृहस्थानामयं न्याय इति, तथा नष्ट:-अपगतः सत्पथ:-सद्भावः-सन्मार्गः परमार्थों | उद्देशः ३ त्तियुत- येभ्यस्ते तथा । एवम्भूताच यूयं 'संसारस्य' चतुर्गतिभ्रमणलक्षणस्य 'अपारगा' अतीरगामिन इति ॥ १०॥ अयं तावत्पूर्व॥११॥ | पक्षः, अस्य च दूषणायाह अह ते परिभासेज्जा, भिक्खु मोक्खविसारए । एवं तुब्भे पभासंता, दुपक्खं चेव सेवह ॥११॥ तुब्भे भुंजह पाएसु, गिलाणो अभिहडंमि या।तं च बीओदगं भोच्चा, तमुदिस्सादि जं कडं ॥१२॥ 'अथ' अनन्तरं 'तान्' एवं प्रतिकूलखेनोपस्थितान् भिक्षुः 'परिभाषेत' ब्रूयात् , किम्भूतः -'मोक्षविशारदो मोक्षमा-1 Kगस्य सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपस्य प्ररूपकः, 'एवम्' अनन्तरोक्तं यूयं प्रभाषमाणाः सन्तः दुष्टः पक्षो दुष्पक्षः-असत्प्रतिज्ञाभ्युपगमस्तमेव सेवध्वं यूयं, यदिवा-रागद्वेषात्मकं पक्षद्वयं सेवध्वं यूयं, तथाहि सदोषस्थाप्यात्मीयपक्षस्य समथेनाद्रागो, निष्क-10 IN||९१॥ लकस्याप्यसदभ्युपगमस दूषणाद्वेषः, अर्थ(थवे)वं पक्षद्वयं सेवध्वं यूयं, तद्यथा-वक्ष्यमाणनीत्या बीजोदकोदिष्टकृतभोजिला-1 हस्साः यतिलिङ्गाभ्युपगमात्किल प्रबजिताश्चेत्येवं पक्षद्वयासेवनं भवतामिति, यदिवा-खतोऽसदनुष्ठानमपरश्च सदनुष्ठायिनां नि-18I |न्दनमितिभावः ॥ ११ ॥ आजीविकादीनां परतीथिकानां दिगम्बराणां चासदाचारनिरूपणायाह-किल वयमपरिग्रहतया नि-121 अनुक्रम [२१३] ~193~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [२१५] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३], मूलं [१२], निर्युक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः किञ्चना एवमभ्युपगमं कला यूयं मुग्ध्वं 'पात्रेषु' कांस्यपात्र्यादिषु गृहस्थभाजनेषु तत्परिभोगाच्च तत्परिग्रहोऽवश्यंभावी, तथाऽऽहारादिषु मूच्छ कुरुध्वमित्यतः कथं निष्परिग्रहाभ्युपगमो भवतामकलङ्क इति, अन्यच्च 'ग्लानस्य' भिक्षाटनं कर्तुमसमर्थस्य यदपरैर्गृहस्थैरभ्याहृतं कार्यते भवद्भिः, यतेरानयनाधिकाराभावाद् गृहस्थानयने च यो दोषसद्भावः स भवतामवश्यंभावीति, तमेव दर्शयति-यच्च गृहस्थैत्रींजोदकाद्युपमर्देनापादितमाहारं भुक्त्वा तं ग्लानमुद्दिश्योदेशकादि 'यत्कृतं ' यन्निष्पादितं तदवश्यं युष्मत्परिभोगायावतिष्ठते । तदेवं गृहस्थगृहे तद्भाजनादिषु भुञ्जानास्तथा ग्लानस्य च गृहस्तैरेव वैयावृत्यं कारयन्तो यूयमवश्यं बीजोदकादिभोजिन उद्देशिकादिकृतभोजिनश्रेति ॥ १२ ॥ किञ्चान्यत्- लित्ता तिवाभितावेणं, उज्झिआ असमाहिया । नातिकंडूइयं सेयं, अरुयस्सावरज्झती ॥ १३ ॥ तत्तेण अणुसिट्टा ते, अपडिनेण जाणया । ण एस णियए मग्गे, असमिक्खा वती किती ॥१४॥ योऽयं षड्जीवनिकाय विराधनयोद्दिष्टभोजिलेनाभिगृहीतमिथ्यादृष्टितया च साधुपरिभाषणेन च वीत्रोऽभितापः - कर्मबन्धरूपस्तेनोपलिप्ताः संवेष्टितास्तथा 'उज्झिय'ति सद्विवेकशून्या भिक्षापात्रादित्यागात्परगृहभोजितयोदेशकादिभोजितात् तथा 'असमाहिता' शुभाध्यवसायरहिताः सत्साधुप्रद्वेषिखात्, साम्प्रतं दृष्टान्तद्वारेण पुनरपि तद्दोषाभिधित्सयाऽऽह – यथा 'अरुषः ' व्रणस्यातिकण्डूयितं - नखैर्विलेखनं न श्रेयो न शोभनं भवति, अपि तपराध्यति - तत्कण्डूयनं व्रणस्य दोषमावहति, एवं १ प्रमापादनं तैः संबन्धमात्रस्य परिग्रहत्वाभ्युपगमात् अन्यथा निर्मूर्च्छ धर्मोपकरणधरणापतेः Education Intention For Parts Only ~194~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१४|| दीप अनुक्रम [२१७] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३], मूलं [१४], निर्युक्तिः [५०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताहूं शीलाङ्काचार्ययचियुतं ॥ ९२ ॥ भवन्तोऽपि सद्विवेकरहिताः वयं किल निष्किञ्चना इत्येवं निष्परिग्रहतथा षड्जीवनिकायरक्षणभूतं भिक्षापात्रादिकमपि संयमोपकरणं परिहृतवन्तः, तदभावाचावश्यंभावी अशुद्धाहारपरिभोग इत्येवं द्रव्यक्षेत्रकालभावानपेक्षणेन नातिकण्डूयितं श्रेयो भवतीति भावः ॥ १३ ॥ अपि च- 'तरवेन' परमार्थेन मौनीन्द्राभिप्रायेण यथावस्थितार्थप्ररूपणया ते गोशालकमतानुसारिण आजीवि कादयः बोटिका वा 'अनुशासिताः' तदभ्युपगमदोपदर्शनद्वारेण शिक्षां ग्राहिताः, केन ?- 'अप्रतिज्ञेन' नास्य मवेदमसदपि समर्थनीयमित्येवं प्रतिज्ञा विद्यते इत्यप्रतिज्ञो-रागद्वेषरहितः साधुस्तेन 'जानता' हेयोपादेयपदार्थ परिच्छेद केनेत्यर्थः, कथमनुशासिता इत्याह-योऽयं भवद्भिरभ्युपगतो मार्गों यथा यतीनां निष्किञ्चनतयोपकरणाभावात् परस्परत उपकार्योपकारकभाव ४ इत्येष 'न नियतो' न निश्रितो न युक्तिसङ्गतः, अतो येयं वाग् यथा ये पिण्डपातं ग्लानस्थानीय ददति ते गृहस्थकल्पा इत्येषा 'असमीक्ष्याभिहिता' अपर्यालोच्योक्ता, तथा 'कृतिः' करणमपि भवदीयमसमीक्षितमेव, यथा चापर्यालोचितकरणता भवति भवदनुष्ठानस्य तथा नातिकण्डूयितं श्रेय इत्यनेन प्राग्लेशतः प्रतिपादितं पुनरपि सदृष्टान्तं तदेव प्रतिपादयति ॥ १४ ॥ यथाप्रतिज्ञातमाह- Education international एरिसा जावई एसा, अग्गवेणु व करिसिता । गिहिणो अभिहडं सेयं, भुंजिउं ण उ भिक्खुणं ॥ १५ ॥ धम्मपन्नवणाजा सा, सारंभा ण विसोहिआ। ण उ एयाहिं बिट्टीहिं, पुवमासिं पग्गप्पिअं ॥ १६ ॥ येयमीक्षा वाक् यथा यतिना ग्लानस्थानीय न देयमित्येषा अग्रे वेणुवद-वंशवत् कर्षिता तन्वी युक्त्यक्षमखाद दुर्बलेत्यर्थः, For Parts Only ~195~ ३ उपस गांध्य० उद्देशः ३ ॥ ९२ ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [१६], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| easeereocceecenesesesents तामेव वाचम् दर्शयति-'गृहिणां' गृहस्थानां यदभ्याहतं तद्यते क्तुं 'श्रेय' श्रेयस्कर, न तु भिक्षूणां सम्बन्धीति, अग्रे| तनुसं चाया पाच एवं द्रष्टव्यं यथा गृहस्थाभ्याहृतं जीवोपमर्दैन भवति, यतीनां तूगमादिदोषरहितमिति ॥ १५॥ किश्चधर्मस्य प्रज्ञापना-देशना यथा-यतीनां दानादिनोपकतेव्यमित्येवम्भूता या सा 'सारम्भाणां" गृहस्थानां विशोधिका, यत-12 | यस्तु खानुष्ठानेनैव विशुध्यन्ति, न तु तेषां दानाधिकारोऽस्तीत्येतत् दूषयितुं प्रक्रमते-'न तु' नैवैताभिर्यथा गृहस्थेनैव पिण्डदा-11 | नादिना यते नायवस्थायामुपकर्तव्यं नतु यतिभिरेव परस्परमित्येवम्भूताभिः युष्मदीयाभिः 'दृष्टिभिः' धर्मप्रज्ञापनाभिः 'पूर्वम् | आदौ सर्वज्ञैः 'प्रकल्पितं' प्ररूपितं प्रख्यापितमासीदिति, यतो न हि सर्वज्ञा एवम्भूतं परिफल्गुणायमर्थ प्ररूपयन्ति यथा-असंय-18॥ तैरेषणायनुपयुक्तैर्लानादेवैयावृत्यं विधेयं न तूपयुक्तेन संयतेनेति, अपिच-भवद्भिरपि ग्लानोपकारोऽभ्युपगत एव, गृहस्थप्रेरणा| दनुमोदनाच, ततो भवन्तस्तत्कारिणस्तत्प्रवेषिणश्चेत्यापनमिति ।। १६ ।। अपिच सबाहिं अणुजुत्तीहिं, अचयंता जवित्तए । ततो वायं णिराकिच्चा, ते भुजोवि पगब्भिया ॥ १७ ॥ रागदोसाभिभूयप्पा, मिच्छत्तेण अभिदुता । आउस्से सरणं जंति, टंकणा इव पवयं ॥ १८ ॥ ते गोशालकमतानुसारिणो दिगम्बरा या सर्वाभिरर्थानुगताभिर्युक्तिभिः सवेरेव हेतुदृष्टान्तः प्रमाणभूतैरशक्नुवन्तः खपक्ष आ-18 MRI मानं 'यापपितुम्' संस्थापयितुम् 'ततः तसायुक्तिभिः प्रतिपादयितुम् सामाभावाद् 'वाद निराकृत्य' सम्यम्हेतुदृष्टान्तै-13|| यो वादो-जल्पस्तं परित्यज्य ते तीथिका 'भूय पुनरपि वादपरित्यागे सत्यपि 'प्रगल्भिता धृष्टतां गता इदमूचुः, तद्यथा दीप अनुक्रम [२१९] ~196~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [१८], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप सूत्रकृताज "पुराणं मानवो धर्मः, साङ्गो वेदश्चिकित्सितम् । आज्ञासिद्धानि चखारि, न हन्तव्यानि हेतुभिः ॥१॥ अन्यच्च किमनया ३ उपसशीलाका- बहिरङ्गया युक्त्याऽनुमानादिकयान धर्मपरीक्षणे विधेये कर्तव्यमस्ति, यतः प्रत्यक्ष एव बहुजनसंमतत्वेन राजाद्याश्रयणाचायमे-18 चायिवृ. वामदभिप्रेतो धर्मः श्रेयानापर इत्येवं विवदन्ते, तेषामिदमुत्तरम्-न छत्र ज्ञानादिसाररहितेन बहुनाऽपि प्रयोजनमस्तीति, उक्त उद्दशः ३ त्तियुत ||च-"एरंडकहरासी जहा य गोसीसचंदनपलस्स । मोल्ले न होज सरिसो कित्तियमेत्तो गणिअंतो ॥१॥" तेहवि गणणा॥ ९३।। [तिरेगो जह रासी सो न चंदनसरिच्छो । तह निविण्णाणमहाजणोवि सोज्झे विसंवयति ॥ २॥ एको सचक्खुगो जह अंधल-11 याणं सरहिं पहुएहिं । होइ वरं दबो गहु ते बहुगा अपेच्छंता ।। ३॥ एवं बहुगावि मूढा ण पमाणं जे गई ण याणंति । संसा-॥8॥ रगमणगुषिलं णिउणस्स य बंधमोक्खस्स ॥४॥" इत्यादि ॥ १७॥ अपिच-रागव-प्रीतिलक्षणो देपथ तद्विपरीतलक्षण-19 स्ताभ्यामभिभूत आत्मा येषां परतीथिकानां ते तथा, 'मिथ्यात्वेन' विपर्यस्तावबोधेनातत्वाध्यवसायरूपेण 'अभिद्रुता' व्याप्ताः सयुक्तिभिवादं कर्तुमसमों। क्रोधानुगा 'आक्रोशान्' असभ्यवचनरूपांस्तथा दण्डमुष्टचादिभिश्च हननव्यापार 'यान्ति' आश्रयन्ते । असिमेवार्थे प्रतिपाचे दृष्टान्तमाह-यथा 'टजूणा' म्लेच्छविशेषा दुर्जया यदा परेण बलिना खानीकादिनाभिदू| यन्ते तदा ते नानाविधैरप्यायुधैर्योद्धुमसमर्थाः सन्तः पर्वतं शरणमाश्रयन्ति, एवं तेऽपि कृतीथिका वादपराजिताः क्रोधाघुपहत-181 ||९३॥ १ एरण्डकाष्ठराशियथा च गोशीर्षचन्दनपलस्य । मूल्येन न भवेद सदृशः कियभानो गण्यमानः ॥१॥ २ तथापि गणनातिरेको यथा राशिः स न चन्दनसशः । तथा निर्विज्ञानमहाजनोऽपि मूल्ये विसंपदते ॥२॥ ३ एकः सचक्षुष्को यथा अन्धानां शामिभवति बरं अष्टव्यो नैव बहुका अप्रेक्षमाणाः ॥३॥ ४ एवं बहुका अपि मूडान प्रमाण ये गति न जानन्ति । संसारगमनका निपुगयोधमोक्ष योष ॥४॥ अनुक्रम [२२१] eneral ~197~ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [१८], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम [२२१] दृष्टय आक्रोशादिकं शरणमाश्रयन्ते, न च ते इदमाकलथ्य प्रत्याक्रोष्टच्याः, तद्यथा-"अकोसहणणमारणधम्मभंसाण बालसुलभाणं । लाभ मन्नइ धीरो जहुत्तराणं अभावंमि ॥१॥"॥१८॥ किश्चान्यत् बहुगुणप्पगप्पाई, कुज्जा अत्तसमाहिए । जेणऽन्ने णो विरुज्झेजा, तेण तं तं समायरे ॥ १९॥ इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेइयं । कुजा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए ॥२०॥ संखाय पेसलं धम्म,, दिट्टिमं परिनिव्वुडे। उवसग्गे नियामित्ता, आमोक्खाए परिवएज्जाऽसि ॥२१॥ त्तिबेमि । इति ततीयअज्झयणस्स तईओ उद्देसो समत्तो ॥ (गाथाग्रं० २३४) 'वहवो गुणाः' स्वपक्षसिद्धिपरदोषोद्भावनादयो माध्यस्थ्यादयो वा प्रकल्पन्ते-प्रादुर्भवन्त्यात्मनि येष्वनुष्ठानेषु तानि बहु| गुणप्रकल्पानि–प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमनादीनि माध्यस्थ्यवचनप्रकाराणि वा अनुष्ठानानि साधुर्वादकाले अन्यदा वा 'कुर्यात्' विदध्यात् , स एव विशिष्यते-आत्मनः 'समाधिः' चिचखास्थ्यं यस्य स भवत्यात्मसमाधिका, एतदुक्तं भवतियेन येनोपन्यस्तेन हेतुदृष्टान्तादिना आत्मसमाधिः-वपक्षसिद्धिलक्षणो माध्यस्थ्यवचनादिना वा परानुपघातलक्षणः समुत्पद्यते । तत् तत् कुर्यादिति, तथा येनानुष्ठितेन वा भाषितेन वा अन्यतीथिको धर्मश्रवणादौ वाऽन्यः प्रवृत्तो 'न विरुध्येत' न विरोध KRI आमोवाहननमारणधर्मशाना बालमुलमानां (मध्ये)। लाम मन्यते धीरो यपोतराणामभाचे ॥१॥ ~1984 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [२१], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक चियुत ||२१|| सूत्रकृताङ्गं गच्छेत् , तेन पराविरोधकारणेन तत्तदविरुद्धमनुष्ठानं वचनं वा 'समाचरेत्' कुर्यादिति ॥ १९ ॥ तदेवं परमतं निराकृत्योपसं-18| ३ उपसशीलाङ्का- | हारद्वारेण खमतस्थापनायाह-'इम' मिति वक्ष्यमाणं दुर्गतिधारणाद्धर्मम् 'आदाय' उपादाय गृहीला 'काश्यपेन' श्रीमन्म- गर्माध्य. चाीयवृ-8 हावीरवर्द्धमानस्वामिनोत्पन्नदिव्यज्ञानेन सदेवमनुजायां पर्षदि प्रकर्षेण यथावस्थितार्थनिरूपणद्वारेण वेदितं प्रवेदितं, चशब्दा-श उद्देशः३ त्परमतं च निराकल्स, मिक्षणशीलो भिक्षुः 'ग्लानस्य अपटोरपरस्य भिक्षोयाच्यादिकं कुर्यात् , कथं कुर्याद्, एतदेव विशि-11 ॥ ९४॥ नष्टि-खतोऽप्यग्लानतया यथाशक्ति 'समाहितः समाधि प्राप्त इति, इदमुक्तं भवति-यथा यथाऽऽत्मनः समाधिरुत्पयते न || तत्करणेन अपाटवसंभवात् योगा विषीदन्तीति, तथा यथा तस्य च ग्लानस्य समाधिरुत्पद्यते तथा पिण्डपातादिकं विधेयमिति ४॥२०॥ किं कृत्वैतद्विधेयमिति दर्शयितुमाह--'संखाये त्यादि, संख्याय-ज्ञात्वा के ?-'धर्म' सर्वज्ञप्रणीतं श्रुतचारित्राख्य| भेदभि 'पेशलम्' इति सुश्लिष्टं प्राणिनामहिंसादिप्रवृत्त्या प्रीतिकारणं, किम्भूतमिति दर्शयति-दर्शन दृष्टिः सद्भूतपदार्थगता है। | सम्यग्दर्शनमित्यर्थः सा विद्यते यस्थासौ दृष्टिमान् यथावस्थितपदार्थपरिच्छेदवानित्यर्थः, तथा 'परिनिर्वृतो' रागद्वेषविरहाच्छान्ती-18 | भूतस्तदेवं धर्म पेशलं परिसंख्याय दृष्टिमान् परिनिर्वत उपसर्गाननुकूलप्रतिकूलान्नियम्य-संयम्य सोढा, नोपसर्गरुपसर्गितोऽ-१९॥ समञ्जसं विदध्यादित्येवम् 'आमोक्षाय' अशेषकर्मक्षयप्राप्तिं यावत् परि-समन्तात् ब्रजेत् -संयमानुष्ठानोयुक्तो भवेत् परिव्रजे-18 द, इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २१ ॥ उपसर्गपरिझायास्तृतीयोदेशकः समाप्तः ॥३॥ दीप अनुक्रम [२२४] ॥९४॥ -49300 ~1994 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अथ तृतीयोपसर्गाध्ययने चतुर्थोदेशकस्य प्रारम्भः ॥ प्रत सूत्रांक ॥२॥ उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थः समारभ्यते--अस्स चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशके अनुकूलप्रतिकूलोपसर्गाः प्रतिपादिताः, तैश्च कदाचित्साधुः शीलात् प्रच्याच्येत-तख च स्खलितशीलस्य प्रज्ञापनाऽनेन प्रतिपाद्यते इति, अनेन सम्बन्धेना-1 यातस्यास्योद्देशकस्खादिमं सूत्रम् आहंसु महापुरिसा, पुविं तत्ततवोधणा । उदएण सिद्धिमावन्ना, तत्थ मंदो विसीयति ॥१॥ अभुंजिया नमी विदेही, रामगुत्ते य भुजिआ । बाहुए उद्गं भोच्चा, तहा नारायणे रिसी ॥२॥ केचन अविदितपरमार्था 'आहुः उक्तवतः, किं तदित्याह-यथा 'महापुरुषाः' प्रधानपुरुषा वल्कलचीरितारागणर्षि-1 लाप्रभृतयः 'पूर्व' पूर्वमिन् काले तप्तम्-अनुष्ठितं तप एवं धनं येषां ते तप्ततपोधनाः-पश्चाम्यादितपोविशेषेण निष्टतदेहात एवम्भूताः शीतोदकपरिभोगेन, उपलक्षणार्थत्वात् कन्दमूलफलायुपभोगेन च 'सिद्धिमापन्नाः' सिद्धिं गताः, 'तन्त्र' एवम्भूतार्थ-18 | समाकर्णने तदर्थसद्भावावेशात् 'मन्दः' अशोऽस्नानादित्याजितः प्रासुकोदकपरिभोगभग्नः संयमानुष्ठाने विषीदति, यदिवा तत्रैव पाशीवोदकपरिभोगे विषीदति लगति निमजतीतियावत्, न त्वसौ वराक एवमवधारयति, यथा-तेषां तापसादिवतानुष्ठायिनां ॥ Peaca0000sesasac0202002 दीप अनुक्रम [२२५] For P OW अत्र तृतीय-अध्ययनस्य चतुर्थ-उद्देशकस्य आरम्भ: ~200~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [२], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: गोध्य. प्रत सूत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम [२२६] सूत्रकृताङ्गं | कुतश्चिजातिसरणादिप्रत्ययादाविर्भूतसम्यग्दर्शनानां मौनीन्द्रभावसंयमप्रतिपल्या अपगतज्ञानावरणीयादिकर्मणां भरतादी- ३ उपसशीलाङ्का- नामिव मोक्षावाप्तिः न तु शीतोदकपरिभोगादिति ॥१॥ किञ्चान्यत्-केचन कुतीर्थिकाः साधुप्रतारणार्थमेवमूचुः, यदिवा चार्षीय- खवाः शीतलविहारिण एतद् वक्ष्यमाणमुक्तवन्तः, तद्यथा-नमीराजा विदेहो नाम जनपदस्तत्र भवा वैदेहा:-तनिवासिनो उद्देशः४ त्तियुतं लोकास्तेऽस्य सन्तीति वैदेही, स एवम्भूतो नमी राजा अशनादिकमभुक्त्वा सिद्धिमुपगतः तथा रामगुप्तश्च राजर्षिराहारादिकं 'भु॥९५॥ क्त्वैव' भुजान एवं सिद्धि प्राप्त इति, तथा बाहुकः शीतोदकादिपरिभोगं कृत्वा तथा नारायणो नाम महर्षिः परिणतोदकादिपरिभोगासिद्ध इति ॥ २॥ अपिच आसिले देविले चेव, दीवायण महारिसी । पारासरे दगं भोच्चा, बीयाणि हरियाणि य ॥३॥ एते पुर्व महापुरिसा, आहिता इह संमता । भोच्या बीओदगं सिद्धा, इति मेयमणुस्सुअं॥४॥ आसिलो नाम महर्षिस्तथा देविलो द्वैपायनश्च तथा पराशराख्य इत्येवमादयः शीतोदकबीजहरितादिपरिभोगादेव सिद्धा 18| इति श्रूयते ॥ ३॥ एतदेव दर्शयितुमाह-एते पूर्वोक्ता नम्यादयो महर्षयः 'पूर्वमिति पूर्वमिन्काले नेताद्वापरादौ 'महापुरुषा' || | इति प्रधानपुरुषा आ-समन्तात् ख्याताः आख्याता:-प्रख्याता राजर्षित्वेन प्रसिद्धिमुपगता इहापि आहेते प्रवचने ऋषि-1|| भाषितादी केचन 'सम्मता' अभिप्रेता इत्येवं कुतीर्थिकाः स्वयूथ्या वा प्रोचुः, तद्यथा-एते सर्वेऽपि बीजोदकादिकं भुक्त्वा सिद्धा इत्येतन्मया भारतादी पुराणे श्रुतम् ॥ ४॥ एतदुपसंहारद्वारेण परिहरबाह ~201~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [9], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक //// eraelessneseseraceaeeeeee तस्थ मंदा विसीअंति, वाहच्छिन्ना व गद्दभा। पिट्टतो परिसप्पंति, पिट्ठसप्पी य संभमे ॥५॥ इहमेगे उभासंति, सात सातेण विजती । जे तत्थ आरियं मग्गं, परमं च समाहिए(यं)॥६॥ 'तत्र' तस्मिन् कुथुत्युपसर्गोदये 'मन्दा' अशा नानाविधोपायसाध्य सिद्धिगमनमवधार्य विषीदन्ति संयमानुष्ठाने, न पुनरेतद्विदन्त्यज्ञाः, तद्यथा--येषां सिद्धिगमनमभूत् तेषां कुतश्चिनिमित्तात् जातजातिस्मरणादिप्रत्ययानामबाप्तसम्यग्ज्ञानचारित्राणामेव वल्कलचीरिप्रभृतीनामिव सिद्धिगमनमभूत, न पुनः कदाचिदपि सर्वविरतिपरिणामभावलिङ्गमन्तरेण शीतोदकवीजायुपभोगेन जीवोपमर्दप्रायेण कर्मक्षयोऽवाप्यते, विषीदने दृष्टान्तमाह-वहनं वाहो-भारोद्वहनं तेन छिन्ना:-कर्षिताखुटिता रासभा | इव विपीदन्ति, यथा-रासभा गमनपथ एव प्रोज्झितभारा निपतन्ति, एवं तेऽपि प्रोश्य संयमभारं शीतलविहारिणो भवन्ति, | दृष्टान्तान्तरमाह-यथा 'पृष्ठसर्पिणो' भन्नगतयोज्यादिसम्भ्रमे सत्युभ्रान्तनयनाः समाकुलाः प्रनष्टजनस्य 'पृष्ठतः' पश्चात्प रिसर्पन्ति नाग्रगामिनो भवन्ति, अपि तु तवाम्यादिसम्भ्रमे विनश्यन्ति, एवं तेऽपि शीतलविहारिणो मोक्षं प्रति प्रवृत्ता अपि तु न मोक्षगतयो भवन्ति अपि तु तसिन्नेव संसारे अनन्तमपि कालं यावदासत इति ॥ ५॥ मतान्तरं निराकर्तु पूर्वपक्षयितुमाह'इहे'ति मोक्षगमन विचारप्रस्तावे 'एके' शाक्यादयः खयूथ्या वा लोचादिनोपतप्ता, तुशब्दः पूर्वमात् शीतोदकादिपरिभोगाद्विशेषमाह, 'भाषन्ते' बुवते मन्यन्ते वा कचित्पाठः, किं तदित्याह-'सातं' सुखं 'सातेन' सुखेनैव 'विद्यते' भवतीति, तथा च वक्तारो भवन्ति-"सर्वाणि सच्चानि सुखे रतानि, सर्वाणि दुःखाच समुद्विजन्ते । तस्मात्सुखार्थी सुखमेव दद्यात्, सु eeseeneweneseree eraeroeserved दीप अनुक्रम [२२९] For P OW ~202~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [६], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ||६|| दीप अनुक्रम [२३०] सूत्रकृताङ्गं खप्रदाता लभते सुखानि ॥१॥" युक्तिरप्येवमेव स्थिता, यतः कारणानुरूपं कार्यमुत्पद्यते, तद्यथा-शालिबीजाच्छाल्यकुरो | ३ उपसशोलाका- जायते न यवार इत्येवमिहत्यात् सुखान्युक्तिसुखमुपजायते, न तु लोचादिरूपात् दुःखादिति, तथा झागमोऽप्येवमेव व्यव- गोध्य. चायीय- | स्थितः-"मणुण्णं भोयणं भोचा, मणुण्णं सयणासणं । मणुण्णंसि अगारंसि, मणुणं झायए मुणी ॥१॥" तथा "मृद्वी शय्या | उद्देशः ४ चियुतं प्रातरुत्थाय पेया, भक्तं मध्ये पानकं चापराहे । द्राक्षाखण्डं शर्करा चार्द्धरात्रे, मोक्षधान्ते शाक्यपुत्रेण दृष्टः ॥१॥” इत्यतो॥ ॥ मनोज्ञाहारविहारादेश्चित्तस्वास्थ्यं ततः समाधिरुत्पद्यते समाधेय मुक्त्यवाप्तिः, अतः स्थितमेतत्-सुखेनैव सुखावाप्तिःन पुनः कदा|चनापि लोचादिना कायक्लेशेन सुखावाप्तिरिति स्थित, इत्येवं व्यामृढमतयो ये केचन शाक्यादयः 'तन्त्र' तसिन्मोक्षविचार-16 प्रस्तावे समुपस्थिते आरायातः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्यों मार्गों जैनेन्द्रशासनप्रतिपादितो मोक्षमार्गस्तं ये परिहरन्ति, तथा च ॥४॥ 'परमं च समाधि' शानदर्शनचारित्रात्मकं ये त्यजन्ति तेज्ञाः संसारान्तर्वर्तिनः सदा भवन्ति, तथाहि यतैरभिहितंकारणानुरूपं कार्यमिति, तवायमेकान्तो, यतः शृङ्गाच्छरो जायते गोमयाचिको गोलोमाविलोमादिभ्यो दुर्वेति, यदपि मनोशाहारादिकमुपन्यस्तै सुखकारणत्वेन तदपि विशनिकादिसंभवायभिचारीति, अपिच-इदं वैषयिकं सुखं दुःखप्रवीकारहेतुत्वाव । सुखाभासतया सुखमेव न भवति, तदुक्तम्-“दुःखात्मकेषु विषयेषु सुखाभिमानः, सौख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःखबुद्धिः । | उत्कीर्णवर्णपदपलिरिवान्यरूपा, सारूप्यमेति विपरीतगतिप्रयोगात् ॥१॥" इति, कुतस्तत्परमानन्दरूपस्यात्यन्तिकैकान्तिकस्य मोक्षसुखस्य कारणं भवति, यदपि च लोचभूशयनभिक्षाटनपरपरिभवक्षुत्पिपासादंशमशकादिकं दुःखकारणत्वेन भवतो मनोझं भोजनं भुक्त्वा मनोज्ञ शदनासने । मनोऽगारे मनोझं ध्यायेन्मुनिः ॥ १॥ teaeseseseseseneeceae ~203~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [६], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||६|| दीप अनुक्रम [२३०] पन्यस्तं तदत्यन्ताल्पसचानामपरमार्थदशा, महापुरुषाणां तु खार्थाभ्युपगमप्रवृत्तानां परमार्थचिन्तकतानानां महासवतया सर्वमे| वैतत्सुखायैवेति, तथा चोक्तम्-तणसंथारनिविष्णोवि मुनिवरो भट्टरागमयमोहो । जं पावइ मुनिसुई कत्तो तं चकवट्टीवि।। |॥१॥" तथा । "दुःखं दुष्कृतसंक्षयाय महतां क्षान्तेः पदं वैरिणः, कायस्याशुचिता विरागपदवी संवेगहेतुर्जरा । सर्वत्यागमहोत्सवाय मरणं जातिः सुहृत्प्रीतये, संपद्भिः परिपूरितं जगदिदं स्थानं विपत्तेः कुतः॥१॥" इति, अपिच-एकान्तेन सुखेनैव सुखेऽभ्युपगम्यमाने विचित्रसंसाराभावः स्यात् , तथा स्वर्गस्थानां नित्यसुखिना पुनरपि सुखानुभूतेस्तत्रैवोत्पत्तिः स्थान तथा नारकाणां च पुनर्दुःखानुभवात्तत्रैवोत्पत्तेः, न नानागत्या विचित्रता संसारस्य सात् , नचैतत् दृष्टमिष्टं चेति ॥६॥ अतो व्यपदिश्यतेIT मा एवं अवमन्नंता, अप्पेणं लुपहा बटुं । एतस्स (उ)अमोक्खाए, अओहारिव जूरह ॥७॥ पाणाइवाते वता, मुसावादे असंजता । अदिन्नादाणे वता, मेहुणे य परिग्गहे ॥ ८॥ 'एनम्' आर्य मार्ग जैनेन्द्रप्रवचनं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमोक्षमार्गप्रतिपादकं 'सुखं सुखेनैव विद्यते' इत्यादिमोहेन मोहिता ॥'अवमन्यमानाः' परिहरन्तः 'अस्पेन' वैषयिकेण सुखेन मा 'बहु' परमार्थसुखं मोक्षारुप 'लुम्पथ' विध्वंसथ, तथाहि| मनोज्ञाऽऽहारादिना कामोद्रेका, तदुद्रेकाच चित्ताखास्थ्यं न पुनः समाधिरिति, अपि च 'एतस्य' असत्पक्षाभ्युपगमख 'अ १ तृणसंसारनिषष्णोऽपि मुनिश्चरो भ्रष्टरागमदमोहः । यरप्राप्नोति मुक्ति सुखं कुतस्तत् चक्रवर्त्यपि ॥ १ ॥ PCBA ~204~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [८], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचायीय सूत्रांक त्तियुत-8 ||८|| ॥९॥ दीप अनुक्रम [२३२] मोक्षे अपरित्यागे सति 'अयोहारिव्व जूरह'त्ति आत्मानं यूयं कदर्थयथ, केवलं, यथाऽसौ अयसो-लोहस्याहर्ता ३ उ अपान्तराले रूप्यादिलाभे सत्यपि दमानीतमितिकृया नोज्झितवान् , पश्चात् खावस्थानावाप्तावल्पलाभे सति जूरितवान्-पश्चा- गाध्य तापं कृतवान् एवं भवन्तोऽपि जूरयिष्यन्तीति ॥ ७॥ पुनरपि 'सातेन सात'मित्येवंवादिना शाक्यानां दोपोद्विभावविषयाह--18| उद्देशः। प्राणातिपातमृपावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहेषु वर्तमाना असंयता यूयं वर्तमानसुखैषिणोऽल्पेन वैषयिकमुखाभासेन पारमार्थि-18 कमेकान्तात्यन्तिकं बहु मोक्षसुखं विलुम्पथेति, किमिति, यतः पचनपाचनादिषु क्रियासु वर्तमानाः सावद्यानुष्ठानारम्भतया प्राजातिपातमाचरथ तथा येषां जीवानां शरीरोपभोगो भवद्भिः क्रियते तानि शरीराणि तत्स्वामिभिरदत्तानीत्यदत्तादानाचरणं | तथा गोमहिष्यजोष्ट्रादिपरिग्रहात्तन्मधुनानुमोदनादब्रह्मेति तथा प्रबजिता वयमित्येवमुत्थाय गृहस्थाचरणानुष्ठानान्मृपावाद तथा धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिपरिग्रहात्परिग्रह इति ॥ ८ ॥ साम्प्रतं मतान्तरदूषणाय पूर्वपक्षयितुमाह एवमेगे उ पासत्था, पन्नवंति अणारिया । इत्थीवसं गया बाला, जिणसासणपरम्मुहा ॥९॥ जहा गंडं पिलागं वा, परिपीलेज मुहत्तगं। एवं विन्नवणित्थीसु, दोसो तत्थ कओ सिआ ? ॥१०॥ ५॥९७॥ जहा मंधादए नाम, थिमि भुंजती दगं। एवं विन्नवणित्थीसु, दोसो तत्थ कओ सिआ?॥११॥19 जहा विहंगमा पिंगा, थिमि भुंजती दगं । एवं विन्नवणित्थीसु, दोसो तत्थ कओ सिआ ! ॥१२॥ ~2050 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१३], नियुक्ति: [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [२३७] meroesereverserveawarsersesesesesen एवमेगे उ पासत्था, मिच्छदिट्ठी अणारिया । अज्झोक्वन्ना कामेहि, पूयणा इव तरुणए ॥१३॥ तुशब्दः पूर्वमाद्विशेषणार्थः, 'एवमिति वक्ष्यमाणया नीत्या, यदिवा प्राक्तन एव श्लोकोत्रापि सम्बन्धनीयः, एवमिति || प्राणातिपातादिषु वर्तमाना 'एके' इति चौद्धविशेषा नीलपटादयो नाथवादिकमण्डलप्रविष्टा वा शैवविशेषाः, सदनुष्ठानात् पार्थे । तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः, खयूथ्या वा पावस्थावसन्नकुशीलादयः खीपरीषहपराजिताः, त एवं 'प्रज्ञापयन्ति' प्ररूपयन्ति अनार्याः, अनार्यकर्मकारितात् , तथाहि ते वदन्ति-"प्रियादर्शनमेवास्तु, किमन्यैर्दर्शनान्तरः । प्राप्यते येन निर्वाणं, सरागेणापि चेतसा ॥शा किमित्येवं तेऽभिदधतीत्याह-'स्त्रीवशं गताः' यतो युवतीनामाज्ञायां वर्तन्ते 'याला अज्ञा रागद्वेषोपहत-13 चेतस इति, रागद्वेषजितो जिनास्तेषां शासनम्-आज्ञा कषायमोहोपशमहेतुभूता तत्पराङ्मुखाः संसाराभिष्वङ्गिणो जैनमार्गविद्वे|षिणः 'एतद्' वक्ष्यमाणमूचुरिति ॥९॥ यदृचुस्तदाह-यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, 'यथा' येन प्रकारेण कश्चित् मण्डी पुरुषो गण्डं | समुत्थितं पिटकं वा तज्जातीयकमेव तैदाकूतोपशमनार्थ 'परिपीड्य' पूयरुधिरादिकं निर्गाल्य मुहूर्तमानं सुखितो भवति, न च दोषेणानुषज्यते, एवमत्रापि 'स्त्रीविज्ञापनायां युवतिप्रार्थनायो रमणीसम्बन्धे गण्डपरिपीडनकल्पे दोषस्तत्र कुतः स्वात् , न होel तावता क्लेदापगममात्रेण दोषो भवेदिति ॥१०॥स्वातत्र दोषो यदि काचित्पीडा भवेत् , न चासाविहास्तीति दृष्टान्तेन दर्शयति| चक्षुषेति प्र० । २ आकोपः वि०प० तदाकृतो. प्रा। eseserveseseeneelaeseseae ~206~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१३...], नियुक्ति: [५० "] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [२३७] सूत्रकृता 'यथे' त्ययमुदाहरणोपन्यासार्थः, 'मन्धादन' इति मेषः नामशब्दः सम्भावनायां यथा मेषः तिमितम् अनालोडयन्नुदकं ३ उपसशीलाका- पिबत्यात्मानं प्रीणयति, न च तथान्येषां किश्चनोपघातं विधत्ते, एवमत्रापि खीसम्बन्धे न काचिदन्यस्य पीडा आत्मनच प्री- न र्माध्य. चायि- णनम् , अतः कुतस्तत्र दोषः स्यादिति ॥११॥ असिन्नेवानुपघातार्थे दृष्टान्तबहुसख्यापनार्थ दृष्टान्तान्तरमाह-'यथा' येन प्रका-18 उद्देशः ४ रेण विहायसा गच्छतीति विहंगमा-पक्षिणी 'पिंगेति कपिजला साऽऽकाश एव वर्तमानाः 'तिमित' निभृतमुदकमापिबति, ॥९८॥18 एवमत्रापि दर्भप्रदानपूर्विकया क्रियया अरक्तद्विष्टस्य पुत्राद्यर्थ स्त्रीसम्बन्धं कुर्वतोऽपि कपिञ्जलाया इव न तस्य दोष इति, साम्प्रतमेतेषां गण्डपीडनतुल्यं स्त्रीपरिभोगं मन्यमानानां तथैडकोदकपानसदृशं परपीडाऽनुत्पादकलेन परात्मनोश्च सुखोत्पादकलेन किल मैथुनं जायत इत्यध्यवसायिनां तथा कपिञ्जलोदकपानं यथा तडागोदकासंस्पर्शन किल भवत्येवमरक्तद्विष्टतया दर्भाधुत्तारणात् | स्त्रीगात्रासंस्पर्शेन पुत्रार्थ न कामार्थ ऋतुकालाभिगामितया शास्त्रोक्तविधानेन मैथुनेऽपि न दोषानुषः, तथा चोचुस्ते–“धर्मार्थे | | पुत्रकामस्थ, खदारेश्वधिकारिणः । ऋतुकाले विधानेन, दोषस्तत्र न विद्यते ॥१॥" इति, एवमुदासीनतेन व्यवस्थितानां दृष्टान्ते. नव नियुक्तिकारो गाथात्रयेणोत्तरदानायाह-- जह णाम मंडलग्गेण सिरं छेत्तू ण कस्सइ मणुस्सो । अच्छेज्ज पराहुत्तो किं नाम ततोण धिप्पेजा ॥५॥ ॥९८॥ जह वा विसगडूसं कोई घेत्तूण नाम तुहिको । अण्णेण अदीसंतो किं नाम ततो न व मरेज्जा!॥५४॥ जह नाम सिरिघराओ कोइ रयणाणि णाम घेत्तूर्ण । अच्छेन पराहुत्तो किंणाम ततो न घेप्पेज्जा ? ॥५५॥ Coerseatseeeeeeecceae *अत्र नियुक्ति क्रम: ५३ दृश्यते, तत् मुद्रणदोष: सम्भाव्यते। (यहाँ नियुक्ति क्रम ५३ दिया है, ईसके पहले तीसरे अध्ययन के आरम्भमें आखरी नियुक्ति का क्रम ५० था| मेरी जानकारीमें इन दोनों के बिचमें कोई नियुक्ति नहीं आई है। ~207~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१३...], नियुक्ति: [५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [२३७] यथा [अन्धानम् ३००० ] नाम कश्चिन्मण्डलाण कस्यचिच्छिरश्छित्वा पराभुखस्तिष्ठेव , किमेतावतोदासीनभावावलम्ब[नेन 'न गृह्येत' नापराधी भवेत् । तथा-यथा कश्चिद्विषगण्डपं 'गृहीखा' पीला नाम तूष्णींभावं भजेदन्येन चादृश्यमानोऽसौ कि नाम 'ततः' असावन्यादर्शनात् न म्रियेत । तथा-यथा कश्चित् श्रीगृहाद्-भाण्डागारागलानि महा_णि गृहीखा पराभुखस्तिष्ठेव । किमेतावताऽसौ न गृह्यतेति । अत्र च यथा-कश्चित् शठतया अज्ञतया वा शिरश्छेदविषगण्डूपरत्नापहाराख्ये सत्यपि दोषत्रये माध्यस्थ्यमवलम्बेत, न च तस्य तदवलम्बनेऽपि निदोपतेति, एवमत्राप्यवश्यंभाविरागकार्ये मैथुने सर्वदोषास्पदे संसारवर्द्धके | कुतो निर्दोषतेति, तथा चोक्तम्-"प्राणिनां बाधकं चैतच्छास्त्रे गीतं महर्षिभिः । नलिकातप्तकणकप्रवेशज्ञाततस्तथा ॥१॥ मूल चैतदधर्मस्थ, भवभावप्रवर्धनम् । तस्माद्विपान्नवच्याज्यमिदं पापमनिच्छता ॥२॥" इति नियुक्तिगाथात्रयतात्पर्यार्थः ॥ ॥ साम्प्रतं | सूत्रकार उपसंहारव्याजेन गण्डपीडनादिदृष्टान्तवादिना दोषोद्विभावयिषयाह-एवं' मिति गण्डपीडनादिदृष्टान्तबलेन निर्दोष है | मैथुनमिति मन्यमाना 'एके' स्वीपरीषहपराजिताः सदनुष्ठानात्पार्थे तिष्ठन्तीति पार्श्वस्था नाथवादिकमण्डलचारिणः, तुशब्दा वयूथ्या वा, तथा मिथ्या-विपरीता तवाग्राहिणी दृष्टि:-दर्शनं येषां ते तथा, आरात्-दूरे याता--गताः सर्वहेयधर्मेभ्य | इत्यार्याः न आर्या अनार्याः धर्मविरुद्धानुष्ठानात् , त एवंविधा 'अध्युपपन्ना' गृभव इच्छामदनरूपेषु कामेषु कामैर्वा करणभूतैः | सावधानुष्ठानेविति, अत्र लौकिक दृष्टान्तमाह--यथा वा 'पूतना' डाकिनी 'तरुणके' स्तनन्धयेऽध्युपपन्ना, एवं तेऽप्यनार्याः || कामेष्विति, यदिवा 'पूयण त्ति गडरिका आत्मीयेऽपत्येऽध्युपपन्ना, एवं तेऽपीति, कथानकं चात्र-यथा किल सर्वपशूनामप 909200000 ~208~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१४], नियुक्ति: [५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्गं शीलाकाचार्षीय चियुतं ॥१९॥ ||१४|| दीप SaveDasasa9300800 त्यानि निरुदके कूपेऽपत्यस्नेहपरीक्षार्थ क्षिप्लानि, तत्र चापरा मातरः खकीयस्तनन्धयशब्दाकर्णनेऽपि कूपतटस्था रुदन्त्यस्तिष्ठन्ति, 18 ३.उपसउरभ्री वपत्यातिस्नेहेनान्धा अपायमनपेक्ष्य तत्रैवात्मानं क्षिप्तवतीत्यतोऽयरपशुभ्यः खापत्येऽध्युपपन्नेति, एवं तेऽपि ॥१३ ।। का-18 गर्गाध्य माभिष्वङ्गिणां दोषमाविष्फुर्वन्नाह उद्देशः४ अणागयमपस्संता, पञ्चुप्पन्नगवेसगा। ते पच्छा परितप्पंति, खीणे आउंमि जोवणे ॥ १४ ॥ जेहिं काले परिकंतं, न पच्छा परितप्पए । ते धीरा बंधणुम्मुक्का, नावखंति जीविअं॥ १५॥ 18 'अनागतम् एष्यत्कामानिवृत्तानां नरकादियातनास्थानेषु महत दुःखम् 'अपश्यन्तः अपर्यालोचयन्तः, तथा 'प्रत्युत्पन्न | वर्तमानमेव वैषयिकं सुखाभासम् 'अन्वेषयन्तो मृगयमाणा नानाविधैरुपायोगान्प्रार्थयन्तः ते पश्चात् क्षीणे वायुषि जातसं-16 वेगा यौवने वाऽपगते 'परितप्यन्ते' शोचन्ते पश्चात्तापं विदधति, उक्तं च-"हतं मुष्टिभिराकाशं, तुषाणां कण्डनं कृतम् । यन्म-16 या प्राप्य मानुष्यं, सदर्थे नादरः कृतः ॥१॥" तथा-"विहवावलेवनडिएहिं जाई कीरंति जोवणमएणं । वयपरिणामे स-1 रियाई ताई हिअए खुडुफंति ॥१॥" ॥ १४ ॥ ये तूत्तमसत्त्वतया अनागतमेव तपश्चरणादावुधमं विदधति न ते पश्चाच्छोच-181 सन्तीति दर्शयितुमाह-'यैः' आत्महितकर्तृभिः 'काले' धर्मार्जनावसरे 'पराक्रान्तम्' इन्द्रियकषायपराजयायोधमो विहितो ।।९९ ॥ न ते 'पश्चात्' मरणकाले वृद्धावस्थायां वा 'परितप्यन्ते' न शोकाकुला भवन्ति, एकवचन निर्देशस्तु सौत्रश्च्छान्दसलादिति, १ विभवापलेपनतियानि न कियन्ते यौवनमदेन । वयःपरिणामे स्मृतानि तानि हृदयं न्यथन् ॥१॥ अनुक्रम [२३८] SAREauratonintentiational ~209~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१५], नियुक्ति : [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१५|| धर्मार्जनकालस्तु विवेकिनां प्रायशः सर्व एव, यसात्स एव प्रधानपुरुषार्थः, प्रधान एव च प्रायशः क्रियमाणो पटां प्राञ्चति, | ततश्च ये चाल्यात्प्रभृत्यकृतविषयासङ्गतया कृततपश्ररणाः ते 'धीरा' कर्मविदारणसहिष्णवो बन्धनेन-लेहात्मकेन कर्मणा | चोर-प्राबल्येन मुक्ता नावकाक्षन्ति असंयमजीवितं, यदिवा-जीविते मरणे वा निःस्पृहाः संयमोद्यममतयो भवन्तीति ॥ १५ ॥ अन्यचजहा नई वेयरणी, दुत्तरा इह संमता । एवं लोगसि नारीओ, दुरुत्तरा अमईमया ॥१६॥ जेहिं नारीण संजोगा, पूयणा पिटुतो कता । सबमेयं निराकिच्चा, ते ठिया सुसमाहिए ॥ १७ ॥ यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, यथा वैतरणी नदीनां मध्येऽत्यन्तवेगवाहिखात् विषमतटखाच 'दुस्तरा' दुर्लक्या 'एवम् अस्मिनपि लोके नार्यः 'अमतिमता' निर्विवेकेन हीनसत्त्वेन दुःखेनोत्तीर्यन्ते, तथाहिता हावभावैः कृतविद्यानपि खीकुर्वन्ति, तथा चोक्तम् - "सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्तावदेवेन्द्रियाणां, लज्जा तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव । धूचापाक्षेपमुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपक्ष्माण एते, यावल्लीलावतीनों न हृदि धृतिमुषो दृष्टिवाणाः पतन्ति ॥ १॥" तदेवं वैतरणीनदीवत् दुस्तरा नार्यों भवन्तीति ॥ १६ ॥ अपिच--'यैः' उत्चमसच्चैः स्त्रीसङ्गविपाकवेदिभिः पर्यन्तकटवो नारीसंयोगाः परित्यताः, तथा तत्सङ्गार्थमेव वखालकारमाल्यादिभिरात्मनः 'पूजना' कामविभूषा 'पृष्ठतः कृता' परित्यक्तेत्यर्थः, 'सर्वमेतत्र दीप अनुक्रम [२३९] awraturasurare.org ~210~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१७], नियुक्ति : [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१७|| सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचायीयवृत्तियुत ॥१०॥ दीप Scenecesesesesesesereverseas स्त्रीप्रसङ्गादिकं क्षुत्पिपासादि प्रतिकूलोपसर्गकदम्बकं च निराकृत्य ये महापुरुषसेवितपन्थानं प्रति प्रवृत्तास्ते सुसमाधिना-18|३. उपस खस्खचित्तवृत्तिरूपेण व्यवस्थिताः, नोपसगैरनुकूलप्रतिकूलरूपैः प्रक्षोभ्यन्ते, अन्ये तु विषयाभिष्वङ्गिणः स्यादिपरीषहपराजिता माध्य. | अङ्गारोपरिपतितमीनवद्रागामिना दह्यमाना असमाधिना तिष्ठन्तीति ।। १७ ।। ख्यादिपरीषहपराजयस्य फलं दर्शयितुमाह उद्देशः४ एते ओघं तरिस्संति, समुदं ववहारिणो । जत्थ पाणा विसन्नासि, किच्चंती सयकम्मुणा ॥१८॥ तं च भिक्खू परिणाय, सुव्बते समिते चरे। मुसावायं च वजिजा, अदिन्नादाणं च वोसिरे ॥१९॥ उड्महे तिरियं वा, जे केई तसथावरा । सवत्थ विरतिं कुजा, य एते अनन्तरोक्ता अनुकूलप्रतिकूलोपसर्गजेतार एते सर्वेऽपि 'ओघ संसारं दुस्तरमपि तरिष्यन्ति, द्रव्यौपदृष्टान्तमाह'समुद्र" लवणसागरमिव यथा 'व्यवहारिणः' सांयात्रिका यानपात्रेण तरन्ति, एवं भावौषमपि संसार संयमयानपात्रेण यत-18 यस्तरिष्यन्ति, तथा वीर्णास्तरन्ति चेति, भावौषमेव विशिनष्टि-'यन्त्र' यस्मिन् भावौघे संसारसागरे 'प्राणाः' प्राणिनः खीविषयसंगाद्विषण्णाः सन्तः 'कृत्यन्ते' पीयन्ते 'खकृतेन' आत्मनानुष्ठितेन पापेन 'कर्मणा' असवेदनीयोदयरूपेणेति ॥ १८॥ साम्प्रतमुपसंहारच्याजेनोपदेशान्तरदित्सयाह-तदेतद्यत्प्रागुक्तं यथा-वैतरणीनदीवत् दुस्तरा नार्यो यैः परित्यक्तास्ते समाधि-IN स्थाः संसारं तरन्ति, खीसङ्गिनश्च संसारान्तर्गताः स्वकृतकर्मणा कृत्यन्त इति, तदेतत्सर्व भिक्षणशीलो भिक्षुः 'परिज्ञाय' हेयो अनुक्रम [२४१] ~211~ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [२०], नियुक्ति : [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम Hपादेयतया बुध्ध्वा शोभनानि व्रतान्यस्य सुव्रतः पश्चभिः समितिभिः समित इत्यनेनोत्तरगुणावेदनं कृतमित्येवंभूतः 'चरेत् संय-191 13 मानुष्ठानं विद्ध्यात् , तथा 'मृषावादम्' असद्भूतार्थभाषणं विशेषेण वर्जयेत् , तथा 'अदत्तादानं च व्युत्सृजेद' दन्तशोध-18 नमात्रमप्यदत्तं न गृह्णीयात् , आदिग्रहणान्मैथुनादेः परिग्रह इति, तच मैथुनादिकं यावज्जीवमात्महितं मन्यमानः परिहरेत् ॥१९॥ | अपरवतानामहिंसाया वृत्तिकल्पखात् तत्वाधान्यख्यापनार्थमाह-ऊर्ध्वमधस्तियधिवत्यनेन क्षेत्रप्राणातिपातो गृहीतः, तत्र ये केचन || 18| वसन्तीति त्रसा-द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाः पर्याप्तापर्याप्तकभेदभिन्नाः, तथा तिष्ठन्तीति स्थावराः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः सूक्ष्मबा-| दरपर्याप्तकापर्याप्तकभेदभिन्ना इति, अनेन च द्रव्यप्राणातिपातो गृहीतः, सचेत्र काले सर्वाखवस्थाखित्यनेनापि कालभावभे-18 दभिन्नः प्राणातिपात उपात्तो द्रष्टव्यः, तदेवं चतुर्दशवपि जीवस्थानेषु कृतकारितानुमतिभिर्मनोवाकायैः प्राणातिपातविरतिं ! | कुर्यादित्यनेन पादोनेनापि श्लोकद्वयेन प्राणातिपातविरत्यादयो मूलगुणाः ख्यापिताः, साम्प्रतमेतेषां सर्वेषामेव मूलोत्तरगुणानां फलमुद्देशेनाह संति निवाणमाहियं ॥२०॥ इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेदितं । कुजा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए ॥ २१ ॥ संखाय पेसलं धम्म, दिट्रिमं परिनिबुडे । उवसग्गे नियामित्ता, आमोक्खाए परिवएज्जासि ॥२२॥ त्तिबेमि । इति उवसग्गपरिन्नाणामं तइयं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ [गाथा २५६ ] Roadamarooraerateraereasareioe [२४४] ce अत्र तृतीय अध्ययनं परिसमाप्तम् ~212~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [२२], नियुक्ति : [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम 'शान्तिः' इति कर्मदाहोपशमस्तदेव च 'निर्वाण' मोक्षपदं यद् 'आख्यातं' प्रतिपादितं सर्वद्वन्द्वापगमरूपं तदस्यावश्यं स. शीलाका- चरणकरणानुष्ठायिनः साधोर्भवतीति ।।२०।। समस्ताध्ययनार्थोपसंहारार्थमाह-'इमं च धम्ममित्यादि, 'इम' मिति पूर्वोक्तं | गोध्य. चार्यांय18|मूलोत्तरगुणरूपं श्रुतचारित्राख्यं वा दुर्गतिधारणात् धर्मम् 'आदाय आचार्योपदेशेन गृहीखा किम्भूतमिति तदेव विशिनष्टि | उद्देशः ४ चियुतं 1STकाश्यपेन' श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिना समुत्पनदिव्यज्ञानेन भव्यसत्वाभ्युद्धरणाभिलापिणा 'प्रवेदितम्' आख्यातं सम॥१०॥ |धिगम्य 'भिक्षुः साधुः परीपहोपसर्गरतर्जितो ग्लानस्थापरस्य साधोईयावृत्यं कुर्यात् , कथमिति, खतोऽग्लानतया यथाशक्ति |'समाहित' इति समाधि प्राप्तः, इदमुक्तं भवति- कृतकृत्योऽहमिति मन्यमानो वैयावृत्यादिकं कुर्यादिति ॥ २१ ॥ अन्यच्च| 'संख्यायेति सम्यक् झाला खसम्मत्या अन्यतो वा-श्रुखा 'पेशलं'ति मोक्षगमनं प्रत्यनुकूल, किं तद्-'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं | 'दृष्टिमान्' सम्यग्दर्शनी 'परिनिवृत' इति कषायोपशमाच्छीवीभूतः परिनिर्वृतकल्पो वा 'उपसर्गान' अनुकूलप्रतिकूलान् ४ सम्यय 'नियम्य' अतिसा 'आमोक्षाय' मोक्षं यावत् परि-समन्तात् 'बजेत्' संयमानुष्ठानेन गच्छेदिति, इतिः परिसमाप्त्यर्थे, बधीमीति पूर्ववत् , नयचर्चापि तथैवेति ॥ २२ ॥ उपसर्गपरिज्ञायाः समाप्तश्रतुदेिशकः, तत्परिसमाप्तौ च तृतीयमध्ययन-121 मिति । ग्रंथानं ७७५॥ ॥१०॥ [२४६] INT १ सहसन्मवेति तात्पर्य प्राकृतानुकरण चेदम् । ~2134 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति : [५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ॥ अथ चतुर्थ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनं प्रारभ्यते ॥ प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम ceaeseserveeeeectstreesesecese उक्तं तृतीयमध्ययनं, साम्प्रतं चतुर्थमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने उपसर्गाः प्रतिपादिताः, तेषां च | प्रायोज्नुकूला दुःसहाः, ततोऽपि खीकृताः, अतस्तज्जयार्थमिदमध्ययनमुपदिश्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्योपक्रमा-1 दीनि चखायनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोाधिकारी द्वेधा-अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्थाधिकारच, तत्राध्ययना|धिकारः प्राग्वत् नियुक्तिकृता 'थीदोषविवज्जणा चेवे'त्यनेन स्वयमेव प्रतिपादितः, उद्देशार्थाधिकार तूतरत्र नियुक्तिकदेव मणिष्यति, साम्प्रतं निक्षेपः, स चौधनामसूत्रालापकभेदात्रिधा, तत्रौपनिष्पने निक्षेपेऽध्ययनं, नामनिष्पन्ने 'स्त्रीपरिज्ञेति | नाम, तत्र नामस्थापने क्षुण्णसादनादृत्य स्त्रीशब्दस द्रव्यादिनिक्षेपार्थमाह दव्वाभिलावचिंधे वेदे भावे य इत्थिणिक्खेवो । अहिलावे जह सिद्धी भावे वेयंमि उवउत्तो ॥५६॥ तत्र द्रव्यस्त्री द्वेधा-आगमतो नोआगमतव, आगमतः स्त्रीपदार्थज्ञस्तत्र चानुपयुक्तः, अनुपयोगो द्रव्यमितिकृता, नोआगमतो शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता विधा, एकमविका बद्धायुष्काभिमुखनामगोत्रा चेति, चिदचते-ज्ञायतेऽनेनेति चिह-स्त१व्यतिरित्तभेदाः। Reatestrsectressecticesesesestatist [२४६] REasaluminational अत्र चतुर्थ अध्ययनं “स्त्रीपरिज्ञा" आरब्धं, 'स्त्री' शब्दस्य निक्षेपा: ~214~ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक चाय ||२२|| दीप अनुक्रम सूत्रकृताननेपथ्यादिकं, चिह्नमात्रेण स्त्री चितस्त्री अपगतस्त्रीवेदश्छद्मस्वः केवली वा अन्यो वा स्त्रीवेषधारी यः कश्चिदिति, वेदखी तु खीपशीलाङ्का- | पुरुषाभिलाषरूपः स्त्रीवेदोदयः, अभिलापभावौ तु नियुक्तिकृदेव गाथापश्चा?नाह-अभिलप्यते इत्यभिलापः स्त्रीलिङ्गाभिधानःपरिज्ञाध्य शब्दः, तयथा-शाला माला सिद्धिरिति, भावत्री तु द्वेधा-आगमतो नोआगमतच, आगमतः स्त्रीपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः, उद्देश १ त्तियुतं 'उपयोगो भाव' इतिकृला, नोआगमतस्तु भावविषये निक्षेपे 'वदे' स्त्रीवेदरूपे वस्तुन्युपयुक्ता तदुपयोगानन्यखाद्भावस्त्री भवति, ॥१०॥ यथाऽमाबुपयुक्तो माणवकोऽग्निरेव भवति, एवमत्रापि, यदिवा-स्त्रीवेदनिर्वर्तकान्युदयप्राप्तानि यानि कर्माणि तेषु 'उपयुक्ते ति | | तान्यनुभवन्ती भावस्त्रीति, एतावानेव स्त्रियो निक्षेप इति, परिज्ञानिक्षेपस्तु शस्त्रपरिज्ञावद् द्रष्टव्यः ॥ साम्प्रतं स्त्रीविपक्षभूतं पुरुषनिक्षेपार्थमाह णाम ठवणादविए खेत्ते काले य पज्जणणकंमे । भोगे गुणे य भावे दस एए पुरिसणिक्खेवा ।। ५७ ॥ 'नाम' इति संज्ञा तन्मात्रेण पुरुषो नामपुरुषः यथा घटः पट इति, यस्य वा पुरुष इति नामेति, 'स्थापनापुरुष' काष्ठादिनिवर्तितो जिनप्रतिमादिका, द्रव्यपुरुषो शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो नोआगमत एकभविको बदायुकोऽभिमुखनामगोत्रश्चेति, ॥१०२॥ द्रव्यप्रधानो वा मम्मणवणिगादिरिति, यो यस्मिन् मुराष्ट्रादौ क्षेत्रे भवः स क्षेत्रपुरुषो यथा सौराष्ट्रिक इति, यस्य वा यत् क्षेत्रमाश्रित्य पुंस्वं भवतीति, यो यावन्तं कालं पुरुषवेदवेद्यानि कर्माणि वेदयते स कालपुरुष इति, यथा-'पुरिसे णं भंते ! पुरिसोचि | कालओ केवचिरं होई । मो०, जहनेणं एग समयं उक्कोसेणं जो जम्मि काले पुरिसो भवइ, जहा कोइ एगंमि पक्खे पुरिसो एगमि | Saasaras20300930 easeseseoecenesesepeaterieces [२४६] 'स्त्री' शब्दस्य निक्षेपा:, 'पुरुष' शब्दस्य निक्षेपा: ~2154 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति : [५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम नपुंसगोत्ति । प्रजन्यतेऽपत्यं येन तत्प्रजननं शिश्नम्-लिङ्गम् तत्प्रधानः पुरुषः अपरपुरुषकार्यरहितखात् प्रजननपुरुषः, कर्म-- अनुष्ठानं तत्प्रधानः पुरुषः कर्मपुरुषः-कर्मकरादिकः, तथा भोगप्रधानः पुरुषो भोगपुरुषः-चक्रवादिः-तथा गुणाः-8 व्यायामविक्रमधैर्यसञ्चादिकास्तत्प्रधानः पुरुषो गुणपुरुषः, भावपुरुषस्तु पुंवेदोदये वर्तमानस्तद्वेवानि कमाण्यनुभवनिति, एते | दश पुरुषनिक्षेपा भवन्ति । साम्प्रतं प्रागुल्लिङ्गिन्तमुद्देशार्थाधिकारमधिकृत्याह पढमे संधवसंलवमाइहि खलणा उ होति सीलस्स । वितिए इहेव खलियस अवस्था कम्मबंधो य ५८018 प्रथमे उद्देशके अयमर्थाधिकारः, तद्यथा-स्त्रीभिः सार्ध 'संस्तवेन' परिचयेन तथा 'संलापेन' भिन्नकथाद्यालापेन, आदि-18 ग्रहणादङ्गप्रत्यङ्गनिरीक्षणादिना कामोत्कोचकारिणा भवेदल्पसत्त्वस्य 'शीलस्य' चारित्रस्य स्खलना तुशब्दात्तत्परित्यागो वेति, द्वितीये खयमर्थाधिकारः, तद्यथा-शीलस्खलितस्य साधोः 'इहैव' अस्मिन्नेव जन्मनि स्वपक्षपरपक्षकृता तिरस्कारादिका विड-18 म्बना तत्प्रत्ययश्च कर्मबन्धः, ततथ संसारसागरपर्यटनमिति, कि स्वीमिः कथित शीलात प्रच्याव्यात्मवशः कृतो येनैवमुच्यते 1,1% कृत इति दर्शयितुमाह सूरा मो मन्नता कइतवियाहिं उवहिप्पहाणाहिं । गहिया हु अभयपजोयकूल वालादिणो घहवे ॥ ५९॥ ॥ बहवः पुरुषा अभयप्रद्योतकूलवालादयः शूरा वयमित्येवं मन्यमानाः, मो इति निपातो वाक्यालङ्काराथे, 'कृत्रिमाभिः || सद्भावरहिताभिः स्त्रीभिस्तथा उपधिः-माया तत्पधानाभिः कृतकपटशतामिः 'गृहीता' आत्मवशता नीताः केचन राज्यादपरे% [२४६] उद्देशस्य अर्थाधिकार:, ~216~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति : [५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम सूत्रकृताङ्गं || शीलात प्रच्याश्येहैव विडम्बना प्रापिताः, अभयकुमारादिकथानकानि च मूलादावश्यकादवगन्तव्यानि, कथानकायोपन्यासस्तु हामीप शीलाङ्का- यथाक्रम अत्यन्तबुद्धिविक्रमतपखिवख्यापनार्थ इति ॥ यत एवं ततो यत्कर्तव्यं तदाह रिज्ञाध्य. वार्थीय- तम्हा ण उ वीसंभो गंतव्वो णिच्चमेव इस्थीसुं । पढमुद्देसे भणिया जे दोसा ते गणंतेणं ।। ६०॥ उद्देश:१ तियुत यस्मात् स्त्रियः सुगतिमार्गार्गला मायाप्रधाना वचनानिपुणास्तस्मादेतदवगम्य नैव 'विश्रम्भो' विश्वासस्तासां विवेकिना ॥१०॥ | 'नित्यं सदा 'गन्तव्यों' यातव्यः, कर्तव्य इत्यर्थः, ये दोषाः प्रथमोद्देशके अस्योपलक्षणार्थलात् द्वितीये च तान् 'गणयता' पर्यालोचयता, तासां मूर्तिमत्कपटराशिभूतानामात्महितमिच्छता न विश्वसनीयमिति ॥ अपिच सुसमस्थाऽवसमत्था कीरंती अप्पसत्तिया पुरिसा । दीसंती सूरवादी णारीवसगा ण ते सूरा ॥११॥ परानीकविजयादौ सुष्टु समर्था अपि सन्तः पुरुषाः स्त्रीभिरात्मवशीकृता 'असमर्था' धूत्क्षेपमात्रभीरवः क्रियन्ते-अल्पसाचिकाः स्त्रीणामपि पादपतनादिचाटुकरणेन निःसाराः क्रियन्ते, तथा 'दृश्यन्ते' प्रत्यक्षेणोपलभ्यन्ते शूरमात्मानं वदितुं शील | येषां ते शूरवादिनोऽपि नारीवशगाः सन्तो दीनतां गताः, एवम्भूताच न ते शूरा इति, तसात स्थितमेतद्-अविश्वास्याः खिय || || इति, उक्तं च---"को पीससेज तासि कतिवयभरियाण दुषियहाणं! । खणरत्तविरनाणं घिरत्थु इत्थीण दिययाणं ॥१॥ |४|| अणं भणति पुरओ अण्णं पासे णिवञ्जमाणीओ । अन्नं च तासि हियए जंच खमं तं करिति पुणो ॥२॥ को एयाणं णा ॥१०३॥ | को विश्व स्वात्तासु कैतवमामु दुर्विदग्धासु । क्षणरविरकामु धिगस्तु श्रीहृदयानां ॥१॥ भन्यद भति पुरतोऽन्यत्या निषादयन्त्यः । अन्यत्तासा हदये यच क्षमं तत्कुर्वन्ति पुनः ॥ १ ॥ ३ क एतासां ज्ञास्यति वेत्रलतागुल्मगुपिलहदयानां । भावं भग्नावानां तत्रोपों भणंतीनां ॥१॥ [२४६] SAREauratonintamarana स्त्रिय: अविश्वास्यत्वं ~217~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| हिह वेचलयागुम्माविलहिययाणं । भावं भग्गासाणं तत्थुप्पन भणंतीणं ॥३॥ महिला य रत्तमेचा उच्छुखंडं च सकरा चेव । सा पुण विरत्तमिता णिचकूरे विसेसेइ ॥ ४॥ महिला दिज करेज व मारिज व संठविज व मणुस्सं । तुद्वारा जीवाविजा अहव णरं वंचयावेजा ॥५॥णवि रक्खंते सुकर्य णवि णेहं णवि य दाणसम्माणं । ण कुलं ण पुवयं आयति च | सील महिलियाओ ॥ ६ ॥ मा वीसंभह ताणं महिलाहिययाण कवडभरियाणं ॥ पिण्णेहनियाणं अलियवयणर्जपणरयाण ॥७॥ मारेइ जियंतपिहु मर्यपि अणुमरइ काइ भत्तारं । विसहरगइव चरियं बकविवक महेलाणं ॥८॥ गंगाए वालुया सागरे जलं हिमवओ य परिमाण । जाणति बुद्धिमता महिलाहिययं ण जाणंति ॥९॥ रोवावंति रुवंति य अलिय जपति पत्तियावंति ।। ॥8 कवडेण य खंति विसं मरति गय जंति सम्भावं ॥१०॥ चिंतित कजमण्ण अण्णं संठवह भासई अण्णं । आढवद कुणइ अण्णं | माइवग्गो णियडिसारो ॥ ११ ॥ असयारंभाण तहा सवेसि लोगगरहणिजाणं । परलोगवेरियाणं कारणयं चेव इत्थीओ ॥१२॥ महिला च रखमाधुसंडेव शर्करेव च । सा पुनर्षिरकमात्रा निंबाकर विशेषयति ॥ १॥ २ महिला दयाकर्यादा मारपद्वा संस्थापयेदा मानुष्यं । तुष्टा जीवापयेत् अपचन वंचयेत् ।। संथविन प्रसंवहेज प्र.४ नापि रक्षति मुकृतं नापि मेहं नापि दानसन्माने च । न कुर्त न पूर्व भायति च शील महिलाः ॥१॥५ मा विश्वस तेवो महिलाहृदयानां कपटभुता । निःनिर्दवानो अडीकवचनजल्पनरतानाम् ॥ १॥६मारयति जीवन्तमप्येव सूतमप्यनुप्रियते काधिदत्तार । विषधरगतिरिव चरितं वक्रविवकं महेलानां ॥ १॥ ७ गंमायो वालुकाः सागरे जलं हिमवतश्च परिमाणं जानति बुद्धिमन्तो महिलाहृदयं न जानन्ति ॥1॥रोदयन्ति हन्ति च अली अल्पन्ति प्रत्याययन्ति । कपटेन खादति विर्ष लियते न ब यान्ति सद्भाव ॥१॥९चिन्तयति कार्यमन्यदन्यत् संस्थापयति ॥2 भाषतेऽन्यत् । आरभते करोयन्यन्माविवर्षों निकृतिसारः ॥ १॥ १. असदारंभाणां तथा सर्वेषां लोकगईणीयाणां । परलोक रिकाणां कारणं चैव नियः॥१॥ emeseseseseseseces दीप अनुक्रम [२४६] स्त्रिय: अविश्वास्यत्वं ~218~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [२४६] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [२२...], निर्युक्तिः [६१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृतार्थ शीलाङ्का चार्ययवृ चियुतं ॥१०४॥ Eucat ৫১ | अहवा को जुबईणं जाणइ चरियं सहाबकुडिलाणं । दोसाण आगरो च्चिय जाण सरीरे वसह कामो ॥ १३ ॥ मूलं दुम्बरियाण हवइ उ णरयस्स बचणी विउला । मोक्खस्स महाविग्धं यजेयधा सया नारी ॥ १४ ॥ घेण्णा ते वरपुरिसा जे चिय मोनूण णिययजुवईओ पद्मइया कयनियमा सिवमगलमणुत्तरं पचा ॥ १५ ॥ " अधुना याक्षः शूरो भवति वादक्षं | दर्शयितुमाह- धम्मंमि जो दहा भई सो सूरो सत्तिओ य वीरो य । गहु धम्मणिरुस्साहो पुरिसो सूरो सुबलिओऽवि ॥ ६२ ॥ 'ध' श्रुतचारित्राख्ये दृढा - निश्चला मतिर्यस्य स तथा एवम्भूतः स इन्द्रियनोइन्द्रियारिजयात्शूरः तथा 'सात्त्विको' महासच्चोपेतोऽसावेव 'वीर' स्वकर्मदारणसमर्थोऽसावेवेति, किमिति १, यतो नैव 'धर्मनिरुत्साहः' सदनुष्ठान निरुद्यमः सत्पुरुषाचीवर्णमार्गपरिभ्रष्टः पुरुषः सुष्ठु बलवानपि शूरो भवतीति । एतानेव दोषान् पुरुषसम्बन्धेन स्त्रीणामपि दर्शयितुमाह एते चैव य दोसा पुरिससमाएवि इत्थीयाणंपि । तम्हा उ अप्पमाओ विरागमण्णंमि तासिं तु ॥ ६३ ॥ ये प्रा शीलध्वंसादयः स्त्रीपरिचयादिभ्यः पुरुषाणां दोषा अभिहिता एत एवान्यूनाधिकाः पुरुषेण सह यः समाय:सम्बन्धस्तसिन् स्त्रीणामपि, यस्माद्दोषा भवन्ति तस्मात् तासामपि विरागमार्गे प्रवृत्तानां पुरुषपरिचयादिपरिहारलक्षणोऽप्रमाद १ अथवा को युवतीनां जानाति चरितं खभावकुटितानां दोषाणामाकरचैव यासां शरीरे वसति कामः ॥ १ । २ मूढं दुश्चरितानां भवति नरकस्य वर्तनी विपुला मोक्षस्य महाविनं वर्जयितव्या सदा नारी ।। १ ।। ३ धन्यास्ते वरपुरुषा ये चैव मुक्त्वा निजकयुवतीः प्रमजिताः कृतनियमाः शिवमचथमगुत्तरं प्राप्ताः ||१३| स्त्रियः अविश्वास्यत्वं, “शूर शब्दस्य स्वरुपम्, For Penal Use On ~219~ ४ स्त्रीप रिज्ञाध्य. उद्देशः १ 1180811 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| दीप |एव श्रेयानिति । एवं यदुक्तं 'स्त्रीपरिनेति तत्पुरुषोत्तमधर्मप्रतिपादनार्थम् , अन्यथा 'पुरुषपरिज्ञे'त्यपि वक्तव्येति, साम्प्रतं सूत्रा-MAI नुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तञ्चेदस्जे मायरं च पियरं च, विष्पजहाय पुवसंजोगं । एगे सहिते चरिस्सामि, आरतमेहुणो विवित्तेसु ॥१॥ सुहुमेणं तं परिकम्म, छन्नपएण इथिओ मंदा। उवायपि ताउ जाणंसु जहा लिस्संति भिक्खुणो एगे॥२॥ । अस चायमनन्तरसूत्रेण सह सम्बन्धः, तद्यथा---अनन्तरसूत्रेऽभिहितम् , आमोक्षाय परिव्रजेदिति, एतच्चाशेषाभिष्वङ्गवर्जितस्य भवतीत्यतोऽनेन तदभिष्वङ्गवर्जनमभिधीयते, 'या' कश्चिदुत्तमसच्चो 'मातरं पितरं जननी जनयितारम्, एतद्ग्रहणादन्यदपि । | श्रावपुत्रादिकं पूर्वसंयोग तथा श्वश्रूश्वशुरादिकं पधात्संयोगं च 'विग्रहाय' त्यक्ता, चकारी समुचयाथी, 'एको मातापित्राधभिष्वङ्गवर्जितः कपायरहितो वा तथा सहितो ज्ञानदर्शनचारित्रैः खमै वा हितः खहिता-परमार्थानुष्ठानविधायी 'चरिष्यामि' | संयमं करिष्यामीत्येवं कृतप्रतिज्ञा, तामेव प्रतिज्ञा सर्वप्रधानभूतां लेशतो दर्शयति-'आरतम्' उपरतं मैथुनं कामामिलापो | | यस्यासावारतमैथुनः, तदेवम्भूतो 'विविक्तेषु' स्त्रीपशुपण्डकवर्जितेषु स्थानेषु चरिष्यामीत्येवं सम्यगुत्थानेनोस्थाय विहरतीति, कचित्पाठो 'विवित्तेसित्ति' 'विविक्तं-स्त्रीपण्डकादिरहितं स्थानं संयमानुपरोध्येषितुं शीलमस्य तथेति ॥ १ ॥ तस्यैवं कृतप्रतिज्ञस्य साधोर्यद्भवत्यविवेकिस्त्रीजनात्तदर्शयितुमाह-'सुहुमेणं' इत्यादि, 'तं' महापुरुषं साधु 'सूक्ष्मण' अपरकार्यव्यपदेशभूतेन 'उन्नपदेने ति छाना-कपटजालेन 'पराक्रम्य' तत्समीपमागत्य, यदिवा-'पराक्रम्येति शीलस्खलनयोग्यतापच्या ४ अनुक्रम [२४७] अत्र सूत्रस्य आरम्भ: ~220~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम [२४८] सूत्रकृताङ्गं 18 अभिभूय, काः-स्त्रिया' कूलवालुकादीनामिव मागधगणिकाद्या नानाविधकपटशतकरणदक्षा विविधविश्वोकवत्यो भाष-॥४खीपशीलाका- मन्दा:-कामोद्रेकविधायितया सदसद्विवेकविकलाः समीपमागत्य शीलात् ध्वंसयन्ति, एतदुक्तम् भवति-भ्रातपुत्रव्यपदेशेन रिज्ञाध्य. चायीयत्तियुत साधुसमीपमागत्य संयमाद् भ्रंशयन्ति, तथा चोक्तम्--"पियपुत्त भाइकिडगा णत्तूकिडगा य सयणकिडगा य । एते जोवणकि-18 उद्देशः १ डगा पच्छन्नपई महिलियाण ॥१॥" यदिवा-छन्नपदेनेति-गुप्ताभिधानेन, तद्यथा-"काले प्रसुप्तस्य जनार्दनस्थ, मेघान्धकारासु च शर्वरीषु । मिथ्या न भाषामि विशालनेत्रे, ते प्रत्यया ये प्रथमाक्षरेषु ॥१॥" इत्यादि, ताः स्त्रियो मायाप्रधानाः प्रतारणोपायमपि जानन्ति-उत्पन्नप्रतिभतया विदन्ति, पाठान्तरं वा ज्ञातवत्यः, यथा 'श्लिष्यन्ते' विवेकिनोऽपि साधव एके तथाविध-14 कर्मोदयात् तासु सङ्गमुपयान्ति ॥ २॥ तानेव सूक्ष्मप्रतारणोपायान् दर्शयितुमाहपासे भिसं णिसीयंति अभिक्खणं पोसवत्थं परिहिंति। कार्य अहेवि दंसंति, बाहू उडु कक्खमणुबजे ॥३॥ सयणासणेहिं जोगेहिं इथिओ एगता णिमंतंति । एयाणि चेव से जाणे, पासाणि विरूवरूवाणि ॥४॥ 'पार्थे समीपे 'भृशम् अत्यर्थमूरूपपीडमतिस्नेहमाविष्कुर्वन्त्यो 'निषीदन्ति' विश्रम्भमापादयितुमुपविशन्तीति, तथा कामं 8 पुष्णातीति पोष-कामोत्कोचकारि शोभनमित्यर्थः तच्च तवं पोषवखं तद् 'अभीक्ष्णम्' अनवरतं तेन शिथिलादिव्यपदेशेन । ॥१०५॥ परिदधति, स्वाभिलापमावेदयन्त्यः साधुप्रतारणार्थ परिधानं शिथिलीकृत्य पुनर्निवनन्तीति, तथा 'अध:कायम्' उवादिकमन१ निवप्रभातृकीटका नतृकीयकाय खजनकीटकाच एते चौवनकोडकाः प्राप्ताः प्रचारपतयो महिलानां ॥१॥ टरsccesseasesesesese ~221~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [४], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४|| दीप अनुक्रम [२५०] गोद्दीपनाय 'दर्शयन्ति' प्रकटयन्ति, तथा 'याहुमुद्धृत्य' कक्षामादय 'अनुकूलं साध्वभिमुखं 'ब्रजेत् गच्छेत् । सम्भावनायां 8 लिङ, सम्भाव्यते एतदङ्गप्रत्यङ्गसन्दर्शकवं स्त्रीणामिति ॥३॥ अपिच 'सयणासणे इत्यादि, शय्यतेऽसित्रिति शयन-पर्यादि तथाऽऽस्यतेऽस्मिन्नित्यासनम्-आसंदकादीत्येवमादिना 'योग्येन' उपभोगार्हेण कालोचितेन 'स्त्रियों योषित 'एकदा' इति विवि-1 तदेशकालादौ 'निमन्त्रयन्ति' अभ्युपगम ग्राहयन्ति, इदमुक्तं भवति-शयनासनाद्युपभोग प्रति साधु प्रार्थयन्ति, 'एतानेव' शयनासननिमत्रणरूपान् स साधुर्विदितवेद्यः परमार्थदर्शी 'जानीयाद्' अवयुध्येत खीसम्बन्धकारिणः पाशयन्ति-वघ्नन्तीति पाशा|स्तान् विरूपरूपान' नानाप्रकारानिति । इदमुक्तं भवति-खियो बासनगामिन्यो भवन्ति, तथा चोक्तम्-"अंबं' वा निं । वा अन्भासगुणेण आरुहद वाली । एवं इत्थीतोवि यजं आसन्नं तमिच्छन्ति ॥१॥" तदेवम्भूताः खियो शाखा न ताभिः सार्धे || || साधुः सझं कुर्यात् , यतस्तदुपचारादिकः सङ्गो दुष्परिहार्यों भवति, तदुक्तम्-"ज इच्छसि घेतुं जे पुर्वि तं आमिसेण गिण्हाहि । आमिसपासनिबद्धो काहिइ कर्ज अकज्ज वा ॥१॥"॥ ४॥ किश्चनो तासु चक्खु संधेजा, नोविय साहसं समभिजाणे।णो सहियंपि विहरेजा, एवमप्पा सुरक्खिओहोइ ५ आमंतिय उस्सविया भिक्खं आयसा निमंतंति । एताणि चेव से जाणे, सदाणि विरूवरूवाणि ॥६॥॥३॥ II समादिनि० प्र० । २ आ पा निम्ब वाभ्यासगुणेनारोह वि नाही । एवं नियोऽपि य एवासनमामिच्छति ॥१॥ १ यान् ग्रहीतुमिच्छसि तानामिषेण पूर्व सहाण । सदानिषपाशनिबद्धः करिष्यति कार्यमकार्य वा ॥ १॥ ~222~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [६], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रांक ||६|| दीप अनुक्रम [२५२] सूत्रकृताङ्ग 'नो' नैव 'तासु' शयनासनोपनिमन्त्रणपाशावपाशिकामु खीषु 'चक्षुः' नेत्रं सन्दध्यात् सन्धयेद्वा, न तद्दष्टौ खदृष्टि नि- स्त्रीपशीलाङ्का- |वेशयेत् , सति च प्रयोजने ईपदवज्ञया निरीक्षेत, तथा चोक्तम्-"कार्ये पीषन्मतिमानिरीक्षते योपिदङ्गमस्थिरया । अस्निग्धया|5|| | रिनाध्य. चार्यांय- शाऽवज्ञया धकुपितोऽपि कुपित इव ॥१॥" तथा नापि च साहसम्-अकार्यकरणं तत्प्रार्थनया 'समनुजानीयात् प्रति-18|| उद्देशः १ चियुतं पघेत, तथा यतिसाहसमेतत्सचामावतरणवद्यन्नरकपातादिविपाकवेदिनोऽपि साधोयोंषिदासञ्जनमिति, तथा नैव स्त्रीभिः साध ॥१०६॥ ग्रामादौ 'विहरेत्' गच्छेत् , अपिशब्दात् न ताभिः सार्ध विविक्तासनो भवेत् , ततो महापापस्थानमेतत् यतीनां यत् स्त्रीभिः | सह सात्यमिति, तथा चोक्तम्-"मात्रा खस्रा दुहित्रा वा, न विविक्तासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र F-16 11पति ॥१॥" एवमनेन खीसङ्गवर्जनेनारमा समस्तापायस्थानेभ्यो रक्षितो भवति, यतः-सर्वापायाना स्त्रीसम्बन्धः कारणम्,1 अतः खहितार्थी तत्सङ्गं दूरतः परिहरेदिति ॥ ५॥ कथं चैताः पाशा इव पाशिका इल्याह-'आमंतिय' इत्यादि, खियो हि% स्वभावेनेवाकतेंव्यप्रवणाः साधुमामय यथाऽहममुकस्यां वेलायां भवदन्तिकमागमिष्यामीत्येवं सङ्केत ग्राहयिसा तथा 'उस्स-18 विय'त्ति संस्थाप्योचावचैर्विश्रम्भजनकैरालापैर्विश्रम्भे पातयित्वा पुनरकार्यकरणायात्मना निमन्त्रयन्ति, आत्मनोपभोगेन साधुम-11 | भ्युपगम कारयन्ति । यदिवा-साधोर्भयापहरणार्थ ता एव योपितःप्रोचुः, तद्यथा-भारमामध्यापृच्छचाहमिहाऽऽयाता, तथा सं-10 स्थाप्य भोजनपदधावनशयनादिकया क्रिययोपचर्य ततस्तवान्तिकमागतेत्यतो भवता सर्वा मदतजनितामाशङ्का परित्यज्य निर्भ-18॥॥१०॥ येन भाष्यमित्येवमादिकैचोभिर्विश्रम्भमुत्पाध भिक्षुमात्मना निमन्त्रयन्ते, युष्मदीयमिदं शरीरकं याक्षस क्षोदीयसो गरीयसो वा कार्यस क्षमं तत्रैव नियोज्यतामित्येवमुपप्रलोभयन्ति, सच भिक्षुरवगतपरमार्थः एतानेव 'विरूपरूपान्' नानाप्रकारान् croeceseseisecestseeseaerserver ~223~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [६], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||६|| दीप अनुक्रम [२५२] | 'शब्दादीन' विषयान तत्स्वरूपनिरूपणतो ज्ञपरिक्षया जानीयात् , यथते वीसंसर्गापादिताः शब्दादयो विषया दुर्गतिगमनैकहे-18 | तवः सन्मार्गार्गलारूपा इत्येवमवबुध्येत, तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च तद्विपाकावगमेन परिहरेदिति ॥ ६ ॥ अन्यच्चमणबंधणेहिं णेगेहिं, कलुण विणीयमुवगसित्ताणं । अदु मंजुलाई भासंति, आणवयंति भिन्नकहाहिं ॥७॥lk सीहं जहा व कुणिमेणं, निब्भयमेगचरंति पासेणं । एविस्थियाउ बंधति, संवुडं एगतियमणगारं ॥८॥ । मनो वध्यते यैस्तानि मनोबन्धनानि-मञ्जुलालापस्निग्धावलोकनाङ्गप्रत्यङ्गप्रकटनादीनि, तथा चोक्तम्- "णाई पिय कंत सा| मिय दइय जियाओ तुम मह पिओत्ति । जीए जीयामि अहं पहबसि तं मे सरीरस्स ॥१॥" इत्यादिभिरनेकैः प्रपञ्चैः कर-॥ णालापविनयपूर्वकं 'उवगसित्ताणं'ति उपसंश्लिष्य समीपमागत्य 'अथ तदनंतरं 'मजुलानि' पेशलानि विश्रम्मजनकानि कामोत्कोचकानि वा भाषन्ते, तदुक्तम्-"मितमहुररिभियजपुल्लएहि ईसीकढक्खहसिएहिं । सविगारेहि वरागं हिययं पिहियं । मयच्छीए ॥१॥" तथा 'भिन्नकथाभी' रहस्यालापमैथुनसम्बचोभिः साधोश्चित्तमादाय तमकायेंकरणं प्रति 'आज्ञापयन्ति' प्रवर्तयन्ति, खवशं वा शाखा कर्मकरवदाज्ञा कारयन्तीति ।।७।। अपिच-'सीहं जहे' त्यादि, यथेति दृष्टान्तोपदर्शनार्थे यथा बन्धनविधिज्ञाः सिंहं पिशितादिनाऽऽमिषेणोपप्रलोभ्य 'निर्भयं गतभीक निर्भयखादेव एकचरं 'पाशेन' गलयत्रादिना वनन्ति | नाथ कान्त प्रिय स्वामिन्दयित ! जीवितादपि त्वं मम प्रिय इति गोवति जीवामि अहं प्रभुरसि त्वं ने शरीरस्य ॥१॥ २ इयच आच तं प्र० । ३ वर्म प्रा। मितमधुररिभितजल्पाईरीषत्कटाक्षहसितैः । सविकारैराकं हृदय पिहितं मृगाक्ष्याः ॥१॥ 008 SAREauratonintamational ~224~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [८], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: Sese प्रत सुत्रांक दीप अनुक्रम [२५४] सूत्रकृतानं 18 बद्धा च बहुप्रकारं कदर्थयन्ति, एवं त्रियो नानाविधैरुपायैः पेशलभाषणादिमिः 'एगतियन्ति' कशन तथाविधम् 'अन- स्त्रीषशीलाङ्का- गारं' साधु 'संवृतमपि मनोवाकायगुप्तमपि 'वनन्ति' खवशं कुर्वन्तीति, संवृतग्रहणं च खीणां सामोपदर्शनार्थ, तथाहि-18 रिज्ञाध्य. चार्थीयसंघृतोऽपि ताभिर्वध्यते, किं पुनरपरोऽसंवृत इति ॥ ८॥ किश्च 18 उद्देशः१ चियुत अह तत्थ पुणो णमयंती, रहकारो व णेमि आणुपुवीए। बद्धे मिए व पासेणं, फंदंते विण मुच्चए ताहे ॥९॥ ॥१०॥ अह सेऽणुतप्पई पच्छा, भोच्चा पायसं व विसमिस्सं। एवं विवेगमादाय, संवासो नवि कप्पए दविए॥१०॥ | 'अर्थ' इति स्ववशीकरणानन्तरं पुनस्तत्र-स्वाभिप्रेते वस्तुनि 'नमयन्ति' प्रई कुर्वन्ति, यथा-'रधकारों वर्धकिः 'नेमि-18 काष्ठं' चक्रबाद्यभ्रमिरूपमानुपूयो नमयति, एवं ता अपि साधु खकार्यानुकूल्ये प्रवर्तयन्ति, स च साधुर्मगवत् पाशेन बद्धो मो-18 क्षार्थ स्पन्दमानोऽपि ततः पाशाम मुच्यत इति ॥ ९॥ किश्व-'अह से इत्यादि, अथासौ साधुः स्त्रीपाशावबद्धो मृगवत् कू| टके पतितः सन् कुटुम्पकते अहनिशं क्लिक्ष्यमानः पवादनुतप्यते, तथाहि-गृहान्तर्गतानामेतदवश्यं सम्भाव्यते, तयथा-"को-18 वायओ को समचित्तु काहोवणार्हि काहो दिजउ वित्त को उग्घाडउ परिहियउ परिणीयउ को व कुमारउ पडियतो जीव खड-17 प्फडेहि पर बंधड़ पावह भारओ ॥१॥" तथा यत्-"मया परिजनस्वार्थे, कृतं कर्म सुदारुणम् । एकाकी तेन दोई, गतास्ते | ॥१०७|| फलभोगिनः ॥ १॥" इत्येवं बहुप्रकारं महामोहात्मके कुटुम्बकूटके पतिता अनुतप्यन्ते, अमुमेवार्थ दृष्टान्तेन स्पष्टयति-यथा १ क्रोधिकः कः समचित्तः कथं उपनय कथं ददातु वित्तं का उद्घाटकः परिहतः परिणीतः को वा कुमारकः पतितो जीयः अण्वस्फेटः प्रबध्नाति पापभार | ~225 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१०|| दीप अनुक्रम [२५६] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१०], निर्युक्तिः [६३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः कश्चिद्विषमिश्रं भोजनं भुक्खा पश्चात्तत्र कृतावेगाकुलितोऽनुतप्यते, तद्यथा- किमेतन्मया पापेन साम्प्रतेक्षिणा सुखरसिकतया चिपाककटुकमेवम्भूतं भोजनमास्यादितमिति, एवमसावपि पुत्रपौत्रदुहितृजामातृस्वसृभ्रातृव्यभागिनेयादीनां भोजनपरिधानपरिणय| नालङ्कारजातमृतकर्मतव्याधिचिकित्सा चिन्ताकुलोऽपगत स्वशरीरकर्तव्यः प्रनऐहिकामुष्मिकानुष्टानोऽहर्निशं तव्यापारव्याकुलितमतिः परितप्यते, तदेवं अनन्तरोक्तया नीत्या विपाकं स्वानुष्ठानस्य 'आदाय' प्राप्य विवेकमिति वा कचित्पाठः, तद्विपाकं विवेकं वा 'आदाय' - गृहीला स्त्रीभिश्चारित्रपरिपन्थिनीभिः सार्धं 'संवासो' वसतिरेकत्र 'न कल्पते' न युज्यते, कस्मिन् - 'द्रव्यभूते' मुक्तिगमनयोग्ये रागद्वेषरहिते वा साधौ यतस्ताभिः सार्धं संवासोऽवश्यं विवेकिनामपि सदनुष्ठान विधातकारीति ॥ १० ॥ स्त्रीसम्बन्धदोषानुपदश्यपसंहरन्नाह - | तम्हा उ वज्जए इत्थी, विसलित्तं व कंटगं नच्चा । ओए कुलाणि वसवत्ती, आघाते ण सेवि णिग्गंथे ॥ ११ ॥ जे एवं उंछं अणुगिद्धा, अन्नयरा हुंति कुसीलाणं । सुतवस्सिएवि से भिक्खू, नो विहरे सह णमित्थी | १२ | मात् विपाकः स्त्रीभिः सह सम्पर्कस्तस्मात्कारणात् खियो वर्जयेत् तुशब्दात्तदालापमपि न कुर्यात्, किंवदित्याह-विषोपलिप्तं कण्टकमिव 'ज्ञात्वा' अवगम्य स्त्रियं वर्जयेदिति, अपिच - विषदिग्धकण्टकः शरीरावयवे भग्नः सन्ननर्थमापादयेत् त्रि| यस्तु सरणादपि, तदुक्तम्- “विषस्य विषयाणां च दूरमत्यन्तमन्तरम् । उपभुक्तं विषं हन्ति, विषयाः स्मरणादपि ॥ १ ॥ " Education Internation For Parts Only ~226~ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [२५८] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२], निर्युक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकला शीलाङ्का चाय चियुतं ॥१०८॥ 20/09/20 तथा - " बेरि विस खइयं न विसयसुद्ध इकसि विसिण मरंति । विसयामिस पुण पारिया पर णरएहि पद्धति ॥ १ ॥ " तथा'ओजः' एकः असहायः सन् 'कुलानि' गृहस्थानां गृहाणि गला खीणां वशवर्ती तन्निर्दिष्टवेलागमनेन तदानुकूल्यं भजमानो धर्ममाख्याति योऽसावपि 'न निर्ग्रन्थो' न सम्यक् प्रब्रजितो, निषिद्धाचरणसेवनादवश्यं तत्रापायसम्भवादिति यदा पुनः काचित्कुतश्चिनिमित्तादागन्तुमसमर्था वृद्धा वा भवेत्तदाऽपरसहाय साध्वभावे एकाक्यपि गला अपरस्त्रीवृन्दमध्यगतायाः पुरुषसम |न्विताया वा स्त्रीनिन्दाविषयजुगुप्साप्रधानं वैराग्यजननं विधिना धर्म कथयेदपीति ॥ ११ ॥ अन्वयव्यतिरेकाभ्यामुक्तोऽर्थः सुगमो भवतीत्यभिप्रायवानाह 'जे एवं उंछ' मित्यादि, 'ये' मन्दमतयः पश्चात्कृतसदनुष्ठानाः साम्प्रतेक्षिण एतद्-अनन्तरो क्तम् उंछन्ति जुगुप्सनीयं गधे तदत्र स्त्रीसम्बन्धादिकं एकाकिनीधर्मकथनादिकं वा द्रष्टव्यं तदनु तत्प्रति ये 'गृद्धा' अध्युपपन्ना मूर्च्छिताः, ते हि 'कुशीलानां' पार्श्वस्यावसन्नकुशील संसक्तयथा च्छन्दरूपाणामन्यतरा भवन्ति, यदिवा- काथिकपश्यकसम्प्रसारकमामकरूपाणां वा कुशीलानामन्यतरा भवन्ति, तन्मध्यवर्तिनस्तेऽपि कुशीला भवन्तीत्यर्थः यत एवमतः 'सुतप४ स्त्र्यपि विकृष्टतपोनिष्टप्तदेहोऽपि 'भिक्षुः साधुः आत्महितमिच्छन् 'स्त्रीभिः समाधिपरिपन्थिनीभिः सह 'न विहरेत्' | कचिद्रछेन्नापि सन्तिष्ठेत् तृतीयार्थे सप्तमी, णमिति वाक्यालङ्कारे, ज्वलिताङ्गारपुञ्जवद्दूरतः खियो वर्जयेदितिभावः ।। १२ ।। कतमाभिः पुनः स्त्रीभिः सार्धं न विहर्तव्यमित्येतदाशवाह १ रंजन विषयसुखं एकशो विषेण म्रियते विषयामिषपातिताः पुनर्नरा नरकेषु पतन्ति ॥ १ ॥ 2920200% Education Internationa For Parts Only ~ 227~ ४ खीप रिज्ञाध्य. उद्देश : १ ॥१०८॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१३], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [२५९] | अवि धूयराहि सुण्हाहिं,धातीहिं अदुव दासीहि। महतीहि वा कुमारीहिं,संथवं से न कुजा अणगारे ॥१३॥ अदु णाइणं च सुहीणं वा, अप्पियं द? एगता होति । गिद्धा सत्ता कामेहिं, रक्खणपोसणे मणुस्सोऽसि १४|४| अपिशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, 'धूयराहिति दुहितभिरपि सार्ध न विहरेत् तथा 'स्नुषाः सुतभार्यास्ताभिरपि साधं न || | विविक्तासनादी स्थातव्यं, तथा 'धाभ्यः' पञ्चप्रकाराः स्तन्यदादयो जननीकल्पास्ताभिश्च साकं न स्थेयं, अथवाऽऽसतां तावद-18 | परा योषितो या अप्येता 'दास्यो' घटयोपितः सर्वापसदास्ताभिरपि सह सम्पर्क परिहरेत् , तथा महतीभिः कुमारीभिर्चाशब्दालध्वीभिश्च साध 'संस्तवं परिचयं प्रत्यासत्तिरूपं सोऽनगारो न कुर्यादिति, यद्यपि तस्थानगारस्य तस्यां दुहितरि सुपादौ वा न |चित्तान्यथाखमुत्पद्यते तथापि च तत्र विविक्तासनादावपरस्य शङ्कोत्पद्यते अतस्तच्छदानिरासार्थ खीसम्पर्कः परिहतव्य इति || ॥ १३ ।। अपरस्य शहा यथोत्पद्यते तथा दर्शयितुमाह-'अदु णाइणम्' इत्यादि, विविक्तयोपिता सार्धमनगारमथैकदा दृष्ट्वा । | योपिज्जातीनां सुहृदां वा 'अप्रियं' चित्तदुःखासिका भवति, एवं च ते समाशङ्करन्, यथा-सच्चाः प्राणिन इच्छामदनकामः।। 'गृद्धा' अध्युपपन्नाः,तथाहि-एवम्भूतोऽप्ययं श्रमणः स्त्रीबदनावलोकनासक्तचेताः परित्यक्तनिजच्यापारोज्नया साध निहींकस्तिष्ठति, | तदुक्तम्--"मुण्डं शिरो वदनमेतदनिष्टगन्ध, भिक्षाशनेन भरणं च हतोदरस्य । गात्रं मलेन मलिनं गतसर्वशोभ, चित्रं तथापि | | मनसो.मदनेऽस्ति वान्छा ॥१॥" तथातिक्रोधाध्मातमानसाश्चैवमृचुर्यथा रक्षणं पोपणं चेति विगृह समाहारद्वन्द्वस्त स्मिन् | १ मिक्षाटनेन प्र.२ विहितो. विहतो.। ~228~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१४], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ४ स्त्रीप रिज्ञाध्य. सूत्रांक ||१४|| दीप अनुक्रम [२६०] सूत्रकृताङ्ग रक्षणपोषणे सदाऽदरं कुरु यतस्वमस्याः 'मनुष्योऽसि मनुष्यो वर्तसे, यदिवा यदि परं वयमस्या रक्षणपोषणव्यापृतास्वमेव शीलाङ्का- 18| मनुष्यो वर्तसे, यतस्वयैव साधमियमेकाकिन्पहर्निशं परित्यक्तनिजव्यापारा तिष्ठतीति ॥ १४ ॥ किश्चान्यत्चायचियुतं | समणपि दहुदासीणं, तत्थवि ताव एगे कुप्पंति।अदुवा भोयणेहिं णस्थेहिं, इत्थीदोसं संकिणो होति १५॥ कुवंति संथवं ताहि, पब्भट्टा समाहिजोगेहिं । तम्हा समणा ण समेति, आयहियाए सण्णिसेजाओ ॥१६॥ ॥१०९॥ श्राम्यतीति श्रमणः-साधुः अपिशब्दो भिन्नक्रमः तम् 'उदासीनमपि रागद्वेषविरहान्मध्यस्थमपि दृष्ट्वा, श्रमणग्रहणं तपःखिन्नदेहोपलक्षणार्थ, तत्रैवम्भूतेऽपि विषयद्वेषिष्यपि साधी तावदेके केचन रहस्सस्त्रीजल्पनकृतदोषखात्कुप्यन्ति, यदिवा पाठान्तरं | "समणं दहणुदासीण" 'श्रमणं' प्रबजितं 'उदासीनम्' परित्यक्तनिजव्यापार खिया सह जल्पन्तं 'दृष्ट्वा' उपलभ्य तत्राप्येके | केचन तावत् कुष्यन्ति, किं पुनः कृतविकारमितिभावः, अथवा स्त्रीदोषाशदिनच ते भवन्ति, ते चामी स्त्रीदोषाः 'भोजनैः' | नानाविधैराहारैः 'न्यस्तैः साध्वर्धमुपकल्पितरेतदर्थमेव संस्कृतैरियमेनमुपचरति तेनायमहर्निशमिहागच्छतीति, यदिवा भोजनैः श्वशुरादीनां न्यस्तैः अर्धदत्तः सद्भिः सा वधूः साध्यागमनेन समाकुलीभूता सत्यन्यस्मिन् दातव्येऽन्यदद्यात् , ततस्ते खीदोषाश-1 हिनो भवेयुयेथेयं दुःशीलाऽनेनैव सहास्त इति, निदर्शनमत्र यथा- कयाचिध्या ग्राममध्यप्रारब्धनटप्रेक्षणैकमतचित्तया पतिश्वशुरयोर्भोजनार्थमुपविष्टयोस्तण्डुला इतिकृता राइकाः संस्कृत्य दत्ताः, ततोऽसौ श्वशुरेणोपलक्षिता, निजपतिना कुद्धेन ताडिता, | अन्यपुरुषगतचित्तेत्याशङ्कच स्वगृहानिर्धाटितेति ॥ १५॥ किश्चान्यत्-'कुव्वती'त्यादि, 'ताभि: स्वीभिः-सन्मार्गार्गलाभिः ~229~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१६], नियुक्ति : [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| IN सह 'संस्तवं तहगमनालापदानसम्प्रेक्षणादिरूपं परिचयं तथाविधमोहोदयात् 'कुर्वन्ति' विदधति, किम्भूताः -प्रकर्षण भ्रष्टाः--13 स्खलिताः 'समाधियोगेभ्यः' समाधिः-धर्मध्यानं तदर्थ तत्प्रधाना वा योगा-मनोवाकायब्यापारास्तेभ्यः प्रच्युताः शीतल| विहारिण इति, यस्मात् स्त्रीसंस्तवात्समाधियोगपरिभ्रंशो भवति तस्मात्कारणात् 'श्रमणाः' सरसाधवो 'न समेन्ति' न गच्छन्ति, 18 | सत् शोभना सुखोत्पादकतयाऽनुकूलखान्निषद्या इव निषद्या स्त्रीभिः कृता माया, यदिवा स्त्रीवसतीरिति, 'आत्महिताय' खहितं मन्यमानाः, एतच खीसम्बधपरिहरणं तासामप्यहिकामुष्मिकापायपरिहाराद्धितमिति, कचित्पश्चार्द्धमेवं पठ्यते--"तम्हा समणा उ8 जहाहि अहिताओ समिसेज्जाओ" अयमस्वार्थ:-यसारखीसम्बन्धोऽनर्थाय भवति, तसात् हे श्रमण!-साधो!, तुशब्दो | विशेषणार्थः, विशेषेण संनिषद्या स्त्रीवसतीस्तस्कृतोपचाररूपा वा माया आत्महितादेतोः 'जहाहि परित्यजेति ॥१६॥ किं॥ केचनाभ्युपगम्यापि प्रव्रज्या स्त्रीसम्बन्धं कुर्युः ?, येनैवमुच्यते, ओमित्याहवहवे गिहाई अवहटु, मिस्सीभावं पत्थुया य एगे।धुवमग्गमेव पवयंति, वायावीरियं कुसीलाणं ॥१७॥ सुद्धं रवति परिसाए, अह रहस्संमि दुक्कडं करेंति। जाणंति, य णं तहाविहा, माइल्ले महासढेऽयंति ॥१८॥ erdeceaekese दीप अनुक्रम [२६२] B १सदिति शोभन: पा० । २ पण्णता पा । wirectorarycom ~230~ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१८], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१८|| चियुतं दीप अनुक्रम [२६४] सूत्रकृता 'बहवः' केचन गृहाणि 'अपहत्य' परित्यज्य पुनस्तथाविधमोहोदयात मिश्रीभावं इति व्यलिङ्गमात्रसद्धावादावतस्तु | शीलाङ्का- गृहस्थसमकल्पा इत्येवम्भूता मिश्रीभावं 'प्रस्तुताः' समनुप्राप्ता न गृहस्था एकान्ततो नापि प्रव्रजिताः, तदेवम्भूता अपि सन्तोरिक्षाध्य. चायीय 18 भुवो-मोक्षः संयमो वा तन्मार्गमेव प्रवदन्ति, तथाहि ते वक्तारो भवन्ति यथाज्यमेवामदारब्धो मध्यमः पन्थाः श्रेयान् , तथा उद्देशः १ [हि-अनेन प्रवृत्तानां प्रव्रज्यानिर्वहणं भवतीति, तदेतत्कुशीलानां वाचा कृतं वीर्य नानुष्ठानकृतं, तथाहि-ते द्रव्यलिङ्गधारि-18|| ॥११॥ | णो वायात्रेणव वयं प्रवजिता इति युवते नतु तेषां सातगौरवविषयसुखप्रतिबद्धानां शीतलविहारिणां सदनुष्ठानकृतं पीयेमस्ती-18 |ति ॥ १७ ॥ अपिच-स कुशीलो वामात्रेणाविष्कृतवीर्यः 'पर्षदि' व्यवस्थितो धर्मदेशनावसरे सत्यात्मानं 'शुद्धम् अपगत-1) दोषमात्मानमात्मीयानुष्ठान वा 'रीति' भाषते अथानन्तरं 'रहस्ये एकान्ते 'दुष्कृतं पापं तत्कारणं वाऽसदनुष्ठानं 'करोति' विदधाति, तच तस्यासदनुष्ठानं गोपायतोऽपि 'जानन्ति' विदन्ति, के ?-तथारूपमनुष्ठानं विदन्तीति तथाविदः इङ्गिताकारकुशला निपुणास्तद्विद इत्यर्थः यदिवा सर्वज्ञाः, एतदुक्तं भवति यद्यप्यपरः कश्चिदकर्तव्यं तेषां न वेत्ति तथापि सर्वज्ञा विदन्ति, तत्परिज्ञानेनैव किं न पर्याप्तं ?, यदिवा-मायावी महाशठश्चायमित्येवं तथाविदस्तद्विदो जानन्ति, तथाहि-प्रच्छन्नाका-|| |येकारी न मां कश्चिज्जानात्येवं रागान्धो मन्यते, अथ च तं तद्विदो विदन्ति, तथा चोक्तम्-"न ये लोणं लोणिजइ ण य| ११०॥ हा तुप्पिजइ घर्य व तेल्लं वा । किह सको बंचेउं अत्ता अणुहयकल्लाणो ॥१॥" || १८।। किश्चान्यत् १.पैदा प्र । न च सवर्ण लवणीयते न पश्यते पूतं च तैलं च । कि कपणे बंचयितुं आत्मानुभूताफल्याणः ॥ १ सका प्रा। ~231 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१९], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१९|| दीप अनुक्रम सयं दुकडं च न वदति, आइट्ठोवि पकत्थति बाले। वेयाणुवीइ मा कासी, चोइजतो गिलाइ से भुजो १९॥13 1 ओसियावि इस्थिपोसेसु, पुरिसा इत्थिवेयखेदना । पण्णासमन्निता वेगे, नारीणं वसं उवकसति ॥२०॥ TRI 'स्वयम्' आत्मना प्रच्छन्नं यहुप्कृतं कृतं तदपरेणाचार्यादिना पृष्टो 'न वदति' न कथयति, यथा अहमस्याकार्यस्य कारीति, स च प्रच्छन्नपापो मायावी स्वयमवदन् यदा परेण 'आदिष्टः चोदितोऽपि सन् 'बाल:' अज्ञो रागद्वेषकलितो वा 'प्रकत्थते' | आत्मानं लापमानोऽकार्यमपलपति, बदति च-यथाऽहमेवम्भूतमकार्य कथं करिष्ये इत्येवं धाष्ट्रवारप्रकथते, तथा-वेद:| पुंवेदोदयस्तस्य 'अनुवीचि आनुकूल्यं मैथुनाभिलापं तन्मा कार्कीरित्येवं भूयः' पुनः चोद्यमानोऽसौ 'ग्लायति' ग्लानिमुप| याति-अकर्णश्रुतं विधचे, मर्मविद्धो वा सखेदमिव भापते, तथा चोक्तम्-"सम्भाव्यमानपापोऽहमपापेनापि किं मया । नि| विपस्यापि सर्पस्य, भृशमुद्विजते जनः ॥१॥" इति ।। १९ ।। अपिच-खियं पोपयन्तीति स्वीपोषका-अनुष्ठानविशेषास्तेषु ॥ 'उषिता अपि' व्यवस्थिता अपि 'पुरुषा' मनुष्या भुक्तभोगिनोऽपीत्यर्थः, तथा-'स्त्रीवेदखेदज्ञा' सीवेदो मायाप्रधान इत्येवं निपुणा अपि तथा प्रज्ञया औत्पत्तिक्यादिबुध्ध्या समन्विता-युक्ता अपि 'एके' महामोहान्धचेतसो 'नारीणां स्त्रीणां संसा-18 रावतरणवीथीनां 'वशं तदायत्ततामुप-सामीप्येन 'कषन्ति' ब्रजन्ति, यद्यद्यत्ताः खनायमाना अपि कार्यमकार्य वा बुचते तत्तत्कुवेते, न पुनरेतज्जानन्ति यथैता एवम्भूता भवन्तीति, तद्यथा--"एता हसन्ति च रुदन्ति च कार्यहेतोविश्वासयन्ति च | १नियः प्र०। seaeoerceptseisesese.ccesesesea [२६५] ~2324 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [२०], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृता शीलाथाचार्याय चियुत ॥११॥ ||२०|| दीप अनुक्रम perstoercela | नरं न च विश्वसन्ति । तस्मान्नरेण कुलशीलसमन्वितेन, नार्यः श्मशानघटिका इव वर्जनीयाः ॥१॥" तथा "समुद्रबीचीव 8, चलखभावाः, सन्ध्याघ्ररेखेव मुहूर्तरागाः । खियः कृतार्थाः पुरुषं निरर्थक, निष्पीडितालक्तकवत्त्यजन्ति ॥ २॥" अत्र च स्त्री-18नय. स्वभावपरिज्ञाने कथानकमिदम्-तयथा-एको युवा खगृहानिर्गत्य वैशिकं कामशास्त्रमध्येतुं पाटलिपुत्र प्रस्थितः, तदन्तराले 18| उद्देशः १ अन्यतरग्रामवर्तिन्यैकया योषिताभिहितः, तद्यथा-सुकुमारपाणिपादः शोभनाकृतिस्त्र का प्रस्थितोऽसि', तेनापि यथास्थितमेवी तस्याः कथितं, नया चोक्तम्-वैशिक पठिखा मम मध्येनागन्तव्यं, तेनापि तथैवाभ्युपगतम् , अधीत्य चासी मध्येनायातः, तया च मानभोजनादिना सम्यगुपचरितो विविधहावभावैश्चापहृतहृदयः संस्तां हस्तेन गृह्णाति, सतस्तया महताशब्देन पूत्कृत्य जनाग-1 | मनावसरे मस्तके वारियर्धनिका प्रक्षिप्ता, ततो लोकस्य समाकुले एवमाचष्टे यथाऽयं गले लगेनोदकेन मनाक न मृतः, ततो18 मयोदकेन सिक्त इति । गते च लोके सा पृष्टवती-किं खया वैशिकशास्त्रोपदेशेन स्त्रीस्वभावानां परिज्ञातमिति , एवं खीचरित्रं || दुर्विज्ञेयमिति नात्रास्था कर्तव्येति, तथा चोक्तम्-"हृद्यन्यद्वाच्यन्यत्कर्मण्यन्यत्पुरोऽथ पृष्ठेऽन्यत् । अन्यत्तव मम चान्यत् स्त्रीणां || सर्व किमप्यन्यत् ॥ १॥" ॥२० ।। साम्प्रतमिहलोक एव स्त्रीसम्बन्धविपाकं दर्शयितुमाहअवि हत्थपादछेदाए, अवा वद्धमंसउक्तते । अवि तेयसाभितावणाणि, तच्छियखारसिंचणाई च ॥२१॥1॥ 18॥११॥ अदु कण्णणासच्छेद, कंठच्छेदणं तितिक्खंती। इति इत्थ पावसंतत्ता, नय विंति पुणो न काहिति ॥ २२॥१६॥ स्त्रीसम्पकों हि रागिणां हस्तपादच्छेदाय भवति, 'अपि:' सम्भावने सम्भाव्यत एतन्मोहातुराणां स्त्रीसम्बन्धादस्तपादच्छे [२६६] cesese ~2334 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [२२], नियुक्ति : [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम | दादिकम् , अथवा वर्धमांसोत्कर्तनमपि 'तेजसा' अग्निना 'अभितापनानि' स्त्रीसम्बन्धिभिरुत्तेजितै राजपुरुषैर्भटित्रकाण्यपि | क्रियन्ते पारदारिकाः, तथा वास्यादिना तक्षयिखा क्षारोदकसेचनानि च प्रापयन्तीति ।।२शा अपिच-अथ कर्णनासिकाच्छेदं तथा कण्ठच्छेदनं च 'तितिक्षन्ते' खकृतदोषात्सहन्ते इति, एवं बहुविधा विडम्बनाम् 'अस्मिन्नेव' मानुषे च जन्मनि पापेन-पापकर्मणा संतप्ता नरकातिरिक्त वेदनामनुभवन्तीति न च पुनरेतदेवम्भूतमनुष्ठानं न करिष्याम इति शुवत इत्यवधारयन्तीतिया-15 | वत्, तदेवमैहिकामुष्मिका दुःखविडम्बना अप्यङ्गीकुर्वन्ति न पुनस्तदकरणतया निवृचि प्रतिपद्यन्त इति भावः ॥ २२ ॥1 किञ्चान्यत् सुतमेतमेवमेगेसिं, इत्थीवेदेति हु सुयक्खायं । एवंपि ता वदित्ताणं, अदुवा कम्मुणा अवकरेंति ॥२३॥8 || अन्नं मणेण चिंतेति, वाया अन्नं च कम्मुणा अन्नं । तम्हा ण सदह भिक्खू, बहुमायाओ इथिओ णच्चा२४ 'श्रुतम्' उपलब्धं गुर्वादेः सकाशालोकतो वा 'एतदू' इति यत्पूर्वमाख्यातं, तद्यथा-दुर्विज्ञेयं स्त्रीणां चित्तं दारुणः स्त्रीस|म्बन्धविपाकः तथा चलखभावाः खियो दुष्परिचारा अदीक्षिण्यः प्रकृल्या लग्यो भवन्त्यात्मगर्विताय 'इति' एवमेकेषां 2 खाख्यातं भवति लोकश्रुतिपरम्परया चिरन्तनाख्यायिकासु वा परिज्ञातं भवति, तसखियं यथावस्थितखभावतस्तत्सम्बन्धवि-|| पाकतव घेदयति-धापयतीति स्त्रीवेदो-वैशिकादिकं स्त्रीखभावाविर्भावर्क शाखमिति, तदुक्तम्- "दुनोचं हृदयं यथैव वदनं । [२६८] ~234~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [२४], नियुक्ति : [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [२७०] सूत्रकृताज यदर्पणान्तर्गत, भावः पर्वतमार्गदुर्गविषमः स्त्रीणां न विज्ञायते । चित्तं पुष्करपत्रतोयतरलं नैकत्र सन्तिष्ठते, नायर्यों नाम विषाङ्क-1| ४ स्त्रीपशीलाका- रैरिव लता दोषैः समं वर्धिताः ॥१॥" अपिच-"सुचि जियासु सुदुवि पियासु सँटुबिय लद्धपसरासु । अडईसु महिलियासु रिक्षाध्य. चियुत राय वीसंभो नेव कायवो ॥१॥ उम्भेउ अंगुली सो पुरिसो सयलंमि जीवलोयम्मि । कामंतएण नारी जेण न पत्ताई दुक्खाई | उदेशः १ ।। २ ।। अह एयाणं पगई सबस्स करेंति वेमणस्साई । तस्स ण करेंति णवरं जस्स अलं चेव कामेहिं ॥३॥" किश-अकार्य-1|| ॥११॥ || मह न करिष्यामीत्येवमुक्खापि वाचा 'अदुवति तथापि कर्मणा-क्रियया 'अपकुर्वन्ति' इति विरूपमाचरन्ति, यदिवा अग्रतः ॥ प्रतिपद्यापि शास्तुरेवापकुर्वन्तीति ।। २३ ।। सूत्रकार एव तत्स्वभावाविष्करणायाह-पातालोदरगम्भीरेण मनसाऽन्यचिन्तयन्ति तथा श्रुतिमात्रपेशलया विपाकदारुणया वाचा अन्यद्भाषन्ते तथा 'कर्मणा' अनुष्ठानेनान्यन्निष्पादयन्ति, यत एवं बहुमायाः || ॥खिय इति, एवं शाला 'तस्मात् तासां 'भिक्षुः साधुः 'न श्रद्दधीत' तत्कृतया माययात्मानं न प्रतारयेत्, दत्तावेशिकवत्, ||अत्र चैतस्कथानकम्-दत्तावैशिक एकया गणिकया तैस्तैः प्रकारैः प्रतार्यमाणोऽपि ता नेष्टवान् , ततस्तयोक्तम्--कि मया 8 दौभाग्यकलङ्काङ्कितया जीवन्त्या प्रयोजनम् , अहं खत्परित्यक्ताऽग्निं प्रविशामि, ततोऽसाववोचत्-मायया इदमप्यस्ति वेशिके,18 | तदाऽसी पूर्वसुरामुखे काष्ठसमुदयं कृखा तं प्रज्वाल्य तत्रानुप्रविश्य सुरङ्गया गृहमागता, दत्तकोऽपि च इदमपि अस्ति वेशिके,18| ॥११॥ १०सूक्ष्ममागे दि. २ मा विजितासु मुापि प्रीतास यापि च सधप्रसरामु अटवीपु महिलामु पवित्रम्भो नैव कार्यः ॥१॥ ३ कवयतु अंगुलि स पुरुषः सकले |जीवलो के कामयता नारीवैन न प्राप्तानि दुःखानि ॥1॥ असावेतासां प्रकृतिस्सर्वेषामपि कुर्वरित वैमनस्यानि तस्य न कुर्वन्ति नवरे यस्खाल व कामः ॥१॥ ecea ~235~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [२४], नियुक्ति : [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [२७०] IS| इत्येवमसौ विलपन्नपि वातिकैश्चितायां प्रक्षिप्तः, तथापि नासौ तासु श्रद्धानं कृतवान् , एवमन्येनापि न श्रद्धातव्यमिति ॥२४॥ 1. किश्चान्यत् जुवती समणं बूया,विचित्तलंकारवत्थगाणि परिहित्ता । विरता चरिस्सहं रुक्खं,धम्ममाइक्खणे भयंतारो अदु साविया पवाएणं, अहमंसि साहम्मिणी य समणाणं। जतुकुंभे जहा उवजोई,संवासे विदू विसीएजा २६ 'युवतिः' अभिनवयौवना स्त्री विचित्रवस्त्रालङ्कारविभूषितशरीरा मायया श्रमणं घूयात् , तद्यथा-विरता अहं गृहपाशात् न ममानुकूलो भर्ता मह्यं वाऽसौ न रोचते परित्यक्ता बाऽहं तेनेत्येतत् 'चरिष्यामि करिष्याम्यहं 'रुक्ष मिति संयम, मौनमिति । वा कचित्पाठः तत्र मुनेरयं मौनः-संयमस्तमाचरिष्यामि, धर्ममाचक्ष्व 'णे ति अमार्क हे भयत्रातः!, यथाऽहमेवं दुःखाना |भाजनं न भवामि तथा धर्ममावेदयेति ॥ २५ ॥ किश्चान्यत्-अथवाऽनेन 'प्रवादेन' व्याजेन साध्वन्तिकं योपिदुपसत्-- | यथाऽहं श्राविकेतिकृता युष्माकं श्रमणानां साधर्मिणीत्येवं प्रपञ्चेन नेदीयसीभूत्वा कूलवालुकमिव साधू धर्माबंशयति, एतदुक्तं भवतियोपित्सानिध्य ब्रह्मचारिणां महतेऽनर्थाय, तथा चोक्तम्-"तज्ज्ञानं तच्च विज्ञानं, तत्तपः स च संयमः । सर्वमेकपदे || | भ्रष्ट, सर्वथा किमपि त्रियः ॥१॥" अनिवार्थे दृष्टान्तमाह-न्यथा जातुपः कुम्मो 'ज्योतिषः' अग्रेः समीपे व्यवस्थित | १धूतः वि०प०। ~236~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२६|| दीप अनुक्रम [२७२] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [२६], निर्युक्तिः [६३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चाय चियुतं ॥११३॥ उपज्योतिर्वतीं 'बिलीयते' द्रवति, एवं योषितां 'संवासे' सान्निध्ये विद्वानपि आस्तां तावदितरो योऽपि विदितवेद्योऽसावपि धमनुष्ठानं प्रति 'विषीदेत' शीतलविहारी भवेदिति ||२६|| एवं तावत्त्रीसान्निध्ये दोषान् प्रदर्श्य तत्संस्पर्शजं दोषं दर्शयितुमाहजतुकुंभे जोइउवगूढे, आसुऽभितन्ते णासमुवयाइ। एवित्थियाहिं अणगारा, संवासेण णासमुवयंति ॥२७॥ कुति पावगं कम्मं, पुट्टा वेगेवमाहिंसु । नोऽहं करेमि पावंति, अंकेसाइणी ममेसति ॥ २८ ॥ यथा जातुः कुम्भो 'ज्योतिषा' अग्रिनोपगढ़ः समालिङ्गितोऽभितप्तोऽग्निनाभिमुख्येन सन्तापितः क्षिप्रं 'नाशमुपयाति' द्रवीभूय विनश्यति, एवं स्त्रीभिः सार्धं 'संवसनेन' परिभोगेनानगारा नाशमुपयान्ति, सर्वथा जानुपकुम्भवत् व्रतकाठिन्यं परित्यज्य संयमशरीराद् भ्रश्यन्ति ॥ २७ ॥ अपिच तासु संसाराभिष्वङ्गिणीष्वभिषक्ता अवधीरितैहिकामुष्मिकापायाः 'पापं कर्म' मैथुनासेवनादिकं 'कुर्वन्ति' विदधति, परिभ्रष्टाः सदनुष्टानाद 'एके' केचनोत्कटमोहा आचार्यादिना चोद्यमाना 'एवमाहुः' वक्ष्यमाणमुक्तवन्तः, तद्यथा - नाहमेवम्भूतकुलप्रसूतः एतदकार्य पापोपादानभूतं करिष्यामि ममैषा दुहितृकल्पा पूर्वम् अङ्केश| यिनी आसीत्, तदेषा पूर्वाभ्यासेनैव मध्येवमाचरति, न पुनरहं विदितसंसारस्वभावः प्राणात्ययेऽपि व्रतभङ्गं विधास्य इति ।। २८ ।। किञ्च १ ममेषिका प्र० । Education International For Parts Only ~237~ ४ खीप रिज्ञाध्य. उद्देशः १ ॥११३॥ war Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [२९], नियुक्ति : [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२९|| दीप अनुक्रम [२७५] वालस्स मंदयं बीयं, जं च कडं अवजाणई भुजो । दुगुणं करेइ से पावं, पूयणकामो विसन्नेसी ॥२९॥ संलोकणिज्जमणगारं, आयगयं निमंतणेणाहंसु। वत्थं च ताइ! पायं वा, अन्नं पाणगं पडिग्गाहे ॥३०॥ णीवारमेवं बुज्झेज्जा, णो इच्छे अगारेमागंतुं । बद्धे विसयपासेहि, मोहमावज्जइ पुणो मंदे ॥३१॥ त्तिबेमि । इति इत्थीपरिन्नाए पढमो उद्देसो समत्तो॥४-१॥ (गाथाग्र. २८७) 'बालस्य' अज्ञस्य रागद्वेषाकुलितस्यापरमार्थदृश एतद्वितीयं 'मान्ध' अज्ञसम् , एक तावदकार्यकरणेन चतुर्थवतभङ्गो द्वितीयं तदपलपनेन मृपावादः, तदेव दर्शयति-यत्कृतमसदाचरणं 'भूयः पुनरपरेण चोद्यमानः 'अपजानीते' अपलपति-नैतन्मया || कृतमिति, स एवम्भूतः असदनुष्ठानेन तदपलपनेन च द्विगुणं पापं करोति, किमर्थमपलपतीत्याह-पूजनं-सत्कारपुरस्कारस्तत्-1 कामः-तदभिलाषी मा मे लोके अवर्णवादः खादित्यकार्य प्रच्छादयति विषण्ण:-असंयमस्तमेपितुं शीलमपति विषण्णषी ॥२९॥ किश्चान्यत्-सैलोकनीयं-संदर्शनीयमाकृतिमन्तं कश्चन 'अनगारं' साधुमात्मनि गतमात्मगतम् आत्मज्ञमित्यर्थः, तदेवम्भूतं | काधन स्वैरिण्यो 'निमन्त्रणेन' निमन्त्रणपुरम्सरम् 'आहुः उक्तवत्यः, तद्यथा-हे त्रायिन् ! साधो वखं पात्रमन्यद्वा पानादिकं | येन केनचिद्भवतः प्रयोजनं तदई भवते सर्व ददामीति मद्गृहमागत्य प्रतिगृहाण समिति ॥ ३० ।। उपसंहारार्थमाह-एतयोषितां १ मावति पाठान्तरसंभवः । Poes MORE ~238~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [२९], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३१|| सूत्रकृताङ्ग वस्त्रादिकमामन्त्रणं नीवारकल्पं 'बुध्येत' जानीयात् , यथाहि नीवारेण केनचिद्भक्ष्यविशेषेण सूकरादिवशमानीयते, एवमसावपि । | ४ स्वीपशीलाङ्का- तेनामन्त्रणेन वशमानीयते, अतस्तन्नेच्छेद् 'अगारं' गृहं गन्तुं, यदिवा गृहमेवावर्ती गृहावतों गृहभ्रमस्तं 'नेच्छेत् नाभिलपेत, रिज्ञाध्य. चार्यांयत्र-18|किमिति , यतो 'बद्धो वशीकृतो विषया एव शब्दादयः 'पाशा' रजूबन्धनानि तैद्धा-परवशीकृतः स्नेहपाशानपबोटपितुम-1|| उद्देशः २ त्तियुत समर्थः सन् 'मोह' चित्तव्याकुलखमागच्छति-किंकर्तव्यतामूढो भवति पौनःपुन्येन 'मन्दः' अज्ञो जड इति । इतिः परिसमाप्तौ। ॥११४॥ ब्रवीमीति पूर्ववत् ।। ३१ ।। इति स्त्रीपरिज्ञायां प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥४-१॥ दीप अनुक्रम अथ चतुर्थोपसर्गाध्ययने द्वितीयोद्देशकस्य प्रारम्भः ॥ [२७७] ॥११॥ उक्तः प्रथमोदशका, साम्प्रतं द्वितीयः समारभ्यते, अस चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोदेशके स्त्रीसंस्तवाचारित्रस्खलनKRI मुक्त, स्खलितशीलस्य या अवस्था इहैव प्रादुर्भवति तत्कृतकर्मवन्धश्च तदिह प्रतिपाधते, इत्यनेन सम्बन्धनायातस्यास्योद्दश| कस्यादिसूत्रम् अत्र चतुर्थ-अध्ययने द्वितीय-उद्देशकस्य आरम्भ: ~239~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| दीप ओएसयाण रज्जेज्जा, भोगकामी पुणो विरज्जेजा। भोगे समणाण सुणेह, जह भुंजंति भिक्खुणो एगे॥१॥ ॥ अह तं तु भेदमावन्नं,मुच्छितं भिक्खुं काममतिवटा पलिभिंदिया णं तो पच्छा,पादुदु मुद्धि पहणंति॥२॥ | अस्य चानन्तरपरम्परसूत्रसम्बन्धो वक्तव्यः, स चायं सम्बन्धो-विषयपाशैर्मोहमागच्छति यतोऽत 'ओज' एको रागद्वेषवियुतः। | खीषु रागं न कुर्यात्, परम्परसूत्रसम्बन्धस्तु संलोकनीयमनगारं दृष्ट्वा च यदि काचिद्योपित साधुमशनादिना नीवारकल्पेन 8 प्रतारयेत् तत्रौजः सब रज्येतेति, तत्रीजी द्रव्यतः परमाणुः मावतस्तु रागद्वेषवियुतः, खीषु रागादिहेव वक्ष्यमाणनीत्या नाना-12 विधा विडम्बना भवन्ति तत्कृतश्च कर्मबन्धः तद्विपाकाचामुत्र नरकादौ तीवा वेदना भवन्ति यतोऽत एतन्मला भावीजः सन् 'सदा सर्वकालं ताखनर्थखनिपु खीषु न रज्येत, तथा यद्यपि मोहोदयात् भोगाभिलाषी भवेत् तथाप्यहिकामुष्मिकापायान परिगणय्य पुनस्ताभ्यो विरज्येत, एतदुक्तं भवति-कर्मोदयात्प्रवृत्तमपि चित्तं हेयोपादेयपोलोचनया ज्ञानाङ्कुशेन निवर्तयेदिति, तथा श्राम्यन्ति-तपसा खिधन्तीति श्रमणास्तेषामपि भोगा इत्येतच्छृणुत यूयं, एतदुक्तं भवति-गृहस्थानामपि भोगा विडम्बना-19 प्राया यतीनां तु भोगा इत्येतदेव विडम्बनाप्राय, किं पुनस्तत्कृतावस्थाः, तथा चोक्तम्----"मुण्डं शिर" इत्यादि पूर्ववत्, तथा| यथा च भोगान् 'एके' अपुष्टधर्माणो 'भिक्षवों' यतयो विडम्बनाप्रायान् भुञ्जते तथोरेशकसूत्रेणेव वक्ष्यमाणेनोचरत्र महता | प्रबन्धेन दर्शयिष्यति, अन्यैरप्युक्तम्-"कशः काणः खञ्जः श्रवणरहितः पुच्छविकला, क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरककपालादित-| १.लार्पितगतः प्र. वि.प. 992908288992929290sace अनुक्रम [२७८] ~240 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [२], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम [२७९] सुत्रकृताङ्गं 8 गलः । बणैः पूयक्तिः कृमिकुलशतैराविलतनुः, शुनीमन्वेति वा हतमपि च हन्त्येव मदनः ॥१॥" इत्यादि, ॥१॥ भोगिनां 10४खीप रिज्ञाध्य. शीलाका-18 विडम्बना दर्शयितुमाह-'अथे' त्यानन्तर्यार्थः तुशब्दो विशेषणार्थः, खीसंस्तवादनन्तरं 'भिक्षु' साधु 'भेदं शीलभेदं चारित्रचायीयवृ | उद्देशः २ स्खलनम् 'आपन्नं' प्राप्त सन्तं स्त्रीषु 'मूछितं' गृद्धमध्युपपन्न, तमेव विशिनष्टि-कामेषु इच्छामदनरूपेषु मतेः-युद्धेर्मनसो त्तियुतं | वा वर्को वर्तनं प्रवृत्तिर्यस्यासी काममतिवर्तः-कामाभिलाषुक इत्यर्थः, तमेवम्भूतं 'परिभिद्य' मदभ्युपगतः श्वेतकृष्णप्रतिपत्ता ॥११५॥ मदशक इत्येवं परिज्ञाय यदिवा-परिभिद्य-परिसार्यात्मकृतं तत्कृतं चोचायेंति, तद्यथा- मया तव लुश्चितशिरसो जल्लमलावि-18 लतया दुर्गन्धस्य जुगुप्सनीयकक्षावक्षोबस्तिस्थानस्य कुलशीलमर्यादालज्जाधमोदीन् परित्यज्यात्मा दत्तः ख पुनरकिश्चित्कर इत्यादि भणिला, प्रकुपितायाः तस्या असी विषयमूछितस्तत्प्रत्यायनार्थ पादयोनिपतति, तदुक्तम्-"व्याभित्रकेसरवृहच्छिरसश्च सिंहा, || नागाश्च दानमदराजिकृशैः कपोलैः । मेधाविनय पुरुषाः समरे च शूराः, स्त्रीसनिधौ परमकापुरुषा भवन्ति ॥१॥" ततो | विषयेष्वेकान्तेन मृञ्छित इति परिज्ञानात् पश्चात् 'पाद' निजबामचरणम् 'उद्धृत्य' उत्क्षिप्य 'मूर्षि' शिरसि 'प्रघ्नन्ति' ताडयन्ति, 8 एवं विडम्बना प्रापयन्तीति ।। २ ॥ अन्यच्च ॥११५॥ जइ केसिआ णं मए भिक्खू, णो विहरे सह णमित्थीए। केसाणविह लंचिस्सं, नन्नत्थमए चरिज्जासि॥ अह णं से होई उवलद्धो, तो पेसति तहाभूएहिं । अलाउच्छेदं पेहेहि, वग्गुफलाई आहराहित्ति ॥४॥ १ शत प्र. । २ निपतितः प्र० । ~241 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [४], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४|| दीप केशा विद्यन्ते यस्याः सा केशिका णमिति वाक्यालङ्कारे, हे भिक्षो! यदि मया 'स्त्रिया' भार्यया केशवत्या सह नो विह-18 रस्त, सकेशया स्त्रिया भोगान् भुञ्जानो ब्रीडां यदि वहसि ततः केशानप्यह बत्सङ्गमाकाशिणी 'लुचिष्यामि' अपनेष्यामि, 18 आस्तां तावदलङ्कारादिकमित्यपिशब्दार्थः, अस्स चोपलक्षणार्थवादन्यदपि यद् दुष्करं विदेशगमनादिकं तत्सर्वमहं करिष्ये, वं81 पुनर्मया रहितो नान्यत्र चरेः, इदमुक्तं भवति-मया रहितेन भवता क्षणमपि न स्थातव्यम्, एतावदेवाहं भवन्तं प्रार्थयामि, अहमपि यद्भवानादिशति तत्सर्व विधाय इति ॥३॥ इत्येवमतिपेशलैर्विश्रम्मजननैरापातभद्रकैरालापैर्विश्रम्मयिखा यत्कुर्वन्ति | तदर्शयितुमाह-'अथे' त्यानन्तर्यार्थः, णमिति वाक्यालङ्कारे, विश्रम्भालापानन्तरं यदाऽसौ साधुर्मदनुरक्त इत्येवम् 'उपलब्धो भवति-आकारैरिङ्गितैश्चेष्टया वा मशग इत्येवं परिज्ञातो भवति ताभिः कपटनाटकनायिकाभिः स्त्रीभिः, ततः तदभिप्रायपरिशानादुत्तरकालं 'तथाभूतैः कर्मकरण्यापारैरैपशदैः 'प्रेषयन्ति' नियोजयन्ति यदिवा-तथाभूतैरिति लिङ्गस्थयोग्यैर्व्यापारः प्रेष- ॥६॥ यन्ति, तानेव दर्शयितुमाह-'अलाउ'त्ति अलावु-तुम्ब छिद्यते येन तदलाबुच्छेद–पिप्पलकादि शखं 'पेहाहि'त्ति प्रेक्षख निरूपय लभखेति, येन पिप्पलकादिना लब्धेन पात्रादेर्मुखादि क्रियत इति, तथा 'वल्गनि' शोभनानि 'फलानि नालिके-18 रादीनि अलाबुकानि वा खम् 'आहर' आनयेति, यदिवा-वाक्फलानि च धर्मकथारूपाया व्याकरणादिव्याख्यानरूपाया वा|| बाचो यानि फलानि-वस्त्रादिलामरूपाणि तान्याहरेति ॥ ४॥ अपिच१७शब्दैः प्र० खेटं पापमपशदमिति हैमः। अनुक्रम [२८१] ~2424 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [५], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 121 प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [२८२] सूत्रकृताङ्ग | दारूणि सागपागाए, पज्जोओ वा भविस्सती राओ। पाताणि य मे रयावेहि, एहि ता मे पिट्टओमदे ॥५॥18 त्रीपशीवाडा-विस्थाणि य मे पडिलेहेहि, अन्नं पाणंच आहराहित्ति।गंधंच रओहरणंच, कासवगं च मे समणुजाणाहि || रिशाध्य. चार्याय-18 चियुतं | तथा 'दारूणि' काष्ठानि शाकं टकवस्तुलादिकं पत्रशाकं तत्पाकार्थ, कचिद् अन्नपाकायेति पाठः, तबानम्-ओदनादिक-18 उद्देश |मिति, 'रात्री' रजन्या प्रयोतो या भविष्यतीतिकृता, अतो अटवीतस्तमाहरेति, तथा-[ग्रन्थानम् ३५००] 'पात्राणि' पत॥११६॥ विहादीनि 'रअय' लेपय, येन सुखेनैव भिक्षाटनमहं करोमि, यदिवा-पादावलक्तकादिना रजयेति, तथा-परित्यज्यापरं कर्म || | तावद् 'एहि आगच्छ 'मे' मम पृष्ठिम् उत्-प्राबल्येन मर्दय बाधते ममानमुपविष्टाया अतः संबाधय, पुनरपरं कायेंशेष करिष्यसीति ॥५॥ किश्च-'वस्त्राणि च' अम्बराणि 'मे' मम जीर्णानि वर्तन्तेऽतः 'प्रत्युपेक्षख अन्यानि निरूपय, यदिवामलिनानि रजकस्य समर्पय, मदुपधि वा मूषिकादिभवात्प्रत्युपेक्षखेति, तथा अन्नपानादिकम् 'आहर' आनयेति, तथा 'गन्ध' कोष्ठपुटादिक ग्रन्थं वा हिरण्यं तथा शोभनं रजोहरणं तथा लोचं कारयितुमहमशक्तेल्यतः 'काश्यप नापितं मच्छिरोमुण्डनाय || श्रमणानुजानीहि येनाई हत्केशानपनयामीति ॥ ६॥ किशान्यत्अदु अंजणि अलंकारं, कुक्कयेयं मे पयच्छाहि। लोद्धं च लोद्धकसुमंच, वेणुपलासियं च गुलियं च ॥७॥ कुटुं तगरं च अगरुं, संपिटुं सम्म उसिरेणं । तेल्लं मुहभिजाए, वेणुफलाई सन्निधानाए ॥८॥ ॥११६॥ १ गंथं इति स्वारपाठान्तरम् । २ वर्षरमिति वि. ५० ।। भिण्डलिजाए प्र० । aersesea ~243~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [ २८५] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [८], निर्युक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः eme Casese अथशब्दोऽधिकारान्तरप्रदर्शनार्थः पूर्वं लिङ्गस्योपकरणान्यधिकृत्याभिहितम् अधुना गृहस्थोपकरणान्यधिकृत्याभिधीयते, तद्यथा- 'अंजणिमिति अञ्जणिकां कजलाधारभूतां नलिकां मम प्रयच्छखेत्युत्तरत्र क्रिया, तथा कटक केयूरादिकमलङ्कारं वा, तथा 'कुक्कययं'ति खुंखुणकं 'मे' मम प्रयच्छ, येनाहं सर्वालङ्कारविभूषिता वीणाविनोदेन भवन्तं विनोदयामि, तथा लोघं च लोधकुसुमं च, तथा 'वेणुपलासियं'ति वंशात्मिका लक्ष्णत्वक काष्ठिका, सा दन्तैर्वामहस्तेन प्रगृद्ध दक्षिणहस्तेन वीणावद्वाद्यते, तथैौषधगुटिकां तथाभूतामानय येनाहमविनष्टयौवना भवामीति ॥ ७ तथा कुष्ठम् - उत्पलकुष्ठं तथाऽगरं तगरं च एते द्वे | अपि गन्धिकद्रव्ये, एतत्कुष्ठादिकम् 'उशीरेण' वीरणीमूलेन सम्पिष्टं सुगन्धि भवति यतस्तत्तथा कुरु तथा 'तैलं' लोधकुङ्कुमादिना संस्कृतं मुखमाश्रित्य 'भिजिए' ति अभ्यङ्गाय ढौकयख, एतदुक्तं भवति-मुखाभ्यङ्गार्थ तथाविधं संस्कृतं तैलमुपाहरेति, येन कान्त्युपेतं मे मुखं जायते, 'वेणुफलाई'ति वेणुकार्याणि करण्डकपेटुकादीनि सन्निधिः सन्निधानं वस्त्रादेर्व्यवस्थापनं तदर्थमानयेति ।। ८ ।। किच नंदीचुण्णगाई पाहराहि, छत्तोवाणहं च जाणाहि । सत्थं च सूवच्छेजाए, आणीलं च वत्थयं रयावेहि ॥९॥ सुफणिं च सागपागाए, आमलगाई दगाहरणं च । तिलग करणिमंजणस लागं, घिसु मे विहृणयं विजाणे हि ॥ 'नन्दीचुण्णगाई' ति द्रव्यसंयोगनिष्पादितोष्ठम्रक्षणचूर्णोऽभिधीयते तमेवम्भूतं चूर्ण प्रकर्षेण येन केनचित्प्रकारेण 'आहर' १ कुहु प्र० । २ भिजाए। भिजाए० प्र० । Educatin internation For Parts Only ~244~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१०], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१०|| सूत्रकृताङ्गं शीलाकाचापीय चियुत ॥११७|| दीप अनुक्रम आनयेति, तथाऽऽतपस्य वृष्टेर्वा संरक्षणाय छवं तथा उपानहौ च ममानुजानीहि, न मे शरीरमेभिर्विना वर्तते ततो ददखेति, स्त्रीप| तथा 'शस्त्रं दात्रादिकं 'सूपच्छेदनाय' पत्रशाकच्छेदनार्थं ढौकयस्व, तथा 'वस्त्रम्' अम्बरं परिधानार्थ गुलिकादिना रञ्जय रिज्ञाध्य. यथा आनीलम् ईपनीलं सामस्त्येन वा नीलं भवति, उपलक्षणार्थखाद्रक्तं वा यथा भवतीति ॥ ९॥ तथा-सुष्टु सुखेन वा 8] उद्देशः २ फण्यते-काथ्यते तकादिकं यत्र तत्सुफणि-स्थालीपिठरादिकं भाजनमभिधीयते तच्छाकपाकार्थमानय, तथा 'आमलकानि' धात्रीफलानि स्नानार्थ पित्तोपशमनायाभ्यवहारार्थ वा तथोदकमाहियते येन तदुदकाहरणं-कुटवर्धनिकादि, अस्य चोपलक्षणाथैखाद् घृततैलाधाहरणं सर्व वा गृहोपस्कर ढोकयखेति, तिलकः क्रियते यया सा तिलककरणी-दन्तमयी सुवर्णात्मिका वा शलाका यया गोरोचनादियुक्तया तिलकः क्रियत इति, यदिवा गोरोचनया तिलकः क्रियते (इति) सैव तिलककरणीत्युच्यते, तिलका वा क्रियन्ते-पिष्यन्ते वा यत्र सा तिलककरणीत्युच्यते, तथा अञ्जन-सौवीरकादि शलाका अक्ष्णोरञ्जनार्थ शलाका | अञ्जनशलाका तामाहरेति । तथा 'ग्रीष्मे' उष्णाभितापे सति 'मे' मम विधूनक' व्यजनक विजानीहि ॥१०॥ एवं-- संडासगं च फणिहं च,सीहलिपासगंच आणाहि।आदंसगं च पयच्छाहि, दंतपक्खालणं पवेसाहि ॥११॥ पूयफलं तंबोलयं, सूईसुत्तगं च जाणाहि। कोसं च मोयमेहाए, सुप्पुक्खलगं च खारगालणं च ॥१२॥ ॥११७॥ SIL 'संडासकं नासिकाकेशोत्पाटनं 'फणिहं' केशसंयमनार्थ कङ्कतकं, तथा 'सीहलिपासगंति वीणासंयमनार्थमूर्णामयं क णं च 'आनय' ढोकयेति, एवम् आ-समन्तादृश्यते आत्मा यसिन् स आदर्शः स एव आदर्शकस्तं 'प्रयच्छ' ददखेति, तथा [२८७] ~245 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१२], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [२८९] दन्ताः प्रक्षास्यन्ते-अपगतमलाः क्रियन्ते येन तद्दन्तप्रक्षालनं-दन्तकाष्ठं तन्मदन्तिके प्रवेशयेति ॥ ११ ।। पूगफलं प्रतीत 'ताम्बूलं नागवल्लीदलं तथा सूची च सूत्रं च सूच्यर्थ वा सूत्रं 'जानीहि ददखेति, तथा 'कोशम्' इति वारकादिभाजन तत् मोचमेहाय समाहर, तत्र मोच:-प्रस्रवणं कायिकेत्यर्थः तेन मेहः-सेचनं तदर्थ भाजन ढोकय, एतदुक्तं भवति-बहिर्गमनं । | कर्तुमहमसमर्था रात्रौ भयाद्, अतो मम यथा रात्री बहिर्गमनं न भवति तथा कुरु, एतचान्यस्याप्यधमतमकर्तव्यस्योपलक्षणं द्रष्टव्यं, तथा 'शूर्प' तन्दुलादिशोधन तथोदूखलं तथा किश्चन क्षारस्य-सर्जिकादेर्गालनकमित्येवमादिकमुपकरणं सर्वमप्यानयेति ॥ १२ ॥ किश्चान्यत्चंदालगं च करगंच, वच्चघरंच आउसो खणाहि । सरपाययं च जायाए, गोरहगं च सामणेराए ॥१३॥ घडिगं च सडिंडिमयं च, चेलगोलं कुमारभूयाए। वासं समभिआवणं, आवसहं च जाण भत्तं च ॥१४॥ 'चन्दालकम्' इति देवतार्चनिकाद्यर्थ ताम्रमयं भांजनं, एतच मथुरायां चन्दालकवेन प्रतीतमिति, तथा 'करको' जलाधारो || मदिराभाजनं वा तदानयेति क्रिया, तथा 'वर्चीगृई' पुरीपोत्सर्गस्थानं तदायुष्मन् ! मदर्थ 'खन' संस्कुरु, तथा शरा-इपकः । पात्यन्ते-क्षिप्यन्ते येन तच्छरपातं-धनुः तत् 'जाताय' मत्पुत्राय कृते ढौकय, तथा 'गोरहगं'ति त्रिहायणं बलीवदं च ढौ-18 | कयेति, 'सामणेराए'चि श्रमणस्सापत्वं श्रामणिस्तसै श्रमणपुत्राय खत्पुत्रीय गठ्यादिकृते भविष्यतीति ॥ १३ ॥ तथा घटिका 8 १श्रामणिपुत्राय प्र.२ सपुत्राय प्र। eeseseaeesececededesesecedecea ~246~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१४], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकता शीलासाचार्षीय सूत्रांक ||१४|| चियुत ॥११॥ दीप अनुक्रम [२९१] मृन्मयकुल्लडिका 'डिण्डिमेन' पटहकादिवादित्रविशेषेण सह, तथा 'चेलगोलं'ति वस्त्रात्मकं कन्दुकं 'कुमारभूताय क्षुल्लकरूपाय | ४ स्त्रीपराजकुमारभूताय वा मत्पुत्राय क्रीडनार्थमुपानयेति, तथा वर्षमिति प्राबृदकालोऽयम् अभ्यापन्न:-अभिमुखं समापन्नोऽत 'आ- रिज्ञाध्य. वसथं गृहं प्रावृटकालनिवासयोग्य तथा 'भक्तं च तन्दुलादिकं तत्कालयोग्यं 'जानीहि निरूपय निष्पादय, येन सुखेनैवा-1| उद्देशः २ नागतपरिकल्पितावसथादिना प्रावृट्कालोऽतिवाह्यते इति, तदुक्तम्-"मासैरष्टभिरवा च, पूर्वेण वयसाध्युषा । तत्कर्तव्यं मनुष्येण, | यस्यान्ते सुखमेधते ॥ १॥” इति ॥ १॥ आसंदियं च नवसुत्तं, पाउल्लाई संकमाए । अदु पुत्तदोहलट्राए, आणप्पा हवंति दासा वा ॥१५॥ |जाए फले समुप्पन्ने, गेण्हसु वा णं अहवा जहाहि । अहं पुत्तपोसिणो एगे, भारवहा हवंति उद्दा वा ॥१६॥ | तथा 'आसंदिय' मित्यादि, आसन्दिकामुपवेशनयोग्या मश्चिका, तामेव विशिनष्टि नव-प्रत्ययं सूत्रं वल्कवलितं यस्यां सा | नवसूत्रा ताम् उपलक्षणार्थवाद्वध्रचर्मावनद्धा वा निरूपयेति वा एवं चमौजे काठपादुके वा 'संक्रमणार्थ' पर्यटनार्थ निरूपय, | यतो नाहं निरावरणपादा भूमौ पदमपि दातुं समर्थेति, अथवा-पुत्रे गर्भस्खे दौहृदः पुत्रदौहदा-अन्तवती फलादावभिलापविशे-18|| पस्तसै-तत्सम्पादनार्थ स्त्रीणां पुरुषाः खवशीकृता 'दासा इव' क्रयक्रीता इव 'आज्ञाप्या' आज्ञापनीया भवन्ति, यथा दासा ॥ अलज्जितर्योग्यसादाज्ञाप्यन्ते एवं तेऽपि वराकाः स्नेहपाशावपाशिता विषयार्थिनः खीभिः संसारावतरणवीथीभिरादिश्यन्त इति १ अनागते परिकल्पितं यदावसथादि तेन । २ अन्तर्बत्नी प्रारमुदिते, फलस्य पुत्रवाचिता उपरिष्टापटा । Sawasapa9000908 SARERainintamanna ~247~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१६], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [२९३] PRI॥१५॥ अन्यच जाता-पुत्रः स एव फलं गृहस्थानां, तथाहि-पुरुषाणां कामभोगाः फलं तेषामपि फल-प्रधानकार्य पुत्रजन्मेति, तदुक्तम्-"इदं तस्नेहसर्वखं, सममाढ्यदरिद्रयोः । अचन्दनमनौशीरं, हृदयस्थानुलेपनम् ॥१॥ यत्तच्छपनिकेत्युक्तं, बालेना व्यक्तभापिणा। हिला सांख्यं च योगं च, तन्मे मनसि वर्तते ॥२॥" यथा 'लोके पुत्रसुमुखं नाम, द्वितीय मु(मुखमात्मनः' 1 इत्यादि, तदेवं पुत्रः पुरुषाणां परमाभ्युदयकारणं तसिन् 'समुत्पन्ने जाते तदुद्देशेन या विडम्बनाः पुरुषाणां भवन्ति ता दर्शयति-अमुं दारकं गृहाण खम् , अहं तु कर्माक्षणिका न मे ग्रहणावसरोस्ति, अथचैनं 'जहाहि' परित्यज नाहमस वार्तामपि पृच्छामि एवं कुपिता सती ब्रूते, मयाऽयं नव मासानुदरेणोढः सं पुनरुत्सङ्गेनाप्युद्वहन् स्तोकमपि कालमुद्विजस इति, दासहष्टान्तस्वादेशदानेनैव साम्यं भजते, नादेशनिष्पादनेन, तथाहि-दासो भयादुद्विजन्नादेशं विधत्ते, स तु स्त्रीवशगोऽनुग्रह मन्यमानो मुदितच तदादेश विधचे, तथा चोक्तम्- "यदेव रोचते मां, तदेव कुरुते प्रिया । इति वेत्ति न जानाति, तत्प्रियं 3 | यत्करोत्यसौ ॥१॥ ददाति प्रार्थितः प्राणान् , मातरं हन्ति तत्कृते । किं न दद्यात् न किं कुर्यात्स्त्रीभिरभ्यर्थितो नरः ॥२॥1॥ ददाति शौचपानीयं, पादौ प्रक्षालयत्यपि । श्लेष्माणमपि गृह्णाति, स्त्रीणां वशगतो नरः ॥३।।" तदेवं पुत्रनिमित्तमन्यद्वा यत्कि-II |श्चिन्निमित्तमुद्दिश्य दासमिवादिशन्ति, अथ तेऽपि पुत्रान् पोषितुं शीलं येषां ते पुत्रपोषिण उपलक्षणार्थखाच्चास्य सर्वादेशकारिणः । 'एके' केचन मोहोदये वर्तमानाः स्त्रीणां निर्देशवर्तिनोऽपहस्तितैहिकामुष्मिकापाया उष्ट्रा इव परवशा भारवाहा भवन्तीति । ॥ १६ ।। किश्चान्यत् 1 एतच्छलोकद्वयमपि वतनष्ठेन धर्मकीर्तिना भाषितमिति वि.प.। eaeeseseceneseaoseeseseser 02012900403930202016302929 ~248~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१७|| दीप अनुक्रम [२९४] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१७], निर्युक्तिः [६३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृतानं शीलाङ्का चार्यगट चितं ॥११९॥ | राओवि उट्टिया संता, दारगं च संठवंति धाई वा । सुहिरामणा वि ते संता, वत्थधोवा हवंति हंसा वा १७ एवं बहुहिं कयपुत्रं भोगत्थाए जेऽभियावन्ना । दासे मिइव पेसे वा, पसुभूतेव से ण वा केई ॥ १८ ॥ रात्रावयुत्थिताः सन्तो रुदन्तं दारकं धात्रीवत् संस्थापयन्त्य ने कप्रकारैरुल्लापनैः, तद्यथा - "सामिओसि नगरस्स य णकउररस य हत्थकष्पगिरिपट्टणसीहपुरस्स व उष्णयस्स निन्नस्स य कुच्छपुरस्स य कष्णकुञ्ज आयामुहसोरिय पुरस्स य" इत्येवमादिभिरसम्बद्धैः क्रीडनकालापैः स्त्रीचित्तानुवर्तिनः पुरुषास्तत् कुर्वन्ति येनोपहास्यतां सर्वस्य व्रजन्ति, सुष्ठु हीः- लजा तस्यां मनःअन्तःकरणं येषां ते सुन्हीमनसो लज्जालबोऽपि ते सन्तो विहाय लज स्त्रीवचनात्सर्वजघन्यान्यपि कर्माणि कुर्वते, तान्येव सूत्रावयवेन दर्शयति 'वस्त्रधावका' वस्त्रप्रक्षालका हंसा इव रजका इव भवन्ति, अस्य चोपलक्षणार्थलादन्यदप्युदकवहनादिकं कुर्वन्ति ॥ १७ ॥ किमेतत्केचन कुर्वन्ति येनैवमभिधीयते ?, बाढं कुर्वन्तीत्याह 'एव' मिति पूर्वोक्तं स्त्रीणामादेशकरणं पुत्रपो पणवस्त्रधावनादिकं तद्बहुभिः संसाराभिष्वङ्गिभिः पूर्वं कृतं कृतपूर्व तथा परे कुर्वन्ति करिष्यन्ति च ये 'भोगकृते' कामभोगामैहिकामुष्मिकापाय भयमपर्यालोच्य आभिमुख्येन - भोगानुकूल्येन आपन्ना- व्यवस्थिताः सावद्यानुष्ठानेषु प्रतिपन्ना इतियावत्, तथा यो रागान्धः स्त्रीभिर्वशीकृतः स दासवदशङ्किताभिस्ताभिः प्रत्यपरेऽपि कर्मणि नियोज्यते, तथा वागुरापतितः परवशी मृग इव धार्यते, नात्मवशी भोजनादिक्रिया अपि कर्तुं लभते, तथा 'प्रेष्य इव' कर्मकर व क्रयक्रीत इव वर्चःशोधना१ खाम्यसि नगरस्य च नमपुरस्य व हस्तिकल्पगिरिपत्तनसिंहपुरस्य उन्नतस्य निम्नस्य कुषिपुरस्य च कान्यकुब्जपितामहमुखशौर्य पुरस्य च ॥ Eucation International For Parts Only ~249~ ४ श्रीप रिज्ञाध्य. उद्देश: २ ॥ ११९ ॥ wor Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१८], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम seatsetectsesterestseese दावपि नियोज्यते, तथा कर्तव्याकर्तव्यविवेकरहिततया हिताहितप्राप्तिपरिहारशून्यखात् पशुभूत इच, यथा हि पशुराहारमयS| मैथुनपरिग्रहाभिज्ञ एव केवलम् , एवमसावपि सदनुष्ठानरहितखात्पशुकल्पः, यदिवा–स वीवशगो दासमृगप्रेष्यपशुभ्योऽप्यध| मखान कश्चित् , एतदुक्तं भवति-सर्वाधमवात्तस्य तत्तुल्यं नास्त्येव येनासावुषमीयते, अथवा-न स कश्चिदिति, उभयभ्रष्टखात, | तथाहि-न तावत्प्रवजितोऽसौ सदनुष्ठानरहितसात् , नापि गृहस्थः ताम्यूलादिपरिभोगरहितखाल्लोचिकामात्रधारिखाच, यदिवा ऐहिकामुष्मिकानुष्ठायिनां मध्ये न कश्चिदिति ॥ १८ ॥ साम्प्रतमुपसंहारद्वारेण स्त्रीसङ्गपरिहारमाह-~एवं खु तासु विन्नप्पं, संथवं संवासं च वज्जेजा। तजातिआ इमे कामा, वज्जकरा य एवमक्खाए ॥१९॥ एयं भयंण सेयाय, इइसे अप्पगं निलंभित्ता ।णो इत्थिं णो पसु भिक्खू, णो सयं पाणिणा णिलिजेजा२० KI एतत्' पूर्वोक्तं खुशब्दो वाक्यालङ्कारे तासु यत् स्थित तासां वा स्त्रीणां सम्बन्धि यद् विज्ञप्तम्-उक्त, तद्यथा---यदि सकेशया मया सह न रमसे ततोऽहं फेशानप्यपनयामीत्येवमादिकं, तथा स्त्रीभिः साधं 'संस्तवं' परिचयं तत्संवासं च स्त्रीभिः सहकत्र निवासं चात्महितमनुवर्तमानः सर्वापायभीरुः 'त्यजेत्' जयात् यतस्ताभ्यो-रमणीभ्यो जातिः-उत्पचिर्येषां तेऽमी SI कामास्तज्जातिका-रमणीसम्पर्कोत्थास्तथा 'अवयं पापं वर्ज वा गुरुबादधापातकलेन पापमेव तत्करणशीला अवद्यकरा वज्रकरा वेत्येवम् 'आख्याताः' तीर्थकरगणधरादिभिः प्रतिपादिता इति ।। १९ ॥ सर्वोपसंहारार्थमाह-'एवम् अनन्तरनीत्या भयहेतुतात् खीभिर्विज्ञप्तं तथा संस्तवस्तत्संवासश्च भयमित्यतः स्त्रीभिः सार्ध सम्पर्को न श्रेयसे असदनुष्ठानहेतुलाचसेत्येवं परिझाय Deatheckerseas [२९५] ~250~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [२०], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [२९७] सूत्रकतार 18स मिक्षुरवगतकामभोगविपाक आत्मानं स्त्रीसम्पर्कानिरुध्य सन्मार्गे व्यवस्थाप्य यत्तुर्यात्तदर्शयति-न खियं नरकवीधीप्रायां || ४ श्रीपशीलाबा- नापि पशुं 'लीयेत' आश्रयेत स्त्रीपशुभ्यां सह संवासं परित्यजेत् , 'स्खीपशुपण्डकविवर्जिता शय्ये'तिवचनात् , तथा स्वकीयेन रिज्ञाध्य. चायिधु- 'पाणिना' हस्तेनावाच्यस्य 'न णिलिज्जेजत्ति न सम्बाधनं कुर्यात् , यतस्तदपि हस्तसम्बाधनं चारित्रं शवलीकरोति, यदिवा Nउद्देशः २ त्तियुतं खीपश्चादिकं खेन पाणिना न स्पृशेदिति ॥ २० ।। अपि च॥१२०॥ सुविसुद्धलेसे मेहावी,परकिरिअंच वज्जए नाणी। मणसा वयसा कायेणं, सबफाससहे अणगारे ॥२१॥ | इच्छेवमाहु से वीरे, धुअरए धुअमोहे से भिक्खू। तम्हा अज्झत्थविसुद्धे,सुविमुक्के आमोक्खाए परिवएज्जा |सि ॥ २२ ॥ तिबेमि ॥ इति श्रीइत्थीपरिन्ना चतुर्थाध्ययन समतं ॥ (गाथाग्र० ३०९) । । मुलु-विशेषेण शुद्धा-श्रीसम्पर्कपरिहाररूपतया निष्कलका लेश्या-अन्तःकरणवृत्तिर्यस्य स तथा स एवम्भूतो 'मेधावीर मर्यादावर्ती परसी-मयादिपदार्थाय क्रिया परक्रिया-विषयोपभोगद्वारेण परोपकारकरण परेण वाऽऽत्मनः संवाधनादिका क्रिया परक्रिया तोच 'ज्ञानी' विदितवेयो 'वर्जयेत्' परिहरेत , एतदुक्तं भवति-विषयोपभोगोपाधिना नान्यस किमपि कुयोंचाप्यात्मनः ॥१२०॥ स्त्रिया पादधावनादिकमपि कारयेत् , एतच परक्रियावर्जनं मनसा वचसा कायेन वर्जयेत् , तथाहि-औदारिककामभोगार्थे मन-1 |सा न गच्छति नान्यं गमयति गच्छन्तमपरं नानुजानीते एवं बाचा कायेन च, सर्वेऽप्यौदारिके नव भेदाः, एवं दिव्येऽपि पा० विहरे भामुक्साए। toerserverseaweedeseesersesece 000000000020200es ~251~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [२९९] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [२२], निर्युक्तिः [६३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः नव भेदाः, ततश्चाष्टादशभेदभिन्नमपि ब्रह्म विभृयात् यथा च स्त्रीस्पर्शपरीषदः सोढव्य एवं सर्वानपि शीतोष्णदंशमशकतृणादिस्पर्शानधिसहेत, एवं च सर्वस्पर्शसहोनगारः साधुर्भवतीति ॥ २१ ॥ क एवमाहेति दर्शयति- 'इति' एवं यत्पूर्वमुक्तं तत्सर्व स वीरो भगवानुत्पन्नदिव्यज्ञानः परहितैकरतः 'आह' उक्तवान् यत एवमतो धूतम्- अपनीतं रजः श्रीसम्पर्कादिकृतं कर्म येन स धूतरजाः तथा धूतो मोहो रागद्वेषरूपो येन स तथा पाठान्तरं वा धूतः - अपनीतो रागमार्गो - रागपन्था यस्मिन् स्त्रीसंस्तवादिपरिहारे तत्तथा तत्सर्वं भगवान् वीर एवाह, यत एवं तस्रात् स मिक्षुः 'अध्यात्मविशुद्धः सुविशुद्धान्तःकरणः सुष्ठु रागद्वेषात्मकेन स्त्रीसम्पर्केण युक्तः सन् 'आमोक्षाय' अशेषकर्मक्षयं यावत्परि-समन्तात्संयमानुष्ठानेन 'व्रजेत्' गच्छेत्संगमोद्यो गवान् भवेदिति, इतिः परिसमाप्त्यर्थे ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २२ ॥ इति चतुर्थं स्त्रीपरिज्ञाध्ययनं परिसमाप्तम् ॥ Education Internation अत्र चतुर्थ अध्ययनं परिसमाप्तम् For Parts Only ~252~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [२९९] नरकविसूत्रकृता ॥अथ पञ्चमं नरकविभक्त्यध्ययनं प्रारभ्यते ॥ भज्यध्य. शीलाङ्का उद्देशः१ चाीयत्तियुतं || उक्तं चतुर्थमध्ययनं, साम्प्रतं पञ्चममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहाये अध्ययने स्वसमयपरसमयप्ररूपणाभिहिता, तदनन्तरं स्वसमये बोधो विधेय इत्येतद्वितीयेऽध्ययने भिहितं, सम्बुद्धेन चानुकूलप्रतिकूला उपसर्गाः सम्यक् सोढव्या इत्येतत्तृ॥१२॥ तीयेऽध्ययने प्रतिपादितं, तथा समुद्धेनैव स्त्रीपरीषहश्च सम्यगेव सोढव्य इत्येतचतुर्थेऽध्ययने प्रतिपादितं, साम्प्रतमुपसर्गभीरो। खीवशगस्खावश्यं नरकपातो भवति तत्र च यात्क्षा वेदनाः प्रादुर्भवन्ति ता अनेनाध्ययनेन प्रतिपाद्यन्ते, तदनेन सम्बन्धेनाया- 101 तस्यास्वाध्ययनस चखार्यनुयोगद्वाराणि उपक्रमादीनि वक्तव्यानि, तत्रोपक्रमान्तर्गतीर्थाधिकारी द्वधा-अध्ययनार्थाधिकार || उद्देशार्थाधिकारश्च, तत्राध्ययनार्थाधिकारो नियुक्तिकारेण प्रागेवाभिहितः, तद्यथा-'उवसग्गभीरुणो धीवसस्स नरएसु होज उववाओं इत्यनेन, उद्देशार्थाधिकारस्तु नियुक्तिकृता नाभिहितः, अध्ययनार्थाधिकारान्तर्गतत्वादिति । साम्प्रतं निक्षेपः, सच त्रिषिधः, ओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नति, तत्रौघनिष्पन्ने निक्षेपेऽध्ययनं, नामनिष्पन्ने तु नरकविभक्ति ॥१२१॥ रिति विपदं नाम, वत्र नरकपदनिक्षेपार्थ नियुक्तिकृदाह|णिरए छ दव्यं णिरया उ इहेष जे भवे असुभा । खेत्तं णिरओगासो कालो णिरएसु चेव ठिती ॥६४॥ | भावे उणिरयजीवा कम्मुदओ चेव णिरयपाओगो। सोऊण णिरयदुक्खं तवचरणे होइ जड्यब्वं ॥ ६५ ॥ अत्र पंचम-अध्ययनं 'नरकविभक्ति' आरब्ध:, 'नरक' पदस्य निक्षेपा: ~253~ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [२९९] तत्र नरकशब्दस्य नामस्थापनाद्रम्पक्षेत्रकालभावभेदात् पोढा निक्षेपः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, गुम्पनरक आगमतो नोआगमत-18॥ थ, आगमतो शाता तत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतस्तु शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तः 'इदैव' मनुष्यभवे तिर्यग्भवे वा ये केचनाशुभक-| मकारिखादशुभाः सत्त्वाः कालकसौकरिकादय इति, यदिवा यानि कानिचिदशुभानि स्थानानि चारकादीनि याच नरका| तिरूपा वेदनास्ताः सर्वा द्रव्यनरका इत्यभिधीयन्ते, यदिवा कर्मेद्रव्यनोकर्मद्रव्यभेदाद् द्रव्यनरको द्वेधा, तत्र नरकवेद्यानि । यानि बद्धानि कर्माणि तानि चैकमविकस्य बद्धायुष्कस्याभिमुखनामगोत्रस चाश्रित्य द्रव्यनरको भवति, नोकर्मद्रव्यनरकस्सिदैव | येशुभा रूपरेसगन्धवर्णशब्दस्पर्शा इति, क्षेत्रनरकस्तु 'नरकावकाशः कालमहाकालरौरवमहारौरवाप्रतिष्ठानाभिधानादिनरकाणां चतुरशीतिलक्षसंख्यानां विशिष्टो भूभागः, कालनरकस्तु यत्र यावती स्थितिरिति, भावनरकस्तु ये जीवा नरकायुष्कमनुभवन्ति | तथा नरकप्रायोग्यः कर्मोदय इति, एतदुक्तं भवति-नरकान्तर्वतिनो जीवास्तथा नारकायुष्कोदयापादिवासातावेदनीयादिकर्मो| दयाश्चैतद् द्विवयमपि भावनरक इत्यभिधीयते इति, तदेवं 'श्रुखा' अवगम्य तीव्रमसा 'नरकदुःखं कचपाटनकुम्भीपाकादिक | परमाधार्मिकापादितं परस्परोदीरणाकृतं स्वाभाविकं च 'तपश्चरणे' संयमानुष्ठाने नरकपातपरिपन्थिनि स्वर्गापवर्गागमनैकहेतावा-18| त्महितमिच्छता 'प्रयतितव्यं परित्यक्तान्यकर्तव्येन यलो विधेय इति ॥ साम्प्रतं विभक्तिपदनिक्षेपार्थमाह णामंठवणादविए खेत्ते काले तहेब भावे य । एसो उ विभत्तीए णिक्खेवो छबिहो होइ॥६६॥ विभक्तेर्नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् पोढा निक्षेपः, तत्र नामविभक्तिर्यस्य कस्यचित्सचित्तादेव्यस्य विभक्तिरिति । १ नरकास्तु प्र० । २ रूपं मूर्तिः (आकारः) । हावर्ण्य वा। नरक' पदस्य निक्षेपा:, "विभक्ति' पदस्य निक्षेपा: ~254~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [२९९] सूत्रकृताङ्ग नाम क्रियते, तद्यथा-खादयोऽष्टौ विभक्तयस्तिबादयश्व, स्थापनाविभक्तिस्तु यत्र ता एव प्रातिपदिकाद्धातोवी परेण स्थाप्यन्ते । नरकविशीलाका- पुस्तकपत्रकादिन्यस्ता वा, द्रव्यविभक्तिीवाजीवमेदाद् द्विधा, तत्रापि-जीवविभक्तिः सांसारिकेतरभेदाद्विधा, तत्राप्यसांसारिक- भक्त्यध्य. चाविष-18 जीवविभक्तिर्द्रव्यकालभेदात् द्वेधा, तत्र द्रव्यतस्तीर्थातीर्थसिद्धादिभेदात्पञ्चदशधा, कालतस्तु प्रथमसमयसिद्धादिभेदादनेकधा, 3 उद्देशः १ त्तियुतं । सांसारिकजीवविभक्तिरिन्द्रियजातिभयभेदात्रिधा, तत्रेन्द्रियविभक्तिः-एकेन्द्रियविकलेन्द्रियपश्चेन्द्रियभेदात्पञ्चधा, जातिवि-18 ॥१२२॥ भक्तिः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसभेदात् पोढा, भवविभक्तिर्नारकतिर्यअनुष्यामरभेदाचतुर्धा, अजीवद्रव्यविभक्तिस्तु रूप्यरूपिद्रव्यभेदाद् द्विधा, तत्र रूपिद्रध्यविभक्तिश्चतुर्धा, तद्यथा-स्कन्धाः स्कन्धदेशाः स्कन्धप्रदेशाः परमाणुपुद्गलाच, अरूपिद्रव्य-18 विभक्तिर्दशधा, तद्यथा-धर्मास्तिकायो धर्मास्तिकायस्स देशो धर्मास्तिकायस्य प्रदेशः, एवमधर्माकाशयोरपि प्रत्येकं त्रिमेदता8 द्रष्टव्या, अद्धासमयच दशम इति, क्षेत्रविभक्तिचतुर्धा, तद्यथा-स्थानं दिशं द्रव्यं खामिलं चाश्रित्य, तत्र स्थानाश्रयणावों-18 धस्तियेग्विभागव्यवस्थितो लोको वैशाखस्थानस्थपुरुष इव कटिस्थकरयुग्म ईव द्रष्टव्यः, तत्राप्यधोलोकविभक्ती रसप्रभाधाः III सप्त नरकपृथिव्यः, तत्रापि सीमन्तकादिनरकेन्द्रकावलिकप्रविष्टपुष्पावकीर्णकवृत्तव्यस्रचतुरस्रादिनरकखरूपनिरूपणं, तियेग्लोक-| विभक्तिस्तु जम्बूद्वीपलवणसमुद्रधातकीखण्डकालोदसमुद्रेत्यादि द्विगुणद्विगुणवृद्ध्या द्वीपसागरस्वयम्भूरमणपर्यन्तखरूपनिरूपणं, ऊध्यलोकविभक्तिः सीधर्माचा उपर्युपरिव्यवस्थिता द्वादश देवलोकाः नव ग्रेवेयकानि पञ्च महाविमानानि, तत्रापि विमानेन्द्रकाव-13| 8॥१२२॥ ISIलिकाप्रविष्टपुष्पावकीर्णकवृत्तत्र्यखचतुरस्रादिविमानस्वरूपनिरूपणमिति, दिगाश्रयणेन तु पूर्वखा दिशि व्यवस्थितं क्षेत्रमेवमपरा-18॥ १ इति प्र.. 'विभक्ति' पदस्य निक्षेपा: ~255 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [२९९] IS खपीति, द्रव्याश्रयणाच्छालिक्षेत्रादिकं गृह्यते, खाम्याश्रयणाच्च देवदत्तस्य क्षेत्रं यज्ञदत्तस्स वेति, यदिवा-क्षेत्रविभक्तिरार्यानार्य|| क्षेत्रभेदाद द्विधा, तत्राप्यायक्षेत्रमपविशतिजनपदोपलक्षितं राजगृहमगधादिकं गृह्यते, "रायगिह मगह चंपा अंगा तह ताम लिचि बंगा य । कंचणपुरं कलिंगा वाणारसी चेव कासी य ॥१॥ साकेय कोसला गयपुरं च कुरु सोरियं कुसट्टा य । केपिल्लं पंचाला अहिछत्ता जंगला चेव ॥२॥ बारवई य सुरडा मिहिल विदेही य बच्छ कोसंची । नंदिपुरं संदिग्भी भदिलपु-8 | रमेव मैलया य ॥ ३ ॥ बहराड मैच्छ चरणा अच्छा तह मित्तियावइ दसण्णा । सुत्तीमई य"चेदी वीयमयं सिंधुसोवीरा ॥ ४॥18॥ | महुरा य सूरसेणा पावा भंगी ये मासपुरिबट्टा । सावत्थी य कुंणाला, कोडीवरिसं च लोढा य ॥५॥ सेयवियाविय णयरि केययअद्धं च आरियं भणियं । जत्थुप्पत्ति जिणाणं चक्कीणं रामकिण्हाणं ॥ ॥६॥" अनार्यक्षेत्रं धर्मसंज्ञारहितमनेकधा, तदुक्तम्-"सगै जवण सबर बब्बर कायमुरुंडो दुगोणपक्कणया । अक्खागहूणरोमस पारसखसखासिया चेव ॥१॥ दुविलयलवोस बोकस भिल्लंदै पुलिंद कोंच भमर रूया । कोंबोय चीण चंचुय मालय दमिला कुलक्खा य ॥२॥ केकय किराय हय राजगृह मय चंपाने ताबलिप्ति काशनपुर कलिंगे दाणारसी काश्यां ॥१॥ साकेतं कीशले गजपुरं च कुरुषु सीरिकं च कुशा कोपिल्यं पंचालायो । अहिच्छत्रं जंगलायां चैव ॥ १॥ द्वारवती मुरझायां मिथिला विवेहेषु बस्से कौशाम्बी नंदीपुर साहित्ये भदिलपुरं मलये ॥३॥ वैराट पच्छे वरणे अच्छा मृत्तिकावती दशाणे शुक्तिमती चेदिक वीतभयं शिन्धी सौवीरे ॥ ४ ॥ मधुरा च शूरसेने पापायो भंग मासा पुर्या धावस्तिथा। वीरे ॥ ४ ॥ मथुरा च सरसेने पापायां भी मासा पुर्या धावस्तिष कुणालायां कोटीपर्ष च लाटे च ॥५॥ | श्वेताम्बिकापि च नगरी कैकेय्यद चार्य भाणितं यत्रोत्पत्तिजिनानां चकियां रामकृष्णानो ॥६॥ २ वाराणसी प्र० ।। शकयवनशवरवर्वरकायमुरुङदुगौड| पकणिकाः भाल्याकहुगरोमाः पारसशसखासिकाच ।। १४ द्विबलबलीयनुषसाः भिल्लांपुलिंदकीचभ्रमरक्षकाः कोचाच चीनचंचुकमालपदमिलकुलाख्याच |॥1॥५मिसंध प्रा(कोचा य प्र.1 कैकेय किरातव्य मुगलरमुखाः गजतुरगमेंटमुखाय हयकर्णा गजकर्णाः अन्ये व अनार्या बहवः ॥१॥ 'विभक्ति' पदस्य निक्षेपा: ~256~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [२९९] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [ - ], मूलं [२२...], निर्युक्तिः [६६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग श्रीलङ्का चार्यय चिपुर्त ॥१२३ ॥ Education Inte मुह खरमुह गेयतुरगमेढगमुहा य । हयकष्णा गयकण्णा अण्णे य अणारिया बहवे ॥ ३ ॥ पैावा य चंडदंडों अणारिया णिग्विणा णिरणुकंपा । धम्मोति अक्खराई जेसु ण णज्जंति सुविणेऽवि ॥ ४ ॥ " कालविभक्तिस्तु अतीतानागतवर्तमानकालभेदात्रिधा, यदिवैकान्तसुषमादिकक्रमेणावसर्पिण्युत्सर्पिण्युपलक्षितं द्वादशारं कालचक्रं, अथवा – “सैमयावलियमुडुत्ता दिवसमहोरच पक्ख मासा य । संवच्छरयुगपलिया सागर उस्सप्पि परियट्टे ।। १ ।।” त्येवमादिका कालविभक्तिरिति, भावविभक्तिस्तु जीवाजीवभावभेदाद्विधा, तत्र जीवभावविभक्तिः औदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकसान्निपातिकभेदात् षट्पकारा, तत्रौदयिको गतिकपाय लिङ्गमिथ्या दर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्रुतुरु ये कै कै कै कपभेदक्रमेणैकविंशतिभेदभिन्नः, तथौपशमिकः सम्यक्तचारित्रभेदाद् द्विविधः, क्षायिकः सम्यक्खचारित्रज्ञानदर्शनदान लाभभोगोपभोग वीर्यमेदानवधा, क्षायोपशमिकस्तु ज्ञानाज्ञानदर्शनदानादिलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपश्चभेदाः तथा सम्यक्तचारित्र संयमासंयम भेदक्रमेण । ष्टादशधेति, पारिणामिको जीवभव्या भव्यतादिरूपः सान्निपाठिकस्तु द्विकादिभेदात् पविंशतिभेदः, संभवी तु परिघोऽयमेव गतिभेदात्पञ्चदशधेति । अजीवभावविभक्तिस्तु मूर्तानां वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानपरिणामः अमूर्तानां गतिस्थित्यवगाहवर्तनादिक इति, साम्प्रतं समस्तपदापेक्षया नरकविभक्तिरिति नरकाणां विभागो विभक्तिस्तामाह | पुढवीफासं अण्णाणुवक्कम णिरयवालवणं च । तिसु वेदेति अताणा अणुभागं चैव सेसासु ॥ ६७ ॥ [१] सह प्र० । २ पापार्थदंडाः अनार्या निर्घुणा निरनुकंपा धर्म इति अक्षराणि येन ज्ञायते खप्नेऽपि ।। १ । ३. हा प्र० ४ निरणुतानी प्र० । ५ समय | आवलिका मुहूर्त्तः दिवसोऽहोरात्रं पक्षो मासव संवत्सरं युगं पल्यं सागर उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो पुलपरावर्तः ॥ १ ॥ 'विभक्ति' पदस्य निक्षेपा:, नरकाणाम् विभाग: For Parts Only ~ 257~ ५ नरकवि भक्यध्य. उद्देशः १ ॥ १२३ ॥ waryra Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| seaterencentratedeseseser दीप अनुक्रम [२९९] पृथिव्याः-शीतोष्णरूपायास्तीत्रवेदनोत्पादको यः स्पर्शः-सम्पर्कः पृथिवीसंस्पर्शस्तमनुभवन्ति, तमेव विशिनष्टि—अन्येनदेवादिना उपक्रमितुम्-उपशमयितुं यो न शक्यते सोन्यानुपक्रमस्तम् , अपराचिकित्स्यमित्यर्थः, तमेवम्भूतमपरासाध्यं पृथिवी-18 स्पर्श नारकाः समनुभवन्ति, उपलक्षणार्थवाचास्य रूपरसगन्धस्पर्शशब्दानप्येकान्तेनाशुभानिरुपमाननुभवन्ति, तथा नरकपालै:पञ्चदशप्रकारः परमाधार्मिकैः कृतं मुद्गरासिकुन्तक्रकचकुम्भीपाकादिकं वधमनुभवन्त्याचासु 'तिमपु' रलशर्करावालुकाख्यासु पृथिवीषु खकृतकर्मफलभुजो नारका 'अत्राणा' अशरणाः प्रभूतकालं याचदनुभवन्ति, 'शेषासु' चतमपु पृथिवीषु पधूमतमोमहा| तमःप्रभाख्यासु अनुभावमेव परमाधार्मिकनरकपालाभावेऽपि स्वत एव वत्कृतवेदनायाः सकाशाद्यस्लीव्रतरोऽनुभावो विपाको वेदनासमुद्घातस्तमनुभवन्ति परस्परोदीरितदुःखाच भवन्तीति । साम्प्रतं परमाधार्मिकानामाचासु तिसषु पृथिवीषु वेदनोत्पादकान् । खनामग्राहं दर्शयितुमाह अंधे अंबरिसी चेच, सामे य सबलेवि य । रोहोवरुद्द काले य, महाकालेत्तिआवरे ।। ६८॥ असिपत्ते धणुं कुंभे, वालु वेयरणीवि य । खरस्सरे महाघोसे, एवं पण्णरसाहिया ॥ १९॥ गाधाद्वयं प्रकटार्थम् , एवं ते चाम्बइत्यादयः परमाधार्मिका यारक्षां वेदनामुत्पादयन्ति प्रायोऽन्वर्थसंज्ञवाचादृशाभिधाना एव द्रष्टच्या इति, साम्प्रतं खाभिधानापेक्षया यो यो वेदनां परस्परोदीरणदुःखं चोत्पादयति ता दर्शयितुमाह---- धाति य हाडेंति य हणंति विंधति तह णिसुंभंति । मुंचंति अंबरतले अंबा खलु तत्थ रइया ॥७॥ १गंध रस इति प्र.। celeseseseseseseatsecenese NI श नरकाणाम् विभाग:, परमाधार्मिकानाम नामानि, नारकाणाम् वेदना: ~258~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति : [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचाय-य सूत्रांक ||२२|| चियुत ॥१२४॥ दीप अनुक्रम [२९९] seseaeseseseaeeeaceaeraeses ओहयो य तहियं णिस्सन्ने कप्पणीहि कप्पति । विदुलगचड्डुलगछिन्ने अंबरिसी तत्थ रइए ॥ ७१ ॥ नरकविसाडणपाडणतोडण बंधणरञ्जल्लयप्पहारेहिं । सामा रयाणं पवत्तयंती अपुण्णाणं ॥७२॥ भक्त्यध्य. अंतगयफिफिसाणि य हिययं कालेज फुप्फुसे वक्के । सबला रतियाणं कट्ठति तहिं अपुन्नाणं ।। ७३ ।। 18 उद्देशः१ असिसत्तिकोंततोमरसूलतिसूलेसु सइचियगासु । पोयंति रुद्दकम्मा उ णरगपाला तहिं रोहा ॥ ७४ ॥ भंजंति अंगमंगाणि ऊरूवाइसिराणि करचरणे । कप्पेंति कप्पणीहिं उवरुदा पावकम्मरया ॥७५॥ मीरासु सुंठएसु य कंडूसु य पयंडएसु य पयंति । कुंभीसु य लोहिएसु य पयंति काला उणेरतिए ॥७६॥ कप्पंति कागिणीमंसगाणि छिदंति सीहपुच्छाणि । खावंति य रइए महकाला पावकम्मरए ॥ ७७॥ हत्थे पाए अरू बाहुसिरापायअंगमंगाणि । छिदंति पगामंतू असि रइए निरयपाला ॥ ७८॥ कण्णोदृणासकरचरणदसण?णफुग्गऊरुबाहणं । छेयणभेयणसाडण असिपत्तधणूहि पाडंति ॥ ७९ ॥ कुम्भीसु य पयणेसु य लोहियसु य कंदुलोहिकुंभीसु । कुंभी य णरयपाला हणंति पाड(य)ति णरएसु ॥८॥ तडतडतडस्स भजति भजणे कलंबुवालुगापढे । वालगा रहया लोलती अंबरतलंमि ॥ ८१॥ पूपरुहिरकेसट्टिवाहिणी कलकलेंतजलसोया। वेयरणिणिरयपाला णेरइए ऊ पवाहंति ॥ ८२॥ ॥१२४॥ कप्पति करकएहिं तछिंति परोप्परं परमुएहिं । सिंयलितरुमारुहंती खरस्सरा तत्थ णेरइए ॥ ८३॥ १ बोहण टीका । २ कंछ प० । ३ पूओ. प्र. । Cacse नारकाणाम् वेदना: ~259~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [२९९] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [-], मूलं [२२...], निर्युक्तिः [८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः भीए य पलायंते समंततो तत्थ ते णिरंभंति । पसुणो जहा पसुबहे महघोसा तत्थ रहए ॥ ८४ ॥ तत्राम्बाभिधानाः परमाधार्मिकाः स्वभवनान्नरकावासं गत्वा क्रीडया नारकान् अत्राणान् सारमेयानिव शूलादिप्रहारैस्तुदन्तो 'धाडेंति'त्ति प्रेरयन्ति-स्थानात् स्थानान्तरं प्रापयन्तीत्यर्थः, तथा 'पहाडेंति'त्ति स्वेच्छयेत वेतवानाथं अमयन्ति, तथा अम्बरतले प्रक्षिप्य पुनर्निपतन्तं मुद्गरादिना घ्नन्ति, तथा शूलादिना विध्यन्ति, तथा 'निसुंभंति' ति कृकाटिकायां गृहीता भूमौ पातयन्ति अधोमुखान्, तथोत्क्षिप्य अम्बरतले मुञ्चन्तीत्येवमादिकया विडम्बनया 'तंत्र' नरकपृथिवीषु नारकान् कदर्थयन्ति । किञ्चान्यत्उप-सामीप्येन मुद्गरादिना हता उपहताः पुनरप्युपहता एव खड्गादिना हता उपहतहतास्तान्नारकान् 'तस्यां नरकपृथिव्यां 'निःसंज्ञकान्' नष्टसंज्ञान् मूच्छितान्सतः कर्पणीभिः 'कल्पयन्ति' छिन्दन्तीततथ पाठयन्ति, तथा 'द्विदलचटुलकच्छिन्नानि 'ति मध्यपाटितान् खण्डशक्छिनांव नारकांस्तत्र नरकपृथिव्यामम्बर्षिनामानोऽसुराः कुर्वन्तीति, तथा 'अपुण्यवतां तीव्रासातोदये वर्तमानानां नारकाणां श्यामाख्याः परमाधार्मिका एतचैतच्च प्रवर्तयन्ति तद्यथा' शातनम् ' अङ्गोपाङ्गानां छेदनं, तथा 'पातनं' निष्कुटादधो वज्रभूमौ प्रक्षेपः तथा 'प्रतोदनं' शूलादिना तोदनं व्यधनं (ग्रन्थाग्रम् ३७५० ) सूच्यादिना नासिकादौ | वेधस्तथा रज्ज्वादिना क्रूरकर्मकारिणं बभन्ति, तथा तारग्विधलताप्रहारैस्ताडयन्त्येवं दुःखोत्पादनं दारुणं शातनपातनवेधनवन्धनादिकं बहुविधं 'प्रवर्तयन्ति' व्यापारयन्तीति, अपिच-तथा--सबलाख्या नरकपालास्तथाविधकर्मोदयसमुत्पन्नक्रीडापरिणामा अपुण्यभाजां नारकाणां यत्कुर्वन्ति तद्दर्शयति, तद्यथा-अभगतानि यानि फिल्फिसानि अत्रान्तर्वतीनि मांसविशेषरूपाणि तथा १] कूष्माण्डवदा छिरवा तिर्यक् थिते वि० प्र०२ व्यधनं तथा व्यथनं तथा । Education Internation नारकाणाम् वेदना: For Parts Only ~260~ waryra Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्गं शीलाकाचायिवृत्तियुतं ॥१२५॥ ||२२|| दीप अनुक्रम [२९९] हृदयं पाटयन्ति तथा तद्गतं 'कालेज्जति हृदयान्तर्वति मांसखण्डं तथा 'फुप्फुसे'त्ति उदरान्तर्वीन्यत्रविशेषरूपाणि तथा नरकवि'चल्कलान्' वर्धान् आकर्षयन्ति, नानाविधैरुपायैरशरणानां नारकाणां तीव्र वेदनामुत्पादयन्तीति । अंपिच-तथा अन्वर्थाभि-18 मक्यध्य. धाना रौद्राख्या नरकपाला रौद्रकर्माणो नानाविधेष्वसिशक्त्यादिषु प्रहरणेषु नारकानशुभकर्मोदयवर्तिनः प्रोतयन्तीति । तथा- उद्देशः १ उपरुद्राख्याः परमाधार्मिका नारकाणामङ्गप्रत्यङ्गानि शिरोबाहरुकादीनि तथा करचरणांश्च 'भञ्जन्ति' मोटयन्ति पापकर्माणः कल्पनीभिः 'कल्पयन्ति' पाटयन्ति, तन्नास्त्येव दुःखोत्पादनं यत्ते न कुर्वन्तीति । अपिच-तथा कालाख्या नरकपालासुरा 'मीरासु'दीर्घचुल्लीषु तथा शुण्ठकेषु तथा कन्दुकेषु प्रचण्डकेषु दीव्रतापेषु नारकान् पचन्ति, तथा 'कुम्भीपु' उष्ट्रिकाकृतिषु तथा 'लोहिषु' आयसकवल्लिषु नारकान् थ्यवस्थाप्य जीवन्मत्स्यानिच पचन्ति । अपिच-महाकालाख्या नरकपालाः पापकर्मनिरता नारकान्नानाविधैरुपायैः कदर्थयन्ति, तद्यथा-'काकिणीमांसकानि' अक्ष्णमासखण्डानि 'कल्पयन्ति' नारकान् कुर्वन्ति, तथा 'सीहपुछाणि'चि पृष्ठीवर्धास्ताश्छिन्दन्ति, तथा ये प्राक मांसाशिनो नारका आसन् तान् स्वांसानि खादयन्तीति । अपिच-1 असिनामानो नरकपाला अशुभकर्मोदयवर्तिनो नारकानेवं कदर्थयन्ति, तद्यथा-हस्तपादोरुबाहुशिरःपाश्चादीन्यङ्गप्रत्यानि | छिन्दन्ति 'प्रकामम् अत्यर्थ खण्डयन्ति, तुशब्दोऽपरदुःखोत्पादनविशेषणार्थ इति । तथा-असिप्रधानाः पत्रधनुर्नामानो ॥१२५॥ नरकपाला असिपत्रवन बीभत्सं कृत्वा तत्र छायार्थिनः समागतान् नारकान् वराकान् अस्यादिभिः पाटयन्ति, तथा कौष्ठना-18 | सिकाकरचरणदशनस्तनस्फिगूरुबाहूनां छेदनभेदनशातनादीनि विकुर्वितवाताहतचलिततरुपातितासिपत्रादिना कुर्वन्तीति, तदु १किंच प्र.। २ कण्ठोष्ट. प्र.१३ पूती स्फिजौ कटि प्रोधौ हैमः । नारकाणाम् वेदना: ~261~ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [२९९] तिम्-"छिपादनजस्कन्धाश्छिन्नकर्णीष्ठनासिकाः । भिमतालशिरोमेण्ट्रा, भिन्नाक्षिहृदयोदराः ॥१॥" किश्चान्यत कुम्भिनामानो नरकपाला नारकाबरकेषु व्यवस्थितान् निप्तन्ति, तथा पाचयन्ति, केति दर्शयति-'कुम्भीषु' उष्ट्रिकाकृतिषु | तथा 'पचनेषु' कडिल्लकाकृतिषु तथा 'लौहीषु' आयसभाजनविशेषेषु कन्दुलोहिकुम्भीषु कन्दुकानामिव अयोमयीषु कुम्भीषुकोष्ठिकाकतिषु एवमादिभाजनविशेषेषु पाचयन्ति । तथा-वालुकाख्याः परमाधार्मिका नारकानत्राणांस्तप्तवालुकाभृतभाजने चणकानिव तडतडित्ति स्फुटतः 'भअंति' भृजन्ति-पचन्ति, क? इत्याह-कदम्बपुष्पाकृतिवालुका कदम्बवालुका तस्याः पृष्ठम्उपरितलं तसिन् पातयिता अम्बरतले च लोलयन्तीति । किश्चान्यत्-वैतरणीनामानो नरकपाला वैतरणी नदी चिकुर्वन्ति, सा च पूयरुधिरकेशास्थिवाहिनी महाभयानका कलकलायमानजलश्रोता तस्यां च क्षारोष्णजलायामतीव बीभत्सदर्शनायां नारकान् प्रवाहयन्तीति ।। तथा खरखराख्यास्तु परमाधार्मिका नारकानेवं कदर्थयन्ति, तद्यथा-क्रकचपातैर्मध्यं मध्येन स्तम्भमिव ।। सूत्रपातानुसारेण कल्पयन्ति-पाटयन्ति, तथा परशुभिश्व तानेव नारकान् 'परस्परम् अन्योन्यं तक्षयन्ति सर्वशो देहावयवाप-18 नयनेन तनून कारयन्ति, तथा 'शामलीं वजमयमीषणकण्टकाकुलां खरखरै आरटतो नारकानारोहयन्ति पुनरारूढानाकर्ष-18 यन्तीति । अपिच-महाघोषामिधाना भवनपत्यसुराधमविशेषाः परमाधार्मिका व्याधा इव परपीडोत्पादनेनैवातुलं हर्ष वहन्तः । क्रीडया नानाविधैरुपायै रकान् कदर्थयन्ति, तांश्च भीतान् प्रपलायमानान् मृगानिव 'समन्ततः सामस्त्येन 'तत्रैव' पीडो त्पादनस्थाने 'निरुम्भन्ति' प्रतिवन्ति 'पशून्' यस्तादिकान् यथा पशुवधे समुपस्थिते नश्यतस्तद्वयकाः प्रतिवनन्त्येवं तत्र 19 नरकावासे नारकानिति ।। गतो नामनिष्पमनिक्षेपः, अधुना सूत्रानुगमे अस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तश्चेदम् estatserserseseceserveeserveces 092839292903009990sa नारकाणाम् वेदना: ~262~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१], नियुक्ति: [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्गं शीलाका croecene सत्राक चार्यायवृत्तियुतं ॥१२६॥ 22000289a9a%292026 दीप पुच्छिस्सऽहं केवलियं महेसि, कहं मितावा गरगा पुरत्था १ । ५नरकविअजाणओ मे मुणि बूहि जाणं, कहिं नु बाला नरयं उविंति ? ॥१॥ भक्यध्य. उद्देशः १ एवं मए पुढे महाणुभावे, इणमोऽब्बवी कासवे आसुपन्ने । पवेदहस्सं दुहमट्ठदुग्गं, आदीणियं दुक्कड़ियं पुरत्था ॥२॥ जम्बूस्वामिना सुधर्मस्वामी पृष्टः, तयथा भगवन् ! किंभूता नरकाः ? कैर्वा कर्मभिरसुमतां तेषूत्पादः कीदृश्यो वा तत्रत्या वेदना । इत्येवं पृष्टः सुधर्मखाम्याह-यदेतद्भवताऽई पृष्टस्तदेवद् 'केवलिनम् अतीतानागतवर्तमानसूक्ष्मव्यवहितपदार्थवेदिनं ||8| 'महर्षिम्' उग्रतपश्चरणकारिणमनुकूलप्रतिकूलोपसर्गसहिष्णुं श्रीमन्महावीरवर्षमानस्वामिनं पुरस्तात्पूर्व पृष्टवानहमसि, यथा 8 'कथं किम्भूता अभितापान्विता 'नरका' नरकावासा भवन्तीत्येतदजानतो 'मे' मम हे मुने 'जानन्' सर्वमेव केवलज्ञानेनावग-18 छन् 'हि' कथय, 'कथं नु' केन प्रकारेण किमनुष्ठायिनो नुरिति चितकें 'बाला' अशा हिताहितप्राप्तिपरिहारविवेकरहि|वास्तेषु नरकेधूप-सामीप्येन तयोग्यकर्मोपादानतया 'यान्ति' गच्छन्ति किम्भूताच तत्र गतानां वेदनाः प्रादुष्यन्तीत्येतचाई || |'पृष्टवानिति ॥१॥ तथा 'एवम् अनन्तरोक्तं मया विनयेनोपगम्य पृष्टो महाश्चतुस्त्रिंशदतिशयरूपोऽनुभावो माहात्म्यं यस्य | | स तथा, प्रश्नोत्तरकालं च 'इदं वक्ष्यमाण, मो इति वाक्यालङ्कारे, केवलालोकेन परिज्ञाय मत्प्रश्ननिर्वचनम् 'अब्रवीत् उक्त १.वभागो.प्र.। अनुक्रम [३००] 6090920393029 अत्र सूत्रस्य आरम्भ-कृत: ~263~ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं , नियुक्ति : [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक IN दीप वान् कोऽसौ ?-'काश्यपो पीरो वर्धमानस्वामी आशुप्रज्ञः सर्वत्र सदोपयोगात् , स चैवं मया पृष्टो भगवानिदमाह-यथा यदे तद्भवतां पृष्टस्तदहं 'प्रवेदयिष्यामि' कथयिष्याम्यग्रतो दत्तावधानः विति, तदेवाह--'दुस्खम्' इति नरकं दुखिहेतुखात् । ४ असदनुष्ठानं यदिवा-नरकावास एव दुःखयतीति दुःखं अथवा असातावेदनीयोदयात् तीव्रपीडात्मक दुस्खमिति, एतच्चार्थतः-18 परमार्थतो विचार्यमाणं 'दुर्ग' गहनं विषमं दुर्विज्ञेयं असर्वज्ञेन, तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावादित्यभिप्रायः, यदिवा-'दुहमट्ठदु-1 ग्गं'ति दुःखमेवार्थो यसिन दुःखनिमित्तो वा दुःखप्रयोजनो वा स दुःखार्थो नरकः, स च दुर्गो-विषमो दुरुत्तरसात् तं प्रतिपाद-12 | यिष्ये, पुनरपि तमेव विशिनष्टि-आ-समन्ताद्दीनमादीनं तद्विद्यते यसिन्स आदीनिक:-अत्यन्तदीनसचाश्रयस्तथा दुष्टं कृतं |दुष्कृतम् असदनुष्ठानं पापं वा तत्फलं वा असातावेदनीयोदयरूपं तद्विद्यते यसिन्स दुष्कृतिकस्तं, 'पुरस्तादू' अग्रतः प्रतिपाद-IN | यिष्ये, पाठान्तरं या 'दुकडिणं'ति दुष्कृत विद्यते येषां ते दुष्कृतिनो-नारकास्तेषां सम्बन्धि चरितं 'पुरस्तात् पूर्वस्मिन् जन्मनि |ST नरकगतिगमनयोग्यं यत्कृतं तत्प्रतिपादयिष्य इति ॥ २॥ यथाप्रतिज्ञातमाह जे केइ बाला इह जीवियट्टी, पावाई कम्माइं करंति रुदा । ते घोररूवे तमिसंधयारे, तिवाभितावे नरए पडंति ॥३॥ तिवं तसे पाणिणो थोवरे य, जे हिंसती आयसुहं पडुच्चा। १ असर्वज्ञख नरकशानकारकताइशशानाभावात् । अनुक्रम [३०१] ~264~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [४], नियुक्ति : [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४|| दीप अनुक्रम [३०३] सूत्रकृता जे लूसए होइ अदत्तहारी, ण सिक्खती सेयवियस्स किंचि ॥४॥ R५नरकविशीलाहा भक्यच्या चापीय ये केचन महारम्भपरिग्रहपश्चेन्द्रियवधपिशितभक्षणादिके सावद्यानुष्ठाने प्रवृत्ताः 'बाला' अज्ञा रागद्वेषोत्कटास्तिर्यम्मनुष्या 'इह'18 उद्देशः १ चियुत असिन्संसार असंयमजीवितार्थिनः पापोपादानभूतानि 'कमाणि' अनुष्ठानानि 'रौद्राः' प्राणिनां भयोत्पादकलेन भयानकाः ॥१२७॥ हिंसानृतादीनि कर्माणि कुर्वन्ति, त एवम्भूतास्तीव्रपापोदयवर्तिनो 'घोररूपे' अत्यन्तभयानके 'तमिसंधयारेति बहलतमोऽन्ध कारे यत्रात्मापि नोपलभ्यते चक्षुषा केवलमवधिनापि मन्दमन्दमुलूका इवादि पश्यन्ति, तथा चागमः-"किण्हॅलेसे णं भंते! णे | रइए किण्हलेस्सं गेरइ पणिहाए ओहिणा सबओ समंता समभिलोएमाणे केवइयं खेले जाणई ? केवइयं खेनं पासह, गोयमा! पणो बहुवयरं खेत्तं जाणइ णो बहुययरं खेतं पासइ, इत्तरियमेव खेचं जाणइ इत्तरियमेव खेतं पासई" इत्यादि तथा तीवो-दु: | सहः खदिराङ्गारमहाराशितापादनन्तगुणोभितापः-सन्तापो यसिन् स तीवामितापः तसिन् एवम्भूते नरके बहुवेदने अपरि-1 | त्यक्तविषयाभिष्वङ्गाः खकृतकर्मगुरवः पतन्ति, तत्र च नानारूपा वेदनाः समनुभवन्ति, तथा चोक्तम् -"अच्छड्डियविसयसुहो पडइ अविज्झायसिहिसिहाणिवहे । संसारोदहिवलयामुहंमि दुक्खागरे निरए ॥ १॥ पायकंतोरत्थलमुहकुहरुच्छलियरुहिरग ॥१२॥ कृष्णलेश्यो भवन्त । नैरविका कृष्णलेदय नरयिक प्रणिधावाचधिना सर्वतः समन्तात् समभिलोकयन् कियक्षेत्र जानाति शिवरक्षां पश्यति, गौतम! गो || बहुतर क्षेत्र जानाति नो बहुतर क्षेत्रं पश्यति इत्यरमेन क्षेत्र जानाति इत्वरमेव क्षेत्रं पश्यति । २ अल्यक्तविषय मुखः पतति अनिध्यातशिखिशिखानिवहे । संसारो-10 दक्षिवल्यामुले दुःसाकरे निरये ॥१॥३महे प्र.। ४ पादाक्रान्तोरस्थलमुखकुहरोच्छलितरुधिरगंडूष करपत्रोरकतद्विधीभागनिदीणदिवा ॥१॥ ~265 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [४], नियुक्ति: [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४|| दीप इसे । करवत्तुकत्तदुहाविरिकविविईण्णदेहद्धे ॥२॥ जंततरभिजंतुच्छलंतसंसद्दभरियदिसिविवरे । डझंतुष्फिडियसमुच्छलंतINसीसदिसंघाए ॥ ३॥ मुककंदकडाहुकदंतदुक्यकयंतकम्मते । मूलविभिन्नुक्खित्तुद्धदेहणिद्वैतपम्भारे ॥४॥ सदधयारदुग्गंधबंध णायारदुद्धरकिलेसे । मिन्नकरचरणसंकररुहिरवसादुग्गमप्पवहे ।। ५ ।। गिद्धमुहणिद्दउक्खितबंधोमुद्धकंविरकंबंधे । दढगहिय-| तत्तसंडासयग्गविसमुक्खुडियजीहे ॥ ६ ॥ तिसकुसम्मकड्डियकंटयरुक्खग्गजज्जरसरीरे । निमिसंतरपि दुल्लहसोक्खेञ्चक्खेवदुक्-| खमि ॥ ७॥ इयं भीसणंमि णिरए पति जे विविहसत्तबहनिरया । सच्चभट्ठा य नरा जयंमि कयपावसपाया ॥८॥" इत्या-18 1 दि॥३॥ किश्चान्यत्-तथा 'तीव्रम्' अतिनिरनुकम्मं रौद्रपरिणामतया हिंसायां प्रवृत्तः, अस्सन्तीति असाः-द्वीन्द्रियादय स्तान् , तथा 'स्थावरांश्च पृथिवीकायादीन् 'यः कश्चिन्महामोहोदयवर्ती 'हिनस्ति' व्यापादयति 'आत्ममुखं प्रतीत्य' खशरीरसुखकृते, नानाविधैरुपायैः प्राणिनां 'लूषक' उपमर्दकारी भवति, तथा—अदत्तमपहर्तुं शीलमस्यासावदत्तहारी-परद्रव्याप-11 हारकः तथा 'न शिक्षते' नाभ्यस्यति नादचे 'सेयवियस्स'चि सेवनीयस्यात्महितैषिणा सदनुष्ठेयस्य संयमस्य किश्चिदिति, | एतदुक्तम् भवति--पापोदयाद्विरतिपरिणाम काकमांसादेरपि मनागपि न विधचे इति ॥ ४ ॥ तथा १ - प्र० । २ यंत्रान्तर्मियबुच्छलसंशब्दभूतदिग्विवरे दयमानोत्स्फिटितोच्छताछीस्थिसंपाते ॥1॥ ३ मुजाकंदकटाहोरकव्यमानदुम्कृतकृतान्तकौन्ते शूलविभिन्नो क्षिप्तोर्ववेहनिष्ठप्रारभारे ॥१॥४ शब्बान्धकारदुर्गन्धवन्धनागारदुर्धरलेशे । मिन्नकरचरणसंकररूचिरयसादुर्गमप्रयाहे ॥१॥ ५ गृध्रमुखानिर्दयोरिक्षत-| || बन्धनोग्गधन्दकवन्धे । रउराहीततप्तसंदशकामविषमोत्साटितजिडे ॥१॥६०बंधणे प्र० । कंदिर प्र। अधोमुखकन्दन कबन्यो यत्र वि०प्र०। र तीक्ष्णाशासकर्षितकंटकवृक्षायजर्जरवारीरे निमेषान्तरमपि दुर्लभसौख्येऽव्याक्षेपदुःसे ॥ १.इति भीपये निरये पतन्ति विविधसत्ववधनिरताः । सत्यभ्रष्टाच! नरा जगति कृतपापसंघाताः ॥1॥ seserversesetoesserserseseseses eeserveeseseseesecticecene ece अनुक्रम [३०३] ~266~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [५], नियुक्ति : [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृता शीलाबाचायीय सत्राक नियुत ॥१२॥ दीप पागन्भि पाणे बहुणं तिवाति, अतिवते घातमुवेति बाले। ५ नरकविणिहो णिसं गच्छति अंतकाले, अहोसिरं कटु उवेइ दुग्गं ॥५॥ भक्यध्य. उद्देश:१ हण छिंदह भिंदह णं दहेति, सद्दे सुर्णिता परहम्मियाणं । ते नारगाओ भयभिन्नसन्ना, कंखंति कन्नाम दिसं वयामो !॥ ६॥ 'प्रागल्भ्यं' धाष्टर्घ तद्विद्यते यस्य स प्रागल्भी, यहूनां प्राणिनां प्राणानतीव पातयितुं शीलमस्य स भवत्यतिपाती, एतदुक्तं | भवति-अतिपात्यपि प्राणिनः प्राणानतिधाष्टाद्वदति यथा-वेदाभिहिता हिंसा हिंसैव न भवति, तथा राज्ञामयं धर्मो यदुत आखेटकेन विनोदक्रिया, यदिवा-"न मांसभक्षणे दोपो, न मधे न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला| ॥१॥" इत्यादि, तदेवं क्रूरसिंहकृष्णसर्पवत् प्रकृत्यैव प्राणातिपातानुष्ठायी 'अनिवृतः कदाचिदप्यनुपशान्तः क्रोधाग्निना |दद्यमानो यदिवा लुब्धकमत्स्यादिवधकजीविकाप्रसक्तः सर्वदा वधपरिणामपरिणतोऽनुपशान्तो हन्यन्ते प्राणिनः खकृतकोवि-| पाकेन यस्मिन् स घातो-नरकस्तमुप-सामीप्येनैति-याति, का?-'याल:' अज्ञो रागडेपोदयवर्ती सः 'अन्तकाले' मरणकाले| 'निहो चि न्यगधस्तात् "णिसं'ति अन्धकारम् , अधोऽन्धकारं गच्छतीत्यर्थः, तथा-खेन दुश्चरितेनाधाशिरः कृता 'दुर्ग' विपम |१२८॥ परिणामतोप्रा अनुक्रम [३०४] ~267~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [६], नियुक्ति: [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||६|| 99298990000000000000 दीप अनुक्रम [३०५] यातनास्थानमुपैति, अवाकंशिरा नरके पततीत्यर्थः ॥ ५॥ साम्प्रतं पुनरपि नरकान्तर्वतिनो नारका यदनुभवन्ति तदर्शयितुमा-18 ह-तिर्यश्मनुष्यभवात्सत्त्वा नरकेषूत्पन्ना अन्तर्मुहूर्तेन निल्नाण्डजसनिमानि शरीराण्युत्पादयन्ति, पर्याप्तिभावमागताश्चाति-18 भयानकान् शब्दान् परमाधार्मिकजनितान् शृण्वन्ति, तद्यथा-'हत' मुद्गरादिना 'छिन्त' खड्गादिना 'भिन्त' शूलादिना 'दहत' मुर्मुरादिना, णमितिवाक्यालङ्कारे, तदेवम्भूतान् कर्णासुखान् शब्दान् भैरवान् श्रुला ते तु नारका भयोवान्तलोचना भयेन-1 भीत्या भिन्ना-नष्टा संज्ञा-अन्तःकरणवृत्तिर्येषां ते तथा नष्टसंज्ञाश्च 'कां दिशं ब्रजामः कुत्र गतानामस्माकमेवम्भूतस्यास्य महाघोरावदारुणस्य दुःखस्स त्राणं खादित्येतत्कालन्तीति ॥ ६॥ ते च भयोद्धान्ता दिक्षु नष्टा यदनुभवन्ति तदर्शयितुमाह इंगालरासिं जलियं सजोति, तत्तोवमं भूमिमणुक्कमंता। ते डज्झमाणा कलुणं थणंति, अरहस्सरा तस्थ चिरद्वितीया ॥७॥ जइ ते सुया वेयरणी भिदुग्गा, णिसिओ जहा खुर इव तिक्खसोया। तरंति ते वेयरणी भिदुग्गां, उसुचोइया सत्तिसु हम्ममाणा ॥८॥ 'अङ्गारराशि' खदिराङ्गारपुञ्ज 'ज्वलितं' ज्वालाकुलं तथा सह ज्योतिषा- उद्योतेन वर्तत इति सज्योतिर्भूमिः, तेनोपमा यस्याः सा तदुपमा तामङ्गारसन्निभां भूमिमाक्रमन्तस्ते नारका दन्दधमानाः 'करुणं दीनं 'स्तनन्ति' आक्रन्दन्ति, तत्र वाद१अवाप्र० । २ निळूनरोमाणोऽण्डजाइव । esesesemesekesesesesesercedeseses ~268~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [८], नियुक्ति: [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक चार्याय ||८|| चियुत दीप अनुक्रम [३०७] सूत्रकृताङ्गं 18 रामेरभावाचदुपमा भूमिमित्युक्तम् , एतदपि दिग्दर्शनार्थमुक्तम् , अन्यथा नारकतापखेहत्याग्निना नोपमा घटते, ते च नारका ५ नरकविशीलाङ्का- महानगरदाहाधिकेन तापेन दबमाना 'अरहखरा' प्रकटखरा महाशब्दाः सन्तः 'तत्र' तसिन्नरकावासे चिरं-प्रभूतं कालं | उद्देशः१ स्थितिः-अवस्थानं येषां ते तथा, तथाहि-उत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि जघन्यतो दशवर्षसहस्राणि तिष्ठन्तीति॥७॥ अपिच सुधर्मखामी जम्बूखामिनं प्रतीदमाह--यथा भगवतेदमाख्यातं यदि 'ते' खया श्रुता-श्रवणपथमुपागता 'बैतरणी' नाम क्षारो॥१२९॥ ष्णरुधिराकारजलवाहिनी नदी आभिमुख्येन दुर्गा अभिदुर्गा-दुःखोत्पादिका, तथा-निशितो यथा क्षुरस्तीक्ष्णो भवत्येवं तीक्ष्णानि-शरीरावयवानां कर्तकानि स्रोतांसि यस्याः सा तथा, ते च नारकास्तप्ताङ्गारसनिभा भूमि विहायोदकपिपासवोभितप्ताः। सन्तस्तापापनोदायाभिषिषिक्षयो वा तां वैतरणीमभिदुर्गा तरन्ति, कथम्भूताः-इषुणा-शरेण प्रतोदेनेव चोदिताः-प्रेरिताः शक्तिभिश्च हन्यमानास्तामेव भीमा वैतरणी तरन्ति, तृतीयार्थे सप्तमी ॥ ८॥ किन कीलेहिं विझंति असाहुकम्मा, नावं उविते सइविप्पडणा। अन्ने तु सूलाहिं तिसूलियाहिं, दीहाहिं विभ्रूण अहेकरंति ॥९॥ ॥१२९॥ केसिं च बंधित्तु गले सिलाओ, उदगंसि बोलंति महालयंसि । कलंबुयावालय मुम्मुरे य, लोलंति पञ्चंति अ तत्थ अन्ने ॥१०॥ ~269~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१०|| दीप अनुक्रम [३०९] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], मूलं [१०], निर्युक्ति: [८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः as नारकान त्यन्तक्षारोष्णेन दुर्गन्धेन वैतरणीजलेना भितप्तानायस कीलाकुलां नावमुपगच्छतः पूर्वारूढा 'असाधुकर्माणः' परमाधार्मिकाः 'कीलेषु' कण्ठेषु विध्यन्ति ते च विध्यमानाः कलकलायमानेन सर्वस्रोतोऽनुयायिना वैतरणीजलेन नष्टसंज्ञा | अपि सुतरां 'स्मृत्या विप्रहीणा' अपगतकर्तव्यविवेका भवन्ति, अन्ये पुनर्नरकपाला नारकैः क्रीडतस्तान्नष्टांस्त्रिशूलिकाभिः श लाभिः 'दीर्घिकाभिः' आयताभिर्विध्वा अघोभूमौ कुर्वन्तीति ॥ ९ ॥ अपिच - केषांचिनारकाणां परमाधार्मिका महतीं शिलां | गले बद्धा महत्युदके 'बोलंति'सि निमजयन्ति, पुनस्ततः समाकृष्य वैतरणीनयाः कलम्बुकावालुका रानौ च 'लोलयन्ति' अतितप्तवालुकायां चणकानिव समन्ततो घोलयन्ति, तथा अन्ये 'तत्र' नरकावासे स्वकर्मपाशावपाशिताभारकान् सुष्ठके प्रोतकमांसपेशीवत् 'पचन्ति' भर्जयन्तीति ॥ १० ॥ तथा आसूरियं नाम महाभितावं, अंधंतमं दुप्पतरं महंतं । उ अहे तिरियं दिसासु, समाहिओ जत्थऽगणी झियाई ॥ ११ ॥ जंसी गुहाए जल तिट्टे, अविजाणओ डज्झइ लुत्तपण्णो । सायकल घमठाणं, गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्मं ॥ १२ ॥ न विद्यते सूर्यो यस्मिन् सः असूर्यो- नरको बहलान्धकारः कुम्भिकाकृतिः सर्व एव वा नरकावासोऽसूर्य इति व्यपदिश्यते, १] कर्तव्याकर्तव्य प्र०२ डबरा०प्र०३ प्रोतमां० प्र० ४ असूरियं प्र० । For Parts Only ~ 270~ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१२], नियुक्ति : [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक शीलाङ्काचायित् ||१२|| त्तियुतं ॥१३०॥ दीप अनुक्रम [३११] Recenresercedeseconecescaeoe तमेवम्भूतं महाभितापम् अन्धतमसं 'दुष्पतरं दुरुचरं 'महान्तं विशालं नरकं महापापोदयाद्वजन्ति, तत्र च नरके ऊर्ध्वमध- नरकविस्तिर्यक सर्वतः 'समाहितः सम्यगाहितो व्यवस्थापितोऽग्निर्बलत्तीति, पठ्यते च 'समूसिओजत्थऽगणी झियाई' यत्र नरके भक्त्यध्य. | सम्यगू श्रितः-समुचिह्नतोऽमिः प्रज्वलति तं तथाभूतं नरकं बराका व्रजन्ति इति ॥११॥ किञ्चान्यत्-'यस्मिन' नरकेऽति- | उद्देनः१ 8 गतोऽसुमान् 'गुहाया' मिस्युष्ट्रिकाकृती नरके प्रवेशितो 'ज्वलने अनी 'अतिवृत्त: अतिगतो वेदनाभिभूतखात्स्वकृतं दुचरितम-18 जानन् 'लुसमज्ञः' अपगतावधिविवेको दन्दयते, तथा 'सदा सर्वकालं पुनः करुणप्रायं कृत्सं वा 'धर्मस्थानम्' उष्णस्थानं | तापस्थानमित्यर्थः, 'गाई'ति अत्यर्थम् 'उपनीतं' ढौकितं दुष्कृतकर्मकारिणां यत् स्थानं तते ब्रजन्ति, पुनरपि तदेव विशिनटि-अतिदुःखरूपो धर्मः स्वभावो यसिबिति, इदमुक्तं भवति-अक्षिनिमेषमात्रमपि कालं न तत्र दुःखस्य विश्राम इति, तदुक्त-10 स्-"अच्छिणिमीलणमेनं णत्थि सुई दुक्खमेव पडिबद्धं । णिरए णेरइयाणं अहोणिसं पचमाणाणं ॥१॥" ॥१२॥ अपिच चत्तारि अगणीओ समारभित्ता, जहिं कूरकम्माऽभितविति बालं । ते तत्थ चिटुंतऽभितप्पमाणा, मच्छा व जीवंतुवजोतिपत्ता ॥ १३ ॥ संतच्छणं नाम महाहितावं, ते नारया जत्थ असाहुकम्मा । ॥१३०॥ हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं, फलगं व तच्छंति कुहाडहत्था ॥ १४ ॥ १जाग्यस०प्र०।१ पच्यते प्र०।३ अक्षिनिमीलनमा नास्ति मुखं दुःखमेव प्रतिबई, निरये नैरयिकाणां बहनिदां पध्यमानानाम् ॥१॥ SARERainintamarana ~2714 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४], नियुक्ति : [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 10॥ प्रत सूत्रांक ||१४|| दीप अनुक्रम [३१३] Saesesesesesesentesters चतमध्वपि दिक्षु चतुरोऽनीन् 'समारभ्य' प्रज्वाल्य 'यत्र' यस्मिन्नरकाबासे 'क्रूरकर्माणो नरकपाला आभिमुख्पेनात्यर्थं | प्रतापयन्ति-भटित्रवत्पचन्ति 'बालम्' अझं नारकं पूर्वकृतदुरितं ते तु नारकजीवा एवम् 'अभितप्यमानाः' कदर्यमानाः खकमनिगडितास्तत्रैव प्रभूतं कालं महादुःखाकुले नरके तिष्ठन्ति, दृष्टान्तमाह-यथा जीवन्तो 'मत्स्या' मीना 'उपज्योतिः' अग्रेः समीपे प्राप्ताः परवशखादन्यत्र गन्तुमसमर्थास्तत्रैव तिष्ठन्ति, एवं नारका अपि, मत्स्यानां तापासहिष्णुखादमावत्यन्तं दु:खमुत्पद्यत इत्यतस्तद्ब्रहणमिति ॥ १३ ॥ किश्चान्यत्-सम्-एकीभावेन तक्षणं सन्तक्षणं, नामशब्दः सम्भावनायो, यदेतत्संतक्षणं तत्सर्वेषां प्राणिनां 'महाभितापं' महादुःखोत्पादकमित्येवं सम्भाव्यते, यद्येवं ततः किमित्याह-ते 'नारका' नरकपाला| | 'यत्र' नरकावासे खभवनादागताः 'असाधुकर्माणः' क्रूरकर्माणो निरनुकम्पाः 'कुठारहस्ताः' परशुपाणयस्ताबारकानत्राणान् हस्तैः पादैश्च 'बद्धा' संयम्य 'फलकमिव' काष्ठशकलमिव 'तक्ष्णुवन्ति' तनूकुर्वन्ति छिन्दन्तीत्यर्थः ।। १४ ।। अपिच रुहिरे पुणो बच्चसमुस्सिअंगे, भिन्नुत्तमंगे वरिवत्तयंता। . पयंति णं णेरइए फुरते, सजीवमच्छे व अयोकवल्ले ॥ १५ ॥ नो चेव ते तत्थ मसीभवंति, ण मिजती तिवभिवेयणाए । तमाणुभागं अणुवेदयंता, दुक्खंति दुक्खी इह दुक्कडेणं ॥ १६ ॥ Reseeratiserserveercercercecedese ~2724 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१६], नियुक्ति : [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| सूत्रकृताङ्गं शीलाका- त्तियुतं ॥१३॥ चाय दीप अनुक्रम [३१५] ते परमाधार्मिकास्ताचारकान्वकीये रुधिरे तप्तकवल्या प्रक्षिप्ते पुनः पचन्ति, वर्च:प्रधानानि समुच्छ्रितान्यप्राण्यङ्गानि वा येषां नरकविते तथा तान् भित्रं चूर्णितम् उचमा-शिरो येषां ते तथा तानिति, कथं पचन्तीत्याह-'परिवर्तयन्तः उत्तानानवाकुखान् वा वामत्यध्य. | कुर्वन्तः णमिति वाक्यालङ्कारे तान्-'स्फुरत' इतवेतच विहलमात्मानं निक्षिपतः सजीवमत्स्यानिवायसकवल्यामिति ॥१५॥ | तथा-ते च नारका एवं बहुशः पच्यमाना अपि 'नो' नैव 'तत्र' नरके पाके वा नरकानुभावे वा सति 'मषीभवन्ति' नैव भ| ससाद्भवन्ति, तथा तत्तीवाभिवेदनया नापरममिप्रक्षिप्तमत्स्यादिकमप्यस्ति यन्मीयते-उपमीयते, अनन्यसरशी तीवां वेदना चा-18 चामगोचरामनुभवन्तीत्यर्थः, यदिवा-तीवाभिवेदनयाऽप्यननुभूतस्वकृतकर्मखान म्रियन्त इति, प्रभूतमपि कालं यावत्तत्तादर्श शीतोष्णवेदनाजनितं तथा दहनच्छेदनभेदनतक्षणत्रिशूलारोपणकुम्भीपाकशाल्मल्यारोहणादिकं परमाधार्मिकजनितं परस्परो-11 दीरणनिष्पादितं च 'अनुभागं' कर्मणां विपाकम् 'अनुवेदयन्तः समनुवेदयन्तः समनुभवन्तस्तिष्ठन्ति, तथा खकृतेन 'दुष्कतेन' हिंसादिनाऽष्टादशपापस्थानरूपेण सततोदीर्णदुःखेन दुःखिनो 'दुःखयन्ति' पीडयन्ते, नाक्षिनिमेषमपि कालं दुःखेन 81 मुच्यन्त इति ॥ १६॥ किश्चान्यत्तहिं च ते लोलणसंपगाढे, गाढं सुतत्तं अगणिं वयंति। ॥१३१२॥ न तत्थ सायं लहती भिदुग्गे, अरहियाभितावा तहवी तविति ॥१७॥ अरब्भिया०प्र०। ~273~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१८], नियुक्ति : [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम [३१७] से सुच्चई नगरवहे व सद्दे, दुहोवणीयाणि पयाणि तत्थ । उदिण्णकम्माण उदिण्णकम्मा, पुणो पुणो ते सरहं दुहेति ॥१८॥ 'तस्मिंश्च' महायातनास्थाने नरके तमेव विशिनष्टि-नारकाणां लोलनेन सम्यक् प्रगाढो-व्याप्तो भृतः स तथा तसिन्नरके | अतिशीतार्ताः सन्तो 'गाढम्' अत्यर्थं सुष्टु तप्तम् अग्निं ब्रजन्ति, 'तत्रापि' अग्निस्थाने भिदुर्गे दह्यमानाः 'सात' सुखं मनागपि । न लभन्ते, 'अरहितो' निरन्तरोऽभितापो महादाहो येषां ते अरहिताभितापाः तथापि ताबारकांस्ते नरकपालास्तापयन्त्यत्यर्थ 18| तप्ततैलानिना दहन्तीति ॥ १७ ॥ अपिच-सेशब्दोऽथशब्दार्थे, 'अथ' अनन्तरं तेषां नारकाणां नरकपाले रौद्रः कदयमानानां । | भयानको हाहावप्रचुर आक्रन्दनशब्दो नगरवध इव 'श्रूयते' समाकयेते, दुःखेन पीडयोपनीतानि-उच्चारितानि करुणाप्रधा| नानि यानि पदानि हा मातस्तात ! कष्टमनाथोऽहं शरणागतस्तव त्रायस्व मामित्येवमादीनां पदानां 'तत्र' नरके शब्दः श्रूयते, उदीर्णम् उदयप्राप्तं कटुविपाकं कर्म येषां ते तथा तेषां तथा 'उदीर्णकर्माणों' नरकपाला मिथ्याखहास्यरत्यादीनामुदये बर्तमानाः 'पुनः पुनः' बहुशस्ते 'सरह (दुहे)ति' सरभसं-सोत्साई नारकान् 'दु:खयन्ति'अत्यन्तमसमं नानाविधैरुपायदुःखमसातवेदनीयमुत्पादयन्तीति ॥ १८॥ तथा पाणेहि णं पाव विओजयंति, तं भे पथक्खामि जहातहेणं । दंडेहिं तत्था सरयंति बाला, सवेहिं दंडेहि पुराकएहिं ॥ १९ ॥ eeeeeeeeeeeeeeee ~274 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [२०], नियुक्ति: [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचार्याय सूत्रांक ||२०|| चियुतं ॥१३२॥ ते हम्ममाणा णरगे पडंति, पुन्ने दुरुवस्स महाभितावे। ५नरकविते तत्थ चिटुंति दुरूवभक्खी, तुईति कम्मोवगया किमीहिं ॥ २०॥ भक्त्यध्य. उद्देशः १ 'णमिति' वाक्यालद्वारे, 'प्राण' शरीरेन्द्रियादिभिस्ते 'पापा'पापकर्मणो नरकपाला 'वियोजयन्ति' शरीरावयवानां पाटनादिभिः प्रकारैविकर्तनादवयवान् विश्लेषयन्ति, किमर्थमेवं ते कुर्वन्तीत्याह-'तद्' दुःखकारणं 'भे' युष्माकं 'प्रवक्ष्यामि याथातथ्येन' अवितथं प्रतिपादयामीति, दण्डयन्ति-पीडामुत्पादयन्तीति दण्डा-दुःखविशेषास्तै रकाणामापादितः 'बाला' | निर्विवेका नरकपालाः पूर्वकृतं सारयन्ति, तद्यथा-तदा हृष्टस्वं खादसि समुत्कुत्योत्कृत्य प्राणिनां मांस तथा पित्रसि तसं | मयं च गच्छसि परदारान् , साम्प्रतं तद्विपाकापादितेन कर्मणाभितप्यमानः किमेवं रास्टीपीत्येवं सर्वैः पुराकृतैः 'दण्डैः दुःखविशेषैः सारयन्तस्तादृशभूतमेव दुःखविशेषमुत्पादयन्तो नरकपालाः पीडयन्तीति ॥ १९॥ किञ्च-'ते' वराका नारका R'हन्यमानाः' ताब्यमाना नरकपालेभ्यो नष्टा अन्यस्मिन् घोरतरे 'नरके' नरकैकदेशे 'पतन्ति' गच्छन्ति, किम्भूते नरके:-'पूर्णे भृते दुष्ट रूपं यस्य तद्रूपं-विष्ठासूरमांसादिकल्मलं तस्य भृते तथा 'महाभिता अतिसन्तापोपेते 'ते' नारकाः खकर्मा|| वबद्धाः 'तत्र' एवम्भूते नरके 'दुरूपभक्षिणः' अशुच्यादिभक्षकाः प्रभूतं कालं यावत्तिष्ठन्ति, तथा 'कृमिभिः' नरकपालापा-|| ॥१३२॥ ||दितैः परस्परकृतैश्च 'खकर्मोपगता' खकर्मढौकिताः 'तुद्यन्ते' व्यथ्यन्ते इति । तथा चागमः-"छट्ठीसत्तमासु णं पुढवीसु | १ षष्ठसप्तम्योः पृन्योरयिका मतिमहान्ति रक्तकुन्धुरूपाणि विकुय अन्योन्यस्य कार्य अनुहन्यमानास्तिष्ठन्ति ।। 8202596752039se दीप अनुक्रम [३१९] ~2754 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [२०], नियुक्ति: [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [३१९] नेरइया पहू महंताई लोहिकुंथुरूवाई विउवित्ता अन्नमन्नस्स कार्य समतुरंगेमाणा समतुरंगेमाणा अणुघायमाणा अणुधायमाणा चिट्ठति" ॥ २०॥ किश्चान्यत् सया कसिणं पुण धम्मठाणं, गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्म । अंदूसु पक्खिप्प विहन्तु देहं, वेहेण सीस सेऽभितावयंति ॥ २१॥ . छिंदेति बालस्स खुरेण नकं, उट्टेवि छिदंति दुवेवि कण्णे। जिन्भं विणिक्कस्स विहत्थिमित्तं, तिक्खाहिं सूलाहिऽभितावयंति ॥ २२ ॥ 'सदा' सर्वकालं 'कृत्स्नं संपूर्ण पुनः तत्र नरके 'धर्मप्रधान' उष्णप्रधानं स्थितिः-स्थानं नारकाणां भवति, तत्र हि प्रलया-18 तिरिक्ताग्निना बातादीनामत्यन्तोष्णरूपलात् , तच्च डैः-निधत्तनिकाचितावस्यैः कर्मभिर्नारकाणाम् 'उपनीतं' ढौकितं, पुनरपि । विशिनष्टि-अतीव दुःखम् असातावेदनीयं धर्म:-स्वभावो यस्य तत्तथा तसिंश्चैवं विधे स्थाने स्थितोऽमुमान् 'अन्दुषु' निगडेषु | | देहं विहत्य प्रक्षिप्य च तथा शिरच 'से' तस्य नारकस्य 'वेधेन' रन्ध्रोत्पादनेनाभितापयन्ति कीलकैच सर्वाण्यप्यङ्गानि बित-1 त्य चर्मवत् कीलयन्ति इति ॥ २१ ॥ अपिच-ते परमाधार्मिकाः पूर्ववरितानि सारपिता 'बालस्य' अज्ञस्स-निर्विवेकस्य प्रा१ बहू प्र०। २ समाउरंगे प्रा sesecessseeeeee eletoese ~276~ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [२२], नियुक्ति : [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक उद्देशः१ ||२२|| त्तियुतं दीप अनुक्रम [३२१] कता यशः सर्वदा वेदनासमुद्घातोपगतस्य क्षुरप्रेण नासिकां छिन्दन्ति तथौष्ठावपि द्वावपि कौँ छिन्दन्ति, तथा मद्यमांसरसाभिलिप्सो-18|५ नरकविशीलाका- पाभापिणो जिहां वितस्तिमात्रामाक्षिप्य तीक्ष्णाभिः शूलाभिः 'अभितापयन्ति' अपनयन्ति इति ॥ २२ ॥ तथा भक्यध्य. चाीयवृ ते तिप्पमाणा तलसंपुडंव, राइंदियं तत्थ थणंति बाला। गलंति ते सोणिअपूयमंसं, पज्जोइया खारपइद्धियंगा॥ २३ ॥ ॥१३३॥ जइ ते सुता लोहितपूअपाई, बालागणी तेअगुणा परेणं । कुंभी महंताहियपोरसीया, समूसिता लोहियपूयपुण्णा ॥ २४ ॥ 'ते' छिन्ननासिकोष्ठजिताः सन्तः शोणितं 'तिप्यमानाः' क्षरन्तो यत्र-यस्मिन् प्रदेशे रात्रिदिनं गमयन्ति, तत्र 'चाला' 18|| अज्ञाः 'तालसम्पुटा इव' पवनेरितशुष्कतालपत्रसंचया इव सदा 'स्तनन्ति' दीर्घविखरमाक्रन्दन्तस्तिष्ठन्ति तथा प्रयोतिता'18 बहिना ज्वलिताः तथा क्षारेण प्रदिग्धाङ्गाः शोणितं पूर्व मांसं चाहनिशं गलन्तीति ॥ २३ ॥ किश्च-पुनरपि सुधमेखामी जम्बू-॥8 खामिनमुद्दिश्य भगवद्वचनमाविष्करोति-यदि 'ते' बया 'श्रुता' आकर्णिता-लोहितं रुधिरं पूर्य-रुधिरमेव पकं ते द्वे अपि ॥१३॥ | पक्तुं शीलं यस्यां सा लोहितपूयपाचिनी-कुम्भी, तामेव विशिनष्टि-'बाल' अभिनवः प्रत्यग्रोऽनिस्तेन तेजा-अभितापः स एव । १ स्तनन्दो प्र। ~2774 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [२४], नियुक्ति : [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम गुणो यस्साः सा वालाप्रितेजोगुणा 'परेण' प्रकर्षेण तप्तेत्यर्थः, पुनरपि तस्या एवं विशेषणं 'महती' बृहत्तरा 'अहियपोरुसी-1 येति पुरुषप्रमाणाधिका 'समुच्छ्रिता' उष्ट्रिकाकृतिरूवं व्यवस्थिता लोहितेन पूरेन च पूर्णा, सैवम्भूता कुम्भी समन्ततोऽग्निना प्रज्वलिताऽतीव बीभत्सदर्शनेति ॥ २४ ॥ तासु च यक्रियते तदर्शयितुमाह पक्खिप्प तासु पययंति बाले, अदृस्सरे ते कलुणं रसंते । तण्हाइया ते तउतंबतत्तं, पजिजमाणाऽदृतरं रसंति ॥ २५॥ अप्पेण अप्पं इह वंचइत्ता, भवाहमे पुवसते सहस्से । चिटुंति तत्था बहुकूरकम्मा, जहा कडं कम्म तहासि भारे ॥ २६ ॥ समजिणित्ता कल्लुसं अणज्जा, इटेहि कंतेहि य विप्पडणा। ते दुब्भिगंधे कसिणे य फासे, कम्मोवगा कुणिमे आवसंति ॥ २७॥ त्तिबेमि ॥ इति निरयविभत्तिए पढ़मो उद्देसो समत्तो ॥ (गाथाग्रं०३३६) 'तासु' प्रत्ययाग्निप्रदीप्तासु लोहितपूयशरीरावयवकिल्विषपूर्णासु दुर्गन्धासु च 'वालान' नारकांस्त्राणरहितान् आखिरान् । 1 करुणं-दीनं रसतः प्रक्षिप्य प्रपचन्ति, 'ते च' नारकास्तथा कदीमाना विरसमाक्रन्दन्तस्तुडार्ताः सलिलं प्रार्थयन्तो मयं ते cersecticesen99esesececes eeeeeeeeeeeeeeeeesers [३२३] ~278~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [२७], नियुक्ति : [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२७|| दीप अनुक्रम सूत्रकृताङ्गं अतीव प्रियमासीदित्येवं सरयिसा तप्तं पाय्यन्ते, ते च तप्तं त्रषु पाय्यमाना आर्ततरं 'रसन्ति' रारटन्तीति ॥ २५ ॥ उदेशका-1||५ नरकविशीलाका-18 थोपसंहाराथमाह-'अप्पण' इत्यादि, 'इह अस्मिन्मनुष्यभवे 'आत्मना' परवश्वनप्रवृत्तेन खत एव परमार्थत आत्मानं वश्चयिता भन्यध्य. चाीय-४ |'अल्पेन' स्तोकेन परोपधातसुखेनात्मानं वश्चयिखा बहुशो भवानां मध्ये अधमा भवाधमा:-मत्स्यबन्धलुब्धकादीनां भवा-|उद्देशः १ तियुतं | स्तान् पूर्वजन्मसु शतसहस्रशः समनुभूय तेषु भवेषु विषयोन्मुखतया सुकृतपराशुखखेन चावाप्प महाघोरातिदारुण नरका वासं 'तन्त्र' तसिन्मनुष्याः 'क्रूरकर्माणः परस्परतो दुःखमुदीरयन्तः प्रभूतं कालं यावत्तिष्ठन्ति, अत्र कारणमाह॥१३४॥ 'यथा' पूर्वजन्मसु यादग्भूतेनाध्यवसायेन जघन्यजघन्यतरादिना कृतानि कर्माणि 'तधा' तेनैव प्रकारेण 'से' तख नारकजन्तोः 'भारा' वेदनाः प्रादुर्भवन्ति खतः परत उभयतो वेति, तथाहि-मांसादाः खमांसान्येवामिना प्रताप्य भक्ष्यन्ते, तथा मांसर|सपायिनो निजपूयरुधिराणि तत्रपूणि च पाय्यन्ते, तथा मत्स्यपातकलुब्धकादयस्तथैव छिद्यन्ते भियन्ते यावन्मायेन्त इति, | तथाऽनृतभाषिणां तत्मारयिखा जिहाश्वेच्छियन्ते, (ग्रन्थानम् ४०००) तथा पूर्वजन्मनि परकीयद्रव्यापहारिणामङ्गोपाङ्गान्यपहिय-18 न्ते तथा पारदारिकाणां वृषणच्छेदः शाल्मल्युपगृहनादि च ते कार्यन्ते एवं महापरिग्रहारम्भवतां क्रोधमानमायालोभिना च जन्मांतरखकृतक्रोधादिदुष्कृतसारणेन तादृग्विधमेव दुःखमुत्पाद्यते, इतिकृखा मुष्टच्यते यथा वृत्तं कमें ताडगभूत एव तेषां तस्कर | मेविपाकापादितो भार इति ॥ २६ ॥ किश्चान्यत-अनार्या अनार्यकर्मकारिताद्धिंसानृतस्तेयादिभिराश्रवद्वार! 'कलुष' पापं | |'समज्ये' अशुभकर्मोपचयं कृता 'ते' क्रूरकर्माणो 'दुरभिगन्धे नरके आवसन्तीति संटकः, किम्भूताः ?-'इष्ट शब्दादिमि-18| विषयैः 'कमनीयैः कान्तैर्विविधं प्रकर्षेण हीना विनमुक्ता नरके वसन्ति, यदिवा-यदर्थ कलुष समजेयन्ति तैमोतापुत्रकल-18. [३२६] ~279~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति;:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [२७], नियुक्ति: [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२७|| वादिभिः कान्तैश्च विषयैर्विप्रमुक्ता एकाकिनस्ते 'दुरभिगन्धे कुथितकलेवरातिशायिनि नरके 'कृत्स्ने संपूर्णेऽत्यन्ताशुभस्पर्शे एकान्तोद्वेजनीयेऽशुभकर्मोपगताः 'कुणिमे त्ति मांसपेशीरुधिरपूयात्रफिप्फिसकश्मलाकुले सर्वामेध्याधमे बीभत्सदर्शने हाहारवा क्रन्देन कष्टं मा तावदित्यादिशब्दवधिरितदिगन्तराले परमाधमे नरकावासे आ-समन्तादुत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि याव|| यस्यां वा नरकपृथिव्यां यावदायुस्तावद 'वसन्ति' तिष्ठन्ति, इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीभीति पूर्ववत् ॥ २७ ॥ इति नरकवि-1॥ भक्तेः प्रथमोद्देशकः समासः ।। 0993 अथ पञ्चमाध्ययनस्य द्वितीयोद्देशकः प्रारभ्यते ॥ दीप अनुक्रम testraestroeseeeeeeeeee [३२६] उक्तः प्रथमोदेशकः, साम्प्रतं द्वितीयः समारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोदेशके यैः कर्मभिर्जन्तवो नरकेप्रत्य- 21 धन्ते यादगवस्थाश्च भवन्त्येतत्प्रतिपादितम् , इहापि विशिष्टतरं तदेव प्रतिपाद्यते, इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्सोदेशकस्य सूत्रानुगमे अस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीय, तचेदम् -- अहावरं सासयदुक्खधम्म, तंभे पवक्खामि जहातहेणं। बाला जहा दुकडकम्मकारी, वेदंति कम्माई पुरेकडाई ॥१॥ अत्र पंचम-अध्ययनस्य प्रथम-उद्देशक: समाप्त:, द्वितीय-उद्देशकस्य आरम्भ: ~280 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [२], नियुक्ति: [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृताङ्गं प्रत सुत्रांक शीलाङ्का-18 चार्यायवृ ||२|| तियुत ॥१३५॥ दीप अनुक्रम हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं, उदरं विकत्तंति खुरासिएहि । |५ नरकविगिण्हिन्तु बालस्स विहत्तु देहं, वद्धं थिरं पिट्टतो उद्धरंति ॥२॥ भन्यध्य. 'अर्थ' इत्यानन्तर्ये 'अपरम्' इत्युक्तादन्यद्वक्ष्यामीत्युत्तरेण सम्बन्धः, शश्वद्भवतीति शाश्वत-यावदायुस्तच तदुस्खं च शाश्व-16 उद्देशः २ तदुःखं तद्धर्म:-खभावो यस्मिन् यस्य वा नरकस्य स तथा तम्, एवम्भूतं नित्यदुःखखभावमक्षिनिमेषमपि कालमविद्यमान-18 सुखलेशं 'याधातध्येन' यथा व्यवस्थित तथैव कथयामि, नात्रोपचारोऽर्थवादो वा विद्यत इत्यर्थः, 'बालाः' परमार्थमजानाना181 विषयसुखलिप्सवः साम्प्रतक्षिणः कर्मविपाकमनपेक्षमाणा 'यथा' येन प्रकारेण दुष्ट कृतं दुष्कृतं तदेव कर्म-अनुष्ठानं तेन वा | दुष्कृतेन कर्म-शानावरणादिकं तदुष्कृतकर्म तत्कर्तुं शीलं येषां ते दुष्कृतकर्मकारिणः त एवम्भूताः 'पुराकृतानि' जन्मान्तराजितानि कर्माणि यथा वेदयन्ति तथा कथयिष्यामीति ।।१॥ यथाप्रतिज्ञातमाह-परमाधार्मिकास्तथाविधकर्मोदयात् क्रीडायमानाः ताबारकान् हस्तेषु पादेपु बद्धोदरं 'क्षुरमासिभिः' नानाविधैरायुधविशेषैः 'विकर्तयन्ति' विदारयन्ति, तथा परस्य बालस्खेवाकिश्चित्करत्वाद्वालख लकुटादिभिर्विविधं 'हतं' पीडितं देहं गृहीला 'वर्ध' चर्मशकलं 'स्थिरं बलवत् 'पृष्ठतः' पृष्ठिदेशे 'उद्धरन्ति' विकर्तयन्त्येवमग्रतः पार्वतश्रेति ॥ २ ॥ अपि च--- ॥१३५॥ बाहू पैकत्तंति य मूलतो से, शूलं वियासं मुहे आडहति । पकप्पति समू०प्र०। [३२८] ~281 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||3|| दीप अनुक्रम [३२९] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [२], मूलं [३], निर्युक्तिः [८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र - [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः रहंसि जुतं सरयंति बालं, आरुस्स विज्झति तुदेण पिट्टे ॥ ३ ॥ अयं तत्तं जलियं सजोइ, तऊवमं भूमिमणुकमंता । ते ज्झमाणा कणं धणंति, उसुचोइया तत्तजुगेसु जुत्ता ॥ ४ ॥ 'से' तस्य नारकस्य तिसृषु नरकपृथिवीषु परमाधार्मिका अपरनारकाथ अधस्तन चतसृषु चापरनारका एव मूलत आरभ्य बाहुन् 'प्रकर्तयन्ति' छिन्दन्ति तथा 'मुखे' विकाशं कृत्वा 'स्थूल' बृहत्तप्तायोगोलादिकं प्रक्षिपन्त आ - समन्ताद्दद्दन्ति । तथा 'रहसि' एकाकिनं 'युक्तम्' उपपन्नं युक्तियुक्तं स्वकृतवेदनानुरूपं तत्कृतजन्मान्तरानुष्ठानं तं 'बालम्' अनं नारकं सारयन्ति, तद्यथा - तप्तत्रपुपानावसरे मद्यपस्त्वमासीस्तथा स्वमांसभक्षणावसरे पिशिताशी समासीरित्येवं दुःखानुरूपमनुष्ठानं स्मारयन्तः कदर्थयन्ति तथा निष्कारणमेव 'आरूष्य' कोपं कृला प्रतोदादिना पृष्ठदेशे तं नारकं परवशं विध्यन्तीति ॥ ३ ॥ तथातप्तायोगोल कसन्निभां ज्वलितज्योतिर्भूतां तदेवंरूपां तदुपमां वा भूमिम् 'अनुक्रामन्तः' तां ज्वलितां भूमिं गच्छन्तस्ते दह्यमानाः 'करुणं' दीनं विखरं 'स्तनंति' रारटन्ति तथा तप्तेषु युगेषु युक्ता गलिबलीवर्दा हव इषुणा प्रतोदादिरूपेण विध्यमानाः स्तनन्तीति ॥ ४ ॥ अन्यच बाला बला भूमिमणुकमंता, पविजलं लोहपहं च तत्तं । Education Internation For Parts Only ~ 282~ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [५], नियुक्ति: [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सत्राक सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचाीयवृचियुतं ॥१३६॥ दीप eeseseseeneceaeoeseseaeese जंसीऽभिदुग्गंसि पवजमाणा, पेसेव दंडेहिं पुराकरति ॥५॥ ५नरकवि भत्यध्य. ते संपगाढंसि पवजमाणा, सिलाहि हम्मति निपातिणीहि । उद्देशः २ संतावणी नाम चिरद्वितीया, संतप्पती जत्थ असाहुकम्मा ॥ ६॥ _ 'वाला' निर्विवेकिनः प्रज्वलितलोहपथमिव तप्तां भुवं 'पविजलं'ति रुधिरपूयादिना पिच्छिला बलादनिच्छन्तः 'अनुकम्प-15 माणाः प्रेर्यमाणा विरसमारसन्ति, तथा 'यस्मिन् अभिदुर्गे कुम्भीशाल्मल्यादौ प्रपद्यमाना नरकपालचोदिता न सम्यगच्छन्ति, ततस्ते कुपिताः परमाधार्मिकाः 'प्रेष्यानिव' कर्मकरानिव बलीचर्दवद्वा दण्डैहला प्रतोदनेन प्रतुव 'पुरतः' अग्रतः कुर्वन्ति, न ते खेच्छया गन्तुं स्थातुं वा लभन्त इति ॥५॥ किञ्च-'ते' नारकाः 'सम्प्रगाढ' मिति बहुवेदनमसा नरक मार्ग वा प्रप-13 द्यमाना गन्तुं सातुं वा तत्राशाकुवन्तोऽभिमुखपातिनीभिः शिलाभिरसुरैर्हन्यन्ते, तथा सन्तापयतीति सन्तापनी-कुम्भी सा च चिरस्थितिका तद्गतोऽसुमान् प्रभूतं कालं यावदतिवेदनाग्रस्त आस्ते यत्र च 'सन्तप्यते' पीब्यतेऽत्यर्थम् 'असाधुकमों' जन्मा|न्तरकृताशुभानुष्ठान इति ॥ ६ ॥ तथा ॥१३६॥ कंदूसु पक्खिप्प पयंति बालं, ततोवि दड्डा पुण उप्पयंति । ते उड्ढकाएहिं पखज्जमाणा, अवरेहिं खजति सणप्फपहिं ॥७॥ अनुक्रम [३३१] ~283~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [८], नियुक्ति: [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सत्रांक 11८11 दीप अनुक्रम [३३४] समूसियं नाम विधूमठाणं, जं सोयतत्ता कलुणं थणंति । अहोसिरं कहु विगत्तिऊणं, अयंव सत्थेहिं समोसवेंति ॥८॥ तं 'बालं' वराक नारक कन्दुषु प्रक्षिप्य नरकपालाः पचन्ति, ततः पाकस्थानात् ते दह्यमानावणका इव भृज्यमाना ऊर्ध्व | पतन्त्युत्पतन्ति, ते च ऊर्ध्वमुत्पतिताः 'उहुकाएहिंति द्रोणैः काकैवक्रियैः 'प्रखाद्यमाना' भक्ष्यमाणा अन्यतो नष्टाः सन्तो|परैः 'सणफएहिति सिंहव्याघ्रादिभिः 'खाद्यन्ते' भक्ष्यन्ते इति ॥७॥ किश्व-सम्पगुच्छित-चितिकारुति, नामशब्दः 18| सम्भावनायां, सम्भाव्यन्ते एवंविधानि नरकेषु यातनास्थानानि, विधूमस्य-अनेः स्थानं विधूमस्थानं यत्प्राप्य शोकवितप्ताः 'करुणं' दीनं 'स्तनन्ति' आक्रन्दन्तीति, तथा अधःशिरः कृता देहं च विकायोवत् 'शस्त्रः तचोदनादिभिः 'समोसति'त्ति खण्डशः खण्डयन्ति ॥ ८॥ अपि च समूसिया तत्थ विसूणियंगा, पक्खीहिं खजंति अओमुहेहिं । संजीवणी नाम चिरट्रितीया, जंसी पया हम्मइ पावचेया ॥९॥ तिक्खाहिं सूलाहि निवाययंति, वसोगयं सावययं व लद्धं । भितावयंति प्रा। 909685008290923 tesetteesesesesenversese ~284 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [१०], नियुक्ति : [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्गं शीलाकाचा-यत्तियुत ॥१३७॥ नरकविभक्त्यध्य. उद्देशः२ ||१०|| दीप अनुक्रम [३३६] ते सूलविद्धा कलुणं थणंति, एगंतदुक्खं दुहओ गिलाणा ॥१०॥ 'तत्र' नरके स्तम्भादौ ऊर्ध्ववाहवोऽधःशिरसो वा श्वपाकैर्वस्तबल्लम्बिताः सन्तः 'विसूणियंगति उत्कृत्ताका अपगतखचः पक्षिभिः 'अयोमुखैः' वजचञ्चभिः काकगृध्रादिभिर्भक्ष्यन्ते, तदेवं ते नारका नरकपालापादितैः परस्परकृतैः खाभाविकै | छिन्ना भित्राः कथिता मूञ्छिताः सन्तो वेदनासमद्घातगता अपि सन्तो न म्रियन्ते अतो व्यपदिश्यते सञ्जीवनीवत् सञ्जीवनीजीवितदात्री नरकभूमिः, न तत्र गतः खण्डशश्छिन्नोऽपि म्रियते वायुपि. सतीति, सा च चिरस्थितिकोत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत् यावत्सागरोपमाणि, यस्यां च प्राप्ताः प्रजायन्त इति प्रजा:-प्राणिनः पापचेतसो हुन्यन्ते मुद्रादिभिः, नरकानुभावाच मुमूवोऽ-15 प्यत्यन्तपिष्टा अपि न नियन्ते, अपितु पारदवन्मिलन्तीति ।। ९॥ अपिच--पूर्वदुष्कतकारिणं तीक्ष्णाभिरयोमयीभिः शूलामिः नरकपाला नारकमतिपातयन्ति, किमिव -वशमुपगतं श्वापदमिव कालपृष्ठमूकरादिक खातम्येण लब्ध्या कदर्थयन्ति, ते नार-1 | काः शूलादिभिर्विद्धा अपि न नियन्ते, केवलं 'करुणं' दीनं स्तनन्ति, न च तेषां कश्चित्राणायालं तथैकान्तेन 'उभयतः' अन्त-18 बेहिश्व 'ग्लाना' अपगतप्रभोदाः सदा दुःखमनुभवन्तीति ॥ १०॥ तथा-- सया जलं नाम निहं महंतं, जंसी जलंतो अगणी अकट्टो। चिटुंति बद्धा बहुकूरकम्मा, अरहस्सरा केइ चिरट्रितीया ॥ ११ ॥ १०मभितापयन्ति प्र० । २ कालपृष्टों मृगभेदे (हैमः)। ॥१३७॥ ~285 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [१२], नियुक्ति: [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [३३८] testseedeesesesecticeserce चिया महंतीउ समारभित्ता, छन्भंति ते तं कलुणं रसंत । आवदृती तत्थ असाहुकम्मा, सप्पी जहा पडियं जोइमज्झे ॥ १२ ॥ 'सदा' सर्वकालं 'ज्वलत्' देदीप्यमानमुष्णरूपलाल स्थानमस्ति, निहन्यन्ते प्राणिनः कर्मवशगा यसिन् तमिहम्-आघातस्थानं तच 'महदू' विस्तीर्ण यत्राकाष्ठोऽग्निर्बलन्नास्ते, तत्रैवम्भूते स्थाने भवान्तरे बहुक्रूरकृतकर्माणस्त द्विपाकापादितेन पापेन बद्धास्तिष्ठन्तीति, किम्भूता::-'अरहखरा' बृहदाक्रन्दशब्दाः 'चिरस्थितिकाः प्रभूतकालस्थितय इति ॥ ११ ॥ तथा-महतीश्चिताः समारभ्य नरकपालाः 'तं' नारकं विरसं 'करुणं' दीनमारसन्तं तत्र क्षिपन्ति, स चासाधुकर्मा 'तत्र' तस्यां चितायां | गतः सन् 'आवर्तते' विलीयते, यथा-'सर्पिः' घृतं ज्योतिर्मध्ये पतितं द्रवीभवत्येवमसावपि विलीयते, न च तथापि भवानु-18 || भावात्प्राणैर्विमुच्यते ॥ १२ ॥ अयमपरो नरकयातनाप्रकार इत्याह--- सदा कसिणं पुण धम्मठाणं, गाढोवणीयं अइदुक्खधम्म । हत्थेहिं पाएहि य बंधिऊणं, सत्तुब डंडेहिं समारभंति ॥ १३ ॥ भंजति बालस्स वहेण पुटी, सीसपि भिंदति अओघणेहिं । ते भिन्नदेहा फलगंव तच्छा, तत्ताहिं आराहिं णियोजयंति ॥॥ ~286~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१४|| दीप अनुक्रम [३४०] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [२], मूलं [१४], निर्युक्तिः [८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृतानं शीलाङ्काचाय चियुर्त રા ५ नरकचि - 'सदा' सर्वकालं 'कृत्स्नं' सम्पूर्ण पुनरपरं 'धर्मस्थानं' उष्णस्थानं दृढैर्निधत्तनिका चितावस्यैः कर्मभिः 'उपनीतं' ढोकि- ४ तमतीव दुःखरूपो धर्मः स्वभावो यस्मिंस्तदतिदुःखधर्म तदेवम्भूते यातनास्थाने तमत्राणं नारकं हस्तेषु पादेषु च चद्धा तत्र प्रक्षिपन्ति, तथा तदवस्थमेव शत्रुमिव दण्डः 'समारभन्ते' ताडयन्ति इति ॥ १३ ॥ किच- 'बालस्य' वराकस्य नारकस्य व्यथयतीति व्यथो- लकुटादिप्रहारस्तेन पृष्ठ 'भञ्जयन्ति' मोटयन्ति, तथा शिरोऽप्ययोमयेन धनेन 'भिन्दन्ति' चूर्णयन्ति, अपिश|ब्दादन्यान्यप्यङ्गोपाङ्गानि द्रुघणघर्णयन्ति 'ते' नारका 'भिन्नदेहाः' चूर्णिताङ्गोपाङ्गाः फलकमिवोभाभ्यां पार्श्वाभ्यां क्रकचादिना 'अवतष्टाः' तनूकृताः सन्तस्तप्ताभिराराभिः प्रतुद्यमानास्तप्तत्र पुपानादिके कर्मणि 'विनियोज्यन्ते' व्यापार्यन्त इति ॥ १४ ॥ किञ्च - Ja Eucation Internation अभिजुंजिया रुद असाहुकम्मा, उसुचोइया हत्थिवहं वर्हति । . एगं दुरूहित्तु दुवे ततो वा, आरुस्स विज्यंति ककाणओ से ॥ १५ ॥ वाला वला भूमिमणुकमंता, पविज्जलं कंटइलं महंतं । विवद्धत पेहिं विवण्णचित्ते, समीरिया कोहवलिं करिति ॥ १६ ॥ १०पातै० प्र० । For Parts Only ~ 287~ भक्तयध्य. उद्देशः २ ॥१३८॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [३४२] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [२], मूलं [१६], निर्युक्तिः [८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[ ०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः रौद्रकर्मण्यपरनार कहननादिके 'अभियुज्य' व्यापार्य यदिवा - जन्मान्तरकृतं 'रौद्रं' सच्त्वोपघातकार्यम् 'अभियुज्य' सारपिता असाधूनि - अशोभनानि जन्मान्तरकृतानि कर्माणि-अनुष्ठानानि येषां ते तथा तान् 'इषुचोदितान' शराभिघातप्रेरितान् हस्तिवाहं वाहयन्ति नरकपालाः, यथा हस्ती बाह्यते समारुद्य एवं तमपि वाहयन्ति, यदिवा — यथा हस्ती महान्तं भारं वहत्येवं तमपि नारकं वाहयन्ति, उपलक्षणार्थलाद सोष्ट्रवाहं वाहयन्तीत्याद्यप्यायोज्यं कथं वाहयन्तीति दर्शयति-तस्य नारकस्योपर्येकं द्वौ त्रीन् वा 'समारुह्य' समारोप्य ततस्तं वाह्यन्ति, अतिभारारोपणेनावहन्तम् 'आरुष्य' क्रोधं कृखा प्रतोदादिना 'विध्यन्ति' तुदन्ति, 'से' तस्य नारकस्य 'ककाणओ'चि मर्माणि विध्यन्तीत्यर्थः ।। १५ ।। अपिच - बाला इव बालाः परतन्त्राः, | पिच्छिलां रुधिरादिना तथा कण्टकाकुलां भूमिमनुक्रामन्तो मन्दगतयो बलात्प्रेर्यन्ते, तथा अन्यान् 'विषण्णचित्तान्' मूर्च्छिवांस्तर्पकाकारान् 'विविधम्' अनेकधा बद्धा ते नरकपालाः 'समीरिताः' पापेन कर्मणा चोदितास्ताभारकान् 'कुहयित्वा' खण्डशः कृला 'बेलिं करिंति'चि नगरबलिवदितश्चेतश्च क्षिपन्तीत्यर्थः, यदिवा को बलिं कुर्वन्तीति ।। १६ ।। किश्च वेतालिए नाम महाभितावे, एगायते पवयमंतलिक्खे I हम्मंति तत्था बहुकूरकम्मा, परं सहस्साण मुहुत्तगाणं ॥ १७ ॥ संवाहिया दुक्कडिणी थणंति, अहो य राओ परितप्यमाणा । [१] प्र० । २ बलि कुर्वति इतवेत्तच क्षिपतीत्यर्थः यदिवा को कुर्वतीति, कुर्बति नगरबलि प्र० । Education International For Parta Use Only ~288~ war Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [१८], नियुक्ति: [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृता शीलातचार्याय त्तियुतं ॥१३९॥ ||१८|| दीप अनुक्रम [३४४] Recenesecscenecesesese एगंतकूडे नरए महंते, कूडेण तत्था विसमे हता उ॥ १८॥ ५ नरकविनामशब्दः सम्भावनायां, सम्भाव्यते एतन्नरकेषु यथाऽन्तरिक्षे 'महाभितापे' महादुःखैककार्ये एकशिलाघटितो दीर्घः 'बेया- भक्यध्य. लिए'चि वैक्रियः परमाधार्मिकनिष्पादितः पर्वतः तत्र तमोरूपखाबरकाणामतो हस्तस्पर्शिकया समारुहन्तो नारका 'हन्यन्ते' पी-18 उद्देशः २ ड्यन्ते, बहूनि क्रूराणि जन्मान्तरोपात्तानि कर्माणि येषां ते तथा, सहस्रसंख्यानां मुहूर्तानां पर-प्रकृष्टं कालं, सहस्रशब्दस्योपलक्षणार्थखात्प्रभूतं कालं हन्यन्त इतियावत् ।।१७।। तथा सम्-एकीभावेन बाधिताः पीडिता दुष्कृतं पापं विद्यते येषां ते दुष्कृतिनो महापापाः 'अहो अहनि तथा रात्रौ च 'परितप्यमाना' अतिदुःखेन पीव्यमानाः सन्तः करुणं-दीनं 'स्तनन्ति' आक्रन्दन्ति, | तथैकान्तेन 'कूटानि' दुःखोत्पत्तिस्थानानि यसिन् स तथा तसिन् एवम्भूते नरके 'महति' विस्तीर्ण पतिताः प्राणिनः तेन च || कूटेन गलबत्रपाशादिना पापाणसमूहलक्षणेन वा 'तत्र' तस्मिन्विषमे हताः तुशब्दखावधारणार्थवाव स्तनन्त्येव केवलमिति ॥१८॥ अपिच भंजंति णं पुवमरी सरोसं, समुग्गरे ते मुसले गहेतुं । ते भिन्नदेहा रुहिरं वमंता, ओमुद्धगा धरणितले पडंति ॥ १९ ॥ 10॥१३९॥ अणासिया नाम महासियाला, पागब्भिणो तत्थ सयायकोवा । खजंति तत्था बहुकूरकम्मा, अदूरगा संकलियाहि बद्धा ॥ २०॥ For P LOW ~289~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [२०], नियुक्ति : [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम ఆదాయenerala 'णम्' इति वाक्यालकारे पूर्वमरय इवारयो जन्मान्तरवैरिण इव परमाधार्मिका यदिवा-जन्मान्तरापकारिणो नारका अपरेपामङ्गानि 'सरोष' सकोपं समुद्राणि मुसलानि गृहीखा 'भञ्जन्ति' गाढप्रहारैरामदयन्ति, ते च नारकास्त्राणरहिताः शखप्र-18 झरमिनदेहा रुधिरमुद्वमन्तोऽधोमुखा धरणितले पतन्तीति ॥ १९ ॥ किञ्च–महादेहप्रमाणा महान्तः शृगाला नरकपालविकु-18 र्विता 'अनशिता' बुभुक्षिताः, नामशब्दः सम्भावनायां, सम्भाव्यत एतन्नरकेषु, 'अतिप्रगल्भिता' अतिधृष्टा रौद्ररूपा निर्भ-18 याः 'तत्र' तेषु नरकेषु सम्भवन्ति 'सदावकोपा' नित्यकुपिताः तैरेवम्भूतैः भृगालादिभिस्तत्र व्यवस्थिता जन्मान्तरकृतबहुतरकर्माणः शृङ्खलादिभिर्बद्धा अयोमयनिगडनिगडिता 'अदूरगाः' परस्परसमीपवर्तिनो 'भक्ष्यन्ते' खण्डशः खाद्यन्त इति ॥ ॥२०॥ अपिच सयाजला नाम नदी भिदुग्गा, पविजलं लोहविलीणतत्ता। जंसी भिदुग्गंसि पवजमाणा, एगायऽताणुक्कमणं करेंति ॥ २१ ॥ एयाई फासाई फुसंति बालं, निरंतरं तत्थ चिरद्वितीयं ।' ण हम्ममाणस्स उ होइ ताणं, एगो सयं पञ्चणुहोइ दुक्खं ॥ २२ ॥ [३४६] १त्रोटयन्ते प्र०। MInsurary.orm ~290~ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [२२], नियुक्ति : [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रकृता सूत्रांक शीकाङ्काचार्यांय- त्तियुतं ||२२|| ॥१४॥ दीप अनुक्रम [३४८] सदा-सर्वकालं जलम् उदकं यस्यां सा तथा सदाजलाभिधाना वा 'नदी' सरिद् 'अभिदुर्गा' अतिविषमा प्रकर्षेण विवि- ५ नरकवि| धमत्पुष्णं क्षारपूयरुधिराविलं जलं यस्यां सा प्रविजला यदिवा 'पविजले ति रुधिराविलखात् पिच्छिला, विस्तीर्णगम्भीरजला | भक्त्यध्य. वा अथवा प्रदीप्तजला वा, एतदेव दर्शयति-अग्निना तप्तं सत् 'विलीनं द्रवां गतं यल्लोहम् अयस्तद्वत्तप्ता, अतितापविली-18 उद्देशः २ नलोहसदृशजलेत्यर्थः, यस्यां च सदाजलायां अभिदुर्गायां नयां प्रपद्यमाना नारकाः 'एगाय'त्ति एकाकिनोवाणा 'अनुक्रमण | तस्यां गमनं प्लवनं कुर्वन्तीति ।। २१ ।। साम्प्रतमुदेशकार्थमुपसंहरन् पुनरपि नारकाणां दुःखविशेष दर्शयितुमाह--'एते' अन-1|| न्तरोद्देशकद्वयाभिहिताः 'स्पाः ' दुःखविशेषाः परमाधार्मिकजनिताः परस्परापादिताः स्वाभाविका वेति अतिकटबो रूपरस| गंधस्पर्शशब्दाः अत्यंतदुःसहा बालमिव 'बालम्' अशरणं 'स्पृशन्ति' दुःखयन्ति 'निरन्तरम् अविश्रामं 'अग्छिनिमीलय'मित्या-18 | दिपूर्ववत् 'तत्र' तेषु नरकेषु चिरं प्रभूतं कालं स्थितिर्यस बालस्थासौ चिरस्थितिकस्तं, तथाहि-रलप्रभायामुक्तष्टा स्थितिः181 सागरोपमं, तथा द्वितीयायां शर्करप्रभायां त्रीणि, तथा वालुकायां सप्त, पङ्कायां दश, धूमप्रभायां सप्तदश समाप्रभायां द्वाविंशतिर्महातमःप्रभायां सप्तमपृथिव्यां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि उत्कृष्टा स्थितिरिति, तत्र च गवस्य कर्मवशापादितोत्कृष्टस्थितिकस्य | परेहेन्यमानस वकतकर्मफलभुजो न किश्चित्राणं भवति, तथाहि-किल सीतेन्द्रेण लक्ष्मणस्य नरकदुःखमनुभवतस्तत्राणो || घतेनापि न त्राणं कृतमिति श्रुतिः, तदेवमेक:-असहायो यदर्थ तत्पापं समर्जितं ते रहितस्तत्कर्मविपाकजं दुःखमनुभवति, न ॥१४०॥ कश्चिदुःखसंविभागं गृह्णातीत्यर्थः, तथा चोक्तम्- "मया परिजनस्वार्थे, कृतं कर्म सुदारुणम् । एकाकी तेन दोऽहं, गतास्ते फलभोगिनः॥१॥" इत्यादि ।। २२ ॥ किश्चान्यत ~291~ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [२३], नियुक्ति : [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२३|| eeeeeeeee दीप अनुक्रम [३४९] जं जारिसं पुत्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छति संपराए । एगंतदुक्खं भवमजणिता, वेदंति दुक्खी तमणंतदुक्ख ॥ २३ ॥ एताणि सोचा णरगाणि धीरे, न हिंसए किंचण सबलोए। एगंतदिट्री अपरिग्गहे उ, बुझिज लोयस्स वसं न गच्छे ॥ २४ ॥ एवं तिरिक्खे मणुयासु (म)रेसुं, चतुरन्तऽणतं तयणुविवागं । स सबमेयं इति वेदइत्ता, कंखेज कालं धुयमायरेज्ज ॥ २५॥ त्तिबेमि । इति श्रीनरयविभत्तीनामं पंचमाध्ययनं समत्तं ॥ (गाथा० ३६१) 'यत्' कर्म 'यादृशं' यदनुभावं यादृस्थित्तिकं वा कर्म 'पूर्व' जन्मान्तरे 'अकार्षीत्' कृतवांस्तत्ताडगेव जघन्यमध्यमोत्कृष्टस्थित्यनुभावभेदं 'सम्पराये' संसारे तथा तेनैव प्रकारेणानुगच्छति, एतदुक्तं भवति–तीवमन्दमध्यमैयन्धाध्यवसायस्थानाद-13 शेयेबद्धं तत्ताडगेव तीवमन्दमध्यमेव विपाकम्-उदयमागच्छतीति, एकान्तेन-अवश्यं मुखलेशरहितं दुःखमेव यसिचरकादिके भवे 18 स तथा तमेकान्तदुःखं 'भवमर्जयित्वा' नरकभवोपादानभूतानि कर्माण्युपादायकान्तदुःखिनस्तत्-पूर्वनिर्दिष्ट दुःखम्-असातवेदनीयरूपमनन्तम्- अनन्योपशमनीयमप्रतिकारं 'वेदयन्ति' अनुभवन्तीति ।। २३ ॥ पुनरप्युपसंहारव्याजेनोपदेशमाह-'एतान' ere8380900 ~292~ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्”-अगसूत्र-२ (मूल+नियुक्ति :+वृत्ति :) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [२५], नियुक्ति : [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२७|| दीप अनुक्रम सूत्रकृताङ्गं 18 पूर्वोक्तानरकान् तास्थ्याचव्यपदेश इतिकता नरकदुःखविशेषान् 'श्रुत्वा' निशम्य धी:-बुद्धिस्तया राजत इति धीरो बुद्धिमान् ५नरकविशीलाङ्का प्राज्ञा, एतत्कुर्यादिति दर्शयति--सर्वसिन्नपि त्रसस्थावरभेदभिन्ने 'लोके' प्राणिगणे न कमपि प्राणिनं 'हिंस्यात्' न भव्यध्य. चायीयव्यापादयेत् , तथैकान्तेन निश्चला जीवादितच्चेषु दृष्टिः-सम्यग्दर्शनं यस्य स एकान्तदृष्टिः निष्प्रकम्पसम्यक्स इत्यर्थः,81 उद्देशः२ चियुत तथा न विद्यते परि-समन्तात्सुखार्थ गृह्यत इति परिग्रहो यस्थासौ अपरिग्रहः, तुशब्दादाधन्तोपादानाद्वा मृषावादादचादा॥१४१॥ नमैथुनवर्जनमपि द्रष्टव्यं, तथा 'लोकम्' अशुभकर्मकारिणं तद्विपाकफलभुजं वा यदिवा-कपायलोकं तत्स्वरूपतो 'बुध्येत' जा नीयात् , न तु तस्य लोकस्य वर्श गच्छेदिति ॥२४॥ एतदनन्तरोक्तं दुःखविशेषमन्यत्राप्यतिदिशबाह-'एवम्' इत्यादि, एवम|शुभकर्मकारिणामसुमतां तिर्यधनुष्यामरेष्वपि 'चतुरन्तं' चतुर्गतिकम् 'अनन्तम्' अपर्यवसानं तदनुरूपं विषाकं 'स' बुद्धिमान् ॥ सर्वमेतदिति पूर्वोक्तया नीत्या 'विदित्वा' ज्ञाखा 'ध्रुवं' संयममांचरन् 'कालं' मृत्युकालमाकांक्षेत्, एतदुक्तं भवति-चतुर्गति-18 कसंसारान्तर्गतानामसुमतां दुःखमेव केवलं यतोऽतो ध्रुवो-मोक्षः संयमो वा तदनुष्ठानरतो यावज्जीवं मृत्युकालं प्रतीक्षेवेति, इतिः। || परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् ।। २५ ॥ नरकविभक्त्यध्ययनं पञ्चमं परिसमाप्तमिति ।। ॥१४॥ [३५१] अत्र पंचम-अध्ययनं परिसमाप्तम् ~293~ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [२५...], नियुक्ति: [८४]. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अथ श्रीवीरस्तुत्याख्यं षष्ठमध्ययनं प्रारभ्यते ॥ प्रत सूत्रांक ||२७|| दीप अनुक्रम उक्तं पञ्चममध्ययनं, साम्प्रतं षष्ठमारभ्यते, अख चायमभिसम्बन्धः---अत्रानन्तराध्ययने नरकविभक्तिः प्रतिपादिता, सा च श्रीमन्महावीरवर्धमानखामिनाऽभिहितेत्यतस्तस्यैवानेन गुणकीर्तनद्वारेण चरितं प्रतिपायते शास्तुर्गुरुवेन शास्त्रस्य गरीयस्त्वमितिकता, इत्यनेन सम्बन्धेनाध्यातस्यास्वाध्ययनस्योपक्रमादीनि चबार्यनुयोगद्वाराणि, तत्राप्युपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारो महावीरगुणगणोत्कीर्तनरूपः । निक्षेपस्तु द्विधा ओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नथ, तत्रौघनिष्पन्ने निक्षेपेऽध्ययनं, नामनिष्पन्ने तु महावीर| स्तवः, तत्र महच्छब्दस वीर इत्येतस्य च स्तवस्य च प्रत्येकं निक्षेपो विधेयः, तत्रापि 'यथोद्देशस्तथा निर्देश' इतिकृता पूर्व मह |च्छब्दो निरूप्यते, तत्रास्त्ययं महच्छब्दो बहुते, यथा-महाजन इति, अस्ति बृहत्चे, यथा-महाघोषः, अस्त्यत्यर्थे, यथा-म19 हाभयमिति, अस्ति प्राधान्ये, यथा महापुरुष इति, तत्रेह प्राधान्ये वर्तमानो गृहीत इत्येतनियुक्तिकारो दर्शयितुमाह पाहन्ने महसदो दब्वे खेत्ते य कालभावे य । वीरस्स उणिक्खेवो चउक्कओ होइ णायब्यो ॥ ८॥ तत्र महावीरस्तव इत्यत्र यो महच्छब्दः स प्राधान्ये वर्तमानो गृहीतः, तेच नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् पोढा प्राधान्यं, नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यप्राधान्यं ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त सचित्ताचित्तमिश्रभेदात् विधा, सचित्तमपि द्विपदचतुष्पदा पर्यायवात्तत्वतस्तस्यैवाभिधानं यथा भाषाभिधानं वाक्यशुद्धी वाक्यनिक्षेपे । 909080503929899 sectscoeaeseseseseseeeesese [३५१] अत्र षष्ठं अध्यननम् 'वीरस्तुति' आरब्ध:, 'महावीर' शब्दस्य अर्थ एवं तत् निक्षेपा: *अत्र नियुक्ति-क्रमस्य मुद्रण-अशुद्धिः दृश्यते. (पांचवे अध्ययन के आरम्भमें अंतिम नियुक्ति का क्रम-८४ था, यहाँ फिर नियुक्ति-क्रम ८३ दिखाई देता है, जो की प्रूफ रीडिंग की अशुद्धि संभावित है ।) ~294~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [२५...], नियुक्ति : [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीमहापीरस्तुत्य. सूत्रांक चायित् कतार शीलाका चियुत ॥१४२॥ ఆవారించింది ||२७|| दीप अनुक्रम पदभेदात् त्रिधैव, तत्र द्विपदेषु तीर्थकरचक्रवादिकं चतुष्पदेषु हस्त्यश्वादिकमपदेषु प्रधानं कल्पवृक्षादिकं, यदिवा-इहैव ये प्रत्यक्षा रूपरसगन्धस्पर्शरुत्कृष्टाः पौण्डरीकादयः पदार्थाः अचित्तेषु वैर्यादयो नानाप्रभावा मणयो मिश्रेषु तीर्थकरो विभूषित इति, क्षेत्रतः प्रधाना सिविधर्मचरणाश्रयणान्महाविदेहं चोपभोगाङ्गीकरणेन तु देवकुर्वादिकं क्षेत्र, कालतः प्रधानं खेकान्तसुपमादि, यो वा कालविशेपो धर्मचरणप्रतिपत्तियोग्य इति, भावप्रधानं तु क्षायिको भावः तीर्थकरशरीरापेक्षयौदायिको वा, तत्रेह द्वयेनाप्यधिकार इति । वीरस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाच्चतुर्धा निक्षेपः, तत्र बशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यवीरो द्रव्याथै सत्रा-18 | मादावद्भुतकर्मकारितया शूरो यदिवा-यत्किञ्चित् वीर्यवद् द्रव्यं तत् द्रव्यवीरे अन्तर्भवति, तयथा तीर्थकदनन्तबलवीर्यों लो| कमलोके कन्दुकवत् प्रक्षेनुमलं तथा मन्दरं दण्डं कृखा रत्नप्रभा पृथिवीं छत्रवद्विभृयात् , तथा चक्रवर्तिनोऽपि बलं 'दोसोला ब| चीसा', इत्यादि, तथा विषादीनां मोहनादिसामर्थ्यमिति, क्षेत्रवीरस्तु यो यसिन् क्षेत्रेद्भुतकर्मकारी वीरो वा यत्र व्यावयेते, एवं कालेऽप्यायोज्यं, भाववीरो यस्य क्रोधमानमायालोभैः परीपहादिभिश्वात्मा न जितः, तथा चोक्तम्-"कोहं माणं च मार्य च, 18 | लोभं पंचेंदियाणि य । दुजयं चेव अपाणं, सबमप्पे जिए जियं ॥१॥ जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुजए जिणे । एक जिगणेज अप्पाणं, एस से परमो जओ ॥२॥ तथा-एको परिभमउ जए वियर्ड जिणकेसरी सलीलाए । कंदप्पदुहृदाढो मयणो | विद्वारिओ जेणं ॥३॥" तदेवं वर्धमानखाम्येव परीषहोपसगैरनुकूलप्रतिकूलरपराजितोद्भुतकर्मकारिसेन गुणनिष्पनखात् भा-1 | १ कोधो मानश्च माया च लोभश्च पोन्द्रियाणि च दुर्जेयं चैवात्मनः सर्वमात्मनि जिते जितं ॥१॥ यः सहसं सहस्राणां सङ्ग्रामे दुर्जय जयेत् । एक जयेदारमानं एष तस्य परमो जयः ॥ २ ॥ एकः परिभ्राम्यतु जगति विकटं जिनकेसरी खलीलया कन्दर्पदुष्टदमदनो सिदारितो येन ॥३॥ [३५१] ॥१४॥ ॥ 'महत्' शब्दस्य निक्षेपा:, 'वीर' शब्दस्य निक्षेपा:, ~295 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [१], नियुक्ति: [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| दीप AS|वतो महावीर इति भण्यते, यदिवा-द्रव्यवीरो व्यतिरिक्त एकभविकादिः, क्षेत्रवीरो यत्र तिष्ठत्यसौ व्यावयेते वा, कालतोऽ | प्येवमेव, भाववीरो नोआगमतो वीरनामगोत्राणि कर्माण्यनुभवन् , स च वीरवर्धमानखाम्येवेति ॥ स्तवनिक्षेपार्थमाह| थुइणिक्खेवो चउहा आगंतुअभूसणेहिं दब्बथुती। भावे संताण गुणाण कित्तणा जे जहिं भणिया ।। ८४॥ | 'स्तुतेः' स्तवस्य नामादिश्चतुर्धा निक्षेपः, तत्र नामस्थापने पूर्ववत्, द्रव्यस्तवस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो यः कटककेयूरसक्चन्दनादिभिः सचित्ताचित्तद्रव्यैः क्रियत इति, मावस्तवस्तु 'सद्भूतानां विद्यमानानां गुणानां ये यत्र भवन्ति तत्कीर्तनमिति ।। साम्प्रतं आधसूत्रसंस्पर्शद्वारेण सकलाध्ययनसम्बन्धप्रतिपादिका गार्थी नियुक्तिकदाह पुच्छिम जंबुणामो अज सुहम्मा तओ कहेसी य । एव महप्पा वीरो जयमाह तहा जएजाहि ॥ ८५ ॥ NI जम्बूखामी आर्यसुधर्मखामिनं श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिगुणान् पृथ्वान् , अतोऽसावपि भगवान् सुधर्मखाम्येवंगुणविशिष्टो महावीर इति कथितवान् , एवं चासौ भगवान् संसारस्य 'जयम्' अभिभवमाह, ततो यूयमपि यथा भगवान् संसारं जितवान् तथैव यनं विधतेति ॥ साम्प्रतं निक्षेपानन्तरं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुबारयितव्यं, तचेदम् पुच्छिस्सु णं समणा माहणा य, अगारिणो या परतिस्थिआ य । से केइ णेगंतहियं धम्ममाह, अणेलिसं साह समिक्खयाए ॥१॥ कहं च णाणं कह दंसणं से, सीलं कह नायसुतस्स आसी? । अनुक्रम [३५२] प्रकटरsekeseeseseaeese 'वीर' शब्दस्य निक्षेपा:, 'स्तव' शब्दस्य निक्षेपाः, मूलसूत्रस्य आरम्भ: ~296~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम [३५३] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः: + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], मूलं [२], निर्युक्तिः [८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र - [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चाययत्र चिपूर्त ॥१४३॥ जाणासि णं भिक्खु जहातहेणं, अहासुतं बूहि जहा णिसंतं ॥ २ ॥ अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायं सम्बन्धः, तद्यथा तीर्थकरोपदिष्टेन मार्गेण ध्रुवमाचरन् मृत्युकालमुपेक्षेवेत्युक्तं, तत्र किम्भू| तोऽसौ तीर्थकृत् येनोपदिष्टो मार्ग इत्येतत् पृष्टवन्तः 'श्रमणा' यतय इत्यादि, परम्परसूत्रसम्बन्धस्तु बुद्ध्येत यदुक्तं प्रागिति, एतच यदुत्तरत्र प्रश्नप्रतिवचनं वक्ष्यते तच बुद्ध्येतेति, अनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्य सूत्रस्य संहितादिक्रमेण व्याख्या प्रतन्यते, सा चेयम् - अनन्तरोक्तां बहुविधां नरकविभक्तिं श्रुला संसारादुद्विग्नमनसः केनेयं प्रतिपादितेत्येतत् सुधर्मस्वामिनम् 'अप्राक्षुः ' | पृष्टवन्तः 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे यदिवा जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनमेवाह-यथा केनैवंभूतो धर्मः संसारोत्तारणसमर्थः प्रतिपादित इत्येतद्बहवो मां पृष्टवन्तः, तद्यथा- 'श्रमणा' निर्ग्रन्थादयः तथा 'ब्राह्मणा' ब्रह्मचर्याद्यनुष्ठाननिरताः, तथा 'अगारिणः' | क्षत्रियादयो ये च शाक्यादयः परतीर्थिकास्ते सर्वेऽपि पृष्टवन्तः, किं तदिति दर्शयति-स को योऽसावेनं धर्मं दुर्गतिप्रसृतजन्तुषारकमेकान्तहितम् 'आह' उक्तवान् 'अनीदृशम्' अनन्यसदृशम् अतुलमित्यर्थः, तथा साध्वी चासौ समीक्षा च साधुसमीक्षा| यथावस्थिततत्त्वपरिच्छित्तिस्तया, यदिवा – साधुसमीक्षया-समतयोक्तवानिति ॥ १ ॥ तथा तस्यैव ज्ञानादिगुणावगतये प्रश्नमाह - 'कथं केन प्रकारेण भगवान् ज्ञानमवाप्तवान् १, किम्भूतं वा तस्य भगवतो ज्ञानं विशेषाववोधकं १, किम्भूतं च 'से' तस्य 'दर्शनं' सामान्यार्थ परिच्छेदकं ? 'शीलं च' यमनियमरूपं कीदृक् ? ज्ञाताः क्षत्रियास्तेषां 'पुत्रो' भगवान् वीरवर्धमान १० मेवमाह प्र० । २ निर्मन्थाः प्र० । Education Internationa For Parts Only ~297~ ६ श्रीमहावीरस्तुल्य. ॥१४३॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [२], नियुक्ति: [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| दीप स्वामी तख 'आसीद' अभूदिति, यदेतन्मया पृष्टं तत् 'भिक्षो!" सुधर्मस्वामिन् याथातथ्येन वं 'जानी सम्यगवगच्छसि 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे तदेतत्सर्व यथाश्रुतं खया श्रुत्वा च यथा 'निशान्त' मित्यवधारितं यथा दृष्टं तथा सर्व 'धूहि' आचक्ष्वेति ॥२॥ स एवं पृष्टः सुधर्मस्वामी श्रीमन्महावीरवर्धमानखामिगुणान् कथयितुमाह-- खेयन्नए से कुसलासुपन्ने (०ले महेसी), अणंतनाणी य अणंतदंसी । जसंसिणो चक्खुपहे ठियस्स, जाणाहि धम्मं च धिइं च पेहि ॥३॥ उई अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा। से णिच्चणिच्चेहि समिक्ख पन्ने, दीवे व धम्म समियं उदाह ॥४॥ सः-भगवान् चतुस्त्रिंशदतिशयसमेतः खेदं-संसारान्तर्वतिनां प्राणिनां कर्मविषाकर्ज दुःख जानातीति खेदज्ञो दुःखापनोदनसमर्थोपदेशदानात् , यदिवा 'क्षेत्रज्ञो' यथावस्थितात्मस्वरूपपरिज्ञानादात्मज्ञ इति, अथवा-क्षेत्रम्-आकाशं तानातीति क्षेत्रज्ञो लोकालोकस्वरूपपरिक्षातेत्यर्थः, तथा भावकुशान्-अष्टविधकर्मरूपान् लुनाति-छिनत्तीति कुशलः प्राणिनां कर्मोच्छित्तये | | निपुण इत्यर्थः, आशु-शीघ्रं प्रज्ञा यस्खासावाशुप्रज्ञः, सर्वत्र सदोपयोगाद्, न छमस्थ इव विचिन्त्य जानातीति भावः, महर्षि-| रिति कचित्पाठः, महांधासायषिश्च महर्षिः अत्यन्तोग्रतपश्चरणानुष्ठायिखादतुलपरीषहोपसर्गसहनायेति, तथा अनन्तम्-अविना-| श्यनन्तपदार्थपरिच्छेदकं वा ज्ञान-विशेषग्राहक यस्यासावनन्तज्ञानी, एवं सामान्यार्थपरिच्छेदकलेनानन्तदर्शी, तदेवम्भूतस्य । अनुक्रम [३५३] SAREILLEGunintentiatana ~298~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||8|| दीप अनुक्रम [३५५] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः: + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], मूलं [४], निर्युक्तिः [८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र - [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचाय चियुतं ॥१४४॥ भगवतो यशो नृसुरासुरातिशाय्यतुलं विद्यते यस्य स यशस्वी तस्य, लोकस्य 'चक्षुःपथे' लोचनमार्गे भवस्यकेवल्यवस्थायां स्थितस्य, लोकानां सूक्ष्मव्यवहितपदार्थाविर्भावनेन चक्षुर्भूतस्य वा 'जानीहि' अवगच्छ 'धर्म' संसारोद्धरणखभावं, तत्प्रणीतं वा श्रुतचारित्राख्यं तथा तस्यैव भगवतस्तथोपसर्गितस्यापि निष्प्रकम्पां चारित्राचलनखभावां 'धृतिं संयमे रतिं तत्प्रणीतां वा 'प्रेक्षख' सम्यकुशाग्रीयया बुद्ध्या पर्यालोचयेति, यदिवा - तैरेव श्रमणादिभिः सुधर्मखाम्पभिहितो यथा त्वं तस्य भगवतो यशस्विनश्चक्षुष्पथे व्यवस्थितस्य धर्मं धृतिं व जानीषे ततोऽसाकं 'पेहि'त्ति कथयेति ॥ ३ ॥ साम्प्रतं सुधर्मस्वामी तद्गुणान् कथयितुमाह-ऊर्ध्वमधस्तिर्यक्षु सर्वत्रैव चतुर्दशरज्ज्वात्मके लोके ये केचन त्रस्यन्तीति सास्तेजोवायुरूप विकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियभेदात् ४ त्रिधा, तथा ये च 'स्थावराः पृथिव्यम्बुवनस्पतिभेदात् त्रिविधाः, एत उच्छवासादयः प्राणा विद्यन्ते येषां ते प्राणिन इति, ४ अनेन च शाक्यादिमतनिरासेन पृथिव्याद्येकेन्द्रियाणामपि जीवत्वमावेदितं भवति, स भगवांस्तान् प्राणिनः प्रकर्षेण केवलज्ञानि४ खात् जानातीति प्रज्ञः [ ग्रन्थाग्रम् ४२५० ] स एव प्राज्ञो, नित्यानित्याभ्यां द्रव्यार्थपर्यायार्थाश्रयणात् 'समीक्ष्य' केवलज्ञानेनार्थान् परिज्ञाय प्रज्ञापनायोम्यानाहेत्युत्तरेण सम्बन्धः, तथा स प्राणिनां पदार्थाविर्भावनेन दीपवत् दीपः यदिवा - संसारार्ण|वपतितानां सदुपदेशप्रदानत आश्वासहेतुत्वाद द्वीप इव द्वीपः, स एवम्भूतः संसारोत्तारणसमर्थ 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं सम्पक् इतं गतं सदनुष्ठानतया रागद्वेपरहितलेन समतया वा, तथा चोक्तम् - "जहा पुण्णस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थद" इत्यादि, | समं वा धर्मम् उत्-प्राबल्येन आह-उक्तवान् प्राणिनामनुग्रहार्थं न पूजासत्कारार्थमिति ॥ ४ किञ्चान्यत्--- १ यथा पूर्ण कथ्यते तथा तुच्छस्य कथ्यते ॥ For Parts Only ~299~ १६ श्रीमहावीरस्तुल्य. ॥१४४॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [१], नियुक्ति: [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: दीप से सवदंसी अभिभूयनाणी, णिरामगंधे धिइमं ठितप्पा । अणुत्तरे सबजगंसि विज, गंथा अतीते अभए अणाऊ ॥५॥ से भूइपपणे अणिएअचारी, ओहंतरे धीरे अणंतचक्तू। अणुत्तरं तप्पति सूरिए वा, वइरोयणिंदे व तमं पगासे ॥६॥ 'स' भगवान् सर्व-जगत् चराचरं सामान्येन द्रष्टुं शीलमस्य स सर्वदर्शी, तथा 'अभिभूय' पराजित्य मत्यादीनि चखार्यपि शानानि यद्वर्तते ज्ञानं केवलाख्यं तेन ज्ञानेन ज्ञानी, अनेन चापरतीर्थाधिपाधिकसमावेदितं भवति, 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष' इति 181 कला तस्स भगवतो ज्ञानं प्रदश्य क्रियां दर्शयितुमाह-निर्गत:--अपगत आमः-अविशोधिकोव्याख्यः तथा गन्धो-विशोधिको-18 18 टिरूपो यस्मात् स भवति निरामगन्धः, मूलोत्तरगुणभेदभित्रां चारित्रक्रियां कृतवानित्यर्थः, तथाऽसबपरीषदोपसर्गाभिद्रुतोऽपि निष्पकम्पतया चारित्रे धृतिमान् तथा-स्थितो व्यवस्थितोऽशेषकर्मविगमादात्मखरूपे आत्मा यस्य स भवति स्थितात्मा, एतच्च | ज्ञानक्रिययोः फलद्वारेण विशेषणं, तथा-नांस्योत्सर-प्रधानं सर्वसिबपि जगति विद्यते (य:) स तथा, विद्वानिति सकलपदार्थानां 10 करतलामलकन्यायेन वेत्ता, तथा बाखग्रन्थात् सचित्तादिभेदादान्तराञ्च कर्मरूपाद् 'अतीतो अतिक्रान्तो अन्धातीतो-निग्रन्थ १ तस्य परमामेडितमित्यादिवदवयवाधिवेन षही। अनुक्रम [३५६] ~300~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [६], नियुक्ति: [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचाय त्तियुतं ॥१४५॥ ||६|| दीप अनुक्रम [३५७] इत्यर्थः, तथा न विद्यते सप्तप्रकारमपि भयं यस्यासावभयः समस्तभयरहित इत्यर्थः, तथा न विद्यते चतुर्विधमघ्यायुर्यस स भव-18| भीमहात्यनायुः, दग्धकमेबीजलेन पुनरुत्पत्तेरसंभवादिति ॥ ५॥ अपिच-भूतिशब्दो वृद्धी माले रक्षायां च वर्तते, तत्र 'भूतिप्रज्ञः'। | वीरस्तुत्य. प्रवृद्धप्रज्ञः अनन्तज्ञानवानित्यर्थः, तथा-भूतिप्रज्ञो जगद्रेक्षाभूतप्रज्ञः एवं सर्वमङ्गलभूतप्रज्ञ इति, तथा अनियतम्' अप्रतिबद्धं परि-14 ग्रहायोगाचरितुं शीलमस्थासावनियतचारी तीर्घ-संसारसमुद्र तरितुं शीलमस्य स तथा, तथा धीः-पुद्धिस्तया राजत इति धीरः परीपहोपसर्गाक्षोभ्यो वा धीरः, तथा अनन्तं-ज्ञेयानन्ततया नित्यतया वा चक्षुरिव चक्षुः-केवलज्ञानं यस्थानन्तस्य वा लोकस्य पदार्थप्रकाशकतया चक्षुर्भूतो यः स भवत्यनन्तचक्षुः, तथा यथा-सूर्यः 'अनुत्तरं सर्वाधिक तपति न तसादधिकस्तापेन कश्चिदस्ति, एवमसावपि भगवान् ज्ञानेन सर्वोत्तम इति, तथा 'वैरोचनः' अग्निः स एव प्रज्वलितखात् इन्द्रो यथाऽसौ त| मोऽपनीय प्रकाशयति, एवमसावपि भगवानज्ञानतमोऽपनीय यथावस्थितपदार्थप्रकाशनं करोति ॥ ६॥ किश्च अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं, णेया मुणी कासव आसुपन्ने । इंदेव देवाण महाणुभावे, सहस्सणेता दिवि णं विसिट्टे ॥७॥ से पन्नया अक्खयसागरे वा, महोदही वावि अणंतपारे । ॥१४५॥ अणाइले वो अकसाइ मुक्के, सक्केव देवाहिवई जुईमं ॥८॥ १०भूति- प्र. १२ या प्र.३ मिक्स् । ~3014 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [३५९] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], मूलं [८], निर्युक्तिः [८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः नास्योचरोऽस्तीत्यनुत्तरस्तमिममनुत्तरं धर्म 'जिनानाम्' ऋषभादितीर्थकृतां सम्बन्धिनमयं मुनिः' श्रीमान् वर्धमानाख्यः 'काश्यपः' गोत्रेण 'आशुप्रज्ञः केवलज्ञानी उत्पन्नदिव्यज्ञानो 'नेता' प्रणेतेति ताच्छीलिकस्तून्, तद्योगे 'न लोकाव्ययनिष्ठे' ( पा० २-३-६९ ) त्यादिना षष्ठीप्रतिषेधाद्धर्ममित्यत्र कर्मणि द्वितीयैव, यथा चेन्द्रो 'दिवि' स्वर्गे देवसहस्राणां 'महानुभावो' महाप्रभाववान् 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे तथा 'नेता' प्रणायको 'विशिष्टो' रूपचलवर्णादिभिः प्रधानः एवं भगवानपि सर्वेभ्यो विशिष्टः प्रणायको महानुभावश्चेति ॥ ७ ॥ अपिच - असौ भगवान् प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा तया 'अक्षयः' न तस्य ज्ञातव्येऽर्थे बुद्धिः प्रतिक्षीयते प्रतिहन्यते वा तस्य हि बुद्धिः केवलज्ञानाख्या, सा च साद्यपर्यवसाना कालतो द्रव्यक्षेत्रभावैरप्यनन्ता, सर्वसाम्येन दृष्टान्ताभावाद्, एकदेशेन लाह-यथा 'सागर' इति, अस्य चाविशिष्टसाद विशेषणमाह- 'महोद| घिरिव' स्वयम्भूरमण इवानन्तपारः यथाऽसौ विस्तीर्णो गम्भीरजलोऽक्षोभ्यश्च, एवं तस्यापि भगवतो विस्तीर्णा प्रज्ञा स्वयम्भूरमगानन्तगुणा गम्भीराऽक्षोभ्या च यथा च असौ सागरः 'अनाविल:' अकलुषजलः, एवं भगवानपि तथाविधकर्मलेशाभावादकलुषज्ञान इति, तथा — कषाया विद्यन्ते यस्यासौ कषायी न कषायी अकषायी, तथा ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धनाद्वियुक्तो मुक्तः, भिक्षुरिति कचित्पाठः, तस्यायमर्थः - सत्यपि निःशेषान्तरायक्षये सर्वलोक पूज्यले च तथापि भिक्षामात्रजीवित्वात् भिक्षुरेवासौ, नाक्षीणमहानसादिलब्धिमुपजीवतीति, तथा शक्र इव देवाधिपतिः 'द्युतिमान्' दीप्तिमानिति ॥ ८ ॥ किञ्च १ स्थित्यपेक्षया ज्ञेयापेक्षया तु द्रव्यादिवदनायनन्तकालमोचरैव । For Parts Only ~302~ waryra Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [९], नियुक्ति: [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥९॥ ॥१४६॥ दीप अनुक्रम सूत्रकृता से वीरिएणं पडिपुन्नवीरिए, सुदंसणे वा णगसबसे । ६ श्रीमहाशीलाकासुरालए वासिमुदागरे से, विरायए णेगगुणोववेए ॥९॥ वीरस्तुत्य. चायिवृचियुतं सयं सहस्साण उ जोयणाणं, तिकंडगे पंडगवेजयते । से जोयणे णवणवते सहस्से, उडुस्सितो हेटु सहस्समेगं ॥१०॥ 'स' भगवान् 'वीर्येण' औरसेन चलेन धृतिसंहननादिभिश्च वीर्यान्तरायस्य निःशेषतः क्षयात् प्रतिपूर्णवीर्यः, तथा 'सुदर्श-18|| नो' मेर्जम्बूद्वीपनाभिभूतः स यथा नगाना-पर्वतानां सर्वेषां श्रेष्ठः-प्रधान तथा भगवानपि वीर्येणान्यैश्च गुणैः सर्वश्रेष्ठ इति, 18 तथा यथा 'सुरालयः' वर्गस्तनिवासिना 'मुदाकरों हर्षजनकः प्रशस्तवर्णरसगन्धस्पर्शप्रभावादिमिर्गुणैरुपेतो 'विराजते शोभते, एवं भगवानप्यनेकैर्गुणैरुपेतो विराजत इति, यदिवा-यथा त्रिदशालयो मुदाकरोऽनेकैर्गुणैरुपेतो विराजत इति एव|| मसावपि मेरुरिति ॥९॥ पुनरपि दृष्टान्तभूतमेरुवर्णनायाह-स मेरुयोजनसहस्राणां शतमुस्खेन, तथा त्रीणि कण्डान्यस्येति त्रिकण्डा, तपथा--भौम जाम्बूनदं पैडूर्यमिति, पुनरप्यसावे विशेष्यते-'पण्डकवैजयन्त' इति, पण्डकवनं शिरसि व्यवस्थितं वैजयन्तीकल्प-पताकाभूतं यस्य स तथा, तथाऽसावूर्वमुच्छितो नवनवतियोंजनसहस्राण्यधोऽपि सहस्रमेकमवगाढ ॥१४६॥ इति ॥ १०॥ तथा वादि.प्र.। KEReceaecenecessere [३६०] ~3034 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [११], नियुक्ति: [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११|| : दीप अनुक्रम [३६२] पुढे णभे चिट्ठइ भूमिवहिए, जं सूरिया अणुपरिवयंति । से हेमवन्ने बहुनंदणे य, जंसी रतिं वेदयती महिंदा ॥ ११ ॥ से पवए सहमहप्पगासे, विरायती कंचणमटवन्ने । अणुत्तरे गिरिसु य पवदुग्गे, गिरीवरे से जलिएव भोमे ॥ १२ ॥ 'नभसि 'स्पृष्टो लग्नो नभो व्याप्य तिष्ठति तथा भूमि चावगाह्य स्थित इति ऊर्वाधस्तिर्यक्लोकसंस्पशी, यथा 'य' मेरु | 'सूर्या' आदित्या ज्योतिष्का 'अनुपरिवर्त्तयन्ति' यस पार्श्वतो भ्रमन्तीत्यर्थः, तथाऽसौ 'हेमवर्णो' निष्टप्लजाम्बूनदामः, तथा बहूनि चखारि नन्दनवनानि यस्य स बहुनन्दनवनः, तथाहि भूमौ भद्रशालवनं ततः पञ्च योजनशतान्यारुह्य मेखलायां IS नन्दनं ततो द्विषष्टियोजनसहस्राणि पंचशताधिकान्यतिक्रम्य सौमनसं ततः पत्रिंशत्सहस्राण्यारुह्य शिखरे पण्डकवनमिति, तदे वमसौ चतुर्नन्दनवनाथुपेतो विचित्रक्रीडास्थानसमन्वितः, यसिन् महेन्द्रा अप्यागत्य त्रिदशालयाद्रमणीयतरगुणेन 'रति' रमण-18 क्रीडां 'वेदयन्ति' अनुभवन्तीति ॥ ११ ।। अपिच-सा-मेर्वाख्योऽयं पर्वतो मन्दरो मेरुः सुदर्शनः सुरगिरिरित्येवमादिभिः श-18 ब्दैमहान् प्रकाश:-प्रसिद्धिर्यस्य स शब्दमहाप्रकाशो 'विराजते' शोभते, काञ्चनस्पेव 'मृष्टः' लक्ष्णः शुद्धो वा वर्णो यस्य स तथा, एवं न विद्यते उत्तरः प्रधानो यस्यासावनुत्तरः, तथा गिरिषु च मध्ये पर्वभिः-मेखलादिभिर्दष्ट्रापर्वतैर्वा 'दुर्गो' विषमः ~304~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक , मूलं [१२], नियुक्ति: [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत मुत्रकृताङ्गं शीलाकाचार्याय सूत्रांक ||१२|| चियुतं ॥१४७॥ दीप अनुक्रम [३६३] सामान्यजन्तूनां दुरारोहो 'गिरिवर' पर्वतप्रधानः, तथाऽसौ मणिभिरौषधीभिश्च देदीप्यमानतया 'भौम इव' भूदेश इव ज्व-18 श्रीमहालित इति ।। १२ ॥ किञ्च वीरस्तुस. महीइ मझमि ठिते णगिंदे, पन्नायते सूरियसुद्धलेसे । एवं सिरीए उ स भूरिवन्ने, मणोरमे जोयइ अचिमाली ॥ १३ ॥ सुदंसणस्सेव जसो गिरिस्स, पवुच्चई महतो पवयस्स । पतोवमे समणे नायपुत्ते, जातीजसोदंसणनाणसीले ॥ १४ ॥ 'मयां' रवप्रभापृथिव्यां मध्यदेशे जम्बूद्वीपस्तस्यापि बहुमध्यदेशे सौमनसविद्युत्प्रभगन्धमादनमाल्यवन्तदंष्ट्रापर्वतचतुष्टयोप-18 2 शोभितः समभूभागे दशसहस्त्रविस्तीर्णः शिरसि सहस्रमेकमधस्तादपि दश सहस्राणि नवतियोजनानि योजनेकादशभागैर्देशभिर|धिकानि विस्तीर्णः चसारिशयोजनोच्छ्रितचूडोपशोभितो 'नगेन्द्र' पर्वतप्रधानो मेरुः प्रकर्षण लोके ज्ञायते सूर्येवत्शुद्धलेश्य:|| आदित्यसमानतेजाः, 'एवम्' अनन्तरोक्तप्रकारया श्रिया तुशब्दाद्विशिष्टतरया सः-मेरुः 'भूरिवर्णः' अनेकवर्णो अनेकवर्णरत्नोप-18|॥१४७॥ शोभितलात् मन:-अन्तःकरणं रमयतीति मनोरमा 'अर्चिमालीच' आदित्य इव खतेजसा द्योतयति दशापि दिशा प्रकाशयती| ति ॥ १३ ॥ साम्प्रतं मेरुदृष्टान्तोपक्षेपेण दार्शन्तिकं दर्शयति-एतदनन्तरोक्तं 'यश' कीर्तनं सुदर्शनस्य मेरुगिरेः महापर्वतस्य ~305 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक , मूलं [१४], नियुक्ति: [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१४|| seeeeeeeeeeeeeeses दीप अनुक्रम [३६५] प्रोच्यते, साम्प्रतमेतदेव भगवति दान्तिके योज्यते-एषा---अनन्तरोक्तोपमा यस स एतदुपमः, कोऽसौ :-श्राम्यतीति श्रमणस्तपोनिष्टप्तदेहो जाता:-क्षत्रियास्तेषां पुत्रः श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामीत्यर्थः, स च जात्या सर्वजा तिमद्भ्यो यशसा अशेषयशखिभ्यो दर्शनज्ञानाभ्यां सकलदर्शनज्ञानिभ्यः शीलेन समस्तशीलवयः श्रेष्ठः-प्रधानः, अक्षरघटना तु जात्यादीनां कृतद्वन्द्वानामतिशायने अर्शआदित्वादच्प्रत्ययविधानेन विधेयेति ॥ १४ ॥ पुनरपि दृष्टान्तद्वारेणैव भगवतो न्यावर्णनमाह गिरीवरे वा निसहाऽऽययाणं, रुयए व सेटे वलयायताणं । तओवमे से जगभूइपन्ने, मुणीण मज्झे तमुदाहु पन्ने ॥१५॥ अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता, अणुत्तरं झाणवरं झियाई। सुसुक्कसुकं अपगंडसुकं, संखिंदुएगंतवदातसुकं ॥ १६ ॥ यथा 'निषधों' गिरिवरो गिरीणामायतानां मध्ये जम्बूद्वीपे अन्येषु वा द्वीपेषु दैर्येण 'श्रेष्ठ' प्रधान तथा-वलयायतानां मध्ये रुचकः पर्वतोऽन्येभ्यो बलयायतखेन यथा प्रधानः, स हि रुचकद्वीपान्तर्वर्ती मानुषोत्तरपर्वत इव वृत्तायतैः १ मखाया अप.प्र.। २ वृत्तायतोऽसं• प्र.नचैतयुक्तं । Keeeeeee Punaturary.com ~306~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक , मूलं [१६], नियुक्ति: [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीमहाचीरस्तुत्य. प्रत सूत्रांक ||१६|| सूत्रकृताज शीलाकाचायीयवृचियुत ॥१४८॥ दीप अनुक्रम [३६७] सोययोजनानि परिक्षेपेणेति, तथा स भगवानपि तदुपमः यथा तावायतवृत्तताभ्यां श्रेष्ठौ एवं भगवानपि जगति-संसारे |भूतिप्रज्ञा-प्रभूतशानः प्रज्ञया श्रेष्ठ इत्यर्थः, तथा अपरमुनीनां मध्ये प्रकर्षेण जानातीति प्रज्ञः एवं तत्स्वरूपविदः 'उदाहु' उदाहृतवन्त उक्तवन्त इत्यर्थः ॥१५॥ किश्चान्यत्-नास्योत्तर:-प्रधानोऽन्यो धर्मो विद्यते इत्यनुत्तरः तमेवम्भूतं धर्म 'उत्' प्राबल्येन 'ईरयित्वा' कथयिता प्रकाश्य 'अनुत्तर' प्रधानं 'ध्यानवरं ध्यानश्रेष्ठ ध्यायति, तथाहि-उत्पन्नज्ञानो भगवान् योगनिरोधकाले सूक्ष्म काययोग निरुन्धन शुक्लध्यानस्य तृतीय भेदं सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाताख्यं तथा निरुद्धयोगश्चतुर्थ शुक्रध्यानभेदं न्युपर-18 तक्रियमनिषत्तारुयं ध्यायति, एतदेव दर्शयति-सुष्टु शुलवत्शुक्लं ध्यानं तथा अपगतं गण्डम्-अपद्रव्यं यस्य तदपगण्डं नि-18 दोषार्जुनसुवर्णवत् शुक्लं यदिवा-अपगण्डम् --उदकफेनं तत्तुल्यमिति भावः । तथा शलेन्दुवदेकान्तावदात-शुभ्र शुक्लं-शुक्लध्या-1 नोत्तरं भेदद्वयं ध्यायतीति ॥ १६ ॥ अपिच अणुत्तरग्गं परमं महेसी, असेसकम्मं स विसोहइत्ता। सिद्धिं गते साइमणंतपत्ते, नाणेण सीलेण य दंसणेण ॥ १७ ॥ रुक्खेसु णाते जह सामली वा, जस्सि रति वेययती सुवन्ना । वणेसु वा गंदणमाहु सेटू, नाणेण सीलेण य भूतिपन्ने ॥ १८ ॥ cceedecesecescceectaea ॥१४८॥ ~307~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम [३६९] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [ - ], मूलं [१८], निर्युक्ति: [८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः desii भगवान् शैलेsयवस्थापादित शुक्लध्यान चतुर्थभेदानन्तरं साधपर्यवसानां सिद्धिगतिं पञ्चम प्राप्तः, सिद्धिगतिमेव विशिनष्टि- अनुत्तरा चासो सर्वोत्तमवादय्या च लोकाग्रव्यवस्थितत्वादनुत्तराध्या तां 'परम' प्रधानां 'महर्षिः' असावत्यन्तोग्रतपोविशेषनिष्टतदेहखाद अशेषं कर्म-ज्ञानावरणादिकं 'विशोध्य' अपनीय च विशिष्टेन ज्ञानेन दर्शनेन शीलेन च क्षायिकेण सिद्विगतिं प्राप्त इति मीलनीयम् ॥ १७ ॥ पुनरपि दृष्टान्तद्वारेण भगवतः स्तुतिमाह - वृक्षेषु मध्ये यथा 'ज्ञातः' प्रसिद्धो देवकुरुव्यवस्थितः शाल्मलीवृक्षः, स च भवनपतिक्रीडास्थानं, 'यत्र' व्यवस्थिता अन्यतवागत्य 'सुपर्णा' भवनपतिविशेषा 'रर्ति' रमणक्रीडां 'वेदयन्ति' अनुभवन्ति, वनेषु च मध्ये यथा नन्दनं वनं देवानां क्रीडास्थानं प्रधानं एवं भगवानपि 'ज्ञानेन' केवला| रूयेन समस्तपदार्थाविर्भावकेन 'शीलेन' च चारित्रेण यथाख्यातेन 'श्रेष्ठ' प्रधान: 'भूतिप्रज्ञः' प्रवृद्धज्ञानो भगवानिति || ।। १८ ।। अपिच Educatan Internation थणियं व सहाण अणुत्तरे उ, चंदो व ताराण महाणुभावे । गंधेसु वा चंदणमाडु सेहूं, एवं मुणीणं अपडिन्नमाहु ॥ १९ ॥ जहा सयंभू उदहीण सेट्टे, नागेसु वा धरणिंदमाडु सेट्ठे । खोओदए वा रस वेजयंते, तवोवहाणे मुणिवेजयंते ॥ २० ॥ For Parts Only ~308~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक , मूलं [२०], नियुक्ति: [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकताएं श्रीमहा सूत्रांक चार्गीयत्तियुतं ||२०|| ॥१४९॥ दीप अनुक्रम [३७१] यथा शब्दानां मध्ये 'स्तनितं' मेघगर्जितं तद् 'अनुत्तरं प्रधान, तुशब्दो विशेषणार्थः समुच्चयार्थो वा, 'तारकाणां च नक्षत्राणां मध्ये यथा चन्द्रो महानुभावः सकलजननिवृत्तिकारिण्या कान्त्या मनोरमः श्रेष्ठः, 'गन्धेषु' इति गुणगुणिनोरमेदान्म-11 | तुब्लोपाद्वा गन्धवत्सु मध्ये यथा 'चन्दन' गोशीर्षकाख्यं मलयजं वा तज्ज्ञाः श्रेष्ठमाहुः, एवं 'मुनीना' महर्षीणां मध्ये भगवन्तं || नाव प्रतिज्ञा इहलोकपरलोकाशंसिनी विद्यते इत्यप्रतिज्ञस्तमेवम्भूतं श्रेष्ठमाहुरिति ॥ १९ ॥ अपिच-वयं भवन्तीति स्वयम्भुवो| देवाः ते तत्रांगत्य रमन्तीति स्वयम्भूरमणः तदेवम् 'उदधीनां समुद्राणां मध्ये यथा स्वयम्भूरमणः समुद्रः समस्तद्वीपसागरप-12 दवाः व तत्रागल येन्तवर्ती 'श्रेष्ठः' प्रधानः 'नागेषु च भवनपतिविशेषेषु मध्ये 'धरणेन्द्र' धरणं यथा श्रेष्ठमाहुः, तथा 'खोओदए' इति इक्षु-12 | रस इवोदकं यस्य स इक्षुरसोदकः स यथा रसमाश्रित्य 'वैजयन्तः' प्रधानः खगुणैरपरसमुद्राणां पताकेवोपरि व्यवस्थिता एवं 'तपउपधानेन' विशिष्टतपोविशेषेण मनुते जगतखिकालावस्थामिति 'मुनिः' भगवान् 'वैजयन्तः' प्रधानः, समस्तलोकस्य महातपसा वैजयन्तीवोपरि व्यवस्थित इति ॥ २०॥ हत्थीसु एरावणमाहु णाए, सीहो मिगाणं सलिलाण गंगा। R पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवो, निवाणवादीणिह णायपुत्ते ॥ २१ ॥ जोहेसु णाए जह वीससेणे, पुप्फेसु वा जह अरविंदमाहु। వారిని ॥१४॥ wreluctaram.org ~309~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक , मूलं [२२], नियुक्ति: [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप bestseepeseseseserecedeceae खत्तीण सेटे जह दंतवक्के, इसीण सेट्रे तह वद्धमाणे ॥ २२ ॥ 'हस्तिष' करिवरेषु मध्ये यथा ऐरावणं शक्रवाहनं 'ज्ञात' प्रसिद्ध दृष्टान्तभूतं वा प्रधानमाहुस्तज्ज्ञाः, 'मृगाणां च वा-18 पदानां मध्ये यथा 'सिंह' केसरी प्रधान तथा भरतक्षेत्रापेक्षया 'सलिलानां मध्ये यथा गङ्गासलिलं प्रधानभावमनुभवति, |'पक्षिष' मध्ये यथा गरुत्मान् वेणुदेवापरनामा प्राधान्येन व्यवस्थितः, एवं निर्वाणं-सिद्धिक्षेत्राख्यं कर्मच्युतिलक्षणं वा स्वरूप-18 तस्तदुपायप्राप्तिहेतुतो वा बदितुं शीलं येषां ते तथा तेषां मध्ये ज्ञाता:-क्षत्रियास्तेषां पुत्रः-अपत्यं ज्ञातपुत्रः-श्रीमन्महावीरवर्धमानखामी स प्रधान इति, यथावस्थितनिर्वाणार्थवादिखादित्यर्थः।। २१ ॥ अपिच-योधेषु मध्ये 'ज्ञातो विदितो दृष्टान्तभूतो वा विश्वा-हस्त्यश्वरथपदातिचतुरङ्गबलसमेता सेना यस्य स विश्वसेनः-चक्रवर्ती यथाऽसौ प्रधानः, पुष्पेषु च मध्ये यथा अरविन्द प्रधानमाहुः, तथा क्षतात् त्रायन्त इति क्षत्रियाः तेषां मध्ये दान्ता-उपशान्ता यस्य वाक्येनैव शत्रवः स दान्तवाक्या-चक्रवती | यथाऽसौ श्रेष्ठः । तदेवं बहून् दृष्टान्तान् प्रशस्तान् प्रदश्योधुना भगवन्तं दाष्टोन्तिकं खनामग्राहमाह तथा ऋषीणां मध्ये श्रीमान् वर्धमानखामी श्रेष्ठ इति ॥ २२ ॥ तथा दाणाण से, अभयप्पयाणं, सच्चेसु वा अणवजं वयंति। तवेसु वा उत्तम बंभचेरं, लोगुत्तमे समणे नायपुत्ते ॥ २३॥ Sacadream200102930radeep029292e अनुक्रम [३७३] १०व्यभिप्रायः प्रा SARERainintenatural Hrwasaram.org ~310~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [२४], नियुक्ति: [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: एee प्रत सूत्रांक सूत्रकृताई शीलाबाचायायचियुतं ||२४|| दीप अनुक्रम [३७५] शि६ श्रीमहाठिईण सेट्टा लवसत्तमा वा, सभा सुहम्मा व सभाण सेट्ठा । वीरस्तुत्य. निवाणसेटा जह सबधम्मा, ण णायपुत्ता परमत्थि नाणी ॥ २४ ॥ तथा खपरानुग्रहार्थमर्थिने दीयत इति दानमनेकधा, तेषां मध्ये जीवानां जीवितार्थिनां त्राणकारिवादभयप्रदानं श्रेष्ठ, तदुक्तम्-'दीयते म्रियमाणस्य, कोर्टि जीवितमेव वा । धनकोटिं न गृह्णीयात्, सर्वो जीवितुमिच्छति ॥ १॥" इति, गोपालाजनादीनां दृष्टान्तद्वारणार्थों बुद्धौ सुखेनारोहतीत्यतः अभयप्रदानप्राधान्यख्यापनार्थ कथानकमिदं-बसन्तपुरे नगरे अरिदमनो। नाम राजा, स च कदाचिच्चतुर्वधूसमेतो वातायनस्थः क्रीडायमानस्तिष्ठति, तेन कदाचिचौरो रक्तकणवीरकतमुण्डमालो रक्तपरिधानो रक्तचन्दनोपलिप्तश्च प्रहतवध्यडिण्डिमो राजमार्गेण नीयमानः सपत्नीकेन दृष्टः, दृष्ट्वा च ताभिः पृष्ट-किमनेनाकारीति, तासामेकेन राजपुरुषेणाऽऽवेदितं यथा-परद्रव्यापहारेण राजविरुद्धमिति, तत एकया राजा विज्ञप्तो यथा-पो भवता मम प्राय वरः प्रतिपन्नः सोऽधुना दीयतां येनाहमस्योपकरोमि किश्चित् , राज्ञापि प्रतिपन्न, ततस्तया स्नानादिपुरःसरमलद्वारेणालङ्कतो दीनारसहस्रन्ययेन पश्चविधान् शब्दादीन् विषयानेकमहः प्रापितः, पुनर्द्वितीययाऽपि तथैव द्वितीयमहो दीनारशतसहस्रव्ययेन र लालितः, ततस्तत्वीयया तृतीयमहो दीनारकोटिव्ययेन सत्कारितः, चतुझं तु राजानुमत्या मरणाद्रक्षितः अभयप्रदानेन, ततोऽ-18 ॥१५०॥ सावन्याभिहसिता नास्य खया किश्चिद्दत्तमिति, तदेवं तासां परस्परबहूपकारविषये विवादे राज्ञाऽसावेव चौरः समाहूय पृष्टो यथा केन तव पहपकृतमिति, तेनाध्यमाणि यथा-न मया मरणमहाभयभीतेन किश्चित् स्नानादिकं सुखं व्यज्ञायीति, अभयप्रदानाकणे-15|| ~311~ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक , मूलं [२४], नियुक्ति: [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [३७५] नेन पुनर्जन्मानमिवात्मानमवैमीति, अतः सर्वदानानामभयप्रदानं श्रेष्ठमिति स्थितम् । तथा सत्येषु च वाक्येषु यदू 'अनवधर्म [अपापं परपीडानुत्पादकं तत् श्रेष्ठं बदन्ति, न पुनः परपीडोत्पादकं सत्यं, सद्भ्यो हितं सत्यमितिकखा, तथा चोक्तम्-"लोकेऽपि । श्रूयते वादो, यथा सत्येन कौशिकः । पतितो वधयुक्तेन, नरके तीवेदने ॥१॥" अन्यच्च-"तहेव काणं काणति, पंडगं । पंडगति वा । वाहियं चावि रोगिचि, तेणं चोरोत्ति नो बदे ॥१॥" तपस्सु मध्ये यथैवोत्तमं नवविधब्रह्मगुप्त्युपेतं ब्रह्मचर्य प्रधानं भवति तथा सर्वलोकोत्तमरूपसम्पदा-सर्वातिशायिन्या शक्या क्षायिकज्ञानदर्शनाभ्यां शीलेन च 'ज्ञातपुत्रो' भगवान् । श्रमणः प्रधान इति ॥ २३ ॥ किश्च-स्थितिमतां मध्ये यथा 'लवसत्तमाः पश्चानुत्तरविमानवासिनो देवाः सर्वोत्कृष्टस्थितिवर्तिनः प्रधानाः, यदि किल तेषां सप्त लबा आयुष्कमभविष्यत्ततः सिद्धिगमनमभविष्यदित्यतो लवसत्तमास्तेऽभिधीयन्ते, 'सभानां च' पर्षदां च मध्ये यथा सौधर्माधिपपर्षच्छ्रेष्ठा बहुभिः क्रीडास्थानैरुपेतत्वात्तथा यथा सर्वेऽपि धर्मा 'निर्वाणश्रेष्ठाः' मोक्षप्र|धाना भवन्ति, कुप्रावचनिका अपि निर्वाणफलमेव स्वदर्शनं बुवते यतः, एवं 'ज्ञातपुत्रात्' वीरवर्धमानस्वामिनः सर्वज्ञात् सका-18 शात् 'परं' प्रधानं अन्यद्विज्ञानं नास्ति, सर्वथैव भगवानपरज्ञानिम्योऽधिकज्ञानो भवतीति भावः ॥ २४ ॥ किश्चान्यत् पुढोवमे धुणइ विगयगेही, न सपिणहिं कुवति आसुपन्ने । तरिउं समुदं व महाभवोघं, अभयंकरे वीर अर्णतचक्खू ॥ २५ ॥ ~3124 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [२६], नियुक्ति: [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 3 प्रत सूत्रांक ||२६|| दीप अनुक्रम [३७७] सूत्रकतार | ६ भीमहाकोहं च माणं च तहेव माय, लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा । चीरस्तुत्य शीलाङ्का पआणि वंता अरहा महेसी, ण कुबई पाव ण कारवेइ ॥ २६ ॥ चापीयवृत चियुतं स हि भगवान् यथा पृथिवी सकलाधारा वर्तते तथा सर्वसन्चानामभयप्रदानतः सदुपदेशदानाद्वा सच्चाधार इति, यदिवा-121 ॥१५॥ यथा पृथ्वी सर्वसहा एवं भगवान् परीषहोपसर्गान् सम्यक् सहत इति, तथा 'धुनाति' अपनयत्यष्टप्रकारं कमेंति शेषः, तथा 'विगता' प्रलीना सबाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुपु 'गृद्धि: मायमभिलापो यस स विगतगृद्धिा, तथा सन्निधानं समिधिः, सच द्रव्यसनिधिः धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदरूपः भावसनिधिस्तु माया क्रोधादयो वा सामान्येन कषायास्तमुभयरूपमपि सं-12 निधि न करोति भगवान् , तथा 'आशुप्रज्ञा' सर्वत्र सदोपयोगात् न छमस्थवन्मनसा पर्यालोच्य पदार्थपरिच्छिनि विधत्ते, स एवम्भूतः तरिना समुद्रमिवापारं 'महाभवौघं चतुर्गतिक संसारसागरं बहुव्यसनाकुलं सर्वोत्तमं निर्वाणमासादितवान्, पुनरपि तमेव विशिनष्टि--'अभयं प्राणिनां प्राणरक्षारूपं खतः परतश्च सदुपदेशदानात् करोतीत्यभयंका, तथाऽष्टप्रकार कमें विशेषे रयति-प्रेरयतीति वीरः, तथा 'अनन्तम्' अपर्यवसानं नित्यं ज्ञेयानन्तखाद्वाऽनन्तं चक्षुरिव चक्षु:-केवलज्ञानं यस्य स तथेति ॥१५॥ ISI॥ २५ ॥ किश्चाम्पत्–'निदानोच्छेदेन हि निदानिन उच्छेदो भवतीति न्यायात् संसारस्थितेश्च क्रोधादयः कषायाः कारणमत | एतान् अध्यात्मदोषांश्चतुरोऽपि क्रोधादीन् कषायान् 'चान्त्वा' परित्यज्य असौ भगवान् 'अर्हन् तीर्थकत जाता, तथा मह ~3134 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक , मूलं [२६], नियुक्ति: [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२६|| Sasasa9999eceases दीप शर्षिः, एवं परमार्थतो महर्षितं भवति यद्यध्यात्मदोषा न भवन्ति, नान्यथेति, स्था न स्वतः 'पापं सावद्यमनुष्ठानं करोति नाप्यन्यैः कारयतीति ॥ २६ ॥ किश्चान्यत् किरियाकिरियं वेणइयाणुवायं, अण्णाणियाणं पडियच्च ठाणं । से सबवायं इति वेयइत्ता, उवट्टिए संजमदीहरायं ॥ २७ ॥ से वारिया इत्थी सराइभत्तं, उवहाणवं दुक्खखयट्टयाए । लोगं विदित्ता आरं परं च, सवं पभू वारिय सवारं ॥ २८॥ सोचा य धम्मं अरहंतभासियं, समाहितं अट्ठपदोवसुद्धं । तं सद्दहाणा य जणा अणाऊ, इंदा व देवाहिव आगमिस्सति ॥ २९॥ त्तिबेमि (गाथाग्रं० ३९०) इति श्री वीरत्युतीनाम छ?मज्झयणं समत्तं ॥ तथा स भगवान् क्रियावादिनामक्रियावादिना वैनयिकानामज्ञानिकानां च 'स्थान' पक्षमभ्युपगतमित्यर्थः, यदिवा-स्थीयतेऽसिन्निति स्थानं-दुर्गतिगमनादिकं 'प्रतीत्य परिच्छिद्य सम्यगवबुध्येत्यर्थः, एतेषां च स्वरूपमुत्तरत्र न्यक्षेण व्याख्याखा अनुक्रम [३७७] Petatoesesesesekseeeee ~314~ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक , मूलं [२९], नियुक्ति : [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक शीलाका ||२९|| दीप सूत्रकृताङ्गं म:, लेशतस्त्विदं-क्रियैव परलोकसाधनायालमित्येवं वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः, तेषां हि दीक्षात एव क्रियारूपाया श्रीमहा 18 मोक्ष इत्येवमभ्युपगमः, अक्रियावादिनस्तु ज्ञानवादिनः, तेषां हि यथावस्थितबस्तुपरिज्ञानादेव मोक्षः, तथा चोक्तम्-"पञ्चविं- वीरस्तुत्य. चार्यांव- | शतितचझो, यत्र तत्राश्रमे रतः । शिखी मुण्डी जटी वापि, सिद्धते नात्र संशयः ॥१॥" तथा विनयादेव मोक्ष इत्येवं गोचियुतं शालकमतानुसारिणो विनयेन चरन्तीति वैनयिका व्यवस्थिताः, तथाज्ञानमेवैहिकामुष्मिकायालमित्येवमज्ञानिका व्यवस्थिताः, इत्येवंरूपं तेषामभ्युपगमं परिच्छिद्य खतः सम्यगवगम्य सम्यगवबोधेन, तथा स एव वीरवर्धमानखामी सर्वमन्यमपि बौद्धादिकं| ॥१५२॥ यं कञ्चन वादमपरान् सचान् यथावस्थिततचोपदेशेन 'वेदयित्वा' परिज्ञाप्योपस्थितः सम्यगुत्थानेन संयमे व्यवस्थितो न तु यथा अन्ये, तदुक्तम्-"यथा परेषां कथका विदग्धाः, शास्त्राणि कृखा लघुतामुपेताः । शिष्यैरनुज्ञामलिनोपचारैर्वकृलदोषास्वयि ते न सन्ति ॥१॥" इति 'दीर्घरात्रम्' इति यावज्जीवं संयमोत्थानेनोत्थित इति ॥ २७ ॥ अपिच-स भगवान् वारयित्वा-प्रतिपिध्य किं तदित्याह-'स्त्रियम्' इति स्त्रीपरिभोगं मैथुनमित्यर्थः, सह रात्रिभक्तेन वर्तत इति सरात्रिभक्तं, उपल-IN धणार्थखाद्यान्पदपि प्राणातिपातनिषेधादिकं द्रष्टव्यं, तथा उपधान-तपस्तद्विद्यते यस्यासौ उपधानवान-तपोनिष्टतदेहा, किम-12 थेमिति दर्शयति-दुःखयतीति दुःखम्-अष्टप्रकार कर्म तस्य क्षयः-अपगमस्तदर्थ, किन-लोकं विदिला 'आरम्' इहलोकाख्यं 'परं' परलोकारख्यं यदिवा-आर--मनुष्यलोक पारमिति-नारकादिकं स्वरूपतस्तत्प्राप्तिहेतुतश्च विदिखा सर्वमेतत् ॥१५२॥ 'प्रभुः' भगवान् 'सर्ववारं' यहशो निवारितवान् , एतदुक्तं भवति-प्राणातिपातनिषेधादिकं खतोऽनुष्ठाय परांध स्थापितवान्, न | R! हि खतोस्थितः परांच स्थापयितुमलमित्यर्थः, तदुक्तम्-"ब्रुवाणोऽपि न्याय्यं खवचनविरुद्धं व्यवहरन् , परान्नाले कबिद्दमयितु अनुक्रम [३८०] For P OW ~315 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक , मूलं [२९], नियुक्ति: [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२९|| | मदान्तः खयमिति । भवानिश्चित्यैवं मनसि जगदाधाय सकलं, स्वमात्मानं तावद्दमयितुमदान्तं व्यवसितः ॥१॥” इति, तथा-३ "तित्यरो चउनाणी सुरमहिओ सिज्झियवयधूयंमि । अणिगृहियबलविरओ सबत्थामेसु उञ्जमइ ॥१॥ इत्यादि" ॥२८॥ साम्प्रतं सुधर्मखामी तीर्थकरगुणानाख्याय खशिष्यानाह-'सोचा य' इत्यादि, थुता च दुर्गतिधारणाद्धर्म-श्रुतचारित्राख्यमईनिर्भाषितं---सम्यगाख्यातमर्थपदानि-युक्तयो हेतयो वा तैरुपशुद्धम् अवदात सयुक्तिकं सद्धेतुकं वा यदिवा अर्थ:-अभिधेयैः। || पदैव वाचकैः शब्दैः उप-सामीप्यन शुद्ध-निर्दोष, तमेवम्भूतमईद्भिर्भाषितं धर्म श्रदधानाः, तथाऽनुतिष्ठन्तो 'जना' लोका | 'अनायुषः' अपगतायुःकर्माणः सन्तः सिद्धाः, सायुषश्चेन्द्राया देवाधिपा आगमिष्यन्तीति । इतिशब्दः परिसमाप्तौ, अधीमीति पूर्ववत् ॥ २९ ॥ इति वीरस्तवाख्यं षष्ठमध्ययनं परिसमाप्तमिति ॥ seseeeeeeeeeeeeeeee दीप sersesentsetestseeseakcesents अनुक्रम [३८०] | तीर्थरबानी मुरमाहितः सेधयितन्ये धुने, अनिमूहितपकवीथः सर्वस्थानोद्यच्छति ॥१॥ अत्र षष्ठं अध्ययनं परिसमाप्तं ~316~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [२९...], नियुक्ति: [८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] ७कुशीलपरिभाषा. दीप सूत्रकृताङ्ग अथ सप्तमं अध्ययनं प्रारभ्यते ॥ शीलासाचायत्तियुत उक्तं षष्ठमध्ययनं, साम्प्रतं सप्तममारभ्यते, अस्प चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने महावीरस्य गुणोत्कीर्चनतः सुशीलप॥१५॥ रिभाषा कृता, तदनन्तरं तद्विपर्यस्ताः कुशीला: परिभाष्यन्ते, तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चतार्यनुयोगद्वाराणि व्यावर्णनीयानि, तत्राप्युपक्रमान्तर्गतोऽर्धाधिकारोऽयं, तद्यथा-कुशीला:-परतीर्थिकाः पार्श्वस्थादयो वा खयुथ्या अशीलाच गृहस्थाः परि-समन्तात् भाष्यन्ते-प्रतिपाद्यन्ते तदनुष्ठानतस्तद्विपाकदुर्गतिगमनतव निरूप्यन्त इति तथा तद्विपर्ययेण कचित्सुशीलाक्षेति, निक्षेपविधा-ओधनामसूत्रालापकभेदात्, तत्रौषनिष्पन्ननिक्षेपेऽध्ययन,नामनिष्पन्ने कुशीलपरिभाषेति, एतदधिकृत्य नियुक्तिकृदाह सीले चउक दवे पाउरणाभरणभोयणादीसु । भावे उ ओहसीलं अभिक्खमासेवणा चेव ।। ८६ ॥ 'शीले' शीलविषये निक्षेपे क्रियमाणे 'चतुष्क' मिति नामादिश्चतुर्धा निक्षेपः, तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णखादनादत्य 'द्रव्यम्' का इति द्रव्यशीलं प्रावरणाभरणभोजनादिषु द्रष्टव्यं, अस्थायमर्थः-यो हि फलनिरपेक्षस्तत्स्वभावादेव क्रियासु प्रवतेते स तच्छीला, तत्रेह प्रावरणशील इति प्रावरणप्रयोजनाभावेऽपि ताच्छील्यानित्यं प्रावरणस्वभावः प्रावरणे वा दत्तावधानः, एवमाभरणमोजना|| दिष्वपि द्रष्टव्यमिति, यो वा यस्य द्रव्यस्य चेतनाचेतनादेः खभावस्तद् द्रव्यशीलमित्युच्यते, भावशीलं तु द्विधा-ओषशीलमाIS भीक्ष्ण्यसेवनाशीलं चेति । तत्रौपशीलं व्याचिख्यासुराह अनुक्रम [३८०] रसseeeeeeeeeeeaser eeseceaseesesersers ||१५३॥ अत्र सप्तमं अध्ययनं 'कुशील परिभाषा' आरब्धं ~317~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [३८०] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], मूलं [२९...], निर्युक्तिः [८७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ओहे सीलं विरती विरघाविरई य अविरती असीलं । धम्मे णाणतवादी अपसत्थ अहम्मकोबादी ॥ ८७ ॥ तत्रौषः - सामान्यं सामान्येन सावद्ययोगविरतो विरताविरतो वा शीलवान् भण्यते, तद्विपर्यस्तोऽशीलवानिति, आभीक्ष्ण्यसेवायां तु-अनवरतसेवनायां तु शीलमिदं तद्यथा - 'धर्मे' धर्मविषये प्रशस्तं शीलं यदुतानवरतापूर्वज्ञानार्जनं विशिष्टतपःकरणं वा, आदिग्रहणादनवरतभिग्रहग्रहणादिकं परिगृद्यते, अप्रशस्त भावशीलं लधर्मप्रवृत्तिर्वाह्मा आन्तरा तु क्रोधादिषु प्रवृत्तिः, आदिग्रहणात् शेषकषायाश्रौर्याभ्याख्यान कलहादयः परिगृह्यन्त इति । साम्प्रतं कुशीलपरिभाषाख्यस्याध्ययनस्यान्वर्थतां दर्शयितुमाह-परिभासिया कुसीला य एत्थ जावंति अविरता केई । सुति पसंसा सुद्धो कुत्ति दुर्गुछा अपरिस्रुद्धो ॥ ८८ ॥ परि समन्तात् भाषिताः - प्रतिपादिताः 'कुशीलाः कुत्सितशीलाः परतीर्थिकाः पार्श्वस्वादयश्च चशब्दात् यावन्तः केच नाविरता अस्मिन्नित्यत इदमध्ययनं कुशीलपरिभाषेत्युच्यते किमिति कुशीला अशुद्धा गृझन्ते इत्याह-सुरित्ययं निपातः प्रशं सायां शुद्धविषये वर्तते, तथथा - सौराज्यमित्यादि, तथा कुरित्ययमपि निपातो जुगुप्सायामशुद्धविषये वर्तते, कुतीर्थ कुग्राम | इत्यादि । यदि कुत्सितशीलाः कुशीलाः, कथं तर्हि ? परतीर्थिकाः पार्श्वस्थादयश्च तथाविधा भवन्तीत्याहअफासुयपडिसेविय णामं भुज्जो प सीलवादी य । फालुं वयंति सीलं अफासुया मो अझुंजता ॥ ८९ ॥ अस्त्ययं शीलशब्दस्तत्स्वाभाव्ये, तथाहि यः फलनिरपेक्षः क्रियाखाभरणादिका प्रवर्तते स चेह द्रव्यशीलतेन प्रदर्शितः, अस्त्युपशमप्रधाने चारित्रे, तथाहि तत्प्रधानः शीलवानयं तपस्वीति, तद्विपर्ययेण दुःशील इति, स चेह भावशीलग्रहणेनोपात्त | इति, इह च यतीनां ध्यानाध्ययनादिकं मुक्ला धर्माधारशरीरतत्पालनाहारव्यापारं च सुक्खा नापरः कथिव्यापारोऽस्तीत्यतस्त For Parts Only ‘ओघशीलं' शब्दस्य व्याख्या, 'कुशीलपरिभाषा' अध्ययनस्य अन्वर्था ~318~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [१], नियुक्ति: [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ७ कुशीलपरिभाषा. सूत्राक ||१|| त्तियुत दीप अनुक्रम [३८१] सूत्रकृताङ्गं दाश्रयणेनैव सुशीलख दुःशीलवं च चिन्त्यते, तत्र कुतीर्थिक पार्श्वस्यादि| अग्रासुकं-सचित्तं प्रतिसे वितुं शीलमस्य स भवत्य- शीलाङ्का- प्रासुकप्रतिसेवी नामशब्दः सम्भावनायां 'भूयः पुनर्धाच्छिीलवन्तमात्मानं वदितुं शीलं यस्य स शीलवादी, किमित्येवं ?-यतः त: चाीय- 'प्रासुकम्' अचेतनं शीलं बदन्ति, इदमुक्तं भवति-य: प्रासुकमुद्गमादिदोषरहितमाहारं भुत तं शीलवन्तं वदन्ति तज्ज्ञाः , तथा ॥७॥ हि-यतयो प्रासुकमुद्गमादिदोषदुष्टमेवाहारमभुजानाः शीलबन्तो भण्यन्ते, नेतर इति खितं, मोशब्दस निपातनावधारणार्थ॥१५॥ खादिति ।। अप्रासुकभोजिलेन कुशीलख प्रतिपादयितुं दृष्टान्तमाह जह णाम गोयमा चंडीदेवगा वारिभद्दगा चेव । जे अग्गिहोत्सवादी जलसोय जे य इच्छंति ॥९॥ यथेति दृष्टान्तोपक्षेपार्थ, नामशब्दो वाक्यालङ्कारे, 'गौतमा' इति गोब्रतिका गृहीतशिक्षं लघुकायं वृषभमुपादाय धान्यापर्थे । प्रतिगृहमटन्ति, तथा 'चंडीदेवगा' इति चक्रधरप्रायाः एवं 'वारिभद्रका' अन्भधाः शैवलाशिनो नित्यं स्नानपादादिधावनाभिरता वा तथा ये चान्ये 'अग्निहोत्रवादिनः' अग्निहोत्रादेव स्वर्गगमनमिच्छन्ति ये चान्ये जलशौचमिच्छन्ति भागवतादयस्ते सर्वे:प्यप्रासुकाहारमोजिलात् कुशीला इति, चशब्दात ये च खयथ्याः पार्श्वस्थादय उद्गमायशुद्धमाहारं भुञ्जते तेऽपि कुशीला इति । | गतो नामनिष्पनो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पने निक्षेपे अस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीय, तचेदं पुढवी य आऊ अगणी य वाऊ, तण रुक्ष बीया य तसा य पाणा । जे अंडया जे य जराउ पाणा, संसेयया जे रसयाभिहाणा ॥१॥ ॥१५४॥ कुशीलत्व प्रतिपादने दृष्टांत:, मूल सूत्रस्य आरम्भ: ~319~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-, मूलं [२], नियुक्ति: [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम [३८२] 802900609009999assa एयाई कायाइं पवेदिताई, एतेसु जाणे पडिलेह सायं । एतेण काएण य आयदंडे, एतेसु या विप्परियासुर्विति ॥२॥ 'पृथिवी पृथिवीकायिकाः सत्त्वाः चकारः खगतभेदसंसूचनार्थः, स चायं भेदः-पृथिवीकायिकाः सूक्ष्मा बादराश्च, ते |च प्रत्येकं पर्याप्तकापर्याप्तकभेदेन द्विधा, एवमएकायिका अपि तथाऽग्निकायिका वायुकायिकाश्च द्रष्टव्याः, वनस्पतिकायिकान् भेदेन दर्शयति-तृणानि' कुशादीनि 'वृक्षाश्च' अश्वत्थादयो 'बीजानि' शाल्यादीनि एवं वल्लीगुल्मादयोऽपि वनस्पतिभेदा द्रष्टच्याः, त्रस्यन्तीति 'त्रसा' द्वीन्द्रियादयः 'प्राणा' प्राणिनः ये चाण्डाजाता अण्डजाः-शकुनिसरीमपादयः 'ये च जरायुजा जम्बालवेष्टिताः समुत्पद्यन्ते, ते च गोमहिष्यजाविकमनुष्यादयः, तथा संखेदाजाताः संखेदजा यूकामत्कुणकुम्यादयः 'ये च रसजाभिधाना' दधिसौवीरकादिषु रूतपक्ष्मसनिभा इति ॥१॥ नानाभेदभिन्न जीवसंघात प्रदाधुना तदुपधाते दोषं प्रद शयितुमाह-एते' पृथिव्यादयः 'काया' जीवनिकाया भगवद्भिः 'प्रवेदिताः कथिताः, छान्दसखानपुंसकलिङ्गता, 'एतेषु च | पूर्व प्रतिपादितेषु पृथिवीकायादिषु प्राणिषु 'सातं सुखं जानीहि, एतदुक्तं भवति-सर्वेऽपि सत्त्वाः सातैषिणो दुःखद्विषवेति शाखा 'प्रत्युपेक्षख' कुशाग्रीयया बुद्या पर्यालोचयेति, यथैभिः कायैः समारभ्यमाणैः पीञ्चमानैरात्मा दण्ड्यते, एतत्समारम्भादात्मदपडो भवतीत्यर्थः, अथवैभिरेव कायैर्ये 'आयतदण्डा' दीर्घदण्डाः, एतदुक्तं भवति-एतान् कायान् ये दीर्घकालं दण्डयन्तिपीडयन्तीति, तेषां यद्भवति तदर्शयति-ते एतेष्वेव-पृथिव्यादिकायेषु विविधम् अनेकप्रकारं परि-समन्ताद् आशु-क्षिप्रमुप toescotceaeoeseakcesese 929 एन SAREauratonintamarnama ~320 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||R|| दीप अनुक्रम [३८२] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], मूलं [२], निर्युक्तिः [९०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र - [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चार्यांयत्र सियुतं ।। १५५।। सामीप्येन यान्ति व्रजन्ति तेष्वेव पृथिव्यादिकायेषु विविधमनेकप्रकारं भूयो भूयः समुत्पद्यन्त इत्यर्थः यदिवा -- विपर्यासोव्यत्ययः, सुखार्थभिः कायसमारम्भः क्रियते तत्समारम्भेण च दुःखमेवावाप्यते न सुखमिति, यदिवा कुतीर्थिका मोक्षार्थमेतैः काथैर्या क्रियां कुर्वन्ति तया संसार एव भवतीति ॥ २ ॥ यथा चासावायतदण्डो मोक्षार्थी तान् कायान् समारभ्य तद्विपर्ययात् संसारमाप्नोति तथा दर्शयति जाईपहं अणुपरिमाणे, तसथावरेहिं विणिघायमेति । से जाति जातिं बहुकूरकम्मे, जं कुबती मिज्जति तेण बाले ॥ ३ ॥ अस्सि च लोए अदुवा परत्था, सयग्गसो वा तह अन्नहा वा । संसारमावन्न परं परं ते, बंधंति वेदंति य दुन्नियाणि ॥ ४ ॥ जातीनाम् एकेन्द्रियादीनां पन्था जातिपथः, यदिवा-जातिः - उत्पत्तिर्वधो-मरणं जातिश्च वधथ जातिवधं तद् 'अनुपरिवर्तमानः' एकेन्द्रियादिषु पर्यटन् जन्मजरामरणानि वा बहुशोऽनुभवन् 'बसेषु' तेजोवायुद्धीन्द्रियादिषु 'स्थावरेषु' च पृथिष्यम्बुवनस्पतिषु समुत्पन्नः सन् कायदण्डविपाकजेन कर्मणा बहुशो 'विनिघातं' विनाशमेति-अवाप्नोति 'स' आयतदण्डोऽसुमान् 'जातिं जातिम्' उत्पत्तिमुत्पत्तिमवाप्य बहूनि क्रूराणि – दारुणान्यनुष्ठानानि यस्य स भवति बहु क्रूरकर्मा, स एवम्भूतो निर्वि वेकः सदसद्विवेकशून्यखात् बाल इव बालो यस्यामेकेन्द्रियादिकायां जातौ यत्प्राण्युपमर्दकारि कर्म कुरुते स तेनैव कर्मणा 'मी For Parts Only ~321~ ७ कुशीलपरिभाषा. ।। १५५॥ war Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [३८४] । यते म्रियते पूर्यते यदिवा 'मी हिंसायाँ मीयते हिंस्यते अथवा-बहुक्रूरकर्मेति चौरोज्यं पारदारिक इति वा इत्येवं तेनैव 11 कर्मणा मीयते-परिच्छिद्यत इति ॥३॥॥क पुनरसी तैः कर्मभिर्मीयते इति दर्शयति-यान्याशुकारीणि कर्माणि तान्यसिनेव || जन्मनि विपार्फ ददति, अथवा परमिन् जन्मनि नरकादौ तस्य कर्म विपाकं ददति, एकमिन्नेव जन्मनि विपाक तीनं ददति | 'शतायशो वेति बहुषु जन्मसु, येनैव प्रकारेण तदशुभमाचरन्ति तथेवोदीयेते तथा-'अन्यथा वेति, इदमुक्तं भवतिकिञ्चित्कर्म तद्भव एव विपाकं ददाति किञ्चिच्च जन्मान्तरे, यथा-मृगापुत्रस दुःखविपाकाख्ये विपाकश्रुताङ्गश्रुतस्कन्धे | कथितमिति, दीर्घकालस्थितिक खपरजन्मान्तरितं वेद्यते, येन प्रकारेण सकृत्तथैवानेकशोवा, यदिवाज्येन प्रकारेण सकृत्सहस्रशो|६| वा शिरश्छेदादिकं हस्तपादच्छेदादिकं चानुभूयत इति, तदेवं ते कुशीला आयतदण्डाश्चतुर्गतिकसंसारमापना अरहट्टघटी-18 यत्रन्यायेन संसारं पर्यटन्तः परं परं प्रकृष्टं प्रकृष्टं दुःखमनुभवन्ति, जन्मान्तरकृतं कर्मानुभवन्तबैकमार्तध्यानोपहता अपरं । बन्नन्ति वेदयन्ति च, दुष्ट नीतानि दुर्नीतानि-दुष्कृतानि, न हि स्वकृतस्य कर्मणो विनाशोऽस्तीतिभावा, तदुक्तम्-"मा होहि रे विसनो जीव ! तुम विमणदुम्मणो दीणो । णहु चितिएण फिटइ तं दुक्खं जं पुरा रइयं ॥१॥ जेइ पविससि पायालं अडविं व दरिं गुहं समुदं वा । पुवकयाउ न चुकसि अप्पाणं घायसे जइचि ॥२॥"॥४॥ एवं तावदोषतः कुशीलाः प्रतिपादिताः, तदधुना पापण्डिकानधिकृत्याह-- मा भव रे विषण्णो जीप ! ख विमना दुर्मना दीनः । नैव चिन्तितेन स्फेटते तदुःखं यत्तुरा रचितं ॥१॥२ यदि प्रविधासि पातार्क भटपी वा दरी गुहा | समुद्रं वा । पूर्वताव प्रश्यसि आत्मानं पातयसि यद्यपि ॥१॥ 9090939392909890098292 hoececeaeoesceceneseesee ~3224 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-, मूलं [५], नियुक्ति: [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्राक ||५|| दीप अनुक्रम [३८५] जे मायरं वा पियरं च हिच्चा, समणवए अगणिं समारभिजा। 18|७ कुशीलसूत्रकृताङ्गं परिभाषा. शीलाङ्का अहाहु से लोए कुसीलधम्मे, भूताई जे हिंसति आयसाते ॥५॥ चायायचियुतं उजालओ पाण निवातएज्जा, निवावओ अगणि निवायवेजा। तम्हा उ मेहावि समिक्ख धम्म, ण पंडिए अगणि समारभिजा ॥६॥ ॥१५६॥ 'ये' केचनाविदितपरमार्था धर्मार्थमुत्थिता मातरं पितरं च त्यक्ता, मातापित्रोर्दुस्त्यजखात् तदुपादानमन्यथा प्रात्पुत्रादिke कमपि त्यक्त्वेति द्रष्टव्यं, श्रमणव्रते किल वयं समुपस्थिता इत्येवमभ्युपगम्याग्निकार्य समारभन्ते, पचनपाचनादिप्रकारेण कृतकारि| तानुमत्यौद्देशिकादिपरिभोगाच्चानिकायसमारम्भं कुर्युरित्यर्थः, अथेति वाक्योपन्यासार्थः, 'आहुरिति तीर्थकुद्गणधरादय एवमुक्तवन्तः यथा सोऽयं पापण्डिको लोको गृहस्थलोको वाग्निकायसमारम्भात कुशील:-कुत्सितशीलो धर्मो यस्य स कुशीलधर्मा, अयं किम्भूत इति दर्शयति-अभूवन् भवन्ति भविष्यन्तीति भूतानि-प्राणिनस्तान्यात्मसुखार्थ 'हिनस्ति व्यापादयति, तथाजाहि-पश्चाग्नितपसा निष्टतदेहास्तथाऽग्निहोत्रादिकया च क्रियया पापण्डिकाः खर्गावाप्तिमिच्छन्तीति, तथा लोकिकाः पचनपाचना| दिप्रकारेणानिकार्य समारभमाणाः सुखमभिलषन्तीति ॥ ५॥ अनिकायसमारम्भे च यथा प्राणातिपातो भवति तथा दर्शयितु-18| ॥१५६॥ | माह-तपनतापनप्रकाशादिहेतुं काष्ठादिसमारम्भेण योऽग्निकार्य समारभते सोऽग्निकायमपरांच पृथिव्यायाधितान् स्थावरांनसांश्च प्राणिनो निपातयेत् , त्रिभ्यो वा मनोवाकायेभ्य आयुषलेन्द्रियेभ्यो वा पातयेभिपातयेत् (त्रिपातयेत् ), तथामिकायमुदकादिना ~3234 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [६], नियुक्ति: [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||६|| दीप अनुक्रम [३८६] 'निर्वापयन्' विध्यापर्यस्तदाश्रितानन्यांच प्राणिनो निपातयेत्रिपातयेद्वा तत्रोचालकनिर्वापकयोर्योऽग्निकायमुज्ज्वलयति स बहू-18 नामन्यकायानां समारम्भकः, तथा चागमः-"दो भंते ! पुरिसा अनमन्त्रेण सद्धि अगणिकार्य समारभति, तत्थ णं एगे पु-18 | रिसे अगणिकायं उजालेह एगेणं पुरिसे अगणिकार्य निबवेइ, वेसि भंते! पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्मतराए कयरे वा पुरिसे |8| अप्पकम्मतराए , गोयमा ! तत्थ गंजे से पुरिसे अगणिकार्य उज्जालेह से णं पुरिसे बहुतरागं पुढविकार्य समारभति, एवं Mआउकार्य वाउकार्य वणस्सइकार्य तसकार्य अप्पतरागं अगणिकार्य समारभइ, तत्थ पंजे से पुरिसे अगणिकायं निवावेइ से गं & पुरिसे अप्पतराग पुढविकार्य समारभइ जाच अप्पतरागं तसकायं समारभइ बहुतरागं अगणिकार्य समारभइ, से एतेणं अटेणं 3 गोयमा! एवं चुचई" || अपि चोक्तम्-"भूयाण एसमाषाओ, हावाहो ण संसओ" इत्यादि । यस्मादेवं तस्मात् 'मेधावी' सदसद्विवेकः सश्रुविकः समीक्ष्य धर्म पापाड्डीनः पण्डितो नाग्निकार्य समारभते, स एव च परमार्थतः पण्डितो योनिकायसमारम्भ-18 कताव पापाभिवर्तत इति ॥ ६॥ कथमनिकायसमारम्भेणापरप्राणिवधो भवतीत्याशवाह पुढवीवि जीवा आऊवि जीवा, पाणा य संपाइम संपयंति । संसेयया कटुसमस्सिया य, एते दहे अगणि समारभंते ॥ ७॥ हरियाणि भूताणि विलंवगाणि, आहार देहा य पुढो सियाई। १ भूतानामेष आधातो हम्यवाहो न संशयः ॥ ~3244 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकता प्रत सूत्रांक दीप जे छिंदती आयसुहं पडुच्च, पागन्भि पाणे बहुणं तिवाती ॥ ८॥जातिं च बुद्धिं च विणास 1कुशीलशीलाङ्का परिभाषा. चार्यायवृ यंते, बीयाइ अस्संजय आयदंडे । अहाहु से लोएँ अणजधम्मे, बीयाइ जे हिंसति आयतियुतं साते ॥९॥ गब्भाइ मिजति बुयाबुयाणा, णरा परे पंचसिहा कुमारा । जुवाणगा मज्झिम थेरगा य, (पाठांतरे पोरुसा य) चयंति ते आउखए पलीणा ॥१०॥ ॥१५७|| न केवलं पृथिव्याश्रिता द्वीन्द्रियादयो जीवा यापि च पृथ्वी-मल्लक्षणा असावपि जीवाः, तथा आपश्च-द्रवलक्षणा जीवास्तदाधिताच प्राणाः 'सम्पातिमाः शलभादयस्तत्र सम्पतन्ति, तथा 'संखेदजाः करीषादिविन्धनेषु पुणपिपीलिकाकम्यादयः | काष्ठाचाधिताच ये केचन 'एतान्' स्थावरजङ्गमान प्राणिनः स दहेद् योऽग्निकार्य समारभेत, ततोऽनिकायसमारम्भो महादोषा-18 | येति ॥ ७॥ एवं तावदनिकायसमारम्भकास्तापसाः तथा पाकादनिवृत्ताः शाक्यादयश्चापदिष्टाः, साम्प्रतं ते चान्ये वनस्पतिसमारम्भादनिवृत्ताः परामृश्यन्ते इत्याह-'हरितानि' दूर्वाधेरादीन्येतान्यप्याहारादेवद्धिदर्शनाव 'भूतानि' जीवाः तथा विल म्बकानीति' जीवाकार यान्ति विलम्बन्ति-धारयन्ति, तथाहि-कललार्बुदमांसपेशीगर्मप्रसवबालकुमारयुवमध्यमस्थविराव- | 18॥१५७॥ 18| स्थातो मनुष्यो भवति, एवं हरितान्यपि शाल्यादीनि जातान्यभिनवानि संजातरसानि यौवनवन्ति परिपकानि जीष्णोनि परिशु काणि मृतानि तथा वृक्षा अप्यकुरावस्थायां जाता इत्युपदिश्यन्ते मूलस्कन्धशाखाप्रशाखादिभिर्विशेषैः परिवर्धमाना पुवानः seendeeacade8092008 अनुक्रम [३८८] SHREILLEGunintentiational ~325~ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक , मूलं [१०], नियुक्ति : [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१०|| पोता इत्युपदिश्यन्त इत्यादि शेषास्वप्यवस्थाखायोज्यं, तदेवं हरितादीन्यपि जीवाकारं विलम्बयन्ति, तत एतानि मूलस्कन्धशा18 खापत्रपुष्पादिषु स्थानेषु 'पृथक प्रत्येकं 'श्रितानि व्यवस्थितानि, न तु मूलादिषु सर्वेष्वपि समुदितेषु एक एव जीवः, एतानि च भूतानि सङ्ख्येयासक्येयानन्तभेदमिन्नानि वनस्पतिकायाधितान्याहारार्थ देहोपचयार्थ देहक्षतसंरोहणार्थ वाऽऽत्मसुखं 'प्रतीत्व आश्रित्य यच्छिनत्ति स 'प्रागल्भ्यात् धाोवष्टम्भाबहूनां प्राणिनामतिपाती भवति, तदतिपाताच निरनुकोशतया न धर्मो ना-1 प्यात्मसुखमित्युक्तं भवति ।। ८॥ किञ्च-'जातिम्' उत्पचि तथा अङ्गुरपत्रमूलस्कन्धशाखाप्रशाखाभेदेन वृद्धिं च विनाशयन् । बीजानि च तत्फलानि विनाशयन् हरितानि छिनचीति, 'असंयतः' गृहस्थः प्रबजितो वा तत्कर्मकारी गृहस्थ एव, सच हरितच्छेदविधाय्यात्मानं दण्डयतीत्यात्मदण्डः, स हि परमार्थतः परोपघातेनात्मानमेवोपहन्ति, अथशब्दो वाक्यालकारे |'आहुः' एवमुक्तवन्तः, किमुक्तवन्त इति दर्शयति-यो हरितादिच्छेदको निरनुक्रोशः 'स' अस्मिन् लोके 'अनार्यधर्मा' क्रूरकर्मकारी भवतीत्यर्थः, स च क एवम्भूतो यो धर्मापदेशेनात्मसुखार्थ वा बीजानि अस्य चोपलक्षणार्थलात् वनस्पतिकार्य | हिनस्ति स पापण्डिकलोकोऽन्यो वाऽनार्यधर्मा भवतीति सम्बन्धः ॥९॥ साम्प्रतं हरितच्छेदकर्मविपाकमाह-इह वनस्पतिकायो पमईकाः बहुषु जन्मसु गर्भादिकास्ववस्थासु कललाव॒दमांसपेशीरूपासु नियन्ते, तथा 'जुवन्तोऽब्रुवन्तश्च व्यक्तवाचोऽव्यक्तवा| चश्च तथा परे नराः पश्चशिखाः कुमाराः सन्तो नियन्ते, तथा युवानो मध्यमवयसः स्थविराश्च कचित्पाठो 'मज्झिमपोरुसा यति तत्र 'मध्यमा' मध्यमवयसः 'पोरुसा यति पुरुषाणां चरमावस्था प्राप्ता अत्यन्तवृद्धा एवेतियावत् , तदेवं सर्वा adaSasacsceceas 9999920s दीप अनुक्रम [३९०] eases seoRARAaer minatana A asurary.com ~326~ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१०॥ दीप अनुक्रम [३९०] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [ - ], मूलं [१०], निर्युक्ति: [९०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र - [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीळाङ्का चाय चियुतं ।। १५८।। स्वप्यवस्थासु बीजादीनामुपमर्द्दकाः स्वायुषः क्षये प्रलीनाः सन्तो देहं त्यजन्तीति, एवमपरस्थावरजङ्गमोपमर्द कारिणामप्यनियतायुकलमा योजनीयम् ॥ १० ॥ किञ्चान्यत् संबुझहा जंतवो! माणुसत्तं, दहुं भयं बालिसेणं अलंभो । एगंतदुक्खे जरिए व लोए, सकम्मुणा विपरियासु ॥ ११ ॥ इहेग मूढा पवयंति मोक्खं, आहारसंपज्जणवजणेणं । एगे सीओदगसेवणेणं, हुएण एगे पवयंति मोक्खं ॥१२॥ पाओसिणाणादिसु णत्थि मोक्खो, खारस्स लोणस्स अणासएणं । ते मजमंसं लसणं च भोच्चा, अन्नत्थ वासं परिकप्पयंति ॥ १३ ॥ उदगेण जे सिद्धिमुदाहरति, सायं च पायं उदगं फुसंता । उद्गस्स फासेण सियाय सिद्धी, सिज्झिसु पाणा बहवे दगंसि ॥ १४ ॥ हे ! 'जन्तवः' प्राणिनः ! सम्बुध्यध्वं यूयं, न हि कुशीलपाषण्डिकलोकत्राणाय भवति, धर्म च सुदुर्लभतेन सम्बुध्यध्वं, तथा चोक्तम् - "माणुस्सखेचजाई कुलरुवारोग्गमाउयं बुद्धी । सवगोग्गहसद्धा संजमो य लोगंमि दुलहाई ॥ १ ॥ तदेवमकृतधर्माणां मनुष्यलमतिदुर्लभमित्यवगम्य तथा जातिजरामरणरोगशोकादीनि नरकतिर्यक्षु च तीव्रदुःखतया भयं दृष्ट्वा तथा १ मानुष्यं क्षेत्र जातिः फुलं रूपं आरोग्यं आयुः बुद्धिः श्रवणमवग्रहः अद्धा संयमत्र लोके दुर्लभानि ॥ १ ॥ Education International For Pal Use Only ~327~ ७ कुशील परिभाषा. ॥ १५८ ॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१४|| दीप अनुक्रम [३९४] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [ - ], मूलं [१४], निर्युक्ति: [९०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'बालिशेन' अज्ञेन सदसद्विवेकस्यालम्भ इत्येतच्चावगम्य तथा निश्श्रयंनयमवगम्य एकान्तदुःखोऽयं ज्वरित इव 'लोकः' संसारिप्राणिगणः, तथा चोक्तम्- “ जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति पाणिणो ।। ॥ १ ॥ " तथा " तण्डाइयस्स पाणं कुरो छुहियस्स भुज्जए तिची । दुक्खसय संपत्तं जरियमिव जगं कलयलेइ ॥१॥” इति, अत्र चैवम्भूते लोके अनार्यकर्मकारी स्वकर्मणा 'विपर्यासमुपैति' सुखार्थी प्राण्युपमर्दं कुर्वन् दुःखं प्राप्नोति, यदिवा मोक्षार्थी | संसारं पर्यटतीति ॥ ११ ॥ उक्तः कृशील विपाकोऽधुना तदर्शनान्यभिधीयन्ते - 'इहे 'ति मनुष्यलोके मोक्षगमनाधिकारे वा, एके केचन 'मूढा' अज्ञानाऽऽच्छादितमतयः परैश्च मोहिताः प्रकर्षेण वदन्ति प्रवदन्ति प्रतिपादयन्ति, किं तत् ?- 'मोक्षं' मोक्षावासिं, केनेति दर्शयति-आहियत इत्याहार - ओदनादिस्तस्य सम्पद्- रसपुष्टिस्तां जनयतीत्याहारसम्पज्जननं - लवणं, तेन झा | हारस्य रसपुष्टिः क्रियते, तस्य वर्जनं तेनाऽऽहारसम्पज्जननवर्जनेन- लवणवर्जनेन मोक्षं वदन्ति, पाठान्तरं वा 'आहारसपंचय| वज्जणेण' आहारेण सह लवणपञ्चकमाहारसपञ्चकं, लवणपञ्चकं चेदं तद्यथा-सैंधवं सौवर्चलं विडं रौमं सामुद्रं चेति, लवणेन हि सर्वरसानामभिव्यक्तिर्भवति, तथा चोक्तम्- "लवणविहूणा य रसा चक्खुविहूणा य इंदियग्गामा । धम्मो दयाय रहिओ सोक्खं संतोसर हियं नो ॥ १ ॥ " तथा 'लवणं रसानां तैलं स्नेहानां घृतं मेध्याना' मिति, तदेवम्भूतलवणपरिवर्जनेन रसपरि १ कर्मोदयसंपादितसुखादिपरिणामानां तन्मते दुःखरूपखात् । २ जन्म दुःखं जरा दुःखं रोगाच मरणं व अहो दुःखः एवं संसारः यत्र क्लिश्यन्ति जन्तवः ॥ ३ तुष्णार्दितस्य पानं कूरः सुधितस्य भुकौ तृप्तिः दुःखशतसम्प्रयुकं ज्वरितमिव जगत्कति ॥ १ ॥ ४] वनविहीनाथ रसामधुर्विहीनावेन्द्रियग्रामाः । दयारहितः सौख्यं सन्तोषरहितं न ॥ १ ॥ Eucation Internation For Parts Only ~328~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१४|| दीप अनुक्रम [३९४] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [ - ], मूलं [१४], निर्युक्ति: [९०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र - [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृता शीलाङ्का चाय चियुर्त ॥१५९॥ त्याग एव कृतो भवति, तस्यागाच्च मोक्षावाप्तिरित्येवं केचन मूढाः प्रतिपादयन्ति पाठान्तरं वा 'आहारओ पंचकघज्ज्रणेणं' आहारत इति ल्यलोपे कर्मणि पञ्चमी आहारमाश्रित्य पञ्चकं वर्जयन्ति, तद्यथा-लसुणं पलाण्डुः करभीक्षीरं गोमांसं मद्यं चेत्येतत्पश्ञ्चकवर्जनेन मोक्षं प्रवदन्ति तथैके 'वारिभद्रकादयो' भागवतविशेषाः 'शीतोदकसेवनेन' सचित्तापकायपरिभोगेन मोक्षं प्रवदन्ति, उपपत्तिं च ते अभिदधति - यथोदकं बाह्यमलमपनयति एवमान्तरमपि वस्त्रादेव यथोदकाच्छुद्धिरुपजायते एवं बास| शुद्धिसामर्थ्यदर्शनादान्तरापि शुद्धिरुदकादेवेति मन्यन्ते तथैके तापसब्राह्मणादयो हुतेन मोक्षं प्रतिपादयन्ति, ये किल स्वर्गादि| फलमनाशस्य समिधाष्टतादिभिर्हव्यविशेषैर्हुताशनं तर्पयन्ति ते मोक्षायाग्निहोत्रं जुडति शेषास्त्रभ्युदयायेति, युक्तिं चात्र ते आहु:यथा ह्यग्निः सुवर्णादीनां मलं दहत्येवं दहनसामर्थ्यदर्शनादात्मनोऽप्यान्तरं पापमिति ।। १२ ।। तेषामसम्बद्धप्रलापिनामुत्तरदानायाह- 'प्रातः स्नानादिषु नास्ति मोक्ष' इति प्रत्युपजलावगाहनेन निःशीलानां मोक्षो न भवति, आदिग्रहणात् हस्तपादादिप्रक्षालनं गृह्यते, तथाहि उदकपरिभोगेन तदाश्रितजीवानामुपमर्दः समुपजायते, न च जीवोपमर्दान्मोक्षावाप्तिरिति न चैकान्ते| नोदकं बाह्यमलस्याप्यपनयने समर्थम्, अथापि स्यात्तथाप्यान्तरं मलं न शोधयति, भावशुद्धया तच्छुद्धेः, अथ भावरहितस्यापि तच्छुद्धिः स्यात् ततो मत्स्यबन्धादीनामपि जलाभिषेकेण मुक्त्यवाप्तिः स्यात्, तथा-'क्षारस्य' पञ्चप्रकारस्यापि लवणस्य 'अनशनेन' अपरिभोगेन मोक्षो नास्ति, तथाहि लवणपरिभोगरहितानां मोक्षो भवतीत्ययुक्तिकमेतत् न चायमेकान्तो लवणमेव रसपुष्टिजनकमिति, क्षीरशर्करादिभिर्व्यभिचारात्, अपिचासौ प्रष्टव्यः किं द्रव्यतो लवणवर्जनेन मोक्षावाप्तिः उत भावतः १, यदि १०कादेरेवेति प्र० । २ पारिभाषिकलवणमात्रप्रतिपत्तिनिरासाय क्षारेति, अत एव पञ्चप्रकारस्यापीति वृत्तिः ३ यणकादेरपि क्षारादिमवाकवणेति । Eucation Internationa For Parts Only ~329~ ७ कुशीलपरिभाषा. ।। १५९ ।। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१४|| दीप अनुक्रम [३९४] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [ - ], मूलं [१४], निर्युक्ति: [९०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः द्रव्यतस्ततो लवणरहितदेशे सर्वेषां मोक्षः स्यात् न चैवं दृष्टमिष्टं वा, अथ भावतस्ततो भाव एव प्रधानं किं लवणवर्जनेनेति, तथा 'ते' मूढा मद्यमांसं लघुनादिकं च भुक्ता 'अन्यत्र' मोक्षादन्यत्र संसारे वासम् अवस्थानं तथाविधानुष्ठानसद्भावात् सम्यग्दर्शन| ज्ञानचारित्ररूपमोक्षमार्गस्याननुष्ठानाच्च 'परिकल्पयन्ति' समन्तान्निष्पादयन्तीति ॥ १३ ॥ साम्प्रतं विशेषेण परिजिहीर्षुराहतथा ये केचन मूढा 'उदकेन' शीतवारिणा 'सिद्धिं' परलोकम् 'उदाहरन्ति' प्रतिपादयन्ति - 'सायम्' अपराहे विकाले वा 'प्रातश्च' प्रत्युषसि च आद्यन्तग्रहणात् मध्याह्ने च तदेवं सन्ध्यात्रयेऽप्युदकं स्पृशन्तः स्नानादिकां क्रियां जलेन कुर्वन्तः प्राणिनो | विशिष्टां गतिमाप्नुवन्तीति केचनोदाहरन्ति एतच्चासम्यक् यतो यद्युदकस्पर्शमात्रेण सिद्धिः स्यात् तत उदकसमाश्रिता मत्स्यबन्धादयः क्रूरकर्माणो निरनुक्रोशा बहवः प्राणिनः सिद्धयेयुरिति यदपि तैरुच्यते - बाह्यमलापनयनसामर्थ्य मुदकस्य दृष्टमिति तदपि विचार्यमाणं न घटते, यतो यथोदकमनिष्टमलमपनयत्येवमभिमतमप्यङ्गरागं कुङ्कुमादिकमपनयति, ततश्च पुण्यस्यापनयनादिष्टविघातक द्विरुद्धः स्यात् किञ्च यतीनां ब्रह्मचारिणाम्मुदकस्नानं दोषायैव, तथा चोक्तम्- "स्नानं मददर्पकरं, कामाङ्गं प्रथमं स्मृतम् । तस्मात्कामं परित्यज्य, न ते स्त्रान्ति दमे रताः ॥ १ ॥ " अपिच - "नोदकक्लिन्नगात्रो हि, स्त्रात इत्यभिधीयते । स स्नातो यो व्रतस्नातः, स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥ १ ॥ " ।। १४ ।। किच मच्छा य कुम्मा य सिरीसिवा य, मग्गू य उट्ठा (हा) दगरक्खसा य। अट्ठाणमेयं कुसला वयंति, १] अन्येषामपि भाषाशुद्धपापादकानां वर्जनीयखात्, मद्यमांसादिभोजित्वं वक्ष्य Eucation International For Parts Only ~330~ waryr Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक , मूलं [१५], नियुक्ति : [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत शील सूत्रकृता शीलाकाचायिवृ. सूत्रांक परिभाषा. ||१५|| चियुत ॥१६॥ दीप उदगेण जे सिद्धिमुदाहरंति ॥ १५॥ उदयं जइ कम्ममलं हरेजा, एवं सुहं इच्छामित्तमेव । अंध व णेयारमणुस्सरित्ता, पाणाणि चेवं विणिहंति मंदा ॥ १६ ॥ पावाई कम्माई पकुवतो हि, सिओदगं तू जइ तं हरिजा । सिझिसु एगे दगसत्तघाती, मुसं वयंते जलसिद्धिमाहु ॥ १७ ॥ हुतेण जे सिद्धिमुदाहरंति, सायं च पायं अगणिं फुसंता । एवं सिया सिद्धि हवेज तम्हा, अगणिं फुसंताण कुकम्मिणपि ॥ १८ ॥ यदि जलसम्पर्कात्सिद्धिः स्यात् ततो ये सततमुदकावगाहिनो मत्स्थाश्च कूर्माश्च सरीसृपाश्च तथा मद्गवः तथोष्ट्रा-जलचरविशे|पाः तथोदकराक्षसा-जलमानुषाकृतयो जलचरविशेषा एते प्रथम सिद्ध्येयुः, न चैतदृष्टमिष्टं वा, ततश्च ये उदकेन सिद्धिमदाहर|न्त्येतद् 'अस्थानम्' अयुक्तम्-असाम्प्रतं 'कुशला' निपुणा मोक्षमार्गाभिज्ञा वदन्ति ॥ १५ ॥ किश्चान्यत्-ययुदकं कर्मम|लमपहरेदेवं शुभमपि पुण्यमपहरेत् , अथ पुण्यं नापहरेदेवं कर्ममलमपि नापहरेत, अत इच्छामात्रमेवैतद्यदुच्यते-जलं कमोपहारीति, एवमपि व्यवस्थिते ये स्नानादिकाः क्रियाः सातमार्गमनुसरन्तः कुर्वन्ति ते यथा जात्यन्धा अपरं जात्यन्धमेव नेतारमनुमृत्य गच्छन्तः कुपथश्रितयो भवन्ति नाभिप्रेतं स्थानमवाप्नुवन्ति एवं सार्तमार्गानुसारिणो जलशौचपरायणा 'मन्दा' अज्ञाः। कर्तव्याकर्तव्यविवेकविकलाः प्राणिन एव तन्मयान् तदाश्रितांश्च पूतरकादीन् 'विनिमन्ति' च्यापादयन्ति, अवश्यं जलक्रियया || अनुक्रम [३९५] ॥१६॥ ~3314 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम [३९८] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [ - ], मूलं [१८], निर्युक्ति: [९०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः प्राणव्यपरोपणस्य सम्भवादिति ।। १६ ।। अपिच - 'पापानि' पापोपादानभूतानि कर्माणि प्राण्युपमर्दकारीणि कुर्वतोऽसुमतो यत्कमोंपचीयते तत्कर्म यद्युदकमपहरेत् यद्येवं स्यात् तर्हि हिः यस्मादर्थे यस्मात्प्राप्युपमर्देन कर्मोपादीयते जलावगाहनाच्चापगच्छति तस्मादुदकसत्वघातिनः पापभूयिष्ठा अप्येवं सिद्धयेयुः, न चैतदृष्टमिष्टं वा, तसाये जलावगाहनात्सिद्धिमाहुः ते मृषा वदन्ति ॥ १७ ॥ किञ्चान्यत् 'अग्निहोत्रं जुहुयात् खर्गकाम' इत्यसाद्वाक्यात् 'ये' केचन मूढा 'हुतेन' अभी हन्यप्रक्षेपेण 'सिद्धि' सुगतिगमनादिकां स्वर्गावाप्तिलक्षणाम् 'उदाहरन्ति' प्रतिपादयन्ति कथम्भूताः । - ' सायम्' अपराह्ने विकाले वा 'प्रातश्च' प्रत्युषसि अनि 'स्पृशन्तः' यथेष्टैर्हन्यैरथिं तर्पयन्तस्तत यथेष्टगतिमभिलपन्ति, आहुचैवं ते यथा - अधिकार्यात्स्यादेव सिद्धिरिति, तत्र च यद्येवमनिस्पर्शेन सिद्धिर्भवेत् ततस्तस्मादमिं संस्पृश्यतां 'कुकर्मिणाम्' अङ्गारदाहककुम्भकारायस्कारादीनां सिद्धिः स्यात्, यदपि च मंत्रपूतादिकं तैरुदाह्रियते तदपि च निरन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति यतः कुकर्मिणामप्यनिकायें भस्मापादनमग्नि| होत्रिकादीनामपि भस्मसात्करणमिति नातिरिच्यते कुकर्मिभ्योऽग्निहोत्रादिकं कर्मेति यदप्युच्यते-अभिमुखा वै देवाः, एतदपि युक्तिविकललात् वाचात्रमेव, विष्ठादिभक्षणेन चात्रेस्तेषां बहुतरदोषोत्पत्तेरिति ॥ १८ ॥ उक्तानि पृथक् कुशीलदर्शनानि, अयमपरस्तेषां सामान्योपालम्भ इत्याह Education International अपरिक्ख दिट्टं णहु एव सिद्धी, एहिंति ते घायमबुज्झमाणा । भूपहिं जाणं पडिलेह सातं, विज्जं गहायं तस्थावरेहिं ॥ १९ ॥ थति लुप्पति तसंति कम्मी, पुढो जगा परिसंखाय भि For Parts Only ~332~ www.inra.org Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक , मूलं [२०], नियुक्ति : [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ७कुशीलपरिभाषा. सूत्रांक ||२०|| त्तियुतं कृता क्खू । तम्हा विऊ विरतो आयगुत्ते, दटुं तसे या पडिसंहरेजा ॥ २० ॥ जे धम्मलई विणिशीलाचाीयव हाय मुंजे, वियडेण साहदु य जे सिणाई। जे धोवती लूसयतीव वत्थं, अहाहु से णागणि यस्स दूरे ॥ २१॥ कम्मं परिन्नाय दगंसि धीरे, वियडेण जीविज य आदिमोक्खं । से बीयक॥१६॥ दाइ अभंजमाणे, विरते सिणाणाइसु इस्थियासु ॥ २२ ॥ यैर्मुमुक्षुभिरुदकसम्पर्केणाग्रिहोत्रेण वा सिद्धिरभिहिता तैः 'अपरीक्ष्य दृष्टमेतत् युक्तिविकलमभिहितमेतत् , किमिति ३ यतो 'मह' नैव 'एवम् अनेन प्रकारण जलावगाहनेन अग्रिहोत्रेण वा प्राण्युपमईकारिणा सिद्धिरिति, ते च परमार्थेमबुक्यमानाः15 || प्राण्युपपातेन पापमेव धर्मबुया कुर्वन्तो पात्यन्ते-व्यापाद्यन्ते नानाविधैः प्रकारर्यसिन प्राणिनः स धातः--संसारस्तमेष्यन्ति, | अपकायतेजःकायसमारम्भेण हि त्रसस्थावराणां प्राणिनामवश्यं भावी विनाशस्तविनाशे च संसार एव न सिद्धिरित्यभिप्राया, IS । यत एवं ततो 'विद्वान्' सदसद्विवेकी यथावस्थिततत्त्वं गृहीला बसस्थावरैर्भूतैः-जन्तुभिः कथं साम्प्रतं--सुखमवाप्यत इस्पे- तत् प्रत्युपेक्ष्य जानीहि-अवबुद्ध्यस्ख, एतदुक्तं भवति-सर्वेऽप्यसुमन्तः सुखैषिणो दुःखद्विषो, न च तेषां सुखैषिणां दुःखोत्पादकलेन सुखावाप्तिर्भवतीति, यदिवा-विजं गहाय'ति विद्यां शानं गृहीता विवेकमुपादाय त्रसस्थावरैर्भूतेजेन्तुभिः करणभूतैः eservesesectseatserse दीप अनुक्रम [४००] 093979000000000odeos १५॥ ~3334 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [४०२] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [ - ], मूलं [२२], निर्युक्ति: [९०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'सात' सुखं 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य 'जानीहि' अवगच्छेति, यत उक्तम्- "पढेमं नाणं तयो दया, एवं चिट्ठइ सब संजए । अन्नाणी किं काही, किंवा णाही छेयपाचगं ॥ १ ॥ इत्यादि" ||१९|| ये पुनः प्राप्युपमर्देन सातमभिलपन्तीत्यशीलाः कुशीलाभ ते संसारे एवंविधा अवस्था अनुभवन्तीत्याह - तेजः कायसमारम्भिणो भूतसमारम्भेण सुखमभिलषन्तो नरकादिगतिं गतास्तीवदुः | खैः पीड्यमाना असह्य वेदनाघ्रातमानसा अशरणाः 'स्तनन्ति' रुदनति केवलं करुणमाक्रन्दन्तीतियावत् तथा 'लुप्पंती' ति छिद्यन्ते खङ्गादिभिरेवं च कदर्थ्यमानाः 'त्रस्यन्ति' प्रपलायन्ते, कर्माण्येषां सन्तीति कर्मिणः- सपापा इत्यर्थः, तथा पृथक् 'जंगा' इति जन्तव इति, एवं 'परिसङ्ख्याय' ज्ञाला भिक्षणशीलो 'भिक्षुः साधुरित्यर्थः यस्मात्प्राण्युपमर्दकारिणः संसारान्तर्गता विलुप्यन्ते तस्मात् 'विद्वान' पण्डितो विरतः पापानुष्ठानादात्मा गुप्तो यस्य सोऽयमात्मगुप्तो मनोवाक्कायगुप्त इत्यर्थः, दृष्ट्वा च त्रसान् चशदात्स्थावरं 'दृष्ट्वा' परिज्ञाय तदुपघातकारिणी क्रिया 'प्रतिसंहरेत्' निवर्तयेदिति ॥ २० ॥ साम्प्रतं स्वयूथ्याः कुशीला अभिधीयन्त इत्याह- 'ये' केचन शीतलविहारिणो धर्मेण मुधिकया लब्धं धर्मलब्धं उद्देशकक्रीतकृतादिदोषरहितमित्यर्थः, तदेवम्भूतमप्याहारजातं. 'विनिधाय' व्यवस्थाप्य सन्निधिं कृत्वा भुञ्जन्ते तथा ये 'विकटेन' प्रासुकोदकेनापि सङ्कोच्याङ्गानि प्राकएव प्रदेशे देशसर्वखानं कुर्वन्ति तथा यो वस्त्रं 'धावति' प्रक्षालयति तथा 'लूषयति' शोभार्थं दीर्घमुत्पाटयिला हवं करोति व्हखं वा सन्धाय दीर्घ करोति एवं लूपयति, तदेवं स्वार्थं पराधं वा यो वस्त्रं लूपयति, अथासौ 'णागणियस्स'ति निर्ग्रन्यभावस्य संयमानुष्ठानस्य दूरे वर्तते, न तस्य संयमो भवतीत्येवं तीर्थंकरगणधरादय आहुरिति ॥ २१ ॥ उक्ताः कुशीलाः, तत्प्रतिपक्ष१ प्रथमं ज्ञानं ततो दया एवं तिष्ठति सर्वसंयतेषु अज्ञानी किं करिष्यति कि माहास्यति छेकपापर्क। For Parts Only ~ 334~ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [४०२] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [ - ], मूलं [२२], निर्युक्ति: [९०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचाय तियुतं ॥१६२॥ statata भूताः शीलवन्तः प्रतिपाद्यन्त इत्येतदाह-धिया राजते इति धीरो - बुद्धिमान् 'उदगंसित्ति उदकसमारम्भे सति कर्मबन्धो भवति, एवं परिज्ञाय किं कुर्यादित्याह 'विकटेन' प्रासुकोदकेन सौवीरादिना 'जीव्यात् प्राणसंधारणं कुर्यात् चशब्दात् अन्येनाप्याहारेण प्रासुकेनैव प्राणवृत्तिं कुर्यात्, आदिः संसारस्तसान्मोक्ष आदिमोक्षः (तं) संसारविमुक्तिं यावदिति, धर्मकारणानां वादिभूतं शरीरं तद्विमुक्तिं यावत् यावज्जीवमित्यर्थः, किं चासौ साधुर्वीजकन्दादीन् अभुञ्जानः, आदिग्रहणात् मूलपत्रफलानि गृह्यन्ते, एतान्यप्यपरिणतानि परिहरन् विरतो भवति, कुत इति दर्शयति-स्नानाभ्यङ्गोद्वर्तनादिषु क्रियासु निष्प्रतिकर्मशरी रतयाऽन्यासु च चिकित्सादिक्रियासु न वर्तते, तथा स्त्रीषु च विरतः, वस्तिनिरोधग्रहणात् अन्येऽप्याश्रवा गृहयन्ते, यश्चैवम्भूतः सर्वेभ्योऽप्याश्रवद्वारेभ्यो विरतो नासौ कुशीलदोषैर्युज्यते तदयोगाच्च न संसारे बम्भ्रमीति, ततश्च न दुःखितः स्तनति नापि नानाविधैरुपायैर्विलुप्यत इति ।। २२ ।। पुनरपि कुशीलानेवाधिकृत्याह- जे मायरं च पियरं च हिच्चा, गारं तहा पुत्तपसुं धणं च । कुलाई जे धावइ साउगाई, अहाहु से सामणियस्स दूरे ॥ २३ ॥ कुलाई जे धावइ साउगाई, आघाति धम्मं उदराणुगिद्धे । अहा से आयरियाण सयंसे, जे लावएजा असणस्स हेऊ ॥ २४ ॥ णिक्खम्म दीणे परभोयणंमि, मुहमंगलीए उदराणुगिद्धे । नीवार गिद्धेव महावराहे, अदूरए एहिइ घातमेव ॥ २५ ॥ For Parts Only ~335~ ७ कुशीलपरिभाषा. ॥ १६२॥ wor Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक , मूलं [२६], नियुक्ति : [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: cence प्रत सूत्रांक ||२६|| दीप अन्नस्स पाणस्सिहलोइयस्स, अणुप्पियं भासति सेवमाणे । पासत्थयं चेव कुसीलयं च, निस्सारए होइ जहा पुलाए ॥२६॥ ये केचनापरिणतसम्पयधर्माणस्त्यक्ता मातरं च पितरं च, मातापित्रोत्स्त्यजखादुपादानं, अतो भ्रातृदुहित्रादिकमपि त्यक्वेत्येतदपि द्रष्टव्यं, तथा 'अगारं' गृहं 'पुत्रम् अपत्यं 'पशुं हस्त्यश्वरथगोमहिष्पादिकं धनं च त्वक्ला सम्यक प्रवज्योस्थानेनोत्थाय-पश्चमहावतभारस्य स्कन्धं दच्या पुनहींनसत्त्वतया रससातादिगौरवगृद्धो यः 'कुलानि' गृहाणि 'खादुकानि' खादुभोजनवन्ति 'धावति' गच्छति, अथासौ 'श्रामण्यस्य' श्रमणभावस्व दूरे वर्तते एवमाहुस्तीर्थकरगणधरादय इति ।। २३ ।। एतदेव विशेषेण दर्शयितुमाह-[ग्रन्थानम् ४७५०] यः कुलानि स्वादुभोजनबन्ति 'धावति' इयर्ति तथा गला धर्ममाख्याति भिक्षार्थ वा प्रविष्टो ययसै रोचते कथानकसम्बन्धं तत्तस्याख्याति, किम्भूत इति दर्शयति-उदरेऽनुगृद्ध उदरानुगृद्धा-उदरभरण-18 व्यग्रस्तुन्दपरिमृज इत्यर्थः, इदमुक्तं भवति-यो खुदरगृद्ध आहारादिनिमित्तं दानश्रद्धकाख्यानि कुलानि गखाऽऽख्यायिकाः कथ-18 | यति स कुशील इति, अथासावाचार्यगुणानामार्यगुणानां वा शतांशे वर्तते अतग्रहणमुपलक्षणं सहस्रांशादेरप्यधो वर्त्तते इति यो| बन्नस्य हेतुं भोजननिमित्तमपरवस्त्रादिनिमित्तं वा आत्मगुणानपरेण 'आलापयेत्' भाणयेत्, असावप्यायगुणानां सहस्रांशे वतेते किमङ्ग पुनर्यः खत एवाऽऽत्मप्रशंसां विदधातीति ॥ २४ ॥ किन-यो ह्यात्मीयं धनधान्यहिरण्यादिकं त्यक्ता निष्का-1॥ न्तो निष्क्रम्य च 'परभोजने' पराहारविषये 'दीनो' दैन्यमुपगतो जिडेन्द्रियवशाटै बन्दिवत् 'मुखमाङ्गलिको' भवति अनुक्रम [४०६] ~336~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२६|| दीप अनुक्रम [४०६] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [ - ], मूलं [२६], निर्युक्ति: [९०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चाय चियुर्त ॥ १६३॥ ७ कुशील मुखेन मङ्गलानि - प्रशंसावाक्यानि ईदृशस्तादृशस्त्वमित्येवं दैन्यभावमुपगतो वक्ति, उक्तं च- "सो ऐसो जस्स गुणा चियरंतनिवारिया दसदिसासु । इहरा कहासु सुच्चसि पचक्त्रं अज्ज दिट्ठोऽसि ॥ १ ॥" इत्येवमादर्य प्रति गृद्धः अभ्युपपन्नः किमिव १- २४ परिभाषा. 'नीवारः' सूकरादिमृगभक्ष्यविशेषस्तस्मिन् गृद्ध-आसक्तमना गृहीला च स्वयूथं 'महावराहो' महाकायः सूकरः स चाहारमा - 9 त्रगृद्धोऽतिसंकटे प्रविष्टः सन् 'अदूर एव' शीघ्रमेव 'घातं' विनाशम् 'एष्यति' प्राप्स्यति, एवकारोऽवधारणे, अवश्यं तस्य विनाश एव नापरा गतिरस्तीति, एवमसावपि कुशील आहारमात्रगृद्धः संसारोदरे पौनःपुन्येन विनाशमेवैति ||२५|| किंचान्यत्, स कुशलोऽनस्य पानस्य वा कृतेऽन्यस्य वैहिकार्थस्य वस्त्रादेः कृते 'अनुप्रियं भाषते' यद्यस्य प्रियं तत्तस्य वदतोऽनु-पश्चाद्भाषते अनुभाषते, प्रति| शब्दकवत् सेवकद्वा राजाद्युक्तमनुवदतीत्यर्थः, तमेव दातारमनुसेवमान आहारमात्रगृद्धः सर्वमेतत्करोतीत्यर्थः, स चैवम्भूतः सदाचारभ्रष्टः पार्श्वस्यभावमेव व्रजति कुशीलतां च गच्छति, तथा निर्गतः- अपगतः सारः- चारित्राख्यो यस्य स निःसारः, यदिवानिर्गतः सारो निःसारः स विद्यते यस्यासौ निःसारवान्, पुलाक इव निष्कणो भवति यथा - एवमसौ संयमानुष्ठानं निःसारीकरोति, एवंभूतवासी लिङ्गमात्रावशेषो बहूनां स्वयुध्यानां तिरस्कारपदवीमवामोति, परलोके च निकृष्टानि यातनास्थानान्यत्रानोति ।। २६ ।। उक्ताः कुशीलाः, तत्प्रतिपक्षभूतान् सुशीलान् प्रतिपादयितुमाह अण्णातपिंडेणऽहियास एज्जा, णो पूयणं तवसा आवहेजा । सदेहिं रूवेहिं असज्जमाणं, सवेहि १ स एष यस्य गुणा: विचरन्यनिवारिता दर्शादिशासु इतरथा कथानु श्रूयते प्रत्यक्षं अयोऽसि ॥ १ ॥ Educatin internation For Park at Use Only ~ 337~ ॥ १६३॥ waryru Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक , मूलं [२७], नियुक्ति : [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२७|| दीप eroectroeroece@aolcersesercenese कामेहि विणीय गेहिं ॥ २७ ॥ सवाई संगाई अइच्च धीरे, सवाई दुक्खाइं तितिक्खमाणे । अखिले अगिद्धे अणिएयचारी, अभयंकरे भिक्खु अणाविलप्पा ॥ २८ ॥ भारस्स जाता मुणि भुंजएज्जा, कंखेज पावस्स विवेग भिक्खू । दुक्खेण पुढे धुयमाइएजा, संगामसीसे व परं दमेजा ॥ २९ ॥ अवि हम्ममाणे फलगावतट्टी, समागर्म कंखति अंतकस्स । णिधूय कम्मं ण पवंचुवेइ, अक्खक्खए वा सगडं तिबेमि ॥३०॥ इति श्रीकुसीलपरिभासियं सत्तममज्झयणं समत्तं ॥ (गाथाग्र०४०२) अज्ञातश्चासौ पिण्डवाज्ञातपिण्डः अन्तप्रान्त इत्यर्थः, अज्ञातेभ्यो वा-पूर्वापरासंस्तुतेभ्यो वा पिण्डोज्ञातपिण्डोज्ञातोन्छवृत्या लब्धस्तेनात्मानम् 'अधिसहेत्' वर्तयेत्-पालयेत्, एतदुक्तं भवति-अन्तप्रान्तेन लब्धेनालब्धेन वा न देन्यं कुर्यात् । नाप्युत्कृष्टेन लब्धेन मदं विदध्यात्, नापि तपसा पूजनसत्कारमावहेत्, न पूजनसत्कारनिमित्तं तपः कुर्यादित्यर्थः, यदिवा पूजा-181 सत्कारनिमित्तवेन तथाविधार्थिवेन वा महतापि केनचित्तपो मुक्तिहेतुक न निःसारं कुर्यात् , तदुक्तम्-"परं लोकाधिकं धाम, तपाश्रुतमिति द्वयम् । तदेवार्थिखनिलप्तसारं तृणलवायते ॥१॥"॥ यथा च रसेषु गृद्धिं न कुर्यात् , एवं शब्दादिष्वपीति दर्शयति-'शब्दैः' वेणुषीणादिभिराक्षिप्तः संस्तेषु 'असजन्' आसक्तिमकुर्वन् कर्कशेषु च द्वेषमगच्छन् तथा रूपैरपि मनोज्ञेतरै teeeeeeeeeeee अनुक्रम [४०७] ~3384 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक , मूलं [३०], नियुक्ति : [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३०|| सूत्रकृता शीलाङ्काचार्यायवत्तियुतं ॥१६॥ दीप रागद्वेषमकुर्वन् एवं सर्वैरपि 'कामैः इच्छामदनरूपैः सर्वेभ्यो वा कामेभ्यो गृद्धि 'विनीय' अपनीय संयममनुपालयेदिति, सर्व- कुशीलथा मनोज्ञेतरेषु विषयेषु रागद्वेष न कुर्यात् , तथा चोक्तम्-'सद्देसु य भयपावएम, सोयविसयमुवगएम् । तुद्वेण व रुद्वेण ब, परिभाषा. समणेण सया ण होयई ॥१॥ संवेसु य भद्दयपावएसु, चक्खुविसयमुनगएसु | तुडेण व रुटेण व समणेण सया ण होय | ॥२॥ गंधेमु य भद्दयपावएसु, घाणविसयमुवगएसु । तुट्टेण ॥३॥ भक्खेसु य भद्दयपावरसु, रसणविसयमुवगएमु । तुद्वेण व रुद्वेण व, समणेण सया ण होय ॥ ४॥ फासेसु य भद्दयपावएसु, फासविसयमुवगएसु । तुद्रेण व रुद्वेण व, समणेण सयाण होयत्वं ॥ ५॥"॥ २७ ॥ यथा चेन्द्रियनिरोधो विधेय एवमपरसङ्गनिरोधोऽपि कार्य इति दर्शयति-सर्वान् 'सङ्गान् संबन्धान% आन्तरान् स्नेहलक्षणान् वाद्यांश्च द्रव्यपरिग्रहलक्षणान् 'अतीत्य त्यक्सा 'धीरों विवेकी सर्वाणि 'दुःखानि शारीरमानसानि त्यक्ता परीपहोपसर्गजनितानि 'तितिक्षमाणः' अधिसहन् 'अखिलो' ज्ञानदर्शनचारित्रैः सम्पूर्णः तथा कामेष्वगृद्धस्तथा 'अनियतचारी' अप्रतिबद्धविहारी तथा जीवानामभयंकरो भिक्षणशीलो भिक्षुः साधुः एवम् 'अनाविलो' विषयकषायैरनाकुल आत्मा यस्यासावनाविलात्मा संयममनुवर्तत इति ॥ २८ ॥ किश्चान्यत-संयमभारस्य यात्रार्थ-पश्चमहाबवभारनिर्वाहणार्थ 'मुनिः' कालत्रयवेत्ता 'भुजीत' आहारग्रहणं कुर्वीत, तथा 'पापस्य कर्मणः पूर्वाचरितस्य 'विवेक' पृथग्भावं विनाशमाकाकेत 'भिक्षुः' साधुरिति, तथा-दुःखयतीति दुःख-परीपहोपसर्गजनिता पीडा तेन 'स्पृष्टों व्याप्तः सन् 'धूतं संयम मोक्षं वा HO ॥१६४॥ वानेषु च भद्रकपापकेषु श्रोत्रविषयमुपगतेषु तुटेन वा टेन या धमणेन सदा न भवितव्यं । ३ रूपेषु. चक्षुः। ३ गंधेषु० घ्राण । ४ भक्ष्येषु रखना । ५ स्पर्शेषु स्पर्शन। अनुक्रम [४१०] ~3394 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||३०|| दीप अनुक्रम [ ४१०] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [ - ], मूलं [३०], निर्युक्ति: [९०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'आददीत' गृहीयात् यथा सुभटः कश्चित् सङ्ग्रामशिरसि शत्रुभिरभिद्रुतः 'परं' शत्रु दमयति एवं परं कर्मशत्रु परीषदोषसर्गाभिद्रुतोऽपि दमयेदिति । अपि च- परीषहोपसर्गैर्हन्यमानोऽपि पीड्यमानोऽपि सम्यक सहते, किमिव १ - फलकवदपकृष्टः यथा फलकमुभाभ्यामपि पार्श्वभ्यां तष्टं घट्टितं सचनु भवति अरक्तद्विष्टं वा संभवत्येवमसावपि साधुः सवाद्याभ्यन्तरेण तपसा निष्टप्त देहस्तनुः --- दुर्बलशरीरोऽरक्तद्विष्टव, अन्तकस्य-मृत्योः 'समागम' प्राप्तिम् 'आकाङ्क्षति' अभिलषति, एवं चाष्टप्रकार कर्म 'निर्धूय' अपनीय न पुनः 'प्रपञ्चं' जातिजरामरणरोगशोकादिकं प्रपश्यते बहुधा नटवयस्मिन् स प्रपञ्चः - संसारस्तं 'नोपैति' न याति, दृष्टान्तमाह-यथा अक्षस्य 'क्षये' विनाशे सति 'शकटं' गध्यादिकं समविपमपथरूपं प्रपञ्चमुपष्टम्भकारणाभावानीपयाति एवमसावपि साधुरष्टप्रकारस्य कर्मणः क्षये संसारप्रपञ्चं नोपयातीति गतोऽनुगमो, नयाः पूर्ववद्, इतिशब्दः परिसमाप्त्यर्थे ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ३० ॥ समाप्तं च कुशीलपरिभाषाख्यं सप्तममध्ययनं ।। Education Internation अत्र सप्तमं अध्ययनं परिसमाप्तं --99506 For Parts Only ~340~ waryra Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [३०...], नियुक्ति: [९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३०|| मूत्रकृताङ्ग शीलाचार्यायत्तियुत ॥१६५॥ दीप अनुक्रम [४१०] अथ अष्टमं श्रीवीर्याध्ययनं प्रारभ्यते ॥ ८वीर्या ध्ययनं. उकं सप्तममध्ययन, साम्प्रतमष्टममारभ्यते--अस्ख चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने कुशीलास्तत्प्रतिपक्षभूताच सुशीला प्रतिपादिताः, सेपां च कुशीलसं मुशीललं च संयमवीर्यान्तरायोदयात्तत्क्षयोपशमाच भवतीत्यतो वीर्यप्रतिपादनायेदमध्ययनमुपदिश्यते, तदनेन संबंधनायातस्यास्याध्ययनस्य चखार्यनुयोगद्वाराणि उपक्रमादीनि वक्तव्यानि, तत्राप्युपक्रमान्तर्गतोऽाधिकारोऽयं, तद्यथा-बालबालपण्डितपण्डितवीर्यभेदात्रिविधमपि वीर्य परिज्ञाय पण्डितवीर्ये यतितव्यमिति, नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे ।।। | वीर्याध्ययन, वीर्यनिक्षेपाय नियुक्तिकदाह चिरिए छकं दब्बे सचित्ताचित्तमीसगं चेव । दुपयचउप्पयअपयं एवं तिविहं तु सचित्तं ॥ ९१॥ वीयें नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् पोढा निक्षेपः, तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यवीर्य द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरच्यतिरिक्त सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्रिधा वीर्य, सचित्तमपि द्विपदचतुष्पदापदभेदात् त्रिविधमेव, तत्र द्विपदानां अर्हचक्रवर्तिबलदेवादीनां यदीर्य स्खीरवस्य वा यस्य वा यदीय तदिह द्रव्यवीर्यखेन ग्राह्य, तथा चतुष्पदानामश्वहस्तिरत्रादीनां सिंहव्याघ्रशरभादीनां वा परस्य वा यद्बोढव्ये धावने वा वीर्य तदिति, तथाऽपदानां गोशीपचन्दनप्रभृतीनां शीतोष्णकालयोरुष्णशीतवीर्यपरिणाम इति ।। अचित्तवीर्यप्रतिपादनायाह अचित्तं पुण विरियं आहारावरणपहरणादीसु । जह ओसहीण भणियं विरियं रसवीरियविवागो ॥१२॥ అనంతలో अत्र प्रथम श्रुतस्कन्धे 'वीर्य' नामक अष्टम अध्ययनस्य आरम्भः, सप्तमं अध्ययनेन सह अष्टमस्य सम्बन्ध:, वीर्य शब्दस्य निक्षेपा: ~341 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [३०...], नियुक्ति: [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३०|| II आवरणे कषयादी चक्कादीयं च पहरणे होति । खित्तमि जंमि खेत्ते काले जं जंमि कालंमि ॥ ९३ ॥ अचित्तद्रव्यवीर्य साहारावरणप्रहरणेषु यद्वीर्य तदुच्यते, तत्राऽऽहारवीर्य 'सधः प्राणकरा हृद्या, घृतपूर्णाः कफापहा।' इत्यादि, | ओषधीनां च शल्योद्धरणसरोहणविषापहारमेधाकरणादिकं रसवीर्य, विपाकवीय च यदुक्तं चिकित्साशास्त्रादौ तदिह ग्राह्यमिति, तथा योनिमाभूतकानानाविधं द्रव्यवीय द्रष्टव्यमिति, तथा-आवरणे कवचादीनां प्रहरणे पक्रादीनां यद्भवति वीर्य तदुच्यत: इति । अधुना क्षेत्रकालवीर्य गाथापश्चार्धन दर्शयति-क्षेत्रवीर्य तु देवकुर्बादिकं क्षेत्रमाश्रित्य सर्वाण्यपि द्रव्याणि तदन्तर्गतान्युत्कृष्ट| वीर्यवन्ति भवन्ति, यद्धा दुर्गादिकं क्षेत्रमाश्रित्य कस्यचिद्वीर्योल्लासो भवति, यस्मिन्या क्षेत्रे वीर्य व्याख्यायते तत्क्षेत्रवीर्यमिति, एवं कालवीर्यमप्येकान्तमुषमादावायोज्यमिति, तथा चोक्तम्-"वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं गोपयक्ष हेमन्ते । शिशिरे चामल-18 करसो, घृतं वसन्ते गुडश्चान्ते ॥ १॥" तथा "ग्रीष्मे तुल्यगुडां सुसैन्धवयुतां मेघावनद्धेऽम्बरे, तुल्यां शर्करया शरद्यमलया। शुण्ठ्या तुषारागमे । पिप्पल्या शिशिरे वसन्तसमये क्षौद्रेण संयोजितां पुंसां प्राप्य हरीतकी मिव गदा नश्यन्तु ते शत्रवः ॥१॥" भाववीयप्रतिपादनायाहभावो जीवस्स सीरियस्स विरियंमि लद्धिऽणेगविहा । ओरस्सिंदियअज्झप्पिएसु बहुसो बहुविहीयं ॥ ९४॥ मणवइकाया आणापाणू संभव तहा य संभब्वे । सोत्तादीणं सद्दादिएम विसएसु गहणं च ॥ १५॥ 'सवीर्यस्य' वीर्यशक्त्युपेतस्य जीवस्य 'वीर्य' वीर्यविषये अनेकविधा लब्धिः , तामेव गाथापश्चार्द्धन दर्शयति, तद्यथा-उरसि అందించిన दीप अनुक्रम [४१०] SAREBratantntanmarna वीर्य शब्दस्य निक्षेपा:, अचित वीर्य एवं भाव वीर्यस्य व्याख्या. ~342~ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [३०...], नियुक्ति: [९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३०|| सूत्रकृताङ्ग शीलाझाचायीयवृत्तियुतं ॥१६६॥ दीप | भवमौरस्यं शारीरबलमित्यर्थः, तथेन्द्रियबलमाध्यात्मिक बलं बहुशो बहुविधं द्रष्टव्यमिति । एतदेव दर्शयितुमाह-आन्तरेण व्या- ८ वीर्यापारण गृहीखा पुद्गलान् मनोयोग्यान् मनस्वेन परिणमयति भाषायोग्यान् भाषाखेन परिणमयति काययोग्यान् कायलेन आनापा- ध्ययन नयोग्यान् तद्भावनेति, तथा मनोवाकायादीनां तद्भावपरिणतानां यद्वीय-सामर्थ्य तद्विविधं-सम्भवे सम्भाव्ये च, सम्भवे तात्रतीर्थकृतामनुत्तरोपपातिकानां च सुराणामतीव पटूनि मनोद्रव्याणि भवन्ति, तथाहि-तीर्थकृतामनुत्तरोपपातिकसुरमनःपर्यायज्ञानिप्रश्नव्याकरणस्य द्रव्यमनसैव करणात् अनुत्तरोपपातिकसुराणां च सर्वव्यापारस्यैव मनसा निष्पादनादिति, सम्भाव्ये तु यो | हि यमर्थ पटुमतिना प्रोच्यमानं न शक्रोति साम्प्रतं परिणमयितुं सम्भाव्यते खेष परिकर्यमाणः शक्ष्यत्यमुमर्थ परिणमयितुमि-18|| ति, वाग्वीर्यमपि द्विविध-सम्भबे सम्भाव्ये च, तत्र सम्भवे तीर्थकृतां योजननिर्झरिणी वाक सर्वखखभाषानुगता च तथाऽन्येपामपि क्षीरमध्यावादिलब्धिमतां वाचः सौभाग्यमिति, तथा हंसकोकिलादीनां सम्भवति खरमाधुर्य, सम्भाव्ये तु सम्भाव्यते | श्यामायाः खिया गानमाधुर्य, तथा चोक्तम्-- "सामा गायति महुरं काली गायति खरं च रुक्खं चे"त्यादि, तथा सम्भाव-18 | यामः-एनं श्रावकदारकम् अकृतमुखसंस्कारमप्यक्षरेषु यथावदभिलप्तव्येष्विति, तथा सम्भावयामः शुकसारिकादीनां वाचो मा नुषभाषापरिणामः, कायवीर्यमप्यौरस्यं यद्यस्य बलं, तदपि द्विविधं-सम्भवे सम्भाव्ये च, संभवे यथा चक्रवर्तिबलदेववासुदेवा- 13 |दीनां यहाहुबलादि कायबलं, तद्यथा-कोटिशिला त्रिपृष्ठेन वामकरतलेनोद्धृता, यदिवा-'सोलस रायसहस्सा इत्यादि यावदप-18॥१६६॥ रिमितवला जिनवरेन्द्रा इति, सम्भाव्ये तु सम्भाव्यते तीर्थकरो लोकमलोके कण्दुकवत् प्रक्षेप्नु तथा मेरुं दण्डवगृहीला वसुधां छ-13॥ प्रकवद्धत्तुमिति, तथा सम्भाव्यते अन्यतरसुराधिपो जम्बूद्वीपं वामहस्तेन छत्रकबद्ध मयलेनैव च मन्दरमिति, तथा सम्भाव्यते । अनुक्रम [४१०] भाव वीर्यस्य व्याख्या, ~343~ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [३०...], नियुक्ति: [९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३०|| दीप अयं दारका परिवर्धमानः शिलामेनामुद्धत्तुं हस्तिनं दमयितुमश्वं वाहयितुमित्यादि, इन्द्रियबलमपि श्रोत्रेन्द्रियादि स्खविषयग्रहण| समर्थ पञ्चधा एकैकं, द्विविधं-सम्भवे सम्भाव्ये च, सम्भवे यथा श्रोत्रस द्वादश योजनानि विषयः, एवं शेषाणामपि यो यस विषय इति, सम्भाव्ये तु यस्य कस्यचिदनुपहतेन्द्रियस्य श्रान्तस्य क्रुद्धस्स पिपासितस्य परिग्लानस्य वा अर्थग्रहणासमर्थमपि इन्द्रियं सबथोक्तदोषोपशमे तु सति सम्भाव्यते विषयग्रहणायेति । साम्प्रतमाध्यात्मिकं वीर्य दर्शयितुमाह -- ____ उजमधितिधीरत्तं सोंडीरत्तं खमा य गंभीरं । उवओगजोगतवसंजमादियं होइ अज्झप्पो ॥ ९६ ॥ आत्मन्यधीत्यध्यात्मं तत्र भवमाध्यात्मिकम्-आन्तरशक्तिजनितं सात्त्विकमित्यर्थः, तच्चानेकधा तत्रोद्यमो ज्ञानतपोऽनुष्ठानादिषूत्साहः, एतदपि यथायोग सम्भवे सम्भाव्ये च योजनीयमिति, धृतिः संयमे स्थैर्य चित्तसमाधानमिति(यावत्), धीरत्वं परीष होपसर्गाक्षोभ्यता, शौण्डीय त्यागसम्पन्नवा, पदखण्डमपि भरतं त्यजतश्चक्रवर्तिनोन मनः कम्पते,यदिवाऽऽपद्यविषण्णता, यदिवा1 विषमेऽपि कर्तव्ये समुपस्थिते पराभियोगमकुर्वन् मयैवैतत्कर्तव्यमित्येवं हर्षायमाणोऽविषण्णो विधत्त इति, क्षमावीर्य तु परैराकु श्यमानोऽपि मनागपि मनसा न क्षोभमुपयाति, भावयति (च तत्व) तवेदम्-"आकुष्टेन मतिमता तत्त्वार्थगवेषणे मतिः कार्यो । | यदि सत्य का कोपः ? स्वादनृतं किं नु कोपेन ? ॥१॥" तथा "अकोसहणणमारणधम्मभंसाण बालसुलभाणं । लाभं मन्नइ धीरो | जहुत्तराणं अभावं (लाभ) मि ॥१॥" गाम्भीर्यवीर्य नाम परीषहोपसगैरधृष्यवं, यदिवा यत् मनश्चमत्कारकारिण्यपि खानुष्ठाने 18 १माकोशहननमारणधर्मशाना बालमुलमानो लाभ मन्यते धीरी अधोतराणाममाये ॥१॥ westseeisesesedesesentserserse अनुक्रम [४१०] Seeeee भाव-वीर्य एवं आध्यात्मिक-वीर्यस्य व्याख्या ~344~ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||३०|| दीप अनुक्रम [४१०] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [-], मूलं [३०...], निर्युक्तिः [९६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्कं शीलाङ्गा चार्यीय तियुर्त ॥१६७॥ अनौद्धत्यं उक्तम् च कुच्छलेई जं होइ ऊणयं रित्तयं कणकणे । भरियाई ण खुबभंती सुपुरिसवित्राणभंडाई ॥ १॥" उपयोगवीर्यं साकारानाकारमेदात् द्विविधं तत्र साकारोपयोगोऽष्टधा नाकारश्चतुर्धा तेन चोपयुक्तः स्वविषयस्य द्रव्यक्षेत्र कालभावरूपस्य परिच्छेदं विधत्त इति, तथा योगवीर्य त्रिविधं मनोवाक्कायभेदात् तत्र मनोवीर्यमकुशलमनोनिरोधः कुशलमनसश्च प्रवर्तनं, मनसो या एकली भावकरणं, मनोवीर्येण हि निर्ग्रन्थसंयताः प्रवृद्धपरिणामा अवस्थितपरिणामाच भवन्तीति वाग्वीर्येण तु भाषमाणोऽपुनरुक्तं निरवद्यं च भाषते, कायवीयं तु यस्तु समाहितपाणिपादः कूर्मवदवतिष्ठत इति, तपोवीर्य द्वादशप्रकारं तपो यद्धलादग्लायन् विधत्त इति, एवं सप्तदशविधे संयमे एकत्वाद्यध्यवसितस्य यद्धलात्प्रवृत्तिस्तत्संयमचीर्य, कथमहमतिचारं संयमे न प्राप्नुयामित्यध्यवसायिनः प्रवृत्तिरित्येवमाद्यध्यात्मवीर्यमित्यादि च भाववीर्यमिति, वीर्यप्रवादपूर्वे चानन्तं वीर्य प्रतिपादितं किमिति ?, यतोऽनन्तार्थं पूर्वं भवति, तत्र च वीर्यमेव प्रतिपाद्यते, अनन्तार्थता चातोऽवगन्तव्या, तद्यथा- "सवईणं जा होज बालुया गणणमागया सन्ती । ततो बहुयतरागो अस्थो एगस्स पुवस्स || १|| सबसेमुद्दाण जलं जइपत्थमियं हविज संकलियं । एत्तो बहुयतरागो अस्थी एगस्स पुछस्स ||२||" तदेवं पूर्वार्थस्यानन्त्याद्वीर्यस्य च तदर्थत्वादनन्तता वीर्यस्येति । सर्वमप्येतद्वीर्यं त्रिधेति प्रतिपादयितुमाह| सव्वंपिय तं तिविहं पंडिय बालविरियं च मीसं च । अहवावि होति दुविहं अगारअणगारियं चैव ॥ ९७ ॥ सर्वमप्येतद्भाववीर्य पण्डितबालमिश्रभेदात् त्रिविधं तत्रानगाराणां पण्डितवीर्यं बालपण्डितवीर्यं खगाराणां गृहस्थानामिति, तत्र १ छुङच्छुइ प्र० । २ उद्गिरति यद्भवत्थूनकं रिफर्क फलकमति भृतानि न शुभ्यन्ते सुपुरुषविज्ञानभाण्डानि ॥ १ ॥ ३ सर्वासां नदीनां यावन्यो भनेयुर्वाका गगनमागताः सख्यः ततो बहुतरोऽर्थं एकस्य पूर्वस्य ।। १ ।। ४ सर्वसमुद्राणां जलं यतिप्रमितं तत् भवेत्संकलितं ततो ॥ Education Internationa आध्यात्मिक- वीर्यस्य व्याख्या, वीर्यस्य त्रिविधा: भेदा: For Parts Only ~345~ ८ वीर्या ध्ययनं. ॥१६७॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [१], नियुक्ति: [९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक यतीनां पण्डितवीर्य सादिसपर्यवसितं, सर्वविरतिप्रतिपत्तिकाले सादिता सिद्धावस्थायां तदभावात्सान्तं, बालपण्डितवीर्य तु देश विरतिसद्भावकाले सादि सर्वविरतिसद्भावे तर्दूशे वा सपर्यवसानं, बालवीर्य खविरतिलक्षणमेवाभन्यानामनाद्यपर्यवसितं भव्याना 18| खनादिसपर्यवसितं, सादिसपर्यवसितं तु विरतिभ्रंशात सादिता पुनर्जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तादुत्कृष्टतोऽपार्द्धपुद्गलपरावर्तात् विरतिसद्भावात सान्ततेति, साद्यपर्यवसितस्य तृतीयभङ्गकस्य खसम्भव एव, यदिवा पण्डितवीर्य सर्वविरतिलक्षणं, विरतिरपि चारित्रमोहनीय-S क्षयक्षयोपशमोपशमलक्षणात्रिविधैव, अतो वीर्यमपि त्रिधैव भवति । गतो नामनिष्पनो निक्षेपः, तदनु सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं, तश्चेदं दुहा वेयं सुयक्खायं, वीरियंति पवुच्चई । किं नु वीरस्स वीरतं, कहं चेयं पवुच्चई ? ॥१॥ कम्ममेगे पवेदेति, अकम्मं वावि सुवया । एतेहिं दोहि ठाणेहिं, जेहिं दीसंति मच्चिया ॥२॥ द्वे विधे-प्रकारावस्येति द्विविध-द्विप्रकार, प्रत्यक्षासन्नवाचिखात् इदमो यदनन्तरं प्रकर्षेणोच्यते प्रोच्यते वीर्य तविभेदं सुष्वाख्यात खाख्यातं तीर्थकरादिभिः, वा वाक्यालङ्कारे, तत्र 'इरं गतिप्रेरणयोः' विशेषेण ईरयति-प्रेरयति अहितं येन तद्वीय जीवख शक्तिविशेष इत्यर्थः, तत्र, किं नु 'वीरस्य सुभटस्य वीरलं ?, केन वा कारणेनासौ वीर इत्यभिधीयते, नुशब्दो वितर्कवाची, एतद्वि-IN तर्कयति-किं तवीर्य, वीरस वा किं तद्वीरसमिति ॥१॥ तत्र भेदद्वारेण वीर्यस्वरूपमाचिख्यासुराह--कर्म-क्रियानुष्ठानमि-18 त्येतदेके वीर्यमिति प्रवेदयन्ति, यदिवा-कर्माष्टप्रकारं कारणे कार्योपचारात् तदेव वीर्यमिति प्रवेदयन्ति, तथाहि-औदायिकभावनिष्पन्नं మరింత दीप अनुक्रम [४११] అల అల అలాంటి मूल सूत्रस्य आरम्भ: ~346~ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||R|| दीप अनुक्रम [४१२] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [२], निर्युक्ति: [९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२ ] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चाय चियुतं ॥१६८॥ कर्मेत्युपदिश्यते, औदयिकोऽपि च भावः कर्मोदय निष्पन्न एव बालवीर्य, द्वितीयभेदस्वयं न विद्यते कर्मास्येत्यकर्मा वीर्यान्तरायक्षयजनितं जीवस्य सहजं वीर्यमित्यर्थः चशब्दात् चारित्रमोहनीयोपशमक्षयोपशमजनितं च, हे सुत्रता ! एवम्भूतं पण्डितवीर्य जानीत यूयं । आभ्यामेव द्वाभ्यां स्थानाभ्यां सकर्मकाकर्मकापादितपालपण्डितवीर्याभ्यां व्यवस्थितं वीर्यमित्युच्यते, यकाभ्यां ययोर्वा व्यवस्थिता मर्त्येषु भवा मर्त्य: 'दिस्संत' इति दृश्यन्तेऽपदिश्यन्ते वा तथाहि – नानाविधासु क्रियासु प्रवर्तमानमुत्साहबलसंपन्नं मर्त्य दृष्ट्वा वीर्यवानयं मर्त्य इत्येवमपदिश्यते, तथा तदावारककर्मणः क्षयादनन्तबलयुक्तोऽयं मर्त्य इत्येवमपदिश्यते दृश्यते चेति ॥ २ ॥ इह बालवीर्य कारणे कार्योपचारात्कर्मैव वीर्यतेनाभिहितं साम्प्रतं कारणे कार्योपचारादेव प्रमादं | कर्मखेनापदिशन्नाह पमा कम्ममासु, अप्पमायं तहाऽवरं । तभावादेसओ वावि, वालं पंडियमेव वा ॥ ३ ॥ सत्थमेगे तु सिक्खंता, अतिवायाय पाणिणं । एगे मंते अहिज्जंति, पाणभूयविहेडिणो ॥ ४ ॥ प्रमाद्यन्ति-सदनुष्ठानरहिता भवन्ति प्राणिनो येन स प्रमादो-मद्यादिः, तथा चोक्तम्- "मज्जं विसयकसाया णिद्दा विगहा य पंचमी भणिया । एस पमायमाओ णिदिट्ठो वीयरागेहिं ॥ १ ॥" तमेवम्भूतं प्रमादं कर्मोपादानभूतं कर्म 'आहुः' १ वीर्ययेऽस्यैवोदय निष्पत्वात् शेषं वन्ययेत्युत्तरमेदे २ मयं विषयाः कषाया निद्रा विकया व पंचमी भणिता ( एते पंच प्रमादा निर्दिश ) एष प्रमादप्रमादो निर्दिष्टो वीतरागः ॥ १ ॥ Education Internationa For Parts Only ~347~ ८ वीर्या ध्ययनं. ॥१६८॥ waryra Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥४॥ दीप अनुक्रम [४१४] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [४], निर्युक्ति: [९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र - [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः cose seesesesesea भ उक्तवन्तस्तीर्थकरादयः, अप्रमादं च तथाऽपरमकर्म कमाडुरिति, एतदुक्तं भवति -प्रमादोपहतस्य कर्म बध्यते, सकर्मणश्च यत्क्रियानुष्ठानं तद्बालवीर्य, तथाऽप्रमत्तस्य कर्माभावो भवति, एवंविधस्य च पण्डितवीर्थं भवति एतच्च बालवीर्य पण्डितवीर्यमिति वा प्रमादवतः सकर्मणो वालवीर्यमप्रमत्तस्थाकर्मणः पण्डितवीर्यमित्येवमायोज्यं, 'तभावादेसओ वाची'ति तस्य- बालवीर्यस्य कर्म| णश्च पण्डितवीर्यस्य वा भावः - सचा स तद्भायस्तेनाऽऽदेशो - व्यपदेशः ततः, तद्यथा - बालवीर्यमभन्यानामनादिअपर्यवसितं व्यानामनादिसपर्यवसितं वा सादिसपर्यवसितं वेति, पण्डितवीर्य तु सादिसपर्यवसितमेवेति ।। ३ ।। तत्र प्रमादोपहतस्य सकर्मणो यद्वालवीर्य तद्दर्शयितुमाह-शस्त्रं खङ्गादिप्रहरणं शास्त्रं वा धनुर्वेदायुर्वेदादिकं प्राण्युपमर्दकारि तत् सुष्ठु सातगौरवगृद्धा 'एके' केचन 'शिक्षन्ते' उद्यमेन गृहन्ति, तब शिक्षितं सत् 'प्राणिनां' जन्तूनां विनाशाय भवति, तथाहि तत्रोपदिश्यते | एवंविधमालीढप्रत्यालीढा दिभिज्जींचे व्यापादयितव्ये स्थानं विधेयं, तदुक्तम्- "मुष्टिनाऽऽच्छादलक्ष्यं, मुष्टौ दृष्टि निवेशयेत् । हतं लक्ष्यं विजानीयाद्यदि मूर्धा न कम्पते ॥ १॥" तथा एवं लावकरसः क्षयिणे देयोऽभयारिष्टाख्यो मद्यविशेषश्रेति, तथा एवं चौरादेः शूलारोपणादिको दण्डो विधेयः तथा चाणक्याभिप्रायेण परो वञ्चयितव्योऽर्थोपादानार्थ तथा कामशास्त्रादिकं चोद्यमेनाशुभाध्यवसायिनोऽधीयते, तदेवं शस्त्रस्य धनुर्वेदादेः शास्त्रस्य वा यदभ्यसनं तत्सर्वं बालवीर्य, किञ्च एके केचन पापोदयात् मन्त्रानभिचा| रकाना (ते)थर्वणानश्वमेधपुरुषमेधसर्वमेधादियागार्थमधीयन्ते, किम्भूतानिति दर्शयति- 'प्राणा' द्वीन्द्रियादयः 'भूतानि' पृथिव्यादीनि तेषां 'विविधम्' अनेकप्रकारं 'हेटकान्' बाधकान् ऋसंस्थानीयान् मन्त्रान् पठन्तीति, तथा चोक्तम्- "पट् शतानि can Internation For Parts Only ~348~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ८वीर्या सुत्राक ||४|| दीप अनुक्रम [४१४] सूत्रकृताङ्ग | नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनान्यूनानि पशुभित्रिमिः ॥१॥" इत्यादि ॥४।। अधुना 'सत्थ'मित्येतस्मू- शीलाका त्रपदं सूत्रस्पर्शिकया नियुक्तिकारः स्पष्टयितमाहचायीयचियुतं सत्थं असिमादीयं विजामंते य देवकम्मकयं । पत्थिववारुणअग्गेय वाऊ तह मीसगं चेव ॥ ९८॥ शस्त्र प्रहरणं तच्च असिः खड्गस्तदादिकं, तथा विद्याधिष्ठितं, मन्त्राधिष्ठितं देवकर्मकृतं-दिव्यक्रियानिष्पादितं, तच पञ्चविध, ॥१६९॥ तद्यथा-पार्थिवं वारुणमाग्नेयं वायव्यं तथैव यादिमिथ चेति । किशान्यत् माइणो कहु माया य, कामभोगे समारभे । हंता छेत्ता पगभित्ता, आयसायाणुगामिणो॥५॥ मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो । आरओ परओ वावि, दुहाविय असंजया ॥६॥ 'माया' परवञ्चनादि(त्मि)का चुद्धिः सा विद्यते येषां ते मायाविनस्त एवम्भूता मायाः-परवञ्चनानि कृता एकग्रहणे ताती| यग्रहणादेव क्रोधिनो मानिनो लोभिनः सन्तः 'कामान्' इच्छारूपान् तथा भोगांश्च शब्दादिविषयरूपान् 'समारभन्ते' सेवन्ते पाठान्तरं वा 'आरंभाय तिवह' त्रिभिः मनोवाकायरारम्भार्थं वर्तते, बहून् जीवान् व्यापादयन् वान् अपध्वंसयन् आज्ञापयन् भोगार्थी विचोपार्जनार्थ प्रवर्त्तत इत्यर्थः, तदेवम् 'आत्मसातानुगामिन:' स्वसुखलिप्सवो दुःखद्विषो विषयेषु गृद्धाः कपा| यकलुषितान्तरात्मानः सन्त एवम्भूता भवन्ति, तद्यथा 'हन्तारः' प्राणिच्यापादयितारस्तथा छेत्तारः कर्णनासिकादेस्तथा प्रकतेयितारः पृष्टोदरादेरिति ।। ५॥ तदेतत्कथमित्याह-तदेतत्प्राण्युपमर्दनं मनसा वाचा कायेन कृतकारितानुमतिभिश्च 'अन्तशः' ॥१६९॥ ~349~ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [६], नियुक्ति : [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||६|| दीप अनुक्रम [४१६] I8i कायेनाशक्तोऽपि तन्दुलमत्स्यवन्मनसैव पापानुष्ठानानुमत्या कर्म बनातीति, तथा आरतः परतश्चेति लौकिकी वाचोपुक्तिरि-18 येवं पर्यालोच्यमाना ऐहिकामुष्मिकयोः 'द्विधापि खर्यकरणेन परकरणेन चासंयता-जीवोपधातकारिण इत्यर्थः ॥ ६॥ सा1म्प्रतं जीवोपघातविपाकदर्शनार्थमाह वेराई कुबई वेरी, तओ वेरेहिं रजती। पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो ॥७॥ । संपरायं णियच्छंति, अत्तदुक्कडकारिणो । रागदोसस्सिया बाला, पावं कुवंति ते बहुं ॥८॥ वैरमस्थास्तीति वैरी, स जीवोपमईकारी जन्मशतानुबन्धीनि वैराणि करोति, ततोऽपि च वैरादपरैवैरैरनुरज्यते-संवध्यते, वैरपरम्परानुषजी भवतीत्यर्थः, किमिति, यतः पापं उप-सामीप्येन गच्छन्तीति पापोपगाः, क एते -'आरम्भाः ' साव-18 यानुष्ठानरूपाः 'अन्तशो' विषाककाले दुःखं स्पृशन्तीति दुःखस्पर्शा-असातोदयविपाकिनो भवन्तीति ॥ ७॥ किश्चान्यत्'सम्परायं णियच्छंती'त्यादि, द्विविधं कर्म-ईपिथं साम्परायिकं च, तत्र सम्पराया-बादरकपायास्तेभ्य आगतं साम्परायिक तत् जीवोपमईकलेन वैरानुपङ्गिन्तया 'आत्मदुष्कृतकारिणः स्वपापविधायिनः सन्तो 'नियच्छन्ति' बन्नन्ति, तानेव विशिनष्टि'रागद्वेषाश्रिताः कषायकलुषितान्तरात्मानः सदसद्विवेकविकलखात् बाला इव बालाः, ते चैवम्भूताः 'पापम्' असद्वेचे 'बहु'। अनन्तं 'कुर्वन्ति' विदधति ॥ ८॥ एवं बालवीर्य प्रदोपसंजिघृक्षुराह एवं सकम्मवीरियं, बालाणं तु पवेदितं । इत्तो अकम्मविरियं, पंडियाणं सुणेह मे ॥९॥ 22029292aSceneasasasasassa ~350~ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक , मूलं [१०], नियुक्ति: [९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१०|| त्तियुत ॥१७॥ दीप अनुक्रम [४२०] मूत्रकता दबिए बंधणुम्मुक्के, सबओ छिन्नबंधणे । पणोल्ल पावकं कम्म, सल्लं कंतति अंतसो ॥१०॥ Ol८वीयोशीलाका ध्ययन. चार्याय- 'एतत् यत् प्राक् प्रदर्शितं, तद्यथा-प्राणिनामतिपातार्थ शस्त्रं शास्त्र वा केचन शिक्षन्ते तथा परे विद्यामत्रान् प्राणियाधका नधीयन्ते तथाऽन्ये मायाविनो नानाप्रकारां मायां कृखा कामभोगार्थमारम्भान् कुर्वते केचन पुनरपरे वैरिणस्तत्कुर्वन्ति येन वैरैरनुवध्यन्ते (ते) तथाहि-जमदग्निना खभार्याकार्यव्यतिकरे कृतवीर्यो विनाशितः, तत्पुत्रेण तु कार्तवीर्येण पुनर्जमदग्निः, जमद-18 मिसुतेन परशुरामेण सप्त वारान् निक्षत्रा पृथिवी कृता, पुनः कार्तवीर्यसुतेन तु सुभूमेन त्रिःसप्तकुखो ब्राह्मणा व्यापादिताः, तथा चोक्तम्-"अपकारसमेन कर्मणान नरस्तुष्टिमुपैति शक्तिमान् । अधिकां कुरु वै(नेड)रियातनां द्विषतां जातमशेषमुद्धरेत् ॥१॥ तदेवं कषायवशगाः प्राणिनस्तत्कुर्वन्ति येन पुत्रपौत्रादिश्वपि वैरानुबन्धो भवति, तदेतत्सकर्मणां बालानां वीर्य तुशब्दात्प्रमादवतां च प्रकर्षेण वेदितं प्रवेदितं प्रतिपादितमितियावत् , अत ऊर्चमकर्मणां-पण्डितानां यद्वीर्य तन्मे-मम कथयतः शृणुत यूय-16 मिति ॥ ९॥ यथाप्रतिज्ञातमेवाह-'द्रव्यो' भव्यो मुक्तिगमनयोग्यः 'द्रव्यं च भव्य' इति वचनात् रागद्वेषविरहाद्वा द्रव्यभूतोIS कपायीत्यर्थः, यदिवा वीतराग इव वीतरागोऽल्पकषाय इत्यर्थः, तथा चोक्तम्-"किं सका वोत्तुं जे सरागधम्ममि कोइ अकसा- 116 यी । संतेषि जो कसाए निगिण्हइ सोऽपि तत्तुल्लो ॥१॥" स च किम्भूतो भवतीति दर्शयति-बन्धनात् कषायामकान्मुक्तो बन्ध-18| ॥१७॥ १कि वाक्या वक्त वत्सरागधों कोऽप्यकषायः । सोऽपि यः कषायाभिगण्वाति सोऽपि तत्तुभ्यः ॥ १॥ ~351~ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक , मूलं [१०], नियुक्ति: [९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१०|| दीप नोन्मुक्तः, बन्धनखं तु कपायाणां कर्मस्थितिहेतुलात, तथा चोक्तम्-"बंधहिई कसायवसा" कपायवशात् इति, यदिवा-बन्धनोमुक्त इव बन्धनोन्मुक्तः, तथाऽपरः 'सर्वतः' सर्वप्रकारेण मूक्ष्मवादररूपं 'छिन्नम्' अपनीतं 'बन्धन' कषायात्मकं येन स छिनवन्धनः, तथा प्रणुद्य' प्रेय 'पाप' कर्म कारणभूतान्वाऽश्रवानपनीय शल्यवच्छल्पं-शेषकं कर्म तत् कृन्तति-अपनयति अन्तशो-निरवशेषतो विघटयति, पाठान्तरं वा 'सल्लं कंतइ अप्पणोति शल्यभूतं यदष्टप्रकारं कर्म तदात्मनः सम्बन्धि कृन्तति-छिनचीत्यर्थः ॥१०॥ यदुपादाय शल्यमपनयति तदर्शयितुमाह नेयाउयं सुयक्खायं, उवादाय समीहए । भुजो भुजो दुहावासं, असुहत्तं तहा तहा ॥ ११ ॥ ठाणी विविहठाणाणि, चइस्संति ण संसओ। अणियते अयं वासे, णायएहि सुहीहि य ॥१२॥ नयनशीलो नेता, नयतेस्ताच्छीलिकस्तुन् , स चात्र सम्पग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मको मोक्षमार्गः श्रुतचारित्ररूपो वा धर्मो मोक्षनयनशीलसात् गृह्यते, तं मार्ग धर्म वा मोक्ष प्रति नेतारं सुठु तीर्थकरादिभिरारुपात वाख्यातं तम् 'उपादाय' गृहीला 'स-॥ म्यक' मोक्षाय हिते-चेष्टते ध्यानाध्ययनादावुधमं विधत्ते, धर्मध्यानारोहणालम्बनायाह-'भूयो भूयः' पीनःपुन्येन यदालवीर्य तदतीतानागतानन्तभवग्रहणे-(प्र०५०००) पु दुःखमावासयतीति दुःखावासं वर्तते, यथा यथा च बालवीर्यवान् नरकादिषु दु:खावासेषु पर्यटति तथा तथा चास्साशुभाध्यवसायित्वादशुभमेव प्रवर्धते इत्येवं संसारखरूपमनुप्रेक्षमाणस्य धर्मध्यानं प्रवर्तत इति १ वन्धस्थिती कपायवशात् ॥ ३ अनिइए य संबासे इति पाठो व्यापाकृन्मतः, एवं च चकारावित्वादेन संगतियाख्यापाठस्य । अनुक्रम [४२०] eesereesepeceesecseere ~352~ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक , मूलं [१२], नियुक्ति: [९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक त्तियुत ||१३|| S दीप सूत्रकता 18|॥ ११ ॥ साम्प्रतमनित्यभावनामधिकृत्याह-स्थानानि विद्यन्ते येषां ते स्थानिनः, तद्यथा-देवलोके इन्द्रस्तरसामानिकत्रायत्रिंश-18वीर्याशीलाङ्काचार्यांय स्पार्षवादीनि मनुष्येष्यपि चक्रवर्तिबलदेववासुदेवमहामण्डलिकादीनि तिर्यक्ष्वपि यानि कानिचिदिष्टानि भोगभूम्यादौ स्थानानि 8 ध्ययनं. तानि सर्वाण्यपि विविधानि-नानाप्रकाराण्युत्तमाधममध्यमानि ते स्थानिनस्त्यक्ष्यन्ति, नात्र संशयो विधेय इति, तथा चो तम्-"अशाश्वतानि स्थानानि, सर्वाणि दिवि चेह च । देवासुरमनुष्याणामृद्धया सुखानि च ॥१॥" तथाऽयं 'ज्ञातिभिः ॥१७॥ बन्धुभिः सार्ध सहायैश्च मित्रैः सुहृद्भियः संवासः सोऽनित्योऽशाश्वत इति, तथा चोक्तम्-"सुचिरतरमुपित्रा बान्धवैर्विप्रयोगः, सुचिरमपि हि रन्वा नास्ति भोगेषु तृप्तिः । सुचिरमपि सुपुष्टं याति नाशं शरीरं, सुचिरमपि विचिन्त्यो धर्म एकः सहायः R॥१॥" इति, चकारी धनधान्यद्विपदचतुष्पदशरीराधनित्यखभावनाएँ (थे) अशरणायशेषभावनार्थ चानुक्तसमुचयाथेमुपात्ता-18 विति ॥ १२ ॥ अपिच एवमादाय मेहावी, अप्पणो गिद्धिमुद्धरे । आरियं उवसंपजे, सवधम्ममकोवि (५००)यं ॥१३॥ सह संमइए णच्चा, धम्मसारं सुणेत्तु वा । समुवट्ठिए उ अणगारे, पच्चक्खायपावए ॥ १४ ॥ अनित्यानि सर्वाण्यपि स्थानानीत्येवम् 'आदाय' अवधार्य 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितः सदसद्विवेकी वो आत्मनः सम्ब-12॥१७१।। धिनी 'गृर्द्धि' गाय ममखम् 'उद्धरेदू' अपनयेत् , ममेदमहमख स्वामीत्येवं ममलं कचिदपि न कुर्यात् , तथा आरायातः सर्व-IN १ सुगुप्त । २ नेदं प्र.। estseeeeeeestaeseseseserecep अनुक्रम [४२२] ~353~ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक , मूलं [१४], नियुक्ति: [९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१४|| दीप IN हेयधर्मेभ्य इत्यार्यो-मोक्षमार्गः सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रात्मकः, आर्याणां वा-तीर्थकदादीनामयमार्यो-मार्गस्तम् 'उपसम्पयेत' अधितिष्ठत समाश्रयेदिति, किम्भूतं मार्गमित्याह-सर्वैः कुतीर्थिकधमैं: 'अकोपितो' अपितः स्वमहिनेच पयितुमशक्यत्वात् । प्रतिष्ठां गतः (तं), यदिवा-सर्वधर्मैः-वभावैरनुष्ठानरूपैरगोपितं-कुत्सितकर्त्तव्याभावात् प्रकटमित्यर्थः ॥ १३ ॥ सुधर्मपरि-1 ज्ञानं च यथा भवति तद्दर्शयितुमाह-धर्मस्य सार:-परमार्थो धर्मसारस्तं 'ज्ञात्वा' अवबुझ्य, कथमिति दर्शयति-सह सन्18 मत्या खमत्या वा--विशिष्टाभिनियोधिकज्ञानेन श्रुतज्ञानेनावधिज्ञानेन वा, स्वपरावबोधकलात् ज्ञानस्थ, तेन सह, धर्मख सारं | ज्ञावेत्यर्थः, अन्येभ्यो वा तीर्थकरगणधराचायोदिभ्यः ईलापुत्रवत् श्रुखा चिलातपुत्रवद्वा धर्मसारमुपगच्छति, धर्मस्य वा सारं-18 चारित्रं तत्प्रतिपद्यते, तत्प्रतिपत्तौ च पूर्वोपात्तकर्मक्षयार्थ पण्डितवीर्यसम्पन्नो रागादिवन्धनविमुक्तो बालवीर्यरहित उत्तरोत्तरगु| णसम्पत्तये समुपस्थितोऽनगारः प्रवर्धमानपरिणामः प्रत्याख्यात-निराकृतं पापक-सावधानुष्ठानरूपं येनासौ प्रत्याख्यातपापको | भवतीति ॥ १४ ॥ किश्चान्यत्जं किंचुवकम जाणे, आउक्खेमस्स अप्पणो । तस्सेव अंतरा खिप्पं, सिक्खं सिक्खेज पंडिए ॥१५॥ जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे । एवं पावाई मेधावी, अज्झप्पेण समाहरे ॥ १६ ॥ KA उपक्रम्यते-संवर्त्यते क्षयमुपनीयते आयुर्येन स उपक्रमस्तं य कञ्चन जानीयात् , कस्य ?-'आयुःक्षेमस्य' खायुप इति, इद सहर्म०प्र०।१खमलपेक्षया । अनुक्रम [४२४] ~3544 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक , मूलं [१६], नियुक्ति: [९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचायचियुत ॥१७२॥ ||१६|| दीप अनुक्रम [४२६] मुक्तं भवति-वायुष्कस्य येन केनचित्प्रकारेणोपक्रमो भावी यस्मिन् वा काले तत्परिज्ञाय तस्योपक्रमस्य कालस्य वा अन्तराले [क्षिप्रमेवानाकुलो जीवितानाशंसी 'पण्डितो' विवेकी संलेखनारूपां शिक्षा भक्तपरिक्षेङ्गितमरणादिकां वा शिक्षेत , तत्र ग्रहणशि-11 क्षया यथावन्मरण विधि विज्ञायाऽऽसेवनाशिक्षया खासेवेतेति ॥ १५॥ किश्चान्यत्-'यथे' त्युदाहरणप्रदर्शनार्थः यथा 'कर्म:' कच्छपः खान्यकानि-शिरोधरादीनि खके देहे 'समाहरेदु' गोपयेद्-अन्यापाराणि कुर्याद् एवम् अनयैव प्रक्रियया 'मेधावी' मर्यादावान् सदसद्विवेकी वा 'पापानि' पापरूपाण्यनुष्ठानानि 'अध्यात्मना' सम्पग्धर्मध्यानादिभावनया 'समाहरेत्' उप| संहरेत् , मरणकाले चोपस्थिते सम्यक् संलेखनया संलिखितकायः पण्डितमरणेनात्मानं समाहरेदिति ॥१६॥ संहरणप्रकारमाह-- साहरे हत्थपाए य, मणं पंचेंदियाणि य । पावकं च परीणाम. भासादोसं च तारिसं ॥१७॥ अणु माणं च मायं च, तं पडिन्नाय पंडिए । सातागारवणिहुए, उवसंते णिहे चरे ॥ १८॥ पादपोपगमने इङ्गिनीमरणे भक्तपरिज्ञायां शेषकाले वा कर्मवद्धस्तौ पादौ च 'संहरेद' च्यापाराभिवर्तयेत् , तथा 'मन' अन्त:-10 | करणं तचाकुशलब्यापारेभ्यो निवर्तयेत् , तथा-शब्दादिविषयेभ्योऽनुकूलप्रतिकूलेभ्योरक्तद्विष्टतया श्रोत्रेन्द्रियादीनि पश्चापीन्द्रि-13॥ याणि चशब्दः समुच्चये तथा पापकं परिणाममैहिकामुष्मिकाशंसारूपं संहरेदित्येवं भाषादोपं च तादृशं' पापरूपं संहरेत् । मनोवाकायगुप्तः सन् दुर्लभं सत्संयममवाप्य पण्डितमरणं वाऽशेषकर्मक्षयार्थ सम्यगनुपालयेदिति ॥ १७ ॥ तं च संयमे परा उपसंहरेत् प्र.। ॥१७२। ~355 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम [४२८] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [-], मूलं [१८], निर्युक्तिः [९८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः क्रममाणं कश्चित् पूजासत्कारादिना निमन्त्रयेत्, तत्रात्मोत्कर्षो न कार्य इति दर्शयितुमाह - चक्रवर्त्यादिना सत्कारादिना पूज्य - मानेन 'अणुरपि' स्तोकोऽपि 'मानः' अहङ्कारो न विधेयः किमुत महान् ?, यदिवोत्तममरणोपस्थितेनोग्रतपो निष्टतदेहेन वा अहो |ऽहमित्येवंरूपः स्तोकोऽपि गर्यो न विधेयः, तथा पण्डुरार्ययेव स्तोकाऽपि माया न विधेया, किमुत महती ?, इत्येवं कोचलो| भावपि न विधेयाविति, एवं द्विविधयापि परिज्ञया कषायांस्तद्विपाकांच परिज्ञाय तेभ्यो निवृत्तिं कुर्यादिति पाठान्तरं वा 'अइमाणं च मायं च तं परिण्णाय पंडिए' अतीव मानोऽतिमानः सुभूमादीनामिव तं दुःखावहमित्येवं ज्ञाला परिहरेत् इदमुक्तं भवति — यद्यपि सरागस्य कदाचिन्मानोदयः स्यात्तथाप्युदयप्राप्तस्य विफलीकरणं कुर्यादित्येवं मायायामप्यायोज्यं, पाठान्तरं वा 'सुयं मे इहमेगेर्सि, एयं वीरस्स वीरियं' येन बलेन सङ्ग्रामशिरसि महति सुभटसंकटे परानीकं विजयते तत्परमार्थतो वीर्य न भवति, अपि तु येन कामक्रोधादीन् विजयते तद्वीरस्य - महापुरुषस्य वीर्यम् 'इहैव' अस्मिन्नेव संसारे मनुष्यजन्मनि वैकेषां तीर्थकरादीनां सम्बन्धि वाक्यं मया श्रुतं, पाठान्तरं वा 'आयतङ्कं सुआदाय एवं वीरस्स वीरियं आयतो - मोक्षोऽपर्यंवसितावस्थानलात् स चासावर्थव तदर्थो वा तत्प्रयोजनो वा सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रमार्गः स आयतार्थस्तं सुट्टादाय गृहीखा यो धृतिबलेन कामक्रोधादिजयाय च पराक्रमते एतद्वीरस्य वीर्यमिति, यदुक्तमासीत् 'किं तु वीरस्य वीरत्व' मिति तद्यथा भवति तथा व्याख्यातं किञ्चान्यत् - सातागौरवं नाम सुखशीलता तत्र निभृतः तदर्थमनुयुक्त इत्यर्थः तथा क्रोधाविजयादुप| शान्तः - शीतीभूतः शब्दादि विषयेभ्यो ऽप्यनुकूल प्रतिकूलेभ्योऽरक्तद्विष्टतयोपशान्तो जितेन्द्रियत्वा तेभ्यो निवृत्त इति, तथा निहन्यन्ते प्राणिनः संसारे यया सा निहा - माया न विद्यते सा यस्यासावनिहो मायाप्रपञ्चरहित इत्यर्थः, तथा मानरहितो लोभ Ja Eucation International For Penal Use On ~356~ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक , मूलं [१८], नियुक्ति: [९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१८|| सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचायीयत्तियुतं ॥१७३॥ दीप Receneseseseseseseeseses वर्जित इत्यपि द्रष्टव्यं, स चैवम्भूतः संयमानुष्ठानं 'चरेत् कुर्यादिति, तदेवं मरणकालेऽन्यदा वा पण्डितवीर्यवान् महाव्रतेपूयतः वीर्यास्यात् । तत्रापि प्राणातिपातविरतिरेव गरीयसीतिकृता तत्प्रतिपादनार्थमाह-"उड्महे तिरियं वा जे पाणा ससथावरा । सवत्थ ध्ययनं. विरतिं कुज्जा, संति निवाणमाहियं ॥१॥" अयं च श्लोको न सूत्रादशेषु दृष्टः, टीकायां तु दृष्ट इतिकता लिखितः, उत्ता-18|| नार्थवेति ॥ १८॥ किञ्चपाणे य णाइवाएज्जा, अदिन्नंपिय णादए । सादियं ण मुसं बूया, एस धम्मे वुसीमओ ॥ १९ ॥ अतिक्कम्मति वायाए, मणसा वि न पत्थए । सवओ संवुडे दंते, आयाणं सुसमाहरे ॥२०॥ प्राणप्रियाणां प्राणिनां प्राणान्नातिपातयेत् , तथा परेणादत्तं दन्तशोधनमात्रमपि 'नादीत न गृहीयात्, तथा-सहादि-1 ना-मायया वर्त्तत इति सादिकं समायं मृषावादं न ब्रूयात, तथाहि-परवश्वनाथ मृपावादोऽधिक्रियते, स च न माया-18 मन्तरेण भवतीत्यतो मृपावादस्य माया आदिभूता वर्तते, इदमुक्तं भवति-यो हि परवश्चनार्थ समायो मृपावादः स परिदियते, यस्तु संयमगुप्त्यर्थ न मया मृगा उपलब्धा इत्यादिकः स न दोषायेति, एष यः पाक निर्दिष्ट्रो धर्म:-श्रुतचारित्राख्यः स्वभावो| वा 'चुसीमउत्ति छान्दसखात् , निर्देशार्थस्वयं-वस्तुनि ज्ञानादीनि तद्वतो ज्ञानादिमत इत्यर्थः, यदिवा-बुसीमउत्ति वश्यस्यआत्मवशगस्य–वश्येन्द्रियस्वेत्यर्थः ॥ १९॥ अपिच प्राणिनामतिक्रम-पीडात्मकं महाव्रताविक्रम वा मनोऽवष्टब्धतया परति ॥१७३॥ रस्कारं वा इत्येवम्भूतमतिक्रमं वाचा मनसाऽपि च न प्रार्थयेत्, एतद्यनिषेधे च कायातिक्रमो दूरत एव निषिद्धो भवति, तदेवं १०३ ३०४ याथा० २० नवरं वे केति । S09390000-008090a9abas अनुक्रम [४२८] ese ~357~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [४३०] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [-], मूलं [२०], निर्युक्तिः [९८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | मनोवाक्कायैः कृतकारितानुमतिभिश्व नवकेन भेदेनातिक्रमं न कुर्यात्, तथा सर्वतः सबाह्याभ्यन्तरतः संवृतो गुप्तः तथा इन्द्रि यदमेन तपसा वा दान्तः सन् मोक्षस्य 'आदानम्' उपादानं सम्यग्दर्शनादिकं सुयुक्तः सम्यग्विस्रोतसिकारहितः 'आहत' आददीत-गृहीयादित्यर्थः ॥ २० ॥ किञ्चान्यत् -- कडं च कजमाणं च, आगमिस्तं च पावगं । सवं तं णाणुजाणंति, आयगुत्ता जिइंदिया ॥ २१ ॥ जे याबुद्धा महाभागा, वीरा असमत्तदंसिणो । असुद्धं तेसि परकंतं, सफलं होइ सहसो ॥ २२ ॥ साधुदेशेन यदपरैरनार्यकल्पैः कृतमनुष्ठितं पापकं कर्म तथा वर्त्तमाने च काले क्रियमाणं तथाऽऽगामिनि च काले यत्करिष्यते तत्सर्व मनोवाक्कायकर्मभिः 'नानुजानन्ति' नानुमोदन्ते, तदुपभोग परिहारेणेति भावः, यदध्यात्मार्थ पापकं कर्म परैः कृतं क्रियते करिष्यते वा, तद्यथा-शत्रोः शिरच्छिन्नं छिद्यते छेत्स्यते वा तथा चौरो हतो हन्यते हनिष्यते वा इत्यादिकं परानुष्ठानं 'नानुजानन्ति न च बहु मन्यन्ते, तथा यदि परः कश्चिदशुद्धेनाहारेणोपनिमत्रयेत्तमपि नानुमन्यन्त इति, क एवम्भूता भवन्तीति दर्शयति - आत्माऽङ्कुशलमनोवाक्कायनिरोधेन गुप्तो येषां ते तथा, जितानि वशीकृतानि इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि यैस्ते तथा, एवम्भूताः पापकर्म नानुजानन्तीति स्थितम् ॥ २१ ॥ अन्यच्च ये केचन 'अबुद्धा' धर्म प्रत्यविज्ञातपरमार्था व्याकरणशुष्कतकदिपरिज्ञानेन जातावलेपाः पण्डितमानिनोऽपि परमार्थवस्तुतवानवबोधादबुद्धा इत्युक्तं, न च व्याकरणपरिज्ञानमात्रेण सम्यक्लव्यतिरेकेण तत्त्वावबोधो भवतीति, तथा चोक्तम्- “शास्त्रावगाहपरिघट्टनतत्परोऽपि नैवाबुधः समभिगच्छति वस्तुतत्त्वम् । Ja Eucation Internation For Par Use Only ~358~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [४३२] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [-], मूलं [२२], निर्युक्तिः [९८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र - [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चार्ययचियुर्त ॥१७४॥ | नानाप्रकाररसभावगताऽपि दर्जी, स्वादं रसस्य सुचिरादपि नैव वेत्ति ॥ १ ॥" यदिवाऽबुद्धा इव बालवीर्यवन्तः, तथा महान्तेय ते भागाश्च महाभागाः, भागशब्दः पूजावचनः, ततथ महापूज्या इत्यर्थः, लोकविश्रुता इति, तथा 'वीराः' परानीकमेदिनः सुभटा इति इदमुक्तं भवति पण्डिता अपि त्यागादिभिर्गुणैलोकपूज्या अपि तथा सुभटवादं वहन्तोऽपि सम्यक्तच्चपरिज्ञान वि कलाः केचन भवन्तीति दर्शयति न सम्यगसम्यक् तद्भावोऽसम्यक्सं तद्रष्टुं शीलं येषां ते तथा, मिथ्यादृष्टय इत्यर्थः तेषां च बालानां यत्किमपि तपोदानाध्ययनयमनियमादिषु पराक्रान्तमुद्यमकृतं तदशुद्धं अविशुद्धिकारि प्रत्युत कर्मबन्धाय, भावोपहतलातू सनिदानखाद्वेति कुवैद्यचिकित्सावद्विपरीतानुचन्धीति, तच तेषां पराक्रान्तं सह फलेन कर्मबन्धेन वर्तत इति सफलं 'सर्वश' इति सर्वाऽपि तत्क्रिया तपोनुष्ठानादिका कर्मबन्धौयेवति ॥ २२ ॥ साम्प्रतं पण्डितवीर्यणोऽधिकृत्याह जे य बुद्धा महाभागा, वीरा सम्मत्तदंसिणो । सुद्धं तेसिं परकंतं, अफलं होइ सहसो ॥ २३ ॥ तेसिंपि तवो ण सुद्धो, निक्खंता जे महाकुला । जन्ने वन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेज्जए ॥ २४ ॥ अप्पपिंडासि पाणासि, अप्पं भासेज्ज सुवए । खंतेऽभिनिजुडे दंते, वीतगिद्धी सदा जए ॥ २५ ॥ | झाणजोगं समाहद्दु, कार्य विउसेज सहसो । तितिक्खं परमं णच्चा, आमोक्खाए परिवएजासि ॥२६॥ ( गाथाग्रं० ४४६ ) त्तिबेमि इति श्रीवीरियनाममट्टममज्झयणं समत्तं ॥ १ महान्तवेति भागाथ महान्तव ते नागाथ प्र०२ मुयमः कृतस्त० । Education International For Pernal Use Only ~359~ ८ वीर्याध्ययनं. ॥१७४॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक , मूलं [२६], नियुक्ति: [९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२६|| दीप अनुक्रम [४३६] ये केचन खयम्पद्धास्तीर्थकरायास्तच्छिष्या वा बुद्धबोधिता गणधरादयो 'महाभागा' महापूजाभाजो 'वीराः' कर्मविदारण-18 सहिष्णवो ज्ञानादिभिर्वा गुणैर्विराजन्त इति वीराः, तथा 'सम्यक्त्वदर्शिनः' परमार्थतत्ववेदिनस्तेषां भगवतां यत्पराक्रान्तं-18 तपोऽध्ययनयमनियमादावनुष्ठितं तरछुद्धम् अवदातं निरूपरोधं सातगौरवशल्यकपायादिदोषाकलङ्कितं कर्मबन्धं प्रति अफलं भवति--तन्निरनुबन्धनिर्जरार्थमेव भवतीत्यर्थः, तथाहि-सम्यग्दृष्टीनां सर्वमपि संयमतपःप्रधानमनुष्ठानं भवति, | संयमस्य चानाश्रवरूपखात् तपसच निर्जराफलखादिति, तथा च पश्यते-"संयमे अणण्हयफले तवे वोदाणफले" इति । ॥ २३ ॥ किश्चान्यत् --महत्कुलम् -इक्ष्वाकादिकं येषां ते महाकुला लोकविश्रुताः शौर्यादिभिर्गुणैर्विस्तीर्णयशसस्तेषामपि । पूजासत्काराधर्थमुत्कीर्तनेन वा यत्तपस्तदशुद्धं भवति, यच क्रियमाणमपि तपो नैवान्ये दानश्राद्धादयो जानन्ति तचथाभूतमात्मार्थिना विधेयम् , अतो नैवात्मश्लाघां 'प्रवेदयेत्' प्रकाशयेत्, तद्यथा-अहमुचमकुलीन इभ्यो वाऽऽसं साम्प्रतं पुनस्तपोनिष्टप्तदेह इत्ति, एवं खयमाविष्करणेन न स्वकीयमनुष्ठानं फल्गुतामापादयेदिति ॥ २४ ॥ अपिच----अल्पस्तोकं पिण्डमशितुं शीलमस्यासावल्पपिण्डाशी यत्किञ्चनाशीति भावः, एवं पानेऽप्यायोज्यं, तथा चागमः-"हे' जं व तं व आसीय जत्थ व तत्थ व सुहोवगयनिहो । जेण व तेण (ब) संतुट्ठ वीर ! मुणिओसि ते अप्पा ॥ १॥ तथा "अहाकुडिअंड १ महानागाः प्र.२ संयमोऽनाधयफलः तपो ध्यपदानफळमिति । ३ यद्वा तद्वा अशिखा यत्र तत्रमा मुसोपगत निदः येन तेन पा सन्तुष्टः (अगि) हे वीर । खवात्मा ज्ञातोऽसि ॥१॥ अकुलाब्याकप्रमाणाकवलानाहारबाल्पाहारो द्वादशकवसरपार्धापमोदरिका घोग्यामिद्विभाषा प्राप्ता चर्षिशल्या अवमोदरिका |त्रिंशता कवलैः प्रमाणप्राप्तः द्वात्रिंशत्कमलाः सम्पूर्णाहार इति । ~360~ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक , मूलं [२६], नियुक्ति: [९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२६|| दीप सूत्रकृताङ्गं | गमेत्तप्पमाणे कवले आहारेमाणे अप्पाहारे दुवालसकवलेहिं अबहोमोयरिया सोलसहिं दुभागे पत्ते पपीस ओमोदरिया तीस 181८ वीयर्योशीलाका पमाणपत्ते बत्तीस कवला संपुण्णाहारे" इति, अत एकैककवलहान्यादिनोनोदरता विधेया, एवं पाने उपकरणे चोनोदरता विद- ध्ययन. चाय-य भ्यादिति, तथा चोक्तम्-"योवाहारो थोवमणिओ अ जो होइ थोपनिदो अ । थोबोवहिउपकरणो तस्स हु देवावि पणमंति त्तियुतं |॥१॥" तथा 'सुव्रत' साधुः 'अल्पं परिमितं हितं च भाषेत, सर्वदा विकथारहितो भवेदित्यर्थः, भावावमौदर्यमधिक॥१७५॥ । त्याह-भावतः क्रोधायुपशमात् 'क्षान्तः क्षान्तिप्रधान तथा 'अभिनिवृतो लोभादिजयाभिरातुरः, तथा इन्द्रियनोइन्द्रिय-1|| दमनात 'दान्तों जितेन्द्रियः, तथा चोक्तम्-"कपाया यस्य नोछिना, यस्य नात्मवशं मनः । इन्द्रियाणि न गुप्तानि, प्रवज्या तख जीवनम् ॥१॥" एवं विगता गृद्धिर्विषयेषु यस स विगतगृद्धिः-आशंसादोषरहितः 'सदा सर्वकालं संयमानुष्ठाने | 'यतेत' यलं कुर्यादिति ।। २५ ॥ अपिच-'झाणजोगम्' इत्यादि, ध्यान-चित्तनिरोधलक्षणं धर्मध्यानादिकं तत्र योगो विशिटमनोवाकायच्यापारस्तं ध्यानयोग 'समाहृत्य' सम्यगुपादाय 'कार्य' देहमकुशलयोगप्रवृत्तं 'व्युत्सृजेत्' परित्यजेत् 'सर्वतः' | सर्वेणापि प्रकारेण, हस्तपादादिकमपि परपीडाकारि न व्यापारयेत् , तथा 'तितिक्षा' शान्ति परीषहोपसर्गसहनरूपां 'परमा प्रधानां शाला 'आमोक्षाय' अशेषकर्मक्षयं यावत् 'परिव्रजेरिति संयमानुष्ठानं कुर्यास्वमिति । इतिः परिसमाप्त्यर्थे । अधीमी-18॥१७५।। ति पूर्ववत् ॥ २६ ॥ समाप्त चाष्टमं वीर्याख्यमध्ययनमिति ।। अनुक्रम [४३६] सोकाहारा खोकमणितः लोक निदध गो भवति । सोकोपधिकोपकरणसौ च देवा अपि प्रणमन्ति ॥1॥ अत्र अष्टम अध्ययनं परिसमाप्तं ~361 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [२६...], नियुक्ति: [९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अथ नवमं अध्ययनं प्रारभ्यते ॥ प्रत सूत्रांक ||२६|| दीप अनुक्रम [४३६] अष्टमानन्तरं नवमं समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने वालपण्डितभेदेन द्विरूपं वीर्य प्रतिपादितं, अ-18 वापि तदेव पण्डितवीर्य धर्म प्रति यदुधमं विधत्ते अतो धर्मः प्रतिपाद्यत इत्यनेन सम्बन्धेन धर्माध्ययनमायातं, अस्य चखार्यनु-1 | योगद्वाराणि उपक्रमादीनि प्राग्वत् व्यावर्गनीयानि, तत्राप्युपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं, तद्यथा-धर्मोच प्रतिपाद्यत इति तम-18 |धिकृत्य नियुक्तिकृदाह धम्मो पुब्बुदिडो भावधम्मेण एत्य अहिगारो । एसेव होइ धम्मे एसेव समाहिमग्गोत्ति ॥ ९९ ॥ दुर्गतिगमनधरणलक्षणो धर्मः प्राक् दशवकालिकश्रुतस्कन्धषष्ठाध्ययने धर्मार्थकामाख्ये उद्दिष्टः-प्रतिपादितः, इह तु भावधर्मेणाधिकारः, एष एव च भावधर्मः परमार्थतो धर्मो भवति, अमुमेवार्थमुत्तरयोरप्यध्ययनयोरतिदिशबाह-एष एव च भावसमाधिर्भावमार्गश्च भवतीत्यवगन्तव्यमिति, यदिवैप एव च भावधर्मः एष एव च भावसमाधिरेष एव च तथा भावमार्गो भवति, न तेषां परमार्थतः कविनेदः, तथाहि-धर्मः श्रुतचारित्राख्यः क्षान्त्यादिलक्षणो वा दशप्रकारो भवेत् , भावसमाधिरप्येवंभूत एव, तथाहि-सम्यगाधानम् आरोपणं गुणानां क्षान्त्यादीनामिति समाधिः, तदेवं मुक्तिमार्गोऽपि ज्ञानदर्शनचारित्राख्यो भावधर्मतया व्याख्यानयितव्य इति ।। साम्प्रतमतिदिष्टस्यापि स्थानाशून्यार्थ धर्मस्य नामादिनिक्षेप दर्शयितुमाह-- अत्र नवमं अध्ययनं "धर्म" आरब्धं, अनंतर अध्ययनस्य सम्बन्ध:, 'धर्म' शब्दस्य अर्थ एवं अधिकार:, ~362~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [२६...], नियुक्ति: [१००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२६|| दीप अनुक्रम [४३६] सूत्रकृताई णामंठवणाधम्मो दख्वधम्मो य भावधम्मो य । सञ्चित्ताचित्तमीसगगिहत्वदाणे दवियधम्मे ॥१०॥ शीलाका- नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाच्चतुर्धा धर्मस्य निक्षेपः, तत्रापि नामस्थापने अनादृत्य ज्ञशरीरभव्यशरीरच्यतिरिक्तो व्यधर्मः सचि-18|| ध्ययन. चार्गीय ताचित्तमिश्रभेदात् त्रिधा, तत्रापि सचित्तस्य जीवच्छरीरस्योपयोगलक्षणो 'धर्मः' स्वभावः, एवमचित्तानामपि धर्मास्तिकायादीनां चियुतं यो यस्य स्वभावः स तस्य धर्म इति, तथाहि-"गइलक्खणओ धम्मो, अहम्मो ठाणलक्खणो । भायणं सबदवाणं, नई अवगाह॥१७६॥ लक्खणं ॥१॥" पुद्गलास्तिकायोऽपि ग्रहणलक्षण इति, मिश्रद्रयाणां च क्षीरोदकादीनां यो यस्य खभावः स तद्धर्मतयाऽवग न्तव्य इति, गृहस्थानां च यः कुलनगरमामादिधर्मो गृहस्खेभ्यो गृहस्थानां वा यो दानधर्मः स द्रव्यधर्मोऽवगन्तव्य इति, तथा चोक्तम्-"अचं पानं च वखं च, आलयः शयनासनम् । शुश्रूषा वन्दनं तुष्टिः, पुण्यं नवविधं स्मृतम् ॥ १॥" भावधर्म| स्वरूपनिरूपणायाहलोइयलोउत्तरिओ दुविहो पुण होति भावधम्मो उ। दुविहोवि दुविहतिविहो पंचविहो होति णायब्बो ॥१०१॥ भावधर्मों नोआगमतो द्विविधः, तद्यथा-लौकिको लोकोतरच, तत्र लौकिको द्विविधः-गृहस्थानों पाखण्डिकानां च, लोकोचिरत्रिविधा-शानदशेनचारित्रभेदात्, तत्राप्याभिनिबोधादिकं ज्ञानं पञ्चधा, दर्शनमप्योपशमिकसाखादनक्षायोपशमिकवेदकक्षा-8 ॥१७६।। IS| यिकमेदाव पश्चविध, चारित्रमपि सामायिकादिभेदाव पञ्चधैव । गाथाऽक्षराणि खेव नेयानि, तद्यथा-भावधर्मो लोकिकलो-॥ कोत्तरभेदाद्विधा, द्विविधोऽपि चार्य यथासमयेन द्विविधविविधः, तत्रैव लौकिको गृहस्थपाखण्डिकभेदात् द्विविधा, लोकोचरो eveaeseseenea Seesesesesesesesesex धर्मस्य निक्षेपा:, भाव-धर्मस्य निरुपणा ~363~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक -1, मूलं [१], नियुक्ति: [१०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| दीप अनुक्रम [४३७] |पि ज्ञानदर्शनचारित्रभेदात् त्रिविधः, ज्ञानादीनि प्रत्येकं त्रीण्यपि पंचधैवेति ॥ सत्र ज्ञानदर्शनचारित्रवतां साधूनां यो धर्मस्त दर्शयितुमाहपासत्थोसण्णकसील संधवो ण किर वहती काउं। सूयगडे अज्झयणे धम्ममि निकाइतं एयं ॥ १०२॥ साधुगुणानां पार्थे तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः तथा संयमानुष्ठानेऽवसीदन्तीत्यवसन्नाः तथा कुत्सितं शीलं येषां ते कुशीलाः एतैः पार्श्वस्थादिभिः सह संस्तवः-परिचयः सहसंवासरूपो न किल यतीनां वर्तते कर्तुम् , अतः सूत्रकृतेऽङ्गे धर्माख्येऽध्ययने एतत् ।। | 'निकाचितं' नियमितमिति ।। गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, अधुना मूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं मूत्रमुचारयितव्यं, तच्चेदम्-18 कयरे धम्मे अक्खाए, माहणेण मतीमता? । अंजु धम्मं जहातच्चं, जिणाणं तं सुणेह मे ॥१॥ माहणा खत्तिया वेस्सा, चंडाला अदु बोक्सा । एसिया वेसिया सुद्दा, जे य आरंभणिस्सिया ॥२॥ परिग्गहनिविट्राणं, वेरं तेसिं पववई । आरंभसंभिया कामा, न ते दुक्खविमोयगा ॥३॥ आघायकिच्चमाहेउं, नाइओ विसएसिणो । अन्ने हरंति तं वित्तं, कम्मी कम्मेहिं किच्चती ॥४॥ | जम्यूस्खामी सुधर्मस्वामिनमुद्दिश्येदमाह-तद्यथा-कतर' किम्भूतो दुर्गतिगमनधरणलक्षणो धर्मः 'आख्यातः' प्रतिपादितो ॥९॥ 'माहणेणं'ति मा जन्तून व्यापादयेत्येवं विनेयेषु वाक्प्रवृत्तिर्यस्यासौ 'माहनों' भगवान् वीरवर्धमानखामी तेन , तमेव विशि नष्टि-मनुते-अवगच्छति जगत्रयं कालत्रयोपेतं यया सा केवलज्ञानाख्या मतिः सा अखास्तीति मतिमान् तेन-उत्पत्रकेवल साधुनाम् धर्मस्य दर्शनं, मूल सूत्रस्य आरम्भ:, ~364 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक -1, मूलं [४], नियुक्ति: [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत धमा ध्ययन. सुत्रांक ||४|| मूत्रकृताई ज्ञानेन भगवता, इति पृष्टे सुधर्मस्वाम्याह-रागद्वेष जितो जिनास्तेषां सम्बन्धिनं धर्म 'अंजुम्' इति 'ऋजु' मायाप्रपञ्चरहितखाशीलाका- दवकं तथा-'जहातचं में' इति यथावस्थितं मम कथयतः भृणुत यूयं, न तु यथाऽन्यैस्तीकिर्दम्भप्रधानो धर्मोऽभिहितस्तथा चार्षीय भगवताऽपीति, पाठान्तरं वा 'जणगा तं सुणेह में जायन्त इति जना-लोकास्त एष जनकास्तेषामामन्त्रणं हे जनकाः! तं धर्म त्तियुत शृणुत यूयमिति ॥१।। अन्वयव्यतिरेकाभ्यामुक्तोऽर्थः मूक्तो भवतीत्यतो यथोद्दिष्टधर्मप्रतिपक्षभूतोऽधर्मस्तदाश्रितांस्तावद्दर्शयितुमाह॥१७७॥ ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्यास्तथा चाण्डालाः अथ बोकसा-अवान्तरजातीयाः, तद्यथा ब्राह्मणेन शूद्या जातो निषादो ब्राह्मणेनैव वैश्यायां जातोऽम्बष्ठः तथा निषादेनाम्बष्टयां जातो बोकसः, तथा एषितुं शीलमेषामिति एषिका-मृगलुब्धका हस्तितापसाच मांसहेतोम॑गान् हस्तिनश्च एषन्ति, तथा कन्दमूलफलादिकं च, तथा ये चान्ये पाखण्डिका नानाविधैरुपायैर्भेक्ष्यमेषन्त्यन्यानि वा | विषयसाधनानि ते सर्वेऽप्येषिका इत्युच्यन्ते, तथा 'वैशिका' वणिजो मायाप्रधानाः कलोपजीविनः, तथा 'शुद्रा' कृषीवला-15 ॥ दयः आभीरजातीयाः, कियन्तो वा वक्ष्यन्त इति दर्शयति-ये चान्ये वर्णापसदा नानारूपसावध 'आरम्भ(म्भे)निश्रिता' यत्र-1|| |पीडननिर्लान्छनकर्माङ्गारदाहादिभिः क्रियाविशेषैर्जीवोपमईकारिणः तेषां सर्वेषामेव जीवापकारिणां वैरमेव प्रवर्धत इत्युत्तरश्लोके 19 क्रियेति ॥ २ ॥ किश्च-परि-समन्तात् गृह्यत इति परिग्रहो-द्विपदचतुष्पदधनधान्यहिरण्यसुवर्णादिषु ममीकारस्तत्र 'नि-18|| ॥१७७।। |विष्टानाम् अध्युपपन्नानां गाय गताना 'पापम्' असातवेदनीयादिक तेषां प्रागक्तानामारम्भनिधितानां परिग्रहे निवि-॥ टानां प्रकर्षेण 'वर्द्धते' वृद्धिमुपयाति जन्मान्तरशतेष्वपि दुर्मोचं भवति, कचित्पाठः 'बेरं तेसिं पवइति तत्र येन यस्य 1१] aeroecenesesesenternet दीप अनुक्रम [४४० ~365 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक -1, मूलं [४], नियुक्ति: [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक 2280 दीप अनुक्रम [४४० ॥ यथा प्राणिन उपमर्दः क्रियते स तथैव संसारान्तर्वर्ती शतशो दुःखभाक् भवतीति, जमदग्निकृतवीर्यादीनामिव पुत्रपौत्रानुगं वैरं प्रबर्द्धत इति भावः, किमित्येवं ?, यतस्ते कामेषु प्रवृत्ताः, कामाश्वारम्मैः सम्यग्र भृताः संभृता-आरम्भपुष्टा आरम्भाच जीवो३ पमर्दकारिणः अतो न ते कामसम्भृता आरम्भनिश्रिताः परिग्रहे निविष्टाः दुःखयतीति दुःखम् – अष्टप्रकारं कर्म तद्विमोचका 18 भवन्ति तस्थापनेवारो न भवन्तीत्यर्थः ।। ३ ।। किश्चान्यत्-आहन्यन्ते-अपनीयन्ते विनाश्यन्ते प्राणिनां दश प्रकारा अपि प्राणा यसिन् स आघातो-मरणं तस्मै तत्र वा कृतम्-अग्निसंस्कारजलाञ्जलिप्रदानपितृपिण्डादिकमाघातकृत्यं तदाधातुम्-आधाय कुखा पश्चात् 'ज्ञातयः' खजनाः पुत्रकलत्रभ्रातृव्यादयः, किम्भूताः-विषयानन्वेष्टुं शीलं येषां तेऽन्येऽपि विपयैषिणः सन्तस्तस्य दुःखार्जितं वित्तं द्रव्यजातम् 'अपहरन्ति' स्वीकुर्वन्ति, तथा चोक्तम्- "ततस्तेनार्जितैर्द्रव्यैर्दारेश्च परिरक्षितैः । क्रीडन्त्यन्ये नरा राजन् , हटास्तुष्टा बालहताः ॥१॥" स तु द्रव्याजेनपरायणः सावद्यानुष्ठानवान् कर्मवान् पापी स्वतः कर्मभिः सं-12 || सारे 'कृत्यते' छिद्यते पीट्यत इतियावत् ॥ ४॥ खजनाश्च तद्रव्योपजीविनस्तत्राणाय न भवन्तीति दर्शयितुमाह माया पिया ण्हसा भाया, भजा पुत्ता य ओरसा । नालं ते तव ताणाय, लुप्पंतस्त सकम्मुणा॥५॥ ॥ एयमढें सपेहाए, परमाणुगामियं । निस्ममो निरहंकारो, चरे भिक्खू जिणाहियं ॥६॥ 18 चिच्चा वित्तं च पुत्ते य, णाइओ य परिग्गहं । चिच्चा ण अंतगं सोयं, निरवेक्खो परिचए ॥७॥ SARERainintenarana ~366~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-1, मूलं [८], नियुक्ति: [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ९ वर्मा ध्ययन सूत्रांक सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचायित्रचियुत ||८|| ॥१७८॥ दीप अनुक्रम [४४४] पुढवी उ अगणी वाऊ, तणरुक्ख सबीयगा । अंडया पोयजराऊ, रससंसेयउब्भिया ॥८॥ 'माता' जननी 'पिता' जनकः 'स्नुषा' पुत्रवधूः 'भ्राता' सहोदरः तथा 'भार्या' कलत्रं पुत्राश्चौरसाः-स्वनिष्पादिता एते सर्वेऽपि मात्रादयो ये चान्ये श्वशुरादयस्ते तव संसारचक्रवाले खकर्मभिर्विलुप्यमानस्य प्राणाय 'नालं' न समर्थी भवन्तीति, | इहापि तावन्नैते त्राणाय किमुतामुत्रेति, दृष्टान्तवात्र कालसौकरिकसुतः सुलसनामा अभयकुमारस्य सखा, सेन महासत्वेन | खजनाभ्यर्थितेनापि न प्राणिष्वपकृतम् , अपि खात्मन्येवेति ।।५।। किश्चान्यत् धर्मरहितानां खकृतकर्मविलुप्यमानानीमहिकाम-110 | मिकयोर्न कश्चित्राणायेति एनं पूर्वोक्तमर्थ स. प्रेक्षापूर्वकारी 'प्रत्युपेक्ष्य' विचार्यावगम्य च परमः-प्रधानभूतो (ों ) मोक्षः | संयमो वा तमनुगच्छतीति तच्छीलच परमार्थानुगामुकः-सम्यगदर्शनादिस्तं च प्रत्युपेक्ष्य, क्खाप्रत्ययान्तस्य पूर्वकालवाचितया | क्रियान्तरसव्यपेक्षतात् तदाह-निर्मतं ममसं बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु यस्मादसौ निर्ममः तथा निर्गतोऽहकार:-अभिमानः पूर्व-181 |श्वर्यजात्यादिमदजनितस्तथा तपःस्वाध्यायलाभादिजनितो वा यसादसौ निरहवारो-रागद्वेषरहित इत्यर्थः, स एवम्भूतो भिक्षु-121 जिंनैराहिता-प्रतिपादितोऽनुष्ठितो वा यो मार्गो जिनानां वा सम्बन्धी योभिहितो मार्गस्तं 'चरेदू' अनुतिष्ठेदिति ॥ ६॥ अ-IN ॥ पिच-संसारखभावपरिज्ञानपरिकर्मितमतिविदितवेद्यः सम्यक् 'त्यक्त्वा परित्यज्य किं तद्-'विस' द्रव्यजातं पुत्रांश्च त्यक्सा, पुत्रेष्वधिकः स्नेहो भवतीति पुत्रग्रहणं, तथा 'ज्ञातीन्' खजाश्च त्यक्ता तथा 'परिग्रह' चान्तरममखरूपं णकारो वाक्याल-18 शारे अन्तं गच्छतीत्यन्तगो दुष्परित्यज इत्यर्थः अन्तको वा विनाशकारीत्यर्थः आत्मनि वा गच्छतीत्यात्मग आन्तर इत्यर्थः तं ॥१७८॥ ~367~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक -1, मूलं [८], नियुक्ति: [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत Soccess सूत्रांक ||८|| तथाभूतं 'शोक' संतापं 'त्यक्त्वा परित्यज्य श्रोतो वा-मिथ्यावाविरतिप्रमादकपायात्मकं कर्माश्रवद्वारभूतं परित्यज्य, पाठा-॥३॥ ॥न्तरं वा 'चिचा गणंतगं सोयं' अन्तं गच्छतीत्यन्तगं न अन्तगमनन्तगं श्रोतः शोकं वा परित्यज्य 'निरपेक्षा' पुत्रदारधन-1 |धान्यहिरण्यादिकमनपेक्षमाणः सन् आमोक्षाय परि-समन्तात् संयमानुष्ठाने 'बजेत्' परिव्रजेदिति, तथा चोक्तम्-"छलिया| | अवयक्खंता निरावयक्खा गया अविग्घेणं । तम्हा पवयणसारे निरावयक्खेण होयत्वं ॥ १॥ भोगे अक्यक्खंता पडंति संसारसागरे घोरे । भोगेहि निरवयक्खा तरंति संसारकतारं ।। २॥” इति ॥७॥ स एवं प्रत्रजितः सुत्रतावस्थितात्मा हिंसादिषु | अतेषु प्रयतेत, तत्राहिंसाप्रसिद्ध्यर्थमाह-'पुढवी उ' इत्यादि श्लोकद्वयं, तत्र पृथिवीकायिकाः सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्तकभेदभिनाः तथाऽप्रकायिका अधिकायिका वायुकायिकाचैवम्भूता एव, वनस्पतिकायिकान् लेशतः सभेदानाह-'तृणानि कुशवच्चकादीनि 'वृक्षाः' चूताशोकादिकाः सह बीजैर्वर्तन्त इति सबीजाः, बीजानि तु शालिगोधूमयवादीनि, एते एकेन्द्रियाः पश्चापि कायाः षष्ठत्रसकायनिरूपणायाह अण्डामाता अण्डजा:-शकुनिगृहकोकिलकसरीमपादयः तथा पोता एव जाताः पोतजा-हस्तिशरभादयः तथा जरायुजा ये जम्बालवेष्टिताः समुत्पद्यन्ते गोमनुष्यादयः तथा रसात् दधिसौवीरकादेोता रसजास्तथा । संखेदाआताः संस्खेदजा यूकामत्कुणादयः 'उद्भिजा' खजरीटकदर्दुरादय इति, अज्ञातभेदा हि दुःखेन रक्ष्यन्त इत्यतो भेदेनोपन्यास इति ॥८॥ | १ छलिता अपेक्षमाणा निरपेक्षमाणा मता अविनेन तस्मात्मनचनसारे (झाते) निरपेक्षेण भवितव्यम् ॥ १॥ २ भोगानपेक्षमाणाः पतन्ति संसारसागरे 18 पोरे । भोगेषु निरपेक्षास्तरन्ति संसारकान्तारं ॥ १॥ ३ बन्धका०प्र० । 29092030ssease दीप अनुक्रम [४४४] ~3684 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-1, मूलं [८], नियुक्ति: [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक ||९|| दीप अनुक्रम [४४५] सूत्रकृताङ्गं एतेहिं छहिं काएहि, तं विजं परिजाणिया । मणसा कायवक्केणं, णारंभी ण परिग्गही ॥९॥ शीलासा ध्ययन चाय-18|मुसावायं बहिद्धं च, उग्गहं च अजाइया । सस्थादाणाई लोगंसि, तं विजं परिजाणिया ॥१०॥ पलिउंचणं च भयणं च, थंडिल्लुस्सयणाणि या । धूणादाणाई लोगसि, तं विज परिजाणिया ॥११॥8॥ ॥१७॥ धोयणं रयणं चेव, बत्थीकम्मं विरेयणं । वमणंजण पलीमथं, तं विजं परिजाणिया ॥ १२॥ 8 'एभिः पूर्वोक्तः पइभिरपि 'कायैः' बसस्थावररूपैः सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्तकभेदभिन्न रम्भी नापि परिग्रही सादिति । सम्बन्धः, तदेतद् 'विद्वान' सश्रुतिको ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिक्षया मनोवाकायकर्मभिर्जीवोपमर्दकारिणमारम्भं परि| ग्रहं च परिहरेदिति ॥९॥ शेषवतान्यधिकृत्याह-मृपा-असद्भूतो वादो मृपावादस्तं विद्वान् प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् 18| तथा 'बहिदंति मैथुनं 'अवग्रह' परिग्रहमयाचितम् अदत्तादानं, [.५२५०] यदिवा बहिद्धमिति-मैथुनपरिग्रही अ-1 वग्रहमयाचितमित्यनेनादत्तादानं गृहीतं, एतानि च मृषावादादीनि प्राण्युपतापकारितात् शस्त्राणीव शखाणि वर्तन्ते । तथाऽऽदी-|| || यते--गृह्यतेऽष्टप्रकार कमभिरिति (आदानानि) कर्मोपादानकारणान्यसिन् लोके, तदेतत्सर्व विद्वान् शपरिक्षया परिज्ञाय प्र-18||१७९।। ॥ त्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति ॥ १०॥ किश्चान्यत्-पञ्चमहाव्रतधारणमपि कपायिणो निष्फलं सादतस्तत्साफल्यापादनार्थे | ॥ कषायनिरोधी विधेय इति दर्शयति-परि-समन्तात् कुश्यन्ते--वक्रतामापाद्यन्ते क्रिया येन मायानुष्ठानेन तत्पलिकुञ्चनं ~369~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| IS मायेति भण्यते, तथा भज्यते सर्वत्रात्मा प्रहीक्रियते येन स भजनो-लोभस्तं, तथा यदुदयेन खात्मा सदसद्विवेकविकलखान IST स्थाण्डिलवद्भवति स स्थण्डिल:-क्रोधः, यसिंश्च सत्यूर्व श्रयति जात्यादिना दध्मातः पुरुष उचानीभवति स उच्ड्रायो-मानः,12 छान्दसत्वानपुंसकलिङ्गता, जात्यादिमदस्थानानां बहुतात् तत्कार्यस्यापि मानस्य बहुखमतो बहुवचनं, चकाराः खमतभेदसंसूचनार्थाः समुच्चयार्थी वा, धूनयेति प्रत्येक क्रिया योजनीया, तद्यथा-पलिकुञ्चनं मायां धनय धूनीहि वा, तथा मजनलोभ, तथा स्थण्डिलं क्रोध, तथा उच्छ्राय-मानं, विचित्रखाव सूत्रस्य क्रमोल्लङ्घनेन निर्देशो न दोषायेति, यदिवा-रागस दुस्त्यजखात् लोभस्य च मायापूर्वकलादित्यादावेव मायालोभयोरुपन्यास इति, कषायपरित्यागे विधेये पुनरपरं कारणमाह-एतानि ||81 पलिकुश्चनादीनि असिन् लोके आदानानि वर्तन्ते, तदेतद्विद्वान् ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याचक्षीत ॥११॥ पुनरप्युत्तरगुणानधिकृत्याह-धावनं-प्रक्षालनं हस्तपादवखादे रञ्जनमपि तस्यैव, चकारः समुञ्चयार्थः, एवकारोऽवधारणे, तथा बस्तिकर्म-अनुवासनारूपं तथा 'विरेचनं निरूहात्मकमघोविरेको वा वमनम् ऊर्ध्वविरेकस्तथाऽञ्जनं नयनयोः, इत्येवमादिकमन्यदपि शरीरसंस्कारादिकं यत् 'संयमपलिमन्धकारि' संयमोपघातरूपं तदेतद्विद्वान् खरूपतस्तद्विपाकता परिज्ञाय प्रत्याचक्षीत ॥ १२ ॥ अपिचगंधमल्लसिणाणं च, दंतपक्खालणं तहा । परिग्गहित्थिकम्मं च, तं विजं परिजाणिया ॥ १३ ॥ निरूहो निश्चिते त बस्तिभेदे इति हैमः । eaceaepeperceaesereverce दीप अनुक्रम [४४८] लटकटseekerseeroeseseel SARERaunintentiarana ~370~ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१४॥ दीप अनुक्रम [४५०] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ९ ], उद्देशक [-], मूलं [१४], निर्युक्तिः [१०२ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचायय चियुत ॥१८०॥ उद्देसियं कीयगडं, पामिच्चं चेव आहडं । पूयं अणेसणिज्जं च तं विज्जं परिजाणिया ॥ १४ ॥ आसूणिमक्खिरागं च, गिद्धुवघायकम्मगं । उच्छोलणं च कक्कं च तं विज्जं परिजाणिया ॥ १५ ॥ संपसारी कयकिरिए, पसिणायतणाणि य । सागारियं च पिंडं च तं विज्जं परिजाणिया ॥ १६ ॥ 'गन्धाः' कोष्ठपुटादयः 'माल्यं' जात्यादिकं 'स्नानं च' शरीरप्रक्षालनं देशता सर्वतश्च तथा 'दन्तप्रक्षालन' कदम्बकाष्टादिना तथा 'परिग्रहः' सचित्तादेः स्वीकरणं तथा स्त्रियो- दिव्यमानुषतैरश्यः तथा 'कर्म' हस्तकर्म सावधानुष्ठानं वा तदेतत्सर्वं कर्मोपादानतया संसारकारणत्वेन परिज्ञाय विद्वान् परित्यजेदिति ॥ १३ ॥ किञ्चान्यत् साध्वाद्युद्देशेन यद्दानाय व्यवस्थाप्यते तदुद्देशिकं, तथा 'क्रीतं' क्रयस्तेन क्रीतं गृहीतं क्रीतक्रीतं 'पामिचंति साध्वर्थमन्यत उद्यतकं यद्भूयते तत्तदुच्यते चकारः समुच्चयार्थः एवकारोऽवधारणार्थः, साध्वर्थ यद्गृहस्थेनानीयते तदाहतं, तथा 'पूय' मिति आधाकर्मावयवसम्पृक्तं शुद्धमप्याहारजातं पूति भवति, किं बहुनोक्तेन १, यत् केनचिदोषेणानेपणीयम् - अशुद्धं तत्सर्वं विद्वान् परिज्ञाय संसारकारणतया निस्पृहः सन् प्रत्याचक्षीतेति ।। १४ ।। किञ्च येन घृतपानादिना आहारविशेषेण रसायनक्रियया वा अशूनः सन् आ-समन्तात् शूनीभवति बलवानुपजायते तदाशूनीत्युच्यते, यदिवा आसूणिति श्लाघा यतः श्लाघया क्रियमाणया आ-समन्तात् शूनवच्छूनो | लघुप्रकृतिः कश्चिद्दध्मातृत्वात् स्तब्धो भवति, तथा अक्ष्णां 'रागो' रञ्जनं सौवीरादिकम अनमितियावत्, एवं रसेषु शब्दादिषु विषयेषु वा 'मृद्धि' गा तात्पर्यमासेवा, तथोपघातकर्म - अपरापकारक्रिया येन केनचित्कर्मणा परेषां जन्तूनानुपघातो भवति Education Internation For Parts Only ~371~ ९ धर्माध्ययनं ॥१८०॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप | तपघातकर्मत्युच्यते, तदेव लेशतो दर्शयति-'उच्छोलनं'ति अयतनया शीतोदकादिना हस्तपादादिप्रक्षालनं तथा 'कल्क'लोधादिद्रव्यसमुदायेन शरीरोद्वर्तनकं तदेतत्सर्वे कर्मबन्धनायेत्येवं 'विद्वान्' पण्डितो शपरिक्षया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिक्षया परिहरे-1 दिति ॥ १५ ॥ अपिच-असंयतैः सार्धं सम्प्रसारणं पोलोचनं परिहरेदिति वाक्यशेषः, एवमसंयमानुष्ठानं प्रत्युपदेशदानं, तथा 'कयकिरिओ' नाम कृता शोभना गृहकरणादिका क्रिया येन स कृतक्रिय इत्येवमसंयमानुष्ठानप्रशंसनं, तथा प्रश्नस्य-आद प्रश्नादेः 'आयतनम्' आविष्करणं कथनं यथाविवक्षितप्रश्ननिर्णयनानि, यदिवा-प्रश्नायतनानि लौकिकानां परस्परव्यवहारे 18 मिथ्याशास्त्रगतसंशये वा प्रश्ने सति यथावस्थितार्थकथनद्वारेणायतनानि निर्णयनानीति, तथा 'सागारिकः' शय्यातरस्तस्य पिण्डम् आहारं, यदिवा-सागारिकपिण्ड मिति सूतकगृहपिण्डं जुगुप्सितं वापसदपिण्ड वा, चशब्दः समुच्चये, तदेतत्सर्व विद्वान् परिक्षया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति ॥ १६॥ किश्चान्यत् अटावयं न सिक्खिजा, वेहाईयं च णो वए। हत्थकम्मं विवायं च, तं विजं परिजाणिया ॥१७॥ पाणहाओ य छत्तं च, णालीयं वालवीयणं । परकिरियं अन्नमन्नं च, तं विजं परिजाणिया ॥१८ उच्चारं पासवणं, हरिपसु ण करे मुणी । वियडेण वावि साहदु, णावमजे(यमेजा) कयाइवि ॥१९॥ परमते अन्नपाणं, ण मुंजेज कयाइवि। परवत्थं अचेलोऽवि, तं विजं परिजाणिया ॥२०॥ Sasass90983900090882 अनुक्रम [४५२] esesesesepeceneseesese/cel ~372~ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [२०], नियुक्ति: [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप सूत्रकृताङ्ग अर्यते इत्यर्थों-धनधान्यहिरण्यादिकः पद्यते-गम्यते येनार्थस्तत्पदं-शाखं अर्थार्थ पदमर्थपदं चाणाक्यादिकमर्थशावं तम||९ धर्माशीलाङ्का I'शिक्षेत्' नाभ्यस्पेत् नाप्यपरं प्राण्युपमर्दकारि शास्त्रं शिक्षयेत् , यदिवा-'अष्टापदं'यूतक्रीडाविशेषस्तं न शिक्षेत, नापि पूर्वधि- ध्ययनं. चार्याय-18| क्षितमनुशीलयेदिति, तथा 'वेधो धर्मानुवेधस्तस्मादतीतं सद्धर्मानुवेधातीतम्-अधर्मप्रधानं वचो नो वदेत् यदिवा-वेध इति वस्त्रत्तियुतं | वेधो द्यूत विशेषस्तद्गतं वचनमपि नो वदेद् आस्तां तावत्क्रीडनमिति, हस्तकर्म प्रतीतं, यदिवा 'हस्तकर्म' हस्तक्रिया परस्परं हस्त | व्यापारप्रधानः कलहस्तं, तथा विरुद्धवादं विवादं शुष्कवादमित्यर्थः, चः समुचये, तदेतत्सर्वे संसारभ्रमणकारणं अपरिजया परि॥१८॥ |ज्ञाय प्रत्याख्यानपरिजया प्रत्याचक्षीत ॥१७॥ किश्च उपानही-काष्ठपादुके च तथा आतपादिनिवारणाय छत्रं तथा 'नालिका द्यूतक्रीडाविशेषस्तथा वालैः मयूरपिच्छैा व्यजनक, तथा परेषां सम्बन्धिनी क्रियामन्योऽन्य-परस्परतोऽज्यनिष्पाचामन्यः करोत्यपरनिष्पाधां चापर इति, चः समुच्चये, तदेतत्सर्व 'विद्वान् पण्डितः कर्मोपादानकारणखेन ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यान परिज्ञया परिहरेदिति ॥ १८ ॥ तथा उच्चारप्रस्रवणादिकां क्रिया हरितेषूपरि बीजेषु वा अखण्डिले वा 'मुनिः' साधुने कुर्यात् , 5|| तथा 'विकटेन' विगतजीवेनाप्युदकेन 'संहत्य' अपनीय चीजानि हरितानि वा 'नाचमेत' न निलेपनं कुर्यात् , किमुताविकटे18|| नेतिभावः ॥ १९ ॥ किश्च परस्य-गृहखखामत्र-भाजनं परामत्रं तत्र पुरस्कर्मपक्षात्कर्मभयात् हतनष्टादिदोषसम्भवाच अचं| ॥१८१॥ पानं च मुनिने कदाचिदपि भुञ्जीत, यदिवा-पतगृहधारिणश्छिद्रपाणेः पाणिपात्रं परपात्रं, यदिवा पाणिपात्रस्याच्छिद्रपाणेर्जिनकल्पिकादेः पतद्वहः परपात्रं तत्र संयमविराधनाभयान भुञ्जीत तथा परस्य-गृहस्थस्य बर्ख परवसं तत्साधुरचेलोऽपि सन् पश्चात्कर्मादिदोपभयात् हृतनष्टादिदोषसम्भवाच न विभृयात् , यदिवा-जिनकल्पिकादिकोऽचेलो भूला सर्वमपि पखं परवस्त्रमिति अनुक्रम [४५६] ~373~ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [ ४५६ ] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ९ ], उद्देशक [-], मूलं [२१], निर्युक्तिः [१०२ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः कृत्वा न विभृयाद्, तदेतत्सर्वं परपात्र भोजनादिकं संयमविराधकलेन ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति ॥ तथाआसंदी पलियंके य, णिसिजं च गिहंतरे। संपुच्छणं सरणं वा, तं विजं परिजाणिया ॥ २१ ॥ जसं कित्ति सलोयं च जा य वंदणपूयणा । सबलोयंसि जे कामा, तं विज्जं परिजाणिया ॥ २२ ॥ जेहं वि भिक्खू, अन्नपाणं तहाविहं । अणुप्पयाणमन्नेसिं, तं विज्जं परिजाणिया ॥ २३ ॥ एवं उदाहु निग्गंथे, महावीरे महामुणी । अनंतनाणदंसी से, धम्मं देसितवं सुतं ॥ २४ ॥ 'आसन्दी ' त्यासन विशेषः, अस्य चोपलक्षणार्थत्वात्सर्वोऽप्यासनविधिर्गृहीतः, तथा 'पर्यकः' शयनविशेषः, तथा गृहस्यान्त| मध्ये गृहयोर्वा मध्ये निषद्यां वाऽऽसनं वा संयमविराधनाभयात्परिहरेत्, तथा चोक्तम्- "गंभीरखेसिरा एते, पाणा दुप्पडिले - हगा । अगुत्ती चंभचेरस्स, इत्थीओ वावि संक्रणा ॥ १ ॥" इत्यादि, तथा तत्र गृहस्थगृहे कुशलादिप्रच्छनं आत्मीयशरीरावयवप्रच्छ ( पुञ्छ ) नं वा तथा पूर्वक्रीडितसरणं चेत्येतत्सर्वं 'विद्वान' विदितवेद्यः सन्ननर्थायेति ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् ||२१|| अपिच बहुसमरसङ्घट्टनिर्वहणशौर्यलक्षणं यशः दानसाध्या कीर्ति: जातितपोबाहुश्रुत्यादिजनिता श्लाघा, तथा या १ गंभीर विजया इति द० अ० ६ गा० ५६ अप्रकाशाश्रया इति वृत्तिः २ एतानि गम्भीरच्छिद्राणि प्राणा दुष्प्रतिलेख्याः । अगुप्तित्रह्मचर्वस्य स्त्रियो वापि शंक ॥। १॥ atri Internation For Par Lise Only ~374~ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [२४], नियुक्ति: [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: acrea प्रत सूत्रांक ध्या ||२४|| त्तियुत दीप 18च सुरासुराधिपतिचक्रवर्तिबलदेववासुदेवादिभिर्वन्दना तथा तैरेव सत्कारपूर्विका वस्त्रादिना पूजना, तथा सर्वसिपि लोके ।। शीलाका- इच्छामदनरूपा ये केचन कामास्तदेतत्सर्व यश-कीर्ति(श्लोकादिक)मपकारितया परिज्ञाय परिहरेदिति ॥२२॥ किश्वान्यत्-'येन चायिय- अन्नेन पानेन वा तथाविधेनेति सुपरिशुद्धेन कारणापेक्षया बशुद्धेन वा 'इह' अस्मिन् लोके इदं संयमपात्रादिकं दुर्भिक्षरोगात-| कादिकं वा भिक्षुः निवेहेत् निर्वाहयेद्वा तदन्नं पानं वा 'तथाविधं द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया 'शुद्ध' कल्पं गृहीयानर्थतेषाम्॥१८२॥ || अनादीनामनुप्रदानमन्यमै साधवे संयमयात्रानिर्वहणसमर्थमनुतिष्ठेत , यदिवा-येन केनचिदनुष्ठितेन 'इम' संयम 'निर्वहेत'। निवाहयेद् असारतामापादयेत्तथाविधमशन पानं वाऽन्यद्वा तथाविधमनुष्ठान न कुयोत् । तथेतेपामशनादीनाम् 'अनुप्रदान || गृहस्थानां परतीथिकानां खयूथ्यानां वा संबमोपघातकं नानुशीलयेदिति, तदेतत्सर्व ज्ञपरिक्षया शाखा सम्यक् परिहरेदिति॥२३॥ | यदुपदेशेनैतत्सर्व कुर्यात् दर्शयितुमाह-'एवम् अनन्तरोक्तया नीत्या उद्देशकादेरारभ्य 'उदाहुत्ति उदाहृतवानुक्तवान् निर्गतः । सबाह्याभ्यन्तरो ग्रन्थो यस्मात्स निग्रन्थो 'महावीर' इति श्रीमद्वर्धमानखामी महाश्वासौ मुनिश्च महामुनिः अनन्तं ज्ञानं दर्शन च यस्यासावनन्तज्ञानदर्शनी स भगवान् 'धर्म' चारित्रलक्षणं संसारोत्तारणसमर्थ तथा 'श्रुतं च' जीवादिपदार्थसंसूचकं 'देशितवान्' प्रकाशितवान् ॥ २४ ॥ किश्चान्यत्भासमाणो न भासेज्जा, णेव वंफेज मम्मयं ।मातिट्राणं विवजेज्जा, अणुचिंतिय वियागरे ॥२५॥ ॥१८२॥ तथिमा तइया भासा, जं वदित्ताऽणुतप्पती। जं छन्नं तं न वत्तव, एसा आणा णियंठिया ॥२६॥ अनुक्रम [४६०] t e SARERatinintenmarana ~375~ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [२७], नियुक्ति: [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२७|| दीप अनुक्रम [४६३] होलावायं सहीवायं, गोयावायं च नो वदे । तुमं तुमंति अमणुन्नं, सबसो त ण वत्तए ॥ २७॥ अकुसीले सया भिक्खू , णेव संसग्गिय भए । सुहरूवा तत्थुवस्सग्गा, पडिबुज्झेज ते विऊ ॥२८॥ यो हि भाषासमितः स भाषमाणोऽपि धर्मकथासम्बन्धमभाषक एव स्यात्, उक्तं च-"वयणविहत्तीकुसलो वओगयं बहु-18 विहं वियाणतो । दिवसंपि भासमाणो साहू वयगुत्तय पत्तो ।। १॥" यदिवा–यवान्यः कश्चिद्रवाधिको भाषमाणस्तवान्तर एव 8 | सश्रुतिकोऽहमित्येवमभिमानवान्न भाषेत, तथा मर्म गच्छतीति मर्मगं वचो न 'वंफेजति नाभिलपेन , यद्वचनमुच्यमानं तथ्यमतथ्यं 8 18 वा सद्यस्य कस्यचिन्मनःपीडामाधत्ते तद्विवेकी न भाषेतेति भावः, यदिवा 'मामक' ममीकारः पक्षपातस्तं भाषमाणोऽन्यदा वा |'न वफेजति' नाभिलषेत्, तथा 'मातृस्थानं मायाप्रधान बचो विवर्जयेत् , इदमुक्तं भवति-परवचनबुद्ध्या गूढाचारप्रधानो | भाषमाणोऽभाषमाणो वायदा वा मातृस्थानं न कुर्यादिति, यदा तु वक्तुकामो भवति तदा तद्वचः परात्मनोरुभयोर्वा बाधकमि-13 त्येवं प्राग्विचिन्त्य वचनमुदाहरेत् , तदुक्तम्-"पुर्वि बुद्धीऍ पेहिता, पच्छा वकमुदाहरे" इत्यादि ।।२५।। अपिच-सत्या असत्या सत्यामृपा असत्यामुपेत्येवंरूपासु चतसृषु भाषासु मध्ये तत्रेयं सत्यामृपेत्येतदभिधाना तृतीया भाषा, सा च किश्चिन्मृषार | किश्चित्सत्या इत्येवंरूपा, तयथा-दश दारका अस्मिनगरे जाता मृता वा, तदत्र न्यूनाधिकसम्भवे सति सपाया व्यभि | १ वचन विभक्तिकुशलो वचोचतं बहुत्वैध विजानन् । दिवसमपि भाषमाणः साधुर्वचन गुप्तिसम्प्राप्तः ॥१॥ २ तहावि द.अ. नि। ३० न्यदा वा प्रसार S४ पूर्व बुज्या प्रेक्षयित्रा पश्चाद् वाक्यमुदाहरेत् । sdeceaeeeeeeeeeeeee ~376~ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [२८], नियुक्ति: [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२८|| दीप अनुक्रम [४६४] IS चारात्सल्यामृषात्वमिति, यां चैवरूपां भाषामुदिता अनु-पश्चाद्भाषणाजन्मान्तरे चा तजनितेन दोपेण 'तप्यते' पीयते केश-18|९ धर्मासूत्रकृता शीलाङ्काभाग्भवति, यदिवा-अनुतप्यते कि ममैवम्भूतेन भाषितेनेत्येवं पश्चात्तापं विधत्ते, ततश्चेदमुक्तं भवति-मिश्रापि भाषा दोपाय किंध्य यनं. चार्गीय पुनरसत्या द्वितीया भाषा समस्तार्थविसंवादिनी, तथा प्रथमापि भाषा सत्या या प्राण्युपतापेन दोपानुषङ्गिणी सा न वाच्या, त्तियुतं चतुर्थ्यप्यसत्यामृषा भाषा या बुधैरनाचीर्णा सा न वक्तव्येति, सत्याया अपि दोषानुपङ्गित्वमधिकृत्याह-यद्वचः 'छन्नति 'क्षणु ॥ | हिंसायां' हिंसाप्रधान, तद्यथा-वध्यतां चौरोऽयं लूयन्तां केदाराः दम्यन्तां गोरथका इत्यादि, यदिवा-'छन्नन्ति प्रज्छन यल्लो-18 ॥१८॥ कैरपि यत्नतः प्रच्छाद्यते तत्सत्यमपि न वक्तव्यमिति, 'एषाऽऽज्ञा' अयमुपदेशो निर्ग्रन्थो भगवांस्तस्येति ॥२६॥ किश्च-होले त्येवं वादो होलाबादः, तथा सखेत्येवं वादः सखिवादः, तथा गोत्रोधाटनेन वादो गोत्रवादी यथा काश्यपसगोत्रे वशिष्ठसमोत्रे पति , इत्येवंरूपं वादं साधुनों वदेत् , तथा 'तुमं तुमति तिरस्कारप्रधानमेकवचनान्तं बहुवचनोचारणयोग्ये 'अमनोज्ञ' मन:-18 प्रतिकूलरूपमन्यदप्येयम्भूतमपमानापादक 'सर्वशः' सर्वथा तत्साधूनां वक्तुं न वर्तत इति ॥ २७ ॥ यदाश्रित्योक्तं नियुक्तिका-18 रेण तयथा-"पासत्थोसण्णकुसील संथवो ण किल बट्टए काउं" तदिदमित्याह-कुत्सितं शीलमखेति कुशीलः स च पाश्वेखा-18 दीनामन्यतमःन कुशीलोकुशील: 'सदा सर्वकालं भिक्षणशीलो भिक्षुः कुशीलो न भवेत् । न चापि कुशीलैः सार्ध 'संसर्ग साङ्गत्यं 'भजेत' सेवेत, तत्संसर्गदोपोद्विभावविषयाऽऽह-'सुखरूपाः' सातगौरवखभावाः 'तत्र' तस्मिन् कुशीलसंसर्गे संयमोप-1 ४ ॥१८॥ घातकारिण उपसर्गाः प्रादुष्यन्ति, तथाहि-ते कुशीला वक्तारो भवन्ति-का किल प्रासुकोदकेन हस्तपाददन्तादिके प्रक्षाल्य-18 माने दोषः स्यात् , तथा नाशरीरो धर्मो भवति इत्यतो येन केनचित्प्रकारेणाधाकर्मसबिध्यादिना तथा उपानच्छत्रादिना च शरीरं । ~377~ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [२८], नियुक्ति: [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२८|| दीप अनुक्रम [४६४] 9098909aeas899393929 धर्माधारं वर्तयेत् , उक्तं च-"अप्पेण बहुमेसेज्जा, एवं पंडियलक्खणं" इति, तथा-"शरीरं धर्मसंयुक्त, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरी-18 रात् सवते धर्मः, पर्वतात्सलिलं यथा ॥१॥" तथा साम्प्रतमल्पानि संहननानि अल्पधृतयश्च संयमे जन्तव इत्येवमादि कुशीलोतं श्रुता अल्पसखास्तत्रानुषजन्तीति 'विद्वान' विवेकी 'प्रतिवुध्येत' जानीयात् बुद्धा चापायरूपं कुशीलसंसर्ग परिहरेदिति ॥२८॥ किश्चान्यत् नन्नत्थ अंतराएणं, परगेहे ण णिसीयए। गामकुमारियं किडे, नातिवेलं हसे मुणी ॥ २९॥ अणुस्सुओ उरालेसु, जयमाणो परिवए । चरियाए अप्पमत्तो, पुढो तत्थऽहियासए ॥३०॥ हम्ममाणो ण कुप्पेज, वुच्चमाणो न संजले । सुमणे अहियासिज्जा, ण य कोलाहलं करे ॥३१॥ लद्धे कामे ण पत्थेजा, विवेगे एवाहिए । आयरियाइं सिक्खेजा, बुद्धाणं अंतिए सया ॥३२॥ तत्र साधुर्भिक्षादिनिमित्तं ग्रामादौ प्रविष्टः सन् परो-गृहस्थस्तस्य गृहं परगृहं तत्र 'म निषीदेत् ' नोपविशेत् उत्सर्गतः, अस्था-18 पबादं दर्शयति नान्यत्र 'अन्तरायेणेति अन्तरायः शक्त्यभावः, स च जरसा रोगातकाभ्यां स्थात् , तस्मिंश्चान्तराये सत्युपवि-1 शेत यदिवा-उपशमलब्धिमान् कधित्सुसहायो गुवनुज्ञातः कस्यचित्तथाविधस्य धर्मदेशनानिमित्तमुपविशेदपि, तथा ग्राम कुमारका 18 ग्रामकुमारकास्तेषामियं ग्रामकुमारिका काऽसौ ?-'क्रीडा' हास्यकन्दर्पहस्तसंस्पर्शनालिङ्गनादिका यदिवां बट्टकन्दुकादिका तां मुनिने | १ अल्पेन बहु एषयेत् एतत् पण्डितलक्षणं । २ पापं प्र० । ३ एखमाहिए प्र.। Hirwastaram.org ~378~ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ध्यय सूत्रकृतानं शीलाका- चार्याय त्तियुत ||३२|| ॥१८४॥ दीप कुर्यात् , तथा वेला मर्यादा तामतिकान्तमतिबेलं न हसेत् , मर्यादामतिक्रम्य 'मुनिः साधुः ज्ञानावरणीयावष्टविधकर्मबन्धनभयान ९ धर्माहसेत, तथा नागमः-"जीवे णं भंते! हसमाणे(चा) उस्सूयमाणे वा कह कम्मपगडीओ बंधही, गोयमा!, सत्तविहबंधए वा अढवि-14 हसत्, तथानाम: हबंधए वा" इत्यादि ॥२९|| किश 'उराला' उदाराः शोभना मनोज्ञा ये चक्रवादीनां शब्दादिषु विषयेषु कामभोगा वस्त्राम-18॥ रणगीतगन्धर्वयानवाहनादयस्तथा आज्ञैश्वर्यादयश्च एतेपूदारेषु दृष्टेषु श्रुतेषु वा नोत्सुकः स्यात् , पाठान्तरं वा न निश्रितोऽनिश्रितः-18 अप्रतिवद्धः स्यात् , यतमानश्च संयमानुष्ठाने परि-समन्तान्मूलोत्तरगुणेषु उद्यम कुर्वन् 'ब्रजेत् संयम गच्छेत् तथा 'चर्यायां भिक्षा-18 | दिकायाम् 'अप्रत्तमः स्यात्' नाहारादिषु रसगाय विदध्यादिति, तथा 'स्पृष्टश्च' अभिद्रुतश्च परीपहोपसगैस्तत्रादीनमनस्कः कर्मनिर्जरां मन्यमानो 'विषहेत्' सम्यक् सह्यादिति ॥३०॥ परीपहोपसर्गाधिसहनमेवाधिकृत्याह-'हन्यमानो' यष्टिमुष्टिलकुटादिभि रपि हतब 'न कुप्येत्' नकोपवशगो भवेत् , तथा दुर्वचनानि 'उच्यमानः आकुष्यमानो निर्भय॑मानो 'न संज्वलेत्' न प्रतीपं 181 ४) वदेत, न मनागपि मनोऽन्यथात्वं विदध्यात्, किंतु गुमनाः सर्व कोलाहलमकुर्वनधिसहेतेति ॥३१॥ किश्चान्यत्-'लब्धान्' प्राप्तानपि 'कामान' इच्छामदनरूपान् गन्धालङ्कारवखादिरूपान्वा वैरखामिवत् 'न प्रार्धयेत्' नानुमन्येत न गृह्णीयादित्यर्थः, यदिवा| यत्रकामावसायितया गमनादिलब्धिरूपान् कामांस्तपोविशेषलब्धानपि नोपजीव्यात , नाप्यनागतान् ब्रह्मदत्सवत्प्रार्थयेद् , एवं| च कुर्वतो भावविवेकः 'आख्यात' आविर्भावितो भवति, तथा 'आर्याणि' आर्याणां कर्तव्यानि अनार्यकर्तव्यपरिहारेण यदिवा-1 ॥१८४ आचर्याणि-मुमुक्षुणा यान्याचरणीयानि ज्ञानदर्शनचारित्राणि तानि 'बुद्धानाम्' आचार्याणाम् 'अन्तिके समीपे 'सदा' स-1॥ १ जीवो भदन्त ! हसन् उत्सुकायमानो वा कतीः कर्मप्रकृतीर्यभाति, गौतम 1 सप्त विधमन्धको बालविवधको वा । अनुक्रम [४६८] eesesei ~379~ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३२|| दीप ASI काल 'शिक्षेत' अभ्यस्पेदिति, अनेन हि शीलवता नित्यं गुरुकुलवास आसेवनीय इत्यावेदितं भवतीति ॥ ३२ ॥ यदुक्तं युद्धानामन्तिके शिक्षेत्तत्वरूपनिरूपणायाह सुस्सूसमाणो उवासेजा, सुप्पन्नं सुतवस्सियं। वीरा जे अत्तपन्नेसी, घितिमन्ता जिइंदिया ॥३॥ गिहे दीवमपासंता, पुरिसादाणिया नरा ते वीरा बंधणुम्मुक्का, नावखंति जीवियं ॥३४॥ अगिद्धे सहफासेसु, आरंभेसु अणिस्सिए । सवं तं समयातीतं, जमेतं लवियं बहु ॥३५॥ अइमाणं च मायं च, तं परिणाय पंडिए । गारवाणि य सवाणि, णिवाणं संधए मुणि ॥३६॥ (गाथा ४८२) तिबेमि ॥ इति श्रीधम्मनाम नवममज्झयणं समतं ॥ गुरोरादेशं प्रति श्रोतुमिच्छा शुश्रूषा गुर्वादेवैयावृश्यमित्यर्थः तां कुर्वाणो गुरुम् 'उपासीत' सेवेत, तस्यैव प्रधानगुणद्वयद्वाशारेण विशेषणमाह-सुष्टु शोभना वा प्रज्ञाऽखेति सुप्रज्ञा-खसमयपरसमयवेदी गीतार्थ इत्यर्थः, तथा सुष्टु शोभनं वा सवाद्याभ्य|न्तरं तपोऽसास्तीति सुतपखी, तमेवम्भूतं ज्ञानिनं सम्यकचारित्रवन्तं गुरुं परलोकार्थी सेवेत, तथा चोक्तम्-"नाणस्स होइ |भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचंति ॥१॥" य एवं कुर्वन्ति तान् दर्शयति- यदिवा ज्ञानस्य भवती भागी स्थिरतरो दर्शने चारित्रे च । धन्या धावस्कर्थ गुरुकुलबास म मुगन्ति ॥१॥ अनुक्रम [४६८] ~380 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [३६], नियुक्ति: [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३६|| दीप अनुक्रम [४७२] सूत्रकृताङ्गं ताज || के ज्ञानिनस्तपखिनो वेत्याह-'वीराः कर्मविदारणसहिष्णवो धीरा वा परीषहोपसर्गाक्षोभ्याः, धिया बुद्ध्या राजन्तीति वा धीरा ९ धोशीलाङ्का- ये केचनासबसिद्धिगमनाः, आप्तो-रागादिविप्रमुक्तस्तस्य प्रज्ञा केवलज्ञानाख्या तामन्वेष्टुं शीलं येषां ते आप्तप्रज्ञान्वेषिणः सर्वज्ञो-|| ध्ययन. चाीयव-1 कान्वेषिण इतियावत् , यदिवा-आत्मप्रज्ञान्वेषिण आत्मनः प्रज्ञा-ज्ञानमात्मप्रज्ञा तदन्वेषिणः आत्मज्ञखा(प्रजा)न्वेषिण आत्महिचियुतं । तान्वेषिण इत्यर्थः, तथा धृतिः-संयमे रतिः सा विद्यते येषां ते धृतिमन्तः, संयमधृत्या हि पञ्चमहावतभारोद्वहनं सुसाध्यं भवतीति, तपःसाध्या च सुगतिर्हस्तप्राप्लेति, तदुक्तम् जिस्स चिई तस्स तवो जस्स तवो तस्स सुग्गई सुलहा । जे अधिहमंत परिसा वचोवि || ॥१८५॥ खलु दुल्लहो तेसि ॥ १॥" तथा जितानि-वशीकृतानि खविषयरागद्वेषविजयेनेन्द्रियाणि-स्पर्शनादीनि यैस्ते जितेन्द्रियाः, शुश्रूषमाणाः शिष्या गुरखो वा शुश्रूषमाणा यथोक्तविशेषणविशिष्टा भवन्तीत्यर्थः ॥३३ ।। यदभिसंधायिनः पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टा भवन्ति तदभिधित्सुराह---'गृहे' गृहवासे गृहपाशे वा गृहस्थभाव इतियावत् 'दीवति 'दीपी दीप्तौ' दीपयति-प्रकाशयतीति दीपः स च भावदीपः श्रुतज्ञानलाभः यदिवा-द्वीपः समुद्रादौ प्राणिनामाश्वासभूतः स च भावद्वीपः संसारसमुद्रे सर्वज्ञोक्तचारित्रलाभस्तदेवम्भूतं दीपं द्वीपं वा गृहस्थभावे 'अपश्यन्तः' अप्राप्नुवन्तः सन्तः सम्यक् प्रव्रज्योत्थानेनोस्थिता उत्तरोत्तरगुणलाभ| नैवम्भूता भवन्तीति दर्शयति-'नराः पुरुषाः पुरुषोत्तमखाद्धर्मस्व नरोपादानम् , अन्यथा स्त्रीणामप्येतद्गुणमाक्वं भवति, अथवा R an देवादिन्युदासार्थमिति, मुमुक्षूणां पुरुषाणामादानीया-आश्रयणीयाः पुरुषादानीया महतोऽपि महीयांसो भवन्ति, यदिवा यस धृतिस्तस्य तपो यस्य तपसस्य सुगतिस्मुलभा । वेतिगन्तः पुरुषापोऽपि सच दुर्लभ तेषां ॥१॥ ~381~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [३६], नियुक्ति: [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३६|| eroen दीप |आदानीयो- हितैषिणां मोक्षस्तन्मार्गो वा सम्यग्दर्शनादिकः पुरुषाणां-मनुष्याणामादानीयः पुरुषादानीयः स विद्यते येषा-13 मिति विगृह्य मबर्थीयोऽर्शआदिभ्योजिति, तथा य एवंभूतास्ते विशेषेणेरयन्ति अष्टप्रकारं कर्मेति वीराः, तथा बन्धनेन सवाद्याभ्यन्तरेण पुत्रकलत्रादिनेहरूपेणोत्-पापल्येन मुक्ता बन्धनोन्मुक्ताः सन्तो 'जीचितम्' असंयमजीवितं प्राणधारणं वा भाभिकाति' नाभिलपन्तीति ॥ ३४॥ किश्चान्यत्-'अग्रद्ध' अनध्युपपन्नोऽछितःक?--शब्दस्पर्शेषु मनोज्ञेषु। आद्यन्तग्रहणान्मध्यग्रहणमतो मनोज्ञेषु रूपेषु गन्धेषु रसेषु वा अगृद्ध इति द्रष्टव्यं, तथेतरेषु वादिष्ट इत्यपि वाच्यं, तथा 'आर म्भेष' सावधानुष्ठानरूपेषु 'अनिश्रितः' असम्बद्धोऽप्रवृत्त इत्यर्थः, उपसंहर्तुकाम आह-'सर्वमेतद्' अध्ययनादेरारभ्य प्रति-18 बाध्यत्वेन यत लपितम् उक्तं मया बहु तत् 'समयादू' आहेतादागमादतीतमतिक्रान्तमितिकला प्रतिषिद्ध, यदपि च विधिद्वारे-18 शाणोक्तं तदेतत्सर्वं कुत्सितसमयातीतं लोकोचरं प्रधानं वर्तते, यदपि च तैः कुतीर्थिकैर्षहु लपितं तदेतत्सर्व समयातीतमितिकखा नानुष्ठेयमिति ॥ ३५॥ प्रतिषेध्यप्रधाननिषेधद्वारण मोक्षामिसन्धानेनाह-अतिमानो महामानस्तं, चशब्दात्तत्सहचरितं क्रोधं च, तथा मायर्या चशब्दाचस्कार्यभूतं लोभं च, तदेतत्सर्वे 'पण्डितो' विवेकी ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिक्षया परिहरेत् । 1 तथा सर्वाणि 'गारवाणि' ऋद्धिरससातरूपाणि सम्पर ज्ञावा संसारकारणत्वेन परिहरेत् , परिहत्य च 'मुनिः साधुः 'निर्वाण म्' अशेषकर्मक्षयरूपं विशिष्टाकाशदेश वा 'सन्धयेत्' अभिसन्दध्यात् प्रार्थयेदितियावत् । इतिः परिसमाप्त्यर्थे, प्रवीमीति पूर्ववत् ॥३६ ।। समाप्त धर्माख्यं नवममध्ययनमिति ॥ Receneseseseeeeeeeserce अनुक्रम [४७२] अत्र नवमं अध्ययनस्य परिसमाप्ति: ~382 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||३६|| दीप अनुक्रम [४७२] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [३६...], निर्युक्तिः [१०३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृता शीलाङ्का चार्ययत्र चियुतं ॥१८६॥ अथ दशमं श्रीसमाध्यध्ययनं प्रारभ्यते ॥ नवमानन्तरं दशममारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने धर्मोऽभिहितः, स चाविकलः समाधौ सति भवतीत्यतोऽधुना समाधिः प्रतिपाद्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्युपक्रमादीन्यनुयोगद्वाराणि वाच्यानि, तत्रोपक्रमद्वारान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं, तद्यथा- धर्मे समाधिः कर्तव्यः सम्यगाधीयते व्यवस्थाप्यते मोक्षं तन्मार्ग वा प्रति येनात्मा धर्मध्यानादिना स समाधिः- धर्मध्यानादिकः, स च सम्यग्र ज्ञाला स्पर्शनीयः, नामनिष्पत्रं तु निक्षेपमधिकृत्य निर्मुक्तिकदाह-आयाणपदेणाऽऽधं गोणं णामं पुणो समाहिति । णिक्खिविऊण समाहिं भावसमाहीह पमयं तु ॥ १०३ ॥ णामंठवणादविए खेसे काले तहेव भावे य । एसो उ समाहीए णिक्खेवो उब्विहो होइ ॥ १०४ ॥ पञ्चसु विसएस सुभेसु दव्वंमि सा भवे समाहित्ति । खेत्तं तु जम्मि खेत्ते काले कालो जहिं जो ऊ ।। १०५ ।। | भावसमाहि चव्विह दंसणणाणे तवे चरिते य । चउसुवि समाहियप्पा संमं चरणडिओ साहू || १०६ ॥ आदीयते गृह्यते प्रथममादौ यत्तदादानम् आदानं च तत्पदं च सुबन्तं तिङन्तं वा तदादानपदं तेन 'आर्य'ति नामाखाध्ययनस्य यस्मादध्ययनादाविदं सूत्रम्- 'आषं मईमं मणुवीह धम्म' मित्यादि, यथोत्तराध्ययनेषु चतुर्थमध्ययनं प्रमादाप्रमादाभिधायकमप्यादानपदेन 'असंख्य' मित्युच्यते, गुणनिष्पन्नं पुनरस्याध्ययनस्य नाम समाधिरिति यस्मात्स एवात्र प्रतिपाद्यते तं च समाधिं Eaton Inn For Parts Only अत्र दशमं अध्ययनं 'समाधि' आरब्धं, पूर्व अध्ययनेन सह अभीसम्बन्ध:, समाधि शब्दस्य निक्षेपाः ~383~ १० समा ध्यध्ययनं. ॥१८६॥ wor Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [३६...], नियुक्ति: [१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३६|| दीप नामादिना निक्षिप्य भावसमाधिनेह 'प्रकृतम्' अधिकार इति । समाधिनिक्षेपार्थमाह-नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् एष तु समाधिनिक्षेपः पबिधो भवति, तुशब्दो गुणनिष्पन्नस्यैव नानो निक्षेपो भवतीत्यस्वार्थसाविर्भावनार्थ इति, नामस्थापने सुगम-18 खादनात्य द्रव्यादिकमधिकृत्याह–पञ्चस्वपि शब्दादिषु मनोज्ञेषु विषयेषु श्रोत्रादीन्द्रियाणां यथावं प्राप्ती सत्यां यस्तुष्टिविशेषः स द्रव्यसमाधिः, तदन्यथा खसमाधिरिति, यदिवा द्रन्ययोद्रव्याणां वा सम्मिश्राणामविरोधिनां सतां न रसोपघातो भवति अपितु रसपुष्टिः स द्रव्यसमाधिः, तद्यथा क्षीरशकरयोदेधिगुडचातुर्जातकादीनां चेति, येन वा द्रव्येणोपभुक्तेन समाधिपानका४ दिना समाधिर्भवति तद्रव्यं द्रग्यसमाधिः, तुलादावारोपितं वा यत् द्रव्यं समतामुपैतीत्यादिको द्रग्यसमाधिरिति, क्षेत्रसमाधिस्तु | यस यसिन् क्षेत्रे व्यवस्थितस्य समाधिरुत्पद्यते स क्षेत्रप्राधान्यान् क्षेत्रसमाधिः यस्मिन्वा क्षेत्रे समाधिविण्यंत इति, कालसमाधिरपि यस्य यं कालमवाप्प समाधिरुत्पद्यते, तद्यथा-शरदि गवां नक्तमुलूकानामहनि बलिभुजा, यस्य वा यावन्तं कालं समाधिभवति यस्मिन्वा काले समाधियाख्यायते स कालप्राधान्यात् कालसमाधिरिति । भावसमाधि खधिकृत्याह-भावसमाधिस्तु दर्शनज्ञानतपचारित्रभेदाचतुर्दा, तत्र चतुर्विधमपि भावसमाधि समासतो गाथापश्चार्धेनाह--मुमुक्षुणा चर्यत इति चरणं तत्र सम्य चरणे चारित्रे व्यवस्थितः-समुद्युक्तः साधुः' मुनिश्चतुर्वपि भावसमाधिभेदेषु दर्शनज्ञानतपचारित्ररूपेषु सम्यगाहितो व्यवस्थापित आत्मा येन स समाहितात्मा भवति, इदमुक्तं भवति-यः सम्यकचरणे व्यवस्थितः स चतुर्विधभावसमाधिसमाहितात्मा भवति, यो वा भावसमाधिसमाहितात्मा भवति, स सम्यक्चरणे व्यवस्थितो द्रष्टव्य इति, तथाहि-दर्शनसमाधी व्यवस्थितो जिनवचनभावितान्तःकरणो निवातशरणप्रदीपवन कुमतिवायुभिर्धाम्यते, ज्ञानसमाधिना तु यथा यथापूर्व श्रुतमधीते तथा तथाऽतीव भाव अनुक्रम [४७२] समाधि शब्दस्य निक्षेपा: ~3844 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [१], नियुक्ति: [१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक ||१|| दीप अनुक्रम [४७३] सूत्रकृता समाधावुधुक्तो भवति, तथा चोक्तम्-"जह जह सुयमवगाहइ अइसयरसपसरसंजुयमउवं । तह तह पल्हाइ मुणी णवणवसंवे- १० समाशीलाङ्का- गसद्धाए ॥१॥" चारित्रसमाधावपि विषयसुखनिःस्पृहतया निष्किञ्चनोऽपि परं समाधिमाप्नोति, तथा चोक्तम्-तणसंथार-18 ध्यध्ययनं. चार्यांय णिसन्नोऽवि मुणिवरो भद्वरागमयमोहो । जं पावइ मुत्तिसुहं कत्तोतं चक्कवट्टीवि ॥१॥ नैवास्ति राजराजस्य तत्सुखं नैव देव-18॥ त्तियुतं राजस्ख । यत्सुखमिहेव साघोर्लोकण्यापाररहितस्य ॥२॥" इत्यादि, तपःसमाधिनापि विरुष्टतपसोऽपि न ग्लानिर्भवति तथा ॥१८७|| क्षुत्तृष्णादिपरीपहेभ्यो नोद्विजते, तथा अभ्यस्ताभ्यन्तरतपोध्यानाश्रितमनाः स निर्वाणस्थ इव न सुखदुःखाभ्यां बाध्यत इत्येवं चतुर्विधभावसमाधिस्थः सम्यकचरणव्यवस्थितो भवति साधुरिति । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुKणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदं आघं मईमं मणुवीय धम्म, अंजू समाहि तमिणं सुणेह। अपडिन्न भिक्खू उ समाहिपत्ते, अणियाण भूतेसु परिवएज्जा ॥१॥ उ8 अहे यं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा । हत्थेहिं पाहिँ य संजमित्ता, अदिन्नमन्नेसु य णो गहेजा ॥२॥ सुयक्खायधम्मे वितिगि ॥१८७॥ च्छतिपणे, लाढे चरे आयतुले पयासु । आयं न कुज्जा इह जीवियट्टी, चयं न कुज्जा सुतवस्सि १ यथा यथा श्रुतगवगाहतेऽतिपायरसप्रसरसंयुतमपूर्व । तथा २ प्रहादते मुनिर्नवनवसंवेगश्रद्धया ॥१॥ तृणसंसारनिलिष्टोऽपि मुनिवरो भ्ररागमदमोहः | यत्प्रानोति मुक्ति मुखं कुतस्तत् चक्रवर्त्यपि ॥१॥ ~385 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [३], नियुक्ति: [१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रांक 0201200 ||३|| दीप अनुक्रम [४७५] भिक्खू ॥३॥ सबिंदियाभिनिव्वुडे पयासु, चरे मुणी सबतो विप्पमुक्के। पासाहि पाणे य पुढोवि सत्ते, दुक्खेण अहे परितप्पमाणे ॥४॥ अस्स चायमनन्तरसूत्रेण सह सम्बन्धः, तद्यथा-अशेषगारवपरिहारेण मु (ग्रं० ५५०० ) निर्निवाणमनुसन्धयेदित्येतद्भगवा-1 नुत्पनदिन्यज्ञानः समाख्यातवान् एतच वक्ष्यमाणमाख्यातवानिति, 'आघ'ति आख्यातवान् कोऽसौ ?-'मतिमान्' मननं मतिः-समस्तपदार्थपरिज्ञानं तद्विद्यते यस्खासौ मतिमान् केवलज्ञानीत्यर्थः, तत्रासाधारणविशेषणोपादानात्तीर्थकद् गृह्यते, असावपि प्रत्यासत्तेवरवर्धमानखामी गृधते, किमाख्यातवान् ?-'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं, कथम् -'अनुविचिन्त्य' केवलज्ञानेन ज्ञाला प्रज्ञापनायोग्यान् पदार्थानाश्रित्य धर्म भाषते, यदिवा ग्राहकमनुविचिन्त्य कस्वार्थस्थायं ग्रहणसमर्थः? तथा कोऽयं पुरुषः १९ कश्च नतः? किंवा दर्शनमापन्न इत्येवं पर्यालोच्य, धर्मशुश्रूषवो वा मन्यन्ते यथा प्रत्येकमसदभिप्रायमनुविचिन्त्य भगवान् धर्म | भाषते, युगपत्सर्वेषां खभाषापरिणत्या संशयापगमादिति, किंभूतं धर्म भाषते ?--'ऋजुम्' अवकं यथावस्थितवस्तुखरूपनिरूप-18 णतो, न यथा शाक्याः सर्व क्षणिकमभ्युपगम्य कृतनाशाकृताभ्यागमदोषभयात्सन्तानाभ्युपगमं कृतवन्तः तथा वनस्पतिमचेतन-1 | खेनाभ्युपगम्य स्वयं न छिन्दन्ति तच्छेदनादावुपदेशं तु ददति तथा कार्पोपणादिकं हिरण्यं खतो न स्पृशन्ति अपरेण तु तत्प-| रिग्रहतः क्रयविक्रय कारयन्ति, तथा साझ्याः सर्वमप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकखभावं नित्यमभ्युपगम्य कर्मबन्धमोक्षाभावप्रसङ्गदोप|| भयादाविर्भावतिरोभावावाश्रितवन्त इत्यादिकौटिल्यभावपरिहारेणावक्र तथ्य धर्ममाख्यातवान् , तथा सम्यगाधीयते-मोक्षं तन्मार्ग||| 000000 ~386 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्राक ||४|| दीप अनुक्रम [४७६] वा प्रत्यात्मा योग्यः क्रियते व्यवस्थाप्यते येन धर्मेणासौ धर्मः समाधिस्तं समाख्यातवान् , यदिवा-धर्ममाख्यातवांस्तत्समापि च १० समासूत्रकृता शीलाका धर्मध्यानादिकमिति । सुधर्मस्खाम्याह-तमिम-धर्म समाधि वा भगवदुपदिष्टं शृणुत यूयं, तद्यथा-न विद्यते ऐहिकामुष्मिकरूपाध्यध्ययनं. चार्याय प्रतिज्ञा-आकासार तपोऽनुष्ठान कुवेतो यस्यासावप्रतिज्ञो, भिक्षणशीलो भिक्षुः तुर्विशेषणे भावभिक्षुः, असावेव परमार्थतः साधु, चियुत धर्म धर्मसमाधि च प्राप्तोऽसावेवेति, तथा न विद्यते निदानमारम्भरूपं 'भूतेषु जन्तुषु यस्खासावनिदानः स एवम्भूतः सावधान द्वानरहितः परि-समन्तात्संयमानुष्ठाने 'बजेदू' गच्छेदिति, यदिवा-अनिदानभूता-अनाश्रवभूतः कर्मोपादानरहितः सुष्टु परिव्रजेत् || ॥१८॥ सुपरिव्रजेत् , यदिवा-अनिदानभूतानि-अनिदानकल्पानि ज्ञानादीनि तेषु परिव्रजेत् , अथवा निदानं हेतुः कारणं दुःखस्यानोनि| दानभूतः कस्यचिदुःखमनुपपादयन् संयमे पराक्रमेतेति ॥१॥ प्राणातिपातादीनि तु कर्मणो निदानानि वर्तन्ते, प्राणातिपातोऽपि द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाचतुर्धा, तत्र क्षेत्रप्राणातिपातमधिकृत्याह-सर्वोऽपि प्राणातिपातः क्रियमाणः प्रज्ञापकापेक्षयोर्ध्वमधस्तियेक क्रियते, यदिवा-ऊर्ध्वाधस्तिर्यरूपेषु त्रिषु लोकेषु तथा प्राच्यादिषु दिक्षु विदिक्षु चेति, द्रव्यप्राणातिपातस्वयं-त्रस्यन्तीति | वसा-द्वीन्द्रियादयो ये च 'स्थावराः' पृथिव्यादयः, चकारः स्वगतभेदसंसूचनार्थः, कालप्राणातिपातसंसूचनार्थो वा दिवा रात्री वा, 'प्राणाः' प्राणिनः, भावप्राणातिपातं खाह-एतान् प्रागुक्तान् प्राणिनो हस्तपादाभ्यां 'संयम्य' बद्धा उपलक्षणार्थ-18 खादखान्यथा वा कदर्थयिखा यत्तेषां दुःखोत्पादनं तत्र कुर्यात् , यदिचैतान् प्राणिनो हस्तौ पादौ च संयम्य संयतकायः सन्न Reen KI हिंस्थात् , चशब्दादुच्छासनिश्वासकासितक्षुतवातनिसर्गादिषु सर्वत्र मनोवाकायकर्मसु संपतो भवन् भावसमाधिमनुपालयेत् , तथा ! परैरद न गृह्णीयादिति तृतीयव्रतोपन्यासः, अदचादाननिषेधाचार्थतः परिग्रहो निपिद्धो भवति, नापरिगृहीतमासेव्यत इति 181 eseeeeeeeeees ~387 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अगसूत्र-२ (मूल+नियुक्ति :+वृत्ति :) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [४७६] | मैथुननिषेधोऽप्युक्तः, समस्तवतसम्परूपालनोपदेशाच्च मृपावादोऽप्यर्थतो निरस्त इति ॥२॥ ज्ञानदर्शनसमाधिमधिकृत्याह| सुष्ठाख्यातः श्रुतचारित्राख्यो धर्मो येन साधुनाऽसौ खाख्यातधर्मा, अनेन ज्ञानसमाधिरक्तो भवति, न हि विशिष्टपरिशानमन्तरेण खाख्यातधर्मसमुपपद्यत इति भावः, तथा विचिकित्सा-चित्तविलतिर्विद्वज्जुगुप्सा वा तां '[वितीर्णः'-अतिक्रान्तः 'तदेव च निःशझं यज्जिनः प्रवेदित'मित्येवं निःशकतया न कचिचित्तविप्लुतिं विधच इत्यनेन दर्शनसमाधिः प्रतिपादितो भवति, येन केनचित्प्रासुकाहारोपकरणादिगतेन विधिनाऽऽत्मानं यापयति-पालयतीति लाहः, स एवम्भूतः संयमानुष्ठानं 'चरेदू' अनुतिष्ठेत , तथा प्रजायन्त इति मजा:-पृथिच्यादयो जन्तवस्ताखात्मतुल्या, आत्मवत्सर्वप्राणिनः पश्यतीत्यर्थः, एवम्भूत एव भावसाधुर्भवतीति, तथा चोक्तम्-"जह मम ण पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सबजीवाणं । ण हणइ ण हणावेइ य, सममई तेण सो समणो ॥१॥ ॥ यथा च ममाऽऽक्रुश्यमानखाभ्याख्यायमानस्य वा दुःखमुत्पद्यते एवमन्येषामपीलेवं मखा प्रजावात्मसमो भवति, तथा इहासंयमजीवितार्थी प्रभूतं कालं सुखेन जीविष्यामीत्येतदध्यवसायी वा 'आय' कर्माश्रवलक्षणं न कुर्यात् , तथा 'चषम्' उपचयमाहारोप करणादेर्धनधान्यद्विपदचतुष्पदादेवी परिग्रहलक्षणं संचयमावत्यर्थ सुष्टु तपस्वी सुतपखी-विकृष्टतपोनिष्टप्तदेहो भिक्षुर्न कुर्यादिति 18| ॥३॥ किश्चान्यत्-सर्वाणि च तानि इन्द्रियाणि च स्पर्शनादीनि वैरभिनिवृतः संवतेन्द्रियो जितेन्द्रिय इत्यर्थः, क?-'प्रजासु। स्त्रीषु, तासु हि पश्चप्रकारा अपि शब्दादयो विषया विद्यन्ते, तथा चोक्तम्-"कलानि वाक्यानि विलासिनीनां, गतानि रम्याण्यवकालोकितानि । रतानि चित्राणि च सुन्दरीणां, रसोऽपि गन्धोऽपि च चुम्बनानि ॥१॥" तदेवं सीपु पञ्चेन्द्रियविषयसम्भवाचद्विषये 1 यथा मम न प्रियं दुःख ज्ञाला एवमेव सर्वसत्वानां । न हन्ति न चातयति च सममणति वेन स श्रमणः ॥ १॥ सरseeeeeeesesesesea ~388 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||8|| दीप अनुक्रम [ ४७६ ] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १० ], उद्देशक [-] मूलं [४], निर्युक्तिः [१९०६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताशं शीलाङ्का चाferचियुर्त ॥ १८९॥ संवृतसर्वेन्द्रियेण भाव्यम् एतदेव दर्शयति- 'चरेत्' संयमानुष्ठानमनुतिष्ठेत् 'मुनिः' साधुः 'सर्वतः सबाह्याभ्यन्तरात् सङ्गाद्विशे| पेण प्रमुक्तो विप्रमुक्तो निःसङ्गो मुनिः निष्किञ्चनवेत्यर्थः, स एवम्भूतः सर्वबन्धनविप्रमुक्तः सन् 'पश्य' अवलोकय पृथक पृथक् पृथिव्यादिषु कार्येषु सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तक भेदभिन्नान् 'सत्त्वान' प्राणिनः अपिशब्दाद्वनस्पतिकाये साधारणशरीरिणोऽनन्तानप्येकखमागतान पश्य, किंभूतान् ?-दुःखेन-असातावेदनीयोदयरूपेण दुःखयतीति वा दुःखम् अष्टप्रकारं कर्म तेनार्त्तानपीडितान् परि-समन्तात्संसारकटाहोदरे वकतेनेन्धनेन 'परिपच्यमानान्' काथ्यमानान् यदिवा - दुष्प्रणिहितेन्द्रियानार्तध्यानोपगतान्मनोवाक्कायैः परितप्यमानान् पश्येति सम्बन्धो लगनीय इति ॥ ४ ॥ अपिच Eucation Internation एते वाले य पकुवमाणे, आवडती कम्मसु पावसु । अतिवायतो कीरति पावकम्मं, निडंजमाणे उ करेइ कम्मं ॥ ५ ॥ आदीणवित्तीय करेति पावं, मंता उ एगंतसमाहिमाहु । बुद्धे समाहीय रते विवेगे, पाणातिवाता विरते ठियप्पा ॥६॥ सर्व जगं तू समयाणुपेही, पियपियं कस्सइ णो करेजा । उट्ठाय दीणो य पुणो बिसन्नो, संपूयणं चेव सिलोयकामी ॥७॥ आहाकडं चैव निकाममीणे, नियामचारी य विसण्णमेसी । इत्थीसु सत्ते य पुढो य वाले, परिग्गहं चैव पकुवमाणे ॥ ८ ॥ For Parts Only ~389~ १० समाध्यध्ययनं. ॥ १८९ ॥ war Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| 'एतेषु' प्राङ्गिनर्दष्टेषु प्रत्येकसाधारणप्रकारेणूपतापक्रियया चालवत् 'वाल' अज्ञवशब्दादितरोऽपि सट्टनपरितापनापद्रावणाIS दिकेनानुष्ठानेन 'पापानि' कर्माणि प्रकर्षेण कुर्वाणस्तेषु च पापेषु कर्मसु सत्सु एतेषु वा पृथिव्यादिजन्तुषु गतः संस्तेनैव 18 संघटनादिना प्रकारेणानन्तश: 'आवत्येते' पीड्यते दुःखभाग्भवतीति, पाठान्तरं वा 'एवं तु पाले' एवमित्युपप्रदर्शने यथा चौरः पारदारिको वा असदनुष्ठानेन हस्तपादच्छेदान् बन्धवधादींश्चैहावाप्नोत्येवं सामान्यदृष्टेनानुमानेनान्योऽपि पापकर्मकारी इहामुत्र च दुःखभाग्भवति, 'आउद्दति 'ति कचित्पाठा, तत्राशुभान् कमविपाकान् दृष्ट्वा श्रुत्वा ज्ञात्वा वा तेभ्योऽसदनुष्ठानेभ्य 'आउट्टति 'ति निवर्तते, कानि पुनः पापस्थानानि येभ्यः पुनः प्रवर्तते निवर्तते वा इत्याशष तानि दर्शयति-'अतिपाततः' प्राणातिपाततः प्राणथ्यपरोपणाद्धेतोस्तच्चाशुभं ज्ञानावरणादिकं कर्म 'क्रियते' समादीयते, तथा परांश्च भृत्यादीन् प्राणातिपातादौ 'नियोजयन्' व्यापारयन् पापं कर्म करोति, तुशब्दान्मृपावादादिकं च कुर्वन् कारयश्च पापकं कर्म समुचिनोतीति ॥५॥ | किश्चान्यत्-आ--समन्ताहीना-करुणास्पदा वृत्तिः-अनुष्ठानं यस कृपणवनीपकादेःस भवत्यादीनवृत्तिः, एवम्भूतोऽपि पापं । कर्म करोति, पाठान्तरं वा आदीनभोज्यपि पापं करोतीति, उक्तं च-"पिंडोलगेव दुस्सीले, पारगाओ ण मुच्चइ" स कदाचिच्छोभनमाहारमलभमानोऽज्ञवादातरौद्रध्यानोपगतोऽधः सप्तम्यामप्युत्पद्येत, तद्यथा-असावेव राजगृहनगरोत्सवनिर्गतजनसमूह-18 वैभारगिरिशिलापातनोद्यतः स दैवात्स्वयं पतितः पिण्डोपजीवीति, तदेवमादीनभोज्यपि पिण्डोलकादिवज्जनः पापं कर्म करोतीत्येवं 'मत्वा' अवधार्य एकान्तेनात्यन्तेन च यो भावरूपो ज्ञानादिसमाधिस्तमाहुः संसारोत्तरणाय तीर्थकरगणधरादयः, द्रव्य पिण्डावलगकोऽपि दुःशीलो नरकान मुच्यते ॥ ఆrecoraa दीप अनुक्रम [४८०] Receneseeeeeeeeeeeeeee ~390~ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [४८०] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १० ], उद्देशक [-] मूलं [८], निर्युक्तिः [१९०६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चायय चियुतं ॥ १९०॥ समाधयो हि स्पर्शादिसुखोत्पादका अनेकान्तिका अनात्यन्तिकाश्च भवन्ति अन्ते चावश्यमसमाधिमुत्पादयन्ति तथा चोक्तम्" यद्यपि निषेव्यमाणा मनसः परितुष्टिकारका विषयाः । किम्पाकफलादनवद्भवन्ति पश्चादतिदुरन्ताः ॥ १ ॥" इत्यादि, तदेवं 'बुद्ध:' अवगततवः स चतुर्विधेऽपि ज्ञानादिके रतो-व्यवस्थितो 'विवेके वा' आहारोपकरणकषायपरित्यागरूपे द्रव्यभावात्मके रतः सभेवंभूतश्च स्यादित्याह - प्राणानां दशप्रकाराणामप्यतिपातो-विनाशस्तस्माद्विरतः स्थितः सम्यग्मार्गेषु आत्मा यस्य सः पाठान्तरं वा 'ठियचि'चि स्थिता शुद्धखभावात्मना अर्चिः - लेश्या यस्य स भवति स्थितार्चिः, सुविशुद्धस्थिरलेश्य इत्यर्थः ॥ ६ ॥ किञ्च - 'सर्व' चराचरं 'जगत्' प्राणिसमूहं समतया प्रेक्षितुं शीलमस्य स समतानुप्रेक्षी समतापश्यको वा, न कञ्चित्प्रियो नापि द्वेष्य इत्यर्थः तथा चोक्तम् — "नेत्थि य सि कोइ विस्सो पिओ व सर्व्वसु चैव जीवेसु" तथा-'जह मम ण पियं दुक्खमित्यादि, | समतोपेतश्च न कस्यचित्प्रियमप्रियं वा कुर्यान्निःसङ्गतया विहरेद्, एवं हि सम्पूर्ण भावसमाधियुक्तो भवति, कचित्तु भावसमा| धिना सम्यगुत्थानेनोत्थाय परी पहोपसर्गेस्सर्जितो दीनभावमुपगम्य पुनर्विषण्णो भवति विषयार्थी वा कश्विद्गार्हस्थ्य मध्यवलम्बते रससाता गौरवगृद्धो वा पूजासत्काराभिलाषी स्यात् तदभावे दीनः सन् पार्श्वस्थादिभावेन वा विषण्णो भवति, कश्चित्तथा सम्पूजनं वस्त्रपात्रादिना प्रार्थयेत् 'लोककामी च' श्लाघाभिलाषी च व्याकरणगणितज्योतिपनिमित्तशास्त्राण्यधीते कविदिति ॥ ७ ॥ किञ्चान्यत् साधूनाधाय उद्दिश्य कृतं निष्पादितमाधाकर्मेत्यर्थः, तदेवम्भूतमाहारोपकरणादिकं निकामम् - अत्यर्थ यः प्रार्थयते स निकाममीणेत्युच्यते । तथा 'निकामम्' अत्यर्थ आघाकर्मादीनि तनिमित्तं निमन्त्रणादीनि वा सरति चरति १ नास्ति तस्य कोऽपि द्वेष्यः प्रिय सर्वेषु चैव जीवेषु ॥ Education Internation For Penal Use On ~391~ १० समाध्यध्ययनं. ॥ १९०॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| दीप तिच्छीलच स तथा, एवम्भूतः पार्श्वस्थावसनकुशीलानां संयमोद्योगे विषण्णानां विषण्णभावमेषते, सदनुष्ठान विषण्णतया संसारप-18 कावसनो भवतीतियावत् , अपिच 'स्त्रीषु रमणीपु 'आसक्तः' अध्युपपन्नः पृथक पृथक् तदापितहसितविश्वोकशरीरावयवेष्विति, बालबद् 'बाल' अशः सदसद्विवेकविकला, तदवसक्ततया च नान्यथा-द्रव्यमन्तरेण तत्सम्प्राप्तिर्भवतीत्यतो येन केनचिदुपा-|| येन तदुपायभूतं परिग्रहमेव प्रकर्षेण कुर्वाणः पापं कर्म समुचिनोतीति ।। ८॥ तथा वेराणुगिद्धे णिचयं करेति, इओ चुते स इहमदुग्गं । तम्हा उ मेधावि समिक्ख धम्म, चरे मुणी सबउ विप्पमुक्के ॥९॥ आयं ण कुजा इह जीवियट्ठी, असज्जमाणो य परिवएजा। णिसम्मभासी य विणीय गिद्धिं, हिंसन्नियं वा ण कहं करेजा ॥ १०॥ आहाकडं वा ण णिकामएज्जा, णिकामयंते य ण संथवेजा। धुणे उरालं अणुवेहमाणे, चिच्चा ण सोयं अणवेक्खमाणो ॥ ११ ॥ एगत्तमेयं अभिपत्थएज्जा, एवं पमोक्खो न मुसंति पास । एसप्पमोक्खो अमुसे वरेवि, अकोहणे सच्चरते तवस्सी ॥ १२ ॥ येन केन कर्मणा-परोपतापरूपेण वैरमनुबध्यते जन्मान्तरशतानुयायि भवति तत्र गृद्धो वैरानुगृद्धः, पाठान्तरं वा 'आरंभ-19 सत्तो'त्ति आरम्भे सावद्यानुष्ठानरूपे सक्तो-लग्रो निरनुकम्पो 'निचयं द्रव्योपचर्य वनिमिचापादितकमनिचयं वा 'करोति' अनुक्रम [४८०] For P OW ~3924 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [४८४] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [१२], निर्युक्तिः [१०६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचायतियुत ॥१९१॥ उपादत्ते, 'स' एवम्भूत उपात्तवैरः कृतकर्मोपचय 'इतः' अमात्स्थानात् 'च्युतो' जन्मान्तरं गतः सन् दुःखयतीति दुःखं- नरकादियातनास्थानमर्थतः - परमार्थतो दुर्ग-विषमं दुरुत्तरमुपैति, यत एवं तत्तस्मात् 'मेधावी' विवेकी मर्यादावान् वा सम्पूर्णसमाधिगुणं जानानो 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं 'समीक्ष्य' आलोच्याङ्गीकृत्य 'मुनिः' साधुः 'सर्वतः' सबाह्याभ्यन्तरात्सङ्गात् 'विप्रमुक्तः' अपगतः संयमानुष्ठानं मुक्तिगमनैकहेतुभूतं 'चरेद्' अनुतिष्ठेत् ख्यारम्भादिसङ्गाद्विमुक्तोऽनिश्रितभावेन विहरेदितियावत् ||९|| | किञ्चान्यत् आगच्छतीत्यायो- द्रव्यादेर्लाभस्तन्निमित्तापादितोऽष्टप्रकार कर्मलाभो वा तम् 'इव्ह' असिन संसारे 'असंयमजीविताथीं' भोगप्रधान जीवितार्थीत्यर्थः, यदिवा-आजीविकाभयात् द्रव्यसञ्चयं न कुर्यात्, पाठान्तरं वा छन्दणं कुजा इत्यादि, छन्दः - प्रार्थनाऽभिलाप इन्द्रियाणां स्वविषयाभिलाषो वा तत् न कुर्यात्, तथा 'असजमानः' सङ्गमकुर्वन् गृहपुत्रकलत्रादिषु 'परिव्रजेत्' उद्युक्त| विहारी भवेत् तथा 'गृद्धिं गार्ध्यं विषयेषु शब्दादिषु 'विनीय' अपनीय 'निशम्य' अवगम्य पूर्वोत्तरेण पर्यालोच्य भाषको भवेत् तदेव दर्शयति-हिंसया-प्राण्युपमर्दरुपया अन्वितां युक्तां कथां न कुर्यात्, न तत् श्रूयात् यत्परात्मनो उभयोयों बाधकं वच इति भावः, तद्यथा-अनीत पिबत खादत मोदत हत छिन्त प्रहरत पचतेत्यादिकथां पापोपादानभूतां न कुर्यादिति ॥१०॥ अपिचसाधूनाधाय कृतमाधाकृतमौदेशिकमाघाकर्मेत्यर्थः, तदेवम्भूतमाहारजातं निश्रयेनैव 'न कामयेत्' नाभिलपेत् तथाविधाहारादिकं च 'निकामयतः' निश्चयेनाभिलषतः पार्श्वस्थादिस्तत्सम्पर्क दानप्रतिग्रहसंवाससम्भाषणादिभिः न संस्थापयेत्-नोपबृंहयेत् तैर्वा सार्धं संस्तवं न कुर्यादिति, किञ्च - 'उरालं'ति औदारिकं शरीरं विकृष्टतपसा कर्मनिर्जरामनुप्रेक्षमाणो 'धुनीयात्' कृशं कुर्यात्, यदिवा 'उरालं'ति बहुजन्मान्तरसञ्चितं कर्म तदुदारं--मोक्षमनुप्रेक्षमाणो 'धुनीयाद्' अपनयेत् तस्मिंश्च तपसा धूयमाने कुशी Ja Eucation Intention For Parts Only ~393~ १० समा ॥१९१॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||92|| दीप अनुक्रम [४८४] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [१२], निर्युक्ति: [१०६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः भवति शरीर के कदाचित शोकः स्यात् तं त्यक्वा याचितोपकरणवदनुप्रेक्षमाणः शरीरकं धुनीयादिति सम्बन्धः ॥ ११ ॥ किश्वापेक्षेतेत्याह-एकलम् - असहायत्वमभिप्रार्थयेद् एकत्वाध्यवसायी स्यात्, तथाहि जन्मजरामरणरोगशोकाकुले संसारे स्वकृतकर्मणा विलुप्यमानानामसुमतां न कश्चित्राणसमर्थः सहायः स्यात्, तथा चोक्तम्- "एगो मे सासओ अप्पा णाणदंसणसंजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सबै संयोगलक्खणा ॥ १ ॥" इत्यादिकामेकवभावनां भावयेद्, एवमनयैकत्वभावनया प्रकर्षेण मोक्षः प्रमोक्षोविप्रमुक्तसङ्गता, न 'मृषा' अलीकमेतद्भवतीत्येवं पश्य, एष एवैकत्वभावनाभिप्रायः प्रमोक्षो वर्तते, अमृषारूपः सत्यायमेव । तथा 'वरोऽपि' प्रधानोऽप्ययमेव भावसमाधिर्वा यदिवा यः 'तपस्वी' तपोनिष्टतदेहोऽक्रोधनः, उपलक्षणार्थवादस्यामानो निर्मायो निर्लोभः सत्यरतश्च एष एव प्रमोक्ष 'अमृषा' सत्यो 'वरः' प्रधान वर्तत इति ॥ १२ ॥ किञ्चान्यत् Educatan Internation इत्थी या आर मेहुणाओ, परिग्गहं चेव अकुवमाणे । उच्चावएसु विसपसु ताई, निस्संसयं भिक्खु समाहिपत्ते ॥ १३ ॥ अरई रई व अभिभूय भिक्खू, तणाइफासं तह सीयफासं । उन्हं च दंसं चहियासएज्जा, सुबिंभ व दुब्भि व तितिक्खएजा ॥ १४ ॥ गुत्तो वईए य समाहिपत्तो, लेसं समाहद्दु परिवएजा । गिहं न छाए णवि छायएजा, संमिस्सभावं पयहे १ एको मे शाश्वत आत्मा ज्ञानदर्शनसंयुतः शेषा मे वाह्या भावाः सर्वे संभोगलक्षणाः ॥ १ ॥ For Parts Only ~394~ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत aux शीलाक-18 १० समाध्यध्ययनं. सूत्रांक ||१५|| दीप अनुक्रम [४८७] सूत्रकृताङ्गं पयासु ॥१५॥ जे केइ लोगंमि उ अकिरियआया, अन्नेण पुट्टा धुयमादिसति । आरंभसत्ता चायिक गढिता य लोए, धम्म ण जाणंति विमुक्खहेउं ॥ १६ ॥ त्तियुत दिव्यमानुपतिर्यग्ररूपासु त्रिविधाखपि स्त्रीषु विषयभूतासु यत् 'मैथुनम् अब्रह्म तस्माद् आ-समन्तात्ररतः-अरतो निवृत्त इत्यर्थः, ॥१९ ॥ तुशब्दात्त्राणातिपावादिनिवृत्तश्च, तथा परि-समन्ताद्यते इति परिग्रहो धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिसंग्रहः तथा आत्माऽऽत्मीयग्रहस्तं चैवाकुर्वाणः सन्नुचावचेषु-नानारूपेषु विषयेषु यदिवोच्चा-उत्कृष्टा अवचा-जयन्यास्तेष्वरक्तद्विष्टः 'चायी' अपरेषां च त्राणभूतो विशिष्टोपदेशदानतो 'निःसंशयं निश्चयेन परमार्थतो 'भिक्षु' साधुरेवम्भूतो मूलोत्तरगुणसमन्वितो भावसमाधि प्राप्तो भवति, नापरः कश्चिदिति, उच्चावचेषु वा विषयेषु भावसमाधि प्राप्तो भिक्षुर्न संश्रयं याति नानारूपान् विषयान् न संश्रयतीत्यर्थः ॥१३॥ | विषयाननाश्रयन् कथं भावसमाधिमाप्नुयादित्याह-स भावभिक्षुः परमार्थदर्शी शरीरादौ निःस्पृहो मोक्षगमनैकग्रवणच या संयमेऽप्रारतिरसंयमे च रतिर्वा ताममिभूय एतदधिसहेत, तद्यथा-निष्किचनतया तृणादिकान् स्पर्शानादिग्रहणानिम्नोचतभूप्रदेशस्पशोध | सम्पगधिसहेत, तथा शीतोष्णदंशमशकक्षुत्पिपासादिकान् परीषहानक्षोभ्यतया निर्जरार्थम् 'अध्यासयेदू' अधिसहेत तथा गन्ध IS सुरभिमितरं च सम्यक् 'तितिक्षयेत्' सद्यात् , चशब्दादाक्रोशवधादिकांश्च परिपहान्ममक्षुस्तितिक्षयेदिति ॥१४॥ किशान्यत्-॥ बाचि वाचा वा गुप्तो बारगुप्तो-मौनव्रती सुपर्यालोचितधर्मसम्बन्धमापी वेत्येवं भावसमाधि प्राप्तो भवति, तथा शुद्धा 'लइयां जस्यादिकां 'समाहृत्य' उपादाय अशुद्धां च कृष्णादिकामपहृत्य परि-समन्तात्संयमानुष्ठाने 'व्रजेत् गच्छेदिति, किश्चान्यत् ॥१९२॥ | ~395 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [४८८] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [१६], निर्युक्तिः [१०६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः गृहम् आवसथं खतोऽन्येन वा न छादयेदुपलक्षणार्थवादस्यापरमपि गृहादेरुरगवत्परकृतचिलनिवासिखात्संस्कारं न कुर्यात्, अन्यदपि गृहस्थकर्तव्यं परिजिहीर्षुराह - प्रजायन्त इति प्रजास्तासु तद्विषये येन कृतेन सम्मिश्रभावो भवति तत्प्रजह्यात् एत दुक्तं भवति-प्रब्रजितोऽपि सन् पचनपाचनादिकां क्रियां कुर्वन् कारयंश्च गृहस्यैः सम्मिश्रभावं भजते, यदिवा - प्रजाः - स्त्रियस्तासु ताभिर्वा यः सम्मिश्रीभावस्तमचिकल संयमार्थी 'प्रजह्यात्' परित्यजेदिति ॥ १५ ॥ अपिच — ये केचन अमिन लोके अक्रिय आत्मा येषामभ्युपगमे तेऽक्रियात्मानः साङ्ख्या:, तेषां हि सर्वव्यापिखादात्मा निष्क्रियः पठ्यते, तथा चोक्तम्- "अकर्ता निर्गुणो भोक्ता, आत्मा कपिलदर्शने" इति, तुशब्दो विशेषणे, स चैतद्विशिनष्टि - अमूर्तसव्यापिताभ्यामात्मनोऽक्रियत्वमेव बुध्यते, ते चाक्रियात्मवादिनोऽन्येनाक्रियते सति बन्धमोक्षौ न घटेते इत्यभिप्रायवता मोक्षसद्भावं पृष्टाः सन्तोऽक्रियावाददर्शनेऽपि 'धूतं' मोक्षं तदभावम् (च) 'आदिशन्ति' प्रतिपादयन्ति ते तु पचनपाचनादिके स्नानार्थं जलावगाहनरूपे वा 'आरम्भ' सावये 'सक्ता' अध्युपपन्ना गृद्धास्तु लोके मोक्षैकहेतुभूतं 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं न जानन्ति' कुमार्गग्राहिणो न सम्यगवगच्छन्तीति ॥ १६ ॥ किञ्चान्यत् Eucation International पुढो य छंदा इह माणवा उ, किरियाकिरीयं च पुढो य वायं । जायस्स बालस्स पकुव देहं पवडती वेरमसंजतस्स ॥ १७ ॥ आउक्खयं चैव अबुज्झमाणे, ममाति से साहसकारि मंदे । अहो य राओ परितप्यमाणे, अहेसु मूढे अजरामरेव ॥ १८ ॥ जहाहि वित्तं पसवो य For Parata Use Only ~396~ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [१९], नियुक्ति: [१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचार्याय तियुतं ॥१९॥ ||१९|| दीप अनुक्रम [४९२] eeeeeeeece सवं, जे बंधवा जे य पिया य मित्ता । लालप्पती सेऽवि य एई मोहं, अन्ने जणा तसि हरति १० समावित्तं ॥ १९ ॥ सीहं जहा खुड्डमिगा चरंता, दूरे चरंती परिसंकमाणा । एवं तु मेहावि समि- ध्यध्ययन क्ख धम्म, दूरेण पावं परिवजएज्जा ॥ २०॥ पृथक नाना छन्द:-अभिप्रायो येषां ते पृथक्छन्दा 'इह' अस्मिन्मनुष्यलोके 'मानवा' मनुष्याः, तुरक्धारणे, तमेव नानाभि-18 प्रायमाह क्रिया क्रिययोः पृथक्वेन क्रियावादमक्रियावादं च समाश्रिताः, तद्यथा-"क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । | यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ॥१॥” इत्येवं क्रियेव फलदायिसेनाभ्युपगता, क्रियावादमाश्रिताः, एवमेतद्विपर्य-8 येणाक्रियावादमाश्रिताः, एतयोश्चोत्तरत्र स्वरूप न्यक्षेण वक्ष्यते, ते च नानाभिप्राया मानवाः क्रियाक्रियादिक पृथग्वादमाश्रिता मोक्षहेतु धर्ममजानाना आरम्भेषु सक्ता इन्द्रियवशमा रससातागौरवाभिलाषिण एतत्कुर्वन्ति, तद्यथा-'जातस्य उत्पन्नस्य 'बालस्य अबस्य सदसद्विवेकविकलस्य सुखैषिणो 'देहं शरीरं 'पकुब्व'त्ति खण्डशः कृताऽऽत्मनः सुखमुत्पादयन्ति, तदेवं परोपघातक्रिया कुर्वतोऽसंयतस्य कुतोऽप्यनिवृत्तस्य जन्मान्तरशतानुबन्धि वैरं परस्परोपमर्दकारि प्रकर्षेण वर्धते, पाठान्तरं वा-जायाएँ बालस्स। AR||१९३॥ | पगम्भणाए-'बालस्य अन्नस्य हिंसादिषु कर्मसु प्रवृत्तस्य निरनुकम्पख या जाता 'प्रगल्भता धाय तया वैरमेव प्रवर्धेत इति सम्बन्धः ॥ १७ ॥ अपिच-आयुषो-जीवनलक्षणस क्षय आयुष्कक्षयस्तमारम्भप्रवृत्तः छिन्नादमत्स्यवदुदकक्षये सति अयुध्यमानोऽतीव ~397 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [४९२] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [२०], निर्युक्ति: [१०६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'ममाइ'त्ति ममलवान् इदं मे अहमस्य स्वामीत्येवं स 'मन्द:' अज्ञः साहसं कर्तुं शीलमस्येति साहसकारीति, तद्यथा - कश्चिदणिग्र महता क्लेशेन महार्षाणि रत्नानि समासाद्योजयिन्या बहिरावासितः, स च राजचौरदायादभयाद्रात्रौ रत्नान्येवमेवं च प्रवेशयि| ज्यामीत्येवं पर्यालोचनाकुलो रजनीक्षयं न ज्ञातवान् अह्नथेव रत्नानि प्रवेशयन् राजपुरुषै रत्नेभ्यश्यावित इति, एवमन्योऽपि किंकर्तव्यताकुलः खायुषः क्षयमनुध्यमानः परिग्रहेष्वारम्भेषु च प्रवर्तमानः साहसकारी स्यादिति, तथा कामभोगतृषितोऽकि रात्रौ च परि-समन्तात् द्रव्यार्थी परितप्यमानो मम्मणवणिग्वदार्तध्यायी कायेनापि क्लिश्यते, तथा चोक्तम्- "अजरामरवद्वालः, क्लिश्यते धनकाम्यया । शाश्वतं जीवितं चैव मन्यमानो धनानि च ।। १ ।।" तदेवमार्तध्यानोपहतः 'कैइया वच्चइ सत्थो १ किं भंड कत्थ किचिया भूमीत्यादि, तथा 'उक्खणइ खणइ णिहणइ रतिं न सुबह दियावि य ससंको' इत्यादिचित्तसंक्लेशात्सुष्ठु मूढोऽजरामरवणिग्वदजरामरवदात्मानं मन्यमानोऽपगतशुभाध्यवसायोऽहर्निशमारम्भे प्रवर्तत इति ॥ १८ ॥ किञ्चान्यत्- 'वित्तं' द्रव्यजातं तथा 'पशचो' गोमहिष्यादयस्तान् सर्वान् 'जहाहि' परित्यज-तेषु ममलं मा कृथाः, ये 'बान्धवा' मातापित्रादयः श्वशुरादयश्च पूर्वापरसंस्तुता ये च प्रिया 'मित्राणि' सहपांसुक्रीडितादयस्ते एते मातापित्रादयो न किश्चित्तस्य परमार्थतः कुर्वन्ति, सोऽपि च वित्तपशुबान्धवमित्रार्थी अत्यर्थं पुनः पुनर्वा लपति लालप्यते, तद्यथा हे मातः ! हे पितरित्येवं तदर्थं शोकाकुल: प्रलपति, तदर्जनपरथ मोहमुपैति रूपवानपि कण्डरीकवत् धनवानपि मम्मणवणिग्वत् धान्यवानपि तिलकश्रेष्ठिवद् इत्येवमसावप्यसमाधिमान् मुझते (ति), यच्च तेन महता क्लेशेनापरप्राण्युपमर्देनोपार्जितं वित्तं तदन्ये जनाः 'से' तस्यापहरन्ति जीवत एव १ कदा जति सार्थः किं भाण्डं क न किवती भूमिः २ उत्सनवि खनति निहन्ति रात्रौ न खपिति दिवापि च सशंकः ॥ १ ॥ For Parts Only ~398~ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [२०], नियुक्ति : [१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| सूत्रकृता शीकाकाचार्षीयचियुत ॥१९॥ दीप अनुक्रम [४९२] मृतस्य वा, तस्य च क्लेश एव केवलं पापबन्धश्चेत्येवं मखा पापानि कर्माणि परित्यजेचपश्चरेदिति ।। १९ ।। तपश्चरणोपायमधिकत्याह-यथा 'क्षुद्रमृगा' क्षुद्राटण्यपशवो हरिणजात्याद्याः 'चरन्त:' अटव्यामटन्तः सर्वतो विभ्यतः परिशङ्कमानाः सिंहं व्याघ्र | हाध्यध्ययन. | वा आत्मोपद्रवकारिणं दूरेण परिहत्य 'चरन्ति विहरन्ति, एवं 'मेधावी' मर्यादावान् , तुर्विशेषणे, सुतरां धर्म 'समीक्ष्य' | |पयोलोच्य 'पाप' कर्म असदनुष्ठानं दरेण मनोवाकायकर्मभिः परिहत्य परि-समन्ताहजेत् संयमानुष्ठायी तपधारी च भवेदिति, दूरेण वा पापं पापहेतुखात्सायद्यानुष्ठान सिंहमिव मृगः खहितमिच्छन् परिवर्जयेत्-परित्यजेदिति ॥ २०॥ अपिच संबुज्झमाणे.उ गरे मतीमं. पावाउ अप्पाण निवदृएज्जा। हिंसप्पसूयाई दुहाई मत्ता, वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥ २१ ॥ मुसं न बया मुणि अत्तगामी, णिवाणमेयं कसिणं समाहिं। सर्य न कुज्जा न य कारवेजा, करंतमन्नपि य णाणुजाणे ॥ २२ ॥ सुद्धे सिया जाए न दूसएजा, अमुच्छिए ण य अज्झोववन्ने । घितिमं विमुक्के ण य पूयणट्री, न सिलोयगामी य परिवएजा ॥ २३ ॥ निक्खम्म गेहाउ निरावकंखी, कार्य विउसेज नियाणछिन्ने । णो जीवियं णो ॥१९॥ मरणाभिकखी, चरेज भिक्खू वलया विमुक्के ॥२६॥ तिबेमि ॥ (गाथा०५८०)। इति समाहिनाम दसममज्झयणं समत्तं ॥ अत्र गाथा क्रमांके मुद्रण दोष: दृश्यते, अन्त्य गाथा-क्रम २६ न वर्तते, तत् २४ वर्तते [अंत्य गाथा क्रम २६ नहीं २४ होना चाहिए] ~399~ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [४९६] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [२४], निर्युक्ति: [१०६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः मननं मतिः सा शोभना यस्यास्त्यसौ मतिमान्, प्रशंसायां मतुप् तदेवं शोभनमतियुक्तो मुमुक्षुर्नरः सम्यकुश्रुतचारित्राख्यं धर्म भावसमाधिं वा 'बुध्यमानस्तु' विहितानुष्ठाने प्रवृतिं कुर्वाणस्तु पूर्वं तावन्निषिद्धाचरणान्निवर्तेत अवस्तत् दर्शयति- 'पापात्' हिंसानृतादिरूपात्कर्मण आत्मानं निवर्तयेत् निदानोच्छेदेन हि निदानिन उच्छेदो भवतीत्यतोऽशेषकर्मक्षयमिच्छन्नादावेव आश्रवद्वाराणि निरुन्ध्यादित्यभिप्रायः, किं चान्यत्-हिंसा प्राणिव्यपरोपणं तया ततो वा प्रसूतानि जातानि यान्यशुभानि कर्माणि तान्यत्यन्तं नरकादिषु यातनास्थानेषु दुःखानि दुःखोत्पादकानि वर्तन्ते, तथा वैरमनुबभन्ति तच्छीलानि च वैरानुबन्धीनि - जन्मशतसहस्रदुमचानि, अत एव महद्भयं येभ्यः सकाशात्तानि महाभयानीति, एवं च मत्खा मतिमानात्मानं पापान्निवर्तयेदिति, पाठान्तरं वा 'निवाणभूए व परिवएञ्जा' अस्थायमर्थः यथा हि निर्वृतो निर्व्यापारत्वात्कस्यचिदुपघाते न वर्तते एवं साधुरपि सावद्यानुष्ठानरहितः परि-समन्ताद् व्रजेदिति ॥ २१ ॥ तथा आप्तो मोक्षमार्गस्तद्भामी तद्गमनशील आत्महितगामी वा आप्तो वा प्रक्षीणदोषः सर्वज्ञस्तदुपदिष्टमार्गगामी 'मुनिः' साधुः 'मृषावादम्' अनृतमयथार्थं न ब्रूयात् सत्यमपि प्राण्युपघातकमिति, 'एतदेव' मृषावादवजैनं 'कृत्स्नं' संपूर्ण भावसमाधिं निर्वाण चाहुः, सांसारिका हि समाधयः स्नानभोजनादिजनिताः शब्दादिविषयसंपादिता वा | अनैकान्तिकानात्यन्तिकलेन दुःखप्रतीकाररूपत्वेन वा असंपूर्णा वर्तन्ते । तदेवं मृषावादमन्येषां वा व्रतानामतिचारं स्वयमात्मना न कुर्यात्राप्यपरेण कारयेत्तथा कुर्वन्वमप्यपरं मनोवाक्कायकर्मभिर्नानुमन्येत इति ॥ २२ ॥ उचरगुणानधिकृत्याह - उद्गमोत्पादनैषणाभिः 'शुद्धे' निर्दोषे 'स्यात्' कदाचित् 'जाते' प्राप्ते पिण्डे सति साधू रागद्वेषाभ्यां न दूषयेत् उक्तं च Education International For Parts Only ~ 400~ SESEA war Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [२४], नियुक्ति : [१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [४९६] सूत्रकता 18वायालीसेसणसंकडंमि गहणमि जीव ! नहु छलिओ । इहि जह न छलिअसि भुंजतो रागदोसेहिं ॥१॥" तत्रापि रागस्य || १० समाशीलाका प्राधान्यख्यापनायाह-न मूर्छितोऽमूर्छितः-सकृदपि शोभनाहारलाभे सति गृद्धिमकुर्वन्नाहारयति, तथा अनध्युपपन्नस्तमेवाहारं ध्यध्ययनं. चा-यव पौन:पुन्येनानमिलषमाणः केवलं संग्रमयात्रापालनार्थमाहारमाहारयेत् , प्रायो विदितवेद्यस्यापि विशिष्टाहारसन्निधावभिलात्तियुतं |पातिरेको जायत इत्यतोऽभूर्छितोऽनध्युपपन्न इति च प्रतिषेधद्वयमुक्तम् , उक्तं च-भुनभोगो पुरा जोवि, गीयत्थोऽपि य ॥१९५॥ |भाविओ । संसाहारमाईसु, सोवि खिप्पं तु खुम्भइ ॥१॥" तथा संयमे धृतिर्यस्यासौ धृतिमान् , तथा सबाह्याभ्यन्तरेण अन्धेन | विमुक्ता, तथा पूजनं बलपात्रादिना तेनार्थः पूजनार्थः स विद्यते यस्सासौ पूजनार्थी तदेवभूतो न भवेत् , तथा श्लोक:| श्लाघा कीर्तिस्तद्गामी न तदभिलाषुकः परित्रजेदिति, कीर्त्यर्थी न काश्चन क्रियां कुर्यादित्यर्थः ।। २३ ।। अध्ययनार्थमुपसंजिक्षुराह-गेहानिःसृत्य 'निष्क्रम्य च' प्रवजितोऽपि भूखा जीवितेऽपि निराकाङ्की 'कार्य' शरीरं व्युत्सृज्य निष्पतिकर्मतया |चिकित्सादिकमकुर्वन् छिन्ननिदानो मवेत , तथा न जीवितं नापि मरणममिकाझेच 'भिक्षु।' साधुः 'वलयात्' संसारवलया कर्मबन्धनाद्वा विप्रमुक्तः संयमानुष्ठानं चरेत् , इतिः परिसमाप्त्यर्थे, नवीमीति पूर्ववत् ॥ २४ ॥ इति समाध्याख्यं दशममध्ययनं समाप्तं ॥ ॥१९५॥ १द्विवलारिंशदेषणादोपसंकटे गहने जीव । नैव छलितः । इदानी यदि न छत्यसे भुझन् रागदेषाभ्या (तदा सफल तत)॥१॥ २ भुक्तभोगः पुरा योधपि | | गीतार्थोऽपि च भावितः । सत्खाद्दारादिषु सोऽपि क्षिप्रमेव शुभ्यति ॥१॥ presentatiseases ~4014 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक -1, मूलं [२४...], नियुक्ति: [१०७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अथ एकादशं श्रीमार्गाध्ययनं प्रारभ्यते । प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [४९६] उक्तं दशममध्ययनं, तदनन्तरमेकादशमारभ्यते, अस्स चायमभिसंबन्धः, इहानन्तराध्ययने समाधिः प्रतिपादितः, स च ज्ञानदर्शनतपश्चारित्ररूपो वर्तते, भावमार्गोऽप्येवमात्मक एवेत्यतो मार्गोऽनेनाध्ययनेन प्रतिपाद्यते इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्याध्ययनस चखायुपक्रमादीन्यनुयोगद्वाराणि वाच्यानि, तत्राप्युपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं, तद्यथा-प्रशस्तो ज्ञानादिको भावमार्गस्तदाचरण चात्राभिधेयमिति, नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे मार्ग इत्यस्याध्ययनस्य नाम, तन्निक्षेपार्थं नियुक्तिकृदाह--- णाम ठवणा दविए खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु मग्गस्स य णिक्खेवो छविहो होइ ॥ १०७॥ फलगलयंदोलणवित्तरज्जुदवणबिलपासमग्गे य । खीलगअयपक्खिपहे छत्तजलाकासदब्बंमि ॥१०८॥ IS खेत्तंमि जंमि खेत्ते काले कालो जहिं हवइ जो उ। भावंमि होति दुविहो पसत्थ तह अप्पसत्थो य ॥ १०९॥ ॥ दुविहमिवि तिगभेदो ओतस्स(उ) विणिच्छओ दुविहो। सुगतिफलदुग्गतिफलो पगयं सुगतीफलेणित्य।।११०॥ ॥ दुग्गइफलबादीणं तिन्नि तिसट्टा सताइ वादीणं । खेमे य खेमरूवे चउक्कगं मग्गमादीसु ॥ १११ ॥ नामस्थापनाद्रम्पक्षेत्रकालभावभेदान्मार्गस्य पोढा निक्षेपः, तत्र नामस्थापने सुगमलादनादृत्य शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यमार्गमधिकृत्याह-फलकर्मार्गः फलकमार्गः यत्र कर्दमादिभयात् फलकैर्गम्यते, लतामार्गस्तु यत्र लतावलम्बेन गम्यते, easasaseco909200000000000000 9a9a9a0006300020200093979090sa अत्र एकादशमं अध्ययनं 'मार्ग' आरब्धं, पूर्व अध्ययनेन सह तत् अभीसम्बन्ध:, मार्ग शब्दस्य निक्षेपा: ~4024 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [२४...], नियुक्ति: [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ११ मार्गा प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [४९६] ताऊँ अन्दोलनमार्गोऽपि यत्रान्दोलनेन दुर्गमतिलयते, वेत्रमार्गों यत्र वेत्रलतोपष्टम्भेन जलादौ गम्यते इति, तद्यथा-चारुदत्तो शीलाक-18 वेत्रलतोपष्टम्भेन वेत्रवती नदीमुत्तीर्य परकूलं गतः, रज्जुमार्गस्तु यत्र रज्या किश्चिदतिदुर्गमतिलङ्घयते, 'दवन'ति यानं ध्ययनमाचार्याय तन्मागों दवनमार्गः, बिलमार्गो यत्र तु गुहाद्याकारेण विलेन गम्यते, पाशप्रधानो मार्गः पाशमार्गः पाशकूटवागुरान्वितो मार्ग निक्षेपाः तियुतं | इत्यर्थः, कीलकमार्गो यत्र वालुकोत्कटे मरुकादिविषये कीलकाभिज्ञानेन गम्यते, अजमार्गो यत्र अजेन-वस्त्येन गम्यते, तत्--181 ॥१९६॥ | यथा सुवर्णभूम्यां चारुदत्तो गत इति, पक्षिमार्गों यत्र भारुण्डादिपक्षिभिर्देशान्तरमवाप्यते, छत्रमार्गो यत्र छत्रमन्तरेण गन्तुं न | | शक्यते, जलमार्गो यत्र नावादिना गम्यते, आकाशमार्गो विद्याधरादीनाम् , अयं सर्वोऽपि फलकादिको 'द्रव्ये' द्रव्यविषयेऽवग न्तव्य इति। क्षेत्रादिमार्गप्रतिपादनायाह-क्षेत्रमार्गे पर्यालोच्यमाने यसिन् 'क्षेत्रे ग्रामनगरादौ प्रदेशे वा शालिक्षेत्रादिके वा क्षेत्रे | यो याति मार्गों यसिन्वा क्षेत्रे व्याख्यायते स क्षेत्रमार्गः, एवं कालेऽप्यायोज्यं । भावे खालोच्यमाने द्विविधो भवति मार्गः, तद्यथा-16 |प्रशस्तोप्रशस्तश्चेति । प्रशस्ताप्रशस्तभेदप्रतिपादनायाह-'द्विविधेऽपि प्रशस्ताप्रशस्तरूपे भावमार्गे प्रत्येक त्रिविधो भेदो भवति, | तत्राप्रशस्तो मिथ्याखमविरतिरबानं चेति, प्रशस्तस्तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप इति, 'तस्य' प्रशस्ताप्रशस्तरूपस्य भावमार्गस्थ 'विनिश्चयो' निर्णयः फलं कार्य निष्टा द्वेधा, तद्यथा-प्रशस्तः सुगतिफलोप्रशस्तश्च दुर्गतिफल इति । इह तु पुनः 'प्रस्तावः' अधिकार: ला॥१९६॥ 'सुगतिफलेन' प्रशस्तमार्गेणेति । तत्राप्रशस्तं दुर्गतिफलं मार्ग प्रतिपिपादयिषुस्तत्कर्तनिर्दिदिक्षुराह-दुर्गतिः फलं यस्य स दुर्गविफलस्तद्वदनशीला दुर्गतिफलवादिनस्तेषां प्रावादुकानां त्रीणि त्रिपष्पधिकानि शतानि भवन्ति, दुर्गतिफलमार्गोपदेष्टत्वं च तेषां 992989252828 मार्ग शब्दस्य निक्षेपा: ~4034 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक -1, मूलं [२४...], नियुक्ति: [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [४९६] పూల పంది मिध्यासोपहतष्टितया विपरीतजीवादितत्त्वाभ्युपगमात् , तत्संख्या चैवमवगन्तव्या, तयथा-असियसयं किरियाणं अकिरियवा-13 | ईण होइ चुलसीई । अण्णाणिय सत्तट्ठी वेणइयाणं च बत्तीसं ॥१॥ तेषां च स्वरूपं समवसरणाध्ययने वक्ष्यत इति ॥ साम्प्रतं माग है भङ्गद्वारेण निरूपयितुमाह, तद्यथा-एका क्षेमो मार्गस्तस्करसिंहव्याघ्रायुपद्रवरहितखात् तथा क्षेमरूपश्च समसात्तथा छायापुष्पफलब दृक्षोपेतजलाश्रयाकुलखाच १, तथा पर क्षेमो निश्चौरः किंलक्षेमरूप उपलशकलाकुलगिरिनदीकण्टकगोशताकुलतेन विषमसात् , तथाऽपरोक्षेमस्तस्करादिभयोपेतखारक्षेमरूपचोपलशकलाद्यमावतया समसात् , तथाऽन्यो न क्षेमो नापि क्षेमरूपः सिंहच्याघ्र॥ तस्करादिदोषदुष्टखात्तथा गर्तापाषाणनिम्नोन्नतादिदोषदुष्टलाञ्चेति, एवं भावमार्गोऽप्यायोग्यः, तयथा-शानादिसमन्वितो द्रव्यलिङ्गोपेतब साधुः क्षेमः क्षेमरूपश्च, तथा क्षेमोऽक्षेमरूपस्तु स एव भावसाधुः कारणिकद्रव्यलिङ्गरहितः, तृतीयभङ्गकगता निवाः, परतीर्थिका गृहस्थावरमभङ्गकवर्तिनो द्रष्टव्याः । एवमनन्तरोक्तया प्रक्रियया 'चतुष्कक' भङ्गकचतुष्टयं मार्गादिष्वायोज्य, | आदिग्रहणादन्यत्रापि समाध्यादावायोज्यमिति ।। सम्धगमिथ्याखमार्गयोः खरूपनिरूपणायाहसम्मप्पणिओ मग्गो णाणे तह दंसणे चरित्ते य । चरगपरिब्वायादीचिण्णो मिच्छत्तमग्गो उ ॥ ११२ ॥ इडिरससायगुरुया छजीवनिकायघायनिरया (य)। जे उवदिसंति मग्गं कुमग्गमग्गस्सिता ते उ ॥ ११३ ॥ तवसंजमपहाणा गुणधारी जे वयंति सम्भावं । सबजगज्जीवहियं तमाहु सम्मप्पणीयमिण ॥ ११४ ॥ पंथी मग्गो णाओ विहीं धिती सुगती हियं (तह) सुहं च । पत्थं सेयं णिब्बुइ णिव्याणं सिवकर चेव ॥११५॥ अशीतिशत कियावादिनामकियावादिनां भवति चतुरशीतिः भज्ञानिकानां सप्तपटियनयिकानां च द्वात्रिंशत् ।। १ ।। deeo मार्ग शब्दस्य निक्षेपाः, सम्यग् व मिथ्या मार्गस्य स्वरुप-निरूपणा, ~4044 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक -1, मूलं [२४...], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [४९६] सूत्रकृताङ्ग सम्यगज्ञानं दर्शनं चोरित्रं चेत्ययं त्रिविधोऽपि भावमार्गः 'सम्यग्दृष्टिभिः' तीर्थकरगणधरादिमिः सम्यग्वा-यथावस्थितषस्तु-18|| ११मार्गाशीलाका तत्वनिरूपणया प्रणीतस्तैरेव(च) सम्यगाचीर्ण इति, चरकपरिवाजकादिभिस्तु 'आचीर्णः आसेवितो मार्गों मिथ्यात्वमार्गोप्रशस्त- ध्ययनं भाचाय || मार्गों भवतीति । तुशब्दोऽस्य दुर्गतिफलनिबन्धनलेन विशेषणार्थ इति ॥ स्वयथ्यानामपि पार्श्वस्थादीनां पहजीवनिकायोपमर्द- वमार्गाः चियुतं | कारिणां कुमार्माश्रितवं दर्शयितुमाह--ये केचन अपुष्टधर्माणः शीतलविहारिणः ऋद्धिरससातगौरवेण 'गुरुका' गुरुकर्माण । १३ ॥१९७|| आधाकर्माधुपभोगाभ्युपगमेन षड्जीवनिकायब्यापादनरताच अपरेभ्यो 'मार्ग मोक्षमार्गमात्मानुचीर्णमुपदिशन्ति, तथाहिशरीरमिदमाचं धर्मसाधनमिति मला कालसंहननादिहानेश्वाषाकर्माद्युपभोगोपि न दोषायेत्येवं प्रतिपादयन्ति, ते चैवं प्रतिपा-18 दयन्तः कुत्सितमार्गास्तीथिंकास्तन्मार्गाश्रिता भवन्ति । तुशब्दादेतेऽपि खयूथ्या एतदुपदिशन्तः कुमार्गाश्रिता भवन्तीति किंपुनस्ती-1 | थिंका इति ।। प्रशस्तशास्त्रप्रणयनेन सन्मार्गाविष्करणायाह तपः-सयाद्याभ्यन्तरं द्वादशप्रकार तथा संयमः-सप्तदशभेदः पश्चाश्रव-| विरमणादिलक्षणस्ताभ्यां प्रधानास्तपःसंयमप्रधानाः, तथाऽष्टादशशीलाङ्गसहस्राणि गुणास्तद्धारिणो गुणधारिणो ये सत्साधवस्त एवं| भूता यं 'सद्भावं' परमार्थ जीवाजीवादिलक्षणं वदन्ति' प्रतिपादयन्ति, किंभूतं!-सर्वसिन् जगति ये जीवास्तेभ्यो हित-पथ्यं ॥४॥ तद्रक्षणतस्तेषां सदुपदेशदानतो वा तं सन्मार्ग सम्यमार्गज्ञाः 'सम्यग' अविपरीतखेन प्रणीतम् 'आहुः उक्तवन्त इति ॥ साम्प्रते सन्मार्गौंकार्थिकान् दर्शयितुमाह-देशाद्विवक्षितदेशान्तरप्राप्तिलक्षणः पन्थाः, स चेह भावमार्गाधिकारे सम्यक्सावाप्तिरूपोऽवगन्तव्यः १, तथा 'मार्ग' इति पूर्वमाद्विशुद्ध्या विशिष्टतरो मार्गः, स चेह सम्यगज्ञानावाप्तिरूपोऽवगन्तव्यः २, तथा 'न्याय' इति १चारित्रा.प्र.। ॥१९७॥ सम्यग् व मिथ्या मार्गस्य स्वरुप-निरूपणा, ~405~ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-1, मूलं [२४...], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२४|| సంతరించి निश्चयेनायन-विशिष्टस्थानप्राप्तिलक्षणं यसिन् सति स न्यायः, स चेह सम्यकचारित्रावाप्तिरूपोज्यगन्तव्यः, सत्पुरुषाणामयं न्याय एव यदुत अवाप्तयोः सम्पग्दर्शनज्ञानयोस्तत्फलभूतेन सम्यक्चारित्रेण योगो भवतीत्यतो न्यायशब्देनात्र चारित्रयोगोऽभिधीयत । | इति ३, तथा 'विधि'रिति विधान विधिः सम्यग्रज्ञानदर्शनयोयोगपद्येनावाप्तिः४, तथा 'धृति'रिति धरणं धृतिः सम्यग्दर्शने सति चारित्रावस्थानं माषतुषादाविव विशिष्टज्ञानाभावाद्विवक्षयैवमुच्यते ५, तथा 'सुगति रिति शोभना गतिरसात् ज्ञानाचारित्राचेति सुगतिः, 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष' इति न्यायात्सुगतिशब्देन ज्ञानक्रिये अभिधीयते, दर्शनस्य तु ज्ञानविशेषखादत्रैवान्तर्भावोऽवगन्तव्यः ६, तथा 'हित मिति परमार्थतो मुक्त्यवाप्तिस्तत्कारणं वा हितं, तच सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यमवगन्तव्य-18|| मिति ७, अत्र च संपूर्णानां सम्यग्दर्शनादीनां मोक्षमार्गले सति यद्वयस्तसमस्तानां मोक्षमार्गत्वेनोपन्यासः स प्रधानोपसर्जनविव क्षया न दोपायेति, तथा 'सुख मिति सुखहेतुखासुखम्-उपशमश्रेण्यामुपशामकं प्रत्यपूर्वकरणानिवृत्तिवादरमूक्ष्मसंपरायरूपा || 18 गुणत्रयावस्थाद, तथा 'पथ्य'मिति पथि-मोक्षमार्गे हितं पथ्यं, तच्च क्षपकरेण्या पूर्वोकं गुणत्रयं ९, तथा 'श्रेय' इत्युपशमश्रेणि मस्तकावस्था, उपशान्तसर्वमोहावस्थेत्यर्थः १०, तथा निर्वृतिहेतुत्वानिवृतिः क्षीणमोहावस्थेत्यर्थः, मोहनीयविनाशेऽवश्यं निर्वृति: सद्भावादितिभावः ११, तथा 'निर्वाण'मिति धनधातिकर्मचतुष्टयक्षयेण केवलज्ञानावाप्तिः१२, तथा 'शिव' मोक्षपदं तत्करणशीलं| शैलेश्यवस्थागमन मिति १३, एवमेतानि मोक्षमार्गखेन किश्चिनेदाद् भेदेन व्याख्यातान्यभिधानानि, यदिवते पर्यायशब्दा एकार्थिका मोक्षमार्गस्थेति । गतो नामनिष्पनो निक्षेपः, तदनन्तरं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदम् कयरे मग्गे अक्खाए, माहणेणं मईमता ? । जं मग्गं उज्जु पावित्ता, ओहं तरति दुत्तरं ॥१॥ दीप अनुक्रम [४९६] Secene Prasacasses सम्यग व मिथ्या मार्गस्य स्वरुप-निरूपणा, मूल सूत्रस्य आरम्भ: ~406~ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [३], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप सूत्रकृताङ्गं तं मग्गं गुत्तरं सुद्धं, सबदुक्खविमोक्खणं । जाणासि णं जहा भिक्खू !, तं णो ब्रूहि महामुणी॥ ११ मार्गाशीलाका- जइ णो केइ पुच्छिज्जा, देवा अदुव माणुसा। तेसिं तु कयरं मग्गं, आइक्खेज ? कहाहि णो ॥३॥ ध्ययनं. चाीयचियुतं जइ वो केइ पुच्छिजा, देवा अदुव माणुसा । तेसिमं पडिसाहिजा, मग्गसारं सुणेह मे ॥४॥ विचित्रवात्रिकालविषयलाच सूत्रस्थागामुक प्रच्छकमाश्रित्य मूत्रमिदं प्रवृत्तम् । अतो जम्बूस्वामी सुधर्मखामिनमिदमाह, ॥१९८॥ तद्यथा--'कतरः' किंभूतो 'मार्ग: अपवर्गावाप्तिसमर्थोऽस्यां त्रिलोक्याम् 'आख्यातः' प्रतिपादितो भगवता त्रैलोक्योद्धरणसम-1 नैकान्तहितैषिणा मा हनेत्येवमुपदेशप्रवृत्तिर्यस्खासौ माहन:-तीर्थकुत्तेन, तमेव विशिनष्टि-मतिः-लोकालोकान्तर्गतसूक्ष्मव्यव-18 हितविप्रकृष्टातीतानागतवर्तमानपदार्थाविर्भाविका केवलज्ञानाख्या यस्यास्त्यसौ मतिमांस्तेन, यं प्रशस्त भावमार्ग मोक्षगमन प्रति | 181'ऋजु' प्रगुणं यथावस्थितपदार्थस्वरूपनिरूपणद्वारेणावळं सामान्यविशेषनित्यानित्यादिस्याद्वादसमाश्रयणात् , तदेवंभूतं मार्गेज्ञान| दर्शनतपश्चारित्रात्मकं प्राप्य' लब्ध्वा संसारोदरविवरवती प्राणी समप्रसामग्रीक: 'ओघ मिति भवौघं संसारसमुद्रं तरत्यत्यन्त-18 दुस्तरं, तदुत्तरणसामग्या एव दुष्पापलात् , तदुक्तम्-"माणुस्सखेचजाईकुलरूवारोगमाउयं बुद्धी। सवणोग्गहसद्धासजमो य लोयंमि दुलहाई ॥१॥" इत्यादि ।। स एव अच्छकः पुनरप्याह-योऽसौ मार्गः सत्चहिताय सर्वज्ञेनोपदिष्टोऽशेषकान्तकौटिल्यवक्र(ता)रहितस्तं । मार्ग, नास्योत्तरा-प्रधानोऽस्तीत्यनुत्तरस्तं शुद्धः-अवदातो निर्दोषः पूर्वापरब्याहतिदोषापगमात्सावद्यानुष्ठानोपदेशाभावाद्वा तमिति, ॥१९८॥ तथा सवोणि अशेषाणि बहुभिर्भवैरुपचितानि दुःखकारणवादुःखानि कर्माणि तेभ्यो 'विमोक्षणं'-विमोचक तमेवंभूतं मागेमनुत्तरं | मानुष्यं क्षेत्रं जातिः कुलं रूपमारोग्यमायुः बुद्धिः श्रवणमवग्रहः श्रद्धा संयमश्च डोके दुर्लभानि ॥ १ ॥ अनुक्रम [४९८] caeeeeeeeeeeeeeeeces ~407~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्राक ||४|| दीप अनुक्रम [५००] निर्दोष सर्वदुःखक्षयकारणं हे मिक्षो ! यथा वं जानीये 'ग'मिति वाक्यालङ्कारे तथा तं मार्ग सर्वज्ञप्रणीत 'न:' असा हे महा 18| मने ! 'ब्रूहि कथयेति ॥ २॥ ययप्पस्साकमसाधारणगुणोपलब्धेर्युष्मत्प्रत्ययेनैव प्रवृत्तिः सात् तथाप्यन्येषां मार्ग: किंभूतो|४|| | मयाऽऽख्येय इत्यभिप्रायवानाह-यदा कदाचित् 'नः' अस्मान् 'केचन' सुलभवोधयः संसारोद्विप्राः सम्यग्रमार्ग पृच्छेयुः, के ते -'देवा' चतुर्निकायाः तथा मनुष्याः-प्रतीताः, बाहुल्येन तयोरेव प्रश्नसद्भावाचदुपादानं, तेषां पृच्छतां कतरं मार्गमहम् | 'आख्यास्ये' कथयिष्ये, तदेतदस्माकं त्वं जानानः कथयेति ॥३॥ एवं पृष्टः सुधर्मस्वाम्याह-यदि कदाचित् 'वः' युष्मान् । केचन देवा मनुष्या वा संसारभ्रान्तिपराभवाः सम्यगमार्ग पृच्छेयुस्तेषां पृच्छताम् 'इम मिति वक्ष्यमाणलक्षणं पहजीवनिकाय-IN प्रतिपादनगर्भ तद्रक्षाप्रवणं मार्ग 'पडिसाहिज्जेति प्रतिकथयेत् , 'मार्गसारम्' मार्गपरमार्थ यं भवन्तोऽन्येषां प्रतिपादयिष्यन्ति । तत् 'मे' मम कथयतः शृणुत यूयमिति, पाठान्तरं वा "तेसिं तु इमं मग्गं आइक्वेज सुणेह में'त्ति उत्तानार्थम् ॥ ४॥ 19 पुनरपि मार्गाभिष्टवं कुर्वन्सुधर्मखाम्याह18 अणुपुत्वेण महाघोरं, कासवेण पवेइयं । जमादाय इओ पुर्व, समुदं ववहारिणो ॥५॥ 18 अतरिंसु तरंतेगे, तरिस्संति अणागया। तं सोच्चा पडिवक्खामि, जंतवो तं सुणेह मे ॥६॥ पुढवीजीवा पुढो सत्ता, आउजीवा तहागणी। वाउजीवा पुढो सत्ता, तणरुक्खा सबीयगा ॥७॥ seeeeeeeeeeeeeeeeeeeeracs ~408 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्राक ||८|| दीप अनुक्रम [५०४] सूत्रकृताङ्गं अहावरा तसा पाणा, एवं छक्काय आहिया। एतावए जीवकाए, णावरे कोइ विजई ॥ ८॥ ११ मार्गा| यथाऽहम् 'अनुपूर्वेण अनुपरिपाट्या कथयामि तथा शृणुत, यदिवा यथा चानुपूर्व्या सामग्र्या वा मार्गोऽवाप्यते तच्छृणुत, ध्ययन चायीय 1 तद्यथा-'पंढमिल्लुगाण उदए' इत्यादि तावद्यावत् 'बारसविहे कसाए खबिए उवसामिए व जोगेहिं । लम्भइ चरित्तलंभो" त्तियुत 18 इत्यादि, तथा 'चत्तारि परमंगाणी'त्यादि । किंभूतं मार्ग, तमेव विशिनष्टि-कापुरुषः संग्रामप्रवेशवत् दुरध्यवसेयखात् ॥१९९॥ 'महाघोरं महाभयानकं 'काश्यपो' महावीरवर्धमानखामी तेन 'प्रवेदितं' प्रणीतं मार्ग कथयिष्यामीति, अनेन स्वमनी-1 पिकापरिहारमाह, यं शुद्धं मार्गम् 'उपादाय' गृहीला 'इत' इति सन्मार्गोपादानात् 'पूर्वम्' आदावेवानुष्ठितत्वाहुस्तरं संसार महापुरुषास्तरन्ति, असिनेवार्थे दृष्टान्तमाह-व्यवहारः-पण्यक्रयविक्रयलक्षणो विद्यते येषां ते व्यवहारिणः-सांयात्रिकाः, यथा ते |विशिष्टलाभार्थिनः किश्चिनगरं यियासबो यानपात्रेण दुस्तरमपि समुद्रं तरन्ति एवं साधवोऽप्यात्यन्तिककान्तिकाबाधमुखैषिणः || सम्यग्दर्शनादिना मार्गेण मोक्षं जिगमिषयो दुस्तरं भवौघं तरन्तीति ॥ ५॥ मार्गविशेषणायाह-यं मार्ग पूर्व महापुरुषाचीणमव्यभिचारिणमाश्रित्य पूर्वस्मिन्ननादिके काले बहवोऽनन्ताः सत्त्वा अशेषकर्मकचवरविप्रमुक्ता भवौघ-संसारम् 'अताएं:'तीर्ण| वन्तः, साम्प्रतमप्येके समग्रसामग्रीका संख्येयाः सत्त्वास्तरन्ति, महाविदेहादौ सर्वदा सिद्धिसद्भावाद्वर्तमानत्वं न विरुध्यते, तथाऽ-18||१९९।। १ इत्ताव एव प्र० । २ दृश्यमानेषु बहुम्वादशेषु नावरे पिजती काए इत्येव पाठ उपलभ्यते, प्राङ् मुहिते स्वेष ईदृशः, कचित् नावरे बिजती कएति पाठः छन्दोऽनुलोम्येन कायस्थ स्वाद्धखता त्रासुन्दरः सः । ३ प्राथमिकानामुदये । ४ द्वादश विधेषु कषायेषु क्षपितेपूपश मितेषु वा योगैः । लभते चारित्रलाभ ।। ५ चलारे परमाजानि । भवत इति गम्यं । ७ समासान्तागमेत्यादिनेहोऽनित्यत्वं । ~409~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| नागते च काले अपर्यवसानात्मकेऽनन्ता एव जीवास्तरिष्यन्ति । तदेवं कालत्रयेऽपि संसारसमुद्रोतारक मोक्षगमनककारणं प्रशस्त | भावमार्गमुत्पन्नदिव्यज्ञानस्तीर्थकृद्भिरुपदिष्टं, तं चाहं सम्यक् श्रुखाऽवधार्य च युष्माकं शुश्रूषणां 'प्रतिवक्ष्यामि' प्रतिपादयिIS| प्यामि, सुधर्मस्वामी जम्बूखामिनं निश्रीकृत्यान्येषामपि जन्तूनां कथयतीत्येतद्दर्शयितुमाह-हे जन्तवोऽभिमुखीभूय तं चारित्रमार्ग | 19 मम कथयतः शृणुत यूयं, परमार्थकचनेऽत्यन्तमादरोत्पादनार्थमेवमुपन्यास इति ॥६॥ चारित्रमार्गस्य प्राणातिपातविरमणमूलखा-18 तस्य च तत्परिज्ञानपूर्वकलादतो जीवखरूपनिरूपणाथेमाह-पृथिव्येव पृथिव्याश्रिता वा जीवाः पृथ्वीजीवाः, ते च प्रत्येकशरीर-1 खात् 'पृथक' प्रत्येक 'सत्त्वा' जन्तवोऽवगन्तव्याः, तथा आपश्च जीवाः, एवमनिकायाच, तथाऽपरे वायुजीवाः, तदेवं चतुर्म हाभूतसमाश्रिताः पृथक सच्चाः प्रत्येकशरीरिणोऽवगन्तव्याः, एत एव पृथिव्यप्तेजोवायुसमाश्रिताः सत्त्वाः प्रत्येकशरीरिणः, वक्ष्य-18 8||माणवनस्पतेस्तु साधारणशरीरखेनापृथक्समध्यस्तीत्यस्याथेस दर्शनाय पुनः पृथक्सत्त्वग्रहणमिति । बनस्पतिकायस्तु यः सूक्ष्मः18 8 स सर्वोऽपि निगोदरूपः साधारणो बादरस्तु साधारणोऽसाधारणश्चेति, तत्र प्रत्येकशरीरिणोऽसाधारणस्य कतिचिद्भेदान्निर्दि-10 दिक्षुराह-तत्र तृणानि-दर्भवीरणादीनि वृक्षा:-चूताशोकादयः सह बीजैः-शालिगोधूमादिभिर्वर्तन्त इति सबीजकाः, एते सर्वेऽपि वनस्पतिकायाः सत्वा अवगन्तव्याः, अनेन च बौद्धादिमतनिरासः कृतोऽवगन्तव्य इति । एतेषां च पृथिव्यादीनां 8 जीवानां जीवलेन प्रसिद्धिखरूपनिरूपणमाचारे प्रथमाध्ययने शस्त्रपरिज्ञाख्ये न्यक्षेण प्रतिपादितमिति नेह प्रतन्यते ॥ ७॥ 18|| षष्ठजीवनिकायप्रतिपादनायाह-तत्र पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय एकेन्द्रियाः मूक्ष्मयादरपर्याप्तापर्याप्तकभेदेन प्रत्येकं चतुर्विधाः, 'अर्थ' अनन्तरम् 'अपरे' अन्ये त्रसन्तीति त्रसा:-द्वित्रिचतुष्पश्चेन्द्रियाः कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादयः, तत्र द्वित्रिचतुरि दीप अनुक्रम [५०४] ~410 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [५०४ ] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [८], निर्युक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचायचियुतं ॥२००॥ न्द्रियाः प्रत्येकं पर्याप्तकापर्याप्तकभेदात्वविधाः, पञ्चेन्द्रियास्तु संश्यसंज्ञिपर्याप्तकापर्याप्तक भेदाच्चतुर्विधाः । तदेवमनन्तरोक्तया नीत्या चतुर्दशभूतग्रामात्मकतया पड़ जीवनिकाया व्याख्यातास्तीर्थकरगणधरादिभिः, 'एतावान्' एतद्भेदात्मक एवं संक्षेपतो 'जीवनिकायो' जीवराशिर्भवति, अण्डजोद्भिज्जसंखेदजादेरत्रैवान्तर्भावानापरी जीवराशिर्विद्यते कश्विदिति ॥ ८ ॥ तदेवं षड्जीवनिकार्य प्रदर्श्य यत्तत्र विधेयं तदर्शयितुमाह सवाहिं अणुजुत्तीहिं, मतिमं पडिलेहिया । सवे अकंतदुक्खा य, अतो सबे न हिंसया ॥ ९ ॥ एयं खु णाणिणो सारं, जं न हिंसति कंचण । अहिंसा समयं चेत्र, एतावतं विजाणिया ॥ १० ॥ उङ्कं अहे य तिरियं, जे केइ तसथावरा । सवत्थ विरतिं विज्जा, संति निवाणमाहियं ॥ ११ ॥ पभू दोसे निराकिच्चा, ण विरुज्झेज्ज केणई। मणसा वयसा चेव, कायसा चैव अंतसो ॥ १२ ॥ सर्वा यः का नानुरूपाः पृथिव्यादिजीवनिकायसाघनखेनानुकूला युक्तयः - साधनानि, यदिवा असिद्धविरुद्धानैकान्तिकपरिहा| रेण पक्षधर्मत्व सपक्ष सत्त्वविपक्षव्यावृत्तिरूपतया युक्तिसंगता युक्तयः अनुयुक्तयस्ताभिरनुयुक्तिभिः 'मतिमान' सद्विवेकी पृथिव्यादि| जीवनिकायान् 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य जीवसेन प्रसाध्य तथा सर्वेऽपि प्राणिनः 'अकान्तदुःखा' दुःखद्विपः मुखलिप्सवश्च मन्वानो मतिमान् सर्वानपि प्राणिनो न हिंस्यादिति । युक्तयश्च तत्प्रसाधिकाः संक्षेपेणेमा इति-सात्मिका पृथिवी, तदात्मनां विद्रुमलव Education Internation For Parts Only ~411~ ११ मार्गा ध्ययनं. ॥ २००॥ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [५०८] णोपलादीनां समानजातीयाकुरसद्भावाद्, अर्शोविकाराङ्कुरवत् । तथा सचेतनमम्भः, भूमिखननादविकृतस्वभावसंभवाद्, दर्दुर-19 वत् । तथा सात्मकं तेजः, तद्योग्याहारवृझ्या कृपलब्धेः, बालकवत् । तथा सात्मको वायुः, अपराप्रेरितनियततिरधीनगति-19 मत्त्वात् , गोवत् । तथा सचेतना वनस्पतयः, जन्मजरामरणरोगादीनां समुदितानां सद्भावात् , खीवन , तथा क्षतसंरोहणाहारोपादानदौहदसद्भावस्पर्शसंकोचसायावखापप्रबोधाश्रयोपसर्पणादिभ्यो हेतुभ्यो वनस्पतेश्चैतन्यसिद्धिः। द्वीन्द्रियादीनां तु पुनः कृम्या-18 दीनां स्पष्टमेव चैतन्यं, तद्वेदनाधौपक्रमिकाः स्वाभाविकाच समुपलभ्य मनोवाकायैः कृतकारितानुमतिभिश्च नबकेन भेदेन तत्पीडाकारिण उपमर्दानिवर्तितव्यमिति ॥ ९॥ एतदेव समर्थयबाह-खुशब्दो वाक्यालकारेश्वधारणे वा, 'एतदेव' अनन्तरोक्तं? प्राणातिपातनिवर्तनं 'ज्ञानिनों' जीवस्वरूपतद्वधर्मबन्धवेदिनः 'सार' परमार्थतः प्रधान, पुनरप्यादरख्यापनार्थमेतदेवाहयत्कश्चन प्राणिनमनिष्टदुःखं सुखैपिणं न हिनस्ति, प्रभूतवेदिनोऽपि ज्ञानिन एतदेव सारतरं ज्ञानं यत्यागातिपातनिवर्तनमिति, ज्ञानमपि तदेव परमार्थतो यत्परपीडातो निवर्तन, तथा चोक्तम्-"किं ताए पढियाए ? पपकोडीए पलालभूयाए। जस्थित्तियं ण|| |णायं परस्स पीडा न कायचा ॥१॥ तदेवमहिंसाप्रधानः समय-आगमः संकेतो वोपदेशरूपस्तमेवंभूतमहिंसासमयमेतावन्त-18 मेव विज्ञाय किमन्येन बहुना परिज्ञानेन?, एतावतैव परिज्ञानेन मुमुक्षोर्विवक्षितकार्यपरिसमातेरतो न हिंसात्कश्चनेति ॥ १०॥ 18 साम्प्रतं क्षेत्रप्राणातिपातमधिकृत्याह-ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च ये केचन प्रसा:-तेजोवायुद्वीन्द्रियादयः तथा स्थावरा:-पृथिव्यादयः || किंबहुनोक्तेन , 'सर्वत्र' प्राणिनि त्रसस्थावरमूक्ष्मवादरभेदभिन्ने 'विरतिं' प्राणातिपातनिवृत्ति 'विजानीयात् कुर्यात् , पर मनाधिकृत । ननावित. प्र. । । किन्तया पठितया पदकोव्यापि पलालभूतथा रौतावन्न शातं परस्प पीडा न कर्तव्या ॥ १॥ sesesesedeseseseseseseerses ~412~ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ११ मार्गाध्ययन. ||१२|| सूत्रकृताङ्गमार्थत एवमेवासी ज्ञाता भवति यदि सम्यक क्रियत इति, एव च प्राणातिपातनिवृत्तिः परेषामात्मनश्व शान्तिहेतुलाच्छान्तिवतते, यतो विरतिमतो नान्ये केचन विभ्यति, नाप्यसौ भवान्तरेऽपि कुतश्चिद्विमेति, अपिच-निर्वाणप्रधानैककारणतानिर्वाणमपि चाय- प्राणातिपातनिवृत्तिरेव, यदिवा शान्तिः-उपशान्तता निवृतिः-निर्वाणं विरतिमांश्चातरौद्रध्यानाभावादुपशान्तिरूपो निर्द्वत्तियुत तिभूतव भवति ॥ ११॥ किश्चान्यत्-इन्द्रियाणां प्रभवतीति प्रभुश्येन्द्रिय इत्यर्थः, यदिवा संयमावारकाणि कर्माण्यभिभूय २०शा मोक्षमार्गे पालयितव्ये प्रभुः-समर्थः, स एवंभूतः प्रभुः दृषयन्तीति दोषा-मिथ्यासाविरतिप्रमादकषाययोगास्तान् 'निराकृत्य | अपनीय केनापि प्राणिना साधं 'न विरुध्येत' न केनचित्सह विरोधं कुर्यात् , त्रिविधेनापि योगेनेति मनसा वाचा कायेन | चैवान्तशो-यावज्जीवं, परापकारक्रियया न विरोधं कुर्यादिति ।। १२ ।। उत्तरगुणानधिकृत्याहसंवुडे से महापन्ने, धीरे दत्तेसणं चरे । एसणासमिए णिचं, वज्जयंते अणेसणं ॥ १३ ॥ भूयाइं च समारंभ, तमुदिस्सा य जं कडं । तारिसं तु ण गिण्हेज्जा, अन्नपाणं सुसंजए ॥१४॥ पूईकम्मं न सेविजा, एस. धम्मे दुसीमओ। जं किंचि अभिकंखेजा, सवसो तं न कप्पए ॥ १५ ॥ हणंतं णाणुजाणेज्जा, आयगुत्ते जिइंदिए । ठाणाइं संति सड्डीणं, गामेसु नगरेसु वा ॥ १६ ॥ १ भूयाई समारंभ समुहिस्सा य क समवादशेषु दृश्यमानेषु पाठः, टीकाया तुन तथा । Sasarsawaarce दीप अनुक्रम [५०८] ॥२०॥ ~4134 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| आश्रवद्वाराणां रोधेनेन्द्रियनिरोधेन च संवृतः स भिक्षुर्महती प्रज्ञा यस्थासौ महाप्रज्ञो-विपुलपुद्धिरित्यर्थः, तदनेन जीवाजी-18 वादिपदार्थाभिज्ञतावेदिता भवति, 'धीरः' अक्षोभ्यः क्षुत्पिपासादिपरीपहने क्षोभ्यते, तदेव दर्शयति-आहारोपषिशय्यादिके खस्वामिना तत्संदिष्टेन वा दत्ते सत्येपणां चरति एषणीयं गृह्णातीत्यर्थः, एषणाया एपणायां वा गवेषणग्रहणग्रासरूपायां त्रिविधायामपि सम्यगितः समितः, स साधुनित्यमेषणासमितः सन्ननेपणां 'वर्जयन' परित्यजन्संयममनुपालयेत् , उपलक्षणार्थवादस्य। शेषाभिरपीर्यासमित्यादिभिः समितो द्रष्टव्य इति ॥१३।। अनेषणीयपरिहारमधिकृत्याह-अभूवन भवन्ति भविष्यन्ति च प्राणिनस्तानि भूतानि प्राणिनः 'समारभ्य' संरम्भसमारम्भारम्मैरुपतापयिता तं साधुम्'उद्दिश्य'साध्वर्थ यत्कृतं तदुपकल्पितमाहारोपकरणादिकं । 'तादृशम् आधाकर्मदोषदुष्टं 'सुसंयतः सुतपस्वी तदनं पानकं वा न भुञ्जीत, तुशब्दस्यैवकारार्थलावाभ्यवहरेद, एवं तेन | मार्गोऽनुपालितो भवति ॥ १४ ॥ किश्व-आधाकर्माद्यविशुद्धकोट्यवयवेनापि संपृक्तं पूतिकर्म, तदेवंभूतमाहारादिकं 'न सेवेत' नोपभुञ्जीत, एषः-अनन्तरोक्तो धर्मः कल्पः स्वभावः 'वुसीमओ'त्ति सम्यक्संयमवतोऽयमेवानुष्ठानकल्पो यदुताशुद्धमाहारादिकं 8 परिहरतीति, किच-यदप्यशुद्धखेनाभिकाङ्ग्रेत् शुद्धमप्यशुद्धखेनाभिशक्षेत किश्चिदप्याहारादिकं तत् 'सर्वशः' सर्वप्रकारम-18 प्याहारोपकरणपूतिकम भोक्तुं न कल्पत इति ॥ १५॥ किश्चान्यत्-धर्मश्रद्धावतां ग्रामेषु नगरेषु वा खेटकर्बटादिषु वा 'स्थानानि' आश्रयाः 'सन्ति' विद्यन्ते, तत्र तत्स्थानाश्रितः कश्चिद्धर्मोपदेशेन किल धर्मश्रद्धालुतया प्राण्युपमर्दकारिणी धर्मबुद्ध्या कूपतडागखननप्रपासत्रादिकां क्रियां कुर्यात् तेन च तथाभूतक्रियायाः कर्ता किमत्र धर्मोऽस्ति नास्तीत्येवं पृष्टोऽपृष्टो वा तदुप १ कल्पखभावः प्र.यूमः। दीप अनुक्रम [५१२] ~414 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [५१२] सूत्रकृतारोधाद्भयाद्वा तं प्राणिनो मन्तं नानुजानीयात् , किंभूतः सन् ?-'आत्मना' मनोवाकायरूपेण गुप्त आत्मगुप्तः तथा 'जिते- ११ मार्गाशीलाङ्का- |न्द्रियों' वश्येन्द्रियः सावद्यानुष्ठानं नानुमन्येत ॥ १६ ॥ सावधानुष्ठानानुमतिं परिहतुकाम आह ध्ययने छ चाीय तहा गिरं समारब्भ, अस्थि पुण्णंति णो वए । अहवा णत्थि पुण्णंति, एवमेयं महब्भयं ॥ १७॥ पतटागाचियुतं दिप्रने दाणट्रया य जे पाणा, हम्मति तसथावरा। तेसिं सारक्खणट्राए, तम्हा अस्थित्ति णो वए ॥१८॥ मौनादि. ॥२०॥ जेसिं तं उवकप्पंति, अन्नपाणं तहाविहं । तेसिं लाभंतरायंति, तम्हा णस्थित्ति णो वए ॥ १९ ॥ जे य दाणं पसंसंति, वहमिच्छति पाणिणं । जे य णं पडिसेहंति, वित्तिच्छेयं करंति ते॥२०॥ 81 केनचिद्राजादिना कूपखननसत्रदानादिप्रवृत्तेन पृष्टः साधुः-किमसदनुष्ठाने अस्ति पुण्यमाहोखिनास्तीति, एवंभूतां गिरा || 'समारभ्य' निशम्याश्रित्य अस्ति पुण्यं नास्ति चेत्येवमुभयथापि महाभयमिति मला दोपहेतुत्वेन नानुमन्येत ॥ १७॥ किमर्थ 181 नानुमन्येत इत्याह-अअपानदानार्थमाहारमुदकं च पचनपाचनादिकया क्रियया कूपखननादिकया चोपकल्पयेत्, तत्र यसाद् | |'हन्यन्ते' व्यापायन्ते त्रसाः स्थावराय जन्तवः तमाचेपां रक्षणार्थ' रक्षानिमित्तं साधुरात्मगुप्तो जितेन्द्रियोऽत्र भवदीयानुष्ठाने । हि॥२०॥ पुण्यमित्येवं नो वदेदिति ।। १८॥ ययेवं नास्ति पुण्यमिति ब्रूयात् , तदेतदपि न यादित्याह--'येषां जन्तूनां कृते 'त' अन्नपानादिकं किल धर्मबुद्ध्या 'उपकल्पयन्ति' तथाविधं प्राण्युपमर्ददोषदुष्टुं निष्पादयन्ति, तनिषेधे च यसात् 'तेषाम् आहारपानार्थिनां तत् 'लाभान्तरायो' विनो भवेत् , तदभावेन तु ते पीयेरन् , तसात्कूपखननसत्रादिके कर्मणि नास्ति पुण्य ~4154 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [२०], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [५१६] 9 मित्येतदपि नो बदेदिति ॥ १९ ॥ एनमेवार्थ पुनरपि समासतः स्पष्टतरं विभणिषुराह-ये केचन प्रपासत्रादिक दानं बहूनां । जन्तूनामुपकारीतिकृसा 'प्रशंसन्ति' श्लाघन्ते 'ते' परमार्थानभिज्ञाः प्रभूततरप्राणिनां तत्प्रशंसाद्वारेण 'व' प्राणातिपातमिपच्छन्ति, तदानस्य प्राणातिपातमन्तरेणानुपपत्तेः, येऽपि च किल मूक्ष्मधियो वयमित्येवं मन्यमाना आगमसद्भावानभिज्ञाः 'प्रति षेधन्ति' निषेधयन्ति तेऽप्यगीतार्थाः प्राणिनां 'वृत्तिच्छेदं' वर्तनोपायविनं कुर्वन्तीति ।। २० ॥ तदेवं राजा अन्धन वेश्वरेण | कूपतडागयागसत्रदानायुयतेन पुण्यसद्भाव पृष्टमुमुक्षुभिर्यद्विधेयं तदर्शयितुमाहदुहओवि ते ण भासंति, अस्थि वा नत्थि वा पुणो । आयं रयस्स हेचा णं, निवाणं पाउणंति ते २१ निवाणं परमं बुद्धा, णक्खत्ताण व चंदिमा । तम्हा सदा जए दंते, निवाणं संधए मुणी ॥ २२ ॥ वुज्झमाणाण पाणाणं, किच्चताण सकम्मुणा । आघाति साहु तं दीवं, पतिढेसा पवुच्चई ॥ २३ ॥ आययुत्ते सया दंते, छिन्नसोए अणासवे । जे धम्म सुद्धमक्खाति, पडिपुन्नमणेलिसं ॥२४॥ यद्यस्ति पुष्यमित्येवमूचुस्ततोऽनन्तानां सचानां सूक्ष्मवादराणां सर्वदा प्राणत्याग एवं स्यात् प्रीणनमात्र तु पुनः स्वल्पानां। खल्पकालीयमतोऽस्तीति न वक्तव्यं नास्ति पुण्यमित्येवं प्रतिषेधेऽपि तदथिनामन्तरायः खादित्यतो 'द्विधापि अस्ति नास्ति | | वा पुण्यमित्येवं 'ते' मुमुक्षवः साधवः पुनर्न भाषन्ते, किंतु पृष्टैः सद्भिमौनं समाश्रयणीय, निर्वन्धे तस्माकं द्विचखारिंशदोपवर्जित १वनाकाररोधसोः। eseseseeoeseneeeeeseas astrotrsertatiseseseseceivectoerce ~416~ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [२४], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [५२०] सूत्रकृताग आहारः कल्पते, एवंविधविषये मुमुक्षूणामधिकार एव नास्तीति, उक्तं च-"सत्यं वप्रेषु शीतं शशिकरधवलं वारि पीला प्रकामं,18११ मार्गाशीलाका- व्युच्छिन्नाशेषतृष्णाः प्रमुदितमनसः प्राणिसार्था भवन्ति । शोपं नीते जलौघे दिनकरकिरणैर्यान्त्यनन्ता विनाशं, तेनोदासीनभानं ध्ययने - चाीय- ब्रजति मुनिगणः कृपवादिकायें ॥१॥" तदेवमुभयथापि भाषिते 'रजसः कर्मण 'आयो' लाभो भवतीत्यतस्तमार्य रजसो पतटागात्तियुतं | मौनेनानवधभाषणेन वा 'हित्या' त्यक्खा 'ते' अनवद्यभाषिणो 'निर्वाणं' मोक्षं प्राप्नुवन्तीति ।। २१ ॥ अपिच–निर्वतिनिर्वाणंग मौनादि. ॥२०३11 तत्परम-प्रधानं येषां परलोकार्थिनां बुद्धानां ते तथा तानेव बुद्धान् निर्वाणवादिखेन प्रधानानित्येतदृष्टान्तेन दर्शयति-यथा 'नक्षत्राणाम्' अश्विन्यादीनां सौम्यखप्रमाणप्रकाशकबैरधिकश्चन्द्रमाः, एवं परलोकार्थिनां बुद्धानां मध्ये ये वर्गचक्रवर्तिसंपनि-1, दानपरित्यागेनाशेषकर्मक्षयरूपं निर्वाणमेवाभिसंधाय प्रवृत्तास्त एवं प्रधाना नापर इति, यदिवा यथा नक्षत्राणां चन्द्रमाः प्रधान-18 भावमनुभवति एवं लोकस्य निर्वाणं परमं प्रधानमित्येवं 'बुद्धा' अवगततत्वाः प्रतिपादयन्तीति, यसाच निर्वाण प्रधानं तसा-| कारणात् 'सदा' सर्वकालं यतः' प्रयतः प्रयत्नवा(पं०६०००)न् इन्द्रियनोइन्द्रियदमनेन दान्तो 'मुनिः' साधुः "निवोणमभिसंधयेत्' निर्याणार्थ सर्वाः क्रियाः कुर्यादित्यर्थः ॥ २२॥ किञ्चान्वत्-संसारसागरस्रोतोभिर्मिध्यानकषायप्रमादादिकः। |'जामानानां तदभिमुखं नीयमानानां तथा खकर्मोदयेन निकृत्यमानानामशरणानाममुमतां परहितैकरतोऽकारणवत्सलस्तीथे-1181 |कृदन्यो वा गणधराचायोदिकस्तेषामाश्वासभूतं 'साधु शोभनं द्वीपमाख्याति, यथा समदान्तःपतितस्य जन्तोर्जलकल्लोलाकुलि-%॥२०॥ तस्य मुमूर्पोरतिश्रान्तस्य विश्रामहेतुं द्वीपं कश्चित्साधुर्वत्सलतया समाख्याति, एवं तं तथाभूतं 'दीप' सम्पग्दर्शनादिकं संसारभ्रIS मणविश्रामहेतुं परतीथिकैरनाख्यातपूर्वमाख्याति, एवं च कृत्वा प्रतिष्ठान प्रतिष्ठा-संसारभ्रमणविरतिलक्षणैषा सम्यग्दर्शना cerserselepeseseseaecemesese Intennational ~417~ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [२४], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [५२०] evececeneces धवाप्तिसाध्या मोक्षप्राप्तिः प्रकर्षेण तत्त्वज्ञैः 'उच्यते प्रोच्यत इति ॥ २३ ॥ किंभूतोऽसावाश्वासद्वीपो भवति ? कीदृग्विधेन वाऽसावाख्यायत इत्येतदाह-मनोवाकार्यरात्मा गुप्तो यस्य स आत्मगुप्तः, तथा 'सदा' सर्वकालमिन्द्रियनोइन्द्रियदमनेन दान्तोवश्येन्द्रियो धर्मध्यानध्यायी घेत्यर्थः, तथा छिनानि-त्रोटितानि संसारस्रोतांसि येन स तथा, एतदेव स्पष्टतरमाह-निर्गत । आश्रवः-प्राणातिपातादिकः कर्मप्रवेशद्वाररूपो यस्मात्स निराश्रवो य एवंभूतः स 'शुद्ध' समस्तदोषापेतं धर्ममाख्याति, किंभूतं धर्म-प्रतिपूर्ण निरवयवतया सर्वरित्याख्यं मोक्षगमनैकहेतुम् 'अनीदृशम्' अनन्यसदृशमद्वितीयमितियावत् ॥ २४ ॥ एवंभूतधर्मव्यतिरेकिणां दोषाभिधित्सयाऽऽह-- तमेव अविजाणंता, अबुद्धा बुद्धमाणिणो । बुद्धा मोत्ति य मन्नता, अंत एते समाहिए ॥२५॥ ते य बीओदगं चेव, तमुहिस्सा य जं कडं। भोच्चा झाणं झियायंति, अखेयन्नाऽ[अ]समाहिया ॥२६॥ जहा ढंका य कंका य, कुलला मग्गुका सिही । मच्छेसणं झियायंति, झाणं ते कल्लुसाधर्म ॥ २७॥ एवं तु समणा एगे, मिच्छद्दिट्टी अणारिया। विसएसणं झियायंति, कंका वा कलुसाहमा ॥ २८॥ | तमेवंभूतं शुद्धं परिपूर्णमनीदशं धर्ममजानाना 'अप्रबुद्धा' अविवेकिनः 'पण्डितमानिनो' वयमेव प्रतिबुद्धा धर्मतच्चमि-| | त्येवं मन्यमाना भावसमाधे:-सम्यग्दर्शनाख्यादन्ते-पर्यन्तेऽतिदूरे वर्तन्त इति, ते च सर्वेऽपि परतीर्थिका द्रष्टव्या इति ॥२५|| | किमिति ते तीथिका भावमार्गरूपात्समाधेरे वर्तन्त इत्याशयाह-'ते च' शाक्यादयो जीवाजीचानभिज्ञतया 'बीजानि ~418~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [२८], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२८|| सूत्रकृताङ्ग शीलाका- चा-यवचियुत ॥२०४॥ दीप अनुक्रम [५२४] शालिगोधूमादीनि, तथा 'शीतोदकम्' अप्रासुकोदकं, ताश्वोद्दिश्य तद्भक्तर्यदाहारादिकं 'कृतं' निष्पादितं सत्सर्वमधिवेकितया । ११ मार्गाते शाक्यादयो 'भुक्त्वा' अभ्यवहत्य पुनः सातर्द्धिरसगौरवासक्तमनसः संघभक्तादिक्रियया तदवाप्तिकृते आत ध्यानं ध्यायन्ति, ध्ययनं. न चैहिकसुखैषिणां दासीदासधनधान्यादिपरिग्रहवतां धर्मध्यानं भवतीति, तथा चोक्तम्-"ग्रामक्षेत्रगृहादीनां, गवां प्रेष्यज-18| नख च । यस्मिन्परिग्रहो दृष्टयो, ध्यानं तत्र कुतः शुभम् ? ॥१॥" इति, तथा-"मोहस्सायतनं धृतरपचयः शान्तेः प्रतीपो| विधियाक्षेपस्य सुहुन्मदस्य भवनं पापस्य वासो निजः । दुःखस्स प्रभवः सुखस्स निधनं ध्यानस्य कष्टो रिपुः, प्राज्ञस्यापि परिग्रहो ग्रह इव क्लेशाय नाशाय च ॥१॥" तदेवं पचनपाचनादिक्रियाप्रवृत्तानां तदेव चानुप्रेक्षमाणानां कुतः शुभध्यानस्य संभवः ।। इति । अपिच ते तीथिका धर्माधर्मविवेके कर्तव्ये 'अखेदज्ञा' अनिपुणाः, तथाहि शाक्या मनोज्ञाहारवसतिशय्यासनादिकं | रागकारणमपि शुभध्याननिमित्तत्वेनाध्यवस्सन्ति, तथा चोक्तम्-'मणुणं भोयणं भुधे'त्यादि, तथा मांसं कल्किकमित्युपदिश्य | संज्ञान्तरसमाश्रयणानिर्दोष मन्यन्ते, बुद्धसङ्घादिनिमितं चारम्भ निर्दोपमिति, तदुक्तम्-'मसनिवर्ति काउं सेवह दंतिकगति धणिभेया । इस चइऊणारंभ परववएसा कुणइ बालो ।। १॥" न चैतावता तनिर्दोषता, न हि लूतादिकं शीतलिकाभिधानान्तरमात्रेणान्यथासं भजते, विष वा मधुरकाभिधानेनेति, एवमन्येषामपि कापिलादीनामाविर्भावतिरोभावाभिधानाभ्यां विनाशी-12 त्पादावभिदधतामनैपुण्यमाविष्करणीयं । तदेवं ते वराकाः शाक्यादयो मनोझोदिष्टभोजिनः सपरिग्रहतयाऽऽर्तध्यायिनोऽसमाहिता | ॥२०४॥ मोक्षमार्गाख्याद्भावसमाधेरसंकृततया रेण वर्तन्त इत्यर्थः ॥ २६ ॥ यथा चैते रससातागौरवतयाऽऽर्तध्यायिनो भवन्ति तथा ॥ मांसनिति कला सेवते इदं कल्किकमिति ध्यानभेदादेवं त्यक्लारम्भ परव्यपदेशारकरोति बालः ॥ १ ॥५मधुर विषे इत्युः ~419~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [२८], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२८|| दीप अनुक्रम [५२४] दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह-यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः 'पथा' येन प्रकारेण 'ढकादयः पक्षिविशेषा जलाशयाश्रया आमिपजीविनो KO मत्यप्राप्ति ध्यायन्ति, एवंभूतं च ध्यानमातेरौद्रध्यानरूपतयाऽत्यन्तकलुपमधमं च भवतीति ॥ २७॥ दार्शन्तिकं दर्शयितुमाह 'एव'मिति यथा ढङ्कादयो मत्स्यान्वेषणपरं ध्यानं ध्यायन्ति तद्ध्यायिनश्च कलुषाधमा भवन्ति एवमेव मिथ्यादृष्टयः श्रमणा 'एके शाक्यादयोऽनार्यकर्मकारितात्सारम्भपरिग्रहतया अनार्याः सन्तो विषयाणां-शब्दादीनां प्राप्तिं ध्यायन्ति तयाविनश्च कङ्का इस कलुषाधमा भवन्तीति ।। २८ ।। किञ्च सुद्धं मग्गं विराहित्ता, इहमेगे उ दुम्मती । उम्मग्गगता दुक्खं, घायमसंति तं तहा ॥ २९॥ जहा आसाविणिं नावं, जाइअंधो दुरुहिया । इच्छई पारमागंतुं, अंतरा य विसीयति ॥ ३०॥ एवं तु समणा एगे, मिच्छट्टिी अणारिया। सोयं कसिणमावन्ना, आगंतारो महब्भयं ॥३१॥ इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेदितं । तरे सोयं महाघोरं, अत्तत्ताए परिवए ॥ ३२॥ 'शुद्धम् अवदात निर्दोष 'मार्ग' सम्पग्दर्शनादिकं मोक्षमार्ग कुमार्गप्ररूपणया 'विराध्य दूषयिखा 'इह' असिन्संसारे मोक्षमार्गप्ररूपणप्रस्तावे वा 'एके' शाक्यादयः खदर्शनानुरागेण महामोहाकुलितान्तरात्मानो दुष्टा पापोपादानतया मतिर्येषां ते दु-18 ष्टमतयः सन्त उन्मार्गेण-संसारावतरणरूपेण गताः प्रवृत्ता उन्मार्गगता दुःखयतीति दुःखम्-अष्टप्रकारं कर्मासातोदयरूपं वा || 18| तारखं घातं चान्तशस्ते तथा-सन्मागेविराधनया उन्मार्गगमनं च 'एषन्ते' अन्वेषयन्ति, दुःखमरणे शतशः प्रार्थयन्तीत्यर्थः। ~420 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३२|| दीप अनुक्रम [५२८] सूत्रकृताह 18॥ २९ ॥ शाक्यादीनां चापायं दिदर्शयिपुस्तावदृष्टान्तमाह-यथा जात्यन्ध 'आस्राविणीं शतच्छिद्रां भावमारुह्य पारमाग-II. शीलाङ्का-शतमिच्छति तुमिच्छति, न चासो सच्छिद्रतया पारगामी भवति, किं तर्हि १, अन्तराल एव-जलमध्य एव विषीदति-निमज्जतीत्यर्थः ॥३०॥ चार्यांय दाष्टॉन्तिकमाह-एवमेव श्रमणा 'एके' शाक्यादयो मिथ्यादृष्टयोनार्या भावस्रोतः-कर्माधवरूपं 'कृतन' संपूर्णमापनाः सन्तचियुतं रास्ते 'महाभयं' पीन:पुन्येन संसारपर्यटनया नारकादिखभावं दुःखम् 'आगन्तारः' आगमनशीला भवन्ति, न तेषां संसारो॥२०५| धेरास्त्राविणी नावं व्यवस्थितानामियोत्तरणं भवतीति भावः ॥ ३१ ॥ यतः शाक्यादयः श्रमणाः मिथ्यादृष्टयोऽनायोंः कृत्स्नं स्रोतः समापभाः महाभयमागन्तारो भवन्ति तत इदमुपदिश्यते--'इम मिति प्रत्यक्षासन्नवाचिखादिदमोऽनन्तरं वक्ष्यमाणलक्षणं । सर्वलोकप्रकटं च दुर्गेतिनिषेधेन शोभनगतिधारणात् 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं, चशब्दः पुनःशब्दार्थे, सच पूर्वसाव्यतिरफ दर्शयति, यस्माच्छौद्धोदनिप्रणीतधर्मस्थादातारो महाभयं गन्तारो भवन्ति, इमं पुनर्धर्मम् 'आदाय' गृहीसा 'काश्यपेन' श्रीवर्धमानखामिना 'प्रवेदितं' प्रणीतं 'तरेत् लायेज्ञावस्रोतः संसारपर्यटनस्वभावं, तदेव विशिनष्टि-'महाघोरं' दुरुत्तरखान्महाभयानकं, तथाहि-1|| तदन्तवोतिनो जन्तवो गर्भाद्गर्भ जन्मतो जन्म मरणान्मरणं दुःखाइःख मित्येवमरघट्टपटीन्यायेनानुभवन्तोऽनन्तमपि कालमासते ।। । तदेवं काश्यपप्रणीतधर्मादानेन सता आत्मनस्त्राण-नरकादिरक्षा तमै आत्मत्राणाय परिः समन्ता(दूजे) परिव्रजेत्संयमानुष्ठायी|81 २०५॥ भवेदित्यर्थः, कचित्पश्चास्यान्यथा पाठः 'कुजा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए' 'भिक्षुः साधुः ग्लानस्य चैयावृत्यम् । 'अग्लानः' अपरिधान्तः कुर्यात्सम्यक्समाधिना ग्लानस वा समाधिमुत्पादयन्निति ॥३२।। कथं संयमानुष्ठाने परिबजेदित्याह-21 18 विरए गामधम्मेहि,जे केई जगई जगा । तेसिं अत्तुवमायाए, थामं कुर्व परिखए ॥ ३३॥ ~4214 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [३४], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३४|| दीप अनुक्रम [५३०] everceratoersecticececeiverstostoe अइमाणं च मायं च, तं परिन्नाय पंडिए । सबमेयं णिराकिच्चा, णिवाणं संधए मुणी ॥३४॥ संधए साहुधम्मं च, पावधम्मं णिराकरे । उवहाणवीरिए भिक्खू , कोहं माणं ण पत्थए ॥३५॥ जे य बुद्धा अतिकता, जे य बुद्धा अणागया। संति तेसिं पइटाणं, भूयाणं जगती जहा ॥३६॥ ग्रामधर्माः-शब्दादयो विषयास्तेभ्यो विरता मनोज्ञेतरेश्वरक्तद्विष्टाः सन्त्येके केचन 'जगति' पृथिव्यां संसारोदरे 'जगा' इति जन्तवो जीवितार्थिनस्तेषां दुःखद्विषामात्मोपमया दुःखमनुत्पादयन् तद्रक्षणे सामय कुर्यात् तत् कुर्वत्र संयमानुष्ठाने परिव्रजेदिति ॥ ३३ ॥ संयमविनकारिणामपनयनार्थमाह-अतीव मानोऽतिमानश्चारित्रमतिक्रम्य यो वर्तते चकारादेतद्देश्यः क्रोधोऽपि परिगृह्यते, एवमतिमायां, चशब्दादतिलोमं च, तमेवंभूतं कषायनातं संयमपरिपन्धिनं 'पण्डितो' विवेकी परिज्ञाय सर्वमेनं संसारकारणभूतं कषायसमूह निराकृत्य निर्वाणमनुसंधयेत् , सति च कषायकदम्बके न सम्यक संयमः सफलता प्रतिपद्यते, तदुक्तम्-"सामण्णमणुचरंतस्स, कसाया जस्स उकडा होति । मण्णामि उच्छुपुष्फ व, निष्फलं तस्स सामण्णं ॥१॥" तनिष्फलखे च न मोक्षसंभवः, तथा चोक्तम्-"संसारादपलायनप्रतिभुवो रागादयो मे स्थितास्तृष्णाबन्धनबध्यमानमखिलं किं वेत्सि नेदं जगत् ।।18 मृत्यो! मुश्च जराकरेण परुष केशेषु मा मा ग्रहीरहीत्यादरमन्तरेण भवतः किं नागमिष्याम्यहम् १ ॥१॥" इत्यादि । तदेवमेवंभूतकपायपरित्यागादच्छिन्नप्रशस्तभावानुसंधनया निर्वाणानुसंधानमेव श्रेय इति ।। ३४ ॥ किश्व-साधूनां धर्मः क्षान्त्यादिको द-10 १ श्रामण्यमनुचरतः कषाया यस्योत्कटा भवन्ति । मन्ये वपुष्षभिप निष्फल तस्य धामण्यं ॥१॥ 26eerseselesed FarPranaamsan thoonm ~4224 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [३६], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३६|| दीप अनुक्रम [५३२] सूत्रकृताङ्गं शविधः सम्यग्दर्शनशानचारित्राख्यो वा तम् 'अनुसंधयेत्' वृद्धिमापादयेत्, तद्यथा-प्रतिक्षणमपूर्वज्ञानग्रहणेन ज्ञान तथा शीलाडा- शङ्कादिदोषपरिहारेण सम्यग्जीवादिपदार्थाधिगमेन च सम्यग्दर्शनम् अस्खलितमूलोत्तरगुणसंपूर्णपालनेन प्रत्यहमपूर्वाभिग्रहग्रहणेन महणनध्ययन चायित्र-IS(च)चारित्र(च) वृद्धिमापादयेदिति, पाठान्तरं वा 'सद्दहे साधुधम्म च' पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टं साधुधर्म मोक्षमार्गवेन श्रद्दधीतत्तियुतं निःशङ्कतया गृह्णीयात् , चशब्दात्सम्यगनुपालयेच, तथा पापं-पापोपादानकारणं धर्म प्राण्युपमर्दैन प्रवृत्तं निराकुर्यात् , तथो-18 | पधान-तपस्तत्र यथाशक्त्या वीर्य यस्य स भवत्युपधानवीर्यः, तदेवंभूतो भिक्षुः क्रोध मानं च न प्रार्थयेत् न वर्धयेद्वेति ॥३५॥18 ।।२०६॥ अथैवंभूतं भावमार्ग किं वर्धमानखाम्येवोपदिष्टवान् उतान्येऽपीत्येतदाशकचाह-ये बुद्धाः-तीर्थकृतोऽतीतेऽनादिके कालेऽनन्ताः|2|| समतिक्रान्ताः ते सर्वेऽप्येवंभूतं भावमार्गमुपन्यस्तवन्तः, तथा ये चानागता भविष्यदनन्तकालभाविनोऽनन्ता एव तेऽप्येवमेवोपन्यसिष्यन्ति, चशब्दाद्वर्तमानकालभाविनश्च संख्येया इति । न केवलमुपन्यस्तवन्तोनुष्ठितवंतवेत्येतदर्शयति-शमनं शान्तिःभावमार्गस्तेषामतीतानागतवर्तमानकालभाविना बुद्धानां प्रतिष्ठानम् आधारो बुद्धलखान्यथानुपपत्तेः, यदिवा शान्ति:-मोक्षः स तेषां प्रतिष्ठानम्-आधारः, ततस्तदवाप्तिश्च भावमार्गमन्तरेण न भवतीत्यतस्ते सर्वेऽप्येनं भावमार्गमुक्तवन्तोऽनुष्ठितबन्तश्च (इति) 18 गम्यते । शान्तिप्रतिष्ठानले दृष्टान्तमाह-'भूतानां स्थावरजङ्गमानां यथा 'जगती त्रिलोकी प्रतिष्ठान एवं ते सर्वेऽपि युद्धाः शान्तिप्रतिष्ठाना इति ॥ ३६ ॥ प्रतिपन्नभावमार्गेण च यद्विधेयं तदर्शयितुमाह___ अह णं वयमावन्नं, फासा उच्चावया फुसे । ण तेसु विणिहाणेजा, वारण व महागिरी ॥ ३७॥ २०६॥ ~423~ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [३८], नियुक्ति: [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३८|| दीप अनुक्रम [५३४] संवुडे से महापन्ने, धीरे दत्तेसणं चरे। निव्वुडे कालमाकंखी, एवं (य) केवलिणो मयं ॥ ३८॥ तिबेमि । इति मोक्षमार्गनामक एकादशमध्ययनं समाप्तम् ॥ (गाथा ५४६) 'अर्थ' भावमार्गप्रतिपश्यनन्तरं साधु प्रतिपन्नवतं सन्तं स्पर्शाः परीषहोपसर्गरूपाः 'उच्चावचा' गुरुलघवो नानारूपा वा S'स्पृशेयः' अभिवेयुः, स च साधुस्तैरभिदुतः संसारखभावमपेक्षमाणः कर्मनिर्जरां च न तैरनुकूलपतिकूलैर्विहन्यात, नैव संयमा-1M नुष्ठानान्मनागपि विचलेत , किमिव , महाबातेनेव महागिरिः-मेरुरिति । परीपहोपसर्गजयवाभ्यासक्रमेण विधेयः, अभ्यासव8| शेन हि दुष्करमपि सुकरं भवति, अत्र च दृष्टान्तः, तद्यथा-कश्चिद्गोपस्तदहजोतं तणकमुत्क्षिप्प गवान्तिकं नयत्यानयति च, त-18 नोसावनेनैव च क्रमेण प्रत्यहं प्रवर्द्धमानमपि वत्समुत्क्षिपचभ्यासवशाविहायनं त्रिहायणमप्युत्क्षिपति, एवं साधुरप्यभ्यासात् शनैः शनैः परिषहोपसर्गजयं विधत्त इति ॥३७॥ साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिद्दीषुरुक्तशेषमधिकृत्याह-स साधुः एवं संवृताश्रवद्वारतया ||8 18|संवरसंवतो महती प्रज्ञा यस्यासी महाप्रज्ञा-सम्यग्दर्शनज्ञानवान् , वथा धी:-बुद्धिस्तया राजत इति धी। परीषहोपसर्गाक्षोभ्यो वा स | 18 एवंभूतः सन् परेण दते सत्याहारादिके एपणां चरेत्रिविधयाप्येषणया युक्तः सन् संयममनुपालयेत् , तथा निर्धत इव निवृतः कषा-18|| योपशमाच्छीतीभूतः 'कालं' मृत्युकालं यावदभिकाखेत 'एतत् यत् मया प्राक् प्रतिपादितं तत् 'केवलिना' सर्वज्ञस्य तीर्थकृतो मतं ।। एतच्च जम्बूखामिनमुद्दिश्य सुधर्मखाम्याह । तदेतद्यचया मार्गखरूपं प्रनितं तन्मया न खमनीपिकया कथितं, किं तर्हि १, केवशलिनो मतमेतदित्येवं भवता ग्राय । इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ३८ ॥ इति मार्गाख्यमेकादशमध्ययनं समाप्तम् ।। 090029992809200000 अत्र एकादशं अध्ययनं समाप्तं ~424~ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक -1, मूलं [३८...], नियुक्ति: [११६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३८|| सूत्रकृताई अथ द्वादशं श्रीसमवसरणाध्ययनं प्रारभ्यते ॥ १२ समवशीलाङ्का सरणाध्य चार्याय | समवसरत्तियुत णनिक्षेपाः उक्तमेकादशमध्ययनं, साम्प्रतं द्वादशमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-इहानन्तराध्ययने मागोंऽभिहितः, स च कुमार्गव्यु-18 ॥२०७॥ दासेन सम्यग्मार्गां प्रतिपद्यते, अतः कुमार्गच्युदासं चिकीर्षुणा तत्खरूपमवगन्तव्यमित्यतस्तत्स्वरूपनिरूपणार्थमिदमध्ययनमायातम् , अस्य चोपक्रमादीनि चखार्यनुयोगद्वाराणि, तत्रोपकमान्तर्गतोऽर्धाधिकारोऽयं, तद्यथा-कुमार्गाभिधायिनां क्रियाक्रियाज्ञानिकवनयिकानां चलारि समवसरणानीह प्रतिपाद्यन्ते, नामनिष्पनेतु निक्षेपे समवसरणमित्येतनाम तनिक्षेपार्थे । निक्तिकृदाहसमवसरणेऽपि छकं सच्चित्ताचित्तमीसग दब्चे । खेत्तमि जंमि खेत्ते काले जं जंमि कालंमि ॥ ११६ ॥ भावसमोसरणं पुण णायब्वं छव्विहंमि भावंमि । अहवा किरिय अकिरिया अन्नाणी चेव वेणइया ॥ ११७ ।। IS अथिति किरियवादी वयंति णस्थि अकिरियवादी य । अण्णाणी अण्णाणं विणइत्ता घेणइयवादी ॥ ११८॥ २०७॥ समवसरणमिति 'म गता' वित्येतस्य धातोः समवोपसर्गपूर्वस ल्युडन्तस्य रूपं, सम्यग्र-एकीभावेनावसरणम्-एकत्र गमनं | मेलापकः समवसरणं तमित्रपि, न केवलं समाधी, पविधो नामादिको निक्षेपः, तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यविपर्य पुनः स Sasraeraprada99930a0ezara అందం दीप अनुक्रम [५३४] SHRELIEatunintentiatiane अत्र द्वादशं अध्ययनं “समवसरण" आरब्ध, पूर्व अध्ययनेन सह अभिसंबंध, समवसरण शब्दस्य निक्षेपा: ~425~ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [३८...], नियुक्ति: [११८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३८|| दीप अनुक्रम [५३४] मवसरणं नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्रिविधं, सचित्तमपि द्विपदचतुष्पदापदभेदात्रिविधमेव, तत्र द्विपदानां साधुप्रभृतीनां तीर्थजन्मनिष्क्रमणप्रदेशादौ मेलापकः, चतुष्पदानां गवादीनां निपानप्रदेशादौ, अपदानां तु वृ-18 क्षादीनां खतो नास्ति समवसरणं, विवक्षया तु काननादी भवत्यपि, अचित्तानां तु व्यणुकाद्यभ्रादीनां तथा मिश्राणां सेनादीनां समवसरणसद्भावोजगन्तव्य इति । क्षेत्रसमवसरणं तु परमाथेतो नास्ति, विवक्षया तु यत्र द्विपदादयः समवसरन्ति व्याख्यायते । |चा समवसरणं यत्र तत्क्षेत्रप्राधान्यादेवमुच्यते । एवं कालसमवसरणमपि द्रष्टव्यमिति । इदानीं भावसमवसरणमधिकृत्याह| भावानाम्-औदयिकादीनां समवसरणम्-एकत्र मेलापको भावसमवसरणं, तत्रौदयिको भाव एकविंशतिभेदः, तद्यथा-गतिश्चतुर्धा, कषायाश्चतुर्विधाः एवं लिई त्रिविधं, मिध्याखाज्ञानासंयतलासिद्धलानि प्रत्येकमेकैकविधानि, लेश्याः कृष्णादिभेदेन पहिधा | भवन्ति । औपशमिको द्विविधः सम्यक्तचारित्रोपशमभेदात् । क्षायोपशमिकोऽप्यष्टादशभेदभिन्नः, तद्यथा-शानं मतिश्रुतावधिम| नापर्यायभेदाचतुर्धा अज्ञानं मल्यज्ञानश्रुताज्ञान विभङ्गभेदात्रिविधं, दर्शनं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनभेदात्रिविधमेव, लब्धि नलाभमो-18 गोपभोगवीर्यभेदात्पञ्चधा, सम्यक्वचारित्रसंयमासंयमाः प्रत्येकमेकप्रकारा इति । क्षायिको नवप्रकारः, तद्यथा-केवलज्ञानं केवलद-18 शेनं दानादिलब्धयः पश सम्यक्स चारित्रं चेति । जीवखभव्यखाभव्यतादिभेदात्पारिणामिकत्रिविधः । सान्निपातिकस्तु द्वित्रिचतुष्पश्चकसंयोगैर्भवति, तत्र द्विकसंयोगः सिद्धस्य क्षायिकपारिणामिकभावद्वयसद्भावादवगन्तव्यः, त्रिकसंयोगस्तु मिथ्यादृष्टिसम्य दृष्ट्यविरतविरतानामौदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावसद्भावादवगन्तव्यः, तथा भवस्थकेवलिनोऽप्यौदायिकक्षायिकपारिणा| मिकभावसजावाद्विज्ञेय इति, चतुष्कसंयोगोऽपि क्षायिकसम्यग्दृष्टीनामौदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकमावसद्भावात् । SARERatun international समवसरण शब्दस्य निक्षेपा: ~426~ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||३८|| दीप अनुक्रम [ ५३४] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [३८...], निर्युक्तिः [११८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र -[ ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृता शीलाङ्का चार्यय चियुर्त ॥२०८॥ | तथोपशमिकसम्यग्दृष्टीनामौद विकोपशमिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावसद्भावाच्चेति, पञ्चकसंयोगस्तु क्षायिकसम्यग्दष्टीनामुपशमश्रेण्यां समस्तोपशान्तचारित्रमोहानां भावपञ्चकसद्भावाद्विज्ञेय इति, तदेवं भावानां द्विकत्रिकचतुष्कपञ्चकसंयोगात्संभविनः सान्निपातिकभेदाः षड् भवन्ति, एत एवं त्रिकसंयोगचतुष्कसंयोगगतिभेदात्पश्ञ्चदशधा प्रदेशान्तरेऽभिहिता इति । तदेवं पविधे भावे भावसमवसरणं भावमीलनमभिहितम्, अथवा अन्यथा भावसमवसरणं निर्बुक्तिकदेव दर्शयति-क्रियां जीवादिपदार्थोऽस्तीत्या|दिकां वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः, एतद्विपर्यस्ता अक्रियावादिनः, तथा अज्ञानिनो - ज्ञाननिहववादिनः तथा 'वैनयिका' विनयेन चरन्ति तत्प्रयोजना वा वैनयिकाः, एषां चतुर्णामपि सप्रभेदानामाक्षेपं कृत्वा यत्र विक्षेषः क्रियते तद्भावसमवसरणमिति, एतच्च स्वयमेव नियुक्तिकारोऽन्त्यगाथया कथयिष्यति । साम्प्रतमेतेषामेवाभिधानान्यर्थतादर्शनद्वारेण स्वरूपमा विष्कुर्वन्नाह-जीवादिपदार्थसद्भावोऽस्त्येवेत्येवं सावधारणक्रियाभ्युपगमो येषां ते अस्तीति क्रियावादिनः, ते चैवंवादिखान्मिथ्यादृष्टयः तथाहि यदि ४ जीवोऽस्त्येवे[वेऽस्तितमेवे ]त्येवमभ्युपगम्यते, ततः सावधारणत्याच कथञ्चिन्नास्तीत्यतः खरूपस चावत्पररूपापचिरपि स्याद् एवं च नानेकं जगत् स्यात्, नचैतदृष्टमिष्टं वा । तथा नास्त्येव जीवादिकः पदार्थ इत्येवंवादिनोऽक्रियावादिनः, तेऽप्यसद्भूतार्थप्रतिपादनान्मिथ्यादृष्टय एव, तथाहि एकान्तेन जीवास्तित्वप्रतिषेधे कर्तुरभावानास्तीत्येतस्यापि प्रतिषेधस्याभावः, तदभावाच सर्वास्तित्वमनिवारितमिति । तथा न ज्ञानमज्ञानं तद्विद्यते येषां तेऽज्ञानिनः, ते ह्यज्ञानमेव श्रेय इत्येवं वदन्ति एतेऽपि मिथ्यादृष्टय एव, तथाहिअज्ञानमेव श्रेय इत्येतदपि न ज्ञानमृते भणितुं पायेंते, तदभिधानाचावश्यं ज्ञानमभ्युपगतं तैरिति । तथा वैनयिका विनयादेव केवलात्खर्गमोक्षावाप्तिमभिलषन्तो मिथ्यादृष्टयो, यतो न ज्ञानक्रियाभ्यामन्तरेण मोक्षावाप्तिरिति । एषां च क्रियावाद्यादीनां Education International समवसरण शब्दस्य निक्षेपा: For Para Use Only ~ 427 ~ १२ समय सरणाध्य० भावानां क्रियादिवादिनां वा समवसरणं ॥२०८॥ war Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [३८...], नियुक्ति: [११९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३८|| दीप अनुक्रम [५३४] स्वरूपं तन्निराकरणं चाचारटीकायां विस्तरेण प्रतिपादितमिति नेह प्रतन्यते । साम्प्रतमेतेषां भेदसंख्या निरूपणार्थमाह असियस किरियाणं अकिरियाणं च होइ चुलसीती । अन्नाणिय सत्तही वेणइयाणं च बत्तीसा ॥ ११९ ॥ तेसि मताणुमएणं पन्नवणा वणिया इहऽज्झयणे । सम्भावणिच्छयत्थं समोसरणमाहु तेणं तु ॥ १२०॥ सम्मदिट्टी किरियावादी मिच्छा य सेसगा वाई । जहिऊण मिच्छवायं सेवह वायं इमं सर्च ॥ १२१ ॥ क्रियावादिनामशीत्यधिकं शतं भवति, तच्चानया प्रक्रियया, तद्यथा-जीवादयो नव पदार्थाः परिपाव्या स्थाप्यन्ते, तदधः स्वतः परत इति भेदद्वर्य, ततोऽपधो नित्यानित्यभेदद्वयं, ततोऽप्यधस्तात्परिपाट्या कालखभावनियतीश्वरात्मपदानि पञ्च व्यवस्थाप्यन्ते, 'जीवः ततधचं चारणिकापक्रमः, तद्यथा-अस्ति जीवः खतो नित्यः कालतः, तथाऽस्ति जीवः खतोऽनित्यः कालत एव. खतः परतः । एवं परतोऽपि भङ्गकद्वयं, सर्वेऽपि च चत्वारः कालेन लब्धाः , एवं खभावनियतीश्वरात्मपदान्यपि प्रत्येकं चतुर नित्यः अनित्यः एव लभन्ते, ततश्च पश्चापि चतुष्कका विंशतिर्भवन्ति, साऽपि जीवपदार्थेन लब्धा, एवमजीवादयोऽप्यष्टौ8 | कालः खभावः नियतिः ईश्वर आत्मा प्रत्येक विंशतिं लभन्ते, ततश्च नव विशतयो मीलिताः क्रियावादिनामशीत्युत्तर शतं || भवतीति । इदानीमक्रियावादिनां न सन्त्येव जीवादयः पदार्था इत्येवमभ्युपगमवतामनेनोपायेन चतुरशीतिरवगन्तव्या, ४ तद्यथा-जीवादीन् पदार्थान् सप्ताभिलिख्य तदधः खपरभेदद्वयं व्यवस्थाप्यं, ततोऽप्यधः कालयहच्छानियतिखभावे श्वरा-18 मपदानि पद व्यवस्थाप्यानि, भङ्गकानयनोपायस्वयं-नास्ति जीवः खतः कालतः, तथा नास्ति जीवः परतः कालतः, దానిని समवसरणस्य भेदा:, क्रियावादीन: स्वरुप:, अक्रियावादीन: स्वरुप: ~4284 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [३८...], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३८|| G खसर्व दीप अनुक्रम [५३४] सूत्रकृताङ्ग 18 एवं पटलानियतिस्वभावेश्वरात्ममिः प्रत्येकं द्वौ द्वौ भङ्गको लभ्येते, सर्वेऽपि द्वादश, तेऽपि च जीवादिपदार्थसप्तकेन ||४|१२ समवशीलाका-% गुणिताश्चतुरशीतिरिति, तथाचोक्तम्--"कालयदृच्छानियतिखभावेश्वरात्मतश्चतुरशीतिः । नास्तिकवादिगणमते न सन्ति भावाः रणाध्य चायित् खपरसंस्थाः ॥१॥" साम्प्रतमज्ञानिकानामज्ञानादेव विवक्षितकार्यसिद्धिमिच्छतां ज्ञानं तु सदपि निष्फलं बहुदोषबच्चेत्ये-18 क्रियादित्तियुतं वमभ्युपगमवतां सप्तपटिरनेनोपायेनावगन्तव्या-जीवाजीवादीन् नव पदार्थान् परिपाट्या व्यवस्थाप्य तदधोऽमी सप्त भजकाः || वादिनां ॥२०९॥ संस्थायाः-सत् असत् सदसत् अवक्तव्यं सदवक्तव्यं असदवक्तव्यं सदसदवक्तव्यमिति, अभिलापस्वयं-सन् जीवः को वेति ।। किं वा तेन ज्ञातेन ! १, असन् जीवः को वेत्ति? किंवा तेन ज्ञातेन १२, सदसन् जीवः को वेत्ति? किंवा तेन ज्ञातेन! ३,॥ अबक्तव्यो जीवः को वेत्ति? किं वा तेन ज्ञातेन? ४, सदवक्तव्यो जीवः को वेत्ति किंवा तेन ज्ञातेन १५, असदवक्तव्यो। जीवः को वेत्ति ? किंवा तेन शावन १६, सदसदवक्तव्यो जीवः को वेत्ति ? किंवा तेन ज्ञातेन १७, एवमजीवादिष्वपि । | सप्त भङ्गकाः, सर्वेऽपि मिलिताखिपष्टिः, तथाऽपरेऽमी चखारो भङ्गकाः, तद्यथा--सती भावोत्पत्तिः को वेत्ति ? किं वाज्नया || ज्ञातया? १, असती भावोत्पत्तिः को वेत्ति किं वाज्नया ज्ञातया? २, सदसती भावोत्पत्तिः को वेत्ति किं वाऽनया ज्ञातया? ३, अबक्तव्या भावोत्पचिः को वेत्ति किंवाऽनया ज्ञातया? ४, सर्वेऽपि सप्तपधिरिति, उत्तरं भङ्गकत्रयमुत्पन्नभावावयवापेक्षमिह भा-18 बोत्पत्ती न संभवतीति नोपन्यस्तम् , उक्तं च-"अज्ञानिकवादिमतं नव जीवादीन् सदादिसप्तविधान् । भावोत्पत्तिः सदसट्टेधा-12॥२०९॥ ऽवाच्या च को चेति ॥१॥" इदानीं बैनयिकानां विनयादेव केवलात्परलोकमपीच्छता द्वात्रिंशदनेन प्रक्रमेण योज्याः, नद्य-19 प्रथा-सुरनृपतियतिज्ञातिस्थविराधममातृपितृषु मनसा वाचा कायेन दानेन (च) चतुर्विधो विनयो विधेयः, सर्वेऽप्यष्टी चतुष्कका समवसरणस्य भेदा:, अक्रियावादीन: स्वरुप:, अज्ञानिकानाम् स्वरुप: ~4294 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [३८...], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३८|| చించింది दीप अनुक्रम [५३४] मिलिता द्वात्रिंशदिति, उक्तं च-'वैनयिकमतं विनयश्वेतोबाकायदानतः कार्यः । सुरनृपतियतिज्ञातिस्थविराधममातृपितषु सदा ॥१॥" सर्वेऽप्येते क्रियाक्रियाज्ञानिनयिकवादिभेदा एकीकृतास्त्रीणि त्रिषष्यधिकानि प्रावादुकमतशतानि भवन्ति । तदेवं वादिनां मतभेदसंख्यां प्रदर्याधुना तेषामध्ययनोपयोगिख दर्शयितुमाह-तेषां पूर्वोक्तवादिनां मतम्-अभिप्रायस्तेन यदनुमतंपक्षीकृतं तेन पक्षीकृतेन पक्षीकृताश्रयणेन 'प्रज्ञापना' प्ररूपणा 'वर्णिता प्रतिपादिता 'इह' अस्मिन्नध्ययने गणधरैः, किमर्थमिति दर्शयति-तेषां यः सद्भावः-परमार्थस्तस्य निश्चयो-निर्णयस्तदर्थ, तेनैव कारणेनेदमध्ययनं समवसरणाख्यमाहुर्गणधराः, तथाहि-वादिनां सम्यगवसरणं-मेलापकतन्मतनिश्चयार्थमस्मिन्नध्ययने क्रियत इत्यतः समवसरणाख्यमिदमध्ययनं कृतमिति ।। इदानीमेतेषां सम्यग्रमिथ्याखवादिख विभागेन यथा भवति तथा दर्शयितुमाह-सम्यग् अविपरीता दृष्टिः---दर्शनं पदार्थपरि|च्छित्तिर्यस्यासौ सम्यग्रदृष्टिः, कोऽसावित्याह-क्रियाम्-अस्तीत्येवंभूतां चदितुं शीलमस्येति क्रियावादी, अत्र च क्रियावादीत्येतद् | 'अस्थिति किरियवादी' त्यनेन प्राक् प्रसाधितं सदनूय निरवधारणतया सम्यग्दृष्टित्वं विधीयते, तस्सासिद्धत्वादिति, तथाहि-अस्ति लोकालोकविभागः अस्त्यात्मा अस्ति पुण्यपापविभागः अस्ति तत्फलं स्वर्गनरकावाप्तिलक्षणं अस्ति कालः कारणत्वेनाशेषस्य जगतः प्रभवद्धिस्थितिविनाशेषु साध्येषु तथा शीतोष्णवर्षवनस्पतिपुष्पफलादिषु चेति, तथा चोक्तम्---"काल: पचति भूतानी"त्यादि, तथाऽस्ति खभावोऽपि कारणत्वेनाशेषस्य जगतः, खो भावः स्वभाव इतिकृत्वा, तेन हि जीवाजीवभव्यत्वाभन्यत्वमूर्त-IN खामूर्तलानां खस्वरूपानुविधानात् तथा धर्माधर्माकाशकालादीनां च गतिस्थित्यवगाहपरखापरवादिस्वरूपापादनादिति, तथा चोक्तम्-"कः कण्टकाना" मित्यादि । तथा नियतिरपि कारणखेनाश्रीयते, तथा तथा पदार्थानां नियतेरेव नियतखात्, तथा समवसरणस्य भेदा:, वैनयिकस्य स्वरूप, ~430~ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [३८...], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३८|| सूत्रकृता शीलाकाचार्यायचियुतं senseseaeesesese खरूपं ॥२१॥ दीप अनुक्रम [५३४] चोक्तम्-"प्राप्तब्यो नियतिबलाश्रयेणे" त्यादि । तथा पुराकृतं, तब शुभाशुममिष्टानिष्टफलं कारणं, तथा चोक्तम्--"यथा यथा १२ समवपूर्वकृतस्य कर्मणः, फलं निधानस्थ मिहोपतिष्ठते । तथा तथा पूर्वेकृतानुसारिणी, प्रदीपहस्तेव मतिः प्रवर्तते ॥१॥" तथा "खकर्मणा शरणाध्य. युक्त एव, सर्वो छुत्पयते जनः । स तथाऽऽकृष्यते तेन, न यथा खयमिच्छति ॥१॥" इत्यादि । तथा पुरुषकारोऽपि कारण, क्रियादियसान पुरुषकारमन्तरेण किश्चित्सिध्यति, तथा चोक्तम्-"न देवमिति संचिन्त्य, त्यजेदुधममात्मनः । अनुद्यमेन कस्तैलं, तिले- वादिनों भ्यः प्राप्तुमर्हति ! ॥१॥" तथा-"उद्यमाचारु चित्रालि, नरो भद्राणि पश्यति । उद्यमास्कृमिकीटोऽपि, भिनत्ति महतो द्रुमान् ॥ २॥ तदेवं सर्वानपि कालादीन कारणलेनाभ्युपगच्छन् तथाऽऽत्मपुण्यपापपरलोकादिकं चेछन् क्रियावादी सम्यग्दृष्टिले-18 नाभ्युपगन्तव्यः । शेषकास्तु वादा अक्रियावादाज्ञानवादवनयिकवादा मिथ्यावादा इत्येवं द्रष्टव्याः, तथाहि-अक्रियावायत्य-18 न्तनास्तिकोऽध्यक्षसिद्ध जीवाजीवादिपदार्थजातमपहुवन् मिथ्यादृष्टिरेव भवति, अज्ञानवादी तु सति मत्यादिके हेयोपादेयप्रदर्श-8 के ज्ञानपञ्चकेज्ञानमेव श्रेय इत्येवं वदन् कथं नोन्मत्तः स्यात् । तथा विनयवाद्यपि विनयादेव केवलात् ज्ञानकियासाध्या सि-10 द्विमिच्छन्नपकर्णयितव्यः, तदेवं विपरीतार्थाभिधायितयैते मिथ्यादृष्टयोवगन्तव्याः । ननु च क्रियावाद्यप्यशीत्युत्तरशतभेदोऽपि | तत्र तत्र प्रदेशे कालादीनभ्युपगच्छन्नेव मिथ्यावादिखेनोपन्यस्त: तत्कथमिह सम्यग्दृष्टिलेनोच्यत इति, उच्यते, स तत्रास्त्येव । जीव इत्येवं सावधारणतयाऽभ्युपगमं कुर्वन् काल एवैकः सर्वखास जगतः कारणं तथा खभाव एव नियतिरेव पूर्वकृतमेव पुरुष-1 ।।२१०॥ कार एवेत्येवमपरनिरपेक्षतर्यकान्तेन कालादीनां कारणलेनाश्रयणान्मिथ्यावं, तथाहि-अस्त्येव जीव इत्येवमस्तिना सह जीवस्य सामानाधिकरण्यात् यद्यदस्ति तसजीव इति प्राप्तम् , अतो निरवधारणपक्षसमाश्रयणादिह सम्यक्समभिहितं, तथा कालादीनामपि समवसरणस्य भेदा:, ~4314 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||३८|| टीप अनुक्रम [५३४] श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ [१२] उद्देशक [-] मूलं [ ३८...], निर्युक्तिः [ १२१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र [०२] अंग सूत्र- [०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र- २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) - समुदितानां परस्परसथ्यपेक्षाणां कारणलेनेहाश्रयणात्सम्यक्त्वमिति । ननु च कथं कालादीनां प्रत्येकं निरपेक्षाणां मिथ्यात स्वभाबले सति समुदितानां सम्यक्सद्भावः १ न हि यत्प्रत्येकं नास्ति तत्समुदायेऽपि भवितुमर्हति, सिकता तैलवत्, नैतदस्ति, प्रत्येकं पद्मरागादिमणिष्व विद्यमानापि रत्नावली समुदाये भवन्ती दृष्टा, न च धेनुपपन्नं नामेति यत्किञ्चिदेतत् तथा चोक्तम् - "कालो सहाव थियई पुढकथं पुरिस कारणेमंता। मिच्छत्तं ते चैव उ समासओ होंति संमत्तं ॥ १ ॥ सवेवि य कालाई इह समुदायेण साहगा भणिया । जुजंति य एमेव य सम्मं सबस्स कजस्स ॥ २ ॥ न हि कालादीहिंतो केवलएहिं तु जायए किंचि । इह मुग्गरंधणादिविता सचे समुदिता हेऊ ॥ ३ ॥ जह णेगलक्खणगुणा बेरुलियादी मणी विसंजुत्ता । रयणावलिववएस ण लहंति महग्घमुलावि ॥ ४ ॥ तह णिययवादसुविणिच्छियाचि अण्णोऽण पक्ख निरवेक्खा । सम्मदंसणसदं सवेऽचि णयाण पाविति ॥ ॥ ५ ॥ जह पुण ते चैव मणी जहा गुणविसेसभागपडिवद्धा । रवणावलित्ति भण्णह चयंति पाडिकसण्णाओ ॥ ६ ॥ वह सबै जयवाया जहाणुरूव विणिउत्तवत्तदा । सम्मदंसणसदं लभेति ण विसेससण्णाओ ॥ ७ ॥ तम्हा मिच्छदिट्ठी सवेचि गया [१] कालः समावो नियतिः पूर्वकृतं पुरुषकारः कारणं एकान्तात् मिप्यावं समासतो भवति सम्वस्वं ॥ १ ॥ सर्वेऽपि वादय इह समुदायेन साधका भविताः । युज्यते च एवमेव सम्यक् सर्वस्य कार्यस्य ॥ १ ॥ नैन कालादिभिः केवलैस्तु जायते किंचित्। इह मुद्गरंधनाद्यपि तत्सर्वेऽपि समुदिता हेतवः ॥ २ ॥ यक्षगुणादयो यो विसंयुताः। रलावलीयदेशं न लभन्ते महामूल्य अपि ॥ ३ ॥ तथा निजकवादसुविनिविता अपि अभ्योऽन्यपक्षनिरपेक्षाः सम्यग्दर्शन सर्वेऽपि नया न प्राप्नुवन्ति ॥ ४ ॥ यथा पुनन्ते चैत्र मणयोगमा गुणविशेषभागप्रतिबद्धाः । रत्नावलीति भव्यते यन्ति प्रत्येकज्ञाः ॥ ५ ॥ तथा सर्वेऽपि नयवादायानुरूप विनियुक्त कन्याः । सम्यग्दर्शन भन्ते न विशेषसंज्ञाः ॥ ६ ॥ तत्रान्निध्यादृश्यः सर्वेऽपि नयाः खपक्षप्रतिपदाः । अभ्योऽम्यनिश्रिताः पुनर्भवन्ति सम्यक्तं सद्भावात् ॥ ७ ॥ Education Internationa समवसरणस्य भेदा:, For Panal Lise Only ~ 432~ war Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| दीप सूत्रकृताङ्ग 18 सपक्खपडिबद्धा । अण्णोणनिस्सिया पुण हवंति सम्मत्त सम्भावा ।। ८॥" यत एवं तसात्यक्खा मिथ्याखवाद-कालादिप्रत्ये- १२ समयशीलाका-18 |कैकान्तकारणरूप 'सेवध्वम्' अङ्गीकुरुध्वं 'सम्पग्वाद' परस्परसव्यपेक्षकालादिकारणरूपम् 'इम' मिति मयोक्तं प्रत्यक्षासनं 'सत्य-|| सरणाध्य. चाीय- म्' अवितथमिति ।। गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं, तचेदम्त्तियुतं चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पावादुया जाइं पुढो वयंति । किरियं अकिरियं विणियंति तड़यं, ॥२११॥ अन्नाणमाइंसु चउत्थमेव ॥१॥ अण्णाणिया ता कुसलावि संता, असंथुया णो वितिगिच्छतिन्ना । अकोविया आहु अकोवियेहि, अणाणुवीइत्तु मुसं वयंति ॥२॥ सच्चं असचं इति चिंतयंता, असाहु साहुत्ति उदाहरंता । जेमे जणा वेणइया अणेगे, पुट्टावि भावं विणइंसु णाम ॥३॥ अणोवसंखा इति ते उदाहू, अट्टे स ओभासइ अम्ह एवं। लवावसंकी य अणागएहि, णो किरियमाहंसु अकिरियवादी ॥४॥ ॥२१॥ अस्य च प्राक्तनाध्ययनेन सहायं संबन्धः, तद्यथा-साधुना प्रतिपन्नभावमार्गेण कुमार्गाश्रिताः परयादिनः सम्यक् परिज्ञाय परिहर्तव्याः, तत्स्वरूपाविष्करणं चानेनाध्ययनेनोपदिश्यते इति, अनन्तरसूत्रस्थानेन सूत्रेण सह संबन्धोऽयं, तद्यथा-संवृतो अनुक्रम [५३५] मूल सूत्रस्य आरम्भ: ~4334 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४|| महाप्रज्ञो 'वीरो दत्तैपणां चरनभिनिर्वृतः सन् मृत्युकालमभिकाद् एतत्केवलिनो भाषितं, तथा परतीथिकपरिहारं च कुर्यात् एतञ्च केवलिनो मतम् , अतस्तत्परिहारार्थं तत्स्वरूपनिरूपणमनेन क्रियते । 'चत्वारी ति संख्यापदमपरसंख्यानिवृत्त्यर्थ 'समवसरणानि' परतीर्थिकाभ्युपगमसमूहरूपाणि यानि प्रावादुकाः पृथक पृथग्वदन्ति, तानि चामूनि अन्वथाभिधायिभिः |संज्ञापदैनिर्दिश्यन्ते, तद्यथा-क्रियाम्-अस्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः, तथाऽक्रियां नास्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां तेऽक्रियावादिनः, तथा तृतीया बनयिकाचतुर्थास्त्वज्ञानिका इति ॥ १॥ तदेवं क्रियाक्रियावनयिकाजानवादिनः सामान्येन प्रदाधुना तपार्थं तन्मतोपन्यासं पचानुपूर्व्यप्यस्तीत्यतः पश्चानुपूर्ध्या कर्तुमाह, यदि| वैतेषामज्ञानिका एव सर्वापलापितयाऽत्यन्तमसंवद्धा अतस्तानेवादावाह--अज्ञानं विद्यते येषामज्ञानेन वा चरन्तीत्वज्ञा| निकाः आज्ञानिका चा तावत्पदर्यन्ते, ते चाज्ञानिकाः किल वयं कुशला इत्येवंवादिनोऽपि सन्तः 'असंस्तुता' अज्ञानमेव श्रेय इत्येवंवादितया असंबद्धाः, असंस्तुतखादेव विचिकित्सा-चित्तविप्लुतिश्चिचभ्रान्तिः संशीतिस्ता न तीणों-नातिक्रान्ताः, तथाहि ते ऊचुः--य एते ज्ञानिनस्ते परस्परविरुद्धवादितया न यथार्थवादिनो भवन्ति, तथाहि एके सर्वगतमात्मानं वदन्ति तथाऽन्ये असर्वगतं अपरे अंगुष्ठपर्वमानं केचन श्यामाकतन्दुलमात्रमन्ये मूर्तममूर्त हृदयमध्यवर्तिनं ललाटव्यवस्थितमित्याद्यात्मपदार्थ एव सर्वपदार्थपुरःसरे तेषां नैकवाक्यता, न चातिशयज्ञानी कश्चिदस्ति बद्वाक्यं प्रमाणीक्रियेत, न चासौ विद्यमानोऽप्युपलक्ष्यतेग्दिर्शिना, 'नासर्वतः सर्व जानातीति वचनात् , तथा चोक्तम्- "सर्वज्ञोऽसाविति बेतत्तत्कालेऽपि बुभुत्सुभिः ।। १ धीरो प्रा । २ दूषणार्थ प्र०।३ व्याख्यासमिति शेषः । ४ असंबद्धमाषिणः । 020209999900 दीप अनुक्रम [५३८] ~4344 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||8|| दीप अनुक्रम [५३८] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [४], निर्युक्तिः [१२१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृता शीळाङ्का चाय चियुर्त ॥२१२॥ | तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानशून्यैर्विज्ञायते कथम् ॥ १ ॥ " न च तस्य सम्यक् तदुपायपरिज्ञानाभावात्संभवः, संभवाभावश्चेतरेतराश्रयखात्, | तथाहि न विशिष्टपरिज्ञानमृते तदवाप्युपायपरिज्ञानमुपायमन्तरेण च नोपेयस्य विशिष्टपरिज्ञानस्यावाप्तिरिति, न च ज्ञानं ज्ञेयस्य स्वरूपं परिच्छेत्तुमलं तथाहि यत्किमप्युपलभ्यते तस्यार्वाग्मध्य परभागैर्भाव्यं तत्रार्वाग्भागस्यैवोपलब्धिर्नेतरयोः, तेनैव व्यवहितखात्, अर्वाग्भागस्यापि भागत्रय कल्पनात्तत्सर्वारातीयभागपरिकल्पनया परमाणुपर्यवसानता, परमाणोश्च स्वभाव विप्रकृष्टखादर्वा|ग्दर्शनिनां नोपलब्धिरिति, तदेवं सर्वज्ञस्याभावादसर्वज्ञस्य च यथावस्थितवस्तुस्वरूपापरिच्छेदात्सर्ववादिनां च परस्परविरोधेन पदार्थस्वरूपाभ्युपगमात् यथोचरपरिज्ञानिनां प्रमादवतां बहुतरदोषसंभवादज्ञानमेव श्रेयः तथाहि - यद्यज्ञानवान् कथञ्चित्पादेन शिरसि हन्यात् तथापि चित्तशुद्धेर्न तथाविधदोपानुषङ्गी स्यादित्येवमज्ञानिन एवंवादिनः सन्तोऽसंबद्धाः, न चैवंविधां चित्तविश्रुतिं वितीर्णा इति । तत्रैवंवादिनस्ते अज्ञानिका 'अकोविदा' अनिपुणाः सम्यकपरिज्ञानविकला इत्यवगन्तव्याः, तथाहि यत्तैरभिहितं 'ज्ञानवादिनः परस्परविरुद्धार्थवादितया न यथार्थवादिन' इति, तद्भवखसर्वज्ञप्रणीतागमाभ्युपगमवादिनामयथार्थवादिलं, न चाभ्युपगमवादा एव बाधायै प्रकल्प्यन्ते, सर्वज्ञप्रणीतागमाभ्युपगमवादिनां तु न कचित्परस्परतो विरोधः, सर्वज्ञवान्यथानुपपत्तेरिति, तथाहि--प्रक्षीणाशेषावरणतया रागद्वेषमोहानामतृत कारणानामभावान्न तद्वाक्यमयथार्थमित्येवं तत्प्रणीतागमवतां न | विरोधवादित्वमिति । ननु च स्यादेतद् यदि सर्वज्ञः कचित्स्यात्, न चासौ संभवतीत्युक्तं प्राक्, सत्यमुक्तमयुक्तं तूक्तं, तथाहियत्तावदुक्तं न चासौ विद्यमानोऽप्युपलक्ष्यतेऽग्दर्शिनेति' तदयुक्तं यतो यद्यपि परचेतोवृत्तीनां दुरन्वयवात्सरागा वीतरागा इव चेष्टन्ते वीतरागाः सरागा इवेत्यतः प्रत्यक्षेणानुपलब्धिः, तथापि संभवानुमानस्य सद्भावात्तद्बाधकप्रमाणाभावाच्च तदस्तित्वम Education International For Parts Only ~435~ १२ समवसरणाध्य० ॥२१२ ॥ waryru Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४|| दीप |निवार्य, संभवानुमान लिद-व्याकरणादिना शास्त्राभ्यासेन सस्क्रियमाणायाः प्रज्ञाया ज्ञानातिशयो ओयावगम प्रत्युपलब्धः, तदत्र | कचित्तथाभूताभ्यासवशात्सर्वज्ञोऽपि सादिति, न च तदभावसाधकं प्रमाणमस्ति, तथाहि-न तावदग्दर्शिप्रत्यक्षेण सर्वज्ञाभाव: साधयितुं शक्यः, तस्स हि तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानशून्यवाद, अशून्यवाभ्युपगमे च सर्वत्रत्वापचिरिति । नाप्यनुमानेन, तदव्यभिचा| रिलिङ्गाभावादिति । नाप्युपमानेन सर्वज्ञाभावः साध्यते, तस्य सादृश्यबलेन प्रवृत्तेः, न च सर्वज्ञाभावे साध्ये ताइग्विधं साह-४ श्यमस्ति येनासौ सिध्यतीति । नाप्यर्थापच्या, तस्याः प्रत्यक्षादिप्रमाणपूर्वकत्वेन प्रवृत्तेः, प्रत्यक्षादीनां च तत्साधकत्वेनाप्रवर्त| नात् तस्या अप्यप्रवृत्तिः । नाप्यागमेन, तस्य सर्वज्ञसाधकत्वेनापि दर्शनात् , नापि प्रमाणपश्चकाभावरूपेणाभावेन सर्वज्ञाभावः। सिध्यति, तथाहि-सर्वत्र सर्वदा न संभवति तद्ग्राहक प्रमाणमित्येतदर्वाग्दर्शिनो वक्तुं न युज्यते, तेन हि देशकालविप्रकृष्टानां पुरुषाणां यद्विज्ञानं तस्य ग्रहीतुमशक्यत्वात् , तद्ग्रहणे वा तस्यैव सर्वज्ञत्वापत्तेः, न चावग्दर्शिनां ज्ञानं निवर्तमान सर्वज्ञाभावं | साँधयति, तस्याव्यापकत्वात् , न चाव्यापकव्याच्या पदार्थच्यावृत्तियुक्तति, न च वस्त्वन्तरविज्ञानरूपोऽभावः सर्वज्ञाभावसाथ| नायालं, वस्त्वन्तरसर्वज्ञयोरेकज्ञानसंसैप्रतिबन्धाभावात् । तदेवं बाधकप्रमाणाभावात्संभवानुमानस्य च प्रतिपादितत्वादस्ति सर्वज्ञा, तत्प्रणीतागमाभ्युपगमाच मतभेददोपो दरापास्त इति, तथाहि-तत्प्रणीतागमाभ्युपगमवादिनामेकवाक्यतया शरीरमात्रव्यापी संसार्यात्माऽस्ति, तत्रैव तद्गुणोपलब्धेरिति, इतरेतराश्रयदोषश्चात्र नावतरत्येव, यतोऽभ्यस्यमानायाः प्रज्ञाया ज्ञानातिशयः १ शास्त्राभ्यासे करणलातृतीया यहाऽभ्यासाभ्यस्ययोरक्यं । ३ बुद्धितारतम्योपलब्धेर्विशान्तिसिद्धिः । । भावयति प्र. । ४ पयाने वि पटाभावप्रतीतियथा । ५विधायितानियमाभावात् । Recemedes अनुक्रम [५३८] ~436~ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४|| दीप अनुक्रम [५३८] सूत्रकृताङ्ग खात्मन्यपि दृष्टो, न च दृष्टेऽनुपपत्र नामेति । यदप्यभिहितं तद्यथा 'न च ज्ञानं ज्ञेयस्य स्वरूपं परिच्छेत्तुमलं, सर्वत्रार्वाग्भागेन १२ समवशीलाका- व्यवधानात् , सर्वारातीयभागस्य च परमाणुरूपतयाऽतीन्द्रियत्वा'दिति, एतदपि वायात्रमेव, यतः सर्वत्रज्ञानस देशकालस्वभाव-18 सरणाध्य चाय- | व्यवहितानामपि ग्रहणानास्ति व्यवधानसंभवः, अर्वान्दर्शिज्ञानस्वाप्यवयवद्वारेणावयविनि प्रवृत्तेर्नास्ति व्यवधानं, न ावयवी 8 चियुत | खावयवैव्यवधीयत इति युक्तिसंगतम्, अपिच-अज्ञानमेव श्रेय इत्यत्राज्ञानमिति किमयं पर्युदास आहोखित्मसज्यप्रतिषेधः, ॥२१३॥ तत्र यदि ज्ञानादन्यदज्ञानमिति ततः पर्युदासवृच्या ज्ञानान्तरमेव समाश्रितं स्यात् नाज्ञानवाद इति, अथ ज्ञानं न भवतीत्यज्ञानं | 18|| तुच्छो नीरूपो ज्ञानाभावः स च सर्वसामर्थ्यरहित इति कथं श्रेयानिति । अपिच-अज्ञानं श्रेय इति प्रसज्यप्रतिषेधेन ज्ञानं श्रेयो न भवतीति क्रियाप्रतिषेध एव कृतः स्याद्, एतचाध्यक्षबाधितं, यतः सम्यगज्ञानादर्थ परिच्छिद्य प्रवर्तमानोऽयक्रियार्थी न विसं-18॥ वाद्यत इति । किंच-अज्ञानप्रमादवद्धिः पादेन शिरास्पर्शनेऽपि स्वल्पदोपतां परिज्ञार्यवाज्ञानं श्रेय इत्यभ्युपगम्यते, एवं च सति प्रत्यक्ष एवं स्वादभ्युपगमविरोधो, नानुमानं प्रमाणमिति । तथा तदेवं सर्वथा ते अज्ञानवादिनः 'अकोविदा' धर्मोपदेशं प्रत्यनिपुणाः खतोऽकोविदेभ्य एव खशिष्येभ्य 'आहुः कथितवन्तः, छान्दसत्वाचैकवचनं सूत्रे कृतमिति । शाक्या अपि प्रायशोऽ|ज्ञानिकाः, अविज्ञोपचितं कर्म बन्धं न यातीत्येवं यतस्तेऽभ्युपगमयन्ति, तथा ये च बालमत्तसुप्तादयोऽस्पष्टविज्ञाना अबन्धका ॥२१॥ इत्येवमभ्युपगमं कुर्वन्ति, ते सर्वेऽप्पकोविदा द्रष्टच्या इति । तथाऽज्ञानपक्षसमाश्रयणाचाननुविचिन्त्य भाषणान्मृपा ते सदा बद-18 | १ विवक्षितं निध्य ज्ञानमत्र, तथा चान्यस्यापि ज्ञानले न बातिः । २ किरिय अकिरियमित्यादगाथायामेकवचनस्य समाधानमिदमाभाति । ~437~ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [५३८ ] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [४], निर्युक्तिः [१२१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः न्ति । अनुविचिन्त्य भाषणं यतो ज्ञाने सति भवति, तत्पूर्वकत्वाच्च सत्यवादस्य, अतो ज्ञानानभ्युपगमादनुविचिन्त्य भाषणाभावः, तदभावाच्च तेषां मृषावादित्वमिति ॥ २ ॥ साम्प्रतं वैनयिकवाद निराचिकीर्षुः प्रक्रमते सन्यो हितं 'सत्यं' परमार्थो यथावस्थितपदार्थनिरूपणं वा मोक्षो वा तदुपायभूतो वा संयमः सत्यं तद्सत्यम् 'इति' एवं 'विचिन्तयन्तो' मन्यमानाः, एवमसत्यमपि सत्यमिति मन्यमानाः तथाहि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यो मोक्षमार्गः सत्यस्तमसत्यत्वेन चिन्तयन्तो विनयादेव मोक्ष इत्येतदसत्यमपि सत्यत्वेन मन्यमानाः, तथा असाधुमप्यविशिष्टकर्मकारिणं वन्दनादिकया विनयप्रतिपच्या साधुम् 'इति' एवम् 'उदाहरन्तः' प्रतिपादयन्तो न सम्यग्यथावस्थितधर्मस्य परीक्षकाः, युक्तिविकलं विनयादेव धर्म इत्येवमभ्युपगमात् क एते इत्येतदा|ह – ये 'इमें' बुद्ध्या प्रत्यक्षासन्नीकृता 'जना इव' प्राकृतपुरुषा इव जना विनयेन चरन्ति वैनयिका विनयादेव केवलात्ख|र्गमोक्षावाप्तिरित्येवंवादिनः 'अनेके' बहवो द्वात्रिंशद्भेदभिन्नत्वात्तेषां ते च विनयचारिणः केनचिद्धर्मार्थिना पृष्टाः सन्तोऽपिशदादपृष्टा वा 'भाव' परमार्थं यथार्थोपलब्धं खाभिप्रायं वा विनयादेव स्वर्गमोक्षावाप्तिरित्येवं 'व्यनैषुः ' विनीतवन्त:सर्वदा सर्वस्य सर्वसिद्धये विनयं ग्राहितवन्तः, नामशब्दः संभावनायां संभाव्यत एव विनयात्स्वकार्यसिद्धिरिति, तदुक्तम्"तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनय" इति ॥ ३ ॥ किंचान्यत्-संख्यानं संख्या - परिच्छेदः उप-सामीप्येन संख्या उपसंख्या- सम्यग्यथावस्थितार्थपरिज्ञानं नोपसंख्याऽनुपसंख्या तयाऽनुपसंख्यया - अपरिज्ञानेन व्यामूढमतयस्ते वैनयिकाः स्वाग्रह ग्रस्ता इति एतद् यथा विनयादेव केवलात्स्वर्गमोक्षावाप्तिरित्युदाहृतवन्तः, एतच ते महामोहाच्छा१ समुचयार्थत्वात्तच्छब्देनानुविचिन्त्य भाषणपरामर्शः २ ०कारिणः । ३ ०म्भं प्र० । Ja Eucation International For Parts Only ~438~ Ratse wor Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४|| दीप अनुक्रम [५३८] सूत्रकृताङ्गं दिता 'उदाहु!' उदाहृतवन्त:-यथैवं सर्वस्य विनयप्रतिपच्या खोर्थः खर्गमोक्षादिकः अस्माकम् 'अवमासते आविर्भवति १२ समवशीलाङ्का- IS| प्राप्यते इतियावत् , अनुपसंख्योदाइतिश्च तेषामेवमवगन्तव्या, तद्यथा-ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षसद्भावे सति तदपास्य विनयादेवैक-18|सरणाध्य० चाीय- MS सात्तदवास्यभ्युपगमादिति, यदप्युक्तं सर्वकल्याणभाजन' तदपि सम्यग्दर्शनादिसंभवे सति विनयस्य कल्याणभाक्वं भवति नैत्तियुतं || ककस्पेति, तद्रहितो हि विनयोपेतः सर्वस्य प्रहतया न्यत्कारमेवापादयति, ततध विवक्षितार्थावभासनाभावात्तेषामेवंवादि॥२१॥ नामज्ञानावृतत्वमेवावशिष्यते, नाभिप्रेतार्थावाप्तिरित्युक्ता वैनयिकाः॥ साम्प्रतमक्रियावादिदर्शनं निराचिकीर्षुः पवार्धमाह लव-18 | कर्म तसादपशक्षितम्-अपसर्तुं शील येषां ते लवापशतिनो-लोकायतिकाः शाक्यादयच, तेपामात्मैप नास्ति कुतस्तरिक्रया तज-18 नितो वा कर्मबन्ध इति, उपचारमात्रेण स्वस्ति बन्धः, तद्यथा-'बद्धा मुक्ताश्च कथ्यन्ते, मुष्टिग्रन्थिकपोतकाः । न चान्ये द्रव्यतः181 सन्ति, मुष्टिग्रन्थिकपोतकाः ॥ १॥ तथाहि-बौद्धानामयमभ्युपगमो, यथा--'क्षणिकाः सर्वसंस्कारा' इति 'अस्थितानां चि] | | कुतः क्रिये' त्यक्रियावादित्वं, योऽपि स्कन्धपश्चकाभ्युपगमस्तेषां सोऽपि संवृतिमात्रेण न परमार्थेन, यतस्तेपामयमभ्युपगमः, त-|| कायथा-विचायेमाणाः पदार्था न कथश्चिदयात्मानं विज्ञानेन समर्पयितुमल, तथाहि-अवयवी तेक्वान्यस्वाभ्यां विचार्यमाणो || न घटां प्राञ्चति, नाप्यवयवाः परमाणुपर्यवसानतयाऽतिमूक्ष्मत्वाज्ञानगोचरतां प्रतिपद्यन्ते, विज्ञानमपि ज्ञेयाभावेनामूख निरा-18| कारतया न स्वरूपं विभर्ति, तथा चोक्तम्- "यथा यथार्थोचिन्त्यन्ते, विविच्यन्ते तथा तथा । यतत्वयमर्थेभ्यो, रोचते तत्र के ॥२१॥ वयम् ? ॥१॥” इति, प्रच्छन्नलोकायतिका हि बौद्धाः, तत्रानागतैः क्षणैः चशब्दादतीतैश्च वर्तमानक्षणस्यासंगतेने क्रिया, नापि च १ लयावशदिनः । अमेऽपि अत्र गाथायां । २ तत्त्वातचाभ्यां प्र० अवयवेभ्योऽभिवस्येतराभ्यो। ~4394 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४|| दीप तजनितः कर्मपन्ध इति । तदेवमक्रियावादिनो नास्तिकवादिनः सर्वापलापितया लवावशशिनः सन्तोन क्रियामाहुः, तथा अक्रिय || आत्मा येषां सर्वव्यापितया तेऽप्यक्रियावादिनः सांख्याः, तदेवं ते लोकायतिकबौद्धसांख्या अनुपसंख्यया-अपरिज्ञानेनेति-एतत् पूर्वोक्तमुदाहृतवन्तः, तथैतचज्ञानेनबोदाहृतवन्तः, तद्यथा-असाकमेवमभ्युपगमेऽर्थोऽवभासते-युज्यमानको भवतीति, तदेवं श्लोकपूर्वार्द्ध काकाक्षिगोलकन्यायेनाक्रियावादिमतेऽप्यायोज्यमिति ॥ ४ ॥ साम्प्रतमक्रियावादिनामज्ञानविजृम्भितं दर्शयितुमाह सम्मिस्सभावं च गिरा गहीए, से मुम्मुई होइ अणाणुवाई । इमं दुपक्खं इममेगपक्खं, आहंसु छलायतणं च कम्मं ॥५॥ ते एवमक्खंति अबुज्झमाणा, विरूवरूवाणि अकिरियवाई। जे मायइत्ता बहवे मणूसा, भमंति संसारमणोवदग्गं ॥६॥णाइच्चो उपइ ण अस्थमेति, ण चंदिमा वड्वति हायती वा । सलिला ण संदति ण वति वाया, वंझो णियतो कसिणे हु लोए ॥७॥ जहाहि अंधे सह जोतिणावि, रूवाइ णो पस्सति हीणणेत्ते । संतपि ते एवमकिरियवाई, किरियं ण पस्संति निरुद्धपन्ना ॥८॥ खकीयया गिरा-याचा स्वाभ्युपगमेनैव 'गृहीते' तस्मिन्नर्थे नान्तरीयकतया का समागते सति तस्याऽध्यातस्यार्थस्य गिरा प्र१ लोकायकिता बौद्धाः सांख्याः प्र.। अनुक्रम [५३८] ~440 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| दीप अनुक्रम [५४२] सूत्रकृताङ्ग तिषेधं कुर्वाणाः 'सम्मिश्रीभावम्' अस्तित्वनास्तित्वाभ्युपगम ते लोकायतिकादयः कुर्वन्ति, वाशब्दात्प्रतिषेधे प्रतिपाद्येऽस्ति-18|१२ समबशीलाका- त्वमेव प्रतिपादयन्ति, तथाहि-लोकायतिकास्तावत्स्वशिष्येभ्यो जीवाद्यभावप्रतिपादकं शास्त्रं प्रतिपादयन्तो नान्तरीयकतयाss-12 सरणाध्य. चार्यांय त्मानं कतारं करणं च शास्त्रं कर्मतापनांध शिष्यानवश्यमभ्युपगच्छेयुः, सर्वशून्यत्वे त्वस्य त्रितयस्याभावान्मिश्रीभावो व्यत्ययो । चियुतं वा । बौद्धा अपि मिश्रीभावमेवमुपगताः, तयथा-"गन्ता च नास्ति कश्चिद्गतयः पद् चौद्धशासने प्रोक्ताः । गम्यत इति च गतिः।। ॥२१५॥ || स्वाच्छृतिः कथं शोभना बौद्धी ॥१॥" तथा-'कर्म [च] नास्ति फलं चास्ती' त्यसति चात्मनि कारके कथं पड़तयः?, ज्ञान-18| सन्तानस्यापि संतानिव्यतिरेकेण संवृतिमत्वात् क्षणस चास्थितत्वेन क्रियाऽभावान नानागतिसंभवः, सर्वाण्यपि कर्माण्यबन्ध नानि प्ररूपयन्ति खागमे, तथा पञ्च जातकशतानि च बुद्धस्योपदिशन्ति, तथा-'मातापितरौ हत्वा बुद्धशरीरे च रुधिरमुत्पाद्य । ४ अर्हद्वधं च कृत्वा स्तूपं मित्त्वा च पश्चैते ॥ १॥ आवीचिनरकं यान्ति । एवमादिकस्यागमस्य सर्वशून्यत्वे प्रणयनमयुक्तिसंगतं | सात , तथा जातिजरामरणरोगशोकोत्तममध्यमाधमत्वानि च न स्युः, एष एव च नानाविधकर्मविपाको जीवास्तित्वं कर्तृत्वं | 81 | कर्मवच चावेदयति, तथा 'गान्धर्वनगरतुल्या मायाखमोपपातघनसदृशाः । मृगतृष्णानीहाराम्बुचन्द्रिकालातचक्रसमाः ॥१॥181 | इति भाषणाच स्पष्टमेव मिश्रीभावोपगमनं चौद्धानामिति । यदिवा-नानाविधकर्मविपाकाभ्युपगमात्तेषां व्यत्यय एवेति, तथा|8|| चोक्तम्-"यदि शून्यस्तव पक्षो मत्पक्षनिवारकः कथं भवति । अथ मन्यसे न शून्यस्तथापि मत्पक्ष एवासौ ॥१॥" इत्यादि, ॥२१५॥ तदेवं बौद्धाः पूर्वोक्तया नीत्या मिश्रीभावमुपगता नास्तित्वं प्रतिपादयन्तोऽस्तिखमेव प्रतिपादयन्ति ॥ तथा सांख्या अपि सर्व-18 च्यापितया अक्रियमात्मानमभ्युपगम्य प्रकृतिवियोगान्मोक्षसद्भाव प्रतिपादयन्तस्तेऽप्यात्मनो बन्धं मोक्षं च स्ववाचा प्रतिपादय ~4414 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| Saeas9 tesese दीप अनुक्रम [५४२] |न्ति, ततश्च बन्धमोक्षसद्भावे सति खकीयया गिरा सक्रियखे गृहीते सत्यात्मनः सम्मिश्रीभावं ब्रजन्ति, यतो न क्रियामन्तरेण बन्धमोक्षौ घटेते, वाशब्दादक्रियस्वे प्रतिपाये व्यत्यय एव-सक्रियत्वं तेषां खवाचा प्रतिपद्यते । तदेवं लोकायतिकाः सर्वाभावाभ्यु-1 पगमेन क्रियाऽभावं प्रतिपादयन्ति बौद्धाश्च क्षणिकत्वात्सर्वशून्यत्वाचाक्रियामेवाभ्युपगमयन्तः खकीयागमश्रणयनेन चोदिताः सन्तः सम्मिश्रीभाव खवाचैव प्रतिपद्यन्ते, तथा सांख्याधाक्रियमात्मानमभ्युपगच्छन्तो बन्धमोक्षसद्भावं च स्वाभ्युपगमेनैव सम्मिश्रीभावं व्रजन्ति व्यत्ययं च एतत्प्रतिपादितं । यदिवा बौद्धादिः कश्चित्स्याद्वादिना सम्बग्घेतु दृष्टान्ताकुलीक्रियमाणः सन् सम्यगुत्तरं दातुमसमर्थों यत्किश्चनभाषितया 'मुम्मुई होइ'ति गद्गदभाषित्वेनाव्यक्तभाषी भवति, यदिवा प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाचा| यमों द्रष्टव्यः, तद्यथा-मुकादपि मूको मूकमको भवति, एतदेव दर्शयति-खाद्वादिनोक्तं साधनमनुवदितुं शीलमखेत्यनुवादी | तत्प्रतिषेधादननुवादी, सद्धेतुभियोकुलितमना मौनमेव प्रतिपद्यत इति भावः, अननुभाष्य च प्रतिपक्षसाधनं तथापयित्वा च खपक्षं प्रतिपादयन्ति, तथथा-'इदम्' असदभ्युपगतं दर्शनमेक: पक्षोऽस्खेति एकपक्षमप्रतिपक्षतयैकान्तिकमविरुद्धार्थाभिधायि| तया निष्प्रतिवाध पूर्वापराविरुद्धमित्यर्थः, इदं चैवंभूतमपि सदि(त्कमि)त्याह-द्वौ पक्षावखेति द्विपक्ष-सप्रतिपक्षमनैकान्तिक पूर्वापरविरुद्धार्थाभिधायितया विरोधिवचनमित्यर्थः, यथा च विरोधिवचनत्वं तेषां तथा पारदर्शितमेव, यदिवेदमस्मदीयं दर्शनं 8 द्वी पक्षावस्येति द्विपक्ष-कर्मबन्धनिर्जरणं प्रति पक्षद्वयसमाश्रयणात् , तत्समाश्रयणं चेहामुत्र च वेदनां चौरपारदारिकादीनामिव, ते हि करचरणनासिकादिच्छेदादिकामिहैव पुष्पकल्पां स्वकर्मणो विडम्बनामनुभवन्ति अमुत्र च नरकादौ तत्फलभूतां वेदनां | समनुभवन्तीति, एंवमन्यदपि कर्मोभयवेद्यमभ्युपगम्यते, तच्चेदं 'प्राणी प्राणिज्ञान' मित्यादि पूर्ववत् , तथेदमेकः पक्षोऽस्येत्येक 999900 ~442~ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का- चायीय- सूत्रांक चियुतं ॥२१६॥ दीप अनुक्रम [५४२] toesercerpeterreceneseverseseis पक्षं इहैव जन्मनि तस्य वेद्यत्वात् , तच्छेदम्-अविज्ञोपचितं परिझोपचितमीर्यापथं खप्नान्तिकं चेति । तदेवं खाद्वादिनाऽभियुक्ताः १२ समवस्वदर्शनमेवमनन्तरोक्तया नीत्या प्रतिपादयन्ति, तथा स्वादादिसाधनोक्तो छलायतनं-छल नवकम्बलो देवदत्त इत्यादिकं सरणाध्य. 'आहुः उक्तवन्तः, चशब्दादन्यच्च दूषणाभासादिक, तथा कर्म च एकपक्षद्विपक्षादिकं प्रतिपादितवन्त इति, यदिवा पडाय आह उत्तवन्तःशबाट | तनानि --उपादानकारणानि आश्रवद्वाराणि श्रोत्रेन्द्रियादीनि यस्य कर्मणस्तत्पडायतनं कर्मेत्येवमाहुरिति ।। ५ ।। साम्प्रतमेतदूप-1 | णायाह-'ते' चार्वाकयौद्धादयोऽक्रियावादिन एवमाचक्षते, सद्भावमबुध्यमाना मिथ्यामलपटलापूतात्मानः परमात्मानं च युद्-18 ग्राहयन्तो 'विरूपरूपाणि नानाप्रकाराणि शास्त्राणि प्ररूपयन्ति, तद्यथा-'दानेन महाभोगाश्च देहिनां सुरगतिश्च शीलेन । भा| बनया च विमुक्तिस्तपसा सर्वाणि सिध्यन्ति ॥१॥ तथा पृथिव्यापस्तेजो वायुरित्येतान्येव चत्वारि भूतानि विद्यन्ते, नापरः18 कश्चित्सुखदुःखभागारमा विद्यते, यदिवैतान्यप्यविचारितरमणीयानि न परमार्थतः सन्तीति, स्वमेन्द्रजालमरुमरीचिकानिचयद्वि-18 चन्द्रादिप्रतिभासरूपत्वात्सर्वस्येति । तथा 'सर्व क्षणिक निरात्मक' 'मुक्तिस्तु शून्यतादृष्टेस्तदाः शेषभावना' इत्यादीनि नाना| विधानि शाखाणि व्युग्राहयन्त्यक्रियात्मानो क्रियावादिन इति । ते च परमार्थमबुध्यमाना यदर्शनम् 'आदाप' गृहीत्वा बहवोर श्री मनुष्याः संसारम् 'अनवदग्रम्' अपर्यवसानमरहट्टघटीन्यायेन 'भ्रमन्ति' पर्यटन्ति, तथाहि-लोकायतिकानां सर्वशून्यत्वे प्रति ॥२१६॥ पाये न प्रमाणमस्ति, तथा चोक्तम्- "तत्वान्युपप्लुतानीति, युक्त्यभावे न सिध्यति । साऽस्ति चेत्सैव नस्तचं, तत्सिद्धी सर्वेमस्तु | | सत् ॥१॥" न च प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणम् , अतीतानागतभावतया पितृनिवन्धनस्थापि व्यवहारवासिद्धेः, ततः सर्वेसंव्यवहारो १ नास्ति । ~4434 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| दीप अनुक्रम [५४२] छेदः स्यादिति । बौद्धानामप्यत्यन्तक्षणिकखेन वस्तुलाभावः प्रसजति, तथाहि-यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थतः सतन I क्षणः क्रमेणार्थक्रियां करोति, क्षणिकलहाने, नापि यौगपपेन, [तत्कार्याणां एकस्मिन्नेव क्षणे सर्वकार्यापत्तेः, न पैतदृष्टमिष्ट चा, नच ज्ञानाधारमात्मानं गुणिनमन्तरेण गुणभूतस्य संकलनाप्रत्ययस्य सद्भाव इत्येतच्च प्रागुक्तप्राय, यचोक्तं-'दानेन महाभोगा' इत्यादि सदाहेतैरपि कथश्चिदिष्यत एवेति, न चाभ्युपगमा एवं बाधायै प्रकल्प्यन्त इति ॥ ६॥ पुनरपि शून्यमताविर्भावनाया-| ह-सर्वशून्यवादिनो यक्रियावादिनः सर्वाध्यक्षामादित्योद्गमनादिकामेव क्रियां तावनिरुन्धन्तीति दर्शयति-आदित्यो हि सर्व-| जनप्रतीतो जगत्प्रदीपकल्पो दिवसादिकालविभागकारी स एव तावन्न विद्यते, कुतस्तस्योद्गमनमस्तमयनं वा, यच्च जाज्वल्य-| मानं तेजोमण्डलं दृश्यते तद् भ्रान्तमतीनां द्विचन्द्रादिप्रतिभासमृगवृष्णिकाकल्प वर्तते । तथा न चन्द्रमा वर्धते शुक्लपक्षे, नाप्यपर-10 पक्षे प्रतिदिनमपहीयते, तथा 'न सलिलानि' उदकानि 'स्यन्दन्ते' पर्वतनिझरेभ्यो न सवन्ति । तथा वाताः सततगतयो न वान्ति । किं बहुनोक्तेन , कृत्स्नोऽप्ययं लोको 'बन्ध्यः ' अर्थशून्यो 'नियतो निश्चितः अभावरूप इतियावत् , सर्वमिदं यदुपल-18 भ्यते तन्मायाखभेन्द्रजालकल्पमिति ॥ ७॥ एतत्परिहतुकाम आह—यथा बन्धो जात्यन्धः पश्चाद्वा 'हीननेत्रः' अपगतचक्षुः 'रूपाणि' घटपटादीनि 'ज्योतिषापि' प्रदीपादिनापि सह वर्तमानो 'न पश्यति' नोपलभते, एवं तेऽप्यक्रियावादिनः सदपि घटपटादिकं वस्तु तरिक्रयां चास्तिवादिकां परिस्पन्दादिकां वा [क्रियां न पश्यन्ति । किमिति ?, यतो निरुद्धा-आच्छादिता ज्ञानावरणादिना कर्मणा प्रज्ञा-ज्ञानं येषां ते तथा, तथाहि-आगोपालाङ्गनादिप्रतीतः समस्तान्धकारक्षयकारी कमलाकरोद्घा18|| टनपटीयानादित्योद्गमः प्रत्यहं भवन्नुपलक्ष्यते, तरिक्रया च देशादेशान्तरावास्याऽन्यत्र देवदत्तादी प्रतीताऽनुमीयते । चन्द्रमाश्च 9093999009929899398382 SAREauratonintamational ~4444 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| दीप अनुक्रम [५४२] सूत्रकृता || प्रत्यहं क्षीयमाणः समस्तक्षयं यावत्पुनः कलाभिवृक्ष्या प्रवर्धमानः संपूर्णावस्था(स्था)यां यावदध्यक्षेणैवोपलक्ष्यते । तथा सरितथ ||१२ शीलाका- प्रावृषि जलकल्लोलाविलाः स्यन्दमाना दृश्यन्ते । वायवश्च वान्तो वृक्षभङ्गकम्पादिभिरनुमीयन्ते । यच्चोक्तं भवता-सर्वमिदं सरणाध्य. मायाखमेन्द्रजालकल्पमिति, तदसत्, यतः सवोभावे कस्यचिदमायारूपस्य सत्यस्याभावान्मायाया एवाभावः स्यात्, यश्च मायां | त्तियुत प्रतिपादयेत् यस्य च प्रतिपाद्यते सर्वशून्यले तयोरेवाभावात्कुतस्तव्यवस्थितिरिति ?, तथा खप्नोऽपि जाग्रदवस्थायां सत्यां व्यवस्था | प्यते तस्या अभारे तस्याप्यभावः स्यात्ततः स्वममभ्युपगच्छता भवता तबान्तरीयकतया जायदवस्थाऽवश्यमभ्युपगता भवति, ॥२१७|| तदभ्युपगमे च सर्वशून्यबहानिः, न च स्वमोऽप्यभावरूप एव, खमेऽप्यनुभूतादेः सद्भावात् , तथा चोक्तम्-"अणुहूयदिट्टचिंतिया सुयपयइवियारदेवयाऽपया । सुमिणस्स निमित्ताई पुण्णं पावं च णाभावो ॥१॥" इन्द्रजालव्यवस्थाऽप्यपरसत्यले सति भवति,18॥ तभावे तु केन कस्य चेन्द्रजालं व्यवस्थाप्येत !, द्विचन्द्रप्रतिमासोऽपि रात्रौ सस्थामेकसिंश्च चन्द्रमस्युपलंभकसद्भावे च घटते न | सर्वशून्यले, न चाभावः कस्खचिदप्यत्यन्ततुच्छरूपोऽस्ति, शशविषाणकूर्मरोमगगनारविन्दादीनामत्यन्ताभावप्रसिद्धानां समासप्रतिपाघस्वैवार्थस्वाभावो न प्रत्येकपदवाच्यार्थखेति, तथाहि-शशोऽप्यस्ति विषाणमप्यस्ति किं खत्र शशमस्तकसमवायि विषाणं नास्तीत्येतत्प्रतिपाद्यते, तदेवं संबन्धमात्रमत्र निषिध्यते नात्यन्तिको वस्वभाव इति, एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यमिति । तदेवं विधमा-18 नायामप्यस्तीत्यादिकायां क्रियायां निरुद्धप्रज्ञास्तीर्थिका अक्रियावादमाश्रिता इति ॥८॥ अनिरुद्धप्रज्ञास्तु यथावस्थितार्थवे-18॥२१७॥ | दिनो भवन्ति, तथाहि-अवधिमनःपर्यायकेवलज्ञानिनत्रैलोक्योदरविवरवर्तिनः पदार्थान् करतलामलकन्यायेन पश्यन्ति, समस्त-18 १अनुभूतचिन्तितश्रुतप्रकृतिविकारदेवतानूपाः । स्वप्नस्य निमित्तानि पुग्यं पापं च नाभावः ॥१॥२ वेदपालं प्र.। ~445~ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: न प्रत सूत्रांक ||८|| दीप अनुक्रम [५४२] 99999930 श्रुतज्ञानिनोऽपि आगमबलेनातीतानागतानर्थान् विदन्ति, येऽप्यन्येऽष्टाङ्गनिमित्तपारगास्तेऽपि निमित्तबलेन जीवादिपदार्थ-18 परिच्छेदं विदधति, तदाह संवच्छरं सुविणं लक्खणं च, निमित्तदेहं च उप्पाइयं च । अढंगमेयं बहवे अहित्ता, लोगंसि जाणंति अणागताई ॥९॥ केई निमित्ता तहिया भवंति, केसिंचि तं विपडिएति णाणं । ते विजभावं अणहिजमाणा, आहंसु विजापरिमोक्खमेव ॥ १०॥ ते एवमक्खंति समिञ्च लोग, तहा तहा (गया)समणा माहणा यासयं कडं णन्नकडं च दुक्खं, आइंसु विज्जाचरणं पमोक्खं ॥ ११॥ ते चक्खु लोगंसिह णायगा उ, मग्गाणुसासंति हितं पयाणं। तहा तहा सासयमाहु लोए, जंसी पया माणव! संपगाढा ॥ १२॥ 'सांवत्सर' मिति ज्योतिष स्वमप्रतिपादको ग्रन्थः खमस्तमधीत्य 'लक्षणं' श्रीवत्सादिकं, चशब्दादान्तरवायभेदमित्र, I'निमित्तं' वाकप्रशस्तशकुनादिकं देहे भवं देह-मयकतिलकादि, उत्पाते भवमौत्पातिकम्-उल्कापातदिग्दाहनिधोतभूमिकम्पादिकं, तथा अष्टागच निमित्तमधीत्य, तद्यथा-भौममुत्यात खप्नमान्तरिक्षमाझं खरं लक्षणं व्यञ्जनमित्येवंरूपं नवमपूर्वेततीयाचारवस्तुविनिर्गतं सुखदुःखजीवितमरणलाभालाभादिसंसूचकं निमित्तमधीत्य लोकेऽसिन्नतीतानि वस्तुनि अनागतानि च eceracoercececerseaseseseaercedese ~446~ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृता १२ समकसरणाध्य० प्रत सूत्रांक ||१२|| शीलाङ्काचाययवचियुतं ॥२१८॥ दीप 'जानन्ति' परिच्छिन्दन्ति, न च शून्यादिवादेष्वेतद् घटते, तसादप्रमाणकमेव तैरभिधीयत इति ॥९॥ एवं व्याख्याते सति आह परः-ननु व्यभिचार्यपि श्रुतमुपलभ्यते, तथाहि चतुर्दशपूर्व विदामपि षट्स्थानपतिसमागम उद्घष्यते किं पुनरष्टाङ्गनिमित्तशास्त्रविदाम् , अत्र चाङ्गवर्जितानां निमित्तशास्त्राणामानुष्टुभेन छन्दसार्धत्रयोदश शतानि सूत्र तावन्त्येव सहस्राणि वृत्तिस्तावप्रमाणलक्षा परिभाषेति, अङ्गास त्वर्धत्रयोदशसहस्राणि सूत्रं, तत्परिमाणलक्षावृत्तिरपरिमितं वार्तिकमिति, तदेवमष्टाजनिमित्तवेदि-1 नामपि परस्परतः पदस्थानपतितत्वेन व्यभिचारित्वमत इदमाह-'केई'त्यादि, छान्दसत्वात्प्राकृतशेल्या वा लिङ्गच्यत्ययः, कानिचिनिमित्तानि 'तथ्यानि' सत्यानि भवन्ति, केषाश्चित्तु निमित्तानां निमित्तवेदिनां वा बुद्धिवैकल्यात्तथाविधक्षयोपशमाभावेन तत् | निमित्वज्ञान विपर्यासं' व्यत्ययमेति, आर्हतानामपि निमित्तव्यभिचारः समुपलभ्यते, किं पुनस्तीथिकानां , तदेवं निमित्तशास्त्रस्य | व्यभिचारमुपलभ्य 'ते' अक्रियावादिनो 'विद्यासद्भाव' विद्यामनधीयानाः सन्तो निमित्तं तथा चान्यथा च भवतीति मत्वा ते |'आहंसु विजापलिमोक्खमेव' विद्यायाः श्रुतस्य व्यभिचारेण तस्य परिमोक्ष-परित्यागमाहुः उक्तवन्तः, यदिवा-क्रियाया | |अभावाद्विद्यया-ज्ञानेनैव मोक्षं-सर्वकर्मच्युतिलक्षणमाहुरिति । कचिच्चरमपादस्यैवं पाठः, 'जाणामु लोगंसि वयंति मंद'त्ति, विद्यामनधीत्यैव स्वयमेव लोकमसिन् वा लोके भावान् स्वयं जानीमः, एवं 'मंदा' जडा बदन्ति, न च निमित्तस्य तथ्यता, तथाहि-कस्यचित्कचित्क्षुतेऽपि गच्छतः कार्यसिद्धिदर्शनात् , सकुनसद्भावेऽपि कार्यविघातदर्शनाद्, अतो निमित्तबलेनादेशविधायिनां मृपावाद एवं केवलमिति, नैतदस्ति, न हि सम्यगधीतस्य श्रुतस्वार्थे विसंवादोऽस्ति, यदपि षट्स्थानपतितसमुद्घोष्यते १ बोधवैकस्यात् यद्वा निमित्तशम्देन निमितशास्त्राणि तेन तद्विषयकवुद्धिर्वकल्यात् । अनुक्रम [५४६] २१८॥ ~447 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक IN दीप अनुक्रम [५४६] | तदपि पुरुषाश्रितक्षयोपशमवशेन, न च प्रमाणाभासव्यभिचारे सम्यक्प्रमाणव्यभिचाराशङ्का कर्तु युज्यते, तथाहि-मरुमरीचि-19 कानिचये जलग्राहि प्रत्यक्षं व्यभिचरतीतिकृता किं सत्यजलग्राहिणोऽपि प्रत्यक्षस व्यभिचारो युक्तिसंगतो भवति, न हि म-18 शकवर्तिरनिसिद्धावुपदिश्यमाना व्यभिचारिणीति सत्यधूमखापि व्यभिचारो, न हि सुविवेचितं कार्य कारणं व्यभिचरतीति, तत-18 श्व प्रमातुरयमपराधो न प्रमाणस्य, एवं सुविवेचितं निमित्तश्रुतमपि न व्यभिचरतीति, यश्च क्षुतेऽपि कार्यसिद्धिदर्शनेन व्यभिचार 18|| शक्यते सोऽनुपपन्नः, तथाहि-कार्याकृतात् क्षुतेऽपि गच्छतो या कार्यसिद्धिःसाऽपान्तराले इतरशोभननिमित्तबलात्संजातेत्येवमव-18 18|गन्तव्यं, शोभननिमित्तास्थितस्यापीतरनिमित्तबलात्कार्यव्याघात इति, तथा च श्रुतिः-किल बुद्धः स्खशिष्यानाहूयोक्तवान् , यथा-1 18'द्वादशवार्षिकमत्र दुर्भिक्षं भविष्यतीत्यतो देशान्तराणि गच्छत यूयं' ते तद्वचनाद्गच्छन्तस्तेनैव प्रतिषिद्धाः, यथा 'मा गच्छत यूय-2 म्, इहाचैव पुण्यवान् महासच्चः संजातस्तत्प्रभावात्सुमिदं भविष्यति' तदेवमन्तराऽपरनिमित्तसावातव्यभिचारशद्वेति स्थितम् । ॥१०॥ साम्प्रतं क्रियावादिमतं दुषयिषुस्तन्मतमाविष्कुर्वन्नाहू-ये क्रियात एव ज्ञाननिरपेक्षायाः दीक्षादिलक्षणाया मोक्षमिच्छ-18 मन्ति ते एवमाख्यान्ति, तद्यथा-'अस्ति माता पिता अस्ति सुचीर्णस्य कर्मणः फल मिति, किं कृला त एवं कथयन्ति ?-क्रियात एव 18 सर्व सिध्यतीति खाभिप्रायेण 'लोक' स्थावरजङ्गमात्मकं समेत्य ज्ञाखा, किल वयं यथावस्थितवस्तुनो ज्ञातार इत्येवमभ्युपगम्य सर्व 10 मस्त्येवेत्येवं सावधारणं प्रतिपादयन्ति, न कथश्चिन्नास्तीति, कथमाख्यान्ति ?-'तथा तथा' तेन (तेन) प्रकारेण, यथा यथा क्रिया तथा तथा स्वर्गनरकादिकं फलमिति, ते च श्रमणास्तीथिका ब्राह्मणा वा क्रियात एव सिद्धिमिच्छन्ति, किञ्च-यत् किमपि संसारे 18 दुःखं तथा सुखं च तत्सर्व खयमेवात्मना कृतं, नान्येन कालेश्वरादिना, न चैतदक्रियावादे घटते, तत्र प्रक्रियखादात्मनोऽकृतयो ~448~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: esea प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप सूत्रकृताङ्गं 18व मुखदुःखयोः संभवः स्वात् , एवं च कृतनाशाकृताभ्यागमौ स्याताम् , अत्रोच्यते, सत्यमस्त्यात्मसुखदुःखादिकं, न खस्त्येव, १२ समवशीलाङ्का-8 तथाहि-यधस्त्येव इत्येवं सावधारणमुच्यते ततव न कथञ्चिन्नास्तील्यापत्रम् , एवं च सति सर्व सर्वात्मकमाषयेत, तथा च सर्व-18 सरणाच्या चापीय- लोकस्य व्यवहारोच्छेदः स्यात्, न च ज्ञानरहितायाः क्रियायाः सिद्धिः, तदुपायपरिज्ञानाभावात् , न चोपायमन्तरेणोपेयमवाप्यत चियुत इति प्रतीतं, सर्वा हि क्रिया ज्ञानवत्येव फलवत्युपलक्ष्यते, उक्तश्व-"पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठति सबसंजए । अन्नाणी ॥२१९॥ किं काही, किंवा नाही हेयपावयं ॥१॥" इत्यतो ज्ञानस्थापि प्राधान्यं, नापि ज्ञानादेव सिद्धिः, क्रियारहितस्य ज्ञानख पनो|रिव कार्यसिद्धेरनुपपत्तेरित्यालोच्याह--'आहंसु विजाचरणं पमोक्वं'ति, न ज्ञाननिरपेक्षायाः क्रियायाः सिद्धि, अन्ध-12॥ | स्पेव, नापि क्रियाविकलस्य ज्ञानस्य पङ्गोरिव, इत्येवमवगम्य 'आहुः उक्तवन्तः, तीर्थकरगणधरादयः, कमाहुः१, मोक्ष, कथं,11 विद्या च-ज्ञानं चरणं च-क्रिया ते द्वे अपि वियेते कारणखेन यस्येति विगृह्यार्शआदिखान्मवर्थीयोऽच, असी विद्याचरणी-1 मोक्षः-शानक्रियासाध्य इत्यर्थः, तमेवंसाध्यं-मोक्षं प्रतिपादयन्ति । यदिवाऽन्यथा पातनिका, केनैतानि समवसरणानि प्रतिपा-18 | दितानि । यत्रोक्तं यच वक्ष्यते इत्येतदाशवाह-'ते एवमक्खंती' त्यादि, अनिरुद्धा-कचिदप्यस्खलिता प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा-॥ झानं येषां तीर्थंकृतां तेऽनिरुद्धप्रज्ञात 'एवम् अनन्तरोक्तया प्रक्रियया सम्यगाख्यान्ति-प्रतिपादयन्ति 'लोकं' चतुर्देशर-16 || ज्वात्मकं स्थावरजङ्गमाख्यं वा 'समेत्य केवलज्ञानेन करतलामलकन्यायेन ज्ञाखा तथागताः-तीर्थकरवं केवलज्ञानं च गताः ॥ ॥२१९।। १ प्रथमं झार्न वनों दया एवं तिष्ठति सर्वसयतः । अज्ञानी किं करिष्यति किंवा शास्थति छेकपाप ॥१॥ ज्ञानस्य ज्ञानिना चैन, निन्दाप्रद्वेषमासरैः । उपघातैश्च [विश्व, ज्ञाननं कर्म बध्यते ॥२॥ केषुचिदादशेषु दृश्यते श्लोकोऽयमशुभक्रियाया ज्ञानपूर्विकायाः फलपत्ताशापनाय न तदा विरोधः, ३ 'प्रणीतानि' इत्यपि । अनुक्रम [५४६] ~4494 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [५४६] श्रमणा' साघवो 'ब्राह्मणा' संपतासंयताः, लौकिकी वा वाचोयुक्तिः, किम्भूतास्त एवमाख्यान्तीति सम्पन्धः, तथा तथेति वा कचित्पाठा, यथा यथा समाधिमागों व्यवस्थितस्तथा तथा कथयन्ति, एतच्च कथयन्ति-यथा यस्किश्चित्संसारान्तर्गतानामसुमता दुःखम् असातोदयखभावं, तत्प्रतिपक्षभूतं च सातोदयापादितं सुखं, तत्स्वयम्-आत्मना कृतं, नाम्येन कालेश्वरादिना कृतमिति, तथा चोक्तम्-'संघो पुवकयाणं कम्माणं पावए फलविवार्ग अवराहेसु गुणेसु य णिमित्तमित्तं परो होइ ॥१॥" एतच्चाहुस्तीर्थकरगणधरादयः, तद्यथा-विद्या-जान चरण-चारित्रं क्रिया तत्प्रधानो मोक्षस्तमुक्तवन्तो, न ज्ञानक्रियाभ्यां परस्परनिरपेक्षाभ्यामिति, तथा चोक्तम्--"क्रियां च सज्ज्ञानवियोगनिष्फला, क्रियाविहीनां च विबोधसम्पदम् । निरस्यता लेशसमूहशान्तये, खया शिवायालिखितेव पद्धतिः ॥१॥" ॥११ ।। किश्च-'ते' तीर्थकरगणधरादयोऽतिशयज्ञानिनोऽस्मिन् लोके चक्षुरिव चक्षुर्वर्तन्ते, यथा हि चक्षुर्योग्यदेशावस्थितान् पदार्थान् परिच्छिनति एवं तेऽपि लोकस्य यथावस्थितपदार्थाविष्करणं कारयन्ति, तथाऽस्मिन् लोके ते नायका:-प्रधानाः, तुशब्दो विशेषणे, सदुपदेशदानतो नायका इति, एतदेवाह-'मार्ग' ज्ञानादिकं मोक्षमार्ग 'अनुशासति' कथयन्ति प्रजना-प्रजायन्त इति प्रजा:-प्राणिनस्तेषा, किम्भूतं ?, हितं, सद्गतिप्रापकमनर्थनिवारकं च, किश्व चतुर्दशरज्वात्मके लोके पश्चास्तिकायात्मके वा येन येन प्रकारेण द्रव्यास्तिकनयाभिप्रायेण यदस्तु शाश्वतं तसथा 'त आहुः उक्तवन्तः, यदिवा लोकोऽयं प्राणिगणः संसारान्तर्वी यथा यथा शाश्वतो भवति तथा तथैवाहु, तद्यथा-यथा यथा मिथ्यादर्शनाभिवृद्धिस्तथा तथा शाश्वतो लोकः, तथाहि-तत्र तीर्थकराहारकवाः सर्व एव कर्मवन्धाः सम्भाव्यन्त इति, १ नेदं प्रत्यन्तरे । २ सधैः पूर्वकतानां कर्मणां प्राप्नोति फलविपाकं । अपराधेष गुणेषु च निमित्तमात्र परो भवति ॥ १॥ ~450 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: (सरणाध्य प्रत सूत्रांक ||१२|| सूत्रकृताङ्ग तथा च महारम्भादिभिश्चतुर्भिः स्थानजीवा नरकायुष्कं यावनिवर्तयन्ति तावत्संसारानुच्छेद इति, अथवा यथा यथा रागद्वेषा-2 श्रीलाङ्का- दिवृद्धिस्तथा तथा संसारोऽपि शाश्वत इत्याहुः, यथा यथा च कर्मोपचयमात्रा तथा तथैव संसाराभिवृद्धिरिति । दुष्टमनोवाकायाचायीय भिवृद्धौ वा संसाराभिवृद्धिखगन्तव्या, तदेवं संसारस्थाभिवृद्धिर्भवति । 'यस्मिंश्च संसारे, प्रजायन्त इति 'प्रजाः' जन्तवः, हे IS मानव !, मनुष्याणामेव प्रायश उपदेशाईखान्मानवग्रहण, सम्यग्नारकतिर्यङ्नरामरभेदेन 'प्रगाढा!' प्रकर्षण व्यवस्थिता इति ॥२२०॥ MS॥१२॥ लेशतो जन्तुभेदप्रदर्शनद्वारण तत्पर्यटनमाह जे रक्खसा वा जमलोइया वा, जे वा सुरा गंधवा य काया । आगासगामी य पुढोसिया जे, पुणो पुणो विप्परियासुवेति ॥ १३ ॥ जमाइ ओहं सलिलं अपारगं, जाणाहि णं भवगहणं दुमोक्खं । जंसी विसन्ना विसयंगणाहिं, दुहओऽवि लोयं अणुसंचरंति ॥ १४ ॥ न कम्मुणा कम्म खति बाला, अकम्मुणा कम्म खति धीरा । मेधाविणो लोभमयावतीता, संतोसिणो नो पकरेंति पावं ॥१५॥ ते तीयउप्पन्नमणागयाई, लोगस्स जाणंति तहागयाइं। णेतारो अन्नेसि अणन्नणेया, बुद्धा हु ते अंतकडा भवंति ॥ १६ ॥ eceseseseseseseseaees cिeaesestaeseseseseseaeser दीप अनुक्रम [५४६] ॥२२०॥ ~451 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [५५०] __ 'ये' केचन व्यन्तरभेदा राक्षसात्मानः, तद्ग्रहणाच सर्वेऽपि व्यन्तरा गृह्यन्ते तथा यमलौकिकात्मानः, अ(म्बाम्बोम्बादयस्त| दुपलक्षणात्सर्वे भवनपतयः तथा ये च 'सुरा:' सौधर्मादिवैमानिकाः, चशब्दाज्ज्योतिष्काः सूर्यादयः, तथा ये 'गान्धा ' विद्याधरा, | ग्यन्तरविशेषा वा, तद्ग्रहणं च प्राधान्यख्यापनाथे, तथा 'कायाः पृथिवीकायादयः पडपि गृह्यन्त इति । पुनरन्येन प्रकारेण || | सत्त्वान्संजिघृक्षुराह—ये केचन 'आकाशगामिनः संप्राप्ताकाशगमनलब्धयश्चतुर्विधदेवनिकायविद्याधरपक्षिवायवः, तथा ये, च 'पृथिव्याश्रिताः पृथिव्यतेजोवनस्पतिद्वित्रिचतुष्पश्चेन्द्रियास्ते सर्वेऽपि स्वकृतकर्मभिः पुनः पुनर्विविधम्-अनेकप्रकारं पर्यासं-18 | परिक्षेपमरहट्टघटीन्यायेन परिभ्रमणमुप–सामीप्येन यान्ति-गच्छन्तीति ॥ १३ ॥ किश्चान्यत्-'यं' संसारसागरम् आहुः-उ-18 & | क्तवन्तस्तीर्थकरगणधरादयस्तद्विदः, कथमाहुः १-स्वयम्भुरमणसलिलौघवदपारं, यथा स्वयम्भुरमणसलिलौषो न केनचिजलचरेण | स्थलचरेण वा लायितुं शक्यते एवमयमपि संसारसागरः सम्यग्दर्शनमन्तरेण लयितुं न शक्यत इति दर्शयति-'जानीहि' 18 || अवगच्छ णमिति वाक्यालङ्कारे, भवगहनमिदं-चतुरशीतियोनिलक्षप्रमाणं यथासम्भवं सङ्ख्येयासयेयानन्तस्थितिकं दुःखेन मु च्यत इति दुमोक्ष-दुरुत्तरमस्तिवादिनामपि, किं पुनर्नास्तिकानाम् !, पुनरपि भवगहनोपलक्षितं संसारमेव विशिनष्टि-'यत्र' ॥४॥ | यस्मिन् संसारे सावधकर्मानुष्ठायिनः कुमार्गपतिता असत्समवसरणग्राहिणो 'विषण्णा' अवसक्ता विषयप्रधाना अङ्गना विषयाङ्ग | नास्ताभिः, यदिवा विषयाश्चाङ्गनाश्च विषयाङ्गनास्ताभिर्वशीकृताः सर्वत्र सदनुष्ठानेऽवसीदन्ति, त एवं विषयाङ्गनादिके प३ || 18 विषण्णा 'द्विधाऽपि आकाशाश्रितं पृथिव्याश्रितं च लोकं, यदिवा स्थावरजङ्गमलोकं 'अनुसंचरन्ति' गच्छन्ति, यदिवा-'द्विधा ~452~ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [५५०] सूत्रकृताङ्गं पि' इति लिङ्गमात्रप्रव्रज्ययाऽविरत्या (च) रागद्वेषाभ्यां वा लोक-चतुर्दशरज्ज्वात्मकं स्वकृतकर्मप्रेरिता 'अनुसञ्चरन्ति' बम्भ्र-1 १२ समवशीलाका- म्यन्त इति ॥ १४ ॥ किश्ान्यत् ते एवममत्समवसरणाश्रिता मिथ्यावादिभिर्दोषैरभिभूताः सावधेतरविशेषानभिज्ञाः सन्तः सरणाध्य. कर्मक्षपणार्थमभ्युद्यता निविवेकतया सावद्यमेव कर्म कुर्वते, न च 'कर्मणा' सावद्यारम्भेण 'कर्म' पार्य 'क्षपयन्ति व्यपनयन्ति, त्तियुत अज्ञानवादाला इव पालास्त इति, यथा च कर्म क्षिप्यते तथा दर्शयति-'अकर्मणा तु' आश्रयनिरोधेन तु अन्तशः शैलेश्यवस्थायां || ॥२२॥ कमें क्षपयन्ति 'पीराः' महासचाः सद्वैचा इव चिकित्सयाऽऽमयानिति । मेधा प्रज्ञा सा विद्यते येषां ते मेधाविनः-हिताहित-121 प्राप्तिपरिहाराभिज्ञा लोभमयं-परिग्रहमेवातीताः परिग्रहातिक्रमाल्लोभातीताः-वीतरागा इत्यर्थः, 'सन्तोषिणः' येन केनचित्ससन्तुष्टा अवीतरागा अपीति, यदिवा यत एवातीतलोभा अत एव सन्तोषिण इति, त एवंभूता भगवन्तः 'पापम्' असदनुष्ठानापादित कर्म 'न कुर्वन्ति' नाददति, कचित्पाठः, 'लोभभयादतीता' लोभश्च भयं च समाहारद्वन्दा, लोभावा भयं तस्मादतीताः सन्तोपिण इति, न पुनरुक्ताशङ्का विधेयेति, अतो (विधेयान यतो)लोभातीतखेन प्रतिषेधांशो दर्शितः, सन्तोषिण इत्यनेन च विध्यंश इति, यदिवा लोभातीतग्रहणेन समस्तलोभाभावः संतोषिण इत्यनेन तु सत्यप्यवीतरागले नोत्कटलोभा इति लोभाभावं दर्श॥ यत्रपरकषायेभ्यो लोभस्य प्राधान्यमाह, ये च लोभातीतास्तेऽवश्यं पापं न कुर्वन्ति इति खितम ॥१५॥ ये च लोभातीतास्ते ॥२२॥ किम्भूता भवन्ति इत्याह-'ते' वीतरागा अल्पकषाया वा 'लोकस्य पञ्चास्तिकायात्मकस्य प्राणिलोकस्य वाऽतीतानि-अन्यजन्माचरितानि उत्पन्नानि वर्तमानावस्थायीनि अनागतानि च भवान्तरभावीनि सुखदुःखादीनि 'तथागतानि यथैव स्थिता-10 E ~453~ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [५५०] 929000992920290020200029202 शनि तथैव अवितर्थ जानन्ति, न विभङ्गलानिन इव विपरीतं पश्यन्ति, तथाधागम:-"अणगारे णं भंते ! माई मिच्छादिट्टी राय गिहे णयरे समोहए वाणारसीए नयरीए रूवाई जाणइ पासइ ?, जाव से से दंसणे विवज्जासे भवती" त्यादि, ते चातीतानागतवर्तमानज्ञानिनः प्रत्यक्षज्ञानिनश्चतुर्दशपूर्वविदो वा परोक्षज्ञानिनः 'अन्येषां संसारोचितीभ्रूणां भव्यानां मोक्षं प्रति नेतारः सदुपदेशं वा प्रत्युपदेष्टारो भवन्ति, न च ते स्वयम्बुद्धखादन्येन नीयन्ते-तत्वावयोधं कार्य(धवन्तः क्रिय)न्त इत्यनन्यनेयाः, हिताहितप्राप्तिपरिहारं प्रति नान्यस्तेषां नेता विद्यत इति भावः । ते च 'वुद्धा स्वयंबुद्धास्तीर्थकरगणधराद यः, हुशब्दवशब्दार्थे | विशेषणे वा, तथा च प्रदर्शित एव, ते च भवान्तकराः संसारोपादानभूतख वा कर्मणोऽन्तकरा भवन्तीति ॥१६॥ यावदद्यापि भवान्तं न कुर्वन्ति तावत्प्रतिषेध्यमंशं दर्शयितुमाह-- तेणेव कुवंति ण कारवंति, भूताहिसंकाइ दुगुंछमाणा । सया जता विप्पणमंति धीरा, विपणत्ति (पणाय) धीरा य हवंति एगे ॥ १७ ॥ डहरे य पाणे बुड्ढे य पाणे, ते आत्तओ पासइ सवलोए । उबेहती लोगमिणं महंतं, बुद्धेऽपमत्तेसु परिवएज्जा ॥१८॥ जे आयओ पर १ अनगारो भदन्त | मायी मिभ्यारष्टिः राजगृहे नगरे समबद्वतः वाराणस्यां नगर्या कपाणि जानाति पश्यति !, यावत्स तस्य दर्शनविपर्यासो भवति । INI तदा सर्व पदार्थानां ज्ञातारले इति खयमित्यादि । । तत्त्वावबोधकार्य त इत्य.प्र.1४ प्र.। eaeeeeeeeeeeesesese ~4544 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१९|| दीप अनुक्रम [५५३] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१९], निर्युक्तिः [१२१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र -[ ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चार्यय चियुतं ॥२२२॥ Education Inte ओ वावि च्चा, अलमप्पणो होंति अलं परेसिं । तं जोइभूतं च सयावसेजा, जे पाउकुज्जा अणुवीति धम्मं ॥ १९ ॥ अत्ताण जो जाणति जो य लोगं, गई व जो जाणइ णागई च । जो सासयं जाण असासयं च, जातिं (च) मरणं च जणोववायं ॥ २० ॥ 'ते' प्रत्यक्षज्ञानिनः परोक्षज्ञानिनो वा विदितवेद्याः सावद्यमनुष्ठानं भूतोपमर्दाभिशङ्कया पापं कर्म जुगुप्समानाः सन्तो न स्वतः कुर्वन्ति, नाप्यन्येन कारयन्ति, कुर्वन्तमप्यपरं नानुमन्यन्ते । तथा स्वतो न मृषावादं जल्पन्ति नान्येन जल्पयन्ति नाप्यपरं जल्पन्तमनुजानन्ति, एवमन्यान्यपि महाव्रतान्यायोज्यानीति । तदेवं 'सदा' सर्वकालं 'यताः संयताः पापानुष्ठानान्निवृता विविधं संयमानुष्ठानं प्रति 'प्रणमन्ति' प्रहीभवन्ति । के ते ? 'धीराः' महापुरुषा इति । तथैके केचन हेयोपादेयं विज्ञाया| पिशब्दात्सम्यक्परिज्ञाय तदेव निःशङ्कं यजिनैः प्रवेदितमित्येवं कृतनिश्चयाः कर्मणि विदारयितव्ये वीरा भवन्ति, यदिवा परीषहोपसर्गानीक विजयाद्वीरा इति पाठान्तरं वा 'विष्णत्तिवीरा य भवंति एगे' 'एके' केचन गुरुकर्माणोऽल्पसत्त्वाः विज्ञप्तिःज्ञानं, तन्मात्रेणैव वीरा नानुष्ठानेन, न च ज्ञानादेवाभिलषितार्थावाप्तिरुपजायते, तथाहि-- "अधीत्य शास्त्राणि भवन्ति मूर्खा, | यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । संचिन्त्यतामौषधमातुरं हि न ज्ञानमात्रेण करोत्यरोगम् ||१|| " ॥ १७ ॥ कानि पुनस्तानि १ जुगुप्सन्तः प्र० जुगुप्सां कुर्वन्त इति नामधातोः चैव शतरि । २ चकारोऽपिशब्दार्थे यद्वा धीरावि इति भविष्यति । ३०य वा त० प्र० । For Pass Use Only ~ 455~ १२ समयसरणाध्य० ॥२२२॥ war Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [५५४] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२०], निर्युक्तिः [१२१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः भूतानि ? यच्छङ्कयाऽऽरम्भं जुगुप्सन्ति सन्त इत्येतदाशङ्कयाह-ये केचन 'डहरे 'त्ति लघवः कुन्थ्वादयः सूक्ष्मा वा, ते सर्वेऽपि प्राणाः प्राणिनः ये च वृद्धाः प्रादरशरीरिणस्तान्सर्वानप्यात्मतुल्यान्- आत्मवत्पश्यति सर्वस्मिन्नपि लोके यावत्प्रमाणं मम तावदेव कुन्धोरपि, यथा वा मम दुःखमनभिमतमेवं सर्वलोकस्यपि, सर्वेषामपि प्राणिनां दुःखमुत्पद्यते, दुःखाद्वोद्विजन्ति, तथा चागमः- “बैढविकाए णं भंते! अकंते समाणे केरिसयं बेयणं वेएइ !" इत्याद्याः सूत्रालापकाः, इति मला तेऽपि नाक्रमितव्यान संघट्टनीयाः, इत्येवं यः पश्यति स पश्यति । तथा लोकमिमं महान्तमुत्प्रेक्षते, पड्जीव सूक्ष्मवादर भेदैराकुलवान्महान्तं, यदिवाऽनाद्यनिधनत्वान्महान् लोकः, तथाहि भव्या अपि केचन सर्वेणापि कालेन न सेत्स्यन्तीति यद्यपि द्रव्यतः पद्द्रव्यात्मकत्वात् क्षेत्रतश्चतुर्दशरज्जुप्रमाणतया सावधिको लोकस्तथापि कालतो भावतश्चानाद्यनिधन त्वात्पर्यायाणां चानन्तखान्महान् लोकस्तमुत्प्रेक्षत इति । एवं च लोकमुत्प्रेक्षमाणो बुद्धः - अवगततत्त्वः सर्वाणि प्राणिखानान्यशाश्वतानि, तथा नात्रापसदे संसारे सुखलेशोऽप्यस्तीत्येवं मन्यमानः 'अप्रमत्तेषु' संगमानुष्ठायिषु यतिषु मध्ये तथाभूत एव परिः समन्ताद्वजेत् परिव्रजेत् यदिवा बुद्धः सन् 'प्रमत्तेषु' गृहस्थेषु अप्रमत्तः सन् संयमानुष्ठाने परित्रजेदिति ।। १८ ।। किच- 'यः' स्वयं सर्वज्ञ आत्मनखैलोक्योदरविवरवर्तिपदार्थदर्शी यथावस्थितं लोकं ज्ञाला तथा यश्च गणधरादिकः 'परतः' तीर्थकरादेर्जीवादीन् पदार्थान् विदिता प| रेभ्य उपदिशति स एवंभूतो हेयोपादेयवेदी 'आत्मनखातुमलं' आत्मानं संसारावटात्पालयितुं समर्थो भवति, तथा परेषां च १ संबन्धे ष्टी अपना देशादिव्यवच्छेदः २ उपचरितसर्वयव्यवच्छेदाय, भिनं वा वाक्यमेतत् ३ पृथ्वीकाविको भदन्त आकान्तः सन् कीदृशी वेदनां वेदयति । ४. रोणि स्थाना० प्र० । Education internation For Par Lise Only ~456~ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [५५४] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२०], निर्युक्तिः [१२१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र -[ ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृता शीलाङ्काचायय तियुतं ॥२२३॥ सदुपदेशदानतस्त्राता जायते, 'तं' सर्वज्ञं स्वत एव सर्ववेदिनं तीर्थकरादिकं परतोवेदिनं च गणधरादिकं 'ज्योतिर्भूतं' पदार्थप्रकाशकतया चन्द्रादित्यप्रदीपकल्पमात्महितमिच्छन् संसारदुःखोद्विनः कृतार्थमात्मानं भावयन् 'सततम्' अनवरतम् 'आवसेत्' सेवेत, गुर्वन्तिक एव यावज्जीवं वसेत्, तथा चोक्तम्- "नाणस्से होइ भागी थिरयरओ दंसणे चरिचे य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं ण मुंचति ॥ १ ॥" क एवं कुर्युः ? इति दर्शयति---ये कर्मपरिणतिमनुविचिन्त्य "माणुस्सखे सजाइ" इत्यादिना दुर्लभां च सद्धर्मावाप्तिं सद्धर्मं वा श्रुतचारिवाख्यं क्षान्त्यादिदशविधसाधुधर्म श्रावकधर्म वा 'अनुविचिन्त्य' पर्यालोच्य झाला वा तमेव धर्म यथोक्तानुष्ठानतः 'प्रादुष्कुर्युः' प्रकटयेयुः ते गुरुकुलवासं यावज्जीवमासेवन्त इति, यदिवा ये ज्योतिर्भूतमाचार्य सततमासेवन्ति त एवागमज्ञा धर्ममनुविचिन्त्य 'लोकं' पश्चास्तिकायात्मकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकं वा प्रादुष्कुर्युरिति क्रिया ।। १९ ।। किंचान्यत्- यो ह्यात्मानं परलोकयायिनं शरीराव्यतिरिक्तं सुखदुःखाधारं जानाति यश्वात्महितेषु प्रवर्तते स आत्मज्ञो भवति । येन चात्मा यथावस्थितस्वरूपोऽप्रत्ययग्राह्य निर्ज्ञातो भवति तेनैवायं सर्वोऽपि लोकः प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपो विदितो भवति, स एव चात्मज्ञोऽस्तीत्यादि क्रियावादं भाषितुमर्हतीति द्वितीय वृत्तस्यान्ते क्रिया । यश्च 'लोक' चराचरं वैशाखस्थानस्थकटिस्थकरयुरमपुरुषाकारं चशब्दादलोकं चानन्ताकाशास्तिकायमात्रं जानाति, यथ जीवानाम् 'आगतिम' आगमनं कुतः समागता नारकास्तिर्यञ्चो मनुष्या देवाः ? कैर्वा कर्मभिर्नारकादिलेनोत्पद्यन्ते १ एवं यो जानाति, तथा 'अनागतिं च' अनागमनं च कुत्र गतानां नागमनं भवति ? चकारात्तद्गमनोपायं च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकं यो जानाति, तत्रानागतिः -- सिद्धिरशेषकर्मच्यु १ शानस्य भवति भागी स्थिरतरो दर्शने चारित्रे च भन्या सावत्कथं गुरुकुलवासं न मुखन्ति ॥ १ ॥ २०भिज्ञातो प्र० । Education Internation For Parts Only ~457~ १२ समयसरणाध्य० ॥२२३॥ waryra Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२०], नियुक्ति : [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [५५४] Caeseseseaeseseseseseseseser तिरूपा लोकायाकाशदेशस्थानरूपा वा ग्राह्या, सा च सादिरपर्यवसाना । यच 'शाश्वतं नित्यं सर्ववस्तुजातं द्रव्यास्तिकनया-॥xi श्रया 'अशाश्वतं' वाऽनित्यं प्रतिक्षणविनाशरूपं पयोयनयाश्रयणात, चकारानित्यानित्यं चोभयाकारं सर्वमपि वस्तुजातं यो जानाति, तथा बागम:-"णेरड्या दबट्टयाए सासया भावयाए असासया" एवमन्येऽपि तिर्यगादयो द्रष्टव्याः । अथवा निर्वाणशाश्वतं संसार:-अशाश्वतस्तद्गतानां संसारिणां स्वकृतकर्मवशगानामितश्चेतच गमनादिति । तथा 'जातिम्' उत्पत्रिं नारकतिर्यश्चनुष्यामरजन्मलक्षणां 'मरणं च' आयुष्कक्षयलक्षणं, तथा जायन्त इति जनाः-सत्चास्तेषामुपपातं यो जानाति, सच नारकदेवयोर्भवतीति, अत्र च जन्मचिन्तायामसुमतामुत्पचिस्थानं योनिर्मणनीया, सा च सचिनाचित्ता मिश्रा च तथा शीता उष्णा मिश्रा च तथा संवृता विवृता मिश्रा चेत्येवं सप्तविंशतिविधेति । मरण-पुनस्तिर्यअनुष्ययोः, च्यवनं-ज्योतिष्कवैमानिकानाम् उद्वर्तना-भवनपतिम्पन्तरनारकाणामिति ॥ २०॥ किश्व अहोऽवि सत्ताण विउद्दणं च, जो आसवं जाणति संवरं च । दुक्खं च जो जाणति निज्जरं च, सो भासिउमरिहइ किरियवादं ॥ २१ ॥ सद्देसु रूवेसु असजमाणो, गंधेसु रसेसु अदुस्समाणे । णो जीवितं णो मरणाहिकंखी, आयाणगुत्ते वलया विमुक्के ॥२२॥ तिमि । इति श्रीसमवसरणाध्ययनं द्वादशमं समत्तं ॥ (गाथाप०५६८) १ नैरविका द्रव्यार्थतया शावता भावार्थतया अशाश्रताः । SHREILLEGunintentiational Relaturary.com ~4584 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], नियुक्ति : [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| चियुतं दीप अनुक्रम [५५६] सूत्रकृता 'सत्त्वानां स्वकृतकर्मफलभुजामधस्ताबारकादौ दुष्कृतकर्मकारिणां विविधां विरूपां वा कुट्टना-जातिजरामरणरोगशोककु-19/१२ समवशीलाका- तां शरीरपीड़ा, चशब्दात्तभावोपाय यो जानाति, इदमुक्तं भवति-सर्वार्थसिद्धादारतोऽधःसप्तमी नरकावं यावदसुमन्तः स-18 सरणाध्य चायित्र- कर्माणो विवर्तन्ते, तत्रापि ये गुरुतरकर्माणस्ते प्रतिष्ठाननरकयायिनो भवन्तीत्येवं यो जानीते । तथा आश्रवत्यष्टप्रकारं कर्म येन स आश्रवः स च प्राणातिपातरूपो रागद्वेषरूपो वा मिथ्यादर्शनादिको वेति तं तथा 'संवरम् आश्रयनिरोधरूपं यावदशेषयो गनिरोधखभावं, चकारात्पुण्यपापे च यो जानीते तथा 'दुःखम्' असातोदयरूपं तत्कारणं च यो जानाति 'सुखं च तद्विप-श ॥२२४॥ ययभूतं यो जानाति, तपसा यो निर्जरां च, इदमुक्तं भवति-या कर्मवन्धहेतून् तद्विपर्यासहेतूंश्च तुल्यतया जानाति, तथाहि| "यथाप्रकारा यावन्तः, संसारावेशहेतवः । तावन्तस्तद्विपर्यासा, निर्वाणावेशहेतवः ॥१॥" स एव परमार्थतो 'भाषितुं' वक्तुमर्ह||ति, किं तद् इत्याह-क्रियावादम, अस्ति जीवोऽस्ति पुण्यमस्ति पापूमस्ति च पूर्वांचरितस्य कर्मणः फलमित्येवरूपं वामिति ।। तथाहि-जीवाजीवाश्रवसंवरबन्धपुण्यपापनिर्जरामोक्षरूपा नवापि पदार्थाः श्लोकद्वयेनोपात्ताः, तत्र य आत्मानं जानातीत्यनेन | जीवपदार्थ :, लोकमित्यनेनाजीवपदार्थः, तथा गत्यनागतिः शाश्वतेत्यादिनाऽनयोरेव खभावोपदर्शनं कृतं, तथाऽऽथवसंबरी वरू-18 | पेणचोपाची, दुःखमित्यनेन तु बन्धपुण्यपापानि गृहीतानि, तद विनाभाविखादुःखस्य, निर्जरायास्तु खामिधानेनेवोपादानं, तत्फ| लभूतस्य च मोक्षसोपादानं द्रष्टव्यमिति, तदेवमेतावन्त एव पदार्थास्तदभ्युपगमेन चास्तीत्यादिकः क्रियावादोऽभ्युपगती भवती ॥२२४॥ | ति, यश्चैतान् पदार्थान् 'जानाति' अभ्युपगच्छति स परमार्थतः क्रियावाद जानाति । ननु चापरदर्शनोक्तपदार्थपरिज्ञानेनं सम्य-| १ आदिनाऽशाश्वतं । २ अजीवपशेऽनागतिः स्थितिः यदा जीवानां ते अजीरकृते इति । ३ वैषधिकमुखस्य दुःखरूपखान्न दुःखस्य पुण्याविनाभावानुपपत्तिः । ISAज्ञानाच्छ्वा ततः प्ररूपति सम्बग्यादिवशका । eeeeeeeeeeeeeesesed ~459~ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], नियुक्ति : [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [५५६] | गवादित्वं कसानाभ्युपगम्यते , तदुक्तपदार्थानामेवाघटमानसात् , तथाहि नैयायिकदर्शनेन तावत्प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदहटान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेलाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानी येते पोडश पदार्था अभिहिताः, तत्र हेयोपादेय (निवृत्ति) प्रवृत्तिरूपतया येन पदार्थपरिच्छित्तिः क्रियते तत्प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणं, तच प्रत्यक्षानुमानोपमानशाब्दभेदाच्चतुर्की, तत्रेन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्न ज्ञानमव्यपदेश्यमयभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षं, तदन्द्रियार्थयोर्यः संबन्धस्तस्माद्यदुत्पन्न, नामिव्यत, ज्ञानं, न सुखादिकम् , अव्यपदेश्यमिति व्यपदेश्यले शाब्दप्राप्ते, अव्यभिचारि तद्धि द्विचन्द्रज्ञानवव्यभिचरतीति, व्यवसायात्मकमिति निश्चयात्मकं प्रत्यक्ष, तत्रास्य प्रत्यक्षतान बुध्य(युज्य)ते, तथाहि यत्रात्माऽर्थग्रहणं प्रति साक्षाव्याप्रियते तदेव प्रत्यक्षं, तच्चावधिमनःपर्यायकेवलात्मकम् , एतथापरोपाधिद्वारेण प्रवृत्तेरनुमानवत्परोक्षमिति, उपचारप्रत्यक्षं तु स्यात्, न चोपचारस्तत्त्वचिन्तायां व्याप्रियत इति । अनुमानमपि पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्यमिति विधा, तत्र कारणात्कार्यानुमानं पूर्ववत् कार्याकारणानुमानं | शेषवत् सामान्यतोदृष्टं तु चूतमेकं विकसितं दृष्ट्वा पुष्पिताछूता जगतीति यदिवा देवदचादौ गतिपूर्विका स्थानात स्थानान्तरात्राप्ति दृष्ट्वाऽऽदित्येऽपि मत्यनुमानमिति, तत्राप्यन्यथानुपपत्तिरेव गमिका, न कारणादिकं, तया विना कारणस्य कार्य प्रति व्यभिचारान्, यत्र तु सा विद्यते तत्र कार्यकारणादिन्यतिरेकेणापि गम्यगमकभावो दृष्टः, तद्यथा-भविष्यति शकटोदयः, कृत्तिकादर्शनादिति, तदुक्तम्-"अन्यथाऽनुपपन्नलं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ? । नान्यथाऽनुपपनसं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ? ॥१॥" अपिचप्रत्यक्षस्थाप्रामाण्ये तत्पूर्वकस्वानुमानस्खाग्रामाण्यमिति । प्रसिद्धसाधम्यात्साध्यसाधनमुपमानं, यथा गौर्मवयस्तथा, अत्र च सञ्चास१अनाना पारमा शानसरूप रतीप्रियाविनाइभिव्यज्यते ज्ञान तेषां तत्पयते । २ मुखस्थापीन्द्रियाचारपतवात् । इन्द्रियार्थोत्यं । Eaceeeeeeeee ~4604 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], नियुक्ति : [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [५५६] सूत्रकृताङ्ग18 शिसंवन्धप्रतिपत्तिरुपमानार्थः, अत्रापि सिद्धायामन्यथाऽनुपपत्तावनुमानलक्षणवेन तत्रैवान्तर्भावात्पृथकप्रमाणखमनुपपन्नमेव, अथ || १२ समव 18| नास्त्यनुपपत्तिस्ततो व्यचिचारादप्रमाणतोपमानस्य । शाब्दमपि न सर्व प्रमाण, किं तर्हि १, आप्तप्रणीतस्यैवागमस्य प्रामाण्यं, न || सरणाध्य० चायित्व चियुत चाहत्यतिरेकेणापरस्याप्तता पुक्तियुक्तेति, एतच्चान्यत्र निर्लोठितमिति । किञ्च-सर्वमप्येतत्प्रमाणमात्मनो ज्ञानं ज्ञानं चात्मनो गुणः 8 नैयायिक (गुणव) पृथक्पदार्थतयाऽभ्युपगन्तुं न युक्तो, रूपरसादीनामपि पृथक्पदार्थताऽऽपत्तेः, अथ प्रमेयग्रहणेनेन्द्रियार्थतया तेऽप्याश्रिताः, ॥२२५॥ | सत्यमाश्रिताः, न तु युक्तियुक्ताः, तथाहि-द्रव्यव्यतिरेकेण तेपामभावात् तद्ग्रहणे च तेषामपि ग्रहणं सिद्धमेवेति न युक्तं पृथगुपा दानम् । प्रमेय खात्मशरीरेन्द्रियार्थयुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गाः, तत्रात्मा सर्वस्व द्रष्टोपभोक्ता चे(सचे)च्छाद्वेषप्रय सुखदुःखज्ञानानुमेया, सच जीवपदार्थतया गृहीत एवासाभिरिति, शरीरंतु तस्य भोगायतनं, भोगायतनानीन्द्रियाणि, भोक्तच्या इन्द्रियार्थाः, एतदपि शरीरादिकं जीवाजीवग्रहणेनोक्तमसामिरिति । उपयोगो बुद्धिरित्येतच्च ज्ञानविशेषः, स च जीवगुणतया जीवो पादानतयो(नेनो)पात एव । सर्वविषयमन्तःकरणं युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिलिङ्ग मनः, तदपि द्रव्यमनः पौगलिकमजीवग्रहणेन गृहीतं, भा18|| वमनस्वात्मगुणखाजीवग्रहणेनेति । आत्मनः सुखदुःखसंवेदनानां निवतेनकारणं प्रवृत्तिः, सापि पृथकपदार्थतया नाभ्युपगन्तुं युक्ता, 8| तथाहि-प्रवृत्तिरित्यात्मेच्छा, सा चात्मगुण एव, आत्माऽभिप्रायतया ज्ञानविशेषखाद्, आत्मानं दूपयतीति दोषः, तथा अस्था-18| |8| त्मनो नेदं शरीरमपूर्वम् , अनादिवादस्य, नाप्यनुत्तरम् , अनन्तखात्सन्तवेरिति, (शरीरेऽपूर्वतया सान्ततया वा)योऽयमात्मनोऽध्यव-1%|॥२२५।। || सायः स दोषो, रागद्वेषमोहादिको वा दोषः, अयमपि दोषो जीवाभिप्रायतया तदन्तर्भाधीति न पृथग्वाच्यः। प्रेत्यभावः-परलोकINT सद्भावोऽयमपि ससाधनो जीवाजीवग्रहणेनोपात्तः, फलमपि-सुखदुःखोपभोगात्मक, तदपि जीवगुण एवान्तर्भवतीति न पृथगुपदेष्ट Recentkesekseese ~4614 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], नियुक्ति : [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: Gee प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [५५६] 9899999999999999609 र व्यमिति, दुःखमित्येतदपि विविधबाधनयोगरूपमिति न फलादतिरिच्यते, जन्ममरणप्रबन्धोच्छेदरूपतया सर्वदुःखप्रहाणलक्षणो मोक्षः, स चासाभिरुपात्त एवेति । किमित्यनवधारणात्मकः प्रत्ययः संशयः, असाबपि निर्णयज्ञानवदात्मगुण एवेति, येन प्रयुक्तः प्रवर्तते तत्प्रयोजनं, तदपीच्छाविशेषतादात्मगुण एव, अविप्रतिपनिविषयापनोऽथों दृष्टान्तः, असावपि जीवाजीवयोरन्यतर, | न चैतावताऽस्य पृथकपदार्थता युक्ता, अतिप्रसाद् , अवयवग्रहणेन च तस्योत्तरत्र ग्रहणादिति । सिद्धान्तचतुर्विधः, तद्यथा-- | सर्वतत्राविरुद्धस्तन्त्रेऽधिकृतोऽर्थः सर्वतत्रसिद्धान्तः १, यथा स्पर्शनादीनीन्द्रियाणि स्पर्शादय इन्द्रियार्थाः प्रमाणैः प्रमेयस्य ग्रहणमिति १, समानतन्त्रसिद्धः परतत्रासिद्धः प्रतितसिद्धान्तो यथा साझ्यानां नासत आत्मलाभो न च सतः सर्वथा विनाश इति, तथा चोक्तम्---"नासतो जायते भावो, नाभावो जायते सतः" इति २, यत्सिद्धावन्यस्वार्थस्यानुपङ्गेण सिद्धिः सोऽधिकरणसिद्धान्तः ||३, यथेन्द्रियव्यतिरिक्तो ज्ञाताऽऽत्माऽस्ति दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थग्रहणादिति, तत्रानुषङ्गियो• १ इन्द्रियनानाख २ नियतविष याणीन्द्रियाणि ३ खविषयग्रहणलिङ्गानि च ४ ज्ञातुज्ञानसाधनानि ५ स्पादिगुणव्यतिरिक्तं द्रव्यं ६ गुणाधिकरण ७ मनियत-18 | विषयाश्चेतनाः ८ इति, पूर्वार्थसिद्धावतेाः सिध्यन्ति, नैतेविना पूर्वार्थः संभवतीति ३, अपरीक्षितार्थाभ्युपगमाचद्विशेषपरीक्षणमभ्युपगमसिद्धान्तः ४, तद्यथा, किं शब्द इति विचारे कश्चिदाह-अस्तु द्रव्यं शब्दः, स तु किं नित्योऽथानित्यः ?, इत्येवं विचारः, स चायं चतुर्विधोऽपि सिद्धान्तो न ज्ञानविशेषादतिरिच्यते, ज्ञानविशेषस्थात्मगुणखाद्गुणस्य च गुणिग्रहणेन ग्रहणाद् न पृथगुपादानमिति४ । अथावयवाः प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि, तत्र साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा, यथा नित्यः शब्दोनित्यो || वेति, हिनोति-गमयति प्रतिज्ञातमर्थमिति हेतुः, तद्यथा-उत्पत्तिधर्मकखात्, साध्यसाधम्र्यवैधम्यंभावे दृष्टान्तः उदाहरणं, यथा Hraumurary.org ~4624 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], नियुक्ति : [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप मृत्रकता घट इति, वैधोदाहरणं यदनित्यं न भवति तदुत्पत्तिमदपि न भवति यथाऽऽकाशमिति, तथा न तथेति वा पक्षधर्मोपसंहार समनशीलाश | उपनयः, तद्यथा-अनित्यः शब्दः कृतकवाद् घटवत्तथा चार्य, अनित्यलाभावे कृतकलमपि न भवत्याकाशवत् न तथाऽयमिति, सरणाध्य० चार्यांयप्रतिज्ञाहेलोः पुनवेचनं निगमन, तसादनित्य इति, ते चामी पश्चाप्यवयवा यदि शब्दमानं ततः शब्दस पौगिलकखात्पुद्गलानां ||| नयायिकत्तियुत चाजीवग्रहणेन ग्रहणान पृथगुपादानं न्याय्यम् , अथ तजं ज्ञानं ततो जीवगुणखात् जीवग्रहणेनैवोपादानमिति, ज्ञानविशेषप- तत्वनिरासः ॥२२६॥ | दार्थताऽभ्युपगमे च पदार्थबहुखं खाद्, अनेकप्रकारखाज्ज्ञानविशेषाणामिति । संशयाल भवितव्यताप्रत्ययः सदर्थपोलोचना-1 |त्मकस्तः , यथा भवितव्यमत्र स्थाणुना पुरुषेण वेति, अयमपि ज्ञानविशेष एव, न च ज्ञानविशेषाणां ज्ञातुरभिन्नानां पृथक् पदार्थपरिकल्पनं समनुजानते विद्वांसः । संशयतर्काभ्यामुत्तरकालभावी निश्चयात्मकः प्रत्ययो निर्णयः, अयमपि प्राग्वन ज्ञानाद|तिरिच्यते, किश्च-अस्य निचयात्मकतया प्रत्यक्षादिप्रमाणान्तर्भावान पृथर निर्देशो न्याय्य इति । तिस्रः कथाः-चादो जल्पो| | वितण्डा चेति, तत्र प्रमाणतकेसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पश्चावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो बादः, स च तत्वज्ञाना थे शिष्याचार्ययोर्भवति, स एव विजिगीषुणा सार्धं छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः, स एव प्रतिपक्षस्थापनाहीनो |वितण्डेति, तत्रासां तिसृणामपि कथानां भेद एव नोपपद्यते, यतस्तत्त्वचिन्तायां तचनिर्णयार्थ वादो विधेयो, न छलजल्पादिना ॥ तस्यावममः कर्तुं पार्यते, छलादिकं हि परवञ्चनार्थमुपन्यस्यते, न च तेन तत्त्वावगतिः इति सत्यपि भेदे नैवासां पदार्थता, यतो ॥२२६॥ | यदेव परमार्थतो वस्तुवृत्या वस्वस्ति तदेव परमार्थतयाऽभ्युपगन्तुं युक्तम् , वादास्तु पुरुषेच्छावशेन भवन्तोऽनियता वर्तन्ते(तत्) न | तेषां पदार्थतेति, किश्च-पुरुषेच्छानुविधायिनो बादाः कुकुटलावकादिष्वपि पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहेण भवन्त्यतस्तेषामपि तत्वप्राप्तिः अनुक्रम [५५६] ~463~ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], नियुक्ति : [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [५५६] aeeeeeeeeeeeee सान्न चैतदिष्यत इति । असिद्धानकान्तिकविरुद्धा हेलाभासाः, हेतुबदाभासन्त इति हेवाभासाः, तत्र सम्यग्धेतूनामपि न तत्त्वव्यवस्थितिः किं पुनस्तदामासानां , तथाहि-इह यन्नियतं वस्वस्ति तदेव तत्त्वं भवितुमर्हति, हेतवस्तु कचिद्वस्तुनि साध्ये हे तवः कृचिदहेतव इत्यनियतास्त इति । अथ 'छलम्' अर्थविघातोऽर्थ विकल्पोपपत्येति, तत्रार्थविशेपे विवक्षितेभिहिते वक्तुरभिप्रा8 यादर्थान्तरकल्पना वारुछलं, यथा नवकम्बलोऽयं देवदत्तः, अत्र च नवः कम्बलोऽस्येति वक्तुरभिप्रायो विग्रहे च विशेषो न स-18| मासे, तत्रायं छलबादी नव कम्बला अखेत्येतद्भवताभिहितमिति कल्पयति, न चायं तथेत्येवं प्रतिपेधयति, तत्र छलमित्यसI दाभिधानं, वयदि छल न तर्हि तचं, तवं चेन्न तर्हि छलं, परमार्थरूपखात्तत्वसेति, तदेवं छलं तच्चमित्यतिरिक्ता वाचोयु-18 |क्तिः । दूषणाभासास्तु जातयः, तत्र सम्बग्रदूषणस्यापि न तचव्यवस्थितिः, अनियतवात् , अनियतत्वं च यदेवैकसिन् सम्यग्रदूषण तदेवान्यत्र दूपणाभासं, पुरुषशक्त्यपेक्षखाच दूषणदूषणाभासव्यवस्थितेरनियतसमिति कुतः पुनपणाभासरूपाणां जातीनाम् , | अवास्तवचात्तासामिति । वादकाले वादी प्रतिवादी वा येन निगृह्यते वनिग्रहस्थानं, तच वादिनोऽसाधनाङ्गवचन प्रतिवादिनस्त-| |दो(च तत्तदो)पोद्भावनं विहाय यदन्यदभिधीयते नैयायिकैस्तत्प्रलापमात्रमिति, तच्च प्रतिज्ञाहानिः प्रतिज्ञान्तरं प्रतिज्ञाविरोध इत्यादिकम् , एतच्च विचार्यमाणं न निग्रहस्थानं भवितुमर्हति, भवदपि च पुरुषस्यैवापराधं कर्तुमलं, न खेतत्तचं भवितुमर्हति, वक्तृगु--2 णदोषौ हि परार्थेऽनुमानेऽधिक्रियेते न तु तच्चमिति, तदेवं न नैयायिकोक्तं तचं तत्त्वेनाश्रयितुं युज्यते, तस्सोक्तनीत्या सदोषखा दिति ॥ नापि वैशेषिकोक्तं तचमिति, तथाहि-द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायास्तचमिति, तत्र पृथिव्यप्तेजोवायुराकाशं कालो 18 दिगात्मा मन इति नव द्रव्याणि, तदत्र पृथिव्यप्तेजोवायूनां पृथन्द्रव्यत्तमनुपपत्रं, तथाहि-त एव परमाणवः प्रयोगविस्रसा-1 ~464~ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], नियुक्ति : [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [५५६] सूत्रकृताभ्यां पृथिव्यादित्वेन परिणमन्तोऽपि न खकीयं द्रव्यत्वं त्यजन्ति, न चावस्थाभेदेन द्रव्यभेदो युक्तः, अतिप्रसङ्गादिति । आका- १२ समवशीलाका-18 शकालयोश्चास्माभिरपि द्रव्यत्वमभ्युपगतमेव, दिशस्त्वाकाशावयवभूताया अनुपपत्रं पृथन्द्रव्यत्वमतिप्रसङ्गदोषादेव, आत्मनश्च स्व- सरणाध्य० चायाय-18|शरीरमात्रव्यापिन उपयोगलक्षणस्वाभ्युपगतमेव द्रव्यत्वमिति, मनसश्च पुद्गलविशेषतया पुद्गलद्रव्येऽन्तर्भाव इति [परमाणुवत् ], वैशेषिकतत्तियुतं भावमनसश्च जीवगुणस्वादात्मन्यन्तर्भाव इति । यदपि तैरभिधीयते, यथा पृथिवीत्वयोगात्पृथिवीति, तदपि स्वप्रक्रियामात्रमेव, त्वनिरास: ॥२२७॥ यतो न हि पृथिव्याः पृथग्भूतं पृथिवीत्वमपि येन तद्योगात्पृथिवी भवेद्, अपितु सर्वमपि यदस्ति तत्सामान्यविशेषात्मक नर सिंहाकारमुभयखभावमिति, तथा चोक्तम्-"नान्वयः स हि भेदत्वान्न भेदोज्ययवृत्तितः । मृझेदद्वयसंसर्गवृत्तिजा (जो) त्यन्तरं ॥ | घटः॥१॥" तथा-"न नरः सिंहरूपत्वान सिंहो नररूपतः। शब्दविज्ञानकार्याणां, भेदाजात्यन्तरं हि सः॥१॥" इत्यादि। KA अथ रूपरसगन्धस्पर्शा रूपिद्रन्यवृत्तेर्विशेषगुणाः, तथा सङ्ख्यापरिमाणानि पृथक्वं संयोगविभागौ परखापरले इत्येते सामान्यगुणाः । सर्वद्न्यवृत्तिवात् , तथा बुद्धिमुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्लधर्माधर्मसंस्कारा आत्मगुणाः, गुरुवं पृथिव्युदकयोयख पृथिव्युदकामिषु स्नेहोऽम्भस्खेव वेगाख्यः संस्कारो मूर्तद्रव्येष्वेव आकाशगुणः शब्द इति । तत्र सङ्घयादयः सामान्यगुणा रूपादिवदन्यखभा(वाभा) |वत्वेन परोपाधिकत्वाद्गुणा एव न भवन्ति, अथापि स्युस्तथापि न गुणानां पृथक्त्वव्यवस्था, तत्पृथक्त्वभावे द्रव्यखरूपहानेः 'गुण-18| S२२७॥ पयोयवद् द्रव्य (तत्वा०अ०५ सू०)मितिकृत्वा अतो नान्तरीयकतया द्रव्यग्रहणेनैव ग्रहणं न्याय्यमिति न पृथग्भावः । किन-तस्य । | भावस्तत्वमित्युच्यते, भावप्रत्ययश्च यस्य गुणस्य हि भावाद् द्रव्ये शब्दनिवेशस्तदभिधाने स्वतला' वित्यनेन भवति, तत्र घटो रक्त उदकस्याहारको जलवान् सवेरेव घट उच्यते, अत्र च घटस्य भावो घटत्वं रक्तस्य भावो रक्तवं आहारकस भाव आहारकत्वंशी easeeserveeeeercedese ~465~ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [५५६] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], निर्युक्तिः [१२१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | जलवतो भावो जलवत्त्वमित्यत्र घटसामान्यरक्तगुणक्रियाद्रव्यसंबन्धरूपाणां गुणानां सद्भावात् द्रव्ये पृथुयुभाकार उदकाद्याहरणक्षमे कुटकाख्ये शब्दस्य घटादेरभिनिवेशस्तत्र त्वतलों, इह च रक्ताख्यः को गुणो ? यत् सद्भावात्, कतरच तद् द्रव्यं यत्र शब्दनिवेशो येन भावप्रत्ययः स्यादिति । किमिदानीं रक्तस्य भावो रक्तत्वमिति न भवितव्यं ?, भवितव्यमुपचारेण, तथाहि रक्त इत्येतद्रव्यत्वेनोपचर्य तस्य सामान्यं भाव इति रक्तत्वमिति, न चोपचारस्तत्त्व चिन्तायामुपयुज्यते, शब्द सिद्धावेव तस्य कृतार्थत्वादिति शब्द श्राकाशस्य गुण एव न भवति, तस्य पौगलिकत्वाद्, आकाशस्य चामूर्तत्वादिति । शेषं तु प्रक्रियामात्रं न साघनदूषणयोरङ्गम् । क्रियाऽपि द्रव्यसमवायिनी गुणवत्पृथगाश्रयितुं न युक्तेति । अथ सामान्यं तद्विधा परमपरं च तत्र परं महासत्ताख्यं द्रव्यादिपदार्थव्यापि, तथाचोक्तम्- “सदिति यतो द्रव्यगुणकर्मसु सा सत्ता" अपरं च द्रव्यत्वगुणत्व कर्मत्वात्मक, तत्र न तावन्महासत्तायाः पृथक्पदार्थता युज्यते, यतस्तस्यां यः सदिति प्रत्ययः स किमपरसत्तानिबन्धन उत्त स्वत एव १, तत् यद्यपरसत्तानिबन्धनस्तत्राप्ययमेव विकल्पोऽतोऽनवस्था, अथ स्वत एव ततस्तद्वद् द्रव्यादिष्वपि खत एव सत्प्रत्ययो भविष्यतीति किमपरसतयाऽजागलस्तन कल्पया विकल्पितया ?, किश्च - द्रव्यादीनां किं सतां सत्तया सत्प्रत्यय उतासतां १, तत् यदि सतां | स्वत एव सत्प्रत्ययो भविष्यति किं तया ?, असत्पक्षे तु शशविषाणादिष्वपि सत्तायोगात्सत्प्रत्ययः स्यादिति, तथा चोक्तम्"स्वतोऽर्थाः सन्तु सत्तावत्सत्तया किं सदात्मनाम् । असदात्मसु नैषा स्वात्सर्वथाऽतिप्रसङ्गतः ॥ १ ॥" इत्यादि । एतदेव दूषणमपरसामान्येऽप्यायोज्यं, तुल्ययोगक्षेमत्वात् । किञ्च - अस्माभिरपि सामान्यविशेषरूपत्वाद्वस्तुनः कथञ्चित्तदिष्यत एवेति, तस्य च १ समानखभावो भावः । २ गुणस पदार्थस्वरूपलान पृथकपदार्थता ३ द्रव्यादिभिन्नया । Ja Eucation Internation For Parts Only ~466~ www.or Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], नियुक्ति : [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृता शीलाङ्का प्रत सूत्रांक ||२२|| चार्याय ति ॥२२८॥ दीप अनुक्रम [५५६] कथश्चित्तदष्यतिरेकाद् द्रव्यग्रहणेनैव ग्रहणमिति । अथ विशेषाः, ते चात्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहेतुत्वेन परैराश्रीयन्ते, तत्रेदं चिन्त्यते- १२ समवया तेषु विशेषबुद्धिः सा नापरविशेषहेतकाऽऽश्रयितव्या, अनवस्थाभयात् , खतः समाश्रयणे च तद्वद् द्रव्यादिष्वपि विशेषबुद्धिः सरणाध्य. सारिक द्रन्यादिव्यतिरिक्तैर्विशेषैरिति ?, द्रव्याव्यतिरिक्तास्तु विशेषा असाभिरप्याश्रीयन्ते, सर्वस्य सामान्यविशेषात्मकत्वादिति । वैशेषिकतएतत्तु प्रक्रियामात्र, तद्यथा-नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषाः, नित्यद्रव्याणि च चतुर्विधाः परमाणवो मुक्तात्मानो मुक्तमनांसि त्वनिरास: च, इति नियुक्तिकत्वादपकर्णयितव्यमिति । समवायस्तु-अयुतसिद्धानामाधाराधेयभूतानां य इह प्रत्ययहेतुः स समवाय इत्यु-१ |च्यते, असावपि नित्यश्चैकश्वाश्रीयते, तस्य च नित्यत्वात्समवायिनोऽपि नित्या आपधेरन् , तदनित्यत्वे च तस्याप्यनित्यत्वापत्तिः, | तदाधाररूपत्वात्तस्य, तदेकत्वाच सर्वेषां समवायिनामेकत्वापतिः, तस्य चानेकत्वमिति । किश्च-अयं समवायः संवन्धः, तस||| |च द्विष्ठत्वाद् गुंतसिद्धत्वमेव दण्डदण्डिनोरिव, वीरणानां च कटोत्पचौ तद्रूपतया विनाशः कटरूपतयोत्पचिरन्वयरूपतया व्यव-| | स्थानमिति दुग्धदमोरिवेत्येवं वैशेषिकमतेऽपि न सम्यक् पदार्थावस्थितिरिति । साम्प्रतं साक्ष्यदर्शने तत्वनिरूपणं प्रक्रम्यते तत्र | प्रकृत्यात्मसंयोगात्सष्टिरुपजायते, प्रकृतिथ सत्वरजस्तमसा साम्यावस्था ततो महान् महतोहङ्कारः अहकारादेकादशेन्द्रियाणि पञ्चतन्मात्राणि तन्मात्रेभ्यः पञ्च भूतानीति, चैतन्यं पुरुषस्य खरूप, स चाकर्ता निर्गुणो भोक्तेति । तत्र परस्परविरुद्धानां सत्त्वादीनां गुणानां प्रकृत्यात्मनां नियामक गुणिनमन्तरेणैकत्रावस्थानं न युज्यते, कृष्णसितादिगुणोनामिव, न च महदादिवि ॥२२८॥ १ वक्ष्यमाणं । २ एतनिरूपण । ३ बारविशेषभावयोदयात् । ४ युग्मयोमिनत्वेन । ५ पृथग्भूता वी प्रायाः, वर्णमयानि द्रव्याणि, तेषां गुगानां पा खयं वल्यान्तरेण यथा नावस्थान विरुद्धानां । 98 ~467 Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], नियुक्ति : [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [५५६] कारे जन्ये प्रकृतिवैपम्योत्पादने कश्रिद्धेतुः, तव्यतिरिक्तवस्त्वन्तरानभ्युपगमाद्, आत्मनश्वाकर्तृपेनाकिश्चित्करखात् , स्वमाव-11 |वैषम्योभ्युपगमे तु निर्हेतुकलापनेनित्यं सचमसच वा स्यादिति, उक्तं च---"नित्यं सत्त्वमसचं पाहतोरन्यानपेक्षणात् । अपे क्षातो हि भावानां, कादाचित्कखसंभवः ॥१॥" अपिच महदहकारी संवेदनादभित्रौ पश्यामः, तथाहि-बुद्धिरध्यवसा| योऽहकारवाई मुख्यहं दुःखीत्येवमात्मकः प्रत्ययः, तयोविद्रूपतयाऽऽत्मगुणवं, न जडरूपायाः प्रकृतेर्विकारावेताविति । अपिच येयं तन्मात्रेभ्यो भूतोत्पतिरिष्यते, तयथा-गन्धतन्मात्रात्पृथिवी रसतन्मात्रादापः रूपतन्मात्राजः स्पर्शतन्मात्राद्वायु: शब्द| तन्मात्रादाकाशमिति, सापि न युक्तिक्षमा, यतो यदि बाह्यभूताश्रयेणेतदभिधीयते, तदयुक्तं, तेषां सर्वदा भावात्, न कदाचिदनीशं जगदितिकता, अथ प्रतिशरीराश्रयणादेतदुच्यते, तत्र किल खगस्थि कठिनलक्षणा पृथ्वी श्लेष्मासग द्रवलक्षणा आपः। पक्तिलक्षणं तेजः प्राणापानलक्षणो वायुः शुषिरलक्षणमाकाशमिति, तदपि न युज्यते, यतोवापि केपाश्चिच्छरीराणां शुक्रासनप्रभवोत्पत्तिः, न तत्र तन्मात्राणां गन्धोऽपि समुपलक्ष्यते, अदृष्टस्यापि कारणखकल्पनेऽतिप्रसङ्गः स्यात्, अण्डजोशिशाङ्कुरादीनामप्यन्यत एवोत्पत्तिर्भवन्ती समुपलक्ष्यते, तदेवं व्यवस्थिते प्रधानमहदहकारादिकोत्पत्तिर्या सांख्यैः स्वप्रक्रिययाऽऽभ्युपगम्यते | तनियुक्तिकमेव खदर्शनानुरागेणाभ्युपगम्यत इति । आत्मनश्चाकईखाभ्युपगमे कृतनाशोऽकृतागमश्च स्यात् बन्धमोक्षाभावध, 18॥ | निर्गुणखे च ज्ञानशून्यतापत्तिरित्यतो बालप्रलापमात्र, प्रकृतेश्वाचेतनाया आत्मार्थ प्रवृत्तियुक्ति विकलेति । अथ बौद्धमतं निरूप्यते-18 तत्र हि पदार्था द्वादशायतनानि, तद्यथा-चक्षुरादीनि पञ्च रूपादयश्च विषयाः पञ्च शब्दायतनं धर्मायतनं च, धमो-सुखादयो वैधा . प्र० । २ गन्धः संबन्धलेयायो । ३ तन्मात्रापश्चकस्त्र । ४ मानसमिति शब्दान्तर, तस्य शब्दमयविचारात्मकत्वात । ~468~ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [५५६] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], निर्युक्तिः [१२१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र -[ ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सरणाध्य ० द्वादशायतनपरिच्छेद के प्रत्यक्षानुमाने द्वे एव प्रमाणे, तत्र चक्षुरादी (दिद्रव्ये) न्द्रियाण्यजीवग्रहणेनैवोपात्तानि, भावेन्द्रियाणि तु ६ १२ समयजीवग्रहणेनेति, रूपादयश्च विषया अजीवोपादानेनोपात्ता न पृथगुपादातव्याः, शब्दायतनं तु पौगलिकलाच्छब्दस्याजीवग्रहणेन गृहीवं, न च प्रतिव्यक्ति पृथकपदार्थता युक्तिसंगतेति, धर्मात्मकं सुखं दुःखं च यद्यसा (तासा) तोदयरूपं ततो जीवगुणबाजीवेऽन्तर्भावः, अथ तत्कारणं कर्म ततः पौगलिकलादजीव इति । प्रत्यक्षं च तेर्निर्विकल्पकमिष्यते, तथानिश्रयात्मकतया प्रवृत्तिनिवृत्त्योरनङ्गमित्यप्रमाणमेव, तदप्रामाण्ये तत्पूर्वकत्वादनुमानमपीति, शेषस्त्वाक्षेप परिहारोऽन्यत्र सुविचारित इति नेह प्रतन्यत इत्यनया ॥२२९॥ ४ दिशा मीमांसकलोकायतमताभिहितत्तत्त्वनिराकरणं स्वबुद्ध्या विधेयं, तयोरत्यन्तलोकविरुद्धपदार्थानां श्रयणान्न साक्षादुपन्यासः कृत इति । तस्मात्पारिशेष्यसिद्धा अर्हदुक्ता नव सप्त वा पदार्थाः सत्याः तत्परिज्ञानं क्रियावादे हेतुः नापरपदार्थपरिज्ञानमिति ॥ २१ ॥ साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिहीर्षुः सम्यम्वादपरिज्ञानफलमा दर्शयन्नाह 'शब्देषु' वेणुवीणादिषु श्रुतिसुखदे पेषु च' नयनानन्दकारिषु 'आसङ्गमकुर्वन' गार्घ्यमकुर्वाणः, अनेन रागो गृहीतः, तथा 'गन्धेषु' कुथितकलेवरादिषु रसेषु च' अन्तप्रान्ताशनादिषु अदृष्यमाणोऽमनोज्ञेषु द्वेषमकुर्वन, इदमुक्तं भवति-शब्दादिष्विन्द्रियविषयेषु मनोज्ञेतरेषु रागद्वेषाभ्यामनपदिश्यमानो 'जीवितम्' असंयमजीवितं नाभिकाच, नापि परीषहोपसर्गैरभिद्रुतो मरणमभिकाङ्गेत् यदिवा जीवितमर|णयोरनभिलाषी संयममनुपालयेदिति । तथा मोक्षार्थिनाऽऽदीयते गृहात इत्यादानं संयमस्तेन तस्मिन्वा सति गुप्तो, यदिवा| मिध्यात्वादिनाऽऽदीयते इत्यादानम् - अष्टप्रकारं कर्म तस्मिन्नादातव्ये मनोवाक्कायैर्गुप्तः समितच, तथा भाववलयं माया तया | विमुक्तो मायामुक्तः । इति परिसमाप्यर्थे । त्रवीमीति पूर्ववत् । नयाः पूर्ववदेव ||२२|| समाप्तं समवसरणाख्यं द्वादशमध्ययनमिति ।। सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चाय चियुतं अत्र द्वादशं अध्ययनं समाप्तं For Pasta Use Only ~469~ ॥२२९॥ war Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक -1, मूलं [२२...], नियुक्ति: [१२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अथ त्रयोदशं श्रीयाथातथ्याध्ययनं प्रारभ्यते ॥ प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [५५६] समा समवसरणाख्यं द्वादशमध्ययन, तदनन्तरं त्रयोदशमारभ्यते, अख चायमभिसंबन्धः-हहानन्तराध्ययने परखादिमतानि || निरूपितानि तनिराकरणं चाकारि, तच याथातथ्येन भवति, तदिह प्रतिपाद्यते इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्वाध्ययनस्य चखाय-नई नुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्राप्युपक्रमद्वारान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं, तद्यथा-शिष्यगुणदीपना, अन्यच्च-अनन्तरांध्ययनेषु धर्म-18| समाधिमार्गसमवसरणाख्येषु यदवितथं याथातथ्येन व्यवस्थितं यच्च विपरीतं वितथं तदपि लेशतोत्र प्रतिपादयिष्यत इति । नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे याथातथ्यमिति नाम, तदधिकत्य नियुक्तिकदाह-- ISणामतहं ठवणतहं दव्वतहं चेव होइ भावतहं । दब्बतहं पुण जो जस्स सभावो होति दब्बस्स ॥ १२२॥ | भावतह पुण नियमा णायव्वं छविहंमि भावंमि । अहवाऽवि नाणदंसणचरित्तविणएण अजनप्पे ॥ १२३ ॥ जह सुत्तं तह अत्थो चरणं चारो तहत्ति णायच्वं । संतमि [य] पसंसाए असती पगयं दुगुंछाए ॥ १२४ ॥ आयरियपरंपरएण आगयं जो उ छेयबुद्धीए । कोवेह छेयवाई जमालिनासं स णासिहिति ॥ १२५॥ ण करति दुक्खमोक्खं उज्जममाणोऽवि संजमतवेसुं। तम्हा अत्तुपारिसो वजेअव्वो जतिजणेणं ॥ १२६ ॥ 9202003030swwapasa अत्र त्रयोदशं अध्ययनं “याथातथ्य" आरब्धं, पूर्व-अध्ययनेन सह अस्य अभिसंबंध:, याथातथ्य शब्दस्य निक्षेपा: ~470~ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक -1, मूलं [२२...], नियुक्ति: [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| सूत्रकृता शीलाका- चायित्- चियुत ॥२३ ॥ दीप अनुक्रम [५५६] eroesekeeseseses अस्थाध्ययनस्य याथातथ्यमिति नाम, तच यथातथाशब्दस्य भावप्रत्ययान्तस्य भवति, तत्र यथाशब्दोल्लानेन तथाशब्दस्य १३ याथा निक्षेपं कर्तुनियुक्तिकारस्थायमभिप्रायः-इह यथाशब्दोऽयमनुवादे वर्तते, तथाशब्दश्च विधेयार्थे, तद्यथा-यथैवेदं व्यव तथ्याध्य स्थितं तथैवेदं भवता विधेयमिति, अनुवादविधेययोश्च विधेयांश एवं प्रधानभावमनुभवतीति, यदिवा-याथातथ्यमिति तथ्य-| | मतस्तदेव निरूप्यत इति । तत्र तथाभावस्तध्यं यथावस्थितवस्तुता, तनामादि चतुर्धा, तत्र नामस्थापने सुगमे, द्रव्यतथ्यं । गाथापश्चार्धेन प्रतिपादयति, तत्र द्रव्यतथ्यं पुनर्यो 'यस्य सचित्तादेः स्वभावो द्रव्यमाधान्यायद्यस्य स्वरूपं, तद्यथा-उपयोगलक्षणो जीवः कठिनलक्षणा पृथिवी द्रवलक्षणा आप इत्यादि, मनुष्यादेर्वा यो यस्य मार्दवादिः खभावोऽचित्तद्रव्याणां च गोशीर्षचन्दनकम्बलरलादीनां द्रव्याणां खभावः, तद्यथा-उण्हे करेइ सीयं सीए उपहत्तणं पुण करेइ । कंबलरयणादीणं एस सहा-| | वो मुणेयचो ॥ १॥ भावतथ्यमधिकृत्याह-भावतथ्यं पुनः 'नियमतः' अवश्यंभावतया पहिधे औदयिकादिके भावे ज्ञातव्यं, तत्र कर्मणामुदयेन निवृत्त औदयिकः--कर्मोदयापादितो गत्यायनुभावलक्षणा, तथा कर्मोपशमेन निवृत्त औपशमिका-कर्मा-N नुदयलक्षण इत्यर्थः, तथा क्षयाज्जातः क्षायिक:--अप्रतिपातिज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणः, तथा क्षयादुपशमाच जातः क्षायोपशमिको-देशोदयोपशमलक्षणः, परिणामेन निवृत्तः पारिणामिको-जीवाजीवभव्यखादिलक्षणः, पश्चानामपि भावानां द्विकादिसंयोगानिष्पना सान्निपातिक इति । यदिवा-'अध्यात्मनि' आन्तरं चतुर्धा भावतध्यं द्रष्टव्यं, तद्यथा-ज्ञानदर्शनचारित्रविन- ॥२३॥ यतध्यमिति, तत्र शानतथ्य मत्यादिकेन ज्ञानपञ्चकेन यथाखमवितथो विषयोपलम्भः दर्शनतथ्यं शङ्कायतिचाररहितं जीवा उरुणे कुर्वन्ति शीतं शीते उष्णत्वं पुनः कुर्वन्ति । कम्बलरनादीना एष खभावो ज्ञातव्यः ॥ २ शानाद्यनुगतलान बीयादेः पृथमुपादान । याथातथ्य शब्दस्य निक्षेपा:, ~4714 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [५५६] दितत्त्वश्रद्धानं चारित्रवध्यं तु तपसि द्वादशविधे संयमे सप्तदश विधे सम्पगनुष्ठानं, विनयतथ्यं द्विचतारिंशदभिषे विनये 18 ज्ञानदर्शनचारित्रतपऔपचारिकरूपे यथायोगमनुष्ठान, ज्ञानादीनां तु वितथाऽऽसेवनेनातथ्यमिति । अत्र च भावतथ्पेनाधिकारः, यदिवा भावतथ्यं प्रशस्ताप्रशस्तभेदाद्विधा, तदिह प्रशस्तेनाधिकारं दर्शयितुमाह-'यथा' येन प्रकारेण यथा पद्धच्या सूत्र व्यवस्थितं 'तथा' तेनैव प्रकारेण 'अर्थो व्याख्येयोऽनुष्ठेयश्च, एतदर्शयति-'चरणम्' आचरणमनुष्ठातव्यं, यदिवा सिद्धान्तसूत्रस्थ चारित्रमेवाचरणम् अतो यथा मूत्र तथा चारित्रमेतदेव चानुष्ठेयमेतच याथातथ्यमिति ज्ञातव्यं । पूर्वाधसैव भावार्थ माथापचा-18 कान दर्शयितुमाह-यवस्तुजातं 'प्रकृतं' प्रस्तुतं यमर्थमधिकृत्य सूत्रमकारि तसिनर्थे 'सति' विद्यमाने यथावव्याख्यायमाने|| संसारोत्तारणकारणखेन प्रशस्खमाने वा याथातथ्यमिति भवति, विवक्षिते खर्थे 'असति' अविद्यमाने संसारकारणसेन वा जुगुप्सायां | S| सत्यां सम्यगननुष्ठीयमाने वा याथातथ्यं न भवति, इदमुक्तं भवति-यदि [यथा] सूत्रं येन प्रकारेण व्यवस्थितं तथैवार्थों यदि भवति व्याख्यायतेऽनुष्ठीयते च संसारनिस्तरणसमर्थव भवति ततो याथातथ्यमिति भवति, असति खर्थेऽक्रियमाणे च संसारका-18 रणखेन जुगुप्सिते वा न भवति याथातथ्यमिति गाथातात्पर्यार्थः ।। एतदेव दृष्टान्तगर्भ दर्शयितुमाह-आचार्याः-सुधर्मखामिजम्बूनामप्रभवार्यरक्षितावास्तेषां प्रणालिका पारम्पर्य तेनागतं ययाख्यान-सूत्राभिप्रायः, तद्यथा-व्यवहारनयाभिप्रायेण क्रिय|माणमपि कृतं भवति, यस्तु कुतर्कदध्मातमानसो मिथ्यालोपहतष्टितया 'छेकबुद्ध्या' निपुणबुझ्या कुशाग्रीयोमुपीकोऽहमि १ शानेशी दर्शने चारित्रे च तपशि विनयस्य विधेयलादेकादश औपचारिके सप्तभेदरूपे बढ़ा कमेण पौकसप्तवशवादश सप्तमेदरूपे । Stoerseskistseeeeeeees याथातथ्य शब्दस्य निक्षेपा:, ~472~ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| सूत्रकृतानं शीलाङ्काचार्षीयत्तियुतं ॥२३॥ Cassesteresteepeace दीप तिकृया 'कोपयति' दूषयति-अन्यथा तमर्थ सर्वज्ञप्रणीतमपि च्याचष्टे-कृतं कतमित्येवं भूयात् , वक्ति च-न हि मृत्पिण्डक्रियाका-18 १३ याथा |ल एवं घटो निष्पद्यते, कर्मगुणव्यपदेशानामनुपलब्धेः, स एवं 'छेकवादी' निपुणोऽहमित्येवादी पण्डिताभिमानी 'जमालि-18| तथ्याध्य नाशं' जमालिनिवववत् सर्वज्ञमतविकोपको 'विनचति' अरहट्टघटीयन्त्रन्यायन संसारचक्रवाले श्रमिष्यतीति, न पासी जानाति |वराको यथा अयं लोको घटार्थाः क्रिया मृत्खननाचा घट एवोपचरति, (तत्वतः) तासां च क्रियाणां क्रियाकालनिष्ठाकालयोरेक कालखात् क्रियमाणमेव कृतं भवति, दृश्यते चायं व्यवहारो लोके, तद्यथा-अद्यैव देवदत्ते निर्गते कान्यकुब्जं देवदत्तो गत इति | व्यपदेशः, (लोकोक्त्या) तथा दारुणि छिद्यमाने प्रस्थकोऽयं (इति) व्यपदेश इत्यादि । साम्प्रतमन्यथावादिनोऽपायदर्शनद्वारेणोपदेशं दातुकाम आह-यो हि दुर्गृहीतविद्यालवदध्मातः सर्वज्ञवचनैकदेशमध्यन्यथा व्याचष्टे स एवंभूतः सन् संयमतपस्सयमं कुर्वाणोऽपि शारीरमानसानां दुःखानामसातोदयजनितानां मोक्षं विनाशं न करोति आत्मगर्वाध्मातमानसो, यत एवं तसादात्मोत्कष:॥ अहमेव सिद्धान्तार्थवेदी नापरः कश्चित् मत्तुल्योऽस्तीत्येवरूपोऽभिमानो वर्जनीयः- त्याज्यो 'यतिजनेन' साधुलोकेन, अपरोपि शानिना जात्यादिको मदो न विधेयः किं पुनर्ज्ञानमदः, तथा चोक्तम्-"ज्ञानं मददर्पहरं माद्यति यस्तेन तस्स को वैद्यः । अगदो यस्य विपायति तख चिकित्सा कथं क्रियते ॥१॥" गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पत्रस्य S ॥२३॥ निक्षेपथावसरः, स च मूत्र सति भवति, सूत्रं च मूत्रानुगमे, स पावसरप्राप्तः अतः सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं । सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् अनुक्रम [५५६] ceae cata cek याथातथ्य शब्दस्य निक्षेपा:, ~473~ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [१], नियुक्ति: [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| दीप अनुक्रम [५६०] आहत्तहीयं तु पवेयइस्सं, नाणप्पकारं पुरिसस्सं जातं।सओ अ धम्मं असओ असीलं, संति असंति करिस्सामि पाउं ॥१॥ अहो य राओ अ समुट्टिएहि, तहागएहिं पडिलब्भ धम्म । समाहिमाघातमजोसयंता, सत्थारमेवं फरुसं वयंति ॥२॥ विसोहियं ते अणुकाहयंते, जे आतभावेण वियागरेजा । अट्टाणिए होइ बहुगुणाणं, जे णाणसंकाइ मुसं वदेजा ॥३॥ जे यावि पुट्टा पलिउंचयंति, आयाणमटुं खलु वंचयित्ता (यन्ति) । असाहुणो ते इह साहुमाणी, मायणि एसंति अणंतघातं ॥४॥ अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायं संबन्धः, तद्यथा-वलयाविमुक्तेत्यभिहितं, भाववलयं रागद्वेषी, ताभ्यां विनिर्मुक्तस्यैव या-1 थातथ्यं भवतीत्यनेन संवन्धेनायातस्यास्य सूत्रस व्याख्या प्रतन्यते-यथातथाभावो याथातथ्य-तत्वं परमार्थः, तन परमार्थचिन्तायां सम्यगन्नानादिकं, सदेव दर्शयति-'ज्ञानप्रकार मिति प्रकारशब्द आद्यर्थे, आदिग्रहणाच्च सम्यग्दर्शनचारित्रे गृह्येते, तत्र सम्यग्दर्शनम्-औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकं गृह्यते, चारित्रं तु व्रतसमितिकषायाणां धारणरक्षणनिग्रहादिकं गृह्यते, |एतत्सम्यगनानादिकं 'पुरुषस्य जन्तोर्यजातम् उत्पन्नं तदहं 'प्रवेदयिष्यामि' कथयिष्यामि, तुशब्दो विशेषणे, वितथाचारि18 णस्तद्दोषांश्चाविर्भावयिष्यामि, 'नानाप्रकारं' वा विचित्रं पुरुषस्य स्वभावम् उच्चावचं प्रशस्ताप्रशस्तरूपं प्रवेदयिष्यामि । नाना estotrseseseeeeeeeeeeeesea मूल-सूत्रस्य आरम्भ: ~474 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: | तथ्याध्य प्रत सूत्रांक ||४|| दीप अनुक्रम [५६०] सूत्रकृता 18| प्रकारं स्वभावं फलं च पश्चार्धेन दर्शयति-'सतः सत्पुरुषस्य शोभनस्य सदनुष्ठायिनः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रवतो 'धर्म' श्रुत-18| १३ याचा शीलाङ्का-18||चारित्रारूयं दुर्गतिगमनधरणलक्षणं वा तथा 'शीलम् उद्युक्तविहारिखं तथा 'शान्ति' नितिमशेषकर्मक्षयलक्षणां 'करिस्सामि | चाय- पाउ'त्ति प्रादुष्करिष्ये प्रकटयिष्यामि यथावद् उद्भावयिष्यामि, [ग्रन्थाग्रं.७०००] तथा असत: अशोभनय परतीथिकस्य गृहस्थस्य त्तियुत वा पार्श्वस्थादेर्वा, चशब्दसमुश्चितमधर्म-पापं तथा 'अशीलं' कुत्सितशीलमशान्ति च-अनिर्वाणरूपां संमृति प्रादुर्भावयिष्यामीति ।। ॥२३२॥ अत्र च सतो धर्म शीलं शान्ति च प्रादुष्करिष्यामि, असतश्चाधर्ममशीलमशान्ति चेत्येवं पदघटना योजनीया, अनुपातस्य [च] |चशब्देनाक्षेपो द्रष्टव्य इति ॥१॥ जन्तोगुणदोषरूपं नानाप्रकारं खभावं प्रवेदयिष्यामीत्युक्तं तदर्शयितुकाम आह-'अहोरा-18 त्रम्' अहर्निश सम्यगुत्थिताः समुत्थिता सदनुष्ठानवन्तस्तेभ्यः श्रुतधरेभ्यः, तथा 'तथागतेभ्यो' वा तीर्थकृयो 'धर्म' श्रुत-९ चारित्राख्यं प्रतिलभ्य संसारनिःसरणोपायं धर्ममवाप्यापि कर्मोदयान्मन्दभाग्यतया जमालिप्रभृतय इहात्मोत्कर्षातीर्थकदाद्याख्यातं 'समाधि' सम्यग्दर्शनादिकं मोक्षपद्धतिम् 'अजोषयन्तः' असेवन्तः सम्यगकुर्वाणा निववा बोटिकाश खरुचिविरचित-18 | व्याख्याप्रकारेण निर्दोष सर्वज्ञप्रणीत मार्ग विध्वंसयन्ति-कुमार्ग प्ररूपयन्ति, ध्रुवते च-असौ सर्वज्ञ एव न भवति यः क्रियमाणं कृतमित्यध्यक्षविरुद्ध प्ररूपयति, तथा यः पात्रादिपरिग्रहान्मोक्षमार्गमाविर्भावयति, एवं सर्वज्ञोक्तमश्रद्दधानाः श्रद्धानं कुर्वन्तोऽप्यपरे धृतिसंहननदुर्वलतया यथाऽरोपितं संयमभार वोडमसमर्थाः कचिद्विषीदन्तोऽपरेणाचार्यादिना वत्सलतया चोदिताः सन्तस्तं 'शास्तारम्' अनुशासितारं चोदकं पुरुष वदन्ति 'कर्कशं' निष्ठुरं प्रतीपं चोदयन्तीति ॥२॥ किन-विविधम् अनेकन१ मा०प्र० । २ भात्मनेपदमनिलं तेन परस्मायपि तिवेः, ध्वनित पद धातूपारायणे जग दीप्ती इत्यादी। seeeeeeeeeease Reseenet ~4754 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक |४|| दीप अनुक्रम [५६०] कारं शोधितः-कुमार्गप्ररूपणापनयनद्वारेण निर्दोषतां नीतो विशोधितः सम्बग्दर्शनबानचारित्राख्यो मोक्षमार्गस्तमेवंभूतं मोक्षमार्ग 'ते' स्वाग्रहग्रहास्ता गोष्ठामाहिलवदनु-पश्चादाचार्यप्ररूपणातः कथयन्ति-अनुकथयन्ति । ये चैर्वभूता आत्मोत्कर्षास्वरुचिविरचितव्याख्याप्रकारच्यामोहिता 'आत्मभावेन' खाभिप्रायेणाचार्यपारम्पर्येणायातमप्यर्थ व्युदस्यान्यथा 'ब्यागृणीयुड़ा |व्याख्यानयेयुः, ते हि गम्भीराभिप्राय सूत्रार्थ कर्मोदयात्पूर्वापरेण यथावत्परिणामयितुमसमर्थाः पण्डितमानिन उत्सूत्रं प्रतिपाद-18 यन्ति । आत्मभावव्याकरणं च महतेऽनायेति दर्शयति-'स' एवंभूतः स्वकीयाभिनिवेशाद् 'अस्थानिका' अनाधारो बहूनां | ज्ञानादिगुणानामभाजनं भवतीति, ते चामी गुणा:-"सुस्मुसइ पडिपुच्छह सुणेइ गेण्हह य ईहए आदि । ततो अपोहए था| | धारेइ करेइ वा सम्मं ॥१॥" यदिवा गुरुशुश्रूषादिना सम्यग्रज्ञानावगमस्ततः सम्यगनुष्ठानमतः सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्ष इत्येवं-18 ॥ भूतानां गुणानामनायतनमसौ भवति, कचित्पाठः-'अट्ठाणिए होंति बहूणिवेस'त्ति अस्थायमर्थः-अस्थानम् अभाजनमपात्र|| मसौ भवति सम्यग्रज्ञानादीनां गुणानां, किंभूतो ?-बहुः-अनर्थसंपादकत्वेनासदभिनिवेशो यस्य स बहुनिवेशः, यदिवा-गुणानाम स्थानिकः-अनाधारो बहूनां दोषाणां च निवेशः-स्थानम् आश्रय इति, किंभूताः पुनरेवं भवन्तीति दर्शयति-ये केचन दुर्गुहीतज्ञानलवावलेपिनो ज्ञाने-श्रुतज्ञाने शङ्का ज्ञानशङ्का तया मृषावादं वदेयुः, एतदुक्तं भवति-सर्वज्ञप्रणीते आगमे शक कर्व-110 |न्ति, अयं तत्प्रणीत एव न भवेद् अन्यथा वाऽसार्थः स्यात् , यदिवा ज्ञानशङ्कया पाण्डिल्याभिमानेन मृषावादं वदेयुर्यथाऽहं शुभूषते प्रतिपच्छति मृणोति गृहाति ईहते चापि । ततोऽपोहते वा पारयति करोति वा सम्मक् ॥ १ ॥ ३ भानानिसाविर्भावाकया । ~4764 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४|| दीप अनुक्रम [५६०] सूत्रकृताङ्ग प्रवीमि तथैव युज्यते नान्यथेति ॥ ३॥ किश्चान्यत्-ये केचनाविदितपरमार्थाः खल्पतया समुत्सेकिनोऽपरेण पृष्टाः-कस्मादा- १३ याथा चार्यात्सकाशादधीतं श्रुतं भवद्भिरिति, ते तु खकीयमाचार्य ज्ञानावलेपेन निढुवाना अपरं प्रसिद्ध प्रतिपादयन्ति, यदिवा मयैवैतचार्षीय- खत उत्प्रेक्षितमित्येवं ज्ञानावलेपात् 'पलिउंचयंतिति निडवते, यदिवा-सदपि प्रमादस्खलितमाचायोंदिनाऽऽलोचनादिके || त्तियुत अवसरे पृष्टाः सन्तो मातृस्थानेनावर्णवादभयानिहुवते । त एवं पलिकुञ्चिका निहवं कुर्वाणा आदीयत इत्यादान-बानादिकं ॥२३३॥ मोक्षो वा तमर्थ वचयन्ति-भ्रंशयन्त्यात्मनः, खलुरवधारणे वश्चयन्त्येव । एवमनुष्ठायिनश्वासाधवस्ते परमार्थतस्तच्चचिन्तायाम् 'इह' असिन् जगति साधुविचारे वा 'साधुमानिन' आत्मोत्कर्षाद सदनुष्ठानमानिनो मायान्वितास्ते 'एष्यन्ति' यास्यन्ति 'अनन्तशो' बहुशो 'घातं' विनाशं संसारं वा अनवदनं संसारकान्तारमनुपरिवर्तयिष्यन्तीति, दोषद्वयदुष्टखानेपाम, एकं ताव18 स्वयमसाधयो द्वितीयं साधुमानिनः, उक्तंच-"पावं काऊण सयं अप्पाणं सुद्धमेव वाहरइ । दुगुणं करेह पावं वीर्य पालस्स मंदचं ॥१॥" संदेवमात्मोत्कर्षदोषारोधिलाभमप्युपहत्यानन्तसंसारभाजो भवन्त्यमुमन्त इति स्थितम् ॥ ४॥ मानविपाकमुपदाधुना क्रोधादिकषायदोषमुद्भावयितुमाहजे कोहणे होइ जगट्रभासी, विओसिय जे उ उदीरएज्जा । अंधे व से दंडपहं गहाय, अवि ॥२३॥ ओसिए धासति पावकम्मी ॥ ५॥ जे विग्गहीए अन्नायभासी, न से समे होइ अझंझपत्ते । तुच्छतया । १शा । ३ पापं कृत्वा खयं आत्मानं शुद्धमेव ब्याहरति द्विगुणं करोति पापं द्वितीयं बालस्य मयलम् ॥१॥ అలాంటి ~477~ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [६], नियुक्ति: [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||६|| दीप उ(ओ)वायकारी य हरीमणे य, एगंतदिट्टी य अमाइरूवे ॥६॥ से पेसले सुहमे पुरिसजाए, जचन्निए चेव सुउजुयारे । बटुंपि अणुसासिए जे तहच्चा, समे हु से होइ अझंझपत्ते ॥७॥ जे आवि अप्पं वसुमंति मत्ता, संखाय वायं अपरिक्ख कुज्जा । तवेण वाहं सहिउत्ति मत्ता, अण्णं जणं पस्सति बिंबभूयं ॥८॥ यो बविदितकषायविपाका प्रकृत्यैव क्रोधनो भवति तथा 'जगदईभाषी' यश्च भवति, जगत्यर्था जगदा ये यथा व्यवस्थिताः पदार्थास्तानाभापितुं शीलमय जगदर्थभाषी, तद्यथा-ब्राह्मणं डोडमिति याचथा वणिज किराटमिति । शूद्रमाभीरमिति श्वपार्क चाण्डालमित्यादि तथा काणं काणमिति तथा सञ्ज कुब्ज बडममित्यादि तथा कुष्टिनं क्षयिणमित्यादि । यो यस दोपस्तं तेन खरपरुष ब्रूयात् यः स जगदर्थभाषी, यदिवा जयार्थभाषी यथैवाऽऽत्मनो जयो भवति तथैवाविधमा-IM नमप्यर्थ भाषते तच्डीलब-येन केनचित्प्रकारेणासदर्थभाषणेनाप्यात्मनो जयमिच्छतीत्यर्थः । ' विओसियंति विविधमवसितं-181 पर्यवसितमुपशान्तं इन्टू कलहं यः पुनरप्युदीरयेत् , एतदुक्तं भवति-कलहकारिभिमिथ्यादुष्कृतादिना परस्परं क्षामितेऽपि ॥ तत्तद् श्रूयाबेन पुनरपि तेषां क्रोधोदयो भवति । साम्प्रतमेतद्विपार्क दर्शयति-यथा बन्ध:-चक्षुर्विकलो 'दण्डप गोदण्डमार्ग [ लघुमार्ग प्रमुखोज्ज्वलं 'गृहीत्वा' आश्रित्य ब्रजन् सम्यगकोविदतया 'धृष्यते' कण्टकचापदादिभिः पीव्यते एवमसावपि केवलं लिङ्गधार्यनुपशान्तक्रोधः कर्कशभाष्यधिकरणोद्दीपकः, तथा 'अविओसिए'ति अनुपशान्तद्वन्द्वः पापम्-18 अनुक्रम [५६२] ~478~ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| दीप अनुक्रम [५६४] सूत्रकृताङ्ग18 अनार्य कर्म-अनुष्ठानं यस्यासौ पापकर्मा धृष्यते चतुर्गतिक संसारे यातनास्थानगतः पौनःपुन्येन पीड्यत इति ॥ ५॥ किशा-8१३ पाथा शीलाङ्का-18 न्यत्-यः कश्चिदविदितपरमाथों विग्रहो-युद्धं स विद्यते यस्थासौ विग्रहिको यद्यपि प्रत्युपेक्षणादिकाः क्रिया विधत्ते तथापि युद्ध-18 तथ्याध्यक चार्यांय- प्रियः कचिद्भवति तथाऽज्याय्यं भाषितुं शीलमस्य सोऽन्याय्यभाषी यत्किञ्चनभाष्यस्थानभाषी गुर्वाधिक्षेपकरो वा यश्चैवंभूतो चियुतं नासौ 'समो' रक्तद्विष्टतया मध्यस्थो भवति, तथा नाप्यझञ्झां प्राप्तः-अकलहप्राप्तो वा न भवत्यमायाप्राप्तो वा, यदिवा अझ॥२३४|| झाप्राप्तैः-अकलहप्राप्तैः सम्यग्रष्टिभिरसौ समो न भवति यतः अतो नैवंविधेन भाव्यम् , अपि खक्रोधनेनाकर्कशभाषिणा चोपशान्तयुद्धानुदीरकेण न्याय्यभाषिणाऽझञ्झाप्राप्तेन मध्यस्खेन च भाव्यमिति । एवमनन्तरोद्दिष्टदोषवर्जी सन्नुपपातकारी-आचार्य-13 निर्देशकारी-यथोपदेश क्रियासु प्रवृत्तः यदिवा 'उपायकारिति सूत्रोपदेशप्रवर्तकः, तथा हीः लज्जा संयमो मूलोचरगुण-18 | भेदभिन्नस्तत्र मनो यस्खासौ हीमनाः, यदिवा-अनाचारं कुर्वन्नाचार्यादिभ्यो लञ्जते स एवमुच्यते, तथैकान्तेन तच्चेपु-जीना-13 कादिषु पदार्थेषु दृष्टियस्वासावेकान्तदृष्टिः, पाठान्तरं वा 'एगंतसाहित्ति एकान्तेन श्रद्धावान् मौनीन्द्रोक्तमार्गे एकान्तेन श्रद्धालु || रित्यर्थः, चकारः पूर्वोक्तदोषविपर्यस्तगुणसमुच्चयार्थः, तद्यथा-ज्ञानापलिकुञ्चकोक्रोधीत्यादि तावदझञ्झाप्राप्त इति, स्वत एवाह-| ॥8॥'अमाइसवे'त्ति अमायिनो रूपं यस्यासावमायिरूपोऽशेषच्छवरहित इत्यर्थः, न गुर्वादीन् छद्मनोपचरति नाप्यन्येन केनचि-181 ||8|| साधं छबव्यवहारं विधत्त इति ॥६॥ पुनरपि सद्गुणोत्कीर्तनायाह-यो हि कटुसंसारोद्वियः कचित्प्रमादस्खलिते सत्याचायो-11% S२३४॥ |दिना यदपि 'अनुशास्थमानः' चोबमानस्तथैव-सन्मार्गानुसारिण्यर्चा-लेश्या चित्तवृत्तिर्यस्य स भवति तथार्ची, यश्च शिक्षा ग्राह्यमाणोऽपि तथाचों भवति स 'पेशलो' मिष्टवाक्यो विनयादिगुणसमन्वितः 'सूक्ष्मः' मूक्ष्मदर्शिखात्सूक्ष्मभाषि(वि)बादा सूक्ष्मः ~4794 Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| दीप अनुक्रम [५६४] ceneceseseeneeeeeeeee स एव पुरुषजातः स एव परमार्थतः पुरुषार्थकारी नापरो योऽनायुधतपखिजनपराजितेनापि क्रोधेन जीयते, तथाऽसावेव || 'जात्यन्वितः मुकुलोत्पन्ना, सच्छीलान्वितो हि कुलीन इत्युच्यते, न सुकुलोत्पत्तिमात्रेण, तथा स एव मुष्ठ-अतिशयेन अजु:संयमस्तकरणशीला-ऋजुकरः, यदिवा 'उजुचारे'त्ति यथोपदेशं यः प्रवर्तते न तु पुनर्वक्रतयाऽचार्यादिवचनं विलोमयतिप्रतिकूलयति, यत्र तथार्चः पेशलः सूक्ष्मभाषी जात्यादिगुणान्वितः कचिदबक्रः 'समो' मध्यस्थो निन्दायां पूजायां च न रुष्य-18 |ति नापि तुष्यति तथा अझंझा-अक्रोधोऽमाया वा तां प्राप्तोऽझंझाप्राप्तः यदिवाझंझाप्राप्तः-वीतरागैः 'सम' तुल्यो भवतीति ॥ ७॥ प्रायस्तपस्विनां ज्ञानतपोऽवलेपो भवतीत्यतस्तमधिकृत्याह-यश्चापि कश्चिलघुप्रकृतिरल्पतयाऽऽस्मानं वसु-द्रव्यं तच | परमार्थचिन्तायां संयमस्तद्वन्तमात्मानं मलाऽहमेवात्र संयमवान् मूलोत्तरगुणानां सम्यगविधायी नापरः कश्चिन्मत्तुल्योऽस्तीति, तथा संख्यायन्ते-परिच्छिद्यन्ते जीवादयः पदार्था येन तज्ज्ञानं संख्येत्युच्यते तद्वन्तमात्मानं मला तथा सम्यक्-परमार्थमपरी-|| क्ष्यात्मोत्कर्षवादं कुर्यात् तथा तपसा-द्वादशभेदमिन्नेनाहमेवात्र सहितो-युक्तो न मत्तुल्यो विकृष्टतपोनिएतदेहोऽस्तीत्येवं मसास्मोत्कर्षाभिमानीति 'अन्यं जनं साधुलोकं गृहस्खलोकंवा 'विम्बभूतं' जलचन्द्रवत्तदर्थशून्यं कूटकार्षापणवद्वा लिङ्गमात्रधारिणं | पुरुषाकृतिमात्र वा 'पश्यति' अवमन्यते । तदेवं यन्मदस्थानं जात्यादिक तत्तदात्मन्येवारोप्यापरमवधूतं पश्यतीति ॥ ८॥ | किश्चान्यत् एगंतकूडेण उ से पलेइ, ण विजती मोणपयंसि गोत्ते । जे माणणटेण विउकसेजा, वसुमन्न ~480 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||९|| दीप अनुक्रम [५६५] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [९], निर्युक्तिः [१२६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र -[ ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचार्यय चियुतं ॥२३५॥ तरेण अनुज्झमाणे ॥ ९ ॥ जे माहणो खत्तियजायए वा, तहुग्गपुते तह लेच्छई वा । जे पबईए परदत्तभोई, गोते ण जे थब्भति (थंभभि) माणबद्धे ॥१०॥ न तस्स जाई व कुलं व ताणं, roणत्थ विजाचरणं सुचिण्णं । णिक्खम्म से सेवइऽगारिकम्मं, ण से पारए होइ विमोयणाए ॥ ११ ॥ णिकिंचणे भिक्खु सुलूहजीवी, जे गारवं होइ सलोगगामी । आजीवमेयं तु अबुझ माणो, पुणो पुणो विप्परियासुर्वेति ॥ १२ ॥ कूटवत्कूटं यथा कूटेन मृगादिर्बद्धः परवशः सन्नेकान्तदुःखभाग्भवति एवं भावकूटेन स्नेहमयेनैकान्ततोऽसौ संसारचक्रवालं पर्येति तत्र वा प्रकर्षेण लीयते प्रलीयते - अनेकप्रकारं संसारं बंभ्रमीति, तुशब्दात्कामादिना वा मोहेन मोहितो बहुवेदने संसारे प्रलीयते, यश्चैवंभूतोऽसौ 'न विद्यते' न कदाचन संभवति मुनीनामिदं मौनं तच्च तत्पदं च मौनपदं - संयमस्तत्र मौनीन्द्रे वा पदेसर्वज्ञप्रणीतमार्गे नासौ विद्यते, सर्वज्ञमतमेव विशिनष्टि - गां वाचं त्रायते - अर्थाविसंवादनतः पालयतीति गोत्रं तस्मिन् समस्तागमाधारभूत इत्यर्थः, उच्चैर्गोत्रे वा वर्तमानस्तदभिमानग्रहग्रस्तो मौनीन्द्रपदे न वर्तते, यथ माननं-पूजनं सत्कारस्तेनार्थ:| प्रयोजनं तेन माननार्थेन विविधमुत्कर्षयेदात्मानं, यो हि माननार्थेन - लाभपूजासत्कारादिना मदं कुर्यान्नासौ सर्वज्ञपदे विद्यत इति पूर्वेण संबन्धः, तथा वसु-द्रव्यं तोह संयमस्तमादाय तथाऽन्यतरेण ज्ञानादिना मदस्यानेन परमार्थमनुध्यमानो माद्यति Eucation International For Parts Only ~ 481~ १३ याथा तथ्याध्य० ||२३५|| waryra Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| । पठन्नपि सर्वशास्त्राणि तदर्थ चावगच्छन्नपि नासौ सर्वज्ञमतं परमार्थतो जानातीति ॥ ९॥ सर्वेषां मदस्थानानामुत्पत्तेरारभ्य जा-1 तिमदो बाह्यनिमित्तनिरपेक्षो यतो भवत्यतस्तमधिकृत्याह-यो हि जात्या ब्राह्मणो भवति क्षत्रियो वा-इक्ष्वाकुवंशादिकः, तद्भेद| मेव दर्शयति-'उग्रपुत्रः क्षत्रियविशेषजातीयः तथा 'लेच्छइति क्षत्रियविशेष एव, तदेवमादिविशिष्टकुलोतो यथावस्थि| तसंसारस्वभाववेदितया यः 'प्रबजितः' त्यक्तराज्यादिगृहपाशबन्धनः परैर्दत्तं भोक्तुं शीलमस्स परदत्तभोजी-सम्यक्संयमानु-| छायी 'गोत्रे' उचैोंने हरिवंशस्थानीय समुत्पनोऽपि नैव 'स्तम्भ' गर्वमुपयायादिति, किंभूते गोत्रे ?-'अभिमानबद्धे' अभि-15 मानास्पदे इति, एतदुक्तं भवति-विशिष्टजातीयतया सर्वलोकाभिमान्योऽपि प्रबजितः सन् कृतशिरस्तुण्डमुण्डनो भिक्षा) परगृ-12 |हाण्यटन् कथं हास्यास्पदं गर्व कुर्यात् १, नैवासी मानं कुर्यादिति तात्पर्याधः ॥ १०॥ न चासौ मानः क्रियमाणो गुणायेति ॥ दर्शयितुमाह-न हि 'तस्य' लघुप्रकृतेरभिमानोडरस्य जातिमदः कुलमदो वा क्रियमाणः संसारे पर्यटतखाणं भवति, न घभि| मानो जात्यादिक ऐहिकामुष्मिकगुणयोरुपकारीति, इह च मातृसमुत्था जातिः पितृसमुत्थं कुलम् , एतच्चोपलक्षणम्, अन्यदपि ४ मदस्थानं न संसारत्राणायेति, यत्पुनः संसारोत्तारकलेन त्राणसमर्थ तदर्शयति-ज्ञानं च चरणं च शानचरणं तस्मादन्यत्र संसा-18 रोत्तारणत्राणाशा न विद्यते, एतच सम्यक्सोपहितं सत् सुष्ठु चीर्ण सुचीर्णं संसारादुचारयति, 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष' इति वच-18 नात्, एवंभूते सत्यपि मोक्षमार्गे 'निष्कम्यापि' प्रवज्यां गृहीखापि कश्चिदपुष्टधर्मा संसारोन्मुखः 'सेवते' अनुतिष्ठत्यभ्यस्यति पौन:पुन्येन विधत्ते अगारिणां-गृहस्थानामङ्गं कारणं जात्यादिकं मदस्थान, पाठान्तरं वा 'अगारिकम्मति अगारिणां कर्म18 अनुष्ठानं सावधमारम्भं जातिमदादिकं वा सेवते, न चासावगारिकर्मणां सेवकोऽशेषकर्ममोचनाय पारगो भवति, निःशेषकर्मक्ष-1 Pos89999909assa दीप अनुक्रम [५६८] SARERatunintamatara ~482 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: १३ याथा तध्याध्य० प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप मत्रकता यकारी न भवतीति भावः । देशमोचना तु प्रायशः सर्वेषामेवासुमतां प्रतिक्षणमुपजायत इति ॥११॥ पुनरप्यभिमानदोषाविर्भाव- शीकाका- 18 नायाह-बायेनार्थेन निष्किश्चनोऽपि भिक्षणशीलो भिक्षु:-परदत्तभोजी तथा सुष्टु रुक्षम्-अन्तप्रान्तं वल्लचणकादि तेन जीवि-1 चाय- तु-प्राणधारणं कर्तुं शीलमस्य स सुरूक्षजीवी, एवंभूतोऽपि यः कश्चिद्गौरवप्रियो भवति तथा 'श्लोककामी' आत्मश्लाघाभिलाषी चियुतं भवति, स चैवंभूतः परमार्थमयुध्यमान एतदेवाकिश्चनवं सुरूक्षजीवित्वं वाऽऽत्मश्लाघातत्परतया आजीवम्-आजीविकामा | स्मवर्तनोपायं कुर्वाणः पुनः पुनः संसारकान्तारे विषयांसं जातिजरामरणरोगशोकोपद्रवमुपैति-गच्छति, तदुत्तरणायाभ्युघतो ॥२३६॥18 वा तत्रैव निमन्जतीत्ययं विपर्यास इति ॥ १२ ॥ यसादमी दोषाः समाधिमाख्यातमसेवमानानामाचार्यपरिभाषिणां वा तस्मादमीभिः शिष्यगुणैर्भाव्यमित्याह जे भासवं भिक्खु सुसाहुवादी, पडिहाणवं होइ विसारए य । आगाढपण्णे सुविभावियप्पा, अन्नं जणं पन्नया परिहवेजा ॥ १३॥ एवं ण से होइ समाहिपत्ते, जे पन्नवं भिक्खु विउक्कसेजा। अहवाऽविजे लाभमयावलिते. अन्नं जणं खिसति बालपन्ने ॥१४॥ पन्नामयं चेव तवोमयं च, णिन्नामए गोयमयं च भिक्खू । आजीवगं चेव चउत्थमाहु, से पंडिए उत्तमपोग्गले से ॥ ॥१५॥ एयाइं मयाई विगिंच धीरा, ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा। ते सबगोत्तावगया महेसी, उच्च अगोत्तं च गतिं वयंति ॥ १६ ॥ తెలం వంటలు serweceneseseseserseroese अनुक्रम [५६८] २३६॥ ~4834 Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [१७२] भाषागुणदोषज्ञतया शोभनभाषायुक्तो भाषावान् 'भिक्षुः साधुः, तथा सुष्ठु साधु-शोभनं हितं मितं प्रियं वदितुं शीलमस्येत्य- | | सौ सुसाधुवादी, क्षीरमध्वाश्रववादीत्यर्थः तथा प्रतिभा प्रतिभानम् औत्पत्तिक्यादिबुद्धिगुणसमन्वितखेनोत्पन्नप्रतिभसं तत्प्रतिमानं | | विद्यते यस्सासौ प्रतिभानवान्-अपरेणाक्षिप्तस्तदनन्तरमेवोत्तरदानसमर्थः यदिवा धर्मकथावसरे कोऽयं पुरुषः कं च देवताविशेष प्रणतः कतरद्वा दर्शनमाश्रित इत्येवमासनप्रतिभतया (बेत्य) यथायोगमाचष्टे, तथा 'विशारदः' अर्थग्रहणसमर्थों बहुप्रका|राथैकथनसमर्थो वा, चशब्दाच्च श्रोत्रभिप्रायजः, तथा आगाढा--अवगाढा परमार्थपर्यवसिता तत्वनिष्ठा प्रज्ञा-बुद्धियस्थासावागाढप्रज्ञा, तथा सुष्टु विविध भावितो-धर्मवासनया वासित आत्मा यस्थासौ सुविभावितात्मा, तदेवमेभिः सत्यभाषादिभिगुणः शोभनः साधुर्भवति, यवेभिरेव निर्जराहेतुभूतैरपि मदं कुर्यात् , तद्यथा-अहमेव भाषाविधिजस्तथा साधुवायहमेव च न मत्तुल्यः प्रतिभानवानस्ति नापि च मत्समानोऽलौकिक: लोकोत्तरशास्त्रार्थविशारदोजगाढप्रज्ञः सुभावितात्मेति च, एवमात्मोस्कर्षवानन्यं जन स्वकीयया प्रज्ञया 'परिभवेत्' अवमन्येत, तथाहि-किमनेन वाकुण्ठेन दुर्दुरूढेन कुण्डिकाका सकल्पेन खसूचिना कार्यमस्ति ? कचित्सभायां धर्मकथावसरे वेति, एवमात्मोत्कर्षवान् भवति, तथा चोक्तम्- "अन्यैः खेच्छारचितानर्थविशेपान् श्रमेण विज्ञाय | कृत्स्ने बानयमित इति खादत्यङ्गानि दर्पण ॥ १॥" इत्यादि ॥१३ ।। साम्प्रतमेतद्दोपाभिधित्सयाऽऽह-15 'एवम् अनन्तरोक्तया प्रक्रियया परपरिभवपुरःसरमात्मोत्कर्ष कुर्वन्नशेषशास्त्रार्थविशारदोऽपि तत्वार्थावगाढप्रशोऽप्यसौ 'समा-18 ISIचिंमोक्षमार्ग ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं धर्मध्यानाख्यं वा न प्राप्तो भवति, उपर्येवासी परमार्थोदन्वतः प्लयते, क एवंभूतो भवतीति || दर्शयति-यो ह्यविदितपरमार्थतयाऽऽत्मानं सच्छेमुषीकं मन्यमानः खप्रज्ञया भिक्षुः 'उत्कर्षेद' गर्व कुर्यात् , नासी समाधि ececeaececeaesea Recenese SAREauratonintamarnama ~4844 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [१७२] कता प्राप्तो भवतीति प्राक्तनेन संबन्धः, अन्यदपि मदस्थानमुद्दट्टयति-'अथवेति पक्षान्तरे, यो बल्पान्तरायो लब्धिमानात्मकते 8 १३ याथा शीलाका-18 परस्मै चोपकरणादिकमुत्पादयितुमलं स लघुप्रकृतितया लाभमदावलिप्तो भवति, तदवलिप्तश्च समाधिमप्राप्तो भवति, स चैर्वभूतोऽ-18 तथ्याध्य चार्षीयवृ- न्यं जनं कर्मोदयादलब्धिमन्तं 'खिंसइ'चि निन्दति परिभवति, वक्ति च-न मत्तुल्यः सर्वसाधारणशय्यासंस्तारकाधुपकरणोत्तियुत त्पादको विद्यते, किमन्यैः स्वोदरभरणव्यग्रतया काकायैः कृत्यमस्तीत्येवं 'बालमज्ञो' मूर्खप्रायोऽपरजनापवादं विदध्यादिति, ॥२३७|| ॥१४॥ तदेवं प्रज्ञामदावलेपादन्यस्मिन् जने निन्धमाने बालसदशैभूयते यतोऽतः प्रज्ञामदोन विधेयो, न केवलमयमेव न विधेयः | अन्यदपि मदखानं संसारजिहीर्पणा न विधेयमिति तद्दर्शयितुमाह-प्रज्ञया-तीक्ष्णपुळ्या मदः प्रज्ञामदतं च, तपोमदं च निश्चयेन | नामयेन्नि मयेदू-अपनये, अहमेव यथाविधशास्त्रार्थस्य वेत्ता तथाऽहमेव विकृष्टतपोषिधायी नापि च तपसो ग्लानिमुपगच्छामीत्येवंरूपं मदं न कुर्यात, तथा उच्चैर्गोत्रे इक्ष्वाकुवंशहरिवंशादिके संभूतोऽहमित्येवमात्मक गोत्रमदं च नामयेदिति । आ-समन्ताज्जीवन्त्यनेनेत्याजीव:-अर्थनिचयस्तं गच्छति-आश्रयत्यसावाजीवगः-अर्थमदतं च चतुर्थ नामयेत्, चशब्दाच्छेपानपि मदानामयेत्, तनामनाचासौ 'पण्डितः' तत्त्ववेत्ता भवति, तथाऽसावेच समस्तमदापनोदक उत्तमः पुद्गल-आत्मा भवति, प्रधानवाची चा पुद्गलशब्दः, ततश्रायमर्थ:-उत्तमोत्तमो-महतोऽपि महीयान् भवतीत्यर्थः । १५ ।। साम्प्रतं मदस्थाना-18 नामकरणीयसमुपदश्योपसंजिहीर्घराह-'एतानि' प्रज्ञादीनि मदस्थानानि संसारकारणलेन सम्यक परिज्ञाय 'विगिच'त्ति पृथ-12॥२३७॥ कुर्यादात्मनोऽपनयेदितियावत् , धी:-बुद्धिस्तया राजन्त इति धीरा-विदितवेद्या नैतानि जात्यादीनि मदखानानि सेवन्ति-अनु| तिष्ठन्ति, के एते १-ये सुधीरः-सुप्रतिष्ठितो धर्मः-श्रुतचारित्राख्यो येषां ते सुधीरधर्माणः, ते चैवंभूताः परित्यक्तसर्वमदखाना ~485~ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [१७२] महर्षयस्तपोविशेषशोषितकल्मपाः सर्वसादुश्चर्गोत्रादेरपगता गोत्राफ्गताः सन्त उच्चा-मोक्षायां सर्वोत्तमा वा गतिं ब्रजन्तिगच्छन्ति, चशब्दात्पश्चमहाविमानेषु कल्पातीतेषु वा ब्रजन्ति, अगोत्रोपलक्षणाच्चान्यदपि नामकर्मायुष्कादिकं तत्र न विद्यत इति द्रष्टव्यम् ॥ १६ ॥ किश्चभिक्खू मुयच्चे तह दिटुधम्मे, गामं च णगरं च अणुप्पविस्सा । से एसणं जाणमणेसणं च, अन्नस्स पाणस्स अणाणुगिद्धे ॥ १७॥ अरति रति च अभिभूय भिक्खू , बहुजणे वा तह एगचारी। एगंतमोणेण वियागरेज्जा, एगस्स जंतो गतिरागती य॥१८॥ सयं समेचा अदुवाऽवि सोच्चा, भासेज धम्म यियं पयाणं । जे गरहिया सणियाणप्पओगा, ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा ॥१९॥ केसिंचि तक्काइ अबुज्झ भावं, खुद्दपि गच्छेज असदहाणे । आउस्स कालाइयारं वघाए, लद्धाणुमाणे य परेसु अट्टे ॥ २०॥ स एवं मदस्थानरहितो भिक्षणशीलो भिक्षुः, तं विशिनष्टि-मृतेव स्नानविलेपनादिसंस्कारामावादा-तनुः शरीरं यस्य स मृतार्चः यदिवा मोदनं मुत् तद्भूता शोभनार्चा--पद्मादिका लेश्या यस्य स भवति मुदर्ची-प्रशस्तलेश्या, तथा दृष्टः-अवगतो oeseseseseaestseenewesercence ~486 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [५७६] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [२०], निर्युक्तिः [१२६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र -[ ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचार्यय चियुतं ||२३८|| यथावस्थितो धर्मः - श्रुतचारित्राख्यो येन स तथा स चैवंभूतः कविदवसरे ग्रामं नगरमन्यद्वा मडम्बादिकमनुप्रविश्य भिक्षार्थमसाबुत्तमधृतिसंहननोपपन्नः सन्नेषणां गवेषणग्रहणैपणादिकां 'जानन्' सम्यगवगच्छन्ननेषणां च उद्गमदोपादिकां तत्परिहारं विपाकं च सम्यगवगच्छन् अन्नस्य पानस्य वा 'अननुगृद्धः' अनभ्युपपन्नः सम्यन्विहरेत्, तथाहि - स्थविरकल्पिका द्विवारिंशद्दोषरहितां भिक्षां गृह्णीयुः, जिनकल्पिकानां तु पञ्चखभिग्रहो द्वयोर्ग्रहः, तामाः - 'संसईमसंसट्टा उद्धड तह होति अप्पलेवा उम्गहिया पग्गहिया उज्झियधम्मा य सत्तमिया ||१||' अथवा यो यस्थाभिग्रहः सा तस्यैषणा अपरा खनेषणेत्येवमेपणानेषणाभिज्ञः कचित्प्रविष्टः सन्नाहारादावमूर्च्छितः सम्यक् शुद्धां भिक्षां गृह्णीयादिति ॥ १७॥ तदेवं भिक्षोरनुकूलविपयोपलब्धिमतोऽ| प्यरक्तद्विष्टतया तथा दृष्टमप्यदृष्टं श्रुतमप्यश्रुतमित्येवं भावयुक्ततया च मृतकल्पदेहस्य सुदृष्टधर्मण एषणानेषणा भिज्ञस्थानपानादावमूर्च्छितस्य सतः कचिद् ग्रामनगरादौ प्रविष्टस्यासंयमे रतिररतिश्च संयमे कदाचित्प्रादुष्ष्यात् सा चापनेतव्येत्येतदाह - महामुनेरप्यस्नानतया मलाविलस्यान्तप्रान्तवल्लचणकादिभोजिनः कदाचित्कर्मोदयादरतिः संयमे समुत्पद्येत तां चोत्पन्नामसौ भिक्षुः संसारखभावं परिगणय्य तिर्यङ्गारकादिदुःखं चोत्प्रेक्षमाणः खल्पं च संसारिणामायुरित्येवं विचिन्त्याभिभवेद्, अभिभूय चासावेकान्तमौनेन व्यागृणीयादित्युत्तरेण संबन्धः, तथा रतिं च 'असंयमे' सावधानुष्ठाने अनादिभवाभ्यासादुत्पन्नामभिभवेदभिभूय च संयमोद्युक्तो भवेदिति । पुनः साधुमेव विशिनष्टि- बहवो जनाः साधवो गच्छवासितया संयमसहाया यस्य स बहुजनः, तथैक एव चरति तच्छीलयैकचारी, स च प्रतिमाप्रतिपन्न एकल्लबिहारी जिनकल्पादिर्वा स्यात्, स च बहुजन एकाकी वा केनचित्पृ१] उद्धृता तथा भवत्यरूपलेपा च । उद्गृहोता प्रगृहीता उज्झितधर्मा च सप्तमिका ॥ १ ॥ Education Internation For Parts Only ~ 487~ १३ याचा तथ्याध्य० રા Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [५७६] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [२०], निर्युक्तिः [१२६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[ ०२ ] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः ष्टोऽपृष्टो वैकान्तमोनेन–संयमेन करणभूतेन व्यागृणीयात् धर्मकथावसरे, अन्यदा संयमावाधया किञ्चित्धर्मसंवद्धं ब्रूयात् किं परिगणय्यैतत्कुर्यादित्याह यदिवा किमसौ ब्रूयादिति दर्शयति- 'एकस्य' असहायस्य जन्तोः शुभाशुभ सहायस्य 'गतिः' गमनं परलोके भवति, तथा आगतिः- आगमनं भवान्तरादुपजायते कर्मसहायस्यैवेति, उक्तं च- "एकः प्रकुरुते कर्म, अनम्येकथ तत्फलम् । जायते म्रियते चैक, एको याति भवान्तरम् ॥ १ ॥ " इत्यादि । तदेवं संसारे परमार्थतो न कश्चित्सहायो धर्ममेकं विहाय, एव| द्विगणय्य मुनीनामयं मौन:- संयमस्तेन तत्प्रधानं वा ब्रूयादिति ।। १८ ।। किश्चान्यत् - 'स्वयम्' आत्मना परोपदेशमन्तरेण | 'समेत्य' ज्ञाखा चतुर्गतिकं संसारं तत्कारणानि च मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाय योगरूपाणि तथाऽशेषकर्मक्षयलक्षणं मोक्षं तत्का६ रणानि च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्येतत्सर्वं स्वत एवावबुध्यान्यसाद्वाऽऽचार्यादेः सकाशाच्छुलाऽन्यसे मुमुक्षवे 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं भाषेत, किंभूतं ?-- प्रजायन्त इति प्रजाः-स्थावरजङ्गमा जन्तवस्तेभ्यो हितं सदुपदेशदानतः सदोपकारिणं धर्म ब्रूयादिति । उपादेयं प्रदर्श्य हेयं प्रदर्शयति 'गर्हिता' जुगुप्सिता मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगाः कर्मबन्धहेतवः सह निदानेन वर्तन्त | इति सनिदानाः प्रयुज्यन्त इति प्रयोगा- व्यापारा धर्मकथाप्रबन्धा वा ममामात्सकाशात्किञ्चित् पूजालाभसंस्कारादिकं भविष्यतीत्येवंभूतनिदानाऽऽशंसारूपास्तांचारित्रविभभूतान् महर्षयः सुधीरधर्माणो 'न सेवन्ते' नानुतिष्ठन्ति । यदिवा ये गर्हिताः सनिदाना वाक्प्रयोगाः, तद्यथा-कुतीर्थिकाः सावधानुष्ठानरता निःशीला निर्वताः कुण्टलवेण्टलकारिण इत्येवंभूतान् परदोषोद्घट्टनया मर्मवेोधिनः सुधीरधर्माणो वाकण्टकान् 'न सेवन्ते' न मुक्त इति ||१९|| किञ्चान्यत् केषाञ्चिन्मिथ्यादृष्टीनां कुतीर्थिक भावितानां | स्वदर्शनाऽऽग्रहिणां 'तर्कया' वितर्केण स्वमतिपर्यालोचनेन 'भावम्' अभिप्रायं दुष्टान्तःकरणवृचितमबुद्धा कचित्साधुः श्रावको वा For Parts Only ~488~ waryra Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [५७६] [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [२०], निर्युक्तिः [१२६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र -[ ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचार्यय नियुतं ।।२३९ ।। स्वधर्मस्थापनेच्छया तीर्थिकतिरस्कारप्रायं वचो ब्रूयात् स च तीर्थिकस्तद्वचः 'अश्रद्दधानः' अरोचयन्नप्रतिपद्यमानोऽतिकटुकं भावयन् 'क्षुद्रत्वमपि गच्छेद् तद्विरूपमपि कुर्यात्, पालक पुरोहितवत् स्कन्दकाचार्यस्येति । क्षुद्रलगमनमेव दर्शयति-स निन्दावचनकुपितो वक्तुर्यदायुस्तस्यायुषो 'व्याघातरूपं' परिक्षेपस्वभावं कालातिचारं दीर्घस्थितिकमप्यायुः संवर्तयेत् एतदुक्तं भवति — धर्मदेशना हि पुरुषविशेषं ज्ञात्रा विधेया, तद्यथा - कोऽयं पुरुषों राजादिः १ कं च देवताविशेषं नतः ? कतरद्वा | दर्शनमाश्रितोऽभिगृहीतोऽनभिगृहीतो वाऽयुमित्येवं सम्यक् परिज्ञाय यथाई धर्मदेशना विधेया, यत्रैतदबुद्धा किञ्चिद्धर्मदेशनाद्वारेण परविरोधकृद्वचो ब्रूयात् स परस्मादैहिकामुष्मिकयोर्मरणादिकमपकारं प्राप्नुयादिति यत एवं ततो लब्धमनुमानं येन | पराभिप्राय परिज्ञाने स लब्धानुमान: 'परेषु' प्रतिपाद्येषु यथायोगं यथाई प्रतिपच्या 'अर्थान्' सदर्भप्ररूपणादिकान् जीवादीन् वा | स्वपरोपकाराय ब्रूयादिति ॥ २० ॥ अपि च कम्मं च छंदं च विगिंच धीरे, विणइज उ सबओ (हा) आयभावं । रुवेहिं लुप्पति भयावहेहिं, विज्जं गहाया तसथावरेहिं ॥ २१ ॥ न प्रयणं चैव सिलोयकामी, पियमप्पियं कस्सइ णो करेजा । सबै अणट्टे परिवज्जयंते, अणाउले या अकसाइ भिक्खू ॥ २२ ॥ आहत्तहीयं समुपेहमाणेसवेहिं पाणेहिं निहाय दंडं । णो जीवियं णो मरणाहिकंखी, परिवएजा वलयाविमुक्के [ मेहावी वलयविप्पमु] ॥२३॥ तिबेमि ॥ इति श्रीआहत्तहियंनाम त्रयोदशमध्ययनं समत्तं ॥ ( गाथा० ५९१) Education Internation For Park Lise Only ~489~ १३ याथा तथ्याध्य० ॥२३९॥ waryra Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [२३], नियुक्ति: [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२३|| दीप अनुक्रम [५७९] 'धीरः' अक्षोभ्यः सदुयलङ्कतो वा देशनावसरे धर्मकथाश्रोतुः 'कर्म' अनुष्ठानं गुरुलघुकर्मभाव वा तथा 'छन्दम्' अभिप्रायं सम्यक विवेचयेत्' जानीयात् , शाखा च पर्षदनुरूपामेव धर्मकथिको धर्मदेशनां कुर्यात् सर्वथा यथा तस्य श्रोतुर्जीवादि| पदार्थावगमो भवति यथा च मनो न दूष्यते, अपि तु प्रसन्नता व्रजति, एतदभिसंधिमानाह-विशेषेण नयेद्-अपनयेत् पर्षदः 'पापभावम्' अशुद्धमन्तःकरणं, तुशब्दाद्विशिष्टगुणारोपणं च कुर्यात् , 'आयभावं' ति कचित्पाठः, तस्यायमर्थः-'आत्मभावः' अनादिभवाभ्यस्तो मिथ्याखादिकस्तमपनयेत् , यदिवाऽत्मभावो-विषयगृध्नुताऽतस्तमपनयेदिति । एतदर्शयति-'रूपैः नयनमनोहारिभिः खीणामङ्गप्रत्यङ्गाईकटाक्षनिरीक्षणादिभिरल्पसत्त्वा 'विलुप्यन्ते' सद्धर्माद्वाध्यन्ते, किंभूतै रूपैः ?-'भयावहै:18 भयमावहन्ति भयावहानि, इहैव तावद्रूपादिविषयासक्तस्य साधुजनजुगुप्सा नानाविधाश्च कर्णनासिकाविकर्तनादिका विडम्बनाः । प्रादुर्भवन्ति जन्मान्तरे च तिर्यङ्नरकांदिके यातनास्थाने प्राणिनो विषयासक्ता वेदनामनुभवन्तीत्येवं विद्वान्' पण्डितो धर्मदेश-18 नाभिज्ञो गृहीला पराभिप्रायं-सम्यगवगम्य पर्षदं त्रसस्थावरेभ्यो हितं धर्ममाविर्भावयेत् ॥ २१ ॥ पूजासत्कारादिनिरपेक्षेण च सर्वमेव तपधरणादिकं विधेयं विशेषतो धर्मदेशनेत्येतदभिप्रायवानाह-साधुर्देशनां विदधानो न पूजनं-वखपात्रादिलाभरूपमI भिकाहेनापि श्लोक-लापां कीर्तिम् आत्मप्रशंसां 'कामयेद अभिलपेत् , तथा श्रोतुर्यत्प्रियं राजकथाविकथादिकं छलितकथा-1|| 1| दिकं च तथाऽप्रियं च तत्समाश्रितदेवताविशेषनिन्दादिकं न कथयेद्, अरक्तद्विष्टतया श्रोतुरभिप्रायमभिसमीक्ष्य यथावस्थितं | धर्म सम्यग्दर्शनादिक कथयेत, उपसंहारमाह-'सर्वाननर्थान्' पूजासत्कारलाभाभिप्रायेण स्वकृतान् परदूषणतया च परकृतान् , 'वर्जयन्' परिहरन् कथयेद् 'अनाकुला' सूत्रार्थादनुत्तरन् अकषायी भिक्षुर्भवेदिति ॥ २२ ॥ सर्वाध्ययनोपसंहारार्थमाह 32002020392990saSa030OS Sorea ~490~ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||23|| दीप अनुक्रम [५७९] भाग [भाग-3] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [२३], निर्युक्तिः [१२६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र -[ ०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः 'आहत्तहीय' मित्यादि यथातथाभावो याथातथ्यं - धर्ममार्गसमवसरणाख्याध्ययनत्रयोक्तार्थतत्त्वं सूत्रानुगतं सम्यक्त्वं चारित्रं वा तत् 'प्रेक्षमाणः' पर्यालोचयन् सूत्रार्थ सदनुष्ठानतोऽभ्यस्यन् 'सर्वेषु' स्थावरजङ्गमेषु सूक्ष्मवादर भेदभिन्नेषु पृथिवीकायादिषु | दण्ड्यन्ते प्राणिनो येन स दण्डः -- प्राणव्यपरोपण विधिस्तं 'निधाय' परित्यज्य, प्राणात्ययेऽपि याथातथ्यं धर्मं नोल्लङ्घयेदिति । चियुतं 9 एतदेव दर्शयति- 'जीवितम्' असंयमजीवितं दीर्घायुष्कं वा स्थावरजङ्गमजन्तुदण्डेन नाभिकाङ्क्षी स्था (क्षे) त् परीषहपराजितो ॥२४०॥ ॐ वेदनासमुद्घात (समव) हतो वा तद्वेदनाम (भि) सहमानो जलानलसंपातापादित जन्तूपमर्देन नापि मरणाभिकाङ्क्षी स्वात् । तदेवं याथातथ्यमुत्प्रेक्षमाणः सर्वेषु प्राणिषुपरतदण्डो जीवितमरणानपेक्षी संयमानुष्ठानं चरेद्र उद्युक्तविहारी भवेत् 'मेघावी' मर्यादाव्यवस्थितो विदितवेद्यो वा वलयेन मायारूपेण मोहनीयकर्मणा वा विविधं प्रकर्षेण मुक्तो विप्रमुक्त इति । इतिः परिसमाप्यर्थे । नवीमीति पूर्ववत् ॥ २३ ॥ समाप्तं च याथातथ्यं त्रयोदशमध्ययनमिति ॥ सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचार्यय ——————————— Education Internationa १३ याथा तध्याध्य० अत्र त्रयोदशं अध्ययनं समाप्तं सूत्रकृताङ्गसूत्र श्रुतस्कन्ध-१, अध्यननानि १ से १३ मूलं एवं शीलांकाचार्य रचिता टीका परिसमाप्तानि मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुनः संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] ~491~ ॥२४० ॥ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: भाग-3 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरादसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “सूत्रकृताङ्गसूत्र" [मूलं, भद्रबाहूस्वामी रचित नियुक्ति: एवं शिलांकाचार्य विहित वृत्तिः] (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: ___ “सूत्रकृत् मूलं एवं वृत्ति:” नामेण श्रुतस्कंध-१, अध्ययनानि १ से १३ परिसमाप्तानि सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि श्रेणि, भाग-3 ~492~ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग कुलपृष्ठ ३१४ ५८६ ४९८ ३९२ ५९४ ४९४ ३३८ ५९२ सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 01 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- १,२ 02 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध-२ 03 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- १ से १३ 04 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ 05 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वत्ति, भाग-१ स्थान- १ से ४ 06 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण 07 | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. 08 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ 09 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ 10 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक-१२ से २० 11 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण 12 | आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. 13 | आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. 14 आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. 15 | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. 16 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र-१ से १३८ 17 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण 18 | | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ 19 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मलं एवं वत्ति. पद-६ से २२ 20 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मलं एवं वत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. ५५२ ५१४ ३८४ ५२२ ५३८ ३८४ ३१४ ४८० ४८८ ४२६ ५१४ ३३६ ~493~ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलपृष्ठ ६१४ ३७६ ४२६ ३४४ ३१२ ३३० ४६६ ४४२ सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? भाग इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 22 | आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. 23 | आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. 24 | आगम१८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-२ मुलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. | आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार-५ से ७. 26 | आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, ____ भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मलं एवं छाया 27 | आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मुलं एवं छाया, निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मुलं एव 28 | | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति- १ से ५२१ 29 | | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, निर्यक्ति- ५२२ से ९५१ 30 | | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण) 31 | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन-४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण) 32 | | आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति.. | आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. 34 | | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. 35 | | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन-१ से ५ 36 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ 37 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ 38 आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प[बारसासूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति. ४६४ । ४२६ ४७२ ३७६ ५९० ५२२ ४८२ ४६६ ५२८ 39 | ५६० ३९४ ~494 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आगम MOTATIO 19310399 DELMER आजम आजम आगम आजम आगम आगम आगम की आगम राजस ESAT-2147 आजम मरा आजम आगम आजम आम SHCHA आजम STICH आजम 真可 KOTA सागम आजम आज राजम आजम आगम आगाम राजम STOTP 430-N ~495~ SIGH SUCHE आगर आजार साम आजस आश्रम आजम आगतः आगम वाचना शताब्दी वर्ष 360171 आगम ZIGAR K गंग आगम BATIZE जैस आगम नाराय आजम 27S THE STOR आज आम आजम सुगम आजम आलमआराम Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजम आगम ara गुणस आजम SHIRTY आजम आगम नमो नमो निम्मलदंसणस्स सवृत्तिक- आगम- सुत्ताणि मूल संशोधक 1922 STPAC आजम TER STIP पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आज है आजभ अभिनव संकलनकर्ता ~496~ आगम आगम BICIP आजम आवास आगम दिवाकर मुनिश्री दीपत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] Lem आगम प्रत- प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 / 9825306275 राजम Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता श्री आगम मंदिर पालिताणा 2055 POSTEORIEOE ~497~ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजम आगम आगम आगम आ मूल संशोधकमायाजम गम आग पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब जमाआजम आजम आगम आगम आजमा आगम - 02 'सूत्रकृत्' मूलं एवं वृत्ति: [1] 3आजाआजा अभिनव-संकलनकर्ता आजमा आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आजम आजम आजम आजम ~498~