Book Title: Sanmatitarka Prakaranam Part 1
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi
Publisher: Gujarat Puratattva Mandir Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અહો રતનાના ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર 00 0000 10000 -: સંયોજક : શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫. મો. ૯૪૨૬૫ ૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૦૭૯-૨૨૧૩૨૫૪૩ 00) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો શ્રુતજ્ઞાનમ” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ૧૦૬ સન્મતિતર્ક પ્રકરણમ્ ભાગ-૧ : દ્રવ્ય સહાયક : પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી રામચન્દ્ર-ભદ્રંકર-કુંદકુંદસૂરીશ્વરજી મહારાજાના શિષ્યરત્ન વર્ધમાન તપની ૧૦૦+૭૫ ઓળીના આરાધક પૂ. ગણિવર્ય શ્રી નયભદ્રવિજયજી મ.સા.ની શુભ પ્રેરણાથી જૈન પંચ મહાજન - વાસા (રાજસ્થાન) તરફથી સહયોગ મળેલ છે. : સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-380005 (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૬૭ ઈ.સ. ૨૦૧૧ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "Aho Shrut Gyanam" Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૃષ્ઠ 238 286 54 007 810 850 322 280 162 302 અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર- સંવત ૨૦૬૫ (ઈ. ૨૦૦૯- સેટ નં-૧ ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ કર્તા-ટીકાકાસંપાદક | 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी पू. विक्रमसूरिजीम.सा. 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी पू. जिनदासगणिचूर्णीकार । | 003 श्री अर्हद्रीता-भगवद्गीता पू. मेघविजयजी गणिम.सा. 004 श्री अर्हच्चूडामणिसारसटीकः पू. भद्रबाहुस्वामीम.सा. 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं | पू. पद्मसागरजी गणिम.सा. 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम् | पू. मानतुंगविजयजीम.सा. अपराजितपृच्छा | श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्पस्मृति वास्तु विद्यायाम् | श्री नंदलाल चुनिलालसोमपुरा 009 शिल्परत्नम्भाग-१ | श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री 010 | शिल्परत्नम्भाग-२ | श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री 011 प्रासादतिलक श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 012 | काश्यशिल्पम् श्री विनायक गणेश आपटे 013 प्रासादमञ्जरी श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र श्री नारायण भारतीगोसाई 015 शिल्पदीपक | श्री गंगाधरजी प्रणीत | वास्तुसार श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 017 दीपार्णव उत्तरार्ध | श्री प्रभाशंकर ओघडभाई જિનપ્રાસાદમાર્તડ શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા | जैन ग्रंथावली | श्री जैन श्वेताम्बरकोन्फ्रन्स 020 હીરકલશ જૈનજ્યોતિષ શ્રી હિમ્મતરામમહાશંકર જાની न्यायप्रवेशः भाग-१ | श्री आनंदशंकर बी.ध्रुव 022 | दीपार्णवपूर्वार्ध श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्तजयपताकाख्यं भाग पू. मुनिचंद्रसूरिजीम.सा. | अनेकान्तजयपताकाख्यं भाग२ | श्री एच. आर. कापडीआ 025 | प्राकृतव्याकरणभाषांतर सह श्री बेचरदास जीवराजदोशी तत्पोपप्लवसिंहः | श्री जयराशी भट्ट बी. भट्टाचार्य | 027 शक्तिवादादर्शः श्री सुदर्शनाचार्यशास्त्री 156 352 120 88 110 018 498 019 502 454 021 226 640 452 024 500 454 188 026 214 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 028 414 192 824 288 520 578 278 252 324 037 302 038 196 190 202 | क्षीरार्णव | श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 029 वेधवास्तुप्रभाकर श्री प्रभाशंकर ओघडभाई | 030 શિલ્પપત્રીવાર | श्री नर्मदाशंकरशास्त्री 031. प्रासाद मंडन पं. भगवानदास जैन 032 | શ્રી સિદ્ધહેમ વૃત્તિ વૃતિ અધ્યાય પૂ. ભવિષ્યમૂરિનીમ.સા. 033 श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्यायर पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 034 | શ્રીસિમ વૃત્તિ ચૂક્યાસ અધ્યાય છે પૂ. ભાવસૂરિનીમ.સા. 035 | શ્રીસિમ વૃત્તિ ચૂદાન અધ્યાય (ર) (૩) પૂ. ભવિષ્યમૂરિનીમ.સા. 036 श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय५ पू. लावण्यसूरिजीम.सा. વાસ્તુનિઘંટુ પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા તિલકમન્નરી ભાગ-૧ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 039 | તિલકમન્નરી ભાગ-૨ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 040 તિલકમઝરી ભાગ-૩ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી 042 સપ્તભીમિમાંસા પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી ન્યાયાવતાર સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 045 | સામાન્ય નિયુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક | શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા). 046 | સપ્તભળીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 047 વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી 048 | નયોપદેશ ભાગ-૧ તરકિણીતરણી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 050 ન્યાયસમુચ્ચય પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 051 સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ પૂ. દર્શનવિજયજી 053 | બૃહદ્ ધારણા યંત્ર પૂ. દર્શનવિજયજી | જ્યોતિર્મહોદય સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી 041. 480 228 043 6o 044 218 190 138 296 2io 049. 274 286 216 052 532 13 112 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પાદક | પૃષ્ઠ ! 160 202 48 322 અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર- સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦ - સેટ નં-૨ ક્રમ પુસ્તકનું નામ ભાષા કર્તા-ટીકાકા(સંપાદક 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्वत्ति बूदन्यास अध्याय-६ पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 296 056 | विविध तीर्थ कल्प पू. जिनविजयजी म.सा. 057 | भारतीय हैन श्रम। संस्कृत सने मना . पू. पूण्यविजयजी म.सा. 164 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः | सं श्री धर्मदत्तसूरि 059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका श्री धर्मदत्तसूरि 0608न संगीत रामाका | . श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी 306 061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश) | श्री रसिकलाल एच. कापडीआ | 062 व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय सं श्री सुदर्शनाचार्य 668 | 063 चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी पू. मेघविजयजी गणि 516 064 विवेक विलास सं/J. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य 268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध सं पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 सन्मतितत्त्वसोपानम् |सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 0676शमादा ही गुशनुवाई | गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 मोहराजापराजयम् सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया 428 | कालिकाचार्यकथासंग्रह सं/J. श्री अंबालाल प्रेमचंद | 071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य | 308 072 | जन्मसमुद्रजातक सं/हिं श्री भगवानदास जैन 128 073 | मेघमहोदय वर्षप्रबोध सं/हिं श्री भगवानदास जैन 532 0748न सामुदिनi in jथो J४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 0758न चित्र पदूम साग-१ ४४. श्री साराभाई नवाब 374 420 070 406 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 076 | જૈન ચિત્ર કલ્પવ્રૂમ ભાગ-૨ સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 077 079 078 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨ 082 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ | 083 | આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧ 084 કલ્યાણ કારક 183 વિધઓપન જોશ 086 કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 087 188 હસ્તસીવનમ્ 089 એન્દ્રચનુવિંશતિકા 090 સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા ગુજ. ગુજ. ગુજ. ગુજ. ગુજ. ગુજ. श्री साराभाई नवाब श्री विद्या साराभाई नवाब श्री साराभाई नवाब સં. श्री मनसुखलाल भुदरमल श्री जगन्नाथ अंबाराम श्री जगन्नाथ अंबाराम श्री जगन्नाथ अंबाराम पू. कान्तिसागरजी श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ગુજ. ગુજ. ગુજ. सं./ हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. ગુજ. સં. સં. श्री बेचरदास जीवराज दोशी श्री बेचरदास जीवराज दोशी पू. मेघविजयजीगणि पू. यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 238 194 192 254 260 238 260 114 910 436 336 230 322 114 560 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार पृष्ठ 191 272 92 240 93 254 282 95 118 96 466 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार-संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची।यह पुस्तके वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम पुस्तक नाम कर्ता/टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-३ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-४ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-५ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना पवित्र कल्पसूत्र पुण्यविजयजी सं./अं साराभाई नवाब 97 समराङ्गण सूत्रधार भाग-१ | भोजदेवसं . टी. गणपति शास्त्री 98 समराङ्गण सूत्रधार भाग-२ भोजदेव टी. गणपति शास्त्री 99 भवनदीपक पद्मप्रभसूरिजी सं. वेंकटेश प्रेस 100 गाथासहस्त्री समयसुंदरजी सं. सुखलालजी भारतीय प्राचीन लिपीमाला गौरीशंकर ओझा हिन्दी मुन्शीराम मनोहरराम 102 शब्दरत्नाकर साधुसुन्दरजी हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सुबोधवाणी प्रकाश न्यायविजयजी सं./गु हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर ओरीएन्ट इस्टी. बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३ माणिक्यसागरसूरिजी आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मतितर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी सन्मतितर्क प्रकरण भाग-४,५ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण एसियाटीक सोसायटी 342 362 134 70 101 316 224 612 307 250 514 107 454 354 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 जैन लेख संग्रह भाग - १ जैन लेख संग्रह भाग - २ जैन लेख संग्रह भाग - ३ जैन धातु जैन प्रतिमा लेख संग्रह प्रतिमा लेख भाग-१ पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाह कांतिसागरजी दौलतसिंह लोढा विशालविजयजी विजयधर्मसूरिजी राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह प्राचिन लेख संग्रह - १ बीकानेर जैन लेख संग्रह प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग - १ प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२ गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - १ गुजरातना ऐतिहासिक लेखो -२ गुजरातना ऐतिहासिक लेखो -३ ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन इन मुंबई सर्कल-१ ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन इन मुंबई सर्कल-४ अगरचंद नाहटा जिनविजयजी जिनविजयजी गिरजाशंकर शास्त्री गिरजाशंकर शास्त्री गिरजाशंकर शास्त्री ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन इन मुंबई सर्कल कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स विजयदेव माहात्म्यम् पी. पीटरसन जिनविजयजी सं./ह सं./हि सं./ह सं./हि सं./ह सं./गु सं. गु सं./ह सं./हि सं./ह सं. गु सं./गु सं./गु अं. अं. अं. सं. पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार अरविन्द धामणिया यशोविजयजी ग्रंथमाळा यशोविजयजी ग्रंथमाळा नाहटा धर्स जैन आत्मानंद सभा जैन आत्मानंद सभा फार्बस गुजराती सभा फार्बस गुजराती सभा फार्बस गुजराती सभा रॉयल एशियाटीक जर्नल रॉयल एशियाटीक जर्नल रॉयल एशियाटीक जर्नल भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपार्टमेन्ट, भावनगर जैन सत्य संशोधक 337 354 372 142 336 364 218 656 122 764 404 404 540 274 414 400 320 148 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरात पुरातत्त्वमन्दिर ग्रन्थावली ALMULISA प्रन्थाङ्क १. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातपुरातत्त्वमन्दिरग्रन्थावली आचार्यश्रीसिद्धसेनदिवाकरप्रणीतं संमतितर्कप्रकरणम्। जैनश्वेताम्बर-राजगच्छीय-प्रद्युम्नसूरिशिष्य-तर्कपश्चाननश्रीमदभयदेवसरिनिर्मितया तत्त्वबोधविधायिन्या व्याख्यया विभूषितम् । प्रथमो विभागः। (प्रथमगाथात्मकः) गुजरातविद्यापीठप्रतिष्ठितपुरातत्त्वमन्दिरस्थेन संस्कृतसाहित्य-दर्शनशास्त्राध्यापकेन पं० सुखलाल संघविना प्राकृतवानयाध्यापकेन जैनन्याय-व्याकरणतीर्थ पं० बेचरदास दोशिना च पाठान्तर-टिप्पण्यादिभिः परिष्कृत्य संशोधितम् । caccions गुजरातपुरातत्त्वमन्दिर अमदावाद. प्रथमावृत्तिः, प्रतिसं० ५०.] संवत् १९८० [मूल्यम्-१०रूप्यकाणि. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %3 प्रकाशक:-विठ्ठलदास मगनलाल कोठारी, गुजरातविद्यापीठ कार्यालय, अमदावाद. मुद्रकः-रामचंद्र येसू शेडगे, निर्णयसागर प्रेस, नं. २३, कोलभाट लेन, मुंबई. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक, निवेदन पुरातत्त्वमंदिरनी प्रबन्धसमितिए संवत् १९७९ ना भादरवा वद १३ ना दिवसे निर्णीत करेला (उराव पहेलाना परिशिष्ट १ मां सूचवेला ) कार्यक्रम प्रमाणे संमंतितर्कप्रकरणनो आ पहेलो भाग प्रकट थाय छे. आ ग्रन्थने आवा रूपमा प्रकाशित करवानो मूळ संकल्प अने उपक्रम पं. श्रीसुखलालजी द्वारा आगराना आत्मानन्द जैन पुस्तकप्रचारक मंडळे करेलो. पण, ज्यारे पं. सुखलालजीए पुरातत्त्वमंदिरमां जोडाई, पोतानी सेवा विद्यापीठने समर्पित करी, त्यारे तेमणे ए ग्रन्थ पाछळ, पूर्वे उठावेला मोटा श्रमनो खयाल करी, तेमज संस्कृत साहित्यना दर्शनशास्त्रोमांना एक महान् अने अमूल्य गणाता ग्रन्थरत्ननो उद्धार थाय ते विद्यापीठने इष्टकृत्य जणायाथी आ ग्रन्थना संशोधन अने प्रकाशननो भार उपाडवानी पुरातत्त्वमंदिरने अनुमति आपवामां आवी. मंदिरे आ काम हाथमां लीधा पहेलां, पं. श्रीसुखलालजी हस्तक, आगराना उक्त मंडळना संचालक बाबू श्रीदयालचंदजी झवेरीए एना अंगे लगभग ११०० रुपिआ जेटलो खर्च को हतो, ते तथा, जे जातना आवा सरस अने मजबुत कागळो उपर आ ग्रन्थ मुद्रित थाय छे ते कागळो रु. १००० रूपीया एक हजारनी किंमतना पण उक्त मंडळे भेट आपेलां छे, के जे रकम ए मंडळने अमदावादना शेठ वाडीलाल वखतचंद झवेरी तरफथी प्रस्तुत ग्रन्थना प्रकाशन-कार्यमाटे दान करवामां आवी हती ए उपरांत, गया वर्षमां आ ग्रन्थनी केटलीक हस्तलिखित प्रतिओना पाठांतरो वगेरे संग्रहवानी शीघ्र आवश्यकता भासवाथी पं. सुखलालजीए पोताना मददगार तरीके एक त्रीजा विद्वानने केटलोक समय रोकेला हता अने ते माटे तेमने ४१६ रुपिआ वेतनना आपवामां आव्या हता. वेतननी आ वधारानी रकम रा. रा. श्रीकेशवलाल प्रेमचंद मोदी मारफत अपाई हती. आ रीते आ कार्यमां आगराना उक्त मंडळ अने तेना सहायक गृहस्थोनी आर्थिक उदारतानो जे लाभ विद्यापीठने मळ्यो छे ते माटे ते बधानो उपकार मानवामां आवे छे. प्रकाशक श्रावण वद ५, सं. १९८० । गुजरात विद्यापीठ कार्यालय । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संशोधनोपयुक्तानां लिखितादर्शानां संकेताः। अ० आं० ( वि०) कां० 1 . अनन्तनाथजैनमन्दिरभाण्डागारीया श्रीमद्विजयानन्दसूरिपुस्तकसंग्रहगता प्रवर्तकश्रीकान्तिविजयपुस्तकसंग्रहगता पं० न्यासश्रीगुलाबविजयपुस्तकसंग्रहगता पं० न्यासश्रीगम्भीरविजयपुस्तकसंग्रहगता चञ्चलबेनभाण्डागारीया डेलाभाण्डागारीया पूर्णचन्द्रनाहरभाण्डागारीया बालूचरग्रामस्थभाण्डागारीया भावनगरसंघभाण्डागारीया भाण्डारकरप्राच्यविद्यासंशोधनमन्दिरीया माण्डलग्रामस्थभाण्डागारीया वाडीपार्श्वनाथभाण्डागारीया श्रीमद्वृद्धिचन्द्रपुस्तकसंग्रहगता साणन्दग्रामस्थभाण्डागारीया हालाभाईभाण्डागारीया बा० भा० वा० ७० हा० १ श्रीमद्विजयानन्दमूरिपुस्तकमंग्रहगतं पुस्तकद्वयम् , तत्र प्राचीनं 'आ.' इति नाम्ना निरदेशि, नवीनं च 'वि०' इति नाम्ना । २ च इलनेनभाण्डागारीयं पुस्तकद्वयम् , तत्र पूर्ण 'चं० पू०' इति नाना, अपूर्ण तु 'चं. ल.' इति नाम्ना म्यपादेशि । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकागतानामुल्लेखानां स्थानसंकेताः । आचा० ऋग्वेद-अष्ट जैमि० तत्त्वार्थ तत्त्वा० ध० न्या० न्यायद न्यायवा० प्रशमर० प्र० भग० गी० महाभा० आदिपक मीमां० मीमांसाद योगदा पात । वाक्यप० वात्स्या०भा०॥ वा०भा० व्यासभा० वैशेषिकद० शाबरभा० शाब० ॥ श्लो० वा श्वेताश्वत सूत्र० स्थाना० आचाराङ्गसूत्रम्। ऋग्वेद-अष्टकानि । जैमिनिसूत्रम् ( मीमांसादर्शनम्) तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । धर्मकीर्तिकृतन्यायबिन्दुः। न्यायदर्शनम् (गौतमसूत्रम्) न्यायवार्तिकम् । प्रशमरतिप्रकरणम् । बृहदारण्यकम्। भगवद्गीता। महाभारतआदिपर्व । मीमांसादर्शनम् (जैमिनिसूत्रम्) पातञ्जलयोगदर्शनम् । वाक्यपदीयम्। वात्स्यायनभाष्यम् । (न्यायभाग्यम्) व्यासभाष्यम् । (योगदर्शनभाष्यम् ) वैशेषिकदर्शनम् । (कणादसूत्रम्) शाबरभाष्यम् । (जैमिनिसूत्रभाग्यम्) श्लोकवार्तिकम् । (कुमारिलकृतम्) श्वेताश्वतरम् । सूत्रकृताङ्गसूत्रम्। स्थानाङ्गसूत्रम्। हेमचन्द्रशब्दानुशासनम् । २० अ० अर्था० आ० (अधिकरणम्। अध्यायः॥ अध्ययनम् । अर्थापत्तिपरिच्छेदः। आह्निकम् । (उद्देशः। उपनिषत् । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपनि० उपमान का० गा० उपनिषत् । उपमानपरिच्छेदः। [काण्डम्। काशीया आवृत्तिः। गाथा। टिप्पनम् । द्वितीयपाश्रम् । पद्यम्। (परिच्छेदः। पादः। पृष्ठम्। प्र० [प्रथमः। प्रथमम् । (प्रथमपार्श्वम्। प्रथमस्थानम्। प्रमेयकमलमार्तण्डटिप्पनम् । प्रथमस्था० प्रमेय.टि. प्रमेय प्रमेय. मा० प्रमेयक० ) प्रश्नव्या. टी प्र० पृ. प्रमेयकमलमार्तण्डे । মা लि. प्रश्नव्याकरणमृत्रटीका। प्रस्तुतपृष्टम्। बहिर्गतः-लिखितायां प्रती ऊर्ध्वम् अधः पार्श्वे वा लिखितः-पाठः । ब्राह्मणम् । मन्त्रः । लिखिता प्रतिः। शून्यवादपरिच्छेदः। श्रुतस्कन्धः। श्लोकः। सूक्तम् । । सूत्रम् । शून्य श्रु० श्लो० Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः। पृष्ठम् विषयाः टीकाया मङ्गलं प्रयोजनं च । पातनिका। प्रथमा गाथा। प्रामाण्यवाद। स्वतःप्रामाण्यपक्षः। परत प्रामाण्यपक्षः। उत्पत्ती प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वसाधनम् । कार्ये प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वसाधनम् । निश्चये प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वसाधनम् । उत्पत्तौ प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वनिरसनम् । कार्ये प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वनिरसनम् । निश्चये प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वनिरसनम् । प्रेरणाबुद्धेः प्रामाण्याभावः । शातृव्यापारस्यैवाऽसिद्धिः। अभावप्रमाणनिरसनम् । वेदापौरुषेयत्वपरीक्षणम्। शब्दनित्यत्वसाधनम्। शब्दनित्यत्वनिरसनम्। सर्वज्ञवादः। सर्वक्षसत्तानिरसनम् । सर्वज्ञसत्तासाधनम्। ईश्वरस्वरूपवादः। परलोके प्रत्यवस्थानम् । परलोकस्य व्यवस्थापनम् । जगत ईश्वरकृतत्वस्थापनम् । जगत ईश्वरकृतत्वनिराकरणम् । समवायनिरसनम्। ३२ ३३ ५३ ६९-१३३ ९३ १०२ १०६ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० पदार्थनिरसनम् । सयोग निरमनम् आत्मपरिमाणवादः । आत्मनो विभुत्वस्थापनम् । आत्मनो विभुत्वं निरस्य देहमात्रत्वव्यवस्थापनम् । शब्दस्य द्रव्यात्मकत्वसाधनम् । मुक्तिस्वरूपवादः । मुर्ती आत्यन्तिकविशेषगुणोच्छेदस्य स्थापनम् । आत्यन्तिकविशेषगुणोच्छेदस्य निरसनम् । ११० ११३ १३३-१४९ १३३ १३४ १३६ १५०-१६६ १५० १५६ ४३ ૨૪ ३२ १४ ७ २ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय निवेदन अनेक उपयोगी विषयोनो ऊहापोह करती विस्तृत प्रस्तावना तो प्रस्तुत ग्रंथ संपूर्ण छपाई रह्या पछीज लखी शकाय. अत्यारे तो आ संक्षिप्त निवेदनमा मुख्य बे बाबतोनुं सूचन करवानुं छे (क ) ग्रंथनुं विशिष्टत्व अने (ख ) प्रकाशननी योजना. ( क ) ग्रंथनी विशिष्टता निम्नलिखित बे बाबतोथी जाणी शकाशे (१ ) ग्रंथकार अने (२) ग्रंथर्नु बाह्याभ्यन्तर स्वरूप. (१) ग्रंथकार (मूळकार) समयः मूळना कर्ता आचार्य सिद्धसेन दिवाकर छे. जैनपरंपरा प्रमाणे तेओ विक्रमनी पहेली शताब्दीमां थई गएला मनाय छे. तेओ दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द अने समंतभद्र ए बन्नेना पहेलां थया होय तेवी संभावनानां केटलांक कारणो छे तेमज श्वेताम्बर अने दिगम्बरनो पंथभेद थया पहेलां पण तेओ थया होय तेम मानवानां केटलांक कारणो छे. तेथी विक्रमनी पहेली शताब्दीमां तेओ थयानी जैनपरंपरा उपर गम्भीरपणे ऐतिहासिकोए विचार करवो जोईए. अत्यारे केटलाक ऐतिहासिको तेओने विक्रमनी पांचमी शताब्दीमा मूके छे. स्थान, जाति अने धर्म: तेओनुं जन्मस्थान विदित नथी, पण उज्जयिनी अने तेनी आजुबाजुए तेओए जीवन गाळ्युं होय एम जणाय छे, तेथी तेओना ग्रंथोनी रचना पण तेज प्रदेशमां थयानो संभव छे. तेओ जाते ब्राह्मण अने कुलधर्मे वैदिक हता, पण पाछळथी तेमणे जैनाचार्य वृद्धवादीनी पासे जैनदीक्षा लीधी हती. __योग्यताः दिवाकर असाधारण जैन दार्शनिक अने संस्कृत प्राकृत भाषाना विद्वान् हता एटलुंज नहि पण तेओ मध्यकालीन प्रधान भारतीय दार्शनिक विद्वानोमांना एक हता, एम तेओनी कृतिओज कही आपे छे. तेमनी विचारमा उदारता, प्रतिभामा स्वतन्त्रता, ज्ञानमा स्पष्टता, गद्यपद्यलेखनमा सिद्धहस्तता अने वस्तुस्पर्शमां सूक्ष्मता तथा विविध दर्शनोना मौलिक स्वरूपमा निष्णातता, ए बधुं तेओनी थोडी पण उपलब्ध कृतिओमां वाक्यवाक्यमा जोनारने नजरे पडशे. कतिओः उपलब्ध कृतिओमां संमति मूळ प्राकृत छे. एकवीस बत्रीसीओ, न्यायावतार तथा कल्याणमंदिर संस्कृत छे. कल्याणमंदिरमा तीर्थकर पार्श्वनाथनी स्तुति छे. न्यायावतार ए संस्कृत जैन साहित्यमा पद्यबंध आदि तर्कग्रंथ होई समस्त जैन तर्कसाहित्यना पाया रूपे छे. बत्रीसीओ स्तुतिरूप होवा छतां तेमा दार्शनिक विषयो छे. वैदिक, बौद्ध अने जैन ए समकालीन समग्र भारतीय दर्शनोनुं स्वरूप ते बत्रीसीओमां छे. आ बत्रीसीओज षड्दर्शनसमुच्चय अने सर्वदर्शनसंग्रहनी प्राथमिक भूमिका छे. सिद्धसेननुं बीजुं नाम 'गन्धहस्ती' हतुं; तेओए आचारांगना प्रथम अध्ययन उपर विवरण लख्युं हतुं, जे 'गन्धहस्तिविवरण' कहेवाय छे, आजे ते उपलब्ध नथी. टीकाकार टीकाकार अभयदेव, श्वेताम्बरीय राजगच्छमां थएल प्रद्युम्नसूरिना शिष्य होई दशमा सैकामां थई गया छे. तेओनी जाति, जन्मस्थान आदि ज्ञात नथी; तेओनी बीजी कृति उपलब्ध के Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्रुत नथी. अलबत तेओ वादमहार्णवना कर्ता कहेवाय छे, पण संगति उपरनी टीकाना विस्तृत वादो जोतां केटलाक एम पण माने छे के 'तत्त्वबोधविधायिनी' टीकानुंज बीजुं नाम वादमहार्णव हशे. गमे तेम होय पण अभयदेवसूरि दार्शनिक विषयना असाधारण विद्वान् हता, मां जराए संदेह नथी. (२) ग्रंथनुं बाह्याभ्यन्तरस्वरूप बाह्यखरूपः प्रस्तुत ग्रंथमां मूळ अने टीका ए बे अंशो छे. मूळनुं नाम संमति अ टीका नाम बोधविधायिनी छे. मूळ प्राकृत भाषामां अने टीका संस्कृत भाषामां छे. मूळनी रचना आर्यापद्यमय अने ते त्रण भागो ( काण्डो ) मां वहेंचाएली छे. टीकानी रचना गद्यमय छे. मूळनुं परिमाण १६७ गाथाओ जेटलुं छे. पहेला काण्डमा ५४, बीजामां ४३ अने त्रीजामां ७० गाथाओ छे. टीकानुं परिमाण २५००० श्लोक जेटलुं छे. आभ्यन्तरस्वरूपः मूळ अने टीका बन्नेना विषयो विषयोनी चर्चा तेमां अनेकान्तदृष्टिए करवामां आवी छे. व्याप्ति तथा तेनी उपयोगिता सिद्ध करवामां आवी छे. दार्शनिक ग्रंथ कहेवो जोईए. दार्शनिक छे, परंतु ते बधा दार्शनिक ते रीतेज अनेकान्तदृष्टिनुं स्वरूप, तेनी तेथी प्रस्तुत ग्रंथने अनेकान्तदृष्टिनो मूळनी प्रतिपादनसरणी आगमाश्रित छतां तर्कसंगत छे. तेमां जैनआगमप्रसिद्ध नय, सप्तभंगी, ज्ञान, दर्शन, द्रव्य, पर्याय विगेरे पदार्थोंनुं तार्किक पद्धतिए पृथक्करण करी अनेकान्तनुं स्वरूप बताववामां आव्युं छे अने ते पण प्रधानपणे आगमिक प्राचीन जैनाचायोंने अभिलक्षीने. टीकानी शैली बिलकुल जूदी छे. तेमां अन्य दर्शनोना निरसननी दृष्टि मुख्य छे. मूळ जेटलं टुंकुं छे, तेटलीज टीका विशाळ छे. टीकाकारे जे जे विषयना वादो लख्या छे, ते ते विषय उपर वखते भारतीय समग्र दर्शनोमां जेटला मत मतान्तरो अने पक्ष प्रतिपक्षो हता, ते बधानी विस्तृत नोंध करी छे. तेथी आ टीकाने विक्रमनी दशमी शताब्दी सुधीना दर्शनविषयक वादोनुं संग्रहस्थान कही शकाय . ग्रंथनी मुख्य दृष्टि अनेकान्तनुं महत्त्व विचारीने टीकाकारे वादपद्धति विद्वत्तापूर्वक एवी गोठवी छे के, जे विषयमां वाद शरू करवानो होय, ते विषयमां सौथी पहेलां सिद्धान्तथी वधारे वेगळो एवो पहेलो पक्षकार आवी पोतानो मत स्थापे छे, त्यारबाद सिद्धान्तथी ओछो वेगळो एवो बीजो पक्षकार आवी पोताना मतने स्थापी प्रथम पक्षनी भ्रान्तिओ दूर करे छे; त्यारबाद सिद्धातनी कंईक समीपे रहेलो त्रीजो पक्षकार आवी बीजा पक्षनी भूलो सुधारे छे, अने ए क्रमे आगळ वधतां छेवटे अनेकान्तवादी सिद्धान्ती आवी छेल्ला प्रतिपक्षीनुं मन्तव्य शोधी अनेकान्त दृष्टिए ते विषय केवो मानवो जोईए, ते बतावे छे. आवी वादपद्धति गोठवेली होवाथी कोई पण विषयमां प्रत्येक पक्षकारनुं शुं मानवुं छे, अने एक बीजा पक्षकार वचे शो शो मतभेद छे, अने तेमां केटटलं वजूद छे, ए बधुं तुलनात्मक दृष्टिए जाणी शकाय तेथी टीकाकारनी प्रतिपादन सरणीने अनेक वादीओनी चर्चापरिषद् साथै सरखावी शकाय के, जेमां कोई पण विषय उपर दरेक वादी पोतपोतानुं पूर्ण मन्तव्य स्वतंत्रतापूर्वक अनुक्रमे रजु करता होय, अने छेवढे जेमां एक सर्वविषयमाही सभापति द्वारा समन्वयभरेलुं छेवट लवातुं होय. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो के टीकामां सेंकडो दार्शनिक ग्रंथोनुं दोहन जणाय छे, छनां सामान्य गते मीमांसक कुमारिलभट्टनुं श्लोकवार्तिक, नालन्दा विश्वविद्यालयना आचार्य शांतिरक्षितकृत तत्वमंग्रह उपरनी कमलशीलकृत पंजिका अने दिगम्बराचार्य प्रभाचंद्रना प्रमेयकमलमातंड अने न्यायकुमुदचंद्रोदय विगेरे प्रन्थोनुं प्रतिविम्ब मुख्यपणे आ टीकामां छे, तेवी रीते वादिदेवसूरिनो स्याद्वादरत्नाकर, मल्लिषेणसूरिनी स्याद्वादमंजरी, उपाध्याय यशोविजयजीनी नयोपदेश उपरनी नयामृततरंगिणी टीका अने शास्त्रवार्तासमुच्चयनी टीका आदि पाछळनी कृतिओमां संमतिनी टीकार्नु प्रतिविम्ब छे; तेथी संमतिना अभ्यासके संमतिटीकामा प्रतिबिम्ब पाडनार अने संमतिटीकार्नु प्रतिबिम्ब झीलनार उपर्युक्त बन्ने प्रकारना ग्रन्थो जोवा घटे. (ख ) प्रकाशननी योजना मध्यम कालीन दर्शनसाहित्यमा संमति मूळ अने तेनी टीका, ए बन्नेनुं आकर्षक स्थान छे; तेमज टीकामां दार्शनिक साहित्यना इतिहास अने दार्शनिक विद्वानोना इतिहासनी पुष्कळ सामग्री मळी शके तेम छे. आ बधी विशिष्टताने लीधेज आ संस्थाए प्रस्तुत ग्रन्थनी शुद्ध आवृत्ति तैयार करवा विचार करेलो छे. जोके संमति उपर घणी टीकाओ होवानो उल्लेख छे, छतां एक श्वेताम्बराचार्य मल्लवादिकृत अने वीजी दिगम्बराचार्य सुमतिकृत होवानुं निश्चित प्रमाण मळे छे. पण अत्यारे तो तेमांनी एके उपलब्ध नथी. तेथी अने विस्तृत छतां महत्त्वनी होवाथी अभयदेवनी टीकाज प्रसिद्ध करवान संस्थाए पसंद कयु छे. प्रस्तुत टीका घणी विस्तृत, गहन अने संस्कृत भाषामां होवाथी, मूळ ग्रंथ टुंको, प्रसन्न अने ग्राह्य छतां साधारण जिज्ञासुओथी पण अपरिचित रह्यो छे, अने दरेक पोताने तेनो अधिकारी मानतां अचकाय छे; खरी हकीकत तेवी नथी. जो संक्षिप्त पण सरल टीका होय, अगर भापामां विवेचक अनुवाद होय तो संमति मूळ कोई पण साधारण अभ्यासिने ग्राह्य थई शके तेवू छे; आ हेतुथी संमतिनो अनुवाद करवानी कल्पना मंदिरे पसंद करी, पण ते अनुवाद कर्या पहेलां तेनुं अने तेनी टीका- संशोधन करी नाखवू, ए पण उचित जणायु. आ कारणथी अत्यारे मंदिरे नीचे प्रमाणे योजना विचारी राखी छे: सटीक मूळ ग्रंथर्नु त्रण भागमा प्रकाशन करवु; चोथा भागमा मूळ ग्रंथनो अनुवाद, अने समप्र सटीक ग्रंथने लगतां उपयोगी परिशिष्टो, प्रस्तावना, विस्तृत अनुक्रमणिका विगेरे आपवां. आ योजना प्रमाणे आजे अढी वर्ष थयां काम चालतां पहेलो भाग प्रकाशित थाय छे. प्रुफ जोवाना दृष्टिदोषथी के कंपोझिटरोना दोषर्थी जे भूलो रही गई हशे ते ववी बराबर जोई शुद्धिपत्रमा आपवानुं तो आगळ बनशे, छतां जे जे भूलो अनायासे नजरे पडी गई छे, मात्र तेज शुद्धिपत्रमा आपेली छे; तेथी आ शुद्धिपत्र अधुरुंज छे. अमे अभ्यासिओने विनवीए छीए के तेओ जे नानी मोटी कोई पण भूल जूए, तेनी पृष्ठपतिवार अमने सूचना आपे. अमे तेओनी तेवी सूचनाने साभार प्रकट करशुं. आ संशोधन कार्यमा उपयोगी थाय ते माटे अनेक हस्तलिखित प्रतिओ हिंदुस्तानना जूदा जूदा भागोमांथी मळी छे. ताडपत्रनी पण खंडित प्रतिओ छे. आ बधी प्रतिओनुं विगनवार वर्णन, तेओनी तुलना विगेरे बाबतो भविष्यनी दीर्घ प्रस्तावनामां ज नोंधाशे. अत्यारे तो ते ते प्रति आप. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ नार तेना मालिकोने धन्यवाद आपीए छीए. प्राप्त प्रतिओमाथी केटलीकनां नाम वाचक तेओना संकेतपरिशिष्टमां जोई शकशे. प्रस्तुत विभागमा टीकाकारे ग्रंथना के ग्रंथकारना, नामपूर्वक अगर नाम सिवाय, अपूर्ण के पूर्ण जे जे उल्लेखो कर्या छे ते बधानां स्थानो अमे इच्छा अने प्रयत्न छतां संपूर्ण रीते आपी शक्या नथी. छतां उल्लेखोना जे स्थानो अमे नोंध्यां छे, तेना संकेतोनुं स्पष्टीकरण आ भाग साथे आपवामां आवे छे. जे उल्लेखोनां मूळस्थानो नथी मळ्यां तेओनी पासे खुल्लां चोरस कोष्टको राखेलां छे. अभ्यासिओने विनंती छे के, अमे उल्लेखोनां जे जे स्थानो आप्यां छे तेमां तेओ सुधारवा जेवू जूए अगर नहि मळेल स्थानवाळा उल्लेखोनां स्थानो तेओना ध्यानमां आवे तो तेओ अमने ए बधुं लखी जणावे. अमे तेओना श्रमनी बहुज कीमती नोंध लईशं. प्रस्तुत भागमा पहेली गाथा अने तेनी संपूर्ण टीका आवे छे. तेनुं परिमाण लगभग साडासात हजार श्लोक जेटलुं हशे. तेमां जेटला मुख्य विषयो आव्या छे ते बधानो विस्तृत अनुक्रम तो छेवटेज अपाशे. अत्यारे तो आ भागमां आवेला मुख्य वादो अने तेने अंगे कराएला विभागोनी अने वच्चे वच्चे प्रसंगी आवेला ध्यान देवा योग्य खास विषयोनी नोंध विषयानुक्रममा आपेली छे. एटले आ विषयानुक्रम, ए टीकागत मुख्य मुख्य वादो अने तेना अन्तर्गत मुख्य मुख्य विभागो तथा प्रासंगिक उपयोगी विषयोनी नोंध मात्र छे. पाठांतर विगेरेनी समजः आ ग्रंथना संशोधन माटे अमे लगभग २५ प्रतिओ भेगी करी हती, तेमांथी १७ प्रतिओनो उपयोग करेलो छे, एनां नामो प्रतिओना संकेतोने स्पष्ट करतां जणावेलां छे. ए प्रतिओमांनी चारेक प्रतिओमां कोईनां करेलां टिप्पणो पण हतां, ते टिप्पणो, पाठांतरो अने अमे पण केटलेक स्थळे टिप्पणो आपेला छे ते बधुं अमे प्रत्येक पानानी नीचे लींटी दोरीने आपेलुं छे. जे जे प्रतिमाथी टिप्पण लीधेला छे ते ते प्रतिनां नाम ए टिप्पणो साथे आपेलां छे. प्रतिना टिप्पणो " " आ निशान वच्चे मूकेलां छे. जूओ ग्रंथ, पृ० २ पं० ३८ आ० टि. एटले आत्मारामजीनी प्रतिमां आवेलं टिप्पण. पाठांतरो मोटा अक्षरमा ( चालु अक्षरमा ) मूकेलां छे. क्यांय क्यांय अमे केवळ अशुद्ध पाठांतरो पण मूकेला छे ते एटला माटे के, लेखक के वाचक विगेरे फक्त अक्षरोनी समानताथी अने पोतानी असावधानता विगेरेनां कारणोथी केवी केवी जातना पाठांतरो वधारी मूके छे ए जाणी शकाय. संभव छे के, 'ग्रंथमां क्या क्या प्रकारे अशुद्धिओ वधे छे अने केवा केवा पाठभेदो थाय छे' तेनो इतिहास लखनारने आवां अशुद्ध पाठांतरोनो पण उपयोग थाय. जे टिप्पणो अमे करेला छे ते माटे कशुं निशान करेलु नथी. बधी प्रतिओमां टीकानो पाठ लेखक (लहिया ) विगेरेना दोषथी अशुद्ध थई गयो छे एम ज्या ज्या अर्थानुसंधान के वाक्यरचना आदिथी जणायुं त्यां त्यां ते पाठ कायम राखी सुधारवा जेटलो भाग (पाठ के अक्षर ) ( ) आवा निशानमा मूकेलो छे. अमे एवा केटलाक पाठोने शुद्ध करवामां 'प्रमेयकमलमार्तड' नो उपयोग विशेष करेलो छे. अने क्यांय क्याय प्रशमरतिप्रकरण, Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ वात्स्यायनभाष्य के एवा बीजा पण ग्रंथनो आश्रय लीधेलो छे. जे जे स्थळे ए पाठ सुधारेलो छे ते बधे स्थळे ए सुधारो जे ग्रंथने आधारे करवामां आव्यो छे ते ग्रंथनो पाठ " " आ निशानमा नाना अक्षरोमां मूकेलो छे अने साथे ते ते ग्रंथनां पृष्ठ पंक्ति पण आपेलां छे. जे विशेष अशुद्ध पाठोने अमे सुधारी नथी शक्या ते पाठो पासे ? आवु शंकाचिह्न मूकेलं छे अने केटलाक खंडित पाठोनी नीचे 'ए पाठो लगभग खंडित लागे छे' एवी नोंध पण करेली छे. आ टीकाना दरेक वादस्थळमां पहेलां वीगतवार पूर्वपक्ष करवामां आवेलो छे अने पछी उत्तरपक्षमा ते पूर्वपक्षनी प्रत्येक दलील- खंडन करवामां आवेलुं छे. उत्तरपक्षमा ज्या ज्या पूर्वपक्षनी जे जे दलील, खंडन करवामां आवेलुं छे ए दरेक दलील पूर्वपक्षमां क्या क्यां आवेली छे तेनुं स्थळ सूचववा अमे दरेक उत्तरपक्षना पानानी नीचे लींटी दोरीने पूर्वपक्षनी ते ते दलीलोनां पृष्ठ पंक्तिओ आपेलां छे, जेने जोवाथी प्रत्येक जिज्ञासु उत्तरपक्षने वांचती वखते पूर्वपक्षनी ए ए खंडनीय दलीलोने सहेलाईथी बराबर समजी शकशे. ___ आ उपरांत ज्यां ज्यां टीकाकारे 'अमे आ वात पहेलां कही छे' एवं लखेलुं छे, त्यां जे स्थळे ए वातने टीकाकारे कहेली होय ते स्थळनां पण पृष्ठ पंक्तिओ यथाशक्य आपेलां छे. केटलेक स्थळे अमे प्रतिपाद्य विषयनी आदिमां { आवा चिह्ननो अने अंतमा } आव। चिढनो उपयोग करेलो छे अने ए बन्नेनुं एटले { } आ निशाननुं नाम 'दूरान्वयसूचक' चिह्न राखेखें छे. ते एटला माटे के, ज्या ज्यां कोई विषयना प्रतिपादनमा वच्चे बीजी पण लांबी टुंकी चर्चाओ चाले छे त्यां ते प्रसंगे चालेली चर्चाओनां आदि अंत जाणी शकाय. जूओ ग्रंथर्नु पृ० ५७ पं० १४-पृ० ५९ पं०३२। ___ आ पहेलो भाग तैयार करवामां अमने प्रवर्तक श्रीकांतिविजयजीना विद्याप्रिय अने सुशील प्रशिष्य श्रीपुण्यविजयजीए घणीज किंमती सहायता करी छे ते माटे अमे तेओना ऋणी छीए. सुखलाल अने बेचरदास. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीयं निवेदनम् 0000000000 विवेचितविविधविषया विस्तृता प्रस्तावना तु न प्राप्तकाला समग्रस्य ग्रन्थस्य प्रकाशनात् प्राक, अतः साम्प्रतमिह (क) ग्रन्थस्य विशिष्टता (ख) प्रकाशनस्य योजना चेति वस्तुद्वयमेव प्राधान्येन प्रदर्शयितुं समीहामहे । (क) तत्र (१) ग्रन्थस्य कर्तृन् (२) बाह्याभ्यन्तरखरूपं च वर्णयित्वैव तदीया विशिष्टता प्रतिपाद्यते। (१) ग्रन्थस्य कर्तारः (मूलकाराः) समयः-मूलस्य प्रणेतारस्तत्रभवन्त आचार्याः सिद्धसेनदिवाकरा विक्रमीयप्रथमशताब्दीवर्तिन इत्यवगम्यते पारम्परिकप्रवादेन । आचार्यसिद्धसेना दिगम्बराचार्याभ्यां कुन्दकुन्द-समन्तभद्राभ्यां प्राक्, श्वेताम्बर-दिगम्बरसम्प्रदाययोः पार्थक्याच्च प्राग् बभूवांस इति सम्भावनायाः साधारत्वेन पारम्परिकप्रवादो गवेषणाप्रियैरैतिहासिकैनोंपेक्षणीयः । इदानीन्तनास्तु केचिदैतिहासिकास्तानाचार्यान् विक्रमीयपञ्चमशताब्दीगतत्वेन सम्प्रधारयन्ति । ___ स्थान-जाति-धर्माः-यद्यपि आचार्याणां नाद्यापि जन्मादिस्थानानि परिनिश्चितानि तथाऽपि मालवदेशः तदीया च प्राच्या राजधानी उज्जयिनी तेषां विहारभूमिरिति परम्परातः श्रवणात् तदीयाः कृतयोऽपि तत्रैव प्रदेशे क्वचिल्लब्धजन्मान इति सम्भाव्यते । आचार्यसिद्धसेना यद्यपि जात्या ब्राह्मणाः, कुलधर्मेण च वैदिकास्तथाऽपि ते बहुश्रुतत्वप्राप्तिसमनन्तरमाचार्यवृद्धवादिनामन्तेवासित्वेन जैनी दीक्षामङ्गीचक्रुः। प्रतिभापकर्षः-आचार्यसिद्धसेना जैनदर्शनरहस्यवेदित्वेन विश्रुतेषु सर्वेष्वपि विद्वत्सु मूर्धन्यतां गता इति तु निर्विवादमेव, परंतु समकालीनवैदिक-बौद्ध-जैनादिसमस्तभारतीयदर्शनपारदर्शिविद्वद्गणनायामपि ते लब्धावकाशा इत्यत्र तदीयाः कृतय एव साक्षिण्यः । तेषां संस्कृत-प्राकृतभाषाविशारदता, बहुमुखी प्रतिभा, अस्खलनवाहा कल्पना, वस्तुस्पर्शाभिमुखी तार्किकता, स्पृहणीया दर्शनोपनिषद्वेदिता, प्रकृष्टपरिपाका च गद्यपद्यरचनाचातुरी साक्षात्कर्तुं शक्या प्रतिवाक्यं तदीयासु कृतिषु । कृतयः-आचार्यसिद्धसेनीयाः काश्चिदेव कृतय उपलब्धिपथमायान्ति । तत्र संमतिप्रकरणं प्राकृतोपनिबद्धम् , न्यायावतारः, कल्याणमन्दिरम् , एकविंशतिश्च द्वात्रिंशिकाः संस्कृतपद्यबद्धाः । तत्र सर्वस्मिन्नपि जैनसंस्कृतवाङ्मये प्राथमिकपद्यात्मकप्रमाणग्रन्थत्वेन प्रसिद्धं न्यायावतारं जैनतर्कसाहित्यविकासस्य प्रथमसोपानत्वेनावधारयन्तु तर्कप्रियाः । कल्याणमन्दिरं तीर्थकरपार्श्वनाथस्य स्तुतित्वेनोपलक्षयन्तु स्तुति प्रियाः । द्वात्रिंशिकाः स्तुतिगर्भा अपि विविधदर्शनस्वरूपवर्णनात्वेन निश्चिन्वन्तु तत्त्वज्ञानप्रियाः । तासु च कतिपयाः प्रातिस्विकदर्शनविषया द्वात्रिंशिका एवानुकरोति हरिभद्राचार्यकर्तृकः षड्दर्शनसमुच्चयो माधवाचार्यकर्तृकश्च सर्वदर्शनसंग्रहः । आचार्यसिद्धसेना 'गन्धहस्ती' इति नाम्नाऽपि प्रख्यायन्ते । तत्कृतं चाचारागसूत्रीयप्रथमाध्ययनविवरणं 'गन्धहस्तिविवरणम्' इत्यभिधीयते । तच्च विवरणं न संप्रति सुलभम् । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाकाराः टीकाया रचयितारः श्रीमदभयदेवसूरयः श्वेताम्बरराजगच्छीयप्रद्युम्नसूरिशिष्यत्वेन प्रसिद्धा विक्रमीयदशमशताब्दीभाजः। तेषां जन्मस्थान-जातिप्रभृति नैव विदितम्, अन्यास्तु तत्कृतयो न श्रूयन्ते। यद्यपि वादमहार्णवस्तत्कृतित्वेन क्वचिदुल्लिखितो भाति तथाऽपि दीर्घातिदीर्घवादमालाजटिलां प्रस्तुतां टीकामेव वादमहार्णवत्वेन कल्पयन्ति केचिदित्यास्तां तावत् । किंतु श्रीमदभयदेवसूरीणामसाधारणे दार्शनिकवैदुष्ये नैव विद्यते संशयलेशः । (२) ग्रन्थस्य बाह्याऽभ्यन्तरखरूपम् बाह्यं स्वरूपम्-मूलं संमतिसंज्ञकं प्राकृतार्यापद्यमयं काण्डत्रयविभक्तं सप्तषष्टयुत्तरशतसंख्यकगाथापरिमितम् । टीका च 'तत्त्वबोधविधायिनी' संज्ञिता संस्कृतगद्यमयी पञ्चविंशतिसहस्रसंख्यकश्लोकपरिमिता वर्तते। आभ्यन्तरं स्वरूपम्-विषयोऽस्य ग्रन्थस्यानेकान्तप्रधानो दार्शनिको वेदितव्यः । मूलकारै नदर्शनमात्रप्रसिद्धान् नय-सप्तभङ्गी-ज्ञान-दर्शन-द्रव्य-पर्यायादिपदार्थान् व्यवस्थापयितुं तार्किकपद्धत्या तानेव पदार्थान् विशदीकृत्यानेकान्तस्वरूपं प्रतिष्ठापितम्, तच्च प्रधानतया खतीर्थ्यान् पुरातनान् आगमिकानभिलक्ष्यीकृत्यैवेति मूलकारीया शैली । टीकाकारीया चान्यैव, तैस्तु प्राधान्येन दर्शनान्तरीयप्रवादनिरसनमुद्दिश्य दार्शनिकवादसंग्रहालयप्रख्यैव टीका निरमायि । तत्र च यदा कश्चिदपि दार्शनिको विषयश्चर्चयितुमुपक्रम्यते तदा तद्विषयावलम्बिनः सर्वेऽपि पक्षकाराः क्रमेणोपतिष्ठमानाः स्वं स्वं पक्षं स्थापयितुकामाः पूर्वपूर्ववादिस्थापितं पक्षं दूषयन्ति । पर्यवसाने च सिद्धान्ती स्याद्वादी प्रागुपन्यस्तान् सर्वानेव पक्षान् यथासंभवं समीक्ष्य सिद्धान्तं प्रादुष्करोति । ईदृश्या च प्रतिपादनभङ्गया प्रस्तुता टीका सर्व विषयस्पर्शिनिर्णायकसभापतिसमलंकृतामनेकसभ्यभूषितां स्वतां चर्चापरिषदं स्मारयति । मीमांसककुमारिलभट्टकृतश्लोकवार्तिक-नालन्दाविश्वविद्यालयप्रधानाचार्यशान्तिरक्षितकृततत्त्वसंग्रहीयकमलशीलकृतपञ्जिका-दिगम्बराचार्यप्रभाचन्द्रकृतप्रमेयकमलमार्तण्ड-न्यायकुमुदचन्द्रोदयद्वयप्रभृतीन स्वपूर्ववर्तिनो ग्रन्थान् बिम्बत्वेनाश्रयमाणैषा टीका स्वोत्तरवर्तिभिः वादिदेवसूरिकृतस्याद्वादरत्नाकर-मल्लिषेणसूरिकृतस्याद्वादमञ्जरी-वाचकयशोविजयकृतनयोपदेशीय-शास्त्रवार्तासमुच्चयीयवृत्तिद्वयप्रभृतिभिर्ग्रन्थैबिम्बत्वेनाश्रितेति टीकामेनां दिदृक्षुभिरुभयेऽपि ते ग्रन्था अवश्यद्रष्टव्याः । (ख) प्रकाशनयोजना। सुलभदर्शनेतिहाससामग्रीकतया स्पृहणीयमध्यमकालीनदार्शनिकग्रन्थान्यतमतया च सटीकस्यास्य मन्थमणेः संशोध्य प्रकाशनं चिकीर्षितमनया संस्थया । अनुपलभ्यमानासु बह्वीषु संमतिटीकासु एकस्याः श्वेताम्बराचार्यमल्लवादिकृतत्वेन, द्वितीयस्याश्च दिगम्बराचार्यसुमतिकृतत्वेन संसूचका उल्लेखा लभ्यन्ते नान्यासाम् । उपलभ्यते चाभयदेवसूरिरचितैव टीकेति सैव प्रकाशनीयत्वेन निर्धारिता।। संक्षिप्तटीकान्तरस्य दुर्लभत्वात् लभ्यमानटीकायाश्च जटिलत्वात् सुगममपि मूलप्रन्थं दुर्गमममिमन्यमानाः सर्वेऽपि जिज्ञासवः प्रायशः खं तदनधिकारिणं मत्वा तमभ्यसितुं नोत्सहन्ते । तस्य Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ च मूलमन्थस्योपादेयता पाठ्यक्रमप्रवेशनयोग्यता च न लौकिकभाषानुवादमन्तरेण संस्वतीति संप्रधार्य तदनुवादोऽपि विधित्सितः।। परंतु पूर्व सटीकः सम्पूर्णोऽपि ग्रन्थनिभिर्भागैः प्रकाशयितुमुचितः, तदनन्तरं च चतुर्थेन भागेन प्रस्तावना-विषयानुक्रम-परिशिष्टादिसहितो मूलमात्रानुवाद इति निर्णीतं संस्थया। तदनुसृत्य सार्धवर्षद्वयं यावत् प्रयस्य प्रकाश्यतेऽद्य सटीकसंपूर्णप्रथमगाथात्मकः प्रथमो भागः । __अत्र प्रान्ते यत् संक्षिप्तं शुद्धिपत्रकं निवेशितम्, तत्र चानायासेन दृष्टिपथमागता एव अशुद्धयो दर्शिता न पुनः सर्वाः । सर्वासां प्रदर्शनं तु ग्रन्थसमाप्तावेव करिष्यते । ये च महानुभावा यां कामपि अशुद्धिमत्र दृष्ट्वा सूचयिष्यन्ति तैर्वयमुपकृता भविष्याम इति । अस्य ग्रन्थस्य संशोधनाय आदर्शानां (प्रतीनां) पञ्चविंशतिर्लब्धा, तत्र सप्तदशैव एव आदर्शा अत्रास्माभिरुपयोजिताः, तेषां च सप्तदशानामपि संकेतितानि नामानि तत्संकेतसूचनायां सष्टितानि । यैश्च महाशयैरस्य संशोधनकर्मणि निजनिजसंग्रहसत्का आदर्शा दत्तास्तान् वयं भृशं धन्यवादयाम इति । टीकाकारोऽत्र संवादत्वेन चर्चाविषयत्वेन वा अनेकान् ग्रन्थान्, ग्रन्थकारांश्च नामग्राहमनामग्राहं वा प्रदर्शितवान् , तेषां सर्वेषां नामानि तु प्रयतमाना अपि नोपालप्स्महि; किन्तु यानि नामानि उपलभ्य तत्तत्स्थले [ ] ईदृशचिह्ने संक्षिप्य संकेतितानि तानि सर्वाण्यपि तत्संकेतसूचनायां स्पष्टीकृतानि । यानि च तानि नोपलब्धानि तदर्थ [ ] एतदेव चिह्न रिक्त स्थापितम् । ये च महाशया अस्माभिरत्राऽनिर्दिष्टानां प्रन्थानाम् , ग्रन्थकाराणां वा नामानि जानीयुस्ते सकृपमस्मान सूचयेयुः, अस्मन्निर्दिष्टे वा तत्तत्स्थले यत् स्यात् शोध्यं तदपि दर्शयेयुरिति ।। अस्मिन् प्रथमे भागे एकैव प्रथमा गाथा, तस्याश्च समग्रा टीका समपूरि । टीकापरिमाणं प्रायः सार्धसप्तसहस्री श्लोकानाम् । तत्र ये मुख्यमुख्यवादाः, तदीयाः पूर्वपक्षोत्तरपक्षाः, तदन्तर्गता मुख्यमुख्यविषयविभागाः, विशेषतया चर्चिताश्च विशिष्टा विषयाः सन्ति तेषां संक्षिप्तोऽनुक्रमोऽत्र समदर्शि; सविस्तरस्तु सोऽस्य ग्रन्थस्य समातिं यावत् प्रतीक्षणीय इति । पाठान्तरप्रभृतेः सूचनम्-अनोपयोजितेष्वादशॆषु आदर्शचतुष्टये केनचित् कृतानि टिप्पणान्यासन् , तानि आदर्शगतानि टिप्पणानि, पाठान्तराणि, कचित् कचिच्च स्वकृतानि टिप्पणानि प्रतिपत्रमधस्ताद् निर्दिष्टानि । तत्र आदर्शगतानि टिप्पणानि यस्माद्यस्मादादर्शाद् गृहीतानि तत्तन्नामपूर्वकं " " एतञ्चिह्नान्तः सूक्ष्माक्षरेषु स्थापितानि । तथाहि-पृ० २ पं० ३८ आ० टि०-आत्मारामजीसत्कप्रतिगतं टिप्पणमिति । पाठान्तराणि स्थूलेष्वक्षरेषु दर्शितानि । 'लेखकदोषाद् वाचकभ्रमादक्षरसाम्याद् वा कीदृशकीदृशानि पाठान्तराणि, ग्रन्थाशुद्धयो वाऽभिवर्धन्ते' इति ज्ञानसौकर्याय क्वचिद् वयं सर्वथाऽशुद्धान्येव पाठान्तराणि दर्शितवन्त इति । स्वकृतानि टिप्पणानि केवलं सूक्ष्माक्षरैरेवोपन्यस्तानीति । सर्वासु प्रतिषु अशुद्ध एव पाठो यत्रास्माकं प्रतिभातस्तत्र प्रन्थान्तरमाश्रित्यानाश्रित्य वा तस्याशुद्धस्य पाठस्य पार्श्वे ( ) एतचिह्नान्तः शुद्धं पाठांशं समतिष्ठिपाम, पाठसंशोधनकर्मणि च विशेषतो दिगम्बरीय प्रमेयकमलमार्तण्ड'नामानं ग्रन्थं समाशिनियाम, कापि कापि प्रशमरतिप्रकरणम् , वात्स्यायनभाष्यम् , ईदृशमेव वा प्रन्थान्तरमुपयोजितवन्तः । यत्र च यं ग्रन्थमाश्रिय Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ संशोधितः पाठस्तत्र सर्वत्र पत्रस्याधस्ताद् ग्रन्थनामग्राहं तग्रन्थ पृष्ठ- पङ्क्तिदर्शनपूर्वकं चोपयुक्ततग्रन्थंपार्ट ” एतचिह्नान्तः सूक्ष्माक्षरैः समददर्शाम । 66 यांश्चात्यन्तमशुद्धान् पाठान् संस्कर्तुं नालमभूम, तत्र तदशुद्ध पाठनिकटे ? ईदृशं चिह्नं कृतवन्तः; कचिश्च खण्डितप्रायपाठस्याधः 'एष पाठः खण्डितप्रायः' इत्यपि प्रदर्शितवन्त इति । प्रस्तुतटीकायां तेषु तेषु वादस्थलेषु पूर्व तावत् प्रतिवादस्थलं सविस्तरं पूर्वपक्षो निक्षिप्तः, तदनन्तरं च तत्प्रतिविधानरूपे उत्तरपक्षे पूर्वपक्षमण्डिताः सर्वा युक्तयो निरस्ताः । 'यत्र चोत्तरपक्षे या पूर्वपक्षदर्शिता युक्तिर्दलिता सा पूर्वपक्षे क्क क्क आयाता' इति निरूपणाय तत्तत्पत्रस्याधस्तात् तत्तत्पूर्वपक्षस्य पृष्ठं पङ्क्तिं च निरदिनाम यतो जिज्ञासवो जना उत्तरपक्षखण्डितास्तास्ताः पूर्वपक्षयुक्तीः सरलतया समवबुध्येरन् । टीकाकृता च यत्र यत्र 'तदुक्तमस्माभिः' इत्यादि निर्दिष्टं तत्र तत्र तानि तानि तदुक्तपूर्वस्थलानि सपृष्ठपङ्किकं यथाशक्ति समदीदृशामेति । क्वचिच्च कस्यचिदेकस्य विषयस्य प्रतिपादने अन्तराऽन्तरा अन्या अपि प्रसङ्गप्राप्ता लघीयस्यो द्राघीयस्यो वा चर्चाश्चर्चिताः टीकाकृता, तासां च अन्तरागतानां चर्चानामाद्यन्तौ ज्ञातुं प्रति चर्चमादौ {एतादृशं चिह्नम्, अन्ते च ) एतादृशं चिह्नं निरटङ्किष्महि, तस्य च {} एतादृशस्य समग्रस्य चिह्नस्य 'दूरान्वयसूचकं चिह्नम्' इति संज्ञां व्यधिष्महि । एतदर्थं पश्यत पृ० ५७ पं १४पृ० ५९ पं० ३२ इति । अस्य प्रथमस्य भागस्य संशोधनकर्मणि प्रवर्तक श्री कान्तिविजयानां विद्याप्रियैः सुशीलैः प्रशिष्यैः श्री पुण्यविजयमुनिभिर्बहुमूल्यं साहायकमनुष्ठितं तदर्थं तेषां कृतज्ञा वयम् । सुखलालः बेचरदासश्च । Page #28 --------------------------------------------------------------------------  Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ श्रीसिद्धसेनदिवाकररचितं संमतितर्क-प्रकरणम् । --- DOOR-- राजगच्छीय-तर्कपञ्चानन-न्यायचक्रवत्ति-श्रीअभयदेवसूरिनिर्मितया तत्त्वबोधविधायिन्याख्यया व्याख्यया सहितम् । प्रथमः काण्डः । स्फुरद्वागंशुविध्वस्तमोहान्धतमसोदयम्। वर्धमानार्कमभ्ययं यते सम्मतिवृत्तये ॥१॥ प्रज्ञावद्भिर्यद्यपि सम्मतिटीकाः कृताः सुबह्वर्थाः। ताभ्यस्तथाऽपि न महानुपकारः स्वल्पवुद्धीनाम् ॥२॥ शेमुष्युन्मेषलवं तेषामाधातुमाश्रितो यत्नः। मन्दमतिना मयाऽप्येष नात्र संपत्स्यते विफलः ॥ ३॥ 'इह च शारीर-मानसानेकदुःखदारिद्योपद्वविद्रुतानां निरुपमाऽनतिशयानन्तशिवसुखानन्यसमाऽवन्ध्यकारणसम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मकपरमरत्नत्रयजिघृक्षया अतिगम्भीरजिनवचनमहोदधिमवतरीतुकामानां तदवतरणोपायमविदुषां भव्यसत्त्वानां तदर्शनेन तेषां महानुपकारः प्रव.१५ तताम्, तत्पूर्वकश्चात्मोपकारः' इति मन्वान आचार्यो दुष्षमाऽरसमाश्यामासमयोद्भूतसमस्तजनताहार्दसंतमसविध्वंसकत्वेनावाप्तयथार्थाभिधानः सिद्धसेनदिवाकरः तदुपायभूतसम्मत्याख्यप्रकरणकरणे प्रवर्त्तमानः "शिष्टाः क्वचिदभीष्टे वस्तुनि प्रवर्त्तमाना अभीष्टदेवताविशेषस्तव विधानपुरस्सरं प्रवर्त्तन्ते" इति तत्समयपरिपालनपरस्तद्विधानोद्भतप्रकृष्टशुभभावानल्पज्वलदनलनिर्दग्धप्रचुरतरक्लिष्टकर्माविर्भूतविशिष्टपरिणतिप्रभवां प्रस्तुतप्रकरणपरिसमाप्तिं चाऽऽकलयन् 'अर्हतामप्यर्हत्ता २० शासनपूर्विका, पूजितपूजकश्च लोकः, विनयमूलश्च स्वर्गा-ऽपवर्गादिसुखसुमनःसमूहानन्दामृतरसोदग्रस्वरूपप्राप्तिस्वभावफलप्रदानप्रत्यलो धर्मकल्पद्रमः' इति प्रदर्शनपरैर्भुवनगुरुभिरप्यवाप्तामलकेवलज्ञानसंपद्भिस्तीर्थकृद्भिः शासनार्थाभिव्यक्तिकरणसमये विहितस्तवत्वात् 'शासनमतिशयतः स्तवाहम्' इति निश्चिन्वन् 'असाधारणगुणोत्कीर्तनस्वरूप एव च पारमार्थिकस्तवः' इति च संप्रधार्य शासनस्याभीष्टदेवताविशेषस्य प्रधानभूतसिद्धत्व-कुसमयविशासित्वा-ऽहत्प्रणीतत्वादिगुण-२५ प्रकाशनद्वारेण स्तवाभिधायिकां गाथामाह सिद्धं सिद्धत्थाणं ठाणमणोवमसुहं उवगयाणं । कुसमयविसासणं सासणं जिणाणं भवजिणाणं ॥१॥ अस्याश्च समुदायार्थ एतत्पातनिकयैव प्रकाशितः, अवयवार्थस्तु प्रकाश्यते-शास्यन्ते जीवादयः पदार्था यथावस्थितत्वेन अनेनेति 'शासनं' द्वादशाङ्गम्, तच्च 'सिद्धं' प्रतिष्ठितम्-निश्चित-३० प्रामाण्यमिति यावत्-स्वमहिम्नैव, नातः प्रकरणात् प्रतिष्ठाप्यम् । १ दुषमसम(मा)श्यामा-वा०। २-प्रतिपालन-वा०, कां० । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाण्यवादः। [स्वतःप्रामाण्यपक्षः] अत्राहुर्मीमांसका:-अर्थतथात्वप्रकाशको ज्ञातृव्यापारः प्रमाणम् , तस्यार्थतथाभावप्रकाशकत्वं प्रामाण्यम्, तच्च स्वतः उत्पत्ती, स्वकार्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदलक्षणे, स्वज्ञाने च; विज्ञानोत्पादकसामग्रीव्यतिरिक्तगुणादिसामय्यन्तर-प्रमाणान्तर-स्वसंवेदनग्रहणानपेक्षत्वात् । अपेक्षात्रयरहितं ५ च प्रामाण्यं स्वत उच्यते इति । अत्र च प्रयोगः-ये यद्भावं प्रत्यनपेक्षास्ते तत्स्वरूपनियताः, यथाऽविकला कारणसामग्री अङ्कुरोत्पादने, अनपेक्षं च प्रामाण्यमुत्पत्ती, स्वकार्ये, शप्तौ च इति ॥ [परतःप्रामाण्यपक्षः ] अत्र परतःप्रामाण्यवादिनः प्रेरयन्ति-अनपेक्षत्वमसिद्धम् । तथाहि-उत्पत्तौ तावत् प्रामाण्यं विज्ञानोत्पादककारणव्यतिरिक्तगुणादिकारणान्तरसापेक्षम्, तदन्वय-व्यतिरेकानुविधायित्वात् । १० तथाच प्रयोगः-यत् चक्षुराद्यतिरिक्तभावा-ऽभावानुविधायि तत् तत्सापेक्षम्, यथाऽप्रामाण्यम्: चक्षुराद्यतिरिक्तभावा-ऽभावानुविधायि च प्रामाण्यम् इति स्वभावहेतुः तस्मादुत्पत्ती परतः, तथा स्वकार्ये च सापेक्षत्वात् परतः । तथाहि-ये प्रतीक्षितप्रत्ययान्तरोदया न ते स्वतोव्यवस्थितधर्मकाः, यथाऽप्रामाण्यादयः, प्रतीक्षितप्रत्ययान्तरोदयं च प्रामाण्यं तत्र इति विरुद्धव्याप्तोपलब्धिः। तथा शप्तौ च सापेक्षत्वात् परतः । तथाहि-ये सन्देह-विपर्ययाऽध्यासिततनवस्ते परतोनिश्चितयथा१५ वस्थितस्वरूपाः, यथा स्थाण्वादयः, तथा च सन्देह-विपर्ययाऽध्यासितस्वभावं केपाश्चित् प्रत्ययानां प्रामाण्यमिति स्वभावहेतुः॥ [ पूर्वपक्षः-(१) उत्पत्तौ प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वसाधनम् ] अत्र यत्तावदुक्तम्-'प्रामाण्यं विज्ञानोत्पादककारणव्यतिरिक्तगुणादिकारणसव्यपेक्षमुत्पत्तौ' तदसत् , तेषामसत्त्वात् । तदसत्त्वं च प्रमाणतोऽनुपलब्धेः । तथाहि-न तावत् प्रत्यक्षं चक्षुरादीन्द्रि२० यगतान् गुणान् ग्रहीतुं समर्थम् , अतीन्द्रियत्वेनेन्द्रियाणां तहणानामपि प्रतिपत्तुमशक्तेः। अथानुमा नमिन्द्रियगुणान् प्रतिपद्यते, तदप्यसम्यक् अनुमानस्य प्रतिबद्ध लिङ्गनिश्चयबलेनोत्पत्त्यभ्युपगमात् । प्रतिबन्धश्च किं प्रत्यक्षेणेन्द्रियगतगुणैः सह गृह्यते लिङ्गस्य? आहोस्विदनुमानेन? इति वक्तव्यम् । तत्र यदि प्रत्यक्षमिन्द्रियाधितगुणैः सह लिङ्गस्य सम्बन्धग्राहकमभ्युपगम्यते, तदयुक्तम् : इन्द्रियगुणानामप्रत्यक्षत्वे तद्गतसम्बन्धस्याप्यप्रत्यक्षत्वात् "द्विष्टसम्बन्धसंवित्तिकरूपप्रवेदनात्" । 1 इति वचनात् । अथानुमानेन प्रकृतसम्बन्धः प्रतीयते, तदप्ययुक्तम्: यतस्तदप्यनुमानं किं गृहीतसम्बन्धलिङ्गप्रभवम् ? उतागृहीतसम्बन्धलिङ्गसमुत्थम् ?। तत्र यद्यगृहीतसम्बन्धलिङ्गप्रभवम्, तदा किं प्रमाणम् ? उताप्रमाणम् ? । यद्यप्रमाणम् , नातः सम्बन्धप्रतीतिः । अथ प्रमाणम्, तदपि न प्रत्यक्षम्-अनुमानस्य बाह्यार्थविषयत्वेन प्रत्यक्षत्वानभ्युपगमात्, प्रत्यक्षपक्षोक्तदोषाच्च-किंतु ३० अनुमानम्, तच्चानवगतसम्बन्धं न प्रवर्तत इत्यादि वक्तव्यम् । अथावगतसम्बन्धम्, तस्यापि सम्बन्धः किं तेनैवानुमानेन गृह्येत? उतान्येन। यदि तेनैव गृह्यत इत्यभ्युपगमः-सन युक्तः, इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् । तथाहि-गृहीतप्रतिबन्धं तत् स्वसाध्यप्रतिबन्धग्रहणाय प्रवर्तते, तत्प्रवृत्ती च स्वोत्पादकप्रतिबन्धग्रह इत्यन्योऽन्यसंश्रयो व्यक्तः। अथान्येनानुमानेन प्रतिबन्धग्रहाभ्युप गमः-सोऽपि न युक्तः, अनवस्थाप्रसङ्गात् । तथाहि-तदप्यनुमानमनुमानप्रतिबन्धग्राहकमनुमा३५ नान्तराद् गृहीतप्रतिबन्धमुदयमासादयति, तदप्यन्यतोऽनुमानाद् गृहीतप्रतिबन्धमित्यनवस्था । किंच, तदनुमानं स्वभावहेतुप्रभावितम्? कार्यहेतुसमुत्थम्? अनुपलब्धिलिङ्गप्रभवं वा प्रतिबन्ध १ उच्यते । अत्र-गु० । २ “यस्य भावो यद्भाव इति व्युत्पत्त्या 'यद्भाव'पदेन यदुत्पत्तिर्लभ्यते, तथाच यदुत्पत्तिं प्रति ये अनपेक्षाः-इतरनैरपेक्ष्येण समर्थाः"-गु०भा०गतं टिप्पणम् । ३ "गुणादि"-आ० टि.। ४ “यत्र यत्र दोषादि तत्र तत्र अप्रामाण्यम्"-आ. टि. । ५ "ये अपेक्षितकारणान्तरोदयाः"-आ. टि.। ६ अस्मिन् पृष्ठे ९ पटौ । ७ "द्वयोः खरूपग्रहणे सति संबन्धवेदनम्" इत्युत्तरार्धम्-इति भा०टि०। ८ गृह्यते-भां। ९ “समुत्पादितम्"-भां. टि० । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे-- ग्राहकं स्यात् ? । अन्यस्य साध्यनिश्चायकत्वेन सौगतैरनभ्युपगमात् । तदुक्तम्-"त्रिरूपाणि च त्रीण्येव लिङ्गानि" । "अनुपलब्धिः , स्वभावः, कार्य च" इति [ध० न्या० सू०११-१२] "त्रिरूपाल्लिङ्गाल्लिङ्गिविज्ञानमनुमानम्" [ ] इति च । तत्र स्वभावहेतुः प्रत्यक्षगृहीतेऽर्थे व्यवहारमात्रप्रवर्तनफलः, यथा शिंशिपात्वादिवृक्षादिव्यवहारप्रवर्तनफलः। न च अत्यक्षाश्रितगुणलिङ्गसम्बन्धः प्रत्यक्षतः प्रतिपन्नः, येन स्वभावहेतुप्रभवमनुमानं तत्सम्बन्धव्यवहारमार- ६ चयति । नापि कार्यहेतुसमुत्थम् अक्षाश्रितगुणलिङ्गसम्बन्धग्राहकत्वेन तत् प्रभवति, कार्यहेतोः सिद्धे कार्य-कारणभावे कारणप्रतिपत्तिहेतुत्वेनाभ्युपगमात्; कार्य-कारणभावस्य च सिद्धि: प्रत्यक्षा-ऽनुपलम्भप्रमाणसम्पाद्याः न च लोचनादिगतगुणाश्रितलिङ्गसम्बन्धग्राहकत्वेन प्रत्यक्षप्रवृत्तिः, येन तत्कौर्यत्वेन कस्यचिल्लिङ्गस्य प्रत्यक्षतः प्रतिपत्तिः स्यात्, तन्न कार्यहेतोरपि प्रतिबन्धप्रतिपत्तिः। अनुपलब्धेस्त्वेवंविधे विषये प्रवृत्तिरेव न सम्भवति, तस्या अभावसाधकत्वेन व्यापाराभ्युपगमात् । न चान्यल्लिङ्गमभ्युपगम्यत इत्युक्तम् । न च प्रत्यक्षा-ऽनुमानव्यतिरिक्तं प्रमाणान्तरमिति नेन्द्रियगतगुणप्रतिपत्तिः। यन्न क्वचिदपि प्रमाणेन प्रतिभाति न तत् सद्यवहारावतारि, यथा शशशृङ्गम् ; न प्रतिभान्ति च क्वचिदपि प्रमाणेनातीन्द्रियेन्द्रियगुणा भवदभ्युपगता इति कुतस्तेषां विज्ञानोत्पादककारणव्यतिरिक्तानां प्रामाण्योत्पादकत्वम् । अथ कार्येण यथार्थोपलब्ध्यात्मकेन तेषामधिगमः, तदप्ययुक्तम्: यथार्थत्वा-ऽयथार्थत्वे विहाय यदि कार्यस्य उपलब्ध्याख्यस्य स्वरूपं निश्चितं भवेत् तदा यथार्थत्वलक्षणः कार्यस्य विशेषः पूर्वस्मात् कारणकलापादनिष्पद्यमानो गुणाख्यं स्वोत्पत्तौ कारणान्तरं परिकल्पयति, यदा तु यथार्थैवोपलब्धिः स्वोत्पादककारणकलापानुमापिका तदा कथमुत्पादकव्यतिरेकेणं गुणसद्भावः? । अयथार्थत्वं तूपलब्धेः कार्यस्य विशेषः पूर्वस्मात् कारणसंमुदायादनुपपद्यमानः स्वोत्पत्तौ सामग्रयन्तरं कल्पयति, अत एव परतोऽप्रामाण्यमुच्यते, तस्योत्पत्तौ दोषापेक्षत्वात् । न चेन्द्रियनैर्मल्यादि.. गुणत्वेन वक्तुं शक्यम्, नैर्मल्यं हि तत्स्वरूपमेव, न पुनरोपाधिको गुणः; तथाव्यपदेशस्तु दोषाभावनिबन्धनः। तथाहि-कामलादिदोषासत्त्वान्निर्मलमिन्द्रियमुच्यते, तत्सत्त्वे सदोषम् । मनसोऽपि मिद्धाद्यभावः स्वरूपम्, तत्सद्भावस्तु दोषः। विपयस्यापि निश्चलत्वादिः स्वभावः, चलत्वादिकस्तु दोपः । प्रमातुरपि क्षुदाद्यभावः स्वरूपम्, तत्सद्भावस्तु दोषः । तदुक्तम्"इयती च सामग्री प्रमाणोत्पादिका" [ | तदुत्पद्यमानमपि प्रामाण्यं स्वोत्पादककारणव्यतिरिक्तगुणानपेक्षत्वात् स्वत उच्यते । नाप्येतद् वक्तव्यम्-तजनकानां स्वरूपमयथार्थोपलब्ध्या समधिगतम्, यथार्थत्वं तु पूर्वस्मात् कार्यावगतात् कारकस्वरूपादुनिष्पद्यमानं किमिति गुणाख्यं सामग्यन्तरं न कल्पयति। प्रक्रियाया विपर्ययेणापि कल्पयितुं शक्यत्वात् । यतो न लोकः प्रायशो विपर्ययज्ञानात् स्वरूपस्थं कारणमप्यनुमिनोति किंतु सम्यग्ज्ञानात्; तथाविधे च कारकानुमानेऽशक्यप्रतिषेधा पूर्वोक्तप्रक्रिया । नापि तृतीयं" कार्यमस्तीत्युक्तम्। अपि चार्थतथाभावप्रकाशनरूपं प्रामाण्यम, तस्य चक्षुरादिकारणसामग्रीतो विज्ञानोत्पत्तावप्यनुत्पत्त्यभ्युपगमे विज्ञानस्य किं स्वरूपं भवद्भिरपरमभ्युपगम्यते? इति वक्तव्यम् । न च तद्रूपव्यतिरेकेण विज्ञानस्वरूपं भवन्मतेन सम्भवति, येन प्रामाण्यं तत्र विज्ञानोत्पत्तावप्यनुत्पन्नमुत्तरकालं तत्रैवोत्पत्तिमदभ्युपगम्येत; भित्ताविव चित्रम्। किंच, यदि स्वसामग्रीतो विज्ञानोत्पत्तावपि न प्रामाण्यं समुत्पद्यते, किंतु तद्यतिरिक्तसामग्रीतः पश्चाद् भवति, तदा विरुद्धधर्माध्यासात् कारणमेदाच्च भेदः स्यात् । अन्यथा “अयमेव भेदो भेदहेतुर्वा, यदुत विरुद्धधर्मा. ध्यासः, कारणमेदश्च; स चेन्न भेदको विश्वमेकं स्यात"[ ] इति वचः परिप्लवेत । १ न चाक्षाश्रित-कां, गु०। २ “अक्षात्रितगुणलिङ्गसंबन्ध" (म्)-भां. टि.। ३ "गुग" ( गुणकार्यत्वेन )-भांटि.। ४ अस्मिन् पृछे १ पटौ । ५ उपलब्ध्याख्यस्व-भां० । ६ व्यतिरेकिगुण-भा० । -समूहादनु-वा० । ८ मिन्द्धाद्य-भां० । “मिद्धं निद्रा"-गु.टि.। ९प्रमाणं-कां० । १० “यथार्थत्वा-ऽयथार्थत्वे विहाय"-भांटि.। ११ अस्मिन् पृष्ठे १६ पढ़ो। १२ "प्रमाणस्य कारणं चक्षुरादि, प्रामाण्यस्य कारणं गुणः इति कारणभेदात्"-आ टिक। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाण्यवादः। तस्माद्यत एव गुणविकलसामग्रीलक्षणात् कारणाद् विज्ञानमुत्पद्यते तत एव प्रामाण्यमपीति 'गुणवच्चक्षुरादिभावाभावानुविधायित्वात्' इत्यसिद्धो हेतुः। अत एवोत्पत्ती 'सामग्र्यन्तरानपेक्षत्वं' नासिद्धम्. अनपेक्षत्वविरुद्धस्य सापेक्षत्वस्य विपक्षे सद्भावात् ततो व्यावर्त्तमानो हेतुः स्वसाध्येन व्याप्यते इति विरुद्धा-ऽनैकान्तिकत्वयोरप्यभाव इति भवत्यतो हेतोः स्वसाध्यसिद्धिः। ५ अर्थतथात्वपरिच्छेदरूपा च शक्तिः प्रामाण्यम् । शक्तयश्च सर्वभावानां स्वत एव भवन्ति, नोत्पादककारणकलापाधीनाः । तदुक्तम् "स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गम्यताम् । नहि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्य्यते" ॥ [ श्लो० वा० सू० २, श्लो० ४७ ] एतच्च नैव सत्कार्यदर्शनसमाश्रयणादमिधीयते, किंतु यः कार्यधर्मः कारणकलापेऽस्ति स एव १० कारणकलापादुपजायमाने कार्य तत एवोदयमासादयति; यथा मृत्पिण्डे विद्यमाना रूपादयो घटेऽपि मृत्पिण्डादुपजायमाने मृत्पिण्डरूपादिद्वारेणोपजायन्ते । ये पुनः कार्यधर्माः कारणेष्वविद्यमाना न ते कारणेभ्यः कार्ये उदयमासादयति तत एव प्रादुर्भवन्ति, किंतु स्वतः; यथा घटस्यैवोदकाहरणशक्तिः, तथा विज्ञानेऽप्यर्थतथात्वपरिच्छेदशक्तिः चक्षुरादिषु विज्ञानकारणेष्वविद्यमाना न तत एव भवति, किंतु स्वत एव प्रादुर्भवति । किंचोक्तम् "आत्मलाभे हि भावानां कारणापेक्षिता भवेत् । लब्धात्मनां स्वकार्येषु प्रवृत्तिः स्वयमेव तु" ॥ [ श्लो० वा० सू० २, श्लो० ४८] तथाहि- "मंत्पिण्ड-दण्ड-चक्रादि घटो जन्मन्यपेक्षते। उदकाहरणे तस्य तदपेक्षा न विद्यते"॥ [ ] इति।। अथ चक्षरादेर्विज्ञानकारणादुपजायमानत्वात् प्रामाण्यं परत उपजायत इति यद्यभिधीयते. २० तदभ्युपगम्यत एव । प्रेरणाबुद्धेरपि अपौरुषेयविधिवाक्यप्रभवायाः प्रामाण्योत्पत्त्यभ्युपगमात् । तथाऽनुमानबुद्धिरपि गृहीताविनाभावानन्यापेक्षलिङ्गादुपजायमाना तत एव गृहीतप्रामाण्या उपजायत इति 'सर्वत्र विज्ञानकारणकलापव्यतिरिक्तकारणान्तरानपेक्षमुपजायमानं प्रामाण्यं स्वत उत्पद्यते' इति नोत्पत्तौ परतः प्रामाण्यम् ॥ [पूर्वपक्षः-(२) कार्ये प्रा माण्यस्य स्वतस्त्वसाधनम् ] नापि 'स्वकार्येऽर्थतथाभावपरिच्छेदलक्षणे प्रवर्त्तमानं प्रमाणं स्वोत्पादककारणव्यतिरिक्तनिमित्तापेक्षं प्रवर्त्तते' इत्यभिधातुं शक्यम् : यतस्तन्निमित्तान्तरमपेक्ष्य स्वकार्ये प्रवर्त्तमानं किं संवादप्रत्ययमपेक्ष्य प्रवर्त्तते ? आहोस्वित् स्वोत्पादककारणगुणानपेक्ष्य प्रवर्तते? इति विकल्पद्वयम् । तत्र यद्याद्यो विकल्पोऽभ्युपगम्यते, तदा चक्रकलक्षणं दूषणमापतति । तथाहि-प्रमाणस्य स्वकार्ये प्रवृ तौ सत्यामर्थक्रियार्थिनां प्रवृत्तिः, प्रवृत्तौ चार्थक्रियाज्ञानोत्पत्तिलक्षणः संवादः, तं च संवादम३० पेक्ष्य प्रमाणं स्वकार्येऽर्थतथाभावपरिच्छेदलक्षणे प्रवर्तत इति यावत् प्रमाणस्य स्वकार्ये न प्रवृत्तिर्न तावदर्थक्रियार्थिनां प्रवृत्तिः, तामन्तरेण नार्थक्रियाज्ञानसंवादः, तत्सद्भावं विना प्रमाणस्य तदपेक्षस्य॑ स्वकार्ये न प्रवृत्तिरिति स्पष्टं चक्रकलक्षणं दूषणमिति । न च भाविनं संवादप्रत्ययमपेक्ष्य प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तत इति शक्यमभिधातुम्, भाविनोऽसत्त्वेन विज्ञानस्य स्वकार्ये प्रवर्त्तमानस्य सहकारित्वासंभवात् । अथ द्वितीयः, तत्रापि किं गृहीताः स्वोत्पादककारणगुणाः सन्तः प्रमाणस्य ३६. स्वकार्ये प्रवर्त्तमानस्य सहकारित्वं प्रपद्यन्ते? आहोस्विदगृहीताः? इत्यत्रापि विकल्पद्वयम् । तत्र यद्यगृहीता इति पक्षः, स न युक्तः; अगृहीतानां सत्त्वस्यैवासिद्धेः सहकारित्वं दूरोत्सारितमेव । अथ द्वितीयः, सोऽपि न युक्तःः अनवस्थाप्रसङ्गात् । तथाहि-गृहीतस्वकारणगुणापेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तते, स्वकारणगुणज्ञानमपि स्वकारणगुणज्ञानापेक्षं प्रमाणकारणगुणपरिच्छेदलक्षणे स्वकार्ये प्रव १ ग्रन्थानम्-श्लो० १०० । २ अयं हेतुः पृ. २, पं० ९। ३ एतच 'सामग्र्यन्तरानपेक्षत्वम्' पृ० २,५०४ । ४ “सांख्य" (दर्शनसमाश्रयणात् ) गु.टि.। ५ वा. विना सर्वत्र-मासादयन्ति न तत एव-इत्यादिपाठः। ६ “सर्वे हि भावाः स्वात्मलाभायैव खकारणमपेक्षन्ते, घटो हि मृत्पिण्डादिकं खजन्मनि एव अपेक्षते, नोदकाहरणेऽपि3 तथा शानमपि खोत्पत्तौ गुणवत्, इतरद वा कारणमपेक्षतां नाम, खकार्ये तु विषयनिश्चये अनपेक्षमेव" इति-श्लोकवा. टीकायाम्-(को० वा० सू०२, श्लो०४८)। ७ इत्यमिधानं शक्यम्-भां०। ८ तदपेक्षस्वकार्ये-गु०। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे र्तते, तदपि स्वकारणगुणज्ञानापेक्षमित्यनवस्थासमवतारो दुर्निवार इति । अथ प्रमाणकारणगुणज्ञानं स्वकारणगुणज्ञानानपेक्षमेव प्रमाणकारणगुणपरिच्छेदलक्षणे स्वकार्ये प्रवर्त्तते, तर्हि प्रमाणमपि स्वकारणगुणज्ञानानपेक्षवार्थपरिच्छेदलक्षणे स्वकार्ये प्रवर्तिष्यत इति व्यर्थ प्रमाणस्य स्वकारणगु. णशानापेक्षणमिति न स्वकार्ये प्रवर्त्तमानं प्रमाणमन्यापेक्षम् । तदुक्तम् "जातेऽपि यदि विज्ञाने तावन्नार्थोऽवधार्यते । यावत् कारणशुद्धत्वं न प्रमाणान्तराद् गतम् ॥ तत्र ज्ञानान्तरोत्पादः प्रतीक्ष्यः कारणान्तरात् । यावद्धि न परिच्छिन्ना शुद्धिस्तावदसत्समा ॥ तस्यापि कारणाशुद्धेर्न ज्ञानस्य प्रमाणता । तस्याप्येवमितीत्थं तुन क्वचिद्यवतिष्ठते" ॥ इति [श्लो० वा० सू० २, श्लो०४९-५१] १० तेन 'ये प्रतीक्षितप्रत्ययान्तरोदयाः' इति प्रयोगे हेतोरसिद्धिः । तस्मात्-‘स्वसामग्रीत उपजायमानं प्रमाणमर्थयाथात्म्यपरिच्छेदशक्तियुक्तमेवोपजायत इति स्वकार्येऽपि प्रवृत्तिः स्वतः इति स्थितम् ॥ [ पूर्वपक्षः-(३) निश्चये प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वसाधनम् ] नापि प्रमाणं प्रामाण्यनिश्चयेऽन्यापेक्षम् । तद्ध्यपेक्षमाणं किं स्वकारणगुणानपेक्षते ? आहोस्वित् १५ संवादम् ? इति विकल्पद्वयम् । तत्र यदि स्वकारणगुणानपेक्षत इति पक्षः कक्षीक्रियते, सोऽसंगतः; स्वकारणगुणानां प्रत्यक्ष-तत्पूर्वकानुमानाग्राह्यत्वेनासत्त्वस्य प्रागेव प्रतिपादनात् । अथामिधीयतेयो यः कार्यविशेषः स स गुणवत्कारणविशेषपूर्वकः, यथा प्रासादादिविशेषः, कार्यविशेषश्च यथावस्थितार्थपरिच्छेद इति स्वभावहेतुरिति, एतदसम्बद्धम् ; परिच्छेदस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वासिद्धेः । तथाहि-परिच्छेदस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वं किं शुद्धकारकजन्यत्वेन? उत २० संवादित्वेन ? आहोस्विद् बाधारहितत्वेन? उतस्विद् अर्थतथात्वेन ? इति विकल्पाः। तत्र यदि गुणवत्कारणजन्यत्वेनेति पक्षः, स न युक्तः, इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् । तथाहि-गुणवत्कारणजन्यत्वेन परिच्छेदस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वम्, तत्परिच्छेदत्वाच्च गुणवत्कारणजन्यत्वमिति परिस्फुटमितरेतराश्रयत्वम् । अथ संवादित्वेन ज्ञानस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वं विज्ञायते, एतदप्यचारु; चक्रकप्रसङ्गस्यात्र पक्षे दुर्निवारत्वात् । तथाहि-न यावद् विज्ञानस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेद-२५ लक्षणो विशेषः सिध्यति, न तावत् तत्पूर्विका प्रवृत्तिः संवादार्थिनाम्, यावच्च न प्रवृत्तिर्न तावदर्थक्रियासंवादः, यावच्च न संवादोन तावद् विज्ञानस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वसिद्धिरिति चक्रकप्रसङ्गः प्रागेव प्रतिपादितः। अथ बाधारहितत्वेन विज्ञानस्य यथार्थपरिच्छेदत्वमध्यवसीयते, तदप्यसङ्गतम्; स्वाभ्युपगमविरोधात् । तदभ्युपगमविरोधश्च-बाधाविरहस्य तुच्छस्वभावस्य सत्त्वेन, ज्ञापकत्वेन वाऽनङ्गीकरणात् ; पर्युदासवृत्त्या तदन्यज्ञानलक्षणस्य तु विज्ञानपरिच्छेदविशेषाविषय-३० त्वेन तयवस्थापकत्वानुपपत्तेः। अथार्थतथात्वेन यथावस्थितार्थपरिच्छेदलक्षणो विशेषो विज्ञानस्य व्यवस्थाप्यते, सोऽपि न युक्तः, इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् । तथाहि-सिद्धेऽर्थतथाभावे तद्विज्ञानस्यार्थतथाभावपरिच्छेदत्वसिद्धिः, तत्सिद्धेश्चार्थतथाभावसिद्धिरिति परिस्फुटमितरेतराश्रयत्वम् । तन्न कारणगुणापेक्षा प्रामाण्यज्ञप्तिः । अथ संवादापेक्षः प्रामाण्यविनिश्चयः, सोऽपि न युक्तः, यतः संवादकं ज्ञानं किं समानजातीयमभ्युपगम्यते? आहोस्विद् भिन्नजातीयम् ? इति पुनरपि विकल्प-३५ द्वयम् । तत्र यदि समानजातीयं संवादकमभ्युपगम्यते, तदाऽत्रापि वक्तव्यम्-किमेकसन्तानप्रभवम् ? भिन्नसन्तानप्रभवं वा? । यदि भिन्नसन्तानप्रभवं समानजातीयं ज्ञानान्तरं संवादकमित्यभ्युपगमः, अयमप्यनुपपन्न: अतिप्रसङ्गात् । अतिप्रसङ्गश्च-देवदत्तघटविज्ञानं प्रति यज्ञदत्तघटान्तरविज्ञानस्यापि संवादकत्वप्रसक्तेः। अथ समानसन्तानप्रभवं समानजातीयं ज्ञानान्तरं संवादकमभ्युपगम्यते, तदात्रापि वक्तव्यम्-किं तत् पूर्वप्रमाणाभिमतविज्ञानगृहीतार्थविषयम् ? उत भिन्नविषयम् ? ४० १ प्रयोगश्चायम्-पृ० २, पं० १२ । २ पृ०२-६० २० । ३-वस्थितपरिच्छेदत्वम्-वा०, भा०, का०, गु०। ४ पृ. ४-५० २८। ५ चाऽ-भां। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाण्यवाद। इति । तत्र योकार्थविषयमिति पक्षः, सोऽनुपपन्नः एकार्थविषयत्वे संवाद्य-संवादकयोरविशेषात् । तथाहि-एक विषयत्वे सति यथा प्राक्तनमुत्तरकालभाविनो विज्ञानस्यैकसन्तानप्रभवस्य समानजातीयस्य न संवादकं तथोत्तरकालभाव्यपि न स्यात् । किंच, तदुत्तरकालभावि समानजातीयमेकविषयं कुतः प्रमाणत्वेन सिद्धम्-येन प्रथमस्य-प्रामाण्यं निश्चाययति? तदुत्तरका५लभाविनोऽन्यस्मात् तथाविधादेवेति चेत्, तर्हि तस्याप्यन्यस्मात् तथाविधादेव इत्यनवस्था । अथोत्तरकालभाविनस्तथाविधस्य प्रथमप्रमाणात् प्रामाण्यनिश्चयः, तर्हि प्रथमस्योत्तरकालभाविनः प्रमाणात तन्निश्चयः, उत्तरकालभाविनोऽपि प्रथमप्रमाणादिति तदेवेतरेतराश्रयत्वम् । अथ प्रथमो-त्तरयोरेकविषयत्व-समानजातीयत्वै-कसन्तानत्वाविशेषेऽप्यस्त्यन्यो विशेषः, यतो विशेषाद् उत्तरं प्रथमस्य प्रामाण्यं निश्चाययति, न पुनः प्रथममुत्तरस्य; स च विशेषः-उत्त१०रस्य कारणशुद्धिपरिज्ञानानन्तरभावित्वम् । ननु कारणशुद्धिपरिज्ञानमर्थक्रियापरिज्ञानमन्तरेण न सम्भवति, तत्र च चक्रकदोषः प्राक् प्रतिपादित इति नार्थक्रियाज्ञानसम्भव:: सम्भवे वा तत एव प्रामाण्य निश्चयस्य संजातत्वाद् व्यर्थमुत्तरकालभाविनः कारणशुद्धिज्ञानविशेषसमन्वितस्य पूर्वप्रामाण्यावगमहेतुत्वकल्पनम्; तन्न समानजातीयमेकसन्तानप्रभवमेकार्थमु. त्तरज्ञानं पूर्वज्ञानप्रामाण्यनिश्चायकम् । अथ भिन्नार्थ तद् ज्ञानं पूर्वज्ञानप्रामाण्यनिश्चायकम् , तद१५प्ययुक्तम् । एवं सति शुक्तिकायां रजतज्ञानस्य तथाभूतं शुक्तिकाशानं प्रामाण्यनिश्चायकं स्यात तन्न समानजातीयमुत्तरज्ञानं पूर्वज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चायकम् । अथ भिन्नजातीयं प्रामाण्यनिश्चायकमिति पक्षः, तत्रापि वक्तव्यम्-किम अर्थक्रियाज्ञानम् ? उत अन्यत् ?। तत्रान्यदिति न वक्तव्यम्, घटज्ञानस्यापि पटज्ञानप्रामाण्यनिश्चायकत्वप्रसङ्गात् । अथार्थक्रियाशानं संवादकमित्यभ्युपगमः, अयमपि न युक्तः, अर्थक्रियाज्ञानस्यैव प्रामाण्यनिश्चयाभावे प्रवृत्त्याद्यभावतश्चक्रकदोषेणासम्भवात्। २० अथ प्रामाण्यनिश्चयाभावेऽपि संशयादपि प्रवृत्तिसम्भवान्नार्थक्रियाज्ञानस्यासम्भवः, तर्हि प्रामाण्यनिश्चयो व्यर्थः। तथाहि-प्रामाण्यनिश्चयमन्तरेण प्रवृत्तः 'विसंवादभाग् मा भूवम्' इत्यर्थः क्रियार्थी प्रामाण्यनिश्चयमन्वेषते, सा च प्रवृत्तिस्तन्निश्चयमन्तरेणापि संजातेति व्यर्थः प्रामाण्यनिश्चयप्रयासः। किंच, अर्थक्रियाज्ञानस्यापि प्रामाण्यनिश्चायकत्वेनाभ्युपगम्यमानस्य कुतः प्रामाण्यनिश्चयः? तदन्यार्थक्रियाज्ञानादिति चेत् , अनवस्था। पूर्वप्रमाणादिति चेत्, अन्योऽन्याश्रयदोषः २५ प्राक् प्रदर्शितोऽत्रापि । अथार्थक्रियाज्ञानस्य स्वत एव प्रामाण्यनिश्चयः, प्रथमस्य तथाभावे प्रदे॒पः किंनिबन्धनः ? । तदुक्तम् "यथैव प्रथमं ज्ञानं तत्संवादमपेक्षते । संवादेनापि संवादः पुनर्मूग्यस्तथैव हि ॥ [ कस्यचित्तु यदीष्येत स्वत एव प्रमाणता। प्रथमस्य तथाभावे प्रद्वेषः केन हेतुना ? ॥ [ श्लो० वा० सू० २, श्लो० ७६] संवादस्याथ पूर्वेण संवादित्वात् प्रमाणता। अन्योऽन्याश्रयभावेन न प्रामाण्यं प्रकल्पते"॥[ इति । अथापि स्यादर्थक्रियाशानमर्थाभावे न दृष्टमिति न तत् स्वप्रामाण्यनिश्चयेऽन्यापेक्षम्, साध. नशानं तु अर्थाभावेऽपि दृष्टमिति तत् प्रामाण्यनिश्चयेऽर्थक्रियाज्ञानापेक्षमिति, एतदप्यसङ्गतम्। ३५ अर्थक्रियाज्ञानस्याप्यर्थमन्तरेण स्वप्नदशायां दर्शनात् । न च स्वप्न-जाग्रहशाऽवस्थयोः कश्चिद्विशेषः प्रतिपादयितुं शक्यः। अथार्थक्रियाज्ञानं फलावाप्तिरूपत्वान्न स्वप्रामाण्यनिश्चयेऽन्यापेक्षम्, साधन. विनिर्भासि पुनर्ज्ञानं नार्थक्रियावाप्तिरूपं भवति तत् स्वप्रामाण्यनिश्चयेऽन्यापेक्षम्। तथाहिजलावभासिनि ज्ञाने समुत्पन्ने पाना-ऽवगाहनाधर्थिनः किमेतज्ज्ञानावभासि जलमभिमतं फलं साधयिष्यति, उत न' इति जाताशङ्काः तत्प्रामाण्यविचारं प्रत्याद्रियन्ते; पाना-ऽवगाहनार्थी १ प्रमाणमेव गु० । २ पृ. ५-५० २५। ३ ग्रन्थानम् श्लो. २०० । ४ अस्मिन्नेव पृष्ठ पं०७। ५ स्याद्वादरत्नाकरे तत्प्रणेत्रा एतदेव लोकत्रयं “यदाह भट्टः"-(पृ. १२४ पप्ती ५) इति निर्दिश्य उदलेखि, तथापि मुद्रिते कुमारिलभट्टकृते श्लोकवार्तिके एक एव मध्यमः श्लोको लब्धः। ६-वस्थाया:-कां०, गु०। ७ पुनर्जानमर्थक्रियावाप्तिरूपं न भवति तत्-हा। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे वाप्तिक्षाने तु समुत्पन्नेऽवासफलत्वान्न तत्प्रामाण्यविचारणाय मनः प्रणिदधति, नैतत् सारम्। 'अवाप्तफलत्वात्' इत्यस्यानुत्तरत्वात् । तथाहि-यथा ते विचारकत्वाजलशानावभासिनो जलस्य 'किं सत्त्वम् ? उतासत्त्वम् ?' इति विचारणायां प्रवृत्तास्तथा फलज्ञाननिर्भासिनोऽप्यर्थस्य सत्त्वाऽसत्त्वविचारणायां प्रवर्त्तन्ते: अन्यथा तदप्रवृत्तौ तदवभासिनोऽर्थस्यासत्त्वाशङ्कया तज्ज्ञानस्याऽवस्तुविषयत्वेनाप्रमाणतया शक्यमानस्य न तज्जलावभासिप्रवर्तकज्ञानप्रामाण्यव्यवस्थापकत्वम् ।५ ततश्चान्यस्य तत्समानरूपतया प्रामाण्य निश्चयाभावात् कथम् 'अर्थक्रियार्था प्रवृत्तिनिश्चितप्रामाण्याद् ज्ञानात्' इत्यभ्युपगमः शोभन: ? । किंच, मिन्नजातीयं संवादकशानं पूर्वस्य प्रामाण्यनिश्चायकमभ्युपगम्यमानमेकार्थम्? भिन्नार्थ वा? । यद्येकार्थमित्यभ्युपगमः-स न युक्तः, भवन्मतेना घटमानत्वात् । तथाहि-रूपज्ञानाद् भिन्नजातीयं स्पर्शादिज्ञानम्, तत्र च स्पर्शादिकमाभाति न रूपम्, रूपवाने तु रूपम्-न स्पर्शादिकम्-आभाति, रूप-स्पर्शयोश्च परस्परं भेदः; न चाव-१० यवी रूप-स्पर्शज्ञानयोरेको विषयतयाऽभ्युपगम्यते, येनैकविपयं भिन्नजातीयं पूर्वज्ञानप्रामाण्यव्यवस्थापकं भवेत् । अपि च, एकविषयत्वेऽपि किं येन स्वरूपेण व्यवस्थाप्ये ज्ञाने सोऽर्थः प्रतिभाति, किं तेनैव व्यवस्थापके ? उतान्येन?। तत्र यदि तेनैवेत्यभ्युपगमः, सन युक्तः: व्यवस्थापकस्य तावद्धर्मार्थविषयत्वेन स्मृतिवदप्रमाणत्वेन व्यवस्थापकत्वासम्भवात् । अथ रूपान्तरेण सोऽर्थस्तत्र विज्ञाने प्रतिभातिः नन्वेवं संवाद्य-संवादकयोरेकविषयत्वं न स्यादिति द्वितीय एव १५ पक्षोऽभ्युपगतः स्यात्, स चायुक्ताः सर्वस्यापि भिन्नविषयस्यैकसन्तानप्रभवस्य विजातीयस्य प्रामाण्यव्यवस्थापकत्वप्रसङ्गात्। तथा किं तत् समानकालमर्थक्रियाज्ञानं पूर्वज्ञानप्रामाण्यनिश्चायकम् ? आहोस्विद् भिन्नकालम् ?। यदि समानकालम्-किं साधननिर्भासिज्ञानग्राहि? उत तग्राहि ? इति पुनरपि विकल्पद्वयम् । यदि तग्राहि, तदसत् : ज्ञानान्तरस्य चक्षुरादिज्ञानेष्वप्रतिभासनात्, प्रतिनियतरूपादिविषयत्वेन चक्षुरादिज्ञानानामभ्युपगमात्। अथ तदनाहि, न तर्हि तज्ज्ञानप्रामाण्य-२० निश्चायकम् , तदग्रहे तद्गतधर्माणामप्यग्रहात् । अथ भिन्नकालम्, तदप्ययुक्तम्। पूर्वज्ञानस्य क्षणिकत्वेन नाशादुत्तरकालभाविविज्ञानेऽप्रतिभासनात्, भासने चोत्तरविज्ञानस्यासद्विषयत्वेनाप्रामाण्यप्रसक्तितस्तद्राहकत्वेन न तत्प्रामाण्य निश्चायकत्वम् । तदग्राहकं तु भिन्नकालं सुतरां न तन्निश्चायकमिति न भिन्नकालमप्येकसन्तान भिन्नजातीयं प्रामाण्य निश्चायकमिति न संवादापेक्षः पूर्वप्रमाणप्रामाण्य निश्चयः। तेन ज्ञप्तावपि 'ये यद्भावं प्रत्यनपेक्षाः' इति प्रयोगे हेतो सिद्धिः १२५ व्याप्तिस्तु साध्यविपक्षाऽतन्नियतत्वव्यापकात् सापेक्षत्वानिवर्तमानमनपेक्षत्वं तन्नियतत्वेन व्याप्यते इति प्रमाणसिद्धवे । यतश्च न पूर्वोक्तेन प्रकारेण परतःप्रामाण्यनिश्चयः सम्भवति, ततो 'ये सन्देहविपर्ययविषयीकृतात्मतत्त्वाः' इति प्रयोगे व्याप्त्यसिद्धिः। हेतोश्चासिद्धता सर्वप्राणभृतां प्रामाण्ये सन्देह-विपर्ययाभावात् । तथाहि-शाने समुत्पन्ने सर्वेषाम् 'अयमर्थः' इति निश्चयो भवति, न च प्रामाण्यस्य सन्देहे, विपर्यये वा सत्येप युकः । तदुक्तम् "प्रामाण्यग्रहणात् पूर्व स्वरूपेणैव संस्थितम्। निरपेक्षं स्वकार्य च"[श्लो० वा० सू०२, श्लो०८३] इति । स्वार्थनिश्चयो हि प्रमाणकार्यम्-न च तत् प्रमाणान्तरग्रहणं चापेक्षत इति गम्यते-न चैतत् संशय-विपर्ययविषयत्वे सम्भवतीति ।। __ अथ प्रमाणा-ऽप्रमाणयोरुत्पत्तौ तुल्यं रूपमिति न संवाद-विसंवादावन्तरेण तयोः प्रामा-३५ ण्या-ऽप्रामाण्यनिश्चयः, तदसत्; अप्रमाणे तदुत्तरकालमवश्यंभाविनी बाधक-कारणदोषप्रत्ययौ, तेन तत्राप्रामाण्यनिश्चयः; प्रमाणे तु तयोरभावात् कुतोऽप्रामाण्याशङ्का? । अथ तत्तुल्यरूपे तयोर्दर्शनात् तत्रापि तदाशङ्का, साऽपि न युक्ताः त्रि-चतुरज्ञानापेक्षामात्रतस्तत्र तस्या निवृत्तेः । न च तदपेक्षातः स्वतःप्रामाण्यव्याहतिः, अनवस्था वेत्याशङ्कनीयम्, संवादकज्ञान १ न जलाव-वा०, कां० । २ अत्रैव पृष्टे ८ पटौ उक्तः-'मिन्नार्थम्' इति पक्षः । ३ पूर्वस्यापि-आ०, गु०, भा०। ४ प्रयोगोऽयम्-पृ. २, पं० ५। ५ “व्याप्तिः प्रमाणसिद्धव-इति संटकः"-भांटि०। ६ अयमपि प्रयोगः-पृ० २, पं० १४ । ७ प्रामाण्यं ग्रहणात् पूर्वम्-वा०। ८ मुद्रितश्लोकवार्तिके तु एतद् एवं संपूर्णम्"निरपेक्षं खकार्येषु गृह्यते प्रत्ययान्तः । न च तत्र प्रमाणान्तरं ग्रहणमपेक्षते-वा०, गु० । १०"निरपेक्ष खकार्ये" इत्यस्यैतत् तात्पर्यम् । ११-भाविबाधक-गु०। ३० Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाण्यवाद। स्याप्रामाण्याशङ्काव्यवच्छेदे एव व्यापारात्-अपरज्ञानानपेक्षणाश्च । तथाहि-अनुत्पन्नबाधके ज्ञाने परत्र बाध्यमानप्रत्ययसाधादप्रामाण्याशङ्का, तस्यां सत्यां तृतीयज्ञानापेक्षा, तश्चोत्पन्नं यदि प्रथमज्ञानसंवादि, तदा तेन न प्रथमज्ञानप्रामाण्यनिश्चयः क्रियते, किंतु द्वितीयज्ञानेन यत् तस्याऽप्रामाण्यमाशङ्कितं तदेव तेनापाक्रियतेः प्रथमस्य तु स्वत एव प्रामाण्यमिति । एवं तृतीयेऽपि ५कथञ्चित संशयोत्पत्ती चतुर्थज्ञानापेक्षायामयमेव न्यायः। तदुक्तम् "एवं त्रिचतुरज्ञानजन्मनो नाधिका मतिः। प्रार्थ्यते तावतैवैकं स्वतः प्रामाण्यमश्नुते" ॥ इति [श्लो० वा० सू० २, श्लो० ६१] यत्र च दुष्टं कारणम्, यत्र च बाधकप्रत्ययः-स एव मिथ्याप्रत्ययः-इत्यस्याप्ययमेव विषयः। चतु र्थशानापेक्षा त्वभ्युपगमवादत उक्ता, नतु तदपेक्षाऽपि भावतो विद्यते । अर्थ तृतीयज्ञानं द्विती. १०यज्ञानसंवादि, तदा प्रथमस्याप्रामाण्य निश्चयः-स तु-तत्कृतोऽभ्युपगम्यते एवः किंतु द्वितीयस्य यदप्रामाण्यमाशङ्कितं तत् तेनाऽपाक्रियते, न पुनस्तस्य द्वितीयप्रामाण्यनिश्चायकत्वे व्यापारः। यत्र त्वभ्यस्ते विषयेऽर्थतीत्वशङ्का नोपजायते तत्र बलादुत्पाद्यमाना शङ्का तत्कर्तुरनर्थकारिणीत्यावे. दितं वार्तिककृता "आशङ्केत हि यो मोहादजातमपि बाधकम् । १५ स सर्वव्यवहारेषु संशयात्मा क्षयं व्रजेत्"॥[ ]इति। न चैतदभिशापमात्रम् , यतोऽशङ्कनीयेऽपि विषयेऽभिशङ्किनां सर्वत्रार्था-ऽनर्थप्राप्तिपरिहारार्थिनामिष्टा-ऽनिष्टप्राप्ति-परिहारसमर्थप्रवृत्त्यादिव्यवहारासम्भवाद् न्यायप्राप्त एव क्षयः, स्वोत्प्रेक्षित. निमित्तनिबन्धनाया आशङ्कायाः सर्वत्र भावात् । प्रेरणाजनिता तु बुद्धिरपौरुषेयत्वेन दोषरहितात् प्रेरणालक्षणाच्छब्दादुपजायमाना लिङ्गा२० ऽऽप्तोक्ता-ऽक्षबुद्धिवत् प्रमाणं सर्वत्र स्वतः । तदुक्तम् "चोदनाजनिता बुद्धिः प्रमाणं दोषवर्जितैः। कारणैर्जन्यमानत्वाल्लिङ्गा-ऽऽप्तोक्ता-ऽक्षबुद्धिवत्" ॥ [श्लो० वा० सू० २, श्लो० १८४ ] इति । तस्मात् स्वतः प्रामाण्यम्, अप्रामाण्यं परत इति व्यवस्थितम् । अतः सर्वप्रमाणानां स्वतः २५ सिद्धत्वाद् युक्तमुक्तम्-'स्वतः सिद्धं शासनं नातः प्रकरणात् प्रामाण्येन प्रतिष्ठाप्यम्' । इदं त्वयुक्तम्-'जिनानाम्' इति, जिनानामसत्वेन शासनस्य तत्कृतत्वानुपपत्तेः; उपपत्तावपि परतःप्रामाण्यस्य निषिद्धत्वादिति ॥ [ उत्तरपक्षः-(१) उत्पत्तौ प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वनिरसनम् ] अत्र प्रतिविधीयते, यत्तावदुक्तम्–'अर्थतथाभावप्रकाशको ज्ञातृव्यापारः प्रमाणम्', तदयुक्तम्। ३० पराभ्युपगतज्ञातृव्यापारस्य प्रमाणत्वेन निषेत्स्यमानत्वात् । यदप्यन्यदभ्यर्धायि-'तस्य यथार्थप्रका शकत्वं प्रामाण्यम्, तश्चोत्पत्तौ स्वतः, विज्ञानकारणचक्षुरादिव्यतिरिक्तगुणानपेक्षत्वात् तत्र प्रामाण्यस्योत्पत्तिरविद्यमानस्यात्मलाभः, सा चेन्निर्हेतुका, “देश-काल-स्वभावनियमो न स्यात्" इत्यन्यत्र प्रतिपादितम् । किंच, गुणवच्चक्षुरादिसद्भावे सति यथावस्थितार्थप्रतिपत्तिदृष्टा, तदभावे न दृष्टा इति तद्धेतुका व्यवस्थाप्यते, अन्वय-व्यतिरेकनिबन्धनत्वादन्यत्रापि हेतुफलभावस्य, अन्यथा दोष३५ वच्चक्षुराद्यन्वय-व्यतिरेकानुविधायिनी मिथ्याप्रतिपत्तिरपि स्वतः स्यात् । तथाऽभ्युपगमे ___“वस्तुवाद् द्विविधस्यात्र संभवो दुष्टकारणात्" [श्लो० वा० सू० २, श्लो० ५४] इति वचो व्याहतमनुपज्येत । यदपि 'अत्यक्षाऽक्षाश्रितगुणसद्भावे प्रत्यक्षाप्रवृत्तेः तत्पूर्वकानुमानस्थापि तद्ग्राहकत्वेनाव्यापारात् चक्षुरादिगतगुणानामसत्त्वात् तदन्वय-व्यतिरेकानुविधायित्वं १ अथ तत् तृतीय-भां० । २-तथात्वा-ऽतथात्वाशङ्का-भां० । ३-नर्थप्राप्ति-परिहारसमर्थ-गु० ।' ४ पृ० १, पं. ३०। ५ पृ. २, पं० २। ६ पृ. २, पं० २। ७ "द्विविधस्य-इति मिथ्यात्व-संशयरूपस्य-" भां० टि। ८ "अप्रामाण्यं त्रिधा भिन्नं मिथ्यात्वा-ऽज्ञान-संशयः' इति पूर्वार्धम् (अस्य)-भां. टि. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेप्रामाण्यस्योत्पत्तावयुक्तम्' इत्युक्तम् , तदप्यसङ्गतम् ; अप्रामाण्योत्पत्तावप्यस्य दोषस्य समानत्वात् । तथाहि-'अतीन्द्रियलोचनाद्याश्रिता दोषाः किं प्रत्यक्षेण प्रतीयन्ते, उतानुमानेन ? न तावत् प्रत्यक्षेण, इन्द्रियादीनामतीन्द्रियत्वेन तद्गतदोषाणामप्यतीन्द्रियत्वेन तेषु प्रत्यक्षस्याप्रवृत्तेः। नाप्यनुमानेन, अनुमानस्य गृहीतप्रतिबन्धलिङ्गप्रभवत्वाभ्युपगमात्, लिङ्गप्रतिबन्धग्राहकस्य च प्रत्यक्षस्यानुमानस्य चात्र विषयेऽसम्भवात्, प्रमाणान्तरस्य चात्रानन्तर्भूतस्यासत्त्वेन प्रतिपादयिष्यमाण- ५ स्वात्' इत्यादि सर्वमप्रामाण्योत्पत्तिकारणभूतेषु लोचनाद्याश्रितेषु दोषेष्वपि समानमिति तेषामप्यसत्त्वात् तदन्वय-व्यतिरेकानुविधानस्यासिद्धत्वादप्रामाण्यमप्युत्पत्तौ स्वतः स्यात् । यदपि 'अथ कार्येण यथार्थोपलब्ध्यात्मकेन तेषामधिगमः' इत्यादि 'यतो न लोकः प्रायशो विपर्ययज्ञानादुत्पादकं कारणमात्रमनुमिनोति किंतु सम्यग्ज्ञानात्' इत्यन्तमभ्यधायि, तदप्यसङ्गतम्, यतो यदि लोकव्यवहारसमाश्रयणेन प्रामाण्याऽप्रामाण्ये व्यवस्थाप्येते तदाऽप्रामाण्यवत् प्रामाण्यमपि १० परतो व्यवस्थापनीयम् । तथाहि-लोको यथा मिथ्याशानं दोषवच्चक्षुरादिप्रभव॑मभिदधाति तथा सम्यग्ज्ञानमपि गुणवच्चक्षुरादिसमुत्थमिति तदभिप्रायादप्रामाण्यवत् प्रामाण्यमप्युत्पत्ती परतः कथं न स्यात् ? तथाहि-तिमिरादिदोषावष्टब्धचक्षुष्को विशिष्टौषधोपयोगावाप्ताक्षिनर्मल्यगुणः केनचित् सुहृदा 'कीदृक्षे भवतो लोचने वर्तेते' इति पृष्टः सन् प्राह-'प्राक सदोषे अभूतामिदानीं समासादितगुणे संजाते' इति । न च नैर्मल्यं दोषाभावमेव लोको व्यपदिशति इति शक्यमभिधा-१५ तुम्, तिमिरादेरपि गुणाभावरूपत्वव्यपदेशप्राप्तेः; तथाच अप्रामाण्यमपि प्रामाण्यवत् स्वतः स्यात् । यदप्यभ्यर्धायि 'न च तृतीयं कार्यमस्ति' इति, तदप्यसम्यक; तृतीयकार्याभावेऽपि पूर्वोक्तन्यायेन प्रामाण्यस्योत्पत्तौ परतः सिद्धत्वात् । यच्च 'अपि चार्थतथाभावप्रकाशनलक्षणं प्रामाण्यम्' इत्यादि 'विश्वमेकं स्यादिति वचः परिप्लवेत' इतिपर्यवसानमभिहितम्, तदपि अविदितपराभिप्रायेण; यतो न परस्यायमभ्युपगमः-विज्ञानस्य चक्षुरादिसामग्रीत उत्पत्तावप्यर्थतथाभावप्रका णस्य प्रामाण्यस्य नैर्मल्यादिसामग्यन्तरात् पश्चादुत्पत्तिः, किंतु गुणवञ्चक्षुरादिसामग्रीत उपजाय. मानं विज्ञानमागृहीतप्रामाण्यस्वरूपमेवोपजायत इति । शानवत् तदव्यतिरिक्तस्वभावं प्रामाण्यमपि परत इति गुणवच्चक्षुरादिसामग्र्यपेक्षत्वादुत्पत्तौ प्रामाण्यस्यानपेक्षत्वलक्षणस्वभावहेतुरसिद्धोऽनपेक्षत्वेस्वरूप इति 'तस्माद्यत एव गुणविकलसामग्रीलक्षणात्' इत्याद्ययुक्तमभिहितम् । 'अर्थतथात्वपरिच्छेदरूपा च शक्तिः प्रामाण्यम्, शक्तयश्च सर्वभावानां स्वत एव भवन्ति' इत्यादि यदमिधा-२५ नम्, तदप्यसमीचीनम् । एवमभिधानेऽयथावस्थितार्थपरिच्छेदशक्तेरप्यप्रामाण्यरूपाया असत्याः केनचित् कर्तुमशक्तेस्तदपि स्वतः स्यात्। यदपि 'एतच्च नैव सत्कार्यदर्शनसमाश्रयणादमिधीयते' इत्यादि 'तदपेक्षा न विद्यते' इतिपर्यन्तममिहितम्, तदपि प्रलापमात्रम् ; यतोऽनेन न्यायेनाप्रामा. ण्यमपि प्रामाण्यवत् स्वत एव स्यात् । तदपि हि विपरीतार्थपरिच्छेदशक्तिलक्षणं न तिमिरादिदोषसङ्गतिमत्सु लोचनादिषु अस्तीति । अपि च, ज्ञानरूपतामात्मन्यसेतीमाविर्भावयन्तीन्द्रियादयो न३० पुनर्यथावस्थितार्थपरिच्छेदशक्तिमिति न किंचिन्निमित्तमुत्पश्यामः । कुतश्चैतदैश्वर्य शक्तिभिः प्राप्त यत इमाः स्वत एवोदयं प्रत्यासादितमाहात्म्याः , न पुनस्तदाधाराभिमता भावविशेषौ इति ? न च तास्तेभ्यः प्राप्तव्यतिरेकाः, यतः स्वाधाराभिमतभावकारणेभ्यो भावस्योत्पत्तावपि न तेभ्य एवो. त्पत्तिमनुभवेयुः। व्यतिरेके, स्वाश्रयैस्ततोऽभवन्त्यो न सम्बन्धमानुयुः, मिन्नानां कार्यकारणभावव्यतिरेकेणापरस्य सम्बन्धस्याभावात्, आश्रयाश्रयिसम्बन्धस्यापि जन्यजनकभीवाभावेऽतिप्रसङ्गतो ३५ १पृ० २ पं० १९ । २ वाऽत्र का। ३ पृ. ३ पं० १५ । ४ पृ० ३ पं० २९। ५ ग्रन्थानम् ३०० श्लो०। ६ प्रभवमित्यभि-गु० । ७-प्यप्रामाण्य-गु०। ८ पृ. ३ पं० ३०। ९पृ. ३ पं० ३१ । १० पृ० ३ पं० ३६ । ११-लक्षणभाव-भां०, कां०, गु०। १२ नैतदू ग्रन्थकारवचनम् , किंतु 'प्रामाण्यस्यानपेक्षत्वलक्षणखभावहेतु' इति वाक्यान्तर्गतस्य 'अनपेक्षत्वलक्षण' इति पदस्य केनचित् 'अनपेक्षत्वखरूप' इत्येवं कृतं विवरण लेखकभ्रमेण ग्रन्थकारवचन मिव जातमिति अस्माकं भाति । १३ पृ. ४ पं०१। १४ पृ. ४ पं०५। १५ स. कार्यप्रदर्शन-वा०, वि०, हा०, अ० विना सर्वत्र । १६ पृ०४ पं०९। १७ पृ. ४ पं० १८। १८ "ज्ञाने"गु० टि०। १९ “पूर्वमिति शेषः" गु.टि.। २० ऐश्वर्यम् 'डे' प्रतावेव, अन्यत्र क्वचित् (वा०, भां०, हा०, वि०) आश्चर्यम् , क्वचित् (का०, अ०, आ०) आश्चर्यम् । २१ "ज्ञानविशेषाः-खोदयं प्रत्यासादितमाहात्म्या इति शेषः" गुटि.। २२-जनकभावभावे वा०। स० त०२ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाण्यवादः। निषेत्स्यमानत्वात् । धर्मत्वाच्छक्तेराश्रय इत्यप्ययुक्तम्, असति पारतध्ये परमार्थतस्तदयोगात् । पारतन्यमपि न सतः, सर्वनिराशंसत्त्वात् । असतोऽपि व्योमकुसुमस्येव न, तत्त्वादेव । अनिमिताश्चेमा न देश-काल-द्रव्यनियमं प्रतिपद्येरन् । तद्धि किञ्चित् क्वचिदुपलीयेत न वा यद् यत्र कथञ्चिदायत्तमनायसं वा। सर्वप्रतिबन्धविवेकिन्यश्चेच्छक्तयो नेमाः कस्यचित् कदाचिद् विरमेयुरिति ५प्रतिनियतशक्तियोगिता भावानां प्रमाणप्रमिता न स्यात् । व्यतिरेकाऽव्यतिरेकपक्षस्तु शक्तीनां विरोधाऽनवस्थोभयपक्षोक्तदोषादिपरिहाराद् विनाऽनुद्धोष्यः। अनुभयपक्षस्तु न युक्तः, परस्परपरिहारस्थितरूपाणामेकनिषेधेस्यापरविधाननान्तरीयकत्वात् । न च विहितस्य पुनस्तस्यैव निषेधः, विधि-प्रतिषेधयोरेका विरोधात् । ये त्वाहुः-"उत्तरकालभाविनः संवादप्रत्ययान्न जन्म प्रतिपद्यते शक्तिलक्षणं प्रामाण्यमिति स्वत उच्यते न पुनर्विज्ञानकारणान्नोपजायते" इति, तेऽपि न १०सम्यक प्रचक्षते सिद्धसाध्यतादोषात्, अप्रामाण्यमपि चैवं स्वतः स्यात्, नहि 'तदप्युत्पन्ने ज्ञाने विसंवादप्रत्ययादुत्तरकालभाविनः तत्रोत्पद्यते' इति कस्यचिदभ्युपगमः। यदा च गुणवत्कारणजन्यता प्रामाण्यस्य शक्तिरूपस्य प्राक्तनन्यायादवस्थिता तदा कथमौत्सर्गिकत्वं तस्य दुष्टकारणप्रभवेषु मिथ्याप्रत्ययेष्वभावात् , परस्परव्यवच्छेदरूपाणामेकत्रासम्भवात्? तस्माद् "गुणेभ्यो दोषा णामभावस्तदभावाद् अप्रामाण्यद्वयासत्त्वेनोत्सगोऽनपोदित एवास्ते" इति वचः परिफल्गुप्रायम्। १५इतश्चैतद्वचोऽयुक्तम्, विपर्ययेणाप्यस्योद्घोषयितुं शक्यत्वात् । तथाहि-दोषेभ्यो गुणानामभावस्तदभावात् प्रामाण्यद्वयासत्त्वेनाप्रामाण्यमौत्सर्गिकमास्त इति ब्रवतो न वक्रं वक्रीभवति । किंच, 'गुणेभ्यो दोषाणामभाव' इति न तुच्छरूपो दोषाभावो गुणव्यापारनिष्पाद्यः। तत्र व्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्त विकल्पद्वारेण कारकव्यापारस्यासम्भवात् भवद्भिरनभ्युपगमाञ्च । तुच्छाभावस्याभ्युपगमे वा "भावान्तरविनिर्मक्तोभावोऽत्रानपलम्भवत । अभावः संमतस्तस्य हेतोः किं न समुद्भवः?" ॥ [ ] इति वचो न शोभेत । तस्मात् पर्युदासवृत्त्या प्रतियोगिगुणात्मक एव दोषाभावोऽभिप्रेतः, ततश्च 'गुणेभ्यो दोषाभावः' इति ब्रुवता 'गुणेभ्यो गुणाः' इत्युक्तं भवति।। न च गुणेभ्यो गुणाः कारणानामात्मभूता उपजायन्ते इति, स्वात्मनि क्रियाविरोधात् स्वका२५रणेभ्यो गुणोत्पत्तिसद्भावाच्च । तदभावादप्रामाण्यद्वयासत्त्वमपि प्रामाण्यमभिधीयते; ततश्च गुणेभ्यः प्रामाण्यमुत्पद्यत इत्यभ्युपगमात् परतः प्रामाण्यमुत्पद्यत इति प्राप्तम् । ततश्च स्वार्थावबोधशक्तिरूपप्रामाण्यात्मलामे चेत् कारणापेक्षा, काऽन्या स्वकार्ये प्रवृत्तिर्या स्वयमेव स्यात् ? तेनायुक्तमुक्तम् "लब्धात्मनां स्वकार्येषु प्रवृत्तिः स्वयमेव तु" इति। ३० घटस्य जलोद्वहनव्यापारात् पूर्व रूपान्तरेण स्वहेतोरुत्पत्तेर्युक्तं मृदादिकारणनिरपेक्षस्य स्वकार्ये प्रवृत्तिरिति, अतो विसदृशमुदाहरणम् । उत्पत्त्यनन्तरमेव च विज्ञानस्य नाशोपगमात् कुतो लब्धात्मनो वृत्तिः स्वयमेव ? तदुक्तम् "नहि तत् क्षणमप्यास्ते जायते वाऽप्रमाऽऽत्मकम् । येनार्थग्रहणे पश्चाद्याप्रियेतेन्द्रियादिवत् ॥ तेन जन्मैव विषये बुद्धापार उच्यते । तदेव च प्रमारूपं तद्वती करणंच धी"॥ [श्लोवा० सू०४, श्लो०५५-५६] इति । १ सर्वत्र प्रति- अ० । २-निषेधस्य पर-गु० । ३ समानमेतत् शब्दशः, अर्थशोऽपि अनेन पद्येन"तस्माद् गुणेभ्यो दोषाणामभावस्तदभावतः । अप्रामाण्यद्वयासत्त्वं तेनोत्सर्गोऽनपोदितः" [श्लो० वा. सू०२,लो०६५] ४ "पदार्थान्तरेण विनिर्मुक्तः-त्यक्तः-भिन्न इति यावत् ; इत्थंभूतो भाव एव अभावः-न पुनर्भावादतिरिच्यते इत्यर्थः। तत्र दृष्टान्तोऽनुपलम्भः, यथा घटानुपलम्भो घटातिरिक्तस्य पटादेरुपलम्भे पर्यवस्यति, तथा दोषा ( ऽभावो) भावान्तरे पर्यवसायी वाच्यः इत्याशय इति" गु० टि.। ५ “अयमाशयः-न हि गुणेभ्यः प्रामाण्यमुपजायते, किं तर्हि ! दोषाभावः, तेन हि अप्रामाण्यरूपद्वयासत्त्वेन प्रामाण्यं खत एवोपजायते, विरोध्यपगमे खतस्त्वे लापवाद् बाधकाभावाचेति" गु.टि.। ६ स्वकार्यप्र-गु०। ७ पृ. ४ पं० १६ । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे ११ तस्माजन्मव्यतिरेकेण बुद्धेापाराभावात् तत्र च ज्ञानानां सगुणेषु कारणेष्वपेक्षावचनात् कुतः स्वातम्येण प्रवृत्तिरिति किं तद् ज्ञानस्य कार्य यत्र लब्धात्मनः प्रवृत्तिः स्वयमेवेत्युच्यते ? स्वार्थपरिच्छेदश्चेत्, न; ज्ञानपर्यायत्वात् तस्यात्मानमेव करोतीत्युक्तं स्यात्, तश्चायुक्तम् । 'प्रमाणमेतद्' इत्यनन्तरं निश्चयश्चेत्, न; भ्रान्तिकारणसद्भावेन क्वचिदनिश्चयात् विपर्ययदर्शनाच । तस्माजन्मापेक्षया गुणवश्चक्षुरादिकारणप्रभवं प्रामाण्यं परतःसिद्धमिति 'अथ चक्षुरादिक्षानकारण-' ५ इत्याद्ययुक्ततया स्थितम् । अपौरुषेयविधिवाक्यप्रभवायास्तु बुद्धेः स्वतःप्रामाण्योत्पत्त्यभ्युपगमो न युक्तः, अपौरुषेयत्वस्य प्रतिपादयिष्यमाणताहकप्रमाणाविषयत्वेनासत्त्वात्, सत्त्वेऽपि भवन्नीत्या तस्यैव गुणत्वात् तथाभूतप्रेरणाप्रभवाया बुद्धेः कथं न परतःप्रामाण्यम् ? किंच, अपौरुषेयत्वे प्रेरणावचसो गुणवत्पुरुषप्रणीतलौकिकवाक्येषु तत्त्वेन निश्चितं प्रामाण्यं गुणाश्रयपुरुषप्रणीतत्वव्यावृत्त्या १० तत् तत्र न स्यात् । तथा च "प्रेरणाजनिता बुद्धिः प्रमाणं दोषवर्जितैः । कारणैर्जन्यमानत्वाल्लिङ्गाऽऽप्तोक्ता ऽक्षबुद्धिवत्" ॥ [ श्लो० वा० सू० २,१८४] इति। इत्ययं श्लोक एवं पठितव्यः प्रेरणाजनिता बुद्धिरप्रमा गुणवर्जितैः। कारणैर्जन्यमानत्वादलिङ्गाऽऽप्तोक्तबुद्धिवत् ॥ अथ प्रेरणावाक्यस्यापौरुषेयत्वे पुरुषप्रणीतत्वाश्रया यथा गुणा व्यावृत्तास्तथा तदाश्रिता दोषा अपि; ततश्च तव्यावृत्तावप्रामाण्यस्यापि प्रेरणाया व्यावृत्तत्वात् स्वतः सिद्धमुत्पत्तौ प्रामाण्यम् । नन्वेवं सति गुण-दोषाश्रयपुरुषप्रणीत(तत्व)व्यावृत्तौ प्रेरणायां प्रामाण्याऽप्रामाण्ययोावृत्तत्वात् प्रेरणाजनिता बुद्धिःप्रामाण्याऽप्रामाण्यरहिता प्राप्नोति । ततश्च प्रेरणाजनिता बुद्धिर्न प्रमाणं न चाप्रमा। गुण-दोषविनिर्मुक्तकारणेभ्यः समुद्भवात् ॥ इत्येवमपि प्राक्तनः श्लोकः पठितव्यः । अत एव यथा "दोषाः सन्ति न सन्तीति पौरुषेयेषु चिन्त्यते । वेदे कर्तुरभावात्तु दोषाशकैच नास्ति नः" ॥ [ ] इत्ययं श्लोक एवं पठितस्तथैवमपि पठनीयः गुणाः सन्ति न सन्तीति पौरुषेयेषु चिन्त्यते । वेदे कर्तुरभावात्तु गुणाशङ्कव नास्ति नः ॥ न च यत्रापि गुणाः प्रामाण्यहेतुत्वेनाऽऽशड्यन्ते तत्रापि गुणेभ्यो दोषाभाव इत्यादि वक्तव्यम्, विहितोत्तरत्वात् । अपि च, अपौरुषेयत्वेऽपि प्रेरणाया न स्वतः स्वविषयप्रतीतिजनकव्या-३० पारा-सदा सन्निहितत्वेन ततोऽनवरतप्रतीतिप्रसङ्गात्-किंतु पुरुषाभिव्यक्तार्थप्रतिपादकसमयाविर्भूतविशिष्टसंस्कारसव्यपेक्षायाः। ते च पुरुषाः सर्वे रागादिदोषाभिभूता एव भवताऽभ्युपगताः, तत्कृतश्च संस्कारो न यथार्थः-अन्यथा पौरुषेयमपि वचो यथार्थ स्यात्-अतोऽपौरुषेयत्वाभ्युपगमेऽपि समयकर्तृपुरुषदोषकृताप्रामाण्यसद्भावात् प्रेरणायामपौरुषेयत्वाभ्युपगमो गजनानमनकरोति । तदुक्तम् "असंस्कार्यतया पुम्भिः सर्वथा स्यान्निरर्थता। संस्कारोपगमे व्यक्तं गजनानमिदं भवेत्" ॥[ यदप्यभाषि 'तथाऽनुमानबुद्धिरपि गृहीताविनाभावानन्यापेक्ष'-इत्यादि, तदप्यचारु; अविनाभावनिश्चयस्यैव गुणत्वात् , तदनिश्चयस्य विपरीतनिश्चयस्य च दोषत्वात् । तदेवम् उत्पत्ती प्रामाण्यं गुणापेक्षत्वात् परतः इति स्थितम् ॥ ४० १पृ.४ पं० १९ । २श्लोकवार्तिकगतद्वितीयसूत्रसंबन्धिना ६८ श्लोकेन समोऽस्य भावः । ३ पृ.१० पं० १७॥ ४ पृ० ४ पं० २१॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ प्रामाण्यवादः । [ उत्तरपक्ष:- ( २ ) कार्ये प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वनिरसनम् ] यदयुक्तम् 'नापि स्वकार्ये प्रवर्तमानं प्रमाणं निमित्तान्तरापेक्षम्' इति, तदप्यसंगतम् ; यतो यदि कार्योत्पादनसामग्रीव्यतिरिक्तनिमित्तानपेक्षं प्रमाणमित्युच्यते तदा सिद्धसाधनम् । अथ सामग्र्येकदेशलक्षणं (ण) प्रमाणं (ण) निमित्तान्तरानपेक्षम्, तदप्यचारु; एकस्य जनकत्वासंभवात् - ५" न ह्येकं किंचिजनकम्, सामग्री वै जनिका" [ ] इति न्यायस्यान्यत्र व्यवस्थापितत्वात् । किंच, नार्थपरिच्छेदमात्रं प्रमाणकार्यम्, अप्रमाणेऽपि तस्य भावात् । किं तर्हि ? अर्थतथात्वपरिच्छेदः, स च न ज्ञानस्वरूपकार्यः; भ्रान्तज्ञानेऽपि स्वरूपस्य भावात् तत्रापि सम्यगर्थपरिच्छेदः स्यात् । अथ स्वरूपविशेषकार्यो यथावस्थितार्थपरिच्छेदः इति नातिप्रसङ्गस्तर्हि स स्वरूपविशेषो वक्तव्यःकिम पूर्वार्थविज्ञानत्वम् उत निश्चितत्वम्, आहोस्विद् बाधारहितत्वम् उतस्विद् अदुष्ट१० कारणारब्धत्वम्, किं वा संवादित्वम् इति ? तत्र यद्यपूर्वार्थविज्ञानत्वं विशेषः, स न युक्तः; तैमिरिकज्ञानेऽपि तस्य भावात् । अथ निश्चितत्वम्, सोऽप्ययुक्तः, परोक्षज्ञानवादिनो भवतोऽभि प्रायेणासंभवात् । अथ बाधारहितत्वं विशेषः, सोऽपि न युक्तः; यतो बाधाविरहस्तत्कालभावी विशेषः, उत्तरकालभावी वा ? न तावत् तत्कालभावी, मिथ्याज्ञानेऽपि तत्कालभाविनो बाधाविरहस्य भावात् । अथोत्तरकालभावी, तत्रापि वक्तव्यम् - किं ज्ञातः स विशेषः, उत अज्ञातः ? तत्र १५न अज्ञातः, अज्ञातस्य सत्त्वेनाप्यसिद्धत्वात् । अथ ज्ञातोऽसौ विशेषः, तत्रापि वक्तव्यम् - उत्तरकालभावी बाधाविरहः किं पूर्वज्ञानेन ज्ञायते, आहोस्विदुत्तरकालभाविना ? तत्र न तावत् पूर्वज्ञानेनोत्तरकालभावी बाधाविरहो ज्ञातुं शक्यः, तद्धि स्वसमानकालं संनिहितं नीलादिकमवभासयतु, न पुनः 'उत्तरकालमप्यत्र बाधकप्रत्ययो न प्रवर्त्तिष्यते' इत्यवगमयितुं शक्नोति; पूर्वमनुत्पन्नबाधकानामप्युत्तरकालबाध्यत्वदर्शनात् । अथोत्तरज्ञानेन ज्ञायते, ज्ञायताम्, किंतूत्तरकालभावी बाधा२० विरहः कथं पूर्वज्ञानस्य विनष्टस्य विशेषो भिन्नकालस्य विनष्टं प्रति विशेषत्वायोगात् ? किंच, ज्ञायमानत्वेऽपि केशोण्डुकादेरसत्यत्वदर्शनाद् बाधाऽभावस्य ज्ञायमानत्वेऽपि कथं सत्यत्वम् ? तज्ज्ञानस्य सत्यत्वादिति चेत्, तस्य कुतः सत्यत्वम् ? न प्रमेयसत्यत्वात्, इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् । अपराधाऽभावज्ञानादिति चेत्, तत्राप्यपरबाधाऽभावज्ञानादित्यनवस्था । अथ संवादादुत्तरकालभावी बाधाविरहः सत्यत्वेन ज्ञायते तर्हि संवादस्याप्यपरसंवादज्ञानात् सत्यत्वसिद्धिः, तस्या२५प्यपरसंवादज्ञानादित्यनवस्था । किंच, यदि संवादप्रत्ययादुत्तरकालभावी बाधाऽभावो ज्ञायमानो 1 1 विशेषः पूर्वज्ञानस्याभ्युपगम्यते तर्हि ज्ञायमानस्वविशेषापेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये यथावस्थितार्थपरिच्छेदलक्षणे प्रवर्त्तत इति कथमनपेक्षत्वात् तत्र स्वतः प्रामाण्यम् ? अपि च बाधाविरहस्य भवदभ्युपगमेन पर्युदासवृत्त्या संवादरूपत्वम्, 'बाधावर्जितं च ज्ञानं स्वकार्येऽन्यानपेक्षं प्रवर्त्तते' इति ब्रुवता संवादापेक्षं तत् तत्र प्रवर्त्तत इत्युक्तं भवति । किंच, किं विज्ञानस्य स्वरूपं बाध्यते, आहो३० स्वित् प्रमेयम्, उतार्थक्रिया इति विकल्पत्रयम् । तत्र यदि विज्ञानस्य स्वरूपं बाध्यत इति पक्षः, स न युक्तः; विकल्पद्वयानतिवृत्तेः । तथाहि - विज्ञानं बाध्यमानं किं स्वसत्ताकाले बाध्यते, उत उत्तकालम् ? तत्र यदि स्वसत्ताकाले बाध्यत इति पक्षः, स न युक्तः तदा विज्ञानस्य परिस्फुटरूपेण प्रतिभासनात् । न च विज्ञानस्य परिस्फुटप्रतिभासिनोऽभावस्तदैवेति वक्तुं शक्यम्, सत्याभिमतविज्ञानस्याप्यभावप्रसङ्गात् । अथोत्तरकालं बाध्यत इति पक्षः, सोऽपि न युक्तः; उत्तरकालं तस्य ३५ स्वत एव नाशाभ्युपगमाद् न तत्र बाधकव्यापारः सफल:- "देवरक्ता हि किंशुकाः” । अथ प्रमेयं बाध्यते इत्यभ्युपगमः सोऽप्ययुक्तः यतः प्रमेयं बाध्यमानं किं प्रतिभासमानेन रूपेण बाध्यते, उतप्रतिभासमानरूपसहचारिणा स्पर्शादिलक्षणेन इति विकल्पनाद्वयम् । तत्र यदि प्रतिभासमानेन १ पृ० ४ पं० २५ । १२ स च ज्ञानस्वरूप भां०, कां०, हा०, मां० । ३ ग्रन्थाप्रम् ४०० श्लो० । ४ " वेदैकदेशविधितो यद् ज्ञानमुपजायते । अतः परोक्षं तत् सर्वं प्रमाणं दोषवर्जितम् ॥ पौरुषेयत्वाद् अतोऽन्यद् विचि - कित्सात्मकं भवेदित्याशयः " गु० टि० । ५ " रञ्जनव्यापूर्ति मा त्वं कुरु रजक ! रञ्जने । बहवः सन्ति सुलभा दैवरक्ता हि किंशुकाः ॥ इत्यादि इदं रजकं प्रति विरहिणीवाक्यम्" गु० टि० । ६ पृ० १३ पं० २ लिखितं 'अथ अप्रतिभासमानेन रूपेण' इत्युलेखम्, केवलं 'वा०' प्रतौ च 'उत प्रतिभासमानरूपसहचारिणा' इति लभ्यमानं पाठं समीक्ष्य ज्ञायतेऽस्माभिर्यदत्र 'अप्रतिभासमानेन प्रतिभासमानरूपसहचारिणा' इति पाठो भवेत् स एव च पाठोऽत्र सुसंगतः । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे रूपेण, तदयुक्तम्: प्रतिभासमानस्य रूपस्यासत्त्वासंभवात्, अन्यथा सम्यग्ज्ञानावभासिनोऽप्यसरवप्रसङ्गः। अथाप्रतिभासमानेन रूपेण बाध्यत इति मतम्, तदप्ययुक्तम्: अप्रतिभासमानस्य रूपस्य प्रतिभासमानरूपादन्यत्वात्, न चान्यस्याभावेऽन्यस्याभावः, अतिप्रसङ्गात् । अथार्थक्रिया बाध्यते, ननु साऽपि किमुत्पन्ना बाध्यते, उतानुत्पन्ना? यद्युत्पन्ना, न तर्हि बाध्यते; तस्याः सत्त्वात् । अथानुत्पन्ना, साऽपि न बाध्या; अनुत्पन्नत्वादेव । किंच, अर्थक्रियाऽपि पदार्थादन्या, ५ ततश्च तस्या अभावे कथमन्यस्यासत्त्वमतिप्रसङ्गादेव ? व्यवच्छेद्यासंभवे च 'वाधावर्जितम्' इति विशेषणस्याप्ययुक्तत्वान्न बाधाविरहोऽपि विज्ञानस्य विशेषः । अथाष्टकारणारब्धत्वं विशेषः, सोऽपि न युक्तः, यतस्तस्याप्यज्ञातस्य विशेषत्वमसिद्धम् , ज्ञातत्वे वा कुतोऽदुष्टकारणारब्धत्वं ज्ञायते ? अन्यस्माददुष्टकारणारब्धाद् विज्ञानादिति चेत्, अनवस्था संवादादिति चेत्, ननु संवादप्रत्ययस्याप्यदुष्टकारणारब्धत्वं विशेषोऽन्यस्माददुष्टकारणारब्धात् संवादप्रत्ययाद् विज्ञायत इति १० सैवानवस्था भवतः संपद्यत इति । किंच, ज्ञानसव्यपेक्षमदुटकारणारब्धत्व विशेषमपेक्ष्य स्वकार्ये ज्ञानं प्रवर्त्तमानं कथं न तत् तत्र परतः प्रवृत्तं भवति ? तथा, कारणदोषाभावः पर्युदासवृत्त्या भवदभिप्रायेण कारणगुणः, ततश्च 'अदुष्टकारणारब्धम्' इति वदता 'गुणवत्कारणारब्धम्' इत्युक्तं भवति । कारणगुणाश्च प्रमाणेन स्वकार्ये प्रवर्त्तमानेनापेक्ष्यमाणनिश्चायकप्रमाणापेक्षा अपेक्ष्यन्ते, तदपि प्रमाणं स्वकारणगुणनिश्चयापेक्षं स्वकार्ये प्रवर्तत इत्यनवस्थादषणं "जातेऽपि यदि विशाने १५ तावन्नार्थोऽवधार्यते" इत्यादिना ग्रन्थेन परपक्षे आसध्यमानं स्ववधाय कृत्योत्थापनं भवतःप्रस तम् । अथादुष्टकारणजनितत्वनिश्चयमन्तरेणापि ज्ञानं स्वार्थनिश्चये स्वकार्ये प्रवर्तिष्यते, तदसत संशयादिविषयीकृतस्य प्रमाणस्य स्वार्थनिश्चायकत्वासंभवात् , अन्यथाऽप्रमाणस्यापि स्वार्थनिश्चायकत्वं स्यात् । तन्नादुष्टकारणारब्धत्वमपि विशेषो भवन्नीत्या संभवति । अथ संवादित्वं विशेषः, सोऽभ्युपगम्यत एव; किंतु 'संवादप्रत्ययोत्पत्तिनिश्चयमन्तरेण स न ज्ञातुं शक्यते' इति प्रतिपाद-२० यिष्यमाणत्वात् तदपेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तत इति तत् तत्र परतः स्यात् । अत एव निरपेक्ष त्वस्य असिद्धत्वात् पूर्वोक्तन्यायेन 'ये प्रतीक्षितप्रत्ययान्तरोदयाः' इति प्रयोगे नासिद्धो हेतुः। एतेनैव यदुक्तम् "तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवर्जितम्। __ अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसंमतम्" ॥ [ ] इति, तदपि निरस्तम्। यच्चोक्तम् 'यदि संवादापेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्त्तते तदा चक्रकप्रसङ्गः' तदसङ्गतम्, 'यथावस्थितपरिच्छेदस्वभावमेतत् प्रमाणम्' इत्येवंनिश्चयलक्षणे स्वकार्ये यथा संवादापेक्षं प्रमाणं प्रवर्त्तते न च चक्रकदोषस्तथा प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । यदपि 'अथ गृहीताः कारणगुणाः' इत्याद्यभिधानम्, तदपि परसमयानभिज्ञतां भवतः ख्यापयति; 'कारणगुणग्रहणापेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तते' इति परस्यानभ्युपगमात् । यच्चोक्तम् 'उपजायमानं प्रमाणमर्थपरिच्छेद-३० शक्तियुक्तम्' इति, तत्राविसंवादित्वमेव अर्थतथात्वपरिच्छेदशक्तिः-तच परतो ज्ञायते तदपेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तते इति तत् तत्र परतः स्थितम् ।। [उत्तरपक्षः-(३) निश्चये प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वनिरसनम् ] 'नापि प्रामाण्यं स्वनिश्चयेऽन्यापेक्षम्' इत्युक्तं यत्, तदप्यसत्; यतो निश्चयस्तत्र भवन् किं निर्निमित्तः, उत सनिमित्तः इति कल्पनाद्वयम् । तत्र न तावन्निनिमित्तः, प्रतिनियतदेश-काल-३५ स्वभावाभावप्रसङ्गात् । सनिमित्तत्वेऽपि किं स्वनिमित्तः, उत स्वव्यतिरिक्तनिमित्तः? न तावत् स्वनिमित्तः, स्वसंविदितप्रमाणानभ्युपगमाद मीमांसकस्य । अथ स्वव्यतिरिक्तनिमित्तः, तत्रापि वक्तव्यम्-तन्निमित्तं किं प्रत्यक्षम् , उतानुमानम् अन्यस्य तन्निश्चायकस्यासम्भवात् ? तत्र यदि प्रत्यक्षम्, तदयुक्तम् । प्रत्यक्षस्य तत्र व्यापारायोगात्-तद्धीन्द्रियसंयुक्ते विषये तद्यापारादुदयमासादयत् प्रत्यक्षव्यपदेशं लभते, न चेन्द्रियाणामर्थापरोक्षतालक्षणेन फलेन, तत्संवेदनस्वरूपेण वा सम्प्र-४० १ वा.' विना सकतेष्वपि आदर्शेषु 'प्रमाणं स्वकारणगुणनिश्चायकं स्वकारणगुणनिश्चयापेक्षं स्वकार्ये' इति पाठः। २ पृ० ५५० ५। ३ आसज्यमानं कां०। ४ कृत्वोत्थापनं भां०, वा०। ५पृ. २ पं० १२। ६ पृ. ४ पं० २८। ७ पृ. ४ पं०३७ । ८ पृ. ५५० ११। ९पृ. ५५० १५। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ प्रामाण्यवादः। योगो येन तयोर्यथार्थत्वस्वभावं प्रामाण्यमिन्द्रियव्यापारजनितेन प्रत्यक्षेण निश्चीयते; नापि मनोव्यापारजेन प्रत्यक्षण, एवंविधस्यानुभवस्याभावात् : नापि तयोरुत्पादकस्य ज्ञातृव्यापाराख्यस्य यथार्थत्वनिश्चायकत्वं प्रामाण्यं बाह्येन्द्रियजन्येन मनोजन्येन वा प्रत्यक्षेण निश्चीयते, तेन सहेन्द्रियाणां सम्बन्धाभावात् । न चेन्द्रियासम्बद्ध विषये ज्ञानमुपजायमानं प्रत्यक्षव्यपदेशमासादयतीत्युक्तम् । ५नाप्यनुमानतः प्रामाण्यनिश्चयः, पूर्वोक्तस्य फलद्वयस्य यथावस्थितार्थत्वलक्षणप्रामाण्य निश्चये लिङ्गाभावात् । ज्ञातृव्यापारस्य तु पूर्वोक्तफलद्वयस्वभावस्वकार्यलिङ्गसम्भवेऽपि न यथार्थनिश्चायकत्वलक्षणप्रामाण्यनिश्चायकत्वम्: यतस्तल्लिङ्गं संवेदनाख्यं यथार्थत्वविशिष्टं तनिश्चये व्याप्रियेत, निर्विशेषणं वा? प्रथम पक्षे तस्य यथार्थत्वविशेषणग्रहणे प्रमाणं वक्तव्यम्, तश्च न सम्भवतीति प्रतिपादितम् । निर्विशेषणस्य फलस्य प्रामाण्यप्रतिपादकत्वे मिथ्याशानफलमपि प्रामाण्य निश्चायक १० स्यादित्यतिप्रसङ्गः । तत्रैतत् स्यात् पूर्वोक्तं फलद्वयमर्थसंवेदन-अर्थप्रकटतालक्षणमनुभवानिश्ची यते, यथा तस्य स्वतः पूर्वोक्तस्वरूपनिश्चयस्तथा यथार्थत्वस्यापि, यथा हि तत् संवेद्यमानं नीलसंवेदनतया संवेद्यते तथा यथार्थत्वविशिष्टस्यैव तस्य संवित्तिः; नहि नीलसंवेदनादन्या यथार्थत्वसंवित्तिः। यद्येवम् , शुक्तिकायां रजतज्ञानेऽपि अर्थसंवेदनस्वभावत्वाद् यथार्थत्वप्रसक्तिः। स्मृतिप्रमोषा दयस्तु निषेत्स्यन्ते इति नानुमानादपि तत्प्रामाण्यनिश्चयः। किंच, प्रत्यक्षाऽनुमानयोः प्रामाण्य. १५निश्चयनिमित्तत्वेऽभ्युपगम्यमाने स्वतःप्रामाण्यनिश्चयव्याहतिप्रसङ्गः तन्नान्यनिमित्तोऽपि प्रामाण्यनिश्चयः । यदुक्तम् 'नापि प्रामाण्यं स्वनिश्चयेऽन्यापेक्षम्, तझ्यपेक्षमाणं किं कारणगुणानपेक्षते' इत्यादि, तदनभ्युपगमोपालम्भमात्रम् ; न ह्यस्मदभ्युपगमः-यदुत स्वकारणगुणज्ञानात् प्रामाण्यं विज्ञायते, कारणगुणानां संवादप्रत्ययमन्तरेण ज्ञातुमशक्यत्वात् , संवादप्रत्ययात् तु कारणगुणपरि शानाभ्युपगमे तत एव प्रामाण्यनिश्चयस्यापि सिद्धत्वाद् व्यर्थ गुणनिश्चयपरिकल्पनम् , प्रामाण्य२० निश्चयोत्तरकालं गुणज्ञानस्य भावात् तन्निश्चयस्य प्रामाण्यनिश्चयेऽनुपयोगाश्च । नाप्येकदा संवादाद् गुणान् निश्चित्य अन्यदा संवादमन्तरेणापि गुणनिश्चयादेव तत्प्रभवस्य ज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चयः इति वक्तुं शक्यम्, अत्यन्तपरोक्षेषु चक्षुरादिषु कालान्तरेऽपि निश्चितप्रामाण्यस्वकार्यदर्शनमन्तरेण गुणानुवृत्तेर्निश्चेतुमशक्यत्वात् । न च क्षणक्षयिषु भावेषु गुणानुवृत्तिरेकरूपैव सम्भवति, अपरापर सहकारिभेदेन भिन्नरूपत्वात् । संवादप्रत्ययाञ्चार्थक्रियाज्ञानलक्षणात् प्रामाण्यनिश्चयोऽभ्युपगम्यत २५एव-"प्रमाणमविसंवादिज्ञानम्"[ ] इति प्रमाणलक्षणाभिधानात् । न च संवादित्वलक्षणं प्रामाण्यं स्वत एव ज्ञायत इति शक्यमभिधातुम् , यतः संवादित्वं संवादप्रत्ययजननशक्तिः प्रमाणस्य; न च कार्यदर्शनमन्तरेण कारणशक्तिनिश्चेतुं शक्या।यदाह-"न प्रत्यक्षे कार्य कारणभावगतिः” [ . ] इति । तस्मादुत्तरसंवादप्रत्ययात् पूर्वस्य प्रामाण्यं व्यवस्थाप्यते । न च संवादप्रत्ययात् पूर्वस्य प्रामाण्यावगमे संवादप्रत्ययस्याप्यपरसंवादात् प्रामाण्यावगम इत्यनवस्थाप्रस३०ङ्गात् प्रामाण्यावगमाभाव इति वक्तुं युक्तम् , संवादप्रत्ययस्य संवादरूपत्वेनापरसंवादापेक्षाऽभावतोऽनवस्थाऽनवतारात् । न च प्रथमस्यापि संवादापेक्षा मा भूदिति वक्तव्यम्, यतस्तस्य संवादजनकत्वमेव प्रामाण्यम्; तदभावे तस्य तदेव न स्यात् । अर्थक्रियाज्ञानं तु साक्षादविसंवादि, अर्थक्रियालम्बनत्वात्। तस्य स्वविषयसंवेदनमेव प्रामाण्यम्-तच्च-स्वतः सिद्धमिति नान्यापेक्षा । तेन 'कस्यचित्तु यदीष्येत' इत्यादि परस्य प्रलापमात्रम् । न चार्थक्रियाज्ञानस्याप्यवस्तुवृत्तिशङ्काया३५मन्यप्रमाणापेक्षयाऽनवस्थाऽवतारः इति वक्तव्यम्, अर्थक्रियाज्ञानस्यार्थक्रियानुभवस्वभावत्वेनार्थक्रियामात्रार्थिनां 'मिन्नार्थक्रियात एतद् ज्ञानमुत्पन्नम्, उत तयतिरेकेण' इत्येवंभूतायाश्चिन्ताया निष्प्रयोजनत्वात् । तथाहि-यथा अर्थक्रिया किमवयवव्यतिरिक्तेनावयविनाऽर्थेन निष्पादिता, उताऽव्यतिरिक्तेन, आहोस्विदुभयरूपेण, अथानुभयरूपेण, किंवा त्रिगुणात्मकेन, परमाणुसमूहात्मकेन वा, अथ ज्ञानरूपेण, आहोस्वित् संवृतिरूपेण' इत्यादिचिन्ताऽर्थक्रियामात्रार्थिनां निष्प्रयोजना४० निष्पन्नत्वाद् वाञ्छितफलस्य-तथेयमपि 'किं वस्तुसत्यामर्थक्रियायां तत्संवेदनशानमुपजायते, आहोस्विदवस्तुसत्याम्' इति, तृ-दाहविच्छेदादिकं हि फलमभिवाञ्छितम्, तश्चाभिनिष्पन्न तद्वियोगज्ञानस्य स्वसंविदितस्योदये इति तच्चिन्ताया निष्फलत्वम्। अवस्तुनि ज्ञानद्वयासंभवाच । १पृ० १३ पं० ३९ । २ पृ० १३ पं०४०। ३ मिथ्याज्ञाने फलमपि भा०, मां०, कां०। ४ नीलं संवेदन-गु, भा०, हा०। ५पृ०५पं० १५।६ ग्रन्थ ग्रम् ५००। ७स्वविषयं गु० विना सर्वत्र । वि. प्रती तु 'स्वविषयसंवेदन-' इति परिष्कृतम् । ८ पृ. ६ पं० २९ । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे १५ यत्र हि साधनज्ञानपूर्वकमर्थक्रियाज्ञानमुत्पद्यते तत्रीवस्तुशंका नैवास्ति, न ह्यनग्नावग्निशाने संजाते प्रवृत्तस्य दाह-पाकाद्यर्थक्रियाज्ञानस्य संभव इत्यागोपालाङ्गनाप्रसिद्धमेतत् । न च स्वप्नार्थक्रियाज्ञानमर्थक्रियाऽभावेऽपि दृष्टमिति जाग्रदर्थक्रियाज्ञानमपि तथाऽऽशङ्काविषयः, तस्य तद्विपरीतत्वात् । तथाहि-स्वमार्थक्रियाज्ञानमप्रवृत्तिपूर्व व्याकुलमस्थिरं च; तद्विपरीतं तजामद्दशाभावि, कुतस्तेन व्यभिचारः? यदि चार्थक्रियाशानमप्यर्थमन्तरेण जाग्रहशायां भवेत् कतरदन्यज्ञानमर्थाव्य. ५ भिचारि स्याद् यद्वलेनार्थव्यवस्था क्रियेत? परतःप्रामाण्यवादिनो बौद्धस्य प्रतिकूलमाचरामीत्यभिप्रायवता तस्यानुकूलमेवाचरितम् । स हि "निरालम्बनाः सर्वे प्रत्ययाः, प्रत्ययत्वात् , स्वप्नप्रत्ययवत्' इत्यभ्युपगच्छत्येव, भवता तु जाग्रद्दशा-स्वप्नदशयोरभेदं प्रतिपादयता तत्साहाय्यमेवाचरितम्। न हि तद्यतिरिक्तः प्रत्ययोऽस्ति यस्यार्थसंसर्गः। न चावस्थाद्वयतुल्यताप्रतिपादनं त्वया क्रियमाणं प्रकृतोपयोगि । तथाहि-सांव्यवहारिकस्य प्रमाणस्य लक्षणमिदमभिधीयते-"प्रमाणमविसंवादि १० शानम्" [ ] इति । तच्च सांव्यवहारिक जाग्रद्दशाज्ञानमेव, तत्रैव सर्वव्यवहाराणां लोके परमार्थतः सिद्धत्वात्; स्वप्नप्रत्ययानां तु निर्विषयतया लोके प्रसिद्धानां प्रमाणतया व्यवहाराभावात् 'किं स्वतः प्रामाण्यमुत परतः' इति चिन्तायाः अनवसरत्वात् तत्र जाग्रज्ज्ञाने द्वितयदर्शनात् 'किं प्रमाणम् , किं वाऽप्रमाणम् , तथा किं स्वतः प्रमाणम् , किं वा परतः' इति चिन्तायाः पूर्वोक्तलक्षणे 'जाग्रत्प्रत्ययत्वे सति' इति विशेषणाभिधाने स्वप्नप्रत्ययेन व्यभिचारचोदनं प्रस्तावा-१५ नभिज्ञतां परस्य सूचयति । अपि च, “अर्थक्रियाऽधिगतिलक्षणफलविशेषहेतुर्ज्ञानं प्रमाणम्" इति लक्षणे 'तत्फलं नैवं प्रमाणलक्षणानुगतमिति कथं तस्यापि प्रामाण्यमवसीयते' इति चोद्यानुपपत्तिः । यथा 'अङ्कुरहेतु/जम्' इति बीजलक्षणे नाङ्कुरस्यापि बीजरूपताप्रसक्तिः, ततो न विदुषामेवं प्रश्नः कथमकुरे बीजरूपता निश्चीयते' इति । यथा चाङ्कुरदर्शनाद् बीजस्य बीजरूपता निश्चीयते तथाऽत्राप्यर्थक्रियाफलदर्शनात् साधनज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चयः । न चार्थक्रियाज्ञानस्या-२० प्यन्यतः प्रामाण्यनिश्चयादनवस्था, अर्थक्रियाशानस्य तद्रूपतया स्वत एव सिद्धत्वात् । तदुक्तम्"स्वरूपस्य स्वतोगतिः" [ ] इति । न च स्वरूपे ज्ञानस्य भ्रान्तयः संभवन्ति, स्वरूपाभावे स्वसंवित्तरप्यभेदेनाभावप्रसङ्गात् । व्यतिरिक्तविषयमेव हि प्रमाणमधिकृत्योक्तम्-"प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम् , अर्थक्रियास्थितिरविसंवादनम्"[ ] इति, तथा “प्रामाण्यं व्यवहारेणार्थक्रियालक्षणेन"[ ] इति च । तस्माद् यत् प्रमाणस्यात्मभूतमर्थक्रियालक्षणपुरुषार्थाभिधानं २५ फलं यदर्थोऽयं प्रेक्षावतां प्रयासः, तेन स्वतःसिद्धेन फलान्तरं प्रत्यनङ्गीकृतसाधनान्तरात्मतया 'प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम्' इति प्रमाणलक्षणविरहिणा साधन निर्भासिज्ञानस्यानुकान्तरूपफलप्रापणशक्तिस्वरूपप्रामाण्याधिगमेऽनवस्थाप्रेरणा क्रियमाणा परस्यासङ्गतैव लक्ष्यते । अत एवेदमपि निरस्तं यदुक्तम् 'अनिश्चितप्रामाण्यादपि साधनज्ञानात् प्रवृत्तावर्थक्रियाज्ञानोत्पत्ताववाप्तफला अपि प्रेक्षावन्तो यथा साधनज्ञानप्रामाण्यविचारणायां मनःप्रणिद्धति-अन्यथा तत्समानरूपापरसाधन-३० ज्ञानप्रामाण्य निश्चयपूर्विकाऽन्यदा प्रवृत्तिन स्यात्-तथाऽर्थक्रियाज्ञानस्यापि प्रामाण्यविचारणायां प्रेक्षावत्तयैव ते आद्रियन्ते; अन्यथाऽसिद्धप्रामाण्यादर्थक्रियाज्ञानात् पूर्वस्य प्रामाण्यनिश्चय एव न स्यात्' इति । 'अवाप्तफलत्वमनर्थकम्' इति, तदप्ययुक्तम् ; 'अर्थक्रियाज्ञानस्य स्वत एव प्रामाण्यम्, साधनज्ञानस्य तु तजनकत्वेन प्रामाण्यम्' इति प्रतिपादितत्वात् । यदभ्यधायि-"यदि संवादात् पूर्वस्य प्रामाण्यं निश्चीयते तदा १ तत्र वस्तु-कां०, गु०। २ डे०, अ० इत्युभयप्रतौ 'त्परतः' इति, एतच्च 'तत् परतः' इति संभाव्यतेसुघर्ट चैतत् । ३ चिन्तायाः पूर्वोक्तलक्षणे अनव-डे । ४ तन्न जा-गु० । तत्राऽजा-भा०। ५द्वितीय-भा०, का०, गु०। ६ चिन्ताया पूर्वोक्त-वा० । “अनवसर इत्यनुषङ्गः" गु० टि०। ७ सति निर्विशेषणामिधाने अ०। सतीति विशेषणामिधानस्वप्न-वा०। ८ प्रस्तावाभिज्ञतां सूचय-वा०। ९-हेतुबीज-भा०, कां०, हा० । १० तत्राप्यर्थ-वा०, विना सर्वत्र । ११ स्वरूपज्ञान-का०, गु०, अ०, आ०,। १२ “यथाऽऽह धर्मकीर्तिः” इत्युल्लिख्य श्लोकवार्तिकटीकायां पार्थसारथिमिश्रो वचनमेत उद्धृतवान्-(श्लो० वा० सू० २,श्लो० ७६) १३-कृतासाधना-वा०। १४ साधनानि सिज्ञानस्य-हा०, वि०, आ० । १५ पृ०६ पं. २४ । १६ पृ०७५०२ १७ पृ०७५०२। १८ साधनस्य तु गु०। १९पृ० १५५०२०। तासाधना लोकवार्तिकटी १६ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाण्यवादः। श्रोत्रधीरप्रमाणं स्यादितराभिरसङ्गतेः" [ श्लो० सू० २, श्लो० ७७] इति, तदप्ययुक्तम्: गीतादिविषयायाः श्रोत्रबुद्धेरर्थक्रियानुभवरूपत्वेन स्वत एव प्रामाण्यसिद्धेः । तथा चित्रगतरूपबुद्धरपि स्वत एव प्रामाण्यसिद्धिः, अर्थक्रियाऽनुभवरूपत्वात् । गन्ध-स्पर्शरसबुद्धीनां त्वर्थक्रियानुभवरूपत्वं सुप्रसिद्धमेव । यदप्युक्तम् 'किमेकविषयम्, भिन्नविषयं वा ५संवादज्ञानं पूर्वस्य प्रामाण्यनिश्चायकम्' इत्यादि, 'तत्रैकसङ्घातवर्तिनो विषयद्वयस्य रूप-स्पर्शादिलक्षणस्यैकसामग्यधीनतया परस्परमव्यभिचारात् स्पर्शादिशानं जाग्रदवस्थायामभिवामिछतस्पर्शादिव्यतिरेकेण असंभवदू भिन्नविषयमपि स्वविषयाभावेऽप्याशयमानरूपज्ञानस्य प्रामाण्यं निश्चाययतीति न तत्संगत एवम् (गतमेव)। अत एव रूपाद्यर्थाविनाभाविवाद ध्वनीनां तद्विशेष शङ्कायां क्वचिदू वीणादिरूपप्रतिपत्तौ तद्विशेषशङ्काव्यावृत्तेस्तदूपदर्शनसंवादादपि प्रामाण्यनिश्चयः १० सिद्धो भवति । यच्चोक्तम् 'किं संवादज्ञानं साधनैज्ञानविषयं तस्य प्रामाण्यं व्यवस्थापयति, उत भिन्न विषयम' इत्यादि, तदप्यविदितपराभिप्रायस्याभिधानम् ; न हि संवादज्ञानं तदाहकत्वेन तस्य प्रामाण्यं व्यवस्थापयति, किन्तु तत्कार्यविशेषत्वेन; यथा धूमोऽग्निम् इति पराभ्युपगमः। यश्च संवादशानात् साधनंज्ञानप्रामाण्यनिश्चये चक्रकदूषणमभ्यधायि , तदप्यसङ्गतम् यदि हि प्रथममेव संवादज्ञानात् सार्धंनज्ञानस्य प्रामाण्यं निश्चित्य प्रवर्त्तत तदा स्यात् तद् दूषणम् , यदातु वह्निरूप१५दर्शने सत्येकदा शीतपीडितोऽन्यार्थ तद्देशमुपसर्पस्तत्स्पर्शमनुभवति, कृपालुना वा केनचित् तद्देशं वरानयने; तदाऽसौ वह्निरूपदर्शन-स्पर्शनज्ञानयोः संबन्धमवगच्छति-एवंस्वरूपो भावः एवंभू. तप्रयोजननिर्वर्तकः' इति-सोऽवगतसंवन्धोऽन्यदाऽनभ्यासदशायामनुमानात् 'ममायं रूपप्रतिभासोऽभिमतार्थक्रियासाधनः, एवंरूपप्रतिभासत्वात्, पूर्वोत्पन्नैवंरूपप्रतिभासवत्' इत्यस्मात् साधननिर्भासिज्ञानस्य प्रामाण्यं निश्चित्य प्रवर्तत इति कुतश्चक्रकचोद्यावतारः? "अभ्यासदशायामपि २० साधनज्ञानस्यानुमानात् प्रामाण्यं निश्चित्य प्रवर्त्तते” इत्येके । न च तद्दशायामन्वय-व्यतिरेकव्यापारस्यासंवेदनान्नानुमानव्यापार इत्यभिधातुं शक्यम् , अनुपलक्ष्यमाणस्यापि तद्यापारस्याभ्युपगमनीयत्वात् अकस्माद् धूमदर्शनात् परोक्षाग्निप्रतिपत्ताविव; अन्यथा गृहीतविस्मृतप्रतिबन्धस्यापि तदर्शनादक स्मात् तत्प्रतिपत्तिः स्यात् । न चाध्यक्षैव साधंनज्ञानस्य फलसाधनशक्तिरिति कथमध्यक्षेऽनुमानप्रवृत्तिः इति चोद्यम्, दृश्यमानप्रदेशपरोक्षाग्निसङ्गतेरिव तजननशक्तेरप्रत्यक्षत्वेन २५अनुमानप्रवृत्तिमन्तरेण निश्चेतुमशक्यत्वात् । तदुक्तम् "तदृष्टावे दृष्टेषु संवित्सामर्थ्यभाविनः ।। स्मरणादभिलाषेण व्यवहारः प्रवर्तते" [ ] इति। अपरे तु मन्यन्ते "अभ्यासावस्थायामनुमानमन्तरेणापि प्रवृत्तिः सम्भवति" । अथ अनुमाने सति प्रवृत्तिदृष्टा, तदभावे न दृष्टा इत्यनुमानकार्या सा; नन्वेवं सत्यभ्यासदशायां विकल्पस्वरूपानुमान३० व्यतिरेकेणापि प्रत्यक्षात् प्रवृत्तिदृश्यते इति तदा तत्कार्या सा कस्मान्न भवति? तथाहि-प्रतिपादोद्धारं न विकल्परूपानुमानव्यापारः संवेद्यते, अथ च प्रतिभासमाने वस्तुनि प्रवृत्तिः सम्पद्यत इति । अथादावनुमानात् प्रवृत्तिर्दृष्टेति तदन्तरेण सा पश्चात् कथं भवति? नन्वेवमादौ पर्यालोचनाद् व्यवहारो दृष्टः, पश्चात् पयोलोचनमन्तरेण कथं पुर स्थितवस्तुदर्शनमात्राद् भवति इति वाच्यम् ? यदि पुनरनुमानव्यतिरेकेण सर्वदा प्रवृत्तिर्न भवतीति प्रवर्तकमनुमानमेवेत्यभ्युपगमः, ३५तथासति प्रत्यक्षेण लिङ्गग्रहणाभावात् तत्राप्यनुमानमेव तन्निश्चयव्यवहारकारणम्, तदप्यपरलिङ्गनिश्चयव्यतिरेकेण नोदयमासादयतीत्यनवस्थाप्रसङ्गतोऽनुमानस्यैवाप्रवृत्तेर्न क्वचित् प्रवृत्तिलक्षणो १ वा.' विना सर्वत्र 'अपि'। २ पृ. ७ पं० ८। ३-शङ्ख्यमानस्य रूप-भां०, कां०। ४ पृ. ७पं. १८। ५ साधनविषयं तस्य गु०। ६ साधनप्रामाण्य-गु० । ७ पृ. ५ पं० २५। ८ साधनस्य प्रामाण्यं-गु०। ९ अत्र 'स्पर्शमनुभवति' इति पूर्वोत्तमन्वेयम्। १० साधनस्य फल-गु०। ११ तद् दृष्ट्वा चे (च) व वा०। १२ प्रन्थानम्-श्लो. ६..। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमै काण्डेव्यवहार इत्यभ्यासावस्थायां प्रत्यक्षं स्वत एव व्यवहारकृदू अभ्युपेयम् । अनुमानं तु तादात्म्यतदुत्पत्ति-प्रतिबन्धलिङ्गनिश्चयबलेन स्वसाध्यादुपजायमानत्वादेव तत्प्रापणशक्तियुक्तं संवादप्रत्ययोदयात् प्रागेव प्रमाणाभासविवेकेन निश्चीयतेऽतः स्वत एव । तथाहि-यदू यत उपजायते तत् तत्प्रापणशक्तियुक्तम्, तद्यथा-प्रत्यक्षं स्वार्थस्य, अनुमेयादुत्पन्नं चेदं प्रतिबद्ध लिङ्गदर्शनद्वारायातं लिङ्गिज्ञानमिति तत्प्रापणशक्तियुक्तं निश्चीयत इति । मूढं प्रति विषयदर्शनेन विषयी व्यवहारोऽत्र ५ साध्यते, सङ्केतविषयख्यापनेन समये प्रवर्तनात् । तथाहि-प्रत्यक्षेऽप्याव्यभिचारनिबन्धन एवानेन प्रामाण्यव्यवहारः प्रतिपन्नः, अव्यभिचारश्च नान्यस्तदुत्पत्तेः, सैव च ज्ञानस्य प्रापणशक्तिरुच्यते । तदुक्तम् "अर्थस्यासम्भवेऽभावात् प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता । प्रतिबद्धस्वभावस्य तद्धेतुत्वे समं द्वयम्" ॥ [ __] इति । तस्मात् मूढं प्रति परतःप्रामाण्यव्यवहारः साध्यते । अनुमाने प्रामाण्यस्य प्रतिबद्धलिङ्गनिश्चयानन्तरं स्वसाध्याव्यभिचारलक्षणस्य न उत्पन्नत्वेन प्रत्यक्षसिद्धत्वाद् न परतःप्रामाण्य निश्चये चक्रकचोद्यस्यावतारः । प्रत्यक्षे तु संवादात् प्रागर्थादुत्पत्तिः अशक्यनिश्चया इति संवादापेक्षवानभ्यासदशायां तस्य प्रामाण्याध्यवसितिर्युक्ता । अत उत्पत्ती, स्वकार्ये, ज्ञप्तौ च सापेक्षत्वस्य प्रतिपादि. तत्वादू 'ये यद्भावं प्रत्यनपेक्षाः' इति प्रयोगे हेतोरसिद्धिः । यतश्च सन्देह-विपर्ययविषयप्रत्यय-१५ प्रामाण्यस्य परतो निश्चयो व्यवस्थितोऽतः 'ये सन्देह-विपर्ययाध्यासिततनवः' इति प्रयोगे न व्याप्त्यसिद्धिः । यदप्युक्तम् 'सर्वप्राणभृतां प्रामाण्यं प्रति सन्देह-विपर्ययाभावाद सिद्धो हेतुः' इत्यादि, तदप्यसत्: यतः प्रेक्षापूर्वकारिणः प्रमाणाऽप्रमाणचिन्तायामधिक्रियन्ते नेतरे, ते च कासाश्चिद् ज्ञानव्यक्तीनां विसंवाददर्शनाजाताशङ्का न ज्ञानमात्रात् 'एवमेवायमर्थः' इति निश्चि. न्वन्ति, नापि तज्ज्ञानस्य प्रामाण्यमध्यवस्यन्तिः अन्यथैषां प्रेक्षावतव हीयत इति सन्देहविषये कथं २० न सन्देहः? तथा कामलादिदोषप्रभवे ज्ञाने विपर्ययरूपताऽप्यस्तीति तद्बलाद् विपर्यय कल्पनाऽन्यज्ञानेऽपि सङ्गतैवेति प्रकृते प्रयोगे नासिद्धो हेतुरिति भवत्यतो हेतोः परताप्रामाण्यसिद्धिः। यदपि 'प्रमाण-तदाभासयोस्तुल्यं रूपम्' इत्याद्याशङ्कय 'अप्रमाणे अवश्यंभावी बाधकप्रत्ययः, कारणदोषज्ञानं च' इत्यादिना परिहृतम् , तदपि न चारुः यतो वार्ध-कारणदोपज्ञानं मिथ्याप्रत्यये अवश्यंभावि, सम्यक्प्रत्यये तदभावो विशेषः प्रदर्शितःः स तु किं बाधकाग्रहणे, तदभावनिश्चये २५ वा? पूर्वस्मिन् पक्षे भ्रान्तदृशस्तद्भावेऽपि तदग्रहणं दृएं कश्चित् कालम् , एवमत्रापि तदग्रहणं स्यात् । तत्रैतत् स्याद्भ्रान्तदृशः कश्चित् कालं तदग्रहेऽपि कालान्तरे बाधकग्रहणम् , सम्यग्दृ? तु कालान्तरेऽपि तदग्रहः नन्वेतत् सर्वविदां विषयः, नार्वाग्रहशां व्यवहारिणामस्मादृशाम् । बाधकामावनिश्चयोऽपि सम्यग्ज्ञाने किं प्रवृत्तेः प्राग् भवति, उत प्रवृत्त्युत्तरकालम् ? यदि पूर्वः पक्षः, स न युक्तः भ्रान्तज्ञानेऽपि तस्य सम्भवात् प्रमाणत्वप्रसक्तिः स्यात् । अथ प्रवृत्त्युत्तरकालं बाधकाभाव-३० निश्चयः, सोऽपि न युक्तः; बाधकाभावनिश्चयमन्तरेणैव प्रवृत्तेरुत्पन्नत्वेन तन्निश्चयस्याकिञ्चित्करत्वात् । न च बाधकामावनिश्चये प्रवृत्त्युत्तरकालभाविनि किञ्चिन्निमित्तमस्ति । अनुपलब्धिर्निमित्तमिति चेत्, न; तस्या असम्भवात् । तथाहि-बाधकानुपलब्धिः किं प्रवृत्तेः प्राग्भाविनी बाधकाभावनिश्चयस्य प्रवृत्त्युत्तरकालभाविनो निमित्तम्, अथ प्रवृत्त्युत्तरकालभाविनी इति विकल्पद्वयम्। तत्र यदि पूर्वः पक्षः, सन युक्तः; पूर्वकालाया बाधकानुपलब्धेः प्रवृत्त्युत्तरकालभाविबाधकाभाव.३५ १ "अनुमानम् अनुमितिः, खसाध्यात् स्वविषयीभूतव: उपजायमानत्वाद् एव प्रापणशक्तियुक्तं वह्निव्यवहारनिरूपितसंकेतवद् इति । कस्मात् ? अत आह 'तदुत्पत्ति- इति-तस्य वढेः भेदाभेदरूपतादात्म्यं च, तदुत्पत्तिश्व (तत्) कारणकत्वम्, प्रतिबन्धश्च व्याप्यत्वं च इत्यर्थः-एतेषामन्यतमविषयकलिङ्गनिश्चयबलेन इत्यर्थः, अतः संवादप्रत्ययं नापेक्षत इत्याह 'संवाद'-इति । अतः खत एव वहिव्यवहारकृत् इत्यर्थः । अत्र दृष्टान्तमाह 'तद्यथा' इति । अयमाशयः-प्रत्यक्षं यथा इन्द्रियसनिकर्षवलेन खार्थीभूतरूपादित उत्पद्यते, अतो रूपम् 'रूपम्' इति शब्दप्रयोगनिरूपितशब्दवद् इति" गु.टि.। २ “प्रत्यक्षस्य इत्यर्थः-एतेन प्रत्यक्षस्य अर्थप्रभवत्वम्" गु० टि. । ३ पृ. २५०५। ४पृ.२५०१४। ५पृ.७५०२८१ पृ. ७५०३५। ७ पृ. ७५०३६। बाधक-कारण-गु०। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ प्रामाण्यवादः। निश्चयनिमित्तत्वासम्भवात् , न ह्यन्यकाला अनुपलब्धिरन्यकालमभावनिश्चयं विदधाति अतिप्रसङ्गात् । नापि प्रवृत्त्युत्तरकालभाविनी बाधकानुपलब्धिस्तन्निश्चयनिमित्तम्, प्राक प्रवृत्तेः 'उत्तरकालं बाधकोपलब्धिर्न भविष्यति' इति अर्वाग्दर्शिना निश्चेतुमशक्यत्वेन तस्या असिद्धत्वात् । नापि प्रवृत्त्युत्तरकालभाविन्यनुपलब्धिस्तदैव निश्चीयमाना तत्कालभाविबाधकामावनिश्चयस्य निमित्तं ५भविष्यतीति वक्तं शक्यम्, तत्कालभाविनो निश्चयस्याकिञ्चित्करत्वप्रतिपादनात् । किंच, बाधकानुपलब्धिः सर्वसम्बन्धिनी किं तन्निश्चयहेतुः, उताऽऽत्मसम्बन्धिनी इति पुनरपि पक्षद्वयम् । यदि सर्वसम्बन्धिनीति पक्षः, स न युक्तः तस्या असिद्धत्वात्-न हि 'सर्वे प्रमातारो बाधकं नोपलभन्ते' इति अर्वागदर्शिना निश्चेतुं शक्यम् । अथात्मसम्बन्धिनीत्यभ्युपगमः, सोऽप्ययुक्तः; आत्मसम्बन्धिन्या अनुपलब्धेः परचेतोवृत्तिविशेषैरनैकान्तिकत्वात् । तन्न बाधाऽभावनिश्चयेऽनुपलब्धिर्नि: १०मित्तम् । नाऽपि संवादो निमित्तम्, भवदभ्युपगमेनानवस्थाप्रसङ्गस्य प्रतिपादितत्वात् । न च बाधाऽभावो विशेषः सम्यकप्रत्ययस्य सम्भवति इति प्रागेव प्रतिपादितम् । कारणदोषाभावेऽप्ययमेव न्यायो वक्तव्य इति नासावपि तस्य विशेषः । किंच, कारणदोष-बाधकाभावयोर्भवदभ्युपगमेन कारणगुण-संवादकप्रत्ययरूपत्वस्य प्रतिपादनात् तन्निश्चये तस्य विशेषेऽभ्युपगम्यमाने परतः प्रामाण्यनिश्चयोऽभ्युपगत एव स्यात्, न च सोऽपि युक्तः; अनवस्थादोषस्य भवदभिप्रायेण प्राक् प्रति१५पादितत्वात् । यदप्युक्तम् ‘एवं त्रिचतुरज्ञान'-इत्यादि, तत्रैकस्य ज्ञानस्य प्रामाण्यम् , पुनरप्रामाण्यम्, पुनः प्रामाण्यम् इत्यवस्थात्रयदर्शनादू बाधके, तद्वाधकादौ वाऽवस्थात्रयमाशङ्कमानस्य कथं परीक्षकस्य नापराऽपेक्षा येनानवस्था न स्यात् ? यदप्युक्तम् 'अपेक्षातः' इत्यादि, तदप्यसङ्गतम् ; यतो नायं छलव्यवहारः प्रस्तुतो येन कतिपयप्रत्ययमात्रं निरूप्यते । न हि प्रमाणमन्तरेण बाधकाशङ्कानिवृत्तिः, न चाशङ्काव्यावर्तकं प्रमाणं भवदभिप्रायेण सम्भवतीत्युक्तम् । तथा कारण२० दोषज्ञानेऽपि पूर्वेण जाताशङ्कस्य कारणदोषज्ञानान्तरापेक्षायां कथमनवस्थानिवृत्तिः? कारणदोषज्ञानस्य तत्कारणदोषग्राहकज्ञानाभावमात्रतःप्रमाणत्वाद् नात्रानवस्था। यदाह "यदा स्वतः प्रमाणत्वं तदाऽन्यन्नैव मृग्यते। निवर्तते हि मिथ्यात्वं दोषाज्ञानादयत्नतः" ॥ [श्लो० वा० सू० २, श्लो० ५२] इति, पतच्चानद्धोष्यम: प्रागेव विहितोत्तरत्वात । न च दोषाज्ञानाद दोषाभावः, सत्स्वपि दोषेषु २५ तदज्ञानस्य सम्भवात् । सम्यग्ज्ञानोत्पादनशक्तिवैपरीत्येन मिथ्याप्रत्ययोत्पादनयोग्यं हि रूपं तिमि रादिनिमित्तमिन्द्रियदोषः, स चातीन्द्रियत्वात् सन्नपि नोपलक्ष्यते । न च दोषा ज्ञानेन व्याप्ताः येन तन्निवृत्त्या निवर्तेरन् । दोषाभावज्ञाने तु संवादाद्यपेक्षायां सैवानवस्था प्राकू प्रतिपादिता। पतेनैतदपि निराकृतं यदुक्तं भट्टेन "तस्मात् स्वतः प्रमाणत्वं सर्वत्रौत्सर्गिकं स्थितम् । बाध-कारणदुष्टत्वज्ञानाभ्यां तदपोद्यते ॥[ पराधीनेऽपि चैतस्मिन्नानवस्था प्रसज्यते । प्रमाणाधीनमेतद्धि स्वतस्तश्च प्रतिष्ठितम् ॥ [ प्रमाणं हि प्रमाणेन यथा नान्येन साध्यते । न सिध्यत्यप्रमाणत्वमप्रमाणात् तथैव हि" ॥ [ ] इति । ३५ स्यान्मतम् “यदप्यन्यानपेक्षप्रमितिभावो बाधकप्रत्ययस्तथाऽप्यबाधकतयाँ प्रतीत एवान्यस्यांप्रमाणतामाधातुं क्षमो नान्यथेति, सोऽयमदोषः, यतः १पृ० १७ पं० ३१। २ पृ० १२ पं० २५। ३ पृ० १३ पं०७। ४ पृ. १२ पं० २८ तथा पृ० १० पं० २२। ५ तद्विशेषेऽभ्युपग-भां० । ६ पृ० ८ पं०६। ७ अपेक्षतेत्यादि कां०, गु०, वि०, हा० । अपेक्ष्यतेत्यादि आ०, डे०, भा०, भा०। ८ पृ. ७ पं० ३९ । ९-प्यज्ञानापेक्ष-गु०, भा०, डे० । १० "नास्ति बाधकं यस्मिन् तद् अबाधकम्-तत्ता, तया इत्येवमत्र बहुव्रीहिः" मां० टि.। ११-न्यस्य प्रमाणताकां०, डे० । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे रते ॥ [ ] बाधकप्रत्ययस्तावदान्यत्वावधारणम् । सोऽनपेक्षप्रमाणत्वात् पूर्वज्ञानमपोहते ॥ तत्रापि त्वपवादस्य स्यादपेक्षा क्वचित् पुनः । जाताशङ्कस्य पूर्वेण साऽप्यन्येन निवर्तते ॥॥ बाधकान्तरमुत्पन्नं यद्यस्यान्विच्छतोऽपरम । ततो मध्यमबाधेन पूर्वस्यैव प्रमाणता ॥ [ अथान्यदप्रयत्नेन सम्यगन्वेषणे कृते । मूलाभावान विज्ञानं भवेद् बाधकबाधनम् ॥ [ ततो निरपवादत्वात् तेनैवाद्यं बलीयसा। बाध्यते तेन तस्यैव प्रमाणत्वमपोद्यते ॥ [ एवं परीक्षकज्ञानत्रितयं नातिवर्तते ।। ततश्चाजातबाधेन नाशयं बाधकं पुनः॥ [ ] इति । तथाहि-अनेने सर्वेणापि ग्रन्थेन स्वतःप्रामाण्यव्याहतिः परिहता, परीक्षकज्ञानत्रितयाधिकज्ञानानपेक्षयाऽनवस्था च" एतद् द्वितयमपि परपक्षे प्रदर्शितं प्राक्तनन्यायेन । यच्चान्यत् पूर्वपक्षे परताप्रामाण्ये दूषणमभिहितं तच्चानभ्युपगमेन निरस्तमिति न प्रतिपदमुच्चार्य दूष्यते । [प्रेरणाबुद्धेः प्रामाण्याभावः ] प्रेरणाबुद्धस्तु प्रामाण्यं न साधननिर्भासिप्रत्यक्षस्येव संवादात्, तस्य तस्यामभावात् । नाप्यव्यमिचारिलिङ्गनिश्चयबलात् स्वसाध्यादुपजायमानत्वादनुमानस्येव । किंच, प्रेरणाप्रभवस्य चेतसः प्रामाण्यसिद्ध्यर्थ स्वतःप्रामाण्यप्रसाधनप्रयासोऽयं भवताम्, चोदनाप्रभवस्य च ज्ञानस्य न केवलं प्रामाण्यं न सिध्यति, किंत्वप्रामाण्यनिश्चयोऽपि तव न्यायेन सम्पद्यते । तथाहि-२० यद् दुष्टकारणजनितं ज्ञानं न तत् प्रमाणम्, यथा तिमिराद्युपद्रवोपहतचक्षुरादिप्रभवं ज्ञानम्, दोष वत्प्रेरणावाक्यजनितंच 'अग्निहोत्रं जुहुयात्' इत्यादिवाक्यप्रभवं ज्ञानमिति कारण विरुद्धोपलब्धिः। न चासिद्धो हेतुः, भवदभिप्रायेण प्रेरणायां गुणवतो वक्तुरभावे तहुणैरनिराकृतैर्दोषैर्जन्यमानत्वस्य प्रेरणाप्रभवे ज्ञाने सिद्धत्वात् । अथ स्यादयं दोषो यदि वक्तगुणैरेव प्रामाण्यापवादकदोषाणां निराकरणमभ्युपगम्यते, यावता वक्तुरभावेनापि निराश्रयाणां दोषाणामसद्भावोऽभ्युपगम्यत २५ एव । तदुक्तम् "शब्दे दोषोद्भवस्तावद् वक्त्रधीन इति स्थितम् । तदभावः क्वचित् तावद् गुणवद्वक्तृकत्वतः॥ तहुणैरपकृष्टानां शब्दे संक्रान्त्यसम्भवात् । यद्वा वक्तुरभावेन न स्युर्दोषा निराश्रयाः"॥ [श्लोव्वा०सू०२,६२-६३ श्लो०] इति। ३० भवेदप्येवम् , यद्यपौरुषेयत्वं कुतश्चित् प्रमाणात् सिद्धं स्यात् , तञ्च न सिद्धम् ; तत्प्रतिपादकप्रमाणस्य निषेत्स्यमानत्वात् । अत एव चेदमप्यनुद्धोयम् "तत्रापवादनिर्मुक्तिर्वक्त्रभावाल्लघीयसी।। वेदे तेनाप्रमाणत्वं नाशङ्कामपि गच्छति" ॥ [ श्लो० वा० सू० २, ६८ श्लो॰] । तेन गुणवतो वक्तुरनभ्युपगमाद् भवद्भिः अपौरुषेयत्वस्य चासम्भवाद् अनिराकृतैर्दोषैर्जन्यमानत्वं ३५ हेतुःप्रेरणाप्रभवस्य चेतसः सिद्धः; दोषजन्यत्व-अप्रामाण्ययोरविनाभावस्यापि मिथ्याशानेऽन्यत्र निश्चितत्वात् तद्विरुद्धत्व-अनैकान्तिकत्वयोरप्यभाव इति भवत्यतो हेतोःप्रेरणाप्रभवे ज्ञाने प्रामाण्याभावसिद्धिः। १ चापवादस्य गु०। २ एतेन गु०। ३ "व्याहतं तत् (इति) शब्दार्थः" । ४ "बुद्धरित्यर्थः" । ५ "सुलभा" गु० टि.। ६ प्रन्यायम् ७०० श्लो। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाण्यवाद। [ ज्ञातृव्यापारस्यैवाऽसिद्धिः] किंच, प्रमाणे सिद्ध सति 'किं तत्प्रामाण्यं स्वतः, परतो वा' इति चिन्ता युक्तिमती, भवदभ्युपगमेन तु तदेव न सम्भवति । तथाहि-ज्ञातृव्यापारःप्रमाणं भवताऽभ्युपगम्यते, न चासौ युक्तः तद्राहकप्रमाणाभावात् । तथाहि-प्रत्यक्षं वा तबाहकम् , अनुमानम्, अन्यद्वा प्रमाणा५न्तरम् ? तत्र यदि प्रत्यक्षं तद्राहकमभ्युपगम्येत तदाऽत्रापि वक्तव्यम्-स्वसंवेदनम् , वाह्येन्द्रियजम् , मनःप्रभवं वा ? न तावत् स्वसंवेदनं तद्राहकम्, भवता तबाह्यत्वानभ्युपगमात् तस्य । नापि बाह्येन्द्रियजम्, इन्द्रियाणां स्वसंबद्धेऽर्थे ज्ञानजनकत्वाभ्युपगमात्; न च ज्ञातृव्यापारेण सह तेषां संबन्धः, प्रतिनियतरूपादिविषयत्वात् । नापि मनोजन्यं प्रत्यक्षं ज्ञातृव्यापारलक्षणप्रमाणग्रा. हकम्, तथाप्रतीत्यभावात् अनभ्युपगमाच्च । अथानुमानं तद्राहकमभ्युपगम्यते, तदप्ययुक्तम्। १० यतोऽनुमानमपि "ज्ञातसंवन्धस्यैकदेशदर्शनादसन्निकृष्टेऽथै बुद्धिः" इत्येवंलक्षणमभ्युपगम्यते । संबन्धश्चान्यसंबन्धव्युदासेन नियमलक्षणोऽभ्युपगम्यते । यत उक्तम्- "संवन्धो हि न तादा. त्म्यलक्षणो गम्यगमकभावनिवन्धनम् । ययोर्हि तादात्म्यं न तयोर्गम्यगमकभावः, तस्य भेदनिबन्धनत्वात् : अभेदे वा साधनप्रतिपत्तिकाल एव साध्यस्यापि प्रतिपन्नत्वात् कथं गम्यगमक भावः ? अप्रतिपत्तौ वा यस्मिन् प्रतीयमाने यन्न प्रतीयते तत् ततो भिन्नम्, यथा घटे प्रतीयमा१५ नेऽप्रतीयमानः पटः; न प्रतीयते चेत् साधनप्रतीतिकाले साध्यं तदा तत् ततो मिन्नमिति कथं तयोस्तादात्म्यम् ? किंच, यदि तादात्म्याद् गम्यगमकभावोऽभ्युपगम्यते तदा तादात्म्याऽविशेपाद् यथा प्रयत्नानन्तरीयकत्वमनित्यत्वस्य गमकम्, तथाऽनित्यत्वमपि प्रयत्नानन्तरीयकत्वस्य गमकं स्यात्। अथ प्रयत्नानन्तरीयकत्वमेवानित्यत्वनियतत्वेन निश्चितम्, नानित्यत्वं तन्नियतत्वेन: निश्च. यापेक्षश्च गम्यगमकभाव इति, तर्हि 'यस्मिन्निश्चीयमाने यन्न निश्चीयते' इत्यादि पूर्वोक्तमेव दूषणं २०पुनरापतति । अपि च, प्रयत्नानन्तरीयकत्वमेव अनित्यत्वनियतत्वेन निश्चितमिति वदता स एवा. स्मदभ्युपगतो नियमलक्षणः संबन्धोऽभ्युपगतो भवति । नापि तदुत्पत्तिलक्षणः संबन्धो गम्यगमकभावनिबन्धनम् , तथाऽभ्युपगमे वक्तृत्वादेरप्यसर्वज्ञत्वं प्रति गमकत्वं स्यात् । अथ सर्वज्ञत्वे वक्तत्वादेर्बाधकप्रमाणाभावात् सर्वज्ञत्वादिभ्यो वतृत्वादेावृत्तिः सन्दिग्धेति संदिग्धविपक्षव्यावृत्ति कत्वान्नायं गमकस्तर्हि धूमस्याप्यनग्नौ बाधकप्रमाणाभावात् ततो व्यावृत्तिः सन्दिग्धेति सन्दि२५ग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादग्निं प्रति गमकत्वं न स्यात् । अथ "कार्य धूमो हुतभुजः, कार्यधर्मानुवृत्तितः; स तदभावेऽपि भवन् कार्यमेव न स्यात्" इत्यनग्नौ धूमस्य सद्भावबाधकं प्रमाणं विद्यत इति नासौ सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकस्तर्खेतत् प्रकृतेऽपि वक्तृत्वादौ समानमिति तस्याप्यसर्वशत्वं प्रति गमकत्वं स्यात् । किंच, कार्यत्वे सत्यपि वक्तृत्वादेः सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वेनासर्वज्ञत्वं प्रत्यनियतत्वाद् यद्यगमकत्वं तर्हि स एवास्मदभ्युपगतो नियमलक्षणः संबन्धोऽभ्युपगतो भवति । ३० अपि च, तादात्म्य-तदुत्पत्तिलक्षणसंबन्धाभावेऽपि नियमलक्षणसंबन्धप्रसादात् कृत्तिकोय चन्द्रोद्गमन-अद्यतनसवित्रुद्गम-गृहीताण्डपिपीलिकोत्सर्पण-एकाम्रफलोपलभ्यमानमधुररसस्वरूपाणां हेतूनां यथाक्रमं भाविशकटोदय-समानसमयसमुद्रवृद्धि-श्वस्तनभानूदय-भाविवृष्टि-तत्समानकालसिन्दूरारुणरूपस्वभावेषु साध्येषु गमकत्वं सुप्रसिद्धम् । संयोगादिलक्षणस्तु संबन्धो भवतैव साध्यप्रतिपादनाङ्गत्वेन निरस्त इति तं प्रति न प्रयस्यते । "एवं परोक्तसंबन्धप्रत्याख्याने कृते सति। नियमो नाम संबन्धः स्वमतेनोच्यतेऽधुना ॥ [ ] १प्रामाण्ये गु०, हा०, वि०, आ० । २ अभ्युपगतो न चा-भा०, वा०, वि० । ३ “लिङ्गलिङ्गिसमुदायरूपस्य"। ४ “लिङ्गम्" (एकदेशः) गु० टि। ५ वाक्यं चैतत् शाबरभाष्ये पञ्चमसूत्रव्याख्याने (पृ. ८-पं० ९. का०)। ६ अभ्युपगतो यत भां०, वा०, वि०। ७ अत्र 'संबन्धो हि न तादात्म्यलक्षणः' इत्यत आरभ्य 'न किञ्चिन्नानुमीयते' इत्यादि (पृ. २१५० ४) पर्यन्तं 'यत उक्तम्' अवसेयम् । ८ अत्र "तथाहि" (इति योज्यम् ) गु० टि.। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे-- कार्यकारणभावादिसंबन्धानां द्वयी गतिः। नियमाऽनियमाभ्यां स्यादनियमादतद्गता ॥[ ] सर्वेऽप्यनियमा ह्येते नानुमोत्पत्तिकारणम् ।। नियमात् केवलादेव न किञ्चिन्नानुमीयते" ॥[ ] इत्यादि। स च संबन्धः किमन्वयनिश्चयद्वारेण प्रतीयते, उत व्यतिरेकनिश्चयद्वारेण इति विकल्पद्वयम् । ५ तत्र यदि प्रथमो विकल्पोऽभ्युपगम्यते, तत्रापि वक्तव्यम्-किं प्रत्यक्षेणान्वयनिश्चयः, उतानुमानेन इति? न तावत् प्रत्यक्षेणान्वयनिश्चयः, अन्वयस्य हि रूपम् 'तद्भावे एव भावः', न च ज्ञातृव्यापारस्य प्रमाणत्वेनाभ्युपगतस्य प्रत्यक्षेण सद्भावःशक्यते ग्रहीतुम, तद्वाहकत्वेन प्रत्यक्षस्य पूर्वमेव निषिद्धत्वात् त्वयाऽनभ्युपगमाञ्च । नापि ज्ञातृव्यापारसद्भावे एवार्थप्रकाशनलक्षणस्य हेतोः सद्भावः प्रत्यक्षेण ज्ञातुं शक्यः, तस्यापीन्द्रियव्यापारजेन प्रत्यक्षेण प्रतिपत्तुमशक्तेः तदशक्तिश्च-अक्षाणां तेन १० सह संबन्धाभावात् । नापि स्वसंवेदनलक्षणेन प्रत्यक्षेण पूर्वोक्तस्य हेतोः सद्भावः शक्यो निश्चेतुम् , भवदभिप्रायेण तत्र तस्याव्यापारात्, तन्न प्रत्यक्षेण साध्यसद्भावे एव हेतुसद्भावलक्षणोऽन्वयो निश्चेतुं शक्यः। नाप्यनुमानेन तन्निश्चयः, अनुमानस्य निश्चितान्वयहेतुप्रभवत्वाभ्युपगमात् । न च तस्यान्वयः प्रत्यक्षसमधिगम्यः, पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात् । अनुमानात् तन्निश्चयेऽनवस्थे-तरेतराश्रयदोषावनुषज्येते इति प्रागेव प्रतिपादितम् । न च प्रत्यक्षाऽनुमानव्यतिरिक्तं प्रमाणान्तरं सम्भवति । तन्न अन्व-१५ यनिश्चयद्वारेण ज्ञातृव्यापारे साध्ये पूर्वोक्तस्य हेतोर्नियमलक्षणः संबन्धो निश्चेतुं शक्यः। नापि व्यतिरेकनिश्चयद्वारेण, यतो व्यतिरेकः 'साध्याभावे हेतोरभाव एव' इत्येवंस्वरूपः, न च प्रकृतस्य साध्यस्याभावः प्रत्यक्षेण समधिगम्यः, तस्याभावविषयत्व विरोधात्, अनभ्युपगमात् , अभावप्रमाणवैयर्थ्यप्र. सङ्गाच्च । नाप्यनुमानादिसद्भावग्राहकप्रमाणनिश्चयः, अत एव दोषात् । अथादर्शननिश्चय इति पक्षः, सोऽपि न युक्तः, यतोऽदर्शनं किमनुपलम्भरूपम् , आहोस्विद् अभावप्रमाणस्वरूपम् इति वक्तव्यम् १२० तत्र यद्याद्यः पक्षः, स न युक्तः; यतोऽत्रापि वक्तव्यम्-अनुपलम्भः किं दृश्यानुपलम्भोऽभिप्रेतः, आहोस्विदू अदृश्यानुपलम्भः इति ? तत्र यद्यदृश्यानुपलम्भः प्रकृतसाध्याभावनिश्चायकोऽभिप्रेतः, तदाऽत्रापि कल्पनाद्वयम्-किं स्वसंबन्धी अनुपलम्भस्तन्निश्चायकः, उत सर्वसंबन्धी? यद्यात्मसंबन्धी तन्निश्चायकः, स न युक्तः, परचेतोवृत्तिविशेषैस्तस्यानैकान्तिकत्वात् । अथ सर्वसंबन्धी अनुपलम्भस्तन्निश्चायक इत्यभ्युपगमः, अयमप्ययुक्तः; सर्वसंबन्धिनोऽनुपलम्भस्यासिद्धत्वात् । अथ २५ दृश्यानुपलम्भस्तन्निश्चायक इति पक्षः, सोऽप्यसङ्गतः, यतो दृश्यानुपलम्भश्चतुर्धा व्यवस्थितः-स्वभावानुपलम्भः, कारणानुपलम्भः, व्यापकानुपलम्भः, विरुद्ध विधिश्चेति । तत्र यदि स्वभावानुपलम्भस्तन्निश्वायकत्वेनाभिमतः, स न युक्तः; स्वभावानुपलम्भस्यैवंविधे विषये व्यापारासंभवात् । तथाहि-एकज्ञानसंसर्गिणस्तुल्ययोग्यतास्वरूपस्य भावान्तरस्याभावव्यवहारसाधकत्वेन पर्युदासवृत्त्या तदन्यज्ञानस्वभावोऽसावभ्युपगम्यते न च प्रकृतस्य साध्यस्य केनचित् सहैकज्ञानसंसर्गित्वं संभव-३० तीति नात्र स्वभावानुपलम्भस्य व्यापारः। नापि कारणानुपलम्भः प्रकृतसाध्याभावनिश्चायकः, यतः सिद्धे कार्यकारणभावे कारणानुपलम्भः कार्याभावनिश्चायकत्वेन प्रवर्तते; न च प्रकृतस्य साध्यस्य केनचित् सह कार्यत्वं निश्चितम्, तस्यादृश्यत्वेन प्रागेव प्रतिपादनात्। 'प्रत्यक्षाऽनुपलम्भनिबन्धनश्च कार्यकारणभावः' इति कारणानुपलम्भोऽपि न तन्निश्चायकः । व्यापकानुपलम्भस्तु सिद्ध व्याप्यव्यापकभावे व्याप्याभावसाधकोऽभ्युपगम्यते । न च प्रकृतसाध्यव्यापकत्वेन कश्चित् पदार्थो ३५ निश्चेतुं शक्यः, प्रकृतसाध्यस्यादृश्यत्वप्रतिपादनात् तन्न व्यापकानुपलम्भोऽपि तन्निश्चायकः। विरुद्धोपलब्धिरप्यत्र विषये न प्रवर्तते । तथाहि-एको विरोधोऽविकलकारणस्य भवतोऽन्यभावेऽ. भावात् सहानवस्थानलक्षणो निश्चीयते शीतो-णयोरिव विशिष्टात् प्रत्यक्षात् । न च प्रकृतं साध्य. मविकलकारणं कस्यचिद् भावे निवर्तमानमुपलभ्यते तस्यादृश्यत्वादेव । द्वितीयस्तु परस्परपरिहार १ पृ. २० ५० ५। २ तस्यान्वयनिश्चयः प्रत्य- भा०, कां। ३ प्र० पृ. पं० । ४ पृ. २ पं० ३२-३४ । ५ पृ० २० पं० ५। ६ “अनेन हि सिद्धावस्थाऽभिहिता, तेन साध्यावस्थायां विरोधो न संभवति इति सूचितम् । एतेन कारणस्यैव विरोधः प्रदर्शित इति न भ्रमितव्यम्" गु.टि.। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ प्रामाण्यवादः । स्थितिलक्षणः सोऽपि लक्षणस्य स्वरूपव्यवस्थापकधर्मरूपस्य दृश्यत्वाभ्युपगमनिष्ठो दृश्यत्वाभ्युपगमनिमित्तप्रमाणनिबन्धनो न प्रकृतसाध्यविषये संभवति, तन्न ततोऽपि प्रस्तुतसिद्धिः । तन्न साध्यस्याभावनिश्चयोऽनुपलम्भनिबन्धनः । साधनाभावनिश्चयोऽपि नादृश्यानुपलम्भनिमित्तः, उक्तदोषत्वत्; दृश्यानुपलम्भनिमित्तत्वेऽपि न स्वभावानुपलम्भस्तन्निमित्तम्, उद्दिष्टविषयाभावव्यव५हारसाधकत्वेन तस्य व्यापाराभ्युपगमात् । अनुद्दिष्टविषयत्वेऽपि 'यत्र यत्र साध्याभावस्तत्र तत्र साधनाभावः' इत्येवं न ततः साधनाभावनिश्चयः तन्निश्चयश्च नियमनिश्चय हेतुरिति न स्वभावानु पलम्भोऽपि तन्नियमहेतुः । नापि कारणानुपलम्भः, यतः कारणं ज्ञातृव्यापार एवार्थप्रकटतालक्षस्य हेतोर्भवताऽभ्युपगम्यते, न चासौ प्रत्यक्षसमधिगम्य इति कुतस्तस्य सम्प्रति ( तं प्रति ) कारत्वावगमः ? इति न कारणानुपलम्भोऽपि तदभावनिश्चयहेतुः । व्यापकानुपलम्भेऽप्ययमेव न्यायः, १० यतो व्यापकत्वमपि पूर्वोक्तहेतुं प्रति ज्ञातृव्यापारस्यैवाभ्युपगन्तव्यम्; अन्यथाऽन्यस्य व्यापकत्वे साध्यविपक्षाद् व्यापक निवृत्तिद्वारेण निवर्तमानमपि साधनं न साध्यनियतं स्यात् । अथ यथा सवलक्षणो हेतुः क्षणिकत्वलक्षण साध्यव्यतिरिक्तक्रम - यौगपद्य स्वरूपपदार्थान्तरव्यापक निवृत्तिद्वारेणाऽक्षणिकलक्षणाद् विपक्षाद् व्यावर्त्तमानः स्वसाध्यनियतस्तथा प्रकृतोऽपि हेतुर्भविष्यति, असम्यगेतत् यतस्तत्रापि यद्यर्थक्रियालक्षणसत्त्वव्यापके क्रम- यौगपद्ये कुतश्चित् प्रमाणात् क्षणिके १५ सिद्धे भवतस्तदा तन्निवृत्तिद्वारेण विपक्षाद् व्यावर्त्तमानोऽपि सत्त्वलक्षणो हेतुः स्वसाध्य नियतः स्यात्, अन्यथा तंत्र व्यापकवृत्त्यनिश्चये राश्यन्तरे क्षणिकाऽक्षणिकरूपे तस्याशयमानत्वेन तद्यायस्यापि नैकान्ततः क्षणिकनियतत्वनिश्चयः । न च प्रकृतसाध्येऽयं न्यायः, तस्यात्यन्तपरोक्षत्वेन हेतुव्यापकभावान्तराधिकरणत्वासिद्धेः; तन्न व्यापकानुपलम्भनिमित्तोऽपि विपक्षे साधनाभावनिचयः । नापि विरुद्धोपलब्धिनिमित्तः प्रकृतसाध्यस्यात्यन्तपरोक्षत्वेन तदप्रतिपत्तौ तदभावनियत२० विपक्षस्याप्यप्रतिपत्तितस्तेन सहार्थप्रकाशनलक्षणस्य हेतोः सहानवस्थानलक्षण विरोधासिद्धेः । परस्परपरिहारस्थितलक्षणस्तु विरोधोऽन्योन्यव्यवच्छेद रुपयोरर्थप्रकाशना ऽप्रकाशनयोः सम्भवति, न पुनरर्थप्रकाशन - अज्ञातृव्यापारयोः, अन्योन्यव्यवच्छेदरूपत्वाभावात् । नापि ज्ञातृव्यापारनियतत्वादर्थप्रकाशनस्य साध्यविपक्षेण विरोध इति शक्यमभिधातुम्, अन्योन्याश्रयदोषप्रसक्तेः । तथाहि-सिद्धे तनियतत्वे तद्विपक्षविरोधसिद्धिः, तत्सिद्धेश्च तन्नियतत्व सिद्धिरिति स्पष्ट एवेतरेतराश्रयो २५ दोषः । तन्न विरुद्धोपलब्धिनिमित्तोऽपि विपक्षे साधनाभावनिश्चयः । अथादर्शनशब्देन अभावाख्यं प्रमाणं व्यतिरेकनिश्चयनिमित्तमभिधीयते, तदप्यनुपपन्नम् तस्य तन्निमित्तत्वासम्भवात् । तथाहिनिषेध्यविषयप्रमाणपञ्चक स्वरूप तयाऽऽत्मनोऽपरिणामरूपं वा तदभ्युपगम्येत, तदन्यवस्तुविषयज्ञानरूपं वा गत्यन्तराभावात् ? तदुक्तम् - "प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः प्रमाणाभाव उच्यते । ३० साऽऽत्मनोऽपरिणामो वा विज्ञानं वाऽन्यवस्तु नि” ॥ [श्लो०वा०सू०५, अभावप०श्लो० ११] तत्र यदि 'निषेध्यविषयप्रमाणपञ्चकरूपत्वेनात्मनोऽपरिणामलक्षणमभावाख्यप्रमाणं साधनाभाव नियतसाध्याभावस्वरूपव्यतिरेकनिश्चयनिमित्तम्' इत्यभ्युपगमः, स न युक्तः तस्य समुद्रोदर्केपल पैरिमानानैकान्तिकत्वात् । अथान्यवस्तुविषयविज्ञानस्वरूपमभावाख्यं प्रमाणं व्यतिरेकनिश्चयनिमित्तमिति पक्षः, सोऽपि न युक्तः विकल्पानुपपत्तेः । तथाहि किं तत् साध्य नियतसाधनस्वरूपादन्यद् ३५ वस्तु, यद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञानमित्युच्यते ? यदि यथोक्तसाधनस्वरूपव्यतिरिक्तं पदार्थान्तरं तदा वक्तव्यम्-तद् एकशानसंसर्गि साधनेन सह, उतान्यथा इति ? यदि यथोक्तसाधनेनैकज्ञानसंसर्गि तदा तद्विपर्यंज्ञानात् सिध्यति यथोक्तसाधनस्याभावनिश्चयः प्रतिनियतविषयः, किन्तु 'यत्र यत्र साध्याभावस्तत्र तत्रावश्यंतया साधनस्याप्यभावः' इत्येवंभूतो व्यतिरेकनिश्चयो न ततः सिध्यति ; सर्वोपसंहारेण साधनाभावनियतसाध्याभावनिश्चयश्च हेतोः साध्यनियतत्वलक्षण नियम निश्चायक इति नैक १ पृ० २१ पं० २२ । २ अन्यथा तद्वयापकवृत्त्य - गु० । ३ प्रन्थाप्रम् - श्लो० ८०० ४ 'समुद्रोदकं कति पलानि' ? इत्येवं समुद्रोदकपलपरिमाणेन । ५ समुद्रोदकपरिणामेन - डे० । ६ " एकसंबन्धिज्ञानमपरसंबविधस्मारकम् ” ( इति नियमेन ) गु० टि० । ७- 'निश्चयस्य हेतोः' वा०, बा० विना सर्वत्र । - निश्चयहेतोः अ० Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे २३ शानसंसर्गिपदार्थान्तरोपलम्भादभावाख्यात् प्रमाणात् व्यतिरेकनिश्चयः। अथ तदसंसर्गिपदार्थान्तरोपलम्भस्वरूपमभावाख्यं प्रमाणं साध्याभावे साधनाभाव निश्चयनिमित्तम्, तदप्यसम्बद्धम् । अतिप्रसङ्गात्-न हि पदार्थान्तरोपलम्भमात्रादन्यस्य तदतुल्ययोग्यतारूपस्य तेन सहैकज्ञानासंसर्गिणः पदार्थान्तरस्याभावनिश्चयः, अन्यथा सह्योपलम्भादू विन्ध्याभावनिश्चयः स्यात् । अथ तथाभूतसाधनादन्यस्तदभावः, तविषयं ज्ञानं तदन्यज्ञानम्, तद् विपक्षे साधनाभावनिश्चयनिमित्तम्। ननु तदपि ५ ज्ञानं किं 'यत्र यत्र साध्याभावस्तत्र तत्र साधनाभावः' इत्येवं प्रवर्त्तते, उत 'क्वचिदेव साध्याभावे साधनाभावः' इत्येवम् ? तत्र यद्याद्यःकल्पः, सन युक्ता यथोक्तसाधनविविक्तसर्वप्रदेश-कालप्रत्यक्षीकरणमन्तरेण एवंभूतज्ञानोत्पत्त्यसम्भवात् । सर्वदेशप्रत्यक्षीकरणे च कालादिविप्रकृष्टानन्तप्रदेशप्रत्यक्षीकरणवत् स्वभावादिव्यवहितसर्वपदार्थसाक्षात्करणात् स एव सर्वदर्शी स्यादित्यनुमानाश्रयणं सर्वज्ञाभावप्रसाधनं चानुपपन्नम्। अथ द्वितीयपक्षाभ्युपगमः, तदा भवति ततः प्रतिनियते १० प्रदेशे साध्याभावे साधनाभावनिश्चयः-घटविविक्तप्रत्यक्षप्रदेश इव घटाभावनिश्चयः-किंतु तथाभूतात् साध्याभावे साधनाभावनिश्चयान्न व्यतिरेको निश्चितो भवति । साधनाभावनियतसाध्याभावस्य सर्वोपसंहारेण निश्चये व्यतिरेको निश्चितो भवति; अन्यथा-यत्रैव साध्याभावे साधनाभावो न भवति तत्रैव साधनसद्भावेऽपि न साध्यमिति-न साधनं साध्यनियतं स्यादिति व्यतिरेकनिश्चयनिमित्तो न हेतोः साध्यनियमनिश्चयः स्यात् तन्न द्वितीयोऽपि पक्षः। अथ न प्रकृतसाधनाभा-१५ वज्ञानं तद्विविक्तसमस्तप्रदेशोपलम्भनिमित्तम्-येन पूर्वोक्तो दोषः-किन्तु तद्विषयप्रमाणपञ्चकनिवृत्तिनिमित्तम् । तदुक्तम् "प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते । वस्तुसत्तावबोधार्थ तत्राभावप्रमाणता" ॥ [श्लो० वा० सू०५, अभावप० श्लो०१] नन्वत्रापि वक्तव्यम्-किं सर्वदेश-कालावस्थितसमस्तप्रमातृसंवन्धिनी तन्निवृत्तिस्तथाभूतसाधना-२० भावज्ञाननिमित्तम्, उत प्रतिनियतदेश-कालावस्थितात्मसम्बन्धिनी इति कल्पनाद्वयम् । तत्र यद्याद्या कल्पना, सा न युक्ता; तथाभूतायास्तन्निवृत्तरसिद्धत्वात् । न चासिद्धाऽपि तथाभूतज्ञाननि. मित्तम् , अतिप्रसङ्गात्-सर्वस्यापि तथाभूतज्ञाननिमित्तं स्यात् केनचित् सह प्रत्यासत्ति-विन. कर्णाभावात्; अनभ्युपगमाच्च-नहि परेणापि प्रमाणपश्चकनिवृत्तेरसिद्धाया अभावज्ञाननिमित्तताऽभ्युपगता, कृतयत्नस्यैव प्रमाणपञ्चकनिवृत्तेरभावसाधनत्वप्रतिपादनात् “गत्वा गत्वा तु तान् देशान् यद्यर्थी नोपलभ्यते। तदाऽन्यकारणाभावादसन्नित्यवगम्यते" ॥ [श्लो० वा० सू०५, अर्था०प० श्लो० ३८] इत्यभिधानात् । न चेन्द्रियादिवदशाताऽपि प्रमाणपञ्चकनिवृत्तिरभावशानं जनयिष्यतीति शक्यमभिधातुम् , प्रमाणपञ्चकनिवृत्तेस्तुच्छरूपत्वात् । न च तुच्छरूपाया जनकत्वम्, भावरूपताप्रसक्तेः-एवंलक्षणस्य भाव.३० त्वात् तन्न सर्वसंबन्धिनी प्रमाणपञ्चकनिवृत्तिर्विपक्षे साधनाभावनिश्चयनिबन्धनम् । नाप्यात्मसंबधिनी तन्निमित्तम्, यतः साऽपि किं तादात्विकी, अतीताऽनागतकालभवा वा ? न पूर्वा, तस्या गङ्गापुलिनरेणुपरिसंख्यानेनानैकान्तिकत्वात् । नोत्तरा, तादात्विकस्यात्मनस्तन्निवृत्तेरसंभवात् असिद्धत्वाञ्च; तन्न आत्मसंबन्धिन्यपि प्रमाणपञ्चकनिवृत्तिस्तज्ज्ञानोत्पत्तिनिमित्तम्। तन्न अन्यवस्तुविज्ञानलक्षणमप्यभावाख्यं प्रमाणं व्यतिरेकनिश्चयनिमित्तम् । ३५ [प्रसङ्गवशाद् अभावप्रमाणनिरसनम् ] यश्च "गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिताशानं जायतेऽक्षानपेक्षया"॥ [श्लोव्वा सू०५, अभावप०श्लो०२७] १-भ्युपगम्यते गु० Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्रामाण्यवादः। इत्यभावप्रमाणोत्पत्तौ निमित्तप्रतिपादनम्, तत्र किं वस्त्वन्तरस्य प्रतियोगिसंसृष्टस्य ग्रहणम् , आहोस्विदू असंसृष्टस्य ? तत्र यद्याद्यः पक्षा, सन युक्तः प्रतियोगिसंसृष्टवस्त्वन्तरस्य प्रत्यक्षेण ग्रहणे प्रतियोगिनः प्रत्यक्षेण वस्त्वन्तरे ग्रहणादू नाभावाख्यप्रमाणस्य तत्र तदभाव ग्राहकत्वेन प्रवृत्तिः प्रवृत्तौ वा प्रतियोगिसत्त्वेऽपि तदभावग्राहकत्वेन प्रवृत्तेर्विपर्यस्तत्त्वान्न प्रामाण्यम् । अथ ५प्रतियोग्यसंसृष्टवस्त्वन्तरग्रहणं तदा प्रत्यक्षेणैव प्रतियोग्यभावस्य गृहीतत्वात् तत्राभावाख्यं प्रमाणं प्रवर्त्तमानं व्यर्थम् । अथ प्रतियोग्यसंसृष्टताऽवगमो वस्त्वन्तरस्याभावप्रमाणसंपाद्यस्तर्हि तदप्यभावाख्यं प्रमाणं प्रतियोग्यसंसृष्टवस्त्वन्तरग्रहणे सति प्रवर्तते, तदसंसृष्टतावगमश्च पुनरप्यभावप्रमाणसंपाद्य इत्यनवस्था । तथा, प्रतियोगिनोऽपि स्मरणं किं वस्त्वन्तरसंसृष्टस्य, अथासंसृष्टस्य ? यदि संसृष्टस्य तदा नाभावप्रमाणप्रवृत्तिरिति पूर्ववद्वाच्यम् । अथासंसृष्टस्य स्मरणम् , ननु प्रत्यक्षेण १० वस्त्वन्तरासंसृष्टस्य प्रतियोगिनो ग्रहणे तथाभूतस्य तस्य स्मरणं नान्यथा; प्रत्यक्षेण च पूर्वप्रवृत्तेन वस्त्वन्तरासंसृष्टप्रतियोगिग्रहणे पुनरप्यभावप्रमाणपरिकल्पनं व्यर्थम् ___ "वस्त्वसंकरसिद्धिश्च तत्प्रामाण्यसमाश्रया" ॥ [श्लो० वा० सू० ५, अभावप० श्लो० २] इत्यभिधानात् तदर्थ तस्य परिकल्पनम् , तच्च प्रत्यक्षेणैव कृतमिति तस्य व्यर्थता। अथात्राप्यभावप्रमाण संपाद्यःप्रतियोगिनो वस्त्वन्तरासंसृष्टताग्रहस्तर्हि तथाभूतप्रतियोगिग्रहणे तथाभूतस्य तस्य स्मरणम्, १५ तत्सद्भावे चाभावप्रमाणप्रवृत्तिः, तत्प्रवृत्तौ च तस्यासंसृष्टताग्रहः, तहे च स्मरणमित्येवं चक्रकचोयं भवन्तमनुबध्नाति। नापि वस्तुमात्रस्य प्रत्यक्षेण ग्रहणमित्यभिधातुं शक्यम् , तथाऽभ्युपगमे तैस्य वस्त्व. न्तरत्वासिद्धेःप्रतियोगिनोऽपि प्रतियोगित्वस्य, इति न प्रतियोगिनो नियतरूपस्य स्मरणमिति सुतरामभावप्रमाणोत्पत्यभावः। किंच, यदि अभावाख्यं प्रमाणमभावग्राहकमभ्युपगम्यते तदा तमेवे प्रतिपाद यतु, प्रतियोगिनस्तु निवृत्तिः कथं तेन प्रतिपादिता स्यात् ? अथाभावप्रतिपत्तौ तन्निवृत्तिप्रतिपत्तिः; २० ननु साऽपि निवृत्तिः प्रतियोगिस्वरूपासंस्पर्शिनी, ततश्च तत्प्रतिपत्तौ पुनरपि कथं प्रतियोगिनिवृ. त्तिसिद्धिः? तन्निवृत्तिसिद्धेरपरतन्निवृत्तिसिद्ध्यभ्युपगमे अपरा तन्निवृत्तिस्तथाऽभ्युपगमनीयेत्यनवस्था । किंच, अभावप्रतिपत्तौ प्रतियोगिस्वरूपं किमनुवर्त्तते, व्यावर्त्तते वा ? अनुवृत्तौ कथं प्रतियोगिनोऽभावः? व्यावृत्तौ कथं प्रतिषेधः प्रतिपादयितं शक्यः? तद्विविक्तप्रतिपत्तेस्तत्प्रतिषेध इति चेत्, न तदप्रतिभासने तद्विविक्तताया एव प्रतिपत्तुमशक्तेः । प्रतियोगिप्रतिभासाद् नायं दोष इति २५चेत्, कतर्हि विज्ञाने तस्य प्रतिभासः? यदि प्रत्यक्षे, न युक्तः तत्सद्भावसिद्धया तन्निवृत्त्यसिद्धेः। स्मरणे तस्य प्रतिभास इति चेत्, नः तत्रापि येन रूपेण प्रतिभाति न तेनाभावः, येन न प्रतिभाति न तेन निषेधः, तदेवं यदि प्रतियोगिस्वरूपादन्योऽभावस्तथापि तत्प्रतिपत्तौ न तन्निवृत्तिसिद्धिः। अनन्यत्वेऽपि तत्प्रतिपत्तो प्रतियोगिनः प्रतिपन्नत्वादन निषेधः। अपि च, तद अभावाख्यं प्रमाणं निश्चितं सत् प्रकृताभावनिश्चयनिमित्तत्वेनाभ्युपगम्यते, आहोस्विद् अनिश्चितम् इति विकल्पद्व३० यम् । यद्यनिश्चितमिति पक्षा, सन युक्तः; स्वयमव्यवस्थितस्य खरविषाणादेरिव अन्यनिश्चायकत्वायोगात् । इन्द्रियादेस्त्वनिश्चितस्यापि रूपादिज्ञानं प्रति कारणत्वान्निश्चायकत्वं युक्तम्, न पुनरभा. वप्रमाणस्य, तस्यापरज्ञानं प्रति कारणत्वासम्भवात् । तदसम्भवश्व-प्रमाणाभावात्मकत्वेनावस्तुत्वात्। वस्तुत्वेऽपि तस्यैव प्रमेयाभावनिश्चयरूपत्वेनाभ्युपगमाहत्वात् । नापि द्वितीयः पक्षः, यत स्तन्निश्चयोऽन्यस्मादभावाख्यात् प्रमाणादभ्युपगम्येत, प्रमेयाभावाद् वा? तत्र यदि प्रथमपक्षा, स ३५न युक्तः, अनवस्थाप्रसङ्गात् । तथाहि-अभावप्रमाणस्याभावप्रमाणानिश्चितस्याभावनिश्चायकत्वम्, तस्याप्यन्याभावप्रमाणादू इत्यनवस्था। अथ प्रमेयाभावात् तन्निश्चयः, सोऽपि न युक्तः, इतरेतराश्र. यदोषप्रसङ्गात्। तथाहि-प्रमेयाभावनिश्चयात् प्रमाणाभावनिश्चयः, सोऽपि प्रमाणाभावनिश्चयाद् इति इतरेतराश्रयत्वम् । नापि स्वसंवेदनात् प्रमाणाभावनिश्चयः, तस्य भवताऽनभ्युपगमात् तन्न अभावाख्यं प्रमाणं सम्भवति । सम्भवेऽपि न तत् प्रमाणचिन्ताह मिति प्रतिपादितम्, प्रतिपादयि १ "प्रतियोगिशब्देन संसृष्टत्वम् "गु० टि०। २ तथाभूतस्य स्मरणम् कां०, हा०, आ०, अ० । ३ तस्य वस्त्वन्तरत्वासिद्धो (द्धौ)न प्रतियोगिनो नियतरूपस्य सर-डे० । ४ अत्र 'असिद्धेः' इति अध्याहार्यम् । ५ अभावमेव । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे । २५ प्यते च प्रमाणचिन्ताऽवसरे अत्रैव; तन्नाभावप्रमाणादपि विपक्षे साधनाभावनिश्चयः, अतो न अदर्शननिमित्तोऽपि प्रकृतव्यतिरेकनिश्चयः, तभावाद् न प्रकृतसाध्ये प्रकृतहेतोर्नियमलक्षणसंबन्धनिश्चयः। न चान्वय-व्यतिरेकनिश्चयव्यतिरेकेणान्यतः कुतश्चित् तन्निश्चयः, नियमलक्षणस्य संबन्धस्य यथोक्तान्वय-व्यतिरेकव्यतिरेकेणासम्भवात् । तथाहि-य एव साधनस्य साध्यसद्भावे पव भावः ५ अयमेव तस्य साध्ये नियमः, साध्याभावे साधनस्यावश्यतयाऽभाव एव यः अयमेव वा तस्य तत्र नियमः। अतो यदेवान्वय-व्यतिरेकयोर्यथोक्तलक्षणयोर्निश्चायकं प्रमाणं तदेव नियमस्वरूपसम्बन्धनिश्चायकम् , तन्निश्चायकं च प्रकृतसाध्यसाधने हेतोर्न सम्भवतीति प्रतिपादितम् तन्नानुमानादपि ज्ञातृव्यापारलक्षणप्रमाणसिद्धिः। अथापि स्यात् बाह्येषु कारकेषु व्यापारवत्सु फलं दृष्टम् अन्यथा सिद्धस्वभावानां कारकाणामेकं १० धात्वर्थ साध्यमनङ्गीकृत्य कः परस्परं सम्बन्धः-अतस्तदन्तरालवर्तिनी सकलकारकनिष्पाद्याs. भिमतफलजनिका व्यापारस्वरूपा क्रियाऽभ्युपगन्तव्या इति प्रकृतेऽपि व्यापारसिद्धिरिति, एतदसम्बद्धम् ; विकल्पानुपपत्तेः । तथाहि-व्यापारोऽभ्युपगम्यमानः किं कारकजन्योऽभ्युपगम्यते, आहोस्विदू अजन्यः इति विकल्पद्वयम् । तत्र यद्यजन्य इति पक्षः, सोऽयुक्तः, यतोऽजन्योऽपि किं भावरूपोऽभ्युपगम्यते, आहोस्विद् अभावरूपः? यद्यभावरूप इत्यभ्युपगमः, सोऽप्ययुक्तः, यतोऽ-१५ भावरूपत्वे तस्यार्थप्रकाशलक्षणफलजनकत्वं न स्यात्, तस्य फलजनकत्व विरोधात्; अविरोधे वा फलार्थिनः कारकान्वेषणं व्यर्थ स्यात्, तत एवाभिमतफलनिष्पत्तेर्विश्वमदरिद्रं च स्यात् । तन्नाभावरूपो व्यापारोऽभ्युपगन्तव्यः। अथ भावरूपोऽभ्युपगमविषयः, तदाऽत्रापि वक्तव्यम्-किमसौ नित्यः, आहोस्विद् अनित्यः इति? तत्र यदि नित्य इति पक्षः, सोऽसङ्गतः; नित्यभावरूपव्यापाराभ्युपगमेऽन्धादीनामप्यर्थदर्शनप्रसङ्गः, सुप्ताद्यभावः, सर्वसर्वज्ञताभावप्रसङ्गश्च; कारकान्वेषणवैयर्थ्य तु २० व्यक्तम् । अथानित्य इत्यभ्युपगमः, सोऽयलौकिकः; अजन्यस्य भावस्यानित्यत्वेन केनचिदनभ्युपगमात् । अथ वदेत्-मयैवाभ्युपगतः, तत्रापि वक्तव्यम्-किं कालान्तरस्थायी, उत क्षणिकः? यदि कालान्तरस्थायी, तदा "क्षणिका हि सा न कालान्तरमवतिष्ठते" [ ] इति वचः परिप्लवेत । कारकान्वेषणं चात्रापि पक्षे फलार्थिनामसङ्गतम्, कियत्कालस्थाय्यजन्यभावरूपव्यापाराभ्युपगमे तत्कालं यावत् तत्फलस्यापि निष्पत्तेः आव्यापारविनाशमर्थप्रकाशलक्षणकार्य-२५ सद्भावादन्यत्व-मू दीनामभावः स्यात् । अथ क्षणिक इति पक्षः, सोऽपि न युक्तः, क्षणानन्तरं व्यापारासत्त्वेनार्थप्रतिभासाभावाद् अपगतार्थप्रतिभासं सर्व जगत् स्यात् । अथ स्वत एव द्वितीयादिक्षणेषु व्यापारोत्पत्तेर्नायं दोषः, अजन्यत्वं तु तस्यापरकारकजन्यत्वाभावेन, नैतदस्ति; कारकाsनायत्तस्य देश-काल-स्वरूपप्रतिनियमाभावस्वभावतायाः प्रतिपादनात्। किंच, अनवरतक्षणिकाsजन्यव्यापाराभ्युपगमे तजन्यार्थप्रतिभासस्यापि तथैव भावात् सुप्ताद्यभावदोषस्तदवस्थः; तन्नाजन्य-३० व्यापाराभ्युपगमः श्रेयान् । अथ जन्यो व्यापारः इति पक्षः कक्षीक्रियते, तदाऽत्रापि विकल्पद्वयम्किमसौ जन्यो व्यापारः क्रियाऽऽत्मकः, उत तदनात्मकः इति? तत्र यदि प्रथमः पक्षः, सन युक्तः, अत्रापि विकल्पद्वयानतिवृत्तेः । तथाहि-साऽपि क्रिया किं स्पन्दात्मिका, उत अस्पन्दात्मिका? यदि स्पन्दात्मिका तदाऽऽत्मनो निश्चलत्वादन्येषां कारकाणां व्यापारसद्भावेऽपि व्यापारो न स्यात्। यदर्थोऽयं प्रयासस्तदेव त्यक्तं भवतवमभ्युपगच्छता । अथापरिस्पन्दात्मिका क्रिया व्यापारस्वभावा, ना तथाभूतायाः परिस्पन्दाभावरूपतया फलजनकत्वायोगात् अभावस्य जनकत्वविरोधात् । न च क्रिया कारण-फलाऽपान्तरालवर्तिनी परिस्पन्दस्वभावा तद्विपरीतस्वभावा वा प्रमाणगोचरचारिणी इति न तस्याः सद्यवहारविषयत्वमभ्युपगन्तुं युक्तमिति न क्रियाऽऽत्मको व्यापारः। नापि तदनात्मको व्यापारोऽङ्गीकर्त युक्तः, तत्रापि विकल्पद्वयप्रवृत्तेः। तथाहि-किमसावक्रियाऽऽत्मको व्यापारो बोधस्वरूपः, अबोधस्वभावो वा? यदि बोधस्वरूपः, प्रमातृवन्न ४० प्रमाणान्तरगम्यताऽभ्युपगन्तुं युक्ता । अथाबोधस्वभावः, नायमपि पक्षा, बोधात्मकज्ञातृव्यापारस्याबोधात्मकत्वासम्भवात्-न हि चिद्रूपस्याचिद्रूपो व्यापारी युक्तः–'जानाति' इति च ज्ञातृव्यापारस्य बोधात्मकस्यैवाभिधानात् तन्न अबोधस्वभावोऽपि व्यापारः। किंच, असौ ज्ञातृव्यापारो धर्मि१ अयं च विकल्पः पृ. २० दशमपङ्कित भारम्धः। २ पृ. १. पं० २। स० त०४ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे स्वभावः, उत धर्मस्वभावः इति पुनरपि कल्पनाद्वयम् । धर्मिस्वरूपत्वे ज्ञातृवन्न प्रमाणान्तरगम्यत्वमित्युक्तम् । धर्मस्वभावत्वेऽपि धर्मिणो ज्ञातुर्व्यतिरिक्तो व्यापारः, अव्यतिरिक्तः, उभयम्, अनुसयं चेति चत्वारो विकल्पाः । न तावद्यतिरिक्तः, तत्त्वे संबन्धाभावेन 'ज्ञातुर्व्यापारः' इति व्यपदेशायोगात् । अव्यतिरेके ज्ञातैव, तत्स्वरूपवद् नापरो व्यापारः। उभयपक्षस्तु विरोधमपरिहृत्य ५नाभ्युपगमनीयः । अनुभयपक्षस्तु अन्योऽन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकविधानेनापरनिषेधादयक्त इति प्रतिपादितम् । किंच, व्यापारस्य कारकजन्यत्वाभ्युपगमे तजनने प्रवर्तमानानि कारकाणि किर अपरव्यापारभाञ्जि प्रवर्तन्ते, उत तन्निरपेक्षाणि इति विकल्पद्वयम् । यद्याद्यो विकला, तदा तद्यापारजननेऽपि तैरपरव्यापारभाग्भिः प्रवर्तितव्यम्, तज्जननेऽप्यपरव्यापारयुग्निः प्रवर्तितव्यमित्यनवस्थितेनं फल जननव्यापारोद्भूतिरिति तत्फलस्याप्यनुत्पत्तिप्रसङ्गाद् न व्यापारपरिकल्पनं १०श्रेयः । अथ अपरव्यापारमन्तरेणापि फलजनकव्यापारजनने प्रवर्तन्ते इति नायं दोषः, तर्हि प्रकृतव्यापारमन्तरेणापि फलजनने प्रवर्तिष्यत इति किमनुपलभ्यमानव्यापारकलानप्रयासेन? किंच, असौ व्यापारः फलजनने प्रवर्त्तमानः किमपरव्यापारसव्यपेक्षः, अथ निरपेक्षः इत्यत्रापि कल्पनाद्वयम् । तत्र यद्याद्या कल्पना, सान युक्ता; अपरापरव्यापारजननक्षीणशक्तित्वेन व्यापार स्यापि फलजनकत्वायोगात् । अथ व्यापारान्तरानपेक्ष एव फलजनने प्रवर्तते, तर्हि कारकाणामपि १५व्यापारनिरपेक्षाणां फलजनने प्रवृत्तौ न कश्चिच्छक्तिव्याघातः सम्भाव्यते । अथ व्यापारस्य व्यापारस्वरूपत्वान्नापरव्यापारापेक्षा,कारकाणांत्वव्यापाररूपत्वात् तदपेक्षा का पुनरियं व्यापारस्य व्यापारस्वभावता? यदि फलजनकत्वम्, तद् विहितप्रतिक्रियम् । अथ कारकाश्रितत्वम्, तदपि भिन्नस्य तजन्यत्वं विहाय न सम्भवतीत्युक्तम् । अथ कारकपरतन्त्रत्वम्, तदपि न; अनुत्पन्नस्या सत्त्वात् , नाप्युत्पन्नस्य, अन्यानपेक्षत्वात्; तथापि तत्परतन्त्रत्वे कारकाणामपि व्यापारपरतन्त्रता २० स्यात् । अथैवं पर्यनुयोगः सर्घभावप्रतिनियतस्वभावव्यावर्तक इत्ययुक्तः, तथाहि-एवमपि पर्यनुयोगः सम्भवति-वह्वेर्दाहकस्वभावत्वे आकाशस्यापि स स्यात्, इतरथा वढेरपि स न स्यादिति । स्यादेतत् यदि प्रत्यक्षसिद्धो व्यापारस्वभावो भवेत्, स च न तथेति प्रतिपादितम् । तत एवोक्तम् "स्वभावेऽध्यक्षतः सिद्धे यदि पर्यनुयुज्यते । तत्रोत्तरमिदं युक्तं न दृष्टेऽनुपपन्नता" ॥ [ ] तन्न व्यापारो नाम कश्चिद् यथाऽभ्युपगतः परैः । अथानुमानग्राह्यत्वे स्यादयं दोषः, अत एवार्थापत्तिसमधिगम्यता तस्याभ्युपगता । ननु दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यत इत्यदृष्टकल्पनाऽर्थापत्तिः, तत्र कः पुनरसौ भावो व्यापारव्यतिरेकेण नोपपद्यते यो व्यापारं कल्पयति? अर्थ इति चेत्, का पुनरस्य तेन विनाऽनुपपद्यमानता? ३०नोत्पत्तिः, स्वहेतुतस्तस्याः भावात् । किंच, असावर्थः किम् एकज्ञातृव्यापारमन्तरेणानुपपद्यमानस्तं कल्पयति, उत सर्वज्ञातृव्यापारमन्तरेण इति वक्तव्यम् । तत्र यदि सकलज्ञातृव्यापारमन्तरेणेति पक्षः, तदा अन्धोनामपि रूपदर्शनं स्यात् तद्यापारमन्तरेणार्थाभावात् सर्वज्ञताप्रसङ्गश्च । अथ एकज्ञातृव्यापारमन्तरेणानुपपत्तिस्तर्हि यावदर्थसद्भावस्तावत् तस्यार्थदर्शन मिति सुप्ता_भावः । अथ अर्थध मोऽर्थप्रकाशतालक्षणो व्यापारमन्तरेणानुपपद्यमानस्तं कल्पयति; ननु साऽप्यर्थप्रकाशताऽर्थधर्मो ३५यद्यर्थ एव तदाऽर्थपक्षोक्तो दोषः। अथ तयतिरिक्तः, तदा तस्य स्वरूपं वक्तव्यम् । तस्यानुभूयमा. नता सा इति चेत्, न; पर्यायमात्रमेतत्, न तत्स्वरूपप्रतिपत्तिरिति स एव प्रश्नः । किंच, प्रकाशोऽनुभवश्व शानमेव, तदनवगमे तत्कर्मतायाः सुतरामनवगम इत्यर्थप्रकाशता-अनुभूयमानते स्वरूपेणानबगते कथं ज्ञातृव्यापारपरिकल्पिके? किंच, अर्थप्रकाशतालक्षणोऽर्थधोऽन्यथा नुपपन्नत्वेनानिश्चितस्तं कल्पयति, आहोस्विद् निश्चित इति? तत्र यद्याद्यः कल्पः, स ४०न युक्तः, अतिप्रसङ्गात् । तथाहि-यद्यनिश्चितोऽपि तथात्वेन स तं परिकल्पयति तदा यथा तं १ पृ. २५५, ४० । २ वा०, पू०, बा. विना सर्वत्र अव्यतिरिक्ते। ३ पृ. १०५०६। ४ वा०, पू०, बा० विना प्रवर्तन्ते नायं। ५ व्यापारजनननिरपेक्षाणां आ०, गु०, डे, भा०, हा०। ६ पृ. २५ पं० १५। ७ पृ० १५० ३४। ८ पृ. २०५०५। ९ वा., पू०, बा. विना सर्वत्र तदन्धाना-। १. स्वमायभावः भा०। ११ 'तदा यथा तं परिकल्पयति' इत्ययं पाठः वा०, पू०, बा० विना न कापि । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाण्यवादः। परिकल्पयति तथा येन विनाऽपि स उपपद्यते तमपि किंन कल्पयति विशेषाभावात? अथानिश्चितोऽपि तेन विनाऽनुपपद्यमानत्वेन निश्चितः स तं परिकल्पयति तर्हि लिङ्गस्यापि नियतत्वेनानिश्चितस्यापि स्वसाध्यगमकत्वं स्यात्, तथा च अर्थापत्तिरेव परोक्षार्थनिश्चायिका नानुमानमिति षटप्रमाणवादाभ्युपगमो विशीर्येत । अथ अन्यथानुपपद्यमानत्वेन निश्चितः स धर्मस्तं परिकल्पयति, तदा वक्तव्यम्-क्क तस्यान्यथानुपपन्नत्वनिश्चयः? यदि दृष्टान्तर्मिणि तदा लिङ्गस्यापि तत्र नियतत्व- ५ निश्चयोऽत्तीत्यनुमानमेवार्थापत्तिः स्यात्, एवं चार्थापत्तिरनुमानेऽन्तर्भूतेति पुनरपि प्रमाणषट्रकाभ्युपगमो विशीर्येत। अब साध्यधर्मिणि तन्निश्चय इत्यनुमानात् पृथगपत्तिः, तदात्रापि वक्तव्यम्कुतःप्रमाणात् तस्य तन्निश्चयः? यदि विपक्षऽनुपलम्भात्, तन्न युक्तम् ; सर्वसम्बन्धिनोऽनुपलम्भस्यासिद्धत्वप्रतिपादनात्, आत्मसंबन्धिनस्तु अनैकान्तिकत्वादिति नान्यथाऽनुपपद्यमानत्वनिश्चयः। किंच, अर्थापत्त्युत्थापकस्यार्यानुभूयमानतालक्षणस्यार्थधर्मस्य य एव स्वप्रकल्प्यार्थाभावेऽ-१० वश्यंतयाऽनुपपद्यमानत्वनिश्चयः स एव स्वप्रकल्प्यार्थसद्भावे एवोपपद्यमानत्वनिश्चय इत्यर्थापत्त्युत्थापकस्यार्थस्य, स्वसाध्यानुमापकस्य च लिङ्गस्य न कश्चिद्विशेष इत्यनुमाननिरासेऽर्थापतेरपि निरासः कृत एवेति नार्थापत्तेरपि ज्ञातृव्यापारलक्षणप्रमाणनिश्चायकत्वम् । येऽपि “संवित्त्याख्यं फलं ज्ञातृव्यापारसद्भावे सामान्यतोदृष्टं लिङ्गम्" आहुः, तन्त्रतमप्यसम्यक् यतः संवेदनापस्य लिङ्गस्य किम् अर्थप्रतिभासस्वभावत्वम्, उत तद्विपरीतत्वम् इति कल्पनाद्वयम्। तत्रार्थप्रति १५ भासस्वभावत्वे किमपरेण झातृव्यापारेण कथितेन इ.ते वक्तव्यम् । तदुत्पत्तिस्तेन विना न सम्भवतीति चेत्, न; इन्द्रियादेस्तदुत्पादकस्य सद्भावाद् व्यर्थ तत्परिकल्पनम् । क्रियामन्तरेण कारककलापात् फलानिष्पत्तेः तत्कल्पनेति चेत्, नन्विन्द्रियादिसामग्र पस्य व व्यापारः इति वक्तव्यम् । क्रियोत्पत्ताविति चेत्, साऽपि क्रिया क्रियान्तरमन्तरेण कथं कारककलापादपजायते इति पुनरपि तदेव चोद्यम् । क्रियान्तरकल्पनेऽनवस्था प्राक् प्रतिपादित; तन्नार्थप्रतिभास-२० स्वभावत्वेऽन्यो व्यापारः कल्पनीयः, निष्प्रयोजनत्वात् । अथ द्वितीया कल्पनाऽभ्युपगम्यते, साऽपि न युक्ता; यतोऽर्थस्य संवेदनं तद् भवज् ज्ञातृव्यापारलिङ्गतां समासादयति, सा च तदसंवेदनस्वभावस्य कथं सङ्गता? शेषं तु पूर्वमेव निर्णीतमिति न पुनरुच्यते । किंच, अर्थप्रतिभासस्वभावं संवेदनम्, शाता, तद्यापारश्च बोधात्मको नैतत् त्रितयं क्वचिदपि प्रतिभाति । अथ 'घटमहं जानामि' इति प्रतिपत्तिरस्ति, न चैषा निहोतुं शक्या, नाप्यस्याः किश्चिद् बाधकमुपलभ्यते, तत्२५ कथं न त्रितयसद्भावः ? तथाहि-'अहम्'इति ज्ञातुःप्रतिभासः, 'जानामि' इति संवेदनस्य, 'घटम्'इति प्रत्यक्षस्यार्थस्य, व्यापारस्य त्वपरस्य प्रमाणान्तरतः प्रतिपत्तिरित्यभ्युपगमः, अयुक्त तत्; यतः कल्पनोदूभूतशब्दमात्रमेतत्, न पुनरेष वस्तुत्रयप्रतिभासः। अत एवोक्तमाचार्यग-"एकमेवेदं संविद्रूपं हर्प-विषादाद्यनेकाकारविवर्त्त समुत्पश्यामः तत्र यथेष्टं संज्ञाः क्रियन्ताम्" [ ] किंच, व्यापारनिमित्त कारकसंबन्धे विकल्पद्वयम्-किं पूर्व व्यापारः पश्चात् संवन्धः, उत पूर्व संबन्धः३० पश्चाद् व्यापारः ? पूर्वस्मिन् पक्षे न व्यापार्थः संबन्धः, पूर्वमेव व्यापारसद्भावात् । उत्तरस्मिन् पुनर्विकल्पद्वयम्-संबन्धे सति किं परस्परसापेक्षाणां स्वव्यापारकर्तृत्वम्, उत निरपेक्षाणाम् ? सापेक्षत्वे व्यापारकर्तृत्वानुपपत्तिः, अनेकजन्यत्वात् तस्य । निरपेक्षत्वे किं मीलनेन ? ततश्च संसर्गावस्थायामपि स्वव्याप.रकरणादनवरतफल सिद्धिः, न चैतद् दृष्टमिष्टं वा; तन्न युकं व्यापारस्याप्रतीयमानस्य कल्पनम् । को ह्यन्यथा संभवति फलेऽप्रतीयमानकल्पनेनात्मानमायासयति ?३५ अन्यथासंभवश्व-इन्द्रियादिषु सत्सु फलस्य प्रागेवं दर्शितः, इन्द्रियादेस्तवाभ्युपगमनीयत्वात् । इतोऽपि संवेदनाख्यं फलमपरोक्षं व्यापारानुमापकमयुक्तम्, स्वदर्शनव्याघातप्रसक्तेः । ताहि-भवता शून्यवाद-परतःप्रामाण्यप्रसक्तिभयात् स्मृतिप्रमोषोऽभ्युपगतः, विपरीतख्यातौ तयोरवश्यंभावित्वात् । तथाहि-तस्यामन्यदेश-कालोऽर्थस्तद्देश-कालयोरसन् प्रतिभातिः न च १ ग्रन्थानम् श्लो. १००० । २ पृ. १८ पं०७। ३ पृ. १८५० ८। ४ लक्षणार्थधर्म-कां । ५पृ० २६ पं०९। ६ अर्थानुसारेण विचारणाद् अत्र 'ततश्चाऽसंसर्गा-' इति पाठो युक्तः, "वि.' प्रतावपि पश्चात् परिष्कृतः एष पाटो दृष्टः। ७ प्र० पृ. पं० १७। ८ अयं 'तथाहि' शब्दः इत आरभ्य 'प्रतिभासाभावः प्रसक्तः' (पृ. २८ पं० ३२) इतिपर्यन्तं योज्यः । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे तद्देशाद्यसश्वस्यात्यन्तासत्त्वस्य चासत्प्रतिभासे कश्चिद्विशेषः यथाऽन्यदेशाद्यवस्थितमाकारं कुतचिद् भ्रमनिमित्ताद् ज्ञानं दर्शयति तथा अविद्यावशादत्यन्तासन्तमपि किं न दर्शयति । तथा च कथं शून्यवादादमुक्तिः ? तथा परतः प्रामाण्यमपि मिथ्यात्वाशङ्कायां कस्यचिज्ज्ञानस्य बाधकाभावान्वेषणा वक्तव्यम्, तदन्वेषणे च सापेक्षत्वं प्रमाणानामपरिहार्य विपरीतक्यातौ ततो न ५ कस्यचिद् ज्ञानस्य मिध्यात्वम् तदभावान्नान्यदेश- कालाकारार्थप्रतिभासः नापि बाधकाभावापेक्षा । भ्रान्ताभिमतेषु तु तथाव्यपदेशः स्मृतिप्रमोषात् । तथाहि - 'इदं रजतम्' इति प्रतीतौ 'इदम्' इति पुरोव्यवस्थितार्थप्रतिभासम्, 'रजतम्' इति पूर्वावगतरजतस्मरणं सादृश्यादेः कुतश्चिन्निमित्तात्, तश्च स्मरणमपि स्वरूपेण नावभासत इति स्मृतिप्रमोष उच्यते । यत्र 'स्मरामि' इति प्रत्ययस्तत्र स्मृतेरप्रमोषः, यत्र तु स्मृतित्वेऽपि 'स्मरामि' इति रूपाप्रवेदनं कुतश्चित् कारणात् तत्र १० स्मृतिप्रमोषोऽभिधीयते । अस्मिन् मते 'रजतम्' इति यत् फलसंवेदनं तत् किं प्रत्यक्षफलस्य सतः, किं वा स्मृतेः ? यदि प्रत्यक्ष कलस्य तदा यथा 'इदम्' इति प्रत्यक्षफलं प्रतिभाति तथा 'रजतम्' इत्यपि ततश्च तुल्ये प्रतिभासे 'एकं प्रत्यक्षन, अपरं स्मरणम्' इति किंकृतो विशेषः ? अथोक्तम्'स्मरणस्यापि सतस्तद्रूप नवगमात् तेनाकारेणावगमः' तत् किं 'रजतम्' इत्यत्राप्रतिपत्तिरेव ? तस्यां चाभ्युपगम्यमानायां कथं स्मृतिप्रमोषः ? अन्यथा मूर्छाद्यवस्थायामपि स्यात् । अथ 'इदम् ' १५ इति तत्र प्रत्ययाभावान्नासो, ननु 'इदम्' इत्यत्रापि वक्तव्यम् - किमाभाति ? पुरोऽवस्थितं शुक्तिशकलमिति चेत्, ननु किं प्रतिभासमानत्वेन तत् तत्र प्रतिभाति, उत सन्निहितत्वेन ? प्रतिभासमानत्वेन तथाऽभ्युपगमे न स्मृतिप्रमोषः, शुक्तिकाशकले हि स्वगतधर्मविशिष्टे प्रतिभासमाने कुतो रजतस्मरणसंभावना ? नहि घटग्रहणे पटस्मरणसंभवः । अथ शुक्तिका - रजतयोः सादृश्यात् शुक्तिप्रतिभासे रजतस्मरणन्, न; तस्यै विद्यमानत्वेऽप्य किंचित्करत्वात् । यदा ह्यसाधारणधर्माध्या२० सितं शुक्तिस्वरूपं प्रतिभाति तदा कथं सदृशवस्तुस्मरणम् ? अन्यथा सर्वत्र स्यात् । सामान्यमात्रग्रहणे हि तत् कदाचिद् भवेदपि, नासाधारणस्वरूपप्रतिभासे; तन्न 'इदम्' इत्यत्र शुक्तिकाशकलस्य प्रतिभासनात् तथाव्यपदेशः । सन्निहितत्वेनाप्रतिभासमानस्यापि तद्विषयत्वाभ्युपगमे इन्द्रिय. संबद्धानां तद्देशवर्त्तिनामण्वादीनामपि प्रतिभासः स्यात् । न चाप्रतिभासमानानामिन्द्रियादीनामिव प्रतीतिजनकानामपि तद्विषयता सङ्गच्छते; तन्न 'इदम्' इत्यत्र शुक्तिकाशकलप्रतिभासः । नापि २५‘रजतम्' इत्यत्र स्मृतित्वेऽपि तस्याः स्वरूपेणानवगमात् 'प्रमोषः' इत्यभ्युपगमो युक्तः । अथ स्मृतिरप्यनुभवत्वेन प्रतिभातीति तत्प्रमोषोऽभ्युपगम्यते, नन्वेवं सैव शून्यवाद - परतः प्रामाण्यभयादभ्युपगम्यमाना विपरीतख्यातिरापतिता । न चात्राप्रतिपत्तिरेव, 'रजतम्' इत्येवं स्मरणस्यानुभवस्य वा प्रतिभासनात्। इदमत्रै दंपर्यम्-अर्थसंवेदनमपरोक्षं सामान्यतोदृष्टं लिङ्गं यदि ज्ञातृव्यापारानुमापकमभ्युपगम्यते तदा स्मृतिप्रमोषे 'रजतम्' इत्यत्र संवेदनम्, उतासंवेदनम् १ ३० प्रतिभासोत्पत्तेः संवेदनेऽपि रजतमनुभूयमानतया न संवेद्यते, स्मृतिप्रमोषाभावप्रसङ्गात् । नापि स्मर्यमाणतया, प्रमोषाभ्युपगमात् । विपरीतख्यातिस्तु नाभ्युपगम्यते, तद् 'रजतम्' इत्यत्र संवेदन स्यापरोक्षत्वाभ्युपगमेऽपि प्रतिभासाभावः प्रसक्तः । किंच, स्मृतिप्रमोषः पूर्वोक्तदोषद्वयभयादभ्युपगतः तच्च तदभ्युपगमेऽपि समानम् । तथाहि सम्यग्रजतप्रतिभासेऽपि आशङ्कोत्पद्यते - 'किमेष स्मृतावपि स्मृतिप्रमोषः, उत सम्यगनुभवः' इति सापेक्षत्वाद् बाधकाभावो (वा) न्वेषणे ३५ परतःप्रामाण्यम् । तत्र च भवन्मतेनानवस्था प्रदर्शितैव । यत्र हि स्मृतिप्रमोषस्तत्रोत्तर कालभावी बाधकप्रत्ययः, यत्र तु तदभावस्तत्र स्मृतिप्रमोषासम्भव इति कथं न बाधकाभावापेक्षायां परत:प्रामाण्यदोषभयस्यावकाशः ? शून्यवाददोषभयमपि स्मृतिप्रमोषाभ्युपगमेऽवश्यंभावि । तथाहिध्वस्त श्री हर्षाद्याकारः, अनुत्पन्नशङ्खचक्रवर्त्याद्याकारश्च ज्ञाने यः प्रतिभाति सोऽवश्यं ज्ञानरचिनोऽसन् प्रतिभाति; रजतादिस्मृतेरप्यसन्निहितरजताकारप्रतिभासस्वभावत्वात् तत्सत्त्वं तदुत्पत्तावसनि ४० हितं नोपयुज्यत इति असदर्थविषयत्वे ज्ञानस्य कथं शून्यवादभयाद् भवतः स्मृतिप्रमोषवादिनो मुक्ति: ? तत्र स्मृतिप्रमोषः । कश्चायं स्मृतिप्रमोषः ? किं स्मृतेरभावः, उतान्यावभासः, आहोस्विद् अन्याकारवेदित्वम् इति विकल्पाः । तत्र नासौ स्मृतेरभावः, प्रतिभासाभावप्रसङ्गात् । २८ १ अत्यन्तासत्वमपि गु० । २ प्र० पृ० पं० ८ । ३ " सादृश्यस्य" । ४ " यथार्थज्ञानस्थलेऽपि" गु० टि० । ५ बाधकान्वेषणे वा० पू०, बा० विना सर्वत्र । ६-स्वभावत्वात् सत्त्वं तदु-वा०, वि०, चं०, पू०, बा० ।-स्वभावत्वात् तत् सत्यं तदु- डे०, आ०, गु०, भा० । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदाऽपौरुषेयत्वपरीक्षणम् । २९ अथान्यावभासोऽसौ तदाऽत्रापि वक्तव्यम् - किं तत्कालोऽन्यावभासोऽसौ अथोत्तरकालभावी ? यदि तत्कालभावी अन्यावभासः स्मृतेः प्रमोषस्तदा घटादिज्ञानं तत्कालभावि तस्याः प्रमोषः स्यात् । अथोत्तरकालभाव्य सौ तस्याः प्रमोषः, तद्व्ययुक्तम् अतिप्रसङ्गात् - यदि नामोत्तरकालमन्यावभासः समुत्पन्नः, पूर्वज्ञानस्य स्मृतिप्रमोषत्वेनाभ्युपगतस्य तत्त्वे किमायातम् ? अन्यथा सर्वस्य पूर्वज्ञानस्य स्मृतिप्रमोषत्वप्रसङ्गः । अथान्याकारवेदित्वं तस्या असौ, तदा विपरीतख्यातिः ५ स्यात् न स्मृतिप्रमोषः । कश्चासौ विपरीत आकारस्तस्याः ? यदि स्फुटार्थावभासित्वम्, तदसौ प्रत्यक्षस्याकारः कथं स्मृतिसम्बन्धी ? तत्सम्बन्धित्वे वा तस्याः प्रत्यक्षरूपतैव स्यात् न स्मृतिरूपता । अत एव शुक्तिकायां रजतप्रतिभासस्य न स्मृतिरूपता तत्प्रतिभासेन व्यवस्थाप्यते, तस्य प्रत्यक्षरूपतया प्रतिभासनात् । नापि बाधकप्रत्ययेन तस्याः स्मृतिरूपता व्यवस्थाप्यते, यतो बाधकप्रत्ययः तत्प्रतिभातस्यार्थस्या सद्रूपत्वमावेदयति, न पुनस्तज्ज्ञानस्य स्मृतिरूपताम् | १० तथाहि - बाधकप्रत्यय एवं प्रवर्त्तते - 'न इदं रजतम्', न पुनः 'रजतप्रतिभासः प्रकृतः स्मृतिः' इति । तन्न स्मृतिप्रमोषरूपता भ्रान्तदशामभ्युपगन्तुं युक्ताः अतो नायमपि सत्पक्षः । तन्नार्थसंवेदनस्वरूपमप्यपरोक्षं सामान्यतोदृष्टं लिङ्गं प्राभाकरैरभ्युपगम्यमानं ज्ञातृव्यापारलक्षणप्रमाणानुमापकमिति मीमांसकमैतेन प्रमाणस्यैवासिद्धत्वात् कथं यथावस्थितार्थ परिच्छेदशक्तिस्वभावस्य प्रामाण्यस्य स्वतः सिद्धिः ? न हि धर्मिणोऽसिद्धौ तद्धर्मस्य सिद्धिर्युक्ता, अतो न सर्वत्र स्वतः प्रामाण्यसिद्धि- १५ रिति स्थितम् ॥ [ वेदाऽपौरुषेयत्वपरीक्षणम् ] शब्दसमुत्थस्य तु अभिधेय विषयज्ञानस्य यदि प्रामाण्यमभ्युपगम्यते तदा अपौरुषेयत्वस्यासम्भवाद् गुणवत्पुरुषप्रणीतस्तदुत्पादकः शब्दोऽभ्युपगन्तव्यः अथ तत्प्रणीतत्वं नाभ्युपगम्यते तदा तत्समुत्थज्ञानस्य प्रामाण्यमपि न स्यादित्यभिप्रायवानाचार्यः प्राह - 'जिनानाम्' राग-द्वेषमोह - २० लक्षणान् शत्रून् जितवन्त इति जिनास्तेषां 'शासनं' तदभ्युपगन्तव्यमिति प्रसङ्गसाधनम् । न चात्रेदं प्रेर्यम्-यदि जिनशासनं जिनप्रणीतत्वेन सिद्धं निश्चितप्रामाण्यमभ्युपगमनीयम् - अन्यथा प्रामाण्यस्याप्यनभ्युपगमनीयत्वादिति प्रसङ्गसाधनमत्र प्रतिपाद्यत्वेनाभिप्रेतम् - तत्कि मिति बौद्धयुक्त्याऽऽर्हतेन त्वया स्वतःप्रामाण्य निरासोऽभिहितः ? यतः सर्वसमय समूहात्मकत्वमेव आचार्येण प्रतिपादयितुमभिप्रेतम् । यद् वक्ष्यत्यस्यैव प्रकरणस्य परिसमाप्तौ । यथा'भदं मिच्छदंसणसमूहमइयस्स अमयसारस्त । जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स' ॥ [ तृतीयकाण्डे गाथा ७० ] इत्यादि । अयमेवार्थी बौद्धयुक्त्युपन्यासेन समर्थितः । अन्यत्राप्यन्य मतोपक्षेपेणान्यमतनिरासेऽयमेवाभिप्रायो द्रष्टव्यः, सर्वनयानां परस्परसापेक्षाणां सम्यग्मतत्वेन, विपरीतानां विपर्ययत्वेनाचार्यस्येष्टत्वात् । ३० अत एवोकमनेनैव द्वात्रिंशिकायाम् "उदधाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्टयः । नच तासु भवान् प्रदृश्यते, प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः" ॥ [ चतुर्थद्वात्रिंशिकायां लो० १५] २५ अथापि स्यात्, यदि प्रामाण्यापवादकदोषाभावो गुणनिमित्त एव भवेत् तदा स्यादेतत् ३५ प्रसङ्गसाधनम्, यावताऽपौरुषेयत्वेनापि तस्य सम्भवात् कथं प्रसङ्गसाधनस्यावकाशः ? असदेतत्; अपौरुषेयत्वस्यासिद्धत्वात् । तथाहि -किमपौरुषेयत्वं शासनस्य प्रसज्यप्रतिषेधरूपमभ्युपगम्यते, उत पर्युदासरूपम् ? तत्र यदि प्रसज्यरूपं तदा किं सदुपलम्भकप्रमाणग्राह्यम् उत अभावप्रमाणवेद्यम् ? यदि सदुपलम्भकप्रमाणग्राह्यम्, तदयुक्तम्; सदुपलम्भकप्रमाणविषयस्याभावत्वानुपपत्तेः, अभावत्वे वा न तद्विषयत्वम्, तस्य तद्विषयत्वविरोधाद् अनभ्युपगमाच्च । अभाव- ४० १ प्रमेयकमलमार्तण्डे ( पृ० १६, प्रथम पृ० - पं० 1 ) अत्र स्थले एवं पाठ: - " समुत्पन्नस्तर्हि पूर्वज्ञानस्य स्मृतिप्रमोषत्वेन असौ नाभ्युपगमनीयः” । २- नाभ्युपगम्य तत्वे ( म्यत्वे ) वा पू०, बा० - नाभ्युपगतत्वे किमा - अ० । ३ प्रन्थानम् - ११०० । ४ मीमांसकमते प्रमाण-कां० वि० । ५ ' तद्' इति प्रमाणम् । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० प्रथमे काण्डे प्रमाणग्राह्यत्वाभ्युपगमेऽपि वक्तव्यम्-किमभावप्रमाणं ज्ञानविनिर्मुक्तात्मलक्षणम् , उत अन्यज्ञानस्वरूपम् ? प्रथमपक्षेऽपि किं सर्वथा ज्ञानविनिमुक्तात्मस्वरूपम् , आहोस्विद् निषेध्यविषयप्रमाणपञ्चकविनिर्मुक्तात्मलक्षणम् इति? प्रथमपक्षे नाऽभावपरिच्छेदकत्वम्, परिच्छेदस्य ज्ञानधर्मत्वात्। सर्वथा ज्ञानविनिर्मुक्तात्मनि च तदभावात् । निषेध्य विषयप्रमाणपञ्चकविनिर्मुक्तात्मनोऽपि नाभाव५व्यवस्थापकत्वम्, आगमान्तरेऽपि तस्य सद्भावेन व्यभिचारात् । तदन्यज्ञानमपि यदि तदन्यसत्ताविषयं स्यान्नाभावप्रमाणं स्यात्, तस्य सद्विषयत्वविरोधात् । 'पौरुषेयत्वादन्यस्तभावस्तद्विपयशानं तदन्यज्ञानम्' अभावप्रमाणमिति चेत्, अत्रापि वक्तव्यम्-किमस्योत्थापकम् ? प्रमाणपञ्चका. भावश्चेत्, नन्वत्रापि वक्तव्यम-किमात्मसंवन्धी, सर्वसंबन्धी वा प्रमाणपञ्चकाभावस्तदुत्थापकः? न सर्वसंबन्धी, तस्यासिद्धत्वात् । नामसंवन्धी, तस्यागमान्तरेऽपि सद्भावेन व्यभिचारित्वात् । १० आगमान्तरे परेण पुरुषसद्भावाभ्युपगमात् प्रमाणपञ्चकाभावो नाभावप्रमाणसमुत्थापक इति चेत्, न; पराभ्युपगमस्य भवतोऽप्रमाणत्वात् । प्रमाणत्वे वा वेदेऽपि नाभावप्रमाणप्रवृत्तिः, परेण तत्रापि कर्तृपुरुषसद्भावाभ्युपगमात् : प्रवृत्ती वाऽऽगमान्तरेऽपि स्यात्, अविशेषात् । न च वेदे पुरुषाभ्युपगमः परस्य मिथ्या, अन्यत्रापि तन्मिथ्यात्वप्रसक्तेः। किंच, प्रमाणपञ्चकाभावः किं ज्ञातोऽभाव. प्रमाणजनकः, उताशातः? यदि ज्ञातस्तदा न तस्यापरप्रमाणपञ्चकाभावादू झप्तिः, अनवस्था१५प्रसङ्गात् । नापि प्रमेयाभावात् , इतरेतराश्रयदोपात् । अथाज्ञातस्तजनकः, न; समयानभिज्ञस्यापि तजनकत्वप्रसङ्गात् न चाज्ञातः प्रमाणपञ्चकाभावोऽभावानजनकः, 'कृतयत्नस्यैव प्रमाणपञ्चका भावोऽभावज्ञापकः' इत्यभिधानात् । न च इन्द्रियादेरिव अज्ञातस्यापि प्रमाणपञ्चकाभावस्याभावज्ञानजनकत्वम्, अभावस्य सर्वशक्तिरहितस्य जनकत्वविरोधात्; अविरोधे वा भावेऽपि 'अभावः' इति नाम कृतं स्यात् । न तुच्छात् तदभावात् तद्भावज्ञानम्, किन्तु प्रमाणपञ्चकरहितादात्मन इति २०चेत्, न; आगमान्तरेऽपि तथाभूतस्यात्मनः सम्भवादू अभावशानोत्पत्तिः स्यात् । प्रमेयाभा. वोऽपि तद्धेतुस्तदभावान्नागमान्तरेऽभावज्ञानमिति चेत्, न; अभावामावः प्रमेयसद्भावः, तस्य प्रत्यक्षाद्यन्यतमप्रमाणेनानिश्चये कथमभावाभावप्रतिपत्तिः ? अभावज्ञानाभावात् तत्प्रतिपत्तिर्न सदुपलम्भकप्रमाणसद्भावादिति चेत्, न; अभावज्ञानस्य प्रमेयाभावकार्यत्वात् तदभावान्नाभावाभावावगतिः, कार्याभावस्य कारणाभावव्यभिचारात्, अप्रतिवद्धसामर्थ्यस्याभावप्रतीतावपि नेष्ट. २५ सिद्धिः। क्वचित् प्रदेशे घटाभावप्रतिपत्तिस्तु न घटज्ञानाभावात् किन्त्वेकज्ञानसंसर्गिपदार्थान्त रोपलम्भात् । न च पुरुषाभावाभावप्रतिपत्तावयं न्यायः, तदेकज्ञानसंसर्गिणः कस्यचिदयभावात् । न पुरुष एवं तदेकज्ञानसंसंगी, पुरुषभावाऽभावयोर्विरोधेनैकज्ञानसंसर्गित्वासम्भवात्; सम्भवेऽपि न पुरुषोपलम्भभावात् तदभावाभावप्रतिपत्तिः, तदुपलम्भस्यैव तत्प्रतिपत्तिरूपत्वात् । अत एव विरुद्ध विधिरप्पत्र न प्रवर्तत इति । किंच, कस्याभावज्ञानाभावात् ३०प्रमेयाभावाभावः -वादिनः, प्रतिवादिनः, सर्वस्य वा? यदि वादिनोऽभावज्ञानाभावान्नागमा न्तरे प्रमेयाभावः, वेदेऽपि मा भूत् , तत्रापि प्रतिवादिनोऽभावज्ञानाभावस्याविशेषात् । अथागमा. न्तरे वादि-प्रतिवादिनोरुभयोरप्यभावज्ञानाभावान्न प्रमेयाभावः, वेदे तु प्रतिवादिनोऽभावशानाभावेऽपि वादिनोऽभावज्ञानसद्भावात्, न; वादिनो यदभावज्ञानं तत् साङ्केतिकम्, नाभावबलो. त्पन्नम् आगमान्तरे प्रतिवादिनः अप्रामाण्याभावज्ञानवत्। न च साङ्केतिकाभावज्ञानादभा३५वसिद्धिः, अन्यथाऽऽगमान्तरेऽपि ततोऽप्रामाण्याभावसिद्धिप्रसङ्गः, तन्नागमान्तरे वादिनोऽभाव शानाभावादू गति': । नापि प्रतिवादिनोऽभावज्ञानाभावात् तत्र तद्गतिः, वेदेऽपि तत्प्रसङ्गात् । १जैन-बौद्ध-स्मृत्यादिशास्त्रान्तरे। २ सद्विषयत्वस्य विरोधात् गु.। ३-ज्ञाने जनकः कां०, गु० । ४ पृ. २३ पं० २५। ५ प्रमाणपञ्चकाभावात् पौरुषेयत्वाभावज्ञानम् । ६ प्रमेयाभावान्नाभावाभावगतिः सा०, गं० । प्रमेयाभावकार्यत्वात् तदभावाभावगतिः हा०। ७-नाभावाभावगतिः भां०, का०, चं०, डे०, गु०, आ०, मां० ।-नाभावगतिः वि., वृ०, भा० ।-नाभावानगतिः वा०, पू०, बा०। ८ कार्यभावस्य वा०, पू०, मां०, बा० । कार्यभावस्याकारणाभावव्यभिचारात् सा०, गं० । ९-शानासंसर्गी वि०, वृ०। १० तत्रापि वादिनोऽभाव-वा०, पू०, बा०। ११ अत्र 'न प्रमेयाभावाभावः' इति पूरणीयम् । १२ जैनशाने। १३-भावादगतिः भा०, को०, गुः। १४ प्रमेयाभावाभावगतिः । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदापयत्वपरीक्षणम । अत एव न मर्वस्याभावहानाभावान, अमिद्धश्च मयंम्याभावज्ञानाभावः, नत्रामा प्रमाणपञ्चकविनिर्मकोऽभाषज्ञानजनकः । अथ वेदानादिमन्वमभावज्ञानोव्यापकम, नन्वत्रापि वक्तव्यमहातमहानं था तन् नदुन्यापकम? न मानम, ननानासम्भवान. प्रत्यनादेस्तनापकन्वेना. प्रवृतः प्रवृती या तत पय पुरुपाभावमिद्धरभावप्रमाण वैयर्यम. अनादिमत्त्वमिडेः पुरुषाभाव शामनास्तरीयकत्वात् । नायज्ञानं नन नदुन्यापकम, अगृहीतसमयम्यापि तत्र तपत्निप्रसङ्गान ५ केनमिन प्रत्यामत्ति-विप्रकर्याभावानः नन्न अनादिसत्त्वमपि तद्व्यापकमिति नाभावप्रमाणात पुरुषाभावसिद्धिः । न चाभावप्रमाणम्य प्रामाण्यम. प्राक् प्रनिपिद्धत्वान प्रतिषेत्म्यमानत्वाश्च । अथ पर्यवासरूपमपारुषेयत्वम, किं तन परिवेयधादन्यत् सत्त्वम? तम्यास्माभिप्यभ्युपगमान् । नानादिसस्वम्, तड़ाहकप्रमाणाभावान । नथाहि-न नावन् तड़ाहकं प्रत्यक्षम, अनानमारितया तथाव्यपदेशात् , अक्षाणां च अनादिकालमहत्यभावेन न-सम्बद्धनमत्वेनाप्यसंबन्धादन नपूर्वक-१० प्रत्यक्षस्य तथाप्रवृत्तिः: प्रवृत्ती वा हद् अनागतकालमम्बद्धधर्मम्वरूपग्राहकन्वेनापि प्रवृनेन धर्मक्षनिषेधः। तथा "सत्संप्रयोगे पुरुषम्य इन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तन् प्रत्यक्षमनिमित्तम् , विद्यमानो. पलम्भनत्वात्" [ जैमिनीय सू०११-४] इति सूत्रम, "भविष्यति न दृएं च, प्रत्यक्षम्य मनागपि । __ सामर्थ्यम्" [श्लो० वा० मू० २, लो० ११.] १५ इति च वार्तिकं व्याहतं स्यादिति न प्रत्यक्षान नसिद्धिः । नाप्यनुमानात् . तस्याभावान् । अथ "अतीतानागतो कालो वेदकारविवर्जिना । कालत्वात् : तद्यथा कालो वर्नमानः ममीक्ष्यने" ॥ [ ] इत्यतोऽनुमानात् तत्सिद्धिः नः अस्य हेतोरागमान्तरेऽपि समानत्वान। किंच, किं यथाभतो बेदकरणासमर्थपुरुषयुक्त इदानीं तत्कर्तृपुरुषरहितः काल उपलब्धः. अती तोऽनागतो वा तथाभूतः२० कालत्वात् साध्यते, उत अन्यथाभूतः? यदि तथाभूतस्तदा सिद्धसांध्यता । अथान्यथाभूतस्तदा सन्निवेशादिवदप्रयोजको हेतुः । तथाहि-यथाभूतानामभिनवकृप प्रामादादीनां सन्निवेशादि बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेन व्यानमुपलम्यं तथाभृतानामेव जीर्णकृप-प्रासादादीनां तद वद्धिमत्कारणत्वप्रयोजकत्वानन्यथाभूतानाम्। यदि पुनरन्यथाभूतम्याप्यनीतम्यानागतम्य कालस्य नद्रहितत्वं साधयेत् कालत्वम्, तदाऽन्यथाभूतानामपि भृधगदीनां मनिवेशादि वुद्धिमत्कारणपूर्वकन्वं २५ साधयेत् ने तस्य सर्वजगज्ज्ञातुः कर्तश्चश्वरम्य सिद्धश्चान्यथाभूतकालभामिद्धिरितीवाऽपाकरेयत्वसाधनं च वेदानामनवेसरम् । अथ तथाभूतम्यवातीतम्यानागतम्य या कालम्य नाहितन्वं साध्यते, न च सिद्धसाध्यता, अन्यथाभूतस्य कालस्याऽभावान.न: 'अन्यथामृतः कालो नास्ति' इति कुतः प्रमाणादवगतम् ? यद्यन्यतः तन पवापास्पयवलिद्धिः किमनेन ? अनोऽनुमानाचेत्, नः अन्यथाभूतकालाभावात् 'अनोऽनुमानान् तदाहिनवासिद्धिस्तमिद्धेम्नसिद्धिः'३० इतीतरेतराश्रयदोपप्रसङ्गात् । तदेवमन्यथाभूतकालस्याभावामिडेम्नयाभूतम्य तदाहिनवमाधने सिद्धसाधनमिति । नापि शम्चात् नसिद्धिः, इतरेतराश्रयदोपप्रमङ्गः । नदेवमन्यथा कथं वेदवचन १ पृ. २३ पं० ३६। २ 'नानुमानादेलिङ्गादिहिने वनित' इन नि । वटकरण मर्थपुरुपयुक्ततया अन्यथाभूते अतीते अनागनं च काले सत्यपि वेदकरणाममधपातया वर्तमान सचिानान्मन् नत्करहितत्वस्य अस्माकमपि इष्टत्वात् । “ अत्र 'युद्धिमाकारणवप्रोजकम, न वन्यथ भनामदन अयं पाटः मुघटः । बुद्धिमत्कारणत्वयोजकत्वानन्यथा-चं०, पू०. मां०, बा०. वा.. । ५ अ पाठ मुबोधः 'नेन तम्य सर्वजगा]: कश्वरस्य सिद्धवान्यथाभूतकालागावमिद्विरिति अनीतादवायत्रम धन व वंदनामनवमरम्' । ६-कालाभावसिद्धिरिति अतीतापौरुषेयत्यसाधनं च वेदानामनवसरम वि०। वेदानावमरम्गु. । वेदानानवसरम् मा०, वा०,हा। “अवदातावसरम्" गु.दि.। ८ प्र. पृ. नृनी टिपणं हायम् । प्रसङ्गात् गु.पहिर्गतः पाठः । १० केवलम् अ० प्रती अयं पाटः । अन्यथा दकं वेद-भा०, कां। अन्यथाव. दकं वेद-गु० । अत्र स्थले प्रमेयकमलमार्तण्ड लभ्यमानः पाठ एवम्-"न चाऽपरिपेयत्वप्रतिपादक वेदवाक्यमनि । माऽपि विधिवाक्यादपरस्य पं. प्रामाण्यमिप्यते" पृ.१५, पं० (- Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - ३२ मस्ति ? नापि विधिवाक्यादपरस्य भवद्भिः प्रामाण्यमभ्युपगम्यतेः अभ्युपगमे वा पौरुषेयत्वमेव स्यान् । तथाहि तत्प्रतिपादकानि वेदवचांसि श्रूयन्ते - " हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे” [ ऋग्वेद अष्ट०८, मं० १०, सू० १२१ ] " तस्यैव चैतानि निःश्वसितानि" [ वृह० उ० अ० २, ब्रा० ४, सू० १०] " याज्ञवल्क्य इतिहोवाच" [ वृह० उ० अ० २, ब्रा० ४, सू० १] तन शब्दादपि तत्सिद्धिः । नाप्युपमानात् तत्सिद्धिः, यदि हि चोदनासदृशं वाक्यमपौरुषेयत्वेन किंचित् सिद्धं स्यात् तदा तत्सादयोपमानेन वेदस्या पौरुषेयत्वमुपमानात् सिद्धं स्यात् न च तत् सिद्धम्, इत्युपमानादपि न तत्सिद्धिः । नाप्यर्थापत्तेः, अपौरुषेयत्वव्यतिरेकेणानुपपद्यमानस्य वेदे' कस्यचिद्धर्मस्याभावात् । नाप्रामाण्याभावलक्षणो धर्मोऽनुपपद्यमानो वेदस्यापौरुषेयत्वं १० परिकल्पयति, आगमान्तरेऽपि तस्य धर्मस्य भावादपौरुषेयत्वं स्यात् । न चासौ तत्र मिथ्या, वेदेऽपि तन्मिथ्यात्वप्रसङ्गात् । अथागमान्तरे पुरुषस्य कर्तुरभ्युपगमात् पुरुषाणां च सर्वेषामपि आगमादिषु रक्तत्वात् तद्द्वेषजनितस्याऽप्रामाण्यस्य तत्र संभवाद् नाऽप्रामाण्याभावलक्षणो धर्मस्तत्र सत्यः वेदे त्वप्रामाण्यजनक दोषास्पदस्य पुरुषस्य कर्तुरभावादप्रामाण्याभावलक्षणो धर्मः सत्यः । कुतः पुनस्तत्र पुरुषाभावो निश्चितः ? अन्यतः प्रमाणादिति चेत्, तदेवोच्यताम्, १५ किमर्थापत्त्या ? अर्थापत्तितश्चेत्, नः इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् । तथाहि - अर्थापत्तितः पुरुषाभावसिद्धावप्रामाण्यासिद्धिः, एतत्सिद्धी चार्थापत्तितः पुरुषाभावसिद्धिरितीतरेतराश्रयत्वम् । चक्रकचोयं चात्रापि । तथाहि - यद्यप्रामाण्याभावलक्षणो धर्मोऽनुपपद्यमानो वेदेऽपौरुषेयत्वं कल्पयति, आगमान्तरेऽप्यसौ धर्मस्तत् किं न कल्पयति ? तत्र पुरुषदोष सम्भवादसौ धर्मो मिथ्या तेन तत्र तन्न कल्पयति । वेदे कुतः पुरुषाभावः ? अर्थापत्तेश्चेत्, तदाऽऽगमान्तरे से स्याद् इत्यादि २० तदेवावर्त्तत इति चक्रकानुपरमः । नाप्यतीन्द्रियार्थप्रतिपादन लक्षणो धर्मोऽनुपपद्यमानो वेदे पुरुषाभावं कल्पयति, आगमान्तरेऽपि समानत्वात् । न चाप्रामाण्याभावे पुरुषाभावः सिध्यति, कार्याभावस्य कारणाभावं प्रति व्यभिचारित्वेनान्यथानुपपन्नत्वासम्भवात् । अप्रतिबद्धासमर्थस्य पुरुषस्याभावसिद्धावपि न सर्वथा पुरुष भावसिद्धिः, पुरुषमात्रस्यापि निराकरणादिष्टसिद्धिश्व अप्रामाण्यकरणस्य तत्कर्तृत्वेनास्माकमप्यनिष्टत्वात् । नापि प्रामाण्यधर्मोऽन्यथाऽनुपपद्यमानो वेदे २५ पुरुषाभावं साधयति, आगमान्तरेऽपि तुल्यत्वात् । शेषमत्र चिन्तितमिति न पुनरुच्यते । [ पूर्वपक्ष:- शब्दनित्यत्वसाधनम् ] परार्थवाक्योच्चारणान्यथाऽनुपपत्तेस्तत्प्रतिपत्तिरिति चेत्, अयमर्थः - स्वार्थेनावगत संबन्धः शब्दः स्वार्थ प्रतिपादयति, अन्यथाऽगृहीत संकेत स्यापि पुंसस्ततो वाच्यार्थप्रतिपत्तिः स्यात् । स च संवन्धावगमः प्रमाणत्रयसंपाद्यः । तथाहि--यदैको वृद्धोऽन्यस्सै प्रतिपन्नसङ्गतये प्रतिपादयति३० 'देवदत्त ! गामभ्याज एनां शुक्लां दण्डेन' इति तदा पार्श्वस्थितोऽभ्युत्पन्नसङ्केतः शब्दाऽर्थी प्रत्यक्षतः प्रतिपद्यते, श्रोतुश्च तद्विषयक्षेपणादिचेष्टादर्शनाद् अनुमानतो गवादिविषयां प्रतिपत्तिमवगच्छति, तत्प्रतीत्यन्यथाऽनुपपत्त्या शब्दस्य च तत्र वाचिकां शक्तिं स एव परिकल्पयति । संच प्रमाणत्रय संपाद्योऽपि सङ्गत्यवगमो न सकृद्ध (क्यप्रयोगात् संभवति, वाक्यात् संमुग्धार्थप्रतिपत्ताववयवशक्तेरवापाsपोद्धाराभ्यां निश्चयात् । न चास्थिरस्य पुनः पुनरुच्चारणं संभवति, तदभावे ३५ नान्वयव्यतिरेकाभ्यां वाचकशक्त्यवगमः, तदसत्त्वाद् न प्रेक्षावद्भिः पराववोधाय वाक्यमुच्चार्यम्, 'उच्चार्यते च पराववोधाय वाक्यम्; अतः परार्थ वाक्योच्चारणान्यथानुपपत्या निश्चीयते धूमादिरिव १ ग्रन्थानम् - १२०० । २ सिद्धवेदे अ० । सिद्धे वेदे आ० । ३ अत्र ' तद्दोषजनितस्याऽप्रामाव्यस्य' इति पाठः सुयोग्यः । ४- गमान्तरे समानमित्यादि वा० पू०, बा० विना सर्वत्र । ५ सः - पुरु षाभावः स्यात् । ६ प्रतिबद्धासमर्थस्य वा पू० वा० 1 ७- कारणस्य वि० । ८ अप्रामाण्यकारणस्य कस्यचित् पुरुषस्य वेदकर्तृत्वेन । ९ प्रत्यक्ष अनुमान - अर्थापत्तिरूपप्रमाणत्रय संपाद्यः, एतच 'गामभ्याज एनां शुक्लां दण्डेन' अत्र वाक्ये एव दर्शयति अवापोद्धाराभ्याम् आ० चं०, डे, । १० स एव गु० । ११ आवापो द्वाराभ्याम् वि० । कां०। आवापो द्वापाभ्याम् भा०, गु०, सा० गं० । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ वेदाऽपौरुषेयत्वपरीक्षणम् । गृहीतसम्बन्धोऽर्थप्रतिपादकः शब्दो नित्यः। तदुक्तम्-“दर्शनस्य परार्थत्वान्नित्यः शब्दः" इति । अथ मतम्-भूयो भूय उच्चार्यमाणः शब्दः सादृश्यादेकत्वेन निश्चीयमानोऽर्थप्रतिपत्तिं विदधाति, न पुनर्नित्यत्वात्। तन्न किंचिन्नित्यत्वपरिकल्पनेन प्रमाणबाधितेन, तदयुक्तम्; सादृश्येन शब्दा. दर्थाप्रतिपत्तेः-नहि सदृशतया शब्दः प्रतीयमानो वाचकत्वेनाध्यवसीयते किन्त्वेकत्वेन । तथाहोवं प्रतिपत्तिः–'य एव संबन्धग्रहणसमये मया प्रतिपन्नः शब्दः स एवायम' इति । किंच, साह. ५ श्यादर्थप्रतिपत्तौ भ्रान्तः शब्दादर्थप्रत्ययः स्यात् । न ह्यन्यस्मिन् गृहीतसङ्केतेऽन्यस्मादर्थप्रत्ययोs. भ्रान्तः, यथा गोशब्दे गृहीतसंबन्धेऽश्वशब्दाद् गवार्थप्रत्ययः । न च भूयोऽवयवसामान्ययोगस्वरूपं सादृश्यं शब्दे संभवति, विशिष्टवर्णात्मकत्वाच्छब्दस्य; वर्णानां च निरवयवत्वात् । न च समानस्थान-करणजन्यत्वलक्षणं सादृश्यं प्रतिपत्तुं शक्यम्, परकीयस्थान-करणादेरतीन्द्रियत्वेन तजन्य(न्यत्वस्याप्यप्रतिपत्तेः । न च गत्वादिविशिष्टानां गादीनां वाचकत्वमभ्युपगन्तुं १० युक्तम्, गत्वादिसामान्यस्याभावात् । तदभावश्च गादीनां नानात्वायोगात्, तदयोगश्च प्रत्यभिज्ञया गादीनामेकत्वनिश्चयात् । अत एव न सामान्यनिबन्धना गादिषु प्रत्यभिज्ञा, भेदनिबन्धनस्य सामान्यस्यैव गादिष्वभावात् कुतस्तन्निबन्धना गादिषु प्रत्यभिज्ञा? किंच, किं गत्वादीनां वाचकत्वम्, उत गादिव्यक्तीनाम् ? न तावद् गत्वादीनाम्, नित्यत्वेनास्मदभ्युपगमाश्रयणप्रसङ्गात् । नापि गादीनां वाचकत्वम्, विकल्पानुपपत्तेः। तथाहि-किं गत्वादिविशिष्टं व्यक्तिमात्रं वाचकम् ,१५ उत गादिव्यक्तिविशेषः ? तत्र न तावद् गादिव्यक्तिविशेषः, सामान्ययुक्तस्यापि तस्यानन्वयात्; अनन्विताच नार्थप्रतिभासः।नापि गादिव्यक्तिमात्रम्, यतस्तदपि व्यक्तिमात्रं किं सामान्यान्तर्भूतम् , उत व्यक्त्यन्तर्भूतम् इति कल्पनाद्वयम् । यदि सामान्यान्तःपाति तदा पुनरपि नित्यस्य वाचकत्वम् इत्यस्मत्पक्षप्रवेशः । अथ व्यक्त्यन्तर्भूतमिति पक्षस्तदाऽनन्वयदोषस्तदवस्थित इति । किंच, यद्यनित्यः शब्दस्तदाऽऽलम्बनरहिताच्छब्दप्रतिभासमात्रादर्थप्रतिपत्तिरभ्युपगता स्यात् ।२० तथाहि-शब्दश्रवणम्, ततः सङ्केतकालानुभूतस्मरणम्, ततः तत्सदृशत्वेनाध्यवसायः, न चैतावन्तं कालं शब्दस्यावस्थानं भवत्परिकल्पनया, तद् वाचकशून्यात् तत्प्रतिभासादर्थप्रतिपत्तिः स्यात् । अतोऽर्थप्रतिभासाभावप्रसङ्गाद् नानित्यत्वं शब्दस्य ॥ [ उत्तरपक्षः-शब्दनित्यत्वनिरसनम् ] अत्र प्रतिविधीयते, यदुक्तम् दर्शनस्य परार्थत्वान्नित्यः शब्दः, अनित्यत्वे पुनः पुनरुच्चारणा-२५ संभवाद् न समयग्रहः, तदभावे शब्दादर्थप्रतिपत्तिर्न स्यादिति परार्थशब्दोचारणान्यथाऽनुपपत्तेनित्यः शब्दः' तदयुक्तम्। अनित्यस्यापि धूमादेरिवावगतसंबन्धस्यार्थप्रत्यायकत्वसंभवात् शब्दस्य; न हि धूमादीनामप्येकैव व्यक्तिरग्यादिप्रतिपादिका किन्त्वन्यैव । न चानाश्रितसमानपरिणतीनां सर्वधूमादिव्यक्तीनामर्वाग्दृशा स्वसाध्येन संबन्धः शक्यो ग्रहीतुम् , असाधारणरूपेण सर्वधूमा. दिव्यक्तीनामदर्शनात् । न च लिङ्गाऽनुमेयसामान्ययोस्तत्र संबन्धग्रहणम्, शब्देऽप्यस्य न्यायस्य ३० समानत्वात् । न च 'धूमत्वाद् मया प्रतिपन्नोऽग्निः' इति प्रतिपत्तिः किन्तु धूमादिति । सा च लिङ्गाऽनुमेययोः सामान्यविशिष्टव्यक्तिमात्रयोः संबन्धग्रहणे सति सामान्य विशिष्टाग्निव्यक्त्यवगमे युक्ता, न च धूमसामान्यादग्निसामान्यस्य । यथा च सामान्यविशिष्टस्य विशेषस्य अनुमेयत्वम् वाच्यत्वं वाऽभ्युपगमनीयम्-अन्यथा सामान्यमात्रस्य दाहाद्यर्थक्रियाऽजनकत्वे ज्ञानाद्यर्थक्रियायाश्च सामान्यसाध्यायास्तदैव समद्धतेर्दाहाद्यर्थिनामनुमेय-वाच्यप्रतिभासात् प्रवृत्त्यमा ३५ वेन लिङ्गि-वाच्यप्रतिभासयोरप्रामाण्यप्रसङ्गः-तथा धूम-शब्दयोस्तद्विशिष्टयोः तत्त्वमभ्युपगन्त. व्यम्, न्यायस्य समानत्वात् । न चानुमेयत्व-वाच्यत्वसामान्य व्यक्तिव्यतिरेकेणानुपपद्यमानं तां लक्षयतीति लक्षणया प्रवृत्तिर्भविष्यतीति वक्तुं शक्यम्, क्रमप्रतीतेरभावात्-नहि लिङ्ग-वाचकज १ "वेदस्य" गु० टि। २"नित्यस्तु स्याद् दर्शनस्य परार्थत्वात्" मीमांसादर्शने १-१-१८। ३ तदप्ययुक्तम् भां०। ४ स्थानानि उच्चारणस्थानानि, करणानि उच्चारणप्रयत्नाः। ५ तज्जन्यतस्याऽपि डे०, चं-पू०, आ० । ६ पृ. ३२ पं० ३६ । ७ (वा) “समुच्चायकः गु. भा. टि. । ८ वाच्यत्वं सामान्य वा०, पू०, मां०, बा। स० त०५ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे नितलिलि-वाच्यप्रतिभासे प्राक सामान्यप्रतिभासः पश्चाद् व्यक्तिप्रतिभास इति क्रमप्रतीत्यनुभव। 'न च लक्षणा संभवति इति प्रपश्चतः प्रतिपादयिष्याम इत्यास्तां तावत् । एवं सामान्यविशिष्टधूमादिलिङ्गस्य गमकत्ववद् गत्वादिविशिष्टगादिवाचकत्वे न किञ्चिन्नित्यत्वेन, तदभावेऽपि धूमादिभ्य इवार्थप्रतिपत्तिसंभवात् । अथ धूमादौ सामान्यस्य संभवात् पूर्वोक्तेन न्यायेन गमकत्व. ५ मस्तु, शब्दे तु न किंचित् सामान्यमस्ति यद्विशिष्टस्य शब्दस्य वाचकभावः । शब्दत्वमिति चेत्, न; गोशब्दस्य शब्दत्वविशिष्टस्य स्ववाच्ये न संबन्धग्रहः । न च शब्दत्वमपि गादिषु विद्यते गोश. ब्दत्व-गत्वादीनां तु सत्त्वे का कथा । शब्दत्वादीनां त्वभावो वर्णान्तरग्रहणे वर्णान्तरानुसन्धानाभावात् । यत्र सामान्यमस्ति तत्रैकग्रहणेऽपरस्यानुसन्धानं दृष्टम् यथा शाबलेयग्रहणे बाहुले यस्य, वर्णान्तरेच गादौ गृह्यमाणेन कादीनामनुसन्धानम्, तन्न तत्र शब्दत्वादिसंभवः, एतदयुक्तम्। १० यतः किमिदमनुसन्धानं भवतोऽभिप्रेतं यद् वर्णान्तरे गृह्यमाणे वर्णान्तरस्य नास्तीति प्रतिपाद्यते ? यदि गादौ वर्णान्तरे गृह्यमाणे 'अयमपि वर्णः' इत्यनुसन्धानाभावः, तदयुक्तम् । एवंभूतानुसन्धानस्यानुभूयमानत्वेनाभावासिद्धेः। अथ गादौ वर्णान्तरे गृह्यमाणे 'अयमपि कादिः' इत्यनुसन्धानाभावान्न सामान्यसद्भावस्तदाऽत्यल्पमिदमुच्यते, शाबलेयादावपि व्यक्त्यन्तरे गृह्यमाणे 'अयमपि बाहुलेयः' इत्यनुसन्धानाभावाद् गोत्वस्याप्यभावः प्रसक्तः । अथ तत्र 'गोर्गौः' इत्यनुग. १५ ताकारप्रत्ययस्याबाधितस्य सद्भावाद् न गोवासत्त्वम्, एतद् गादिष्वपि समानम्-तत्रापि 'वों वर्णः' इत्यनुगताकारस्याबाधितस्य प्रत्ययस्य सद्भावात् कथं न वर्णेषु वर्णत्वस्य, गादिषु गत्वादेः, शब्दे शब्दत्वस्य संभवो निमित्तस्य समानत्वात् ? तथाहि-समानाऽसमानरूपासु व्यक्तिषु क्वचित् 'समाना' इति प्रत्ययोऽन्वेति, अन्यत्र व्यावर्त्तते; यत्र च प्रत्ययानुवृत्तिस्तत्र सामान्यव्यवस्था नान्यत्र, सा च प्रत्ययानुवृत्तिर्गादिष्वपि समाना इति कथं न तत्र सामान्य व्यवस्था? यदि पुन२० र्गादिष्वनुगताकारप्रत्ययसत्त्वेऽपि न गत्वादिसामान्यमभ्युपगम्यते तर्हि शाबलेयादिष्वपि न गोत्व. सामान्यमभ्युपगमनीयम्, न हि तत्रापि तथाभूतप्रत्ययानुवृत्तिमन्तरेण सामान्याभ्युपगमेऽन्यद निमित्तमुत्पश्यामः । अक्षजन्यत्वम् अबाधितत्वादि च प्रत्ययस्योभयत्रापि विशेषः समानः। यदि चानुगताऽबाधिताऽक्षजप्रत्ययविशेषविषयत्वे सत्यपि गत्वादेरभावः, गादेरपि व्यावृत्ततथाभूतप्रत्यय विषयस्याभावः स्यात् , ततश्च कस्य दर्शनस्य परार्थत्वान्नित्यत्वं साध्येत? अथ गादौ श्रोत्र२५ ग्राह्यत्वनिमित्तोऽनुगतः प्रत्ययो न सामान्य निमित्तः, तदप्ययुक्तम् । श्रोत्रग्राह्यत्वस्यातीन्द्रियत्वेना नवगमे निमित्ताग्रहणे तणनिमित्तानुगतप्रत्ययस्य गादावभावप्रसङ्गात् । न च प्रत्यभिज्ञया गादी. नामेकत्व सिद्धेदनिबन्धनस्य तेषु गत्वादिसामान्यस्याभाव इति युक्तमभिधानम्, गायकत्वग्राहिकाया लूनपुनर्जातकेश-नखादिग्विव तस्या भ्रान्तत्वात् । अथ दलितपुनरुदिते नखशिखरादौ प्रत्यभिज्ञाया बाधितत्वेन भ्रान्तत्वं न पुनर्गादौ, ननु तत्र प्रत्यभिज्ञायाः किं बाधकम् ? अन्तरालेऽ. ३० दर्शन मिति चेत्, ननु गादावप्यन्तरालेऽदर्शनं समानम् । अथ दलितपुनरुदिते नखशिखरादावभावनिमित्तमन्तरालेऽदर्शनम्, न गादावभावनिमित्तम् : किं पुनरत्रादर्शननिमित्तमिति वक्तव्यम् । किमत्र वक्तव्यम् अभिव्यक्तेरभावः। अथ केयमभिव्यक्तिर्यदभावादन्तराले गाद्यप्रतिपत्तिः? वर्णादिसंस्कारः । अथ कोऽयं वर्णादिसंस्कारः? आत्म-मनःसंयोगपूर्वकप्रयत्नप्रेरितेन कोष्ठ्येन वायुना ताल्वादिसंयोग-विभा३५गवशात् प्रतिनियतवर्णाद्यसिव्यञ्जकत्वेन भेदमासादयंता वक्तृमुखसमीपगतः स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्षेण, तद्देशस्य च तूलादेः प्रेरणात् कार्यानुमानेन, देशान्तरे शब्दोपलब्ध्यन्यथाऽनुपपत्त्या च प्रतीयमानेन नित्यसर्वगतस्य गकारादेर्वर्णस्य, श्रोत्रस्य, उभयस्य चाऽऽवारकाणां वायूनामपनयनं यथाक्रमं वर्णसंस्कारः, श्रोत्रसंस्कारः, उभयसंस्कारश्चेति चेत्, ननु 'वर्णसंस्कारोऽभिव्यक्ति.' इत्यभ्युपगमे आवारकवायुभिर्विज्ञानजननशक्तिप्रतिघाताद वर्णोऽपान्तराले ज्ञानं न जनयतीति ४० अभ्युपगन्तव्यम्: सा च शक्तिवर्णस्वरूपात् कथश्चिदभिन्नाऽभ्युपगन्तव्या, एकान्तभेदे ततो वर्णादनुपकारे 'तस्य शक्तिः' इति संबन्धानुपपत्तेः; उपकारे वा तदुपकारिका अपरा शक्तिर १ ग्रन्थानम् १३००। २-यता बहुमुखसमीपगतैः वा०, पू०, बा० । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदाऽपौरुषेयत्वपरीक्षणम् । ३५ भ्यपगन्तव्या, तस्या अपि ततो भेदेऽनवस्था; अभेदे प्रथमेव शक्तिः कथञ्चिदभिन्नाऽभ्युपगमनीयाः एवं हि पारम्पर्यपरिश्रमः परिहृतो भवति । तथाभ्युपगमे च तन्छक्तिप्रतिघाने वर्णस्वरूपमेव तदभिन्नमावारकेण प्रतिहतं भवति ततश्च कथं नानित्यत्वम् ? व्यञ्जकेनापि शक्तिप्रतिबन्धापनयनद्वारेण विज्ञानजननशक्त्याविर्भावेन वर्णस्वरूपमेवाविर्भावितं भवतीति कथं न वर्णस्य व्यञ्जकजन्यत्वम? व्यञ्जकावाप्तविज्ञानजननस्वरूपो वर्णो यदि तेनैव स्वरूपेणावतिष्ठते तदा सर्वदा तदव- ५ भासिज्ञानप्रसङ्गः, सर्वदा तज्जननस्वभावस्य भावात्। 'सहकार्यपेक्षा च नित्यस्य न भवति' इति प्रतिपादयिष्यामः । अजनने वा न तत्स्वभावतेति प्रथममपि ज्ञानं न जनयेत्, यो हि यन्न जनयति न स तज्जननस्वभावः, यथा शालिबीजं यवाकुरमजनयन्न तजननस्वभावम, न जनयति च वर्णो व्यञ्जकाभिमतवाय्वभिव्यक्तोऽपि सर्वदा स्वप्रतिभासिज्ञानमिति न सर्वदा तजननस्वभावः । तत्स्वभा. वाभावे चोत्तरकालं तदेवानित्यत्वमिति व्यर्थमभिव्यक्तिकल्पनम् । अपि च, वर्णाभिव्यक्तिपक्षे कोष्ठ्येन १० वायुना यावद्वेगमभिसर्पता यावान् वर्ण विभागोऽपनीतावरणः कृतस्तावत एव श्रवणं स्यात् न समस्तस्य वर्णस्येति खण्डशस्तस्य प्रतिपत्तिः स्यात् । अथ वर्णस्य निरवयवत्वादेकत्रोत्सारितावरणः सर्वत्रापनीतावरण इति नायं दोषस्तर्हि निर्विभागत्वादेवैकवानपनीतावरणः सर्वत्र तथेति मनागपि श्रवणं न स्यात् । सर्वत्र सर्वात्मना वर्णस्य परिसमाप्तत्वात् सामस्त्येन श्रवणाभ्युपगमे वर्णस्याव्यापकत्वम् अनेकत्वं च दुर्निवारम् । यदि चैकत्राभिव्यक्तो निर्विभागत्वेन सर्वत्राभिव्यक्तस्तदा १५ सर्वदेशावस्थितैस्तस्य श्रवणं स्यात् । यदप्युच्यते-यथैवोत्पद्यमानोऽयमुत्पत्तिवादिनां पक्षे दिगादीनामविभागादविभक्तदिगादिसंबन्धित्वेन स्वरूपेणासर्वगतोऽपि सर्वान् प्रति भवन्नपि न सर्वेरवगम्यते किन्तु यच्छरीरसमीपवर्ती वर्ण उत्पन्नस्तेनैवासा गृह्यते तथाऽस्मत्पक्षेऽपि स्वतः सर्वगतो. ऽपि वर्णों न सर्वैर्दूरस्थैरवगम्यते किन्तु यच्छरीरसमीपस्थोऽभिव्यक्तस्तैरेवेति व्यञ्जकध्वनिसन्निधानाऽसन्निधानकृतं वर्णस्य श्रवणम् अश्रवणं च युक्तम् । एतदेवाह "यथैवोत्पद्यमानोऽयं न सर्वैरवगम्यते ॥ दिग्देशाद्यविभागेन सर्वान् प्रति भवन्नपि । तथैव यत्समीपस्थैर्नादैः स्याद् यस्य संस्कृतिः॥ तैरेव गृह्यते शब्दो न दूरस्थैः कथश्चन" । इति, [श्लो० वा० सू० ६, श्लो० ८४-८६] तदपि प्रलापमात्रम्; यतो यदि व्यञ्जका वायवो यत्रैव संनिहितास्तत्रैव वर्णसंस्कारं कुर्युस्तदा २५ स्यादप्येतत्, किन्तु तथाभ्युपगमे वर्णस्य सावयवत्वम् अनभिव्यक्तस्वरूपादभिव्यक्तस्वरूपस्य च भेदादनेकत्वं च स्यात् । सर्वात्मना तु संस्कारे "यच्छरीरसमीपस्थैर्नादैः स्यादू यस्य संस्कृतिः। तैर्यथा श्रूयते शब्दस्तथा दूरगतैर्न किम्'? ॥ [ उत्पत्तिपक्षे तु अव्यापकत्वाद् यत्समीपवर्ती वर्ण उत्पन्न स्तेनैवासौ गृह्यते न दूरस्थैरिति युक्तम् । ३० "दिग्देशाद्य विभागेन"इति चातीवासङ्गतम्, अविभागस्य कस्यचिद् वस्तुनोऽसंभवेनानभ्युपगमात् । किंच, व्यापकत्वेन वर्णानामेकवर्णाऽऽवरणापाये समानदेशत्वेन सर्वेषामनावृतत्वाद् युगपत् सर्ववर्णश्रुतिश्च स्यात् । अथापि स्यात् प्रतिनियतवर्णश्रवणान्यथाऽनुपपत्त्या व्यञ्जकभेदसिद्धेः प्रतिनियतैर्व्यञ्जकैः प्रतिनियताऽऽवारकनिराकरणद्वारेण प्रति नियतवर्णसंस्काराद् न युगपत्सर्ववर्णश्रुतिदोषः, स्यादेतद् यदि व्यञ्जकानां वायूनां भेदः स्यात्, स चावारकभेद निबन्धनः, अन्यथा ३५ तभेदेऽमिन्नावारकापनेतृत्वेन कुतो व्यञ्जकभेदः? आवारकमेदोऽपि वर्णदेशभेदनिबन्धनः, अन्यथा समानदेशानां यदेवैकस्यावारकं तदेवापरस्यापि इत्यावारकभदो न स्यात् । देशभेदोऽपि वर्णानामव्यापकत्वे सति स्यात्, व्यापकत्वे तु परस्परदेशपारहारेण वर्णानामवस्थानाभावाच देशभेदः । न चाव्यापकत्वं वर्णानामभ्युपगम्यते भवद्भिरिति न देशभेदः, तदभावानावारकभेदः, तत्सत्त्वान्न व्यञ्जकभेद इति युगपत्सर्ववर्णश्रुतिरिति तदद्वस्थो दोषः । नाप्यावारकाणां न वर्णपि-४० १-शस्तत्प्रतिप-गु०। २ ईदृशस्तु पाठः वा०, पू०, बा०, चं-ल. प्रतिध्वेव, अन्यत्र सर्वत्र-काणां वर्णपिधायक-इति । किन्तु डे॰, भा॰ प्रतौ 'पूर्वोक्तदोषाभाव इति वक्तुं शक्यम्' इत्यस्य स्थाने 'पूर्वोक्त. दोषाभाव इति वक्तुं न शक्यम्' इति पाठः । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे धायकत्वेनावारकत्वं किन्तु वर्णे दृश्यस्वभावखण्डनात्; व्यञ्जकानामपि न तदावारकापनेतृत्वेन व्यञ्जकत्वं किन्तु वर्णे दृश्यस्वभावाधानादिति पूर्वोक्तदोषाभाव इति वक्तुं शक्यम्, एत एवममिधाने स्ववाचैव तस्य परिणामित्वममिहितं स्यादित्यविप्रतिपत्तिप्रसङ्गः; तन्न वर्णसंस्कारोऽमिव्यक्तिरिति पक्षो युक्तः। नापि श्रोत्रसंस्कारोऽभिव्यक्तिरिति पक्षो यक्तः, तस्मिन्नपि पक्षे सकृत् सं५स्कृतं श्रोत्रं सर्ववर्णान् युगपत् शृणुयात्; नह्यञ्जनादिना संस्कृतं चक्षुःसंनिहितं स्वविषयं किञ्चित् पश्यति किश्चिन्नेति दृष्टम् । अथ व्यञ्जकानां वायूनां मिन्नेषु कर्णमूलावयवेषु वर्तमानानां संस्काराधायकत्वेनार्थापत्त्या प्रतिनियतवर्णश्रवणान्यथाऽनुपपत्तिलक्षणया प्रतिनियतवर्णग्राहकत्वेन सं. स्काराधायकत्वस्य प्रतीतेनैकवर्णग्राहकत्वेन संस्कृतं श्रोत्रं सर्ववर्णान् युगपद गृहातीति । तथाहिवायवीयशब्दपक्षे यथा गकारादेर्निष्पत्त्यर्थ प्रयत्नप्रेरितो वायुर्नान्यं वर्णमुत्पादयति तथाऽस्मत्पक्षेऽ१०प्यन्यवर्णग्राहकश्रोत्रसंस्कारे समर्थो नान्यवर्णग्राहकश्रोत्रसंस्कारं विधास्यति । येषां तु ताल्वादि संयोग-विभागनिमित्तः शब्द इति पक्षस्तेषां यथाऽन्यगकारादिजनकैः संयोग-विभागैर्नान्यो वर्णो जन्यते तथाऽस्मत्पक्षेऽपि नान्यवर्णग्राहकश्रोत्रसंस्काराधायकव्यञ्जकप्रेरकैरन्यवर्णग्राहकश्रोत्रसंस्काराधायकवायुप्रेरणं क्रियत इत्युत्पत्त्य-भिव्यक्तिपक्षयोः कार्यदर्शनान्यथाऽनुपपत्त्या समः सामर्थ्य भेदः प्रयत्न-विवक्षयोः सिद्धः । अतश्च यदुक्तं कैश्चित् “समानेन्द्रियग्राह्येष्वर्थेषु व्यञ्जकेषु न दृष्टो १५ नियमः” इति, एतदयुक्तम् । अर्थापत्तेदृष्टान्तानपेक्षत्वात्, दृष्टश्च तैलाभ्यक्तस्य मरीचिभिः, भूमेस्तूदकसेकेन गन्धाभिव्यक्तिभेद इति कथं न व्यञ्जकनियमः? तदुक्तम्-- "व्यञ्जकानां हि वायूनां भिन्नावयवदेशता ॥ जातिभेदश्च तेनैव संस्कारो व्यवतिष्ठते । अन्यार्थ प्रेरितो वायुर्यथाऽन्यं न करोति वैः॥ तथाऽन्यवर्णसंस्कारशक्तो नान्यं करिष्यति। अन्यैस्ताल्वादिसंयोगै न्यो वर्णों यथैव हि ॥ तथा ध्वन्यन्तराक्षेपो न ध्वन्यन्तरसारिभिः। तस्मादुत्पत्त्य-मिव्यक्त्योः कार्यार्थापत्तितः समः॥ सामर्थभेदः सर्वत्र स्यात् प्रयत्न-विवक्षयोः" । इति, [ श्लो० वा० सू० ६, - श्लो० ७९-८३] एतदसंबद्धम् । इन्द्रियसंस्कारकाणां व्यञ्जकानां समानदेश-समानेन्द्रियग्राह्येष्वर्थेषु प्रतिनियतविषयग्राहकत्वेनेन्द्रियसंस्कारकत्वस्य कदाचिददर्शनात्; नह्यञ्जनादिना संस्कृतं चक्षुः सन्निहितं स्वविषयं किश्चित् पश्यति, किश्चिन्नेत्युपलब्धम् । तथा बाधिर्यनिराकरणद्वारेण वैलातैलादिना संस्कृतं श्रोत्रं स्वग्राह्यान् गकारादीन् वर्णानविशेषेणैवोपलभमानमुपलभ्यते; एवं घ्राणादीनीन्द्रि३.याणि स्वव्यजकैः संस्कृतानि स्वविषयग्राहकत्वेनाविशेषेण प्रवर्त्तमानानि प्रतीयन्त इति प्रकृतेऽप्य. यमेव न्यायो युक्तः। यश्च तैलाभ्यक्तस्य मरीचिमिः, भूमेस्तूदकसेकेन गन्धामिव्यक्तिरिति व्यञ्जकं प्रति नियमो दर्शितैः सोऽपि विषयसंस्कारकव्यञ्जकप्रतिनियमः नेन्द्रियसंस्कारकव्यञ्जकप्रतिनियमः । विषयसंस्कारकेश्वप्ययं नियमो भिन्नदेशेषु दर्शितः न समानदेश-समानेन्द्रियग्राह्येषु । तत इन्द्रियसंस्कारकेषु समानेन्द्रियग्राह्ये समानदेशेऽर्थे प्रतिनियतविषयग्राहकत्वेन इन्द्रियान्तरविषय३५ ग्राहकत्वेन च इन्द्रियसंस्कारकत्वस्यादर्शनाद् अत्यन्तासंभविनो नापत्तिसामर्थ्यात् कल्पना युक्ता; कारकाणां तु प्रतिनियतकार्यकर्तृत्वस्यान्यत्राप्युपलब्धेः प्रतिनियतवर्णोत्पादनसामर्थ्यभेदस्य ताल्वादिष्वर्थापत्तितः कल्पना संभाव्यत एव। किंच, इन्द्रियं संस्कुर्वद व्याकं यदि यथावस्थित. वर्णग्राहकत्वेनेन्द्रियसंस्कारं विदध्यात् तदा सकलनभस्तलव्यापिनो गादेः प्रतिपत्तिः स्यात्, न चासो दृष्टा; अथान्यथा, न तर्हि वर्णस्वरूपप्रतिभास इति न तत्स्वरूपसिद्धिः, तन्न श्रोत्रसंस्का' १० रोऽप्यमिव्यक्तिः । नाप्युभयसंस्कारोऽभिव्यक्तिः, प्रत्येकपक्षोक्तदोषप्रसङ्गात् । न चान्यप्रकार: संस्कारोऽमिव्यक्तिः संभवति, तद् अभिव्यक्तेरसंभवादू नानमिव्यक्तिनिमित्तोऽन्तराले गादीनाम १च कां०, गु०। २ बला-गु०।३ प्र. पृ. पं०१६। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदाऽपौरुषेयत्वपरीक्षणम। नुपलम्मः किन्तु दलितनखशिखरादिप्पियाभावनिमित्त इति लनपुनर्जातनखादिविवापान्तरा. लादर्शनेन गादिप्रत्यमिक्षाया वाध्यमानत्वादप्रामाण्यम। अथ खण्डितपुनरुदिनकररुहममूह विषयाया अपि प्रत्यमिझायास्तत्सामान्य विषयन्वेन नाप्रा. माण्यम्, तस्यास्तद्विपयतयाऽयाध्यमानत्वात् न चायं प्रकागे गादिविषयप्रत्यमिनायाः सम्भवति, तथाभूतकेशादिग्विव गादिभेद विषयावाधिनप्रतिभासाभावेन तद्भदासिद्धा समानानां भावः सामा. ५ न्यम्' इति कृत्वा तत्र सामान्यस्यैवासम्भवान्, अमदेतत् : गादिष्यपि 'पूर्वोपलब्धगादेः सका. शाद् अयमल्पः महान् कर्कशः मधुगे वा गादिः' इत्यवाधिताभजप्रतिभाससद्भावेन भेद निवन्धनसामान्यसम्भवस्य न्यायानुगतत्वात् । न च यथा तुरगजवस्य पुरुऽध्यारोपात् 'पुरुषो याति' इति प्रत्ययः व्यपदेशश्च तथा व्यञ्जकध्वनिगतस्याल्प-कर्कशादेर्गादावुपचारात् तथाप्रत्ययः व्यपदेशश्चेत्यभ्युपगन्तुं शक्यम्, तथाऽभ्युपगमे वाहीके गोप्रत्ययवद् गादिप्रत्ययस्य भ्रान्तत्वेन १० गादिस्वरूपासिद्धिप्रसङ्गात् नहि भ्रान्तप्रत्ययसंवेद्या द्विचन्द्रादयः स्वरूपसंगतिमनुभवन्ति । न चाल्प-महत्त्वप्रत्यययोन्तित्वे अल्प-महत्त्वे एव गादिविषये अव्यवस्थितस्वरूप न पुनर्गादिको वर्णः, तत्प्रत्ययस्याभ्रान्तत्वात् : न चान्यविषयप्रत्ययस्य भ्रान्तत्वेऽन्यस्य तथाभावोऽतिप्रसङ्गादिति वक्तुं युक्तम्, यतो यद्यल्प-महत्त्वादिधर्मव्यतिरिक्तस्य गादेईित्वरहितस्येव निशीथिनीनाथस्य प्रत्ययविषयत्वं स्यात् तदैव तदू युज्येतापि वक्तुम् : न च स्वप्नेऽपि तद्धर्मानध्यासिनो गादिः केनचित् १५ प्रतीयत इति कथं तस्य महत्त्वादिधर्मरहितस्य स्वरूपव्यवस्था ? अत एव महत्त्वादिधर्मयुक्तस्य सर्षदा प्रतीयमानत्वादू गादेन तद्धर्मयुक्ततया प्रतीयमानस्य उपचरितप्रत्ययविषयता । तदुक्तम् ___ "यो ह्यन्यरूपसंवेद्यः संवेद्येतान्यथाऽपि वा। स भ्रान्तो न तु तेनैव यो नित्यमुपलभ्यते" ॥ [ ] इति । तन्न व्याकधर्माध्यारोपादुपचरितप्रत्ययविषयत्वं तथाभूतस्य गादेः, सर्वभावानामुपचरितप्रत्यय-२० विषयत्वेन स्वरूपाभावप्रसङ्गात् । न च व्यञ्जकस्य प्रदीपादेरल्प-महत्त्वभेदाद् व्यङ्गयस्य घटादेरल्पमहत्त्वभेदप्रतिभासो दृष्टः । अथ व्याकधमोनुकारित्वं व्यङ्गये उपलभ्यते । तथाहि-एकस्वरूपमपि मुखं खड्ने प्रतिविम्बितं दीर्घम्, आदर्श वर्तुलम्, नीलकाचे गौरमपि श्यामं व्यञ्जकधर्मानुकारितया प्रतिभासविषयमुपलभ्यत इति प्रकृतेऽपि तथा स्यात् , एतदप्यसङ्गतम् ; दृष्टान्तमात्रादासिद्धेः, तस्य हि साध्य-साधनप्रतिबन्धसाधकप्रमाणविषयतया साध्यसिद्धावुपयोगो न स्वतन्त्रस्य, अन्यथा-२५ "एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः” [ अमृतविन्दु-उपनि० प० १२, पृ० १५] इत्यादिष्टान्तमात्रतोऽद्वैतवा दिनोऽपि पुरुषाद्वैतसिद्धः शब्दस्वरूपस्याप्यभावात् कस्योपचाराद् महत्त्वादिप्रतिभास इत्युच्यते? मुखादीनां च छाया खड्गादो संक्रान्ता तद्धर्मानुकारिणी प्रतिभाति न मुखादयः। न च गादीनां छाया व्यञ्जकध्वनिसंक्रान्ता तद्धर्मानुकारिणी प्रतिभातीति शक्यं वक्तुम्, शब्दस्य भवताऽमूर्त्तत्वेनाभ्युपगमात् , अमूर्तस्य च मूत्तध्वनी छायाप्रतिबिम्ब-३० नाऽसंभवात् ; मूर्तीनामेव हि मुखादीनां मूर्ते आदर्शादौ छायाप्रतिबिम्बनं दृष्टं नामूर्तीनामात्मादीनाम् । अदृ च ध्वनौ छाया प्रातविम्बिताऽपि न गृह्यत कयं तद्धर्मानुकारितया प्रतीतिविषयः? न च ध्वनेः शब्दप्रतिभासकाले श्रवणप्रतिपत्तिविषयत्वम्, उभयाकारप्रतिपत्तरसंवेदनात्। तन्न व्यञ्जके ध्वनी प्रतिबिम्बिता गकारादिच्छाया प्रतिभाति । नाप्यमूर्त गादी ध्वनिच्छायाप्रतिबिम्बनं युक्तम्, अमूर्ते आकाशादौ घटादिच्छायाप्रतिबिम्बनानुपलब्धेः । तदयुक्तमुक्तम् ३५ 'खङ्गादौ दीर्घमुखादिप्रतिभासवद् अल्प-महत्त्वादियुक्तशब्दप्रतिभासः' इति, दृष्टान्त-दान्तिक। योर्वेषम्यात् । अतोऽबाधितमहत्त्वादिभेदमिन्नगादिप्रतिभासाद् गादिभेदसिद्धस्तन्निबन्धनस्य सामा. न्यस्य गादौ सद्भावात् तन्निबन्धना प्रत्यमिक्षा दलितोदितनखशिखरादिग्विव गादावभ्युपगमनीया। अत एव धूमादीनामिवानित्यत्वेऽपि गादीनां सामान्यसद्भावतः सङ्गत्यवगमस्य सभवाद् १ प्रन्याप्रम् १४०० । २ "सामान्यविषयत्वप्रयोज्याबाभ्यमानत्वप्रयोज्याप्रामाण्याभावरूपः" गु. टि. । ३-ओन्तित्वे कां., गु०। ४ प्रतिबिम्बसाधक का., गु०। ५ अत्र 'इति' अध्याहार्यम् । ६ प्र. पृ. पं. २३। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे न परार्थशब्दोच्चारणान्यथाऽनुपपत्त्या तन्नित्यत्वकल्पना युक्ता, तद् गत्वादिविशिष्टस्य गादेरविवक्षितविशेषस्य स्वार्थेन सङ्गत्यवगमेन न किञ्चिन्नित्यत्वेन । यथा गोत्वादिविशिष्टस्य गोव्यक्तिमात्रस्य वाच्यत्वे न कश्चिद्दोषस्तद्वद् वाचकत्वेऽपि, तद् अर्थप्रतिपादकत्वस्य अन्यथापि सम्भवात् 'दर्शनस्य परार्थत्वाद् नित्यः शब्दः' इत्ययुक्तमभिहितम् । यत् पुनरुक्तम् 'सदृशत्वेनाग्रहणाद् न ५सादृश्यादर्थप्रतिपत्तिः'इति, तत्र यदि सदृशपरिणामलक्षणं सामान्य व्यक्तेः सादृश्यमभिप्रेतं तदा तस्य यथा व्यक्तिविशेषणस्य वाचकत्वं तथा प्रतिपादितम् । अथ अन्यथाभूतं सादृश्यमत्र विवक्षितं तदा तस्य वाचकत्वानभ्युपगमात् स एव परिहारः । यत्तूक्तम् 'वर्णानां निरवयवत्वाद् न भूयोऽवयवसामान्ययोगलक्षणस्य सादृश्यस्य सम्भवः' तदत्यन्तासङ्गतम्; वर्णानां भाषावर्गणारूपपरिणतपुद्गलपरिणामस्यैव सावयवत्वात्। १० अथ पोद्गलिकत्वे वर्णानां महती अदृष्टकल्पना प्रसज्यते। तथाहि-शब्दस्य श्रवणदेशाऽऽग मनम् , मूर्ति-स्पर्शादिमत्त्वं च अनुपलभ्यमानं परिकल्पनीयम्; तेषां च मूर्ति-स्पर्शानां सतामप्यनुद्भूतता कल्पनीया, त्वगग्राह्यत्वं च परिकल्पनीयम्; ये चान्ये सूक्ष्मा भागास्तस्य कल्प्यन्ते तेषां च शब्दकरणवेलायां सर्वथाऽनुपलभ्यमानानां कथं रचनाक्रमः क्रियताम् ? उपलभ्यमानत्वेऽपि कीदृशाद् रचनाभेदाद् गकारादिवर्णभेदः ? द्रवत्वेन च विना कथं वर्णावयवानां परस्प१५ रतः संश्लेषो वर्णनिष्पादकः ? यद्यपि च कथञ्चित् कर्ता निष्पादिता वर्णास्तथापि आगच्छतां कथं न वायुना विश्लेषः ? लघूनां तदवयवानामुदकादिनिबन्धनाभावात् निबद्धानामप्यागच्छतां वृक्षाद्यमिहतानां विश्लेषो लोष्टवत् । न चैकशब्दस्यैकश्रोत्रप्रवेशे मुर्तत्वेन प्रतिबद्धत्वादन्येषां श्रोतृणां तद्देशव्यवस्थितानामपि श्रवणमुपपद्यते, प्रयत्नान्तरस्यासत्वेन पुनर्निष्क्रमणासम्भवात् । न चैकगो शब्दापेक्षयाऽवान्तरवर्णनानात्वकल्पनायामस्ति प्रयोजनम् , एकस्मादेव गोशब्दादर्थप्रतीते; अतो २०गकारादिवर्णनानात्वमदृष्टं परिकल्पनीयम् । न चैकस्यैव गोशब्दावयविनः सर्वासु दिक्ष गमनं युज्यत इत्यनेकाऽदृष्टपरिकल्पना स्यात् । तदुक्तम् "शब्दस्याऽऽगमनं तावदृष्टं परिकल्प्यते ॥ मर्ति-स्पर्शादिमत्वं च तेषाममिभवः सताम् । त्वगग्राह्यत्वमन्ये च सूक्ष्मा भागाःप्रकल्पिताः॥ तेषामदृश्यमानानां कथं च रचनाक्रमः?। कीदृशाद् रचनाभेदादू वर्णभेदश्च जायताम् ? ॥ द्रवत्वेन विना चैषां संश्लेषः कल्प्यतां कथम् ?। आगच्छतां च विश्लेषो न भवेद् वायुना कथम् ? ॥ लघवोऽवयवा ह्येते निबद्धा न च केनचित् । वृक्षाद्यभिहतानां तु विश्लेषो लोष्टवद् भवेत् ॥ एकश्रोत्रप्रवेशे च नान्येषां च पुनः श्रुतिः। न चावान्तरवर्णानां नानात्वस्यास्ति कारणम् ॥ न चैकस्यैव सर्वासु गमनं दिक्षु युज्यते"। [श्लो० वा० सू० ६, श्लो० १०७-११३] इति , ३५ एतद् भवत्पक्षेऽपि सर्व समानम् । तथाहि-वायोरागमनं तावदष्टं परिकल्प्यते' इत्याद्यपि वक्तुं शक्यत एव, केवलं वर्णस्थाने वायुशब्दः पठनीय इति कथं न भवत्पक्षेऽपि भूयस्यदृष्टपरिकल्पना? अपि च, भवत्पक्षेऽयमपरः परिकल्पनागौरवदोषः सम्पद्यते-वर्णस्य पूर्वाऽपरकोट्योः सर्वत्र देशेऽनुपलभ्यमानस्य सत्त्वं परिकल्पनीयम्, तस्य चावारकाः स्तिमिता वायवः प्रमाणतोऽ नुपलभ्यमानास्तदपनोदकाश्चान्ये तथाभूता एव व्यञ्जकाः परिकल्पनीयाः, तेषां चोभयरूपाणामपि ४०शक्तिनानात्वं परिकल्पनीयम् । अस्मत्पक्षे तत् सर्वमपि नास्तीते कथमदृष्टपरिकल्पना गुर्वी ? १ स्वार्थे संगत्यवगमे न वा०, पू०, बा०। २ पृ० ३३ पं० १ ३ पृ. ३३ पं० ३। ४ शक्तिविशेषणस्य वा०, पू०, बा० विना सर्वत्र। ५ पृ. ३४ पं० ३। ६ पृ. ३३ पं. ८ । ७-मलस्येव (-मत्वे. नैव) वा०, बा०, पू० । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदाऽपौरुषेयत्वपरीक्षणम् । पौगलिकत्वं च शब्दस्य अम्बरगुणप्रतिषेधप्रस्तावे प्रमाणोपपन्नं करिष्यत इस्यास्तां तावत् । यत् पुनन्तित्वं शब्दादर्थप्रत्ययस्याभिहितं तद् धूमाल्लिङ्गाल्लिङ्गिप्रत्ययेन प्रत्युक्तम् । 'गत्वादिविशिष्टस्य गादेर्वाचकत्वमयुक्तम् , गत्वादेः सामान्यस्यासम्भवात्'; तद् अनन्तरं निराकृतम् । यत् पुनरुक्तम् 'गादिव्यक्तिमात्रं गत्वादिविशिष्टं नोपपद्यते, तस्य सामान्य-विशेषयोरन्यतरत्रान्तर्भावे एकत्र वाचकस्य नित्यत्वपसङ्गात्, अन्यत्रानन्वयात् वाचकत्वायोगात्' एतदसारम: व्यक्तिमात्रस्य सामा- ५ न्यविशिष्टस्य पूर्व वाचक त्वव्यवस्थापनात्, ता एव व्यक्तयोऽविवक्षितासाधारणविशेषाः सामान्यविशिष्टव्यक्तिमात्रशब्दामिधेयाः। किंच, किं वर्णानां नित्यत्वमभ्युपगम्यते, उत वर्णक्रमस्य, आहोस्विद् वर्णाभिव्यक्तेः, किं वा तत्क्रमस्य? तत्र न तावदभिव्यक्तेर्नित्यत्वम् , तस्या निषिद्धत्वात्; अनिषेधेऽपि पुरुषप्रयत्नप्रेरितवायुजन्यत्वेनापौरुषेयत्वासम्भवात् । नाप्यभिव्यक्तिक्रमस्य, अभिव्यक्त्यभावे तत्क्रमस्याप्यभावात्,१० तत्पौरुषेयत्वे तस्यापि पौरुषेयत्वात् । अथैवं पौरुषेयत्वस्यानादिसिद्धस्य केनचिदादावकृतस्य सर्वपुरुषैः परिग्रहात पुरुषाणां स्वातच्याभावादपौरुषेयत्वमुच्यते । तदुक्तम् "वक्ता नहि क्रम कश्चित स्वातन्येण प्रपद्यते । यथैवास्य परैरुक्तः तथैवैनं विवक्षति ॥ परोऽप्येवं ततश्चास्य संबन्धवदनादिता। तेनेयं व्यवहारात् स्यादकौटस्थ्येऽपि नित्यता ॥ यत्नतः प्रतिषेध्या नः पुरुषाणां स्वतन्त्रता"। [ श्लो० वा० सू० ६, श्लो० २८८ २९० ] इति, एतदसंबद्धम् ; अपौरुषेयत्वप्रतिपादकप्रमाणस्यासिद्धत्वात् । अथ वर्णक्रमस्यापौरुषेयत्वमभ्युपगम्यते, तदप्यचारु; वर्णानां नित्यत्वेन कालकृतस्य तन्तुपटवद्, व्यापकत्वेन देशकृतस्य मुक्ताव-२० लीमुक्ताफलमालावद् अस्यासंभवात् । 1अथ वर्णानामपौरुषेयत्वमङ्गीक्रियते, तदप्यसङ्गतम् ; “य एव लौकिकाः शब्दास्त एव वैदिकाः" इत्यभिधानाद् वेदवल्लोकायतशास्त्रमपि प्रमाणं स्यादिति तदर्थानुष्ठानं भवतः प्रसज्यते । लौकिके च वाक्ये यो विसंवादः क्वचिदपलभ्यते स भवन्नीत्या न प्राप्नोति । अथ लौकिक-वैदिकशब्दयोर्भेदोऽभ्युपगम्यते, तथा (तदा) रागादिसमन्वितत्वाभ्युपगमात् सर्वपु-२५ रुषाणां न तेषां यथावस्थितवेदार्थपरिज्ञानमः स्वयं वेदोऽपि न भवतां वेदार्थ प्रतिपादयति; नापि वेदार्थप्रतिपादकमपौरुषेयं वेदव्याख्यानमवगतार्थ सिद्धं येन ततो वेदार्थप्रतिपत्तिः लौकिकशब्दानुसारेण वेदशब्दार्थप्रकल्पनमपि तद्भेदाभ्युपगमेऽनुपपन्नमिति न वेदार्थप्रसिद्धिः स्यादिति न वैदिक-लौकिकशब्दयोर्भेदाभ्युपगमः श्रेयानिति लौकिकवद वैदिकस्यापि पौरुषेयत्वमभ्युपगन्तव्यम् । न च लौकिक-वैदिकशब्दयोः शब्दस्वरूपाविशेषे, सङ्केतग्रहणव्यपेक्षत्वेनार्थप्रतिपादकत्वे, ३० अनुच्चार्यमाणयोश्च पुरुषेणाश्रवणे संम्यते (समाने )अपरो विशेषो विद्यते यतो वैदिका अपी. रुषेयाः, लौकिकाः पौरुषेयाः स्यः । तथा नियोगे चार्थप्रत्यायनमुभयोरपि । न च नित्यत्वे पुरुषेच्छावशादर्थप्रतिपादकत्वं युक्तम, उपलभ्यन्ते च यत्र पुरुषैः सङ्केतितास्तमर्थमविगानेन प्रति. पादयन्तः; अन्यथा नियोगाद्यर्थभेदपरिकल्पनमसारं स्यात् । अतः पौरुषेयत्वमनुमानादवसीयते । तथाहि-ये नररचितरचनाऽविशिष्टास्ते पौरुषेयाः, यथाऽमिनवकृप-प्रासादादिरचनाऽविशिष्टा ३५ जीर्णकूप-प्रासादादयः, नररचितवचनरचनाऽविशिष्टं च वैदिकं वचन मिति प्रयोगः। न चात्राऽऽश्रयासिद्धो हेतुः, वैदिकीनां रचनानां प्रत्यक्षत उपलब्धेः। नाप्यप्रसिद्ध विशेषणः पक्षः, अमिनव १ पृ. ३३ पं०६। २ पृ. ३३ पं० २७। ३ पृ० ३३ पं० १०। ४ पृ० ३४ पं०३। ५ पृ० ३३ पं० १८ । ६ पृ० ३४ पं०३। ७ पृ. ३४ पं. ३३ । ८ वा०, पू०, बा०, मां० विना सर्वत्र सस्यते । सत्यतो भा०, गु० । प्रमेयकमलमार्तण्डे अत्र स्थले एवं पाठः-"न च लौकिक-वैदिकशब्दयोः शब्दखरूपाविशेषे, संकेतग्रहणस. व्यपेक्षत्वेन अर्थप्रतिपादकत्वे, अनुच्चार्यमाणयोश्च पुरुषेण अश्रवणे समाने अन्यो विशेषो विद्यते यतो वैदिका अपौरुषेयाः शब्दाः, लौकिकास्तु पौरुषेयाः स्युः"-(पृ. ११६, पं०६-७)। ९ नियोगः संकेतः । नियोगं भा०, गु०, वि., का• विना। १० वियोगाद्यर्थ-वा०, गु०, भा० विना। ११ नररचितरचना- गु० । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. प्रथमे काण्डे कूप-प्रासादादिषु पुरुषपूर्वकत्वेऽस्य साध्यधर्मलक्षणस्य विशेषणस्य सिद्धत्वात् । न च हेतोः स्वरूपासिद्धत्वम्, वैदिकीषु वचनरचनासु विशेषग्राहकप्रमाणाभावेन तस्याभावात् । न चाऽप्रा. माण्याभावलक्षणो विशेषस्तत्र इति शक्यमभिधातुम्, तथाभूतस्य विशेषस्य विद्यमानस्यापि पौरुषेयत्वानिराकरणात्: यादृशो हि विशेष उपलभ्यमानः पौरुषेयत्वं निराकरोति तादृशस्य विशेष५स्याभावादविशिष्टत्वमुच्यते, न पुनः सर्वथा विशेषाभावात्; एकान्तेनाविशिष्टस्य कस्यचिदभा. वात् । अप्रामाण्याभावलक्षणश्च विशेषो दोषवन्तमप्रामाण्यकारणं पुरुषं निराकरोति, न च गुणवन्तमप्रामाण्य निवर्त्तकम् । न च गुणवतः पुरुषस्याभावात् अन्यस्य च तेन विशेषेण निवर्तितत्वात् सिद्धमेवापौरुषेयत्वं वेदे इत्यभ्युपगमनीयम्, अपौरुषेयत्वस्य निराकृतत्वाद; गुणवत्पुरुषाभावेs. प्रामाण्याभावलक्षणस्य विशेपस्याभावप्रसङ्गात् । न च गुणवतः पुरुषस्यान्येन विशेषेण निराकरण१० मिति तथाभूतविशेषस्याभावाद् नासिद्धो नररचितवचनरचनाऽविशिष्टत्वलक्षणो हेतुः । पौरुषे. येषु प्रासादादिषु नररचितरचनाऽविशिष्टत्वदर्शनादपौरुषेयेष्वाकाशादिष्वदर्शनाच नानकान्तिकः। अथापौरुषेयेष्वदृष्टमपि नररचितरचनाऽविशिष्टत्वं तत्र विरोधाभावादाशयमानं सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनैकान्तिकम् , न; अपौरुषेयेष्वपि नररचितरचनाऽविशिष्टत्वस्य भावे पौरुषेयत्वेन निश्चिंतेषु प्रासादादिषु सकृदपि तस्य सद्भावो न स्यात्, अन्यहेतुकस्य ततः कदाचिदप्यभावात्। १५भावे वा तहेतुक एवासाविति नापौरुषेये तस्य सद्भावः शङ्कनीयः । अत एव न विरुद्धः, पक्ष. धर्मत्वे सति विपक्ष एव वृत्तिर्यस्य स विरुद्धः, न चास्य विपक्षे वृत्तिरिति प्रतिपादितम् । नापि कालात्ययापदिष्ट-प्रकरणसमाऽप्रयोजकत्वानि हेतोर्दोषाः सम्भवन्ति । तथाहि-प्रत्यक्षाऽऽग. मबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वं हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वमुच्यते, न च यत्र स्वसाध्याविना भूतो हेतुर्धर्मिणि प्रवर्त्तमानः स्वसाध्यं व्यवस्थापयति तत्रैव प्रमाणान्तरं प्रवृत्तिमासादयत् तमेव २०धर्म व्यावतयतिः एकस्यैकदैकत्र विधि-प्रतिषेधयोर्विरोधात् । तन्न वाधाऽविनाभावयोः सम्भव इति न कालात्ययापदिष्टत्वमविनाभूतस्य हेतोर्दोषः संभवति । प्रकरणसमत्वमपि प्रतिहेतोर्विप. रीतधर्मसाधकस्य प्रकरणचिन्ताप्रवर्तकस्य तत्रैव धर्मिणि सद्भाव उच्यते, न च स्वसाध्याविनाभूतहेतुसाधितधर्मणो धर्मिणो विपरीतत्वं संभवतीति न विपरीतधर्माधायिनो हेत्वन्तरस्य तत्र प्रवृ. त्तिरिति न प्रकरणसमत्वमविनाभूतस्य हेतोर्दोषः । अप्रयोजकत्वं तु पक्षधर्माऽन्वय-व्यतिरेका२५ णामन्यतमरूपाभावः, न च प्रकृते हेतौ तदभाव इति दर्शितम् । अथाऽनुमानलक्षणयुक्तस्य प्रत्यनुमानस्यापौरुषेयत्वसाधकस्य सद्भावात् प्रकरणसमता प्रकृतस्य हेतोः, अनुमानबाधितत्वं वा पक्षस्य दोषः प्रत्यनुमानं च दर्शितम् "वेदाध्ययनमखिलं गुर्वध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाऽध्ययनं यथा"॥[श्लो० वा० सू०७, श्लो०३६६] इति । ३० न चैतदाशङ्कनीयम्-एवंविधे प्रत्यनुमानेऽभ्युपगम्यमाने कादम्बर्यादीनामप्यपौरुषेयत्वसिद्धिः, यतस्तेषु बाणादीनां कर्तृणां निश्चयः; तथाहि-कालिदासकृतत्वेन कुमारसंभवादीनि काव्यानि अविगानेन स्मर्यन्ते । अथ वेदेऽपि कर्तृस्मरणमस्ति, तथा च केचिद् हिरण्यगर्भ वेदानां कर्त्तार स्मरन्ति, अपरे अष्टकादीन् ऋषीन् , सत्यम्, अस्ति न त्वविगीतं यथा भारतादिषु, तथा छिन्नमूलं च । स्मरणस्यानुभवो मूलम्, न च वेदे कर्तृस्मरणस्य केनचित् प्रमाणेन मुलानुभवो व्यवस्थापयितुं ३५शक्यः; यदपि कर्तृसद्भावप्रतिपादकं वचनं कैश्चित् कृतम्-"हिरण्यगर्भः समवर्तताने" [ऋग्वेद अष्ट० ८ मं०१०, सू० १२१] इत्यादि, तदपि मन्त्राऽर्थवादानां श्रूयमाणेऽर्थे प्रामाण्यायोगाद् न तत्सद्भावावेदकम् । तदुक्तम् "भारतेऽपि भवेदेवं कर्तृस्मृत्या तु बाध्यते । वेदे तु तत्स्मृतिर्या तु साऽर्थवादनिबन्धना" ॥ [श्लो० वा० सू०७, श्लो० ३६७], ४०पतदप्ययुक्तम् । यतः किमत्र प्रतिसाधनत्वेन विवक्षितम् ? किमध्ययनशब्दवाच्यत्वम्, उत कर्तु १ न च प्रामाण्याभावलक्षणो वा०, बा०, पू० विना सर्वत्र। २ निश्चितेषु एषु प्रासा-गु०। ३ प्र. पृ.पं० ११। ४ धर्मिणि गु०। ५पृ० ३९ पं० ३६ । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदाऽपौरुषेयत्वपरीक्षणम् । रस्मरणम् ? पूर्वस्मिन् पक्षे निर्विशेषणो वा हेतुरपौरुषेयत्वप्रतिपादकः, कर्वस्मरणविशिष्टो वा ? निर्विशेषणस्य निश्चितकर्तृकेषु भारतादिष्वपि भावादनैकान्तिकत्वम् । किंच, किं यथाभूतानां पुरुषाणामध्ययनपूर्वकं दृष्टं तथाभूतानामेवाध्ययनवाच्यत्वमध्ययनपूर्वकत्वं साधयति, उत अन्यथाभूतानाम् ? यदि तथाभूतानां तदा सिद्धसाधनम् । अथान्यथाभूतानां तदा सन्निवेशादिवदप्रयोजको हेतुः। अथ तथाभूतानामेव साधयति न च सिद्धसाधनम् , सर्वपुरुषाणामतीन्द्रियार्थ- ५ दर्शनशक्तिवैकल्येन अतीन्द्रियार्थप्रतिपादकप्रेरणाप्रणेतृत्वासामर्थ्येनेदृशत्वात् ; स्यादेतदू यदि प्रेरणायास्तथाभूतार्थप्रतिपादनेऽप्रामाण्याभावः सिद्धः स्यात्, यावता गुणवद्वक्तुरभावे तहुणैरनिराकृतैर्दोषैरपोदितत्वात् सापवादं प्रामाण्यमित्युक्तम् । तथाभूतां च प्रेरणामतीन्द्रियदर्शनशक्ति. विकला अपि कर्तुं समर्था इति कुतस्तथाभूतप्रेरणाप्रणेतृत्वासामर्थ्येन सर्वपुरुषाणामीदशत्वसिद्धि. र्यतः सिद्धसाधनं न स्यात् ? अथ न गुणवद्वक्तृकृतत्वेन चोदनाया अप्रामाण्यनिवृत्तिः किन्त्वपौ-१० रुषेयत्वेन, ततो नायं दोषः; ननु कुतः पुनरपौरुषेयत्वं चोदनाया अवगतम् ? यद्यन्यतोऽनुमानात् तदा तत एवापौरुषेयत्वसिद्धर्व्यर्थ प्रकृतमनुमानम् । अत एवानुमानाच्चत् , नन्वतोऽनुमानादपौरुषेयत्वसिद्धौ प्रेरणाया अप्रामाण्याभावः, तदभावाच्च तथाभूतप्रेरणाप्रणेतृत्वासामर्जेन सर्वपुरु. पाणामीहशत्वसिद्धिरितीतरेतराश्रयदोषसद्भावः । अतः स्थितमेतत्-तथाभूतानां तथाभूताध्यय. नसाधने सिद्धसाधनम् ; तन्न निर्विशेषणो हेतुः प्राक्तनोऽपौरुषेयत्वं साधयति । अथ सविशेषणो १५ हेतुः पूर्वोक्तः प्रकृतसाध्यगमकस्तदा विशेषणस्यैव केवलस्य गमकत्वाद् विशेष्योपादानमनर्थकम् । भवतु विशेषणस्यैव गमकत्वं सर्वथा अपौरुषेयत्वसिझ्या नः प्रयोजनमिति चेत्, असदेतत् । यतः कस्मरणं विशेषणं किमभावाख्यं प्रमाणम्, अर्थापत्तिः, अनुमानं वा? यद्यभावाख्यमिति पक्षः, सन युक्तः, अभावप्रमाणस्य प्रामाण्याभावात् । किंच, सदुपलम्मकप्रमाणपञ्चकनिवृत्तिनिबन्धना अस्य प्रवृत्तिरभ्युपगम्यते भवता “प्रमाणपञ्चकं यत्र" [श्लो वा० सू० ५, अभाव० श्लो० १]२० इत्याद्यभिधानात्, न च प्रमाणपञ्चकस्य वेदे पुरुषसद्भावाऽऽवेदकस्य निवृत्तिः, नररचितरचनाऽविशिष्टत्वस्य पौरुषेयत्वप्रतिपादकत्वेनानुमानस्य प्रतिपादनात् । न चास्याऽप्रामाण्यमभिधातुं शक्यम्, यतोऽस्याऽप्रामाण्यं किम् अभावप्रमाणबाधितत्वेन, उत स्वसाध्याविनाभाविवाभावेन ? तत्र न तावदभावप्रमाणबाधितत्वेन, चक्रकदोषप्रसङ्गात् । तथाहि-ज यावदभावनमाणप्रवृत्तिन तावत् प्रस्तुतानुमानबाधा, यावच्च न तस्य वाधा न तावत् सदुपलम्भकप्रमाणनित्तिः , यावच्च न तस्य २५ निवृत्तिर्न तावत् तन्निबन्धना अभावाख्यप्रमाणप्रवृत्तिः, तदप्रवृत्तौ च नानुमानबाधेति दुरुत्तरं चक्रकम्; तन्नाभावप्रमाणबाधितत्वात् प्रस्तुतानुमानस्याप्रामाण्यम् । न चाबाधितत्वमनुमानप्रामाण्य निबन्धनम्-तथाऽभ्युपगमे तस्य प्रामाण्यमेव न स्यात् । तस्य निश्चेतुमशक्यत्वात् । तथाहिबाधाऽभावो नानुपलम्मान्निश्चीयते, विद्यमानबाधकेष्वपि वाधानुपलम्भस्य भावात् । नापि बाध काभावज्ञानात्, यतस्तदपि ज्ञानं यदि तदैव बाधकामावं निश्चाययति तदा न तत् प्रामाण्यनि-३० बन्धनम् । तथाभूतज्ञानस्य संभवद्वाधकेष्वपि भावात् । अथ सर्वदा तद् बाधकामावं निश्वाययति, तदसत् 'न पूर्व बाधकमत्र प्रवृत्तम्, नाप्युत्तरकालं प्रवर्तिप्यते' इत्येवंभूतस्य ज्ञानस्यार्वाग्रहशामभावात् ; भावे वा तस्यैव सर्वज्ञत्वाद् न 'प्रेरणैव धर्म प्रमाणम्' इत्यन्ययोगव्यवच्छेदेन तद्विषयतप्रामाण्यावधारणोपपत्तिः स्यात्-किन्तु निश्चितस्वसाध्याविनाभूतलिङ्गप्रभवत्वम् । स्वसाध्या. विनाभावनिश्चायकं च प्रकृतस्य हेतोः पौरुषेयत्वेन कार्यकारणभावनिश्चायकम्, तदेव च३५ स्वसाध्यविपर्यये तस्य सद्भावबाधकम् , तस्य च प्रकते हेतौ सत्त्वेन दर्शितत्वाद् न तत्प्रभवस्यानुमानस्याप्रामाण्यम् । अत एव स्वसाध्याविनामावित्वाभावेन तस्य अप्रामाण्यम् इति द्वितीयोऽपि पक्षो न युक्तः, तन्नाभावाख्यं कर्चस्मरणलक्षणं प्रमाणम् अपौरुषेयत्वसाधकम्, नापि पौरुषेयत्वबाधकम् । अथ अर्थापत्तिः कर्बस्मरणम्, तदप्यसङ्गतम् ; अर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वात्। तहषणैश्चास्य पक्षस्य दूषितत्वात् । अथानुमानम्, तदप्यसङ्गतम् ; 'अपौरुषेयो वेद:४० कञस्मरणात्' इत्येवंप्रयोगे हेतोय॑धिकरणत्वदोषात् । अथ 'अमर्यमाणकर्तृकत्वात्' इति हेतुप्र. योगान्न व्यधिकरणत्वदोषस्तर्हि अस्मर्यमाणकर्तृकत्वं भारतादिषु निश्चितकर्तृकेष्वपि विद्यत इत्यनै. १ 'अध्ययनम्' इति शेषः। २ पृ. १९ पं० २३। ३ पृ. ३९ पं०३५। ४ संभवादू बाधके-भाग कां०, गु०। ५-कृतहेतौ भा०, मा०, अ०।६ पृ.४०५० १३ । स० त०६ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ प्रथमे काण्डेकान्तिकत्वम् । अथ आगमान्तरे परैः कर्तुः स्मरणात् ततो व्यावृत्तमस्मर्यमाणकर्तृकत्वमपौरुषेयत्वेन व्याप्यत इति नानैकान्तिकत्वम्, न; परकीयस्य कर्तुः स्मरणस्य भवता प्रमाणत्वेनानभ्युपगमात्, अभ्युपगमे वा परैवंदेऽपि कर्तुः स्मरणात् 'अस्मयमाणकर्तृकत्वात्' इति प्रतिवाद्यसिद्धो भवतोऽप्यसिद्धः स्यात् । अथ वेदे सविगानं कर्तृविशेषविप्रतिपत्तेः कर्तृस्मरणमसत्यम् । तथाहि५ केचिद् हिरण्यगर्भम् , अपरेऽष्टकादीन् वेदस्य कर्तृन् स्मरन्तीति कर्तृविशेषविप्रतिपत्तिः । नन्वेवं कर्तृविशेषविप्रतिपत्तेस्तद्विशेषस्मरणमेवासत्यं स्यात् तत्र, न कर्तृमात्रस्मरणम्। अन्यथा कादम्बर्यादीनामपि कर्तृविशेषविप्रतिपत्तेः कर्तृमात्रस्मरणस्यासत्यत्वेन तत्राप्यस्मर्यमाणकर्तृकत्वस्य सद्भावात् पुनरप्यनैकान्तिकत्वं प्रकृतहेतोः। अथ वेदे कर्तृविशेषविप्रतिपत्तिवत् कर्तृमात्रेऽपि विप्रतिपत्तिरिति तत्र कर्तृस्मरणमसत्यम्, कादम्बर्यादीनां तु कर्तृविशेषे एव विप्रतिपत्तिर्न कर्तृमात्रे, तेन तत्र कर्तुः १० स्मरणस्य विरुद्धस्य सत्यत्वादू नास्मर्यमाणकर्तृकत्वं तेषु वर्त्तत इति नानैकान्तिकत्वम् । ननु 'वेदे सौगताः कर्तृमात्रं स्मरन्ति न मीमांसकाः' इत्येवं कर्तृमात्रेऽपि विप्रतिपत्तेर्यदि कर्तृस्मरणं मिथ्या तदा कर्तृस्मरणवद् अस्मर्यमाणकर्तृकत्वमप्यसत्यं स्यात्, विप्रतिपत्तेरविशेषात्। तथा च पुनरप्यसिद्धो हेतुः। एतेन 'सत्यम्, वेदे कर्तृस्मरणमस्ति न त्वविगीतं, यथा भारतादिषु' इति निरस्तम् । यदप्युक्तम् 'तथा छिन्नमूलं च वेदे कर्तृस्मरणम् । तस्यानुभवो मूलम् , न चासो तत्र तद्विषयत्वेन १५ विद्यते' इति, तदप्यसङ्गतम् । यतः किं प्रत्यक्षेण तदनुभवाभावात् तत्र तच्छिन्नमूलत्वम् , उत प्रमाणान्तरेण ? तत्र यदि प्रत्यक्षेणेति पक्षस्तदा वक्तव्यम्-किं भवत्संबन्धिना प्रत्यक्षेण तत्र तदनुभवाभावः, उत सर्वसंबन्धिना तत्र तदनुभवाभावः? यदि भवत्संबन्धिना, तदाऽऽगमान्तरऽपि तत्कर्तृग्राहकत्वेन भवत्प्रत्यक्षस्याप्रवृत्तेस्तत्कर्तृस्मरणस्य छिन्नमूलत्वेनास्मर्यमाणकर्तृकत्वस्य भावा दनैकान्तिकः पुनरपि हेतुः । अथ सर्वसंबन्धिना प्रत्यक्षेणाननुभवः, असावसिद्धः, न ह्याग्दशा २. 'सर्वेषामत्र तद्ग्राहकत्वेन प्रत्यक्षं न प्रवृत्तिमत्' इति निश्चेतुं शक्यमिात तत्र तत्स्मरणस्य छिन्न मूलत्वासिद्धेः 'अस्सयमाणकर्तृकत्वात्' इत्यसिद्धो हेतुः। अथ प्रमाणान्तरेण तदनुभवाभाव:तत्रापि वक्तव्यम्-आगमलक्षणं किं तत् प्रमाणान्तरमभ्युपगम्यते, उत अनुमानस्वरूपम् अपरस्य प्रामाण्यासम्भवात् ? तत्र यद्यागमलक्षणेन तद्ननुभव इात पक्षः, स न युक्तः, "हिरण्यगर्भः सम वर्तताग्रे" [ऋग्वेद अष्ट. ८, मं०१०, सू० १२१ ] इत्यादेरागमस्य तत्र तत्सद्भावाऽऽवेदकस्य संभ२५ वात् । न च मन्त्रार्थवादानां स्वरूपार्थे प्रामाण्याभाव इति वक्तुं शक्यम्, यतो मन्त्राथवादानां स्वाभिधेयप्रतिपादनद्वारेण कार्यार्थोपयोगिता; तेषां तत्राप्रामाण्ये विध्यर्थाङ्गताऽपि न स्यात् । अथानुमानेन तत्र तदननुभवः, सोऽपि न युक्तः; अनुमानेन तत्र तदनुभवस्य प्रतिपादितत्वात् । अथानुपलम्भपूर्वकमस्मर्यमाणकर्तृकत्वं यद्यस्माभिहेतुत्वेनोच्येत तदा पूर्वोक्तप्रकारणासिद्धत्वाऽने कान्तिकत्वे स्याताम्, न तु तत्कनुपलम्भपूर्वकमस्मर्यमाणकर्तृकत्वं हेतुः किन्तु तद्भावपूर्वकम् । ३० नन्वत्रापि यदि तावः प्रमाणान्तरात् सिद्धस्तदाऽस्यानुमानस्य वेयर्थ्यम् । न च तदभावप्रात. पादकमन्यत् प्रमाणमस्तीत्युक्तम् । अस्मादेव अनुमानात् तद्भावसिद्धिस्तदाऽतोऽनुमानात् तद्भावसिद्धौ तत्पूर्वकमस्मर्यमाणकर्तृकत्वं सिध्यति, तत्सिद्धी चातोऽनुमानात् तदभावसिद्धिारतीतरेतराश्रयदोषात् तद्वस्थं सविशेषणस्याप्यस्य हेतोरसिद्धत्वम् । अथ मतं यत्र सिद्धकरीकेषु भावेष्वस्मर्यमाणकर्तृकत्वं तत्र कर्तुः स्मरणयोग्यता नास्तीति निर्विशेषणस्यानेकान्तिकत्वम्। वाद३५ कीनां तु रचनानां सति पौरुषेयत्वेऽवश्यं पुरुषस्य कर्तुः तदर्थानुष्ठानसमयेऽनुष्ठातॄणां स्मरणं स्यात्, ते हि अदृष्टफलेषु कर्मस्वेवं निर्विचिकित्साः प्रवर्त्तन्त यदि तषां तद्विषयः सत्यत्वनिश्चयः, तस्याप्येवंभावो यदि तदुपदेष्टः स्मरणम् , यथा पित्रादिप्रामाण्यवशात् स्वयमदृष्टफलप्वाप कर्मसु तदुपदेशात् प्रवर्तन्ते-पित्रादिभिरेतदुपदिष्टं तेनानुष्ठीयते-एवं वैदिकेष्वपि कर्मस्वनुष्ठीयमानेषु तत्र स्मरणं स्यात् ; न चाभियुक्तानामपि वेदार्थानुष्ठातृणां त्रैवर्णिकानां कर्तुः स्मरणमात्त, अतः स्मरण४० योग्यस्य कतुरस्मरणात् अपौरुषेयो वेदः, एवं चायं हेत्वर्थ:-कतुः स्मरणयोग्यत्वऽपि सति अस्मार्थमाणकर्तृकत्वात् अपौरुषेयो वेदः। न चैवंविधस्य हेतोः सिद्धकर्तृकेषु भावेषु वृत्तिः, अतो नानेकान्तिकः; यत्र पौरुषेयत्वं तत्र सविशेषणो हेतुर्न संभवतीति विरुद्धत्वमापे न विद्यते, विपक्षे वर्तमानः १ पृ. ४. पं०३३ । २०४०५०३३। ३ स्वरूपेऽर्थ भां०। ४ पृ. ३९ पं. ३५। २१५० ३८-पृ. ३१ पं०९।६ ब्राह्मण-वैश्य-क्षत्रियाणाम्" गु०, भा०टि। ५ पृ. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञवादः। सपक्षेऽसन् विरुद्ध उच्यते, अस्य तु सविशेषणस्य प्रसिद्धपौरुषेये वस्तुन्यप्रवृत्तिः, नापि सपक्षे आकाशादौ असत्त्वम् ; अतः परिशुद्धान्वय-व्यतिरेकहेतुसद्भावात् कर्तृस्मरणयोग्यत्वे सति अस्मर्यमाणकर्तृकत्वात् अपौरुषेयो वेदः सिध्यति तदप्यसंबद्धम्। आगमान्तरेऽपि 'कर्तः स्मरणयोग्यत्वे सति अमर्यमाणकर्तृकत्वात्' इत्यस्य हेतोः सद्भावबाधकप्रमाणाभावेन सद्भावसंभवात संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनैकान्तिकत्वस्य तदवस्थत्वात् । किंच, विपक्षविरुद्धं हि विशेषणं विपक्षाद् ५ व्यावर्त्तमानं स्वविशेष्यमादाय निवर्त्तत इति युक्तम्, न च पौरुषेयत्वेन सह कर्तुः स्मरणयोग्यत्वस्य सहानवस्थानलक्षणः, परस्परपरिहारस्थितलक्षणो वा विरोधः सिद्धः; सिद्धौ वा तत एव साध्यसिद्धः 'अस्मर्यमाणकर्तृकत्वात्' इति विशेष्योपादानं व्यर्थम् । यदप्युक्तम् 'तदर्थानुष्ठानसमयेऽवश्यंतया त्रैवर्णिकानामनिश्चिततत्प्रामाण्यानामप्रवृत्तिप्रसङ्गात् सति कर्तरि तत्स्मरणं स्यात्, न चाभियुक्तानामपि तदस्ति' इति, तद् आगमान्तरेऽपि समानं नवेति चिन्त्यतां स्वयमेव । न चायं १० नियमः-अनुष्ठातारोऽमिप्रेतार्थानुष्ठानसमये तत्कर्तारमनुस्मृत्यैव प्रवर्तन्ते, न हि पाणिन्यादिप्रणीतव्याकरणप्रतिपादितशाब्दव्यवहारानुष्ठानसमये तदनुष्ठातारोऽवश्यंतया व्याकरणप्रणेतारं पाणिन्यादिकमनुस्मृत्यैव प्रवर्त्तन्त इति दृष्टम्; निश्चिततत्समयानां कर्तृस्मरणव्यतिरेकेणाप्यविलम्बेन 'भवति' आदिसाधुशब्दोच्चारणदर्शनात् । तत् स्थितमेतत्-सविशेषणस्यापि 'अस्मर्यमाणकर्तृकत्वात्' इति हेतोर्वादिसंबन्धिनोऽनैकान्तिकत्वम्, प्रतिवादिसंबन्धिनोऽसिद्धत्वम्, सर्वसंब-१५ न्धिनोऽपि तदेवेति नास्माद्धेतोरपौरुषेयत्वसिद्धिः। अतोऽपौरुषेयत्वप्रसाधकप्रमाणाभावाच्छासनस्थापौरुषेयत्वासम्भवे यदि सर्वज्ञप्रणीतत्वं नाभ्युपगम्यते तदा प्रामाण्यमपि न स्यात् । तथा च 'धर्मे प्रेरणा प्रमाणमेव' इत्ययोगव्यवच्छेदेनावधारणमनुपपन्नम् । अथ प्रेरणाप्रामाण्य सिद्ध्यर्थ सर्वज्ञः प्रेरणाप्रणेताऽभ्युपगम्यते तदा “चोदनैव च भूतम्, भवन्तम् , भविष्यन्तम् , सूक्ष्मम् , व्यवहितम्एवंजातीयकमर्थमवगमयितुमलम्, नान्यत् किश्चनेन्द्रियम्" इत्याद्यभिधानमसङ्गतं प्राप्नोतीत्युभ-२० यतः पाशारजर्मीमांसकस्य । तत् स्थितमेतद् आचार्येण मीमांसकापेक्षया प्रसङ्गसाधनमेतदुपन्यस्तम्-यदि सिद्धं शासनमभ्युपगम्यते भवद्भिस्तदा जिनानां तत्-जिनप्रणीतम्-अभ्युपगन्तव्यमिति ॥ [सर्वज्ञवादः ] [पूर्वपक्षः-सर्वज्ञसत्तानिरसनम् ] अथ भवतु प्रेरणाप्रामाण्यवादिनां मीमांसकानामेतत् प्रसङ्गसाधनम् , ये तु तदप्रामाण्यवादि-२५ नश्चार्वाकास्तान् प्रति, स्वप्रतिपत्तौ वा भवतः किं प्रमाणम् ? न च प्रमाणाविषयस्य सदृव्यवहारविषयत्वं युक्तम् । तथाहि-ये देश-काल-स्वभावविप्रकर्षवन्तः सदुपलम्भकप्रमाणविषयभावमनापन्ना भावा न ते प्रेक्षावतां सद्व्यवहारपथावतारिणः, यथा नाकपृष्ठादयस्तथात्वेनाभ्युपगमविषयाः, तथा च समस्तवस्तुविस्तारव्यापिज्ञानसंपत्समन्वितःपुरुष इति सदृव्यवहारप्रतिषेधफलाs. नुपलब्धिः । न चासिद्धो हेतुः । तथाहि-सकलपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानाङ्गनालिङ्गितः पुरुषः३० प्रत्यक्षसमधिगम्यो वा अभ्युपगम्येत, अनुमानादिसंवेद्यो वा? न तावद्ध्यक्षगोचरः, प्रतिनियतसंनिहितरूपादिविषयनियमितसाक्षात्करणस्वभावा हि चक्षुरादिकरणव्यापारसमासादितात्मलामा ज्ञप्तयो न परस्थं संवेदनमात्रमपि तावदालम्बितुं क्षमाः किमङ्ग ! पुनरनाद्यनन्तातीताऽनागतवर्तमान-सूक्ष्मादिस्वभावसकलपदार्थसाक्षात्कारिसंवेदनविशेषम्, तदध्यासितं वा पुरुषम् अविषये चक्षुरादिकरणप्रवर्तितस्य ज्ञानस्य प्रवृत्त्यसम्भवात् ? सम्भवे वाऽन्यतमकरणप्रवर्तितस्यापि३५ ज्ञानस्य रूपादिसकलविषयग्राहकत्वेन संभवात् शेषेन्द्रियपरिकल्पना व्यर्था । न च सूक्ष्मादिसम• स्तपदार्थग्रहणमन्तरेण प्रत्यक्षण तत्साक्षात्करणप्रवृत्तज्ञानग्रहणम् , ग्राह्याग्रहणे तद्ग्राहकत्वस्यापि तद्गतस्य तेनाग्रहणात् । तदग्रहे च तद्धर्माध्यासितसंवेदनसमन्वितस्यापि न प्रत्यक्षतःप्रतिपत्तिः। नाप्यनुमानतः सकलपदार्थज्ञप्रतिपत्तिः, अनुमानं हि निश्चितस्वसाध्यधर्म-धर्मिसंबन्धादू हेतोरुदयमासादयत् प्रमाणतामानोति प्रतिबन्धश्च समस्तपदार्थज्ञसत्त्वेन स्वसाध्येन हेतोः किं प्रत्यक्षेण ४० १पृ० ४२ पं० ३५। २-प्यविलम्बित 'भवति'-वा०, पू०, बा०, गु० । ३ सूक्ष्ममव्यवहित-भा०, का०, गु०। ४ "चोदना हि भूतम् , भवन्तम् , भविष्यन्तम् , सूक्ष्मम् , व्यवहितम्, विप्रकृष्टम्-इत्येवंजातीयकमर्थ शक्कोत्सवगमयितुं नान्यत् किश्चनेन्द्रियम्"-मीमां० शाब० सू० २, पृ० ३, पं० १२ । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ प्रथमे काण्डे गृह्यते. उतानुमानेन ? न तावदध्यक्षेण, अध्यक्षस्यात्यक्षशानवत्सस्वसाक्षात्करणाक्षमत्वेन तदवगतिनिमित्तहेतुप्रतिबन्धग्रहणेऽप्यक्षमत्वात्। न ह्यनवगतसंबन्धिना तद्गतसंबन्धावगमो विधातुं शक्यः। नाप्यनुभानेन तद्गतसंबन्धावगमः, तथाभ्युपगमेऽनवस्थे-तरेतराश्रयदोषद्वयानतिवृत्तेः। न चाऽगृहीतप्रतिबन्धातोरुपजायमानमनुमानं प्रमाणतामासादयति । तथा, धर्मिसंबन्धावग५मोऽपि न प्रत्यक्षतः, अनमज्ञानवत्प्रत्यक्षेऽक्षप्रभवस्याध्यक्षस्याप्रवृत्तेः प्रवृत्तौ वाऽध्यक्षेणैव सर्वविदः संवेदनाद् अनुमाननिबन्धनहेतुव्यापारणं व्यर्थम् । न चानुमानतोऽप्यनक्षज्ञानवतोऽवगमः, हेतुपक्षधर्मतावगममन्तरेणानुमानस्यैव धर्मिग्राहकस्याप्रवृत्ते न चाप्रतिपन्नपक्षधर्मत्वो हेतुः प्रतिनियतसाध्यप्रतिपत्तिहेतुरिति नानुमानतोऽपि सर्वज्ञप्रतिपत्तिः। किंच, सर्वसत्तायां साध्यायां त्रयीं दोषजाति हेतु तिवर्तते असिद्ध-विरुद्धाऽनकान्तिकलक्षणाम् । तथाहि-सकलसत्त्वे साध्ये किं १०भावधर्मों हेतुः, उताभावधर्मः, आहोस्विदुभयधर्मः? तत्र यदि भावधर्मस्तदाऽसिद्धः । अथा. भावधर्मस्तदा विरुद्धः, भावे साध्येऽभावधर्मस्याभावाव्यभिचारित्वेन विरुद्धत्वात् । अथोभयधर्मस्तदोभयाव्यभिचारित्वेन सत्तासाधनेऽनैकान्तिकत्वमिति न सकलसत्त्वसाधने कश्चित् सम्यग् हेतुः सम्भवति । अपि च, यद्यनियतः कश्चित् सकलपदार्थज्ञः साध्योऽभिप्रेतस्तदा तत्कृ. तप्रतिनियतागमाश्रयणं नोपपन्नं भवताम् । अथ प्रतिनियत एक एवार्हन् सर्वज्ञोऽभ्युपगम्यते तदा १५ तत्साधने प्रयुक्तस्य हेतोरपरसर्वशस्याभावेन दृष्टान्तानुवृत्त्यसंभवादसाधारणानैकान्तिकत्वादसा धकत्वम् । किंच, यत एव हेतोः प्रतिनियतोऽर्हन् सर्वज्ञस्तत एव बुद्धोऽपि स स्यादिति कुतः प्रतिनियतसर्वज्ञप्रणीतागमाश्रयणमुपपत्तिमत् ? इति न कश्चित् सर्वज्ञसाधको हेतुः । अथ सर्वे पदार्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वात् अग्न्यादिवदिति तत्साधनहेतुसद्भावः, तदसत् ; यतोऽत्र किं सकलपदार्थसाक्षात्कार्येकज्ञानप्रत्यक्षत्वं सर्वपदार्थानां सोध्यत्वेनाऽऽभिप्रेतम् , आहोस्विद् प्रति२०नियतविपयानेकज्ञानप्रत्यक्षत्वमिति कल्पनाद्वयम् । यद्याद्यः पक्षः, स न युक्तः, प्रतिनियतरूपादिविषयग्राहकानेकप्रत्ययप्रत्यक्षत्वेन व्याप्तस्याश्यादिदृष्टान्तधर्मिणि प्रमेयत्वलक्षणस्य हेतोरुपलम्भाद हेतुविरुद्धत्व-साध्यविकलदृष्टान्तदोषद्वयाघ्रातत्वात् । अथ द्वितीयः, सोऽप्यसङ्गतः; सिद्धसाध्यतादोषप्रसङ्गात् । तथा, प्रमेयत्वमपि हेतुत्वेनोपन्यस्यमानं किमशेषज्ञेयव्यापिप्रमाणप्रमेयत्वव्यक्तिलक्षणमभ्युपगम्यते, उत अस्मदादिभमाणप्रमेयत्वव्यक्तिस्वरूपम्, आहोस्वित् उभयव्यक्ति२५साधारणसामान्यस्वभावम् इति विकल्पाः। तत्र यदि प्रथमः पक्षः, सन युक्तः; विवादाध्यासि तपदार्थेषु तथाभूतप्रमाणप्रमेयत्वस्यासिद्धत्वात्; सिद्धत्वे वा साध्यस्यापि हेतुवत् सिद्धत्वाद् व्यर्थ हेतूपादानम्, तथाभूतप्रमाणप्रमेयत्वस्य दृष्टान्तेऽग्न्यादिलक्षणेऽसिद्धेः संदिग्धान्वयश्च हेतुः स्यात् । अथ अस्मदादिप्रमाणप्रमेयत्वं हेतुस्तदा तथाभूतप्रमाणप्रमेयत्वस्य विवादगोचरेष्वतीन्द्रियेष्वसंभवादसिद्धो हेतुः; सिद्धौ वा ततस्तथाभूतप्रत्यक्षत्वसिद्धिरेव स्यात् तत्र चाविवाद ३० इति न हेतूपन्यासः सफलः । अथोभयप्रमेयत्वव्यक्तिसाधारणं प्रमेयत्वसामान्यं हेतुरिति पक्षा, सोऽप्यसङ्गतः; अत्यन्तविलक्षणातीन्द्रिय-इन्द्रियविषयप्रमाणप्रमेयत्वव्यक्तिद्वयसाधारणस्य सामान्यस्यासम्भवात्। न हि शाबलेय-कर्कव्यक्तिद्वयसाधारणमेकं गोत्वसामान्यमुपलब्धमिति प्रमेयत्वसामान्यलक्षणो हेतुरसिद्ध इति नानुमानादपि सर्वज्ञसिद्धिः। नापि शब्दात्, यतः शब्दोऽपि तत्प्रतिपादकोऽभ्युपगम्यमानः किं नित्यः, उतानित्य इति कल्पनाद्वयम् । न तावद् नित्यः, सर्वज्ञबो३५धकस्य नित्यस्याऽऽगमस्याभावात् ; भावेऽपि तत्प्रतिपादकत्वेन तस्य प्रामाण्यासम्भवात कार्येऽर्थे तत्प्रामाण्यस्य व्यवस्थापितत्वात् । अथानित्यस्तत्प्रतिपादक इति पक्षः, सोऽपि न युक्तः, यतोऽनित्योऽपि किं तत्प्रणीतः स तदवबोधकः, अथ पुरुषान्तरप्रणीत इति विकल्पद्वयम्। तत्र न सर्वशप्रणीतः स तदवबोधक इति पक्षो युक्तः, इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् । तथाहि-तत्प्रणीतत्वे तस्य प्रामाण्यम्, ततः तस्य तत्प्रतिपादकत्वमिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । नापि पुरुषान्तरप्रणीतस्तद४० वबोधकः, तस्योन्मत्तवाक्यवदप्रमाणत्वात् तन्न शब्दादपि तस्य सिद्धिः।नाप्युपमानात् तसिद्धिः, यत उपमानोपमेययोरध्यक्षत्वे सादृश्यालम्बनं तदभ्युपगम्यतेन चोपमानभूनः कश्चित् सर्वज्ञत्वेन प्रत्यक्षतः सिद्धो येन तत्सादृश्यादन्यस्य सर्वज्ञत्वमुपमानात् साध्यते; सिद्धौ या प्रत्यक्षत एव सर्व १ प्रमेयकमलमार्तण्डे तु "सर्वज्ञसत्वे साध्ये भावधर्मों हेतुः, अभावधर्मो वा स्यात् , उभयधर्मों वा ? प्रथमपक्षे असिद्धः, भावे असिद्धे तद्धर्मस्य सिद्धिविरोधात्"-पृ० ६८ पं० १५ । २ साध्यत्वेऽभि-भा० । ३ कर्कः श्वेतोऽश्वः। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञवादः। ४५ शस्य सिद्धत्वानोपमानादपि तत्सिद्धिः। सर्वसद्भावमन्तरेणानुपपद्यमानस्य प्रमाणषट्रक विज्ञात. स्यार्थस्य कस्यचिदभावाद् नार्थापनेरपि सर्वज्ञसत्त्वसिद्धिः । न चागमप्रामाण्यलक्षणस्यार्थस्य तमन्तरेणानुपपद्यमानस्य तत्परिकल्पकत्वम, अतीन्द्रिये स्वर्गाद्यर्थ तत्प्रणीतत्वनिश्चयमन्तरेण तस्य प्रामाण्यानिश्चयात् अपौरुषेयत्वादपि तत्प्रामाण्यसंभवात् कुतस्तस्य तमन्तरेणानुपपद्यमानता? तन्नार्थापतितोऽपि तत्सिद्धिः। अभावाख्यस्य त प्रमाणस्याभावसाधकत्वेन व्यापारादन तत्स. ५ द्भावसाधकत्वम् । न चोपमानाऽर्थापत्त्य-भावप्रमाणानां भवता प्रामाण्यमभ्युपगम्यते इति न तेभ्यस्तत्सिद्धिः। तदुक्तम् "सर्वज्ञो दृश्यते तावन्नेदानीमस्मदादिभिः। दृष्टो न चैकदेशोऽस्ति लिङ्गं वा योऽनुमापयेत् ॥ न चागमविधिः कश्चिन्नित्यः सर्वज्ञबोधकः । न च मन्त्रार्थवादानां तात्पर्यमवकल्पते ॥ न चागमेन सर्वज्ञस्तदीयेऽन्योन्यसंश्रयात् । नरान्तरप्रणीतस्य प्रामाण्यं गम्यते कथम्?॥" [ श्लो० वा० सू० २, श्लो० ११७ ११९-११८] ततो 'ये देश-काल-' इत्यादिप्रयोगे नासिद्धो हेतुः। सद्यवहारनिषेधश्च अनुपलम्भमात्रनिमित्तः१५ अनेकधाऽनेन अन्यत्र प्रवर्तित इति अत्रापि तन्निमित्तसद्भावात् प्रवर्ती यतुं युक्तः। {अथ 'यथाऽस्माकं तत्सद्भावाऽऽवेदकं प्रमाणं नास्ति तथा भवतां तदभावाऽऽवेदकमपि नास्तीति सद्यवहारबदभावव्यवहारोऽपि न प्रवर्तयितव्यः । तथाहि-सर्वविदोऽभावः किं प्रत्यक्षसमधिगम्या, प्रमाणान्तरगस्यो वा? तत्र न तावत् प्रत्यक्षसमधिगम्यः' यतः प्रत्यक्षं सर्वज्ञाभावाऽऽवेदकमभ्युपगम्यमानं 'किं सर्वत्र सर्वदा सर्वः सर्वज्ञो न' इत्येवं प्रवर्तते, उत 'क्वचित् कदाचित् कश्चित् सर्वशो२० नास्ति' इत्येवम् इति कल्पनाद्वयम्। तत्र यदि 'सर्वत्र सर्वदा सर्वःसर्वज्ञो न' इति प्रत्यक्षस्य प्रवृत्तिस्तर्हि नसर्वज्ञाभावः, तज्ज्ञानवत एव सर्वज्ञत्वात् ;नहि सकलदेश-कालव्यवस्थितपुरुषपरिषत्साक्षात्करणमन्तरेण तदाधारमसर्वज्ञत्वमवगन्तुं शक्यम्, तत्साक्षात्करणे च कथं न तज्ज्ञानवतः सर्वज्ञत्वम् ? इति नाद्यः पक्षः। द्वितीयेऽपि पक्षेन सर्वथा सर्वज्ञाभावसिद्धिरिति न प्रत्यक्षात् सर्वज्ञाभावसिद्धिः। अथ न प्रवर्त्तमानं प्रत्यक्षं सर्वज्ञाभावसाधकं किंतु निवर्तमानम्। ननु यदि निखिलदेश-का-२५ लाधारसकलपुरुषपरिषदाश्रितानन्तपदार्थसंविद्यापकम् कारणं वा तत् स्यात् तदा तन्निवर्तमानं तथाभूतं सर्वज्ञत्वं व्यावर्त्तयेद् नान्यथा, अंतथाभूतनिवृत्तौ तन्निवृत्तेरसिद्धेः, तथाऽभ्युपगमे वा स एव सर्वश इति न तेन तनिषेधः । किंच, प्रत्यक्षनिवृत्तिर्यदि प्रत्यक्षमेव तदा स एव दोषः । अथ प्रत्यक्षादन्या तदाऽसौ प्रमाणम्, अप्रमाणं वा? अप्रमाणत्वे नातः सर्वज्ञाभावसिद्धिः । प्रमाणत्वे नानुमानत्वम्, सर्वाऽऽत्मसंबन्धिन्यास्तनिवृत्तेर्यथासङ्ख्यमसिद्धाऽनैका-३० न्तिकत्वदोषद्वयसद्भावात् । न च तुच्छा तन्निवृत्तिस्तदभावज्ञापिका, तुच्छायाः केनचित् सह प्रतिबन्धाभावेन सर्वसामर्थ्य विरहेण च ज्ञापकत्वासम्भवात् । तन्न प्रवर्त्तमानम्, निवर्तमानं वा प्रत्यक्षं तदभावं साधयति । प्रमाणान्तरगम्यत्वेऽपि तदभावो न तावदनुमानगम्यः, तदभावसाधकानुमानाभावात् । अथ 'विवादाध्यासितः पुरुषः सर्वज्ञो न भवति, वक्तृत्वात्, रथ्यापुरुषवत्' इत्यनुमानं तदभावसाधकम् , नन्वत्र किं प्रमाणान्तरसंवादिनोऽर्थस्य वक्तृत्वं हेतुः, उत तद्वि-३५ परीतस्य, आहोस्वित् वक्तृत्वमात्रमिति वक्तव्यम् । यदि 'प्रमाणान्तरसंवाद्यर्थस्य वक्तृत्वात्' इति हेतुस्तदा विरुद्धो हेतुः, तथाभूतवक्तृत्वस्य सर्वज्ञे एव भावात् । अथ 'प्रमाणान्तरविसंवादिनोऽर्थस्य वक्तृत्वात्' इति हेतुस्तदा सिद्धसाधनम् , तथाभूतस्य वक्तुरसर्वशत्वेनास्माभिरप्यभ्युपगमात् । अथ वक्तृत्वमात्रं हेतुः, न तस्य साध्यविपर्ययेण सर्वज्ञत्वेनानुपलब्धेन सहानवस्थानलक्षणस्य, तव्यवच्छेदस्वभावेन च परस्परपरिहारस्वरूपस्य च विरोधस्याभावाद् न ततो व्यावृ-४० त्तिसिद्धि रिति न स्वसाध्यनियतत्वम्। तदभावान्न स्वसाध्यसाधकत्वम् । अथ सर्वज्ञो वक्ता नोपलब्ध इति ततो व्यावृत्तिसिद्धिः, न; सर्वसंबन्धिनोऽनुपलम्भस्यासंभवात्-सर्वज्ञ एव वक्तृत्वमा. १ पृ० ४३ पं० २६ । २ तथाभूत भां०, वा० । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेत्मन्युपलप्स्यते सर्वशान्तरेण वा तत् तत्र संवेदिप्यते इति न सम्भवः सर्वसंबन्धिनोऽनुपलम्भस्य । अथ सर्वज्ञस्य कस्यचिदभावात सर्वसंबन्धिनोऽनुपलम्भस्य संभवः ननु सर्वज्ञाभावः कुतः सिद्धः? अन्यतः प्रमाणात् चेत्, तत एव तदभावसिद्धरस्य वैयर्थ्यम् । 'अत एवानुमानात्' इति म वक्तव्यम् , इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात्-सिद्धेऽतोऽनुमानात् सर्वज्ञाभावे सर्वसंबन्ध्यनुपलम्भसं५भवसामर्थ्याद हेतोर्विपक्षतो व्यावृत्तिः स्यात्, तस्य च विपक्षाद् व्यावृत्तस्य तत्साधकत्वमिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । भवतु वा सर्वसंबन्ध्यनुपलम्भसंभवस्तथापि सकलपुरुषचेतोवृत्तिविशेषाणामसर्वशेन ज्ञातुमशक्तेरसिद्धः सर्वसंबन्ध्यनुपलम्भ इति न ततो विपक्षव्यावृत्तिनिश्चयो वक्तत्वस्येति कुतःसंदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकाद् हेतोस्तदभावसिद्धिः? नापि स्वसंबन्धिनोऽनुपलम्भात् तद्यतिरे कनिश्चयः, तस्य स्वपितृव्यपदेशहेतुनाऽप्यनैकान्तिकत्वात् । न चैवंभूतादपि हेतोः साध्यसिद्धिः १० तथाऽभ्युपगमे 'न कश्चित् सर्वज्ञाभावमवबुध्यते, वक्तृत्वात्, रथ्यापुरुषवत्' इति तदभावावगमाभावस्यापि सिद्धिः स्यात् । अथान्यत्रापि हेतावयं दोषः समान इति सर्वानुमानोच्छेदः, तदयुक्तम् । अन्यत्र विपक्षव्यावृत्तिनिमित्तस्यानुपलम्भव्यतिरेकेण बाधकप्रमाणस्य सद्भावात् । न चात्रापि तस्य सद्भाव इति शक्यं वक्तुम् , तदभावस्य हेतुलक्षणप्रस्तावे वक्ष्यमाणत्वात् । किंच, सर्वज्ञप्रतिपादकप्रमाणाभावे तस्यासिद्धत्वात् तदभावसाधनायोपन्यस्यमानः सर्वोऽपि हेतुराश्रयासिद्ध इति १५न तस्मादभावसिद्धिः। अथ तह्राहकत्वेन प्रमाणं प्रवर्तत इत्याश्रयासिद्धत्वाभावस्तर्हि तत्साध कप्रमाणबाधितत्वात् पक्षस्य न तत्साधनाय हेतुप्रयोगसाफल्यमिति नानुमानावसेयः सर्वज्ञाभावः। अपौरुषेयत्वस्य प्राक्तनन्यायेनासिद्धत्वात् सर्वज्ञप्रणीतत्वानभ्युपगमे शब्दस्य पुरुषदोषसंक्रान्त्याऽप्रामाण्याद् न ततोऽपि तदभावसिद्धिः। न च तदभावाभिधायकं किञ्चिद् वेदवाक्यं श्रूयते, केवलं तद्भावाऽऽवेदकवेदवचनोपलब्धिरविगानेन समस्ति "अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः। स वेत्ति विश्वं नहि तस्य वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम्" ॥ [ श्वेताश्वत० ३-१९] तथा हिरण्यगर्भ प्रकृत्य "सर्वज्ञः” [ ] इत्यादि । न च स्वरूपेऽर्थे तस्याप्रामाण्यम्, तत्र तत्प्रामाण्यस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वात्। तन्न शब्दादपि तदभावसिद्धिः । नाप्युपमानात् तद्भा२५वावगमः, यत उपमानमुपमानोपमेययोरध्यक्षत्वे सादृश्यालम्बनमुदेति; अन्यथा "तस्माद् यत् स्मर्यते तत् स्यात् सादृश्येन विशेषितम् । प्रमेयमुपमानस्य सादृश्यं वा तदन्वितम्" ॥ [ श्लो० वा० सू० ५, उपमान० श्लो० ३७] इत्यभिधानात् प्रत्यक्षेणोपमानोपमेययोरग्रहणे उपमेयस्मरणासंभवात् कथं स्मर्यमाणपदार्थविशिष्टं ३० सादृश्यम् सादृश्य विशिष्टं वा स्मर्यमाणं वस्तु उपमानविषयः स्यात् ? तस्मादिदानींतनोपमानभूताशेषपुरुषप्रत्यक्षत्वम् , उपमेयाशेषान्यकालमनुष्यवर्गसाक्षात्करणं चावश्यमभ्युपगमनीयम्; तदभ्युपगमे च स एव सर्वज्ञ इति कथं उपमानात् तद्भावावगमो युक्तः? अतो यदुक्तम् “यजातीयैः प्रमाणैस्तु यजातीयार्थदर्शनम् । दृष्टं संप्रति लोकस्य तथा कालान्तरेऽप्यभूत्" ॥ [ श्लो० वा० सू० २, श्लो० ११३], ३५ तन्निरस्तम्: उपमानस्योक्तंन्यायेनात्र वस्तुन्यप्रवृत्तेः। नाप्यर्थापत्तितस्तदभावावगमः, तस्याः प्रमा णत्वेऽनुमानेऽन्तर्भूतत्वात् । तथाहि-"दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यत इत्यदृष्टार्थकल्पनाऽर्थापत्तिः” [ मीमां० शाबर० सू० ५, पृ०८, पं० १७] नै चासावर्थोऽन्यथानुपपद्यमानत्वानवगमे अदृष्टार्थपरिकल्पनानिमित्तम्-अन्यथा स येन विनोपपद्यमानत्वेन निश्चितस्तमपि परिकल्पयेत् येन विना नोपपद्यते तमपि वा न कल्पयेत्-अनवगतस्य अन्यथाऽनुपपन्नत्वेन अर्थापत्त्युत्थाप४० कस्यार्थस्य अन्यथाऽनुपपद्यमानत्वे सत्यप्यदृष्टार्थपरिकल्पकत्वासंभवात्संभवे वा लिङ्गस्याप्यनिश्चितनियमस्य परोक्षार्थानुमापकत्वं स्यादिति तदपि नार्थापत्त्युत्थापकादाद् भिद्येत । स चान्यथाऽनु. १ अनुपलम्भस्य सर्व-आत्मसंबन्धिरूपपूर्वोक्तविकल्पद्वयद्वारा विपक्षव्यावृत्त्यसाधकत्वे संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वरूपो दोषः। २-मेये स्मर-भां। ३ प्र० पृ० पं० २४ । ४ नास्त्यसावर्थो- का। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञवादः । पपद्यमानत्वावगमस्तस्यार्थस्य न भूयोदर्शननिमित्तः सपक्षे, अन्यथा 'लोहलेख्यं वज्रम्, पार्थिवत्वात्, काष्ठवत्' इत्यत्रापि साध्यसिद्धिः स्यात् । नापि विपक्षे तस्यानुपलम्भनिमित्तोऽसौ - व्यतिरेक नि श्चायकत्वेनानुपलम्भस्य पूर्वमेव निषिद्धत्वात् - किन्तु विपर्यये तद्वाधकप्रमाण निमित्तः; तच्च बाधकं प्रमाणमर्थापत्तिप्रवृत्तेः प्रागेवानुपपद्यमानस्यार्थस्य तत्र प्रवृत्तिमदभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथाऽर्थापत्त्या तस्यान्यथाऽनुपपद्यमानत्वावगमेऽभ्युपगम्यमाने यावत् तस्यान्यथाऽनुपपद्यमानत्वं नावगतं न ताव - ५ दर्थापत्तिप्रवृत्तिः, यावश्च न तत्प्रवृत्तिर्न तावदर्थापत्त्युत्थापकस्यार्थस्यान्यथानुपपद्यमानत्वावगम इतीतरेतराश्रयत्वान्नार्थापत्तिप्रवृत्तिः । अत एव यदुक्तम् ४७ "अविनाभाविता चात्र तदैव परिगृह्यते । न प्रागवगतेत्येवं सत्यप्येषा न कारणम् ॥ तेन संबन्धवेलायां संवन्ध्यन्यतरो ध्रुवम् । अर्थापत्त्यैव मन्तव्यः पश्चादस्त्वनुमानता " ॥ [ श्लो० वा० सू० ५, अर्थापत्ति० श्लो० ३०-३३ ] इत्यादि, तन्निरस्तम् एवमभ्युपगमेऽर्थापत्तेरनुत्थानस्य प्रतिपादितत्वात् । स च तस्य पूर्वमन्यथाऽनुपपद्यमानत्वावगमः किं दृष्टान्तधर्मिप्रवृत्तप्रमाणसंपाद्यः, आहास्वित् स्वमाध्यधर्मिप्रवृत्तप्रमाण संपाद्य इति ? तत्र यद्याद्यः पक्षस्तदाऽत्रापि वक्तव्यम् - किं तत् दृष्टान्तधर्मिणि प्रवृत्तं प्रमाणं साध्यध- १५ र्मिण्यपि साध्यान्यथाऽनुपपन्नत्वं तस्यार्थस्य निश्चाययति, आहोस्वित् दृष्टान्तधर्मिण्येव ? तत्र द्याद्यः पक्षस्तदाऽर्थापत्त्युत्थापकस्यार्थस्य लिङ्गस्य वा स्वसाध्यप्रतिपादनव्यापारं प्रति न कश्चिद् विशेषः । अथ द्वितीयः, स न युक्तः: नहि दृष्टान्तधर्मिणि निश्चितस्व साध्यान्यथाऽनुपपद्यमानवोsर्थोऽन्यत्र साध्यधर्मिणि तथा भवति । न च तथात्वेनानिश्चितः स साध्यधर्मिणि स्वसाध्यं परिकल्पयतीति युक्तम्, अतिप्रसङ्गात् । अथ लिङ्गस्य दृष्टान्तधर्मिप्रवृत्तप्रमाणवशात् सर्वोपसंहारेण २० स्वसाध्यनियतत्वनिश्वयः, अर्थापत्त्युत्थापकस्य त्वर्थस्य स्व साध्यधर्मिण्येव प्रवृत्तात् प्रमाणात् सर्वोपसंहारेणादृष्टार्थान्यथाऽनुपपद्यमानत्व निश्चय इति लिङ्गाऽर्थापत्त्युत्थापक योर्भेदः । नास्माद् भेदादर्थापत्तेरनुमानं भेदमासादयति । अनुमानेऽपि स्वमाध्यधर्मिण्येव विपर्ययाद्धेतुव्यावर्त्तकत्वेन प्रवृत्तं प्रमाणं सर्वोपसंहारेण स्वसाध्य नियतत्व निश्चायकमभ्युपगन्तव्यम् ः अन्यथा 'सर्वमनेकान्तात्मकम्, सत्त्वात्' इत्यस्य हेतोः पक्षीकृतवस्तुव्यतिरेकेण दृष्टान्तधर्मिणोऽभावात् कथं तत्र प्रवर्त्तमानं बाधकं २५ प्रमाणमनेकान्तात्मकत्व नियतत्वमवगमयेत् सत्त्वस्य । न च साध्यधर्मिणि दृष्टान्तधर्मिणि च प्रवर्त्त - मानेन प्रमाणेनार्थापत्त्युत्थापकस्यार्थस्य लिङ्गस्य च यथाक्रमं प्रतिबन्धो गृह्यत इत्येतावन्मात्रेणार्थापत्यनुमानयोर्भेदोऽभ्युपगन्तुं युक्तः, अन्यथा पक्षधर्मत्वसहितहेतुसमुत्थादनुमानात् तद्रहितहेतुसमुत्थमनुमानं प्रमाणान्तरं स्यादिति प्रमाणपट्टवादा विशीर्यत । नियमवतो लिङ्गात् परोक्षार्थप्रातपत्तेरविशेषादू 'न ततस्तद् भिन्नम्' इत्यभ्युपगमे स्वसाध्या विनाभूतादर्थादर्थप्रतिपत्तरविशेषादनु- ३० मानादर्थापत्तेः कथं नामेदः ? तदेवं प्रमाणत्वेऽर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावात् अनुमानस्य च सर्वशाभावप्रतिपादकस्य निषेधात् तन्निषेधे चार्थापत्तेरपि तदभावग्राहकत्वेन निषेधान्नार्थापत्तिसमधिगम्योऽपि सर्वज्ञाभावः । अभावाख्यं तु प्रमाणमप्रमाणत्वादेव न तदभावसाधकम् प्रमाणत्वेऽपि किमात्मनोऽपरिणामलक्षणं तत्, आहोस्विदन्यवस्तुविज्ञानलक्षणमिति ? तत्र यद्यात्मनोऽपरिणामलक्षणं तद्भावसाधकमिति पक्षः, स न युक्तः; तस्य सत्त्वेनाभ्युपगते परचेतोवृत्तिविशेषेऽपि सद्भा- ३५ वेनानेकान्तिकत्वात् । अथान्यविज्ञानलक्षणमिति पक्षः, सोऽप्यसंबद्धः; यतः सर्वशत्वादन्यद् यदि किञ्चिशत्वं तद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञानं तदाऽत्रापि वक्तव्यम् किं सकल देश - कालव्यवस्थित पुरुषाधारं किञ्चिज्ज्ञत्वम् अभ्युपगम्यते, आहोस्वित् कतिपय पुरुषव्यक्तिसमाश्रितमिति ? तत्र यदि समस्तदेशकालातिपुरुषाधारं किञ्चिज्शत्वं तद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञानं तत् सर्वशाभावप्रसाधकम्, तदयुक्तम्; सकलदेश - कालव्यवस्थित पुरुग्परिषत् साक्षात्करणव्यतिरेकेण तदाधारस्य किञ्चिज्ज्ञत्वस्य विषयी - ४० कर्तुमशक्तेर्न तद्विषयस्य तदन्यज्ञानस्य सर्वशाभावावगमनिमित्तत्वं युक्तम्; सर्वदेश - कालव्यवस्थि १ पृ० २१ पं० २१ । २ संबन्धान्यतरो का०, गु० । ३ प्र० पृ० पं० ७ । ४- त्मकनिय - गु० । ५० ४५ पं० ३३ । १० Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ प्रथमे काण्डेताशेषपुरुषसाक्षात्करणे च स एव सर्वदर्शी इति न तदभावाभ्युपगमः श्रेयान् । अथ कतिपय पुरुषव्यक्तिव्यवस्थितं किश्चिज्ज्ञत्वं तदन्यत् तद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञानं सर्वज्ञाभावावेदकम् , तदप्ययुक्तम् ; तज्ज्ञानात् तदभावावगमे कतिपयपुरुषव्यक्तिव्यवस्थितस्यैव सर्वशत्वस्याभावः सिध्येत्, न सर्वत्र सर्वदा सर्वपुरुषेषुः तथा च सिद्धसाधनम् , अस्माभिरपि कुत्रचित् कस्यचिद् रथ्यापुरुषादेर. ५सर्वज्ञत्वेनाभ्युपगमात् । अथ सर्वज्ञत्वादन्यस्तदभावस्तद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञानं तदाऽत्रापि किं 'सर्वदा सर्वत्र सर्वः सर्वज्ञो न' इत्येवं तत् प्रवर्तते, उत 'कुत्रचित् कदाचित् कश्चित् सर्वज्ञो न' इत्येवम् ? तत्र नाद्यः पक्षः, सकलदेश-कालपुरुषासाक्षात्करणे तदाधारस्य तदभावस्यावगन्तुमशक्यत्वात् प्रदेशाप्रत्यक्षीकरणे तदाधारम्य घटाभावस्येव, तत्साक्षात्करणे च तदेव सर्वज्ञत्वम् इति न तदभावसिद्धिः। अथ द्वितीयः पक्षस्तदान सर्वत्र सर्वदा सर्वज्ञाभावसिद्धिरिति तदेव सिद्ध१०साधनम् । 'प्रमाणपञ्चकनिवृत्तस्तदभावज्ञानम्' इत्यादि सर्व प्रतिविहितमिति नाभावप्रमाणादपि तभावावगमोऽभ्युपगन्तुं युकः । इत्यादि यत् तदप्यविदितपराभिप्रायस्य सर्वशवादिनोऽभिधानम् । यतो नास्माकम् 'अतीन्द्रियसर्वज्ञादि पदार्थबाधकं प्रत्यक्षादिप्रमाणं स्वतन्त्रं प्रवर्त्तते' इत्यभ्युपगमः-अतीन्द्रियेपु स्वतन्त्रस्य प्रत्यक्षादिप्रमाणस्य भवदभिहितप्राक्तनदोपदुष्टत्वेन प्रवृत्त्यसंभवात्-किन्तु प्रसङ्गसाधनाभिप्रायेण सर्वमेव सर्वज्ञप्रतिक्षेपप्रतिपादकं युक्तिजालमभिहितं यथा१५र्थमभिधानमुद्वहद्भिर्मीमांसकैः। अत एव तदभिप्रायप्रकाशनपर भगवतो जैमिनेः सूत्रम्-"सत्सम्प्रयोगे पुरुपस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत् प्रत्यक्षम्” [जैमि० सू०१-१-४] इति, यतो नानेनापि सूत्रेण स्वातम्येण प्रत्यक्षलक्षणमभ्यधायि भगवता किन्तु लोकप्रसिद्धलक्षणलक्षितप्रत्यक्षानुवादेन तस्य धर्म प्रत्यानिमित्तत्वं विधीयते। न चतदत्रापि वक्तव्यम्-कतरस्य प्रत्यक्षस्य धर्म प्रत्यानिमित्तत्वं विधीयते अस्मदादिप्रत्यक्षस्य, सर्वज्ञप्रत्यक्षस्य वा? अस्मदादिप्रत्यक्षस्य तदनिमित्तत्वप्रतिपादने २०सिद्धसाधनम् । सर्वज्ञप्रत्यक्षस्य भवन्मतेनाप्रसिद्धत्वाच्छशविषाणस्येव कथं तं प्रत्यानिमित्तताविधिः? अथापि स्यात् परेण तस्याभ्युपगतत्वात् तं प्रत्यनिमित्तत्वं तन्प्रसिद्ध्यवोच्यते, तदयुक्तम्। परीक्षापूर्वकत्वेनाभ्युपगमस्य स्थितत्वात्, तत्पूर्वकश्चेत् परस्याभ्युपगमस्तदा भवतोऽपि तस्य तद्भावः, परीक्षायाः प्रमाणरूपत्वात्। प्रमाणसिद्धं च न परस्यैव सिद्धम्, प्रमाणसिद्धस्य सर्वैरेवाभ्युपगमनीय. त्वात् । अथ प्रमाणव्यतिरेकेण परेण सर्वज्ञप्रत्यक्षमभ्युपगतं तदाऽसौ प्रमाणाभावादेव नाभ्युपगमो २५ युक्तः । न च प्रमाणाभ्युपगतस्यास्सदादिप्रत्यक्षविलक्षणस्य सर्ववित्प्रत्यक्षस्य तं प्रत्यनिमित्तत्वं विधातुं युक्तम् , यतोऽस्मदादिप्रत्यक्षविलक्षणवं सर्ववित्प्रत्यक्षस्य धर्मादिग्राइकत्वेनैव; तच्चेत् प्रमाणतोऽभ्यु. पगतम्, कथं तस्य तं प्रत्यानिमित्तत्वमुपपद्येत तदृग्राहकप्रमाणबाधितत्वात् ? किञ्च, अयं परस्परविरुद्धोऽपि वाक्यार्थः स्यात्-प्रमाणतो धर्मादिग्राहकं सर्ववित्प्रत्यक्षं यत् प्रसिद्धं तद धर्मादिग्राहक म भवतीति} यतो म प्रसङ्गसाधने आश्रयासिद्धत्वादिदृषणं क्रमते; नहिं प्रमाणमूलपराभ्युपगम३० पूर्वकमेव प्रसङ्गसाधनं प्रवर्तते. किं तर्हि ? 'यदि'अर्थाभ्युपगमदर्शनपूर्वकम् । अत एव 'प्रसङ्गसाधनस्य विपर्ययफलत्वम, विपर्ययस्य च अतीन्द्रियपदार्थविषयप्रत्यक्षनिषेधफलत्वम्, तनिषेधे च किं प्रत्यक्षस्य धर्मिणो निषेधः, अथ तद्धर्मस्य प्रत्यक्षत्वस्येति ? पूर्वस्मिन् पक्षे हेतूनामाश्रयासिद्धतेति प्रतिपादितम् । उत्तरत्र प्रत्यक्षत्वनिषेधे प्रमाणान्तरत्वप्रसक्तिः, विशेषप्रतिषेधस्य शेषाभ्यनुज्ञानल क्षणत्वात्' इति न प्रेर्यम्, यतो विशेषनिषेधे तस्य विशेषरूपत्वेन सत्त्वस्यैव प्रतिषेधः। न च धर्म्य३५ सिद्धत्वादिदोपः, 'यदि'अर्थस्याभ्युपगतत्वात् । कथं पुनरत्र प्रसङ्गः विपर्ययो वा क्रियते इति चेत्, तदुच्यते-'सार्वज्ञ प्रत्यक्षं यद्यभ्युपगम्यते तदा तदू धर्मग्राहकं न भवति, विद्यमानोपलम्भनत्वात् । न चासिद्धो हेतुः । तथाहि-विद्यमानोपलम्भनमतीन्द्रियार्थजप्रत्यक्षम्, सत्संप्रयोगजत्वात् । अस्याप्यसिद्धतोद्भावने एवं वक्तव्यम्-'विवादगोचरं प्रत्यक्षं सरसंप्रयोगजम्, प्रत्यक्षत्वात् तच्छब्दवाच्यत्वाद् वा, अस्मदादिप्रत्यक्षम् स दृष्टान्तः' इति प्रसङ्गः। विपर्ययस्त्वेवम्-'तधर्मग्राहकं चेते न ४० विद्यमानोपलम्भनम् , अविद्यमानत्वाद् धर्मस्य । अविद्यमानोपलम्भनत्वे न सत्संप्रयोगजम् । अस १-वस्याप्यभावः कां। २ कुत्रचिद रथ्या-गु० । ३० ४३ पं० २६-पृ. ४५ पं. ७। ४ पृ०४७ पं० ३३ । ५ "वृत्ति-सर्ग-तायने (हे. ३-३-४८) इत्यात्मनेपदम्" मां० टि०।६ "यदि'अङ्कितकारिकाप्रतिपादितार्थाभ्युपगमदर्शनपूर्वकम्" भा०, गु० टि.। ७० ४६ पं० १४। ८ सर्वस्यैव गु०, वि०, अ० । ९चेत् तर्हि अविद्यमा-वि०, आ०, वृ०। १० "भविष्यत्तया वर्तमानकाले अविद्यमानत्वम्" भां.टि.। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० दर्शनात् ॥ [ सर्ववादः। संप्रयोगजत्वे न प्रत्यक्षम्, नापि तच्छब्दवाच्यम्' । प्रसङ्गसाधनाभिप्रायेणैव 'यदि'अर्थोपक्षेपेण वार्तिककृताऽप्यभिहितम् "यदि षभिः प्रमाणैः स्यात् सर्वज्ञः केन वार्यते ॥ एकेन तु प्रमाणेन सर्वज्ञो येन कल्प्यते । नूनं स चक्षुपा सर्वत्रसादीन् ( सर्वान् रसादीन् ) प्रतिपद्यते ॥ यज्जातीयैः प्रमाणैस्तु यज्जातीयार्थदर्शनम् । दृष्टं संप्रति लोकस्य तथा कालान्तरेऽप्यभूत्" ॥ [ श्लो० वा० सू० २, श्लो० १११-११३] पुनरप्युक्तम् "येऽपि सातिशया दृष्टाः प्रज्ञा-मेधादिभिर्नराः। स्तोकस्तोकान्तरत्वेन न त्वतीन्द्रियदर्शनात् ॥ [ यत्राप्यतिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलहनात् । दूर-सूक्ष्मादिदृष्टौ स्यान्न रूपे श्रोत्रवृत्तितः" ॥ [ श्लो० वा० सू०२, श्लो० ११४ ] इत्यादि। तेनात्रापि 'स्वतन्त्रानुमानाभिप्रायेणाश्रयासिद्धत्वादिदर्षणम्' 'उपमानोपन्यासबुद्ध्या वाऽशेषोपमा-१५ नोपमेयभूतपुरुषपरिषत्साक्षात्करणे उपमानं प्रवर्त्तते' इत्यादि दूषणामिधानं च सर्वज्ञवादिनःस्वजात्याविष्करणमात्रकमेव । अतः 'अतीन्द्रियसर्वविदो न प्रत्यक्षं प्रवृत्तिद्वारेण निवृत्तिद्वारेण वाऽभावसाधनम्' इत्यादि सर्वमभ्युपगमवादान्निरस्तम् ।। यच्चानुमानेन सर्वज्ञाभावसाधने दूषणमभिहितम् 'किं प्रमाणान्तरसंवाद्यर्थस्य वक्तृत्वात्' इत्यादि, तद धूमाद म्यनुमानेऽपि समानम् । तथाहि-तत्रापि वक्तुं शक्यते-किं साध्य-२० धर्मिसंबन्धी धूमो हेतुत्वेनोपन्यस्तः, उत दृष्टान्तधर्मिसंबन्धी? तत्र यदि साध्यधर्मिसंबन्धी हेतुस्तदा तस्य दृष्टान्तेऽसंभवादनन्वयदोषः । अथ दृष्टान्तधर्मिसंबन्धी, सोऽसिद्धः; दृष्टान्त. धर्मिधर्मस्य साध्यधर्मिण्यसंभवात् । अथोभयसाधारणं धूमत्वसामान्यं हेतुस्तदा तस्य विप. क्षेऽनग्नौ विरोधासिद्धेः सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वेन स्वसाध्यागमकत्वम् । अथ विपक्षेऽनग्नौ धूमस्यानुपलम्भादू विरोधसिद्धर्न सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वम्। नन्वत्रापि वक्तुं शक्यम्-सर्व-२५ संबन्धिनोऽनुपलम्भस्यासंभवात् अनग्नौ देशान्तरे कालान्तरे वा केनचिदू धूमस्योपलम्भात् । तदुपलब्धिमतः कस्यचिदभावात् सर्वसंबन्धिनोऽनुपलम्भस्य संभव इति चेत्, केन पुनः प्रमाणेनानग्नौ धूमसत्त्वग्राहकपुरुषाभावः प्रतिपन्नः ? यद्यन्यतः प्रमाणात्, तत एवानग्ने—मस्य व्यावृत्तिसिद्धर्व्यर्थ सर्वसंबन्ध्यनुपलम्भलक्षणस्य विपक्षे धूमविरोधसाधकस्य प्रमाणस्याभिधानम् । अथ तथाभूतानुपलम्भात् तदभावावगमः, ननु तथाभूतपुरुषाभावे तदनुपलम्भसंभवः,३० तत्संभवाच्च तथाभूतपुरुषाभावसिद्धिरितीतरेतराश्रयत्वाद् न सर्वसंबन्धिनोऽनुपलम्भस्य संभवःः संभवेऽपि तस्यासिद्धर्न 'विपर्यये विरोधसाधकत्वम् । अथात्मसंबन्धिनोऽनुपलम्भस्य धूमत्वलक्षणहेतोर्विपक्षाद व्यावृत्तिसाधकत्वम्, नः तस्य परचेतोवृत्तिविशेषैरनैकान्तिकत्वात् । अथानुपलम्भव्यतिरिक्तं धूमलक्षणस्य हेतोविपर्यये बाधकं प्रमाणमस्ति न तु वक्तृत्वलक्षणस्य, किं पुनस्तदिति वक्तव्यम् ? अग्नि-धूमयोः कार्यकारणभावलक्षणप्रतिबन्धग्राहकमिति चेत्, क.३५ पुनरसौ कार्यकारणभावः, किं वा तब्राहकं प्रमाणम् ? अग्निभावे एव धूमस्य भावस्तदभावे चाभाव एव असो, तबाहकं च प्रमाणे प्रत्यक्षाऽनुपलम्भस्वभावम् । ननु किञ्चिज्ज्ञत्वस्य तद्यापकस्य वा रागादिमत्त्वस्य भावे एव वक्तृत्वस्य भावः स्वात्मन्येव दृष्टः, तदभावे चाऽभाव एवोपलादावविगानेनानुपलम्भतो ज्ञात इति कथं न विपर्यये सर्वज्ञत्वे वीतरागत्वे वा वक्तृत्वलक्षणस्य हेतो. र्बाधकं कार्यकारणभावलक्षणप्रतिबन्धग्राहकं प्रत्यक्षानुपलम्भाख्यं प्रमाणं दर्शनादर्शनशब्दवाच्यं ४० १ -ता भा० । २ पृ. ४६ पं० १४ । पं. ३५। ६ विपर्ययविरोधसा-मां। स.त.. ३ पृ. ४६ पं० २४-३१। ४ पृ० ४५ पं० ३२ । ५ पृ० ४५ -क्षाव्यावृत्ति-भां०, मा० । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डै युक्तम् ? न च दर्शनादर्शन शब्दवाच्यस्यास्मदभ्युपगतप्रमाणस्य प्रत्यक्षानुपलम्भशब्दवाच्यस्य वा भवदभिप्रेतस्य कश्चिद्विशेषः प्रकृत हेतु-साध्यप्रतिबन्धसाधने उपलभ्यते । अथ किञ्चित्व-रागादिवसद्भावेऽपि स्वात्मनि न तद्धेतुकं वक्तृत्वं प्रतिपन्नम् किन्तु वक्तृकामताहेतुकम् ; रागादिसद्भावेऽपि वक्तुकामताऽभावेऽभावाद् वचनस्य । नन्वेवं व्यभिचारे विवक्षाऽपि न वचने निमित्तं ५ स्यात्, तत्राप्यन्यविवक्षायामन्यशब्ददर्शनात्; अन्यथा गोत्रस्खलनादेरभावप्रसङ्गात् । अथार्थविवक्षाव्यभिचारेऽपि शब्दविवक्षायामव्यभिचारः, नः स्वप्नावस्थायाम् अन्यगतचित्तस्य वा शब्दविवक्षाऽभावेऽपि वक्तृत्वसंवेदनात् । न च व्यवहिता विवक्षा तस्य निमित्तमिति परिहारः, एवमभ्युपगमे प्रतिनियत कार्यकारणभावाभावप्रसङ्गात् सर्वस्य तत्प्राप्तेः । तन्न वक्तुकामतानिमित्तमयेकान्ततो वचनं सिद्धम्, व्यतिरेकासिद्धेः । अन्वयस्तु किञ्चिज्ज्ञत्वेन रागादिमत्त्वेन वा वचनस्य १० सिद्धो न वक्तुकामतया । अथ किञ्चिज्ज्ञत्वाद्यभावे सर्वत्र वक्तृत्वं न भवतीत्यत्र प्रमाणाभावानासर्वश- वक्तृत्वयोः कार्यकारणभावलक्षणः प्रतिबन्धः सिध्यति, तर्हि वह्न्यभावे धूमः सर्वत्र न भवतीत्यत्रापि प्रमाणाभावस्तुल्य इति न प्रतिबन्धग्रहः । अथान्यभावेऽपि यदि धूमः स्यात् तदाऽसौ तद्धेतुक एव न भवेदिति सकृदप्य हेतोरग्नेस्तस्य न भावः स्यात्, दृश्यते च महानसादावग्नित इति नानग्नेर्धूमसद्भाव इति प्रतिबन्धसिद्धिः । ननु यथेन्धनादेरेकदा समुद्भूतोऽपि १५ वहिरन्यदाऽरणितो मण्यादेर्वा भवन्नुपलभ्यते, धूमो वा वह्नित उपजायमानोऽपि गोपालघटिकादौ पावकोद्भूतधूमादप्युपजायते इत्यवगमस्तथा कदाचिदश्यभावेऽपि भविष्यतीति कुतः प्रतिबन्धसिद्धिः ? अथ यादृशो वह्निरिन्धनादिसामग्रीत उपजायमानो दृष्टो न तादृशोऽरणितो मण्यादेर्वा, धूमोsपि यादृशोऽग्नित उपजायते न तादृश एव गोपालघटिकादावग्निप्रभवधूमात् । अन्यादृशात् तदभावे तादृशत्वम हेतुकमिति न तस्य क्वचिदपि प्रतिनियमः स्यात्, अहेतोर्देश-काल-स्वभाव२० नियमायोगादिति नाग्निजन्यधूमस्य तत्सदृशस्य वाऽनग्नेर्भावः भावे वा तादृशधूमजनकस्याग्निस्वभा वतैवेति न व्यभिचारः । तदुक्तम् ५० "अग्निस्वभावः शक्रस्य मूर्द्धा यद्यग्निरेव सः । अथानग्निस्वभावोऽसौ धूमस्तत्र कथं भवेत् " ॥ [ [] इत्यादि । तदेतद्वक्तृत्वेऽपि समानम् । तथाहि यदि सर्वज्ञे वीतरागे वा वचनं स्याद् असर्वशाद् रागादियु२५ काद् वा कदाचिदपि न स्यात्, अहेतोः सकृदप्यसंभवात् भवति च तत् ततः । अतो न सर्वशे तस्य तत्सदृशस्य वा संभव इति प्रतिबन्धसिद्धिः । अथ देशान्तरे कालान्तरे वाऽसर्वज्ञकार्यमेव वचनं न सर्वशप्रभवमिति न दर्शनाऽदर्शनप्रमाणगम्यम् - दर्शनस्येय व्यापारासंभवात् अदर्शनस्य च प्रागेवैवंभूतार्थग्राहकत्वेन निषिद्धत्वात् तर्हि सर्वदाऽग्निप्रभव एव धूमोऽन्यभावे कदाचनापि न भवतीत्यत्रापि प्रत्यक्षस्य सन्निहितवर्त्तमानार्थग्राहकत्वेनाप्रवृत्तेः, अनुपलम्भस्यापि तद्विविक्तप्रदेश३० विषय प्रत्यक्षस्वभावस्यात्र वस्तुनि व्यापारासंभवाद् न कार्यकारणभावलक्षणः प्रतिबन्धः प्रत्यक्षानुपलम्भसाधनः स्यात् । नाप्यनुमानतोऽपि प्रकृतः प्रतिबन्धः सिद्धिमासादयति, इतरेतराश्रयानवस्थादोषप्रसङ्गस्य प्रदर्शितत्वात् । न चान्यत् प्रतिबन्धप्रसाधकं प्रमाणमस्तीति प्रसिद्धानुमानस्यापि सर्वज्ञाभावाऽऽवेदकानुमान निरासयुक्त्युपक्षेपमिच्छतोऽत्राभावः प्रसक्तः । अथ प्रसिद्धानुमाने साध्यसाधनयोः प्रतिबन्धः तत्प्रसाधकं च प्रमाणं किञ्चिदस्ति तर्हि स एव प्रतिबन्धः किञ्चिज्ज्ञत्व३५ वक्तृत्वयोः तत्प्रसाधकं च तदेव प्रमाणं भविष्यतीति सिद्धः प्रतिबन्धः किञ्चिज्ज्ञत्व- वक्तृत्वयोर - धूमयोरिव अत एव 'व्याप्याभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयको यत्र दर्श्यते तत् प्रसङ्गसाधनम्' इति तल्लक्षणस्य युष्मदभ्युपगमेनात्र सद्भावाद भवत्येवातोऽनुमानात् सर्वज्ञाभावसिद्धिः । पक्षधर्मताऽभावप्रतिपादन च यत् प्रकृतप्रसङ्गसाधने प्रतिपादितं तद् अभ्युपगमवादान्निरस्तम्, तत्र पक्षधर्मताया हेतोरभावेऽपि गमकत्वस्य सिद्धत्वात् । शेषस्तु पूर्वपक्षग्रन्थोऽनभ्युपगमान्निरस्त इति ४० न प्रत्युश्चार्य दूषितः । अतोऽयुक्तमुक्तम् 'सर्वज्ञवादिनां यथा तत्साधकप्रमाणाभावाद् न तद्विषयः सद्व्यवहारस्तथा तदभाववादिनां मीमांसकादीनां तद्भावग्राहकप्रमाणाभावादेव न तदभावव्यव हार:' इति, प्रसङ्गसाधनस्य तदभावसाधकस्य समर्थितत्वात् । १ जलवे रागा- कां० । २ वा भाव इति गु०, आ०, वि० । ३० २१ पं० २० । ४ पृ० २१ ६० १५ । ५ पृ० ४५ पं० १७ । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वशवादः । अथ यद् अभ्यासविकलचक्षुरादिजनितं प्रत्यक्षं तद् धर्मादिप्राहकं न भवतीति प्रसङ्गसाधनात् सिध्यति न पुनरवादग्भूतम्, चोदनावदन्यादशस्य धर्मग्राहकत्वाविरोधात् । ननु किं तज्ज्ञानं प्रतिनियतचक्षुरादिजनितं धर्मादिग्राहकम्, उताभ्यासजनितम् , आहोस्वित् शब्दजनितम्, किंवाऽनुमानप्रभावितम् ? तत्र यदि चक्षुरादिप्रभवम्, तदयुक्तम् चक्षुरादीनां प्रतिनियतरूपादिविषयत्वेन तत्प्रभवस्य तज्ज्ञानस्य धर्मादिग्राहकत्वायोगात् । अत एव "यदि ५ षद्भिः" इत्यांद्युक्तं दूषणमत्र पक्षे । अथाभ्यासजनितं तदिति पक्षा-तथाहि-शानाभ्यासात् प्रकर्षतरतमादिप्रक्रमेण तत्प्रकर्षसम्भवे तदुत्तरोत्तराभ्याससमन्वयात् सकलभावातिशयपर्यन्तं संवेदनमवाप्यत इति, तदपि मनोरथमात्रम्; यतोऽभ्यासो हि नाम कस्यचित् प्रतिनियतशिल्पकलादौ प्रतिनियतोपदेशसद्धाववतो जन्मतो जनस्य संभाव्यते न तु सर्वपदार्थविषयोपदेशसंभवः । न च सर्वपदार्थविषयानुपदेशज्ञानसंभवो येन तज्ज्ञानाभ्यासात् सकलज्ञानप्राप्तिः,१० तत्संभवे वा सकलपदार्थविषयज्ञानस्य सिद्धत्वात् किमभ्यासप्रयासेन? किंच, तदभ्यासप्रवर्तकं शानं यदि चक्षुरादिप्रतिनियतकरणप्रभवमप्यन्येन्द्रियविषयरसादिगोचरम् अतीन्द्रियार्थगोचरं च स्यात् तदा पदार्थशके प्रतिनियतत्वेन प्रमाणसिद्धाया अभावात् प्रतिनियतकार्यकारणभावाभा. वप्रसक्तिसद्भावात् सकलव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः । अथाभ्याससहायानां चक्षुरादीनामपि सर्वज्ञाव. स्थायामतीन्द्रियदर्शनशक्तिर्न च व्यवहारोच्छेदः, अस्मदादिचक्षुरादीनामनभ्यासदशायां शक्तिप्र-१५ तिनियमाद् अस्मदादय एव व्यवहारिण इति, एतदप्यसमीचीनम् ; न खल्वभ्यासे सत्यप्यन्यतो वा हेतोः कस्यचिदतीन्द्रियदर्शनं चक्षुरादिश्य उपलभ्यते; दृष्टानुसारिण्यश्च कल्पना भवन्तीति । किंच, सर्वपदार्थवेदने चक्षुरादिजनितज्ञानात् तद्भ्यासः, तत्सहायं च चक्षुरादिकं सर्वशावस्थायां सर्वपदार्थसाक्षात्कारिक्षानं जनयतीति कथमितरेतराश्रयमेतत् कल्पनागोचरचारि चतुरचेतसो भवत इति न द्वितीयोऽपि पक्षो युक्तिक्षमः। अथ शब्दजनितं तज्ज्ञानम्, ननु शब्दस्य तत्प्रणीतत्वेन प्रामाण्ये २० सर्वपदार्थविषयज्ञानसंभवः, तज्ज्ञानसंभवे च सर्वज्ञस्य तथाभूतशब्दप्रणेतृत्वमितीतरेतराश्रयदोषा. नुषणः । अत एवोक्तम्"नर्ते तदागमात् सिध्येद् न च तेनागमो विना" । [श्लोक. वा० सू० २, श्लो. १४२] इति । न च शब्दजनितं स्पष्टाभमिति न तज्ज्ञानवान् सकलश इत्यभ्युपगम्यते, एवं च प्रेरणाजनि-२५ तज्ञानवतो धर्मशत्वम् अत एवोक्तम्-"चोदना हि भूतं भवन्तम्" इत्यादि, तन्न तृतीयपक्षोऽपि युक्तिसङ्गतः । अनुमानजनितज्ञानेन तु सर्ववित्त्वे न धर्मशत्वम्, धर्मादेरतीन्द्रियत्वेन तज्ज्ञापकलिङ्गत्वेनाभ्युपगम्यमानस्यार्थस्य तेन सह संबन्धासिद्धेः असिद्धसंबन्धस्य चाsशापकत्वान्न ततो धर्माद्यनुमानम् इत्यनुमानजनितं ज्ञानं न सकलधर्मादिपदार्थाssवेदकम् । किंच, तथाभूतपदार्थज्ञानेन यदि सर्वविदभ्युपगम्यते तदा अस्मदादीनामपि सर्ववित्त्वमनि-३० वारितप्रसरम्, 'भावाभावोभयरूपं जगत्, प्रमेयत्वात्' इत्यनुमानस्यास्मदादीनामपि भावात्। अस्पष्टं चाऽनुमानमिति तजनितस्याप्यवैशद्यसंभवान्न तज्ज्ञानवान् सर्वज्ञो युक्तः। अथानुमानज्ञानं प्रागविशदमपि तदेवाशेषपदार्थविषयं पुनःपुनर्भाव्यमानं भावनाप्रकर्षपर्यन्ते योगिज्ञानरूपतामासादयद् वैशद्यभाग् भवति, दृष्टं चाभ्यासबलाद् ज्ञानस्यानक्षजस्यापि काम-शोक-भयो-न्मादचौरस्वप्नाद्युपप्लुतस्य वैशद्यम् । नन्वेवं तज्ज्ञानवद् अतीन्द्रियार्थ विद्विज्ञानस्याप्युपप्लुतत्वं स्यादिति ३५ तज्ज्ञानवतः कामाद्युपप्लुतपुरुषवद् विपर्यस्तत्वम् । अथ यथा रजो-नीहाराद्यावरणावृतवृक्षादिदर्शनमविशदंतदावरणापाये वैशद्यमनुभवति एवं रागाद्यावारकाणां विज्ञानावैशद्यहेतूनामपाये सर्वज्ञानं विशदतामनुभविष्यतीति, असदेतत् ; रागादीनामावरणत्वासिद्धेः, कुड्यादीनामेव ह्यावारकत्वं लोके प्रसिद्धं न रागादीनाम् । तथाहि-रागादिसद्भावेऽपि कुड्याद्यावारकाभावे विज्ञानमुत्पद्यमानं दृष्टम् , रागाद्यभावेऽपि कुड्याद्यावारकसद्भावेन विज्ञानोदय इत्यन्वय-व्यतिरेकाभ्यां कुड्यादीनामेवाऽऽवर-४० णत्वावगमो न रागादीनामिति न रागादय आवारका इति न तद्विगमोऽपि सर्वविद्विज्ञानस्य वैशघहेतुः। १ प्रन्याप्रम्-२००० । २ पृ. ४९ पं० ३। ३ तदाऽर्थशक्तेः मां । ४ पृ. ४३ गतं ४ टिप्पणं दृश्यम् । ५-परका-मा०।-वरणका गु०। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे किंच, सर्ववेदनं सर्वशशानेन किं समस्तपदार्थग्रहणम्, उत शक्तियुक्तत्वम्, आहोस्वित् प्रधा. नभूतकतिपयपदार्थग्रहणम् ? तत्र यद्याद्यः पक्षस्तत्रापि वक्तव्यम्-किं क्रमेण तद्ब्रहणम् , आहोस्विद् योगपद्येन ? तत्र यदिक्रमेण तद्रहणम्, तदयुक्तम् अतीताऽनागतवर्तमानपदार्थानामपरिसमाप्तेस्तज्ज्ञानस्याप्यपरिसमाप्तितःसर्वशताऽयोगात्। अथ युगपदू अनन्तातीताऽनागतपदार्थसाक्षात्कारितद्वे. ५दनमभ्युपगम्यते, तदप्यसत्: परस्परविरुद्धानां शीतोष्णादीनामेकशाने प्रतिभासासंभवातः संभवे वा न कस्यचिदर्थस्य प्रतिनियतस्य तद् ग्राहकं स्यादिति तज्ज्ञानेन अस्सदादिभ्योऽपि व्यवहारिभ्यो हीनतर इति कथं सर्वज्ञः? किंच, यदि युगपत् सर्वपदार्थग्राहकं तज्ज्ञानम तदैकक्षणे एव सर्वपदार्थग्रहणादू द्वितीयक्षणेऽकिञ्चिज्ज्ञ एव स्यात् । ततश्च किं तेन तादृशाऽकिञ्चिज्ज्ञेन सर्वज्ञत्वेन? न चानाद्यनन्तसंवेदनस्य परिसमाप्तिः, परिसमाप्तौ वा कथमनाद्यनन्तता? किंच, सकलपदार्थ१०साक्षात्करणे परस्थरागादिसाक्षात्करणमिति रागादिमानपि स स्याद् विट इव । अथ रागादिसंवे दनमेव नास्ति न तर्हि सकलपदार्थसाक्षात्करणम् । तन्न प्रथमः पक्षः। अथ शक्तियुक्तत्वेन सकलपदार्थसंवेदनं तज्ज्ञानमभ्युपगम्यते, तदपि न युक्तम् ; सर्वपदार्थाऽवेदने तच्छक्तेातुमशक्ते, कार्यदर्शनानुमेयत्वाच्छक्तीनाम् । किंच, सर्वपदार्थज्ञानपरिसमाप्तावपि इयदेव सर्वम्' इति कथं परिच्छेदशक्तिः ? अथ वेदनाऽभावादभावोऽपरस्येति सर्वसंवेदनम् , अवेदनादभावोऽपरस्येति १५कुतो निश्चयः? तदपेक्षया तस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वात् तथाभूतानुपलब्ध्याऽभावनिश्चय इति चेत्, एवं सति स एवेतरेतराश्रयदोषः-सर्वज्ञत्वनिश्चये तदभावनिश्चयः, तदभावनिश्चयेच सर्वज्ञत्वनिश्चय इति नैकस्यापि सिद्धिः, तन्न द्वितीयोऽपि पक्षः। अथ यावदुपयोगि प्रधानभूतपदार्थजातं तावदसौ वेत्तीति तत्परिज्ञानात् सकलज्ञः, तदपि सर्वपदार्थाऽवेदने नियमेन न संभवति; 'सकलपदार्थव्यवच्छेदेन तेषामेव प्रयोजननिवर्त(वर्त)कत्वम्' इति सकलपरिज्ञानमन्तरेणाशक्यसाधनमिति न २० तृतीयोऽपि पक्षो युक्तः। किंच, नित्यसमाधानसंभवे विकल्पाभावात् कथं वचनम् ? वचने वा विकल्पसंभवात् समाधानविरोधान्न समाहितत्वमिति भ्रान्तच्छा स्थिकज्ञानयुक्तः स स्यात् । कथं वाऽतीतानागतग्रहणम् अतीतादेः स्वरूपस्यासंभवात्? असदाकारग्रहणे च तैमिरिकज्ञानवत् प्रमाणत्वं न स्यात् । अथातीतादिकमप्यस्ति, एवं सत्यतीतादित्वादेरप्यभाय एवेति सर्वज्ञव्यवहारोच्छेदः । २५ अथ प्रतिपाद्यापेक्षया तस्याभावः, तदप्ययुक्तम् । नहि विद्यमानमेवापेक्षया तदैवाविद्यमानं भवति । तस्यानुपलब्धेरविद्यमानत्वमेवेति चेत्, तदनुपलधिरेवास्तु कथमविद्यमानम् ? न ह्यन्यस्याभावेऽन्यस्याप्यभावः, अतिप्रसङ्गात् ! रास्यासावविद्यमानत्वेन प्रतिभातीति चेत्, स तर्हि भ्रान्तः, असद्विकल्पसंभवात् तस्यासद्विकल्पस्य विषयीकरणात् सर्वज्ञोऽपि भ्रान्त एवेति कथं सर्ववित् ? अथ विकल्पस्यापि स्वरूपेऽभ्रान्तत्वमेव तेन तस्य वेदनं सर्वज्ञानमभ्रान्तम् , एवं तर्हि ३० स्वरूपसाक्षात्करणमेव केवलम् कथमतीताधविद्यमानसाक्षात्करणम् ? ततश्चातीतानागतपदार्था भावात् तत्साक्षात्करणासंभवान्न तद्ब्रहणात् सर्वज्ञः। किंच, स्वरूपमात्रवेदने तन्मात्रस्यैव विद्यमानत्वात् तद्वेदनेऽद्वैतवेदनाद्न सर्वज्ञव्यवहारः तेद्भावे वा सर्वः सर्ववित् स्यात् । अथापि स्यात् सत्यस्वमदर्शनवद् अतीतानागतादिदर्शनम् ततो व्यवहारः इति, तदप्ययुक्तम्। सत्यस्वप्नदर्शनस्य स्वरूपमात्रवेदने न सत्यासत्यविभागः किन्वानुमानिका, सत्यस्वप्नस्वरूपसंवेदनस्य तन्मात्रपर्यव३५सितत्वात् । किंच, अतीतानागतकालसंबन्धित्वात् पदार्थानामतीतानागतत्वम् तद्धि भवत् किमपरातीतानागतकालसंबन्धाद् अभ्युपगम्यते, आहोस्वित् स्वत एव ? यद्यपरातीतानागतकालसंबन्धात् कालस्यातीतानागतत्वं तदा तस्याप्यपरातीतानागतकालसंबन्धादतीतानागतत्वम्, तस्याप्यपरस्मादित्यनवस्था । अथातीतानागतपदार्थक्रियासंबन्धात् कालस्यातीतानागतत्वं तेनायमदोषः, ननु पदार्थक्रियाणामपि कुतोऽतीतानागतत्वम् ? यद्यपरातीतानागतपदार्थक्रियासद्भावात् तदाऽत्रापि १-विरुद्धार्थानां भां, मां०, वा०। २-दिति किं तज्ज्ञा-भा०, कां०, गु०, आ०। ३ प्रमेयकमलमार्तण्डे एतत्स्थले एवं पाठः-"नाऽपि प्रधानभूतकतिपयार्थग्रहणम् , 'इतरार्थव्यवच्छेदेन एतेषामेव प्रयोजननिष्पादकत्वात् प्राधान्यम्' इति निश्चयो हि सकलार्थज्ञाने सत्येव घटते नान्यथा" -पृ. ७० प्रथ० पृ.पं.५ । ४-च्छन-वा. विना सर्वत्र । ५ सद्भावे वा वा० विना सर्वत्र । ६-लसंबन्धादतीताभ्युपगम्यते वा० विना सर्वत्र । -लसंबन्धादतीताऽनागतत्वमभ्युपगम्यते कां०। ७ अत्र 'कालस्य' इत्यध्याहार्यम् । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञवादः । ५३ सैवानवस्था। अतीतानागतकालसंबन्धात् पदार्थक्रियाणामतीतानागतत्वं तर्हि कालस्याप्यतीतानागतपदार्थक्रियासंबन्धादतीतानागतत्वमिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम्, तन्न प्रथमः पक्षः। अथ स्वरूपत एव कालस्यातीतानागतत्वं तदा पदार्थानामपि स्वत एवातीतानागतत्वमस्तु किमतीताना. गतकालसंबन्धित्वेन ? तच्च पदार्थस्वरूपमस्मदादिज्ञानेऽपि प्रतिभातीति नातीतानागतपदार्थग्राहित्वे. नामदादिभ्यःसर्वज्ञस्य विशेषः। अपि च,संबन्धस्यान्यत्र विस्तरतो निषिद्धत्वान्न कस्यचित् केनचित् ५ संबन्ध इत्यतीतानागतादिसंबद्धपदार्थग्राहिज्ञानमसदर्थविषयत्वेन भ्रान्तं स्यादिति न भ्रान्तज्ञानवान् सर्वज्ञः कल्पयितुं युक्तः। भवतु वा सर्वशस्तथाप्यसौ तत्कालेऽप्यसर्वज्ञातुं न शक्यते, तदूग्राह्यपदार्थाज्ञाने तद्ग्राहकज्ञानवतः केनचित् प्रमाणेन प्रतिपत्तुमशक्तेः । तदुक्तम्-- "सर्वज्ञोऽयमिति ह्येतत् तत्कालेऽपि बुभुत्सुमिः। तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम्?॥ कल्पनीयास्तु सर्वज्ञा भवेयुर्बहवस्तव । य एव स्यादसर्वशः स सर्वशं न बुध्यते" ॥ [श्लो० वा० सू०२, श्लो० १३४-१३५] न च तदपरिज्ञाने तत्प्रणीतत्वेनागमस्थ प्रामाण्यमवगन्तुं शक्यम्। तदनवगमे च तद्विहितानुष्ठाने प्रवृत्तिरप्यसङ्गता । तदुक्तम् "सर्वज्ञो नावबुद्धश्चेद् येनैव स्यान्न तं प्रति । तद्वाक्यानां प्रमाणत्वं मूलाज्ञानेन वाक्यवत्" ॥ [श्लो० वा० सू०२, श्लो० १३६] इति । तदेवं सर्वज्ञसद्भावग्राहकस्य प्रमाणस्याभावात् तत्सद्भावबाधकस्य चानेकधा प्रतिपादितत्वात् सर्वज्ञाभावव्यवहारः प्रवर्त्तयितुं युक्तः। तथाहि-ये बाधकप्रमाणगोचरतामापन्नास्ते 'असद्' इति व्यवहर्त्तव्याः, यथा अङ्गाल्यग्रे करियूथादयः, बाधकप्रमाणगोचरापन्नश्च भवदभ्युपगमविषय:२० सकलपदार्थसार्थसाक्षात्कारीत्यसयवहारविषयत्वं सर्वविदोऽभ्युपगन्तव्यमिति पूर्वपक्षः॥ [ उत्तरपक्षः-सर्वज्ञसत्तासाधनम् ] अत्र प्रतिविधीयते-यत्तावदुक्तम् 'ये देश-काल-स्वभावव्यवहिताः प्रमाणविषयतामनापन्ना न ते सद्यवहारगोचरचारिणः' इत्यादि, तदयुक्तम्। सर्वविदि प्रमाणविषयत्वस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वाद् असिद्धो हेतुस्तदविषयत्वलक्षणः । यदप्यभ्यधायि 'न ताददक्षसंभवज्ञानसंवेद्यस्तद्भावः,२५ अक्षाणां प्रतिनियतविषयत्वेन तत्साक्षात्करणव्यापारासंभवात् तत् सिद्धमेव साधितए । यदप्युक्तम् 'नाप्यनुमानस्य तत्र व्यापारः, तद्धि प्रतिबन्धग्रहणे पक्षधर्मताग्रहणे चहेतोः प्रवर्तते; न च प्रतिबन्धग्रहणं प्रत्यक्षतस्तत्र संभवति' इत्यादि, तद् धूमादेरग्न्यादिप्रभवत्वानुमानेऽपि समानम् । अथान्यादेः प्रत्यक्षत्वात् तत एव तत्प्रभवत्व-कार्य विशेषत्वयोधूमादौ प्रतिबन्धसिद्धिः, ननु धूमस्य किमग्निस्वरूपग्राहकप्रत्यक्षेण पावकपूर्वकत्वमवगम्यते, उत धूमस्वभावग्राहिणेति कल्पनाद्वयम् ।३० तत्र न तावदाद्यः पक्षा, पावकरूपग्राहि प्रत्यक्षं तत्स्वभावमात्रग्रहणपर्यवसितमेव न धूमरूपप्रवेदन. प्रवणम्, तदप्रवेदने च न तदपेक्षया तेन वह्नः कारणत्वावगमः नहि प्रतियोगिस्वरूपाग्रहणे तं प्रति कस्यचित् कारणत्वमन्यद्वा धर्मान्तरं ग्रहीतुं शक्यम्, अतिप्रसङ्गात् । अथ धूमस्वरूपप्रतिपत्तिमता प्रत्यक्षेण तस्य चित्रभानुं प्रति कार्यत्वस्वभावं तत्प्रभवत्वं गृह्यते, ननु तस्यापि पावकस्वरूपग्राहकत्वेनाप्रवृत्तेस्तद्ग्रहणे तदपेशं कार्यत्वं धूमस्य कथमवगमविषयः? अथाग्नि-धूमद्वयस्वरूपग्राहिणा३५ प्रत्यक्षेण तयोः कार्यकारणभावनिश्चयः, तदप्यसङ्गतम् । द्वयग्राहिण्यपि शाने तयोःस्वरूपमेव भाति न पुनरग्नेछूमं प्रति कारणत्वम् धूमस्य वा तं प्रति कार्यत्वम् न हि पदार्थद्वयस्य स्वस्वरूपनिष्ठस्यैकज्ञानप्रतिभासमात्रेण कार्यकारणभावप्रतिभासः; अन्यथा घट-पटयोरपि स्वस्वरूपनिष्ठयोरेकक्षानप्रतिभासः कचिदस्तीति तयोरपि कार्यकारणभावावगमप्रसङ्गः। अथ यस्य प्रतिभासानन्तरं १-त्वमिति प-वा०, मा०। २ मूलज्ञानेऽशवाक्यवत् वा०। ३ पृ. ४३ पं० २७॥ ४ पृ० ४३ पं०३१। ५पृ.४३ पं०३९। ६-स्य स्वरूप-मां० । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ प्रथमे काण्डे यत्प्रतिभास एकमाजिबन्धनस्तयोस्तदवगम इति नायं दोषः, तदपि घटप्रतिभासानन्तरं पटप्रतिभासे क्वचिदाने समानम्। न च क्रमभाविपदार्थद्वयप्रतिभासमन्वय्येकं ज्ञानमिति शक्यं वक्तुम्, प्रतिभासमेदस्य मेदनिबन्धनत्वात्; अन्यत्रापि तद्भेदव्यवस्थापितत्वाद् भेदत्य, स च क्रमभाविप्रतिभासहयाध्यासितज्ञाने समस्सीति कथं न तस्य भेदः? न चैकमेव शानं जन्मानन्तरक्षणादिका५लमास्त इति भवतामभ्युपगमः । तदुक्तम्-"क्षगिका हि सा, न कालान्तरमास्ते" [ ] इति । अथ वह्नि-धूमस्वरूपद्वय माहिशानद्वयानन्तरभाविस्मरणसहकारि इन्द्रियं सविकल्पकशानं जनयति तत्र तवयस्य पूर्वापरकालभाविनःप्रतिभासात् कार्यकारणभावनिश्चयो भविष्यति, तदप्यसङ्गतम् पूर्वप्रवृत्तप्रत्यक्षद्वयस्य तत्राव्यापारान् तदुत्तरस्मरणस्य च पदार्थमात्रग्रहणेऽप्यसामर्थ्याचक्षुरा दीनां च तदवगमशानजननेऽशक्तेः शक्ती वा प्रथमाक्षसन्निपातवेलायामेव तदवगमज्ञानोत्पत्तिप्रस१०ङ्गाद् अकिश्चित्करस्य स्मरणादेरनपेक्षणीयत्वात् परिमलस्मरणसव्यपेक्षस्य लोचनस्य 'सुरमि चन्दनम्' इत्यविषये गन्धादौ ज्ञानजनकत्वस्येव तत्रापि तज्जनकत्वविरोधात् । अथ तत्स्मरणसव्यपेक्षलोचनव्यापारानन्तरं 'कार्यकारणभूते एते वस्तुनी' इत्येतदाकारज्ञानसंवेदनात् कार्यकारणभावावगमः सविकल्पकप्रत्यक्षनिबन्धनो व्यवस्थाप्यते; नन्वेवं परिमलस्मरणसहकारिचक्षुर्व्यापारानन्तरभावी 'सुरमि मलयजम्' इति प्रत्ययः समनुभूयत इति परिमलस्यापि चक्षुर्जप्रत्ययविषयत्वं स्यात् । अथ १५परिमलस्य लोचनाविषयत्वाद् नायं प्रत्ययस्तजः किन्तु गन्धसहचरितरूपदर्शनप्रभवानुमान स्वभावः, तदेतत् प्रकृतेऽपि कार्यकारणभावे लोचनाविषयत्वं समानम् प्रत्ययस्य तु तदध्यवसा. यिनोऽपरं निमित्तं कल्पनीयम्; तन्न प्रत्यक्षतः सविकल्पकादपि धूम-पावकयोः कार्यकारणत्वावगमः। मानसप्रत्यक्षं तु तदवगमनिमित्तं भवता नाभ्युपगम्यते । अपि च, कार्यकारणभाव: सर्वदेश-कालावस्थिताखिलधूम-पावकव्यक्तिकोडीकरणेन अवगतोऽनुमाननिमित्ततामुपगच्छति, २०न च प्रत्यक्षस्येयति वस्तुनि सचिवाल्पकस्य निर्विकल्पकस्य वा व्यापारः संभवतीत्यसकृत् प्रतिपादितम् । किंच, न कारणस्य प्राग्भावित्वमात्रमेव बौद्धानामिव कारणत्वम्-येन तस्य कारणस्वरूपाभेदात् तत्स्वरूपग्राहिणा प्रत्यक्षेण तदमिन्नस्वभावस्य कारणत्वस्याऽप्यवगमः, केवलं कार्यदर्शनादुतरकालं तन्निश्चीयते-किन्तु कारणस्य कार्यजननशक्तिः कारणत्वम् सा च शक्तिर्न प्रत्यक्षावसेया अपि तु कार्यदर्शनसमवगम्या भवता परिकल्पिता । तदुक्तम्२५ "शक्तयः सर्वभावानां कार्याऽर्थापत्तिगोचराः"। श्लोव्वा०सू०५, शून्य० श्लो० २५४] ततः कथं प्रत्यक्षात् कारणस्य कारणत्वावगमः? अथ कार्यादेव कारणस्य कारणत्वावगमो भवतु किं नश्छिन्नम्। ननु कार्यात् कारणस्य कारणत्वावगमेऽनुमानाच्छक्त्यवगमः, तत्र च तदपि कार्य लिङ्गभूतं यदि कारणशक्तिमवगमयति तदा शक्ति-कार्ययोः प्रतिबन्धग्रहणमभ्युपगन्तव्यम् । स च प्रतिबFधावगमो न प्रत्यक्षादिति प्रतिपादितम् । अनुमानात् तदवगमे इतरेतराश्रयाऽनवस्थादोषावारोऽ. ३० त्रापि समानः। अर्थापत्तेस्त्वनुमानेऽन्तर्भावः प्रतिपादित इति न प्रसिद्धानुमानस्यापि प्रवृत्तिर्भवदभिप्रायेण । अथ वहिगतधर्मानुविधानाद् धूमस्य तत्पूर्वकत्वं कुतश्चित् प्रमाणात् प्रसिद्धमिति धूमत्वस्य तत्पूर्वकत्वव्याप्तिसिद्धिः-अन्यथा धूमादग्न्यसिद्धेः सकललोकप्रसिद्धव्यवहाराभावः, अनुमानाभावे प्रत्यक्षतोऽपि व्यवहारासम्भवात्-तर्हि वचनविशेषस्यापि यदि विशिष्टकारणपूर्वकत्वं तत एव प्रमाणात् प्रसिद्धं विवादाध्यासिते वचने वचनविशेषत्वात् साध्येत तदा कोऽपराधः? ३५ यदप्युक्तम् 'पक्षधर्मत्वनिश्चये सति हेतोरनुमानं प्रवर्तते, न च सर्ववित् कुतश्चित् प्रमा णात् सिद्धः' इत्यादि, तदप्ययुक्तम्; यतो यदि सर्वविदो धर्मित्वं क्रियेत तदा तस्यासिद्धत्वात् स्यादप्यपक्षधर्मत्वलक्षणं दूषणम्। यदा तु वचनविशेषस्य धर्मित्वं तस्य विशिष्टकारणपूर्वकत्वं साध्यत्वेनोपक्षिप्तं तदा तत्र तद्विशेषत्वादिलक्षणो हेतुरुपादीयमानः कथमपक्षधर्मः स्यात् ? न चापक्षधर्मादप हेतोरुपजायमानमनुमानं प्रमाणं भवताऽभ्युपगच्छता पक्षधर्मत्वाभावलक्षणं ४० दूषणमासञ्जयितुं युक्तम् । अन्यथा १ अयमर्थः शाबरभाष्ये एवं प्रदर्शितः "क्षणिका हिसा, न बुद्धयन्तरकालमवस्थास्यते इति"-पृ०७पं० २४ का। २ पृ. ३३ पं० २९ तथा पृ० ४३ पं०३२। ३-त्वस्यावगमः वा०, बा०, पू० विना सर्वत्र । ४ कारणे वा०, मा०पू०। ५-६ पृ.१५०२५-३५। ७ पृ.४६ पं०३६ । ८.४ पं०६। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञवादः। "पित्रोश्च ब्राह्मणत्वेन पुत्रब्राह्मणताऽनुमा। सर्वलोकप्रसिद्धा न पक्षधर्ममपेक्षते" ॥ [ ] इत्याद्यपक्षधर्महेतुसमुत्थानुमानप्रामाण्यप्रतिपादनं भवतोऽप्ययुक्तं स्यात् । यदप्यभ्यधायि 'सर्वशसत्तायां साध्यायां त्रयीं दोषजाति हेतु तिवर्त्तते' इत्यादि, तत्र स्यादप्ययं दोषः यदि तत्सत्ता साध्यत्वेनाभ्युपगम्यते; यावता पूर्वोक्तप्रकारेण वचनविशेषस्य विशिष्टकारणपूर्वकत्वं साध्यमित्यु- ५ तम्, तत्र चास्य दोषस्योपक्षेपोऽगुक्त एव । यदप्यभ्यधायि 'यद्यनियतः कश्चित् सकलपदार्थज्ञः साध्योऽभिप्रेतः' इत्यादि, तदप्यसङ्गतमेव; यतो नास्माभिः प्रतिनियत एव कश्चित् सर्वशोऽनुमानात् साध्यते किन्तु विशिष्टकारणपूर्वक्रत्वं विशिष्टशब्दस्य; तच्च स्वसाध्यव्याप्तहेतुबलात् साध्यधर्मिणि सिद्धिमासादयद् हेतुपक्षधर्मत्वनलात् प्रतिनियतसर्वज्ञपूर्वकत्वेनैव सिद्धिमासादयति।नच 'तत एव हेतोरन्यस्यापि सर्वज्ञस्य सिद्धरन्यागमाश्रयणपपि भवतां प्रसज्यते' इति दूषणम्, अन्याग-१० मानां दृष्टविषय एव प्रमाणविरुद्धार्थप्रतिपादकत्वेनाप्रामाण्यय व्यवस्थापयिष्यमाणत्वात् कथं तत्प्रणेतृणामपि सर्वज्ञत्वसिद्धिः। यश्चान्यदभिहितम् 'न कथित् सक्षप्रतिपादकः सम्यग् हेतुः संभवति', तदप्यसङ्गतम्। तत्प्रतिपादकस्य सम्यग्घेतोर्वचनविशेषत्वादेः प्रतिपाविप्यमाणत्वाता यश्चान्यदभिहितम् ‘सर्वे पदार्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षाः, प्रमेयत्वार, अग्न्यादिवत्' इत्यत्र 'यदि सकलपदार्थमाहिप्रत्यक्षत्वं साध्यम्' इत्यादि, तदप्यसङ्गतम् ; एवं साध्यधिकल्पनेऽश्यादेरप्यनुमानान्न १५ सिद्धिः स्यात् । तथाहि-अत्राप्येवं वणुं शक्यते-यदि प्रतिनियतसाध्यधर्मिधर्मो वह्निः साध्यत्वेनाभिप्रेतस्तदा तद्विरुद्धेन दृष्टान्तधर्मिणि तद्धर्मिधर्मेण पावकेन व्याप्तस्य धूमलक्षणस्य हेतोरसिद्धत्वाद् विरुद्धो हेतुः स्यात् साध्य विकलश्च दृष्टान्तः। अथ दृष्टान्तधर्मिधर्मः साध्यधर्मिणि साध्यते तदा प्रत्यक्षादिविरोधः। अथोभयगतं वह्निसामान्यं तदा सिद्धसाध्यतादोपः। 'तथा प्रमेयत्वमपि हेतुस्वेनोपन्यस्यमानम्' इत्यादि यर्दुक्तं तद् धूमलक्षणेऽपि हेतौ समानम् । तथाहि-अत्रापि किं साध्य-२० धर्मिधर्मों हेतुत्वेनोपात्तः, उत दृष्टान्तधर्मिधर्मः, अथोभयगतं सामान्यम् ? तत्र यदि साध्यधर्मिधर्मो हेतुः, स दृष्टान्तधर्मिणि नान्वेतीत्यनन्वयो हेतुदोषः । अथ दृष्टान्तधार्मिधर्मः, स साध्यधर्मिण्यसिद्ध इत्यसिद्धताहेतुदोषः। अथोभयगतं सामान्यम्, तदपि प्रत्यक्षाऽप्रत्यक्षमहानसपर्वतप्रदेशविलक्षणव्यक्तिद्वयाश्रितं न संभवतीति हेतोरसिद्धता तदवस्थिता । अथ पर्वतप्रदेशाश्रिताग्नितमव्यक्तरुत्तरकालभाविप्रत्यक्षप्रतीयमानत्वेन न महानसोपलब्धधूमव्यक्त्याऽत्यन्तवैलक्षण्यमिति २५ नोभयगतसामान्याभावः; ननूभयगतसामान्यप्रतिपत्तौ ततोऽनुमानप्रवृत्तिः, तत्प्रवृत्तौ च तदर्थक्रियार्थिनस्तत्र प्रवर्तमानस्य प्रत्यक्षप्रवृत्तिः, तस्यां च सत्यामत्यन्तवैलक्षण्याभावस्तद्यक्तेः, तत्सद्भावे चोभयगतसामान्यसिद्धितस्तदनुमानप्रवृत्तिरिति चक्रकदूषणावकाशः। अथ कण्ठक्षीणतादिलक्षणधमैकलापसाधान्न महानस-पर्वतप्रदेशलगतधूमव्यक्त्योरत्यन्तवैलक्षण्यमित्युभयगतसामान्यसिद्धौ न धूमानुमाने हेत्वसिद्धतादिदोषस्तर्हि वाच्याविसंवादादिधर्मकलापसाधर्म्यस्य वचनविशेषव्यक्तिद्व-३० येऽप्यत्यन्तवैलक्षण्यनिवर्तकस्य सद्भावेन कथं न तद्विशेषत्वसामान्यसंभवः? प्रमेयत्वं तु यथा प्रकृतसाध्ये हेतुर्भवति तथा प्रतिपादयिष्यामः, आस्तांतावत्। यत्तु 'नापि शब्दात् तत्सिद्धिः' इत्यादि प्रति. पादितं तत् सिद्धसाध्यतादोषाघ्रातत्वान्निरस्तम् । यदप्युक्तम् 'ये देश-काल-इत्यादिप्रयोगे नासिद्धो हेतुः' इति,एतदप्ययुक्तम् ; अनुमानस्य तदुपलम्भस्वभावस्य प्रतिपादयिप्यमाणत्वेनानुपलम्भलक्षणस्य हेतोः परप्रयुक्तस्यासिद्धत्वात्। अत एव 'सद्यवहारनिषेधश्चानुपलम्भनिमित्तोऽनेन' इत्याद्यसारतया ३५ स्थितम् । 'अथ यथाऽस्माकं तत्सद्भावाऽऽवेदकं प्रमाणं नास्ति तथा भवतां तदभावाऽऽवेदकमपि नास्ति' इत्यादि यावत् 'प्रसङ्गसाधनाभिप्रायेण सर्वमेव सर्वज्ञप्रतिक्षेपप्रतिपादकं युक्तिजालमभिहितम्' इति यदुक्तम्, तदप्यचारु, यतः "सर्वशो दृश्यते तावन्नेदानीम्" [श्लो० वा० सू०२, श्लोक ११७ ] इत्यादिना तत्सद्भावोपलम्भकप्रमाणपञ्चकनिवृत्तिप्रतिपादनद्वारेण यद् अभावाख्यप्रमाण १पृ. ४४ पं०८॥ २ पृ. ४४ पं० १३ । ३ पृ. ४४ पं. १६। ४ पृ०४४ पं०१३। ५ पृ. ४४ पं. १७।६ पृ. ४४ पं० १८ । ७-साध्यधर्मो भां०, वा०, मां० विना । ८ पृ. ४४ पं० २३ । ९ धूमस्वलक्षणे भां०, का. वा०, मां०। १०पृ. ४४ पं० ३३ । ११ पृ. ४५पं०१५। १२ पृ० ४५ पं०१५-१६ । १३ पृ. ४५ 4.१७॥ १४ पृ०४८ पं०१४। १५ पृ.४५ पं. ८॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काग्डे प्रवृत्तिप्रतिपादनं तत् तदभावावेदकस्वतन्त्राभावाख्यप्रमाणाभ्युपगमव्यतिरेकेणासंभवद् भवतां मिथ्यावादितां सूचयति । यदप्यादि 'तथा च प्रसङ्गसाधनाभिप्रायेण भगवतो जैमिनेः सूत्रम् इत्यादि, तदप्यसङ्गतम्: यतः प्रसङ्गसाधनस्य तत्पूर्वकस्य च विपर्ययस्य व्याप्यव्यापकभावसिद्धौ यत्र व्याप्याभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयकः व्यापकनिवृत्तितो व्याप्यनिवृत्तिरवश्यंभाविनी च ५प्रदर्श्यते तत्र यथाक्रमं प्रवृत्तिः, अत्र तु प्रत्यक्षत्वस्य सत्संप्रयोगजत्वेन, तस्य च विद्यमानोपलम्भ. नत्वेन, तस्यापि धर्नादिकं प्रत्यनिभित्तत्वेन क्व व्याप्यव्यापकभावावगमो येन प्रसङ्ग-तद्विपर्यययोः प्रवृत्तिः स्यात् ? ननक्तमेवैतत् 'स्वात्मन्येव' सत्यम्; उक्तं नतु युक्तमुक्तम् । अयुक्तता च-सर्व चक्षुरादिकरणग्रामप्रभवं प्रत्यक्षं सन्निहितदेश-काल-पदार्थान्तरस्वभावाविप्रकृष्टप्रतिनियतरूपादिग्राहकं सर्वत्र सर्वदा चेति न व्याप्यव्यापकभावग्राहकं प्रमाणमस्ति, विपर्ययश्चोपलभ्यते-योजन१०शतविप्रकृष्टस्यार्थस्य ग्राहकं संपातिगृध्रराजप्रत्यक्षं रामायण-भारतादौ भवत्प्रमाणत्वेनाभ्युपगते श्रूयते, तथेदानीमपि गृध्र-वराह-पिपीलिकादीनां चक्षुः-श्रोत्र-घ्राणजस्य प्रत्यक्षस्य यथाक्रम रूप-शब्द-गन्धादिषु देशविप्रकृऐषु प्रवृत्तिरुपलभ्यते, तथा कालविप्रकृष्टस्याप्यतीतकालसंबन्धित्वस्य पूर्वदर्शनसंबन्धित्वस्य च स्मरणसव्यपेक्षलोचनादिजन्यप्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षग्राह्यत्वं पुरोव्यव. स्थितेऽर्थे भवताऽभ्युपगम्यते: अन्यथा “देश-कालादिभेदन तदाऽस्त्यवसरो मितेः" । [ श्लो० वा० सू०४, श्लो० २३३ ] ___ "इदानींतनमस्तित्वं नहि पूर्वधिया गतम्"। [ श्लो० वा० सू०४, श्लो०२३४] इत्यादिवचनसंदर्भेण प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षस्यागृहीतार्थाधिगन्तृत्वं पूर्वापरकालसंबन्धित्वलक्षणनित्यस्वग्राहकत्वं च प्रतिपाद्यमानमसङ्गतं स्यात् । अथातीतातीन्द्रियकालसंबन्धित्वं पूर्वदर्शनसंबन्धित्वं वा वर्तमानकालसंबन्धिनः पुरोग्यवस्थितस्यार्थस्य यदि चक्षुरादिप्रभवप्रत्यभिज्ञानेन गृह्यते तदा२० “संबद्धं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिभिः”। [श्लो० वा० सू० ४ श्लो० ८४ ] इति वचन विरुद्धार्थ स्यात् , तथाऽतीन्द्रियकाल-दर्शनादेर्वतमानार्थ विशेषणत्वेन ग्रहणेऽतीन्द्रिय धर्मादेरपि ग्रहणप्रसङ्गात् प्रसङ्गसाधन-तद्विपर्यययोरप्रवृत्तिः स्वयमेव प्रतिपादिता स्यात् ; नन्वयमेवात्र दोषः कालविप्रकृष्टार्थ ग्राहकन्वेन इन्द्रियजप्रत्यक्षस्य प्रतिपादयितुमस्माभिरभिप्रेत इति कस्यात्रोपालम्भः। अथ वर्तमानकालसंबद्ध विशेप्ये पुरोवर्तिनि व्यापारवच्चक्षुस्तद्विशेषणभूतेऽती. २५न्द्रियेऽपि पूर्वकालदर्शनादो प्रवर्त्तते, अन्यथा चक्षुर्व्यापारानन्तरं 'पूर्वदृष्टं पश्यामि' इति विशेष्यालम्बनं प्रत्यभिज्ञानं नोपपद्यत, नागृहीतविशेषणा विशष्ये बुद्धिरुपजायते दण्डाग्रहण इव दण्डिबुद्धिः न च धर्मादावयं न्यायः संभवतीति चेत्, ननु धर्मादेः किमीन्द्रियत्वाच्चक्षुरादिनाऽग्रहणम्, उत अविद्यमानत्वात् , आहोस्विद् अविशेषणत्वात् ? तत्र नाद्यः पक्षः, अतीन्द्रियस्याप्यतीतकालादेर्ग्रहणाभ्युपगमात्। नाप्यविद्यमानत्वात् ,भाविधर्मादेरियातीतकालादेरविद्यमानत्वेऽपि प्रति३०भासस्य भावान् । अथाविशेषणत्वाद्धर्मादेरप्रतिभासः, तदप्यसङ्गतम्। सर्वदा पदार्थजनकत्वेन द्रव्य-गुण-कर्मजन्यत्वेन च धर्मादेः सर्वपदार्थविशषणभावसंभवाद् अतीतातीन्द्रियकालादेरिव तस्यापि विशेष्यग्रहणप्रवृत्तचक्षुरादिना ग्रहणसंभव इति कथं धर्म प्रत्यनिमित्तत्वप्रसङ्गसाधनस्य तद्विपर्ययस्य वा संभवः? तथा, प्रश्नादि-मन्त्रादिद्वारेण संस्कृतं चक्षुर्यथा काल विप्रकृष्टपदार्थग्राहकमुपलभ्यते तथा धर्मादेरपि यदि ग्राहकं कस्यचित् स्यात् तदा न कश्चिद्दोषः। अपि च, अनालो३५कान्धकारव्यवहितस्य मूषिकादेनक्तंचरवृषदंशादेश्चक्षुर्यथा ग्राहकमुपलभ्यते तथा यद्यतीन्द्रियाती. ताऽनागतधर्मादिपदार्थसाक्षात्कारि कस्यचित् तदेव स्यात् तदाऽत्रापि को दोषः ? न च जात्यन्तरस्यान्धकारव्यवहितरूपादिग्राहकं चक्षुईष्टं न पुनर्मनुष्यधर्मण इति प्रतिसमाधानमत्रामिधातुं युक्तम्, मनुष्यधर्मणोऽपि निर्जीविकादेद्रव्यविशेषादिसंस्कृतं चक्षुः समुद्रजलादिव्यवहितपर्वतादि. १ तद्भावा-वा०, बा०, मा० विना। २ पृ. ४८ पं० १५। ३ पृ० ४९ पं०३८ । ४ तत्रा-वा०, बा० । ५ तथा- आ० । ६ श्रश्नादि-वा०, बा। प्रश्रादि-कृ० । अत्र स्थले प्रमेयक मार्तण्टेऽपि एतदेव "प्रश्नादिमन्त्रादिना"-पृ०७१, दि० पृ००२। "प्रश्नाः विद्याविशेषाः' -प्रभव्या० टी० पृ० १। अथवा प्रश्निः-औषधी विशेषः । ७ निजीविका वि०, आ०, कृ. । निजायका-वा । निजीयवा--वा ! “निजीविका"-मेय. पृ. ७१ द्वि.पृ.पं. २। "निजावकः कर्णधारः" प्रेमय. टि. । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञवादः । ग्रहणे समर्थमुपलभ्यत इति धर्मादेरपि देश-काल-स्वभावविप्रकृष्टस्य कस्यचित् पुरुषविशेषस्य पण्यादिसंस्कृतं चक्षुरादि ग्राहकं भविष्यतीति न कश्चित् दृष्टस्वभावव्यतिक्रमः। अथ चक्षुरादेः करणस्य प्रतिनियतरूपादिविषयत्वेनान्यकरण विषयग्राहकत्वे स्वार्थातिक्रमो व्यवहारविलोपी स्यात्। ननु श्रूयत एव चक्षुषा शब्दश्रवणं प्राणि विशेषाणाम्-'चक्षुःश्रवसो भुजङ्गाः' इति लोकप्रवादात् । मिथ्या स प्रवाद इति चेत्, नैतत् ; प्रवादबाधकस्याभावात् कर्णच्छिद्रानुपलब्धेश्च । न च ५ 'दन्दशकचक्षुषो जात्यन्तरत्वात्' इत्युत्तरमत्रोपयोगि, अन्यत्रापि प्रकृष्टपुण्यसंभारजनितसर्वविचक्षुषि समानत्वात् । तदेवं धर्मादिसमस्तपदार्थग्राहकत्वेन चक्षुरादिजनितप्रत्यक्षस्याऽविरोधाद न प्रत्यक्षत्व-सत्संप्रयोगजत्वादेाप्यव्यापकभावसिद्धिरिति न प्रसङ्ग-विपर्यययोः प्रवृत्तिरिति न ततस्तत्प्रतिक्षेपः । एतेन "यदि षडूमिः प्रमाणैः स्यात् सर्वज्ञः” [श्लो० वा० सू०२, श्लो० १११] इत्यादि वार्तिककृत्प्रतिपादितं प्रसङ्गसाधनामिप्रायेण युक्तिजालमखिलं निरस्तम्, व्याप्तिप्रतिषेधस्य पूर्वोक्त.१० प्रकारेण विहितत्वात् । यच्च 'किं प्रमाणान्तरसंवाद्यर्थस्य वक्तृत्वात् इत्यादि तद् धूमादग्न्यनुमानेऽपि समानम् । तथाहि-अत्रापि वक्तुं शक्यम्-किं साध्यधर्मिसंबन्धी धूमो हेतुत्वेनोपन्यस्तः' इत्यादि यावत 'सिद्धः प्रतिबन्धोऽसर्वशत्व-वक्तत्वयोरग्नि-धूमयोरिव' इति पर्यन्तम्, तदप्ययुक्तम् । यतोऽ. सर्वज्ञत्व-वक्तृत्वयोरिव नाग्नि-धूमयोः कार्यकारणत्वप्रतिबन्धस्य तद्राहकप्रमाणस्य चाऽभावः इनहि वह्निसद्भावे धूमो दृष्टस्तदभावे च न दृष्ट इत्येतावता धूमस्याग्निकार्यत्वमुच्यते किन्तु "कार्य धूमो हुतभुजः कार्ये धर्मानुवृत्तितः" [ ]। न चासौ दर्शनाऽदर्शनमात्रगम्या किन्तु विशिष्टात् प्रत्यक्षाऽनुपलम्भाख्यात् प्रमाणात् । प्रत्यक्षमेव प्रमाणे प्रत्यक्षाऽनुपलम्भशब्दाभिधेयम् , तदेव कार्यकारणाभिमतपदार्थविषयं प्रत्यक्षम्, तद्विविक्तान्यवस्तुविषयमनुपलम्भशब्दाभिधेयम् ; कदाचिदनुपलम्भपूर्वकं प्रत्यक्षं तद्भावसाधकम् , कदाचित् प्रत्यक्षपुरःसरोऽनुपलम्भः । तत्राद्येन येषां कारणाभिमतानां सन्निधानात् प्राग-२० नुपलब्धं सद् धूमादि तत्सन्निधानादुपलभ्यते तस्य तत्कार्यता व्यवस्थाप्यते । तथाहि-एतावद्भिः प्रकारैधूमोऽग्निजन्यो न स्यात्-यद्यग्निसन्निधानात् प्रागपि तत्र देशे स्यात्, अन्यतो वाऽऽग' च्छेत् , तदन्यहेतुको वा भवेत् । तदेतत् सर्वमनुपलम्भपुरस्सरेण प्रत्यक्षेण निरस्तम् । एतेन प्राग नुपलब्धस्य रासभस्य कुम्भकारसन्निधानानन्तरमुपलभ्यमानस्य तत्कार्यता स्यादिति निरस्तम् । तथाहि-तत्रापि यदि रासभस्य तत्र प्रागसत्त्वम् , अन्यदेशादनागमनम्, अन्याकारणत्वं च२५ निश्चेतुं शक्येत तदा स्यादेव कुम्भकारकार्यता, केवलं तदेव निश्चेतुमशक्यम् । एवं तावदनुपलम्भपुरस्सरस्य प्रत्यक्षस्य तत्साधनत्वमुक्तम् । तथा, प्रत्यक्षपुरस्सरोऽनुपलम्भोऽपि तत्साधन:येषां सन्निधाने प्रवर्त्तमानं तत् कार्य दृष्टं तेषु मध्ये यदैकस्याप्यभावो भवति तदा नोपलभ्यते, तत् तस्य कारणमितरत् कार्यम् । न चाग्नि-काष्ठादिसन्निधाने भवतो धूमस्यापनीते कुम्भकारादावनुपलम्भोऽस्ति , अग्र्यादौ त्वपनीते भवत्यनुपलम्भः। एवं परस्परसहितौ प्रत्यक्षानुपलम्भावभिमतेष्वेव ३० कार्यकारणेषु निःसन्दिग्धं कार्यकारणभावं साधयतः। ___ सर्वकालं चाग्निसन्निधाने भवतो धूमस्यानग्निजन्यत्वं कदाचित् सदसतोरजन्यत्वेन, अहेतुकत्वेन, अदृश्यहेतुकत्वेन वा भवेत् ? तत्र न तावत् प्रथमः पक्षः, असतो जन्यत्वात्, “सदेव न जन्यते” [ ] इति त्वदभिप्रायात् सत एव जन्यमानत्वानुपपत्तेः; कार्यत्वस्य च कादाचिकत्वेन सिद्धत्वात् । नाप्यहेतुकत्वम्, कादाचित्कत्वेनैव; अहेतुत्वे तदयोगात् । नाप्यदृश्यहेतुकत्वम् , ३५ धूमस्याश्यादिसामग्रयन्वय-व्यतिरेकानुविधानात् । अथापि स्याद् अदृश्यस्यायं स्वभावो यदझ्यादिसनिधान एव धूमम्, कर्पूरोर्णादिदाहकाले सुगन्धादियुक्तं च करोति नान्यदेति, तत् किमग्निमन्तरेण कदाचिद् धूमोत्पत्तिदृष्टा येनैवमुच्यते? नेति चेत्, कथं नाग्निकार्यो धूमस्तद्भावे भावात् ? धूमोत्पत्तिकाले च सर्वदा प्रतीयमानोऽग्निः काकतालीयन्यायेन व्यवस्थित इत्यलौकिकम् । अथ स एवाश्यस्य स्वभावो यदग्निसन्निधान एव धूमं करोति ननु यद्यग्निना नासावुपक्रियते किमग्निसन्निधानाद्न पूर्व४० पश्चाद् वा धूमं विद्धाति? न चान्यदा करोतीति तस्य तजन्यस्वभावसव्यपेक्षस्य धूमजनने तदेव १पृ० ४९५०३। २ पृ.४९ पं० १९। ३ पृ. ५० ५०३५। ४ कार्यधर्मानुवृत्तितः वा०। ५-व च प्रमाणं भा०, मां०। ६ कार्यस्य च वा०, बा. विना। -वादृश्यस्वभावो भां०। ८ तदेवं भा०, गु०। स० त०८ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ प्रथमे काण्डेपारंपर्येणाग्निजन्यत्वं धूमस्य। किंच, यथा देश-कालादिकमन्तरेण धूमस्यानुत्पत्तेस्तदपेक्षा प्रतीयते तथाऽग्निमन्तरेणापि धूमस्यानुत्पत्तिदर्शनात् तदपेक्षा केन वार्यते? तदपेक्षा च तत्कार्यतैव । यथा चादृश्यभावे एव धूमस्य भावात् तज्जन्यत्वमिष्यते तथा सर्वदाऽग्निभावे एव धूमस्य भावदर्शनात् तजन्यता किं नेष्यते? यावतां च सन्निधाने भावो दृश्यते तावतां हेतुत्वं सर्वेषामित्यन्यादिसाम५ग्रीजन्यत्वाद् धूमस्य कुतोऽग्निव्यभिचारः? न चायं प्रकारोऽसर्वज्ञत्व-वक्तृत्वयोः संभवति, असर्वज्ञत्वधर्मानुविधानस्य वचने अदर्शनात् । तथाहि-यदि सर्वशत्वादन्यत् पर्युदासवृत्त्या किश्चिज्ज्ञत्वमसर्वज्ञत्वमुच्यते तदा तद्धर्मानुविधानाऽदर्शनान्न तजन्यता वचनस्य । नहि किश्चिज्ज्ञत्वतरतमभावात् वचनस्य तरतमभाव उपलभ्यते । तथाहि-किञ्चिज्ज्ञत्वं प्रकृष्टम् अत्यल्पविज्ञानेषु कम्यादिपु, न च तेषु वचनप्रवृत्तेरुत्कर्ष उपलभ्यते । अथ १०प्रसज्यप्रतिषेधवृत्त्या सर्वज्ञत्वाभावोऽसर्वज्ञत्वं तत्कार्य तु वचनं तदा ज्ञानरहिते मृतशरीरे तस्योपलम्भः स्यात्, न च कदाचनापि तत् तत्रोपलभ्यते । शानातिशयवत्सु च सकलशास्त्रव्याख्यातृषु वचनस्यातिशयभावो दृश्यते इति ज्ञानप्रकर्षतरतमाधनुविधानदर्शनात् तत्कार्यता तस्य-धूमस्येवान्यादिसामग्रीगतसुरभिगन्धाद्यनुविधायिनो-यथोक्तप्रत्यक्षाऽनुपलम्भाभ्यां व्यवस्थाप्यते । अत एव कारणगतधर्मानुविधानमेव कार्यस्य तत्कार्यतावगमनि१५मित्तम् न पुनरन्वय-व्यतिरेकानुविधानमात्रम् । तदुक्तम् "कार्य धूमो हुतभुजः कार्ये धर्मानुवृत्तितः”। [ ] इति । यञ्च यत्कार्यत्वेन निश्चितं तत् तदभावे न कदाचिदपि भवति, अन्यथा तहेतुकमेव तन्न स्यादिति सकृदपि ततो न भवेत् ः भवति च यद् यत्र निश्चिताविसंवादं वचनं तत् तद्विसंवादिज्ञानविशेषाद् इत्यात्मन्येवासकृनिश्चितमिति नान्यतस्तस्य भावः: तेन "यद् यस्यैव गुण-दोषान् नियमेनानुवर्तते । तन्नान्तरीयकं तत् स्यादतो ज्ञानोद्भवं वचः॥ [ ] अथ यदि नामाविसंवादिज्ञानधर्मानुकरणतोऽविसंवादि वचनमेकं तत्प्रभवं यथोक्तप्रत्यक्षाऽनुपलम्भतोऽवगतं तदन्यतो न भवति, तथाप्यन्यवचनस्य तद्धर्मानुकरणतो न तत्कार्यत्वसिद्धिरिति तस्यान्य तोऽपि भावसंभवात् कुतोऽव्यभिचारः? नः ईदृग्भूतं वचनमीदृक्षज्ञानतः सर्वत्र भवतीति सकृत्प्रवृ२५त्तप्रत्यक्षतोऽवगमात् । ननु सकलव्यक्त्यनुगततिर्यक्सामान्यानभ्युपगमे यावन्ति तथाभूतवचांसि तानि सर्वाणि प्रत्यक्षीकरणीयानि तथाभूतज्ञानकार्यतया, अन्यथैकस्यापि वचसस्तद्याप्ततयाऽप्रत्यक्षीकरणे तेनैव व्यभिचारी हेतुः स्यात्। न चैतावत्प्रत्यक्षीकरणसमर्थ प्रत्यक्षम्, तस्य सन्निहितविषयत्वात्। न चान्येषां स्वलक्षणानामनुमानात् साध्यधर्मेण व्याप्तिग्रहणम्, अनवस्थाप्रसङ्गत्: तयुक्ताम् । यतःप्रत्यक्षं तथाभूतज्ञानसन्निधान एव तथाभूतवचनमेदात् (दान् ) प्रतिपद्य एषु अतथाभूतवचनव्यावृत्तं रूपम३० तथाभूतज्ञानव्यावृत्तज्ञानजन्यम्'इत्यवधारयति, यथाऽत्र तथाऽन्यत्रापि देश-कालादौ 'तथाभूतज्ञानजन्यमेव'इत्यप्यवधारयति; अन्यथाऽत्रापि तथाभूतज्ञानजन्यतया न प्रत्यक्षेणावधार्यत। एवं हि तथाभूताऽतथाभूतज्ञानजन्यतया तथाभूतवचनस्य प्रतीतिः स्यात् न तथाभूतज्ञानजन्यतयैव; प्रतीयते च तथाभूतज्ञानजन्यतया तथाभूतं वचनम्। तस्मादन्यत्रान्यदा च तथाभूतज्ञानादेव तथाभूतवचनमिति कुतो व्यभिचारः? यश्च तद्रूपमन्यतो व्यावृत्तमवधारयितुं शक्नोति तस्यैव तदनुमानम् , यथा बाष्पा३५दिवि लक्षणधूमावधारणेऽत्यनुमानम् । किंच, तिर्यक्सामान्यवादिनोऽपि गोपालघटिकादौ धूमसामा न्यस्याग्निमन्तरेणापि दर्शनाद् व्यभिचाराशङ्कयाऽग्निनियतधूमसामान्यावधारणेनैव तदनुमानम् अग्निनियतधूमसामान्यावधारणं चाग्निसंबद्धधूमव्यक्त्यवधारणपुरस्सरमेव; न च सर्वदेशादावग्निसंबद्धधूमव्यक्तिविशिष्टस्य धूमसामान्यस्य केनचित् प्रमाणेनावधारणं संभवति; न च महानसादावग्निनियतधूमव्यक्तिविशिष्टं धूमसामान्यं प्रतिपन्नमन्यत्रानुयायि, व्यक्तेरनन्वयात्; यच्च धूमसामान्यमनुयायि तद् ४० नाग्यव्यभिचारि; तस्मात् सामान्यव्याप्तिग्रहणवादिनामपि कथं विशिष्टधूमसामान्यं सर्वत्राग्निना व्याप्तं प्रतिपन्न मिति तुल्यं चोद्यम् । अथ विशिष्टधूमस्यान्यत्राग्निजन्यत्वे न किञ्चिद् बाधकमस्ति, 'तदेवेदम्' इति च प्रतीतेः तत्सामान्यं प्रतीतमिष्यते; अस्माकमपि 'तदेवेदं वचनम् इति प्रत्ययस्योत्पत्तेस्तत् प्रतिपन्नमिति सदृशपरिणामलक्षणसामान्यवादिनो जैनस्य भवतो वा को विशेषोऽत्र वस्तुनि? इति १-त्रप्रभवती-बा०,मां०,वा०।२ तथाभूतातथाभूतवचनस्य भा०, का०मा० । ३ तथाभूतवचनम् गु. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञवादः। यत्किञ्चिदेतत् । तेनाग्निगमकत्वेन धूमस्य यो न्यायः सोऽत्रापि समान इति विशिष्टज्ञानगमकत्वं विशिष्टशब्दस्याभ्युपगन्तव्यम्। अथ शानविशेषग्रहणे प्रवृत्तं सविकल्पकं निर्विकल्पकं वा ततो भिन्नमभिन्नं वा ज्ञानं न वचनविशेष प्रवर्त्तते, तस्य तदानीमनुत्पन्नत्वेनासत्त्वात् तदप्रवृत्तेन च ज्ञानविशेषस्वरूपमेव तेन गृह्यते न तदपेक्षया तस्य कारणत्वम्, वचनविशेषग्राहक्रेणापि तत्स्वरूपमेव गृह्यते न पूर्व प्रति कार्यत्वम् , कार-५ जस्यातीतत्वेनाग्रहणात्: नाप्युभयग्राहिणा, भिन्नकालत्वेन तयोरेकज्ञाने प्रतिभासनाऽयोगात्: अत एव स्मरणमपि न तयोः कार्यकारणभावावेदकम् , अनुभवानुसारेण तस्य प्रवृत्युपपत्तेः, अनुभवस्य चात्र वस्तुनि निषिद्धत्वात्: असदेतन्: यतः कार्यस्य न तावदसावनुत्पन्नस्यैव कार्यत्वं धर्मः, असत्वात् तदानीम् : नाप्युत्पन्नस्यात्यन्तभिन्नं तत् . तद्धर्मत्वादेव । तथा. कारणस्यापि कारणत्वं कार्यनिष्पत्यऽनिष्पत्त्यवस्थायां न भिन्नमेव । नापि तयोः कार्यकारणभावः संबन्धोऽन्योऽस्ति, भिन्नकालत्वादेवः १० संबन्धस्य च द्विष्ठत्वाभ्युपगमात् । ततस्तन्स्वरुपग्राहिणा प्रत्यक्षेण तदभिन्नस्वभावधर्मरूपं कारणत्वं कार्यत्वं च गृह्यते एव क्षयोपशमवशात्: यत्र तु स नास्ति तत्र कार्यदर्शनादपि न तन्निश्चीयते, यतो नाकार्य-कारणयोः कार्यकारणभावः संभवति । नापि तेनाभिन्ना उत्तरकालं तयोः कार्यकारणता कर्तुं शक्या, विरोधात् । नापि भिन्ना. तयोः स्वरूपेणाकार्यकारणताप्रसङ्गात् । नापि स्वरूपेण कार्य-कारजयोरर्थान्तरभूतकार्यकारणभावस्वरूपसंवन्धपरिकल्पनेन प्रयोजनम्, तद्यतिरेकेणापि स्वरूपेणैव १५ कार्यकारणरूपत्वात् । न च भिन्नपदार्थग्राहि प्रत्यक्षद्वयं द्वितीयाग्रहणे तदपेक्षं कार्यत्वं कारणत्वं वा ग्रहीतुमशक्तमिति वक्तुं युक्तम् . क्षयोपशमवतां धृममात्रदर्शनेऽपि वह्निजन्यतावगमस्य भावात् : अन्यथा बाष्पादिवलक्षण्येन तस्यानवधारणात् ततोऽनलावगमाभावेन सर्वयवहारोच्छेदप्रसङ्गात् । कारणामि मतपदार्थग्रहणपरिणामाऽपरित्यागवता कार्यस्वरूपग्राहिणा च प्रत्यक्षेण कार्यकारणभावावगमे न कश्चिद् दोषः । न च कारणस्वभावावभासं प्रत्यक्षं न कार्यस्वरूपावभासयुक्तं प्रतिभासभेदेन भेदोपपत्तेरिति २० प्रेरणीयम्, चित्रप्रतिभासिज्ञानस्य नीलप्रतिभासाऽपरित्यागप्रवृत्तपीतादिप्रतिभास्येकत्ववत् प्रकृतज्ञानस्यापि तदविरोधात् । न च चित्रज्ञानस्याप्येकत्वमसिद्धमिति वक्तुं युक्तम् . तथाऽभ्युपगमे नीलप्रतिभासस्यापि प्रतिपरमाणुभिन्नप्रतिभासत्वेन भिन्नत्वात् एकपरमाण्ववभासस्य चाऽसंवेदनात् प्रतिभासमात्रस्याप्यभावप्रसङ्गात् सर्वव्यवहाराभावः स्यात् । अतः प्रत्यक्षमेव यथोक्तप्रकारेण सर्वोपसंहारेण प्रतिबन्धग्राहकमनुमानवादिनाऽभ्युपगन्तव्यम्: अन्यथा प्रसिद्धानुमानस्याप्यभावः स्यात् । अथेयतो२५ व्यापारान् प्रत्यक्षं कर्तुमसमर्थम् तस्य सन्निहितविषयबलोत्पत्त्या तन्मात्रग्राहकत्वात् तर्हि प्रत्यक्षेण प्रतिबन्धग्रहणाभावेऽनुमानेन तद्ग्रहणेऽनवस्थे-तरेतराश्रयदोषसद्भावादनुमानाप्रवृत्तिप्रसङ्गतो व्यवहारोच्छेदभयादवश्यमनुमानप्रवृत्तिनिवन्धनाविनाभावनिश्चायकमपरमस्पष्टसर्वपदार्थविषयमूहाख्यं प्रमाणान्तरमभ्युपगन्तव्यम् : अन्यथा 'सर्वमुभयात्मकं वस्तु' इति कुतोऽनुमानप्रवृत्तिर्मीमांसकस्य ? ततोऽसर्वज्ञत्व-रागादिमत्त्वसाधने वक्तृत्वलक्षणस्य हेतोः प्रतिवन्धस्य तत्साधकप्रमाणस्य च प्रसिद्धानुमाने ३० इवाभावान्न प्रसङ्गसाधनानुमानप्रवृत्तितः सर्वज्ञाभावसिद्धिः । विपर्ययेण वचनविशेषस्य व्याप्तत्वदर्श. नादू विपर्ययसिद्धिरेव ततो युक्ता। यच्च 'सर्वज्ञज्ञानं किं चक्षुरादिजनितम् इत्यादि पक्षचतुष्टयमुत्थाप्य 'चक्षुरादिजन्यत्वेन चक्षुरादीनां प्रतिनियतरूपादिविषयत्वेन धर्मादिग्राहकत्वायोगस्नज्ञानस्य' दूपणमभ्यधांयि, तदप्यसङ्गतम्। धर्मादिग्राहकत्वाविरोधस्य चक्षुरादिज्ञाने प्राक् प्रतिपादितत्वात् । अभ्यासपक्षे तु यद् दूषणमभ्यर्धायि न ३५ सकलपदार्थविषय उपदेशःसंभवति, नापि समस्तविषयोऽभ्यासः' इति, तदपि न सम्यकः "उत्पादव्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्" [त० अ०५, सू० २९] इति सकलपदार्थविषयस्योपदेशस्य सामान्यतः संभवात् । न चास्याऽप्रामाण्यम्, अनुमानादिप्रमाणसंवादतः प्रामाण्यसिद्धेः। अनुमानादिप्रवर्त्तनद्वारेण चैतदर्थाभ्यासे कथं न सकलविषयाभ्याससंभवः? यदपि न च समस्तपदार्थविषयमनुपदेशज्ञानं संभवति' इत्युक्तम्, तदप्यचारु: 'सर्वमनेकान्तात्मकम् , सत्त्वात्' इत्यनुमाननिबन्धनव्याप्तिप्रसा-४० धकप्रमाणस्य सकलपदार्थविषयस्य संभवात् : अन्यथाऽनुमानाभावस्य प्रतिपादितत्वात् । न च तज्ज्ञानवत एव सर्वज्ञत्वाद् व्यर्थोऽभ्यासः, सामान्यविषयत्वेनास्पष्टरूपस्यैवास्य ज्ञानस्य भावात् , अभ्यासजस्य च सकलतद्गतविशेषविषयत्वेन स्पष्टत्वान्न तदभ्यासो विफलः। यदपि तदभ्यासप्रवर्तकं चक्षुरा १-दपि तन्निश्चीयते मां०। २ पृ. ५१ पं०३। ३ पृ. ५६ पं. ३३ । ४ पृ. ५१ पं. ९। ५५० ५१ पं०१०। ६ प्र.पु. पं० २५ । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० प्रथमे काण्डे - दिजनितं यद्यतीन्द्रियविषयम्' इत्याद्यवदि, तदपि प्रतिक्षिप्तम् अतीन्द्रियार्थग्राहकत्वस्यान्येन्द्रियविषयग्राहकत्वस्य च प्राक् प्रतिपादनात् व्यवहारोच्छेदाभावस्य च दर्शितत्वात् । अतीन्द्रियेऽपि च कालादौ विशेषणभूते चक्षुरादेः प्रवृत्तिप्रतिपार्देनाच्च इतरेतराश्रयत्वदोषस्याप्यनवकाशः पूर्वपक्षप्रतिपादितस्य । शब्दज्ञानजनितज्ञानपक्षे तु इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गार्पादनमप्ययुक्तम्, कारणपक्षे तद५ संभवात् अन्य सर्वज्ञप्रणीतागमप्रभवत्वेन ज्ञानस्य कथमितरेतराश्रयत्वम् ? तदागमप्रणेतुरप्यन्यसर्वशप्रणीतागमपूर्वकत्वेऽनवस्था स्यात् सा चेष्यत एव अनादित्वादागम- सर्वज्ञपरम्परायाः । यदप्यवादि 'शब्दजनितं ज्ञानमस्पष्टाभम्, तज्ज्ञानवतः कथं सकलशत्वम्' इति, तदप्यसङ्गतम् ; नहि शब्दजनितेन ज्ञानेनाभ्यासानासादितवैशद्येन सकलज्ञोऽभ्युपगम्यते येनायं दोषः स्यात् - किन्त्वभ्यासासादितसकलविशेषसाक्षात्कारित्वलक्षणनैर्मल्यवता । अत एव 'प्रेरणाजनितं ज्ञानमस्मदादीनाम१० व्यतीतानागत- सूक्ष्मादिपदार्थविषयमस्तीति सर्वज्ञत्वं स्यात्' इति यदुक्तम्, तदपि निरस्तम् ; अभ्यासजस्य स्पष्टविज्ञानस्य सकलपदार्थविषयस्यास्मदादीनामभावात् । 'लिङ्गजनितत्वेऽपि तज्ज्ञानस्यातीन्द्रि यधर्मादिपदार्थसंबन्धानवगमाद् लिङ्गस्यानवगतसाध्यसंबन्धस्य च तस्य धर्मादिसाध्यानुमापकत्वासंभवात्' इत्यादि' यत्, तदप्यसङ्गतम् अवगतधर्माद्यतीन्द्रियसाध्यसंबन्धस्य हेतोः प्रसिद्धत्वात् । तथाहि - स्वविषयग्रहणक्षमस्य ज्ञानस्य तदग्राहकत्वं विशिष्टद्रव्यसंबन्धपूर्वकं पीतहृत्पूरपुरुषज्ञानस्येवः १५ 'सर्वमनेकान्तात्मकम्' इति सकलसामान्य विषयस्य च ज्ञानस्य तद्गताशेषविशेषाग्राहकत्वं सुप्रसिद्धमिति भवति पौगलिकाऽतीन्द्रियधर्मादिसिद्धिरतो हेतोः । यदप्युक्तम् 'अनुमानज्ञानेन सकलज्ञत्वाभ्युपगमेऽस्मदादीनामपि तत् स्यात्, भावनाबलात् तद्वैशद्ये तु कामादिविप्लुतविशदज्ञानवत इवासर्वज्ञत्वम् तज्ज्ञानस्य तद्वद् उपप्लुतत्व प्राप्तेः' इति, तदप्यचारु; यतो भावनाबलाज्ज्ञानं वैशद्यमनुभवतीत्येतावन्मात्रेण दृष्टान्तस्योपात्तत्वाद् न सकलदृष्टान्तधर्माणां साध्यधर्मिण्यासञ्जनं युक्तम् तथाऽभ्युपगमे सकला२० नुमानोच्छेदप्रसक्तेः । न चानुमानगृहीतस्यार्थस्य भावनाबलाद् वैशद्यं तत्प्रतिभासिन्यभ्यासजे ज्ञानेऽनुभवतो वैपरीत्यसंभवो येन तदवभासिनो ज्ञानस्य कामायुपप्लुतज्ञानस्येवोपप्लुतत्वं स्यात् । यद्भ्यभ्यधायि 'रजो-नीहाराद्यावरणापाये वृक्षादिदर्शनवद् रागाद्यावरणाभावे सर्वज्ञज्ञानं वैशद्यभाग भविष्यति' 'न च रागादीनामावारकत्वं सिद्धम्' इत्यादि, तदप्यसङ्गतम् ; कुड्यादीनामप्यन्वय-व्यतिरेकाभ्यामावारकत्वासिद्धेः । तथाहि - सत्य स्वप्नप्रतिभासस्यार्थग्रहणे न कुड्यादीनामावारकत्वम्, निश्छिद्रापवरकम२५ ध्यस्थितेनापि भाव्य तीन्द्रियाद्यर्थस्यान्तरावरणाभावे प्रमाणान्तरसंवादिन उपलम्भात्; कुड्यादीनां 'त्वावरणत्वे तद्दर्शनमसंभव्येव स्यात्, तथाप्रतिभासेना प्रार्थेऽपि कुड्यादीनां नावारकत्वम् । यच्च प्रातिभं ज्ञानं जाग्रदवस्थायां शब्द- लिङ्गाऽक्षव्यापाराभावेऽपि 'श्वो भ्राता मे आगन्ता' इत्याद्याकार मुत्पद्यमानमुपलभ्यते तत्र कुड्यादीनां कथमावारकत्वम् ? कथं वा विज्ञानस्य नातीन्द्रियविशेषणभूतश्वस्तनकालाद्यवभासकत्वम् अनिन्द्रियजस्य च ज्ञानस्य बाह्य-सूक्ष्मादिपदार्थ साक्षात्कारित्वं न सिद्धम् ३० येन 'सर्वज्ञज्ञानस्यानक्षजत्वे बाह्याऽतीन्द्रियादिसकलपदार्थसाक्षात्करणं स्पष्टत्वं च न स्यात्' इत्यादि प्रेर्येत ? । अत एव सकलपदार्थग्रहणस्वभावस्य ज्ञानस्य इन्द्रियादिजन्यत्वकृत एव प्रतिनियतरूपादिग्राहकत्वनियमो ऽवसीयते, प्रातिभादौ तदजन्ये तस्याभावात् । सकलज्ञज्ञानं चातीन्द्रियमिति कथं "येऽपि सातिशया दृष्टाः" इत्यादि तथा "यत्राप्यतिशयो दृष्टः" [ श्लो० वा० सू० २, श्लो० ११४] ईत्यादि च दूषणं तत्र क्रमते ? न हि ज्ञानस्याशेषज्ञेयज्ञानस्वभावस्य कश्चित् प्रतिनियतो रूपादिकः स्वार्थः ३५ संभवति इत्यसकृदावेदितम् । अथ रागादीनामावारकत्वेऽपि कथमात्यन्तिकः क्षयः, कथं वाऽभ्यस्यमानमप्यविशदं ज्ञानं लङ्घनोदकतापादिवत् प्रकृष्टप्रकर्षावस्थाम् वैशद्यं चाऽवाप्नोतीति ? नैतत् प्रेर्यम्; यतो यदि रागादीनामावारकत्वादिस्वरूपं न ज्ञायेत, नित्यत्वमाकस्मिकत्वं वा तेषां स्यात्, तद्धेतूनां वा स्वरूपापरिज्ञानं १ पृ० ५१ पं० ११ । २०५६ पं० ३५ पृ० ५७ पं० ४ । ३ पृ० ५१ पं० १५ । ४ पृ० ५६ पं० २४ । ५ पृ० ५१ पं० १९ । ६ पृ० ५१ पं० २१ । ७ पृ० ५१ पं० २५ । ८ पृ० ५१ पं० २५९ पृ० ५१ पं० २७ । १० - कत्वं च भां०, वा०, गु० । ११ - प्रतीत कां० । १२ पृ० ५१पं० ३०-३५ । १३० ५१ पं० ३६ । १४- न्द्रियार्थस्या- गु० १५ - भासे नादृष्टार्थेऽपि कुड्यादीनामावारकत्वम् मां० । १६ विशेषभूत - वा० विना । १७ पृ० ४९ पं० १० । १८ पृ० ४९ पं० १२ । १९ हि शब्दशा - भा०, वि० । २०- मावरणत्वे मां० । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञवादः। ६१ नित्यत्वं वा संभाव्येत, तद्विपक्षस्य वा स्वरूपतोऽज्ञानं अनभ्यासश्च स्यात् तदैतन्न स्यादपि; यावता रागादीनां ज्ञानावरणहेतुत्वेनावरणस्वरूपत्वं सिद्धम् । न च तेषां नित्यत्वम्, तत्सद्भावे सर्वशज्ञानस्य प्रतिपादयिष्यमाणप्रमाणनिश्चितस्याभावप्रसङ्गात् । नाप्याकस्मिकत्वम्, अत एव । न चैषामत्पादको हेत वगतः, मिथ्याज्ञानस्य तज्जनकत्वेन सिद्धत्वात् । न च तस्यापि नित्यत्वम्, अन्यथाऽविकलकारणस्य मिथ्याज्ञानस्य भावे प्रबन्धप्रवृत्तरागादिदोषसद्भावात् तदावृतत्वेन सर्वविद्विज्ञानस्याभावः ५ स्यादिति स एव दोषः । आकस्मिकत्वेऽपि मिथ्याज्ञानस्य हेतुव्यतिरेकेणापि प्रवृत्तेस्तत्कार्यभूतरागादीनामपि प्रवृत्तिरिति पुनरपि सर्वज्ञज्ञानाभावः; अहेतुकस्य च मिथ्याज्ञानस्य देश-काल-परषप्रतिनियमाभावोऽपि स्यादिति न चेतनाऽचेतनविभागः । न च तत्प्रतिपक्षभूतस्योपायस्यापरिज्ञानम्, मिथ्यात्वविपक्षत्वेन सम्यग्ज्ञानस्य निश्चितत्वात् । तदुत्कर्षे मिथ्याज्ञानस्यात्यन्तिकः क्षयः। तथाहि-यदुत्कर्षतारतम्याद् यस्यापचयतारतम्यं तस्य विपक्षप्रकर्षावस्थागमने भवत्यात्य-१० न्तिकः क्षयः, यथोष्णस्पर्शस्य तथाभूतस्य प्रकर्षगमने शीतस्पर्शस्य तथाविधस्यैव, सम्यग्ज्ञानोपचयतारतम्यानुविधायी च मिथ्याज्ञानापचयतरतमादिभाव इति तदुत्कर्षेऽस्याऽऽत्यन्तिकक्षयसद्भावात् तत्कार्यभूतरागाद्यनुत्पत्तेरावरणाभावः सिद्धः । रागादिविपक्षभूतवैराग्याभ्यासाद् वा रागादीनां निर्मूलतः क्षय इति कथं नावरणाभावः? __ न च लङ्घनो-दकतापादिवदभ्यस्यमानस्यापि सम्यग्ज्ञान-वैराग्यादेन परप्रकर्षप्राप्तिरिति १५ कुतस्तद्विषये मिथ्याज्ञानाभावाद् रागादेरात्यन्तिकोऽनुत्पत्तिलक्षणः क्षयलक्षणो वाऽभाव इति वक्तं युक्तम्, यतो लकनं हि पूर्वप्रयतसाध्यं यदि व्यवस्थितमेव स्यात् तदोत्तरप्रयत्नस्थापरापरलङ्गनातिशयोत्पत्ती व्यापारात् भवेल्लङ्घनस्याप्यनपेक्षितपूर्वातिशयसद्भावप्रयत्नान्तरस्य प्रकर्षावाप्तिः न चैवम्, अपरापरप्रयत्नस्य पूर्वपूर्वातिशयोत्पादने एवोपक्षीणशक्तित्वात । अर्थतत स्यात-यदि तत्रापि पूर्वप्रयत्नोत्पादितोऽतिशयो न व्यवस्थितः स्यात्, तत्किमिति प्रथममेवर यावल्लङ्घयितव्यं तावन्न लङ्घयति ? तल्लङ्घनाभ्यासापेक्षणात् पूर्वप्रयत्नाहितातिशयसद्भावेऽपि न लखनप्रकर्षप्राप्तिरिति यथा तस्य व्यवस्थितोत्कर्षता तथा ज्ञानस्यापि भविष्यति, न, यतः श्लेष्मादिना प्राक् शरीरस्य जाड्याद् यावल्लङ्घयितव्यं न तावद् व्यायामानपनीतश्लेष्माऽनासा. दितपटुभावः कायो लङ्घन्यति; अभ्यासासादितश्लेष्मक्षय-पटुभावस्तु यावल्लङ्घयितव्यं तावलकयतीत्यभ्यासस्तत्र सप्रयोजनः । ज्ञानस्य तु योऽभ्याससमासादितोऽतिशयः सोऽतिशयान्तरोत्पनी२५ पुनः प्राक्तनाभ्यासापेक्षो न भवतीत्युत्तरोत्तराभ्यासानामपरापरातिशयोत्पादने व्यापाराद न व्यव. स्थितोत्कर्षतेति भवति ज्ञानस्य परप्रकर्षकाष्ठा । उदकतापे त्वतिशयेन क्रियमाणे तदाश्रयस्यैव क्षयाद नातिताप्यमानमप्युदकमग्निरूपतामासादयति; विज्ञानस्य स्वाश्रयोऽत्यभ्यस्यमानेऽपि तस्मिन न क्षयमुपयातीति कथं तस्य व्यवस्थितोत्कर्षता ? न च विज्ञानमपि प्राक्तनाभ्यासादासादितातिशयं पूर्वमेव विनष्टम् अपराभ्यासादन्यदतिशयवदुत्पन्नमिति कथं पूर्वाभ्याससमासादितोऽतिशयो ३० नाभ्यासान्तरापेक्षो येन व्यवस्थितोत्कर्षता तस्यापि न स्यादिति वक्तुं युक्तम्, तत्र पूर्वाभ्यासजनितसंस्कारस्योत्तरत्रानुवृत्तेः; अन्यथा शास्त्रपरावर्तनादिवैयर्थ्यप्रसङ्गात् । नापि 'यदुपचयतारतम्या. नुविधायी यदपचयतरतमभावस्तस्य तद्विपक्षप्रकर्षगमनादात्यन्तिकः क्षयः' इत्यत्र प्रयोगे श्लेष्मणा व्यभिचार उद्भावयितुं शक्यः किल-निम्बाद्यौषधोपयोगात् प्रकर्षतारतम्यानुभववतस्तरतमभावापचीयमानस्यापि श्लेष्मणो नात्यन्तिकक्षय इति-यतस्तत्र निम्बाद्यौषधोपयोगस्यैव नोत्कर्ष-३५ निष्ठा आपादयितुं शक्या, तदुपयोगेऽपि श्लेष्मपुष्टिकारणानामपि तदैवाऽऽसेवनात्, अन्यथौषधोप. योगाधारस्यैव विनाशः स्यात् । चिकित्साशास्त्रस्य च धातुदोषसाम्यापादनाभिप्रायेणैव प्रवृत्तेस्तप्रतिपादितौषधोपयोगस्योद्रिक्तधातुदोषसाम्यविधाने एव व्यापारो न पुनस्तस्य निर्मूलने; अन्यथा दोषान्तरस्यात्यन्तक्षये मरणावाप्तेरिति न श्लेष्मणा तथाभूतेनानैकान्तिको हेतुः। न च सम्यगज्ञानसात्मीभावेऽपि पुनर्मिथ्याज्ञानस्यापि संभवो भविष्यति तदुत्कर्ष इव सम्यग्ज्ञानस्येति वक्तुं युक्तमा यतो मिथ्याज्ञाने रागादौ वा दोषदर्शनात् , तद्विपक्षे च सम्यग्ज्ञान-वैराग्यलक्षणे गुणदर्शनात् तत्र १ तदेतन वा०, पू०, बा०। २-त्पादहेतु-मां० । ३-लक्षय वि०। ४-तव्यं तन्न लायति वा०, बा०, पू०। ५-षधोपचारयो-भा०, गु०, ६-का क्षयः भा० । ७-न्यदा कां० मा०। ८-नस्यात्मी-मां। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - पुनरभ्यासप्रवृत्तिसंभवात् प्रकृष्टेऽपि मिथ्याज्ञान- रागादावुत्पद्येते एव सम्यग्ज्ञान-वैराग्ये नैवं तयोः प्रकर्षावस्थायां दोषदर्शनं तत्र तद्विपर्यये वा गुणदर्शनं येन पुनस्तत्सात्मीभावेऽपि मिथ्याज्ञान- रागादेरुत्पत्तिः संभाव्येत । न चानजस्य ज्ञानस्य सर्ववित्संबन्धिनः कथं प्रत्यक्षशब्दवाच्यतेति वक्तुं युक्तम्, यतोऽक्षजत्वं प्रत्यक्षस्य शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तमेव न पुनः शब्दप्रवृत्तिनिमि५ त्तम् तन्निमित्तं हि तदेकार्थाश्रितमर्थ साक्षात्कारित्वम् । अन्यद्धि शब्दस्य व्युत्पत्तौ निमित्तम् अन्यच्च प्रवृत्तौ यथा गोशब्दस्य गमनं व्युत्पत्ती, गोपिण्डाश्रितगोत्वं प्रवृत्तौ निमित्तम्- अन्यथा यदि यदेव व्युत्पत्तिनिमित्तं तदेव प्रवृत्तावपि तदा गच्छन्त्यामेव गवि गोशब्दप्रवृत्तिः स्यात् न स्थितायाम्, महिष्यादौ च गमनपरिणामवति गोशब्दः प्रवर्त्तत - तथाऽत्रापि प्रवृत्तिनिमित्तसद्भावात् प्रत्यक्षव्यपदेशः संभवत्येव । यद्वा यदेव व्युत्पत्तिनिमित्तं तदेव प्रवृत्तावप्यस्तु तथापि तच्छन्दवाच्यता१० यास्तत्र नाभावः । तथाहि - 'अनुने' सर्वपदार्थान् ज्ञानात्मना व्याप्नोतीति व्युत्पत्तिशब्दसमाश्रयणाद् अक्षः आत्मा, तमाश्रितम् उत्पाद्यत्वेन तं प्रति गतमिति प्रत्यक्षमिति व्युत्पत्तेः । अभ्युपगमवादेन चाभ्यासवशात् प्राप्तप्रकर्षेण ज्ञानेन सर्वज्ञ इति प्रतिपादितम् । न त्वस्माकमयमभ्युपगमः किन्तु ज्ञानाद्यावारकघातिकर्मचतुष्टयक्षयोद्भूताशेषज्ञेयव्याप्य निन्द्रिय शब्द लिङ्ग साक्षात्का रिज्ञानवतः सर्वज्ञत्वमभ्युपगम्यते । ६२ १५ यच्चोम् 'यद्यतीतानागतवर्त्तमानाशेष पदार्थ साक्षात्कारिज्ञानेन सर्वज्ञस्तदा क्रमेणातीता'नागत पदार्थवेदने पदार्थानामानन्त्याद् न ज्ञानपरिसमाप्तिः' इति, तदयुक्तम् ; तथाऽनभ्युपगमात्; शास्त्रार्थे क्रमेणानुभूतेऽप्यत्यन्ताभ्यासान्न क्रमेण संवेदनमनुभूयते तद्वद्वत्रापि स्यात् । यदप्यधायि 'अथ युगपत्सर्व पदार्थवेदकं तज्ज्ञानमभ्युपगम्यते तदा परस्परविरुद्धानां शीतोष्णादीनामेकज्ञाने प्रतिभासासंभवात्; संभवेऽपि' इत्यादि, तदप्ययुक्तम्; यतः परस्परविरुद्धानां किमे२० कदाऽसंभवः, किंवा संभवेऽप्येकज्ञानेऽप्रतिभासनं भवता प्रतिपादयितुमभिप्रेतम् ? तत्र यद्याद्यः पक्षः, स न युक्तः; जलाऽनलादीनां छायाऽऽतपादीनां चैकदा विरुद्धानामपि संभवात् । अथैकत्र विरुद्धानामसंभवस्तदाऽसंभवादेव नैकत्र ज्ञाने तेषां प्रतिभासो न पुनविरुद्धत्वात् विरुद्धानामपि तेषामेकज्ञाने प्रतिभाससंवेदनात् । एतेन 'विरुद्धार्थग्राहकस्य च तज्ज्ञानस्य न प्रतिनियतार्थग्राहकत्वं स्यात्' इत्याद्यपि निरस्तम्, छायाऽऽतपादिविरुद्धार्थग्राहिणोऽपि ज्ञानस्य प्रतिनियतार्थ ग्राहकत्व२५ संवेदनात् । यच्चोक्तम् 'यदि युगपत्सर्वपदार्थग्राहकं तज्ज्ञानं तदेकक्षण एव सर्वपदार्थवेदनात् द्वितीयादिक्षणे किञ्चिज्ज्ञ एव स स्यात्' इत्यादि, तदप्यत्यन्तासंबद्धम् यतो यदि द्वितीयक्षणे पदार्थानाम् तज्ज्ञानस्य चाभावः स्यात् तदा स्यादप्येतत्; न चैतत्संभवति, तथाऽभ्युपगमे द्वितीयक्षणे सर्वपदार्थाभावात् सकलसंसारोच्छेदः स्यात् । यदप्यभ्यर्धायि 'अनाद्यनन्तपदार्थसंवेदने तत्संवेदनस्यापरिसमाप्तिः' इत्यादि, तदप्ययुक्तम्; अत्यन्ताभ्यस्तशास्त्रार्थज्ञानस्येव युगपदनाद्यनन्तार्थग्राहि३० णतज्ज्ञानस्यापि परिसमाप्तिसंभवात् अन्यथा भूत-भविष्यत् सूक्ष्मादिपदार्थग्राहिणः प्रेरणाजनितज्ञानस्यापि कथं परिसमाप्तिः ? तत्राप्यपरिसमाप्त्यभ्युपगमे "चोदना भूतं भवन्तं भविष्यन्तम्” इत्यादिवचनस्य नैरर्थक्यं स्यादिति । यदपि 'परस्थरागादिसंवेदने सरागः स्यात्' इत्यादि, तदप्यसङ्गतम् ; नहि परस्थरागादिसंवेदनाद् रागादिमान् भवति; अन्यथा श्रोत्रियद्विजस्यापि स्वप्नज्ञानेन मद्यपानादिसंवेदनाद् मद्यपानदोषः स्यात् । अथाप्यरसनेन्द्रियजं तज्ज्ञानमिति ३५ नायं दोषस्तर्हि सर्वज्ञज्ञानमपि नेन्द्रियजमिति कथमशुचिरसास्वाद दोषस्तत्रासज्येत ? न च रागादिसंवेदनाद् 'रागी' इति लोके व्यवहारः किन्त्वङ्गनाकामनाद्यभिलींषस्व संविदितस्याशि ष्टव्यवहारकारिणः स्वात्मस्वभावस्योत्पत्तेः न चासौ तत्रेति कथं स रागादिमान् ? यदेपि 'अथ शक्तियुक्तत्वेन सर्वपदार्थवेदनम्' इत्यादि, तदप्यचारुः यथा उपलब्धिलक्षणप्राप्ते सन्निहित देशादावनुपलब्धेः 'अपरमत्र नास्ति' इति इदानीं तनानामियत्तानिश्चयस्तथा सर्वज्ञस्यापि स्वशक्तिपरिच्छे४० दात्; अन्यथा घटादीनामपि क्वचित् प्रदेशेऽभावनिश्चये ऽपरप्रकारासंभवात् सकलव्यवहारविलोपः । १ ततोऽत्रा - वा० पू०, बा०, मां० ५ पृ० ५२ पं० ७ । ६ पृ० ५२ पं० ९ १० । १० - लाषत्वं स्व-कां० । ११ २ पृ० ५२ पं० ३ । ३ । ७ - दनाद्यन्तार्थ - मां० । स्वात्मकं स्वभा-गु० । पृ० ५२ पं० ४। ४ पृ० ५२ पं० ६ । ८ पृ० ४३ पं० ४२ । ९० ५२ पं० १२०५२०११। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञवादः। स्यात् । 'अथ यावदुपयोगिप्रधानपदार्थजातम्' इत्यादि अपि अयुक्तम् , सकलपदार्थशत्वप्रतिपादनात् । अत एव "ज्ञो शेये कथमज्ञः स्याद् असति प्रतिबन्धरि । सत्येव दाह्ये न ह्यग्निः क्वचिद् दृष्टो न दाहकः॥” [ इत्यत्र यदुक्तम् "किं सर्वज्ञत्वात्, अथ किश्चिज्ज्ञत्वादू इति, नोभयथापि हेतुः । यदि तावत् ५ सर्वज्ञत्वादिति हेत्वर्थः परिकल्प्यते तदा प्रतिज्ञार्थंकदेशो हेतुरसिद्ध एव कथं हि तदेव साध्यम् तदेव हेतुः। अथ किञ्चित्वादिति हेतुस्तदा विरुद्धता स्यात् । कथं हि किञ्चिज्ज्ञत्वं सर्वशत्वेन विरुद्ध सर्वज्ञत्वं साधयेत् ? अथ ज्ञत्वमात्रं हेतुस्तदाऽनैकान्तिकः, शत्वमात्रस्य किञ्चिज्ज्ञत्वेनाप्यविरोधात्'' इति, तदपि निरस्तम्। सामान्येन 'सर्वज्ञत्वात्' इत्यस्य हेतुत्वात् विशेषेण तज्ज्ञत्वस्य साध्यत्वात् सामान्य-विशेषयोश्च भेदस्य कथञ्चित् प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् सामान्येन सर्वज्ञत्वस्य चानुमान-१० व्यवहारिणं प्रति साधितत्वात् । एतेन 'सूक्ष्माऽन्तरितदूरार्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वात्' इत्यत्र प्रयोगे प्रमेयत्वहेतोर्यद् दूषणमुपन्यस्तं पूर्वपक्षवादिना तदपि निरस्तम्, सर्वसूक्ष्माऽन्तरितपदार्थानां व्याप्तिप्रसाधकेनानुमानप्रमाणेन वा एकेन सामान्यतः प्रमेयत्वस्य प्रसाधितत्वात् । यच्च 'प्रधानपदार्थपरिज्ञानं न सकलपदार्थज्ञानमन्तरेण संभवति' इति, तत् सर्वशवचनामृतलवास्वादसंभवो भवतोऽपि कथञ्चित् संपन्न इति लक्ष्यते । तथाहि तद्वचः ___ “जे एगं जाणइ" [ आचा० प्र० श्रु० अध्य० ३, उ० ४ सू० १२२] इत्यादि । तन्मतानुसारिभिः पूर्वाचार्यैरप्ययमर्थो न्यगादि "एको भावस्तत्त्वतो येन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः। सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा एको भावस्तत्त्वतस्तेन दृष्ट"॥[ अस्यायमर्थ:-न ह्यसर्व विदा कश्चिदेकोऽपि पदार्थस्तत्त्वतो द्रष्टुं शक्यः, एकस्यापि पदार्थस्यानुगत-२० व्यावृत्तधर्मद्वारेण साक्षात् पारंपर्येण वा सर्वपदार्थसंबन्धिस्वभावत्वात्। तत्स्वभावाऽवेदने च तस्याऽवेदनमेव परमार्थतः ततस्तज्ज्ञानं स्वप्रतिभासमेव वेत्तीति नार्थो विदितः स्यात्, केवलं तत्राभिमानमात्रमेव लोकस्य । अथ संबन्धिस्वभावता पदार्थस्य स्वरूपमेव न भवति, यत् केवलं प्रत्यक्षप्रतीतं सन्निहितमात्रं स एव वस्तुस्वभावः; संबन्धिता तु तत्र परिकल्पितैव पदार्थान्तरदर्शनसंभवतया । तथा चोक्तम् "निष्पत्तेरपराधीनमपि कार्य स्वहेतुना। संबध्यते कल्पनया, किमकार्य कथञ्चन ?" ॥ [ ] इति, तदेतदयुक्तम् । एवं हि परिकल्प्यमाने स्वरूपमात्रसंवेदनाद् अद्वैतमेव प्राप्तम्, ततः सर्वपदार्थाभावे व्यवहाराभावः। अथ व्यवहारोच्छेदभयात् पदार्थसद्भावोऽभ्युपगम्यते तर्हि सर्वपदार्थसंबन्धिताऽपि साक्षात् पारंपर्येण च पदार्थस्वभावोऽभ्युपगन्तव्यः; अन्यथा साक्षात् पारंपर्यणे वाऽन्यप-३० दार्थजन्यजनकतालक्षणसंबन्धिताऽनभ्युपगमे तद्यावृत्त्यनुगतिसंबन्धिताऽनभ्युपगमे च पदार्थस्वरूपस्याप्यभावः। तत्पदार्थपरिज्ञाने च तद्विशेषणभूता तत्संबन्धिताऽपि ज्ञातैव, अन्यथा तस्य तत्परिज्ञानमेव न स्यात् । तत्परिज्ञाने च सकलपदार्थपरिज्ञानमस्मदादीनामनुमानतः, सर्वज्ञस्य च साक्षात् तज्ज्ञानेन सकलपदार्थज्ञानम् । लोकस्तु प्रत्यक्षेण कथञ्चित् कस्यचित् प्रतिपत्ता । तथाहिधूमस्याप्यग्निजन्यतया प्रतिपत्तौ बाष्पादिव्यावृत्तधूमस्वरूपप्रतिपत्तिः, अन्यथा व्यवहाराभावः ।३५ तथा नीलादिप्रतिभासस्य बाह्यार्थसंबन्धितयाऽप्रतिपत्तौ बाह्यार्थाप्रतिपत्तिरेव स्यात् । तस्मात् संबन्धितयैव पदार्थस्वरूपप्रतिपत्तिः तच्च संबन्धित्वं प्रमेयमनुमानेन प्रतीयतेऽभ्यासदशायामस्मदादिमिः, यत्र क्षयोपशमलक्षणोऽभ्यासस्तत्र तस्य प्रत्यक्षतोऽपि प्रतिपत्तिरिति कथं न प्रधानभूत. पदार्थवेदने सकलपदार्थवेदनम् एकवेदनेऽपि सकलवेदनस्य प्रतिपादितत्वात् ? १ पृ. ५२ पं० १७ । २-तम् "ज्ञत्वात् सर्वज्ञ इति किं सर्व-मां० । ३ पृ० ४४ पं० १८। ४-यत्वस्य हे-मां०। ५ पृ० ५१ पं० ३९। ६ पृ० ५२ पं० १८। ७ नयचक्रस्य प्रान्तभागे तु एवमुपलभ्यते "एको भावः सर्वभावखभावः सर्वे भावा एकभावस्वभावाः । एको भावस्तत्त्वतो येन दृष्टः सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन दृष्टाः” इति-(हा. लि. पृ० ४७३) ८-तस्तज्ज्ञानं का०, गु०। ९-ण चाऽ-मां०। १०-स्य बाष्पबाह्या-मा० । -स्य प्रामाण्यवाह्या-वा० ।-स्य प्राप्यबाह्या-भां। ११ यत्र तु क्ष-मां० । १२ प्र० पृ. पं. १८। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - विकल्पाभावेऽपि मन्त्राविष्टकुमारिका दिवचनवन्नित्यसमाहितस्यापि वचनसंभवाद् 'विकल्पाभावे कथं वचनम्' इत्यादि निरस्तम् । दृश्यते चात्यन्ताभ्यस्ते विषये व्यवहारिणां विकल्पनमन्तरेणापि वचनप्रवृत्तिरिति कथं ततः सर्वज्ञस्य छाद्मस्थिकज्ञानासञ्जनं युक्तम् ? यदप्युक्तम् 'अतीतादेरसत्वात् कथं तज्ज्ञानेन ग्रहणम्, ग्रहणे वाऽसदर्थग्राहित्वात् तज्ज्ञानवान् भ्रान्तः स्यात्' इत्यादि, ५ तदप्ययुक्तम् ; यतः किमतीतादेरतीतादिकालसंबन्धित्वेनासत्त्वम् उत तज्ज्ञानकालसंबन्धित्वेन १ यद्यतीतादिकालसंबन्धित्वेनेति पक्षः, स न युक्तः; वर्त्तमानकालसंबन्धित्वेन वर्त्तमानस्येव तत्कालसंबन्धित्वेनातीतादेरपि सत्त्वसंभवात् । अथातीतादेः कालस्याभावात् तत्संबन्धिनोऽप्यभावः, तदसत्वं च प्रतिपादितं पूर्वपक्षवादिनाऽनवस्थे-तरेतराश्रयादिदोषप्रतिपादनेन; सत्यम्, प्रतिपादितं न च सम्यकू; तथाहि— नास्माभिरपरातीतादि काल संबन्धित्वादस्यातीतादित्वमभ्युपगम्यते - येना१० नवस्था स्यात् - नापि पदार्थानामतीतादित्वेन कालस्यातीतादित्वम् - येनेतरेतराश्रयदोषः - किन्तु स्वरूपत एवातीतादिसमयस्यातीतादित्वम् । तथाहि अनुभूतवर्त्तमानत्वः समयोऽतीत इत्युच्यते, अनुभविष्यद्वर्त्तमानत्वश्चानागतः तत्संबन्धित्वात् पदार्थस्याप्यतीताऽनागतत्वे अविरुद्धे । 'अथ यथाऽतीतादेः समयस्य स्वरूपेणैवातीतादित्वं तथा पदार्थानामपि तद्भविष्यतीति व्यर्थस्तदभ्युपगमः' एतच्चात्यन्तासङ्गतम्, न ह्येकपदार्थ धर्मस्तदन्यत्राप्यासञ्जयितुं युक्तः; अन्यथा निम्बादेस्ति१५ क्तता गुडादावप्यासञ्जनीया स्यात् । न च साऽत्रैव प्रत्यक्षसिद्धा इत्यन्यत्रासञ्जने तद्विरोध इत्युक्त्तरम् प्रकृतेऽप्यस्योत्तरस्य समानत्वात् । भवतु पदार्थधर्म एवातीतादित्वं तथापि नास्माकमभ्युपगमक्षतिः, विशिष्टपदार्थ परिणामस्यैवातीतादिकालत्वेनेष्टेः ६४ "परिणाम-वर्त्तनी - दिवि - ( वर्तना - विधि - ) पराऽपरत्व" - [प्रशमर० प्र० श्लो० २१८ ] इत्याद्यागमात् । तथाहि स्मरणविषयत्वं पदार्थस्यातीतत्वमुच्यते, अनुभवविषयत्वं वर्त्तमानत्वम्, २० स्थिरावस्थादर्शन लिङ्गबलोत्पद्यमान 'कालान्तरस्थाय्ययं पदार्थः' इत्यनुमानविषयत्वं धर्मोऽनागतकालत्वमिति । तेन यदुच्यते 'यदि स्वत एव कालस्यातीतादित्वं पदार्थस्यापि तत् स्वत एव स्यात्' इति परेण तत् सिद्धं साधितम् । तद् अतीतादिकालस्य सत्वान्न तत्काल संबन्धित्वेनातीतादेः पदार्थस्याऽसत्त्वम् वर्त्तमानकालसंबन्धित्वेन त्वतीतादेरसत्त्वप्रतिपादनेऽभिमतमेव प्रतिपादितं भवतिः न ह्यतीतकाल संबन्धित्वसत्त्वमेवैतज्ज्ञानकालसंबन्धित्वमस्मा२५ भिरभ्युपगम्यते । न चैतत्काल संबन्धित्वेनासत्त्वे स्वकालसंबन्धित्वेनाप्यतीतादेरसत्त्वं भवति; अन्यथैतत्काल संबन्धित्वस्याप्यतीतादिकालसंबन्धित्वेनासत्त्वात् सर्वाभावः स्यादिति सकलव्य वहारोच्छेदः । अथापि स्यात् भवत्वतीतादेः सत्त्वं तथापि सर्वज्ञज्ञाने न तस्य प्रतिभासः, तज्ज्ञानकाले तस्यासन्निहितत्वात्; सन्निधाने वा तज्ज्ञानावभासिन इव वर्त्तमानकालसंबन्धिनोऽतीतादेरपि वर्त्तमानकालसंबन्धित्व प्राप्तेः । न हि वर्त्तमानस्यापि सन्निहितत्वेन तत्कालज्ञानप्रति३० भासित्वं मुक्त्वाऽन्यद् वर्त्तमानकालसंबन्धित्वम्; एवमतीतादेस्तज्ज्ञानावभासित्वे वर्त्तमानत्वमेवेति वर्त्तमानमात्र पदार्थज्ञानवानस्पदादिवन्न सर्वशः स्यात् । किंच, अतीतादेस्तज्ज्ञानकालेऽसन्निहितत्वेन तज्ज्ञानेऽप्रतिभासः प्रतिभासे वा स्वज्ञानसंबन्धित्वेन तस्य ग्रहणात् तज्ज्ञानस्य विपरीतख्यातिरूपताप्रसक्तिः, एतदसंबद्धम् यतो यथाऽस्मदादीनामसन्निहित कालोऽप्यर्थः सत्यस्वप्नज्ञाने प्रतिभाति - न चासन्निहितस्य तस्यातीतादिकालसंबन्धिनो वर्त्तमानकालसंबन्धित्वम् ; नापि ३५स्वकालसंबन्धित्वेन सत्यस्वप्नज्ञाने तस्य प्रतिभासनात् तद्राहिणो ज्ञानस्य विपरीतख्यातित्वम् । यत्र ह्यन्यदेश - कालोऽर्थोऽन्यदेश-काल संबन्धित्वेन प्रतिभाति सा विपरीतख्यातिः । अत्र त्वतीतादिकालसंबन्धी अतीतादिकालसंबन्धित्वेनैव प्रतिभातीति न तत्प्रतिभासिनोऽर्थस्य तत्कालसंबन्धित्वेन वर्त्तमानत्वम्; नापि तद्ग्राहिणो विज्ञानस्य विपरीतख्यातित्वम्-तथा सर्वज्ञज्ञानेऽपि यदाऽतीतादिकालोऽर्थोऽतीतादिकालसंवन्धित्वेन प्रतिभाति तदा कथं तस्यार्थस्य वर्त्तमानकाल १ पृ० ५२ पं० २१ । २ पृ० ५२ पं० २२ । ३ पृ० ५२ पं० ३८-० ५३ पं० २ । ४ पृ० ५३ पं० ३ । ५ प्रशमरतिप्रकरणे “परिणाम - वर्तना - विधि - परापरत्वगुणलक्षणः कालः " श्लो० २१८ । तत्त्वार्थसूत्रे " वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य" अ० ५, सू० २२ । “परिणाम - वर्तना-परत्वापरत्वादयो वस्तुधर्माः स एव च कालः " भां० मां० टि० । ६ एष पाठः वा०, ब०, पू० । अन्यत्र सर्वत्र - ना-दि-परा- । ७पृ० ५३ पं० ३ । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञवादः। संबन्धित्वम्, कथं वा तज्ज्ञानस्य विपरीतख्यातित्वमिति ? यथा वा विशिष्टमन्त्रसंस्कृतचक्षुषामकष्टादिनिरीक्षणेनान्यदेशा अपि चौरादयो गृह्यमाणा न तद्देशा भवन्ति, नापि तज्ज्ञानं तद्देशादिसंबन्धित्वमनुभवति, तथा सर्वविदिशानमप्यसन्निहितकालं यद्यर्थमवभासयति स्वात्मना तत्कालसंबन्धित्वमननुभवदपि तदा को विरोधः, कथं वा तस्यातीतादेरर्थस्य तज्ज्ञानकालत्वमिति? न च सत्यस्वप्नज्ञानेऽप्यतीताद्यर्थप्रतिभासे समानमेव दृषणमिति न तदृष्टान्तद्वारेण सर्वशशान- ५ मतीताद्यर्थग्राहकं व्यवस्थापयितुं युक्तमिति वक्तुं युक्तम् , अविसंवादवतोऽपि ज्ञानस्य विसंवादविषये विप्रतिपत्त्यभ्युपगमे स्वसंवेदनमात्रेऽपि विप्रतिपत्तिसद्भावाद् अतिसूक्ष्मेक्षिकया तस्यापि तत्स्वरूपत्वासंभवात् सर्वशून्यताप्रसङ्गात्; तन्निषेधस्य च प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । अतो न युक्तमुक्तम् 'अथ प्रतिपाद्यापेक्षया' इत्यादि 'न भ्रान्तज्ञानवान् सर्वशः कल्पयितुं युक्तः' इतिपर्यन्तम् । यदप्युतम् ‘भवतु वा सर्वज्ञस्तथाप्यसौ तत्कालेऽप्यसर्वज्ञैर्शातुं न शक्यते' इत्यादि, तदप्यसंगतम् ; यतो १० यथा सकलशास्त्रार्थापरिज्ञानेऽपि व्यवहारिणा 'सकलशास्त्रज्ञः' इति कश्चित् पुरुषो निश्चीयते तथा सकलपदार्थापरिज्ञानेऽपि यदि केनचित् कश्चित् सर्वज्ञत्वेन निश्चीयते तदा को विरोधः? युक्तं चैतत् अन्यथा युष्माभिरपि सकलवेदार्थापरिज्ञाने कथं जैमिनिरन्यो वा वेदार्थज्ञत्वेन निश्चीयते? तदनिश्चये च कथं तद्याख्यातार्थानुसरणादग्निहोत्रादावनुष्ठाने प्रवृत्तिः? इति यत्किञ्चिदेतत् "सर्वशोऽयमिति ह्येतत्" इत्यादि। तदेवं सर्वज्ञसद्भावग्राहकस्य प्रमाणस्य शत्व-प्रमेयत्व-वचन-१५ विशेषत्वादेर्दर्शितत्वात् तदभावप्रसाधकस्य च निरस्तत्वात् 'ये बाधकप्रमाणगोचरतामापन्नास्ते 'असत्' इति व्यवहर्त्तव्याः' इति प्रयोगे हेतोरसिद्धत्वात् ये सुनिश्चितासंभवद्वाधकप्रमाणत्वे सति सदुपलम्भकप्रमाणगोचरास्ते 'सत्' इति व्यवहर्त्तव्याः, यथोभयवाद्यविप्रतिपत्तिविषया घटादयः, तथाभूतश्च सर्ववित् इति भवत्यतः प्रमाणात् सर्वज्ञव्यवहारप्रवृत्तिरिति । अथापि स्यात्-स्वविषयाविसंवादिवचनविशेषस्य तद्विषयाविसंवादिज्ञानपूर्वकत्वमात्रमेव २० भवता प्रसाधितम्, न चैतावताऽनन्तार्थसाक्षात्कारिज्ञानवान् सर्वज्ञः सिद्धिमासादयति, सकलसूक्ष्मादिपदार्थसार्थसाक्षात्कारिज्ञानविशेषपूर्वकत्वे हि वचनविशेषस्य सिद्ध तज्ज्ञानवतः सर्वज्ञत्वसिद्धिः स्यात् । न च तथाभूतज्ञानपूर्वकत्वं वचनविशेषस्य सिद्धम् , अनुमानादिशानादपि स्व विष. याविसंवादिवचन विशेषस्य संभवात् न च तथाभूतज्ञानवान् सर्वज्ञो भवद्भिरभ्युपगम्यत इत्येतद् हृदि कृत्वाऽऽह सूरिः-'कुसमयविसासणं' इति । सम्यक्-प्रमाणान्तराविसंवादित्वेन-ईयन्ते २५ परिच्छिद्यन्ते इति समया:-नष्ट-मुष्टि-चिन्ता-लाभाऽलाभ-सुखाऽसुख-जीवित-मरण-ग्रहो-पराग-मन्त्री-पधशत्त्यादयः पदार्थाः-तेषां विविधम्-अन्यपदार्थकारणत्वेन कार्यत्वेन चानेकप्रकारम्-शासनम् प्रतिपादकम् यतः शासनम् कुः पृथ्वी तस्या इव । अयमभिप्रायः-शत्व-प्रमेयत्वादेरनेकप्रकारस्य प्रतिपादितन्यायेन सर्वसत्त्वप्रतिपादकस्य हेतोः सद्भावेऽपि तत्कृतत्वेन शासनप्रामाण्यप्रतिपादनार्थ सर्वज्ञोऽभ्युपगम्यते; तस्य चान्यतो ३० हेतोः प्रतिपादनेऽपि तदागमप्रणेतृत्वं हेत्वन्तरात् पुनः प्रतिपादनीयं स्यादिति हेत्वन्तरमुत्सृज्य प्रतिपादनगौरवपरिहारार्थ वचनविशेषलक्षण एव हेतुस्तत्सद्भावावेदक उपन्यसनीयः, सचानेन गाथासूत्रावयवेन सूचितः। अत एव संस्कृत्य हेतुः कर्तव्यः । तथाहि-यो यद्विषयाऽविसंवाद्यलिङ्गानुपदेशानन्वयव्यतिरेकपूर्वको वचनविशेषः स तत्साक्षात्कारिज्ञानविशेषप्रभवः, यथाs. स्मदादिप्रवर्तितः पृथ्वीकाठिन्यादिविषयस्तथाभूतो वचनविशेषः, नष्ट-मुष्टिविशेषादिविषयाविसं-३५ वाद्यलिङ्गानुपदेशानन्वयव्यतिरेकपूर्वकवचनविशेषश्चायं शासनलक्षणोऽर्थ इति । - न चात्राविसंवादित्वं वचनविशेषत्वलक्षणस्य हेतोर्विशेषणमसिद्धम्, नष्ट-मुष्टयादीनां वचन'विशेषप्रतिपादितानां प्रमाणान्तरतस्तथैवोपलब्धेरविसंवादसिद्धेयोऽपि क्वचिदू वचनविशेषस्य तत्र विसंवादो भवता परिकल्प्यते सोऽपि तदर्थस्य सम्यगपरिज्ञानात् सामग्रीवैकल्यात्। न पुनर्वचनविशेषस्यासत्यार्थत्वात् । न च सामग्रीधैकल्यादेकनासत्यार्थत्वे सर्वत्र तथात्वं परिकल्पयितुं४० युक्तम्, अन्यथा प्रत्यक्षस्यापि द्विचन्द्रादिविषयस्य सामग्रीवैकल्येनोपजायमानस्यासत्यत्वसंभवात १ पृ. ५२ पं० २५ । २०५३ पं०६।३ पृ. ५३ पं. ७ । ४ पृ. ५३ पं०९ । ५ पृ० ५३ पं० १९ । ६-सुख-दुःख-जी-मां । स० त०९ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे समग्रसामग्रीप्रभवस्याप्यसत्यत्वं स्यात् । अथा विकलसामग्रीप्रभवं प्रत्यक्षं विकलसामग्रीप्रभवात् तस्माद विलक्षणमिति नायं दोषः, तदत्रापि समानम्। तथाहि-सम्यगशाततदर्थादू वचनाद् यद् नष्ट-मुष्टयादिविषयं विसंवादिज्ञानमुत्पद्यते तत् सम्यगवगततदर्थवचनोद्भवाद् विलक्षणमेव । यथा च विशिष्टसामग्रीप्रभवस्य प्रत्यक्षस्य न क्वचिद् व्यभिचार इति तस्या विसंवादित्वं तथाऽव५गतसम्यगर्थवचनोद्भवस्यापि नष्ट-मुष्ट्यादिविषयविज्ञानस्येति सिद्धमत्राविसंवादित्वलक्षणं विशेषणं प्रकृतहेतोः। ___ नाप्यलिङ्गपूर्वकत्वं विशेषणमसिद्धम्, नष्ट-मुष्ट्यादीनामस्मदादीन्द्रियाविषयत्वेन तल्लिङ्गत्वेनाभिमतस्याप्यर्थस्यास्मदाद्यक्षाविषयत्वान्न तत्प्रतिपत्तिः; प्रतिपत्ती वाऽस्मदादीनामपि तल्लिङ्गदर्शनाद् वचनविशेषमन्तरेणापि ग्रहो-परागादिप्रतिपत्तिः स्यात् । न हि साध्यव्याप्तलिङ्गनिश्च १० येऽग्नयादिप्रतिपत्ती वचन विशेषापेक्षा दृष्टा; न भवति चास्मदादीनां वचनविशेषमन्तरेण कदा चनापि प्रतिनियतदिक्-प्रमाण-फलाद्यविनाभूतग्रहो-परागादिप्रतिपत्तिरिति तथाभूतवचनप्रणेतुरतीन्द्रियार्थविषयं ज्ञानमलिङ्गमभ्युपगन्तव्यमित्यलिङ्गपूर्वकत्वमपि विशेषणं प्रकृतहेतो सिद्धम् । नाप्ययमुपदेशपरम्परयाऽतीन्द्रियार्थदर्शनाभावेऽपि प्रमाणभूतः प्रबन्धेनानुवर्तत इत्यनुपदेशपूर्वकत्वविशेषणासिद्धिरिति वक्तुं युक्तम्, उपदेशपरम्पराप्रभवत्वे नष्ट-मुष्ट्यादिप्रतिपादकवचन१५विशेषस्य वक्तुरज्ञान-दुष्टाभिप्राय-वचनाकौशलदोषैःश्रोतुर्वा मन्दबुद्धित्व-विपर्यस्तबुद्धित्व-गृहीतविस्मरणैः प्रतिपुरुषं हीयमानस्यानादो काले मूलतश्चिरोच्छेद एव स्यात् । तथाहि-इदानीमपि केचिद् ज्योतिःशास्त्रादिकमज्ञानदोषादन्यथोपदिशन्त उपलभ्यन्ते, अन्ये सम्यगवगच्छन्तोऽपि दुष्टाभिप्रा. यतया, अन्ये वचनदोषादव्यक्तमन्यथा चेति तथा श्रोतारोऽपि केचिद् मन्दबुद्धित्वदोषादुक्तमपि यथावन्नावधारयन्ति, अन्ये विपर्यस्तबुद्धयः सम्यगुपदिष्टमप्यन्यथाऽवधारयन्ति, केचित् पुनः २०सम्यक्परिज्ञातमपि विस्मरन्तीत्येवमादिभिः कारणैः प्रतिपुरुषं हीयमानस्यैतावन्तं कालं यावदा गमनमेव न स्याञ्चिरोच्छिन्नत्वेन, आगच्छति च; तस्मादन्तराऽन्तरा विच्छिन्नः सूक्ष्मादिपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानवता केनचिदभिव्यक्त इयन्तं कालं यावदागच्छतीत्यभ्युपगमनीयमिति नानुपदेश. पूर्वकत्वविशेषणासिद्धिः। नाप्यन्वय-व्यतिरेकाभ्यां नष्ट-मुष्टयादिकं ज्ञात्वा तद्विषयवचनविशेषप्रवर्तनं कस्यचित् २५संभवति येनानन्वय-व्यतिरेकपूर्वकत्व विशेषणासिद्धिः स्यात्, यतो नान्वय-व्यतिरेकाभ्यां ग्रहोपरागौ-षधशक्त्यादयो ज्ञातुं शक्यन्ते, प्रावृट्समये शिलीन्ध्रो दवद् ग्रहो-परागादीनां दिक्प्रमाण-फल-कालादिषु नियमाभावात् । द्रव्यशक्तिपरिज्ञानाभ्युपगमेऽन्वय-व्यतिरेकाभ्यां यावन्ति जगति द्रव्याणि तान्येकत्र मीलयित्वैकस्य रस-कल्कादिमेदेन, कर्षादिमात्राभेदेन, बाल-मध्यमाद्यवस्थाभेदेन, मूल-पत्राद्यवयवभेदेन प्रक्षेपो-द्धाराभ्यामेकोऽपि योगो युगसहस्रेणापि न ३० ज्ञातुं पार्यते किमुतानेक इति कुतस्ताभ्यामौषधशत्त्यवगमः? तेन नानन्वय-व्यतिरेकपूर्वकत्वविशेषणस्यासिद्धिः। नापि नष्ट-मुष्ट्यादिविषयवचनविशेषस्यापौरुषेयत्वाद् विशिष्टज्ञानपूर्वकत्वस्यासिद्धरसिद्धः प्रकृतो हेतुः, अपौरुषेयस्य वचनस्य पूर्वमेव निषिद्धत्वात् । ____नाप्यसाक्षात्कारिशानपूर्वकत्वेऽपि प्रकृतवचनविशेषस्य संभवादनैकान्तिकः, सविशेषणस्य हेतो. विपक्षे सत्त्वस्य प्रतिषिद्धत्वात् । अत एव न विरुद्धः, विपक्ष एव वर्तमानो विरुद्ध न चास्य पूर्वोत. ३५प्रकारेणावगतस्वसाध्यप्रतिबन्धस्य विपक्षे वृत्तिसंभवः। अथ भवतु ग्रहो-परागाभिधायकवचनस्य तत्पूर्वकत्वसिद्धिरतो हेतोः, तत्र तस्य संवादात्, धर्मादिपदार्थसाक्षात्कारिशानपूर्वकत्वसिद्धिस्तु कथं तत्र तस्य संवादाभावात् ? न, तत्रापि तस्य संवादात् । तथाहि-ज्योतिःशास्त्रादेर्ग्रहोपरागादिकं विशिष्टवर्ण-प्रमाण-दिग्विभागादिविशिष्टं प्रतिपद्यमानः प्रतिनियतानां प्रतिनियतदेशवर्तिनां प्राणिनां प्रतिनियतकाले प्रतिनियतकर्मफलसंसूचकत्वेन प्रतिपद्यते । उक्तं च तत्र ___"नक्षत्र-ग्रहपञ्जरमहर्निशं लोककर्मविक्षिप्तम् । भ्रमति शुभाशुभमखिलं प्रकाशयत् पूर्वजन्मकृतम्"॥ [ ] अतो ज्योतिःशास्त्रं ग्रहो-परागादिकमिव धर्माऽधर्मावपि प्रमाणान्तरसंवादतोऽवगमयति तेन ग्रहोपरागादिवचनविशेषस्य धर्माऽधर्मसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वमपि सिद्धम् । तत्सिद्धौ सकलपदार्थसा १-बिरोत्सन्न-मां. ब. । ४० Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञवादः । क्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वमपि सिद्धिमासादयति । नहि धर्माऽधर्मयोः सुख-दुःखकारणत्वसाक्षात्करणं सहकारिकारणाशेषपदार्थ तदाधारभूत समस्तप्राणिगण साक्षात्करणमन्तरेण संभवति, सर्वपदार्थानां परस्परप्रतिबन्धादेक पदार्थसर्वधर्मप्रतिपत्तिश्च सकलपदार्थप्रतिपत्तिनान्तरीयका प्राक् प्रतिपा दिता । अतो भवति सकलपदार्थ साक्षात्का रिज्ञानपूर्वकत्वसिद्धिरतो हेतोर्वचनविशेषस्यः तत्सिद्धौ च तत्प्रणेतुः सूक्ष्माऽन्तरितदूरानन्तार्थ साक्षात्कार्यतीन्द्रियज्ञानसम्पत्समन्वितस्य कथं न सिद्धिः ? ५ ६७ नाप्येतद् वक्तव्यम्-साध्योक्ति - तदावृत्तिवचनयोरनभिधानाद् न्यूनता नामाऽत्र साधनदोषः, प्रतिज्ञावचनेन प्रयोजनाभावात् । { अथ विषयनिर्देशार्थ प्रतिज्ञावचनम् ; ननु स एव किमर्थः ? साधर्म्यवत्प्रयोगादिप्रतिपत्त्यर्थः । तथाहि असति साध्यनिर्देशे 'यो वचनविशेषः स साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकः' इत्युक्ते किमयं साधर्म्यवान् प्रयोगः, उत वैधर्म्यवानिति न ज्ञायेत, उभयं ह्यत्राशङ्कयेतवचनविशेषत्वेन साक्षात्का रिज्ञानपूर्वकत्वे साध्ये साधर्म्यवान्, असाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वेन १० वचनाविशेषत्वे साध्ये वैधर्म्यवानिति । हेतु - विरुद्धाऽनैकान्तिकप्रतीतिश्च न स्यात् । प्रतिज्ञापूर्वके तु प्रयोगे शब्द विशेषः साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकः, शब्द विशेषत्वाद् इति हेतुभावः प्रतीयते; असाक्षात्कारिशान पूर्वको वचन विशेषत्वाद् इति विरुद्धता; चक्षुरादिकरणजनितज्ञानपूर्वको वचनविशेषत्वाद् इत्यनैकान्तिकत्वम् । हेतोश्च त्रैरूप्यं न गम्येत, तस्य साध्यापेक्षया व्यवस्थितेः । सति प्रतिज्ञानि देशेऽवयवे समुदायोपचारात् साध्यधर्मी इति पक्ष इति तत्र प्रवृत्तस्य वचन विशेषत्वस्य पक्षधर्म- १५ त्वम् साध्यधर्म सामान्येन च समानोऽर्थः सपक्ष इति तत्र वर्त्तमानस्य सपक्षे सत्त्वम्, न सपक्षोऽसपक्ष इत्यसपक्षेऽप्यसत्त्वं प्रतीयते } तदिदमनालोचिताभिधानम्; तथाहि -यो वचनविशेषः स साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक इत्येतावन्मात्रमभिधाय नैव कश्चिदास्ते किन्तु हेतोर्धर्मिण्युपसंहारं करोति । तत्र यदि वचनविशेषश्चायं नष्ट-मुष्ट्यादिविषयो वचनसंदर्भ इति ब्रूयात् तदा साधर्म्यवत्प्रयोगप्रतीतिः, अथासाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकश्चेत्यभिदध्यात् तदा वैधर्म्यवत इति संबन्धवचनपूर्व कात् २० पक्षधर्मत्ववचनात् प्रयोगद्वयावगतिः विवक्षित साध्यावगतिश्च । हेतु विरुद्धाऽनैकान्तिका अपि पक्षधर्मवचनमात्रेण न प्रतीयन्ते यदा तु संबन्धवचनमपि क्रियते तदा कथमप्रतीतिः ? तथाहियो वचनविशेषः स साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक इत्युक्ते हेतुरवगम्यते, विधीयमानेनानूद्यमानस्य व्याप्तेः । यो वचनविशेषः सोऽसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वक इत्युक्ते विरुद्धः, विपर्ययव्याप्तेः । यो वचनविशेषः स चक्षुरादिजनित ज्ञानपूर्वक इति अनैकान्तिकाध्यवसायः, व्यभिचारात् । तथा, त्रैरूप्यमपि हेतोर्गम्यत २५ एव, यतो व्याप्तिप्रदर्शनकाले व्यापको धर्मः साध्यतया अवगम्यते; यत्र तु व्याप्यो धर्मो विवादास्पदीभूते धर्मिण्युपसंहियते स समुदायैकदेशतया पक्ष इति तत्रोपसंहृतस्य व्याप्यधर्मस्य पक्षधर्मत्वावगतिः । सा च व्याप्तिर्यत्र धर्मिण्युपदर्श्यते स साध्यधर्मसामान्येन समानोऽर्थः सपक्षः प्रतीयत इति सपक्षे सत्वमप्यवगम्यते । सामर्थ्याच्च व्यापकनिवृत्तौ व्याप्यनिवृत्तिर्यत्रावसीयते सोऽसपक्ष इति असपक्षेऽप्यसत्वमपि निश्चीयते इति नार्थः प्रतिज्ञावचनेन । तदाह धर्मकीर्त्तिः- “यदि प्रती - ३० तिरन्यथा न स्यात् सर्व शोभेत, दृष्टा च पक्षधर्मसंबन्धवचनमात्रात् प्रतिज्ञावचनमन्तेरणापि प्रतीतिरिति कस्तस्योपयोगः " ? [ [.] यदा च प्रतिज्ञार्वेचनं नैरर्थक्यमनुभवति तदा तदावृत्तिवचनस्य निगमनलक्षणस्य सुतरामनुपयोग इति न प्रतिज्ञाद्यवचनमपि प्रकृतसाधनस्य न्यूनतादोषः : केवलं तत्प्रतिपाद्यस्यार्थस्य स्वसाध्याविनाभूतस्य हेतोः साध्यधर्मिण्युपसंहारमात्रादेव सिद्धत्वाद् अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनरभिधानं निग्रहस्थानमिति प्रतिज्ञादिवचनं वादकथायां क्रियमाणं ३५ तद्वक्तुर्निग्रहमापादयति । उपनयवचनं तु हेतोः पक्षधर्मत्वप्रतिपादनादेव लब्धमिति तस्यापि ततः पृथक् प्रतिपादने पुनरुक्ततालक्षण एव दोष इति न तदनभिधानेऽपि न्यूनं साधनवाक्यम्; ततः सर्वदोषरहितत्वात् साधनवाक्यस्य भवत्यतः प्रकृतसाध्यसिद्धिः । स्वसाध्याविनाभूतश्च हेतुः साध्यधर्मिण्युपदर्शयितव्यो वादकथायामित्यभिप्रायवता आचागाथासूत्रावयवेन तथाभूतहेतुप्रदर्शनं कृतमिति । तथाहि - ' समय विशासनम्' इत्यनेन गाथा ४० सूत्रावयववचनेन स्वसाध्यव्याप्तस्य हेतोः साध्यधर्मिण्युपसंहारः सूचितः । हेतोश्च स्वसाध्यव्याप्तिः १ पृ० ६३ पं० १८ । २- धर्मी पक्ष इति तत्र प्रवृत्त इति प्रवृ-वा० । ३ सामर्थ्याद्धि कां०] । ४- वचनमेव नै-भां० । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ प्रथमे काण्डे प्रमाणतः सर्वोपसंहारेण प्रदर्शनीया । तच्च प्रमाणं व्याप्तिप्रसाधकं कदाचित् साध्यधर्मिण्येव प्रवृत्तं तां तस्य साधयति कदाचित् दृष्टान्तधर्मिणि । यत्र हि 'सर्वमनेकान्तात्मकम् , सत्त्वात्' इत्यादौ प्रयोगे न दृष्टान्तधर्मिसद्भावस्तत्र व्याप्तिप्रसाधकं प्रमाणं प्रवर्त्तमानं साध्यधर्मिण्येव सर्वोपसंहारेण हेतोः स्वसाध्यव्याप्तिं प्रसाधयति । यत्र तु प्रकृतप्रयोगादौ दृष्टान्तधर्मिणोऽपि सत्त्वं तत्र दृष्टान्तध. ५र्मिण्यपि प्रवृत्तं तत् प्रमाणं सर्वोपसंहारेणैव तस्याःप्रसाधकमभ्युपगन्तव्यम् । अन्यथा दृष्टान्तधर्मिणि हेतोः स्वसाध्यव्याप्तावपि साध्यधर्मिणि तस्य तव्याप्तौ न ततस्तत्र तत्प्रतिपत्तिः स्यात्, दृष्टान्तध. र्मिण्येव तेन तस्य व्याप्तत्वात् ; वहिप्प्तेर्विद्यमानाया अपि साध्यधर्मिणि साध्यप्रतिपत्तावनुपयोगात् सादृश्यमात्रस्याकिञ्चित्करत्वात् । अन्यथा 'शुक्लं सुवर्णम् , सत्त्वात् , रजतवत्' इत्यत्रापि शुक्लत्वप्रतिपत्तिः स्यात् । अथात्र पक्षस्य प्रत्यक्षबाधनम्, प्रत्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन हेतो. १०कालात्ययापदिष्टत्वं वा दोषः, तदयुक्तम् बाधाऽविनाभावयोर्विरोधात् । तथाहि-सत्येव साध्यध. र्मिणि साध्ये हेतुर्वर्त्तत इति तस्य तदविनाभावः, तत्प्रतिपादितसाध्यधर्माभावश्च प्रमाणतो बाधा, साध्यधर्मभावाऽभावयोश्चैकत्र धर्मिण्येकदा विरोध इति नैतदोषादस्य साधनस्य दुष्टत्वं किन्तु साध्यधर्मिणि साध्यधर्माविनाभूतत्वेनाऽनिश्चयः। स च बहिर्याप्तिमात्रेण हेतोः साध्यसाधकत्वाभ्युपगमेऽन्यत्रापि समान इति नानुमानात् क्वचिदपि साध्यनिश्चयः स्यात् । अतो दृष्टान्तधर्मिणि १५ प्रवृत्तेन प्रमाणेन व्याप्त्या हेतोः स्वसाध्याविनाभावो निश्चयः । स च निश्चिताविनाभावो यत्र धर्मिण्युपलभ्यते तत्र स्वसाध्यमविद्यमानप्रमाणान्तरबाधनं निश्चाययति, यथाऽत्रैव सर्वज्ञमा. अलक्षणे साध्ये वचनविशेषलक्षणे साध्यधर्मिणि तद्विशेषत्वलक्षणो हेतुः। प्रतिबन्धप्रसाधकं चास्य हेतोः प्रागेव दृष्टान्तधर्मिणि प्रमाणं प्रदर्शितमित्यभिप्रायवतैव आचार्येणापि 'कुसमयविसासणं' इति सूत्रे 'कुः' इत्यनेन दृष्टान्तसूचनं विहितम् , न च पक्षवचनाशुपक्षेपः सूचितः। २० ननु भवत्वस्माद्धेतोर्यथोक्तप्रकारेण सर्वज्ञमात्रसिद्धिर्न पुनस्तद्विशेषसिद्धिः। तथाहि-यथा नष्ट-मुष्ट्यादिविषयवचनविशेषस्य अर्हत्सर्वज्ञप्रणीतत्वं वचन विशेषत्वात् सिध्यति तथा बुद्धादिसर्वशपूर्वकत्वमपि तत एव सेत्स्यतीति कुतस्तद्विशेषसिद्धिः? न च नष्ट-मुट्यादिप्रतिपादको वचनविशेषोऽर्हच्छासन एवेति वक्तुं युक्तम्, बुद्धशासनादिवपि तस्योपलम्भात् इत्याशझ्याह सूरिः 'सिद्धत्थाणं' इति । अस्यायमभिप्रायः-प्रत्यक्षाऽनुमानादिप्रमाणविषयत्वेन प्रतिपादिताः शास२५ नेन ये ते तद्विषयत्वेनैव तैनिश्चिता इति सिद्धाः, ते च 'अर्यन्ते' इति अर्था उच्यन्ते, तेषां शासनं प्रतिपादकम् अर्हत्सर्वशशासनमेव न बुद्धादिशासनम् । अतो वचनविशेषत्वलक्षणस्य हेतोस्तेष्वसिद्वत्वात् कुतस्तेषामपि सर्वज्ञत्वं येन विशेषसर्वज्ञत्वसिद्धिर्न स्यात् ? यथा चागमान्तरेण प्रत्यक्षादिविषयत्वेन प्रतिपादितानामर्थानां तद्विषयत्वं न संभवति तथाऽत्रैव यथास्थानं प्रतिपादयिष्यते। अथवा 'सिद्धार्थानाम्' इत्यनेन हेतुसंसूचनं विहितमाचार्येण-सिद्धाः प्रमाणान्तरसंवादतो ३० निश्चिताः, येऽर्था नए-मुष्टयादयः, तेषां शासनं प्रतिपादकं यतो द्वादशाङ्गं प्रवचनमतो जिनानां कार्यत्वेन संबन्धिः तेनायं प्रयोगार्थः सूचितः-प्रयोगश्च-प्रमाणान्तरसंवादियथोक्तनष्ट-मुष्टयादि. सूक्ष्मान्तरितदूरार्थप्रतिपादकत्वान्यथाऽनुपपत्तर्जिनप्रणीतं शासनम् । अत्र च सूक्ष्माद्यर्थप्रतिपादकत्वान्यथाऽनुपपत्तिलक्षणस्य हेतोर्जिनप्रणीतत्वलक्षणेन स्वसाध्येन व्याप्तिः साध्यधर्मिण्येव निश्चि. तेति तन्निश्चायकप्रमाणविषयस्येह दृष्टान्तस्य प्रदर्शनमाचार्येण न विहितम्, तदर्थस्य तद्यतिरेकेणैव ३५ सिद्धत्वात् । यथा चार्थापत्तेः साध्यधर्मिण्येव व्याप्तिनिश्चयाद् दृष्टान्तव्यतिरेकेणापि तदुत्थापकादर्था दुपजायमानायाः सर्वज्ञप्रतिक्षेपवादिभिर्मीमांसकैः प्रामाण्यमभ्युपगम्यते तथा प्रकृतादन्यथाऽनुपपत्तिलक्षणाद्धेतोरुपजायमानस्याऽस्याऽनुमानस्य तत् किं नेण्यते ? प्रतिपादितश्वार्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावः प्रागिति भवत्यतो हेतोः प्रकृतसाध्यसिद्धिः। अत एव पूर्वाचार्यैर्हेतुलक्षणप्रणेतृभिरेकलक्षणो हेतुः १-तधर्मनि-भा०, कां० । २ सर्वक्षलक्षणे बा०, पू०, वा० विना । ३ तविशेषलक्षणो भा०, का०, ०, गु०। ४ प्र.पृ.पं.४॥ ५ पृ. ६५पं० २९ । ६ पृ. ४६ पं० ३६ । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः। "अन्यथाऽनुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ? नान्यथाऽनुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्?" ॥ [ ] इत्यादिवचनसंदर्भेण प्रतिपादित इति मन्यानेन आचार्येणापि न दृष्टान्तसूचनं विहितमत्र प्रयोगे । 'कुसमयविशासनम्' इति च अत्र व्याख्याने बुद्धादिशासनानामसर्वज्ञप्रणीतत्वप्रतिपादकत्वेन व्याख्येयम् । तथाहि-कुत्सिताः प्रमाणबाधितैकान्तस्वरूपार्थप्रतिपादकत्वेन, समयाः कपिलादि. ५ प्रणीतसिद्धान्तास्तेषाम् “सन्ति पञ्च महब्भूया" [सूत्रकृ० प्र० श्रु०, प्र० अ०, प्र० उ०, गा०७] इत्यादिवचनसंदर्भेण दृष्टेष्टविषये विरोधाधुद्भावकत्वेन 'विशासनम्' विध्वंसकं यतः अतो द्वादशानमेव जिनानां शासनमिति भवत्यतो विशेषणात् सर्वज्ञविशेषसिद्धिरिति स्थितमेतजिनशासनं द्वादशाङ्गं तत्त्वादेव सिद्धं निश्चितप्रामाण्यमिति ॥ [ ईश्वरस्वरूपवादः] अत्र ईश्वरकृतजगद्वादिनः प्राहुः-युक्तमुक्तम् 'सर्वज्ञप्रणीतं शासनम्, तत्प्रणीतत्वाच्च तत् प्रमाणम्' इति । इदं त्वयुक्तम् 'राग-द्वेषादिकान् शत्रून् जितवन्त इति जिनाः' । सामान्ययोगिन एवेश्वरव्यतिरिक्ता एतल्लक्षणयोगिनःन पुनः शासनादिसर्वजगत्स्रष्टा ईश्वरः । तथा च पतञ्जलि: "क्लेश-कर्म-विपाकाऽऽशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः” [योगद० पा०१, सू०२४] इति । न सूत्रेण रागादिलक्षणक्लेशशत्रुरहितत्वं सहजमीश्वरस्य प्रतिपादितम् न पुनर्विपक्षभावनाद्यभ्यास-१५ व्यापारात् क्लेशादिक्षयस्तस्य, येन 'रागादीन स्वव्यापारेण जितवन्तः' इति वचः सार्थकं तद्विषयत्वेन स्यात् । तथा चान्यैरप्युक्तम् "ज्ञानमप्रतिघं यस्य ऐश्वर्य च जगत्पतेः। वैराग्यं चैव धर्मश्च सह सिद्धं चतुष्टयम्" ॥[ इत्याशङ्कयाह- "भवजिणाणं' इति, भवन्ति नारक-तिर्यग्-नराऽमरपर्यायत्वेनोत्पद्यन्ते प्राणिनोऽ-२० स्मिन्निति भवः संसारः; तद्धेतुत्वाद् रागादयोऽत्र 'भव'शब्देनोपचाराद्' विवक्षिताः, तं जितवन्त इति जिनाः। उपचाराश्रयणे च प्रयोजनम्-न ह्यविकलकारणे रागादौ अध्वस्ते तत्कार्यस्य संसारस्य जयः शक्यो विधातुमिति प्रतिपादनम् । भवकारणभूतरागादिजये चोपायः प्रतिपादितः प्राकः तदुपायेन च विपक्षरागादिजयद्वारेण तत्कार्यभूतस्य भवस्य जयः संभवति नान्यथेति । न ह्युपायव्यतिरेकेणोपेयसिद्धिः; अन्यथोपेयस्य निर्हेतुकत्वेन देश-काल-स्वभावप्रतिनियमो न स्या-२५ दिति सर्वप्राणिनामीश्वरत्वम् , न वा कस्यचित् स्यात् । प्रतिपादितचायमर्थः "नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणात् । अपेक्षातो हि भावानां कादाचित्कत्वसंभवः" ॥ [ ] इत्यादिना ग्रन्थेन धर्मकीर्त्तिना । तन्न रागादिक्लेशविगमः स्वभावत एवेश्वरस्येति युक्तम् । [प्रासङ्गिकी परलोकचर्चा ] [ पूर्वपक्षः-परलोके प्रत्यवस्थानम् ] अत्र बृहस्पतिमतानुसारिणः स्वभावसंसिद्धज्ञानादिधर्मकलापाध्यासितस्य स्थाणोरभावप्रतिपादनं जैनेन कुर्वताऽस्माकं साहाय्यमनुष्ठितमिति मन्वानाः प्राहुः-युक्तमुक्तं यत् 'स्वभावसंसिद्धशानादिसंपत्समन्वितस्येश्वरस्याभावः' 'नारक-तिर्यग्-नराऽमररूपपरिणतिस्वभावतया उत्पद्यन्ते प्राणिनोऽस्मिन्निति' एतच्चायुक्तमभिहितम्, परलोकसद्भावे प्रमाणाभावात् । तथाहि-परलोकसद्भा-३५ वावेदकं प्रमाणं प्रत्यक्षम् अनुमानम् आगमो वा जैनेनाभ्युपगमनीयः, अन्यस्य प्रमाणत्वेन तेनानिष्टेः। न चात्रैतद् वक्तव्यम्-भवतोऽपि किं तत्प्रतिक्षेपकं प्रमाणम् ? यतो नास्माभिस्तत्प्रतिक्षेपकप्रमाणात् तदभावः प्रतिपाद्यते किन्तु परोपन्यस्तप्रमाणपर्यनुयोगमात्रमेव क्रियते । अत एव "सर्वत्र पर्यनुयोगपराण्येव सूत्राणि बृहस्पतेः"[ ] इति चार्वाकैरभिहितम् । १ प्र० पृ० ५० ८ १ २ पृ. २९ पं० २० । ३ पृ. ६१ पं० १० । ४ प्र• पृ. पं० २९ । ५ प्र० पृ. पं० २० । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेस च परोपन्यस्तप्रमाणपर्यनुयोगः तदभ्युपगमस्य प्रश्नादिद्वारेण विचारणा न पुनः स्वसिद्धप्रमाणो पन्यासः, येन 'अतीन्द्रियार्थप्रतिक्षेपकत्वेन प्रवर्त्तमानं प्रमाणमाश्रयासिद्धत्वादिदोषदुष्टत्वेन कथं प्रवर्तते' इत्यस्मान् प्रति भवताऽपि पर्यनुयोगः क्रियेत । अत एव परलोकप्रसाधकप्रमाणाभ्युपगमं परेण ग्राहयित्वा तदभ्युपगमस्यानेन प्रकारेण विचारः क्रियते५ तत्र न तावत् परलोकप्रतिपादकत्वेन चक्षुरादिकरणव्यापारसमासादितात्मलाभं सन्निहितप्रतिनियतरूपादिविषयत्वात् प्रत्यक्षं प्रवर्त्तते । नाप्यतीन्द्रियं योगिप्रत्यक्षं तत्र प्रवर्तत इति वक्तुं शक्यम्, परलोकादिवत् तस्याप्यसिद्धेः। ___ नाप्यनुमानं प्रत्यक्षपूर्वकं तत्र प्रवृत्तिमासादयति, प्रत्यक्षाप्रवृत्तौ तत्पूर्वकस्यानुमानस्यापि तत्राप्र वृत्तेः। अथ यद्यपि प्रत्यक्षावगतप्रतिबन्धलिङ्गप्रभवमनुमानं न तत्र प्रवर्तते तथापि सामान्यतोदृष्टं १० तत्र प्रवर्तिष्यते, तदपि न युक्तम् । यतस्तदपि सामान्यतोदृष्टमवगतप्रतिबन्धलिङ्गोद्भवम्, आहोस्वित् अनवगतप्रतिबन्धलिङ्गसमुत्थम् ? यद्यनवगतप्रतिबन्धलिङ्गोद्भवमिति पक्षः, स न युक्तः, तथाभूतलिङ्गप्रभवस्य स्वविषयव्यभिचारेण अश्वदर्शनानन्तरोद्भुतराज्यावाप्तिविकल्पस्येवाप्रमाणत्वात् । अथ प्रतिपन्नसंबन्धलिङ्गप्रभवं तत् तत्र प्रवर्त्तत इति पक्षः, सोऽपि न युक्तः; प्रतिबन्धावगमस्यैव तत्र लिङ्गस्यासंभवात् । तथाहि-प्रत्यक्षस्य तत्र लिङ्गसंबन्धावगमनिमित्तस्याभावेऽनुमानं लिङ्गसंबन्ध१५ग्राहकमभ्युपगन्तव्यम् । तत्र यदि तदेव परलोकसद्भावावेदकमनुमानं स्वविषयाभिमतेनार्थनात्मोत्पादकलिङ्गसंबन्धग्राहकं तदेतरेतराश्रयत्वदोषः । अथानुमानान्तराद गृहीतप्रतिबन्धाल्लिङ्गादुपजायमानं तद्विषयं तदभ्युपगम्यते तदाऽनवस्था। तथा, सर्वमप्यनुमानमस्मान् प्रत्यसिद्धम् । तथाहिबृहस्पतिसूत्रम् "अनुमानमप्रमाणम्"[ ] इति । २० अनेन प्रतिज्ञाप्रतिपादनं कृतम् , अनिश्चितार्थप्रतिपादकत्वा( त्वात् )सिद्धप्रमाणाभासवदिति हेतुदृष्टान्तावभ्यूह्यो। विषयविचारेण वाऽनुमानप्रामाण्यमयुक्तम्-धर्म-धर्म्युभयस्वतन्त्रसाधने सिद्धसाध्यता यतः, अतो विशेषणविशेष्यभावः साध्यः । प्रमेयविशेषविषयां प्रमां कुर्वत् प्रमाणं प्रमाणतामश्रुते । इतरेतरावच्छिन्नश्च समुदायोऽत्र प्रमेयः; तदपेक्षया च पक्षधर्मत्वादीनामन्यतमस्यापि रूपस्याप्र२५ सिद्धिः । नहि समुदायधर्मता हेतोः, नापि समुदायेनान्वयो व्यतिरेको वा, धर्मिमात्रापेक्षया पक्षधर्मत्वे साध्यधर्मापेक्षया च व्याप्तौ गौणतेति । उक्तं च "प्रमाणस्योगौणत्वादनुमानादर्थ निश्चयो दुर्लभः" [ ] इति । धर्मिधर्मताग्रहणेऽपि न गौणतापरिहारः, प्रतीयमानापेक्षया गौण-मुख्यव्यवहारस्य चिन्त्यत्वात: समुदायश्च प्रतीयते । एकदेशाश्रयणेनापि त्रैरूप्यमयुक्तम्, व्याल्यसिद्धेः। नहि सत्तामात्रेणाविनाभावो ३० गमकः अपि त्ववगतः, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । स च सकलसपक्ष-विपक्षाप्रत्यक्षीकरणे दुर्विज्ञानोऽ सर्वविदा। न चात्र भूयोदर्शनं शरणम्, सहस्रशोऽपि दृष्टसाहचर्यस्य व्यभिचारात् । अत एवं न दर्शनादर्शनमपि । तदुक्तम् “गोमानित्येव मान भाव्यमश्ववताऽपि किम् ? " [ ] इति । देश-कालाऽवस्थाभेदेन च भावानां नानात्वावगमादनाश्वासः। तदुक्तम् "अवस्था-देश-कालानाम्" [ वाक्यप० प्र० का० श्लो० ३२] इत्यादि । आह च "अविनाभावसंबन्धस्य ग्रहीतुमशक्यत्वात्" [ ] यश्च 'सामान्यस्य तद्विषयस्याभावात्, स्वार्थ-परार्थभेदासंभवात्, विरुद्धाऽनुमान-विरोधयोः सर्वत्र १-त्वादसिद्ध-वा०, बा०, मां०, भां० । २-स्य गौण-भां०, मां।स्याद्वादरत्नाकरेऽपि “प्रमाणस्य गौणत्वात्" इत्यादि मुद्रितम् , एतच्च 'पौरन्दरं सूत्रम्' इति उदलेखि तत्रैव पृ० १३१ पं०३-४ । ३-धर्मत्वग्र-गु० । ४ एव दर्शना-कां०, गु० । ५ भां०, मां०, वा०, बा०, पू० विना सर्वत्र पूर्णःश्लोकः अवस्था-देश-कालानां मेदाद मिनासु शक्तिषु । भावानामनुमानेन प्रतीतिरतिदुर्लभा ॥ प्रतीतिरपि दुर्लभा कां० । “प्रतीतिरिह दुर्लभा" मां.टि.। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः। संभवात् , क्वचिच्च विरुद्धाव्यभिचारिणः' इत्यादि दूषणजालं तद् अनुद्घोषणीयमेव, यतोऽनिश्चितार्थप्रतिपादकत्वाद् "अनुमानमप्रमाणम्" इत्यनुमानाऽप्रमाणताप्रतिपादने कृते शेषदूषणजालस्य मृत. मारणकल्पत्वात् । ततोऽनुमानस्याप्रमाणत्वादतीन्द्रियपरलोकसद्भावप्रतिपादने कुतस्तस्य प्रवृत्तिः? अथेदमेव जन्म पूर्वजन्मान्तरमन्तरेण न युक्तमिति जन्मान्तरलक्षणस्य परलोकस्य सिद्धिरिष्यते, तत् किमियमर्थापत्तिः, अथानुमानं वा? न तावदापत्तिः, तल्लक्षणाभावात्, "दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यते" [मीमांसाद० अ०१, पा०१, सू०५ शाबरभा०] इति हि तस्या लक्षणं विचक्षणैरिष्यते । न तु जन्मान्तरमन्तरेण नोपपत्तिमदिदं जन्मेति सिद्धम्, मातापितृसामग्रीमात्रकेण तस्योपपत्तेः, तन्मात्रहेतुकत्वे चान्यपरिकल्पनायामतिप्रसङ्गात् ।। ___अथ प्रज्ञा-मेधादयो जन्मादावभ्यासपूर्वका दृष्टाः कथमतत्पूर्वका भवेयुः, न वहिपूर्वको धूमस्तत्पूवैकतामन्तरेण कदाचिदपि भवन्नुपलब्धः, तदप्यसत् ; अविनाभावसंबन्धस्य देश-कालव्याप्तिल-१० क्षणस्य प्रत्यक्षेण प्रतिपत्तुमशक्तेः-सन्निहितमात्रप्रतिपत्तिनिमित्तं हि प्रत्यक्षमुपलभ्यते 'नहि सकलदेश-कालयोर्विना वह्निमसंभव एव धूमस्य' इति प्रत्यक्षतः प्रतीतिर्युक्ता; अतो न धूमोऽपि वह्निपूर्वकः सर्वत्र प्रत्यक्षाऽनुपलम्भाभ्यां सिद्ध इति कुतस्तेन दृष्टान्तेन जन्मान्तरस्वरूपपरलोकसाधनम् ? तस्मात् केचित् प्रज्ञा-मेधादयस्तथाभूताभ्यासपूर्वकाः, केचिद् मातापितृशरीरपूर्वका इति । न च प्रज्ञादयः शरीरतो व्यतिरिच्यमानस्वभावाः संवेदनविषयतामुपयान्ति, शरीरं च तदन्वय-व्यतिरेकानु-१५ वृत्तिमदेव दृष्टमिति कथमन्यथा व्यवस्थामर्हति? ____ अथ पूर्वोपात्तादृष्टमन्तरेण कथं मातापितृविलक्षणं शरीरम् ? नन्वेतेनैव व्यभिचारो दृश्यते, नहि सर्वदा कारणानुरूपमेव कार्यम्, तेन विलक्षणादपि मातापितृशरीराद यदि प्रशा-मेधादिभिर्विलक्षणं तदपत्यस्य शरीरमुपजायेत, कदाचित् तदाकारानुकारि तत् क एवाऽत्र विरोधः? यथा कश्चित् शालूकादेव शालूका, कश्चिद् गोमयात् तथा कश्चिदुपदेशाद् विकल्पः, कश्चित् तदाकारपदार्थदर्श-२० नात् । अथ दर्शनादपि विकल्पः पूर्वविकल्पवासनामन्तरेण कथं भवेत् ? तर्हि गोमयादपि शालूकः कथं शालूकमन्तरेणेति एतदपि प्रष्टव्यम् । तस्मात् कार्यकारणभावमात्रमेवैतत् । तत्र च नियमाभाव दविज्ञानादपि मातापितृशरीराद् विज्ञानमुपजायताम् ; अथवा यथा विकल्पाद् व्यवहितादपि विकल्प उपजायते तथा व्यवहितादपि मातापितृशरीरत एवेति न भेदं पश्यामः । यथा चैकमातापितृशरीरादनेकापत्योत्पत्तिस्तथैकस्मादेव ब्रह्मणः प्रजोत्पत्तिरिति न जात्यन्तरपरिग्रहः कस्यचिदिति न परलोक-२२ सिद्धिः। नहि मातापितृसंबन्धमात्रमेव परलोकः, तथेष्टावभ्युपगमविरोधात् । __ अथानाद्यनन्त आत्माऽस्ति तमाश्रित्य परलोकः साध्यते, न ह्येकानुभवितव्यतिरेकेणानुसन्धानं संभवति, भिन्नानुभवितर्यनुसन्धानादृष्टेः, त “परलोकिनोऽभावात् परलोकाभावः” [ ] इति वचनात् । न ह्यनाद्यनन्त आत्मा प्रत्यक्षप्रमाणप्रसिद्धः। अनुमानेन चेतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गः-सिद्धे आत्मन्येकरू-३० पेणानुसन्धानविकल्पस्याविनाभूतत्वे आत्मसिद्धिः, तत्सिद्धेश्चानुसन्धानस्य तदविनाभूतत्वसिद्धिरितीतरेतराश्रयसद्भावान्नैकस्यापि सिद्धिः।न चासिद्धमसिद्धन साध्यते । किंच, दर्शनाऽनुसन्धानयोः पूर्वापरभाविनोः कार्यकारणभावः प्रत्यक्षसिद्धः, तत् कुतोऽनुसन्धानस्मरणादात्मसिद्धिः? अपि च, शरीरान्तर्गतस्य शामस्यामूर्तत्वेन कथं जन्मान्तरशरीरसंचारः? अथान्तराभवशरीरसन्तत्या संचरणमुच्यते, तदपि परलोकान्न विशिष्यते । संचारश्च न दृष्टो जीवत इह जन्मनि, मरणसमये भविष्यतीति ३५ दुरधिगममेतत् न परलोकसिद्धिः। अथवा सिद्धेऽपि परलोके प्रतिनियतकर्मफलसंबन्धासिद्धर्व्यर्थ मेवानुमानेन परलोकास्तित्वसाधनम् । अथागमात प्रतिनियतकर्मफलसंबन्धसिद्धिः, तथासति परलोकास्तित्वमप्यागमादेव सिद्धमिति किमनुमानप्रयासेन? ___ न चागमादपि परलोकसिद्धिः, तस्य प्रामाण्यासिद्धः । न चाप्रमाणसिद्धं परलोकादिकमभ्युपगन्तुं युक्तम्, तदभावस्यापि तथाऽभ्युपगमप्रसङ्गात् । तन्न परलोकसाधकप्रमाणप्रतिपादनमकृत्वा ४० १-त्रमेव तत् का०, गु०। २ प्रत्यक्षमसिद्धः गु० । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - 'भव' शब्दव्युत्पत्तिरर्थसंस्पर्शिन्यभिधातुं युक्ता । डित्थादिशब्दव्युत्पत्तितुल्या तु यदि क्रियेत तदा नास्माभिरपि तत्प्रतिपादक प्रमाणपर्यनुयोगे मनः प्रणिधीयत इति पूर्वपक्षः ॥ ७२ [ उत्तरपक्षः-परलोकस्य व्यवस्थापनम् ] अत्रोच्यते यदुक्तम् 'पर्यनुयोगमात्र मस्माभिः क्रियते' इति, तत्र वक्तव्यम् - पर्यनुयोगोऽपि क्रिय५ माणः किं प्रमाणतः क्रियते. उताप्रमाणतः ? यदि प्रमाणतस्तदयुक्तम्, यतस्तत्कार्यपि प्रमाणं किं प्रत्यक्षम्, उतानुमानादि ? यदि प्रत्यक्षम् तदयुक्तम् प्रत्यक्षस्याविचारकत्वेन पर्यनुयोगस्वरूपविचाररचना - चतुरत्वात् । • न च प्रत्यक्षस्यापि प्रमाणत्वं युक्तम्, भवदभ्युपगमेन तलक्षणासंभवात् । तदसंभवश्च स्वरूपव्यवस्थापकधर्मस्य लक्षणत्वात् । तत्र प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यस्वरूपव्यवस्थापको धर्मोऽविसंवादित्वल१० क्षणोऽभ्युपगन्तव्यः । तचाविसंवादित्वं प्रत्यक्षप्रामाण्येनाविना भूतमभ्युपगम्यम्, अन्यथाभूतात् ततः प्रत्यक्षप्रामाण्यासिद्धेः: सिद्धौ वा यतः कुतश्चिद् यत् किञ्चिदनभिमतमपि सिध्येदित्यतिप्रसङ्गः । स चाविनाभावस्तस्य कुतश्चित् प्रमाणादवगन्तव्यः, अनवगत प्रतिबन्धादर्थान्तरप्रतिपत्तौ नालिकेरद्वीपवासिनोऽप्यनवगत प्रतिबन्धाद् धूमाद् धूमध्वजप्रतिपत्तिः स्यात् । अविनाभावावगमश्चाखिलदेश-कालव्याप्त्या प्रमाणतोऽभ्युपगमनीयःः अन्यथा यस्यामेव प्रत्यक्षव्यक्तौ संवादित्व - प्रामाण्ययोरसाववगतस्त१५ स्यामेवाविसंवादित्वात् तत् सिध्येत् न व्यक्तयन्तरे, तत्र तस्यानवगमात् । न चावगतलक्ष्यलक्षणसंबन्धा व्यक्तिर्देश- कालान्तरमनुवर्त्तते, तस्याः प्रत्यक्षव्यक्तेस्तदैव ध्वंसाद् व्यक्तयन्तराननुगमात् । अनुगमे वा व्यक्तिरूपताविरहात् अनुगतस्य सामान्यरूपत्वात् तस्य च भवताऽनभ्युपगमात् । अभ्युपगमे वा न सामान्यलक्षणानुमानविषयाभावप्रतिपादनेन तत्प्रतिक्षेपो युक्तः । स च प्रमाणतः प्रत्यक्ष लक्ष्य-लक्षणयोर्याप्त्याऽविनाभावावगमो यदि प्रत्यक्षादभ्युपगम्यते तदयुक्तम्, प्रत्यक्षस्य सन्निहितस्वविषयप्रतिभा२० समात्र एव भवता व्यापाराभ्युपगमात् । अथैकत्र व्यक्ती प्रत्यक्षेण तयोरविसंवादित्व-प्रामाण्ययोरविनाभावावगमादन्यत्रापि एवंभूतं प्रत्यक्षम् प्रमाणम्' इति प्रत्यक्षेणापि लक्ष्य-लक्षणयोर्व्याप्त्या प्रतिबन्धावगमस्तर्ह्यन्यत्रापि एवंभूतं ज्ञानलक्षणं कार्यम् एवंभूतज्ञानकार्यप्रभवम्' इति तेनैव कथं न सर्वोपसंहारेण कार्यलक्षणहेतोः स्वसाध्याविनाभावावगमः । येन 'अनुमानमप्रमाणम्, अविनाभावसंबन्धस्य व्याप्त्या ग्रहीतुमशक्यत्वात् इति दूषणमनुमानवादिनं प्रति भवताऽऽसज्यमानं शोभते । २५ किंच, अविसंवादित्वलक्षणो धर्मः प्रत्यक्षप्रामाण्यलक्ष्य व्यवस्थापकः प्रत्यक्षप्रतिबद्धत्वेन निश्चयः अन्यथा तत्रैव ततः प्रामाण्यलक्षणलक्ष्यव्यवस्था न स्यात्, असंबद्धस्य केनचित् सह प्रत्यासत्ति - वि प्रकर्षाभावात् तद्वदन्यत्रापि ततस्तद्व्यवस्थाप्रसङ्गः । तथाऽभ्युपगमे च यथा संवादित्वलक्षणो धर्मो लक्ष्यानवगमेऽपि प्रत्यक्षधर्मिसंबन्धित्वेनावगम्यते तथा धूमोऽपि पर्वतैकदेशे अनलानवगतावपि प्रदेशसंबन्धितयाऽवगम्यत इति कर्धम् 'समुदायः साध्यः तदपेक्षया च पक्षधर्मत्वं हेतोरवगन्त३० व्यम्, न च पक्षधर्मत्वाप्रतिपत्तौ साध्यधर्मा नलविशिष्टतत्प्रदेशप्रतिपत्तिः प्रतिपत्तौ वा पक्षधर्मत्वाद्यनुसरणं व्यर्थम्, तत्प्रतिपत्तेः प्रागेव तदुत्पत्तेः । समुदायस्य साध्यत्वेनोपचारात् तदेकदेशधर्मिधर्मत्वावगमेऽपि पक्षधर्मत्वावगमाददोषे उपचरितं पक्षधर्मत्वं हेतोः स्यादित्यनुमानस्य गौणत्वापत्तेः प्रमाणस्या गौणत्वादनुमानादर्थनिर्णयो दुर्लभः' इति चोद्यावसरः ? प्रत्यक्षप्रामाण्यलक्षणेऽपि क्रियमाणेऽस्य सर्वस्य समानत्वेन प्रतिपादितत्वात् । यदा चाविसंवादित्वलक्षण- प्रत्यक्षप्रामाण्यलक्ष्ययोः सर्वो३५ पसंहारेण व्याप्तिरभ्युपगम्यते, अविसंवादित्वलक्षणश्च प्रामाण्यव्यवस्थापको धर्मस्तत्राङ्गीक्रियते पूर्वोकन्यायेन तदा कथमनुमानं नाभ्युपगम्यते प्रमाणतया ? तथाहि - 'यत् किञ्चिद् दृष्टं तस्य यत्राविनाभावस्तद्विदस्तस्य तद् गमकं तत्र' इत्येतावन्मात्रमेवानुमानस्यापि लक्षणम् । तच्च प्रत्यक्षप्रामाण्यलक्षणमभ्युपगच्छताऽभ्युपगम्यते देवानांप्रियेण । तथा, प्रामाण्यमप्यनुमानस्याभ्युपगतमेव, यतो यदेवाविसंवादित्वलक्षणं प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यम् अनुमानस्यापि तदेव । तदुक्तम् १ पृ० ६९ पं० ३८ । २ - रहानुगतस्य वा०, बा०, मां० विना सर्वत्र । ३ - भावमवगत्याऽन्य - वा०, मां०, बा० । ४ पृ० ७० पं० १९ - ३५ । ५ - वात् तदन्यत्रा - मां० विना । ६ " कथं नोद्यावसरः ? इति दूरस्थः संबन्धः " मां० भां०] टि० । ७ पृ० ७० पं० २३ । ८ प्र० पृ० पं० ८ ९ गतमेव देवा मां० । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः। "अर्थस्यासंभवेऽभावात् प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता । प्रतिबद्धस्वभावस्य तद्धेतुत्वे समं द्वयम्" ॥[ ] इति अर्थासंभवेऽभावः प्रत्यक्षस्य संवादस्वभावः प्रामाण्ये निमित्तम् , स च साध्यार्थाभावेऽभाविनो लिङ्गादुपजायमानस्यानुमानस्यापि समान इति कथं न तस्यापि प्रामाण्याभ्युपगमः ? किंच, अयं चार्वाकः प्रत्यक्षैकप्रमाणवादी यदि परेभ्यः प्रत्यक्षलक्षणमनवबुध्यमानेभ्यस्तत् ५ प्रतिपादयति तदा तेषां ज्ञानसंबन्धित्वं कुतः प्रमाणादवगच्छति? न तावत् प्रत्यक्षात्-परचेतोवृत्तीनां प्रत्यक्षतो ज्ञातुमशक्यत्वात्-किं तर्हि स्वात्मनि ज्ञानपूर्वको व्यापार-व्याहारौ प्रमाणतो निश्चित्य परेष्वपि तथाभूततद्दर्शनात् तत्संबन्धित्वमववुध्यते ततस्तेभ्यस्तत् प्रतिपादयति । तथाऽभ्युपगमे च व्यापार-व्याहारादेर्लिङ्गस्य ज्ञानसंबन्धित्वलक्षणस्वसाध्याव्यभिचारित्वं पक्षधर्मत्वं चाभ्युपगतं भवतीति कथमनुमानोत्थापकस्यार्थस्य त्रैरूप्यमसिद्धम्-येन 'नास्माभिरनुमानप्रतिक्षेपः१० क्रियते किंतु त्रिलक्षणं यदनुमानवादिभिर्लिङ्गमभ्युपगतं तन्न लक्षणभाग भवतीति प्रतिपाद्यते' इति वचः शोभामनुभवति-प्रत्यक्षलक्षणप्रतिपादनार्थ परचेतोवृत्तिपरिज्ञानाभ्यपगमे विलक्षण मस्यावश्यंभावित्वप्रतिपादनात् ? अथ नास्माभिः प्रत्यक्षमपि प्रमाणत्वेनाभ्युपगम्यते-येन 'तल्लक्षणप्रणयनेऽवश्यंभावी अनुमानप्रामाण्याभ्युपगमः' इत्यस्मान् प्रति भवद्भिः प्रतिपाद्येत-यत्तु “प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणम्" [ ] इति वचनं तत् तान्त्रिकलेक्षणालक्षितलोकसंव्यवहारिप्रत्यक्षापेक्षया, अत एव १५ लक्षणलक्षितप्रत्यक्षपूर्वकानुमानस्य "अनुमानमप्रमाणम्" इत्यादिग्रन्थसन्दर्भेणाप्रामाण्यप्रतिपादनं विधीयते न पुनर्गोपालाद्यज्ञलोकव्यवहाररचनाचतुरस्य धूमदर्शनमात्राविर्भूतानलप्रतिपत्तिरूपस्य, नैतच्चारु; तस्यापि महानसादिदृष्टान्तधर्मिग्रवृत्तप्रमाणावगतस्वसाध्यप्रतिवन्धनिश्चितसाध्यधर्मिधमधूमबलोद्भूतत्वेन तान्त्रिकलक्षणलक्षितप्रत्यक्षपूर्वकत्वस्य वस्तुतः प्रदर्शितत्वात् । 'एतत् पक्षधर्म त्वम्' 'इयं चास्य धूमस्य व्याप्तिः' इति साङ्केतिकव्यवहारस्य गोपालादिमूर्खलोकासंभविनोऽकिञ्चि २० करत्वात् । प्रत्यक्षस्य चाविसंवादित्वं प्रामाण्यलक्षणम् , तद् यथा संभवति तथा परतःप्रामाण्यं व्यवस्थापयद्भिः 'सिद्धं' इत्येतत्पदव्याख्यायां दर्शितं न पुनरुच्यते। तत् स्थितमेतत-न प्रत्यक्ष भवदभिप्रायेण प्रामाण्यव्यवस्थापकलक्षणसंभवःः तद्भावे वॉऽनुमानस्यापि प्रामाण्यप्रसिद्धिरिति न प्रत्यक्षं पर्यनुयोगविधायि । नाऽप्यनुमानादिकं पर्यनुयोगकारि, अनुमानादेः प्रमाणत्वेनानभ्युपगमात् । अथास्माभिर्यद्यप्य २५ नुमानादिकं न प्रमाणतयाऽभ्युपगम्यते तथापि परेण तत् प्रमाणतयाऽभ्युपगतमिति तत्प्रसिद्धेन तेन परस्य पर्यनुयोगो विधीयते ननु परस्य तत् प्रमाणतः प्रामाण्याभ्युपगमविषयः, अथाप्रमाणतः? यदि प्रमाणतः तदा भवतोऽपि प्रमाणविषयस्तत् स्यात् : नहि प्रमाणतोऽभ्युपगमः कस्यचिद् भवति कस्य चिन्नेति युक्तम् । अथाप्रमाणतोऽनुमानादिकं प्रमाणतयाऽभ्युपगम्यते परेण तदाऽप्रमाणेन न तेन पर्यनुयोगो युक्तः, अप्रमाणस्य परलोकसाधनवत् तत्साधकप्रमाणपर्यनुयोगेऽप्यसामर्थ्यात् । अथ तेन ३० प्रमाणलक्षणापरिज्ञानात् तत्प्रामाण्यमभ्युपगतमिति तत्सिद्धेनैव तेन परलोकादिसाधनाभिमतप्रमाणपर्यनुयोगः क्रियते; नन्वज्ञानात् तत् परस्य प्रमाणत्वेनाभिमतम् , न चाज्ञानादन्यथात्वेनाभिमन्य. मानं वस्तु तत्साध्यामर्थक्रियां निर्वर्त्तयति; अन्यथा विषत्वेनाहर्मन्यमानं महौषधादिकमपि तान् मारयितुकामेन दीयमानं स्वकार्यकरणक्षमं स्यात् । अथ नास्माभिः परलोकप्रसाधकप्रमाणपर्यनुयोगोऽनुमानादिना स्वतन्त्रप्रसिद्धप्रामाण्येन, पराभ्युपगमावगतप्रामाण्येन वा क्रियते किं तर्हि 'यदि पर-३५ लोकादिकोऽतीन्द्रियोऽर्थः परेणाभ्युपगम्यते तदा तत्प्रतिपादकं प्रमाणं वक्तव्यम्, प्रमाणनिबन्धना हि प्रमेयव्यवस्थितिः, तस्य च प्रमाणस्य तल्लक्षणाद्यसंभवेन तद्विषयाभिमतस्याप्यभावः' इत्येवंविचारणालक्षणः पर्यनुयोगः क्रियत इति न स्वतन्त्रानुमानोपन्यासपक्षधर्म्यसिद्ध्यादिलक्षणदोषावकाशो बृहस्पतिमतानुसारिणाम्। नन्वेवमप्यनया भङ्गया भवता परलोकाद्यतीन्द्रियार्थप्रसाधकप्रमाणपर्यनुयोगे प्रसङ्गसाधनाख्यमनुमानम् तद्विपर्ययस्वरूपं च स्ववाचैव प्रतिपादितं भवति । तथाहि-'प्रमा ४० १-न्धित्वलक्षणम-वि०। २-लक्षणलक्षि-वा० । ३ पृ. ७० पं० १९-पृ० ७१ पं० ३। ४ पृ० १५ पं०१०। ५चा-भां०, कां०, मां० । स० त० १० Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्रथमे काण्डेणनिवन्धना प्रमेयव्यवस्थितिः' इत्येवंवदता प्रमेयव्यवस्था प्रमाणनिमित्तैव प्रतिपादिता भवति; एतब प्रसङ्गसाधनम् , तच्च 'व्याप्यव्यापकभावे सिद्धे यत्र व्याप्याभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयकः प्रदर्श्यते' इत्येवंलक्षणम् , तेन प्रमेयव्यवस्था प्रमाणप्रवृत्त्या व्याप्ता प्रमाणतो भवता प्रदर्शनीया; अन्यथा प्रमाणप्रवृत्तिमन्तरेणापि प्रमेयव्यवस्था स्यात् । ततश्च कथं परलोकादिसाधकप्रमाणपर्यनुयो५गेऽपि परलोकव्यवस्था न भवेत् ? व्याप्यव्यापकभावग्राहकप्रमाणाभ्युपगमे च कथं कार्यहेतोः स्वभावहेतोर्वा परलोकादिप्रसाधकन्वेन प्रवर्त्तमानस्य प्रतिक्षेपः व्याप्तिप्रसाधकप्रमाणसद्भावेऽनुमानप्रवृत्तेरनायाससिद्धत्वात् ? प्रमाणाभावे तन्निवन्धनायाः प्रमेयव्यवस्थाया अप्यभाव इति प्रसङ्गविपर्ययः; स च 'व्यापकाभावे व्याप्यस्याप्यभावः इत्येवंभृतव्यापकानुपलब्धिसमुद्भूतानुमानस्वरूपः । एतदपि प्रस गविपर्ययरूपमनुमानं प्रमाणतो व्याप्यव्यापकभावसिद्धौ प्रवर्तत इति व्याप्तिप्रसाधकस्य प्रमाणस्य १० तत्प्रसादलभ्यस्य चानुमानम्य प्रामाण्ये स्ववाचैव भवता दत्तः स्वहस्त इति नानुमानादिप्रामाण्यप्रतिपादनेऽस्माभिः प्रयस्यते । अतो यदुक्तम् 'सर्वत्र पर्यनुयोगपगण्येव सूत्राणि बृहस्पतेः' इति, तद् अभिधेयशून्यमिव लक्ष्यते उक्तन्यायात् । यत् तुक्तम् 'प्रत्यक्षं सन्निहितविषयत्वेन चक्षुरादिप्रभवं परलोकादिग्राहकत्वेन न प्रवर्तते' तत्र सिद्धसाधनम् । यच्चोक्तम् 'नाप्यतीन्द्रियं योगिप्रत्यक्षम् , परलोकवत् तस्यासिद्धेः' इति, तद् विस्मर१५ णशीलस्य भवतो वचनम्, अतीन्द्रियार्थप्रवृत्तिप्रवणस्य योगिप्रत्यक्षस्यानन्तरमेव प्रतिपादितत्वात् । यत् पुनरिदमुच्यते 'नापि प्रत्यक्षपूर्वकमनुमानं तदभावे प्रवर्त्तते' तदसङ्गतम्, प्रत्यक्षेण हि संबन्धग्रहणपूर्व परोक्षे पावकादौ यथाऽनुमानं प्रवर्तमानमुपलभ्यते स एव न्यायः परलोकसाधनेsप्यनुमानस्य किमित्यदृष्टो दुष्टो वा । तथाहि-यत् कार्य तत् कार्यान्तरोद्भूतम्, यथा पटादिलक्षणं कार्यम् , कार्य चेदं जन्म इति भवत्यतो हेतोः परलोकसिद्धिः। तथाहि "नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणात । ___ अपेक्षातो हि भावानां कादाचित्कत्वसंभवः" ॥ [ ] इति । न तावत् कार्यत्वमिहजन्मनो न सिद्धम् , अकार्यत्वे हेतुनिरपेक्षस्य नित्यं सत्त्वाऽसत्त्वप्रसङ्गात् । अथ स्वभावत एव कादाचिकत्वं पदार्थानां भविष्यति, नहि कार्यकारणभावपूर्वकत्वं प्रत्यक्षत उपलब्धं येन तदभावानिवर्तेत, प्रत्यक्षतः कार्यकारणभावस्यैवासिद्धेः । यद्येवं बाह्येनाप्यर्थेन सह कार्यकारणभावस्या २५सिद्धेः स्वसंवेदनमात्रत्वे सति अद्वैतम् , विचारतस्तस्याप्यभावे सर्वशून्यत्वमिति सकलव्यवहारोच्छे दप्रसक्तिः । तस्माद् यथा प्रत्यक्षेण वाह्यार्थप्रतिबद्धत्वमात्मनः प्रतीयते-अन्यथेहलोकस्याप्यप्रसिद्धः, प्रत्यक्षतः तजन्यस्वभावत्वानवगमे तस्य तद्ग्राहकत्वासंभवात्। तथा चेहलोकसाधनार्थमङ्गीकर्तव्यं प्रत्यक्षं स्वार्थेनात्मनः प्रतिवन्धसाधकम्-तथा परलोकसाधनार्थमपि तदेव साधनमिति सिद्धः पर लोकोऽनुमानतः । यथा च वाह्यार्थप्रतिबद्धत्वं प्रत्यक्षस्य कादाचित्कन्वेन साध्यते, धूमस्यापि वह्निप्रति३० बद्धत्वम्, तथेहजन्मनोऽपि कादाचित्कन्वेन जन्मान्तरप्रतिबद्धत्वमपि । ततोऽनल-बाह्यार्थवत् पग्लोकेऽपि सिद्धमनुमानम् । ___ अथेहजन्मादिभूतमातापितृसामग्रीमात्रादप्युत्पत्तेः कादाचित्कत्वं युक्तमेवेहजन्मनः; नन्वेवं प्रदेश-समनन्तरप्रत्ययमात्रसामग्रीविशेषादेव धूम-प्रत्यक्षसंवेदनयोः कादाचित्कन्वमिति न सिध्यति पति-बाह्यार्थप्रतीतिरिति सकलव्यवहागभावः । अथाकारविशेषादेवानन्यथात्वसंभंविनोऽ३५नल-बाह्यार्थसिद्धिस्तहीहजन्मनोऽपि प्रज्ञा-मेधाद्याकारविशेषत एव मातापितृव्यतिरिक्तनिजजन्मान्तरसिद्धिः । तथा. यथाऽऽकार विशेष एवायं तैमिरिकादिज्ञानव्यावृत्तः प्रत्यक्षस्य बाह्यार्थमन्तरेण न भवतीति निश्चीयते-अन्यथा वाह्यार्थासिद्धीद्धाभिमतसंवेदनाद्वैतमेवेति पुनरपि व्यवहाराभावः-तथेहजन्मादिभूतप्रज्ञाविशेषाद् इहजन्मविशेषाकारो निजजन्मान्तरप्रतिबद्ध इति निश्चीयताम नुमानतः । अथ प्रत्यक्षमेव सविकल्पकं परमार्थतः प्रतिपत्तुः “ततः परं पुनर्वस्तु धर्मः” [ श्लो० वा. ४० सू०४, श्लो०१२० ] इत्यादि मीमांसकादिप्रसिद्ध साधकं वह्नि-बाह्यार्थपूर्वकत्वस्य धूम-जाप्रत्पुरोवृत्ति १-स्वरूपम् वा० विना। -व्यापकसिद्धी कां० । ३ पृ. ६९ पं०३९। ४ पृ. ७. पं. ५ । .. पृ. ७० पं० । मर्वज्ञमिद्धिप्रस्तावे। पृ० ०५० ८। ८-कार्यस्य कारण-कां., गु०। ९-म. वतो-गु०। १०-पादिजन्म-वा. विना। ११-पुरोवर्ति-मा० । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः । ७५ स्तम्भादिप्रत्ययस्य, अत्राभ्युपगमे परलोकवादिनः स्वपनमनायामसिद्धमेव मन्यन्तेः "नहि दृष्टेऽनुपपन्नम्" इति न्यायात् । यथैव हि निश्चयरूपा मातापितृ-जन्मप्रतिबद्धत्वसिद्धिस्तथैवेहजन्मसंस्कारव्यावृत्तादिहजन्मप्रशाद्याकारविशेषान्निजजन्मान्तरप्रतिबद्धत्वसिद्धिरपि प्रत्यक्षनिश्चिता स्यादिति न परलोकक्षतिः । न च निश्चयप्रत्ययोऽनभ्यासदशायामनुमानतामतिक्रामति, “पूर्वरूपसाधर्म्यात् तत् तथाप्रसाधितं नानुमेयतामतिपतति" [ ] इति न्यायात् अन्वय- व्यतिरेक पक्षधर्मताऽनुसरण - ५ स्थानभ्यासदशायामुपलब्धेः अभ्यासदशायां च पक्षधर्मत्वाद्यनुसरणस्यान्यत्राप्यसंवेदनात् सिद्धमनुमानप्रतीतत्वं परलोकस्य । अथेतरेतराश्रयदोषादनुमानं नास्त्येवैवंविधे विषये इत्युच्येतः नन्वेवं सति सर्वभेदाभावतो व्यवहारोच्छेद इति तदुच्छेदमनभ्युपगच्छता व्यवहारार्थिनाऽवश्यमनुमानमभ्युपगन्तव्यम् । एतेन प्रत्यक्ष पूर्वकत्वाभावेऽप्यनुमानस्य प्रामाण्यं प्रतिपादितम् । न चानुमान पूर्वकत्वेऽपीतरेतराश्रय- १० दोषानुषङ्गः, तस्यैवेतरेतराश्रयदोषस्य व्यवहारप्रवृत्तितो निराकरणात् । यदयुक्तम् 'अनुमानपूर्वकत्वेऽनवस्थाप्रसङ्गान्नानुमानप्रवृत्तिः' इति, तदप्यसङ्गतम् एवं हि सति प्रत्यक्षगृहीतेऽप्यर्थे विप्रतिपत्तिविषये नानुमानप्रवृत्तिमन्तरेण तन्निरास इति बाह्येऽर्थे प्रत्यक्षस्याव्यापारात् पुनरप्यद्वैतापत्तेः शून्यतापत्तेर्वा व्यवहारोच्छेद इति व्यवहारवलात् सैवानवस्था परिहियत इति। अभ्युपगमवादेन चैतदुक्तम्; अन्यथा वाह्यार्थव्यवस्थापनाय प्रत्यक्षं प्रवर्तते । तथा, प्रद- १५ शितहेतोर्व्याप्तिप्रसाधनार्थ केषांचिद् मतेन निर्विकल्पम्, अन्येषां तु सविकल्पकं चक्षुरादिकरणव्यापारजन्यम्, अपरेषां मानसम् केषाञ्चिद् व्यावृत्तिग्रहणोपयोगि ज्ञानम्, अन्येषां प्रत्यक्षानुपलम्भबलोद्भूताऽलिङ्गजोहाख्यं परोक्षं प्रमाणं तत्र व्याप्रियत इति कथमनुमानेन प्रतिबन्धग्रहणेऽनवस्थे-तरेतराश्रयदोषप्रसक्तिः परलोकवादिनः प्रति भवता प्रेर्येत ? यदयुक्तम् 'सर्वमप्यनुमानमस्मान् प्रति प्रमाणत्वेनासिद्धम्' इत्यादि, तदप्यसङ्गतम् ; यतः किम- २० नुमानमात्रस्याप्रामाण्यं भवता प्रतिपादयितुमभिप्रेतम् "अनुमानमप्रमाणम्" इत्यादिग्रन्थेनं, अथ तान्त्रिकलक्षणक्षेपः, अतीन्द्रियार्थानुमानप्रतिक्षेपो वा ? न तावदनुमानमात्रप्रतिषेधो युक्तः, लोकव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात् । यतः प्रतियन्ति कोविदाः कस्यचिदर्थस्य दर्शने नियमतः किञ्चिदर्थान्तरं न तु सर्वस्मात् सर्वस्यावगमः । उक्तं चान्येन “स्वगृहान्निर्गतो भूयो न तदाऽऽगन्तुमर्हति ” । [ ] अतः किश्चिद् दृष्ट्रा कस्यचिदवर्ग मे निमित्तं कल्पनीयम् । तच्च नियतसाहचर्यमविनाभावशब्दवाच्यं नैयायिकादिभिः परिकल्पितम् । तदवगमश्च प्रत्यक्षाऽनुपलम्भ सहाय मानसप्रत्यक्षतः प्रतीयते । सामान्यद्वारेण प्रतिबन्धावगमाद् देशादिव्यभिचारो न बाधकः, नापि व्यक्त्यानन्त्यम्, उभयत्रापि सामान्यस्यैकत्वात् । सामान्याकृष्टाशेषव्यक्तिप्रतिभानं च मानसे प्रत्यक्षे यथा शतसङ्ख्याऽव. च्छेदेन 'शतम्' इति प्रत्यये विशेषणाकृष्टानां पूर्वगृहीतानां शतसङ्ख्या विषयपदार्थानाम् । तथाहि - ३० 'एते शतम्' इति प्रत्ययो भवत्येव । सामान्यस्य च सत्त्वमनुगताऽबाधितप्रत्ययविषयत्वेन व्यवस्थापितम् । तदेवं नियतसाहचैर्यमर्थान्तरं प्रतिपादयदुपलब्धं सत् प्रतिपादयति । उपलम्भश्वावश्यं कचित् स्थितस्य, सैव पक्षधर्मता, ततः सम्बन्धानुस्मृतौ ततः साध्यावगमः । यस्तु प्रतिबन्धं नोपैति तस्यापि कथं न सर्वस्मात् सर्वप्रतिपत्तिः अभ्युपगमे वाऽप्रतिपन्नेऽपि संबन्धे प्रतिपत्तिप्रसङ्गः ? । प्रमातृसंस्कारकारकाणां पूर्वदर्शनानामभावात् इत्यनुत्तरम्, संबन्धाप्रतिपत्तौ प्रमातृसं- ३५ स्कारानुपपत्तेः । दर्शनजः संस्कारोऽप्यनभिव्यक्तः सत्तामात्रेण न प्रतिपत्युपयोगीः न च स्मृतिमन्तरेण तत्सद्भावोऽपि । न चानुभवप्रध्वंसनिबन्धना स्मृतिः क्वचिद्विपये, संस्कारमन्तरेण तदनुपपत्तेः प्रध्वंसस्य च निर्हेतुकैत्वासंभवात् । यत्राप्यभ्यस्ते विषये वस्त्वन्तरदर्शनादव्यवधानेन वस्त्वन्तरप्रतिपत्तिस्तत्रापि प्राक्तनक्रमाश्रयणेन वस्त्वन्तरावगमः । इयांस्तु विशेषः - एकत्रानभ्य स्तत्वादन्तराले स्मृतिसंवेदनम्, अन्यत्राभ्यासाद् विद्यमानाया अप्यसंवित्तिः । केचित्तु “ योगिप्रत्यक्षं ४० १ मातृपितृ-भां०, कां० । २- प्रसाधितां कां०, गु० । ३ पृ० ७० पं० १७ । ४ पृ० ७४ पं० १९ । ५ व्याप्तिग्र - मां० ब० । ६ पृ० ७० पं० १७ । ७ पृ० ७० पं० १९-पृ० ७१ पं० ३ । ८-णाक्षेपः वा० । ९ 'लौकिकाः ' मां० टि० । कोकिलाः वा० । १०- गमेति (गम इति) निमित्तं वा०, बा० । ११ - चर्यमर्थमर्थान्तरं आ०, सा०, कृ०, ४० बिना । १२ - केषु चित्तु आदर्शेषु न्धेऽप्रतिपत्ति । १३ -कतासंभवात् वा०, मां०, भां० । २५ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ प्रथमे काण्डेसंबन्धग्राहकमाहुः व्याप्तः सकलाक्षेपणावगमात्" तथा च यत्र यत्रेति देशकाल विक्षिप्तानां व्यक्ती. नामनवभासाऽनुपपत्तिः, अत एकत्र क्षणे योगित्वं प्रतिबन्धग्राहिणः । एतत् पूर्वस्मादविशिष्टम्, तद् लोके अर्थान्तरदर्शनात् अर्थान्तरसुदृढप्रतीतो तार्किकाणां निमित्तचिन्तायां पक्षधर्मत्वाद्यमिधानम् । अतो न तान्त्रिकलक्षणप्रतिक्षेपोऽपि । ५ उत्पन्नप्रतीतीनामस्तु प्रामाण्यम्, उत्पाद्यप्रतीतीनां तु अतीन्द्रियाऽदृष्ट-परलोक-सर्वज्ञाद्यनुमानानां प्रतिक्षेप इति चेत्, तदसन् । यद्यनवगतसंबन्धान प्रतिपत्तृनधिकृत्यैतदुच्यते तदा धूमादिष्वपि तुल्यम् । अथ गृहीताविनाभावानामप्यतीन्द्रियपरलोकादिप्रतिभासानुत्पत्तेरेवमुच्यते, तदसत् ये हि कार्यविशेषस्य तद्विशेषेण गृहीताविनाभावास्ते तस्मात् परलोकाद्यव. गच्छन्त्येव; अतो न ज्ञायते केन विशेषेणातीन्द्रियार्थानुमानप्रतिक्षेपः? साहचर्याविशेषेऽपि १० व्याप्यगता नियतता प्रयोजिका न व्यापकगता, अतः समव्याप्तिकानामपि व्याप्यमुखेनैव प्रति पत्तिः । नियतताऽवगमे चार्थान्तरप्रतिपत्तो न वाधा, न प्रतिवन्धः, एकस्य रूपभेदानुपपत्तेः । ततो न विशेषविरुद्धसंभवः नापि विरुद्धायभिचारिण इति यदुक्तम् 'विरुद्धाऽनुमान-विरोधयोः सर्वत्र संभवात् क्वचिच्च विरुद्धाव्यभिचारिणः' इति, पतदप्यपास्तम् । 'अविनाभावसंबन्धस्य ग्रहीतुमशक्यत्वात् , अवस्था-देश-कालादिभेदात्' इत्यादेश्च पूर्वनीत्याऽनुमानप्रमाणत्वेऽनुपपत्तिः। १५ परोक्षस्यार्थस्य सामान्याकारेणान्यतः प्रतिपत्तौ लोकप्रतीतायां बौद्धस्तु कार्यकारणभावादि. लक्षणः प्रतिबन्धस्तन्निमित्तत्वेन कल्पितः । तदुक्तम् "कार्यकारणभावाद्वा स्वभावाद्वा नियामकात् । अविनाभावनियमोऽदर्शनान्न न दर्शनात्" ॥ [ ] इत्यादि । तथा "अवश्यंभावनियमः कः परस्यान्यथा परैः । अर्थान्तरंनिमित्ते वा धर्मे वाससि रागवत्" ॥ [ ] इति च । तथाहि-क्वचित् पर्वतादिदेशे धूम उपलभ्यमानो यद्यग्निमन्तरेणेव स्यात् तदा पावकधर्मानुवृत्तितस्तस्य तत्कार्यत्वं यनिश्चितं विशिष्टप्रत्यक्षाऽनुपलम्भाभ्यां तदेव न स्यादित्यहेतोस्तस्यासत्त्वात् कचिदप्युपलम्भो न स्यात्, सर्वदा सर्वत्र सर्वाकारेण वोपलम्भः स्यात् : अहेतोः सर्वदा सत्त्वात्। २५ स्वभावश्च यदि भावव्यतिरेकेण स्यात् ततो भावस्य निःस्वभावत्यापत्तेः स्वभावस्याप्यभावापत्तिः । तत्प्रतिबन्धसाधकं च प्रमाणं कार्य हेतोर्विशिष्टप्रत्यक्षाऽनुपलम्भशब्दवाच्यं प्रत्यक्षमेव सर्वज्ञसाधकहेतुप्रतिबन्धनिश्चयप्रस्तावे प्रदर्शितम् । स्वभावहेतोस्तु कस्यचिद् विपर्यये बाधकं प्रमाणं व्यापकानुपलब्धिस्वरूपम्, कस्यचित् तु विशिष्टं प्रत्यक्षमभ्युपगतम् । सर्वथा सामान्यद्वारेण व्यक्तीनाम् अतद्रूपपरावृत्तव्यक्तिरूपेण वा तासां प्रतिबन्धोऽभ्युपगन्तव्यः; अन्यथाऽप्रतिबद्धादन्यतोऽन्यप्रतिपत्ताव. ३० तिप्रसङ्गात् । प्रतिबन्धप्रसाधकं च प्रमाणमवश्यमभ्युपगमनीयम्; अन्यथाऽगृहीतप्रतिबन्धत्वादन्यतोऽन्यप्रतिपत्तावपि प्रसङ्गस्तदवस्थ एव । यत्र गृहीतप्रतिबन्धोऽसावर्थ उपलभ्यमानः साध्यसिद्धिं विदधाति तद्धर्मता तस्य पक्षधर्मत्वस्वरूपा, तद्ग्राहकं च प्रमाणे प्रत्यक्षमनुमानं वा। तदुक्तं धर्मकीर्तिना "पक्षधर्मतानिश्चयः प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा” [ ] ३५ अतो लोकप्रसिद्ध-तान्त्रिकलक्षणलक्षितानुमानयोर्भेदाभावादतीन्द्रियपरलोकाद्यर्थसाधकत्वमपि तस्यैवेति तत्प्रामाण्यानभ्युपगमे इहलोकस्यापि अभ्युपगमाभावप्रसङ्गः । न च 'किमत्र निर्विकल्प. सम, योगिप्रत्यक्षम. ऊहोवा प्रतिबन्धनिश्चायकम् प्रतिबन्धोऽपि नियतसाहचर्यलक्षण: कार्यकारणभावादिर्वा' इति चिन्ताऽत्रोपयोगिनी, धूमादग्निप्रतिपत्तिवत् प्रज्ञा-मेधादिविज्ञानकायविशेषान्निजजन्मान्तरविज्ञानस्वभावपरलोकप्रतिपत्तिसिद्धेः । अतोऽनुमानाप्रामाण्यप्रतिपादनाय १ पृ. ७५ पं० २७ । २ पृ. ७० पं० ३६ । ३ पृ. ७० पं० ३३-३५ । ४ परे का० । ५-रनिमितेऽथा-अ०। ६पृ. ५७ पं०१८ । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः । पूर्वपक्षवादिना यद् युक्तिजालमुपन्यस्तं तन्निरस्तं द्रष्टव्यम् ; प्रतिपदमुच्चार्य न दूप्यते ग्रन्थगौरवभयात्। ___यदेप्युक्तम् 'परलोके प्रत्यक्षस्याप्रवृत्तेरापत्तिरेवेयम् इहजन्मान्यथाऽनुपपत्त्या परलोकस. द्भावः' इति, तदपि न सम्यक पूर्वानुसारेण सर्वस्य नियतप्रत्ययस्य प्रवृत्तेरनुमानत्वप्रतिपादनात् । अविनाभावसंबन्धस्य ग्रहीतुमशक्यत्वान्नात्रानुमानमिति चेत् नन्वेवं तदेवाद्वैतं शून्यत्वं वा कस्य केन दोषामिधानम् । तस्मात् संव्यवहारकारिणा प्रत्यक्षेण ऊहेन वा प्रतिबन्धसिद्धिरिति कथं नानु- ५ मानात् परलोकसिद्धिः? ___यदेप्युक्तम् 'मातापितृसामग्रीमात्रेणेहजन्मसंभवान्न तजन्मव्यतिरिक्तभूतपरलोकसाधनं युक्तम्' इति, तदपि प्रतिविहितमेवः समनन्तरप्रत्ययमात्रेण प्रत्ययप्रत्यक्षस्य भावात् स्वप्नादिप्रत्ययवन्न प्रत्यक्षाद बाह्यार्थसिद्धिरपि इति बौद्धाभिमतपक्षसिद्धिप्रसङ्गोऽनस्तत्वात् । यदपि प्रत्यपादि 'न सन्नि. हितमात्रविषयत्वात् प्रत्यक्षस्य देश-कालव्याप्त्या प्रतिबन्धग्रहणसामर्थ्यम्' इति, तदपि न किश्चित् ; १० एवं सति अतिसन्निहितविषयत्वेन प्रत्यक्षय स्वरूपमात्र एव प्रवृत्तिप्रसङ्ग इति तदेव बौद्धाद्यभिमतं स्वसंवेदनमात्र सर्वव्यवहारोच्छेदकारि प्रसक्तमिति प्रतिपादितत्वात्। तस्माल्लोकव्यवहारप्रवर्तनक्षमसविकल्पकप्रत्यक्षबलाद् ऊहाख्यप्रमाणाद् वा देश-कालव्याप्त्या यथोक्तलक्षणस्य हेतोः प्रतिबन्धनहणे प्रवृत्तिरनुमानस्येति न व्याहतिः प्रकृतस्येति एतदपि निरस्तम् 'केचित् प्रज्ञादयः' इत्यादि । न च 'प्रज्ञा-मेधादयः शरीरस्वभावान्तर्गताः' इत्यादि चोद्यं युक्तम् , तदन्तर्गतत्वेऽपि परिहारसंभवादन्व-१५ य-व्यतिरेकाभ्यां तेषां मातापित्रोः पितृशरीरजन्यत्वस्य पितृशरीरं (?) तर्हि हेतुभेदान्न भेदो मातापितृशरीरादपत्यप्रज्ञादीनाम् । अयमपरो बृहस्पतिमतानुसारिण एव दोषोऽस्तु यः कार्यभेदेऽपि कारणभेदं नेच्छति । अस्माकं तु हर्ष-विषादाद्यनेकविरुद्धधर्माकान्तस्य विज्ञानस्यान्तर्मुखाकारतया वेद्यस्य रूपरसगन्धस्पर्शादियुगपद्भावि-बालकुमारयौवनवृद्धावस्थाद्यनेकक्रमभाविविरुद्धधर्माध्यासिततटरीरादेर्बाह्येन्द्रियप्रभवविज्ञानसमधिगम्याद भेदः सिद्ध एव। विरुद्धधर्माध्यासः, कारणभेदश्च २० पदार्थानां भेदकः; स च जलाउनलयोरिव शरीर-विज्ञानयोर्विद्यत एवेति कथं न तयोर्मेदः? दप्यभेदे ब्रह्माद्वैतवादापत्तेस्तदवस्थ एव पृथिव्यादितत्त्वचतुष्टयाभावापत्त्या व्यवहारोच्छेदः। अथवा मातापितृ-पूर्वजन्मैकसामग्रीजन्यमेतत् कार्यम्, एतन्न (तन्न) दोषोऽव्यतिरिक्तपक्षेऽपि विज्ञानशरीरयोः । पूर्वमप्युक्तम् 'विलक्षणादप्यन्वय-व्यतिरेकाभ्यां मातापितृशरीराद् विज्ञानमुपजायताम् ; नहि कारणाकारमेव सकलं कार्यम्' इति, तदप्यसत् ; यतो नहि कारणविलक्षणं कार्य न भवती २५ युच्यते, अपि तु तदन्वय-व्यतिरेकानुविधानात् तत्कार्यत्वम् । तथाहि-यद् यद्विकारान्वय-व्यतिरेकानुविधायि तत् तत्कार्यमिति व्यवस्थाप्यते, यथा अगुरु-कर्पूरोर्णा दिदाह्यदाहकपावकगतसुरभिगन्धाद्यन्वयव्यतिरेकानुविधायी धूमस्तत्कार्यतया व्यवस्थितः, एकसन्तत्यनुपतितशास्त्रसंस्कारादिसंस्कृतप्राक्तनविज्ञानधर्मान्वयव्यतिरेकानुविधायि च प्रज्ञा-मेधाद्युत्तरविज्ञानमिति कथं न तत्कार्यमभ्युपगम्यते ? तदनभ्युपगमे धूमादेरपि प्रसिद्धवह्नयादिकार्यस्य तत्कार्यत्वाप्रसिद्धिरिति ३० पुनरपि सकलव्यवहारोच्छेदः। "तस्माद्यस्यैव संस्कारं नियमेनानुवर्तते। तन्नान्तरीयकं चित्तमतश्चित्तसमाश्रितम्" ॥ [ ] प्रतिपादितश्च प्रमाणतः प्रतिनियतः कार्यकारणभावः सर्वक्षसाधने 'कुसमयविसासणं' इतिपदव्याख्यां कुर्वद्भिर्न पुनरिहोच्यते। ___ योऽपि शालूकदृष्टान्तेन व्यभिचारः 'यथा गोमयादपि शालूकः, कश्चित् समानजातीयादपि शालूकादेव तथा केचित् प्रज्ञा-मेधादयस्तदभ्यासात्, केचित् तु रसायनोपयोगात्, १ पृ. ७० पं० २१। २पृ० ७१ पं०४। ३ पृ. ७४ पं० २४ । ४ पृ. ७१ पं०८। ५ पृ. ७४ पं. ३२। ६ पृ. ७१५० ११। ७ पृ. ७४ पं० २४॥ ८ प्रज्ञादय इति इत्यादि भा०, कां०, गु०, मां० । ९ पृ० ७१ पं० १४ । १० पृ० ७१ पं० १४ । ११-न्यत्वेस्य अ० ।-न्यत्वस्यापि-मां० । १२-णाभेदं वा० । १३-तन्न दोषो-गु० । १४ एत न दोषो-वा०, बा०। १५-ऽव्यतिरेकपक्षेऽपि वा०, बा० । १६ पृ० ७१५० १८॥ १७-गम्येत मां०। १८० ५७ पं० ३९ । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे अपरे मातापितृशुक्रशोणितविशेषादेव' इति, सोऽपि न सम्यग्; तत्रापि समानजातीय. पूर्वाभ्याससंभवात् ; अन्यथा समानेऽपि रसायनाद्युपयोगे यमलकयोः कस्यचित् क्वापि प्रज्ञामेधादिकमिति प्रति नियमो न स्यात्, रसायनाद्युपयोगस्य साधारणत्वादिति । न च प्रज्ञादीनां जन्मादौ रसायनाभ्यासे च विशेषः, शालूक-गोमयजन्यस्य तु शालूकादेस्तदन्यस्माद विशेषो दृश्यते । ५ क्वचिजातिस्मरणं च दर्शनमिति न युक्ता दृष्ट कारणादेव मातापितृशरीरात् प्रज्ञा-मेधादिकार्य विशे. षोत्पत्तिः । न च गोमय-शालूकादेर्व्यभिचारविषयत्वेन प्रतिपादितस्यात्यन्तवैलक्षण्यम्, रूप-रसगन्ध-स्पर्शवत्पुद्गलपरिणामत्वेन द्वयोरपि अवैलक्षण्यात् । विज्ञान-शरीरयोश्चान्तर्बहिर्मुखाकारविज्ञानग्राह्यतया स्व-परसंवेद्यतया स्वसंवेदन-बाह्यकरणादिजन्यप्रत्ययानुभूयमानतया च परस्परान नुयाय्यनेकविरुद्धधर्माध्यासतोऽत्यन्तवैलक्षण्यस्य प्रतिपादितत्वाद् नोपादानोपादेयभावो युक्तः। १० यस्तु शरीरवृद्ध्यादेश्चैतन्यवृद्ध्यादिलक्षण उपादानोपादेयभावधर्मोपलम्भःप्रतिपाद्यतेऽसौ महा कायस्यापि मातङ्गाऽजगरादेश्चैतन्याल्पत्वेन व्यभिचारीति न तद्भावसाधकः। यस्तु शरीरविकाराच्चैत. न्यविकारोपलम्भलक्षणस्तद्धर्मभावः प्रतिपाद्यतेऽसावपि सात्त्विकसत्त्वानाम् अन्यगतचित्तानां वा छेदादिलक्षणशरीरविकारसद्भावेऽपि तच्चित्तविकारानुपलब्धेरसिद्धः। दृश्यते च सहकारिविशेषादपि जल-भूम्यादिलक्षणाद् बीजोपादानस्याङ्कुरादेविशेष इति सहकारिकारणत्वेऽपि शरीरादे१५विशिष्टाहाराथुर्पयोगादौ यौवनावस्थायां वा शास्त्रादिसंस्कारोपात्तविशेषपूर्वज्ञानोपादानस्य विज्ञा नस्य विवृद्धिलक्षणो विशेषो नासंभवी।। यदप्युक्तम् 'अनादिमातापितृपरम्परायां तथाभूतस्यापि बोधस्य व्यवहितमातापितृगतस्य सद्भावात् ततो वासनाप्रबोधेन युक्त एव प्रज्ञा-मेधादिविशेषस्य संभवः' इति, तदप्ययुक्तम् अनन्तरस्यापि मातापितृपाण्डित्यस्य प्रायः प्रबोधसंभवात् । ततश्चक्षुरादिकरणजनितस्य स्वरू२० पसंवेदनस्य चक्षुरादिज्ञानस्य वा युगपत् क्रमेण चोत्पत्तौ 'मयैवोपलब्धमेतत्' इति प्रत्यभिज्ञानं सन्तानान्तरतदपत्यज्ञानानामपि स्यात्, न च मातापितृज्ञानोपलब्धेस्तदपत्यादेः कस्यचित् प्रत्यभिज्ञानमुपलभ्यते । अनेन 'एकस्माद् ब्रह्मणः प्रजोत्पत्तिः' प्रत्युक्ता, एकप्रभवत्वे हि सर्वप्राणिनां परस्परं प्रत्यभिशाप्रसङ्गः एकसन्तानोद्भूतदर्शन-स्पर्शनप्रत्यययोरिव । यत्तुक्तम् 'आत्मनोऽदृष्टेर्नात्मानमाश्रित्य परलोकः' इति, तदयुक्तम् । तददृष्टय सिद्धेः। तथाहि२५ देहेन्द्रिय-विषयादिव्यतिरिक्तोऽहंप्रत्ययप्रत्यक्षोपलभ्य एवात्मा। न च चक्षुरादेः करणग्रामस्यातीन्द्रियात्मविषयत्वेन ज्ञानजननाव्यापारात् कथं तजन्यप्रत्यक्षज्ञान विषय इति वक्तुं युक्तम्, स्वसंवेदनप्रत्यक्षग्राह्यत्वाभ्युपगमात् । तथाहि-उपसंहृतसकलेन्द्रियव्यापारस्य अन्धकारस्थितस्य च 'अहम्' इति ज्ञानं सर्वप्राणिनामुपजायमानं स्वसंविदितमनुभूयते, तत्र च शरीराद्यनवभासेऽपि तद्यतिरिक्तमात्मस्व रूपं प्रतिभाति । न चैतद् ज्ञानमनुभूयमानमप्य पह्रोतुं शक्यम् , अनुभूयमानस्याप्यपलापे सर्वापलापप्र३०सहात । नाप्येतन्नोत्पद्यते, कादाचित्कत्वविरोधात् ! नापि बाह्येन्द्रियव्यापारप्रभवम्, तद्यापाराभा. वेऽप्युपजायमानत्वात् । नापि शब्द-लिङ्गादिनिमित्तोद्भूतम्, तदभावेऽप्युत्पत्तिदर्शनात् । न चेदं वाध्यत्वेनाप्रमाणम् , तत्र बाधकसद्भावस्यासिद्धेः । न चेदं सविकल्पकत्वेनाप्रमाणम्, सविकल्पकस्यापि ज्ञानस्य प्रमाणत्वेन प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । कदाचिश्च बाह्येन्द्रियव्यापारकालेऽपि यदा 'घटमहं जानामि' इत्येवं विषयमवगच्छति तदा स्वात्मानमपि । तथाहि-तत्र यथा विषयस्याव३५भासः कर्मतया तथाऽऽत्मनोऽप्यवभासः कर्तृतया । न च शरीरादीनां ज्ञातृता, यथा हि शरीराद् का पादयः प्रतीतिकर्मतया प्रतिभान्ति-'मम घटादयः, अहं घटादीनां ज्ञाता' एवं 'मम पारीरादयः अहं शरीरादीनां ज्ञाता' इत्येवं च प्रतीतिकर्मत्वेन घटादिमिस्तल्यत्वान्न शरीरादिसं. घातस्य शातृता । न च शात्रप्रतिभासः, तदप्रतिभासे हि 'ममैते भावाः प्रतिभान्ति नान्यस्य' इत्येवं प्रतिभासो न स्यात् तदवभासापहवे च घटादेरपि कथं प्रतीतिः? इयांस्तु विशेषः-एकस्य प्रती. ४०तिकर्मता अपरस्य तत्प्रतीतिकर्तृता न त्वनवभासः; अतो लिङ्गाद्यनपेक्ष आत्माऽवभासोऽप्यस्तीति १ पृ० ७१ पं० १९। २-तिस्मरणादर्शन-वा० बा०। ३ पृ. ७१ पं० १९ । ४ पृ० ७७ पं०१८ । ५ युक्तः। शरीर-का०, गु० । ६-पयोगाद् यौ-मां० । ७ पृ. ७१ पं० २४ । ८ पृ. ७१ पं० २५। पृ. ७१ पं. २९-३० । १०-यादिवि-मा०। ११-सकलण्यापार-मा० । १२-दास्मानमपि। तत्र गु०। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः। ७९ कथं तस्यादृष्टिः ? न चास्य प्रत्ययस्य बाधारहितस्यापूर्वार्थ विषयस्याक्षजविषयावभासस्येवासन्दि पस्य निश्चितरूपत्वेन प्रतिभासमानस्य स्मृतिरूपता अप्रामाण्यं वा प्रतिपादयितुं युक्तम् । अतोऽस्यामपि प्रतीताववभासमानस्यापरोक्षतैव युक्ता न प्रमाणान्तरगम्यता। यदप्यत्राहुः-{अस्त्ययमवभासः किन्त्वस्य प्रत्यक्षता चिन्त्या । प्रत्यक्षं हीन्द्रियव्यापारजं ज्ञानम् । तथाचोक्तं भवद्भिः-"इन्द्रियाणां सत्संप्रयोगे बुद्धिजन्म प्रत्यक्षम्" [ जैमि० अ०१-१-४] प्रत्य- ५ क्षविषयत्वात् तदर्थस्य प्रत्यक्षता न तु साक्षात् , अनिन्द्रियजन्वेन । तत्र घटादेर्वाह्येन्द्रियज्ञान विषय त्वेन सर्वलोकप्रतीताऽध्यक्षता नत्वेवमात्मनः। अथैवमुच्येत-नात्मनो घटादितुल्या प्रत्यक्षता, घटादेहि इन्द्रियजज्ञानविषयत्वेन सा व्यवस्थाप्यते, न त्वात्मा कस्यचित् प्रमाणस्य विषयः। कथं तर्हि प्रत्यक्षः? न ज्ञानविषयत्वात् प्रत्यक्षः अपि त्वपरोक्षत्वेन प्रतिभासनात् प्रत्यक्ष उच्यतेः तच्च केवलस्य घटादिप्रतीत्यन्तर्गतस्य १० वाऽपरसाधनं प्राक् प्रतिपादितम्, एतदप्यसत्; यतः अपरसाधनमिति कोऽर्थः-किं चिद्रूपस्य सत्ता, आहोस्वित् स्वप्रतीतो व्यापारः ? यदि चिद्रूपस्य सत्तैवात्मप्रकाशनमुच्यते तदा दृष्टान्तो वक्तव्यः। न चात्राऽऽशङ्कनीयम्-अपरोक्षे दृष्टान्तान्वेषणं न कर्त्तव्यम् , यतस्तथाविधे विवादविषये सुप्रसिद्धं दृष्टान्तान्वेषणं दृश्यते । न च दीपादि दृष्टान्तः, तेत्र हि सजातीयालोकानपेक्षत्वेन स्वप्रतीतौ स्वप्रकाशकत्वं व्यवस्थापितं कैश्चित् न त्विन्द्रियाग्राह्यत्वम् । तदग्राह्यत्वे 'स्वप्रकाशाः १५ प्रदीपादयः' इति चक्षुष्मतामिवान्धानामपि तत्प्रतीतिप्रसङ्गः तस्मान्न स्वप्रकाशाः प्रदीपादयः। यत्तु आलोकान्तरनिरपेक्षत्वं तत् कस्यचिद्विपयस्य काचित् सामग्री प्रकाशिका इति नैकत्र दृष्टत्वेनान्यत्रापि प्रसक्तिश्चोद्यते । अथ द्वितीयः पक्षः, सोऽपयुक्तः, अदर्शनादेव-नहि कश्चित् पदार्थः कर्तृरूपः करणरूपो वा स्वात्मनि कर्मणीव सव्यापारो दृष्टः । कथं तानुमेयत्वेऽप्यात्मप्रतीतिः प्रमात्रन्तराभावात् ? एकस्यैव लिङ्गादिकरणमपेक्ष्य(क्ष्या)वस्थाभेदेन मेदे सति अदोषः ।२० ___किंच, प्रमाणाविषयत्वेऽप्यपरोक्षतेत्यस्य भाषितस्य कोऽर्थः ? ज्ञातृतया स्वरूपेणावभासनमिति चेत्, घटादयोऽपि किं पररूपतया प्रतीतिविषयाः? अतो यद् यस्य रूपं तत् प्रमाण वि. षयत्वेऽप्यवसीयते इति न ज्ञानाविषयता प्रमातुः । तथाहि-तस्य ज्ञातृता प्रमातृताऽऽत्मस्वरूपता, घटादेः प्रमेयता शेयता घटादिरूपता; अतो यथा तस्य स्वरूपेणावभासनान्नाऽप्रत्यक्षता तद्वदात्मनोऽपि । अभ्युपगमनीयं चैतत् , अन्यथाऽऽत्मादिस्वसंवेदनस्य प्रत्यक्षस्यापि प्रत्यक्षादिलक्षणव्यति-२५ रिक्तं लक्षणान्तरं वक्तव्यम् । तथा च प्रमाणेयत्ताव्याघातः, केनचित् प्रत्यक्षादिलक्षणेनात्मादिविषयस्य स्वसंवेदनस्यासंग्रहात् । इतोऽप्युक्तं प्रमातृवत् फलेऽपि संवेदनाभ्युपगमप्रसङ्गात् । तथाऽभ्युपगमाददोष इति चेत्, तथा चोक्तम् " "संवित्तिः संवित्तितयैव संवेद्या न संवेद्यतया” [ ] इति । एतत् प्राक् प्रतिक्षिप्तम् , न स्वरूपावभासे प्रमाणाविषयता । किंचे, एवं कल्प्यमाने बोधद्वयमान्तरम् ३० स्वसंविद्रूपं च कल्पितं स्यात्, तथा चायुक्तम् , एकस्मादेव विषयावभाससिद्धेः किं द्वयकल्पनया ? अथोच्येत-कल्पना ह्यनवभासमानस्य, बोधंद्वये तु घटादिवदवभासोऽस्तीति न कल्पना । यदीडशाः प्रतिभासाः प्रमाणन्वेन व्यवस्थाप्यन्ते तदा 'घटमहं चक्षुपा पश्यामि'इति करणप्रतीतिरपि प्रमातृफलप्रतीतिवत् कल्पनीया।। याऽपि कैश्चित् करणप्रतीतिः प्रत्यक्षत्वेनोक्ता साऽपि नातीव संगच्छते । तथाहि-३५ 'घटमहं चक्षुषा पश्यामि'इत्यस्यामवगतौ किं गोलकस्य चक्षुष्ट्वम्, आहोस्वित् तद्व्यति. रिक्तस्य? गोलकस्य चक्षुष्ट न कश्चिदन्धः स्यात् । तद्यतिरिक्तस्य च रश्मेरनभ्युपगमःः अभ्युपगमे वा न प्रतीतिविषयः, केवलं शब्दमात्रमुचारयति घटप्रतीतिकाले। एवं च प्रमातृ-फलविषयं शब्दोच्चारणमात्रमवसीयते, न च तयोः प्रतीतिगोचरता करणस्येव तथाहि-इन्द्रियव्यापारे सति शरीराद् व्यवच्छिन्नस्य विषयस्यैव केवलस्यावभासनमिति न्यायविदः प्रतिपन्नाः । 'किं तस्याव-४० १-यविषय-मा० । २ पृ. ७८ पं० ३४ । ३ तस्य हि मां०। ४-न प्रतीतौ प्रकाश-कां०, गु० । ५ सुप्रकाशाः वा०, बा. विना सर्वत्र । ६-क्षावस्था मां० विना सर्वत्र । ७-ता घटादेशेयता घटा-गु०।८ इतोऽप्ययुक्तम् भा०मा० ब०। ९-नाऽभ्युपगमदोष इति चेत् तथा चोक्तम् बा०, वा०, पू० । १०-णविषयता मा०। ११-चिनैवं वा०, बा० । १२ तथायुक्तमे-वा०, बा०। १३ बोदयहेतुघ-वा०, बा० । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - भासनम्' इति पर्यनुयोगे' मूकत्वं परिहारमाहुः, व्यपदेष्टुमशक्यत्वात् । अतः प्रमात्रवभासानुपपत्तिः । ननु 'अहम्' इति प्रत्ययः सर्वलोकसाक्षिको नैवापह्नोतुं शक्यः । अनपह्नवे सविषयः, निर्विषयो वा? निर्विषयता प्रत्ययानामबाधितरूपाणां कथम् ? सविषयत्वेऽपि प्रमात्रप्रतिभासे किंविषयोऽयं प्रत्ययः ? न प्रत्ययापह्नवः न चास्य निर्विषयता किन्तु देहादिव्यतिरिक्तो विषयत्वेनावभासमान आ५ त्माऽस्य न विषयः न च ज्ञातृत्वेनावभासमान इत्युच्यते । कस्तर्हि विषयः ? शरीरमिति ब्रूमः । तथाहि'कृशोऽहम् स्थूलोऽहम् गौरोऽहम् इति शरीराद्यालम्बनैः प्रत्ययैरस्य समानाधिकरणताऽवसीयते । नन्वेवं संख्यादिप्रत्ययैरप्यहङ्कारस्य समानाधिकरणता - सुख्यहं दुःख्यहमिति वा, अतो न देहविषयता । यच्चोच्यते 'गौरोऽहमित्यादिसामानाधिकरण्यदर्शनाच्छरीरालम्बनत्वम्' इति, तत्राप्येतद्विचार्यम् - गौरादीनां शरीरादिव्यतिरिक्तानाम नहङ्कारास्पदत्वं दृष्टं तच्छरीरादिगतानामपि युक्तं व्यव१० स्थापयितुम् । तथा च वार्त्तिककृतोक्तम् - " न हास्य द्रष्टुर्यदेतद् मम गौरं रूपं सोऽहमिति भवति प्रत्ययः, केवलं मतुब्लोपं कृत्वैवं निर्दिशति" [ न्यायवा० पृ० ३४१ पं० २३ ] अयमर्थः शरीरेऽहङ्कार औपचारिको न तात्त्विकः यथाऽन्यस्मिंस्तत्कार्यकारिण्यत्यन्त निकटेseङ्कारो गौणः 'योऽयं सोऽहम् इति, एवं शरीरेऽपि । यतो निमित्ताद् अयमेतस्मिंस्तूभयसंप्रतिपनेऽनात्मरूपे इदंताप्रत्ययविषयेऽहङ्कारस्तत एव शरीरेऽपि । आत्मविषयस्तत्रहङ्कारो नौपचारिकः, १५ इदंप्रत्ययासभिन्नाहंप्रत्ययप्रतिभासित्वात् प्रमाता शरीरादिव्यतिरिक्तः । ८० एतदेव कथम् ? 'ममेदं शरीरम् इति प्रत्ययोपादानात् 'ममायमात्मा' इति प्रत्ययाभावाच्च । ननु 'ममायमात्मा' इति किं न भवति प्रत्ययः ? न भवतीति ब्रूमः । कथं तह्येवमुच्यते ? केवलं शब्द उच्चार्यते न तु प्रत्ययस्य संभवः । अत्रापि ममप्रत्ययप्रतिभासस्यादर्शनात् शब्दोच्चारणमात्रं केन वार्यते । किमिदानीं सुखादियोगः शरीरस्येप्यते ? नैवम्, सुखादियोगाभावात् मिध्याप्रत्ययोऽयं 'सुख्यहम्' इति २० न त्वेतदालम्बनः । अतो व्यवस्थितम् - ज्ञातृप्रतिभासादर्शनात् प्रतिभासे वा शरीरस्य ज्ञातृत्वेनावभासनान्न देहादिव्यतिरिक्तस्याहंप्रत्ययविषयताः शरीरस्य च ज्ञातृत्वेनावभासमानस्यापि प्रमाणसिद्धबुद्धियोगनिषेधान्मिथ्याप्रत्ययालम्बन्ताः न तु तस्याचैतन्येऽन्यः कश्चिद् ज्ञाता प्रत्यक्षप्रमाणविषयः सिध्यतीत्यादि} तदप्यसङ्गतम् यतो भवतु जैमिनीयानां "सत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म प्रत्यक्षम् " [ जैमि० अ० १-१-४] इतिलक्षणलक्षितेन्द्रियप्रत्यक्षवादिनाम् 'अहम्' इत्यवभासप्रत्य२५ यस्यानिन्द्रियजत्वेनात्राऽप्रत्यक्षत्वदोषो नास्माकं जिनमतानुसारिणाम्, न ह्यस्माकमिन्द्रियजमेव प्रत्यक्षं किंतु यद् यत्र विशदं ज्ञानमिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं तत् तत्र प्रत्यक्ष मित्यभ्युपगमात्, "तद् इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्” [ तत्त्वार्थ० अ० १ सू० १४ ] इति वाचक मुख्यवचनात् । तेन यथा प्रत्यक्षविषयत्वेन घटादेः प्रत्यक्षता तथाऽऽत्मनोऽपि स्वसंवेदनाध्यक्षतायां को विरोधः ? अत एव यदुच्यते 'घटादेर्भि नज्ञानग्राह्यत्वेन प्रत्यक्षता व्यवस्थाप्यते; आत्मनस्त्वपरोक्षत्वेन प्रतिभासनात् प्रत्यक्षत्वम् । तच्च केवलस्य ३० घटादिप्रतीत्यन्तर्गतस्य वाऽपरसाधनं प्राक् प्रतिपादितमित्यत्र अपरसाधनमिति कोऽर्थः किं चिद्रूपस्य सत्ता, आहोस्वित् स्वप्रतीतौ व्यापारः ? इति पक्षद्वयमुत्थाप्य प्रथमपक्षे चिद्रूपस्य सत्तैवात्मप्रकाशनं यद्युच्यते तदा दृष्टान्तो वक्तव्यः' इति, तन्निरस्तम्: अध्यक्षप्रतीतेऽर्थे दृष्टान्तान्वेषणस्यायुक्तत्वात् । अथ विवादगोचरेऽध्यक्षप्रतीतेऽपि दृष्टान्तान्वेषणं लोके सुप्रसिद्धमिति सोऽत्रापि वक्तव्यस्तदाऽस्त्येव प्रदीपादिलक्षणो दृष्टान्तोऽपि ज्ञानस्य प्रकाशं प्रति सजातीयापरानपेक्षणे साध्ये | ३५ तथाहि - यथा प्रदीपाद्यालोको न स्वप्रतिपत्तावालोकान्तरमपेक्षते तथा ज्ञानमपि स्वप्रतिपत्तौ न समानजातीय ज्ञानापेक्षम् । एतावन्मात्रेणाऽऽ लोकस्य दृष्टान्तत्वं न पुनस्तस्यापि ज्ञानत्वमासाद्यते । ये 'इन्द्रियग्राह्यत्वाच्चक्षुष्मतामिवान्धानामपि तत्प्रतीतिप्रसङ्गः' इति प्रेर्यते । न हि दृष्टान्ते साध्य-धर्म-धर्माः सर्वेऽपि आसञ्जयितुं युक्ताः अन्यथा घटेऽपि शब्दधर्माः शब्दत्वादयः प्रसज्येरनिति तस्यापि श्रोत्रग्राह्यत्वप्रसङ्गः । न च साधर्म्यदृष्टान्तमन्तरेण प्रमाणप्रतीतस्याप्यर्थस्याप्रसिद्धिरिति ४० शक्यं वक्तुम्, अन्यथा जीवच्छरीरस्यापि सात्मकत्वे साध्ये तोद्वन्तन्म (तद्वत् तत्प्र) सिद्धदृष्टान्तस्याभावात् प्राणादिमत्त्वादेस्तत्सिद्धिर्न स्यात् । अथ साधर्म्यदृष्टान्ताभावेऽपि दृष्टवैधर्म्यदृष्टान्तस्य घटादेः सद्भावात् केवलव्यतिरेकिबलात् तत्र १- गेन मूकत्वं वा०, बा० । २-स्य विषयः वा०, बा० । ३ सुखादि-भां० । ४-स्तु रूपसंप्रति-भां०मां० ब० । ५ प्रत्यक्षः भां०, मां० । ६ अथापि वा०, बा० । ७- द्धाद् मां० । जैन- कां० । ९ पृ० ७९ पं० ६ ॥ १० पृ० ७९ पं० १५ । ११ - साध्यतोद्वन्तत्प्र-गु० । साध्यनोच्चतन्त्र - गु० ब० । साध्ये बोधंतत्प्र - चं० । १२ - व्यतिरेकिवत् तत्र वा०, बा० । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः । तत्सिद्धिस्तर्हि यत्र स्वप्रकाशकत्वं नास्ति तत्रार्थप्रकाशकत्वमपि नास्ति, यथा घटादाविति व्यतिरेकदृष्टान्तसद्भावादर्थप्रकाशकत्वलक्षणाद्धेतोः स्वप्रकाशकत्वं विज्ञानस्य किमिति न सिद्धिमासादयति ? यत्तूक्तम् ' कस्यचिदर्थस्य काचित् सामग्री, तेन प्रकाशः प्रकाशान्तरनिरपेक्ष एव स्वग्राहिणि ज्ञाने प्रतिभाति' तद् युक्तमेव, यथा हि स्वसामग्रीत उपजायमानाः प्रदीपालोकादयो न समानजातीयमालोकान्तरं स्वग्राहिणि ज्ञाने प्रतिभासमाना अपेक्षन्ते तथा स्वसामप्रीत ९ उपजायमानं विज्ञानं स्वार्थप्रकाशस्वभावं स्वप्रतिपत्तौ न ज्ञानान्तरमपेक्षते; प्रतिनियतत्वात् स्वकारणायत्तजन्मनां भावशक्तीनाम् । यत्तु प्रदीपालोकादिकं सजातीयालोकान्तरनिरपेक्षमपि स्वप्रतिपत्तौ ज्ञानमपेक्षते तत् तस्याज्ञानरूपत्वात् ज्ञानस्य च तद्विपर्ययस्वभावत्वाद् युक्तियुक्तमिति 'नैकत्र दृष्टः स्वभावोऽन्यत्रासञ्जयितुं युक्तः' इति पूर्वपक्षवचो निःसारतया व्यवस्थितम् । अथालोकस्य तदन्तरनिरपेक्षा प्रतिपत्तिरुपलब्धेति न तद्दृष्टान्तबलाद् ज्ञानस्यापि ज्ञानान्तर- १० निरपेक्षा प्रतिपत्तिः, अदृष्टत्वात् स्वात्मनि क्रियाविरोधाच्च; नन्वेवमुपलभ्यमानेऽपि वस्तुनि यद्यदृष्टत्वम् विरोधश्चोच्येत तदा स्वात्मवद् घटादेरपि बाह्यस्य न ग्राहकं ज्ञानम्, अदृष्टत्वात् जडस्य प्रकाशायोगाश्चेत्यपि वदतः सौगतस्य न वक्रवक्रता समुपजायते । तथाह्य सावप्येवं वक्तुं समर्थः- जडं वस्तु न स्वतः प्रकाशते, विज्ञानवत्, जडत्वहानिप्रसङ्गात् । नापि परतः प्रकाशमानम्, नील-सुखादिव्यतिरिक्तस्य विज्ञानस्यासंवेदनेनासत्त्वात् । ८१ अथ 'नीलस्य प्रकाशः' इति प्रकाशमाननीला दिव्यतिरिक्तस्तत्प्रकाशः, अन्यथा भेदेनास्यां प्रतिपत्तौ संवेदनस्य तत्प्रतिभासो न स्यात्; ननु न नील- तद्वेदनयोः पृथगवभासः प्रत्यक्ष संभवी, प्रकाशविविक्तस्य नीलादेरननुभवात् तद्विवेकेन च बोधस्याप्रतिभासनात् । न चाध्यक्षतो विवेकेनाप्रतीयमानयोर्नील- तत्संविदोर्भेदो युक्तः, विवेकादर्शनस्य भेदविपर्ययाश्रयत्वात् नीलतत्स्वरूपवत् । अथापि कल्पना नील- तत्संविदोर्भेदमुल्लिखति- 'नीलस्यानुभवः' इति; नन्वभेदेऽपि २० मेदोलेखो दृष्टो यथा- 'शिलापुत्रकस्य वपुः' 'नीलस्य वा स्वरूपम्' इति । अथ तत्र प्रत्यक्षारू दोदो बाधक इति न भेदोल्लेखः सत्यः स तर्हि नील-संविदोरपि प्रत्यक्षारूढोऽमेदोऽस्तीति न भेदकल्पना सत्या । तदेवं नीलादिकं सुखादिकं च स्वप्रकाशवपुः प्रतिभातीति स्थितम्, तद्व्यतिरिक्तस्य प्रकाशस्याप्रतिभासनेनाभावात् । १५ भवतु वा व्यतिरिक्तो बोधस्तथापि न तड्राह्या नीलादयो युक्ताः । तथाहि - तुल्यकालो वा २५ बोधस्तेषां प्रकाशकः, भिन्नकालो वा ? तुल्यकालोऽपि परोक्षः, स्वसंविदितो घा ? न तावत् परोक्षः, यतः "अप्रत्यक्षोपलम्भस्य नार्थदृष्टिः प्रसिध्यति” [ ] इत्यादिना स्वसंविदितत्वं ज्ञानस्य प्रसाधयन्त एतत्पक्षं निराकरिष्यामः । नापि ज्ञानान्तरवेद्यः, अनवस्थादिदूषणस्यात्र पक्षे प्रदर्शयिष्यमाणत्वात् । स्वसंवेदनपक्षे तु यथाऽन्तर्निलीनो वोधः स्वसंविदितः प्रतिभाति तथा तत्काले स्वप्रकाशवपुषो नीलादयो बहिर्देश संबन्धितया प्रतिभान्ति इति समानकालयोनल- तत्संवेदनयोः ३० स्वतन्त्रयोः प्रतिभासनात् सव्येतरगोविषाणयोरिव न वेद्यवेदकभावः । समानकालस्यापि बोधस्य नीलं प्रति ग्राहकत्वे नीलस्यापि तं प्रति ग्राहकताप्रसङ्गः । १ पृ० ७९ पं० १७ । २- त्वाद् युक्तमि - भा० । मां विना सर्वत्र । ५- कं वस्तु प्रकाश - हा०, पृ० । स० त० ११ समानकालप्रतिभासाऽविशेषेऽपि बुद्धिनलादीनां ग्रहणमुपरचयतीति ग्राहिका, नीलादयस्तु ग्राह्याः, नैतदपि युक्तम्; यतो नील-बोधव्यतिरिक्ता न ग्रहणक्रिया प्रतिभाति । तथाहि - बोधः सुखास्पदीभूतो हृदि, बहिः स्फुटमुद्भासमानतनुश्च नीलादिराभाति नत्वपरा ग्रहणक्रिया प्रतिभास- ३५ विषयः । तदनवभासे च न तथा व्याप्यमानतया नीलादेः कर्मता युक्ता । भवतु वा नील- बोधव्य तिरिक्ता क्रिया तथापि किं तस्या अपि स्वतः प्रतीतिः, यद्वाऽन्यतः ? तत्र यदि स्वतो ग्रहणक्रिया प्रतिभाति तथा सति बोधः नीलम् ग्रहणक्रिया चेति त्रयं स्वरूप निमग्नमेककालं प्रतिभातीति न कर्तृकर्म - क्रियाव्यवहृतिः । अथान्यतो ग्रहणक्रिया प्रतिभासि; ननु तत्राप्यपरा ग्रहणक्रिया उपेया- अन्यथा तस्या ग्राह्यताऽसिद्धेः पुनस्तत्राप्यपरा कर्मतानिबन्धनं क्रिया उपेयेत्यनवस्था; तन्न ग्रहणक्रियाऽप - ४० राऽस्ति तत्स्वरूपाऽनवभासनात्। ततश्चान्तःसंवेदनम् बहिनलादिकं च स्वप्रकाशमेवेति । ३ पृ० ७९ पं० १७ । ४- नाऽस्या प्रतिपत्तौ ६- पि संप्रति वा०, बा०, मां० विना सर्वत्र । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे स्वसंवित्तिमात्रवादः साधीयान् यदि तन्तिर्निलीनो वोधो नीलादेन बोधकः किन्तु स्वप्रकाश एवासों; तथा सति 'नीलमहं वेद्मि' इति कर्म-कर्तृभावाभिनिवेशी प्रत्ययो न भवेत, विषयस्य कर्मकर्तृभावस्याभावात् । ननु विषयमन्तरेणापि प्रत्ययो दृष्ट एव, यथा शुक्तिकायां रजतावगमः । अथ बाधकोदयात् पुनर्भ्रान्तिरसौ, नीलादौ तु कर्मतादेर्न बाधाऽस्तीति सत्यता । नन्वत्रापि बोध-नीलादेः ५स्वरूपासंसक्तस्य द्वयस्य स्वातन्योपलम्भोऽस्ति वाधकः कर्म-कर्तृभावोल्लेखस्य।अथ किमस्या भ्रान्तेर्नि: बन्धनम? नहि भान्तिरपि निर्वीजा भवतिः नन पूर्वेभ्रान्तिरेवोत्तरकर्म-कर्तृभावावगतेनिबन्धनमः पूर्वभ्रान्तिकर्मतादेरपि अपरा पूर्वभ्रान्तिरित्यनादिन्तिपरम्पग, कर्मतादिर्न तत्त्वम् ।। अथवा 'नीलम्' इति प्रतीतिस्तावन्मात्राध्यवसायिनी पृथक्, 'अहम्' इत्यपि मतिरन्तरुल्लेखमु. द्वहन्ती मिन्ना, 'वेद्मि' इत्यपि प्रतीतिरपरैवः ततश्च परस्परासंसक्तप्रतीतित्रितयं क्रमवत् प्रति१० भाति न कर्म-कर्तृभावः, तुल्यकालयोस्तस्यायोगात् भिन्नकालयोरप्यनवभासनान कर्मतादिगतिः कथञ्चित् संभविनी । अथापि दर्शनात् प्राक् सन्नपि नीलामा न भाति तदुदये च भातीति कर्मता तस्य, नैतदपि साधीयः, यतः प्राग् भावोऽर्थस्य न सिद्धः। दर्शनेन स्वकालावधेरर्थस्य ग्रहणाद् दर्शनकाले हि नीलमाभाति न तु ततःप्राक्, नत् कथं पूर्वभावोऽर्थस्य सिध्येत् तस्य दर्शनस्य पूर्वकाले विरहात् ? १५न च तत्काले दर्शनं प्रागर्थसन्निधि व्यनक्ति, सर्वदा तत्प्रतिभासप्रसङ्गात् । अथाऽन्येन दर्शनेन प्रागर्थः प्रतीयते, ननु तदर्शनादपि प्राक् सद्भावोऽर्थस्यान्येनावसेय इत्यनवस्था । तस्मात् सर्वस्य नीलादेर्दर्शनकाले प्रतिभासनान्न तत्पूर्व सत्ता सिध्यति ।। अथापि 'पूर्वदृष्टं पश्यामि इति व्यवसायात् प्रागर्थः सिध्यति, प्रागर्थसत्तां विना दृश्यमानस्य पूर्वदृऐन एकत्वगतेरयोगात्। केन पुनरेकत्वं तयोर्गम्यते-किमिदानीन्तनदर्शनेन, २० पूर्वदर्शनेन वा? न तावत् पूर्वदर्शनेन, तत्र तत्कालावधेरेवार्थस्य प्रतिभासनात् । नहि तेन स्वप्रतिभासिनोऽर्थस्य वर्तमानकालदर्शनव्याप्तिरवसीयते, तत्काले साम्प्रतिकदर्शनादेरभ चासत् प्रतिभाति, दर्शनस्य वितथत्वप्रसङ्गात् । नापीदानीन्तनदर्शनेन पूर्वदर्शनादिव्याप्तिर्नीलादेरवसीयते, तद्दर्शनकाले पूर्वकालस्यास्तमयात् । न चास्तमितपूर्वदर्शनादिसंस्पर्शमवतरति प्रत्यक्षम्, वितथत्वप्रसङ्गादेव । तस्माद् 'अपास्ततत्पूर्वगादियोगं सर्व वस्तु दृशा गृह्यते, पूर्वदृष्टतां तु स्मृति२५ रुल्लिखति' तंदपास्तम्, दृष्टनोलेखाभावात् । न च स एवायम्' इति प्रतीतिरेका, 'सः' इति स्मृतिरूपम् , 'अयम्' इति तु दृशः स्वरूपम् : तत्परोक्षाऽपरोक्षाकारत्वान्नैकस्वभावौ प्रत्ययौ, तत् कुतस्तत्त्वसिद्धिः? ___ अथानुमानात् प्राग्भावोऽर्थस्य सिध्यति प्राक् सत्तां विना पश्चाद्दर्शनायोगादिति, तदप्यसत्; यतः पश्चाहर्शनस्य प्राक्सत्तायाः संबन्धो न सिद्धः, प्राकूसत्तायाः कथञ्चिदप्यसिद्धः। न चासिद्धया ३० सत्तया व्याप्तं पश्चाद्दर्शनं सिध्यति येन ततस्तत्सिद्धिः । अथ यदि प्रागर्थमन्तरेण दर्शनमुदयमा सादयति तथा सति नियामकाभावात् सर्वत्र सर्वदा सर्वाकारं तद् भवेत्, नायमपि दोषः, नियतवासनाप्रबोधेन संवेदननियमात् । तथाहि-स्वप्नावस्थायां वासनाबलादर्शनस्य देशकालाऽऽकारनियमो दृष्ट इति जाग्रहशायामपि तत एवासौ युक्तः। अर्थस्य तु न सत्ता सिद्धा नापि तद्भेदात् संवित्तिनियम इति तन्न ततः संविद्वैचित्र्यम् , तस्मान्न कथश्चिदपि नीलादेः प्राक् ३५सत्तासिद्धिः। अथ पूर्वसत्ताविरहे किं प्रमाणम् ? नन्वनुपलब्धिरेव प्रमाणम्-यदि नीलं पूर्वकालसंबन्धिस्वरूपं स्यात् तेनैव रूपेणोपलभ्येन, न च तथा; दर्शनकालभुवः सर्वदा प्रतिभासनात् । यश्च येनैव रूपेण प्रतिभाति तत् तेनैव रूपेणास्ति, यथा नीलं नीलरूपतयाऽवभासमानं तथैव सत् न पीतादिरूपतया, सर्व चोपलभ्यमानं रूपं वर्तमानकालतयैव प्रतिभाति न पूर्वादितया, तन्न पूर्व ४०सत्ताऽर्थस्य । ___१-स्तपूर्व-बा०, वा०, भा०, मां०। २ तदपास्ते, मां०, चं०, हा०, भां० । तदप्य (तदप्यपास्तम् ) दृष्टतो-वा०, बा०। ३-सयायां (रात्तायां) पा०, वा०। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः । अथ नीलं तद्दर्शन विरतावपि परदृशि प्रतिभातीति साधारणतया ग्राह्यम् । विज्ञानं त्वसाधारणतया प्रकाशकम्, नैतदपि युक्तम् यतो नीलस्य न साधारणतया सिद्धः प्रतिभासः, प्रत्यक्षेण स्वप्रतिभासिताया एवावगतेः । नहि नीलं परदृशि प्रतिभातीत्यत्र प्रमाणमस्ति, परदशोऽनधिगमे नीलादेस्तद्वेद्यताऽनधिगतेः । ८३ अनुमानेन नीलादीनां साधारणता प्रतीयते - यथैव हि स्वसन्ताने नीलदर्शनात् तदा - ५ दानार्था प्रवृत्तिस्तथाऽपरसन्तानेऽपि प्रवृत्तिदर्शनात् तद्विषयं दर्शनमनुमीयते नैतदप्यस्ति; अनुमानेन स्व-परदर्शनभृतो नीलादेरेकताऽसिद्धेः तद्धि सदृशव्यवहारदर्शनादुपजायमानं स्वहसतां परदृष्टस्य प्रतिपादयेत्, यथाऽपरधूमदर्शनात् पूर्वसदृशं दहनमधिगन्तुमीशो न तु तमेव पूर्वदृष्टम्, सामान्येनान्वयं परिच्छेदात् । तन्नानुमानतोऽपि ग्राह्याकारस्यैकता । ननु भेदोऽप्यस्य न सिद्ध एव । प्रतिभासभेदे सति कथमसिद्धः परप्रतिभासपरिहारेण स्वप्र - १० तिभासान् स्वप्रतिभासपरिहारेण च परप्रतिभासान् विवेकस्वभावान् व्यतिरेचयति अन्यथा तस्यायोगात् ? ततः स्व-परदृष्टस्य नीलादेः प्रतिभासभेदाद् व्यवहारे तुल्येऽपि भेद एव; इतरथा रोमाञ्चनिकरसदृश कार्यदर्शनात् सुखादेरपि स्व- परसन्तानभुवस्तत्त्वं भवेत् । अथापि सन्तानभेदात् सुखादेर्भेदः; ननु सन्तान भेदोऽपि किमन्यभेदात् ? तथा चेदनवस्था । अथ तस्य स्वरूपभेदादू भेदः सुखादेरपि तर्हि स एवास्तु, अन्यथा भेदासिद्धेः । न ह्यन्यभेदादन्यद् १५ मिन्नम्, अतिप्रसङ्गात् । नीलादेरपि स्व- परप्रतिभासिनः प्रतिभासभेदोऽस्तीति नैकता । अथ देशैकत्वादेकत्वम्, ननु देशस्यापि स्व-परदृष्टस्यानन्तरोक्तन्यायाद् नैकता युक्ता । तस्माद् ग्राहकाकारवत् प्रतिपुरुषमुद्भासमानं नीलादिकमपि भिन्नमेव । तंच्चैककालोपलम्भादू ग्राहकवत् स्वप्रकाशम् । अथ ग्राहकाकारश्चिद्रूपत्वाद् वेदको नीलाकारस्तु जडत्वाद् ग्राह्यः, अत्रोच्यते - किमिदं २० बोधस्य चिद्रूपत्वम् ? यद्यपरोक्षं स्वरूपं नीलादेरपि तर्हि तदस्तीति न जड़ता । अथ नीलादेरपरोक्षस्वरूपमन्यस्माद्भवतीति ग्राह्यम्, ननु बोधस्यापि स्वस्वरूपमिन्द्रियादेर्भवतीति ग्राह्यं स्यात् । अथ यद् इन्द्रियादिकार्य न तद् वेद्यम्, नीलादिकमपि तर्हि नयनादिकार्यमस्तु न तु ग्राह्यम् । अथापि वोघो बोधस्वरूपतया नित्यो नीलादिकस्तु प्रकाश्यरूपतयाऽनित्य इति ग्राह्यः, तदप्यसत्; स्तम्भादेर्नयनादिवलादुदेति रूपमपरोक्षत्वम्, तद् अनित्यः स्तम्भादिर्भवतु, ग्राह्यस्तु २५ कथम् ? न हि यद् यस्मादुत्पद्यते तत् तस्य वेद्यम्, अतिप्रसङ्गात् । तस्मादपरोक्ष स्वरूपाः स्तम्भादयः स्वप्रकाशाः बोधस्तु नित्योऽनित्यो वा तत्काले केवलमुद्भाति न तु वेदकः, द्वयोरपि परस्परं ग्राह्यग्राहकतापत्तेः । अथ नीलोन्मुखत्वाद् बोधो ग्राहकः, किमिदं तदुन्मुखत्वं नाम बोधस्य ? यदि नीलकाले सत्ता सा नीलस्यापि तत्काले समस्तीति नीलमपि बोधस्य वेदकं स्यात् । अथान्यदुन्मुखत्वम् तत् तर्हि ३० स्वरूप निमग्नं चकासत् तृतीयं स्वरूपं भवेत् । तथाहि--तस्य तदुन्मुखत्वं तयापारः, स च व्यापारो यदि नीले व्याप्रियते तदा तत्राप्यपरो व्यापार इत्यनवस्था । अथ न व्याप्रियते न तद्बलाद् बोधस्य ग्राहकत्वं नीलादेस्तु ग्राह्यत्वम् । अथ व्यापारस्यापरव्यापारव्यतिरेकेणापि नीलं प्रति व्यापृतिरूपता, तस्य तद्रूपत्वात् ननु नीलस्यापि स्वं स्वरूपं विद्यत इति बोधं प्रति ग्रहणव्यापृतिः स्यात् । किञ्च, बोधेन यदि नीलं प्रति ग्रहणक्रिया जन्यते सा नीलादू भिन्ना, अभिन्ना वा ? भिन्ना चेत्, ३५ न तया तस्य ग्राह्यत्वम्, भिन्नत्वादेव । अथाभिन्ना तर्हि नीलादेर्ज्ञानरूपता, ज्ञानजन्यत्वादुत्तरज्ञानक्षणवत् । अथ ज्ञानस्यैवंभूता शक्तिर्येन तस्य नीलं प्रति ग्राहकता नीलादेस्तु तं प्रति प्राह्यता । ननु बोधस्य ग्राहकत्वे नीलादेस्तु ग्राह्यत्वे सिद्धे शक्तिपरिकल्पना युक्ता, शक्तेः कार्यानुमेयत्वात् तदसिद्धौ १-मानस्वदृष्ट- हा० । २-सात् कां०, गु० चं अ० । ३-सात् कां०, गु० चं अ० । ४ - वात् वा०, ब० । ५ - सभेदाद् भेदो-भां०, मां० । ६- कत्वात् तदेक-भां०, मां० । ७ तथैक-गु० । ८-दं चिद्रूपत्वं बोधस्य य-भां०, मां० । ९ अन्यदुन्मु-भां०, मां० १० तृतीयस्वरू- कां०, गु० । ११ - पि स्वरू- भां०, मां० । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेतु तत्परिकल्पनमयुक्तम, इतरेतगश्रयप्रसङ्गात् । तथाहि-योधस्य शक्तिविशेषसिद्धनीलं प्रति पेशिः. तत्सिद्धेश्च तळक्तिसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वमा तनयोधस्य नीलं प्रति ग्राहकत्वसिद्धिः; तस्माद् व्यतिरिक्तऽपि बोधेऽभ्युपगते सहोपलम्भनियमात् स्वसंवेदनमेव युक्तम् । परमार्थतस्तु सुग्वादयो नीलादयश्चापगेक्षा इत्यतावदेव भाति, निराकारस्तु योधः स्वप्नेऽपि ५नोपलभ्यत इति न तम्य सद्भाव इति कथं तम्यार्थग्राहकत्वम् ? अत एव ते प्रमाणयन्ति-बह खल यत प्रतिभाति तदेव सद्यवहतिपथमवतगति, यथा हृदि प्रकाशमानवपुः सुखम्, न तत्काले पीडाऽनुद्भासमाना समस्ति, विक्षतिरेव च नीलादिरूपतया सकलतनुभृतामाभातीति स्वभावहेतुः। तदेषमर्थप्राहकत्वस्याप्यसि हेः जडम्य प्रकाशविरुद्धत्वाश्च नार्थग्राहकत्वमपि योद्धदृष्ट्या युक्तम् } । ___ अथ बहिर्देशसंघद्धम्य जडम्यापि नीलादेग्नुभवान्न नीलादिप्रकाशस्य तग्राहकत्वमसिद्धम्, १० नाप्यनुभूयमाने स्तम्भादिके जडे प्रकाशविषयत्वविरोधोद्भावनं युक्तिसंगतम्। प्रत्यक्षसिद्धस्वभावे' वस्तुनि तद्विरुवम्वभावावेदकस्यानुमानम्य प्रत्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तकालात्ययापदिष्ट. स्वदोषदुष्टहेतुप्रभवत्वेनानुमानाभासत्वात् । न च प्रत्यक्षसिद्ध स्वभावे विरोधः सिध्यति; अन्यथा ज्ञानस्यापि ज्ञानत्वविरोधप्राप्तिः । नन्वेवं नीलादिसंवेदनस्यापि हृदि स्वसंवेदनविषयतयाऽनुभवान स्वसंविदितत्वमसिद्धम् , नापि स्वात्मनि क्रियाविरोधोद्भावनं युक्तियुक्तम् : अनुभूयमाने विरोधा१५सिद्धेः । अस्वसंवेदनशानसाधकत्वेनोपन्यम्यमानस्य च हेनोः प्रत्यक्ष निराकृतपक्षविषयत्वेन न साध्यसाधकत्वमित्यपि समानम् । किंच, स्वसंविदितज्ञानानभ्युपगमे 'प्रतीयतेऽयमी यहिर्देशसंबन्धितया' इस्यत्र प्रतीतेर्व्यवस्थापिकाया अप्रतीतत्वेनाऽव्यवस्थिती व्यवस्थाप्यस्यार्थस्य न व्यवस्थितिः स्यात् । नहि स्वयमव्यवस्थितं खरविषाणादि कस्यचिद व्यवस्थापकम्पलब्धम् । अथ प्रतीतेरसंविदितत्वेऽपि एकार्थ२० समवेतानन्तरप्रतीतिव्यवस्थापिनत्वेन नाव्यवस्थितत्वं तर्हि तदेकार्थसमवेतानन्तरप्रतीतेरपि अपरतधाभूतप्रतीत्यव्यवस्थापितत्वे नाऽर्थव्यवस्थापनप्रतीतिव्यवस्थापकत्वमिति पुनरपि तथाभू. ताऽपरा प्रतीतिः प्रतीतिव्यवस्थापिकाऽभ्युपगन्तब्येत्यनवस्था। अथ प्रतीतिव्यवस्थापिका प्रतीतिः स्वसंविदितत्वेन स्वयमेव व्यवस्थितेति नायं दोषस्नहर्थव्यवस्थापिकाऽपि प्रतीतिस्तथा किं नाभ्यु पगम्यते न्यायस्य समानत्वात् ? अथ प्रतीतिरप्रतीताऽपि प्रतीत्यन्तरव्यवस्थापिका तर्हि प्रथमप्र२५तीतिरप्यव्यवस्थिताऽप्यर्थव्यवस्थापिका भविष्यतीति "नागृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः" | इति वचः कथं न परिवेत? 'प्रतीतोऽर्थः' इति विशेष्यप्रतिपत्ती प्रतीति विशेषणानवगमेऽपि विशेष्यप्रतिपत्त्यभ्युपगमात् । ___ अपि च, यदि तदेकार्यसमवेतनानान्तरग्राह्यं ज्ञानमर्थग्राहकमभ्युपगम्यते तदा पूर्वपूर्वक्षानोपलम्भनस्वभावानामुत्तरोत्तरज्ञानानामनवरतमुत्पत्तर्विषयान्तरसंचारो ज्ञानानां न स्यात, विषया. ३०न्तरसंनिधानेऽपि पूर्वज्ञानलक्षणस्य तदेकार्थसमवेतस्यान्तरङ्गत्वेनातिसंनिहिततरस्य विषयस्य सद्भावात् । यस्त्वाह-विषयोपलम्भनिमित्तमात्रप्रतिपत्ती प्रतीतिविशेषणस्यार्थस्य सिद्धत्वाद् नानवस्था' तदेतदेव न संगच्छते, स्वसंवेदनज्ञानानभ्युपगमात् : एतश्च प्रतिपादितम् । अपि च, प्रमाणसंप्लववादिना नैयायिकेन प्रत्यक्ष-शाब्दज्ञानयोरेकविषयत्वमभ्युपगतम्, तथा चाध्यक्षशानवत् शाब्देऽपि तस्यैवान्यूनानतिरिक्तस्य विषयस्याधिगमे न प्रतिपत्तिमेद ३५इति अध्यक्षवच्छाब्दमपि स्पष्टप्रतिभासं स्यात् । अथैकविषयत्वे सत्यपि इन्द्रियसंबन्धाभावाच्छब्दविषये प्रतिपत्तिभेदः, नन्वरपि विषयस्वरूपमुद्भासनीयम्, तच्च यदि शाब्देनापि प्रदर्श्यते तथा सति इन्द्रियसंबन्धाभावेऽपि किमिति न स्पष्टावभासः शाब्दस्य? नहि विषयभेदमन्तरेण झानावभासमेदो युक्तः, अन्यथा ज्ञानावभासभेदाद् विषयभेदव्यवस्था न स्यात् । नहि बहिरपि तदवभासमेदसंवेदनव्यतिरेकेणान्यदू भेदव्यवस्थानिबन्धनमुत्पश्यामः। अन्यच्च प्रत्यक्षेऽपि साक्षा. ४०दिन्द्रियसंबन्धोऽस्तीति न स्वरूपेण ज्ञातुं शक्यः-तस्यातीन्द्रियत्वात्-किन्तु स्वरूपप्रतिभासात् कार्यात्। तचाविकलं यदि शाब्देऽपि वस्तुस्वरूपं प्रतिभाति तदा तत एवेन्द्रियसंबन्धस्तत्रापि १-थे च सति त-मां०, भा०, वा०, बा• विना। २-षयोऽप्रति-कां०, गु०। ३-दि शब्दे-मा०, भो०, वा०, बा०। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः। ८५ किं नाभ्युपगम्यते ? अथ तत्र स्पष्टप्रतिभासाभावान्नासावनुमीयते; ननु तदभावस्तदक्षसंगतिविरहात्, तदभावश्च स्फुटप्रतिभासाभावादिति सोऽयमितरेतराश्रयदोषः । तस्माद् विषयभेदनिबन्धन एव ज्ञानप्रतिभासभेदावसायोऽभ्युपगन्तव्यः; स चैकविषयत्वे शाब्दाऽध्यक्षशानयोर्न संगच्छते । अथ शाब्दे वस्तुरूपावभासेऽपि न सकलतद्गतविशेषावभास इत्यस्पष्टप्रतिभासं तत् ; नन्वेवं प्रत्यक्षावभासिनो विशेषस्यार्थक्रियाक्षमस्य तत्राप्रतिभासनात् तदेव मिन्नविषयत्वं शाब्दाऽध्यक्षयोः ५ प्रसक्तम् । अथोभयत्रापि व्यक्तिस्वरूपमेकमेव नीलादित्वं प्रतिभाति विशदाऽविशदौ चाकारौ ज्ञानात्मभूतोः नन्वेवमक्षसंबद्ध विषये प्रतिभासमाने तत्कालः स्पष्टत्वावभासो ज्ञानावभास इति प्राप्तम्, विशिष्टसामग्रीजन्यस्य ज्ञानस्य विशदत्वात्, तदवभासव्यतिरेकेण तु अक्षसंबद्धनीलप्र. तिभासकालेऽन्यस्य भवदभ्युपगमेन वैशद्यप्रतिभासनिमित्तस्यासंभवात् । ___अथ च भवतु विशदज्ञानप्रतिभासनिमित्त एव तत्र वैशद्यप्रतिभासव्यवहारस्तथापि न स्वसंवि-१० दिततज्ज्ञानसिद्धिः, तदेकार्थसमवेतज्ञानान्तरवेद्यत्वेऽपि तद्यवहारस्य संभवात् ; एककालावभासव्यवहारस्तु लघुवृत्तित्वान्मनसः क्रमानुपलक्षण निमित्तः उत्पलपत्रशतव्यतिमेदवत् । नन्वेवं सत्यङ्गलिपञ्चकस्यैकंज्ञानावभासोऽपि क्रमावभासे सत्यपि तत एव क्रमप्रतिभासानुपलक्षणकृत इति 'सदसद्धर्मः सर्वः कस्यचिदेकज्ञानप्रत्यक्षः, प्रमेयत्वात् , पञ्चाङ्गलिवत्' इति सर्वसाधकप्रयोगे दृष्टान्तस्य साध्यविकलताप्रसक्तिः । तथा, समस्तसदसद्धर्मग्राहकेण सर्वविज्ज्ञानेन ज्ञानात्मा १५ गृह्यते, उत नेति ? यदि न गृह्यते तदा तस्य प्रमेयत्वे सति तेनैव प्रमेयत्वलक्षणो हेतुर्यभिचारी, अप्रमेयत्वे तस्य भागासिद्धो हेतुः । अथ सर्वज्ञज्ञानेन सर्वपदार्थग्राहिणा आत्माऽपि गृह्यत इति नानैकान्तिका; नन्वेवं सति यथेश्वरज्ञानं ज्ञानत्वेऽप्यात्मानं स्वयं गृह्णाति न च तत्र स्वात्मनि क्रियाविरोधः तथाऽस्मदादिज्ञानमप्येवं भविष्यतीति न कश्चिद् विरोधः किञ्च, एवमभ्युपगमे 'ज्ञानं ज्ञानान्तरग्राह्यम्, प्रमेयत्वात् , घटवत्' इत्यत्र प्रयोगे ईश्वरज्ञानस्य २० प्रमेयत्वे सत्यपि ज्ञानान्तरग्राह्यत्वाभावात् तेनैवानैकान्तिकः 'प्रमेयत्वात्' इति हेतुः। तस्मात् ज्ञानस्य शानान्तरग्राह्यत्वेऽनेकदोषसंभवात् स्वसंविदितं ज्ञानमभ्युपगन्तव्यम् । ज्ञानस्वरूपश्चात्मा, अन्यथा भिन्नज्ञानसद्भावादाकाशस्येव तस्य शातृत्वं न स्यात् । न चाकाशव्यतिरेकेण ज्ञानमात्मन्येव समवेतमिति तस्यैव ज्ञातृत्वं नाकाशादेरिति वक्तुं युक्तम्, समवायस्य निषेत्स्यमानत्वात् । ज्ञानस्य च स्वसंविदितत्वे सिद्ध आत्मनोऽपि तदव्यतिरिक्तस्य तत सिद्धमिति २५ कथं न स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धत्वमात्मनः? तन्न प्रथमर्पक्षस्य दुष्टत्वम् ।। द्वितीयपक्षेऽपि यदुक्तम् 'नहि कश्चित् पदार्थः कर्तृरूपः करणरूपो वा स्वात्मनि कर्मणीव सव्यापारो दृष्टः' इति, तदप्यसङ्गतम्: मिन्नव्यापारव्यतिरेकेणापि आत्मनः कर्तुः प्रमाणस्य च ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वप्रतिपादनात् । एकस्यैव च लिङ्गादिकरणमपेक्ष्यावस्थामेदेन यथा प्रमातृत्वं प्रमेयत्वं च भवद्भिरविरुद्धत्वेनाभ्युपगम्यते तथैकदाऽप्येकस्यात्मनः अनेकधर्मसद्भावात् ३० प्रमातृत्व-प्रमाणत्व-प्रमेयत्वान्यविरुद्धानि किं नाभ्युपगम्यन्ते तत्तद्धर्मयोगात् तत्तत्स्वभावत्वस्य प्रमाणनिश्चितत्वेनाविरोधात् ? यञ्चोक्तम् 'प्रमाणाविषयत्वेऽप्यपरोक्षतेत्यस्य भाषितस्य कोऽर्थः' इत्यादि, तदप्यसारम् ; ज्ञातृतया प्रमाणत्वेन च स्वरूपावभासनस्य प्रतिपादितत्वात् । न च घटादेः स्वरूपस्य भिन्नज्ञानग्राह्यत्वात् प्रमातुः प्रमाणस्य च स्वरूपं भिन्नज्ञानग्राह्यम्, तयोश्चिद्रूपत्वेन घटादेस्तु तद्विपर्ययेण स्वरूपस्य सिद्धत्वात् । न च प्रमाण-प्रमातृस्वरूपग्राहकस्य प्रत्यक्षस्य तल्लक्षणेनासंग्रहः, ३५ तत्संग्राहकस्य लक्षणस्य प्रदर्शितत्वात्। यदपि 'घटमहं चक्षुषा पश्यामि' इत्यनेनातिप्रसङ्गापादनं कृतम्, तदप्यसङ्गतम्। नहि चक्षुषो जडरूपस्यास्वसंविदितत्वे प्रमातृ-प्रमित्योरपि चिदूपयो. रस्वसंविदितत्वं युक्तम्; अन्यस्वभावत्वानुपपत्तेः। यत्तक्तम् 'इन्द्रियव्यापारे सति शरीराद् व्यवच्छि १शब्देर्वस्तु-वा०, बा. विना। २शब्दा-कां०, गु०। ३ अथ भवतु का०, भां०, मां० । ४-व शाना-गु०। ५-सद्वर्गः स-मां०, भां०, वा०, बा. विना। ६-सर्गग्रा-मां०, भां०, वा०, बा. विना । ७-नरूपश्चा-मां०, भा०, वा०, बा०। ८० ७९ पं० ११ गतस्य 'किं चिद्रूपस्य सत्ता' इति पक्षस्य । ९पृ. ७९ पं० १८। १० पृ. ८४ पं० १७-प्र० पृ. पं० २६। ११ पृ. ७९ पं० २१। १२ पृ. ७९ पं० २१। १३ पृ० ८० पं० २६ । १४ पृ० ७९ पं० ३४ । १५पृ० ७९ पं० ३९ । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेनस्य विषयस्यैव केवलस्यावभासनम्' इति, तदत्यन्तमसङ्गतम् ; विषयस्येव तदवभाससंवेदनस्यापि व्यवस्थापितत्वात् तदभावे विषयावभास एव न स्यादित्यस्य च । अतः प्रमात्रवभास उपपन्न एव । न च 'कृशोऽहं स्थूलोऽहम् इति शरीरसामानाधिकरण्येनास्य प्रत्ययस्योपपत्तस्तदालम्बनता, चक्षुरादिकरणव्यापाराभावे शरीरस्याग्रहणेऽपि 'अहम्' इतिप्रत्ययस्य सुखादिसमानाधिकरणत्वेन ५परिस्फुटप्रतिभासविषयत्वेनोन्पत्तिदर्शनाद् न शरीरालम्बनत्वमस्य व्यवस्थापयितुं युक्तम् । न च 'कृशोऽहम्' इति प्रत्ययस्य भ्रान्तत्वे 'शानवानहम्' इति ज्ञानसामानाधिकरण्येनोपजायमानस्यापि प्रत्ययस्य भ्रान्तत्वं युक्तमः अन्यथा 'अग्निर्माणवकः' इति माणवकेऽग्निप्रत्ययस्योपचरितविषयस्य भ्रान्तत्वेऽग्नावपि तत्प्रत्ययस्योपचरितन्वेन भ्रान्तत्वं स्यात् । अथ तत्र पाटव-पिङ्गलस्वादिलक्ष णस्योपचारनिमित्तस्य सद्भावाद् भवति तत्रोपचरितः प्रत्ययः न चात्रोपचारनिवन्धनं किश्चिदस्ति, १० तदप्यसङ्गतम् ; संसार्यात्मनःशरीराद्युपकृतत्वेन तदनुबद्धस्योपभोगाश्रयत्वेनोपभोगकर्तृत्वस्यात्राप्य पचारनिमित्तस्य सद्भावात् । दृष्टश्च शरीरादिव्यतिरिनेऽप्यत्यन्तोपकारके स्वभृत्यादावुपचरितस्त. निमित्तः 'योऽयं भृत्यः सोऽहम् इति प्रत्ययः। न च सुखादिसामानाधिकरण्येनोपजायमानस्यैवाहंप्रत्ययस्योपचरितविपयतेति वक्तुं शक्यम्, अग्नावग्निप्रत्ययवबाधितत्वेनास्खलद्रूपत्वेन चास्याऽत्र मुख्यत्वात् : गौरत्वादेस्तु पुद्गलधर्मत्वेन १५बाह्येन्द्रियग्राह्यतया अन्तमुखाकारानिन्द्रियाहंप्रत्ययविषयत्वासंभवात् । न च गौरत्वादिरूपाश्रय. भूतस्य प्रतिक्षणविशरारुत्वेनाभ्युपगमविषयस्य शरीरस्य 'य एवाहं प्राग् मित्रं दृष्टवान् स एवाहं वर्षपञ्चकादिव्यवधानेन स्पृशामि'इति स्थिरालम्बनत्वेनानुभूयमानप्रत्यय विषयत्वं युक्तम्: अन्यथा रूपविषयत्वेनानुभूयमानस्य तस्य रसाद्यालम्बनत्वं स्यात् । न च सुखादिविवर्त्तात्मकामालम्बनत्वे किञ्चिद् वाधकमुत्पश्यामः येन तद्विपयत्वेनास्य भ्रान्तन्वं स्यात् । नापि तत्र तस्य स्खलदूपता येन २०वाहीके गोप्रत्ययस्येवोपचरितत्वकल्पना युक्तिमती स्यात् । तस्मादबाधितास्खलदरूपाऽहंप्रत्ययग्रा ह्यत्वादात्मनो नासिद्धिः। शेषस्तु पूर्वपक्षग्रन्यो निःसारतया न प्रतिसमाधानमहतीत्युपेक्षितः ॥ __न चात्र बौद्धमतानुसारिणेतद् वक्तुं युज्यने-अहंप्रत्ययस्य सविकल्पकत्वेनाप्रत्यक्षत्वेन न तद्राह्यन्वमात्मन इति, सविकल्पकस्यैव प्रत्यक्षस्य प्रमाणन्वेन व्यवस्थापयिष्यमाणत्वात् : प्रत्यक्षविषयत्वेऽपि विप्रतिपत्तिसंभवेऽनुमानस्यावतारः । न च 'सिद्धे आत्मन एकत्वे तत्प्रतिवद्धोऽनुसन्धानप्रत्ययः २५ सिध्यति, तत्सिद्धौ च ततस्तस्यैकत्वम् इतीतरेतगश्रयदोषावतारः: 'य एवाहं घटमद्राक्षं स एवेदानीं तं स्पृशामि' इति प्रत्ययात् प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षस्वरूपादात्मन एकत्वसिद्धः। न चात्रैतत् प्रेर्यम्-द्रष्टरूपमात्मनः स्प्रष्टरूपानुप्रवेशेन प्रतिभासते, आहोस्विदननुप्रवेशेन ? यद्यनुप्रवेशेन तदा द्ररूपस्य स्प्रट्टरूपेऽनुप्रवेशात् स्पष्टरूपतेवेति न द्रष्टरूपता तथा च 'अहं द्रष्टा स्पृशामि' इति कुत उभयावभासोल्लेख्येकं प्रत्यभिज्ञानं यतस्तदेकत्वसिद्धिः ? अथाननुप्रवेशेन तदा ३० दर्शन-स्पर्शनावभासयोर्भेदात् कुत एकं प्रत्यभिज्ञानम् ? नहि प्रतिभासभेदे सत्यप्येकत्वम् , अन्यथा घट-पटप्रतिभासयोरपि तत् स्यात् । अथ प्रतिभासस्यैवात्र भेदो न पुनस्तद्विपयस्यात्मनः, कुतः पनस्तस्याभेदः? न तावत् प्रतिभासाभेदात, तस्य भिन्नन्वेन व्यवस्थापितत्वात् । नापि स्वतः, स्वतोऽद्यापि विवादविषयत्वात् । अथ दर्शन-स्पर्शनावस्थाभेदेऽपि चिद्पस्य तदवस्थातुरभिन्नत्वान्नायं दोषः, तदप्यसङ्गतम् ; यतो दर्शनावस्थाप्रतिभासेन तत्संबद्धमेवावस्थातरूपं गृहीतं न स्पर्शनज्ञानसं३५बन्धि, तत्र तदवस्थाया अनुत्पन्नत्वेनाप्रतिभासनात् तदप्रतिभासने च तद्यापित्वेनावस्थातुरप्यप्रति भासनात् । नापि स्पर्शनप्रतिभासेन दर्शनावस्थाव्याप्तिरवस्थातुरवगम्यते, स्पर्शनशाने दर्शनस्य विनष्टत्वेनाप्रतिभासनात् : प्रतिभासने चाऽनाद्यवस्थापरम्पराप्रतिभासप्रसङ्गः।न च प्रागवस्थाऽप्रतिभासने तदवस्थाव्याप्तिरवस्थातुरवगन्तुं शक्या । यञ्च येन रूपेण प्रतिभाति तत् तेनैव सदित्यभ्युप गन्तव्यम् , यथा नीलं नीलरूपतया प्रतिभासमानं तेनैव रूपेणाभ्युपगम्यते । दर्शन-स्पर्शनशानाभ्यां ४०च स्वसंबन्धित्वमेवावस्थातुगृह्यते इति तदरूप एवासावभ्युपगन्तव्य इति कुतोऽवस्थातृसिद्धिः? यतो नीलप्रतिभासेऽप्येवं वक्तुं शक्यम्-किमेकनीलज्ञानपरमाण्ववभासोऽपरतन्नीलझानपरमा १-म् गौरोऽहम्' इ-मां०, भां० । २-क्षरूपा-मां०, भा०, बा०, वा०। ३-पतैव न मा०, भा०, बा०, वा०। ४-भासात् त-मां०, भां० । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः । ण्ववभासानुप्रवेशेन प्रतिभाति, उताननुप्रवेशेन ? यद्यनुप्रवेशेन तदैकतन्नीलज्ञानपरमाण्ववभासानामनुप्रवेशान्नीलज्ञानसंवेदनस्यैकपरमाणुरूपत्वम् । तस्य चाननुभवात् कुतो नीलज्ञानसंवेदनसिद्धिः? अथाननुप्रवेशेन तदा नीलज्ञानपरमाण्ववभासानामयःशलाकाकल्पानां प्रतिभासनात् कुतः स्थूलमेकनीलज्ञानसंवेदनं प्रतिनीलज्ञानपरमाण्ववभासं भिन्नत्वात् ? अथ स्वसंवेदनावभासभेदे सत्यपि न तत्प्रतिभासस्य नीलज्ञानस्य भेदः ननु कुतो नीलज्ञानस्याभेदः किं तत्स्वसंवेदनाभेदात् , स्वतो वा ? ५ यदि स्वसंवेदनाभेदात्, तदयुक्तम् । तद्भेदस्य व्यवस्थापितत्वात् । अथ स्वत एव तदभेदः, तदप्ययुकम्: तस्याद्याप्यासिद्धत्वात् । तथा, यदि दर्शनावस्थायां स्पर्शनावस्था न प्रतिभातीति तदवस्थाव्याप्तिदर्शनज्ञानेनावस्थातुर्न ग्रहीतुं शक्याः नन्वेवं तदप्रतिभासने तेन तव्याप्तिरपि कथं ग्रहीतुं शक्या? तदप्रतिभासने 'तत इदमवस्थातुरूपं व्यावृत्तम्' इत्येतदपि ग्रहीतुमशक्यमेव । न च तद्विविक्तप्रतिभासादेव तदव्या-१० प्तिर्गृहीतैवेति वक्तुं युक्तम् , तदप्रतिभासने तद्विविक्तस्यैवाग्रहणात् । न च तदव्याप्तिस्तस्य स्वरूपमेव' इति दर्शनशानेन तत्स्वरूपग्राहिणा तदभिन्नस्वरूपा तदव्याप्तिरपि गृहीतैवेति युक्तम् , तद्व्याप्तावप्यस्य सर्वस्य समानत्वात् । न चाबाधितैकप्रत्ययविषयस्यात्मन एकत्वमसिद्धम् । न चास्यैकत्वाध्यवसायस्य किश्चिद्वाधकमस्ति, तद्बाधकत्वेन संभाव्यमानस्य प्रमाणस्य यथास्थानं निषेत्स्यमानत्वात् ।। भवतु वाऽनुसन्धानप्रत्ययलक्षणाद्धेतोस्तदेकत्वसिद्धिस्तथापि नेतरेतराश्रयदोषः, यतो नैक-१५ त्वप्रतिबद्धमनुसन्धानमन्वयिदृष्टान्तद्वारेण निश्चीयते-येनायं दोषः स्यात्-अपि त्वनेकत्वेऽनुसन्धानस्यासंभवात् ततो व्यावृत्तमनुसन्धानं तदेकत्वेन व्याप्यत इत्येकसन्ताने स्मरणाद्यनुसन्धानदर्शनादनुमानतोऽपि तत्सिद्धिः । न च भेदे दर्शन-स्मरणादिज्ञानानामनुसन्धानं संभवति; अन्यथा देवदत्तानुभूतेऽर्थे यज्ञदत्तस्य स्मरणाद्यनुसन्धानं स्यात् ।। अथ देवदत्त-यज्ञदत्तयोरेकसन्तानाभावान्नानुसंधानम् , यत्र त्वेकः सन्तानस्तत्र पूर्वाऽप-२० रज्ञानयोरत्यन्तभेदेऽपि भवत्येवानुसन्धानम् : ननु सन्तानस्य यदि सन्तानिभ्यो भेदः एकत्वं च तदा शब्दान्तरेण स एवात्माऽभिहितो यत्प्रतिबद्धमनुसन्धानम् । अथ सन्तानिभ्योऽभिन्नः सन्तानस्तदा पूर्वोत्तरज्ञानक्षणानां सन्तानिशब्दवाच्यानां देवदत्त-यज्ञदत्तज्ञानवदत्यन्तभेदात् तदभिन्नस्य सन्तानस्यापि भेद इति कुतोऽनुसन्धाननिमित्तत्वम् ? अथैकसन्ततिपतितानां पूर्वोत्तरज्ञानसन्तानिनां कार्यकारणभावाद् भेदेऽप्येकसन्तानत्वम् तन्निवन्धनश्चानुसन्धानप्रत्ययो युक्तः, न पुनर्देव-२५ दत्त-यज्ञदत्तज्ञानयोः कार्यकारणभावः, अतस्तन्निबन्धनसन्तानाभावनिमित्तस्तत्रानुसन्धानाभावः ननु देवदत्तज्ञानं यशदत्तेन यदा व्यापार-व्याहारादिलिङ्गवलादनुमीयते तदा तद् यज्ञदत्तानुमानजनकं भवतीति कार्यकारणभावनिमित्तैकसन्ताननिवन्धनाऽनुसन्धानप्रसक्तिः स्यात् । ___अथ स्वसन्ततावुपादानोपादेयभावेन ज्ञानानां जन्यजनकभावः भिन्नसन्ततौ तु सहकारिभावेन तद्भाव इति नाऽयं दोषः; ननु किं पुनरिदमुपादानत्वं यदभावाद् भिन्नसन्तानेऽनुसन्धानाभावः ? यत् ३० स्वसन्ततिनिवृत्तौ कार्यं जनयति तदुपादानकारणम् , यथा मृत्पिण्डः स्वयं निवर्तमानो घटमुत्पादयतीति स घटोत्पत्तावुपादानकारणम् । अथवाऽपरम्-अनेकस्मादुत्पद्यमाने कार्य स्वगतविशेषाधायकं तत्, नत्वेवं निमित्तकारणम् । ननु प्रतिक्षणविशरारुग्वेकस्वभावपौर्वापर्यावस्थितज्ञानस्वभावेषु क्षणेषूपादानोपादेयभाव एव न व्यवस्थापयितुं शक्यः। तथाहि-उत्तरशानं जनयत् पूर्वज्ञानं किं नष्ट जनयति, उतानष्टम् , उभयरूपम्, अनुभयरूपं वा? न तावन्नष्टम् , चिरतरनष्टस्येवानन्तरनष्टस्याप्यवि-३५ द्यमानत्वेनोत्पादकत्वविरोधात् । नाप्यनष्टम् , क्षणभङ्गभङ्गप्रसङ्गात् । नाप्युभयरूपम्, एकस्वभावस्य विरुद्धोभयरूपासम्भवात् । नाप्यनुभयरूपम्, अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकनिषेधस्य तदपरविधाननान्तरीयकत्वेनानुभयरूपताया अयोगात् । अथ यदि व्यापारयोगात् कारणं कार्योत्पादकमभ्युपगम्येत तदा स्यादयं दोषः-यदुत नष्टस्य व्यापारासम्भवात् कथं कार्योत्पादकत्वम् , यदा तु प्राग्भावमात्रमेव कारणस्य कार्योत्पादकत्वं तदा४० कुत एतद्दोषावसरः? नन्वेतस्मिन्नभ्युपगमे प्राग्भाविनोऽनेकस्मादुपजायमाने कार्ये कुतोऽयं विभागः १ एकनीलज्ञानपरमाण्ववभासे अपरतन्नीलज्ञानपरमाण्ववभासानामित्यर्थः। २-सनेन तद-मां०, भां० विना । -सनेति तद्-वा०, बा०। ३-त्तस्मर-मां०, भां०। ४-कसंताने पति-गु०। ५-र्ये सकलस्वगत-वा. बा० विना सर्वत्र। ६ चिरंतर-कां०, गु० । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेइदमत्रोपादानकारणम् इदं च सहकारिकारणम् इति, द्वयोरपि कार्येणानुविहितान्वय-व्यतिरेकत्वात्? अथ सत्यप्यन्वय-व्यतिरेकानुविधाने एकस्योपादानत्वेन जनकत्वमपरस्यान्यथेतिः नन्वेतदेवोपादानभावेन जनकत्वं कस्यचिद रूपस्याननुगमे प्राग्भावित्वमात्रेण दुरवसेयम। अथाभिहितमेवोपादानकारणत्वस्य लक्षणं तदवगमात् कथं तद् दुरवसेयम् । सत्यम्, उक्तम् न तु कस्यचिद् रूपस्यान५नुगमे तत् संभवति । नाप्यवसातुं शक्यम्। तथाहि-यत् स्वगतविशेषाधायकत्वमुपादानत्वमुक्तं तत् किं स्वगतकतिपयविशेषाधायकत्वम्, आहोस्वित सकलविशेषाधायकत्वम् इति ? तत्र यदि प्रथमः पक्षः, सन युक्तः सर्वज्ञज्ञाने स्वाकारार्पः कस्यास्मदादिविज्ञानस्य तं प्रत्युपादानभावप्रसङ्गात् । तथा, रूपस्यापि रूपज्ञानं प्रत्युपादानभावप्र सक्तिः, तस्यापि स्वगतकतिपयविशेषाधायकत्वात् : अन्यथा निराकारस्य बोधस्य सर्वान् प्रत्यविशेषाद् १० 'रूपस्यैवायं ग्राहको न रसादेः' इति ततः प्रतिकर्मव्यवस्था न स्यात् । रूपोपादानत्वे च ज्ञानस्य परलोकाय दत्तो जलाञ्जलिः स्यात् । किञ्च, कतिपयविशेषाधायकत्वेनोपादानत्वे एकस्यैवं ज्ञानक्षणस्य तत्कार्यानुगत-व्यावृत्तानेकधर्मसम्बन्धित्वाभ्युपगमे विरुद्धधर्माध्यासोऽभ्युपगतो भवति; तथा च यथा युगपद्भाव्यनेकविरुद्धधर्माध्यासेऽप्येकं विज्ञानं तथा क्रमभाव्यनेकतद्धर्मयोगे किमित्येकं नाभ्युपगम्येत? १५ अथ सकलविशेषाधायकत्वेन, न तर्हि निर्विकल्पकात् सविकल्पकोत्पत्तिः। न च निर्विकल्पक योरप्युपादानोपादेयत्वेनाभ्युपगतयोस्तद्भावः स्यात्, तथा च कुतो रूपाकारात् समनन्तरप्रत्ययात् कदाचिद् रसाद्याकारस्याप्युपादेयत्वेनाभिमतस्योत्पत्तिः? अथ विज्ञानसन्तानबहुत्वाभ्युपगमाद् नाऽयं दोषः-तेन सर्वस्य स्वसदृशस्योत्पत्तिः-तहस्मिन् दर्शने एकस्मिन्नपि सन्ताने प्रमातृनानात्वप्रसङ्गः, तथा च गवाऽश्वदर्शनयोभिन्नसन्तानवर्तिनो२० रेकेन दृष्टेऽर्थेऽपरस्यानुसन्धानं न स्यात्, देवदत्त-यज्ञदत्तसन्तानगतयोरिवान्येनानुभूतेऽन्यस्य । दृश्यतेच “गामहं ज्ञातवान् पूर्वमश्वं जानाम्यहं पुनः" [ श्लो० वा० सू०५, आत्म० श्लो० १२२]। किञ्च, सकलस्वगतविशेषाधायकत्वे सर्वात्मनोपादेयज्ञानक्षणे तस्योपयोगाद् अनुपयुक्तस्यापरस्वभा वस्याभावाद् योगिविज्ञानम् रूपादिकं चैकसामग्र्यन्तर्गतं प्रति न सहकारित्वं तस्येति सहकारि२५ कारणाभावे नोपादेयक्षणव्यतिरिक्तकार्यान्तरोत्पादः। अथ येषां कारणमेव कार्यतया परिणमति तेषां भवत्वयं दोषो नत्वस्माकं प्राग्भावमात्रं कारणत्वमभ्युपगच्छताम् । नन्वत्रापि मते येन स्वरूपेण विज्ञानमुपादेयं विज्ञानान्तरं जनयति किं तेनैव रूपमेकसामग्र्यन्तर्गतम् , उत स्वभावान्तरेण? तत्र यदि तेनैव तदा रूपमपि ज्ञानमुपादेयभूतं स्यात् , तत्स्वभावजन्यत्वात् तदुत्तरज्ञानक्षणवत् । अथ स्वभावान्तरेण तदोपादानाभिमतं ज्ञानं ३० द्विस्वभावमासज्यते । यथा चोपादान-सहकारिस्वभावरूपद्वययोगस्तथा त्रैलोक्यान्तर्गतान्यजन्यकार्यान्तरापेक्षया तस्याजनकत्वमपि स्वभावःः ततश्चैकत्वं ज्ञानक्षणस्य यथोपादान-सहकार्यऽजनकत्वानेकविरुद्धधर्माध्यासितस्याभ्युपगम्यते तथा हर्ष-विषादाद्यनेकविवर्त्तात्मनस्तत्सन्तानस्याप्यभ्युपगन्तव्यम्। अथोपादान-सहकार्यऽजनकत्वादयो धर्मास्तत्र कल्पनाशिल्पिकल्पिताःः एकत्वं तु तस्य स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धमिति न तैस्तदपनीयत इति मतिस्तात्मनोऽप्येकत्वं सन्तानशब्दाभिधेयतया प्रसिद्धस्य ३५ स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धस्य क्रमवद्धर्प-विषादादिकार्यदर्शनाऽमीयमानतदपेक्षजनकत्वाऽजनकत्वधर्मापनेयं न स्यात् । तन्न स्वगतसकलधर्माधायकत्वमुपादानत्वं भवदभ्युपगमेन सङ्गतम् । नापि सन्ताननिवृत्त्या कार्योत्पादकत्वस्वभावम् , तथाऽभ्युपगमे शानसन्ताननिवृत्तेः परलोकाभावप्रसङ्गः। ____ अथ समनन्तरप्रत्ययत्वमुपादानन्वमुच्यते । तथाहि-समस्तुल्यः, अनन्तरोऽव्यवहितः, १-स्थानुगमे कां०, भां०। २ पृ. ८७ पं० ३१ । पृ० ८ ७ पं० ३२। ४ सर्वज्ञाने स्या-मां०, भां०। ५-वच ज्ञा-मां०, भां०।-वृत्त्याने-मां०, भां। तर्हि निर्विकल्पकोत्पत्तिः । वा०, वा० । ८-ल्पक-सविकल्पकयो-चा.. वा. विना। ९-शानरूपा-मां०, भां०। १० नास्माकं भां०,गु०, वा०, बा०, मां०। ११-जन्मन्वा-मां०, भां० । १२ हर्षादिविव-वा०, बा०। १३-नुमीयमानं तदपेक्ष-वा०, बा. विना सर्वत्र ।-नुनीयमानं तदपेक्ष-कां । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः। प्रत्ययोः जनकः। न चैतद् भिन्नसन्तानादिति न तत्रानुसन्धानसंभवः । नन्वत्रापि समत्वं कार्येण यधुपादानत्वं प्रत्ययस्य तदा वक्तव्यम्-किं सर्वथा समत्वम् , उतैकदेशेन ? यदि सर्वथा तदसत, कार्य-कारणयोः सर्वथा तुल्यत्वे यथा कारणस्य प्रागभावित्वं तथा कार्यस्यापि स्यात् तथा च कार्य-कारणयोरेककालत्वादन कार्यकारणभावः, नोककालयोः कार्यकारणभावः सव्येतरगोविषाणवत । तथा, कारणाभिमतस्यापि स्वकारणकालता, तस्यापि स्वकारणकालतेति सकलसन्तानशू-५ न्यमिदानीं समस्तं जगत् स्यात् । अथ कथञ्चित् समानता, तथा सति योगिज्ञानस्याप्यस्मदादिज्ञानालम्बनस्य तदाकारत्वेनैकसन्तानत्वं स्यात्' इत्यादि दूषणं पूर्वोक्तमेवं । अथानन्तरत्वमुपादानत्वम् , ननु क्षणिकैकान्तपक्षे सर्वजगत्क्षणानन्तरं विवक्षितक्षणे जगद् जायत इति सर्वेषामुपादानत्वमित्येकसन्तानत्वं जगतः । देशानन्तर्य तत्रानुपयोगि, देशव्यवहितस्यापीहजन्ममरणचित्तस्य भाविजन्मचित्तोपादानत्वाभ्युपगमात् । प्रत्ययत्वं तु नोपादानत्वम् , सहकारित्वेऽपि प्रत्ययत्वस्य भावात् । तन्न समन-१० न्तरप्रत्ययत्वमप्युपादानत्वम् । 'न च प्रतिक्षणविशरारुषु भावेषु कथश्चिद् एकान्वयमन्तरेण जनकत्वमपि संगच्छते किमुतोपादानादिविभागः' इति क्षणभङ्गभङ्गप्रतिपादनावसरेऽभिधास्यामः। अत्र केचित् तुल्येऽपि जनकत्वे स्व-परसन्तानगतयोर्विज्ञानयोरुपादानत्वे कारणमाहुः-"स्वसन्ततौ चेतितं ज्ञानं ज्ञानान्तरजनकम्, न त्वेवं परसन्ततौ; अतो जनकत्वव्यतिरिक्तस्योपादानकारणत्वे निमित्तस्य संभवादित्थंभूताद्धेतुफलभावाद व्यवस्था" । अस्यापि व्यवस्थानिमित्तत्वमयुक्तम्, नहि १५ झानमंसंवेदितं व्यवस्थां लभते । संवेदनं हि ज्ञानानां स्वत एवेष्यते, तच्च स्वसन्ततिपतिते इव परसन्ततिपतितेऽपि तुल्यम् । ज्ञानान्तरवेद्यत्वं तु न शाक्यैरभ्युपगम्यते ज्ञानस्य नियमत इति नायमप्यतिप्रसङ्गपरिहारः । न च स्वसन्ततावपि स्वसंविदितज्ञानपूर्वकता ज्ञानस्य सिद्धा, मूर्छाद्यवस्थोत्तरकालभाविज्ञानस्य तथात्वानवगमात्; यतो विज्ञानपूर्वकत्वेऽपि तत्र विप्रतिपन्ना वादिनः कुतः पुनः संविदितज्ञानपूर्वकत्वम् ? तत्रैतत् स्यात्-विज्ञानपूर्वकत्वस्यानुमानेन निश्चयात् कथं विप्रतिपत्तिः?२० तश्च दर्शितम् 'तजातीयात् तजातीयोत्पत्तिः' इति, एतदसत्; अतज्जातीयादपि भावानामुत्पत्तिदर्शनात्, यथा धूमादेः। येऽप्यत्राहुः- "सदृश-तादृशभेदेन भावानां विजातीयोत्पत्त्यसंभवादेतददूषणम्" तेषामपि सदृश-तादृशविवेको नार्वाग्दृक्प्रमातृगोचरः, कार्यनिरूपणायामपि तयोविवेको दुर्लभस्तस्मादयमपरिहारः । यैः पुनरुच्यते-“सर्वस्य समानजातीयादुपादानांदुत्पत्तिः, आद्यस्यापि धूमक्षणस्योपादा-२५ नत्वेन व्यवस्थापिताः काष्ठान्तर्गता अणवः” तत्रापि सजातीयत्वं न विद्मः । रूपादीनां हि रूपादिपूर्वकत्वेन वा सजातीयत्वम्, धूमत्वोपलक्षितावयवपूर्वकत्वेन वा? प्राच्ये विकल्पे नेदानीं विजातीयादुत्पत्तिोरप्यश्वादुपजायमानस्य । उत्तरविकल्पेऽपि काष्टान्तर्गतानामवयवानां धूमत्वं लौकिकम् , पारिभाषिकं वा? परिभाषायास्तावदयमविषयः । लोकेऽपि तदाकारव्यवस्थितानामवयवानां नैव धूमत्वव्यवहारः। तार्किकेणापि लोकप्रसिद्धव्यवहारानुसरणं युक्तं कर्तुम् । तस्मान्न सजातीयादुत्पत्तिः ।३० यच्चात्रोच्यते-'तस्यामवस्थायां विज्ञानाभावे तदवस्थातः प्रच्युतस्योत्तरकालमीदृशी संवित्तिर्न भवेत् 'न मया किञ्चिदपि चेतितम्' 'स्मृतिहींयमनुभवपूर्विका, अतो येनानुभवेन सता न किश्चिञ्चेत्यते तस्यामवस्थायां तस्यावश्यं सद्भावोऽभ्युपगन्तव्यः' एतत् सुव्याहृतम्, 'न किञ्चिच्चेतितं मया' इति ब्रुवता वस्त्वंवेदनं वोच्येत, स्वरूपावेदनं वा? वस्त्ववेदने सकलप्रतिषेधो न युक्तः । स्वरूपावेदनं तु स्वसंवेदनाभ्युपगमे दूरोन्सारितम् । तस्मादिदानीमेव मनोव्यापारात् तवस्थाभावी ३५ सर्वानवगमः संवेद्यते। अस्तु वा तस्यामवस्थायां विज्ञानं तथापि जनकत्वातिरिक्तव्यापारविशेषाभावः, समनन्तरप्रत्ययत्वे जनकत्वातिरिक्तेऽभ्युपगम्यमाने तयोस्तात्त्विकभेदप्रसङ्गः, तथा च 'यदेवैकस्यां ज्ञानसन्ततो समनन्तरप्रत्ययत्वं तदेव परसन्ततीववलम्बनत्वेन जनकत्वम्' इत्येतन्न स्यात् । अथ जनकत्वसमनन्तरत्वादयो धर्माः काल्पनिकाः, अकल्पितं तु यत् स्वरूपं तत् तात्त्विकम् , तच्च बोधरूपम् ४० किमिदानीं सांवृताद् रूपाद् भावानामुत्पत्तिः? नेत्युच्यते, कथं वो काल्पनिकत्वंम् ? अथ जनकत्वा १ पृ. ८८ पं०७। २-मसंचेति-वा०, बा०। ३-पत्तावादितः कां०, गु०। ४ पृ. ७४ पं० ३८पृ० ७८ पं० १॥ ५-नात् तदु-वा०, बा० विना। ६-स्त्वसंवेदनं चोच्ये-भा०, मां ०। ७-यत्वेन जनकत्वातिरिक्ताभ्यु-वा०, बा०। ८-तावालम्बनजनकत्वम्' इत्येतत् स्यात् । वा०, बा०। ९-चाकाल्प-भां। १०-त्वमजनकत्वाति-भां० । स० त० १२ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेतिरिक्तस्य समनन्तरप्रत्ययत्वस्यैवमुच्यते कथं तन्निबन्धना व्यवस्था ? तथाहि-एकस्यां सन्ततौ परसन्ततिगतेन विज्ञानेन तुल्येऽपि जनकत्वे समनन्तरप्रत्ययत्वेन जननविशेषमङ्गीकृत्यैकसन्तानव्यवस्था क्रियते, यदा तु व्यवस्थानिबन्धनस्यापि सांवृतत्वं ततस्तत्कृताया व्यवस्थायाः परमार्थसत्त्वं दुर्भणमिति । अयमपि सौगतानां दोषो न जैनानाम्, यतो 'ज्ञानपूर्वकत्वं ज्ञानस्य, स्वसंवेदनं च ५शानस्य स्वरूपम्' इत्येतत् प्राक् प्रतिसाधितम् । यच्चोक्तम् 'अतजातीयादपि भावानामुत्पत्तिदर्शनाद् , यथा धूमादेः' इत्यपि न संगतम्, यतो नास्माभिरतजातीयोत्पत्ति भ्युपगम्यते-विलक्षणादपि पावकात् धूमोत्पत्तिदर्शनात्-किन्तु कारणगतधर्मानुविधानं कार्यत्वाभ्युपगमनिवन्धनम्। तच्च ज्ञानस्य प्रदर्शितं प्राक् । न च काय-विज्ञानयोरिवानल-धूमयोः सर्वथा वैलक्षण्यम्, पुद्गलविकारत्वेन द्वयोरपि सादृश्यात् । सर्वथा सादृश्ये च १० कार्यकारणभावाभावप्रसङ्गः एकत्वप्राप्तेः । यत्तु 'सदृशतादृशविवेकः कार्यनिरूपणायामपि दुर्लभः' तत्र यः कार्यदर्शनादपि विवेकं नावधारयितुं क्षमस्तस्यानुमानव्यवहारेऽनधिकार एव । तदुक्तम्___ "सुविवेचितं कार्य कारणं न व्यभिचरति, अतस्तदवधारणे यत्नो विधेयः” [ ] अत एव 'रूपादीनां हि रूपादिपूर्वकत्वेन वा' इत्यादि अनभिमतोपालम्भमात्रम्, कथञ्चित् सादृश्यस्य कार्य-कारणयोर्दर्शितत्वात् तस्य च प्रकृते प्रमाणसिद्धत्वात् । १५ यच्च 'सुप्त-मूर्च्छिताद्यवस्थासु विज्ञानाभावेन तत्पूर्वकत्वमुत्तरज्ञानस्य न संभवति' इत्यभ्यधायि, तदसत्; तदवस्थायां विज्ञानाभावग्राहकप्रमाणासंभवात् । तथाहि-न तावत् सुप्त एव तदवस्थायां विज्ञानाभावं वेत्ति, तदा विज्ञानानभ्युपगमात्; तदवगमे च तस्यैव ज्ञानत्वाद् न तदवस्थायां तदभावः । नापि पार्श्वस्थितोऽन्यस्तदभावं वेत्ति, कारण-व्यापक-स्वभावानुपलब्धीनां विरुद्धविधेर्वाऽत्र विषयेऽव्यापारात् अन्यस्य तदभावावभासकवायोगात् । न चाभाववत् तद्भावस्यापि तस्या२० मवस्थायामप्रतिपत्तिः, स्वात्मनि" स्वसंविदितविज्ञानाविनाभूतत्वेन निश्चितस्य प्राणाऽपानशरीरोष्णसाकारविशेषादेस्तदवस्थायामुपलभ्यमानलिङ्गस्य सद्भावेनानुमानप्रतीत्युत्पत्तेः । जाग्रदवस्थायामपि परसन्ततिपतितचेतोवृत्तेरस्मदादिभिर्यथोक्तलिङ्गदर्शनोद्भूतानुमानमन्तरेणाप्रतिपत्तेः । 'न किञ्चिच्चेतितं मया इति स्मरणादुत्तरकालभाविनस्तदवस्थायामनुभवानुमाने किं वस्त्वसंवेदनम् , स्वरूपासंवेदनं वा' इत्यादि यद् दूषणमभिहितम् , तदप्यसारम् जाग्रदवस्थाभाविस्वसंविदितगच्छत्तृणस्पर्शज्ञानाऽश्व२५ विकल्पसमयगोदर्शनादिषूत्तरकालभावि 'न मया किश्चिदुपलक्षितम्' इति स्मरणलिङ्गबलोद्भूतानुमानविषयेष्वप्यस्य समानत्वात् । न च स्वसंविदितविज्ञानवादिनोऽत्रापि समानो दोष इति वक्तुं युक्तम् , “यस्य यावती मात्रा" [ ] इति स्वसंविदितज्ञानस्याभ्युपगमात्। यश्च 'समनन्तरसहकारित्वाद्यनेकधर्मयुक्तत्वमेकक्षणे ज्ञानस्यासज्यते' इति प्रतिपादितम् तदभ्युपगम्यमानत्वेनादूषणम् । अतः पौर्वापर्यव्यवस्थितहर्ष-विषादाद्यनेकपर्यायव्याप्येकात्मव्यतिरेकेण ३० ज्ञानयोः स्वसन्तानेऽप्यनुसन्धाननिमित्तोपादानोपादेयभावासंभवाद् न परसन्तानवदनुसंधानप्रत्ययः स्यात्, दृश्यतेच; अतोऽनेकत्वव्यावृत्तादनुसन्धानप्रत्ययादपि लिङ्गादात्मसिद्धिः। अथापि स्याद् गमकत्वं हि हेतोः स्वसाध्याविनाभावग्रहणपूर्वकम्, तद्ब्रहणं च धर्म्यन्तरे, न चात्रैककर्तृकत्वेन साध्यधर्मिव्यतिरिक्ते धर्म्यन्तरे प्रतिसन्धानस्य व्याप्तिः येन प्रतिसन्धानादेकः कर्ताऽनुमीयेत । अथ ब्रूषे क्षणिकतासाधकस्य सत्ताख्यस्य हेतोर्यथा धर्म्यन्तरे व्याप्त्यग्रहणेऽपि ३५ गमकता तद्वदस्यापि, एतदचारु; तस्य हि क्षणिकतायां प्राक् प्रत्यक्षेण निश्चयानिश्चयविषयेण च व्याप्तेर्दर्शनाद् विपक्षात् प्रच्यावितस्य बाधकप्रमाणेन साध्यधर्मिणि यदवस्थानं तदेव स्वसाध्येन व्याप्तिग्रहणम् । अत एवास्य हेतोः साध्यधर्मिण्येव व्याप्तिनिश्चयमिच्छन्ति। ननु व्याप्ति-साध्यनिश्चययोनियमेन पौर्वापर्यमभ्युपगन्तव्यम्, व्याप्तिनिश्चयस्य साध्यप्रतिपत्त्यङ्गत्वात्। अत्र तु साध्यधर्मिणि व्याप्तिनिश्चयाभ्युपगमे साध्यप्रतिपत्तिकालोऽन्योऽभ्युपगन्तव्यः, न चासावन्योऽनुभूयते; अस्त्येतत् १-यत्वे जननं वि-वा०, बा०। २ पृ. ८९ पं० २१ । ३ इत्यादि, तदपि न मां० ब० । ४ पृ. ७७ पं० २८। ५८९ पं० २४ । ६ पृ. ८९ पं० २६ । संभवीत्यभिधायि वि०, भा०, कां०, गु०। संभवतीत्यमिधा-मां०, भां०। ८ पृ० ८९५० १८। ९-वोऽपि । मां०। १० पार्श्वे स्थितो-गु० । ११-नि संवि-मां०। १२-रोत्तानाकार-कां०। १३ पृ० ८९ पं० ३४ । १४ पृ. ८८ पं० ३१ । १५-पत्तेःका-कां। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः। ९१ १० कार्यहेतोः, कस्यचित् स्वभावहेतोरपिः अस्य तु बाधकात् प्रमाणाद् विपक्षात् प्रच्युतस्य यदेव साध्यधर्मिणि स्वसाध्यव्याप्ततया ग्रहणं तदेव साध्यग्रहणम् । न चास्यैवं द्वैरूप्यम्, यतो विपक्षाद् व्यावृ. त्तिरेवान्वयमाक्षिपति । इयांस्तु विशेषः कस्यचिद् हेतोाप्तिविषयप्रदर्शनाय धर्मिविशेषः प्रदर्श्यते, अस्य तु 'यत् सत् तत् क्षणिकम्' इति धर्मिविशेषाप्रदर्शनेऽपि धर्मिमात्राक्षेपेण व्याप्तिप्रदर्शनम् । तच्च सत्वं क्वचिद् व्यवस्थितमुपलभ्यमानं क्षणिकताप्रतिपत्त्यङ्गम् , अतः पक्षधर्मताऽप्यत्रास्ति, न चात्रैवम् । ५ अत्राप्येनमेव न्याय केचिदाहः। कथम? तत्र हि व्यापकस्य मयोगपद्यस्य निवत्या विपक्षात तन्निवृत्तिः, अत्रापि प्रमातृनियतताया व्यापिकाया अभावाद विपक्षात् प्रतिसन्धानलक्षणस्य हेतो. निवृत्तिः। अथ तत्र बाधकप्रमाणस्य व्याप्तिः प्रत्यक्षेण निश्चीयते-कम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाकरणस्य प्रत्यक्षेण निश्चयात्-अत्र तु कथम्? अत्रापि प्रमातृनियमपूर्वकत्वेन स्वसन्तान एवं प्रतिसन्धानस्य व्याप्तिनिश्चयात् कथं न तुल्यता? ___अथ ब्रूयात् 'प्रमातृनियतता' इत्यस्य भाषितस्य कोऽर्थः ? यदि परं भङ्ग्यन्तरेणैककर्तृकत्वं साध्यं व्यपदिश्यते तस्य प्रत्यक्षेण निश्चयाभ्युपगमे कथं बाधकप्रमाणावसेयता व्याप्तेः ? नैतत्, प्रमातृनियतताग्रहणं नैककर्तृकत्वग्रहणम् ; सर्वे एव हि भावा देशादिनियततयाऽवसीयमाना व्यवहारगोचरतामुपयान्ति, प्रमातुरप्यवसाय एवमेव दृश्यते-'इदानीमत्राहम्' । एवं देशाद्यसंसर्गवत् प्रमात्रन्तरासंस. गर्गोऽपि निश्चीयते । तथाहि-देश-कालनिबन्धननियमवद् व्यतिरिक्तपदार्थासंसर्गस्वभावनियतप्रति-१५ भासोऽपि घटादेरिव, अत्रैकत्वानेकत्वनिश्चयाभावः। पूर्वपाक्षिकमते तस्य नानाकर्तृकेषु सन्तानान्तरेषु व्यापकस्याभावाद् विपक्षात् प्रच्युतस्य प्रतिसन्धानस्य क्वचिदुपलभ्यमानस्यैककर्तृकत्वेन व्याप्तिः । यथा क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाकरणदर्शने नैवं निश्चयः-'किं क्षणिकैः क्रम-योगपद्याभ्यां सा क्रियते, आहोस्विदन्यथा' इति, अथ च प्रत्यक्षेण बाधकस्य व्याप्त्यवसाये पश्चाद् व्यापकानुपलब्ध्या मूलहेतोाप्तिसिद्धिः एवमेककर्तृकत्वानवसायेऽपि प्रमातृनियततया प्रतिसन्धानस्य स्वसन्ततौ व्याप्ति-२० निश्चये सत्युत्तरकालं विपक्षे व्यापकस्य प्रमातृनियतत्वस्याभावादेककर्तृकत्वेन प्रतिसन्धानस्य व्याप्तिसिद्धिः। एवमनभ्युपगमे 'अहम् अन्यो वा' इति प्रमात्रनिश्चये प्रमेयानिश्चयाद् अन्धमूकं जगत् स्यात् । औपचारिकस्य प्रातृनियततया प्रतिभासविषयत्वेऽनात्मप्रत्यक्षत्वं दोषः। तत्रैतत् स्यात्-अस्त्ययं प्रमातृनियमनिश्चयः; स तु स्वसन्ततौ किमेककर्तृकत्वकृतः, उतस्विनिमित्तान्तरकृतो युक्तः ? तच्चैकस्यां सन्ततौ हेतु-फलभावलक्षणं प्राक् प्रदर्शितम् । सत्यम् , प्रदर्शितं २५ नतु साधितम् । तथाहि-तत्कृतः प्रमातृनियमो नान्यकृत इति नैतावत्प्रत्यक्षस्य विषयः; न च प्रमाणान्तरस्यापि । तद्धि अस्मिन् विषये उच्यमानम् अनुमानमुच्येत, तदपि प्रत्यक्षनिषेधान्निषिद्धम् । न च क्षणिकत्वव्यवस्थापने हेतु-फलभावकृतो नियम इत्यभ्युपगन्तुं युक्तम् , तस्योपरिष्टात् निषेत्स्यमानत्वात् । न चात एव दोषादू एककर्तृकत्वकृतोऽपि न नियम इति वक्तुं शक्यम् , स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धत्वस्य तत्पूर्वकानुमानसिद्धत्वस्य चात्मनि प्राग् व्यवस्थापितत्वात् । अभ्युपगमवादेन तु क्षणिकत्वव्यवस्थापक-३० सत्त्वहेतुतुल्यत्वमनुसन्धानप्रत्ययहेतोः प्रदार्शतम् ; न तु क्षणिकत्ववद् आत्मैकत्वस्य प्रत्यक्षासिद्धत्वम् येनानुमानात् तेत्प्रसिद्ध्यभ्युपगमे इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गः प्रेर्येत । अतोऽध्यक्षानुमानप्रमाणसिद्धत्वात् परलोकिनः “परलोकिनोऽभावात् परलोकाभावः” इति सूत्रं निःसारतया व्यवस्थितम् । __यदप्युच्यते 'शरीरान्तर्गतं संवेदनं कथं शरीरान्तरसंचारि; जीवतस्तावन्न शरीरान्तरसंचारो दृष्टः, परस्मिन् मरणसमये भविष्यतीति दुरन्वयमेतत् तदपि न युक्तम् । यतः कुमारशरीरान्तर्गताः पाण्डि-३५ त्यादिविकल्पा वृद्धावस्थाशरीरसंचारिणो दृश्यन्ते जीवत एव, चपलतादिशरीरावस्थाविशेषाः वागूविकाराश्च तत् कथं न जीवतः शरीरान्तरसंचारः? अथैकमेवेदं शरीरं बाल-कुमारादिभेदभिन्नम्, जन्मान्तरशरीरं तु मातापित्रन्तरशुक्र-शोणितप्रभवम्-शरीरान्तरप्रभवम् , एतदप्ययुक्तम् ; बाल-कुमारशरीरस्यापि मेदात् यथा च बाल-कुमारशरीरचपलताभेदस्तरुणादिशरीरसञ्चारी उपलभ्यते तथा १ क्रमस्य योगप-वा०, बा०, गु०, कां। २-मानव्यव-कां०, गु० । ३-कत्वे नि-वृ०, आ० । ४-श्चयभावः वा०, बा०। ५-मातृनि-मां०। ६-मातुर्नियत-मां० ब० ।-मातृर्नियत-वा०, बा०। ७-क्षत्वदोषः वा०, बा० विना। ८ पृ. ९१ ५६। ९ तत्प्रतिसि-वा०, बा० विना। १० पृ. ७१ पं० २९ । ११ पृ. ७१ पं० ३४ । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च प्रथमे काण्डेनिजजन्मान्तरशरीरप्रभवश्चपलतादिभेदः परभवभाविजन्मशरीरसंचारी भविष्यतीति ततो न माता. पिताक्र-शोणितान्वयि जन्मादिशरीरम अपि त स्वसन्तानशरीरान्वयमेव, वृद्धादिशरीरवतः अन्यथा मातापितृशरीरचपलतादिविलक्षणशरीरचेष्टावन्न स्यात् । अथेहजन्मबाल-कुमाराद्यवस्थाभेदेऽपि प्रत्यभिज्ञानाद् एकत्वं सिद्धं शरीरस्य तदवस्थाव्यापकस्य तेन न तदृष्टान्तबलादत्यन्तभिन्ने जन्मान्तर५शरीरादौ ज्ञानसंचारो यक्तः, तदसतः पूर्वोत्तरजन्मशरीरज्ञानसंचारकारिणः कार्मणशरीरस्यात एव कथञ्चिदेकत्वसिद्धेः। तथाहि-ज्ञानं तावदिहजन्मादावन्यनिजजन्मज्ञानप्रभवं प्रसाधितम् , तस्य चेहजन्मबाल-कुमाराद्यवस्थाभेदेषु तदेवेदं शरीरम्' इत्यबोधितप्रत्यभिज्ञाप्रत्ययावगतैकरूपान्वयिषु संचारदर्शनात् पूर्वोत्तरजन्मावस्थास्वपि तथाभूतानुगामिरूपसमन्वितासु तस्य संचारोऽनुमीयते । न दादीन्द्रियसंवेद्यरूपाद्याश्रयस्यौदारिकशरीरस्य जन्मान्तरशरीराद्यवस्थाऽनुगमः संभवति, तस्य १० तदैव च दाहादिना ध्वंसोपलब्धेः । अतो जन्मद्वयावस्थाव्यापकस्योष्मादिधर्मानुगतस्य कार्मणशरीरस्य विज्ञानसंचारकारिणः सद्भावः सिद्धः । पूर्वोत्तरजन्मावस्थाव्यापकस्यावस्थातुस्तदवस्थाभ्यः कथञ्चिदभेदाद् मातापितृशरीरविलक्षणनिजशरीरावस्थाचपलताद्यनुविधाने उत्तरावस्थायाः कथं नावस्थातृधर्मानुविधानम् ? "तस्माद् यस्यैव संस्कारं नियमेनानुवर्त्तते । शरीरं पूर्वदेहस्य तत् तदन्वयि युक्तिमत्” ॥ [ ] 'अथ पूर्वापरयोः प्रत्यक्षस्याप्रवृत्तेर्न कार्यकारणभावः, अनुमानसिद्धावितरेतराश्रयदोषः' इति, तदपि प्रतिविहितम् , एवं हि सर्वशून्यत्वमायातमिति कस्य दूषणं साधनं वा केन प्रमाणेन ? इहलोकस्याप्यभावप्रसक्तेरिति प्रतिपादितत्वात् । अथ कार्यविशेषस्य विशिष्टकारणपूर्वकत्वसिद्धौ यथोक्तप्रकारेण भवतु पूर्वजन्मसिद्धिः, भावि२० परलोकसिद्धिस्तु कथम् भाविनि प्रमाणाभावात् ? तत्रापि कार्यविशेषादेवेति ब्रूमः । तथाहि-कार्यविशेषो विशिष्टं सत्त्वमेव, तच्च न सत्तासंबन्धलक्षणम् ; तस्य निषेत्स्यमानत्वात् । नाप्यर्थक्रियाकारित्वलक्षणम् , सन्ततिव्यवच्छेदे तस्याभावप्रसङ्गात् । तथाहि-शब्द-बुद्धि-प्रदीपादिसन्तानानां यद्युच्छेदोऽभ्युपगम्यते तदा तत्सन्ततिचरमक्षणस्यापरक्षणाजननादसत्त्वम्, तदसत्त्वे च पूर्वपूर्वक्षणानामर्थक्रियाऽजननादसत्त्वमिति सकलसन्तत्यभावः। अथ सन्तत्यन्तक्षणः सजातीयक्षणान्तराजननेऽपि २५ सर्वज्ञसन्ताने स्वग्राहिज्ञानजनकत्वेन सन्निति नायं दोषः, तदसत् : स्वसन्ततिपतितोपादेयक्षणाजन कत्वे परसन्तानवर्तिस्वग्राहिज्ञानजनकत्वस्याप्यसंभवात् । न पादानकारणत्वाभावे सहकारिकारणत्वं क्वचिदप्युपलब्धम् । तत्सद्भावे वा एकसामग्र्यधीनस्य रूपादे रसतस्तत्समानकालभाविनोऽव्यभिचारिणी प्रतिपत्तिर्न स्यात्, रूपक्षणस्य स्वोपादेयक्षणान्तराजननेऽपि रससन्ततौसहकारिकारणत्वेन रस क्षणजनकत्वाभ्युपगमात् तत्सद्भावेऽपि तत्समानकालभाविनो रूपादेरभावात । तन्नोपादानकारणत्वा३० भावे सहकारित्वस्यापि संभव इति स्वसन्तत्युच्छेदाभ्युपगमेऽर्थक्रियालक्षणस्य सत्त्वस्यासम्भव इति उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यलक्षणमेव सत्त्वमभ्युपगन्तव्यमिति कार्यविशेषलक्षणाद्धेतोर्यथोक्तप्रकारेणातीतकालवदनागतकालसंबन्धित्वमप्यात्मनः सिद्धम् । यदप्युक्तम् 'यद्यागमसिद्धत्वमात्मनः, तस्य वा प्रतिनियतकर्मफलसंबन्धस्तत्सिद्धोऽभ्युपगम्यते तदाऽनुमानवैयर्थ्यम्' इति, तदपि मूर्खेश्वरचेष्टितम् ; नहि व्यर्थम् इति निजकारणसामग्रीबलायतिं ३५ वस्तु प्रतिक्षेप्तुं युक्तम् ; नहि आगमसिद्धाः पदार्थाः इति प्रत्यक्षस्यापि प्रतिक्षेपो युक्तः । यदपि प्रत्यक्षाऽनुमानाविषये चार्थे आगमप्रामाण्यवादिभिस्तस्य प्रामाण्यमभ्युपगम्यते-तदुक्तम् __"आम्नायस्य क्रियाऽर्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानाम्-" [ जैमि० १-२-१] इति, सदप्ययुक्तम् । यतो यथा प्रत्यक्षप्रतीतेऽप्यर्थे विप्रतिपत्तिविषयेऽनुमानमपि प्रवृत्तिमासादयतीति प्रतिपादित तथा प्रत्यक्षाऽनुमानप्रतिपन्नेऽप्यात्मलक्षणेऽर्थे तस्य वा प्रतिनियतकर्मफलसंबन्धलक्षणे १-लक्षणं शरीरं चे-गु०। २-बाधितैकप्र-मा० । ३ तस्यैव च दाहा-वा०, बा०। ४ अनुमानभावसिद्धावि-वा०, बा. विना। ५एवं हि सति सर्व-भां०, मां०। ६ पृ. ७४ पं० २६ । ७ पृ. ७१५०६७।८-यातवस्तु का०।९ पृ७५ पं०१३। १०-यते क-का। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३ ईश्वरस्वरूपवादः। किमित्यागमस्य प्रवृत्तिर्नाभ्युपगमस्य विषयः ? न चागमस्य तत्राप्रामाण्यमिति वक्तुं युक्तम् , सर्वशप्रणीतत्वेन तत्प्रामाण्यस्य व्यवस्थापितत्वात् । प्रतिनियतकर्मफलसंबन्धप्रतिपादकश्चागमः ___"बह्वारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्य” [ तत्त्वा० अ० ६, सू० १६ ] इत्यादिना वाचकमुख्येन सूत्रीकृतोऽस्यैवानुमानविषयत्वं प्रतिपादयितुकामेन । यथा च कर्मफलसंबन्धोऽप्यात्मनोऽनुमानादवसीयते तथा यथास्थानमिहैव प्रतिपादयिष्यामः । आत्मस्वरूपप्रति- ५ पादकः प्रतिनियतकर्मफलसंबन्धप्रतिपादकश्चागमः “एगे आया" [ स्थाना० प्रथमस्था० सू०१] "पुन्विं दुश्चिण्णाणं दुप्पडिकंताणं कडाणं कम्माणं" [ इत्यादिकः सुप्रसिद्ध एव । तदेवं प्रत्यक्षाऽनुमानाऽऽगमप्रमाणप्रसिद्धत्वाद् नारक-तिर्यग-नराऽमरपर्यायानुभूतिस्वभावस्यात्मनः, न 'भवशब्दव्युत्पत्तिः अर्थाभावात् डित्थादिशब्दव्युत्पत्तितुल्या' १० इति स्थितम् ॥ [ पूर्वपक्षः-जगतः ईश्वरकृतत्वस्थापनम् ] अत्राहुर्नैयायिकाः-क्लेश-कर्म-विपाकाऽऽशयाऽपरामृष्टपुरुषाभ्युपगमे "नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा" इति दूषणमभ्यधायि तत्र तन्नित्यसत्त्वप्रतिपादने नास्माकं काचित् क्षतिः, प्रमाणतो नित्यज्ञानादिधर्मकलापान्वितस्य तस्याभ्युपगमात् । ननु युक्तमेतद् यदि तथाभूतपुरुषसद्भावप्रतिपादकं किञ्चित् प्रमाणं स्यात्, तच्च नास्ति । तथाहि-न प्रत्यक्षं तथाविधपुरुषसद्भावावेदकमस्मदादीनाम् । अस्मद्विलक्षणयोगिभिस्तस्यावसाय इत्यत्रापि न किञ्चित् प्रमाणमस्ति । यदा न तत्स्वरूपग्रहणे प्रत्यक्षप्रमाणप्रवृत्तिस्तदा तद्गतधर्माणां नित्यज्ञानादीनां सद्भाववात्तैव न संभवति। _____नानुमानमपि युक्तम् एतत्स्वरूपावेदकम् , प्रत्यक्षनिषेधे तत्पूर्वकस्य तस्यापि निषेधात् । सामा-२० न्यतोदृष्टस्यापि नात्र विषये प्रवृत्तिः, लिङ्गस्य कस्यचित् तत्प्रतिपादकस्याभावात्। कार्यत्वस्य पृथिव्याद्याश्रितस्य केषाश्चिन्मतेनासिद्धेः। न च संस्थानवत्त्वस्य तत्साधकत्वम्, प्रासादादिसंस्थानेभ्यः पृथिव्यादिसंस्थानस्यात्यन्तवैलक्षण्यात् संस्थानशब्दवाच्यत्वेन चातिप्रसक्तिर्दर्शिता “वस्तुभेदप्रसिद्धस्य शब्दसाम्यादभेदिनः” [ ] इत्यादिना । तस्मान्नानुमानं तत्साधनायालम् । नाप्यागमः, नित्यस्यात्र दर्शनेऽनभ्युपगमात् ; अभ्युपगमे वा कार्यार्थप्रतिपादकस्य सिद्धे वस्तुन्यव्यापृतेः। नापीश्वरपूर्वकस्य प्रामाण्यम्, इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् । अनीश्वरपूर्वकस्यापि संभाव्यमानदोषत्वेन प्रमाणताऽनुपपत्तेः। तस्यान्येश्वरपूर्वकत्वे तस्यापि सिद्धिः कुत इति वक्तव्यम्, तदसिद्धौ न तस्य प्रामाण्यम्, अनेकेश्वरप्रसङ्गदोषश्च । भवतु, को दोषः यत एकस्यापि साधने वयमतीवोत्सुकाः किं पुनर्बहूनामिति चेत्, न कश्चित् प्रमाणाभावं मुक्त्वा । तन्नागमतोऽपि तत्प्रतिपत्तिः।३० एवं स्वरूपासिद्धौ कथं तस्य कारणता? ____ अत्राहुः-यदुक्तम् 'न तत्र प्रत्यक्षं प्रमाणम्' तदेवमेव । यदपि 'सर्वप्रकारस्यागमस्य न तत्स्वरूपावेदने व्यापृतिः' तत्रोच्यते-आगमाव्यापारेऽपि तत्स्वरूपसाधकमनुमानं विद्यते । आगमस्यापि सिद्धेऽर्थे लिङ्गदर्शनन्यायेन यथा व्यापृतिस्तथा प्रतिपादयिष्यामः। प्रत्यक्षपूर्वकानुमाननिषेधे सिद्धसाधनम्, सामान्यतोदृष्टानुमानस्य तत्र व्यापाराभ्युपगमात् । नन्वनुमानप्रमाणतायामयं विचारो ३५ युक्तारम्भः, तस्यैव तु प्रामाण्यं नानुमन्यन्ते चार्वाका इति, एतच्चानुद्धोग्यम्; अनुमानप्रामाण्यस्य व्यवस्थापितत्वात्। ___ यत्तूक्तम् 'पृथिव्यादिगतस्य कार्यत्वस्याप्रतिपत्तेन तस्मादीश्वरावगमः' तत्र पृथिव्यादीनां बौद्धैः कार्यत्वमभ्युपगतं ते कथमेवं वदेयुः ? येऽपि चार्वाकाद्याः पृथिव्यादीनां कार्यत्वं नेच्छन्ति तेषामपि १ पृ० ६९५०९। २ प्रतिग्रहत्वं नार-मां०। ३ "पुरा पोराणाणं दुचिण्णाणं दुप्पडिकंताणं कडाणं पावाणं कम्माणं" इत्यादि-ज्ञाताधर्मकथासूत्रे पृ. २०४ प्र०, पं० १-विपाकसूत्रे पृ० ३८ द्वि०, पं०१। ४ पृ. ६९ पं० २७ । ५-द्भावे वा-मां०, बा०, बा०। ६ प्र. पृ० पं० १७॥ ७ प्र० पृ० पं० २६ । ८ प्र. पृ० पं० २१ । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ प्रथम काण्डेविशिष्टसंस्थानयुक्तानां कथमकार्यता? सर्व संस्थानवत् , कार्यम् , तञ्च पुरुषपूर्वकं दृष्टम् । येऽप्याहुः"संस्थानशब्दवाच्यत्वं केवलं घटादिभिः समानं पृथिव्यादीनाम् न तत्त्वतोऽर्थः कश्चिद् द्वयोरनुगतः समानो विद्यते" । तेषामपि न केवलमत्रानुगतार्थाभावः किन्तु धूमादावपि पूर्वापरब्यक्तिगतो नैव कश्चिदनुगतोऽर्थः समानोऽस्ति। ५ अथ तत्र वस्तुदर्शनायातकल्पनानिमित्तमुक्तम् , अत्र तथाभूतस्य प्रतिभासस्याभावान्नानुगतार्थकल्पना । तथाहि-कस्यचिद् घटादेः क्रियमाणस्य विशिष्टां रचनां कर्तृपूर्विकां दृष्ट्वाऽदृष्टकर्तृकस्यापि घट-प्रासादादेस्तस्य रचनाविशेषस्य कर्तृपूर्वकत्वप्रतिपत्तिः, पृथिव्यादेस्तु संस्थानं कदाचिदपि कर्तृपूर्वकं नावगतम्: नापि तादृशं धर्म्यन्तरे दृष्टकर्तृक इव पटादौ; तत् पृथिव्यादिगतस्य संस्थानस्य वैलक्षण्यात् ततो न ततः कर्तृपूर्वकन्वप्रतिपत्तिः; एवं हेतोरसिद्धत्वेन नैतत् साधनम् , अयुक्तमेतत्; १० यतो यद्यनवगतसंबन्धान प्रतिपत्तन अधिकृत्य हेतोरसिद्धत्वमुच्यते तदा धूमादिष्वपि तुल्यम् । अथ गृहीताविनाभावानामपि कार्यत्वदर्शनात् तन्वादिषु ईश्वरादिकृतत्वप्रतिभासानुत्पत्तेरेवमुच्यते, तदसत्; ये हि कार्यत्वादेवुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेन गृहीताविनाभावास्ते तस्मादीश्वरादिपूर्वकत्वं तेषामवगच्छन्त्येव । तस्माद् व्युत्पन्नानामस्त्येव पृथिव्यादिसंस्थानवत्त्व-कार्यत्वादेर्हेतोर्धर्मिधर्मताऽवगमः, अव्युत्पन्नानां तु प्रसिद्धानुमाने धूमादावपि नास्ति । १५ अपि च, भवतु प्रासादादिसंस्थानेभ्यः पृथिव्यादिसंस्थानस्य वैलक्षण्यं तथापि कार्यत्वं शाक्यादिमिः पृथिव्यादीनामिष्यते, कार्य च कर्तृ-करणादिपूर्वकं दृष्टम् ; अतः कार्यत्वाद् बुद्धिमकारणपूर्वकत्वानुमानम् । अथ कर्तृपूर्वकस्य कार्यत्वस्य संस्थानवत्त्वस्य च तद्वैलक्षण्यान्न ततः साध्यावगमः । अत एवाधिष्ठातृभावाभावानुवृत्तिमद् यत् संस्थानं तद्दर्शनात् कर्जदार्शनोऽपि तत्प्रतिपत्तिर्युक्तेत्यस्य दूषणस्य कार्यत्वेऽपि समानत्वात् कथं गमकता? यद्येवमनुमानोच्छेदप्रसङ्गः २०धूमादिकमपि यथाविधमन्यादिसामग्रीभावाभावानुवृत्तिमत् तथाविधमेव यदि पर्वतोपरि भवेत् स्यात् ततो वह्नयाद्यवगमः । अथाधूमव्यावृत्तं तथा विधमेव धूमादि तर्हि कार्यत्वाद्यपि तथाविधं पृथिव्यादिगतं किं नेष्यते? अथ पृथिव्यादिगतकार्यत्वादिदर्शनात् कर्बदर्शिनां तदप्रतिपत्तिः, एवं शिखर्यादिगतवह्नयाद्यदर्शिनां धूमादिभ्योऽपि तदप्रतिपत्तिरस्तु । न चात्र शब्दसामान्यं वस्त्व नुगमो नास्तीति वक्तुं युक्तम्, धूमादावपि शब्दसामान्यस्य वक्तुं शक्यत्वात् । तन्न शाक्यदृष्टया २५ कार्यत्वादेरसिद्धता । नापि चार्वाक-मीमांसकदृष्टया, तेषामपि संस्थानवदवश्यं कार्य घटादिवत् पृथिव्यादि स्वावयवसंयोगैरारब्धमवश्यंतया विश्लेषाद् विनाशमनुभविष्यति; एवं विनाशाद् वा संभावितात् कार्यत्वानुमानम् रचनास्वभावत्वाद् वा । यथोक्तं भाष्यकृता "येषामप्यनवगतोत्पत्तीनां भावानां रूपमुपलभ्यते तेषां तन्तुव्यतिषङ्गजनितं रूपं दृष्वा तद्यति३० षङ्गविमोचनात् तद्विनाशाद् वा विनझ्यतीत्यनुमीयते" [ ] अनेन संस्थानवतोऽनुपलभ्यमानोत्पत्तेः समवाय्यसमवायिकारणविनाशाट विनाशमाह। तथा. पृथिव्यादेः संस्थानवतोऽदृष्टजन्मनो रूपदर्शनाद् नाशसम्भावना भविष्यति; सम्भाविताच नाशात् कार्यत्वानुमितौ कर्तृप्रतिपत्तिः । यथोक्तं न्यायविद्भिः तत्त्वदर्शनं प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा" [ ] ३५कार्यत्व-विनाशित्वयोश्च समव्याप्तिकत्वादेकेनापरस्यानुमानमिष्टम् “तेन यत्राप्युभौ धौं” [ श्लोक वा० अनु० श्लो०९] इत्यत्र । अतो जैमिनीयानां न कार्यत्वादेरसिद्धता।। नापि चार्वाकमतेऽसिद्धत्वम् । तेषां रचनावत्त्वेनावश्यंभाविनी कार्यताप्रतिपत्तिरदृष्टोत्पत्ती. नामपि शित्यादीनाम्, अन्यथा वेदरचनाया अपि कर्तृदर्शनाभावान कार्यता, यतस्तत्राप्येतावच्छक्यं वक्तुम्-न रचनात्वेन वेदरचनायाः कार्यत्वानुमानम्, कर्तृभावाऽभावानुविधायिनी ४० तदर्शनाल्लौकिक्येव रचना तत्पूर्विकाऽस्तु मा भूद् वैदिकी । अथ तयोर्विशेषानुपलम्भाल्लौकिकीव १-त्रावस्तु-हा०। २-यातत्कल्प-वा०, बा०, मां०, भां०। ३ इति प-वि० । ४ घटा-मां०। ५-त् यतो वि०। ६-नश्य-कां०। ७-क्षतो वाऽनु-वा०, बा० । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ ईश्वरस्वरूपवादः। वैदिक्यपि कर्तृपूर्विका तर्हि प्रासादादिसंस्थानवत् पृथिव्यादिसंस्थानवत्त्वस्यापि तद्पताऽस्तु, विशेषानुपलक्षणात् । तन्न हेतोरसिद्धता। {मा भूदसिद्धत्वं तथाऽप्यस्मात् साध्यसिद्धिन युक्ता, नहि केवलान् पक्षधर्मत्वाद् व्याप्तिशू न्यात् साध्यावगमः । ननु किं घटादौ कर्तृ-कर्म-करणपूर्वकत्वेन कार्यत्वादेात्यनवगमः ? अस्त्येवं' घटगते कार्यत्वे प्रतिपत्तिस्तथापि न व्याप्तिः, सा हि सकलाक्षेपेण गृह्यते, अत्र तु व्याप्तिग्रहणकाल ५ एव केषाश्चित् कार्याणामकर्तृपूर्वकाणां कार्यत्वदर्शनान्न सर्व कार्य कर्तृपूर्वकम् , यथा वनेषु घनस्पतीनाम् । अथ तत्र न कञभावनिश्चयः किंतु कत्रग्रहणम् , तच्च विद्यमानेऽपि कर्तरि भवतीति कथं साध्याभावे हेतोर्दर्शनम् ? क्व पुनर्विद्यमानकर्तृकाणां तदप्रतिपत्तिः ? यथा घटादीनामनवगतोत्पत्तीनाम् । युक्ता तत्र कर्तुरप्रतिपत्तिः, उत्पादकालानवगमात् । तत्काले च तस्य तत्र सन्निधानम्, अन्यदाऽस्य सन्निधानाभावादग्रहणम्। वनगतेषु च स्थावरेषूपलभ्यमानजन्मसु कर्तृसद्भावे तदव-१० गमोऽवश्यंभावी, यथोपलभ्यमानजन्मनि घटादौ; अत उपलब्धिलक्षणप्रापस्य कर्तुस्तेष्वभावनि. श्वयात् तत्र व्याप्तिग्रहणकाल एव कार्यत्वादेर्हतोदर्शनान्न कर्तृपूर्वकत्वेन व्याप्तिः । इतश्च दृष्टहान्यदृष्टपरिकल्पनासम्भवात्-दृष्टानां क्षित्यादीनां कारणत्वत्यागः अदृस्य च कर्तुः कारणत्वकल्पना न युक्तिमती । अथ न क्षित्यादेः कारणत्वनिराकरणं कर्तृकल्पनायामपि, तत्सद्भा. वेऽपि तस्यापरकारणत्वक्लप्तेः, तदसत्; यतो यद् यस्यान्वय-व्यतिरेकानु विधायि तत् तस्य कारणम् १५ इतरत् कार्यम्: क्षित्यादीनां त्वन्वय-व्यतिरेकावनुविधत्ते तत्राकृष्टजातं वनस्पत्यादि नापरस्य, कथमतो व्यतिरिक्तं कारणं भवेत् ? एवमपि कारणत्वकल्पनायां दोष उक्तः "चैत्रस्य व्रणरोहणे" [ ] इत्यादिना । तस्मात् पक्षधर्मत्वेऽपि व्याश्यभावादगमकत्वं हेतोः। ___ अथ तेषां पक्षेऽन्तर्भावान्न तैर्व्यभिचारः, तदसत्; तात्त्विकं विपक्षत्वं कथमिच्छाकल्पितेन पक्षत्वेनापोघेत? व्याप्तौ सिद्धायां साध्य-तदभावयोरग्रहणे वादीच्छापरिकल्पितं पक्षत्वं कथ्यते ।२० सपक्ष-विपक्षयोर्हेतोः सदसत्त्वनिश्चयाद् व्याप्तिसिद्धिः। एवमपि साध्याभावे दृष्टस्य हेतोयाप्तिग्रहणकाले व्यभिचाराशङ्कायां निश्चये वा व्यभिचारविषयस्य पक्षेऽन्तर्भावेन गमकत्वकल्पने न कश्चिद्धेतुर्व्यभिचारी भवेत् । तस्मान्नेश्वरसिद्धौ कश्चिद् हेतुरव्यभिचार्यस्ति }। अत्राहुः-नाकृष्टजातैः स्थावरादिमिळमिचारः व्याल्यभावो वा, साध्याभावे वर्तमानो हेतुर्व्यभिचारी उच्यते, तेषु तु कत्रग्रहणम् न सकर्तृकत्वाभावनिश्चयः। ननूक्तम् 'उपलब्धिलक्षण २५ प्राप्तत्वे कर्तुरभावनिश्चयस्तत्र युक्तः' नैतद् युक्तम्; उपलब्धिलक्षणप्राप्ततायाः कर्तुस्तेष्वनभ्युपगमात् । यत्तूक्तम् 'क्षित्याद्यन्वय-व्यतिरेकानुविधानदर्शनात् तेषाम् तद्यतिरिक्तस्य कारणत्वकल्पनेऽतिप्रसङ्गदोषः' इति, एतस्यां कल्पनायां धर्माधर्मयोरपि न कारणता भवेत् । न च तयोरकारणतैव, तयोः कारणत्वप्रसाधनात्-नहि किञ्चिजगत्यस्ति यत् कस्यचिन्न सुखसाधनम् दुःखसाधनं वा। न च तत्साधनस्यादृष्टनिरपेक्षस्योत्पत्तिः । इयांस्तु विशेषः-शरीरादेः प्रतिनियताऽदृष्टाक्षिप्तत्वं ३० प्रायेण, सर्वोपभोग्यानां तु साधारणाऽदृष्टाक्षिप्तत्वम् । एतत् सर्ववादिभिरभ्युपगमादप्रत्याख्येयम्। युक्तिश्च प्रदर्शितैव । चार्वाकैरप्येतदभ्युपगन्तव्यम्, तान् प्रति पूर्वमेतत्सिद्धौ प्रमाणस्योक्तत्वात् । प्रमाणसिद्धं तु न कस्यचिन्न सिद्धम् । अथादृष्टस्य कार्येणान्वय-व्यतिरेकाननुविधानेऽपि नाकारणता, न तर्हि वक्तव्यं भूम्यादिव्यतिरेकेण स्थावरादिना कार्येणेश्वरस्यान्वय-व्यतिरेकाननुविधानादकारणत्वम् । अथ जगद्वैचित्र्यमदृष्टस्य कारणत्वं विना नोपपद्यते इति तत् कल्प्यते, सर्वान् ३५ उत्पत्तिमतः प्रति भूम्यादेः साधारणत्वादतोऽदृष्टाख्यविचित्रकारणकृतं कार्यवैचित्र्यम्; एवमएस्य कारणत्वकल्पनायामीश्वरस्यापि कारणत्वप्रतिक्षेपो न युक्तः यथा कारणगतं वैचित्र्यं विना कार्यगतं वैचित्र्यं नोपपद्यते इति तत् परिकल्प्यते तथा चेतनं कर्तारं विना कार्यस्वरूपानुपात्तिरिति किमिति तस्य नाभ्युपगमः? न चाकृष्टजातेषु स्थावरादिषु तस्याग्रहणेन प्रतिक्षेपः, अनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वाददृष्टवत् । न च सर्वा कारणसामन्युपलब्धिलक्षणप्राप्ता। अत एव दृश्यमानेष्वपि४० १-व घट-भां०, वा०, बा०, मां विना। २-त्वेऽपि प्र-भां०, गु०, मां०। ३-यात् दृ-वा०, वा० । ४-कृतेः भा०, कां०, गु०। ५-“वनवनस्पत्यादीनाम्" वि.टि.। ६-क्षयोश्च हे-भा०, मा०। ७ प्र० पृ. पं० ११। ८प्र० पृ. पं० १६। ९० ९३ १०२। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ प्रथमे काण्डे - कारणेषु कारणत्वमप्रत्यक्षम् कार्येणैव तस्योपलम्भात् । सहकारिसत्ता दृश्यमानस्य कारणता, केषाञ्चित् सहकारिणां दृश्यत्वेऽप्यदृष्टादेः सहकारिणः कार्येणैव प्रतिपत्तिः: एवमीश्वरस्य कारणत्वेऽपि न तत्स्वरूपग्रहणं प्रत्यक्षेणेति स्थितम् । ततोऽनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वात् कर्त्तुरुपलभ्यमान. जन्मसु स्थावरेषु हेतोर्वृत्तिदर्शनान्न व्यात्यभावः यतो निश्चितविपक्षवृत्तिर्हेतुर्व्यभिचारी । ५ ननु निश्चित विपक्षवृत्तिर्यथा व्यभिचारी तथा सन्दिग्धव्यतिरेकोऽपि, उक्तेषु स्थावरेषु कर्त्रग्रहणं किं कर्त्रभावात्, आहोस्विद् विद्यमानत्वेऽपि तस्याग्रहणमनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वेन ? एवं सन्दिग्धव्यतिरेकत्वे न कश्चिद्धेतुर्गमकः । धूमादेरपि सकलव्यत्याक्षेपेण व्यायुपलम्भकाले न सर्वा वह्निव्यक्तयो दृश्याः; तासु चाऽदृश्यासु धूमव्यक्तीनां दृश्यत्वे सन्दिग्धव्यतिरेकाशङ्का न निवर्त्ततेयत्र वरदर्शने धूमदर्शनं तत्र किं वह्नेरदर्शनमभावात्, आहोस्विद् अनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वात् १० इति न निश्चयः । अतो धूमोऽपि सन्दिग्धव्यतिरेकत्वान्न गमकः । अथ धूमः कार्य हुतभुजः, तस्य तदभावे स्वरूपानुपपत्तेरदृष्टत्वेऽप्यनलस्य सद्भावकल्पना; ननु तत् कार्यमत्रोपलभ्यमानं किमिति कारणमन्तरेण कल्प्यते ? अथ दृष्टशक्तेः कारणस्य कल्पनाऽस्तु मा भूद् बुद्धिमतः, वयादेर्धूमादीन् प्रति कथं दृशक्तिता ? प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यामिति चेत्, बुद्धिमतोऽपि ताभ्यां कारणत्वतौ वह्न्यादिभिस्तुल्यता; यथा वह्नयादिसामग्र्या धूमादिर्जन्यमानो दृष्टः स तामन्त१५रेण कदाचिदपि न भवति स्वरूपहानिप्रसङ्गात् तद्वत् सर्वमुत्पत्तिमत् कर्तृ-कर्म-करणपूर्वकं दृष्टम्, तस्य सकृदपि तथादर्शनात् तज्जन्यतास्वभावः, तस्यैवं स्वभाव निश्चितावन्यतमाभावेऽपि कथं भावः ? किंच, अनुपलभ्यमानकर्तृकेषु स्थावरेषु कर्त्तुरनुपलम्भः शरीराद्यभावात् नत्वसत्त्वात्, यत्र शरीरस्य कर्तृता तत्र कुलालादेः प्रत्यक्षेणैवोपलम्भ:, अत्र तु चैतन्यमात्रेणोपादानाद्यधिष्ठानात् कथं प्रत्यक्षव्यापृतिः ? नाप्येतद् वक्तव्यम् शरीराद्यभावात् तर्हि कर्तृताऽपि न युक्ता, कार्यस्य शरीरेण २० सह व्यभिचारदर्शनात् - यथा स्वशरीरस्य प्रवृत्ति-निवृत्ती सर्वश्चेतनः करोति, ते च कार्यभूते; न च शरीरान्तरेण शरीरप्रवृत्ति - निवृत्तिलक्षणं कार्य चेतनः करोति तेन तस्य व्यभिचारः । अथ शरीरे एव दृष्टत्वात् करोतु नान्यत्र, तन्नः यतः कार्ये शरीरेण विना करोतीति नः साध्यम्; तत् स्व शरीरगतमन्यशरीरगतं वेति नानेन किञ्चित् । एतेनैतदपि पराकृतं यदाहुरेके “अचेतनः कथं भावस्तदिच्छामनुवर्त्तते" [ ] २५ अचेतनस्य शरीरादेरात्मेच्छानुवर्त्तित्वदर्शनात् । न चाचेतनस्य तदिच्छाननुवर्त्तिनोऽपि प्रयत्नप्रेर्यत्वं परिहार इति वक्तव्यम्, यत ईश्वरस्यापि प्रयत्नसद्भावे न काचित् क्षतिः । न च शरीराभावात् कथं प्रयत्न इति वक्तुं युक्तम्, शरीरान्तराऽभावेऽपि शरीरस्य प्रयत्नप्रेर्यत्वदर्शनात् । तत् कर्त्तुः शरीरा भावादकृष्टोत्पत्तिषु स्थावरेष्वग्रहणम्, न तत्रादर्शनेन हेतोर्व्यभिचारः । येऽपि "प्रत्यक्षाऽनुपलम्भसाधनं कार्यकारणभावम्” आहुस्तेषामपि कस्यचित् कार्यकारणभावस्य तत्साधनत्वे यथेन्द्रि ३० याणाम् अदृष्टस्य च तौ विना कारणत्वंसिद्धिस्तथेश्वरस्यापि । अतो न व्यास्यभावः । अत एव न संत्प्रतिपक्षताऽपि, नैकस्मिन् साध्यान्विते हेतौ स्थिते द्वितीयस्य तथाविधस्य तत्रावकाशः; वस्तुनो द्वैरूप्यासंभवात् । नापि बाधः, अबुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वस्य प्रमाणेनाग्रहणात्; साध्याभावे हेतोरभावः स्वसाध्यव्याप्तत्वादेव सिद्धः । नापि धर्म्यसिद्धता, कार्यकारणसङ्घातस्य पृथिव्यादेर्भूतग्रामस्य च प्रमाणेन सिद्धत्वात् । तदाश्रयत्वेन हेतोर्यथा प्रमाणेनोपलम्भस्तथा पूर्व प्रदर्शितम् । अतोऽस्मादीश्वरावगमे न तत्सिद्धौ प्रमाणाभावः । नापि हेतोर्विशेषविरुद्धता, तद्विरुद्धत्वे हेतोर्विशेषणेऽभ्युपगम्यमाने न कश्चिद्धेतुरविरुद्धो भवेत्, प्रसिद्धानुमानेऽपि विशेषविरुद्धादीनां सुलभत्वात् । यथाऽयं धूमो दहनं साधयति तथैत४० देशावच्छिन्न वह्नघभावमपि साधयति । नहि पूर्वधूमस्यैतदेशावच्छिन्नेन वह्निना व्याप्तिः । एवं कालाद्यवच्छेदेन हेतोर्विरुद्धता वक्तव्या । अथ देश-कालादीन् विहाय वह्निमात्रेण हेतोर्व्याप्तेर्न १ सप्रति - मां०, बा० वा० । २ पृ० ९४ पं० १५। ३५ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः। ९७ विरुद्धता तर्हि तद्वत् कार्यमात्रस्य बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेन व्याप्तेर्यद्यपि दृष्टान्तेऽनीश्वरोऽसर्वज्ञः कृत्रिमशानसम्बन्धी सशरीरः क्षित्याद्युपविष्टः कर्ता तथापि पूर्वोक्तविशेषणानां धर्मि विशेषरूपाणां व्यमिचारात् तद्विपर्ययसाधकत्वेऽपि न विरुद्धता । विरुद्धो हि हेतुः साध्यविपर्ययकारित्वाद् भवति । न चैतेषां साध्यता, बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वमात्रस्यास्माद्धेतोः साध्यत्वेनेष्टत्वात् । यथा च विशेषविरुद्धादीनामदूषणत्वं तथा ___"सिद्धान्तमभ्युपेत्य तद्विरोधी विरुद्धः" [ न्यायद० अ० १, आ० २, सू० ६ ] इत्यत्र सूत्रे निर्णीतम् । इतश्चैतददूषणम्-पूर्वस्माद्धेतोः स्वसाध्यसिद्धावुत्तरेण पूर्व सिद्धस्यैव साध्यस्य किं विशेषः साध्यते, उत पूर्वहेतोः स्वसाध्यसिद्धिप्रतिबन्धः क्रियते? न तावत् पूर्वो विकल्पः, यदि नाम तत्रापरेण हेतुना विशेषाधानं कृतं किं तावता पूर्वस्य हेतोः साध्यसिद्धिविघातः ? यथा कृतकत्वेन १० शब्दस्यानित्यत्वसिद्धौ हेत्वन्तरेण गुणत्वसिद्धावपि न पूर्वस्य क्षतिस्तद्वदत्रापि । अथोत्तरो विकल्पस्तथापि स्वसाध्यसिद्धिप्रतिबन्धो व्याप्त्यभावप्रदर्शनेन क्रियते; व्याप्त्यभावश्च हेतुरूपाणामन्यतमाभावेन । न च धर्मिविशेषविपर्ययोद्भावनेन कस्यचिदपि रूपस्याभावः कथ्यते । न च हेतुरूपाभावासिद्धावगमकत्वम् । तन्न विशेषविरुद्धता। विशेषास्तु धर्मिणः स्वरूपसिद्धावुत्तरकालं प्रमाणान्तरप्रतिपाद्या न तु पूर्वहेतुबलादभ्यु-१५ पगम्यन्ते । तच्च प्रमाणान्तरमागमः पूर्वहेताहेत्वन्तरं च। "तच्चान्वयव्यतिरेकिपूर्वककेवलव्यतिरे. किसंज्ञम् । यथा गन्धाधुपलब्ध्या तत्साधनकरणमात्रप्रसिद्धौ प्रसक्तप्रतिषेधे करणविशेषसिद्धिः केवलव्यतिरेकिनिमित्ता तथेहापि कार्यत्वात् बुद्धिमत्कारणमात्रप्रसिद्धौ प्रसक्तप्रतिषेधात् कारणविशेषसिद्धिः केवलव्यतिरेकिनिमित्ता । तथाहि-कार्यत्वाद् बुद्धिमत्कारणमात्रसिद्धी प्रसक्तानां कृत्रिमशान-शरीरसंबद्धत्वादीनां धर्माणां प्रमाणान्तरेण बाधोपपत्तौ विशिष्टबुद्धिमत्कारणसिद्धिय॑-२० तिरेकिबलात्” इति केचित् । अन्ये मन्यन्ते-“यत्रान्वयव्यतिरेकिणो हेतोर्न विशेषसिद्धिस्तत्र तत्पूर्वकात् केवलव्यतिरेकिणो विशेषसिद्धिर्भवतु, यथा घ्राणादिषु, अत्र तु पूर्वस्माद्धेतोर्विशेषसिद्धौ न हेत्वन्तरपरिकल्पना । यथा धूमस्य वह्निनाऽन्वय-व्यतिरेकसिद्धौ ‘अत्र देशे वह्निः' इति पक्षधर्मत्वबलात् प्रतिपत्तिर्नान्वयाद् व्यतिरेकाद्वा, तयोर्खेतद्देशावच्छिन्नेन वह्निनाऽसंभवातू-यद्यपि व्याप्तिकाले सकलाक्षेपेण तद्देशस्या-२५ प्याक्षेपः अन्यथाऽत्र व्याप्तेरसंभवात्, तथापि व्याप्तिग्रहणवेलायां सामान्यरूपतया तदाक्षेपः न विशेषरूपेणेति विशेषावगमो नान्वय-व्यतिरेकनिमित्तः, अपि तु पक्षधर्मत्वकृतः। अत एव "प्रत्युत्पन्नकारणजन्यां स्मृतिमनुमानम्" आहुः । प्रत्युत्पन्नं च कारणं पक्षधर्मत्वमेव तथा कार्यत्वादे बुद्धिमत्कारणमात्रेण व्याप्तिसिद्धावपि कारणविशेषप्रतिपत्तिः पक्षधर्मत्वसामर्थ्यात् । य इत्थंभूतस्य पृथिव्यादेः कर्ता नियमेनासावकृत्रिमज्ञानसंबन्धी शरीररहितः सर्वज्ञ एकः" इति, एवं यदा ३० पक्षधर्मत्वबलाद् विशेषसिद्धिस्तदा न विशेषविरुद्धादीनामवकाशः। ___ "अन्वयसामर्थादपि विशेषसिद्धिम्" अन्ये मन्यन्ते । तथा, धूममात्रस्य वह्निमात्रेण व्याप्तिः एवं धूमविशेषस्य वह्निविशेषेण इति धूमविशेषप्रतिपत्तौ न वह्निमात्रेणान्वयानुस्मृतिः किन्तु वह्निविशेषेण, एवं विशिष्टकार्यत्वदर्शनान्न कारणमात्रानुस्मृतिः किन्तु तथाविधकार्यविशेषजनककारणविशेषानुस्मृतिः। तदनुस्मृतावत्रान्वयसामर्थ्यादेव कारणविशेषप्रतिपत्तिरिति न विशेषविरुद्धावकाशः।३५ एतेषां पैक्षाणां युक्तायुक्तत्वं सूरयो विचारयिष्यन्तीति नास्माकमत्र निर्बन्धः; सर्वथा विशेषविरुद्धस्यादृषणत्वमस्माभिः प्रतिपाद्यते तद्विरुद्धलक्षणपर्यालोचनया। प्रसक्तानां च विशेषाणां प्रमाणान्तरबाधया, अन्वयव्यतिरेकिमूलकेवलव्यतिरेकिबलाद्वा, पक्षधर्मत्वसामर्थेन वा, कार्यविशेषस्य कारणविशेषान्वितत्वेन वा नात्र प्रयत्यते; सर्वथा प्रस्तुतहेतौ न व्याप्त्यसिद्धिः। १-त्तात् । मां०। २ यथा मां० ब०। ३ “त्रयाणां पूर्वोक्तानाम्" वि. टि.। ४-नां विशे-भा०, गु०, वा०,या। स० त०१३ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - प्रसक्तानां विशेषाणां प्रमाणान्तरबाधया विशेषविरुद्धताऽनवकाश इत्युक्तं तत्र कतमस्य प्रसतस्य विशेषस्य केन प्रमाणेन निराकृतिः ? शरीरसंबन्धस्य तावद्यात्यभावेन, शरीरान्तररहितस्याप्यात्मनः स्वशरीरधारण- प्रेरणक्रियांसु यथा । अथात्मनः प्रयत्नवत्त्वाद् धारणादिक्रियासु शरीराद्याधारासु कर्तृत्वं युक्तम् नेश्वरस्य तद्रहितत्वात् तथा च भवतां मुख्यं कर्तुलक्षणम्"ज्ञान- चिकीर्षा - प्रयत्नानां समवायः कर्तृता" [ ] इति । ९८ ५ केनेश्वरस्य तद्रहितत्वात् प्रयत्नप्रतिषेधः कृतः ? आत्म-मनः संयोगजन्यत्वात् प्रयत्नस्य ईश्वरस्य तदसंभवात् कारणाभावात् तन्निषेधः । बुद्धिस्तर्हीश्वरे कथं तस्या अपि मनःसंयोगजन्यतैव ? साऽपि माभूत् का नः क्षतिः ? नेनु तदसत्तैव न त्वन्या काचित्। सोऽपि भवतु, तदभावे कस्य विशेषः शरीरादिसंयोगलक्षणः साध्यते ? अत एवान्यैरुक्तम् १० " नातीन्द्रियार्थप्रतिषेधो विशेषस्य कस्यचित् साधनेन निराकरणेन वा कार्यः तदभावे विशेषसाधनस्य निराकरण हेतोर्वाऽऽश्रयासिद्धत्वात् किन्त्वतीन्द्रियमर्थमभ्युपगच्छंस्तत्सिद्धौ प्रमाणं प्रष्टव्यः । स चेत् तत्सिद्धौ प्रयोजकं हेतुं दर्शयति 'ओम्' इति कृत्वाऽसौ प्रतिपत्तव्यः । अथ न दर्शयति प्रमाणाभावादेवासौ नास्ति, न तु विशेषाभावात्" [ ] तस्माद् ज्ञान- चिकीर्षा - प्रयत्नानां समवायोऽस्तीश्वरे, ते तु ज्ञानादयोऽस्मदादिज्ञानादिभ्यो विलक्षणाः, वैलक्षण्यं च नित्यत्वादिधर्म१५योगात् । तन्नेश्वरशरीरस्य कर्तृविशेषस्य व्यात्यभावात् सिद्धिः । नाय सर्वज्ञत्वं विशेषः कुलालादिषु दृष्टस्तत्र साध्यते, तत्सिद्धावपि विशेषविरुद्धस्य व्यात्यभाव पवन हा सर्वविदा कर्त्रा कुलालादिना किञ्चित् कार्य क्रियते । ननु कुलालादेः सर्ववित्त्वे नेदानीं कश्चिदसर्ववित्, एवमेव यद् यः करोति स तस्योपादानादिकारणकलापम् प्रयोजनं च जानाति; अन्यथा तत् क्रियायोगात् । सर्वज्ञत्वं च प्रकृतकार्यतन्निमित्तापेक्षम्, अतः कुलालादिर्यथा कर्त्ता २० स्वकार्यस्य सर्वे जानात्युपादानादि एवमीश्वरोऽपि सर्वकर्त्ता सर्वस्य कॅरणप्रयोजनम् विवादवि यस्य सर्वस्योपादानकारणादि च कर्तृत्वादेव जानाति; अतः कथमसाव सर्व वित् ? अन्ये त्वाहु:- "क्षेत्रज्ञानां नियतार्थविषयग्रहणं सर्वविदधिष्ठितानाम्, यथा प्रतिनियतशब्दादिविषयग्राहकाणामिन्द्रियाणामनियत विषयसर्व विदधिष्ठितानां जीवच्छरीरे । तथा च इन्द्रियवृ युच्छेदलक्षणं केचिद् मरणमा हुश्चेतनानधिष्ठितानाम् । अस्ति च क्षेत्रज्ञानां प्रतिनियतविषयग्रहणम् २५ तेनाप्यनियत विषय सर्वविदधिष्ठितेन भाव्यम् । योऽसौ क्षेत्रज्ञाधिष्ठायकोऽनियतविषयः स सर्ववि श्वरः । नन्वेवं तस्यैव सकलक्षेत्रेष्वधिष्ठायकत्वात् किमन्तर्गडुस्थानीयैः क्षेत्रज्ञैः कृत्यम् ? न किञ्चित् प्रमाणसिद्धतां मुक्त्वा । नन्वेवमनिष्ठा - यथेन्द्रियाधिष्ठायकः क्षेत्रज्ञस्तदधिष्ठायकश्चेश्वरःएवमन्योऽपि तदधिष्ठायकोऽस्तु भवत्वनिष्ठा यदि तत्साधकं प्रमाणं किञ्चिदस्ति न त्वनिष्ठासाधकं किञ्चित् प्रमाणमुत्पश्यामः तावत एवानुमानसिद्धत्वात् । ३० आगमोऽप्यस्मिन् वस्तुनि विद्यते - तथा च भगवान् व्यासः " द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः " ॥ [ भग० गी० अ० १५, श्लो० १६ - १७] इति । ३५ तथा श्रुतिश्च तत्प्रतिपादिका उपलभ्यते "विश्वतश्चक्षुरुत विश्व तो मुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात् । बाहुभ्यां धमति संपतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन् देव एक आस्ते " [ श्वेताश्वत० उ० अ० ३, ३] इत्यादि । १ - या नु यथा वा०, बा० । २ अत्र उत्तरपक्षपाठानुरोधेन 'यथा व्यापारस्तथा ईश्वरस्यापि क्षित्यादिकार्ये' इति अधिकं योज्यम् । ३ " नैयायिकः समाधत्ते - प्रागुक्तप्रकारेण बुद्धयादेर्निषेधे तस्यैश्वरस्य असत्तैव क्षतिर्नान्या काचित्” भां• मां० दि० । ४ " परः पुनः प्राह - साऽपि भवतु इति" मां० दि० । ५ कारण - वा०, बा० । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः । न च स्वरूपप्रतिपादकानामप्रामाण्यम्, प्रमाणजनकत्वस्य सद्भावात् । तथाहि - प्रेमाजनकत्वेन प्रमाणस्य प्रामाण्यं न प्रवृत्तिजनकत्वेन तश्चेहास्त्येव । प्रवृत्ति-निवृत्ती तु पुरुषस्य सुख-दुःखसाधनत्वाध्यवसाये समर्थस्यार्थित्वाद् भवत इति । अथ विधावङ्गत्वादमीषां प्रामाण्यं न स्वरूपार्थत्वादिति चेत्, तदसत्; स्वार्थप्रतिपादकत्वेन विध्यङ्गत्वात् । तथाहि - स्तुतेः स्वार्थप्रतिपादकत्वेन प्रवर्त्तकत्वम्, निन्दायास्तु निवर्त्तकत्वमिति । अन्यथा हि तदर्थापरिज्ञाने विहित प्रतिषिद्वेष्व विशे- ५ पेण प्रवृत्तिर्निवृत्तिर्वा स्यात् । तथा विधिवाक्यस्यापि स्वार्थप्रतिपादनद्वारेणैव पुरुषप्रेरकत्वं दृष्टम् एवं स्वरूप परेष्वपि वाक्येषु स्यात्, वाक्यस्वरूपताया अविशेषात् विशेषहेतोश्चाभावादिति । तथा, स्वरूपार्थानामप्रामाण्ये "मेध्या आपः, दर्भाः पवित्रम्, अमेध्यमशुचि” इत्येवंस्वरूपापरिज्ञाने विध्यङ्गतायामप्यविशेषेण प्रवृत्ति - निवृत्तिप्रसङ्गः, न चैतदस्ति मेध्येष्वेव प्रवर्त्तते अमेध्येषु च निवर्त्तत इत्युपलम्भात् । तदेवं स्वरूपार्थेभ्यो वाक्येभ्योऽर्थ स्वरूपावबोधे सति इष्टे प्रवृत्तिदर्शनात् अनिष्टे च १० निवृत्तेरिति ज्ञायते - स्वरूपार्थानां प्रमाजनकत्वेन प्रवृत्तौ निवृत्तौ वा विधिसहकारित्वमिति, अपरिज्ञानात्तु प्रवृत्तावतिप्रसङ्गः । अथ स्वरूपार्थानां प्रामाण्ये “ग्रावाणः प्लवन्ते" इत्येवमादीनामपि यथार्थता स्यात्, न मुख्ये बाधकोपपत्तेः । यत्र हि मुख्ये बाधकं प्रमाणमस्ति तत्रोपचारकल्पना, तदभावे तु प्रामाण्यमेव । न चेश्वरसद्भावप्रतिपादनेषु किञ्चिदस्ति बाधकमिति स्वरूपे प्रामाण्यमभ्युपगन्तव्यमित्यागमादपि सिद्धप्रामाण्यात् तदवगमः । ईश्वरस्य च सत्तामात्रेण स्वविषयग्रहण. १५ प्रवृत्तानां क्षेत्रज्ञानामधिष्ठायकता यथा स्फटिकादीनामुपधानाकारग्रहणप्रवृत्तानां सवितृप्रकाशः । यथा तेषां सावित्रं प्रकाशं विना नोपधानाकार ग्रहणसामर्थ्य तथेश्वरं विना क्षेत्रविदां न स्वविषय ग्रहणसामर्थ्यमित्यस्ति भगवानीश्वरः सर्ववित्" । [ ] ९९ इतश्चासौ सर्ववित् - ज्ञानस्य सन्निहित सदर्थप्रकाशकत्वं नाम स्वभावः, तस्यान्यथाभावः कुतश्चिद्दोषसद्भावात् । एतत् तावद् रूपं चक्षुराद्याश्रयाणां ज्ञानानाम् । यत् पुनश्चक्षुरनाश्रितं २० न च रागादिमलावृतं तस्य विषयप्रकाशनस्वभावस्य विषयेषु किमिति प्रकाशन सामर्थ्य विघातः यथा दीपादेरपवरकान्तर्गतस्य ? ननु रागादेरावरणस्य कथं तत्राभावोऽवगतः तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावात् ? प्रमाणस्याभावे संशयोऽस्तु रागादीनाम् न त्वभावः । विपर्यासकारणा रागादयः, एषां कारणाभावे कथं तत्र भावः ? विपर्यासश्चाधर्मनिमित्तः, न च भगवत्यधर्मः, तत्सद्भावे वा इत्थंविधस्यास्मदादिमिश्चिन्तयितुमध्यशक्यस्य कार्यस्य कथं तस्मादुत्पादः अनेका- २५ दृष्टकल्पनाप्रसङ्गात् ? किञ्च, रागादय इष्टानिष्टसाधनेषु विषयेषूपजायमाना दृष्टाः । न च भगवतः कश्चिदिष्टानिष्टसाधनो विषयः, अवाप्तकामत्वात् । या तु प्रवृत्तिः शरीरादिसर्गे सा कैश्चित् क्रीडार्थमुक्ताः सा चावाप्तप्रयोजनानामेव भवति नत्वन्येषाम् । अतो यदुक्तं वार्त्तिककृता " क्रीडा हि रतिमविन्दताम् ; न च रत्यर्थी भगवान् दुःखाभावात् " [ न्यायवा० पृ० ४६२ ] ३० तत् प्रतिक्षिप्तम् । न हि दुःखिताः क्रीडासु प्रवर्त्तन्ते, तस्मात् क्रीडार्थी प्रवृत्तिः । अन्ये मन्यन्ते - " कारुण्याद् भगवतः प्रवृत्तिः । नन्वेवं केवलः सुखरूपः प्राणिसर्गेऽस्तु, नैधम्; निरपेक्षस्य कर्तृत्वेऽयं दोषः, सापेक्षत्वे तु कथमेकरूपः सर्गः ? यस्य यथाविधः कर्माशयः पुण्यरूपोऽपुण्यरूपो वा तस्य तथाविधफलोपभोगाय तत्साधनान् शरीरादींस्तथाविधांस्तत्सापेक्षः सृजति” [ ] इति । " न चेश्वरत्वव्याघातः सापेक्षत्वेऽपि, यथा सवितृप्र- ३५ काशस्य स्फटिकाद्यपेक्षस्य, यथा वा करणाधिष्ठायकस्य क्षेत्रज्ञस्य, सापेक्षत्वेऽपि तेषु तैस्येश्वरता दत्रापि (तद्वदत्रापि ) नेश्वरताविषं (विसं) घातः” [ ] इति केचित् । अन्ये मन्यन्ते - " यथा प्रभुः सेवाभेदानुरोधेन फलभेदप्रदो नाप्रभुस्तथेश्वरोऽपि कर्माशयापेक्षः फलं जनयतीति 'अनीश्वरः' इति न युज्यते वक्तुम्” [ भाष्यकारः कारुण्यप्रेरितस्य प्रवृत्तिमाह । तन्निमित्तायामपि प्रवृत्तौ न वार्त्तिककारीयं ४० ] १ प्रमाणजन - वा०, बा० विना । २ - त्रविदो न भां०, कां०, गु० । ३ तस्येश्वरताऽविघात इति केवि० । तस्येश्वरताविघात इति के सर्वत्र अन्यत्र । तस्य नेश्वरत्वविघात इति के मां० ब० । ४ वा०, बा० विना नान्यत्र । ५ अत्र न्यायद० अ० ४, आ० १ सू० २१ संबन्धि भाष्यं द्रष्टव्यम् । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेदूषणम्-"संसृजेत् शुभमेवैकमनुकम्पाप्रयोजितः" [ श्लो० वा० सू० ५, संबन्धा० श्लो० ५२] इत्येवमादि, यतः कर्माशयानां कुशलाऽकुशलरूपाणां फलोपभोगं विना न क्षय इति भगवान. वगच्छंस्तदुपभोगाय प्राणिसर्ग करोति । उपभोगः कर्मफलस्य शरीरादिकृतः, कस्यचित्तु अशुभस्य कर्मणः प्रायश्चित्तात् प्रक्षयः । तत्रापि स्वलेन दुःखोपभोगेन दीर्घकालदुःखप्रदं कर्म क्षीयते, ५न तु फलमदत्त्वा कर्मक्षयः । येषामपि मतं सम्यग्ज्ञानाद् विपर्यासनिवृत्तौ तजन्यक्लेशक्षये कर्माशयानां सद्भावेऽपि सहकार्यभावान्न शरीराद्याक्षेपकता, तत्रापि कुशलं कर्म समाधि वाऽन्तरेण न तत्त्वज्ञानोत्पत्तिःः तयोस्तु संचये प्रवृत्तस्य यम-नियमानुष्ठानेऽनेकविधदु:. खोत्पत्तिः, अतः कथं केवलसुखिरूपः प्राणिसर्गः ? नारक-तिर्यगादिसर्गोऽपि अकृतप्रायश्चित्तानां तत्रत्यदुःखानुभवे पुनर्विशिष्टस्थानावाप्तावभ्युदयहेतुरिति सिद्धं दुःखिप्राणिसृष्टावपि १० करुणया प्रवर्तनम् । तन्नासर्वशत्वं विशेषः । नापि कृत्रिमज्ञानसंवन्धित्वम्, तज्ज्ञानस्य प्रत्यर्थ नियमाभावात् । यदू ज्ञानमनित्यं तत् शरीरादिसापेक्षं प्रत्यर्थ नियतम् तज्ज्ञानस्य तु शरीराद्यभावे कुतः प्रत्यर्थ नियतता ? भवतु तज्ज्ञानं प्रतिनियतविषयम् न तस्य प्रतिनियतविषयत्वेऽस्माकं पक्षक्षतिः। कथं न क्षतिः? तस्य तथाविधत्वे युगपत् स्थावरानुत्पादप्रसङ्गः, तदनुत्पादे च कर्तृत्वासिद्धिः, तद१५सिद्धौ कस्य कृत्रिमज्ञानसंबन्धिताविशेषः ? अथ युगपत्कार्यान्यथानुपपत्त्या प्रत्यर्थनियता मनेकां बुद्धिमीश्वरे प्रतिपद्येत तत्रापि सन्तानेन वा तथाभूता बुद्धयः, युगपद्वा भवेयुः? प्राच्ये विकल्पे पुनरपि युगपत्कार्यानुत्पादप्रसङ्गः । युगपदुत्पत्तौ वा वुद्धीनां शरीरा दियोगस्तस्यैषितव्यः, स च पूर्व प्रतिक्षिप्तः। अथ कार्यस्य बहुत्व-महत्त्वाभ्यां बहवो बुद्धिमन्तः कर्त्तारो भवन्तु, न त्वेकः सर्वज्ञः सर्वशक्तियुक्तः; नन्वेतस्मिन्नपि पक्षे ईश्वरानेकत्वप्रसङ्गः, २० भवतु, को दोषः? व्याहतकामानां स्वतन्त्राणामेकस्मिन्नर्थेऽप्रवृत्तिः। अथ तन्मध्येऽन्येषामेका. यत्तता तदा स एवेश्वरः, अन्ये पुनस्तदधीना अनीश्वराः । अथ स्थपत्यादीनां महाप्रासादादिकरणे यथैकमत्यं तद्वदत्रापि, नैतदेवम् ; तत्र कस्यचिदभिप्रायेण नियमितानामैकमत्यम्; न त्वत्र बहूनां नियामकः कश्चिदस्ति । सद्भावे वा स एवेश्वरः । एवं यस्य यस्य विशेषस्य साधनाय वा निराकृतये वा प्रमाणमुच्यते तस्य तस्य पूर्वोक्तेन न्यायेन निराकरणं कर्त्तव्यम् । तन्न २५ विशेषविरुद्धता ईश्वरसाधकस्य । प्रसङ्ग-विपर्यययोरप्यनुत्पत्तिः। प्रसङ्गस्य व्याप्त्यभावात् , तन्मूलत्वात् तद्विपर्ययस्य तथे. ष्टविघातकृतश्च । यच्च नित्यत्वादकर्तृकत्वमुच्यते शाक्यैस्तदपि क्षणभङ्गभङ्गे प्रतिक्षिप्तम् । यदपि व्यापारं विना न कर्तृत्वं तदपि ज्ञान-चिकीर्षा-प्रयत्नलक्षणस्य व्यापारस्योक्तत्वानिराकृतम् । वार्तिककारेणापरं प्रमाणद्वयमुपन्यस्तं तत्सिद्धये३० "महाभूतादिव्यक्तं चेतनाधिष्ठितं प्राणिनां सुख-दुःखनिमित्तम्, रूपादिमत्त्वात् , तुर्यादिवत् । तथा, पृथिव्यादीनि महाभूतानि बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितानि स्वासु धारणाद्यासु क्रियासु प्रवर्तन्ते, अनित्यत्वात्, वास्यादिवत्" [न्यायवा० पृ०४६७] इति । अविर्द्धकर्णस्तु तत्सिद्धये इदं प्रमाणद्वयमाह"द्वीन्द्रियग्राह्याग्राह्य विमत्यधिकरणभावापन्नं बुद्धिमत्कारणपूर्वकम्, स्वारम्भकावयवसन्निवे. ३५ शविशिष्टत्वात् , घटादिवत्ः वैधम्र्येण परमाणवः" [ ] इति । तत्र द्वाभ्यां दर्शन स्पर्शनेन्द्रियाभ्यां ग्राह्यं महद-नेकद्रव्यवत्त्व-रूपाद्युपलब्धिकारणोपेतं पृथिव्युदकज्वलनसंज्ञकं त्रिविधं द्रव्यं द्वीन्द्रियग्राह्यम् । अग्राह्यं वाय्वादि, यस्माद् महत्त्वमनेकद्रव्यवत्वं रूपसमवायादिश्वोपलब्धिकारणमिष्यते, तञ्च वाय्वादौ नास्ति । यथोक्तम् "महत्यनेकद्रव्यवत्त्वाद् रूपाच्चोपलब्धिः " [वैशेषिकद० अ०४-१-६] ४० "रूपसंस्काराभावाद् वायावनुपलब्धिः " [ वैशेषिकद० अ० ४-१-७1 रूपसंस्कारो रूपसमवायः, द्वयणुकादीनां त्वनुपलब्धिरमहत्त्वादिति । अन्ये तु "वायोरपि स्पर्शनेन्द्रिय १ पृ. ९८ पं० २। २-घातकृतकृतश्च भां०। ३-णभङ्गे प्र-भां०, गु०, वा०। ४ अत्र दर्शितम् अविद्धकर्णोक्तं प्रमाणद्वयं तत्त्वसंग्रहेऽपि (पृ. ४१श्लो० ४७-४८) ईश्वरपरीक्षाप्रकरणे समायातम् । ५-ग्राह्यविम-भां० । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः । १०१ प्रत्यक्षग्राह्यत्वम्” इच्छन्ति । डीन्द्रियग्राह्यत्वापेक्षया तु रूपसमवायाभावादनुपलब्धिरित्युक्तम् । तत्र सामान्येन द्वीन्द्रियग्राह्यग्राह्यस्य बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वसाधने सिद्धसाध्यतादोषः, घटादिषु उभयसिद्धेर्विवादाभावात्; अभ्युपेतबाधा च, अण्वाकाशादीनां तथाऽनभ्युपगमात् तेषां च नित्यत्वात् प्रत्यक्षादिबाधा । अतस्तदर्थं विमत्यधिकरणभावापन्नग्रहणम् । विविधा मतिर्विमतिविप्रतिपत्तिरिति यावत् तस्या अधिकरणभावापन्न विवादास्पदीभूतमित्यर्थः । एवं च सति ५ शरीरेन्द्रियभुवनादय एवात्र पक्षीकृता इति नाण्वादिप्रसङ्गः । कारणमात्रपूर्वकश्वेऽपि साध्ये सिद्धसाध्यता मा भूदिति बुद्धिमत्कारणग्रहणम् । साङ्ख्यं प्रति मतुबर्थानुपपत्तेर्न सिद्धसाध्यता अव्यतिरिक्ता हि बुद्धिः प्रधानात् साङ्ख्यैरुच्यते, न च तेनैव तदेव तद्वद् भवति । स्वार काणामवयवानां सन्निवेशः प्रचयात्मकः संयोगः- तेन विशिष्टं व्यवच्छिन्नं तद्भावस्तस्मात् । अवयवसन्निवेश विशिष्टत्वं गोत्वादिभिर्व्यभिचारीत्यतः स्वारम्भकग्रहणम् । गोत्वादीनि तु द्रव्यार- १० म्भकावयवसन्निवेशेन विशिष्यन्ते न तु स्वारम्भकावयवसन्निवेशेनेति । तेन योऽसौ बुद्धिमान् स ईश्वर इत्येकम् । द्वितीयं तु तनु-भुवन-करणोपादानानि चेतनाचेतनानि चेतनाधिष्ठितानि स्वकामारभन्त इति प्रतिजानीमहे, रूपादिमत्त्वात्, यद् यद् रूपादिमत् तत् तत् चेतनाधिष्ठितं स्वका मारभते, यथा तन्त्वादि, रूपादिमञ्च तनु-भुवन-करणादिकारणम्, तस्माच्चेतनाधिष्ठितं स्वकामारभते । योऽसौ चेतनस्तनु-भुवन-करणोपादानादेरधिष्ठाता स भगवानीश्वर इति । उद्योतकरस्तु प्रमाणयति - १५ " भुवनहेतवः प्रधान - परमाण्व - दृष्टाः स्वकार्योत्पत्तावतिशयबुद्धिमन्तमधिष्ठातारमपेक्षन्तेः स्थित्वा प्रवृत्तेः, तन्तु-तुर्यादिवत्" [ न्यायवा० पृ० ४५७ ] इति । प्रशस्तमतिस्त्वाह "सर्गादौ पुरुषाणां व्यवहारोऽन्योपदेशपूर्वकः, उत्तरकालं प्रबुद्धानां प्रत्यर्थनियतत्वात्, अप्र- २० सिद्धच ग्व्यवहाराणां कुमाराणां गवादिषु प्रत्यर्थनियतो वाग्व्यवहारो यथा मात्राद्युपदेशपूर्वकः " [ ] इति । प्रबुद्धानां प्रत्यर्थनियतत्वादिति प्रबुद्धानां सतां प्रत्यर्थ नियतत्वादित्यर्थः । यदुपदेशपूर्वकश्च स सर्गादौ व्यवहारः स ईश्वरः प्रलयकालेऽप्यलुप्तज्ञाना तिशय इति सिद्धम् । तथाऽपराण्यपि उद्योतकरेण तत् सिद्धये साधनान्युपन्यस्ता नि "बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितं महाभूतादिकं व्यक्तं सुख-दुःखनिमित्तं भवति, अचेतनत्वात्, कार्य- २५ त्वात् विनाशित्वात्, रूपादिमत्वात्, वास्यादिवत्" [ न्यायवा० पृ० ४५९ ] इति । अथ भवत्वस्माद्धेतुकदम्बकादीश्वरस्य सर्वजगद्धेतुत्वसिद्धिः सर्वज्ञत्वं तु कथं तस्य सिद्धम् येनासौ निःश्रेयसाभ्युदयकामानां भक्तिविषयतां यायात् ? जगत्कर्तृत्वसिद्धेरेवेति ब्रूमः । तथा चाहुः प्रशस्तमतिप्रभृतयः "कर्तुः कार्योपादानो-पकरण-प्रयोजन- संप्रदानपरिज्ञानात् " [ ] इह हि यो यस्य कर्त्ता ३० भवति स तस्योपादानादीनि जानीते, यथा कुलालः कुण्डादीनां कर्त्ता, तदुपादानं मृत्पिण्डम्, उपकरणानि चक्रादीनि प्रयोजनमुदकाहरणादि, कुटुम्बिनं च संप्रदानं जानीत इत्येतत् सिद्धम् ; तथेश्वरः सकलभुवनानां कर्त्ता, स तदुपादानानि परमाण्वादिलक्षणानि, तदुपकरणानि धर्म- दिककालादीनि व्यवहारोपकरणानि सामान्य- विशेष - समवायलक्षणानि, प्रयोजनमुपभोगम्, संप्रदानसंज्ञकांश्च पुरुषान् जानीत इति; अतः सिद्धमस्य सर्वशत्वमिति । अत एव नात्रैतत् प्रेरणीयम् - ३५ सर्वशपूर्वकत्वे क्षित्यादीनां साध्ये साध्यविकलो दृष्टान्तः, हेतुश्च विरुद्धः, असर्वज्ञकर्तृपूर्वकत्वेन कुम्भादेः कार्यस्य व्याप्तिदर्शनात्, किञ्चिज्ज्ञपूर्वकत्वे साध्येऽभ्युपेतबाधा, कारणमात्रपूर्वकत्वे साध्ये कर्मणा सिद्धसाधनमिति, यतः सामान्येन स्वकार्योपादानो-पकरण - संप्रदानाभिशकर्तृपूर्वकत्वं साध्यते तत्र चास्त्येव वस्त्रादिदृष्टान्तः । तस्य छुपादानो-पकरणाद्यभिज्ञकर्तृपूर्वकत्वं सकललोक १ पृ० १०० पं० ३८ । २ चेतनानि चे - वा०, बा०, गु०, हा० । वि० प्रतौ तु 'चेतनाचेतनानि' इति पाठः सन्नपि छिन्नः । प्रमेयकमलमार्तण्डे तु अत्र स्थले "तनु-करण-भुवनोपादानानि चेतनाधिष्टितानि स्वकार्यमारभन्ते " - पृ० ७५ प्रथ० पं० ४ । ३-षु च प्रत्य-भां० वा०, बा०, मां० विना | ४ धर्माऽधर्म - दिक्- गु० । ५-ज्ञपूर्वककां०, गु० । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ प्रथमे काण्डे प्रसिद्धं कथमन्यथाकर्तुं शक्यते अपह्रोतुं वा ? न तु कर्मणा सिद्धसाध्यता, तस्य सकलजगल्लक्षणकार्योपादानाद्यनभिज्ञत्वात् । तदभिज्ञत्वे वा तस्यैव भगवतः 'कर्म' इति नामान्तरं कृतं स्यात् । शेषं त्वत्र चिन्तितमेव । तदेवं सकलदोषरहितादुक्तहेतुकलापाद् ज्ञानाद्यतिशयवहुणयुक्तस्य सिद्धेः तस्य च शासनप्रणेतत्वं नान्येषां योगिनामिति 'भवजिनानां शासनम्' इति अयुक्तमुक्तमिति स्थितम ५इति पूर्वपक्षः॥ [ उत्तरपक्षः-जगतः ईश्वरकृतत्वनिराकरणम् ] अत्र प्रतिविधीयते-यत् तावदुक्तम्-'सामान्यतोदृष्टानुमानस्य तत्र व्यापाराभ्युपगमात् प्रत्यक्षपूर्वकानुमान निषेधे सिद्धसाधनम्' इति, तदसङ्गतम्; सामान्यतोदृष्टानुमानस्यापि तत्सा धकत्वेनाप्रवृत्तेः। तथाहि-तनु-भुवन-करणादिकं बुद्धिमत्कारणपूर्वकम्, कार्यत्वात् , घटादिवत् १० इत्यत्र धर्म्यसिद्धेराश्रयासिद्धस्तावत् कार्यत्वलक्षणो हेतुः। {तथाहि-अवयविरूपं तावत् तन्वादि अवभासमानतनु न युक्तम् ; देशादिभिन्नस्य तन्वादेः स्थूलस्यैकस्यानुपपत्तेः । न ह्यनेकदेशादिगतमेकं भवितुं युक्तम् , विरुद्धधर्माध्यासस्य भेदलक्षणत्वात्देशादिभेदस्य च विरुद्धधर्मरूपत्वात् । तथाप्यभेदे सर्वत्र भिन्नत्वेनाभ्युपगते घट-पटादावपि मेदोपरतिप्रसङ्गात् ; नहि भिन्नत्वेनाभ्युपगते तत्राप्यन्यद् भेद निबन्धनमुत्पश्यामः । प्रतिभासभेदात् १५तत्र मेद इति चेत्, न; विरुद्धधर्माध्यासं भेदकमन्तरेण प्रतिभासस्यापि भेदानुपपत्तेः । अथ 'अवयवी एको न भवति, विरुद्धधर्माध्यासितत्वात्' इत्येतत् किं स्वतन्त्रसाधनम् , उत प्रसङ्गसाधनमिति? न तावत् स्वतन्त्रसाधनं युक्तम् , अवयविनः प्रमाणासिद्धत्वेन हेतोराश्रयासिद्धत्वदोषात्; प्रमाणसिद्धत्वे वा तत्प्रतिपादकप्रमाणबाधितपक्षनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन तस्य कालात्ययापदिष्टत्वदोषदुष्टत्वात् । न च परस्यावयवी सिद्ध इति नाश्रयासिद्धत्वदोष इति वक्तुं २० युक्तम् , यतः परस्य किं प्रमाणतोऽसौ सिद्धः, उनाप्रमाणतः? प्रमाणतश्चेत् तर्हि भवतोऽपि किं न सिद्धःप्रमाणसिद्धस्य सर्वान् प्रत्यविशेषात्? तथा च तदेव कालात्ययापदिष्टत्वं हेतोः। अथाs. प्रमाणतस्तदा न परस्यापि सिद्ध इति पुनरप्याश्रयासिद्धत्वम् । तन्न प्रथमः पक्षः । नाऽपि द्वितीयः, यतः व्याप्याभ्युपगमो यत्र व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयकः प्रदर्श्यते तत् प्रसङ्गसाधनम् । न च परस्य भेद-विरुद्धधर्माध्यासयोाप्यव्यापकभावः सिद्धः, देशादिभेदलक्षणविरुद्धधर्माध्यासाभावेऽपि २५ रूप-रसयोर्भेदाभ्युपगमात् । तद्भावेऽपि सामान्यादावभेदस्य प्रमाणसिद्धत्वादिति न वक्तव्यम् । यतः प्रथमः पक्षस्तावद् अनभ्युपगमादेव निरस्तः । प्रसङ्गसाधनपक्षे तु यद् दूषणमभिहितम्'देशभेदलक्षणविरुद्धधर्माध्यासाभावेऽपि रूप-रसयोर्भेदः' इति, तद् व्याप्यव्यापकभावापरिज्ञानं सूचयति न पुनर्व्याप्यव्यापकभावाभावम्, यतो देशभेदे सति यद्यभेदः क्वचित् सिद्धः स्यात् तदा व्यापकाभावेऽपि विरुद्धधर्माध्यासस्य भावान्न तस्य तेन व्याप्तिः स्यात् यदा तु देशाभेदेऽपि रूप३० रसयोर्भेदस्तदा देशमेदो मेव्यापको न स्यात् । न पुनरेतावता भेदो विरुद्धधर्माध्यासव्यापको न स्यात् । यदि हि मेदव्यावृत्तावपि देशादिभेदोन व्यावर्त्तत तदा व्यापकल्यावृत्तावपि व्याप्यस्याव्यावृत्तेन भेदेन देशादिविरुद्धधर्माध्यासो व्याप्येत; न चैतत् क्वचिदपि सिद्धम् । यत् तु 'सामान्यादावभेदस्य प्रमाणतः सिद्धर्मेदव्यावृनावपि न देशादिभेदलक्षणस्य विरुद्धधर्माध्यासस्य निवृत्तिः' इति, तदयुक्तम् । सामान्यादेः प्रमाणतोऽभिन्नरूपस्यासिद्धेः। उक्तंच३५“यदि विरुद्धधर्माध्यासः पदार्थानां भेदको न स्यात् तदाऽन्यस्य तद्भेदकस्याभावाद् विश्वमेक स्यात्" [ ] प्रतिभासमेदस्यापि तमन्तरेण भेदव्यवस्थापकस्याभावादिति व्याप्यव्यापकभावसिद्धेः कथं न प्रसङ्गसाधनस्यात्रावकाशः ? अथैकत्वप्रतिभासाद् देशादिमेदेऽपि तन्वादेरेकता, न; देशमेदेन व्यवस्थितानामवयवानां प्रतिभासभेदेन मेदात्। न ह्येकरूपा भागा भासन्ते, पिण्डस्याणुमात्रताऽऽपत्तेः; तद्यतिरिक्तस्य ४०चापरस्य तन्वाद्यवयविनो द्रव्यस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलम्भेनासत्त्वात् । न च तस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तता परैर्नाभ्युपगम्यते। १ पृ० ६९ पं० २०। २ पृ. ९३ पं० ३५। ३ प्र. पृ० पं० २४ । ४ "विरुद्धधर्माध्यासस्य" मां.टि.। ५ "भेदेन" मा.टि०। ६ प्र. पृ० पं० २५ । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः। १०३ "महत्यनेकद्रव्यवत्वात् रूपाञ्चोपलब्धिः " [वैशेषिकद० अ०४-१-६] इति वचनात् । तत् सिद्धमनुपलब्धेः 'उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य' इति विशेषणम् । न च मध्यो-दिभागव्यतिरिक्तवपुर्वहि ह्याकारतां बिभ्राणस्तन्वादिद्रव्यात्मा दर्शने चकास्तीत्यनुपलब्धिरपि सिद्धा। न च समानदेशत्वादद्वयविनोऽवयवेभ्यः पृथगनुपलक्षणमिति वक्तुं शक्यम्, समानदेशत्वादिति विकल्पानुपपत्तेः । तथाहि-समानदेशत्वमवयवाऽवयविनोः किं पारिभाषिकम, ५ लौकिकं वा? यदि पारिभाषिकम्, तदनुरोष्यम्; परिभाषाया अत्रानधिकारात् । न च तत् तत्र भवदभिप्रायेण सिद्धम्। तथाहि-अन्य एव पाण्यादय आरम्भका देशास्तन्वाद्यवयविनो भवद्भिः परिभाष्यन्ते, अन्ये च पाण्यादीनां तदवयवानामारम्भका देशाः, आरभ्यारम्भकवादनिषेधात् । तन्न पारिभाषिकं समानदेशत्वम् । नापि लौकिकम्, आकाशस्य लोकप्रसिद्धस्य समानदेशस्यास्मान् प्रति असिद्धत्वात् । प्रकाशादिरूपस्य च देशस्य तत्सिद्धस्य समानत्वेऽपि मिन्नानां वाताऽऽतपा-१० दीनां भेदेनोपलब्धेः। तथाहि-समानदेशा अपि भावा वाताऽऽतपादयो भिन्नतनवः पृथक् प्रथन्ते; न चैवमवयविनिर्भासः। तनावयवी तन्वादिभिन्नोऽस्ति । _____ अथ मन्दमन्दप्रकाशे अवयवप्रतिभासमन्तरेणाप्यवयविनि प्रतिभास उपलभ्यते तत् कथं प्रतिभासाभावात् तस्याभावः? असदेतत् नहि तथाभूतोऽस्पष्टप्रतिभासोऽवयविस्वरूपव्यवस्थापको युक्तः, तत्प्रतिभासस्यास्पष्टरूपस्य स्पष्टज्ञानावभासितत्स्वरूपेण विरोधात् । अथ स्वरूप-१५ द्वयमेतदवयविनः-स्पष्टम् अस्पष्टं च । तत्रास्पष्टं मन्दालोकज्ञानविषयः; स्पष्टं तु सालोकज्ञानभूमिः। नन्वेतत् स्वरूपद्वयं केनावयविनो गृह्यते? न तावद् मन्दालोकशानेन, तत्र सालोकमानविषय स्पष्टरूपानवभासनात् ; अस्पष्टतत्स्वरूपप्रतिभासं हि तदनुभूयते । नापि सालोकमानेन स्पष्टतत्स्वरूपावभासिना, तत्र मन्दालोकज्ञानावभासितत्स्वरूपानवभासनात्; नहि परिस्फुटप्रतिभासवेलायामविशदरूपाकारोऽवयव्यर्थः प्रतिभाति तत् कथमसाववयविनः स्वरूपम् ? अथ 'मन्दालो-२० कदृष्टमवयविनः स्वरूपं परिस्फुटमिदानीं पश्यामि' इति तयोरेकता; ननु किमपरिस्फुटरूपतया परिस्फुट रूपमवगम्यते, आहोखित् परिस्फुटतयाऽपरिस्फुटम् ? तत्र यद्याद्यः पक्षः, तदाऽपरिस्फुटरूपसंबन्धित्वमेवावयविनः प्राप्नोति, परिस्फुटस्य रूपस्यास्फुटरूपताऽनुप्रवेशेन प्रतिभासनात् । अथ द्वितीयः पक्षः, तथासति स्पष्टस्वरूपसंबन्धित्वमेव, अस्पष्टस्य विशदस्वरूपानुप्रविष्टत्वेन प्रतिभासनात् । तन्न स्वरूपद्वयावगमोऽवयविनः। एकत्वप्रतिभासनं तु प्रतिभासरहितमभिमानमात्र २५ स्पष्टास्पष्टरूपयोः; अन्यथा सालोकज्ञानवदू मन्दालोकज्ञानमपि परिस्फुटप्रतिभासं स्यात् । अथाssलोकभावाभावकृतस्तत्र स्पष्टास्पष्टप्रतिभासमेदः, नन्वालोकेनाप्यवयविस्वरूपमेवोद्धासनीयम, तच्चेद् अविकलं मन्दालोके प्रतिभाति कथं न तत्र तदवभासकृतः स्पष्टावभासः? अन्यथा विषया, वभासव्यतिरेकेणापि ज्ञानप्रतिभासमेदे न ज्ञानावभासमेदो रूप-रसयोरपि मेदव्यवस्थापक: स्यात् । अथावयविस्वरूपमेकमेवोभयत्र प्रतीयते, व्यक्ताऽव्यक्ताकारी तु ज्ञानस्यात्मानावित्युच्येत-३० तदप्यसत्; यतो यदि शानाकारौ तौ कथमवयविरूपतया प्रतिभातः? तद्रूपतया च प्रतिभासनादवयव्याकारौ तावभ्युपगन्तव्यौ । नहि व्यक्तरूपताम् अव्यक्तरूपतां च मुत्वा अवयविस्वरूपमपर" माभाति । तत् तस्यानचभासादभाव एव । व्यक्ताऽव्यक्तैकात्मनश्चावयविनो व्यक्ताऽव्यक्ताकारवद् भेदः । नहि प्रतिभासमेदेऽप्येकता, अतिप्रसङ्गात् । तन्न अस्पष्टप्रतिभासमन्धकारेऽवयविनो रूपमवयवाप्रतिभासेऽपि प्रतिभातीति वक्तुं युक्तम् , उक्तदोषप्रसङ्गात् । किंच, किं कतिपयावयवप्रतिभासे सति अवयवी प्रतिभातीत्यभ्युपगम्यते, आहोस्वित् सम. स्सावयवप्रतिभासे? यद्याद्यः पक्षा, सन युक्तः, जलमग्नमहाकायस्तम्भादेरुपरितनकतिपयावयव. प्रतिभासेऽपि समस्तावयवव्यापिनः स्तम्भाद्यवयविनोऽप्रतिभासनात्। अथ द्वितीयः पक्षः, सोऽपि न युक्तः, मध्य-परभागवर्तिसमस्तावयवप्रतिभासासंभवेनावयविनोऽप्रतिभासप्रसङ्गात् । अथ भूयोऽवयवग्रहणे सति अवयवी गृह्यत इत्यभ्युपगमः, सोऽपि न युक्तः, यतोऽर्वाग्भागभाव्यवयव-४० ग्राहिणा प्रत्यक्षेण परभागभाव्यवयवाग्रहणादून तेन तद्याप्तिरवयविनो ग्रहीतुं शक्या; व्याप्याग्रहणे तेन तद्यापकत्वस्यापि ग्रहीतुमशक्तेः; ग्रहणे वाऽतिप्रसङ्गः। तथाहि-यद् येन रूपेण अवभाति १वा कां०। २-भासिततत्स्व-भी। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ प्रथमे काण्डेतत् तेनैव रूपेण सदिति व्यवहारविषयः-यथा नीलं नीलरूपतया प्रतिभासमानं तेनैव रूपेण तद्विषयः, अर्वाग्भागभाव्यवयवसंबन्धितया चाऽवयवी प्रतिभातीति स्वभावहेतुः। न च परभागभाविव्यवहितावयवाऽप्रतिभासनेऽप्यव्यवहितोऽवयवी प्रतिभातीति वक्तुं शक्यम्, तदप्रतिभासने तद्गतत्वेनाप्रतिभासनात् । यस्मिंश्च प्रतिभासमाने यद् रूपं न प्रतिभाति, तत् ततो भिन्नम्-यथा ५घटे प्रतिभासमानेऽप्रतिभासमानं पटस्वरूपम् । न प्रतिभाति च अर्वाग्भागभाव्यवयवसंबन्ध्यवयविस्वरूपे प्रतिभासमाने परभागभाव्यवयवसंवन्ध्यवयविस्वरूपम् इति कथं न तत् ततो मिन्नम् ? तथाऽप्यभेदेऽतिप्रसङ्गः प्रतिपादितः। नापि परभागभाव्यवयवाऽवयविग्राहिणा प्रत्यक्षेण अर्वाग्भागभाव्यवयवसंबन्धित्वं तस्य गृह्यते, तत्र तदवयवानां प्रतिभासात् तत्संबन्ध्येवावयविस्वरूपं प्रतिभासेत नार्वाग्भागभाव्यवयवसंबन्धिः तेषां तत्राप्रतिभासनात् । तदप्रतिभासने च तत्संब१०न्धिरूपस्याप्यप्रतिभासनात्, व्याप्याप्रतिपत्तौ तद्यापकत्वस्यौप्यप्रतिपत्तेः। नापि स्मरणेन अर्वाक् परभागभाव्यवयवसंबन्ध्यवयविस्वरूपग्रहः, प्रत्यक्षानुसारेण स्मरणस्य प्रवृत्त्युपपत्ते, प्रत्यक्षस्य च तद्राहकत्वनिषेधात् । नाप्यात्मा अर्वाक्-परभागावयवव्यापित्वमवयविनो ग्रहीतुं समर्थः-सत्तामात्रेण तस्य तद्राहकत्वानुपपत्तेः; अन्यथा स्वाप-मद-मूर्छाद्यवस्थास्वपि तत्प्रतिपत्तिप्रसङ्गात्किन्तु दर्शनसहायः; तच्च दर्शनं न अवयविनोऽवयवव्याप्तिग्राहकं प्रत्यक्षादिकं संभवतीति प्रतिपा१५ दितम् । अथार्वाग्भागदर्शने सत्युत्तरकालं परभागदर्शनेऽनन्तरस्मरणसहकारीन्द्रियजनितं 'स एवायम्' इति प्रत्यभिज्ञाज्ञानमध्यक्षमवयविनः पूर्वापरावयवव्याप्तिग्राहकम्, तदयुक्तम् ; प्रत्यभिज्ञाज्ञानस्यैतद्विषयस्य प्रत्यक्षत्वानुपपत्तेः । अक्षानुसारि हि प्रत्यक्षम्, न चाक्षाणामक-परभागभाव्यवयवग्रहणे व्यापारः संभवति, व्यवहिते तेषां व्यापारासंभवात् ; संभवे वाऽतिव्यवहितेऽपि मेरु. पृष्ठादौ व्यापारः स्यात् । तन्न तदनुसारिणोऽध्यक्षरूपस्य प्रत्यभिज्ञाशानस्य तत्र व्यापारः। न च २० स्मरणसहायस्यापीन्द्रियस्याविषये व्यापारः संभवति, यद् यस्याऽविषयः न तत् तत्र स्मरणसहाय मपि प्रवर्त्तते-यथा परिमलस्मरणसहायमपि लोचनं गन्धादौ, अविषयश्च व्यवहितोऽक्षाणां परभागभाव्यवयवसंबन्धित्वलक्षणोऽवयविनः स्वभाव इति नाक्षजस्य प्रत्यमिशाज्ञानस्यावयविस्वरूपग्राहकन्वम् । न च 'स एवायम्' इति प्रतीतिरेका, 'सः' इति स्मृतेः रूपम्, 'अयम्' इति तु दृशः स्वरूपम् । तत् परोक्षाऽपरोक्षाकारत्वाद् नैकस्वभावावेतौ प्रत्ययौ । अथ ‘स एवायम्' इत्येकाधिः २५करणतया एतौ प्रतिभात इति एकं प्रत्यभिज्ञाज्ञानम् , न; आकारमेदे सति दर्शन-स्मरणयोरिव सामानाधिकरण्याध्यवसायेऽप्येकत्वानुपपत्तेः। अन्यत्राप्याकारभेद एव भेदः, स चात्रापि विद्यत इति कथमेकत्वम् ? किञ्च, 'सः' इत्याकारः 'अयम्' इत्याकारानुप्रवेशेन प्रतिभाति, आहोखिद अननुप्रवेशेनेति? यदि अनुप्रवेशेन, 'सः' इत्याकारस्य 'अयम्' इत्याकारे अनुप्रविष्टत्वादभाव इति 'अयम्' इत्याकार एव केवलः प्राप्त इति कुतः 'सोऽयम्' इत्येका प्रत्यभिज्ञा? अथ 'अयम्' इत्याकार: ३०'सः' इत्येतस्मिन्ननुप्रविष्टस्तदा 'सः' इत्येव प्राप्तो न 'अयम्' इत्यपि इति कथमेका प्रत्यभिज्ञा? अथ ‘स एव' 'अयम्' इत्याकारौ परस्पराननुप्रविष्टौ प्रतिभातस्तथापि भिन्नाकारौ भिन्नविषयौ च द्वौ प्रत्ययाविति कथमेकार्था एका प्रत्यभिज्ञा प्रतिभासभेदस्य विषयभेदव्यवस्थापकत्वात् ? न च प्रति. भासमेदेऽपि विषयामेदः, प्रतिभासामेदव्यतिरेकेण विषयामेदव्यवस्थायां प्रमाणं विना प्रमेयाभ्यु पगमः स्यात्। तथा च सर्व सर्वस्य सिध्येत् । तन्न प्रत्यभिज्ञातोऽप्यवयव्येकत्वग्रहः । अनुमानस्य च ३५अवयविस्वरूपग्राहकस्य प्रत्यक्षनिषेधे तत्पूर्वकस्य निषेधः कृत एव । सामान्यतोदृष्टस्य चावयविप्रतिषेधप्रस्तावे निषेधो विधास्यत इत्यास्तां तावत् । अथ 'एको घटः' इति द्रव्यप्रतीतिरस्ति तदवयवव्यतिरेकिणी तत् कथमभावोऽवयविनः ? न; घटावसायेऽपि तदवयवाध्यवसायः नामोल्लेखश्चाध्यवसीयते नावयवि द्रव्य पकृित्यक्षराकार शून्यस्य तद्रूपस्य केनचिदप्यननुभवात् । वर्णाकृत्यक्षराकारशून्यं चावयविस्वरूपमभ्युपगम्यते । न च ४० तेन रूपेण कल्पनाशानेऽपि तत् प्रतिभाति, न चान्याकारः प्रतिभासोऽन्याकारस्य वस्तुस्वरूपस्य व्यवस्थापक; अन्यथा नीलप्रतिभासः पीतस्य व्यवस्थापकः स्यादिति न वस्तुव्यवस्था स्यात् । १ -स्याप्रति-कां०, गु०। २ पृ० १०३ पं० ४१। ३ पृ० १०३ पं० ४१। ४-सारि हि तत् प्रत्य -कां०, गु०, हा०। ५-नम् आका-वा०, बा० विना । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः। तस्माद न कल्पनोल्लिख्यमानवपुरप्यवयवी बहिरस्ति, केवलमनादिरयमेकव्यवहारो मिथ्यार्थः। न च व्यवहारमात्रा बहिरेकं वस्तु सिध्यति, 'नीलादीनां स्वभावः' इत्यत्रापि व्यवहाराभेदादेकता. प्राप्तेः स्वभावस्य । अथ तत्र प्रतिनीलादिस्वभावं दर्शनभेदादेकत्वं बाध्यते, इहापि तर्हि बहीरूपस्योर्डाऽधो-मध्यादिनिर्भासस्य भेदादेकता तन्वादीनां प्रतिदलतु । तनावयविरूपो याह्योऽथोंऽस्ति । अथावयविनोऽभावे तदवयवानामपि पाण्यादीनां दिग्मेदादिविरुद्धधर्माध्यासाद् भेदः, तद. ५ वयवानामप्यङ्गुल्यादीनां तत एव भेदात् तावद् भेदो यावत् परमाणवः, तेषां च स्थूलप्रतिभासविषयत्वानुपपत्तिः। स्थूलतनुश्च बहिर्नीलादिरूपः प्रतिभासः स्फुटमुद्भाति । न च स्थूलरूपं प्रत्येकं परमाणुषु संभवति, तथात्वे परमाणुत्वायोगात् । नापि समुदितेषु स्थूलरूपसंभवः, समुदितावस्थायामप्यणूनां स्वरूपेण सूक्ष्मत्वात् । न च तद्व्यतिरिक्तः समुदायोऽस्ति, तथात्वे द्रव्यवादप्रसकात् तत्र चोक्तो दोषः। तन्न स्थूलता परमाणुषु कथञ्चिदपि संभवति । न चान्याहग निर्भासोऽ-१० न्यारक्षस्यार्थस्य प्रकाशकः, नीलदर्शनस्यापि पीतव्यवस्थापकत्वापत्तेः; तथा च नियतविषयव्यवस्थोच्छेदः। किञ्च, परमाणोरपि नानादिसंबन्धादेकता नोपपन्नैव । तथा चाह "षट्केन युगपद्योगात् परमाणोः षडंशता" [ ] इति । पुनस्तदंशानामपि नानादिक्संबन्धात् सांशताऽऽपत्तिः, तथा चानवस्था । तस्मान्न परमाणूनामपि सत्त्वम् इत्यवयव्यग्रहणे सर्वाग्रहणप्रसङ्ग इति प्रतिभासाभावापत्तने प्रसङ्गसाधनस्यावकाशः। १५ असदेतत्। अवयव्यभावेऽपि निरन्तरोत्पन्नानां घटाद्याकारेण परमाणूनां सद्भावात् तद्राहकाणामपि शानपरमाणूनां तथोत्पन्नानां तद्राहकत्वाद् न बहिरर्थाभावः, नापि तत्प्रतिभासाभाव इति कथं प्रसङ्गसाधनस्य नावकाशः स्थूलैकरूपावयव्यभावेऽपि? यदि चावयविनोऽभावे परमाणूनामप्यभावप्रसक्तेः प्रतिभासाभावेन प्रसङ्गसाधनानवकाशः प्रतिपाद्यत तदा सुतरां परमाणुरूपस्य २० ज्ञानरूपस्य चार्थस्याभावे कार्यत्वादिलक्षणस्य हेतोराश्रयासिद्धतादोषः। बाह्यार्थनयेन चास्माभिराश्रयासिद्धतादोषात् कार्यत्वलक्षणाद्धेतोर्नेश्वरसिद्धिरिति प्रतिपादयितुमभिप्रेतम्, यदि पुनर्विज्ञान-शून्यवादानुकूलं भवताऽप्यनुष्ठीयते तदा साध्य-दृष्टान्तधर्मिसाध्य-साधनधर्मादीनामनुमित्यङ्गभूतानां सर्वेषामप्यसिद्धेः कुत उपन्यस्तप्रयोगादीश्वरसिद्धिः? तदेवं तन्वादिलक्षणस्य कार्यत्वादिहेत्वाश्रयस्यावयविनोऽसिद्धराश्रयासिद्धो हेतुः।} २५ { तथा, 'बुद्धिमत्कारणम्' इति साध्यनिर्देशे 'बुद्धिमत्' इति मतुबर्थस्य साध्यधर्मविशेषणस्थानुपपत्तिः, तज्ज्ञानस्य ततो व्यतिरेके अकार्यत्वे च 'तस्य' इति संबन्धानुपपत्तेः। तद्गुणत्वात् तत् तस्येति चेत्, न; अकार्यत्वे व्यतिरेके च 'तस्यैव तहुणो नाकाशादेः' इति व्यवस्थापयितु. मशक्तेः । समवायो व्यवस्थाकारीति चेत्, न; तस्यापि ताभ्यामर्थान्तरत्वे स एव दोषः-व्यतिरेके समवायस्यापि सर्वत्राविशेषान्न ततोऽपि तद्यवस्था । अथेश्वरात्मकार्यत्वाद् ईश्वरात्मगुणस्तज्ज्ञा-३० नम्, कुत एतत् ? तस्मिन् सति भावादिति चेत्, आकाशादावपि सति तस्य भावात् तत्कार्यता किं न स्यात् ? अथ तद्भावेऽभावात् तत्कार्यत्वम्, तन्न; नित्य-व्यापित्वाभ्यां तस्य तदद्योगात् । तदात्मन्युत्कलितस्य तस्य दर्शनात् तत्कार्यतेति, किमिदं तस्य तत्रोत्कलितत्वम्? तत्र समवेतत्वं तस्येति चेत्, नन्विदमेव पृष्टं किमिदं समवेतत्वं नाम? तत्र समवायेन वर्तनमिति चेत्, ननु किं व्याख्या समवायेन तत्र वर्तनम्, आहोखिदव्याप्त्या? यदि व्यात्या तदाऽस्मदादिज्ञानवैलक्षण्यं यथा तज्ज्ञा-३५ नस्यादृष्टस्यापि कल्प्यते तथाऽकृष्टोत्पत्तिषु वने वनस्पत्यादिषु घटादौ कर्म-कर्तृ-करण निर्वयं कार्यत्वमुपलब्धमपि चेतनकर्तृरहितमपि भविष्यतीति कार्यत्वलक्षणो हेतुर्बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वे साध्ये स्थावरैर्व्यभिचारीति लाभमिच्छतो मलक्षतिरायातेति । अथ अव्यात्या तत् तत्र वर्तते तदा देशान्तरोत्पत्तिमत्सु तन्वादिषु तस्याऽसन्निधानेऽपि यथा व्यापारस्तथाऽदृष्टस्याप्यन्यादिदेशेष्वसन्निहितस्यापि ऊर्ध्वज्वलनादिविषयो व्यापारो भविष्यतीति । "अग्नेरूद्धज्वलनम्, वायोस्तिर्यपवनम्, अणु-मनसोश्चाद्यं कर्माऽदृष्टकारितम्" [वैशेषिकद० अ०५-२-१३] ५० १पृ० १०२ पं. ११ स० त० १४ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेइत्यनेन सूत्रेण सर्वगतात्मसाधकहेतुसूचनं यत् कृतं तदसङ्गतं स्यात्, शानादिविशेषगुणवदृष्ट. गुणस्य तत्रासन्निहितस्याप्यन्यायूद्धज्वलनादिकार्येषु व्यापारसंभवात् । न च सामान्यगुणविशेषगुणत्वलक्षणोऽपि विशेषो गुण-गुणिनो दे संभवति । किंच, समवायस्य सर्वत्राविशेष 'तत्रैव तेन वर्त्तनं नान्यत्र' इति कुतोऽयं विभागः? अथ तत्राऽऽधेयत्वं समवेतत्वं तदा आत्मवद् ५ गगनादेरपि सर्वगतत्वे 'तदात्मन्येव तदाधेयत्वं नान्यत्र' इति दुर्लभोऽयं विभागः। ततस्तज्ज्ञानस्य तदात्मनो व्यतिरेके 'तस्यैव तज्ज्ञानम्' इति संबन्धानुपपत्तिः । ___अथ ततस्तज्ज्ञानस्य भेदेऽपि संबन्धस्य समवायरूपस्य भावान्नायं दोषः' असदेतत्; सम. वायस्यानुपपत्तेः। [प्रसङ्गवशात् समवायनिरसनम् ] १० तथाहि-किं सतां समवायः, आहोस्विद् असतामिति ? तत्र यदि असतामिति पक्षः, स न युक्तः; शशविषाण-व्योमोत्पलादीनामपि तत्प्रसङ्गात् । अथात्यन्तासत्त्वात् तेषां न तत्प्रसङ्गः, ननु तदात्म-तज्ज्ञानयोरत्यन्तासत्त्वाभावः कुतः ? तत्समवायादिति चेत्, इतरेतराश्रयत्वम्-सिद्धे तत्समवाये तयोरत्यन्तासत्त्वाभावः, तदभावाच्च तत्समवाय इति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । अथ सतां समवायः, ननु तेषां समवायात प्राक कुतः सत्त्वम् ? यदि अपरसमवायात्, तदसत् तस्यै. १५कत्वाभ्युपगमात् । अनेकत्वेऽपि यदि अपरसमवायात् प्राक् तेषां सत्त्वम्, सम(तत्सम)वायादपि प्रागपरसमवायात् तेषां सत्त्वमभ्युपगन्तव्यमित्यनवस्था। अथ समवायात् प्राक् तेषां स्वत एव सत्त्वमिति नानवस्था तर्हि समवायव्यतिरेकेणापि सत्त्वाभ्युपगमे व्यर्थ समवायपरिकल्पनमिति 'सत्तासंबन्धात् पदार्थानां सत्ता' इत्युच्यमानं न शोभामावहति । ___ अथ समवायात् प्राक् पदार्थानां न सत्त्वम् नाप्यसत्त्वम् सत्तासमवायः सत्त्वम्, असदे२० तत्; यतो यदि तत्समवायात् प्राक् पदार्था योगिज्ञानमपि न जनयन्ति तदा कथं तेषां नासत्त्वम् ? अथ तद् जनयन्ति तदा कथं तेषां न सत्त्वम् ? किंच, अन्योऽन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकनिषेधस्यापरसद्भावनान्तरीयकत्वात् कथमसत्त्वनिषेधे न सत्त्वविधानम? तदविधाने वा कथं नासत्वनिषेधः? इत्ययुक्तमुक्तमुद्योतकरेण-"गोत्वसंबन्धात् प्राग् न गौः, नाप्यगौः, गोत्वयोगाद् गौः" [न्यायवा० पृ० ३१८ पं० २१ ] इति । अपि च, समवायाद् यदि पदार्थानां सत्त्वम् समवायस्य कुतः सत्त्वमिति २५वक्तव्यम् । यदि अपरसमवायात्, अनवस्था । अथ स्वत एव समवायस्य सत्त्वम्, पदार्थानामपि तत् स्वत एवास्तु रपि व्यर्थ सत्तासमवायकल्पनम् । अथ यदि नाम समवायस्य स्वतः सत्त्वमिति रूपम् कथमन्यपदार्थानामपि तदेव रूपमिति सचेतसा वक्तुं युक्तम् ? नहि लवणस्य स्वतो लवणत्वे सूपादेरपि तद्यतिरेकेण तद् भवति, असदेतत्; यतोऽध्यक्षतः सिद्धे पदार्थस्वभावे युज्यतैतद् वक्तुम् ; न च समवायादेः स्वरूपतः सत्त्वम् अन्यपदार्थानां तु तत्सद्भावात् सत्त्वमित्यध्यक्षात् सिद्धम् । ३० अपि च, अयं समवायः किं समवायिनोः परिकल्प्यते, उतासमवायिनोरिति विकल्पद्वयम् । तत्र यद्यसमवायिनोरिति पक्षः, स न युक्तः, घट-पटयोरत्यन्तभिन्नयोस्तत्प्रसङ्गात् । न चासमवायिनोभिन्नसमवायेन समवायित्वं तदभिन्नं विधातुं शक्यम्, विरुद्धधर्माध्यासेन ताभ्यां तस्य भेदप्रसङ्गात् । नापि भिन्नम्, तत्करणे तयोः तत्संबन्धित्वानुपपत्तेः; भिन्नस्योपकारमन्तरेण तदयो. गात् । उपकारेऽपि तद्भिन्नसमवायित्वकरणे पुनरपि तयोरसमवायित्वम्, अन्यान्योपकारकरणे ३५त्वनवस्था। स्वत एव तु समवायिनोः किं समवायेन तद्धेतुना परिकल्पितेन? अथ समवायेन तयोस्तद्यवहारः क्रियते, ननु यदि समवायिनोः स्वरूपं प्रत्यक्षादिप्रमाणगोचरस्तदा तत एव तद्यवहारस्यापि सिद्धर्व्यर्थमेव तदर्थ तत्परिकल्पनम् । अथ प्रत्यक्षप्रमाणसिद्धत्वात् समवायस्य एवं विकल्पनमयुक्तम्, तदसत्; यदि हि तत्सिद्धत्वं १-गुणत्व-वि-गु०। २ "गगनादौ” वि.टि.। ३-नुत्पत्तेः वा०, बा. विना। ४ न प्रसङ्गः वा०, बा०, का०, गु०। ५ समवायादपि तत्सपरपरसमवायात वा०, बा०। ६ “समवाय" (सद्भावात् ) वि.टि.। ७ प्रमेयकमलमार्तण्डे तु "स्वत एव तु समवायिनोः समवायित्वे किं समवायेन ?" इत्यादिपाठः-पृ. १८८ द्वि० पृ.पं०८॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः । तस्य स्यात् तदा युक्तमेतत् न च प्रत्यक्षप्रमाणे तत्स्वरूपावभासः - नहि तदात्मा, ज्ञानम् तत्समवायश्चेति त्रितयमिन्द्रियजाध्यक्षगोचरः, नापि स्वसंवेदनाध्यक्ष विषयः, तस्य भवताऽनभ्युपगमात् । नाप्येकार्थसमवेतानन्तरमनोऽध्यक्षविषयः, तस्य प्रागेव निषिद्धत्वात् । न च बाह्येष्वपि घट- रूपा दिष्वर्थेषु 'अयं घटः, एते च तत्समवेता रूपादयः, अयं च तदन्तरालवर्त्ती भिन्नः समवायः' इति त्रितयमध्यप्रतीतौ विभिन्नस्वरूपं प्रतिभाति । तत्प्रतिभाने वा द्रव्य-गुण-समवायानामध्यक्ष सि. ५ त्वाद् विभिन्नस्वरूपतया न गुणगुणिभावे समवाये वा कस्यचिद् विवादः स्यात् नाप्येकत्ववि भ्रमो घट-रूपादीनाम्, ततश्च तन्निराकरणार्थ शास्त्रप्रणयनमपार्थकं स्यात् । ननु यथा प्रत्यक्षेण प्रतिपन्नेऽप्यनेकान्ते जैनेन, स्वलक्षणे वा बौद्धेन स्वदुरागमाहितवासनावलाल्लोकस्य तेन तदप्रतिपन्नताविभ्रमः तन्निराकरणार्थे च शास्त्रप्रणयनम् तथाऽत्रापि स्यादिति तर्हि तथाविधशास्त्ररहितानामबला - बालादीनां न समवाय प्रत्यक्षताविभ्रम इति तेषां 'शुक्लः पटः' इति प्रतीतिर्न स्यात्, अपि १० तु 'अयं पटः, एते शुक्लादयो गुणाः, अयं च तदन्तरालवर्त्ती अपरः समवायः' इति प्रतीतिः स्यात् । अथ समवायस्य सूक्ष्मत्वात् प्रत्यक्षत्वेऽप्यनुपलक्षणात् तत्रस्थत्वेन रूपादीनामुपचारात् 'शुक्लः पटः' इति प्रतिपत्तिः स्यात्, नैतत्; एवं दण्डेऽपि 'पुरुषः' इति प्रतिपत्तिः स्यात् । उपचाराश्चेयं प्रतिपत्तिरुपजायमाना स्खलद्रूपा स्याद् वाही के गोबुद्धिवत् । न च 'समवेतमिदं वस्तु अत्र' इति प्रतिपत्तौ विशेषणभूतः समवायः प्रतिभातीति वक्तुं युक्तम, बहिष्प्रतिभासमानरूपादिव्यतिरेकेण १५ अन्तश्चाभिजल्पमन्तरेणापरस्य वर्णाकृत्यक्षराकारशून्यस्य ग्राह्याकारतां विभ्राणस्य वहिः समवाय स्वरूपस्याप्रतिभासनात् । वर्णाद्याकाररहितं च परैः समवायस्वरूपमभ्युपगम्यते । न च तत्कल्पनाबुद्धावपि प्रतिभाति । न चान्यादृशः प्रतिभासोऽन्यादक्षस्यार्थस्य व्यवस्थापकः, अतिप्रसङ्गात् । तन्न समवायोऽध्यक्ष प्रमाणगोचरः । १०७ यस्त्वाह- "नित्यानुमेयत्वात् समवायस्यानुमानगोचरता, तेनायमदोष इति । तच्चानुमानम् - २० 'इह तन्तुषु पटः' इति बुद्धिस्तन्तु - पटव्यतिरिक्तसंबन्धपूर्विका, 'इह' इति बुद्धित्वात् इह कंसपात्र्यां जलबुद्धिवत्" [ ] इत्येतत् सोऽप्ययुक्तवादी; 'समवायस्यान्यस्य वा पदार्थस्य नित्यैकरूपस्य कारणत्वासंभवात् क्वचिदपि' इति प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । न च 'तन्तुषु पटः, शृङ्गे गौः, शाखायां वृक्षः' इति लौकिकी प्रतीतिरस्ति, 'पटे तन्तवः, गवि शृङ्गम्, वृक्षे शाखा' इत्याकारेण प्रतीत्युत्पत्तेः संवेदनात्, तस्याश्च समवायनिबन्धनत्वे तन्त्वादीनां पटाद्यारब्धत्वप्रसङ्गः । २५ किंच, समवायस्य समवायिभिरनभिसंबन्धे तस्य तत्र “संवैद्धबुद्धिजननं तेषां संबन्ध एव च" [ ] इति च न युक्तम्, न हि दण्ड- पुरुषयोः संयोगः सह्य- विन्ध्याभ्यामनभिसंबन्ध्यमानस्तत्र संबन्धबुद्धिहेतुः तत्संबन्धो वा । तैस्तदभिसंबन्धे वा स्वतः द्रव्य-गुण-कर्मणां स्वाधारैः स्वतः संबन्धः किं न स्यात् यतः समवायपरिकल्पनाऽऽनर्थक्यमनुवीत ? 'इह समवायिषु समवायः' इति च बुद्धिरपरनिमित्तिका प्रकृतस्य हेतोरनैकान्तिकत्वं कथं न साधयेत् ३० स्वतस्तत्संबन्धाभ्युपगमे ? समवायान्तरेण तस्य तदभिसंबन्धेऽनवस्थालता गगनतलावलम्बिनी प्रसज्येत । विशेषणविशेष्यभावलक्षणसंबन्धबलात् तस्य तदभिसंबन्धे तस्यापि तैः संबन्धोऽपरविशेषणविशेष्यभावलक्षणसंबन्धबलाद् यदि सैवानवस्था । समवायवलात् तस्य तत्संबन्धे व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । स्वतस्तैस्तस्याभिसंबन्धे बुद्ध्यादीनामपि स्वत एव स्वाधारैः संबन्धो भविष्यतीति व्यर्थे संबन्धपरिकल्पनम् । तन्न समवायः कस्यचित् प्रमाणस्य गोचरः । पुनरपि चैनं ३५ यथास्थानं निषेत्स्याम इति आस्तां तावत् । तदेवं बुद्धेस्तदात्मनो व्यतिरेके संबन्धासिद्धेर्मतुबर्थानुपपत्तिः । अथ अव्यतिरिक्ता तदात्मनस्तद्बुद्धिस्तथाऽपि तदनुपपत्तिः, न हि तदेव तेनैव तद्वद् भवति किंच, तदात्मनस्तद्बुद्धे व्यतिरेके यदि तदात्मनि तद्बुद्धेरनुप्रवेशस्तदा वुद्धेरभावाद् बुद्धिविकलो गगनादिवद् जडस्वरूपस्तदात्मा कथं जगत्स्रष्टा स्यात् ? बुद्ध्यादिविशेषगुणगणवैकल्ये च तदा ४० त्मनोऽस्मदाद्यात्मनोऽप्यात्मत्वेन तद्वैकल्याद् मुक्तात्मन इव संसारित्वं न स्यात्, नवानां विशेषगुणानामात्यन्तिकक्षयोपेतस्यात्मनो मुक्तत्वाभ्युपगमात् तस्य चास्मदाद्यात्मस्वपि समानत्वात् १ पृ० ८४ पं० २० । २ - कतावि - भां० । ३ - पत्तिः, नैत-कां०, गु०, वा०, बा० । ४ " पदार्थे” वि० टि० । ५-संबन्ध-गु०, वि० । ६ एव वचनं युक्तम् । नहि दण्ड-भां०, मां० तत्संबुद्धौ वा०, बा० विना । ७ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ प्रथमे काण्डेभवदभ्युपगमेन । अथ आत्मत्वाविशेषेऽपि तदात्मा अस्मदापात्मभ्यो विशिष्टोऽभ्युपगम्यते मी कार्यत्वाविशेषेऽपि घटादिकार्येभ्यः स्थावरादिकार्यमकर्तृकत्वेन विशिष्टं किं नाभ्युपगम्यते। तथा च न कार्यत्वादिलक्षणो हेतुरनुपलभ्यमानकर्तृकैः स्थावरादिमिरव्यभिचारी स्यात् । अब तदुद्धी तदात्मनोऽनुप्रवेशस्तदा बुद्धिमात्रमाधारशून्यमभ्युपगन्तव्यं भवति। तथा चासदादिबुद्ध ५रपि तद्वदाधारविकलत्वेन मतुवर्थासंभवाद् घटादावपि बुद्धिमत्कारणत्वस्यासिद्धत्वात् साम्य विकलो रटान्तः । अथ अस्मदादिबुद्धिभ्यो बुद्धिवे समानेऽपि तदुद्धेरेवानाभितत्वलक्षयो विशेषोऽभ्युपगम्यते तर्हि घटादिकार्येभ्यः पृथिव्यादिकार्यस्य कार्यत्वे समानेऽपि अकर्तृपूर्वकरक लक्षणो विशेषोऽभ्युपगन्तव्य इति पुनरपि कार्यत्वलक्षणो हेतुस्तैरेव व्यभिचारी।। किंच, असा तद्बुद्धिः क्षणिका, अक्षणिका वा इति वक्तव्यम् । यदि क्षणिकेति पक्षा, १० तदाऽऽत्मानं समवायिकारणम् , आत्म-मनःसंयोगं चाऽसमवायिकारणम्, तच्छरीरादिकं । निमित्तकारणमन्तरेण कथं द्वितीयक्षणे तस्या उत्पत्तिः? तदनुत्पत्ती च अचेतनस्याण्वादेश्धेतनान घिष्ठितस्य कथं भूधरादिकार्यकरणे प्रवृत्तिः वास्यादेरिवाचेतनस्य चेतनानधिष्ठितस्य प्रवृत्त्यनभ्युपगमात् ? ततश्चेदानी भूरुहादीनामनुत्पत्तिप्रसङ्गात् कार्यशून्यं जगत् स्यात् । अथ समवाय्यादि. कारणमन्तरेणापि तदुद्धरमदादिबुद्धिवैलक्षण्यादुत्पत्तिरभ्युपगम्यते; नन्वेवं घटादिकार्यलक्षवं १५भूधगदिकार्यस्य किं नाभ्युपगम्यते इति तदेव चोधम् । किंच, यदीशबुद्धिः समवाय्यादिकारणनिरपेश्वोत्पत्तिमासादयति तर्हि मुक्तानामप्यानन्दादिकं शरीरादिनिमित्तकारणादिव्यतिरेकेणाप्युत्पत्स्यते इति न बुद्धि-सुखादिषिकलं जडात्मस्वरूपं मुक्तिः स्यात्। अथ अक्षणिका तबुद्धिः नन्वेवमस्मदादिबुद्धिरप्यक्षणिका किं नाभ्युपगम्यते? अय प्रत्यक्षादिप्रमाणविरोधानास्मदादिबुद्धिरक्षणिका तर्हि तद्विरोधादेव अकृष्टोत्पत्तिषु स्थावरेषु कार्यत्वं २० बुद्धिमत्कारणपूर्वकं नाभ्युपगन्तव्यम् । अथास्मदादिबुद्धः क्षणिकत्वसाधकमनुमानमाणिकत्वा भ्युपगमबाधकं प्रवर्तते न पुनरकृष्टोत्पत्तिषु स्थावरेषु, किं पुनस्तदनुमानम् ? अथ क्षणिका बुद्धि, अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति विभुद्रव्यविशेषगुणत्वात् , शब्दवत् इस्येतत् । ननु यथा अस्यानुमानस्यास्मदादिबुद्धयक्षणिकत्वाभ्युपगमवाधकस्य संभवस्तथाऽकृष्टोत्पत्तिषु स्थावरेषु कर्तपूर्वकत्वाम्युः पगमबाधकस्य तस्य संभवः प्रतिपादयिष्यत इति नात्र वस्तुनि भवतीत्सुक्यमास्थयम् । यथा व २५ वुद्धिक्षणिकत्वानुमानस्यानेकदोषदुष्टत्वं तथा शम्दस्य पौलिकत्वविचारणायां प्रतिपादयिष्यत इत्येतदप्यास्तां तावत् । यथा वा बुद्धित्वाविशेपेऽपि ईशाऽस्मदादिबुयोरयमक्षणिकत्व-मणिकन्वलक्षणो विशेषस्तथा भूरुह-घटादिकार्ययोरप्यकर्तृ-कर्तृपूर्वकत्वलक्षणो विशेषः किं नाभ्युपगम्यते? इति पुनरपि तदेव दूषणं कार्यत्वादेनोग्नेकान्तिकत्वलक्षणं प्रकृतसाध्ये।} तदेवं बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वलक्षणे साध्ये मनुवर्थासंभवात् तन्वादीनामनेकधा प्रमाणवाघासंभवाब ३० शालव्याख्यानादिलिङ्गानुमीयमानपाण्डित्यगुणस्य देवदत्तस्येव मूर्वन्यलक्षणे साध्येऽनुमानवाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तस्य कार्यत्वादेहेतोः कालात्ययापदिष्टत्वेन तत्पुत्रत्वादेरिवागमकरवम् अनुमानबाधितत्वं षा पक्षस्येति स्थितम् । तथा, 'कार्यत्वात्' इति हेतुरप्यसिद्धः । तथाहि-किमिदं तन्धादीनां कार्यस्वम्-प्रागसता स्वकारणसमवायः सत्तासमवायो वेति चेत्, कुतः प्रागिति? कारणसमवायादिति चेत्। मनु १५ तासमवायसमये प्रागिव स्वरूपस स्ववैधुयें 'प्राद' इति विशेषणमनर्थकम् , सतिसंभवे व्यभिचारे, विशेषणमुपादीयमानमर्थवद् भवति। अत्र व्यभिचार एव, न संभवः । तथाहि-यदि कारणसमपायसमये स्वरूपेण सद् भवति तन्वादि तदा तत्काल व तस्य प्रागपि सरदे कार्यरवंगस्यादिति विशेषणमुपादीयते 'प्रागसता ति। यदा पुनः प्रागिव कारणसमवायवेलायामपिस्वापसस्वाधिक लता तदा 'प्राति विशेषणं न कशिदर्य पुष्णाति, 'मसतः' इत्येवास्तु । ४. नवासतः कारणसमवायोऽपि युकः, शशविषाणादेरपि तत्सङ्गात् । तस्य कारवाविरहान सरप्रसााति चेत्, त पतत् ? असस्थात्, तनु-करणारेरपि तदसवे किंमतोऽवं विमागाअस्य कारणमस्ति न शशश्यारेरिति! तम्बादे कारणमुपलभ्यते भेतरलेखपि मोचरम्यता १-कत्वेन वा., बा• पिना। ३. पृ.६.१।।... ३ । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः। १०९ कार्य-कारणयोरुपलम्मे सति एतत् स्यात् इदमस्य कारणम् कार्य चेदमस्य' इति । न च परस्य तदुपलम्भः प्रत्यक्षतः, उपलम्भकारणमुपलम्भविषय इति नैयायिकानां मतम्-"अर्थवत् प्रमाणम्" [वात्स्या० भा०पृ०१, पं०२] इत्यत्र भाष्ये "प्रमात-प्रमेयाभ्यामर्थान्तरमव्यपदेश्याव्यभिचारिव्यवसायात्मकशाने कर्त्तव्येऽर्थः सहकारी विद्यते यस्य तद् अर्थवत् प्रमाणम्" [ ] इति व्याख्यानात् । न चाजनकं सहकारि, 'सह करोतीति सहकारि' इति व्युत्पत्तेः । न चासत् शशविषा- ५ णसमं शानस्यान्यस्य वा कारणम् , विरोधात् । अपि च, इन्द्रियार्थसन्निकर्षात् प्रत्यक्षं शानमुत्पत्तिमत्, कार्य-कारणादिना च इन्द्रियसन्निकर्षः संयोगः, सोऽपि कथं तेनासता जन्यते इति चिन्त्यम् । संयोगाभावे च रूपादिनेन्द्रियस्य संयुक्तसमवायः, रूपत्वादिना तु संयुक्तसमवेतसमवाय इति सर्व दुर्घटम् । एतेन द्रव्यत्वादिसामान्यसंबन्धोऽपि तस्य निरूपितः । तन्न तन्वादि विषयमध्यक्षम् । अत एव नानुमानमपि । तदेवं खरविषाणादिवत् कार्य-कारणादेरनुपलम्भान्न युक्तमेतत्-शरीरादेः१० कारणमस्ति, न शशशृङ्गादेरिति । ____ यदि पुनस्तनु-करणादिः सन् वन्ध्यासुतादिपरिहारेणेति मतिः, तत्र कुतः स एव सन् ? कारणसमवायात, सोऽपि कृतः? सत्त्वात, अन्योऽन्यसंश्रयः-तत्समवायात सत्यम अतश्च तत्समवाय इति । प्रागसतः सत्तासमवायात् स एव सन्निति चेत्, कुतः प्राकू? सत्तासमवायात्; ननु तत्समवायकाले प्रागिव स्वरूपसत्वविरहे 'प्राग्' इति विशेषणमनर्थकमित्यादि सर्व वक्तव्यम् । १५ असतश्च सत्तासमवाये खरशृङ्गादेरपि संभवेत् अविशेषात् । 'प्राग्' इति च विशेषणं शशशृङ्गादिव्यवच्छेदार्थ परेणोक्तम् , सत्तासंबन्धसमये च तन्वादेः स्वरूपसत्त्वाभावे कस्ततो विशेषः? अयमस्ति विशेषः-कर्मरोमादिकमत्यन्तासत्, इतरत् पुनः स्वयं न सत् नाप्यसत् अत एव सत्तासंबन्धात् 'तदेव सत्' इत्युच्यत इति, तदेतज्जडात्मनो भवतः कोऽन्यो भाषते । तथाहि-'न सत्' इतिवचनात् तस्य सत्तासंबन्धात् प्रागभाव उक्तः, सत्प्रतिषेधलक्षणत्वादस्य । 'नाप्यसत्' इत्यभिधानाद् भावः,२० असत्त्वनिषेधरूपत्वाद भावस्य रूपान्तराभावात् । तथैव वैयाकरणानां न्यायः-"द्वौ प्रतिषेधौ प्रकृतमर्थ गमयतः" [ ] इति, कथमन्यथा 'नेदं निरात्मकं जीवच्छरीरम् , प्राणादिमत्त्वात्' इत्यत्र नैरात्म्यनिषेधः सात्मकः सिध्येत् ? __ अत्र केचित् ब्रुवते-"नैवं प्रयोगः क्रियतेऽपि तु 'सात्मकं जीवच्छरीरम् , प्राणादिमत्त्वात्" इति । तैरप्येवं प्रयोगं कुर्वद्भिः सात्मकत्वाभावो नियमेन प्राणादिमत्त्वाभावेन व्याप्तोऽभ्युपगन्तव्यः-२५ अन्यथा व्यभिचाराशङ्का न निवर्तेत-तदभ्युपगमे चेदमवश्यं वक्तव्यम्-जीवच्छरीरे प्राणादिमत्त्वं प्रतीयमानं स्वाभावं निवर्त्तयति, स च निवर्तमानः स्वव्याप्यं सात्मकत्वाभावमादाय निवर्तते, इतरथा तेनासौ व्याप्तो न स्यात् । यस्मिन्निवर्तमाने यन्न निवर्त्तते न तेन तद् व्याप्तम् , यथा निवर्तमानेऽपि प्रदीपे अनिवर्तमानः पटादिन तेन व्याप्तः, न निवर्तते च प्राणादिमत्त्वाभावे निवर्तमानेऽपि सात्मकत्वाभाव इति । निवर्त्तते इति चेत्, तन्निवृत्तावपि यदि सात्मकत्वं न सिध्यति न तर्हि तद-३० भावो निवर्त्तते, सात्मकत्वाभावाभावेऽपि तदभावस्य तदवस्थत्वात् । सिध्यतीति चेत्, आयातमिदम्"द्वौ प्रतिषेधौ प्रकृतमर्थ गमयतः" [ ] इति । तथा चेदमपि युक्तम्-'नेदं निरात्मकं जीव. च्छरीरम् , प्राणादिमत्त्वात्' इति। ___ अन्ये तु मन्यन्ते-"अन्यत्र दृष्टो धर्मः क्वचिद्धर्मिणि विधीयते, निषिध्यते च" [ ] इति वचनात् केवलं घटादौ नैरात्म्यमप्राणादिमत्त्वेन व्याप्तं दृष्टम्, तदेव निषिध्यते जीवच्छरीरेऽप्रा-३५ णादिमत्त्वाभावेन, न पुनः सात्मकत्वं विधीयते; तस्यान्यत्रादर्शनात्" इति । तेषां घटादी नैरात्म्यं प्रतिपन्नं प्रतिषिध्यते इति भवतु सुक्तम, तथापि तन्निषेधसामर्थ्याद् यदि जीवच्छरीरे सात्मकत्वं न स्यात् न तर्हि तत्र तन्निषेधः-यदा हि नैरात्म्यनिषेधो न सात्मकः-किन्तु यथाऽऽत्मनोऽभावो नैरात्म्यं तथाऽस्याऽभावोऽपि तुच्छरूपः आत्मनोऽन्यत्वाद भङ्गयन्तरेण नैरात्म्यमेव, पुनस्तन्निषेद्धव्यम्, पुनरपि तन्निषेधस्तुच्छरूपो नैरात्म्यमित्यपरस्तन्निषेधो मृग्यः, तथा च सति अनवस्थानान्न नैरात्म्य-४० निषेधः। किंच, यदि नाम घटादौ नैरात्म्यमुपलब्धं किमित्यन्यत्र निषिध्यते? इतरथा देवदत्ते पाण्डित्यमुपलब्धं यज्ञदत्तादौ निषिध्येत । तत्र प्राणादिमत्त्वदर्शनादिति चेत्, युक्तमेतद् यदि प्राणादिमत्त्वं नैरात्म्यविरुद्धं स्याद् अग्निरिव शीतविरुद्धः, न चैवम् अन्यथा सर्वमशेषविरुद्धं भवेत् । प्राणादिमत्त्वेन १ पृ. १०८ पं० ३५। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० प्रथमे काण्डेस्वाभावो नैरात्म्यव्यापको विरुद्धः, ततः प्राणादिमत्त्वभावात् तदभावो निवर्त्तते, वलिभावादिव' शीतम् , स च निवर्तमानः स्वव्याप्यं नैराम्यमादाय निवर्त्तते, यथा धूमाभावः पावकाभावमिति । दत्तमत्रोत्तरम्-यदि नैगम्याभावः सात्मको न भवेत् तदवस्थं नैराम्यमिति । भवतु तर्हि नैरात्म्य. निषेधः सात्मकः, तथा सति ‘सत्तासंबन्धात् प्राक तन्वादिर्ना (दि ना ) सत्' इति वचनात् तदा ५तस्य सत्त्वमुक्तम् , 'न सत्' इत्यभिधानादसत्त्वमिति विरोधः । ततोऽसदेव तदभ्युपगन्तव्यमिति न वन्ध्यासुतादेस्तनु-करणादेर्विशेषः । भवत्वेवं तथापि तन्वादेरेव सत्तासंबन्धात् सत्त्वम् न खरशृङ्गादेः तथादर्शनादिति चेत्, उक्तमत्र तथादर्शनोपायाभावादिति । [प्रासङ्गिक सत्तापदार्थनिरमनम् ] अपि च, सत्ताऽपि यदि असती कथं ततो वन्ध्यासुतादेरिवापरस्य सत्त्वम् ? सती चेद् यदि १० अन्यसत्तातः, अनवस्था । स्वतश्चेत्, पदार्थानामपि स्वत एव सत्त्वं स्यादिति व्यर्थ तत्परिकल्पनम। किच, यदि स्वत एव सत्ता सती उपेयने तदा प्रमाणं वक्तव्यम् । अथ स्वतः सत्ता सती-तत्संबन्धात् तन्वादीनां सत्त्वान्यथाऽनुपपत्तः-तान्योन्यसंश्रयः-तत्संबन्धात् तन्वादिसत्त्वे सिद्धे सत्तासत्त्व. सिद्धिः, ततस्तत्संबन्धात् तन्वादिमत्त्व सिद्धिरिति व्यक्तमितरेतगश्रयत्वम् । अथ सत्ता स्वतः सती, सदभिधानप्रत्ययविषयत्वात्, अवान्तरसामान्यादिवत् : नः द्रव्यादिना व्यभिचार:-द्रव्यादिरपि १५'सद् द्रव्यम्, सन् गुणः, सत् कर्म इत्येवं सदभिधानप्रत्ययविषयो भवति, न चासौ परेण स्वतः सन्नभ्युपगतः सत्ताप्रकल्पनर्वफल्यप्रसङ्गात् । न च द्रव्यादी तद्विषयत्वं पगपेक्षं न सत्तायामिति वक्तुं युक्तम्, तस्यामपि तदपेक्षत्वसंभवात् । अथ तत्र तस्य तदपेक्षत्वे किं तदपरमिति वक्तव्यमः नन्वेतद् द्रव्यादावपि समानम् । तत्र सत्तेति चेत्, अत्रापि द्रव्यादिकम् इति तुल्यम-यथैव हि सत्तासंबन्धात् द्रव्यादिकं सत् न स्वतः तथा द्रव्यादिस्वरूपसत्त्वसंबन्धात् सत्ता सती न स्वतः। २० द्रव्यादेः स्वरूपसत्त्वं नास्ति तेनायमदोपः, तदस्तित्वे को दोष इति वाच्यम् । ननु तस्या (तस्य) स्वतः सत्वेऽवान्तरसामान्याभावप्रसङ्गो दोपः, ननु स्वतोऽसत्त्वे खरविषाणादेरिव सुतरां तेदभाव. दोषः। अपि च, यो हि तत्र सत्तासंबन्धं नेच्छति स कथमवान्तरसामान्यसंबन्धमिच्छेत् ? न चात्र प्रमाणं स्वतोऽसन्तो द्रव्यादयो नावान्तरसामान्यमिति । अथैतत्-द्रव्यादयो न स्वतः सन्तः, अवान्तरसामान्यवत्त्वात्, यत् पुनः स्वतः सत् न तद अवान्तरसामान्यवत्, यथा सामान्य-विशेष२५ समवाया इति व्यतिरेकी हेतुः, नैतत् : यदि हि द्रव्यादयो धर्मिणः कुतश्चित् प्रतीतिगोचर चारिणेत्सन्तो भवन्ति [सं कथमवान्तरसामान्यसंबन्धमिच्छेत् ? न चात्र प्रमाणं स्वतोऽसन्तो द्रव्यादयो नावान्तरसामान्यमिति । अथैतत्-द्रव्यादयो न स्वतः सन्तोऽवान्तरसामान्यवत्त्वात्, यत् पुनः स्वतः सत् न तदवान्तरसामान्यवत्, यथा] सामान्यप्रतीतिः सत्त्वं साधयन्ती स्वत इति प्रतिज्ञाम् तदसत्त्वविषयाबाधने चेद (चारिणस्सन्तो भवन्ति तदा कथं न तत्प्रतीतिः स्वतस्सत्वं ३०साधयन्ती'न स्वतस्सन्तस्ते' इति प्रतिज्ञां तदसत्त्वविषयां बाधते । न चेद) मत्रोत्तरम्-न स्वतः सन्तस्ते प्रतीतिविषयाः किन्तु सत्तासंबन्धादिति, यतो 'न स्वयमसन्तस्तत्संबन्धात् तद्विषया भवन्ति' इत्युक्तम् । किंच, द्रव्यादेरेकान्तेन यस्य भिन्नान्यवान्तरसामान्यानि कथं तस्य तानि स्युः यतोऽवान्तरसामान्यवत्त्वादिति हेतुः सिद्धः स्यात् ? अथ तथापि तस्याति (तस्येति), न; परस्परमपि स्युरिति सामान्यसमवायात् परिशेषवत् (सामान्य-समवाय-विशेषवत् ) इति वैधर्म्यनिदर्शनम३५ युक्तम । यदि मतम्-द्रव्यादौ तानि समवेतानि ततस्तस्य तानि न सामान्यादेविपर्ययादिति. तत्र सम्यकः 'तत्र समवेतानि' इति समवायेन संबद्धानीति यद्यर्थः, स न युक्तःः समवायस्य निषिद्धस्वान्निषेत्स्यमानत्वाच्च । भवतु वा समवायः तथापि यत्र द्रव्ये, गुणे, कर्मणि च द्रव्यत्वम्, गुणत्वम्, कर्मत्वं चाऽवान्तरसामान्यं तत्रैव पृथिवीत्वादीनि, रूपत्वादीनि, गमनत्वादीनि च तथाविधानि सामान्यानि, समवायोऽपि तत्रैव सामान्यवत् तस्य सर्वगतत्वाश्च द्रव्यादिवदन्योन्यसत्तानीति न १ पृ. १०९ पं० ३८। २ तन्वादिर्नाऽसन्निति व-वा०, बा. विना। ३ पृ. १०९ पं० १८। ४ पृ० १०९ ५०२। ५ तदभावा (वो) दोषः भां०। ६-तद् यथा सामा-मां०, भां०। [] एतच्चिह्रान्तर्गताः पतयः केनाऽपि कारणेन द्विरुक्ता जाता इति प्रतिभाति । ८ इति प्रति प्रतिज्ञा-गु०। ९-ज्ञातम् मां०। १०-षयं वाध-वा०, बा०। ११ तस्यापि वा०, बा० विना। १२ पृ. १०६ पं० १० । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः। १११ द्रव्यादेः स्वतः सत्त्वबाधनमित्याशङ्का न निवर्तते-'किं द्रव्यादिसंबन्धात् सत्ता सती किं वा तया द्रव्यादिकं सत्' इति । तन्न सत्तातः तन्वादेः सत्त्वम् , तस्या एवासिद्धत्वात् ।। {सत्ताप्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धत्वात् सत्तायाः प्रत्यक्षबाधितविषयत्वेन एवमुपन्यस्यमानस्य प्रसङ्गसाधनस्यानवकाशः। न च द्रव्यप्रतिभासवेलायां प्रत्यक्षबुद्धौ परिस्फुटरूपेण व्यक्तिविवेकेन सत्ता न प्रतिभातीति शक्यं वक्तुम् , अनुगताकारस्य व्यावृत्ताकारस्य च प्रत्यक्षानुभवस्य संवेदनात् । न चानु- ५ गत-व्यावृत्तवस्तुव्यतिरेकेण याकारा बुद्धिर्घटते । न हि विषयव्यतिरेकेण प्रतीतिरुत्पद्यते, नीलादिस्वलक्षणप्रतीतेरपि तथाभावप्रसङ्गात् । अथ तैमिरिकस्य बाह्यार्थसन्निधिव्यतिरेकेणापि केशोण्डुकादिप्रतीतिरुदेति तथैवानुगतरूपमन्तरेणापि भिन्नवस्तुष्वनुगताकारा बुद्धिरुदेष्यतीति न ततः सत्ताव्यवस्था, तदयुक्तम् ; तैमिरिकप्रतीतौ हि प्रतिभासमानस्य केशोण्डुकादेर्बाधक-कारणदोषपरिज्ञानादतत्त्वम् ; सत्तादर्शने तु न बाधकप्रत्ययोदयः नापि कारणदोषपरिज्ञानमिति न तद्राहिणो विज्ञानस्य मिथ्यात्वम्। १० तथाहि-विभिन्नेष्वपि घट-पटादिष्वर्थेषु 'सत् सत्' इति अभेदमुल्लिखन्ती प्रतीतिरुदयमासादयति; न चासौ कालान्तरादौ विपर्ययमुपगच्छन्ती लक्ष्यते, सर्वदा सर्वेषां घट-पटादिषु 'सत् सत्' इति व्याहृतेः । व्यवहारमुपरचयन्ती च प्रतीतिः परैरपि प्रमाणमभ्युपगम्यते । यथोक्तं तैः-"प्रामाण्यं व्यवहारेण" [ ] इति । तदेवमवस्थितम्-अनुगताकारा हि बुद्धिावृत्तरूपप्रतीत्यनधिगतं साधारणरूपमुल्लिखन्ती मु(सु)परिनिश्चितरूपा बाधाऽयोगात् प्रमाणम् । सा च अक्षान्वय-व्यतिरेका-१५ नुसारितया प्रत्यक्षम् । तथाहि-विस्फारितलोचनस्य घट-पटादिषु रूपमारूढां सत्तामुल्लिखन्ती 'सत् सत्' इति प्रतीतिः, तदभावे च न भवतीति तदन्वय-व्यतिरेकानुविधायितया कथं न प्रत्यक्षम् ? तस्माद् बहुषु व्यावृत्तेषु तुल्याकारा बुद्धिरेकतामवस्यति । यश्चात्र विभिन्नेषु घटादिषु प्रतिनियतमेकमनुगतस्वरूपं सैव जातिः। अथ व्यक्तिव्यतिरिक्ता जातिरुपेयते न च व्यक्तिदर्शनवेलायां तद्रूपसंस्पर्शविषयव्यतिरिक्तवपुर-२० परमनुगतिरूपं प्रतिभाति तत् कथं तत् सामान्यम् ? नैतदस्ति; यस्मादगृहीतसङ्केतस्यापि तनुभृतः प्रथममुद्भाति वस्तु द्वितीये तुल्यरूपतामनुसरति बुद्धिः क्वचिदेव न सर्वत्र । प्रतिपत्त्यन्यता च सर्वत्र धन तुल्यदेश-कालेऽपि रूप-रसादौ च, प्रतिपत्त्यन्यता जातावपि विद्यत इति कथं न सा भिन्नाऽस्ति ? तथाहि-व्यत्याकारविवेकेन विशदमनुगतिरूपता भाति तद्विवेकेन च व्यावृत्तरूपतेति कथं व्यक्तिस्वरूपाद् भिन्नावभासिनी जातिर्भिन्ना नाभ्युपगमविषयः? अथैकेन्द्रियावसेयत्वाद् जाति-व्यक्त्योरेकता रूप-रसादौ तु भिन्नेन्द्रियग्राह्यत्वाद् भेदः, तदप्यसङ्गतम् । यत एकेन्द्रियग्राह्यमपि वाताऽऽतपादिकं समानदेशं च भिन्नं प्रतिभातीति भिन्नवपुरभ्युपेयते तथा प्रतिनियतेन्द्रियविषयमपि जाति-व्यक्तिद्वयं भिन्नम् : भिन्नप्रतिभासादेव । तथाहिघटमन्तरेणापि पटग्रहणे 'सत् सत्' इति पूर्वप्रतिपन्ना सत्ताऽवगतिर्दृष्टा; यदि तु व्यक्तिरेव सती न तत्सत्त्वाप तद्व्यतिरिक्ता च, तथा सति व्यक्तिरूपवत् तदननुगतिरपि व्यक्त्यन्तरे प्रस-३० ज्येत । प्रतीयते च सद्पता युगपद् घट-पटादिषु परस्परविविक्ततनुष्वपि सर्वदा। तेनैकरूपैव जातिः, प्रत्यक्षे तथाभूताया एव तस्याः प्रतिभासनात्: शब्द-लिङ्गयोरपि तस्यामेव संबन्धग्रहणमिति ताभ्यामपि सा प्रतीयते । तदेवं प्रत्यक्षादिप्रमाणावसेयत्वात् सत्तायाः न तन्निराकरणाय प्रसङ्गसाधनानुमानप्रवृत्तिरिति ।} असदेतत् । यतो न व्यक्तिदर्शनवेलायां स्वरूपेण बहिर्लाह्याकारतया प्रतीतिमवतरन्ती जातिरुद्भाति, नहि घट-पटवस्तुद्वयप्रतिभाससमये तदैव तयवस्थितमूर्तिर्भिन्नाऽभिन्ना वा जातिराभाति, तदाकारस्यापरस्य ग्राह्यतया बहिस्तत्राप्रतिभासनात् । बहिर्ग्राह्यावभासश्च बहिरर्थव्यवस्थाकारी, नान्तरावभासः। यदि तु सोऽपि तव्यवस्थाकारी स्यात्, तथा सति हृदि परिवर्त्तमानवपुषः सुखादेरपि प्रतिभासाद् बहिस्तयवस्था स्यात् । तथा च 'सुखाद्यात्मकाः शब्दादयः' इति साङ्ख्यदर्शनमेव स्यात् । अथ सुखा-४० दिराकारो बाह्यरूपतया न प्रतिभातीति न बहिरसौ, जातिरपि तर्हि न बहीरूपतया प्रतिभातीति न बहीरूपाऽभ्युपगन्तव्या, यतः कल्पनामतिरपि दर्शनदृष्टमेव घटादिरूपं बहिरुल्लिखन्ती तद्रिं च अन्तः १-क्षसामान्यबा-मां० । -क्षाबा-भा० । २-स्य च प्रत्य-वा०, बा० विना । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ प्रथमे काण्डेप्रतिभाति, न तु तद्व्यतिरिक्तवपुपं जातिमुद्द्योतयति । तन्न तदवसेयाऽपि बहिर्जातिरस्ति । तैमिरिकशाने बहिष्प्रकाशमानवपुपोऽपि हि केशोण्डुकादयो न तथाऽभ्युपेयन्ते, बाध्यमानज्ञानविषयत्वात् । जातिस्तु न बहीरूपतया क्वचिदपि शाने प्रतिभातीति कथं सा सत्त्वाभ्युपगमविषयः ? बुद्धिरेव केवलं घट-पटादिषु प्रतिभासमानेषु 'सत् सत्' इति तुल्यतनुराभाति । यदि तर्हि न बाह्या जातिरस्ति, ५बुद्धिरपि कथमेकरूपा प्रतिभाति नहि बहिर्निमित्तमन्तरेण तदाकारोत्पत्तिमती सा युक्ता? ननु केनोच्यते बहिर्निमित्तनिरपेक्षा जातिमतिरिति, किन्तु बहिर्जातिर्न निमित्तमिति, बाह्यास्तु व्यक्तयः काश्चिदेव जातिबुद्धेनिमित्तम् । ननु यदि व्यक्तिनिवन्धनाऽनुगताकारा मतिः, तथा सति यथा खण्डमुण्डव्यक्तिदर्शने 'गौ!ः' इति प्रतिपत्तिरुदेति तथा गिरिशिखरादिदर्शनेऽपि 'गौ!ः' इत्येतदाकारा प्रतिपत्तिर्भवेत् व्यक्तिभेदाविशेषात्, तदयुक्तम् : भेदाविशेपेऽपि खण्ड-मुण्डादिव्यक्तिषु 'गौौः' १० इत्याकारा मतिरुदयमासादयन्ती समुपलभ्यत इति ता एव तामुपजनयितुं समर्था इत्यवसीयते, न पुनर्गिरिशिखरादिषु 'गोर्गीः' इति मतिर्द ऐति न ते तन्निबन्धनम् । यथा च आमलकीफलादिषु यथाविधानमुपयुक्तेषु व्याधिविरतिलक्षणं फलमुपलभ्यत इति तान्येव तद्विधौ समर्थानीयवसीयते, भेदाविशेषेऽपि न पुनस्त्रपुप-दध्यादीनि । अथ भिन्नप्वपि भावेषु 'सत् सत्' इति मतिरस्ति, विभिनेषु च भावेषु यदेकत्वं तदेव जातिः, तत्रोच्यते-तदेकत्वं घट-पटादिषु किमन्यत्, उतानन्यत् ? न १५तावदन्यत्, तस्याप्रतिभासनादिन्युक्तः । नाप्यनन्यत्, एकरूपाऽप्रतिभासनात्: न हि घटस्य पटस्य चैकमेव रूपं प्रतिभाति, सर्वात्मना प्रतिद्रव्यं भिन्नरूपदर्शनात् । तस्मादप्रतीतेरभिन्नाऽपि जाति स्ति, बुद्धिरेव तुल्याकारप्रतिभासा 'सत् सत्' इति शब्दश्च दृश्यत इति तदन्वय एव युक्तः न जात्यन्वयः, तस्यादर्शनात् । न च बुद्धिस्वरूपमप्यपरवुद्धिस्वरूपमनुगच्छति इति न तदपि सामान्यमित्येकानुगतजातिवादो मिथ्यावादः।। २० अपि च, अनेकव्यक्तिव्यापि सामान्यं तद्वादिभिरभ्युपगम्यते । न च तद्यापित्वं तस्य केनचित् शानेन व्यवस्थापयितुं शक्यम् । तथाहि-सन्निहितव्यक्तिप्रतिभासकाले जातिस्तयक्तिसंस्पर्शिनी स्फटमवभाति न व्यक्त्यन्तरसंवन्धितया, तस्यास्तथाऽसन्निधानेन प्रतिभासायोगात । तदप्रतिभासे च तन्मिश्रताऽपि नावगतेति कथमसन्निहितव्यक्त्यन्तरसंवद्धशरीरा जातिरवभाति । यदेव हि परिस्फुटदर्शने प्रतिभाति रूपं तदेव तस्या युक्तम् , दर्शनासंस्पर्शिनः स्वरूपस्यासंभवात्; संभवे २५वा तस्य दृश्यस्वभावाद् भेदप्रसङ्गात्, तदेकत्वे सर्वत्र भेदप्रतिहतेः अनानैकं जगत् स्यात् । दर्शन गोचरातीतं च व्यक्त्यन्तरसंबद्धं जातिस्वरूपमप्रतिभासनादसत्: प्रतिभासने वा तस्य तत्संबद्धानां व्यवहितव्यक्त्यन्तराणामपि प्रतिभासप्रसङ्ग इति सकलजगत्प्रतिभासः स्यात् । अथ मतम्सन्निहितव्यक्तिदर्शनकाले व्यक्त्यन्तरसंबन्धिनी जातिन भातिः यदा तु व्यक्त्यन्तरं दृश्यते तदा तद्दर्शनवेलायां तद्गतत्वेन जातिराभातीति साधारणस्वरूपपरिच्छेदः पश्चात् संभवतीति, ततश्च ३० पश्चादर्थान्वयदर्शने कथं न तस्यास्तद्यापिताग्रहः? असदेतत्; यतो व्यक्त्यन्तरदर्शनकालेऽपि तत्परिगतमेव जातेः स्वरूपं प्रतिभाति न पूर्वव्यक्तिसंस्पर्शितयाः तस्याः प्रत्यक्षगोचरातिक्रान्ततया तत्संबद्धस्यापि रूपस्य तदतिक्रान्तत्वात् । तत् कथं सन्निहिताऽसन्निहितव्यक्तिसंबद्धजातिरूपावगमः? __ अथ प्रत्यभिज्ञानादनेकव्यक्तिसंबन्धित्वेन जातिः प्रतीयते, ननु केयं प्रत्यभिज्ञा? यदि प्रत्यक्षम्, कुतस्तदवसेया जातिरेकानेकव्यक्तिव्यापिनी प्रत्यक्षा? अथ नयनव्यापारानन्तरं समुपजायमाना ३५प्रत्यभिशा कथं न प्रत्यक्षम् ? निर्विकल्पकस्याप्यक्षान्वय-व्यतिरेकानुविधानात् प्रत्यक्षत्वं तदत्रापि तुल्यम्, असदेतत्; यदि अक्षजा प्रत्यभिज्ञा तथा सति प्रथमव्यक्तिदर्शनकाल एव समस्तब्यक्ति संबद्धजातिरूपपरिच्छेदोऽस्तु । अथ तदा स्मृतिसहकारिविरहान्न तत्त्वावगतिः, यदा तु द्वितीयव्यक्तिदर्शनं तदा पूर्वदर्शनाहितसंस्कारप्रबोधसमुपजातस्मृतिसहितमिन्द्रियं तत्त्वदर्शनं जनयति, तदप्यसत्; यतः स्मरणसचिवमपि लोचनं पुरःसन्निहितायामेव व्यक्तौ तत्स्थजातौ च प्रतिपत्ति ४० जनयितुमीशम् ; न पूर्वव्यक्तौ, असन्निधानात् । तन्न तस्थितां जातिं दर्शनं परिदृश्यमाने व्यक्त्यन्तरे संधत्ते। अथेन्द्रियवृत्तिर्न स्मरणसमवायिनी करणत्वादिति नासौ संधानकारिणी, पुरुषस्तु कर्तृतया १ तर्हि बाह्या भा०, मा०, वा०, बा. विना। २ पृ० १११ पं० ३८ । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः। ११३ स्मृतिसमवायीति चक्षुषा परिगतेऽर्थे तदुपदर्शितपूर्वव्यक्तिगतां जातिं संधास्यतीति, तदसत्; यतः सोऽपि न स्वतन्त्रतयाऽर्थग्राहकः किन्तु दर्शनसहायः । यदि पुनः स्वतन्त्र एवार्थग्राहकः स्यात् तथा सति स्वाप-मद-मूर्छादिष्वपि सर्वव्यक्त्यनुगतजातिप्रतिपत्तिः स्यात् । तस्मादात्माऽपि दर्शनसहाय एवार्थवेदी । दर्शनं च पुरःसन्निहितं व्यक्तिस्वरूपमनुसरति, नहि स्मृतिगोचरमपि पूर्वदृष्टव्यक्तिगतं जात्यादिकमिति न दर्शनसहायोऽपि तदनुसंधानसमर्थ आत्मा । अथ स्मरणोपनीतं जातिरूपमात्मा ५ तत्र संधास्यति; नन्वत्रापि स्मृतिः परिहृतपुरोवर्त्तिव्यक्तिदर्शनविषया पूर्वदृष्टमर्थमनुसरन्ती संलक्ष्यते। तत् कथं पुरोवर्तिनि अप्रवर्त्तमाना स्वविषयान् सामान्यादींस्तत्र संघटयितुं क्षमा ? तदस्मृतं च संघटनं कथमात्माऽपि कर्तुं क्षमः ? तथाहि-दर्शने सति द्रष्टरि तस्य स्वरूपे जाते तन्निमग्नं न स्मृतिकृतं स्मर्तृरूपं भाति । यदि तु भाति तथा सति द्रष्टुरूप एवासौ, न स्मर्ता । अथ स्मर्तृरूपे द्रष्टस्वरूपमनुप्रविष्टं प्रतिभाति, तथापि सत्तेवाऽसौ न द्रष्टा । अथ द्रष्टु-स्मर्तृस्वरूपे विविक्ते भातः, तथा सति १० तयोर्भेद इति नैकत्वम् । तथाहि-द्रष्टस्वरूपं दृग्विषयावभासि प्रतिभाति, स्मर्तृस्वरूपमपि पुंसः स्मृतिविषयमवतीर्णमवभाति; तत् कुतः पूर्वापरयोर्जाति-रूपयोः संधानम् ? .. पुनरुक्तम् 'स्मरतः पूर्वदृष्टार्थानुसंधानादुत्पद्यमाना मतिश्चक्षुःसंबद्धत्वे प्रत्यक्षम्' इति, एतदप्यसत् ; नेन्द्रियमतिः स्मृतिगोचरपूर्वरूपग्राहिणी, तत् कथं सा तत्संधानमात्मसात्करोति ? पूर्वटसंधानं हि तत्प्रतिभासनम्, तत्प्रतिभाससंबन्धे चेन्द्रियमतेः परोक्षार्थग्राहित्वात् परिस्फुटप्रतिभा-१५ सनम् असन्निहितविषयग्रहणं च, तत् कुतस्तयोरैक्यम् ? अथ परोक्षग्रहणं स्वात्मना नेन्द्रियमतिः संस्पृशति, एवं तर्हि तद्विविक्तेन्द्रियमतिरिति कथं तत्संधायिका सामग्री अभ्युपेयते? यदि च स्मृतिविषयस्वभावतया दृश्यमानोऽर्थः प्रत्यक्षबुद्धिमिरवगम्यते, तथा सति स्मृतिगोचरः पूर्वस्वभावो वर्तमानतया भातीति विपरीतख्यातिः सर्व दर्शनं भवेत् । अथ यत् तदा तत्राविद्यमानमर्थमवैति शानं तत्र विपरीतख्यातिः, प्रत्यक्षप्रतीतिस्तु पूर्वसंधानादप्युपजायमाना पुरः सदेव २० वस्तु गृह्णती कथं विपरीतख्यातिर्भवेत् ? ननु पूर्वरूपग्राहितया तस्याः सदर्थग्रहणमेव न संभवति; स्मरणोपनेयं हि रूपं प्रतियती वर्तमानतया प्रत्यक्षबुद्धिर्न प्रतिभासमानवपुषः सत्तां साधयितुमलम्, प्रत्यस्तमितेऽपि रूपे स्मृतेरवतारात् । तदनुसारिणी चाक्षमतिरपि तदेवानुसरन्ती न सत्ताऽऽस्पदम् । तस्मादिन्द्रियमतिः सकला पूर्वरूपग्रहणं परिहरन्ती वर्तमाने परिस्फुटे वर्तत इति तदैव तद्गतां जातिमुद्भासयितुं प्रभुरिति न पूर्वापरव्यक्तिगता जातिः समस्ति । यदेव हि द्वितीयव्य-२५ क्तिगतं रूपं भाति तदेव सत्, पूर्वव्यक्तिगतं तु रूपं न भातीति न तत् सत् । ततश्चानेकन्यक्तिव्यापिकाया जातेरसिद्धिरिति न तत्र लिङ्ग-शब्दयोरपि प्रवृत्तिरिति न ताभ्यामपि तत्प्रतिपत्तिः । यथा च व्यक्तिभिन्नाऽनुस्यूता जातिर्न संभवति तथा यथास्थानं प्रतिपादयिष्यत इत्यास्तां तावत् । तदेवं सत्ता-समवाययोः परपरिकल्पितयोरसिद्धेः 'प्रागसतः कारणसमवायः सत्तासमवायो वा कार्यत्वम्' इति कार्यत्वस्यासिद्धत्वात् स्वरूपासिद्धोऽपि कार्यत्वलक्षणो हेतुः }। ३० अथ स्यादेष दोषो यदि यथोक्तलक्षणं कार्यत्वं हेतुत्वेनोपन्यस्तं स्यात्, यावताऽभूत्वा भवनलक्षणं कार्यत्वं हेतुत्वेनोपन्यस्तं तेनायमदोषः । नन्वेवमपि भू-भूधरादेः कथमेवंभूतं कार्यत्वं सिद्धम् ? अथ यदि अत्र विप्रतिपत्तिविषयता तदाऽनुमानतस्तेषु कार्यत्वं साध्यते, तच्चानुमानम्-'भू-भूधरायः कार्यम् , रचनावत्त्वात् , घटादिवत्' इति कथं न तेषु कार्यत्वलक्षणो हेतुः सिद्धः ? असदेतत्; यतोऽत्रापि प्रयोगे भू-भूधरादेरवयविनोऽसिद्धराश्रयासिद्धः 'रचनावत्त्वात्' इति हेतुः, तदसिद्धत्वं च प्राक् ३५ प्रतिपादितम् । किश्च, { किमिदं रचनावत्त्वम् ? यदि अवयवसन्निवेशो रचना तद्वत्त्वं च पृथिव्यादेस्तदुत्पाद्यत्वम् तदाऽवयवसन्निवेशस्य संयोगापरनानोऽसिद्धत्वादसिद्धविशेषणो रचनावत्वादिति हेतुः । तथा, पृथिव्यादिषु संयोगजन्यत्वस्य विशेष्यस्यासिद्धत्वादसिद्धविशेष्यश्च प्रकृतो हेतुः। कथं संयोगासिद्धत्वम् येनोक्तदोषदुष्टः प्रकृतो हेतुः स्यात् ? उच्यते, तग्राहकप्रमाणाभावात ४० बाधकप्रमाणोपपत्तेश्च । तथाहि [प्रासङ्गिक संयोगस्य निरसनम् ] "संख्या-परिमाणानि पृथक्त्वम् संयोग-विभागौ परत्वाऽपरत्वे कर्म च रूपि(द्रव्य)समवायाचा. क्षुषाणि" [वैशेषिकद०४-१-११] १-यमाने परो-गु०। २-शति पतर्हि त-गु०। ३ पृ० १०२ पं० ११ । स० त०१५ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ प्रथमे काण्डेइति वचनात् दृश्यवस्तुसमवेतस्य संयोगस्य परेण प्रत्यक्षग्राह्यत्वमभ्युपगतम् । न च निरन्तरो. त्पन्नवस्तुद्वय प्रतिभासकालेऽध्यक्षप्रतिपत्तौ तद्यतिरेकेणापरः संयोगो बहि हारूपनां बिभ्राणः प्रतिभाति, नापि कल्पनावुद्धो यस्तुद्वयं यथोक्तं विहाय शब्दोल्लेखं चान्तरम् अपरं वांकृत्यक्षराकाररहितं संयोगस्वरूपमुद्भाति । तदेवमुपलब्धिलक्षणप्राप्नस्य संयोगस्यानुपलब्धेरभावः, शशविषाणवत । ५ तेन यदाह उद्द्योतकर:"यदि संयोगो नार्थान्तरं भवेत् तदा क्षेत्र-बीजोदनादयो निर्विशिष्टत्वात् सर्वदैवाङ्करादिकार्य कुर्युः, न चैवम् , तरसात् सर्वदा कार्याऽनारप्रभात क्षेत्रादीन्यड्डरोत्पत्तौ कारणान्तरसापेक्षाणि, यथा मृत्पिण्डादिसामग्री घटादिकरणे कुलालादिसापेक्षाः योऽसौ क्षेत्रादिभिरपेक्ष्यः स संयोग इति सिद्धम् । किञ्च, असौ संयोगो द्रव्ययोर्विशेषणभावेन प्रतीयमानत्वात् ततोऽर्थान्तरत्वेन प्रत्यक्षसिद्ध १० एव । तथाहि-कश्चित् केनचित् 'संयुक्ते द्रव्ये आहर' इत्युक्तो ययोरेव द्रव्ययोः संयोगमुपलभते ते एवाहरति न द्रव्यमात्रम् । किञ्च, दूरतरवर्तिनः पुंसः सान्तरेऽपि वने निरन्तररूपावसायिनी बुद्धिरुदयगासादयति, सेयं मिथ्याबुद्धिः मुख्यपदार्थानुभवमन्तरेण न क्वचिदुपजायते । न ह्यननुभूतगोदर्शनस्य गवये 'गौः' इति विभ्रमो भवति । तस्मादवश्यं संयोगो मुख्योऽभ्युपगन्तव्यः । तथा, 'न चैत्रः कुण्डली' इत्यनेन प्रतिरोधवाक्येन न कुण्डलं प्रतिपिध्यते, नापि चैत्रः, तयोरन्यत्र देशादौ सत्त्वात् । १५तस्माच्चैत्रस्य कुण्डलसंयोगः प्रतिषिध्यते । तथा, 'चैत्रः कुण्डली' इत्यनेनापि विधिवाक्येन न चैत्र कुण्डलयोरन्यतरविधानम् , तयोः सिद्धत्वात् ; पारिशेप्यात् संयोगविधानम् । तस्मादस्त्येव संयोगः" [न्यायवा० पृ० २१९ ] इति, तन्निरस्तं द्रष्टव्यम् । संयुक्तद्रव्यस्वरूपावभासन्यतिरेकेणापरस्य संयोगस्य प्रत्यक्षे निर्विकल्पके सविकल्पके वाऽप्रतिभासस्य प्रतिपादितत्वात् । न च संयुक्तप्रत्ययान्यथानुपपत्त्या संयोगकल्पनोपपला, निरन्तरावस्थयोरेव भावयोः संयुक्त२० प्रत्ययहेतुत्वात् । यावञ्च तस्यामवस्थायां संयोगजनकत्वेन संयुक्तप्रत्ययविषयौ ताविष्येते तावत् संयो गमन्तरेण संयुक्तप्रत्ययहेतुत्वेन तद्विषयी किं नेप्येते किं पारम्पर्येण ? न च सान्तरे वने निरन्तरावभासिनी बुद्धिर्मुख्यपदार्थानुभवपूर्विका, अस्वलत्प्रत्ययत्वेनानुपचरितत्वात् । 'न चैत्रः कुण्डली' इत्यादौ चैत्रसंबन्धिकुण्डलं निषिध्यते विधीयते वा न संयोगः । न च संवन्धव्यतिरेकेण चैत्रस्य कुण्डलसंबन्धानुपपत्तिरिति वक्तुं शक्यम् . यतश्चैत्र-कुण्डलयोः किं संबन्धिनोः स संबन्धः, उतासंबन्धिनोः? २५नासंबन्धिनोः, हिमवद्विन्ध्ययोरिवासंबन्धिनोः संबन्धानुपपत्तेः न चासंबन्धिनोभिन्नसंबन्धेन तदभिन्नं संबन्धिन्वं शक्यं विधातुम् , विरुद्धधर्माध्यासेन भेदात् । नापि भिन्नम्, तत्सद्भावेऽपि तयोः स्वरूपेणासंबन्धित्वासङ्गात्; भिशस्य तत्कृतोपकारमन्तरेण तत्संबन्धित्वायोगात् । ततोऽपरोपकारकल्पनेऽनवस्थाप्रसङ्गात् । संवन्धिनोस्तु संबन्धपरिकल्पनं व्यर्थम्, संबन्धमन्तरेणापि तयोः स्वत एव संबन्धिस्वरूपत्वात्। ३० यत्तूक्तम् 'विशिष्टावस्थाव्यतिरेकेण क्षिति-बीजोदकादीनां नाङ्कुरजनकत्वम् , सा च विशिष्टावस्था तेषां संयोगरूपा शक्तिः, तदसारम् । यतो यथा विशिष्णावस्थायुक्ताः क्षित्यादयः संयोगमुत्पादयन्ति तथा तदवस्थायुक्ता अङ्कुरादिकमपि कार्य निष्पादयिष्यन्तीति व्यर्थं संयोगशक्तेस्तदन्तरालवर्तिन्याः परिकल्पनम् । अथ संयोगशक्तिव्यतिरेकेण न कार्योत्पादने कारणकलापः प्रवर्त्तत इति निर्बन्धस्तर्हि संयोगशक्त्युत्पादनेऽप्यपरसंयोगशक्तिव्यतिरेकेण नासौ प्रवर्तत इत्यपरा संयोगशक्तिः ३५ परिकल्पनीया, तत्राप्यपरेत्यनवस्था । अथ तामन्तरेणापि शक्तिमुत्पादयन्ति तर्हि कार्यमपि तामन्तरेणैवाङ्करादिकं निर्वर्तयिष्यन्तीति व्यर्थ संयोगशक्तेस्तदन्तरालवर्त्तिन्याः कल्पनम् । न च विशिष्टावस्थाव्यतिरेकेण पृथिव्यादयः संयोगशक्तिमपि निर्वर्तयितुं क्षमाः; तथाऽभ्युपगमे सर्वदा तन्निवर्त्तनप्रसङ्गादडरादेरप्यनवरतोत्पत्तिप्रसङ्गः। न चान्यतरकर्मादिसव्यपेक्षाः संयोगमुत्पा दयन्ति क्षित्यादय इति नायं दोषः, कर्मोत्पत्तावपि संयोगपक्षोक्तदूषणस्य सर्वस्य तुल्यत्वात् । ४० तस्मादेकसामग्र्यधीनविशिष्टोत्पत्तिमत्पदार्थन्यतिरेकेण नापरः संयोगः, तस्य बाधकप्रमाण १ प्र. पृ. पं० १। २ अत्र पृ० १०६ पं० ३४ गतपाठानुरोधेन 'उपकारेऽपि तद्भिन्नसंबन्धित्वकरणे पुनरपि तयोः असंबन्धित्वम्' इत्यर्थोऽनुसन्धेयः। ३ न. पृ. पं०६। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ ईश्वरस्वरूपवादः। विषयत्वात् साधकप्रमाणाभावाच्च । यस्तु 'संयुक्ते द्रव्ये एते' इति, 'अनयोर्चाऽयं संयोगः' इति व्यपदेशः स भेदान्तरप्रतिक्षेपाप्रतिक्षेपाभ्यां तथाऽयस्थोत्पन्नवस्तुद्वयनिबन्धन एव, नातोऽपरस्य संयोगस्य सिद्धिः।ग चाक्षणिकत्वे तयोः रा संबन्धी युक्तः । तत्संबन्धस्य समवायस्य निषिद्धत्वात् निषेत्स्यमानत्वाश्च । न च तज्जन्यत्वादसौ तत्संबन्धी, अक्षणिकत्वे जनकत्वविरोधस्य प्रतिपादयिध्यमाणत्वात् । क्षणिकत्वेऽपि तयोरेकसामथ्यधीना नैरन्तर्योत्पत्तिरेव, नापरः संयोग इति 'रचना- ५ वत्त्वात्' इत्यत्र हेतोर्विशेषणस्य संयोगविशेषस्य रचनालक्षणस्याऽसिद्धेस्तद्वतो विशेष्यस्याप्यसिद्धिरिति स्वरूपासिद्धत्वम् । __ अथ पृथिव्यादेः कार्यत्वं बौद्धैरभ्युपगरयत एयेति नासिद्धत्वं तैरस्य हेतोः प्रेरणीयम् । नन्वत्रापि यादग्भूतं बुद्धिमत्पूर्वकत्वेन देवकुलादिष्वन्वय-व्यतिरेकाभ्यां व्याप्तं कार्यत्वमुपलब्धम्-यक्रियादशिनोऽपि जीर्णदेवकुलादावुपलभ्यमानं लौकिकपरीक्षकादेस्तत्र कृतबुद्धिमुत्पादयत्ति-ताहरभूतस्य १० क्षित्यादिषु कार्यत्वस्याऽनुपलब्धेरसिद्धः कार्यत्वलक्षणो हेतुः। उपलम्भे वा तत्र ततो जीर्ण देवकुलादिष्विवाऽक्रियादर्शिनोऽपि कृतबुद्धिः स्यात् । न ह्यन्वय-व्यतिरेकाभ्यां सुविवेचितं कार्य कारणं व्यभिचरति, तस्याऽहेतुकत्वप्रसङ्गात् । अतः क्षित्यादिषु कार्यत्वदर्शनादक्रियादर्शिनः कृतबुद्धधनुपपत्तेर्यद् बुद्धिमत्कारणत्वेन व्याप्त कार्यत्वं देवकुलादिषु निश्वितं तत् तत्र नास्तीत्रासिद्धो हेतुः; केवलं कार्यत्वमात्र प्रसिद्धं तत्र । न च प्रकृत्या परस्परमर्थान्तरत्वेन व्यवस्थितोऽपि धर्मः शब्दमात्रेणाऽभेदी १५ हेतुत्वेनोपादीयमानोऽभिमतसाध्यसिद्धये पर्याप्तो भवति, साध्यविपर्ययेऽपि तस्य भावाविरोधात्। यथा वल्मीके धर्मिणि कुरुभकारकृतत्वसिद्धये मृद्धिकारमात्रं हेतुन्वेनोपादीयमानमिति। यद बुद्धिमत्कारणत्वेन व्यासं देवकुलादौ कार्यत्वं प्रमाणतः प्रसिद्धं तच क्षित्यादावसिद्धम्; यश्च क्षित्यादौ कार्यत्वमात्रं हेतुत्वेनोपन्यस्यमानं सिद्धं तत् साध्यविपर्यये वाधकप्रमाणाभावात् संदिग्धव्यतिरेकत्वे. नानकान्तिकम् न ततोऽभिमतसाध्यसिद्धिः। २० ___ नन्वेतत् कार्यसमं नाम जात्युत्तरम् । तथाहि-'कुतकत्वादगिलाः शब्दः' इत्युक्ते जातिशाद्यत्रापि प्रेरयति-किमिदं घटादिगतं क्रतकत्वं हेतत्वेनोपन्यस्तम, किंवा शब्दगतम्, अथोभर भयगतमिति? आधे पक्षे हेतोरसिद्धिः, न खन्यधर्मोऽन्यत्र वर्तते । द्वितीयेऽपि समविकलो दृष्टान्तः । तृतीयेऽप्येतावेच दोषाविति । एतच्च कार्यसमं नाम जात्युतरमिति प्रतिपादितम् प्रथोत.:-"कार्यत्वान्यत्वलेशेन यत् साध्यासिद्धिदर्शनं तत् कार्यसमम्”[ ] इति, कार्यत्वसामान्यस्यानित्यत्वसाध-२५ कत्वेनोपन्यासेऽभ्युपगते धर्मिभेदेन विकल्पनवद् बुद्धिमत्कारणत्वे क्षित्यादेः कार्यत्वगात्रेण साध्येऽभीष्टे धर्मिभेदेन कार्यत्वादेर्विकल्पनात्, अरादेतत् ; यतः सामान्येन कार्य यानित्यत्वयोर्विपर्यये बाधकप्रमाणबलाद व्याप्तिसिद्धौ कार्यत्वसामान्य शब्दादौ धर्मिण्युपलभ्यमानमनित्यत्वं साधयतीति कार्यत्व मात्रस्यैव तत्र हेतुत्वेनोपन्यासे धर्मविकल्पनं यत् तत्र क्रियेत तत् सर्वानुमानोच्छेदकत्वेन कार्यसमजात्युत्तरतामासादयति; न त्वेवं क्षित्यादेर्बुद्धिमत्कारणत्वे साध्ये कार्यत्वसामान्यं हेतुत्वेन संभवति, तस्य ३० विपर्यये बाधकप्रमाणाभावात् सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वेनाऽनैकान्तिात्यात् । यच्च बुद्धिमत्कार. णपूर्वकत्वेन व्याप्तं देवकुलादौ कार्यत्वं प्रतिपन्नम्-यदक्रियादर्शिनोऽपि जीर्णप्रासादादौ कृतबुद्धिमुत्पादयति-तत् तत्रासिद्धमिति प्रतिपादितम् । अपि च. यदि अन्त्र व्यापकनिरीकबद्धिमत्कारणं शिल्यादेः कारणत्वेनाऽभिप्रेतं कार्यत्वलक्षणा खेतोः तथा सति घटादौ दृष्टान्तधर्मिणि तत्पूर्वकत्वेन कार्यत्वस्यानिश्चयात् साध्यविकलो दृष्टान्तः, ३५ विरुद्धश्च हेतुः स्यात्, अनित्यबुद्धयाधाराव्यापकाऽनेककर्तृपूर्वकत्वेन व्याप्तस्य कार्यत्वस्य घटादौ निश्चयात् । अथ बुद्धिमत्कारणत्वमात्रं साध्यत्वेनाभिप्रेतं क्षित्यादौ तर्हि नित्यबुझ्याधार-व्यापकैककर्तृपूर्वकत्वलक्षणस्य विशेषस्य क्षित्यादावसिद्धेनेश्वरसिद्धिः। अथ बुद्धिमत्कारणत्वसामान्यमेव क्षित्यादौ साध्यते, तच्च पक्षधर्मताबलाद विशिष्टविशेषाधारं सिध्यति निर्विशेषस्य सामान्यस्यासंभवात्, अनित्यज्ञानवतः शरीरिणः क्षित्यादिविनिर्माणसामर्थ्यरहितत्वेन घटादावुपलब्धस्य विशेषस्य बुद्धि-४० मत्कारणत्वसामान्याधारस्य तत्रासंभवात् । नन्वेवं सामान्याश्रयत्वेन यद् घटादौ व्यक्तिस्वरूपं १-दान्तरप्रतिक्षेपाभ्यां हा०।-मेदातरं प्रतिक्षेपाभ्यां आ० । २-धो यु-आ०, वृ०, कां। ३ पृ. १०६ पं० १०। ४-कारत्वमा-भा०, मां० ब०। ५-व्यतिरेकि-भा०। ६ न्यायदर्शने पश्चमाध्याये प्रथमाहिके सू० ३७-३८ विवृतमेतत् कार्यसमम् । प्र० पृ. पं०१८। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ प्रथमे काण्डेप्रतिपन्नं तस्य क्षित्यादावसंभवात् , अन्यस्य च व्यक्तिस्वरूपस्य विवक्षितसामान्याश्रयत्वेनाप्रसिद्धत्वात्, निराधारस्य च सामान्यस्यासंभवात्, बुद्धिमत्कारणत्वसामान्यस्यैव क्षित्यादौ न सिद्धिः स्यात्न हि कचिद् गोत्वाधारस्य खण्डादिव्यक्तिविशेषस्याऽसंभवेऽन्यरूपमहिण्यादिव्यक्तिसमाश्रितं गोत्वं कुतश्चिद्धतोः सिद्धिमासादयति। ५ अथ कार्यत्वस्य क्षित्यादौ बुद्धिमत्कारणत्वाभावेऽभावप्रसङ्गाद् विलक्षणव्यत्तयाश्रितस्यापि तत्सामान्यस्य तत्र सिद्धिर्भवत्येव; यथा महानसविलक्षणगिरिशिखराद्याधारस्याग्निसामान्यस्य धूमात् प्रसिद्धिः । स्यादेतत्, यदि अधूमव्यावृत्तं धूममात्रमनग्निव्यावृत्तेनाग्निना व्याप्तं यथा प्रत्यक्षाऽनुपलम्भलक्षणात् प्रमाणात् प्रसिद्ध तथाऽत्राप्यबुद्धिमत्कारणव्यावृत्तेन बुद्धिमत्कारणत्व. मात्रेणाऽकार्यव्यावृत्तस्य कार्यमात्रस्य कुतश्चित् प्रमाणाद् व्याप्तिः सर्वोपसंहारेण निश्चिता स्यात्, १० याषता सैव न सिद्धा। अथ यथा कार्यधर्मानुवृत्तेः कार्य हुतभुजो धूमः, स तदभावेऽपि भवन हेतुमत्ता विलवयेत् इति नाग्निव्यतिरेकेण धूमस्य सद्भाव इति सर्वोपसंहारेण व्याप्तिसिद्धिस्तथा:प्रापि भूधरादि कार्यधर्मानुवृत्तितो बुद्धिमत्कारणकार्यम्, तद्भावे तद् भवद् निर्हेतुकं स्यादिति सोपसंहारेण व्याप्तिसिद्धिः। ननु घटादिलक्षणः कार्यविशेषो बुद्धिमदन्वय-व्यतिरेकानुविधायी य उपलभ्यमानस्तत्समानेषु पदार्थेष्वक्रियादर्शिनोऽपि कृतबुद्धिमुत्पादयति, स एव बुद्धिमत्कार १५णकार्यत्वात् तदभावे भवन निर्हेतुकः स्यादिति वक्तुं शक्यम्, न पुनः कार्यत्वमात्रं कारणमात्रहेतुकं बद्धिमत्कारणाभावे भवन्निर्हेतुकमासज्यते, तद्धि कारणमात्राभावे भवद निहेतुक स्यात् । नच कार्यविशेषः कर्तारमन्तरेण नोपलब्ध इति कार्यत्वमात्रमपि कर्तृविशेषानुमापकमिति न्यायविदा घल्लं युक्तम् । अन्यथा धूमविशेषस्तत्कालवह्रयव्यभिचरितो महानसादावुपलब्ध इति धूपघटिकादौ धूममात्रमपि तत्कालवयनुमापकं स्यात् । अथ तत्र तत्कालवयनुमाने ततः प्रत्यक्षविरोधः, स २० तर्हि भूरुहादावप्यकृष्टजाते कत्रनुमाने कार्यत्वलक्षणाद्धेतोः समानः । अथ तत्कर्तुरतीन्द्रियत्वा भ्युपगमाद् न प्रत्यक्षविरोधः, धूपघटिकादावपि वढेरतीन्द्रियत्वाभ्युपगमे को दोषो येन प्रत्यक्ष. विरोध उद्भाव्येत? अथ 'यदि तत्र तत्कालसंबन्ध्यनलो भवेत् तदा भास्वररूपसंबन्धित्वात् प्रत्यक्षः स्यात्' इत्यप्रत्यक्षत्वलक्षणो दोषः; ननु भास्वररूपसंबन्धित्वादनलो यदि तत्कालं स्यात् प्रत्यक्ष एव भवेदित्येतदेव कुतोऽवसितम्? महानसादौ तथाभूतस्यैव तस्य दर्शनादिति चेत्, नन्वेवं भूरु२५हादापपि यदि कर्ता स्यात् तदा शरीरवान् दृश्य एव स्यात् , घटादौ कर्तुस्तथाभूतस्यैव तस्योपलम्भात् इति समानं पश्यामः। __ अथ वृक्षशाखाभङ्गादिकार्यस्याऽदृश्यः पिशाचादिः कर्ता यथाऽभ्युपगतः, स्वशरीराऽवयवानों वाऽपरशरीरव्यतिरेकेणापि यथा वा प्रेरको देवदत्तादिः, तथा भूरुहादिकार्यकर्ताऽदृश्यः शरीरादिरहितश्च यदि स्यात् को दोषः? न कश्चिद् दृष्टव्यतिक्रमव्यतिरेकेण । तथाहि-देवदत्तादेरपि ३० स्वशरीरावयवप्रेरकत्वं विशिष्टशरीरसंबन्धव्यतिरेकेण नोपलब्धमित्येतावन्मात्रमेव तत्र तस्य कर्तृत्व निबन्धनम्, नापरशरीरसंबन्धस्तत्र तस्योपयोगी इति भूरुहादिकर्तुरपि शरीरसंबद्धस्यैव कार्यकरणे व्यापारो युक्तः नान्यथा। तत्संबन्धश्च तस्य यदि तत्कृतोऽभ्युपगम्यते तदा शरीरसंबन्धरहितस्य तदकरणसामर्थ्यमित्यपरशरीरसंबन्धोऽभ्युपगन्तव्यः; अन्यथा शरीरसंबन्धरहितस्य कथं प्रस्तुतकार्यकरणम्? तथा, तदभ्युपगमे वाऽपरापरशरीरनिर्वर्तने क्षीणव्यापारत्वादीशस्य न ३५भूरुहादिकार्य निर्वर्तनम् । अथ तदनिर्तितं तच्छरीरं तदाऽत्रापि वक्तव्यम्-किं तत् कार्यम्, उत नित्यमिति? यद्याद्यः पक्षः, तदा तस्य कार्यत्वे सत्यपि न कर्तृपूर्वकत्वम्, ततस्तेनैव कार्यत्वलक्षणो हेतुळमिचारी । अथ नित्यम्, तदा यथा तच्छरीरस्य शरीरत्वे सत्यपि नित्यत्वलक्षणः स्वभावातिक्रमोऽभ्युपगम्यते तथा भूरुहादेः कार्यत्वे सत्यप्यकर्तृपूर्वकत्वमभ्युपगन्तव्यमिति पुन रपि तैहेतुर्यभिचारी प्रकृतः। ४० पिशाचादेस्तु शरीरसंबन्धरहितस्य कार्यकर्तृत्वं मुक्तात्मन इवानुपपन्नम् । अथास्त्येव तस्य शरीरसंबन्धः, किन्वडश्यशरीरसंबन्धादसावश्यः कर्ताऽभ्युपगम्यते; ननु कुलालादेरपि शरीर संबन्ध एष दृश्यत्वं नापरम्, स्वरूपेणात्मनोऽदृश्यत्वात् । अथ रश्यशरीरसंबन्धात् तस्य श्य १-मां बाऽपर-मा.। २-करणन्या-कां । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः । ११७ त्वम् ; ननु पिशाचादिशरीरस्य शरीरत्वे सत्यपि कथमदृश्यत्वम् ? अस्मदादिचक्षुर्व्यापारेण तस्यानुपलम्भादिति चेत्; ननु यथा शरीरत्वे सत्यप्यस्मदादिशरीर विलक्षणं पिशाचादिलक्षणं शरीरमनुपलभ्यत्वेनाभ्युपगम्यते तथा घटादिविलक्षणं भूरुहादि कार्यत्वे सत्यप्यकर्तृकत्वेन किं नाभ्युपगम्यते ? तथाऽभ्युपगमे च पुनरपि प्रकृतो हेतुर्व्यभिचारी । तदेवमसिद्धत्वाऽनैकान्तिकत्व - विरु. द्धत्वदोषदुष्टत्वाद् नास्माद्धेतोः प्रस्तुतसाध्यसिद्धिः । तेन यदुक्तम् 'पृथिव्यादिगतस्य कार्यत्वस्या. ५ प्रतिपत्तेर्न तस्मादीश्वरावगमः' इति, तद् युक्तमेवोक्तम् । तूक्तम् 'पृथिव्यादीनां बौद्धैः कार्यत्वमभ्युपगतम् ते कथमेवं वदेयुः' इति, तदसारम् प्रकृतसाध्यसिद्धिनिबन्धनस्य कार्यत्वस्य तेष्वसिद्धत्वप्रतिपादनात् । यश्चाषि 'येऽपि चार्वाकास्तेषां कार्यत्वं नेच्छन्ति तेषामपि विशिष्टसंस्थानयुक्तानां कथमकार्यता' इति, तदप्ययुक्तम् ; संस्थानयुक्त - त्वस्यासिद्धत्वादिदोषदुष्टत्वप्रतिपादनात् । यच 'संस्थानशब्दवाच्यत्वं केवलं घटादिभिः सामान्यं १० पृथिव्यादीनाम्, न त्वर्थः कश्चिद् द्वयोरनुगतः समानो विद्यते' तदेवमेव यत्तूक्तम् 'धूमादावपि पूर्वापरव्यक्तिगतो नैव कश्चिदनुगतोऽर्थः समानोऽस्ति' इत्यादि, तदसङ्गतम् ; घटादिसंस्थानेभ्यः पृथिव्यादिसंस्थानस्य वैलक्षण्येन हेतोरसिद्धत्वप्रतिपादनात् । यदयुक्तम् 'व्युत्पन्नानामस्त्येव पृथिव्यादि संस्थानवस्व - कार्यत्वादेर्हेतोर्धर्मिधर्मताऽवगमः, अव्युत्पन्नानां तु प्रसिद्धानुमाने धूमादावपि नास्ति' इति, तदप्यचारु; यतो यद्यनुमाननिमित्तहेतुपक्ष- १५ धर्मत्व-प्रतिबन्धलक्षणां व्युत्पत्तिमाश्रित्य व्युत्पन्ना अभिधीयन्ते तदा पृथिव्यादिगतसंस्थान-कार्यस्वाद घटादिसंस्थानवैलक्षण्ये प्रकृतसाध्यसाधके व्युत्पत्तिर्न केषाञ्चिदपि भवति, यथोक्तसाध्यव्याप्तस्य पृथिव्यादौ संस्थानादेरभावात् । भावे वा शरीरादिमतोऽस्मदादीन्द्रियग्राह्यस्यामित्यबुद्धधादिधर्मकलापोपेतस्य घटादौ संस्थानादिहेतुव्यापकत्वेन प्रतिपन्नस्य कर्तुः पृथिव्यादौ ततः प्रतिपत्तिः स्यात्, न हि हेतुव्यापक मपहायाऽव्यापकस्य विरुद्धधर्माक्रान्तस्याऽपरस्य साध्यधर्मस्य प्रतिपत्तिः २० साध्यधर्मिणि यथोक्तलक्षणलक्षित हेतु बलसमुत्थेत्यनुमानविदां व्यवहारः । कारणमात्रप्रतिपत्तौ तु ततः तत्र न विप्रतिपत्तिरिति सिद्धसाध्यता । अथ हेतुलक्षणव्युत्पत्तिव्यतिरिक्तां व्युत्पत्तिमाश्रित्य 'व्युत्पन्नानाम्' इत्युच्यते तदा 'केनचित् स्रष्ट्रा जगत् सृष्टम्' इति निर्मूलदुरागमाहितवासनानामस्त्येव पृथिव्यादिसंस्थानवत्व- कार्यत्वादेर्हेतोर्धर्मिधर्मताऽवगमादिः न च तथाभूतधर्मिधर्मताद्यवगमात् साध्यसिद्धिः, वेदे मीमांसकस्याऽस्मर्यमाणकर्तृकत्वादेः धर्मिधर्मताऽवगमादेर्यथाऽपौरुषेय- २१ त्वस्य । 'अव्युत्पन्नानां तु प्रसिद्धानुमाने धूमादावपि नास्ति इति युक्तमेव, अस्माभिरप्यभ्युपगमात् । यतुं 'प्रासादादिसंस्थाना देवैलक्षण्येऽपि पृथिव्यादिसंस्थानादेः कार्यत्वादि पृथिव्यादीनामिध्यते, कार्ये च कर्तृ- करण- कर्मपूर्वकं दृष्टम्' इत्यादि, तदप्यसङ्गतम् ; यतो यदि नाम घटादेर्विशिष्टकार्यस्य कर्तृपूर्वकत्वमुपलब्धं नैतावताऽविशिष्टस्यापि भूरुहादिकार्यस्य कर्तृपूर्वकत्वमभ्युपगन्तुं युक्तम्; अन्यथा पृथिवीलक्षणस्य कार्यस्य रूप-रस- गन्ध-स्पर्शगुणयोगित्वमुपलब्धं भूतत्वे सति, ३० वायोरपि तद्योगित्वमभ्युपगमनीयं स्यात्, तत्त्वादेव । अथात्र प्रत्यक्षादिबाधः, स भूरुहादिकार्येवपि समान इति प्राक् प्रतिपादितम् । यत्तूक्तम् 'कर्तृपूर्वकस्य कार्यत्वादेस्तद्वैलक्षण्याद् न ततः साध्यावगमः' इत्यादि, तत् सत्यमेव तद्वैलक्षण्यस्य प्रसाधितत्वात् । अत एव सिद्धम् 'यागधिष्ठातृभावाभावानुवृत्तिमत् सन्निवेशादि' इत्यादिग्रन्थप्रतिपादिर्तस्य दूषणस्य कार्यत्वादौ सर्वस्मिन्नीश्वरसाधके हेतौ समानत्वाद् न कस्यचित् तत्साधकता । 'यद्येवमनुमानोच्छेदप्रसङ्गः, धूमादि ३५ यथाविधमन्यादिसामग्रीभावाभावानुवृत्तिमत् तथाविधमेतद् यदि पर्वतोपरि भवेत् स्यात् ततो वह्वयाद्यवगमः' इत्यादिकस्तु पूर्वपक्षग्रन्थः पूर्वमेव विहितोत्तरः । यथा यथाभूतोऽधूमव्यावृत्तो धूमोऽनग्निव्यावृत्तेनाऽग्निना व्याप्तो विपर्यये बाधकप्रमाणलादवसितो गिरिशिखरादावुपलभ्यमानस्तद्देशमग्निसामान्यम नियततार्ण- पार्णाद्यग्निव्यक्तिसमाश्रि ४० ९३ पं० ३९ । १ पृ० ९३ पं० ३८ । २० ९३ पं० ३८ । ३ पृ० ११५ पं० ११। ५ पृ० ११३ पं० ३८ । ६ पृ० ९४ पं० २ । ७ पृ० ९४ पं० ३ । ८ पृ० ११५ पं० ११ । ९ ० ९४ पं० १३ । १० ५०९४ पं० १५ । ११ पृ० १०८ पं० १९ । १२ पृ० ९४ पं० १७ । १३०९४० ६ । १४०९४ पं० १८ । १५ पृ० ९४ पं० १९ । १६ पृ० ११६ पं० ७ । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ प्रथमे काण्डेतमनुमापयति; नैवं कार्यत्वमात्रं बुद्धिमत्कारणत्वसामान्येन व्याप्तं विपर्यये बाधकप्रमाणबलाद निश्चितं किन्तु कारणत्वमा(णमा)त्रेण व्याप्तं तत् तद्बलाद निश्चितम् , तच्चोपलभ्यमानं क्षित्यादौ कार णमात्रमनुमापयति यथा गिरिशिखरादावुपलभ्यमानो धूमस्तत्संबद्धमग्निमात्रमनियतव्यक्तिनिष्ठम्, तेन 'पृथिव्यादिगतकार्यत्वदर्शनात् कर्बदर्शिनस्तदप्रतिपत्तिवत् शिखर्यादिगतवयाद्यदर्शिनां ५धूमादपि तदप्रतिपत्तिरस्तु' इति कोऽन्योऽनुमानस्वरूपविदो भवतो वक्तुं क्षमः। यदि हि का शेषाद्धूमलक्षणादुपलभ्यमानाद् गृहीताविनाभावस्य पुंसोऽग्निलक्षणकारणविशेषप्रतिपत्तिर्गिरिशिखरादौ भवति तदा कार्यमात्रात् पृथिव्यादावुपलभ्यमानाद(नाद् )बुद्धिमत्कारणविशेषस्य तत्र प्रतिपत्तौ किमायातम् ? कारणमात्रप्रतिपत्तिस्तु ततस्तत्र भवत्येव, “सुविवेचितं कार्य कारणं न व्यभिचरति"[ ]इति न्यायात् । अत एवान्यस्य संबद्धस्यान्यतः प्रतिपत्तौ कार्यकारणावगमादौ १०प्रयत्नः कार्यः; अन्यथा तदुत्थप्रमाणस्य प्रमाणाभासता स्यात् । यत्। 'न चात्र शब्दसामान्यं वस्त्वनु. गमो नास्तीति युक्तं वक्तुम् , धूमादावपि शब्दसामान्यस्य वक्तुं शक्यत्वात्' इति, तदप्यसङ्गतम्। धूमादिवैलक्षण्येन पृथिव्यादौ कार्यत्वस्य बुद्धिमत्कारणत्वाव्याप्तेः शब्दसामान्यस्य साधितत्वात् । ___यश्च 'घटादिवत् पृथिव्यादि स्वावयवसंयोगैरारब्धमवश्यं तद्विश्लेषादू विनाशमनुभविष्यति' इत्यादि, तदप्यसङ्गतम्; अवयवसंयोगवत् तद्विश्लेषस्थापि विभागलक्षणस्य विनाशं प्रति हेतुत्वे१५ नोपन्यस्तस्यासिद्धत्वात्; तदसिद्धत्वं च संयोगवद् वक्तव्यम् । 'एवं विनाशादू वा संभावितात् कार्यत्वानुमान रचनास्वभावत्वाद् वा' इत्यादि सर्व निरस्तं द्रष्टव्यम् । यत्तु चार्वाकं प्रति कार्यत्व. साधनायोक्तम्-'यथा लौकिक-वैदिक्यो रचनयोरविशेषात् कर्तृपूर्वकत्वं तथा प्रासादादि-पृथिव्यादिसंस्थानयोरपि तद्रूपताऽस्तु, अविशेषात्' तदप्यचारु; तद्विशेषस्य प्रतिपादितत्वात् ; ततः कार्यत्यादिलक्षणस्य हेतोरसिद्धतैव । यच्चाभाँषि सिद्धत्वेऽपि नास्माद्धेतोःसाध्यसिद्धिर्युक्ता; न हि केवलात् २० पक्षधर्माद् व्याप्तिशून्यात् साध्यावगमः' तत् सत्यमेव, व्याप्तिरहिताद्धेतोः साध्यसिद्धरसंभवात् । यच्च 'घटादौ कर्तृपूर्वकत्वेन कार्यत्वावगमेऽपि केषाञ्चित् कार्याणामकर्तृपूर्वकाणां कार्यत्वदर्शनान्न सर्व कार्य कर्तृपूर्वकम् यथा वनेषु वनस्पत्यादीनाम्' इति, तदपि सत्यमेव 'तस्माद् नेश्वरसिद्धौ कश्चिद्धतुरव्यभिचार्यस्ति' इत्येतत्पर्यन्तम् । यदप्युक्तम् 'नाकृष्टजातैः स्थावरादिभिर्व्यभिचारो व्याप्त्यभावो वा, साध्याभावे हेतुर्वर्तमानो व्यभिचार्युच्यते; तेषु कत्रग्रहणं न कर्बभावनिश्चयः' इति, २५ तदप्यसारम्; सर्वप्रमाणाविषयत्वेऽपि यदि स्थावरादिषु कर्बभावनिश्चयो न भवति तथा सति आकाशादौ रूपाद्यभावनिश्चयो मा भूत् । अथ तत्र रूपादिसद्भावबाधकप्रमाणसद्भावात् तदभावनिश्चयः, सोऽत्रापि समानः । तच्च प्रमाणं प्रदर्शयिष्यामोऽनन्तरमेव । यत्ततम् 'क्षित्याद्यन्वय-व्यतिरेकानुविधानदर्शनात् तेषाम् तदतिरिक्तस्य कारणत्वकल्पनेऽतिप्रसङ्गदोष इति, एतस्यां कल्पनायां धर्माधर्मयोरपि न कारणता भवेत्' इत्यादि, तदयुक्तम् ; धर्मा३०धर्मादेः कारणत्वं जगद्वैचित्र्यान्यथाऽनुपपत्त्या व्यवस्थाप्यते । तथाहि-सर्वान् उत्पत्तिमतः प्रति भूम्यादेः साधारणत्वात् तदन्यादृष्टाख्यविचित्रकारणकृतं कार्यवैचित्र्यम् । न चैवमीश्वरस्य कारणत्वपरिकल्पनायां किञ्चिन्निमित्तं संभवति, तद्व्यतिरेकेण कस्यचिदर्थस्यानुपपद्यमानस्यादृष्टेः । न च चेतनं कर्तारं विना कार्यस्वरूपानुपपत्तिरिति शक्यं वक्तुम्; (अ)दृष्टस्यैव सुगतसुतश्चैतन्यस्य जग. द्वैचित्र्यकर्तृकत्वेनाभ्युपगमात् ; तदा तद्व्यतिरिकाऽन्येश्वरस्य कल्पनायां निमित्ताभावात् । ३५ न चादृष्टस्य (?) चेतनेष्वपि सकलजगदुपादानोपकरणसंप्रदानाद्यभिज्ञाता न संभवतीति तद्व्यतिरिक्तोऽपरो महेशस्तज्ज्ञः कल्पनीय इति वक्तुं युक्तम् , तज्ज्ञानवत्त्वेन तस्याप्यसिद्धेः । न च सकलजगत्कर्तृत्वादेव तज्ज्ञत्वं तस्य सिद्धम् । इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् । तथाहि-सिद्धे सकलजगदुपादानाद्यभिज्ञत्वे सकलजगत्कर्तृत्वसिद्धिः, तत्सिद्धौ च तस्य तदभिज्ञत्वसिद्धिरिति व्यक्तमितरे १ पृ. ९४ पं० २२ । २ पृ. ९४ पं० २३ । ३ पृ. ९४ पं० २७ । ४ पृ. ११३ पं. ४३ गत-संयोगनिरसनप्रकरणोक्तयुक्त्या विश्वस्यापि असिद्धत्वं वाच्यम्। ५ पृ० ९४ पं० २७। ६ पृ. ९४ पं०४० । ७ पृ० ९५५३। ८ पृ. ९५ पं० ६ । ९ पृ. ९५ पं० २३ । १० पृ. ९५ पं० २४ । ११ पृ. ९५ पं० २७। १२-तनस्य वा०, बा०। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः। ११९ तराश्रयत्वम् । अथ यद् यत् कार्य तत् तद् उपादानाद्यभिज्ञकर्तृपूर्वकमुपलब्धं घटादिवत् पृथिज्याद्यपि कार्यम् , तेन तदपि तदमिज्ञकर्टपूर्वकं युक्तमिति नेतरेतराश्रयदोषः । ननु घटादिकार्यकर्तुरपि कुलालादेर्यदपि सर्वथा घटायुपादानाद्यभिज्ञत्वं सिद्धं स्यात् तदा युज्येताप्येतद् वक्तुम् । न च तस्याऽपि घटाधुपादानोपकरणादेः परिमाणाऽवयवसंख्येयत्वाद्यनेकधर्मसाक्षात्करणज्ञानमस्ति, तत्त्वं सिद्धम् (?)। (किं) चिन्मात्रपरिज्ञानं तु चेतनत्वेऽदृष्टस्यापि तदाधारस्य वा सत्त्वस्य तदृष्ट- ५ निर्वर्तितफलोपभोक्तः प्रतिनियतशरीराविष्ठायकस्य विद्यते इति व्यर्थ व्यतिरिक्तापरज्ञानवतो महेशस्य परिकल्पनम् । न चायमेकान्तः-सर्व कार्य तदुपादानाद्यभिज्ञेनैव का निवर्त्यत इति; स्वाप-मदा. वस्थायां शरीराद्यवयवप्रेरणस्य कार्यस्य तदुपादानाभिज्ञानाऽभावेऽपि तत्कृतत्वेनोपलब्धेः। __ यच्चोक्तम्-'न चाकृष्टजातेषु स्थावरादिषु तस्थाग्रहणेन प्रतिक्षेपः, अनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वाददृष्टवत्' इति, तदप्यचारु; यतो यदि तस्य शरीरसंबन्धरहितस्य कर्तृत्वमभ्युपेयते तन्न युक्तिसङ्ग-१० तम्, तत्संबन्धरहितस्य मुक्तात्मन इव जगत्कर्तृत्वानुपपत्तेः। अथ ज्ञान-प्रयत्न-चिकीर्षा-समवायाभावाद् मुक्तात्मनोऽकर्तृत्वं न पुनः शरीरसंबन्धाभावादिति विषमो दृष्टान्तः, तद्युक्तम् । ज्ञानादिसमवायस्य कर्तृत्वेनाभ्युपगतस्यै तत्राऽपि निषिद्धत्वात् । तस्माच्छरीरसंबन्धादेव तस्य जगत्कर्तृत्वमभ्युपगन्तव्यम् कुलालस्येव घटकर्तृत्वम् । तत्संबन्धश्चेदभ्युपगम्यते कथं न तस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वम् ? कुलालादेरपि शरीरसंबन्धादेव उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वम् न पुनः तत्संबन्धरहितस्यात्मनो १५ दृश्यत्वम् । तच्चेश्वरेऽपि शरीरसंबन्धित्वं कर्तृत्वादभ्युपगन्तव्यमित्युपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेस्तत्कर्तुः स्थावरादिष्वभावः सिद्ध इति कथं न तैः कार्यत्वलक्षणो हेतुर्व्यभिचारी? ___अथादृश्यं तच्छरीरमतस्तत्र सदपि नोपलभ्यत इत्ययमदोषः; नन्वेवमपि 'अम॑िन् सति इदं स्थावरादिकं जातम्' इति प्रतिपत्तिर्मा भूत्, तथाऽन्य(ऽप्यन्य)कारणभावेऽपि यथाऽतीन्द्रियस्ये. न्द्रियस्याऽभावे रूपादिज्ञानं नोपजायते तथा पृथिव्यादिकारणसाकल्येऽपि कदाचित् तच्छरीरविरहे २० तत्स्थावरादिकार्य नोपजायत इति व्यतिरेकात् प्रतीतिः किं न स्यात् ? यदो यत्रतच्छरीरं नियमेन संनिहितमिति चा(ना)ऽयं दोषस्तर्हि युगपद्भाविषु त्रिलोकाधिकरणेषु भावेषु का वार्ता ? न ह्येकस्य मूर्तस्य सावयवस्य महेश्वरवषुषोऽपि युगपत्सकलव्याप्तिः संभवति । अमूर्तत्वे निरंशप्रसङ्गादाकाशमेव तच्छरीरम् , तस्य तच्छरीरत्वेनाद्याप्यसिद्धत्वात् । अथ यावन्ति क्रमभावीन्यङ्करादिकार्याणि तावन्ति तथाविधानि तच्छरीराणि कल्प्यन्ते तर्हि तच्छरीरैः सकलं जगदापूरितमिति नाङ्कुरादि-२५ कार्यैरुत्पत्तव्यम् तदुत्पत्तिदेशाभावाद्, नापि माहेश्वरैः क्वचित् प्रवर्तितव्यम् , कुतश्चिद्वा निवर्तितव्यम् । तच्छरीराणां पादाद्यभिघातभयात् । अपि च, तान्यपि कार्याणि, सावयवत्वात् , कुम्भवत्। ततस्तत्करणे तावन्त्येवाऽपराणि तस्य शरीराणि कल्पनीयानि, पुनस्तत्करणेऽपि (इति) नानवस्थातो मुक्तिः। तन्न शरीरव्यापारसहायोऽप्यसौ स्थावरादिकार्य करोतीति कल्पयितुं युक्तम् , अनेकदोषप्रसङ्गात् । ३० नाऽपि सत्तामात्रेणाऽसौ स्वकार्य करोतीति कल्पयितुं युक्तम्, शरीरकल्पनवैयर्थ्यप्रसङ्गात्। अथ सर्वोत्पत्तिमतामीश्वरो निमित्तकारणम् , तस्य तत्कारणत्वं सकलकार्यकारणपरिज्ञाने नान्यथा, तत्परिज्ञान(ज्ञान)वा(चा)नित्य(त्यं)स्ये(से)न्द्रियशरीरमन्तरेणानुपपत्तेः (पन्नम्) अतस्तदर्थ तत्परिकल्पनमिति चेत्, न; सकलहेतुफल विषयं तस्या(तस्याऽनित्यं)स्ये (से)न्द्रियशरीरजं ज्ञानं न संभवति, इन्द्रियाणां युगपत्सर्वार्थसन्निकर्षाभावात् ; इन्द्रियार्थसन्निकर्षजं च नैयायिकैः प्रत्यक्ष-३५ मभ्युपगम्यते, तदुक्तम् "इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं शानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्” [ न्यायद अ० १, आ० १, सू० ४]। १-क्षात्कारण वा०, बा० । २ यथोक्त-वा०, वा० विना। ३ पृ. ९५ पं० ३९। ४-स्य तवा-वा०, बा०। ५-त्वम्-न पुनः वा०, या. विना। ६-स्मिन् सर्वमिदं वा०, वा० विना । ७-था नान्य-वा०, बा०। -का प्रती-वा०, बा०। ९ अत्र 'यदा यत्र' स्थाने 'तदा तत्र' इति उचितम् । अथवा पूर्वपनयनुसारेण 'यदा यत्र पृथिव्यादिकारणसाकल्यं तदा तत्र' इत्यादिको भावोऽत्र अनुसंधेयः। १०-ति-चो-वा०, बा०। ११-- त्परिनं वा नित्यसेन्द्रिय-वा०, बा०। १२-पत्तेमत-बा०, वा०। १३ तस्यासेन्द्रिय-वा०, बा। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० प्रथमे काण्डे-- सामग्री-फल-स्वरूपविशेषणपक्षत्रयेऽपोन्द्रियार्थसंनिकर्षजस्य तस्य प्रामाण्याभ्युपगमात्; तथा, "प्रमाणतोऽर्थप्रतिपत्तो प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थवत् प्रमाणम्" [वात्स्या० भा० पृ० १] इत्यत्र भाज्यम "प्रमातृ-प्रमेयाभ्यामर्थान्तरं प्रमितिलक्षणे फले साधकतमवद् इति अर्थः सहकारि प्रमाण प्रतिपादितम् , सहकारित्वं चाऽर्थस्य प्रमाणस्य फलजनने व्याप्रियमाणस्य फलजनकत्वेन तस्यापि ५सहायभावः. 'सह करोतीति सहकारि' इति व्युत्पत्तेः । न चासन्निहितस्यार्थस्याऽतीतस्याऽनागतस्य वा प्रमितिलक्षणफलजननं प्रति व्यापारः संभवति । न च प्रमित्यजनकोऽर्थः, तदभ्युपगमे न प्रमाणविषयान्यतः (तेत्यतः) सेन्द्रियशरीरजनितप्रत्यक्षज्ञानवत्त्वाभ्युपगमे महेशस्य न सकलकार्यकारणविषयज्ञानसंभवः, इति शरीरसंबन्धात् तस्य जगत्कर्तृत्वाभ्युपगमे तदकर्तृत्वमेव प्रसक्तम्, इति न तस्यादृश्यशरीरसंबन्धोऽभ्युपगन्तुं युक्तः ।। १० अपि च. घटादि कार्य दृश्यशरीरसंबद्धपुरुषपूर्वकमुपलब्धम् इत्यङ्करादि कार्यमपि तथा कल्पनीयम् । अथ तत्परिकल्पने प्रत्यक्षबाधाऽनवस्थादिदोषादरादिकार्यस्य कर्तृपूर्वकतैव विशीर्यत इति न तथाकल्पनम् । ननु तद्विव(तद्विश)रणे को दोषः? अथाङ्करादेः कार्यता अनेकॅकरणमात्राभावे समुपजायमानस्य तस्य अकार्यताप्रसक्तिः, न पुनः कर्तृभावे; अन्यथा गोपालघटिकादौ तत्कालाग्न्यभावे धूमस्याप्यभावप्रसक्तिः, न पुनः कर्तृभावेनाऽनलपूर्वकत्वं व्याप्तिग्रहणकाले धूमस्य १५प्रतिपन्नम् , तेन ततस्तत्र तत्कारणमनलाऽनुमानम् (?) । नन्वेवं कार्यमानं कारणमात्रपूर्वकत्वेन व्याप्तं व्याप्तिग्रहणकाले प्रतिपन्नमथुरादावुपलभ्यमानं कारणमात्रमिदमनुमापयतु न पुनर्बुद्धिमत्कारणविशेषम् , तेन कार्यमात्रस्य व्याप्तेरनिश्चयात् । न च दृश्यशरीरसंबद्धबुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वं कार्यविशेषस्योपलब्धमङ्कुरादौ तु कार्यत्वमुपलभ्यमानं तथाभूतकर्तृपूर्वकत्वानुमाने तत्र प्रत्यक्षविरोध इत्यदृश्य संबद्धशरीरकतपूर्वकत्वमनुमापयतीति वक्तुं शक्यम्; तथाऽभ्युपगमे गोपालघटिकादावपि तत्का२० लादृश्याऽनलानुमापको धूमः किं न स्यात् ? न च वह्निरदृश्यो न संभवतीति वक्तुं शक्यम्, नायनरश्मिष्वदृश्यस्य तस्य सद्भावाभ्युपगमात् । अथाव्यवहितरूपोपलब्ध्यन्यथानुपपत्त्या तस्य तथाभूतस्य परिकल्पनम् नन्वेवं धूमसद्भावान्यथाऽनुपपत्त्या तत्र तस्य तथाभूतस्य किं न परिकल्प. नम्? अपि च, यथाऽनलस्य भास्वररूपसंबन्धित्वे सत्यपि तस्योद्भूतत्वाऽनुद्भूतत्वाभ्यां दृश्यत्वाऽदृश्यत्वे परिकल्प्येते तथा प्रासादाऽङ्करादीनां कार्यत्वे किं न परिकल्प्येते न्यायस्य समानत्वात् ? २५ तन्नादृश्यशरीरसंबन्धात् तस्याङ्करादिकार्योत्पादकत्वं युक्तम् । दृश्यशरीरसंबन्धात् तत्कर्तृत्वे उपलभ्यानुपलम्भात् कथं तस्य नाऽभावः? यत्तूक्तम् 'न च सर्वा कारण सामग्युपलब्धिलक्षणप्राप्ता' इत्यादि, तत् सत्यमेव; इदं त्वसत्यम्-'ईश्वरस्य कारणत्वेऽपि न तत्स्वरूपग्रहणं प्रत्यक्षेण, अदृष्टवत् कार्यद्वारेण तत्प्रतिपत्तेः' इति; अदृष्टप्रतिपत्ताविवेश्वरप्रतिपत्तो कार्यत्वादेतोर्निदोषस्याऽसंभवा. दिति प्रतिपादितत्वात् । ३० यत्तुक्तम् 'स्थावरेषु कत्रग्रहणं कभावात्, आहोस्विद् विद्यमानत्वेऽपि तस्याग्रहणमनुपलभ्यस्वभावत्वेन, एवं संदिग्धव्यतिरिक्तत्वे न कश्चिद्धेतुर्गमकः, धूमादेरपि सकलव्यक्त्याक्षेपेण व्यायु. पलम्भकाले न सकला वहिव्यक्तयो दृश्याः' इत्यादि यावत् 'सर्वमुत्पत्तिमत् कर्तृ-करणपूर्वक रएम् , तस्य सकृदपि तथादर्शनात् तजन्यतास्वभावः, तस्यैवं स्वभावनिश्चितावन्यतमाभावेऽपि कथं स्वभावः' इति, तदप्यसंगतम् । यतो यादग्भूतमेव घटादिकार्य तत्पूर्वकमुपलब्धं तस्य सकृ. १५दपि तथादर्शनात् तज्जन्यः स्वभावो व्यवस्थित इति तदन्यतमा वेऽपि तस्य भावे सकृदपि ततस्तद्भावो न स्यादिति युक्तं च ववम् न पुनस्तद्विलक्षणं भूरुहादिकं कर्तृ-करणपूर्वकं कदाचनाप्युपलब्धम् किन्तु कारणमात्रपूर्वकम्, अतस्तद्भा(तभा)वे तस्य भवतोऽहेतुकत्वैप्राप्ते १ अत्र पृ. १०९५० ३ गतपाठानुरोधेन 'भाष्ये' इति बोध्यम् । भाष्य-बा०, बा०। २-तरे प्रहा०, गु०, २०, वि., अ.। ३-स्य प्रमाणं ति प्रमा-हा. विना। ४-ति व्युत्पत्तेः मां, भां। ५-भ्युपगमने प्र-अ., हे., मा०, हा०, भां० ।-भ्युपगमा न प्र-वा०, बा० ।-भ्युपगमेने प्र-आ०, १०,गु०। ६-ता यतः से-अ.-तायन्यतः से-डे०, चं० ।-तात्यतः से-वा०, मां०, भां०। -कप्रमाकरणामागु०। ८ पृ. ९५पं. .। पृ० ९६ पं० २। १० पृ. ११७ पं.४। ११ पृ. १६५०५ । १२ पृ. १६ पं० १५। १३-ऽपि सरुदपि तत-कां०, मां। १४-तदभावो-मा। १५-सामाते-पा.बा.बिना । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्थमीश्वतथाऽभ्यप्यते त ईश्वरस्वरूपवादः। १२१ स्तदेव तद् गमयतीत्यसकृदावेदितम् । यथा(यच्च) 'अनुपलभ्यमानकर्तृकेषु स्थावरेषु कर्तुरनुपलम्भः शरीराद्यभावात्, न त्वसत्वात्' इत्यादि, तदपि प्रतिक्षितम्; उक्तोत्तरत्वात् । यदप्युक्तम् 'चैतन्य मात्रेणोपादानाद्यधिष्ठानात् कथं प्रत्यक्षव्यापृतिः' ? तदसंगतम् ; तथोपादानाद्यधिष्ठायकत्वस्य क्वचिदप्यदर्शनात्, अदृष्टस्यापि तस्य कल्पने बुद्धयनधिष्ठितस्यापि भूरुहाद्युपादानस्य तत्कर्तृत्वं किं न कल्प्यते अदर्शनाविशेषात् ? ___यच्चाभ्यर्धायि 'कार्यस्य शरीरेण सह व्यभिचारो दृश्यते, स्वशरीरावयवानां हि शरीरान्तरमन्तरेणापि प्रवृत्ति-निवृत्ती केवलो विदधाति' इति, तदप्ययुक्तम् ; यतः शरीरसंबन्धव्यतिरेकेण चेतनस्य स्वशरीरावयवेष्वन्यत्र वा कार्यनिर्वर्तकत्वं न दृष्टमित्यन्यत्रापि तत् तस्य न कल्पनीयमित्येतावन्मात्रमेव प्रतिपाद्यते, न त्वपरशरीरसंबन्धपरिकल्पनमत्रोपयोगि। यदि च शरीररहितस्यापि तस्य भूरुहादिकार्ये व्यापारः परिकल्प्यते तर्हि मुक्तस्यापि तदन्तरेण ज्ञानसमवायिकारणत्वपरिकल्पनं १० किं न क्रियते ? तथाऽभ्युपगमे न ज्ञान-सुखादिगुणरहितात्मस्वरूपावस्थितिर्मुक्तिः संभवति इति तदर्थमीश्वराऽऽराधनमसंगतमासज्येत । यदपि 'कार्य शरीरेण विना करोतीति नः साध्यम्, तत् स्वशरीरगतम्, अन्यगतं वेति नानेन किञ्चित्' इति, तदप्यसारम् ; शरीरव्यतिरेकेण कार्यकरणादर्श नात्; स्वशरीरप्रवृत्तिस्वरूपेऽपि कार्ये तच्छरीरसंबद्धस्यैव व्यापारात्, अतः "अचेतनः कथं भावस्तदिच्छामनुवर्तते" [ ] ईति दूषणं व्यवस्थितमेव, अचेतनस्य शरीरादेः शरीरासंबद्धेच्छा-१५ मात्रानुवर्तनाऽदर्शनात् । तदसंबद्धस्येच्छाया अप्यभावात् मुक्तस्येव कुतस्तदनुवर्तनमचेतनकार्येण ? अथ अदृष्टाऽपि इच्छा अशरीरस्य स्थाणोः परिकल्प्यते, किमिति भूरुहादिकं कार्य कर्तृविकलं दृष्टमपि न कल्प्यते ? एतेन 'ईश्वरस्यापि प्रयत्नसद्भावे न काचित् क्षतिः' इति निरस्तम् , शरीराभावे मुक्तात्मन इव प्रयत्नासंभवात् । अपरशरीररहितस्वशरीरावयवप्रेरणप्रयत्नसद्भावोऽपि न शरीराभावे प्रयत्नसगावाऽऽवेदकः, सर्वथा शरीररहितस्य तस्य क्वचिदप्यदर्शनात्; दृष्टानुसारिण्यश्च कल्पना भवन्ति ।२० ततः स्थावरेषु शरीराभावाद् न तत्कर्तुरनुपलब्धिः किन्तु कर्तुरभावादिति कथं न तैः कार्यत्वादे. हेतोयभिचारः? न च यथाऽदृष्टस्येन्द्रियस्य चाऽन्वय-व्यतिरेकयोः कार्यकारणभावव्यवस्थापकयोरभावेऽपि कारणत्वसिद्धिर्व्यतिरेकमात्रात् तथा महेश्वरस्यापि ततस्तत्सिद्धिः, तस्य नित्यव्यापकत्वाभ्युपगमेन व्यतिरेकासंभवात् । अतो न व्याप्तिसिद्धिः कार्यत्वादेस्तत्साधकत्वेनोपन्यस्तस्य हेतोः। 'अत ए सत्प्रतिपक्षताऽपि, नैकस्मिन् साध्यान्विते हेतौ स्थिते द्वितीयस्य तथाविधस्य तत्रावकाशः' इति सत्यम्, किन्तु स्थाणुसाधकस्य कार्यत्वादेः साध्यान्वितत्वमेव न संभवतीति प्रतिपादितम् । यच्चोक्तम् 'नाऽपि बाधा, अबुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वस्य प्रमाणेनाऽग्रहणात्' इति, तदसांप्रतम् ; बुद्धिमकारणपूर्वकत्वाभावप्रतिपादकस्य प्रमाणस्याऽङ्करादावष्टोत्पत्तौ सद्भावात् । अथाङ्करादिक न्द्रियत्वाद् न प्रत्यक्षात् तदभावसिद्धिः, न; प्रत्यक्षात् तदभावाऽसिद्धावप्यनुमानस्य तत्र तदभाव-३. ग्राहकस्य भावात् । तथाहि-यद् यस्यान्वय-व्यतिरेको नानुविधत्ते न तत् तत्कारणम्, यथा न पटादयः कुलालकारणाः, नानुविद्धति चाङ्कुरादयो बुद्धिमत्कारणान्वय-व्यतिरेकाविति व्यापकानुपलब्धिः; यश्च यत्कारणं तत् तस्यान्वय-व्यतिरेकावनुविधत्ते, यथा घटादयः कुलालस्य । न चोपलब्धिमत्कारणसन्निधाने प्रागनुपलब्धस्याङ्कुरादेरुपलम्भस्तभावे चाऽपरकारणसाकल्येऽपि तस्यानुपलम्भ इत्यन्वय-व्यतिरेकानुविधानमङ्कुरादिकार्याणाम् । अथाङ्कुरादिकर्तुरुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वस्याऽभावाद् न प्रत्यक्षेण सद्भावाऽभावप्रतीतिरिति नाङ्कुरादेस्तदन्वय-व्यतिरेकानुविधानस्योपलब्धियुक्ता। ननु मा भूत् तदन्वय-व्यतिरेकानुविधानोपलब्धिः, व्यतिरेकानुविधानोपलब्धिस्तु युक्ता, यथा रूपाऽऽलोक-मनस्कारसाकल्येऽपि कदाचिद् विज्ञानकार्यानुत्पत्त्या कारणान्तरस्यापि तत्र सामर्थ्यमवसीयते, यच्च तत्कारणान्तरं सा इन्द्रियशक्तिः, तदभावाद् रूपज्ञानं न संजातमित्यनुपलभ्यस्वभावस्यापि कारणस्य व्यतिरेकः कार्येणानुविधी-४० १ पृ० ११६ पं० १६ । २ पृ० ९६ पं० १७ । ३-'त्' एतदपि प्र-कां०। ४ पृ० ११९ पं० १३ । ५पृ० ९६ पं० १८। ६ पृ० ९६ पं० २०। ७ पृ. ९६ पं० २२। ८ पृ० ९६ पं० २४। ९ पृ० ९६ पं. २६ । १० पृ. ९६ पं० ३१ । ११ प्र. पृ. पं० २५ । १२ पृ. ९६ पं० ३३ । १३-यस्य श-मां०, भां। स० त०१६ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे १२२ यमान उपलभ्येते; न चेहोपलब्धिमत्कारणस्य व्यतिरेकोऽङ्कुरादिकार्येणानुविधीयमान उपलभ्यते, बुद्धिमत्कारणव्यतिरिक्तपृथिव्यादिसामग्रीसकला ( ग्रीसाकल्ये ) ऽङ्कुरादेरवश्यंभावदर्शनात् । इन्द्रियशक्तेरनित्यत्वव्यापकत्वेन व्यतिरेकसंभवात् तद्व्यतिरेकानुविधानस्योपलब्धिर्युक्ता, न बुद्धिमत्कारणव्यतिरेकानुविधानस्यः तस्य नित्यत्वव्यापकत्वेन व्यतिरेकानुविधानाभावादिति चेत्, अस्तु नामै५ वम्, तथाऽपीश्वरस्य ज्ञान - प्रयत्न चिकीर्षा समवायोऽङ्कुरादिकार्यकरणे व्यापारः, तस्य सर्वदा सर्वत्राऽभावात् तदनुविधानं स्यात् । अथ तत्समवायस्यापि सर्वत्र सर्वदा भावाद् नायं दोषः, नः तस्य नित्यत्वव्यापकत्वे सत्यपि तद्विशेषणानामीश्वरज्ञान- प्रयत्न-चिकीर्षादीनामनित्यत्वात् अव्यापकत्वाश्च व्यतिरेकानुविधानमुपलभ्येत । अथ तज्ज्ञानादेरपि नित्यत्वाद् नायं दोषः सर्वदा तर्ह्यङ्कुरादिकार्योत्पत्तिः स्यात् । सर्वदा १० सहकारिणामसन्निधानाद् नेति चेत्, ननु तेऽपि तज्ज्ञानाद्यायत्तजन्मानः किं न सर्वदा सन्निधीयन्ते ? अथ नैव ते तदायत्तोत्पत्तयस्तर्हि तैरेव कार्यत्वादिहेतुरनैकान्तिकः । तत्सहकारिणामपि सर्वदा स्वोत्पत्तिहेतूनां सकार्याणामसन्निधानाद् न सर्वदोत्पद्यन्त इति चेत्, अनवस्था; तथा च अपरापर सहकारि प्रतीक्षा या मेवोपक्षीणशक्तित्वात् तज्ज्ञानादेः प्रकृतकार्यकर्तृत्वं न कदाचिदपि स्यात् । अतः सुदूरमपि गत्वा क्वचिदवस्थामिच्छता नित्यत्वं सहकारिणाम् अतदायत्तोत्पत्तिकत्वं १५ वाऽभ्युपगमनीयम्, तदायत्तोत्पत्तिकार्यस्याऽपि तज्ज्ञानादिव्यतिरेकेणाऽप्युत्पत्तिरभ्युपगन्तव्या इति वृथा तत्परिकल्पना । नित्यत्वे वा पुनरपि सहकारिणां तज्ज्ञानादीनां च नित्यत्वात् सर्वदा कार्योत्पत्तिप्रसङ्गः । तदेवं तज्ज्ञानादीनां च नित्यत्वात् सर्वदा कार्यस्योत्पत्तिरनुत्पत्तिर्वा स्यात् इत्यनित्यास्तज्ज्ञानादयोऽभ्युपगन्तव्याः तथा च सति तदन्यसामग्रीसाकल्येऽप्यङ्कुराद्यनुत्पत्तिः कदाचित् स्यात् । सकलतदन्यसामग्रीसन्निधानानन्तरमेव तज्ज्ञानाद्युत्पत्तेर्न कार्यानुत्पत्तिः कदाचित् २० सामग्रीसाकल्येऽपीति चेत्, सहकारिकारणसंभवास्तर्हि तज्ज्ञानादयः प्राप्ताः; अन्यथा तदनन्तरोत्पत्तिनियमाभावात् सहकारिषु सत्स्वपि कदाचिदङ्कराद्यनुत्पत्तिः स्यात् । ते तु सहकारिणतज्ज्ञानाद्यप्रेरिता एव तज्ज्ञानादि जनयन्तोऽङ्कुरादि जनयन्ति किमन्तर्गतज्ज्ञानादिकल्पनया ? तज्ज्ञानादिसहकृता एव तज्ज्ञानादिकं जनयन्तीत्यभ्युपगमे तज्ज्ञानाद्यन्तरं सहकारिकारणजन्यजन्यात्वा ( ? ) तदनन्तरमनुत्पद्यमानं कार्यमपि तज्ज्ञानादिकं तदनन्तरं नोत्पादर्येति, २५ इत्यायातः स एव कारणान्तरसाकल्ये ऽप्यङ्कुरादिकार्याद्यनुत्पत्तिप्रसङ्गः, सहकारिभ्यस्तज्ज्ञानाद्यन्तरोत्पत्तौ स एव प्रसङ्गः अनवस्था च । तस्यां चाऽपरापरज्ञानोत्पादन एव सहकारिणां सर्वोपयोगान्न कार्ये कदाचिदप्युपयोगो भवेत् । सहकारिभिः सह तज्ज्ञानादिकं नियमेनोत्पत्तिमदिति चेत् तर्हि सहकारिणां तज्ज्ञानादेश्वक सामग्रयधीनत्वमभ्युपगन्तव्यम्; अन्यथाऽसहभावात् तथैकसामग्री लक्षणं कारणं तज्ज्ञानादिभिरन्यैर्जनितमजनितं वा तज्जनयति ? [ नै चाजनितम्, ३० तथैव कार्यत्वादेर्हेतोर्व्यभिचारित्वप्रसङ्गात् जनितं तज्ज्ञानादिकमभ्युपगन्तव्यम्, तच्च तेन जन्येन सह नियमेनोत्पद्यमानं तदेकसामध्यधीनत्वमभ्युपनन्तरं सामग्रयधीनं स्यात् । सा च सामग्री तज्ज्ञानान्तरेणोत्पादिता च इति विकल्पद्वये पूर्वोक्तदोषद्वयप्रसङ्गः । प्रागनन्तरोत्पत्ति नियमाभ्युपगमे सहकारिहेतुभिरेकसामध्यधीनतया स्यात् तत्रापि सैकसामग्री तज्ज्ञानाद्यन्तरेण प्रेरिता जनयतीत्यभ्युपेयम्; अन्यथाऽचेतनस्याचेतनानधिष्ठितस्य वास्यादेरिव जनकत्वासंभवात् ज्ञानाद्यन्तरं ३५ च प्रेर्यात् सामग्रीविशेषात् प्रागन्तरं नियमेनोत्पद्यमानं तद्धेतुभिरेकसामग्रयधीनं स्यात्; अन्यथा प्रांगनन्तरं नियमेनोत्पत्तिर्न स्यात् । सामथ्र्यन्तरं चे प्रेरितमप्रेरितं वा जनयतीति विकल्पद्वये दोषद्वयप्रसङ्गः, तेनेमं दोषं परिजिहीर्षता न तज्ज्ञानाद्युत्पत्तिः तदनन्तरं सह प्राग्वाऽनन्तरमभ्युपगन्तव्या तदनन्तरं सह प्राग्वाऽनन्तरमुत्पत्तिनियमाभावेऽपि ] चाऽङ्कुरादिकार्यस्य तद्व्यतिरेकानुविधानमुपलभ्येत न चोपलभ्यते, क्षित्युदक- बीजादिकारणसामग्रीसंनिधाने प्रतिबन्धे १-भ्यते तथेहो-वा०, बा॰ विना । २ - कार्ये नानुवि - वा०, बा० विना । ३-मजन्यखो त वा०, बा० । ४- यन्ति इवा०, बा० विना । ५ [ ] एतच्चिह्नान्तर्गतः पाठः खण्डितप्रायः । ६- म्, नतैव वा०, बा० । ७- इयधीनं त्वमभ्युपनंरंतारं सा० । ८- पव्यं नन्त-कां० । ९-तावेति वा०, बा० । १० प्रागतरं नि - वा०, बा० । ११ - गन्तरं नि-वा०, ब० । १२ च प्रेरितं वा ज-हा० वा० गु० । १३ - नवरं सह प्रा- वा०, बा० । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः। १२३ चाऽसति अङ्कुरादिकार्यस्यावश्यंभावदर्शनात् । अतस्तज्ज्ञानाद्यनुविधानस्य तत्कारणत्वव्यापकस्यानुपलम्भात् तत्कारणत्वाभावोऽङ्करादिकार्यस्यानुमीयते । अतो बाधा व्यापकानुपलब्ध्या बुद्धिमत्कारणानुमानस्य। बुद्धिमत्कारणानुमानेनैव व्यापकानुपलब्धिः कस्मान्न बाध्यते? लोहलेख्यं वज्रम् , पार्थिव. त्वात् , काष्ठवदित्यनुमानेन प्रत्यक्षं तस्य तदलेख्यत्वग्राहकं किं न बाध्यते इति समानम् । प्रत्यक्षेण ५ तद्विषयस्य बाधितत्वान्न तेन तद् बाध्यत इति चेद्, बुद्धिमत्कारणत्वानुमानस्यापि तर्हि व्यापकानुपलब्ध्या विषयस्य बाधितत्वात् कथं तद्बाधकत्वम् ? बुद्धिमत्कारणत्वानुमानेनैव व्यापकानुपलब्धेर्विषयस्य बाधितत्वान्न तद्बाधकत्वमिति चेत्, न; पार्थिवत्वानुमानेन तदलेख्यत्वग्राहकस्य प्रत्यक्षस्य बाधितविषयत्वान्न तद्वाधकत्वमित्यपि वक्तुं शक्यत्वात् । अथ तदनुमानस्य तदाभासत्वाद् न प्रकृतप्रत्यक्षविषयबाधकत्वम्, नैतत् ; इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् । तथाहि-प्रत्यक्षबाधितविष १० यत्वात् तदनुमानस्य तदाभासत्वम्, तस्य तदाभासत्वात् प्रत्यक्षस्य तद्वा(दबा)धितविषयत्वेनाऽ. तदाभासत्वात् तद्विषयबाधकत्वम् इति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । अथानुमानाबाधितविषयत्वनिबन्धनं न तत्प्रत्यक्षस्याऽतदाभासत्वम् किं तर्हि स्वपरिच्छेद्याव्यभिचारनिबन्धनम् ? नन्वेवमनुमानस्यापि स्वसाध्याऽव्यभिचारनिबन्धनं किं नाऽतदाभासत्वमप्यभ्युपगमविषयः? अथाऽबाधितविषयत्वे सति तस्य तदेव स्वसाध्याऽव्यभिचारित्वं परिसमाप्यते । नन्वेवमबाधितविषयत्वस्य १५ प्रतिपत्तुमशक्तेन क्वचिदपि स्वसाध्याऽव्यभिचारित्वस्यानुमानेऽतदाभासत्वनिबन्धनस्य प्रसिद्धिः; न हि बाधाऽनुपलम्भादू बाधाऽभावः, तस्य विद्यमानबाधकेष्वप्यनुत्पन्नबाधकप्रतिपत्तिषु भावात् । अथ यत्र बाधकसद्भावस्तत्र प्रागू बाधकानुपलम्मेऽप्युत्तरकालमवश्यंभाविनी बाधकोपलब्धिः, यत्र तु न कदाचिद् बाधकोपलब्धिस्तत्र न तद्भावः, असदेतत् न ह्यर्वाग्शा बाधकाऽनुपलम्भमात्रेण 'न कदाचनाप्यत्र बाधकोपलब्धिर्भविष्यति' इति ज्ञातुं शक्यम् , स्वसंबन्धिनोऽनुपलम्भ-२० स्थानकान्तिकत्वात्, सर्वसंबन्धिनोऽसिद्धत्वात्। न ह्यसर्ववित् 'सर्वेणाप्यत्र बाधकं नोपलभ्यते उपलप्स्यते वा' इत्यवसातं क्षमः।नाऽपि बाधकाभावोऽभावनाहि प्रमाणावसेयः, तस्य निषिद्धत्वात निषेत्स्यमानत्वाच्च । न चाऽज्ञातो बाधकाभावोऽनुमानाङ्गं पक्षधर्मत्वादिवत् । न च स्वसाध्याव्यभिचारित्वनिश्चयादेव बाधकामावनिश्चयः, तन्निश्चयमन्तरेण त्वदभिप्रायेण स्वसाध्याव्यभिचारित्वस्याऽपरिसमाप्तत्वेन निश्चयायोगात । तस्मात् पक्षधर्मत्वाऽन्वय-व्यतिरेकनिश्चयलक्षणस्वसा-२५ ध्याविनाभावित्वस्य प्रकृतानुमानेऽपि सद्भावात् प्रत्यक्षवद् न तस्यापि तदाभासत्वम् । अथ विपर्यये बाधकप्रमाणाभावात् पार्थिवत्वानुमानस्य नान्ताप्तिरिति तदाभासत्वम्, प कार्यत्वानुमानेऽपि विपर्यये बाधकप्रमाणाभावाद् व्यायभावतस्तदाभासत्वमिति न व्यापकानुपलब्धिविषयबाधकता । अथ प्रत्यक्षं नानुमानेन बाध्यत इति लोहलेख्यत्वानुमानस्य न तदलेख्य त्वग्राहकप्रत्यक्षबाधकता, कथं तर्हि देशान्तरप्राप्तिलिङ्गाजनिताऽनुमानेन स्थिरचन्द्राऽर्कग्राहिम-३० त्यक्षस्य बाधा? अथ तस्य प्रत्यक्षाभासत्वादनुमानेन बाधा, ननु कुतस्तस्य तदाभासत्वम् ? अनुमानेन बाधितविषयत्वादिति चेत्, ननु तदेवेतरेतराश्रयत्वम्-अनुमानेन बाधितविषयत्वात् तस्य तदाभासत्वम्, तस्य तदाभासत्वे च तेन अबाधितविषयत्वादनुमानस्याऽतदाभासत्वेन तद्विषयबाधकत्वम् इति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । तस्मात् स्वग्राह्याव्यभिचार एव सर्वत्र प्रामाण्यनिबन्धनम् । स च व्यापकानुपलब्धौ पक्षधर्माऽन्वयव्यतिरेकस्वरूपः प्रमाणपरिनिश्चितो विद्यते ३५ इति तस्या एव स्वसाध्यप्रतिपादकत्वेन प्रामाण्यम् न पुनर्बुद्धिमत्कारणानुमानस्य, तत्र स्वसाध्याव्यभिचाराभावस्य प्रदर्शितैत्वात्। न च व्यापकानुपलब्धावपि पक्षधर्मत्वाऽन्वय-व्यतिरेकनिश्चयस्य स्वसाध्याव्यभिचारित्वनिश्चयलक्षणस्याभाव इति वक्तुं युक्तम्, यतो व्यापकानुपलब्धेस्तावत् पक्षव्यापकत्वनिश्चयः प्रागेवोक्तः। विपक्षे बाधकप्रमाणसद्भावाद् अन्वय-व्यतिरेकावपि तत्राऽवगम्येते, तत्कारणेषु हि कुम्भादिषु ४० तदन्धय-व्यतिरेकानुविधानस्योपलब्धिस्तदनुपलब्धेर्बाधकं प्रमाणम् । अथवा तत्कारणत्वं तदन्वय-व्यतिरेकानुविधानेन व्याप्तम्, तदभावे तत्कारणत्वासंभवात्तभावेऽपि भवतस्तत्कारणत्वे सर्व १पृ० २३ पं० ३६ । २ पृ० १०८ पं० ८। ३ पृ० १२१ ५० ३२ । ४-त्वेऽपि स-कां । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ प्रथमे काण्डेसर्वस्य कार्य कारणं च स्यात्, न क्वचिद् कार्यकारणभावव्यवस्था; अन्वय-व्यतिरेकानुविधा हि कार्यकारणभावव्यवस्थानिबन्धनम्, तदभावेऽपि कार्यकारणभावं कल्पयतः किमन्यत् तद्यकस्थानिबन्धनं स्याद् इति ? अतोऽतिव्याप्तिपरिहारेण क्वचिदेव कार्यकारणभावव्यवस्थामिच्छता तदभावे कार्यकारणभावो नाभ्युपगन्तव्य इत्यन्वयव्यतिरेकानुविधानेन कार्यकारणभावो व्याप्तः, ५स यत्रोपलभ्यते तत्रान्वय-व्यतिरेकानुविधानसंनिधापनेन तदभावं बाधत इत्यनुमानसिद्धो व्यतिरेकः; तत्सिद्धेश्चान्वयोऽपि सिद्धः । तथाहि-य एवं सर्वत्र साध्याभावे साधनाभावलक्षणो व्यतिरेकः स एव साधनसद्भावेऽवश्यंतया साध्यसद्भावस्वरूपोऽन्वय इति व्यापकानुपलब्धेः पक्षधर्मत्वान्वयव्यतिरेकलक्षणः साध्याव्यभिचारः प्रमाणतः सिद्धः । न चैवं कार्यत्वादेरयमविनाभावः संभवति, पक्षव्यापकत्वे सत्यन्वय-व्यतिरेकयोरभावस्य विपर्यये बाधकप्रमाणाभावतः प्रतिपा १० दितत्वात्। __ अपि च, बुद्धिमत्कारणत्वे तन्वादीनां साध्ये तद्विपर्ययोऽबुद्धिमत्कारणाः परमाण्वादयः, न च तेभ्यो बुद्धिमत्कारणसाध्यव्यावृत्तिनिमित्तकार्यत्वादिनिवृत्तिप्रतिपादकप्रमाणप्रवृत्तिः सिद्धा, घटादेरवयवित्वनिराकरणेन विशिष्टावस्थाप्राप्तपरमाणुरूपत्वात् । न च तेभ्यो बुद्धिमत्कारणव्यावृत्तिकृता कार्यत्वव्यावृत्तिः प्रत्यक्षतः सिद्धा, बुद्धिमत्कारणनिमित्तकार्यत्वग्राहकत्वेन प्रत्यक्षस्य प्रत्य१५क्षानुपलम्भशब्दवाच्यस्य तत्र प्रवृत्तेः, परमाण्वन्तरासंसृष्टपरमाणूनां च प्रत्यक्षबुद्धावप्रतिभासनान ततः साध्यव्यावृत्तिप्रयुक्ता साधनव्यावृत्तिप्रतिपत्तिः। नाप्यबुद्धिमत्कारणेषु कार्यत्वादेरदर्शनात् साकल्येन ततो व्यतिरेकसिद्धिः, स्वसंबन्धिनोऽदर्शनस्य परचेतोवृत्तिविशेषैरनैकान्तिकत्वात् सर्वसंबन्धिनोऽसिद्धत्वात् ; न ततो विपक्षाद्धेतोाल्या व्यतिरेकसिद्धिः। नाऽपि परमाण्वादीनामनुमानान्नित्यत्वसिद्धेरकार्यत्वस्य कार्यत्वविरुद्धस्य तेषु सद्भावात् ततो व्यावर्तमानः कार्यत्वल२०क्षणो हेतुर्बुद्धिमत्कारणत्वेनाऽन्वितः सिध्यति, कार्यत्वस्याबुद्धिमत्कारणत्वेन विरोधासिद्धेरङ्कुरादिष्वबुद्धिमत्कारणनिष्पाद्येष्वपि तस्य संभवात् । अथ नित्येभ्योऽकृतत्वादेव कार्यत्वं व्यावृत्तम्, उत्पत्तिमतां चारादीनां बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेन पक्षीकृतत्वान्न तैर्हेतोय॑भिचार आशङ्कनीय इति तेषु वर्तमान कार्यत्वलक्षणो हेतुर्बुद्धिमत्कारणत्वेनान्वितः सिद्धः। स्यादेतत् यदि पक्षीकरणमात्रेणैवाऽबुद्धिमत्कारणत्वाभावस्तेषु सिद्धः स्यात्, तथाऽभ्युपगमे वा पक्षीकरणादेव साध्यसिद्धेहे२५ तूपादानं व्यर्थम् । अथ तत्सहितात् साध्यनिर्देशात् तदभावसिद्धिः, कथं साकल्येनाऽनिश्चितव्यतिरेकात् कार्यत्वान्नित्यव्यतिरिक्तानां सर्वेषामङ्कुरादीनामबुद्धिमत्कारणत्वाभावसिद्धिः? तदभावासिद्धौ च न साकल्येन व्यतिरेकनिश्चय इति इतरेतराश्रयदोषः कथं न स्यात् ? तदेवं व्याप्त्या व्यतिरेकासिद्धौ न साकल्येनान्वयसिद्धिः, तदसिद्धौ च न व्यतिरेकसिद्धिरिति न कार्यत्वादेहेतोः प्रकृतसाध्यसाधकत्वम् । न च सर्वानुमानेष्वेष दोषः समानः, अन्यत्र विपर्यये बाधकप्रमाणबला३० दन्वय-व्यतिरेकसिद्धेः । न च प्रकृते हेतौ तदस्तीत्यसकृदावेदितम् । तेन 'साध्याभावे हेतोरभावः स्वसाध्यव्याप्तत्वादेव सिद्धः' इति निरस्तम्, यथोक्तप्रकारेण स्वसाध्यव्याप्तत्वस्य प्रकृतहेतोरसंभवात्। 'नाऽपि धर्म्यसिद्धर्ता' इति, एतदपि निरस्तम्; धर्म्यसिद्धत्वस्य प्राक् प्रतिपादितत्वात् । 'कार्यकारणसङ्घात' इत्यादिकस्तु ग्रन्थोऽयुक्तत्वेन प्रतिपादितः । अत एवेश्वरावगमे प्रमाणाभावः, तत्प्रतिपादकप्रमाणस्य समानदोषत्वेनान्यस्याऽप्यचेतनोपादानत्वादेर्निराकृतत्वात्। ३५ यश्चोक्तम् 'नाऽपि हेतोर्विशेषविरुद्धता' इत्यादि, तदप्यसङ्गतम् ; यतो यदि कार्यमात्रात् कारणमात्रं तन्वादेः साध्यते तदा व्याप्तिसिद्धेन विरुद्धावकाशः । अथ बद्धिमत्कारणपर्वकत्वं साध्यते तदा तत्र व्याप्तेरसिद्धत्वं प्रतिपादितमेव । यदि पुनर्घटादौ कार्यत्वं बुद्धिमत्कारणसहचरितमुपलब्धमिति पृथिव्यादावपि तत् साध्यते; तथा सति दृष्टान्तेऽनीश्वराऽसर्वश-कृत्रिमशानशरीरसंबन्धिकर्तृपूर्वकत्वं कार्यत्वस्योपलब्धमिति ततस्तादृग्भूतमेव क्षित्यादौ सिद्धिमासादयति ४० न तु तत्सहचरितत्वेनाऽष्टमीश्वरत्वादिविरुद्धधर्मकलापोपेतबुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वम् ; न हि महा १-व पूर्वत्र सा-वा०, वा०। २-धकसद्भा-वा०, वा०। ३-द्धिः ? तदसिद्धौ च वा०, बा० । ४ प्र० पृ० पं० १२। ५ पृ० ९६ पं० ३३ । ६ पृ. ९६ पं० ३५। ७ पृ० १०२ पं० ११। ८ पृ. ९६ पं० ३५। ९पृ० ९६५३८ । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः। १२५ नसप्रदेशेऽग्निसहचरितमुपलब्धं धूममात्रं गिरिशिखरादावुपलभ्यमानमग्निविरुद्धधर्माध्यासितोदकगमकं युक्तम् , अतिप्रसङ्गात् । यच्चोक्तम् 'पूर्वोक्तविशेषणानां धर्मिविशेषरूपाणां व्यभिचारात्' इत्यादि, तदप्यसङ्गतम्; यादग्भूतं हि कार्यत्वं घटादावनीश्वरादिधर्मोपेतबुद्धिमत्कारणत्वेन व्याप्तमुपलब्धं तादृग्भूतं तदन्यत्रापि जीर्णप्रासादादावुपलभ्यमानमक्रियादर्शिनोऽपि तथाभूतकर्तृपूर्वकत्वप्रतिपत्तिं जनयति । न च तत्र केनचिदनीश्वरत्वादिधर्मेण व्यभिचारः कदाचित् केनाऽ. ५ प्युपलभ्यते। तथाभूतसाध्यव्याप्तहेतूपलम्भ एव तत्र तव्यभिचारः, स चेदस्ति कथमनीश्वरत्वादिधर्माणां व्यभिचारादसाध्यत्वं सचेतसा वक्तुं युक्तम्; अन्यथा धूमादग्निप्रतिपत्तावपि भास्वररूपसंबन्धादिधर्माणां व्यभिचारात् तथाभूतस्याग्नेरसाध्यत्वं स्यात् । एतेन 'पूर्वस्माद्धेतोः स्वसाध्यसिद्धावुत्तरेण पूर्वसिद्धस्यैव साध्यस्य किं विशेषः साध्यते, आहोस्वित् पूर्वहेतोः स्वसाध्यसिद्धिप्रतिबन्धः क्रियते'? इत्यादि सर्व निरस्तम्, यतो यदि कार्यत्वमात्रं हेतुत्वेन क्षित्यादौ १० साध्यसाधकत्वेनोपादीयते तदा तस्य संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वेन बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वाऽसाधकत्वम् । अथ घटादौ बुद्धिमत्कारणत्वेन व्याप्तं यत् कार्यत्वं तत् तत्र हेतुत्वेनोपादीयते, तत् तत्रासिद्धमिति कथं तत् तत्र बुद्धिमत्कारणत्वस्यापि गमकम् ? इत्य विशिष्टस्य कार्यत्वस्य व्याय. भावादेवापरविशेषसाधकहेतुव्यापारमन्तरेणाऽपि कार्यत्वस्य हेतोः स्वसाध्यसाधकत्वव्याघातः संभवत्येव, कार्यत्वविशेषस्य तु तत्रासिद्धत्वादेव साध्यासिद्धिलक्षणस्तद्विघातः। १५ यत्तु 'शब्दस्य कृतकत्वादनित्यत्वसिद्धौ हेत्वन्तरेण गुणत्वसिद्धावपि न पूर्वस्य क्षतिः' इति, तदप्यचारु; गुणत्वं हि द्रव्याश्रितत्वादिधर्मयुक्तत्वमुच्यते, तञ्चेच्छब्दे सिद्धिमासादयति तदा पूर्वहेतुसाधितमनित्यत्वं तत्र व्याहन्यत एव; न ह्यनुत्पन्नस्य तस्याऽसत्त्वादेव द्रव्याश्रितत्वम् गुणत्वसमवायो वा संभवति उत्पन्नस्याप्युत्पत्त्यनन्तरध्वंसित्वेन तन्न संभवति । न च तदाश्रितस्य उत्पत्त्या दिकमेव तत्, खरविषाणादेरपि तत्त्वप्रसङ्गादित्यादि आश्रयादावसिद्धत्वं हेतोः प्रतिपाद-२० यद्भिर्निर्णीतमिति न पुनरुच्यते । सर्वथोत्पादककारणव्यक्तिव्यतिरिक्तस्य क्षणमात्रस्थितेर्गुणत्वं न संभवति तत्संभवे च क्षणिकत्वं व्याहन्यत इति प्रतिपादयिष्यामः । द्वितीये तु विकल्पे 'न च धर्मिविशेषविपर्ययोद्भावनेन कस्यचिदपि रूपस्याभावः कथ्यते' इति यदुक्तम् , तदप्यसङ्गतम्। यतो यद्यन्याहशस्य धर्मिणः कुतश्चिद्धेतोः क्षित्यादी सिद्धिः स्यात् तदा युज्येताऽपि वक्तुम्धर्मिविशेषविपर्ययोद्भावनेन न कस्यचिद्धेतुरूपस्याभाव इति, तथाभूतँस्य तु धर्मिणो न प्रकृतसा-२५ धनादवगम इति प्रतिपादितम् । अत एवागमादू हेत्वन्तराद् वा न तत्र विशेषसिद्धिः, बुद्धिमकारणस्यैव धर्मिणः क्षित्यादिकर्तृत्वेनासिद्धत्वात् । ततः 'तच्चाऽन्वयव्यतिरेकिपूर्व केवलव्यतिरे. किसंज्ञकं तदेव चान्वयव्यतिरेकिलक्षणं पक्षधर्मताप्रसादाद् विशेषसाधनम्' इति प्रतिपादनं दुरापास्तम्, धर्म्यसिद्धौ तद्विशेषसिद्धेर्दरोत्सारितत्वात् । अत एव 'य इत्थम्भूतस्य पृथिव्यादेः कर्ता नियमेनाऽसावकृत्रिमज्ञानसंबन्धी शरीररहितः सर्वज्ञ एक इत्येवं यदा विशेषसिद्धिस्तदा ३० न विशेषविरुद्धानामवकाशः' इति निःसारतया व्यवस्थितम् ।। ____यत्तूक्तम् 'शरीरसंबन्धस्य तावद् व्याप्त्यभावेन तत्र निराकृतिः, शरीरान्तररहितस्याऽप्यात्मनः शरीरधारण-प्रेरणक्रियासु यथा व्यापारस्तथेश्वरस्यापि क्षित्यादिकार्ये' इति, तदप्ययुक्तम् ; अपरशरीररहितत्वेऽप्यात्मनः शरीरसंबद्धस्यैव तद्धारणादिकर्तृत्वोपलब्धेरीश्वरस्यापि शरीरसंबद्धस्यैव कार्यकर्तृत्वमभ्युपगन्तव्यमिति प्रतिपादितत्वात् । यदि च शरीरसंबन्धाभावेऽपि तस्य क्षित्यादि-३५ कार्यकर्तृत्वं तदा वक्तव्यम्-किं पुनस्तत् तत्र ? ज्ञान-चिकीर्षा-प्रयत्नानां समवायः तत् तत्रोक्तमेवेति चेत्, न; समवायस्य निषिद्धत्वात् । न च कुम्भकारादौ शरीरसंबन्धव्यतिरेकेणाऽन्यत् कर्तृत्वमपलब्धमितीश्वरेऽपि तदेव परिकल्पनीयम् , दृष्टानुसारित्वात् कल्पनायाः। न च शरीरव्यतिरेकेण ज्ञान-चिकीर्षा-प्रयत्नानामपि सद्भावः क्वचिदप्युपलब्ध इति नेश्वरेऽपि तद्भावेऽसावभ्युपग १ पृ० ९७ पं. २। २ पृ. ९७ पं० ८। ३ पृ. ९७ पं० १० । ४-णव्यतिरिक्तस्य वा०, बा० । ५ पृ० ९७ पं० १३। ६ धर्मविशेषस्य वि-वा०, बा० । ७-तस्य ध-वा०, बा०। ८ पृ. ९-पूर्वकेव-वा०, बा०, हा०। १० पृ. ९७ पं० २९ । ११ पृ. ९८ पं० २। १२ पृ० ११६ पं० २५-३१ । १३ पृ. १०६ पं० १.। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ प्रथमे काण्डेन्तव्यः। तथाहि-शानादीनामुत्पत्तावात्मा समवायिकारणम्, आत्म-मनःसंयोगोऽसमवायिकारणम. शरीरादि निमित्तकारणम् न च कारणत्रयाभावे परेण कार्योत्पत्तिरभ्युपगम्यते । न चाऽस वायिकारणात्म-मनःसंयोगादिसद्भाव ईश्वरेऽभ्युपगत इति न ज्ञानादेरपि तत्र भावः। __ अथासमवायिकारणादेरभावेऽपि तत्र ज्ञानाद्युत्पत्तिस्तर्हि निमित्तकारणेश्वरव्यतिरेकेणारादेः ५किमिति नोत्पत्तिर्युक्ता ? अथ शानाद्यभावे तदनधिष्ठितानां कथमचेतनानां तदुपादानादीनां प्रवृत्तिः वास्यादिवदचेतनस्य चेतनानधिष्ठितस्य प्रवृत्त्यदर्शनात् ? प्रवृत्तावपि निरभिप्रायाणां देश-कालाऽऽकारनियमो न स्यात् , तदधिष्ठितस्यैव तस्य तन्नियतत्वदर्शनात् । नन्वेवं चेतनस्यापि चेतनान्तरानधिष्ठितस्य कर्मकरादेरिव स्वाम्यनधिष्ठितस्य कथं प्रवृत्तिः ? अथ स्वामिन एवान्यानधिष्ठितस्य चेतनस्य प्रवृत्तिरुपलभ्यते, किमङ्करादेरकृष्टोत्पत्तेरुपादानस्य तदनधिष्ठितस्य सा नोपलभ्यते ? अथ १० घटादेरुपादानस्य तदनधिष्ठितस्य तत्करणे प्रवृत्तिर्नोपलभ्यत इत्यङ्कुरायुपादानस्यापि तदधिष्ठितस्यैव सा प्रसाध्यते तर्हि कर्मकरादेरपि स्वाम्यनधिष्ठितस्य सा नोपलभ्यत इति स्वामिनोऽप्यपरचेतनान्तराधिष्ठितस्य सा साध्यताम् । यदि पुनः स्वामिनोऽप्यधिष्ठाता चेतनो महेशः परिकल्प्यते तर्हि तस्याप्यपर इत्यनवस्था। ने च चेतनस्याप्यपरचेतनाधिष्ठितस्य प्रवृत्त्यभ्युपगमे 'अचेतनं चेतनाधिष्ठितम्' इति प्रयोगे १५'अचेतनम्' इति धर्मिविशेषणस्य 'अचेतनत्वादेः' इति हेतोश्चाव्यर्थमुपादानम्, अचेतनवचेतनस्यापि चेतनाधिष्ठितस्य प्रवृत्त्यभ्युपगमे व्यवच्छेद्याभावात् । न चाचेतनानामपि स्वहेतुसन्निधिसमासादितोत्पत्तीनां चेतनाधिष्ठातृव्यतिरेकेणापि देश-कालाऽऽकारनियमोऽनुपपन्नः, तन्नियमस्य स्वहेतुबलायातत्वात्; अन्यथाऽधिष्ठातृशानकृतोऽपि स न स्यात्। तज्ज्ञानस्य सर्वाऽचेतनाधिष्ठायकत्वे क्षणिकत्वे च-तज्ज्ञेयत्वमेव तदधिष्ठितत्वम्-तेषां सर्वकालभाविकार्ये तदैव प्रवृत्तिरिति एकक्षण २०एवोत्तरकालभाविकार्योत्पत्तिप्रसङ्गः, अपरक्षणेऽपि तथाभूततज्ज्ञानसद्भावे पुनरप्यनन्तरकालकार्योत्पत्तिः सदैव, इति योऽयं क्रमेणाङ्कुरादिकार्यसद्भावः स विशीर्येत । कतिपयाचेतनविषयत्वे च तज्ज्ञानादेः तदविषयाणां स्वकार्ये प्रवृत्तिर्न स्यात् इति तत्कार्यशून्यः सकलः संसारः प्रसक्तः, न हि तनानादिविषयत्वव्यतिरेकेणापरं तेषां तदधिष्ठितत्वं परेणाभ्युपगम्यते। अथ नित्यं तज्ज्ञानादि: नन्वेवं 'क्षणिकं ज्ञानम् , अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति विभुद्रव्यविशेषगुणत्वात् , शब्दवत्' इत्यत्र प्रयोगे २५महेशज्ञानेन हेतोय॑मिचारः। अथ 'तज्ज्ञानादिव्यतिरेके सति' इति विशेषणान्नायं दोषः, न: विपक्षविरुद्ध विशेषणं हेतोस्ततो व्यावर्तकं भवति; अन्यथा तद्यावर्तकत्वायोगात्। न चाक्षणिकत्वेन तद्यतिरिक्तत्वं विरुद्धम्, द्विविधस्यापि विरोधस्यानयोरसिद्धः । न च विपक्षाविरुद्ध विशेषणोपादानमात्रेण हेतोय॑भिचारपरि हारः; अन्यथा न कश्चिद् हेतुर्व्यभिचारी स्यात्, सर्वत्र व्यभिचारविषये 'एतद्यतिरिक्तत्वे सति' इति ३०विशेषणस्योपादातुं शक्यत्वात् । न च नैयायिकमतेनाक्षणिकं ज्ञानं संभवति' "अर्थवत् प्रमाणम्" [वात्स्या०भा०पृ०१] इति वचनात् अर्थकार्य ज्ञानं तद्विषयमभ्युपगतम्, अर्थश्च क्रमभावी अतीतोऽनागतश्च । यश्च क्रमवज्ञयविषयं ज्ञानं तत् क्रमभावि, यथा देवदत्तादिशानं ज्वालादिगोच. रम्, क्रमवद्विज्ञेयविषयं चेश्वरज्ञानमिति स्वभावहेतुः। प्रसङ्गसाधनं चेदम् , तेनाश्रयासिद्धता हेतो शङ्कनीया । न च विपर्यये बाधकप्रमाणाभावाद् ३५व्याप्यव्यापकभावासिद्धेन प्रसङ्गसाधनावकाशोऽत्रेति वक्तव्यम् , तस्य भावात् । तथाहि-यदि क्रमवता विषयेण तद् ईश्वरज्ञानं स्वनिर्भासं जन्यते तदा सिद्धमेव क्रमित्वम् । अथ न जन्यते तदा प्रत्यासत्तिनिबन्धनाभावाद् न तद् जानीयात्, विषयमन्तरेणापि च भवतः प्रामाण्यमभ्युपगतं हीयेत, अतीतानागते विषये निर्विषयत्वप्रसङ्गादिति विपर्ययबाधकसद्भावः सिद्धः। तज्ज्ञानादेश्च नित्यत्वे तद्विषयत्वमन्तरेणापरस्य चेतनाधिष्ठितत्वस्याभावादविकलकारणस्य ४० जगतो युगपदुत्पत्तिप्रसङ्गः । तथाहि-यद् अविकलकारणं तद् भवत्येव, यथाऽन्त्यावस्थाप्राप्तायाः सामग्या अविकलकारणो भवनडरः, अविकलकारणं च सर्वदा सर्वमीश्वरज्ञानादिहेतुकं जगत् इति १ अत्र स्थले प्रमेयकमलमार्तण्डे एतादृशः पाठः-"चेतनस्यापि अपरचेतनाधिष्ठितस्य प्रवृत्त्यभ्युपगमे च 'अचेतनं चेतनाधिष्ठितम्' इत्यत्र प्रयोगे 'अचेतनम्' इति धर्मिविशेषणस्य 'अचेतनत्वात्' इति हेतोश्चाऽपार्थकत्वं व्यवच्छेद्याभावातू"पृ० ७८ प्र०, पं० १३। २ पृ० १.१ पं० २५। ३-श्च व्यर्थ-वा०, बा० विना । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ ईश्वरस्वरूपवादः । युगपद् भवेत् । { स्यादेतत्, नेश्वरबुद्धयादिकमेव केवलं कारणम् अपि तु धर्माऽधर्मादिसहकारिकारणमपेक्ष्य तत् तत् करोति, निमित्तकारणत्वादीश्वरबुद्धयादेः; अतो धर्मादेः सहकारिकारणस्य वैकल्यादविकलकारणत्वमसिद्धम्, असदेतत्; यदि हि तस्य सहकारिभिः कश्चिदुपकारः क्रियेत तदा स्यात् सहकारिसव्यपेक्षता यावता नित्यत्वात् परैरनाधेयातिशयस्य न किञ्चित् तस्य सहकारिभ्यः प्राप्तव्यमस्ति किमिति तत् तथाभूतान् अनुपकारिणोऽपेक्षेत ? किञ्च तेऽपि सहकारिणः ५ किमिति सततं न सन्निहिता भवन्ति यदि तज्जन्याः ? अपरस्वसन्निधिहेतुसहकारिवैकल्यादिति नोत्तरम्, तेषामपि तत्संनिधिसहकारिणां तदायत्तोत्पत्तीनां तदैव सन्निधिप्रसक्तेः कथमसिद्धता हेतोः ? अथ नित्यत्वे तद्बुद्ध्यादिकं सहकारिकारणमुत्पाद्य पश्चादङ्कुरादिकार्यमुपजनयतीत्यभ्युपगमस्तर्ह्यपरापरसहकारिजनने एवोपक्षीणशक्तित्वात् तस्य नाङ्कुरादिकार्यजननम् । अथातजन्या एव धर्माऽधर्मादिसहकारिणः अतोऽयमदोषः; नन्वेवं तैरेव 'अचेतनोपादानत्वात्' इति हेतुरनैकान्तिकः १० स्यात्, अतस्तदायत्तसंनिधयो धर्मादिसहिकारिण इति नाविकलकारणत्वाख्यो हेतुरसिद्धः । न चानैकान्तिकोऽपि, अविकलकारणत्वहानिप्रसङ्गात्, अविकलकारणस्याप्यनुत्पत्तौ सर्वदेवानुत्पत्तिप्रसङ्गाच्च विशेषाभावात् । एतेन यदपि उद्योतकरेणोक्तम् - " यद्यपि नित्यमीश्वराख्यं कारणमविकलं भावानां सन्निहितं तथापि न युगपदुत्पत्तिः, ईश्वरस्य बुद्धिपूर्वकारित्वात् । यदि हीश्वरः सत्तामात्रेणैवाऽबुद्धिपूर्व भावानामुत्पादकः स्यात् तदा स्यादेतच्चोद्यम्; यदा तु बुद्धिपूर्व करोति १५ तदा न दोषः तस्य स्वेच्छया कार्येषु प्रवृत्तेः, अतोऽनैकान्तिकतैव हेतोः” [ ] इति, तदपि निरस्तम् ; न हि कार्याणां कारणस्येच्छाभावाभावापेक्षया प्रवृत्ति-निवृत्ती भवतः येनाऽप्रतिबद्धसापीश्वराख्ये कारणे सदा सन्निहिते तदीयेच्छाऽभावाद् न प्रवर्तेरन्, किं तर्हि कारणगतसामर्थ्यभावाभावानुविधायिनो भावाः । तथाहि इच्छावतोऽपि कर-चरणादिव्यापाराक्षमात् कुलालादेरसमर्थाद् नोत्पद्यन्ते घटादयो भावाः, समर्थाच्च बीजादेरनिच्छावतोऽपि समुत्पद्यमाना उपलभ्यन्तेऽङ्कु- २० रादयः । तत्र यदीश्वराख्यं कारणं कार्योत्पादकालवदप्रतिहतशक्ति सदैवावस्थितं भावानां तत् किमिति तदीयामनुपकारिणीं तामिच्छामपेक्षन्ते येनोत्पादकालवद् युगपन्नैवोत्पद्येरन् ? एवं हि तैरविकलकारणत्वमात्मनो दर्शितं भवेत् यदि युगपद् भवेयुः । न चापीश्वरस्य परैरनुपकार्यस्य काचिदपेक्षाऽस्ति येनेच्छामपेक्षेत । न च बुद्धिविशेषव्यतिरेकेणापरेच्छा तस्य संभवति । बुद्धिश्वेश्वरस्य यदि नित्या व्यापि कैका चाऽभ्युपगम्येत तदा सैवाऽचेतनपदार्थाधिष्ठात्री २५ भविष्यतीति किमपरतदाधारेश्वरात्मपरिकल्पनया ? अथानाश्रितं तज्ज्ञानं न संभवतीति तदात्मपरिकल्पना; ननु तदात्माऽप्यनाश्रितो न संभवतीति अपरापराश्रयपरिकल्पनयाऽनन्तेश्वरप्रसङ्गः । अथ द्रव्यत्वात् तस्यानाश्रितस्यापि सद्भावः न बुद्धेः गुणत्वात् इति नायं दोषः । ननु कुतस्तस्या गुणत्वम्? तत्र समवेतत्वादिति नोत्तरम्, तस्यैवानिश्चयात् । तदाधेयत्वात् तस्याः तत्समवेतत्वमिति चेत्, ननु केनैतत् प्रतीयते ? न तावदीश्वरेण तेनात्मनः ज्ञानस्य चाऽग्रहणात् 'इदमत्र समवेतम्' ३० इति तस्य प्रतीतेरयोगात् । तज्ज्ञानस्य तत्र समवेतत्वमेव तद्ग्रहणमित्यपि नोत्तरम्, अन्योन्यसंश्रयात् - सिद्धे हि 'इदमत्र' इति ग्रहणे तत्र समवेतत्वसिद्धिः, अस्याश्च तद्ग्रहणसिद्धिरित्यन्योन्याश्रयः । तन्नेश्वरस्तज्ज्ञानमात्मनि समवेतमवैति यश्चात्मीयमपि ज्ञानमात्मनि व्यवस्थितं न वेत्ति स सर्वजगदुपादान - सहकारिकारणादिकमवगमयिष्यतीति कः श्रद्धातुमर्हति ? नापि तज्ज्ञानमवैति 'स्थाणावहं समवेतम्' इति, तेनात्मनोऽवेदनात् आधारस्य च । न च तद्ग्रहणे 'इदं मम रूपमत्र स्थितम्' इति ३५ प्रतीतिः संभवति । न च तत् आत्मानमप्यवैति, अस्वसंविदितत्वाभ्युपगमात् । न चापरं तद् ग्राहकं नित्यं ज्ञानं तस्येश्वरस्यापि संभवति - येनैकेन सकलं पदार्थजातमवगमयति, अपरेण तु तज्ज्ञानम् - समानकालं यावद्द्रव्यभाविसजातीयगुणद्वयस्यान्यत्रानुपलब्धेस्तत्रापि तत्कल्पनाऽसंभवात् । तत्कल्पने वाऽकर्तृकमङ्कुरादिकार्य किं न कल्प्येत ? अस्तु वा तत्र यथोक्तं ज्ञानद्वयम् तथापि तयोर्ज्ञानयोरन्यतरेण स्वग्रहणविधुरेण न स्वाधारस्य, न सहचरस्य ज्ञानस्य, नाप्यन्यस्य गोचरस्य ग्रहणम् । तथाहि - ४० यत् स्वग्रहण विधुरं तन्नान्यग्रहणम्, यथा घटादि, स्वग्रहणविधुरं च प्रकृतं ज्ञानम्, ततोऽनेन सहचरस्याग्रहणात् कथं तेनास्य ग्रहणम् ? तेनापि ग्रहणविरहितेनाऽस्य वेदने तदेव वक्तव्यम् इति न कस्यचिद् ग्रहणम् इति न तत्समवेतत्वेन तद्बुद्धेर्गुणत्वम्, नापि तदाधारस्य द्रव्यत्वं सिद्धिमुपग १ उक्तमेतद् न्यायवार्तिके " तत्खाभान्यात् सततप्रवृत्तिः इति चेत्” इति पक्षस्य चर्चांवसरे पृ० ४६३ पं० ७ । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ प्रथमे काण्डेच्छति । तस्मान्नित्यबुद्धिपूर्वकत्वेऽङ्करादीनां किमिति युगपदुत्पादो न भवेत् ईश्वरवत् तबुद्धरपि सदा सन्निहितत्वात् ? अनित्यबुद्धिसव्यपेक्षस्यापीश्वरस्याचेतनाधिष्ठायकत्वेन जगद्विधातृत्वे तस्य नित्यत्वेन तबुद्धरपि सदा सन्निहितत्वम् , अविकलकारणयोः सर्वदा सन्निहितत्वात् युगपदकुरादिका र्योत्पत्तिप्रसङ्गः । तस्मात् 'बुद्धिमत्त्वात्' इति विशेषणमकिञ्चित्करमेव; इति नाऽनैकान्तिकता हेतोः। ५ न चापि विरुद्धता, सपक्षे भावात् । } न चैवं भवति तस्माद् विपर्ययप्रयोगः-यद् यदा न भवति न तत् तदानीमविकलकारणम्, यथा कुशूलावस्थितबीजावस्थायामनुपजायमानोऽङ्कुरः, न भवति चैकपदार्थोत्पत्तिकाले सर्व विश्वम् इति व्यापकानुपलब्धिः। न च सिद्धसाध्यता, ईश्वरस्य तज्ज्ञानादेर्वा कारणत्वे विकलकारणत्वानुपपत्तेः प्रसाधितत्वात् । तन्न नित्यज्ञान-प्रयत्न-चिकीर्षाणां तत्समवायस्य वा नित्यस्य कर्तृत्वं युक्तम् । १० तस्माच्छरीरसंबन्धस्यैव कुम्भकारादौ कर्तृत्वव्यापकत्वेन प्रतीतेस्तदभावे कर्तृत्वस्याऽपि व्याप्यस्याभावप्रसङ्गः। तच्च क्वचित् करादिव्यापारेण कारकप्रयोक्तृत्वलक्षणम्-यथा कुम्भकारस्य दण्डादिकारणप्रयोक्तृत्वम्, अपरं वाग्व्यापारेण-यथा स्वामिनः कर्मकरादिप्रयोक्तृत्वस्वरूपम्, अन्यच्च प्रयत्नव्यापारेण-यथा जाग्रतः स्वशरीरावयवप्रेरकत्वस्वभावम्, किञ्चिच्च निद्रा-मद-प्रमादवि शेषेण ताल्वादि-करादिप्रेरकत्वम् , सर्वथा शरीरसंबन्ध एव कर्तृत्वस्य व्यापकः; स चेदीश्वरान्निवर्तते १५स्वव्याप्यमपि कर्तृत्वमादाय निवर्तते इति न तस्य कर्तृत्वमभ्युपगन्तव्यमिति प्रसङ्गः। अथ तस्य जगत्कर्तृत्वमभ्युपगम्यते तदा शरीरसंबन्धः कर्तृत्वव्यापकोऽभ्युपगन्तव्य इति प्रसङ्गविपर्ययः। न च कारकशक्तिपरिज्ञानलक्षणं तस्य कर्तृत्वम्-येन प्रसङ्ग-विपर्यययोात्यसिद्धेरभावः स्यात्कुम्भकारादौ मृद्दण्डादिकारकशक्तिपरिज्ञानेऽपि शरीरव्यापाराभावे घटादिकार्यकर्तृत्वादर्शनात् सुप्त-प्रमत्तादौ च ताल्वादिकारणपरिज्ञानाभावेऽपि तद्यापारे प्रयत्नलक्षणे सति तत्प्रेरणकार्यदर्शनात् । २० यदप्यभिधानमात्रेण विषापहारादिकार्यकर्तृत्वम् तदपि न ज्ञानमात्रनिबन्धनम् किन्तु शरीरसंबन्धाऽविनाभूतविशिष्टात्मप्रयत्नहेतुकमेव । अपि च, विशिष्टधर्माऽधर्माद्युपदेशविधायीश्वरः सर्वज्ञत्वेन मुमुक्षुभिरुपास्यः; अन्यथा अज्ञोपदेशानुष्ठाने तेषां विप्रलम्भशङ्कया तत्र प्रवृत्तिर्न स्यात् । तदुक्तम् ___"ज्ञानवान् मृग्यते कश्चित् तदुक्तप्रतिपत्तये । अज्ञोपदेशकरणे विप्रलम्भनशङ्किभिः" ॥ [ तस्य च सर्वशत्वे सत्यप्यशरीरिणो वक्त्राभावादपदेष्टत्वाऽसंभव इति तत्कतत्वेन तदपदेश प्रामाण्याऽसिद्धेर्न मुमुक्षूणां तत्र प्रवृत्तिः स्यादिति उपदेशकर्तृत्वे तस्य शरीरसंबन्धोऽप्यवश्यमभ्युपगन्तव्यः, व्याप्याभ्युपगमस्य व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयकत्वात् । शरीरसंबन्धाभावे तु व्याप्यस्या प्युपदेशविधातृत्वस्याभाव इति प्रसङ्ग-विपर्ययो । व्याप्यव्यापकभावप्रसाधकं च प्रमाणं ताल्वादि३० व्यापाराभावेऽप्युपदेशस्य सद्भावे तस्य तद्धेतुकत्वं न स्यादिति कार्यकारणभावप्रसाधकं प्रागेव प्रदर्शितमिति न पुनरुच्यते । तत् स्थितमेतत्-न शरीराभावे महेशस्य कर्तृत्वमिति । तेन शरीरमनःसंबन्धाभावे प्रयत्न-बुद्ध्यादेरभावादीश्वरसत्तैवासिद्धा । अतः 'तभावे कस्य विशेषः शरीरादियोगलक्षणः साध्यते?' इत्यादिपूर्वपक्षवचनं निःसारतया व्यवस्थितम्, प्रसङ्ग-विपर्यययोनिमित्तभूतव्याप्तिप्रदर्शनस्य विहितत्वात् । यदप्युक्तम् 'ज्ञान-चिकीर्षा-प्रयत्नानां समवायोऽस्तीश्वरे, ३५ ते तु ज्ञानादयस्तत्र नित्याः' इति, तदप्ययुक्तत्वेन प्रतिपादितम् । यच्चोक्तम् तत्र शरीरसंबन्धस्य व्याप्त्यभावादसिद्धिः', तदप्यसत् ; शरीरसंबन्धस्य कर्तृत्वव्यापकत्वप्रतिपादनात्। __ यदप्युक्तम् 'नाप्यसर्वज्ञत्वं विशेषः कुलालादिषु दृष्टस्तत्र साध्यते' इत्यादि, तदप्ययुक्तम् । कुलालादेर्घटादिकार्यस्योपादानाद्यभिज्ञत्वे कर्मादिनिमित्तकारणाभिज्ञत्वप्राप्तेः सर्वशत्वप्रसक्तिः इति व्यर्थमपरेश्वरसर्वशपरिकल्पनम् , तन्निर्वर्तकातीन्द्रियाऽदृष्टपरिज्ञानवत् तस्यापि सकलपदार्थपरिशान४०प्रसक्तेः। अथादृष्टापरिज्ञानेऽपि कुलालो मृत्पिण्डदण्डादिकतिपयकारकशक्तिपरिज्ञानादेव घटादिलक्षणं स्वकार्य निर्वर्तयतीति, तहीश्वरोऽप्यतीन्द्रियाशेषपदार्थपरिज्ञानमन्तरेणापि कतिपयकारकशक्तिपरिज्ञानादेव स्वकार्य निर्वर्तयिष्यति इति न सकलकार्यकर्तृत्वान्यथाऽनुपपत्त्या तस्यातीन्द्रि १ पृ. ५७ पं. १८ । २ पृ. ९८५० ८। ३ पृ. ९८ पं० १३ । ४ पृ. १२६ पं० २३। ५ पृ. ९८ पं० १५। ६ प्र. पृ. पं० १४ । ७ पृ. ९८ पं० १६ । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः । १२९ याचशेषपदार्थत्वलक्षणसर्वज्ञत्वसिद्धिः । यच्चोक्तम् 'क्षेत्रज्ञानां नियतार्थविषयग्रहणं सर्वविदधिष्ठितानाम. यथा प्रतिनियतशब्दादिविषयग्राहकाणामनियतविषयसर्वविदधिष्ठितानां जीवच्छरीरे' इत्यादि. तदप्यसङ्गतम्। यतः शब्दादिविषयग्राहकाणामिति दृष्टान्तत्वेनोपन्यासो यदीन्द्रियाणां तदा तेषां करणत्वाद् वेदनलक्षणक्रियाऽनाश्रयत्वात् कथं नियतशब्दादिविषयग्रहणम् ? अथ ग्रहणाधारत्वेन न तेषां नियतशब्दादिविषयग्रहणं किन्तु करणत्वेनः नन्वेवं क्षेत्रज्ञानामपि विषयग्रहणे करणत्वम न ५ कर्तृत्वमिति घटादि कुलालकर्तृकं तत्कारणशक्तिपरिशानेन न सिद्धमिति कुतस्तदृष्टान्तान् क्षित्यादेानाधारकर्तृकत्वं सिद्धिमुपगच्छति ? यदि पुननिसमवायेन चक्षुगदीनां नियतविषयाणां कर्तृत्वेऽप्यनियतविषयाऽपरक्षेत्रज्ञकधिष्ठितत्वमङ्गीक्रियते तर्हि चेतनानामपि क्षेत्रज्ञानां नियतविषयाणां यथा परोऽनियतविषयश्चेतनोऽधिष्ठाता तथा तस्याऽपि प्रतिनियतविषयत्वकल्पनायामपरोऽनियतविषयस्तद्धिष्ठाताऽभ्युपगन्तव्यः, तस्याप्यपर इत्यनवस्थाप्रसक्तिः। तथा, चेतनानामपि क्षेत्रज्ञानां १० यदा चेतनोऽधिष्ठाताऽभ्युपगम्यते तदा 'अचेतनं चेतनाधिष्ठितं प्रवर्तते, अचेतनत्वात्, वास्यादिवत्' इति प्रयोगेऽचेतनग्रहणं धर्मि-हेतुविशेषणं नोपादेयं स्यात्, व्यवच्छेद्याऽभावात् ।। ___ यत्तुक्तम् 'भवत्वनिष्टा यदि तत्प्रसाधकं प्रमाणं किञ्चिदस्ति, तावत एवाऽनुमानसिद्धत्वात्' इति, तदप्यसङ्गतम् ; यतः प्रमाणमन्तरेण हेत्वाभासाद् यद्येकस्य सिद्धिरभ्युपगम्यते अपरस्यापि तत एव सा किं नाभ्युपगम्यते? प्रमाणसिद्धत्वं तु तावतोऽपि नास्ति, अनिष्ठया तत्प्रसाधकस्य प्रमाण-१५ स्याप्रामाण्याऽऽसञ्जनाद् । यदप्युक्तम् 'आगमोऽप्यस्मिन् वस्तुनि विद्यते' इत्यादि, तदप्ययुक्तम् आगमस्य तत्प्रणीतत्वेन प्रामाण्यम्, तत्प्रामाण्याच्च ततस्तत्सिद्धिरितीतरेतराश्रयप्रसक्तेः। नित्यस्य त्वागमस्य प्रामाण्यं वैशेषिकै भ्युपगतम् , ईश्वरकल्पनावैयर्थ्यप्रसङ्गात् । नाप्यन्येश्वरकृततदागमात् तत्सिद्धिः, तत्रापि तत्कृतत्वेन प्रामाण्ये इतरेतराश्रयदोषात् । अपरेश्वरप्रणीताऽपरागमकल्पनेऽपि तदेव वक्तव्यमित्यनिष्ठाप्रसक्तिः । तदेवं स्वरूपेऽर्थे आगमस्य प्रामाण्येऽपि न तत ईश्वरसिद्धिः।२० यत्तूक्तम् 'तस्य च सत्तामात्रेण स्वविषयग्रहणप्रवृत्तानां क्षेत्रज्ञानामधिष्ठायकता यथा स्फटिकादीनामुपधानाकारग्रहणप्रवृत्तानां सवितृप्रकाशः' तदयुक्तम् ; सत्तामात्रेण सवितृप्रकाशस्यापि स्फटिकाद्यधिष्ठायकत्वाऽसंभवात्-तदसंभवश्चाकाशादेरपि सत्तामात्रस्य सद्भावात् तदधिष्ठायकना स्यात्किन्तु सवितृप्रकाशस्य तद्विशिष्टावस्थाजनकत्वेन तदधिष्ठायकत्वम्, तच्चेत् क्षेत्रक्षेप्वीश्वरस्य परिकप्यते तदा तेषां तत्कार्यताप्रसक्तिः, तथा च यथा क्षेत्रज्ञानामात्मत्वेऽविशिष्टेऽपि कार्यता तथेश्वर-२५ स्यात्मत्वाऽविशेषात् कार्यतेति तदधिष्ठायकोऽपरस्तत्कर्ताऽभ्युपगन्तव्यः, तत्राप्यपर इत्यनवस्था । अथ तस्य कार्यत्वे सत्यप्यनधिष्ठितस्यैव स्वकार्ये प्रवृत्तिस्तर्हि जगदुपादानादेरपि तदनधिष्ठितस्य प्रवृत्तिरिति व्यभिचारी अधिष्ठातृसाधकन्वेनोपन्यस्यमानस्तेनैव हेतुः । अपि च, सत्तामात्रेण तस्य तदधिष्ठायकत्वे गगनस्येव न सर्वशत्वम् इति सर्वशत्वसाधकहेतोस्तद्विपर्ययसाधनाद् विरुद्धत्वम् । न च सर्वविषयज्ञानसमवायात् तत्र तस्यैव सर्वक्षन्वं नाऽऽ-३० काशादेरिति वक्तुं युक्तम्, समवायस्य निषिद्धन्वात् । सत्त्वेऽपि नित्यव्यापकत्वेनाकाशादावपि भावप्रसङ्गात् । न च समवायाऽविशेषेऽपि समवायिनोर्विशेष इति वक्तुं शक्यम्, तद्विशेषस्यैवासिद्धत्वात् । सिद्धत्वेऽपि समवायपरिकल्पनावैयर्थ्यप्रसङ्गादिति प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । न च सत्तामात्रेण तस्य तदधिष्ठायकत्वे झानमात्रमप्युपयोगि, आस्तां सकलपदार्थसार्थकारकपरिज्ञानम् । यदप्युक्तम् 'ज्ञानस्य स्वविषयसदर्थप्रकाशत्वं नाम स्वभावः, तस्याऽन्यथाभावः कुतश्चिद्दोपसद्भावात्'३५ तत् सत्यमेव । यश्चोक्तम् 'यत् पुनश्चक्षुराद्यनाश्रितं न च रागादिमलाऽऽवृतं तस्य विषयप्रकाशनखभावस्य' इत्यादि, तदप्यसङ्गतम्। यतो न चक्षराद्यनाश्रितं ज्ञानं परस्य सिद्धम्, तत्सिद्धौ चक्षुराधनाश्रितस्य ज्ञानस्यव सुखस्यापि सिद्धेरानन्दरूपता कथं मुक्तानां न संगच्छते-येन 'सुखादिगुणरहितमात्मनः स्वरूपं मुक्तिः' इत्यभ्युपगमः शोमेत? न च रागादेरावरणस्याभावो महेशे सिद्धः-येन तज्ज्ञानमनावृतमशेषपदार्थविषयं तत्र सिद्धिमुपगच्छेत्, तत्स्वरूपस्यैवासिद्धत्वात् तत्र ४० रागाधभावप्रतिपादकस्याव्यभिचरितस्य हेतोस्त्वदभ्युपगमविचारणया दुरापास्तत्वाच्च । ४ पृ. ९८ पं० ३० । १ पृ. ९८५० २२ । २ पृ० १.१ पं० १२-२५। ३ पृ. ९८ पं० २८ । ५पृ.९९पं०१५। ६पृ.९९ पं. १९। ७.९९५०२०। स.त. १७ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेयतूक्तम् 'विपर्यासकारणा रागादयः, विपर्यासश्चाधर्मनिमित्तः, न च भगवत्यधर्मः' इति, तदप्यसारम्; अधर्मवद् धर्मस्यापि तद्धेतोश्च सम्यग्ज्ञानादेस्तत्रासंभवस्य प्रतिपादितत्वात् । यच्चोक्तम् 'रागादय इष्टानिष्टसाधनेषु विषयेषूपजायमाना दृष्टाः, न च भगवतः कश्चिदिष्टानिष्टसाधनो विषयः, अवाप्तकामत्वात्' इति, तदप्यसारम् ; यतो यदि इष्टानिष्टसाधनो न तस्य कश्चिद्विषयः कथं ५तर्हि असाविष्टाऽनिष्टोपादान-परिवर्जनार्थ प्रवर्तते बुद्धिपूर्विकायाः प्रवृत्तेर्हेयोपादेयजिहासोपादित्सापूर्वकत्वेन व्याप्तत्वात्? तभावेऽपि प्रवृत्तावुन्मत्तकप्रवृत्तिवद् न बुद्धिपूर्विकेश्वरप्रवृत्तिः स्यात् हेयोपादेयजिहासोपादित्से अप्यनाप्तकामत्वेन व्याप्ते, अवाप्तकामस्य हेयोपादेयजिहासोपादित्साऽ. नुपपत्तेः । अनाप्तकामत्वमप्यनीश्वरत्वेन व्याप्तम् , ईश्वरस्यानाप्तकामवायोगाद् इति यत्र बुद्धिपूर्विका प्रवृत्तिरिष्यते तत्र हेयोपादेयजिहासोपादित्से अवश्यमङ्गीकर्तव्ये, यत्र च ते तत्रानाप्तकामत्वम्, १० यत्र च तत् तत्रानीश्वरत्वम् इति प्रसङ्गसाधनम् । ईश्वरत्वे चावाप्तकामत्वम्, अवाप्तकामत्वाच्च न हेयोपादेयविषये तद्धानोपादानेच्छा, तदभावे न बुद्धिपूर्विका प्रवृत्तिरिति प्रसङ्गविपर्ययः। अत एव स्वतन्त्रसाधनपक्षे यद् आश्रयासिद्धत्वादिहेतुदोषोद्भावनम् तदसंगतम्, व्याप्तिप्रसिद्धिमात्रस्यैवात्रोपयोगात्; सा च प्रतिपादिता । 'या तु प्रवृत्तिः शरीरादिसर्गे सा क्रीडा, अवाप्तकामानामेव च क्रीडा भवति' इति यदुक्तम् तदसंगतम् , 'रतिमविन्दतामेव क्रीडा भवति, न च रत्यर्थी भगवान्, १५दुःखाभावात्' इति वार्तिककृतैव प्रतिपादितत्वात् । यच्चोक्तम् 'न हि दुःखिताः क्रीडासु प्रवर्तन्ते' इति, तत् प्रक्रमानपेक्षं वचनम् : दुःखाभावेऽपि क्रीडावतां रागाद्यासक्तिनिमित्तेष्टसाधनविषयव्यतिरेकेण तस्यासंभवात्। यञ्च 'कारुण्यात् तस्य तत्र प्रवृत्तिः' इत्यादि, तदप्यनालोचिताभिधानम्; नहि करुणावतां यातनाशरीरोत्पादकत्वेन प्राणिगणदुःखोत्पादकत्वं युक्तम् । न च तथाभूतकर्मसव्यपेक्षस्तथा तेषां २० दुःखोत्पादकोऽसौ निमित्तकारणत्वात् तस्येति वक्तुं युक्तम्, तत्कर्मणामीश्वरानायत्तत्वे कार्यत्वे च तेनैव कार्यत्वलक्षणस्य हेतोर्व्यभिचारित्वप्रसङ्गात् । तत्कृतत्वे वा कर्मणोऽभ्युपगम्यमाने प्रथम कर्म प्राणिनां विधाय पुनस्तदुपभोगद्वारेण तस्यैव क्षयं विदधतो महेशस्याऽप्रेक्षाकारिताप्रसक्तिः, न हि प्रेक्षापूर्वकारिणो गोपालादयोऽपि प्रयोजनशून्यं विधाय वस्तु ध्वंसयन्ति । तन्न करुणाप्रवृत्तस्य कर्मसव्यपेक्षस्यापि प्राणिदुःखोत्पादकत्वं युक्तम् । किञ्च, प्राणिकर्मसव्यपेक्षो यद्यसौ प्राणिनां २५ दुःखोत्पादक इति न कृपालुत्वव्याघातस्तर्हि कर्मपरतन्त्रस्य प्राणिशरीरोत्पादकत्वे तस्याभ्युपगम्यमाने वरं तत्फलोपभोक्तृसत्त्वस्य तत्सव्यपेक्षस्य तदुत्पादकत्वमभ्युपगन्तव्यम्, एवमदृष्टेश्वरपरिकल्पना परिहृता भवति । 'यथा प्रभुः सेवाभेदानुरोधात् फलप्रदो नाऽप्रभुस्तथा महेश्वरोऽपि कर्मापेक्षफलप्रदो नाप्रभुः' इत्यप्ययुक्तम् । यतो यथा राज्ञः सेवाऽऽयत्तफलप्रदस्य रागादियोगः नैपुंण्यम् सेवाऽऽ. यत्तता च प्रतीता तथेशस्याप्येतत् सर्वमभ्युपगमनीयम्; अन्यथाभूतस्यान्यपरिहारेण क्वचिदेव ३० सेवके सुखादिप्रदत्वानुपपत्तेः । तदेवं कर्मपरतन्त्रत्वे तस्यानीशत्वम्, करुणाप्रेरितस्य कर्तृत्वे "सृजेच शुभमेव सः” इति वार्तिककारीयदूषणस्य व्यवस्थितत्वम् । यच्च 'नारक-तिर्यगादिसर्गोऽप्यकृतप्रायश्चित्तानां तत्रत्यदुःखानुभवे पुनर्विशिष्टस्थानावाप्तौ अभ्युदयहेतुरिति सिद्धं दुःखिप्राणिसृष्टावपि करुणया प्रवर्तनमीशस्य' इति, तदपि प्रतिविहितमेव; यतः कर्म प्राणिनां दुःखप्रदं विधाय तत्फलोपभोगविधानद्वारेण क्षयनिमित्तं प्राणिनामभ्युदयं विदधतस्तस्याऽशुचिस्थानपतितगृहीतप्रक्षालित३५ मोदकत्यागविधायिनो नसमानबुद्धित्वप्रसक्तिः। अपि च, यदि प्राणिकर्मपरवशस्तेषां दुःखादिकं तत्क्षयनिमित्तप्रायश्चित्तकल्पमुपजनयतीत्यभ्युपगमस्तदा तत्कर्मकार्यत्वं तस्य प्रसक्तम्-तत्कृतोपकाराभावे तदपेक्षाया अयोगात्; उपकारस्य च तत्कृतस्य तद्भेदे तेन संबन्धायोगात्, अभिनस्य तत्करणे तस्यैव करणमिति कथं न तत्कार्यत्वम् ? अथ यद् यदा यत्र कर्मादिकं सहकारिकारणमासादयति तेन सह संभूय तत् तदा तत्र सुखा४० दिकं कार्यं जनयति, एककार्यकारित्वमेव सहकारित्वमिति न कार्यत्वलक्षणस्तस्य दोषः, ननु कर्मादिसहकारिसव्यपेक्षः कार्यजननखभावस्तस्य कर्मादिसहकारिसन्निधानाद् यदि प्रागप्यस्ति तदा १ पृ० ९१ पं० २३ । २ पृ. ९९ पं० २६ । ३ प्र० पृ० पं० । ४ पृ. ९१५० २८। ५ पृ. ९९ पं० ३०। ६ पृ० ९९५० ३१ । ७ पृ. ९९ पं० ३२। ८-कर्मणं ई-(ण ई-) वा०, बा० विना। (पृ. ९९ पं० ३८ । १० पृ. १०० पं० १ ११ पृ० १०.५०८। १२ प्र. पृ०५० २२ । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरस्वरूपवादः। सहकारिसन्निधानेऽपि स्वरूपेणैवाऽसौ कार्य निर्वर्तयति, पररूपेण जनकत्वे सर्वस्य स्वरूपेणाजन. कत्वात् कार्याऽनुत्पादप्रसङ्गः, तस्य चाविकलस्य तजननखभावस्य भावादुत्तरकालभाविसमस्तकार्योत्पत्तिस्तदैवस्यात् । तथाहि-यद् यदा यजननसमर्थ तत् तदा तद् जनयत्येव, यथाऽन्त्यावस्थाप्राप्त बीजमङ्कुरम्, अजनने वा तदा तस्य तद् जननस्वभावमेव न स्यात्, तजननस्वभावश्च कर्मादिसामग्यसन्निधानेऽप्येकस्वभावतयाऽभ्युपगम्यमानो महेश इति स्वभावहेतुः। अथ कर्मादिसामग्र्यभावे ५ तत्स्वभावोऽप्यसौ विवक्षितकार्य न जनयति, न तर्हि तजनकस्वभावः-यो हि यदा यन्न जनयति स तजनकस्वभावो न भवति; यथा शालिबीजं यवाङ्कुरस्य, अतजनकस्यापि तत्स्वभावत्वेऽतिप्रसङ्गः, न जनयति च कर्मादिसामग्र्यभावे विवक्षितं कार्यमीश इति व्यापकाऽनुपलब्धिः। अथ कर्मादिसामग्र्यभावे स स्वभावस्तदपेक्षकार्यजनकत्वलक्षणो नास्ति तर्हि स्वभावभेदात् कथं न तस्य भेदः अपरस्य तन्निबन्धनस्याभावात् ? तथा च क्रमवर्त्यनेकमङ्कुरादिकार्य नाक्रमैकेश्वरविहितम् इति १० नैकत्वं तस्य सिद्धिमासादयति । तन्न सर्वज्ञत्वाऽशरीरित्वैकत्वादिधर्मयोगस्तस्य सिद्धिमुपढौकते । 'नापि कृत्रिमज्ञानसंबन्धित्वं तज्ज्ञानस्य प्रत्यर्थ नियमाभावात्' इत्यादि यदुक्तम्, तदपि निरस्तम्; नित्यसर्वपदार्थविषयज्ञानसंबन्धित्वस्य तत्र प्रतिषिद्धत्वात् । - यच्च 'यथा स्थपत्यादीनां महाप्रासादादिकरणे एका भिप्रायनियमितानामैकमत्यं तद्वदत्रापि यदि क्षित्याद्यनेककार्यकरणे बहूनां नियामकः कश्चिदेकोऽस्ति, स एवेश्वरः' इत्युक्तम् , तदप्यसङ्गतम् ; १५ यतोन ह्ययं नियमः-एकेनैव सर्व कार्य निर्वर्तनीयम्, एकनियमितैर्वा वहभिरितिः अनेकधा कार्यकर्तृत्वदर्शनात् । तथाहि-क्वचिदेक एवैककार्यस्य विधाता उपलभ्यते यथा कुविन्दः कश्चिदेकस्य पटस्य, कचिदेक एव बहूनां कार्याणाम् यथा घट-शरावोदञ्चनानामेकः कुलालः, क्वचिदनेकोऽप्यनेकस्य यथा घट-पट-शकटादीनां कुलालादिः, क्वचिदनेकोऽप्येकस्य यथा शिविकोद्वहनादेरनेकः पुरुष. सङ्घातः। न च प्रासादादिलक्षणेऽप्यनेकस्थपत्यादिनिर्वय॑ऽवश्यंतयैकसूत्रधारनियमितानां तेषां तत्र २० व्यापार उपलब्धः, प्रतिनियताभिप्रायाणामप्येकसूत्रधाराऽनियमितानां तत्करणाऽविरोधात् इति नैकः कर्ता क्षित्यादीनां सिद्धिमासादयति । अत एव न तन्निबन्धना सर्वज्ञत्वसिद्धिरपि तस्य युक्ता। तदेवं नित्यत्वादिविशेषसाकल्यसाधकानुमानाऽसंभवात् तद्विपर्ययसाधकस्य च प्रसङ्गसाधनस्य तत्र भावात् कथं न विशेषविरुद्धावकाशः? अथ शरीरादिमदबुद्धिमत्कारणत्वव्याप्तं यदि क्षित्यादी कार्यत्वमुपलभ्येत तदा ततस्तत्र तत् सिद्धिमासादयत् तथाभूतमेव सिध्येदिति भवेत् कार्यत्वादे-२५ विरुद्धत्वम्, साध्यविपर्ययसाधनात्; न च तथाभूतं तत् तत्र विद्यते इति कथं विरुद्धता? न; परप्रसिद्धपक्षधर्मत्वम् विपर्ययव्याप्तिं वाऽऽश्रित्य विरुद्धताभिधानात् । परमार्थतस्तु कार्यत्वविशेषस्य क्षित्यादावसिद्धत्वम् तत्सामान्यस्य त्वनैकान्तिकत्वम् इति प्रतिपादितम् । सर्वेषु चेश्वरसाधनायोपन्यस्तेष्वनुमानेष्वसिद्धत्वादिदोषः समानः इति कार्यत्वदुषणेनैव तान्यपि दूषितानि इति न प्रत्युच्चार्य दुष्यन्ते । महेश्वरस्य च नित्यत्वं तद्वादिभिरभ्युपगम्यते; न चाक्षणिकस्य सत्त्वं संभवति ३० इति प्रतिपादयिष्यामः । ___ यञ्च 'पृथिव्यादिमहाभूतानि खासु क्रियासु बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितानि प्रवर्तन्ते, अनित्यत्वात् , वास्यादिवत्' इति, तत्र कुलालादिबुद्धावप्यनित्यत्वलक्षणस्य हेतोः सद्भावात् तत्राप्यपरबुद्धिमत्कारणाधिष्ठितत्वप्रसक्तिः, तथाऽभ्युपगमे महेशबुद्धेरप्यनित्यत्वस्य प्रसाधनात् तस्याप्यपरबुद्धिमदधिष्ठितत्वम्, तदुद्धावप्येवम् इत्यनवस्था । अथ बुद्धरनित्यत्वे सत्यपि न बुद्धिमदधिष्ठितत्वं तदा ३५ व्यमिचारी हेतुः; अपरं चात्र प्रतिविहितत्वान्नाशयते । यश्च कार्यत्वहेतोर्दूषणमसिद्धत्वादि तत्रापि समानम् । तथाहि-यादृशमनित्यत्वं बुद्धिमदधिष्ठितं (त) वास्यादौ सिद्धं तादृशं तन्वादिष्वसिद्धम् । अनित्यत्वमात्रस्य प्रतिबन्धासिद्धेर्व्यभिचारः। प्रतिबन्धाभ्युपगमे सतीष्टविपरीतसाधनाद् विरुद्धत्वम् । साधर्म्यदृष्टान्तस्य साध्यविकलता, नित्यैकबुद्धिमदधिष्ठितत्वेन साध्यधर्मेणान्वयासिद्धेः । सामान्येन साध्ये सिद्धसाध्यता, विशेषेण व्यभिचारः, घटादिष्वन्यथादर्शनादिति । एवं सर्वेषु प्रकृतसाध्य-४० साधनायोपन्यस्तेषु हेतुषु योज्यम् । १पृ० १.० ५० ११। २ पृ० १२६ पं० २३ । ३ पृ० १०० पं० २१ । ४-सिद्धं प-भां•। ५-तिं बाऽऽभि-भा- ६ पृ. ११५५.११-१.। पृ.१०.पं.३१ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ प्रथमे काण्डेयञ्च 'स्थित्या प्रवृत्तेः' इति साधनमुक्तम् , तत्रान्यदपि दूषणं वाच्यम्-सर्वभावानामुदयसमनन्त. राऽपवर्गितया क्षणमात्रमपि न स्थितिरस्ति इति कुतः स्थित्वा प्रवृत्तिः? तस्मात् प्रतिवाद्यसिद्धो हेतुः अनैकान्तिकश्चेश्वरेणैवः यतः सोऽपि क्रमवत्सु कार्येषु स्थित्वा प्रवर्तते अथ च नासौ चेतनावताऽधिष्ठितः अनवस्थाप्रसङ्गात् । अथ 'अचेतनत्वे सति' इति सविशेषणो हेतुरुपादीयते यथा ५प्रशस्तमतिनोपन्यस्तस्तथापि संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकतयाऽनैकान्तिकत्वमनिवार्यम्-यदेव हि विशेषणं विपक्षाद्धेतुं निवर्तयति तदेव न्याय्यम्, यत् पुनर्विपक्षे संदेहं न व्यावर्तयति तदुपादानमप्यसत्कल्पम्, पूर्वोक्तश्चासिद्धतादोपः सविशेषणत्वेऽपि तदवस्थ एव । यच्चोक्तम् 'सादी व्यवहार इत्यादि, तत्रापि 'उत्तरकालं प्रबुद्धानाम्' इत्येतद् विशेषणमसिद्धम् । तथाहि-नास्मन्मते प्रलयकाले प्रलुप्तज्ञान-स्मृतयो वितनु-करणाः पुरुषाः संतिष्ठन्ते किन्त्वाभास्वरादिषु स्पष्टशानातिशययोगिषु १० देवनिकायेषत्पद्यन्तेः ये त प्रतिनियतनिरयादिविपाकसंवर्तनीयकर्माणस्ते लोकधात्वन्तरेषत्पद्यन्ते इति मतम् । विवर्तकालेऽपि तत एव आभास्वरादेश्च्युत्वा इहालुप्तज्ञान-स्मृतय एव संभवन्ति तस्मात् 'उत्तरकालं प्रबुद्धानाम्' इति विशेषणमसिद्धम् । अनैकान्तिकश्च हेतुः संदिग्धविपक्षव्यावृ. त्तिकत्वात् । किञ्च, अन्योपदेशपूर्वकत्वमात्रे साध्ये सिद्धसाध्यता, अनादेर्व्यवहारस्य सर्वेषामेवान्योपदेश१५ पूर्षकत्वस्येष्टत्वात् । अथेश्वरलक्षणपुरुषोपदेशपूर्वकत्वं साध्यते तदाऽनैकान्तिकता, अन्यथाऽपि व्यवहारसंभवात् , दृष्टान्तस्य च साध्यविकलता । एतच्चान्यहेतुसामान्यं दृषणं पूर्वमुक्तम् । विरुद्धश्च हेतुः अभ्युपेतबाधा च प्रतिक्षायाः, निर्मुखस्योपदेष्टुत्वासंभवात्-यदि ईश्वरोपदेशपूर्वकत्वं व्यवहारस्य संभवेत् तदा स्यादविरुद्धता हेतोः यावताऽसौं विगतमुखत्वादुपदेष्टा न युक्तः, तञ्च विमुखत्वं वितनुत्वेन, तदपि धर्माधर्मविरहात्, तथा च उद्द्योतकरेणोक्तम्-"यथा बुद्धिमत्तायामीश्वरस्य २० प्रमाणसंभवः, नैवं धर्मादिनित्यत्वे प्रमाणमस्ति" [ न्यायवा० पृ० ४६४ पं० १४] इति । तस्मादी श्वरस्योपदेष्टत्वासंभवात् तदुपदेशपूर्वकत्वं व्यवहारस्य न सिध्यति किन्त्वीश्वरव्यतिरिक्तान्यपुरुषोपदेशपूर्वकत्वम्; अत इष्टविघातकारित्वाद् विरुद्धो हेतुः। अथेश्वरस्योपदेष्टुत्वमङ्गीक्रियते तदा विमुखत्वमभ्युपेतं हीयत इत्यभ्युपेतबाधः । एवमन्येष्वपि सर्वज्ञत्वादितद्विशेषसाधकेषु हेतुष्वसि द्धत्वाऽनैकान्तिकत्व-विरुद्धत्वादिदोषजालं स्वमत्याऽभ्यूह्यं दिङ्मात्रदर्शनपरत्वात् प्रयासस्य । अत एव २५ “सप्त भुवनान्येकबुद्धिनिर्मितानि, एकवस्त्वन्तर्गतत्वात् , एकावसथान्तर्गतानेकापवरकवत् ; यथैकावसथान्तर्गतानामपवरकाणां सूत्रधारैकबुद्धिनिर्मितत्वं दृष्टं तथैकस्मिन्नेव भुवनेऽन्तर्गतानि सप्त भुवनानि, तस्मात् तेषामप्येकबुद्धिनिर्मितत्वं निश्चीयते; यद्बुद्धिनिर्मितानि चैतानि स भगवान् महेश्वरः सकलभुवनैकसूत्रधारः" [ ] इत्यादिकाः प्रयोगाः प्रशस्तमतिप्रभृतिमिरुपन्यस्तास्तेष्वपि हेतुरसिद्धः, न होकं भुवनम् आवसथादिर्वाऽस्ति, व्यवहारलाघवार्थ बहुश्वियं संज्ञा कृता, अत एवं ३० दृष्टान्तोऽपि साधनविकलः: एकसौधाद्यन्तर्गतानामपवरकादीनामनेकसूत्रधारघटितत्वदर्शनाच्चानकान्तिको हेतुः। ___ यञ्च “एकाधिष्ठाना ब्रह्मादयः पिशाचान्ताः, परस्परातिशयवृत्तित्वात् । इह येषां परस्परातिशयवृत्तित्वं तेषामेकायत्तता दृष्टा, यथेह लोके गृह-ग्राम-नगर-देशाऽधिपतीनामेकस्मिन् सार्वभौम नरपतौ, तथा च भुजग-रक्षो-यक्षप्रभृतीनां परस्परातिशयवृत्तित्वम् : तेन मन्यामहे तेषामप्येक३५मिनीश्वरे पारतन्यम्” इति, तदेतद् यदि 'ईश्वराख्येनाधिष्ठायकेनैकाधिष्ठानाः' इत्ययमर्थः साध. यितुमिष्टस्तदाऽनैकान्तिकता हेतोः, विपर्यये बाधकप्रमाणाभावात् प्रतिबन्धाऽसिद्धेः । दृष्टान्तस्य च साध्यविकलता। अथाधिष्ठायकमात्रेण साधिष्ठाना इति साध्यते तदा सिद्धसाध्यता, यत इष्यत एव सुगतसुतैर्भगवता संबुद्धेन सकललोकचूडामणिना सर्वमेव जगत् करुणावशादधिष्ठितम्, यत्प्रभावादद्याप्यभ्युदय-निःश्रेयससंपदमासादयन्ति साधुजनसार्थाः । सर्वेष्वपि च सर्वक्षसाधनेषु ४० परोपन्यस्तेषु यदि सामान्येन 'कश्चित् सर्वज्ञः' इति साध्यमभिप्रेतं तदा नाऽस्मान् प्रति भवतामिद साधनं राजते सिद्धसाध्यतादोषात् किन्तु ये सर्वज्ञाऽपवादिनो जैमिनीयाश्चार्वाका वा तेम्वेव १ पृ० १.१ पं० १७। २ पृ० १०१ पं० २० । ३-मतेन प्र-भा०। ४ पृ० ११५ पं० ३५। ५-था भु-बा., बा । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मपरिमाणवादः। १३३ शोभते । अथेश्वराख्यः सर्वज्ञः साध्येत तदोक्तप्रकारेण प्रतिबन्धासिद्धेहेतूनामनैकान्तिकता, दृष्टान्तस्य च साध्यविकलतेति । शेषस्तु पूर्वपक्षग्रन्थो निःसारतयोपेक्षितः। अत ईश्वरसाधकस्य तन्नित्यत्वादिधर्मसाधकस्य च प्रमाणस्याभावात् "क्लेश-कर्म-विपाकाऽऽशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः" [ योगद० पा० १, सू० २४] इत्यादि सर्वमयुक्ततया स्थितम् । अतो भवहेतुरागादिजयात् शासनप्रणेतारो जिनाः सिद्धाः। अतः सुव्यवस्थितमेतद भवजिनानां शासनमिति । ननु यदि तेषां भवनिबन्धनरागादिजेतृत्वं तदा शासनप्रणेतृत्वानुपपत्तिः, तज्जयानन्तरमेवापवर्गप्राप्तेः शरीराभावे वक्तृत्वासंभवात् । अथ रागादिक्षयानन्तरं नापवर्गप्राप्तिस्तर्हि रागादिजयो न भवक्षयलक्षणापवर्गप्राप्तिकारणम् ; न हि यस्मिन् सत्यपि यन्न भवति तत् तदविकलकारणं व्यवस्थापयितुं शक्यम्, यवबीजमिव शाल्यङ्करस्य । अथ निरवशेषरागाद्यजयाद् अपवर्गप्राप्तेः प्रागेव तत्प्रणेतृत्वाददोषः; नन्वेवं तच्छासनस्य रागलेशाऽऽश्लिष्टपुरुषप्रणीतत्वेन नैकान्तिकं प्रामाण्यं, १० कपिलादिपुरुषप्रणीतस्येव इत्याशङ्कयाह सूरिः-'ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं' इति । अस्यामिप्रायः-यद्यपि सर्वज्ञताप्रतिबन्धिघातिकर्मचतुष्टयक्षयाविर्भूतकेवलज्ञानसम्पदो जिनास्तथापि भवोपनाहिशरारानबन्धनस्य कमेणः सद्भावादेल्पस्थितिकस्य न शरीराद्यभावात् शासनप्रणेतृत्वानुपपत्तिः, नापि रागादिलेशसद्भावात् तत्प्रणीतागमस्याऽप्रामाण्यम् , विपर्यासहेतो_तिकर्मणोऽत्यन्तक्षयात् । न च कर्मक्षयादपरस्याप्रवृत्तिनिमित्तत्वम्, भवोपग्राहिणोऽद्यापि सामस्त्येनाक्षयात् तत्क्षये चापव-१५ र्गस्थानन्तरभावित्वात् कर्मक्षयस्यैवापवर्गप्राप्तावविकलकारणत्वादिति । अवयवार्थस्तु-तिष्ठन्ति सकलकर्मक्षयावाप्तानन्तज्ञानसुखरूपाध्यासिताः शुद्धात्मानोऽस्मिन्निति स्थानं लोकाग्रलक्षणं विशिष्टक्षेत्रम्, न विद्यते उपमा स्वाभाविकात्यन्तिकत्वेन सकलव्याबाधारहितत्वेन च सर्वसुखातिशायित्वाद् यस्य तत् सुखमानन्दरूपं यस्मिंस्तत् तथा, तत् 'उप' इति कालसामीप्येन गतानां प्राप्तानाम्, यद्वा 'उप' इत्युपसर्गः प्रकर्षेऽप्युपलभ्यते, यथा “उपोढरागेण" [ ] इति । तेन स्थानमनुपमसुखं २० प्रकर्षण गतानामिति । “परार्थे प्रयुज्यमानाः शब्दा वतिमन्तरेणापि तमर्थ गमयन्ति" [ इति न्यायादनुभूयमानतीर्थकृन्नामकर्मलेशसद्भावेऽपि तद् गता इत्र गता इत्युक्तास्तेन शासनप्रणेतृत्वं तस्यामवस्थायां तेषामुपपन्नमेव ॥ यद्वा “मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति व्योमवत् तापवर्जिताः"[ ] इत्येतस्य दुर्नयस्य निरासार्थमाह सूरिः- 'ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं' अत्र च स्थानमनुपमसुखम्-प्रकर्षेण अपुनरावृत्या २५ गतानाम्-उपगतानामिति व्याख्येयम् । ___अथवा "बुद्ध्यादीनां नवानां विशेषगुणानामात्यन्तिकः क्षय आत्मनो मुक्तिः” [ ] इति मतव्यवच्छेदार्थमाचार्येण-'ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं' इति सूत्रमुपन्यस्तम् । अस्य चायमर्थः-स्थितिः स्थानं स्वरूपप्राप्तिस्तद् अनुपमसुखम् 'उप' इति सकलकर्मक्षयानन्तरमव्यवधानेन गतानां प्राप्तानाम्-शैलेश्यवस्थाचरमसमयोपादेयभूतमनन्तसुखस्वभावमात्मनः कथञ्चिदनन्यभूतं ३० स्वरूप प्राप्तानामिति यावत् । [ आत्मपरिमाणवादः] [पूर्वपक्षः-आत्मनो विभुत्वस्थापनम् ] अत्राहुर्वैशेषिका:-सर्वमेतदनुपपन्नम्, आत्मनो विभुत्वेन विशिष्टस्थानप्राप्तिनिमित्तगत्य राराद्यभाव मुक्तात्मनां सुखस्य तद्धेतुनिमित्तासमवायिकारणाभावेनोत्पत्य-३५ संभवात् , नित्यस्य चानन्दस्यावैषयिकस्यानुपलम्भेनासत्त्वात् । न चात्मनो विभुत्वमसिद्धम्, अनुमानात् तत्सिद्धेः । तथाहि-बुद्ध्यधिकरणं द्रव्यं विभु, नित्यस्वे सत्यस्मदाद्युपलभ्यमानगुणाधिष्ठानत्वात् यद् यद् नित्यत्वे सत्यस्मदाद्युपलभ्यमानगुणाधिष्ठानं तत् तद् विभु, यथा आकाशम्, तथा च बुद्धयधिकरणं द्रव्यम् , तस्माद् विभु । { न च १-तारो जिना भवन्ति जिनाः वा०, बा० विना। २-दल्पविधि(ल्पावधि )कस्य न वा०, बा० । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - " बुद्धेर्गुणत्वासिद्धे हेतु विशेषणा सिद्धया हेतोरसिद्धिरभिधातुं शक्या, बुद्धिगुणत्वस्यानुमानात् सिद्धे । । तथाहि - गुणो बुद्धि:, प्रतिषिध्यमानद्रव्य-कर्मभावे सति सत्तासंबन्धित्वात्; यो यः प्रतिषिध्यमानद्रव्य-कर्मभावे सति सत्तासंबन्धी स स गुणः यथा रूपादिः तथा च बुद्धिः, तस्माद् गुणः । न च प्रतिषिध्यमानद्रव्य - कर्मत्वमसिद्धं बुद्धेः । तथाहि - बुद्धिर्द्धव्यं न भवति, एकद्रव्यत्वात्, यद् ५ यद् एकद्रव्यं तत् तद् द्रव्यं न भवति यथा रूपादि, तथा च बुद्धिः, तस्माद् न द्रव्यम् । न वायमसिद्धो हेतुः । तथाहि एकद्रव्या बुद्धिः, सामान्य विशेषवत्त्वे सत्ये केन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्, यद् यत् सामान्य- विशेषवत्त्वे सत्ये केन्द्रियप्रत्यक्षं तत् तद् एकद्रव्यम्, यथा रूपादि, तथा बुद्धिः, तस्मादेकद्रव्या । न च 'एकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्' इत्युच्यमाने आत्मना व्यभिचारः, तस्यै केन्द्रियप्रत्यक्षत्वे विवादात् । नापि वायुना, तत्रापि तत्प्रत्यक्षत्वस्य विवादास्पदत्वात् । तथापि रूपत्वादिना १० व्यभिचारः, तन्निवृत्यर्थ 'सामान्य- विशेषवत्वे सति' इति विशेषणोपादानम् । न च रूपस्यान्तःकरणग्राह्यतया द्वीन्द्रियग्राह्यता, चक्षुरिन्द्रियस्यैव 'चक्षुषा रूपं पश्यामि' इति व्यपदेश हे तोस्तत्र करणत्वंसिद्धिः, मनसस्त्वान्तरार्थप्रतिपत्तावेवाऽसाधारणकरणत्वात् । अथवा एकद्रव्या बुद्धि:, सामान्य - विशेषवस्त्रे अगुणवत्वे च सत्यचाक्षुपप्रत्यक्षत्वात् शब्दवत् । तथा, न कर्म बुद्धिः, संयोग-विभागाकारणत्वात्, यद् यत् संयोगविभागाकारणं तत् तत् कर्म न भवति, यथा रूपादि, १५ तथा च बुद्धिः, तस्माद् न कर्म । तस्मात् सिद्धः प्रतिषिध्यमानद्रव्य - कर्मभावो बुद्धेः । न च सत्तासंबन्धित्वमसिद्धं बुद्धेः, तत्र 'सत्' इति प्रत्ययोत्पादात् । न च सत्ता भिन्ना न सिद्धा, तद्भेदप्रतिपादकप्रमाणसद्भावात् । तथाहि यस्मिन् भिद्यमानेऽपि यन्न भिद्यते तत् ततोऽर्थान्तरम्, यथा भिद्यमाने वस्त्रादावभिद्यमानो देहः, भिद्यमाने च बुद्ध्यादौ न भिद्यते सत्ता, द्रव्यादौ सर्वत्र 'सत् सत्' इति प्रत्ययाभिधानदर्शनात्; अन्यथा तदयोगात् । सा च बुद्धिसंबद्धा, ततस्तत्र २० विशिष्टप्रत्यय प्रप्रतीतेः । तथाहि यतो यत्र विशिष्टप्रत्ययः स तेन संबद्ध:, यथा दण्डो देवदत्तेन, भवति च बुद्ध्यादौ सत्तातस्तत्प्रत्ययः, ततस्तया संबद्धेति । 'प्रतिषिध्यमानद्रव्य - कर्मत्वात् ' इत्युच्यमाने सामान्यादिना व्यभिचारस्तन्निवृत्त्यर्थं 'सत्तासंबन्धित्वात्' इति वचनम् । 'सत्तासंबन्धित्वात्' इत्युच्यमाने द्रव्य-कर्मभ्यामनेकान्तस्तन्निवृत्त्यर्थं 'प्रतिविध्यमानद्रव्य-कर्मभावे सति' इति विशेषणम् । तदेवं भवत्यतोऽनुमानाद् बुद्धेर्गुणत्व सिद्धिः । } अस्मदाद्युपलभ्यमानत्वं च २५ बुद्धेस्तदेकार्थसमवेतानन्तरज्ञानप्रत्यक्षत्वाद् नासिद्धम् । नित्यत्वं चात्मनः 'अकार्यत्वात्, आकाशवत्' इत्यनुमानप्रसिद्धम् । अतो 'नित्यत्वे सत्यस्मदाद्युपलभ्यमानगुणाधिष्ठानत्वात्' इति हेतुर्नासिद्धः । १३४ नाप्यनैकान्तिकः, विपक्षेऽस्याऽप्रवृत्तेः । नापि विरुद्धः, विभुन्याकाशेऽस्य वृत्त्युपलम्भात् । नापि बाधितविषयः, प्रत्यक्षाऽऽगमयोरात्मन्यविभुत्व प्रदर्शकयोरसम्भवात् । नापि प्रकरणसमः, प्रकरण चिन्ताप्रवर्तकस्य हेत्वन्तरस्याभावात् । इति भवति सकलदोषरहितादतो हेतोः सर्वगता३० त्मसिद्धिः । [ उत्तरपक्षः - आत्मनो विभुत्वं निरस्य देहमात्रत्वव्यवस्थापनम् ] असदेतत् बुद्धेर्गुणत्वा सिद्धावात्मनस्तदधिष्ठानत्वासिद्धेरसिद्धो हेतुः । यश्चं 'प्रतिषिध्यमानद्रव्य-कर्मत्वे सति सत्तासंबन्धित्वात्' इति गुणत्वं बुद्धेः प्रसाध्यते तत्र सत्तायाः तत्समवायस्य च निषिद्धैत्वात् निषेत्स्यमानत्वाश्च 'सत्तासंबन्धित्वात्' इति तत्र हेतुरसिद्धः । ३५ समवायाभावे च बुद्धेरात्मनो व्यतिरेके तेन तस्याः सम्बन्धाभावात् 'आत्मनो द्रव्यत्वं गुणाश्रयत्वेन तस्याश्च तदाश्रितत्वेन गुणत्वम्' इति दूरोत्सारितम् । भवतु वा समवायसंबन्धस्तथापि आत्मगुण (णत्व) वत् तस्या अन्यर्गुणत्वस्याप्यप्रतिषेधात् तस्यास्तगुणत्वस्यैवासिद्धिः । व्यतिरेकाविशेषेऽपि 'आत्मन एव गुणो ज्ञानम् नाकाशादेः' इति किंकृतोऽयं विभागः ? न समवायकृतः, तस्यापि ताभ्यां व्यतिरेके 'तयोरेवासौ समवायः नाकाशादेः' इति विभागो दुर्लभः स्यात्, तस्य १- त्वसिद्धिर्न मनस्त्वान्त - वा०, बा० । २ - तावेव साधारणत्वात् । अ०, भा०, डे० । ३ पृ० १३३ पं० ३८ । ४ प्र० पृ० पं० २ । ५ पृ० १०६ पं० १० पृ० ११० पं० ९ । ६ - गुणत्वस्यात्वस्या प्यप्रति - वा०, जा० । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मपरिमाणवादः । स्वरूपेण सर्वत्राविशेषात् । अथात्मकार्यत्वादात्मगुणो बुद्धिः, कुत एतत् ? आत्मनि सति भावात्, आकाशादावपि सति भावात् तस्यास्तकार्यताप्रसक्तिः । नाप्यात्मनोऽभावेऽभावात् तस्याः तत्कार्यत्वम्, तन्नित्यत्व-व्यापित्वाभ्यां तत्र तस्यायोगात् । नापि तत्र तस्याः प्रतीतेः तत्कार्यैवासौ नाकाशादिकार्या, तत्र तत्प्रतीतेरसिद्धः। तथाहि-न तावद् आत्मा आत्मनि बुद्धि प्रत्येति, तस्य स्वसंविदितत्वानभ्युपगमात् । ज्ञानान्तरप्रत्यक्षत्वेऽपि विवादात्। तन्न तेनात्मस्वरूपमपि गृह्यते, ५ दरत एव स्वात्मव्यवस्थितत्वं बुद्धः। नापि बुद्धया तयवस्थितत्वं स्वात्मनो गृह्यते, तया आत्मनः स्वकीयरूपस्य वाऽग्रहणात्, बुद्धधन्तरग्राह्यत्वासम्भवात्, स्वसंविदितत्वस्य चानिप्टेः, अज्ञातायाश्च घटादेरिवापरग्राहकत्वानुपपत्तेन तयाप्यात्मनि व्यवस्थितं स्वरूपं गृह्यते । न च तदुत्कलितत्वम्, तदाधेयत्वम्, तत्समवेतत्वं वा आकाशादिपरिहारेणात्मगणत्वनिबन्धनम, सर्वस्य निषिद्धत्वात्। न च कार्येणाननुकृतव्यतिरेकं नित्यमात्मलक्षणं वस्तु कस्यचित् कारणं सिध्यति, अतिप्रसङ्गात् । १० यथा च नित्यस्यकान्तत आत्मनोऽन्यस्य वा न कारणत्वं संभवति तथा प्रतिपादयिष्यते। तन्न बुद्धरात्मनो व्यतिरेके 'तस्यैवासौ गुणो नाकाशादेः' इति व्यवस्थापयितुं शक्यम् । अव्यतिरेके च ततः तद्वदेव तस्या अपि द्रव्यत्वमिति 'प्रतिषिध्यमानद्रव्यत्वे सति' इति विशेषणमसिद्धम् । अपि च बुद्धेर्गुणत्वसिद्धावनाधारस्य गुणस्यासंभवात् तदाधारभूतस्यात्मनो द्रव्यत्यसिद्धिः, तत्सिद्धेश्च द्रव्य-कर्मभावप्रतिषेधे मति तदाश्रितत्वेन तस्या गुणत्वसिद्धि-१५ रितीतरेतराश्रयत्वम् । किञ्च, आत्मनोऽप्रत्यक्षत्वे बुद्धस्तद्विशेषगुणत्वेऽस्मदाद्युपलभ्यमानत्वविरोधः । तथाहि-येऽत्यन्तपरोक्षगुणिगुणा न तेऽस्मदादिप्रत्यक्षाः, यथा परमाणुरूपादयः, तथा च परेणाभ्युपगम्यते बुद्धिः, तस्माद् नास्मदादिप्रत्यक्षा। न च वायुस्पर्शन व्यभिचारः, वायोः कथञ्चित् तद्व्यतिरेकेण तद्वत् प्रत्यक्षत्वात् ; स्पर्श विशेषस्यैव तत्त्वात् । अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे च बुद्धरत्यन्तपरोक्षात्मविभुद्र २० व्यविशेषगुणत्व विरोधः । तथाहि-यद् अस्मदादिप्रत्यक्षं न त अत्यन्तपरोक्षगुणिगुणः, यथा घटरूपादि, तथा च बुद्धिः । न च वायुस्पर्शन व्यभिचारः, पूर्वमेवं परिहृतत्वात् । ततोऽस्मदादि. प्रत्यक्षत्वे बुद्धर्नात्यन्तपरोक्षात्मविशेषगुणत्वम् । तत्वे वा नास्मदादिप्रत्यक्षत्वमित्यसिद्धोऽस्मदाद्युपलभ्यमानलक्षणविशेषणोऽपि हेतुः। अथ आत्मनः प्रत्यक्षत्वाभ्युपगमादू नायं दोषः, नन्वेवंतस्य प्रत्यक्षत्वाभ्युपगमे हर्ष-विषादाद्यनेकविवर्तात्मकस्य देहमात्रव्यापकस्य स्वसंवेदनप्रत्यक्ष-२५ सिद्धत्वाद् न युगपत् सर्वदेशावस्थिताशेषमूर्तद्रव्यसंवन्धलक्षणस्य विभुत्वस्य साधनमनुमानतो युक्तम्, अन्यथा घटादिमिर्मेर्वादेस्तेन च घटादीनां तथा संयोगः किं नेष्यते यतः सांख्यदर्शनं न स्यात् ? प्रत्यक्षबाधनाद नवमिति चेत्, किमत्र प्रत्यक्षबाधनं काकक्षितम् ? अथात्र पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणयुक्तहेतुसद्भावात् तथाभ्युपगमः अन्यत्र विपर्ययाद नेति चेत् तर्हि 'पकान्येतानि फलानि, एकशाखाप्रभवत्वात्, उपयुक्तफलवत्' इत्यत्र तथाविधहेतुसद्भावात् तथाभ्युपगमः किं ३० न स्यात् ? पक्षस्य प्रत्यक्षबाधा हेतोर्वा कालात्ययापदिएत्वमन्यत्रापि समानम्। न च स्वसंवेदनप्रत्यक्षमेवानुमानेन प्रकृतेन बाध्यत इति वक्त यनम्, प्रत्यक्षपूर्वकत्वाभ्युपगमादनुमानस्य प्रत्यक्षाप्रामाण्ये तस्याप्रवृत्तिप्रसङ्गात् । न च तथाभूतात्मग्राहकस्य स्वसंवेदनाध्यक्षस्याप्रामाण्य निबन्धनमपरमुत्पश्यामः। न चान्यादृक्षस्यान्मनो विभूत्वसाधनाय हेतूपन्यासः सफलः, तस्य प्रमाणाविषयत्वेनासिद्धत्वाद हेतोराश्रयासिद्धताप्रसङ्गात् । तदेवमस्मदाद्युपल महात। नदेवमस्मदाद्यपलभ्यन्वे बद्धिलक्षणस्य गुणस्य ३५ हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वम्, अनुपलभ्यन्वे विशेषणासिद्धन्वम् । __परमाणूनां च नित्यत्वे सत्यस्मदाधुपलभ्यमानपाकजगुणाधिष्ठानत्वे सत्यपि न विभुत्वमिति व्यमिचारः। परमाणुपाकजगुणानामस्मदाद्यप्रत्यक्षरवे 'विवादास्पदं बुद्धिमत्कारणम्, कार्यत्वात्, घटादिवत्' इत्यत्र प्रयोगे व्याप्तिग्रहणं दर्लभमासज्येत । तथाहि-कार्यत्वेनामिमतानां परमाणुपाकजरूपादीनां व्याप्तिज्ञानेनाविषयीकरणे बद्धिमत्कारणत्वेन व्याप्तिसिद्धिन स्यात, तथा चैते-४० रेव कार्यत्वहेतोय॑मिचाराशका स्यात् । अथ 'नित्यत्वे सत्यस्मदादिबाह्येन्द्रियोपलभ्यमानगुणाविष्ठानत्वात्' इति हेतुरमिधीयते तर्हि बाह्येन्द्रियोपलभ्यमानत्वस्य बुद्धावसिद्धेः पुनरपि १पृ० १०५ पं० ३३ । २ प्र.पृ० पं० १९। ३-न वा घ-वा०, बा०। ४-क्षस्य प्रा-वा०, बा। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेविशेषणासिद्धो हेतुःप्रसक्तः। साध्य-साधनधर्मविकलश्चाकाशलक्षणः साधर्म्यदृष्टान्तः, नित्यत्वे सस्यस्मदायुपलभ्यमानगुणाधिष्ठानत्वस्य साधनधर्मस्य, विभुत्वलक्षणसाध्यधर्मस्य तत्रासिद्धेः। ___ अथ 'शब्दाधिकरणं द्रव्यं विभु, नित्यत्वे सत्यस्मदायुपलभ्यमानगुणाधिष्ठानत्वात् , आत्मवत्' इत्यतो हेतोस्तत्र विभुत्वस्य सिद्धेर्न साध्यविकलो दृष्टान्तः । नापि साधनविकला, ५अमदादिप्रत्यक्षशब्दगुणाधिष्ठानत्वस्य तत्र सिद्धत्वात्-न च शब्दस्यासदादिप्रत्यक्षत्वम् गुणत्वं वाऽसिद्धम, श्रोत्रव्यापारेणाध्यक्षबुद्धौ शब्दस्य परिस्फुटरूपतया प्रतिमासनात् निषिध्यमानद्रव्यकर्मत्वे सति सत्तासंबन्धित्वात् , पृथिव्यादिवृत्तिबाधकप्रमाणसद्भावे सति गुणस्याऽऽश्रितत्वे. नाकाशाऽऽश्रितत्वसिद्धेश्च न साधन विकलताप्याकाशस्य । असदेतत्; सिद्धे ह्यात्मनो विभुत्वे तन्निदर्शनादाकाशस्य विभुत्वसिद्धिः, तत्सिद्धेश्चात्मनो विभुत्वसिद्धिरितीतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् १० नाप्याकाशस्य विभुत्वसिद्धिरिति साध्यविकलता तदवस्थैव । यच्च शब्दस्य गुणत्वसाधकमनु. मानं तत्र 'सत्तासंबन्धित्वात्' इति हेतौ सत्तायाः तत्संबन्धित्वहेतोः समवायस्य चासिद्धत्वादसिद्धता, 'प्रतिषिध्यमानद्रव्यत्वे सति' इति विशेषणस्य चासिद्धता, शब्दस्य द्रव्यत्वात् । [प्रासङ्गिकं शब्दस्य द्रव्यात्मकत्वसाधनम् ] तथाहि-द्रव्यं शब्दः, क्रियावत्त्वात्, यद् यत् क्रियावत् तत् तद् द्रव्यम्, यथा शरः, १५ तथा च शब्दः, तस्माद् द्रव्यम् । निष्क्रियत्वे श्रोत्रेणाग्रहणप्रसङ्गः, तेना मिसंबन्धात् । तथापि ग्रहणे श्रोत्रस्याप्राप्यकारित्वप्रसक्तिः। तथा च 'प्राप्यकारि चक्षुः, बाह्येन्द्रियत्वात्, त्वगिन्द्रियवत्' इत्यस्य श्रोत्रेणानैकान्तिकत्वप्रसक्तिः । संबन्धकल्पनायां वा श्रोत्रं वा शब्ददेशं गत्वा शब्देनाभिसंबन्ध्येत, शब्दो वा श्रोत्रदेशमागत्य तेनाभिसंबन्ध्येत? न तावत् प्रथमः पक्षः, स्वधर्माऽधर्माभिसंस्कृतकर्णशष्कुल्यवरुद्धनभोदेशलक्षणश्रोत्रस्य शब्दोत्पत्तिदेशे निष्क्रियत्वेन तथा२० प्रतीत्यभावेन च गत्यसम्भवात् । गत्यभ्युपगमे वा विवक्षितशब्दापान्तरालवर्तिनामन्यान्य शब्दानामपि ग्रहणप्रसङ्गः, संबन्धाविशेषात् । अनुवात-प्रतिवात-तिर्यग्वातेषु च प्रतिपत्यप्रतिपत्तीषप्रतिपत्तिभेदाभावप्रसङ्गश्च, श्रोत्रस्य गच्छतस्तत्कृतोपकाराद्ययोगात्। नाप शब्द शागमनसम्भवः, गुणत्वेन तस्य निष्क्रियत्वोपगमात् आगमने वा सक्रियत्वाद् द्रव्यत्वमेव । अथापि स्यात् न आद्य एवाकाशतद्वेणुमुखसंयोगात् समवाय्यऽसमवायि-निमित्तकारणा२५ दुद्भूतः शब्दः श्रोत्रेणागतः संबन्ध्यते येनायं दोषः स्यात्, अपि तु जलतरङ्गन्यायेनापरापर पवाकाश-शब्दादिलक्षणात् समवाय्यऽसमवायि-निमित्तकारणादुपजातस्तेनामिसंबन्ध्यत इति । नन्वेवं बाणादयोऽपि पूर्वपूर्वसमानजातीयक्षणप्रभवा अन्ये एव लक्ष्येणाभिसंवन्ध्यन्त इति किं नाभ्युपगम्यते ? तथा च क्रियायाः सर्वत्राभाव इति 'क्रियावद् द्रव्यम्' इति द्रव्यलक्षणं न क्वचिद् व्यवतिष्ठेत । अथ प्रत्यभिज्ञानाद् वाणादौ नित्यत्वसिद्धेर्नेयं कल्पना । नन्वेवं शब्देऽपि मा ३०भूदियम्, तत्राप्येकत्वग्राहिणः प्रत्यभिज्ञानस्य 'देवदत्तोच्चारित शब्दं शृणोमि' इत्येवमाकारेणोप जायमानस्याऽबाधितस्वरूपस्यानुभवात् । न च लूनपुनर्जातकेश-नखादिष्विव सदृशापरापरो त्पत्तिनिबन्धनमेतत् प्रत्यभिज्ञानमिति वक्तुं शक्यम् , बाणादावपि तस्य तथात्वाविशेषात्। . अथ शब्दे बाधकसद्भावात् तथा तत्परिकल्पनम् न वाणादौ, विपर्ययात् । ननु न शब्दैकत्वविषयं प्रत्यक्षं तावदस्य बाधकम् , समानविषयत्वेन तस्य तद्बाधकत्वायोगात् । क्षणि३५कत्वविषयं तु शब्देऽन्यत्र वा विवादगोचरचारीति न तद्बाधकं युक्तम् । न चानुमानं प्रत्यमिशानबाधकम्, प्रत्यभिज्ञानस्य मानसप्रत्यक्षत्वाभ्युपगमात्; तदेव हनुमा॑नस्यैकशाखाप्रभवत्वादेर्वाध. कमुपलब्धम्, न पुनरनुमानं तस्य । अथ शब्दैकत्वग्राहकप्रत्यभिक्षाप्रत्यक्षस्य तदाभासत्वादनुमानं स्थिरचन्द्राऽर्कादिग्राहकस्येव देशान्तरप्राप्तिलिङ्गजनितानुमानवद् बाधकं भविष्यति, कथं पुनरस्य प्रत्यक्षाभासत्वम् ? अनुमानेन वाधनादिति चेत्, अनेनाप्यनुमानस्य बाधनादनुमानाभासत्वं ४० किं न स्यात्? अथानुमानबाधित विषयत्वाद् नैतदनुमानबाधकम् अनुमानमप्येतद्वाधितविषयत्वाद् नास्य बाधकमिति प्रसक्तम् । अथ साध्याविनाभाविलिङ्गजनितन्वान्नानुमानमेतद्वाध्यम् एकशा १-नमिसंधानान् । वा०, बा. विना। २-३-बध्य-वा०, वा०, मा०। ८ पृ. १३५पं० २९ । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मपरिमाणवादः। खाप्रभवत्वानुमानमपि तामताग्राहि प्रत्यक्षबाध्यं न स्यात् । अथ पक्षे एव व्यभिचाराद् न साध्याविनाभूतहेतुप्रभवत्वमेकशाखाप्रभवत्वानुमानस्य, तत् शब्दक्षणिकत्वानुमानेऽपि समानम् । न च शब्दक्षणिकत्वप्रसाधकमनुमानं पराभ्युपगमे संभवति । यश्च 'क्षणिकः शब्दः, अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति विभुद्रव्यविशेषगुणत्वात्, यो योऽस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति विभुद्रव्यविशेषगुणः स स क्षणिकः, यथा ज्ञानादिः, तथा च शब्दः, तस्मात् क्षणिकः' इत्यनुमानम्, तदेकशाखाप्रभव. ५ त्वानुमानवद् मानसप्रत्यक्षाभिमतप्रत्यभिज्ञानबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वात् कालात्ययापदिष्टहेतुप्रभवत्वाद् न साध्यसिद्धिनिबन्धनम् । किञ्च, धर्मादेविभुद्रव्यविशेषगुणत्वेऽपि न क्षणिकत्वमिति हेतोर्व्यभिचारः । तस्यापि पक्षीकरणे सर्वत्र व्यभिचारविषये पक्षीकरणाद् न कश्चिद् हेतुर्व्यभिचारी स्यात् 'अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति' इति च विशेषणमनर्थकम् , व्यवच्छेद्याभावात् । धर्मादेः क्षणिकत्वे च स्वोत्पत्तिसमयानन्तरमेव ध्वस्तत्वादु न ततो जन्मान्तरफलप्राप्तिः। शब्दात् शब्दोत्पत्तिवद्१० धर्मादेर्धर्माद्युत्पत्तावभ्युपगमबाधा 'परस्य अनुकूलेष्वनुकूलाभिमानजनितोऽभिलाषोऽभिलषितुराभिमुखक्रियाकारणमात्मविशेषगुणमाराध्नोति, अनुकूलेष्वनुकुलाभिमानजनिताभिलाषत्वात्, आत्मनोऽनुकूलाभिमानजनिताभिलाषवत्' इत्यस्य च विरोधः, यतो योऽसौ परस्यानुकूले. प्वनुकूलाभिमानजनिताभिलाषोत्पादित आत्मविशेषगुणो नासावभिलपितुराभिमुखक्रियाकारणम्, तत्समानतत्कारणत्वात् , यश्च तक्रियाकारणम् नासौ यथोक्ताभिलाषेणारब्ध इति ।१५ तथा, 'प्रवर्तक-निवर्तकाविच्छा-द्वेषनिमित्तौ धर्माऽधर्मो, अव्यवधानेन हिताहितविषयप्राप्ति-परिहारहेतोः कर्मणः कारणत्वे सत्यात्मविशेषगुणत्वात्, प्रवर्तक-निवर्तकप्रयत्नवत्' इत्यत्र हेतोय॑भिचारश्च, जन्मान्तरफलप्रदयोर्धर्माधर्मयोरव्यवधानेन हिताहितप्राप्ति-परिहारहेतोः कर्मणः कारणत्वे सत्यात्मविशेषगुणत्वेऽपीच्छा-द्वेषजनितत्वाभावात् । किञ्च, धर्मादिवद् अपरापरतकार्योत्पत्तिप्रसङ्गश्च । ततो न शब्दात् शब्दोत्पत्तिवदू धर्मादेर्धर्माद्युत्पत्तिः, तस्य क्षणिकत्वेन २० जन्मान्तरे ततः फलमित्यक्षणिकत्वं तस्याभ्युपगन्तव्यमतस्तेन व्यभिचारी हेतुः । अथास्मदादिप्रत्यक्षत्व विशेषणविशिष्टस्य विभुद्रव्यविशेषगुणत्वस्य धर्मादावसंभवाद् न व्यमिचारः, असदेतत्; विपक्षविरुद्धं हि विशेषणं ततो हेतुं निवर्तयति, यथाऽहेतुकत्वविरुद्धं ततः कादाचित्कत्वं निवर्तयति। न चास्मदादिप्रत्यक्षत्वमक्षणिकत्वविरुद्धम्, अक्षणिकेष्वपि सामान्यादिषु भावात्, ततो यथाऽस्मदादिप्रत्यक्षा अपि केचित् क्षणिकाः प्रदीपादयः, अपरेऽक्षणिकाः सामान्या-२५ दयस्तथाऽस्मदादिप्रत्यक्षा अपि विभूद्रव्यविशेषगुणाः केचित क्षणिकाः, अपरेऽक्षणिका भविष्यन्तीति संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनैकान्तिको हेतुः । न चास्मदादिप्रत्यक्षत्वविशेषणविशिष्टस्य विभुद्रव्यविशेषगुणत्वस्याक्षणिकेऽदर्शनात् ततो व्यावृत्तिसिद्धिः, अदर्शनस्यात्मसंबन्धिनः परलोकादिनाऽनैकान्तिकत्वात, सर्वसंबन्धिनोऽसिद्धत्वात् । न च कृतकत्वादावप्ययं दोषः समानः, तत्र विपक्षे हेतोः सद्भावबाधकप्रमाणभावात् प्रकृतहेतोश्च तस्याभावात् । यदि पुनर्विपक्षे ३० हेतोरदर्शनमात्रादेव ततो व्यावृत्तिस्तथा सति __"वेदाध्ययनं सर्व तदध्ययनपूर्वकम् । __ वेदाध्ययनवाच्यत्वात् अधुनाऽध्ययनं यथा" [श्लो० वा०, अ०७ श्लो० ३६६ ] इत्यस्यापि विपक्षेऽदर्शनात् ततो व्यावृत्तिसिद्धिरित्यपौरुषेयत्वसिद्धेन तस्येश्वरप्रणीतत्वं स्यात् । धर्माधर्मादेश्चास्मदाद्यप्रत्यक्षत्वे 'देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्तः पश्वादयो देवदत्तगुणाकृष्टाः, देवदत्तं ३५ प्रत्युपसर्पणवत्त्वात्, यद् यद् देवदत्तं प्रत्युपसर्पणवत् तत् तद् देवदत्तगुणाकृष्टम् , यथा ग्रासादिः, तथा च पश्वादयः, तस्माद् देवदत्तगुणाकृष्टाः' इत्यनुमानमसंगतं स्यात्, व्याप्तेरग्रहणात् । तथाप्यनुमाने यतः कुतश्चिद् यत् किश्चिदवगम्येत । ग्रासादेर्देवदत्तं प्रत्युपसर्पणस्य देवदत्तप्रयत्न गुणाकृष्टत्वेन व्याप्तिप्रदर्शनात् तस्यैव तत्पूर्वकत्वानुमानं स्यात्, तस्य च वैयर्थ्यम् । अथ पश्वादेरपि देवदत्तं प्रत्युपसर्पणस्य देवदत्तप्रयत्नसमानगुणाकृष्टत्वेन व्याप्तिः प्रतीयते तर्हि प्रयत्नसमानगुणस्य ४० पश्वादेर्देवदत्तं प्रत्युपसर्पणस्य वाऽप्रतिपत्तौ कथं तदाकृष्टत्वेन व्याप्तिसिद्धिः न हि प्रयत्नाप्रतिपत्तौ तदाकृष्टत्वेन प्रतिपन्नस्य ग्रासादेर्देवदत्तं प्रत्युपसर्पणस्य व्याप्तिप्रतिपत्तिः ? तत्प्रतिपत्त्यभ्युपगमश्च १-क्तत्व(त्वेन)का-वा०, बा० । २-नतत्वात्, यन-वा०, पा० । ३-करवं बि-बि०, भा०। स० त०१८ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - १३८ यदि तेनैवानुमानेन, अन्योन्याश्रयदोषः - व्याप्तिसिद्धावनुमानम्, ततश्च व्याप्तिसिद्धिरिति । अनुमानान्तरेण तत्प्रतिपत्तावनवस्था । प्रमाणान्तरेण च तत्प्रतिपत्तौ वैशेषिकस्य द्वे प्रमाणे, नैयायिकस्य चत्वारि प्रमाणानि इति प्रमाणसंख्याव्याघातः । ततो मानसप्रत्यक्षेण व्याप्तिर्गृह्यत इत्यभ्युपगन्तव्यम्; तथा च प्रयत्नसमान गुणस्य समाकर्षकस्य, तत्समाकृष्यमाणस्य च पश्वादेस्तत्प्रत्यक्षत्वमित्यस्मदादि५ प्रत्यक्षत्वं धर्मादेरपि परैरभ्युपगन्तव्यम् । यदि पुनः 'बाह्येन्द्रियप्रभवास्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति' इति हेतुर्विशिष्यते तदा साधनविकलता दृष्टान्तस्य सुखादेस्तथाऽप्रत्यक्षत्वात् । विभुद्रव्यं च यदि अत्राकाशमस्मदाद्यप्रत्यक्षं विवक्षितं तदा तद्वत् तद्गुणस्याप्यस्मदाद्यप्रत्यक्षत्वमिति 'अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति' इति विशेषणा सिद्धिर्हेतोः, गुणिनोऽप्रत्यक्षत्वे तद्विशेषगुणस्याप्यप्रत्यक्षत्वेन प्रतिपादितत्वात् । किञ्च, सिद्धे हि शब्दे गुणे तदाधारसिद्धिः - गुणस्याधारमन्तरेणानवस्थानात् - तत्सिद्धौ च तदाधारस्य नित्यत्वे सत्यस्मदादिप्रत्यक्षशब्दगुणाधारत्वेन विभुद्रव्यत्वसिद्धिः, तत्सिद्धेश्च शब्दस्य क्षणिकत्वसिद्धिः क्रियावत्त्वप्रतिषेधेन द्रव्यत्वाभावं साधयेत्, ततश्च गुणत्वम्, ततो विभुद्रव्याश्रितत्वम्, ततोऽपि क्षणिकत्वम्, इति चक्रकमासज्येत । साधनशून्यश्च साधर्म्य दृष्टान्तः, बुद्धेरपि विभ्वात्म विशेषगुणत्वासिद्धेः । न च शब्ददृष्टान्तेन तत् साध्यते, तस्याद्याप्यसिद्धत्वात् १५ इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गतः । न च 'विभ्वात्म विशेषगुणो ज्ञानम्, तत्कार्यत्वात्, शब्दवत्' इत्यतोऽ नुमानात् तस्य तद्विशेषगुणत्वसिद्धिः, कार्यत्वस्यैश्व र निराकरणे परप्रसिद्धस्यासिद्धत्वेन प्रतिपादितत्वात् इतरेतराश्रयदोषस्य च तदवस्थत्वात् - सिद्धे हि शब्दस्य विभुद्रव्यविशेषगुणत्वे दृष्टान्तत्वम्, ततो ज्ञानस्य तत्सिद्धिः, ततश्च शब्दस्य तत् इति कथं नेतरेतराश्रयदोषः इति साधनविकलो दृष्टान्तः । तथा साध्यविकलश्च, बुद्धेः क्षणिकत्वासंभवात् तथात्वे वा तस्याः न ततः संस्कारः, २० तदभावाद् न स्मरणम्, तदभावाश्च न प्रत्यभिज्ञादिव्यवहारः । न हि विनष्टात् कारणात् कार्यम्, अन्यथा चिरतरविनष्टादपि ततस्तत्प्रसङ्गात् । अनन्तरस्य कारणत्वे सर्वमनन्तरं तत्कारणमासज्येत। अथैकार्थसमवायिज्ञानमनन्तरं तत्कारणम्, न; ज्ञानस्यात्मनो भेदे समवायस्य सर्वत्राविशेषात् प्रतिषिद्धत्वाच्च 'एकार्थसमवायि' इत्यसिद्धम् । विनष्टाच्च कारणात् कथमनन्तरं कार्यम् येनानन्तर्य कार्यकारणभावनिबन्धनत्वेन कल्प्येत ? न हि तत् कारणम् नापि तत् तस्य कार्यम्, २५ तदभाव एव भावात् । न हि यदभावेऽपि यद् भवति तत् तस्य कार्यमितरत् कारणमिति व्यवस्था, अतिप्रसङ्गात् । विनश्यदवस्थं कारणमिति चेत्, नः साऽपि विनश्यदवस्था यदि ततो भिन्ना तर्हि तया तदभिसंबन्धाभावादनुपकाराद् 'विनश्यदवस्थम्' इति कुतो व्यपदेशः अतिप्रसङ्गादेव ? उपकारे वा सोऽपि यदि ततो व्यतिरिक्तः, अतिप्रसङ्गोऽनवस्थाकारी । अव्यतिरेके विनश्यदवस्थैव तेन कृता स्यात् । तामपि यद्यविनश्यदवस्थमेव कारणमुत्पा३० दयेत् किं प्रकृतेऽपि विनश्यदवस्थाकल्पनेन ? विनश्यदवस्थं चेत् तां कुर्यात् अन्या तर्हि ततोऽर्थान्तरभूता विनश्यदवस्था कल्पनीया । तया तदभिसंबन्धाभावः, अनुपकारात् । उपकारे वा तदवस्थः प्रसङ्गः अनवस्था च । तथा चापरापरविनश्यदव स्थोत्पादनेनोपक्षीण. शक्तित्वात् प्रकृतकार्योत्पादनमनवसरं प्रसक्तम् । विनश्यदवस्थायास्तत्र समवायात् तद् विनइयवस्थमित्यपि वर्तम्, विहितोत्तरेत्वात् । अथाभिन्ना तर्हि विनश्यदवस्थाकारणैक समय३५ संगता, एवं च विनश्यदवेस्थं कारणं कार्य करोतीति कोऽर्थः ? स्वोत्पत्तिकाल एव करोतीत्यर्थः समायातः । तथा च कार्य-कारणयोः सव्येतरगोविषाणव देककालत्वाद् न कार्यकारणभावः । तथापि तद्भावे सकलकार्यप्रवाहस्यैकक्षणवर्तित्वम् । १० अथ न सौगतस्येवाऽणोरण्वन्तरव्यतिक्रमलक्षणेन क्षणेन क्षणिकत्वम् - येनायं दोषः - किन्तु षट्समयस्थित्यनन्तरनाशित्वं तत्ः ननु कालान्तरस्थायिनि तथा व्यवहारं कुर्वन् सहस्रक्षण४० स्थायिन्यपि तत्र तं किं न कुर्यात् ? अपि च, पूर्वपूर्वक्षणसत्तात उत्तरोत्तरक्षणसत्ताया भेदाभ्युपगमे तदेव सौगतप्रसिद्धं क्षणिकत्वमायातम् । अभेदाभ्युपगमे पूर्वक्षणसत्तायामेवो १ पृ० १३५ पं० १७ । २ पृ० १०५ पं० ३१ । ३ प्र० प्र० पं० २२ । ४- मवायसं - गु० । ५-वस्थका - भां० । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मपरिमाणवादः। १३९ तरक्षणसत्तायाः प्रवेशादेकक्षणस्थायित्वमेव, न षट्क्षणस्थायित्वं बुद्धेः परपक्षे संभवति । भेदेतरपक्षाभ्युपगमे चानेकान्तसिद्धिः, षटूक्षणस्थानानन्तरं च निरन्वयविनाशे न ततः किञ्चित् कार्य संभवतीत्युक्तम् । न चैवं बुद्धिक्षणिकत्ववादिनः क्वचित् कालान्तरावस्थायित्वं सिध्यति, तद्रहणाभावात् । तथाहि-पूर्वकालबुद्धस्तदैव विनाशाद् नोत्तरकालेऽस्तित्वमिति ने तेन तया सांगत्यं कस्यचित् ५ प्रतीयते, अतिप्रसङ्गात् । उत्तरबुद्धेश्च पूर्वमसंभवाद् न पूर्वकालेन तत् तयाऽपि प्रतीयते । उभयत्रात्मनः सद्भावात् ततस्तत्प्रतीतिरित्यपि नोत्तरम्, आकाशसद्भावात् तत्प्रतीतिरित्यस्यापि भावात् । तस्याचेतनत्वाद् नेति चेत्, स्वयं चेतनत्वे आत्मनः स येन स्वभावेन पूर्व रूपं प्रतिपद्यते न तेनोत्तरम्। न हि नीलस्य ग्रहणमेव पीतग्रहणम्, तयोरभेदप्रसङ्गात्। अथान्येन स्वभावेन पूर्वमवगच्छति, अन्येनोत्तरमिति मतिस्तथा सत्यनेकान्तसिद्धिः। स्वयं चात्मनश्चेतनत्वे किमन्यया १० बुद्ध्या यस्याःक्षणिकत्वं साध्यते ? अथ स्वयं न चेतन आत्मा अपि तु बुद्धिसंबन्धाच्चेतयत इति, अत्राप्यचेतनस्वभावपरित्यागेऽनित्यता आत्मनोऽन्यबुद्धिकल्पनावैफल्यं च, स्वयमपि तत्संबन्धात् प्रागपि तथाविधस्वभावाविरोधात् । तत्संबन्धेऽपि तत्स्वभावापरित्यागे 'ज्ञानसंबन्धादात्मा चेतयते' इत्यपि विरुद्धमेव । अथ तत्समवायिकारणत्वात् चेतयते न स्वयं चेतनस्वभावोपादानादिति तर्हि येन स्वभावेन पूर्वज्ञानं प्रति समवायिकारणमात्मा तेनैव यद्युत्तरं १५ प्रति तथा सति पूर्वमेव तत्कार्य ज्ञानं सकलं भवेत; न ह्यविकले कारणे सति कार्यानत्पत्तिर्यता तस्याऽतत्कार्यत्वप्रसङ्गात् । अथ पूर्व सहकारिकारणाभावाद् न तत् कार्यम्, किं पुनः स्वयमसमर्थस्याकिञ्चित्करेण सहकारिणा? किश्चित्करत्वेऽपि यदि तत् ततो मिन्नं क्रियते प्रतिबन्धासिद्धिः अनवस्था वा। अभिन्नस्य करणेऽप्यात्मन एव करणमिति कार्यता। कथञ्चिदभिन्नस्य करणे तद्बुद्धिरपि ततः कथञ्चिदभिन्नेति नैकान्तेन तस्याः क्षणिकता । तदेवं पक्ष-हेतु-दृष्टान्तदोष-२० दुष्टत्वाद् नातोऽनुमानात् शब्दस्य क्षणिकत्वमिति सक्रियत्वं सिद्धम् , अतोऽपि द्रव्यत्वम् । गुणवत्त्वाच्च द्रव्यं शब्द:-'गुणवान् ध्वनिः, स्पर्शवत्त्वात्, यो यः स्पर्शवान् स स गुणवान् , यथा लोटादिः, तथा च ध्वनिः, तस्माद् गुणवान्' इति । स्पर्शवत्वाभावे कंसपाध्यादिध्वानाभिसंबन्धेन कर्णशष्कुल्याख्यस्य शरीरावयवस्याभिघातो न स्यात्, न ह्यस्पर्शवताऽऽकाशेनाभिसंबन्धात् तदभिघातो दृष्टः भवति च तच्छब्दाभिसम्बन्धे तदभिघातः, तत्कार्यस्य बाधिर्यस्य २५ प्रतीतेः। ननु स्पर्शवता शब्देन कर्णविवरं प्रविशता वायुनेव तद्वारलग्नतूलांऽशुकादेः प्रेरणं स्यात् , न; धूमेनानेकान्तात्-धूमो हि स्पर्शवान्, तदभिसम्बन्धे पांशुसम्बन्धवञ्चक्षुषोऽस्वास्थ्योपलब्धेः, न च तेन चक्षुष्प्रदेशं प्रविशता तत्पक्ष्ममात्रस्यापि प्रेरणमुपलभ्यते । न च स्पर्शवत्वे शब्दस्य वायोरिव प्रदेशान्तरेण ग्रहणप्रसङ्गः, धूमस्यापि चक्षुरादिप्रदेशव्यतिरिक्तशरीरप्रदेशेन ग्रहणप्रसक्तेः । धूमवचक्षुषा तस्य ग्रहणं स्यादिति चेत्, न; जलसंयुक्तेनानलेन व्यभिचारात्-३० तस्योष्णस्पर्शोपलम्भेऽपि चक्षुषा भास्वररूपानुपलम्भात् । अनुभूतत्वमुभयत्र समानम् । जलसहचरितेनाऽनलेनोष्णस्पर्शवता शरीरप्रदेशदाहवत् तथाविधेन शब्दसहचरितेन वायुना श्रवणाख्यशरीरावयवाभिघात इति चेत्, न; शब्देन तदभिघाते को दोषः येनेयमदृष्टपरिकल्पना समाधीयते? न च तस्य गुणत्वेन निर्गुणत्वात् स्पर्शाभावाद् न तदभिघातहेतुत्वमिति वक्तुं युक्तम्, चक्रकदोषप्रसङ्गात् । तथाहि-गुणत्वमद्रव्यत्वे, तदप्यस्पर्शत्वे, तदपि गुणत्वे, तदप्यद्रव्यत्वे, तदप्यस्पर्शत्वे, ३५ तदपि गुणत्व इति दुरुत्तरं चक्रकम् । शब्दाभिसम्बन्धान्वय-व्यतिरेकानुविधाने तदभिघातस्यान्यहेतुत्वकल्पनायां तत्रापि का समाश्वासः? शक्यं हि वक्तुम् न वाचभिसंबन्धात् तदभिघातः किन्त्वन्यतः, न ततोऽपि अपि त्वन्यत इत्यनवस्थाप्रसक्तिहेतूनाम् । तस्मात् सिद्धं स्पर्शवत्त्वाच्छब्दस्य गुणवत्वम्। अल्प-महत्त्वामिसंबन्धाच्च, स च 'अल्पः शब्दः महान् शब्दः' इति प्रतीतेः । न च शब्दे ४० मन्द-तीव्रताग्रहणम् इयत्तानवधारणात्-यथा द्रव्येषु 'अणुः शब्दोऽल्पो मन्दः' इत्येतस्य धर्मस्य मन्दत्वस्य ग्रहणम्, 'महान् शब्दः पटुस्तीवः' इत्येतस्य तीव्रत्वस्य धर्मस्य ग्रहणं न पुनः परिमाणस्य, १ न तस्य या सा-आ० । न तेन तस्य या सां-कां०, गु०। २ तत्संभवत्वेऽपि भां०, मां० । ३-न च त-गु०। ४-षु गुणः श-वा०, बा० । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० प्रथमे काण्डे इयत्तानवधारणातन हि अयं 'महान् शब्दः' इत्यवस्यन् 'इयान्'इत्यवधारयति यथा द्रव्यान्तरादि बदाऽऽमलक-बिल्वादीनि इति वक्तुं शक्यम्; यतो वक्तव्यमत्र का पुनरियं शब्दस्य मन्दता तीव्रता वा? अवान्तरजातिविशेषः, कथम् ? गुणवृत्तित्वात् शब्दत्ववत्। एतदेवोक्तं भगवता परमर्षिणीलूक्येन “गुणे भावाद् गुणत्वमुक्तम्" [वैशेषिकद० अ० १, आ० २, सू० १३] ५ अस्यायमर्थः-'यो यो गुणे वर्तते स स जातिविशेषः यथा गुणत्वमिति, असदेतत् यतः कथं शब्दस्य गुणत्वसिद्धिर्येन तत्र वर्तमानत्वाजातिविशेषत्वं मन्दत्वादेः? अद्रव्यत्वादिति चेत्, तदपि कथम् ? अल्प-महत्त्वपरिमाणाऽसंबन्धात्, सोऽपि गुणत्वात् । ननु तदेव पूर्वोक्तं चक्रकमेतत् । न गुणत्वात् तस्याल्प-महत्त्वपरिमाणासंबन्धं ब्रूमः-येनायं दोषः स्यात्-अपि तु द्रव्यान्तरवदियत्तानवधारणादिति चेत्, न; वायोरियत्तानवधारणेऽप्यल्प-महत्त्वपरिमाणसंबन्धसंभवादनेकान्तः, १०न हि विल्व-बदरादेरिव वायोरियत्ताऽवधार्यते । वायोरप्रत्यक्षत्वात् इयत्ता सत्यपि नावधार्यते, न शब्दस्य विपर्ययात्, न; उक्तमत्र 'स्पर्शविशेषस्य वायुत्वात् , तस्य च प्रत्यक्षत्वात्' इति । इयत्ता चेयं यदि परिमाणादन्या कथमन्यस्यानवधारणेऽन्यस्याभावः? न हि घटानवधारणे पटाभावो युक्तः। परिमाणं चेत् तर्हि 'इयत्तानवधारणात् परिमाणं नास्ति' इति किमुक्तम् ? परिमाणं नास्ति परिमाणानवधारणात् । तस्मिन्नल्प-महत्त्वपरिमाणावधारणे कथं न तदवधारणम् बिल्वादावपि १५ तत्प्रसङ्गात् ? मन्द-तीवामिसंबन्धादल्प-महत्त्वप्रत्ययसंभवे मन्दवाहिनि गङ्गानीरे 'अल्पमेतत्' इति प्रत्ययोत्पत्तिः स्यात्, तीव्रवाहिगिरिसरिन्नीरे 'महत्' इति च प्रतीतिप्रसङ्गः; न चैवम्, तस्मान्न मन्द-तीव्रतानिबन्धनोऽयं प्रत्ययः अपि त्वल्प-महत्त्वपरिमाणनिमित्तः; अन्यथा घटादावपि तन्निबन्धनो न स्यात् । घटादीनां द्रव्यत्वेन तन्निबन्धनत्वे परिमाणसंभवात् तत्प्रत्ययस्य शब्दस्यापि तथाविधत्वेन स तथाविधोऽस्तु, विशेषाभावात् । कारणगतस्याल्प-महत्त्वपरिमाणस्य शब्दे २० उपचारात् तथा संप्रत्यय इत्यपि वैलक्ष्यभाषितम्, घटादावपि तथा प्रसङ्गात् । अपरे मन्यन्ते "यथा अश्वजवस्य पुरुषे उपचारात् 'पुरुषो याति' इति प्रत्ययस्तथा व्यअकगतस्याल्प-महत्त्वादेः शब्दे उपचारात् 'शब्दोऽल्पो महान्' इति च व्यपदेशः", तदप्यसारम् शब्दाभिव्यक्तेरपौरुषेयत्वनिराकरणे प्रतिषिद्धत्वात् । ततो घटादाविवाल्प-महत्त्वपरिमाणसंबन्धः पारमार्थिकः शब्दे इति सिद्धं गुणवत्त्वम्। २५ संयोगाश्रयत्वाच, तदपि वायुनाऽभिघातदर्शनात्-संयुक्ता एव हि पांश्वादयो वायुनाऽन्येन वाऽमिहन्यमाना दृष्टाः, तेन च तदभिघातः पाश्वादिवदेव देवदत्तं प्रत्यागच्छतः प्रतिकुलेन वायुना प्रतिनिवर्तनात्, तदप्यन्यदिगवस्थितेन श्रवणात् । ननु गन्धादयो देवदत्तं प्रत्यागच्छन्तस्तेन निवर्त्यन्ते, न च तेषां तेन संयोगः निर्गुणत्वात् गुणत्वेन, न तद्वतो द्रव्यस्यैव तेन निवर्तनम्, केवलानां तेषामागमन-प्रतिनिवर्तनाऽसंभवात् निष्क्रियत्वेनोपगमात् । केवलागमन-प्रतिनिव३०र्तनसंभवे वा द्रव्याश्रितत्वमेतेषां गुणलक्षणं व्याहन्येत । न चात्रापि तद्वतो निवर्तनम्, आकाशस्यामूर्तत्व-सर्वगतत्वेन तदसंभवात् अन्यस्य चानभ्युपगमात् । तस्माच्छब्द एव तेन संयुज्यते साक्षादित्यभ्युपेयम् । गुणत्वेन चासंयोगे चक्रकमुक्तम् । न चासंयुक्तस्यैव तेन निवर्तनम् , सर्वस्य निवर्तनप्रसङ्गात् । प्रतिक्षणं शब्दाच्छब्दोत्पत्तिः पूर्वमेव निरस्ता। एकादिसंख्यासंबन्धित्वाच्च गुणवत्त्वम्, तदपि 'एकः शब्दः द्वौ शब्दौ बहवः शब्दाः' इति ३५प्रत्ययदर्शनात् । न चाधारसंख्यायास्तत्रोपचारात् तथा व्यपदेश इति वक्तुं युक्तम्, आकाशस्या धारत्वाभ्युपगमात् तस्य चैकत्वात् 'एकः शब्दः' इति सर्वदा प्रत्ययप्रसङ्गात्। कारणमात्रस्य संख्योपचारे 'बहवः' इति प्रत्ययः स्यात्, तस्य बहुत्वात् । विषयसंख्योपचारे 'गगनाऽऽकाशव्योम'शब्दा बहुव्यपदेशभाजो न स्युः, गगनादिलक्षणस्य विषयस्यैकत्वात्, पश्वादिलक्षणस्य विषयस्य बहुत्वात् 'एको गोशब्दः' इति स्वप्नेऽपि प्रत्ययः व्यपदेशो वा न स्यात् । यथाऽविरोधं ४०संख्योपचार इति बालजल्पितम्, स्वयं संख्यावत्तयैवाविरोधात् । अत्रापि गुणत्वं विरुभ्यत इति १ पृ० १३१ पं० ३५ । २ पृ० १३५ पं० २०। ३ पृ. ३४ पं० ३३ । ४-तद्धेतोड़-वि०, कां० । ५-तद्धेतोनि-वि०, कां०। ६ पृ० १३९५०३५। ७ पृ० १३६ पं० २७। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ आत्मपरिमाणवादः । न वक्तव्यम्, इष्टत्वात् । ततः क्रियावत्त्वाद् गुणवत्त्वाश्च शब्दो द्रव्यम् इत्यसिद्धं 'प्रतिषिध्यमानद्रव्यभावे' इति हेतु विशेषणम् । ननुतं 'शब्दो न द्रव्यम्, एकद्रव्यत्वात्, रूपादिवत्' इति । सत्यम्, उक्तम् किन्तु नोतिमात्रेण तत् सिध्यति, अतिप्रसङ्गात् । 'एकद्रव्यत्वात्' इति च तत्र हेतुरसिद्धः । तथाहियदि 'एकं द्रव्यं संयोगि अस्येत्येकद्रव्यः शब्दः' इत्येकद्रव्यत्वं हेतुत्वेनोपादीयते तदा विरुद्धो हेतु:, ५ संयोगित्वस्य द्रव्य एव भावात् । अथ 'एकं द्रव्यं समवायि अस्य इत्येकद्रव्यस्तद्भाव एकद्रव्यत्वम्' तदाऽसिद्धो हेतुः समवायस्य निषिद्धत्वात् निपेत्स्यमानत्वाश्च-अभावेनैकद्रव्यसमवायित्वस्यासि - द्धत्वात् । अपि च, गुणत्वे सिद्धे गगने एकत्र समवायेन तस्य वृत्तिः सिध्यति, तत्सिद्धेश्व द्रव्यत्वनिषेधे सति गुणत्वसिद्धिरितीतरेतराश्रयत्वम् । यत् पुनरुक्तम् 'एकद्रव्यः शब्दः, सामान्यविशेषवत्त्वे सति बाह्यैकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्, १० रूपादिवत्' इति, तदपि प्रत्यनुमानेन बाधितम् - अनेकद्रव्यः शब्दः, अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति स्पर्शवत्वात् घटादिवत् । स्पर्शवत्त्वं साधितंत्वाद् नासिद्धम् । 'स्पर्शवत्त्वात्' इत्युच्यमाने परमा णुभिरनेकान्त इति तन्निरासार्थम् 'अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति' इति विशेषणोपादानम् । 'अस्मदादिप्रत्यक्षत्वात्' इत्युच्यमाने रूपादिभिर्व्यभिचार इत्युभयमुक्तम् । तथा सामान्य विशेषवत्त्वे सति बाह्यकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वेऽपि वायुर्नैकद्रव्य इति व्यभिचारश्च, १५ तस्य तदप्रत्यक्षत्वेन किञ्चिद् बाह्येन्द्रियप्रत्यक्षं स्यात् । दर्शन-स्पर्शनग्राह्यं घटादिकं तदिति चेत्, न; वायुना कोऽपराधः कृतः येन स्पर्शनेन्द्रियग्राह्यत्वेऽपि प्रत्यक्षो न भवेत् ? स्पर्श एव तेन प्रतीयते इति चेत् तर्हि दर्शन - स्पर्शनाभ्यामपि रूप - स्पर्शावेव प्रतीय ( ये ) ते इति न द्रव्यप्रत्यक्षता नाम | अथ 'यदेवाहमद्राक्षं तदेव स्पृशामि' इति प्रतीतेस्तत्प्रत्यक्षता, 'खरो मृदुरुष्णः शीतो वायुर्मे लगति' इति प्रतीतेस्तत्प्रत्यक्षता कल्प्यताम्, अविशेषात् । चक्षुषैकेन चास्मदादिभिः प्रतीयमाना- २० चन्द्रादयः सामान्यविशेषवत्त्वेऽपि नैकद्रव्याः । अस्मदादिविलक्षणैर्बाह्येन्द्रियान्तरेण तत्प्रतीत शब्देऽपि तथा प्रतीतिः किं न स्यात् ? अत्र तथाऽनुपलम्भोऽन्यत्रापि समानः । 'देशान्तरे कालान्तरे सवान्तरे च बाह्यैकेन्द्रियग्राह्यः शब्दः, बाह्येन्द्रियग्राह्यत्वे सति विशेषगुणत्वात्, रूपादिवत्' इति चेत्, असदेतत् शब्दस्य गुणत्वेन निषिद्धत्वात् 'विशेषगुणत्वात्' इति हेतुरसिद्धः । चन्द्रादेरस्मदाद्यप्रत्यक्षत्वे प्रतीतिविरोधः इत्यास्तामेतत् । २५ 'सत्तासंबन्धित्वात्' इत्यत्र च यदि 'स्वरूपसत्ता संबन्धित्वात्' इति हेतुस्तदाऽनैकान्तिकः सामान्य - समवायादिभिः, एषां प्रतिषिध्यमानद्रव्य - कर्मभावे सति तथाभूतसत्तासंबन्धित्वेऽपि गुणत्वासिद्धेः । न च सामान्यादेः स्वरूपसत्ताभावः, खरविषाणा देर विशेषप्रसङ्गादिति प्रतिपादितत्वात् । अथ 'भिन्नसत्ता संबन्धित्वात्' इति हेतुस्तदाऽसिद्धः, भिन्नसत्ताऽभावेन खरविषाणादेरिव शब्दस्यापि तत्संबन्धिन्वाऽसिद्धेः । यत्तु भिन्नसत्ता सद्भावे तत्संबन्धात् सत्प्र- ३० त्ययैविषेयत्वे च शब्दादेः प्रयोगद्वयमुपन्यस्तम् । तत्र यदेव चेतनस्य सत्वं तदेव यद्यचेतनस्यापि स्यात् तदा चेतनाचेतनेषु सत्प्रत्ययविषयत्वात् स्याद् भिन्नसत्तासंवन्धित्वम्, न च यदेव चेतनस्य सत्वं तदेवा चेतनस्य, तत्सदृशस्याऽपरस्यान्यत्र भावादिति सदृशपरिणामलक्षणं सामान्यं प्रतिपादयिष्यन्तो निर्णेष्यामः । तदेवं शब्दस्य गुणत्वासिद्धेः नित्यत्वे सत्यस्मदाद्युपलभ्यमानगुणाधिष्ठानत्वासिद्धेरम्बरस्य, साधनविकलो दृष्टान्त इति स्थितम् । एतेनेदमपि प्रत्युक्तम् 'ज्ञानं परममहत्वोपेतद्द्रव्यसमवेतम्, विशेषगुणत्वे सति प्रदेशवृत्तित्वात्, शब्दवत्' । अत्रापि ज्ञानस्य परममहत्त्वोपेतद्रव्यसमवेतत्वे सति ततः शब्दस्य तत्सिद्धिः, तत्सिद्धेश्व ज्ञानस्य परममहत्त्वोपेतद्रव्यसमवेतत्व सिद्धिरितीतरेतराश्रयदोषः । न च दृष्टान्तान्तरमस्ति यतोऽन्यतरप्रसिद्धेरयमदोषः स्यात् । ज्ञानस्य चात्मनोऽव्यतिरेकित्वे तयापित्वम्, 'यद् यस्मादव्यतिरिक्तं तत् तत्स्वभावं यथाऽऽत्मस्वरूपम्, आत्माऽव्यतिरिक्तं चैतत् ततस्तद्यापि' इति न ४० ५ पृ० १ पृ० १३६ पं० १२ । २ पृ० १३४ पं० ४ ॥ ३ पृ० १०६ पं० १० । ४ पृ० १३४ पं० ६ । १३९ पं० २३ । ६- यमान इ-गु० । ७ पृ० १३६ पं० १४ । ८ पृ० ११० पं० २१ । ९-द्भावासद्भावे त - वि० । १०- यत्वे च गु०, भा० । ११ - षयाविषयत्वे च वि० । षयविषयत्वे च कां० । १२ पृ० १३४ पं० १७ - २० । ३५ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ प्रथमे काण्डेप्रदेशवृत्तित्वम् । तथापि तवृत्तित्वे शानेतरस्वभावतयाऽऽत्मनः अनेकान्तसिद्धिः । व्यतिरेके आत्मगुणत्ववदन्यगुणत्वस्याप्यप्रतिषेधाद् विशेषगुणत्वासिद्धिः । व्यतिरेकाविशेषेऽप्यात्मन एवं गणो ज्ञानं नाकाशादेरिति किंकृतोऽयं विशेषः ? समवायकृत इति चेत्, नः तस्यापि ताभ्यामर्थान्तरत्वे तदवस्थो दोषः, व्यतिरेके समवायस्य सर्वत्राविशेषाद् न ततोऽपि विशेषः । ५अव्यतिरेके तस्यैव अभाव इति न ततो विशेषः । न च समवायः संभवति इति प्रतिपादितम् । न चात्मनो व्यापित्वे नित्यत्वे च ज्ञानादिकार्यकारित्वमपि संभवति। तन्न तत्कार्यत्वादपि तद्विशेषगुणो ज्ञानम् । न चात्मनः प्रदेशाः सन्ति येन प्रदेशवृत्तित्वं ज्ञानस्य सिद्धं स्यात् । कल्पिततत्प्रदेशाभ्युपगमे च तवृत्तित्वमपि हेतुः कल्पित इति न कल्पितात् साधनात् साध्यसिद्धिर्युक्ता, सर्वतः सर्वसिद्धिप्रसङ्गात् । सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वं च हेतोः विपर्यये बाधकप्रमाणावृत्त्याऽत्रापि १० समानमिति । __ तथा, स्वदेहमात्रव्यापकत्वेन हर्ष-विषादाद्यनेकविवर्तात्मकस्य 'अहम्' इति स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धत्वादात्मनो विभुत्वसाधकत्वेनोपन्य स्यमानः सर्व एव हेतुः प्रत्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टः । सप्रतिपक्षश्चायं हेतुरित्यसत्प्रतिपक्षत्वमप्यस्य लक्षणमसिद्धम् । स्वदेहमात्रात्मप्रसाधकश्च प्रतिपक्षहेतुरत्रैव प्रदर्शयिष्यते । तन्नातोऽपि हेतोरात्मनो विभुत्वसिद्धिः। १५ यदप्यात्मनो विभुत्वसाधनं कैश्चिदुपन्यस्तम्-"अदृष्टं स्वाश्रयसंयुक्ते आश्रयान्तरे कर्म आरभते, एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुगुणत्वात् , यो य एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुगुणः स स स्वाश्रयसंयुक्त आश्रयान्तरे कर्म आरभते यथा वेगः, तथा चादृष्टम् , तस्मात् तदपि स्वाश्रयसंयुके आश्रयान्तरे कर्म आरभने इति । न चासिद्धं क्रियाहे तुगुणत्वम्, 'अग्नेरू ज्वलनम्, वायोस्तिर्यपवनम्, अणु-मनसोश्चाद्यं कर्म देवदत्तविशेषगुणकारितम् , कार्यत्वे सति देवदत्तस्योप२० कारकत्वात्, पाण्यादिपरिस्पन्दवत्, एकद्रव्यत्वं चैकस्यात्मनस्तदाश्रयत्वात्, एकद्रव्यमदृष्टम्, विशेषगुणत्वात् , शब्दवत्' । 'एक द्रव्यत्वात्' इत्युच्यमाने रूपादिमिळमिचारस्तन्निवृत्त्यर्थम् 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' इत्युक्तम् । 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' इत्युच्यमाने मुशलहस्तसंयोगेन स्वाश्रयाऽ. संयुक्तस्तम्भादिचलनहेतुना व्यभिचारः, तन्निवृत्त्यर्थम् 'एकद्रव्यत्वे सति' इति विशेषणम् । 'एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुत्वात्' इत्युच्यमाने स्वाश्रयासंयुक्तलोहादिक्रियाहेतुनाऽयस्कान्तेन २५व्यभिचारः, तन्निवृत्त्यर्थम् ‘गुणत्वात्' इत्यभिधानम्" [ ] एतदपि प्रत्यक्षबाधिनप्रति ज्ञासाधकत्वेन एकशाखाप्रभवन्वानुमानवदनुमानाभासम् । 'एकद्रव्यत्वे' इति च विशेषणं किमेकस्मिन् द्रव्ये संयुक्तत्वान्, उत तत्र समवायात् ? तत्र यद्याद्यः पक्षः, स न युक्तः; संयोगगुणेनादृष्टस्य गुणवत्त्वाद द्रव्यत्वप्रसक्तेः 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' इत्येतस्य बाधाप्रसङ्गात् । अथ द्वितीयः तदा द्रव्येण सह कथञ्चिदेकत्वमदृष्टस्य प्राप्तम्, न ह्यन्यस्यान्यत्र ३० समवायः, घट रूपादिषु तस्य तथाभूतस्यैवोपलब्धेः। न हि घटाद् रूपादयः, तेभ्यो वा घटः, तटस्तरालवर्ती समवायश्च भिन्नः प्रतीतिगोचरः, अपि तु कथञ्चिद् रूपाद्यात्मकाश्च घटादयः तदात्मकाश्च रूपादयः प्रतीतिगोचरचारिणोऽनुभूयन्ते; अन्यथा गुण-गुणिभावेऽतिप्रसङ्गादू घटस्यापि रूपादयः परस्य स्युः। तेषां तत्राप्यप्रतीतेरितरेषां तु प्रतीतेः' इत्यादिकं प्रतिविहित. त्वाद् नात्रोद्घोष्यम् । तेन समवायेनैकत्रात्मनि वर्तनाददृष्टस्यैकद्रव्यत्वं वादि-प्रतिवादिनोरसिद्धम् , ३५एकान्तभेदे समवायाभावेनैकद्रव्यत्वस्या सिद्धेः । अथ गुणिनो गुणानामनन्तरत्वे गुण-गुणिनोरन्यतर एव स्यात्, अर्थान्तरत्वे परपक्ष एव समर्थितः स्यादिति समवायः सिद्धः । कथञ्चिद्वादोऽपि न युक्तः अनवस्थादिदोषप्रसङ्गात्, अयुक्तमेतत् पक्षान्तरेऽप्यस्य समानत्वात् । तथाहि-द्वित्वसंख्या-संयोगादिकमनेकेन द्रव्येणाभिसंबध्यमानं यदि सर्वात्मनाऽभिसंबध्यते द्वित्वसंख्यादिमात्रम् द्रव्यमानं वा स्यात्, एकेनैव ४०वा द्रव्येण सर्वात्मनाऽभिसंबन्धाद् न द्रव्यान्तरेण तत्प्रतीतिः। अथैकेन देशेनैकत्र वर्ततेऽन्येनाs स्यादिति समवाय तथाहि-द्वित्वसवावा स्यात्, एकन १ पृ० १०६ पं० १०। २ स्तम्भादौ दृढसंलग्नं किमपि द्रव्यं हस्तेनाऽऽकृष्ण ततो विभज्यमानं तस्यैव स्तम्भादेश्चलननिमित्तीभवति इत्यनुभवसिद्धम् । ३-ख्यायोगा-वा०, बा. विना। ४ सर्वेणात्म-वा०, बा०, आ०, वि.। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मपरिमाणवादः । १४३ न्यत्र, तेsपि देशा यदि ततो भिन्नास्तेष्वपि स तथैव वर्तते इत्यनवस्था । अभिनाश्चेत् उक्तो दोषः । कथञ्चित्पक्षे परवाद एव समर्थितः स्यादित्यात्मना सहादृष्टस्य कथञ्चिदनन्यभाव एव एकद्रव्यत्वमित्यविभुत्वाद् गुणानां तदव्यतिरिक्तस्यात्मनोऽप्यविभुत्वमिति विपक्षसाधकत्वादेकद्रव्यत्वलक्षणस्य हेतु विशेषणस्य विरुद्धत्वम् । 'क्रिया हेतुगुणत्वात्' इत्यत्रापि यदि देवदत्तसंयुक्तात्मप्रदेशे वर्तमानमदृष्टं द्वीपान्तरवर्तिषु ५ मुक्ताफलादिषु देवदत्तं प्रत्युपसर्पणवत्सु क्रियाहेतुः, तदयुक्तम्; अतिदूरत्वेन द्वीपान्तरवर्तिभिस्तैस्तस्यानभिसंबन्धित्वेन तत्र क्रियाहेतुत्वायोगात्, तथापि तद्धेतुत्वे सर्वत्र स्यात्, अविशेषात् । अथानभिसंबन्धाविशेषेऽपि यदेव योग्यं तदेव तेनाकृष्यते न सर्वमिति नातिप्रसङ्गः, न चक्षुषोऽ. प्राप्यकारित्वेऽपि यदेव योग्यं तदेव तद्राह्यमिति यैदुक्तं परेण - "अप्राप्यकारित्वे चक्षुषो दूव्यवस्थितस्यापि ग्रहणप्रसङ्गः " [ ] इत्ययुक्तं स्यात् । अथ स्वाश्रयसंयोग- १० संबन्धसम्भवात् 'अनभिसम्बन्धात्' इत्यसिद्धम् । तथाहि यमात्मानमाश्रितमदृष्टं तेन संयुक्तानि देशान्तरवर्तिमुक्ताफलादीनि देवदत्तं प्रत्याकृष्यमाणानि, नः सर्वस्याऽऽकर्षणप्रसङ्गात् तेनाभिसम्बन्धाविशेषात् । न च यददृप्रेन यज्जन्यते तत् तेनाकृष्यत इति कल्पना युक्तिमती, देवदत्तशरीरारम्भकपरमाणूनां तददृष्टजन्यत्वेनानाकर्षणप्रसङ्गात् तथाप्याकर्षणेऽतिप्रसङ्गः प्रतिपादितें एव । यथा च कारणत्वाविशेषे घटदेशादौ सन्निहितमेव दण्डादिकं घटादिकार्यं जनयति अदृष्टं १५ त्वन्यथेत्यभ्युपगमस्तथा बाह्येन्द्रियत्वाविशेषेऽपि त्वगिन्द्रियं प्राप्तमर्थमवभासयति लोचनं त्वन्यथेत्यभ्युपगमः किं न युक्तः ? नापि द्वीपान्तरवर्तिमुक्तादिसंयुक्तात्मप्रदेशे वर्तमानं तं प्रत्युपसर्पण हेतुः, विकल्पानुपपत्तेः । तथाहि - यथा वायुः स्वयं देवदत्तं प्रत्युपसर्पणवान् अन्येषां तृणादीनां तं प्रत्युपसर्पणहेतुस्तथा मपि तं प्रत्युपसर्पत् स्वयमन्येषां तं प्रत्युपसर्पणहेतुः, तथा सत्यदृष्टस्येव मुक्तादेरपि तथैव २० तं प्रत्युपसर्पणाविरोधाद् व्यर्थमदृष्टपरिकल्पनम् । तथाभ्युपगमे च 'यद् देवदत्तं प्रत्युपसर्पति तद् देवदत्तगुणाकृष्टं तं प्रत्युपसर्पणात्' इति हेतुरनैकान्तिकः अदृष्टेनैव । वायुवश्च सक्रियत्वमदृष्टस्य गुणत्वं बाधते । शब्दवच्चापरापरस्योत्पत्तावपरमदृष्टं निमित्तकारणं तदुत्पत्तौ प्रसक्तम्, तत्राप्यपरमित्यनवस्था; अन्यथा शब्देऽपि किमदृलक्षण निमित्त परिकल्पनया ? अदृष्टान्तरात् तथ्य तं प्रत्युपसर्पणे तद्यदृशन्तरं तं प्रत्युपसर्पत्यदृष्टान्तरात्, तदपि तदन्तरादित्यनवस्था । २५ अथ तत्रस्थमेव तत् तेषां तं प्रत्युपसर्पणे हेतु:, तदपि न युक्तम्; अन्यत्र प्रयत्नादावात्मगुणे तथाsदर्शनात् न हि प्रयत्नो ग्रासादिसंयुक्तात्मप्रदेशस्थ एवं हस्तादिसंचलन हेतुर्ग्रासादिकं देवदत्तमुखं प्रति प्रापयन् दृष्टः, अन्तरालप्रयत्नवैफल्यप्रसङ्गात् । अथ प्रयत्नवैचित्र्यदृष्टेरदृष्टेऽप्य न्यथा कल्पनम् । तथाहि कश्चित् प्रयत्नः स्वयमपरापरदेशवान परत्र क्रिया हेतुर्यथाऽनन्तरोदितः; अपरश्चान्यथा यथा शरासनाऽध्या संपदसंयुक्तात्मप्रदेशस्थ एव शरीरा (शरा) दीनां लक्ष्य प्रदेशप्राप्ति - ३० क्रिया हेतुः । यद्येवम्, इयं चित्रता एकद्रव्याणां क्रिया हेतुगुणानां स्वाश्रयसंयुक्तासंयुक्तद्रव्य क्रिया हेतुत्वेन किं नेष्यते विचित्रशक्तित्वाद् भावानाम् ? तथाऽप्रेरिति नोत्तरम्, अयस्कान्तभ्रामक स्पर्शगुणस्यैकद्रव्यस्य स्वाश्रयाऽसंयुक्त लोहद्रव्य क्रिया हेतुत्वेऽप्याकर्षकाख्यद्रव्यविशेषव्यवस्थितस्य तथाविधस्यैव तस्य स्वाश्रयसंयुक्तलोहद्रव्य क्रिया हेतुत्वदर्शनात् । अथ द्रव्यं क्रियाकारणम् न स्पर्शादिगुणः, द्रव्यरहित क्रिया हेतुत्वादर्शनात्, नः वेगस्य क्रियाहेतुत्वम्, क्रियायाश्च संयोगनिमित्तत्वम् तस्य ३५ च द्रव्यकारणत्वं तत एव न स्यात्, तथा च 'वेगवत्' इति दृष्टान्तासिद्धिः । अथ द्रव्यस्य तत्कारणत्वे वेगादिरहितस्यापि तत्प्रसक्तिः, स्पर्शादिरहितस्यायस्कान्तस्यापि स्पर्शस्याकारणत्वेऽन्यत्र क्रिया हेतुत्वप्रसक्तिः । तद्रहितस्य तस्यादृष्टेर्नायं दोषस्तर्हि लोहद्रव्य क्रियोत्पत्तावुभयं दृश्यत इत्युभयं तदस्तु, अविशेषात् । एवं सति 'एकद्रव्यत्वे सति क्रिया हेतुगुणत्वात्' इति व्यभिचारी हेतुः । १- ष्वपि तथै- गु० । २ अस्य परकीयवाक्यस्य आशयः न्यायवार्तिके पृ० ३३० २४ । ३ - कारि च - वि० । ४० प्र० पृ० पं० १२। ५- स एव सं- वि० । ६ अत्र स्थले प्रमेयकमलमार्तण्डेऽपि " यथा शरासनाध्यासपदसंयुक्तारमप्रदेशस्थ एव शरीरादीनां लक्ष्य प्रदेशप्राप्तिहेतुरिति" इत्येव पाठः पृ० १७२ द्वि०, पं० १५ । तथापि ' शरादीनाम् ' इति सम्यग् भाति, वि० प्रतावपि संशोधितः पाठः तथैव उपलभ्यते । अयस्कान्तगतो यो भ्रामकः स्पर्शगुणस्तस्येत्यर्थः । ८- स्य तस्य क्रि-कां० । ९ अ ' तर्हि ' पदमध्याहार्यम् । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - एतेन यदुक्तं परेण - "अदृष्टमेवायस्कान्तेनाकृष्यमाणलोहदर्शने सुखवत्पुंसो निःशल्यत्वेन तत्क्रियाहेतुः " [ ] इति तन्निरस्तम्, सर्वत्र कार्यकारणभावेऽस्य न्यायस्य समानत्वात् अदृष्टमेव कारणं स्यात् यस्य शरीरं सुखं दुःखं चोत्पादयति तददृष्टमेव तत्रं हेतुरिति न तदारम्भकावयवक्रिया संयोगादयः । अपि च तददृस्य कथं तद्धेतुत्वम् ? तस्य भावे भावादभावेऽमा५वादिति चेत् किं पुनरयस्कान्तस्पर्शाद्यभाव एव तत्क्रिया दृष्टा येनैषां तत्र कारणत्वाक्लृप्तिः १ ततो न दृष्टानुसारेण तत्रस्थस्यैवादृष्टस्य तं प्रति तत्क्रियाहेतुत्वम् । प्रयत्नवैचित्र्याभ्युपगमे च तोरनैकान्तिकत्वम् । १४४ अथ सर्वत्रादृस्य वृत्तिस्तर्हि सर्वद्रव्य क्रियाहेतुत्वम् । यददृएं यद् द्रव्यमुत्पादयति तत् तत्रैव क्रियामुपरचयतीत्यभ्युपगमे शरीरारम्भकेषु परमाणुषु ततः क्रिया न स्यादित्युक्तम् । न च गुणत्व१० मप्यदृष्टस्य सिद्धमिति 'क्रिया हेतुगुणत्वान्' इत्यसिडो हेतुः । अथ 'अदृएं गुणः, प्रतिषिध्यमानद्रव्य कर्मभावे सति सत्तासंबन्धित्वात्. रूपादिवत्' न च प्रतिषिध्यमानद्रव्यत्वमसिद्धम् । तथाहि'न द्रव्यमदृष्टम्, एकद्रव्यत्वात् रूपादिवत्' इति असदेतत् एकद्रव्यत्वस्यासिद्धताप्रतिपादनात्, सत्तासंबन्धित्वस्य चेति । यदपि तद्गुणत्वसाधनमुक्तम् 'देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्तः पश्वादयो देवदत्तविशेषगुणाकृष्टाः तं प्रत्युपसर्पणवत्त्वात् ग्रामादिवत् इति, तदप्ययुक्तम्: यतो यथा तद्विशेष१५ गुणेन प्रयत्नाख्येन समाकृशस्तं प्रत्युपसर्पन्तो ग्रासादयः समुपलभ्यन्ते तथा नयनाञ्जनादिद्रव्यविशेषेणापि समाकृष्टाः स्यादयस्तं प्रत्युपसर्पन्तः समुपलभ्यन्ते एव ततः किं प्रयत्नसधर्मणा केनचिदाकृष्टाः पश्वादयः, उत नयनाञ्जनादिसधर्मणा' इति संदेहः, शक्यते ह्येवमनुमानमारचयितुं परेणापि - ' नयनाञ्जनादिसधर्मणा विवादगोचरचारिणः पश्वादयः समाकृशः देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्ति, तं प्रत्युपसर्पणवत्वात् स्त्र्यादिवत् । अथ तदभावेऽपि प्रयत्नादपि तद्प्रेरनैकान्तिकत्वम्, २९ प्रयत्नसधर्मणो गुणस्याभावेऽप्यञ्जनादेरपि तद्प्रेर्भवदीयहेतोरनैकान्तिकत्वम् । न चात्रानुमीयमानस्य प्रयत्नसधर्मणो हेतोः सद्भावादव्यभिचारः, अन्यत्राप्यञ्जनादिसधर्मणोऽनुमीयमानस्य सद्भावेनाव्यभिचारप्रसङ्गात् । तत्र प्रयत्नसामर्थ्यादस्य वैफल्ये ऽन्यत्राप्यञ्जनादिसामर्थ्याद् वैफल्यं समानम् । अथाअनादेरेव तद्धेतुत्वे सर्वस्य तद्वतः ख्याद्याकर्षणप्रसक्तिः, न चाञ्जनादौ सत्यप्यविशिष्टे तद्वतः सर्वान् प्रति तदागमनम्, ततोऽवसीयते तदविशेषेऽपि यद्वैकल्यात् तन्नेति तदपि कारणम् नाञ्ज२५ नादिमात्रम्' इति । तदेतत् प्रयत्नकारणेऽपि समानम्ः न हि सर्व प्रयत्नवन्तं प्रति ग्रासादय उपसर्पन्ति तदपहारादिदर्शनात् । ततोऽत्राप्यन्यत् कारणमनुमीयताम् ः अन्यथा न प्रकृते ऽपि, अविशेषात् । ततः प्रयत्नवदञ्जनादेरपि तं प्रति तदाकर्षणहेतुत्वात् कथं न संदेहः ? अञ्जनादेः रुयाद्याकर्षणं प्रत्यकारणत्वे गन्धादिवत् तदर्थिनां न तदुपादानम् । न च दृष्टसामर्थ्यस्याप्यञ्जनादेः कारणत्वक्लृप्तिपरिहारेणान्यकारणत्वकल्पने भवतोऽनवस्थामुक्तिः । अथाञ्जनादिकमदृष्टसहकारित्वात् ३० तत्कारणं न केवलमितिः नन्वेवं सिद्धमदृष्टवदनादेरपि तत्र कारणत्वम्, ततः संदेह एव 'किं ग्रासादिवत् प्रयत्नसधर्मणाऽऽकृष्टाः पश्वादयः, किं वा रुयादिवदञ्जनादिसधर्मणा तत्संयुक्तेन द्रव्येण' इति संदिग्धं 'गुणत्वात्' इत्येतत् साधनम् । सपरिस्पन्दात्मप्रदेशमन्तरेण ग्रासाद्याकर्षणहेतोः प्रयत्नस्यापि देवदत्तविशेषगुणस्य परं प्रत्य सिद्धत्वात् साध्यविकलता चात्र दृष्टान्तस्य । यच्च यद् देवदत्तं प्रत्युपसर्पति' इत्युक्तं तत्र कः पुनरसौ देवदत्तशब्दवाच्यः ? यदि शरीरम्, ३५ तदा शरीरं प्रत्युपसर्पणात् शरीरगुणाकृष्टाः पश्वादय इत्यात्मविशेषगुणाकृष्टत्वे साध्ये शरीरगुणाकृष्टत्वस्य साधनाद् विरुद्धो हेतुः । अथात्मा, तस्य समाकृष्यमाणपदार्थदेश-कालाभ्यां सदाऽभिसंबन्धाद् न तं प्रति कस्यचिदुपसर्पणम्, अन्यदेशं प्रत्यन्यदेशस्योपसर्पणदर्शनात् अन्यकालं प्रत्यन्यकालस्य च यथाङ्कुरं प्रत्यपरापरशक्तिपरिणाम प्राप्तेर्बीजादेः । न चैतदुभयं नित्यव्यापित्वाभ्यामात्मनि सर्वत्र सर्वदा सन्निहिते संभवति अतो 'देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्तः' इति धर्मिविशेषणम्, ४० 'देवदत्त गुणाकृष्टाः' इति साध्यधर्मः, 'देवदत्तं प्रत्युपसर्पणवत्त्वादू' इति साधनधर्मः परस्य स्वयं'चिरचितमेव । न च शरीरसंयुक्त आत्मा सः, तस्यापि नित्यव्यापित्वेन तत्र सन्निधानेनानिवार १ - यस्यास - वा०, बा० । १४१ पं० २९ । ६ पृ० १३७ विरचि- मां०, भां० । २ - त्राहे - वा०, बा० । ३ पृ० १४३ पं० १४ । ४ पृ० १४१ पं० ४ । ५ पृ० ३५ । ७ पृ० १३७ पं० ३६ । ८-रूपविधिरचि-वा०, बा० । ९-चि Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मपरिमाणवादः। १४५ णात्; न हि घटयुक्तमाकाशं मेर्वादौ न सन्निहितम् । अथ शरीरसंयुक्त आत्मप्रदेशो देवदत्तः, स काल्पनिकः, पारमार्थिको वा? काल्पनिकत्वे 'काल्पनिकात्मप्रदेशगुणाकृष्टाः पश्वादयः, तथाभूतात्मप्रदेशं प्रत्युपसर्पणवत्त्वात्' इति तद्गुणानामपि काल्पनिकत्वं साधयेत् । तथा च सौगतस्येव तहुणकृतः प्रेत्यभावोऽपि न पारमार्थिकः स्यात्, न हि कल्पितस्य पावकस्य रूपादयः तत्कार्य वा दाहादिकं पारमार्थिक दृष्टम् । पारमार्थिकाश्चेदात्मप्रदेशाः, तेऽपि यदि ततोऽभिन्नास्तदात्मैव ते ५ इति न पूर्वोक्तदोषपरिहारः। भिन्नाश्चेत् तर्हि तद्विशेषगुणाकृष्टाः पश्वाय इति तेषामेवात्मत्वप्रसक्तिरित्यन्यात्मपरिकल्पना व्यर्था । तेषां च न द्वीपान्तरवर्तिभिर्मुक्तादिभिः संयोग इति 'अदृष्टं स्वाश्रयसंयुक्तेऽन्यत्र क्रियाहेतुः' इति व्याहतम् । संयोगे वा आत्मवत् इत्यनिवृत्तो व्याघातः । अथ तेषामप्यपरे शरीरसंयुक्ताः प्रदेशाः देवदत्तशब्दवाच्याः, तत्राप्यनन्तरदूषणमनवस्थाकारि । अथात्मानमन्तरेण कस्य ते प्रदेशाः स्युरिति तत्प्रदेश्यपर आत्मेत्यभ्युपगमनीयम् । नन्वर्थान्तरभूतत्वे १० आत्मनः कथं 'तस्य ते' इति व्यपदेशः? अथ तेषु तस्य वर्तनात् तथा व्यपदेशः, न सदेतत्; तथाऽभ्युपगमेऽवयविपक्षभाविदूषणावकाशात् । यथा च तेषां सदूषणत्वं तथा प्रतिपादितम प्रतिपादयिष्यते चेत्यास्तां तावत् । तन्न परस्य देवदत्तशब्दवाच्यः कश्चिदस्ति यं प्रत्युपसर्पणवन्तः पश्वादयः स्वक्रियाहेतोर्गुणत्वं साधयेयुः । अतो नैतदपि साधनमात्मनो विभुत्वप्रसाधकम् । __ यदपि 'सर्वगत आत्मा, सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वात् , आकाशवत्' इति साधनम् , तदप्य-१५ चार; यतो यदि 'स्वशरीरे सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वात्' इति हेतुस्तथा सति तत्रैव ततस्तस्य सर्वगतत्वसिद्धेविरुद्धो हेत्वाभासः। अथ स्वशरीरवत् परशरीरे अन्यत्र वोपलभ्यमानगुणत्वं हेतुस्तदाऽसिद्धः, तथोपलम्भाभावात्-न हि बुद्ध्यादयस्तद्गुणास्तथोपलभ्यन्ते, अन्यथा सर्वसर्वज्ञताप्रसङ्गः। अथैकनगरे उपलब्धा बुद्धयादयो नगरान्तरेऽप्युपलभ्यन्ते, मनुष्यजन्मवजन्मान्तरेऽपीति कथं न सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वम् ? न; वायोरपि स्पर्शविशेषगुण एकत्रैकदोपलब्धोऽन्यत्रान्य २० दोपलभ्यमानस्तस्यापि सर्वगतत्वं प्रसाधयेत्, अन्यथा तेनैव हेतोर्व्यभिचारः । अथ तांस्तान् देशान् क्रमेण गतस्य तस्य तईण उपलभ्यते, आत्मनोऽपि तथैव तहुणस्योपलम्भः इति समानं पश्यामः । न च तद्वत् तस्यापि सक्रियत्वप्रसक्तेरयुक्तमेवं कल्पनमिति वाच्यम् , इष्टत्वात् । अथ लोष्टवत् ततो मूर्तत्यप्रसङ्गस्तस्य दोषः । ननु केयं मूर्तिः ? असर्वगतद्रव्यपरिमाणं सेति चेत् नायं दोषः, असर्वगतात्मवादिनोऽभीष्टत्वात् । रूप-रस-गन्ध-स्पर्शवत्त्वं सेति चेत्, न २५ तादृशीं मूर्तिमात्मनः सक्रियत्वं साधयति, व्याप्त्यभावात् ; रूपादिमन्मूर्त्यभावे सक्रियत्वात् । 'यो यः सक्रियः स रूपादिमन्मूर्तिमान, यथा शरः, तथा चात्मा, तस्माद् रूपादिमन्मूर्तिमान' इति कथं न व्याप्तिसंभवः ? असदेतत्; मनसाऽपि व्यभिचारात् । न च तस्यापि पक्षीकरणम्, 'रूपादिविशेषगुणानधिकरणं सद् मनोऽर्थ प्रकाशयति, शरीराद्यर्थान्तरत्वे सति सर्वत्र शानकारणत्वात्, आत्मवत्' इत्यनुमानविरोधप्रसङ्गात् । न च सक्रियत्वं रूपादिमन्मूर्त्य-३० भावेन विरुद्धं यतः ततस्तनिवर्तमानमात्मनि तथाविधां मूर्ति साधयेत् । न च तथाविधमूतिरंहितेऽम्बरादौ तददर्शनात् सिद्धो विरोधः, एकशाखाप्रभवत्वस्याप्यन्यत्र पक्षेऽदर्शनाद् विरोधेसिद्धिप्रसक्तेः । पक्ष एव व्यभिचारदर्शनात सा तत्र नेति चेत्, नः सक्रियत्वस्यापि तथा व्यभिचारः समानः, पक्षीकृत एवात्मनि रूपादिमन्मूर्तिरहिते तदर्शनात् । अनेनैव तत्साधनाद न व्यभिचार इत्येकशाखाप्रभवत्वानुमानेऽपि स म्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टत्वमुभयत्र तुल्यम् । तन्न सक्रियत्वमात्मनो रूपादिमन्मूर्तित्वं साधयतीति व्यवस्थितम् । ____ अथ सक्रियत्वे तस्यानित्यत्वम् । तथाहि-'यत् सक्रियं तद् अनित्यम् , यथा लोष्टादि, तथा चात्मा, तस्मादनित्यः' इति, एतदपि न सम्यग् परमाणुभिरनैकान्तिकत्वात्; कथञ्चिदनित्यत्वस्ये १ पृ. १४४ पं० ४१ । २ पृ० १४२ पं० १५। ३ प्र० पृ. पं० २ । ४ पृ० १०२ पं० ११ । ५-भावेऽपिन भां०, मां०। ६-तः तन्निव-आ०, वि०, हा०। ७-रहिताम्ब-आ०, वि०, हा०, कां०, अ०। ८-न्यथा प-मा०, भां०।-न्यत्राप-वि०। ९-धशक्तिप्र-वा०, बा. विना । सत. १९ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ प्रथमे काण्डेटत्वात् सिद्धसाधनं च। सर्वात्मनाऽनित्यत्वस्य लोष्टादावप्यसिद्धत्वात् साध्यविकलता दृष्टान्तस्य। तन्न सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वमात्मनः सिद्धम् । अपरे सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वमात्मनोऽतोऽनुमानात् साधयन्ति-"देवदत्तोपकरणभूतानि मणि-मुक्ताफलादीनि द्वीपान्तरसंभूतानि देवदत्तगुणकृतानि, कार्यत्वे सति देवदत्तोपकारकत्वात्, ५शकटादिवत्। न च तद्देशेऽसन्निहिता एव तहुणास्तान् व्युत्पादयितुं समर्थाः, न हि पटदेशेऽ. सन्निधानवन्तस्तन्तु-तुरि-कुविन्दादयः पटमुत्पादयितुं क्षमाः। आत्मगुणानां च तद्देशसन्निधानं न तहणिसन्निधिमन्तरेण संभवि, अगुणत्वप्राप्तः, ततस्तस्यापि तद्देशत्वम्" [ ]असदेतत्। तत्कार्यत्वेऽपि तेषां न 'अवश्यतया कार्यदेशसन्निधिमद् निमित्तकारणम्' इति नियम उपलब्धिगोचरः, अन्य देशस्यापि ध्यानादेरेन्यस्थितविषाद्यपनयनकार्यकर्तृत्वस्योपलब्धिविषयत्वात् । तन्ना१० तोऽपि सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वसिद्धिरित्यसिद्धो हेतुः।। एतेन 'विभुत्वाद् महानाकाशः तथा चात्मा' इति निरस्तम्, विभुत्वस्यात्मन्यसिद्धेः। तथाहिसर्घमृतैर्युगपत्संयोगो विभुत्वम् । न च सर्वमूर्तिमद्भिर्युगपत्संयोगस्तस्य सिद्धः । अथैकदेशवृत्तिविशेषगुणाधारत्वात् तस्य सर्वमूतैर्युगपत्संयोग आकाशस्येव सिद्धः, असदेतत्; एकदेशवृत्तिविशेषगुणाधिष्ठानत्वस्य साधनस्य सर्वमूर्तिमत्संयोगाधारत्वस्य च साध्यस्याकाशेऽप्यसिद्धरुभय१५विकलो दृष्टान्तः। न चात्मदृष्टान्तादाकाशे साध्य-साधनोभयधर्मसम्बन्धित्वं सिद्धमिति शक्यं वक्तुम् , इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात्। यदपि 'विभुरात्मा, अणुपरिमाणानधिकरणत्वे सति नित्यद्रव्यत्वात्, यद् यद् अणुपरिमाणानधिकरणत्वे सति नित्यद्रव्यं तत् तद् विभु, यथाऽऽकाशम्, तथा चात्मा, तस्माद् विभुः' इति, तदप्यसारम्; तन्नित्यत्वासिद्धेहेतोरसिद्धत्वात्, अणुपरिमाणानधिकरणत्वस्य च विशेषणस्यात्मनो २० द्रव्यत्वासिद्धरसिद्धिः, तदसिद्धिश्च इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । तथाहि-अणुपरिमाणान्यगुणस्य गुणत्वे सिद्धेऽनाधारस्य तस्यासम्भवादात्मनो गुणवत्त्वेन द्रव्यत्वसिद्धिः, तत्सिद्धौ च तदाश्रितत्वेनाणुपरिमाणान्यगुणस्य गुणत्वसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । न चाकाशस्याप्यणुपरिमाणानधिकरणत्वे सति नित्यद्रव्यत्वं विभुत्वं च सिद्धमिति साध्य-साधनविकलो दृष्टान्तः । न चात्मदृष्टान्तबलात् तस्य तदुभयधर्मयोगित्वं सिद्धमिति वक्तुं युक्तम्, अत्रापीतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गस्य २५व्यक्तत्वात् । अपि च, अणुपरिमाणानधिकरणत्वे सति नित्यद्रव्यत्वं च भविष्यत्यविभुत्वं च, विपक्षे हेतोर्बाधकप्रमाणासत्त्वेन ततो व्यावृत्त्यसिद्धेः सन्दिग्धानकान्तिकश्च हेतुः । न च विपक्षे हेतोरदर्शनं बाधकं प्रमाणम् , सर्वाऽऽत्मसम्बन्धिनस्तस्यासिद्धाऽनैकान्तिकत्वप्रतिपादनात् । अपि च, आत्मनः स्वदेहमात्रव्यापकत्वेन सुख-दुःखादिपर्यायाक्रान्तस्य स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धत्वात् तद्विभुत्वसाधकस्य हेतोरध्यक्षबाधितपक्षानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टत्वम् । ३० अन्यस्य च 'अहम्' इत्यध्यक्षसिद्धस्य प्रमाणाविषयत्वेनाऽसत्त्वादाश्रयासिद्धो हेतुरिति। अनया दिशाऽन्येऽपि तद्विभुत्वसाधनायोपन्यस्यमाना हेतवो निराकर्त्तव्याः, अस्य निराकरणप्रकारस्य सर्वेषु तत्साधकहेतुषु समानत्वात् । तन्नात्मनः कुतश्चिद्विभुत्वसिद्धिः । अथापि स्यात् यथास्माकं तद्विभुत्वसाधकं प्रमाणं न सम्भवति तथा भवतामपि तदविभुत्व. साधकप्रमाणाभाव इति नानुपमसुखस्थानोपगतिस्तेषां सिद्धेति तदवस्थं चोद्यमः न हि परपक्षे ३५ दोषोद्भावनमात्रतः स्वपक्षाः सिद्धिमुपगच्छन्ति अन्यत्र स्वपक्षलाधकत्वलक्षणपरप्रयुक्तहेतु विरुद्धतोद्भावनात्, न चासौ भवता प्रदर्शितेति, न सम्यगेतत् तदभावासिद्धेः। तथाहि-'देवदत्तात्मा देवदत्तशरीरमात्रव्यापकः, तत्रैव व्याप्त्योपलभ्यमानगुणत्वात्, यो यत्रैव व्याप्त्योपलभ्यमानगुणः स तन्मात्रव्यापकः, यथा देवदत्तस्य गृहे एव व्यायोपलभ्यमानभास्वरत्वादिगुणः प्रदीपः, देवदत्तशरीर एव व्याप्योपलभ्यमानगुणस्तदात्मा' इति । तदात्मनो हि ज्ञानादयो गुणास्ते च १०तदेह एव व्यात्योपलभ्यन्ते, न परदेहे, नाप्यन्तराले । अत्र केचिद्धेतोरसिद्धतामुद्भावयन्तः "शरीरान्तरेऽपि तदङ्गनासम्बन्धिनि तहुणा उपलभ्यन्ते इत्यभिदधति । तथाहि-'देवदत्ताङ्गनाङ्गं देवदत्तगुणपूर्वकम् , कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात्, १-तत् कार्य-वा० बा० विना। २-रव्यवस्थित-वा०, बा०। ३ चान्यह-कां० । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मपरिमाणवादः। १४७ प्रासादिवत्' । कार्यदेशे च सन्निहितं कारणं तजनने व्याप्रियतेऽन्यथाऽतिप्रसङ्गादिति तदङ्गना. प्रादुर्भावदेशे तत्कारणतगुणसिद्धिः। तथा, तदन्तराले च प्रतीयन्ते । तथाहि-अग्नेरूज़ज्वलनम्, वायोस्तिर्यक् पवनं तद्गुणपूर्वकम्, कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात्, वस्त्रादिवत् । यत्र च तहुणास्तत्र तहुण्यप्यनुमीयत इति 'स्वदेह एव देवदत्तात्मा' इति प्रतिज्ञा अनुमानबाधिता । ततोऽनुमानबाधितकर्म निर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टो हेतुः" [ ] ननु केऽत्र देवदत्तात्मगुणा ये तदङ्गनाङ्गे तदन्तराले च प्रतीयन्ते ? यदि ज्ञान-दर्शन-सुखवीर्यस्वभावाः-"सहवर्तिनो गुणाः" [ ] इति वचनात्-इति पक्षः, स न युक्तः, शान-दर्शन-सुखानि संवेदनरूपाणि न तदङ्गनाङ्गजन्मनि व्याप्रियमाणानि प्रतीयन्ते; नापि सत्तामात्रेण तेद्देशे प्रतीतिगोचराणि । वीर्य तु शक्तिः क्रियानुमेया; साऽपि तदेह एवानुमीयते, तत्रैव तल्लिङ्गभूतपरिस्पन्ददर्शनात्। तस्याश्च तदङ्गनादेहनिष्पत्तौ देवदत्तस्य भार्या दुहिता स्यात् । १० ततस्तज्ज्ञानादेस्तदेह एव तत्कार्यजननविमुखस्य प्रतीतेः प्रत्यक्षतः तद्वाधितकर्म निर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टः 'कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात्' इति हेतुः। अथ धर्माऽधर्मों तदनादिकार्यनिमित्तं तद्वणः, तदयक्तमः न धर्माऽधौ तदात्मनो गुणौ, अचेतनत्वात्, शब्दादिवत्। न सुखादिना व्यभिचारः, तत्र हेतोरवर्तनात्-तद्विरुद्धन स्वसं. वेदनलक्षणचैतन्येन तस्य व्याप्तत्वात् अभिमतपदार्थसम्बन्धसमय एव स्वसंवेदनरूपाहादस्वभा-१५ वस्य तदात्मनोऽनुभवात्, अन्यथा सुखादेः स्वयमननुभवात् अनवस्थादोषप्रसङ्गात् अन्यशानेनाप्यनुभवे सुखस्य परलोकप्रख्यताप्रसक्तिः । प्रसाधितं चैतत् प्राक् ।। न चासिद्धता अचेतनत्वात्' इति हेतोः । तथाहि-अचेतनौ तौ, अस्वसंविदितत्वात्, कुम्भवत् । न बुद्ध्याऽस्य व्यभिचारः, अस्याः स्वसंवेदनसाधनात्-'स्वग्रहणात्मिका बुद्धिः, अर्थग्रहणात्मकत्वात् , यत् स्वग्रहणात्मकं न भवति न तद् अर्थग्रहणात्मकम्, यथा घटः' इति २० व्यतिरेकी हेतुः। न च धर्माऽधर्मयोर्ज्ञानरूपत्वाद् बौद्धदृष्ट्या ज्ञानस्य च स्वग्रहणात्मकत्वादसिद्धो हेतुरिति वक्तव्यम् , तयोः स्वरूपग्रहणात्मकत्वे सुखादाविव विवादाभावप्रसक्तेः । अस्ति चासो अनुमानो. पन्यासान्यथानुपपत्तेस्तत्र । न च लौकिक-परीक्षकयोः 'प्रत्यक्षं कर्म' इति व्यवहार सिद्धम् । न चाविकल्पबोधविषयत्वात् स्वग्रहणात्मकत्वेऽपि तयोर्विवादः क्षणिकत्वादिवत् , तथाऽनिश्चयात् २५ तद्विषयेऽतिप्रसङ्गात् । तथाहि-अविकल्पकाध्यक्षविषयं जगत् जन्तुमात्रस्यः तथाऽनिश्चयस्तु क्षणिकत्ववत् निर्विकल्पकाध्यक्षविषयत्वात् । न च मूषिकालर्क विषविकारवत् तदनन्तरं तत्फलादर्शनान्न तद्दर्शनव्यवहार इति, स्वसत्तासमये स्वकार्यजननसामर्थ्य तस्य तदैव तत्कार्यमिति तदनन्तरं तदृष्टिप्रसक्तः अन्यदा तु स एव नास्तीति कुतस्ततस्तस्य भावः ? . अथ तयोरचेतनत्वेऽपि तदात्मगुणत्वे को विरोधः ? अचेतनस्य चेतनात्मगुणत्वमेव ।३० चेतनश्च तदात्मा स्वपरप्रकाशकत्वात् अन्यथा तदयोगात् कुड्यादिवत् । न च धर्माऽधर्मयोरभावादाश्रयासिद्धो हेतुः, अनुमानतस्तयोः सिद्धेः। तथाहि-चेतनस्य स्वपरशस्य तदात्मनो हीनमातृगर्भस्थानप्रवेशः तत्सम्बद्धान्यनिमित्तः, अनन्यनेयत्वे सति तत्प्रवेशात्, मत्तस्याशुचिस्थानप्रवेशवत् , योऽसावन्यः स द्रव्यविशेषो धर्मादिरिति। न च कस्यचित् पूर्वशरीरत्यागेन शरीरान्तरगमनाभावात् तत्प्रवेशोऽसिद्धः, अनुमानात् ३५ तत्सिद्धेः । तथाहि-तदहर्जातस्य स्तनादौ प्रवृत्तिस्तदभिलाषपूर्विका, तत्त्वात् , मध्यदशावत् । यथा च परलोकाऽऽगाम्यात्मा अनुमानात् सिद्धिमुपगच्छति तथा प्राक् प्रतिपादितम् । सुखसाधनजलादिदर्शनानन्तरोद्भूतस्मरणसहायेन्द्रियप्रभवप्रत्यभिज्ञानक्रमोपजायमानाभिलाषादेर्व्यवहारस्यैक १ पृ. १४६ पं० ३७। २ तद्देशप्र-वा०, वा०। ३-त्मगुणौ गु० । ४-रुद्धत्वेन वा०, बा• विना । ५-नुभावात् का०, गु०, वि०। ६-रप्रसिद्धिः । भां०, मां०। ७-लर्कविका-गु०, वा०, बा०, हा। ८-ननासामध्ये त-गु०, भा० । -ननसमये त-वा०, वा० । ९-नात्मागु-वि०। -नागु-भा०, गु० । १०-व अचेतनश्च वा०, बा०। ११-नन्याने-वा०, बा०। १२ पृ० ७४ ५ १९-पृ० ९२ पं० २० । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ प्रथमे काण्डेकर्तृपूर्वकत्वेन प्राक् प्रसाधितत्वात् नात्र प्रयोगे व्याप्त्यसिद्धिः। अत एव स्तनादिप्रवृत्तेरमिलाकर सिद्धिमासादयन् सङ्कलनाशानं गमयति तदपि स्मरणम्, तच्च सुखादिसाधनपदार्थदर्शनम्। 'कारणव्यतिरेकेण कार्योत्पत्तौ तस्य निर्हेतुकत्वप्रसक्तिः' इति अत्र विपर्ययबाधकं प्रमाणं व्याक्षिनिश्चायकं प्रदर्शितम् । अपूर्वप्राणिप्रादुर्भावे च सर्वोऽप्ययं व्यवहारः प्रतिप्राणिप्रसिद्धः उत्सीदेद, ५तजन्मनि सुखसाधनदर्शनादेरभावात्। न हि मातुरुदर एव स्तनादेः सुखसाधनत्वेन दर्शन यतः प्रत्यग्रजातस्य तत्र स्मरणादिव्यवहारः सम्भवेदिति पूर्वशरीरसम्बन्धोऽप्यात्मनः सिद्धः। ने च मध्यावस्थायां सुखसाधनदर्शनादिक्रमेणोपजायमानोऽपि प्रवृत्यन्तो व्यवहारो जन्मादावन्यथा कल्पयितुं शक्यः विजातीयादपि गोमयादेः कारणाच्छालूकादेः कार्यस्योत्पत्ति दर्शनादिति वक्तुं शक्यम्, जलपाननिमित्ततृविच्छेदादावप्यनलनिमित्तत्वसम्भावनया तदर्थिनः १०पावकादी प्रवृत्तिप्रसङ्गात् सर्चव्यवहारोच्छेदप्रसक्तेः। अथ 'देहिनो देहाद् देहान्तरानुप्रवेशस्तदमिलाषपूर्वकः, गृहाद् गृहान्तरानुप्रवेशवत्' इत्यतोऽन्यथासिद्धो हेतुरिति न द्रव्यविशेष साधयति । तदुक्तं सौगतैः "दुःखे विपर्यासमतिस्तृष्णा वाऽवन्ध्यकारणम् । जन्मिनो यस्य ते न स्तो न स जन्माधिगच्छति" [ १५ इति, असदेतत् । इह जन्मनि प्राणिनां तदभिलाषस्य परलोकेऽभावान्न ततः स इति युक्तम् । नापि मनुष्यजन्मा हीनशुन्यादिगर्भसम्भवमभिलषति यतस्तत्र तत्सम्भवः स्यात् । तदेवं धर्माऽधर्मयोस्तदात्मगुणत्वनिषेधात् तनिषेधानुमानबाधितमेतत् 'पावकाचूज्वलनादि देवदत्तगुणकारितम्' इति । _ यत् पुनरुक्तम् 'गुणवद् गुणी अप्यनुमानतस्तद्देशेऽस्तीत्यनुमानबाधितस्वदेहमात्रव्यापकात्म२० कर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेनाद्यो हेतुः कालात्ययापदिष्टः' इति, तदपि निरस्तम्। तत्र तत्सद्भावासिद्धेः । यच्चान्यत् 'कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात्' इति, तत्र किं तहुणपूर्वकत्वाभावेऽपि तदुपकारकत्वं दृष्टं येन 'कार्यत्वे सति' इति विशेषणमुपादीयेत सति सम्भवे व्यभिचारे च विशेषणो. पादानस्यार्थवत्त्वात् ? कालेश्वरादी दृष्टमिति चेत्, न; कालेश्वरादिकमतहुणपूर्वकमपि य तदुपकारकम् , कार्यमपि किञ्चिदन्यपूर्वकं तदुपकारकं स्यादिति सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वाद२५ नैकान्तिको हेतुः। सर्वज्ञत्वाभावसाधने वागादिवनिर्विशेषणस्यैव तस्यामिधाने को दोषः ? व्यभिचारः कालेश्वरादिनेति चेत्, न; नित्यैकस्वभावात् कस्यचिदुपकाराभावात् । अपि च, शत्रुशरीरप्रध्वंसाभावस्तद्विपक्षस्योपकारको भवति सोऽपि तद्गुणनिमित्तः स्यात् । तदभ्युपगमे वा तत्र कार्यत्वासम्भवेन सविशेषणस्य हेतोरवर्तनाद् भागासिद्धो हेतुः। अतहणनिमित्तत्वे तस्यान्य दप्यतहणपूर्वकं तदुपकारकं तद्वदेव स्यादिति न तहुणसिद्धिः। ३० यत् पुनः 'ग्रासादिवत्' इति निदर्शनम् , तत्र यदि तदात्मगुणो धर्मादिर्हेतुः, साध्यवत्प्रसङ्गः। प्रयत्नश्चेत्, न; तत्स्वरूपासिद्धेः-शरीराद्यवयवप्रविष्टानामात्मप्रदेशानां परिस्पन्दस्य चलनलक्षणक्रियारूपत्वान्न गुणत्वम्, तत्त्वे वा गमनादेरपि तत्त्वात् न कर्मपदार्थसद्भावः क्वचिदपीति न युक्तं 'क्रियावत्'इति द्रव्यलक्षणम् । निष्क्रियस्यात्मनो न स इति चेत, कुतस्तस्य निष्क्रियत्वम? अमूर्त्तत्वादिति चेत्, प्रत्यक्षनिराकृतमेतत्-प्रत्यक्षेण हि देशाद्देशान्तरं गच्छन्तमात्मानमनुभवति ३५लोकः। तथा च व्यवहारः-'अहमद्य योजनमात्रं गतः' न च मनः शरीरं वा तव्यवहारविषयः, तस्याहंप्रत्ययावेद्यत्वात् । तदेवं परस्य साध्यविकलं निदर्शन मिति स्थितम् । तेन यदुक्तम् 'यस्मात् तदात्मनो गुणा अपि दूरदेशभाविनि तदङ्गनाङ्गे अन्तराले चोपलभ्यन्ते तस्मात् सिद्धं तस्य सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वम्, अतः 'सर्वगत आत्मा, सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वात् आकाशवत्' इत्यनुमानबाधिता तदात्मस्वशरीरमात्रप्रतिज्ञा' इति, तन्निर४० स्तम्। सर्वेषां सर्वगतात्मप्रसाधकहेतूनां पूर्वमेव निरस्तत्वात् । अतो न स्वदेहमात्रव्यापकात्मप्रसाधकहेतोरसिद्धिः । नाप्यनुमानेन तत्पक्षबाधा । न च तदेहव्यापकत्वेनैवोपलभ्यमानगुणोऽपि १ पृ. ७६ पं० २२ । २ न तु म-म०, भां० । ३ पृ. १४७ पं० ३३ । ४ पृ. १४७ पं० २। ५ पृ. १४७ पं०४। ६ पृ. १४६ पं० ३७। पृ० १४६ पं० ४२। ८पृ० १४७ पं. १ पृ. १४७ पं. ४॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मपरिमाणवादः। १४९ तदात्मा सर्वगतो निजदेहैकदेशवृत्तिर्वा स्यात् अविरोधात् सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनका. न्तिको हेतुः इति युक्तम् । वाय्वादावपि तथाभावप्रसङ्गतः प्रतिनियतदेशसम्बद्धपदार्थव्यवहारोच्छेदप्रसक्तेः। तथाहि-यद् यथा प्रतिभाति तत् तथैव सद्व्यवहारपथमवतरति, यथा प्रतिनियत देश कालाऽऽकारतया प्रतिभासमानो घटादिकोऽर्थः, अन्यथा प्रतिभासमाननियतदेश कालाss रस्पर्शविशेषगुणोऽपि वायुः सर्वगतः स्यात्। न चात्र प्रत्यक्षबाधः, परेण तस्य परोक्षत्वोपवर्णनात्। ५ यदि च स्वदेहैकदेशस्थितः, कथं तत्र सर्वत्र सुखादिगुणोपलब्धिः ? इतरथा सर्वत्रोपलभ्यमानगुणोऽपि वायुरेकपरमाणुमात्रः स्यात् । न च क्रमेण सर्वदेहभ्रमणात् तस्य तथा तत्रोपलब्धिः, युगपत् तत्र सर्वत्र सुखादेर्गुणस्योपलम्भात् । न चाशुवृत्तेर्योगपद्यामिमाना, अन्यत्रापि तथाप्रसक्तेः-शक्यं हि वक्तुं घटादिरप्येकावयववृत्तिः आशुवृत्तेयुगपत् सर्वेष्ववयवेषु प्रतीयते इति । अत एव सौगतोऽपि तत्रैकं निरंशं ज्ञानं कल्पयन्निरस्तः, प्रत्यवयवमनेकसुखा-१० दिकल्पने सन्तानान्तरवत् परस्परमसक्रमात् अनुस्यूतकप्रतीतिविलोपः 'सर्वत्र शरीरे मम सुखम्' इति । अथ युगपद्भाविभिरेकशरीरवर्तिभिरनेकनिरंशक्षणिकसुखसंवेदनैरेकपरामर्शविकल्पजननादयमदोषः, असदेतत्; अनेकोपादानस्य परामर्शविकल्पस्यैकत्वसम्भवे चार्वाकाभिमतैकशरीरव्यपदेशभागनेकपरमाणूपादानानेकविज्ञानभावेऽपि तद्विकल्पसम्भवात् । ततो यदुक्तं धर्मकीर्त्तिना तं प्रति "अनेकपरमाणूपादानमनेकं चेद् विज्ञानं सन्तानान्तरवदेकपरामर्शा-१५ भावः" [ ] इति, तत् तस्य न सुभाषितं स्यात्। यच्च 'सावयवं शरीरम् प्रत्यवयवमनुप्रविशंस्तदात्मा सावयः स्यात्, तथा, पटवत् समानजातीयारब्धत्वाच्च तद्वद् विनाशवांश्च स्यात्' इति, तदपि न सम्यक् घटादिना व्यभिचारात्घटादिर्हि सावयवोऽपि न तन्तुवत् प्राक्प्रसिद्धसमानजातीयकपालसंयोगपूर्वकः, मृत्पिण्डात् प्रथममेव स्वावयवरूपाद्यात्मनः प्रादुर्भावादिति निरूपयिष्यमाणत्वात् । अपि च, यदि तदात्मनः२० कथञ्चिद्विनाशः प्रतिपादयितुमिष्टः समानजातीयावयवारब्धत्वात् तदा सिद्धसाधनम्, तदर्भिप्रसंसार्यवस्थाविनाशेन तद्रूपतया तस्यापि नष्टत्वात् । अथ सर्वात्मना सर्वथा नाशः, स घटादावप्यसिद्ध इति साध्य विकलो दृष्टान्तः। यदि च तदहर्जातबालात्मा प्रागेकान्तेनाऽसंस्तथाऽवयवैरा. रभ्येत तदा स्तनादौ प्रवृत्तिर्न स्यात्, तदभिलाष-प्रत्यभिज्ञान-स्मरण-दर्शनादेरभावात् । तदारम्भकावयवानां प्राक्सतां विषयदर्शनादिकमिति चेत् तर्हि तेषामेव तदहर्जातवेलायां तन्वन्तरा-२५ णामिव तत्र प्रवृत्तिः स्यानात्मनः, स्मरणाद्यभावात् । कारणगमने तस्यापि सर्वत्र सा स्यात्, "कारणसंयोगिना कार्यमवश्यं संयुज्यते"[ ] इति वचनात् न तस्य विषयानुभवाभावः; भेदैकान्ते चास्याः प्रक्रियायाः समवायनिषेधेन निषेधात् । ___ अथ कारणगुणप्रक्रमेण तत्र दर्शनादयो गुणा वर्ण्यन्ते, तेऽपि प्रागसन्त एव जायन्त इति, एवमपि न किंचित् परिहृतम् । एतेन "अवयवेषु क्रिया, क्रियातो विभागः, ततः संयोगविनाशः,३० ततोऽपि द्रव्यविनाशः" [ ] इति परस्याकूतं पूर्वभवान्ते तथा तद्विनाशे आदिजन्मनि स्मरणाद्यभावप्रसङ्गान्निरस्तम्। न चायमेकान्तः-कटकस्य केयूरभावे कुर्तश्चिद् भागेषु क्रिया, विभागः, संयोगविनाशः, द्रव्यनाशः, पुनस्तदद्वयवाः केवलाः; तदनन्तरं कर्म-संयोगक्रमेण केयूरभावः प्रमाणगोचरचारी। केवलं सुवर्णकारव्यापारात् कटकस्य केयूरीभावं पश्यामः, अन्यथाकल्पने प्रत्यक्षविरोधः। न हि पूर्व विभागः ततः संयोगविनाश इति, तद्भेदानुपलक्षणाच्चैतन्य-बुद्धिवत् ।३५ १-म्बन्ध-वा०, बा० । २-भिरेव श-मां, भा०। ३-ज्ञानाभावे-मां०, भां०। ४-वः पट-कां०, आ० विना । अत्र स्थले प्रमेयक०मार्तण्डे एवं पाठः-“यदप्युक्तम् सावयवं शरीरम् प्रत्यवयवमनुप्रविशंस्तदात्मा सावयवः स्यात् तथा च घटादिवत् समानजातीयावयवारभ्यत्वम् , समानजातीयत्वं चावयवानामात्मत्वाभिसंबन्धादित्येकत्राऽऽत्मन्यनन्तात्मसिद्धि; यथा च अवयवक्रियातो विभागात् संयोगविनाशाद् घटविनाशस्तथाऽऽत्मविनाशोऽपि स्यात्"-पृ. १७६ प्र.. पं०४। ५-ध्यविकलता दृष्टान्तस्य आ०, कां०, गु०। ६ परिवृतम् । वा०, बा०। ७ परस्याकूतमेतत् प्रशस्तपादभाष्ये इत्थमुपवर्णितम्-"पार्थिवपरमाणुरूपादीनां पाकजोत्पत्तिविधानम्-घटादेरामद्रव्यस्याऽग्निना संबद्धस्य अभ्यभिघाताद्-तदारम्भकेष्वणुषु कर्माण्युत्पद्यन्ते, तेभ्यो विभागाः, विभागेभ्यः संयोगविनाशाः, संयोगविनाशेभ्यश्च कार्यद्रव्यं विनश्यति" -पृ. १८२ पं०१।८ तश्विद्भावेषु कि-भा०, वा०, बा० । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० प्रथमे काण्डे - न चैकान्तेन तस्याऽक्षणिकत्वे सुखसाधनदर्शनादयः सम्भवन्तीत्यसकृदावेदितमावेदयिष्यते त्यास्तां तावत् । ततो नानैकान्तिको हेतुः, विपक्षेऽसम्भवात् । अत एव न विरुद्धोऽपि इति भवत्यतः सर्वदोषरहितात् केशनखादिरहितशरीरमात्रव्यापकस्य विवादाध्यासितस्यात्मनः सिद्धिरिति साधूक्तम्- 'ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं' इति ॥ [ मुक्तिस्वरूपवादः ] [ पूर्वपक्ष:- मुक्ती आत्यन्तिकविशेषगुणोच्छेदस्य स्थापनम् ] दपि 'आत्यन्तिकयादिविशेषगुणोच्छेदविशिष्ट आत्मा मुक्तिः' इति, तदव्यप्रमाणकम् अथ तथाभूतमुक्तिप्रतिपादकं प्रमाणं विद्यते । तथाहि - नवानामात्म विशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते, सन्तानत्वात्, यो यः सन्तानः स सोऽत्यन्तमुच्छिद्यते, यथा प्रदीपसन्तानः, तथा १० चायं सन्तानः, तस्मादत्यन्तमुच्छिद्यते इति । सन्तानत्वस्य च व्यात्या बुद्ध्यादिषु सम्भवात् पक्षधर्मतयाऽसिद्धताऽभावः । तत्समानधर्मिणि धर्मिणि प्रदीपादावुपलम्भादविरुद्धत्वम् । न च विपक्षे परमाण्वादावस्तीत्यनैकान्तिकत्वाभावः, विपरीतार्थोपस्थापकयोः प्रत्यक्षाऽऽगमयोरनुपलम्भात् न कालात्ययापदिष्टः, न चायं सत्प्रतिपक्ष इति पञ्चरूपत्वात् प्रमाणम् । न च निर्हेतुकविनाशप्रतिषेधात् सन्तानोच्छेदे हेतुर्वाच्यः यतः समुच्छिद्यते इति, तत्त्व१५ ज्ञानस्य विपर्ययज्ञानव्यवच्छेदक्रमेण निःश्रेयसहेतुत्वेन प्रतिपादनात् । उपलब्धं च सम्यग्ज्ञानस्य मिथ्याज्ञाननिवृत्तौ सामर्थ्य शुक्तिकादौ न च मिथ्याज्ञानेनाप्युत्तरकालभाविना सम्यग्ज्ञानस्य विरोधः सम्भवति, सन्तानोच्छित्तेर्विवक्षितत्वात् । यथा हि सम्यग्ज्ञानाद् मिथ्याज्ञानसन्तानोच्छेदः नैवं मिथ्याज्ञानात् सम्यग्ज्ञानसन्तानस्य, तस्य सत्यार्थत्वेन बलीयस्त्वात् निवृत्ते च मिथ्याज्ञाने तन्मूलत्वाद् रागादयो न भवन्ति कारणाभावे कार्यस्यानुत्पादात्, रागाद्यभावे च तत्कार्या २० प्रवृत्तिर्व्यावर्तते, तदभावे च धर्माधर्मयोरनुत्पत्तिः, आरन्धकार्ययोश्चोपभोगात् प्रक्षय इति सञ्चितयोश्च तयोः प्रक्षयस्तत्त्वज्ञानादेव । तदुक्तम् — “यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुते क्षणात् । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा " ॥ [ भग० गी० अ० ४, श्लो० ३७ ] थोपभोगादपि प्रक्षये "नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि " [ ] इत्याग२५ मोsस्ति, तथा च विरुद्धार्थत्वादुभयोरेकार्थे कथं प्रामाण्यम् ? उपभोगाच्च प्रक्षयेऽनुमानोपन्यास'मपि कुर्वन्ति- 'पूर्वकर्माण्युपभोगादेव क्षीयन्ते, कर्मत्वात् यद् यत् कर्म तत् तद् उपभोगादेव क्षीयते, यथाssroधशरीरं कर्म, तथा चैतत् कर्म, तस्मादुपभोगादेव क्षीयते' इति । न चोपभोगात् प्रक्षये कर्मान्तरस्यावश्यंभावात् संसारानुच्छेदः, समाधिबलादुत्पन्नतत्त्वज्ञानस्यावगतकर्म सामर्थ्यो • त्पादितयुगपदशेषशरीरद्वारावाता शेषभोगस्य कर्मान्तरोत्पत्तिनिमित्तमिथ्याज्ञान निजतानुसन्धान३० विकलस्य कर्मान्तरोत्पत्त्यनुपपत्तेः । न च मिथ्याज्ञानाभावेऽमिलापस्यैवासम्भवाद् भोगानुपपत्तिः, तदुपभोगं विना कर्मणां प्रक्षयानुपपत्तेर्ज्ञानतोऽपि तदर्थितया प्रवृत्तेः वैद्योपदेशादातुरस्येवौषधाद्याचरणे, ज्ञानमप्येवमशेषशरीरोत्पत्तिद्वारेणोपभोगात् कर्मणां विनाशे व्यापारादग्निरिवोपचर्यत इति व्याख्येयम्, न तु साक्षात् । न चैतद् वाच्यम् - तत्वज्ञानिनां कर्मविनाशस्तत्त्वज्ञानात् इतरेषां तूपभोगादिति, ज्ञानेन कर्मविनाशे प्रसिद्धोदाहरणाभावात् । न च मिथ्याज्ञानजनितसंस्कारस्य ३५ सहकारिणोऽभावात् विद्यमानान्यपि कर्माणि न जन्मान्तरशरीराण्यारभन्ते इत्यभ्युपगमः श्रेयान, अनुत्पादितकार्यस्य कर्मलक्षणस्य कार्यवस्तुनोऽप्रक्षयान्नित्यत्वप्रसक्तेः । अथ अनागतयोर्धर्माधर्मयोरुत्पत्तिप्रतिषेधे तज्ज्ञानिनो नित्य नैमित्तिकानुष्ठानं कथम् ? प्रत्यबायपरिहारार्थम् । तदुक्तम् ४० " नित्य नैमित्तिकैरेव कुर्वाणो दुरितक्षयम् । ज्ञानं च विमलीकुर्वन्नभ्यासेन तु पाचयेत् ॥ [ ] १ - कान्तिकेन वा०, बा० । २ पृ० १३३ पं० २५ । ३ पृ० १३३ पं० २७ । ४ - न्यायद० अ० १, आ० १, सू० १-२ । ५-क्तेः । अनाग- वा० बा०, मां०, भां० विना । ६- प्रतिबन्धे तज्ज्ञा-आ०, कां० । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तिस्वरूपवादः। १५१ "अभ्यासात् पक्कविज्ञानः कैवल्यं लभते नरः। केवलं काम्ये निषिद्धे च प्रवृत्तिप्रतिषेधतः” ॥ [ ] तदुक्तम् "नित्य-नैमित्तिके कुर्यात् प्रत्यवायजिहासया।। मोक्षार्थी न प्रवर्तेत तत्र काम्य-निषिद्धयोः" ॥ [ ] अत एव विपर्ययज्ञानध्वंसादिक्रमेण विशेषगुणोच्छेदविशिष्टात्मस्वरूपमुक्त्यभ्युपंगमे न तत्त्वज्ञानकार्यत्वादनित्यत्वं वाच्यम्, विशेषगुणोच्छेदस्य प्रध्वंसत्वात् तदुपलक्षितात्मनश्च नित्यत्वादिति; कार्यवस्तुनश्चानित्यत्वम् । न च बुद्ध्यादिविनाशे गुणिनस्तथाभावः, तस्य तत्तादात्म्याभावात् । ___अथ मोक्षावस्थायां चैतन्यस्याप्युच्छेदान्न कृतबुद्धयस्तत्र प्रवर्त्तन्त इत्यानन्दरूपात्मस्वरूप एव मोक्षोऽभ्युपगन्तव्यः। यथा तस्य चित्स्वभावता नित्या तथा परमानन्दस्वभावताऽपि । न चात्मनः१० सकाशाञ्चित्खभावत्वमानन्दस्वभावत्वं वाऽन्यत्, अनन्यत्वेन श्रुतौ श्रवणात् “विज्ञानमानन्दं ब्रह्म" [बृहदा० उ० अ० ३, ब्रा० ९, मं० २८ ] इति । तस्य तु परमानन्दस्वभावत्वस्य संसारावस्थायामविद्यासंसर्गादप्रतिपत्तिरात्मनोऽव्यतिरिक्तस्यापि, यथा रज्वादेर्द्रव्यस्य तत्त्वाग्रहणाऽन्यथाग्रहणाभ्यां स्वरूपं न प्रकाशते यदा त्वविद्यानिवृत्तिस्तदा तस्य स्वरूपेण प्रकाशनम्, एवं ब्रह्मणोऽपि तत्त्वाग्रहाऽन्यथाग्रहाभ्यां मेदप्रपञ्चसंसर्गादानन्दादिस्वरूपं न प्रकाशते मुमुक्षुयत्नेन तु यदाऽनाद्यविद्याव्यावृत्ति-१५ स्तदा स्वरूपप्रतिपत्तिः, सैव मोक्षः । अत एवोक्तम्"आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षेऽभिव्यज्यते"। [ ] इति, 'ब्रह्मणः' इति च सुखस्य षष्ठया व्यतिरेकाभिधानेऽपि न भेदस्तन्महत्त्ववत्, संसारावस्थायां त्वप्रतिभासात् तया तस्य व्यतिरेकाभिधानम् । यथा आत्मनो महत्त्वं निजो गुणो न च संसारावस्थायामात्मग्रहणेऽपि प्रतिभाति तद्वन्नित्यं सुखमविद्यासंसर्गात् मुक्तेः पूर्वमात्माऽव्यतिरिक्तं तद्धर्मो वा न प्रतिभाति । २० महत्त्ववत् सर्वेश्वरत्वं सदा प्रबुद्धत्वं सत्यसङ्कल्पादित्वं च ब्रह्मस्वभावमपि न प्रकाशते अविद्यासंसर्गात्। अनाद्यविद्योच्छेदे तु स्वरूपावस्थे ब्रह्मणि तेषां प्रतिभासस्तद्वत् परमानन्दस्वभावत्वस्यापीति । ___ असदेतत् अप्रमाणकत्वात् । तथाहि-न तावदेवंविधोऽभ्युपगमः प्रेक्षावताऽप्रमाणकोऽङ्गीकर्तुं युक्तः अतिप्रसङ्गात् । प्रमाणवत्त्वे च प्रत्यक्षाऽनुमानाऽऽगमेभ्योऽन्यतमद् वक्तव्यम् । तत्र न तावत् प्रत्यक्षम् एतदर्थव्यवस्थापकम् , अस्मदादीन्द्रियजन्यप्रत्यक्षस्यात्र वस्तुनि व्यापारानु-२५ पलम्भात् । 'योगिप्रत्यक्षं त्वेवं प्रवर्त्तते उतान्यथा' इति अद्यापि विवादगोचरम् । किञ्च, नित्यस्य सुखस्य तस्यामवस्थायामभिव्यक्तिरवश्यं संवेदनम्-अन्यथाऽभिव्यक्त्यभावात्तत्र च विकल्पद्वयम्-नित्यमनित्यं वा तद् भवेत् ? नित्यत्वे तस्य मुक्ति-संसारावस्थयोरविशेषप्रसङ्गःसंसारावस्थस्याऽपि नित्यसुखसंवेदनस्य नित्यत्वात् मुक्तावस्थायामपि तत्संवेदनादेव मुक्तत्वम्, तञ्च संसार्यवस्थायामप्यविशिष्टम् । अपि च, करणजन्येन सुखेन साहचर्य संसार्यवस्थायां३० तस्य गृह्येत ततश्च सुखद्वयोपलम्भः सर्वदा भवेत् । अथ धर्माधर्मफलेन सुखादिना नित्यसुखसंवेदनस्य संसारावस्थायां प्रतिबद्धत्वान्नानुभवः, शरीरादिना वा प्रतिबन्धात् तन्नानुभूयते तेन न द्वयोरवस्थयोरविशेषः । नापि युगपत् सुखद्वयोपलम्भः, अयुक्तमेतत् ; शरीरादे गार्थत्वान्न तदेव नित्यसुखानुभवप्रतिबन्धकारणम् ; न हि यद् यदर्थ तत् तस्यैव प्रतिबन्धकं दृष्टम् । न च वैषयिकसुखानुभवेन नित्यसुखानुभवप्रतिबन्धः सम्भवति । तथाहि-न तावत् सुखस्य नापि तदनु-३५ भवस्य प्रतिबन्धोऽनुत्पत्तिलक्षणो विनाशलक्षणो वा युक्तः, द्वयोरपि नित्यत्वाभ्युपगमात् । नापि संसारावस्थायां बाह्यविषयव्यासङ्गाद् विद्यमानस्याप्यनुभवस्यासंवेदनम् तदभावात्तु मोक्षावस्थायां संवेदनमित्यप्यस्ति विशेषः, नित्यसुखे ह्यनुभवस्यापि नित्यत्वाद् ब्यासङ्गानुपपत्तेः । तथाहिआत्मनो रूपादिविषयज्ञानोत्पत्तौ विषयान्तरे ज्ञानानुत्पत्तिासङ्गः, एवमिन्द्रियस्याप्येकस्मिन् विषये ज्ञानजनकत्वेन प्रवृत्तस्य विषयान्तरे ज्ञानाजनकत्वं व्यासङ्गः । न चैवमात्मनो रूपादिविषय-४० ज्ञानोत्पत्तौ नित्यसुखे ज्ञानानुत्पत्तिः, तज्ज्ञानस्यापि नित्यत्वात् । शरीरादेस्तु सुखप्रतिबन्धकत्वा. १-प्रतिषेधः वि., वा०, बा. विना । २-पगमो न वा०, बा० । ३-दा तस्याः स्व-मां । ४-मात्मव्यति-वा०, बा०। ५-भवनप्रति-भा०। ६-क्तः तद्व-(तर-) मा०, भां०। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ प्रथमे काण्डेभ्युपगमे तदपहन्तुहिंसाफलं न स्यात् । तथाहि-प्रतिबन्धविघातकृदुपकारक एवेति दृष्टान्तेन नित्यसुखसंवेदनप्रतिबन्धकस्य शरीरादेर्हन्तुर्हि साफलस्याभावः। अथानित्यं तत्संवेदनं तदा तदवस्थायां तस्योत्पत्तिकारणं वाच्यम् । अथ योगजधर्मापेक्षः पुरुषान्तःकरणसंयोगोऽसमवायिकारणम् , न; योगजधर्मस्याप्यनित्यतया विनाशे अपेक्षाकारणाभा. ५वात् । अथाद्यं योगजधर्मादुपजातं विज्ञानमपेक्ष्योत्तरं विज्ञानं तस्माच्चोत्तरमिति सन्तानत्वम्, तन्न प्रमाणाभावात् । तथा च शरीरसम्बन्धानपेक्षं विज्ञानमेवात्मान्तःकरणसंयोगस्यापेक्षाकारणमिति न दृष्टम्; न च दृष्टविपरीतं शक्यमनुज्ञातुम् । आकस्मिकं तु कार्य न भवत्येव । अथ मतम्-शरीरादिरहितस्यापि तस्यामवस्थायां योगजधर्मानुग्रहात् सुखसंवेदनमुत्पद्यते । तथाहिमुमुक्षुप्रवृत्तिरिष्टाधिगमार्था, प्रेक्षापूर्वकारिप्रवृत्तित्वात्, कृषीबलादिप्रेक्षापूर्वकारिप्रवृत्तिवत्, एवम् १० तेषां शास्त्रीय उपदेश इटाधिगमार्थः, उपदेशत्वात्, तदन्योपदेशवत्, तदेतत् प्रतिपादितम्"नोभयमनर्थकम्" [ ] इति, मोक्षसुखसंवेदनानभ्युपगमे प्रवृत्त्युपदेशयोर्न किञ्चित् फलं भवेत्, एतच्चायुक्तम्; प्रवृत्त्युपदेशयोरन्यथासिद्धत्वात् । भवेत् साध्यसिद्धिर्यथोक्ता तुद्वयात् यद्येकान्तेनैव प्रवृत्तेरुपदेशस्य च इष्टाधिगमार्थत्वं भवेत्, तयोस्त्वन्यथाऽपि दर्शनात् नाभिमतसाध्यसाधकत्वम् । तथाहि-आतुराणां चिकित्साशास्त्रार्थानुष्ठायिनामनिष्टप्रतिषेधार्था प्रवृत्तिदृश्यते उपदे. ५शश्च, अतः कथमिष्टप्राप्त्यर्थता प्रवृत्त्युपदेशयोः ? किञ्च, इष्टानिष्टयोः साहचर्यमवश्यम्भावि, अतो यदीष्टाधिगमार्था प्रवृत्तिस्तदा बलात् तस्यामवस्थायामनिष्टसंवेदनमापतति, न हीष्टमनिष्टाननुषक्तं क्वचिदपि विद्यते । तस्मादनिष्टहानार्थायामपि प्रवृत्ताविष्टं हातव्यम्, तयोर्विवेकहानस्याशक्यत्वात् । किञ्च, दृष्टबाधश्च तुल्यः। तथाहि-यथा मुख्यवस्थायामनित्यं सुखमतिक्रम्य नित्यमुपेयते प्रमाणशून्यं तद्विरुद्धं च तथा शरीरादीन्यपि नित्यसुखभोगसाधनानि वरं कल्पितानि, एवं मुक्तस्य नित्यसुख२० प्रतिपत्तिः साध्वी स्यात् । अथ शरीरादीनां कार्यत्वात् कथं नित्यता प्रमाणबाधितत्वाच्छरीरादीनां नित्यत्वमशक्यं साधयितुम् ? नन्वेतत् सुखेऽपि समानम् , दृष्टस्य सुखस्योपजनाऽपायधर्मकस्य तद्वैकल्यं प्रमाणबाधितत्वात् कथं परिकल्पयितुं शक्यम् ? अथ स्यादेष दोषः यदि दृष्टस्यैव सुखस्य नित्यत्वमस्मामिरुपेयेत यावता दृष्टसुखव्यतिरिक्तमात्मधर्मत्वेनामिमतं नित्यं ततश्च कथं दृष्टविरोधः? असदेततः तत्र प्रमाणाभावादित्युक्तत्वात् । यदप्यनुमानं तत्सिद्धये प्रदेर्शितं तदपि प्रवृत्तेरनिष्ट२५प्रतिषेधार्थत्वाकान्तेनाभिमतसाध्यसाधकम् । मा भूदनुमानम् , आगमस्तु नित्यसुखसाधकस्तस्यामवस्थायां भविष्यति, तथा च पूर्वमुक्तम् "विज्ञानमानन्दं ब्रह्म" इति, असदेतत् तदागमस्यैतदर्थत्वासिद्धेः । अथापि कथञ्चिद् नित्यसुखप्रतिपादकत्वं तस्याभ्युपगम्यते तथाप्यात्यन्तिके संसारदुःखाभावे सुखशब्दो गौणः, न तु नित्यसुखप्रतिपादकत्वाद् मुख्यः । अथ कथं दुःखाभावे सुखशब्द उपेयते ? लोकव्यवहाराद्धि शब्दार्थ३० सम्बन्धावगमः, सुखशब्दश्च दुःखाभावे लोके अनवगतसम्बन्धः कथमागमे दुःखाभावं प्रतिपादयति ? नैष दोषः; न हि लोके मुख्य एवार्थे प्रयोगः शब्दानां किन्तु गौणेऽपि । तथाहि-दुःखाभावेऽपि सुखशब्दं प्रयुञ्जाना लोका उपलभ्यन्ते; यथा ज्वरादिसन्तप्ता यदा ज्वरादिभिर्विमुक्ता भवन्ति तदाऽभिदधति 'सुखिनः संवृत्ताः स्मः' इति । किञ्च, इष्टार्थाधिगमार्थायां च मुमुक्षोः प्रवृत्तौ रागनिबन्धना तस्य प्रवृत्तिर्भवेत् ततश्च न मोक्षावाप्तिः, क्लेशानां बन्धहेतुत्वात् । ३५ अथ वदेत् यथा सुखरागनिबन्धनायां प्रवृत्तौ रागस्य बन्धनहेतुत्वाद् मोक्षाभाषस्तथा दुःखा भावार्थायामपि, तत्रापि दुःखे तत्साधने वा दोषदर्शनाद् द्विष्टस्तदभावाय प्रवर्तते । यथा च रागक्लेशो बन्धनहेतुस्तथा द्वेषोऽपीत्यविशेषः। यच्चोक्तम् 'दुःखाभावे सुखशब्दप्रयोगात् तदभाव एव सुखम् तदयुक्तम् युगपत् सुख-दुःखयोरनुभवात् यथा ग्रीष्मे सन्तापतप्तस्य क्वचिच्छीते हृदे निमग्नार्द्धकायस्याः निमग्ने सुखमन्यत्र दुःखम् । अथ मतम्-यत् तदर्थे निमग्ने तद् दुःखाभावः ४० सुखम् अन्यत्र दुःखमिति, तर्हि नारकाणां सुखित्वप्रसङ्गः, क्वचिन्नरके दुःखानुभवादन्यनरकसम्बन्धि दुःखाभावाच्च । तथा, अनेकेन्द्रियद्वारस्य दुःखस्य केनचिदिन्द्रियेण दुःखोत्पादेऽन्येनाजनने सुखित्व १-कशरी-भा०, मां०, वा०, बा० । २ वा. भा० अ० १, आ० १, सू० २२ । ३-त्यसुखप्रतिपत्तिरूपेवि० गु०। ४ पृ० १५१ पं० २५। ५ प्र. पृ० पं०९। ६ पृ० १५१ पं० ११। ७ प्र. पृ. पं० ३१ । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तिस्वरूपवादः । १५३ प्रसङ्गः, अंपि च, अदुःखितस्यापि विशिष्टविषयोपभोगात् सुखं दृष्टं तत्र कथं दुःखाभावः सुखम् ? यत्रापि दुःखसंवेदनपूर्व यथा क्षुदुःखे भोजनप्राप्तौ तृप्तस्य तद्विनिवृत्तेः तत्राप्यन्न - पानयोर्विशेषात् सुखविशेषो न भवेत्, दृश्यते च लौकिकानां तदर्थमन्नादिविशेषोपादानम्; अन्यथा येन केनचिद् अन्नमात्रेण च क्षुदुःखनिवृत्तौ नान्न-पानविशेषं लौकिका उपाददीरन् । सुखस्य च भावरूपत्वात् सातिशयत्वे तत्साधनविशेषो युज्यते, दुःखाभावस्य तु सर्वोपाख्या विरहलक्षणत्वात् किं साधनविशेषेण १५ येप्येवमुपागमन् “यदाऽपि पूर्व दुःखं नास्ति तदाप्यभिलाषस्य दुःखस्वभावत्वात् तन्निबर्हणस्वभावं सुखम् " ] तेऽपि न सम्यक् प्रतिपन्नाः यतोऽनभिलाषस्य विषयविशेषसंवित्तौ न सुखिता स्यात्, दृश्यते तस्यामप्यवस्थायां रमणीयविषयसम्पर्के हादोत्पत्तिः । तत्रैतत् स्यात् यत्रैवाभिलाषः स एव विषयोपभोगेन सुखी नान्यः, तदभिलाषनिवृत्यैव विषयाः सुखयितारोऽन्यथा यदेकस्य सुखसाधनं तदविशेषेण सर्वेषां स्यात् । यदा तु कामनिवृत्त्या सुखित्वं १० तदा यस्यैवाभिलाषो यत्र विषये स एव तस्य सुखसाधनं नान्यः, अतश्च यदुक्तम् 'अकामस्यापि चिद्विषयोपभोगे सुखित्वदर्शनान्न कामाख्यदुःखनिवृत्तिरेव सुखम् तदयुक्तम्; तत्राकामस्यापि विशिष्टविषयोपभोगात् कामाभिव्यक्तौ तन्निवृत्तेरेव सुखत्वादिति । एतदप्ययुक्तम् ; यतो नावश्यं विषयोपभोगोऽभिलाप निबर्हणः । यथोक्तम् " न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्द्धते " ॥ [महाभा० आदिप० अ० ७९, श्लो० १२] तथा तत्र भगवता पतञ्जलिनाऽप्युक्तम्- "भोगाभ्यासमनुवर्धन्ते रागाः, कौशलानि चेन्द्रियाणाम्” [पात० यो० पा० २, सू० १५ व्यासभा०] इति । अपि च, अन्यथाप्यभिलाषनिवृत्तिर्दृष्टा यथा विषयदोषदर्शनात्, तत्रापि भवतां मते विषयोपभोगतुल्यं सुखं भवेत् तुल्ये चाभिमतार्थलाभे सुखविशेषो २० न स्यात् अभिलाषनिवृत्तेरविशेषात् । अथ वदेत् अभिलाषातिरेके तन्निवृत्तौ सुखातिरेकाभिमानोऽन्यत्रान्यथेति, तदप्यसाम्प्रतम् ; यतोऽभिलाषातिरेकात् प्रयस्यन्तं प्राप्तोऽर्थो न तथा प्रीणयति यथाऽप्रार्थितो विना प्रयास दुपनतः । एवमेव च लोकव्यवहारः- यत्नशतावामेऽर्थे क्लेशप्राप्तोऽयमिति न तेन तथा सुखिनो भवन्ति यथाऽनाशंसितप्राप्तेन । तन्न दुःखाभावमात्रं सुखं किन्तु तद्व्यतिरेकेण स्वरूपतः सुखमस्तीति } । १५ २५ तदसमीचीनम् ; न हि अस्माकं दुःखाभाव एव सुखम्-तथा च भाष्यकृता तत्र तत्राभिहितम् - "न सर्वलोकसाक्षिकं सुखं प्रत्याख्यातुं शक्यम्” [ ] । तथाऽन्यत्राप्युक्तम् - " न प्रत्यात्मवेदनीयस्य सुखस्य प्रतीतेः प्रत्याख्यानम्" [ ]। एवं चानभ्युपगतस्य पक्षस्योप (पा) लम्भः, प्रकृते तु सुखे प्रतिपाद्यते दुःखाभावमात्रे सुखशब्दो न तु सुखे एव तस्य प्रमाणतोऽनुपपत्तेः । तथा च मुक्तस्य नित्यसुखाभिव्यक्तौ प्रत्यक्षाऽनुमानयोर्निषेधे आगममात्रमवशिष्यते तस्य च गौणत्वे- ३० नाप्युपपत्तेर्न मुख्यस्य सुखस्य सम्भवः । नित्यसुखाभ्युपगमे च विकल्पद्वयम् - किं तद् आत्मस्वरूपं स्वप्रकाशम्, उतस्वित् तद्वयतिरिक्तं प्रमाणान्तरप्रमेयम् ? पूर्वस्मिन् विकल्पे आत्मस्वरूपवत् स्वप्रकाशसुखसंवित्तिः सर्वदा भवेत्; ततश्च बद्ध-मुक्तयोरविशेषः । तत्रैतत् स्यात् - अनाद्यविद्याच्छादितत्वात् स्वप्रकाशानन्दसंवित्तिर्न संसारिणः, यदा तु यत्नादनादेरविद्यातत्त्वस्यापगमस्तदाच्छादकाभावात् स्वप्रकाशानन्दसंवेदनम्, ३५ एतदपेशलम्; आच्छाद्यते ह्यप्रकाशस्वभावम्; यत्तु स्वप्रकाशरूपं तत् कर्थमन्येनाच्छाद्येत ? ast प्रतिपेदिरे "मेघादिना सवितृप्रकाशः सविता वा स्वप्रकाश एवाऽऽच्छाद्यते" [ 1 तेऽपि न सम्यक् संचक्षते; न स्वप्रकाशस्य मेघादिनाऽऽवरणम्, आवृतत्वे हि तेनाहोरात्र - योरविशेषो भवेत्, दृश्यते च विशेषः तस्मान्न कस्यचित् स्वप्रकाशस्यावृतिः । अपि च, मेघादेस्ततोऽ १ अपि वा दुः- वि०, वा०, बा० विना । २ - षदुःखस्य स्व-आ० । षादुःखस्य स्व-वि० । ३ प्र० पृ० पं० ७ । ४ अयमर्थो भाष्ये वार्तिके चैवं दर्शितः "सुखं प्रत्यात्मवेदनीयं शरीरिणाम्, तदशक्यं प्रत्याख्यातुम्” इति - वा० भा० अ० ४, आ० १ सू० ५६ । " न हि प्रत्यक्षं सुखं शक्यं प्रत्याख्यातुम्" - न्यायवा० अ० १, आ० १ सू० २१ पृ० ८४ पं० ३ । ५ प्रतिपद्य - कां० । ६- थमनेना - वि० । स० त० २० Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - र्थान्तरत्वादावारकत्वं युक्तम्, अविद्यायास्तु तत्त्वान्यत्वेनानिर्वचनीयत्वेन तुच्छस्वभावत्वात् न स्वप्रकाशस्वभावे आनन्दे आवरणशक्तिः । तत् सर्वदा स्वप्रकाशानन्दानुभव प्राप्तिः धर्माऽधर्मजनिताभ्यां च सुख-दुःखाभ्यां सह युगपत् संवेदनं प्रसक्तम् न चैतद् दृश्यते तस्मान्न पूर्वो विकल्पः । नाप्युत्तरः, तत्प्रतिपादकस्य प्रत्यक्षादेर्निषिद्धत्वात् बाधकस्य च प्रदर्शितत्वात् । अतस्तत्प्र५ तिपादक आगमः प्रमाणविरुद्धार्थप्रतिपादकत्वाद्गौणत्वेन व्याख्यायते शास्त्रदृष्टविरुद्धान्यवाक्यवत् । एतच्चाभ्युपगम्योक्तम्, न तु सुखस्य बोधस्वभावताऽपि विद्यते तत्स्वभावतानिराकरणात् । यश्वोक्तम् 'सुखरागेण प्रवृत्तस्य मुमुक्षोर्यथा बन्धप्रसङ्गस्तथा द्वेषनिबन्धनायामपि प्रवृत्ताववश्यम्भावी बन्धः तदयुक्तम्ः मुमुक्षोद्वेषाभावात्ः स हि विषयाणां तत्त्वदर्शी तेष्वारोपितं सुखत्वं तत्साधनत्वं वा तत्त्वज्ञानाभ्यासादन्यथा प्रतिपद्यते । एवं च तस्याऽऽरोपिताकारमिथ्याज्ञानव्यावृ१० त्तावुत्तरोत्तरकार्याभावादपवर्ग उच्यते, न तु तस्य दुःखसाधने द्वेषः किन्त्वारोपिते सुखे तत्साधने वा तत्त्वज्ञानाभ्यासाद् रागाभावः न च स एव द्वेषः, तस्य रागाभावसव्यतिरेकेण प्रत्यक्षेण स्वरूपसंवित्तेः, अन्यथोपेक्षणीये वस्तुनि रागाभावे द्वेषः स्यात् न चैतद् दृष्टम्, तस्मान्न मुमुक्षोद्वेष निबन्धना प्रवृत्तिः । भवतु वा, तथापि न तस्य बन्धः, द्वेषो हि स बन्धहेतुर्य उत्पन्नः स्वविषये वागू - मनः- कायलक्षणां शास्त्रविरुद्धां पुरुषस्य प्रवृत्तिं कारयतिः तस्य शास्त्रविरुद्धार्थाचरणेऽधर्मोत्पत्तिद्वारेण शरीरादि१५ ग्रहणम् तन्निबन्धनं च दुःखम् । अयं तु मुमुक्षोर्विषयेषु द्वेषः सकलप्रवृत्तिप्रतिपन्थित्वाद्धर्माधर्मयोरनुत्पत्तौ शरीराद्यभावान्न केवलं नैं बन्धाय किन्तु स्वात्मघाताय कल्पते । तदिदमुक्तम् - "प्रहाणे नित्यसुखरागस्याप्रतिकूलत्वम् । नास्य नित्य सुखाभावः ( नित्यसुखभावः ) प्रतिकूल इत्यर्थः । यद्येवं मुक्तस्य नित्यं सुखं भवति अथापि न भवति, नास्योभयोः पक्षयोर्मोक्षाधिगमाभावः” [ वात्स्या० भा० अ० १, आ० १, सूत्र २२, पृष्ठ ४४ ] २० अनेन च भाष्यवाक्येन न मुक्तस्य नित्यसुखसंवित्तिरुपेयते तस्याः प्रमाणवाधितत्वात् किन्तु सर्वथा यदर्थं शास्त्रमारब्धं तस्योपपत्तिरनेन प्रतिपाद्यते, वाक्यस्वाभाव्यात् । तद्धि किञ्चिद्वस्त्वभि• धानवृत्त्या प्रतिपादयदपि तात्पर्यशक्तेरन्यत्र भावान्न श्रूयमाणार्थपरं परन्यायविद्भिः परिगृह्यते, विषभक्षणादिवाक्यवत् । तन्न परमानन्दप्राप्तिर्मोक्षः । १५४ नापि विशुद्धज्ञानोत्पत्तिः, रागादिमतो विज्ञानात् तद्रहितस्य तस्योत्पत्तेरयोगात् । तथाहि२५ यथा बोधाद् बोधरूपता ज्ञानान्तरे तद्वद् रींगादिरपि स्यात् तादात्म्यात्, विपर्यये तदभावप्रसङ्गात् । न च विलक्षणादपि कारणाद् विलक्षणकार्यस्योत्पत्तिदर्शनात् बोधाद् वोधरूपतेति प्रमाणमस्ति, अत एव ज्ञानस्य ज्ञानान्तेरहेतुत्वे न पूर्वकालभावित्वं समानजातीयत्वमेकसन्तानत्वं वा हेतुः, व्यभि - चारात् । तथाहि - पूर्वकालत्वं तत्समानक्षणैः समानजातीयत्वं च सन्तानान्तरज्ञानैर्व्यभिचारीति । पूर्वकालवे तत्समानजातीयत्वेऽपि न विवक्षितज्ञानहेतुत्वमिति । एकसन्तानत्वं चान्त्य ३० ज्ञानेन व्यभिचरतीति । अथ नेष्यत एवान्त्यज्ञानं सर्वदाऽऽरम्भात् । तथाहि मरणशरीरज्ञानमपि ज्ञानान्तर हेतु:, जाग्रदवस्थाज्ञानं च सुषुप्तावस्थाज्ञानस्येति । नन्वेवं मरणशरीरज्ञानस्यान्तराभवशरीरज्ञानहेतुत्वे गर्भशरीरज्ञानहेतुत्वे वा सन्तानान्तरेऽपि ज्ञानजनकत्वप्रसङ्गः, नियमहेतोरभावात् । अथेष्यत एवोपाध्यायज्ञानं शिष्यज्ञानस्य, अन्यस्य कस्मान्न भवतीति ? अथ कर्मवासना नियामिकेति चेत्, ३५नः तस्या विज्ञानव्यतिरेकेणासम्भवात् । तथाहि तादात्म्ये सति विज्ञानं बोधरूपतयाऽविशिष्टं बोधाश्च बोधरूपतेत्यविशेषेण विज्ञानं विदध्यात् । यच्चेदम् 'सुषुप्तावस्थाज्ञानस्य जाग्रदवस्थाज्ञानं कारणम्' इति, (अ) सदेतत्; सुषुप्तावस्थायां हि ज्ञानसद्भावे जाग्रदवस्थातो न विशेषः स्यात्; उभयत्रापि स्वसंवेद्यज्ञानस्य सद्भावाविशेषात् । १ पृ० १५१ पं० २५ । २ पृ० १५१ पं० २७ । ३ न सुख वा बा० । ४ पृ० १५२ पं० ३५ ॥ ५- भावस्य प्रत्यति-वा०, बा० । ६ न बाधाय वि० । ७ वात्स्यायनभाष्यानुरोधेन अर्थानुरोधेन चात्र 'नित्यसुखरागः' इत्येव सम्यक्, अथवा भावपदमेव रागपरं ज्ञेयम् । ८ प्रतिपादयिष्यदपि वि० । ९- णार्थपरं न्याय - वा०, बा० । १० रागादेरपि वि० । प्रमेय०मा० " रागादेरपि" इत्येव पाठः- पृ० ८९ द्वि०, पं० २ । १ अत्र स्थले प्रमेय • मा० " न च बोधादेव बोधरूपतेति प्रमाणमस्ति विलक्षणादपि कारणात् विलक्षणकार्यस्योत्पत्तिदर्शनात्” इति पाठ: - पृ० ८९ द्वि०, पं० ३ । १२ - न्तरे हे वा०, बा० । १३ प्र० पृ० पं० ३२ । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तिस्वरूपवादः । मिद्धेनाभिभूतत्वं विशेष इति चेत्, असदेतत् तस्यापि तद्धर्मतया तादात्म्येनाभिभावकत्वायोगात् । व्यतिरेके तु रूपादिपदार्थानामेव सत्वात् तत्स्वरूपं निरूप्यम्, अभिभवश्च यदि विनाशः, न विज्ञानस्य सत्वम् विनाशस्य वा निर्हेतुकत्वम् । अथ तिरोभावः, न विज्ञानस्य सत्खेन 'तत्सत्तैव संवेदनम्' इत्यभ्युपगमे तस्यानुपपत्तेः । अतः सुषुप्तावस्थायां विज्ञानासत्त्वेनान्त्यज्ञानस्य सद्भा वादेकज्ञानसन्तानत्वं व्यभिचारीति । १५५ यच्चेदम् 'विशिष्टभावनावशाद् रागादिविनाशः' इति, असदेतत्; निर्हेतुकत्वात् विनाशैस्याभ्यासानुपपत्तेश्च । अभ्यासो ह्यवस्थिते ध्यातरि अतिशयाधायकत्वादुपपद्यते न क्षणिके ज्ञानमात्रे इति । अत एव न योगिनां सकलकल्पनाविकलं ज्ञानमुत्पद्यते । न च सन्तानापेक्षयाऽतिशयः, तस्यैवासम्भवाद् अविशिष्टाद् विशिष्टोत्पत्तेरयोगाच्च । तथाहि - पूर्वस्मादविशिष्टशदुत्तरोत्तरं सातिशयं कथमुपजायत इति चिन्त्यम् । यच्च 'संतानोच्छित्तिर्निःश्रेयसम्' इति, तत्र निर्हेतुकतया विनाश- १० स्योपायवैयर्थ्यम्, अयत्त सिद्धत्वादिति । 1 अन्ये तु "अनेकान्तभावनातो विशिष्टप्रदेशेऽक्षयशरीरादिलाभो निःश्रेयसम्” [ इति मन्यन्ते । तथा च नित्यभावनायां ग्रहः, अनित्यत्वे च द्वेष इत्युभयपरिहारार्थ मनेकान्तभावना इति, एवं सदादिष्वपि योज्यम् । प्रत्यक्षं च स्वदेश-काल-कारणाधारतया सत्त्वम् परदेशादिष्वसत्त्वमित्युभयरूपता । तथा घटादिर्मृदादिरूपतया नित्यः सर्वावस्थासुपलम्भात्, १५ घटादिरूपतया चानित्यस्तदपायात् एवमात्माप्यात्मादिरूपतया नित्यः सर्वदा सद्भावात्, सुखादिपर्यायरूपतया चानित्यस्तद्विनाशात् । एवं सर्वत्र स्वकार्येषु कर्तृत्वम् कार्यान्तरेषु चाकर्तृत्वमित्यूह्यम् स्वशब्दाभिधेयत्वम् शब्दान्तरानभिधेयत्वं चेति । तदेतदसाम्प्रतम्, मिथ्याज्ञानस्य निःश्रेयसकारणत्वेन प्रतिषेधात् । अनेकान्तज्ञानं च मिथ्यैव, बाधकोपपत्तेः । तथाहि - नित्यानित्यत्वयोर्विधिप्रतिषेधरूपत्वादभिन्ने धर्मिणि अभावः । एवं २० सदसत्त्वादेरपीति। यंश्चेदम् 'घटादिर्मृदादिरूपतया नित्यः' इति असदेतत्; मृद्रूपतायास्ततोऽर्थान्तरत्वात् । तथाहि घटादर्थान्तरं मृद्रूपता मृत्खं सामान्यम्, तस्य तु नित्यत्वे न घटस्य तथाभावस्ततोऽन्यत्वात् घटस्य तु कारणाद् विलयोपलब्धेरनित्यत्वमेव । यच्चेदम् ' स्वदेशादिषु सस्त्रं परदेशादिष्वसत्त्वम्' तदिष्यत एव इतरेतराभावस्याभ्युपगमात् । तथा हि-इतरस्मिन् देशादावितरस्य घटस्याभावो नानुत्पत्तिर्न प्रध्वंसः, तत्र तस्य सर्वदाऽसत्वात् । द्वैरूपये तु स्वदे- २५ शादिष्वप्यनुपलम्भप्रसङ्गः । एवमात्मनोऽपि नित्यत्वमेव, सुख-दुःखादेस्तद्गुणत्वेन ततोऽर्थान्तरस्य विनाशेऽप्यविनाशात् । 'कार्यान्तरेषु चाकर्तृत्वम्' न प्रतिषिध्यते । तथाहि यद् यस्यान्वयव्यतिरेकाभ्यामुत्पत्तौ व्याप्रियत इत्युपलब्धं तत् तस्य कारणं नान्यस्येत्यभ्युपगम्यत एव । एवं शब्दाभिधेयत्वेऽपि 'न सर्व सर्वशब्दाभिधेयम्' इत्यभ्युपगमात् । न चानेकान्तभावनातो विशिष्टशरीरादिलाभेऽस्ति प्रतिबन्धः । न चोत्पत्तिधर्मणां शरीरादीनामक्षयत्वं न्याय्यम् । तथा, मुक्ता- ३० वप्यनेकान्तो न व्यावर्त्तत इति मुक्तो न मुक्तश्चेति स्यात् । एवं च सति स एव मुक्तः संसारी चेति प्रसक्तम् । एवमनेकान्ते ऽप्यने कान्ताभ्युपगमो दूषणम्, वस्तुनः सदसद्रूपताऽनेकान्तः, तस्यानेकान्ताभ्युपगमे रूपान्तरमपि प्रसक्तम् । एवं नित्यानित्यरूपताव्यतिरिक्तं च रूपान्तरमित्यादि वाच्यम् । अन्ये तु "आत्मैकत्वज्ञानात् परमात्मनि लयः संपद्यते इति ब्रुवते । तथाहि - आत्मैव परमार्थसन्, ततोऽन्येषां भेदे प्रमाणाभावात्; प्रत्यक्षं हि पदार्थानां सद्भावग्राहकमेव न भेदस्य इत्यविद्या- ३९ समारोपित एवायं भेदः" [ ] इति मन्यन्ते, तदप्यसत्; आत्मैकत्वज्ञानस्य मिथ्यारूपतया निःश्रेयससाधकत्वानुपपत्तेः, मिध्यात्वं चात्माधिकार एव वक्ष्यामः । एवं शब्दाद्वै तज्ञानमपि मिथ्यारूपतया न निःश्रेयससाधनमिति द्रष्टव्यम् । यथा चैतेषां मिथ्यारूपता तथा प्रतिपादयिष्यामः । तन्नानुपम सुखावस्थान्तरप्राप्तिलक्षणात्मस्वरूपं मुक्तिः, तत्सद्भावे बाधकप्रमाणप्रदर्शनात्; विशेषगुणोच्छेद विशिष्टात्म स्वरूप मुक्ति सद्भावे च प्रदर्शितं प्रमाणमिति ॥ १ - न सद्भा - वि०, मां०, भां० । २-शयोगाभ्यासा - आ०, कां०।-शयोभ्यासा - वि० । पं० १५ । ४ प्र० पृ० पं० १४ । ५ प्र० पृ० पं० १७ । ३ प्र० पृ० ४० Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ प्रथमे काण्डे[ उत्तरपक्षः-मुक्तौ आत्यन्तिकविशेषगुणोच्छेदस्य निरसनम् ] अत्र प्रतिविधीयते-यत् तावदुक्तम् 'नवानामात्मविशेषगुणानां संतानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते, सन्ता. नत्वात्' इति, अत्र बुद्ध्यादिविशेषगुणानां प्राक् प्रतिषिद्धत्वात् तत्सन्तानस्याभावादाश्रयासिद्धोहेतुः। तथा, बुद्ध्यादीनां विशेषगुणानां परेण स्वसंविदितत्वेनानभ्युपगमाद् शानान्तरग्राह्यत्वे वाऽन५वस्थादिदोषप्रसक्तेरवेद्यत्वमित्यज्ञातस्य सत्त्वासिद्धेः पुनरप्याश्रयासिद्धः 'सन्तानत्वात्' इति हेतुः। किञ्च, सन्तानत्वं हेतुत्वेनोपादीयमानं यदि सामान्यमभिप्रेतं तदा बुझ्यादिविशेषगुणेषु प्रदीपे च तेजोद्रव्ये सत्तासामान्यव्यतिरेकेणापरसामान्यस्यासंभवात् स्वरूपासिद्धः। सत्तासामान्यरूपत्वे वा सन्तानत्वस्य 'सत् सत्' इति प्रत्ययहेतुत्वमेव स्यात्, न पुनः सन्तानप्रत्ययहेतुत्वम्। अन्यथा द्रव्य-गुण-कर्मस्वरूपादेव 'सत् सत्' इति प्रत्ययसंभवात् सत्तापरिकल्पनावैयर्थ्यम् । १०अथ विशेषगुणाश्रिता जातिः सन्तानत्वं हेतुत्वेनोपन्यस्तम् तदा द्रव्यविशेष प्रदीपलक्षणे साधर्म्यदृष्टान्ते तस्यासम्भवात् साधनविकलो दृष्टान्तः । न च सत्तादिलक्षणं सामान्यमेकं स्वाधारसर्वगतं वा प्रतिवादिनः प्रसिद्धमिति प्रतिवाद्यसिद्धो हेतुः। न च सन्तानत्वं सामान्य व्याल्या बुद्ध्यादिषु वृत्तिमत् सिद्धम्, तद्वत्तेः समवायस्य निषिद्धत्वात्। तत्सत्त्वेऽपि तद्बलात् सन्तानत्वस्य बुद्ध्यादिसम्बन्धित्वे तस्य सर्वत्राविशेषादाकाशादिष्वपि नित्येषु सन्तानत्वस्य वृत्तेर१५ नैकान्तिकत्वम् । न च समवायस्याविशेषेऽपि समवार्यिनोविशेषात् सन्तानत्वं बुद्ध्यादिवेव वर्त्तते नाकाशादिग्विति वक्तुं युक्तम्, इतरेतराश्रयप्रसक्तेः-सिद्धे हि सन्तानत्वस्याकाशादिव्यवच्छेदेन बुद्ध्यादिवृत्तित्वे विशेषत्वसिद्धिः, तत्सिद्धेश्चान्यपरिहारेण तद्वृत्तित्वसिद्धिरितीतरेतराश्रयत्वम् । अपि च, यदि समवायस्य सर्वत्राविशेषेऽपि बुद्ध्यादिविशेषगुण-सन्तानत्वयोः प्रतिनियताधाराधे यरूपता सिद्धिमासादयति तदा व्यर्थः समवायाभ्युपगमः, तद्यतिरेकेणापि तयोस्तद्रूपतासिद्धेः। २० {अथ प्रमाणपरिदृष्टत्वात् समवायस्याभ्युपगमः न पुनः समवायिविशेषरूपताऽन्यथाऽ नुपपत्तेः, असदेतत् तद्राहकप्रमाणस्यैवाभावात् । तथाहि-स सर्वसमवाय्यनुगतैकस्वभावो वाऽभ्युपगम्येत, तव्यावृत्तस्वभावो वा? न तावत् तद्यावृत्तस्वभावः समवायः, सर्वतो व्यावतस्वभावस्यान्यासम्बन्धित्वेन नीलस्वरूपवत् समवायेत्वानुपपत्तेः । नापि तदनुगतैकस्वभावः, सामान्यवत् तत्समवायत्वायोगात्-नित्यस्य सतोऽनेकत्रवृत्तेः सामान्यस्य परेण समवायत्वान २५ भ्युपगमात् । न च समवायस्वरूपस्यापि ग्राहकत्वेन निर्विकल्पकं सविकल्पकं वाऽध्यक्षं प्रवर्त्तते किमुत तस्यानेकसमवाय्यनुगतैकतद्विशेषरूपस्य, तदग्रहणे तदनुगतैकरूपस्यापि अप्रतिभास नादिति सामान्यप्रतिषेधप्रस्तावे प्रतिपादितत्वात् । नापि तत्र प्रत्यक्षाप्रवृत्तौ तत्पूर्वकस्यानुमानस्यापि प्रवृत्तिः। अथ सम्बन्धत्वेनासावध्यवसीयते, तदयुक्तम् । यतः किं 'सम्बन्धः' इति बुद्ध्याऽध्यवसीयते, ३० आहोखिद् ‘इह' इति बुद्ध्या, उत 'समवायः' इति प्रतीत्या ? तद् यदि सम्बन्धबुद्ध्या तदा वक्तव्यम्-कोऽयं सम्बन्धः? किं सम्बन्धत्वजातियुक्तः, आहो. स्विदनेकोपादानजनितः, अनेकाश्रितो वा, सम्बन्धबुद्धिविषयो वा, सम्बन्धबुद्ध्युत्पादको वा? तद् यदि सम्बन्धत्वजातियुक्तः स न युक्तः, समवायासम्बन्धत्वप्रसङ्गात् । अथानेकोपादानजनितस्तदा घटादेरपि सम्बन्धत्वप्रसङ्गः। अथानेकाश्रितस्तदा घटजात्यादौ सम्बन्धत्वप्रसङ्गः। अथ ३५सम्बन्धबुढ्युत्पादकस्तदा लोचनादेरपि सम्बन्धत्वप्रसक्तिः। अथ सम्बन्धबुझ्यवसेयस्तदा घटादिप्वपि सम्बन्धशब्दव्युत्पादने सम्बन्धज्ञानविषयत्वे सम्बन्धत्वप्रसङ्गः, तथा, सम्बन्धेतरयोरेकज्ञानविषयत्वे इतरस्य सम्बन्धरूपताप्रसक्तिः। अथ सम्बन्धाकारः, सम्बन्धः, संयोगाभेदप्रसङ्गः अंत्रान्तराकारभेदश्च न भेदकः, तस्याऽप्रसिद्धेः । अथेहबुझ्याऽवसेयः समवायः, न; इहबुद्धरधिकरणाध्यवसायरूपत्वात् । न चान्यस्मिन्नाकारे ४० प्रतीयमानेऽन्याकारोऽर्थः कल्पयितुं युक्तः, अतिप्रसङ्गात् । १ पृ. १५० पं० ८। २ पृ. १३८ पं०१६। ३-ह्यत्वेनाऽनवस्था-वा०, बा०। ४-यिनो विशेआ०, कां० । ५-यस्यानु-मां०, भा०। ६-कतद्विशेषस्य रूपस्य गु० ।-कविशेषरूपस्य आ०, कां० ।-कविशेषस्य रूपस्य वि०। पृ० ११२ पं० २३ । ८-त्यादेः सं-भां०, मां०। ९ संयोगमे-भा०, मां० । १. अवान्तरा-आ०, को० । अथान्तरा-वि.। ११-यः, न; आ०, वि०, कां। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तिस्वरूपवादः । अथ समवायबुद्ध्या समवायः प्रतीयत इत्यभ्युपगमः, सोप्यनुपपन्नः समवायबुद्धेरनुपपत्तेः; न हि 'एते तन्तवः, अयं पटः, अयं समवायः' इति परस्परविविक्तं त्रितयं बहिर्ग्राह्याकारतया कस्यचित् प्रतीतावुद्भाति तथानुभवाभावात् । 1 अथानुमानेन प्रतीयते, अयुक्तमेतत्; प्रत्यक्षाभावे तत्पूर्वकस्यानुमानस्याप्यवृत्तेः । सामान्यतोदृष्टमपि नात्र वस्तुनि प्रवर्त्तते, तत्प्रभवकार्यानुपलब्धेः । न च इहबुद्धिरेव समवायज्ञापिका - ५ 'इह तन्तुषु पटः' इति प्रत्ययः सम्बन्धनिमित्तः, अबाधितेहप्रत्ययत्वात्, 'इह कुण्डे दधि' इति प्रत्ययवत् इति, विकल्पानुपपत्तेः । तथाहि किं निमित्तमात्रमनेन प्रतीयते, उत सम्बन्धः ? यदि निमित्तमात्रं तदा सिद्धसाध्यता । अथ सम्बन्धः, स संयोगः, समवायो वा ? संयोगप्रतिपत्तावभ्युपगमबाधा । समवायानुमाने सम्बन्धव्यतिरेकः । न चान्यस्य सम्बन्धे सत्यन्यस्य गमकत्वम्, अतिप्रसङ्गात् । नहि देवदत्तेन्द्रिय- घटसम्बन्धे यशदत्तेन्द्रियं रूपादिकमर्थ करणत्वात् प्रकाशयदू १० दृष्टम् । तन्न समवायः कस्यचित् प्रमाणस्य गोचरः । न च तस्य समवायिभ्यामसम्बद्धस्य सम्बन्धरूपता । न च तत्सम्बन्धनिमित्तोऽपरः समवायोऽभ्युपगम्यते; अभ्युपगमे वाऽनवस्थाप्रसङ्गः । विशेषणविशेष्यभावस्यापि तत्सम्बन्धनिमित्तस्य सम्बन्धाभ्युपगमेऽनवस्थादिकं दूषणं समानम् । न चासम्बन्धस्यापि तस्य सम्बन्धरूपत्वादपरपदार्थ सम्बन्धकत्वमिति वाच्यम्, विहितोत्तरत्वात् । न च समवायस्यान्यस्य वा एकान्त नित्यस्य कार्यजनकत्वं सम्भवति, नित्ये क्रम-यौगपद्याभ्यामर्थ - १५ क्रियाविरोधस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । न च तदभावे पदार्थानां सत्त्वम्, सत्तासम्बन्धित्वेन तस्य निषिद्धेत्वानिषेत्स्यमानत्वाश्च । } तदेवं समवायस्याभावात् सन्तानत्वं बुद्ध्यादिसन्तानेषु न वृत्तिमत् सिद्धमिति सन्तानत्वलक्षणो हेतुः कथं नाऽसिद्धः ? १५७ अथोपादानोपादेयभूतबुद्ध्यादिलक्षणं प्रवाहरूपमेव सन्तानत्वं हेतुत्वेन विवक्षितम् ; नन्वेवं तस्य तथाभूतस्यान्यत्राननुवृत्तेरसाधारणानैकान्तिकत्वम् अभ्युपगमविरोधश्च । न हि परेण २० बुद्धिक्षणोपादानोऽपरः सर्व एव बुद्धिक्षणोऽभ्युपगम्यते एकसन्तानपतितः । तथाभ्युपगमे वा मुक्तावस्थायामपि पूर्वपूर्वबुद्ध्युपादानक्षणादुत्तरोत्तरोपादेयबुद्धिक्षणस्य संभवान्न बुद्धिसन्तानस्यात्यन्तोच्छेदः साध्यः सम्भवति, यथोक्त हेतु सद्भावबाधितत्वात् । अथ पूर्वापर समानजातीयक्षणप्रवाहमात्रं सन्तानत्वं तेनायमदोषः नन्वेवमपि हेतोरसा - धारणत्वं तदवस्थम् । नोकसन्तानरूपमन्यानुयायि, व्यक्तेर्व्यक्त्यन्तराननुगमात्; अनुगमे वा २५ सामान्यपक्षभावी पूर्वोक्तो दोषस्तदवस्थः; अनैकान्तिकश्च पाकजपरमाणुरूपादिभिः तथाविधसन्तानत्वस्य तत्र सद्भावेऽप्यत्यन्तोच्छेदाभावात् । अपि च, सन्तानत्वमपि भविष्यति अत्यन्तानुच्छेदश्चेति विपर्यये हेतोर्बाधकप्रमाणाभावेन सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनैकान्तिकः । विपक्षेऽदर्शनं च हेतोर्बाधकं प्रमाणं प्रागेव प्रतिक्षिप्तम् । विरुद्धश्चायं हेतुः, शब्द-बुद्धि- प्रदीपादिष्वप्यत्यन्तानुच्छेदवत्स्वेव सन्तानत्वस्य भावात् । ३० न कान्तनित्येष्विवानित्येष्वप्यर्थक्रियाकारित्वलक्षणं सत्वं सम्भवतीति प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । न च प्रदीपादीनामुत्तरः परिणामो न प्रत्यक्षः इत्येतावता 'ते तथा न सन्ति' इति व्यवस्थापयितुं शक्यम्; अन्यथा परमाणूनामपि पारिमाण्डल्य गुणाधारतया प्रत्यक्षतोऽप्रतिपत्तेस्तद्रूपतयाऽसखप्रसङ्गः । अथ तेषां तद्रूपतयाऽनुमानात् प्रतिपत्तेर्नायं दोषः ननु सा अनुमानात् प्रतिपत्तिः प्रकृतेऽपि तुल्या । यथा हि स्थूलकार्यप्रतिपत्तिस्तदपरसूक्ष्मकारणमन्तरेणाऽसम्भविनी परमाणुस - ३५ तामवबोधयति तथा मध्यस्थितिदर्शनं पूर्वापरकोटि स्थितिमन्तरेणासम्भवि तां साधयतीति प्रतिपादयिष्यते । न च ध्वस्तस्यापि प्रदीपस्य विकारान्तरेण स्थित्यभ्युपगमे प्रत्यक्षबाधा, वारिस्थे तेजसि भास्वररूपाभ्युपगमेऽपि तद्वाधोपपत्तेः । अथोष्णस्पर्शस्य भास्वररूपाधिकरणतेजोद्रव्याभावेऽसम्भवादनुद्भूतस्य तत्र परिकल्पनमनुमानतस्तर्हि प्रदीपादेरप्यनुपादानोत्पत्तिवन्न सन्ततिचिपत्यभावमन्तरेण विपत्तिः सम्भवतीत्यनुमानतः किं न कल्प्यते तत्सन्तत्यनुच्छेदः अन्यथा ४० सन्तानचर मक्षणस्य क्षणान्तराजनकत्वेनासरखे पूर्वपूर्वक्षणानामपि तत्त्वान्न विवक्षितक्षणस्यापि सत्त्वमिति प्रदीपादेर्दृष्टान्तस्य बुद्ध्यादिसाध्यधर्मिणश्चाभाव इति नानुमानप्रवृत्तिः स्यात् ? तस्मा १ प्र० पृ० पं० ११ । २ पृ० ११० पं० ८ । ५-क्षबाधः आ०, मां० ॥ कां०, कां० । ३ मुक्त्यव-आ०, ४ पृ० १५६ पं० ६ । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - च्छन्द-बुद्धि- प्रदीपादीनामपि सत्त्रे नात्यन्तिको व्युच्छेदोऽभ्युपगन्तव्यः - अन्यथा विवक्षितक्षणेऽपि सत्त्वाभावः - इति सर्वत्रात्यन्तानुच्छेदवत्येव सन्तानत्वलक्षणो हेतुर्वर्त्तत इति कथं न विरुद्धः ? १५८ विपरीतार्थोपस्थापकस्यानुमानान्तरस्य सद्भावादनुमानबाधितः पक्षः, हेतोर्वा कालात्ययाप दिष्टत्वम् । यथा चानुमानस्य पक्षबाधकत्वम् अनुमानबाधितपक्षनिर्देशानन्तरं प्रयुक्तत्वेन हेतोर्वा ५ कालात्ययापदिष्टत्वं तथाऽसकृत् प्रतिपादितमिति न पुनरुच्यते । अथ किं तदनुमानं प्रकृतप्रतिज्ञाया बाधकं येनात्रायमुक्तदोषः स्यात् ? उच्यते, पूर्वापरस्वभाव परिहारावाप्तिलक्षणपरिणामवान् शब्द-बुद्धि- प्रदीपादिकोऽर्थः सत्त्वात् कृतकत्वाद्वा, यावान् कश्चित् भावस्वभावः स सर्वः तादृशभावस्वभाव विवर्तमन्तरेण न सम्भवतितथाहि - न तावत् क्षणिकस्य निरन्वयविनाशिनः सत्त्वसम्भवोऽस्ति, स्वाकारानुकारि ज्ञान१० मन्यद्वा कार्यान्तरमप्राप्याऽऽत्मानम् संहरतः सकलशक्तिविरहितस्य व्योमकुसुमादेरिव सत्तानुपपत्तेः । तादृशस्य नहि कार्यकालप्राप्तिः, क्षणभङ्गभङ्गप्रसक्तेः । नापि फलस मयमात्मानमप्रापयतस्तजननसामर्थ्य चिरतरविनष्टस्येव सम्भवति । न च समनन्तरभाविनः कार्यस्योत्पादने कारणं स्वसत्ताकाल एव सामर्थ्यमाप्नोति, कार्यकाले तस्य स्वभाव (वा) विशेषात् ततः प्रागपि कार्योत्पत्तिप्रसङ्गात् । तस्मिन् सत्यभवन्नसति स्वयमेव भवन् अयं भावः तत्कार्यव्यपदेशमपि न लभते; १५ न हि समर्थ कारणे प्रादुर्भावमप्राप्नुवत् कार्यमितरद्वा कारणम् अतिप्रसङ्गात् । न च समनन्तरभावविशेषैमात्रेण तत्कार्यत्वं युक्तम्, समनन्तरप्रभवत्व स्यैवासम्भवात् - इतरेतराश्रयप्रसक्तेः - इति प्रतिपादितत्वात् । उपचरितं चैवं तस्य कार्यत्वमितरस्य च कारणत्वं स्यात् अक्षणिकवत् । तत्कारणभावे सत्यभवन्तं प्रति पुनः कारणस्य भावाभावयोर्न कश्चिद्विशेषः ततोऽक्षणिकादिव क्षणिकादपि २० सत्त्वादिर्वस्तुस्वभावो व्यावर्त्तत एव । न ह्यक्षणिके एव क्रम-यौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधः किं तर्हि क्षणभङ्गेऽपि । तथाहि न तावत् कार्य-कारणयोः क्रमः सम्भवति, कालभेदात् जन्यजनकभावविरोधातू, चिरतरोपरतोत्पन्नपितापुत्रवत् । न हि तादृशस्यापेक्षापि सम्भवति, अनाधेयाऽप्रहेयातिशयत्वात्, अक्षणिकवत् न हि किञ्चिदतिशयं ततो नासादयत् भावान्तरमपेक्षते यतः क्रमः स्यात्, जन्य- जनकयो राधेय विशेषत्वेऽपि न क्रमसम्भवः, क्रमिणोः कालभेदात् तत्त्वानुपपत्तेः । यौगपद्यं तु २५ तयोर्हेतुफलभावतयैवासम्भवि, समानकालयोर्हि न हेतुफलभावः सव्येतरगोविषाणवदपेक्षानुपपत्तेः । अत एव कृतकत्वादयोऽपि हेतवो वस्तुस्वभावाः परिणामानभ्युपगमवादिनां न सम्भवन्ति । तथाहि अपेक्षित परव्यापारो हि भावः स्वभावनिष्पत्तौ कृतक उच्यते, सा च परापेक्षा एकान्त नित्यवदेकान्ताऽनित्येऽप्यसम्भविनी; तदपेक्षाकारणकृतस्वभावविशेषेण विवक्षितवस्तुनः सम्बन्धोऽपि नोपपद्येत, स्वभावभेदप्रसक्तेः । अभेदे वाऽपेक्ष्यमाणादपेक्षकस्य सर्वथाऽऽत्मनिष्पत्तिप्रसङ्गात् । अतः ३० स्वभावभिन्नयोः प्रत्यस्तमितोपकार्योपकारकस्वभावयोर्भावयोः सम्बन्धानुपपत्तेः 'अस्येदम्' इति व्यपदेशस्यानुपपत्तिः । यदि पुनरपेक्षमाणस्य तदपेक्ष्यमाणेन व्यतिरिक्तमुपकारान्तरं क्रियेत, तत्सम्बन्धव्यपदेशार्थं तत्राप्युपकारान्तरं कल्पनीयमित्यनवस्था सकलव्योमतलावलम्बिनी प्रसज्येत । तस्मान्नित्याऽनित्यपक्षयोरर्थक्रियालक्षणं सत्वम् कृतकत्वं वा न सम्भवतीति यत् किञ्चित् सत् कृतकं वा तत्सर्व परिणामि, इतरथाऽकिञ्चित्करस्यावस्तुत्वप्रसङ्गान्नभस्तलार विन्दिनी कुसुमवत्३५ सन् कृतको वा शब्द-बुद्धि-प्रदीपादिरिति सिद्धः परिणामी । सत्त्वं चार्थक्रियाकारित्वमेव, अन्यस्य निषिद्धत्वात् तच्चात्यन्तोच्छेदवत्सु न सम्भवत्येव ततो व्यावर्त्तमानो हेतुः अनत्यन्तोच्छेदवत्स्वेव संभवतीति कथं न प्रकृतहेतुपक्षबाधकत्वमाशङ्कनीयं प्रकृतसाध्यसाधकस्य हेतोरनेकदोषदुष्टत्वप्रतिपादनात् ? न चासत्प्रतिपक्षत्वमप्यस्य । तथाहि - 'बुद्ध्या दिसन्तानो नात्यन्तोच्छेदवान्, सर्वप्रमाणानु४० पलभ्यमानतथोच्छेदत्वात्, यो हि सर्वप्रमाणानुपलभ्यमानतथोच्छेदो न स तत्वेनोपेयः, यथा १ - न्तिको वि-मां०, मां० । २ - वश्चाभावः वा०, बा० । ३ - वविवर्त्त - आ० । ४ - भावाभाववि-आ०, कां०। - भावाभावावि-वा०, बा०, मां०, भां० । ५ षमन्तरेण त भां०, मां० । ६ पृ० १३८ २३ । ७ हि कञ्चि वा०, बा० । ८-यन् भा-भां०, मां० । ९-पद्यते भां०, मां० । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तिस्वरूपवादः। १५९ पार्थिवपरमाणुपाकजरूपादिसन्तानः, तथाच बुझ्यादिसन्तानः, तस्मान्नात्यन्तोच्छेदवान्' इति कथं न सत्प्रतिपक्षत्वं 'सन्तानत्वात्' इत्यनुमानस्य ? न च प्रस्तुतानुमानत एव सन्तानोच्छेदस्य प्रतीतो सर्वप्रमाणानुपलभ्यमानतथोच्छेदत्वमसिद्धम्, सन्तानत्वसाधनस्य सत्प्रतिपक्षत्वात् । न चास्य प्रतिपक्षसाधनस्य प्रमाणत्वे सिद्धे सन्तानत्वसाधनस्य सत्प्रतिपक्षत्वम् अस्य च सत्प्रतिपक्षत्वे विक्षितानुपलब्धेः प्रतिपक्षसाधनस्य प्रमाणत्वमिति वाच्यम्, भवदभिप्रायेण सत्प्र-५ तिपक्षत्वदोषस्योद्भावनात्, परमार्थतस्तु यथाऽयं दोषो न भवति तथा प्रतिपादितम् प्रतिपादयिष्यते च । सन्तानत्वहेतोस्त्वसिद्धाऽनैकान्तिक-विरुद्धत्वान्यतमदोषदुष्टत्वेनासाधनत्वम्, तच प्रतिपादितमित्यलमतिप्रसङ्गेन, दिङ्मात्रप्रदर्शनपरत्वात् प्रयासस्य । यञ्च निर्हेतुकविनाशप्रतिषेधात् सन्तानोच्छेदे हेतुर्वाच्यः' इत्यादि, तदसङ्गतम् । सम्यग्ज्ञानाद् विपर्ययज्ञानव्यावृत्तिक्रमेण धर्माऽधर्मयोस्तत्कार्यस्य च शरीरादेरभावेऽपि सकल-१० पदार्थविषयसम्यग्ज्ञानानन्तानिन्द्रियजप्रशमसुखादिसन्तानस्य निवृत्त्यसिद्धेः । न च शरीरादिनिमित्तकारणमात्ममनःसंयोगं चासमवायिकारणमन्तरेण न ज्ञानोत्पत्तिः, परलोकसाधनप्रस्तावे "तैस्माद्यस्यैव संस्कारं नियमेनानुवर्तते। तन्नान्तरीयकं चित्तमतश्चित्तसमाश्रयम्" ॥ [ ] इति न्यायेन ज्ञानस्य ज्ञानोपादानत्वप्रतिपादनात्; अन्यथा परलोकाभावप्रसङ्गात्; नित्यस्यात्मन १५ समवायिकारणत्वेन ज्ञानादिकं प्रेति निषिद्धत्वात् आत्ममनःसंयोगस्य वाऽसमवायिकारणस्य प्रतिषेत्स्यमानत्वात् निषिद्धत्वाच्च संयोगस्य निमित्तकारणस्य वा; प्रतिनियतत्वेन शरीराद्यभावेऽपि देश-कालादेरात्मनो ज्ञानादिस्वभावस्योत्तरज्ञानाद्यवस्थारूपतया परिणमतः सहकारित्वसम्भवात् । ईश्वरज्ञानं च शरीरादिनिमित्तकारणविकलमप्यभ्युपगच्छति-तज्ज्ञानेऽपि नित्यत्वस्य प्रतिषिद्धत्वात्-न पुनर्मुक्त्यवस्थायामात्मनस्तत्स्वभावस्येति सुस्थितम् नैयायिकत्वं परस्य । २० __यत्तूक्तम् 'आरब्धकार्ययोर्धर्माधर्मयोरुपभोगात् प्रक्षयः संचितयोश्च तत्त्वज्ञानात्' इत्यादि, तदपि न सङ्गतम् ; उपभोगात् कर्मणः प्रक्षये तदुपभोगसमयेऽपरकर्मनिमित्तस्याभिलाषपूर्वकमनोवाक्-कायव्यापारस्वरूपस्य सम्भवादविकलकारणस्य च प्रचुरतरकर्मणः सद्भावात् कथमात्यन्तिकः कर्मक्षयः? सम्यग्ज्ञानस्य तु मिथ्याज्ञाननिवृत्त्यादिक्रमेण पापक्रियानिवृत्तिलक्षणचारित्रोपबृंहितस्याऽऽगामिकर्मानुत्पत्तिसामर्थ्यवत् सश्चितकर्मक्षयेऽपि सामर्थ्य संभाव्यत एव-यथोष्ण-२५ स्पर्शस्य भाविशीतस्पर्शानुत्पत्तौ समर्थस्य पूर्वप्रवृत्ततत्स्पर्शादिध्वंसेऽपि सामर्थ्यमुपलब्धम्-किन्तु परिणामिजीवाजीवादिवस्तुविषयमेव सम्यग्ज्ञानं न पुनरेकान्तनित्यानित्यात्मादिविषयम्; तस्य विपरीतार्थग्राहकत्वेन मिथ्यात्वोपपत्तेः। यथा चैकान्तवादिपरिकल्पित आत्माद्यों न संभवति तथा यथास्थानं निवेदयिष्यते । मिथ्याज्ञानस्य च मुक्तिहेतुत्वं परेणापि नेष्यत एव अतो यदुक्तम् "यथैधांसि" इत्यादि, तत् सर्वसंवररूपचारित्रोपबंहितसम्यग्ज्ञानाग्नेरशेषकर्मक्षये सामर्थ्यमभ्यु-३० पगम्यते, तत् सिद्धमेव साधितम् । __ यच्चोपभोगादशेषकर्मक्षयेऽनुमानमुपन्यस्तम्, तत्र यदेवाऽऽगामिकर्मप्रतिबन्धे समर्थ सम्यग्ज्ञानादि तदेव सञ्चितक्षयेऽपि परिकल्पयितुं युक्तमिति प्रतिपादितं सर्वज्ञसाधनप्रस्तावे । उपभोगात्तु प्रक्षये स्तोकमात्रस्य कर्मणः प्रचुरतरकर्मसंयोगसंचयोपपत्तेन तदशेषक्षयो युक्तिसङ्गतः। 'कर्मत्वात्' इति च हेतुः सन्तानत्ववदसिद्धाद्यनेकदोषदुष्टत्वान्न प्रकृतसाध्यसाधकः। असिद्धत्वादिदो-३५ षाद्भावन च सन्तानत्वहतुदूषणानुसारेण स्वयमेव वाच्य न पुनरुच्यत ग्रन्थगारवभयात् । येच्च 'समाधिबलादुत्पन्नतत्त्वज्ञानस्य' इत्यादि, तदप्ययुक्तम् अभिलाषरूपरागाद्यभावे १-वक्षितत्वा -वा०, बा०। २ पृ० १५६ पं० ३-पृ० १५७ पं० ३०। ३ पृ. १५० पं० १४ । ४ पृ० ७७ पं० ३२। ५ प्रतिषिद्धत्वा-वि. विना। ६ पृ० ११३ पं० ४२। ७ पृ० १२६ पं० २३ । अत्र स्थले प्रमेयकमलमार्तण्डे "नित्यत्वं चेश्वरज्ञानस्य ईश्वरनिराकरणे प्रतिषिद्धम् , शरीराद्यपायेऽप्यस्य ज्ञानायभ्युपगमेऽन्यात्मनोऽपि सोऽस्तु तत्स्वभावत्वात्"-पृ० ९१ प्र०, पं० १२। ८पृ० १५० पं० २०। ९ पृ० १५० पं० २२ । १०-त् सर्व संव-मां०। ११-मवगम्यते सिद्ध-वा०। १२ पृ० १५० पं० २६। १३-कर्मसामर्थ्यप्रति -वि०। १४-ग योप-वा०। १५ पृ० १५० पं० २८॥ ४ पृ० ७७.५० २ "नित्यत्वं चेश्वरज्ञानस्य श्वापृ० १५० पं० २० । सामर्थ्यप्रति Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - रुयाद्युपभोगासम्भवात्, सम्भवेऽपि चावश्यंभावी ऋद्धिमतो भवदभिप्रायेण योगिनोऽपि प्रचुरतर धर्माधर्मसंभवोऽतिभोगिन इव नृपत्यादेः, वैद्योपदेशप्रवर्तमानातुरदृष्टांन्तोऽप्यसङ्गतः, तस्यापि निरुग्भावाभिलाषेण प्रवर्त्तमानस्यौषधाद्याचरणे वीतरागत्वासिद्धेः । न च मुमुक्षोरपि मुक्तिसुखाभिलाषेण प्रवर्तमानस्य सरागत्वम्, सम्यग्ज्ञानप्रतिबन्धकराग विगमस्य सर्वज्ञत्वान्यथानुपपत्या ५ प्राक् प्रसाधितत्वात् । भवोपग्राहि कर्मनिमित्तस्य तु वागू- बुद्धि-शरीराऽऽरम्भप्रवृत्तिरूपस्य सातजनकस्य शैलेश्यवस्थायां मुमुक्षोरभावात् प्रवृत्तिकारणत्वेनाभ्युपगम्यमानस्य सुखाभिलापस्याप्यसिद्धेन मुमुक्षो रागित्वम् । प्रसिद्धश्च भवतां प्रवृत्त्यभावो भाविधर्माधर्मप्रतिबन्धकः । श्च भावधर्माधर्माभ्यां विरुद्धो हेतुः स एव सञ्चितत्क्षयेऽपि युक्त इति प्रतिपादितम् । अत एव सम्यग्ज्ञान-दर्शन- चारित्रात्मक एव हेतुर्भावि भूतकर्मसम्बन्धप्रतिघातकत्वाद् १० मुक्तिप्रात्यवन्ध्यकारणं नान्य इति । तेन यदुक्तम् 'तत्त्वज्ञानिनां कर्म विनाशस्तत्वज्ञानात्' इति, तद्युक्तमेव । यतु 'इतरेषामुपभोगात्' इति, तदयुक्तम्; उपभोगात् तत्क्षयानुपपत्तेः प्रतिपादितत्वात् । यत्तु 'नित्य नैमित्तिकानुष्ठानं केवलज्ञानोत्पत्तेः प्राक् काम्यनिषिद्धानुष्ठान परिहारेण ज्ञानावरणादिदुरितक्षयनिमित्तत्वेन केवलज्ञानप्राप्तिहेतुत्वेन च प्रतिपादितम्' तदिष्टमेवास्माकम् । केवलज्ञानलाभोत्तरकालं तु शैलेश्यवस्थायामशेष कर्म निर्जरणरूपायां सर्वक्रियाप्रतिषेध एवाभ्यु१५ पगम्यत इति न तन्निमित्तो धर्माधर्मफलप्रादुर्भावः, प्रवृत्तिनिवृत्तेरात्यन्तिक्यास्तत्क्षय हेतुत्वैसिद्धेः । चकम् 'विपर्ययज्ञानध्वंसादिक्रमेण विशेषगुणोच्छेद विशिष्टात्मस्वरूपमुक्त्यभ्युपगमे न तत्त्वज्ञान कार्यत्वादनित्यत्वं वाच्यम्' इत्यादि, तदप्ययुक्तम्; विशेषगुणोच्छेदविशिष्टात्मनो मुक्तिरूपतया प्रतिषिद्धत्वात्, बुद्ध्यादेर्विशेषगुणत्वस्यात्यन्तिकतत्क्षयस्य च प्रमाणबाधितत्वात् । गुणव्यतिरिक्तस्य च गुणिन आत्मलक्षणस्यैकान्तनित्यस्य निषेत्स्यमानत्वात् तस्य बुद्ध्यादिविशेष२० गुणतादात्म्याभावोऽसिद्धः । १६० यच्चे 'मोक्षावस्थायां चैतन्यस्याप्युच्छेदान्न कृतबुद्धयस्तत्र प्रवर्त्तन्त इत्यानन्दरूपात्मस्वरूप एव मोक्षोऽभ्युपगन्तव्यः' इति एतत् सत्यमेव । यचे 'यथा तस्य चित्स्वभावता नित्या तथा परमानन्दस्वभावताऽपि' इत्यादि, तदयुक्तम् ; चित्स्वभावतायाः अप्येकान्त नित्यतानभ्युपगमात्; आत्मस्वरूपता तु चिद्रूपताया आनन्दरूपतायाश्च कथंचिदभ्युपगम्यत एव । यच्च 'अनन्यत्वेन २५ श्रुतौ श्रवणम् 'विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इति, तदपि नास्मदभ्युपगमबाधकम्, समस्त ज्ञेयव्यापिनो ज्ञानस्यावैषयिकस्य चानन्दस्य स्वसंविदितस्य मुक्त्यवस्थायां सकलकर्मरहितात्मब्रह्मरूपाभेदेन कथंचिदभीष्टत्वात् । यपि 'यदाऽविद्यानिवृत्तिः तदा स्वरूपप्रतिपत्तिः सैव मोक्षः' इति, तदपि युक्तमेव, अष्टविधपारमार्थिककर्मप्रवाहरूपानाद्यविद्यात्यन्तिकनिवृत्तेः स्वरूपप्रतिपत्तिलक्षणमोक्षावाते रभीष्टत्वात् । ३० अत एव 'आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षेऽभिव्यज्यते' इत्येतदपि नास्मत्पक्षक्षतिमुद्वहति, अभिव्यक्तेः स्वसंविदितानन्दस्वरूपतया तदवस्थायामात्मन उत्पत्तेरभ्युपगमात् । यच्च यथात्मनो महत्त्वं निजो गुणः' इत्यादि, तदसारम् ; नित्यसुख - महत्त्वादेरात्माऽव्यतिरिक्तत्वेन तद्धर्मत्वेन वा प्रमाणबाधितत्वादनभ्युपगमार्हत्वात् । अत एव 'संसारावस्थायामपि नित्यसुखस्य तत्संवेदनस्य च सद्भावात् संसार- मुक्त्यवस्थयोरविशेषः' इत्यादि यदूषणमत्र पक्षे उपन्यस्तं तद्नभ्युपगमादेव निरस्तम् । ३५ यच्चानित्यत्वपक्षेऽपि 'तस्यामवस्थायां सुखोपपत्तावपेक्षाकारणं वक्तव्यम्, न ह्यपेक्षाकारणशून्यः आत्ममनः संयोगः कारणत्वेनाभ्युपेयते' इत्यादि, तदप्यसङ्गतम् ज्ञान- सुखादेश्चैतन्योपादेयत्वेन तद्धर्मानुवृत्तितः प्राक् प्रतिपादितत्वात् सेन्द्रियशरीरादेस्तु तदुत्पत्तावपेक्षाकारणत्वेनाभ्युपगम्यमानस्याव्यापकत्वात् । तथाहि - सेन्द्रियशरीराद्यपेक्षाकारणव्यापाररहितं विज्ञानमुपलभ्यत एव १ अत्र प्रमेय० मा० " गृद्धिमतो भवदभि” - इत्येव पाठः, स एव च सम्यक् पृ० ९१ द्वि०, पं० २ । २ पृ० १५० पं० ३१ । ३ पृ० ६१ पं० २ ४- तक्षये मां० । ५ पृ० १५९ पं० २४ । ६ पृ० १५० पं० ३३ । ७ पृ० १५० पं० ३३ । ८ पृ० १५९ पं० ३४ । ९० १५० पं० ३९ । १० - त्वसिद्ध ः वि० । ११ पृ० १५१ पं० ६। १२ पृ० १५६ पं० ३ । १३ पृ० १५१ पं० ९ । १४ पृ० १५१ पं० १० । १५ पृ० १५१ पं० ११ । १६० १५१ पं० १५ । १७ पृ० १५१ पं० १७ । १८ पृ० १५१ पं० १९ । १९ पृ० १५१ पं० २८ । २० सुखोत्पत्ता- मां० । २१ पृ० १५२ पं० ३ । २२ पृ० १५९ पं० १५ । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तिस्वरूपवादः । १६१ समस्तशेयविषयत्वेनानियतविषयम् , यथाऽव्यापृतचक्षुरादिकरणग्रामस्य, 'सदसती तत्त्वम्' इति झानं सकलाक्षेपेण व्याप्तिप्रसाधकं वा । न चात्राप्यात्माऽन्तःकरणसंयोगस्य शरीराद्यपेक्षाकारणसहकृतस्य व्यापार इति वक्तुं युक्तम् , अन्तःकरणस्याणुपरिमाणद्रव्यरूपस्य प्रमाणबाधितत्वेनानभ्युपगमार्हत्वात् संयोगस्य च निषिद्धत्वात् । शरीरादीनां तु ज्ञानोत्पत्तिवेलायां सन्निधानेऽपि तहुण-दोषाऽन्वय-व्यतिरेकानुविधानस्य तज्ज्ञानेऽनुपलम्भान्नापेक्षाकारणत्वं कल्पयितुं युक्तम् , तथापि ५ तत्कल्पनेऽतिप्रसङ्गः । देश-कालादिकं च विशुद्धज्ञानक्षणस्यान्वयिनः ज्ञानान्तरोत्पादने प्रवर्तमानस्यापेक्षाकारणं न प्रतिषिध्यते मुक्त्यवस्थायामपि, शरीरादिकं तु तस्यामवस्थायां कारणाभावादेवानुत्पन्नं नापेक्षाकारणं भवितुमर्हति । यदि च सेन्द्रियशरीरापेक्षाकारणमन्तरेण ज्ञानादेरुत्पत्तिर्नाभ्युपेयेत तदा तथाभूतापेक्षाकारणजन्यज्ञानस्य चक्षुरादिज्ञानस्येव प्रतिनियतविषयत्वं स्यादिति 'सदसद्वर्गः कस्यचिदेकज्ञानालम्बनः, प्रमेयत्वात् , पञ्चाङ्गुलिवत्' इत्यतोऽनुमानादनुमीयमानं सर्वज्ञ-१० शानमपि प्रतिनियतविषयत्वान्न सर्वविषयं स्यात् । यदि पुनस्तज्ज्ञानं सकलपदार्थविषयत्वात् तजन्यं "अर्थवत् प्रमाणम्" [ वात्स्या० भा० पृ० १, पं० २] इति वचनात् सेन्द्रियशरीरापेक्षाकारणाऽजन्यं वाभ्युपगम्यते अन्यथा सर्व विषयत्वं न स्यादिति तर्हि मुक्त्यवस्थायामपि देहाद्यपेक्षाकारणाऽजन्यं किं नाभ्युपगम्यते ? अंसाधितं चानिन्द्रियजं सकलपदार्थविषयमध्यक्षं ज्ञानं सर्वसाधनप्रस्तावे इति न सेन्द्रियशरीरापेक्षाकारणजन्यत्वाभावे तज्ज्ञानस्य प्रतिनियतविषयत्वाभावादभाव १५ एवाभ्युपगन्तुं युक्तः। अपि च, सकलपदार्थप्रकाशकत्वं ज्ञानस्य स्वभावः, स च सेन्द्रियदेहाद्यपेक्षाकारणस्वरूपावरणेनाच्छाद्यतेऽपवरकावस्थितप्रकाश्यपदार्थप्रकाशकस्वभावप्रदीप इव तदावारकशरावादिना, तदपगमे तु प्रदीपस्येव स्वप्रकाश्यप्रकाशकत्वं ज्ञानस्यायनसिद्धमिति कथमावरणभूतसेन्द्रियदेहाद्यभावे तद्वस्थायां ज्ञानस्याप्यभावः प्रेर्येत ? अन्यथा प्रदीपावारकशरावाद्यभावे प्रदीपस्याप्यभावः प्रेरणीयः२० स्यात् । न च शरावादेरावारकस्य प्रदीपं प्रत्यजनकत्वमाशङ्कनीयम्, तथाभूतप्रदीपपरिणतिजनकत्वाच्छरावादेः, अन्यथा तं प्रत्यावारकत्वमेव तस्य न स्यात्, परिणामस्य च प्रसाधयिष्यमाणत्वात् । उपलभ्यते च संसारावस्थायामपि वासीचन्दनकल्पस्य मुमुक्षोः सर्वत्र समवृत्तेर्विशिष्टध्यानादिव्यवस्थितस्य सेन्द्रियशरीरव्यापाराजन्यः परमाहादरूपोऽनुभवः, तस्यैव भावनावशादुत्तरोत्तरामवस्थामासादयतः परमकाष्ठागतिरपि सम्भाव्यत एवेत्येतदपि सर्वशसाधनप्रस्तावे प्रतिपादितमिति न पुनरुच्यते। परमार्थतस्त्वानन्दरूपताऽऽत्मनः स्वरूपभूता तद्विबन्धककर्मक्षयात् तस्यामवस्थायामुत्पद्यते । एकान्तनित्यस्य त्वविचलितरूपस्यात्मनो वैषयिकसुख-दुःखोपभोगोऽप्यनुपपन्नः, एकस्वभावस्य तत्स्वभावापरित्यागे भिन्नसुख-दुःखसंवेदनोत्पादेऽप्याकाशस्येव तदनुभवाभावात् । तत्समवेत-तदुत्पत्यादिकं तु प्रतिक्षिप्तत्वान्न वक्तव्यम्, 'ज्ञानं चोत्तरज्ञानोत्पादनस्वभावम्, यच्च यत्स्वभावम् नः तत् तदुत्पादनेऽन्यापेक्षम्, यथान्त्या बीजादिकारणसामग्री अङ्कुरोत्पादने, तत्स्वभावश्च पूर्वो शानक्षण उत्तरज्ञानक्षणोत्पादने' इति स्वभावहेतुः; अन्यथाऽसौ तत्स्वभाव एव न स्यात् । न च संसारावस्थाज्ञानान्त्यक्षणस्योत्तरज्ञानजननस्वभावत्वमसिद्धम्, तथाभ्युपगमे सत्तासंबन्धादेः सत्त्वस्य निषिद्धत्वात् तदजनकत्वेन तस्यानर्थक्रियाकारित्वात् अवस्तुत्वापत्तेस्तजनकस्याप्यवस्तुत्वं ततस्तजनकस्येत्येवमशेषचित्तसन्तानस्यावस्तुत्वप्रसङ्गः। अथ स्वसन्तानवर्त्तिचित्तक्षणस्याजनकत्वेऽपि सन्तानान्तरवतियोगिज्ञानस्य जननान्नाशेषचित्तक्षणावस्तुत्वप्रसक्तिः, नन्वेवं रसादेरेककालस्य रूपादेरव्यभिचार्यनुमानं साधवचित्तसन्ताननिरोधलक्षणमुक्तिवादिनो बौद्धस्य न स्यात्, रूपादेरन्त्यक्षणवद् विजातीयकार्यजनकत्वेऽपि सजातीयकार्यानारम्भसंभवात् । एकसामग्र्यधीनत्वेन रूप-रसयोर्नियमेन कार्यद्वयारम्भकत्वेऽन्यत्रापि कार्यद्वयारम्भकत्वं किं न स्यात् 'योगिज्ञानान्त्यक्षणयोरपि समानकारणसामग्रीजन्यत्वात् ? कथ-४० मेकत्रानुपयोगिनश्चान्यत्रोपयोगश्चरमक्षणस्य? उपयोगे वो ज्ञानान्तरप्रत्यक्षवादिनोऽपि नैयायि १ पृ० ११३ पं० ४२। २ पृ. ८५ पं० १४ । ३ चाऽभ्यु-आ०। ४ पृ० ६५ पं. ३३-पृ० ६७ पं. ४। ५ परिमाणस्य मां०। ६ पृ. ६१५० २५। ७ पृ. १३५ पं० ९। ८-दखभा-आ०, वि०। ९ पृ. ११० पं०९। १० योगिनां ज्ञाना-हा०, कां०, गु०। ११ वा ज्ञानज्ञानान्तर-मां०, भां० । स० त०२१ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ प्रथमे काण्डेकस्य स्वविषयशानजननासमर्थस्यापि ज्ञानस्यार्थज्ञानजननसामर्थ्य किं न स्यात् ? तथा च नार्थचिन्तनमुत्सीदेत् । अथ स्वसन्तानवर्तिकार्यजननसामर्थ्यवद् भिन्नसन्तानवर्तिकार्यजननसामर्थ्यमपि नेष्यते तर्हि सर्वथार्थक्रियासामर्थ्यरहितत्वेनान्त्यक्षणस्यावस्तुत्वप्रसक्तिः । तथाविधस्यापि वस्तुत्वे सर्वथाऽर्थक्रियारहितस्य अक्षणिकस्यापि वस्तुत्वप्रसक्तिः। तथा च सत्त्वादयः क्षणिकत्वं न ५ साधयेयुः अनैकान्तिकत्वात् । तस्मात् साश्रवचित्तसन्ताननिरोधलक्षणाऽपि मुक्तिर्विशेषगुणरहितात्मस्वरूपेवाऽनुपपन्ना। निराश्रवचित्तसन्तत्युत्पत्तिलक्षणा त्वभ्युपगम्यत एव, केवलं सा चित्तसंततिः सान्वया युक्ता; बद्धो हि मुच्यते नाबद्धः। न च निरन्वये चित्तसन्ताने बद्धस्य मुक्तिः संभवति, तत्र ह्यन्यो बद्धोऽन्यश्च मुच्यते, सन्तानक्याद् बद्धस्यैव मुक्तिरत्रापीति चेत्, यदि सन्तानार्थः पर१०मार्थसंस्तदाऽऽत्मैव सन्तानशब्देनोक्तः स्यात्, अथ संवृतिसन् तदैकस्य परमार्थसतोऽसत्त्वादन्यो बद्धोऽन्यश्च मुच्यत इति बद्धस्य मुक्त्यर्थं न प्रवृत्तिः स्यात् । अथात्यन्तनानात्वेऽपि दृढरूपतया क्षणानामेकत्वाध्यवसायात् 'बद्धमात्मानं मोचयिष्यामि' इत्यभिसन्धानवतः प्रवृत्तेर्नायं दोषः तर्हि न नैरात्म्यदर्शनमिति कुतस्तन्निबन्धना मुक्तिः ? अथास्ति नैरात्म्यदर्शनं शास्त्रसंस्कारजम्, न तयेकत्वाध्यवसायोऽस्खलद्रूप इति कुतो वद्धस्य मुक्त्यर्थं प्रवृत्तिः स्यात् ? तथा च १५"मिथ्याध्यारोपहानार्थ यत्नोऽसत्यपि मोक्तरि" [ ] इत्येतत् प्लवते । तस्मादसति विज्ञानक्षणान्वयिनि जीवे बन्ध-मोक्षयोस्तदर्थ वा प्रवृत्तेरनुपपत्तेः सान्वया चित्तसन्ततिरभ्युपगन्तव्या । न च 'यस्मिन् व्यावर्त्तमाने यदनुवर्त्तते तत् तत एकान्ततो भिन्नम् , यथा घटे व्यावतमानेऽनुवर्तमानः पटः, व्यावर्त्तमाने च ज्ञानक्षणेऽनुवर्तते चेजीवस्ततस्ततो भिन्न एव'-अन्यथा २० विरुद्धधर्माध्यासेऽपि यद्येकान्ततो भेदो न स्यादन्यस्य भेदलक्षणस्याभावादभिन्नं सकलं जगत् स्यात्-इत्यतोऽनुमानात् व्यावृत्ताऽनुवृत्तयोर्भेदसिद्धेर्न सान्वया निरास्रवचित्तसन्ततिर्मुक्तिरिति वक्तुं युक्तम् , असति तत्र पूर्वापरज्ञानक्षणव्यापके आत्मनि खसंविदितैकत्वप्रत्ययस्य प्रत्यक्षस्यानुपपत्तेः। अथात्मन्यसत्यप्यध्यारोपितैक(-कत्व-)विषयःप्रत्ययः प्रादुर्भविष्यति, अयुक्तमेतत् ; स्वात्मन्य नुमानात् क्षणिकत्वं निश्चिन्वतः समारोपितैकत्वविषयस्य विकल्पस्य निवृत्तिप्रसङ्गात् निश्चयाऽऽरोप२५ मनसोर्विरोधात्, अविरोधे वा सविकल्पकप्रत्यक्षवादिनोऽपि सर्वात्मना प्रत्यक्षेणार्थनिश्चयेऽपि समारोपविच्छेदाय प्रवर्त्तमानं न प्रमाणान्तरमनर्थकं स्यात् । निवर्त्तत एवैकत्वविषयो विकल्पोऽनुमानात् क्षणिकत्वं निश्चिन्वत इति चेत्, तर्हि सहजस्याऽऽभिसंस्कारिकस्य च सत्त्वदर्शनस्याभावात् तदैव तन्मूलरागादिनिवृत्तेर्मुक्तिः स्यात् ।। न चायमेकत्व विषयः प्रत्ययः प्रतिसङ्ख्यानेन निवर्तयितुमशक्यत्वान्मानसो विकल्पः । ३० तथाहि-अनुमानबलात् क्षणिकत्वं विकल्पयतोऽपि नैकत्वप्रत्ययो निवर्त्तते, शक्यन्ते तु प्रतिसङ्ख्यानेन निवारयितुं कल्पनाः न पुनः प्रत्यक्षवुद्धयः । तस्माद् यथा अश्वं विकल्पयतोऽपि गोदर्शनान्न गोप्रत्ययो विकल्पस्तथा क्षणिकत्वं विकल्पयतोऽप्येकत्वदर्शनान्नैकत्वप्रत्ययो विकल्पः । नाप्ययं भ्रान्तः, प्रत्यक्षस्याशेषस्यापि भ्रान्तत्वप्रसङ्गात् । वाह्याभ्यन्तरेषु भावेष्वेकत्वग्राहकत्वेनैवाशेषप्रत्यक्षेणानुत्पत्ति(-प्रत्यक्षाणामुत्पत्ति-)प्रतीतेः, तथा च प्रत्यक्षस्याभ्रान्तत्वविशेषणमसम्भव्येव स्यात् । ३५ तस्मादेकत्वग्राहिणः स्वसंवेदनप्रत्यक्षस्याऽभ्रान्तस्य कथञ्चिदेकत्वमन्तरेणानुपपत्तेर्नानुगतरूपाभावः। नाप्यनुगत-व्यावृत्तरूपयोरैकान्तिको भेदः, तद्भेदप्रतिपादकस्यानुमानस्य तदभेदग्राहकप्रत्यक्षप्रत्ययबाधितत्वात् । न च प्रतीयमानस्य रूपस्य विरोधः, अन्यथा ग्राह्य-ग्राहक-संवित्तिलक्षणविरुद्धरूपत्रयाध्यासितस्य ज्ञानस्याप्येकत्वविरोधः स्यात्। तथा, एकनीलक्षणस्याप्येकदा स्वपरकार्यजनकत्वाजनकत्वविरुद्धधर्मद्वयाध्यासितस्यैकत्वविरोधप्रसक्तिः । नैयायिकेनापि प्रतीयमाने वस्तुनि न ४० विरोधोद्भावनं विधेयम्; अन्यथा 'स्थाणुरयं पुरुषो वा' इत्याकारद्वयसमुल्लेखिसंशयप्रत्ययस्याप्येकत्वं विरुद्धमासज्येत। १-राश्रव-मां०, भा०। २-मारोपिवि-आ०, हा०। ३ अत्र स्थले प्रमेय. मा० ईदृशः पाठः "बाह्याध्यात्मिकभावेषु एकत्वग्राहकरवेनैव अशेषप्रत्यक्षाणां प्रवृत्तिप्रतीतेः" पृ०९२ प्र०, पं० ८। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तिस्वरूपवादः । १६३ यथोक्तम् 'यदि योगजो धर्म आत्ममनः संयोगस्यापेक्षाकारणम्' इत्यादि, तदपि निरस्तम् ; सर्वस्यास्मान् प्रत्यन्नभ्युपगतोपालम्भमात्रत्वात् । यच्च 'मुमुक्षुप्रवृत्तिरिष्टाधिगमार्था, प्रेक्षापूर्वकारिप्रवृत्तित्वात्' इत्यनुमाने 'चिकित्साशास्त्रार्थानुष्ठायिनामातुराणामनिष्टप्रतिषेधार्था प्रवृत्तिर्दश्यते' इत्यनैकान्तिकोद्भावनं तत्रानिष्टनिषेधेनाऽऽरोग्यसुखप्राप्तिलक्षणेष्टाधिगमार्थित्वेन तेषां तत्र प्रवृत्तेदर्शनान्नानैकान्तिकत्वम् । न चास्माकमयं पक्षः - मोक्षसुखरागेण मुमुक्षवो वीतरागाः सन्तः ५ प्रवर्तन्ते, "मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनिसत्तमः" [ ] इत्यभ्युपगमात् । यच्च 'विज्ञानमानन्दं ब्रह्म इत्याद्यागमस्य गौणार्थप्रतिपादनपरत्वम्' अभ्यधायि, तदत्यन्तमसङ्गतम् ; मुख्यार्थबाधकसद्भावे तदर्थकल्पनोपपत्तेः । न च तत्र किञ्चिद् बाधकमस्तीति प्रतिपादितम् । यचे 'किंच, इष्टार्थाधिगमायां च' इत्याद्युक्तं तदपि सिद्धसाध्यतादोषान्निःसारतया चोपेक्षितम् । यपि 'नित्यसुखाभ्युपगमे च विकल्पद्वयम्' इत्याद्यभिहितं तदप्यनभ्युपगमादेव निरस्तम्; नित्यस्य १० सुखस्यान्यस्य वा पदार्थस्यानभ्युपगमात् । यथाभूतं च स्वसंविदितं सुखं मोक्षावस्थायामात्मनस्तद्रूपतया परिणामिनः कथञ्चिदभिन्नमभ्युपगम्यते तथाभूतं प्राक् प्रसाधितमिति । यच्च 'न रागादिमतो विज्ञानात् तद्रहितस्योत्पत्तिर्युक्ता' इत्यादि, तदप्यसारम्; रागादिरहितस्य सकलपदार्थविषयस्य ज्ञानोपादानस्य ज्ञानस्य सर्वज्ञसाधनप्रस्तावे प्रतिपादितत्वात् । । च 'विलक्षणादपि कारणाद् विलक्षणकार्योत्पत्तिदर्शनाद् वोधाद् बोधरूपतेति न प्रमाण- १५ मस्ति' इत्यादि, तदपि प्रतिविहितम् अचेतनाश्चेतनोत्पत्त्यभ्युपगमे चार्वाकमतप्रसक्तेः परलोकाभावप्रसक्त्या । परलोकसद्भावश्च प्राक् प्रसाधितैः । येच्च 'ज्ञानस्य ज्ञानान्तरहेतुत्वे न पूर्वकालभावित्वं समानजातीयत्वम् एकसन्तानत्वं वा हेतुर्व्यभिचारात्' इत्यादि, तदपि प्रतिविहितमेव " तस्माद् यस्यैव संस्कारं नियमेनानुवर्तते" इत्यादिना । तेन 'मरणशरीरज्ञानस्य गर्भशरीरज्ञानहेतुत्वे सन्तानान्तरेऽपि ज्ञानजनकत्वप्रसङ्गः नियमहेतोरभावात्' इत्येतदपि स्वप्नायितमिव २० लक्ष्यते, नियम हेतोस्तत्संस्कारानुवर्तनस्य प्रदर्शितत्वात् । 'सुप्तावस्थायां विज्ञानसद्भावे जाग्रदवस्थातो न विशेषः स्यात्' इत्यादि, तदपि प्रतिविहितम् 'यस्य यावती मात्रा' इत्यादिना । तथाहि - मिद्धादिसाम्त्रीविशेषाद् विशिष्टं सुषुप्ताद्यवस्थायां गच्छत्तृणस्पर्शज्ञानतुल्यं बाह्याध्यात्मिकपदार्थानेकधर्मग्रहणविमुखं ज्ञानमस्ति; अन्यथा जाग्रत्-प्रबुद्धज्ञानप्रवाहयोरप्यभावप्रसक्तिरिति प्रतिपादितत्वात् परिणतिसमर्थनेन । यथा २५ च अश्वविकल्प काले प्रवाहेणोपजायमानमपि गोदर्शनं ज्ञानान्तरवेद्यमपि भवदभिप्रायेणानुपलक्षितमास्ते - अन्यथा अभ्वविकल्पप्रतिसंहारावस्थायाम् 'इयत्कालं यावत् मया गौर्दष्टो न चोपलक्षितः' इति ज्ञानानुत्पत्तिप्रसक्तेः प्रसिद्धव्यवहारोच्छेदः स्यात् - तथा सुषुप्तावस्थायां स्वसंविदितज्ञानवादिनोऽप्यनुपलक्षितं ज्ञानं भविष्यतीति न तदवस्थायां विज्ञानासत्त्वात् तत्सन्तत्युच्छेदः । न च युगपज्ज्ञानानुत्पत्तेरश्वविकल्पकाले ज्ञानान्तरवेद्यगोदर्शनासंभवः, सविकल्पाविकल्पयोर्ज्ञानयो- ३० युगपट्टत्तेरनुभवात् अन्यथा प्रतिनिवृत्ताश्वविकल्पस्य तावत्कालं यावद् गोदर्शनस्मरणायवसायो न स्यात् । क्रमभावेऽपि च तयोर्विज्ञानयोर्विज्ञानं ज्ञानान्तर विदितमप्यनुपलक्षितमवश्यं तस्यामवस्थायां परेणाभ्युपगमनीयम्, तदभ्युपगमे च यदि स्वापावस्थायां स्वसंविदितं यथोक्तं ज्ञानमभ्युपगम्यते तदा न कश्चिद्विरोधः । शेषस्तु पूर्वपक्षग्रन्थोऽनभ्युपगमान्निरस्तः । यपि 'अनेकान्तभावनातः इत्याद्यभ्युपगमे तज्ज्ञानस्य निःश्रेयसकारणत्वं प्रतिषिद्धम्, ३५ अनेकान्तज्ञानस्य बाधक सद्भावेन मिथ्यात्वोपपत्तेः' इत्यभिहितम्, तदद्भ्यसम्यक् अनेकान्तज्ञानस्यैवाsurfacत्वेन सम्यत्वेन प्रतिपादितत्वात् । यैच्च 'नित्यानित्ययो (-वयो ) विधि प्रतिषेधरूपत्वादमिन्ने १ पृ० १५२ पं० ३ । ४ पृ० १५२ पं० २८ । २ पृ० १५२ पं० ९ । ३ पृ० १५२ पं० १४ । ५ पृ० १५२ पं० ३३ । ६ पृ० १५३ पं० ३२ । ९ पृ० ६१ ७ पृ० १५९ पं० १८ । ८ पृ० १५४ पं० २४ । पं० १४ । १० पृ० १५४ पं० २६ । ११ पृ०७४ पं० १८ । १२ पृ० १५४ पं० २७ । १३० ७७ पं० ३२ । १४ पृ० १५४ पं० ३२ । १५ पृ० ७७ पं० ३२ । १६ पृ० १५४ पं० ३८ । १७ पृ० ९० पं० २७ । योर्विज्ञानं आ०, वि०, हा० । १९ पृ० १५५ पं० १२- पृ० १५५ पं० १९ । २० पृ० १५९ पं० २७ । १५५ पं० २० । १८ त २१ पृ० Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ प्रथमे काण्डेधर्मिण्यभावः' इत्यनेकान्तपक्षस्य बाधकमुपन्यस्तं तद् अबाधकमेव, प्रतीयमाने वस्तुनि विरोधा सिद्धेः। न च येनैव रूपेण नित्यत्वविधिस्तेनैव प्रतिषेधविधिः-येनैकत्व(कत्र)विरोधः स्यात्किं तनुस्यूताकारतया नित्यत्वविधावृत्ताकारतया च तस्य प्रतिषेधः। न चान्यधर्मनिमित योर्विधि-प्रतिषेधयोरेकत्र विरोधः, अतिप्रसङ्गात् । न चानुगतव्यावृत्ताकारयोः सामान्यविशेषरूपत५याऽऽत्यन्तिको भेदः, पूर्वोत्तरकालभाविस्वपर्यायतादात्म्येन स्थितस्यानुगताकारस्य बाह्याऽऽध्यात्मिकस्यार्थस्याबाधितप्रत्यक्षप्रतिपत्तौ प्रतिभासनात् । यच्चेदम् 'घटादिर्मंदादिरूपतया नित्य इत्यत्र मृदूपतायास्ततोऽर्थान्तरत्वान्न ततो घटो नित्यः, मृदूपता हि मृत्त्वं सामान्यमर्थान्तरम् , तस्य नित्यत्वे न घटस्य तथाभावस्ततोऽन्यत्वात् घटस्य च कारणाद् विलयोपलब्धेरनित्यत्वमेव' इति, अयुक्तमेतत्; सामान्यस्य विशेषादर्थान्तरत्वानुप१०पत्तेः समानासमानपरिणामात्मको घटाद्यर्थोऽभ्युपगन्तव्यः । तथाहि-न तावत्र प्रयादर्थान्तर भूता मृत्त्वजातिः सत्ता वा, स्वाश्रयैः संबन्धाभावात्-स्वसंबन्धात् प्रागसद्भिरपि स्वाश्रयैः संबन्धे - तिप्रसङ्गात्; स्वत एव सद्भिः सत्तासंबन्धकल्पनावैयर्थ्यात् । समवायस्य सर्वगतत्वाद् व्यक्त्यन्तरपरिहारेण व्यक्त्यन्तरैरेव सर्वगतस्यापि सामान्यस्य संबन्धेऽतिप्रसङ्गपरिहारायाभ्युपगम्यमाना च प्रत्यासत्तिः प्रत्येकं परिसमाप्त्या व्यक्त्यात्मभूता वाभ्युपगम्यमाना कथं समानपरिणामातिरिक्तस्य १५ सामान्यस्य कल्पनां न निरस्येत् शुक्लादिवञ्च स्वाश्रये स्वानुरूपप्रत्ययादिहेतोः सामान्यात् सदादिप्रत्ययादिवृत्तिर्न भवेत् ? सामान्यस्य तु स्वत एव सदादिप्रत्ययादिविषयत्वे द्रव्यादिषु कः प्रद्वेषः ? परतश्चेदनवस्था । अनध्यारोपिततद्रूपे च तत्प्रत्ययादिवृत्तावतिप्रसङ्गः स्यात् । तद्रूपाध्यारोपेऽपि तत्प्रत्ययादिश्चान्यत्र भ्रान्त एव प्रसक्तः। ___ समवायमपि च तादूप्यमेव समवायिनोः पश्यामः; अन्यथा तस्याप्याश्रिततया संबन्धान्तर२० कल्पनाप्रसङ्गात् तत्र चानवस्थायाः प्रदर्शितत्वात् । विशेषणविशेष्यभावसंबन्धेऽप्यपरतत्कल्पनेऽनवस्था। समवायात् तत्संवन्धकल्पने इतरेतराश्रयत्वम्। अनाश्रितस्य तत्संवन्धत्वेऽप्यतिप्रसङ्गः। तस्य स्वतः संबन्धे वा सामान्यस्यापि तथाऽस्तु विशेषाभावात् । सति च वस्तुद्वये सन्निहिते 'इदं सदिदं च सत्' इति समुंश्चयात्मकः प्रत्ययोऽनुभूयते, न पुनः 'इदमेवेदम्' इति; संभवद्विवक्षितैकव्यक्त्याधेयरूपस्य च सामान्यस्याशेषाश्रयग्रहणासंभवान्न कदाचनापि तस्य संपूर्णस्य २५ ग्रहणं स्यात् । तद् व्यक्त्यनाधेयरूपासंभवे तद्गतरूपादिवत् तन्मात्रमेव स्यात् । स्वाश्रयसर्वगत सामान्यवादस्तु परिणामसामान्यवादान्न विशिष्यते, प्रत्याश्रयं परिसमाप्तत्वस्यान्यथानुपपत्त्या सामान्यसंबन्धशून्येष्वपि द्रव्यादिषु पदार्थादिप्रत्ययाद्यन्वयदर्शनाच्च । नाप्यन्यस्य व्यावृत्तिः, स्वलक्षणगतायाः प्रत्येकपरिसमाप्तायाः परिणामसामान्यादभिन्नत्वात् व्यावृत्तेः। तदाश्रयान्यानेकव्यक्तिसाधारणी बुद्धिपरिकल्पिताऽतजातीयव्यावृत्तिः सामान्यमिष्यते, ३० तस्मिंश्चावस्तुभूते शब्दप्रतिपादिते तथाविधे सामान्येऽस्खलक्षणविवक्षितेऽर्थक्रियार्थिनां स्वलक्षणे वृत्तिरपरिकल्पितरूपे कथं स्यात् ? । दृश्य-विकल्प ( ल्प्य ) योरेकीकरणेन प्रवृत्तौ गोबुद्ध्याऽप्यश्वे प्रवर्तेत । न च विकल्पितस्य सामान्यस्यावस्तुभूततया केनचिद दृश्येन सारूप्यमस्ति, सद्भावे वा सारूप्यस्य किं दृश्य-विकल्प्यैकीकरणवाचोयुक्त्या? तदेव दृश्यं सामान्यज्ञाने प्रतिभासते, तत्प्रति भासाच तत्रैव वृत्तिरिति किं न स्फुटमेवाभिधीयते अवस्त्वाकारस्य वस्तुना सारूप्यासंभवात् ? ३५ किञ्च, दृश्य-विकल्प्ययोरेकीकरणं दृश्ये विकल्प्यस्याध्यारोपः; स च गृहीतयोरगृहीतयोर्वा ? यदि गृहीतयोस्तदा दृश्य-विकल्प्ययो देन प्रतिपत्तेर्न दृश्ये विकल्प्याध्यारोपः; नहि घट-पटयो. १पर्यायाता-आ०, वि०, हा०, कां०, गु० । प्रमेयकमलमार्तण्डे-पर्यायतादा-इत्येव पाठो दृश्यते-पृ० ९३ द्वि०, पं०४ । २ पृ० १५५ पं० २२। ३-माप्ता व्य-कां०। ४ चाऽभ्यु-इति वि. प्रतौ संशोधितम्। ५-ध्यारोपितत्प्र-भां० ।-ध्यारोपपेति तत्प्र-वा०, बा०। ६ पृ. १५७ पं० १२ । ७-दं वा स-आ० । -दं चासकां०। ८-मुदया-वा०। ९-न्धश्वन्ये-वा०, बा०, भां०, मां०। १०-वक्षितेऽर्थे क्रि-भां०, मां० ।११-यार्थितां स्व-मां०, वा०, बा. विना। १२-क्षणे प्रवृत्तिः परि-इति वि. प्रतौ संशोधितम् । -क्षणे वृत्ति परि-आ०, हा० ।-क्षणे वृत्तिः परि-डे०, वि०। १३-कल्पैकी-वि०। १४-कल्पयो-भां०, मां। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तिस्वरूपवादः । र्भिन्नस्वरूपतया प्रतिभासमानयोरेकस्याऽपरत्राध्यारोपः, अतिप्रसङ्गात् । नाप्यगृहीतयोः स संभवति, अतिप्रसङ्गादेव । न च दृश्यबुद्धौ विकल्प्यं प्रतिभाति, नापि विकल्पयबुद्धौ दृश्यम् । न चैकबुद्धावप्रतिभासमानयो रूप-रसयोरिव परस्पराध्यारोपः, सादृश्यनिबन्धनश्चान्यत्राध्यारोपः उपलब्धो वस्त्ववस्तुनोश्च नील- खरविषाणयोरिव सारूप्याभावतो नाध्यारोप इति प्रतिपादितम् । न च दृश्याभ्यवसायिविकल्प्यबुद्ध्युत्पाद एव तदध्यारोपः, तद्बुद्धेः सदृशपरिणामसामान्यव्यवस्थापकत्वो- ५ पपत्तेरनन्तरमेव तस्या वस्तुस्वरूपग्राहिस विकल्पकाध्यक्षरूपत्वेन व्यवस्थापितत्वात् । तथा, अनुमा नेनापि परिच्छिद्यमानेऽर्थान्तरव्यावृत्तिरूपेऽनर्थरूपे सामान्ये बहिष्प्रवृत्त्ययोग एव । नातद्रूपव्यावृत्तिमात्रविषयमनुमानम्, अतद्रूपपरावृत्तवस्तुमात्रविषयत्वादिति चेत्, किं तद् वस्तुमात्रमन्यत्रं समानपरिणामात् ? अनुभूयते च सामान्यम् - अलिङ्गजत्वान्नानुमानेन - अविसंवादित्वात् प्रत्यक्षप्रमाणेन प्रमाणान्तरानभ्युपगमात् । तथाहि प्रत्यक्षेणैव ज्ञानेन शाखादिविभागमपरिच्छिन्दताऽपि दवीयसि १० देशे वृक्षादिमात्र तिपत्तिदर्शनम् तन्निराकरणे चानुभवविरोधः । न च सादृश्यम् समानपरिणामाभावे तदसंभवात् । ननु च यदि समानपरिणामः सामान्यम्, तस्य वस्तुनः सजातीयादपि परिणामाद् विभक्ततयाऽन्यत्रानन्वयात् क्वचिद् गृहीतसंबन्धेन शब्देन लिङ्गेन वाऽन्यस्य तज्जातीयस्य प्रतिपादनं न प्राप्नोति, नैष दोषः, विभक्तेऽपि वस्तुतस्तस्मिन्ननाश्रित देशादि भेदे समान परिणाममात्रे शब्दस्य लिङ्गस्य वा तावन्मात्रस्यैव संकेतितत्वात् संबन्धं गृहीतवतोऽन्यत्रापि तत्परिणाममात्रेण भेद- १५ प्रतिपत्तेरजन्यत्वात् तत्तया प्रतिपत्त्यविरोधान्न दोषः । प्रतिपादयिष्यते च नित्यानित्याद्यनेकान्तरूपं वस्त्वेकान्तवादप्रतिषेधेनेति नानेकान्तज्ञानं मिथ्याज्ञानम् । १६५ यदपि 'स्वदेशादिषु सत्त्वं परदेशादिष्वसत्त्वं वस्तुनोऽभ्युपगम्यत एव इतरेतराभावस्याभ्युपगमात्' इत्यादि, तदप्ययुक्तम्; इतरेतराभावस्य घटवस्त्वभेदे घटविनाशे पटोत्पत्तिप्रसङ्गात् पटाद्यभावस्य विनष्टत्वात् । अथ घटा भिन्नोऽभावस्तदा घटादीनां परस्परं भेदो न स्यात् । २० यदा हि घटाभावरूपः पटो न भवति तदा पटो घट एव स्यात्, यथा वा घटस्य घटाभावाद् भिन्नत्वाद् घटरूपता तथा पटादेरपि स्यात् घटाभावाद् भिन्नत्वादेव । नाप्येषां परस्पराभिन्नानामभावेन भेदः शक्यते कर्तुम्, तस्य मिन्नाऽभिन्न मेदकरणेऽकिञ्चित्करत्वात् । न चाभिन्नानामन्योन्याभावः संभवति । नापि परस्परभिन्नानामभावेन भेदः क्रियते, स्वहेतुभ्य एव भिन्नानामुत्पत्तेः । नापि भेदव्यवहारः क्रियते, यतो भावानामात्मीयरूपेणोत्पत्तिरेव स्वतो मेदः स च २५ प्रत्यक्षे प्रतिभासनादेव भेदव्यवहारहेतुः तेन "वस्त्वसंकरसिद्धिश्च तत्प्रामाण्यसमाश्रिता” [ ] इति निरस्तम् । किञ्च भावाभावयोर्भेदो नाभावनिबन्धनः, अनवस्थाप्रसङ्गात् । अथ स्वरूपेण भेदस्तदा भावानामपि स स्यादिति किमपरेणाभावेन भिन्नेन विकल्पितेन ? तन्नैकान्तभिन्नोऽभिन्नो वेतरेतराभावः संभवति । न चाभाव एवान्यापोहस्य, घटादेः सर्वात्मकत्वप्रसङ्गात् । तथा हि-यथा घटस्य स्वदेश- ३० कालाssकारादिना सत्वं तथा यदि परदेश- कालाऽऽकारादिनाऽपि तथा सति स्वदेशादित्ववत् परदेशादित्वप्रसक्तेः कथं न सर्वात्मकत्वम् ? अथ परदेशादित्ववत् स्वदेशादित्वमपि तस्य नास्ति तदा सर्वथाऽभावप्रसक्तिः । अथ यदेव स्वसत्वं तदेव परासवम् ; नन्वेवमपि यदि परासवे स्वसत्त्वानुप्रवेशस्तदा सर्वथाऽसस्त्रम् अथ स्वसत्वे परासत्त्वस्य तदा परासत्त्वाभावात् सर्वात्मकत्वम् - यथा हि स्वासत्वासत्त्वात् स्वसत्त्वं तस्य तथा परासवासत्त्वात् परसश्व प्रसक्तिर- ३५ निवारितप्रसरा, अविशेषात् । न च परासवं कल्पितरूपमिति न तन्निवृत्तिः परसत्त्वात्मिकेति वाच्यम्, स्वासत्त्वेऽप्येवंप्रसङ्गात् । अथ नाभावनिवृत्या पदार्थो भावरूपः प्रतिनियतो वा भवति, अपि तु स्वहेतुसामप्रीत उपजायमानः स्वस्वभावनियत एवोपजायते; तथैवार्थसामर्थ्य भाविनाऽध्यक्षेण विषयीक्रियमाणो व्यवहारपथमवतार्यते किमितरेतराभावकल्पनया ? न किश्चित्, केवलं स्वसामग्रीतः स्वस्वभावनि - ४० १- रूपाना-वा० । २- मानतोऽपि वि० । ३-त्र मां० । ५- णामभावा० । ६ - स्तुनस्त - मां०, भां० । ९-स्य पटाभावा०, बा० । १० यदा मां०, भां० । सामान्यपरि भां०, मां० । ४- प्रतिपत्तिर्दर्श७-मात्रेणा मे - वा० । 6 पृ० १५५ पं० २४ ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेयतोत्पत्तिरेव परासत्त्वात्मकत्वव्यतिरेकेण नोपपद्यते, स्वस्वरूपनियतप्रतिभासनं च पराभावामकत्वप्रतिभासनमेव । अत एव "स्वकीयरूपानुभावान्नान्यतोऽन्यनिराक्रिया" [ ] इथेतदपि सदसदात्मकवस्तुप्रतिभासमन्तरेणानुपपन्नमेव । यदा हि पारमार्थिकपररूपव्यावृत्तिमत् तत्स्वरूपमध्यक्षे प्रतिभाति तदा स्वरूपमेव परतस्तस्य भेदः, तद्ग्रहणमेव चाध्यक्षतस्तद्भेदग्रह ५णम्। अन्यथा पारमार्थिकपरासत्त्वाभावे स्वसत्त्ववत् परसत्त्वात्मकत्वप्रसङ्गान तत्स्वरूपमेव भेदः, नापि सत्प्रतिभासनमेव भेदप्रतिभासनं स्यात् । अत एवान्यापोहस्य पदार्थात्मकत्वेऽपरापराभावकल्पनया नानवस्था । नापि परग्रहणमन्तरेण तद्भेदग्रहणाभावादितरेतराश्रयत्वाद् भेदाग्रहणम् । ने चाऽभावस्य तुच्छतया सहकारिमिर नुपकार्यस्य ज्ञानाजनकत्वम् ; नापि भावाऽभावयोरनुपकार्योपकारकतयाऽसंबन्धः, भावाभावात्म१० कस्य पदार्थस्य स्वसामग्रीत उत्पन्नस्य प्रत्यक्षे तथैव प्रतिभासनात् । न चाऽसदाकारावभासस्य मिथ्यात्वम्, सदाकारावभासेऽपि तत्प्रसङ्गात् । न चाऽसदवभासस्याभावः, अन्यविधितावभासस्यानुभवसिद्धत्वात् विविक्तता चास्याऽभावरूपत्वात्, तस्याश्चं स्वसत्त्वात् कथश्चिदमिन्नतया तद्वद् ज्ञानजनकत्वेनाध्यक्षे प्रतिभासमानाया अन्यपरिहारेण तत्रैव प्रवृत्त्यादिव्यवहारहेतुत्वार भेदाऽभेदैकान्तपक्षस्योक्तदोषत्वात् कथञ्चिद्भेदाभेदपक्षस्य परिहृतविरोधत्वान्न सदसदूपत्वे १५ स्वदेशादावप्यनुपलब्धिप्रसङ्गादिदोषः। यञ्चोक्तम् ‘एवमात्मनोऽपि नित्यत्वमेव सुख-दुःखादेस्तहुणत्वेन ततोऽर्थान्तरस्य विनाशेऽप्यविनाशात्' इत्यादि, तत् प्राक् प्रतिक्षिप्तम् । यदपि 'कार्यान्तरेषु चाकर्तृत्वं न प्रतिषिध्यते' इत्यादि, तदप्यसारम् ; एकान्तपक्षे कार्यकर्तृत्वस्यैवासम्भवात् । यच्च 'न चानेकान्तभावनातो विशि टशरीरलाभे प्रतिबन्धः' इत्यादि, तन्न प्रतिसमाधानमर्हति अनभ्युपगतोपालम्भमात्रत्वात् । यो २० 'मुक्तावप्यनेकान्तो न व्यावर्तते' इति, तदिष्यते एव; स्वसत्त्वादिना मुक्तत्वेऽप्यन्यसत्त्वादिना अमुक्त त्वस्येष्टत्वात्; अन्यथा तस्य मुक्तत्वमेव न स्यात् इति प्रतिपादितत्वात् ।। यदपि 'अनेकान्त' इत्यादि, तदप्यसङ्गतम्। अनन्तधर्माध्यासितवस्तुस्वरूपमनेकान्तः। न च स्वरूपमपरधर्मान्तरापेक्षमभ्युपगम्यते येन तत्र रूपान्तरोपक्षेपेणानवस्था प्रेर्येत; तदपेक्षत्वे पदार्थस्वरूपव्यवस्थैवोत्सीदेत्, अपरापरधर्मापेक्षत्वेन प्रतिनियतापेक्षधर्मस्वरूपस्यैवाव्यवस्थितेः । २५ ततश्चैकान्तस्यापि कथं व्यवस्था ? तथाहि-सदादिरूपतैवैकान्तः तत्रैकान्ताभ्युपगमेऽपरं सदादिरूपं प्रसक्तम्, तत्राप्यपरमिति परेणापि वक्तुं शक्यम् । अथ पररूपानपेक्षं सत्त्वादित्वमेवैकान्तः तहनन्तधर्माध्यासितवस्तुस्वरूपमप्यनेकान्तः किं न स्यात् ? न चापरतद्रूपाभावे वस्तुनः स्वरूपमन्यथा भवति; अन्यथा अपरसत्वाद्यभावे सत्त्वादेरप्यन्यथात्वप्रसक्तिरित्यलं दुर्मतिविस्पन्दिते प्रत्तरप्रदानप्रयासेन । 'आत्मैकत्वज्ञानात्' इत्यादिन्थस्तु सिद्धसाध्यतया न समाधानमर्हति । ३० यथोक्तमुक्तिमार्गज्ञानादेरपरस्य तदुपायत्वेनाभ्युपगम्यमानस्य प्रमाणबाधितत्वेन मिथ्यारूपत्वान तत्साधकत्वमित्यलमतिप्रसङ्गेन । तत् स्थितमेतत् 'अनुपमसुखादिस्वभावामात्मनः कथञ्चिदव्यतिरिक्तां स्थितिमुपगतानाम्'इति॥ १-नुभवा-मां०, भां०। २-सनम-वा० । ३-रूपस्य व्या-वि० ४-दा स्वस्वरू-मां०, भां०। ५न चासाव-आ०, हा०। ६ ज्ञानज-मां०, भां०। ७-श्व सत्त्वा-आ०, वि०, हा०। ८झानाज-आ०, वि०, हा०। ९ पृ० १५५ पं० २६। १०पृ० १६. पं० २०। ११पृ० १५५ पं० २७। १२ पृ० १५५ पं. २९। १३ पृ० १५५५० ३१। १४ पृ० १५५ ५० ३२। १५ पृ. १५५५०३४ । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रम् । -come शुद्धिः प्रामाण्यस्य वस्तुत्वाद् -तथात्वातथात्वाशङ्का-नर्थप्राप्ति-परिहारसमर्थऋग्वेद-अष्ट ११६ द्वि०, पं० ५-६ श्लो० वा० अ०७ श्लो० वा० अ०७ ऋग्वेद-अष्ट० अम्यादी व्यायामाकेषुचित्तु कार्यत्वम् ? -माभावेऽपि -स्तद्भावो -प्रत्ययप्रती १३४ इति, १४४ --त्मनः १५९ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूजरात पुरातत्त्वमन्दिर ग्रन्थावली सापिपाक .. TAI0 ग्रन्थाङ्क १६ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूजरातपुरातत्त्वमन्दिरग्रन्थावली आचार्यश्रीसिद्धसेनदिवाकरप्रणीतं संमतितर्क-प्रकरणम्। जैनश्वेताम्बर-राजगच्छीय-प्रद्युम्नसूरिशिष्य-तर्कपश्चाननश्रीमद्-अभयदेवसूरिनिर्मितया तत्त्वबोधविधायिन्या व्याख्यया विभूषितम् । द्वितीयो विभागः। (द्वितीय-तृतीय-चतुर्थगाथात्मकः ) गूजरातविद्यापीठप्रतिष्टितपुरातत्त्वमन्दिरस्थेन संस्कृतसाहित्य-दर्शनशास्त्राध्यापकेन पं० सुखलालसंघविना प्राकृतवाङ्मयाध्यापकेन जैनन्याय-व्याकरणतीर्थ पं० बेचरदासदोशिना च पाठान्तर-टिप्पण्यादिभिः परिष्कृत्य संशोधितम् । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक :- विठ्ठलदास मगनलाल कोठारी, गूजरातविद्यापीठ कार्यालय, अमदावाद. 68 मुद्रक :— रामचंद्र येसू शेडगे, निर्णयसागर प्रेस, नं. २६ - २८, कोलभाट लेन, मुंबई. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका-टिप्पण्युपयुक्तावतरणस्थानानां संकेताः। 30000 - - अनेका अनेकान्तजयपताका। अनेका०टी० अनेकान्तजयपताकाटीका। अनेकान्तज० अम० अनेकान्तजयपताका अमदावाद-आवृत्तिः। अनेकान्तज० टी०लिक अनेकान्तजयपताकाटीका लिखिता। अन्नंभ०मिता अन्नंभटमिताक्षरा। अपोहसि । अपोहसिद्धिप्रकरणम् । अपोहसिद्धि अमरकोशः। अष्ट० टी०लि. भां० अष्टसहस्रीटीका (यशोविजयोपाध्यायकृता) लिखिता भाण्डारकरप्राच्यविद्यासंशोधन मंदिरसत्का। अष्टशती (अष्टसहस्यन्तर्गता) अष्टस० अष्टसहस्री। अष्टसहक) आचारा०शीतोष्णीयअ० आचारागसूत्रम् शीतोष्णीयाध्ययनम् । आव० हारि० आवश्यकसूत्रं हारिभद्रवृत्तियुतम् । ऋग्वेमं० ऋ० ऋग्वेदः मन्त्रः ऋक। ऋक्सं० मण्ड० ऋक्संहिता मण्डलम् । कठो० कठोपनिषत् । कात० व्या० कातन्त्रव्याकरणम् । काशि० काशिकावृत्तिः। काशिका गणर० गणरत्नमहोदधिः। गीता। गौडपा० अलात०प्र० गौडपादकारिका अलातशान्त्याप्रकरणम्। गौडपा० वैतथ्याख्यप्र० गौडपादकारिका वैतथ्याख्यं प्रकरणम् । गौडपा० का० गौडपादकारिका। चान्द्रव्या० चान्द्रव्याकरणम् । जैने० व्या० जैनेन्द्रव्याकरणम् । तत्त्वसं० का तत्त्वसंग्रहकारिका। तत्त्वसं० पञ्जिक तत्त्वसंग्रहपञ्जिका। तत्त्वसंग्रहशब्दार्थपरीक्षा। तत्त्वसंग्रहसामान्यपरीक्षा। तस्वार्थभाष्यम् (कल०) कलकत्ता-आवृत्तिः। तत्त्वार्थभाष्यव्याख्या यशोविजयोपाध्यायकृता (अम०) अमदावाद-आवृत्तिः। तत्त्वार्थभाष्यव्याख्या सिद्धसेनसूरिकता (अम०) तत्त्वार्थराजवार्तिकम् । तत्त्वार्थश्लो० वा० तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकम् । तत्त्वार्थसूत्रम् (मेसा०) मेसाणा-आवृत्तिः। तृ० का गा० संमतितृतीयकाण्डगाथा। तन्त्रवार्तिकम् । देशीना०व० देशीनाममाला-वर्गः। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशारनय० नयचक्र० आ० लि. धर्मसं० वृक्ष नयोप० यशो०भा० द्वादशारनयचक्रम्-श्रीआत्मारामजीपुस्तकसंग्रहसत्कं लिखितम्। धर्मसंग्रहणीवृत्तिः। नयोपदेशः श्रीयशोविजयोपाध्यायकृतःभावनगर-आवृत्तिः। न्यायकुमुदचन्द्रोदयः लिखितः । न्यायदर्शनसूत्रम् । न्यायदर्शनवात्स्यायनभाष्यम् । न्यायवार्तिकम्। न्यायावतारटिप्पणम् । पाइअलच्छीनाममाला। पाणिनीयव्याकरणम् । न्यायकु० लि. न्यायद० न्यायद० वात्स्या० न्यायवा० न्यायाव०टिप्प० पाइअ० ना० पाणि पाणि० व्या०) पाणि सिद्धान्तको सिद्धान्तकौ० । पाणि० वार्ति० पाणि० महाभा०1 महाभा० पातञ्ज० यो० वाच० टी० पुण्यरा०टी० प्रमेयक० प्रमेयक० टि० प्रमेयर० को प्राकृ० पिं० प्राकृतप्र० षष्ठप० प्राकृतम० प्राकृतरूपा० बृहदा० उ० बृहदा० उ० भा० बृहदा० उ० भाष्यवार्तिक बङ्गीयविश्व० ब्रह्मसू० शाङ्क० भा० " " , भा० भामहालं० परि० मध्यमकवृत्तिः। माठरवृ०॥ माठर० । योगद० समा० पा० रत्नाकरा पाणिनीयसिद्धान्तकौमुदी। पाणिनीयव्याकरणवार्तिकम् । पाणिनीयव्याकरणमहाभाष्यम् । पातञ्जलयोगदर्शनवाचस्पतिमिश्रटीका । पुण्यराजकृता वाक्यपदीयटीका। प्रमेयकमलमार्तण्डः। प्रमेयकमलमार्तण्डटिप्पणम् । प्रमेयरत्नकोषः। प्राकृतपिङ्गलम् । प्राकृतप्रकाशषष्ठपरिच्छेदः । प्राकृतमञ्जरी। प्राकृतरूपावतारः। बृहदारण्यकोपनिषत् । बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यम् । बृहदारण्यकोपनिषद्भाग्यवार्तिकम् । बङ्गीयविश्वकोषः। ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्यम् । , भामतीटीका। भामहालंकारपरिच्छेदः। साङ्ख्यकारिकामाठरवृत्तिः। योगदर्शनसमाधिपादः । रत्नाकरावतारिका प्रमाणनयतत्वालोकालं. कारवृत्तिः। ललितविस्तरा चैत्यवन्दनवृत्तिः । लङ्कावतारसूत्रम्। वाक्यपदीयम्-काण्डम् । वाक्यपदीयटीका। ललितवि० वृ० लङ्कावतारसू० वाक्यप० का० वाक्यप० टी० Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यप० तृ०का० वात्स्या०भा० वार्तिक शाक० व्या० शाश्वत शास्त्रवा०स्त० शास्त्रवार्ता शास्त्रवा० स्याद्वादक० श्वेताश्व० उ० श्वेताश्वत० उ०) श्लो० वा० अपो० श्लो० वा० अभाव श्लो० वा० आकृ० श्लो० वा० वन० श्लो० वा०पार्थ० व्या० षड्भा० च० सर्वदर्शनसं० ० सर्वार्थसिद्धिः (तत्वार्थसूत्रव्याख्या) सार० व्या० संक्षेपशा० संयुत्तनि० निदानसं० गहपतिव० अं० भा० वाक्यपदीये तृतीयं काण्डम् । वात्स्यायनभाष्यम्। महाभाष्यवार्तिकम्। शाकटायनव्याकरणम् । शाश्वतकोशः। शास्त्रवार्तासमुच्चये स्तबकः । शास्त्रवार्तासमुच्चयः। शास्त्रवार्तासमुच्चयस्याद्वादकल्पलता टीका । श्वेताश्वतरोपनिषत् । श्लोकवार्तिकम्-अपोहवादः। अभावपरिच्छेदः। आकृतिवादः। वनवादः। पार्थसारथिमिश्रव्याख्या। षइभाषाचन्द्रिका। सर्वदर्शनसंग्रहे दर्शनम्। सायका० साय० कौ० साङ्ख्यद० साङ्ख्यप्र० भा० साक्ष्यस० तत्त्वयाथा० स्याद्वा० स्याद्वादर० सारस्वतव्याकरणम् । संक्षेपशारीरकम् । संयुत्तनिकायो निदानसंगहो गहपतिवग्गो अंको भागो। साङ्ख्यकारिका। साङ्ख्यतत्त्वकौमुदी। साङ्ख्यदर्शनम्। सायप्रवचनभाष्यम् । सायसंग्रहे तत्त्वयाथार्थ्यप्रकरणम् । स्याद्वादमञ्जरी। स्याद्वादरत्नाकरः। हेतुमुखम् । हेतुबिन्दुतर्कटीका ताडपत्रलिखिता। हेलाराजकृता वाक्यपदीयटीका। हैम-अनेकार्थकोशः। हैमच्छन्दोऽनुशासनम् । हैमतत्त्वप्रकाशिका बृहन्यासः। हैमधातुपारायणम् । हैमप्राकृतव्याकरणम्। हैमव्याकरणबृहद्वृत्तिः। हैमशब्दानुशासनसूत्रम् । हेतु० हेतु० टी० ता० लि. हेलाराजटी. है० अनेका० हैमच्छन्दो० हैमतत्त्व० हैमधातुपा० ) है० धातुपारा, हैमा० व्या० हैम० बृ० वृ० हैमसूत्र सिद्धहेमनामकं हैमव्याकरणम् । हैम० हैमव्या० हैमश० Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः। विषयः पृष्ठम् द्वितीयगाथाव्याख्या। १६९-२७० आदिवाक्योपन्याससमीक्षा। १६९-१७३ आदिवाक्योपन्यासस्य वैयर्थ्यप्रदर्शनम् । आदिवाक्योपन्यासस्य सार्थकत्वसमर्थनम् । १७२ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । १७३-२७० 'अपोह एव शब्दस्यार्थः' इति बौद्धमतस्य संक्षिप्य स्थापनम् । १७३ 'विधिरेव शब्दस्यार्थः' इति विधिवादिमतस्य संक्षिप्य प्रतिस्थापनम् । विधिवादिमतं सविस्तरं दूषयताम् अपोहवादिनां __ मतस्य निर्देशः। १७४ तत्रसंकेतासंभवसाधनाय स्वलक्षणाद्यर्थभेदेन विकल्पपञ्चकविधानम् । १७४ स्वलक्षणे संकेतासंभवसाधनम् । (पदवाच्यविषयकस्य न्यायसूत्रकारमतस्य भाध्यकार-वार्तिककाराभिप्रायेण विशिष्य निरूपणम् ) १७७ २-४ जाति-तद्योग-तद्वत्सु संकेतासंभवप्रदर्शनम । १७८ (पदवाच्यविषयाणि वात्स्यायन-व्याडि-पाणिनीनां मतानि) १७९ ५ बुद्ध्याकारे समयासंभवसाधनम् । १७९ अस्त्यर्थपदार्थवादिमतम् । समुदायपदार्थवादिमतम् । असत्यसंबन्धपदार्थवादिमतम् । असत्योपाधिसत्यपदार्थवादिमतम् । अभिजल्पपदार्थवादिमतम् । बुद्ध्यारूढाकारपदार्थवादिमतम् । प्रतिभापदार्थवादिमतम् । अस्त्यर्थपदार्थवादिमतनिरसनम् । समुदायपदार्थवादिमतनिरसनम् । असत्यसंबन्ध-असत्योपाधिसत्यपदार्थवादि मतद्वयनिरसनम् । अभिजल्प-बुद्ध्यारूढाकारपदार्थवादिमतद्वयनिरसनम् । प्रतिभापदार्थवादिमत निरसनम् । विवक्षापदार्थवादिमतमुल्लिख्य तन्निरसनम् । वैभाषिकमतं निर्दिश्य तन्निरसनम्।। 'निषेधमात्रमेव अन्यापोहः' इति मत्वा कुमारिलादि कृतानामाक्षेपाणामुपन्यासः । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः विकल्पप्रतिबिम्बपदार्थवादिमतमुल्लिख्य तन्निरसनम् । अपोहपक्षे उद्दघोतकरकृतानामाक्षेपाणामुपन्यासः । अपोहपदार्थवादिकृतं स्वमतस्पष्टीकरणम् । 'निषेधमात्रमेव अन्यापोहः' इति मत्वा अपोहपक्षमाक्षिप्तवतः कुमारिलादेर्निराकरणम् । ( उद्द्योतकरदूषितस्य दिमागकथनस्य अभिप्रायमुद्धाव्य कण्टकोद्धारः ) उद्घोतकरोक्तानामाक्षेपाणां प्रतिविधानम् । संविद्वपुरन्यापोहपदार्थवादिप्राज्ञाकरमतस्य उपन्यासः । 'सामान्य विशेषात्मक एव शब्दार्थः' इति प्रतिपादनपरः सविस्तरं स्याद्वादिसिद्धान्तोपन्यासः । प्राज्ञाकरमतस्य निरसनम् । यमीमांसा तृतीयगाथा व्याख्या | द्रव्यास्तिकनयनिरूपणम् । १ सदद्वैतप्रतिपादकः शुद्धद्रव्यास्तिकनयः । २ सांख्यमतप्रतिपादकः अशुद्धद्रव्यास्तिकनयः । पर्यायास्तिकनयनिरूपणम् । १ सदद्वैतप्रतिक्षेपकः पर्यायास्तिकनयः । २ सांख्यमतप्रतिक्षेपकः पर्यायास्तिकनयः । नयलक्षणानि । संग्रह - नैगमनयस्वरूपम् । व्यवहारनयस्वरूपम् । ऋजुसूत्रनयस्वरूपम् । शब्दनयस्वरूपम् । समभिरूढनयस्वरूपम् । एवंभूतनयस्वरूपम् । पृष्ठम् १९९ २०० संग्रहस्य सत्तामात्र विषयकत्वसाधनम् । व्यवहारस्य विशेषमिश्रितसत्ताविषयकत्वसाधनम् । २०२ २०३ २०४ २२९ २३३ २३७ २६५ २७१-३१४ २७१-२८५ २७१ २८० २८५-३१० २८५ २९६ चतुर्थगाथा व्याख्या | द्रव्यास्तिकैकप्रकृतिकयोः संग्रह - व्यवहारयोः शुद्धाशुद्धतया भेदनिरूपणम् । ३१०-३१४ ३१० ३१० ३११ ३१२ ३१३ ३१४ ३१५-३१६ 53 ३१५ ३१६ पङ्क्तिः है we time to wo ३ २१ 0 V ६ ८ ८ २९ १५ २३ १४ १ १२ ९ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय निवेदन। संमतितर्कनो पहेलो भाग प्रसिद्ध थयांने बे वर्ष वीती गया. एटला वखतमां तैयार थई आ बीजो भाग आजे विद्वानो समक्ष उपस्थित थाय छे. आ भागमा बीजी, त्रीजी अने चोथी ए त्रण मूळ गाथाओ टीकासहित आवी जाय छे. आ भागनी तैयारीनी विशेषताः अशुद्धिनुं बाहुल्य, नवीन साधननो उपयोग अने बीजो विशिष्ट प्रयत्न. बीजी अने त्रीजी गाथानी टीका बहु मोटी छे. त्रीजीनी करतां बीजीनी टीका लगभग बमणी हशे. जेम टीका मोटी तेम अशुद्धि घणी. हजुसुधी संमतिनी एवी एक पण प्रति अमने उपलब्ध नथी थई के, जेने विश्वस्त रीते शुद्ध मानी मुद्रणमां मूळ आधार तरीके राखी शकाय. तेमा य ज्यां बौद्धादि दर्शनोनी चर्चा आवे छे त्यां तो अशुद्धिओ पुष्कळ ज छे. दरेक प्रतिमां अशुद्धिनी आ समानता जोई एम मानवाने कारण मळे छे के, आ ग्रंथy अध्ययन, अध्यापन घणा सैकाओथी विच्छिन्नप्राय थई गयेलं होवू जोईए; सांगोपांग शुद्ध करवानो प्रयत्न पण पूर्वे नहि थएलो; अने थयो होय तो तेनुं परिणाम आजे उपलब्ध नथी. अशिक्षित वाचको अने लेखको तथा अव्युत्पन्न अभ्यासीओनी वाचनलेखनविषयक तथा अर्थकल्पनाविषयक भ्रान्तिओ दरेक प्रतिमा भिन्नभिन्न रूपे नजरे पडे छे. आ कारणथी बीजी गाथानी टीकाए शुद्धीकरणमां वधारे वखत लीधो. छतां यथावत् संतोष तो थयो ज न हतो. संशोधनना विविध साधनोनी शोध चालती हती, ते दरमियान सद्भाग्ये एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ तरफ अमारुं ध्यान गयु. ___ आ महान् ग्रंथ ते बीजो कोई नहि पण बौद्धाचार्य आर्य शान्तिरक्षितनो तत्त्वसंग्रह. ए ग्रंथर्नु अवलोकन करतां जणायुं के, टीकाकार अभयदेवे बीजी गाथानी टीकानो बौद्धमतविषयक पूर्वपक्ष ए तत्त्वसंग्रहनी कमलशीलकृत पञ्जिकाने सामे राखीने ज लख्यो छे. एटले बीजी गाथानी टीकानो अपोहविषयक समग्र अंश उक्त पञ्जिकानी लगभग अक्षरशः नकल छे. आ वस्तु ध्यानमां आववाथी तत्त्वसंग्रहy ए प्रकरण बीजी गाथानी टीका साथे मेळवी लीधुं. अने ते पछी अशुद्ध भागने शुद्ध करवा तथा बीजी अनेक विशेषताओ दाखल करवा माटे फरी नवेसर विशिष्ट प्रयत्न शरू कर्यो, जेनुं फळ विद्वानो ओछा वधता प्रमाणमा प्रस्तुत पुस्तकमां जोई शकशे. पहेला भाग करतां बीजा भागना संशोधनमां विशिष्ट प्रयत्न थवानुं कारण तत्त्वसंग्रहनी उपलब्धि अने तेनो उपयोग ए छे. ज्यारे अनुभवे जणायु के, त्रीजी गाथानी टीकार्नु सांख्यमत (अशुद्धद्रव्यास्तिकनय) निरूपण प्रकरण तथा तेना खंडन- बौद्धमत (पर्यायास्तिकनय) प्रतिपादक प्रकरण प्रायः अक्षरशः कमलशीलनी परिजकानी नकल छे, त्यारे संशोधनमा तत्त्वसंग्रहनो अनेक दृष्टिए उपयोग करवानी कल्पना आवी अने तदनुसार प्रयत्न पण थयो. आ प्रयत्नने लीधे ज विलम्ब बेवडायो. पण अमने आशा छे के आ प्रयत्ननुं परिणाम समजनारने ए विलम्ब नहि खरके. प्रस्तुत कार्यमा तत्त्वसंग्रहनो उपयोग केवी रीते को छे ए अहीं जणावी देवु आवश्यक छे. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ शब्दना अर्थनी मीमांसा तेम ज शब्द अने अर्थ ए बनेना संबंधनी मीमांसाना अतिदीर्घ प्रकरणमां पूर्वपक्षरूपे बौद्धसंगत अपोहचर्चा टीकाकारे मूकेली छे. प्रस्तुत पुस्तकनो पृ० १७३ थी २३२ सुधीनो ए चर्चानो भाग तत्त्वसंग्रहनी ८६७ थी १२१२ सुधीनी एटले एकंदर ३४६ कारिकाओ उपरनी गद्य पञ्जिकाज छे. तेवी ज रीते त्रीजी गाथानी टीकाना सांख्यमतनिरूपण अने तेना खंडननो प्रस्तुत पुस्तकनो पृ० २८० - २८४ तथा पृ० २९६- ३०७ सुधीनो भाग तत्त्वसंग्रहनी ७ थी ४५ सुधीनी एटले कुल ३९ कारिकाओ उपरनी पञ्जिका ज छे. पञ्जिकाना प्रायः अक्षरशः ए उताराने घे संग्रहनो उपयोग प्रस्तुत संशोधनमां मुख्यपणे त्रण दृष्टिधी करवामां आव्यो छेः (१) शुद्धिनी दृष्टि (२) ते ते गद्यभागनी मूळभूत कारिका बताववानी दृष्टि अने (३) शान्तिरक्षिते पोताना मूळ ग्रंथमां कया कया पूर्ववर्ती आचार्योंनी कारिकाओ लीवेली छे ते बताववानी दृष्टि. (१) ज्यां संमतिनी टीका अशुद्ध के त्रुटित जणाई त्यां तेने कोष्ठकमां शुद्ध अने पूर्ण करी तेना संवादखातर पञ्जिकानो जरूरी भाग अक्षरशः नीचे टिप्पणमां आपेलो छे. उदाहरणार्थे जूओ: पृ० १७४ टिप्पण २. पृ० १८१ टिप्पण १६ वगेरे. (२) संमतिनी टीकानो अमुक गद्यभाग तत्त्वसंग्रहनी कई कारिकानी व्याख्यारूपे छे ए जणाववा खातर ते गद्यभागनी नीचे टिप्पणमां तत्त्वसंग्रहनी ते ते कारिका अंक साथे आपवामां आवी छे, जेथी अभ्यासीओ तत्त्वसंग्रहनी मूळ कारिका अने तेनी पञ्जिका साथै अर्थशः तथा शब्दशः संमतिनी टीकाना ते ते गद्यभागने सरखावी शके. अने तत्त्वसंग्रहना अभ्यासीओ पोताने जोतुं स्थळ संमतिनी टीकामांथी अनायासे मेळवी शके. उदाहरण तरीके जूओः पृ० १७३ टिप्पण ९ वगेरे. (३) मूळ तत्त्वसंग्रहमां ज्यां ज्यां अन्य पूर्वाचार्योंनी कारिकाओ दाखल थपली जणाई छे त्यां त्यां यथासंभव ते ते पूर्वाचार्यनी कृतिमांथी ज ते कारिकानो अंक आपी साथै ज तत्त्वसंग्रहनो चालु कारिका अंक पण आपेलो छे. जेथी तत्त्वज्ञ अभ्यासीओ जाणी शके के, ए मूळ कारिका वस्तुतः कया आचार्यनी कई कृतिना कया प्रसङ्गनी छे. तेम ज ऐतिहासिको ए क्रमनो उपयोग कालनिर्णयमां पण करी शके. जूओ पृ० १७९ टिप्पण ८. पृ० १८६ टिप्पण २. पृ० १८७ टिप्पण ६ वगेरे. आ सिवाय बीजी पण एक सामान्य रीते तत्रसंग्रहनो उपयोग कर्यो छे अने ते ए के, संमतिनी टीकामां केलांक पद्यो कर्ताना नामनिर्देश विना आवे छे ते ज पद्यो ज्यां ज्यां पञ्जिकामांथी मळी आव्यां त्यां त्यां ते ज रीते टिप्पणमां दर्शाववामां आव्यां छे. अने आ समग्र उपयोग करवामां आवश्यक जणायुं त्यां संमतिनी टीका उपर भामहालंकार, वाक्यपदीय, लोकवार्तिक, तत्त्वसंग्रह, प्रमेयकमलमार्तड, स्याद्वादरत्नाकर, शास्त्रवार्ता समुच्चयटीका इत्यादिमांथी पाठान्तरो आप्यां छे अने बीजी रीते पण सविशेष उपयोग कर्यो छे. उदाहरण: पृ० १७४ टिप्पण ५ पृ० १८१ टिप्पण १६. पृ० १८६ टिप्पण २, ४, ५ पृ० १८२ टिप्पण ४. पृ० १८६ टिप्पण १२, ३. पृ० १७३ टिप्पण १०. पृ० १७६ टिप्पण २. पृ० २४८ टिप्पण १९. पृ० १८२ टिप्पण ६ वगेरे. उतारो चालु होवा छतां क्यांय क्यांय पञ्जिकानी वाक्यरचनाथी संमतिटीकानी वाक्यरचना नूदी पडे छे; तेवा स्थळे ए भिन्नता जणाववा खातर नीचे टिप्पणमां पञ्जिकानो गद्यभाग पण Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ आपेलो छे. ज्यां पञ्जिका के कारिका त्रुटित के अशुद्ध जणाई त्यां तेने पूर्ण के शुद्ध करी ते अंश मोटा अक्षगेमां मूकेटो छे. जूओ पृ० १७७ टिप्पण ८, १०. पृ० १८४ टिप्पण १. पृ० २१० टिप्पण १५ पृ० २२१ टिप्पण १२. पृ० २२८ टिप्पण १५ वगेरे. स्वरेवर आ संमतिटीकार्नु संशोधन तत्वसंग्रह प्रथनुं ऋणी छे पण तस्वसंग्रहना संशोधको ए ऋणने व्याजसहित संमतिटीकाना आ संस्करणमांथी वसूल करी शके. धारे तत्त्वसंप्रहनी उपलब्धिथी अनेक अज्ञातपूर्व आचार्योनां तथा तेओनी कृतिओनां नामो बने अनेक अनुपलब्ध प्रथोनां अवतरणो जाणवामां भाव्यां छे तेनो उपयोग यथास्थाने आगम भागोमां थशे. पाठोने शुद्ध करवामां सरस्वाववामां, अर्थनुं स्पष्ट ज्ञान करवामां अने पूर्वापर प्रसंग समजवामां परिशिष्टमां आपेला प्रथोथी बहु ज कीमती मदद मळी छे. लगभग ए बधा प्रयोनां उपयुक्त स्थळो असे ते ते स्थाने बताव्यां छे. तत्त्वसंप्रहनी प्राप्ति अने तेना उपयोगना लाभधी अमे बीजा पण नवीन प्रथोनी गवेषणाना लोभमा पड्या जेने लीघे अमने केटलाक अप्राप्तपूर्व ग्रंथो प्राप्त थया अने केटलाक प्राप्त छत अदृष्टपूर्व ग्रंथों अवलोकन करवानी तक मळी: बौद्धाचार्य धर्मकीर्तिकृत हेतुबिंदुनुं विवरण, जयराशिभट्टकृत तत्त्वोपप्लव अने दिगम्बराचार्य अकलंककृत सिद्धिविनिश्चय ए त्रण मंथो तो अत्यार सुधी सर्वथा अनुपलब्ध ज हता. तेम तत्वोपप्लवनुं तो नाम पण भाग्ये ज ज्ञान हतुं. पहेला वे ग्रंथो ताडपत्र उपर छे. दिगम्बराचार्य प्रभाचंद्रकृत न्यायकुमुदचंद्रोदय अने वादिराजकृत न्यायविनिश्चयालंकार ए वे महान् जैन ग्रंथो मेळवी तेनुं अवलोकन करवानी प्राप्त थल्ली तक आ संमतिना संशोधनने ज आभारी छे. आ संशोधन करतां मन्त्री आवेली नवीन सामग्री अने तेना उपयोगने लीघे यतो विलम्ब तथा प्रथना कदनुं वर्धा जतुं महत्त्व ए त्रण वाचतो प्रथम भाग प्रकाशित करती वखते ध्यानमां न हनी तेथी ते प्रकाशित करती वेळाए तेना निवेदनमां जणावेलुं के सटीक मूळ प्रथनुं त्रण भागम प्रकाशन कर. पण ए विचार बदली मूळ ग्रंथने पांच भागमां प्रसिद्ध करवानी धारणा राखीए छीए, जेथी प्राइकोने आगला भागो शीघ्रताथी म भने दरेक भागनुं कद पण परिमित रहे प्रस्तुत भागमां पण प्रवर्तक कान्तिविजयजीना प्रशिष्य विद्याप्रिय सुशील मुनि पुण्यविजयजीए पाठान्तरादिकार्यामां वम्बते वस्वते सहर्ष सहायता आपी ते बदल अमे तेमना कृतज्ञ छीए. सुम्बलाल अने बेचरदास. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीयं निवेदनम् संमतितर्कस्य प्रथमं भागं प्रकाश्य वर्षद्वयेनाद्य द्वितीय भागं प्रकाशयितुं वयं पुनर्लब्धावसरा भवामः । सटीकया द्वितीयया तृतीयया चतुर्थ्या च गाथयाऽयं भागो भूषितः ।। अशुद्धिबाहुल्यम् नव्यसाधनोपयोगः अपरश्च विशिष्टः प्रयत्न इत्येतद् विशेषतात्रयं प्रस्तुतसंपादनगतं सविशेषमत्र समुल्लेखनीयं प्रतिभाति । यद्यपि द्वितीय-तृतीययोर्द्वयोरपि गाथयोष्टीका विस्तारवती तथापि द्वितीयस्याष्टीका तृतीयामपेक्ष्य द्विगुणप्राया विद्यते । अशुद्धिवृद्धिष्टीकाविस्तारवृद्धिमनुगच्छन्ती लक्ष्यते । तत्रापि बौद्धादिदर्शन. वत्सु चर्चास्थलेषु भूयस्योऽशुद्धयो दृश्यन्ते । सर्वथा विश्वस्ततया मुद्रणकर्मणि मूलाधारत्वेन स्थापयितुं योग्यः संमतेरेकोऽप्यादर्शोऽस्माभिरिदानीं यावत् नावापि । सर्वेषामादर्शानामशुद्ध्या समानतामवलोक्य प्रन्थस्यास्याध्ययनाऽध्यापनयोश्चिरादेव विच्छिन्नप्रायत्वं यथावत् संशोधनप्रयासाभावं च कल्पयामः । जातस्यापि तादृशस्य पूर्वप्रयासस्य फलं नेदानीमुपलब्धिगोचरीभवति । असंस्कृतवाचक-लेखक-पाठकानां वाचन-लेखनार्थकल्पनागोचरा भ्रान्तयः सर्वेष्वप्यादर्शेषु नानाविधतया दृष्टिपथमायान्ति । अत एव बहुतरसमयव्ययेन कृतस्यापि द्वितीयगाथाटीकासंशोधनस्य पूर्व यथावत् संतोषाजनकतया विशिष्य संशोधनयोग्यानि साधनानि गवेषयितुं प्रवृत्तवतामस्माकं दृष्टिपथमेको महान् ग्रन्थः समापतितः । _स च प्रन्थो बौद्धाचार्य-आर्यशान्तिरक्षितकर्तृकस्तत्त्वसंग्रह एव नापरः कश्चित् । तत्त्वसंग्रहावलोकनेन द्वितीयगाथाटीकागतबौद्धमताश्रितपूर्वपक्षांशस्य बौद्धाचार्यकमलशीलकृतया तत्त्वसंग्रहपञ्जि. कया प्रायेणाक्षरशो बिम्बप्रतिबिम्बभावं परिज्ञाय संमति-तत्त्वसंग्रहवृत्त्योस्तावतोरंशयोस्सर्वात्मना तुलना व्यधायि। अशुद्धं भागं शोधयितुम् अपराननेकान् विशेषान् अन्तःसंस्कर्तुं च विशिष्टः प्रयत्नोऽपि प्रारम्भि। तत्त्वसंग्रहस्योपलब्ध्युपयोगावेव अस्मिन् संशोधनगोचरे विशिष्टप्रयत्ने निमित्ततामुपगतौ । तृतीयगाथाटीकागतस्य सांख्यमतनिरूपण-तत्खण्डनात्मकस्य कियन्मात्रस्य अंशस्य कमलशीलीयपजिकाप्रतिबिम्बप्रायत्वेन परिज्ञानादपि संशोधनकर्मण्यनेकधा तत्त्वसंग्रहोपयोगकल्पना तदनुसारी च प्रयत्नोऽजनिष्ट । तदेव च विलम्बद्वैगुण्यनिमित्तम् । तथापि वयमाशास्महे नैष विलम्बः परिणामदर्शिनां शल्यायिष्यते। तत्त्वसंग्रहोपयोगप्रकारोऽप्यत्रैव प्रदर्शयितुं समुचित आवश्यकश्व भाति । शुद्धिविधानेन, संमतिटीकागततत्तद्गद्यांशसम्बन्धिमूलकारिकाप्रदर्शनेन, तत्त्वसंग्रहान्तःप्रविष्टपूर्वाचार्यकर्तृककारिकासत्कग्रन्थ-तद्गतस्थलसंसूचनेन च प्रधानतया त्रेधा तत्त्वसंग्रहोऽत्रोपयोजितः । अशुद्धं त्रुटितं वा संमतिटीकांशं कोष्ठके शोधयित्वा पूरयित्वा वा तत्संवादायावश्यकः पञ्जिकांशोऽधस्तात् टिप्पणिकायामक्षरशो निर्दिष्टः। यथा-पृ० १७४ टिप्पणं २। पृ० १८१ टिप्पणं१६ प्रभृति। संमत्यभ्यासिनः शब्दशोऽर्थशश्च संमति-तत्त्वसंग्रहयोस्तुलनां कर्तुं तत्त्वसंग्रहाभ्यासिनश्च स्वापेक्षितं स्थलं संमतिटीकातोऽनायासेनावाप्तुं शक्नुयुरित्युद्दिश्य संमतिटीकागतः कस्कोऽशः कस्याः कस्यास्तत्त्वसंग्रहकारिकाया व्याख्यात्मक इति प्रदर्शनाय तत्तद्गद्यांशस्याधस्तात् टिप्पणिकायां तत्त्वसंग्रहीया मूलकारिका क्रमाङ्कपुरःसरं निरदेशि । यथा-पृ० १७३ टिप्पणं ९ प्रभृति । तत्त्वज्ञा अभ्यासिनस्तत्तन्मूलकारिकायाः कर्तारम् आधारभूतां कृतिम् प्रकरणं च यथावदवगन्तुम् ऐतिहासिकाश्च तं क्रमं कालनिर्णयायोपयोक्तुं पारयेयुरित्युद्दिश्य पूर्वाचार्यान्तरकर्तृकाः कारिका मूलत Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ त्त्वसंग्रहीये प्रस्तुतप्रकरणे यत्र यत्र संनिविष्टा दृष्टास्तत्र तत्र यथासंभवं तत्तत्पूर्वाचार्यकृतित एव तत्तत्कारिकाक्रमाङ्कप्रदर्शनपुरःसरं तत्त्वसंग्रहीयकारिकासम्बन्धी प्रचलितः क्रमाङ्कोऽपि निदर्शितः। यथापृ० १७९ टिप्पणं ८ । पृ० १८६ टिप्पणं २ । पृ० १८७ टिप्पणं ६ प्रभृति । एतद्व्यतिरिक्तयाऽन्ययाऽपि साधारणरीत्या तत्त्वसंग्रह इत्थमुपायोजि-यानि यानि संमतिटीकागतान्यनिर्दिष्टकर्तृकानि निर्दिष्टकर्तृकानि वा गद्य-पद्यानि पञ्जिकायामुपलब्धिगोचरतां गतानि तानि तान्यधस्तात् टिप्पणिकायां तथैव प्रदर्शितानि । किंच, आवश्यकेषु स्थलेषु भामहालङ्कार-वाक्यपदीय श्लोकवार्तिक-तत्त्वसंग्रह-प्रमेयकमलमार्तण्ड-स्याद्वादरत्नाकर-शास्त्रवार्तासमुच्चयटीकादिग्रन्थेभ्यः पाठान्तराणि गृहीत्वा न्यस्तानि, तथा तेषां ग्रन्थानामन्यप्रकारेणापि सविशेषमुपयोगः कृतः। यथा-पृ० १७४ टिप्पणं ५ । पृ० १८१ टिप्पणं १६। पृ० १८६ टिप्पणं २,४,५ । पृ० १८२ टिप्पणं ४ । पृ० १८६ टिप्पणं १२, ३ । पृ० १७३ टिप्पणं १०, पृ० १७६ टिप्पणं २ । पृ० २४८ टिप्पणं १९ । पृ० १८२ टिप्पणं ६ प्रभृति । पञ्जिका-संमतिटीकयोर्वाक्यरचनाविषयकः काचित्को भेदोऽपि टिप्पणिकान्यस्तेन पञ्जिकांशेन प्रादर्शि । अशुद्धां त्रुटितां वा पञ्जिकां कारिकां च शोधयित्वा पूरयित्वा वा शुद्धः पाठः बृहत्सु सीसकाक्षरेषु दर्शितः । यथा पृ० १७७ टिप्पणं ८,१०, पृ० १८४ टिप्पणं १, पृ० २१७ टिप्पणं १५, पृ० २२१ टिप्पणं १२, पृ० २२८ टिप्पणं १५ प्रभृति । एतच्च संमतिटीकासंशोधनं तत्त्वसंग्रहग्रन्थस्याधमर्णायते । किंतु यदि तत्त्वसंग्रहस्य संशोधकाः का युस्तदा तदृणं सवृद्धि प्रस्तुतात् संस्करणात् प्रतिग्रहीतुं प्रभविष्यन्ति । तत्त्वसंग्रहोपलब्ध्याऽनेकेषामज्ञातपूर्वाणामाचार्याणां तत्कृतीनां च नामानि अनेकान्यनुपलब्धपूर्वग्रन्थावतरणानि चावगतानि तेषामुपयोगो यथास्थानमग्रेतनेषु प्रकाशयिष्यमाणेषु भागेषु करिष्यते । पाठानां शुद्धौ तुलनायां स्पष्टार्थज्ञप्तौ च कर्तव्यायां परिशिष्टनिर्दिष्टेभ्यो ग्रन्थेभ्यो बहुमूल्यं साहायकं समासादि । प्रायेण तेषां सर्वेषां ग्रन्थानामुपयुक्तानि स्थलान्यस्माभिर्यथास्थानं दर्शितान्येव । ___ तत्त्वसंग्रहलाभेन लोभिता वयं नव्यं साहित्यान्तरं गवेषयितुं प्रवर्तमानाः कांश्चिदप्राप्तपूर्वान् ग्रन्थमणीन् प्रा म् कांश्चिच्च श्रुतपूर्वानप्यनवलोकितान् ग्रन्थमणीन् संगृह्यावलोकयितुमशकाम । ___बौद्धाचार्यधर्मकीर्तिकर्तृकहे तुबिन्दोर्विवरणं जयराशिभट्टकृतस्तत्त्वोपप्लवो दिगम्बराचार्याकलङ्ककर्तृको रविभद्र शिष्यानन्तवीर्यकृतटीकोपेतः सिद्धिविनिश्चयश्चैतद्वन्थत्रयमप्राप्तपूर्वमेव प्रापि। तत्रापि तत्त्वोपप्लवस्य तु नामापि प्रायेणाज्ञातमेवासीत् । प्राच्यौ द्वौ ग्रन्थौ ताडपत्रस्थौ स्तः । दिगम्बराचार्यप्रभाचन्द्रकर्तृकन्यायकुमुदचन्द्रोदय-वादिराजकृतन्यायविनिश्चयालंकारनामकबृहत्तरव्याख्यासहितयोरकलङ्ककृतमूलयो नन्यायग्रन्थयोः श्रुतपूर्वयोः संग्रहपुरःसरमवलोकनं प्रस्तुतेन संशोधनकर्मणैवोपकृतम् । नव्यग्रन्थसामग्रीगवेषण-तदुपयोगजन्यविलम्ब-परिमाणमहत्त्वानामलक्षिततया प्रथमभागप्रकाशनसमयेऽस्माभिनिदिष्टम्-'सटीकः संपूर्णोऽपि ग्रन्थनिभिर्भागैः प्रकाशयितुमुचितः इत्यादि'किंतु साम्प्रतं सम्पूर्ण मूलग्रन्थं पञ्चभिर्भागैः प्रकाशयितुं सम्प्रधारयामः यतो ग्राहकाः परिमितपरिमाणतामजहतोऽप्रेतनान् भागान शीघ्रमेव समासादयितुं शक्नुयुः । अस्यापि भागस्य पाठान्तरादिकार्येषु प्रवर्तकश्रीकान्तिविजयानां विद्याप्रियैः सुशीलैः प्रशिष्यैः श्रीपुण्यविजयमुनिभिः सहर्ष साहायकमनुष्ठितम् तदर्थं तेषां कृतज्ञा वयमिति । सुखलाल: बेचरदासश्च । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमति - तर्कप्रकरणम् । द्वितीयो विभागः । द्वितीयगाथाव्याख्या | [ आदिवाक्योपन्याससमीक्षा ] एवमिष्टदेवतानमस्कारकरणध्वस्त प्रकरणपरिसमाप्तिविबन्धकृत्क्लिष्टकर्म्मान्तरायः सूरिर्जिनप्र- ५ जीतत्वेन शासनस्य प्रकरणमन्तरेणापि स्वतः सिद्धत्वात् तदभिधेयस्य निष्प्रयोजनतामाशङ्कमानः 'समयपरमत्थ' इत्यादिगाथासूत्रेण प्रकरणाभिधेयप्रयोजनमाह समयपरमत्थवित्थरविहाडजणपज्जुवासणसर्यन्नो । आगममलारहियओ जह होइ तमत्थमुन्नेसुं ॥ २ ॥ तदेव चास्या गाथायाः समुदायार्थः । तच्च श्रोतृप्रवृत्यर्थम् प्रयोजनस्य प्रतिपत्तिमन्तरेण प्रेक्षा १० वतां प्रवृत्यनुपपत्तेः अनभिहितप्रयोजनस्य शास्त्रस्य प्रेक्षापूर्वकारिभिः काकदन्त परीक्षादेरिवानाश्रयणीयत्वात् । अतः प्रयोजनप्रदर्शनेन तेषां प्रवर्त्तनाय शास्त्रस्यादौ वाक्यं तत्प्रतिपादनपरमुपादेयम् । तदुक्तम्"सर्वस्यैव हि शास्त्रस्य कर्मणो वाऽपि कस्यचित् । यावत् प्रयोजनं नोक्तं तावत् तत् केन गृह्यते” ॥ [ श्लो० वा० सू० १ लो० १२] १५ पुनरप्युक्तम् "अनिर्दिष्टफलं सर्व न प्रेक्षापूर्वकारिभिः । शास्त्रमाद्रियते तेन वोच्यमग्रे प्रयोजनम्" ॥ [ "शास्त्रस्य तु फैले दृष्टे तत्प्रास्याशावशीकृताः । प्रेक्षावन्तः प्रवर्त्तन्ते तेन वाच्यं प्रयोजनम्" ॥ [ "यावत् प्रयोजनेनास्य सम्बन्धो नाभिधीयते । 1 ] २० असम्बद्धप्रलापित्वाद् भवेत् तावदसङ्गतिः ॥ [ श्लो० वा० सू० १ श्लो० २०] "तस्माद् व्याख्याङ्गमिच्छद्भिः सहेतुस्स प्रयोजनः । शास्त्रावतारसम्बन्धो वाच्यो नान्यस्तु निष्फलैः " ॥ [श्लो० वा०सू० १ श्लो० २५ ] २५ इत्यादि । [ पूर्वपक्ष:--- आदिवाक्योपन्यासस्य वैयर्थ्य प्रदर्शनम् ] मैत्रच केचित् प्रेरयन्ति-यदि प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थे प्रयोजनप्रतिपादनाय आदिवाक्यमुपादी १- यण्हो गु० मूले । २ होति गु० मूले । ३-मुन्नेसु कां० आ० वि० विना । अत्र 'उन्नेष्ये' इतिटीकाकारप्रदर्शितव्याख्यानुरोधेन ‘'उन्नेस्सं' इति स्यात् । लेखकभ्रमकल्पनायां तु 'उन्नेमु' इति स्यात् यतो नास्ति प्राकृतप्रक्रियायामस्मत्पुरुषैकवचने 'सुं'प्रत्ययः 'सु' प्रत्ययो वा 'मु' प्रत्ययस्तु वर्तमानाबहुवचने, विध्याज्ञयोश्चैकवचने वर्तत एव । ४ - जनप्रतिभां०] मां० | ५-रिव नाश्रय-भां० मां० वा० बा० विना । ६-प्रदर्शने तेषां कां० गु० वा० वा० । ७ इदमेकमेव पर्यं दृश्यते हेतु० टी० ता० लि० पृ० १ प्र० पं० ५ । ८ तत्वेन भां० वा० बा० । ९ वाद्यम-आ० गु० भा० डे० । १०-ले ज्ञाते त- भ० मां० । एवमेव दृश्यते प्रमेयक० पृ० १ द्वि० पं० ५, स्याद्वादर० पृ० ७ प्र० पं० १४ । ११ एतानि पश्चापि पयानि प्रमेयक० पृ० १ द्वि० पं० ४-७ द्रष्टव्यानि । १२ अत्र केचित् वा० भा० । स० त० २२ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेयते तदा ते प्रेक्षापूर्वकारित्वादेव अप्रमाणके नैव प्रवृत्तिं विदधति । न च प्रयोजनप्रतिपादकमादिवाक्यं तत्प्रभवं वा ज्ञानं प्रमाणम् अनक्षजत्वेनाध्यक्षत्वायोगात्। नाप्यनुमानं स्वभाव-कार्यलिङ्गसमुत्थम् तद्भावत्वेन तत्कारणत्वेन वा तत्प्रत्याय्यप्रयोजनस्य प्रमाणतोऽप्रतिपत्तेस्तदुत्थापकस्य लिङ्गस्य तेत्स्वभाव-तत्कार्यत्वानवगमात्, अन्यस्य च खसाध्या५प्रतिबन्धात् अप्रतिबद्धस्य च स्वसाध्यव्यभिचारेणागमकत्वात्, तत्त्वे वाऽतिप्रसङ्गात्। तत्प्रतिबद्ध त्वेऽप्यनिश्चितप्रतिबन्धस्यातिप्रसङ्गत एव अगमकत्वात् । न च वाक्यमिदं प्रवर्त्तमानं स्वमहिम्नैव स्वार्थ प्रत्याययतीति शब्दप्रमाणरूपत्वात् स्वाभिधेयप्रयोजनप्रतिपादने प्रमाणम् , शब्दस्य बाह्येऽर्थे प्रतिबन्धासम्भवेनाप्रामाण्यात् विवक्षायां प्रामाण्येऽपि तस्या बाह्यार्थाविनाभावित्वायोगात्। नापि ये यमर्थ विवक्षन्ति ते तथैव तं प्रतिपादयन्ति, १० अन्यविवक्षायामप्यन्यशब्दोच्चारणदर्शनात् विवक्षायाश्च बाह्यार्थप्रतिबद्धत्वानुपपत्तेरेकान्ततः। तत्र शब्दादपि प्रमाणादादिवाक्यरूपात् प्रयोजनविशेषोपायप्रतिपत्तिः तदप्रतिपत्तौ च तेषां ततः प्रवृत्ती प्रेक्षापूर्वकारिताव्यावृत्तिप्रसङ्गात् । प्रयोजनविशेषोपायसंशयोत्पादकत्वेन प्रवृत्त्यङ्गत्वादादिवाक्यस्य सार्थकत्वम् । तथाहि-अर्थसं. शयादपि प्रवृत्तिरुपलभ्यते, यथा कृषीबलादीनां कृष्यादावनवगतशस्यावाप्तिफलानाम् । अथ अबीजा१५दिविवेकेनावधृतबीजादिभावतया निश्चितोपायाः तदुपेयसस्थावाप्त्यनिश्चयेऽपि तत्र तेषां प्रवृत्तिर्युका न पुनः शास्त्रश्रवणादौ उपेयप्रयोजनविशेषानिश्चयवत् तदुपायाभिमतादिवाक्यप्रत्याय्योपायनिश्चयस्थाप्यसम्भवात् , अयुक्तमेतत्; यतो यथा सस्यसम्पत्त्यादौ फले कृषीबलादेः सन्देहस्तथा तदुपायाभिमतबीजादावपि, अनिवर्तितकार्यस्य कारणस्य तथाभावनिश्चयायोगात् । तत्र यथा कृष्यादिकं संशय्यमानोपायभावं प्रवृत्तिकारणं तथा शास्त्रमप्यादिवाक्यादनिश्चितोपायभावं किं न प्रवृत्तिका२० रणमभ्युपगम्येत इति चेत्, असदेतत् ; आदिवाक्योपन्यासः शास्त्रप्रयोजनविषयसंशयोत्पादनार्थम् संशयोऽपि च निश्चयविरुद्धः-अनुत्पन्ने च निश्चये-तत्राप्रतिबद्धप्रवृत्तिहेतुतया प्रादुर्भवन् केन वार्यते आदिवाक्योपन्यासमन्तरेणापि? अथाश्रुतप्रयोजनवाक्यानां प्रयोजनसामान्ये तत्सत्वेतराभ्यां संशयो जायते-'किमिदं चिकित्साशास्त्रवत् सप्रयोजनमुत काकदन्तपरीक्षावन्निष्प्रयोजनम्'-ततश्च संशयादनुपन्यस्ते प्रयोजन२५वाक्ये प्रयोजनसामान्यार्थिनः प्रवर्त्तन्ताम् प्रयोजनविशेषे तु कथमश्रुतप्रयोजनवाक्यानां संशयोत्पत्तिः ? प्रायेण च प्रयोजनविशेषविषयस्यैव संशयस्य प्रवृत्तिकारणत्वात् तदुत्पादनायादिवाक्यमुपादेयम् अतश्च प्रयोजनसामान्य-विशेषेषु संशयानाः 'किमिदं सप्रयोजनमुत निष्प्रयोजनम् सप्रयोजनत्वेऽपि किमभिलषितेनैव प्रयोजनेन तद्वत' इति पक्षपरामर्श कर्वाणाः प्रवर्तन्ते. असदेतत्; कुतश्चिच्छास्नादनुभूतप्रयोजनविशेषं श्रोतारं प्रति प्रयोजनवाक्यस्यानुपयोगात्-स हि किञ्चि३० च्छास्त्रमुपलभ्य प्रागनुभूतप्रयोजनविशेषेण शास्त्रेणास्य वाक्यात्मकत्वेन साधर्म्यमवधार्य 'इदमपि निष्प्रयोजनम् उतानाममतप्रयोजनवत् उताभीष्टप्रयोजनवद्वा' इत्याशङ्कमान: प्रयोजनवाक्यमन्तरे णापि प्रवर्तत एव अननुभूतप्रयोजनविशेषस्तु प्रयोजनवाक्यादपि नैव प्रवर्तते, तं प्रति तस्यापि तदुत्पादकत्वायोगात्-न हि प्रागननुभूतशास्त्रप्रयोजनविशेषः 'प्रयोजनप्रतिपादकं वाक्यमेतदर्थम्' इत्यपि प्रतिपत्तुं समर्थोऽपरयत्नमन्तरेण । नाप्यनुभूतविस्मृतप्रयोजनविशेषः प्रयोजनवाक्यात् ३५संस्मृत्य तद्विशेषं संशयानः प्रवर्त्तते, तद्रहितशास्त्रादपि तद्विशेषे स्मृतिसम्भवात् । नियमेन तु नोभाभ्यामपि तदनुस्मरणं भवति, तथापि प्रयोजनवाक्यस्य ततः स्मृतिहेतुत्वत उपन्यासेऽन्यस्यापि तद्धेतोः किं नोपन्यासः? सामान्य-विशेषयोश्च दर्शनाऽदर्शनाभ्यां विशेषस्मरणसहकारिभ्यां संशयः, न च प्रयोजनवाक्यं प्रयोजनविशेषस्य भावाऽभावयोः सामान्यम् । अथ विवक्षापरतन्त्रत्वात् खार्थतथाभावाऽतथाभावयोरपि प्रयोगसम्भवात् सामान्यमेव वाक्यम्, शास्त्रमपि तर्हि शास्त्रान्तर४०सादृश्यात् प्रयोजननिर्वृत्युपायत्वाऽनुपायत्वयोः सामान्यम्-अन्यतरनिश्चयनिमित्ताभावात्-ततः १तद्भाव-गु० डे. भां० वा. बा०।२ अप्रतिबन्धस्य स्व-कां० डे० गु० भा०। ३-नानुभूतबी-कां. आ०। ४-पाया दुपे-वा. बा० । अत्र "संशयितसस्यसंपत्त्यादिफलानां कृषीवलादीनां कृष्यादाविव प्रवर्तमानानाम्" इति स्याद्वादर. पृ. ७ द्वि. पं० ११ । “ततोऽपि च संशयतः सस्यसंपत्त्यादिफले कृध्यादौ कृषीबला इव ते तत्र प्रवर्तन्ते" इति रत्नाकरा०पृ. ९५० १४। ५-त्तिर्न पुनः आ० हा०।६न प्रतिपत्तिका-भा०मा०। ७ एवमेव दृश्यते स्थाद्वादर० पृ.७ द्वि. पं०१४। ८वार्येत भां. मां०। ९-जनानि-भां०मा०। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिवाक्योपन्याससमीक्षा । संशयानः प्रवर्त्तताम् किमकिञ्चित्करप्रयोजनवाक्येन ? न च सामान्यस्य विशेषस्य च दर्शनाऽदर्शनाभ्यामेव यथोक्ताभ्यां संशयः, किन्तु साधक-बाधकप्रमाणाप्रवृत्तावपि सा च प्रयोजनवाक्योपन्या साऽनुपन्यासयोरपि सम्भवत्येव । १७१ मा भूत् संशयोत्पादनेन वाक्यस्य शास्त्रश्रवणादिप्रवृत्तौ सामर्थ्यम्, किन्तु प्रकरणारम्भप्रतिवेधाय 'नारब्धव्यमिदं प्रकरणम्, अप्रयोजनत्वात्, काकदन्तपरीक्षावत्' इति व्यापकानुपलब्धेर- ५ सिद्धोद्भावनाय तदुपन्यास इति चेत्, एतदप्यसत् यतः शास्त्रप्रयोजनं वाक्येनाप्रदर्शयता तदसिद्धिरुद्रावयितुमशक्या, वाक्यस्याप्रमाणत्या प्रयोजनविशेषसद्भावप्रकाशनसामर्थ्याभावात् । न च सप्रयोजनत्वेतरयोः परस्परपरिहार स्थितयोः कुतश्चित् प्रमाणादेकभावाप्रतिपत्तावतराभावप्रतिपत्तिः - अतिप्रसङ्गात् - येन वाक्यमात्रस्योपक्षेपेण हेतोरसिद्धिः स्यात् । नापि कुतश्चित् प्रयोजनविशेषमुपलभ्य (भ) मानेन स्वयमुपलब्धप्रयोजनविशेषोपलम्भोपायमप्रदर्शयता कर्तुं शक्या असिद्धतो- १० द्भावना, वाक्यस्याप्रमाणस्य हेतुप्रतिपक्षभूतार्थोपस्थापनाऽशकस्योपन्यासमात्रेणासिद्धेरयोगात् । नाप्यनिबन्धना प्रतिपत्तिः, अतिप्रसङ्गात् । अथ यद्यप्यप्रमाणत्वाद् विपरीतार्थोपस्थापनमुखेनासिद्धतामिदं नोद्भावयति तथापि शास्त्रस्य निष्प्रयोजनता सन्दिग्धाऽतः, सन्दिग्धनिष्प्रयोजनत्वस्य शास्त्रस्य प्रयोजनाभावं निश्चितं प्रेक्षावदारम्भप्रतिषेधहेतुं प्रयुञ्जानोऽनेन वाक्येन प्रतिक्षेनुमिष्टः न पुनः प्रयोजनविषयनिश्चय एवोत्पादयितु- १५ मिएँः, न हि प्रतिपक्षोपक्षेपेणैव साधनधर्माणामसिद्धिः अपि तु स्वग्राहिज्ञानविकलतया सन्दिग्धधर्मिसम्बन्धित्वमप्यसिद्धत्वमेव, तस्मात् सन्दिग्धासिद्धतोद्भावनाय वाक्यप्रयोग इति, तदप्यनुपपनम् ; यथा हि सप्रयोजनत्वे सन्देहोत्पादने वाक्यस्यानुपयोगित्वम् - शास्त्रमात्रादपि भावात् - तथा निष्प्रयोजनत्वेऽपि एवं ह्यनेन वाक्येन हेतोरसिद्धतोद्भाविता भवति यदि तत्संत्तासन्देहनिबन्धनानि कारणान्यपि तदैव प्रकाशितानि भवन्ति । न च विपर्यस्तपुरुषसन्देहोत्पादने तद् वाक्यं प्रभवति, २० अदर्शनात् । न च प्रस्तुतशास्त्रस्य प्रयोजनवच्छास्त्रान्तरेण कथञ्चित् साम्यात् साधक-बाधकप्रमाणाप्रवृत्तितश्चान्यानि सन्देहकारणानिं' सम्भवन्ति, वाक्यमप्येतावन्मात्रप्रकाशनपरं हेतोः सन्दिग्धासिद्धतामुद्भावयेत्, तच्च तथाप्रकाशनमनुपन्यस्तेऽपि वाक्ये शास्त्रमात्रादपि दर्शनात् प्रमाणद्वयावृत्तेश्च भवतीति कस्तस्योपयोगः ? अनुपन्यस्ते कथं तत् इति चेत्, उपन्यस्तेऽपि कथम् न हि तदुपन्यासानुपन्यासावस्थयोः सन्दिग्धत्वात् प्रस्तुतात् कथञ्चन विशेषं पश्यामः ? असिद्धतोद्भावन- २५ मन न्यायेन सर्वमेवासङ्गतमिति चेत्, नैतत् न ह्यनेन प्रकारेणासिद्धतोद्भावनमेव प्रतिक्षिप्यते, किन्तु प्रमाणरहिताद् वा यात्रादसिद्धता नोद्भावयितुं शक्येति प्रदर्श्यते । तन्न प्रयोजनवाक्यं हेत्वसिद्धतोद्भावनार्थमपि युक्तम् । न च परोपन्यस्ते साधने प्रयोजनवाक्येनासिद्धतामुद्भाव्य 'कथमसिद्धिः साधनस्य' इति प्रत्यवस्थानवन्तं शास्त्रपरिसमाप्तेः प्रयोजनमवगमयेंन् शास्त्रं श्रावयति ततः समधिगते प्रयोजने तदुपन्यस्तस्य ३० १ अत्र अर्थानुसंधानबलात् ' - प्रतिषेधाय प्रयुज्यमानायाः' इत्येव पाठो बोद्ध्यः । " यत् प्रयोजनरहितं वाक्यम् तदर्थो वा न तत् प्रेक्षावता आरभ्यते कर्तुम् प्रतिपादयितुं वा । तद्यथा 'दशदाडिमा 'दिवाक्यं काकदन्त - x x x प्रकरणम् तदर्थो वेति व्यापकानुपलब्ध्या प्रत्यवतिष्ठमानस्य तदसिद्धतोद्भावनार्थमादौ प्रयोजनवाक्योपन्यासस्तत्र " - हेतु ० टी० ता० लि० पृ० २ प्र० पं० १-२ । " " किन्तु यत् प्रयोजनरहितम् अनर्थकं वा तद् नारब्धव्यम्, यथा काकदन्तपरीक्षोन्मत्तादिवाक्यम्; प्रयोजनरहितं चेदं शास्त्रम् अतो न श्रोतुं कर्तुं वा प्रारब्धव्यम्' इत्येवं व्यापकानुपलब्ध्या यः प्रत्यवतिष्ठते तस्य हेतोरसिद्धतोद्भावनार्थमादौ प्रयोजनादिवाक्योपन्यास इति” तत्त्वसं० पक्षि० पृ० ६ पं० ९ । “व्यापकानुपलब्ध्या प्रत्यवतिष्ठमानान् प्रति व्यापकानुपलब्धेरसिद्धतोद्भावनार्थ प्रयोजनवाक्यम्" - तत्त्वार्थ श्लोकवा० पृ० ४ पं० १९-२० । “शास्त्रप्रारम्भप्रतिषेधाय प्रयुज्यमानायाः व्यापकानुपलब्धेरसिद्धतोद्भावनार्थम्” इति स्याद्वादर० पृ० ८ द्वि० पं० ६ । २ णादेकाभावाप्रवा बा• विना । “कुतश्चित् प्रमाणादेकभावाप्रतीता वितराभावप्रतिपत्तिः” इति स्याद्वादर० पृ० ८ द्वि० पं० ९ । ३ अत्र “नापि कुतश्चित् प्रयोजनविशेषं स्वयं प्रतिपन्नवता परस्य तत्प्रकाशनोपायमनुपदर्शयता" इति स्याद्वादर० पृ० ८ द्वि० पं० १० । ४- मानोन डे० गु० भा० । ५- नाऽशक्य- भां०। ६- पनामुखे वा० बा० । ७ष्टः तर्हि भां० मां० । ८-ताद्भवति आ० कां ० गु० डे० भा० । ९-त्सत्वासन्देह - भां० । १० - जनाच्छा-भां० मां० । ११ - नि भवन्ति मां० । १२- यत् शा-भां०] मां० । “प्रत्यवतिष्ठमानं परं शास्त्रपरिसमाप्तितः प्रयोजनमनुगमयिष्यन् शास्त्रं श्रावयति" इति सादर० पृ० प्र० पं० ७ १ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेसाधनस्यासिद्धिरिति वक्तुं शक्यम्, शास्त्रश्रवणतः प्रयोजनावगमे शास्त्रस्यादौ तद्वाक्योपन्यासस वैयर्थ्यप्रसक्तः । अत एव “शास्त्रार्थप्रतिक्षाप्रतिपादनपरः आदिवाक्योपन्यासः" [ ] इत्याद्यपि प्रतिक्षिप्तम् , अप्रमाणादादिवाक्यात् तदसिद्धेः। तथा, सम्बन्धाऽभिधेयप्रत्यायनपराण्यपि वाक्यानि शास्त्रादौ वाड्यात्रेण निश्चयायोगान्निष्प्रयोजनानि प्रतिक्षिप्तान्येष, उक्तन्यायस्य समान५त्वात् । तद्युक्तम् 'समय'-इत्यादि-अभिधेयप्रयोजनप्रतिपादकम् -गाथासूत्रम्। [उत्तरपक्षः-आदिवाक्योपन्यासस्य सार्थकत्वसमर्थनम्] अत्र प्रतिविधीयते- यदुक्तम् 'न प्रत्यक्षमनुमान वा शब्दः' तत्र सिद्धसाभ्यता, प्रत्यक्षानुमानलक्षणायोगात् तत्र । यर्च 'नापि शब्दः प्रमाणम् बहिरर्थे तस्य प्रतिबन्धवैकल्येन, विवक्षायां तु प्रसिबन्धेऽपि यथाविवक्षमर्थासम्भवात् तदप्यसारम्; बाह्यार्थेन शब्दप्रतिबन्धस्य प्रसाधयिष्यमाणत्वात् १० तत्रैव च प्रतिपति-प्रवृस्यादिव्यवहारस्योपलभ्यमानत्वाद् बाह्यार्थ एव शब्दस्य मामाण्यमभ्युपगन्तव्यं प्रत्यक्षवत्। न चार्थाध्यभिचारित्वप्रामाण्यनिश्चयवतां ततः प्रवर्त्तमानानां प्रेक्षापूर्वकारिताक्षतिः। न चानाप्तप्रणीत सरित्तटपर्यस्तगुडशकट' वाक्यविशिष्टतानवगमाद् नातः प्रवृत्तिः, प्रत्यक्षाभासात् प्रत्यक्षस्येवा नाप्तप्रणीतवाक्यादस्य विशिष्टतावसायात्; यस्य तु न तद्विशिष्टावसायो नासावतः प्रवर्तते अनवधत१५ हेत्वाभासविवेकाद्धेतोरिवानुमेयार्थक्रियार्थी । न चाप्तानां परहितप्रतिबद्धप्रयासानां प्रमाणभूतत्वात् स्ववाड्यात्रेण प्रवर्तयितुं प्रभवतां प्रयोजनवाक्योपन्यासवैयर्थ्यम् , सुनिश्चिताप्तप्रणीतवाक्यादपि प्रतिनियतप्रयोजनार्थिनां तदुपायानिश्चये तत्र प्रवृत्त्ययोगात् । न च प्रयोजनविशेषप्रतिपादकवाक्यमन्तरेणाप्तप्रणीतशास्त्रस्यापि तद्विशेषप्रतिपादकत्वनिश्चयः येन तत एव तदर्थिनां तत्र प्रवृत्तिः स्यात्, तदनमिमतप्रयोजनप्रतिपादकानामपि तेषां संभवात् ।। २० अतः “यत्र खल्वाप्तैः 'इदं कर्तव्यम्' इति पुरुषाः प्रतीततदाप्तभावा नियुज्यन्ते तत्राधीरिततत्प्रेरणाऽतथाभावविषयविचारास्तदभिहितं वाक्यमेव बहु मन्यमाना अनादृतप्रयोजनपरिप्रश्ना एव प्रवर्त्तन्ते, विनिश्चिततदाप्तभावानां प्रत्यवस्थानासंभवात्" [ ] इति निरस्तम्, आप्तप्रवर्तितप्रतिनियतप्रयोजनार्थिजनप्रेरणावाक्यस्यैव प्रयोजनवाक्यत्वनिश्चयात् अन्यथाऽभिमतफलार्थिजनमेरकवाक्यस्याप्तप्रयुक्तत्वमेवानिश्चितं स्यात् अनभिमतार्थप्रेरकस्यावगताप्तवाक्यत्वे चाति२५प्रसङ्गः न चाप्तवाक्यादपि प्रतिनियतप्रयोजनाथिनस्तदवगर्म तत्र प्रवतितुमुत्सहन्ते, अतिप्रसङ्गादेवेति सुप्रसिद्धम् । अर्थसंशयोत्पादकत्वेन चादिवाक्यस्य प्रवर्तकत्वप्रतिक्षेपे सिद्धतासाधनम् , व्यापकानुपलब्धेस्वसिद्धतोद्भावनमादिवाक्यानिश्चितबाह्यार्थप्रामाण्याद् युक्तमेव, यथा च तत्र तस्या (तस्य) प्रामाण्यं तथा प्रतिपादयिष्यामः । अत एव "आप्ताभिहितत्वासिद्धरविसंवादकत्वायोगाप्रमाणत्वा३० भावनिश्चयनिमित्ताभावादप्रवर्तकत्वं प्रयोजनवाक्यस्य प्रेक्षापूर्वकारिणःप्रेति"[ इति यदुच्यते तदपि प्रतिव्यूढं द्रष्टव्यम् । एतेनैव सम्बन्धाभिधेयाभिधानस्यापि सार्थकत्वं प्रतिपादितम् । तत् स्थितमभिधेयप्रयोजनप्रतिपादकत्वं समुदायार्थः 'समय'-इत्यादिगाथासूत्रस्य । अन च 'आगममलारहृदय' इत्यनुवादेन 'समयपरमार्थविस्तरविहाटजनपर्युपासनसको यथा भवति तमर्थमुन्नेष्ये' इति विधिपरा पदघटना कर्तव्या। १ "एतेन शास्त्रप्रतिज्ञाख्यापनफलः संक्षेपतः शास्त्रशरीरख्यापनफलव तदादौ वाक्योपन्यास इत्येवमादयोऽसत्कल्पनाः xxx निर्वर्णितोत्तराः" इति स्याद्वादर० पृ. ९ द्वि.पं०६।२ पृ. १६९ पं० ८।३ पृ० १७० पं०१-३।४ पृ. १७. पं० ८। ५ यदा-आ० का०। ६ न चार्थव्य-वा. बा. विना। -चधारिततत्प्रेरणातथाभाव-आ. वा० बा०। ८-र्थिना ज-आ• गु• हा० भा० डे० ।-र्थिनो ज-वि• कां०। ९-वे वा-भा० हे. गु.आ.। १० अथ-आ• कां० हे. गु० भा०। ११ वि० प्रतौ 'तस्य प्रामाण्यम्' इत्येव संशोधितम् । अथवा 'तस्याऽप्रामाण्यम्' इत्यस्यैव पाठस्य प्राह्यतायां 'न' पदं पूरयित्वा 'यथा च न तत्र तस्याऽप्रामाण्यम्' इति पाठो बोद्धव्यः । ११प्रतीतिर्यदु-वा. बा. बिना । १३-नवाक्यस्य प्रति-भां० मा०। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-सत्संपन्भयोर्मीमांसा । १७३ पदार्थस्तु मलमिव आरा प्राजमकविभागो यस्यासौ मलारो गौर्गली आगमे तद्वत् कुण्ठं हृदयं यस्य तदर्थप्रतिपत्त्यसामर्थ्यात्-असौ तथा मन्दधीः, सम्यगीयन्ते परिच्छिद्यन्तेऽनेनार्था इति समय आगमः तस्य परमोऽकल्पितश्चासावर्थः समयपरमार्थः तस्य विस्तरो रचनाविशेषःशब्दार्थयोश्च मेदेऽपि पारमार्थिकसम्बन्धप्रतिपादनायाऽभेदविवक्षया "प्रथने वावशब्दे" [पाणि० ३, ३,३३] इति घञ् न कृतः-तस्य विहाट इति दीप्यमानान् श्रोतृबुद्धौ प्रकाशमानानान् दीपयति५ प्रकाशयतीति विहाटश्चासौ जनश्च चतुर्दशपूर्व विदादिलोकः तस्य पर्यपासनम्-कारणे कार्योपचारात्-सेवाजनिततयाख्यानं तत्र सह कर्णाभ्यां वर्तत इति सकर्णः तद्व्याख्यातार्थावधारणसमर्थः यथा इति येन प्रकारेण भवति तं तथाभूतमर्थमुन्नेष्ये लेशतः प्रतिपादयिष्ये । ___ यथाभूतेनार्थेन प्रतिपादितेनातिकुण्ठधीरपि श्रोतृजनो विशिष्टागमव्याख्यातृप्रतिपादितार्थावधारणपटुः सम्पद्यते तमर्थमनेन प्रकरणेन प्रतिपादयिष्यामीति यावत् ।। [शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा-पूर्वपक्षः] [ 'अपोह एव शब्दस्यार्थः' इति बौद्धमतस्य संक्षिप्य स्थापनम् ] ननु च 'समयपरमार्थविस्तर'-इत्यनेनागमस्याकल्पितो बाह्यार्थः प्रतिपाद्यत्वेन शब्दार्थयोश्च वास्तवः सम्बन्धो निर्दिष्टः, द्वितयमप्येतदयुक्तम् ; प्रमाणबाधितत्वात् इति बौद्धाः। तथाहि-शब्दानां न परमार्थतः किञ्चिद् वाच्यं वस्तुस्वरूपमस्ति; सर्व एव हि शाब्दप्रत्ययो भ्रान्तः, मिन्नेम्वर्थेविभेदा-१५ काराध्यवसायेन प्रवृत्तेः। यत्र तु पारम्पर्येण वस्तुप्रतिबन्धस्तत्रार्थसंवादो भ्रान्तत्वेऽपि, तत्र यत् तदारोपितं विकल्पबुद्ध्याऽर्थेष्वभिन्न रूपं तद् अन्यव्यावृत्तपदार्थानुभवबलायातत्वात् स्वयं चान्यव्या. वृत्ततया प्रतिभासनात् भ्रान्तैश्चान्यव्यावृत्तार्थेन सहैक्येनाध्यवसितत्वात् अन्यापोढपदार्थाधिगतिफलत्वाञ्च अन्यापोह इत्युच्यते, अतः अपोहः शब्दार्थः इति प्रसिद्धम् । ['विधिरेव शब्दस्यार्थः' इति विधिवादिमतस्य संक्षिप्य प्रतिस्थापनम् ] २० अत्र विधिवादिनः प्रेरयन्ति-यदि भवतां द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्यादिलक्षणानि विशेषणानि शब्दप्रवृत्तिनिमित्तानि परमार्थतो न सन्ति कथं लोके 'दण्डी'इत्याद्यभिधानप्रत्ययाः प्रवर्त्तन्ते द्रव्याधुपाधिनिमित्ताः? तथाहि-'दण्डी' 'विषाणी' इत्यादिधी-ध्वनी लोके द्रव्योपाधिको प्रसिद्धौ, 'शुक्लः' 'कृष्णः' इति गुणोपाधिकौ, 'चलति' 'भ्रमति' इति कर्मनिमित्तौ, 'अस्ति' 'विद्यते' इति सत्तानिमितको, 'गौः' 'अश्वः' इति सामान्यविशेषोपाधी, 'इह तन्तुषु पटः' इति समवायनिमित्तः (तो)। तत्रै-२५ षां द्रव्यादीनामभावे 'दण्डी' इत्यादिप्रत्यय-शब्दौ निर्विषयौ स्याताम् । न चानिमित्तावेतौ युक्ती, सर्वत्र सर्वदा तयोरविशेषेण प्रवृत्तिप्रसङ्गात् । न चाविभागेन तयोः प्रवृत्तिरस्ति, तस्मात् सन्ति द्रव्यादयः पारमार्थिकाः प्रस्तुतप्रत्यय-शब्दविषयाः। प्रमाणयन्ति चौत्र-ये परस्परासङ्कीर्णप्रवृत्तयस्ते सनिमित्ताः, यथा श्रोत्रादिप्रत्ययाः, असङ्कीर्णप्रवृत्तयश्च 'दण्डी' इत्यादिशब्द-प्रत्ययाः इति स्वभावहेतुः । अनिमित्तत्वे सर्वत्राविशेषेण प्रवृत्तिप्रसङ्गो३० बाधकं प्रमाणम्। १ "मट्ठ-मराला य अलसम्मि"-देशीना. व. ६ श्लो० ११२ पृ. २२२ । “मंदं अलसं जडं मरालं च"-पाइल. ना० श्लो. १५ पृ.३। २ "वेरशब्दे प्रथने" इति हैमं सूत्रम्-५, ३, ६९। ३ "हट दीप्तौ" है. धातुपारा० १, १८८ पृ. २७। ४ कार्य कारणोपचारात् भां• मां०। ५ शब्दश एवेदं संपूर्णमपोहप्रकरणमविकलतया तत्त्वसंग्रहपत्रिकायां दृश्यते पृ. २७४ का०८६७-पृ० ३६६ का० १२१२। ६ यदारो-वि०। ७-यं वा-या. बा । ८-नाभ्रान्तेश्चा-भां। “यदि नोपाधयः केचिद् विद्यन्ते (परमार्थतः)। (दण्डी शुक्लश्चलत्यस्ति गो) रिहेत्यादिधी (ध्वनी)। (स्यातां) किंविषयावेतौ नाऽनिमित्तौ च तौ मतौ । सर्वस्मिन्नविभागेन तयोर्वृत्तिरसंभवी" (2)॥ तत्त्वसं० का० ८६७, ८६८ पृ. २७४ । १. 'इहात्मनि ज्ञानम्' इत्यादिको संबन्धोपाधिको” प्रमेयक पृ० १२८ द्वि० पं०८-१। ११-ण वृत्तिमा०मा०।१२ प्रयोगोऽयं विद्यते प्रमेयक. पृ. १२८ द्वि. पं. ७ । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ प्रथमे काण्डे[विधिवादिमतं सविस्तरं दूषयताम् अपोहवादिनां मतस्य निर्देशः] अत्र यदि पारमार्थिकबाह्यविषयभूतेन निमित्तेन सन्नि(सनि)मित्तत्वमेषां साधयितुमिष्टं तदा अनैकान्तिकता हेतोः; साध्यविपर्यये बाधकप्रमाणाभावात् । अथ येन केनचिनिमित्तन सनिमित्तत्व मिष्यते तदा सिद्धसाध्यता। तथाहि-अस्माभिरपीष्यते एवैषामन्तर्जल्पवासनाप्रबोधो निमित्तं न ५तु विषयभूतम् , भ्रान्तत्वेन सर्वस्य श(शा)ब्द प्रत्ययस्य निर्विषयत्वात् । तदुक्तम् "येने येन हि नाम्ना वै यो यो धर्मोऽर्मिलप्यते । न स संविद्यते तत्र धर्माणां सा हि धर्माता" ॥ [ ] इति। न च शाब्दप्रत्ययस्य भ्रान्तत्वाऽविषयत्वयोः किं प्रमाणमिति वक्तव्यम्, भिन्नेष्वमेदाध्यवसायेन प्रवर्त्तमानस्य प्रत्ययस्य भ्रान्तत्वात् । तथाहि-यः 'अतस्मिंस्तत्' इति प्रत्ययः स भ्रान्तः, यथा मरीचि. १० कायां जलप्रत्ययः, तथा चायं भिन्नेष्वर्थेष्वमेदाध्यवसायी शाब्दः प्रत्यय इति स्वभावहेतुः । न च सामान्य वस्तुभूतं ग्राह्यमस्ति येनासिद्धताऽस्य हेतोः स्यात्, तस्य निषिद्धत्वात् । भवतु वा सामा. ग्यम् तथापि तस्य भेदेभ्योऽर्थान्तरत्वे भिन्नेष्वमेदाध्यवसायो भ्रान्तिरेव, न ह्यन्येनान्ये समाना युक्तास्तद्वन्तो नाम स्युः । अनर्थान्तरत्वेऽपि सामान्यस्य सर्वमेव विश्वमेकं वस्तु परमार्थत इति तत्र सामान्यप्रत्ययो भ्रान्तिरेव; न चैकवस्तुविषयः समानप्रत्ययः, मेदग्रहणपुरस्सरत्वात् तस्य । भ्रान्त १५त्वे च सिद्धे निर्विषयत्वमपि सिद्धम्, स्वाकारार्पणेन जनकस्य कस्यचिदर्थस्यालम्बनलक्षणस्य प्राप्तस्याभावात्। अन्यथा वा निर्विषयत्वम् । तथाहि-यत्रैव कृतसमया ध्वनयः स एव तेषामों युक्तो नान्यः, अतिप्रसङ्गात् न च क्वचिद् वस्तुन्येषां परमार्थतः समयः संभवतीति निर्विषया ध्वनयः । प्रयोगःये यत्र भावतः कृतसमया न भवन्ति न ते परमार्थतस्तमभिदधति, यथा सानादिमति पिण्डेऽश्व२० शब्दोऽकृतसमयः, न भवन्ति च भावतः कृतसमयाः सर्वस्मिन् वस्तुनि सर्वे ध्वनयः इति व्यापकानु. पलब्धिः कृतसमयत्वेनाभिधायकत्वस्य व्याप्तत्वात् तस्य चेहाभावः । [संकेतासंभवसाधनाय खलक्षणाद्यर्थभेदेन विकल्पपञ्चकविधानम्] न चायमसिद्धो हेतुः। तथाहि-गृहीतसमयं वस्तु शब्दार्थत्वेन व्यवस्थाप्यमानं स्वलक्षणं वा व्यवस्थाप्येत, जातिर्वा, तद्योगो वा, जातिमान् वा पदार्थः, बुद्धेर्वा आकार इति विकल्पाः। सर्वेष्वपि २५ समयासंभवान्न युक्तं शब्दार्थत्वं तत्त्वतः; सांवृतस्य तु शब्दार्थत्वस्य न निषेध इति न स्ववचनविरोधः प्रतिज्ञायाः। एवं ह्यसौ स्यात्-स्वलक्षणादीन् शब्देनाप्रतिपाद्य न शक्यमशब्दार्थत्वमेषां प्रतिपादयितुम्, तत्प्रतिपिपादयिषया च शब्देन स्वलक्षणादीनुपदर्शयता शैब्दार्थत्वमेषामभ्युपेयं स्यात् पुनश्च तदेव प्रतिज्ञया प्रतिषिद्धमिति खवचनव्याघातः; न चासावभ्युपगम्यत इति । एतेन यदुक्तमुद्योत. १ "उच्यते विषयोऽमीषां धी-ध्वनीनां न कश्चन । अन्तर्मात्रानिविष्टं तु बीजमेषां निबन्धनम्॥ तत्त्वसं० का० ८६९ पृ. २७५। २"तत्र यदि मुख्यतो बाह्येन विषयभूतेन सनिमित्तत्वमेषां साधयितुमिष्टं तदाऽनैकान्तिकता हेतोः" तत्त्वसं० पजि. पृ० २७५ पं० १९ । ३-न संनि-कां०। ४-भूतत्वम् भ्रा-भां• मां० विना। ५ “तत्रेदमुक्तं तायिना" इति निर्दिश्य श्लोकोऽयं समुद्धृतस्तत्त्वसंग्रहपत्रिकायाम् पृ० १२५० १२। ६-भिलप्यते आ० भां• मां. बा०। ७स स वि-आ. वि. का. । ८ “यस्य यस्य हि शब्दस्य यो यो विषय उच्यते । स स ( संविद्य ) ते नैव वस्तूनां सा हि धर्मता" ॥ तत्त्वसं० का० ८७० पृ०२७५। ९-त्ययभ्रान्त-भां० मां. वा. बा. विना। १० पृ. ११० पं०९। ११ “ नहि अनेन अन्ये समाना भवन्ति तद्वन्तो हि तथा स्युः" इति सामान्यपदार्थविचारप्रस्तावे न्यायकु० लि. पृ० १६१ प्र. पं० १०। १२ “सामान्यप्रत्ययः"-तत्त्वसं० पजिपृ. २७६ पं० १०। १३ सानामति आ० कां. गु० डे. भा. वा. बा। १४ “यतः खलक्षणं जातिस्तद्योगो जातिमांस्तथा। बुद्ध्याकारो न शब्दार्थे घटामश्चति तत्त्वतः"॥ तत्त्वसं० का० ८७१ पृ. २७६ । १५ “पदार्थबुद्धा आकारः"-तत्त्वसं. पजि. पृ. २७६ पं० २३। १६-ब्दार्थस्य डे. गु०। १७ "शब्दार्थत्वमेषामभ्युपेतं स्यातू"-तत्त्वसं.पजि.पू. २७६ पं० २७ । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोमीमांसा। १७५ करेण-"अवाचकत्वे शब्दानां प्रतिज्ञा-हेत्वोाघातः" [अ० २, आ० २, सू० ६७ न्यायवा० पृ० ३२७ पं०६-७] इति, तदपि प्रत्युक्तं भवति; न हि सर्वथा शब्दार्थापवादोऽस्माभिः क्रियते-आ गोपालेभ्योऽपि प्रतीतत्वात् तस्य-किन्तु तात्त्विकत्वं धर्मः परैर्यस्तत्रारोप्यते तस्यैव निषेधो न तु धर्मिणः । [१ स्खलक्षणे संकेतासंभवसाधनम्] तत्र स्वलक्षणे न तावत् समयः संभवति शब्दस्य, समयो हि व्यवहारार्थ क्रियते न व्यसनितया,५ तेन यस्यैव सङ्केत-व्यवहारकालव्यापकत्वमस्ति तत्रैव स व्यवहर्तृणां युक्तो नान्यत्र; न च स्वलक्षणस्य सङ्केत-व्यवहारकालव्यापकत्वमस्ति तस्मान्न तत्र समयः । सङ्केत-व्यवहारकालाव्यापकत्वं च शाबलेयादिव्यक्तीनां देशादिभेदेन परस्परतोऽत्यन्तव्यावृत्ततयाऽनन्वयात् तत्रैकत्र कृतसमयस्य पुंसोऽन्यैर्व्यवहारो न स्यादिति तत्र समयाभावान्नासिद्धता हेतोः। ___ न चाप्यनैकान्तिकत्वम्, व्याप्तिसिद्धेः। तथाहि-यद्यगृहीतसङ्केतमर्थ शब्दः प्रतिपादयेत् तदा १० गोशब्दोऽप्यश्वं प्रतिपादयेत् सङ्केतकरणानर्थक्यं च स्यात्, तस्मादतिप्रसङ्गापत्तिर्बाधकं प्रमाणमिति कथं न व्याप्तिसिद्धिः? ___ अयमेव वा 'अकृतसमयत्वात्' इति हेतुराचार्यदिग्नागेन “न जातिशब्दो भेदानां वाचकः, आनन्यात्"[ ] इत्यनेन निर्दिष्टः । तथाहि-'आनन्त्यात्' इत्यनेन समयासंभव एव दर्शितः। तेन यदुक्तमुद्योतकरेण-“यदि शब्दान् पक्षयसि तदा 'आनन्त्यात्' इत्यस्य वस्तुधर्मत्वाद् १५ व्यधिकरणो हेतुः, अथ मेदा एव पक्षीक्रियन्ते तदा नान्वयी न व्यतिरेकी दृष्टान्तोऽस्तीत्यहेतुरीनन्त्यम्" [अ० २, आ० २, सू० ६७ न्यायवा० पृ० ३२३ पं० १६] इति, तत् प्रत्युक्तम् । यत् पुनः स एवाह-“यस्य निर्विशेषणा मेदाः शब्दैरभिधीयन्ते तस्याऽयं दोषः, अस्माकं तु सत्ताविशेषणानि द्रव्य-गुण-कर्माण्यभिधीयन्ते । तथाहि-यत्र यत्र सत्तादिकं सामान्यं पश्यति तत्र तत्र सदादिशब्दं प्रयुङ्क्ते, एकमेव च सत्तादिकं सामान्यम् , अतः सामान्योपलक्षितेषु भेदेषु समयक्रियासम्भवादकार-२० णमानन्त्यम्" [अ०२, आ०२, सू०६७ न्यायवा० पृ० ३२३ पं०११] इति, असदेतत् ; यतो न सत्तादिकं वस्तुभूतं सामान्यं तेभ्यो मिन्नमभिन्नं वाऽस्तीति । भवतु वा तत् तथाप्येकस्मिन् भेदेऽनेकसामान्यसंभवादसाङ्कर्येण सदादिशब्दयोजनं न स्यात् । न च शब्देनानुपदर्य सत्तादिकं सामान्य सत्तादिना भेदानुपलक्षयितुं समयकारः शक्नुयात्, न चाकृतसमयेषु सत्तादिषु शब्दप्रवृत्तिरस्तीति इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तिः। २५ अथापि स्यात् स्वयमेव प्रतिपत्ता व्यवहारोपलम्भादन्वय-व्यतिरेकाभ्यां सदादिशब्दैः समयं प्रतिपद्यते, असदेतत् अनन्तभेदविषयनिःशेषव्यवहारोपलम्भस्य कस्यचिदसंभवात्। एकदा सत्तादिमत्सु मेदेवसकृद् व्यवहारमुपलभ्याऽदृष्टेष्वपि तजातीयेषु तान् शब्दान् प्रतिपद्यत इति चेत्, न; १-शा-हेतुा -भां० मा० वा. बा. विना। २-र्यत्रारो-वि.। ३ "तत्र खलक्षणं तावन्न शब्दैः प्रतिपाद्यते । संकेतव्यवहाराप्तकालव्याप्तिवियोगतः" ॥ तत्त्वसं. का० ८७२ पृ. २७७ । ४ “व्यक्त्यात्मानोऽनुयन्त्येते न परस्पररूपतः । देश-काल-क्रिया-शक्ति-प्रतिभासादिभेदतः॥ तस्मात् संकेतदृष्टोऽर्थो व्यवहारे न दृश्यते । न चाऽगृहीतसंकेतो (बोध्येता)न्य इव ध्वनेः"॥ तत्त्वसं० का० ८७३-८७४ पृ. २७७ । ५-वचा-वि०। ६ “यत् पुनरेतत्-आनन्त्यान्न जातिशब्दो भेदानां वाचकः” इति न्यायवा० पृ. ३२३ पं०२। एतादृश एवाऽयं पाठः तत्त्वसं० पजि. पृ. २७७ पं० २८। “यत्तु भिक्षुणा" इति निर्दिश्य श्लोकवार्तिकव्याख्यायां पार्थसारथिमिश्र एतत्समानमेनं श्लोकमुद्धरति“न जातिशब्दो भेदानामानन्त्य-व्यभिचारतः । वाचको योग-जात्योर्वा भेदार्थैरपृथक्श्रुतैः" ॥ श्लो० वा. पृ० ५९६ पं० २० । "अयमेवाभिप्रायः 'न जातिशब्दो भेदानां वाचकः, आनन्त्यात्' इति वदत आचार्यदिग्नागस्य"-शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. ३९९ द्वि. पं०६।७-न संभव ए-वा. बा. गु० भा० डे०। ८ शब्दा प-भां• मां०। ९-रानन्तमिति भा० ।-रात्यन्तमिति वा० बा० ।-रानन्त्यंतमिति वि.। १०-मत्स्यभेदेषु-भां. मा. विना। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - अदृष्टत्वात् न ह्यदृष्टेष्वतीतादि मेदभिन्नेष्वनन्तेषु मेदेषु समयः संभवति अतिप्रसङ्गात् । विकल्पबुद्ध्य व्या( Sध्या) हृत्य तेषु तत्प्रतिपत्त्याभ्युपगमे विकल्पसमारोपितार्थविषय एव शब्दसङ्केतः प्राप्तः । तथाहिअतीतानागतयोरसत्त्वेनासन्निहितत्वात् तत्र विकल्पबुद्धिर्भवन्ती निर्विषयैध, तत्र भवन् समयः कथं परमार्थवस्तुविषयो भवेदिति ? सपक्षे भावाद् नापि हेतोर्विरुद्धतेति सिद्धं स्वलक्षणाविषयत्वं ५ शब्दानाम् । १७६ अथ स्थिरैकरूपत्वाद्धिमाचलादिभावानां देशादिभेदाभावात् सङ्केतव्यवहार- कालव्यापकत्वेन समय संभवात् पक्षैकदेशासिद्धता प्रकृतहेतोः, नैतत्; हिमाचलादीनामप्यनेकाणुप्रचयस्वभावतया उदयानन्तरापवर्गितया च नाशेषावयवपरिग्रहेण समयकालपरिदृष्टस्वभावस्य व्यवहारकालानुयायित्वेन च समयः संभवतीति नासिद्धता हेतोः । अत उक्तन्यायेन समयवैयर्थ्यप्रसङ्गान्न स्वलक्षणे समयः १०] संभवति । अशक्यक्रियश्वाश्च न तत्र समयः । तथाहि उदयाऽनन्तरापवर्गिषु भावेषु समयः क्रियमाणः अनुत्पन्नेषु वा क्रियेत, उत्पन्नेषु वा ? न तावदनुत्पन्नेषु परमार्थतः समयो युक्तः, असतः सर्वोपाख्यारहितस्याधारत्वानुपपत्तेः, अपारमार्थिकवस्त्वजातेऽपि पुत्रादौ समय उपलभ्यत इति न दृष्टविरोधः, विकल्पनिर्म्मितार्थविषयत्वेन तस्यापारमार्थिकत्वात् । नाप्युत्पन्ने समयो युक्तः, तस्मिन्ननुभवोत्पत्तौ १५ तत्पूर्वके च शब्दभेदस्मरणे सति समयः संभवति नान्यथा - अतिप्रसङ्गात् - शब्दभेदस्मरणकाले च चिरनिरुद्धं स्वलक्षणमिति अजातवज्जातेऽपि कथं समयः समयक्रियाकाले द्वयोरप्यसन्निहितत्वात् ! तथाहि भनुभवावस्थायामपि तावत् तत्कारणतया खलक्षणं क्षणिकं न सन्निहितसत्ताकं भवति किं पुनरनुभवोत्तरकालभाविनामभेदाभोगस्मरणोत्पादकाले भविष्यति ? नापि तजातीये तत्सामर्थ्यबलोपजाते समयक्रियाकालभाविनि क्षणे समयः सम्भवति, तस्याऽ२० न्यत्वात् । यद्यपि समयक्रियाकाले सन्निहितं क्षणान्तरमस्ति तथापि तत्र समयाभोगासम्भवान्न समयो युक्तः; न ह्यश्वमुपलभ्य तन्नामस्मरणोपक्रमपूर्वकं समयं कुर्वाणस्तत्कालसन्निहिते गवादावाभोगाविषयीकृते 'अश्वः' इति समयं समयकृत् करोति । अथापि स्यात् सर्वेषां स्वलक्षणानां सादृश्यमस्ति तेनैक्यमध्यवस्य समयः करिष्यते, असदेतत्; यतो विकल्पबुद्ध्याऽभ्यारोपितं सादृश्यम्, तस्य ध्वनिभिः प्रतिपादने स्वलक्षणमवाच्यमेवेति न स्वलक्षणे समयः । १- षु सम-भां० मो० विना । २ " विकल्पबुद्धधा व्याहृत्य तेषु" -तत्त्वसं० पजि० पृ० २७८ पं० १८ । “विकल्पबुद्धावभ्याहृत्य तेषु संकेताभ्युपगमे विकल्प समारोपितार्थविषय एव शब्दसंकेतः" - प्रमेयक० पृ० १२८ द्वि० ०१२ | ३ अत्र 'तत्प्रतिपत्यभ्युपगमे' इति पाठः सुचारुः, वि० प्रतावपि तथैव संशोधितो दृष्टः । ४- वतीति नि - वि० गु० कां० डे० । ५ " हिमाचलादयो येsपि देश - कालाद्य मेदिनः । (दृष्टास्तेष्वणवो भिन्नाः ) क्षणिकाश्च प्रसाधिताः " ॥ तत्त्वसं० का० ८७५ पृ० २७८ । ६ " अशक्यं समय (स्यास्य जातेऽजाते च कल्पनम् । ) नाऽजाते समयो युक्तो भाविकोऽश्वविषाणवत्” ॥ तत्त्वसं० का० ८७६ पृ० २७९ । ७ वस्तु जा - भ० मां० । ८ “उप(नापि ? )जाते गृहीता (नां पूर्वं ) वाचामनुस्मृतौ । क्रियते समयस्तत्र चिरातीते ( कथं नु तत्)” ॥ तत्त्वसं० का० ८७७ पृ० २७९ । ९ "यश्वापि ( तत्सजातीयस्तद्व ) लेन तदापरः । न तत्र समयाभोगः सादृश्यं च विकल्पितम्” ॥ तत्त्वसं ० का ० ८७८ पृ० २७९ । १०- मयः भां० मौ० विना । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । १७७ नापि शब्दस्वलक्षणस्य । तथाहि-समयकृत् स्मृत्युपस्थापितमेव नामभेदमर्थन योजयति, न च स्मृतिर्भावतोऽनुभूतमेवाभिलापमुपस्थापयितुं शक्नोति तस्य चिरनिरुद्धत्वात्, 'यं चोच्चारयति तस्य पूर्वमननुभूतत्वान्न तत्र स्मृतिः, न चाविषयीकृतस्तया समुत्थापयितुं शक्यः, अतः स्मृत्युपस्थापितमनुसन्धीयमानं विकल्पनिर्मितत्वेनास्खलक्षणमेवेति न स्वलक्षणत्वेऽस्य समयः। तस्मादव्यपदेश्यं स्खलक्षणमिति सिद्धम् । इतश्च स्वलक्षणमव्यपदेश्यम् शब्दबुद्धौ तस्याप्रतिभासनात् । यथा हि उष्णाद्यर्थविषयेन्द्रियबुद्धिः स्फुटप्रतिभासाऽनुभूयते न तथोष्णादिशब्दप्रभवा, न ह्युपहतनयनादयो मातुलिङ्गादिशब्दश्रवणात् तद्रूपाद्य-भाविनो भवन्ति यथाऽनुपहतनयनादयोऽक्षबुद्ध्याऽनुभवन्तः । यथोक्तम् "अन्यथैवाग्निसम्बन्धाद् दाहं दग्धोऽभिमन्यते।। अन्यथा दाहशब्देन दाहार्थः सम्प्रतीयते" वाक्यप० द्वि० का० श्लो०४२५] १० ने च यो यत्र न प्रतिभाति स तद्विषयोऽभ्युपगन्तुं युक्तः अतिप्रसङ्गात्। तथा च प्रयोगः-यो यत्कृतप्रत्यये न प्रतिभासते न स तस्यार्थः, यथा रूपशब्दजनिते प्रत्यये रसः, न प्रतिभासते च शाब्दप्रत्यये स्वलक्षणम् इति व्यापकानुपलब्धिः। अत्र चातिप्रसङ्गो बाधकं प्रमाणम् । तथाहिशब्दस्य तद्विषयज्ञानजनकत्वमेव तद्वाधकत्वमुच्यते नान्यत्, न च यद्विषयं ज्ञानं यदाकारशून्यं तत् तद्विषयं युक्तम् अतिप्रसङ्गात् । न चैकस्य वस्तुनो रूपद्वयमस्ति-स्पष्टमस्पष्टं च येनास्पष्टं वस्तुगत-१५ मेव रूपं शब्दैरभिधीयते-एकस्य द्वित्वविरोधात् भिन्नसमयस्थायिनां च परस्परविरुद्धस्वभावप्रतिपादनान्न शब्दगोचरः स्वलक्षणम् । [ पदवाच्यविषयकस्य न्यायसूत्रकारमतस्य भाष्यकार-वार्तिककाराभिप्रायेण विशिष्य निरूपणम् ] नैयायिकास्तु "व्यक्त्याकृतिजातयस्तु पदार्थः" [न्यायद० अ० २ आ० २ सू० ६५] इति प्रतिपन्नाः । तत्र व्यक्तिशब्देन द्रव्य-गुणविशेष-कर्माण्यभिधीयन्ते । तथा च सूत्रम्-"व्यक्तिर्गुणविशे-२० पाश्रयो मूर्तिः” [न्यायद० अ०२ आ० २ सू०६६] इति । ___ अस्यार्थो वार्तिककारमतेन-"विशिष्यत इति विशेषः गुणेभ्यो विशेषो गुणविशेषः कर्माभिधीयते, द्वितीयश्चात्र गुणविशेषशब्द एकशेषं कृत्वा निर्दिष्टः तेन गुणपदार्थो गृह्यते-गुणाश्च ते विशेषाश्च गुणविशेषाः-विशेषग्रहणमाकृतिनिरासार्थम् । तथाहि-आकृतिः संयोगविशेषस्वभावा, संयोगश्च गुणपदार्थान्तर्गतः ततश्चासति विशेषग्रहणे आकृतेरपि ग्रहणं स्यात्, न च तस्या व्यक्ता-२५ वन्तर्भाव इष्यते पृथक् स्वशब्देन तस्या उपादानात् । आश्रयशब्देन द्रव्यमभिधीयते-तेषां गुणविशेषाणामाश्रयस्तदाश्रयो द्रव्यमित्यर्थः । सूत्रे तत्'शब्दलोपं कृत्वा निर्देशः कृतः, एवं च विग्रहः कर्त्तव्यःगुणविशेषाश्च गुणविशेषाश्चेति गुणविशेषाः तदाश्रयश्चेति गुणविशेषाश्रयः, समाहारद्वन्द्वश्वायम् "लोकाश्रयत्वात् लिङ्गस्य" [अ०२ पा०२ सू० २९ महाभाष्ये पृ० ४७१ पं०८] इति नपुंसक १ यच्चोच्चा-आ० कां० । २ “(उष्णादिप्रतिपत्तिर्या) नामादिध्वनिभाविनी । विस्पष्टा (भासते नेषा) तदर्थेन्द्रियबुद्धिवत्" ॥ तत्त्वसं० का० ८७९ पृ० २८० । ३-नुभविनो कां०। ४ अनेकान्तज. पृ० ४५ द्वि० पं० ४ अम० । शास्त्रवा० स्त० ११ श्लो० २४ । प्रमेयक० पृ० १२९ प्र. पं० ७ । स्याद्वादर० पृ० ३४९ प्र० पं०९। ५ "न स तस्य च शब्दस्य युक्तो योगो न तत्कृते । प्रत्यये सति भात्यर्थो रूपबोधे तथा? रसः" ॥ तत्त्वसं० का० ८८० पृ० २८० । ६-सङ्गात् अथ प्रयो-वि• डे० ।-सङ्गात् प्रयो-भा० मा० वा. बा. हा०। ७ “यो यत्कृते प्रत्यये"प्रमेयक० पृ. १२९ प्र. पं०६। “यस्कृते ज्ञाने"-स्याद्वादर० पृ. ३४९ प्र. पं. ११। ८ "तद्वाचकत्वमुच्यते"तत्त्वसं० पजि. पृ० २८० पं० २८। १ अन्तर्गतः पाठः कां० प्रतावेव । गुणा विशेषाश्चेति गुणविशेषाश्च तदाश्रयश्चेति गुणविशेषाश्रयः भा० मा० । गुणविशेषाश्चेति गुणविशेषाः तदाश्रयश्चेति गुणविशेषाश्रयः वा. बा. आ. हा० वि० गु०। १० "गुणविशेषाश्च गुणविशेषाश्चेति गुणविशेषाः, गुणविशेषाश्च तदाश्रयश्चेति गुणविशेषाश्रयः"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० २८१५० १५। ११ “लिङ्गमशिष्यम्" इति पूर्तिः। स० त० २३ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ प्रथमे काण्डेलिङ्गाऽनिर्देशः । तेनायमों भवति-योऽयं गुणविशंपाश्रयः सा व्यक्तिचोच्यते मूर्तिश्चेति । तत्र यदा द्रव्ये मूर्तिशब्दस्तदाऽधिकरणसाधनो द्रष्टव्यः-मूर्च्छन्त्यस्मिन्नवयवा इति मूर्तिः, यदा तु रूपादिषु तदा कर्तसाधनः-मुर्छन्ति द्रव्ये समवयन्तीति रूपादयो मूर्तिः। व्यक्तिशब्दस्तु द्रव्ये कर्मसाधनः रूपादिषु करणसाधनः" [अ० २ आ० २ सू० ६८ न्यायवा० पृ० ३३२ पं० ३-२४] । ५ भाष्यकारमतेन च यथाश्रुति सूत्रार्थः-गुणविशंपाणामाश्रयो द्रव्यमेव व्यक्तिर्मूर्तिश्चेति तस्येटम् । यथोक्तम्-"गुणविशेषाणां रूप-रस-गन्ध-स्पर्शानाम् गुरुत्व-द्रवत्व-घनत्व-संस्काराणाम् अव्यापिनश्च परिमाणविशेषस्याश्रयो यथासम्भवं तद् द्रव्यं मूर्ति (मूर्तिः)मूर्चिछतावयवत्वात्" [न्यायद० वात्स्या० भा० पृ० २२४ ] इति। आकृतिशब्देन प्राण्यवयवानां पाण्यादीनाम् तदययवानां चाङ्गुल्यादीनां संयोगोऽमिधीयते । १० तथा च सूत्रम्-"आकृतिर्जातिलिङ्गाख्या" [न्यायद० अ० २ आ० २ सू० ६७] इति । अस्य भाष्यम्-"यया जातिर्जातिलिङ्गानि च व्याख्यायन्ते तामाकृतिं विद्यात् सा च सत्वावयवानाम् । तदवयवानां च नियतो व्यूहः” [न्यायद० वात्स्या० भा० पृ० २२५] व्यूहशब्देन संयोगविशेष उच्यते, नियतग्रहणेन कृत्रिमसंयोगनिरासः, तत्र जातिलिङ्गानि प्राण्यवयवाः शिर:-पाण्या दयः तैर्हि गोत्वादिलक्षणा जातिर्लिङ्गयते, आकृत्या तु कदाचित् साक्षाजातिय॑ज्यते यदा शिरः-पा. १५ण्यादिसन्निवेशदर्शनाद् गोत्वं व्यज्यते, कदाचिजातिलिङ्गानि यदा विषाणादिभिरवयवैः'पृथक पृथक स्वावयवसन्निवेशाभिव्यक्तैर्गोत्वादिय॑ज्यते; तेन जातेस्तल्लिङ्गानां च प्रख्यापिका भवत्याकृतिः । जातिशब्देनाभिन्नाभिधान-प्रत्ययप्रसवनिमित्तं सामान्याख्यं वस्तूच्यते । तथा च सूत्रम्“समानप्रत्ययप्रसवात्मिका जातिः" [न्यायद० अ०२ आ०२ सू०६८] इति समानप्रत्ययोत्पत्तिकारणं जातिरित्यर्थः। २० तत्र व्यक्त्याकृत्योः एतेनैव स्वलक्षणस्य शब्दार्थत्वनिराकरणेन शब्दार्थत्वं निराकृतम् । तथाहि यथा स्वलक्षणस्याकृतसमयत्वादशब्दार्थत्वं तथा तयोरपीति 'अकृतसमयत्वात्' इत्यस्य हेतो - सिद्धिः, नाप्यनैकान्तिकता। अपि च, व्यक्तिर्द्रव्य-गुणविशेष-कर्मलक्षणा, आकृति त्मिका, एते च द्रव्यादयः प्रतिषिद्धत्वाद् असन्तः कथं शब्दार्थतामुपयान्ति ? [२-४ जाति-तद्योग-तद्वत्सु संकेतासंभवप्रदर्शनम् ] २५ एवं स्वलक्षणवजाति-तद्योग-जातिमत्स्वपि-जात्यादेरसम्भवात्-समयासम्भवः। यथा च जातेस्तद्योगस्य च समवायस्यासम्भवस्तथा प्रागेव प्रतिपादितम्, जाति-तद्योगयोश्चाभावे तद्वतोऽप्यसम्भव एव तत्कृतत्वात् तद्यपदेशस्य, तद्वतश्च स्वलक्षणात्मकत्वात् तत्पक्षभावी दोषः समान एव। आकृतिश्च संयोगा १-धना आ. वि. का. गु०। २ नेदं वार्तिकं शब्दशो न्यायवार्तिक । ३ "यथा श्रोत्रेऽक्षराणि पतन्ति तथा सूत्रार्थः” वि. टि.। ४ व्यक्तिमूर्ति-आ. वि. कां०। ५-वैः पृथक् पृथग् न स्वाव-भां० मां० ।-वैः पृथग्न स्वाव-आ० हा० गु०। ६ प्रख्ययिका वा० वा० । प्रत्याख्यातिका आ० हा० वि० गु०। ७ सूत्रं तु “समानप्रसवात्मिका जातिः" इति दृश्यते न्यायदर्शने, न्यायवार्तिके, तत्त्वसंग्रहपत्रिकायां च । ८ "एतेनैव प्रकारेण व्यक्त्याकृत्योर्निराकृतिः। स्खलक्षणात्मतेवेष्टा तयोरपि यतः परैः"॥ तत्त्वसं० का० ८८१ पृ. २८२ । ९ "द्रव्यादियोगयोः प्राक् तु प्रतिषेधाभिधानतः । न तात्त्विकी तयोर्युक्ता शब्दार्थत्वव्यवस्थितिः" ॥ तत्त्वसं० का० ८८२ पृ० २८२ । १. "जाति-संबन्धयोः पूर्व व्यासतः प्रतिषेधनात् । नानन्तराः प्रकल्प्यन्ते शब्दार्थास्त्रिविधाः परे" ॥ "तद् व्यक्त्याकृतिजातीनां पदार्थत्वं यदुच्यते । तदसंभवि सर्वासामपि नीरूपता यतः" ॥ तत्त्वसं. का०८८३-८८४ पृ. २८२-२८३ । ११ पृ. ११०५० ९ तथा पृ०१०६पं०१०। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । [पदवाच्यविषयाणि वाजध्यायन-व्याडि-पाणिनीनां मतानि] "जातिः पदार्थः” इति वाजध्यायनः । “द्रव्यम्" इति व्याडिः । “उभयम्" पाणिनिः । तदप्यनेनैव निरस्तम् जातेरयोगाद् द्रव्यस्य च स्वलक्षणात्मकत्वात् तत्पक्षभाविदोषानतिवृत्तेः। [बुद्ध्याकारे समयासंभवसाधनम् ] बुंध्याकारेऽपि न समयः सम्भवति, तस्य वुद्धितादात्म्येन व्यवस्थितत्वाद् नासौ तद्बुद्धिख- ५ रूपवत् प्रतिपाद्यमर्थ बुद्ध्यन्तरं वाऽनुगच्छति; ततश्व सङ्केत-व्यवहारकालाव्यापकत्वात् स्वलक्षणवत् कथं तत्रापि समयः? भवतु वा तस्य व्यवहारकालान्वयस्तथापि न तत्र समयो व्यवहर्तृणां युक्तः। तथाहि–'अपि नामेतः शब्दादर्थक्रियार्थी पुमानर्थक्रियाक्षमानर्थान् विज्ञाय प्रवर्तिष्यते' इति मन्यमानैर्व्यवहर्तृभिरभिधायका ध्वनयो नियोज्यन्ते न व्यसनितया; न चासौ विकल्पो बुद्ध्याकारोऽ. भिप्रेतशीताऽपनोदादिकार्य तदर्थिनः सम्पादयितुमलम् तदनुभवोत्पत्तावपि तदभावात् , तेन तत्रापि १० समयाभावान्नासिद्धः 'अकृतसमयत्वात्' इति हेतुः। . ['अस्त्यादयः शब्दार्थाः' इति वादिनां पक्षसप्तके निरूपयितव्ये प्रथमम् अस्त्यर्थवादिमतम् ] अथ अस्त्यर्थादयोऽपरे शब्दार्थाः सन्ति, ततश्च तत्र समयसम्भवादसिद्धतैव हेतोः । तथाहि'अस्त्यर्थः' इति यदेतत् प्रतीयते तदेव सर्वशब्दानामभिधेयं न विशेषः, यथैव ह्यपूर्व-देवतादिशब्दा नाकारं विशेष बुद्धिषु सन्निवेशयन्ति केवलं तत्रैतावत् प्रतीयते-'सन्ति केऽप्यर्थाः येष्वपूर्वादयः१५ १ "आकृत्यभिधानाद्वा एकं विभक्तौ वाजप्यायनः" । “आकृत्यभिधानाद्वा एक शब्दं विभक्तौ वाजप्यायन आचार्यों न्याय्यं मन्यते । एका आकृतिः, सा चाभिधीयते” इति अ०१ पा०२ सू०६४ महाभा० पृ०९० पं० ५। “जातिशब्दार्थवाचिनो वाजप्यायनस्य मते गवादयः शब्दा भिन्नद्रव्यसमवेतजातिमभिदधति"-सर्वदर्शनसं० द. १३५० २३७ । “तदित्थं वाजप्यायनाचार्यमतेन सार्वत्रिकी जातिपदार्थव्यवस्थोपपद्यते"-वाक्यप० तृ. का० श्लो० २ हेलाराजटी० पृ. ६ पं० २८ जातिसः। २-ति व्याजध्यायनः गु० डे. भा० वि० । “वाजा( का ? )त्यायनः"-तत्त्वसं० पञ्जि. २८२ पं० २५ । इदं च रूपं 'वाजध्य'प्रकृतेरायनणि प्रत्यये निष्पन्नम् । किन्तु अस्य प्रकृतिः क्वचित् 'वाजव्य' इति, क्वचिच्च 'वाजप्य' इति दृश्यते । तद्यथा-“वाजव्य" चान्द्रव्या० अ० २ पा० ४ सू० ३५, गणर० म० पृ० १५० का० २३६ । “वाजप्य" अ० ४ पा.१ सू० ९९ काशिका तथा सिद्धान्तकौ । “वाजप्यायन" बङ्गीयविश्वकोषे बकारादिवर्गे । “व्याज( वाजव्यतिकेत्येके" हैमश० अ०६ पा० १सू० ५३ । चान्द्रे 'वाजव्य' 'व्यतिक' इति प्रकृतिद्वयम् । काशिका-कौमुद्योः 'वाजप्य' 'तिक' इति प्रकृतिद्वयम् । गणरत्नमहोदधौ च का० २३५-२३६ 'तिक' 'वाजव्य' इति प्रकृतिद्वयं दृश्यते । यद्यपि हैमशब्दानुशासने 'व्याज(वाज)' इत्येव मुद्रितमस्ति तथापि तत्र चान्द्रादिपाठानुरोधेन 'वाजव्यायन' इति रूपानुरोधेन च 'वाजव्य' इत्येव प्रकृतिः साध्वी। अत्र Pro.Dr. E.Windisch इत्यनेन सम्पादिःस्य चान्द्रव्याकरणस्य पृ० १६१ गतं द्वितीय टिप्पनकं द्रष्टव्यम । ३ “द्रव्याभिधानं व्याडि:" "द्रव्याभिधानं व्याडिराचार्यो न्याय्यं मन्यते द्रव्यमभिधीयते” इति अ०१ पा०२ सू०६४ महाभा० पृ० ९४ पं० १४ । “द्रव्यपदार्थवादिव्याडिनये शब्दस्य व्यक्तिरेवाभिधेयतया प्रतिभासते"-सर्वदर्शनसं० द. १३ पं० २४४ । “व्याडिमते तु सर्वशब्दानां द्रव्यमर्थः”-वाक्यप० तृ० का० श्लो० २ हेलाराजटी० पृ.६ पं०२९ जातिस० । ४“उभय मित्याह" "कथं ज्ञायते?" "उभयथा ह्याचार्येण सूत्राणि पठितानि । आकृति पदार्थ मत्वा xxx द्रव्यं पदार्थ मत्वा xxx"अ. १ पा. १ आ०१जातिव्यक्तिपदार्थ नि० महाभा० पृ. ५२ पं० १४ । "पाणिन्याचार्यस्योभयं संमतम्"-सर्वदर्शनसं० द. १३ पं० २४६ । ५ "बुद्ध्याकारच बुद्धिस्थो नार्थबुधन्तरानुगः । नामिप्रेतार्थकारी च सोऽपि वाच्यो न तत्त्वतः"॥ "येऽन्येऽन्यथैव शब्दार्थमस्त्यादीन् प्रचक्षते । निरस्ता एव तेऽप्येतैस्तथापि पुनरुच्यते" ॥ तत्त्वसं० का. ८८५-८८६ पृ० २८३ । तथा, शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०० प्र०५०२।६-पि समयः भां. मां० गु० डे. भा०। ७शब्दार्थक्रिया-गु० । शब्दार्थः क्रिया-भां० मां। ८ “अस्त्यर्थः सर्वशब्दानामिति प्रत्याय्यलक्षणम् । अपूर्व-देवता-खगैः सममाहुर्गवादिषु"॥ तत्त्वसं० का० ८८७ पृ० २८३ । “अस्त्यर्थः सर्वशब्दानामिति प्रत्याय्यलक्षणम् । अपूर्व-देवता-खर्गः सममाहुर्गवादिषु" ॥ वाक्यप० का० २ श्लो० १२१ पृ० १३२ तथा, शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० ४०० प्र०५०३। ९ 'नार्थाकारविशेषम' वि० सं० । “नाकारविशेषम्"-तत्त्वसं० पनि पृ० २८३ पं० २८ । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० प्रथमे काण्डे - शब्दाः प्रयुज्यन्ते' तथा दृष्टार्थेष्वपि गवादिशब्देष्वेतत् तुल्यम्, यतस्तेभ्योऽप्येवं प्रतीतिरुपजायते'अस्ति कोऽप्यर्थो यो गवादिशब्दाभिधेयो गोत्वादिः' येस्तु तत्राकारविशेषपरिग्रहः केषाञ्चिदुपजायते स तेषां सिद्धान्तबलात् न तु शब्दात् । [२ समुदायार्थवादिमतम् ] ५ अपरे "ब्राह्मणादिशब्दैस्तपो-जाति-श्रुतादिसमुदायो विना विकल्प- समुच्चयाभ्यामभिधीयते, यथा वनादिशब्दैर्धवादयः" इत्याहुः । तथाहि - 'वनम्' इत्युक्ते 'धैवो (वो वा) खदिरो वा' इति न विकल्पेन प्रतीतिरुपजायते, नापि 'धवश्च खदिरश्च' इति समुच्चयेनः अपि तु सामस्त्येन प्रतीयन्ते धवादयः तथा 'ब्राह्मणः' इत्युक्ते 'तपो वा जातिर्वा श्रुतं वा' 'तपश्च जातिश्च श्रुतं च' इति न प्रतिपत्तिर्भवति अपि तु साकल्येन सम्बन्ध्यन्तरव्यवच्छिन्नास्तपः प्रभृतयः संहताः प्रतीयन्त इति । १० बहुष्वनियतैकसमुदायिभेदावधारणं विकल्पः, एकत्र युगपदभिसम्बन्ध्यमानस्य नियतस्यैकस्य ( तस्यानेकस्य ) स्वरूप भेदावधारणं समुच्चयः, तद्व्यतिरेकेणात्र प्रतिपत्तिर्लोकप्रतीतैव । [ ३ असत्यसंबन्धपदार्थवादिमतम् ] अपरे " द्रव्यत्वादिभिरनिर्धारितरूपैर्यः सम्बन्धो द्रव्यादीनां स शब्दार्थः स च सम्बन्धिनां शब्दार्थत्वेनासत्यत्वादसत्य इत्युच्यते । यद्वा तपः श्रुतादीनां मेचकवर्णवदैक्येन भासनादेषामेव १५ परस्परमसत्यः संसर्गः " । तथाहि एते प्रत्येकं समुदिता वा न स्वेन रूपेणोपलभ्यन्ते किन्त्वलातचक्रवदेषां समूहः स्वरूपमुत्क्रम्यावभासत इति । [ ४ असत्योपाधिसत्यपदार्थवादिमतम् ] अन्ये त्वाहुः-“र्यद् असत्योपाधि सत्यं स शब्दार्थः" इति । तत्र स (?) शब्दार्थत्वेनाऽसत्या उपाधयो विशेषा वलयाऽङ्गुलीयकादयो यस्य सत्यस्य सर्वभेदानुयायिनः सुवर्णादिसामान्यात्मनस्तत् २० सत्यमसत्योपाधि शब्दप्रवृत्तिनिमित्तमभिधेयम् । [ ५ अभिजल्पपदार्थवादिमतम् ] अन्ये तु ब्रुवते - " शब्द एवाभिजल्पत्वमागतः शब्दार्थः" इति । स चाभिजल्पः 'शब्द एवार्थः' १ “प्रयोगदर्शनाभ्यासादाकारावग्रहस्तु यः । न स शब्दस्य विषयः स हि यत्नान्तराश्रयः” ॥ वाक्यप० का० २ श्लो० १२२ पृ० १३३ । २ “समुदायोऽभिधेयो वाऽप्यविकल्प- समुच्चयः” । तत्त्वसं० का० ८८८ पृ० २८४ । “समुदायोऽभिधेयः स्यादविकल्प-समुच्चयः” । वाक्यप० का० २ श्लो० १२८ पृ० १३५ । तथा, शास्त्रवा० स्याद्वादक ० पृ० ४०० प्र० पं० ५ । ३- तादिः समु-आ० कां०डे० भा० । ४ " धवो वा खदिरो वा पलाशो वेति" - तत्त्वसं० पजि० पृ० २८४ पं० १० । शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०० प्र० पं० ६ । ५- तस्यैव ( क )स्य स्व-वा० वा० । तस्यैव स्व-आ० हा ० वि॰ डे० भा० कां० गु० । “युगपदभिसंबध्यमानस्य नियतस्यानेकस्य स्वरूप भेदावधारणम्'- तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० २८४ पं० १५ । ६ “असत्यो वाऽपि संसर्गः शब्दार्थः कैश्चिदुच्यते” ॥ तत्त्वसं० का० ८८८ पृ० २८४ । “असत्यो वाऽपि संसर्गः शब्दार्थः कैश्चिदिष्यते” । वाक्यप० का० २ श्लो० १२८ पृ० १३५ । तथा, शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०० प्र० पं० १० । - मुक्तस्याव - वा० बा० । ८ “असत्योपाधि यत् सत्यं तद् वा शब्द निबन्धनम् ” । तत्त्वसं० का ० ८८९ पृ० २८४ । “असत्योपाधि यत् सत्यं तद् वा शब्दनिबन्धनम्” । वाक्यप ० का ० २ श्लो० १२९ पृ० १३६ । तथा, शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०० प्र० पं० १२ । ९-त्यं शब्दा- मां ० मां० विना । १० " तत्र शब्दार्थत्वेनाऽसत्या उपाधयः " - तत्त्वसं० प० पृ० २८४ पं० २३ । ११ " शब्दो वाऽप्यभिजल्पत्वमागतो याति वाच्यताम् " ॥ “सोऽयमित्यभिसंबन्धाद् रूपमेकीकृतं यदा । शब्दस्यार्थेन तं शब्दमभिजल्पं प्रचक्षते ॥ तत्त्वसं ० का ० ८८९-८९० पृ० २८४ - २८५ । " शब्दो वाऽप्यभिजन्य (ल्प ) त्वमागतो याति वाच्यताम् " ॥ “सोऽयमित्यभिसंबन्धाद् रूपमेकीकृतं यदा । शब्दस्यार्थेन तं शब्दमभिजल्पं प्रचक्षते " ॥ "तयोरपृथगर्थत्वे रूढेरव्यभिचारिणि । किंचिदेव क्वचिद् द्रव्यं प्राधान्येनाऽवतिष्ठते” ॥ "लोकेऽर्थरूपतां शब्दः प्रतिपन्नः प्रवर्तते । शास्त्रे तूभयरूपत्वं प्रविभक्तं विवक्षया” ॥ 1 Sararao का० २ ० १२९-१३२ पृ० १३६-१३७ । तथा, शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०० प्र० पं० १३ । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । १८१ इत्येवं शब्देऽर्थस्य निवेशनम् 'सोऽयम्' इत्यभिसम्बन्धः, तस्माद् यदा शब्दस्यार्थेन सहकीकृतं रूपं भवति तं स्वीकृतार्थाकारं शब्दमभिजल्पमित्याहुः । [६ बुधारूढाकारपदार्थवादिमतम् ] अन्ये तु “बुद्ध्यारूढमेवाकारं बाह्यवस्तुविषयं बाह्यवस्तुतया गृहीतं बुद्धिरूपत्वेनौविभावितं शब्दार्थम्" आहुः । तथाहि-यावद बुद्धिरूपमर्थेष्वप्रत्यस्तं 'बुद्धिरूपमेव' इति तत्त्वभावनया गृह तावत् तस्य शब्दार्थत्वं नावसीयते तत्र क्रियाविशेषसम्बन्धाभावात, न हि 'गामानय' 'दधि खाद' इत्यादिकाः क्रियास्ताशि बुद्धिरूपे सम्भवन्ति, क्रियायोगसम्भवी चार्थः शब्दैरभिधीयते, अतो बुद्धिरूपतया गृहीतोऽसौ न शब्दार्थः; यदा तु बाह्ये वस्तुनि प्रत्यस्तो भवति तदा तस्मिन् प्रतिपत्ता वाह्यतया विपर्यस्तः क्रियासाधनसामर्थ्य तस्य मन्यत इति भवति शब्दार्थः।। ... ननु चापोहवादिपक्षादस्य को विशेषः? तथाहि-अपोहवादिनाऽपि बुद्ध्याकारो वाह्यरूपतया १० गृहीतः शब्दार्थ इतीष्यत एव । यथोक्तम् "तेंदूपारोपमन्यान्यव्यावृत्त्याधिगतैः पुनः शब्दार्थोऽर्थः स एवेति वचनेन विरुध्यते"॥[ ] इति, नैतदस्तिः अयं हि बुद्ध्याकारवादी बाह्ये वस्तुन्यभ्रान्तं सविषयं द्रव्यादिपु पारमार्थिकेष्वध्यस्तं बुद्ध्याकारं परमार्थतः शब्दार्थमिच्छति न पुनरा( न तु निरा)लम्बनं भिन्नेष्वमेदाध्यवसायेन प्रवृत्तेन्तिमितरेतरभेदनिबन्धनमभ्युपैति यदा तु यथाऽस्माभिरुच्यते "सं सर्वो (सर्वो) मिथ्यावभासोऽयमर्थ इतीप्यत एव यथोक्तेष्वेका(मर्थेष्वेका )त्मकग्रहः । इतरेतरभेदोऽस्य वीजं संज्ञा यदर्थिका"M ] इति तदा सिद्धसाध्यता। यद् वक्ष्यति"इतरेतरभेदोऽस्य वीजं चेत् पक्ष एष नः"॥[ तत्त्वसं० का०९०५ ] इति । २० न चापोहवादिना परमार्थतः किश्चिद वाच्यं बुद्ध्याकारोऽन्यो वा शब्दानामिष्यते। तथाहि१-कारश-बा० भ०। २ “यो वाऽर्थो बुद्धिविषयो बाद्यवस्तुनिबन्धनः । स बाह्य वस्त्विति ज्ञातः शब्दार्थः कैश्विदिष्यते" ॥ तत्त्वसं. का०८९१ पृ. २८५। “यो वाऽर्थों बुद्धिविषयो बाह्यवस्तुनिबन्धनः । स बाह्यवस्त्विति ज्ञातः शब्दार्थः कैश्चिदिष्यते" ॥ वाक्यप का. २ श्लो. १३४ पृ० १३७ । तथा, शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. ४०० द्वि. पं.१। ३-नाविर्भावि-भां० मां० । “वुद्धिरूपत्वेनाविर्भावितम्"-तत्त्वसं. पजि. पृ० २८५५०७। ४-त्ययस्तं भां० मा०। ५-ति तत्र भा-भां० मां०।-ति त्वच्च भा-हा०। ६-'धि च खाद' वि० ब०। ७बाह्यवस्तुनि का। ८-धनासा-वा. बा०। ९-स्य स मन्य-वा० बा०। १० गृहीतः शब्दार्थों इतीष्य(ोऽभीष्य-) वा. बा० । गृहीतशब्दार्थो इतीय-आ० कां० गु० । “अपोहवादिनाऽपि बुद्धयाकारो बाह्यरूपतया गृहीतः शब्दार्थ इति भाष्यत एव"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २८५ पं० २० । “अपोहवादिनापि वुद्ध्याकारो बाह्यरूपतयाऽध्य. वसितः शब्दार्थोऽभीष्ट एव"-प्रमेयक० पृ० १२९ द्वि० पं० १। ११ तपारोपमस्यान्यव्यावृत्त्यं विगतः पुनः। शब्दार्थोऽर्थःस पवेति वचनेतिरुध्यते ॥वा. बा। तद्रूपारोपगत्यान्यव्यावृत्त्यधिगतेः पुनः। भा० मा० । "तद्रूपारोपगत्याऽन्यव्यावृत्त्यधिगतेः पुनः। शब्दार्थोऽर्थः स एवेति वचने न विरुध्यते"॥ तत्त्वसं• पजि. पृ० २८५ पं० २१ । १२-वादो बा-कां० वि०। १३-न्तं संबन्धविषयं वा• बा । १४ “ननु (तु) निरालम्बनं मिन्नेष्वमेदाध्यवसायेन"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २८५ पं० २४ । १५-वृत्तेभ्रान्त-वा. बा० ।-वृत्तेभ्रान्तमितरभेद-आक वि०। १६ यथा तु भा.मां. विना । यया तु हा.। “यदि तु यथाऽस्माभिरुच्यतेसर्वो मिथ्यावभासोऽयमर्थेष्वेकात्मना ग्रहः । इतरेतरभेदोऽस्य बीजं संज्ञा यदर्थिका" ॥ तत्त्वसं० पजि. पृ० २८५ पं० २५ । १७ अत्र 'सः' इत्यस्य 'इतीष्यत एव यथोक्ते' इत्यस्य चार्थाननुसारिणः पाठस्य लिपिकारदोषेण प्रवेशाद् इदं तत्त्वसंग्रहपजिकागतपद्यमपि गद्यमिव जातम् । १८-रभेदेस्य भां० मां० हा० वि० गु०।-रभेद स्य आ• कां । १९ शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० ४०० द्वि० पं० ७ । २०-तरामेदोऽस्य आ० के० गु० वा.। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ प्रथमे काण्डेयदेव शाब्दे प्रत्ययेऽध्यवसीयमानतया प्रतिभासते स शब्दार्थः, न च बुद्ध्याकारः शाब्दप्रत्ययेना. ध्यवसीयते किं तर्हि ? बाह्यमेवार्थक्रियाकारि वस्तुः न चापि तेन बाह्यं परमार्थतोऽध्यवसीयते, यथातत्त्वमनध्यवसायाद् यथाध्यवसायमतत्त्वात् अतः समारोपित एव शब्दार्थः। यश्च समारोपितं तन्न किञ्चिद् भावतोऽभिधीयते शब्दैः। यत् पुनरुक्तम्-'शब्दार्थोऽर्थः स एवेति', तत् समारोपित५मेवार्थमभिसम्धाय, बुद्ध्याकारवादिना तु बुद्ध्याकारः परमार्थतो वाच्य इण्यत इति महान् विशेषः । [७ प्रतिभापदार्थवादिमतम् ] अन्ये त्वाहुः-“अभ्यासात् प्रतिभाहेतुः शब्दः न तु बाह्यार्थप्रत्यायकः" इति । शब्दस्य क्वचिद् विषये पुनः पुनः प्रवृत्तिदर्शनमभ्यासः, नियतसाधनावच्छिन्नक्रियाप्रतिपत्त्यनुकूला प्रशा प्रतिमा सा प्रयोगदर्शनावत्तिसहितेन शब्देन जन्यते, प्रतिवाक्यं प्रतिपुरुषं च सा भिद्यते; यथैव १० ह्यङ्कशादिघातादयो हस्त्यादीनामर्थप्रतिपत्तौ क्रियमाणायां प्रतिभाहेतवो भवन्ति तथा शब्दार्थ(सर्वेऽर्थ )वत्त्वसंमता वृक्षादयः शब्दा यथाभ्यासं प्रतिभामात्रोपसंहारहेतवो भवन्ति न त्वर्थ १-द् भवतो हा० वि० गु० ।-द् भवता-आ० कां० । २ पृ० १८१ पं० १२ । ३-मतिसंधाय गु० ।मभिधाय वा० । ४ "अभ्यासात् प्रतिभाहेतुः सर्वः शब्दः समासतः । बालानां च तिरक्षां च यथाऽर्थप्रतिपादने" ॥ तत्त्वसं० का० ८९२ पृ० २८६ । तथा, शानवा० स्याद्वादक. पृ० ४०० द्वि. पं. ३ । "अभ्यासात् प्रतिभाहेतुः शब्दः सर्वोऽपरेः स्मृतः । बालानां च तिरां च यथार्थप्रतिपादने" ॥ "अनागमश्च सोऽभ्यासः समयः कैश्चिदिष्यते । अनन्तरमिदं कार्यमम्मादित्यपदर्शनम"॥ “अथ प्रतिभाखरूपमेव पूर्वोपक्रान्तमनुबधन्नाह"विपदग्रहणेऽर्थानां प्रतिभाऽन्यैव जायते । वाक्यार्थ इति तामाहुः पदार्थरुपपादिताम्" || "कीदृशीं ताम् ? इत्याह""इदं तदिति साऽन्येषामनाख्येया कथंचन । प्रत्यात्मवृत्तिसिद्धा सा कर्नाऽपि न निरूप्यते" ॥ "किंखभावाऽसौ ? इत्याह""उपश्लेषमिवाऽर्थानां सा करोत्यविचारिता । सार्वरूप्यमिवाऽऽपन्ना विषयत्वेन वर्तते" ॥ "तां च न किंचित् प्राणिमात्रमतिवर्तते-अतिक्रम्य तिष्ठति-इत्याह""साक्षाच्छन्देन जनितां भावनानुगमेन वा । इतिकर्तव्यतायां तां न कचिदतिवर्तते"॥ "प्रमाणत्वेन तां लोकः सर्वः समनुपश्यति । समारम्भाः प्रतीयन्ते तिरश्चामपि तद्वशातू" ॥ "सिद्धव चेयं सर्वस्य प्रतिभेत्युपपादयितुमाह"“यथा द्रव्यविशेषाणां परिपाकैरयत्नजाः । मन्दादिशक्कयो दृष्टाः प्रतिभास्तद्वतां तथा" ॥ "सनिदर्शनमुपपादयितुमाह""स्वरवृत्तिं विकुरुते मधौ पुंस्कोकिलस्य कः। जन्त्वादयः कुलायादिकरणे केन शिक्षिताः” ? ॥ "आहार-प्रीत्यमिद्वेष-प्लवनादिक्रियासु कः । जात्यन्वयप्रसिद्धासु प्रयोक्का मृगपक्षिणाम्"?॥ "प्रतिभायाश्च शब्द एव मूलमित्याह""भावनानुगतादेतदागमादेव जायते । आसत्ति-विप्रकर्षाभ्यामागमस्तु विशिष्यते"॥ "तस्याश्च निमित्तभेदेन षाभिध्यं दर्शयितुमाह" "खभाव-चरणाऽभ्यास-योगा-ऽदृष्टोपपादिता। विशिष्टोपहिता चेति प्रतिभा षड्विधां विदुः" ॥ वाक्यप० का०२ श्लो०११९-१२०-१४५-१५४ पृ० १३१-१३२-१४१-१४३ पुण्यरा० टी०। ५-वृत्तिसंहि-वा० बा० ।-वृत्तिसहि-भां० मां०।। "यथैव यकशाभिघातादयो हस्त्यादीनामर्थप्रतिपत्तौ"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २८६ पं० १७ । “यथा कशाभिघातमात्रसमनन्तरमेव वाजिनोऽभियान्ति, अनुशाभिघातेन च गजाः"-वाक्यप० का०२ श्लो०१२० पुण्यरा०टी०पृ० १३२॥ "यथैव ह्यशादिघातादयो हस्त्यादीनामर्थप्रतिपत्ती"-शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. ४०० द्वि. पं०३। -भासाहे-आ० का० गु०। ८ शब्दार्थसंबन्धसम्मता आ० हा० वि० कां० । शब्दार्थसंबन्धसंगता भां. मां० । “तथा सर्वेऽर्थवत्समता वृक्षादयः शब्दाः"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २८६ पं० १८ । मा Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । १८३ साक्षात् प्रतिपादयन्ति; अन्यथा हि कथं परस्परव्याहताः प्रवचनभेदा उत्पाद्यकथाप्रबन्धाश्च स्ववि. कल्पोपरचितपदार्थभेदद्योतकाः स्युरिति ? [प्रागुक्ते पक्षसप्तके प्रतिविधातव्ये प्रथमम् अस्त्यर्थवादिमतनिरसनम् ] अत्र प्रतिविदधति-यद्यस्त्यर्थः पूर्वोदितवलक्षणादिस्वभाव इष्यते तदा पूर्वोदितदोषप्रसङ्गः। किञ्च, अनिर्धारितविशेषरूपत्वादस्त्यर्थस्य तस्मिन् केवले शब्दैः प्रतिपाद्यमाने 'गौः' 'गवयः' 'गजः' ५ इत्यादिभेदेन व्यवहारो न स्यात्, तस्य शब्दैरप्रतिपादितत्वात् । न च गोशब्दात् गोत्वविशिष्टस्याथस्य सत्तामात्रस्य शाबलेयत्वादिभेदरहितस्य प्रतीतेर्भेदेन व्यवहारो भविष्यतीति प्रतिपादयितुं शक्यम्, अभ्युपगमविरोधात्-गोशब्दादस्त्यर्थमात्रपरित्यागेन गवादिविशेषस्य प्रतिपत्त्यभ्युपगमात् । अथ विषाणादेर्विशेषस्य गोशब्दादप्रेतीतेरस्त्यर्थवाचकत्वं शब्दस्याभिप्रेतम् ; नन्वेवं यदा गोत्वादिना विशिष्टमर्थमात्रमुच्यत इति मतं तदा तद्वैतोऽर्थस्याभिधानमङ्गीकृतं स्यात्, तंत्र च जातेस्तत्स-१० मवायस्य च निषेधात् तद्वतोऽर्थस्यासम्भव इति पूर्वोक्तो दोषः । किञ्च, तद्वतोऽर्थस्य स्वलक्षणास्मकत्वादेशक्यसमयत्वमव्यवहार्यत्वमस्पष्टावभासप्रसङ्गश्च पूर्ववदापद्यत एव; स्वलक्षणादिव्यतिरेकेणान्योऽस्त्यर्थो निरूप्यमाणो न बुद्धौ प्रतिभातीत्यस्यासत्त्वमेव ।। [२ समुदायपदार्थवादिमतनिरसनम् ] समुदायाभिधानपक्षे तु जाते.दानां च तपःप्रभृतीनामभिधानमङ्गीकृतमिति प्रत्येकाभिधान-१५ पक्षभाविनो दोषाः सर्वे युगपत् प्रामुवन्तीति न तत्पक्षाभ्युपगमोऽपि श्रेयान् ।। [३-४ असत्यसंबन्ध-असत्योपाधिसत्यपदार्थवादिमतद्वयनिरसनम्] 'असत्यसंबन्ध'-'असंत्योपाधिसत्य' इति पक्षद्वये च संयोग-समवायलक्षणस्य सम्बन्धस्य निषिद्धत्वात् सामान्यस्य च त्रिगुणात्मकस्य सत्यस्याव्यतिरिक्तस्य, व्यतिरिक्तस्याप्यसम्भवात् नासत्यः संयोगः । नाप्यसत्योपाधि सामान्य शब्दवाच्यं सम्भवति । २० १-कथं प्र-गु०। २-बन्धाश्च विक-भां० मां० वा. बा. विना। ३ पृ. १७९ पं० १३ । "तत्राऽस्त्यर्थोऽभिधेयोऽयं किं खलक्षण मिष्यते । जातियोगोऽथ यद्वाऽन्य (त?) बुद्धर्वा प्रतिबिम्बकम् ॥ "एते स्व(स)दोषाः पूर्वोक्ता अस्त्यर्थे केवलेऽपि च । प्रतिपाद्ये न भेदेन व्यवहारोऽवकल्पते" ॥ तत्त्वसं० का० ८९३-८९४ पृ० २८६ । ४ पृ. १७४ पं० २३। ५ पृ० १७४ पं० २५। ६ केवलशब्दैः वि. विना०। ७ शब्दैरपि प्र-गु० । ८ "गोत्वशब्दविशिष्टार्थसत्तामात्रगर्भवेत् । विषाणाकृतिनीलादिभेदाख्यातेस्तु तन्मतम्" ॥ तत्त्वसं० का० ८९५ पृ० २८७ । ९ प्रतीतिर-भां० मां० विना । १. "नन्वेवं तद्वतोऽर्थस्य भेदानां चाभिधा भवत् । तद्भावे तत्र दोषश्च नान्योऽस्त्यर्थश्च दृश्यते" ॥ तत्त्वसं० का० ८९६ पृ० २८७ । ११-टमर्थमात्रमण्यते वा० बा० ।-एधर्ममात्रमिष्यते -को. आ० ।-'टधर्मिमात्रमिप्यते' वि० सं०। १२-द्वतोऽर्थस्य स्वलक्षणात्मकत्वादस्याभिधान-वि०। १३-तत्त्वं च आ० हा. वि. गु०। १४ पृ. १७८ पं० २७। १५-दशब्दस-वा० बा०। १६ पृ० १७६ पं० ११-पृ० १७७ पं०६। १७ पृ. १८०५०५। "समुदायाभिधानेऽपि जातिभेदाभिधा स्फुटा। तपोजातिक्रियादीनां सामस्त्येनाभिधानतः" ॥ तत्त्वसं० का० ८९७ पृ. २८७ । १८पृ० १८० पं० १३। "निर्धारितखरूपाणां द्रव्यादीनां तु योगतः संबन्धो यच्च सामान्यं सत्यं तद् वारितं पुरा"। तत्वसं० का० ८९८ पृ० २८७ ॥ १९ पृ. १८० पं० १८॥ "भेदजात्यादिरूपेण शब्दार्थानुपपत्तितः । अर्थेनेकीकृतं रूपं न शब्दस्पोपपद्यते ॥ तत्त्वसं. का० ८९९ पृ. २८७ । २. सांख्यसंमतस्य । २१ न्यायसंमतस्य । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - [ ५-६ अभिजल्प-बुद्ध्यारूढाकारपदार्थवादिमतद्वय निरसनम् ] अभिपपेक्षेऽपि यदि शब्दस्य कश्चिदर्थः सम्भवेत् तदा तेन सहैकीकरणं भवेदपि, स्वलक्षणादिस्वरूपस्य च शब्दार्थस्यासम्भवः प्राक् प्रदर्शित इति कथं तेनैकीकरणम् ? अपि चायमभिजल्पो बुद्धिस्थ एव । तथाहि - बाह्यार्थयोः (बाह्ययोः) शब्दार्थयोर्भिन्नेन्द्रियग्राह्यत्वादिभ्यो भेदस्य सिद्धेस्तयोरै५ क्यापादनं परमार्थतोऽयुक्तमेवेति वुद्धिस्थयोरेव शब्दार्थयोरेकबुद्धिगतत्वादेकीकरणं युक्तम् । तथाहिउपगृहीताभिधेयाकारतिरोभूतशब्दस्वभावो बुद्धौ विपरिवर्त्तमानः शब्दात्मा स्वरूपानुगतमर्थमविभागेनान्तः सन्निवेशयन्नभिजल्प उच्यते स च बुद्धेरात्मगत एवाकारो युको न बाह्यः, तस्यैकान्तेन प्रस्परं विविक्तस्वभावत्वात्; ततश्च बुद्धिशब्दार्थपादनन्तरोक्तादस्य न कश्चिद् भेदः, उभयत्रापि बौद्ध एवार्थः । एतावन्मात्रं तु भिद्यते- 'शब्दार्थावेकीकृतौ' इति । दोषस्तु समान एव १० "ज्ञानादव्यतिरिक्तं च कथमर्थान्तरं व्रजेत्” ? [ ] इति । १८४ [ ७ प्रतिभापदार्थवादिमतनिरसनम् ] प्रतिभापक्षे तु यदि सा परमार्थतो बाह्यार्थविषया तदैकत्र वस्तुनि शब्दादौ विरुद्धसमयाव स्थायिनां विचित्राः प्रतिभा न प्राप्नुवन्ति, एकस्यानेकस्वभावासम्भवात् । अथ निर्विषया तदार्थे प्रवृत्ति प्रतिपत्ती न प्राप्नुतः, अतद्विषयत्वाच्छब्दस्य । अथ स्वप्रतिभासो (से) ऽनर्थे ऽर्थाध्यवसायेन १५ भ्रान्त्या ते प्रवृत्ति प्रतिपत्ती भवतस्तदा भ्रान्तः शब्दार्थः प्राप्नोति, तस्याश्च बीजं वक्तव्यम्; अन्यथा सा सर्वत्र सर्वदा भवेत् । यदि पुनर्भावानां परस्परतो भेद एवं बीजमस्यास्तदाऽस्मत्पक्ष एव समर्थितः स्यादिति सिद्धसाध्यता । किञ्च, सर्वमेतत् स्वलक्षणादिकं शब्दविषयत्वेनाभ्युपगम्यमानं क्षैणिकम् अक्षणिकं वेति ? औद्यपक्षे सङ्केतकालदृस्य व्यवहारकालानंन्वयान्न तत्र समयः सप्रयोजनः । अक्षणिकपक्षे च २० "नाक्रमात् क्रमिणो भावें :" [ इति शब्दार्थविषयस्यै कमिज्ञानस्याभावप्रसक्तिः । 1 १ पृ० १८० पं० २२ । “ जल्पो बुद्धिस्थ एवायं बाह्ययोगविभेदतः । ततः को भेद एतस्य त्रुटि (बुद्धि) पक्षादनन्तरात् " ? ॥ "बुद्ध्याकारोऽपि शब्दार्थः प्रागेव विनिवारितः । ज्ञानादव्यतिरिक्तस्य व्यापकत्व वियोगतः” ॥ तत्त्वसं० का ० ९०० - ९०१ पृ० २८८ । २ “सहैकीकरणं भवेत् यावता स्वलक्षणादिरूपस्य शब्दार्थस्याऽसंभवः पूर्व प्रतिपादितः " - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० २८८ पं० ९ । ३ भवेदयमपि आ० हा०वि० । ४ पृ० १७५ पं० ५-५० १७९ पं० ११ । ५ " तथाहि - बाह्ययोः शब्दार्थयोः " - तत्त्वसं ० पजि० पृ० २८८ पं० ११। ६ तथा गृहीता-आ० वि० । ७ • स्वभावबुद्धौ आ० हा० वि० । ८ पृ० १८१ पं० ४ । ९ " व्यक्तयो नानुयान्त्यन्यदनुयायि न भासते । ज्ञानादव्यतिरिक्तं च कथमर्थान्तरं व्रजेत् " ? ॥ तत्त्वसं० प०ि पृ० ३८९ पं० २२ । १० पृ० १८२ पं० ८ । " प्रतिभाऽपि च शब्दार्थो बाह्यार्थविषया यदि । एकात्म नियते बाह्ये विचित्राः प्रतिभाः कथम् " ? ॥ " अथ निर्विषया एता वासनामात्रभावतः । प्रतिपत्तिः प्रवृत्तिर्वा बाह्यार्थेषु कथं भवेत् " ? ॥ "बाह्यरूपाधिमोक्षेण स्वाकारे यदि ते मते । शब्दार्थोऽतात्त्विकः प्राप्तस्तथा भ्रान्त्या प्रवर्तनात् " ॥ “निर्बीजा न च सा युक्ता सर्वत्रैव प्रसङ्गतः । इतरेतरभेदोऽस्य बीजं चेत् पक्ष एष नः" ॥ तत्त्वसं ० का ० ९०२ - ९०५ पृ० २८८ । ११ स्वविषयप्रतिभासोऽनर्थे ऽर्थाव्यवसा - वि० गु० भा० । - 'स्वविषयप्रतिभासे ऽनर्थे ऽर्थव्यवसायेन' वि० सं० । “स्वप्रतिभासेऽनर्थेऽध्यवसायेन" - तत्त्वसं० पक्षि० पृ० २८९ पं० ४ । “यदि च निर्विषया कथं तर्हि तदर्थे प्रवृत्ति-प्रतिपत्ती ? अनर्थेऽर्थाध्यवसायेन भ्रान्त्या चेत्” - शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०० द्वि० पं० ६ । १२ " यदि वा सर्वमेवेदं क्षणिकं स्यान्न वा तथा । क्षणिकत्वेऽन्वयायोगः क्रमिज्ञानं च नान्यथा " ॥ तत्त्वसं ० का ० ९०६ पृ० २८९ । १५ उक्तिरेषा तत्त्वसं० पजि० पृ० १३ आद्ये पक्षे भां० म० । १४ - नन्वये न त आ० वि० गु० । २८९ पं० १४ । १६-स्य व्यवहारक्रमि - वि० ।-स्य व्यवहारः क्रमि - गु० । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ- तत्संबन्धयोमीमांसा । १८५ [विवक्षापदार्थवादिमतमुल्लिख्य तन्निरसनम् ] अन्ये वाहुः-"अर्थविवक्षां शब्दोऽनुमापयति" इति । यथोक्तम्"अनुमान विवक्षायाः शब्दादैन्यन्न विद्यते" [ ] इति । अत्रापि यदि परमार्थतो विवक्षा पारमार्थिकशब्दार्थ विषयेष्यते तदसिद्धम् , स्वलक्षणादेः शब्दार्थस्य कस्यचिदसम्भवात् ; अतो न क्वचिदर्थे परमार्थे विवक्षाऽस्ति, अन्वयिनोऽर्थस्याभावात् । ५ नापि तत्प्रतिपादकः शब्दः सम्भवति । यदाह "कवा श्रुतिः" [ तत्त्वसं० का०९०७ ] इति । न च विवक्षायां प्रतिपाद्यायां शब्दाद बहिरर्थे प्रवृत्तिः प्राप्नोति, तस्याप्रेरितत्वात् अर्थान्तरवत् । न च विवक्षापरिवर्तिनो बाहास्य च सारूप्यादप्रेरितेऽपि तत्र ततः प्रवृनिर्यमलकवत्, सर्वदा बाह्ये प्रवृत्तेरयोगात् कदाचिद् विवक्षापरिवर्तिन्यपि प्रेरिते प्रवृत्तिप्रसक्तर्यमलकयोरिव । अथ परमा-१० र्थतः स्वप्रतिभासानुभवेऽपि वक्तुरेवमध्यवसायो भवति 'मयाऽस्मै वाह्य एवार्थः प्रतिपाद्यते' श्रोतुरप्येवमध्यवसायः 'ममायं बाहामेव प्रतिपादयति' इतिः अतस्तैमिरिक यद्विचन्द्रदर्शनवदयं शाब्दो व्यवहार इति । यद्येवमस्मत्पक्ष एव समाश्रित इति कथं न सिद्धसाध्यता? शब्दस्तु लिङ्गभूतो विव. क्षामनुमापयतीत्यभ्युपगम्यत एव यथा धूमोऽग्निम् । [ वेभाषिकमतं निर्दिश्य नन्निग्मनम् ] पतेन वैभाषिकोऽपि शब्दविषयं नामास्यमर्थचिह्नरूपं विप्रयुक्तं संस्कारमिच्छन्निरस्तः । तथाहि-तन्नामादि यदि क्षणिकं तदाऽन्ययायोगः । अक्षणिकवे ऋमिशाना-पपत्तिः, वाह्ये च प्रवृत्यभावः; सारूप्यात् प्रवृत्ती न सर्वदा वाहा एव प्रवृत्तिः। "अशक्यसमयो ह्यात्मा नामादीनामनन्यभाक् । ते पामतो न चान्यत्वं कथञ्चिदुपपद्यते"॥[ ] इत्यादेःसर्वस्य समानत्वात् । तदेवम् 'अशक्यसमयत्वात्' इत्यस्य हेतो सिद्धता । नाप्यनेकान्ति-२० कैत्व-विरुद्धत्वे । तत् सिद्धम् अपोहकृच्छन्द इति । ['निषेधमात्रमेव अन्यापोहः' इति मन्या कौमारिलकृतानामाक्षेपाणामुपन्यासः] अत्र परो निषेधमात्रमेव किलान्यापोहोऽभिप्रेत इति मन्यमानः प्रतिशायाः प्रतीत्यादिविरोधमुद्भावयन्नाह-- "नेन्वन्यापोहकच्छब्दो युष्मत्पक्ष नु वर्णितः। निषेधमा नैवेह प्रतिभासव (सेऽव ) गम्यते' ॥ [ तत्वसं० का० ५.१०] १ तत्त्वसं० पजि. पृ० २८९५० १७ । शानवा० स्याहादरू. पृ० ४०० द्वि. पं. ७। २ तत्त्वसं० पञ्जि. पृ. २८९५० १७ । शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० ४०० द्वि. पं० ८। ३-दन्यत्र वि-हा. नि. विना। ४ "एतेनैव विवक्षाऽपि शब्दगम्या निराकृता । शब्दार्थासंभव हीन्थं व विवक्षा क वा श्रुतिः" ॥ तत्वसं० का ९.७पृ० २८९ । ५ परमार्थवि-वि• विना। ६-ह-कदा श्रु-बा। ७ "(सारूप्याच) श्रुतेर्वृत्तिः कथं वा( ऽशब्द) चोदिते । सामान्या( धमलकव )जामायनेन दूषितम्" ॥ तत्त्वसं. का. ९०८ पृ. २८९ । ८"विवक्षानु(मितिश्लिष्टमाकार बाह्यभावनः । व्यवस्यता: प्रगृत्ति)ञ्चत् नदेवाऽस्मन्मनं पुनः"॥ तत्वसं. का. ९०९ पृ. २९० । ९-नुभावे-बा. हा० वि०। १०-नुत्पत्तिः भां० मा. विना। ११ तत्त्वसं० पजि. पृ. २९० पं०८। १२-चामतो न वाक्यत्वम् भां. मां० ।-पामतो नाव्यत्वम् वा. बा० । “तथा मतो न वाच्यत्वम्"-तत्त्वसं. पजि. पृ. २९. पं०८। १३-कत्वावि-भां. वा. बा.। १४ प्रमेयक. पृ० १२५ द्वि. पं. ४.७ । । "नन ज्ञानफलाः शब्दाः" इत्यादि कुमारिलवचनम्' इति निर्दिष्टं सम्मतिटीकाकारेणाऽस्य निररानावसरे । "एतेन यदुक्तं कुमारिलेन" इत्युल्लिख्य श्लोकपश्चकमेतनिरदेशि श्रीयशोविजयः शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ. ४०२ प्र. पं० ५-१०। १५ “युष्माभिः कथमुच्यते"-तत्त्वसं० का. ९१. पृ. २९०। १६-भासे व-भा. मा० ।-भामैव-वा० ।-"भासेऽवगम्यते"तत्वसं. का. ९१०। प्रमेयक. पृ० १२५ द्वि० ५० ५। स. न. २ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ प्रथमे काण्डे"किन्तु गौर्गवयो हस्ती वृक्ष इत्यादिशब्दतः। विधिरूपावसायेन मतिः शाब्दी प्रवर्तते" ॥ [ तत्त्वसं० का ० ९११] "यदि गौरित्ययं शब्दः समर्थोऽन्यनिवर्तने। जनको गवि गोवुद्धेम॒ग्यतामपरो ध्वनिः” ॥ [ भामहालं० परि० ६ श्लो० १७] "ननु ज्ञानफलाः शब्दा न चैकस्य फलद्वयम्। अपवाद-विधिज्ञानं फलमेकस्य वः कथम्" ? ॥ [ भामहालं० परि० ६ श्लो० १८] "प्रागगौरिति विज्ञानं गोशब्दश्राविणो भवेत् । येनागोः प्रतिषेधाय प्रवृत्तो गौरिति ध्वनिः" ॥ [ भामहालं० परि० ६ श्लो० १९] यदि गोशब्दोऽन्यव्यवच्छेदप्रतिपादनपरस्तदा तस्य तत्रैव चरितार्थत्वात् सास्नादिमति पदार्थे १० गोशब्दात् प्रतीतिर्न प्राप्नोति, ततश्च सास्नादिमत्पदार्थविषयाया गोबुद्धर्जनकोऽन्यो ध्वनिरन्वे. षणीयः । अथेकेनैव गोशब्देन बुद्धिद्वयस्थ जन्यमानत्वान्नापरो ध्वनिम॒ग्यः, नैकस्य विधिकारिणः प्रतिषेधकारिणो वा शब्दस्य युगपद्विज्ञानद्वयलक्षणं फलमुपलभ्यते, नापि परस्परविरुद्धमपवादविधिज्ञानं फलं युक्तम्; यदि च गोशब्देनागोनिवृत्तिर्मुख्यतः प्रतिपाद्यते तदा गोशब्दश्रवणानन्तरं प्रथमं 'अगौः' इत्येषा श्रोतुः प्रतिपत्तिर्भवेत् । यत्रैव ह्यव्यवधानेन शब्दात् प्रत्यय उपजायते स एवं १५ शाब्दोऽर्थः; न चाव्यवधानेनागोव्यवच्छेदे मतिः, अतो गोबुद्ध्यनुत्पत्तिप्रसङ्गात् प्रथमतरमगोप्रतीतिप्रसङ्गाच्च नापोहः शब्दार्थः। अपि च, अपोहलक्षणं सामान्य वाच्यत्वेनाभिधीयमानं कदाचित् पर्युदासलक्षणं वाऽमियेत, प्रसज्यलक्षणं वा? तत्र प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता प्रतिज्ञादोषः, अस्माभिरपि गोत्वाख्यं सामान्यं गोशब्दवाच्यमित्यभ्युपगम्यमानत्वात्-यदेव ह्यगोनिवृत्तिलक्षणं सामान्यं गोशब्देनोच्यते २० भवता तदेवाऽस्माभिर्भावलक्षणं सामान्यं तद्वाच्यमभिधीयते, अभावस्य भावान्तरात्मकत्वेन स्थितत्वात् । तदुक्तम् "क्षीरे दध्यादि यन्नास्ति प्रागभावः स उच्यते" [श्लो० वा० अभा० परि० श्लो०२] "नास्ति वा (स्तिता) पयसो दनि प्रध्वंसाभावलक्षणम् । गवि योऽश्वाद्यभावश्च सोऽन्योन्याभाव उच्यते" ॥ "शिरसोऽवयवा निम्ना वृद्धि-काठिन्यवर्जिताः। शशशृङ्गादिरूपेण सोऽत्यन्ताभाव उच्यते" ॥ [श्लो० वा० अभा०परि० श्लो०३-४] "न चावस्तुन एते स्युर्भेदास्तेनाऽस्य वस्तुनि (वस्तुता)"। [ श्लो० वा० अभा० परि० श्लो०८] एतेन क्षीरादय एव दध्यादिरूपेण अविद्यमानाः प्रागभावादिव्यपदेशभाज इत्युक्तं भवति । १ "वृक्षश्चे(त्या)दिशब्दतः"-तत्त्वसं० का० ९११। २" 'यदि गौः' इत्यादिना श्लोकत्रयेण भामहस्य मतेन प्रतीत्यादिबाधामुद्भावयति"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० २९१ पं० ८ । “यदि गौ(रिति शब्दोऽयं भवेद)न्यनिराकृतौ"-तत्त्वसं. का० ९१२ । “यदि गौरित्ययं शब्दः कृतार्थोऽन्यनिराकृतौ”-भामहालं. परि०६ श्लो. १७। ३ "गोबुद्धेदृश्यतामपरो ध्वनिः"-तत्त्वसं० का० ९१२। ४ “न तु ज्ञानफलाः (शब्दा न चैकस्य फलद्व )यम्”-तत्त्वसं० का० ९१३ । “अर्थज्ञानफलाः शब्दाः"-भामहालं. परि. ६ श्लो. १८। ५-विधिनि-भां० मा० । “विधिज्ञाने फले चैकस्य"-भामहालं. परि० ६ श्लो. १८ । “विधि(ज्ञानं फलमेकस्य वा कथम् )"-तत्त्वसं. का. ९१३। ६-शब्दश्रावणो वि०।-शब्दश्रवणाद आ० कां० । “पुरा(s)गौरिति विज्ञानं गोशब्दश्रवणाद् भवेत्"-भामहालं. परि० ६ श्लो० १९ । तत्त्वसं० का० ९१४ । ७-नागौप्रति-आ० का० । “येनागोप्रतिषेधाय"-भामहालं. परि. ६ श्लो. १९। ८-व शब्दोर्थः भां० मां० विना। ९ "अगोनिवृत्तिः सामान्य वाच्यं यैः परिकल्पितम् । गोत्वं वस्त्वेव तैरुक्तमगोऽपोहगिरा स्फुटम्" ॥ श्लो० वा० अपो० श्लो. १। तत्त्वसं० का० ९१५पृ० २९२ । १. "भावान्तरमभावो हि पुरस्तात् प्रतिपादितः। श्लो० वा. अपो० श्लो.२ । तत्त्वसं. का. ९१६ पृ. २९२। ११ तत्त्वसं० का० १६५१-१६५२-१६५३-१६५५पृ० ४७१-४७२ । तत्त्वसं० पञ्जि.पृ० २९२५०१४-१७॥ १२ “नास्तिता"-श्लो० वा० पृ० ४७३ पं०७। तत्त्वसं• का० १६५१ पृ. ४७१। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा। ९८७ अगोनिवृत्तिश्चान्योन्याभावः तस्या अश्वादिव्यवच्छेदरूपत्वात् , तस्मात् सा वस्तु । तत्रैवमभावस्य 'भावान्तरात्मकत्वे कोऽयं भवद्भिरश्वादिनिवृत्तिस्वभावोऽभावोऽभिप्रेत इति । ___अथ गवादिस्व लक्षणात्मैवासौ, न; तत्र सर्वविकल्पप्रय॑यास्वमयात् (प्रत्यस्तमयात् ) विकल्पझानगोचरः सामान्यमेवेष्यते, असाधारणस्त्वर्थः सर्व विकल्पानामगोचरः । यथोक्तम्"स्वसंवेद्यमनिर्देश्यं रूपमिन्द्रियगोचरः" । [ ] इति। ५ यथैव हि भवतामसाधारणो विशेपोऽश्वादिनिवृत्त्यात्मा गोशब्दाभिधेयो नेटस्तथैव शाबलेयादिः शब्दवाच्यतया नेष्टः, असामान्यप्रसङ्गतः । यदि हि गोशब्दः शाबलेयादिवाचकः स्यात् नदा तस्यानन्वयान्न सामान्यविषयः स्यात् । यतश्चाश्वादिनिवृत्त्यात्मा भावोऽसाधारणो न घटते तस्मात् सर्वेषु सजातीयेषु शाबलेयादिपिण्डेषु यत् प्रत्येकं परिसमाप्त तन्निबन्धना गोबुद्धिः, तच्च गोत्वाख्यमेव सामान्यम् तस्यागोऽपोहशब्देनाभिधानात् केवलं नामान्तरमिति सिद्धसाध्यता १० प्रतिज्ञादोषः। तथाऽऽह कुमारिल: "अगोनिवृत्तिः सामान्यं वाच्यं यः परिकल्पितम । 'गोत्वं वस्त्वेव तैरुक्तमगोपोहगिरा स्फुटम्" ॥ [ श्लो० वा० अपो० श्लो० १] "भावान्तरात्मकोऽभावो येन सर्वो व्यवस्थितः। तत्राश्वादिनिवृत्त्यात्माऽभावः क इति कथ्यताम् ?" ॥ [श्लो० वा० अपो० श्लो०२] १५"नेष्टोऽसाधारणस्तावद् विशेषो निर्विकल्पनात् । तथा च शावलेयादिरसामान्यप्रसङ्गतः" ॥ [ श्लो० वा० अपो० श्लो० ३] "तस्मात् सर्वेषु यद्रूपं प्रत्येकं परिनिष्ठितम् । गोबुद्धिस्तन्निमित्ता स्याद् गोत्वादन्यच्च नास्ति तत् ॥ [श्लो० वा० अपो० श्लो० १०] २० अथ प्रसज्यलक्षणमिति पक्षस्तदा पुनरप्यगोऽपोहलक्षणाभावस्वरूपा शून्यता गोशब्दवाच्या प्रसक्ता वस्तुस्वरूपापहवात् , तत्र , शाब्दबुद्धीनां स्वांशग्रहणं प्रसक्तम् वाह्यवस्तुरूपाग्रहात्; तत १ सव-आ० हा०वि०। २ स्वभावोऽभि-आ. वि.। ३ "तत्राऽश्वादिनिवृत्त्यात्मा भावः क इति कथ्यताम्" ॥ श्लो० वा. अपो० श्लो. २ । तत्त्वसं० का . ९१६ पृ० २९२ । ४-त्ययासमयात कां०।-त्ययमयात वा० बा। "तत्र सर्वविकल्पप्रत्यस्तमयात् विकरपज्ञानगोचर."-तत्त्वसं. पजि. पृ० २९२ पं० २८ । ५ तत्त्वसं० पनि पृ० २९३ पं० २। ६ "नेष्टोऽसाधारणस्तावद् विषयो निर्विकल्पनात् । तथा च शाबलेयादेरसामान्यप्रसङ्गतः" ॥श्लो. वा. अपो० श्लो०३। "(नेष्टोऽसाधारणात्मा वो)विशेषो निर्विकल्पनात् । तथा च शाबलेयादिरसामान्यप्रसङ्गतः ॥ तत्त्वसं का०९१७ पृ०२९२। ७-वृत्तात्मा भां० मा०। ८ "शाबलेयादिशब्दवाच्यतया"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २९३ पं०६ । ९ "तस्मात् सर्वेषु यद्रूपं प्रत्येकं परिनिष्टितम् । गोवुद्धिस्तन्निमित्ता स्याद् गोत्वादन्यच नास्ति तत" ॥ श्लो. वा० अपो० श्लो० १० । तत्त्वसं• का० ९१८ पृ. २९२ । १० तस्य गो-आ. वि. कां०। ११ गोत्वव-भां० मां० । १२ तत्त्वनं० का० ९१५ पृ० २९२। १३ "भावान्तरमभावो हि"-श्लो. वा. अपो० श्लो. २। १४ तत्त्वसं. का. ९१६ पृ० २९२ । १५ "(नेष्टोऽसाधारणात्मा वो) वि"-तत्त्वसं. का. ९१७ पृ० २९२। १६-"स्तावद् विषयो निर्वि"-श्लो० वा. पृ० ५६६ पं० ७ । १७ "शाबलेयादेर"-श्लो. वा० पृ. ५६६ पं० ८। १८ तत्त्वसं० का० ९१७ पृ० २९२। १९ तत्वसं० का० ९१८ पृ० २९२ । २०-च्याऽथ प्र-भां० मां० । २१-स्तुरूपा-भां० मां० वा० बा० ।। "निषेधमात्ररूपश्च शब्दार्थों (Y) यदि कल्प्यते । अभावशब्द (वाच्या स्याच्छून्यताऽन्यप्रकारिका )" ॥ तत्त्वसं० का० ९१९ पृ० २९३ । “अपोहशब्दवाच्याऽथ शून्यताऽन्यप्रकारिका" ॥ श्लो. वा० अपो० श्लो० ३६ । २२ च शब्दे बु-आ. कां. गु० । च शब्दबु-वि० । "तस्यां चाश्वादिबुद्धीनामात्मांशग्रहणं भवेत् । तत्रान्यापोहवाच्यत्वं मुधैवाऽभ्युपगम्यते" ॥ "सामान्य वस्तुरूपं हि बुद्ध्याकारो भविष्यति । शब्दार्थोऽर्थानपेक्षो हि वृथाऽपोहः प्रकल्पितः" ॥ श्लो० वा. अपोलो० ३७-३८ । तत्त्वसं० का० ९२०-९२१ पृ० २९३ । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ प्रथमे काण्डेश्वापोहस्य वाच्यत्वं मुधैवाभ्युपगतं परेण बुद्ध्याकारस्याम(न)पेक्षितबाह्यार्थालम्बनस्य विधिरूपस्यैव शब्दार्थत्वापत्तेः । इत्यभ्युपगमबाधा प्रतिज्ञायाः परस्य ।। अथ बुद्ध्याकारालम्बनाऽपि सा वुद्धिर्विजातीयाऽगवा(यगवा)दिबुद्धिभ्यो व्यावृत्तरूपा प्रवर्तते तेनापोहकल्पना युक्तैव, असदेतत्; यतो यद्यपि बुद्धिर्बुद्ध्यन्तराद् व्यवच्छिन्ना तथापि सा ५न बुद्ध्यन्तरव्यवच्छेदावसायिनी जायते, किं तर्हि अश्वादिष्वर्थेषु विधिरूपाऽध्यवसायिनी; तेन वस्त्वेव विधिरूपं वाच्यं कल्पयितुं युक्तिमत् नापोहः, बुद्ध्यन्तरस्य बुध्यन्तरानपोहकत्वात् । किश्च, योऽयं भवद्भिरपोहः पदार्थत्वेन कल्पितः स वाक्यादपोद्धृत्य कल्पितस्य पदस्यार्थः इष्टः-वाक्यार्थस्तु प्रतिभालक्षण एव । यथोक्तम् “अपोद्धारपदस्यायं वाक्यादर्थो विवेचितः। वाक्यार्थः प्रतिभाख्योऽयं तेनादावुपजन्यते" ॥ [ __] इति, -स चायुक्तः; शब्दार्थस्य विधिरूपताप्रसक्तेः, तथापि वाह्येऽर्थे शब्दवाच्यत्वेनासत्यपि वाक्याओं भवद्भिः प्रतिभालक्षण एव वर्ण्यते नापोहस्तदा पदार्थोऽपि वाक्यार्थवत् प्रतिभालक्षण एव प्रसक इति द्वयोरपि पद-वाक्यार्थयोर्विधिरूपत्वम् । अथ प्रतिभायाः प्रतिभान्तराद् विजातीयाद् व्यव. च्छेदोऽस्तीत्यपोहरूपता, न सम्यगेतत् ; यतो यद्यपि बुद्धेर्बुद्ध्यन्तराद् व्यावृत्तिरस्ति तथापि" न च १५ तत्र शब्दव्यापारः। तथाहि-शब्दादसावुत्पद्यमाना न स्वरूपोत्पादव्यतिरेकेणान्यं बुद्धयन्तरव्यवच्छे. दलक्षणं शब्दादवसीयमानमंशं बिभ्राणा लक्ष्यते किं तर्हि ? विधिरूपावसायिन्येवोत्पत्तिमती । न च शब्दादनवसीयमानो वस्त्वंशः शब्दार्थो युक्तः अतिप्रसङ्गादिति प्रतीतिबाधितत्वं प्रतिज्ञायाः। अपि च, ये भिन्नसामान्यवचना गवादयः, ये च विशेषवचनाः शाबलेयादयस्ते भवदमिप्रायेण पर्यायाः प्राप्नुवन्ति, अर्थभेदाभावात्, वृक्ष-पादपादिशब्दवत् । स च अवस्तुत्वात्, वस्तु. २०न्येव हि "संसृष्टत्व-एकत्व-नानात्वादिविकल्पाः सम्भवन्ति, नावस्तुन्येवापोहाये परस्परं संसृष्टतादिविकल्पो युक्त इति कथमेषां भेदः? तदभ्युपगमे वा नियमेन वस्तुत्वापत्तिः । तथाहि-'ये परस्परं भिद्यन्ते ते वस्तुरूपाः, यथा स्वलक्षणानि, परस्परं मिद्यन्ते चापोहाः' इति स्वभावहेतुः, इति विधिरेव शब्दार्थः। एतेनानुमानबाधितत्वं प्रतिज्ञायाः प्रतिपादितम्। ___ अथावस्तुत्वमभ्युपगम्यतेऽपोहानां तदा नानात्वाभावात् पर्यायत्वप्रसङ्गैः इत्येकान्त एषः । १ "बुद्ध्याकारस्यानपेक्षितबाह्यार्थावलम्बनस्य"-तत्त्वसं० पनि० पृ० २९३ पं० २४ । २ बुद्ध्यालम्ब-भां० मां० वा० बा० विना। ३ "बुद्धिर्विजातीयगवादिबुद्धिभ्यो व्यावृत्तरूपा"-तत्त्वसं० पजि. पृ० २९४ पं. ३ । ४ “वस्तुरूपा च सा बुद्धिः शब्दार्थेषूपजायते । तेन वस्त्वेव कल्प्येत वाच्यं बुद्धयनपोहकम्" ॥ श्लो० वा. अपो० श्लो० ३९ । तत्त्वसं. का. ९२२ पृ० २९४ । ५-भासल-आ. वि. का. गु०। ६ “अपोद्धारे"-तत्त्वसं० पजि. पृ० २९४ पं० १७ । ७ “असत्यपि च बाह्येऽर्थे वाक्यार्थप्रतिभा यथा। पदार्थोऽपि तथैव स्यात् किमपोहः प्रकल्प्यते"॥ श्लो. वा० अपो० श्लो. ४० । तत्त्वसं. का. ९२३ पृ. २९४ । ८-हस्तथा प-भां० मां । "नापोहलक्षणस्तथा पदार्थोऽपि"-तत्त्वसं० पजि० पृ० २९४ पं० २३ । ९ "बुद्ध्यन्तराद् व्यवच्छेदो न च बुद्धेः प्रतीयते । स्वरूपोत्पादमात्राच नान्यमंशं बिभर्ति सा" ॥ श्लो० वा. अपो० श्लो.४१ । तत्त्वसं० का० ९२४ पृ. २९४ । १०-पिन तत्र आ० कां । "तथापि तस्यां न शब्दव्यापारोऽस्ति"-तत्त्वसं० पजि० पृ. २९५ पं० ३ । ११ लभ्यते वा। १२ "भिन्नसामान्यवचना विशेषवचनाश्च ये । सर्वे भवेयुः पर्याया यद्यपोहस्य वाच्यता" ॥ श्लोवा. अपो० श्लो० ४२ । तत्त्वसं० का० ९२५ पृ. २९५ । १३ “वृक्ष-पादपादिशब्दवत् । वस्तुन्येव हि संसृष्ट"-तत्त्वसं० पजि० पृ० २९५६० १२-१६। १४ अर्थभेदाभावश्च । १५ “संसृष्टैकत्वनानात्वविकल्परहितात्मनाम् । अवस्तुत्वादपोहानां तव स्याद् भिन्नता कथम्" ? ॥ श्लो. वा. अपो० श्लो०४५। तत्त्वसं० का. ९२६ पृ. २९५ । १६ संस्पृष्टत्व-आ० वि० का गु० । १७-ख्ये परस्परसं-वा० बा० ।-ख्ये परसं-आ० वि० का० गु०। १८ “यदि वा भिद्यमानत्वाद् वस्त्वसाधारणांशवत् । अवस्तुत्वे त्वनानात्वात् पर्यायत्वान्न मुच्यते" ॥ श्लो. वा. अपो० श्लो० ४६ । तत्त्वसं० का० ९२७ पृ. २९५ । १९ प्र० पृ० पं० १९ । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - तत्संबन्धयोर्मीमांसा | न वापोह्यभेदात् स्वतो भेदाभावेऽपि तस्य भेदादपर्यायत्वम्, स्वैतस्तस्य नानात्वाभावेऽभावैकरूपत्वात् परतोऽप्यसौ भवन् काल्पनिकः स्यात्; न हि स्वतोऽसतो भेदस्य परतः सम्भवो युक्तः । यथा हि संसर्गिणः शाबलेयादयः आधारतयाऽन्तरङ्गा अपि तं स्वरूपतो भेत्तुमशक्ताः - बहुष्वपि शाबलेयादिष्वेकस्यागोव्यवच्छेदलक्षणस्यापोहस्य तेष्वभ्युपगमात् - तथा बहिरङ्गभूतैरश्वादिभिरपोरसौ भिद्यत इत्यपि साहसम्: न हि यस्यान्तरङ्गोऽप्यर्थो न भेदकस्तस्य बहिरङ्गो भविष्यति ५ बहिरङ्गत्वहानिप्रसङ्गात् । अथान्तरङ्गा एवाधारस्तस्य भेदकाः, असदेतत् अवस्तुनः सम्बन्धिभेदाद् भेदानुपपत्तेः, वस्तुन्यपि हि सम्बन्धिभेदाद् भेदो नोपलभ्यते किमुतावस्तुनि निःश्वभावोत्तहा हि- देवहिकमेकपि (निःस्वभावे । तथाहि देवदत्तादिकमेकमपि ) वस्तु युगपत् क्रमेण वाने के (कै) रासनादिभिर (रभि) सम्बध्यमानमनासादितभेदमेवोपलभ्यते किं पुनर्यदन्यव्यावृत्तिरूपमवस्तु, तत्त्वादेव च क्वचिद - १० सम्बद्धं विजातीयांच्चाऽव्यावृत्तम् अत एवानधिगतविशेषांशं तादृशं सम्बन्धिभेदादपि कथमिव दमवीत ? किञ्च भवतु नाम सम्बन्धिभेदाद् भेदस्तथापि वस्तुभूतसामान्यानभ्युपगमे भवतां स एवापोहाश्रयः सम्बन्धी न सिद्धिमासादयति यस्य भेदात् तद्भेदोऽवकैल्प्यते । तथाहि यदि गवादीनां वस्तुभूतं सारूप्यं प्रसिद्धं भवेत् तदा ऽश्वाद्य पोहाश्रयत्वमेषामविशेषेण सिद्ध्येत (त्) नान्यथा, अतोऽपोहविषेयत्वमेषामिच्छताऽवश्यं सारूप्यमङ्गीकर्तव्यम्, तदेव च सामान्यं वस्तुभूतं शब्दवाच्यं १५ भविष्यतीत्य पोहकल्पना व्यर्थैव । पोमेनापोह मेदोऽपि वस्तुभूतसामान्यमन्तरेण न सिद्धिमासादयति । तथाहि यद्यश्वादीनामेकः कश्चित् सर्वव्यक्तिसाधारणो धर्मोऽनुगामी स्यात् तदा ते सर्वे गवादिशब्दैरविशेषेणापोरन नान्यथा, विशेषापरिज्ञानात् । साधारणधर्माभ्युपगमे चापोह कल्पनावैयर्थ्यम् । अपि च, अपोहः शब्द- लिङ्गाभ्यामेव प्रतिपाद्यत इति भवद्भिरिष्यते, शब्द- लिङ्गयोश्च वस्तु- २० भूतसामान्यमन्तरेण प्रवृत्तिरनुपपन्नेति नातोऽपोहप्रतिपत्तिः । तथाहि - अनुगतवस्तुव्यतिरेकेणे न १ " ननु चापोह्यभेदेन भेदोऽपोहस्य सेत्स्यति । न विशेषः स्वतस्तस्य परत चौपचारिकः " ॥ १८९ श्लो० वा० अपो० श्लो० ४७ | तत्त्वसं० का० ९२८ पृ० २९६ ॥ २ स्वतस्य आ० बा० । ३ "संसर्गिणोऽपि चाधारा यं न भिन्दन्ति रूपतः । अपोयैः स बहिर्भूतैर्भिद्यते अतिकलना ॥ श्लो० वा० अपो० लो० ५२ । तत्त्वसं० का० ९२९ पृ० २९६ ॥ ४ इत्यभि (ति) सा वा० बा० । “ इत्यतिसाहसम् " - प्रमेयक० पृ० १२६ प्र० पं० ८ । ५ " तेनैवाssधारभेदेनाप्यस्य भेदो न युज्यते । न हि संबन्धिभेदेन भेदो वस्तुन्यपीष्यते " ॥ " किमुताऽवस्त्वसंसृष्टमन्यतश्चाऽनिवर्तितम् । अनवाप्त विशेषांशं यत् किमप्यनिरूपितम् " ॥ श्लो० वा० अपो० श्लो० ४८-४९ । तत्त्वसं० का ० ९३० - ९३१ पृ० २९६ । ६ नोपलभ्यते किं पुनर्यदम्य वा० वा० विना० । ७ “ किमुताऽवस्तुनि । तथाहि देवदत्तादिकमेकमेव वस्तु युगपत् क्रमेण वानेकैराभरणादिभिरभिसंबध्यमानमनासादितभेदमेवोपलभ्यते " - प्रमेयक० पृ० १२६ प्र० पं० ९ । तत्त्वसं ० पक्षि० पृ० २९६ पं० २७-२८ । ८- मवस्तुत्वा-आ० हा०वि० कां० गु० । ९-याद्वावृत्तम् वा० बा० । १० - ति तस्य वा० बा० । ११- कल्पते वा० वा० । १२ यथा ग-भां० मां० वा० बा० विना । " न चाप्रसिद्ध सारूप्याऽनपोहविषया:मना । शक्तः कश्चिदपि ज्ञातुं गवादीनविशेषतः " ॥ श्लो० वा० अपो० श्लो० ७१ । तत्त्वसं० का० ९३२ पृ० २९७ । १३- भूतं शब्दसारू - भ० मां० । १४ “ विषयशब्दोऽत्राश्रयवचनः, जलविषया मत्स्या इति यथा" - तत्वसं ० पक्षि० पृ० २९७ पं० १३ । १५- ना व्यर्थिता भ० मां० ।-ना व्यर्थिका आ० वि० कां० गु० । १६ “ अपोद्यानपि चाश्वादी नेकधर्मान्वयादृते । न निरूपयितुं शक्तिस्तत्राऽपोहो न सिध्यति ॥ श्लो० वा० अपो० श्लो० ७२ । तत्त्वसं० का० ९३३ पृ० २९७ । पन्नेति नापोह - गु० भा० । शब्दयोः । ताभ्यां च न विनाऽप हो न चाऽसाधारणेऽन्वयः " ॥ श्लो० वा० अपो० श्लो० ७३ | तत्त्वसं० का० ९३४ पृ० २९७ । । १७- पन्नेति नानापोह आ० कां० १८ " न चान्वयविनिर्मुक्ते प्रवृत्तिर्लिङ्ग १९- ण च भ० मां० । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० प्रथमे काण्डेशब्दलिङ्गाभ्यां (न शब्द-लिङ्गयोः प्रवृत्तिः, न च शब्द-लिङ्गाभ्यां) विनाऽपोहप्रतिपत्तिः, न चासा. धारणस्यान्वयः, तदेवमपोहकल्पनायां शब्द-लिङ्गयोः प्रवृत्तिरेव न प्राप्नोति; प्रवृत्तौ वा प्रामाण्यमभ्युपगतं हीयेत। तथाहि-प्रेतिपाद्यार्थाव्यभिचारित्वं तयोः प्रामाण्यम् , अपोहश्च प्रतिपाद्यत्वेन भवताऽभ्युपगम्यमानोऽभावरूपत्वान्निःस्वभाव इति व तयोरव्यभिचारित्वम् ? न च विजातीया. ५दर्शनमात्रेणैव शब्द-लिङ्गे अगृहीतसाहचर्य एव स्वमर्थ गमयिष्यतः, विजातीयादर्शनमात्रेण गम भ्युपगमे स्वार्थः परार्थ इति विशेषानुपपत्तेः तथा च स्वार्थमपि न गमयेत् तत्र अदृष्टत्वात परार्थवत् । तदेवं शब्द-लिङ्गयोरप्रामाण्याभ्युपगमप्रसङ्गान्नापोहः शब्दार्थो युक्तः। यदि वा असत्यपि सारूप्ये शावलेयादिष्वगोऽपोहकल्पना तदा गवाश्वस्यापि कस्मान्न कल्प्येतासौ अविशेषात् । तदुक्तं कुमारिलेन ___ "अथासत्यपि सारूप्ये स्यादपोहस्य कल्पना। गवाश्वयोरयं कस्मादगोपोहो न कल्प्यते” ॥ [ श्लो० वा० अपो० श्लो० ७६ ] 'गवाश्वयोः' इति “गवाश्वप्रभृतीनि चं" [पाणि०-२-४-११ सिद्धान्तकौ० पृ० २०४] इत्येकवद्भावल. क्षणास्मरणादुक्तम् । अविशेषप्रतिपादनार्थं स एव पुनरप्युक्तवान् "शाबलेयाच्च भिन्नत्वं वाहुलेयाश्वयोः समम् ।। सामान्यं नान्यदिष्टं चेत् क्वागोऽपोहः प्रवर्तताम्" ? ॥ [श्लो० वा० अपो० श्लो०७७] यथैव हि शाबलेयाद् वैलक्षण्यादश्वे न प्रवर्त्तते तथा बाहुलेयस्यापि ततो वैलक्षण्यमस्तीति न तत्राप्यसौ प्रवर्तेत; एवं शावलेयादिष्वपि योज्यम् , सर्वत्र वैलक्षण्याविशेषात् । ___ अपि च, यथा स्वलक्षणादिषु समयासम्भवान्न शब्दार्थत्वम् तथाऽपोहेऽपि । तथाहि-निश्चि. तार्थो हि समयकृत् समयं करोति; न चापोहः केनचिदिन्द्रियैर्व्यवसीयते, व्यवहारात् पूर्व तस्या२० वस्तुत्वात् इन्द्रियाणां च वस्तुविषयत्वात् । न चान्यच्यावृत्त स्वलक्षणमुपलभ्य शम अन्यापोहादन्यत्र शब्दवृत्तेः प्रवृत्त्यनभ्युपगमात् । नौप्यनुमानेनापोहाध्यवसायः, "न चान्वयविनिर्मुक्ता प्रवृत्तिः शब्द-लिङ्गयोः" इत्यादिना तत्प्रतिषेधस्य तत्रोतत्वात् । तस्मात् 'अकृतसमयत्वात्' इत्यस्य हेनोरनैकान्तिकत्वमपोहेन, अकृतसमयत्वेऽप्यपोहे शब्दप्रवृत्त्यभ्युपगमात् ।। २५ इतश्चापोहे सङ्केतासम्भवः अतिप्रसक्तेः । तथाहि-कथमश्वादीनां गोशब्दानभिधेयत्वम् ? १ न वासा-आ० कां० । २ “अपोहश्चाप्यनिष्पन्नः साहचर्य व दृश्यताम् । तस्मिन्नदृश्यमाने च न तयोः स्यात् प्रमाणता' ॥ श्लो० वा० अपो० श्लो० ७४ । तत्त्वसं० का० ९३५ पृ० २९८ । ३ "न चाऽदर्शनमात्रेण ताभ्यां प्रत्यायनं भवेत् । सर्वत्रैव ह्यदृष्टत्वात् प्रत्याग्यं नावशिष्यते" ॥ श्लो. वा० अपो० श्लो० ७५ । तत्त्वसं० का० ९३६ पृ० २९८ । ४-चर्येण ए-वा. बा०। ५ स्वार्थ इति वा. बा०। ६-स्यापि कस्यापि कस्मा-आ. कां० । ७ कल्पेता-वा. बा. विना। ८ तत्त्वसं. का. ९३७ पृ. २९८। ९ “गवाश्वादिः" हैम. ३-१-१४४ । १० तत्त्वसं० ९३८ पृ० २९९ । ११ प्रवर्तत ए-आ० वि० कां० गु० वा. बा० । १२ शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० का० ४.३ प्र. पं०१३।। १३ "इन्द्रियै प्यगोपोहः प्रथमं व्यवसीयते । नान्यत्र शब्दवृत्तिश्च किं दृष्ट्वा स प्रयुज्यताम्" ॥ श्लो. वा० अपो० श्लो० ७८ । तत्त्वसं का० ९३९ पृ. २९९ । १४ "संज्ञासंज्ञिसंबन्धकाले"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २९९ पं० १३। १५ "पूर्वोक्तेन प्रबन्धेन नानुमाऽप्यत्र विद्यते । संबन्धानुभवोऽप्यस्य तेन नैवोपपद्यते ॥ श्लो. वा. अपो. श्लो० ७९ । तत्त्वसं. का. ९४० पृ. २९९ । १६ पृ० १८९ पं० २१ तथा ४२। १७-श्चापोहसं-वा. बा. विना। १८ “अगोशब्दाभिधेयत्वं गम्यतां च कथं पुनः । न दृष्टो यत्र गोशब्दः संबन्धानुभवक्षणे"॥ श्लो० वा. अपो० श्लो० ८१॥ तत्त्वसं. का. ९४१ पृ. २९९ । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - तत्संबन्धयोर्मीमांसा । सम्बन्धानुभवक्षणेऽश्वादेस्तद्विषयत्वेनाइटेरिति चेत्, असदेतत् यतो यदि यद् गोशब्दसङ्केताले उपलब्धं ततोऽन्यत्र गोशब्दप्रवृत्तिनेष्यते तदैकस्मात् सङ्केतेन विपयीकृताच्छाबलेयादिकाद् गोपि - ण्डादन्यद् बाहुलेयादि गोशब्देनापोह्यं भवेत्, ततश्च सामान्यं वाच्यमित्येतन्न सिद्ध्येत् । इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेश्चापोहे सङ्केतोऽशक्यक्रियः । तथाहिं अंगोव्यवच्छेदेन गोः प्रतिपत्तिः, स चागौनिषेधात्मा; ततश्च 'अगौः' इत्यत्रोत्तरपदार्थो वक्तव्यः यो 'न गौरगौः' इत्यत्र नञा प्रतिषिध्येत, न ५ नितस्वरूपस्य निषेधः शक्यते विधातुम् । अथापि स्यात् किमत्र वक्तव्यम् - अंगोनिवृत्यात्मा गौः, नन्वेवमगो निवृत्तिस्वभावत्वाद् गोरगोप्रतिपत्तिद्वारेणैव प्रतीतिः, अगोश्च गोप्रतिषेधात्मकत्वाद् गोप्रतिपत्तिद्वारिकैव प्रतीतिरिति स्फुटमितरेतराश्रयत्वम् । अथाप्यगोशब्देन यो गौर्निषिध्यते स विधिरूप एव अंगोव्यवच्छेदमल ( दल) क्षणापोहसिद्ध्यर्थम् तेनेतरेतराश्रयत्वं न भविष्यति । यद्येवं 'सर्वस्य शब्दस्यापोहार्थः' इत्येवमपोहकल्पना वृधा, १० विधिरूपस्यापि शब्दार्थस्य भावात् । अतः ( अतो न ) कश्चिद् विधिरूपः शब्दार्थः प्रसिद्धोऽङ्गीकर्तव्यः; तदनङ्गीकरणे चेतरेतराश्रयदोषो दुर्निवारः । तदुक्तम् १९१ "सिद्धश्चागौर पोह्येत गोनिषेधात्मकश्च सः । तत्र गौरेव वक्तव्यो नञा यः प्रतिषिध्यते” ॥ " स चेदगोनिवृत्त्यात्मा भवेदन्योऽन्यसंश्रयः । सिद्धश्चेद् गौर पोहार्थं वृथाऽपोह प्रकल्पनम् ” ॥ "गव्यसिद्धे त्वगौर्नास्ति तदभावेऽपि गौः कुतैः । " [ श्लो० वा० अपो० लो० ८३-८४-८५ ] इति । "नीलोत्पलादिशब्दा अर्थान्तर निवृत्तिविशिष्टानर्थानाहुः” [ दिग्नागेन "विशेष्यविशेषणभावसमर्थनार्थ यदुक्तं तदयुक्तमिति दर्शयन्नाह भट्टः ] इत्याचा "नाधाराधेयवृत्त्यादिसम्बन्धश्चाप्यभावयोः " ॥ [ श्लो० वा० अपो० श्लो० ८५] यस्य हि येन सह कश्चिद् वास्तवः सम्बन्धः सिद्धो भवेत् तत् तेन विशिष्टमिति युक्तं वक्तुम् । न च नीलोत्पलयोरनीलानुत्पलव्यवच्छेद रूपत्वे नाभावरूपयोराधा राधेयादिः सम्बन्धः सम्भवति, "नीरूपत्वात् । श्रदिग्रहणेन संयोगसमवायैकार्थसमवायादिसम्बन्धग्रहणम् । न चासति वास्तवे सम्बन्धे तद्विशिष्टय प्रतिपत्तिर्युक्ता, अतिप्रसङ्गात् । अथापि स्यात् नैवास्माकमनीलादिव्यावृत्त्या २५ विशिष्टोऽनुत्पलादिव्यवच्छेदोऽभिमतः यतोऽयं दोषः स्यात्ः किं तर्हि ? अनीलानुत्पलाभ्यां व्यावृत्तं वस्त्वेव तथाव्यवस्थितं तदर्थान्तरनिवृत्त्या विशिष्टं शब्देनोच्यत इत्ययमर्थोऽत्राभिप्रेतः, असदेतत्; १ " एकस्मात् तर्हि गोपिण्डाद् यदन्यत् सर्वमेव तत् । भवेदपोह्यमित्येवं न सामान्यस्य वाच्यता" ॥ श्लो० वा० अपो० लो० ८२ । तत्त्वसं० का० ९४२ पृ० ३०० । २- हि अगोशब्देन छेदेन गोः वा० वा० । ३ “सिद्धश्चाऽगौरपोह्येत गोनिषेधात्मकश्च सः । तत्र गौरेव वक्तव्यो नजा यः प्रतिषिध्यते” ॥ श्लो० वा० अपो० लो० ८३ । तत्त्वसं० का० ९४३ पृ० ३०० । ४ " स चेदगोनिवृत्त्यात्मा भवेदन्योन्यसंश्रयः । सिद्धश्चेद् गौरपोह्यार्थ वृथाऽपोहप्रकल्पना" ॥ श्लो० वा० अपो० लो० ८४ | तत्त्वसं० का० ९४४ पृ० ३०० । ६ 'अगोव्यवच्छेदलक्षणापोह' - वि०सं० । “अ२२ । ७ "ययेवं सर्वस्य शब्दस्यापोहोऽर्थ इत्येवम ५ " गौर्निषेध्यते " - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३०० पं० २१ । गोव्यवच्छेदलक्षणापोहसिद्ध्यर्थम् " - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३०० पं० पोहकल्पनं वृथा”-तत्त्वसं॰ पञ्जि० पृ० ३०० पं० २३ । प्रमेयक० पृ० वा० बा० गु० भा० विना । ९ " भावात् तस्मान्न कश्चिद् विधिरूपः १० तत्त्वसं० का ० ९४३ पृ० ३०० । ११ तत्त्वसं ० का ० ९४४ पृ० पृ० १२६ द्वि० पं० ११ । शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०३ द्वि० पं० १४ तत्त्वसं० प० पृ० ३०१ पं० २ । प्रमेयक० पृ० १२६ द्वि० पं० ११ । शास्त्रत्रा ० स्याद्वादक० पृ० ४०३ द्वि० पं० ११ । १५ विशिष्यवि - भां० म० । १६ तत्त्वसं ० का ० ९४५ पृ० ३००। १७ नीलरूपत्वात् वा० बा० विना० । १० प्र० पृ० पं० २१ । १९ तदार्था - वा० वा० । “ तच्चार्थान्तरव्यावृत्त्या " - प्रमेयक० पृ० १२७ प्र० पं० ३ | शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०३ द्वि० पं० १३ । १२६ द्वि० पं० ८-९ । ८-हार्थमित्येवशब्दार्थः " - तत्त्वसं० पजि० पृ० ३०० पं० २४ । ३०० । १२ तदभावेऽप्यगौः कुत. " - प्रमेयक० १० । १३ तत्त्वसं० का० ९४५ पृ० ३०० । १५ २० Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ प्रथमे काण्डे स्खलक्षणस्यावाच्यत्वात् तत्पक्षभाविदोषप्रसङ्गाच्च । न च स्खलक्षणस्यान्यनिवृत्त्या विशिष्टत्वं सा(सि) ध्यति यतो न वस्त्वपोहः, असाधारणं तु वस्तु। न च वस्त्ववस्तुनोः सम्बन्धो युक्तः, वस्तुद्वयाधारत्वात् तस्य। भवतु वा सम्बन्धस्तथापि विशेषणत्वमपोहस्यायुक्तम् ; न हि सत्तामात्रेणोत्पलादीनां नीलादि ५विशेषणं भवति, किं तर्हि ? ज्ञातं सद् यत् स्वाकारानुरक्तया बुद्ध्या विशेष्यं रञ्जयति तद् विशेषणम्, न चापोहेऽयं प्रकारः सम्भवति, ने ह्यश्वादिबुद्ध्याऽपो होऽध्यवसीयते, किं तर्हि ? वस्त्वेव, अतोऽपो. हस्य बोधासम्भवाद् न तेन स्वबुद्ध्या रज्यतेऽश्वादि । न चाक्षातोऽप्यपोहो विशेषणं भवति, न ह्यगृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिरुपजायमाना दृष्टाः भवतु वाऽपोहज्ञानम् तथापि वस्तुनि तदाकारबुद्ध्यभावात् तस्य तद्विशेषणत्वमयुक्तम् , सर्वमेव हि विशेषणं स्वाकारानुरूपां विशेष्ये बुद्धिं जनयद् १० दृष्टम् , न त्वन्यादृशं विशेषणमन्यादृशीं बुद्धिं विशेष्ये जनयति; न हि नीलमुत्पले 'रक्तम्' इति प्रत्ययमुत्पादयति, दण्डो वा 'कुण्डली' इति; न चात्राश्वादिष्वभावानुरक्ता शाब्दी बुद्धिरुपजायते, किं तर्हि ? भावाकाराध्यवसायिनी । यदि पुनर्विशेषणाननुरूपतयाऽन्यथा व्यवस्थितेऽपि विशेष्ये साध्वी विशेषणकल्पना तथासति सर्वमेव नीलादि सर्वस्य विशेषणमित्यव्यवस्था स्यात् । नौप्यपो. हेनापि स्वबुद्ध्या विशेष्यं वस्त्वनुरज्यते इति वक्तव्यम्, तथाऽभ्युपगमे अभावरूपेण वस्तुनः प्रतीते. १५वस्तुत्वमेव न स्यात् भावाभावयोर्विरोधात् । एतदेवाह "न चासाधारणं वस्तु गम्यतेऽपोहवत्तयाँ । कथं वा परिकल्प्येत सम्बन्धो वस्त्ववस्तुनोः ॥" "स्वरूपसत्त्वमात्रेण न स्यात् किञ्चिद् विशेषणम् । स्वबुद्ध्या रज्यते येन विशेष्यं तद् विशेषणम् ॥” "न चाप्यश्वादिशब्देभ्यो जायतेऽपोहबोधनम् । विशेष्यबुद्धिरिष्टेह न चाज्ञातविशेषणा॥" "न चान्यरूपमन्यादृक् कुर्याज् ज्ञानं विशेषणम् । कथं चान्यादृशे ज्ञाने तदुच्येत विशेषणम् ॥" १ " न चासाधारणं वस्तु गम्यतेऽपोहवत्तया। कथं वा परिकल्प्येत संबन्यो वस्त्ववस्तुनोः'। श्लो० वा० अपो० श्लो. ८६। तत्त्वसं० का० ९४६ पृ० ३०१ । २ “सिध्यति"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ३०१ पं० १६। ३ "स्वरूपसत्त्वमात्रेण न च किञ्चिद् विशेषणम् । खवुद्धया रज्यते येन विशेष्यं तद् विशेषणम्" ॥ श्लो० वा. अपो० श्लो. ८७ । तत्त्वसं. का. ९४७ पृ. ३०१ । ४ रक्तबु-वि० गु०। ५ “न चाप्यश्वादिशब्देभ्यो जायतेऽपोहबोधनम् । विशेष्यबुद्धिरिष्टेह न चाऽज्ञातविशेषगा"। श्लो. वा० अपो० श्लो० ८८ । तत्त्वसं का० ९४८ पृ. ३०१ । ६-हो व्यव-वा० बा। ७ "न चान्यरूपमन्यादृक् कुर्याज् ज्ञानं विशेषणम् । कथं चाऽन्यादृशे ज्ञाते तदुच्येत विशेषणम्"। श्लो० वा. अपो० श्लो० ८९ । तत्त्वसं० का० ९४९ पृ. ३०२ । ८ "खाकारानुरूपं विशेष्ये"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ३०२५०९। ९-भावात् रक्ता वि. विना । १. “अथाऽन्यथा विशेष्येऽपि स्याद् विशेषणकल्पना । तथासति हि यत् किञ्चित् प्रसज्येत विशेषणम्"॥ श्लो० वा. अपो० श्लो. ९.। तत्त्वसं० का० ९५० पृ. ३०२ । ११-णानुरूप-वा० बा०। १२ “अभावरूपगम्ये च न विशेष्येऽस्ति वस्तुता। विशेषितमपोहेन वस्तु वाच्यं न तेऽस्त्यतः॥ श्लो० वा. अपो. श्लो. ९१ । तत्त्वसं. का. ९५१ पृ. ३०२ । १३ इतः श्लोकषट्कमेतत् प्रमेयक• पृ० १२७ प्र. पं० १० । शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० ४०४ प्र.पं०४-९ । १४ अनुक्रमेण तत्त्वसं. का. ९४६-९४७-९४८-९४९-९५०-९५१ पृ. ३०१-३०२। १५ कथं वान्या-वा. बा० । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - तत्संबन्धयोर्मीमांसा । "अथान्यथा विशेष्येऽपि स्याद् विशेषणकल्पना । तथासति हि यत् किञ्चित् प्रसज्येत विशेषणम्" ॥ "अभावगम्यरूपे च न विशेष्येऽस्ति वस्तुता । विशेषितमपोहेन वस्तु वाच्यं न तेऽस्त्यतः " ॥ [लो० वा० अपो० लो० ८६-८७-८८-८९-९०-९१] इति । अथान्यव्यावृत्ते एव वस्तुनि शब्द - लिङ्गयोः प्रवृत्तिर्दृश्यते नापोहरहिते अतोऽपोहः शब्द-लिङ्गाभ्यां प्रतिपाद्यत इत्यभिधीयते न प्रसज्यप्रतिषेधमात्रप्रतिपादनात् अत एव न प्रतीत्यादिविरोधोद्भावनं युक्तम्, असदेतत्; येतो यदि नाम तद् वस्त्वन्यतो व्यावृत्तं तथापि तत्रोत्पद्यमानः शब्द- लिङ्गोद्भवो बोधोऽन्यव्यावृत्तिं सतीमपि नावलम्बते, किं तर्हि ? वस्त्वंशमेवाभिधावति, तत्रैवानुरागात् । य एंव चांशो वस्तुनः शाब्देन लैङ्गिकेन वा प्रत्ययेनावसीयते स एव तस्य विषयः १० नानवसीयमानः सन्नपि न हि मालतीशब्दस्य गन्धादयो विद्यमानतया वाच्या व्यवस्थाप्यन्ते । न चाप्येतदु (युक्तम् यद् अन्यव्यावृत्ते वस्तुनि शब्द- लिङ्गयोः प्रवृत्तिः यतोऽन्यव्यावृत्तं वस्तु भवतां मतेन स्वलक्षणमेव भवेत् न च तत् शब्द- लिङ्गजायां बुद्धौ विपरिवर्त्तत इति, तस्य निर्विकल्पक बुद्धिविषयत्वात् भवदभिप्रायेण शब्द- लिङ्गजबुद्वेश्च सामान्यविषयत्वात् । न चासाधारणं वस्तु शाब्दलिङ्गजप्रत्ययाधिगम्यम्, तत्र विकल्पानां प्रत्यस्तमयात् । तथाहि - विकल्पो जात्यादिविशेषणसं १५ स्पर्शेनैव प्रवर्त्तते ने शुद्धवस्तूपग्रहणे, न च शब्देनागम्यमानमप्यसाधारणं वस्तु व्यावृत्त्या विशिष्टमित्यभिधातुं शक्यम् । यतः - " शब्देनागम्यमानं च विशेष्यमिति साहसम् । तेन सामान्यमेष्टव्यं विषयो बुद्धि-शब्दयोः " ॥ [ श्लो० वा० अपो० श्लो० ९४] इतश्च सामान्यं वस्तुभूतं शब्दविषयः यँतो व्यक्तीनामसाधारणवस्तुरूपाणामवाच्यत्वान्ना- २० पोह्यता अनुक्तस्य निराकर्तुमशक्यत्वात्, अपोह्येत सामान्यम् तस्य वाच्यत्वात् अपोहानां त्वभावरूपतयाऽपोह्यत्वासम्भवात् तत्त्वे वा वस्तुत्वमेव स्यात् तथाहि यद्यपोहानामपोह्यत्वं भवेत् तदैषामभावरूपत्वं विप्रतिषिद्धं भवेत् प्रतिषेधे च सति अभावैरभावरूपत्वं त्यक्तं स्यात्; ततश्चाभावानामपोहलक्षणानामभावरूपत्यागाद् वस्तुत्वमेव भवेत्, तच्च न शब्दविषयः - यद्वाऽभावानामभावाभावत् न ह्यभावस्वभावा अपोहा अपोह्या युज्यन्ते, वस्तुविषयत्वात् प्रतिषेधस्य; २५ तस्मादश्वादौ गवादेरपोहो भवन् सामान्यस्यैवेति निश्चीयत इति सिद्धमपोह्यत्वाद् वस्तुत्वं सामा न्यस्य । तदुक्तम् १ " यद्यप्यपोहनिर्मुक्ते न वृत्तिः शब्द- लिङ्गयोः । युक्ता तथापि बुद्धिस्तु ज्ञातुर्वस्त्ववलम्बते” ॥ २ एवांशो वा० वा० भ० मां० विना । पृ० ३०३ पं० ११ । वि० प्रतौ तथैव सं० । ४ " न चासाधारणं वस्तु बुद्धौ विपरिवर्तते १९३ श्लो० वा० अपो० श्लो० ९२ । तत्त्वसं० का ० ९५२ पृ० ३०.३ । ३- न वाप्ये भां० म० । “ न चाप्येतद्युक्तम् " - तत्त्वसं० पजि० । न चापि निर्विकल्पत्वात् तस्य युक्ता विशेष्यता” ॥ श्लो० वा० अपो० श्लो० ९३ । तत्त्वसं० का० ९५३ पृ० ३०३ । ५ न शुद्धवस्तुरूप - वि० । “ न च शुद्धवस्तुपरिग्रहेण " - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३०३ पं० २० । ६ तत्त्वसं ० का० ९५४ पृ० ३०३ । ७ " यदा चाऽशब्दवाच्यत्वान्न व्यक्तीनामपोह्यता । तदाऽपोह्येत सामान्यं तस्यापोहाच्च वस्तुता" ॥ श्लो० वा० अपो० श्लो० ९५ । तत्वसं० का ० ९५५ पृ० ३०३ । ८- त्वान्नपोह्यतां अनु- भ० मां० । त्वान्नापोह्येत अनु-आ०।- त्वान्नापोह्येता अनु - वि० व्यक्तीनामसाधारणवस्तुरूपाणामशब्दवाच्यत्वान्न व्यक्तीनामपोह्येत अनु- " प्रमेयक० पृ० १२७ द्वि० पं० ४ । गु० । “यतो ९- भावतयाऽ-भां० मां० वा० बा० विना । ३०४ । १० “ नाऽपोह्यत्वमभावानामभावाभाववर्जनात् । व्यक्तोऽपोहान्तरेऽपोहस्तस्मात् सामान्यवस्तुनः” ॥ श्लो० वा० अपो० श्लो० ९६ । तत्त्वसं० का० ९५६ पृ० ११- प्रतिषेधेन स - वा० बा० । १२- त्यागे व भां०] मां० । १३ नापोह्यत्वमिति शेषः । पोहा - वा० वा० । १५- दन्यादौ वा० वा० । १६ भवेत् भ० मां० वा० वा० विना । १७ - न्यमैवेति आ० कां० ॥ १४- भावाऽ स० त० २५ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ प्रथमे काण्डे - "यदा वा शब्दवाच्यत्वान्न व्यक्तीनामपोह्यता । तदाऽपोह्येत सामान्यं तस्यापोहाच्च वस्तुता” ॥ "नापोह्यत्वमभावानामभावाभाववर्जनात् । व्यक्तोऽपोहान्तरेऽपोहस्तस्मात् सामान्यवस्तुनः " ॥ [लो० वा० अपो० लो० ९५-९६ ] इति । अपि च, अपोहानां परस्परतो वैलक्षण्यमवैलक्षण्यं वा ? तत्राद्ये पक्षे अभावस्यागोशब्दस्याभिधेयस्याभावो गोशब्दाभिधेयः, स चेत् पूर्वोक्तादभावाद् विलक्षणस्तदा भाव एव भवेत् अभावनिवृत्तिरूपत्वाद् भावस्य । न चेद् विलक्षणस्तदा गौरव्यगौः प्रसज्येत तदवैलक्षण्येन तादात्म्यप्रतिपत्तेः । स्यादेतत् गवाश्वादिशब्दः स्वलक्षणान्येव परस्परतो व्यावृत्तान्यपोह्यन्ते नाभावः; १० तेनापोह्यत्वेन वस्तुत्वप्रसङ्गापादनं नानिष्टम्, असदेतत्: यद्यपि सच्छन्दादन्येषु गवादिशब्देषु वस्तुन (नः) पर्वतादेरपोद्यता सिद्ध्यति, सच्छन्दस्य त्वभावाख्याद पोद्यान्नान्यदपोह्यमस्ति असावच्छेदेन सच्छन्दस्य प्रवृत्तत्वात् ततश्च पूर्ववदभावाभाववर्जनाद् असतोऽपोहे वस्तुत्वमेव स्याद् इत्य पोहवादिनोऽभ्युपगम विरुद्धाऽसद्वस्तुत्वप्रसक्तिः । अर्थास्त्वभावस्यापि वस्तुत्वम्, न अभावस्यापि सिं (स्याऽसि ) द्धौ कस्यचिद् भावस्यैवासिद्धेः, १५ अभावव्यवच्छेदेन तस्य भवन्मतेन स्थितलक्षणत्वात् । अभावस्यै वाऽपोद्यत्वे सति वस्तुत्वप्रसङ्गेन स्वरूपासिद्धेरसत्त्वमपि न सिद्ध्यति, तस्य सत्त्वव्यवच्छेदरूपत्वात् सत्त्वस्य च यथोक्तेन प्रकारेणायोगात् । न चात्र "अपोद्यैः स वहिःसंस्थितैर्भिद्यते " 'इत्यादी " अवस्तुत्वादपोहानां नैव भेदः " 'इत्यादौ च ' २० खल्वपोह्यभेदादाधारभेदाद् वाऽपोहानां भेदः, अपि त्वनादिकालप्रवृत्तविचित्रवित १ क्रमेण तत्त्वसं० का० ९५५-९५६ पृ० ३०३-३०४ । २ “अभावस्य च योऽभावः स चेत् तस्माद् विलक्षणः । भाव एव भवेन्नो चंद्र गौरगौस्ते प्रसज्यते” ॥ श्लो० वा० अपो० ० ९७ । तत्त्वसं० का० ९५७ पृ० ३०४ । ३ “अभावस्य अगोशब्दाभिधेयस्याभावः " - तत्त्वसं० पजि० ३०४ पं० २१ । “पक्षे भावस्या गोशब्दाभिधेयस्याभावः " - प्रमेयक० पृ० १२७ द्वि० पं० ८ । ४ " नाभावाः; तेनापोह्यत्वेन तेषां वस्तुत्वप्रसङ्गापादनं नानिटम्"-तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३०४ पं० २६ । ५ " यद्यप्यन्येषु शब्देषु वस्तुनः स्यादपोह्यता । सच्छन्दस्य त्वभावाख्यान्नापत्यं भिन्नमिष्यते" ॥ श्लो० वा० अपो० श्लो० ९८ । तत्त्वसं० का० ९५८ पृ० ३०४ । ६ वस्तुनष्पञ्चैतादे-भां० म० । वस्तुन शर्वतादे - वा० वा० । “वस्तुनः पर्वतादेः”-तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३०५ पं० २ । ७- रुद्धासत् वस्तु-आ० हा ० वि० । ८-धास्तु भावा० वा० । “ तत्राऽसतोऽपि भावत्वमिति क्लेशो महान् भवेत् । तदसिद्धौ न सत्ताऽस्ति न चाऽसत्ता प्रसिध्यति ” ॥ लो० वा० अपो० श्लो० ९९ । तत्त्वसं० का० ९५९ पृ० ३०५ । ९- स्तुत्वम् भा-भां० मां० विना । १० “ ' तदसिद्धौ' तस्याऽभावस्यासिद्धौ” - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३०५ पं० १० । ११ - स्य भावापोह्यत्वे आ० । १२- कारण यो - वा० वा० आ० । १३ न चात्रा पोह्यैस्सद् बहिः संस्थितैर्भिद्यते त्यादाववस्तुत्वादपोहानाम् भ० मां० । न चात्र पोह्येऽस्मबहि संस्थितैर्भिद्यते त्यादा नवतः वस्तुत्वादपोहानाम् कां० । न चात्रापोऽस्म बहि संस्थितैर्भिद्यते त्यादानवतः वस्तुत्वादपोहानाम् गु० भा० डे० । न चात्रापोह्येस्मद्भिः संस्थितैर्भिद्यतेयादवः वस्तुत्वादपोहीनां नैवे भेदः वा० • । न थानपोह्येऽस्म बहि संस्थितै भिद्यतेत्यादावनः वस्तुत्वादपोहानाम् आ० । १४ पृ० १८९ पं० ३ तथा २५ । १५ पृ० १८८ पं० १९ तथा ४० । १६ " यत् पूर्वमुक्तम्- 'अपोः स बहिः संस्थैर्भिद्येत' इत्यादि, यच्चोक्तम्-‘अवस्तुत्वादपोहानां नैव भेदः' इत्यादि, तत्र केचिद् बौद्धाः परिहारमाहुः - न खल्वपोह्यभेदा (दा) धारभेदादू वा अपोहानां भेदः" इत्यादि सर्वमक्षरशः तत्त्वसं० पत्रि० पृ० ३०५ पं० १४-१९ । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । १९५ थार्थविकल्पवासनाभेदान्वयैस्तत्त्वतो 'निर्विषयैरप्यभिन्नविषयालम्बिभिभिन्नैरिव प्रत्ययैर्भिन्नेम्वर्थेषु बाह्येषु भिन्ना इवार्थात्मान इवास्वभावा अप्यपोहाः समारोप्यन्ते; ते चैवं तथा तैः समारोपिता भिन्नाः सन्तश्च प्रतिभासन्ते येन वासनाभेदाद् भेदः सद्रूपता वाऽपोहाना भविष्यति' इत्ययं परिहारो वक्तुं युक्तः, यतो न ह्यवस्तुनि वासना सम्भवति, वासनाहेतोर्निर्विपथप्रत्ययस्यायोगात्; तदभावाद् वितथार्थानां विकल्पानामसम्भवात् आलम्बनभूते वस्तुन्यसति निर्विषयज्ञानायोगेन वासनाधाय- ५ कविज्ञानाऽभावतो न वासना; ततश्च वासनाऽभावात् कुतो वासनाकृतोऽपोहानां भेदः सद्रूपता वा? अतो वाच्याभिमतापोहाभावः। ___तथा, वाचकाभिमतस्यापि तस्याभाव एव, तथापि शब्दानां भिन्नसामान्यवाचिनां विशेषवाचिनां च परस्परतो भेदो वासनाभेदनिमित्तो वा स्यात् वाच्यापोहभेदनिमित्तो वा? ननु प्रत्यक्षत एव शब्दानां कारणभेदाद विरुद्धधर्माध्यासाच्च भेदः प्रसिद्ध एवेति प्रश्नानुपपत्तिः, असदेतत् १० यतो वाचकं शब्दमगीकृत्य प्रश्नः, न च धोत्रज्ञानावसेयः स्वलक्षणात्मा शब्दो वाचकः, सङ्केतकालानुभूतस्य व्यवहारकाले चिरविनष्टत्वात् तस्य न तेन व्यवहार इति न स्वलक्षणस्य वाचकत्वं भवदभिप्रायेण, अविवादश्चात्र । यथोक्तम् "नार्थशब्दविशेषस्य वाच्यवाचकतेष्यते । तस्य पूर्वमदृष्टत्वात् सामान्यं तूपदेक्ष्यते" ॥[ ] इति। १५ तस्माद् वाचकं शब्दमधिकृत्य प्रश्नकरणाददोषः। "तत्र शब्दान्तरापोहे सामान्य परिकल्पिते । तथैवावस्तुरूपत्वाच्छब्दभेदो न कल्प्यते ॥ [श्लो० वा०अपोलो० १०४ ] यथा पूर्वोक्तेन विधिना 'संसृष्टैकत्वनानात्व'-इत्यादिना वाच्यापोहानां परस्परतो भेदो न घटते तथा शब्दापोहानामपि नीरूपत्वान्नासौ युक्तः, यथा च वाचकानां परस्परतो भेदो न सङ्गच्छते एवं २० वाच्यवाचकयोरपि मिथो भेदोऽनुपपन्नः, निःस्वभावत्वात् । न चापोह्यभेदीद् भेदो भविष्यति, 'न "विशेषः स्वतस्तस्य' इत्यादिना प्रतिविहितत्वात् । तदेवं प्रतिक्षायाः प्रतीत्यभ्युपेतबाधा व्यवस्थिता । साम्प्रतं वाच्यवाचकत्वाभावप्रसङ्गापादनादभ्युपेतवाधादिदोषं प्रतिपिपादयिषुःप्रमाणयति"ये अवस्तुनी न तयोर्गम्यगमकत्वमस्ति, यथा खपुष्प-शशशृङ्गयोः, अवस्तुनी च वाच्यवाचकापोहो १ निर्विषयैरपि भेदान्न विषयालम्बिभिन्न प्रत्ययैर्भिन्नेष्ठबाधेपु मिन्ना इवार्थात्मान-वा० बा० । २-न्नेष्वर्थेष्ववाहोषु आ० हा० वि०। ३-वा अपोहाः आ. हा. वि. कां०। ४ ते च तथा मां० । ते चैव तथा वा० वा० । ५ “न चापि वासनाभेदाद् भेदः सद्रूपताऽपि वा । अपोहानां प्रकल्प्येत न ह्यवस्तुनि वासना' ॥ श्लो. वा. अपो. लो. १००। तत्त्वसं० का. ९६० पृ० ३०५। ६-मसंभव एवात आ-भां० मा०। ७-ज्ञानयो-भा० मां। ८-नाभावोतो-वि०। ९ "तथाहि"प्रमेयक पृ० १२७ द्वि० ५० १० । १. "भवद्भिः शब्दभेदोऽपि तन्निमित्तो न लभ्यते । न ह्यसाधारणः शब्दो वाचकः प्रागदृष्टितः" ॥ श्लो० वा० अपो० लो. १०२। तत्त्वसं. का. ९६१ पृ. ३०६ । ११ श्रोतृ-आ० हा० वि०। १२ शब्दोऽवाच-भां० मां। १३-न्यं रूपदेष्यते आ० हा० वा. बा०।-न्यं रूपं नेष्यते वि० । “मामान्यं तूपदेश्यते"-तत्त्वसं० पनि० पृ. ३०६ पं० १७ । द्वादशारनय० लि. प्र. पृ० २८४ द्वि. पं० ८ आ० । “सामान्यं तूपदिश्यते"-प्रमेयक. पृ० १२८ प्र. पं०३। १४ तत्त्वसं० पजि. पृ० ३०६ पं० १६। १५-नव्याकरणा-आ०। १६ तत्त्वसं. का. ९६२ पृ. ३०६। १७ पृ. १८८ पं० २० तथा ४० । १८ "वाचकानां यथा चैवं वाच्य-वाचकयोमिथः । न चाप्यपोह्यभेदेन भेदोऽस्तीत्युपपादितम्"॥ श्लो. वा. अपो० श्लो० १०५ । तत्त्वसं० का० ९६३ पृ. ३०६ । १९-दादभेदो आ० हा० वि०। २. विशेषः स्ततस्त-मां०। २१ पृ. १८९ पं. १ तथा २२ । २२-त्यभ्युपेत्य बा-भां० मां० । २३ "न गम्यगमकत्वं स्यादवस्तुत्वादपोहयोः । भवत्पक्षे यथा लोके खपुष्प-शशशृङ्गयोः" ॥ श्लो. वा. अपो. लो. १०८ । तत्त्वसं. का० ९६४ पृ. ३०६ । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ प्रथमे काण्डेभवतामिति व्यापकविरुद्धोपलब्धिः। ननु च मेघाभावाद् वृष्टयभावप्रतीतेहेतोरनैकान्तिकता, अनु. क्तमेतत् ; यस्मात् तद्विविक्ताकाशाऽऽलोकात्मकं च वस्तु मत्पक्षेत्रापि प्रयोगो(गे)ऽस्त्येव, अभावस्य वस्तुत्वप्रतिपादनात् । भवत्पक्षे तु न केवलमपोहयोर्विवादास्पदीभूतयोर्गम्यगमकत्वं न युक्तम् अपि स्वेतदपि वृष्टिमेघाभावयोर्गम्यगमकत्वमयुक्तमेव । किञ्च, यदेतद् भवद्भिरन्वयोपसर्जनयोर्व्यतिरेक५प्रधानयोः स्वविषयप्रतिपादकत्वं शब्द-लिङ्गयोर्वर्ण्यते, यच्च "अदृष्टेरन्यशब्दार्थे स्वार्थस्यांशेऽपि दर्शनात् । श्रुतेः सम्बन्धसौकर्य न चास्ति व्यभिचारिता"॥ [ इत्यादि वर्णितम् तदप्यपोहाभ्युपगमेऽसङ्गतम् , यतः ___ "विधिरूँपश्च शब्दार्थो येन नाभ्युपगम्यते । न भवेद् व्यतिरेकोऽपि तस्य तत्पूर्वको ह्यसौ” ॥ [ श्लो० वा० अपो० श्लो० ११०] विधिनिवृत्तिलक्षणत्वाद् व्यतिरेकस्येति भावः। किञ्च, नीलोत्पलादिशब्दानां विशेषणविशेष्यभावः सामानाधिकरण्यं च यदेतल्लोकप्रतीत तस्यापह्नवोऽपोहवादिनः प्रसक्तः। यच्चेदं विशेषणविशेष्यभाव-सामानाधिकरण्यसमर्थनार्थमुच्यते "अपोह्यभेदादू भिन्नार्था स्वार्थभेदगती जडा। एकत्वाभिन्नकार्यत्वाद् विशेषणविशेष्यता" ॥[ "तन्मात्राकाङ्क्षणाद् भेदः स्वसामान्येने नोज्झितः। नोपात्तः संशयोत्पत्तेः सैव चैकार्थता तयोः" ॥ [ ] इति, तदप्यनुपपन्नम्। यतः परस्परं व्यवच्छेदा(द्य)व्यवच्छेदकभावो विशेषणविशेष्यभावः; से च बाह्य (वाक्य ) एव व्यवस्थाप्यते यथा 'नीलो(नीलमु)त्पलम्' इति । व्यधिकरणयोरपि यथा 'राज्ञः २० पुरुषः' इत्यादौ । भिन्ननिमित्तप्रयुक्तयोस्तु शब्दयोरेकस्मिन्नर्थे वृत्तिः सामानाधिकरण्यम्; तञ्च 'नीलोत्पलम्' इत्यादौ वृत्तावेव व्यवस्थाप्यते । न च नीलोत्पलादिशब्देषु शबलार्थाभिधायिषु तत्सिद्धिः, शबलार्थाभिधायित्वं च तेषाम् "न हि तत् केवलं नीलं न च के समुदायाभिधेयत्वात्" [ 1 २५ इत्यादिना प्रतिपादितम् । यतः नीलत्वव्युदासेऽनुत्पलव्युदासो नास्ति, नाप्यनुत्पलप्रच्युता. १ "वृष्टिमेघासतोदृष्ट्वा यद्यनैकान्तिकं वदेत् । वस्त्वेवाऽत्रापि मत्पक्षे भवत्पक्षेऽप्यदः कुतः" ॥ श्लो० वा. अपो० श्लो. १०९ । तत्त्वसं० का० ९६५ पृ. ३०७ । २“प्रयोगे"-प्रमेयक० पृ०१२८ प्र०५०५।“मत्पक्षेत्रापि वृष्टिमेघाभावप्रयोगे"-तत्त्वसं० पञ्जि.पृ०३०७५०१०। ३ यथा आ०। ४ अदृष्टेरन्यशब्दार्थस्वार्थ-हा० । अदृष्टैरन्यशब्दार्थे का० । अदृष्टैरन्यशब्दाथै स्वा-वि० । अदृष्टेऽप्यन्यशब्दार्थस्वा-वा. बा०। ५ श्रुते संबन्धसौकार्य आ. हा.वि. का.। श्रुतोः संबन्धसौकर्यम् वा. बा०। ६ तत्त्वसं० पजि० पृ. ३०७ पं० १७॥ ७-रूपस्य श-वा० बा०। ८ तत्त्वसं. का० ९६६ पृ. ३०७ । ९भिन्नार्थाः हा० वि० । भिन्नार्थाऽस्वा-आ० । १० एकत्राभि-आ. हा०वि०। ११ “अपोह्यभेदादू भिन्नार्थाः स्वार्थभेदगतौ जडाः । एकत्राभिन्न कार्यत्वाद विशेषणविशेष्यकाः ॥ तत्त्वसं० पजि. पृ. ३०७ पं० २५। १२-न चोज्झितः वि०। १३-पात्तसं-वा. बा०। १४-शयोत्पत्तिः वि० । १५-व वैका-आ। १६ “साम्ये चैकार्थता तयोः'-तत्त्वसं० पजि. पृ. ३०७ पं० २७ । श्लो० वा. पार्थ. व्या० पृ. ६०८ पं० २४ । १७ “अपोहमात्रवाच्यत्वं यदि चाऽभ्युपगम्यते । नीलोत्पलादिशब्देषु शबलार्थाभिधायिषु"॥ "विशेषणविशेष्यत्व-सामानाधिकरण्ययोः । न सिद्धिर्न ह्यनीलत्वव्युदासेऽनुत्पलच्युतिः"॥ "नापि तत्रेतरस्तस्मान्न विशेष्य-विशेषणे । शब्दयोर्नापि ते स्यातामभिधेयाऽनपेक्षयोः" ॥ श्लोवा० अपो० श्लो० ११५-११६-११। तत्त्वसं. का. ९६७-९६८-९६९ पृ. ३०८। १८-स्परं व्यवच्छेदकभा-भां. मां. विना। १९ “स च वाक्य एव"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ३०८ पं०९। २० “यथा नीलमुत्पलमिति"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ३०८५०१०। २१ तत्त्वसं० पजि. ३०८पं० १४। शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० ४०६ प्र. पं०३। २२-नीलव्यु-आ० । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । १९७ वनीलव्युदास इति नानयोः परस्परमाधाराधेयसम्बन्धोऽस्ति नीलरूप(नीरूप)त्वात् ; न चासति सम्बन्धे विशेषणविशेष्यभावो युक्तः अतिप्रसङ्गात्; अतो युष्मन्मतेनाभाववाचित्वाच्छबलार्थाभिधायित्वासम्भवान्न विशेषणविशेष्यभावो युक्तः। अभिधेयद्वारेणैव हि तद्भिधायिनोः शब्दयोर्विशेषणविशेष्यभाव उपचर्यते, अभिधेये च तस्यासम्भवेऽभिधानेऽपि कुतस्तदारोपः ? सामानाधिकरण्यमपि नीलोत्पलशब्दयोर्न सम्भवति, तद्वाच्ययोरनीलानुत्पलव्यवच्छेदलक्षण- ५ योरपोहयोभिन्नत्वात् । तच्च भवद्भिरेव ___ 'अपोह्यमेदाद भिन्नार्था' इत्यभिधानादवसीयते । प्रयोगः-न नीलोत्पलादिशब्दाः समानाधिकरणव्यवहारविषयाः, भिन्नविषयत्वात्, घटादिशब्दवत्। न च यत्रैव ह्यर्थेऽनुत्पलव्युदासो वर्त्तते तत्रैवानीलव्युदासोऽपीति नीलोत्पलशब्दवाच्ययोरपोहयोरेकस्मिन्नर्थे वृत्तेः अर्थद्वारकं सामानाधिकरण्यं शब्दयोरपीति वक्तुं १० युक्तम् , अपोहयोर्नीरूपत्वेन क्वचिदवस्थानासम्भवतो वास्तवाधेयतायोगाद् वन्ध्यासुतस्येव । भवतु वा नीलोत्पलादिष्वर्थेषु तयोराधेयता तथापि सा विद्यमानापि न शब्दैः प्रतिपाद्यते, यतस्तदेवासाधारणत्वान्नीलोत्पलादि वस्तु न शब्दगम्यम्, स्वलक्षणस्य सर्वविकल्पातीतत्वात् तदप्रतिपत्तौ च तदधिकरणयोरपोहयोस्तदाधेयता कथं ग्रहीतुं शक्या धर्मिग्रहणनान्तरीयकत्वाद् धर्मग्रहणस्य ? न चासाधारणवस्तुव्यतिरेकेण तयोरन्यदधिकरणं सम्भवति भवदभिप्रायेण । न १५ चाप्रतीयमानं सदपि सामानाधिकरण्यव्यवहाराङ्गम् अतिप्रसङ्गात् । न च व्यावृत्तिमद् वस्तु शब्दवाच्यम्-यतो व्यावृत्तिद्वयोपाधिकयोःशब्दयोरेकस्मिन्नपोहवति वस्तुनि वृत्तेःसामानाधिकरण्यं भवेत्-परतन्त्रत्वाद् नीलादिशब्दस्येतरभेदानाक्षेपकत्वात् ; स हि व्यावृत्त्युपसर्जनं तद्वन्तमर्थमाह न साक्षात् ततश्च साक्षादनभिधानात् तद्गतभेदाक्षेपो न सम्भवति, यथा-मधुरशब्देन शुक्लादेः । यद्यपि शुक्लादीनां मधुरादिभेदत्वमस्ति तथापि शब्दस्य साक्षादभिहितार्थगतस्यैव भेदस्याक्षेपे२० सामर्थ्यम् न तु पारतयेणाभिहितार्थगतस्य; ततश्च नीलादिशब्देन तद्गतभेदानाक्षेपात् उत्पलादीनामतद्भेदत्वं स्यात् । अतद्भेदत्वे च न सामान्याधिकरण्यम्; तेन जातिमन्मात्रपक्षे यो दोषः प्रतिपादितो भवता “तद्वतो न वाचकः शब्दः, अस्वतन्त्रत्वात्”[ ] इति स व्यावृत्तिमन्मात्रपक्षेऽपि तुल्यः। तथाहि-जातिमन्मात्रे शब्दार्थे सच्छब्दो जातिस्वरूपोपसर्जनं द्रव्यमाह न साक्षादिति तद्गतघटादिभेदानाक्षेपात् अतद्भेदत्वे सामानाधिकरण्याभावप्रसङ्ग उक्तः; स व्यावृत्ति-२५ मन्मात्रपक्षेऽपि समानः-तत्रापि हि सच्छब्दो व्यावृत्युपसर्जनं द्रव्यमाह न साक्षादिति तद्गतभेदानाक्षेपोऽत्रापि समान एव; को पत्र विशेषः जातिव्या(०)वृत्तिर्जातिमद्या(र्जातिमान् व्या)वृत्तिमानिति। न च लिङ्ग-सङ्ख्या-क्रिया-कालादिभिः सम्बन्धोऽपोहस्यावस्तुत्वाद् युक्तः, एषां वस्तुधर्मत्वात् । न च लिङ्गादिविविक्ता पदार्थः शक्यः शब्देनाभिधातुम् , अतः प्रतीतिबाधाप्रसङ्गः प्रतिज्ञायाः। १ "नीरूपत्वात्"-तत्त्वसं० पजि० पृ० ३०८ पं० १८ । वि. प्रतावपि तथैव संशोधितं दृश्यते। २ “सामानाधिकरण्यं च न भिन्नत्वादपोहयोः । अर्थतश्चैतदिष्येत कीदृश्याधेयता तयोः" ॥ श्लो. वा. अपो० श्लो. ११८ । तत्त्वसं० का० ९७० पृ. ३०८ । ३ भिन्नार्थेत्यभि-भा० मा० विना। ४ पृ० १९६ पं० १४। ५-नीलरूप-वा० बा० विना। ६-गादस्तुतस्यैव-भां० मा० वा. बा. विना। ७ "न चासाधारणं वस्तु गम्यतेऽन्यच्च नास्ति ते । अगम्यमानमैकार्थ्य शब्दयोः क्वोपयुज्यते"॥ श्लो० वा० अपो० श्लो० ११९ । तत्त्वसं• का० ९७१ पृ. ३०९। ८ “अथान्यापोहवद्वस्तु वाच्यमित्यभिधीयते । तत्रापि परतन्त्रत्वाद् व्याप्तिः शब्देन दुर्लभा" ॥ श्लो० वा. अपो० श्लो० १२० । तत्त्वसं० का० ९७२ पृ.३०९। ९-दानापेक्षक-भां० मां०। १०-त्वात् न हि वा. बा०। ११ “अतद्भेदत्वे च सामानाधिकरण्यं न प्रामोति"-तत्त्वसं० पजि० पृ. ३१०५०६। १२ तत्त्वसं० पजि. पृ. ३१० पं० । “जातिमदभिधानेऽपि तद्वतो नाऽखतन्त्रत्वात्' इत्यादिना सामानाधिकरण्यानुपपत्तिर्भिक्षुणा दर्शिता"-श्लो. वा. पार्थ० व्या. पृ० ५९८ पं०७॥ १३ जातिव्यावृत्तिजातिमद्वयावृत्तिमानिति वि.। जातिमद्यावृत्तिमानिति आ० । जातिमाच्यामावत्तिमानिति वा० बा । "को पत्र विशेषः जातिया॑वृत्तिर्जातिमान् व्यावृत्तिमानिति"-तत्त्वसं० पजि.पृ. ३१०५०१२। १४ "लिङ्ग-संख्यादिसंबन्धो न वाऽपोहस्य विद्यते । व्यक्तेरव्यपदेश्यत्वात् तद्वारेणापि नास्त्यसौ" ॥ श्लो. वा. अपो० श्लो. १३५ । तत्त्वसं० का० ९७३ पृ. ३१०। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ प्रथमे काण्डेन च व्यावृत्त्याधारभूताया व्यक्तेर्वस्तुत्वाल्लिङ्गादिसम्बन्धात् तद्वारेणापोहस्याप्यसौ व्यवस्थाप्यः, व्यक्त निर्विकल्पकज्ञानविषयत्वाल्लिङ्ग-सङ्ख्यादिसम्बन्धेन व्यपदेष्टुमशक्यत्वात् अपोहस्य तद्द्वारेण तद्यवस्थाऽसिद्धेः। अव्यापित्वं चापोहशब्दार्थव्यवस्थायाः, ‘पचति' इत्यादिक्रियाशब्देष्यन्यव्यवच्छेदाप्रतिपत्तेः। ५यथा हि घटादिशब्देषु निष्पन्नरूपं पटादिकं निषेध्यमस्ति न तथा 'पचति' इत्यादिषुः प्रतियोगिनो निष्पन्नस्य कस्यचिदप्रतीतेः । अथ मा भूत् पर्युदासरूपं निषेध्यम्, 'न पचति' इत्येवमादि प्रेसज्यरूपं 'पचति' इत्यादेर्निषेध्यं भविष्यति, असदेतत् : 'तन्न (न न) पचति' इत्येवमुच्यमाने प्रसज्यप्रतिषेधस्य निषेध एवोक्तः स्यात्, ततश्च प्रतिषेधद्वयस्य विधिविषयत्वाद् विधिरेव शब्दार्थः प्रसक्तः। किञ्च, 'पति' इत्यादौ साध्यत्वं प्रतीयते; यस्यां हि क्रियायां केचिदवयवा निष्पन्नाः केचिदनिष्पन्नाः १०सा पूर्वापरीभूतावयवा क्रिया साध्यत्वप्रत्ययविषयः, तथा, 'अभूत्' 'भविष्यति' इत्यादौ भूतादि कालविशेषप्रतीतिरस्ति, न चापोहस्य साध्यत्वादिसम्भवः निप्पन्नत्वादभावैकरसत्वेन; तस्मादपोहशब्दार्थपक्षे साध्यत्वप्रत्ययो भूतादिप्रत्ययश्च निर्निमित्तः प्राप्नोतीति प्रतीतिवाधा । न च विध्यार्दीवन्यापोहप्रतिपत्तिरस्ति, पर्युदासरूपस्य निषेध्यस्य तत्राभावात् । 'न न पचति देवदत्तः' इत्यादी च ना(ओ)ऽपरेण नञा योगे नवापोहः, प्रतिषेधद्वयेने विधेरेव संस्पर्शात् । अपि च, चादीनां १५ निपातोपसर्गकर्मप्रवचनीयानां पदन्यमिष्टम् , न चैपां नत्रा सम्बन्धोऽस्ति असम्बन्धवचनत्वात् । तथाहि-यथा हि घटादिशब्दानाम् 'अघटः' इत्यादौ नत्रा सम्बन्धेऽर्थान्नरस्य पटादेः परिग्रहात् तावच्छेदेने नत्रा रहितस्य घटशब्दस्यार्थोऽवकल्पते न तथा चादीनां नत्रा सम्बन्धोऽस्ति, न चाँसम्बन्ध्यमानस्य नञाऽपोहनं युक्तम् । अतश्चादिप्वपोहाभावः । अपि च, कल्मायुवर्णवच्छवलैक्यरूपो वाक्यार्थ इति नान्यनिवृत्तिस्तत्त्वेन व्यपदेष्टुं शक्या, निप्पन्नरूपस्य प्रतियोगिनोऽप्रतीतेः । २०यो तु 'चैत्र! गामानय' इत्यादावचैत्रादिव्यवच्छेदरूपाऽन्यनिवृत्तिरवयवपरिग्रहेण वर्ण्यते सा पदार्थ एव स्यात् न वाक्यार्थः; तस्यावयवस्येन्थं विवेकुमशक्यत्वादित्यव्यापिनी शब्दार्थव्यवस्था। १-वृत्ताधारभूतायां वा० वा. आ. हा० वि० । २ "आख्यातेषु च नान्यस्य निवृत्तिः संप्रतीयते । न पर्युदासरूपं हि निषेध्यं तत्र विद्यते"॥ श्रो० वा. अपो० श्लो. १३९ । तत्त्वसं. का. ९७४ पृ. ३१० । ३ "प्रसज्यरूपं 'पचति' इत्यादेनिषेध्यं भविष्यतीत्याह-न न पचति' इत्येवमुच्यमाने"-तत्त्वसं० पनि० पृ० ३११ पं०४-१०। ४ “न नेति ह्युच्यमानेऽपि निषेधस्य निषेधनम् । पचतीत्यनिषिद्धं तु स्वरूपेणावतिष्ठते"॥ ओ० वा. अयो० श्लो० १४० । तत्त्वसं. का. ९७५ पृ. ३११ । ५ "साध्यत्वप्रत्ययश्चात्र तथा भूतादिरूपणम् । निश्पन्नत्वादपोहस्य निर्निमित्तं प्रसज्यते ॥ श्लो. वा० अपो० श्लो० १४१ । तत्त्वसं. का० ९७६ पृ० ३११ । ६ “यस्याः क्रियायाः"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ३११५० १३ । ७ "विध्यादावर्थराशौ च नान्यापोहनिदर्शनम् । नत्रश्चापि नया युक्तादपोहः कीदृशो भवेत् ॥ श्लो. वा. अपो० श्लो० १४२ । तत्त्वसं० का. ९७७ पृ. ३११ । ८ “आदिशब्देन निमन्त्रणाऽऽमन्त्रणादीनां ग्रहणम्"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ३११ पं० २६ । “निमन्त्रणादीनां विभक्त्यर्थानां च कर्मादीनामादिशब्देन ग्रहणमिति"-श्लो० वा. पार्थ. व्या० पृ० ६०५५०८। ९ निषेधस्य मां० । १० "नओऽपरेण ना"-तत्त्वसं० पजि० पृ. ३११ पं० २८ । शास्त्रवा० स्याद्वादक, पृ० ४०७ द्वि. पं. ९। ११ -न विधिरेव वा. विना०। १२ असंबद्धव-भां० मां । “असत्त्ववचनत्वात्"-तत्त्वसं० पजि० पृ०३१२५०३ । शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ०४०७ द्वि०पं०१४ । १३-देनाभां०मां. विना। १४-स्यार्थी विकल्प्यते भां०मां। १५ “चादीनामपि नभ्योगो नैवास्तीत्यनपोहनम् । वाक्यार्थोऽन्यनिवृत्तिश्च व्यपदेष्टुं न शक्यते"॥ श्लो. वा. अपो० श्लो. १४३ । तत्त्वसं० का० ९७८ पृ. ३११ । १६ “न तथा चादीनाम् 'न च'इत्यादिना"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ३१२ पं०६। १७ चासंबध्यमान-वा० बा०। १८ “किञ्च, वाक्यार्थः कल्माषवर्णवच्छबलैकरूप इष्यते"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ३१२ पं० । शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ. ४०८ प्र. पं०३। १९ यत्तु भां० मा० । शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ.४०८ प्र.५०३। २. "तस्यानवयवस्येत्थं विवेक्तुमशक्यत्वात्"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ३१२५ १०। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - तत्संबन्धयोर्मीमांसा । १९९ किचे, 'न अन्यापोहः अनन्यापोहः' इत्यादौ शब्दे विधिरूपादन्यद् वाच्यं नोपलभ्यते, प्रतिपेद्वयेन विधेरेवावसायात् । अत्र च 'नञश्चापि नत्रा योगे' इत्यनेनार्थस्य गतत्वेऽपि 'अन्यापोहः शब्दार्थः' इत्येवंवादिनां स्ववचनेनैव विधिरिष्ट इति ज्ञापनार्थ पुनरुक्तम् । तथाहि - अनन्यापोहशब्दस्यान्यापोहः शब्दार्थो व्यवच्छेद्यःः स च विधेर्नान्यो लक्ष्यते । ये च प्रमेय-ज्ञेयाऽभिधेयादयः शब्दास्तेषां न किञ्चिदपोह्यमस्ति सर्वस्यैव प्रमेयादिस्वभावत्वात् । तथाहि - यन्नाम किञ्चिद् ५ व्यवच्छेद्यमेषां कल्प्यते तत् सर्वे व्यवच्छेद्याकारेणालम्ब्यमानं ज्ञेयादिस्वभावमेवावतिष्ठते, न ह्यविषयीकृतं व्यवच्छेत्तुं शक्यम्; अतोऽपोह्याभावादव्यापिनी व्यवस्था । } ननु हेर्तुमुखे निर्दिष्टम् “अज्ञेयं कल्पितं कृत्वा तद्व्यवच्छेदेन ज्ञेयेऽनुमानम्" [ हेतु० इति तत् कथमव्यापित्वं शब्दार्थव्यवस्थायाः, नैतत् यतो यदि ज्ञेयमप्यज्ञेयत्वेनापोह्यमस्य कल्प्यते तदा वरं वस्त्वेव विधिरूपं शब्दार्थत्वेन कल्पितं भवेत् यदध्यवसीयते लोकेन; एवं ह्यदृशध्यारोपो १० दृष्टापलापश्च न कृतः स्यात् । [ विकल्पप्रतिविम्बार्थवादिमतमुल्लिख्य तन्निरसनम् ] ये त्वाहु:- " विकल्पप्रतिबिम्बमेव सर्वशब्दानामर्थः, तदेवें चाभिधीयते व्यवच्छिद्यत इति च" [ [] तेऽपि न युक्तकारिणः । "निराकारा बुद्धिः आकारवान् बाह्योऽर्थः - " स वहिर्देशसम्बन्धी विस्पष्टमुपलभ्यते” [ १५ ] इत्यादिना ज्ञानाकारस्य निषिद्धत्वात् अन्तरस्य बुद्ध्यारूढस्याकारस्यासत्त्वात् तदवसायकत्वं शब्दानामयुक्तम् अत एव तस्यापोह्यत्वमप्यनुपपन्नम् । ये 'म्' 'इत्थम्' इत्यादयः शब्दास्तेषामपि न किञ्चिदपोह्यम्, प्रतियोगिनः पर्युदासरूपस्य कस्यचिदभावात् । अँथ 'नैवम्' इत्यादिप्रसज्यरूपं प्रतिषेध्यमत्रापि भविष्यति, नः उकोत्तरत्वात् । "न नैवमिति निर्देशे निषेधस्य निषेधनम् । एवमित्यनिषेध्यं तु स्वरूपेणैव तिष्ठति ॥ " [ २० 1 इति न्यायात् । १ " अनन्या पोहशब्दादौ वाच्यं न च निरूप्यते । प्रमेय-ज्ञेयशब्दादेरपोह्यं कुत एव तु " ॥ श्लो० वा० अपो० श्लो० १४४ । तत्त्वसं० का० ९७९ पृ० ३११ । २ नान्यापोह इत्यादौ वा० बा० । प्रमेयक० पृ० १२८ प्र० पं० ८ । शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०८ प्र० पं० ५ । ३ अनन्यापोहः शब्दार्थो व्यवच्छेद्यः आ० । “अन्यापोहशब्दस्य अनन्यापोहशब्दार्थो व्यवच्छेद्यः”तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३१२ पं० १६ । ४ प्रमेयक० पृ० १२६ प्र० पं० ५ । शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०८ प्र० पं० ७ । ५ " अव्यापिन्यपोहव्यवस्था " - शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०८ प्र० पं० ७। ६- तुमुखेन नि-कां० । हेतुमुखनामा ग्रन्थः । ७ " यत्तु अत्र दिङ्नागेनोक्तम्- “अज्ञेयं कल्पितं कृत्वा ज्ञेयशब्दः प्रवर्तते" इति" - लो० वा० पार्थ० व्या० पृ० ६०५ पं० ९ । ८ " अपोह्यकल्पनायां तु वरं वस्त्वेव कल्पितम्” । लो० वा० अपो० श्लो० १४५ । तत्त्वसं ० का ० ९८० पृ० ३१२ । ९ कल्पते आ० हा० । भ० मां० विना । १२ तत्त्वसं० प० पृ० ३१३ पं० ३ । वा० अपो० लो० १४५ । तत्त्वसं० का ० ९८० पृ० ३१२ । १४ “स बहिर्देशसंवद्ध इत्यनेन निरूप्यते । ग्राह्याकारस्य संवित्तिग्रहकानुभवादृते " ॥ श्लो० वा० शून्य० श्लो० ७९ । १० - रूपशब्दा-भां० मां० विना । ११- व वाभि१३ “ज्ञानाकारनिषेधाच नान्तरार्थाभिधेयता" ॥ श्लो० १५ - स्यासंभवत्वात् तद-कां० । १६ " न चाप्यपोता तस्मान्नापोहस्तेषु सिध्यति । एवमित्यादिशब्दानां नवाऽपोह्यं निरूप्यते " ॥ १७ " न हि अनेव नामेति किञ्चिदस्ति, ति" - लो० वा० पार्थ० व्या० पृ० ६०५ कुमारिलोक्तमुपन्यस्तम्” - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० श्लो० वा० अपो० श्लो० १४६ | तत्त्वसं० का ० ९८१ पृ० ३१२ । प्रकारवचनत्वाद् ' एवं 'शब्दस्य सर्वस्य च प्रकारभाक्त्वे नैवंभावाऽयोगादिपं० १५ । १८ पृ० १९८ पं० ७ तथा पं० २७ । १९ “ एतत् सर्व ३१३ पं० १३ । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० प्रथमे काण्डे[अपोहपक्षे उद्दयोतकरकृतानामाक्षेपाणामुपन्यासः ] उद्दयोतकरस्त्वाह-"अपोहः शब्दार्थः इत्ययुक्तम् अव्यापकत्वात् । यत्र द्वैराश्यं भवति तेत्रे तरप्रतिषेधादितरः प्रतीयते, यथा-'गौः' इति पदाद् गौः प्रतीयमानः अगौनिषिध्यमानः, न पुनः सर्वपद एतदस्ति, न ह्यसर्व नाम किश्चिदस्ति यत् सर्वशब्देन निवर्तेत । अथ मन्यसे एकादि ५असर्व तत् सर्वशब्देन निवर्तत इति, तन्न; स्वार्थापवाददोषप्रसङ्गात् । एवं ह्येकादिव्युदासेन प्रवर्त्तमानः सर्वशब्दोऽङ्गप्रतिषेधादङ्गव्यतिरिक्तस्याङ्गिनोऽनभ्युपगमादनर्थकः स्यात् । अङ्गशब्देन ह्येकदेश उच्यते; एवं सति सर्वे समुदायशब्दा एकदेशप्रतिषेधरूपेण प्रवर्त्तमानाः समुदायिव्यतिरिक्तस्यान्यस्य समुदायस्याऽनभ्युपगमादनर्थकाः प्राप्नुवन्ति । ह्यादिशब्दानां तु समुच्चयविषयत्वादे कादिप्रतिषेधे प्रतिषिध्यमानार्थानामसमुच्चयत्वादनर्थकत्वं स्यात्" [अ० २ आ० २ सू० ६७ १०न्यायवा० पृ० ३२९ पं० १२-२३] "यश्चायमगोऽपोहोऽगौर्न भवतीति गोशब्दस्यार्थः; स किञ्चिद् भावः, अथाभावः? भावोऽपि सन् किं गौः, अथागौरिति। यदि गौः नास्ति विवादः।अथागौः, गोशब्दस्यागौरर्थ इत्यतिशब्दार्थकौशलम् । अथाभावः, तन्न युक्तम् ; प्रैष-सम्प्रतिपत्योरविषयत्वात् ; न हि शब्दश्रवणादभावे प्रैषः-प्रतिपादकेन श्रोतुरर्थे विनियोगः-प्रतिपादकधर्मः, संम्प्रतिपत्त(त्ति)श्च-'श्रोतृधर्मो-भवेत्।अपि च, १५शब्दार्थः प्रतीत्या प्रतीयते, न च गोशब्दादभावं कश्चित् प्रतिपद्यते" [न्यायवा० पृ० ३२९ पं०५-११] किञ्च, "क्रियारूपत्वादपोहस्य विषयो वक्तव्यः । तत्र 'अगौर्न भवति' इत्ययमपोहः किं गोविषयः, अथागोविषयः ? यदि गोविषयः कथं गोर्गव्येवाऽभावः ? अथागोविषयः कथमन्य विषयादपोहादन्यत्र प्रतिपत्तिः, न हि खदिरे छिद्यमाने पलाशे छिदा भवति । अथागोर्गवि प्रतिषेधो 'गौरगौन भवति' इति, केनागोत्वं प्रसक्तं यत् प्रतिषिध्यत इति" [न्यायवा० पृ० २०३२९ पं० २४-पृ० ३३० पं०४] १ "साम्प्रतं 'सर्वशब्दस्य' इत्यादिनोइयोतकरोक्तमपोहदूषणमाशङ्कते"-तत्त्वसं० पञ्जि० पृ. ३१३ पं० १३। "सर्वशब्दस्य कश्चार्थो व्यवच्छेद्यः प्रकल्प्यते । नाऽसर्व(व)नाम किञ्चिद्धि भवेद् यस्य निराक्रिया"॥ "एकाद्यसमिति चेदर्थापोहः प्रसज्यते । अङ्गानां प्रतिषिद्धत्वादनिष्टेश्चाङ्गिनः पृथक् ॥ “एवं समूहशब्दार्थे समुदायिव्यपोहतः । अन्यानिष्टेश्च सर्वेऽपि प्राप्नुवन्ति निरर्थकाः" । "द्वयादिशब्दा इहेष्टाश्च ये समुच्चयगोचराः । एकादिप्रतिषेधेन न भवेयुस्तथाविधाः" ॥ "नागौरिति च योऽपोहो गोशब्दस्यार्थ उच्यते। स किं भावोऽथवाऽभावो भावो गौर्वाऽथवाऽप्यगौः"॥ "गौश्चन्नास्ति विवादोऽयमर्थस्तु विधिलक्षणः । अगौ\शब्दवाच्यश्चेदतिशब्दार्थकौशलम्" ॥ "अभावोऽपि न युक्तोऽयं प्रैषादीनामसंभवात् । न हि गोशब्दतः कश्चिदभावं प्रतिपद्यते"॥ तत्त्वसं० का० ९८२-९८३-९८४-९८५-९८६-९८७-९८८ पृ. ३१३ । २ “तत्रेतरप्रतिषेधादितरत् प्रतीयते"-तत्त्वसं० पजि० पृ० ३१४ पं० ३। ३ “अगौनिषेध्यमानः"-तत्त्वसं. पजि० पृ. ३१४ पं० ३। ४-पर्यंत भां० मा०। ५-यत्वादाकाशा(देकदेशा)दि-वा. बा. विना । -यत्वादाकाशादिप्रतिषिध्यमाना-भां० मा० विना। ६-स्यार्थः किञ्चि (किंस्वित्) आ० हा०। ७ “स किं भावः अथाऽभावः'-न्यायवा० पृ. ३२९ पं० ६ । तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ३१४ पं० १२। ८ इत्यतिसंशब्दा-मा० । इत्यादिशब्दा-बा०। ९ “संप्रतिपत्तिः श्रोतृधर्मः"-तत्त्वसं. पजि. पृ.३१४ पं०१७॥ १० श्रोत्रध-भा. मा. विना । श्रौत्रध-वि०। ११ “यदि गौर्विषयः”-तत्त्वसं० पजि० पृ० ३१४ पं० २१ । १२ “नागौर्गोरिति शब्दार्थः कस्माच्चापोह इष्यते । केन ह्यगोत्वमासक्तं गा(गो)यनैतदपोत्यते" ॥ तत्त्वसं. का. ९८९ पृ. ३१४ । सावत ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मोमासा । २०१ "इतश्चायुक्तोऽपोहः विकल्पानुपपत्तेः । तथाहि-योऽयमगोरपोहो गवि स किं गोव्यतिरिक्तः, आहोश्विव्यतिरिक्तः ? यदि व्यतिरिक्तः स किमाश्रितः, अथानाश्रितः? यद्याश्रितस्तदाऽऽश्रितत्वाद् गुणः प्राप्तः, ततश्च-गोशब्देन गुणोऽभिधीयते 'न गौः' इति-गौस्तिष्ठति' 'गौर्गच्छति' इति न सामानाधिकरण्यं प्राप्नोतीति । अथानाश्रितस्तदा केनाथन 'गोरगोपोहः' इति षष्ठी स्यात् ? अथाव्यतिरिक्तस्तदा गौरेवासाविति न किञ्चित् कृतं भवति" [ न्यायवा० पृ० ३३० पं०८-१४ ] ५ ___ "अयंचापोहःप्रतिवस्त्वेकः, अनेको वेति वक्तव्यम् । यद्येकस्तदानेकगोद्रव्यसम्बन्धी गोत्वमेवासौ भवेत् । अथानेकस्ततः पिण्डवदानन्त्यादाख्यानानुपपत्तेरवाच्य एव स्यात्" [न्यायवा० पृ० ३३० पं०१५-१७ ] किच, "इदं तावत् प्रष्टव्यो भवति भवान्-किमपोहो वाच्यः, अथावाच्य इति । वाच्यत्वे विधिरूपेण वाच्यः स्यात्, अन्यव्यावृत्त्या वा? तत्र यदि विधिरूपेण तदा नैकान्तिकः शब्दार्थः 'अन्यापोहः शब्दार्थः' इति । अथान्यव्यावृत्त्येति पक्षस्तदा तस्याप्यन्यव्यवच्छेदस्यापरेणा-१० न्यव्यवच्छेदरूपेणाभिधानम् तस्याप्यपरेणेत्यव्यवस्था स्यात् । अथावाच्यस्तदा 'अन्यशब्दार्थापोहं शब्दः करोति' इति व्याहन्येत" [न्यायवा० पृ० ३३० पं० १८-२२] आचार्यदिग्नागोक्तम्-"सर्वत्राभेदादाश्रयस्यानुच्छेदात् कृत्स्नार्थपरिसमाप्तेश्च यथाक्रमं जातिधर्मा एकत्व-नित्यत्व-प्रत्येकपरिसमाप्तिलक्षणा अपोह एवावतिष्ठन्ते; तस्माद् गुणोत्कर्षादर्थान्तरापोह एव शब्दार्थः साधुः" [ ] इत्येतदाशय कुमारिल उपसह(संहर)नाह- १५ "अपि चैकत्व-नित्यत्व-प्रत्येकसमवायित्वाः (ताः)। निरूपाख्येष्वपोहेषु कुर्वतोऽसूत्रकः पट:"॥ "तस्माद् येष्वेव शब्देषु नञ्योगस्तेषु केवलम् । भवेदन्यनिवृत्त्यंशः स्वात्मैवान्यत्र गम्यते” ॥ [श्लो० वा० अपो० श्लो० १६३-१६४] 'स्वात्मैव' इति स्वरूपमेव विधिलक्षणम् । 'अन्यत्र' इति नना रहिते । तन्नापोहः शब्दार्थ इति २० भट्टोहयोतकरादयः। १ "अगौरपोहो यश्चायं गवि शब्दार्थ उच्यते । स किं गोव्यतिरिक्तो वाऽव्यतिरिक्त उपेयते" ॥ “विभिन्नोऽप्याश्रितो वा स्यादथवा स्यादनाश्रितः । आश्रितत्वे गुणः प्राप्तो न द्रव्यवचनं ततः" ॥ "अतो(s)गौरिति शब्देन गुणमात्राभिधानतः। सामानाधिकरण्यं स्यान गौर्गच्छति तिष्ठति ॥ "अथाऽनाश्रित एवायं यद्यर्थ(षष्टयर्थ)स्तस्य को भवेत् । येनासौ प्रतिषेधाय गौरिति व्यपदिश्यते" ॥ “अथ चाऽव्यतिरिक्तोऽयमन्यापोहस्त्वयेष्यते । गौरेवायमतः प्राप्तः किमुक्तमधिकं ततः"॥ तत्त्वसंका. ९९०-९९१-९९२-९९३-९९४ पृ. ३१४-३१५ । २-युक्तेऽपोह्ये विकल्पा-वा. बा. विना। ३-यते तेनागौरिति-बा०। ४-स्तथा भां० मां० विना । ५ "प्रतिभावमपोहोऽयमेकोऽनेकोऽपि वा भवेत् । यद्यकोऽनेकगोयुक्तो गोत्वमेव भवेदसौ"॥ "अनेकत्वेऽपि चानन्त्यं पिण्डवत् संप्रयुज्यते । तेन भेदवदेवाऽस्य वाच्यता नोपयुज्यते" ॥ तत्त्वसं० का० ९९५-९९६ पृ० ३१५ । ६ “अन्यापोहश्च किं वाच्यः किं वाऽवाच्योऽयमिष्यते । वाच्योऽपि विधिरूपेण यदि वाऽन्यनिषेधतः" ॥ "विध्यात्मनाऽस्य वाच्यत्वे त्याज्यमेकान्तदर्शनम् । सर्वत्राऽन्यनिरासोऽयं शब्दार्थ इति वर्णितम् ॥ “अथाऽपोहव्युदासेन यद्यपोहोऽभिधीयते । तत्र तत्रैवमिच्छायामनवस्था भवेत् ततः" ॥ "अथाऽप्यवाच्य एवायं यद्यपोहस्त्वयेष्यते । तेनाऽन्यापोहकृच्छब्द इति बाध्येत ते वचः" ॥ तत्त्वसं० का० ९९७-९९८-९९९-१००० पृ० ३१५-३१६ । ७ "एतत् सर्वमुझ्योतकरेणोक्तमुपन्यस्तम् तत्राचार्यदिग्नागेनोक्तम्"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ. ३१६ पं० १२ । ८ “योऽपि जातिधर्मातिदेशोऽपोहे कृतः "जातिधर्मव्यवस्थितेः” इति, सोऽयुक्तः"-श्लो० वा. पार्थ० व्या० पृ० ६११ पं० १४ । ९ उपहसन्नाह भां० मा० । “उपसंहरनाह"-तत्त्वसं० पजि० पृ. ३१६ पं० १५ । “उपसंहरति"-श्लो० वा. पार्थ० व्या० पृ०६११५० १५। १०-मवायिनि । वा. बा. विना। ११ तत्त्वसं. का० १००१ पृ. ३१६ । १२ तत्त्वसं० का० १००२ पृ० ३१६ । स० त० २६ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ प्रथमे काण्डे[ स्वपक्षाक्षेपेषु प्रतिविधातव्येषु पूर्वम् अपोहवादिकृतं स्वमतस्पष्टीकरणम् ] अत्र सौगताः प्रतिविदधति-द्विविधोऽस्माकमपोहः पर्युदासलक्षणः प्रेसह्यप्रतिषेधलक्षणश्च । पर्युदासलक्षणोऽपि द्विविधः-बुद्धिप्रतिभासोऽर्थेष्वनुगतैकरूपत्वेनाध्यवसितो बुद्ध्यात्मा, विजातीयव्यावृत्तवलक्षणार्थात्मकश्च । तंत्र यथा हरीतक्यादयो बहवोऽन्तरेणापि सामान्यलक्षणमेकमर्थ ५ ज्वरादिशमनं कार्यमुपजनयन्ति तथा शाबलेयादयोऽप्यर्थाः सत्यपि भेदे प्रकृतकाकारपरामर्शहेतवो भविष्यन्त्यन्तरेणापि वस्तुभूतं सामान्यम् । तदनुभवबलेन यदुत्पन्नं विकल्पज्ञानं तत्र यदाकारतयाँऽर्था(र्थ)प्रतिबिम्बकं ज्ञानादभिन्नमाभाति तत्र 'अन्यापोहः' इति व्यपदेशः। न चासावर्थाभासो ज्ञानतादात्म्येन व्यवस्थितः सन् बाह्यार्थाभावेऽपि तस्य तत्र प्रतिभासनाद् बाह्यकृतः। न चापोहव्यपदेशस्तत्र निर्निमित्तः, मुख्य-गौणभेदभिन्नस्य निमित्तस्य सद्भावात् । तथाहि१० विकल्पान्तरारोपितप्रतिभासान्तरोद्भावन(प्रतिभासान्तराद् भेदेन) स्वयं प्रतिभासनात् मुख्यस्तत्र तद्यपदेशः 'अपोह्यत इत्यपोहः अन्यस्मादपोहः अन्यापोहः' इति व्युत्पत्तेः । उपचारात् तु त्रिभिः कारणैस्तत्र तद्यपदेशः-(१)कारणे कार्यधर्मारोपाद् वा अन्यव्यावृत्तवस्तुप्राप्तिहेतुतया, (२) कार्ये वा कारणधर्मोपचारात् अन्यविविक्तवस्तुद्वारायाततया, (३) विजातीयापोढपदार्थन सहैक्येन भ्रान्तः प्रतिपत्तृभिरध्यवसितत्वाञ्चेति । अर्थस्तु विजातीयव्यावृत्तत्वाद् मुख्यतस्तद्यपदेशभाक् । १५ प्रसज्यप्रतिषेधलक्षणस्त्वपोहः "प्रसज्यप्रतिषेधस्तु गौरगौन भवत्ययम् । इति "विस्पष्ट एवायमन्यापोहोऽवगम्यते" ॥ [ तत्त्वसं० का० १०१० ] १ "तथाहि-द्विविधोऽपोहः पर्युदास-निषेधतः। द्विविधः पयुदासोऽपि वुद्धयात्माऽर्थात्मभेदतः"॥ तत्त्वसं० का० १००४ पृ० ३१६ । २ प्रसज्य-कां०। ३ व्यावृत्त्यस्व-वा० बा० विना। ४-स्वलक्षणमोत्मकश्च वा० वा० । “विजातीयव्यावृत्तमर्थस्खलक्षणमित्यर्थः"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ०३१७ पं० ४ । “विजातीयव्यावृत्तसर्वस्खलक्षणम्"-स्याद्वादर० पृ० ३४९ द्वि. पं० १ । शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०१ द्वि० पं०९। ५ “एकप्रत्यवमर्शस्य य उक्ता हेतवः पुरा । अभयादिसमा अर्थाः प्रकृत्यैवान्यमेदिनः॥ "तानुपाश्रित्य यद् ज्ञाने भात्यर्थप्रतिबिम्बकम् । कल्पकेऽर्थात्मताऽभावेऽप्यर्था इत्येव निश्चितम्" ॥ तत्त्वसं० का० १००५-१००६ पृ० ३१७ । ६ "प्रकृत्यैकाकारप्रत्यवमर्शस्य हेतवः"-तत्त्वसं० पजि० पृ. ३१७ पं० १३ । ७-याऽर्थापत्तिबिंबकं वा. बा० ।-याऽर्थप्रतिबन्धकं भां० मां० ।-याऽर्थाप्रतिबन्धकं हा० वि० । “तत्र यदाकारतयाऽर्थप्रतिबिम्बकमर्थाभासो भाति"-तत्त्वसं० पक्षि० पृ. ३१७ पं० १६। प्रमेयक. पृ० १२८ द्वि० पं०१। स्याद्वादर० पृ. ३४९ द्वि० पं०३ । शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ०४०१ द्वि. पं० १२। ८ न चासामर्थ्याभावो ज्ञानावतदात्म्येनाव्यवस्थितः सन्नाह्यार्थाभावेऽपि तस्य तत्र प्रतिभासनाद्वाह्यकृतः वा० बा० । ९ “प्रतिभासान्तराद् मेदादन्यव्यावृत्तवस्तुनः। प्राप्तिहेतुतयाऽश्लिष्टवस्तुद्वारा गतेरपि ॥ "विजातीयपरावृत्तं तत् फलं यत् स्खलक्षणम् । तस्मिन्नध्यवसायाद्वा तादात्म्येनाऽस्य विप्लुतैः" ॥ "तत्राऽन्यापोह इत्येषा संज्ञोक्ता सनिबन्धना । खलक्षणेऽपि तद्धतावन्यविश्लेषभावतः" ॥ तत्त्वसं० का० १००७-१००८-१००९-पृ० ३१७-३१८ । १०-प्रतिभासान्तरोद्भावनं स्वयं हा०वि० । “विकल्पान्तरारोपितप्रतिभासान्तराद् मेदेन खयं प्रतिभासनाद मुख्यः"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ. ३१७ पं० २७ । स्याद्वादर० पृ. ३४९ द्वि० ५० ५। ११ उपचारस्तु बा०। १२ अन्यन्यवि-आ० का। १३-यापोहपदार्थ-मां० । “विजातीयापोहपदार्थेन"-तत्त्वसं० पजि० पृ० ३१८ पं०६। १४-तत्वास्वेति आ० हा० वि० वा. बा० । १५ अश्वस्तु बा०। १६-सह-मां०। स्याद्वादर. पृ. ३४९ द्वि. पं. ७ । शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ.४०१ द्वि. पं. १३ । १७ विशिष्ट वा० बा० विना। १८ तत्त्वसं० पृ. ३१८ शब्दार्थपरीक्षा । .५" वयापो १५ ०१. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २०३ तत्र य एव हि शाब्दे ज्ञाने साक्षाद् भासते स एवं शब्दार्थो युक्तः । न चात्र प्रसज्यप्रतिषेधावसायः, वाच्याध्यवसितस्य बुद्ध्याकारस्य शब्दजन्यत्वात् । नापीन्द्रियज्ञानवद् वस्तुस्वलक्षणप्रतिभासः, किं तर्हि ? बाह्यार्थाध्यवसायिनी केवलशाब्दी बुद्धिरुपजायते तेन तदेवार्थप्रतिबिम्बकं शाब्दे ज्ञाने साक्षात् तदात्मतया प्रतिभासनाच्छब्दार्थो युक्त इति अपोहत्रये प्रथमोऽपोहव्यपदेशमासादयति। __यश्चापि शब्दस्यार्थेन सह वाच्यवाचकभावलक्षणसम्बन्धः प्रसिद्धो नासौ कार्यकारणभावादन्योऽवतिष्ठते, बाह्यरूपतयाऽध्यवसितस्य बुझ्याकारस्य शब्दजन्यत्वाद् वाच्यवाचकलक्षणसम्बन्धः कार्यकारणभावात्मक एव; तथा च शब्दस्तस्य प्रतिविम्बात्मनो जनकत्वाद् वाचक उच्यते प्रतिबिम्बं च शब्दजन्यत्वाद् वाच्यम् । ['निषेधमात्रमेव अन्यापोहः' इति मत्वा अपोहपक्षमाक्षिप्तवतः कौमारिलस्य निराकरणम् ] १० तेन यदुक्तम् निषेधात्रं नैवेह शाब्दे ज्ञानेऽवभासते' । इति, तदसङ्गतम् ; निषेधमात्रस्य शब्दार्थत्वानभ्युपगमात्। एवं तावत्प्रतिबिम्बलक्षणोऽपोहः साक्षाच्छब्दैरुपर्जन्यत्वाद् मुख्यः शब्दार्थो व्यवस्थितः; शेषयोरप्यपोहयोगौणं शब्दार्थत्वमविरुद्धमेव । तथाहि "साक्षादपि च एकस्मिन्नेवं च प्रतिपादिते। सज्यप्रतिषेधोऽपि सामर्थ्येन प्रतीयते" ॥ [ तत्त्वसं० का० १०१३] सामर्थ्य च गवादिप्रतिबिम्बात्मनोऽपरप्रतिबिम्बात्मविविक्तत्वात् तदसंयुक्ततया प्रतीयमानत्वम् , तथा तत्प्रतीतौ प्रसज्यलक्षणापोहप्रतीतेरप्यवश्यं सम्भवात्। अतस्तस्यापि गौणशब्दार्थत्वम् । स्वलक्षणस्यापि गौणशब्दार्थत्वमुपपद्यत एव । तथाहि-प्रथमं यथावस्थितवस्त्वनुभवः, ततो विवक्षा, ततस्ताल्वादिपरिस्पन्दः, ततः शब्द इत्येवं परम्परया यदा शब्दस्य बाह्यार्थेष्वभिसम्बन्धः स्यात् तदा २० विजातीयव्यावृत्तस्यापि वस्तुनोऽर्थापत्तितोऽधिगम इत्यन्यव्यावृत्तवस्त्वात्माऽपोहशब्दार्थ इत्युपैंचर्यते । तदुक्तम् "न तदात्मा परात्मेति सम्बन्धे सति वस्तुभिः । व्यावृत्तवस्त्वधिगमोऽप्यर्थादेव भवत्यतः" ॥ [ तत्त्वसं० का० १०१४ ] ,"तेनायमपि शब्दस्य स्वार्थ इत्युपचर्यते।। न च साक्षादयं शब्दै द्वि(द्वैदि) विधोऽपोह उच्यते" ॥ [ तत्त्वसं० का० १०१५] इति । १ "तत्रायं प्रथमः शब्दैरपोहः प्रतिपाद्यते । वाह्यार्थाध्यवसायिन्या बुद्धेः शब्दात् समुद्भवात्" ॥ तत्त्वसं० का० १०११पृ० ३१८।। २ हि शब्दे आ० हा० वि० विना। ३-क्षात् प्रतिभासते भां० मा०। ४-व शब्दोऽर्थो आ० हा० । -व शाब्दार्थो वा० बा० ।-व शाब्दोऽर्थो कां० । “स एव शब्दार्थो युक्तः"-तत्त्वसं० पजि० पृ. ३१८ पं० २३ । स्याद्वादर० पृ. ३४९ द्वि० पं० ९। ५ न चाद्य मां० । “न चात्र प्रसज्यप्रतिषेधाध्यवसायः"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ३१८ पं० २३। ६-तबुद्ध्या-वा० बा० । ७ “तद्रूपप्रतिबिम्बस्य धियः शब्दाच्च जन्मनि । वाच्यवाचकभावोऽयं जातो हेतुफलात्मकः ॥ तत्त्वसं० का० १०१२ पृ० ३१८ । ८-क्षणः सम्ब-कां०। ९ बाह्यरूपतया वाचकलक्षणसंबन्धःकार्यकारणभावात्मक एव भां० मां. विना । स्याद्वादर.पृ० ३४९ द्वि०पं०१२। १०-णस्संबन्धःभां०मा०। ११-प्रतिबिम्बस्य जनक-भां० मां। तथैव तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ३१९५० ७॥ १२ पृ० १८५ पं० २६। १३-मात्रमैवैदशा-वा० बा०।-मात्रमेवेह आ० हा० वि०। १४-जन्यमानत्वाद मुख्यः भां. मां । तथैव तत्त्वसं० पजि. पृ. ३१९ पं० १०। १५-गौणश-वा. बा०। १६ “साक्षादाकार एतस्मिन्नेवं च"-तत्त्वसं० पृ० ३१९५० १३। १७-स्मिन्नेव च बा० कां०। १८-पाद्यते वा. बा. विना। १९-प्रसह्य-मां०। २०-त्वान्न संय-वि०। २१ बाहोर्थेषुभिः संबन्धः वा. बा० । बार्बेवभिसंबन्धः वि० । बाबैर्वस्तुभिः संबन्धः भां० मा० । “यदा शब्दस्य वस्तुभिर्बारिम्यादिभिः संबन्धः"तत्त्वसं० पजि. पृ० ३१९ पं० २५। २२-तीयाव्यावृ-वा. बा. विना। २३-स्तुनोऽर्थोपपत्तितो कां० । २४-पवर्याते हा०। -पवर्जते मां। २५-वस्त्वमिग-बा०। २६ शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ०४०२ प्र० पं०४ । २७ शब्दे द्वि-आ० हा०वि०"शाब्दो द्विविधोपोह उच्यते"-तत्त्वसं० पृ. ३१९ पं०१८। २८-विधापोह बा । १०१५, २५ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ प्रथमे काण्डे - [ उद्योतकरदूषितस्य दिनागकथनस्य अभिप्रायमुद्धाट्य कण्टकोद्धारः ] तेनाचार्यदिग्नागस्योपरि यद् उद्योतकरेणोक्तम् — "यदि शब्दस्यापोहोऽभिधेयोऽर्थस्तदाऽभिधेयार्थव्यतिरेकेणास्य स्वार्थो वक्तव्यः अथ स एव स्वार्थस्तथापि व्याहतमेतत् अन्यशब्दार्थापोहं हि स्वार्थे कुर्वती श्रुतिरभिधत्त इत्युच्यते इति, अस्य ५ हि वाक्यस्यायमर्थस्तदानीं भवत्यभिदधानाभिधत्त इति" [ अ० २ आ० २ सू० ६७ न्यायवा० पृ० ३३० पं० २२- पृ० ३३१ पं० ३ ] तदेतद् वाक्यार्थापरिज्ञानादुक्तम् । तथाहि - स्वलक्षणमपि शब्दस्योपचारात् स्वार्थ इति प्रतिपादितम् अतः स्वलक्षणात्मके स्वार्थेऽर्थान्तरव्यवच्छेदं प्रतिबिम्बान्तराद् व्यावृत्तं प्रतिबिम्बात्मकमपोहं कुर्वती श्रुतिरधित्ते इत्युच्यते इत्येतदाचाययं वचनविरोधि । १० अयमाचार्यस्याशयः - नं शब्दस्य बाह्यार्थाध्यवसायि विकल्पप्रतिबिम्बोत्पादव्यतिरेकेणान्यो बाह्याभिधानव्यापारः, निर्व्यापारत्वात् सर्वधर्माणाम्; अतो बाह्यार्थाध्यवसायेन प्रवृत्तं विकल्पप्रतिबिम्बं जनयन्ती श्रुतिः स्वार्थमभिधत्त इत्युच्यते, नं तु विभेदिनं संजातीयविजातीयव्यावृत्तं स्वलक्षणमेषा स्पृशति, तथाविधप्रतिबिम्बजनकत्वव्यतिरेकेण नापरा श्रुतेरभिधा क्रियाऽस्तीत्यर्थः । एवंभूते चापोहस्य स्वरूपे न परोक्तदूषणावकाशः । तेन यदुक्तम् १५ 'यदि गौरिति शब्दश्च' इत्यादि । तंत्र गोबुद्धिमेव हि शब्दो जनयति, अन्यविश्लेषस्तु सामर्थ्याद् गम्यते न तु शब्दात् तस्य गोप्रतिबिम्बस्य प्रतिभासान्तरात्मरहितत्वात् - अन्यथा नियतरूपस्य प्रतिपत्तिरेव न स्यात् - तेनापरो ध्वनिगबुद्धेर्जनको न मृग्यते, गोशब्देनैव गोबुद्धेर्जन्यमानत्वात् । - 'ननु ज्ञानफलाः शब्दाः' इत्यादि कुमारिलंवचनम्, २० तदप्यसारम् ः यतो यथा 'दिवा न भुङ्क्ते पीनो देवदत्तः' इत्यस्य वाक्यस्य साक्षाद् दिवाभोजनप्रतिषेधः स्वार्थः, अभिधानसामर्थ्यगम्यस्तु रात्रिभोजनविधिर्न साक्षात् तद्वत् 'गौः' इत्यादेरन्वयप्रतिपादस्य शब्दस्यान्वयज्ञानं साक्षात् फलम् व्यतिरेकगतिस्तु सामर्थ्यात् यस्मादन्वयो १ " यदि च शब्दस्याऽपोहो नाभिधेयार्थः " - न्यायवा० पृ० ३३० पं० २२ । २ “भवत्यन्यदनमिदधानोऽभिधत्त इति" - न्यायवा० पृ० ३३१ पं० २ । ३ वाच्यार्था - भां० म० । ४ " अर्थान्तरव्यवच्छेदं कुर्वती श्रुतिरुच्यते । अभिधत्त इति स्वार्थमित्येतदविरोधि तत्" ॥ तत्त्वसं ० का ० १०१६ पृ० ३२० । ७ - चार्याय आ० हा ० वि० । तेनाहेत्यपदिश्यते” ॥ ५ पृ० २०३ पं० २५ । ६ भिवर्तत इत्यु-आ० हा ० वि० । ८ "बाह्यार्थाध्यवसायेन प्रवृत्तं प्रतिबिम्बकम् । उत्पादयति येनेयं तत्त्वसं० का० १०१७ पृ० ३२० । ९ " न तु खलक्षणात्मानं स्पृशत्येषा विभेदिनम् । तन्मात्रांशातिरेकेण नास्त्यस्या अभिधा क्रिया " ॥ तत्त्वसं० का० १०१८ पृ० ३२० । १० विभेदनं आ० वा० बा० ११ सजातीयव्यावृत्तं आ० हा० वि० । १२ श्रुतिरभिधा भां० मां० । १३ पृ० १८६ पं० ३ । १४ “तस्य च प्रतिबिम्बस्य गतावेवानुगम्यते । सामर्थ्यादन्यविश्लेषो नास्यान्यात्मकता यतः” ॥ तत्त्वसं ० का ० १०१९ पृ० ३२० । १५ तस्यागो प्रतिप्रभासान्त-आ० । तस्य गोप्रतिभासान्त - हा० वि० । तस्य गोशप्रतिभासान्त - वा० बा० । १६- रूपस्याप्रति भां० मां० विना । "नियतरूपस्य तस्य प्रतिपत्तिरेव न स्यात् " - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३२० पं० २८ । १७ तेन परो भ० मां० विना । १८५० १८६०५ । पृ० १८५ गतं चतुर्दशतमं टिप्पणं विलोकनीयम् । १९ मुद्रिते श्लोकवार्तिके नैतत् कुमारिलवचनं दृश्यते, तत्त्वसंग्रहे तु मूलकारिकासु दृश्यते, किन्तु तत्पञ्जिकाकारेण कमलशीलेन तत् पद्यं भामह कर्तृकत्वेन परिचायितम्, उपलभ्यते चैतत् भामहालंकारे । २० “दिवाभोजन वाक्यादेरिवाऽस्यापि फलद्वयम् । साक्षात् सामर्थ्यतो यस्मान्नान्वयोऽव्यतिरेकवान् " ॥ तत्त्वसं० का० १०२० पृ ३२१ । २१- दत्तस्य वाक्यस्य भां० मां० वा० बा० विना । २२- कशब्दस्या- भ० मां० वा० वा० विना । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० शब्दार्थ- तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २०५ विधिरव्यतिरेकवान्नास्ति विजातीयव्यवच्छेदाव्यभिचारित्वात् तस्य; इत्येकज्ञानस्य फलद्वयमविरुद्धमेव । यतो यदि साक्षादेकस्य शब्दस्य विधि-प्रतिषेधज्ञानलक्षणं फलद्वयं युगपदभिप्रेतं स्यात् तदा भवेद् विरोधः; यदा तु दिवाभोजनवाक्यवदेकं साक्षात् अपरं सामर्थ्य लभ्यं फलमभीष्टं तदा को विरोधः? यञ्चोक्तम्-'प्रागगौरिति ज्ञानम्' इत्यादि, सदपि निरस्तम्; अनभ्युपगमात्-न ह्यगोप्रतिषेधमाभिमुख्येन गोशब्दः करोतीत्यभ्युपगतमस्माभिः, किं तर्हि ? सामर्थ्यादिति ।। यच्चोक्तम्-'अगोनिवृत्तिः सामान्यम्' इत्यादि, तदप्यसत्; बाह्यरूपतयाऽध्यस्तो बुद्ध्याकारः सर्वत्र शाबलेयादौ 'गौौः' इति समानरूपतयावभासनात् सामान्यमित्युच्यते । बाह्यवस्तुरूपत्वमपि तस्य भ्रान्तप्रतिपत्तृवशाद् व्यवहियते न परमार्थतः।१० नेनु च यदि कदाचित् मुख्यं वस्तुभूतं सामान्यं बाह्यवस्त्वाश्रितमुपलब्धं भवेत् तदा तत्साधर्म्यदर्शनात् तत्र सामान्यभ्रान्तिर्भवेत् यावता मुख्यार्थासम्भवे सेव भवतामनुपपन्ना, असदेतत्; साधर्म्यदर्शनाद्यनपेक्षद्विचन्द्रादिज्ञानवत् अन्तरुपप्लवादपि तज्ज्ञानसम्भवात् ; न हि सर्वा भ्रान्तयः साधर्म्यदर्शनादेव भवन्ति, किं तर्हि ? अन्तरुपप्लवादपीत्यदोष इति सिद्धसाध्यतादोषो न भवति । सँ एव वुद्ध्याकारो बाह्यतयाऽध्यस्तोऽपोहो बाह्यवस्तुभूतं सामान्यमिवोध्यते वस्तुरूपत्वेनाध्यवसा-१५ यात्, शब्दार्थत्वाऽपोहरूपत्वयोः प्रागेव कारणमुक्तम् 'बाह्यार्थाध्यवसायिन्या बुद्धः शब्दात् समुंद्भवात्' 'प्रतिभासान्तराट् भेदात्' इत्यादिना। कस्मात् पुनः परमर्थितः सामान्यमसौ न भवति ? वुद्धेरैव्यतिरिक्तत्वेनार्थान्तरानुगमाभावात् । तदुक्तम् 'ज्ञानाव्यतिरिक्तं च कथमर्थान्तरं व्रजेत्।। न च भवद्भिर्बुद्ध्याकारो गोत्वाख्यं सामान्यं वस्तुरूपमिष्टम् , किं तर्हि ? बाह्यशाबलेयादिगतमेकमनुगामि गोत्वादि सामान्यमुपकल्पितम् ; अतः कुतः सिद्धसाध्यता । यच्चोक्तम् 'निषेधमात्ररूँपश्च' इत्यादि, तस्यानभ्युपगतत्वादेव न दोषः । यच्चेदमुक्तम् तस्यां चाश्वादियुद्धीनाम्' इत्यादि, १ "नाभिमुख्येन कुरुते यस्माच्छब्द इदं द्वयम् । खार्थाभिधानमन्यस्य विनिवृत्ति च वस्तुनः" ॥ तत्त्वसं० का० १०२१ पृ. ३२१ । २ पृ० १८६ पं०७। ३ पृ. १८६ पं० १७ तथा ३९ । ४ "तादृशः प्रतिभासश्च सामान्यं गोत्वमिष्यते। सर्वत्र शाबलेयादौ समानत्वावसायतः” ॥ तत्त्वसं० का० १०२२ पृ० ३२१ । ५ “वस्त्वित्यध्यवसायाच वस्त्वित्यपि तदुच्यते । झटित्यव हि तज्ज्ञानं भ्रान्तं जातं खबीजतः ॥ तत्त्वसं० का० १०२३ पृ. ३२२ । ६ बाह्य वस्त्वा-बा० । बाह्यवस्तुरूपत्वं निश्चितमप-वि० । ७ “सामान्यं भ्रान्तिर्भवेत्"-तत्त्वसं. पनि० ३२२ पं०५। ८ सर्वभ्रान्त-आ०। ९ पृ० १८७ पं०१०। १. “स एव च तदाकारशब्दार्थोऽपोह उच्यते । सामान्य वस्तुरूपं च तथा भ्रान्त्याऽवसायतः" ॥ तत्त्वसं० का० १०२४ पृ० ३२२ । ११-च्यतेऽवस्तु-बा०। १२ बाद्यार्थव्यवसा-आ० हा० वि०। १३-मुद्भेदात् आ०। १४ पृ० २०३ पं० १ तथा २७ । १५ पृ. २०२५० १० तथा ३१ । १६-मार्थतत्सामा-आ० हा० वि० । १७ "सामान्यवस्तुरूपत्वं न युक्तं त्वस्य भाविकम् । बुद्धेरनन्यरूपं हि यायादर्थान्तरं कथम्" ॥ तत्वसं० का० १०२५ पृ. ३२२ । १८ पृ. १८४ पं० १० तथा ३१। १९-कारे गो-आ० हा० ।-कारगो वि.। २०-मान्यवस्तु-बा। २१ तर्हि शाब-वि०। २२-न्यमनपकल्पित-आ. कां. बा० ।-न्यमनुकल्पित-हा० ।-न्यमसावुपकल्पित-वि०। २३ पृ. १८७ पं० २१ तथा ३९ । २४-रूपाश्व आ०। २५ पृ० १८७ पं० २२ तथा ४३ । २६ तस्यां वाश्वा-वा० बा० विना। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ प्रथमे काण्डेतदप्यसत्: यतः “यद्यप्यव्यतिरिक्तोऽयमाकारो बुद्धिरूपतः। तथापि बाह्यरूपत्वं भ्रान्तैस्तस्यावसीयते" ॥ [तत्त्वसं० का० १०२६] यदपि 'शब्दार्थोऽर्थानपेक्षः' इति, ५तेत्र, यत्र हि पारम्पर्याद् वस्तुनि प्रतिबन्धोऽस्ति तस्य भ्रान्तस्यापि सतो विकल्पस्य मणिप्रभायां मणिबुद्धिवन्न बाह्यार्थानपेक्षत्वमस्ति; अतोऽसिद्धं बाह्यार्थानपेक्षत्वम् । यच-'वस्तुरूपावभासा (रूपा च सा) बुद्धिः' इत्यादि, तत्र यद्यपि वस्तुरूपा सा बुद्धिस्तथापि तस्यास्तेन बाह्यात्मना बुद्ध्यन्तरात्मनों च वस्तुत्वं नास्तीति प्रतिपादितम् । तेन 'बुद्धेर्बुद्ध्यन्तरापोहो न गम्यते' इत्यसिद्धम् सामर्थेन गम्यमानत्वात् । १० 'असत्यपि च बाह्येऽर्थे' 'इंति, अत्र यथैव हि प्रतिबिम्बात्मकः प्रतिभाख्योऽपोहो वाक्यार्थोऽस्माभिरुपवर्णितस्तथैव पदार्थोऽपि, यस्मात् पदादपि प्रतिबिम्बात्मकोऽपोह उत्पद्यत एव, पदार्थोऽपि स एव; अतो न केवलं वाक्यार्थ इति विप्रतिपैत्तेरभावाद् नोप(पा)लम्भो युक्तः।। 'बड्यन्तराद व्यवच्छेदोन बद्धःप्रतीयते इत्यादावपि १५यते एव हि स्वरूपोत्पादनमात्रादन्यमंशं सा न बिभर्ति तत एव स्वभावव्यवस्थितत्वाद् बुद्धेर्बुड्यन्तराद् व्यवच्छेदः प्रतीयते; अन्यौँऽन्यस्वरूपं बिभ्रती कथं ततो व्यवच्छिन्ना प्रतीयते ? 'भिन्नसामान्यवचनाः' इत्यादावपि यथैव ापोहस्य निःस्वभावत्वादसैंपस्य परस्परतो भेदो नास्तीत्युच्यते तथैवाऽभेदोऽपि इति कथमभिन्नार्थाभावे पर्यायत्वासञ्जनं क्रियते ? अभेदो ह्येकरूपत्वम् ; तच्च नीरूपेष्वेकरूपत्वं नास्तीति न रा १ पृ० १८७ पं० ४४ तथा पृ० १८८५०१। २-र्थोऽनपेक्ष-हा। ३ "तस्य नार्थानपेक्षत्वं पारम्पर्यात् तदागतेः । तेनात्मना च वस्तुत्वं नैवास्तीत्युपपादितम् ॥ तत्त्वसं० का० १०२७ पृ० ३२३ । ४-स्तुने प्रतिबिम्बोऽस्ति तस्याभ्रान्त-बा० । ५-क्षमस्ति हा०। ६-क्षं यच्च भां० मा० विना । ७ पृ० १८८ पं० ४ तथा पं० २७ । ८ वस्तुरूपावसा सा बुद्धिः वा. वा०। वस्तुत्वरूपावभासबुद्धिः भां० मा०। ९-द्यत्रापि मां० । १०-ना वस्तु-बा०। ११ पृ. २०३ पं० २३ । “बाह्यात्मना बुद्धयन्तरात्मना च वस्तुत्वं नास्तीत्युपपादितम् 'न तदात्मा परात्मा' इत्यादिना"-तत्त्वसं० पजि० पृ० ३२३ पं०९। १२-तं न बु-वा. बा. विना। १३-हो नागस्य-बा०। १४ पृ० १८८ पं० १४ तथा पं० ३३। १५ पृ० १८८ पं० ११ तथा ३०। १६ "प्रतिबिम्बात्मकोऽपोहः पदादप्युपजायते । प्रतिभाख्यो झटित्येव पदार्थोऽप्ययमेव नः"। तत्त्वसं. का. १०२८ पृ. ३२३ । १७-त्मकं प्र-मां०। १८ वा स्वार्थी-मां० । “बाह्यार्थो"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ३२३ पं० १५। १९ "बाह्यार्थ इति"-तत्त्वसं० पजि० पृ. ३२३ पं०१७। २०-ति प्रति-हा.। २१-पत्तिरभावतोपलम्भो बा। २२ "नोपालम्भो युक्तः”-तत्त्वसं० पञ्जि. ३२३ पं० १८। २३ पृ. १८८ पं० १४ तथा पं० ३३ । २४ "स्वरूपोत्पादमात्राद्धि नान्यमंशं बिभर्ति सा । बुद्धयन्तरादू व्यवच्छेदस्तेन बुद्धेः प्रतीयते" ॥ तत्त्वसं० का० १०२९ पृ. ३२३ । २५-दमात्रादन्यमावां सा वा० बा०। २६-न्यमश आ० हा०।-न्यमात्रां वि०। २७ एव व्यवबा०। २८-था स्वरूपं भां. मां०।-थान्येस्वरूपं आ. हा०वि०। २९ पृ. १८८ पं० १८ तथा पं० ३७ ॥ ३० “यथैवाविद्यमानस्य न भेदः पारमार्थिकः । अभेदोऽपि तथैवेति तेन(येन)पर्यायता भवेत् ॥ तत्त्वसं० का० १०३० पृ. ३२३ । ३१-रूपस्यापरस्परतो हा० । ३२ "अभेदो ह्यकरूपत्वं नीरूपेषु च तत् कुतः। एकत्वेऽर्थस्य पर्यायाः प्राप्नुवन्ति च वाचकाः"॥ तत्त्वसं० का० १०३१ पृ. ३२४ । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २०७ पर्यायता । स्यादेतत् यदि नाम नीरूपेवेकरूपत्वं भावो नास्ति तथापि काल्पनिकस्य तस्य भावात् पर्यायतासञ्जनं युक्तमेव । नन्वेवं पर्यायाऽपर्यायव्यवस्था शब्दानां कथं युक्ता ? उक्तं च "रूपाभावेऽपि चैकत्वं कल्पनानिर्मितं यथा। विभेदोऽपि तथैवेति कुतः पर्यायता ततः”? ॥ [तत्त्वसं० का० १०३२] "भावतस्तु न पर्याया न पर्यायश्च (नापर्यायाश्च) वाचकाः। न ह्येकं वाच्यमेतेषामनेकं चेति वर्णितम्" ॥ [ तत्त्वसं० का० १०३३] इति।। यदि परमार्थतो भिन्नमभिन्नं वा किञ्चिद् वाच्यं वस्तु शब्दानां स्यात् तदा पर्यायापर्यायता भवेत् यावता-स्वलक्षणं जातिस्तद्योगो जातिमांस्तथा' इत्यादिना वर्णितम्-यथैषां न किञ्चिद् वाच्यमस्तीति । पर्यायादिव्यवस्था तु अन्तरेणापि सामान्यम् सामान्यादिशब्दत्वस्य व्यवस्थापै. नात् । तस्य चेदं निबन्धेनं यद् बहूनामेकार्थक्रियाकारित्वम्-प्रकृत्या केचिद् भावा बहवोऽप्येकार्थ-१० क्रियाकारिणो भवन्ति; तेषामेकार्थक्रियासामर्थ्यप्रतिपादनाय व्यवहर्तभिर्लाघवार्थमेकरूपाध्यारोपेणैका श्रुतिर्निवेश्यते, यथा-बहुषु रूपादिषु मधूदकाद्याहरणलक्षणैकार्थक्रियासमर्थेषु 'घटः' इत्येका श्रुतिर्निवेश्यते। कथं पुनरेकेनानुगामिना विना बहुष्वेका श्रुतिर्नियोक्तुं शक्या? इति न वक्तव्यम् , इच्छामात्रप्रतिबद्धत्वात् शब्दानामर्थप्रतिनियमस्य । तथाहि-चैथू-रूपाऽऽलोक-मनस्कारेषु रूपविज्ञानैकफलेषु यदि कश्चिद् विनाप्येकेनानुगामिना सामान्येनेच्छावशादेकां श्रुतिं निवेशयेत् तत् १५ किं तस्य कश्चित् प्रतिरोद्धा भवेत् ? न हि तेषु लोचनादिष्वेकं चक्षुर्विज्ञानजनकत्वं सामान्यमस्ति यतः सामान्य-सैमवाय-विशेषा अपि भवद्भिः चक्षुर्मानजनका अभ्युपगम्यन्ते, न च तेषं सामान्यसमवायोऽस्ति निःसामान्यत्वात् सामान्यस्य, समवायस्य च द्वितीयसमवायाभावात्। न , घटादिकार्यस्योदकाहरणादेस्तज्ज्ञानस्य च स्वलक्षणरूपत्वेन भिन्नत्वात् कथमेककार्यकारिस्वम् ? इति वक्तव्यम्, यतो यद्यपि स्खलक्षणभेदात् तत्कार्य भिद्यते तथापि ज्ञानाख्यं तावत् कार्य-२० मेकार्थाध्यवसायिपरामर्शप्रत्ययहेतुत्वादेकम्; तज्ज्ञानहेतुत्वाचार्था घटादयोऽभेदिन इत्युच्यन्ते । १-पत्वं भवतो नास्ति वा० बा० । “भावतो नास्ति'-तत्त्वसं० पजि० पृ० ३२४ पं०९। २-कस्य भावा-बा० ।-कस्य तस्य तावत् पर्याय-मां०। ३ एतदेव पर्यायतासजन 'रूपाभावेऽपि' इत्यादिश्लोकेन प्रत्युक्तम् -प्र. पृ० पं०३। ४ 'नन्वेवम्' इत्यादिनाऽऽशङ्कितं तु 'भावतस्तु न' इत्यादिना श्लोकेन समाहितम्-प्र० पृ. ५० ५। ५पर्यायव्यव-वा. बा. आ०। ६-पि वैकत्वं आ० हा। न पर्यायस्य मां० वा. बा. विना। "नापर्यायाश्च"-तत्त्वसं० का० १०३३ पृ. ३२४ । ८ न ह्येवं वा-बा० । न ह्येक वा-भा० मां० । “न टकं बाह्यम्"-तत्त्वसं० का० १०३३ पृ. ३२४। ९-षां मनेकं चेति आ० ।-बां मते किञ्चिद्विवर्णि-वि०।-षामनेकान्तवर्णिताम् बा०। १० श्लोकद्वयमेतत् शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० ४०२ द्वि. पं० १२-१३ । ११ वाच्यवस्तु शब्दानां वाच्यं स्यात् मां०। १२ पृ० १७४ पं० २३ तथा ४० । १३ "किन्त्वनेकोऽपि यद्येककार्यकारी य ईक्ष्यते । तत्रैकधर्मारोपेण श्रुतिरेका निवेश्यते" ॥ तत्त्वसं० का० १०३४ पृ. ३२४ । १४-पन्नस्य चे-आ० हा० वि० ।-पन्ना तस्य चे-वा० बा० । “सामान्यशब्दत्वव्यवस्थाया इदं निबन्धनम्"तत्त्वसं० पजि० पृ. ३२४ पं० २३। १५-धनं बहू-वा० बा० विना। १६-था चहुषु रू-बा०।-था बाहषु रू-हा० वि० ।-था बाहुरू-आ० । १७ शक्यते न वक्त-भां० मा० । शक्यते ति (इति) न वक्त-वा० बा । १८ "लोचनादी यथा रूपविज्ञानैकफले क्वचित् । कश्चिद् यदि श्रुतिं कुर्याद् विनैकेनानुगामिना" ॥ तत्त्वसं० का० १.३५ पृ. ३२५ । १९ शब्दार्थानामर्थ-मां०। २० चक्षरूपालोकनमस्कारे-भा०मा० विना। २१-शयेन किं आ० वा. बा०।-शयेत्त किं भां० मा०। २२ समवायिविशे-आ० वि० । समवास्मिविशे-हा। समायिविवा० बा०। २३-षा पि भां०। २४-षु असामा-भां०। २५ च षटादि-वा० बा। २६ “घटादीनां च यत् कार्य जलादेर्धारणादिकम् । यच्च तद्विषयं ज्ञानं भिन्नं यद्यपि तद् द्वयम्" ॥ "एकप्रत्यवमर्शस्य हेतुत्वादेकमुच्यते । ज्ञानं तथापि तद्धेतुभावादर्था अमेदिनः" । तत्त्वसं० का० १०३६-१०३७ पृ. ३२५ । २७-र्थावसायपरा-भां० मां० ।-र्थाव्यवसायिपरा-वा. वा०। २८-ग्वार्था पटाद-भां० मां०। २९ -त्युच्यते बा० । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेन च योऽसो परामर्शप्रत्ययस्तस्यापि स्वलक्षणरूपतया भिद्यमानत्वादेकत्वासिद्धेरपरापरैकाकारपरामर्शप्रत्ययकार्यानुसरणतोऽनवस्थाप्रसङ्गतो ने(न)ककार्यतया क्वचिदेकश्रुतिनिवेशो बहुषु सिद्धिमुपगच्छतीति वाच्यम्; यतो न परामर्शप्रत्ययस्यैककार्यकारितयैकत्वमुच्यते, किं तर्हि ? एकाध्यवसायितया । स्वयमेव परामर्शप्रत्ययानामेकत्वसिद्धे नवस्थाद्वारेणैकश्रुतिनिवेशाभावः, अंत ५एकाकारपरामर्शहेतुत्वाद् ज्ञानाख्यं कार्यमेकम्; तद्धेतुत्वाद् घटादय एकत्वव्यपदेशभाजः। तेन विनापि वस्तुभूतं सामान्य सामान्यवचना घटादयः सिद्धिमासादयन्ति । तथा, कश्चिदेकोऽपि प्रकृत्यैव सामग्र्यन्तरीन्तःपातवशादनेकार्थक्रियाकारी भवति व्यतिरेकेणापि वस्तुभूतसामान्यधर्मभेदम्, तंत्रातत्कार्यपदार्थभेदभूयस्त्वात् अनेकश्रुतिसमावेशः अनेकधर्मसमारोपात्, यथास्वदेशे परस्योत्पत्तिप्रतिबन्धकारित्वाद् रूपं संप्रतिधम्-संह निदर्शनेन चक्षुर्मानजनकत्वेन वर्तत १० इति-सनिदर्शनं च तदेवोच्यते, यथा वा शब्द एकोऽपि प्रयत्नानन्तरज्ञानफलतया 'प्रयत्नानन्तरः' इत्युच्यते, श्रोत्रज्ञानफलत्वाच्च श्रावणः-श्रुतिः श्रवणं श्रोत (त्र) ज्ञानम् तत्प्रतिभासतया तत्र भवः श्रावणः, यद्वा श्रवणेन गृह्यत इति श्रावणः-एवमतत्कार्यभेदेनैकस्मिन्नप्यनेका श्रुतिर्निवेश्यमानाs. विरुद्धा । अतत्कारणभेदेनापि क्वचित् तन्निवेशः, यथा-भ्रामरं मधु शुद्रादिकृतमधुनो व्यावृत्त्या । तथा तत्कार्यकारणपदार्थव्यवच्छेदमात्रप्रतिपादनेच्छया अन्तरेणापि सामान्यं श्रुतेभेदेन निवेशनं १५सम्भवति "अश्रावणं यथा रूपं विद्युद्वाऽयत्नजा यथा" ॥ [ तत्त्वसं० का० १०४२] "इत्यादिना प्रभेदेन विभिन्नार्थनिबन्धनाः । १-पि विलक्षणरूप-बा० । २-हुष्ट(प्व)भिसिद्धिमु-वा० वा० ।-हुपु शुद्धिमु-भां० मां० । ३ "न हि प्रत्यवमर्शप्रत्ययस्यैककार्यतयैकत्वमुच्यते, किं तर्हि ? एकार्थाध्यवसायितया । तेन नानवस्था भविष्यति"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ३२५ पं० २४ । ४ अत एव एकापरा-वा० वा०। ५ कार्यमेत्येकम् वा०। ६-तु भावात् घटा-भां० मा०। ७ सामान्यं वचनाद् घटा-वा० वा.। सामान्यं चना घटा-आ० । सामान्यं चन घटा-का। सामान्य सामान्यवता घटा-हा । वि. प्रतो तु हा० समानोऽपि पाठः 'सामान्य सामान्यवन्तो घटा'-इति पश्चात् संशोधितो दृश्यते । ८ "तत्र सामान्यवचना उक्ताः शब्दा घटादयः । विजातीयव्यवच्छिन्नप्रतिविम्बकहेतवः" ॥ तत्त्वसं• का० १०३८ पृ. ३२६ । ९ "तथाऽनेकार्थकारित्वादेको नेक इवोच्यते । अतत्कार्यपरावृत्तिवाहुल्यपरिकल्पितः" ॥ तत्त्वसं० का० १०३९ पृ. ३२६ । १०-कोऽपो प्रक्रत्येव आ० हा०वि० ।-कोऽपोहः प्रकृत्येव कां०। ११-रान्तपात-आ० । रातःपरवशब्देने-बा०। १२ “भवति । तत्रान्तरेणापि वस्तुभूतसामान्यादिधर्मभेदम्"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ३२६ पं० ११। १३-दाम् बा० । अत्र "गौणात् समयानिकषाहाधिगन्तरान्तरेणातियेनतेनैर्द्वितीया"-इति है. अ० २ पा. २ सू० ३३ गतेन बहुवचनेन 'व्यतिरेकेण' इत्यस्य योगेऽपि द्वितीया समाधेया। १४ तत्रा न कार्यपदार्थभेदभूतत्वा-वा० बा० । तन्न तत्कार्यपदार्थभेदभूयत्वा-आ० का० । तत्र तत्कार्यपदार्थभेदभूयस्त्वा-विः । तत्र तत्कार्यभेद यस्त्वा -हा। १५ “यथा सप्रतिघं रूपं सनिदर्शनमित्यपि । प्रयत्नानन्तरज्ञातो यथा वा श्रावणो ध्वनिः" ॥ तत्त्वसं. का. १०४० पृ. ३२६ । १६-प्रतिपं आ० हा०वि०। १७ सह दर्श-आ० हा०वि०। १८-ति संनिदर्शनं तदे-भां० मा० । १९-नं तदे-आ० हा० वि०। २० श्रोतृज्ञा-वा० बा० विना। २१ श्रुतिः श्रोतृ-भां० मा०। २२ तत्र प्रति-भां० मा० । २३-नप्येका मां। २४ "अतत्कारणभेदेन क्वचिच्छब्दो निवेश्यते । प्रयत्नोत्थो यथा शब्दो भ्रामरं वा यथा मधु" ॥ तत्त्वसं० का० १०४१ पृ० ३२६ । २५ तथाऽतत्का-वा. बा.विना । “इदानीं तत्कार्यकारणपदार्थव्यवच्छेदमात्रप्रतिपादनेच्छया"-तत्त्वसं० पजि० पृ० ३२६ पं० २७। २६ अस्य पूर्वाध तु-"तत्कार्य-हेतुविश्लेषात् क्वचिच्छतिरिहोच्यते"तत्त्वसं० पृ०३२७ पं०२। २७-ना वा० बा० विना। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा। २०९ व्यावृत्तयः प्रकल्प्यन्ते तन्निष्टाः (ष्टाः) श्रुतयस्तथा" ॥[ तत्त्वसं० का० १०४३ ] "यथासङ्केतमेवातोऽसङ्कीर्णार्थाभिधायिनः । शब्दा विवेकतो वृत्ताः पर्याया न भवन्ति न (नः)" ॥ [ तत्त्वसं० का० १०४४ ] श्रोत्रज्ञानफलेशब्व्यवच्छेदेन 'अश्रावणं रूपम्' इत्युच्यते, प्रयत्नकारणघटादिपदार्थव्यवच्छेदेन 'विद्युदप्रयत्नजा' इत्यभिधीयते । अन्तरेणापि सामान्यादिकं वस्तुभूतम् व्यावृत्तिकृतमेव शब्दानां ५ भेदेन निवेशनं सिद्धम्, पर्यायत्वप्रसङ्गाभावश्च विभिन्नार्थनिबन्धनव्यावृत्तिनिष्ट(ष्ठ)त्वे श्रुतीनां सिद्धः। __स्यादेतत् मा भूत् पर्यायत्वमेपाम् अर्थभेदस्य कल्पितत्वात् ; सामान्यविशेषवाचित्वव्यवस्था तु विना सामान्य-विशेषाभ्यां कथमेषाम् ? उच्यते "बह्वल्पविषयत्वेन तत्सङ्केतानुसारतः। सामान्य-भेदवाच्यत्वमप्येषां न विरुध्यते" ॥ [ तत्त्वसं० का० १०४५] वृक्षशब्दो हि सर्वेष्वेव धव-खदिर-पलाशादिष्ववृक्षव्यवच्छेदमात्रानुस्यूतं प्रतिविम्बकं जनयति; तेनास्य बहुविषयत्वात् सामान्यं वाच्यमुच्यते, धवादिशब्दस्य तु खदिरादिव्यावृत्तकतिपयपादपाध्यवसायिविकल्पोत्पादकत्वाद् विशेषो वाच्य उच्यते । यदुक्तम्___अपोह्यभेदेन' इत्यादि, तंत्र "ताश्च व्यावृत्तयोऽर्थानां कल्पनाशिल्पिनिर्मिताः । नापोह्याधारभेदेन भिद्यन्ते परमार्थतः" ॥ "तासां हि बाह्यरूपत्वं कल्पितं न तु वास्तवम् । भेदाभेदौ च तत्त्वेन वस्तुन्येव व्यवस्थितौ” ॥ "स्वबीजानेकविश्लिष्टवस्तुसङ्केतशक्तितः। विकल्पास्तु विभिद्यन्ते तद्रूपाध्यवसायिनः" ॥ "नैकामतां प्रपद्यन्ते न भिद्यन्ते च खण्डशः । स्खलक्षणात्मका अर्था विकल्पः प्लवते त्वसौ” ॥ [तत्त्वसं० का० १०४६-१०४७-२०४८-१०४९ ] अस्य सर्वस्याप्ययमभिप्रायः-यदि हि पारमार्थिकोऽपोह्यभेदेनाधारभेदेन वाऽपोहस्य भेदोऽभीष्टः२५ स्यात् तँदैतद् दूषणं स्यात् यावता कल्पनया सजातीयविजातीयपदार्थभेदैरिव व्यावृत्तयो भिन्नाः कैल्प्यन्ते न परमार्थतः; ततः ताश्च कल्पनावशाव्यतिरिक्ता इव वस्तुनो भासन्ते न परमार्थतः । परमार्थतस्तु विकल्पा एव भिद्यन्ते अनादिविकल्पवासनाऽन्यविविक्तवस्तुसङ्केतादेनिमित्ताद् व्यावृत्तवस्त्वध्यवसायिनः न त्वर्थाः । तथाहि-वृक्षत्वादिसामान्यरूपेण नैकात्मतां धवादयः प्रतिपद्यन्ते, नापि क्षणिकाऽनात्मकादिधर्मभेदेन खण्डशो भिद्यन्ते, केवलं विकल्प एव तथा प्लवते; न त्वर्थः । ३० __ १ तन्निद्याः वा० बा०। २-वातेऽ-वा०। ३ वृत्ता प-वा० । वृत्तौ प-आ० कां०। ४ 'भवन्ति नः' इति वि० सं० । ५-लव्यव-आ० हा. वि० । ६ “एवमन्तरेणापि सामान्यादिकम्"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ३२७ पं० ८। ७-श्च भिन्ना-भां० मां०। ८ शाखवा० स्याद्वादक. पृ० ४०३ प्र. पं० १ । ९ हि स्वेष्वेव भां० मां०। १०-त्रास्यतं आ० हा० वि०। ११ पृ. १८९ पं० १ तथा २२ । १२ अपोहते भेदेन त्यादि वा० बा। अपोह्यभेदनेत्यादि आ० हा०वि०। १३ तत्र तोश्च आ० वा. वा० । तत्र वोश्च हा० । तत्र वो यैश्च वि० । १४-जान्तेन विशिष्ट-वा. बा० । १५-सायिनी मां० । १६-त्मनां आ० हा० वि०। १७ शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०३ प्र. पं० ६-९। १८ तदेतद् वा० बा०। १९ “कल्पनया सजातीयविजातीयपदार्थभेदनिबन्धना व्यावृत्तयो भिन्नाः कल्प्यन्ते"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ३२८ पं० ५। २०-दार्थाभेदोरव्यावृ-वा० ।-दार्थाभेदैरिव व्यावृ-आ०। २१ कल्पन्ते भां० मां०। २२-मार्थतस्तश्च कल्पना-बा० ।-मार्थतः स्ततः श्च कल्पनाआ०। २३ वृक्षादि-वा० बा० । २४-त्मनां वा० बा० आ० हा० वि० । स० त० २७ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० प्रथमे काण्डे यथोक्तम् "संसृज्यन्ते ने भिद्यन्ते स्वतोऽर्थाः पारमार्थिकाः। रूपमेकमने वा तेषु बुद्धरुपप्लः" ॥ [ ] इति। येञ्चोक्तम्-'न चाप्रसिद्धसारूप्य'-इत्यादि । ५तत्र "एकधर्मान्वयासत्त्वेऽप्यपोह्याऽपोहगोचराः।। वैलक्षण्येन गम्यन्तेऽभिन्नप्रत्यवमर्शकाः” ॥ [ तत्त्वसं० का० १०५० ] अपोह्याश्च अपोहगोचराश्चेति विग्रहः। तत्रापोह्या अश्वादयः गोशब्दस्य तदपोहेन प्रवृत्तत्वात्, अपोहगोचराः शाबलेयादयः तद्विषयत्वाद् अगोपोहस्य; तेन यद्यप्येकस्य सामान्यरूपस्यान्वयो १० नास्ति तथाप्यभिन्नप्रत्यवमर्शहेतवो ये ते प्रसिद्धसारूप्या भवन्ति, ये तु विपरीतास्ते विपरीता इति । स्यादेतत् तस्यैवैकप्रत्यवमर्शस्य हेतवोऽन्तरेण सामान्यमेकं कथमा भिन्नाः सिद्ध्यंन्ति ? उच्यते "एकप्रत्यवमर्श हि केचिदेवोपयोगिनः। प्रकृत्या 'भेदवन्तोऽपि नान्य इत्युपपादितम्" ॥ [ तत्त्वसं० का० १०५१] प्रतिपादितमेतत् सामान्यपरीक्षायाम्-'यथा धात्र्यादयोऽन्तरेणापि सामान्यमेकार्थक्रियाका१५रिणो भवन्ति तथैकप्रत्यवमर्शहेतवो भिन्ना अपि भावाः केचिदेव भविष्यन्ति' इति। 'न चान्वयविनिर्मुक्ता' इत्यादीवाह-यद्यपि सामान्य वस्तुभूतं नास्ति तथापि विजातीयव्यावृत्तस्वलक्षणमात्रेणैवान्वयः क्रियमाणो ने विरुध्यते । "यस्मिन्नधूमतो भिन्नं विद्यते हि स्वलक्षणम् । तस्मिन्ननग्नितोऽप्यस्ति परावृत्तं स्वलक्षणम्" ॥ "यथा महानसे वेहें विद्युतेऽधूमभेदि तत् । तस्मादनग्नितो भिन्नं विद्यतेऽत्र स्वलक्षणम्" ॥ [ तत्त्वसं० का० १०५३-१०५४] अवयवपञ्चकमपि स्वलक्षणेनान्वये क्रियमाणे शक्योपदर्शनमित्येवं प्रयोगप्रदर्शनं कृतम्, इदं च कार्यहेतावुदाहरणम् । स्वभावहेतावपि-यद् असतो व्यावृत्तं स्खलक्षणं तत् सर्व स्थिरादपि व्यावृत्तम् , यथा बुझ्यादि, तथा चेदं शब्दादि स्खलक्षणमसद्रूपं न भवतीति । अमुना न्यायेन विशे १ संयुज्यन्ते भां० मां० । २ न विद्य-वि० । ३-षु बुद्धिरूप-वा० बा० ।-षु वृद्ध रूप-मां० । -षु वृद्धरुप-भां०। ४ तत्त्वसं० पजि० पृ. ३२८ पं० २१। शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ. ४०३ प्र. पं० १०। ५ यथोक्तं नवा बा०। ६ पृ. १८९ पं० १३ तथा ३५ । ७-यत्वाऽगो-हा० ।-यत्वात् गो-आ० । -यत्वाद् गो-वि०। ८ तस्यैकैक-वा० बा० । ९-ध्यन्ति एक-वा० बा० । १० “भेदवत्त्वेऽपि"-तत्त्वसं०। ११ पृ. २०२ पं०४ तथा २३ । १२ तत्त्वसंग्रहे सामान्यपरीक्षा पृ० २३६-२६२ का ७०८-८१२। १३ “यथा धाच्यभयादीनां नानारोगनिवर्तने । प्रत्येकं सह वा शक्तिर्नानात्वेऽप्युपलभ्यते"॥ "एवमत्यन्तभेदेऽपि केचिन्नियतशक्तितः । तुल्यप्रत्यवमर्शादेहेतुत्वं यान्ति नापरे ॥ तत्त्वसं० का० ७२३-७२६ पृ० २३९ । १४ नवा-वा. बा. भां० मां०। १५ पृ० १८९ पं० २० तथा ४२। १६ "अतद्रूपपरावृत्तं वस्तुमानं खलक्षणम् । यत्नेन क्रियमाणोऽयमन्वयो न विरुध्यते"॥ तत्त्वसं. का. १०५२ पृ. ३२९ । १७ “न विरुध्यते। कथम् ? इत्याह"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ. ३२९ पं० १५-१६। १८ "चेह"-तत्त्वसं०। १९-धते धूम-आ० हा० वि० । २० "असतो नरशृङ्गादेर्यच्च भिन्नं खलक्षणम् । बुद्धि-दीपादिवत् सर्व व्यावृत्तं तत् स्थिरादपि"। "असदूपं तथा चेदं न शब्दादिखलक्षणम् । इत्थं निर्दिष्टभेदेन भवत्येवाऽन्वयोऽमुना" ॥ तत्त्वसं० का० १०५५-१०५६ पृ. ३२९ । २१-वतीत्यनुमा नायेन वा० बा० ।-तीत्यमुना नायेन आ० । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २११ षाऽसंस्पर्शात् स्खलक्षणेनान्वयः क्रियमाणो न विरुध्यते । यदि तर्हि स्वलक्षणेनैवान्वयः कथं सामान्यलक्षणविषयमनुमानम् ? तैदेव हि स्वलक्षणमविक्षितभेदं सामान्यलक्षणमित्युक्तम् 'सामान्येन भेदापरामर्शेन लेक्ष्यतेऽध्यवसीयते' इति कृत्वा । तदुक्तम् "अतद्रूपपरावृत्तवस्तुमात्रप्रसाधनात् । __ सामान्यविषयं प्रोक्तं लिङ्ग भेदाप्रतिष्ठितः" ॥ [ ___] इति । ५ तेन साहचर्यमपि लिङ्ग-शब्दयोः स्वलक्षणेनैव कथ्यते । न चाप्यदर्शनमात्रेणास्माभिर्विपक्षे लिङ्गस्थाभावोऽवसीयते, किं तर्हि ? अनुपलम्भविशेषादेव । ___ यञ्चोक्तम्-'शाबलेय'-इत्यादि, तत्रेदं भवान् वक्तुमर्हति-'शाबलेयाद् बाहुलेयाऽश्वयोस्तुल्येऽपि भेदे किमिति तुरङ्गमपरिहारेण गोत्वं शाबलेयादौ वर्तते नाश्वे' इति ? स्यादेतत् किमत्र वक्तव्यम् ? गोत्वस्याभिव्यक्तौ शाब-१० लेयादिरेव समर्थो नाश्वादिः; अतस्तत्रैव तद् वर्तते नान्यत्र । न चायं पर्यनुयोगो युक्तः 'कस्मात् तस्याभिव्यक्तौ शाबलेयादिरेव समर्थः' ? यतो वस्तुस्वभावप्रतिनियमोऽयम् ; न हि वस्तूनां स्वभावाः पर्यनुयोगमर्हन्ति तेषां स्वहेतुपरम्पराकृतत्वात् स्वभावभेदप्रतिनियमस्येति । नन्वेवं या शाबलेयादिरेव गोत्वाभिव्यक्तौ समर्थस्तथा सत्यपि भेदे सामान्यमन्तरेणापि तुल्यप्रत्यवमर्शोत्पादने शाबलेयादिरेव शक्तो न तुरङ्गम इत्यस्मत्पक्षो न विरुध्यत एव । तेन "तादृक् प्रत्यवमर्शश्च विद्यते यत्र वस्तुनि । तीभावेऽपि गोजातेरगोपोहः प्रवर्तते" ॥ [ तत्त्वसं० का० १०६० ] यञ्चोक्तम्-'इन्द्रियैः' इत्यादि, तदसिद्धम् ; तथाहि-खंलक्षणात्मा तावदपोह इन्द्रियैरवगम्यत एव, यश्चार्थप्रतिबिम्बात्माऽपोहः स परमार्थतो बुद्धिखभावत्वात् स्वसंवेदनप्रत्यक्षत एव सिद्धः, १-णो विरु-भां० मा० विना। २ तहि वा. बा.। ३ तदेवं का।। "अविवक्षितभेदं च तदेव परिकीर्तितम् । सामान्यलक्षणत्वेन नानिष्टेरपरं पुनः" ॥ तत्त्वसं० का० १०५७ पृ०३३० । ४-वक्षितं भे-आ० हा०वि०।-वक्षितमविवक्षितभे-वा.बा। "अविवक्षितभेदस्य स्खलक्षणस्यैव सामान्यलक्षणत्वात्"-शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ. ४०३ प्र.पं० १३। ५ "लक्ष्यते व्यवसीयते"-तत्त्वसं० पजि० पृ. ३३० पं० ११। ६ “यदुक्तं धर्मकीर्तिनाअतद्रूपपरावृत्तवस्तुमात्रप्रवेदनात् । सामान्यविषयं प्रोक्तं लिग भेदाप्रतिष्ठितेः" ॥ इति अष्टस० पृ. २८ पं० १५। "'भेदाप्रतिष्ठितेः' भेदाप्रतिष्ठितेर्विशेषागोचरत्वात्"-वाचकयशोवि० अष्ट. टी० लि. प्र. पृ. १८ द्वि. पं०१० भाण्डा०॥ "अतद्रूपपरावृत्तवस्तुमात्रसमाश्रयात्"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ३३० पं० १३ । ७ लिङ्गमेदाप्रतिष्ठतेरिति आ०। ८-ष्ठितैरिति कां०। ९ पृ० १९० पं० १४ । १. "शबलापयतो भेदे बाहुलेयाऽश्वयोः समे । तुरङ्गपरिहारेण गोत्वं किं तत्र वर्तते" ॥ तत्त्वसं० का० १०५८ पृ० ३३० । ११-दे पि कि-आ० हा०। १२ किमपि वा० बा० विना । १३ "न च पर्यनुयोगोऽस्ति वस्तुशतः कदाचन ॥ “वहिर्दहति नाऽऽकाशं कोऽत्र पर्यनुयुज्यताम्"। श्लो० वा. आकृ० श्लो० २८-२९ पृ० ५५२ । १४ "तस्य व्यक्तौ समर्थात्मा स एवेति यदीष्यते । तुल्यप्रत्यवमर्शेऽपि स शक्तो न तुरङ्गमः" ॥ तत्त्वसं० का० १०५९ पृ० ३३० । १५-मामेदेऽपि भां. मा. विना। १६ पृ० १९. पं० १९ तथा ३५। १७ “अगोभिन्नं च यद् वस्तु तदक्षैर्व्यवसीयते । प्रतिबिम्बं तदध्यस्तं खसंवित्त्याऽवगम्यते" ॥ "इदं दृष्टा च लोकेन शन्दस्तत्र प्रयुज्यते । संबन्धानुभवोऽप्यस्य व्यक्तं तेनोपपद्यते"॥ तत्त्वसं० का० १०६१-१०६२ पृ०३३१॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ प्रथमे काण्डे-- प्रसह्यात्माऽपि सामर्थ्यात प्रतीयत एव 'न तदात्मा परात्मा' इति न्यायात्; अतः स्वलक्षणादिरपैमपोहं दृष्ट्वा लोकः शब्दं प्रयुत एव न वस्तुभूतं सामान्यम्। तस्याऽसत्त्वात् अप्रतिभासनाच। यदेव च दृष्ट्वा लोकेन शब्दः प्रयुज्यते तेनैव तस्य सम्बन्धोऽवगम्यते नान्येन अतिप्रसङ्गात् । यच्चे-'अगोशब्दाभिधेयत्वं गम्यतां च कथं पुनः' इति, ५अत्र "तादृक् प्रत्यवमर्शश्च यत्र नैवास्ति वस्तुनि । अगोशब्दाभिधेयत्वं विस्पष्टं तत्र गम्यते" ॥ [ तत्त्वसं० का० १०६३ ] यच्चोक्तम् 'सिद्धश्चागौरंपोह्येत' इत्यादि, १० तत्र, स्वत एव हि गवादयो भावाः भिन्न प्रत्यवमर्श जनयन्तो विभागेन सम्यग् निश्चिताः, तेषु व्यवहारार्थ व्यवहर्तृभिर्यथेषं शब्दः सिद्धः प्रयुज्यते । तथाहि-यदि भिन्न वस्तु स्वरूपप्रतिपत्त्यर्थमन्यपदार्थग्रहणमपेक्षते तदा स्यादितरेतराश्रयदोपः यावताऽन्यग्रहणमन्तरेणैव भिन्नं वस्तु संवेद्यते; तस्मिन् भिन्नाकारप्रत्यवमर्शहेतुतया विभागेन 'गो!ः' इति च सिद्धे यथेष्टं सङ्केतः क्रियते इति कथमितरेतराश्रयत्वं भवेत् ? १५. यच्चोक्तम्-'नाधाराधेय'-इत्यादि, तंत्र, न हि परमार्थतः कश्चिदपोहेन विशिष्टोऽर्थः शब्दैरभिधीयते । तेनैव यतः प्रतिपादितमेतत्-'यथा न किञ्चिदपि शब्दैवस्तु संस्पृश्यते, क्वचिदपि समयाभावात' इति । तथाहि-शाब्दी बुद्धिरबाह्यार्थविषयाऽपि सती स्वाकारं वाह्यार्थतयाऽध्यवस्यन्ती जायते, न परमार्थतो वस्तुस्वभावं स्पृशति यथातत्त्वमनध्यवसायात् । यद्येवम् कथमाचार्येणोक्तम्२० "नीलोत्पलादिशब्दा अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टानर्थानाहुः" [ ] इति । "अर्थान्तरनिवृत्त्याह विशिष्टानिति यत् पुनः । प्रोक्तं लक्षणकारेण तत्रार्थोऽयं विवक्षितः" ॥ "अन्यान्यत्वेन ये भावा हेतुना करणेन वौ। विशिष्टा भिन्नजातीयैरसङ्कीर्णा विनिश्चिताः" ॥ "वृक्षादीनाह तान् ध्वानस्तद्भावाध्यवसायिनः । शानस्योत्पादनादेतज्जात्यादेः प्रतिपेधनम्" ॥ "बुद्धौ येऽर्था विवर्तन्ते तोनाह जननादयम् । निवृत्त्या च विशिष्टत्वमुक्तमेपामनन्तरम्" ॥ [ तत्त्वसं० का० १०६८-१०६९-१०७०-१०७१] १ न व त-बा०। २ पृ० २०३६० २३। ३-पस्यापो-बा०। ४ यथा गो-वि० वा० बा० । ५ पृ० १९०५० २५ तथा ४१। ६ पृ. १९१ पं० ४-१३ तथा ३१। ७-रपोहेत बा० । ८ "गावोऽगावश्च संसिद्धा भिन्नप्रत्यवमर्शतः । शव्दस्तु केवलोऽसिद्धो यथेष्टं संप्रयुज्यते" ॥ "न ह्यन्यग्रहणं वस्तु भिन्नं वित्तावपेक्षते । अन्योन्याश्रयदोपोऽयं तस्मादस्मिन्निरास्पदः"॥ तत्त्वसं० का० १०६४-१०६५ पृ. ३३१। ९ शब्दसिद्धः मां० । “शब्दोऽसिद्धः"-तत्त्वसं० पनि० पृ. २३२ पं०३। १०-मपेक्ष्यते भां० मां० आ० कां। ११-इति सि-वा. बा० । १२-सङ्केतक्रिय ति(येति)क-वा. वा०। १३ पृ. १९१ पं. ८ तथा ३३ । १४ पृ. १९१ पं० २१। १५ तन्न न हि वा० बा० । १६ “अवेद्यबाह्यतत्त्वाऽपि प्रकृष्टोपालवादियम् । खोल्लेख बाह्यरूपेण शब्दधीरध्यवस्यति" ॥ "एतावत् क्रियते शब्दैर्नार्थ शब्दाः स्पृशन्त्यपि । नापोहेन विशिष्टश्च कश्चिदर्थोऽभिधीयते" ॥ तत्त्वसं. का. १०६६-१०६७ पृ० ३३२ । १७-तः क्वचिद-भां० मां० विना। १८-यते तेन्नैव च तपादित-वा० बा०।-यते तेनैवं यंतःप्रतिपादित-आ०। "अभिधीयते। यतःप्रतिपादितमेतत्"-तत्त्वसं० पृ. ३३२ ५०१३। १९ पृ० १९१ पं० १९। २० शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० ४०४ द्वि. पं०५। २१ नाहरित्यार्था-आ० हा०। २२ "अर्थान्तरनिवृत्त्याहुर्वि"-तत्त्वसं०। २३ शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० ४०४ द्वि. पं० ९। २४-तास्तुन सद्भा-वा० बा०। २५ "तानाहाभ्यन्तरानयम्"-तत्त्वसं०। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २१३ अस्य तात्पर्यार्थः द्विविधो ह्यर्थः-बाह्यो बुद्ध्यारूढश्च । तत्र बाह्यस्य न परमार्थतोऽभिधानं शब्दैः, केवलं तदध्यवसायिविकल्पोत्पादनादुपचारादुक्तम् 'शब्दोऽर्थानाह' इति । उपचारस्य च प्रयो. जनं जात्यभिधाननिराकरणमिति । अवयवार्थस्तु-अन्यान्यत्वेन' इति अन्यस्मादन्यत्वं व्यावृत्तिस्तनान्यान्यत्वेन हेतुना करणेन वा ये वृक्षादयो भावा विशिष्टा निश्चिता अन्यतो व्यावृत्ता निश्चिता इति यावत् ; एतेन 'अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टान्' इत्यत्र पदे 'निर्वृत्ता' इति (निवृत्त्या' इति) ५ तृतीयार्थो व्याख्यातः । 'ध्वानः' इति शब्दः। यस्तु बुझ्यारूढोऽर्थस्तस्य मुख्यत एव शब्दैरभिधानम् । 'अयम्' इति ध्वानः । अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टत्वं कथमेषां योजनीयमित्याशय 'निवृत्त्या विशिष्टत्वमुक्तमेषामनन्तरम्' इत्युक्तम् । एषामपि बुद्धिसमारूढानामनामन्यतो व्यावृत्ततया प्रतिभासनादित्यभिप्रायः। ___ ननु यदि न कश्चिदेव वस्त्वंशः शब्देन प्रतिपाद्यते तत् कथमुक्तमाचार्येण-"अर्थान्तरनिवृत्त्या १० कश्चिदेव वस्तुनो भागो गम्यते" [ ] इति, अर्थान्तरपरावृत्तदर्शनद्वारायातत्वात् बुद्धिप्रतिविम्बकमर्थान्तरपरावृत्ते वस्तुनि भ्रान्तैस्तादात्म्येनाऽऽरोपितत्वोच्चोपचाराद् 'वस्तुनो भागः' इति व्यपदिष्टम् । ननु चार्थान्तरनिवृत्तिर्वाद्यवस्तुगतो धर्मः; सा कथं प्रतिबिम्बाधिगमे हेतुभावं करणभावं वा प्रतिपद्यते येन निवृत्ता' इति (निवृत्त्या' इति) उच्यत इति, उच्यते; यदि हि विजातीयाद् व्यावृत्तं वस्तु न स्यात् तदा न तत्प्रतिविम्बकं विजातीयपरावृत्तवस्त्वात्मनाऽ-१५ ध्यवसीयते तस्मादर्थान्तरपरावृत्तेर्हेतुभावः करणभावश्च युज्यत एव । 'न चान्यरूपमन्यादृक् कुर्याद् ज्ञानं विशेषणम्' इत्यादावपि, यदि ह्यन्यव्यावृत्तिरेभावरूपा वस्तुनो विशेषणत्वेनाभिप्रेता स्यात् तदेतत् ( तदैतत् ) सर्व दूषणमुपपद्येत यावता वस्तुस्वरूपैवान्यव्यावृत्तिर्विशेषणत्वेनोपादीयते तेन विशेषणानुरूपैव विशेष्ये बुद्धिर्भवत्येव । तथाहि-अंगोनिवृत्तिर्यो गौरभिधीयते सोऽश्वादिभ्यो यदन्यत्वं तत्स्वभावैव२० नान्या; ततश्च यद्यप्यसौ व्यतिरेकेणागोनिवृत्तिः 'गौः' इत्यभिधीयते भेदान्तरप्रतिक्षेपेण तन्मात्रजिज्ञासायाम् तथापि परमार्थतो गोरात्मगतैव सा-यथाऽन्यत्वम् न हि अन्य (अन्यत्वं) नाम अन्यस्माद् वस्तुनोऽन्यत्-अन्यथा तद् वस्तु ततो भिन्नमित्येतन्न सिद्धयेत् । तस्मात् विशेषणभावेऽ १-र्थः स द्वि-वि. कां०।-र्थः सिद्वि-आ. हा० । २ शब्दो नार्थोनाह वा० बा० । ३-नान्यत्वे-भां० मां कां० विना। ४-ना कारणे-वा. बा०। ५ पृ० २१२ पं० २० । ६-शिष्टमित्य-वा. बा०। ७ ""निवृत्त्या' इति तृतीयार्थो व्याख्यातः"-तत्त्वसं० पजि० पृ० ३३३ पं० ५। ८ “अथार्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टत्वम्"-तत्त्वसं० पजि० पृ० ३३३ पं० ११। ९ पृ० २१२ पं० २८। १०-त्यपि भि-वा० बा० । ११ “अर्थान्तरपरावृत्त्या गभ्यते तस्य वस्तुनः । कश्चिद् भाग इति प्रोक्तं तदेव प्रतिबिम्बकम् ॥ “अर्थान्तरपरावृत्तवस्तुदर्शनसंश्रयात् । आगतेस्तत्र चारोपात् तस्य भागोऽपदिश्यते" ॥ "हेत्वर्थः करणार्थश्च पूर्ववत् तेन वाऽऽत्मना । यदि वस्तु विजातीयान स्याद् भिन्नं न तत् तथा" ॥ तत्त्वसं० का० १०७२-१०७३-१०७४ पृ. ३३३ । १२-त्वाद्वापचा-वा० बा०। १३ न चा-वा० बा० । १४-भावं कारण-वा. बा. कां. विना। १५भां० मां० वा. बा० विना। १६-वृत्तोत्यु-वा० बा० । १७-वसीयेत भां० मां०। १८-श्व प्रयु-वा. बा० । १९ पृ० १९२ पं० ९-२२ तथा ३३ । २० "अगोनिवृत्तिरन्यत्वं तस्य चात्मगतैव सा । भेदोक्तावप्यभावस्तु केवलो न निवर्तते" ॥ "तद्विशेषणभावेऽपि वस्तुधीन विहीयते । कल्पनानिर्मितं चदमभेदेऽपि विशेषणम्" ॥ "सोऽपकृष्य ततो धर्मः स्थापितो भेदवानिव । येन दण्डादिवत् तस्य जायते हि विशेषणम्" ॥ तत्त्वसं. का. १०७५-१०७६-१०७७ पृ. ३३४ । २१ "यदि ह्यन्यव्यावृत्ति वरूपा वस्तुनो विशेषणत्वेनाभिप्रेता स्यात् तदैतत्"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ३३४ पं० १५। २२ "अगोनिवृत्तिर्या गोरभिधीयते साऽश्वादिभ्यः"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ३३४ पं० १७। २३-यते साश्वा-वा० बा० । २४-भावेव वा. बा०। २५ यदप्य-वा. बा. हा०वि०। यदिप्य-आ०। २६-तो गौरा-आ० हा० कां. विना। २७-त्वम् नामान्यस्मा-मां० विना । “यथाऽन्यत्वम्, न हि अन्यत्वं नाम अन्यस्माद् वस्तुनोऽन्यत्"तत्त्वसं० पजि. पृ. ३३४ पं० २०। २८-न्यद स्तु ततो वा० बा०। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ प्रथमे काण्डे प्यन्यव्यावृत्तेर्विशेष्ये वस्तुधीर्भवत्येव । अथ व्यतिरिक्तमेव विशेषणं लोके प्रसिद्धम्। यथा-दण्डः पुरुषस्य, व्यावृत्तिश्चाव्यतिरिक्ता वस्तुनः; तत् कथमसौ तस्य विशेषणम् ? असदेतत्; न हि परमार्थेन किश्चित् कस्यचिद् विशेषणम् अनुपकारकस्य विशेषणत्वायोगात्, उपकारकत्वे चाङ्गीक्रियमाणे कार्यकाले कारणस्यानवस्थानाद् अयुगपत्कालभाविनोर्विशेषणविशेष्यभावोऽनुपपन्नः, युगपत्काल५भावित्वेऽपि तदानीं सर्वात्मना परिनिष्पत्तेन परस्परमुपकारोऽस्तीति न युक्तो विशेषणविशेष्यमाव इति सर्वभावानां स्वस्वभावव्यवस्थितेरयःशलाकाकल्पत्वात् कल्पनया अमीषां मिश्रीकरणम् । अतः परमार्थतो यद्यपि घ्यावृत्ति-तद्वैतोरभेदस्तथापि कल्पनारचितं भेदमाश्रित्य विशेषणविशेष्यभावोऽपि भविष्यति। यञ्चोक्तम्-'यदा वाऽशब्दवाच्यत्वान्न व्यक्तीनामपोह्यता' इत्यादि, १०तत्र 'व्यक्तीनामवाच्यत्वात' इत्यसिद्धम । तथाहि-यद व्यक्तीनामवाच्यत्वमस्माभिर्वर्णितं तत परमार्थचिन्तायाम् न पुनः संवृत्यापि; तया तु व्यक्तीनामेव वाच्यत्वमविर्चारितरमणीयतया प्रसिद्धमिति कथं नासिद्धो हेतुः ? अथ पारमार्थिकमवाच्यत्वं हेतुत्वेनोपादीयते तदाऽपोह्यत्वमपि परमार्थतो व्यक्तीनां नेष्टमिति सिद्धसाध्यता। यञ्चोक्तम्-'तदापोह्येत सामान्यम्' इत्यादि, १५ तत्रापि 'अपोह्यत्वात्' इत्यस्य हेतोरसिद्धत्वमनैकान्तिकत्वं च, व्यक्तीनामेवापोहस्य प्रतिपादितत्वात्। न चापोहेऽपि वस्तुता, साध्यविपर्यये हेतोर्वाधकप्रमाणाभावात् । येदपि-'अभावानामपोह्यत्वं न' इत्यादि, "नाभावोऽपोह्यते होवं नाभावो भाव इत्ययम। भावस्तु न तदात्मेति तस्येष्टैवमपोह्यता"॥ “यो नाम न यदात्मा हि स तस्यापोह्य उच्यते । न भावोऽभावरूपश्च तदपोहे न वस्तुता" ॥ [ तत्वसं० का० १०८१-१०८२] 'नीभावः' इत्येवमभावो नापोह्यते येनाभावरूपतायास्त्यागः स्यात्, किं तर्हि ? भावो यः स विधिरूपत्वाभावरूपविवेकेनावस्थित इति सामर्थ्यादपोह्यत्वं तस्याभावस्येष्टत्वम् (प्टम्) तदेव स्पष्टीकृतम् 'यो नाम' इत्यादिश्लोकेन । 'तदपोहे' इति तस्याभावस्यैवमपोहे सति न वस्तुता २५प्राप्नोति । अत्रोभयपक्षप्रसिद्धोदाहरणप्रदर्शनेनानैकान्तिकतामेव स्फुटयति "प्रकृतीशादिजन्यत्वं न हि वस्तु प्रसिद्ध्यति" ॥ "नातोऽसतोऽपि भावत्वमिति क्लेशो न कश्चने"। [तत्त्वसं० का० १०८३-१०८४] १-कत्वे वाङ्गी-भां० मा० विना। २-कारो नास्ति वा०। ३-द्वतोऽभेद-वि० ।-द्वतो भेद-आ. हा० कां० । ४ पृ० १९३ पं० २० तथा ३६। ५-दा चाऽ-भां० मां०। ६ पृ० १९३ पं० २० । __७ “प्रतिभासश्च शब्दार्थ इत्याहुस्तत्त्वचिन्तकाः। दृश्य-कल्पा(ल्प्या)विभागज्ञो लोको बाह्यं तु मन्यते" ॥ "तस्यातोऽध्यवसायेन व्यक्तीनामेव वाच्यता । तत्त्वतश्च न शब्दानां वाच्यमस्तीति साधितम्" ॥ तत्त्वसं० का० १०७८-१०७९ पृ. ३३५। ८-चारितमरम-आ०। ९-वाच्यं हे-भां० मां० वा० बा० विना । १० पृ० १९३ पं० २१ तथा ३६ । ११ तदपो-भां० मां० । १२ पृ० १९३ पं० २६ । १३-मनेका-वा. वा० । "इत्थं च शब्दवाच्यत्वाद् व्यक्तीनामस्त्यपोह्यता । सामान्यस्य तु नापोहो न चापोहेऽपि वस्तुता"। तत्त्वसं० का० १०८० पृ० ३३५ । १४-माणभा-आ० हा०वि०। १५ यद्यपिऽभा-वा० बा० । पृ० १९३ पं० २२ तथा ४१। १६-दिनाच ना भावो पोह्य-आ० हा० वि० ।-दिना भावो पोह्यमिति नामावोह्यते त्येवं वा० बा०। १७ "तस्यापोह उच्यते"-तत्त्वसं०। १८ शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०५ प्र० पं० ८-९। १९ न भाव-वा० बा०। २०-भापास्पष्टत्वम् भां० मां० ।-भावं स्पेष्टत्वं हा० । वा० बा० प्रतौ तु नैष पाठः । “तस्याभावस्येष्टम्"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ३३५ पं० २८ । २१ पृ. २१४ पं० २० । २२-हे ईति भां. मां० । २३ शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० ४०५ प्र. पं० १०।। अस्य पूर्वार्ध तु-"प्रकृतीशादिजन्यत्वं वस्तूनां नेति चोदिते"-तत्त्वसं०। २४ उत्तरार्ध त्वस्य-"तस्य सिद्धौ च सत्ताऽस्ति सा चाऽसत्ता प्रसिद्ध्यति"-तत्त्वसं० । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा। २१५ तथाहि-प्रकृति-ईश्वर-कालादिकृतत्वं भावानां भवद्भिर्मीमांसकैरपि नेष्यत एव, तस्य च प्रतिषेधे सत्यपि यथा न वस्तुत्वमापद्यते तथा अपोह्यत्वेऽप्यभावस्य वस्तुत्वापत्तिर्न भविष्यतीत्यनेकान्तः। यदुक्तम्-तत्रासतोऽपि वस्तुत्वमिति क्लेशो महान् भवेत्' इति, तदप्यनेनैवानैकान्तिकत्वप्रतिपादनेन प्रतिविहितमिति दर्शयति 'नातोऽसतोऽपि' इत्यादिना । ' 'तदसिद्धौ नै सत्ताऽस्ति न चासत्ता प्रसिद्ध्यति' ॥ इति । अत्र अभावस्य यथोक्तेन प्रकारेणासिद्धावपि भावस्य सत्ता सिङ्ख्यत्येव, तस्य स्वस्वभावव्यवस्थितत्वात । या च भावस्य यथोक्तेन प्रकारेण सिद्धिः सैव सत्तेति प्रसिद्ध्यति । एतदेवोक्तम् "अगोतो विनिवृत्तश्च गौर्विलक्षण इष्यते। ___भाव एव ततो नायं गौरगौम प्रसज्यते" ॥ [ तत्त्वसं० का० १०८५] 'भाव एव भवेत्' इंति, एतन्नानिष्टापादनम् इष्टत्वात् । तथाहि-अगोरूपाश्वादेर्भािवविशेषरूप एव १० विलक्षण इष्यते नाभावात्मा; तेन भाव एव भवेत्, अगोतश्च 'गोर्वैलक्षण्यस्येष्टत्वादगोन गोत्वप्रसङ्गः। एतेन यदुक्तम् 'अभावस्य च योऽभावः' इत्यादि, तत् प्रतिविहितम् । यञ्चोक्तम्- 'न ह्यवस्तुनि वासना' इति, तत् असिद्धमनैकान्तिकं च । यतः "अस्तुविषयेऽप्यस्ति चेतोमात्रविनिर्मिता। विचित्रकल्पनाभेदरचितेष्विव वासना" ॥ "ततश्च वासनाभेदाद् भेदः सद्रूपतापि वा। प्रकल्प्यतेऽप्यपोहानां कल्पनारचितेष्विव" ॥ [ तत्वसं० का० १०८६-१०८७ ] 'अवस्तुविषयं चेतो नास्ति' इति, एतदसिद्धम् । ताँहि-उत्पाद्यकथाविषयसमुद्भूतवस्त्वाकारसमारोपेण प्रवर्तत एंव चेतः तथा(च्चा)ऽनागतसजातीयविकल्पोत्पत्तये अनन्तरचेतसि वासनी-२० माधत्त एव; यतः पुनरपि सन्तानपरिपाकवेशात् प्रबोधकप्रत्ययमासाद्य तथाविधमेव चेतः समुपजायते, तद्वदैपोहानामपि परस्परतो भेदः सद्रूपता च कल्पनावशादू भविष्यतीस्यनैकान्तिकता। ___'शब्दभेदोऽप्यपोहनिमित्तो न युक्तः' इति, अत्र "यादृशोऽर्थान्तराँपोहः प्रतिबिम्बात्मको वाच्योऽयं प्रतिपादितः। १ शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ०४०५ प्र. पं०४। २ पृ० १९४ पं० १४ तथा ३२ । ३ पृ० २१४ पं० २७ । ४ नवस-वा. बा० । न वा स-आ० हा० वि० । ५ पृ. १९४ पं० १४ तथा ३२। ६ “प्रकारेण सिद्धौ सत्यामपि भावस्य सत्ता सिख्यत्येव तस्य स्वखभावव्यवस्थितत्वात् । या चाऽभावस्य"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ. ३३६ पं० १८। ७ आगोतो आ० हा० वि० वा० बा० । अगौतो मा० । “अगोतो विनिवृत्तिश्च"-तत्त्वसं.। "अगोतो विनिवृत्तेश्च'-शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० ४०५ प्र. पं. १३ । ८-श्च गोर्वि-आ० हा. वि. कां०। ९ पृ. १९४ पं०७ तथा २३। १. गोविलक्षण्यस्ये-आ. हा. वि. का. । गो वैलक्षण्यस्ये-वा. बा०। ११ पृ० १९४ पं० ६ तथा २३ । १२-वश्व व यो-वा० बा०। १३ पृ० १९५ पं० ४ तथा २८ । १४-वस्तुनिविष-आ० हा० :। १५-तापिच कां । “-पि च-" तत्त्वसं०। शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ०४०५ द्वि०पं०१। १६ शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. ४०५ प्र. पं० १४ तथा द्वि०पं० १ १७ पृ. १९५ पं० ४ तथा २८। १८-थाात्पोह्यक-भां० मां० । -थाापोह्यक-आव्हा. वि०।-थाह्यपोह्यक-कां० । “तथाहि-उत्पाद्यकत्वा(ल्प ?)विषय"-तत्त्वसंपजि.पृ०३३७ पं. ८ । “अपोहभेद-सत्तयोश्च तथाविधवासनामूलविकल्पविषयत्वात् कल्पितवृत्तान्तार्थायुपस्थित्यनुरोधेनाऽवस्तुन्यपि वासनोपगमात्"-शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. ४०५ प्र. पं० १२। १९-षयासमु-वा० वा०। २० एव चेतस्तु नाग-आ० । एव चेतस्तुत्वाऽनाग-हा०वि०। एव चेतनच्चाऽनाग-कां० । एवस्तुत्वाऽनाग-वा० १०। “एव चेतः तच्चाऽनागतसजातीयविकल्पोत्पत्तये"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ३३७ पं०९। २१-ना समाध-भां० । २२-वशा अबोधप्रत्यय-आ० हा० वि० वा. बा०।-वशाद् अबोधप्रत्यय-कां। २३-थाविध एव .. हा०वि०।२४-दपोह्याना-वा० बा०। २५ पृ० १९५ पं० १८। २६-रापोहप्रति-भां० मा० । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ प्रथमे काण्डे-- शब्दान्तरव्यपोहोऽपि ताटगेव प्रतिबिम्बात्मक एवावगम्यते" ॥ [ तत्त्वसं० का० १०८८] इति पाचकापोहपक्षेऽपि दूषणं विस्तरतः प्रतिपादितमयुक्तं द्रष्टव्यम्। 'अगम्यगमकत्वं स्यात्' इति, ५अत्र प्रयोगेऽपि यदि 'अवस्तुत्वात्' इति सामान्येनोपादीयते तदा हेतुरसिद्धः यतः प्रति बिम्बात्मनोर्वाच्य-वाचकापोहयोर्वाह्यवस्तुत्वेन भ्रान्तैरवसितत्वात् सांवृतं वस्तुत्वमस्त्येव । अर पारमार्थिकमवस्तुत्वमाश्रित्य हेतुरभिधीयते तदा सिद्धसाध्यता नहि परमार्थतोऽस्माभिः किञ्चिद वाच्यं वाचकं चेष्यते । यत उक्तम् - "न वाच्यं वाचकं चास्ति परमार्थेन किञ्चन। क्षणभङ्गिपु भावेषु व्यापकत्ववियोगतः" ॥[तत्त्वसं० का० १०९०] क्षणिकत्वेन सङ्केतव्यवहाराप्तकालव्यापकत्वाभावात् स्वलक्षणस्येति भावः । स्यादेतत् नामाभिस्तात्त्विको वाच्यवाचकभावो निषिध्यते, किं तर्हि ? तात्त्विकीमपोहयोरवस्तुतामाश्रित्य सांवृतमेव गम्यगमकत्वं निषिध्यते ने भाविकम्: तेन (तेन न) हेतोरसिद्धतापि (ता, नापि) सिद्धसाध्यता प्रतिज्ञादोषो भविष्यतिः द्वयोरपि हि सांवृतत्वे तात्त्विकत्वे वाऽऽश्रीयमाणे स्यादेतद् दोषद्वयमिति, १५ नैवम्; हेतोरनैकान्तिकताप्रसक्तेः कल्पनारचितेपु हि महाश्वेतादिष्वर्थेषु तद्वाचकेषु च शब्देषु परमार्थतो वस्तुत्वाभावेऽपि सांवृतस्य वाच्यवाचकभावस्य दर्शनात् । स्यादेतत् तत्रापि महाश्वेता. दिषु सामान्यं वाच्यं वाचकं च परमार्थतोऽस्त्येव ततो न तैर्व्यभिचारः, असदेतत्: सामान्यस्य विस्तरेण निरस्तत्वात् न तेषु सामान्यं वाच्यं वाचकं वा महाश्वेतादिष्वस्तीति कथं नानकान्तिकता हेतोः? स्यादेतत् यद्यपि तत्र वस्तुभूतं नास्ति सामान्यं वाच्यम् वाँचकं (कं तु) महाश्वेतादिशब्द२० स्वलक्षणमस्त्येव, न; सर्वपदार्थव्यापिनः क्षणभङ्गस्य प्रसाधितत्वान्न शब्दस्वलक्षणस्य वाचकत्वं युक्तम्, क्षणभङ्गित्वेन तस्य सङ्केतासम्भवात् व्यवहारकालानन्वयाच्चेति प्रतिपादितत्वात्। "तस्मात् तद् द्वयमेष्टव्यं प्रतिविम्बादि सांवृतम् । तेषु तद् व्यभिचारित्वं दुर्निवारमतः स्थितम्"॥ [तत्त्वसं० का० १०९४ ] १-रद्यपो-वा० बा० । २ "यादृशोऽर्थान्तरापोहो वाच्योऽयं प्रतिपादितः । शब्दान्तरव्यपोहोऽपि ताहगेवावगम्यताम्" ॥ तत्त्वसं० का० । ३-तमुक्तं द्र-भां० मा० विना। ४ अगम्यं भां. मां० विना। ५ पृ० १९५ पं० २४ तथा ४३ । ६ “वस्त्वित्यध्यवसायत्वान्नाऽवस्तुत्वमपोहयोः । प्रसिद्धं सांवृते मार्गे तात्त्विके त्विष्टसाधनम् ॥ तत्त्वसं० का० १०८९ पृ. ३३७ । ७-मस्त्वेवाप पर-वा० बा०। ८-कं वेष्य-भां० । ९-कं वास्ति वा० बा० । १० शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. ४०५ द्वि० पं० १०। ११-हारऽप्तका-वा० बा०। १२ नाभाविक-आ० हा०वि० । “न भाविकम् , तेन न हेतोरसिद्धता, नापि सिद्धसाध्यता प्रतिज्ञादोषः"-तत्त्वसं० पञ्जि.पृ० ३३८ पं०५।१३-ति नैव हे-आ० हा०। १४ “तद् गम्यगमकत्वं चेत् सांवृतं प्रतिषिध्यते । तात्त्विकी समुपाश्रित्य विनिवृत्त्योरवस्तुताम्" ॥ "तथापि व्यभिचारित्वं दुर्वारमनुषज्यते । विकल्परचितैरथैः शब्दैस्तद्वाचकैरपि" ॥ तत्त्वसं. का. १०९१-१०९२ पृ. ३३८ । १५ शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०५ द्वि० ५० ११। १६ पृ० ११० पं० ८-पृ० ११३ पं० २८ । १७ “नहि तेष्वस्ति सामान्य वाच्यं तस्य च वाचकम् । न वाचकत्वं शब्दस्य क्षणभनि खलक्षणम्" ॥ तत्त्वसं. का. १०९३ पृ. ३३८ । १८ वाचकं च महा-वा. बा. विना । “वाचकं तु"-तत्त्वसं० पजि० पृ. ३३८ पं० २१ । १९ शब्दलक्षणवाच-भा. मा. विना। २.-ङ्गित्वे च तस्य संकेतनासंभ-वा. बा०। २१ पृ. १७५ पं०५ तथा ३०। २२ शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० ४०५ द्वि०पं० १३ । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २१७ विम्' इति वाच्यं वाचकं च, 'प्रतिविम्बादि' इति आदिशब्देन निराकारमानाभ्युपगमेऽपि स्वगतं किश्चित् प्रतिनियतमनर्थेऽर्थाध्यवसायिरूपत्वं विज्ञानस्यावश्यमङ्गीकर्तव्यमिति दर्शयति. 'इति कल्पनोपरचितेष्वर्थषु, 'तद्' इति तस्मात् तस्य वा हेतोय॑मिचारित्वं तद्यभिचारित्वम् । विषिरूपम शब्दार्थो येन नाभ्युपगम्यते' इति, अत्रापि न ह्यस्माभिः सर्वथा विधिरूपः शब्दार्थो नाभ्युपगम्यते-येनेतद् भवताऽनिष्टत्वप्रसङ्गापादनं क्रियते-किन्तु शब्दार्था(ब्दादर्था)ध्य- ५ बसायिनचेतसः समुत्पादात् संवृतो (सांवृतो) विधिरूपः शब्दार्थोऽभ्युपगम्यत एव । तत्त्वतस्तु न किशिद वाच्यमस्ति शब्दानामिति विधिरूपस्तात्त्विको निषिध्यतेः तेन सांवृतस्य विधिरूपस्य शब्दार्थस्येष्टत्वात् स्वार्थाभिधाने विधिरूपे सत्यन्यव्यतिरेकस्य सामर्थ्यादधिगते वि(तेविधिपूर्वको व्यतिरेको युज्यत एव । स्यादेतत् यदि विधिरूपः शब्दार्थोऽभ्युपगम्यते कथं तर्हि हेतुमुखे लक्षणकारेण "असम्भवो विधिः” [ हेतु० ] इत्युक्तम् ? सामान्यलक्षणादेर्वाच्यस्य १० वाचकस्य वा असम्भवात् परमार्थतः, शब्दानां विकल्पानां च परमार्थतो विषयासम्भवात् परमार्थमाश्रित्य विधेरसम्भव उक्त आचार्येण इत्यविरोधः। _ 'अपोहमात्रवाच्यत्वम्' इत्यादावपि एकमेवानीलानुत्पलव्यावृत्ताकारमुभयरूपं प्रतिबिम्बकं नीलोत्पलशब्दादुदेति नाभावमाअम्; अतः शैबलार्थाऽध्यवसायित्वमध्यवसायवशान्नीलोत्पलादिशब्दानामस्त्येवेति तदनुरोधात् १५ सामानाधिकरण्यमुपपद्यत एव । यच्चोक्तम् 'अथान्यापोहवद् वस्तु वाच्यमित्यभिधीयते' इति, तेत्रापि यदि हि व्यावृत्ताद् भावाद् व्यावृत्तिर्नामान्या भवेत् स्यात् तदा तद्वत्पक्षोदितदोषप्रसङ्गः यावता नान्यतो व्यावृत्ताद भावादन्या व्यावृत्तिरस्ति अपि तु व्यावृत्त एव भावो भेदान्तरप्रतिक्षेपेण तन्मात्रजिज्ञासायां तथाऽभिधीयतेः तेन यथा जातो प्राधान्येन वाच्यायां पारतन्येण २० १-व्यवसा-भा०मा० विना। "प्रतिनियतमनर्थेऽर्थाध्यवसायिरूपस्य विज्ञानस्य"-तत्त्वसंपजि० पृ०३३९६०२ । २०१९६५०९। ३ "विधिरूपश्च शब्दार्थो येन नाभ्युपगम्यते । तदाभं जायते चेतः शब्दादर्थावसायि हि" ॥ "खामिधाने शब्दानामर्थादन्यनिवर्तनम् । तद्योगो व्यतिरेकोऽपि मम तत्पूर्वको धमौ" ॥ तत्त्वसं• का० १०९५-१०९६ पृ. ३३९ । ४ क्रियेत आ० । "क्रियते यावता शब्दादर्थाध्यवसायिनश्चेतसः समुत्पादात् सांवृतो विधिरूपः शब्दार्थोऽभीष्यत एव"-तत्त्वसं० पजि० पृ० ३३९ पं० ११ । ५-म्यते तत्त्व-मां० वा. बा. विना। ६-गतिर्वि-वा० बा० विना । "सामर्थ्यादधिगतेर्विधिपूर्वको व्यतिरेकः"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ३३९ पं०१४। ७-मुखेन ल-कां०। ८ "विधेः" -तत्त्वसं• पजि० पृ० ३३९ पं० १७ । १ "असंभवो विधेरुक्तः सामान्यादेरसंभवात् । शब्दानां च विकल्पानां वस्तुनो(तोऽ)विषयत्वतः" ॥ तत्त्वसं० का० १०९७ पृ. ३३९ । १. ""-तत्त्वसं. पजि. पृ० ३३९ पं० २०। ११ पृ० १९६ पं० १८ तथा ३७ । १२ "नीलोत्पलादिशब्देभ्य एक एवा(एकमेवा)वसीयते । अनीलानुत्पलादिभ्यो व्यावृत्तं प्रतिबिम्बकम्" । तत्त्वसं० का० १.९८ पृ. ३३९ । १३ "सबलार्थाभिधायित्वमध्यवसायवशात्"-तत्त्वसं० पञ्जि.पृ०३३९ पं० २७ । १४ पृ० १९७५०१८ तथा ३७ ॥ १५ “न त्वन्यापोहबद् वस्तु वाच्यमस्माभिरिष्यते । व्यावृत्तादन्यतोऽभा(तो भा)वान्नान्यावया (भ्या व्या) वृत्तिरस्ति नः" ॥ "तत् पारतक्ष्यदोषोऽयं जाताविव न संगतः। अवदातमिति(तमति)प्रोक्त शब्दस्यार्थेऽपृथक्त्वतः" ॥ “'अवदातमिति(तमति)प्रोके' इति विशुद्धधिया आचार्यदिङ्नागेन प्रोक्के"-तत्वसं० पजि.पृ.३४.पं०१५। "विशेषणविशेष्यत्व-सामानाधिकरण्ययोः । तस्मादपोहे शब्दार्ये व्यवस्था न विरुध्यते" ॥ तत्त्वसं• का० १०९९-११००-११.१ पृ. ३४०। १६ तात्पक्षो-मा। १७-तन्त्रेण भां. मा. विना । स. त०२८ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ प्रथमे काण्डेतद्वतोऽभिधानात् तद्गतभेदानाक्षेपात् तैः सह सामानाधिकरण्यादेरभावप्रसङ्ग उक्तः तद्वदपोहपक्षे नोवतरति, व्यतिरिक्तान्यापोहवतोऽनभिधानात् । न ह्यस्मन्मते परपक्ष इव सामानाधिकरण्याभावः। तथाहि-'नीलम्' इत्युक्ते पीतादिव्यावृत्तपदार्थाध्यवसायिभ्रमर-कोकिलाऽअनादिषु संशय्यमानरूपं विकल्पप्रतिविम्बकमुदेति, तच्चोत्पलशब्देन कोकिलाँदिभ्यो व्यवच्छिद्यानुत्पलव्यावृत्तवस्तु. ५ विषये व्यवस्थाप्यमानं परिनिश्चितात्मकं प्रतीयते; तेन परस्परं यथोक्तबुद्धिप्रतिबिम्बकापेक्षयाँ व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदकभावान्नीलोत्पलशब्दयोर्विशेष्यविशेषणभावो न विरुध्यते, द्वाभ्यां वाऽनीलानुपलव्यावृत्तैकप्रतिविम्बात्मकवस्तुप्रतिपादनादेकार्थवृत्तितया सामानाधिकरण्यं च भवतीति; परपक्षे तु तद्यवस्था दुर्घटा। तथाहि -विधिशब्दार्थवादिपक्षे नीलादिशब्देन नीलादिस्वलक्षणेऽभिहिते 'किमुत्पलम् आहोस्विद् अञ्जनम्' इत्येवमज्ञानं विशेषान्तरे न प्राप्नोति सर्वात्मना तस्य वस्तुनः १० प्रतिपादितत्वात् । एकस्यैकदैकप्रतिपत्रपेक्षया ज्ञाताऽज्ञातत्वविरोधान्न धर्मान्तरे संशय-विपर्यासा वित्युत्पलादिशब्दान्तरप्रयोगाकाङ्क्षा प्रयोक्तुरपि न प्राप्नोति यदर्थमुत्पलादिशब्दोच्चारणम्-तस्य नीलशब्देनैव कृतत्वात् । अथापि स्यात् तद् वस्त्वेकदेशेनाभिहितं नीलशब्देन न सर्वात्मना; तेन स्वभावान्तराभिधानायापरः शब्दोऽन्वेष्यते, असदेतत् ; न ह्येकस्य वस्तुनो देशाः सन्ति येनैक देशेनाभिधानं स्यात् एकत्वानेकत्वयोः परस्परपरिहारस्थितलक्षणत्वात् , इति यावन्तस्त एकदेशा१५स्तावन्त्येव भवता वस्तूनि प्रतिपादितानीति नैकमनेकं सिद्ध्येत् । स्यादेतत् न नीलशब्देनं द्रव्यमभिधीयते किं तर्हि ? नीलाख्यो गुणः तत्समवेता वा नीलत्वजातिः, उत्पलशब्देनाप्युत्पलजातिरेबोच्यते न द्रव्यम् । तेन भिन्नार्थाभिधानादुत्पलादिशब्दान्तराकासा युज्यत एव । नन्वेवं परस्परभिन्नार्थप्रतिपादकत्वेनं नितरां नीलोत्पलशब्दयोन सामाना. धिकरण्यम् बकुलोत्पलशब्दयोरिवैकस्मिन्नर्थे वृत्यभावात् । अथ नीलशब्दो यद्यपि गुणविशेषवचन२० स्तथापि तद्वारेण नीलगुण-तजातिभ्यां सम्बद्धं द्रव्यमप्याह, तथोत्पलशब्देनापि जोतिद्वारे (द्वारेण) तदेव द्रव्यमभिधीयत इति तयोरेकार्थवृत्तिसम्भवात् सामानाधिकरण्यं भविष्यति न बकुलोत्पल १-दानां क्षेयात् आ० । २ पृ. १९७ पं० २३ तथा ४० । ३ नाहरति वा० बा० । ४ "केवलानीलशब्दादेर्विशिष्टं प्रतिबिम्बकम् । कोकिलोत्पलभृङ्गादौ प्लवमानं प्रवर्तते"॥ "पिकाऽञ्जनाद्यपोहेन विशिष्टविषयं पुनः । तदिन्दीवरशब्देन स्थाप्यते परिनिश्चितम्" ॥ "सामानाधिकरण्यादिरेवमस्मिन्न बाधितः । परपक्षे तु सर्वेषां तद्वयवस्थाऽतिदुर्घटा"॥ तत्त्वसं• का० ११०२-११०३-११०४ पृ. ३४० । शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. ४०६ प्र. पं०४ । ५ संसह्य-वा० बा० । संसज्य-भां० मां०। ६-शब्देनाकोकि-वा० बा०। ७-लादिभ्योऽव्यवच्छि-मां०। ८-या व्यवच्छेद्यव्यवस्थाभावा-वा. बा०।-या व्यवच्छेदकव्यवस्थाभावा-आ. हा. वि.। ९-ण्यं भव-वा० बा० । १० "तथा केन शब्देन सर्वथोक्तं खलक्षणम् । तथा चाभिहिते तस्मिन् कस्माद् भेदान्तरेऽमतिः" ॥ तत्त्वसं. का०११०५पृ०३४१। शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. ४०६ प्र. पं०८। ११-शब्दे नीला-भां० मा०। १२-न्तरेण प्रा-आ० । १३ “यदर्थमपरः शब्दः प्रयुज्येताऽत्र वस्तुतः । सर्वथाऽभिहिते नो चेत् तदने प्रसज्यते” ॥ तत्त्वसं० का० ११०६ पृ० ३४१ । १४ वस्तुन एकदेशाः सन्ति मां० । मां०पाठवत् तत्त्वसं० पजि. पृ० ३४१ पं० २२ । “एकस्य वस्तुनो देशानुपपत्तेः"-शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० ४०६ प्र. पं. १०। १५-न नीलोत्पलमभि-आ०।-न मभि-वा० बा० हा०वि०। “न नीलशब्देन द्रव्यमभिधीयते"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ. ३४१५० २६ । १६ "नीलजातिगुणो वाऽपि नीलशब्देन चेद् गतः। अन्येन्दीवरजातिस्तु व्यवसेयोत्पलश्रुतेः"॥ "एवं सति तयोर्भेदाद् बकुलोत्पलशब्दवत् । सामानाधिकरण्यादि सुतरां नोपपद्यते"॥ तत्त्वसं० का. ११०७-११०८ पृ. ३४२। १७-न नातरां वा० बा०।-न नन्तरं आ० हा०वि०। १८-योरेवैक-भां० मां. आ० । वा. बा. प्रतौ नायं पाठांशः। १९-नथे नीलोत्पलशब्दयो-भां० मां०। २० "जाति-गुणविशेषवचनः"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ३४२ पं० १०। २१ जातिरवो त-वा. बा० । “जातिद्वारेण"-तत्त्वसं० पञ्जि.पृ. ३४२ पं० ११ । पिनीलशब्देन चानाधिकरण्यादि १०७-११०८ बा. प्रतौ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा। २१९ शब्दयोरिति, असदेतत् ; नीलगुण-तजातिसम्बद्धस्य द्रव्यस्य नीलशब्देन प्रतिपादनात् सर्वात्मना उत्पलश्रुतेर्वैयर्थ्यप्रसङ्गात् । स्यादेतत् यद्यपि नीलशब्देन गुण-तजातिमद् द्रव्यमभिधीयते तथापि नीलशब्दस्यानेकार्थवृत्तिदर्शनात् प्रतिपत्तुरुत्पलार्थ(थे) निश्चितरूपा न बुद्धिरुपजायते-कोकिलादेरपि नीलत्वात्-अतोऽर्थान्तरसंशयव्यवच्छेदायोत्पलश्रुतेः प्रयोगः सार्थक एव, तदप्यसम्यक् ; प्रकतार्थानभिज्ञतयाभिधानात् । विधिशब्दार्थपक्षे हि सामानाधिकरण्यं न सम्भवतीत्येतदत्र प्रकृतम्, ५ यदि चोत्पलशब्दः संशयव्यवच्छेदायवे व्याप्रियते न द्रव्यप्रतिपत्तये न तर्हि विधिः शब्दार्थः स्यात् उत्पलशब्देन भ्रान्तिसमारोपिताकारव्यवच्छेदमात्रस्यैव प्रतिपादनात्, परस्परविरुद्धं चेदमभिधीयते-नीलशब्देनोत्पलादिकं द्रव्यमभिधीयते अथ च प्रतिपत्तुस्तत्र निश्चयो न जायते' इति; न हि यत्र संशयो जायते स शब्दार्थो युक्तः अतिप्रसङ्गात्, नापि निश्चयेन विषयीकृते वस्तुनि संशयोऽवकाशं लभते निश्चयाऽऽरोपमनसोर्बाध्यबाधकभावात् । स्यादेतत् यद्यपि नीलोत्पलश-१० ब्दयोरेकस्मिन्नर्थे वृत्तिर्नास्ति तदर्थयोस्तु जाति-गु(योस्तु गु)णजात्योरेकस्मिन् द्रव्ये वृत्तिरस्तीत्य तोऽर्थद्वारकमनयोः सामानाधिकरण्यं भविष्यति, तदेतदयुक्तम् अतिप्रसङ्गात् ; एवं हि रूप-रसशब्दयोरपि सामानाधिकरण्यं स्यात् तदर्थयो रूप-रसयोरेकस्मिन् पृथिव्यादिद्रव्ये वृत्तेः। किञ्च, तर्हि 'नीलोत्पलम्' इत्येकार्थविषया बुद्धिर्न प्राप्नोति एकद्रव्यसमवेतयोर्गुण-जात्योभ्यां पृथक् पृथगभिधानात्। न चैकार्थविषयज्ञानानुत्पादे शब्दयोः सामानाधिकरण्यमस्तीत्यलमतिप्रसङ्गेन ।१५ अथापि स्यात् यदेव नीलगुण-तजातिभ्यां सम्बद्धं वस्तु न तदेवोत्पलशब्देनोच्यते; तेनोत्पलश्रु. तिर्व्यर्था न भविष्यति । नन्वेवं भिन्नगुणजात्याश्रयद्रव्यप्रतिपादकत्वान्नीलोत्पलशब्दयोः कुतः सामानाधिकरण्यम्? अथ यद्यपि यदेव द्रव्यं नीलशब्देनोच्यते उत्पलशब्देनापि तदेव तथापि नीलशब्दो नोत्पलजातिसम्बन्धिरूपेण द्रव्यमभिधत्ते, किं तर्हि ? नीलगुण-तजातिसम्बन्धिरूपेणैव; तेनोत्पलत्वजातिसम्बन्धिरूपत्वमस्याभिधातुमुत्पलश्रुतिः प्रवर्तमाना नां(ना)नर्थिका भविष्यति,२० असदेतत्; न "हि नीलगुण-तजातिसम्बन्धिरूपत्वादन्यदेवोत्पलत्वजातिसम्बन्धिरूपत्वं येर्ने नील तजातिसम्बन्धिरूपत्वाभिधाने द्रव्यस्योत्पलत्वजातिसम्बन्धिरूपत्वाभिधानं (नं न) भवेत्, एकस्माद् द्रव्याद् द्वयोरपि सम्बन्धिरूपत्वयोरव्यतिरेकात् तयोरेंप्येकत्वमेवेत्ययुक्तमेकरूपाभिधानेऽपररूपस्यानभिधानम् । भवतु वोत्पलत्वसम्बन्धिरूपत्वं नीलतजातिसम्बन्धिरूपत्वादन्यत् तथा१ "गुण-तजातिसंबद्ध द्रव्यं चेत् प्रतिपाद्यते । नीलशब्देन यद्येवं व्यर्था स्यादुत्पलश्रुतिः" ॥ "ताभ्यां यदेव संबद्धं तदेवोत्पलजातिमत् । नीलश्रुत्यैव तत्रोक्तं व्यर्था नीलोत्पलश्रुतिः" ॥ तत्त्वसं० का० ११०९-१११० पृ. ३४२ । २ गुण-जातिम-आ० हा० । गुण-तजातिद्र-वा० बा०। ३ "प्रतिपतुरुत्पलार्थे निश्चितरूपा"-तत्त्वसं. पजि. पृ. ३४२ पं० २२। ४ "सामानाधिकरण्यादि"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ३४२ पं० २४ । ५-वच व्यावि०। ६-यते तद्रव्यप्र-भां० मां०। ७ जायेत इ-भां० मां० विना । ८ "तदर्थयोस्तु गुण-जात्योरेकस्मिन्"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ३४३ पं० ४। ९-ण-जाति-आ. हा. वि. वा. बा। १. "गुण-तजातिसंबद्धादन्यदुत्पलजातिमत् । यदि भिन्नाश्रये स्यातां पुनीलोत्पलश्रुती" ॥ तत्त्वसं० का० ११११ पृ. ३४३ । ११-शब्देनो-भां० मा. विना। १२-म्बन्धरू-भां० मा० विना। १३-ना नर्थिका आ० विना ।-ना नानार्थका वि० सं० । "प्रवर्तमाना नानर्थिका"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ. ३४३ पं० २० । १४ “अथोत्पलत्वसंबन्धिरूपत्वेन न चोदयेत् । गुण-तजातिसंबद्धं द्रव्यं नीलमिति ध्वनिः"। तत्त्वसं० का० १११२ पृ० ३४३ । १५ “स्यान्नामोत्पलतायोगिरूपत्वमतदात्मकम् । उत्पलत्वेन संबद्धं त्वाभ्यां संबद्धमेव तत्" ॥ "नीलश्रुत्या च तत् प्रोक्तं शाब्द्याऽत्र विषयीकृतम् । बुद्धया सर्वात्मना नांशैस्तदनर्थोत्पलश्रुतिः" ॥ तत्त्वसं० का० १११३-१११४ पृ. ३४३ । १६ “येन नीलोत्पलादिसंबन्धि"-तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३४४ पं० ३। १७-त्वाभिधा न भ-वा० बा० ।-"त्वामिधानं न भवेत्" तत्त्वसं० पजि० पृ० ३४४ पं० ४। १८ द्रव्या द्रव्ययोरपि आ० हा० वि० । द्रव्याद्रयोयोरपि भां० मां० । १९-पत्वयोः व्य-आ० ।-पत्वयो व्य-हा० ।-पत्वाव्यतिरेकात् तयो-वा० बा० । “संबन्धिरूपत्वयोरव्यतिरेकात् तद्वत् तयोरपि'-तत्त्वसं० पजि. पृ. ३४४ पं० ४ । २०-रप्येकान्तयोरप्ये-वि०। २१-स्याभिधान-वा. बा० । २२-तु चो-वा० बा. भां० मां० । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० प्रथमे काण्डेप्युत्पलश्रुतिरनर्थिकैव । तथाहि-यत् तद् अनंशं वस्तु उत्पलजात्या सम्बद्धं तदेव नीलगुणतज्जातिभ्यां सम्बद्ध्यते, तश्चानंशत्वात् सर्वात्मना नीलश्रुत्यैवाभिहितम् किमपरमनभिहितमख स्वरूपमस्ति यदभिधानायोत्पलश्रुतिः सार्थिका भवेत्।। उद्दथोतकरस्त्वाह-" 'निरंशं वस्तु सर्वात्मना विषयीकृतं नांशेन' इत्येवं विकल्पो नावतरति, ५सर्वशब्दस्यानेकार्थविषयत्वात् एकशब्दस्य चावयववृत्तित्वात्" [ ] इति, असदेतत् : वाक्यार्थापरिक्षानत एवमभिधानात् । तथाहि-प्रथमेनैव नीलशब्देन सर्वात्मना तत् प्रकाशितम्' इत्यस्यायमर्थो विवक्षितः-यादृशं तद् वस्तु तादृशमेवाभिहितम् न तस्य कश्चित् स्वभावस्त्यक्तः यदभिधानायोत्पलश्रुतिाप्रियेत निरंशत्वात् तस्य, इति वाक्छलमेतत्-'कृत्स्नैक देशविकल्पानुपपत्तिस्तत्र' इति, एर्वमन्येषामप्यनित्यादिशब्दानां प्रयोगोऽनर्थकः, प्रयोगे वा पर्या१० यत्वमेव स्यात् तरु-पादपादिशब्दवत् । उक्तं च "अन्यथैकेन शब्देन व्याप्त एकत्र वस्तुनि ।। बुंड्या वा नान्यविषय इति पर्यायंता भवेत्" ॥ [ _] इति। अथ भवत्पक्षेऽप्येकेन शब्देनाभिहिते वस्तुनि भेदान्तरे संशय-''विपर्यासाभावप्रसङ्गः शब्दान्तराप्रवृत्तिप्रसङ्गश्च कमान्न भवति? संवृत्या शब्दार्थाभ्युपगमानास्माकमयं दोषः । तथाहि-नील१५शब्देनानीलपदार्थव्यावृत्तमुत्पादिष्पप्लवमानरूपतया तेषामप्रतिक्षेपकमध्यवसितबाह्यरूपं विकल्पप्रतिबिम्बकमुपजायते पुनरुत्पलश्रुत्या तदेवानुत्पलव्यावृत्तमारोपितबाटंकवस्तुस्वरूपमुपजन्यते; तदेवं क्रमेणानीलानुत्पलव्यावृत्तमध्यवसितबाकिरूपं भ्रान्तं विकल्पप्रतिबिम्बकमुपजन्यत इति तदनुरोधात् सांवृतं सामानाधिकरण्यं युज्यत एव । यदुक्तम् 'लिङ्ग-सङ्ख्यादिसम्बन्धो न चापोहस्य विद्यते' इति, अत्र वस्तुधर्मत्वं लिङ्ग-सहयादीनामसिद्धम् स्वतन्त्रेच्छाविरचितसङ्केतमात्रभावित्वात् । प्रयोगः-यो १-म्बन्ध्यते भां. मां० विना। २ तत्त्वसं० पजि. पृ. ३४४ पं० ११। शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० ४०६ द्वि० पं०१। "न चे भेदविनिर्मुक्त कार्य-भेदविकल्पनम् । न वाक्यार्थाऽपरिज्ञानादिदं ह्यत्र विवक्षितम्" ॥ तत्त्वसं• का० १११५ पृ. ३४४ । ३-क्यार्थपरि-भां० मां० विना । ४ "प्रथमेनैव शब्देन सर्वथा तत् प्रकाशितम् । नात्मा कश्चित् परित्यक्तो यादृशं तत् तथोदितम्" ॥ तत्त्वसं० का० १११६ पृ. ३४४ । शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० ४०६ द्वि. पं० २। ५-तं तस्य न क-वा० बा० विना । ६ "एतेनैव प्रकारेण नान्येषामप्युदीरणम् । सफलं तत्र शब्दानामुक्तौ पर्यायता ध्रुवम्" ॥ तत्त्वसं० का० १११७ पृ० ३४४ । ७ बुद्धावा वा० बा०। ८-यतो भ-आ० हा०वि०। ९ तत्त्वसं० पजि. पृ० ३४५ पं० २ । शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ. ४०६ द्वि. पं०६। १०-विपर्ययाभावः प्रस-आ० हा० वि० ।-विपर्ययाभावाप्रस-वा. बा०। ११-न्तरप्रवृ-वा० बा०।। १२ “अस्माकं तु न शब्देन बाह्यार्थः प्रतिपाद्यते । शब्दान्न चापि विज्ञानं बाह्यार्थविषयं मतम्" ॥ "यतः सर्वात्मना ताभ्यो विषयीकरणात् परम् । शब्दज्ञानान्तरं तत्र पर्यायत्वं प्रयास्यति" ॥ तत्त्वसं० का० १११८-१११९ पृ. ३४५। १३ “प्रतिबिम्ब तु शब्देन क्रमेणैवोपजन्यते । एकत्वेन च तद् भाति बाह्यत्वेन च विभ्रमात्" ॥ "सामानाधिकरण्यादि प्रतिबिम्बानुरोधतः। परमार्थेन शब्दास्तु मता निर्विषया इमे" ॥ तत्त्वसं. का. ११२०-११२१ पृ. ३४५। १४-लादिप्लव-वा. बा०। १५-रूपभ्रान्तिवि-वा. बा. । १६-धात् संवृ-आ० हा० वि० । १७ पृ. १९७ पं० २८ तथा ४४ । १८-धर्मलिङ्ग-वा. बा.। “लिङ्ग-संख्यादियोगस्तु व्यक्तीनामपि नास्त्ययम् । इच्छारचितसंकेतनिमित्तो न हि वास्तवः॥ तत्त्वसं. का. ११२२ पृ. ३४५। शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ०४०६ द्वि. पं०९। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २२१ यदन्वय व्यतिरेको नानुविधत्ते नासौ तद्धर्मः, यथा शीतत्वमग्नेः, नानुविधत्ते च लिङ्गसयादिर्वस्तुनोऽन्वय-व्यतिरेकाविति व्यापकानुपलब्धिः। न चायमसिद्धो हेतुः; यतो यदि लिङ्गं वस्तुतो वस्तु स्यात् तदैकस्मिंस्तटाख्ये वस्तुनि 'तटः' 'तटी' 'तटम्' इति लिङ्गत्रययोगिशब्दप्रवृत्तेरेकस्य वस्तुनखैरूप्यप्रसक्तिः स्यात् । न चैकस्य स्त्री पुनपुंसकाख्यं स्वभावत्रयं युक्तम् एकत्वहानिप्रसङ्गात्, विरुद्धधर्माध्यासितस्याप्येकत्वे सर्व विश्वमेकमेव वस्तु स्यात् । ततश्च सहोत्पत्ति-विनाश- ५ प्रसङ्गः। किञ्च, सर्वस्यैव वस्तुन एकशब्देन शब्दान्तरेण वा लिङ्गत्रयप्रतिपत्तिदर्शनात् तद्विषयाणां सर्वचेतसां मेचकादिरत्नवच्छबलाभासताप्रसङ्गः। अथ सत्यपि लिङ्गत्रययोगित्वे सँति सर्ववस्तूनां यदेव रूपं वक्तुमिष्टं प्रतिपादकेन तन्मात्रावभासान्येव विवक्षावशाच्चेतांसि भविष्यन्ति न शबलाभासानि; ननु यदि 'विवक्षावशादेकरूपाणि चेतांसि भवन्ति' इत्यङ्गीक्रियते तदा तानि यात्मकवस्तुविषयाणि न प्राप्नुवन्ति तदाकारशून्यत्वात् , चक्षुर्विज्ञानवत् शब्दविषये । योऽपि मन्यते १० "संस्त्यान-प्रसव-स्थितिषु यथाक्रमं स्त्री-पुं-नपुंसकव्यवस्थाति (स्था" [ ] इति) तस्यापि तन्न युक्तम् ; येतो यदि स्थित्याद्याश्रया लिङ्गव्यवस्था तदा तट-शृङ्खलादिवत् सर्वपदार्थेष्व. विभागेन त्रिलिङ्गताप्रसक्तिः स्थित्यादेविद्यमानत्वात्-अन्यथा 'तटः' 'तटी' 'तटम्' इत्यादावपि लिङ्गत्रयं न स्यात् विशेषाभावात्-इत्यतिव्यापिता लक्षणदोषः । व्यभिचारदर्शनाद् वाऽव्यापिता च-असत्यपि हि स्थित्यादिके शशविषाणादिष्वसद्रूपेसु (षु) 'अभावः' 'निरंपाख्यम्' 'तुच्छता' १५ इत्यादिभिः शब्दैः लिङ्गत्रयप्रतिपत्तिदर्शनात् । इतश्चाव्यापिनी-स्थित्यादिष्वेव प्रत्येकं लिङ्गत्रययोगिशब्दप्रवृत्तिदर्शनात् । तथाहि-प्रसव उत्पादः, संस्त्यानं विनाशः, आत्मस्वरूपं च स्थितिः तत्र प्रसवे स्थिति-संस्त्यानयोरभावात् कथं 'उत्पादः' 'उत्पत्तिः' 'जन्म' इत्यादेः स्त्री-पु-नपुंसकलिङ्गस्य शब्दस्य प्रवृत्तिर्भवेत् ? तथा, संस्त्याने स्थिति-प्रसवयोरभावात् कथं 'तिरोभूतिः' 'विनाशः' 'तिरोभवनम्' इत्यादिभिः शब्दैर्व्यपदिश्येत 'संस्त्यानम्' इत्यनेन च? तथा, स्थितौ संस्त्यान-प्रसवयोरसम्भवात् २० १-त्यादि व-आ०। २-ङ्गं वस्तु स्यात् आ० । "तटस्तटी तटं चेति नै(३)रूप्यं न च वस्तुनः । शबलाभासताप्राप्तेः सर्वेषां तत्र चेतसाम्" ॥ तत्त्वसं• का० ११२३ पृ. ३४६ । ३ "सर्व विश्वमेकमेव"-तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३४६५०११। ४-ण च लि-आ०। ५-सनाप्र-भां०मा०विना । ६ असत्यपि वि० गु० अवसत्यपिआ०। ७ 'सति' वस्तुभूते, तथा च 'वस्तुभूते लिङ्गत्रयसंबन्धे सत्यपि' इत्यर्थः । ८ “विवक्षानुगतत्वे वा न स्युस्तद्विषयाणि ते । तदशादेकरूपाणि नैकरूपं च वस्तु तत्" ॥ तत्त्वसं. का० ११२४ पृ. ३४६ । ९-दात्मानि वा० बा० विना। १० "शब्दविषयम्”-तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३४६ पं०२१। ११-वस्थितितवि० गु०।-वस्थेतिति त-हा०।-वस्थातिति त-आ० ।-वस्थितेति त-भां० मा० । “यथोक्तस्त्री-पुं-नपुंसकत्व. व्यवस्थेति"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ३४६५०२२ । स्त्री-पुं-नपुंसकव्यवस्था"-शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० ४०६ द्वि०पं०१४ । १२ "स्थिति-प्रसव-संस्त्यानसंश्रया लिङ्गसंस्थितिः । यदि स्यादविभागेन वि(त्रि)लिङ्गत्वं प्रसज्यते" ॥ तत्त्वसं. का. ११२५ पृ. ३४६ । शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ. ४०७ प्र. पं. १। १३-वच्छहप-वा. बा०। १४-नाचा व्या-भां० मां० ।-नात्वा व्या-वा० बा० । १५ अभावो निरूपाख्यत्वं तुच्छतेति यदुच्यते । तत्र स्थित्यादिसंबन्धः कोऽसत्सु परिकल्प्यते" ॥ तत्त्वसं० का० ११२६ पृ० ३४७ । १६-द्रपो स्व-वा. बा० । “शशविषाणादिषु असद्रूपेषु"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ३४७ पं०५। शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. ४०७ प्र.पं. १-२। १७ निरूपा-भां. मा. विना। १८-त्यादिशब्दैः आ० कां। १९ “उत्पादः प्रसवश्चैषां नाशः संस्त्यानमिष्यते । आत्मरूपं तु भावानां स्थितिरित्यभिधीयते" ॥ "तत्रोत्पादे न नाशोऽस्ति तद् किमुत्पत्तिरुच्यते । नात्माकारा स्थितिश्चास्ति तत् कथं जन्म गीयते"। "संस्त्याने न द्वयं चान्यत् तत् कथं व्यपदिश्यते । तिरोभावश्च नाशश्च तिरोभवनमित्यपि" ॥ "स्थितौ स्थितिः खभावश्च हेतुना केन वोच्यते । अथाऽविभक्तमेवैषां रूपं स्यादेकलिङ्गता॥ तत्त्वसं. का. ११२७-११२८-११२९-११३० पृ. ३४.। २०-नात् इतश्चाव्यापिनी तथाहि आ० हा० वि०। २१-स्य प्रवृ-वा० बा० । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ प्रथमे काण्डे 'स्थितिः' 'स्थानम्' 'स्वभावः' चेत्यादिभिः शब्दैः कथमुच्येत? अथ स्थित्यादीनां परस्परमविभक्तरूपत्वात् प्रत्येकमेषु लिङ्गत्रययोगिता; ननु यद्येषां परस्परमविभक्तं रूपं तदैकमेव परमार्थतो लिङ्गं स्यात् न लिङ्गत्रयम्। अन्यस्त्वाह-"स्त्रीत्वादयो गोत्वादय इव सामान्यविशेषाः" [ ]। तत्र पसे ५सामान्य विशेषाणामौवा(वात्) स्त्रीत्वादीनामपि तद्रूपाणामभाव इत्यसम्भवि लक्षणम् । किच, तेष्वेवे सामान्य विशेषेवन्तरेणाप्यपरं सामान्यविशेष 'जातिः' 'भावः' 'सामान्यम्' इत्यादेः स्त्री-पु-नपुंसकलिङ्गस्य प्रवृत्तिदर्शनात् अव्यापिता च लक्षणस्य, न हि सामान्येष्वपराणि सामान्यानि "निःसामान्यानि सामान्यांनि" [ ] इति वैशेषिकसिद्धान्तात् । यदा तु सामान्यस्याप्यपराणि सामान्यानीष्यन्ते वैयाकरणैः-यथोक्तम् "अर्थजात्यभिधानेऽपि सर्वे जातिविधायिनः। व्यापारलक्षणा यस्मात् पदार्थाः समवस्थिताः" ॥ [ वाक्यप० तृ० का० श्लो० ११] न हि शास्त्रान्तरपरिदृष्टा जातिव्यवस्था नियोगतो वैयाकरणैरभ्युपगन्तव्या, प्रत्ययाभिधा. नाऽन्वयव्यापारकार्योन्नीयमानरूपा हि जातयः न हि तासामियत्ता काचित्; अतो यथोदितकार्यदर्शनात् सामान्याधारा जातिः सम्प्रतिज्ञायते तथाभूतप्रत्यय-शब्दनिबन्धनम् । 'व्यापारलक्षणा' १५इति अभिधानप्रत्ययव्यापारतो व्यवस्थितलक्षणा इत्यर्थः तदाऽनन्तरोक्तमेव दृषणम्स्याभावात्' इत्यादि । अपि च, न हि असत्सु शशविषाणादिषु जातिरस्ति वस्तुधर्मत्वात् तस्याः; इति तेषु 'अभावआदिशब्दप्रयोगो न स्यात् । तस्माद्व्यापिनी लिङ्गव्यवस्थेतीच्छारचितसङ्केत. मात्रभाविन्येवेयं लिङ्गत्रयव्यवस्थेति स्थितम् । सङ्ख्याया अपि वस्तुगतान्वयव्य तिरेकानुविधानाभावो नौसिद्धः । तथाहिं'-सी मायिक्ये २० (क्येव) न वास्तवी दारोंदिष्वसत्यपि वास्तवे" भेदे विवक्षावशेनोपकल्पितत्वात्; अन्यथा बहुत्वै. कत्वादिसङ्ख्या वस्तुगतभेदाभेदलक्षणा यदि स्यात् तदा 'आप' 'दारा' 'सिकताः' 'वर्णः' इत्यादावसत्यपि वैस्तुनो भेदे बहुत्वसङ्ख्या कथं प्रवर्तते? तथा, 'वनम्' 'त्रिभुवनम्' 'जगत्' 'षण्णगरी' इत्यादिष्वसत्यप्यभेदेऽर्थस्यैकत्वसङ्ख्या न व्यपदिश्येत; अतो नासिद्धता हेतोः । नाप्यनेकान्तिकः सर्वस्य सर्वधर्मत्वप्रसङ्गात् , सपक्षे भावाच्च न विरुद्धः। १-मुच्यते भां० मां० विना। २-कमेवं प-भां० मां० ।-कमेक प-वा० बा० । ३ "गोत्वादय इवैतेऽपि यदि स्त्रीत्वादयो मताः । सामान्यस्य निरासेन तेऽपास्ता एव तादृशाः" ॥ तत्त्वसं० का० ११३१ पृ. ३४७ । शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. ४०७ प्र. पं० २। ४-भाव स्त्री-भां०।-भावा स्त्रीत्वानाना-आ० । 'भावात् वि० सं० । “सामान्यविशेषाणां निरस्तत्वात्"तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ३४८ पं० २। ५ "जाति वश्च सामान्यमिति वा तेषु संमतम् । न सामान्यानि युज्यन्ते सामान्येष्वपराणि हि" ॥ तत्त्वसं. का. ११३२ पृ० ३४८ । ६ वाक्यप० तृ. का. पृ० १७ पं०८। ७ "सर्वे जात्यभिधायिनः"-वाक्यप० तथा तत्त्वसं० पञ्जि. पृ. ३४८ पं० ११। ८ शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ. ४०७ प्र. पं०६। ९ “सामान्याधारा जातिः सती 'जातयः' इत्यस्याः श्रुतेर्निबन्धनमिति। 'व्यापारलक्षणा' इति"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ३४८ पं० १५। १०-म्प्रति जा-मां० । ११-यते यथा वि०। १२ तथा-भां० मां०। १३ प्र० पृ. पं० ५। १४ “अभावो निरुपाख्यत्वं तुच्छतेत्यादि वा कथम् । सामायिक्येव तेनैषा लिङ्गत्रितयसंस्थितिः ॥ तत्त्वसं० का० ११३३ पृ० ३४८ । १५ वाक्यप० तृ• का० श्लो० ६. पृ. ५४ । १६ तथापि सा वा० वा. विना। १७ “संख्याऽपि सा मायिक्येव कल्प्यते हि विवक्षया। भेदाभेदविवेकेऽपि दारादि-विपिनादिवत् ॥ तत्त्वसं० का० ११३४ पृ. ३४८ । १८ सापि सामायित्येव न वा-भां. मां० । सा सायि सामायिक्येन वन वा-वा. बा०। । १९-रादिपु स-आ• हा० वि०। २०-वे च मे-वि०। २१ शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. ४०७ प्र. पं० १०। २२ वस्तुतो भे-वा० बा० विना। २३-देऽपि ब-आ० हा• वि०। २४-कत्वं स-आ० बा० । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ शब्दार्थ--तत्संबन्धयोर्मीमांसा । अत्र च कुमारिलो हेतोरसिद्धतां प्रतिपादयन्नाह-दारादिशब्दः कदाचित् जातौ प्रयुज्यते कदाचित व्यक्तीः तत्र यदा जातो तदा व्यक्तिगतां सङ्ग्यामपादाय वर्तते व्यक्तयश्च बहर यदा तु व्यक्तौ प्रयुज्यते तदा तयक्त्यवयवानां पाणि-पादादीनां बहुत्वसङ्ख्यामादाय वर्तते । वनशब्देन तु धव-खदिर पलाशादिलक्षणा व्यक्तयस्तत्सम्बन्धिभूतवृक्षत्वजातिगतसङ्ख्या विशिष्टाः प्रति द्यन्ते तेन 'वनम्' इत्येकवचनं भवति जातिगतैकसंख्याविशिष्टद्रव्याभिधानात् अथवा धवादि- ५ व्यक्तिसमाश्रिता जातिरेव 'वन'शब्देनोच्यते; तेनैकवचनं भवति जातेरेकत्वादिति । नन्वेवं 'वृक्षः' 'घटः' इत्यादावप्येकवचनमुच्छिन्नं स्यात् सर्वत्रैवास्य न्यायस्य तुल्यत्वात् । तथाहि-अत्रापि शक्यमेवं वक्तुम्-'जाती व्यक्ती वा वृक्षादिश्चेत् प्रयुज्यते' इत्यादि । अथ मतम्वक्षादी व्यक्तरवयवानां च सङ्ख्याविवक्षा नास्ति; यद्येवं न तर्हि वस्तुगतान्वयाद्यनुविधार्थिनी सङ्ख्या, विवक्षाया एवान्वय-व्यतिरेकानुविधानात् । ततश्च सैव 'दाराः' इत्यादिषु बहुवचनस्य निबन्धनमस्तु १० भेदाभावेऽप्येकमपि वस्तु बहुत्वेन विवक्ष्यते इति नासिद्धता हेतोः। यञ्चोक्तम्-'वनशब्दो जातिसङ्ख्याविशेषिता व्यक्तीराह' इति, तत्र, न जातेः सङ्खयांऽस्ति द्रव्यसमाश्रितत्वादस्याः । अथ वैशेषिकप्रक्रिया नाश्रीयते तदा भावे सङ्ख्यायास्तया कथं धवादिव्यक्तयो विशेषिताः सिद्ध्यन्ति ? स्यादेतत् सम्बद्धसम्बन्धात तत्सम्बन्धतो वा सिद्ध्यन्ति । तथाहि-यदा जादेर्व्यतिरेकिणी सङ्ख्या तदैकत्वसङ्ख्यासम्बद्धया जात्या १५ धवादिव्यक्तीनां सम्बन्धात् पारम्पर्येण तया धवादिव्यक्तयो विशेष्यन्ते; यदा तु जातेरव्यतिरिक्तैव सङ्ख्या तदा साक्षादेव सम्बन्धात् तया विशेप्यन्त इति जातिसङ्ख्या विशेषिताः सिद्ध्यन्ति, असदेतत्; यतो यदि सम्बद्धसम्बन्धात् सम्बन्धतो वा धवादिव्यक्तिषु वनशब्दस्य प्रवृत्तिस्तदैकोऽपि पादपो 'वनम्' इत्युच्येत प्रवृत्तिनिमित्तस्य विद्यमानत्वात् । तथाहि-बहवोऽपि धवादयो जातिसङ्ख्यासम्बन्धादेव 'वनम्' इत्युच्यते नान्यतः; स च सम्बन्धः एकस्मिन्नपि पादपेऽस्तीति किमिति न२० तेथोच्येत अथवा 'धवादिव्यक्तिसमाश्रिता' इत्यत्र पंक्षे एकस्यापि तरोः 'वनम्' इत्यभिधानं स्यात् । तथाहि-यैवासौ वनशब्देन जातिर्बहुव्यक्त्याश्रिताऽभिधीयते सैवैकस्यामपि धवादिव्यक्तौ व्यवस्थिता; ततश्च वनधियो निमित्तस्य सर्वत्र तुल्यत्वाद् एकत्रापि पादपे किमिति वनधीन भवेत् ? १ “तत्र व्यक्तौ च जातौ च दारादिश्चेत् प्रयुज्यते” ॥ "व्यक्तेरवयवानां च संख्यामादाय वर्तते । वनशब्दः पुनर्व्यक्तीर्जातिसंख्याविशेषिताः॥ बह्वीराहाऽथवा जाति बहुव्यक्तिसमाश्रयाम्"। श्लो० वा. वन) श्लो० ९१-९२-९३ पृ. ६३७ । तत्त्वसं० का० ११३५-११३६ पृ. ३४९ । २-तां न स-आ० हा० वि० । ३-क्षणव्य-वा० बा०। ४ जात्योरे-वा० बा० । ५ “ननु चैतेन विधिना सर्वमेकं वचो हतम् । नान्यत्राऽस्ति विवक्षा चेत् सैवास्त्वस्य निबन्धनम्" ॥ तत्त्वसं. का० ११३७ पृ. ३४९ । ६-यिनीं स-भां० मां०। ७ प्र० पृ. पं० ४ तथा २५ । ८ "जातेरपि न संख्याऽस्ति भावे वा तद्विशेषिताः । कथं संबद्धसंबन्धाद् यदि संबन्धतोऽपि वा" ॥ तत्त्वसं० का० ११३८ पृ. ३५० । ९-यादि द्रव्यमाश्रित-भां० मां० विना। १० भावस-वा० बा० । ११-न्ति तस्यादे-भां० मां. वा० बा० विना। १२-तत्संबन्धसंबन्धात् तत्सं-आ० बा० ।-तत्संबन्धात् तत्सं-हा० वि० । १३ “यद्येवमभिधीयेत वनमेकोऽपि पादपः । बहवोऽपि हि कथ्यन्ते संबन्धादेव सोऽस्ति च" ॥ तत्त्वसं• का० ११३९ पृ. ३५० । १४ संबन्धसं-आ० हा०। १५-त्युच्यते भां० मां विना। १६-हवो ध-भां० मा० वा. बा. विना। १७-थोच्यते आ०। १८ अथ थ-वा. बा. विना। "बहुव्यक्त्याश्रिता या च सैवैकस्यामपि स्थिता । तन्निमित्तस्य तुल्यत्वात् तत्रापि वनधीभवेत् ॥ "अन्वय-व्यतिरेकाभ्यामेकादिवचसस्ततः । नियमोऽयं विवक्षातो नार्थात् तद्वयभिचारतः" ॥ तत्त्वसं० का० ११४०-११४१ पृ. ३५० । १९ प्र. पृ. पं० ५। २० पदे भां० । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - क्रिया - कालादीनां त्वसत्त्वादेवायुक्तं वस्तुधर्मत्वम्, भवतु वा वस्तुधर्मत्वमेषां तथापि प्रतिबिम्बलक्षणस्यापोहस्य भ्रान्तैबा (न्तैर्वा) ह्यव्यक्तिरूपत्वेनावसितत्वाध्यवसायवशाद् व्यक्तिद्वारको लिङ्ग - सङ्ख्यादिसम्बन्धो भविष्यति, तेन यदुक्तम् 'व्यक्तेश्वाव्यपदेश्यत्वात् तद्वारेणापि नास्त्यसौ' इति, २२४ ५ तद नैकान्तिकम्, संवृतिपक्षे चासिद्धम् - "व्यक्तिरूपावसायेन यदि वाऽपोह उच्यते । तल लिङ्गाद्यभिसम्बन्धो व्यक्तिद्वारोऽस्य विद्यते” ॥ [ तत्त्वसं० का० ११४३ ] इति । 'अपोह उच्यते' इति' 'शब्देन' इति शेषः, 'तद्' इति तस्मात्, 'अस्य' इत्यपोहस्य | 'आख्यातेषु न च' इति, १० अत्र आख्यातेष्वन्यनिवृत्तिर्न सम्प्रतीयते इत्यसिद्धम् । तथाहि - जिंज्ञासिते कस्मिंश्चिदर्थे श्रोतु बुद्धि (द्धे) र्निवेशाय शब्दः प्रयुज्यते व्यवहर्तृभिः न व्यसनितयाः तेनाभीष्टार्थप्रतिपत्तौ सामर्थ्यादनभीष्टव्यवच्छेदः प्रतीयत एव, अभीष्टानभीष्टयोरन्योन्यव्यवच्छेदरूपत्वात् । सर्वमेवाभीष्टं यदि स्यात् तदा प्रतिनियतशब्दार्थो न प्राप्नोति इति या च कस्यचिदर्थस्य परिहारेण श्रोतुः क्वचिदर्थे शब्दात् प्रवृत्तिः सा न प्राप्नोति; तस्मात् 'सर्वमेवाभीष्टम्' इत्येतदयुक्तम्, अतः 'पचति' इत्यादिशब्दानामन१५ भीष्टव्यवच्छेदः सामर्थ्यात् स्फुटमवगम्यत एव - " तथाहि - पचतीत्युक्ते " नोदासीनो ऽवतिष्ठते । दीव्यति वा नेति गम्यतेऽन्यनिवर्तनम् ” ॥ [ तत्त्वसं० का० ११४६ ] तेन 'पर्युदासरूपं हि "निषेध्यं तत्र न विद्यते' इति यदुर्केम् तदसिद्धम् । येश्च - ' पचतीत्यनिषिद्धं तु स्वरूपेणैव तिष्ठति' । इति । २० तत्र स्ववचनन्याधीतः । तथाहि - 'पचति' इत्येतस्यार्थ 'स्वरूपेणैव' इत्यनेनावधारणेनावधारित १ पृ० १९७ पं० २८ तथा ४४ । “क्रिया - कालादियोगोऽपि पूर्वमेव निराकृतः । तम्मात् सांकेतिका एते न व्यक्तिष्वपि भाविनः " ॥ तत्त्वसं ० का ० ११४२ पृ० ३५१ ॥ २-थापि चेति बि-भां० मां० ।-थापि विति बि-आ० हा० वि० । ३ भ्रान्ति - वा० वा० विना । "भ्रान्तैर्बाह्यव्यक्तिरूपत्वेन" - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३५१ पं० ८ । ४ पृ० १९७ पं० ४४ - पृ० १९८ पं० २ । ५ ' अपोह उच्यते' अत्र वाक्ये | ६- ति विशेषः भ० मां० वा० वा० । ७ पृ० १९८ पं० ४ तथा २३ । ८ इति सि वा० बा० विना । ९ जिज्ञासते आ० । १० “अभिप्रेते निवेशार्थं बुद्धेः शब्दः प्रयुज्यते । अनभीष्टव्युदासोऽतः सामर्थ्येनैव सिद्धयति” ॥ तत्त्वसं० का० ११४४ पृ० ३५१ । “श्रोतुर्बुद्धेर्निवेशाय”-तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३५१ पं० २० । ११ यदि यस्या - आ० । यदीयं स्याहा० वि० । 'यदीदं स्या' - वि० सं० । “सर्वमेव न चाभीष्टं सर्वार्थानियमाप्तितः । तत् पचत्यादिशब्दानां विनिवर्त्य परिस्फुटम् " ॥ तत्त्वसं० का० ११४५ पृ० ३५१ । १२ “प्रतिनियतः शब्दार्थः " - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३५१ पं० २६ । १३ - तदुक्तम् वि० । दा-आ० वि० । १५ शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०७ द्वि० पं० ४ । १६ अतः परम् १४- asal “औदासीन्यमतश्चैवमस्त्यन्यच क्रियान्तरम् । पर्युदासात्मकाऽपोह्यं नियतं यद्यदिष्यते” ॥ तत्त्वसं ० का ० ११४७ पृ० ३५२ । १७ निषेध्यं ति तत्र न हा० वि० । निषेध्य ति तत्र न आ० । १९ पृ० १९८० ७ तथा २७ । २० “ पचतीत्यनिषिद्धं तु स्वरूपेणैव तिष्ठति । इत्येतच्च भवद्वाक्यं परस्परपराहतम्” ॥ “अन्यरूपनिषेधोऽयं स्वरूपेणैव तिष्ठति । इत्यन्यथा निरर्थ स्यात् प्रयुक्तमवधारणम्” ॥ १८ पृ० १९८ पं० ६ तथा २३ । तत्त्वसं ० का ० ११४८-११४९ पृ० ३५२ । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - तत्संबन्धयोर्मीमांसा । रूपं दर्शयता 'पचति' इत्येतस्यान्यरूपनिषेधेनात्मस्थितिरिति दर्शितं भवतिः अन्यथा 'स्वरूपेणैव' इत्येतदवधारणं भवत्प्रयुक्तमनर्थकं स्यात् व्यवच्छेद्याभावात् । 'साध्यत्वप्रत्ययश्च' इंति, अत्रापि यैद्यपोहो भवता निरू (रु) पाख्यस्वभावतया गृहीतस्तत्कथमिदमुच्यते 'निष्पन्नत्वात्' इति, न ह्याकाशोत्पलादीनां काचिदस्ति निष्पत्तिः सर्वोपाख्याविरहलक्षणत्वात् तेषाम् । स्यादेतत् ५ यद्यप्यसौ 'निरुपाख्यः परमार्थतस्तथापि भ्रान्तैः प्रतिपत्तृभिर्बाह्यरूपतयाऽध्यवसितत्वादसौ सोपाख्यत्वेन ख्यातिः ननु यद्यसौ सोपाख्यत्वेन ख्याति तथापि किमत्र प्रकृतार्थानुकूलं जातम् ? वस्तुभिस्तुल्यधर्मत्वम्, एतेन यथा वस्तु निष्पन्नरूपं प्रतीयते तथापोहोऽपि वस्तुभिस्तुल्यधर्मतया ख्याते (तो) निष्पन्न इव प्रतीयत इति सिद्धं 'निष्पन्नत्वात्' इति वचनम् । येद्येवं भवत्यै ( है ) व साध्य (ध्यत्व) - प्रत्ययस्य भूतादिप्रत्ययस्य च निर्मित्तमुपदर्शितमिति न वक्तव्यमेतत् 'निर्निमित्तं प्रसज्यते' इति । १० यदपि 'विध्यादावर्थ राशी च नान्यापोह निरूपणम्' इति परेणोकम्, तत्र विध्यादेरर्थस्य निषेध्यादपि व्यावृत्ततयाऽवस्थितत्वात् तत्प्रतिपत्तौ सामर्थ्यादविवक्षितं नास्तितादि निषिध्यत इत्यस्त्येवात्र 'अन्यापोहनिरूपणम्' । 'नञश्चापि नत्रा युक्तौ' 'ईति, अत्रापि - १-त सामान्यरू वा० वा० । २ पृ० १९८ पं० ९ तथा २९ । ३ “निष्पन्नत्वमपोहस्य निश्वाख्यस्य कीदृशम् । गगनेन्दीवरादीनां निष्पत्तिर्नहि काचन" ॥ २२५ "नासौ न पचतीत्युक्ते गम्यते पचतीति हि । औदासीन्यादियोगश्च तृतीये नञि गम्यते " ॥ " तुर्ये तु तद्विविक्तोऽसौ पचतीत्यवसीयते । तेनात्र विधिवाक्येन सममन्यनिवर्तनम् " ॥ [ तत्त्वसं० का० ११५७-११५८ ] 'तुर्ये' इति चतुर्थे "चतुरश्छयतौ आद्यश्क्षरलोपश्च" [पाणि० अ० ५ पा० २ ० ५१ वार्ति० २० तत्त्वसं० का० ११५० पृ० ३५२ । ४ पृ० १९८ पं० ११ तथा २९ । ५ " वस्त्वि अध्यवसायाच्चेत् सोपाख्यत्वेन भात्यमौ । ततः किं तुल्यधर्मत्वं वस्तुभिश्चास्य गम्यते” ॥ ७ ६ निरूपा भ० मां० विना । भ्रान्तिः भ० मां० विना । सोपाख्यत्वेन भाति तथापि " - तत्त्वसं० पक्षि० पृ० ३५३ " ख्यातो निष्पन्न इव" - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३५३ पं० ६ । सिद्धं निष्पन्नत्वादिति वचनम् । यद्येवम्" - तत्त्वसं० पनि० पृ० ११ " साध्यत्वप्रत्ययस्तस्मात् तथाभूतादिरूपणम् । वस्तुभिस्तुल्यरूपत्वात् तन्निमित्तं प्रसज्यते " ॥ १५ तत्त्वसं० का ११५१ पृ० ३५२ । ८ " सोपाख्यत्वेन भातीति । यदि नामासौ पं० ३-४ । ९ ख्यातेर्निष्यन्न इति वा० वा० विना । १० - नं निष्पन्नत्वादौ यद्येवं वा० वा० विना । “इति ३५३ पं० ६ । तत्त्वसं० का० ११५२ पृ० ३५३ । १२ भवत्येव वा० वा० विना । भवतैव वि० सं० । “भवतैव साध्यत्वप्रत्ययस्य " - तत्त्वसं० प० पृ० ३५३ पं० ८ । १३- मित्वमुहा०वि० - मित्तत्वमु' - वि० सं० । १४ पृ० १९८ पं० १२ तथा २९ । रा-भां०म० । १६ पृ० १९८ पं० १३ तथा ३२ । १५ - वर्धा १७ “विध्यादावर्थराशौ च नास्तितादि निषिध्यते । सामर्थ्यान्न तु शब्देन यदेव न विवक्षितम् " ॥ तत्त्वसं० का० ११५३ पृ० ३५३ । १८ " निषेधादिव्यावृत्ततया " - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३५३ पं० १८ । १९ - र्थ्यादिवि - भ० मां० । ध्य-वा० बा० । २१ पृ० १९८ पं० १४ तथा पृ० ३२ । २० निषे २२ " नयश्वापि नवा युक्तावपोहन्तादृशो भवेत् । तच्चतुष्टयसद्भावे यादृशः संप्रतीयते” ॥ "नया योगे नमो ह्यर्थो गम्यते कस्यचिद् विधिः । तृतीयेन नया तस्य विरहः प्रतिपाद्यते” ॥ ' निषेधायापरस्तस्य तुरीयो यः प्रयुज्यते । तस्मिन् विवक्षिते तेन ज्ञाप्यतेऽन्यनिवर्तनम् " ॥ तत्त्वसं० का० ११५४-११५५ - ११५६ पृ० ३५३ । २३ शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०७ द्वि० पं. १२-१३ । २४ “येगौ चरु च" म० अ० ७० १ सू० १६४ । स० त० २९ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ प्रथमे काण्डेसिद्धान्त० पृ० २९९ ] इत्यनेन पूरणार्थे 'यत्'प्रत्ययविधानात् । 'तद्विविक्तोऽसौ' इति औदासिन्या. 'दिविविक्त (क्तः), 'विधिवाक्येन सममन्यनिवर्तनम्' इति यथा 'पचति' इत्यादौ विधिवाक्ये सामर्थ्यादौदासीन्यादिनिवृत्तिर्गम्यते तथा द्वितीयेऽपि नञि इति सिद्धमत्राप्यन्यनिवर्तनम् । स्पष्टार्थ तु नञ्चतुष्टयोदाहरणम्। ५ 'चादीनां नञ्योगो नास्ति' ईति, अत्र "समुच्चयादिर्यश्चार्थः कश्चिच्चादेरभीप्सितः। तदन्यस्य विकल्पादेर्भवेत् तेन व्यपोहनंम्" ॥ [ तत्त्वसं० का० ११५९ ] आदिशब्देना(न) 'वा'शब्दस्य विकल्पोऽर्थः, 'अपि'शब्दस्य पदार्थासम्भवानाऽ(र्थसम्भावना) न्ववसर्गादयः, 'तु'शब्दस्य विशेषणम्, 'एच'कारस्यावधारणमित्यादेर्ग्रहणम् । 'तदन्यस्य' इति १० तस्मात् समुच्चयादन्यस्य, 'तेन' इति चादिना । 'वाक्यार्थेऽन्यनिवृत्तिश्च व्यपदेष्टुं न शक्यते' 'इति, अत्रापि कार्यकारणभावेन सम्बद्धा एव पदार्था वाक्यार्थः यतो न पदार्थव्यतिरिक्तो निरवयवः शबलात्मा वा कल्माषवर्णप्रख्यो वाक्यार्थोऽस्ति, उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य तादृशस्यानुपलब्धेः पदार्थस्य चापोहरूपत्वं सिद्धमेव । तथाहि-'चैत्र! गामानय' इत्यादिवाक्ये वैत्रादिपदार्थव्यतिरेकेण बुद्धौ १५ नान्योऽर्थः परिवर्तते चैत्राद्यर्थगतौ च सामर्थ्यादचैत्रादिव्यवच्छेदो गम्यते; अन्यथा यद्यन्यकादि. व्यवच्छेदो नाभीष्टः स्यात् तदा चैत्रादीनामुपादानमनर्थकमेव स्यात् । ततश्च न किञ्चित् कश्चिद् व्यवहरेदिति निरीहमेव जगत् स्यात् । 'अनन्यापोहशब्दादौ वाच्यं न च निरूप्यते' 'ईति, १-दिविक्तः वा. बा। दिव्यक्त-भां०मा०। २ पृ. २२५५०४०। ३ वादी-आ. विना। ४ पृ. १९८ पं० १७ तथा ३९ । ५ शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ. ४०८ प्र. पं० २। ६ आदिशब्दे वा वा. बा० विना । “आदिशब्देन 'वा' शब्दस्य"-तत्त्वसं० पनि० पृ. ३५४ पं० १९। ७ कल्पार्थः भां० मां० । ८ पदार्थासंभवानान्वसर्गा-आ० । पदार्थासंभवीनाच्चसर्गा-हा० । पदार्थासंभवनाच्चसर्गा-वि० । ९-नात्वयसर्गा-वा० बा० । “अपिः पदार्थ-संभावनाऽन्ववसर्ग-गहरे-समुच्चयेषु'-पाणि अ० १ पा० ४ सू० ९५ महाभा० पृ. २९६ । काशि० अ०१ पा० ४ सू० ९६ पृ० ८१। “'अपि' शब्दस्य पदार्थ-संभावनान्ववसर्गादयः"-तत्त्वसं. पजि. पृ. ३५४ ५ १९। "गर्हा-समुच्चय-प्रश्न-शङ्का-संभावनास्वपि"-अमर० का० ३, लो० २४८ । "अपि पदार्थाऽनुवृत्त्यपेक्षा-समुच्चयाऽन्ववसर्ग-गहाऽऽशी:-संभावन-भूषण-संवरण-प्रश्नाऽवमर्शेषु" -है. तत्त्वप्र. महा० न्या० पृ. ६५५०४-१०। “अपि संभावनाशकागर्हणासु समुच्चये ॥ प्रश्न युक्तपदार्थेषु कामचारक्रियासु च"। है. अनेका० का० ७ ओ०३३-३४ । "गर्हा-समुच्चय-प्रश्न-शङ्का-संभावनाखपि" ॥ शाश्वत श्लो० ७८२ । “अपि संभावना-प्रश्न-शङ्का-गर्हा-समुच्चये । तथा युक्तपदार्थेषु कामचारक्रियासु च" ॥ बङ्गीयविश्व० अपिशब्दे। १० "समुच्चयादेरन्यस्य"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ३५४ पं० २१ । ११ पृ० १९८ पं० १७ तथा ३९ । १२ "वाक्यार्थेऽन्यनिवृत्तिश्च सुज्ञातैव तथा ह्यसौ । पदार्था एव सहिताः केचिद् वाक्यार्थ उच्यते"॥ "तेषां च ये विजातीयास्तऽपोह्याः सुपरिस्फुटाः। वाक्यार्थस्याऽपि ते चैव तेभ्योऽन्यो नैव सोऽस्ति हि"॥ तत्त्वसं० का० ११६०-११६१ पृ. ३५४ । १३ वाच्यार्थी-भां. मां। "वाक्यार्थों"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ३५५ पं०३ । “तद्वयतिरिक्तनिरवयवस्य शबलात्मनः कल्माषवर्णप्रख्यस्य वाक्यार्थस्याऽनुपलब्धेः"-शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. ४०८ प्र. पं० ५। १४ "चैत्र! गामानयेत्यादिवाक्यार्थेऽधिगते सति । कर्तृ-कर्मान्तरादीनामपोहो गम्यतेऽर्थतः" ॥ तत्त्वसं० का० ११६२ पृ. ३५५ । शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. ४०८ प्र.पं०४। १५ पृ. १९८ पं०२०। १६ पृ. १९९ पं. १ तथा २३ । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - तत्संबन्धयोर्मीमांसा | २२७ अत्र, नात्रे भवदभिमतो जात्यादिलक्षणो विधिरूपः शब्दार्थः परमार्थतोऽवसीयते जात्यादेर्निषिद्धत्वात् । “किन्तु विध्यैव साध्यस्माद् विकल्पो जायते ध्वनेः । पश्चादपोहशब्दार्थ निषेधे जायते मतिः” ॥ [ तत्वसं० का० ११६४ ] यैद्यनपोहशब्दादपोहशब्दार्थनिषेधे मतिर्जायते इतीष्यते न तर्ह्यपोहशब्दार्थोऽभ्युपगन्तव्यः तस्य निषिद्धत्वात्, असदेतत्; ५ “स त्वसंवादकस्तादृग्वस्तुसम्बन्धहानितः । न शाब्दाः प्रत्ययाः सर्वे भूतार्थाध्यवसायिनः " ॥ [ तत्वसं० का० १९६५ ] 'सः' इति अनन्यापोहशब्दादिः, 'असंवादकः' इति न संवदतीत्यसंवादकः, न विद्यते त्रा (वा) संवादो (संवादोऽस्येत्यसंवा) दकः । कस्मात् ? 'वस्तुसम्बन्धहानित:' तथाभूतवस्तुसम्बन्धाभावात् पूर्व हि जात्यादिलक्षणस्य शब्दार्थवस्तुनो निषिद्धत्वात् । यद्येवं तर्हि कथमनन्यापोहशब्दादिभ्योऽ-१० पोहशब्दार्थनिषेधे मतिरुपजायत इति उच्यते; वितथविकल्पाभ्या सवासनाप्रभवतया हि केचन शाब्दाः प्रत्यया असद्भूतार्थनिवेशिनो जायन्त एव इति न तद्वशाद् वस्तूनां सदसत्ता सिद्ध्यति । च 'प्रमेय- ज्ञेयशब्दादेः' इति, अत्र कैस्य प्रमेयादिशब्दस्यापोह्यं नास्तीत्यभिधीयते ? यदि तावैदवाक्यस्थ प्रमेयादिशब्दमाश्रित्योच्यते तदा सिद्धसाध्यता, केवैलस्य प्रयोगाभावादेव निरर्थकत्वात् यतः श्रोतृजनानुग्रहाय प्रेक्षा- १५ वद्भिः शब्दः प्रयुज्यते न व्यसनितया, न च केवलेन प्रयुक्तेन श्रोतुः कश्चित् सन्देह विपर्यासनिवृत्तिलक्षणोऽनुग्रहः कृतो भवेत् । तथाहि यदि श्रोतुः कचिदर्थे समुत्पन्नौ संशय-विपर्यासौ निवर्त्य " निस्सन्दिग्धप्रत्ययमुत्पादयेत् प्रतिपादक एवं तेनास्यानुग्रहः कृतो भवेत् नान्यथा । न च केवलेन शब्देन प्रयुक्तेन तथाऽनुग्रहः शक्यते कर्तुम्, तस्मात् संशयादिनिवर्त्तने निश्चयोत्पादने च श्रोतुरनुग्रहात् शब्दप्रयोग साफल्यमिति वाक्यस्थस्यैवास्य प्रयोगः । अथ वाक्यस्थमेव ज्ञेयादिशब्द मधि- २० कृत्योच्यते, तद् असिद्धम् ; तंत्र हि वाक्यस्थेन प्रमेयादिशब्देन यदेव मूढमैंतिभिः संशयस्थान मिष्यते १ " अनन्या हशब्दादौ न विधिर्व्यवसीयते । परैरभिमतः पूर्व जात्यादेः प्रतिषेधनात् " ॥ तत्त्वसं ० का ० ११६३ पृ० ३५५ । २- रूपश- मां० विना । ३ पृ० १७४ पं० २४ । ४- ध्यवशाय्यस्माद्वि-भां० मां० । ५ यद्यनपोहशब्दार्थ निषेधे आ० हा ० वि० । यद्यन्यपोहशब्दार्थ निषेधे वा० बा० । “ययपोहशब्दार्थनिषेधे मतिर्जायते"तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३५५ पं० २० । ६ सर्वऽसं-आ० । ७-दक इति न संवादकः कस्मात् आ० हा० । ८ दकः कस्मात् वा० बा० विना । "न संवदतीत्यसंवादकः, न विद्यते वा संवादोऽस्येत्य संवादकः "तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३५५ पं० २४ । ९ विवक्षा विक - वा० बा० । “ वितथविकल्पवासनावशात् तत्र तथाविधाविकल्पक्रमेणो (णा) न्यापोह निषेध मतिप्रवृत्तः " - शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०८ प्र० पं० ६ । १० यच्च ज्ञेय - प्रमेयश-भां० मां० वा० बा० विना । " यदपि ज्ञेय प्रमेयादिशब्दानां न किञ्चिदपोह्यमस्ति " - शास्त्रवा० स्याद्वादक ० पृ० ४०८ प्र० पं० ७। ११ पृ० १९९ पं० ४ तथा २३ । १२ " प्रमेय - ज्ञेयशब्दादौ कस्याऽपोह्यं न विद्यते । न ह्यसौ केवलोऽकाण्डे प्रेक्षावद्भिः प्रयुज्यते " ॥ तत्त्वसं० का० ११६६ पृ० ३५६ । १३- वद् वाक्यस्थ प्र-आ० हा ० वि० । १४ - वाक्यार्थ प्र-वा० बा० । १५ - वलप्रयोगा-भां० मी० । १६ “किन्त्वारेक-विपर्याससंभवे सति कस्यचित् । क्वचित् तद्विनिवृत्त्यर्थ धीमद्भिः स प्रयुज्यते” ॥ “निस्संदेहविपर्यासप्रत्ययोत्पादनादतः । तेनैव तैः प्रयुक्तेन साफल्यमनुभूयते” ॥ तत्त्वसं० का० ११६७-११६८ पृ० ३५६ । १९ - वर्तनेन नि-मां० मां० । २०- स्थ. १७- पर्ययौ भां० मां० । १८ निस्संदिग्धं प्र-भ० मां०। स्यैव प्र-भां०] मां० वा० बा० विना । २१- गः आद्यवा-भां० मां० । २२ - क्यस्तुमेव आ० हा ० वि० । २३ " यत् तत्र जडचेतोभिराशङ्कास्पदमिष्यते । तदेव क्षिप्यते तेन विफलोच्चारणाऽन्यथा ॥ " किञ्चिद्ध्यशङ्कमानोऽसौ किमर्थं परिपृच्छति । अतत्संस्कारकं शब्दं ब्रुवन् वा स्वस्थधीः कथम् " ॥ "चक्षुर्ज्ञानादिविज्ञेयं रूपादीति यदुच्यते । तेनाऽऽरोपितमेतद्धि केनचित् प्रतिषिध्यते” ॥ "न चक्षुराश्रितेनैव रूपं नीलादि वेद्यते । किन्तु श्रोत्राश्रितेनापि नित्येनैकेन चेतसा " ॥ तत्त्वसं० का० ११६९-११७०-११७१-११७२ पृ० ३५६-३५७ ॥ २४ - मतिभिः संशायास्था - वा० बा० । मतिभिराशङ्कास्था- मां० । मतिभिराशङ्कयस्था-भां० । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ प्रथमे काण्डे - तदेव निवर्त्यत इत्यतोऽसिद्धमेतत् 'प्रमेयादिशब्दानां निवर्त्य नास्ति' इति; अन्यथा यदि श्रोता न क्वचिदर्थे संशेते तत् किमिति परस्मादुपदेशमपेक्षते ? निश्चयार्थी हि परं पृच्छति अन्यथोन्मत्तः स्यात् । यदि नाम श्रोतुराशङ्का स्थानमस्ति तथापि शब्देन तम्न निवर्त्यत इत्येतच्च न वक्तव्यम्, श्रोतृसंस्कारायैव शब्दानां प्रयोगात् तदसंस्कारकं वदतो वक्तुः - अन्यथा - उन्मत्तताप्रसक्तिः । तथाहि५' किं' क्षणिकाऽनात्मादिरूपेण ज्ञेया भावाः, आहोश्विन्न' 'किं सर्वज्ञचेतसा ग्राह्याः उत न' इत्यादिसंशयोती क्षणिकत्वादिरूपेण ज्ञेयाः सर्वधर्माः' तथा 'सर्वशज्ञान विज्ञेयाः' इतिसंशयव्युदासार्थं शब्दः प्रयुज्यन्त इति । यदि (द) क्षणिकत्वाऽज्ञेयत्वादि समारोपितं तद् निर्वर्त्यते, क्षणिकत्वादिरूपेण तेषां प्रमाण सिद्धत्वात् । अथ 'किमनित्यत्वेन शब्दाः प्रमेयाः' इति 'आहोश्विन्न' इति प्रस्तावे 'प्रमेयाः ' इति प्रयोगे प्रकरणानभिज्ञस्यापि प्रतिपत्तुः 'प्रमेयाः' इति केवलं शब्दश्रवणात् मानरूपा शब्दा १० दिबुद्धिरुपजायत एव । तद् यदि केवलस्य शब्दस्यार्थो नास्त्येव तत् कथमर्थप्रतिपत्तिर्भवति ? नैवे केवलशब्दश्रवणादर्थप्रतिपत्तिः किमिति वाक्येपूपलब्धस्यार्थवतः शब्दस्य सादृश्येनापहृतबुद्धेः केवलशब्दश्रवणादर्थप्रतिपत्त्यभिमानः । तथाहि येष्वेव वाक्येषु 'प्रमेय' शब्दमुपलब्धवान् श्रोता तदर्थेष्वेव सा बुद्धिप्रतिष्ठितार्था लवमानरूपा समुपजायते तच्च घटादिशब्दानामपि तुल्यम् । तथाहि - 'किं ३ घटेनोदकमानयामि उताञ्जलिना' इति प्रयोगे प्रस्तावानभिज्ञस्य यावत्सु वाक्येषु तेन १५‘घटेन' इति प्रयोगो दृष्टस्तावत्स्वर्थेषु आकाङ्क्षावती पूर्ववाक्यानुसारादेव प्रतिपत्तिर्भवतीति घटादि • शब्दा (शब्दा इव) विशिष्टार्थवचनाः प्रमेयादिशब्दाः । 'दुक्तम्- 'अपोहकल्पनायां च' इत्यादि, तत्र, वैस्त्वेव ह्यभ्यवसायवशाच्छन्दार्थत्वेन कल्पितं यद् विवेक्षितं नावस्तुः तेन तत्प्रतीती सामर्थ्यादविवक्षितस्य व्यावृत्तिरधिगम्यत एवेति नाव्यापिनी शब्दार्थव्यवस्था । यदेव च मूढमते२० राशङ्कास्थानं तदेवाधिकृत्योक्तमाचार्येण - "शे (अज्ञे) यं कल्पितं कृत्वा तद्वयवच्छेदेन " ज्ञेयेऽनुमानम्" [ हेतु० ] इति । १- वर्तत इ-भां० मां० । २ श्रोतुः सं-भां०म० । ३ “क्षणिकत्वादिरूपेण वि (किं) ज्ञेया इति विभ्रमे । सर्वज्ञज्ञानविज्ञेया धर्माश्चैते भवन्ति किम् " ! ॥ अभावा अपि किं ज्ञेया न ज्ञानं जनयन्ति ये । इत्यादिविभ्रमोद्भूतौ विज्ञेयपदमुच्यते” ॥ तत्त्वसं० का ० ११७३ - ११७४ पृ० ३५७ । ४- ब्दाः युज्य - भां० म० । ५ यदक्षणिकत्वा - वि० सं० । “अत्र यदक्षणिकत्वादिना ज्ञेयत्वादिरूपमारोपितम्”तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३५८ पं० ३ । “ “क्षणिकत्वेन ज्ञेया भावाः' इत्यादिवाक्यस्थेन तेन क्षणिकत्वादिनाऽज्ञेयत्वादेः समारोपितस्य व्यावर्तनात् " - शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०८ प्र० पं० ९ । ६ वर्तते वा० बा० । ७ “ तादृग् ज्ञेयत्वमस्ते (स्त्ये )षां क्षणिकत्वादिसाधनात् । ज्ञेयोऽभावोऽपि संवृत्त्या (त्या) स्थापनादमुनाऽऽत्मना ” ॥ तत्त्वसं ० का ० ११७५ पृ० ३५८ । ८- इति आहोखिन्न भ० मां० । इति अहोश्विन्न हा० वि० । - इति अहोखिन्न वा० वा० । ९- प्रयोग प्रवा० वा० भ० मां० विना । " इति प्रस्तावे प्रमेयाः' इति प्रयोगे प्रकरणानभिज्ञस्यापि प्रतिपत्तुः केवलशब्दश्रवणात् प्लवमानरूपा शाब्दी धीः” - शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०८ प्र० पं० १० । १०- वलशब्द-आ० । ११ " प्रमेय - ज्ञेयशब्दादेः प्रतिपत्तिनिमित्तताम् । इत्थं वाक्यस्थितस्यैव दृष्ट्वा कालान्तरेष्वपि ” ॥ "केवलस्योपलम्भे या प्रतीतिरुपजायते । उवमानाऽर्थभेदेषु सा तद्वाक्यानुसारतः " ॥ “घटादिभ्योऽपि शब्देभ्यः साऽस्त्येव च तथाविधा । तस्माद् घटादिशब्देन ज्ञेयादिध्वनयः समाः " ॥ तत्त्वसं० का० ११७६- ११७७-११७८ पृ० ३५८ । १२ “किन्तु " - तत्त्वसं ० पजि० पृ० ३५८ पं० २२ । १३ शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४०८ प्र० पं० १२ । १४ - नय स्युता - हा०वि० । १५ " पूर्ववाक्यानुसारादेव प्रतिपत्तिर्भवति (इति) । तस्माद् यथाऽर्थवा (घटा ) दिशब्दाविशिष्टार्थवचनास्तथा प्रमेयादिशब्दा अपि तत्त्वसं० पजि० पृ० ३५८ पं० २७ । १६ ष्टार्थाव - वा० बा० । १७ पृ० १९९ पं० ९ तथा ३० । १८ “अपोह्यकल्पनायां च वरं वस्त्वेव कल्पितम् । इत्येतद् व्याहतं प्रोक्तं नियमेनान्यवर्जनात् ” ॥ “वस्त्वेव कल्प्यते तत्र यदेव हि विवक्षितम् । क्षेपो विवक्षितस्यातो न तु सर्व विवक्षितम् " ॥ १९ - वक्षिता वस्तु वा० बा० भ० मां० विना । २० तत्त्वसं० का० ११७९-११८० पृ० ३५९ । ज्ञेयानु- वा० बा० । २१ पृ० १९९ पं० ८ तथा २९ । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २२९ 'ज्ञानाकारनिषेधाच्च' इत्यादी ज्ञानाकारस्य स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धत्वात् कथमभावः? तथाहि-स्वप्नादिषु अर्थमन्तरेणापि निरालम्बनमागृहीतार्थाकारसमारोपैकं ज्ञानमागोपालेमतिस्फुटं स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धम् । न च देश-कालान्तरावस्थितोऽर्थस्तेन रूपेण संवेद्यत इति युक्तं वक्तुम्, तस्य तद्रूपाभावात्। न चान्येन रूपेणान्यस्य संवेदनं युक्तम् अतिप्रसङ्गात् । किश्च, अवश्यं भवद्भिर्ज्ञानस्यात्मगतः कश्चिदू विशेषोऽर्थकृतोऽ: गन्तव्यः येन बोधरूपताम्येऽपि प्रतिविषयं 'नीलस्येदं संवेदनम् न पीतस्य' इति विभागेन विभज्यते ज्ञानम् । तदभ्युपगमे च सामर्थ्यात् साकारमेव ज्ञानमभ्युपगतं स्यात् आकारव्यतिरेकेणान्यस्य स्वभावविशेषत्वेनावधारयितुमशक्यत्वात्, अतो भवता 'स्वभावविशेषः' इति स एव शब्दान्तरे. णोक्तः अस्माभिस्तु 'आकारः' इति केवलं नाम्नि विवादः। ____ 'एवमित्थम्' इत्यादावपि एवमेतन्नैवम्' इति वा प्रकारान्तरमारोपितमेवम्' इत्यादिशब्दैर्व्यव-१० च्छिद्यमानं स्फुटतरमवसीयते" चेति नाव्यापिता शब्दार्थव्यवस्थायाः। एवं कुमारिलेनोक्तं दूषणं प्रतिविहितम्। [ उद्दयोतकरोक्तानामाक्षेपाणां प्रतिविधानम् ] इदानीमुद्दद्योतकरेणोक्तं प्रतिविधीयते-तत्र यदुक्तम् 'सर्वशब्दस्य कश्चार्थो व्यवच्छेद्यः प्रकल्प्यते' इति, अत्रापि ज्ञेयादिपदवत् केवलस्य सर्वशब्दस्याप्रयोगात् वाक्यस्थस्यैव नित्यं प्रयोग इति यदेव मूढमतेराशङ्कास्थानं तदेव निवर्त्यमस्ति । तथाहि " 'सर्वे धर्मा निरात्मानः' 'सर्वे वा पुरुषा गताः'। सामस्त्यं गम्यते तत्र कश्चिदंशस्त्वपोह्यते" ॥ [ तत्त्वसं० का० ११८६ ] कोऽसावंशोऽपोह्यतेऽत्र इति चेत्, उच्यते "केचिदेव निरात्मानो बाह्या इप्टा घटादयः । - गमनं कस्यचिच्चैव भ्रान्तैस्तद्विनिवर्त्यते" ॥ [ तत्त्वसं० का० ११८७ ] 'एकाद्यसर्वम्' इत्यादावपि यदि हि सर्वस्याङ्गस्य प्रतिषेधो वाक्यस्थे सर्वशब्दे विवक्षितः स्यात् तदा स्वार्थोऽपोहः प्रसज्यते यावता यदेव मूढधिया शङ्कितं तदेव निषिध्यत इति कुतः स्वार्थापवादित्वदोषप्रसङ्गः? ऐवं २५ यादिशब्देष्वपि वाच्यम् । यच्चोक्तम्-'किं भावोऽथाभावः' इत्यादि, १ पृ. १९९ पं० १४ तथा ३२ । २-क्षप्रत्ययसि-भां. मां । ३ "ज्ञानाकारनिषेधस्तु खवेद्यत्वान्न शक्यते । विद्यते हि निरालम्बमारोपकमनेकधा" ॥ "ज्ञानस्यात्मगतः कश्चिनियतः प्रतिगोचरम् । अवश्याऽभ्युपगन्तव्यः स्वभावश्च स एव च"॥ "अस्माभिरुक्त आकारः प्रतिबिम्बं तदाभता । उल्लेखः प्रतिभासश्च संज्ञाभेदस्त्वकारणम्" ॥ तत्त्वसं० का० ११८१-११८२-११८३ पृ० ३५९ । ४-पज्ञान-वा. बा० । ५-लममिस्फु-भां० मा० ।-लमितिस्फु-आ० ।-लमि स्क-वा. बा०। ६-साम्ये ति प्रति-हा. वा. बा० ।-साम्येति विष-आ०। ७-भज्येते आ. भा०। ८-वलनाम्नि भां० मां. विना। ९ एवमित्यादा-भां. मां०। १० १९९ पं० १८ तथा ३६।। ११ “एवमित्यादिशब्दानां नैवमित्यादि विद्यते । अपोह्यमिति विस्पष्टं प्रकारान्तरलक्षणम्" ॥ तत्त्वसं• का० ११८४ पृ० ३६० । 'एवमेतजैवमिति प्रकारान्तर-' तत्त्वसं० पजि. पृ० ३६० पं०४। १२-ते वेति भां० मां०। १३ पृ. २०० पं० २ तथा २१-२२ । १४-च्छेद्यः प्रकल्प-आ० । च्छेदः प्रकल्प-हा० वि० । १५ “व्यवहारोपनीते च सर्वशब्देऽपि विद्यते । व्युदास्यं तस्य चार्थोऽयमन्यापोहोऽमिधित्सितः" ॥ तत्त्वसं० का० ११८५ पृ. ३६० । १६ निर्वर्त्य-हा. वि.। १७-स्यचिच्चैवं आ० वि०। १८ भ्रान्तेस्त-आ० । १९ पृ. २००५०५ तथा २३ । २० "सर्वाङ्गप्रतिषेधश्च नैव तस्मिन् विवक्षितः । खार्थापोहप्रसङ्गोऽयं तस्मादज्ञतयोच्यते"॥ तत्त्वसं० का० ११८८ पृ. ३६० । २१ एव द्यादि-वा० बा। एवमयादि भां०मा० आ. हा०।२२ पृ०२००५०११ तथा २६ । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० प्रथमे काण्डे तत्रापि यथाऽसौ बाह्यरूपतया भ्रान्तैरवसीयते न तथा स्थित इति बाह्यरूपत्वाभावाने भावः, न चाभावो बाह्यवस्तुतयाऽव्य(ध्य)वसितत्वात् इति कथं 'यदि भावः स किं गौः' इत्यादि(दे) कपक्षभाविनः 'प्रेष-सम्प्रतिपत्त्योरभावः' इत्यादेश्चाभावपक्षभाविनो दोषस्यावकाशः? अथ पृथक्त्वै. कत्वादिलक्षणः कस्मान्न भवति ? व्यतिरेको(काऽ)व्यतिरेकाऽऽश्रिताऽनाश्रितत्वादिवस्तुगतधर्माणां ५कल्पनाशिल्पिघटितविग्रहेऽपोहेऽसम्भवात् । यञ्चोक्तम्-'क्रियारूपत्वादेपोहस्य विषयो वक्तव्यः' इति, तदसिद्धम् ; शब्दवाच्यस्यापोहस्य प्रतिबिम्बात्मकत्वात् । तच्च प्रतिबिम्बकम् अध्यवसितबाह्यवस्तु. रूपत्वाद् न प्रतिषेधमात्रम् ; अत एव 'किं गोविषयः अथाऽगोविषयतः (षयः)' इत्यस्य विकल्प यस्यानुपपत्तिः गोविषयत्वेनैव तस्य विधिरूपतयाऽध्यवसीयमानत्वात् । १० यच्चोक्तम्-'केन ह्यगोत्वमासक्तं गोर्येनैतदपोह्यते' इति, अत्रापि, यदि हि प्राधान्येनान्यनिवृत्तिमेव शब्दः प्रतिपादयेत् तदैतत् स्यात् यावतार्था(थ)प्रतिबिम्बकमेव शब्दः करोति, तद्गतौ च सामर्थ्यादन्यनिवर्त्तनं गम्यत इति सिद्धान्तानभिज्ञतया यत् किश्चिदभिहितम् । व्यतिरेकाव्यतिरेकादिविकल्पः पूर्वमेव निरस्तः । यदुक्तम्-'किमयमपोहो वाच्यः' इत्यादि, १५ तत्रीन्योपोहे 'वायत्वम्' इति विकल्पो यद्यन्यापोहशब्दमधिकृत्याभिधीयते तदा विधिरूपेणैवासौ तेन शब्देन वाच्य इत्यभ्युपगमान्नानिष्टापत्तिः। तथाहि-'किं विधिः शब्दार्थः आहोश्विदन्या १ "न भावो नापि चाभावोऽपृथगेकत्वलक्षणः । नाश्रिताऽनाश्रितोऽपोहो नैकानेकश्च वस्तुतः" ॥ ___ "तथाऽसौ नास्ति तत्त्वेन यथाऽसौ व्यवसीयते । तत्र भावो न चाभावो वस्तुत्वेनाऽवसायतः"॥ तत्त्वसं. का. ११८९-११९. पृ. ३६०-३६१ । २ भ्रान्तेर-वा. बा.। ३-न्न भावो बाह्यवस्तुतया आ० वा. बा० ।-न्न भावो बाह्यवस्तु तथाऽव्यवस्थितत्वा-हा० वि०। ४ "बाह्यरूपतया दर्शितत्वात्"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ३६१ पं. ७। ५-त्यादिभाव-भां. मां० हा. वि. विना । पृ. २००५० १२ तथा २६ । ६ पृ. २०० पं० १३ तथा २८ । ७-ति व्यतिरेकाश्रि-भां० मां. विना । ८ "भेदाभेदादयः सर्वे वस्तुसत्परिनिष्ठिताः । निःखभावश्च शब्दार्थस्तस्मादेते निरास्पदाः"॥ तत्त्वसं० का० ११९१ पृ. ३६१ । "व्यतिरेकाव्यतिरेकादयः"-तत्त्वसं० पजि० पृ० ३६१ पं० ११।। ९ पृ. २०० पं० १६ । १० क्रियाया रू-आ. हा. वि.। ११-दपोह्यस्य भा. मा. विना । १२ विषय इ-क । “-विषयः"-तत्त्वसं० पजि० पृ. ३६१ पं० १५। १३ पृ० २०० पं० १७। १४ पृ. २०. पं० १९ तथा ३६ । १५-क्तं गौर्येनै-आ० हा० विना। १६ “अन्यार्थविनिवृत्तिं च साक्षाच्छब्दः करोति नः । कृते खार्थाभिधाने तु सामर्थ्यात् साऽवगम्यते"॥ “न तदात्मा परात्मेति विस्तरेणोपपादितम् । (पृ. २०३ पं० २३ ) परपक्षानभिज्ञेन तस्मादेतदिहोच्यते" ॥ "केन ह्यगोत्वमासक्तं गोयनैतदपोह्यते । इति नैवाभिमुख्येन शब्देनैतदपोह्यते" ॥ तत्त्वसं० का० ११९२-११९३-११९४ पृ० ३६१ । १७ “यावताऽर्थप्रतिबिम्बकमेव"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ३६१ पं० २५। १८ प्र. पृ. ५० ५। १९ पृ. २०१५० ८। २. “कतमेन च शब्देन वाच्यत्वं परिपृच्छयते । अपोहस्य किमेतेन यदि वा किं घटादिना" ॥ "शब्दार्थः किमपोहो वा विधिर्वेति निरूपणे । अपोह इति भाव्यतद् यत् तदेवं प्रतीयते" ॥ "प्रतिबिम्बं हि शब्दार्थ इति साक्षादियं मतिः। जात्यादिविधिहानिस्तु सामर्थ्यादवगम्यते"। “घट-वृक्षादिशब्दाश्च तदेव प्रतिबिम्बकम् । ब्रुवन्ति जननात् साक्षादर्थादन्यत् क्षिपन्ति तु" ॥ "तस्मान्न विधिदोषोऽस्ति नानिष्ठा च प्रसज्यते । अवाच्यपक्षदोषस्तु तदनङ्गीकृतेर्न नः" ॥ तत्त्वसं. का. ११९५-११९६-११९७-११९८-११९९ पृ. ३६२ । २१-न्यापोह्यवा-वा. बा०। २२-च्यत्वमिति कल्पे आ. हा. वि० ।-च्यत्वविकल्पे भां. मां। "तत्रान्यापोहवाच्यत्वविकल्पः"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ३६२ पं० १४। २३ आहोश्चिद-हा. वि. । आहेतस्विदवा. बा.। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २३१ पोहः' इति प्रस्तावे 'अन्यापोहः शब्दार्थः' इत्युक्ते प्रतिपत्तुर्यथोक्तप्रतिबिम्बलक्षणान्यापोहाध्यवसायी प्रत्ययः समुपजायते अर्थानुर्थात् तु)विधिरूपशब्दार्थनिषेधः । अथ घटादिशब्दमधिकृत्य, तत्रापि यथोक्तप्रतिबिम्बलक्षणोऽपोहः साक्षाद् घटादिशब्दैरुपजन्यमानत्वाद् विधिरूप एव तैः प्रतिपाद्यते, सामर्थ्यात् त्वन्यनिवृत्तेरधिगम इति नानिष्टापत्तिः। न चाप्यनवस्थादोषः, सामर्थ्यादन्यनिवृत्तेर्गम्यमानत्वात् न तु वाच्यतयाँ । अवाच्यपक्षस्यानङ्गीकृतत्वादेव न तत्पक्षभाविदोषोदयावकाशः। ५ 'अपि चैकत्व-नित्यत्व'-इत्यादावपि, यदि पारमार्थिकैकत्वाद्युपवर्णनं कृतं स्यात् तदा हास्यकरणं भवतः स्यात् : यदा तु भ्रान्तप्रतिपत्ननुरोधेन काल्पनिकमेव तद् आचार्येणोपवर्णितं तदा कथमिव हास्यकरणमवतरति विदुषः किन्तु भवानेव विवक्षितमर्थमविज्ञाय दूषयन् विदुषामतीव हास्यास्पदमुपजायते । _ 'तस्माद् येष्वेव शब्देषु नभ्योगः' इत्यादावपि, 'नं केवलं यत्र नभ्योगस्तत्रान्य विनिवृत्त्यंशोऽवगम्यते, यत्रापि हि नभ्योगो नास्ति तत्रापि गम्यत एव' इति स्ववाचैवैतद् भवता प्रतिपादितम् 'स्वात्मैव गम्यते' इत्यवधारणं कुर्वता; अन्यथाऽवधारणवैयर्थ्यमेव स्यात् यतः 'अवधारणसामर्थ्यादन्यापोहोऽपि गम्यते' इति स्फुटतरमेवावसीयते । ने च वन्ध्यासुतादिशब्दस्य बाह्य सुतादिकं वस्त्वन्यव्यावृत्तमपोहाश्रयो नास्तीति किमधिष्ठानोऽपोहो वाच्य इति वक्तव्यम् , यतो न तद्विषयाः शब्दा जात्यादिवाचकत्वेनाशङ्कयाः 'वस्तुवृत्तीनां हि शब्दानां १५ किं रूपमभिधेयम् , आहोश्वित् प्रतिबिम्बम्' इत्याशङ्का स्यादपि, अभौवस्तु वस्तुविवेकलक्षण एवेति तद्वृत्तीनां शब्दानां कथमिव वस्तुविषयत्वाशङ्का भवेत् इति निर्विषयत्वं स्फुटमेव तत्र शब्दानां प्रतिबिम्बकमात्रोत्पादादवसीयत एव ।। __अत एव "ये सङ्केतसव्यपेक्षास्तेऽर्थशून्याभिजल्पाऽऽहितवासनामात्रनिर्मित विकल्पप्रतिबिम्बमात्रावद्योतकाः, यथा वन्ध्यापुत्रादिशब्दाः, कल्पितार्थाभिधायिनः सङ्केतसव्यपेक्षाश्च विवादास्प-२० दीभूता घटादिशब्दा इति स्वभाव हेतुः । यद्वा परोपगतपारमार्थिकजात्याद्यर्थाभिधायका न भवन्ति घटादिशब्दाः, सङ्केतसापेक्षत्वात् , कल्पितार्थाभिधानवेत् । न च हेतोरनैकान्तिकता, क्वचित् साध्य १ अथानु आ० हा० वि० विना। "अर्थात् तु"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ. ३६२ पं० १७। २ पृ. २०१पं० १० तथा ३४। ३-त्वान्न वाच्य-भां. मां०। ४-या वाच्य-आ. हा० वि०। ५ पृ० २.१५० १६ । ६ “एकत्व-नित्यतादिश्च कल्पितो न तु तात्त्विकः । तदत्र हासकरणं महाविद्वत्त्वसूचकम्" ॥ तत्त्वसं० का० १२०० पृ. ३६२ । ७ पृ० २०१५० १८। ८-पि केव-भां० मां० वा० बा० विना । ९ "अवधारणसामर्थ्यादन्यापोहोऽपि गम्यते । खात्मैव गम्यते यत्र विफलो नियमोऽन्यथा" ॥ तत्त्वसं० का० १२०१ पृ. ३६३ । १०-न्यनि-भां० मा०। ११ पृ. २०१ पं० १९ । १२ “यस्य तर्हि न बाह्योऽर्थोऽप्यन्यथावृत्त इष्यते । वन्ध्यासुतादिशब्दस्य तेन क्वाऽपोह उच्यते" ॥ तत्त्वसं० का० १२०२ पृ० ३६३ । १३ "रूपाभावादभावानां शब्दा जात्यादिवाचकाः। नाऽऽशङ्ख्या एव सिद्धास्ते निर्भासस्यैव सूचकाः" ॥ अर्थशून्याभिजल्पोत्थवासनामात्रनिर्मितम् । प्रतिबिम्बं यदाभाति तच्छब्दैः प्रतिपाद्यते" ॥ तत्त्वसं० का० १२०३-१२०४ पृ. ३६३ । १४-वृत्तानां वा० बा०। १५-भावस्तु वस्तूविवेक-वा. या० ।-भावस्तु विवेक-आ० ।-भाववस्तुविवेक-वि० । १६ "तन्मात्रद्योतकाश्चेमे साक्षाच्छब्दाः ससंशयाः । संकेतसव्यपेक्षत्वात् कल्पितार्थाभिधानवत्" ॥ ___ तत्त्वसं० का० १२०५ पृ. ३६४ । १७-तवैकल्प-भां० मा0 वा. बा. विना। १८ "परोपगतमेदादिविधानप्रतिपादकाः । न चैते ध्वनयस्तस्मात् तद्वदेवेति गम्यताम्" ॥ तत्त्वसं० का० १२०६ पृ. ३६४ । १९-वत् हे-आ० हा० वि० । २० संकेतासंभवो पत्र भेदादौ साधितः पुरा । वैफल्यं च न तद्धत्वोः संदिग्धव्यतिरेकिता"॥ तत्त्वसं० का० १२०७ पृ. ३६४ । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - विपर्ययेऽनुपलम्भात् अशक्यसमयत्वात् अनन्यभाक्त्वाच्चेति । पूर्वं स्वलक्षणादौ सङ्केतासम्भवस्य सङ्केत वैफल्यस्य च प्रसाधितत्वान्न हेतोः सन्दिग्धविपक्षव्यतिरेकता । २३२ अथ यथा स्वलक्षणादौ सङ्केतासम्भवः वैफल्यं च तथाऽपोहपक्षेऽपि ततञ्चाकृतसमयत्वात् तन्मात्र द्योतकत्वमपि शब्दानां न युक्तमित्यनैकान्तिकता प्रथम हेतोः । तथाहि न प्रतिबिम्बात्मकोऽ ५ पोहः वक्त - श्रोत्रोरेकः सिद्ध्यति, न ह्यन्यदीयं ज्ञानमपरोऽवग्दर्शनः संवेदयते प्रत्यात्मवेद्यत्वा (त्वाद) ज्ञानस्य, अज्ञानव्यतिरिक्तश्च परमार्थतः प्रतिविम्बात्मलक्षणोऽपोहः ततश्च वक्तृ-श्रोत्रोरेकस्य सङ्केतविषयस्यासिद्धेः कुत्र सङ्केतः क्रियेत गृह्येत वा ? न ह्यसिद्धे वस्तुनि वक्ता सङ्केतं कर्तुमीशः, नापि श्रोता ग्रहीतुम् अतिप्रसङ्गात् । तथाहि श्रोता यत् प्रतिपद्यते स्वज्ञानारूढमर्थप्रतिविम्बकं न तद् वक्रा संवेद्यते यच्च वक्रा संवेद्यते न च तत् श्रोत्रा; द्वाभ्यामपि स्वावभासस्यैव संवेदनात्, आन१०र्थक्यं च तत्र सङ्केतस्य । तथाहि यत् सङ्केतकाले प्रतिबिम्बकमनुभूतं श्रोत्रा वक्रा वा न तद् व्यव हारकालेऽनुभूयते तस्य क्षणक्षयित्वेन चिरनिरुद्धत्वात् यच्च व्यवहारकालेऽनुभूयते न तत् सङ्केतकाले दृष्टम् अन्यस्यैव तदानीमनुभूयमानत्वात् न चान्यत्र सङ्केतादन्येन व्यवहारो युक्तः अतिप्रसङ्गात्, असदेतत्; येतो न परमार्थतो ज्ञानाकारोऽपि शब्दानां वाच्यतयाऽभीष्टः येन तत्र सङ्केतासम्भवो दोषः प्रेर्यते यतः सर्व एवायं " शाब्दो व्यवहारः स्वप्रतिभासानुरोधेन तैमिरिकद्वय१५ द्विचन्द्रदर्शनवद् भ्रान्त इष्यते, केवलमर्थशून्या भिजल्पवासनाप्रबोधाच्छब्देभ्योऽर्थाध्यवसायिविकल्पमात्रोत्पादनात् तत्प्रतिबिम्बकं शब्दानां वाच्यमित्यभिधीयते जननात् न त्वभिधेयतया । तत्र यद्यपि स्वस्यैवावभासस्य वक्तृ-श्रोतृभ्यां परमार्थतः संवेदनम् तथापि तैमिरिकद्वयस्येव भ्रान्तिबीजस्य तुल्यत्वात् द्वयोरपि वक्तृ-श्रोत्रोर्बाह्यार्थव्यवस्थाध्यवसायः तुल्य एव । तथाहि - वक्तुरयमभिमानो वर्तते 'यमेवाहमर्थ प्रतिपद्ये तमेवायं प्रतिपाद्यते' एवं श्रोतुरपि योज्यम् । एकार्थाध्यवसायित्वं कथं २० वक्तृ - श्रोत्रोः परस्परं विदितम् इति न वाच्यम्, यतो यदि नाम परमार्थतो न विदितम् तथापि भ्रान्तिबीजस्य तुल्यत्वादस्त्येव परमार्थतः स्वसंविदितं प्रतिबिम्बकम् । स्वप्रतिभासानुरोधेन च तैमिरिकद्वयद् भ्रान्त एव व्यवहारोऽयमिति निवेदितम् तेनैकार्थाध्यवसायवशात् सङ्केत करणपपद्यत एव न चाप्यानर्थक्यं सङ्केतस्य, सङ्केतव्यवहारकालव्यापकत्व ( त्वं) प्रतिबिंबे वक्तृ - श्रोत्रोरध्यवसायातून परमार्थतः । यदुक्तम् २५ “व्यापैकत्वं च तस्येदमिष्टमाध्यवसायिकम् । मिथ्यावभासिनो ह्येते प्रत्ययाः शब्दनिर्मिताः” ॥ [ तत्त्वसं० का० १२१२ ] ततः स्थितमेतद् न शब्दस्याकल्पितोऽर्थः सम्भवति । १ पृ० १७४ पं० २३ । पूर्वखल-आ० वा० बा० विना । २ " ननु चापोहपक्षेऽपि कथं संकेतसंभवः । साफल्यं च कथं तस्य न द्वयोः स हि सिद्ध्यति” ॥ " वक्तृ श्रोत्रोर्न हि ज्ञानं वेद्यते तत् परस्परम् । संकेते न च तद् दृष्टं व्यवहारे समीक्ष्यते” ॥ 1 तत्त्वसं ० का ० १२०८ - १२०९ पृ० ३६४ ॥ ३- त्वमिति श- भ० मां० विना । ४- त्यात्मसंवेद्य भ० मां० । “प्रत्यात्मसंवेदनीयमेवाऽवग्दर्शनान ज्ञानम् । न ह्यन्यदीयज्ञानमपरोऽपरदर्शनः संवेदयते । ज्ञानादव्यतिरिक्तश्च" - तत्त्वसं० पजि० पृ० ३६५ पं० ३ | ५- त्मकल - भ० मां० । ६ कुत वा० वा० । ७ क्रियते भां० मां० । ८ श्रोत्रा यत् प्रतिपाद्यते आ० । श्रोता यत् प्रतिपाद्यते वि० हा० । ९-त्वात् व्यव - आ० हा ० वि० । १० “स्वस्य स्वस्यावभासस्य वेदनेऽपि स वर्तते । बाह्यार्थाध्यवसाये यद् द्वयोरपि समो यतः " ॥ " तिमिरोपहताक्षो हि यथा प्राह शशिद्वयम् । खसमाय तथा सर्वा शाब्दी व्यवहृतिर्मता” ॥ तत्त्वसं० का ० १२१०-१२११ पृ० ३६५-३६६ । ११- म्भवे दो-आ० हा० वि० । १२-यं शब्दो भ० मां० विना । १३- त्पादात् भ० मां० । १४- यस्यैव वा० वा० हा ० वि० । १५ " प्रतिपद्यते " - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३६५ पं० २४ । १६- वदभ्रान्त-भां० मां० विना । १७ प्र० पृ० पं० १४ । १८- क्यं संकेत व्यवहार भां० म० विना । १९ व्यापकत्वस्य प्रति-भां० मां० वा० बा० । “संकेतव्यवहाराप्तकालव्यापकत्वं च " - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३६६ पं० १० । २० - बिम्बं व-आ० । २१ - पकं च वा० वा० आ० हा० वि० । २२ तस्येवमि - वा० बा० । तस्यैवमि आ० हा ० वि० । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा। २३३ [संविद्वपुरन्यापोहवादिप्राज्ञाकरमतस्य उपन्यासः ] अपरस्त्वन्यथा प्रमाणयति-इह खलु यद् यत्र प्रतिभाति तत् तस्य विषयः, यथाऽक्षजे संवेदने परिस्फुटं प्रतिभासमानवपुरर्थात्मा नीलोदिस्तद्विषयः, शब्द-लिङ्गान्वये च दर्शनप्रसवे बहिरेस्वतस्वप्रतिभासरहितं स्वरूपमेव चकास्ति तत् तदेव तस्य विषयः। पराकृतबहिरैर्थस्पर्श च संविपुरन्यापोहः वस्तुनि शब्द-लिङ्गवृत्तेरयोगात् । तथाहि-जातिर्वा तयोर्विषयः, व्यक्तिर्वा तद्वि- ५ शिष्टा? तत्र न तावदाद्यः पक्षः, जातेरेवासम्भवात् । तथाहि-दर्शने व्यक्तिरेव चकास्ति, पुरः परिस्फुटतयाऽसाधारणरूपानुभवात् । अथ साधारणमपि रूपमनुभूयते 'गोर्गौः' इति, तदसत्; शाबलेयादिरूपविवेकेनाऽप्रतिभासनात् । न च शाबलेयादिरूपमेव साधारणमिति शक्यं वक्तुम् , तस्य प्रतिपत्तिव्यक्ति(प्रतिव्यक्ति)मिन्नरूपोपलम्भात् । तथा च पराकृतमिदम् "सर्ववस्तुषु बुद्धिश्च व्यावृत्त्यनुगमात्मिका।। जायते द्यात्मकत्वेन विना सा च न युज्यते” ॥ "न चात्रान्यतरा भ्रान्तिरूपचारेण वेष्यते। दृढत्वात् सर्वथा बुद्धर्भ्रान्तिस्तद् भ्रान्तिवादिनाम्" ॥ [ श्लो० वा० आकृ० श्लो० __५-७ ] इति । 'घात्मिका बुद्धिः' इति यदीन्द्रियबुद्धिमभिप्रेत्योच्यते तदयुक्तम्। तस्या असाधारणरूपत्वात् ,१५ नहि द्वयोर्बहिर्माह्याकारतया परिस्फुटमुद्भासमानयोस्तदभिन्न भिन्नं वा दर्शनारूढं साधारणं रूपमाभाति । अथ कल्पनाबुद्धिाकारा अभिधीयते । तथाहि-यदि नाम अपास्तकल्पने दर्शने न जातिरुद्राति कल्पना तु तामुल्लिखन्ती व्यवसीयते 'गौ!ः' इति, एतदप्यसत्; कल्पनाशानेऽपि जातेरनवभासनात् । तथाहि-कल्पनाऽपि पुरः परिस्फुटमुद्भासमानं व्यक्तिस्वरूपं व्यवस्यन्ती हृदि चाभिजल्पाकारं प्रतीयते, न च तयतिरिक्तः वर्णाकृत्यक्षराकारशून्यः प्रतिभासो लक्ष्यते वर्णा-२० दिस्वरूपरहितं च जोतिस्वरूपमभ्युपगम्यते, तन्न कल्पनावसेयाऽपि जातिः । यच्च क्वचिदपि ज्ञानेनावभाति तदसत्, यथा शशविषाणम् , जातिश्च क्वचिदपि ज्ञाने परिस्फुटव्यक्तिप्रतिभासवेलायां स्वरूपेण नाभाति तन्न सती। ____ अथापि शब्द-लिङ्गजे ज्ञाने स्वरूपेण सा प्रतिभाति तत्र सम्बन्धप्रतिपत्तेः, स्वलक्षणस्य च तत्रासाधारणरूपतया प्रतिभासनावसायात् सम्बन्धग्रहणासम्भवाश्च तेन्न शब्द-लिङ्गभूमिः । ननु२५ तत्रापि परिस्फुटतरो व्यक्तेरेवाकारः शब्दस्य वा प्रतिभाति न तु वर्णाकाररहितोऽनुगतैकस्वरूपः प्रयोजनसामर्थ्यव्यतीतः कश्चिदाकारः केनचिदपि लक्ष्यते, शब्द-लिङ्गान्वयं हि दर्शनमर्थक्रियासमर्थतयाऽस्फुटदहनाकारमाददानं प्रवर्तयति जनम्, तत् कथमन्यावभासस्य दर्शनस्याऽन्याकारो जात्यादिविषयः ? यदि च जात्यादिरेव लिङ्गादिविषयः तथा सति जातेरर्थक्रियासामर्थ्य विरहादधिगमेऽपि शब्द-लिङ्गाभ्यां न बहिरर्थे प्रवृत्तिर्जनस्येति विफलः शब्दादिप्रयोगः स्यात् । अथ जाते-३० रर्थक्रियासामर्थ्यविरहेऽपि स्वलक्षणं तत्र समर्थमिति तदर्था प्रवृत्तिरर्थिनाम्, ननु तत् स्वलक्षणं लिङ्गादिजे दर्शने सदपि न प्रतिभाति, न चात्मानमनारूढेऽर्थे विज्ञानं प्रवृत्ति विधातुमलम् सर्वस्य सर्वत्र प्रवर्तकत्वप्रसङ्गात् । यत् तु तत्र प्रतिभाति सामान्यं न तद् दाहादियोग्यम्, यदपि ज्ञानामिधानं तस्य फलं मतं तदपि पूर्वमेवोदितमिति न तदाऽपि प्रवृत्तिः साध्वी। १-लादि स तद्विष-भा० मां० विना। २-रास्वतत्त्वप्रतिभासारहि-वा. बा.। ३-रर्थसंस्पर्श भां० मा०। ४-नुभा-आ. हा०वि०। ५-सनात्तच्च शाब-भां. मां० ।-सनानुब शाब-आ. हा. वि.। ६ तस्य प्रतिव्यति प्रतिव्यक्ति भिन्न-वा० बा । तस्य प्रतिपत्ति भिन्न-वि०, तस्य प्रतिव्यक्ति भिन्न-वि. सं० । तस्य प्रतिपत्तिः व्यक्तिमिन्न-मां०। ७ बुद्ध भ्रा-वा. बा०। ८-ति बुद्ध्यात्मि-आ० हा०वि०। ९-नामुल्लि-भां०मा० विना। १०-क्तिरू-आ० हा० वि०। ११-दि वाऽभि-आ० हा० भां०। १२-तिरिक्तैः वर्णा-भां० मा०।-तिरिक्तवर्णा-आ० हा० वि०। १३ जाते स्व-आ. हा० वि०। १४-हणसम्भ-आ. विना। १५ तत्र श-भा. मा. विना। १६-तया स्फुट-भा०मा० वा० बा• विना। १७ जलम् वा० बा० । १८-रहाधिग-आ. हा. वि.। १९-नां तत् आ०। २०-ति तद-आ. हा. वि.। २१-र्था प्र-आ० । स० त० ३० Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ प्रथमे काण्डेअथ प्रथमं शब्द-लिङ्गाभ्यां जातिरवसीयते ततः पश्चात् तया स्वलक्षणं लक्ष्यते तेन विना तस्या अयोगादिति लक्षितलक्षणया प्रवृत्तिर्भवेत् , नैतदपि सम्यक् न ह्यत्र क्रमवती प्रतीतिः-पूर्व जातिराभाति पश्चात् स्वलक्षणमिति । किञ्च, जात्यापि स्वलक्षणं प्रतिनियतेन वा रूपेण लक्ष्येत, साधारणेन वा ? तत्र न तावदाद्यः पक्षः, प्रतिनियतरूपस्य स्वलक्षणस्य प्रतिपत्तेरसम्भवात् नहि ५शब्दानुमानवेलायां जातिपरिमितं प्रतिनियतं स्वलक्षणमुद्भाति सर्वतो व्यावृत्तरूपस्याननुभवात्, अनुभवे वा प्रत्यक्षप्रतिभासाविशेषः स्यात् । न च प्रतिनियतरूपमन्तरेण जातिर्न सम्भवति, तत् कुतस्तया तस्य लक्षणम् ? अथापि साधारणेन रूपेण तया स्वलक्षणं लक्ष्यते 'दाहादियोग्यं वलिमाप्रमस्ति' इति, तदप्यसत्; साधारणस्यापि रूपस्यार्थक्रियाऽसम्भवात् प्रतिनियतस्यैव रूपस्य तत्र सामोपलब्धेः; ततश्च तत्प्रतिपत्तावपि कथं प्रवृत्तिः? पुनस्तेनापि साधारणेनापरं साधारणं रूपं १०प्रत्येतव्यम् तेनाप्यपरमिति साधारणरूपप्रतिपत्तिपरम्परा निरवधिर्भवेत् तथा चार्थक्रियासमर्थरूपानधिगतेर्वृत्त्यभाव एव । किञ्च, यदि नाम जातिराभाति शब्द-लिङ्गाभ्याम् व्यक्तेः किमायातम् येन सा तां व्यनक्ति ? तयोः सम्बन्धादिति चेत्, सम्बन्धस्तयोः किं तदा प्रतीयते, उत पूर्व प्रतिपन्नः? नं तावत् तदा भात्यसौ व्यक्तेरनधिगते; केवलैव हि तदा जाति ति यदि तु व्यक्तिरपि तदा भासेत तदा किं लक्षितलक्षणेन ? सैव शब्दार्थः स्यात् । तदनधिगमे न तत्सम्बन्धाधिगतिः । अथ पूर्वमसौ १५ तत्र प्रतीतः तथापि तदैवासौ भवतु; नोकदा तत्सम्बन्धेऽन्यदापि तथैव भवति अतिप्रसङ्गात् । अथ जातेरिदमेव रूपम् , यदुत विशेषनिष्ठता? ननु 'सर्वदा सर्वत्र जातिविशेषनिष्ठा' इति किं प्रत्यक्षे. णावगम्यते, यद्वाऽनुमानेन ? तत्र न तावत् प्रत्यक्षेण सर्वव्यक्तीनां युगपदप्रतिभासनान्नैकदा तन्निठता तेन गृह्यते, क्रमेणापि व्यक्तिप्रतीतौ निरवधेय॑क्तिपरम्परायाः सकलायाः परिच्छेत्तुमशक्यत्वात् तनिष्ठता न जातेरधिगन्तुं शक्या । कादाचित्के तु जातेर्व्यक्तिनिष्ठताऽधिगमे 'सर्वदा न तनिष्ठता' २० इत्युक्तम् । तन्न प्रत्यक्षेण जातेस्तनिष्ठता प्रतिपत्तुं शक्या। नाप्यनुमानेन, तत्पूर्वकत्वेन तस्य तद्भावेनाप्रवृत्तेः । तन्न जात्यापि तद्भावे व्यक्तेरधिगमः कर्तुं शक्यः। किञ्च, यदि जातिरभिधानगोचरः तथा सति नीलत्वजातिरुत्पलत्वजातिश्च द्वयमपि परस्परमिन्नं प्रतीतमिति न सामानाधिकरण्यं भवेत् ; न हि परस्परविभिन्नार्थप्रतीतौ तद्यवस्था 'घटः पटः' इति दृश्यते । अथ गुण-जाती प्रतिनियतमेकमधिकरणं बिभ्राते ततस्तद्वारेणैकाधिकरणता २५शब्दयोः। ननु गुणजातिप्रतीतौ शब्दजायां न तद्धिकरणमाभाति तस्य शब्दागोचरत्वात्, न चानुद्भासमानवपुरधिकरणं सन्निहितमिति न समानाधिकरणताव्यवस्था अतिप्रसङ्गात्, पुनरपि तदेव वक्तव्यम्-शब्दैरनभिधीयमानमधिकरणं तदभिहितैर्जात्यादिभिराक्षिप्यमाणं तद्यवस्थाकारि' इति । तत्र च समाधिन सामायातमधिकरणं (मधिकरणमेकाधिकरणतां) शब्दयोः कर्तुमलम्, घट-पटशब्दयोरपि ताभ्यामभिहिताभ्यामेकस्य भूतलादेराधारस्याऽऽक्षेपादेकार्थताप्रसङ्गात् । तथा, ३० जातिपक्षे धर्मधर्मिभावोऽप्यनुपपन्न एव, यदि हि व्यक्तावाश्रिता जातिः प्रेतीयेत तदा तद्धर्मः स्यात्, यदा तु व्यक्तिः सत्यपि नाभाति शब्दजे ज्ञाने तदा जातेरेव केवलायाः प्रतिभासनात् कथं जाति-जातिमतोर्धर्मधर्मिभावः? नहि नीलादिः केवलं प्रतीयमानः कस्यचिद्धर्मो धर्मी वा; यदापि प्रत्यक्षे द्वयं प्रतिभाति तदाऽपि भेदप्रतिभासे सति न धर्मधर्मिभावः, सर्वत्र तथाभावप्रसङ्गात् । अथ प्रत्यक्षे तादूप्यं प्रतिभाति जाति-व्यक्त्योः तेनायमदोष इति चेत्, अत्रोच्यते-तादूप्येण विज्ञान३५मिति किं व्यक्तिरूपतया जातेरधिगतिः, अथ जातिरूपतया व्यक्तेरिति? तत्र यद्याद्यः पक्षः तथा सति व्यक्तिरेव गृहीता न जातिः। द्वितीयेऽपि जातिरूपाधिगतिरेव न व्यक्तिरिति न सर्वथा धर्मिधर्मभावः । तन्न जातिः शब्द-लिङ्गयोर्विषयः। १ तस्य अयोगा-आ। तस्या योगा-भां० म०। २ लक्षिते लक्षणाया प्र-वा. बा० । लक्षितलक्षणयोः प्र-आ• हा० वि०। ३-मुद्भवति वा० बा०। ४-भासवि-वा० बा०। ५-सा व्यन-भा० मा० विना। ६ न भवेत् तदा आ० । न सावेत् तदा वि.। न सावच्छदा हा० । न च तदा वा० बा० । -दा प्रतिभा-भां० मा०। ८ यदि त ब्य-वा० बा० । यदि व्य-आ• हा० वि०। ९ तचेव वा. बा० । तदैव वि०। १०-स्परतो मि-भां० मां। ११-समाधिकरणं विभाते ततस्तद्धारेणैकाविकरणमेका. धिकरणतां शब्दयोः कर्तुमलम् , घट-वा. बा० । १२-ायत-आ० वि०। १३ प्रतीयते भां. मां. विना। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २३५ अथाकृतिविशिष्टा व्यक्तिस्तयोरर्थः, तदप्यसत्; तस्याः प्रतिभासाभावात् , न हि शब्द-लिङ्गप्रसवे विज्ञाने व्यक्ति(क्त)रूपतया प्रतिभाति, तदभावेऽपि तस्योदयात् अव्यक्ताकारानुभावाच्च । अथापि व्यक्तरेवाकारद्वयमेतत्-व्यक्तरूपमैव्यक्तरूपं चेति । तत्र व्यक्तरूपमिन्द्रियशानभूमिः, अव्यक्तं च शब्दथः। ननु रूपद्वयं व्यक्तेः केन गृह्यते ? न तावद्भिधानजेन ज्ञानेन, तत्र स्पष्टरूपानवभासनात् अस्पष्टरूपं हि तदनुभूयते । नापीन्द्रियज्ञानेन व्यक्तेराकारद्वयं प्रतीयते, तत्र व्यक्ता- ५ कारस्यैव प्रतिभासनात् ; न हि परिस्फुटप्रतिभासवेलायामविशदरूपाकारो व्यक्तिमारूढः प्रतिभाति; तत् कथं व्यक्तेरसावात्मा? अथ 'श्रुतं पश्यामि' इति व्यवसायाद् दृश्य-श्रुतयोरेकता; ननु किं दृश्यरूपतया श्रुतमवगम्यते, श्रुतरूपतया वा दृश्यम् ? तत्राये पक्षे दृश्यरूपावभास पवन श्रुतगतिभवेत् । द्वितीयेऽपि पक्षे श्रुतरूपावगतिरेव व्यक्तेः न दृश्यरूपसम्भवः; तस्मात् प्रतिभासरहितमभिमानमात्रमिन्द्रिय-शब्दार्थयोरध्यवसानम् न तत्त्वम् ; अन्यथा दर्शनवच्छाब्दमपि स्फुटप्रतिभासं १० स्यात् । अथ तत्रेन्द्रियसम्बन्धाभावाद् व्यक्तिवरूपावभासेऽपि प्रतिपत्तिविशेषः स्यात्। नन्व:रपि स्वरूपमुद्भासनीयम्, तत्र यदि शब्द-लिङ्गाभ्यामपि तदेव दर्श्यते तथा सति तस्यैवान्यूनातिरिक्तस्य स्वरूपस्याधिगमे कथं प्रतिपत्तिभेदः? अन्यच्च, प्रत्यक्षेऽपि साक्षादिन्द्रियसम्बन्धोऽस्तीति न स्वरूपेण ज्ञातुं शक्योऽसौ तस्यातीन्द्रियत्वात्, किन्तु स्वरूपप्रतिभासात् कार्या(र्यात्)। तच्च वस्तुस्वरूपं यद्यनुमानेऽपि भाति तथा सति तत एवेन्द्रियसम्बन्धः समुन्नीयताम् । अथ तत्र परिस्फुटप्रतिभा-१५ साभावान्नासावनुमीयते; ननु तँदभावस्तत्राक्षसङ्गतिविरहात् प्रतिपाद्यते तदभावश्च स्फुटप्रतिभासाभावादिति सोऽयमितरेतराश्रयदोषः । अथ व्यक्तिरूपंमेकमेव नीलादित्वमुभयत्र प्रतीयते व्यक्ताव्यक्ताकारौ तु शानस्यात्मानौ, तत्रोच्यते-यदि तौ ज्ञानस्याकारौ कथं नीलप्रभृतिरूपतया प्रतिभातः? तद्रूपतया च प्रतिभासनानीलाद्याकारावेतो; नहि व्यक्तरूपतामव्यक्तरूपतां च मुक्त्वा नीलादिकमपरमाभाति; तदनवभासात् तस्याभाव एव । व्यक्ताव्यक्तैकात्मनश्च नीलस्य व्यक्ताकारवद् भेदः २० नहि प्रतिभासभेदेऽप्येकता अतिप्रसङ्गात् । तन्नाक्ष-शब्दयोरेको विषयः । किञ्च, यदि व्यक्तिः शब्द-लिङ्गयोरर्थः तथा सति सम्बन्धवेदन विनैव ताभ्यामर्थप्रतीतिर्भवेत्। नहि तत्र तत् तयोः सम्भवति। व्यक्तिर्हि नियतदेशकालादशा(लदशा)परिगता न देशान्तरादिकमनुवर्तते नियतदेशादिरूपाया एव तस्याः प्रतीते; तथा चैकत्रैकदा सम्बन्धानुभवेऽन्यस्यार्थस्य कथं प्रतीतिः? अथ मेकजात्यपलक्षिते रूपेसम्बन्धादनन्तरा भविष्यति, तदपि न युक्तम् यतो जात्युपलक्षितमपि२५ रूपं तासां भिन्नमेव लिङ्गादिगोचरः, तस्याभेदे पूर्वोक्तदोषात्; तथा च सम्बन्धाननुभव एव स्यात् । किञ्च, व्यक्ती सम्बन्धवेदनं प्रत्यक्षेण, अनुमानेन वा भवेत् ? न तावत् प्रत्यक्षेण, तस्य पुरस्थितरूपमात्रप्रतिभासनात् शब्दस्य वचनयोर्वाच्यवाचकसम्बन्धस्तेन गृह्यते । अथेन्द्रियज्ञानारूढे एव रूपे सम्बन्धव्युत्पत्तिदृश्यते-'इदमेतच्छब्दवाच्यम्' 'अस्य वेदमभिधानम्' इति, अत्र विचार:-'अस्येदं वाचकम्' इति कोऽर्थः-किं प्रतिपादकम् , यदि वा कार्यम् , कारणं वेति? तत्र ३० यदि प्रतिपादकम् , तत् किमधुनैव, यद्वाऽन्यदा? तत्र यद्यधुनोच्यते शब्दरूपमर्थस्य प्रतिपादकं विशदेनाकारेणेति, तदयुक्तम्; अक्षव्यापारेणाधुना विशदाकारेण नीलादेवभासनात् । ततश्चाक्षव्यापार एवाधना प्रकाशकोऽस्तु न शब्दव्यापारः, तस्य तत्र सामर्थ्यानधिगतेः। अथान्यदा लोचनपरिस्पन्दाभावे शब्दोऽर्थानुद्भासयति तदा किं तेनैवाकारेणासौ ताननवभासयति, यद्वा आकारान्तरेणेति विकल्पद्वयम् । यदि विशदेनाकारेण प्रतिपादयतीत्युच्यते, तदसत्; यतस्तदाप्यसौ३५ चक्षुरादिभिरेव विशदेनाकारेणोद्भास्यते न शब्देन, तस्य तत्र सामर्थ्यादर्शनात् दर्शनाकाङ्क्षणाच्च । यदि १-सन् भां. मां. वा. बा. हा०। २ व्यक्त्यरूपम-भां० मा० । व्यक्तम-वि.। ३-मव्यक्तं चे-भां. मां०। ४-पथम् आ० का०। ५ व्यक्ते न भां० मां० वा० बा०। ६-स्वभावाव-वि०। ७ तदाभावभां० मां०। ८ व्यक्तिस्वरूप-भां० मां०। ९-पमेव आ० कां०। १० व्यक्तिरू-भां० मा० । ११-समेदोऽप्ये-वि• विना । १२-कालदेशपरि-आ० ।-कालादर्शापरि वा० बा० । १३ प्र. पृ. पं० २३ । १४-धानुभव-वा० बा०। १५ शब्दस्य च तयोर्वाच्य-भा० मा० । शब्दस्य चन तयोर्थावाच्यवा० बा०। १६-स्य चे-भां० मा० आ०। १७-णं चे-भां• मां० वा. बा. विना। १८-रभास-वा. बा. आ० वि०। १९ शब्दार्थानुद्भा-वा० बा० । शब्दानुद्भा-आ० । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ प्रथमे काण्डेतु शब्देनैव सोऽर्थः स्वरूपेणैव प्रतिपाद्यते तदाऽस्य सर्वथा प्रतिपन्नत्वात् किमर्थं प्रवृत्तिः? नहि प्रतिपन्न एव तावन्मात्रप्रयोजना वृत्तिर्युक्ता, वृत्तेरविरामप्रसङ्गात् । अथ किञ्चिदप्रतिपन्नं रूपं तदर्थ प्रवर्तनम्। ननु यदप्रतिपन्नं व्यक्तिरूपं प्रवृत्तिविषयः तत् तर्हि न शब्दार्थः, तदेव च पारमार्थिकम् ततोऽर्थक्रियादर्शनात् , नाव्यक्तम् सर्वार्थक्रियाविरहात् । अथ कालान्तरे स्फुटेतरेणाकारेण व्यकी५रुद्योतयन्ति शब्दाः; नन्वसावाकारस्तदा सम्बन्धव्युत्पत्तिकाले कालान्तरे वा नेन्द्रियगोचरस्तत् कथं तत्र शब्दाः प्रवर्तमाना नयनादिगोचरेऽर्थे वृत्ता भवन्ति? तन्नाध्यक्षतः सम्बन्धवेदनम् । नाप्यनुमानेन, तदभावे तदनवतारात् । अथाप्यर्थापत्त्या सम्बन्धवेदनम् । तथाहि-व्यवहारकाले शब्दार्थो प्रत्यक्षे प्रतिभातः, श्रोतुश्च शब्दार्थIतीति चेप्टया प्रतिपद्यन्ते व्यवहारिणः तदन्यथानुपपत्त्या तयोः सम्बन्धं विदन्ति। अत्रोच्यते-सिद्ध्यत्येवं काल्पनिकः सम्बन्धः। तथाहि-श्रोतुः प्रतिपत्तिः १० सङ्केतानुसारिणी दृश्यते, के(क)लि-मार्यादिशब्देभ्यो हि द्रविडाऽऽर्ययोर्विपरीततत्प्रतिपत्तिदर्शनान नियतः सम्बन्धो युक्तः । सर्वगते च तस्मिन् सिद्धेऽपि न नियतार्थप्रतिपत्तियुक्ता। प्रकरणादिकमपि नियमहेतुः नियतार्थसिद्धौ सर्वमनुपपन्नम् । तथाहि-प्रकरणादयः शब्दधर्मः, अर्थधर्मः, प्रतिपत्तिधर्मो वा? शब्दधर्मे तस्मिन् शब्दरूपं नियतार्थप्रतिपत्तिहेतुरिष्टं स्यात्, तच्च सर्वार्थान् प्रति तुल्यत्वात् न युक्तम् । अर्थोऽपि न नियतरूपः सिद्ध इति न तद्धर्मोऽपि प्रकरणोदिः। प्रतिपत्तिधर्मस्तु यदी. १५ष्यतेऽसौ तदा काल्पनिक एवार्थ नियमः न तात्त्विकः स्यात् । तस्मात् सर्व परदर्शनं ध्यानध्यविज़. म्भितम् मनागपि विचाराक्षमत्वात् । तदेवमवस्थितं विचारात् 'न वस्तु शब्दार्थः' इति, किन्तु शब्देभ्यः कल्पना बहिरासंस्पर्शिन्यः प्रसूयन्ते, ताभ्यश्च शब्दा इति । शब्दानां च कार्यकारणभावमात्रं तत्त्वम् न वाच्यवाचकभावः। तथाहि-न जाति-व्यक्त्योर्वाच्यत्वम्, पूर्वोक्तदोषात् । नापि शान-तदाकारयोः, तयोरपि खेन रूपेण स्वलक्षणत्वात् अमिधानकार्यत्वाच्च । शब्दाद् विज्ञानमुत्पद्यते २० न तु तत् तेन प्रतीयते, बहिराध्यवसायात् । कथं तहन्यापोहः शब्दवाच्यः कैल्प्यते ? लोकामिमानमात्रेण शब्दार्थोऽन्यापोह इष्यते, लौकिकानां हि शब्दश्रवणात् प्रतीतिः, प्रवृत्तिः, प्राप्तिश्च बहिरर्थे दृश्यते । यदि लोकाभिप्रायोऽनुवय॑ते बहिरर्थस्तर्हि शब्दार्थोऽस्तु तदभिमानात् नान्यापोहः तदभावात् । अत्रोच्यते-बहिरर्थ एवान्यापोहः तथा चाह-“य एव व्यावृत्तः सैव व्यावृत्तिः" ] नन्वेवं सति स्वलक्षणं शब्दार्थः स्यात्, तदेव विजातीयव्यावृत्तेन २५ रूपेण शब्दभूमिरिष्यते-सजातीयव्यावृत्तस्य रूपस्य शाब्दे प्रतिभासाभावात्-यदि तर्हि विजातीय व्यावृत्तं शब्दर्विकल्पैश्चोल्लिख्यते तथा सति तव्यतिरेकात् सजातीयव्यावृत्तमपि रूपमधिगतं भवेत् , न; विकल्पानामविद्यास्वभावत्वान्न हि ते स्वलक्षणसंस्पर्शभाजः, यतेस्तै (?) सर्वाकारप्रतीति १ प्रतिपद्य-वा० बा०। २-जनतावृत्ति-भां० मां०।-जन्यावृत्ति-हा। ३ यदि प्रति-भां० मां। ४-पन्नव्यक्ति-वा. बा० । ५ स्फुटतरे-कां०। ६-नम्। न हनु-आ. हा० वि० । ७-प्रतीतिचेष्टया प्रतिपाद्य-वि०। ८-न्धं वद-भां० मां०। ९ केवलि-नार्यादिशब्देभ्यो हि द्रावि-भां० मां० विना । "समर्थान्तरभावे च कलि-मार्यादिशब्दवत् । नान्यार्थबोधकत्वं स्याद् ध्वनेर्नियतशक्तितः" ॥ "यथा कलि-मार्यादिशब्दानां द्रविदा(डा)र्यदेशयोर्यथाक्रममन्तकालवर्षोपसर्गाद्यभिधायिनाम्"-तत्त्वसं. का. २६५४ पृ. ७०९, पजि० पृ० ७१० पं० १२। १० सर्व ग-आ० । संर्व ग-वा. बा० । ११ प्रकरणादयस्त्विमे"संसर्गो विप्रयोगश्च साहचर्य विरोधिता । अर्थः प्रकरणं लिङ्ग शब्दस्यान्यस्य संनिधिः" ॥ __वाक्यप० का० २ श्लो० ३१७ पृ० २१४ । १२-पत्तध-वा. बा. विना। १३-पि नियत-हा० वि० ।-पि नियतः सि-आ०। १४-ति नातद्धर्मोभां. मां विना। १५-णादि। प्रति-भां. मां०। १६-पत्रं ध-वा. बा०। १७-मनवस्थितं वा. बा. आ०। १८ प्रश्नयन्ते भां. मां० विना। १९-चकाभा-भां. मां. विना । २०-रूपेणास्व-वा. बा० । २१ तत्त्वेन भां० मां० हा० विना। २२ कल्पते भां० मां० विना। २३-मात्रेणाश-भां० मां० विना। २४-वर्तते वा० बा०। २५-था शब्द: य एव वा. बा०। २६ नत्वेवं मां०। २७-स्य शाब्दे भां० मा० विना । २८-शब्दे वा० बा०। २९-तस्तैः भां० मा० ।-तस्तेः वा. बा.। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २३७ दोषाः। केवलममिमानमात्र बहिराध्यवसायस्तदभिप्रायेण वाच्यवाचकभावः शब्दार्थयोरित्यन्यापोहः शब्दभूमिरिष्टः। परमार्थतस्तु शब्द-लिङ्गाभ्यां बहिरर्थसंस्पर्शव्यतीतः प्रत्ययः केवलं क्रियत इति तत्संस्पर्श(M)भावेऽपि च पारम्पर्येण वस्तुप्रतिबन्धादविसंवादः । तथाहि-पदार्थस्यास्तित्वात् प्राप्तिः न दर्शनातू, केशोन्दुकादेर्दर्शनेऽपि प्राप्त्यभावात् । अथ प्रतिभासमन्तरेण कथं प्रवृत्तिः? ननु प्रतिभासेऽपि कथं प्रवृत्तिः ? तस्मिन्नप्यनर्थित्वे तदभावात् अर्थित्वे च सति दर्शनविरहेऽपि भ्रान्तेः ५ सद्भावात् प्रतिबन्धाभावात् तु तत्र विसंवादः। यदा तु विकल्पानां स्वरूपनिष्ठत्वान्नान्यत्र प्रतिबन्धसिद्धिस्तैदा स्वसंवेदनमात्रं परमार्थसतत्त्वम्, तथापि कथं 'समयपरमार्थविस्तरः' इति सत्यम् ? ['सामान्य-विशेषात्मक एव शब्दार्थः' इति प्रतिपादनपरः सविस्तरं स्याद्वादिसिद्धान्तोपन्यासः] अत्र प्रतिविधीयते-यदक्तम-'यः 'अतस्मिंस्तत्' इति प्रत्ययः स भ्रान्तः, यथा मरीचिकायां १० जलप्रत्ययः, तथा चायं मिनेष्वर्थे वभेदाध्यवसायी शाब्दः प्रत्ययः' इति, तत्र भिन्नेष्वमेदाध्यवसायित्वलक्षणो हेतुरसिद्धः “मेदेस्व(प्व)मेदाध्यवसायित्वस्य तत्रानुपपत्तेः । न च सामान्यस्याभिन्नस्य वस्तुरूपस्याभावान्नासिद्धता हेतोः, 'गौ!ः' इत्यबाधितप्रत्ययविषयत्वेन तस्याभावासिद्धेः। अथाबाधितप्रत्ययविषयस्यापि तस्याभावस्तर्हि विशेषस्याप्यभावप्रसक्तिः, तथाभूतप्रत्ययविषयत्वव्यतिरेकेणापरस्य तद्यवस्थानिबन्धनस्य तत्राप्यभावात् । यथा हि पुरोव्यवस्थितगोवर्गे व्यावृत्ताकारा १५ बुद्धिरुपजायमाना संलक्ष्यते तथा 'गौ\ः' इत्यनुगताकारेणाप्युपजायमाना सैव लक्ष्यते । न चानुगतव्यावृत्ताकारा बुद्धिात्मकवस्तुष्यतिरेकेण घटते, अबाधितप्रत्ययस्य विषयव्यतिरेकेणापि सद्भावाभ्युपगमे ततो वस्तुव्यवस्थाऽभावप्रसक्तेः। न चानुगताकारत्वं बुद्धेर्वाध्यत इति वक्तुं युक्तम्, सर्वत्र देशादावनुगतप्रतिभासस्याऽस्खलद्रूपस्य तथा ताकारव्यवहारहेतोदेर्शनात् । अतो व्यावृत्ता. कारानुभवांशाऽनधिगतमनुगतमाकारमवभासयन्त्यक्षान्वयव्यतिरेकानुविधायिन्यबाधितरूपा बुद्धि-२० स्नुभूयमानाऽनुगताकारं वस्तुभूतं सामान्य व्यवस्थापयति । न च शाबलेयादिप्रतिनियतव्यक्तिरूपविवेकेन साधारणरूपस्यापरस्य भेदेनाप्रतिभासनाद व्यक्तिरूपाद् भिन्नमभिन्नं वा सामान्यं नाभ्युपगन्तुं युक्तमिति शक्यं वक्तुम् , यतः सैंमानदेशसमानेन्द्रियग्राह्याणामपि वाताऽऽतप-घट-पटादीनां प्रतिभासभेदोन्नापरं भेदव्यवस्थापकम् । स च शाबलेयादिव्यक्ति जात्योरपि समस्ति, शाबलेयादिव्यक्तिप्रतिभासाभावेऽपि बाहुलेयादिव्यक्तिप्रतिभासे २५ 'गौ!ः' इति साधारणावभासस्य तद्यवस्थानिबन्धनस्य संवेदनात् । एकान्ततो व्यक्त्यमेदे तु सामान्यस्य शाबलेयादिव्यक्तिस्वरूपस्येव तदभिन्नसाधारणरूपस्यापि बाहुलेयादिव्यत्यन्तरे प्रतिभासो न स्यात्, अस्ति च व्यत्यन्तरेऽपि 'गौ!ः' इति साधारणरूपानुभा(भ)वः अतः कथं न मिन्नसामान्यसद्भावः? १-व्यव-वा.बा.। २-त्यन्योपो-वि०। ३-मार्थस्तु भां०मा०। ४ तत्सत्यंस्प-आ०। ५-स्पर्श. तोवे-वा० बा०। ६-णा-वा. बा.। ७-दपि सं-वा० बा०। ८-स्यास्थित्वात् प्रा-भां मां। स्यार्थत्वा प्रा-वा. बा. । केशान्दुकादे-वा. बा. हा. । केशादुकादे-आ० । केशाण्डकादे-भा. मां०। १.-प्यर्थित्वे-भां. मां.वा. बा. विना। ११ भ्रान्तैः भां. मां० विना । १२-त्वान्नाम्यथा प्रति-वा. बा.। -वान प्रति-वि.। १३-स्तथा वा बा । १४ पृ. १७३ पं. १३ । १५ पृ. १७४ पं०९। १६ 'मिनेष्व' वि० सं०। १७ न वा सा-हा। न चासा-वि०। १८-स्यापि मि-वि०। १९-स्याभा-भां• मां वा.बा.विना। "विशेषस्याप्यसत्त्वप्रसङ्गः"-प्रमेयक. पृ. १३६ द्वि. पं. १०। २०-स्थिते गो-भा. मां। २१ वृस्याका-वा. बा०। २२-भूतस्य व्यव-भां० मा० । “सर्वत्र देशादावनुगतप्रतिभासस्याऽस्खलद्रूपस्य तथाभूतव्यवहारहेतोरुपलम्भात्"- प्रमेयक० पृ. १३६ द्वि. पं० ११। २३-भूतसा-वि० । “वस्तुभूतं सामान्य"प्रमेयक० पृ. १३६ द्वि. पं०१२। २४ सामान्यदे-वा० बा०। २५-दानापरभेद-हा. वि.। २६-क्तिहास्यो-मां० । “स च सामान्य-विशेषयोरप्यस्ति"-प्रमेयक. पृ. १३. प्र. पं०२। २७-वे बाहु-वि० । २८-स्य साब-भां. मां०। २९-न्तरे गौ-हा। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ प्रथमे काण्डेन च व्यक्तिदर्शनवेलायां स्वेन वपुषा बुद्धिग्राह्याकारतया प्रतिपदमवतरन्ती जाति भाति व्यक्तिव्यतिरेकेणापरस्य बहिर्लाह्यावभासस्याभावादिति वक्तुं शक्यम्, व्यक्त्याकारेऽप्यस्य समानत्वात् । न च बुद्धिरेव 'गौौः' इति समानाकारा बहिः साधारणनिमित्तनिरपेक्षा प्रतिभाति, तथाभ्युपगमे प्रतिनियतदेशकालाकारतया तस्याः प्रतिभासाभावप्रसङ्गात् । न चासाधारणा व्यक्तय ५एव तद्बुद्धिनिमित्तम्, व्यक्तीनां भेदरूपतयाऽविशिष्टत्वात् कर्कादिव्यक्तीनामपि 'गौौः' इति बुद्धिनिमित्तत्वापत्तेः। न च व्यक्तीनां मेदाऽविशेषेऽपि यास्वेव 'गोर्गौः' इति बुद्धिरुपजायमाना समुपलभ्यते ता एव तामुपजनयितुं प्रभवन्ति, यथा यास्वेवं गुडूच्याद्योषधिषु मेदाविशेषेऽपि ज्वरादिशमनलक्षणं कार्यमुपलभ्यते ता एव तन्निमित्तं नान्या इति वक्तुं युक्तम् , साधारणनिमित्त व्यतिरेकेणापि देशकालादिनियतसाधारणप्रत्ययस्य तत्रोत्पत्त्यभ्युपगमेऽसाधारणप्रत्ययस्यापि तन्नि१० मित्तमन्तरेणापि तासूत्पत्तिप्रसक्तेन स्वलक्षणस्यापि व्यवस्था स्यात् । तथाहि-परेणाप्येवं वक्तुं शक्यम्-अमेदाविशेषेऽप्येकमेवे ब्रह्मादिस्वरूपं प्रतिनियतानेकनीलाद्याभासनिबन्धनं भविष्यतीति किमपररूपादिस्वलक्षणपरिकल्पनया? अथ रूप-रसाद्याभासज्ञानस्य तद्रूपस्वलक्षणमन्तरेणापि सम्भवेऽपरस्यार्थक्रियानिबन्धनार्थव्यवस्थापकस्याभावान प्रवृत्यादिलक्षणो व्यवहार इति स्वलक्ष णाकारज्ञानस्य तन्निमित्तत्वेन तद्यवस्थापकत्वम्, एतत् सदृशाकारज्ञानेऽपि समानम् । नहि १५सामान्यमन्तरेणापि भिन्नानामेककार्यकर्तृत्वं न सम्भवतीति तत् परिकल्प्यते किन्तु समाना कारप्रत्ययोऽबाधितरूँपः तथाभूतविषयव्यतिरेकेणोपजायमानो मिथ्यारूपः प्राप्नोतीति विशेष प्रत्ययस्येवाऽबाधितरूपस्य समानप्रत्ययस्यापि सामान्यमालम्बन तं निमित्तमभ्युपगन्तव्यमित्यस्ति वस्तुभूतं सामान्यम्; अन्यथा समानप्रतिभासायोगात् । एककार्यतासारश्येनैकत्वाध्यवसायादेकप्रतिभास इति चेत्, वाह-दोहादिकार्यस्य प्रतिव्यक्तिभेदात् कथमभेदः कार्याणाम् ? २० इति तत्राप्यपरैककार्यतासादृश्येनैकत्वाध्यवसायेऽनवस्थाप्रसक्तेः, एककार्यतया भावानामप्रतीतेः कथममेदाध्यवसायादेकः प्रतिभासः येनैककार्यकारित्वम् अतत्कारिपदार्थविवेको वा सामान्य तद्यवहारनिबन्धनं स्यात् ? एकसाधनतयोऽमेदोऽप्यत एव न सामान्यम्, वाह-दोहादेरेकार्थत्वाभावेऽप्येकविज्ञानजनकत्वेनामेदाध्यवसाये तद्विज्ञानस्यापि प्रतिव्यक्तिभिन्नत्वात् । एकाकारपरामर्शज्ञानजनकत्वेनामेदाध्यवसाये तत्परामर्शस्यापि प्रतिव्यक्तिभिन्नत्वात् अपरपरामर्शजनकत्वे२५नामेदाध्यवसायेऽनवस्था। अथैकाकारपरामर्शज्ञानस्य स्वत एवाभेदाध्यवसायरूपत्वादेकत्वमिति नानवस्था, तजनका भवानां त्वेकाकारपरामर्शज्ञानहेतुत्वादेकत्वम् अनुभवनिमित्तव्यक्तीनां च तथाभूतानुभवजनकत्वेनोपचरितं तत् । नन्वेवं व्यक्तीनामेवाव्यवहितैकाकारपरामर्शहेतुत्वं वस्तुभूतं सामान्यमभ्युपगन्तव्यम् किं पारम्पर्यपरिश्रमेण ? या हि प्रत्यासत्या प्रतिव्यक्ति भिन्नानुभवा एकं परामर्शज्ञानं जनयन्ति तयैव प्रतिनियता व्यक्तयः स्वगतसमानीकारार्पकत्वेन तद् ३० जनयिष्यन्तीति न कश्चिद् दोषः । यथा ह्यनुभवज्ञानं भिन्नमपि परामर्शज्ञानं प्रतिनियतैकाकारतया १ व्यक्तिदर्शनवपुषा वि०। २-लायां स्थेन वा० बा० ।-लायास्तेन आ० हा०। ३ बुद्धिावा. बा. विना। ४ “न चानुगतप्रतिभासो बहिः साधारणनिमित्तनिरपेक्षो घटते प्रतिनियतदेशकालाकारतया तस्य प्रतिभासाभावप्रसङ्गात्"-प्रमेयक० पृ. १३७ प्र. पं०८। ५ "न चाऽसाधारणा व्यक्तय एव तन्निमित्तम् , तासां भेदरूपतयाऽऽविष्टत्वात्"-प्रमेयक० पृ. १३७ प्र. पं०९। ६ "कर्कः श्वेताश्वः"-प्रमेयक. टि. पृ० १३७ प्र. पं० १४ । न व्य-आ० हा०। ८-दादिवि-आ० हा०। ९-व गडच्या-हा. वि.। १०-च्याद्यौषआ०। ११ तास्वत्प-वा० बा०। १२-व बुद्ध्यादि-भां. मां० वा. बा. विना। "अमेदाविशेषेऽप्येकमेव ब्रह्मादिरूपं प्रतिनियतानेकनीलाद्याभासनिबन्धनम्"-प्रमेयक० पृ० १३७ द्वि० पं०३ । १३-म्भवे पर-आ० हा. वि०। १४-नाधिकार-आ. हा०वि०। १५-यो बाधि-भा०मा०। १६-रूपतथा-हा० वि०। १७-भूतनिमि-मां०। १८-त्यतिवस्तु-वा. बा०। १९-तत्कापि प-आ. वि. वा. बा। तत्त्वापि प-हा। तत्कोपि प-कां०। २०-या मेदो-हा० वि०। २१-कात्वा-वि० । २२-पि परिव्य-भां० मा० । २३-नुभावानां वा. बा. विना। २४ यथा हिमां०। २५-त्याप्रत्या प्र-आ. हा०वि०। २६-ना एव भवावा. बा० । २७ स्वगतं समानाकारार्थकत्वेन भां० मा० विना। २८-नाधिकारा-वा. बा०। २९-ध्यतीति भां० मां०। ३० कारविल-भां० मा० वा. वा. विना। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा। २३९ विलक्षणं चिद्रूपतया तु समानं जनयदपि' समानासमानजनकाकारद्वयाध्यासितमप्येकम् तथा व्यक्तयोऽपि समानासमानाकाराध्यवसायिप्रत्ययजनक रूपद्वयं बिभ्राणा नैकरूपतया विरोत्स्यन्त इति। अथ सामान्यस्थानगताकारज्ञानजनकत्वैकस्वभावत्वात सर्वदा तज्ज्ञानप्रसक्तिः अनपेक्षस्यापेक्षाऽयोगात्, सहकार्यपेक्षजनकत्वे वा सहकारिकतोपकारस्य ततोऽभेदे तद्वत् कार्यत्वेनाऽनित्यताप्रसक्तिः, भेदे वा सम्बन्धासिद्धिः । एककार्यकर्तृत्वलक्षणमपि सहकारित्वं नित्यानामसम्भवि ५ तदवस्थाभाविनः स्वभावस्य प्राग् ऊध्वं च तदवस्थानसद्भावात्, अभावे वाऽनित्यत्वम् स्वभावभेदलक्षणत्वात् तस्य । अजनकस्वभावत्वेन न कदाचिदपि तज्ज्ञानम्, यो ह्यजनकस्वभावः सोऽन्य॑सहितोऽपि न तद जनयति, यथा शालिबीजं क्षित्याद्यविकलसामग्रीयुक्तमपि कोद्रवाङ्करम्, अजनक 1 सामान्यम् परामर्शज्ञाने न प्रतिभासेत जनकाकारापेकस्यैव ज्ञानविषयत्वात्, ज्ञानलक्षणमपि कार्यमनुपजनयदवस्तु स्यात् अर्थक्रियाकारित्वलक्षणत्वाद् वस्तुनः । तदेवं सामान्यस्य १० नित्यत्वेन तद्विषयस्य ज्ञानस्य वाध्यमानतयोऽबाधितज्ञानविषयत्वमसिद्धम्। यथा, यदि तत् सर्वसर्वगतमभ्युपगम्यते तदा व्यक्त्यन्तरालेऽप्युपलम्भप्रसक्तिः, न चाभिव्यक्तिहेतुव्यक्त्यभावात् तत्रानुपलम्भः प्रथमव्यक्तिप्रतिभासवेलायां तदभिव्यक्तस्य सामान्यस्य प्रणेऽमेदात् तस्य सर्वत्र सर्वदाभिव्यक्तत्वात्; अन्यथाऽभिव्यक्तानमिव्यक्तस्वभावमेदादनेकत्वप्रसक्तरसामान्यरूपत्वापत्तितः तदन्तरालेऽवश्यंभाव्यपलम्भ इति उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वेनाभ्युपग-१५ तस्य तत्रानुपलम्भादसत्त्वमिति न सर्वसर्वगतं तत् । अंथ स्वव्यक्तिसर्वगतं तदिति नायं दोषः, नन्वेवं प्रतिव्यक्ति तस्य परिसमाप्तत्वाद व्यक्तिस्वरूपवत् तस्य भेद एव, अभेदे एकव्यक्तावभिव्यक्तस्य ग्रहणेऽन्यव्यक्तिस्थस्यापि तस्य तत्स्वरूपत्वात् प्रतिभासे-तदाधारप्रतिभासमन्तरेण तदाधेयताप्रतिभासस्यानुपपत्तेः-सर्वव्यक्तीनां युगपत् प्रतिभासप्रसक्तिः।। केत्स्नैकदेशवृत्तिविकल्पानुपपत्तेश्चासत्त्वम् । किञ्च, (१) एकैव्यक्तिसमवेतं तद् अभिनवोत्पन्न-२० व्यक्तौ निष्क्रियत्वान्न याति (२) न च तद् व्यक्त्युत्पत्तेः प्राक् तत्रासीत् व्यक्तिरहितस्य तस्यावस्थानानभ्युपगमात् व्यक्त्युत्पत्त्युत्तरकालं तु व्यक्त्यन्तरादनागतस्यापि तस्य तत्र सद्भावः सामान्य १-पि समानजन-आ० हा०। २-कारव्यव-वा०या०। ३-नपेक्ष्यस्या-आ० वि० । ४ ततोऽमेदो तत्कार्य-वा. बा० । ततोऽमेदो तद्वेत कार्य-आ. हा० वि० । 'ततोऽभेदो तदभेदात् कार्य-वि० सं० । ५ वा असम्बन्धा-वा. बा० । वा ससम्बन्धा-आ० । ६ “अभावे चाऽनित्यत्वम्”-प्रमयेक. पृ० १३८ प्र.पं. ७॥ ७ "कार्याजननस्वभावत्वे वाऽस्य सर्वदा कार्याजनकन्वप्रसन:-" प्रमेयक० पृ. १३८ प्र. पं० ८ । -न्यऽहितो-आ• हा० वि० ।-'न्यसंनिहितो'-वि० सं०। ९-भाव चेत् सा-भां० । भाववत् सा-आ. हा. वि. वा. बा० । १०-कारिलक्ष-भां० मां. विना। "अर्थक्रियाकारित्वलक्षणत्वाद् वस्तुनः"-प्रमेयक पृ० १३८ प्र. पं०९। ११-त्यत्वे तद्वि-भां० मा० । १२-स्य बाधमान-आ. हा. वि. ।-स्य वाच्यंमान-वा० बा० । १३-याऽव्यधित-वा. बा० ।-याऽव्यथित-आ० वि० ।-या व्यपि शा-हा० । १४ “सर्वत्र वृत्तिभाजो वा भवेयुः परजातिवत्" ॥ तत्त्वम० का० ८०५ पृ. २६० । "तथा तत् सर्वसर्वगतं स्वव्यक्तिमर्वगतं वा"-प्रमेयक पृ० १३८ प्र. पं. ९ । १५ “खाश्रयेन्द्रिययोगादेरेकस्मिस्तबहे सति । सर्वत्रवोपलभ्यरंस्तत्म्वरूपाविभागतः" ॥ ज्ञातादव्यतिरिक्त चेत् तस्यापि ग्रहणं भवेत् । तद्वदेव न वा तस्य ग्रहणं भेद एव वा" । तत्त्वम० का० ८०८-८०९ पृ. २६१ । १६-तं सर्व तत् भां० मां । १७ “घटादिजातिभेदाश्च स्वाश्रयेष्वेव भाविनः" । तत्त्वमं० का० ८०५ पृ० २६० । १८-भासत-आ० । १९ "संयोगदूषणे सर्व यदेवोक्तं प्रबाधकम्" ॥ तत्त्वसंका. ८११ पृ. २६२ । ___एकस्यानेकवृत्तिश्च न युक्तेति प्रबाधकम्" ॥ तत्त्वसं० का० ६७४ पृ० २२३ । २० "तत्र देशान्तरे वस्तुप्रादुर्भावे कथं नु ते । दृश्यन्ते वृत्तिभाजो वा तस्मिन्निति न गम्यते"। "न हि तेन सहोत्पन्ना नित्यत्वान्नाप्यवस्थिताः । तत्र प्रागविभुत्वेन न चाऽऽयान्त्यन्यतोऽकिया:"॥ तत्त्वसं० का० ८०६-८०७ पृ. २६०-२६१ । २१ व्यक्त्युत्तरका-हा.। २२-पि तत्र तत्र स-वि० । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेशून्याया व्यक्तरसत्याभ्युपगमात् (३) ने चांशवत् तत् एकेमाशेन प्रागुत्पत्रभ्यक्किम्यवस्थितमक परेणांशेनोत्पद्यमानव्यक्तिसम्बन्धमनुभवति (४) न च निरंशत्वेऽपि प्राकनाधारपरित्यागेनाधार न्तरे वृत्तिमत् तत्परित्यक्तव्यक्तेरसत्यप्रसङ्गात् (५) न च यंत्र प्रदेशे व्यक्तिर्व्यवस्थिता तदेशेन सस सम्बन्धस्तधपत्यानुसम्बन्धयते इत्यापनेकबाधकसद्भाषा(पाद) व्यक्तिमित्रसामान्यपक्षे कथमवा. ५धितप्रत्ययविषयन्यात् तत्सत्वम् । यैरपि "कस्मात् सानादिमम्वयं गोवं यस्मात् तदात्मकम् ।। तादात्म्यमय कस्मात् चेत् म्वभाषादिति गम्यताम्" ॥ [ श्लोषा आकलो०४७] इति वचनाद् व्यक्तिम्यभावं सामान्यमभ्युपगतं तेषामपि व्यक्तियत् तस्याऽसाधारणरूपत्वं व्यक्त्यु१०दय विनाशयोध तद्योगित्यं प्रसनम इति न सामान्यरूपता । अथाऽसाधारणत्वमुत्पादविनाशयोगित्वं च तस्य नाभ्युपगम्यते तर्हि विरुद्धधर्माच्यामतो व्यक्तिभ्यस्तस्य मेवप्रसक्तिः। आह च "तादात्म्यं चेद मतं जानेय॑क्तिजन्मन्यजानता। नाशेऽनाशश्च केनेष्टस्तद्वत्त्यान त्वयो न किम्" (?) ॥ "व्यक्तिजन्मन्यजाता चेदागती नाश्रयान्तगत् । प्रागासीद न च तहेशे सा तया माता कथम्" ॥ "व्यक्तिनाशेन चेन्नष्टा गता व्यक्त्यन्तरं न च । तत् शून्ये न स्थिता देशे सा जातिः केति कथ्यताम्" ॥ "व्यक्ति(कर्जात्यादियोगेऽपि यदि जातेः स नेष्यते । तादात्म्यं कथमिष्टं स्यादनुपप्लुतचेतसाम्" ॥ [ अत एष "सामान्य मान्यदिएं चेत् तस्य वृत्तर्नियामकम् । गोत्वेनापि बिना कस्मात् गोर्बुद्धिन नियम्यते" ॥ "यथा तुल्येऽपि भिन्नत्ये केपुचिद् वृत्त्यवृत्तिता । गोत्यादेरनिमित्ताऽपि तथा बुद्ध विम्यति" ॥ [ श्लो० या आकृ० श्लो० ३५-३६] २५ इति पूर्व पक्षयित्वा यदुनं कुमारिलेन "विषयेण हि बुद्धीनां विना नोत्पत्तिरिष्यते । विशेषादन्यदिच्छन्ति सामान्यं तेन तदभवम" ॥ "ता हि तेन विनोत्पन्ना मिथ्याः स्युर्विषयाहने। न त्वन्येन विना वृत्तिःसामान्यस्येह दुष्यति ॥ [श्लोवा०आकुश्लो०३७-३८] इति', १नवांश-वा० बा० । २-क्तिसंचरम-वा. बा.। -धाराप-भां० मां० विना। "किन पूर्वपिण्डपरित्यागेन तत् तत्र गच्छेन् , अपरित्यागेन वा! न तावन् परित्यागेन प्राक्तनपिण्डस्य गोत्वपरित्यक्तस्थागोरूपताप्रसङ्गात् । नाप्यपरित्यागेन अपरित्यक्तप्राक्तनपिण्डस्यास्यानंशस्य रूपादेरिव गमनासम्भवात् । न परित्यक्तपूर्वाधाराणां रूपादीनामाधारान्तरसंक्रान्तिदृष्टा"-प्रमेयक पृ. १३८ द्वि.पं.६। ४ यत्प्र-भां० मा । यत्र यत्र प्र-वा. बा०। ५-नुसं. बध्य-आ. भां० ।-नुवन्य-वा. या०। ६ "व"-लो. वा.। -स्वभावसा-हा०। ८-त्वं तस्य आ० । ९-भ्यस्तद्भेद-आ० । १०-एस्तद्वत्वान ध्वयो न किम् वा. बा० ।-स्तद्धत्वानभ्वयो न किम् आ० । -एस्तत्वात्तध्वयो न किम् हा० ।-"टस्तद्वञ्चानन्वयो न किम्"-प्रमेयक. पृ. १३८ द्वि. पं० १४ । 'तद्वत्' "व्यक्तिवत्" 'अनन्वयः' "असाधारणता" न "किन्तु स्यादेव"-प्रमेयक. टि. पृ० १३८ द्वि०पं० १९। ११-ता वाश्र-हा० वि०। १२ नवा वि.। १३ "व्यक्तेर्जात्यादियोगेऽपि"-प्रमेयक. पृ० १३९ प्र. पं० २। “जातिः जन्म" "आदिना विनाशप्रहणम्" स "जात्यादियोगः" नेष्यते "तहीति शेषः" तादात्म्यं “जातिव्यक्त्योः " अनुपप्लुतचेतसाम् "अभ्रान्तचेतसाम्"-प्रमेयक.टि. पृ० १३९ प्र.पं०१३ । १४ यद्यजा-भां०मा०विना। १५ वृत्तिनि-भां० मा०। १६-बुद्धि न यिम्यते वा. बा०।-बुद्धिनय गम्यते आ. हा०वि०।-'बुद्धिर्न च गम्यते' वि० सं०। १७ "वृत्त्यपेक्षिता"-श्लो. वा० । “वृत्त्यवृत्तिता" इति तु तत्र पाठान्तरत्वेन गृहीतम् । १८-"तेऽपि" -को. वा०। १९ बुद्धेमिवियति हा०वि०। बुद्धि भविष्यति वा. बा.। २०-ति निर-आ० हा०वि०। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा। तन्निरस्तम् बाधकप्रत्ययनिबन्धनस्य मिथ्यात्वस्य सामान्यबुद्धौ प्रतिपादितत्वात् । असदेतत् } यतो यदि नित्यम् व्यापकं च व्यक्तिभ्य एकान्ततो भिन्नमभिन्नं वा सामान्यमभ्युपगम्येत तदा स्याद् यथोक्तबाधकावकाशः यदा तु सदृशपरिणामलक्षणं सामान्यम् , विसदृशपरिणतिलक्षणस्तु विशेषः तदात्मकं चैकं वस्तु तदाऽत्यन्तभेदाभेदपक्षभाविदोषानुषङ्गोऽनास्पद एव । __अथ साधारणासाधारणरूपस्यैकत्वविरोधोऽत्रापि बाधकम् । तथाहि-यद् यदाकारपरिहारी- ५ वस्थितस्वरूपं तत् ततो भिन्नम् , यथा घटरूपपरिहारावस्थितस्वरूपः पटः, असाधारणरूपपरिहारावस्थितं । साधारणं रूपमिति कुतस्तयोरभेदः? तथाप्यभेदे न किञ्चिदपि मिन्नं स्यात् अन्यस्य मेदव्यवस्थाहेतोरभावात्। कथञ्चिद्भेदाभेदाभ्युपगमेऽपि तयोर्येनाकारेण भेदस्तेन भेद एव येन चामेदस्तेनाप्यमेद एव, नैकं साधारणासाधारणधर्मद्वयात्मकं वस्तु, विरोधात् । अथ येन रूपेण मेदस्तेनापि नैकान्तेन भेद एव किं तर्हि? भेदाभेदः । ननु तत्रापि 'येनाकारेण भेदस्तेन भेद एव१० इत्यादिवचनादनवस्थाप्रसक्तिरित्यादि न कथं बाधकम् ? असदेतत्:समानासमानाकारतया बहिः शाबलेयादेः परिस्फुटप्रतिपत्तो प्रतिभासमानस्यैकत्वेन विरोधासिद्धेः; अन्यथा ग्राह्य ग्राहक-संवि"त्तित्रितयाध्यासितं कथमेकं संवेदनं स्यात्, चित्रज्ञानं वा परस्परविरुद्धनीलाद्यनेकाकारं कथमेकमभ्युपगम्येत येनेदं वचः शोभेत-"चित्रप्रतिभासाऽप्येकैव वुद्धिः, बाह्यचित्रविलक्षणत्वात्" [ ] इति ? अथ--"किं स्यात् सा चित्रतेकस्यां न स्यात् तस्यां मतावपि" [ ]१५ इति वचनात् साप्यनेकाकारका नेप्यते इति नायं दोषः । नन्वेवमभ्युपगच्छता ग्राह्यग्राहकाकारविविक्ता साऽभ्युपगता भवतिः स्वसंवेदने च सा यदि तथैवावभाति तदा ग्राह्यग्राहकाकारप्रतिभासः क्वचिदपि ज्ञाने न प्रतिभासते इत्यप्रवृत्तिकं जगत् स्यात् । अथ ग्राह्यग्राहकविनिर्मुक्तमा. त्मानं प्रच्छाद्य 'संवित्तिरियं स्वसंवेदने चैतन्यलक्षणं स्वभावमादर्शयति कथं तहनेकान्तं सा प्रतिक्षिपेत् ? प्रतिभासमानाप्रतिभासमानयोश्च चैतन्य-ग्राह्य ग्राहकाकारविवेकलक्षणयोर्धर्मयोरविरोधं च २० कथं न प्रकाशयेत् ? अपि च, द्विविधो वो विरोधः-सहानवस्थानलक्षणः, परस्परं परिहारस्थितिलक्षणश्च । स च द्विविधोऽप्येकोपलम्भेऽपरानुपलम्भाद् व्यवस्थाप्यते, साधारणासाधारणाकारयोस्त्वध्यक्षेण भेदाभेदात्मतया प्रतीतेः कथं विरोधः ? तद्रूपाऽतद्रूपाकारते हि तयोर्भेदाभेदो, तथावभासनमेव च तयोर्भेदाभेदग्रहणमिति कथं विरोधाऽनवस्थानादिदूषणावकाशः? न च तयोः परस्परपरिहारस्थितलक्षणता सम्भवति अव्यवच्छेदरूपतया प्रत्यक्ष प्रतिभासनात् । न च सामान्य-२५ विशेषयोराकारनानात्वेऽप्यनानात्वेऽन्यत्राप्यन्यतोऽन्यस्यान्यत्वं न स्यात् इति वक्तुं युक्तम्, सामान्यविशेषवत् तादात्म्येनान्यत्र प्रत्यक्षतोऽग्रहणात् ग्रहणे वा भवत्येवाकारनानात्वेऽपि नानात्वाभावः। न चाकारनानात्वेऽपि सामान्य-विशेषयोरमेदप्रतिपत्तिर्मिथ्या, बाधकाभावात् । न च 'स्वभावभेदात् सामान्य-विशेषयोर्घट-पटादिवद मेद एव' इत्यनुमानं बाधकं प्रत्यक्षस्य, प्रत्यक्षेण बाधितत्वादत्रानुमानाप्रवृत्तेः। अथानुमानविषये न प्रमाणान्तरवाधाः नन्वेवं ध्वनेरश्रावणत्वेऽपि साध्ये सत्त्वादे-३० यथोक्तलक्षणतया प्रमाणान्तराबाधितत्वेन प्रतिपत्तिः स्यात् , सपक्षे घटादौ सत्त्वाऽश्रावणत्वेयोस्तादात्म्यस्याध्यक्षेणाधिगमात् । अथान्तात्यभावान्नानयोाप्यव्यापकभावः तत् प्रकृतानुमानेऽपि तुल्यम्। पक्षस्याध्यक्षविरुद्धत्वादश्रावणत्वानुमानाप्रवृत्तिरिति "चेत्, न तहि स्वभावभेदानुमानेऽपि १-धकावशो य-हा० वि० ।-धकवशो य-वा० बा०। २-दृश्यप-भां० वा. बा०। ३ अथ साधारणरूपस्यैक-भां० मा० विना। ४-राव्यव-भां० मा०। ५-रूपप-हा० वि०। ६-रणरूप-आ० हा० वि० । ७ कथञ्चिद्भेदाभ्युप-भां० मां० हा० विना। ८-न वाऽभे-आ० । ९-दाभेदी हा० वि०। १०-दि कथं न बाध-भां० मां-दिन कथं तर्हि बाध-वि०। ११-यादिपरि-भां. मां०। १२-त्तितृप्तया-हा० वि० । -त्तित्वतया-भां० ।-त्तित्वंतया-मां०। १३-स्याच्चित्तज्ञा-वा० बा० । स्या त्रिज्ञा-हा० वि०। १४-कस्या न भा०। १५ संवृत्ति-भां० मा० । संवंत्ति-वा० बा०। १६-त् प्रतिभासमानयोश्च आ० हा०वि०। १७ -म्भाद् वावस्थाप्यते भां० ।-म्भाद्रव्यवस्थाप्यते हा० वि० ।-म्भाद्रव्यव्यवस्थाप्यते आ०। १८-शः कच हा० ।-शः क्व च वि०। १९-भासन्न सामा-हा० वि० ।-भासन्न च सामा-आ० ।-भासना य सामा-वा० बा०। २०-त्वेऽन्यत्राऽप्यन्यतो-आ० हा० ।-त्वे नानात्वेऽन्यत्रा-वि०। २१-नात्र भां० मां. विना। २२ कं पक्षस्य भा० मां० विना। २३ प्रवृत्तिः स्यात् भां• मां०। २४-त्वयोस्तयोस्तदात्म्य-आ०। २५-पकाभावः भा. मां० विना। २६ चे त्तर्हि भा० मां• विना। स० त०३१ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - प्रमाणान्तरबाधाविरहः, लक्षणयुक्ते वाधासम्भवेऽन्यत्रापि तत्सम्भवाद्धेतोरसाध्येन श्रावणत्वेन विरोधाभावात् संशयितव्यतिरेकस्यायथोक्तत्वेऽन्यत्रापि कथञ्चित् स्वभावे मेदस्या मेदेन (ना) विरोधात् समानमुत्पश्यामः । संर्वथा स्वभावभेदस्यं चाभेदविरोधिनो दृष्टान्तेऽप्यभावाद घटादेरपि केनचिदाकारेण सदृशत्वेनाभेदात् । यदि पुनः 'तादात्म्यरहिताऽत्यन्त स्वभावभेदात्' इति हेत्वर्थो विवक्षित५ स्तदाऽसिद्धो हेतुः, सामान्य- विशेषयोस्तादात्म्येनापि प्रत्यक्षतः प्रतीतेः । न च प्रकृतानुमानबाधनात् तत्तादात्म्यप्रतीतिभ्रान्तिरिति नासिद्धो हेतुः इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् । तथाहि - प्रकृतानुमानस्य प्रवृत्तौ तन्मिथ्यात्वेन पंचधर्मतानिश्चयः, तन्निश्चये चानुमानस्य प्रवृत्तिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । प्रमाणान्तरेण तद्वीधने प्रकृतसाधनवैकल्यम्, तत एंव तद्भेदसिद्धेः । 'सामान्य- विशेषयोर्भेद एव, भिन्नयोगक्षेमत्वात्, हिमवद् - विन्ध्ययोरिति (रिव)' इत्येतदपि साधनं प्राक्प्रदर्शितसाधनदोषं १० नातिवर्तते इत्ययुक्तमेव, भिन्नयोगक्षेमत्वम्य विपक्षेण साक्षादविरोधिनोऽनिश्चितव्यतिरेकस्य मेदेन सिद्धेश्च । अथाऽसाध्यस्य साधनविरुद्धक योगक्षेम त्वच्यामत्वाद् विरोधः पारम्पर्येण सिद्ध एव, भवेदेतत् यदि तत्रापि व्याप्यस्य व्यापक विरोधिना विरोधः "सिद्ध्येत्; स चासिद्धः, विरोधद्वयस्या: प्यसिद्धेः । भिन्नयोगक्षेमस्याप्यभेदाभ्युपगमे भेदः क्वचिदपि न सिद्ध्यदिति विश्वमेकं स्यादिति चेत्, स्यादेतत् यद्याभ्यां भेदाभेदव्यवहारव्यवस्था भवेत् सा तु भेदाभेदप्रतिभासवशादिति सामान्य१५ विशेषयोरसहोत्पादविनाशेऽव्य भेदप्रतिभासादभेदो न “विरुद्ध इति कथं न वस्तुभूतसामान्यस द्भावः ? न च यदेव शाबलेयव्यक्ती सदृशपरिणतिलक्षणं सामान्यं तदेव बाहुलेयव्यक्तावपि, व्यापकयैकस्य सर्वगोव्यक्त्यनुयायिनस्तस्यानभ्युपगमात् तदनभ्युपगमश्च शाबलेयादिव्यक्तीनां बाहुलेयादिव्यक्तिसदृशतया प्रतिभासेऽप्येकानुगत सामान्य क्रोडी कृतत्वेनाप्रतिभासनात् । परेणापि हि - "समाना इति तग्रहात्" [ 1 २० इति ब्रुवता स्वहेतुभ्य एव केचिच्छावलेयादिव्यक्तिविशेषः सदृशा उत्पन्ना इत्यभ्युपगतमेव केवलं सदृशपरिणतिलक्षणस्तासां धर्मः कथञ्चिदभिन्नो वस्तुभूतोऽभ्युपगन्तव्यः अन्यथौऽपारमार्थिक विजातीयावृत्तिनिबन्धनत्वे सादृश्यपरिणतेः सजातीयव्यावृत्तिनिबन्धनस्याप्यत्यन्तभिन्नरूपस्यापारमार्थिकत्वात् तत्परिणतिव्यतिरेकेण चापरस्य स्वलक्षणस्यासम्भवात् तद्ाकारज्ञानस्वलक्षणस्याप्यभाव इति सर्वशून्यताप्रसक्तिः । न च 'सेवास्तु' इति वक्तुं युक्तम्, अप्रमाणिकायास्तस्या २५ अप्यनभ्युपगमनीयत्वात् । तस्मात् समानासमानपरिणामात्मनः शाबलेयादिवस्तुनोऽबाधिताकारप्रत्यक्षप्रतिपत्तौ प्रतिभासनाद् विशेषवन्न सामान्याभावः । एतेन - २४२ "सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतेः । चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रं नाभिधावति ॥ "अथास्त्य तिशयः कश्चिद् येन भेदेन वर्तते । स एव दधि सोऽन्यत्र नास्तीत्यनुर्भेयं परम्" ॥ [ ३० 1 इत्यादि यदुक्तं धर्मकीर्तिना तदपि पराकृतं द्रष्टव्यम् । न ह्यस्माभिर्दभ्युष्ट्रयोरेकं तिर्यक् सामान्यं वस्तुत्वादिकं व्यक्त्यभेदेन व्यवस्थितं तथाभूतप्रतिभासाभावादभ्युपगम्यते, यादृग्भूतं तु प्रतिव्यक्ति । पक्षे ध-आ० । १ - व भेदस्याऽभेदेनावरोधात् वा० वा० । व भेदेन वि-आ० हा० बि० । २- स्वभा - हा ० वि० । ३-स्य वामे- हा० वा० वा० । ४- तीतिभ्रा - भ० मां० विना । ५ पक्षिध - भां०] मां० ६- द्वाधके प्रभां० मां० विना । एतद्भेद-आ० हा ० वि० । एवद्भेद - वा० वा० । 'रिवेत्येतद' - वि० सं० । ९ धनं दोषं भ० मां० । १०- मस्य भ० मां० | -वव्यापत्वा-मां० । १३- त य-मां० । १४ सिद्ध्येत सभां०] मां० विना । ७ ८- रित्येतद - भां० म० । ११ व्याप्यसि भां० म० । १२ १५- नाशोप्य - आ० हा ० वि० । १९ - तत्वेन प्रति-भां० मां० विना | २२- गत के भां० मां० विना । २३-व२६ - व्यावृत्तनि-आ० । २० १६ विद्धः मां० । १७ - हुबलेय- मां० । १८ - हुबलेया - मां० | समान इति भ० मां० । लस - वि० । २४ वस्तूभू-मां० | २५- थापर - भ० मां० विना हशप-भां० मां० | २८-पस्य पावा० बा० । २९-ण वा वा० ३१ अप्रमाणकाया-वा० बा० । अप्रामाणिकाया - वि० । ३२ -भासाद् वि-आ० हा ० वि० ।-भानाद् वि २१-षाः परादृशा-आ० हा ० वि० । । २७- नत्वे स बा० । ३० - ति शून्य-भां० मां० विना । बा० बा० । ३३ अनेका० पृ० १८ पं० ६ । ३४ - भयप - हा० वि० । ३५ - भूताप्र - वा० बा० । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २४३ मिन्नं 'समानाः' इति प्रत्ययविषयभूतमभ्युपगम्यते तथाभूतस्य तस्य शब्देनाभिधाने किमित्यन्यत्र प्रेरितोऽन्यत्र खादनाय धावेत यद्युन्मत्तो न स्यात् । अत एव ' "वर्णाकृत्यक्षराकारशून्यं गोत्वं हि गीयते"। [ न च निर्विकल्पकेऽक्षप्रभवे प्रत्यक्षे पुरोव्यवस्थिततद्यक्तिद्वयप्रतिभासव्यतिरेकेण परो यथाव्यावर्णितस्वरूपः सामान्याकारः प्रतिभाति, नापि सविकल्पके 'गौौः' इत्युल्लेखवति व्यक्तिस्वरूपं ५ बहिरुद्भासमानमन्तश्चाभिजल्पाकारमपहायान्यः सामान्यात्मा यथाव्यावर्णितस्वरूपः प्रतिभाति, न चान्यावभासमन्याकारार्थव्यवस्थापकं ज्ञानं तद् भवति अतिप्रसङ्गात्' इत्येतदपि निरस्तम्, अवर्णाकृत्याद्याकारव्यतिरेकेण सादृश्यपरिणामात्मनः सामान्यस्याक्षजप्रतिपत्तिविषयस्य व्यक्त्या त्मतया दाहाद्यर्थक्रियाकारिणोऽभ्युपगमात् । न च शाबलेयादेः सादृश्यं बाहुलेयाद्यपेक्षमिति तेदप्रतीतौ तदपेक्षस्य तस्याप्यप्रतिपत्तिरिति वक्तुं शक्यम् , अशेषपदार्थवैलक्षण्यप्रतिपत्तावप्यस्य १० समानत्वात् । न च सर्वतो व्यावृत्तिः व्यावृत्तपदार्थस्वरूपमेवेति तत्प्रतिपत्तौ साऽपि प्रतीयते व्यावृत्त्या(वा)र्थप्रतिपत्तिमन्तरेणापीति वक्तव्यम्, सादृश्यप्रतिपत्तावप्यस्य समानत्वात् । अथ सजातीयविजातीयव्यावृत्तं निरंशं वस्तु तत्सामर्थ्यार्थ्य)भाविनि च प्रत्यक्षे तत् तथैव प्रतिभाति, तदुत्तरकालभाविनस्त्वैवस्तुसंस्पर्शिनो विकल्पाः व्यावर्त्यवस्तुवशविभिन्नव्यावृत्तिनिबन्धनात् (नान्) सामान्यमेदान् व्यावृत्ते वस्तुन्युपकल्पयन्तः समुपजायन्ते ने तद्वशात् तयवस्था युक्ता, अति-१५ प्रसङ्गात् । तदुक्तम् "सर्वभावाः स्वभावेन स्वस्वभावव्यवस्थितेः। स्वभाव-परभावाभ्यां यस्माद व्यावृत्तिभागिनः"॥ "तस्माद् यतो यतोऽर्थानां व्यावृत्तिस्तन्निबन्धेनाः। "जातिभेदाः प्रकल्प्यन्ते तद्विशेषावगाहिनः" ॥ [ ] इत्यादि ।२० ननु 'स्वस्वभावव्यवस्थितेः' इत्येतस्य हेतोः स्वसाध्येन व्याप्तिः किं प्रत्यक्षेण प्रतीयते, औहोखिदनुमानेन? न तावदनुमानेन, प्रत्यक्षाविषयत्वेन सर्वभावानां धर्मिणोऽसिद्धेस्तदनुत्थानात्, व्याप्तिप्रसिद्धौ चानुमानं प्रवर्तते । न च साध्य-साधनयोः सर्वोपसंहारेण व्याप्तिरन्यतोऽनुमानात् सिद्ध्यति, तत्राप्यनुमानान्तरापेक्षणेनानवस्थाप्रसक्तेः। नापि प्रत्यक्षेण, तस्य सन्निहितविषयग्राहकत्वेन देशादिविप्रकृष्टाशेषपदार्थालम्बनत्वानुपपत्तेः। अथ पुरोऽवस्थितेषु भावेष्वक्षजप्रत्ययेन 'स्वस्वभा-२५ १धावते-भां० मां। २ "वर्णाकृत्यक्षराकारशून्या जातिस्तु वर्ण्यते"-तत्त्वसं० का० ७३९ पृ. २४३ । __"वर्णाकृत्यक्षराकारशून्यं गोत्वं हि कथ्यते"-अपोहसि० पृ० १२ पं० ५। ३-ण पुरो भां० मा०। ४-रूपसा-पा० बा०। ५-था वर्णित-हा० वि० । ६-प:सामान्याकारः प्रति-भां० मां । ७ इति यतदपि भां० मां०। ८-ण सदृशप-भां० मा० वा. बा० विना । ९ व्यक्तात्मभां० मां. वा. बा०। १० तदप्रतिपत्तौ भां० मां० । तदप्रतीतौ तदापेक्षस्य तस्याप्यप्रतिपत्तौ तदापेक्षस्य वा. बा० । तत्प्रतीतो आ०। ११ व्यावृत्तार्थ-वि० । व्यावर्गार्थ-वा. बा०। १२-रंशव-आ० । १३-स्त्वसंस्पर्शि-वा. बा. विना। १४-कल्प्याः भां० मां०। १५-वर्तिवस्तु-आ०। १६-दा व्याआ० हा०। १७-वृत्तिव-आ०। १८-यतः स-आ० हा०। १९ न तत्तद्दशा-आ० । २. सर्वे भावि० । इदं पद्यद्वयम् अनेकान्तजयपताकाटीकायाम् “आह च" इत्युक्त्वा उद्धृतम्-पृ० ५२ पं० १४ । अष्टसह. पृ० १७३ पं० ५। प्रमेयक पृ० १४१ प्र. पं. ३। श्लो० वा. पार्थ० व्या० पृ. ५७८ पं०१९। २१ उत्तरार्धमिदं “यदधिकृत्याह न्यायवादी" इत्युल्लिख्य व्याख्यातमनेकान्तजयपताकाटीकायाम् पृ. ३१५ पं० ५। "न्यायवादी धर्मकीर्तिः" इत्यपि व्याख्यातं तत्रैव पृ० ३१५ पं०१५। २२-भावापर-भां. मां० । २३-न्धना जा-भां० मा०। "व्यावृत्तिस्तन्निबन्धना । जातिभेदाः" इति श्लो. वा. पार्थ० व्या० पृ. ५७८ पं० १९ । अस्य व्याख्या प्रमेयक. टिप्पण्यामित्थम्-"व्यावृत्तिर्निबन्धनम् येषां ते" "सामान्यभेदाः"-पृ० १४१ प्र. पं. १५। २४-दात् प्र-वा. बा०। २५-होखिद-भां. मां• वा० बा०। २६-मानेन तावदनुमानेन प्रत्यक्ष-भां. मां० ।-मानेन प्रत्यक्ष-आ• हा० वि०। २५-त्यक्षवि-वा० बा० विना । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - व्यवस्थितेः' इत्यस्य हेतोः सर्वोपसंहारेण भेदेन व्याप्तिं प्रतिपद्यत इति प्रत्यक्षव्यापार एवायम्, असदेतत् यतो यत्रैव स्वव्यापारानुसारिणमनन्तरं विकल्पमाविर्भावयत्यध्यक्षं तत्रैवास्य प्रामाण्यं भवद्भिरभ्युपगम्यते, सर्वतो व्यावृत्तात्मनि त न द्व ( न तद्व) लात् तदुत्पत्तिः, सर्वदा अनुवृत्तव्याकारोवसायिन एव तस्योत्पत्तेः; अन्यथा 'सजातीयाद् भेदः' इत्यमिधानानर्थक्यापत्तेः, क्षण. ५क्षयानुमानर्यं च वैयर्थ्यम् अक्षणिकादिव्यावृत्तेः स्वलक्षणानुभवप्रभवविकल्पेनाध्यवसायात्, स्वलक्षणविषयत्वं च विकल्पानां सर्वतो व्यावृत्ताकाराध्यवसायिनां प्रसज्येत । तथाहि इदमेव स्वलक्षणगोचरत्वमध्यक्षस्य यंत् तस्य नियतरूपानुकरणम्, सर्वतो व्यावृत्ताकारग्राहिणां विकल्पानामपि चेद् इदमस्ति कथं न स्वलक्षणविषयत्वम् ? अथाविशदावभासित्वादस्यास्वलक्षणविषयत्वम्, ननु दूरव्यवस्थित पादपादिस्वरूप ग्राह्यध्यक्ष मप्य विशदावभासमिति स्वलक्षणविषयत्वं तस्यापि न स्यात् । १० अथाऽयथार्थाकारग्राहिणस्तस्य भ्रान्तत्वादिष्टमेवास्वलक्षणविषयत्वम् नः तस्य प्रमाणान्तरत्वप्र सक्तेः । तथाहि अनधिगतार्थाधिगमाऽविसंवादाभ्यां तस्य प्रामाण्यम्, न च प्रत्यक्षत्वम्, भ्रान्तत्वाभ्युपगमात् । नाप्यनुमानत्वम्, अँलिङ्गजत्वात् । प्रत्यक्षाऽनुमानव्यतिरिक्तस्य चापरस्य प्रमाणस्यानिष्टेः कथं नास्य प्रमाणान्तरत्वम् ? न च विकल्पः - येनाधिगतार्थाधिगमादप्रमाणम् - विकल्प - कारणमन्तरेणापि बाह्यार्थसन्निधिबलेनोपजायमानत्वात् । न चाध्यक्ष विषयीकृतस्वलक्षणाध्यवसा१५यित्वादस्याप्रामाण्यम्, तथाऽभ्युपगमेऽध्य क्षेक्षितशब्दविषये क्षणक्षयानुमानस्याप्यप्रामाण्यप्रसक्तेः । अथानिश्चितार्थाध्यवसायादनुमानस्यानधिगतार्थाधिगन्तृत्वात् प्रामाण्यम्, निश्चितो ह्यध्यक्षविषयः, क्षणक्षय चानिश्चयादध्यक्षतो न तद्विषयत्वम् । नन्वेवमध्यक्षानुसारिविकल्पस्याप्य निश्चितार्थाभ्यवसायित्वात् क्षणक्षयानुमानवत् प्रामाण्यप्रसक्तिः । अपि च, विकल्पाऽनुमान विषयार्थयोः समः विषमो वा प्रतिभासोऽभ्युपगम्येत ? यदि विषमः, कथमसदृशप्रतिभासयोस्तयोरभेदः ? भिन्नाका२० रावभासि च कथं शब्दस्य रूपम् ? अथ समः, विकल्पेषु को विद्वेषस्तानविषयीकुर्वतः । अथ यत्रांशे निश्चयोत्पादन समर्थ प्रत्यक्षं तत्र प्रतिभासाविशेषेऽपि प्रत्यक्षं गृहीतांशग्राहितैया विकल्पो न प्रमाणम्, अनुमानं त्वगृहीतार्थाधिगन्तृत्वात् प्रमाणम्, तद्विषये ऽर्थेऽध्यक्षस्य निश्चयोत्पादनासामर्थ्यात् । ननु कथमेकमनुभवज्ञानं स्वार्थे निश्चयोत्पत्तौ समर्थमसमर्थ चोपपद्यते विरोधात् एकार्थाकाराविशेपाच ? मेँ चाविशेषेऽपि तस्यैकत्र सामर्थ्यमेवापरत्राऽसामर्थ्यम्, परेण सन्निकर्षेऽप्येवं वक्तुं शक्य२५त्वात् । तथा हि- सर्वात्मनेन्द्रियार्थसन्निकर्षवादिनापि शक्यमेवं वक्तुम् सन्निकर्षस्याविशेषेऽपि सर्वात्मनान भावस्य ग्रहणम् क्वचिदे वांशे सामर्थ्यात् एकत्र सामर्थ्यमेवान्यंत्रासामर्थ्यमिति । न च समारोपव्यवच्छेदकत्वेनानुमानंस्य प्रामाण्यम् न पुनः प्रत्यक्षपृथग्भाविनो विकल्पस्येति वकुं युक्तम्, तस्य तद्यवच्छेदकत्वानुपपत्तेः । तथाहि क्षणिकेऽक्षणिकज्ञानं समारोपः, तच्चानुमानप्रवृत्तेः प्रागिव पश्चादप्यविकलमिति कथं तथापि तस्य प्रामाण्यम् ? पश्चादस्खलत्प्रवृत्तेः समारोपस्याप्रवृत्तेरस्त्येव ३० द्वैकल्यमिति चेत्, नः तदा स्खलद्वत्तेरक्षणिक प्रत्ययात् स्वपुत्रादौ प्रवृत्तिर्न स्यात् । समारोपप्रतिषेधश्चाभवत्वेनाहेतुकः, स कथमनुमानेनान्येन वा क्रियते ज्ञाप्यते वा अभावेन सह कैंस्यचित् १ - वस्यवस्थितेः वा० वा० । वस्य व्यवस्थितेः आ० हा० वि० । २- नन्तरवि भ० मां० ३- नि च तद्वला - वा० वा० विना । ४- वृत्त्याका वा० वा० । ५ - राध्यवसा-भां० मां० । ६-स्य वै-भां० मां० वा० वा० विना । ७- भवप्रभवे विक - वा० बा० । भवविक आ० हा०वि० । ८-सायानां वा० वा० । ९ य त्वनियतरूपानुकारणं वा० वा० । १० - शब्दाव - वा० बा० । ११ न प्र-वा० बा० । १२ अलिङ्गत्वात् वा० बा० । १३ बाह्यार्थसन्निधिब - वा० वा० । बाह्यार्थसन्निधाधिब-आ० हा०वि० । १४ न वा वा० -बा० । १५ - नस्याधिग - वा० बा० विना । १६-स्य वा–बा० बा० आ० हा० । १७ - सो नाभ्यु - वा० बा० । -सो नभ्यु - आ० हा० बि० । १८ त नु यदि वा० वा० । १३ - स्ताववि-वा० वा० । स्ताऽनवि-आ० हा० वि० । २०-क्षता वा० वा० । २१- तया विषया विक-आ० | २२- नात् सा वा० बा० । २३-नुभयज्ञा-आ० | २४-मर्थ वोप वा० वा० । २५- र्थाविशे-वा० बा० । २६ न वा आ० हा० । न त्वा-वा० बा० । २७-वांशेऽसा-आ० ।-वांशै सा-हा० । वांशैत् सा-वा० बा० । २८-न्यत्र सावा० बा० आ० हा० वि० । २९- नस्याप्रा-आ० । ३० - तस्य व्यव वा० वा० । तस्य यव-भां० म० । ३१ - ज्ञानसमाभां० मां० विना । ३२ -स्खलद्वृत्तेः भ० मां० । स्खलितप्रवृत्तेः आ० ।-स्खलत प्रवृत्तेः वि० । ३३-मारोप्यस्या- भ० मां । ३४- तद्विकल्पमि -आ० हा ० वि० वा० वा० । ३५ - नाहेतुः स भां० मां० वा० वा० विना । ३६ कस्यचित् तस्य सम्ब-भां० मां० वा० वा० विना । २४४ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा। २४५ सम्बन्धाभावात् तस्य तथाऽप्रतिपत्तेश्च ? अथ प्रवृत्तसमारोपस्य स्वत एवाभावात् अनुमानात् क्षणिकत्वनिश्चये भाविनश्चाक्षणिकसमारोपस्यानुत्पत्तेः समारोपव्यवच्छेदकत्वं क्षणिकानुमानस्योच्यते, न; साक्षाद्भूतसमारोपनिषेधात् कथमविकले समारोपे प्रबन्धेनोपजायमाने क्षणविवेकनिश्चयःयेन ततोऽक्षणिकसमारोपस्य भाविनोऽनत्पत्तिः स्यात? निश्चयाऽऽरोपमनसोर्विरोधाभ्यः पगमात्; अन्यथा प्रत्यक्षपृष्ठभाविनः क्षणिकनिश्चयस्याप्युत्पत्तिप्रसङ्गः । तथा, परस्यापि निश्चयात्मना ५ प्रत्ययेन सर्वात्मनाऽर्थस्वरूपनिश्चयेऽपि समारोपप्रवृत्तौ तद्यवच्छेदाय प्रवर्त्तमानं प्रमाणान्तरमनर्थकं न स्यात् । तन्न क्षणविवेकनिश्चयः, निश्चये वा विरोधादेव नाक्षणिकसमारोपः। दृढरूपस्याक्षणिकसमारोपस्यास्त्येव व्यावृत्तिः, सादृश्यनिमित्तस्तु स्खलद्रूपारोपः स्थायीति चेत्, असदेतत्; अवधारितविशेषस्यानवधारितविशेषलक्षणसादृश्यासम्भवात् कथं समारोपः तन्निबन्धनोऽपि स्थायी युक्तः ? समारोपनिमित्तसादृश्यविरोधिविवेकावधारणसद्भावात् वह्निसन्निधानाद् रोमहर्षादिविशेष-१० वद् यथार्थनिश्चये विपर्यासानुपलब्धेश्च । अथ यथा निश्चितैकत्वस्यापि पुंसो द्विचन्द्रादिभ्रान्तिरक्ष. जत्वान्न निवर्त्तते तथा(थाऽ)क्षणिकभ्रान्तिरपि । नन्वेवमक्षणिकभ्रान्तेरक्षजत्वे न किञ्चिदपि प्रत्यक्ष. मभ्रान्तं स्यात् । "पश्यन्नपि न पश्यति" [ इति च धर्मकीर्तिवचनं विरुद्ध्येत । अथाऽक्षणिकत्वभ्रान्तिर्मानसी मरीचिकाचके तोयादि-१५ भ्रान्तिवत् तथापि नावधारितविशेषस्योत्पद्येत, अनवधारितविशेषस्यैव तदुत्पत्तेः । अक्षणिकावभासस्य मानसत्वे वस्त्वन्तरस्मरणसमये उत्पत्तिश्च न स्यात् ; विकल्पद्वयस्य युगपदनुत्पत्तेः उत्पत्ती वाऽश्वं विकल्पयतोऽपि 'गोदर्शनाद् दर्शने कल्पनाविरहसिद्धिरयुक्ता स्यादिति क्षणविवेकनिश्चयेsवश्यंभाव्यक्षणिकसमारोपाभावः । तत्सद्भावे च न क्वचिदनुमानानिश्चितनानात्वस्यात्माऽऽत्मीयभावयोः प्रवृत्तिर्युक्ता। न ह्यात्मनाऽनुमानान्नानात्वनिश्चयलक्षणे नैरात्म्यदर्शने सति एकप्रत्यय-२० लक्षणमात्मदर्शनं सम्भवति विवेकाविवेकग्रहणयोरेकत्वविरोधात्; तद्भावानात्मीयग्रहः; तदभावे च तत्पूर्वकस्य रागादेरनुत्पत्तः कथमभिलषिताऽनभिलषितसाधनयोस्तदध्यवसायेन प्राप्ति-परिहाराय प्रवृत्तिरुपैयेते ? अनाश्रवचित्तोत्पत्तिप्रबन्धलक्षणमुक्तिहेतौ च मुमुक्षोर्यनो विफलः स्यात् नै त्म्या: द्यभ्यासमन्तरेणाप्यनुमानात् क्षणिकत्वनिश्चयमात्रेणैव मुक्तिसिद्धेः । आत्मदर्शनस्य सहजस्याहानेस्तन्निमित्ताऽऽत्माऽऽत्मीयस्नेहपूर्वकसुखाभिलाषवतः सुख-दुःखसाधैंनेष्वादान-परिहारार्था प्रवृत्तिः२५ अविरुद्धेति चेत्, स्यादेतत् यदि तत्सहजमात्मदर्शनमेकप्रत्ययलक्षणं न स्यात् तद्रूपत्वे त्वात्मनोऽनु. मानात् क्षणविवेकनिश्चयमात्रेणैव तस्य निरुद्धत्वान्न तन्निमित्ता संसारकारणेषु प्रवृत्तिः । अथैकप्रत्ययलक्षणं सहजमात्मदर्शनं न भवति न तर्हि नैरात्म्याभ्यासादप्यविरोधात् तन्निवृत्तिरिति व्यर्थो नैरात्म्याभ्यासः स्यात् । अतोन साक्षात् पारम्पर्येण वाऽक्षणिकसमारोपव्यवच्छेदकत्वात् क्षणिकानुमानस्य प्रामाण्यम्, अध्यक्षप्रभवविकल्पेऽपि चैतत् समानम् निश्चिते तत्रापि समारोपाभावात्।३० न च प्रवृत्तसमारोपाव्यवच्छेदकत्वाद् विकल्पस्याप्रामाण्यमिति वक्तुं युक्तम्, प्रवृत्तसमारोपन्यवच्छेदकत्वेन प्रामाण्य(ण्ये) विशेषतो दृष्टानुमानस्यापि प्रामाण्यप्रसक्तिः तस्यापि तद्रूपत्वात् । न च प्रवृत्तः समारोपो व्यवच्छेत्तुं शक्यः अभावस्य निर्हेतुकत्वाभ्युपगमात् । न च प्रत्यक्षपृष्ठभाविविकल्प. १-ना क्ष-मां मां० विना । २-नश्च क्ष-भां. मां० विना। ३-नुपपत्तेः भा. मा. वि.। ४-क्षणिकस्यानु-भां• मां०। ५-मारोपिनि-वा० बा०। ६ प्रतिबन्धेनो-भां० मां० वा० बा० विना। ७ क्षणे विवेकवि०। ८-करोपस्य आ०। ९-थापि पर-वा. वा०। १०-पारोपस्था-वा. बा. हा०वि०। ११ अवधारितविशेषलक्षणसाह-आ० हा०वि०। १२-द्भाववह्नि-भां० मा. विना। १३-दपि भ्रान्तं आ० हा. वि.। १४ गोर्दर्शनात दर्शनादर्शने आ० । गोदर्शने वा० बा० । १५-मारोप्याभा-भां० मा० । १६-ना नि-चा० बा०। १७-क्षणनै-भां० मां० वा. बा०। १८-पद्यते आ०। १९-त नाधव-भां०। २०-रात्म्याव्यत्यास-भां० मां-रात्म्याभ्यास-वि०।-रात्माभ्यास-हा०। २१-नाक्षणिकत्वानिश्च-हा०वि०। २२-त्तात्मीय-मां० । २३-त्मीयं स्नेह-भ० मा०विना। २४-पूर्वसु-आ० हा० वि० । २५-धनेप्यादा -भां० मा०। २६-रार्थप्र-वा० बा० । २७-त्मन्यनुमा-भां० मां. विना। २८-स्य विरु-भां. मां० विना। २९-वृत्तेः भां० मां० वा. बा०। ३०-वृत्तेः आ०। ३१-क्षपृष्टिभावि-आ० हा० वि०।-क्षपृष्टिकाभाविवा० बा। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ प्रथमे काण्डेमपहायाऽनुमानस्यैव प्रामाण्यम् तस्य लिङ्गजत्वात् इतरस्य च तद्विपर्ययादिति वाच्यम्, विशेषतो दृष्टानुमानस्य लिङ्गजत्वेन प्रामाण्यप्रसक्तेः । न चानुभवविषयमात्राध्यवसायित्वेऽध्यक्षपृष्ठभाविविकल्पानामभ्युपगम्यमाने व्याप्तिसिद्धिरपि परस्योपपद्यते, सन्निहितमात्रप्रतिग्राहि त्वेनाध्यक्षस्य तद्या. पारानुसारिणो विकल्पस्यापि सर्वाक्षेपेण साध्य-साधनयोाप्तिग्राहकत्वासम्भवात् । तथा च देशा५न्तरादावुपलभ्यमानं साधनमनिश्चितसाध्यप्रतिबन्धं तत्र साध्यं न गमयेत् । अथ कार्य धूमो हुतभुजा कार्यधर्मानुवृत्तितो निश्चितः स देशान्तरादावप्यनलाभावे भवंस्तत्कार्यतामेवातिकामेदित्याकलि कोऽग्निनिवृत्तौ न क्वचिदपि निवर्त्तत, नाप्यवश्यंतयाऽग्निसद्भाव एव तस्य भाव उपलभ्येत । तथा, व्यापकाभावेऽपि तदात्मनो व्याप्यस्या(स्य)भावे न कदाचित् साधनं तत्स्वभावतया प्रतीयेतेति । नन्वेवं व्याप्तिसिद्धावपि तन्निश्चयकालोपलब्धेनैव स्यात् व्यापकेनास्य व्याप्तिः तस्यैव तथानिश्चयात, १० न; तादृशस्यापि साध्यव्याप्तग्रहणे तद्राहिणो विकल्पस्यागृहीतग्राहित्वं कथं न स्यात् ? यदेव हि प्रत्यक्षेण तव्याप्तत्वेनोपलब्धं ततस्तस्यैवानुमानं विशेषतो दृष्टम् तच्चानुमानं स्यात्, अन्यदेशादिस्थे. नाव्याप्तेः पारिशेप्यात् तोदृशव्यापकेनान्यत्र तादृशंस्य व्याप्तिसिद्धिरिति न वक्तव्यम्, पारिशेष्यासिद्धेः । तथाहि-तत् पारिशेप्यं किं प्रत्यक्षम् , उतानुमानम् ? न तावत् प्रत्यक्षम्, देशान्तरस्थस्या नुमेयस्य प्रत्यक्षेणाप्रतिपत्तेः प्रतिपत्तो वाऽनुमानवैयर्थ्यप्रसक्तिः। अथानुमानम् , ननु तत्रापि कथं १५साध्य-साधनयोः प्रतिवन्धसिद्धिः? न प्रत्यक्षेण, तस्य व्याप्तिग्राहकत्वेनाप्रवृत्तेः। नानुमानान्तरेण, अनवस्थाप्रसक्तेः । न तेनैवानुमानेन, इतरेतराश्रयप्रसङ्गात् । तमादनुमानप्रामाण्यवादिना सर्वोपसंहारेण व्याप्तिग्राही प्रत्यक्षजन्मा स्वविषयाविसंवादी विकल्पः प्रमाणयितव्यः। स चामिनिबोधिकं ज्ञानमस्मद्दर्शने प्रसिद्धमस्पष्टतया श्रुतं वा ऊहशब्दविशेषवाच्यतया न प्रत्यक्ष-परोक्षप्रमाणद्वयव्यतिरिक्तं तत् प्रमाणान्तरम् । प्रत्यक्षानुमानवादिनां तु व्याप्तिग्राहकं प्रमाणान्तरं प्रेसक्तम् प्रत्यक्षानु. २०मानाभ्यां व्याप्तिग्रहणासम्भवात्। न च प्रतिबन्धग्राहकस्य प्रमाणस्य स्वार्थे व्यभिचारः प्रतिबन्धा. भावात् इति वक्तव्यम्, तत्र योग्यतालक्षणप्रतिबन्धसद्भावात् । प्रत्यक्षेऽपि हि स्वार्थपरिच्छेदो योग्यतीत एवन पुनस्तदुत्पत्त्यादेः। तदुत्पत्तिप्रतिबन्धात् प्रत्यक्षस्य स्वार्थपरिच्छेदकत्वे इन्द्रियस्यापि तत्परिच्छेद्यत्वप्रसक्तिः। तत्सारूप्यात् तेस्य तत्परिच्छेदकत्वे नीलक्षणोऽपरनीलक्षणस्य परिच्छेदकः स्यात् परिच्छेदस्य ज्ञानधर्मत्वात् , अप्रसङ्गे नीलज्ञानमपरनीलज्ञानपरिच्छेदकं स्यात् । तदुत्पत्ति२५सारूप्याभ्यां समुदिताभ्यां प्रत्यक्षस्य स्वार्थपरिच्छेदकत्वे नीलज्ञानं समनन्तरनीलज्ञानस्य परिच्छेदक स्यात् । तदुत्पत्ति-सारूप्यसद्भावेऽपि समानार्थसमनन्तरप्रत्ययस्य न तद्राहकं व्यवस्थाप्यते तदध्यवसायाभावादिति चेत्, ननु 'तदुत्पत्यादिके प्रतिबन्धे समानेऽप्यर्थे एव तस्य तद्ध्यवसायो न पुनः समनन्तरप्रत्यये' इति पृष्टेन भवता सैव योग्यता नियामिका वक्तव्या । अपि च, 'विषयेन्द्रिय मनस्कारेषु विज्ञानकारणत्वेनाविशिष्टेषु विषयस्यैवाकारं बिभर्ति विज्ञानं नेन्द्रियादेः' तथा, 'नीला. ३० द्यर्थसारूप्याविशेषेऽपि नीलानं योग्यतादेशस्थमेव नीलाद्यर्थ विषयीकरोति नान्यम्' इत्यत्रापि योग्यतैव शरणम् । अतोऽस्या एव तत्सारूप्यादिविशेषेऽप्यवश्यमभ्युपगमनीयत्वात् अर्थप्रतिनियमः सैर्वत्राभ्युपगमनीय इति प्रत्यक्षवदूहोऽपि योग्यतीयाः प्रतिबन्धसाधकोऽभ्युपगन्तव्यः; अन्यथा अनु १-मवहा-भां० मां० विना। २-माण्याप्र-भां० मां० । ३-त्राव्यव-भां० मा० विना । ४-मात्रे प्रति-वा० बा०। ५-प्रतिबिम्बं त-भां० मा० विना । ६-वर्तते ना-भां० मां. विना। -नोप्यस्य भा-वा. बा०। ८-पि निश्च-वा० बा० । ९-स्यातादृशस्यापि भां० । १०-द्राहिणा वा० बा० । ११-ष्टं न चानुवा० बा० ।-टं न त्वानु-हा० वि०। १२-प्तेः परिशेष्यात् वा० बा०।-प्तेः पारिशेषात् आ० हा० ।-तेः परि. शेषात् वि०। १३ तादृशाव्या-मां० वा. बा० । तादृशांव्या-भां०। १४-न्यत्राताह-वा. बा. हा०वि०। १५-शस्याव्या-वा० बा० । १६-पत्तौ चानु-आ० । १७-कल्पवृप्रमा-हा० ।-कल्पवृक्षप्रमा-वि• । १८ स त्वाभि-वा. बा.। १९-दर्शनप्रसि-भां. मां० विना । २०-प्रशक्तम् हा० । प्रशस्तम् आ० । २१ -ताऽत एव आ० हा० वि० ।-ता एव वा० बा०। २२ तस्यातत्प-वा. बा. २३-ज्ञानपरि-आ. हा. वि०। २४-ज्ञानामपरि-वा. बा०। २५-तास्यैव मां. वा. बा० । २६ रूपाऽऽलोक-मनस्कार-चक्षुर्व्यः संप्रवर्तते। विज्ञानं मणि-सूर्याऽशु-गोशकृय इवाऽनलः" ॥. __ अनेका० टी० पृ० २०६ पं० १९ । २७-यनमस्का-वा० बा० । २८-ज्ञानयो-आ० हा०। २९ 'योग्यदेश-वि० सं०। ३०-प्याविशे -आ०। ३१ सन्नाभ्यु-आ० हा० वि० । 'सन्नभ्यु- वि० सं०। ३२-ताया प्रति-वा. बा०। ३३ प्रतिबिम्बसावा. वा०। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २४७ मानादिव्यवहारोच्छेद एव । ने चात्राप्यनवस्था, न हि प्रतिबन्धनिश्चयापेक्षो लिङ्गवदयं गमकः, प्रत्यावद् योग्यतयैव स्वार्थप्रकाशनात् स्वहेतोरेव नियतार्थप्रकाशनयोग्यस्यास्योत्पत्तेः । न च स्वलक्षणदर्शनानन्तरभाविनो विकल्पस्यास्पष्टावभासितया न सामान्यग्राहकत्वम्, उन्मीलितचक्षुषः परोऽवस्थिते समानाकारेऽर्थे स्पष्टतया तस्यावभासनात् । अथ 'सविकल्पाऽविकल्पयोर्यगपद्वत्तेर्विमढस्तयोरैक्यमध्यवस्यति' इति स्पष्टतावभासः, असदेतत् सविकल्पाऽविकल्पयोः किमेकविष- ५ यत्वम्, उतान्यतरेणान्यतरस्य विषयीकरणम्, आहोस्विदपरत्रेतरस्याध्यारोपस्तयोरेकत्वाध्यवसाय इति विकल्पैरनुपपत्तेः । तत्र न तावदेकविषयत्वं तयोः सम्भवति, विकल्प(रूपस्य) पूर्वानन्तरप्रत्ययाग्राह्यतत्समानकालवस्तुविषयत्वात् । अन्यतरस्यान्यतरेण विषयीकरणमपि समानकालभाविनोरपारतच्यादनुपपन्नम् । अविषयीकृतस्यान्यस्यान्यत्राध्यारोपोऽप्यसम्भवी। तदनन्तरभावि ज्ञानं तो विषयीकृत्यापरमन्यत्राध्यारोपयतीत्यपि वक्तुमशक्यम्, तयोविवेकेनोपलम्भप्रसङ्गात् । तथा च१० नाध्यारोपादप्येकत्वाध्यवसायः। किञ्च, यद्यविकल्पक विकल्पेऽध्यारोप्य विकल्पकमविकल्पतयाऽध्यवसीयते तदा समानाकारस्य विकल्पविषयतयाऽभ्युपगतस्य न तत्र तद्रूपतयाऽध्यवसायः स्यात्, विकल्पावभासस्य तद्विषयत्वेन व्यवस्थितस्य विकल्पस्वरूपवदविकल्परूपतयाऽध्यवसितत्वात् । अथ विकल्पमविकल्पेऽध्यारोप्याऽविकल्पो विकल्परूपतयाऽध्यवसीयते तदा सुतरामस्पष्टप्रतिभास एव स्यात्, लघवृत्तेरपि क्रमभाविनोर्विकल्पाऽविकल्पयोन विच्छेदानपलक्षणम वर्णद्वयादिनाऽनेका-१५ न्तात् । विकल्पात्मनोत्पत्तिरेवेन्द्रियजस्यात्मन्यपरसमारोपश्चेत्, नन्वेवं सर्वेन्द्रियजा वुद्धिर्विकल्पकत्वेनासत्या स्यात् । विकल्पस्यापि नाविकल्परूपेणोत्पत्तिरेकत्वाध्यवसायः, विकल्पात्मनो वैशद्याभावात् । युगपट्टत्तेश्चाभेदाध्यवसाये दीर्घशष्कुलीभक्षणादौ रूपादिज्ञानपञ्चकस्यापि सहोत्पत्तेरेकत्वाध्यवसायः किं नाभ्युपगम्येत? भिन्नविषयत्वात् तेषां स नेष्यत इति चेत् तर्हि प्रकृतेऽपि स मा भूत्, क्षण-सन्तानविषयत्वेनाविकल्प-सविकल्पकयोभिन्नविषयत्वात् । न हि विकल्पे निरंशै-२० कक्षणावभासो लक्ष्यते", तल्लक्षणे क्षणक्षयानुमानवैयर्थ्यप्रसक्तेः। क्षणविषयत्वेऽपि वा न तयोरेकविषयत्वम, स्वोपादानविषय-तत्समानसमयक्षणगोचरत्वात् । एकसन्तानसमाश्रयेण द्वयोरप्येकविषयत्वे दर्शन-स्मरणयोरभिन्नसन्तानाधिकरणयोरपि स्यात् । वर्तमानार्थतयाऽप्रवृत्तेन दर्शन-स्मरणयोरेकत्वाध्यवसाय इति चेत्, न; शब्दादिस्वलक्षणेऽध्यक्षगोचरे क्षणक्षयमनुमानान्निश्चिन्वतोऽनुभव-विकल्पयोर्युगपद्भावेऽप्यभेदाध्यवसायाभावात् मरीचिकायां जलभ्रान्तेः विशदाव-२५ भासे च निमित्तं वक्तव्यम्, विकल्पाऽविकल्पयोर्युगपद्भाव निमित्तस्य तत्राभावात् तदोपलब्धिलक्षणप्रातस्यानुपलम्भादू दर्शनस्याभावात् तत्सद्भावे वा न जलाकारं दर्शनम् जलभ्रान्तेरक्षजत्वानभ्युपगमात् । नापि मरीचिकाविषयम् भिन्नाधिकरणतया तयोरेकीकरणासम्भवात्, सम्भवे वा घटानुभवस्य पटस्मरणादावपि प्रसङ्गः। प्रत्यक्षासन्नवृत्तित्वाद वैशद्यभ्रमेऽन्यत्रापि सैवास्तु किं युगपज्ज्ञानोत्पत्तिकल्पनया? प्रकृतिविभ्रमादेवाऽस्य तथाभावे सिद्धं विकल्पात्मकज्ञानस्य वैशद्यम् । न च ३० जलभ्रान्तेरवैशद्यम् , जलभ्रान्त्याधारसमानदेशजलप्रतिभासाविशेषात् । न च युगपत्तिनियोः सिद्धा, सकृद्भावे हि ज्ञानयोर्युगपत्तिः स्यात् । न चैकस्मात् सामग्रीविशेषादर्थेन्द्रियादिलक्षणाद् युगपत् कार्यद्वयस्य विकल्पाऽविकल्पस्योदयो युक्तः, यतः सामग्रीभेदात् कार्यस्य तत्प्रभवस्य भेदो युक्तः; अन्यथा निर्हेतुकः स स्यात् । अथ कार्यव्यतिरेकात् कारणस्य तत्र १-च्छेदः। न वा० बा० । २ न वा-आ०। ३ प्रसङ्गनि-वा० बा०। ४-क्षत्ववद् मां० विना । -क्षत्व वा. बा०। ५-दर्शनान्तर-वि०। ६-या सा-वा० बा०। ७-कारार्थे स्प-मां० ।-कारेास्पवा० बा० ।-कारेस्पृ-हा०। ८-दृत्तेर्निर्मू-वा० बा०। ९-त्ययग्रा-आ० वि० विना। १०-ह्यवत् सवा. बा. हा०। ११-प्यसंभवतीति तद-आ० वि०। १२ ज्ञानतो विष-वि०। १३-ध्यारोप्य विकल्ल्यतया-आ० वि० ।-ध्यारोपविकल्पतया-वा. बा. हा०। १४-नाऽनैका-भां० मां०। १५-त्पत्तिरेकेन्द्रि-भां. मां०। १६-साये वि-भां० मां० वा. बा. विना। १५-ल्पात्मानो वै-आ० वि० ।-ल्पात्मनौ वै-वा. बा. हा०। १८-पादिना ज्ञान-वि०। १९ मा भूत क्षण-आ० वि०। २०-णसत्तान-भां० मां.। २१-तेऽतल्ल-वा० बा०। २२ त्वंष्टोयतः पादान-वा० बा०। २३-त्सदभावे आ० हा. वि. । २४-तदाभा-भां० मां। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ प्रथमे काण्डेसामर्थ्यावधारणम् । अर्थादिव्यतिरेकाच नर्वि(न वि)कल्पव्यतिरेकः एतत्समानजातीयानामतीतादिविकल्पानामाद्यभावेऽपि भावादित्यविकल्पोत्पादन एवार्थेन्द्रियादेः सामर्थ्यमवसीयते इत्यम्युपगमादस्त्येव सामग्रीभेदः ततः कार्यभेदोऽपि सङ्गत एव, असदेतत्; तिमिरपरिकरितचक्षुषोऽई. व्यतिरेकेणाप्य विकल्पकस्य कस्यचिदुत्पत्तिदर्शनादपरस्यापि तजातीयतयाऽविकल्पदर्शनस्य विकल्प ५वदनर्थजन्यत्वप्रसक्तेः । अथ तैमिरिकानुभवादनुपहतेन्द्रियजाध्यक्षस्य भेदान्नानन्तरोक्तप्रसङ्गः, नन्वे तत् सविकल्पकेऽपि समानम् । न चैकत्र विकल्पेऽवैशद्यदर्शनात् तजातीयतया सर्वत्र तथाभावसिद्धिः, अविकल्पस्यापि दूरार्थग्राहिणः कस्यचिदवैशद्योपलब्धेः तदन्यस्यापि तद्भावप्रसक्तेः। तत् स्थितमक्षभाविनो विकल्पस्यार्थसाक्षात्करणलक्षणं वैशद्यम्; तेन 'स्वव्यापारमेवमादर्शयतो विकल्प स्योत्पत्तेः स्वव्यापारमुत्प्रेक्षात्मकं तिरस्कृत्य दर्शनव्यापारानुसरणाद् विकल्पः प्रमाणं न भवति' १० इत्येतन्निरस्तं द्रष्टव्यम् । विकल्पश्चैक एवार्थग्राह्युपलक्ष्यते नापरं दर्शनम् यद्यापारानुसारिणो विकल्प स्थाप्रामाण्यं भवद्भिः गृहीतग्राहितया प्रतिपाद्यते । विकल्पाऽविकल्पयोर्लघुवृत्तेर्विकल्पव्यतिरेकेणाविकल्पस्यानुपलक्षणेऽङ्गीक्रियमाणे वर्णयोरपि लघुवृत्तेरितरेतरव्यतिरेकेणानुपलक्षणप्रसक्तिः। न च वर्णयोस्तथाभूतलघुवृत्तेरभावात् परस्परव्यतिरेकेणोपलक्षणसद्भावः, युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिवादिनोऽपि ताभ्यां व्यभिचाराभावप्रसक्तेः । नापि सादृश्याद् विकल्पाऽविकल्पयोर्भेदेनानुपलक्षणम्, सन्ताने१५तरविषयत्वेन तयोरेकविषयत्वकृतसादृश्याभावात् । ज्ञानरूपतया सादृश्ये नीलाऽनीलाकारज्ञान योरपि ज्ञानात्मना सादृश्यान्न स्याद् भेदेनोपलक्षणम् । तन्नाऽविकल्पकज्ञानसद्भावः। अथ यदि प्रथमाक्षसन्निपात एव सविकल्पकं दर्शनमुदयमासादयति तद्बाह्यस्त्वर्थात्मा; तथा सत्यर्थग्रहणाभाव एव प्रसक्तः। तथाहि-अर्थदर्शने सति तत्सन्निधाने दृष्टे तद्वाचके स्मृतिः, तत्स्मृतौ च तेनार्थ योजयति, तद्योजितं चार्थ विकल्पिका बुद्धिरध्यवस्यति । न च सविकल्पकप्रत्यक्षवादी अंशब्दकमर्य २०पश्यति, तदर्शनमन्तरेण च (न) तद्वचःस्मृतिः, तामन्तरेण च न वचनपरिष्वक्तार्थदर्शनम् इत्यर्थदर्शनाभाव एव प्रसक्तः, असदेतत् ; यतो यदि 'अशब्दकमर्थं विकल्पो नावगच्छति' इत्यभ्युपगम्येत तदा स्यादयं दोषः; न चास्माभिः शब्दसंयोजितार्थग्रहणं विकल्पोऽभ्युपगम्यते किं तर्हि ? निरंशक्षक्षणिकानेकपरमाणुविलक्षणस्थिरस्थूरार्थग्रहणम् । तच्च प्रथमाक्षसन्निपातवेलायामप्यनुभूयते । तथा, १-व्यतिरेकत्वा न वि-हा० वा. बा० ।-व्यतिरेकत्वेन वि-आ० वि० । व्यतिरेकाच्च नर्वि-भा० । अत्र 'अर्थादिव्यतिरेकाच्च न विकल्पव्यतिरेक एव तत्समानजातीयानामतीतादिविकल्पाना-' इति पाठः संभाव्यते। २ तकार्य-भां० मां। ३-क्षजस्य भां० मां० । ४-कल्पे वै-भां० मां० विना। ५ सर्वत्रात-बा. बा। ६-पि विदरा-भां० मां०। ७-णं भवति भां० मां. विना। ८-पाद्यते वि०। ९-त विकल्पयोर्ल-आ० वा. बा०। १०-वृत्तिवैकल्प-वा० बा० हा०। ११-सक्तेः वि०। १२ परस्य व्यति-वा. बा०। १३-पलक्षणोपलक्षणसद्भा-भां• मां०। १४-भावः आ०। १५-दृश्याद्विकल्पाद्वि-हा०।-दृश्याद्विकल्पयोर्मेवा० बा० वि० । १६ सादृश्ये नीलाकारज्ञान-वा० बा० हा०। १७ तन्न वि-वा० बा०। १८-स्मा सत्यआ० वि०। १९ “सति ह्यर्थदर्शनेऽर्थसन्निधौ दृष्टे शब्दे ततः स्मृतिः स्यात् अग्निधूमवत् । न चायमशब्दमर्थ पश्यति, अपश्यन् न शब्दविशेषमनुस्मरति, अननुस्मरन्न योजयति, अयोजयन्न प्रत्येति इत्यायातमान्ध्यमशेषस्य जगतः"-अनेका• पृ० १२२ पं०३। “न चायमित्यादि । न खल्वयं सविकल्पकप्रत्यक्षवादी शब्दरहितमर्थ पश्यति, खाभिधानविशेषणापेक्षा एवार्था विज्ञानैर्व्यवसीयन्त इति नियमात् । ततः को दोष इत्याह-अपश्यन् न शब्दविशेषमनुस्मरति 'नियमेन' इति शेषः" अनेका. टी. पृ० १२२ पं० २४ । "तथाहि-नीलादिकमर्थमनिरीक्षमाणस्तत्र प्रतिपन्नसमयं तद्वाचक शब्दं नानुस्मरत्युपयोगाभावात् , अननुस्मरश्च पुरश्चारिणि नीलादिवस्तुनि न तं संघटयति स्मृतिदर्पणप्रतिबिम्बनमन्तरेण तत्संघटनासामर्थ्यात्, असंघटयंश्च शब्दं त्वदाकूतेन न निरीक्षत एव नीलादिकमर्थमिति सुषुप्तप्राय जगजायेतेति"-स्याद्वादर० पृ. ३६ द्वि. पं०८। २० दृष्टा त-हा० वा० बा०। २१-चकस्मृ-वि.। २२-कल्पका बु-वा. बा. हा. वि०।-कल्पबुआ। २३ अशब्दकर्म पश्यति तदर्शनमन्तरेण च तद्वचस्मृतिः आ.। 'अशब्दं कर्म पश्यति तदर्शनमन्तरेण च न तत्स्मृतिः' वि० सं०। २४-ण न च वचन-भी० मां०। २५-ब्दसंयोगिता-वा० बा० । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २४९ सहतसकलविकल्पावस्थायामपि न निरंशक्षणिकानेकपरमाणुप्रतिभासः, स्थिरस्थूलरूपस्य बहिः स्तम्भादेाह्यरूपतां बिभ्राणस्य प्रतिभासनात्, अश्वविकल्पकालेऽपि पुरो व्यवस्थितस्य गवादेस्त. थाभूतानुभवविषयत्वेन प्रतिभासनात् । यदि पुनरभिलापसंसृष्टार्थाध्यवसाय्येव विकल्पोऽभ्युपगम्येत तदा तदनुत्पत्तिरेव प्रसक्ता । तथाहि-यावत् पुरो व्यवस्थितं वस्तु नीलादित्वे(त्वेन) न निश्चितं न तावत् तत्सन्निधानोपलब्धतद्वाचकस्मृत्यादिक्रमेण तत्पॅरिष्वक्तार्थनिश्चयः, यावच्च न तन्निश्चयो न ५ तावत् तद्वाचकस्मृत्यादि, क्षणक्षयादाविवाऽनिश्चिते वाचकस्मृत्यादेरयोगात् । योगे वा शब्दानुभवानन्तरं 'क्षणिकः' इति वाचकस्मृत्यादिक्रमेण तन्निश्चयोत्पत्तेः क्षणक्षयानुमानमपार्थकं स्यात् । अपि च, 'तद्वाचकस्यापि स्मरणमपरतद्वाचकयोगमन्तरेण भवदभ्युपगमेन न सम्भवति, तद्योजनमपि स्मरणमन्तरेण, स्मरणमप्यपरतद्वाचकयोजनादिव्यतिरेकेण' इत्यनवस्थानान्नात्र क्वचिदपि निश्चयः स्यादिति । तस्मादमिलापसंसर्गयोग्यस्थिरस्थूरार्थप्रतिभासं ज्ञानं प्रथमाक्षसन्निपातोद्भवं १० सविकल्पक तथाभूतार्थव्यवस्थापकमभ्युपगन्तव्यम्: अन्यथा सकलव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गः । अतः साधारणासाधारणरूपे वस्तुनि प्रमाणप्रवृत्तिः नासाधारणात्मनि.निर्विकल्पकस्याप्यसाधारणात्मनि विषये विकल्पानुत्पादकत्वादग्राहकत्वमेव । ग्राहकत्वे वा तत्र क्षणक्षयानुमानस्याप्रामाण्यप्रसक्तिः। तस्मात् 'स्वस्वभावव्यवस्थितेः' इत्यस्य हेतो देन सर्वपदार्थानां प्रत्यक्षेण व्याप्तिग्रहणाभावान्न व्याप्तिग्राहकप्रमाणफलमेतत्-‘स्वस्वभावव्यवस्थितेः सर्वभावानां सर्वतो भेदः' इति । अतो न १५ धर्मविशेषाभावः । व्यावर्त्यभेदाद् व्यावृत्तिभेदः तद्भेदाच्च धर्मभेदे यथा अमूर्ताद् व्यावर्तमानो घटो मूर्तस्तथा मूर्तान्तराद् व्यावर्त्तमानः प्रत्ययोऽमूर्तोऽपि मूर्तः स्यात् । अमूर्तात्मना तयोरभेदे कथं मोभयात्मकत्वं भावानाम् ? न च कल्पितो धर्मभेदः, तथाभ्युपगमे यथा परसत्त्वाद् व्यावर्त्तमानस्य घटादेः परविविक्तं स्वसत्त्वं कल्प्यते तथा स्वसत्त्वाद् व्यावतमानस्य स्वासत्त्वप्रक्तृप्तिप्रसङ्गः। अथ परसत्त्वादेव तस्य व्यावृत्तिःन स्वसत्त्वात् , नन्वेवं कथं न पारमार्थिकोऽन्यव्यावृत्तिधर्मभेदोऽभ्य-२० पगतः स्यात् ? न च 'एकः संवृतिसन्नपि कल्प्यतेऽन्यो न' इति विभागो युक्तः, कल्पनायाः सर्वत्र निरङ्कुशत्वात् । तदेवं सदृशपरिणामसामान्यस्यावाधितप्रत्ययविषयत्वेन सत्त्वादसिद्धो हेतुरिति स्थितम् । स्वसंवेदनप्रत्यक्षस्यानिश्चयरूपताभ्युपगमे शब्दप्रत्ययस्यासिद्धत्वादाश्रयासिद्धश्च हेतुः । न ह्यनिश्चितं ज्ञानस्य स्वरूपं स्वर्गप्रापणसामर्थ्यवद् दानचित्तस्य सिद्धं भवति प्रतिभासमात्रेण सिद्धत्वे २५ वा तत्र विप्रतिपत्तिर्न स्यात्, क्षणक्षयादेरपि च प्रतिभासमात्रेणैव सिद्धत्वात् तदनुमानवैयर्थ्यप्रसक्तिश्च ।न च स्वसंवेदनेनाऽनिश्चयात्मनाऽपि निश्चयात्मज्ञानवरूपं गृह्यते न पुनस्तस्य स्वर्गप्रापणसामर्थ्यादिकम् अतो न विप्रतिपत्त्याद्यभाव इति वक्तव्यम्, तस्मिन् गृह्यमाणे गृह्यमाणस्य तस्य ततो भेदप्रसङ्गात् । न च तस्मिन् सर्वात्मना स्वसंविदितेऽप्यभ्यासपाटवादेनिमित्तात् क्वचिदेवांशे निश्चयो न सर्वत्र, स्वसंवेदनस्य तदंशनिश्चयजननसमर्थस्यापि तदंशान्तरे तदसामर्थ्याद् द्विरूपता-३० पत्तेः। न चैकत्र सामर्थ्यमेव परत्रासामर्थ्यम्, विहितोत्तरत्वात् । न च निश्चयसंवेदनस्याप्यनिश्चयात्मकत्वेन स्वतो निश्चितस्य निश्चयव्यवस्थापकत्वम् , क्षणिकत्वादेरिवानिश्चितस्याऽन्यव्यवस्थाप १-भासस्थितस्थू-वा० बा०। २-स्थूररू-वा० बा० हा० वि०। ३-वादिस्त-आ० वि०। ४-लाषसंवा. बा. हा० विना। ५-संस्पृष्टा-मां०। ६-सायो विकल्पेभ्युप-वा० बा०। ७-स्परिपृक्ता-भां. मां । ८-तार्थानि-वा० बा०। ९-दिलक्षण-भां० मां० विना। १०-गे व श-वा० बा०। ११-नुभावा-भां. मां. विना। १२-कयोजनमन्त-भां० म०। १३-स्थानान्न क्वचि-भां• मां० । १४-लाषसं-वा. बा. हा. विना। १५-भासज्ञा-भां• मां. वा. बा. हा. विना। १६-रूपवस्तु-वा. बा.। १७-त्तिः न साधा-आ० वि०। १८-त्मनि विक-बा. बा०। १९ पृ. २४३ पं० १७। २०-धर्मभेदो य-वि०। २१-वय॑मा-भां० मा० । २२-थाऽमू-आ० वि० विना। २३ संवृत्तिसन्नपि मां० वा० बा० हा० वि० । संवृत्तिः सन्नपि भां.। २४-स्थित संवे-आ० । २५-मे शाब्द-भां० मा० । २६-श्चितज्ञा-वा. बा०। २७-नाऽपि. शानख-भा०म० २८-निश्चिया-आ० हा० वा. बा०। २९-त्मस्व-वा० बा० । ३०-माणागृह्य-वा. बा०। ३१ सर्वदा वा• बा०। ३२-माद्वि-आ० वि०। ३३ पृ. २४४ पं० २४ । ३४-त्मकत्वे स्व-भा० मां-त्मकत्वेनास्व-वा. बा०। ३५-तोऽनिश्चि-भा० मा०। म० त०३२ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेकत्वायोगान् । न च स्वसंवेदनेनानिश्चयात्मनाऽनिश्चितो निश्चयः प्रत्ययव्यवस्थापकः, इति मिति ल्पकखसंवेदनवादिनः प्रत्ययासिद्धेः कथं नाश्रयासिद्धःप्रकृतो हेतुः? ___ यदपि भवतु वा सामान्यं तथापि तस्या(स्य) भेदेभ्योऽर्थान्तरत्वे मिन्नेष्वमेदाध्यवसायो माथि रेव' इत्यादि, तदप्ययुक्तम् : एकान्त मिन्नस्य सामान्यस्य भिन्नेष्वमेदप्रत्ययहेतुत्वेनानभ्युपगमा । ५न ह्यन्येनान्ये समाना अभ्युपगम्यन्ते किन्तु स्वहेतुभ्य एव केचित् समाना उत्पन्नास्तथैव गवादि प्रत्ययविषयाः। यंदपि 'अनन्तरत्वेऽपि सामान्यस्य' इत्यादि, तदप्यसत् : अनर्थान्तरत्वेनैकान्तेन तस्थान पगमान्न तत्पक्षभावी भ्रान्तत्वादिदोषः प्रत्ययस्य।। यंदर्पि 'यत्रैव हि कृतसमया ध्वनयः स एव तेपामर्थः, न च समयः शब्दानां परमात १० सम्भवति.' तदप्ययुकम् :मामान्य-विशेषरूपस्य वस्तुनः पारमार्थिकस्य सङ्केत-व्यवहारकालव्यापकस प्रमाणसिद्धत्वात् । यद्यपि शावलेयादयो व्यक्ति विशेषणः परस्परं नानुयन्ति तथापि समानपरिणाम स्वरूपतया क्षयोपशमविशेषाविभूतप्राक्प्रदर्शितव्याप्निग्रहणस्वरूपक्षाने तथैव प्रतिभासमानाः सहे. नविषयतामुपयान्त्येव, अगोरूपव्यावृत्तेषु सङ्केत-व्यवहारकालव्यानिमत्सु भावेष्वगोशब्दव्यावृत्ता शब्दस्वरूपस्य सङ्केतितत्वाद् देशान्तरे कालान्तरे च ततः शब्दात् तदर्थप्रतिपत्तिराव्यमिचारि १५ण्युपजायत एव । एकत्वं तु शब्दाऽर्थयोः शब्दप्रतिपत्तावनङ्गमेव, तदन्तरेणापि सङ्केतस्य कर्तु शक्यत्वात् सार्थकत्वाच्च।। तेन 'ये यत्र भावतः' इत्यादिप्रयोगे 'न भवन्ति च भावतः कृतसमयाः सर्वस्मिन् वस्तुनि सरें ध्यनयः' इत्यसिद्धो हेतुः, यथोक्तवस्तुनि समयस्य प्रतिपादितत्वोत्। यदपि 'हिमाचलादिषु सङ्केतव्यवहारकालव्यापकेषु सङ्केतः सम्भविष्यति' इत्याशय 'तेज २० प्यनेकपरमाणुरूपत्वान्न सङ्केतः' 'इंति, तदप्ययुक्तम्: समानासमानकपरिणतिरूपस्य वस्तुमा साधितत्वात् । यंदपि 'उदयानन्तरापवर्गिषु स्वलक्षणेपु सङ्केत उत्पन्नानुत्पन्नेवशक्यक्रियतः(क्रियः)' इति, तदप्यसङ्गतमः एकान्तेनोदयानन्तरापवर्गित्वस्य भावेष्वसिद्धेः । अथान्ते क्षयदर्शनात् प्रागपि तस्स. भावसिद्धेस्तसिद्धिः, नन्वेवमादौ स्थितिदर्शनादन्तेऽपि स्थानुतासिद्धेर्विपर्ययसिद्धिप्रसङ्गः । अयान्ते २: स्थर्यानुपलब्धेर्न विपर्ययसिद्धिः, आदी क्षणक्षयानुपलक्षणात् क्षणक्षयसिद्धिरपि न स्यात् । सरशा परापरोत्पत्निविप्रलम्भात् क्षणक्षयस्यादावनपलक्षणमिति चेत. स्यादेततयदि कतधित अणि सिद्धं स्यात्, तच्चासिद्धम् तत्र साधकहेत्वभावान् । कृतकन्वात् तसिद्धिरिति चेन्, न; साध्यसा धनधर्मभदौत् सिद्धी (भेदाऽसिद्धौ) ततस्तसिद्धेरयोगात् , योगे वा स्वात्मनोऽप्यान्मना सिमित म्गात् । न च व्यावृत्तिभेदात् कृतकत्वाऽनित्यत्वयोर्भेदः, यतस्तद्भेदः स्वतो"वा, व्यवच्छेचाद्वा, ३. आरोपाद् घा, बुद्धिप्रतिभासभेदाद् वा भवेत् ? न तावन् स्वतः, स्वतो मेरे भेदस्य वस्तुत्वम्, वस्तुवे च कथं न वस्तुत्यपक्षभावी दोषः ? यस्तुनधानेकान्तात्मनो भेदाभेदात्मकतया सिद्धेः सिद्धोना सिद्धान्तः । व्यवच्छेद्यभेदादपि न व्यवच्छेदभेदः, अनित्या(त्यत्वा)दिव्यवच्छेद्यस्य निस्यादेर्व्यवच्छेचस्प यम्नुनोऽभावाद् भेदाभाषप्रसक्तेः। कल्पिनव्यवच्छेचव्यवच्छेदेन तद्भेदाभ्युपगमे तत्र कल्पनाऽपि इतरम्यवच्छेदेन इत्यन्योन्यव्यषच्छेदेन व्यवच्छेदयोर्म्यवस्थितस्वरूपत्वात् कथं नेतरेतराभयदोषा! निश्चितः प्र-१०। पृ. 16 पं. १० । ३ तम्याऽमे-मां. मां । पूर्वगाठानुमारेण 'तस्य मेदे. योऽन्तान' इति ममर । -नाभ्यु-अ.। . गम्यने वि०।६ पृ. ११.१३। ७.१४ पं."। ८ पिनत्रय वा. व. नानुपपत्तिस्तथा भां. मां.। १.-णामः स्वरू-आ.। "-बि. भतिमा भा.मौ.। १२ पृ. २६ पं. १६. १३ पृ. 1.पं. १९। १४ पृ.१.४५.२.। १. प्र. पृ. ५.१.। १६ पृ. १७६ पं.।। १. पृ. १७६५..। १८ पृ. २४२ पं. २१। १. पृ.१७." ..वं म्यान् आ. वि.। १ तथारिस-बा. पा.हा. नथा सि-भा. 4.। दाप्यारम सि.पा . विना । ०१-खात्मनोप्यात्मनो सि-मा. म.। स्वारमनाया रमना मि माम्बाग्मना सिपा.पा.। २४-तो म्य-बा. बा.बिना। २५-वस्तुबा. बा.. . अनित्यत्वादिन्यवच्छेदस्य नित्याययंपदस्थ बस्नुनो-बा• वा..। मनिस्यत्वादिम्पपी पद बस्तुनोऽभावान्-आ.वि.। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - तत्संबन्धयोर्मीमांसा । अनित्यत्वादिव्यवच्छेदेन नित्यादिव्यवच्छेद्यस्य व्यवस्थायामनित्यादिव्यवच्छेदस्यापि नित्यादिव्यवच्छेद्याद् व्यवच्छेदेन बुद्धिप्रतिभासभेदादेव भेदोऽस्तु किं व्यवच्छेदस्य व्यवच्छेद्यभेदाद् भेदकल्पनया ? तथैव भेदादू व्यवच्छेदस्य साध्यसाधनभावे शब्दत्वादेरपि बुद्धिप्रतिभासभेदेन भेदात् साधनभावः स्यात् । तथा च न कश्चित् प्रतिज्ञार्थैकदेशासिद्धो हेतुः स्यात् । न च शब्दाच्छब्दत्वस्य न प्रतिभासभेदः; अन्यथा धर्मिधर्मव्यवस्था ऽभावप्रसक्तेः । अथ प्रतिभासभेदेऽपि व्यवच्छेद्यभेदा- ५ भावात् शब्दत्वस्य प्रतिज्ञार्थैकदेशत्वम्, नन्वेवं भाव- द्रव्याभिधायिनोरभिधानयोरपर्यायता न स्यात् 'शब्द' शब्देन शब्दत्वस्याप्यभिधानात् ; अन्यथा प्रतिज्ञार्थैकदेशताऽपि न स्यात् । नाप्यापभेदादू व्यवच्छेदस्य भेदः, सत्वादावसत्त्वाद्यारोपस्याभावात् भावे वा सत्त्वमध्यनित्यत्ववत् साध्यमनुषज्येत । तत्साधने च तद्धेतोरसिद्ध विरुद्धाऽनैकान्तिकदोषत्रयानतिवृत्तिर्भवदभिप्रायेण । तन्न कृतकत्वाऽनित्यत्वयोः साध्यसाधनभावः भवदभिप्रायेण भेदाभावात् । अथ तयोः १० परमार्थतोऽभेदेऽपि निश्चयवशाद् गम्यगमकभाव इति कृतकत्वं कृतकत्वाध्यवसायिना निश्चयप्रत्ययेन भेदेन निश्चीयमानमनित्यत्वस्य गमकम्, ननु ययोर्वस्तुगतयोः कृतकत्वाऽनित्यत्वयोस्तादात्स्यप्रतिबन्धः न तयोर्निश्चय इति न गम्यगमकत्वम्, ययोश्च विकल्पबुद्धिप्रतिभासिनोर्भेदेन निश्चयः न तयोस्तादात्म्यनिबन्धनो गम्यगमकभावः, बुद्ध्यारूढयोरवस्तुत्वेन प्रतिबन्धाभावात् । अथ भेद एव तयोः कल्पना निर्मितः न पुनर्वस्तुस्वरूपमपि शब्दस्वलक्षणस्याकृतक नित्यव्यावृत्तनिरंशैकस्वभा- १५ वत्वात् तद्गतकृतकत्वादिभिन्नधर्माद्यध्यवसायिनश्च कृतकत्वादिविकल्पास्तथाभूतस्वलक्षणानुभवद्वारायात्वेन तत्प्रतिबद्धास्तेन तत्प्रतिभासिनोर्धर्मयोः साध्यसाधनभावः अव्यभिचारश्च पारम्पर्येण वस्तुप्रतिबन्धादुपपद्यत एव । स्यादेतत् येदि तथाभूतं स्वलक्षणं प्रत्यक्षत एवं सिद्धं स्यात्, न च तत् ततः सिद्धम् स्वप्नेऽपि निरंशक्षणिकानेकपरमाणुरूपस्य तस्यासंवेदनात् । यादृग्रूपं तु तत् प्रत्यक्ष प्रतिभाति कृतकत्वाद्यनेकधर्माध्यासितं तन्न निरंशम्, यतस्तदनुभवद्वारायातकृतकत्वादि- २० विकल्पप्रतिभासिनीं धर्माणामव्यभिचारात् साध्यसाधनभाव उपपद्येत । न चानुमानविकल्पत एव तस्य तथासिद्धिः, प्रतिबन्धा सिद्धावनुमानस्यैवाप्रवृत्तेः । सविकल्पक प्रत्यक्षस्य साध्यसाधनधर्मप्रतिबन्धग्राहकस्य धर्मिस्वरूप ग्राहकस्य च प्रामाण्याभ्युपगमे शब्दादिधर्मिणः कृतकत्वाद्यनेकधर्मात्मकस्य सिद्धत्वाद् विवादाभाव एव । भवतु वा परपक्षे साध्यसाधनभेदः तथापि न साध्यसाधनभावः, तयोर विनाभावसाधकप्रमाणाभावात् । २५१ २५ अथ 'निर्हेतुकत्वाद् विनाशस्य विनाशस्वभावनियतो भावः तद्भावे भावस्यान्यानपेक्षणात् अन्त्यकारणसामग्रीविशेषवत् स्वकार्योत्पादने' इत्यादिसाधन सद्भावात् कथं नाविनाभावः प्रकृतसाध्य-साधनयोः ? असदेतत् तयोरविनाभावसाधनम्, अनैकान्तिकत्वात् । तथा हि- अनपेक्षाणामपि शाल्यङ्करोत्पादने यवबीजादीनां तदुत्पादनसामग्रीसन्निधानावस्थायां तद्भावनियमाभावात् । अथ वीजादीनां तत्स्वभावाभावात् तत्स्वभावापेक्षयाऽनपेक्षत्वमसिद्धम् तर्हि विनाशस्वभावापेक्षत्वात् ३० कृतकानामपि केषाञ्चित् तत्स्वभावाभावादनपेक्षत्वमसिद्धं स्यात् । अथ हेतुस्वभावभेदाभावात् सर्व सामग्रीप्रभवाणां विनाशसिद्धेस्तंदन पेक्षत्वान्नानपेक्षत्वमसिद्धम्, ननु विचित्रशक्तयो हि सामग्रयो दृश्यन्ते तत्र काचित् स्यादपि सामग्री या नश्वरात्मानं जनयेत् शृङ्गादिकेव शरादिकम् । अथ १ - च्छेद्यस्य वा० बा० । २ - च्छेद्यस्य वा० बा० । ३ -भासभेदात् वा० बा० । ४- धनाभा-भां० मां० ।-धनः भावा० वा० हा० । ५-स्थाभा-भां० मां० वा० बा० हा० विना । ६- कत्वाव्यवसा-वा० बा० । ७-योस्तदात्मप्रति -आ० । ८-न्धनयोग वा० वा० ।-न्धनयोर्ग -आ० हा० वि० । ९ - स्तुरूपवा० बा० । १० - सिनो ध-आ० वि० वा० बा० ।-सिना ध हा० । ११ - यदि यथाभूतं आ० वि० । १२- तं न तन्निरस्यं (रंशं) वा० वा० हा ० । १३ - सिनाद्ध-भ० मां० । १४ " शाल्यङ्कुरोत्पादन सामग्रीसन्निधानावस्थायां तदुत्पादनेऽन्यानपेक्षाणामप्येषां तद्भावनियमाभावात् । द्वितीयपक्षे तु विशेष्यासिद्धो हेतुस्तत्स्वभावत्वे सत्यप्यन्यानपेक्षत्वासिद्धेः । न ह्यन्त्या कारणसामग्री स्वकार्योत्पादन खभावाऽपि द्वितीयक्षणानपेक्षा तदुत्पादयति । दहनस्वभावो वा वहिः करतला दिसंयोगानपेक्षो दाहं विदधाति । भागे विशेषणा सिद्धं च तत्स्वभावत्वे सत्यन्यानपेक्षत्वं शृङ्गोत्थशरादीनां क्षणिकस्वभावाभावात् " - प्रमेयक० पृ० १४५ प्र० पं० ५। १५- दकं सा-भां०] मां० विना । १६- धानाव्यव - वि० । १७ - जानां भ० मां० विना । १८ - वात् तत्स्वभावापेक्षत्वमसिद्धम् वि० । १९- स्तदान्यापेक्ष-वा० बा० हा ० । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ प्रथमे काण्डेविनाशित्वेनोपलब्धानां प्रतिक्षणं विनाशाभावे विनाशप्रतीतिरेव न स्यात्, द्वितीयेऽपि क्षणे भावस्थ स्थितौ सर्वदा स्थितिप्रसङ्गात्, द्विक्षणावस्थायित्वे हि द्वितीयेऽपि क्षणे क्षणद्वयस्थितिस्वभावत्वात्अतत्स्वभावत्वे स्वभावभेदेन क्षणिकत्वप्रसङ्गात्-तृतीयेऽपि क्षणेऽवस्थानं स्यात् तदाऽपि तत्स्वभावत्वात् चतुर्थेऽपि । एवमुत्तरेष्वपि क्षणेष्ववस्थानादासंसारं भावस्य स्थितेरविनाशाद् विनाश५प्रतीतिर्न स्यात। भवति च विनाशप्रतीतिः अतस्तत्प्रतीत्यन्यथाऽनुपपत्त्या प्रतिक्षणविनाशानुमान दृश्यात्मकस्य कार्यस्य अदृश्यात्मनोऽप्याद्ये क्षणे यः स्वभावः प्रागभूत्वा भवनलक्षणः स एव चेत् द्वितीयेऽपि क्षणे प्रागभूत्वा भावस्य भावात् क्षणिकत्वम् । अथ प्रथमे क्षणे जन्मैव न स्थितिः, द्वितीये क्षणे स्थितिरेव न जन्म तथापि जन्मजन्मिनोः स्थितिस्थितिमतोश्चाभेदात् तयोश्च व्यति रेकात प्रतिक्षणमनवस्थायित्वम् अपरापरकालसम्बन्धित्वस्य परस्परव्यतिरेकिणो भावस्वभावत्वाब १० प्रतिक्षणमनवस्थायित्वमिति सिद्धा विनाशं प्रत्यनपेक्षा भावस्य, असदेतत् ; स्वहेतोरेवानेकक्षणस्थायी भावो भूतक्षणेष्वभवन् , तिष्ठन् वर्तमानक्षणेषु, भविष्यत्क्षणेषु स्थास्यंश्चान्त्यपश्चिमे प्रथमक्षण एव जात इति कालेनाऽनागतादिनाऽसताऽपि विशेष्यत्वं भावस्याविरुद्धं कारणसामर्थ्यवत् द्वितीयेऽपि क्षणे न-अन्यथा कार्यकारणयोरेकदैवोत्पत्तरेकक्षणस्थायि जगत् स्यात्-इति प्रागुत्पत्तेरभूत्वा भावेऽपि भावस्य द्वितीयाँदिक्षणे न क्षणिकत्वम् । वस्तुतस्तु भावक्षणात् पूर्वक्षणेषु भूत्वा भावी स्वभावो १५भावस्य सर्वत्रानान्त्यक्षणेनापि (?) विशिष्टेऽनन्तरातीतक्षण एव, प्रथमक्षणे ताशस्वभावस्य भावे द्वितीयादिक्षणेऽपि न क्षणिकत्वम्, अक्षणिकत्वाविरोधात् भावक्षणात् पूर्वक्षणेष्वभूत्वा भावस्य द्वितीयादिक्षणेऽपि प्रथमक्षणस्वभावस्य भावे तत्स्वभावत्वेऽप्येकान्ततः क्षणिकत्वासम्भवात् । अथा. भूत्वा भावश्च प्रागसतः सत्त्वम् , तस्य द्वितीयेऽपि क्षणे भावान्न पूर्वापरक्षणयोः स्थित्युत्पत्तिमत्त्वेन स्वभावभेदाद् भावस्य क्षणिकत्वम् । नाप्यपरापरकालसम्बन्धोऽप्यपरापरखैभावो भवति परमाणु२० षट्कसम्बन्धेऽप्येकपरमाणुवत् । परमाणूनामय शलाकाकल्पत्वात् परस्परमसम्बन्धः इति चेत्, असदेतत् ; सम्बन्धे प्रतीयमाने असम्बन्धकल्पनाऽयोगात् । कृत्स्नैकदेशसम्बन्धविकल्पयोगादसम्बन्धः । तथाहि-सर्वात्मना परमाणूनामभिसम्बन्धेऽणुमात्रं पिण्डः स्यात् । एकदेशेनाभिसम्बन्धे त एकदेशाः परमाण्वात्मन आत्मभूताः, परभूता वा? आत्मभूताश्चेत्, नैकदेशेनाभिसम्बन्धः तेषा. मभावात् । परभूताश्चेत्, परमाणुभिरेकदेशानां सर्वात्मनाऽभिसम्बन्धेऽमेदादेकदेशैकदेशिनोरेक२५ देशाभावान्नैकदेशेनाभिसम्बन्धः परमाणूनाम् । एकदेशेनैकदेशानामेदेशिनाऽभिसम्बन्धश्चेत्, तदेकदेशानां ततो भेदाभेदकल्पनायां तदस्थः पर्यनुयोगोऽनवस्था च न च प्रकारान्तरं दृष्टं येनाणूनां सम्बन्धः स्यात् अतोऽनुपलभ्यमानस्यापि परमण्विसम्बन्धस्य कल्पना, असम्यगेतत्; असम्बन्धवत् सम्बन्धप्रकारान्तरस्यैवादृष्टस्यापि कल्पनीप्रसक्तेः । सर्वात्मनैकदेशेने वाऽ"नाम १-त्वे द्वि-आ० । २ क्षणाऽव-भां० मा० । ३ एवमुत्तरोत्तरेष्वपि क्षणेषु स्थानादा-भां० मा । ४ क्षणेषु स्थाना-वा० बा० हा०। ५-मानं दृश्यात्मनोऽप्या-आ० वि०। ६-व भावस्य न भां० मा० । ७-येऽपि क्ष-भां० मां०। ८-मवस्थायित्व-वा. बा०। ९-क्षणास्था-हा०। १०-क्षणेषु भ-वा. बा.। ११-श्चात्यपश्चि-वा. बा० ।-श्चात्पश्वि-आ० । १२-ना सता-आ० वि०। १३-रुद्धकार-वा. बा। १४-र्थ्यव द्वि-वि• विना ।-थ्यं वद्दि-आ० । १५-तीयपक्षे नान्यथा वा० बा०। १६-यादिलः क्ष-आ० । १७ सर्वत्र नान्त्य-भां. मां०। १८-शिष्टो अनन्त-वा० बा०। १९-दृशःस्व-वा. बा. हा० ।-दृशास्वआ० वि०। २०-कत्वाद्वि-आ० वि०। २१ अभूत्वा मां०। २२-म्बन्धेऽप्य-भां० म०। २३-स्वभावोभावो भ-भां. मां०। २४ "कथं च सम्बन्धे प्रतीयमानेऽप्रतीयमानस्याप्यसम्बन्धस्य कल्पना प्रतीतिविरोधात्"प्रमेयक. पृ० १५२ प्र. पं०४ ।। २५ "किंचासौ रूपश्लषः सर्वात्मनैकदेशेन वा स्यात् ? सर्वात्मना रूप लेषेऽणूनां पिण्डा(2)णुमात्रः स्यात् । एकदेशेन तच्छेषे किमेकदेशास्तस्यात्मभूताः परभूता वा ? आत्मभूताश्चेन्नैकदेशेन रूपश्लेषस्तदभावात् । परभूताश्चेत् तैरप्यणनां सर्वात्मनेकदेशेन वा रूपश्लेषे स एव पर्यनुयोगोऽनवस्था च स्यात्"-प्रमेयक० पृ. १४९ प्र. पं.४। २६-मात्रः पि-भां० मां०।-मात्र पि-वि०। २७-कदेशिनोऽभि-वा० बा०। २८-वस्था प-वा. बा. । २९-माणूसम्ब-आ० ।-माणुसम्ब-वि०। ३० तत्सम्ब-वा. बा. विना । ३१-रस्येवा-मां. मां. वा. बा. हा. विना। ३२-नायां प्र-भां० मा० वा. बा. हा. विना। ३३-नचाणू-आ० हा०। ३४-णूनां सम्ब-आ० वि०। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २५३ सम्बन्धात् सम्बन्धस्य च प्रतीतेः प्रकारान्तरेण एषां सम्बन्ध इति कल्पना युक्तियुक्तैव, प्रतीतिविरोधश्चैवं न स्यात् । अथ विकल्पिका प्रतीतिरारोपितगोचराऽसत्यपि सम्बन्धे सम्बन्धमादर्शयति, न तद्वशात् सम्बन्धव्यवस्था येन प्रतीतिविरोधः स्यादसम्बन्धवादिनः। कथं तर्हि सम्बन्धप्रतीतेवैशद्यम् विकल्पस्य वैशद्यानिप्टेः ? युगपट्टत्तेर्विकल्पाविकल्पयोरेकत्वाध्यवसायाद् वैशद्यभ्रमे सहभाविनोर्गोदर्शनाश्व विकल्पयोरप्येकत्वाध्यवसायाद् वैशद्यविभ्रमः स्यात् । अथासम्बद्धैरपि परमाणुमिः ५ सम्बन्धग्राहीन्द्रियज्ञानं तजन्यते ततोऽयमदोषः। नन्वेवमसम्बद्धानपि परमाणून् सम्बद्धानिवाध्यक्षबुद्धिरधिगच्छन्ती कथं भ्रान्ता प्रत्यक्षत्वमश्रुवीत ? प्रत्यक्षत्वे वा कथमतो न परमाणुसम्बन्ध सिद्धिः यतोऽसम्बन्धवादिनः प्रतीतिविरोधो न स्यात् ? परमाणूनामसम्बद्धानां जलधारणाद्यर्थक्रियाकारित्वानुपपत्तेः। अर्थक्रियाविरोधश्चासम्बन्धवादिनः वंशादीनां चैकदेशाकर्षणे तदपरदेशाकर्षणं च न स्यात्, १० वर्तमानविज्ञप्तिक्षणवत् पूर्वापरक्षणयोगेऽपि वा न स्वभावभेदः। अभावाव्यवधानलक्षणं हि नैरन्तर्यम् , तल्लक्षणश्च सम्बन्धः परेणाभ्युपगन्तव्य एव, तस्याऽभावे कार्योत्पत्तिरहेतुका स्यात् अनव. रतसत्त्वोपलम्भेनाभेदभ्रान्तिश्च न स्यात् केवलादेव सादृश्याद् भ्रान्तेरुत्पत्तावतिप्रसङ्गः सर्वत्र साहश्यात् तदुत्पत्तिप्रसक्तेः। सत्त्वोपलम्भश्चाभावाव्यवधानलक्षणमेव नैरन्तर्यम् तस्यास्तित्वे तल्लक्षणोऽस्त्येव सम्बन्धः। न चानेकाकारयोगेऽपि पीताद्यनेकाकारचित्रज्ञानवदेकान्ततो भेदः परार्थस्य १५ प्रतीयमानेऽभेदे एकान्तभेदानुपपत्तेः । अतः क्षणिकस्वभावापेक्षाऽक्षणिकभावसम्भवात् सम्भविनी भावानाम् । अथाऽनश्वरात्मनः क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् ततोऽर्थक्रियानिवृत्तौ तन्नियता सत्ताऽपि निवर्तते, न चासतः कार्यत्वमिति कार्यात्मनः सर्वस्य क्षणिकत्वादनपेक्षत्व सिद्धिरिति साध्य-साधनयोरविनाभावसिद्धिः । ननु किमनया परम्परयों अविनाभावस्य व्यापकानुपलब्धेरेव २० सिद्धिरस्तु? यतः प्रकारान्तराभावाद व्यापकानुपलब्धेः सत्त्वलक्षणं कृतकत्वमक्षणिकाद् व्यावतमानं क्षणिकेष्वेवावतिष्ठते वस्तुधर्मस्य सतो गत्यन्तराभावात् । भवत्वेवमेवेति चेत्, न; प्रकारान्तरसद्भावे कथमविनाभावस्य व्यापकानुपलब्धेरपि प्रसिद्धिः नित्याऽनित्यात्मकेऽपि भावे सति कृतकत्वस्य क्षणिकत्वेनैव व्यास्ययोगात् ? __ भागासिद्ध चानपेक्षत्वम् क्षणिकस्वभावापेक्षया कृतकानामपि केषाश्चिदुभयात्मकत्वेन क्षणि-२५ कस्वभावाभावात् । विपक्षाद् व्यापकानुपलब्धेावृत्तस्य हेतोरभीष्ट एव साध्याव्यभिचार इति चेत्, अक्षणिकवादिनोऽक्षणिकाव्यभिचारः किमेवं न स्यात् ? तेनापि शक्यमेवमभिधातुम्-क्रमयोगपद्याभ्यां क्षणिकेऽर्थक्रियाविरोधः । तथाहि-एकसामग्र्यन्तर्गतयुगपदनेककार्यकारिण एकस्य स्वभावभेदमन्तरेण कार्यस्व भेदायोगात् स्वभावभेदवाऽ(देचाऽ)नेकत्वप्रसङ्गान्नैकस्य युगपदनेककार्यकारित्वम् । कारणस्वभावशक्तिभेदमन्तरेणापि कार्यस्योपादानभेदाद् भेदमिच्छता शक्तिभेदोऽ-३० भ्युपगत एव उपादान-सहकारिभावेनानेककार्यजन्मन्येकस्य वस्तुक्षणस्योपयोगाभ्युपगमात् उपादानसहकारिभावयोश्च परस्परं भेदात् । न चैकत्रोपादानभाव एवान्यत्र सहकारिभावः, कारणक्षणस्य १-ना बुद्धियुक्तै-वा० बा० हा० ।-ना युक्तै-आ० वि०। २ अर्थ वि-वा० वा. हा०। ३ विनो गो-वा. बा. हा. विना। ४ अर्थ स-वा. बा०। ५-म्बन्धैरपि भां० मां० विना। ६-ज्ञानं न जन्यभामां-ज्ञानं जन्य-वा. बा. हा.। -म्बन्धान-भां० मां० वा. बा. हा. विना। ८-म्बन्धानि-भां० मां. वा. बा. हा. विना। ९-न्तीति क-भां. मां० । १. “अर्थक्रियाविरोधश्चाणूनामन्योन्यमसम्बन्धतो जलधारणाहरणाद्यर्थक्रियाकारित्वानुपपत्तेः। रजवंशदण्डादीनामेकदेशाकर्षणे तदन्याकर्षणं चासम्बन्धवादिनो न स्यात्"-प्रमेयक पृ० १५२ प्र. पं०५।। ११-वादिनां आ० वि० ।-वादिना चेक-वा० बा० । १२-णस्य स-वा. बा. हा०। १३-स. त्तोप-वा. बा० । १४-लादेवासा-वा० बा० । १५-क्षणोऽस्त्य सम्ब-आ• वि.। १६-म्भविना भावा. बा०। १७-वर्तेत न भां मा०। १८ न वा-वा० बा० । १९-या विना-बा. हा. विना। २०-स्य ततो वि०। २१-स्तरास-भां० मा० विना। २२-द्ध वा-मां. आ०। २३-र्यस्याभेदा-वा. बा। २४-गात् अभावभेद वा-भां. मां० ।-गात् स्वभावभेदे वा वि० सं०। २५-नभेदाभेदमि-वा. बा. हा० ।-नभेदमि-आ० वि० । १६-नानक-भां० मां० विना । २७-स्परभेदा-भां. मां। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ प्रथमे काण्डेतथाभ्युपगमे सहकार्युपादानभावयोरभेदात् तत्कारणं सहकारि उपादानं वा यतः प्रसज्येत या पादानं नै तर्युपादानभेदात् कार्यभेदः सर्व प्रत्युपादानत्वात् । सहकारित्वे चोपादानस्यैवाभावा कुतस्तद्भेदात् कार्यभेदः? एवमपि यदि क्षणस्यैकत्रोपादानभाव एवान्यत्र सहकारिभाव इति र शक्तिभेदस्तक्षणिकस्याप्येकदैककार्यकारित्वमेवान्यदाऽन्यकार्यकारित्वमिति क्रमानेककार्यकारिको ५न स्यात् शक्तिभेदः । न च पूर्वापरकार्यकारित्वंयोरभेदादुत्तरकार्यकारित्वस्य प्रागेव सम्भवाद तदैवोत्तरकार्योत्पत्तिः स्यादिति वक्तव्यम् , क्षणिकत्वेऽप्यस्य समानत्वात् । तथाहि कारणसत्ताकाले तदनन्तरभाविकार्यकारित्वस्य सद्भावात् तदैव तत्कार्योत्पत्तिः स्यादिति कार्य-कारणयोरेककालताप्रसक्तिः। न चोपादानभेदादेव कार्यस्य भेदः, 'गोदर्शनसमयेऽश्वं विकल्पयतो मनस्कारलक्षणो पादानभेदाभावेऽपि सविकल्पाऽविकल्पयोः परेण भेदाभ्युपगमात्, तद्भेदेऽपि च तदुत्तरकालभा१०विनोऽनुसन्धानस्याभेदान्नोपादानभेदाद् भेद एवोपादेयस्य । अतः शक्तिभेदादेव भेदः कार्यस्य, शक्तिश्च भिन्नाऽभिन्ना शक्तिमतः-तद्हणेऽप्यग्रहणाद् भिन्ना, कार्याऽन्यथानुपपत्त्या च तत्रैव प्रती. यमाना सा ततोऽभिन्ना। व्यतिरेके शक्तिमतः शक्तेः अंशक्तात् कार्यानुपपत्तेः। न च व्यतिरिक्तायाः शक्तेरेव कार्योत्पत्ति भविष्यति, शक्तिमतोऽकारकत्वेनावस्तुत्वप्रसङ्गात् । न च शक्तिमतोऽपि कारकत्वम्, तस्याऽसा१५मर्थ्यात् । न च शक्तियोगात् तस्य शक्तत्वम् , अशक्तस्य भिन्नशक्तियोगेऽपि शक्तत्वानुपर्पत्तेः शक्तेस्तत्रानुपयोगात्; तदुपयोगे वा शक्तितः शक्तिमत उत्पत्तिरभ्युपगता स्यात् । तथा च स्वहेतोरेव शक्तस्योत्पत्तिरभ्युपगन्तव्या किमर्थान्तरभूतशक्तिपरिकल्पनया? शक्तस्य च स्वहेतोरेव तस्योत्पत्ती किं शक्तियोगपरिकल्पनेन? नापि शक्तिमतः शक्तिरभिन्नैव शक्तिमद्रहणेऽपि अगृहीतत्वात् , शक्तिः गृहीतैव तद्हणे केव२० लमतत्फलसाधात् विप्रलैब्धो न तां व्यवस्यति, असदेतत् ; सर्वतो व्यावृत्तवस्तुवादिनां विप्रल म्भनिमित्तस्य वस्तुभूतसाधर्म्यस्याभावात् । न चैकपरामर्शप्रत्ययहेतुत्वेन साधर्म्यमभ्युपगन्तव्यम् , चक्षुरूपाऽऽलोक-मनस्कारेष्वपि तस्य प्रसक्तेः। तस्माद् भ्रान्तिनिमित्ताभावाद् यदि शक्तिरनुभूता तदा तथैव निश्चीयेत; अनिश्चयान्नानुभूतेत्यवसीयते, अतस्ततः कथञ्चिदमिन्नापि । न च भेदाभेद योर्विरोधः, अबाधिताकारप्रत्ययविषयत्वात् तयोः यथा परपक्षे ऐकक्षणस्य स्व-परकार्यकरणाऽक२५रणयोः । न चैकक्षणस्य स्वकार्यकरणमेव परकार्याकरणमित्यादि वक्तव्यम्, विहितोत्तरत्वात् । निरंशे च क्षणे शक्तिभेदादपि न कार्यस्य भेदः, शक्तिभेदाभावात् निरंशत्वादेव । तन्न क्षणिकस्याक्रमका रित्वम् । नापि क्रमैकार्यकारित्वं तस्य युक्तम्, द्वितीयक्षणे क्षणिकस्याभावात् । अनेककालभावि. कार्यकारित्वं ह्येकस्य क्रमकारित्वम् तच्चैकक्षणस्थायिनि भावे कथमुपद्येत ? क्रमवत्क्षणापेक्षया स्वतोऽक्रमस्यापि क्रमकारित्वे क्षणिकस्य अक्षणिकस्यापि क्रमवत्सहकार्यपेक्षयाऽक्रमस्यापि क्रमका३०रित्वं किं नेष्यते ? स्वतोऽक्षणिकस्याऽक्रमत्वेऽक्रमेणैव किं न कार्योत्पत्तिः अनाधेयातिशयस्याक्षणिकस्य कालान्तरसहकारिप्रतीक्षाऽयोगादिति ? न, अक्षणिकस्यानाधेयातिशयस्यापि कार्यकारित्वस्य कालान्तरनियतत्वात् क्षणिकैस्येव सहकारित्वस्य चैककार्यकारित्वलक्षणत्वाद् युक्ता सहकारिप्रत्ययापेक्षाऽक्षणिकस्य । क्षणिकस्यापि ह्यनतिशयत्वात् सहकारिणि कालान्तरे वा नातिशयाधायकत्वेना. १-दान का-वि०। २ न नापा-वा. बा०। ३-नस्य चाभा-वि०। ४-त् कृतस्त-वा. बा०। ५-दा कारि-आ० वि०। ६-णान्येका-वा० बा०। ७-त्वयोर्मे-भां० मां० वा. बा. हा० विना। ८-कत्वे वास्य समा-वा. बा. हा०। ९-लत्वप्र-भां० मां० ।-लप्र-वा. बा. हा०। १०-गोर्द-भां. मां। ११-यतो नमस्का-भां० मां० विना। १२-मतः तग्रहणाद्भि-भां० मां० विना। १३ व्यतिरेकिके शक्तिभां. मां० वा. बा. हा० विना । १४ असत्कार्या-वा. बा०। १५-स्तुप्रस-आ० वि०। १६-पत्तिः भां. मां०। १७-कस्य हे-वा. बा०। १८-व प्रशक्तिमहणेऽपि अगृहीतत्वा शक्तैः ऽगृहीतैव वा. बा.। १९-लब्धे न आ० । लब्धौ न वि०। २०-स्तुरूपसा-भां० मा०। २१-श्चीयते हा० विना। २२-भूते व्यव-आ० वि०। २३ अतः स्वतः कथ-वा. बा.। अतस्तत् कथ-भां० मां०। २४ एव लक्ष-वा० बा०। २५ प्र० पृ. पं०४ । २६-मपकारि-वा. बा. हा.। २७-मकारि-आ०। २८-पद्यते भां. मां. विना । २९-क्रमवत्वे-भां. मां० ।-क्रमाव क्र-आ० । ३०-कारितप्र-वा. बा.। ३१-कस्यैव सह-बाबा.हा.। ३२-स्वस्य वैक-आ० वा. बा० ।-त्वस्यैवैक-वि० । ३३-णस्यायुक्ता भां• मां। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २५५ पेक्षा-क्षणस्याविवेकात्-किन्तु कालान्तरमाव्येककार्यकारित्वेन सहकारिसहायस्यैव च सामर्थ्यात् अन्यथा सामग्री न ज (न ज) निका स्यात् , एकस्मादेव कार्योत्पत्तेः द्वितीयक्षणापेक्षा च न स्यात्, आद्यक्षण एव कार्यस्योत्पत्तेः। परस्परोपकारित्वं च सन्ताने एककार्यकारित्वमेव, क्षणात् सहकारिणः क्षणस्यापि कारिणोऽनुपकारात् सर्वत्रैकार्थकारित्वमेव सहकारित्वम्, अतोऽनुपकारिण्यपि सहकारिणि कालान्तरे वाऽपेक्षासम्भवात् क्रमवत्सहकार्यपेक्षयाऽक्रमस्यापि क्रमकारित्वं किं न ५ भवेत् ? न चानेकस्मात् क्रमेणानेककार्योत्पत्तौ क्रमकारित्वं युक्तम्, अतिप्रसङ्गात् । अक्षणिकेऽपि चानेककालभाविन्यस्य प्रसङ्गस्य समानत्वात् । न चैकत्वाध्यवसायेनैकस्यैव क्षणप्रबन्धस्य क्रमकारित्वं युक्तम्, भिन्नानामभेदाध्यवसाये निमित्ताभावात् । न सादृश्यं तन्निबन्धनम् , सर्वथा साहश्यस्य पूर्वोत्तरक्षणेष्वभावात् , भावे वोत्तरक्षणस्य सर्वथा पूर्वक्षणसदृशत्वात् पूर्वक्षणवत् पूर्वकालताप्रसक्तिरिति सर्वस्या(स्याऽपि) क्षणप्रबन्धस्यैककालत्वान्न कार्यकारणभावः । कथञ्चित् सादृश्येऽ-१० नेकान्तसिद्धिः, नामाद्यर्थयोरपि सादृश्यनिमित्तैकत्वाध्यवसायश्च स्यात्, ततोऽभेदाध्यवसाया. भावात् तदवस्थ एवातिप्रसङ्गः। तदेवं क्षणिके क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् ततोऽर्थक्रिया. लक्षणसत्त्वविशिष्टं कृतकत्वं निवर्तमानं गत्यन्तराभावादक्षणिकाद्यवकाशमिति साध्यविपर्ययसाधनाद् विरुद्धं स्यात् । अनैकान्तिकंच क्रम-योगपद्याभ्यामनर्थक्रियाकारिणोऽपि कार्यत्वसम्भवात् । तथाहि-शब्द-१५ विद्युत्-प्रदीपादिचरमक्षणानामन्यत्रानुपयोगेऽप्यवस्तुत्वेन नाकार्यत्वम् अशेषतत्सन्तानस्यावस्तुत्वप्रसङ्गात् । न च समानजातीयकार्याऽनारम्भेऽपि योगिविज्ञानलक्षणविजातीयकार्यका(क)रणान्न सर्वथाऽनर्थक्रियाकारित्वं शब्दादिचरमक्षणानाम्, सजातीयानुपयोगे विजातीयेऽपि तेषामनुपयोगात्, उपयोगे वा न रसादेरेककालस्य रूपादेरव्यभिचार्यनुमानं स्यात्, रूपादेरपि शब्दाद्यन्तक्षणवत् सजातीयकार्यानारम्भसम्भवाद् रूप-रसयोरेकसामग्र्यधीन त्वेन नियमेन कार्यद्वयारम्भ-२० कत्वेऽन्यत्रापि प्रसङ्गः योगिविज्ञान-शब्दाद्यन्तक्षणयोरपि समानकारणसामग्रीजन्यत्वात् । न चैकत्रानुपयोगिनश्चरमस्यान्यत्रोपयोगो युक्तः; अन्यथा ज्ञानान्तरप्रत्यक्षज्ञानवादिनोऽपि स्वज्ञानानुपयोगेऽपि ज्ञानस्यार्थज्ञाने उपयोगसम्भवात् स्वज्ञानजननासमर्थस्य ज्ञानस्यार्थज्ञानजनने सामर्थ्यसम्भवान्नैवार्थचिन्तनमुत्सीदेत् । ततोऽनर्थक्रियाकारिणोऽक्षणिकस्य यद्यवस्तुत्वेनाकार्यत्वम् चरमक्षणस्यापि तत् स्यात् सर्वथाऽनर्थक्रियाकारित्वात् । अथानर्थक्रियाकारिणोऽपि चरमक्षणस्य २५ कार्यत्वम् न तहक्षणिके कृतकत्वं क्षणिकवादिना प्रतिक्षेप्तव्यम् न्यायस्य समानत्वात् । ___ सन्दिग्धव्यतिरेकश्च 'कृतकत्वात्' इति हेतुः, विपक्षे वाधकप्रमाणाभावात् । व्यापकानुपलब्धिर्हि विपक्षे बाधकं प्रमाणम्, तस्याश्च विपक्षे क्षणिकत्वलक्षणे प्रत्यक्षवृत्तिर्बाधकं प्रमाणम् । न च विपक्षे क्षणिकत्वे प्रत्यक्षवृत्तिः सिद्धा, क्षणक्षयात्मनि प्रत्यक्षनिश्चिते क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियोपलब्धेरनिश्चयात्। ने चाक्षणिकस्यासत्त्वात् प्रकारान्तरस्य चाभावात् क्षणिकेष्वेवार्थक्रियो-३० पलब्धिरिति वक्तुं शक्यम्, अक्षणिकस्याद्याप्यभावासिद्धेः । व्यापकानुपलब्धेस्तदभावसिद्धिश्चेत्, न; विपक्षे प्रत्यक्षवृत्तौ व्यतिरेकसिद्धधानुपलब्धेरक्षणिकाभावगतिः तत्प्रतिपत्तौ च गत्यन्तराभावाद् विपक्षे प्रत्यक्षप्रवृत्तिरितीतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । अथाक्षणिकस्यासत्त्वसाधने सँत् (सन् विपक्षो भवति'न क्षणिकः, सति च विपक्षेऽध्यक्षवृत्तिरस्त्येव, नैतत् सारम्; यतो द्वैराश्ये कोऽपरो भावः क्षणिकव्यतिरिक्तः सन् योऽक्षणिकाभावसाधने विपक्षः स्यात् ? गत्यन्तरसद्भावे वा कथं प्रकारा-३५ १-कार्याकारि-वा. बा०। २-मग्री त जनिका वि० ।-मग्रीतः जनिका आ० ।-मग्री जनिका वा. बा. हा०। ३ स्यादेककार्यो-वा० बा०। ४-या क्रम-भां० मा. विना। ५ भावे चोत्तर-भां० । ६ सर्वस्य क्षण-वि० सं०। ७-यश्च ततो आ० वि०। ८ तदेतदेवं वा० बा० हा०। ९-क्षणं स-आ० भां० मा० ।-क्षणसत्त्वं निवर्त-हा०। १०-नत्वे नि-भां० मा० वा. बा. विना। ११ कार्यत्वया-आ. हा. वि० । कार्यतया-वा० बा०। १२-ज्ञानदर्शनवा-आ० हा० वि०। १३-पयोगि पिशा-वा. बा. हा.। -पयोगिज्ञा-आ० वि०। १४-त्वादि हे वा० वा०। १५ न वा-भां० मां० विना। १६-सिद्धानु-आ०। १७-लब्धे क्ष-बा. बा.। १८ सन् विपक्षे भव-वि० । सत्र विपक्षे भव-आ० । सन्धिक्षेपो भव-वा. बा०। १९-ति न क्षणिक सति वा. बा० ।-ति न क्षणिके सति वि० ।-ति तत्क्षणिके सति आ०। २० का सत् योऽक्ष-वि० । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - स्तराभावाद् व्यापकानुपलब्धेरक्षणिकाद् व्यावर्त्तमानं सत्त्वमनित्यत्वं व्याप्नुयात् तदन्यस्यापि सत्वात् ? अथ क्षणिक एव भावः प्रतिक्षणमनुपलक्षितविनाशः सत्वमात्रेणोपलक्ष्यमाणो विपक्षः, तत्र क्रम - यौगपद्याभ्यामर्थक्रियोपलब्धिरस्तीति । ननु कथं क्षणिकत्वेन विपक्षस्यानिश्चये तत्रैवार्थक्रियो५पलब्धिर्नान्यत्रेत्य वसीयते तयोर्विशेषानुपलक्षणात् अक्षणिकत्वप्रतीतेरुभयत्राविशेषात् ? पारिशेष्या दत्रैवार्थक्रियोपलब्धिश्चेत् कुतः पारिशेष्यसिद्धिः ? यदि व्यापकानुपलब्धे स्तदे तरेतराश्रयत्वं प्रतिपादितम् । अतो विपक्ष बाधकप्रमाणाभावात् सन्दिग्धव्यतिरेकः 'कृतकत्वात्' इति हेतुः । ने चाणि क्रम- यौगपद्याभ्यामर्थक्रियाकारिण्यर्थक्रियाविरोधः, तत्रैव क्रमाक्रमजन्मनां कार्याणां जननात् । अथाक्षणिकजन्मनां कार्याणामक्रमेणैव स्याज्जन्म तज्जनन स्वभावस्याक्षणिकस्य सर्वदा १० भावात् अविकारिणोऽन्यानपेक्षत्वादविरतिप्रसङ्गश्च अन्यथा द्वितीयादिक्षणेऽजननादव स्तुत्वप्रसक्तिः, तस्मिन्नपि क्षणेस व प्रसङ्गः तदैव तज्जन्मनां सर्वेषामप्युत्पत्तिः तदुत्पादन स्वभावस्य प्रागपि सद्भावादित्यतो न कथञ्चिदक्षणिकस्यार्थक्रिया, असदेतत् क्षणवदक्षणिकस्याविकारिणोऽपि न विरोधः सहकार्यपेक्षया, नहि क्षणस्यापि विकारोऽस्ति अपेक्षणीयात् तस्य विभागाभावात् विभाग वा क्षणस्य न क्षणः स्यात् । न वा विभागिनोऽपि क्षणस्य विकारित्वम्, तथाभ्युपगमेऽ१५ क्षणिकस्याप्यपेक्षणीयकृतो विकारोऽक्षणिकविरोधी न भवेत् । अविकारिणोऽपि क्षणस्य सापेक्षत्वे 'पराऽपेक्षाऽविकारिणोऽप्यपेक्षणीयादक्षणिकस्यापि स्यात् । ततश्च कथमक्षणिकस्याविकारिणोऽपेक्षणीयात् क्रम- यौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधो भवेत् ? सापेक्षत्वे हि यथाप्रत्ययं क्रम- यौगपद्याभ्यामर्थक्रियाकारित्वमक्षणिकस्य युक्तमेव । अत एव नाविच्छेदेन जनकः, सर्वदा सहकारिप्रत्ययसन्निधानयोगात् । २५६ केवलस्यैव सामर्थ्ये सहकार्यपेक्षया न किञ्चिदिति केवल एव कार्य कुर्यात् । असामर्थ्येऽन्यसाहित्येऽपि न सामर्थ्यम् अनाधेयातिशयत्वेन पूर्वापरस्वभाव परित्यागोपादानाभावात् उभयथापि व्यर्थमक्षणिकस्यार्थान्तरापेक्षणमिति चेत् क्षणिकेऽपि समानोऽयं प्रसङ्गः । तथाहि — क्षणयोरपि प्रत्येकमसामर्थ्य एककालयोः सहितयोरपि तयोरसामर्थ्यम् अप्रच्युताऽनुत्पन्नपूर्वापररूपत्वात् । समर्थयोरपि किं परस्परापेक्षयेति तयोरन्यतरत् केवलमेव जनयेत् नापरम्, तद्देशावस्थानेऽपि २५ वैयर्थ्यात् कार्यनिष्पत्तेरन्यतरेणैव कृतत्वात् । अतो न सामग्रीजनिका भवेत् । तथा चैकस्मादेव कार्यस्योत्तरोत्तर परिणामात्मतयोत्पत्तेर्न परिणामेऽपि कारणान्तरापेक्षा भवेत्, अनेपेक्षै ( क्ष्यै) व कारणान्तराणि परिणामान्तराणि जनयेत् केवलस्यैव सर्वत्र सामर्थ्यात् । असामर्थ्येऽविभागस्यान्येनापि न किञ्चित् क्रियत इत्यकिञ्चित्करोऽपि तदेककार्यकरणादन्यो यदि तदुपकार्यभ्युपगम्येत तदाऽक्षणिकस्याप्येवं किमुपकारि सहकारिकारणं न भवेत् ? परस्परमेकसामध्यधीन तोपकारस्त३० दुपकारवतोः क्षणयोः, तदेव स्वकार्योपयोगित्वं तयोरिति चेत्, तर्हि अन्त्यक्षणस्यापि स्वविषयसर्वज्ञज्ञानोत्पादनेनैकसामग्र्यधीनतालक्षण उपकारोऽस्तीति सजातीयकार्योपयोगित्वं किं न स्यात् ? अथैकंसामध्यधीन तोपकारित्वेऽप्यसामर्थ्यान्न सजातीयकार्योपयोगित्वं चेत्, नन्वेवमेकत्रा समर्थस्याम्यत्र योगिविज्ञाने स्वग्राहिणि कथं सामर्थ्यमिति वक्तव्यम् ? इत्थंभूतस्यापि सामर्थ्यं नैयायिकस्यापि स्वग्राहिज्ञानजननाऽसमर्थस्यार्थज्ञाने सामर्थ्यं किं न स्यात् - येना ( येन ना ) र्थचिन्तनमुत्सी देदिति २० ७ इन्यसा - हा० । मर्थ्ये इत्यसा १ पृ० २५५ पं० ३२ । २ त्वादिहै - भ० मां० । त्वादिहे वा० बा० । ३ न वा वा० बा० आ० हा० । ४ तथैव भां० म० । ५- दनाख वा० बा० । ६- तत् क्षणिकस्या - वा० वा० । -र्यपेक्षणे न भां० मां० । ८ क्षणकस्या भ० मां० वा० बा० विना । ९ क्षणिकस्य वि० । क्षणिस्य हा० । १०- क्षया कृतो वा० वा० । ११- कारो न भ-भां० मां० विना । १२- पि सर्वस्य सा वा० बा० । १३ -कस्य विवा० बा० हा० । कस्यो वि-आ० । १४- त्यये क्र- वा० वा० । १५ मध्ये आ० वि० । १६ क्षणेकयोरपि वा० वा० । १७- कसा - आ० हा ० वि० १८ मध्ये वा० बा० । १९-क्षयोपि तयो - वा० बा० ॥ २०-तरत्वात् के-आ० ।-तरत्वत् के वि० ।-तरथेत् के हा० । २१ - तू परं भां० मां० वा० बा० विना । २२ - क्षाभावात् भ० मां० । २३ - नपेक्षोष का वा० वा० । नपेक्षेव का - हा० । २४ तदेवकार्यकारणा-वा० वा० । २५ - कारिकरणं वा० बा० । २६ अन्तक्ष-वा० वा० । २७ - ज्ञानोपादानेनैक-भां० मां० वा० वा० । २८-त्वं न भ० मां० वा० बा० विना । २९- कस्य सा-वा० बा० । । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २५७ तस्य दूषणं स्यात्-इत्येकत्र समर्थस्यान्यत्रापि सामर्थ्यमभ्युपगन्तव्यम् अन्यथैकत्रापि न स्यादित्यवस्तुत्वं तस्य भवेत् । न च सर्वत्रेकसामग्र्यधीनतोपकारः, भिन्नदेशकारणकलापसमवधानहेतूनामेकसामग्र्यधीनतोपकाराभावेऽपि स्वकार्योपयोगोपलब्धेः । न च तेषामप्येकसामग्र्यधीनतोपकारः सम्भवति, अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां परस्परोत्पादने सामर्थ्यानवधारणात् तेपाम् ; नहि कुशूलादिस्थस्य बीजादेरुदकादिभावानुविधानेन प्रतिसन्धानमनुभूयते तथापि तत्कल्पनायामतिप्रसङ्गः ततो नैक-५ सामग्र्यधीनताप्युपकारः इत्यनपेक्षोऽनुपकारी स्यात्, अपेक्षत्वे अक्षणिकस्याप्यपेक्षाप्रतिक्षेपोऽयुक्तः स्यात् । अथ क्षणयोः पृथक् सामर्थ्य नास्ति, स्वहेतोः सहितयोरेवोत्पन्नयोः पृथगसमर्थयोरपि सामर्थ्यमभ्युपगम्यते, नन्वेवमक्षणिकस्यापि तदन्यसहायस्यैव सामर्थ्य किं नाभ्युपगम्यते ? स्वहेतुप्रतिनियमाद् युक्तं क्षणिके सामर्थ्यम् नाक्षणिक इति चेत्, नन्वेवमक्षणिकेऽपि स्वहेतुप्रतिनियमात् सामर्थ्य को विरोधः ? स्वहेतोस्तदन्यापेक्षया समर्थस्योत्पन्नस्याक्षणिकस्यान्यसन्निधिकाल एवाऽक्षेपेण १० कार्यकारित्वं स्यात् । अन्योनपेक्षत्वादपेक्षणीयस्यापि सन्निहितत्वादुत्तरोत्तरपरिणामस्याप्येकत्वेनासत्त्वादिति चेत्, न; कालान्तरभाविकार्यकारित्वलक्षणस्याक्षणिकस्यान्यानपेक्षत्वेऽपि कालान्तरांपेक्षत्वात् क्षणवदक्षेपेण न कार्योत्पादकत्वम् । यथा हि अन्यसहायस्याद्ये क्षणे समुत्पन्नस्य क्षणस्यान्यानपेक्षत्वेऽपि द्वितीयक्षणापेक्षत्वान्न प्रथमक्षण एव कार्यारम्भकत्वम् अन्यथा कार्य-कारणयोरेकदैवोत्पत्तेर्द्वितीयक्षणे जगद् वस्तुशून्यम् अक्षणिकं वा स्यात् तथाऽक्षणिकस्यापि कालान्तरापेक्ष-१५ त्वानोतरपरिणामापेक्षकार्यऽक्षपोत्पादकत्वम् । अथ प्रागकारकस्वभावस्य पश्चादपि कथं कारकत्वम् अक्षणिकस्य कारकाकारकावस्थाभेदादेकत्वहानेः? न; अस्यान्यत्रापि समानत्वात् । तथाहिआत्मसत्ताकालेऽकारकस्वभावस्यापि क्षणस्य द्वितीये क्षणे कारकत्वम् अन्यथैककालत्वं कार्यकारणयोः स्यादित्युक्तम् । न चैकदा कारकत्वमेवान्यदाऽकारकत्वं तत्रेति युक्तम्, अक्षणिकेऽप्यस्य समानत्वात् । नापि क्रमेणाऽक्षणिकस्यानेककार्यकारित्वमयुक्तं तत्स्वभावभेदेनैकत्वहानिप्रसक्तेरिति २० वकव्यम्, यतो नाक्षणिकस्योत्तरकालभाविकार्यकारित्वमन्य देककार्यकारित्वात् यतः स्वभावमेदादेकत्वं न स्यात् अक्रमेणानेककार्यकारि एकक्षणवत्, क्षणे ह्यकत्रोपादानभाव एवान्यत्र सहकारिभाव इत्यनेककार्यकारित्वेऽपि न स्वभावभेदः । पूर्वापरकार्यकारित्वयोरभेदेऽप्यक्षणिके न तद्भावभाविकायोणामक्रमेणोत्पत्तियुक्ता, तदुत्पत्तिप्रत्ययंवैकल्यात। तथाहि-यद यदोत्पित्सु काय तत तदैव तदुत्पत्तिप्रत्ययापेक्षयाँ, अक्षणिकस्य कर्तुं सामर्थ्य प्रागेवास्तीति न स्वभावभेदः अक्रमेण कार्योत्प-२५ त्तिर्वा । तदुक्तम् "यद् यदा कार्यमुत्पित्सु तत् तदोत्पादनात्मकम् । ___ कारणं शक्तिभेदेऽपि न भिन्नं क्षणिकं यथा" ॥ [ अथ विद्यमानोऽपि कार्यकारणभावोऽक्षणिके दरवसेयः व्यतिरेकाभावात् , असदेतत् उत्पत्तिमतोऽव्यापिनोऽक्षणिकस्योत्पत्तेः प्रागन्यत्र वा सतो देशकालव्यतिरेकात् कथं व्यतिरेकाभावः३० कालव्यापिनोऽपि च नित्यस्य देशव्यतिरेकात् सर्वत्र चायमेव व्यतिरेको न व्यतिरेकान्तरमस्ति । यतो न कश्चिदग्न्यादिकारणसामान्यव्यतिरेकी कालो विद्यते, कालव्यतिरेकिणो विशेषस्यैव कारण १-कार भि-भां० मां० वा०। २-स्परोपदाने वा० वा०। ३ कुसृला-वा० वा ।। ४ नैका सा-वा० बा०। ५-स्यापे-वि०। ६-पो युक्तः हा०वि०। ७-म्यते स्या स्व-वा० बा०। ८ नन्वक्ष-भां. मां० विना। ९-नस्याऽन्यसन्नि-वा० बा० । १०-कन्यमन्नि-आ० हा० वि०। ११-स्यादतोऽन्या-वा० बा । १२-न्यापक्ष-वा. बा०। १३-क्षत्वे का-आ० हा० वि०। १४-राक्षेपत्वा-वा० बा०। १५-स्यात्मानपेभा० मां. विना। १६ द्वितीयक्षणत्वान्न वा. बा०। १७-णापेक्षान्न आ० हा० वि०। १८-तीये क्ष-भां० मां०। १९-त्तरोत्तरा(र)परि-वा० बा०। २०-कार्यऽपेक्षोत्पाद-भां. मां। २१-आत्मन स-वा. बा। २२-स्या क्ष-आ. हा०वि०। २३ प्र. पृ. पं० १५। २४-न्यदैक-वा० बा० विना। २५-णांक-वा० बा। २६-यविकल्प्यात् आ० वि०।-यविकल्पात् हा०। २७ “यथैव हि क्षणिकं कारणं यद् यदा यत्र यथोत्पित्सु कार्य तत् तदा तत्र तथोत्पादयति, तस्यैवंविधसामर्थ्य सद्भावात् तत्सामर्थ्यापेक्षिणः कार्यस्य खकालनियमः सिध्यतीति कल्प्यते तथा नित्यमपि कारणं यद् यदा यत्र यथा फलमुत्पित्सु तत् तदा तत्र तथोपजनयति, तस्य तादृशसामर्थ्ययोगात् तत्सामर्थ्यापेक्षिणः फलस्य कालनियमः किं न कल्पयितुं शक्यः ?"-अष्टस० पृ. ९.५० ८। २८ तदेव भां० मा० । २९-याक्ष-भा०मा० वा.बा.विना।३०-ण वा कार्योत्पत्तिःतदु-भां० मां०।३१-त्रचासतोपदेश-भां. मां। स० त०३३ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ प्रथमे काण्डेत्वेऽपि सामान्योपादानम् सामान्य एव प्रतिबन्धावधारणाद् अन्यथा व्याप्त्यसिद्धिः। यतो यदेव वधारणकाले प्रतिबद्धस्य प्रतिबन्धविषयतयाऽवधार्यते तस्यैव कालव्यतिरेकोऽन्यो वा दर्शनीयः। न चास्ति तथाभूतस्य कालव्यतिरेक इति सर्वत्र देशव्यतिरेक एव युक्तः अस्य सर्वत्र सम्भवात् , व्यापिनोऽपि नित्यस्याव्यतिरेकात् सामर्थ्यानवधारणेऽपि तत्सम्भवाविरोधात् सन्दि५ग्धासिद्धोऽक्षर्णिको हेतुः स्यात् । अथान्वयादपि सामर्थ्य निश्चीयते न केवलादेव व्यतिरेकात् अतिप्रसङ्गात न चात्रान्वयोऽस्ति, प्रागविकलेऽपि कारणे कार्यानुत्पत्तेः अविकेले च कारणे कार्यमनु त्पन्नं तस्याजनकात्मकत्वं सूचयति, पश्चादपि जनकत्व विरोधात् तस्यैकस्वभावत्वात्, न; अस्य दूषणस्यान्यत्रापि समानत्वात् । तथाहि-प्रथमे क्षणेऽविकलेऽप्यन्त्यकारणसामग्री विशेष कार्यानुत्पत्तेरविशेषात् द्वितीयेऽपि क्षणे कार्योत्पत्तिविरोधः स्यात् । एवमन्वय-व्यतिरेकाभ्यामव्यापिनि १० नित्येऽक्षणिके च सामर्थ्य सिद्धेः असिद्धोऽर्था(र्थ)क्रियाविरोध इत्यर्थक्रियालक्षणसत्त्वविशिष्टं कृत कत्वं न निवर्तयितुमलम् । एतेन सामान्यस्य नित्यत्वादनर्थक्रियाकारित्वेन निरस्तमवस्तुत्वम् । न च सामान्यभाविनः कार्यस्यैवासम्भवात् तस्यानर्थक्रियाकारित्वम्, न नित्यत्वात् न हि जातिर्वाहदोहादिकार्यकारिणी अविशेषेऽपि तस्याः कार्यविशेषात् विशिष्टे वा तदेकत्वहाँनेरिति वक्तुं युक्तम्, यतो न वाह-दोहादिकमज्ञानरूपमेव कार्यम् यतस्तदभावादवस्तुत्वं स्यात् यावता विज्ञानलक्षणमपि १५कार्यमर्थानामस्तीति कथं तत्करणेऽपि सामान्यस्यावस्तुत्वम् शब्दाय॑न्तक्षणवत् ? अथ केवलादेव सामान्यात् तदाहिज्ञानसद्भावे तदेव तेन गृह्यते न कदाचिद् व्यक्तिरिति व्यक्तेस्तत्सम्बन्धित्वेनाग्रहणात् न व्यक्तौ ततः प्रवृत्तिः स्यात् , व्यक्तिसहायात् सामान्यात् तज्ज्ञानोत्पत्तौ कथं व्यक्तीनामेकज्ञाने प्रत्येकं तासामभावेऽपि सामान्यसद्भावभाविनि सामर्थ्यावधारणम् ? इत्युभयथापि ज्ञानकि याऽसम्भवात् कथं तथापि तद्वस्तुत्वम् ? असदेतत् ; व्यक्तीनामन्यतमव्यक्तिसव्यपेक्षस्यैव सामा२० न्यस्य तत्र सामर्थ्यात् कुविन्दादेरिवान्यतमवेमाऽपेक्षस्य, नहि प्रत्येकं वेमाऽभावे कुविन्दः पटं करोतीति कुविन्दादेव पटोत्पत्तिः, वेमरहितादनुत्पत्तेः । एवमेकैकव्यक्त्यपाये विज्ञानोत्पत्तावपि न केव. लमेव सामान्यं तद्धेतुः अन्यतमव्यक्त्यपेक्षस्यैव सामर्थ्यात्, अनुपकारकस्यानपेक्षणीयत्वात् । सामान्योपकारे ततस्तज्ज्ञानस्यैवोपकारः किं नेष्यते ? किं सामान्योपकारेण ? भिनानामेकार्थक्रिया न सम्भवतीति सामान्यमेकमिष्टम् , ताश्चेद् व्यक्तयो नानात्वेऽप्येक २५ सामान्यमुपकुर्वन्ति कस्तासां तज्ज्ञानेनापराधः कृतः यतस्तास्तज्ज्ञानमेव नोपकुर्वन्ति ? कार्यश्च तासां प्राप्तः सामान्यात्मा ततो लभ्यस्यातिशयस्यानन्तरत्वात्, अर्थान्तरत्वे सम्बन्धानुपपत्तिरित्यप्यचोयम्, यतो न भिन्नानामेकार्थक्रियाविरोधात् सामान्यमिष्टम् किन्तु भिन्नेष्वभिन्नाभा सात् साक्षादर्पिततदाकारा बुद्धिः सामान्यमन्तरेणेन्द्रियर्बुद्धिवन्न सम्भवतीत्यभिन्नसामान्यवादिभिः सामान्यमिष्टम् । यदि वा (चा)ऽऽधिपत्यमात्रेणेन्द्रियादीनां रूपत्वाभावेऽपि रूपज्ञानजननवदिहापि ३० व्यक्तीनामाधिपत्यमात्रेणोपयोगोऽभ्युपगम्यते तदा व्यक्तिष्विन्द्रियादिवदर्पिततदाकारा बुद्धिरभिनप्रतिभासिनी न स्यात् । न च स्वलक्षणस्य विकल्पबुद्धावप्रतिभासनात् नैवार्पिततदाकारा बुद्धि रभिन्नप्रतिभासिनीति वक्तव्यम्, 'विकल्पाः स्वलक्षणविषया न सन्ति' इत्यस्यासिद्धेः । स्पष्टाकार १ व्याप्यसि-वा. बा. हा० । व्याप्तसि-मां०। २ सिद्धेः भां० मां०। ३ न वा-मां० वि० विना । ४-वा विशेषात् आ० । ५-सिद्धः क्ष-भां० मां०। ६-णिकहेतुः आ० हा० वि०।-णिके हेतुः वा. बा.। ७ न वान्वयो-भां० मां० वा. बा० विना। ८-नुपपतेः वि०। ९-कल्पे च आ०। १०-रणका-भां. मां०। ११-कात्मतां भां० मां० । १२-धास्त-आ० हा० वि० । १३-त्पत्तिर-वा० बा०। १४ नित्ये क्षआ०। १५ सामर्थ्यासिद्धे सिद्धोऽर्थः क्रियाविशेष इत्यर्थ-आ. हा. वि० । सामर्थ्य सिद्धोऽर्थक्रियाविशेष इत्यर्थ-वा. बा० । १६-शिष्ट कृत-आ० । १७-कत्वं नि-भां. मां० विना । १८-स्यैव स-वा० बा०। १९-हानिरि-भां० मां। २०-द्यन्त्यक्ष-भां० मां०। २१ गृह्येत मां०। २२-नान्यग्रभां० मा०। २३-स्तु मस-भां० मां० विना। २४ प्रत्येकंमेवमा-वा० बा०। २५-वमेकैव्य-भां० मां० वा. बा० विना। २६-कारणस्या-आ. हा० वि०। २७ ततस्वज्ञा-वा० ०। २८-नस्येवो-वा० बा० विना। २९-रत्वे सम्बन्धा-आ० हा० वि०। ३०-द्यं ततो आ० हा० वि०। ३१-नासाभो साक्षादर्पित-वा. बा० ।-नाभासासापक्षादर्पित-आ० हा० ।-नाभासापक्षादर्पित-वि.। ३२-बुद्धिव न आ० हा० वि० । ३३ व्यक्तेष्विन्द्रिया-हा०। ३४-नी स्यात् वा० बा० । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २५९ विवेकात् ते तद्विषया न सम्भवन्तीति चेत्, दृश्यमपि स्पष्टाकार प्रतिक्षिपन् विकल्पेषु प्रतीत्यपलापित्वादयमुपेक्षामर्हतीति न भिन्नानामेकज्ञानोपकारशक्तिरेकसामान्योपकारशक्तिवदभ्युपगन्तुं युक्ता, न वा व्यक्तीनां सामान्योपकारशक्तिः सामान्यस्याऽनाधेयातिशयत्वात। कथं तर्हि तस्य तत्रापेक्षा इति चेत्, क्षणवत् तदेककार्यकारित्वेन; इति कथमेकसामान्योपकारबलात् सामान्यज्ञानोपकारकसामान्यवादी व्यक्तीनां साधयेत् व्यक्तिकार्यत्वं वा सामान्यस्येति ज्ञानलक्षणकार्य-५ कारिणः सामान्यस्य नावस्तुत्वम् । न वाऽभिधेयत्वात् सामान्यस्यावस्तुत्वम्, अस्य हेतोर्विपक्षाद् व्यावृत्त्यसिद्धेः । अथ वस्तुनोऽभिधेयत्वे साक्षाच्छंब्दादेव वस्तुनो ज्ञानादिन्द्रियसंहतेर्वैफल्यं स्यात्, न चैवम् , अतो विपक्षाद् व्यावृत्तिसिद्धिः प्रकृतहेतोः, असदेतत् ; शब्दाद् वस्तुनोऽस्पष्टाकारप्रतीतस्य स्पष्टाकारप्रतीत्यर्थमिन्द्रियसंहतिरुपजायते इति कथमिन्द्रियसंहतेवैफल्यम् यतो वस्तुनोऽनभिधेयत्वं सिद्ध्येत् ? एकस्यापि वस्तुनः स्पष्टास्पष्टप्रतिभासभेदः सामग्रीभेदात् दूरासन्नादिभेदेन स्पष्टा-१० स्पष्टप्रतिभासादिभेदवत् । एकस्मिन् वृक्षादिस्वलक्षणे स्पष्टेऽस्पष्टावभासिनोऽपि शाब्दज्ञानस्य काचा. भ्रकादिव्यवहितवस्तुप्रतिभासिज्ञानवत् दूरस्थवृक्षादिदर्शनवद् वा न भ्रान्तत्वम् । निदर्शनज्ञानस्यापि भ्रान्तत्वे प्रमाणद्वयानन्तर्भूतस्यास्यााँतवस्तुप्रकोश-संवादाभ्यां प्रमाणान्तरभावः स्यात् । न वा स्पष्टवक्षादिप्रतिभासस्य-- __ "ममैवं प्रतिभासो यो न संस्थानवर्जितः (?)। एवंमन्यत्र दृष्टत्वादनुमान तथा सति” ॥ [ इत्येवमनुमानेऽन्तर्भावान्न प्रमाणान्तरत्वम् अनुमानस्य च स्वप्रतिभासिन्यनर्थेऽर्थाध्यवसायेन प्रवृत्ते न्तत्वम् भ्रान्तस्यापि च तस्य पारम्पर्येण वस्तुप्रतिबन्धात् प्रामाण्यमिति वक्तव्यम् , निर्विकल्पकज्ञानप्रतिक्षेपप्रस्तावेनाऽस्य विचारयिष्यमाणत्वात् । न चासद्भूत-भविष्यतोरपि सामान्य निबन्धनशब्दप्रवृत्तेः सामान्यस्यावस्तुधर्मत्वेनावस्तुत्वम्, भूत-भविष्यत्कालसम्बन्धितया तयोर्भावात् । न २० चेदानीं तयोरभावावस्तुत्वम्, स्वज्ञानकालेऽध्यक्षविषयस्याप्यसम्भवादवस्तुत्वप्रसक्तेः। अथ यदि नामातीताऽनागतयोस्तत्कालसम्बन्धितया भावाद वस्तुत्वम् तथापि कथं कालविप्रकृष्टस्यातीतादेरसम्बन्धात् ध्वनिर्गमको भवेत् ? न; पारम्पZणातीतादिना तद्दर्शनद्वारायातस्य शब्दस्य प्रतिबन्धाद व्याप्तिग्रहणायाऽतीतादिविषयानुमानस्येव । न चैवमतिप्रसङ्गः, अनुमानेऽपि प्रसङ्गात् 'आसीदग्निः' इत्यादिश्रुतेः । अविसंवादोऽपि विशिष्टभस्मादिकार्यदर्शनोत्पन्नानुमानप्रवृत्तिलक्षणः२५ कैचिदस्त्येव, अनागतार्थविषये नु (तु) वाक्ये चन्द्रग्रहणोपदेशादौ प्रत्याप्रमाणे(प्रमाण)प्रवृत्तिलक्षणोऽनुभूयत एव, 'अभूद् राजा श्रीहर्षादिः' 'भविष्यति शङ्खश्चक्रवर्ती' इत्यादिश्रुतेर्न प्रतिबन्धाभाँवोऽविसंवादाभावेऽपि तदुपदेष्टस्तद्दर्शनस्याभावासिद्धेः । भावोऽपि कथं सिद्ध इति चेत्, अत एव संशयोऽस्तु, न चैतावता प्रतिबन्धाभावः सिद्ध्यति, संशयस्तु स्यात् यथा अनर्थित्वादप्रवृत्तस्य प्रथमोत्पन्नप्रत्यक्षे । न चैकत्र संशये सर्वत्र संशयः, प्रत्यक्षेऽपि प्रसङ्गात् । संशयितप्रतिबन्धात् तुम वाक्यात् संशयादपि प्रवृत्तिः यथा अनभ्यासावस्थायां प्रत्यक्षात्, अभ्यस्तविर्षे ये तु चन्द्रग्रहणो. पदेशादिनिश्चयादेव तृतीयादिप्रवृत्ताविवाध्यक्षात् । क्वचिद् विसंवादाच्छब्दस्य सर्वत्राप्रामाण्येऽध्य १-का तद्वि-आ. हा० ।-कात् तद्वि-वि० । २-यान्न भवन्ती चेत् वा० बा० ।-या न संभवन्ती चेत् आ० हा. वि.। ३-वत् तदपि कार्य-वा. वा०। ४-पकारशक्तिः सामान्य-आ० ।-पकारसामान्य-वा० बा०। ५-कारसामान्य-आ. हा०वि०। कारमत्सामान्य-वा० बा०। ६-वादि-आ० । ७-त्वं सा-आ० वि०। ८ नवाऽभिधेयात् आ० हा०। न चा-वि०। ९ व्यावृत्तिसि-वा० बा। १०-च्छब्दादेर्वस्तु-भां०मा०। ११-तीतस्पष्टा-भां० मां० विना। १२-स्थक्षणादिदर्श-वा० बा०। १३ वा भ्रान्त-आ० हा० वि। १४ ज्ञानवस्तु-वा. बा. मां० आ०। ज्ञानं वस्तु-हा०। १५-काशन सं-भां. मां १६ न च स्पष्ट-भां० मा० । न चा स्पष्ट-वि०। १७-वृक्षाणां प्र-वा० बा०। १८-वमत्र आ० हा० वि० । १९ तस्यापा-भां० मां०। २० न वा-भां० मां. वि. विना। २१-तस्य सादृश्यप्र-वा. बा०। २२-नस्यैव वा. बा । २३-क्वचिदेवाऽनाग-वा. बा०। २४-षये वा-भां० मां. विना। २५ वात्ये च-भां०। वाक्यचआ० । २६-क्षप्रामाणे वा० बा० । २७-भावो वि-भां० मा० विना । २८-षये च-वा. बा० । २९-शादिन्नि-भां० मां। ३०-यापि दि-भां० मां । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० प्रथमे काण्डे - क्षस्यापि कचिद् विसंवादात् सर्वत्राप्रामाण्यप्रसक्तिः । न चास्पष्टावभासित्वांत् भूतादेरवस्तुत्वम्, अध्यक्षविषयस्यापि कस्यचित् तथाभावेनावस्तुत्वप्रसक्तेः । तेन सामान्यस्यावस्तुत्वम् । अभ्युपगमवादेन च नित्यसामान्यपक्षभाविदोष परिहारः कृतः, परमार्थतस्तु नैकान्ततः किञ्चिद् वस्तु नित्यमनित्यं वा, बहि: नव-पुराणाद्यनेकक्रमभाविपर्यायाक्रान्तस्य समानाऽसमानपरिणामा५त्मकस्यैकस्य घटादेः अन्तश्च हर्ष - विषादाद्यनेकविवर्त्तात्मकस्य चैतन्यस्याबाधितप्रतीतिविषयस्य व्यवस्थितत्वात् । तैन्नैकान्ततः क्षणिकत्वं व्यक्तीनामिति सङ्केतव्यवहारकालव्यापकत्वस्य भावान तत्र शब्दसैङ्केतासम्भवः नापि सङ्केतवैयर्थ्यम् । अत एव 'उत्पन्नाऽनुत्पन्नेषु स्वलक्षणेषु शब्दसङ्केतस्याशक्यक्रियत्वात् स्वलक्षणस्य (स्या) वाच्यत्वम्' इति यदुक्तं तद् निरस्तम् । 'यो यत्कृते प्रत्ययेन प्रतिभासते' इत्यादिप्रयोगे 'न प्रतिभासते च शाब्दे प्रत्यये स्वलक्षणम्' १० इत्यसिद्धो हेतुः स्वलक्षणप्रतिभासस्य शाब्दे प्रत्यये व्यवस्थापितत्वात् दूरव्यवस्थितपादपग्राह्यध्यक्षप्रत्यय इवास्पष्टप्रतिभासेऽपि । अत एव - १५ तथा "अन्यदेवेन्द्रियग्राह्यं अन्यच्छब्दस्य गोचरः । शब्दात् प्रत्येति भिन्नाक्षो न तु प्रत्यक्षमीक्षते " ॥ [ "अन्यथैवाग्निसम्बन्धाद् दाहं दग्धोऽभिमन्यते । अन्यथा दाहशब्देन दाहार्थः सम्प्रतीयते” ॥ "शब्देनाव्यापृताक्षस्य बुद्धावप्रतिभासनात् । अर्थस्य दृष्टाविव तदनिर्देशस्य वेदकम्" ॥ [ ] ] इत्यादि शब्दबुद्धावस्पष्टप्रतिभासमुपलभ्य यदुच्यते परेण तन्निरस्तम्, प्रत्यक्षबुद्धावप्यस्पष्टस्वलक्षण२० प्रतिभासस्य प्रतिपादितत्वात् । यत्र हि विशेषोपसर्जनसामान्यप्रतिभासो ज्ञाने तद् अस्पष्टं व्यवहियते, यत्र च सामान्योपसर्जन विशेषप्रतिभासः सामग्रीविशेषांत् तदस्प (तत् स्प) ष्टमुच्यते । सामान्यविशेषात्मकत्वं च वस्तुनः प्रतिपादितम् प्रतिपादयिष्यते च यथावसरम् । तेन 'न चैकवस्तुनो रूपद्वयमस्ति, एकस्य द्वित्वविरोधात्' इत्यादि असङ्गतमेव । न चाशेषविशेषाध्यासितवस्तुप्रतिभासविकल्प( कल ) स्य शाब्दप्रत्ययस्यान्यथाभूते वस्तुन्यन्यथाभूतावभासित्वेन प्रवृत्तेर्भ्रान्तित्वम्, प्रत्यक्षस्यापि २५ तथाऽवभासित्वेन भ्रान्तत्वप्रसक्तेः; न ह्यस्मदादिप्रत्यक्षे क्षणिक-नैरात्म्याद्यशेषधर्माध्यासितसंख्योपेतघटाद्याकारपरिणतसमस्त परमाणु प्रतिभासः तथैवानिश्चयात् । अंत एव १-त्वात् कृतादे-वा० बा० । २ तत्र सा-भां० मां० विना । ३ - मार्थस्तु भां० मां० विना । ४ तत्रैकान्ततः क्षणिकत्व व्य-भां०] मां० । ५- सङ्केता नापि आ० हा ० वि० । ६ पृ० १७६ पं० ११।७ पृ० १७७ पं० ११।८ अन्यशब्द - भां०] मां० वा० बा० विना । ९ पृ० १७७ पं० ६ । अनेकान्तज० पृ० ४५ द्वि० पं० ४ अम० । आचार्यहरिभद्रेणायं श्लोक एवं व्याख्यातः - " 'अन्यदेव' इत्यादि, प्रत्यक्षमिति योगः, अन्यदेव स्वलक्षणमिन्द्रियग्राह्यम् अन्यत् सामान्यलक्षणं शब्दस्य गोचरः, कथमेतदेवम् ? इत्याह- ' शब्दात् प्रत्येति भिन्नाशः " सामान्यलक्षणाध्यवसायेन 'न तु प्रत्यक्षमीक्षते' वस्तु । अनेकान्तज० टी० लि० प्र० पृ० ६० द्वि० पं० ७ तथा अनेकान्तज० टी० पृ० १७१ पं० २७। शास्त्रवा • स्त० ११ श्लो० २३ । तत्र चोपाध्याययशोविजयेनाऽपि व्याख्यातोऽयं श्लोकः । न्यायकुमुद० लि० प्र० पृ० २८० द्वि० पं० १२ । १० पृ० १७७ पं० ९ तथा ३३-३४ । अनेकान्तज० पृ० ४५ द्वि० पं० ४ अम० । व्याख्या चास्यैवम् -"'अन्यथा दाहसम्बन्धात्' स्वलक्षणानुभवेन 'दाहं दग्धोऽभिमन्यते' पुमान् 'अन्यथा दाहशब्देन ' सामान्यलक्षणाध्यवसायेन 'दाहार्थः संप्रतीयते' अनेकान्तज० टी० लि० प्र० पृ० ६० द्वि० पं० ८ शास्त्रवा० स्त० ११ श्लो० २४ व्याख्याऽप्यस्य यशोविजयकृता द्रष्टव्या । न्यायकुमुद० लि० प्र० पृ० २८० द्वि० पं० १२ । ११ पण्डितरत्नकीर्तिना खापोह सिद्धिप्रकरणे 'यच्छास्त्रम्' इति निर्दिश्य समुद्धृतोऽयं श्लोकः पादत्रिकप्रमाणः-अपोहसि० पृ० ६ पं० १६ । १२ व्यावृताक्षस्य हा० । व्यावृत्ताक्षस्य आ० वि० । “व्यापृताख्यस्य” अपोहसि० । १३ - षात् त ष्ट - वा० बा० । षाध्यासितवस्तुप्रतिभासवैकल्यादप्यस्य तथात्वमाशङ्कनीयम्, प्रत्यक्षेऽपि प्र० पं० १३ । - ' विकलस्य' वि० सं० १६ - भ्रान्तित्वं-आ० । १७ भ्रान्तित्व-आ० । भां० मां० वा० बा० विना । १९ एतदेव अक्षरशः शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० ४१४ द्वि० पं० १ । १४ पृ० १७७ पं० १५ । १५ " न चाशेषविशेतथात्वप्रसक्तेः " - शास्त्र वा ० स्याद्वादक० पृ० ४१४ १८ क्षणिके नैरा Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २६१ "मति-श्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु" [ तत्त्वार्थ० अ० १ सू० २७ ] इति समानविषयत्वमध्यक्ष-शाब्दयोः तत्त्वार्थसूत्रकृता प्रतिपादितम् । यदा च प्रधानोपसर्जनभावेनानेकान्तात्मकं वस्तु प्रमाणविषयस्तदा यत्रैव सङ्केतः प्रत्यक्षविषये स एव सामान्य-विशेषात्मकः शब्दार्थ इति केवलस्वलक्षण-जाति-तद्योग-जातिमत्-पदार्थ-बुद्धितदाकारपेक्षभाविनो दोषा अनास्पदा एव; न ह्येकान्तपक्षभाविदोषाः अनेकान्तवादिनं समाश्लिष्यन्ति । अस्त्यर्थादि-५ शब्दार्थपक्षेष्वपि सामान्य-विशेषैकान्तपक्षसमाश्रयणात् य, दूषणम् तदप्यस्मत्पक्षासङ्गतमेव उक्तन्यायात् । ___ यदपि 'विजातीयव्यावृत्तान्यपदार्थानाश्रित्यानुभवादिक्रमेण यदुत्पन्नं विकल्पकं ज्ञानं तत्र यत् प्रतिभाति ज्ञानात्मभूतं विजातीयव्यावृत्तपदार्थाकारतयाध्यवसितमर्थप्रतिबिम्बकं तत्र 'अन्यापोहः' इति संज्ञा' तत्रापि विजातीयव्यावृत्तपदार्थानुभवद्वारेण शाब्दं विज्ञानं तथाभूतपदार्थाध्यवसाय्यु-१० त्पद्यते इत्यत्राविसंवाद एव, किन्तु तत् तथाभूतपारमार्थिकार्थग्राह्यभ्युपगन्तव्यम् अध्यवसायस्य ग्रहणरूपत्वात् । विजातीयव्यावृत्तेस्तु समानपरिणतिरूपतया वस्तुधर्मत्वेन व्यवस्थापितत्वाद् अन्यापोहशब्दवाच्यताऽपि तत्राऽऽसज्यमाना नास्मन्मतक्षतिमावहति, सङ्केतविशेषसव्यपेक्षस्य तच्छब्दस्य तत्रापि प्रवृत्त्यविरोधात् । यञ्च तत्प्रतिबिम्बकं शब्देन जन्यमानत्वात् तस्य कार्यमेव इति कार्यकारणभाव एव वाच्यवा-१५ चकभावः' तदसङ्गतम् ; शब्दाद् विशिष्टसङ्केतसव्यपेक्षाद् बाह्यार्थप्रतिपत्तेस्तत्पूर्वकप्रवृत्त्यादिव्यवहारस्थापि तत्रैव भावात् स एव बाह्यः शब्दार्थों युक्तः न तु विकल्पप्रतिबिम्बकमात्रम् , शब्दात् तस्य वाच्यतया(याs)प्रतिपत्तेः । तथाभूतशब्दात् तथाभूतपारमार्थिकबाह्यार्थाध्यवसायि ज्ञानमुत्पद्यत इत्यत्राविवाद एव। __ यच्चै 'प्रतिबिम्बस्य मुख्यमन्यापोहत्वं विजातीयव्यावृत्तस्वलक्षणस्यान्यव्यावृत्तेश्चौपचारिकम्'२० इति, तदप्यसङ्गतम्; शब्दवाच्यस्य वस्तुस्वरूपस्य यद्यपोहत्वं तदाऽनन्तधर्मात्मके वस्तुन्युपसर्जनीकृतविशेषस्य पारमार्थिकवस्त्वात्मकसामान्यधर्मकलापस्य शब्दवाच्यत्वात् कथमॆन्यव्यावृ क्षणस्योपचारेणापोहत्वम् ? तुच्छेस्वरूपायाश्च व्यावृत्तेः अन्यव्यावृत्तविकल्पाकारस्य चापोहत्वे सामान्य-सामानाधिकरण्य-विशेषणविशेष्यभावादिव्यवहारश्च सर्व एवाघटमानकः । न च सामान्याभावात् सामान्य-२५ व्यवहारस्याऽघटमानत्वं न दोषायेति वक्तव्यम्, तत्सद्भावस्य प्रसाधितत्वात् । सामानाधिकरण्यव्यवहारश्च धर्मद्वययुक्तस्यैकस्य धर्मिणो बहिर्भूतस्याऽसद्भावादयुक्तः स्यात् । न च बाह्यार्थासंस्पर्शि १ सर्वार्थसिद्धि-राजवार्तिक-श्लोकवार्तिकप्रभृतिषु जैनदिगम्बरसंप्रदायसम्मतेषु तत्त्वार्थसूत्रव्याख्यापुस्तकेषु एतादृशमेव सूत्रमेतत् । श्वेताम्बरीयोपाध्याययशोविजयकृतशास्त्रवार्तासमुच्चयव्याख्यापुस्तकेऽपि अस्य सूत्रस्य एवमेव पाठ इति तु प्रदर्शितम् । जैनश्वेताम्बरसंप्रदायसम्मते सिद्धसेनसूरिकृततत्त्वार्थभाष्यव्याख्यापुस्तके (अम०), यशोविजयोपाध्यायकृततत्त्वार्थभाष्यव्याख्यापुस्तके (अम०) तत्त्वार्थसूत्रपुस्तके (मेसा०) तत्त्वार्थभाष्योपेतपुस्तके च (कल०) सूत्रपाठे 'सर्वदव्येषु' इत्येवमधिकं 'सर्व' पदं दृश्यते। २ यदि च वा० बा०। ३ पृ. १७४ पं० २३। ४-माश्रिष्यन्ति वा० बा०।माश्रयिष्यन्ति आ० हा० वि०। ५ पृ. १७९ पं० १२-पृ० १८२ पं० ६ । ६-माश्रयात् य-आ०।-माश्रयणे यवा० बा०।-माश्रयेण य-भ० मां०। ७ पृ. १८३ पं० ४। ८ पृ० २०२ पं०३-७। प्रमेयक. पृ० १२८ प्र. पं०९। ९-नुभावादि-वा. बा। १०-स्पन्नवि-वा. बा०। ११-वृत्तिप-भां० मा०।-वृतं प-वि०। १२-प्रतिबन्धक वा. बा०। १३ प्रमेयक. पृ० १२८ द्वि. पं. १। १४-साय्युपपद्य-भां• मां। १५-त्रापिसं-वि० । १६-क्षस्य तत्रापि आ० हा०वि० ।-क्षस्य तच्छस्य तत्रापि वा० बा०। १७ पृ. २०३ पं०६। प्रमेयक. पृ. १२८ द्वि०पं०३। १८ तस्य कार्यकारणभाव-आ० हा०वि०। १९ प्रमेयक० पृ. १२८ द्वि. पं. ४ । २० "शब्दात् तस्य वाच्यतयाऽप्रतीतेः"-प्रमेयक. पृ० १२८ द्वि. पं० ५। २१ पृ. २०३ पं० १४। २२-बिम्बकस्य भां० म०। प्रमेयक पृ० १२८ द्वि० ५० ५। २३-तीयव्यावृत्तेश्चौप-आ० हा०वि०। २४ “संबन्धिन्याः" प्रमेयक.टि. पृ० १२८ द्वि. पं. १४ । २५-स्तुत्वस्व-आ. हा० वि० । २६-मन्यथावृत्त-वा. बा. । -मन्यथाव्यावृत्त-आ. हा०वि०मा०।-'मन्यथा व्यावृत्त-' भां० सं०। २७-च्छरू-भां. मां. वा. बा. विना। २८-वात् सामानव्य-वा. बा०।-वात् समानव्य-आ. हा०वि०। २९ नबा-वा० बा। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ प्रथमे काण्डेविकल्पप्रतिबिम्बकेऽयं युक्तः । अथ धर्मद्वयानुरक्तकर्मिविकल्पेऽप्ययमुपपत्स्यते, अयुक्तमेतद। तथाभूतविकल्पाभ्युपगमे एकान्तवा दिनामनेकाकारैकविकल्पाभ्युपगमादनेकान्तवादप्रसक्तेः ।। चाऽतात्त्विकमनेकत्वमिति नायं दोषः, तथाभ्युपगमे ज्ञानात्मन्यविद्यमानस्यानेकत्वस्य स्वसंवेदनेनापरिच्छेदप्रसक्तेः; वेदने वा स्वसंवेदनस्याप्रत्यक्षत्वप्रसङ्गः। अविद्यमानाकारग्राहित्वेन सदसतो५रेकत्वाऽनेकत्वयोनितादात्म्यविरोधादनात्मभूतं च वैचित्र्यं कथमतदाकारं ज्ञानवेदनं साकारक्षाकवादिनां परिच्छिनत्ति ? परिच्छेदे वा परिच्छेदसत्तायाः सर्वत्राऽविशेषात् सर्वैकवेदनप्रसक्तिः । निराकारविज्ञानाभ्युपगमे च बहिरर्थसिद्धेर्विज्ञानवादानवतारप्रसङ्गः। अथ तदपि साकारमभ्युपगम्यते तदा तत्रापि कथमनेकाकारमेकम् ? अनेकत्व स्याऽतात्त्विकत्वे पुनरपि स एव प्रसङ्गोऽनकस्थाकारी, पारमार्थिकानेकाकारज्ञानाभ्युपगमे स्यात् संवेदनात् तस्य सिद्धिः किन्त्वनेकान्तवादोऽ१० भ्युपगतः स्यात् । अपि च, अनेकत्वस्य वुद्धावप्यतात्त्विकत्वाभ्युपगमेऽन्तर्बहिरविद्यमानस्य तैख वैशद्यावभासिता न स्यात्, अर्थनिराकृतये द्वैरूप्यसाधनं च बुद्धेर्निराकारत्वादसङ्गतमेव स्यात् । अथ पूर्वमर्थ निराकृतये तस्या द्वैरूप्यसाधनम् पश्चादेकस्यानेकत्वायोगात् द्वैरूप्यस्यापि निराकरणाददोषः, असदेतत्; पूर्वमेव द्वैरूप्यप्रतिघातिन्यायोपनिपातसम्भवात् । अथैतद्दोषपरिजिहीर्षया वैचित्र्यं बुद्धिमाश्लिष्यतीत्यभ्युपगम्यते, ननु बहिर्भूतेनाऽर्थेन वैचित्र्यस्य कोऽपराधः कृतः यत् १५ तन्नास्कन्दतीति । अथैकत्व-नानात्वयोर्विरोध एवापराधः, नन्वयं विज्ञानेऽपि समानः। न च वुद्धेर्नीलादिप्रतिभासानामेकयोगक्षेमत्वात् तदेकत्वम्, एकयोगक्षेमत्वेन स्वभावभेदानिरीकरणाद सहभाविनां चित्त-चैत्तानां नानात्वेऽप्येकयोगक्षेमत्वस्य भावात् । अथ चित्तादावभिन्नयोगक्षेमस्य नियमवतोऽभावः असहभाविनां तेषामभिन्नयोगक्षेमत्वस्याभावात् , न; नीलादिप्रतिभासेष्वपि नाना श्रयेषु तस्याभावात् । अभिन्नाश्रयेष्वभिन्नयोगक्षेमनियमसद्भावो नीलादिप्रतिभासेविति चेत्, न; २० सहभाविचित्त-चैत्तेष्वप्यस्य समानत्वात् सहभाविनां तेषां तथैवानुभवात् । सर्वथैकत्वं च नीलादि प्रतिभासानामध्यक्षविरुद्धम् प्रतिभासमेदाद् मेदसिद्धेः। न च भ्रान्तोऽयं भेदप्रतिभासः अबाधि तत्वात् । न चाऽमिन्नयोगक्षेमत्वादिति बाधकम्, अस्याऽसाध्याव्यतिरेकिंणोऽयथोक्तलक्षणत्वात् प्रतीयमानयोश्चैकत्वानेकत्वयोः को विरोधः? न चेयं प्रतीतिर्मिथ्या बाधकाभावात् । न च विरोध एवास्या बाधकः विरोधासिद्धेरितरेतराश्रयत्वात् । तथाहि-अस्याः प्रतीतेर्बाधायां विरोधः २५ सिद्ध्यति, तत्सिद्धौ चातस्तस्या बाधेति परिस्फुटमितरेतराश्रयत्वम् । न च प्रतीतेरन्यदस्ति विरोध साधकमित्यस्तु बहिरेवं सामानाधिकरण्यव्यवहारः, तथैवास्योपलब्धेः। } अथ विकल्पस्यायं विभ्रमः बहिः सामानाधिकरण्यादेरयोगात् नानाफलेयोनीलोत्पलादिशब्द-विकल्पयोरेकस्मिन्नर्थे वृत्तिविरोधात्, धर्म-धर्मिणोरेकान्तभेदाऽभेदयोर्गत्यन्तराभावात्-तयोश्चाव्यतिरेकाभ्युपगमे शब्देन विकल्पेन चैकेन स्वलक्षणस्य विषयीकरणेऽशेषस्वभावाक्षपादपरस्य शब्दादेस्तदेकवृत्तेस्तैद्भिनफ३० लत्वाभावात् तद्भेदे सकृद् ग्रहणस्यावश्यंभावित्वात् तल्लक्षणत्वादभेदस्य अन्यथा गृहीतागृहीतयोर्भेदप्रसक्तेः, धर्म-धर्मिणो दपक्षेऽपि घट-पटादिशब्दवदेकत्रावृत्तेर्भवेदुपाधिद्वारेणैकत्रोपाधिमति शब्दविकल्पयोः प्रवृत्तिः यदि तयोरुपकार्योपकारकभावः स्यात् तदभावे पारतच्यासिद्धेः तयोरुपाध्यु १-धर्मिकल्पे वा० वा.। २-कल्प्येऽप्य-भां० मां०३-मनेकमनेकत्वमिति भां० ।-मनेकमिति वा० बा। ४-सङ्गो वि-भां० मां० विना। ५-रोधना-आ. हा०वि०। ६-भूतं वै-आ० । ७ वा सत्तायाः वा. बा०। ८ सर्वकावे-भां० आ० हा०वि०। ९-दनाप्र-आ०। १०-गमे स्या सं-आ० हा०वि०।-गमे तसंवा० वा०। ११-नान् तस्य भां० मां०। १२-कस्य आ० हा० वि०।-कत्वे कस्य वा०या०। १३-तस्या वै-वा. बा०। १४-तस्याः द्वै-वा० बा०। १५-व्यस्योपरा-आ० हा० वि०। १६-धः, नन्वयं वा० बा०। १५-राक्रमणात् वा० बा० । १८-मभवतो-आ० हा० वि० । १९वात् तन्नी-वि०।-चात् त नी-हा०।-वात्पनी-वा. बा। २०-भागेपुपि वा० बा०।-भासेप्यपि मां-भासेद्यवि आ० । २१-भातेवि-भां० मां० । २२-चित्ताचैतेवा. बा० । २३-णो यथोक्त-भां० मां०। २४-वास्याः बा-भां. मां -वा स्यात् बा-आ.। २५-त्यवस्तु वा. बा०। २६-वहि सा-आ० हा० वि०। २७-हारस्यैवास्योप-वा० बा० । २८-लयो नी-वा. बा. विना । २९-तयोश्च व्य-आ०। ३०-चापक्षेपा-भां० मां -वाक्षवावप-वा. बा०। ३१-पावप-आ• हा. वि०। ३२ शब्दादेक-वा० बा । ३३-स्तद्भिनाफलभावात् वा० बा०। ३४ तद्भद स-भां• मा० विना । ३५-धर्मिणो पक्षेपि वा. बा.। ३६ यदेत-आ.। ३७ तदाभावे मा०। ३८-तमयसि-वा० बा० । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा। २६३ पाधिमद्भावाभावान्न तद्वारेणापि तयोस्तद्वति वृत्तियुक्ता तयोरुपकार्योपकारकभावे उपाध्युपंकारिका शक्तिरुपाधिमतो यद्यभिन्ना तदैकोपाधिद्वारेणाप्युपाधिमतः प्रतिपत्ती सर्वोपाध्युपकारकम्वरूपस्यैव तस्य निश्चयापकार्यस्योपाधिकलापस्याप्यशेषस्य निश्चयप्रसक्तिः उपकारकनिर्णीतरुपकार्यनिश्चयनान्तरीयकत्वात् उपाधिमतो मेदे तच्छक्तेः सम्बन्धाभावः ततस्तासामनुपकारात् उपकारे वा तदुपकारशक्तीनामप्युपाधिमतो भेदाभेदकल्पनायामनवस्था सर्वात्मना ग्रहणं च प्रसज्यते इति पत- ५ दप्ययुक्तम् । यतः स्यादभेदे सकृद् ग्रहणं यदि तल्लक्षणोऽभेदः स्यात् यावता नाभेदस्यतलक्षणम् घटाचाकारपरिणतेष्वनेकपरमाणुषु सकृद् ग्रहणस्य भावेनाऽतिव्यापकत्वात् । अव्यापकं चैतत् अभेदेऽपि सत्त्वाऽनित्यत्वयोरभावात्, भावे वा सत्त्वप्रतिपत्तो क्षणक्षयस्यापि प्रतिपत्तेरनुमानवैफल्यप्रसक्तिः यथाऽनुभवं निश्चयोत्पत्तेः सत्त्ववत् क्षणिकत्वस्यापि तदैव निश्चयात् । अनादिभवाभ्यस्ताऽक्षणिकादिवासनाजनितमन्दबुद्धेः पूर्वोत्तरक्षणयोर्विवेकनिश्चयाभावात् स्वलक्षणस्य सर्वात्मनानुभवेनाधि-१० गमेऽपि क्षणिकत्वे निश्चयानुत्पत्तेरनुमानस्य साफल्यमिति चेत्, नः घट-कपालक्षणयोग्यविवेकनिश्चयप्रसक्तेः। अथात्र सदृशापरापरोत्पत्तेर्विप्रलम्भनिमित्तस्याभावान्न प्रसङ्गस्तर्हि इस्ववर्णद्वयोचारणे तत्प्रसक्तिः। तयोरनानन्तर्याद् वर्णद्वयान्तराले सत्त्वोपलम्भाभावात् तदप्रसङ्गे लघुवृत्तिर्विभ्रमनिमित्तं स्यात्-अन्यथा संयुक्ताङ्गुल्योरप्यविवेकनिश्चयः स्यात्-देशनैरन्तर्य-सादृश्ययोर्भावात् । सादृश्यनिमित्ता च न सर्वदा भ्रान्तिः स्यात्, उपलभ्यते च सर्वदा । न चान्त्यक्षणदर्शिनां विवेक-१५ निश्चयसद्भावादयमदोषः भावात् । सादृश्यनिमित्ता हि भ्रान्तिरवस्थित एव सादृश्ये निवर्तमाना उपलभ्यते अनिवृत्तौ वा नामाद्यर्थयोरपि न कदाचिद् भ्रान्तिनिवृत्तिः स्यात् सर्वदा तयोः सादृश्यात् । न चान्यापोहवादिनां भ्रान्तिनिमित्तं सादृश्यं वस्तुभूतमस्ति, सामान्यवादप्रसक्तेः। एकविज्ञानजनका एव क्षणाः सादृश्यमुच्यन्त इति चेत्, न; ततो विवेकानिश्चये रूपाऽऽलोक-मनस्कारादीनामपि सादृश्यमेकविज्ञानजनकत्वेनास्तीत्येकत्वनिश्चयस्तेष्वपि स्यात् । न च तेषां तत्रा-२० प्रतिभासनानासाविति वक्तव्यम्, यतः किमिति तेषां तत्राप्रतिभासनम् इति निमित्तमभिधानीयम्, असारूप्यं तन्निमित्तमिति चेत्, न; मनस्कारस्य सारूप्यात् तत्र प्रतिभासप्रसक्तेः। विलक्षणानां च कथं सारूप्यम् ? नैकविज्ञानजनकत्वाद रूपादावपि तत्प्रसङ्गात् । अथेष्यत एव तत् तेपाम्, न; रूपविज्ञानजनकत्वेन यत् तेषां सारूप्यं तदस्तु तस्यास्माभिरपि सदादिप्रत्ययहेतुत्वेन सदादित्वस्यवेष्टत्वात्, किं तर्हि रूपात्मना रूपादीनां रूपप्रत्ययहेतुत्वात् शाबलेयादीनामिव गोत्वात्मना सारूप्यं २५ गोप्रत्ययहेतूनां किं न स्याद् इति प्रेर्यते पारम्पर्येणैकपरामर्शप्रत्ययहेतुत्वस्यापि तेषु भावात् ? तद्धेतुस्वेऽपि न तेनात्मना सारूप्यं तेषामतद्विषयत्वादिति चेत्, ननु तदेव तदविषयत्वं कुतस्तषाम् ? न सारूप्यादिति वक्तव्यम्, चक्रकप्रसक्तेः। अथ सत्यपि सारूप्ये रूपादीनां सत्त्वोपलम्भाभावान्न भ्रान्तिः, ननु संत्त्वोपलम्भः किं देशनैरन्तर्यमभिधीयते, आहोस्वित् कालनैरन्तर्यम् , यद्वा उभयनैरन्तर्यमिति विकल्पाः। . तत्र न तावद् देशनैरन्तर्य यथोक्तभ्रान्तिनिमित्तम् , संयुक्ताङ्गुल्योस्तद्भावेऽपि भ्रान्तेरभावात् । कालनैरन्तैर्य च लघुवृत्तिरेव, न चासौ भ्रान्ति निमित्तम्, हस्ववर्णद्वयोच्चारणे तद्भावेऽप्यभावात् । नाप्युभयं तन्निमित्तम्, संयुक्ताङ्गुल्योः पूर्वापरक्षणयोरपि सद्भावेनोभयसद्भावेऽपि अभावादिस्थान्तरेतरभ्रान्तिकारणाभावात् किं न यथानुभवं विकल्पोत्पत्तिः ? सहकारिणोऽभ्यासादेरभावानो. १-मद्भावान्न आ० हा०। २-पकारिणा श-वा. वा.। ३ तदेको-वा० वा. वि. । ४ तस्य तन्निभां. मां. वा. बा. विना। ५-य शक्तिः आ०। ६ तदयुक्तम् वा. वा०। ७-स्याद्भेदे वा० वा. । ८-क्षणो भेदः भां० मांवा. बा. विना। ९-ता नाम भेदः स्यात् यावता नामभेदस्यैतल्ल-वा. वा० । १०-णम् घंटा-मां०। ११-त मे-आ० । १२-स्याप्र-वा० बा०। १३-भव नि-भां. मां. वा. वा. विना । १४ कस्यापि आ.। १५-पाटलक्षण-आ० वा. वा.। १६-वादप्र-भा० मां०। १७-वृत्तिवि-चा. बा। १८-दृश्यमितिनिमि-भां० मां०। १९ न वान्त्य-वि० विना। २०-वान् । भा० मा । २१-मुच्यत इ-भां. मां. वा. बा. विना। २२-कानिश्चयोरू-वा० बा०। २३ अतारूपं मां० मा. आ. हा० । अश्वारूप्यं-वा. बा०। २४-दवस्तु वि० । २५-त्वस्य चेट-वि० ।-त्वस्मै वेट-आ० । २६ तदेव विषयत्वं आ. हा. वि.। तदेव तदाविषयत्वं वा० बा०। २७ सत्तोप-बा. या०। २८-आहोश्चित् भा० मां. वा. वा. विना। २९ कालनैरन्तर्यमिति विकल्पाः वा. बा. विना। २. काले नै-भां. मां० विना। ३१-न्तयं ल-आ। ३२-वृत्ति एव वा० वा.। ३० Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - त्पत्तिरिति चेत्, नंनु कोऽयमभ्यासः यदभावाद् यथानुभवं निश्चयानुत्पत्तिः ? दर्शनस्य पुनः पुनरुत्पर्त्तिरिति चेत्, ननु सत्त्वादेः क्षणिकत्वादेरभेदे तदनुभवस्य पुनः पुनरनुत्पत्तिरेव क्षणिकत्वदर्शनावृत्तिरिति कथं न दर्शनावृत्तिलक्षणोऽभ्यासः ? अनुभवानन्तरभावी विकल्पोऽभ्यास इति चेत्, ननु 'तदभावाद् विकल्पोत्पत्त्यभावे यथानुभवं कस्मान्निश्चयानुत्पत्तिः' इति प्रश्ने 'निश्चयाभावानि (नि)५श्चयानुत्पत्तिः' इत्युत्तरं कथं सङ्गतं स्यात् ? अन्त्यक्षणदर्शिनां चानित्य विकल्पोत्पत्तेस्तदभावोऽसि श्व । न च क्षणिकत्वप्रतिपादकागमाऽऽहित संस्कारस्यानित्यविकल्पावृत्तिरभ्यासः, तदागमानुसारिणां तदुत्पत्तावपि यथानुभवं विकल्पाभावात् । दर्शनपाटवमपि सत्त्वादिविकल्पोत्पत्तेरेवावसीयते पाटवाsपाटवलक्षण विरुद्धधर्मद्वयस्यैकत्रायोगात् शब्दानित्यत्वजिज्ञासायां प्रकरणादीनामपि भावात् । सर्वात्मना चेत् स्वलक्षणस्यानुभवस्तथैव निश्चयोत्पत्तिः स्यात्, तदनुत्पत्तेर्न सर्वात्मनाऽ१० नुभवो भावस्येत्यवसीयते । अतो नानाफैलत्व में भेदेऽप्युपाधि-तद्वतोः शब्द - विकल्पयोरविरुद्धम् । भेदपक्षेऽप्येकार्थवृत्तिस्तयोर्घटत एव तद्वारेण शब्द - विकल्पयोरेकस्मिन् धर्मिणि वृत्तेः सामानाधिकरण्यादिव्यवहारसिद्धिः । न चोपाधि- तद्वतोरुपकार्योपकारकभावात् सर्वात्मनकोपाधिद्वारेणाप्युपाधिमतः प्रतिपत्तेः शब्दादेरेकफलत्वम्, उपकार्योपकारकप्रतीत्योरन्योन्या विनाभावि - त्वाभावात् तद्भावे वा कथञ्चित् सर्वस्यापि परस्परमुपकार्योपकारकभावाद् एकपदार्थप्रतिपत्तौ तदा१५ धारादिभावेनोपकारकभूतस्य भूतलादेस्तत्कार्यभूत सन्तानान्तरवर्तिज्ञानस्य वा ग्रहणम्, ततोऽपि तदुपकारिणः तस्मादप्यपरस्य तदुपकारिण इति पारम्पर्येण सकलपदार्थाक्षेपीत् सर्वः सर्वदर्शी स्यात् । अथ सम्बन्धवादिनः स्यादयं दोषः - तस्य सम्बन्धिभ्यः सम्बन्धस्य व्यतिरेकेऽनवस्थाप्रसङ्ग इत्ये कोपाधिद्वारेणाप्युपाधिमतः समस्तोपाधिसम्बन्धात्मकस्यैवावगमात् सम्बन्धिनो धर्मकलापस्याशेषस्यापि ग्रहणप्रसक्तिः, सम्बन्धिग्रहणमन्तरेण सम्बन्धप्रतिपत्तेरभावात् अङ्गुलिद्वयप्रतिपत्तौ २० तत्संयोगप्रतिपत्तिवत् । सम्बन्धिष्वेकसम्बन्धानभ्युपगमवादिनामस्माकं नायं दोषः, नहि प्राग्भावोतरभावावन्तरेणापरः कार्यकारणभावादिरेकः सम्बन्धोऽस्माभिरभ्युपगम्यते येन समस्तावगमात् सर्वः सर्वदर्शी स्यात्, असदेतत् यतो न सम्बन्धवादिनः समस्तोपाधिसम्बन्धानामुपाधिमतोऽव्यतिरेकेऽपि तदेकोपाधिसम्बन्धात्मकस्यैव तस्य ज्ञानात् सम्बन्धिनोऽशेषस्योपाधि(धे) रपि ग्रहणम् । सम्बन्धाभाववादिनोऽपि यद्युपकारकप्रतिपत्तावपि नोपकार्यस्यावगतिरेक सम्बन्धाभावात् तदा कथं २५ हेतुधर्मानुमानेन रूपादे रसतो गतिः उपकार्यविशिष्टस्योपकारकस्याप्रतिपत्तेः ? प्रतिपत्तौ कथं न भवन्तेन सर्वः सर्वविद् भवेत् ? न चोपाधि-तद्वत्प्रतीत्योरितरेतराश्रयत्वात् तत्प्रतीत्यभावादुपाधितद्वद्भावाभावः, युगपद् अध्यक्षे तयोः प्रतिभासनात् । क्रमप्रतिभासेऽपि न तत्प्रतिपत्योरितरेतरा• श्रयत्वम्, वृक्षत्वविशिष्टस्य दूराध्यक्षेण प्रतीतस्य प्रत्यासन्नादाम्रादिविशेषणविशिष्टस्य तस्यैवावसायात् । शाब्दप्रतिभासेऽपि गोशब्दाद् गोत्वमात्रोपाधेरैव भास (भात) स्य शुक्लशब्दात् तदुपाधि३० विशिष्टस्य तस्यैवावभासनान्न तत्प्रतीत्योरितरेतराश्रयत्वम् । न च गुणग्रहणमन्तरेण गुणिनो गवादेरग्रहः तदग्रहे च गुणाग्रह इति चोद्यावकाशः, गोशब्दाद् विशेषण - विशेष्ययोर्युगपदेव प्रतिपत्तेः । परस्यापि च समानोऽयं दोषः परस्परविशिष्टोपकार्योपकारकप्रत्यययोरन्योन्यापेक्षत्वात् । अनपेक्षत्वे न रसादेरेककालस्य रूपादेरनुमानं स्यात् । अथोपकारकादिप्रतिपत्ते रेवेतरज्ञानाविनाभावित्वन्नात्र २६४ १ ननु युक्तोऽयम-आ० हा ० वि० । न युक्तोयम-वा० वा० । २ यद्भा-भां० म० । ३-त्पत्ति द वा० वा० । ४- त्तिः चेत् आ० हा ० वि० । ५ सत्वादे क्ष-भां० । सत्वादक्ष - वा० बा० । ६-वान्तरवा० बा० । ७ तद्भा-भां० म० । ८- प्रश्ने निश्चयानुत्पत्तिरित्युक्तं कथं वा० वा० । ९ - भावानुत्पत्तिरित्युत्तरं आ०हा०वि० । १० - नांवा - वि० विना । ११- फलम - वा० बा० । १२ - मभेद अभ्युपा वा० बा० । १३- त्मनोपाधि - वा० वा० । १४ - रकभूतला - वि० । १५- भूतं आ० हा० वि० । १६- पात् सर्वद-भां० मां० विना । १७-मतः समस्तोपाधिमतः समस्तोपाधिसम्ब-भां० मां० । १८-सक्तेः वा० बा० । न्तरेण - भ० मां० वा० वा० विना । २० मात् सर्वद - वा० बा० । २१- ना सभां०] मां० । २२- हण सवा० वा० । २३ - माना रू-वा० वा० । २४- कार्यवशिष्ट मां० । २५- त्वात्प्रती- हा० वि० । २६-तद्भावो यु- वा० बा० । २७- रभातस्य भ० मां० । २८-वा भा-भां० मां० । २९ तहे भां० मां० विना । ३० गुण - भां० मां० विना । ३१ - क्षत्वादनपेक्षत्वादनपेक्षत्वे रसा - वा० बा० । ३२ - पत्तेरेकेर - वा० वा० । ३३- भावत्वा-आ० । ३४- त्वान्न दोष- भ० मां० आ० । त्वान्न चादोष वा० वा० । १९- भावा Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २६५ दोषद्वयसद्भावः। नन्वेवं परस्परविशिष्टत्वाविशेषेऽपि यदि कार्यबुद्धिः कारणबुद्ध्यनपेक्षा कारणबुद्धिरपीतरबुद्ध्यनपेक्षेति न रूपादेः समानकालस्यावगतिः स्यात् । अपि चोपकारकस्यादृष्टी नोपकार्यस्येतरविशिष्टतया दृष्टिः तददृष्टौ चोपकारकस्येतरविशिष्टत्वेनादृष्टिरिति परस्यापीदं चोद्यं समानम्। ___अथ सविकल्पप्रत्यक्षवादिनां स्यादयं दोषः उपाधिविशिष्टस्योपाधिमतो निश्चयादुपाधि-तद्वतोश्च ५ परस्परसव्यपेक्षत्वात् । निर्विकल्पकप्रत्यक्षवादिनां तु सर्वोपाधिनिरपेक्षनिरंशस्वलक्षणसामर्थ्यभाविना तद्रूपमेवानुकुर्वता निर्विकल्पकाध्यक्षेणान्यनिरपेक्षस्वलक्षणग्रहणाभ्युपगमान्नायं दोषः, असदेतत् सकलोपाधिशून्यस्खलक्षणग्राहिणो निर्विकल्पकस्याभावप्रतिपादनात पुनरपि प्रतिपादयिष्यमाणत्वाच्च । तदेवं भिन्ननिमित्तयोरेकविषयत्वाविरोधात् कथं न वहिरर्थे सामानाधिकरण्यव्यवहारः? विशेषणविशेष्यभावोऽपि बाह्यवस्तुसमाश्रित एव । न च विशेषण-विशेष्ययोरुपकार्योपकार-१० कभूतत्वेनाऽसमानकालयोस्तद्भावानुपपत्तेस्तथाभूतविकल्पाश्रय एवायं व्यवहार इति वक्तव्यम् , उपकार्योपकारकयोः पितापुत्रयोरिव समानकालत्वाविरोधात् एकान्तानित्यपक्षस्य च निषिद्धत्वात् 'निषेत्स्यमानत्वाच्च। लिङ्ग-सङ्ख्यादियोगोऽप्यनन्तधर्मात्मकबाह्यवस्त्वाश्रित एव । न चैकस्य 'तटस्तटी तटम्' इति स्त्री-पुनपुंसकाख्यं स्वभावत्रयं विरुद्धम् विरुद्धधर्माध्यासस्य भेदप्रतिपादकत्वेन निषिद्धत्वात् अन-१५ न्तधर्माध्यासितस्य च वस्तुनः प्रतिपादितत्वात् । न चैकस्मादेव शब्दादेर्मेचकादिरत्नवच्छबलाभासताप्रसङ्गः, प्रतिनियतोपाधिविशिष्टवस्तुप्रतिभासस्य प्रतिनियतक्षयोपशमविशेषनिमित्तस्य साधितत्वात् । 'गोत्वादिवत् सामान्यविशेषाः स्त्रीत्वादयः, न च सामान्येष्वपराणि सामान्यानि विद्यन्ते, अथ च जाति वः सामान्यमिति तेप्यपि स्त्री पुं-नपुंसकलिङ्गत्रयदर्शनादव्यापिता लक्षणस्य' इत्येष दोषोऽनेकधर्मात्मकैकवस्तुवादिनो ने जैनान् प्रत्याश्लिष्यति, गोत्वादेरपि भिन्नस्य सम-२० वायबलाद् वस्तुनि सम्बद्धस्यानभ्युपगमात् येन तेष्वप्यपरसामान्यभूतलिङ्गत्रयमन्तरेण जात्यादिशब्दप्रवृत्तिर्न स्यात् । अत एव दारादिप्वर्थेषु बहुत्वसङ्ख्या वन-सेनादिषु चैकत्वसङ्ख्याऽविरुद्धा, यथाविवक्षमनन्तधर्माध्यासिते वस्तुनि कस्यचिद्धर्मस्य केनचिच्छब्देन प्रतिपादनाविरोधात् । [प्राज्ञाकरमतस्य निरसनम् ] सामान्यविशेषात्मकवस्तुनः शब्दलिङ्गविषयत्वे च केवलजातिपक्षे यद् दूषणम्-'यदू यत्र ज्ञाने २५ प्रतिभाति तत् तस्य विषयः' इत्यादिप्रयोगरचनापूर्वकं प्रज्ञाकरमतानुसारिणाऽभिहितम्-'यथा न प्रतिभाति निर्विकल्पक-सविकल्पकाध्यक्षशब्दलिङ्गप्रभवज्ञानेषु क्वचिदपि विज्ञाने स्वरूपेण वर्णाः कृत्यक्षराकारशून्या दाहपोकाद्यर्थक्रियासमर्था जातिः, प्रतिभासमानाऽप्यनर्थक्रियाकारित्वेन न प्रवत्तिहेतुः लक्षितलक्षणयाऽपि जाति-व्यक्त्योः सम्बन्धाभावात् , भावेऽपि तस्य प्रत्यक्षादिना प्रतिपत्तुमशक्तेःन व्यक्ती प्रवृत्तिः' इत्यादि सर्व प्रतिक्षितम् अनभ्युपगमादेव । नहि जाति-व्यक्त्योरे-३० कान्तमेदोऽभ्युपगम्यते येन प्रत्यक्षे शाब्दे वा जाति-व्यक्त्योरन्यतरप्रतिभासेऽप्यपरस्याप्रतिभासनान सम्बन्धप्रतिपत्तिः स्यात्-- "द्विष्ठसम्बन्धसंवित्तिर्नेकरूपप्रवेदनात्" [ __] इति न्यायात्-~~-किन्तु सामान्यविशेषात्मकं वस्तु सर्वस्यां प्रतिपत्तौ प्रतिभाति, केवल 'प्रधानोपसर्जनभा १-प्रत्ययवा-वा. बा० । २ स्या यं वेष उ-मां० । स्या यं द्वेष उ-भां० । ३-न्यल-वा० बा० । -ग्यं स्व-भां० मां०। ४-तत्वेन स-भां० मां० विना। ५-स्ता -आ० हा० वि० वा० बा। ६-योरिकविषयाविरोधात् वा. बा० ।-योरेकस-आ. हा० वि० । ७ एकान्तनित्य-वा. बा०। ८-निषेध्यमान-भां. मां०। ९-वस्तुश्रित-वा० वा.। १०-काख्य स्व-भां० मां० ।-कादीना स्व-वा० बा० । ११-वच्छायाभास-वा. बा०। १२-शिष्टं वस्तु-मां० मा०। १३ अथ वा जा-वि०। १४ पृ० २२२ पं०४-८। १५ न जैनः प्र-आ. हा.। न जैनाः प्र-वि०। १६-प्यन्ति वि०। १७-म्बन्धस्या-वि० । १८-कसङ्ख्या-भा० मां० विना। १९-यत्वेन विकलजा-वा० बा०। २० यत्र आ० वा० बा०। २१ पृ० २३३ पं० २। २२-पाचका-आ० हा० वि० ।-पावका-मां• मां० । २३ पृ. २३३ पं. ५-पृ. २३४ पं०३७ । २४-गतो येन भां० मा० । स० त० ३४ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ प्रथमे काण्डेवेन जाति-व्यक्त्योः सामग्रीभेदात् प्रत्यक्षादिबुद्धौ प्रतिभासनादू वैशद्याऽवैशद्यावभासभेदस्तत्र' इति प्रतिपादितम् । 'क्रमेण योगपद्येन वा आनन्त्या व्यक्तीनां प्रत्यक्षेऽप्रतिभासनान्न तासां जात्या तेन सम्बन्धवेदनम्' इत्यादिकमप्यस्माकमदूपणं यथाप्रदर्शितवस्त्वभ्युपगमवादिनां न प्रतिसमाधानमर्हति। शब्दार्थयोस्तु साक्षात् तदुत्पत्ति-तादात्म्यलक्षणसम्बन्धमन्तरेणापि सम्बन्धः परेणाभ्युप५गन्तव्यः अन्यथा 'यत् सत् तत् सर्व क्षणिकम् , अक्षणिके क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात्, संश्च शब्दः' इति, यत् किश्चित् सत् तत् सर्वमक्षणिकम् , क्षणिकेऽर्थक्रियानुपलब्धेः, संश्च ध्वनिः' इति साधनवाक्ययोः स्वपराभिप्रेतार्थसूचकयोः स्वलक्षणासंस्पर्शित्वेन भेदाभावात् साधनतदाभासव्यवस्थानुपपत्तिप्रसक्तिः। अथान्यतरसाधनवाक्यस्य पारम्पर्येण स्वलक्षणप्रतिबन्धादित. रस्माद् विशेषस्तीनिष्टमपि वाच्य-वाचकयोः सम्बन्धान्तरं हेतुफलभावविलक्षणं सामर्थ्यप्राप्तं १० परेणाभ्युपगतं भवति । न च शब्दस्य क्वचिद् व्यभिचारदर्शनात् सर्वत्राऽनाश्वासादप्रामाण्यकल्पना युक्तिमती, प्रत्यक्षस्यापि तथाभावप्रसक्तेः । अपि च, अन्यविवक्षायामन्यशब्ददर्शनाद् विवक्षायामपि क्वचिद् व्यभिचारात् सर्वत्रानाश्वासात् कथं विवक्षाविशेषसूचका अपि ते स्युः? अथ "सुविवेचितं कार्य कारणं न व्यभिचरति" [ इति न्यायाद् विवक्षासूचकत्वं शब्दविशेषाणां न विरुध्यते तर्हि येनैव प्रतिबन्धेन शब्दविशेषो १५ विवक्षाविशेषसूचकस्तत एवार्थविशेषप्रतिपादकोऽसौ किं नाभ्युपगम्यते ? अथ स्वाभिधित्सितार्थ प्रतिपादनशक्तिवैकल्यादन्यथापि प्रायशोऽभिधानवृत्तिदर्शनाद् विचित्राभिसन्धित्वात् पुरुषाणां विसंवादशङ्कया वक्रभिप्रायेऽपि तेषां प्रामाण्यं नाभ्युपगम्यत इति न तंन्यायेन बाह्येऽप्यर्थे एषां प्रामाण्यप्रसक्तिः, नन्वेवमप्रामाण्ये सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः । तथाहि-यजातीयात् क्वचित् कदाचिद् यथाभूतं दृष्टं तादृशादेव सर्वदा सर्वत्र तथाभूतमेव भवतीति निरभिप्रायेष्वपि पदार्थेषु २० नियमो नोपलभ्यते, इन्धनादिसामग्रीतोऽनलप्रादुर्भावदर्शनेऽप्येकदा मण्यादिप्रभवत्वेनापि तस्य समीक्षणात् कथं कायहेतावप्यव्यभिचारित्वनिबन्धन प्रामाण्यं परेणाभ्युपगन्तुं युक्तम? तथा, यद्यपि बहुलं वृक्षस्यैव भू(चू )तस्योपलम्भस्तथापि क्वचित् कदाचिल्लतात्मतयाऽप्यानस्य दर्शनात् शिंशपा वृक्षस्वभावमेय विभीति कथं प्रेक्षापूर्वकारिणी निःशङ्कं चेतो भवेत् ? यतो 'लता च स्यात् शिंशपा च' नैवात्र कश्चिद् विरोध इति 'वृक्षोऽयम् शिंशपात्वात्' इति स्वभावहेतोरप्यव्यभिचारनिबन्धन२५प्रामाण्याभ्युपगमः परस्य विशीर्येत । अथ खंभावस्य भावाभावेऽपि भवतो भावस्य निःस्वभावता पत्तेरव्यभिचारलक्षणं प्रामाण्यम् तादात्म्यात्, कार्यस्यापि कारणाभावे भवतः कार्यत्वाभावापत्तेस्तदुत्पत्तिस्वरूंपाव्यभिचारनिबन्धनं प्रामाण्यं विद्यत इत्यनुमानस्य प्रामाण्यम् । नन्वेवं यादृशं यादृग्भूतं स्वसन्ताने विवक्षाज्ञानमुत्पन्नं तादृग्भूतमेव श्रोतृसन्ताने ज्ञानमुत्पादयितुकामो वचनमुच्चारयन् परीर्थ वाऽनुमानं तदभ्युपगच्छन् शब्दानां बहिरर्थे सम्बन्धनिमित्तं प्रामाण्यं कथं प्रतिक्षिपेत् ? ३० अथानुमानस्यापि प्रामाण्यमव्यभिचाराप्रतिपत्तित एव नाभ्युपगम्यते कुतस्तर्हि तत्त्वव्यवस्था? न प्रत्यक्षात्, तत्रापि स्वार्थाव्यभिचारित्वस्य प्रामाण्य निबन्धनस्यासम्भवात् भवदभिप्रायेण सम्भ १-सनाद' वैशद्यावभासभेदस्त-भां० मां० विना। २ पृ. २३४ पं० १७। ३-थानन्तरसावा० बा०। ४ सर्वथा ना-आ० हा० वि० । सर्वदा ना-वा० बा० । ५-ना तद् वि-वा० बा०। ६ कथं विवक्षाविवक्षाविशेषसूत्रका-वा० बा०। ७-थापि थात्मनोभिधान-वा० बा०। ८ न च ग्यायेन वा० बा०। ९ प्र० पृ. पं० १३। १० "न चैवंवादिनः किञ्चिदनुमानं नाम, निरभिसन्धीनामपि बहुलं कार्यखभावानियमोपलम्भात् , सति काष्ठादिसामग्री विशेषे क्वचिदुपलब्धस्य तदभावे प्रायशोऽनुपलब्धस्य मण्यादिकारणकल, पेऽपि संभवात् । 'यज्जातीयो यतः संप्रेक्षितस्तज्जातीयात् ताइग्' इति दुर्लभनियमतायां धूम-धूमकेत्वादीनामपि व्याप्य-व्यापकभावः कथमिव निर्णीयेत? 'वृक्षः, शिंशपात्वात्' इति लताचूनादेरपि क्वचिदेव दर्शनात् प्रेक्षावतां किमिव निःशकं चेतः स्यात् ?"-(अष्टशती) अष्टस० पृ० ७१ पं० १६-पृ. ७२ पं० २। नन्वेवं प्रामा- वि० । नन्वेव प्रामा-आ० हा० वा. वा०। ११ यथा जाती-वि०। १२-चारित्वं नि-आ० । १३-हुलवृ-आ० । १४-क्षस्यैवंभूवि०।-क्षस्येव भू-हा०। १५-णां निश-भां० मा० वा. बा०। १६ लता द स्या-भां. मां. वा. बा. विना। १७ स्वभावाभावेऽपि आ० । स्वभावेऽपि वि०। १८-रूपां व्य-हा० वि० ।-रूपं व्य-आ० । १९ नन्वेवं यादग्भूतं स्व-भां० । नन्वेवं यादृशं यादग्भूतस्व-वि० । २०-रार्थ चा-भां० मां. हा०। २१-चारप्र-भां० मां० वा. बा. विना। २२ स्वार्थव्य-वा. बा. मां० वि० । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संबन्धयोर्मीमांसा । २६७ वेऽपि प्रत्यक्षादिना प्रतिपत्तुमशक्तेः प्रामाण्यासिद्धेः । नापि स्वसंवेदनमात्रात्, तस्यापि ग्राह्य-ग्राहकाकारशून्यस्य यथातत्त्वमभ्युपगतस्याननुभूयमानत्वेन स्वत एवाव्यवस्थितत्वात् कुतस्तत्त्वव्यवस्थापकत्वम? अथ प्रतिभासोपेमत्वं सर्वभावानामिति न किञ्चित् तत्त्वमिति न कुतश्चित् तद्वयवस्थाऽस्माभिरभ्युपगम्यते येन तदव्यवस्थालक्षणं दूषणं युक्तं भवेत् , असम्यगेतत् शून्यताया निषेत्स्यमानत्वात् । तस्मात् प्रमाणव्यवहारिणा यदि प्रत्यक्षादिकं प्रमाणमभ्युपगम्यते तदा शब्दोऽपि बहिरर्थे ५ प्रमाणतयाऽभ्युपगन्तव्यः, प्रामाण्य निबन्धनस्य सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थप्रतिवन्धस्य परम्परया तत्रापि सद्भावात् तत्रैव च शब्दाच्चक्षुरादेरिव नियमेन प्रतिपत्ति-प्रवृत्ति-प्राप्तिलक्षणव्यवहारदर्शनात गुणदोषयोश्चोभयत्रापि समानत्वात् । न चास्माभिर्मीमांसकैरिवापौरुषेयः शब्दार्थयोः सम्बन्धोऽभ्युपगम्यते येन 'विकल्पनिर्मितस्य तस्य नृत्यादिक्रियादेरिव कथमपौरुषेयत्वं स्यात? स्वत एव शब्दस्यार्थप्रतिपादनयोग्यतायां सङ्केतादर्शिनोऽपि शब्दादर्थप्रतिपत्तिश्च स्यात् ततोऽनर्थकः सङ्केतः, १० स्वाभाविकसँम्बन्धाभिव्यञ्जकत्वोपयोगकल्पनायां च सङ्केतस्य यथेष्टं शब्दानामर्थेषु सङ्केतो न स्यात्, न ह्यभिव्यञ्जकसन्निधिनियमेनाभिव्यङ्ग्यस्योपलब्धि जनयति प्रदीपादिरिव घटस्य, शब्दाभिव्यक्तिसार्यवत् सम्बन्धाभिव्यक्तिसाङ्कर्यमपि प्रसज्येत, ततश्च सङ्केतात् सम्बन्धाभिव्यक्तिप्रति. नियमाभावात् तद्विवक्षितार्थप्रतिपत्तिनियमस्याप्यभाव इति सर्वस्माद् वाचकात् सर्वस्यार्थस्य प्रतिपत्तिः सकृदेव प्रसज्येत; ततः सङ्केतकरणं विवक्षितार्थप्रतिपत्त्यर्थ न भवेत् , न ह्येकान्त नित्येषु शब्देषु १५ तत्सम्बन्धे वा ताल्वादिव्यापारः सङ्केतो वा कदाचिदभिव्यञ्जकः कदाचिन इति युक्तमुत्पश्यामः, तदर्थस्यापि सामान्यस्य नित्यत्वे तदवस्थः प्रसङ्गः, तत् पुनः सामान्य व्यक्त्या क्वचित् कदाचिद् व्यज्यते न वेति व्यक्ताव्यक्तस्वभावभिन्नं नित्यत्वैकान्तमतिवर्तते, सामान्यानां च सर्वगतत्वे शब्दतत्सम्बन्धवदभिव्यक्तिसार्यमासज्यते, इदमस्यां व्यक्तौ वर्तते नेतरस्याम् इति विशेषाभावात् कुतः समवायिनियमः स्यात्, संस्थानादिव्यतिरिक्तं सामान्यं क्वचिदप्यनुपलभ्यमानं कथं ३ सङ्केतविषयो भवेत् येन तत् तच्छब्दाभिधेयं स्यात्' इत्यादिकमपि दूषणमस्मन्मतानुपाति स्यात् । न च समानासमानपरिणामात्मक व्यक्तीनामानन्त्यात् तिर्यसामान्यस्य चैकस्य सर्वव्यक्तिव्यापिनो व्यक्त्युपलक्षणभूतस्यानभ्युपगमात् तदभ्युपगमेऽपि तद्योगात् तासामानन्त्याविनिवृत्तेर्न सङ्केतस्तासु सम्भवतीति वक्तव्यम् , अतद्रूपपरावृत्ताग्निधूमव्यक्तीनामानन्त्येऽपि यथा प्रतिबन्धः परस्परं निश्ची. यते-अन्यथानुमानोत्थानाभावप्रसक्तेन क्षणिकत्वादितत्त्वव्यवस्था स्यात् अन्यस्य तद्वयवस्थापकस्या-२५ सम्भवात्-तथा यथोक्तव्यक्तीनामानन्त्येऽपि सङ्केतसम्भवो युक्त एव । स च सम्बन्धोऽग्निधूमव्यतीनां प्रत्यक्षेणैव ग्रहीतव्यः परेण, अनुमानेन ग्रहणेऽनवस्थेतरेतराश्रयदोपप्रसङ्गात् । न च दर्शन पृष्ठभाविना विकल्पेन तत्सामर्थ्यबलोद्भतेन स्वव्यापारोत्प्रेक्षाख्यतिरस्कारेण दर्शनव्यापारानुसारिणा लौकिकानां प्रत्यक्षाभिमानविषयत्वेन स्थितेन प्रतिबन्धग्रहणादेरुपपत्तेरनुमानप्रवृत्तिर्भविष्यति; तजनकं वा दर्शनं तथाविधविकल्पे खव्यापारारोपकत्वेन विकल्परूपतामापन्नं पूर्वोक्तकार्यजनकत्वी-३० दनुमानप्रवृत्तिनिमित्तम्, विकल्पस्यैव प्रामाण्यप्रसक्तेः । तथाहि-प्रत्यक्षे निर्विकल्पके सत्यपि यत्रैव यथोक्तो विकल्पस्तत्रैव प्रवृत्त्या दिव्यवहारकर्तृत्वेन तस्य प्रामाण्यं नान्यत्र, अनुमानविकल्पे च प्रत्यक्षाभावेऽपि प्रवृत्त्यादिव्यवहार विधायकत्वेन प्रामाण्यमित्यन्वय-व्यतिरेकाभ्यां विकल्पस्यैव प्रामाण्यमिति प्रत्यक्षाऽनुमानप्रमाणद्वयवादिना व्याप्तिग्राहको विकल्पः प्रत्यक्ष प्रमाणमभ्युपगन्तव्यः। तत्र यथा व्यक्तीनामानन्त्येऽपि प्रत्यक्षतः प्रतिबन्धसिद्धिस्तथा सङ्केतविषयत्वमपि तासां तत एव ३५ १-दनामा-भां० मां०। २-पगत्वं हा०। ३-न्यतया भां० मां० विना। ४-या निषेध्यमा-भां० मा०। ५-माण्यव्य-वि०। ६ तस्यऽनृत्यादि-आ० हा० । तस्याऽवृत्यादि-वि० । तस्य नित्यादि-वा. बा०। ७-सम्बन्धाभिव्यञ्जकसम्बन्धाभिव्यञ्जकत्वोप-भां• मा० । ८-भावात् तद्विवक्षितार्थप्रतिनियमाभावात् तद्विवक्षितार्थप्रतिपत्ति-हा० वि०। ९-स्यार्थप्र-भां० मां० वा. बा. विना। १० सङ्के. ततो वा कदाचिन्नेति आ. हा०वि०। सङ्कततो कदाचिद-वा. बा०। ११-वनिमित्तं नित्य-वि.। १२ शब्दसम्बन्ध-वा० बा० । १३ शब्दवि-भां० मां०। १४-भूतस्यानभ्युपगमेऽपि तद्यो-भां० मां० विना०। १५-बन्धनं प-आ०। १६ सम्बन्धाग्नि-भां० मां०। १७-क्षातिर-वा० बा०। १८-रुत्पत्तेरनु-भां० मा०। १९ स्वपरारोप-आ० हा० वि०। २०-त्वानुमा-भां० मां० विना। २१-वृत्तिनिमितकल्प-वा. बा०। २२ प्रतिसम्बन्ध-भां० मां० वा. बा० विना । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ प्रथमे काण्डे सेत्स्यति, अत एवानुमान-शाब्दयोः सामग्रीभेदाद् भेदेऽपि प्रत्यक्षेण सहैकविषयत्वम् अन्यथाअपरस्य प्रतिबन्धग्राहकस्य पराभ्युपगमेनासम्भवात्-तयोरप्रवृत्तिप्रसक्तिः। विकल्पस्य प्रतिबन्धग्राहकत्वे तद्विषयस्याऽवस्तुत्वान्नै केनचित् कार्यकारणभावस्तादात्म्यं वा । न च विकल्पविषययो. दर्शनविषयत्वेन स्थितयोः कार्यकारणभावस्तादात्म्यं वा, विकल्पविषयस्य वस्तुदर्शनबलोद्भूतविक५ल्पप्रदर्शितस्य तद्रूपत्वं तत्त्वतोऽन्यथाभूतस्याप्यारोप्यत इति कृत्वा 'यतो यत्र व्याप्तिग्रहणं न तत्र ताविका प्रतिबन्धः यत्र त्वसी न तत्र प्रतिबन्धग्रहणम्' इत्यनुमानप्रवृत्तिमभ्युपगच्छता प्रत्यक्षविषयत्वं तस्याभ्युपगन्तव्यम् । अनुमानतुल्यविषयत्वं च शाब्दप्रत्ययस्य परेणाप्यभ्युपगम्यत एव तस्य परार्थानुमानत्वाभ्युपगमात् । यदि पुनर्विकल्पप्रतिभासिन्यवस्तुनि सङ्केतः पुनश्च तत्र प्रति पत्तिः कथं वस्तु-तत्सामान्यसङ्केतादस्य विशेषः स्यात् ? विकल्पानामभावविषयत्वैकान्ते तत्त्व१० मिथ्यात्वव्यवस्थितेरनुपपत्तिश्च । अपि च, 'शब्दैर्विकल्पैर्वा यद्यभावः प्रतीयते भावो न प्रतीयेत' इति क्रियाप्रतिषेधान्न किश्चित् कृतं स्यात् । यदि पुनरभिप्रायाऽविसंवादात् सत्यार्थत्वव्यवस्थितिः, कथम् एकं शास्त्रं युक्तं नापरम्' इति व्यवस्था युज्येत विपक्षवादिनामपि स्वाभिप्रायप्रतिपादनाsविसंवादनात्? न चायमेकान्तः-शब्दैवहिरा न प्रतिपाद्यन्ते,' तद्व्यवहारोच्छित्तिप्रसक्तेः। दृश्यन्ते च स्वयमदृष्टेषु नदी-देश-पर्वत-द्वीपादिप्याप्तप्रणीतत्वेनं निश्चितात् तच्छब्दात् तत्त्वप्रतिपर्ति १५ कुर्वाणाः । न च दृष्टेष्वपि विशेषेषु संप्रदायमन्तरेण मणि-मन्त्रौषधादिषु बहुँलं तत्त्वनिर्नी(म)तिः । न च तद्विशेषाऽविनिश्चयेऽपि कथञ्चिन्निर्णीतिर्नोपपद्यते, प्रत्यक्षस्यापि स्वविषयप्रतिपत्तेः कथञ्चिदेव सम्भवात् । तत् असाधारणं वस्तुस्वरूपमविकल्पविषयभूतं परमार्थसत् विकल्पानां प्रत्यक्षपृष्ठभाविनाम् वाच्यविषयाणामन्येषां च सर्वथा निर्विषयत्वं व्यवस्थापयन्न विकल्प एव सौगतः । यतः प्रत्यक्षं स्वलक्षणं विषयलक्षणं वा तत्त्वं न निश्चिनोति विकल्पकं पुनः साकल्येनाऽवस्त्वेव निश्चिनोतीति २० निश्चयक्रियाप्रतिषेधान्न किश्चित् केनचिन्निश्चेयम् अनिश्चितेन चे स्वरूपेण न तत्त्वव्यवस्थति प्रत्यक्ष वच्छाब्दस्याप्युभयात्मकवस्तुनिश्चायकत्वेन प्रामाण्यमभ्युपेयम् । न च प्रत्यक्षे पुरोव्यवस्थितं घटादिकं चक्षुर्जन्ये श्रोत्रप्रभवे शब्दस्वरूपं च प्रतिभाति नॉपरो वाच्यवाचकभावस्तयोरिति वक्तुं युक्तम्, यतो नास्माभिरेकान्ततस्तयोभिन्नो वाच्यवाचकभावोऽभ्युपगम्यते-येन तस्य पृथक् प्रतिभासः स्यात्-किन्तु सङ्केतसव्यपेक्षस्य शब्दस्य वाचकत्वं कथञ्चिदभिन्नो धर्मः तदपेक्षया चार्थस्यापि २५ वाच्यत्वं तथाभूत एव धर्मः; तच्च द्वयमपि शब्दार्थप्रतिभाससमयेक्षयोपशमविशेषाविर्भूते क्वचिज्ज्ञाने प्रतिभासत एव । तथाहि-'इदमस्य वाच्यम्' 'इदं वाऽस्य वाचकम्' इत्युल्लेखंवत् तदाहिविशिष्टेन्द्रियादिसामग्रीप्रभवं ज्ञानमनुभूयत एव सङ्केतसमये । न च "अस्येदं वाचकम्' इति किं प्रतिपादकम् यद्वा कार्यम्, कारणं वा' इति पक्षत्रयोद्भावनं कर्तुं युक्तम्, प्रतिपादकत्वस्य वाचत्वप्रदर्शनात् । 'प्रतिपादकत्वेऽप्यधुनाऽन्यदा वा विशदेन रूपेणेन्द्रियप्रभव एव ज्ञाने तद् वस्तु प्रतिभाति, न शाब्देन ३० शब्दस्य तत्र सामर्थ्यानवधारणात्' इति, एतदप्यसङ्गतम्। विहितोत्तरत्वात्-दूरस्थवृक्षाद्यर्थग्राहिणोऽविशदस्यापि प्रत्यक्षत्वप्रतिपादनात् शाब्दस्यापि तत्प्रतिभासाविशिष्टस्य तत्र प्रामाण्येन तदुत्था १-न-शब्द-भां० मा० । २ प्रतिसम्बन्ध-वि०। ३-न किमचित् वा० बा० ।-न्न किचित् हा० । -न्न किश्चित् आ० वि०। ४-कल्पाविषययोर्द-वा. बा० ।-कल्पां विषयोर्द-भां० ।-कल्पाविषयोदमां० ।-कल्पविषयोर्द- आ० वि०। ५-विक प्र-भां. मां० विना० । ६ परेणाभ्य-भां. मां. वा. बा. विना। ७-षयत्वेकान्ते आ० वा. बा० ।-षयेत्वैकान्ते वि०।-षयेत्वेकान्ते हा०। ८-प्रतिषेधे न भां. मां० । ९-न निश्चिताच्छब्दात्तशब्दात्तच्चप्रति-आ० ।-न निश्चितात्वदात्तत्वप्रति-वा० बा० । १०-हुलं तत्तत्वनि-भां० मा० ।-हुलं तत्तनि-आ० वा. बा०। ११ सौमतः वा० बा०। १२-त्यक्षस्वहा० । १३-लक्षणं वा भां० मां० वा० बा० विना। १४-प्रतिषेधात् किञ्चि-वा० बा०। १५च रूपेण वा० बा०। १६-व स्थिति भां० मां०। १७ नापुरो भां० मां०। १८-यावार्थ- आ. हा. मां० । -यार्थ-वा. बा०। १९ इदं चास्य भां. मां० । इदं वाच्यस्य आ० हा० वि०। २०-खवग्राहि-भां० मां० ।-खवयत् ग्राहि-वा० बा०। २१ सङ्केधानसम-वा० बा०। २२ इति प्रति-भां. मां। २३-रणं चेति भां० मां० वा. बा. वि.। २४ पृ. २३५ पं० ३०। २५-कप्र-आ० वा. बा. विना । २६ न शब्दा (शाब्दे) शब्दस्य वा० बा० । २७ पृ० २३५५० ३१ । २८ पृ. २६४ पं० २७-२९ । २९-ग्राहिणा वि-हा० वि० ।-ग्राहिणाऽवि-आ० । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तत्संवन्धयोर्मीमांसा । २६९ पकशब्दस्य तत्र सामर्थ्याधिगतेः । न च 'यदि शब्देनैवासावर्थः स्वरूपेण प्रतिपाद्यते तदास्य सर्वथा प्रतिन्नत्वात् प्रवृत्तिन स्यात्' इति युक्तम्, प्रत्यक्षेऽप्यस्य दूषणस्य समानत्वात् । तथाहि-प्रत्यक्षे. णापि यदि नीलादिः सर्वात्मना प्रतिपन्नः किमर्थ तत्र प्रवर्तेत? तथापि प्रवृत्ती प्रवृत्तेरविरतिप्रसक्तिः। 'अथाप्रतिपन्नं किञ्चिद् रूपमस्ति यदर्थं प्रवृत्तिः' इत्यादिकमपि प्रत्यक्षेऽपि समानम् । तत्रापि हि शक्यत एवं वक्तुम्-यद्यर्थक्रियार्थ प्रत्यक्षेण प्रतिपन्नेऽपि नीलादिके प्रवर्तते तदा तदेवार्थः ५ अर्थक्रियाक्षमत्वात् न प्रत्यक्षप्रतिभातं नीलादिकम् तस्यार्थक्रियासामर्थ्यरहितत्वात् । अथ तदपि नीलादिकमर्थक्रियाक्षम तथापि तदर्थक्रियार्थी तदादानाय प्रवर्तते, ननु शाब्दप्रतिभासेऽप्येतत् समानमुत्पश्यामः । यदपि 'अथाऽविशदेनाकारेण शब्दास्तमर्थ प्रकाशयन्ति तदाऽसावस्पष्ट आकारो नेन्द्रियगोचरः,' तदप्यसङ्गतम्। तस्येन्द्रियविषयत्वेन प्रतिपादितत्वात् । तत्र प्रवृत्ताः शब्दाः कथं नेन्द्रियगोचरे प्रवृत्ता भवन्ति ? यदपि 'श्रुतं पश्यामि' इत्येकत्वाध्यवसाये दृष्टरूपतया श्रुताध्यवसाये १० दृष्टमेव, श्रुतरूपतया दृष्टस्य ग्रहणे श्रुतमेव, न तयोस्तत्त्वम्' इति, एतच्चित्रपतङ्गेऽपि समानम् । तथाहि-यदि तत्रापि नीलाद्याकारः पीताद्याकारतया गृह्यते चित्रपतङ्गज्ञानेन तदा पीताद्याकार एवासौ न नीलाद्याकारः, अथ नीलाद्याकारतया पीताद्याकारो गृह्यते तदा नीलाद्याकार एवासौ कुतश्चित्र एकः? तथा, तत्प्रतिभासेऽपि ज्ञाने नीलाद्याभासो यदि पीताद्याभासतया संवेद्यते तदा पीताभासमेव तद्ज्ञानं न नीलाद्याभासमित्यादिकल्पनया न चित्रप्रतिभासमेकं ज्ञानम् । तथा,१५ नीलसंवेदनेऽपि प्रतिपरमाण्वेवंकल्पनया नैकं नीलप्रतिभासं ज्ञानम्, विव(वि)क्तस्य च ज्ञानपरमाणोरसंवेदनात् सर्वशून्यतापत्तेः सर्वव्यवहारोच्छेद इति न किञ्चिद् वक्तव्यम् । अथानेकनीलपरमाणुसमूहात्मकमेकत्वेन संवेदनादेकं नीलज्ञानम् तर्हि दृष्ट-श्रुतरूपमवाधितैकत्वप्रतिभासादेकं बहिवस्तु किं नाभ्युपगम्यते ? यथा युगद्भाव्यनेकनीलज्ञानपरमाण्यवभासानां स्वसंवेदेने एकत्वाविरोधस्तथा क्रमेणाऽपि दृष्ट-श्रुतावभासयोरेकत्वेनाविरोधः 'दृष्टं शृणोमि' इति ज्ञानेन भविष्यतीत्येक-२० त्वावभासिना दर्शनशब्दविषयस्यार्थस्यैकत्वं निश्चीयत इति परमार्थत एवं तत् तत्त्वमिति । एतेन 'भिन्नविज्ञानप्रतिभासिनोर्न विशेषणविशेष्यभावः एकविज्ञानप्रतिभासिनोरपि युगपत् स्वातन्येण द्वयोः प्रतिभासनाद् घट-पटयोरिव नासौ युक्तः। तद्रूप्येण प्रतिभासने विशेष्यरूपता विशेषणरूपता वा केवला, द्वयोः प्रतिभासाभावात् न विशेषणविशेष्यभावः क्वचिदपि ज्ञाने प्रतिभाति' इत्येतदपि निरस्तम्। अनेकनीलपरमाणुप्रतिभासज्ञाने तत्स्वसंवेदने वाऽस्य समानत्वात् । न च नीलपरमाणूनां२५ तत्प्रतिभासपरमाणूनां वा परस्परविविक्तानां प्रत्यक्षे स्वसंवेदने च प्रतिभास इति नायं दोषः, तत्र परमाणुपारिमाण्डल्यादेः बहिरन्तश्चाप्रतिभासनात् स्थूलस्यैकस्य संहृतविकल्पावस्थायामपि बहिरन्तश्च वेद्यवेदकाकारविनिर्भासवतःप्रतिभासनात् । परमाणुरूपं बहिरनंशं संवेदनं वा प्रत्यक्षं प्रतिजानानः कथं सर्वज्ञत्वमात्मनो न प्रतिजानीते ? शक्यं हि वक्तुम् संवेदनं संवेद्यं सकलं विषयी. करोति-देश-काल-स्वभावविप्रकृष्टेष्वपि भावेषु संवेदनस्य निरङ्कुशत्वात्-किन्तु कुतश्चिन्निश्चयप्रबो-३० धहेतोर्विकल्पानामियमशक्तिः यतो यथार्थवावं प्रत्यक्षेण विषयीकृतमपि न निश्चिन्वन्तीति । १-गमैन भां० मां० ।-गमनेर्न वा. बा०। २ यदि शाब्दे-मां० । ३-दा तस्य भां० मां० विना । ४-पन्नात् वा. बा०। ५ पृ. २३६ पं० १। ६ नीलतो स-वा० बा०। ७ प्रवर्तते भां० मा० । ८-पन्न किश्चि-आ० मां०। ९ पृ० २३६ पं० २। १०-याभूतमत्वा-भां० मां० विना। ११-भास्येप्येमा०। १२ पृ० २३६ पं० ४। १३ पृ० २६० पं० १९। १४ कथं मिन्द्रिय-वा० बा० विना । 'कथमिन्द्रियगोचरे न प्रवृत्ता- वि० सं०। १५-साये दृष्टरूपताध्यवसायो दृष्टरूपतया श्रुताध्यवसायो दृष्टमेव वा. बा०। १६ दृष्टमिव मां०। १७ पृ० २३५ पं० ७-१०। १८ ज्ञानं नी-भां० मां० वा० बा. विना। १९-समेकज्ञानं-भां० मा० विना ।-समेव ज्ञानं न नीलाद्यं वेदने-वा. बा०। २०-पद्वाध्यनेक-वा० बा० ।-पदाद्यनेक-आ० हा० वि०। २१-दनं वा. बा० । २२-स्तत्रा क-वा. बा। २३-णादृष्ट-भां. मां० वा. बा. विना। २४ ज्ञाने भ-वि०। २५-कत्वभासि-भां० मां० वा. बा. विना । २६-व तत्त्व-भां० मा० वा. बा. विना। २७ तादूपाण्या प्र-वा० बा०। २८-सते आ०। २९ पृ. २३४ पं० २२-३३ । ३० वाऽध्य स-आ० हा० । वाऽध्यव स-वि०। ३१ संहत-भां० मां० । संद्वति न वि-वा. बा०। ३२-बहिरनंशं वेद-आ० हा० वा. बा० ।-बहिरन्तसंवेद-वि.। ३३-दनसंवे-आ. हा। ३४-भाव प्र-भां. मां० विना। ३५-मपि निश्चि-वा. बा। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० प्रथमे काण्डेप्रत्यक्षबुद्धस्तथाप्रतिभासाभावात् सर्वज्ञत्वमयुक्तमिति चेत्, परमाणुपारिमाण्डल्यादेरप्यप्रतिभासन समानं संपश्यामः । यदपि 'काल्पनिकः शब्दार्थयोः सम्बन्धः न नियतः' इति, तदप्ययुक्तम् प्रति नियतसङ्केतानुसारिणो नियताच्छब्दात् प्रतिनियतार्थप्रतिपत्तिदर्शनात् । तेन 'न शब्दस्वरूपं नियता. र्थप्रतिपत्तिहेतुः, तस्य सर्वार्थान् प्रत्य विशिष्टत्वात्' इति न वक्तुं युक्तम् नियतसङ्केतसहकृतस्य शब्दस्य ५सर्वार्थान् प्रत्यविशिष्टत्वासिद्धेः । कार्यगम्यं हि वस्तूनां नियतत्वम् अन्यद् वा-यदा च नियतं तत्का पलभ्यते तदा तस्य नियतत्वं व्यवस्थाप्यते, यदा चान्यथा तदाऽन्यथात्वमिति 'कुतः पुनरेतत स्वरूपं शब्दादेः' इति पर्यनुयोगे 'स्वहेतुप्रतिनियमः' इत्युत्तरं न्यायविदः सर्वत्र युक्तियुक्तम् दृष्टानु मितानां नियोग-प्रतिषेधानुपपत्तेः । 'प्रतिपत्तिधर्मस्तु नियमहेतुः काल्पनिक एव स्यात्' इति. एत दप्ययुक्तम् ; अबाधिताकारप्रतिपत्तेस्तात्त्विकार्थधर्मव्यवस्थापकत्वात् , शब्दार्थसम्बन्धप्रतिपत्तेस्त्व. १०बाधितप्रतिपतित्वं साधितमेव; बाधितत्वे वा तत्प्रतिपत्तेस्तत्प्रभवशाब्दज्ञानस्याप्रामाण्यप्रसक्तिविपरीतप्रतिबन्धग्राहिज्ञानप्रभवानुमानाभासँस्यैवम् (स्येव)।तत् सौगतदर्शनमेव ध्यान्ध्यविजृम्भितम् । यदपि 'शब्देभ्यः कल्पना बहिरर्थासंस्पर्शिन्यः प्रसूयन्ते, ताभ्यश्च शब्दाः' इति, तदप्यचारु; शब्दज. नितविकल्पानां बहिरर्थाऽसंस्पर्शित्वासिद्धेः इन्द्रियजज्ञानस्येव तासां तत्प्राप्तिहेतुत्वादिति प्रतिपादि तत्वात् । परसन्तानवर्तितथाभूतविकल्पजनकत्वं तद्विकल्पादृष्टावपि शब्दानां प्रत्येति, न पुनःप्रत्य१५क्षाद्युपलभ्यमानबहिरर्थवाचकत्वमिनि विपरीतप्रज्ञो देवानांप्रियः। न चार्थाभावेऽपि शाब्दप्रतिभा सस्याऽप्रच्युतेर्न शब्दस्य बाह्यार्थवाचकत्वम्, विकल्पेऽप्यस्य समानत्वात्-'विसदृशसङ्केतस्य श्रोतुस्तच्छब्दसद्भावेऽपि तथाभूत विकल्पानुत्पत्तः शब्दाभावेऽपि च कुतश्चित् कारणात् तथाभूत विकल्पप्रतिभासाप्रच्युतेश्च । अथ समानसङ्केतस्य श्रोतुस्ततस्तत् समुत्पद्यत एव, शब्दाभावे तु यद् विकल्पकज्ञानं तादृगवभासं कारणान्तरप्रभवं न प्रच्यवते; तद् अतादृशमेवेत्यतो न व्यभिचारः। नन्वेवं २० तद् बाह्यार्थावभासिशाब्दे प्रतिभासेऽपि समानम्-'यो वर्थाभावेऽपि शाब्दः प्रतिभासः स तत्प्रतिभासमानो न भवति' इत्यादेः प्राक् प्रदर्शितत्वात् । यदपि 'शब्दाद् बाह्यार्थाध्यवसायिज्ञानोत्पत्त्यादितत्प्राप्ति-पर्यवसानव्यवहारसद्भावेऽपि बाह्यार्थासंस्पर्शित्वाद् विकल्पानां न सर्वात्मनाऽर्थग्रहणदोषः' तदप्यसङ्गतम् ; प्रत्यक्षवदर्थसंस्पर्शित्वेऽपि सर्वात्मना अग्रहणस्य प्रतिपादितत्वात् । यदपि 'अप्रतिभासेऽप्यर्थस्य शब्दात् भ्रान्तेः प्रवृत्तिः,' तदप्ययुक्तम् ; भ्रान्ताऽभ्रान्तप्रवृत्त्योर्विशेषसद्भावात्-यत्र २५ह्यर्थप्राप्तिनापजायते प्रवृत्तौ तत्र भ्रान्तिः प्रवृत्तेर्व्यवस्थाप्यते अन्यत्र त्वभ्रान्ति रिति कस्य विज्ञानस्य प्रामाण्यमभ्युपगच्छता नाऽप्रतिभासेऽप्यर्थस्य प्रवृत्त्यादिव्यवहारः कदाचनौप्यभ्युपगन्तुं युक्तः। अंतिबन्धस्तु तदविसंवादे शाब्दस्याप्यर्थप्रतिबन्धनिबन्धनः; तत्र संवादोऽस्तीति प्रत्यक्षवत् तत्र तस्य प्रामाण्यं युक्तम्, न च प्रतिबन्धः परपक्षे सम्भवतीति प्रतिपादयिष्यते, स्वसंवेदनमात्रं च परमार्थसत् तत्त्वरूपं निरस्तप्रतिबन्धादिपदार्थ यथा न संभवति इत्येतदपि प्रतिपादयिष्यते । शेष३० स्वत्र पूर्वपक्षग्रन्थः प्रतिपदमुच्चार्य न प्रतिविहितः ग्रन्थगौरवभयात् दिग्मात्रप्रदर्शनपरत्वाच्च प्रया सस्य । इति स्थितमेतत्-'समयपरमत्थवित्थर' इति ॥ २॥ १ पृ. २३५ पं० २१-पृ० २३६ पं० ११ । २-तार्थाप्र-वा. बा. विना । ३ तेन श-वा. बा.। ४-त्वादिति नि य वक्तुं वा० बा०। ५ पृ. २३६ पं० १३ । ६ अन्यथा वा० बा० विना। -ति तत् कुवि०। ८-त्तरन्याय-वा. बा. विना । ९-तार्या नियो-वा. बा.। १० पृ. २३६ पं० १४ । ११-बाधिकाकार-भां० मा० । १२-त्वं प्रसा-भां० मां०। १३ तत्वेना तत्प्र-आ० हा० वि० । तत्वेनाऽतत्प्र-भां. मा०। १४-नाभ्यास-भां० मां० वा. बा. विना। १५-सत सौ-वा. बा। १६ पृ. २३६ पं० १७ । १७-नस्यैव वा० बा०। १८ तद्विकल्पदृष्टा-वा० बा०। १९-ति प-भां० । २०-च्युते न भां० मा० वा० बा०। २१ विशसङ्केत-आ० हा० वि० । विशब्दसङ्केत-वा. बा०। २२-नुपपत्तेः वा. बा० । २३-कल्पज्ञा-भां० मां०। २४ नन्वेवद् बा (नन्वेतद बा) वा० बा०। २५ शाब्दप्र-भां० मां० वा. बा. विना। २६ पृ. २३७ पं० २। २७ पृ. २३७ पं० ५। २८ वृत्तेर्वि-भां० म० वा. बा० विना । २९-! जा-भां० मां. विना। ३०-वृत्ते व्य-वा. बा. मां०। ३१-नाभ्यु-भां० मां० वा. बा. विना । ३२ प्रतिबन्धास्तु हा० वि० । प्रतिबन्धात् तु भां० मा०। प्रति विषास्तु वा० बा० । ३३-स्वस्वरू-वि० । ३४-प्यमाणम् । शे-भां० मा० वा. बा०। ३५ पृ० १६९ पं०८। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। २७१ तृतीयगाथाव्याख्या। [ द्रव्यास्तिकनयनिरूपणम् ] [१ सदद्वैतप्रतिपादकः शुद्धद्रव्यास्तिकनयः ] अत्रं च कुण्ठधियोऽप्यन्तेवासिनो योगित्वा(ता)प्रतिपादनार्थः प्रकरणारम्भः प्रतिपादितः; साच विशिष्टसामान्य-विशेषात्मकतदुपायभूतार्थप्रतिपादनमन्तरेणातः प्रकरणान्न सम्पद्यत इति ५ प्रकरणाभिधेयं योगितोपायभूतमर्थम् तित्थयरवयणसंगह-विसेसपत्थारमूलवागरणी। दव्वढिओ य पजवणओ य सेसा वियप्पा सिं ॥३॥ इत्यनया गाथया निर्दिशति । अस्याश्च समुदायार्थः पातनिकयैव प्रतिपादितः। .. अवयवार्थस्तु-तरन्ति संसारार्णवं येन तत् तीर्थम्-द्वादशाङ्गम् तदाधारो वा सङ्घः-तत् १० कुर्वन्ति उत्पद्यमानमुत्पादयन्ति तत्स्वाभाव्यात् तीर्थकरनामकर्मोदयाद् वेति "हेत्वाद्यर्थे टैचू" [ ] तीर्थकराणां वचनम्-आचारादि अर्थतस्तस्य तदुपदिष्टत्वात्-तस्य सङ्ग्रह-विशेषौ द्रव्य-पर्यायौ सामान्य-विशेषशब्दवाच्यावमिधेयौ तयोः प्रस्तारः-प्रस्तीर्यते येन नयराशिना सङ्ग्रहादिकेन स प्रस्तारः-तस्य संग्रह-व्यवहारप्रस्तारस्य मूलव्याकरणी आद्यवक्ता शाता वा द्रव्यास्तिकः-द्रुतिर्भवनं द्रव्यम्-सत्तेति यावत्-तत्र 'अस्ति' इति मतिरस्य द्रव्यास्तिकः१५ "सह सुपा" [अ० २, पा० १, सू० ४ पागि० व्या० पृ० १६० अं० ६४९] इत्यत्र 'सुपा सह' इति योगविभागात् मयूरव्यंसकादित्वाद् वा द्रव्य-आस्तिकशब्दयोः समासः, द्रव्यमेव वाऽर्थोऽस्येति द्रव्यार्थिकः द्रव्ये वा स्थितो द्रव्यस्थितः । परि समन्तात् अवनम् अवः-पर्यवो विशेषः तज्ज्ञाता वक्ता वा, नयनं नयः नीतिः पर्यवनयः अत्र छन्दोमङ्गभयात् 'पर्यायास्तिकः' इति वक्तव्ये 'पर्यवनयः' इत्युक्तम् १-त्र कुण्ठ-भां० मां०। २ योग्यताप्र-भां०मा० ।योगित्वप्र-आ. हा०वि०। ३ योग्यतोपा-भां० मा०। ४ "कृषओ हेतु-ताच्छील्याऽऽनुलोम्येपु”। ३, २, २० पाणि० व्या० पृ० ४९२ अं० २९३४ । ३, २, २० अनंभ. मिता० पृ० २२४ पं. ४ । “कृनो हेतु-ताच्छील्याऽऽनुलोम्येषु अशब्द-लोक-कलह -गाथा-वैर-चाटु-सूत्र-मन्त्र-पदेषु"। ४, ३, २२ कात. व्या० पृ० ३४८ पं. १ । “कृयो हेतु-शीलाऽनुलोमेषु"। १, २, ७ चान्द्रव्या० पृ. ३२ पं० २१ । “कृयो हेतु-शीलाऽऽनुलोम्ये अशब्द-श्लोक-कलह-गाथा-वैर-चाटु-सूत्र-मन्त्र-पदे"। २, २, २५ जैने० व्या. पृ० २६५५० ४ । “हेतु-तच्छीलाऽनुकूले अशब्द-लोक-कलह-गाधा (था) वैर-चाटु-सूत्र-मन्त्र-पदात्" । ४,३, १३३ शाक• व्या० पृ० २९५ अं० ८९ । “हेतु-तच्छीलाऽनुकूले अशब्द-श्लोक-कलह-गाथा-वैर-चाटु-सूत्र-मन्त्रपदात्" । ५, १, १०३ हैम० व्या० पृ० ८ प्र. पं० २। “अ-टो" सार० व्या० पृ० ४०७ पं०३१ । एषु सर्वेषु व्याकरणेषु हेत्वाद्यर्थे 'ट' प्रत्यय एव विधीयते न तु 'टच'। ५ 'आचारादि'शब्देन आचाराङ्गप्रभृतीनि द्वादश अगसूत्राणि । तद्यथा-आचाराङ्गम् , सूत्रकृताङ्गम् , स्थानाङ्गम् , समवायाङ्गम् , व्याख्याप्रज्ञप्ति-भगवती-अङ्गम् , ज्ञाताधर्मकथाङ्गम् , उपासकदशाङ्गम् , अन्तकृद्द शाङ्गम् , अनुत्तरोपपातिकदशाङ्गम् , प्रश्नव्याकरणाङ्गम् , विपाकश्रुताङ्गम् , दृष्टिवादाङ्गम् । ६ प्रस्तार्य-भां. मां०। ७-कः द्रविर्भ-आ० वि०। ८-स्य ग्रहद्रव्या-पा० बा०। ९ "द्रव्येण अर्थो द्रव्यार्थः द्रव्यमर्थोऽस्य इति वा । अथवा द्रव्यार्थिकः-द्रव्यमेव अर्थो यस्य सोऽयं द्रव्यार्थः-खार्थिकोऽयम् 'उत्' प्रत्ययः--द्रव्यार्थिकः । एवं पर्यायार्थः पर्यायार्थिको वा'-नयच. आ० लि. पृ० ३ द्वि. पं. ६। १० योगविभागोल्लेखश्च पात-महाभाष्ये खं० २ पृ. ३५८ पं० १६ । ११ "मयूरव्यंसकादयश्च" । २, १, ७२ पाणि. व्या. पृ० १७९ अं० ७५४ । “मयूरव्यंसकेत्यादयः" । ३, १,११६ हैम० व्या० पृ० २४ द्वि० पं०१०। १२ अत्र चच्छआ. हा० वि०। १३ छन्दोभाभयं च 'पजायत्थिओ' इति निर्दिटे मात्राद्वयाधिक्यात् “गाहाइ सत्तावणि' इति वचनात्-प्राकृ० पि० पृ. १०३ पं० ३ । “आयैव संस्कृतेतरभाषासु 'गाथा' संज्ञा” इति हैम. छन्दो० पृ. २६ द्वि. पं. १८। १४ प्र० पृ. पं. ८ । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ प्रथमे काण्डेतेनात्रापि पर्याय एव 'अस्ति' इति मतिरस्येति द्रव्यास्तिकवत् व्युत्पत्तिष्टया; स च विशेषप्रस्ता. रस्य-ऋजुसूत्रशब्दादेः-आद्यो वक्ता । ननु च 'मूलव्याकरणी' इत्यस्य द्रव्यास्तिक-पर्यायनयावमिधेयाविति द्वित्वाद् द्विवचनेन भाव्यम्, न; प्रत्येक वाक्यपरिसमाप्तेः, अत एव चकारद्वयं सूत्र निर्दिष्टम् । शेषास्तु नैगमादयो विकल्पा भेदाः अनयोर्द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकयोः । 'सिं' इति ५प्राकृतशैल्या। "बहुवयणेण दुवयणं" [ ] इति द्विवचनस्थाने बहुवचनम् । तथाहि-परस्परविविक्तसामान्य-विशेषविषयत्वाद् द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकावेव नयौ, न च तृतीयं प्रकारान्तरमस्ति यद्विषयोऽन्यस्ताभ्यां व्यतिरिक्तो नयः स्यात् । तृतीयविषयस्य चासम्भवो मेदाभेदविनिर्मुक्तस्य भावस्वभावस्यापरस्यानुपपत्तेः । ताभ्यामन्य एकस्तद्वानर्थोऽस्तीति चेत्, न; १० स्वभावान्तराभावात् प्रकृतविकल्पानतिवृत्तेः तत्स्वभावातिक्रमे वा खपुष्पसदृशत्वप्रसक्तेः । ताभ्यां तद्वतोऽर्थान्तरइस्य(न्तरस्य) सर्वथा सम्बन्धप्रतिपादनोपायासम्भवात् समवायस्य तैरसम्बन्धे तयपदेशानुपपत्तेः, समवायान्तरकल्पनायामनवस्थाप्रसक्तेः विशेषणविशेष्यसम्बन्धकल्पनायामप्यपरापरतत्कल्पनाप्रसक्तेर्न सम्बन्धसिद्धिः। ततः स्थितमेतद् न किञ्चिन्नयद्वयबहिर्भावि भावस्वभावान्तरविकल्पनावलम्बि प्ररूपणान्तरमिति । केवलं तयोरेव शुङ्ग्यशुद्धिभ्यामनेकधा वस्तुस्वभावनिरूपण१५ विकल्पाभिधानवृत्तयो व्यवतिष्ठन्ते ।। ____ तत्र शुद्धो द्रव्यास्तिको नयः संग्रहनयाभिमतविषयप्ररूंढकः । तथा च संग्रहनयाभिप्रायःसर्वमेकं सत्, अविशेषात् । तथाहि-भावाः स्वरूपेण प्रतिभान्ति तच्च स्वरूपमेषी सल्लक्षणमविकल्पकप्रत्यक्षग्राह्यम् , भेदोऽन्यापेक्ष इति" न तेषां स्वरूपम्-यद् अन्यानपेक्षया झगित्येव प्रतीयते तत् स्वरूपम् , भेदस्य तु विकल्पविषयत्वादन्यापेक्षत्वेन काल्पनिकत्वम्; काल्पनिकं च अपरमार्थसदु२० च्यते । तथाहि-एवमेव भेदप्रतीतिः-'इदमस्माद् व्यावृत्तम्' एतच्चाध्यक्षस्यागोचरः, अत एव सर्वावस्थासु यद् अनुगतं रूपं तदेव तात्त्विकम्, यथा सर्पादिविकल्पेषु वोधमात्रं सर्वेष्वनुगच्छत् तथाभूतम्-सर्पाद्याकारास्तु व्यावृत्ताः परस्परतो भिन्नरूपा बाध्यन्ते, न पुनर्बाधकेन बोधमात्रस्य बाधा-तथा घटादिषु विभिन्नेषु मंद्रूपतावृत्तिः (?) यावरेण्यवस्था तावदनुगतीयां(याः) मृदूपतायाः सत्त्वम्, घटादीनां तु कश्चित् कालं प्रतीयमानानामप्यर्थक्रियां च साधयतां स्वप्नदृष्टपदार्थवन्न २५ सत्त्वम् । यथा स्वभेदेष्वनुगताया मृद्रूपतायास्तात्त्विकत्वम् एवं मृदूपत्वादीनामपि सत्त्वापेक्षया भेदरूपत्वान्न तात्त्विकत्वम् । अत एव तत्वविद्भिरुक्तम् १-ति द्रव्या-भां० मा० । २ पृ० २७१ पं. ७ । ३-ति द्विवच-आ० हा० वि० । ४-कंच वा-वा. बा। ५ 'दव्वढिओ य पजवणओ य' इति सूत्रे यद् 'य'द्वयं तदेव संस्कृतशैल्या 'च'कारद्वयम्-पृ. २७१ पं० ८। ६-करप्या मे-भां० मा०। ७ “आमा सिं" । प्राकृतप्र० षष्ठप० सू० १२ पृ. ७१ पं० ४।" "वेदंतदेतदो ङसाम्भ्यां सेसिमौ”। ८,३, ८१ है. प्रा०व्या० पृ. ९७ पं० १५ । ८ "बहुवयणेण दुवयणं छठिविभत्तीए भण्णइ चउत्थी । जह हत्था तह पाया नमोऽत्थु देवाहिदेवाणं" ॥ इति एतत् संपूर्ण पद्यं “उक्तं च" इत्युल्लिख्य निर्दिष्टम्-ललितवि० वृ. पृ० १२ द्वि. पं० १२ । “दुव्वयणे बहुवयर्ण" इत्याद्यपि तथैव निर्दिष्टम्-आव• हारि• वृ० पृ० ११ द्वि० पं०३ । मलयगिरिसूरिस्तु “यदाह पाणिनिः" इति निर्दिश्य "द्विवचन बहुवचनेन" इति सूत्रमुल्लिखति-धर्मसं० वृ० पृ० १०७ प्र. पं० ११ । “द्विवचनस्य बहुवचनम्। प्राकृतप्र० षष्ठप० सू० ६३ पृ. ८१ पं० १७ । ८, ३, १३० हैम० प्रा० व्या० पृ. १०७पं० ११ । प्राकृतरूपा० पृ. . पं० १८ सू० ८।२, ३, ३४ षड्भा० च० पृ. २० पं० २३ । “द्विवचने बहुवचनम्" प्राकृतम० पृ. ९२ पं०५ सू० १०६। ९-त भा-आ०। १० भावस्याप-वि०। ११-र इत्यस्य सर्व-वा० बा. विना। १२-रू. पकः भा० मां० ।-रूढः आ०। १३ तत्र स्व-वा० बा० । तत्व स्व-आ० हा० वि०। १४-पां स्वलक्षवा. बा०।-षां स्वलक्षणविक-आ. हा०वि०। १५-ति ते-वा. बा. विना । १६-गतरू-भां० मा० । १७ मृदूपताप्रवृत्तिः वा. बा० । मृदूपेतावृत्तिः हा० । मृदूपे नावृत्तिः वि०। १८-तायां सत्त्वं आ० हा०वि०।-तायाः सत्त्वं वा० बा०। १९-त्वमेव मृ-वा. बा. हा.वि. विना। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा त्या वादात "आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत् तथा । वितथैः सदृशाः सन्तोऽवितथा इव लक्षिताः"॥ [गौडपा० का०६ पृ० ७० वैतथ्याख्यप्र० ] वितथैस्तु सादृश्यमवितथत्वाभिमतानां कालत्रयाव्यापित्वम् तत् प्रत्यक्षेण प्रतीयमानस्य सदूपताया ग्रहणात् “संवेंमेकं सल्लक्षणं च ब्रह्म" [ ते" [ऋग्वे० मण्ड० ६ सू० ४७ ३० १८] ५ इत्यनेनाऽभिन्नस्य मायाकृतो भेदो दर्श्यते । ता, ब्राह्मणेऽपि भेदनिषेध उक्तः "नेह नानास्ति किश्चन" [ बृहदा० उ० अ०४ ब्रा०४ मं० १९] तथा, मेददर्शिनो निन्दार्थवादः श्रूयते"मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पयति" [बृहदा० उ० अ०४ ब्रा०४ मं० १९] १० 'इव' शब्देनौपचारिकत्वं भेदस्य दर्शितम्। तथा, “एकमेवाऽद्वितीयम्” [छान्दो० उ० अ०६खं०२ मं०१] इत्यवधारणाऽद्वितीयशब्दाभ्यामयमेवार्थः स्फुटीकृतः _ "पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतम्" [ऋक्सं० मण्ड० १० सू० ९० ऋ०२ ] इत्यादिकश्चानेकस्तदद्वैतप्रतिपादक आम्नायः। न चागमस्याऽभेदप्रतिपादकस्य प्रत्यक्षबाधा, तस्याऽनुगतरूपग्राहकत्वेनाभ्युपगमात् तथाऽवि-१५ रोधित्वात् । तदुक्तम् "आहुर्विधातृ प्रत्यक्षं न निषेद्ध विपश्चितः। नैकत्वे आगमस्तेन प्रत्यक्षेण विरुध्यते" ॥ [ ] इति । न चैतद् वचनमात्रम् यतो भेदैः प्रत्यक्षप्रतीतिविषयत्वेनाभ्युपगम्यमानः किं देशभेदादभ्युपगम्यते, आहोश्चित् कालभेदात्, उत आकारभेदात् ? तत्र न तावद् देशमेदाद् भेदो युक्तः, २० स्वतोऽभिन्नस्यान्यभेदेऽपि भेदानुपपत्तेः-न ह्यन्यभेदोऽन्यत्र सामति । किञ्च, देशस्यापि यद्यपरदेशभेदाद् भेदः तथासति तद्देशस्यापि अपरदेशभेदाद् भेदः इत्यनेनानवस्था । स्वत एव चेद् देशभेदस्तर्हि भावभेदोऽपि स्वत एवास्तु किं देशभेदाद् भेदकल्पनया ? अपि च, यावद्वष्टब्धौ देशौ मिन्नौ भावयोर्भेदको नेतोद्भातः (नैवोद्भातः) तत् कुतस्तद्भेदाद् भेदो ज्ञातुं शक्यः स्वतोऽव्यवस्थित १ गौडपा. का. ३१ पृ.१८० अलात० प्र०। "जस्स नस्थि पुरा पच्छा मज्झे तस्स कुओ सिया?"-आचारा. शीतोष्णीयअ० ४, उ०४ । "आदावन्ते च यन्नास्ति मध्येऽपि हि न तत् तथा"-नयोप० श्लो० १४ यशो० भा० पृ० १०६ । २-नस्यासद्रूपतया ग्र-वा. बा.। ३ सर्वमिदं स-आ. हा०वि०। ४-मस्याऽमे-भां. मां० वि० विना । ५ बृहदा० उ० अ० २ ब्रा०५ मं० १९ । गौडपा. का. ७ टी. पृ. ३५ पं० २० । गौडपा. का० २४ टी. पृ. ३१ पं० २४ । संक्षेपशा० अ० २ श्लो. १२५ टी० पृ. ८० पं० २० । “इन्द्रः परमेश्वरः, मायाभिःxxx पुरुरूपः बहुरूपः, ईयते गम्यतेxxx"-बृहदा० उ० भा० अ० २, ब्रा० ५ पृ. ३८४ पं० १०। "मायाभिः प्रत्यगज्ञानैर्यदि वाऽनृतबुद्धिभिः । गम्यते पुरुरूपोऽज्ञैरेकोऽपि जलसूर्यवत्" ॥ बृहदा० उ० भाष्यवार्ति० अ० २, ब्रा० ५ श्लो. १२७ पृ. ११३१ । ६-था ब्रह्मणेऽपि आ० हा० वि० ।-था ब्रह्मणोऽपि भां० मा० । ७ "मनसैवानुद्रष्टव्यं नेह नानाऽस्ति किञ्चन । मृत्योः स मृत्युमानोति य इह नानेव पश्यति" ॥ बृहदा० उ० अ० ४ ब्रा० ४ मं० १९ । "मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानाऽस्ति किश्चन । मृत्योः स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति" ॥ कठो० अ० २, वल्ली ४ श्लो० ११ । ८ गौडपा० का० १३ टी० पृ० ११८ पं० ७ तथा का० २४ टी० पृ० १३२ पं० ९। ९ “ सदेव सोम्येदमग्र आसीद् एकमेवाऽद्वितीयम्" इत्यादि । १. “पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भव्यम् । उताऽमृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति" ॥ श्वेताश्व० उ० अ०३ मं०१५। ११-कस्वानेक-वा. बा० ।-कस्वनेक-हा० वि० ।-कस्त्वनेक-वि० सं०। १२-था वि-भां. मां० विना । १३ “प्रत्यक्षेण प्रबाध्यते"-प्रमेयक० पृ० १७ द्वि० पं० १२। १४ प्रमेयक पृ० १७ द्वि. पं० १३। १५-परभेदा-भां० मां०। १६-त्यनवस्था भां० मा० ।-त्यनेन वस्था वा० बा०। १७-मिन्नोर्भा-वा. बा. आ०। १८-दकौन तौ भातः भा. मां-दकौन तो भावः हा. वि.। स० त० ३५ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - योरन्यव्यवस्थापकत्वायोगात् ? यश्चाऽनवधो देशः प्रतिभाति नासौ भेदकः अतिप्रसङ्गात् । तथ देशभेदाद् भावभेदः समस्तीति नासौ प्रत्यक्षग्राह्यः । २७४ नापि कालभेदात् प्रत्यक्षतो भिन्नं वस्तु प्रत्येतुं शक्यम् सन्निहितमात्रवृत्तित्वात् तस्य । तथाहि - यदा आद्यं दर्शनं मृत्पिण्डमुपलभते न तदा भाविनं घटम्, तदप्रतीतौ तदपेक्षया न स्ववि५ पयस्य भेदं प्रत्यक्षं प्रत्येतुं समर्थम् प्रतियोगिग्रहणमन्तरेण 'ततो भिन्नमिदम्' इत्यनवगतेः । तत्र हि दर्शने मृदः स्वरूपं प्रतिभातीति तदधिगतिर्युक्ता; तत्राऽप्रतिभासमानं तु भाविघटादिरूपं भविष्यतीति नात्र प्रमाणमस्ति, नापि तस्माद् भेदः । अथ उत्तरकालभावि दर्शनं भिन्नं घटं मृत्पिण्डाद् दर्शयतीत्यभ्युपगमः सोऽप्ययुक्तः, यतः तदपि दर्शनं पुरः स्थितार्थप्रतिभासनान्न पूर्वदृष्टार्थग्रहणक्षमम्, तदग्रहणे च न तस्माद् भेदमादर्शयितुं क्षमं वर्तमानार्थस्य । तस्मान्न तेनापि भेदगतिः । १० अथ पूर्वदृष्टार्थस्य स्मृत्या ग्रहणात् वर्तमानस्य च दर्शनेन प्रतिभासनाद् भेदाधिगतिः नहि केवलं दर्शनं भेदाऽऽवेदकं किन्तु स्मृतिसचिवम्, असदेतत् यतः स्मृतिरपि पूर्वमनुभूतमवैति न च पूर्व भिन्नमवगतम्, तत् कथं साऽपि प्रतियोगिनं भिन्नमादर्शयितुं क्षमा ? तन्न तयाऽपि मेदाधिगतिः । किञ्च, स्वरूपनिमग्नत्वान्न भवभेदमवगन्तुं सा समर्था । तथाहि स्मर्यमाणेन वा रूपेण स्मृतिस्तमर्थमवतरेत्, दृश्यमानेन वा ? न तावद् दृश्यमानेन रूपेणार्थमवतरति स्मृतिः तस्य तत्रा१५ प्रतिभासनात् । नापि स्मर्यमाणेन रूपेण तमर्थमवतरति, स्मर्यमाणस्य रूपस्य तत्राभावात् - परिस्फुटं दर्शनारूढं हि रूपं तस्य पूर्वमधिगतम् न च तत् स्मृतौ प्रतिभाति । तन्नार्थस्वरूपग्राहिणी स्मृतिः सम्भवतीति न ततो भेदग्रहः । अथोत्तरदर्शने स्मृतौ वा यदि पूर्वरूपं नाभाति तदा तदप्रतिभासनमेव भेदवेदनम् । तथा चाह“विशिष्टरूपानुभवान्नान्यतोऽपि निराक्रिया” [ ] इति, २० एतदप्यसङ्गतम् ; यतः पूर्वरूपविविक्तता प्रत्यक्षप्रतिपत्तेः स्मृतेर्वा कुतोऽवगत ? तादृक् स्मृतिश्च मपि स्वार्थ निमग्नं न पूर्वरूपमधिगन्तुमीशम्, तदंनवगमे च न तद्विविक्तताधिगतिः तदेंप्रतिभासनमपि तदप्रतीतेरेवासिद्धम् । तस्मात् 'पूर्वरूपमासीत्' इति न काचित् प्रतिपत्तिः प्रतिपत्तुं क्षमा । अथ भावरूपमेव भेदः तत्प्रतिभासे सोऽपि प्रतिपन्न एव, तदप्यसत् यतो न भावरूपमेव भेदः, प्रतियोगिनमपेक्ष्य 'ततो भिन्नमेतत्' इति भेदव्यवस्थापनात् । यदि च स्वरूपमेव भेदस्तदाऽर्थ२५ स्यात्मापेक्षयापि भेदः स्यात् । परापेक्षया स्वरूपभेदः नात्मापेक्षयेति चेत्, नः पररूपाप्रतिपत्तौ तदपेक्षया स्वरूपभेदो न प्रतिपत्तुं शक्य इति न पूर्वापरकालभेदः पदार्थसम्भवी । अर्थ आकारभेदाद् भेदः समानकालयोनल पीतयोरवभासमा नवपुरस्ति, यत्रापि देश-कालभेदस्तत्रापि तद्रूपेण स्वरूपे भेद एवोपलक्ष्यते न पुनः स्वरूपभेदादपरो भेदः सम्भवति अन्यस्यान्यभेदेन भेदायोगात् तस्मात् स्वभावभेद एवास्ति प्रतिभासनात् इत्यप्ययुक्तम्; यतः स्वरूपभेदो ३० द्वयोरुयोत मानवपुषोः किं स्वत एव प्रतिभाति, उत व्यतिरिक्त प्रतिभासावसेयः ? तत्र न तावद् "बोधात्मा पुरस्थयोर्नील- पीतयोर्भेदमवगमयितुं प्रभुः तस्यापरोक्षनीलाद्या कारव्यतिरिक्तवपुषः सुखादिव्यतिरिक्ततनोश्चाप्रतिभासमानत्वेनासत्त्वात् । तथाहि बहिनीलादिः सुखादिश्चान्तः परिस्फुटं द्वयमाभाति न तद्यतिरिक्तो वोधात्मा स्वप्नेऽप्युपलभ्यत इति कथमसावस्ति ? अथ 'अहम्'प्रत्ययेन बोधात्माऽवसीयते, नः तत्र शुद्धस्य बोधस्याऽप्रतिभासनात् । स खलु 'अहं सुखी दुःखी ३५ स्थूलः कृशो वा' इति सुखादि शरीरं वाऽऽलम्बमानः प्रसूयते न तयतिरिक्तं बोधस्वरूपम्, तंत्र तद्विषयोऽप्यसौ स्वरूपेण वाऽप्रतिभासमानवपुर्बोधः कथं भावान् व्यवस्थापयितुं प्रभुः ? नहि शशुविषाणं कस्यचिद् व्यवस्थापकं युक्तम् । भवतु वा व्यतिरिक्तो बोधः प्रकाशमानवपुस्तथाऽप्यसौ १ प्रमेयक० पृ० १७ द्वि० पं० १४ । २ भेदे अ-वा० वा० भ० मां० । ३- नस्य द-भां० मां० विना । ४- दामेद-आ० हा० । दावेकं भां० मो०] । ५- भावे भे-वा० बा० । ६-पा भावा-आ० हा० वि० । -पानुभवा ना-वा० वा० । ७-तोऽन्यनि-वा० बा० । ८-ता या हक् वा० बा० । अत्र 'सा हक्' इति स्यात् । ९- दनधिग-भां० मां० वा० बा० । १० - दनुप्रवा० बा० । ११- रूपे भे- हा० वि० । १२ - दार्थस्य सभां० मां० । १३ प्रमेयक० पृ० १८ प्र० पं० १ । १४ बोधात्मपु-आ० ह० वि० । १५ - शरीरं चावि• । “शरीरं चावलम्बमानोऽनुभूयते न पुनस्तदव्यतिरिक्तं बोधखरूपम् " - प्रमेयक० पृ० १८ प्र० पं० ३ । १६ तन्न त हा० बि० विना । १७- रूपेणे वा वा० वा० ।- रूपेण चा- वि० । १८ - तं भवति । भवतु भां० मां० । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। २७५ खरूपनिमग्नत्वान्न नीलादेर्भिन्नस्य ग्राहको युक्तः; नहि बोधकाले नीलादिकमाभातीति तस्य बोधो प्राहको भवेत् नीलादेरपि बोधं प्रति ग्राहकतापत्तेः। ___अथ बोधात्मा पुरःस्थेषु नीलादिषु प्रत्यक्षतां प्रति व्याप्रियमाण उपलभ्यत इति ग्राहकः नीलादिस्तु तद्विषयत्वाद् ग्राह्यः, तदप्यसत्; व्यापारस्य तद्यतिरिक्तस्यानुपलम्भेनासत्त्वात-नहि प्रकाशमाननील-सुखादिरूपबोधाभ्यामन्यो व्यापार उपलभ्यते; उपलम्भे वा तस्य तत्राप्यपरो ५ व्यापारो बोधस्याभ्युपगन्तव्यः पुनस्तत्राप्यपरो व्यापार इत्यनवस्था। अथ स्वत एवासौ व्यापार उपलभ्यते; नन्वेवं तस्य स्वातनयेणोपलम्भाद् व्यापारताऽनुपपत्तिः, न हि बोधावभाससमये स्वत तनुरुद्भासमानः पदार्थबोधव्यापार इति युक्तम् , बोधस्यापि तद्यापारताप्रसङ्गात् । बोधपरतन्त्रत्वाद् व्यापारस्तद्यावृत्तिरिति चेत्, न; समानकालावभासिनस्तस्य पारतन्यायोगात् । न हि स्वरूपेण बोधकाले प्रतीयमानतनु तत् परतन्त्रं भवितुं युक्तम् , बोधस्यापि व्यापारपरतन्त्रतापत्तेः । अनिष्पन्न-१० रूपस्तु व्यापारः सुतरां न परतन्त्रः, नहि खरविषाणं तथाव्यवहारभाग लोके प्रसिद्धम् । तस्मादुभयथाप्यसत् पारतन्यम् । तन कस्यचिद व्यापारः। किञ्च, असावपि व्यापारः किमर्थे व्याप्रियते न वा इति कल्पनाद्वयम् । यदि न व्याप्रियते कथं तस्मिन् सत्यप्यर्थस्य ग्राह्यता बोधस्य च ग्राहकता? अथ व्याप्रियते तदा तत्राप्यपरो व्यापारोऽभ्युपगन्तव्यः तत्राप्यपर इति सैवानवस्था। अथ व्यापारस्य स्वरूपमेव व्यापारः; ननु नीलादेरपि व्यापृतिकाले स्वरूपमस्तीति तत् तस्य व्यापारः स्यात् १५ तसाद बोध-नील-व्यापारलक्षणस्य त्रितयस्यैककालमुपलम्भान्न कर्तृ-कर्म-क्रियाव्यवहतिः सम्भवतीति न ग्राह्य-ग्राहकभावः समस्ति तत्त्वतः। मिन्नकालयोस्तु ज्ञान-शेययोः परस्परसन्निधिनिरपेक्षोपलम्भप्रवर्तनान्न वेद्य-वेदकतासम्भवः । तन्न बोधात्मा तुल्यकालयोनील-पीतयोर्भेदस्य साधकः तस्य स्वरूपनिष्ठत्वात् । किञ्च, सोऽपि नीलादेर्भिन्नः प्रत्येतव्यः तदप्रतीतौ तेन नील-पीतादेर्भेदवेदनायोगात् । नहि भिन्नेनात्मनाऽप्रतीयमानो बोधोऽर्थान् मिन्नान् प्रतिपादयितुं समर्थः, शशविषाणा-२० देरपि व्यवस्थापकत्वप्रसङ्गात् । भिन्नस्तु बोधात्मा प्रत्ययान्तरेण किं प्रतीयते, उत स्वात्मनैव ? यदि 'प्रत्ययान्तरेण' इति पक्षः, सोऽनुपपन्नः; यतस्तदपि प्रत्ययान्तरमन्येन प्रत्ययान्तरेण भिन्नं प्रत्येतव्यम् तदप्यन्येनेत्यनवस्थाप्रसक्तिः स्यात् । अथात्मनैव, तदा स्वरूपनिमग्नत्वान्न नीलावभासं भिनत्ति तत् कुतो भेदसंवित् ? ___अथ स्वत एव नीलादेर्भेदवेदनम् , तदपि न युक्तम् ; यतो यदि स्वत एव नीलादयः प्रकाशन्ते २५ तदा स्वप्रकाशास्ते प्रसंजन्ति; स्वप्रकाशत्वे च नीलादेर्नीलस्वरूपं स्वात्मनि निमग्नं न पीतरूपसंस्पर्शि पीतस्वरूपं च स्वस्वरूपावभासं न नीलरूपसंस्पर्शि, तत् कुतः परस्पराऽसंवेदनात् स्वरूपतोऽपि भेदसंवित्तिः? भेदो हि द्विष्ठो द्वयसंवेदने सति विदितो भवेत्, नीलस्वरूपे वा परोक्षे 'नीलं न पीतमाभाति तथात्वे सत्येकतापत्तेः । अथ अप्रतिभासनमेव मेदवेदनम् । ननु नीलस्वरूपप्रतिभासे नीलं विदितम् पीतादिकं त्वनवभासमानं तत्र नास्तीति न शक्यं वक्तुम् , नास्तित्वावेदने च कुतो३० भेदेसिद्धिः स्वरूपमात्रस्य प्रतिभासनात् ? किञ्च, नीलादेरपि स्थलावभासिनोऽनेकदिकसम्बन्धात् परमाणुरूपतया व्यवस्थापनात स्वरूपमेदः स्यात् पुनर्नीलादिपरमाणूनामपि भिन्नदिक्सम्बन्धात् स्वरूपभेदो भवेत् तथा चानवस्थानान्न भेदस्थितिः। भेदो हि कस्मिंश्चिदेकरू सिद्धे तद्विपर्ययात् स्वरूपस्थितिमासादयेत्, न चानन्तरेण न्यायेन किञ्चिदप्येकं सिद्धम् परमाणोरप्यभेदासिद्धर्भवदभ्युपगमेन । न च नीलस्वरूपं सुखाद्यात्म-३५ तयानानु अभेदस्यापि प्रत्यक्षतोऽप्रसिद्धिः, यतो नीलादिप्रतिभासस्य मेदाऽवेदनमेवाऽमेदवेदनम् । अथ नीलादीनामात्मस्वरूपावेदनमेव भेदवेदनमिति परेणापि वक्तुं शक्यत एव, १-त्वान्नीला-आ० हा० वि०। २-हकापत्तेः आ० हा. वि.। ३-दार्थः बो-भां० मां०। ४-पारास्त-आ० हा० वि० ।-'पारस्य तद्या'-वि० सं०। ५ अनुत्पन्न-भां० मां० वा. बा०। ६ प्र. पृ० पं०६। ७-रस्व-आ. हा. वि. वा. बा.। ८-नात्माऽप्र-वा. बा० ।-नात्मा प्र-आ. हा. वि.। ९-प्यपरेणेत्यन-आ. हा० वि०। १०-सज्जन्ति वा० बा० । ११-स्पर्शि तत् कुतः आ० हा० वि.। १२-स्परसं-वा० बा.। १३ नीलं पी-वा. बा०। १४-स्तितावे-आ० वि०। १५-दसिद्धिः स्वरूपसिद्धिः स्वरूपमात्र-आ. हा० वि०। १६-स्था नात्र भे-भां. मां०। १७-रूपे स्थि-आ. वि. । १८-प्यमेदसि-भां० मां० विना। १९-भेदावे-वा. बा० । टपतात म RGP Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे ततश्च कः स्व-परपक्षयोर्विशेषः ? तथाहि-न देश-काल-सन्तानाकारैरेकत्वं जगतः प्रतीयते परसरोपलम्भपरिहारेण देशादीनां प्रतिभासनात्, असदेतत् ; अन्योन्यपरिहारेणोपलब्धेरद्वैतवादिनोऽप्र. सिद्धत्वात् । न च परस्परानुप्रवेशोपलब्धिरपि भेदवादिनोऽसिद्धेति वक्तुं शक्यम्, सन्मात्रोपलब्ध सर्वत्र सद्भावेन परस्परानुप्रवेशोपलब्धेरनुप्रसिद्धेः । तथाहि-अस्ति तावदयं प्रतिभासः अत ५एवाद्वैतमस्तु, न ात्र भेदप्रतिभासः, नापि भेदाभेदप्रतिभासः, अपि त्वभेदप्रतिभास एव बहिनी लादेर्भिन्नस्य भिन्नाभिन्नस्य चाऽयोगात् । अथ अभिन्नस्यापि बहिर्नीलादेरयोगः तर्हास्तु ज्योतिर्मा प्रकृतिपरिशुद्धं परमार्थसत् तत्त्वम् । न च नीलादेवहीरूपतया प्रतिभासमानस्यापि असत्त्वे ज्योतित्रिस्यापि परमार्थसंतत्वरूपस्यासत्त्वमस्तु इति वक्तुं शक्यम्, नीलादेर विद्यावेद्यत्वेनाऽतत्त्वरूपव्यवस्थितेः ज्योतिर्मात्रस्य तु विद्यावेद्यत्वेन तद्विपर्ययरूपत्वेनावस्थानात् । तन्न प्रत्यक्षतः कथमपि १० मेदवेदनम्, स्मरणाद् वा उक्तन्यायेन । अथ सामग्री सा तादृशी दर्शन-स्मरणरूपा यतः प्रत्येकावस्थाऽसम्भवि मेदवेदनाख्यं कार्य: मुदयमासादयति, असदेतत्; यतः सामन्यपि कार्यजनने समर्था नात्मस्वरूपप्रादुर्भावे मेदवेदनलक्षणे । न च स्मरण-प्रत्यक्षव्यतिरिक्तमपरं भेदग्रहणम् येन सामग्री तद् जनयेत् । अथ मेदनिश्चयजनने द्वयं व्याप्रियते, तदयुक्तम् ; ग्रहणमन्तरेण निश्चयस्यायोगात् । ग्रहणं (?) च न भेदव्यापारंवत् १५स्मरणसहायं ग्रहणम् कथं ग्रहण एवं व्यापारवद् युक्तम् न च निश्चयस्यापि स्मरणादन्यस्तन्निश्चयः ततो निश्चयात् स्मरणभेदानिश्चय इति न न्यायसङ्गतमेतत् । तस्मान्न पूर्वाऽपरयोर्भेदग्रहणं दर्शन-स्मरणसामग्रीविशेषादपि। न च समानकालप्रतिभासयोर्नील-पीतयोरितरेतराभावग्रहणे भेदग्रहणं सम्भवति अभावप्रमाणस्येतरेतराश्रयत्वेनानवतारात् । तथाहि "गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षया ॥" [श्लो० वा० सू० ५ श्लो० २७ अभावप० ] इति तस्य लक्षणम् । न च ग्रहणमन्तरेण प्रतियोगिस्मरणम्, न च प्रतियोगिस्मरणमन्तरेण भेदसाधकाभावप्रमा णावतार इति कथं नेतरेतराश्रयदोषः ? भेदग्राहकप्रत्यक्षाभावेऽनुमानस्यापि न भेदग्राहकत्वेन २५प्रवृत्तिः तस्य प्रत्यक्षपूर्वकत्वात् , अनुमानपूर्वकत्वे इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । तन्न कुतश्चित् प्रमाणाद् भेदेसिद्धिः। न च(चा)प्रामाणिका वस्तुव्यवस्था अतिप्रसङ्गात् । न चात्रेदं प्रेरणीयम्-सल्लक्षणमेकं ब्रह्म विद्यास्वभावं चेत् न किञ्चिन्निवय॑म् अवाप्तव्यं वा भवेत् ततश्च तदर्थानि शास्त्राणि प्रवृत्तयश्च तत्प्रयोजना व्यर्थाः स्फुरद्विद्यायाः (१) प्रभावात् द्वितीयस्या अविद्यास्वभावत्वे वा न सत्त्वम् नापि ब्रह्मरूपता, यतो नाऽविद्यास्वभावं ब्रह्म, नापि ३० विद्यास्वभावत्वे शास्त्राणां प्रवृत्तीनां च वैयर्थ्यम् , अविद्याया व्यापारनिवर्त्यत्वात्। न त्व(न्व)विद्या नैव ब्रह्मणोऽन्या तत्त्वतोऽस्ति अतः कथमसौ यत्ननिवर्तनीयस्वरूपा? अत एव तस्यास्तत्त्वतः सद्भावे का स्वरूपं निवर्तयितुं शक्नुयात् ? न चास्माकमेव पुरुषप्रयत्नोऽविद्यानिवर्तको मुमुक्षूणाम् किन्तु सर्वत्र प्रवादेष्वतात्त्विकाऽनाद्यविद्योच्छेदार्थो मुमुक्षुयत्नः। १-हारोप-वि० । २-क्यं तन्मा-वा० बा० विना। ३-लब्धिसि-भा० मां०। ४-सत्व-आ० वि० । ५-द्यत्वेन तद्विप-आ० हा० वि०। ६-तः सा साम-आ. हा० वि०। -मर्थनात्मस्व-आ० ।-मर्थनात्सव-हा० वि०। ८-रस्मर-वा० बा०। ९-त् गृही-भां० मां०। १०-गिनः स्म-भां० मा० । ११-क. त्वेन इत-वा. बा. विना। १२-दसिद्धिः तदा प्रा-भां. मां०। १३ “अथ एकरूपब्रह्मणो विद्यास्वभावत्वे तदर्थानां शास्त्राणां प्रवृत्तीनां च वैयर्थ्यम् निवर्त्य-प्राप्तव्यखभावाभावात् , अविद्याखभावत्वे च असत्यत्वप्रसङ्गः"-प्रमेयक. पृ. १८ प्र. पं०४। १४ स्फुरविद्याया अभावा-भां. मां । स्फुरतिविद्यायाः प्रभावा-आ० वि०। स्फुरतिविद्याया प्रभावा-हा०। अत्र-र्थाः स्युः अविद्याया अभावात् । द्वितीयेऽस्याऽविद्याखभावत्वे वा (च) न सत्त्वम्' इत्ययं पाठः प्रेक्षावद्भिः कलयित्वा विचार्यः। १५-यतो नो वि-भां० मां०। १६ प्रमेयक. पृ. १८ प्र. पं०५-७। १७-त् न च वि-आ० ।-त् तत्ववि-भां• मां । १८-स्यासत्व-वा. बा०। १९ रूपं विनि-भां० मा० । २. सर्वप्र-भां० मां. वा. बा०। २१-त्विकोऽना-वा. बा. विना । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। २७७ अथापि स्यात् न बमोऽनादेनोंच्छेदः किन्तु नित्यस्य ब्रह्मणः किमविद्या स्वभावः, आहोस्विद् अन्यथा? न तावत् स्वभावः ब्रह्मणस्तद्विपरीतविद्यास्वभावत्वात्, अर्थान्तरत्वे तस्यास्तत्त्वतः सद्भावे नोच्छेदः द्वैतप्रसङ्गश्च । अथ मतम्-अग्रहणमविद्या; सा कथमर्थान्तरम् ? न चाऽनिवर्त्या सर्वप्रमाणव्यापाराणामग्रहणनिवृत्त्यर्थत्वात्, तदयुक्तम् तत्त्वाऽग्रहणस्वभावा अविद्या तत्त्वग्रहणस्वभावया विद्यया निवर्त्यते; सा तु नित्या ब्रह्मणि, न च ब्रह्मणोऽन्योऽस्ति यस्य तत्त्वाऽग्रहणं ब्रह्मणि प्रयत्न. ५ लभ्यया विद्यया निवर्येत; ब्रह्मणि तु युगपद् ग्रहणाऽग्रहणे विप्रतिषिद्धे अविरोधे वा न विद्यया तत्त्वाऽग्रहणव्यावृत्तिः । यस्य त्वन्यथाग्रहोऽविद्या तस्य ब्रह्मणः तंदतत्स्वभावत्वे उक्तं दूषणम्तत्स्वभावत्वे तद्वदनिवृत्तिः, अर्थान्तरत्वे द्वैतापत्तिः। नित्यप्रबुद्धत्वे च ब्रह्मणः कस्यान्यथात्वग्रह इति वाच्यम् तद्यतिरिक्तस्यान्यस्याऽसत्त्वात्, तस्य च विद्यास्वभावत्वान्न तद्विपरीताऽविद्यास्वभावता विरुद्धधर्मसमावेशायोगात्, अविरोधे विद्यया नाविद्याव्यावृत्तिः। अत्राहः-नाविद्या ब्रह्मणोऽनन्या, नापि तत्त्वान्तरम्, न चैकान्तेनाऽसती ऐवमेव इयमविद्या माया मिथ्याभास इत्युच्यते। वस्तुत्वे तत्त्वाऽन्यत्वविकल्पावसरः, अत्यन्तासत्त्वेऽपि खपुष्पवद् व्यवहारानङ्गम् ; अतोऽनिर्वचनीया सर्वप्रवादिभिश्चैवमेवाभ्युपगन्तव्या। तथाहि-शून्यवादिनो यथादर्शनं सत्त्वे नाऽविद्या, खपुष्पतुल्यत्वे न व्यवहारसाधनम् , सदसत्पक्षस्तु विरोधाघ्रात इत्यनिर्वचनीयाऽविद्या । ज्ञानमात्रवादिनो यथाप्रतिभासज्ञानसद्भावे न बाह्यार्थापहवः घटादेराकारस्य ग्राहका-१५ काराद् विच्छेदेनावभासमानस्यापह्नवायोगात्, अत्यन्तासत्त्वे बहिरवभासाभावात् खपुष्पादेरिव, उभयपक्षस्य चासत्त्वम् विरोधात् । बाह्यार्थवादिनामपि रजतादिभ्रान्तयोऽवभासमानरूपसद्भावानाऽविद्यात्वमश्नुवीरन्, अत्यन्तासत्त्वे न तन्निबन्धनः कश्चिद् व्यवहारः स्यात्, सदसत्पक्षस्तु कृतोत्तरः। तत्रैतत् स्यात्-अवभासमानं रूपं तत्र मा भूत् ग्राहकाकारस्तु सन्ने नासावविद्या, असदेतत् ग्राह्याकारासत्रे च तदवभासोऽपि ग्राहकाकारः सत्यतया न निरूपयितुं शक्यः, न च२० प्रतिभासस्य शून्यः प्रतिभासो नाम कश्चित् । तस्मान्नोऽविद्या सती, नाप्यसती, नाप्युभयरूपा । अत एव निवृत्तिरस्या अदृढस्वभावत्वेन मायामात्रत्वात् अन्यथा दृढस्वरूपत्वेऽवस्थितायाः कथमन्यथास्व(त्वं) स्वभावापरित्यागात् शून्यत्वेऽपि स्वयं निवृत्तत्वात् । एवं च नाद्वैतहानम्, नापि निवर्तनीयाभावः। यच्च कस्यासावविद्येति चोद्यम् तत्र जीवानामिति ब्रूमः; ननु तेषामपि न ब्रह्मणोऽर्थान्त-२५ रता, सत्यम् न परमार्थतः काल्पनिकस्तु भेदस्तेषां ततो न प्रतिषिध्यते, ननु कल्पनापि कस्य मेदिका? न तावद ब्रह्मणः तस्य विद्यास्वभावत्वेन संकलविकल्प्या(ल्पा)तीतत्वात् , नापि जीवानाम् कल्पनायाः प्राक् तेषामसत्त्वात् इतरेतराश्रयप्रसङ्गाच्च-'कल्पनातो जीवविभागः तद्विभागे सति कल्पना' इति। अत्र ब्रह्मवादिनोऽभिदधति-"वस्तुत्वे सत्येष दोषः स्यात् नासिद्धं वस्तु वस्त्वन्तरसिद्धये ३० सामर्थ्यमासादयतीति, मायामात्रे तु नेतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गः । नहि मायायाः कथञ्चिदनुपपत्तिः १-त् न च यु-भां० मां । २-वर्तते वा० बा० । ३-वय॑ते वा० बा०। ४-प्रतिषेधे अवा. बा० वि०। ५ तदसतत्-भां० मां. वा. बा. विना । ६-बुद्धस्य च वा० बा० । ७-स्या स-आ. हा० वि० । ८ अविरोधे विद्याव्या-वा. बा। अविरोधे विद्यया विद्यया विद्याव्या-हा० । अविरोधे विद्यया विद्यव्या-आ०। ९ प्रमेयक पृ. १८ प्र. पं०९।१० तथान्य-वा० बा० । ११-वमत्राभ्यु-मां० ।-चमेत्वाभ्यु-वा० बा० । १२ प्र० पृ० पं० १४-१७। १३-व भासा-आ. हा. वि०। १४-कारस-वि० । १५-कारस-वि.। १६ "नासद्रूपा न सद्रूपा माया नैवोभयात्मिका । सदसयामनिर्वाच्या मिथ्याभूता सनातनी"॥ 'सौरादि'वाक्यत्वेन निर्दिष्टोऽयं श्लोक:-साजयप्र. भा० अ० १ सू. २६ पृ० २५५०३ । १५-स्या दृ-वि० हा० ।-स्याऽदृष्ट-वा. बा० । १८ दृष्टस्व-वा० बा०। १९-रूपेऽव-वा. बा। २०-थार्थस्वभा-भा० मा०।-था स्वभा-हा० ।-था स्वं स्वभावात् प-आ० । २१-बां भावा न भां० मां। २२ सकल्पाती-आ. हा० । सङ्कल्पाती-वि०। २३-त् न त्व सिद्धं- आ० ।-त् निसिद्धं वा. बा० ।-त न सिद्धं हा। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेअनुपपद्यमानार्थैव हि माया लोके प्रसिद्धा उपपद्यमानार्थत्वे तु यथार्थभावान माया" [ । इति केचित् । अन्ये तु वर्णयन्ति-"अनादित्वात् मायायाः जीवविभागस्य च बीजाङ्करसन्तानयोखि नेतरेतराश्रयदोषप्रसक्तिरत्र । तथा चाहुः-"अनादिरप्रयोजनाऽविद्या, अनादित्वादितरेतराम५ यदोषपरिहारः, निष्प्रयोजनत्वे न भेदप्रपञ्चसंसर्गप्रयोजनपर्यनुयोगावकाशः" [ अतोऽपरैर्यत् प्रेर्यते-“दुःखरूपत्वान्नानुकम्पया प्रवृत्तिः अवाप्तकामत्वान्न क्रीडार्थी" [ इत्येतदपि परिहृतमविद्यात्वेन, यतो नासो प्रयोजनमपेक्ष्य प्रवर्त्तते, नहि गन्धर्वनगरादिविभ्रमा समुद्दिष्टप्रयोजनानां प्रादुर्भवन्ति" [ ]। न च भवतु कल्पनातो जीवविभागः किन्तु तेऽपि तत्त्वतो ब्रह्मतत्त्वादव्यतिरिक्तत्वाद् विशुद्ध१० स्वभाँवा इति तेष्वपि नौऽविद्यावकाशं लभत इति वक्तव्यम्, यतो विशुद्धस्वभावादपि बिम्बात् कल्पनाप्रदर्शितं कृपाणादिषु यत् प्रतिबिम्बं तत्र श्यामतादिरशुद्धिरवकाशं लभत एव । अथ विनमः स इति न दोषः, असदेतत्; जीवात्मस्वप्यस्य तुल्यत्वात्-तेष्वप्यशुद्धिर्विभ्रम एव अन्यथा तेवति विशुद्धिर्दुरापैव स्यात् । अथ मुखात् कृपाणादीनामर्थान्तरत्वे भ्रान्तिहेतुता युक्तैव अत्र पुनर्ब्रह्मन्यतिरिक्तस्यै निमित्तस्याभावात् कथं विभ्रमो युक्त इति, एतदप्यनालोचिताभिधानम्। अनादित्वेन परि. १५ हृतत्वात्। अनादित्वेऽपि चोच्छेदः शक्यत एव विधातुम् यथा भूमेरुपरस्य । अथ तंत्र भूव्यति रिक्तेन संस्कारान्तरेण स्वाभाविकस्यापि तस्य निवृत्तिः, न त्वेकात्मवादिनां तयतिरिक्तः आगन्तुको विलक्षणप्रत्ययोपनिपातः सम्भवति द्वैतापत्तेः । नन्वात्मन एव विद्यास्वभावत्वात् कथमना. द्यविद्याँविलक्षणप्रत्ययोपनिपातो नास्तीति उच्यते, उक्तमत्र तेन तथाभूतेनात्मस्वभावेनाविद्याया विरोधाभावात् विरोधे वा नित्यमुक्तं जगद भवेत् । नहि निवर्त्तकविरोधिसमवधाने विरोधिन: २० कदाचिदपि सम्भवः विरोधाभावप्रसङ्गात् । न चात्मव्यतिरिक्तं विद्यान्तरमागन्तुकैमविद्यानिवृत्ति साधनम् एकात्मवादिनस्तस्यायोगात्। तदुक्तम् "स्वाभाविकीमविद्यां तु नोच्छेत्तुं कश्चिदहति । विलक्षणोपपाते हि नश्येत् स्वाभाविकं क्वचित्" ॥ [ "न त्वेकात्मन्युपेयानां हेतुरस्ति विलक्षणः”।[ २५ परिहृतमेतत्-"जीवानामविद्यासम्बन्धः न परीत्मनः असौ सदा प्रबुद्धो नित्यप्रकाशो नागन्तु कार्थः अन्यथा मुक्त्यवस्थायामपि नाविद्यानिवृत्तिः। यतोऽस्मिन् दर्शने ब्रह्मैव संसरति मुच्यते च अत्रैकमुक्तौ सर्वमुक्तिप्रसङ्गः अभेदात् परमात्मनः, यतस्तस्य भेददर्शनेन संसारः अभेददर्शनेन च मुक्तिः, अत एकस्यैव परमात्मनः परमस्वास्थ्यमापतितम् । तस्मान्न ब्रह्मणः संसारः। जीवात्मान एवाऽनाद्यविद्यायोगिनः संसारिणः कथञ्चिद् विद्योदये विमुच्यन्ते तेषां स्वाभाविकाऽविद्याकलुषीक३० तानां विलक्षणप्रत्ययविद्योदये नाऽविद्यानिवृत्तेरनुपपत्तिः यतो न तेषु स्वाभाविकी विद्यौ अविद्यावत् अतस्तया निवृत्तिः स्वाभाविक्या अप्यविद्यायाः" [ ] इत्येवं केचित् । अन्ये तु "ब्रह्म-जीवात्मनामभेदेऽपि बिम्ब-प्रतिबिम्बवत् विद्याऽविद्याव्यवस्थां वर्णयन्ति । कथं पनः संसारिषु विद्याया आगन्तुक्या: सम्भवः श्रवण-मनन-ध्यानाऽभ्यास-तत्साधनयमनियम-ब्रह्मचर्यादिसाधनत्वात् , तस्य पूर्वमसत्त्वादविद्यावत् । स च श्रवण-मननपूर्वकध्यानाभ्या. १-नार्थे तु भां० मा० । २-स्य वा बी-वि० । ३-नादिप्रयोजनाऽविद्या आ० हा० वि० ।-नादिप्रयोजना च विद्या भां० मा० । ४-श्वसंसप्र-आ० हा०वि०।-श्ववप्र-वा. बा०। ५-मविद्यत्वे-वा. बा० आ० । ६ “नहि द्विचन्द्रालातचक्रगन्धर्वनगरादिविभ्रमाः समुद्दिष्टप्रयोजना भवन्ति"-ब्रह्मसू० अ० २ पा. १ सू० ३३ शाङ्क. भा. भाम० पृ. ४८२ पं. ७ । ७-भाव इति वा० बा० ।-भावादिति भां० मां। ८ नापि वि-आ० हा० वि० । ९-त्मस्वरूप्य-वा० बा० मा०। १०-शुद्धिवि-वा० बा० ।-शद्धर्विहा०।-शुद्धे वि-आ० वि०। ११-त् प्रमाणा-वा० बा० । १२-स्य विपर्ययनि-भां० मा० । १३ भूमेपुरुषस्याथ-भां. मां० । १४ तत्र भूतव्य-वा० बा० । तत्र व्य-आ० हा० वि०। १५ न चैका-मां. मां। १६ न स्वात्म-वा० बा० । १७-द्यालक्षण-वा० बा०। १८ न नि-भां० मा० विना। १९-कवि-आ. डा०वि०। २०-त् उक्तं च वा. बा.। २१ परमात्म-भां० मा० । २२-दये न वि-आ० हा०वि०। २३-द्या वि-आ० हा० वि० । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। २७९ सोऽखिलभेदप्रतियोगी सुव्यक्तमेव वेदे दर्शितः-“स एष नेति नै" [बृहदा० उ० अ० ३, ब्रा०९, मं०२६] इत्यादिना सप्रतियोगित्वाद् भेदप्रपञ्चं निवर्तयताऽऽत्मनापि प्रलीयते, यतः श्रोतव्यादीनामभावे न श्रवणादीनामुपपत्तिः, स तु तथाभूतोऽभ्यस्यमानः स्वविषयं प्रविलापयन्नात्मोपघाताय कल्पते तदभ्यासस्य परिशुद्धात्मप्रकाशफलत्वात् यथा रजःसम्पर्ककलुषे उदके द्रव्यविशेषचूर्णरजः । प्रक्षिप्तं रजोऽन्तराणि संहरत् स्वयमपि संहियमाणं स्वस्थां स्वरूपावस्थामुपनयति एवं श्रवणादिभिः ५ #दतिरस्कारविशेषात् स्वगतेऽपि भेदे समुच्छिन्ने स्वरूपे संसार्यवतिष्ठते यतोऽविद्ययैव परमात्मनः संसार्यात्मा भिद्यते तन्निवृत्तौ कथं न परमात्मस्वरूपता यथा घटादिभेदे व्योम्नः परमाकाशतैव भवत्यवच्छेदकव्यावृत्तौ ? तत्रैतत् स्यात्-श्रवणादिर्भेदविषयत्वादविद्यास्वभावः कथं वा अविद्यैव अविद्यां निवर्त्तयति? उक्तमत्र यथा रजसा रजसः प्रशमः एवं भेदातीतब्रह्मश्रवण मनन-ध्यानाऽभ्यासानां भेददर्शनविरोधित्वादविद्याया अप्यविद्यानिवर्तकत्वम् । तथा च तत्त्वविद्भिरत्रार्थे निदर्शना-१० न्युक्तानि -"यथा पयः पयो जरयति स्वयं च 'जीर्यति, यथा विषं विषान्तरं शमयति स्वयं च शाम्यति" [ ] एवं श्रवणादिषु द्रष्टव्यम्"। [. ___स्यादेतत् अभेदस्य तात्त्विकत्वे भेदस्यासत्यता, असत्यरूपश्च भावः कथं सत्यप्राप्तिसाधनम् ? यथा बाष्पादिभावेन सन्दिह्यमानात् 'धूमः' इति गृहीताद् न तात्त्विकी दहनप्रतिपत्तिः। अत्राभिदधति-नायं नियमः-असत्यं न किञ्चित् सत्यं कार्य जनयति यथा मायाकारप्रदर्शिता १५ माया प्रतीतेर्भयस्य च निमित्त तथा रेखा कादीनाम्, तन्नै(त्रै)तद् भवेत्-रेखाकादि स्वरूपेण सद् न खपुष्पसदृशम्, अभेदवादिनस्तु भेदस्य खपुष्पतुल्यत्वात् कथं सत्योपायता? नैष दोषः, सन्तुं स्वरूपेण रेखाकादयः येन तु रूपेण गमकास्तदसत्यम् । तथाहि-कादिरूपेण ते गमकाः तच्च तेषामसत्यम्-कार्योपयोगरहिता तु स्वरूपसत्यता व्यर्था । किञ्चः अभेददृष्युपायोऽपि न स्वरूपेणाऽसन् यतो ब्रह्मैवास्य रूपम् तत्र ब्रह्मैवाविद्यानुबद्धं स्वात्मप्रतिपत्त्युपायः२० यथा रेखाकादयः 'ककारोऽयम्' 'गवयोऽयम्' इत्यविद्यारूपेणैव कादीनां गमकाः । येऽप्याहुः"न रेखाकादयः कादित्वेन कादीनां गमकाः, एवं रेखागवयादयोऽपि न गवयत्वेन सत्यगवयादीनाम्; अपि तु सारूप्यात् एवंरूपा गवयादयः सत्याः, वर्णप्रतिपत्त्युपाया अपि दयः पुरुषसमयात् वर्णानां स्मारकाः न तु तेषां वर्णत्वेन वर्णप्रतिपादकत्वम्, रेखादिरूपेण च सत्त्वाद् गृहीतसमयानां पुनरुपलभ्यमानाः समयं स्मारयन्ति समयग्रहणाद् यथैव व्युत्प-२५ नानां बालादिषु प्रवृत्तिः” [ ], तेऽपि न सम्यगाचक्षते; लोकविरोधात् बाला हि रेखासु व्युत्पन्नैर्वर्णत्वेनैव व्युत्पाद्यन्ते, तथैवोपदेतृणां व्यपदेशः–'अयं गकारादिः' इति, प्रतिपत्तुश्च प्रतिपत्तिरभेदेनैव, एवं रेखागवयादिष्वपि द्रष्टव्यम्। त(य)थाऽसत्यात् (असत्यात् प्रतिबिम्बात् सत्यस्य) प्रतिबिम्बहेतोर्विशिष्टदेशावस्थस्यानुमानं न मिथ्या तथा शब्दादपि नित्यादसत्यदीर्धा १-प्रतियोगीमुव्य-हा० ।-प्रतियोगीतुव्य-आ० ।-प्रतियोगीपुव्य-भां० मा० । २-५ ते नित्यादि-वा. बा०। ३ बृहदा० उ० अ० ४ ब्रा० २ मं० ४, ब्रा० ४ मं० २२, ब्रा०५ मं० १५ । गौडपा० का० २६ पृ. १३५ । ४ स्वच्छां भां। ५ “घटादिषु प्रलीनेषु घटाकाशादयो यथा । आकाशे संप्रलीयन्ते तद्वज्जीवा इहात्मनि" ॥ गौडपा० का० ४ पृ० १०७ अद्वैताख्यप्र० । ६-कस्य व्यावृत्त्या भां० म०। ७ तत्रैतस्या-वा० वा. आ. हा०। ८ कथं चा-भां० मा० । ९-त्वविद्वद्भि-भां० मा०। १०-नि पयो यथा पयो आ० हा० वि०। ११ “यथा पयः पयोऽन्तरं जरयति खयं च जीर्यति, यथा विषं विषान्तरं शमयति, स्वयं च शाम्यति, यथा वा कतकरजो रजोऽन्तराविले पाथसि प्रक्षिप्तं रजोऽन्तराणि भिन्दत् खयमपि मिद्यमानमनाविलं पाथः करोति एवं कर्म अविद्यात्मकमपि अविद्यान्तराणि अपगमयत् खयमपि अपगच्छति" -ब्रह्मसू. अ. १ पा. १ सू० १ शाङ्क० भा. भाम. पृ. ५८ पं. १३-१६। १२-जीर्यते आ० वि०। १३-था मायाप्रती-वा० बा० । १४-त्तं रे-भां० मा विना । “तथा अकारादिसत्याक्षरप्रतिपत्तिदृष्टा रेखानृताक्षरप्रतिपत्तेः"-ब्रह्मसू० अ० २ पा० १ सू० १४ शाङ्क० भा० पृ. ४६०५०७॥ १५ सत्तु भां० मां० । सत्त हा०। १६-तु सरू-वा० बा०। १७-कारं ग-भां० मां०। १८ स गभा० मा० विना। १९ गवाद-भो० मां०। २०-यान् आ० हा०वि० । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० प्रथमे काण्डेदिविशिष्टादर्थ विशेषप्रतिपत्ति सत्या। अलीका अहिदंशादयः सत्यमरणहेतवस्तत्त्वविद्भिदाहता एव-यथा-सत्या दंशाद् मरण-मूर्छादि कार्य तथा कल्पितादपि, न तयोर्विशेषः तस्माद्यथा दंशादेरसत्यात् सत्यकार्यनिष्पत्तिस्तथा भेदविषयात् श्रवण-मनन-ध्यानाऽभ्यासादेरसत्यादपि क्षेमप्राप्ति नन्वेवम् अभेदे व्यवस्थिते कथं सुख-दुःखोपलम्भव्यवस्था कथं वा बद्ध-मुक्तव्यवस्थेति ५ नैष दोषः; समारोपितादपि भेदात् सुखादेर्व्यवस्थादर्शनात्-यथा-द्वैतिनां शरीरे एक एवात्मा सर्व गतो वा ठारीरपरिमाणोवाः तस्य समारोपितमेदनिमित्ता व्यवस्था दृश्यते-'पादे मे वेदना' शिरा वेदना' इति, न च वक्तव्यम्-पादादीनामेव वेदनाधिकरणत्वात् तेषां च भेदाद् व्यवस्था युक्तति, यतस्तेषामज्ञत्वेन कथं भोक्तृत्वम् ? भोक्तृत्वे वा सुरगुरुमतानुप्रवेशः आत्मनः सद्भावेऽपि कर्मफलस सुखादेरनुपलम्भात् । तत्रैतत् स्यात्-अद्वैतपक्षे येथैकभेदाश्रितस्यात्मनः कालान्तरे भोगानुस१०न्धानम् तथा देहान्तरोपभोगस्य भेदान्तरे अनुसन्धानं भवेत्, एतदपि न किञ्चित् ; यतो द्वैतिना मपि पादादिप्रदेशो न प्रदेशान्तरवेदनामनुसन्दधाति तथा क्षेत्रज्ञोऽपि कुतश्चिन्निमित्तात् समारो पितभेदो न क्षेत्रशान्तरवेदनामनुसन्धास्यति । तथा, मणि-कृपाण-दर्पणादिषु प्रतिबिम्बानां वर्ष. संस्थानान्यत्वं दृश्यते भेदाभावेऽपि, मुक्त-संसारिव्यवहारोप्युपपद्यते अभेदपक्षेऽपि । तथाहि द्वैतिनामप्यात्मा कल्पितैः प्रदेशैः सुखादिभिर्युज्यमानः क्वचित् सुखादियोगाद् बन्धः (द्धः) क्वचित् १५ तद्वियोगाद् मुक्त इति दृश्यते, यथा मलीमसादर्श मुखं मलीमसम् विशुद्ध विशुद्धम् दर्पणरहितं च गम्यमानं तदुपाधिदोषासंयुक्तम् । तत्रैतत् स्यात्-कल्पना प्रतिपत्तुः प्रत्ययस्य धर्मो न वस्तुव्यवहारव्यवस्थानिबन्धनम्, न खलु वस्तूनि पुरुषेच्छामनुरुन्धते, न चोपचरितात् कार्य दृश्यते, नोपचरिताग्नित्वो माणवकः पाकादिष्व(पू)पयुज्यते, एतत् परिहृतं भ्रान्तीनामपि सत्यहेतुत्वं प्रदर्शयद्भिः"प्रतिसूर्यश्च काल्पनिकः प्रकाशक्रियां कुर्वन् दृष्ट एव"[ __]इति 'सर्वमेकं सत्, २० अविशेषात' इति शुद्धद्रव्यास्तिकाभिप्रायः । [२ सांख्यमतप्रतिपादकः अशुद्धद्रव्यास्तिकनयः] अशुद्धस्तु द्रव्यार्थिको व्यवहारनयमतार्थावलम्बी एकान्तनित्यचेतनाऽचेतनवस्तुद्वयप्रतिपादकसाङ्ख्यदर्शनाश्रितः । अत एव तन्मतानुसारिणः सायाः प्राहुः "अशेषशक्तिप्रचितात् प्रधानादेव केवलात् । कार्यभेदाः प्रवर्तन्ते तद्रूपा एव भावतः ॥" [ तत्त्वसं० का० ७ ] यद् अशेषाभिर्महदादिकार्यग्रामजनिकाभिरात्मभूताभिः शक्तिभिः प्रचितं युक्तं सत्त्व-रजस्तमसां साम्यावस्थालक्षणं प्रधानम् तत एव महदादयः कार्य भेदाः प्रवर्तन्त इति कापिलाः । 'प्रधानादेव' इत्यवधारणं काल-पुरुषादिव्यवच्छेदार्थम् । 'केवलात्' इति वचनं सेश्वरसायोपकल्पितेश्वरनिराकरणार्थम् । 'प्रवर्तन्ते' इति साक्षात् पारम्पर्येणोत्पद्यन्ते इत्यर्थः। तथाहि-तेषां ३० प्रक्रिया--प्रधानाद् बुद्धिः प्रथममुत्पद्यते, बुद्धेश्चाहङ्कारः, अहङ्कारात् पञ्च तन्मात्राणि शब्द-स्पर्शरूप-रस-गन्धात्मकानि-इन्द्रियाणि चैकादशोत्पद्यन्ते-पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि श्रोत्र-त्वक्-चक्षुर्जिह्वाघ्राणलक्षणानि, पञ्च कर्मेन्द्रियाणि वाक्-पाणि-पाद-पायु-उपस्थसंज्ञकानि, एकादशं मनश्चेतिपञ्चभ्यस्तन्मात्रेभ्यः पञ्चभूतानि-शब्दाद् आकाशः, स्पर्शाद् वायुः, रूपात् तेजः, रसाद् आपः, गन्धात् पृथिवीति । तदुक्तमीश्वरकृष्णेन १-काऽहि-भां० मां० । “कथं तु असत्येन वेदान्तवाक्येन सत्यस्य ब्रह्मात्मत्वस्य प्रतिपत्तिरुपपद्येत ? न हि रज्जुसर्पण दष्टो म्रियते नापि मृगतृष्णिकाम्भसा पानाऽवगाहनादिप्रयोजनं क्रियत इति, नैष दोषः; शङ्काविषादिनिमित्तमरणादिकार्योपलब्धेः, स्वप्नदर्शनावस्थस्य च सर्पदंशनोदकस्नानादिकार्यदर्शनात्"- ब्रह्मसू० अ० २ पा० १ सू० १४ शाङ्क० भा० पृ. ४५८ पं० १२ । २-षयश्र-आ० हा० वि० । ३ नै दो-वा० बा० । न दो-आ० हा० वि०।४-रे पवा-वा० बा। ५ यदेक-वा. बा०। ६ अत्र 'तथा' ‘एवं' इत्यादेः कस्यचित् पदस्याध्याहारः समुचितो भाति। ७-मसादर्श मुखं विशुद्ध हा०वि० ।-मसा मुखं विशुद्ध वा० बा० ।-मसे दर्पणतले मलीमसं मुखं विशुद्ध भां• मां०। ८-श्च कादि काल्प-वा. बा०। ९ पृ. २७२ पं० १७। १०-शुद्धद्र-आ• हा. वि.। ११-णः संख्याः भां. हा. विना । १२ इदं संपूर्ण सांख्यप्रकरणं तत्त्वसंग्रहपञ्जिकायां वर्तते-का. ७-१५, पृ० १६-२२ । प्रकृतिपरीक्षा । १३ तत्त्वसं० पनि० पृ० १६ पं० १७ । १४ तत्त्वसं० पजि. पृ. १६ पं०१७। १५ “"प्रवर्तन्ते' , इति साक्षात् पारम्पर्येण वा उत्पद्यन्ते इत्यर्थः"-तत्त्वसं० पजि. पृ० १६५०१८। १६-णोत्पाद्य-मां मां विना । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। २८१ "प्रकृतेर्महांस्ततोऽहङ्कारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि" ॥ [ सासयका० २२] अत्र च 'महान्' इति बुद्ध्यभिधानम्, बुद्धिश्च ‘घटः' 'पटः' इत्यध्यवसायलक्षणा । अहङ्कारस्तु 'अहं सुभगः' 'अहं दर्शनीयः' इत्याद्यभिधानस्वरूपः। मनस्तु सङ्कल्पलक्षणम्-तद्यथा-कश्चिद् बटुः शृणोति-'ग्रामान्तरे भोजनमस्ति' इति, तत्र तस्य सङ्कल्पः स्यात्-'यास्यामि' इति, 'किं तत्र ५ दधि स्यात्, उतखिद् दुग्धम्' इत्येवं सङ्कल्पवृत्ति मन इति । तदेवं वुझ्यहङ्कार-मनसां परस्परं विशेषोऽवगन्तव्यः। महदादयः प्रधान-पुरुषौ चेति पञ्चविंशतिरेषां तत्त्वानि । यथोक्तम् “पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे रतः।। शिखी मुण्डी जटी वाऽपि मुच्यते नात्र संशयः” ॥ [ ] इति । महदादयश्च कार्यभेदाः प्रधानात् प्रवर्तमाना न कारणादत्यन्तभेदिनो भवन्ति वौद्धाद्यभिमता १० इव कार्यभेदाः; किन्तु प्रधानरूपात्मान एव त्रैगुण्यादिना प्रकृत्यात्मकत्वात् । तथाहि-यदात्मकं कारणम् कार्यमपि तदात्मकमेव, येथा कृष्णस्तन्तुभिरारब्धः पटः कृष्णः, शुक्लैः शुक्ल उपलभ्यते एवं प्रधानमपि त्रिगुणात्मकम् । तथा, बुद्ध्यहङ्कारतन्मात्रेन्द्रियभूतात्मकं व्यक्तमपि त्रिगुणात्मकमुपलभ्यते तस्मात् तद्रूपम् । किञ्च, अविवेके(कि)। तथाहि-'इमे सत्त्वादयः' 'इदं च महदादिकं व्यक्तम्' इति पृथक् न शक्यते कर्तुम् ; किन्तु ये गुणास्तद् व्यक्तम् यद् व्यक्तं ते गुणा इति। तथा, उभयमपि १५ विषयः भोग्यस्वभावत्वात् । सामान्यं च सर्वपुरुषाणां भोग्यत्वात् पण्यस्त्रीवत् । अचेतनात्मकं च सुख-दुःख-मोहोऽवेदकत्वात् । प्रसवधर्मि च । तथाहि-प्रधानं बुद्धिं जनयति; साऽप्यहङ्कारम्। सोऽपि तन्मात्राणि-इन्द्रियाणि चैकादश-तन्मात्राणि महाभूतानि जनयन्तीति । तस्मात् त्रैगुण्यादिरूपेण तद्रूपा एव कार्यभेदाः प्रवर्तन्ते । यथोक्तम् "त्रिगुणमविवेकि विषयः सामान्यमचेतनं प्रसवधर्मि । व्यक्तं तथा प्रधानं तद्विपरीतस्तथा च पुमान्” ॥ [ साङ्ख्यका० ११] इति । अथ यदि तपा एव कार्यभेदाः कथं शास्त्रे व्यक्ताऽव्यक्तयो(लक्षण्योपवर्णनम "हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिङ्गम्। सावयवं परतन्त्रं व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम्"॥ [साङ्ख्यका०१०] इति क्रियमाणं शोभेत ? {अत्र ह्ययमर्थः-"हेतुमत् कारणवद् व्यक्तमेव । तथाहि-प्रधानेन २५ २० १ "प्रकृतिः प्रधानमधिकुरुते। ब्रह्म अव्यक्तम् बहुधात्मकम् माया इति पर्यायाः"-माठर० पृ. ३६ पं० १०॥ २ "महान् बुद्धिः मतिः प्रज्ञा संवित्तिः ख्यातिः चितिः स्मृतिः आसुरी हरिः हरः हिरण्यगर्भ इति पर्यायाः"-माठर० पृ. ३६ पं०१२। ३ “अध्यवसायो वुद्धिः"-साङ्ख्यका० २३ । ४ "तस्माद् महतः अहङ्कार उत्पद्यते, तस्य इमे पर्यायाः-वैकृतः तेजसः भूतादिः अभिमानः अस्मिता इति । चतुष्पष्टिवणः परादिवैखरीपर्यन्ताभिधेयैर्यत् किमपि अभिधीयते बुद्धया समर्थ्य तत् सकलम् आद्यन्ताऽकार-हकारवर्णद्वयग्रहणेन उपरिस्थितपिण्डीकृतानुकारिणा बिन्दुना भूषितः प्रत्याहारन्यायेन अ-हंकार इत्यभिधीयते"-माठर० पृ. ३६ पं० १३-१७। ५ अभिमानोऽहकारः"-साङ्ख्यका० २४ तथा माठर० पृ० ४१ पं० १५। ६ “मनः संकल्पकम्"-साङ्ख्यका० २७ । ७ “किं तत्र गुडदधि स्यात् , उतविद् दधि इति"-तत्त्वसं० पजि० पृ० १६ पं० २८ । ८ "जटी मुण्डी शिखी"-माठरवृ० पृ० ३८ पं० ३, शास्त्रवा० स० स्त०३ श्लो० ३७ पृ० ११३ प्र. पं०८, तत्त्वसं० पजि० पृ० १७ पं० ४, “तथा चोक्तं पञ्चशिखेन प्रमाणवाक्यम्" इति निर्दिश्य श्लोकोऽयं समुद्धतः-साङ्ख्यस० तत्त्वयाथा० पृ. ६१५० ४ तत्र अस्येत्थं पाठः-“यत्र कुत्राश्रमे रतः । जटी मुण्डी शिखी वाऽपि"-न्यायाव० टिप्प० पृ० १४ पं० १७। ९ “यथा कृष्णतन्तुः कारणम् पटः कार्यमपि कृष्णमेव भवति"-माठरवृ० पृ० १९ पं० २४ । १० "शुक्लैस्तु शुक्लः"-तत्त्वसं० पजि. पृ० १७ पं. ९। ११ "किञ्च, अन्यत्-अविवेकि व्यक्तम् ।' 'अमी गुणाः इदं व्यक्तम्' इति विवेक्तुं न पार्यते"-माठरवृ० पृ०२० पं० २। "किञ्च, अविवेकि"-तत्त्वसं० पजि. पृ० १७ पं० ११। १२ "किञ्च, द्वयमपि व्यक्तमव्यक्तं च विषयः"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० १७ पं० १३। १३ “गणिकावत्"-माठरवृ० पृ. २० पं० ७॥ "मल्लदासीवत्"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० १७ पं०१४ । १४ "सुख-दुःख-मोहान् न चेतयति"-माठरवृ० पृ० २० पं० ८। १५-हावे-आ० हा० वि०। १६ “ननु यदि तद्रूपा एव कार्यभेदाः तत् कथं शास्त्रे"-तत्त्वसं० पजि० पृ० १७ पं० १९। १७ -"क्षण्यमुपवर्णितम् । तथाहि-ईश्वरकृष्णोक्तम्-तत्त्वसं० पजि. पृ० १७ पं० २०। १८ पृ. २८२ पं०६। “सक्रियम्"-माठरवृ.पृ. १९५०२। तत्त्वसं० पजि. पृ० १७ पं० २०। १९ अत्रयो भावो माठरवृत्तावपि तथैव व्यावर्णितो दृश्यते । स० त०३६ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ प्रथमे काण्डे हेतुमती बुद्धिः, अहङ्कारो वुझ्या हेतुमान , पञ्च तन्मात्राणि एकादश चेन्द्रियाणि हेतुमन्ति अहङ्का रेण, भूतानि तन्मात्रैः । न त्वेवमव्यक्तम् कुतश्चित् तस्यानुत्पत्तेः । तथा, व्यक्तमनित्यम् उत्पत्तिधर्मकत्वात् , तद्विपर्ययाद् न त्वेवमव्यक्तम् । प्रधान-पुरुषौ दिवि भुवि चान्तरिक्षे च सर्वत्र व्याप्तितया यथा वर्तेत(ते) न तथा व्यक्तं वर्तते इति तदव्यापि । यथा च संसारकाले त्रयोदशविधेन बुल्ल ५ हङ्कारेन्द्रियलक्षणेन करणेन संयुक्तं सूक्ष्मशरीराश्रितं व्यक्तं संसारि न त्वेवमव्यक्तम् तस्य विभुत्वेन सक्रियत्वायोगात् । बुद्ध्यहङ्कारादिभेदेन चानेकविधं व्यक्तमुपलभ्यते नाव्यक्तम् तस्यैकस्यैव संतत्रिलोकीकारणत्वात् । आश्रितं च व्यक्तम्-यद् यस्मादुत्पद्यते तस्य तदाश्रितत्वात्, न त्वेवमव्यक्तम अकार्यत्वात् तस्य । 'लयं गच्छति' इति कृत्वा लिङ्गं च व्यक्तम् । तथाहि-प्रलयकाले भूतानि तन्मात्रेषु लीयन्तेः तन्मात्राणि इन्द्रियाणि चाहङ्कारः सोऽपि बुद्धौः साऽपि प्रधाने । न त्वेवमन्यवं १० क्वचिदपि लयं गच्छतीति । लीनं वा अव्यक्तलक्षणमर्थं गमयति व्यक्तं कार्यत्वाल्लिङ्गम् , न त्वेवमव्यक्तम् अकार्यत्वात् तस्य । सावयवं च व्यक्तम् शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्धात्मकैरवयवैर्युक्तत्वात्, न त्वेवमव्यक्तम् तत्र शब्दादीनामनुपलब्धेः । अपि च, यथा पितरि जीवति पुत्रो न स्वतन्त्रो भवति तथा व्यक्तं सर्वदा कारणायत्तत्वात् परतन्त्रम्, नैवमव्यक्तम् अकारणाधीनत्वात् सर्वदा तस्येति नि; परमार्थतस्ताद्रूप्येऽपि प्रकृतिविकारभेदेन तयोर्भेदाविरोधात् । तथाहि-स्वभावतस्वैगुण्यरूपेण १५प्रकृतिरूपा एव प्रवर्तन्ते विकाराः, सत्त्व-रजस्-तमसां त्त(तू)त्कटाऽनुत्कटत्वविशेषात् सर्गवैचित्र्यं महदादिभेदेन न विरोत्स्यत इति कारणात्मनि कार्यमस्तीति प्रतिज्ञातं भवति । नन्वेवं कुतो ज्ञायते प्रागुत्पत्तेः सत् कार्यमिति ? हेतुकदम्बकसद्भावात् । तत्सद्भावश्च "असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत् कार्यम्" ॥ [सायका०९] इति ईश्वर२० कृष्णेन प्रतिपादितः। अत्र च असदकरणात्' इति प्रथमो हेतुः-सत्कार्यसाधनायोपन्यस्तः-एवं समर्थितः-यदि हि कारणात्मनि उत्पत्तेः प्राक् कार्य नाभविष्यत् तदा न तत् केनचिदकरिष्यत, यथा गगनारविन्दम्। प्रयोगः-यद् असत् तद् न केनचित् क्रियते, यथा नभोनलिनम् , असत्त्व(च) प्रागुत्पत्तेः परमतेन गर्यमिति व्यापकविरुद्धोपलब्धिप्रसङ्गः, न चैवं भवति, तस्मात् यत् क्रियते तिलादिभिस्तैलादि २५ कार्य तत् तस्मात् प्रागपि सत् इति सिद्धं शक्तिरूपेणोत्पत्तेः प्रागपि कारणे कार्यम् , व्यक्तिरूपतयाँ च तत् तदा कापिलैरपि नेष्यते।। 'उपौदानग्रहणात्' इति द्वितीयहेतुसमर्थनम्-यदि असद् भवेत् कारणे कार्यम् तदा पुरुषाणां प्रतिनियतोपादानग्रहणं न स्यात्, शालिफलार्थिनस्तु शालिबीजमेवोपाददते न कोद्रववीजम् । तत्र यथा शालिबीजादिषु शाल्यादीनामसत्त्वम् तथा यदि कोद्रवबीजादिष्वपि; किमिति तुल्ये सर्वत्र ३० शालिफलादीनामसत्वे प्रतिनियतान्येव शालिबीजानि गृह्णन्ति न कोद्रवबीजादिकम् , यावता कोद्रवादयोऽपि शालिफलार्थिभिरुपादीयेरन् असत्त्वाविशेषात् । अथ तत्फलशून्यत्वात् तैस्ते नोपादीयन्ते, १ "व्यापितया यथा वर्तेते"-तत्त्वसं० पन्जि. पृ० १७ पं० २६। २-तत्रैलोक्यका-आ०। ३ माठरवृत्तौ तत्त्वसंग्रहपञिकायां च नैषा व्युत्पत्तिदृश्यते। ४-कारा मे-भां० मां० वा. बा.। "प्रकृतिविकारभेदेन"-तत्त्वसं. पञ्जि० पृ० १८ पं० १०। ५ "अथवा 'भावतः' इति स्वभावतस्वैगुण्यरूपेण"-तत्त्वसं. पजि. पृ० १८ पं० ११॥ ६ “सत्त्व-रजस्-तमसां तूत्कटाऽनुत्कटत्वविशेषात्"-तत्त्वसं० पजि. पृ०१८ पं०११। -रोध्य-भां. मां। ८-ति ज्ञातं आ० वा. बा०। ९ नन्वेतत् कु-भां. मां०। १० तत्स्वभा-वा. बा. हा० । ततश्च स्वभाआ० वि०। ११ माठरवृ० पृ० १६ पं० २५ । १२ “यदि त्वसद् भवेत् कार्य कारणात्मनि शक्तितः । कर्तु तन्नैव शक्येत नरूप्याद् वियदजवत्" ॥ तत्त्वसं० का० ८ पृ० १८ । १३-सत्त्वा प्रा-भां० मां. विना ।-सच्च प्रा-वि० सं० । “असच्च प्रागुत्पत्तेः परमतेन कार्यमिति"-तत्त्वसं. पजि. पृ० १८ पं० २१। १४-या तत् तदा आ० हा० वि०। १५ माठरवृ० पृ० १७ पं०४। १६ “कस्माच्च नियतान्येव शालिबीजादिभेदतः । उपादानानि गृह्णन्ति तुल्यसत्त्वेऽपरं न तु" ॥ तत्त्वसं० का. ९पृ० १८। १७-वेति प्र-आ०। १८-जादीनि भा० मा० । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयमीमांसा । _२८३ यद्येवं शालिवीजमपि शालिफलार्थिना तत्फलशून्यत्वान्नोपादेयं स्यात् कोद्रवबीजवत्, न चैवं भवति, तस्मात् तत्र तत् कार्यमस्तीति गम्यते । 'सर्वसम्भवाभावात्' इति तृतीयो हेतुः - यदि हि असदेव कार्यमुत्पद्यते तदा सर्वस्मात् तृणपांश्वादेः सर्वे स्वर्ण-रजतादिकार्यमुत्पद्येत, सर्वस्मिन्नुत्पत्तिमति भावे तृणादिकारणभावात्मैता विरहस्याऽविशिष्टत्वात् । पूर्व कारणमुखेन प्रसङ्ग उक्तः सम्प्रति तु कार्यद्वारेणेति विशेषः । न च सर्व ५ सर्वतो भवति, तस्मादयं नियमः 'तत्रैव तस्य सद्भावात्' इति गम्यते । स्यादेतत् कारणानां प्रतिनियतेष्वेव कार्येषु शक्तयः प्रतिनियताः तेन कार्यस्यासत्येऽपि किञ्चि देव कार्य क्रियते न गगनाम्भोरुहम् - किञ्चिदेव चोपादानमुपादीयते तदेव समर्थ न तु सर्वम् किञ्चिदेवं च कुतश्चिद् भवति न तु सर्व सर्वस्मादिति, असदेतत् यतः शक्ता अपि हेतवः कार्य कुर्वाणाः शक्यक्रियमेव कुर्वन्ति नाशक्यम् । १० ननु नैतदुक्तम्- 'अशक्यं कुर्वन्ति' इति येनैतत् प्रतिषिध्यते भवता किन्तु 'असदपि कार्य कुर्वन्ति' इत्येतावदुच्यते । तच्च तेषां शक्यक्रियमेव, असदेतत् असत्कार्यकारित्वाभ्युपगमादेव अशक्यक्रियं कुर्वन्ति । तथाहि - यद् असत् तत् नीरूपम् यच्च नीरूपं तंत् शशविषाणादिवद् अनाधेयातिशयम् यच्च अनाधेयातिशयं तद् आकाशवद् अविकारि; तथाभूतं चाऽसमासादितविशेषरूपं कथं केन चिच्छक्त कर्तुम् ? अथ सदवस्थाप्रतिपत्तेर्विक्रियत एव तत्, एतदप्यसत्; विकृतावा- १५ महानिप्राप्तेः यतो विकृताविष्यमाणायां यस्तस्यात्मा निरूपाख्यो वर्ण्यते तस्य हानिः प्रसज्येत न ह्यसतः स्वभावापरित्यागे सद्रूपतापत्तिर्युक्ता परित्यागे वा नासदेव सद्रूपतां प्रतिपन्नमिति सिद्ध्येत् - अन्यदेव हि सद्रूपम् अन्यच्च असद्रूपम् परस्परपरिहारेण तयोरवस्थितत्वात् । तस्मात् यद् असत् तद् अशक्यक्रियमेव, अतस्तथाभूतपदार्थ कारित्वाभ्युपगमे कारणानामशक्यकारित्वमेवाभ्युपगतं स्यात् । न चाशक्यं केनचित् क्रियते यथा गगनाम्भोरुहम्, अतः 'शक्तिप्रतिनियमांत्' इत्यनुत्तर- २० मेतत् । एतेन 'शक्तस्य शक्यकरणात्' इति चतुर्थोऽपि हेतुः समर्थितः । "कार्यस्यैवमयोगाच्च किं कुर्वत् कारणं भवेत् । ततः कारणभावोऽपि बीजदेर्नाविकल्पते ॥" [ तत्त्वसं० का० १३ ] इति पञ्चमहेतुसमर्थनम् । अस्यार्थः - एवं यथोकाद्धेतुचतुष्टयाद् असत्कार्यवादे सर्वथाऽपि कार्यस्वायोगात् किं कुर्व बीजादि कारणं भवेत् ? ततश्चैवं शक्यते वकुम्न कारणं बीजादिः, २५ अविद्यमान कार्यत्वात्, गगनाब्जवत्, न चैवं भवति, तस्माद् विपर्ययः इति सिद्धं प्रागुत्पत्तेः सत् कार्यमिति । स्यादेतत् यदि नाम 'सत् कार्यम्' इत्येवं सिद्धम्, 'प्रधानादेव महदादिकार्यभेदाः प्रवर्तन्ते' इत्येतत् तु कथं सिद्धिमासादयति ? उच्यते १ माठर० पृ० १७ पं० ९ । २ "सर्व च सर्वतोभावाद् भवेदुलत्तिधर्मकम् । तादात्म्यविगमस्येह सर्वस्मिन्नविशेषतः " ॥ पृ० ३- त्मना वि-आ० हा० विना । ४ द्वितीय हे समर्थ नावसरे तु यत् किञ्चित् किञ्चिदेव तु कुतश्चिद् भवति " - तत्त्वसं० प० पृ० १९ ७ व कु-भां० मां० विना । तत्त्वसं० का० १० पृ० १९ । २८२ पं० २७ । ५ " यदेव समर्थ न पं० २० । ६र्थ किञ्चि भां० मां० विना । ८ “शक्तीनां नियमादेषां नैवमित्यप्यनुत्तरम् । शक्यमेव यतः कार्य शक्ताः कुर्वन्ति हेतवः " ॥ तत्त्वसं ० का ० ११ पृ० १९ । ९ " अकार्यातिशयं यत् तु नीरूपमविकारि च । विकृतावात्महान्याप्तेस्तत् क्रियेत कथं नु तैः ?” ॥ तत्त्वसं० का० १२ पृ० २० । मां० विना । १२ प्र० पृ० १० तच्च शरा-भां० मां० विना । ११- योरेव स्थि-भां० पं० ७ । १३- क्यका - भ० मां० विना । १४ - जादे न विक-भां० मां०हा० वि० । जादे न च क-आ० । “जादेर्न वि. तत्त्वसं०] । १५ तस्यैवं भ० मां० विना । १६ “सुखाद्यन्वितमेतच्च व्यक्तं व्यक्तं समीक्ष्यते । प्रसाद - ताप - दैन्यादिकार्य स्ये होपलब्धितः ॥ " ततस्तन्मयसंभूतं तज्जात्यन्वयदर्शनात् । कुटादिभेदवत् तच्च प्रधानमिति कापिलाः " ॥ तत्त्वसं० का ० १४-१५ पृ० २०-२२ । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ प्रथमे काण्डे"भेदानां परिमाणात् समन्वयात् शक्तितः प्रवृत्तेश्च । कारणकार्यविभागादविभागाद् वैश्वरूप्यस्य" ॥ [ साङ्ख्यका० १५ ] "कारणमस्त्यव्यक्तम्” [ साहयका० १६] इति पञ्चभ्यो वीतप्रयोगेभ्यः। ५ तथाहि-अस्ति प्रधानम्, भेदानां परिमाणात् , ईंह लोके यस्य सत्ता भवति तस्य परिमाणं दृष्टम् , यथा कुलालः परिमितात् मृत्पिण्डात् परिमितं घटमुत्पादयति प्रस्थग्राहिणम् आढकग्राहिणं वा, इदं च महदादि व्यक्तं परिमितमुपलभ्यते-एका बुद्धिः एकोऽहङ्कारः पञ्च तन्मात्राणि एकाद. शेन्द्रियाणि पञ्च भूतानि-ततोऽनुमानेन साधयामः-अस्ति प्रधानम् यत् परिमितं व्यक्तमुत्पादः यति यदि च प्रधानं न स्यात् निष्परिमाणमिदं व्यक्तं स्यात् । १० इंतश्चास्ति प्रधानम् , भेदानामन्वयदर्शनात्, यजातिसमन्वितं हि यदुपलभ्यते तत् तन्मय कारणसम्भूतम् , यथा घट-शरावादयो भेदा मृजात्यन्विता मृदात्मककारणसम्भूताः, सुख-दुःख-मो. हादिजातिसमन्वितं चेदं व्यक्तमुपलभ्यते प्रसाद-ताप-दैन्यादिकार्योंपलब्धेः। तथाहि-प्रसाद-लाध. वाऽभिप्वणोद्धर्ष-प्रीतयः सत्त्वस्य कार्यम् सुखमिति च सत्त्वमेवोच्यते । ताप-शोष-भेद-स्तम्भो द्वेगा रजसः कार्यम् रजश्च दुःखम् । दैन्याऽऽवरण-सादन-वध्वंस-बीभत्स-गौरवाणि तमसः कार्यम् १५तमश्च मोहशब्देनोच्यते । एषां च महदादीनां सर्वेषां प्रसाद-ताप-दैन्यादि कार्यमुपलभ्यते इति सुख-दुःख-मोहानां त्रयाणामेते सन्निवेशविशेषा इत्यवसीयते; तेन सिद्धमेतेषां प्रसादादिकार्यतः सुखाद्यन्वितत्वम् ; तदन्वयाच्च तन्मयप्रकृतिसम्भूतत्वं सिद्धिमासादयति; तत्सिद्धौ च सामर्थ्याद् याऽसौ प्रकृतिः तत् प्रधानमिति सिद्धम्-अस्ति प्रधानम् भेदानामन्वयदर्शनात् । इतश्चास्ति प्रधानम्, शैक्तितः प्रवृत्तेः । इह लोके यो यस्मिन्नर्थे प्रवर्त्तते स तत्र शक्तः यथा २० तन्तुवायः पटकरणे अतः प्रधानस्यास्ति शक्तिर्यया व्यक्तमुत्पादयति; सा च शक्तिर्निराश्रया न सम्भवति तस्मादस्ति प्रधानं यत्र शक्तिर्वर्तते इति । ईतश्चास्ति प्रधानम् कारणकार्यविभागात् । इह लोके कार्य-कारणयोर्विभागो दृष्टः, तद्यथामृत्पिण्डः कारणम् घटः कार्यम् स च मृत्पिण्डाद् विभक्तंखभावः। तथाहि-घटो मधू-दक-पयसां धारणसमर्थः न मृत्पिण्डः एवमिदं महदादिकार्य दृष्ट्वा साधयामः-अस्ति प्रधानं कारणम् २५ यस्मादिदं महदादिकार्यमिति। इतश्चास्ति प्रधानम् वि(वै)श्वरूप्यस्याविभागात् । 'वैश्वरूप्यम्' इति त्रयो लोका उच्यन्ते, एते हि प्रलयकाले क्वचिदविभागं गच्छन्ति । तथाहि-पञ्च भूतानि पञ्चसु तन्मात्रेषु अविभागं गच्छन्ति, तन्मात्राणि इन्द्रियाणि चाहङ्कारे, अहङ्कारस्तु वुद्धौ, बुद्धिः प्रधाने तदेवं प्रलयकाले त्रयो लोका अविभागं गच्छन्ति । अविभागोऽविवेकः यथा-क्षीरावस्थायाम् 'अन्यत् क्षीरम्' 'अन्यद् दधि' इति ३०विवेको न शक्योऽमिधातुम् तद्वत् प्रलयकाले 'इदं व्यक्तम्' 'इदमव्यक्तम्' इति विवेकोऽशक्यक्रिय इति मन्यामहे-अस्ति प्रधानम् यत्र महदादिलिङ्गमविभागं गच्छतीति । सत्त्व-रजस्तमोलक्षणं सामान्यमेकमचेतनं द्रव्यम् अनेकं च चेतनं द्रव्यमर्थोऽस्तीति द्रव्यार्थिकः-अशुद्धो व्यवहारनयाभिप्रेतार्थाभ्युपगमस्वरूपः-बोद्धव्यः । वक्ष्यति चाचार्यः १ कार्यकारणवि-भां० मा० । २ "तत्र प्रथमम्-अनुमानम्--तावद् द्विविधम्-वीतम् अवीतं च । अन्वयमुखेन प्रवर्तमान विधायकं वीतम् । व्यतिरेकमुखेन प्रवर्तमानं निषेधकम् अवीतम्xxवीतं द्वेधा-पूर्ववत् सामान्यतोदृष्टं च"-साङ्ख्य. कौ० पृ. ३० ५० ५ तथा पृ०३१ पं०४ । ३ माठरवृ० पृ. २५ पं० २४ । ४ "लोके यत्र कर्ताऽस्ति तस्य परिमाण दृष्टम्"-माउरवृ० पृ० २५ पं० २५ । "इह लोके यस्य कर्ता भवति तस्य परिमाणं दृष्टम्"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २१ पं०२। ५ माठरवृ. पृ. २६ पं०७। ६-“साधना-ध्वंस"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २१५० १२। ७ माठरवृ. पृ. २६ पं० १२। ८ माउरवृ० पृ. २६ पं० १६ । ९-तस्तथा-आ. हा. वि.। १० माठरवृ. पृ. २६ पं० २२ । ११ “विश्वरूपस्य भावो वैश्वरूप्यम्-बहुरूपमित्यर्थः"-माठरवृ. पृ. २६ पं० २३ । तत्त्वसं. पजि. पृ. २१ पं० २३। १२ "प्रकर्षेण धीयते स्थाप्यते अत्र अखिलम् इति प्रधानम्"-माठरवृ० पृ. २७ पं०६। १३ माठरवृ० पृ. २७ पं० १६। १४-नं अनेकंच भां०मा०। १५ पृ. २७१ पं० १५ । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । २८५ 'जं काविलं दरिसणं एवं दवट्ठियस्स वत्त' । [१० का० गा० ४८] इति । नैगमनयाभिप्रायस्तु द्रव्यास्तिकः शुद्धाऽशुद्धतया आचार्येण न प्रदर्शित एव नैगमस्य सामान्यप्राहिणः संग्रहेऽन्तर्भूतत्वात् विशेषग्राहिणश्च व्यवहारे इति नैगमाभावादिति द्रव्यप्रतिपादकनयंप्रत्ययराशिमूलव्याकरणी द्रव्यास्तिकः शुद्धाऽशुद्धतया व्यवस्थितः। [ पर्यायास्तिकनयनिरूपणम् ] [१ सदद्वैतप्रतिक्षेपकः पर्यायास्तिकनयः ] अत्र पर्यायास्तिक ऋजुसूत्र-शब्द-समभिरूढैवंभूतनयप्रत्ययराशिमूलव्याकरणी शुद्धाऽशुद्धतया व्यवस्थितः पर्यायलक्षणविषयव्यवस्थापनपरो द्रव्यास्तिकनयाभिप्रेतवस्तुव्यवस्थापनयुक्ति प्रतिक्षिपति-यदुक्तं द्रव्यास्तिकेन 'सर्वमेकं सत् अविशेषात्' तत् किं भेदस्य प्रमाणबाधितत्वादेकमुच्यते, आहोश्चिदभेदे प्रमाणसद्भावात् ? न तावद् भेदस्य प्रमाणबाधितत्वम् यतः प्रमाणं प्रत्यक्षादिकं १० भेदमुपोद्वलयति न पुनस्तद्वाधया प्रवर्त्तते, भेदमन्तरेण प्रमाणेतरव्यवस्थितेरेवाभावात् । प्रमाणं च प्रत्यक्षानुमानादिभेदेन भिन्नं सद् भेदसाधकमेव न पुनस्तद्वाधकम् । तथाहि-प्रत्यक्षं तावश्चक्षुापारसमनन्तरभावि वस्तुभेदमधिगच्छत् उत्पद्यते यतो भेदो भाव एव तं चाधिगच्छताऽध्यक्षेण कथं भेदो न अधिगतः? यञ्चोक्तम्-'भेदस्य कल्पनाविषयत्वम् इदमस्माद् व्यावृत्तम्' इत्येवं तस्य व्यवस्थापनात् अभेदस्तु निरपेक्षाध्यक्षधीसमधिगम्यः' इति, तदयुक्तम्, 'इदमनेन १५ समानम्' इत्यनुगतार्थप्रतिभासस्यैवेतरसव्यपेक्षस्य कल्पनाज्ञानमन्तरेणानुपपत्तेरभेद एव कल्पनाशानविषयः भेदस्तु परस्पराऽसंमिश्रवस्तुबलोद्भूततदाकारसंवेदनाधिगम्यः तदाभासाध्यक्षस्यानुभवसिद्धत्वात्, अध्यक्षस्य भावग्रहणरूपत्वाच्च । भावाश्च स्वस्वरूपव्यवस्थितयो नात्मानं परेण कल्पनाज्ञानमन्तरेण योजयन्ति, एवं परस्परासङ्कीर्णरूपप्रतिभासतो भावानां व्यवहाराङ्गता नान्यथा। तदुक्तम्-"अनलार्थ्यनलं पश्यन्नपि न तिष्ठेत् नापि प्रतिष्ठेत" [ 11२० पुनरप्युक्तम्-"तत् परिच्छिनत्ति अन्यद व्यवच्छिनत्ति प्रकारान्तराभावं च सूचयति"[ ] इति । एतेन 'आहुर्विधातृ प्रत्यक्षम्' इत्यादि पराकृतम् । यतो विधातृत्वं किं प्रत्यक्षस्य भावस्वरूपग्राहित्वम्, आहोश्विदन्यत् ? यदि भावस्वरूपग्राहित्वम् न तर्हि भेदग्रहणस्य विरोधः भेदस्य तदूपत्वात् । अथान्यत्, तेन्न; तस्य स्वभावानिर्देशात् । अथ वस्त्वन्तराद् वस्त्वन्तरस्यान्यत्वं प्रत्यक्षं न प्रतिपादयति, तदप्यसत्; भावानां सर्वतो व्यावृत्तत्वात् तथैव चाध्यक्षे प्रतिभासनात् । तथाहि-२५ पुरोव्यवस्थिते घट-पटादिके वस्तुनि चक्षुर्व्यापारसमुद्भूतप्रतिनियतार्थप्रतिभासादेव सर्वस्मादन्यतो भेदः प्रतिपन्नोऽध्यक्षेण अन्यथा प्रतिनियतप्रतिभासायोगात् । न ह्यघटरूपतयाँऽपि प्रतिभासमानो घटः प्रतिनियतप्रतिभासो भवति, अघटरूपपदार्थाप्रतिभासने च तत्र कथं न ततो भेदप्रतिभासः स्यात् ? नहि तदात्मा भवति, स्वस्वभावव्यवस्थितेः सर्वभावानाम् ; अन्यथा सर्वस्य सर्वत्रोपयोगादिप्रसङ्ग इति अन्याप्रतिभासनमेव घटादेः प्रतिनियतरूपपरिच्छेदः। यदि पुनः प्रतिनियतरूप-३० परिच्छेदेऽपि नान्यरूपपरिच्छेदस्तदा प्रतिनियतैकवरूपस्याप्यपरिच्छेदप्रसङ्गः। तथाहि-धैंटरूपं(प)प्रतिनियताध्यक्षप्रत्ययेनोप्यघटरूपविवेको नाधिगतो यदि तदाऽघटरूपमपि घटरूपं स्यादिति न १-यप्रस्तरमूल-आ० । २ पृ. २७२ पं० १७। ३ प्रमेयक० पृ० १८ प्र. पं० १५। ४ भाव. स्वभाव एवं (पतं)चाधि-० वा. विना। ५ पृ. २७२ पं० १९। ६-इत्येव त-मां०। ७-मभिगवा. बा०।-ममिगम्यत इति आ० हा. वि. । ८-सस्य वेत-हा.। ९-क्षक-भां० मां० विना । १०-स्तु परासंमि-आ. हा० वि० । ११-च्छिनदन्य-भां० मां० हा० वि० ।-च्छिदन्य-आ०। १२ पृ. २७३ पं०१७।१३-त्याद्यपि प-भां० मा० । १४-दस्यात-वा० बा० । १५-ततस्त तस्य भां० मां। १६-स्मादेवमन्य-मां० आ० हा०वि० ।-स्मादेकमन्य-भां०। १७-क्षेणा प्र-आ. हा. वि. । १८-या प्र-भा० मा०। १९ कथं ततो भेदःप्रति-वा. बा। कथं भेदप्रति-हा०वि०। कथं भेदः प्रति-आ० । २०-ति स्वभा-आ० वा० बा०। २१ सर्वत्राप्रयो-भां• मां० । २२-नः प्रतिनियतरूपपरिच्छेदस्तदा वा. बा० आ० । २३-दः सदा भां० मां०। २४ घटादिरूपं वा. बा. विना। २५-ना घ-वा० बा०। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ प्रथमे काण्डेप्रतिनियतघटरूपप्रतिपत्तिः स्यात् । ततश्च य एष कस्यचित् प्रतिनियतपदार्थदर्शनात् क्वचित् प्राप्तिपरिहारार्थो व्यवहारः स न स्यात् । न च तत्राऽसतो रूपस्य प्रतिभासो युक्तः अप्रतिभासने च कथं न ततः प्रतिभासमानरूपस्य विवेकप्रतिभासः? न च भेदः कल्पनाज्ञानविषयः अबाधितानुमकगोचरत्वात्। अत एव 'इतरेतराभावरूपत्वान्न भेदः प्रत्यक्षविषयः' इति प्रत्युक्तम् भावखरूपग्रहये ५ इतरेतराभावरूपस्य भेदस्य प्रतिभासनात् । ____ अनुमानागमयोः स्वरूपस्य तु भेदनिबन्धनत्वान्न भेदबाधकता । एवं प्रमेयभेदनिश्चये प्रमाणादपि प्रमेयस्य भेदो निश्चित एव भवतीति न प्रमाणनिश्चये भेदेऽवाधितत्वाद् भेदस्याभेदाभ्युपगमो युक्तः । यदपि ‘देश-कालाऽऽकारभेदैर्भेदो न प्रत्यक्षादिभिः प्रतीयते' इत्यायुक्तम् , तदप्यसङ्गतमेव अभेदप्रतिपत्तावप्यस्य समानत्वात् । तथाहि-अभेदोऽपि पदार्थानां यदि देशाभेदात् तदाऽनवस्था१० दिदूषणं समानम् । किञ्च, भिन्न देशसम्बन्धितया प्रतिभासमानानां घट-पटादीनां सद्रूपतया सर्वेषां प्रतिभासनात् तस्याश्च सर्वत्र सर्वदाऽप्रत्यपायादवाधितप्रत्ययविषयत्वेन पारमार्थिकत्वम् घटादिभेदानां च प्रच्यवनाद् देशान्तरादौ बाधितप्रत्ययगम्यत्वादपारमार्थिकत्वमभ्युपगतम्, तत्रैकदेशस्थघटादिभेदाध्यक्षप्रतिपत्तिकाले यत(त् ) स्वरूपं तद्भेदपरिष्वक्तवपुः परिस्फुटमध्यक्षे प्रति भाति न तद् देशान्तरस्थघटादिभेदपरिगतमूर्तितया प्रतिभाति, तत्र तद्भदानामसन्निधानेन प्रति १५ भासायोगात् तदप्रतिभासने च तत्परिप्वक्तताऽपि तस्य नाधिगतेति कथं देशान्तरस्थभेदानुगतत्वं तस्य भातम् ? यदेव हि स्पष्टदगवगतं तद्भेदनिष्ठं तस्य रूपं तदेवाभ्युपगन्तुं युक्तम् अन्यदेशभेदानुगतस्य तदर्शनासंस्पर्शिनः स्वरूपस्यासम्भवात् सम्भवे वा तस्य दृश्यस्वभावाभेदप्रसङ्गात्, तदेकत्वे सर्वत्र भेदप्रतिहतेरनानैकं जगत् स्यात् । दर्शनपरिगतं च तद्देशभेदकोडीकृतं सद्रूपं न भेदान्तर. परिगतमिति न तदस्ति । यदि तु तदपि भेदान्तरपरिगतं सद्रूपमाभाति तथासति सकलंदेशपरिगता २० भेदाः प्रतिभासन्ताम् । अथ न प्रथमदेशभेदप्रतिभासकाले देशान्तरपरिगतभेदसम्बन्धिसद्रूपत्वमाभाति किन्तु यदा भेदान्तरमुपलभ्यते तदा तद्गतं सद्रूपत्वमाभातीत्यभेदप्रतिपत्तिः पश्चाद् भवतीति, एतदप्ययुक्तम् । यतो भेदान्तरप्रतिभासेऽपि तत्क्रोडीकृतमेव सद्रूपत्वमिति न पूर्वभेदसंस्पर्शितया तस्याधिगतिः, पूर्वभदस्याऽसन्निहिततयाऽप्रतिभासने तत्परिष्वक्तवपुषः सद्रूपस्यापि दर्शना तिकान्तत्वात् कथमपरापरदेशभेदसमन्वयिसद्रूपत्वावगमः सम्भवी ? २५ अथ प्रत्यभिज्ञानादन्वयि सद्रूपत्वं मिनदेशभेदेपु प्रतीयते तदा वक्तव्यं केयं प्रत्यभिज्ञा ? यदि प्रत्यक्षम् तत् कुतस्तदवसेयं सद्रूपत्वमपरापरदेशघट-पटादिष्वेकं सिद्ध्यति ? अथाक्षव्यापा. रादुपजायमाना प्रत्यभिज्ञा कथं न प्रत्यक्षम् ? भेदग्राहिणो विकल्पव्यतिक्रान्तमूतैर्विशददर्शनस्याप्यक्षप्रभवत्वेनैवाऽध्यक्षत्वं भेदवादिभिरप्यभ्युपगम्यते तत्रापि समानम्, असदेतत्; यद्यक्षव्यापारसमासादितवपुरेपा प्रतीतिः तथासति प्रथमभेददर्शनकाल एवापरदेशभेदसमन्वयिसद्रू३० पपरिच्छेदोऽस्तु । अथ तदा स्मृतिविरहान्नैकत्वावगतिः, यदी त्वपरदेशभेददर्शनमुपजायते तदा पूर्वदर्शनाऽऽहितसंस्कारप्रबोधप्रभवस्मृतिसहकृतमिन्द्रियमभेददृशमुपजनयति, तदप्यसत्; यतः स्मृतिसहायमपि लोचनं पुरः सन्निहित एव घटादिभेदे तत्क्रोडीकृतसद्रूपत्वे च प्रतिपत्तिं जनयितुमलम् न पूर्वदर्शनप्रतिपन्ने भेदान्तरे, तस्याऽसन्निधानेनाऽतद्विषयत्वात् गन्धस्मृतिसँह कारिलोचनवत् 'सुरभि द्रव्यम्' इति प्रतिपत्तिं गन्धवद्रव्ये । तेन सदूपत्वप्रतिपत्तिरत्र भेदे स्फुट३५ वपुः प्रतिपत्तिमभिसन्धत्ते । अथेन्द्रियवृत्तिर्न स्मरणसमवायिनी करणत्वात् इति नासौ १-निश्चिते वि० सं०। २-त्वाद्भेदस्याभ्युप-वा० बा।। ३ पृ. २७३ पं० १९-पृ० २७४ पं० २७। ४ तन्नक-आ० । ५-काले त्स्वरूपं तद्भेद-वा० बा०। ६ यत् सदूपत्वं त-भां० मा०। ७-स्थपटादिभां. मां. वा. वा०। ८-श्यत्वख-आ० । ९-लदेशाप-भां० मा० । १०-पत्वं नाभा-हा० वि० । ११-त्वमाभाति न भां० मा०। १२-पत्वभिन्नदेश-भां० मां० ।-पत्वं देश-आ० हा० वि०। १३-क्षं कु- . आ० हा० वि०। १४ स्मृतिसहकारिवि-भा० म०। १५-दाच प-भां. मां०। १६-ददर्शनमुप-भां.. मा०। १७-देन को-आ०। १८-पन्नमे-भां. मां० वा. बा.। १९ तस्य सन्नि-भां. मां. विना। २०-सहायलो-भां. मां०। २१-पत्तिग-भां० मा. विना। २२ तत्र स-वा. बा. आ. विना। २३-पन्नममिसं-मां-पत्तिमतिसं-आ. हा. वि. वा. बा० । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। २८७ प्रतिसन्धानविधायिनी पुरुपस्तु कर्तृतया स्मृतिसमवायी तेन चक्षुपा परिगतेऽर्थे तद्दर्शि तपूर्वमेदात्मसात्कृतसद्रूपत्वं संधास्यति, तदप्यसत्; यतः सोऽपि न स्वतन्त्रतयकत्वं प्रतिपत्तुं समर्थः किन्तु दर्शनसव्यपेक्षा दर्शन' च न प्रत्यक्षं पूर्वापरकालभाव्यपरापरदेशव्यवस्थितघट-पटादिभेदकोडीकृतसन्मात्राभेदग्रहणमिति न तदुपायतः आत्माप्यभेदप्रतिपत्तिसमर्थः । यदि पुनः दर्शननिरपेक्ष एवात्मा अभेदग्राहकः स्यात् तदा स्वाप-मद-मूछाद्यवस्थायामपि तस्य सद्भावाभ्युपगमा- ५ दभेदप्रतिपत्तिर्भवेत् , न च स्मरणसव्यपेक्षोऽसौ तद्ग्राहकः स्मरणस्य वहिरथै प्रामाण्यानुपपत्तेः। गृहीतार्थाध्यवसायि हि स्मरणम्, न चाभेदः पूर्वापराध्यक्षाधिगत इति न स्मरणस्यापि तत्र प्रवृत्तियुक्तिमती । न च प्रत्यभिज्ञानसव्यपेक्षोऽसौ तत्र प्रवर्तत इति कल्पना सङ्गता, प्रत्यभिज्ञाज्ञानस्य देशभिन्नघट-पटादिपरिष्वक्तसद्रूपाभेदावगमहेतुत्वेन निषिद्धत्वात् । न चात्मनोऽपि व्यापित्वं सिद्धम् , तस्य पूर्व निषिद्धत्वात् । तन्न देर्शाभेदादभेदः सन्मात्रस्य कुतश्चित् प्रमाणावगन्तुं शक्यः। १० ___ नापि पूर्वापरकालसम्बन्धित्वं सन्मात्रस्याभेदः प्रत्यक्षविषयः । तथाहि-प्रत्यक्षं पूर्वापरविविक्तवर्तमानमात्रपरिच्छेदस्वभावं न कालान्तरपरिगतिमुद्द्योतयितुं प्रभुरि(भु इ)ति न तदवसेयोऽभेदः । अध्यक्षमात्रपरिगतमेव वस्तुरूपं गृह्यत इति तदेवास्तु । तथाहि-उपलम्भः सत्तोच्यते उपलब्धिश्च सर्वाक्षान्वया वर्तमानमेव रूपमुद्भासयति अक्षस्य वर्तमान एव व्यापारोपलम्भात् तदनुसारिणी" चाध्यक्षप्रतीतिरक्षगोचरमेव पदार्थस्वरूपमुद्भासयितुं प्रभुरिति दर्शन विषयो वर्तमानमात्रं सदिति १५ स्थितम् । अथापि स्यात् यद्यप्यक्षानुसारिणि दर्शनोद्भदे साम्प्रतिकरूपप्रतिभासस्तथापि कथमध्यक्षावसेयः पूर्वापरक्षणभेदः? मध्यमक्षणस्य परमाणोरण्वन्तरात्ययकालतुलितमूर्तिः क्षणभेदः स चाध्यक्षस्य मध्यक्षणदर्शित्वेऽपि न तद्गम्यः सिद्ध्यति, न सदेतत्; यतो यस्य न पूर्वत्वम् नाप्यपरकालसम्बन्धः समस्ति स पराकृतपूर्वापरविभागः क्षणभेदव्यवहारमासादयति, न हि पूर्वापरकालस्थायितयाऽगृह्यमाणो भावोऽमेदव्यपदेशभाग भवति । कालान्तरव्यापितामनुभवन्तो हि भावा 'नित्याः' 'अमेदिनो२० वा' इति व्यपदेशभाक्त्वमासादयन्ति । न च तत्राध्यक्षप्रत्ययः प्रवर्तते, भावि-भूतकालतायामनुमानस्मृत्योरेव व्यापारदर्शनात् । तथाहि-'इदं पूर्व दृष्टम्' इति स्मरन्नध्यवस्यति जनस्तथास्थिरावस्थादर्शनात् , भाविकालस्थितिमधिगच्छत्यनुमानात् दर्शनपथमवतरतोऽर्थस्येति न परिस्फुटसंवेदनपरिच्छेद्यः कालभेदः। न हि भूतावस्था भाविकालता वा स्फुटदृशां विषय इति कथमध्यक्षगम्योऽभेदः? ननु क्षणभेदोऽपि न संविदोल्लिख्यत इति कथं तद्ग्राह्यः ? असदेतत् ; यतोऽभेदविपर्यासः क्षणभेद २५ उच्यते, कालान्तरस्थितिविपर्यासेच मध्यक्षण सत्वमेव गृह्णता प्रत्यक्षेण कथं न क्षणभेदोऽधिगतः? अथ यदि नामाध्यक्षधीरभेदं नाधिगच्छति तदुत्थापितमनुमानं तु प्रत्याययिष्यति । तथाहि-स्थिरावस्थामर्थानामुपलभ्य वर्षादिस्थितिमधिगच्छन्ति व्यवहारिणः 'यतो यदि ध्वंसहेतुरस्य न सन्निहितो भवेत् तदा वर्षादिकमेष स्थास्यति' इति अतो यस्य सहेतुको विनाशस्तस्य तद्धेतुसन्निधानमन्तरेण स्थितिसद्भाव इति कालाभेदः यस्य तु मन्दरादे शहेतुर्न विद्यते स सर्वदा स्थितिमनुभवती.३० त्युभयथाप्यभेदोऽनुमानावसेयः, असदेतत् । यतो यत्राध्यक्षं न प्रवृत्तम् नापि प्रवर्तते नापि प्रवर्तिप्यते" अभेदे न तत्रानुमितिः प्रवर्तते । न च कालान्तरस्थायी भावोऽक्षजप्रत्यग्रेनावगतः यदि पुनर्वर्तमानकालतावभास्यक्षजप्रत्ययः कालान्तरस्थितिमवभासयति तदा स्पष्टगवगत एवा किमनुमानेन ? अथ कालान्तरभाविनाऽध्यक्षेण कालान्तरस्थितिरधिगम्यते, तदप्ययुक्तम् । यत उत्तरकालभाव्यपि दर्शनं तत्कालमेवार्थमधिगन्तुं प्रभुन (भु न) पूर्वसत्तावगाहीति कथं तदप्यभेदाव-३५ १-नं न च प्र-भां० माविना। २-हणप्रवणमिति भा. मां०। ३ पृ. २८६ पं० २५। ४ पृ. १३४ पं. ३२। ५ तत्र दे-वा. वा. विना । ६-भेदाः सन्मात्रस्य-भां० मां० विना। ७ शक्या: भां० मां० विना । -न परि-आ. हा० वि०। ९-गतमु-भा. मां० । १० वस्तुस्वरू-भां. मां । ११-थाप्युप-आ० हा० वि०।-थाभ्युप-वा० या०। १२-णी वाध्य-वि. विना। १३-मात्रमिति स्थिभा. मां० विना। १४-णस्याप-भां० मां०। १५ क्षणाभेदः स चाध्य-या० बा । क्षणभेदा वाध्य-आ। क्षणभेदात् स चाध्य-हा. वि.। १६-या गृ-वा० बा०। १७ भावो भेदव्यपदेशभाग न भ-आ० । १८ पूर्वदृ-भा. मां०। १९ तु भेदमर्थानां प्र-भां० मां०। २०-ते अभेदेन न तत्रा-भां० मां०।-ते भेदेन न तत्रा-आ० हा०वि०। २१-भावय-भां० मां० विना। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ प्रथमे काण्डे - भासि ? न च वर्त्तमानाध्यक्षेण प्रतिभाति वस्तुनि अतीतादिकाल सम्बन्धिताधिगमं विना तदभेदावगमः सम्भवति, न चाध्यक्षं पूर्वाऽपरसमयसमन्वयमर्थ सत्त्वम्-अविषयत्वाद्-अधिगन्तुमक्षममिति न तद् उद्भासयतीति सन्देह एव तत्र युक्तः नासत्वमिति वक्तव्यम्, यत उभयावलम्बी सन्देह उभयदर्शने सत्युपजायते यथा ऊर्ध ( र्ध्व ) तावगमात् पूर्वदृष्टौ एव स्थाणु-पुरुषौ परामृशत् (न्) सन्देहः ५ प्रतिभाति, न च कालान्तरस्थायित्वं कदाचिदप्यवगतम्, तत् कुतस्तत्र सन्देहः ? यः पुनर्भवतां 'काला'न्तरस्थायी' इति सन्देहैः स सदृशापराऽपरार्थक्रियाकारिपदार्थान् संस्पृशति, 'ते च तथा क्वचिद् दृष्टाः कचिन्न' इत्युभयावलम्बी सन्देहो युक्तस्तत्र । इति यत् प्रतिभाति तत् सकलं क्षणान्तरस्थितिविरहि• तमिति पदार्थानां सिद्धः क्षणभेदः । अथ ध्वंस हेतुसन्निधिविकलोऽध्यक्षगोचरातिक्रान्तोऽपि पदार्थस्तिष्ठतीति कथं क्षणभेदः ? तथाहि - यद्यपि अध्यक्षोदयो न पूर्वापरकालसंस्पर्शी तथापि तस्यैव १० तत्रापि सामर्थ्यान क्षणाभेदग्राहित्वम् तदभावस्तु नाभ्युपगन्तुं युक्तः न हि ग्रहणाभावादेव अर्था न सन्ति अतिप्रसङ्गात्, असदेतत् यतः 'किं स्थिरमस्थिरतया वस्तु अक्षजे प्रतिभासे प्रतिभाति उताऽस्थिरम्' इति सन्देह एव युक्तः । अपि च, स्थिरमूर्तिर्यद्यसौ भावः कथमस्थिरतया दृक्प्रभवे दर्शनेऽवभासेत ? नहि शुक्लं वस्तु पीततया परिस्फुटेऽदुष्टाक्षजे प्रत्यये प्रतिभाति तयोः परस्परविरोधात् । एवं न स्थिरम स्थिरतया परिस्फुटदर्शने प्रतिभासेत तो (अतोs ) स्थिरतया प्रतिभासनाद१५ध्यक्षगृहीत एव क्षणभेदो भावानाम् । न चापेक्षित हेतुसन्निधिर्भावानां विनाशस्तदभावे न भवतीति 'स्थायिनो भावाः' इति वक्तुं युक्तम्, यतो न नाशहेतुस्तेषां सम्भवति अदर्शनस्यैवाभावरूपत्वात् । आह च - " अनुपलब्धिरसत्ता" [ ] इति । प्रतिभासमाने च पुरोव्यवस्थिते वस्तुनि पूर्वापररूपयोरदर्शनमस्तीति कथं ध्वंसस्य मुद्रादिहेतुत्वम् मुद्गराद्यन्तरेणाप्यदर्शनस्य सम्भवात् ? न च तदानीमदर्शनमेव नाभाव इति, मुद्गरव्यापारानन्तरं तु घटादेरभावः नादर्शन२० मात्रम् । यतः कोऽयमभावो नाम-अस्तमयः, अर्थक्रियाविरहो वा ? यद्यस्तमयः तदा पर्यायभेद एव 'अदर्शनम्' 'अभावः' इति । अर्थक्रियाविरहोऽप्यभाव एव, स च परिदृश्यमानस्य 'नास्ति' इत्यदर्शनयोग्य एव विद्यते । तथा चादर्शनमेवाभावः भावादर्शनस्वरूपो नाशः मुद्गरादिव्यापारात् प्रागपि भावस्यास्तीति न तज्जन्यो ध्वंस इति 'अदृश्यमानोऽप्यस्ति' इतिं विरुद्धमभिहितं स्यात् । यदपि 'मुद्गरपातानन्तरमदर्शने न पुनः केनचिद् दृश्यते घटादिः अक्षव्यापाराभावे तु नरान्तरदर्शने प्रति२५ भाति तथा स्वयमप्यक्षव्यापारे पुनरुपलभ्यते मुद्गरव्यापारवेलायां तु चक्षुरुन्मीलनेऽपि न स्वयम् पुरुषान्तरेण वा गृह्यत इति तदैव तस्य नाशः' इति, तदप्यसङ्गतम् ; यतः पुनर्दर्शनं किं पूर्वदृष्टस्य, उतान्यस्येति कल्पनाद्वयम् । यदि पूर्वाधिगतस्यैवोत्तरकालदर्शनम् तदा सिद्ध्यत्य भेदः किन्तु 'तस्यैवोत्तरदर्शनम्' इत्यत्र न प्रमाणमस्ति । अथापरस्य दर्शनम् न तर्ह्यभेदः । अथ यदनवरतमविच्छेदेन ग्रहणं तदेव स्थायित्वग्रहणम् ; नन्व विच्छेददर्शनं नामानन्यदर्शनम् तच्चासिद्धम्, परस्पराऽसङ्घटित३० वर्त्तमानसमयसम्बद्धपदार्थप्रतिभासनात् । अथ वर्तमानदर्शने पूर्वरूपग्रहणम् ; ननु न प्रत्यक्षण पूर्व - रूपग्रहणम् तत्र वर्त्तमाने ग्रहणप्रवृत्तस्य तस्य पूर्वत्राऽप्रवर्तनात् । न चाऽप्रवर्त्तमानं तत् तत्र तदविच्छेदं स्वावभासिनोऽवगमयितुं समर्थम् येन नित्यताधिगतिर्भवेत् । वर्तमानग्रहणपर्यवसितं ह्यध्यक्षं तत्कालार्थपरिच्छेदकमेव, न पूर्वाऽपरयोस्तेन एकताऽधिगन्तुं शक्या । न स्मृतिरेव पूर्वरूपतां तत्र सङ्घटयति, सा च स्वग्रहणपर्यवसितव्यापारत्वाद् बहिरर्थमनुद्भासयन्ती न पूर्वापरयोस्तत्त्वसङ्घटन३५ क्षमा । तन्न निरन्तरदर्शनेऽप्यभेदावगतिरध्यक्षतः । न च पूर्वाऽपरदर्शनयोरभेदप्रतिपत्ता वैसामर्थे(e) प्यात्मा वर्तमानसमयसङ्गतस्य पूर्वकालतामधिगच्छति, दर्शन रहितस्य स्वापाद्यवस्थास्विव तस्याप्यभेदप्रतिपत्तिसामर्थ्यविकलत्वात् । प्रत्यक्षा च संविद् न पूर्वापरयोर्वर्त्तते तदप्रवृत्तौ चानुमा नमपि न तत्र प्रवर्तितुमुत्सहते, स्मरणस्य च प्रामाण्यमतिप्रसङ्गतोऽनुपपन्नमिति नात्मापि स्थायितामधिगच्छति । न चात्मनोऽप्यात्मा कालान्तरानुगतिमवगमयति, वर्तमानकालपरिगतस्यैव परिस्फु १-ध्यक्षे प्र-वा० बा० विना । २- यथार्थता - वा० बा० विना । ३ पूर्व -आ० । ४- न्तरास्थाभां० मां० विना । ५-हः सह-भां० मां० विना । ६-न्ति इति प्र-भां० मां० विना । ७-र्यायाभेद - भ० मां० विना । ८- ति तज्ज-आ० हा० वि० । ९-ति वदता ध्वश्रस्तीति विरुद्ध-भां०] मां० । १०- केचि -आ० हा० वि० वा० बा० । ११ तु दर्श-आ० हा ० वि० । १२ - स्तत्वनसं - आ० हा ० वि० । १३ - वसामर्थ्याऽप्या - वा० वा० । १४- पयसा-भां० मां० । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमीमांसा । टरूपतया तस्यापि प्रतिभासनात् । न च स्वसंविदेव आत्मनः स्थायितामुद्भासयति, अतीतानागतसकलदशावेदनप्रसक्तेः अतीताऽनागतजन्मपरम्परापरिच्छेदः स्यात् । न चातीताऽनागतावस्था तत्संवेदने' न प्रतिभाति तत्सम्बन्धी तु पुमांस्तत्रावभासत इति वक्तुं क्षमम्, यतस्तदवस्थाऽनवगमे तयापितया तस्याप्यनवगमात् । वर्तमानदशा हि स्वसंवेदने प्रतिभातीति तत्परिष्वक्तमेवात्मस्वरूपं तद्विषयः भूत- भाविदशानां तु तत्राप्रतिभासने तद्ग (गत) त्वेनात्मनोऽप्यप्रतिभासनमिति न स्वसंवेद- ५ नादपि तदभेदप्रतिपत्तिः । २८९ अथ प्रत्यभिज्ञा पदार्थानां स्थायितालक्षणमभेदमवगमयति । ननु केयं प्रत्यभिज्ञा ? अथ 'स एवायम्' इति निर्णयः; नन्वयमपि प्रत्यक्षम् अनुमानं वा ? न तावत् प्रत्यक्षम्, विकल्परूपत्वात् । नाप्यनुमानम्, अवगतप्रतिबन्धलिङ्गानुद्भूतत्वात् । न चाक्षव्यापारे सति स एवायम्' इति पूर्वा परैतामुल्लिखन् प्रत्ययः समुपजायत इति कथं नाक्षजः इति वक्तव्यम्, अक्षाणां पौर्वापर्येऽप्रवृत्तेः - १० पूर्वापरसम्बन्धविकले वर्तमानमात्रे ऽर्थेऽक्षं प्रवर्त्तत इति तदनुसार्यपि दर्शनं तत्रैव प्रवृत्तिमत् नातीतोऽनागतयोरिति न ततस्तद्वेदनम् । न च 'पूर्वदृष्टमिदं पश्यामि' इत्यध्यवसायादतीत समयपरिवक्तभाव वेदनमिति युक्तम्, यतः 'वर्तमानमेव पश्यामि' इत्युलेखस्तत्र स्यात् दर्शने तस्य प्रतिभासनात् पूर्वरूपता तु न तत्र प्रतिभातीति- कथमध्यक्षोल्लेखं विभर्ति ? इति न तदवसेया भवेत् । यदि तु पूर्वरूपताऽपि तदवसेया तदा स्मृतिमन्तरेणापि प्रतिभासताम् यतो न पूर्वरूपतैव स्मृति- १५ मपेक्षते न वर्तमानतेति वक्तुं क्षमम् तयोरभेदात् । यदि पूर्वता - वर्तमानतयोर्भेदो भवेत् तदा वर्तमानतावभासेऽपि पूर्वरूपता न प्रतिभाता इति स्वप्रतिपत्तौ सा स्मृत्यपेक्षा भवेत् । यदा तु यदेव वर्तमानं तदेव पूर्वरूपम् तदा तद्दर्शने तदपि दृष्टमिति न स्मरणं फलवत् तत्र स्यात् नहि दृश्यमाने स्मृतिः फलवती, स्मृतिर्हि व्यवहारप्रवर्तकत्वेन सप्रयोजना, दृश्यमाने चार्थे दर्शनमेव व्यवहारमुपरचयतीति किं तत्र स्मृत्या ? न च पूर्वरूपता अध्यक्षे न प्रतिभासत इति स्मृतिस्तत्र २० सार्थिका; यतः पूर्वरूपताया अध्यक्षाप्रतिभासे सद्भाव एव न सिद्ध्येत्, सद्भावे वा कथं तत्र साधनं (सान) प्रतिभासेत ? अपि च, इदानीन्तनाक्षजप्रत्ययावभासिनी यदि न पूर्वरूपता स्मृतिरपि कथं तामवभासयितुं क्षमा दर्शन विषयीकृत एव हि रूपे स्मृतेः प्रवृत्त्युपलम्भात् ? पूर्वरूपता तु सती अपि नेदानीन्तनदर्शनावभातेति न स्मृतिगोचरमुपगन्तुमीशेति न दृष्टमात्रमेव स्मृतिपथमुपयाति । अथ पूर्वदर्शनेन पूर्वरूपता विषयीकृतेति स्मृतिरपि तां परामृशति असदेतत् पूर्वरूपतायाः पूर्व- २५ दर्शनेनाप्यपरिच्छेदात्, यतः सकलमेवाध्यक्षं वर्तमानमात्रावभासं परिस्फुटं संवेद्यत इति वर्तमानतामात्र मध्यक्षविषयः । ननु यदि पूर्वरूपता नाध्यक्षगोचरः कथं स्मर्यते ? न ह्यदृष्टे स्मृतिरुपपन्ना, नैतत्; दृष्टमेव हि सकलं नीलादिकं स्मृतिरुल्लिखति स्मर्यमाणं स्फुटं चाकारमपहाय नान्या काचित् पूर्वरूपता स्मृतौ भाति अन्यत्र वा संवेदने, केवलं स्मर्यमाणोऽर्थः 'पूर्वः' इति नाममात्र वर्तमानमपेक्ष ( क्ष्य) 'पूर्वः' इति नाममात्रकरणात् । न च यथा स्फुटाध्यक्ष प्रतिभासिन्यपि क्षणभेदे ३० तत्र व्यवहारप्रवर्तकमनुमानं फलवत् तथा पूर्वरूपे दृश्यमानेऽपि वर्तमानदर्शने तत्र व्यवहारकारितया स्मृतिः फलवतीति वक्तुं युक्तम्, यतो विद्युदादावव्यक्षेऽपि प्रतिक्षणं त्रुट्यत्प्रतिभासोऽनुभूयते पूर्वरूपता तु स्मृतिमन्तरेण न क्वचित् प्रतिभाति येन क्षणिकत्ववदनुभवविषयत्वेऽपि प्रतिक्षणं स्मृतिर्व्यवहारमुपरचयन्ती तत्र सफला भवेत् । किञ्च वर्तमानवस्तुनि दर्शनाद् यदि पूर्वरूपतायां स्मृतिर्भवेत् भाविरूपतायामपि भवेत् अभेदात् । तथाहि - भिन्नवस्तुनि तस्योपलम्भो ३५ नास्तीति तत्र स्मृतिर्न भवेदिति युक्तम्, अभिन्ने तु पूर्वरूपतेव भाविरूपता दर्शनेनाऽनुभूतेति पूर्वरूपतायामिव मरणावधिसकलभाविरूपतायामपि स्मृतिर्भवन्ती केन वार्येत अभेदेनानुभूतत्वाविशेषात् ? न च पूर्वमनुभूतमपि पुनर्दर्शनोदये स्मृतिपथमुपयातीति पुनर्दर्शनसङ्गतं स्मृतिहेतु:, पूर्व गिरिशिखरादाविदानीमनुभवाभावेऽपि स्मृतेरुदयदर्शनात् । यदि पुनः स्मृतिरिदानीन्तना १- त्मनि स्था-भां० म० । २- स्थास्तत्सं भां० मां० विना । ३- ने प्र-वा० बा० । ४- मानमनवआ० । ५- रमु भ० मां० वा० वा० । ६-णां पूर्वा-भां० मां० वा० बा० । ७ यतो वर्तमानता स्मृतिमपेक्षते स्वप्रतीतौ नेदानींतनुरूपतेति वक्तुम् भ० मां० । यतो न वर्तमानता स्मृतिमपेक्षा न च पूर्वरूपतैव स्मृतिमपेक्षते इति वक्तुम् वा० वा० • साधन प्रतिभासेवापि च वा० बा० । ९ स्मृतिप्र - भां० म० । १०- ति ह-वा० वा० । ११- नपेक्ष-आ० । १२ दर्शनानु-आ० । स० त० ३७ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० प्रथमे काण्डे-- नुभवाभावेऽप्युपजायते तर्हि भाविदर्शनपरिगतेऽपीदानीन्तनदृसंस्पर्शभाजि स्मृतिरुदीयताम्। अथापि पूर्वरूपता पूर्वमनुभूतेति इदानीन्तनदर्शनाभावेऽपि पूर्वतामात्रे स्मृत्युदयः; नन्वेवं पूर्वता. मात्रमेव पूर्वदर्शनावगतम् नेदानीन्तनरूपव्यापितयापि तद् अवगतं स्यात् । तन्न पूर्वाऽपररूपतयो. रेकतावगमः सिद्धः । न च पुनदर्शने सति ‘स एवायं मया यः प्राक् परिदृष्टः' इति प्रतिपत्तेरमेदा५वगमः पूर्वाऽपरयोः यतः पूर्वाऽपराभ्यां प्रत्ययाभ्यां न पूर्वापररूपग्रहणम् सर्वस्य स्वकालावधिपदार्थस्वरूपग्राहकत्वादू दर्शनस्य । न च तत्कालभाविस्वरूपं पूर्व परं वा भवितुमर्हति, साम्प्रतिकरूपव्य वहारोच्छेदप्रसक्तेः । न च 'साम्प्रतिकरूपं पूर्व मया परिदृष्टम्' इति निश्चयो युक्तः तस्य वैतथ्यप्रसङ्गात् । नन्वेवं पूर्वरूपता वर्तमाने रूपे कथमवसीयते 'इदं मया पूर्व दृष्टम्' इति भेदसद्भावात् ? तीभेदेऽपि कथं वर्तमानस्य रूपस्य पूर्वदृष्टताऽवगमः ? पूर्वदृष्त्वात् इति न वक्तव्यम् । यतो दृष्टता १. पूर्वदर्शनगोचरीकृतं रूपम् तद्दर्शनं चेदानीमतीततयाऽसत् तदृष्टताप्युपरतेति नाऽसती वर्तमान दर्शनपथमवतरतीति । न च तदर्शने पॅच्युते तदृश्यमानताप्युपरतेति न सा साम्प्रतिकदर्शनाव. सेया, दृष्टता तूत्पन्नेति वर्तमान दर्शनावसेया, यतो यदि दृष्टता पदार्थानां तदात्वे सन्निहिता तदा यथा नीलता सन्निहिता तदानीमनुत्पन्नेऽपि पूर्वदर्शने प्रतिभाति तथा दृष्टतापि सकलतनुभृताम नुत्पन्नेऽपि पूर्वदर्शने स्फुटवपुषि दर्शने प्रतिभासताम् न किञ्चित् पूर्वदर्शनस्मरणेन ? एवं च येना१५प्यसावर्थः पूर्वान्नावगतः सोऽपि दृष्टतामवगच्छेत् । ततो 'नीलादिकमेतत्' इति पश्यति 'पूर्वदृष्टम्' इत्येतच्च स्मरणादध्यवस्यति न तु 'पूर्वदृष्टमेतत्' इत्येका प्रतीतिः । ननु 'इदं प्रतिभासमानमतीतसमये मया दृष्टम्' इत्येवं स्मृतिरनुभूयते न च पूर्वदृष्टताऽनुभवव्यतिरेकेण दृश्यमानस्य स्मृतिः सम्भवत्येवमाकारा, असदेतत् ; यतो 'दृष्टम्' इति मतिः स्मृतिरूपमासादयन्ती तत्कालावधि दर्शनविषयम ध्यवस्यन्ती लक्ष्यते न नु (न तु) वर्तमानकालपरिगतमर्थखरूपमधिगच्छति; वर्तमानकालतां तु २० दर्शनमनुभवति पूर्वरूपासङ्गतामिति न काचित् प्रतिपत्तिरस्ति या वर्तमानं 'पूर्व दृष्टम्' इत्यवगच्छति । तन्न प्रत्यभिज्ञाऽपि पूर्वापरयोरभेदमधिगन्तुं समर्था । अथ अस्मद्दर्शनविरतावप्युपलभ्यते वज्रोपलादिरर्थो नरान्तरेणेत्यभिन्नः, नैतत् सौरम्। मद्दर्शनानु(नाप)गमे नरान्तरदर्शनमवतरतीति नात्र किञ्चित् प्रमाणमस्ति । तथाहि-न प्रत्यक्षं परटेग्गोचरमर्थमवगमयितुमलम् परदृशोऽनवगमात् , तदनवर्गमे च तत्प्रतिभासितत्वस्याप्यनवगतेः । २५न च तद्विषयव्यवहारदर्शनात् परोऽपि 'इदमर्थजातं पश्यति' इत्यनुमानात् परदृष्टतां स्वदर्शनविष यस्य प्रतिपद्यते जनः अनुमानेनाभेदाऽप्रतिपत्तेः। तद्धि सदृशव्यवहारदर्शनादुदयमासादयत् स्वहः ष्टतुल्यतां परदृग्विषयस्यावगन्तुमीशं न पुनरभेदम्, यथा धूमान्तरदेर्शनादुद्भवन्त्यनुमितिः पूर्वदहनसदृशं दहनान्तरमध्यवस्यति न पुनस्तमेव दहेनविशेषम् सामान्येनान्वयपरिच्छेदात् । यदि पुनः सदृशव्यवहारदर्शनात् स्व-परदृष्टस्याभेदावगमस्तदा रोमाञ्चलक्षणतुल्यकार्यदर्शनात् स्व-परमु(सु)३० खाभेदानुमितिप्रसक्तिः। अथ पुलकोद्गमादौ तुल्येऽपि सन्तानभेदात् भेदः स्व-परस्थप्रीतेः; ननु सन्ततेरपि कुतो भेदः ? यद्यपरसन्ततिभेदात् तदाऽनवस्था । अथ स्वभावभेदात् सन्तानभेदः तथा. सति सुखमपि स्वरूपभेदाद् भिद्यताम् , यी च स्वरूपभेदात् स्व-परसन्ततिवर्तिनः सुखस्य भेदः तथा कालभेदात् स्व-परदृष्टस्यार्थस्य किं न भेदः? न च परस्परपरिहारेणोपलम्भप्रवृत्तेः स्व-परसन्ततिवर्तिन्या:प्रीतेर्भेदः, अर्थस्यापि स्व-परदृष्टस्याऽयुगपदन्योन्यपरिहारेणोपलम्भवृत्तेर्भेदप्रसक्तेः। यतो ३. यदा स्वदृग्गोचरचारी न तदा परदृशि प्रतिभाति यदा चोत्तरसमये परसंवेदनमवतरति न तदा खसंवेदनमिति कथं न भेदः ? अतो विच्छिन्नदर्शनस्यार्थस्य पुनदर्शने दलितोद्गतनखशिखरदर्शन १ पूर्वरूपता-भां० मां०। २-स्य च तत्-भां० मां० विना। ३ पूर्वप-आ० हा० वि०। ४ पूर्वभां० मां० विना। ५-ष्टत्वादिति दर्श-आ० हा० वि०। ६ प्रच्यवते आ०। -ति न साम्प्र-वा. बा० ।-ति ता साम्प्र-हा० वि० ।-ति साम्प्र-आ०। ८-रणेनैवं वा ये-आ०। ९-तस्वस्म-वा० बा०। १० ननु भां० मां० हा० विना। ११ नत्विदं प्रतीभा-वि० । नत्विदं प्रतीतिभा-भां० मां०। १२क्ष्यते तनु व-हा। १३ सार मद्देशनानुगमे च न-हा०वि०। १४ नगरा-भां० मां०। १५ दृष्टगोभां. मां०। १६-गमे तत्-आ० हा०वि०। १७-द्यते यथो नु-वा. बा.। १८-यत् तदृष्ट-आ. हा. वि०। १९-शनाद्भ-आ० हा० वि०। २०-हनं वि-भां. मांविना। २१-नः सादृश्यव्य-भां० मां० । २२-पि समान-भां० मां० विना। २३-स्थतातेः वा. बा० ।-स्थप्रतेः हा० वि० ।-स्थर्थतेः आ०। २४ यथा ख-वा. बा० आ० । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। २९१ इव प्रतिभासभेदाद् भेदः । प्रत्यभिशा त्वभेदाध्यवसायिनी प्रतिभासभेदेन बाध्यमाना लूनपुनर्जा देष्विव भ्रान्तेति न तत्प्रतिपाद्योऽभेदः पारमार्थिकः । न च यत्राऽविच्छिन्नं दर्शनं बहिरर्थमवतरति तत्र प्रतिभासभेदाभावात् कथं पौर्वापर्या(य)भेदावगम इति वक्तव्यम् , यतः प्रतिभासमानतैव पदार्थानां सत्ता । यदाह-"उपलब्धिः सत्ता सा चोपलभ्यमानवस्तुयोग्यता तदाश्रया वा ज्ञानवृत्तिः" । ] इति । तत्र यदि क्षणिकं दर्शनम् तथासति ५ तत्र स्फुटप्रतिभासस्यार्थस्य क्षणभेद एवाऽवभाति न क्षणाभेदावगमः । यतः क्षणिकं दर्शनं स्वकालमर्थमवगन्तुं क्षमम् न कालान्तरपरिष्वक्तम् , तस्य तदानीमभावात् । न हि यदा यन्नास्ति तदा तत् तत्कालमर्थमवगच्छति, सकलातीतपदार्थग्रहणप्रसङ्गात् । अतोऽविच्छिन्नदर्शनेऽपि प्रतिकलमपरापरज्ञानप्रसवैरवगतस्याप्यर्थस्य भेदः । न च दृगेव प्रतिक्षणमपरापरा अर्थवस्त्व(र्थस्त्वमिन्न एवेति वक्तव्यम्, दृग्मेदादेव दृश्यमानस्यार्थस्य भेदसिद्धेः । तथाहि-यदैका दृक् १० स्वकालावधिमर्थसत्तां वेत्ति न तदा परा यदा चारोत्तरकालमर्थमवगमयति न तदा पूर्वेति न तत्प्रतिभार्सितत्वम्-यतो वर्तमानसंविदस्तीति तदुपलभ्यमानतैवास्तु न तु पूर्वगुपलभ्यमा. नता-अतश्चोपलम्भमेदादुपलभ्यमानताभेदः । न च पूर्वाऽपरदर्शनोपलभ्यमानता भिन्नैव उपलभ्यमानं तु रूपमभिन्नम् , यतो यदा पूर्वोपलभ्यमानतायुक्तोऽर्थः प्रतिभाति न तदोत्तरोपलभ्यमानतासङ्गतः, यदा चोत्तरोपलभ्यमानता(त)या परिगतो वेद्यते न तदा पूर्वोपलभ्यमानतयेति कथं पूर्वा५-१५ रोपलम्भोपलभ्यमानस्य रूपस्य न भेदः ? न चोपलभ्यमानताऽतिरिक्तमुपलभ्यमानं रूपमस्ति, तथा ननुभवात् । अतः कथं नोपलभ्यमानतामेदादपि तद्भेदः ? तत् स्थितमविच्छिन्नविशददर्शनपरम्परा. यामपि प्रतिक्षणमर्थभेदः । प्रत्यभिज्ञानात्तत्त्व(नात् त्व)भेदोऽध्यारोप्यमाणो दलितपुनरुदितनखशिखरादिष्विव प्रतिभासभेदेनापाक्रियमाणो न वास्तवः । न चापरापरसंविन्मात्रव्यतिरिक्ताभिन्नामेंनोऽभावे क्रमवत्संवेदनाभावादर्थक्रमस्याप्यभाव इति, यतोऽनेकत्वे सति यथा पूर्वाऽपरयोरपत्ययोः२० क्रमस्तथा दर्शनयोरप्यनेकत्वमस्तीति कथं न क्रमः ? न चानेकत्वं न प्रतीतिविषयः एकत्वप्रतिभासाभावप्रतिभासस्यानेकत्वप्रतिभासरूपत्वात् तस्य च संवेदनसिद्धत्वात् । न च कालमन्तरेण पौर्वापर्याभाादनेकत्वमात्रमवशिष्यत इति कथं क्रम इति वक्तुं युक्तम् , यतो भेदाविशेषेऽपि दृश्यमानस्मर्यमाणतया पौर्वापर्यसद्भावात् क्रमसङ्गतिरविरुद्धैव । यद्वा हेतुसन्निधानाऽसन्निधानाभ्यां क्रमः कार्याणाम् तत्सन्निधानाऽसन्निधानेऽपि हेतुसन्निधानाऽसन्निधानात् इत्यनादिहेतुपरम्परा अतँस्त-२५ त्स्वभावविशेष एव क्रम इति न किञ्चित् कालेन तस्याप्यन्यकालापेक्षे क्रमेऽनवस्था, स्वतः क्रमे पदार्थानामपि स स्वत एव युक्तः। तदेवं क्रमेणोपलभ्यमानमपरापरस्वभावमिति सिद्धः स्वभावभेदः । न च क्षणिकेऽपि संवेदने युगपत पदार्थजातं प्रतिभाति न क्रमेणेति न क्षणभेदः यतोऽनेकक्षणस्थितिः कालाभेदलक्षणं नित्यत्वमुच्यते, न चानेकक्षणस्थितिर्युगपदवभाति, यतो यदैका क्षणस्थितिरवभासते यदि तदैव द्वितीयक्षणस्थितिरपि तद्विविक्ता प्रतिभाति तथासति क्षणद्वयस्य परस्पर-३० विविक्तस्य युगपत् प्रतिभासनात् कथं नित्यतालक्षणः कालाभेदः ? अथ तैव्यव्यतिरिक्ता क्षणान्तरस्थितिः प्रतिभासते, तत्राप्याद्यक्षणस्थितिरूपतया वा द्वितीया प्रतिभाति, यद्वा द्वितीयक्षणस्थितिरूपतया आद्यक्षणस्थितिरिति कल्पनाद्वयम्। तत्राद्य पक्षे प्रथमक्षणस्थितिरेव प्रतिभातीति न पूर्वापरक्षणाभेदः। द्वितीयेऽपि विकल्पे क्षणान्तरस्थितिरेव प्रतिभाति नाद्यक्षणस्थितिप्रतिपत्तिर्भवेत्। अथैकक्ष. णस्थिति वभाति सर्वदास्थितेरवभासनात्:नन्वेकक्षणस्थितिप्रतिपत्त्यभावे कथमनेकक्षणस्थितिस-३५ ङ्गतरूपप्रतिपत्तिरिति क्षणिके दर्शने क्षणावस्थानमेव प्रतिभातीति तदेव सैदनु(दस्तु)न कालान्तरस्थि १ यत्र वि-भां० मां। २-च्छिन्नं च द-वा. वा. हा. वि.। ३ अतो वि-आ. हा० वि०। ४-तिसकलपरा-आ. हा० वि०।-तिकमलपरापरप्रभवरव-वा. वा०। ५-वधिसर्वसत्तां आ. हा. वि०। ६-सित्वम् वा. बा.। -नतामे-आ. हा० वि० ।-नताऽतखोपलम्भमेदादुपलभ्यमानभे-वा. बा०। ८-तापरि-भां० मा० विना। ९-तो विद्य-आ. हा० वि०। १०-परोपलभ्यमानस्य वा० बा० । ११-मानरू-आ० हा०वि०। १२-स्ति यथाऽनुभ-वा० बा० । १३-ज्ञाततत्त्वभेदाध्या-आ. हा० वि० । १४- चापरसं-वा. बा. आ०। १५-स्मनोऽविक्र-मां० मा० विना । १६-चादेकत्व-आ• हा० वि० । १५-तस्तत्सदभा-आ० हा. वि.। १८-तदैव क-हा. वि० । तथैवं क-वा० बा०। १९-क्षणिकेस्य संभां• मां०। २० तद्रव्यति-हा० । तद्रव्यति-वा० बा०। २१-स्थितिरेव-वा० बा• विना। २२--सद न भा. मां । सद न आ. हा० वि० । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ प्रथमे काण्डे - तिः । अथापि स्यात् न क्षणिकं दर्शनम् - येन तद्भेदात् तद्ग्राह्यस्यापि भेदः - किन्तु तदपि कालान्तरस्थितिमत् कालान्तरानुषक्तमर्थमवगमयति, असदेतत् यतः स्थिरं दर्शनमनेककालतां युगपदवभासयति, आहोखित् क्रमेणेति ? तत्र न तावद् युगपदवभासयति । तथाहि - यदा दर्शनं घटिकाद्वयारम्भपरिगतमर्थमनुभवति न तदैव तदवभासन सम्बन्धिनम्, तदनुर्भवे च तस्य वर्तमानतापत्तेर्न कालान्तरता । ५ यदि च प्रथमदर्शनमेव भाविरूपतामवगच्छति तथासति ग्रहणविरतौ किमिति न जानाति 'पदार्थस्तिष्ठति' इति ? न च तदा ग्रहणमुपरतमिति नावगच्छति, यतः तदर्थग्रहणमुदितमिति कथमसत् ? अथ पूर्वमुदितं तद् अधुना प्रच्युतमिति न गृह्णाति ननु तदा ग्रहणाभावे कथं तत्कालत्वं परिगृहीतं भवति ? अथ यदा दर्शनं विरमति न तदा तद्रूपं प्रतिभाति किन्तु यदा तदुदितं विद्यते तदा भावि रूपपरिच्छेदः, तदप्यसत्; यतस्तथापि तत्कालतैव तेन परिगृह्यते न भाविरूपम् असन्निहितत्वात्; १० सन्निधाने वा भाविरूपतानुपपत्तेः । यदि हि तद् दर्शनकाले प्रतिभासमानमस्ति स्वरूपेण तथासति वर्तमानतैवेति तदपि प्रत्युत्पन्नम् न भाविरूपम् भावित्वे वा तदाऽसन्निधेः कथमसत् प्रतिभाति ? यदि वसन्निहितमपि तद् भाति तथासति सकलभाविभावरूपपरम्परा प्रतिभासताम् इति धर्मादेरपि सर्वस्य भविष्य द्रूपस्य प्रतिपत्तिरस्तु । न च प्रतिभासमानाऽव्यतिरिक्तं भाविरूपमाभाति धर्मादिकं तु तद्व्यतिरिक्तमिति न तग्रहः, यतोऽत्रापि यदि भाविरूपं वर्तमानतया प्रतिभाति तथा१५ सति वर्तमानमेव तद् इति कथं कालान्तरस्थायिता ? अथ वर्तमानं भाविरूपतया गृह्यते; नन्वेवं भाविरूपमेव तद् भवति न च वर्तमानं किञ्चिन्नाम, तथा चाऽवर्तमानमपि भाविरूपं वर्तमानतया प्रत्यक्षे प्रतिभातीति सर्वं दर्शनं विपरीतख्यातिर्भवेत्, ततो विशदतया यत् प्रतिभासते वस्तु सर्वे तद् वर्तमानमेवेति कथं स्थायितालक्षणः पौर्वापर्याभेदः ? अथ क्रमेण कालान्तरस्थायि दर्शनं स्थायितां प्रत्येष्यति; नन्वेवमपि वर्तमानताप्रकाशकाले २० कालान्तर स्थितिर्न प्रतिभाति, तदवभासकाले तु न पूर्वकालताप्रतिपत्तिरिति परस्परा संस्पर्शिनी दर्शन मवतरन्ती क्षणपरम्परैव स्यात् । यदि पूर्वरूपता सम्प्रति दर्शने प्रतिभाति तथासति प्रथममागतस्तावगच्छत् (स्तामवगच्छेत् ) । न च तत्र पूर्वदर्शनं नोदितमिति सामग्रयभावान्न तद्रहणम्, यतः पूर्वदर्शनासन्निधिस्तदा निरन्तरदर्शनेऽपि समान इति कथमभेदग्रहणं प्रति सहकारी ? अथ निरन्तरदर्शिनः 'तदेवं ( व ) दर्शनम्' इत्यभेदप्रतिपत्तिर्भविष्यतिः ननु यदि नाम तदेव दर्शनम् २५ तथापि तत् प्रतिभातं पूर्वम् अधुना न प्रतिभाति । तथाहि दृश्यमानाद् रूपात् ताद्रूप्यं भिन्नमाभाति, अभिन्नं वा इति कल्पनाद्वयम् । यदि भिन्नम् तदा न तद्रूपाऽभेदः । अथाभिन्नं भाति, तदापि दृश्यमानतया वा पूर्वरूपम्, पूर्वरूपतया वा दृश्यमानं भातीति वक्तव्यम् । तत्र यदि पूर्वरूपता (त)या दृश्यमानं प्रतिभाति तथासति पूर्वरूपानुभव एव न वर्तमानरूपाधिगतिरिति सर्वाऽध्यक्ष मतिः स्मृतिरूपतामासादयेत् । अथ दृश्यमानतया पूर्वरूपाधिगतिः तत्रापि स्फुटमनुभूयमानमेव रूपम् न ३० पूर्वरूपता, न हि सा तिरोहिताऽप्रतिभासमानमूर्तिरस्तीति शक्यं वक्तुम्, यदेव हि तत्र दृशि प्रतिभाति वर्तमानं रूपं तदेव सद् युक्तम् । न च पूर्वरूपताऽपि तत्र भात्येवेति वक्तव्यम् यतः सा किं तस्यामेव दृशि प्रतिबद्धा प्रतिभाति, यद्वा पूर्वस्याम्, अथ स्मृतौ इति कल्पनात्रयम् । तत्राद्यकल्पनायां पूर्वरूपतामसन्निहितामधिगच्छन्ती अनृता भवेत् । अथ पूर्वकालता सन्निहितैवः नन्वेवंसति सापि सन्निहिता तत्र प्रकाशमाना ३५ वर्तमानैव भवेत् नातीतौ ( ता ), तथा च न पूर्वापररूपभेदं ( दः) यदि तत् स्मरणाध्यक्षं रूपं दर्शनं वर्तमान रूपता (तां ) पूर्वरूपतां च पदार्थस्य प्रत्येति तथासति सन्निहिता सन्निहितस्वरूपग्रा हि संविद्वयं परस्परभिन्नं भवेत् । तथाहि - वर्तमानतासाक्षात्कारि संवित्स्वरूपं न पूर्वरूपग्राहि स्वरूपतया भाति, नापि पूर्वरूपतावेदकं साम्प्रतिकरूपसाक्षात्कारिरूपतया चकास्ति कथं न भेदः संवेदनस्य १- राननुषक्त - आ० वि० ।- रानयुक्त - हा० । २- भासान वा० वा० । ३- भवे त-भां० मां० विना० । ४- कं तद्वय भ० मां० वा० वा० विना । ५- सर्वद - भ० मां० । ६- प्रत्येति भ० मां० । ७- गमस्तमेवगच्छेत् - वा० बा० विना । ८ अथानि वा० बा० । ९ तदैदं द-वा० वा० । १० रूपात् ताद्रूपं भि-आ० बा० विना । १२ - क्षमिति१५ दर्शनव- वा० बा० आ० हा०वि० । रूपाद्रूपं भि- वि० । रूपताद्रूपं भि वा० बा० । 1 ११ तायां दृ-वा० स्मृ वा० बा० विना । १३ पूर्वता वा० बा० । १४ भवेन्नानीतैव कां० । विना । १६ - पता पूर्वरूपता च पदा आ ।पतामर्षरूपतां च पदा-भां०पतां च पदा वा० वा० । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। २९३ अन्यथासर्वत्र भेदोपरतिप्रसक्तिः ? नापि द्वितीयकल्पना, यतः तत्रापि पूर्वदृगधुना नास्तीति कथमसती सा ग्राहिका भवेत् ? अथ पूर्व तया गृहीतमित्युच्यते तत्रापि किं वर्तमानं रूपं तया गृहीतम्, उतान्यत् ? यद्यन्यत् कथमेकता ? अथ तदेव, तत्रापि न प्रमाणमस्ति, पूर्वाऽपरदृशोरसंस्पर्शस्तु प्रतिभासभेदात् प्रतिभास्यमपि भिनत्ति । नापि तृतीया कल्पना, यतः स्मृतिरेव पूर्वरूपतां निरन्तरदर्शिनोऽवभासयति न दृगिति प्राप्त ; तच्चेष्टमेव । तथाहि-यस्य स्मृतिर्नास्ति तदैवागतस्य ५ नासौ मासादिपरिगतमर्थमध्यवस्यति । ननु च स्मृतावपि पूर्वरूपता यदि चकास्ति तथापि सत्येव "उपलब्धिः सत्ता" [ ] इति वचनात्, असदेतत्; यतः स्मृतिरपि न वर्त. मानकालपरिगतमवतरति तमनवतरन्ती च त(न त )दभिन्नं पूर्व रूपमादर्शयितुं समर्थेति न साप्यमेदग्रहदक्षा । तस्मात् पूर्वदृगनुसारिणी स्मृतिरपि वर्तमानदृशो भिन्नविषयैव। ___अथ 'तंदेवेदम्' इति दर्शनसमानाधिकरणतया स्मृत्युत्पत्तेः पूर्वापराभिन्नार्थता; ननु किमिदं १० सामानाधिकरण्यम् ? यदि दर्शन-स्मृत्योरभिन्नावभासिता, तदयुक्तम् । प्रतिभासभेदात् । तथाहिदर्शनं स्फुटप्रतिभासं वर्तमानार्थविषयतयाऽवभाति, स्मरणमप्यस्पष्टप्रतिभासं विभ्राणं परोक्षोल्लेखेवदा(दाभा)ति तत् कथमेकः प्रतिभासः ? प्रतिभासवभेदाव(भासनभेदे च ) रूप-स्पर्शसंविदोरिव विषयभेदः, तत एवैकत्वं न क्वचिदपि भातीति न वस्तु सत् । भवतु वा कल्पनोल्लेखविषयोऽभेदः तथापि प्रतिभासभेदान्नाभेद इत्युक्तम् । अनेनैव न्यायेन दर्शनस्याप्यभेदो निपेद्धव्यः। तथाहि-दर्शनमपि निरस्तवहिरर्थप्रतिभासमात्मानमेवोद्दयोतयितुं समर्थम् तत्रैव पर्यवसितत्वात् न बहिरर्थम् नापि" त(न)रान्तरसंवेदनम् । तवेदने च न ततोऽभिन्नमात्मानमाख्यातुमलम् । न च ततो भेदावेदनमेवाभेदवेदनम् विपर्ययेऽप्यस्य समानत्वात् । तथाहि-भेदवादिनाऽप्येतच्छक्यते वक्तुम्-अन्यतोऽभेदावेदनमेव भेदवेदनं संवेदनस्य । किञ्च, स्वसंवेदनेऽन्यानुद्भासनमेव ततो भेददर्शनम् । तथाहि-यद् यथा प्रतिभाति २० तत् तथाऽभ्युपगन्तव्यम्, यथा 'नीलं नीलरूपतया प्रतिभासमानं तथैवाभ्युपगमविषयः बहिरर्थनरान्तरसंवेदनविविक्ततया च दर्शनं खसंवित्ती प्रतिभातीति तथैव तयवहारविषयः अन्यथा सकलव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात् । न च स्वदर्शनमेवाऽपरोक्षतया स्ववपुषि प्रतिभातीति तदेव सदस्तु परसंविदादयस्तु न निर्भान्ति कथं ता (ताः) सत्याः ? कथं वा ततः स्वसंविदो भेदः? अनुमानेनापि न तासामधि(ग)तिः प्रत्यक्षाप्रवृत्तौ तत्रानुमानानवतागत् तदवतारेऽपि न तद् वस्तुसनां साध:२५ यितुं क्षमम् व्यवहारमात्रेणैव तस्य प्रामाण्यादिति वक्तव्यम्, यतो यदि स्वदर्शनं परदर्शनंसंविदादा(परसंविदादी) न प्रवर्तते परसंवेदनमपि स्वदर्शनादौ न प्रवर्तन इति कथं स्वदर्शनस्यापि सत्यता? अथ स्वदर्शनमपरोक्षतया स्ववपुषि प्रतिभातीति सत्यम् । नन्वेवं परदर्शनमपि तथैव प्रतिभातीति कथं न सत्यम ? नहि स्वविषयं प्रतिभासमाविभ्राणा भावा अन्यत्रान्यथा प्रतिभासमनवतरन्तः स्वरूपेणाप्यसन्तो नाम । यथा च परसंविदादीनामसत्यत्वे न ततः स्वदर्शनस्य भेद.३० सिद्धिः तथाऽभेदस्यापीत्युक्तम् । परसंवेदने च प्रत्यक्षानवतारेऽप्यनुमानप्रवृत्तिरुपपन्नैव, वसन्ततौ निश्चितसंवेदनप्रतिबन्धव्यापारव्याहारादेर्लिङ्गस्य परसन्ततावुपलम्भात् परसंवेदनप्रसिद्धिरनुमान १-तीया क-मां०। २ पूर्वतया कां० । ३-ता तथा तदे-मा० ।-ता तथा तत्रा-भां०। ४-पि प्र-वा० बा०। ५-म् नवेष्ट-भां० मां० ।-म् नन्वेट-वा. वा०। ६-तदेवा-वा. बा० । ७-तरर्पित तमनव-भां० मां०। ८-दमिन्नं सर्वरू-वा० वा० ।-दभिन्नपूर्वरू-आ० हा० वि०। ९ तदैवे-भां० मां० । तदेवमि-वा. बा.। १०-भास विभ्राण प-भां०। ११-खदा भाति वा० वा० । १२-भासेव भेदाव रूप-हा० ।-भासे च भेदाच्च रूप-भां. मां. आ० वि०। १३ तत एव कत्वं-भां० म० हा। तत एकत्वं-वा. बा. आ.। १४ प्र. पृ.पं०४। १५-पि ररा-वा० दा०। १६-दने च ततो-वा. बा. । -दने वनं ततो-हा०वि०-इने व ने ततोगां० म०। १७ किश्चास्वे सं-वा. बा. । किञ्च स्खे सं-भां० मा०। १८ नीलनी-भां० मां० हा.। १९ बहिरर्थान्तरान्तर-वा० बा• विना। २०-भति वा० बा. हा. वि.। २१-थं नास-कां०। २२-पत्तिः भां० मा० । २३ यदि स्वदर्शनं संविदादौ न प्र-भां० मां० । यदि परदर्शनं संविदादी ननु वर्त-वा० बा० । यदि स्वदर्शनं परदर्शनसंविदादौ न प्र-कां० । य स्वदर्शनपरदर्शनं संविदादौ न प्र-आ०। २४-क्षया वा. बा. विना ।-क्षया वपु-आ० । २५-चा अन्यथा वा० बा०। २६ स्वसंवित्तौ नि-वा. बा.। २७-दन-भां० कां• विना । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - निबन्धना युक्तैव, अतिसूक्ष्मेक्षिकया सन्तानान्तरप्रतिपत्त्यभावाभ्युपगमे स्वसंविन्मात्रस्याप्यभावप्रसक्तेः ज्ञानाद्वैतवादस्य दत्त एव जलाञ्जलिः । तदेवं संविदो देशाभेदो नावगन्तुं शक्यः । २९४ नापि काल (ला) भेदोsवगमार्हः । तथाहि--यदा संविद् वर्तमाना भाति तदा न पूर्विकाः तदनवभासे च न तदपेक्षया 'अभिन्ना' इत्यवसातुं शक्या । अथ पूर्वसंवित् स्मरणे प्रतिभातीति ५ प्रकाशमान स्मर्यमाणयोः संविदोरभेदावगमः, अयुक्तमेतत् यतः स्मृतावपि संविद् वर्तमाना न ते पूर्वदर्शनमेव (न एव) स्मृतेर्व्यापारात् । सा हि पूर्वदर्शनमेवाध्यवत्यन्ती प्रतिभातीति कथमप्रतिभासमानं वर्तमान संवेदनं पूर्वसंविदाऽभिन्नमा (पूर्वसंविदात्मानमभिन्नमा ) दर्शयितुं प्रभुः ? अपि च, स्मरणमपि स्वतत्त्वमुद्भासयत् तत्रैवोपरतव्यापारं प्रतिभाति, न तु तत्र पूर्व दर्शनं स्वरूपेण चकास्ति प्रच्युतस्वरूपत्वात् तस्य । न चोपरतस्वरूपमपि पूर्वदर्शनं स्मृतौ प्रतिभातीति युक्तम् १० चकासतो रूपस्य स्मृतावपायात् । चकासंद्रूपसम्भवे च वर्तमानं तद् दर्शनं स्यात् नातीतम् यत इदमेवातीतस्यातीतत्वं यत् चकासदूपविरहः । तथात्वाभ्युपगमे च ेन ग्रहणमिति कथमभेदावगंमः ? अथ यदा स्मृतौ न पूर्वदर्शनावभासः तथासति प्रतिभासविरहीत् स्मृतिरेव स्वरूपेणाssभाति सी च स्वरूपेणाभिन्नयोगक्षेमत्वादभिन्नेति कथं नाभेदप्रतिभासः ? असदेतत्; अन्यानुप्रवेशेन प्रतिभासे सति तदपेक्षयाऽभेदव्यवस्थितेः । यदा च स्मृतौ पूर्वदर्शनं नावभाति तदा तदपेक्षया १५ कथं तस्याऽभेदावगतिः इति न कालाभेदोऽपि संविदः प्रत्येतुं शक्यः । भेदस्त्वेकस्मिन्नेव काले बहिर्नीलात्मा प्रतिभासमानवपुः अन्तश्च सुखादिसंवेदनं स्वप्रकाशतनु प्रतिभातीति कथं न प्रतीतिगोचरः ? तथा मधुर-शीतादिसंवेदनमनेकं स्वप्रकाशवपुर्युगपत् सर्वप्राणिनां प्रसिद्धमिति न तद्भेदः पराकर्तुं शक्यः यतः सुखादिसंवेदनमात्मनि पर्यवसितम् - तदात्मकत्वत्-न नीलनिर्भासमवैति नीलनिर्भासोऽपि-अप्रत्यक्षनीलात्मकत्वात् तत्रैव परिनिष्ठित इति कथं परस्पररूपानवभासने २० सुख - नीलसंविदोर्न भेदावगतिः ? अभेदो ह्यन्यापेक्ष इत्यन्यानवगमेऽवगन्तुमशक्यः भेदस्तु सकलान्यपदार्थव्यावृत्तभावस्वरूपः सोऽन्यप्रतिभासरहित स्वरूपप्रतिभाससंवेदनादेवावगत इति कथं न स्वप्रतिभासेऽपरसंवेदनाऽप्रतिभासनमेव स्वसंविदो भेदवेदनम् ? पूर्वाऽपरसंवेदनादपि स्वसंवेदनस्य भेदोऽवगम्यत एव । तथाहि तदपि वर्तमानाऽपरोक्षाकारं स्वसंवेदने प्रतिभाति न पूर्वापररूपतया; संनिहितग्रहणं हि पूर्वापररूपग्रहणम् । न च तत् संनिहित२५ स्वरूपसाक्षात्कारणस्वभावस्वसंवेदन मात्मसात्करोति तयोर्विरोधात् । तदेवं स्वसंवेदनमपि न पूर्वापरंभावे वृत्तिमदितिं सर्व विशदप्रतिभाससङ्गतं वर्तमानमेव । यच्च मनागपि न पूर्वापरभावसंस्पर्श तत् क्षणभेदसङ्गतिमनुभवतीति सिद्धः संविदोऽपि कालभेदः । तथा, एकक्षणनियतोऽपि प्रतिभासः प्रतिपरमाणुभिन्नः इतरेतरसंवित्परमाण्वननुप्रवेशे वा एकाणुमात्रः संवित्परमाणुपिण्डः स्यात् । ततश्च पुनरप्यपर संवित्परमाणोरभावेनाप्रतिभासने भेदावगम एव । तदेवं देश-कालाss३० कारैर्जगतः परस्परपरिहारेणोपलम्भप्रवृत्तेर्भेदाधिगतिर्व्यवस्थिता । न वा (चा) भेदवादिनः परः स्परपरिहारेण देशादीनामुपलम्भोऽसिद्धः अध्यक्षसिद्धे असिद्धतोद्भावनस्य चैय (या) त्यप्रकटनपरत्वात् । भेर्दैवादिनोऽपि परस्परं तदनुप्रवेशः स्यादित्यभिहितत्वाच्च । यदपि 'अथाकौरा (र) भेदाद् भेदः स च समानासमानसमयभिन्नसंवेदनाग्राह्योऽभिन्नसंवेद. नानवसेयश्च' इत्यादि दूषणमभ्यधयि, तदपि प्रतीतिबाधितत्वादनुद्धोष्यम्, विज्ञान - शून्यवा १ - भिन्ने सत्य - वा० वा० विना । २ पूर्व सं-भां०म० । ३ प्रवर्तते वा० वा० । प्रथमाते वि० । प्रथमते हा० । ४- ते पूर्वदर्शनमेवाध्यवस्यती प्रतिभातीति भ० मां० । ५- मानसंवेदनसंवेदनं चिदात्मानमभिन्नं वा दर्श- मां० मां० । मानसंवेदनं विदात्मानमभिन्नं वा दर्श-आ० हा ० वि० । ६ पूर्वदर्शनस्वा-भां० मां० विना । ७- सद्रूपं संभवे वर्त - भ० मां०] हा० । ८ तत्वाभ्यु वा० बा० विना । ९- गमो घटादा स्मृतो न पूर्व-वा० बा० विना । १० - हा स्मृ-वा० बा० । ११ सा च स्वरूपनवा स्वरूपेण भिन्नयोग - वा० वा० । १२- प्रवेशनप्र - वा० बा० वि० विना । १३ -संवेदं स्व वा० बा० । त्वाद् नील - वा० वा० विना । १५- समवेति भां० मां० हा० वि० । १६ परिनिश्चित वा० बा० । १७हितास्व वा० वा० । १८ - वसंवे - वा० बा० । १९- पराभावे वा० बा० विना । २० - ति पूर्व २१- भास प्र-वा० बा० विना । २२- भावेन प्रति - वि० । २३ वैयावृत्य - वा० बा० विना । दिनो - मां० । २५ - काराद् भेदाद् भेदः आ० । काराद् भेदः वि० । २६ पृ० २७४ पं० २७ । १४ वा० बा० । २४ - दवे Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । २९५ दानुकूलतया च पर्यायास्तिकमतानुसारिणो न क्षतिमावहति । यदपि 'ग्रामाऽऽरामादिभेदप्रतिभासोऽविद्याविरचितत्वादपारमार्थिकः' इत्यभिधानम् , तदप्यसम्यक् इतरेतराश्रयप्रसक्तेः । तथाहिअविद्याविरचितत्वं भेदप्रतिभासस्य अपारमार्थिकस्वरूपसङ्गत्यधिगतेः तत्सद्भावाच्च अविद्यानिर्मितत्वप्रतिपत्तिरिति स्फुटमितरेतराश्रयत्वम् । अभेदप्रतिभासेऽपि कुतः पारमार्थिकत्वम् इति च वक्तव्यम्, यदि विद्यानिर्मितत्वात् इत्युच्येत तदाऽत्रापीतरेतराश्रयत्वं तदवस्थमित्यलमतिप्रसङ्गेन । ५ तन्न भेदे प्रमाणबाधा। तत्सद्भावप्रतिपादकप्रमाणभावस्तु दर्शितः। अभेदस्तु न प्रमाणावसेय इत्यपि दर्शितम् । अपि च, अद्वैते प्रमाण-प्रमेयव्यवहारस्य प्रत्यस्तमयान्न तदभ्युपगमो ज्यायान्, यतस्तद्यवहारश्चतुष्टयाक्षेपपूर्वकः । तदुक्तम्-"चतसृषु भेदविधासु तत्त्वं परिसमाप्यते यदुत प्रमाता प्रमेयम् प्रमाणम् प्रमितिः" [ ] इति कुतोऽद्वैतस्य प्रमाणाधिन्यता? यश्चागमो मन्त्र-ब्राह्मणरूपो भेद निषेधायोदाहृतः तस्यार्थवादत्वेन प्रतीयमानार्थे प्रामाण्य-१० मागमप्रमाणवादिनाऽभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा प्रमाणविरुद्धत्वेन तदाभासत्वप्रसङ्गात् । वैचामेदपक्षे दूषणमाशङ्कयोत्तरमभ्यधायिं 'अद्वैते किल शास्त्राणाम् मुमुक्षुप्रवृत्तीनां च वैयर्थ्यम्' इत्याशय परिहाराभिधानम्-'अविद्यानिवर्तकत्वात् मुमुक्षुप्रवृत्तेः तस्याश्चातश्वरूपत्वान्न द्वैतापत्तिः नाप्यनिवर्त्यत्वम् वस्तुसत्त्वे ह्येतद द्वयं भवेत्' इति, तदप्यसारम्; यतो यदि अवस्तुसती अविद्या कथमेषा प्रयत्ननिवर्त्तनीया स्यात् ? न ह्यवस्तुसन्तः शशशुङ्गादयो यत्ननिवर्तनीयत्वमनुभवन्तो दृष्टाः।१५ अथ सत्त्वेऽपि कथं निवृत्तिः? तदनिवृत्तौ वा कथं मुक्तिः? न सदेतत् ; नहि सतां घटादीनां(नाम)निवृत्तिः तथाऽविद्याया अपि भविष्यति । अथ घटादीनामपि न परमार्थसत्त्वम् तेषामतादवस्थ्यात्, असदेतत् ; यतोऽतादवस्थ्यात् तेषामनित्यताऽस्तु नासत्त्वम् अन्यथा तेषां व्यवहाराङ्गता न स्यात् । अथ न तेषां परमार्थसत्त्वाद् व्यवहाराङ्गता किन्तु संवृत्येति व्यवहाराङ्गत्वेऽपि घटायोऽपि न परमार्थसद्रूपभाजः, असदेतत् ; संवृतेः स्वभावासंवेदनात् । तथाहि-सांवृतमुपचरितं काल्पनिकं २० रूपमभिधीयते, यञ्च कल्पनानिर्मितं रूपं तद् वाधकप्रत्ययेन व्यावर्त्यत इति कथं व्यवहाराङ्गतामश्रुवीत ? यच्च अपरमार्थसंतामपि सत्यकार्यनिर्वर्तकत्वमुपदर्शितम् तत् स्वरूपसङ्गतेद्वैतपक्षे कथश्चिदुपपत्तिमत् स्यात् । अभेदपक्षे तु सत्यव्यतिरिक्तस्यासत्यस्याभावात् न कथञ्चित् कार्यसाधकत्वमुपपत्तिमत् । यदप्यभ्यधायि 'भेदविषयाणामुपायानां ब्रह्मरूपेण सत्त्वात् कार्यका(क)रणम्', एतदप्ययुक्तम् । यतो येन रूपेण सत्त्वं तेन कार्यसामर्थ्यम् यञ्च कार्योपयोगं रूपं तेषाम् तदसदेवेति न२५ ब्रह्मरूपेणापि सन्त उपायात(याः) कार्यकरणक्षमाः ततः सकलव्यवहारप्रच्युतेरभेदस्य न प्रमाणगम्यता । यदपि 'सर्वमेकं सत्, अविशेषात्' इत्युक्तम्, अन्यत्रापि(अत्रापि) किमयमध्यक्षव्यापारो निर्दिष्टः, आहोखिदनुमानम् ? यदि प्रथमः पक्षः, स न युक्तः; सकलाद्वैतग्राहकत्वेनाध्यक्षस्य प्रतिषिद्धत्वात् । द्वितीयोऽप्ययुक्त एव, यतोऽनुमानं दृष्टान्त-दान्तिकभेदे सति प्रवृत्तिमासादयति; स चेत् पारमार्थिकः कुतोऽद्वैतम् ? अपारमार्थिकश्चेत् कथं ततः पारमार्थिकाद्वैतसिद्धिः? तथा,३० हेतुरपि तत्साधको यदि भिन्नस्तदाऽपि कथमद्वैतम् असतो भेदानुपपत्तेः शशविषाणादिवत् ? अभिन्नश्चेत् न ततः साध्यसिद्धिः प्रतिज्ञार्थंकदेशासिद्धत्वेनागमकत्वात् । न च कल्पितभेदादपि ततस्तत्सिद्धिः, कल्पनाविरचितस्य कार्यनिर्वर्तनाऽक्षमत्वात् । कल्पिताऽहिदंश-रेखागवयादीनामपि यत् असत्वे मरणादिकार्यकर्तृत्वं प्रतिपादितम् , तदपि न युक्तिक्षमम्; तेपामपि केनचिद् रूपेण पारमार्थिकत्वसङ्गतेः अत्यन्तासतस्तु पष्ठभूतस्यै(स्ये)य कार्यकारितानुपलब्धेः । तथा, वादि-३५ प्रतिवादि-प्राश्निकानामभावे नाद्वैतवादावतारः सम्भवी; तत्सद्भावे वाऽद्वैतविरोधो न्यायानुगत १ पृ. २७६ पं०८। २-सम्मत्यधिगतिस्तत्स-वा: बा०। ३-माणाभाव-भां० मा० आ०। ४ "प्रमाताxxx प्रमाणम् xxx प्रमेयम् xxx प्रमितिः चतसृषु चवंविधासु अर्थतत्त्वं परिसमाप्यते'--वात्स्या० भा. पृ. २५०२। ५-ति कुतोऽद्वैतस्य प्रमाणं प्रमितिरिति कुतोऽद्वैतस्य प्रमाणाधिगम्यता भां० मां० । ६ पृ. २७३ पं. ५-६। ७-णत्ववादिना-आ० वि०। ८ यच्च भे-भां० मा० आ० । यत्त्वमेद-वि.। ९ पृ. २७६ पं० २७-पृ. २७७ पं० २। १० अधीते किल वा० बा०। ११-सत्ये ह्ये-वा० बा० विना । १२-वर्त्तत-भां० विना। १३-सत्ताम-वा. बा. विना। १४-कम-वा. बा. विना। १५ पृ. २७९ पं. १५। १६ पृ. २७९ पं२०। १७-त्वात् कारणं-वा. बा. विना। १८-पयोगरूपं आ० वि०। १९ कार्यकार-वा. बा.। २. पृ० २८० पं० १९।-कन्यत्रापि वा. बा०। २१ पृ० २८० पं०१॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ प्रथमे काण्डे इति न तत्पक्षोऽभ्युपगमार्हः । यच्च 'भेदाः सत्तातो यदि भिन्नाः खरविषाणवदसन्तः प्रसकाः अभिन्नाश्चेत् सत्तामात्रकमेव न विशेषा नाम । तथाहि-यद् यतोऽव्यतिरिक्तम् तत् तदेव, यथा सत्तास्वरूपम्, अव्यतिरिक्ताश्च ते सत्तातः, तथासति सत्तामात्रकमेव' इत्यभ्यधायि, तद् मेदवादिनोऽपि समानम् ; यतस्तेनाप्येतत् शक्यं वक्तुम् -यदि विशेषेभ्यो व्यतिरिक्ता सत्ता खरविषाण. ५वदसती प्राप्ता, अव्यतिरिक्ता चेत् विशेषा एवन सा इति न्यायस्य समानत्वात् । तदेवमभेदे प्रमाणाभावात्-भेदस्य वा (चा)ऽबाधितप्रमाणविषयत्वात्-न तदभ्युपगमो ज्यायानिति शुद्धद्रव्यास्तिकमतप्रतिक्षेपिपर्यायास्तिकाभिप्रायः।। [२ सांख्यमतप्रतिक्षेपकः पर्यायास्तिकनयः ] अशुद्धद्रव्यास्तिकसाङ्ख्यमतप्रतिक्षेपकस्तु पर्यायास्तिकः प्राहे-यदुक्तं कापिलैः 'प्रधानादेव १० महदादिकार्यविशेषाः प्रवर्तन्ते' इति, तत्र यदि महदादयः कार्यविशेषाः प्रधानस्वभावा एव कथमेषां कार्यतया ततः प्रवृत्तिर्युक्ता? न हि यद् यतोऽव्यतिरिक्तं तत् तस्य कार्यम् कारणं वेति व्यपदेष्टुं युक्तम्, कार्य-कारणयोर्भिन्नलक्षणत्वात् अन्यथा हि 'इदं कारणम् कार्य च' इत्यसङ्कीर्णव्यवस्थासीदेत् । ततश्च यदुक्तं प्रकृतिकारणिकैः-“मूलप्रकृतेः कारणत्वमेव, भूतेन्द्रियलक्षणस्य षोडशकगणस्य कार्यत्वमेव, महदहंकारतन्मात्राणां च पूर्वोत्तरापेक्षया कार्यत्व-कारणत्वे चे" [ १५ इति तत् सङ्गतं न स्यात् । आह चेश्वरकृष्णः ___"मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृति-विकृतयः सप्त। षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ॥” [साङ्ख्यका० ३] इति । यतः सर्वेषां परस्परमव्यतिरेकात् कार्यत्वम् कारणत्वं वा प्रसज्येत, अन्यापेक्षित्वाद् वा कार्य कारणभावस्य अपेक्षणीयस्य रूपान्तरस्य चाभावात् पुरुषवन्न प्रकृतित्वम् विकृतित्वं वा सर्वेषां वा २० स्यात् अन्यथा पुरुषस्यापि प्रकृतिविकारव्यपदेशप्रसक्तिः। उक्तं च "यदेव दधि तत् क्षीरं यत् क्षीरं तद् दधीति च। वदता विन्ध्यवासित्वं ख्यापितं विन्ध्यवासिना॥" [ ] इति। 'हेतुमत्त्वादिति(मत्त्वादि)धर्माऽऽसङ्गिविपरीतमव्यक्तम्' इत्येतदपि बालप्रलापमनुकरोति,न हि यद् यतोऽव्यतिरिक्तस्वभावं तत् ततो विपरीतं युक्तम् वैपरीत्यस्य रूपान्तरलक्षणत्वात् अन्यथा २५ मेदव्यवहारोच्छेदप्रसङ्ग इति सत्त्व-रजस्-तमसाम् चैतन्यानां च परस्परभेदाभ्युपगमो निर्निमित्तो भवेत् ततश्च विश्वस्यैकरूपत्वात् सहोत्पत्तिविनाशप्रसङ्गः अभेद्व्यवस्थितेरभिन्नयोगक्षेमलक्षणत्वादिति । व्यक्तरूपाऽव्यतिरेकाद् अव्यक्तमपि हेतुमदादिधर्माऽऽसङ्गि प्रसक्तम् व्यक्तस्वरूपवत् , अहे. तुमत्त्वादिधर्मकलापाध्यासितं वा व्यक्तम् अव्यक्तरूपाव्यतिरेकात् तत्स्वरूपवत् अन्यथातिप्रसक्तिः। अपि च, अन्वयव्यतिरेकनिबन्धनः कार्यकारणभावः प्रसिद्धः, न च प्रधानादिभ्यो महदाधु३० त्पत्त्यवगमनिबन्धनः अन्वयः व्यतिरेको वा प्रतीतिगोचरः सिद्धः, यतः 'प्रधानाद् महान् महतोऽ. हङ्कारः' इत्यादिप्रक्रिया सिद्धिसौधशिखरमध्यास्त । तस्मानि(निर्निबन्धन एवायं प्रधानादिभ्यो महदाद्युत्पत्तिप्रक्रमः । न च नित्यस्य हेतुभावः सङ्गतः यतः प्रधानाद् महदादीनामुत्पत्तिः स्यात् नित्यस्य क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधादिति प्रतिपादयिष्यमाणत्वात्। अथ नास्माभिरपूर्वस्वभावोत्पत्या कार्यकारणभावोऽभ्यपगतः यतो रूपाभेदादसौ विरुक्यते ३५ किन्तु प्रधानं महदादिरूपेण परिणतिमुपगच्छति सर्पः कुण्डलादिरूपेणेवेति 'प्रधानं महदादिकार १ यच्चामेदाः भां० मा० । २ इदं सांख्यप्रक्रियाप्रति विधानं तत्त्वसंग्रहगतं का० १६-४५, पृ० २२-४०। ३ पृ० २८० पं० २४ । ४ तदत्र सुधियः प्राहुस्तुल्या सत्त्वेऽपि चोदना । यत् तस्यामुत्तरं वः स्यात् तत् तुल्यं सुधियामपि ॥ तत्त्वसं. का. १६ पृ. २२ । ५ माठरपृ० पृ. ९५० १८। ६-रव्य-वा. बा०। ७ “पुरुषवन्न प्रकृतित्वं नापि विकृतित्वं स्यात्"-तत्त्वसं. पजि. पृ. २२५० २६। ८ "वदता रुद्रिलेनैव ख्यापिता विन्ध्यवासिता"-तत्त्वसं. पजि. पृ. २२ पं० २८। ९ “यच्चेदम् 'हेतुमत्त्वादिधर्मयोगि व्यक्तम् विपरीतमव्यक्तम्'"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २३ पं०१। १० पृ० २८१ पं. २३। ११ "हेतुमत्त्वादिधर्मयोगि"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २३ पं०७। १२ पृ. २८१ पं०१। १३-निवन्धन- वा. बा०। १४-पारूपामे-वा. बा० । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । २९७ बम' इति व्यपदिश्यते महदादयस्तु तत्परिणामरूपत्वात् तत्कार्यव्यपदेशमासादयन्ति न च परिणामोऽ. मेदेऽपि विरोधमनुभवति एकवस्त्वधिष्ठानत्वात् तस्येति, असम्यगेतत् परिणामासिद्धेः । तथाहि-असौ पूर्वरूपप्रच्युतेर्भवेत् , अप्रच्युतेर्वेति कल्पनाद्वयम् । तत्र यदि अप्रच्युतेरिति पक्षः तदा अवस्थासाङ्कयो वृद्धाद्यवस्थायामपि युवत्वाद्यवस्थोपलब्धिप्रसङ्गः । अथ प्रच्युति(ते)रिति पक्षः तदा स्वरूपहानिप्रसक्तिरिति पूर्वकं स्वभावान्तरं निरुद्धम् अपरं च तदुत्पन्नमिति न कस्यचित् परिणामः सिद्धयेत् । ___ अपि च, तस्यैवान्यथाभावः परिणामो भवद्भिर्वर्ण्यते; स चैकदेशेन, सर्वात्मना वा ? न तावत् एकदेशेन, एकस्यैकदेशासम्भवात् । नापि सर्वात्मना, पूर्वपदार्थविनाशेन पदार्थान्तरोत्पादप्रसङ्गात् । अतो न तस्यैवान्यथात्वं युक्तम् , तस्य स्वभावान्तरोत्पादनिबन्धनत्वात् । व्यवस्थितस्य धर्मिणो धर्मान्तरनिवृत्तौ धर्मान्तरप्रादुर्भावलक्षणः परिणामोऽभ्युपगम्यते न तु स्वभावान्यथात्वमिति चेत् , असदेतत् यतःप्रच्यवमानः उत्पद्यमानश्च धर्मो धर्मिणोऽर्थान्तरभूतोऽभ्युपगन्तव्यः अन्यथा धर्मिण्य-१० वस्थिते तस्य तिरोभावाऽऽविर्भावासम्भवात् । तथाहि-यस्मिन् वर्तमाने यो व्यावर्त्तते स ततो मिन्ना, यथा घटेऽनुवर्तमाने ततो व्यावय॑मानः पटः, व्यावर्त्तते च धर्मिण्यनुवर्तमानेऽप्याविर्भावतिरोभावाऽऽसङ्गी धर्मकलाप इति कथमसौ ततो न भिन्न इति धर्मी तदवस्थ एवेति कथं परिणतो नाम? यतो नार्थान्तरभूतयोः कट-पटयोरुत्पाद-विनाशेऽचलितरूपस्य घटादेः परिणामो भवति अतिप्रसङ्गात्; अन्यथा चैतन्यमपि परिणामि स्यात् । तत्सम्बद्धयोर्धर्मयोरुत्पाद-विनाशात् तस्या-१५ सावभ्युपगम्यते नान्यस्येति चेत्, न; सदसतोः सम्बन्धाभावेन तत्सम्बन्धित्वायोगात् । तथाहिसम्बन्धो भवत्न्) सतो वा भवेत् , असतो वा भवेदिति कल्पनाद्वयम् । न तावत् सतः समधिमताऽशेषस्वभावस्यान्यानपेक्षतया क्वचिदपि पारतन्यासम्भवात् ।नाप्यसतः,सर्वोपाख्याविरह(हि)ततया तस्य क्वचिदाश्रितत्वानुपपत्तेः; नहि शशविषाणादिः क्वचिदप्याश्रित उपलब्धः । न च व्यतिरिक्तधर्मान्तरोत्पाद-विनाशे सति परिणामो भवद्भिर्व्यवस्थापितः, किं तर्हि ? यत्रात्मभूतैकस्वभावा-२० नुवृत्तिः अवस्थामेदश्च तत्रैव तद्यवस्था । न च धर्मिणः सकाशाद् धर्मयोर्व्यतिरेके सति एकस्वभावानुवृत्तिरस्ति, यतो धाव तयोरेक आत्मा; स च व्यतिरिक्त इति नात्मभूतैकस्वभावानुवृत्तिः । न च निरुद्धधमानोत्पद्यमानधर्मद्वयव्यतिरिक्तो धर्मी उपलब्धिलक्षणप्राप्तो दृग्गोचरमवतरति कस्यचिदिति तादृशोऽसद्यवहारविषयतैव । अथ अनर्थान्तरभूत इति पक्षः कक्षीक्रियते तथाप्येकस्माद् धर्मिखरूपाव्यतिरिक्तत्वात् तिरोभावाऽऽविर्भाववतोर्धर्मयोद्धयोरप्येकत्वम् धर्मिस्वरूपवदिति केन२५ रूपेण धर्मी परिणतः स्यात् धर्मों वा? अवस्थातुश्च धर्मिणः सकाशादव्यतिरेकाद् धर्मयोरवस्थातृस्वरूपवन्न निवृत्तिः नापि प्रादुर्भावः धर्माभ्यां च धर्मिणोऽनन्यत्वात् धर्मस्वरूपवत् । अपूर्वस्य चोत्पादः पूर्वस्य च विनाश इति नैकस्य कस्यचित् परिणतिः सिद्धयेदिति न परिणामवशादपि साङ्यानां कार्यकारणव्यवहारः सङ्गच्छते । न च परिणामप्रसाधकं प्रमाणं क्षणिकम् अक्षणिकं वा सम्भवतीति प्रतिपादितमभेदनिराकरणं कुर्वद्भिः। ३० ___ यच असत्कार्यवादे 'असदकरणात्' इत्यादि दूषणमभ्यधायि तत् सत्कार्यवादेऽपि तुल्यम् । तथाहि-असत्कार्यवादिनाऽपि शक्यमिदमित्थमभिधातुम् न सदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात्। . शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाश्च सत् कार्यम् ॥ इति । अत्र च 'न सत् कार्यम्' इति व्यवहितेन सम्बन्धो विधातव्यः, कस्मात् ? 'सदकरणात्' 'उपादानग्रह-३५ णात्' इत्यादिहेतुसमूहात् । उभययो(भयो)र्यश्च दोषस्तमेकः प्रेर्यो न भवति । तथाहि-यदि दुग्धा प्रसक्तिः वि. । २“अथ परित्यागात्"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २३ पं० १८। ३-रहितया वा० बा० विना। "सर्वोपाख्याविरहलक्षणतया"-तत्त्वसं० पजि० पृ. २४ पं० ५। ४-नाशि स-भा० मा.नाश मति वा. बा०। ५ षष्ट्यन्तम् । ६ “केन आश्रयेण"-तत्त्वसं० पजि० पृ. २४ पं० १३। ७-व्यतिरिकात मां. मां. वा. बा. विना। ८-णोऽन्यत्वा-वा. बा०।-णोऽन्यनन्यद्वात् भां० मां०। ९-स्य क्वचित् वि०। १. पृ. २८२५० १८। ११ तत्त्वसं० पजि० पृ० २४ पं० २१ । १२ उर्भये यश्चादो-वा० बा० । उभयोश्चदोवि. डे। उभययाश्चदो-हा० । “यश्चोभयोर्दोषः"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २४ पं० २४ । १३ “यदि दध्यादयः सन्ति दुग्धायात्मसु सर्वथा । तेषां सतां किमुत्पाद्यं हेत्वादिसदृशात्मनाम्" । तस्वसं० का० १७पृ० २५ स० त०३८ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ प्रथमे काण्डेदिषु दध्यादीनि कार्याणि रस-वीर्यविपाकादिना विभक्तेन रूपेण मध्यावस्थावत् सन्ति तदा तेषांकित परमुत्पाद्यं रूपमवशिष्यते यत् तैर्जन्यं स्यात् ? ने हि विद्यमानमेव कारणायत्तोत्पत्तिकं भवति प्रकृति चैतन्यरूपवत् । अत्र प्रयोगः-यत् सर्वात्मना कारणे सत् न तत् केनचिजन्यम् , यथा प्रकृतिश्चैको वा. तदेव वामध्यावस्थायां कार्यम्,सत् तत् सवोत्मना परमतेन क्षीरादौ दध्यादि इति व्या ५पलब्धिप्रसङ्गः । न च हेतोरनैकान्तिकता, अनुत्पाद्याऽतिशयस्यापि जन्यत्वे सर्वेषां जन्यत्वप्रसकि अनवस्थाप्रसक्तिश्च-विपर्यये बाधकं प्रमाणम्-जनितस्यापि पुनर्जन्यत्वप्रसङ्गात् । तदेवं कार्यत्वालि मतानामकार्यत्वप्रसक्तिः सत्कार्यवादाभ्युपगमे। कारणाभिमतानामपि मूलप्रकृति-बीज-दुग्धादी पदार्थानां विवक्षितमहदादि अङ्कुर-दध्यादिजनकत्वं न प्राप्नोति अविद्यमानसाध्यत्वात् मुक्ताता वत् । प्रयोगः-यद् अविद्यमानसाध्यं न तत् कारणम् , यथा चैतन्यम्, वि(अवि)द्यमानसाध्या १० भिमतः पदार्थ इति व्यापकानुपलब्धिः । प्रसङ्गसाधनं चैतद् द्वयमपि अतो नोभयसिद्धोदाहरणेन प्रयोजनम् । भोगं प्रत्यात्मनोऽपि कर्तृत्वाभ्युपगमे मुक्तात्मा उदाहर्तव्यः । न च पँथमप्रयोगे अब व्यक्ता(क्त्या)दिरूपेणापि संविशेषणे हेताव(वु)पादीयमाने असिद्धता न ह्यस्माभिरभिव्यक्त्यादि रूपेणापि सत्त्वमिष्यते कार्यस्य किं तर्हि ? शक्तिरूपेण निर्विशेषणे तु तस्मिन्ननैकान्तिकता यतोऽखि व्यक्त्यादिलक्षणस्यातिशयस्योत्पद्यमानत्वान्न सर्वस्य(स्या)कार्यत्वप्रसङ्गो भविष्यति अत एव द्विती१५योऽपि हेतरसिद्धः विद्यमानत्वात साध्यस्याभिव्यक्त्यद्रेकानुद्रेकाद्यवस्थाविशेषस्ये यतोऽत्र विकल्पद्वयम्-किमसावतिशयोऽभिव्यक्त्याद्यवस्थातः प्रागासीत्, आहोश्चिन्नेति ? यद्यासीत् न तहसिद्धतादिदूषणं प्रयोगद्वयोपन्यस्तहेतुद्वयस्य । अथ नासीत् एवमप्यतिशयः कथं हेतुभ्यः प्रादुर्भावमश्नुवीत ? 'असदकरणात्' इति भवद्भिरभ्युपगतत्वात् । तत् स्थितम्-सदकरणान्न सत् कार्यम् । यथोक्तनीत्या सत्कार्यवादे साध्यस्य(स्या)भावादुपादानग्रहणमप्यनुपपन्नं स्यात् तत्साध्य २०फलवाञ्छयैव प्रेक्षावद्भिरुपादानपरिग्रहात्, नियतादेव च क्षीरादेर्दध्यादीनामुद्भव इत्येतदप्यनुपपणे स्यात् साध्यस्यासम्भवादेव; यतः सर्वस्मात् सम्भवाभाव एव नियताजन्मेत्युच्यते तञ्च सत्कार्यवादपक्षे न घटमानकम् । तथा, 'शक्तस्य शक्यकरणात्' इत्येतदपि सत्कार्यवादे न युक्तिसङ्गतम् साध्याभावादेव, यतो यदि किश्चित् केनचिदमिनिर्व]त तदा निर्वर्तकस्य शक्तिर्व्यवस्थाप्येत निर्व१ “हेतुजन्यं न तत् कार्य सत्तातो हेतुवित्तिवत् । अतो नाभिमतो हेतुरसाध्यत्वात् परात्मवत्" ॥ तत्त्वसं० का० १८ पृ० २५ । २ कार्य सर्व (सच्च) सर्वात्मना वा० बा०। “सदेव च कार्य मध्यावस्थायाम् , सच्च सर्वात्मना परमतेन दध्यादि"तत्त्वसं० पजि० पृ. २५ पं० १७। ३ यदि विद्यमानसाध्यं तत् कार-वा० बा०। ४ "अविद्यमानसाध्यश्चामिमतः पदार्थः"-तत्त्वसं० पजि. पृ० २६ पं० २। ५ “यस्तु मन्यते सालयः पुरुषस्यापि प्रतिबिम्बोदयन्यायेन भोगे प्रति कर्तृत्वमस्तीति । तं प्रत्येवं व्याख्या-परश्चासावात्मा च-(प्र० पृ० पं० २४) मुक्त इत्यर्थः"-तत्त्वसं. पजि. पृ० २६ पं० ३। “अथास्त्यतिशयः कश्चिदभिव्यक्त्यादिलक्षणः । यं हेतवः प्रकुर्वाणा न यान्ति वचनीयताम्" ॥ तत्त्वसं. का० १९ पृ. २६ । ७ प्र० पृ. पं० ३। ८ प्र० पृ. पं० १२ । ९ सविशेषणो हेतोरुपादीयमानऽसिद्ध्यत । ना ह्य-वा. बा०। १० हेतावपादीयमानोऽसिद्धता न ह्य-आ० । ११-भिव्यक्तादि-वा० बा० विना। १२ व्यक्कादि-वा. बा० । १३ प्रसङ्गश्चायम्-प्र० पृ. पं०५। १४ एव वं द्वि-वि० डे० । एवं द्वि-हा। १५प्र.पृ. पं०९। १६ साध्यस्यापि व्यक्त्यु-वा. बा० । साध्यस्यापि भिव्यक्त्यु-वि• डे० । १७ "प्रागासीद् यद्यसावेषं न किञ्चिद् दत्तमुत्तरम् । नो चेत् सोऽसत् कथं तेभ्यः प्रादुर्भावं समश्नुते?"॥ तत्त्वसं० का० २० पृ. २६ । १८ पृ. २८२५० १८ । १९ "नातः साध्यं समस्तीति नोपादानपरिग्रहः । नियतादपि नो जन्म न च शक्तिर्न च क्रिया" ॥ तत्त्वसं० का० २१ पृ. २६ । २०-ध्यक्षाभावा-वा. बा.। २१ स्यात् तत्साध्यकस्यासंभवादेव हा० । स्यात् साध्यसासंभवाभाव एव वा० बा० । स्यात् तत्साधकस्यासंभवादेव वि० । २२ पृ. २८२ पं० १९ । २३ "निव(र्षय॑स्य च करणं सिध्ये"-तत्वसं० पशि• पृ. २७ पं०६। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। २९९ यस्य च का(क)रणं सिद्धिमध्यासीतेति, नान्यथा। कारणभावोऽपि भावानां साध्याभावादेव सत्कार्यवादे न युक्तिसङ्गतः न चैतद् दृष्टमिष्टं च । तस्मान्न सत् कार्य कारणावस्थायामिति प्रसङ्गविपर्ययः पञ्चखपि प्रसङ्गसाधनेषु योज्यः।। ____ अपि च, सर्वमेव हि साधनं स्वविषये प्रवर्त्तमानं द्वयं विदधाति-स्वप्रमेयार्थविषये उत्पद्यमानौ संशय-विपर्यासौ निवर्त्तयति, स्वसाध्यविषयं च निश्चयमुपजनयनि । न चैतत् सत्कार्यवादे युक्त्या ५ सङ्गच्छते । तथाहि-सन्देह -विपर्यासो भवद्भिः किं चैतन्यस्वभावावभ्युपगम्येने, आहोश्विद् बुद्धिमनःस्वरूपौ? तत्र यदि प्रथमः पक्षः, स न युक्तः; चैतन्यरूपतया तयोर्भवद्भिरनभ्युपगमात्, अभ्युपगमे वा मुक्त्यवस्थायामपि चैतन्याभ्युपगमात् तत्स्वभावयोस्तयोरप्युत्पत्त्यनिवृत्तेरनिर्मोक्षप्रसङ्गः, साधनव्यापारात् तयोरनिवृत्तिश्च चैतन्यवन्नित्यत्वात् । द्वितीयपक्षोऽपि न युक्तः, बुद्धिम(मनसोनित्यत्वेन तयोरपि नित्यत्वान्निवृत्ययोगात्। न च निश्चयोत्पत्तिरपि साधनात् सम्भवति १० तस्या अपि सर्वदाऽवस्थितेः अन्यथा सत्कार्यवादो विशीर्यंत इति साधनोपन्यासप्रयासो विफलः कापिलानाम् । स्ववचनविरोधश्च प्राप्नोति-तथाहि-निश्चयोत्पादनार्थ साधनं ब्रुवता निश्चयस्य असत उत्पत्तिरजीकृता भवेत् 'सत् कार्यम्' इति च प्रतिज्ञया सा निषिद्धेति स्ववचनविरोधः स्पष्ट एव । अथ साधनप्रयोगवैयर्थ्य ना(मा) प्रापदिति निश्चयोऽसन्नेव साधनादुत्पद्यत इत्यङ्गीक्रियते तर्हि 'असद-१५ करणात्' इत्यादेहेतुपञ्चकस्यानैकान्तिकता स्वत एवाभ्युपगता भवति निश्चयवत् कार्यस्याप्यसत उत्पत्त्यविरोधात्। तथाहि-यथा निश्चयस्य असतोऽपि करणम् तदुत्पत्तिनिमित्तं च यथा विशिष्टसाधनपरिग्रहः-न च यथा तस्य सर्वस्मात् साधनाभासादेः सम्भवः यथा चासन्नप्यसौ शक्तैहेतुमिर्निर्वय॑ते, यथा च कारणभावो हेतूनां समस्ति तथा कार्येऽपि भविष्यति इति कथं नानैकान्तिका निश्चयेन 'असदकरणात्'इत्यादिहेतवः । न च यद्यपि प्राक् साधनप्रयोगात् सन्नेव निश्चयस्तथापि २० न साधनवैयर्थ्यम् यतः प्रागनभिव्यक्तो निश्चयः पश्चात् साधनेभ्यो व्यक्तिमासादयतीत्यभिव्यक्त्यर्थ साधनप्रयोगः सफल इति नानर्थक्यमेषामिति वक्तव्यम् , व्यक्तेरसिद्धत्वात् । तथाहि-किं स्वभावातिशयोत्पत्तिरभिव्यक्तिरभिधीयते, आहोश्चित् तद्विषयं ज्ञानम् , उत तदुपलम्भावारकापगमः इति पक्षाः। तत्र न तावत् स्वभावातिशयोत्पत्तिरभिव्यक्तिः यतोऽसौ स्वभावातिशयो निश्चयस्वभावाद्व्यतिरिक्तः स्यात्, व्यतिरिक्तो वा? यदि अव्यतिरिक्तस्तदा निश्चयस्वरूपवत् तस्य सर्वदैवाव-२५ स्थितेर्नोत्पत्तियुक्तिमती। अथ व्यतिरिक्तस्तथापि तस्यासौ' इति सम्बन्धानुत्पत्तिः। तथाहि-आधाराधेयलक्षणः, जन्यजनकस्वभावो(वो वाऽ)ऽसौ भवेत् ? न तावत् प्रथमः, परस्परमनुपकार्योपकारकयोस्तदसम्भवात्, उपकाराभ्युपगमे चोपकारस्यापि पृथग्भावे सम्बन्धासिद्धिः-अपरोपकारकल्प नायां चानवस्थाप्रसक्तिः-अपृथग्भावे च साधनोपन्यासवैयर्थ्यम् निश्चयादेवोपकोरापृथग्भूतस्या १ "सर्वात्मना च निष्पत्तेर्न कार्यमिह किञ्चन । कारणव्यपदेशोऽपि तस्मान्नैवोपपद्यते"॥ तत्त्वसं. का. २२ पृ० २७ । २-टं वा त-आ० । ३ "सर्व च साधनं वृत्तं विपर्यासनिवर्तकम् । निश्चयोत्पादकं चेदं न तथा युक्तिसंगतम् ॥ न संदेह-विपर्यासौ निवत्यौ सर्वदा स्थितेः । नापि निश्चयजन्माऽस्ति तत एव वृथाऽखिलम् ॥ तत्त्वसं• का० २३-२४ पृ. २७ । ४ “चैतन्य-बुद्धि-मनसां नित्यत्वेन"-तत्त्वसं० पजि० पृ० २७ पं० २५ । ५-नार्थसाध-आ० हा० । ६ “अथापि निश्चयोऽभूतस्समुत्पद्येत साधनात् । ननु तेनैव सर्वेऽमी भवेयुर्व्यभिचारिणः" ॥ तत्त्वसं० का० २५ पृ० २८ । ७ पृ. २८२ पं० १८। ८ "अव्यक्तो व्यक्तिभाक् तेभ्य इति चेद् व्यक्तिरस्य का ? । न रूपातिशयोत्पत्तिरविभागादसंगतेः" ॥ तत्त्वसं० का० २६ पृ० २८ । . "आधाराधेयलक्षणो वा संबन्धो भवेत् , जन्यजनकभावलक्षणो वा ?"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २८ पं० २२ । १०-भावाऽसौ वि. डे। ११ अथ पृथग्भू-वा० बा० विना०। १२-कारपृथ-वा० बा० विना । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] इति ३०० प्रथमे काण्डेतिशयस्योत्पत्तेः । न चातिशयस्य कश्चिदाधारो युक्तः अमूर्तत्वेनाधः प्रसर्पणाभावात् अधोगतिप्रतिबन्धकत्वेनाधारस्य व्यवस्थानात् । जन्यजनकभावलक्षणोऽपि न सम्बन्धो युक्तः, सर्वदेव सम्बन्धाख्यस्य (निश्चयाख्यस्य) कारणस्य सन्निहितत्वान्नित्यमतिशयोत्पत्तिप्रसक्तेः। न च साधन प्रयोगापेक्षया निश्चयस्यातिशयोत्पादकत्वं युक्तम् अनुपकारिण्यपेक्षाऽयोगात्, उपकाराभ्युपगमे ५वा दोषः पूर्ववद् वाच्यः। अपि च, अतिशयोऽपि पृथग्भूतः क्रियमाणः किमसन् क्रियते, आहोस्वित् सन् इति कल्पनाद्वयम् । असत्त्वे पूर्ववत् साधनानामनैकान्तिकता वाच्या, सरवे च साधनवैयर्थ्यम् तत्रापि अभिव्यक्त्यभ्युपगमे 'केयमभिव्यक्तिः' इत्याद्यनवस्थाप्रसङ्गो दुर्निवार इति व्यतिरेकपक्षोऽपि सङ्गत्यसम्भवादसम्भवी । अतो न स्वभावातिशयोत्पत्तिरभिव्यक्तिः। नापि तद्विषयज्ञानोत्पत्तिस्वरूपा अभिव्यक्तियुक्तिसंगता, तद्विषयज्ञानस्य भवदभिप्रायेण नित्य१० त्वात् । तथाहि-तद्विषयाऽपि संवित्तिः सत्कार्यवादिमतेन नित्यैव किमुत्पाद्यं तस्याः स्यात् ? अपि च, एकैक(कैव) भवन्मतेन संविद् -"आ सर्ग-प्रलयादेका बुद्धिः " [ कृताता(न्ता)त्-सैव च निश्चयः तत्र कोऽपरस्तदुपलम्भोऽभिव्यक्तिस्वरूपो यः साधनैः सम्पा घेत? ने च त(न च न तद्वद्धिस्वभावा तद्विषया संवित्तिः किन्तु मनःस्वभावेति वक्तव्यम. 'बुद्धिः' 'उपलब्धिः' 'अध्यवसायः' 'मनः' 'संवित्तिः' इत्यादीनामनन्तरत्वेन प्रदर्शयिष्यमाणत्वात् १५तद्विषयोपलम्भाऽऽवरणक्षयलक्षणाप्यभिव्यक्तिर्न घटां प्राश्चति द्वितीयस्योपलम्भस्यासम्भवेनोपल. म्भावरणस्याप्यभावात् न ह्यसत आवरणं युक्तिसंगतम् तस्य वस्तुसद्विषयत्वात् । न चासतस्तदावरणस्य कुतश्चित् क्षयो युक्तः। सत्वेऽपि तदावरणस्य नित्यत्वान्न क्षयः सम्भवी, तिभा(तिरो. भा)वलक्षणोऽपि क्षयस्तस्याऽयुक्तः अपरित्यक्तपूर्वरूपस्य तिरोभावानुपपत्तेः तद्विषयोपलम्भस्या(स्य) सत्वेऽपि नित्यत्वान्नावरणसम्भव इति कुतस्तत्क्षयोऽभिव्यक्तिः? न चाप्यावरणक्षयः केनचिद् २० विधातुं शक्यः तस्य निःस्वभावत्वात् । ततोऽभिव्यक्तेरघटमानत्वात् सत्कार्यवादपक्षे साधनोपन्यासवैयर्थ्यम् । एवं बन्ध-मोक्षाभावप्रसङ्गश्च तत्पक्षे। तथाहि-प्रधान-पुरुषयोः कैवल्योपलम्भलक्षणतत्त्वझानप्रादुर्भावे सति अपवर्गः कापिलैरभ्युपगम्यंते, तत्र(तच) तत्त्वज्ञानं सर्वदा व्यवस्थितमेवेति सर्व एव देहिनोऽपवृक्षाः(वृत्ताः) स्युः। अत एव न बन्धोऽपि तत्पक्षे सङ्गतः मिथ्याज्ञानवशाद्धि बन्ध २५इष्यते तस्य च सर्वदाऽव्य(दा व्य)वस्थितत्वात् सर्वेषां देहिनां बद्धत्वमिति कुतो मोक्षः? "सर्वदैव निश्चयाख्यस्य कारणस्य"-तत्त्वसं. पजि. पृ. २८ पं० २७। २ पृ. २९९पं० २८ । ३ पृ. २९९ पं० २२। ४-दसम्भवो अतो डे०।-दसम्भवा अतो हा०।-दसम्भवे अतो वि०। ५ न तद्विषयसंवित्तिर्नोपलम्भावृतिक्षयः। नित्यत्वादुपलम्भस्य द्वितीयस्याऽप्यसंभवात्" ॥ तत्त्वसं० का० २७ पृ. २९ ।। ६ तद्विषयस्यापि वा. बा. विना। -त्पाद्य तं स्यादपि वि० हा०।-त्पाद्यं त स्यादपि आ.। -त्पाद्यं ते स्यात् अपि वा. बा० । “सत्कार्यवादिनो मतेन नित्यैवेति किं तस्या उत्पाद्यम्"-तत्त्वसं० पञ्जि.पृ० २९ पं० १०। ८ एक व भवन्म-वा. बा. । “एकैव भवतां मतेन"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ. २९ पं० १३ । ९-द्धिरिकृता तात् सौव वि. हा०।-द्धिरिति कृतिरित्याद्यव वा. बा०।१० “ 'आ सर्ग-प्रलयादेका बुद्धिः' इति सिद्धान्तात्"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २९ पं० १३। ११"न बुद्धिखभावा तद्विषयसंवित्तिः किं तर्हि ? मनःखभावेति, तदसम्यक्"-तत्त्वसं. पजि. पृ. २९ पं० १५। १२ न वाऽसत-वि. विना। १३-णनित्य-वा. बा.। १४-वीति विरोधाभावल-वा. बा० । “नापि तिरोभावलक्षणः क्षयो युक्तः अत्यक्तपूर्वरूपस्य तिरोभावासंभवात्"तत्त्वसं० पञ्जि. पृ. २९ पं० १९। १५ “अथवा 'नित्यत्वात्' इति, तद्विषयायाः संवित्तर्नित्यत्वान्नावरणं संभवति तदसंभवान्न क्षयो युक्तः"-तत्त्वसं० पजि० पृ. २९ पं० २२। १६-म्यते न च तत्त्वज्ञानं सर्वदाऽव्यवस्थितमेवेति सर्व एव देहिनोऽपवृक्षाः भां० मा० ।-स्यते त च तत्त्वज्ञानं सर्वदा वेस्थितमेवेति सर्व एव देहिनोऽपवृक्षाः वा. बा० । “तत्त्वज्ञानस्योत्पत्तौ सत्यां मोक्षो भवद्भिरिष्यते, तच्च तत्त्वज्ञानं सर्वदाऽवस्थितमेवेति मुक्का: सर्व एव देहिनः स्युः"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २९ पं० २६ । १७ "तस्य च सर्वदाऽवस्थितत्वेन"-तत्त्वसं. पजि. पृ. २९ पं० २७॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। लोकव्यवहारोच्छेदश्च सत्कार्यवादाभ्युपगमे । तथाहि-हिताऽहितप्राप्ति-परिहाराय लोका प्रवर्तते, न च तत्पक्षे किञ्चिदप्राप्यम् अहेयं वा समस्तीति निर्व्यापारमेव सकलं जगत् स्यादिति कथं न सकलव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गः ? निषिद्धे च सत्कार्यवादे 'असत् कार्य कारणे' इति सिद्धमेव-सदसतोः परस्परपरिहारस्थितत्वेन प्रकारान्तरासम्भवात्-तथापि परोपन्यस्तदूषणस्य दूषणाभासताप्रतिपादनप्रकारो लेशतः ५ प्रदर्श्यते-तत्र यत् तावदुक्तं परेण 'असत् कर्तुं नैव शक्यते, निःस्वभावत्वात्' इति, तदसिद्धम् । वस्तुस्वभावस्यैव विधीयमानत्वाभ्युपगमात् तस्य च नैरूप्यासिद्धेः । अथ प्राग उत्पत्तेनिःस्वभावमेव तत्, न; तस्यैव निःस्वभावत्वायोगात् । न यतः सस्वभाव एव निःस्वभावो युक्तः वस्तुस्वभावप्रतिषेधलक्षणत्वान्निःस्वभावत्वस्य । न च क्रियमाणं वस्तु उत्पादात् प्रागस्ति येन तदेव नि:स्वभावं सिद्ध्येत् । न च वस्तुविरहलक्षणमेव धर्मिणं निरूपं पक्षीकृत्य 'नैरूप्यात्' इति हेतुः प(क)-१० क्षीक्रियत इति वक्तव्यम्, सिद्धसाध्यताप्रसङ्गात् यतो न वस्तुविरहः केनचिद् विधीयमानतयाऽ भ्युपगतः । अनैकान्तिकश्चायं हेतुः विपक्षे बाधकप्रमाणाऽप्रदर्शनात् कारणशक्तिप्रतिनियमाद्धि किञ्चिदेवासत् क्रियते यस्योत्पादको हेतुर्विद्यते; यस्य तु शशशृङ्गादे त्यु(नास्त्यु)त्पादकः तन्न क्रियत इति अनेकान्त एव, यतो न सर्व सर्वस्य कारणमिष्टम् । न च 'यद असत् तत् क्रियत एवं' इति व्याप्तिरभ्युपगम्यते किं तर्हि ? यद् विधीयते उत्पत्तः प्राक् तत् असदेवेत्यभ्युपगमः। अथ १५ तुल्येऽपिं असत्कारित्वे हेतूनां किमिति सर्वः सर्वस्यासतो हेतुर्न भवतीत्यभिधीयते, असदेतत्, भवत्पक्षेऽप्यस्य चोद्यस्य समानत्वात् । तथाहि-तुल्ये सत्कारित्वे किमितिं सर्वः सर्वस्य सतो हेतुर्न भवतीत्यसत्कार्यवादिनाऽप्येतदभिधातुं शक्यत एव । न च भवन्मतेन किश्चिदसदस्ति येन तन्न क्रियते, न च कारणशक्तिनियमात् सदपि नभोऽम्बुरुहादिन क्रियते इत्युत्तरमभिधानीयम् , इतरत्राप्यस्य समानत्वात् । तदुक्तम्"त्रैगुण्यस्याविशेषेऽपि न सर्व सर्वकारकैम्"। [तत्त्वसं० का०२८] अभ्युपगमे(म)वादेन च 'यवत् तद्वत्' इति साम्यमुक्तम् न पुनस्तदस्ति । तथाहि-सत्यपि कार्य-कारणयोर्भेदे कस्यचित् किञ्चित् कारणं भवति-स्वहेतुपरम्परायातत्वात् तथाभूतखभावप्रतिनियमस्य-अमेदे च तयोरेकस्यैकत्रैकस्मिन्नेव काले हेतुकत्वं चान्योन्यविरुद्धं कथं सम्भवेत् २५ विरुद्धधर्माध्यासनिबन्धनत्वात् वस्तुमेदस्य? तदुक्तम् "भेदे हि कारणं किञ्चिद् वस्तुधर्मतया भवेत् । अभेदे तु विरुद्ध्येते तस्यैकस्य क्रियाऽक्रिये" ॥ २० अथ असत्कार्यवादिनः कारणानां प्रतिनियताः शक्तयो न घटन्ते कार्यात्मकानामवधीनाम-३० निष्पत्तेः न हवधिमन्तरेणावधिमतः सद्भावः सम्भवति । प्रयोगश्चात्र-ये सद्भूतकार्यावधिशून्याः न ते नियतशक्तयः, यथा शशङ्गादयः, सद्भूतकार्यावधिशून्याश्च शालिबीजादयो भावा इति व्यापकानुपलब्धिः । सत्कार्यवादे तु कार्यावधिसद्भावाद् युक्तः कारणप्रतिनियमः। उक्तं च १ पृ. २८२ पं० २२ तथा ३८ । २ "प्रागू उत्पत्तेस्तन्निःस्वभावमेवेति चेत्, न; तस्यैव निःखभावत्वायोगात्। न हि स्वभाव एव निःस्वभावो युक्तः"-तत्त्वसं० पजि० पृ० ३० पं० १२। ३-त् नियतः सस्व-मां०। ४ "नीरूपं धर्मिणं पक्षीकृत्य 'नरूप्यात्' इति हेतुः क्रियते"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ. ३० पं० १५। ५-दको स्तन कि-वा. बा० । अत्र 'नास्त्युत्पादको हेतुस्तन्न' इति पाठः संभाव्यते । “यस्य तु वियदब्जादेर्नास्ति कारणं तन्न क्रियते"-तत्त्वसं० पजि. पृ.३०पं०१८॥ ६ असत्तल्येऽपि वा० बा० विना । ७-पि सत्-वा० बा०। ८ सर्वस्य सतो हेतुर्भव-वा. बा०। ९-ति सर्वस्य सतो हेतु भव-वा० बा० । १०-दिनोऽप्येत-वा. बा. विना । ११ "त्रैगुण्यस्याविभेदेऽपि सर्व सर्वकारकम् । यद्वत् तद्वदसत्त्वेऽपि न सर्व सर्वकारकम्" ॥ तत्त्वसं० का० २८ पृ० ३० । १२ "एतच अभ्युपगम्योकम्-'यद्वत् तद्वत्' इति, न पुनः साम्यमस्ति"-तत्त्वसं. पजि० पृ. ३० पं० २७ । १३ काले नुतमहे कत्वं चान्यो-वा. बा. । “काले हेतुत्वमहेतुत्वं च परस्परविरुद्धम्"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ३१ पं०३। १४ तत्त्वसं० पजि. पृ. ३१५० ४ । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ प्रथमे काण्डे - "अवधीनामनिष्पत्तेर्नियतास्ते न शकयः । सत्वे च नियमस्तासां (युक्तः ) सार्वधिको ननु” ॥ [ तत्त्वसं० का० २९ ] इति, असदेतत्; हेतोरनैकान्तिकत्वात् । तथाहि अवधी नाम निष्पत्तौ 'क्षीरस्य दध्युत्पादने शक्तिः' ५ इति व्यपदेशः केवलं मा भूत्, येत् पुनरनध्यारोपितं सर्वोपाधिनिरपेक्षं वस्तुस्वरूपम्-यदनन्तरं पूर्वमदृष्टमपि वस्त्वन्तरं प्रादुर्भवति तस्याप्रतिषेध एव । नै च शब्द- विकल्पानां यत्र व्यावृत्तिस्तत्र वस्तुस्वभावोऽपि निवर्त्तते, येतो व्यापकः स्वभावः कारणं वा व्यावर्त्तमानं स्वं व्याप्यं स्वर्काय वाssदाय निवर्त्तते इति युक्तम् तयोस्ताभ्यां प्रतिबन्धात् नान्यः अतिप्रसङ्गात् । न च 'पयसो दनि शक्तिः' इत्यादिव्यपदेशः विकल्पो वा भावानां व्यापकः स्वभावः कारणं वा येनासौ निवर्तमानः १० स्व (स्वं) भावं निवर्त्तयेत् तद्व्यतिरेकेणापि भावसद्भावात् । यतो व्यपदेशाः विकल्पाश्च निरंशैकस्वभावे वस्तुनि यथाभ्यास मनेकप्रकाराः प्रवर्त्तमाना उपलभ्यन्ते - एकस्यैव शब्दादेर्भावस्य अनित्यादिरूपेण भिन्नस में स्थायिभिर्वादिभिः व्यपदेशात् विकल्पनीच्च तत्तादात्म्ये वस्तुनश्चित्रत्वप्रसक्तिः व्यपदेशविकल्पवत्, शब्दविकल्पानां वस्तुस्वरूपवेद (वदे) कत्वप्रसङ्गः । नैं ह्येकं चित्रं युक्तम् इ ( अ ) तिप्रसङ्गात् । ततः शक्तिप्रतिनियमात् किञ्चिदेव असद् विधीयते न सर्वमित्यनैकान्तिकोऽपि 'नैरूप्यात्' १५ इति हेतुः । 'उपादानग्रहणात्' इत्यादिहेतुचतुष्टयस्य अत एवानैकान्तिकत्वम् । तथाहि - यदि कार्यसत्कृतमेव प्रतिनियतोपादानग्रहणं कचित् सिद्धं भवेत् तदैतत् स्यात् यावता कारणशक्तिप्रतिनियमकृतमपि प्रतिनियतोपादानग्रहणं घटत एव सर्वस्मात् सर्वस्य सम्भवोऽपि - कारणशक्तिप्रतिनियमादेव-च न भवति सर्वस्य सर्वार्थक्रियाकारिभावत्वस्यासिद्धेः । यदपि 'अकार्यातिशयम्' इत्याद्युम्, तदप्यभिप्रायापरिज्ञानादेवः यतो नास्माभिः 'अभाव उत्पद्यते इति निगद्यते - येन २० विकारापत्तौ तस्य स्वभावहानिप्रसक्तिरापद्येत - किन्तु वस्त्वेव समुत्पद्यते इति प्राक् प्रतिपादितम्, तच्च वस्तु प्रागुत्पादात् 'असत्' - उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेः निष्पन्नस्यातिप्रसङ्गतः कार्यत्वानुपपत्तेश्च - इत्युच्यते, यस्य च कारणस्य सन्निधानमात्रेणं तत् तथाभूतमुदेति तेन तत् 'क्रियते' इति व्यपदिश्यते, न व्यापारसमावेशात् किञ्चित् केनचित् क्रियते, सर्वधर्माणामव्यापारत्वात् । नाप्यसत् किञ्चिदस्ति यन्नाम क्रियते असत्त्वस्य वस्तुस्वभावप्रतिबन्धलक्षणत्वात् । अपि च, यदि २५ अकार्यातिशयवत् तदसन्न क्रियत इत्यभिधीयते, सदपि सर्वस्वभावनिष्पत्तेरकार्यातिशयमेवेति कथं क्रियते ? ततः 'शक्तस्य शक्यकरणात् इत्ययमप्यनैकान्तिकः । सत्कार्यवादे च कारणभावस्याऽघटमानत्वात् 'कारणभावात्' इत्ययमप्यनैकान्तिकः । अथवा कार्यत्वासम्भवस्य सतः प्राक् प्रतिपादितत्वात् असत्कार्यवाद एव चोपादानग्रहणादिनियमस्य युज्यमानत्वात् 'उपादानग्रहणात्' इत्यादिहेतुचतुष्टयस्य साध्यविपर्ययसाधनाद् विरु १ - वधिनो ननु वा० वा० । २ “नैवं तेषामनिष्पत्त्या मा भूच्छब्दस्तथाऽपरम् । सर्वोपाधिविविक्तस्य वस्तुरूपस्य न क्षतिः” ॥ तत्त्वसं ० का ० ३० पृ० ३१ । ५ न श-वि० । ३- वल मा भूत् वा० बा० विना । ४ य पुन - वा० वा० विना । ६ " न नाम रूपं वस्तूनां विकल्पा वाचकाश्च यत् । विश्वकल्पाः प्रवर्तन्ते यथाभ्यासममेदिनि" ॥ तत्त्वसं ० का ० ३१ पृ० ३१ । ९ - मानः स्वभावः स्वभावं निव - हा० ३१ पं० २७ । १० - मये स्थायि - भां० ७- पकाः स्वभावाः कार - वा० वा० विना । ८- चादाय डे० । वि० । “येन तन्निवर्तमानं तथाविधं वस्तु निवर्तयेत्” - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० मां ० विना । ११ - नाश्चातत्तादा वा० बा० । १२ “वस्तुखरूावदेव वा शब्दविकल्पानामेकरूपत्वप्रसङ्गः " - तत्त्वसं० पजि० पृ० ३२ पं० ७ । १३ न ह्येकचित्रव्यक्तमि - भां० । न ह्येकं चित्रशक्तमि - आ० हा ० वि० । न ह्येकं चिदशक्तमि - मां० । “न ह्येकं चित्रमिति युक्तम् अतिप्रसङ्गात् " - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ३२ पं० ८ । १४ १०२८२ पं० १८ । १५- सर्वस्यासम्भवा० वा० विना । १६० २८३ पं० १२ तथा ३८ । १७- त्पाद्य इति वा० बा० विना । १८ पृ० ३०१ पं० ७-११। १९- ण च तत् वा० बा० २० - मादेशा - वा० बा० । २१ “अपि च, यदि अकार्यातिशयत्वाद् असन्न क्रियते " - तत्त्वसं० पजि० पृ० ३२ विना । पं० २० । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३०३ खता । अथ यदि 'असदेवोत्पद्यते' इति भवतां मतम् तत् कथं सदसतोरुत्पादः सूत्रे प्रतिषिद्धः? उक्तं च तत्र-"अनुत्पन्नाश्च महामते सर्वधर्मा(र्माः) सदसतोरनुत्पन्नत्वात्" [ इति, न; वस्तूनां पूर्वापरकोटिशून्यक्षणमात्रावस्थायी स्वभाव एव उत्पाद उच्यते भेदान्तरप्रतिक्षेपेण तन्मात्रजिज्ञासायाम्, न पुनवैभाषिकपरिकल्पिता जाति: संस्कृतलक्षणा प्रतिषेत्स्यमानत्वात् तस्याः। नापि वैशेषिकादिपरिकल्पित(तः) सत्तासमवायः स्वकारणसमवायो(यो वा, तयो)रपि ५ निषेत्स्यमानत्वात्, नित्यत्वात् तयोः परमतेन, नित्यस्य च जन्मानुपपत्तेः। उक्तं च "सत्ता-स्वकारणाऽऽश्लेषकरणात् कारणं किल । ___सा सत्ता स च सम्बन्धो नित्यौ कार्यमथेह किम" ॥ [ ]इति। स एवमात्मक उत्पादो नाऽसना(ता) तादात्म्येन सम्बध्यते, सदसतोर्विरोधात्-न हि असत् सद भवति । नापि सता पूर्वभाविना सम्बध्यते तस्य पूर्वमसत्त्वात् ; कल्पनाबुद्ध्या तु केवलमसता १० वस्तु सम्बध्यते, न ह्यसनाम किञ्चिदस्ति यद् उत्पत्तिमाविशेत् 'असदुत्पद्यते' इति तु कल्पनाविरचितव्यवहारमात्रम् । कल्पनाबीजं तु प्रतिनियतपदार्थाऽनन्तरोपलब्धस्य रूपस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तस्योत्पत्त्यवस्थातः प्रागनुपलब्धिः। तदेवमुत्पत्तेः प्राक् कार्यस्य न सत्त्वं धर्मः, नाप्यसत्त्वम् स्यैवा(त्त्वम् तस्यैवा)भावात् । अपि च, पयःप्रभृतिषु कारणेषु दध्यादिकं कार्यमस्तीति ययुच्यते तदा वक्तव्यम्-किं व्यक्तिरूपेण तत् तत्र सत्, अथ शक्तिरूपेण? तत्र यदि व्यक्तिरूपेणेति पक्षः, सन १५ युक्तः, क्षीराद्यवस्थायामपि दध्यादीनां स्वरूपेणोपलब्धिप्रसङ्गात् । नापि शक्तिरूपेण, यतस्तद्रूपं दध्यादेः कार्यानु(दु)पलब्धिलक्षणप्राप्तात् किमन्यत्, आहोस्विद् तदेव ? यदि तदेव तदा पूर्वमेवोपलब्धिप्रसङ्गो ध्यादेः । अथ अन्यदिति पक्षस्तदा कारणात्मनि कार्यमस्तीत्यभ्युपगमस्त्यक्तो भवेत् कार्याद भिन्नतनोः शक्त्यभिधानस्य पदार्थान्तरस्य सद्भावाभ्युपगमात् । तथाहि-यदेव आविर्भूतविशिष्टरस-वीर्यविपाकादिगुणसमन्वितं पदार्थस्वरूपं तदेव दध्यादिकं कार्यमुच्यते; क्षीरावस्थायां२० च तद् उपलब्धिलक्षणप्राप्तमनुपलभ्यमानमसयवहारविषयत्वमवतरति, यच्चान्यच्छक्तिरूपम् तत् कार्यमेव न भवति न च अन्यस्य भावेऽन्यत् सद् भवति अतिप्रसङ्गात् । न च उपचारकल्पनया तद्यपदेशसद्भावेऽपि वस्तुव्यवस्था, शब्दस्य वस्तुप्रतिबन्धाभावात् तद्भावेऽपि वस्तुसद्भावासिद्धेः। यदपि 'भेदानामन्वयदर्शनात् प्रधानास्तित्वम्' उक्तम् तत्र हेतोरसिद्धत्वम्, न हि शब्दादि १ ततः क-भां० मां०। २-मतेः भां० मां० वा. बा० । ३ सर्वाधर्मा सदसतोरनु-हा० वि० । सर्वधर्मात्स्स दनु-वा० बा । "सर्वधर्माः सदसतोरनुत्पन्नत्वात्"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ. ३२ पं० २७ । “पुनरपरं महामते ! क्रियाकारणरहिताः सर्वधर्मा न उत्पद्यन्ते अकारकत्वेन । उच्यन्ते अनुत्पन्नाः सर्वधर्माः निःखभावाश्च"लङ्कावतारसू० पृ० ११५५० ५। ४ "उत्पादो वस्तुभावस्तु सोऽसता न सता तथा। संबध्यते कल्पिकया केवलं त्वसता धिया"॥ तत्त्वसं० का० ३२ पृ. ३३ । ५-कल्पितसत्तासमवायो वा वरपि निषेत्स्य-हा०वि० ।-कल्पितसत्तासमवायो वारपि निषेत्स्य-भां० मां। "नापि वैशेषिकपरिकल्पितः सत्तासमवायः" तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ३३ पं० ६। ६ “खकारणसमवायो वा तयोरपि निषेत्स्यमानत्वात्"-तत्त्वसं० पजि० पृ. ३३ पं०७। ७ तत्त्वसं० पजि. पृ० ३३ पं० ८। ८ नानः तादा-वा. बा. विना । “नासता"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ३३ पं० १०। ९ "यदिदं वस्तुनो रूपमेकानन्तरमीक्ष्यते । प्रागासीन्नेति तद्वीजं प्राग्भूते त्विदमस्ति न" ॥ तत्त्वसं• का० ३३ पृ. ३३ । १०-सत्त्व स्यैवा-वा. बा. विना। ११ “क्षीरादिषु च दध्यादि शक्तिरूपेण यन्मतम् । का शक्तिस्तत्र दध्यादि यदि दृश्येत दुग्धवत्" ॥ तत्त्वसं० का० ३४ पृ० ३३ । १२ यदच्य-वि०। १३ "दध्यादेः कार्यरूपात्"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ३४ पं० ४। १४ "अन्यचेत् कथमन्यस्य भावेऽभक्त्याऽन्यदुच्यते । न हि सत्त्वस्य सद्भावः सद्भावो दुःख-मोहयोः" ॥ तत्त्वसं० का० ३५ पृ. ३४ । १५-न्यस्याभावेऽसद भव-वि०। १६ पृ. २८४ पं० १०। १७ सत्त्वायनुगत व्यक्तं न सिद्धं नः कथंचन । आन्तरत्वात् सुखादीनां व्यक्तत्वात् तत्खसंविदः"॥ तत्त्वसं० का०३६ पृ. ३४ । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ प्रथमे काण्डेलक्षणं व्यक्तं सुखाद्यन्वितं सिद्धम् सुखादीनां ज्ञानरूपत्वात् शब्दादीनां च तद्रूपविकलत्वात् न सुखाद्यन्वितत्वम् । तथा च प्रयोगः-ये ज्ञानरूपविकलाः न ते सुखाद्यात्मकाः, यथा परोपगत आत्मा, ज्ञानरूपविकलाश्च शब्दादय इति व्यापकानुपलब्धिः । अथ ज्ञानमयत्वेन सुखादिरूपत्वस्य व्याप्तिर्यदि सिद्धा भवेत् तदा तन्निवर्तमानं सुखादिमयत्वमादाय निवर्तेत; न च सा सिद्धा पुरुष५स्यैव संविद्रूपत्वेनेष्टेरिति, असदेतत्; सुखादीनां स्वसंवेदनरूपतया स्पष्टमनुभूयमानत्वात् । तथाहि-स्पप्टेयं सुखादीनां प्रीति-परितापादिरूपेण शब्दादिविषयंसन्निधानेऽसन्निधाने च प्रका. शान्तरनिरपेक्षा प्रकाशात्मिका स्वसंवित्तिः । यच्च प्रकाशान्तरनिरपेक्षं सातादिरूपतया स्वयं सिद्धिमवतरति तत् 'ज्ञानम्' 'संवेदनम्' 'चैतन्यम्' 'सुखम्' इत्यादिमिः पर्यायैरभिधीयते । न च सुखादीनामन्येन संवेदनेनानुभा(भ)वादनुभवरूपता प्रथते, तत्संवेदनस्याऽसातादिरूपताप्रसक्तः १० स्वयमतदात्मकत्वात् । तथाहि-योगिनः अनुमानवतो वा परकीयं सुखादिकं संवेदयतो न सातादिरूपता अन्यथा योग्यादयोऽपि साक्षात् सुखाद्यनुभाविन इवातुरादयः स्युः योग्यादिवद् वा अन्येषामप्यनुग्रहोपघातौ न स्याताम् अविशेषात् । संवेदनस्य च सातादिरूपत्वाभ्युपगमे संविदू. पत्वं सुखादेः सिद्धम् । इदमेव हि सुखं दुःखं च नः 'यत् सातमसातं च संवेदनम्' इति नानैका. न्तिकता हेतोः। नाप्यसिद्धता, सर्वेषां बाह्यार्थवादिनां संविद्रूपरहितत्व(त्वस्य) शब्दादिषु सिद्ध१५त्वात् । विज्ञानवादिमताभ्युपगमोऽन्यथा प्रसज्येत तथा चेष्टसिद्धिरेव । विरुद्धताऽप्यस्य हेतो सम्भवति सपक्षे भावात् । न च यथा बहिर्देशावस्थितनीलादिसन्निधानवशाद् अनीलादिस्वरूपमपि संवेदनं नीलनिर्भासं संवेद्यते तथा बाह्यसुखाद्युपधानसामर्थ्याद् असातादिरूपमपि त्सा(सा)ता. दिरूपं लक्ष्यते तेन संवेदनस्य सातादिरूपत्वेऽपि न सुखादीनां संविद्रूपत्वं सिद्ध्यति अतोऽनैका. न्तिकता हेतोरिति वक्तव्यम् , अभ्यास-प्रकृतिविशेषत एकस्मिन्नपि त्रिगुणात्मके वस्तुनि प्रीत्याद्या. २० कारप्रतिनियतगुणोपलब्धिदर्शनात् । तथाहि-भावनावशेन मद्याऽङ्गनादिषु कामुकादीनाम् जातिविशेषाच्च करभादीनां केषाश्चित् प्रतिनियताः प्रीत्यादयः सम्भवन्ति न सर्वेषाम्, एतच्च शब्दादीनां सुखादिरूपत्वान्न युक्तम्, सर्वेषामभिन्नवस्तुविषयत्वान्नीलादिविषयसंवित्तिवत् प्रत्येकं चित्रा संवित् प्रसज्येत । अथ यद्यपि त्रयात्मकं वस्तु तथाप्यदृष्टांदिलक्षणसहकारिवशात् किञ्चिदेव कस्यचिद् रूपमाभाति न सर्व सर्वस्य, असदेतत् तदाकारशून्यत्वादवस्त्वालम्बनप्रतीतिप्रसक्तेः। तथाहि२५ध्याकारं तद वस्तु एकाकाराश्च संविदः संवेद्यन्त इति कथं अनालम्बनास्ता न भवन्ति ? प्रयोगः यट यदाकारं संवेदनं न भवति न तत तद्विषयम, यथा चक्षानं न शब्दविषयम, च्यात्मकवस्त्वाकारशून्याश्च यथोक्ताः संविद इति व्यापकानुपलब्धिः तथापि तद्विषयत्वेऽतिप्रसङ्गापत्तिर्विपर्यये १-यसन्निधाने च प्रका-वा. बा. विना०। २-दनेनाभवा-वा. बा. विना। ३-त् यथा हि वा. बा०। ४ "शब्दादिषु संविद्रूपरहितत्वस्य सिद्धत्वात् । अन्यथा विज्ञानवादिमतमेवाऽजीकृतं स्यात्"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ३५ पं० ११। ५-पि तत्साता-का० । “बाह्यसुखाद्युपधानवशाद् असातादिरूपमपि सातादिरूपमिव लक्ष्यते"तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ३५ पं० १५ । ६ "एकत्रैव च शब्दादी भावना-जातिभेदतः। सङ्गादयः संभविनो लक्ष्यन्ते नियताः स्फुटम्"॥ तत्त्वसं० का० ३७ पृ. ३५ । ७ "एतच्च शब्दादीनां सुखादिरूपत्वे सति न युक्तम् । कस्मात् ? इत्याह"-तत्त्वसं० पजि० पृ. ३५ पं० २५ । ८ “एकवस्त्वनुपातित्वे चित्रा संवित् प्रसज्यते । अदृष्टादिवशान्नो चेन्न स्याद् वस्त्वनुयायिनी" ॥ __ तत्त्वसं० का० ३८ पृ. ३५। ९ "आदिशब्देन भावना-जाति-भेद-जिघृक्षादीनां ग्रहणम्"-तत्त्वसं० पजि. पृ०३६ पं० ४। १० "न्याकारं वस्तुनो रूपमेकाकाराश्च तद्विदः। ताः कथं तत्र युज्यन्ते भाविन्यस्तद्विलक्षणाः" ॥ तत्त्वसं० का० ३९ पृ. ३६। ११-पर्यये वा बा-वा० बा० विना। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। बाधकं प्रमाणम् । न च यथा प्रत्यक्षेण गृहीतेऽपि सर्वात्मना वस्तुनि अभ्यासादिवशात् क्वचिदेव क्षणिकत्वादौ निश्चयोत्पत्तिर्न सर्वत्र तद्वद् अदृष्टादिवलाद् एकाकारा संविद् उदेष्यतीत्यभिधातुं ममम, क्षणिकादिविकल्पस्यापि परमार्थतो वस्तुविषयत्वानभ्यपगमात, वस्तुनो विकल्पागोचरत्वात् परम्परया वस्तुप्रतिबन्धात् तथाविधतत्प्राप्तिहेतुतया तु तस्य प्रामाण्यम् । उक्तं च "लिङ्ग-लिङ्गिधियोरेवं पारंपर्येण वस्तुनि । प्रतिबन्धात् तदाभासशून्ययोरप्यवन्धनम्" ॥ [ ] इति । परैस्तु परमार्थत एव वस्तुविषयत्वमिष्टं प्रीत्यादिप्रतिपत्तीनाम्; अन्यथा सुखाद्यात्मनां शब्दादीनामनुभवात् सुखानुभवख्यातिरित्येतदसङ्गनं स्यात् । सुखादिसंविदां च सविकल्पकत्वान्न किञ्चिदनिश्चितं रूपमस्तीति सर्वात्मनाऽनुभवख्यातिप्रसक्तिः यतः स्वार्थप्रतिपत्ति(त्तिः) निश्चयानामियमेव यत् तन्निश्चयनं नाम । १० ____ यदपि 'प्रसाद-ताप-दैन्यायुपलम्भात् सुखाद्यन्वितत्वं सिद्धं शब्दादीनाम्' इत्यभिहितम्, तदनैकान्तिकम् । तथाहि-योगिनां प्रकृतिव्यतिरिक्तं पुरुपं भावयतां तमालम्ब्य प्रकर्षप्राप्तयोगान प्रसादः प्रादुर्भवति प्रीतिश्च, अप्राप्तयोगानों त(च) द्रुततरमपश्यतामुद्वेग आविर्भवति, जडमतीनां च प्रकृत्यावरणं प्रादुर्भवति। न च परैः पुरुषस्त्रिगुणात्मकोऽभीष्ट इति 'प्रसाद-ताप-दैन्यादिकार्योपलब्धेः' इत्यस्यं कथं नानैकान्तिकता? न च सङ्कल्पात् प्रीत्यादीनि प्रादुर्भवन्ति न पुरुषादिति १५ वाच्यम, शब्दादिष्वप्यस्य समानत्वात् । सङ्कल्पमात्रभावित्वे च सुखादयो बाह्या न स्युः सङ्कल्पस्य संविदूपत्वात् । बाह्यविषयोपधानमन्तरेणापि पुरुपदर्शने प्रीत्यायुत्पत्तिदर्शनात् 'बाह्यसुखाद्युपधानबलात् सातादिरूपं संवेदनस्य' इत्यपि सव्यभिचारमेव इटानिष्टविकल्पादनावाश्रित(दनाश्रित)बाद्यविषयसन्निधानं प्रसिद्धमेव हि सुखादिवेदनं कथं तत् परोपधानमेव युक्तम् ? न च मनोऽपि त्रिगुणं तदुपधानवशात् तदाविर्भवतीति वक्तव्यम् , 'यदेव हि प्रकाशान्तरनिरपेक्षं स्वयं सिद्धम्'२० इत्यादिना संविद्रूपत्वस्य तत्र साधितत्वात् अतः 'समन्वयात्' इत्यसिद्धो हेतुः । नैकान्तिकश्च प्रधा. नाख्येन कारणेन हेतोः क्वचिदप्यन्वयासिद्धेः । तथाहि-व्यापि नित्यमेकं त्रिगुणात्मकं कारणं साधयितुमिष्टम् , न चैवंभूतेन कारणेन हेतोः प्रतिवन्धः प्रसिद्धः । न चायं नियमः-यदात्मकं कार्य कारणमपि तदात्मकमेव, तयोर्भेदात् । तथाहि हेतुमदादिभिर्धमैर्युक्तं व्यक्तमभ्युपगम्यते तद्विपरीतं चाव्यक्तमिति कथं न कार्य-कारणयोर्भेदादनकान्तिको हेतुः? धर्मिविशेषविपरीतसाधनाद् २५ विरुद्धोऽप्ययं हेतुः । तथाहि-एको नित्यस्त्रिगुणात्मकः कारणभूतो धर्मी साधयितुमिष्टः तद्विप रीतश्च अनेकोऽनित्यश्च ततः सिद्धिमासादयति, यतो व्यक्तं नैकया त्रिगुणात्मिकया स्वात्मभूतया जात्या समन्वितमुपलभ्यते किं तर्हि ? अनेकत्वाऽनित्यत्वादिधर्मकलापोपेतमेव अतः कार्यस्याऽनि १ वञ्चनम्'-तत्त्वार्थश्लोकवा० अ० १ स. ११ श्लो० १३ । २ "मुखाद्यनु-" तत्त्वसं० पजि. पृ०३६ पं० २२ । ३ "इयमेव हि निश्चयानां स्वार्थप्रतिपत्तिः यत् तन्निश्चयनं नाम"-तत्त्वसं० पजि० पृ० ३६ पं० २३ । ४ पृ० २८३ पं०४३ तथा पृ० २८४ पं० ११ । ५ "प्रसादोद्वेगवरणान्येकस्मिन् पुंसि योगिनाम् । जायन्ते न च तद्रूपः पुमानभिमतः परैः" ॥ तत्त्वम० का० ४० पृ. ३६ । ६ “अजितयोगानां क्षिप्रतरमपश्यतामुद्वेगः, ये च प्रकृया जडमतयस्तेषां वरणमुपजायते"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ३७ पं० ३.। ७-नां तदद्भुतर-कां० । ८ "गुरु वरणकमेव तमः"-माठरवृ. का० १३ पृ. २३ । ९ पृ. २८४ पं० १२। १. पृ. ३०४ पं० १७। ११ “यच्च इष्टानिष्टविकल्पादनपेक्षितबाह्यविषयसन्निधानं सुखादिसंवेदनं प्रसिद्धं तत् कथं परोपधानात् स्यात् ?"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ३७ पं० १०। १२ पृ. ३०४ पं० ७॥ १३ पृ. २८४ पं०१०। १४ "सिद्धेऽपि त्रिगुणे व्यक्त न प्रधानं प्रसिध्यति । एकं तत्कारणं नित्यं नैकजात्यन्वितं हि तत्"। तत्त्वसं० का० ४१ पृ. ३७ । १५ धर्मी वि-भां. मां. वा. बाधर्मविशेष-वि. डे० । “धर्मविशेषविपरीतभावनात्"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ३७पं० २३। १६ "एको नित्यस्त्रिगुणात्मकः कारणभूतो धर्मः साधयितुमिष्टः"-तत्त्वसं० पजि. पृ०३७ पं०२४॥ स० त०३९ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ प्रथमे काण्डेत्यत्वाऽनेकत्वादिधर्मान्वयदर्शनात् कारणमपि तथैवानुमीयता(ते) । क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधान्न नित्यस्य कारणत्वम् कारणभेदकृतत्वाच्च कार्यवैचित्र्यस्य अन्यथा निर्हेतुकत्वप्रसङ्गाकरूपस्यापि कारणत्वमिति विपर्ययसिद्धिप्रसक्तेन नित्यैकरूपप्रधानसिद्धिः। यदि तु अनित्याऽनेकरूपे कारणे 'प्रधानम्' इति संज्ञा क्रियते तदा अविवाद एव । यद्यपि 'सत सत्' इत्येकरूपेण 'स ५एवायम्' इति च स्थिरेण स्वभावेनानुगता अध्यवसीयन्ते कल्पनाशानेन भावास्तथापि नैषामेक जात्यन्वयः स्वस्वभावव्यवस्थिततया देश-काल-शक्ति-प्रतिभासादिभेदात्, नापि स्थैर्यम् क्रमोत्पत्तिमतां तथैव प्रतिभासनात् । 'प्रतिभासभेदश्च भावाद्(न्) भिनत्ति' इत्यसकृत् प्रतिपादितम् । 'मृद्विकारादिवत्' इति दृष्टान्तोऽपि साध्यसाधनविकलः एकजात्यन्वयस्य एककारणभवत्वस्य च तत्राप्यसिद्धत्वात् । ने चकं मृत्पिण्डादिकं कारणं मृदादिजातिश्चैकानुगता तत्र सिद्धेति वक्तव्यम्, १० यतो नैकोऽवयवी मृत्पिण्डादिरस्ति एकदेशावरणे सर्वावरणप्रसङ्गात्, नाप्येका जातिः, प्रतिव्यक्तिप्रातभासमंदादिति प्रतिपादितत्वात् प्रतिपादायष्यमाणत्वाच्च। 'समन्वयात्' इत्यस्य हेतोः पुरुषैश्चानैकान्तिकत्वम । तथाहि-चेतनत्वादिधरन्विता: पुमांसोऽभीष्टाः न च तथाविधैककारणपूर्वकास्त इष्यन्ते । न च चेतनाद्यन्वितत्वं पुरुषाणां गौणम् यतः अचेतनादिव्यावृत्ताः सर्व एव पुरुषाः अतोऽर्थान्तरव्यावृत्तिरूपा चैतन्यादिजातिस्तदनुगामिनी १५ कल्पिता न तु तात्त्विकी समस्तीति वक्तव्यम् , अन्यत्रापि समानत्वात्-यतः शब्दादिष्वपि अमुख्यं सुखाद्यन्वितत्वमसत्यप्येककारणपूर्वकत्वे पुरुषेष्विव भविष्यतीति कथं नानैकान्तिकत्वं हेतोः । मूलप्रकृत्यवस्थायां च सत्त्वरजस्तमोलक्षणा गुणाः गुणत्वाऽचेतनाऽभोक्तृत्वादिभिरन्विताः प्रधानपुरुषाश्च नित्यत्वादि(दिभि)रन्वितास्तथाभूतैककारणपूर्वकाश्च न भवन्तीत्यनैकान्तिकत्वमेव । तदेवं 'समन्वयात्' इत्यस्य हेतोरसिद्ध-विरुद्धाऽनैकान्तिकदोषदृष्टत्वान्न प्रधानसाधकत्वम । अने२० नैव न्यायेन 'परिमाणात्' 'शक्तितः प्रवृत्तेः' 'कार्यकारणभावात्' 'वैश्वरूप्यस्याविभागात्' इत्यादि कानामपि न प्रधानास्तित्वसाधकत्वम् । तथाहि-साध्यविपर्यये च बाधकप्रमाणाप्रदर्शनात् सर्वेऽ. प्येतेऽनैकान्तिकाः। नहि प्रधानाख्यस्य हेतोरभावेन परिमाणादीनां विरोधः सिद्धः। तथाहियदि तावत् कारणमात्रस्यास्तित्वमत्र साध्यते तदा सिद्धसाध्यता न ह्यस्माकं कारणमन्तरेण कार्य स्योत्पादोऽभीष्टः, न च कारणमात्रस्य 'प्रधानम्' इति नामकरणे किश्चिद् बाध्यते । अथ प्रेक्षावत् २५ कारणमस्ति यद् व्यक्तं नियतपरिमाणमुत्पादयति शक्तितश्च प्रवर्तत इति साध्यते तदाऽनैकान्ति कता, विनाऽपि हि प्रेक्षावता विधात्रा स्वहेतुसामर्थ्यात् प्रतिनियतपरिमाणादियुक्तस्योत्पत्त्यविरोधात् । न च प्रधानं प्रेक्षावत् कारणं युक्तम्, अचेतनत्वात् तस्य प्रेक्षायाश्च चेतनापर्यायत्वात् । अपि च, 'शक्तितः प्रवृत्तेः' 'इत्यनेन किमव्यतिरिक्तशक्तिमत् कारणं साध्यते, आहोखिद् व्यतिरिक्तानेकशक्तिसम्बन्धि तदेकत्वादिधर्मकलापाध्यासितमिति कल्पनाद्वयम् । तत्र यद्याद्या कल्पना तदा ३०सिद्धसाधनं कारणमात्रस्य ततः सिद्ध्यभ्युपगमात् । द्वितीयायां हेतोरनैकान्तिक कचिदप्यन्वयासिद्धेहेतुश्चासिद्धः यतो न विभिन्नशक्तियोगात् कस्यचित् क्वचित् कार्ये कारणस्य १-नुमायताम् । भां. मां० विना। २ "अयःशलाकाकल्पा हि क्रमसंगतमूर्तयः। दृश्यन्ते व्यक्तयः सर्वाः कल्पनामिश्रितात्मिकाः" ॥ तत्त्वसं० का० ४२ पृ.३८ । ३ पृ० २८४ पं० ११। ४-प्रसवत्वस्य हा०वि० । ५ "मृद्विकारादयो मेदा नैकजात्यन्वितास्तथा । सिद्धा नैकनिमित्ताश्च मृत्पिण्डादेविमेदतः" ॥ तत्त्वसं० का० ४३ पृ. ३८। ६ चैकमृ-वा० बा० विना। ७ "चैतन्याद्यन्धितत्वेऽपि नैकपूर्वत्वमिष्यते । पुरुषाणाममुख्यं चेत् तदिहापि समं न किम्" । तत्त्वसं. का. ४४ पृ. ३९ । ८ "गुणत्वाऽचेतनत्वाऽभोक्तृत्वादिभिरन्विताः प्रधानपुरुषाश्च नित्यत्वादिभिर्युक्ताः"-तत्त्वसं० पजि.पृ. ३९ पं०१२। १ "प्रधानहेत्वभावेऽपि ततः सर्व प्रकल्पते । शक्तेर्भेदेन वैचित्र्यं कार्यकारणतादिकम्" । तत्त्वसं० का० ४५ पृ. ३९ । १. पृ. २८४ पं०१। ११ पृ० २८४ पं० १॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। प्रवृत्तिः सिद्धा स्वात्मभूतत्वाच्छक्तीनाम् । निरन्वयविनाशावष्टब्धत्वात् सर्वभावानां क्वचिदपि लयासिद्धेः 'अविभागाद् वैश्वरूप्यस्य' इत्ययमपि हेतुरसिद्धः लयो हि भवन् पूर्वस्वभावापगमे वा भवेत् , अनपगमे वा? यद्याद्यः पक्षः तथा(दा) निरन्वयविनाशप्रसङ्गः। अथ द्वितीयः तदा लयानुपपत्तिः यतो नाविकलं स्वरूपं बिभ्रतः कस्यचिल्लयो नाम अतिप्रसङ्गात्-अतिविरुद्धमिदं परस्परतः 'अविभागः''वैश्वरूप्यं च' इति । विरुद्धा वा एते हेतवः प्रधानहेत्वभाव (भाव एव) स्वकार- ५ शक्तिमेदतः कार्यस्य परिमाणादिरूपेण वैचित्र्यस्य कार्यकारणभावादिना(दीनां) चोपपद्यमानत्वात् । तथाहि-प्रधानं यदि व्यक्तस्य कारणं भवेत् तदा सर्वमेव विश्वं तत्स्वरूपवत् तदात्मकत्वादेकमेव द्रव्यं स्यात्, ततश्च 'बुद्धिरेका एकोऽहङ्कारः पञ्च तन्मात्राणि' इत्यादिकः परिमाणविभागोऽसङ्गतः स्यादिति निष्परिमाणमेव जगत् स्यात् । तथा, प्रधानहेत्वभावे एव-प्राक्तनन्यायेन 'अमेदे न शक्तिर्न क्रिया' इत्यादिना-घटादिकरणे कुम्भकारादीनां शक्तितः प्रवृत्तिरुपपद्यते.१० कार्यकारणविभागोऽपि प्रधानहेत्वभावे एव युक्तो न तु तत्सद्भावे इति प्राक् प्रतिपादितम् । प्रधानसद्भावे वैश्वरूप्यमनुपपत्तिकमेव, सर्वस्य जगतः तन्मयत्वेन तत्स्वरूपवदेकत्वप्रसक्तस्तदविभागो दूरोत्सारित एवेति न कुतश्विद्धेतोः प्रधानसिद्धिः। यदपि प्रधानविकारबुद्धिव्यतिरिक्तं चैतन्यमात्मनो रूपं कल्पयन्ति “चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्" ] इत्यागमात् पुरुषश्च शुभाशुभकर्मफलस्य प्रधानोपनीतस्य भोक्ता न तु कर्ता १५ सकलजगत्परिणतिरूपायाः प्रकृतेरेव कर्तृत्वाभ्युपगमात् । प्रमाणयन्ति चात्र-यत् सङ्घातरूपं वस्तु तत् परार्थ दृष्टम् , यथा शयनाऽऽसनाद्यङ्गादि, सङ्घातरूपाश्च चक्षुरादय इति स्वभावहेतुः, यश्चासौ परः स आत्मेति सामर्थ्यात् सिद्धम् । अत्र च 'चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्' इत्यादि वदता चैतन्यं नित्यैकरूपमिति प्रतिज्ञातम् तस्य नित्यैकरूपात् पुरुषादव्यतिरिक्तत्वात् , अध्यक्षविरुद्धं चेदम् रूपादिसंविदां स्फुटं स्वसंवित्या भिन्न स्वरूपावगमात् एकरूपत्वे त्वात्मनोऽनेकविधार्थस्य २० भोक्तृत्वाभ्युपगमो विरुद्ध आसज्येत अभोकवस्थाव्यतिरिक्तत्वात् भोक्रवस्थायाः, न च दिक्षादियोगादविरोधः दिक्षा-शुश्रूषादीनां परस्परतोऽभिन्नानामुत्पादैरात्मनोऽप्युत्पादप्रसङ्गः तासां तदव्यतिरेकात्, व्यतिरेके च 'तस्य ताः' इति सम्बन्धानुपपत्तिः उपकारस्य तन्निबन्धनस्याभावात्, भावे वा तत्रापि भेदाभेदविकल्पाभ्यामनवस्था-तदुत्पत्तिप्रसङ्गतो दिक्षाद्यभावान्न भोक्तुत्वम् । प्रयोगः-यस्य यद्भावव्यवस्थानिबन्धनं नास्ति नासौ प्रेक्षावता तद्भावेन व्यवस्थाप्यः, यथा आकाशं २५ मूर्तत्वेन, नास्ति च भोक्तृत्वव्यवस्था निबन्धनं पुरुषस्य दिदृक्षादि इति कारणानुपलब्धिः । न चायमसिद्धो हेतुरिति प्रतिपादितम् । कर्तृत्वाभावाद् भोक्तृत्वमपि तस्य न युक्तम् न ह्यकृतस्य कर्मणः फलं कश्चिदुपभुङ्क्ते अकृताभ्यागमप्रसङ्गात् । न च पुरुषस्य कर्माकर्तृत्वेऽपि प्रकृतिरस्याभिलषितमर्थमुपनयतीत्यसौ भोक्ता भवति, यतो नासावप्यचेतना सती शुभाशुभकर्मणां की युक्ता येनासौ कर्मफलं पुरुषस्य सम्पादयेत् । अथ यथा पङ्गन्धयोः परस्परसम्बन्धात् प्रवृत्तिस्तथा महदादि "लिङ्गं ३० चेतनपुरुषसम्बन्धाच्चेतनावदिव धर्मादिषु कार्येष्वध्यवसायं करोतीत्यदोष एवायम्-उक्तं च "पुरुषस्य दर्शनार्थ कैवल्यार्थ तथा प्रधानस्य । पङ्गन्धवदुभयोरभिसंयोगात् तत्कृतः सर्गः" ॥ [ साडयका० २१] इति, १ पृ. २८४ पं०२। २ "तदा"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ४० पं०६। ३ “प्रधानहेत्वभाव एव कारणशक्ति मेदेन हेतुना कार्यस्य परिमाणादिरूपेण वैचित्र्य (व्यस्य) कार्यकारणतादेश्च उपपद्यमानत्वाद् विरुद्धता हेतूनाम्"-तत्त्वसं. पजि.पृ.४०५० १२। ४ "तथा, कुलालादीनां घटादिकरणे शक्तितः प्रवृत्तिः प्रधानहेत्वभाव उपपद्यते, न तु तद्भावे । यथोक्तं प्राक्-'न च शक्तिर्न च क्रिया' इति"-तत्त्वसं. पजि. पृ. ४० पं० १६। ५ पृ. २९८ पं० १९ तथा ४० । ६ तद्भावे वा. बा०। ७ पृ. २९९ पं० १ तथा ३०। ८ योगद. समा० पा० सू० ९ भा० पृ. ३१ पं०७॥ ९-सनाव्यंगादि आ० भ० म०-सनात्मंगादि वि. डे०।-सनात्प्रगादि हा० । “पर्यक-रथ-शरणादयः-" माठरवृ. पृ. २९पं० २२। "शयनाऽऽसनाऽभ्यङ्गादिवत्"-साङ्ख्य. कौ० पृ. ९१ पं० २ का. १७। १०-त्र चैवि० डे। ११ प्र. पृ.पं. १४ । १२-त्वे चात्म-भां० म०। १३-स्य सद्भा-वि० डे०। १४ लिन चे-वा. बा. विना । माठरवृ. पृ. ३३ पं० २४ । १५ कार्येषु व्यव-वा० बा०। १६-"रपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः"-सायका Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ प्रथमे काण्डे असदेतत्; यतो यदि प्रकृतिरकृतस्यापि कर्मणः फलमभिलषितमुपनयति तदा सर्वदा सर्वस्य पुंसोऽभिलषितार्थसिद्धिः किमिति न स्यात् ? न च तत्कारणस्य धर्मस्याभावान्नासाविति वक्तव्यम्, यतो धर्मस्यापि प्रकृतिकार्यतया तव्यतिरेकात् तद्वत् सदैव भाव इति सर्वदा सर्वस्यामिलषितफलप्राप्तिप्रसक्तिः। अपि च, यदि अभिलषितं फलं प्रकृतिरुपनयति तदा नानिष्टं प्रयच्छेत, नहि ५कश्चिदनिष्टमभिलपति । किञ्च, उपनयतु नाम प्रकृति(तिः) फलम् तथापि भोक्तृत्वं पुंसोऽयुक्तम् अविकारित्वात्-नहि सुख-दुःखादिना आह्लाद-परितापादिरूपं विकारमनुपनीयमानस्य भोकृत्वमस्याकाशवत् सङ्गतम् । न च प्रकृतिरस्योपकारिणी अधिकृतात्मन्युपकारस्य कर्तुमशक्यत्वात्, विकारित्वे वा नित्यत्वहानिप्रसक्तिः अतादवस्थ्यस्यानित्यत्वलक्षणत्वात् तस्यापि विकारिण्यवश्य भावित्वात् । अथ न विकारापत्या आत्मनो भोक्तत्वमिदं किं तर्हि ? बुझ्यध्यवसितस्यार्थच्या १० प्रतिबिम्बोदयन्यायेन संचेतनात् । तथाहि-बुद्धिदर्पणसक्रान्तमर्थप्रतिविम्बकं द्वितीयदर्पणकल्पे पुंस्यध्यारोहति, तदेव भोक्तत्वमस्य न तु विकारापत्तिः न च पुरुष(पः) प्रतिबिम्बमात्रसका न्तावपि स्वरूपप्रच्युतिमान् दर्पणवदविचलितस्वरूपत्वात् , असदेतत्; यतो बुद्धिदर्पणारूढमर्थप्रतिबिम्बकं द्वितीयदर्पणकल्प पुंसि सामत् ततः (ततः अव्यतिरिक्तम्) व्यतिरिक्तं वा इति वाच्यम् । यदि अव्यतिरिक्तमिति पक्षस्तदा तदेवोदय-व्यप(य)योगित्वं पुंसः प्रसज्येत उदयादि१५योगिप्रतिबिम्बाव्यतिरेकात् तम्वरूपवत् । अथ व्यतिरिक्तमित्यभ्युपगमस्तदा न भोक्तृता ने भोक वस्थातस्तस्य कस्यचिद् विशेषस्याभावात् । न चार्थप्रतिविम्बसम्बन्धात् तस्य भोक्तृत्वं युक्तम् अनु. पकार्योपकारकयोः सम्बन्धासिद्धेः उपकारकल्पनाया अपि भेदाभेद विकल्पतोऽनुपपत्तेः। अपि च, पुरुषस्य “दिदृक्षां प्रधानं यदि जानीयात् तदा पुरुषार्थ प्रति प्रवृत्तिर्युक्ता स्यात् न. चैवम् तस्य जडरूपत्वात् , सत्यपि चेतनारसम्बन्धे न पङ्गन्धदृष्टान्तादप्रवृत्तियुक्तिमती, यतोऽन्धो २० यद्यपि मागे नोपलभते तथापि पङ्गोविवक्षामसी वेत्ति तश्य चेतनायत्त्वात् न चवं प्रध वक्षामवगच्छति तस्याऽचेतनावत्त्वेन जडरूपत्वात् । न च तयोर्नित्यत्वेन परस्परमनुपकारिणोः पङ्गन्धवत् सम्बन्धोऽपि युक्तः । अथ प्रधानं पुरुषस्य दिदृक्षामवगच्छतीत्यभ्युपगम्यते तथा सति भोक्तत्वमपि तस्य प्रसज्यते करणशस्य भुजिक्रियावेदकत्वाविरोधात् । न च य एकं जानाति तेनाs. परमपि ज्ञातव्यमित्ययं न नियमः यतः प्रधानस्य कर्तृत्वे भोक्तृत्वमपि नियतसन्निधीति युक्तं २५ वक्तुम् यतो यदि प्रधानस्य बुद्धिमत्त्वमङ्गीक्रियते तदा पुरुषवच्चैतन्यप्रसङ्गः बुझ्यादीनां चैतन्यपर्या यत्वात् , यतो यत् प्रकाशात्मतयाऽपरप्रकाशनिरपेक्षं स्वसंविदितरूपं चकास्ति तत् चैतन्यमुच्यते, तद् यदि बुद्धेरपि समस्ति चिद्रूपा सा किमिति न भवेत् ? न च यथोक्तबुद्धिव्यतिरेकेणापरं चैतन्यमुपलक्षयामः यतस्तद्यतिरिक्तस्य पुरुपस्य सिद्धिर्भवेत् । यदपि चिद्रूपत्वादू बुद्धर्भेदप्रसाधनाय परैरनुमानमुपन्यस्यते यद् यद् उत्पत्तिमत्त्व-नाशि३० स्वादिधर्मयोगि तत् तद् अचेतनम् , यथा रसादयः, तथा च बुद्धिरिति स्वभावहेतुरिति । तत्रापि वक्तव्यम्-किमिदं स्वतन्त्रसाधनम् , आहोखित् प्रसङ्गसाधनमिति ? तत्र स्वतन्त्रसाधनेऽन्यतरासिद्धो हेतुः यतो यथाविधमुत्पत्तिमत्त्वमपूर्वोत्पादलक्षणम् नाशित्वं च निरन्वयविनाशात्मकं प्रसिद्ध बौद्धस्य न तथाविधं साक्ष्यस्य तयोराविर्भाव-तिरोभावरूपत्वेन तेनाङ्गीकरणात् यथा च १ अविकृता-वि० सं०। २ “वादमहार्णवोऽप्याह" इत्युल्लिख्य अतः 'विकारापत्तिः' इतिपर्यन्तोऽयं पाठः आचार्यमल्लिषेणेन स्याद्वादमार्या निर्दिष्टः-स्याद्वा० मू० श्लो. १५ पृ० ११९५०८-९-१०-११। एवमेव "वादमहार्णवोs प्यस्मिन् दर्शने स्थितः प्राह" इति निर्दिश्य समुद्धृतोऽयं पाठः आचार्यराजशेखरेण-न्यायाव० टिप्प. पृ० १५३ पं०८। तथैव च श्रीयशोविजयोपाध्यायेनापि "तथा चाह वादमहार्णवः” इति कृत्वा एष एव पाठः पठितः-शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० १०९ प्र० पं०६। ३ ततः अव्यतिरिक्तम् व्यति-वि० सं०। ४-दय-व्यययो-वि० सं०। ५ इदं 'न' पदमधिकं भाति । ६-शेषाभावात् वा. बा. विना। ७ दिग्दृक्षां भां०। ८-धो यु-वा. बा. विना। ९-सज्येत मां. वि. डे०। १०-मित्यन्न का. आ० ।-मित्यत्र नि-भां. मां. वि. डे. हा । ११ प्रकाशतया-वि• डे० कां० । प्रकाशशतया-मां० मां० । प्रकाशशतयो-आ० हा०। १२-थाविधा सा-वा. बा. विना। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३०९ सालयस्य तौ प्रसिद्धौ न तथा बौद्धस्येति कथं नान्यतरासिद्धता? ने च शब्दमात्रसिद्धौ हेतुसिद्धिः, वस्तुसिद्धौ वस्तुन एव सिद्धस्य हेतुत्वात् । तदुक्तम् "तस्यैव व्यभिचारादौ शब्देऽप्यव्यभिचारिणि । दोषवत् साधनं ज्ञेयं वस्तुनो वस्तुसिद्धितः” ॥ [ अथ प्रसङ्गसाधनमिति पक्षस्तदा साध्यविपर्यये बाधकप्रमाणाप्रदर्शनादनैकान्तिकता, न छत्र ५ प्रतिबन्धोऽस्ति चेतनस्योत्पाद-नाशाभ्यां न भवितव्यमिति । यदपि प्रकल्पितम् _ "वत्सविवृद्धिनिमित्तं क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरज्ञस्य । पुरुषविमोक्षनिमित्तं तथा प्रवृत्तिः प्रधानस्य” ॥ [ साक्ष्यका० ५७ ] इति, तदपि न सम्यक् यतः क्षीरमपि न स्वातन्येण वत्सविवृद्धिं चेतस्याधाय प्रवर्तते किं तर्हि ११० कादाचित्केभ्यः स्वहेतुभ्यः प्रतिनियतेभ्यः समुत्पत्तिमासादयति; तच्च लब्धात्मलाभं वत्सवि. द्धिनिमित्ततामुपयातीत्यचेतनमपि प्रवर्तत इति व्यपदिश्यते, न त्वेवं प्रधानस्य कादाचित्की प्रवृत्तिर्युक्ता नित्यत्वात् तस्य अन्यहेत्वभावाच्च । तथाहि-न तावत् कादाचित्ककारणसन्निधानायत्ता कादाचित्की शक्तिरस्य युक्ता तदभावात् । नापि स्वाभाविकी सदा सन्निहिता अविकलकारणत्वेन सर्वस्याभ्युदयनिःश्रेयसलक्षणस्य पुरुषार्थस्य युगपदुत्पत्तिप्रसङ्गात् । न च बुद्धि-चैतन्ययोरभेदेऽपि १५ चैतन्यस्यात्मत्वमप्रतिषिद्धमेव, यतो नास्माभिः चैतन्ये आत्मशब्दनिवेशः प्रतिषिध्यते किं तर्हि ? यस्तत्र नित्यत्वलक्षणो धर्मः समारोपितः स एव निषिध्यते, तन्नित्यत्वेऽक्षसंहतेर्वैफल्यप्रसक्तेः तदुत्पत्त्यर्थत्वात् तस्यानित्यत्वे चोत्पत्तेरसम्भवात्-नहि वह्नेः सदाऽस्तित्वे तदर्थ जनतेन्धनमाददीत । तन्न नित्यैकरूपं चैतन्यं युक्तिसङ्गतम्। यदपि "परार्थाश्चक्षुरादयः” [ ] इत्याद्युक्तम्, तत्र आधेयातिशयो वा२० परः साध्यत्वेनाभिप्रेतः, यद्वा अविकार्यनाधेयातिशयः, आहोस्वित् सामान्येन चक्षुरादीनां पाराyमात्रं साध्यत्वेनाभिप्रेतमिति विकल्पत्रयम । तत्र यदि प्रथमः पक्षः स न युक्तः, सिद्धसाध्यतादोषाऽऽघ्रातत्वात् यतोऽस्माभिरपि विज्ञानोपकारित्वेनाभ्युपगता एव चक्षुरादयः "चक्षुः प्रतीत्य रूपादि चोत्पद्यते चक्षुर्विज्ञानमें” [ ] इत्यादिवचनात् । अथ द्वितीयः पक्षोऽङ्गीक्रियते तदा हेतोविरुद्धतालक्षणो दोषः विकार्युपकारित्वेन चक्षुरादीनां साध्यविपर्ययेण २५ दृष्टान्ते हेतोाप्तत्वप्रतीतेः। तथाहि-अविकारिणि अतिशयस्याधातुमशक्यत्वात् शयनाऽऽसनादयोऽनित्यस्यैवोपकारिणो युक्ता न नित्यस्येति कथं न हेतोविरुद्धता? यदि पुनः सामान्येन आधेयानाधेयातिशयविशेषमपास्य पारार्थ्यमात्रं साध्यत इत्ययं पक्षः कक्षीक्रियते तदापि सिद्धसाध्यतैव, १ "शब्दमात्रसिद्धावपि न हेतुसिद्धिः, वस्तुन एव हेतुत्वेन वस्तुनो हि वस्तुसिद्धिः । तस्यैव व्यभिचारादौ शब्देऽप्यव्यभिचारिणि । दोषवत् साधनं ज्ञेयं वस्तुनो वस्तुसिद्धितः" ॥ प्रमेयर० को० पृ० २९ पं० १२ वादिघटमुद्गरवादे । २-पि चेतन्यस्यात्मत्वमप्रति-भां. मां० ।-पि चैतस्यात्मत्वमपि प्रति-वा० बा० ।-पि चेतन्यस्यात्मत्वमपि प्रति-आ० । ३ स्य वा. विना। ४ पृ. ३०७ पं० १६ । माठरवृ० पृ. २९ पं० १८ का०१७ साङ्ख्य० को० पृ. ९. पं. ९ का० १७ । सायद० अ० १ सू. १४० पृ० ९१५० २।। ५ "चक्खं च पटिच्च रूपे च उप्पजति चक्खुविआणं"-संयुत्तनि० निदानसं० गहपतिव० पृ०७२ अं०११भा०२। मध्यमकवृत्ति पृ. ६५०३।। "अभिध. क. व. (२३४ b5): प्रतिर् वीप्सार्थ इत्येवमादिका कल्पना अत्रैव प्रतीत्यसमुत्पादसूत्रे युज्यते इह कथं भविष्यतिः चक्षुः प्रतीत्य रूपाणि चोत्पद्यते चक्षुर्विज्ञानमिति ? न हि 'प्रतीत्यानां चढूंषि प्रतीत्यचक्षूषि' इति समासः संभवति अर्थायोगात् चक्षुर्हि प्रतीत्य रूपाणि प्राप्य चोत्पद्यते चक्षुर्विज्ञानमिति अयमर्थो गम्यते प्रतीत्यसमुत्पादसूत्र (सूत्रान्तरः महानिदानपर्यायसूत्र, सहेतुसप्रत्ययसनिदानसूत्र) चक्षुः प्रतीत्य रूपाणि चोत्पद्यते आविलो मनस्कारो मोहज इति सूत्रे वचनात् (अभिध. क. व. २२७ b 2)" Vallée Poussin इत्यनेन संपादितमध्यमकवृत्ति पृ. ६ टिप्प. ४। ६ दोषोऽविका-वा. बा. विना। -रादीनां साध्यसाध्यविप-वा० ।-रादीनां साध्ये साध्यविप-भां० मा० आ०। ८ सामान्येनाधेयानाधेयानाधेयातिश-भां. मां। सामान्येनाधेयानातिश-वा. बा.। सामान्येनाधेयातिश-वि• डे० । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० प्रथमे काण्डेचक्षुरादीनां विज्ञानोपकारित्वेनेष्टत्वात् । न च चित्तमपि साध्यधर्मित्वेनोपात्तमित्यपरस्य तद्यतिरिक्तस्य परत्वमत्राभिप्रेतम्, चित्तादिव्यतिरेकिणोऽपरस्याविकारिण उपकार्यत्वासम्भवात् चक्षुरूपाऽऽलोक-मनस्काराणामपरचक्षुरादिकदम्बकोपकारित्वस्यान्यायप्राप्तत्वात् विज्ञानस्य वा अने. ककारणकृतोपकाराध्यासितस्य संहतत्वं कल्पितमविरुद्धमेवेति नात्र साध्ये हेतोरप्यसिद्धता सङ्ग५च्छते? । तन्न साङ्ख्योपकल्पितचैतन्यरूपस्य नित्यस्यात्मनः कुतश्चित् सिद्धिः । तन अशुद्धद्रव्यास्तिकमतावलम्बिसाङ्ख्यदर्शनपरिकल्पितपदार्थसिद्धिरिति पर्यायास्तिकमतम् । [नयलक्षणानि ] [ संग्रह-नगमनयस्वरूपम् ] अत्र च नैगम-संग्रह-व्यवहारलक्षणास्त्रयो नयाः शुक्यशुद्धिभ्यां द्रव्यास्तिकमतमाश्रिताः १० ऋजुसूत्र-शब्द-समभिरुढ-एवम्भूतास्तु शुद्धितारतम्यतः पर्याया(य)नयमेदाः । तथाहि-संग्रहमतं तावत् प्रदर्शितमेव, येषां तु मतेन नैगमनयस्य सद्भावस्तैस्तस्य स्वरूपमेवं वर्णितम्-राश्यन्तरो. पलब्धं नित्यत्वमनित्यत्वं च नयतीति निगमव्यवस्थाभ्युपगमपरो नैगमनयः। निगमो हि नित्याऽ. नित्य-सदसत्-कृतक(काऽ)कृतकस्वरूपेषु भावेवपास्तंसाकर्यस्वभावः सर्वथैव धर्मधर्मि मेदेन सम्प द्यत इति । स पुनर्नेगमोऽनेकधा व्यवस्थितः प्रतिपत्रभिप्रायवशान्नयव्यवस्थानात्। प्रतिपत्तारच १५ नानाभिप्रायाः। यतः केचिदाहुः-"पुरुष एवेदं सर्वम्" [ श्वेताश्वत० उ० अ० ३, १५] इत्यादि, यदाश्रित्योक्तम् "ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्" [गीता अ० १५ श्लो०१] पुरुषोऽप्येकत्व-नानात्वभेदात् कैश्चिदभ्युपगतो द्वेधा, नानात्वेऽपि तस्य कर्तृत्वाऽकर्तृत्वमेदो२० रप(भेदोऽप)रेराश्रितः, कर्तृत्वेऽपि सर्वगतेतरभेदः, असर्वगतत्वेऽपि शरीरव्याप्त्यव्याप्तिभ्यां "भेदः, अव्यापित्वेऽपि मूर्तेतरविकल्पादू भेद एव । अपरैस्तु प्रधानकारणिकं जगद् अभ्युपगतम्, तत्रापि सेश्वर-निरीश्वरभेदाद् भेदाभ्युपगमः । अन्यैस्तु परमाणुप्रभवत्वमभ्युपगतं जगतः, तत्रापि सेश्वर-निरीश्वरभेदाद् भेदोऽभ्युपगतः, सेश्वरपक्षेऽपि स्वकृतकर्मसापेक्षत्वाऽनपेक्षत्वाभ्यां तदवस्थ एव भेदाभ्युपगमः । "कैश्चित् स्वभाव-काल-यदृच्छादिवादाः समाश्रिताः, तेष्वपि सापे. २५क्षत्वाऽनपेक्षत्वाभ्युपगमाद् भेदव्यवस्था अभ्युपगतैव । तथा, कारणं नित्यम् कार्यमनित्यमित्यपि द्वैतं कैश्चिदभ्युपगतम्, तत्रापि कार्य स्वरूपं नियमेन त्यजति न वेत्ययमपि भेदाभ्युपगमः । एवं मूत्तरेव मूर्त्तमारभ्यते, मूतैर्मूर्त्तम् , मूतैरमूर्त्तमित्याद्यनेकधा प्रतिपत्रभिप्रायतोऽनेकधा निगमनान्नैगमोऽनेकभेदः। [ व्यवहारनयस्वरूपम् ] ३० व्यवहारनयस्तु-अपास्तसमस्तभेदने (मे)कमभ्युपगच्छतोऽध्यक्षीकृतभेदनिबन्धनव्यवहारविरोधप्रसक्तेः-कारक-ज्ञापकभेदे(द)परिकल्पनानुरोधेन व्यवहारमाचर(मारच)यन् प्रवर्तते इति कारणस्यापि न सर्वदा नित्यत्वम् कार्यस्यापि न सर्वदा नित्यत्वम् कार्यस्यापि नैकान्ततः प्रक्षय इति । ततश्च न कदाचिदनीदृशं जगदिति प्रवृत्तोऽयं व्यवहारो न केनापि प्रवर्त्यते अन्यथा प्रवर्तकान १-त्वमात्रा-भां. वि. कां. विना। २-कारिण उपकारिण उपकार्यत्वा-वा० बा० विना। ३-त्वस्य न्याय-वा० बा० आ० हा० विना। ४-स्य चा-वि०। ५ साध्य हे-वा० बा० विना। ६-न्न सङ्ख्योपकां. आ. हा० वि० विना। ७-दर्शनक-वा. बा. विना। ८ पृ. २७२ पं. १६। ९-पमेव वणितमां-पमेव वर्णितराश्य-भां० हा० । १०-स्तसाङ्कार्य-वि० डे० ।-स्तस्यांकार्य-वा० ।-स्तसाकार्य-भा० मां. हा० ।-स्तमाकार्य स्व-आ०। ११ कर्तृत्वाकर्तृत्वमेदो रपरैरा-भां० मां० । कर्तृत्वाकर्तृत्वे मेदोरपरैरा-आ० वि० । कर्तृत्वाभेदोरपरैरा-वा० बा० । १२ भेदो व्यापि-वा. बा. विना। १३-श्वरभेदा. भ्युप-वा० बा० विना। १४-दाभेदोपग-वा० बा० विना। १५ कैश्चितु वा. बा०। १६ एवं मू वा. बा। १७ अनवधारणमत्र विशेषः। १८-स्तमेदानेक-वा. बा. विना। .. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३११ वस्थाप्रसक्तिः। ततो न व्यवहारशून्यं जगत् । न च प्रमाणाविषयीकृतः पक्षोऽभ्युपगन्तुं युक्तः अदृष्टपरिकल्पनाप्रसक्तेः, दृष्टानुरोधेन ह्यदृष्टमपि वस्तु कल्पयितुं युक्तम् अन्यथा कल्पनासम्भवादिति संग्रह-नैगमाऽभ्युपगतवस्तुविवेकाल्लोकप्रतीतपथानुसारेण प्रतिपत्तिगौरवपरिहारेण प्रमाण-प्रमेयप्रमितिप्रतिपादनं व्यवहारप्रसिद्ध्यर्थ परीक्षकैः समाश्रितमिति व्यवहारनयाभिप्रायः । ततः स्थितं नैगम-संग्रह-व्यवहाराणां द्रव्यास्तिकनयप्रभेदत्वम् । विषयभेदश्चैपां प्रतिपादितः "शुद्ध द्रव्यं समाश्रित्य संग्रहस्तदशुद्धितः। नैगम-व्यवहारौ स्तां शेषाः पर्यायमाश्रिताः" ॥ [ तदुक्तम् "अन्यदेव हि सामान्यमभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्य एवेति मन्यते निगमो नयः" ॥[ ] १० "सद्रूपतानतिकान्त-स्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्व संगृह्णन् संग्रहो मतः” ॥ [ "व्यवहारस्तु तामेव प्रतिवस्तुव्यवस्थिताम् । तथैव दृश्यमानत्वात् व्यवहारयति देहिनः"॥ [ ] इति। [ऋजुसूत्रनयस्वरूपम् ] पर्यायनयभेदाः ऋजुसूत्रादयः "तत्रर्जुसूत्रनीतिः स्यात् शुद्ध पर्यायसंश्रिताः (ता)। नश्वरस्यैव भावस्य भावा(वात्) स्थितिवियोगतः" ॥ [ देश-कालान्तरसम्बद्धस्वभावरहितं वस्तुतत्त्वं साम्प्रतिकम् एकस्वभावम् अकुटिलम् ऋजु सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः । न हि एकस्वभावस्य नानादिक-कालसम्बन्धित्वस्वभावमनेकत्वं युक्त एकस्यानेकत्वविरोधात् । न हि स्वरूपमेदादन्यो वस्तुभेदः स्वरूपस्यैव वस्तुत्वोपपत्तेः। तथाहिविद्यमानेऽपि स्वरूपे किमपरमभिन्नं वस्तु यद् रूपनानात्वेऽप्येकं स्यादिति ? यद् वस्तुरूपं येन स्वभावेनोपलभ्यते तत् तेन सर्वात्मना विनश्यति न पुनः क्षणान्तरसंस्पर्शीति क्षणिकम् , क्षणान्तरसम्बन्धे तत्क्षणाकारस्य क्षणान्तराकारविशेषाप्रसङ्गात् अतो जातस्य यदि द्वितीयक्षणसम्बन्धः प्रथमक्षणस्वभावं नापनयति तदा कल्पान्तरावस्थानसम्बन्धोऽपि तन्नापनयेत्, स्वभावभेदे वा२५ कथं न वस्तुभेदः अन्यथा सर्वत्र सर्वदा भेदाभावप्रसक्तिः? अक्षणिकस्य क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियानुपपत्तेरसत्त्वम्, सहकार्युपढौकितातिशयमनङ्गीकुर्वतस्तदपेक्षाऽयोगादक्षेपेण कार्यकारिणः सर्वकार्यमेकदैव विध्यादिति न क्रमकर्तृत्वम् , न वा कदाचनापि स्वकार्यमुत्पादयेत् निरपेक्षस्य निरतिशयत्वात् नहि निरपेक्षस्य कदाचित् करणमकरणं वा विरोधात्, तत्कृतमुका(मुपका)रं स्वभावभूतमङ्गीकुर्वतः क्षणिकत्वमेव । व्यतिरिक्तत्वे वा सम्बन्धासिद्धिः, अपरोपकारकल्पनेऽनवस्थाप्र-३० सक्तिः। युगपदपि न नित्यस्य कार्यकारित्वम् द्वितीयेऽपि क्षणे तत्स्वभावात् ततस्तदुत्पत्तितः तत्कमप्रसक्तेः । क्रमाऽक्रमव्यतिरिक्तप्रकारान्तराभावाच्च न नित्यस्य सत्त्वम् अर्थक्रियाकारित्वलक्षणत्वात् १ ततो व्यव-वा. बा. विना। २-रौ स्ता भां०। ३ “मन्यते नैगमो नयः"न्यायाव. टिप्प पृ० ११८ पं० १९। ४ न्यायाव० टिप्प० पृ० ११८ पं० २५ । ५ “सत्तारूपताम्"-न्यायाव० टिप्प० पृ० १२०५० २६ । ६-स्थितम् वा० बा०। ७-श्रितो वा० बा० विना । न्यायाव० टिप्प० पृ. १२४ पं० २४ । ८ नेश्वर-वा० भां० मां० वि० । नैश्वर-आ० हा०। ९ "भावात् स्थितिवियोगतः"-न्यायाव. टिप्प० पृ. १२४ पं० २५ । १०-म्बन्ध-वि० डे० । ११-स्थातत्सम्ब-वा० वा०। १२ तं न इत्यर्थः । १३-सक्तः वि० डे। १४-पि खं का-वा. बा. आ. वि. डे० विना। १५-त् कारणमकार-वा. वा.। १६-कतनुकारं भां० मां० हा०। १७-वात् तदुत्पत्ति-वा. बा०। १८-रित्वत्वे प्रकारा-वि• डे० ।-रिक्तत्वे प्रकारान्तरभावा-भां० मा. आ. हा० कां० । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ प्रथमे काण्डेतस्य । प्रध्वंसस्य च निहतुकत्वेन स्वभावतो भावात् स्वरसभङ्गग एव सर्वे भावाः इति पर्यावा. श्रित सूत्राभिप्रायः । तदुक्तम् "अतीतानागताकारकालसंम्पर्शवर्जितम् । । वर्तमानतया सर्वमजुमूत्रेण सूयते" ॥ [ ५प्रमाण-प्रमेयनियन्धनं यद्यपि सदाऽथी सामान्येन भवतः तथापि साक्षात् परम्परया या प्रमाणस्य कारणमेव म्वाकागपकविषयः, "नानुकृतान्वयव्यतिरेकं कारणम् नाक(कारणे विषयः" [ ] तथा "अर्धन घटयन्येनां नहि मुक्तार्थपताम। तस्मात् प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरुपता" ॥ [ १० इत्यादिवचनात् तदाकारानुविधायिनी तदध्यवसायेन च तत्राविसंवादात् संवित् प्रमाणत्वेन गीयते । अध्यक्षधीचाऽशब्दमर्थमात्मन्याधनं अन्यथा अर्थदर्शनप्रन्युतिप्रसङ्गात् । न यक्षगोचरेऽर्थ शब्दाः सन्ति तदात्मानो वा येन तस्मिन प्रतिभामगाने:पि नियमेन प्रतिभासेरनिति कर्य तत्संसृष्टाः(टा) अध्यक्षधीभवेत् ? किश्च, वस्तुमन्निधानेऽपि नन्नामानुम्मृति विना तंदार्थस्यानुपलग्धाविष्यमाणायामर्थसन्निधिरक्षदजननं प्रत्यममर्थ इति अभिधानम्मृतादु(?)पक्षीणशक्तित्वात १५ कदाचनापीन्द्रियबुद्धि जनयेन मन्निधानाविशेगत । यदि चायं भवतां निर्वन्धः-स्वामिधान विशेष णापेक्षमेव चक्षुगदिप्रतिपत्ति(?)स्वार्थमवगमयति तदाऽस्तंगनेयमिन्द्रियप्रभवाऽर्थाधिगतिः तनामस्मृत्यादेरसम्भवात् । तथाहि यत्रार्थे प्राक् शब्दप्रतिपत्तिरभृत पुनस्तदर्थवीक्षणे तत्मऋतितशब्दस्मृतिर्भवेदिति युनियुकम् अन्यथा अतिप्रमद्गः म्यान् न चेद् अनभिलापमर्थ प्रतिपत्ता पश्यति तदा तत्र दृष्टमभिलापमपि न स्मरेत् अस्मांश्च शब्दविशेषं न तत्र योजयेत् अयोजयंश्च न तेन विशि१० एमर्थ प्रत्येतीत्यायातमाध्यमशेषम्य जगतः । ततः म्याभिधानरहितम्य विषयम्य विषयिणं चक्षुरादि प्रत्ययं प्रति स्वत एवोपयोगित्वं सिद्धम न तु तदभिधानानाम् तदर्थमम्बन्धरहितानां पारम्पर्येणापि सामर्थ्यासम्भवात् । इत्यर्थनया व्यवस्थिताः । [शब्दनयम्वरूपम् । शब्दनयास्तु मन्यन्ते-कारणस्यापि विषयस्य प्रतिपत्ति प्रति नैव प्रमेयत्वं युक्तं यावदध्यव. २५सायो न भवेत् सोऽप्यध्यवसायविकल्पश्चेत् तदभिधानस्मृति(ति) विना नोत्पत्तुं युक्तः इति सर्वव्य वहारेषु शब्दसम्बन्धः प्रधानं निवन्धनम् । प्रत्यक्षस्यापि तत्कृताध्यवसायलक्षणविकलस्य बहिरन्तर्वा प्रतिक्षणपरिणामप्रतिपत्ताविव प्रमाणतानुपपत्तेः अविसंवादलक्षणत्वात् प्रमाणानाम्, प्रतिक्षणपरिणामग्रहणेऽपि तस्य प्रामाण्याभ्युपगमे प्रमाणान्तरप्रवृत्ती यत्नान्तरं क्रियमाणमपार्थक स्यात् । ततः प्रमाणव्यवस्थानिवन्धनं तनामस्मृतिव्यवसाययोजनमर्थप्राधान्यमपहस्तयतीति शब्द ३०एव सर्वत्र प्रमाणादिव्यवहारे प्रधानं कारणमिति स्थितम् । शब्दनयश्च ऋजुसूत्राभिमतपर्यायात् शुद्धतरं पर्याय स्वविषयत्वेन व्यवस्थापयति । तथाहि-तट:' 'तटी' 'तटम्' इति विरुद्धलिङ्गलक्षणधर्माक्रान्तं भिन्नमेव वस्तु, नहि तत्कृतं धर्मभेदमननुभवतस्तत्सम्बन्धो युक्तः तद्धर्मभेदे वा स्वयं धर्मी कथं न मिद्यते ? यथा हि क्षणिकं वस्तु अतीताऽनागताभ्यां क्षणाभ्यां न सम्बन्धमनुभवत्येवं गोत्वादि कल्पनासामान्य विशेषस्वरूपपरस्परविरुद्धस्त्रीवाद्यन्यतगधर्मसम्बद्धं नान्यधर्मी(मि)सम्ब ३५ द्वमनुभवति(?)विरुद्धधर्माध्यासस्य भेदलक्षणत्वात्, तथाप्यभेदे 'न किञ्चिद् भिन्नं जगदस्ति' इति १ सत्त्वस्य । २ मुक्त्वाऽर्थ-आ०। ३ सृष्टां अ-वा० बा०। ४ तथार्थ-वा० वा०। ५-निधेर-हा. वि. विना। ६-तानुप वा. बा० । ७-वुद्धि ज-वा. बा. विना। ८-दि वायं भां. मां । -दिस्ययं आ० हा०। ९चेदमभि-वा. बा० । १०-मर्थ प्र-वा० वा० भां. मां०। ११-गतः स्वाभि-वा. बा. भा. मा०। १२-स्मृति चिंता नो-आ० ।-स्मृति चिंता विना भां० मां० ।-स्मृति चिंता ना वा. बा। १३-क्षणं हा०। १४-ल्पता सा-आ. हा०। १५-संबंध नान्य-वा० ।-संबंद्धं नान्य-वि० । १६ संवधमनु-बा० । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३१३ मेदव्यवहार एवोत्सीदेत् । तथा, एकस्मिन्नुदकपरमाणौ 'आपः' इति बहुत्वसङ्ख्याया निर्देशोऽनुपपन्नः न ह्येकत्वसङ्ख्यासमाध्यासितं तदेव तद्विरुद्धबहुत्वसङ्ख्योपेतं भवतीत्येकसत्ययैव तन्निर्देष्टव्यम् । कालमेदाद् वस्तुभेदः ऋजुसूत्रेणाप्यभ्युपगत एवेति 'अग्निष्टोमयाजी पुत्रोऽस्य जनिता' इत्ययुक्तमेव वचः अतीताऽनागतयोः सम्बन्धाभावात् । तथा, अन्यकारकयुक्तं यत् तदेव अपरकारकसम्बन्ध. (न्धं) नानुभवतीति अधिकरणं चेद् ग्रामः अधिकरणशब्दवाचि(करणवाचि)विभक्तिवाच्य एव ५ न कर्माभिधानविभक्त्यभिधेयो युक्त इति 'ग्राममधिशेते' इति प्रयोगोऽनुपपन्नः। तथा, पुरुषभेदेऽपि 'नैकान्तद्(कं तद्वस्तु इति 'एहि मन्ये रथेन यास्यसि नहि यास्यसि यातस्ते पिती' इति च प्रयोगो न युक्तः अपि तु 'एहि मन्यसे यथाहं रथेन यास्यामि' इत्यनेनैव परभावेनैतन्निर्देष्टव्यम् । एवमुपग्रहणमेदेपि 'विरमति' इति न युक्तः आत्मार्थतायां हि 'विरमते' इत्यस्यैव प्रयोगसङ्गतेः । न च्चै(चै)वं लोकशास्त्रव्यवहारविलोप इति वक्तव्यम् , सर्वत्रैव नयमते तद्विलोपस्य समानत्वादिति यथार्थशब्द-१० नात् शब्दे (ब्द)नयो व्यवस्थितः । तदुक्तम् - "विरोधिलिङ्ग-सङ्ख्यादिभेदात् भिन्नस्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं शब्दः प्रत्यवतिष्ठते" [ [समभिरूढनयस्वरूपम् ] एकसंज्ञासमभिरोहणात् समभिरूढस्त्वाह-यथा हि विरुद्धलिङ्गादियोगाद् भिद्यते वस्तु तथ १५ संचाभेदादपि । तथाहि-संशाभेदः प्रयोजनवशात् सङ्केतकर्तृभिर्विधीयते न व्यसनितया अन्यथा अनवस्थाप्रसक्तेः ततो यावन्तो वस्तुनः स्वाभिधायकाः शब्दास्तावन्तोऽर्थमेदाः प्रत्यर्थ शब्दनिवेशात् नैकस्यार्थस्यानेकेनाभिधानं युक्तमिति 'घटः' 'कुटः' 'कुम्भः' इति वचनभेदा भिन्न एवार्थः, क्रियाशब्दत्वाद् वा सर्वशब्दानां सर्वेऽप्यन्वर्था एव वाचकाः ततो 'घटते' 'कुटति' 'कौ भाति' इति च क्रियालक्षणनिमित्तभेदात् नैमित्तिकेनाप्यर्थेन भिन्नेन भाव्यमिति 'घटः' इत्युक्ते कुतः 'कुटः' इति २० प्रतिपत्तिः तेन तदर्थस्थानभिहितत्वात् ? यथा वा 'पविक'शब्दोक्तेरन्यैव पावकशक्तिरन्वय-व्यतिरेकाभ्यां लोकतः प्रसिद्धा तथा घटन-कुटनादिशक्तीनामपि भेदः प्रतीयत पवेति नानार्थवाचिन एव पर्यायध्वनयः नैकमर्थमभिनिवेशन्त इति समभिरूढः । उक्तं च "तथाविधस्य तस्यापि वस्तुनः क्षणवृत्तिनः। ब्रूते समभिरूढस्तु संज्ञाभेदेन भिन्नताम्" ॥ [ १ "धातुसंबन्धे प्रत्ययाः"-पाणि० अ० ३ पा० ४ सू० १। “सोमयाजी अस्य पुत्रो भविता"-सिद्धान्तकौ. पृ.४७६ सूत्रा. २८२४ । “धातोः संबन्धे प्रत्ययाः"-हैम० अ० ५ पा० ४ सू० ४१। २ संबन्धे ना-आ० वि.। ३-शब्दवावि भां. मां. विना। ४ “अधिशीङ्-स्थाऽऽसां कर्म"-पाणि० अ० १ पा० ४ सू०४६ सिद्धान्तको० पृ. १३७ सूत्राङ्क० ५४२ । “अधेः शीङ्-स्थाऽऽस आधारः"-हैम० अ० २ पा० २ सू० २०। ५ नै. कांतवस्तु वा. बा. विना। ६ “प्रहासे च मन्योपपदे मन्यतेरुत्तम एकवच"-पाणि० अ०१ पा० ४ सू० १०६ सिद्धान्तकौ० पृ. ३३५ सूत्राङ्क० २१६३ । आचार्य हेमचन्द्रस्तु एतत् सूत्रमकृत्वैव एनं प्रयोगं समर्थितवान् भन्श्यन्तरेण. सा चेयं भङ्गि--'एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि यातस्ते पिता' इति प्रहासे यथाप्राप्तमेव प्रतिपत्तिः नात्र प्रसि. द्धार्थविपर्यासे किश्चिन्निबन्धनमस्ति 'रथेन यास्यसि इति भावगमनाभिधानात् प्रहासो गम्यते । 'नहि यास्यसि' इति बहिर्गमनं प्रतिषिध्यते । अनेकस्मिक्षपि प्रहसितरि च प्रत्येकमेव परिहास इति अभिधानवशाद् 'मन्ये' इति एकवचनमेव । लौकिकश्च प्रयोगोऽनुसतव्य इति न प्रकारान्तरकल्पना न्याय्या"-"त्रीणि त्रीणि अन्य-युष्मदस्मदि"-हैम० अ०३ पा०३ सू०१७ बृ० वृ०। ७ ग्रहेण-भां० म०। ८-णभेदोऽपि वा. बा. विना। ९-ताया हि वा. बा. विना। १.ननेवं वा. बा० । नत्वेवं भां. मां०। ११-ति नव-वा० बा०। १२-रोधलि-आ. विना। "विरोधे लिङ्ग. सङ्ख्यादि"-न्यायाव० टिप्प. पृ० १२६ पं० २०। १३-ति को भा-आ०। १४-पाचक-वा. बा. आ० । १५ न्यायाव. टिप्प० पृ. १२७ पं० १८। स० त०४. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ प्रथमे काण्डे [ एवंभूतनयस्वरूपम् ] शब्दामिधेयक्रियापरिणतिवेलायामेव 'तद् वस्तु' इति भूत एवंभूतः प्राह-यथा संज्ञामेदाद् मेदवद् वस्तु तथा क्रियाभेदादपि, सा च क्रिया तनेत्री यदैव तामाविशति तदैव तन्निमित्तं तत्त. द्यपदेशमासादयति नान्यदेत्यतिप्रसङ्गात् । तथाहि-यदा 'घटते' तदैवासौ 'घटः' न पुनः 'घटि५तवान्' 'घटिष्यते' वा 'घटः' इति व्यपदेष्टुं युक्तः सर्ववस्तूनां घटतापत्तिप्रसङ्गात् । अपि च, चेष्टा समय एव चक्षुरादिव्यापारसमुद्भूतशब्दानुविद्धप्रत्ययमास्कन्दन्ति चेष्टावन्तः पदार्थाः यथावस्थितार्थप्रतिभास एवं च वस्तूनां व्यवस्थापको नान्यथाभूतः अन्यथा अचेष्टावतोऽपि चेष्टावत्तया शब्दानुविद्धेऽध्यक्षप्रत्यये प्रतिभास्यत्य(भास इत्य)भ्युपगमे तत्प्रत्ययस्य निर्विषयतया भ्रान्तस्यापि वस्तुव्यवस्थापकत्वे सर्वःप्रत्ययः सर्वस्यार्थस्य व्यवस्थापकः स्यादित्यतिप्रसङ्गः। तन घटनसमयात् १०प्राक् पश्चाद् वा 'घट' तयपदेशमासादयतीत्येवंभूतनयमतम् । उक्तं च "एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं सदा तन्नोपपद्यते । क्रियाभेदेन भिन्नत्वादेवंभूतोऽभिमन्यते" ॥ [ ] इति । तत् स्थितमेतत् ऋजुसूत्रादयः पर्यायास्तिकस्य विकल्पा इति । अस्याश्च गाथायाः सर्वमेव शास्त्रं विवरणम् ॥३॥ १तनेदत्री यदैव तमा-वा० बा०। २-व वस्तू-आ० हा० वि०। ३-भासात्यभ्यु-आ०।-भासत्यभ्यु-मा०। ४ सर्वस्य व्यव-आ० । सर्वस्याव्यव-भां० मा• हा• वि.। ५ न्यायाव• टिप्प. पृ. १२८ पं०२४। ६शासावि-बा. बा. भ.। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३१५ चतुर्थगाथाव्याख्या। [ द्रव्यास्तिकैकप्रकृतिकयोः संग्रह-व्यवहारयोः शुद्धाशुद्धतया भेदनिरूपणम् ] 'दवढिओ य पजवणओ य' इत्यादिपश्चाद्धैकदेशस्य विवरणाय आह सूरिः दव्वद्रियनयपयडी सुद्धा संगहपरूवणाविसओ। पडिरूवे पुण वयणत्थनिच्छओ तस्स ववहारो॥४॥ इति गाथासूत्रम्। अत्र च संग्रहनयप्रत्ययः शुद्धो द्रव्यास्तिकः व्यवहारनयप्रत्ययस्त्वशुद्ध इति तात्पर्यार्थः । अवयवार्थस्तु द्रव्यास्तिकनयस्य व्यावर्णितस्वरूपस्य प्रकृतिः स्वभावः शुद्धा इत्यसङ्कीर्णा विशेषासंस्पर्शवती संग्रहस्य अभेदग्राहिनयस्य प्ररूपणा-प्ररूप्यतेऽनयेति कृत्वा-उपवर्णना १० पदसंहतिस्तस्या विषयोऽमिधेयः । विषयापकारेण विषयिणो वृत्तस्य विषयव्यवस्थापकत्वादुपचा रेण विषयेणा(ण) विषयिप्रकथनमेतत् अन्यथा का प्रस्तावः शुद्धद्रव्यास्तिकेऽमिधातुं प्रक्रान्ते संग्रहेप्ररूपणाविषयाभिधानस्य ? [संग्रहस्य सत्तामात्रविषयकत्वसाधनम् ] सुबन्तस्य तिङन्तस्या(स्य) वा पदस्य वाक्यस्य वा प्ररूपणास्वभावस्य विषयः संग्रहामि-१५ प्रायेण भाव एव । तथाहि-जाति-द्रव्य-गुण-क्रियापरभाषितरूपेण स्वार्थ-द्रव्य-लिङ्ग-कर्मादिप्रकारेण वा सुबन्तस्य योऽर्थः(र्थः स) भावाद् व्यतिरिक्तो वा भवेत्, अव्यतिरिक्तो वा? यदि व्यतिरिक्तस्तदा निरू(रु)पाख्यत्वादत्यन्ताभाववत् न द्रव्यादिरूप इति कथं सुबन्तवाच्यः? अव्यतिरिक्तश्चेत् कथं न भावमात्रता सुबन्तार्थस्य ? तिङन्तार्थस्यापि क्रिया-काल-कारक-पुरुषउपग्रह-वचनादिरूपेण परिभाष्यमाणस्य सत्तारूपतैव । तथाहि-'पचति' इत्यत्र क्रिया विक्लित्तिल-२० क्षणा, काल आरम्भप्रवृत्ति(प्रभृति)रवर्ग(रपवर्ग)पर्यन्तो वर्तमानस्वरूपः, कारकं कर्ता, पुरुषः परभावात्मकः, उपग्रहः परार्थता, वचनमेकत्वम् यद्यपि प्रतिपत्तिविषयस्तथापि सत्त्वमेवैतत् यतः क्रिया घसती चेत् कारकैर्न साध्येत खपुष्पादिवत्,सती चेत् अस्तित्वमेव,सा कारकैश्चाभिव्यज्यत इति । एवं कालादयोऽप्यसन्तश्चेद् न शशशृङ्गाद् भिधेरन् , सदात्मकाश्चेत् कथं न अस्तित्वादभिन्ना इति सत्त्व तिङन्तस्यार्थः। 'घटोऽस्ति' इति वाक्यार्थ(\) यद वाक्यं प्रयुज्यते 'घटः सन्' इति तत्र भावाभि-२५ धायिता पदद्वयस्यापि । तथाहि-'घटः' इति विशेषणम् 'सन्' इति विशेष्यम् अत्र द्वयेनापि चाभावविपरीतेन भाव्यम् न ह्यन्यथा तद् विशेषणम् नापि तद् विशेष्यं स्यात् निरू(रु)पाख्यत्वाद् अत्यन्ताभाववत् । यदि पुनरभावविपरीतं तद् इष्यते, विशेषण-विशेष्ययोः कथं न भावरूपता? तेन यदेव पटस्य (घटस्य) भावो घटत्वं तदेव घटः, यच्च सतो भावः सत्त्वं तदेव 'सन्' इति सर्वत्र संग्रहामिप्रायतः प्ररूपणाविषयो भाव एव । उक्तं चैतत् समयसद्भावमभिधावता अन्येनापि-३० "अँस्त्यर्थः सर्वशब्दानामिति प्रत्याय्यलक्षणम् । अपूर्वदेवताशब्दैः समप्रा(मा)हुर्गवादिषु" ॥ [वाक्यप० द्वि० का० श्लो० १२१] १पृ. २७१ पं० ८। २-कवेण प-आ० । शोधनाय व्यापार्यमाणासु सर्वासु टीकाप्रतिषु 'पडिरूवं' इत्येव प्रतीकं टीकाकृता निरदेशि, व्याख्यायि च 'प्रतिरूपम्' इति । ३-या कारण-वा० बा०। ४-ण विषयणा विषआ० ।-ण विषयेणो विष-वि०।-ण विषयिप्र० भ० मां०।-ण विषयिप्रथन-वा. बा०। ५-हरूप-वा० बा० विना। ६-स्याव्याप-वा. बा०।-स्यात्वाप्ररू-भां० मां० ।-स्याचाप-वि०। ७-योर्थः स्वभावा स्वभावाद् व्यति-वा० बा०। ८-भावात्तद्र-वा० बा०। ९-मात्रस्य वा० बा०। १०-वृत्तिपपवर्ग-आ० । वृत्तिपवर्ग-भां. मां. हा० वि०। ११-रभवात्म-वा० बा०। १२-ति अस्याथै यद वा. बा. विना। १३-ववैपरीत्येन वा. बा०। १४-भावतया य-वा० बा०। १५ तद्विशेष्यते आ०। १६-च कटस्थ वा० बा०। १७ “यथाहुः" इति निर्दिश्य श्लोकोऽयमुद्धतः तन्त्रवार्तिके पृ० २५१ पं० १३ । तत्र च "अपूर्वदेवताखगैं: सममाहुः" इति पाठः। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ प्रथमे काण्डे "घटादीनां ने वाकारात्() प्रत्यापयति वाचकः । वस्तुमात्रनिवेशित्वात् तद्नतिर्नान्तरीयकैः" ॥[ वाक्यप० द्वि० का० श्लो० १२५] अत एव “यत्र विशेषक्रिया नैव श्रूयते तत्रास्तिर्भवन्तीपरः प्रथमपुरुषेऽप्रयुज्यमानो. गम्यते" ] इत्युक्तं शब्दसमयवेदिभिः। अवगतिश्चैवं युक्ता यदि सत्तां पदार्थों ५व्यभिचरेत्, अव्यभिचारे च तदावेशात् तदात्मकतैव सत्तापरित्यागे वा स्वरूपहानमिति मेवाध्यक्षस्य शब्दस्य वा विषयः अन्तैनी(नी)ताशेषम् । पत् । भेदप्रतिभासस्तु भेदप्रतिपादकागमोपहतान्तःकरणानां लस्यानेकत्वावभासनवत असत्य इति सर्वमेदान् अपहृवानः सवे सन्मात्रतया संगृह्वन् शुद्धा द्रव्यास्तिकप्रकृतिरिति स्थितम् । 1 [व्यवहारस्य विशेषमिश्रितसत्ताविषयकत्वसाधनम् ] तामेवाऽशुद्धम्(द्धाम्) पडिरूवं पुण इत्यादिगाथापश्चार्द्धन दर्शयत्याचार्यः-प्रतिरूपं बिम्बम् प्रतिनिधिरिति यावत् । विशेषेण घटादिना द्रव्येण सङ्कीर्णा सत्ता, पुनरिति प्रकृति स्मरयति तेनायमर्थः-विशेषेण संकीर्णा सत्ता प्रकृतिः स्वभावः वचनार्थनिश्चयः इति णीयवस्तुविषयनिवृत्ति-प्रवृत्त्युपेक्षालक्षणव्यवहारसंपादनार्थमुच्यत इति वचनम् तस्य–'घटः' १५विभक्तरूपतया 'अस्ति' इत्यविभक्तात्मतया प्रतीयमानो व्यवहारक्षमः-अर्थस्तस्य निश्चयः निर्गतः पृथग्भूतः चयः परिच्छेदः तस्य इति द्रव्यास्तिकस्य व्यवहारः इति नंपरः नयः । सोऽभिमन्यते यदि हि हेयोपादेयोपेक्षणीयस्वरूपाः परस्परतो विभिन्नस्वभावाः सदू पतया शब्दप्रभवे संवेदने भावाः प्रतिभान्ति ततो निवृत्ति-प्रवृत्त्युपेक्षालक्षणो व्यवहारस्तद्विषयः प्रवृत्तिमासादयति नान्यथा; न चैकान्ततः सन्मात्राऽविशिष्टेषु भावेषु संग्रहाभिमतेषु पृथक् स्वरू२० पतया परिच्छेदोऽबाधितरूपो व्यवहारनिबन्धनं संभवतीति । तथाहि-यद्यद्याका ( यत् यदाका)रनिरपेक्षतया स्वग्राहिणि ज्ञाने प्रतिभासमाधत्तेतत् तथैव 'सत्' इति व्यवहर्तव्यम्, यथा प्रतिनियतं सत्तादिरूपम् , घटाद्याकारनिरपेक्षं च पटादिकं स्वावभासिनि शाने स्वरूपं सन्निवेशयतीति स्वभावहेतुः। घटादिनिरपेक्षत्वं च पटादेः घटाद्यभावेऽपि भावात् अवभासमीनाञ्च(सनाच) सिद्धम् । __ यद्वा प्रतिशब्दो वीप्सायाम् रूपशब्दश्च वस्तुन्यत्र प्रवर्त्तते । तेनायमर्थः-रूपं रूपं प्रति, २५वस्तु वस्तु प्रति यो वचनार्थनिश्चयस्तस्य प्रकृति(तिः) स्वभावःस व्यवहार इति । तथाहिप्रतिरूपमेव वचनार्थ निश्चयो व्यवहारहेतुर्न पुनरस्तित्वमात्रनिश्चयः, यतः 'अस्ति' इत्युक्तेऽपि श्रोता शङ्कामुपगच्छन् लक्ष्यते अतः 'किमस्ति' इत्याशङ्कायाम् 'द्रव्यम्' इत्युच्यते, तदपि 'किम् ? पृथिवी, सापि का ? वृक्षः, सोऽपि कः? चूतः तत्राप्यर्थित्वे यावत् 'पुष्पितः' 'फलितः' इत्यादि तावन्निश्चिनोति यावद् व्यवहारसिद्धिरिति । व्यवहारो हि नानारूपतया सत्तां व्यवस्थापयति तथैव संव्यव३० हारसंभवात् । अतो व्यवहरतीति व्यवहार इत्यन्वर्थसंज्ञां बिभ्रत् अशुद्धा द्रव्यास्तिकप्रकृतिर्भवति ॥४॥ १न चाका मां० वि०। 'न चाकारान्'-वाक्यप०। २-गतिना वा० बा०। "तदतिर्नान्तरीयकी" वाक्यप। "न हि सकलविशेषसहितमर्थ शब्दः प्रत्याययितुमलमिति तत्राकारविशेषावगतिर्नान्तरीयक्येव अनुनिष्पादिन्येव बोद्धव्या"वाक्यप० टी०। ३-रुषे यु-वा० बा० विना। “अस्तिर्भवन्तीपरः प्रथमपुरुषोऽप्रयुज्यमानोऽप्यस्ति"-महाभाष्ये अ० २,३,१ वार्ति० ११, वार्ति० ४ भा० तथा महाभा० २, ३, ४६ वार्ति० ४ भा० । हैमश० अ०३ पा० ३० सू ३ बृ० वृत्तौ पृ. ५८ प्र० पं० ८ । हैमधातुपा० पृ. २ पं० ४ । पातज. यो. पा. ३ सू० १७ वाच. टी. पृ० १४२ पं० २५ आनन्दा०। ४ अथ ग-हा०। ५-न्तनीता-वा० बा० विना । ६-रोद्धत-वि०।-रोपहृत-आ०। ७ तमेवाऽशुद्धा-वा० बा० । तमेवाशुद्ध-हा०। ८-विशेषणसं-वा. बा०। ९-वहारणसं-आ. हा०वि० । १०-नपुरो न-वा. बा० विना। ११ यदाद्याका-भां० मा. आ. हा० । यद्या-वि०। १२-मानत्वसि-वि०। १३ प्रवृत्तिः स्व-वा० बा०। १४-हारे हि भां० मा० । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरात पुरातत्त्वमन्दिर ग्रन्थावली ACHAR ग्रन्थाङ्क १८ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूजरातपुरातत्त्वमन्दिरग्रन्थावली आचार्यश्रीसिद्धसेनदिवाकरप्रणीतं __ संमतितर्क-प्रकरणम्। जैनश्वेताम्बर-राजगच्छीय-प्रद्युम्नसूरिशिष्य-तर्कपश्चाननश्रीमद्-अभयदेवसरिनिर्मितया तत्त्वबोधविधायिन्या व्याख्यया विभूषितम् । तृतीयो विभागः। (प्रथमकाण्डान्तः) गूजरातविद्यापीठप्रतिष्ठितपुरातत्त्वमन्दिरस्थेन संस्कृतसाहित्य-दर्शनशास्त्राध्यापकेन पं० सुखलालसंघविना प्राकृतवानयाध्यापकेन जैनन्याय-व्याकरणतीर्थ पं० बेचरदासदोशिना च पाठान्तर-टिप्पण्यादिभिः परिष्कृत्य संशोधितम् । गूजरातपुरातत्त्वमन्दिर अमदावाद प्रथमावृत्तिः, प्रतिसं० ५००] संवत् १९८४ मूल्यम्-१० रूप्यकाणि. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञापन गूजरातपुरातत्त्वमंदिरनी प्रबंधसमितिना संवत् १९८३ ना मागशर सुद ९ ना बीजा ठराव मुजब आ पुस्तक प्रसिद्ध करवामां आवे छे. भाद्रपद १५ । प्रकाशक संवत् १९८३ । प्रकाशक:-श्यामलाल ह. भगवती कामचलाउ महामात्र, गूजरातविद्यापीठकार्यालय, अमदावाद मुद्रकः-रामचंद्र येसू शेडगे, निर्णयसागर प्रेस, नं. २६-२८, कोलभाट लेन, मुंबई Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका-टिप्पण्युपयुक्तावतरणस्थानानां सङ्केताः । अनुयोगद्वारसूत्रम् । अभिधानप्पदीपिका (पालीशब्दकोशः) आप्तमीमांसा। तत्त्वार्थसूत्रटीका। अनुयोग अमिधानप्प० आप्तमी० । आप्तमीमां० तत्त्वार्थटी० तरवोपप्लवः दशवै० निर्यु० धर्मसं० नयचक्र० लि० को नयोप० न्यायप्र० सू० न्यायप्रवेशसू० वृ० न्यायबिं० । न्यायबिन्दुप्र० न्यायवा० ता० टी० न्यायवार्तिकता न्यायाव० पञ्चास्तिका प्रमाणनयत प्रवचनसारः प्रशस्त० कं० वृ० बोधिचर्याव० प्रज्ञापार० भगवती भगवती०सू० भगवती०टी० मज्झिमनिकायः मध्यमकवृ० प्रत्ययप० । आर्यसत्य० प्रण महायानसूत्रालङ्कार राजवा० दशवैकालिकसूत्रनियुक्तिः। धर्मसंग्रहः (बौद्धः)। नयचक्रम् अस्मदीया लिखितप्रेसकोपी। नयोपदेशः। न्यायप्रवेशसूत्रम्। न्यायप्रवेशसूत्रवृत्तिः। न्यायबिन्दुप्रकरणम् । न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका। न्यायावतारः। पश्चास्तिकायः। प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारसूत्रम् । प्रशस्तपादभाष्यम् कन्दलीसमेतम् । बृहत्ताडपत्रम् । बोधिचर्यावतारः प्रज्ञापारमितापञ्जिकासमेतः। भगवतीसूत्रम् टीकासमेतम् । मध्यमकवृत्तिः मध्यमककारिका प्रत्ययपरीक्षा प्रकरणम्, आर्यसत्यपरीक्षाप्रकरणम् । लौकिकन्याया०भा० विशेषा० बृ० वृ० विशेषाव भा० शानदीपिका युक्तिनेह प्रपूरणीसिद्धान्त राजवार्तिकम् । लघुताडपत्रम् । लौकिकन्यायाञ्जलिः, भागः। विशेषावश्यकबृहद्वृत्तिः। विशेषावश्यकभाग्यम्। शास्त्रदीपिका युक्तिस्नेहप्रपूरणीसिद्धान्तचन्द्रिकान्याख्यायुता। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षासमु० परि० सम्मति० द्वि० का० सप्तभङ्गीत० सिद्धिवि०टी०लि. शिक्षासमुच्चयः परिच्छेदः। सम्मतितर्कप्रकरणम् द्वितीयं काण्डम् । सप्तभङ्गीतरङ्गिणी। सिद्धिविनिश्चयटीका लिखितप्रेसकोपी गूजरात पुरातत्त्वमन्दिरसत्का। सुत्तनिपातः सुमङ्गलविलासिनी सामनफलसुत्तव० सूत्रकृ० टी० स्थाना० सू० स्फोटसि० स्फोटसिद्धिन्यायविचारः अनन्त० सामञफलसुत्तवण्णना। सूत्रकृताङ्गसूत्रम् टीकासहितम् । स्थानाङ्गसूत्रम्। स्फोटसिद्धिन्यायविचारः अनन्तशयनग्रन्थमाला। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः। पृद्धिः विषयः पृष्ठम् ५ गाथाव्याख्या। ३१७-३७८ पर्यायास्तिकैकप्रकृतिकानाम् ऋजुसूत्रादीनां शुद्धाशुद्धभावेन विभजनम् । ३१७ ऋजुसूत्रविषयतया क्षणभङ्ग-विज्ञानमात्र-शून्यवादानामुपक्षेपः। ३१८-३७८ १ क्षणभङ्गवादः। ३१८-३४९ पूर्वपक्षा-स्थैर्यवादिभिः क्षणभङ्गस्य निराकरणम् । ३१८-३२१ उत्तरपक्षः-बौद्धैः क्षणभङ्गस्य साधनम् । ३२१-३४९ २ ऋजुसूत्रपदस्य द्वितीयां व्याख्यामाश्रित्य विज्ञप्तिमात्रवादः। ३४२-३६६ पूर्वपक्षः-बाह्यार्थवादिभिः सौत्रान्तिक-वैभाषिकैः विज्ञप्तिमात्रस्य निराकरणम् । ३४९-३५४ उत्तरपक्षः-विज्ञानवादिभिर्योगाचारैर्विज्ञप्तिमात्रस्य स्थापनम्। ३५४-३६६ __ ३ पुनः ऋजुसूत्रपदस्य व्याख्यान्तरमाश्रित्य शून्यवादः। ३६६-३७८ ऋजुसूत्र-शब्द-समभिरूढ-एवंभूतेषु सौत्रान्तिक-वैभाषिकयोगाचार-माध्यमिकानां समवतारः। ३७८ ६ गाथाव्याख्या । ३७९-४०६ नयवनिक्षेपाणामपि यथास्वं द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकरूपतया विभजनम्। ३७९ १ नामनिक्षेपः। ३७९ नाम व्याख्याय तत्र सङ्केतविधि-तद्विषययोः प्ररूपणम् । ३७९ भर्तृहरेर्द्रव्यार्थिकानुसारिणः शब्दब्रह्मदर्शनस्य पूर्वपक्षतया वर्णनम् । ३७९ तस्य च दर्शनस्य पर्यायास्तिकमतेन प्रतिविधानम् । शब्दार्थयोरनित्यसम्बन्धवादिना स्वपक्षं समुद्धर्तु मीमांसकसंमत नित्यसम्बन्धवादस्य निराकरणम् । सिद्धान्तिना शब्दस्य नित्यत्वानित्यत्वपक्षद्वयमाश्रित्य यथायथं द्रव्यार्थिकनिक्षेपरूपत्वव्यवस्थापनम् । २ स्थापनानिक्षेपः ३८७ स्थापनां व्याख्याय मुख्य प्रतिनिध्योर्भेदाभेदपक्षद्वयेऽपि तस्या द्रव्यार्थिकनिक्षेपरूपत्वव्यवस्थापनम् । ३८७ ३ द्रव्यनिक्षेपः। ३८७ द्रव्यं व्याख्याय तत्र द्रव्यार्थिकनिक्षेपत्वभावनम् । द्रव्यार्थिकनिक्षेपेण भावनिक्षेपसंमतस्य क्षणभङ्गस्य विस्तरेण अनेकधा निरासः। ३८७ द्रव्यनिक्षेपविषयस्य द्रव्यस्य आगमोक्तरीत्या स्वरूपवर्णनम् ।। ४०५ ४ भावनिक्षेपः । ४०६ भावं व्याख्याय तत्र पर्यायार्थिकत्वकथनम्। ४०६ ७ गाथाव्याख्या । ४०७ द्रव्य-पर्याययोरन्योन्यव्याप्तिज्ञप्तये निरपेक्षनयाश्रितवचसामसत्यत्व. कथनम्। ४०७ ८ गाथाव्याख्या। ४०८ द्रव्य-पर्याययोरन्योन्यसम्मिश्रत्वसूचनाय ज्ञानानेकान्तवर्णनम्। ४०८ ३८६ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः ९ गाथा व्याख्या । वस्तुगत्या व्यात्मक एव तत्त्वे नयद्वयविषयविवेकस्य विषक्षाधीनत्वाभिधानम् । १० गाथाव्याख्या । विवक्षाकृतस्य नयद्वयविषय विवेकस्य विशदीकरणम् । ११ गाथा व्याख्या । निरपेक्षनयद्वयमेकमेव वस्तु यथा यथा मन्यते तथा विभज्य वर्णनम् । १२ द्वादशगाथाव्याख्या । अन्योन्यमुयोर्द्रव्य-पर्याययो नस्तित्वोक्तिपूर्वकमुत्पाद-व्यय-धौव्याणां द्रव्यलक्षणत्वेन वर्णनम् । उत्पाद - व्यय-धौव्याणां परस्परव्याप्यत्वसमर्थनम् । १३ गाथाव्याख्या । स्वतन्त्राणामुत्पाद-व्यय-धौव्याणां द्रव्यलक्षणत्वाभावात् प्रत्येकं नयद्वयस्य मिध्यात्वकथनम् । १४ गाथाव्याख्या । उभयारण्यतृतीयनयाभावेऽपि द्वयोरेव नययोरन्योन्य सव्यपेक्षयोस्सम्यक्त्वप्रतिपादनम् । १५ गाथा व्याख्या | निरपेक्षग्राहित्वे मूलनयवदुत्तरनयानामपि मिध्यात्ववर्णनम् । १६ गाथाव्याख्या । सङ्ग्रहादीनां मूलनयग्राह्यग्राहित्वान्नोभयवादप्रज्ञापकत्वमिति प्रदर्शनम् । १७-१८ गाथाव्याख्या । प्रकाशनम् । २१ गाथाव्याख्या । सर्वेषामपि नयानामन्योन्याऽनिश्रितत्वे मिथ्यात्वम् अन्योन्यनिश्रितत्वे पुनः सम्यक्त्वमिति प्रतिपादनम् । २२-२३-२४-२५ गाथाव्याख्या | प्रत्येकं नयेषु मिथ्यात्वेऽपि समुदितेषु सम्यक्त्वस्य रत्नावलीदृष्टान्तेन समर्थनम् । २६ गाथाव्याख्या । तोपन्यासप्रयोजकानां तहुणानां परिगणनम् । २७ गाथाव्याख्या । दृष्टान्तस्य साध्यसमतां वदतामेकान्तवादिनां निरासाय पञ्चानां पृष्ठम् ४०८ तदभिप्रायाणां निर्देशः । १ सांख्याभिमतत्वेनोपन्यस्तस्य सत्कार्यवादस्य निरसनम् । ४०८ ४०९ ४०९ ४०९ नित्यानित्यैकान्तपक्षद्वयेऽप्यात्मनि संसारसुख-दुःखादेरनुपपत्तिप्रदर्शनम् । ४१७ १९ गाथा व्याख्या । ४१८ एकान्तपक्षे चात्मनि कर्मणो बन्ध-स्थितिकारणानुपपत्तिप्रकटनम् । ४१८ २० गाथाव्याख्या । ४१८-४१९ एकान्तवादे बन्धाभावेन तन्मूलक संसारनिवृत्यादेरनुपपत्ति ४०९ ४१०-४१५ ४१० ४१० ४१५ ४१५ ४१५-४१६ ४१५ ४१६ ४१६ ४१६ ४१६ ४१७ ટ ४१९-४२० ४१९ ४२०-४२१ ४२० ४२२ ४२२ ४२२-४२९ ४२२ ४२३ पहि १९ १७ २ १४ २५ ३४ ९ २१ १ २९ १३ २६ १ ११ ५ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२९ विषयः २ सांख्यविशेषमतत्वेनोपन्यस्तस्य कारणात्मकपरिणामवादस्य निरसनम्। ४२३ ३ वैशेषिकाभिमतत्वेनोपन्यस्तस्यासत्कार्योत्पत्तिवादस्य निरसनम्। ४२४ ४ बौद्धाभिमतत्वेनोपन्यस्तस्य 'कारणाद् थिनं कार्यं तत्रासदेव' इति वादस्य निरसनम् । ४२४ ५ अपराभिमतत्वेनोपन्यस्ते अद्वैतवादे निरसनीये सर्वेषां तत्त्वद्रव्य-प्रधान-शब्दब्रह्माद्वैतवादानां निरसनम् । ४२८ २८ गाथाव्याख्या । ४२९ खे स्वेऽशे सत्यानामपि नयानां परांशविचालने मिथ्यात्वात् समयज्ञः सापेक्षावधारणं करोतीति वर्णनम् । ४२९ २९ गाथाव्याख्या। सर्वस्यापि वस्तुनोऽभेदरूपेण द्रव्यार्थिक परिच्छेद्यस्यैव भेदरूपेण पुनः पयोयार्थिकपरिच्छेद्यत्वाभिधानम्। ३० गाथाव्याख्या। ४३० शब्दार्थगतत्वेन पर्यायस्य द्वैविध्यं प्रदर्य तस्य द्विविधस्यापि पुनर्भेदाभेदरूपेण विवेचनम् । ४३० ३१ गाथाव्याख्या। ४३० एकस्यैव वस्तुनौकालिकानन्तशब्दार्थपर्यायशालितयाऽनन्त. प्रमाणत्वेन सर्वात्मकत्वाख्यानम् । ४३० ३२ गाथाव्याख्या। ४३०-४४० व्यञ्जनार्थपर्यायभावनया पुरुषस्य भेदाभेदात्मकत्वसमर्थनेन वस्तुमात्रस्याऽनेकान्तरूपत्वसूचनम् । ४३० व्यञ्जनपर्यायप्रसङ्गेन वाचकशब्द-वाच्यतत्सम्बन्धयोस्स्वरूपमीमांसा । ४३१ वर्णेषु वाचकत्वं व्युदस्य स्फोटे तत्प्रतिपादयतो वैयाकरणमतस्य वर्णनम् । ४३१ वर्णेषु वाचकत्वमभ्युपगम्य स्फोटे तन्निरस्यतो वैशेषिकमतस्य वर्णनम्। ४३३ सानुपूर्विकनित्यवर्णवाचकत्वपरं मीमांसकमतमुपन्यस्य तन्निरसनम् । चाच्य-वाचकयोः सम्बन्धस्य नित्यत्वं निषिध्य तस्य कृतकत्व व्यवस्थापनम्। अनुमानाच्छब्दस्य प्रमाणान्तरत्वप्रसाधनम् । ४३७ परकल्पितां वर्णानां नित्यतां तत्पदादिप्रक्रियां च प्रदृष्याऽनेकान्तदृष्ट्या शब्द-तदर्थसम्बन्धयोः स्वरूपनिरूपणम् । ३३ गाथाव्याख्या। ४४० पुरुषस्य भेदाभेदैकान्ताभ्युपगमेऽभावरूपतापत्त्या दूषणम् । ३४ गाथाव्याख्या। पुरुषे शब्दार्थपर्यायाभ्यां भेदाभेदरूपत्वस्य व्यवस्थापनम् । ३५ गाथाव्याख्या। ४४१ वस्तुनोऽनेकान्तात्मकत्वेऽप्येकान्तरूपत्वं वदतोऽप्रमाणत्वख्यापनम् । ३६ गाथाव्याख्या। ४१-४४६ सप्तमङ्गीस्वरूपविचारणा। मूलभङ्गत्रयं विवेच्य तत्समर्थकानां षोडशानामपेक्षाभेदानां ब्यावर्णनम्। ४४३-४४६ ४३६ ४३९ " ४४० Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४७ " विषयः ३७ गाथाव्याख्या । ४४६ चतुर्थभङ्गनिरूपणम् । ३८ गाथाव्याख्या। पञ्चमभङ्गप्रदर्शनम्। ३९ गाथाव्याख्या। ४४७ षष्ठभङ्गप्रदर्शनम् । ४० गाथाव्याख्या। सप्तमभङ्गप्रकाशनम् । ४१ गाथाव्याख्या। ४४८ सप्तानां भङ्गानामर्थनये शब्दनये च यथासम्भवं विभजनम् । ४२ गाथाव्याख्या। ४४८-४४९ केवलपर्यायार्थिकनयस्य मतमुपदर्य तस्याऽपूर्णत्वाभिधानम् । ४३ गाथाव्याख्या। ४४९ केवलद्रव्यार्थिकनयमतस्य प्रदर्शनम्। ४४ गाथाव्याख्या। ४४९-४५० केवलद्रव्यार्थिकनयमतस्याऽप्यपूर्णत्वमिति प्रदर्शनेन वस्तुनो भेदाऽभेदरूपत्वसूचनम् । ४४९ ४५ गाथाव्याख्या। ४५० पुरुषदृष्टान्ते मेदाऽभेदात्मकत्वपरिणतिर्बाह्यप्रत्यक्षेण सिद्धेति प्रदर्शनम्। ४५० ४६ गाथाव्याख्या। ४५०-४५२ आध्यात्मिकप्रत्यक्षतोऽपि तत्र दृष्टान्ते यथा भेदाभेदात्मकत्वसिद्धिस्तथा दार्शन्तिके जीवेऽपि तद्योजनम् । ४५० उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकतया जीवतत्वस्य साधनम् । ४५१-४५२ ४७ गाथाव्याख्या । ४५२ जलदुग्धदृष्टान्तेन जीव-कर्मणोरविभागकथनम। ४५२ ४८ गाथाव्याख्या। ४५३ जीव-कर्मणोरन्योन्यानुप्रवेशेन तदाश्रितज्ञानादिरूपादीनामपि परस्पराऽनुप्रवेशवर्णनम् । ४९ गाथाव्याख्या। परस्पराऽनुप्रवेशादात्म-पुद्गलयोः कथञ्चिदेकत्वस्य अनेकत्वस्य चोपपादनम्। ५० गाथाव्याख्या। ४५३-४५४ आत्म-पुद्गलयोर्वस्तुतो बाह्याभ्यन्तरविभागाभावेऽपि अभ्यन्तरव्यपदेशस्य मनोनिमित्तकत्वेन समर्थनम् । ५१-५२ गाथाव्याख्या। निरपेक्षयोर्द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिकयोर्मतेन यथा यथा कर्मबन्धतत्फलप्ररूपणा भवति तथोपवर्णनम् । ५३ गाथाव्याख्या। ४५५-४५६ सापेक्षनयद्वयाश्रितानामेव कथञ्चित्पदाङ्कितानां वचसां स्वसमयप्ररूपणात्वं नान्येषामित्यभिधानम्। ४५५ ५४ गाथाव्याख्या। स्थाद्वादशोऽधिकारिविशेषे सति निरपेक्षनयद्वयाश्रितान्यपि वचांसि प्रयुञ्जानो न दोषभागिति प्रकथनम्। ४५३ ४५३ " Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय निवेदन. आ त्रीजो भाग विद्वानो समक्ष उपस्थित करतां संकल्पनी आंशिक सिद्धिने लीधे अमने काइक भार हळवो थयानो अनुभव थाय छे अने जाणे तेटले अंशे थाक उतर्यो होय तेम भासे छे. बे वर्ष पहेलां आ भागने लगतुं संशोधनकार्य प्रारंभेलुं अने जो ते सतत चालु रह्यं न होत तेम ज पुरातत्त्वमंदिर अने अन्य विद्यारसिक मित्रो तरफथी अमारे जोइती बधी मदद वखतसर मळती रही न होत तो बीजा भाग पछी एक ज वर्षने अन्तरे आ भाग प्रसिद्ध करवानो जे प्रसंग मळ्यो छे ते कदी न मळत. प्रस्तुत भागमा आवता ग्रन्थ अने तेना संशोधनने लगती केटलीक खास बाबतोनुं स्पष्टीकरण अहीं करी देवु आवश्यक छे. ग्रन्थने लगती मुख्य वे बाबतो छः-(१) मूळ गाथाना परिमाण संबंधी अने (२) टीकागत अशुद्धि संबंधी. (१) पहेला कांडनी ५४ गाथाओमाथी प्रथमनी ४ गाथाओ प्रसिद्ध थयेल पहेला अने बीजा भागमां आवेली छे अने बाकीनी ५० गाथाओ आ त्रीजा भागमा आवी जाय छे अने ए रीते आ भागमां आ प्रथम कांड पूर्ण थाय छे. मूलकार श्रीसिद्धसेन दिवाकरे आखा प्रथम कांडमां नयनी सूक्ष्म, व्यवस्थित अने विशद मीमांसा करी छे तेम ज टीकाकार श्रीअभयदेवे अतिविस्तृत दार्शनिक विविध विषयोनी चर्चा द्वारा ए मीमांसाने बहु ज पल्लवित करेली छे. आत्रीजो भाग प्रकाशित थवाथी मूलकार अने टीकाकारना नयसंबंधी संक्षिप्त तेम ज विस्तृत ऊहापोहने संपूर्णपणे जाणवानुं साधन प्राप्त थाय छे. (२) प्रस्तुत भागमां पांचमीथी चोपन सुधीनी पचास गाथाओनी टीका आवी जाय छे. तेमां बीजी बधी गाथाओ करतां पांचमी अने छट्ठी ए बे गाथाओनी टीका घणी मोटी छे. तेमां य वळी छट्ठी करतां पांचमीनी टीका तो वधारे मोटी छे. आ भागना लगभग बे तृतीयांश पांचमी अने छट्ठी ए बे गाथानी टीकाथी ज रोकाएला छे अने पांचमी गाथानी टीकाथी एक तृतीयांश करता वधारे रोकाएल छे. पांचमी गाथानी टीका जेम विस्तारमा तेम अशुद्धिमां पण बाकीनी बधी गाथा ओनी टीका करतां चडे छे. सातमी गाथाथी चोपनमी गाथा सुधीनी टीकामां अशुद्धि बहु ज जुज हती अने जे थोडी हती ते दूर करी शकाय तेवी होवाथी तेटला भागमा प्रायः सर्वत्र पाठशुद्धि थइ गइ छे. छठी गाथानी टीकामां अशद्धि जरा वधारे हती पण ते पांचमी गाथानी टीकाना प्रमाणमा बहु ज थोडी कहेवाय ज्यारे पांचमी गाथानी टीका जेटली अने जेवी अशुद्धि तो हजी सुधी एके गाथानी टीकामा जणाइ नथी. बीजा भागमा आवेली बीजी गाथानी टीका जो के बहु अशुद्ध हती छतां तत्त्वसंग्रहनी प्राप्तिने लीधे ते संपूर्णपणे शुद्ध करी छपावी शकाइ. पांचमी गाथानी टीकाने शुद्ध करवा तेवु कोइ पण साधन छेवट सुधी प्राप्त थयुं नहि. जेम बीजी गाथानी टीकामां बौद्धदर्शनने लगती चर्चा मुख्य छे तेम पांचमी गाथानी टीकामां पण मात्र बौद्धतत्त्वोनी चर्चा छे. बीजी गाथानी टीकामां चर्चाएलुं प्रकरण जेम अखंडपणे तत्त्वसंप्रहमा मळी आव्यु अने ते बीजी गाथानी टीकाने शुद्ध करवामां सर्वाशे उपयोगी थयुं तेम पांचमी गाथानी टीकामां चर्चाएल सौत्रांतिक, वैभाषिक, योगाचार अने माध्यमिक ए चार बौद्धशाखाना मंतव्योवाळा टीकाकारे उतारी लीधेला मूळ प्रकरण प्रथो जो मळी आवे तो ज ए टीकानी अशुद्धि Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सर्वाशे दूर करी शकाय. परन्तु प्रयत्न छतां तत्त्वसंग्रहनी पेठे अखंडपणे संमतिनी टीका साये सरखावी शकाय तेवा बौद्ध के अन्यदर्शनसंबंधी कोई ग्रंथो ठेठ सुधी मळ्या नहि तेथी पांचमी गाथानी टीकाने संपूर्णपणे शुद्ध करवानुं काम अमारे माटे अशक्य ज रही गयु. श्रीअभयदेवसूरिए पांचमी गाथानी टीकामां पर्यायास्तिकनयनो विभाग तेम ज तेनुं उतरोत्तर सूक्ष्मपणुं दर्शाववा ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ अने एवंभूत ए चार नयोनुं विस्तृत स्वरूप सौत्रांतिक आदि चार शाखाओना जे बौद्धग्रंथो के तेना प्रकरणोने आधारे वर्णव्यु तेम ज घटाव्युं छे ते मूल भूत ज बौद्धग्रंथो के तेना उपरथी अक्षरशः थयेल उतारावाळा अन्य ग्रंथो ज्यांसुधी न मळे त्यांसुधी पांचमी गाथानी टीकाने संपूर्ण शुद्ध करवी कोई पण रीते शक्य नथी. ए टीकाने शुद्ध करवाना मौलिक अने महत्त्वना साधनो प्राप्त न थया छतां तेने शुद्ध करवामाटे अमे बीजा उपलब्ध साधनोनो बहु छुटथी अने कंटाळ्या विना उपयोग को छे. ए साधनोमां अनेक बौद्ध, जैन अने वैदिक ग्रंथोनो समावेश थाय छे परन्तु ते बधामां शुद्धिकार्यमा उपयोगी धवानी दृष्टिए प्रमेयकमलमार्तडवें स्थान मुख्य छे. लेखकोनो असली प्रतनी लिपि वाचवानो भ्रम, अर्थ- अज्ञान के तेनो विपर्यास, पठन-पाठननो अभाव अने प्रतिना पत्रोनुं खंडितपणुं के अस्तव्यस्तपणुं इत्यादि अनेक कारणोने लीधे अशुद्धिओ पण विविध प्रकारनी उत्पन्न थयेली छे. एने सुधारवा अमे मुख्यपणे त्रण रीतो अखत्यार करेली छे. (१) संमतिटीकानी तेना पूर्ववर्ती के उत्तरवर्ती समानविषयक ग्रंथो साथे सरखामणी, (२) अर्थदृष्टि अने (३) भाषादृष्टि. ज्यां टीकाने शुद्ध करवामां अन्य ग्रंथोनी सरखामीनो उपयोग कर्यो छे त्यां पण अर्थ अने भाषादृष्टि छोडी नथी. परन्तु ज्यां तेवी सरखामणीनुं साधन नथी मळ्युं त्या अर्थदृष्टिने प्रधान राखी भाषादृष्टिनी मददथी पाठशुद्धि कल्पी छे अने ज्यां अर्थदृष्टि पण काम न करी शकी त्यां केवळ भापादृष्टिनो उपयोग करी पाठशुद्धि कल्पी छे अने चालु संकेतप्रमाणे असली पाठने कायम राखी शुद्धरूपे कल्पेला पाठने कोष्ठकमां दाखल करेल छे अने बनी शक्युं त्यां ते कल्पेला पाठना संवादी उल्लेखो नीचे टिप्पणीमा ते ते ग्रंथना नाम साथे कर्या छे. ____ आ त्रणे पद्धतिओनो यथाशक्ति संपूर्ण उपयोग कर्या छतां पण पांचमी गाथानी टीका घणे स्थळे घणा प्रमाणमां अशुद्ध अने असंलग्न रही गइ छे. जे जे अंशो अमने खंडित, पुनरुक्त, विपर्यस्त अने असंलग्न लाग्या छे ते बधानो आदिभाग (??) अथवा [ ?? तथा अंतभाग (??) अथवा ?? ] आवा चिह्नथी अंकित कर्यो छे. उदाहरणार्थ जुओ पृ० ३२२ तथा ३३३ वगेरे. बहु प्रयत्नने परिणामे पांचमी गाथानी टीकाना पूर्वार्द्धमांथी तो घणी अशुद्धिओ ओछी थइ छे परन्तु उत्तरार्द्ध अने तेमां य तेना अंत भागमा मोटी अने खटके एवी घणी अशुद्धिओ रही ज गइ छे. छट्ठी गाथानी टीकानो केटलोक प्राथमिक अंश (पृ० ३७९-३८५) तो तत्त्वसंग्रहना शब्दब्रह्मपरीक्षाप्रकरणनो प्रायः अक्षरशः उतारो छे. तेथी एटलो भाग तत्त्वसंग्रहनी मदद द्वारा तद्दन शुद्ध थयो छे. एटलुंज नहि पण नीचे टिप्पणीमां सरखामणी माटे अपाएल तत्त्वसंग्रहनी मूल कारिकाओ अने कचित् कचित् पंजिकाना अंशोवडे एटलो भाग अभ्यासको माटे बीजी गाथानी टीकानी पेठे न वधारे उपयोगी बनेलो छे. एटला अंश पछीनो छट्ठी गाथानी टीकानो बाकीनो पृ० ३८६ थी बधो अंश मोटे भागे बौद्ध मंतव्यनी चर्चाथी भरेलो छे. ए भाग साथे अक्षरशः सरखावी शकाय तेवो ग्रंथ न मळवाथी घणी अशुद्धिओ दूर कर्या छतां पण क्वचित् कचित् अशुद्धि रही गइ छे पण ते पांचमी गाथानी टीका जेवी गूढ नथी. एकंदर आ त्रीजा भागमा (पांचमी गाथानी टीका बाद् करीए तो) अशुद्धिओ बहु विरल रहेवा पामी छे. Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ हवे प्रस्तुत भागमां आवेल ग्रंथना संशोधननी बाबत लइए. ए बाबतो मुख्य त्रण छे. (१) प्रतिओ संबंधी, (२) पाठान्तरो संबंधी अने ( ३ ) ग्रंथान्तरोना उपयोग संबंधी. अने वच्चे घणे स्थले ए बन्ने ताड ( १ ) पहेला अने बीजा भागना संशोधन कार्यमां जे प्रतिओनो उपयोग थयेलो छे ते प्रतिओ उपरांत बीजी बे विशिष्ट प्रतिओए आ त्रीजा भागना संशोधनकार्यने बहु सरल अने महत्त्वनुं बनाव्युं छे. एबे विशिष्ट प्रतिओ ते ताडपत्रनी छे. बेमां एक ताडपत्र लांबा आकारनुं अने बीजुं टुंकुं छे. ताडपत्रनी बन्ने प्रतिओ शुद्धप्राय अने कचित् कचित् टिप्पणीयुक्त छे. आ बृहत् अने लघु बन्ने ताडपत्रोमां सटीक संमतिनुं उत्तरार्द्ध छे. कारण के तेना नंबरो प्रथमथी शरु थइ अनुक्रमे वधता जाय छे. आ बन्ने प्रतिओना पूर्वार्द्धवाळा खंडो जेमां पहेली गाथाथी छट्ठी गाथानी काना लगभग अर्धीश सुधीनुं पूर्वार्द्ध हशे ते हजी प्राप्त थया नथी. जो ए बन्ने पूर्वार्द्धना खंडो विनाशना पंजामांथी बची कोइ पण स्थले सचवाइ रही गया हशे अने क्यारेक कोइने पण सद्भाग्ये मळी आवशे तो आ उत्तरार्द्धवाळा खंडोनी पेठे ते खंडो पण अशुद्ध रही गयेल टीकाने शुद्ध करवामां अमूल्य मदद आपशे. केवल पांचमी गाथानी टीका पूरतो पण ताडपत्रनो भाग मळ्यो होत तो कदाच एनी आटली जटिल अशुद्धिओ रही न होत. उत्तरार्द्धना जे वे भागो सद्भाग्ये प्राप्त थया छे तेमां बृहत् ताडपत्रमां उत्तरार्द्ध पूर्ण छे एटले प्रथम कांडनी छट्टी गाथानी टीकाना मध्यभागथी लइ प्रथम कांड पूर्ण अने द्वितीय तथा तृतीय कांड पण पूर्ण छे. ए बृहत् ताडपत्रना कुल ३३४ पानां छे. ज्यारे लघु ताडपत्र उपर उत्तरार्द्ध पण पूर्ण नथी. एनुं प्रथम पत्र नथी अने छेल्लं पत्र १८७ मुं छे. तेटला पत्रोमां बीजुं कांड पण अपूर्ण छे पत्रो गुम थयां छे तेमज घणे स्थले लींटीओनी लींटीओ घसाइ भुंसाइ गयेली छे. पत्रना सुंदर अक्षरोए, शुद्ध पाठोए अने महत्त्वनी टिप्पणीओए प्रस्तुत भागना संशोधनमां जे मदद आपी छे तेने लीघे पांचमी गाथानी टीकामां रही गयेल अशुद्धिओनी त्रुटि जरा ओछी खटके छे. कागळनी अन्य प्रतिओनी पेठे आ ताडपत्रनी प्रतिओनी पण विशेष माहिती भविष्यभां आपवानी धारणा होवाथी अत्यारे एटलुं ज सूचववुं बस थशे के, आ वे ताडपत्रना खंडोने लीधे प्रस्तुत त्रीजा भागना संशोधनने वधारे महत्त्व मळ्युं छे अने हवे पछी प्रसिद्ध थनार बीजा कांडनो चोथो भाग अने त्रीजा कांडनो पांचमो भाग पण आ खंडोने लीधे ज वधारे महत्त्व प्राप्त करशे. परन्तु जेम एक बाजु उपलब्ध ताडपत्रना खंडो सगवडमां उमेरो करे छे तेम बीजी बाजु बा० अने बा० प्रतिनो थोडो खंडित भाग संशोधनकार्यमां साले छे. वा० बा० बन्ने प्रतिओ वधारेमां वधारे अशुद्ध छतां क्वचित् क्वचित् अन्य बधी प्रतिओ करतां वधारेमां वधारे शुद्ध छे. ए बने समान प्रतिओना पांचमी गाथानी टीकाना अंतवाळां अने छट्ठी गाथानी टीकाना आरंभवाळां केटलांक पानां उपलब्ध न होवाथी एनुं खंडितपणुं खास साले छे. जो ए वे प्रतिओनां एटलां पानां क्यारेक उपलब्ध थाय तो ते ते स्थळनी अशुद्धिने अल्पांशे दूर करवामां तेनो किंमती उपयोग थइ शकशे. (२) प्रस्तुत भागना संशोधनमां पाठान्तरनुं कार्य प्रथमना बे भागो करतां कांइक जुदुं पडतुं थयेलं छे. प्रथमना बे भागोना संशोधन वखते पाठान्तरो लीधा पछी तेमांथी पसंदगी करवानो अने छोडी देवानो क्रम सामान्य रीते एक सरखो राखवामां आव्यो हतो. ज्यारे प्रस्तुत भागमां ए क्रम जाणी जोइने ज एक सरखो राख्यो नथी. प्रस्तुत भागमां पांचमी गाथानी टीका अशुद्धिबहुल छे अने छट्ठी तथा खास करी सातमी आदि बधी गाथाओनी टीका वधारे शुद्ध छे. तेथी यां ज्यां जटिल अशुद्धिओ जणाइ त्यां त्यां प्रतिओमांथी मळेला तद्दन खोटा जणावा पाठान्तरो पण Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीचे नोंध्या छे-जेथी ते ते स्थळोमा सघळी प्रतिओ एक सरखी रीते केवी अने केटली विलक्षण विलक्षण रीते अशुद्ध थइ गइ छे ते अभ्यासीने मालूम पडे अने अशुद्धिनी उत्पत्ति केम थाय छे ? ते थया पछी केम वधे छे १ तेम ज घणीवार शुद्ध करवा जतां उलटी अशुद्धि केम आवे छे ? एनुं सूक्ष्म ज्ञान अशुद्धिनो इतिहास लखनार विद्वान्ने एवा पाठान्तरो उपरथी थइ शके. तेम न कोई अभ्यासीने ए अशुद्ध जणाता विविध पाठान्तरो उपरथी कालान्तरे शुद्ध पाठ कल्पवानी प्रेरणा मळे-आथी उलटुं जे भाग तद्दन शुद्ध अगर शुद्धप्राय छे त्यां प्रतिओमांथी मळी आवेला अनेक पाठान्तरोमांथी जे उपयोगी लाग्यां ते ज बहुधा राख्यां छे अने अन्तर्गडु जेवा अनुपयोगी जणायेलां पाठान्तरो तद्दन छोडी दीधां छे. (३) पहेला बे भागना संशोधनमा उपयोग नहीं कराएल एवा पण अनेक ग्रंथोनो प्रस्तुत भागना संशोधनमा उपयोग करवामां आव्यो छे. टीकामां आवेल अवतरणोना मूल स्थान बताववा, प्रतिपाद्य विषयनी अने पाठनी सरखामणी करवा, कल्पित शुद्ध पाठनो संवाद आपवा, एक ज विषयने भिन्न भिन्न दर्शनना ग्रंथकारो के एक ज दर्शनना भिन्न भिन्न समय भावी ग्रंथकारो केवी केवी रीते चर्चे छे ते जणाववा कोई पण विषय परत्वे अभ्यासीनी दृष्टीने व्यापक बनावी तेना अभ्यासनो मार्ग वधारे सरळ करवा अने कया ग्रंथ के कया ग्रंथकार उपर कोनी कोनी केटकेटली असर पडी छे तेनुं पृथक्करण करवानी सरळता करी आपवा एम अनेक दृष्टिथी प्रेराई प्रस्तुत भागना संशोधनमा कराएलो प्रचुरग्रंथराशिनो उपयोग अभ्यासको आपोआप जोई शकशे. प्रस्तुत भागना संशोधनमा अनेक ग्रंथनो उपयोग कर्या छतां पण एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथनो उपयोग करवो बाकी रही गयो छे. बौद्धभिक्षु धर्मकीर्तिप्रणीत हेतुबिन्दुना दुर्लभ विवरणनी जीर्ण ताडपत्रनी प्रति प्राप्त थयानुं सूचन अमे संमतिना द्वितीय भागना प्रारंभिक निवेदनमा ज करी गयेला छीए. प्रस्तुत भागना संशोधनमा ए प्रतिनो उपयोग करी शकायो होत तो केटलीक अशुद्धिओ दूर करवामां बहु किंमती मदद मळत पण प्रस्तुत ग्रन्थ छपाववा लाग्या पछी तेनी वांची शकाय तेवी नकल तैयार थई शकी. तेथी ए विवरणनी सरखामणी भविष्यना विशिष्ट परिशिष्ट माटे मुलतवी राखवानी फरज पडी छे. __ आ भागनी तैयारीथी मांडी प्रसिद्धि सुधीमां खास विद्यारुचिमहानुभावो तरफथी जे जे विविध सगवड मळी छे तेनी नीचे नोंध लई अमे अमारी कृतज्ञता प्रदर्शित करीए छीए. ख्यातनामा श्रीमदू आत्मारामजी महाराजना पट्टधर प्रशिष्य श्रीमद् विजयवल्लभसूरिनी प्रेरणाथी लाहोर शहेरना श्रीसंघे करेली आर्थिक मदथी आ कार्यने लायक सहकारी कार्यकर्ता मेळववामां अमने अतिउपयोगी राहत मळी छे. प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजीना प्रशिष्य अने अमारा हमेशना सहकारी सुशील मुनिश्रीपुण्यविजयजीए दूर रह्या रह्या पण संशोधनकार्यमां करेली विविध मददने लीधे अमने अतिकिंमती अनुकूलता प्राप्त थई छे. ते उपरात उपर सूचवेल हेतुबिन्दु विवरणनी तद्दन जीर्ण अने घसाएल भुंसाएल अक्षरवाळी तथा मुश्केलीथी पण वांची न शकाय एवी प्राचीन लिपिनी ताडपत्रनी प्रति उपरथी बहु परिश्रम लई तेओश्रीए अमारा उपयोग माटे एक सुवाच्य अक्षरवाळी सुंदरतम नकल करी आपी छे. जे पुरातत्त्वमंदिरना पुस्तकसंग्रहमा तेओश्रीना नाम साथे मूकवामां आवी छे. सुखलाल अने बेचरदास. Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीयं निवेदनम्। वयमद्याऽयं तृतीयः संमतेर्विभागो विदुषां समक्षमुपस्थापयन्तो लेशमात्रसंकल्पसिद्धिकतेन कियन्मात्रेण भारलाघवेन स्वल्पं श्रमापनोदमिव अनुभवामः । प्रस्तुतविभागसंशोधनकर्म वर्षद्वयात प्रागेव प्रारभ्यत किन्तु यदि तत् सततं नाऽकरिष्यत न वा अस्मदपेक्षिता सकलाऽपि साधनसम्पत्तिः पुरातत्त्वमन्दिरेण इतरैश्च विद्याप्रियमहानुभावैः यथासमयमुपाहरिष्यत तदा प्रस्तुतविभागप्रकाशनं द्वितीयविभागाऽनन्तरमेकेनैव वर्षेण कथमपि शक्यविधानं नाऽभविष्यत् । प्रस्तुतभागगतग्रन्थ-तदीयसंशोधनसम्बन्धिनः कतिपये विशिष्ट विषया अत्र लेशतः स्पष्टीकर्तमभिप्रेतास्सन्ति । तत्र मूलगाथापरिमाणं टीकागतमशुद्धत्वं चेति द्वावेव ग्रन्थसम्बन्धिनौ विषयौ प्रधानतया वक्तव्यौ स्तः। (१) प्रथमप्रभृतिगाथाचतुष्टयस्य प्रकाशितपूर्वे विभागद्वये शेषगाथापञ्चाशतश्च प्रकाश्यमानेऽस्मिन् विभागे लब्धसमावेशतया प्रथमं काण्डं प्रस्तुतविभाग एव परिपूर्यते । मूलकारैः श्रीमद्भिदिवाकरैरखिलेऽपि प्रथमे काण्डे सूक्ष्मतया, व्यवस्थिततया, विशदतया च मीमांसिता नया एवं टीकाकारैः श्रीमद्भिरभयदेवैरतिविस्तरवत्या दार्शनिकविविधतत्त्वचर्चया विशदीकृता वर्तन्ते । प्रस्तुतविभागप्रकाशनेन च मूलकार-टीकाकारकृतनयगोचरसंक्षिप्तविस्तृतसमग्रमीमांसापरिज्ञानसामग्री सुलभतया समुपतिष्ठते । (२) प्रस्तुतविभागसन्निविष्टायां गाथापञ्चाशट्टोकायां षष्ठयाष्टीका विस्तृततरा पञ्चम्याश्च विस्तृततमा विद्यते । पञ्चमगाथाटीका विस्तरेणेवाऽशुद्ध्याऽपि शेषसमस्तगाथाटीकामतिशेते। सप्तमीप्रभृतिसमस्तगाथाटीका सुनिवारविरलाऽशुद्धिमती समासीत् । अत एव सा सर्वत्र शुद्धप्राया समपद्यत । षष्ठगाथाटीकायां किंचिदधिकाऽप्यशुद्धिः पञ्चमगाथाटीकातः स्वल्पतमैवाऽऽसीत् पञ्चमगाथाटीकायां तु यादृशी यावती चाऽशुद्धिरायाता तादृशी तावती च क्वाऽपि टीकांशे नाऽवलोकनपथमवतीर्णा । यद्यपि द्वितीयविभागसन्निविष्टा द्वितीयगाथाटीकाऽप्यशुद्धतरैवाऽऽसीत् तथापि तत्त्वसंग्रहसाहायकेन सा सर्वात्मना शुद्धीकृत्य मुद्रयितुमशक्यत । पञ्चमगाथाटीकां शुद्धीकर्तुं तथाविधं किमपि साधनमद्ययावन्नाऽलभ्यत । द्वितीयगाथाटीकायामिव पञ्चमगाथाटीकायामपि बौद्धतत्त्वगोचरैव चर्चा मुख्यतामनुभवति । यथा द्वितीयगाथाटीकाचर्चितं बौद्धप्रकरणं संशोधयितुं तत्त्वसंग्रहीयं तदेव प्रकरणमविकलतया उपायुज्यत तथा पञ्चमगाथाटीकाचर्चितसौत्रान्तिक-वैभाषिक-योगाचार-माध्यमिकाख्यचतुर्विधबौद्धशाखामन्तव्यप्रतिपादकाः टीकाकारैरक्षरशोऽनुकृता मूलप्रकरणग्रन्था एव तां टीका संशोधयितुं सर्वात्मना उपयुज्येरन् ; परन्तु सत्यपि यत्ने तत्त्वसंग्रवत् संमतिटीकाऽविकलतुलनोपयोगिनां केषांचित् बौद्धतत्रीयाणामन्यतत्रीयाणां वा ग्रन्थानामिदानीं यावदप्राप्ततया पञ्चमगाथाटीकायाः सर्वाङ्गीणं शुद्धत्वं अस्माकमशक्याऽनुष्ठानमेव परिशिष्यते । __ श्रीमदभयदेवसूरिभिः पञ्चमगाथाटीकायां पर्यायास्तिकनयस्य विभागमुत्तरोत्तरसूक्ष्मत्वं च प्रदर्शयितुम् ऋजुसूत्र-शब्द-समभिरूद्वैवंभूतनयचतुष्टयस्य विस्तृतं स्वरूपं सौत्रान्तिकादिशाखाचतुष्टयसम्बन्धिनो यान् ग्रन्थान समाश्रित्य व्यावर्णितं समन्वितं च, ते मूलभूतबौद्धग्रन्था अक्षरशस्तदुपजीविनोऽपरे मन्या वा यावन्नोपलभ्येरन् तावत् पञ्चमगाथाटीकायाः सर्वथा शुद्धिविधानं कथमपि Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्याऽनुष्ठानं नैव प्रतिभाति । तट्टीकासंशोधनोपयोगिनां मौलिकानां महत्त्वभाजां च साधनानामनुपलब्धत्वेऽपि अन्यान्युपलब्धानि साधनानि असंकुचिततया अखिन्नमनस्कतया च तत्संशोधनकर्मणि कृतोपयोगानि । यद्यपि उपयुक्तेषु तेषु साधनेषु वौद्ध-जैन-वैदिकतत्रीया अनेके ग्रन्थाः समाविशन्ति तथापि शुद्धिकार्योपयोगदृष्ट्या प्रमेयकमलमार्तण्ड एव तेषु सर्वेषु प्रथमतामुपयाति। लेखकानां मूलप्रतिस्थलिपिवाचनगोचरेण भ्रमेण, अर्थाऽज्ञान-विपर्यासाभ्याम् , पठन-पाठनाइ भावेन, प्रतिस्थपत्राणां खण्डिततया अस्तव्यस्ततया वा अन्यैश्च बहुभिर्हेतुभिरशुद्धयोऽपि विविधाकारास्समुत्पन्नाः दृश्यन्ते । ताः परिष्कत्तुं तिस्रः पद्धतयोऽत्र मुख्यतयाऽस्माभिः समाश्रीयन्त । तद्यथा-पूर्ववर्तिभिः उत्तरवर्तिभिर्वा समानविषयकैर्ग्रन्थैः संमतिटीकायास्तुलना, अर्थदृष्टिर्भाषादृष्टिश्चेति । यत्र टीकां संशोधयितुं ग्रन्थान्तरतुलनाऽकारि तत्रापि नाऽर्थदृष्टि षादृष्टिश्च उपैक्षिषाताम् परन्तु यत्र तथाविधतुलनासाधनं नालम्भि तत्राऽर्थदृष्टिं प्रधानीकस्य भाषादृष्टिसाहाय्येन. यत्र चाऽर्थदृष्टेरपि अकिंचित्करत्वमन्तभावि तत्र केदलां भाषादृष्टिमुपष्टभ्य पाठशुद्धिं कल्पयित्वा यथापूर्वसंकेतं मौलिकपाठं स्थापयित्वैव कल्पितः पाठः कोष्ठके न्यवेश्यत । यथासाध्यं च कल्पिततत्पाठसंवादभागिन उल्लेखा अधस्तात् टिप्पण्यां तत्तद्न्थान् नामग्राहमुपन्यस्ताः । एतस्य च पद्धतित्रयस्य यथाशक्ति सर्वात्मना कृतोपयोगत्वेऽपि पञ्चमगाथाटीका बहुषु स्थानेषु बाहुल्येन अशुद्धाऽसंलग्ना च स्थितैवाऽऽस्ते । ये येऽशाः अस्माकं खण्डिततया, पुनरुक्ततया, विपर्यस्ततया, असंलग्नतया च प्रतिभान्ति स्म ते सर्वे आदौ (??) अथवा [?? अन्ते च (??) अथवा ??] एतादृशचिरैरङ्कयित्वा मुद्रिताः । तद्यथा पृ० ३२२ तथा ३३३ प्रभृति । यद्यपि पञ्चमगाथाटीकायाः पूर्वार्द्धवर्त्तिन्यः बह्वयोऽशुद्धयः भूयसा प्रयत्नेन निराक्रियन्त तथापि तस्या उत्तरार्द्धवर्तिन्यः विशेषतस्तु तत्प्रा. न्तवर्त्तिन्यः शल्यायमाना महत्यो बह्वयोऽशुद्धयः परिशिष्टा आसत एव । षष्ठगाथाटीकान्तर्गतः कियन्मात्रः प्राथमिकोंऽशः (पृ० ३७९-३८५) अक्षरशः तत्त्वसंग्रहीयशब्दब्रह्मपरीक्षाप्रकरणप्रतिकृतितया तत्साहाय्येन न केवलं सर्वथा शुद्ध एव प्रत्युताऽधस्तात् टिप्पण्यां तुलनायै निवेशिताभिः तत्त्वसंग्रहीयमूलकारिकाभिः कचित् कचित् पञ्जिकापतिभिश्च द्वितीयगाथाटीकावत् गवेषकदृष्ट्या उपयुक्ततरः समपद्यत । ततोऽग्रेतनस्तु पृ० ३८६ प्रभृति तदीयः सर्वोऽप्यंशः बहुधा बौद्धमन्तव्यस्पर्शिन्या चर्चया व्याप्तो वर्त्तते । तत्र च भूयसीनामशुद्धीनां निराकृतत्वेऽपि अक्षरशः तुलनोपयोगिनो ग्रन्थस्याऽशक्यलाभतया काचित् काचिदशुद्धिः अवशिष्यत एव परन्तु सा पञ्चमगाथाटीकाऽशुद्धिवद् गूढा नैवाऽस्ति । फलतः पञ्चमगाथाटीकावजै पश्यतां प्रस्तुते विभागे शिष्यमाणा अशुद्धयो विरलतमा एव दृष्टिपथमुपयास्यन्ति । अथाऽतः प्रस्तुतग्रन्थसंशोधनसंबन्धिनो विषयान् गृह्णीयाम । ते पुनः प्रतिगोचरतया, पाठान्तरगोचरतया, ग्रन्थान्तरोपयोगगोचरतया च मुख्यालय एवाऽत्र चर्चितुमुद्दिष्टाः।। (१) प्राक्तनविभागद्वयसंशोधनोपयुक्तप्रतिव्यतिरिक्ताभ्यां द्वाभ्यां ताडपत्रमयीभ्यां विशिष्टप्रतिभ्यां प्रस्तुतविभागस्य संशोधनं निष्प्रत्यवायं प्रकर्षपात्रं च संपन्नम् । तत्र च एकं ताडपत्रं दीर्घम् , अन्यच्च ह्रखं विद्यते। द्वयमप्येतत् शुद्धप्रायं क्वचित् कचिच्च सटिप्पणिकं वर्तते । प्रथमादारभ्य क्रमवर्धिष्णुभिरकैरुपेततया तद् बृहल्लघुताडपत्रद्वयमपि संमति उत्तरार्द्धयुक्तं संलक्ष्यते । प्रथमगाथाटीकाप्रभृतिषष्ठगाथाटीकाऽर्द्धपर्यवसानसंमतिपूर्वार्द्धवती बृहल्लघुताडपत्रद्वयसंबन्धिनी द्वे अपि खण्डे अद्यापि नोपलब्धे । यदि ते द्वे अपि पूर्वार्द्धवती खण्डे विनाशग्रहविमुक्ते क्वापि स्थाने सुरक्षिततयाऽवशिष्येयातां भाग्यवशाच कदाचित् केनचिदवाप्येयातां तदा इमे उत्तरार्द्धवती खण्डे Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इव ते अपि अवशिष्टां टीकावर्तिनीमशुद्धिमपाकर्तुं बलवत्सहायप्रदे संपद्येयाताम् । यदि केवलपञ्चमगाथाटीकात्मकोऽपि ताडपत्रीयपूर्वाद्धाशः प्राप्स्यत तदा एतावत्यस्तदीया जटिला अशुद्धयः प्रायः अवशिष्टा नाऽभविष्यन् । उपलब्धयोः खण्डयोः चतुस्त्रिंशदधिकशतत्रयमितपत्रे बृहति ताडपत्रे षष्ठगाथाटीकामध्यांशप्रभृतिप्रथमकाण्ड-पूर्णद्वितीय-तृतीयकाण्डपरिमाणं सटीकसंमत्युत्तरार्द्ध पूर्णतया वर्त्तते । प्रथमाङ्कपत्ररहितसप्ताशीत्यधिकशतसंख्यकपत्रशालिनि अन्तराऽन्तरा विलुप्तानेकपत्रे घृष्टध्वस्तप्रचुरतराक्षरपतिके लघुनि ताडपत्रे तूत्तरार्द्धमपि अपूर्णद्वितीयकाण्डपर्यन्तमेव विद्यते । एतत्ताडपत्रद्वयवर्तिभ्यः सुन्दराऽक्षरेभ्यः शुद्धपाटेभ्यः उपयोगिभ्यश्च टिप्पणकेभ्यः संप्राप्तेन समाश्वासेन पञ्चमगाथाटीकाऽवशिष्टा त्रुटिः किंचिदूनं कण्टकायते । एनयोस्ताडपत्रप्रत्योरितराभिः पत्रप्रतिभिः सहवाग्रे विशिष्य परिचाययितुमिष्टतया सांप्रतमेतावदेव सूचयितुं पर्याप्तम् यत् उक्तताडपत्रप्रतिद्वयेन प्रस्तुततृतीयविभागस्येव प्रकाशयिष्यमाणयोः द्वितीयकाण्डशालिचतुर्थविभाग-तृतीयकाण्डशालिपञ्चमविभागयोः संशोधनमपि समभ्यधिकां समनसतां समासादयिष्यति । परन्तु एफत उपलब्धताडपत्रखण्ड द्वयं साधनसंपदं प्रगुणीकरोति अन्यतश्च खण्डितो वा० बा०. संज्ञकप्रतिद्वयस्याऽल्पीयान् भागः संशोधनकर्मणि शल्यायते । पञ्चमगाथाटीकाप्रान्त-षष्ठगाथाटीकाप्रारम्भभाजा कतिपयानां पत्राणां व्यपगतत्वेनाऽशुद्धतमयोरपि कचित् क्वचित शुद्धतमयोः समानयोः पा० बा०संज्ञकप्रत्योः खण्डितत्वं शल्यायतेतराम् । यदि तावन्ति पत्राणि प्राप्येरन् तदा तत्तत्स्थलीय. टीकागतामशुद्धिमंशतो व्यपनेतुमुपयुज्येरन् । (२) प्रस्तुत विभागे पाठान्तरकृत्यं प्राक्तनविभागद्वयात् किंचिद् भिन्नमिव संपन्नम् । प्राक्तनविभागद्वयसंशोधने पाठान्तरस्वीकारपरित्यागक्रमः समानप्राय एवाऽङ्गीकृत आसीत् किन्तु प्रस्तुतविभागे स क्रमो विचार्यैव परिवर्तितः । तथाहि-पञ्चमगाथाटीकाया अशुद्धिबहुलत्वात् जटिलाऽशुद्धिमत्सु स्थलेषु सर्वथा अशुद्धतया भासमानान्यपि पाठान्तराणि अधस्ताद् निर्दिष्टानि-यत: तत्र तत्र स्थले सर्वा अपि प्रतयः समानभावेन कीदृश्या कियत्या च विलक्षणविलक्षणरीत्याऽशुद्धाः संवृत्ताः ? इत्येतत् विज्ञातुं शक्युः संशोधनकुशलाः, अशुद्धयः कथमुत्पद्यन्ते ? उत्पन्नाः पुनः कथं प्रवर्धन्ते ? शुद्धौ क्रियमाणायामपि पुनः अशुद्धयः कथं जायन्ते ? इत्येतत सर्व सूक्ष्मतयाऽवगन्तुं पारयेयुरशुद्धीतिहास. रचनाकोविदाः, तानि पाठान्तराणि निरीक्ष्य पाठशुद्धिमपि परिकल्पयितुं प्रभवेयुः केचिद् व्युत्पन्नाःअतो वैपरीत्येन च षष्ठीप्रभृतिसमस्तगाथाटीकायाः शुद्धप्रायत्वात् सर्वथा शुद्धेषु शुद्धप्रायेषु च स्थलेषु उपयोगीन्येव पाठान्तराणि बहुधा स्वीकृतानि अन्तर्गडुकल्पानि च शेपाणि परित्यक्तानि । (३) प्राक्तनविभागद्वयसंशोधनानुपयुक्ता अपि अनेके प्रन्थाः प्रस्तुतविभागसंशोधने कृतोपयोगाः। टीकागतानामवतरणानां मूलस्थानानि ज्ञापयितुम प्रतिपाद्यं विषयम् अन्तर्गतं पाठं च तोलयितुम कल्पितं शुद्धपाठं संवादयितुम् युगपद्भाविनामसमानतश्रीयग्रन्थकाराणां क्रमभाविनां च समानतबीयप्रन्थकाराणामेकमेव विषयमधिकृत्य प्रवर्त्तमानां चर्चाशैलीमवगमयितुम् काऽपि विषये प्रेक्षावतां दृष्टिं विस्तार्य अभ्यासमार्ग सरलीकत्तुं कस्को अन्थो ग्रन्थकारो वा कस्य कस्य कियता कियता प्रभावेणाऽनुवासितः इत्येतत् पृथकरणविधानं सुकरीकर्तुं चेच्छद्भिः एवंभूतान् अन्यानपि लाभान् संभावयद्भिः अस्माभिरनुष्ठितः प्रचुरपन्थराशेरुपयोगः परिशीलनपटिष्ठैः स्वयमेव दृष्टिगोचरीकरिष्यते । एवंसत्यपि एकस्योपयोगिनो प्रन्थस्योपयोगविधानं प्रस्तुतसंशोधने परिशिष्यत एव । वयं पूर्वमेव संमतिद्वितीयविभागीयनिवेदने बौद्ध भिक्षुधर्मकीर्तिकृतहेतुबिन्दुमूलका मातकर्तृकदुर्लभविवर Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ णवतो जीर्णताडपत्रपुस्तकस्य उपलब्धि सूचितवन्तः । यदि प्रस्तुतसंशोधने तत् पुस्तकमुपयोक्कुमशक्ष्यव तदा कतिपया अशुद्धीर्दूरीक मशक्ष्यन्त । परन्तु तथाविधीयमाने प्रारब्धमुद्रणप्रस्तुतविभागप्रकाशनं बहु विलम्बमानमवेक्ष्याऽस्माभिः तद्विवरणतुलना भाविविशिष्टपरिशिष्टतश्रीकृता। विशिष्टविद्यारुचिभ्यो महानुभावेभ्योऽस्माभिः प्रस्तुतविभागस्य संपादने या विविधरूपा सहायता समासादि तां निर्दिश्य कृतज्ञता प्रकाशयितुं लब्धावसरा भवामः । विख्यातनामधेयश्रीमआत्मारामजीपट्टधरप्रशिष्यश्रीमदूविजयवल्लभसूरिप्रबोधितलाहोरपत्तनीयश्रीश्वेताम्बरसंघसमर्पितद्रव्यसहायकसमासादितसहकारिकार्यकर्तृका वयं प्रस्तुतकर्मणि प्रशस्यरूपामनुकूलतां प्राप्तवन्तः। प्रवर्तकश्रीकान्तिविजयप्रशिष्यसुशीलमुनिश्रीपुण्यविजयकृतैरङ्गभूतैर्विविधकार्यैः प्रस्तुवसंशोधनं शीघ्रतरतामगात् । एतद्व्यतिरिक्तं चाऽस्मिन्नवसरे तैरन्यदपि स्मरणीयमुपयोगि कार्य व्यधायि सब हेतुबिन्दुप्रतिकृतिरूपम्-दुष्पठतरप्राचीनलिपिकलिताम् अतिजीर्णाम् घृष्टत्रुटिताक्षरवतीम् नाशसविधवर्तिनी ताडपत्रीयप्रतिमवलम्ब्य बहु परिश्रम्य तैर्या सुन्दरतमाऽक्षरशालिनी प्रतिकृतिः कृत्वोपयोगार पुरातत्त्वमन्दिरीयपुस्तकसंग्रहे समर्पितास्ति । सा तत्रैव तेषां नाम्ना सहैव संरक्षिता वर्त्तते । सुखलाल: बेचरदासश्च । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमतितर्क-प्रकरणम् । तृतीयो विभागः । पञ्चमगाथाव्याख्या । [ पर्यायास्ति कैकप्रकृतिकानाम् ऋजुसूत्रादीनां शुद्धाशुद्धभावेन विभजनम् ] विशेष प्रस्तारस्य पर्यायनयो मूलव्याकरणी, शब्दादयश्च शेषाः पर्यायनयभेदा इति प्रागुक्तम् ५ तत्समर्थनार्थम् - मूलर्णिमेणं पज्जवणयस्स उज्जुसुयवयणविच्छेदो । तस्स उ सद्दाईआ साहपसाहा सुहुमभेया ॥ ५॥ इति गाथासूत्रम् । अस्य तात्पर्यार्थः - पर्यायनयस्य प्रकृतिराद्या ऋजुसूत्रः स त्वशुद्धा, शब्दः शुद्धा, शुद्धतरा १० समभिरूढः, अत्यन्ततः शुद्धा त्वेवंभूत इति । अवयवार्थस्तु - मूलादिः ने (णि) मेणं आधार: पर्यायो विशेषः तस्य नय उपपत्तिबलात् परिच्छेदः तस्य, ऋजु - वर्तमानसमयं वस्तु स्वरूपावस्थितत्वात् तदेव - सूत्रयति परिच्छिनत्ति नातीतानागतम् तस्याऽसत्त्वेन कुटिलत्वात् तस्य वचनम् - पदं वाक्यं वा तस्य विच्छेदोऽन्तःसीमेति यावत् । 'ऋजुसूत्रवचनस्य' इति कर्मणि षष्टी, तेन 'ऋजुसूत्रस्य एवमयमर्थो नान्यथा' इति १५ प्ररूपयतो वचनं विच्छिद्यमानं यत् तत् मूलनिमेनम् अत्र गृह्यते । ननु कथं वचन विच्छेदः शब्दरूपः परिच्छेदस्वभावस्य नयस्याधारः ? नैष दोषः, विषयेण विषयी ( यि) कथनरूपत्वादस्य । न च वचनार्थोऽस्य विषयः न शब्द इति वक्तव्यम्, वचनार्थयोरभेदात् वचनमपि यतो विषयः । अथ विषय एव किं नोक्त इति न प्रेरणीयम्, शब्दनयानां यत् शब्दहतस्यैव प्रमाणत्वमिति ज्ञापनार्थत्वादेवमभिधानम्, तस्य च पूर्वापरपर्याये वि (यैर्वि) विक्ते एक पर्याय एव प्ररूपयतो वचनं विच्छिद्यते एकपर्यायस्य २० परपर्य(या संस्पर्शात् । उक्तं च तन्मतमर्थ प्ररूपयद्भिः "पलालं न दहत्यग्निर्दह्यते न गिरिः क्वचित् । ] नासंयतः प्रव्रजति भैव्यजीवो न सिद्ध्यति ॥ " [ पलालपर्यायस्य अग्निसद्भाव पर्यायादत्यन्तभिन्नत्वात् यः यः पलालो नासौ दह्यते यश्च भस्मभावमनुभवति नासौ पलालपर्याय इति । २५ १ पृ० २७१ पं० ७-८ । २ " णिमेणमवि ठाणे” “ णिमेणं स्थानम् " - देशीना० च० व० गा० ३७ टी० पृ० १५० पं० १७ । ३- त्यन्तः शु-आ० वा० वा० विना । ४- मादिर्निर्माणमा वा० बा० विना । ५ दोत:सी-वा० बा० विना । ६- न्यस्येति वा० वा० विना । ७ मूलनियमेन मत्र वा० वा० । मूलंनियमेनमत्र आ० । मूलंनि मेनमत्र हा० । ८ यच्छब्दहतस्येव आ० । यच्छहाहतस्यैव वा० बा० । यच्छब्द इती हतस्यैव वि० । ९-पर्यायविक्ते भां० मां०।- पर्यायवत्यन्त (यायादत्यन्त) विविक्ते वा० वा० । १०- क एव पर्यायआ० हा० । ११ तत्त्वार्थ० टी० पृ० ४०२ पं० २२ । भगवतीसू० टी० पृ० २०५ प्र० पं० ४ । - " त्यग्निर्भिद्यते न घटः क्वचित्” १२ " भव्योऽसिद्धो न सिध्यति " - नयोप० पृ० ४० द्वि० श्लो० ३१ । ४१ स० त० Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे-- [ ऋजुत्रविषयतया क्षणभङ्ग-विज्ञानमात्र-शून्यवादानामुपक्षेपः ] [१ क्षणभङ्गवादः] [ पूर्वपक्षः-स्थैर्यवादिभिः क्षणभङ्गस्य निराकरणम् ] नेनु च क्षणक्षयपरिणामसिद्धावेवं वक्तुं युक्तम्, प्रमाणरहितस्य वचसो विपश्चितामनादरणी. ५यत्वात् । न च क्षणक्षयावगमे प्रमाणव्यापार:-यतो न तावदध्यक्षं क्षणक्षयितां भावानामवगच्छत् प्रतीयते परैरभ्युपगम्यते वा यतः परैरन्त्यक्षणदर्शिनामेव प्रत्यक्षतः क्षणिकताया निश्चयः प्रकल्प्यते भ्रान्तिकारणसद्भावान्न प्राक् । उक्तं च "क्वचित् तदपरिज्ञावं सदृशापरसंभवात् । भ्रान्तेरपश्यत(?)भेदं मायागोलकभेदवत्"॥ [ ] इति। १० नाप्यनुमानात् तन्निश्चयः अनुमानस्य लिङ्गबलादुपजायमानत्वात् । सामान्यलक्षणं च तस्य "पक्षधर्मत्वम् सपक्षे सत्त्वम् विपक्षे चाऽसत्त्वमेव निश्चितम्" [ ] इति परैर्गीयते। तत्र पक्षधर्मतानिश्चयः-"प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा" [ a ] इति वचनात्यद्यपि प्रमाणद्वयनिबन्धनः सिद्धस्तथापि सपक्षे सत्त्वं सत्त्वादेर्हेतोर्निश्चेतुमशक्यम् क्षणिकतया सर्वार्थानां साधयितुमभिलषित्वात्(षितत्वात्) सपक्षस्यैवाभावात् साध्यस्य तन्मात्रानुबन्धः स्वभाव१५ हेतोर्विशेषलक्षणम् क्षणक्षयस्य चाऽनध्यक्षत्वात् तत्र सोऽपि नाध्यक्षतो निश्चितः । नाप्यनुमानात् तन्निश्चयः अनवस्थाप्रसङ्गात् । तत्कार्यताऽवगमः कार्यहेतोरपि विशेषलक्षणम् । न च क्षणिकस्तु(कवस्तु)कार्यतया किञ्चित् प्रसिद्ध वस्तु, प्रत्यक्षाऽनुपलम्भसाधनत्वात् तस्याः । न च क्षणिकस्य किञ्चित् कार्य सम्भवति । तथाहि-न विनष्टात् कारणात् कार्यजन्म असतोऽजनकत्वात् । नाप्यवि. नष्टात् व्यापारालीढस्य द्वितीयक्षणावस्थितेर्जनकत्वे क्षणभङ्गभङ्गप्रसङ्गात् निर्व्यापारस्य च शश२० शृङ्गवदजनकत्वात् कार्य-कारणयोरेककालताप्रसक्तेः । अनुपलब्धेश्चाऽत्राधिकार एवाऽसम्भवी प्रतिषेधसाधकत्वात् तस्याः क्षणिकतांविधिस्त्वत्र साध्यत्वेनाभिप्रेतः। न चापरो हेतुः सौगतैरभ्युपगम्यते । नापि प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्तं प्रमाणान्तरं तदभिप्रायेण विद्यत इति कुतः क्षणिकतानिश्चयः? प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षास्व(क्षाच्च) भावानां स्थैर्यप्रतिपत्तेः क्षणिकाभ्युपगमोऽसंमत एव । न च प्रत्यभिक्षा न प्रमाणम्। "तत्र(वा)पूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवर्जितम् । अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसंमत " ॥ [ २५ १ ननु क्ष-आ० हा० वि०। २ कल्पते-वा. बा. विना। ३ -श्यतं मे-आ०। ४ "पक्षधर्मत्वम् सपक्षे सत्त्वम् विपक्षे चासत्त्वम् इति"-न्यायप्र०सू० पृ० १५० ९ । “त्रैरूप्यं पुनर्लिङ्गस्य अनुमेये सत्त्वमेव ॥५॥ सपक्ष एवं सत्त्वम् ॥ ६॥ असपक्षे चासत्त्वमेव निश्चितम् ॥७॥"-न्यायबि० द्विती०प० पृ० १८-१९ । ५-मभिलयित्वा-हा० ।-मभिलब्धिता-आ० ।-मभिलषितत्वा-वि० सं० । ६ "स्वभावः खसत्ताभाविनि साध्यधर्मे हेतुः" ॥ १६ ॥-न्यायबि० द्विती०प० पृ. २३ । ७-क्षणं क्षय-वा० बा० विना। ८-स्य वा न-वि. विना। ९-त्वात्त सो-भां. मां० । १०-क वस्तु प्रत्यक्षा-वा० बा० विना। ११ तस्य न च वा. बा. विना । १२-तावधिस्त्वत्रा सा आ० हा० वि०। १३ “त्रिरूपाणि च त्रीण्येव लिङ्गानि ॥ ११ ॥ अनुपलब्धिः खभाव-कार्य चेति" ॥ १२॥ (न्यायबि. द्विती० प० पृ. २१) इति वचनात् बौद्धमते खभाव-कार्याऽनुपलब्धिरूपं हेतुत्रयमेव । १४ "द्विविधं सम्यग्ज्ञानम्" ॥ २॥ “प्रत्यक्षमनुमानं च" ॥३॥ (न्यायबि० प्रथ० प० पृ. ५-६) इत्युक्तेः। १५-पत्तिः वा. बा. विना। १६-गमो नमो न च भां. मां -गमो न च आ. हा०वि०। अत्र'-गमोऽसंगत एव' इति सुचारु। १७ “न च प्रत्यभिज्ञा न प्रमाणम् । "तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवर्जितम् । अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम्"। इति प्रमाणलक्षणयोगात्"-हेतु० टी० ता० लि. पृ० ८७ प्र. पं० ४ । नयोप० पृ० ३३ द्वि.पं०९। १८ प्रमाणपरीक्षा पृ० ६३ पं०५-८ । तत्त्वार्थश्लोकवा० पृ. १७३ श्लो. ७१ । प्रमेयक पृ० १६ द्वि.पं. १२ । “भाहेन" उक्तमेतत्-प्रमेयक पृ० १६ द्वि.टिप्प. अं०५१। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। इति प्रमाणलक्षणयोगात् । प्रत्यक्षं च प्रत्यभिज्ञा आत्मेन्द्रियार्थसम्बन्धानुविधानतस्तदन्यप्रत्यक्षवत् सिद्धम् । न च स्मृतिपूर्वकत्वात् ‘स एवायम्' इत्यनुसन्धाना(न)ज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वमयुक्तमिति वाच्यम् , सत्संप्रयोगजत्वेन स्मरणपश्चाद्भाविनोऽप्यक्षप्रत्ययस्य लोके प्रत्यक्षत्वेन प्रसिद्धत्वात् । उक्तं च "न हि स्मरणतो यत् प्राक् तत् प्रत्यक्षमितीदृशम्" ॥ "वचनं राजकीयं वा लौकिकं नापि विद्यते।। न चाऽपि स्मरणात् पश्चादिन्द्रियस्य प्रवर्तनम्" ॥ "वार्यते केनचिन्नापि तत् तदानी प्रदुष्यति । तेनेन्द्रियार्थसम्बन्धात् प्रागूवं वापि यत् स्मृतेः" ॥ "विज्ञानं जायते सर्व प्रत्यक्षमिति गम्यताम्"। [श्लो० वा० प्रत्यक्ष० श्लो०२३४-२३५-२३६-२३७] १० इति अनेकदेश-कालाऽवस्थासमन्वितं सामान्यम् द्रव्यादिकं च वस्तु अस्याः प्रमेयमित्यपूर्वप्रमेयसद्भावः। तदुक्तम् "गृहीतमपि गोत्वादि स्मृतिस्पृष्टं च यद्यपि । तथापि व्यतिरेकेण पूर्वबोधात् प्रतीयते" ॥ "देश-कालादिभेदेन तत्रास्त्यवसँरो मितेः। यः पर्वमवगतो नाशः(नांशः) सच नाम प्रतीयते"॥ "इदानींतनमस्तित्वं नहि पूर्वधिया गतम्"। [ श्लो० वा० प्रत्यक्ष० श्लो०२३२-२३३-२३४ ] इति । नन्वेवं भिन्नाभिन्नवस्तुविषयोनिबन्धा( योऽनुसन्धा)नप्रत्ययः प्राप्तः इष्यत एवैतत् यतो न भिन्नत्वे न प्रत्यभिज्ञानम् अभिन्नत्वेऽपि न प्रमेयभेदः । प्रत्यभिज्ञाव्यपदेशोऽप्यस्य भेदाभेदालम्बनत्वमेव २० द्योतयति यतो नैककालैकप्रमेयगोचराणां भिन्नप्रमातृसम्बन्धिानानां 'प्रत्यभिज्ञा' इति व्यपदेशः, नापि सर्वथा भिन्नेषु घट-पटादिषु । न च कालस्यातीन्द्रियत्वोंदू मिन्नकालैकप्रमेयप्रत्य भिक्षाने न प्रमेयातिरेक इति वक्तव्यम् , यतो यद्यपि न कश्चित् तत्र प्रमेयातिरेकस्तथापि घटादयः कदाचिदुपलक्षिताकारा अन्यदाऽनुपलक्ष(क्ष्य)माणाःसदसत्तया सन्देहविषयतामापद्यन्ते तत्वभावा. वेदिका च प्रत्यभिज्ञा तेषां सन्देहविषयतामपाकुर्वाणाप्रमाणतामश्नुते यतोन विषयातिरेक एंव प्रामा-२ ण्यनिबन्धनं प्रत्ययानाम् किन्तु सन्देहाऽपाकरणमपि सन्दिग्धस्य, यदा त्वविरतोपलब्धिसन्तानाः पुनः पुनरपेतसन्देहसङ्गाः प्रत्यभिज्ञायन्ते भावास्तदा सन्देहविच्छेदाधिकफलाभावात् मा भूत् प्रत्यभिज्ञा प्रमाणम् । न च सविकल्पकमेवैकं प्रत्यभिज्ञाज्ञानम् अविकल्पकस्याऽपि एकत्वग्राहिणः प्रत्यभिज्ञाज्ञा. नस्य सद्भावात्। तथाहि-एकप्रमातृसम्बन्धिप्रथमप्रत्ययाऽभिन्नविषयाकारानुभवतोऽत्रुट्यदूपार्थनायविकल्पकं शानमनुभूयत एव एकत्वग्राहि च ज्ञानं प्रत्यभिज्ञाज्ञानमुच्यते इति क्षणिकाभिव्यक्तिध्वपि ३० १ "प्रत्यक्षं प्रत्यभिज्ञा अक्षान्वय-व्यतिरेकानुविधानात् तदन्यप्रत्यक्षवत् । न च स्मरणपूर्वकत्वात् तस्याः प्रत्यक्षत्वाभावः सत्संप्रयोगजस्वेन स्मरणपश्चाद्भावित्वेऽपि अस्याः प्रत्यक्षत्वाविरोधात्" इत्यादि-प्रमेयक. पृ. ९७ द्वि० पं० ७॥ २-सन्धानात् ज्ञा-वा. बा. विना। ३-कीयं वा लौकिकं ना विद्य-भां. मां. हा०।-कीयं चालौकिक वा विद्य-वि० ।-कीयं चालौकिकं वा विविद्य-आ० ।-कीयं वा वैदिकं वाऽपि विद्य-श्लो. वा० । ४-गूर्वचा-वा. बा०। ५-धान् प्रताय-भां० मां०। ६ “व्यक्ति-कालादिमेदेन"-श्लो. वा०। ७-सरे वा.बा. विना। ८-वगतांशः वा. बा०। “यः पूर्वावगतोऽशोऽत्र स न नाम प्रतीयते"-श्लो. वा० । “ननु गृहीतमपि गृह्यते इति कथं प्रामाण्यम् ? अत आह-'यः' इति । तस्मिन्नशे मा भूत् प्रामाण्यम् अगृहीतकालान्तरसम्बन्धा. पेक्षमेव तु प्रामाण्यम्" इति-श्लो. वा. पार्थ. व्या० पृ. २०३ पं० १६। ९-षयोऽनुबन्धन-वा. बा। १०-तत य-वा. बा०। ११ यतो न भिन्नत्वेऽपि प्रमेयभेदः वा. बा. विना। १२-वाभिनकाले प्र-वा. बा०। १३-विषयातिरेकस्य(स्ये)व संदेहापाकरणस्यापि प्रामाण्यनिबन्धनत्वात्-" नयोप० पृ. ३३ द्वि. पं. १३। १४ एवा प्रा-हा. वि.। १५-नयोप० पृ. ३४ प्र. पं. १ १६-त्यभिज्ञानं वा. बा। १७-था प्र-वा० बा०। १८-कासिव्य-आ०। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० प्रथमे काण्डेशब्दमात्रास्वालोचनप्रत्ययावगतमेव स्थैर्यम् ‘स एवायम्' इत्यनन्तरमनुसन्धानविकल्पोत्पत्तिदर्शनात । तथाहि-अर्थसंसर्गानुसारिणोऽनुभवादुपजातान्नीलविकल्पात् तद्यापाराऽनुसारिणो । नीलानुभवव्यवस्था सौगतैरभ्युपगता तथा पूर्वदृष्टं पश्यामि' इत्युल्लेखवतोऽनुसन्धाने(??) विकल्पात्रु. ट्यद्पशब्दाद्यवभासिनस्तत्त्वात् तमुधिगतरूपत्वं किमिति न व्यवस्थाप्यते(??) 'पूर्वदृष्टमेव पश्यामि' ५इत्युल्लेखवानुपजायमानोऽप्यनुसन्धानप्रत्ययो न प्रत्यभिज्ञाध्यक्षतामनुभवतिक्षणिकाभिव्यक्तिषु शब्द. मात्रास्वक्षसंसर्गाभावतस्तदोपजायमानत्वात् चिरतरकालाभिव्यक्तीनां तु घटादिव्यक्तीनां अनुसन्धानविकल्पप्रत्ययाधिगतमेव स्थिरत्वम् इन्द्रियसंसर्गानुसरणतस्तस्य प्रादुर्भावात् । न चेन्द्रिय(या)विषयत्वात् स्थैर्यस्य तदनुसारिणोऽविकल्पस्य वाऽध्यक्षस्य न पौर्वापर्ये वृत्तिरिति वक्तुं युक्तम् नीला. दावपि अस्य समानत्वात् । यथा चाक्षव्यापारानन्तरं नीलाद्यवभासस्याऽनुभूतेस्तस्य नीलादिविषय. १. त्वम् तथा नयनव्यापारानन्तरमँत्रुट्यदूंपप्रतिभासानुभूतेस्तस्य तद्विषयत्वमपि व्यवस्थापनीयम् । न च पूर्वदर्शनानुस्मरणमन्तरेण दृश्यमानस्यार्थस्य पूर्वदृष्टताधिगतिर्न सम्भवति, पूर्वदर्शनस्मरण एव वर्तमानदर्शनग्राह्यस्य 'पूर्वदृष्टमेतत्' इत्यध्यवसायात् । तच्च दर्शनं नेदानीन्तनदृशि प्रतिभाति इति तदप्रतिभासने न तदै(तद्द)ष्टतां वर्तमानदर्शनग्राह्यस्याध्यक्षमधिगन्तुं प्रभुरि(भु इति कथं पौर्वापर्येऽक्षजप्रत्ययप्रवृत्तिरिति वक्तव्यम् यतः 'पूर्वदृष्टमेतद्' इत्युल्लेखमन्तरेणाऽपि पौर्वापर्ये दृगवता. १५रात् । तथाहि-मलयगिरिशिखराद्यनुस्मरणकालेऽप्यक्षजे दर्शने पुरोव्यवस्थितो नीलादिरर्थः स्फुट मैत्रुट्यदूपतया प्रतिभाति तद्रूपतया प्रतिभासनमेवाऽक्षणिकत्वप्रतिभासनं कथं न निर्विकल्पकप्रत्यभिज्ञाध्यक्षसमवसेयं तत्त्वम् (??) । न च निर्विकल्पकाध्यक्षेणैवैकत्व ग्रहणात् तदेवेदमपि सविक ल्पप्रत्यभिज्ञाध्यक्षं गृहीतग्राहितया व्यवहारमात्रदर्शनफलत्वात् नीलादिविकल्पवदप्रमाणम् (??) यतो गृहीतमगृहीतं वाऽर्थस्वरूपमवभासयन्ती प्रतिपत्तिः अबाधितरूपा अर्थाविसंवादित्वात् प्रमाणम् २० अर्थाधिगतिफलनिबन्धनत्वे प्रमाणस्य लोके सिद्धत्वात् । ततो निर्विकल्पस्य विकल्पकस्य वा स्थैर्यग्राहिणः प्रत्यभिशाप्रत्ययस्य प्रमाणतेति तद्बाधितत्वात् क्षणक्षयस्य नाभ्युपगमार्हता युक्तिसङ्गता। विनाशस्य सहेतुकत्वात् हेतुसंनिधेः प्रागभावात् क्षयिणामपि भावानां कियत्कालं यावत् स्थैर्य अनमानादप्यवसीयते । न च नाशहेतनामभावः 'दण्डेन घटो भग्नः' 'अग्नि इति नाशहेतूनामन्वय-व्यतिरेकाभ्यां लोके सुप्रसिद्धत्वात् । अन्वय-व्यतिरेकनिबन्धनो हि सर्वत्र २५ हेतुफलभावः तमभ्युपगच्छन् 'हेतुमिरनाधेयत्वं(ध्वं)सा घटादयः' इति प्रत्येतुं न क्षमः। उक्तं च "अभिधाताग्निसंयोगनाशप्रत्ययसैनिधिम् । विना संसर्गिती याति न विनाशो घटादिभिः" ॥ [ ] इति। न चावस्तुत्वाद् विनाशस्य कार्यत्वं न सङ्गतमिति वक्तव्यम् , यतः "भावान्तरविनिर्मुक्तो भावोऽत्रानुपलम्भवत् । अभावः संमतस्तस्य हेतोः किं न समुद्भवः ?" ॥ [ ३० १-नुसन्धानं वि-मां. आ. हा० वि०।-नु वि-वा. बा०। २-न विकल्पात पूर्वरष्टमेव पश्यामीत्युल्लेखवानुपजायतो नात्यनु-वा० बा । ३-रवा ह्यधिगतिरू-हा०। ४ पृ० २८९ पं०१०-११ । ५-पर्यवृ-हा०। ६-क्षस्य व्या-भां० मा०। ७-मनुत्पद्यदू-मां०। ८-दूपाप्र-वा० बा०। ९-नुसरणवा. बा० । १०-दप्यतादृष्टतां वर्तमानग्राह्यसाध्य-वा० बा० ।-ददृष्टता व-वि० । ११-क्षजद-आ० । १२-मत्र त्रु-वा० बा० ।-मनु त्रु-वि.। १३-भासमान-वा. बा. विना। १४-कत्वंप्र-आ० । १५-कत्वाग्र-वि० ।-कत्वे ग्र-वा. बा०। १६-तदेवैद सवि-वा. बा०। १७-ध्यक्षगृ-भां० हा. वि.। १८-त्रप्रव. तेनफलकस्य वा-वा. बा०। १९-कस्या वि-आ. विना। २०-लोके षुप्र-वा. बा०। २१-यत्वंस. घटाद-मां०।-यत्वंसंघटाद-आ. हा० भ०। २२-घातोऽग्निः संयोग नसप्रत्ययसन्निधि । वा० बा। घाताभिसंयोग-हा। घातोऽभिसंयोग-आ०। २३-सन्निधि । हा.वि.। २४-तां यान्ति आ० वा. बा० । “तथाहि" इत्युल्लिख्य श्लोकोऽयं निर्दिष्टः हेतु० टी० ता० लि. पृ. ८०प्र० पं०६ । २५-शस्याका-वा. पा०। २६-त् । भावः सम-वा. बा. । पृ० १०५०२० तथा टिप्प. ४ । “तथा चाह कश्चित्" इति निर्दिश्य लोकोऽयं समुदृतः हेतु० टी० ता. लि. पृ० ८२ प्र.पं.२ श्लोकान्ते च "तदेतत् कौमारिलं दर्शनमपनुदन्नाह" इत्यपि तत्रैव लिखितम् । स्याद्वादर० पृ० १२३ प्र. पं० ८ । अयं श्लोकः "इति खयं भटेन प्रकटनात्" इति कृत्वा रत्नाकरावतारिकायां निर्दिष्टः रत्नाकरा०प्र०प० पृ.४३ पं० २१-२३ । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३२१ घटेन्धनपयसां समासादितविकाराणामवस्थान्तरमेव ध्वंसं मन्यन्ते येऽप्यनुपजातविकाराः प्रदीप-बुद्ध्यादयो ध्वंसमालम्बन्ते तेऽप्यव्यक्तरूपतामात्मस्वभावतां च विकारमेव ध्वंसमासादयन्ति यथा नोपलम्भव्यावृत्तिरेवानुपलम्भः परेषां किन्तु विवक्षितोपलम्भादन्यः पर्युदासवृत्त्योपलम्भ एव तथा भावातिरेकेणाभावस्यासंवेद्यत्वाद् भाव एव(वा)भावः। विशे(वैशेषिकास्तु मन्यन्ते भवत्वनपेक्षितभावान्तरसंसर्गः प्रच्युतिमात्रमेव प्रध्वंसाभावस्तथापि तत्र हेतुमत्ता न विरोधमनुभवति । ५ तथाहि ""सं(सन् ) बोधगोचरप्राप्तस्तद्भावे नोपलभ्यते। नस्या(नश्यन् ) भावः कथं तस्य न नाशः कार्यतामियात्" ? ॥ [ ] इति । कारणाधीनः पदार्थेषु प्रध्वंस इति तद्धेतुसन्निधानात् प्रागनासादितविनाशं(श)सङ्गतयो भावा इत्यनुमानादक्षणिकत्वसिद्धेर्न क्षणक्षयिता तेषामभ्युपगन्तुं युक्तेति । [ उत्तरपक्षः-बौद्धैः क्षणभङ्गस्य साधनम् ] अत्र प्रतिविधीयते यदुक्तंम्-'नाध्यक्षतः क्षणिकतावगमः' इति, तत्र यथा अध्यक्षमेव क्षणविशरारुतां भावानामवगमयति तथा प्रतिपादितं प्राक् वेदान्तवादिमतनिराकरणं कुर्वद्भिः। यदपि 'नानुमानतोऽपि तत्सिद्धि (द्धिः) सामान्यविशेपलक्षणायोगात् लिङ्गस्य' इति, तदसङ्गतमेवैः यतः 'सपक्षे सत्त्वम्' इत्यादिना स्वसाध्यप्रतिबिम्ब (बन्ध) एव हेतो निश्चितोऽभिधीयते न दर्शनादर्श-१५ नमात्रम् सपक्ष-विपक्षयोर्हेतुभावाभावयोः सर्वत्र निश्चयायोगात्-नहि पार्थिवत्वादी दर्शनादर्शन योः (??)सतोरप्यन्वयनिश्चय इति कृतकत्वादावपि स न स्यात् । तथाहि-बहुलम चारस्यापि केनचिदसति प्रतिबन्धे सर्वत्र सर्वस्य न तथा भावावगमो नियमनिबन्धनाभावात् ने या सर्वदर्शनाव्यौप्यसपक्षविपर्ययो हेतोर्भावाभावी ग्रहीतुं शक्यौ (??) यतो न हेतुमन्तः सर्व एव भावाः साध्यधर्मसंसर्गितयोऽसैर्वविदः प्रत्यक्ष(क्षाः) साध्यविविक्ता वा हेतु विकलतयाऽदृश्यानुपल-२० ब्धेरभावाव्यभिचारित्वायोगात् । उक्तं च "गत्वा गत्वा च तान् देशान् यद्यर्थो नोपलभ्यते। तदान्यकारणाभावादसन्नित्यवगम्यते" ॥ [ श्लो० वा० अर्था० श्लो० ३८] इति । यत्र यत्र साधनधर्मस्तत्र तत्र सर्वत्र साध्यधर्मः यत्र च साध्याभावस्तत्र सर्वत्र साधनधर्मस्याप्यभावः इति अशेषपदार्थाक्षेपेण सपक्षेतरयोः हेतोः सदसत्त्वे ख्यापनीय(?) स्त । क्वचिदेव तादात्म्य-२५ -तदुत्पत्तिलक्षणस्य च प्रतिबन्धस्यैकस्मिन्नपि प्रमाणतोऽधिगमेऽन्वय-व्यतिरेकयोप्प्या निश्चयः सम्पद्यते नान्यथा तदात्मनस्तादात्म्याभावे नैरात्म्यप्रसङ्गात् कार्यस्य च स्वकारणाभिमते(त)भावाभावे भवतो निर्हेतुकत्वप्रसक्तेश्च । उक्तं च "स्वभावेऽप्यविनाभावो भावमात्रानुरोधिनि । तदभावे स्वयं भावस्याभावः स्यादभेदतः” ॥ [ ] तथा, ३० १-वातिरेकेण भा-वा० बा० विना। २-द्यत्वादि एव भा-वा० बा०। ३-भावोऽस्तु मन्यन्ते वा० बा० विना। ४-स्तु म मन्य-वा. बा.। ५-सदबोध-भां० मां० । सदबाध-आ• हा०वि०। “सन् बोधगोचरप्राप्तस्तद्भावे नोपलभ्यते । नश्यन् भावः कथं तस्य न नाशः कार्यतामियात्"?॥ तद्भावे “अग्निभावे"। तस्य “अन्यादेः"-हेतु० टी० ता. लि. पृ० ८४ प्र० पं० १-२ । ६ नाशका-भां० मां० वा. बा० विना। -ति करणाधीन प-वा. बा. विना। ८-त्वसिद्धिर्न आ० हा० वि०। ९-पृ. ३१८ पं० ५। १०-ध्यक्षं क्षण-आ०। ११-वेदान्तवादिमतनिराकरणं च पृ. २८५-२९६। १२-पृ० ३१८ पं०१०। १३-क्षणयो-वा. बा. विना। १४-व यत स-मां० ।-व येतः स-हा० वि० ।-व येत स-भां० । व यः स-वा. बा.। १५ पृ० ३१८ पं० ११। १६-निश्चतो-वा. वा०। १७-मात्र स-आ० हा० वि० । १८-तुर्भा-आ०। १९-त्वादी दर्शनयोः आ० हा० वि० । २०-न चा स-मां। न स-आ० । २१-व्याप्यास-वा० बा०। २२-पर्ययोh-वि०। २३-भावो ग्रहीतुं शक्यो य-वा० बा० । २४-या सवा० बा० विना। २५-सर्वा वि-आ० हा० वि० । २६-तुर्विक-वि० । २७-सत्त्वेत्याख्यापनीयेन्नव-वा. बा०।-सत्वे ख्यापनीये नक्क-भां. मां हा० वि०। २८-भावे भावतो वा. वा. हा० वि०। २९-एतत् लोकद्वयम् हेतु.टी. ता. लि. पृ० ५७ प्र. पं० २-३ । प्रमेयक. पृ० १०१ प्र. पं०९। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ प्रथमे काण्डे"कार्य धूमो हुतभुजः कार्यधर्मानुवृत्तितः। सम्भवस्त(स भवंस्त)दभावेऽपि हेतुमैत्तां विलवयेत्” ॥ [ यस्य च क्वचित् धर्मिणि प्रागुप्र(प)दर्शितप्रतिबन्धप्रसाधकं प्रमाणं वृत्तमिदानी विस्मृतम् तस्य तदुपन्यासेन तत्र स्मृति (रा)धीयते अनुमेयार्थप्रसिद्धस्तु अविनाभाविनिश्चये तत एवं ५स्मर्यमाणात् (??)प्रमाणान्न पुनदृष्टान्तप्रतिबिम्बग्राहकं च प्रामाण्यं यद्वा स्यान्नाद्यापि(??)क्वचिद्धर्मिपि प्रवृत्तं तस्यानुमानोपन्यासकाल एव प्रदर्शनीयमिति न तस्य प्रतिविम्बग्राहिप्रमाणानुस्मृत्यर्थ पक्षी. कृतार्थव्यतिरेकवान् साधादिदृष्टान्तः प्रदर्शनीयः अतस्तत्प्रतिबन्धप्रसाधकं साक्षादेव प्रमाण प्रदर्शनीयम् । तत्र च प्रदर्शिते न किञ्चित् दृष्टान्तप्रदर्शनेन तस्य चरितार्थत्वात् प्रतिबिम्बप्रसिद्धौच प्रमाणतः साध्यधर्मे सत्यवाऽनुमेये हेतोः सद्भाव इति कथं तस्य सामान्यलक्षणविरहः? तथाहि१० सपक्षः साध्यधर्मवान(ने)वार्थ उच्यते बाधकप्रमाणबलाञ्च(??)विपक्षा अव्यापिनो हेतुः साध्यधर्म वत्त्वे च साध्यधर्मिणि वर्तमानः कथं न सपक्षे वृत्तः यतो न संपंक्षव्यवस्था वा सर्वमिच्छाव्यवस्थापितलक्षणं पक्षत्वमपाकरोति साधयितुमिष्ट इतीच्छा(??)व्यवस्थापितत्व(त्वं) पक्षलक्षणस्य सिद्धमेव सपक्षेत्वात् त्वं तु) तस्य साध्यधर्मयोगात् वस्तुबलायातमिति न तत् तेन बाध्यते अन्यथा सपक्ष व्यतिरिक्त पक्षे वर्तमानो हेतुः विपक्षावृत्तेरनैकान्तिकः प्रसक्त इति सर्वानुमानोच्छेदः । अथ पक्षीकृत. १५परिहारेणैवाऽसपक्षस्यापि व्यवस्थापितत्वात् न पक्षे वृत्तोऽसपक्षवृत्तोऽसपक्षवृत्तित्वादनैकान्तिका, नन्वेवं पक्षपरिहारेण (?) साध्यभावाभावयोस्तद्वान्वयं हेतुन साध्यधर्मिणीति कथं पक्षो हेतुमानपि साध्यधर्माध्यासितत्वात् । नहि 'यस्मादनुमेये साध्यं विनापि भावः तत्सद्भावाद्धर्मी साध्यधर्मवान् इत्यभिधातुं युक्तम्, न च साध्यधर्मवृत्तिव्यतिरेकस्वरूपो सपक्ष-विपक्षी विहाय प्रकारान्तरस्य सम्भवः यत्र पक्षत्वं स्यात् अन्योन्यव्यवच्छेदरूपतया सर्वस्य द्वैराश्यव्यवस्थितेः हेतोश्च पक्ष-सपक्षा२० दिनविभागापेक्षया गमकत्वे काल्पनिकत्वमनुमानेऽप्यङ्गीकृतं स्यात् न वस्तुबलप्रैवृत्तत्वम् तस्मात् साध्यप्रतिबद्धभावतयों हेतोर्गमकत्वे साध्यधर्मिण्यपि साध्यधर्मयुक्त एवं परमार्थतः सपक्षात्मन्ये. वासौ वर्तत इति कथं सामान्यलक्षणयोगी न स्यात् । उक्तं च"यत् क्वचिद् दृष्टान्तस्य (दृष्टं तस्य) यत्र प्रतिबिम्बः तद्विदः तस्य तद् गमकं तत्रेति वस्तुगतिः" ] इति। १-प्रमेयक पृ० १.१ प्र. पं० ८। २ “स भवंस्त'-हेतु० टी० । संभवंस्तद"-प्रमेयक। ३-मत्ता वि आ० वि० ।-मत्ताविलम्ब-हा० ।-मतां वि-वा० बा० । ४ प्रागु प्र-भां० मां० । प्रागुप्तद-आ० हा० वि० । ५-धकप्र-भां० मां० वि०। ६-माण वृ-वा० बा० विना। -रधायतानु-वा० बा०। ८-स्तुश्वविनावा. बा. विना। ९ च प्रमा-वा० बा० वि०।१०-यद्वास्याद्यापि आ० । यद्यस्यान्नद्यापि वा० बा० । यद्वा स्यानावापि हा०। ११-ति त-आ० वि०। १२-नीयोतस्तव प्र-आ० ।-नीयोऽसत्तं प्र-वा० बा० । १३-दर्शने त-वा. बा०। १४ हेतो स-आ० वि० । हेतोऽस-हा०। १५-व्यापितो हे-वा० बा०। १६-क्षे व्यत्तः वा० बा०। १७-पक्षो व्य-हा० वि०। १८-क्षण प-भां०। १९-क्षत्वत् तस्य हा• वि.। -क्षत्वन्व तस्य वा० बा० ।-क्षत्व तस्य भां० मा०। २०-धर्मायो-वा० बा. विना । २१-हारेणो वा-वा. बा० ।-हारेण वा-हा० ।-हारेणेवा-वि०। २२-स्तथान्वयं आ० ।-स्तथात्वयं हा० । २३-तुर्नासा-हा० वि० । २४-मानापि आ० हा० ।-मानोपि वि० ।-मानपि सध्यचध-वा० बा०। २५-त्वास्या नहि वा. बा. विना। २६-स्मानुमेय साध्यं वा० बा०। २७-कत्वप्यनु-वा० बा। २८-प्रकृत्तत्वं तस्यात् वा. बा०। २९-यावहे-वा० बा० । ३०-व पार-वा. बा. विना। ३१ दृष्टात्तस्याय-वा० बा०। "अत एव अन्यत्रोक्तम्" इति उक्त्वा “यत् क्वचिद् दृष्टं तस्य यत्र प्रतिबन्धः तद्विदः तस्य तद गमकं तत्रेति वस्तुगतिः। अन्यत्र "विनिश्चये" (तन्नाम्नि ग्रन्थे) यत् "लिङ्गम्" क्वचित् "प्रदेशे" दृष्टम् “निश्चितम्" तस्य “लिङ्गस्य" यत्र "वढ्यादौ" तद्विदः “प्रतिबन्धविदः" तस्य "वहेः" तदू "लिङ्गम् तत्र “यत्र दृष्टं तत्रैव नान्यत्र"-हेतु. टी. ता.लि. पृ० १६ द्वि. पं. १। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३२३ ततो व्यवस्थितं क्षणिकत्व-सत्त्वयोस्तादात्म्यात् क्वचिद् वस्तुनि वर्तमान सत्त्वं क्षणिकत्वयुक्त एव वर्तते इति नास्य सामान्यलक्षणायोगः। सत्त्वं च भावानां न सत्तायोगलक्षणम् सामान्यादिष्वभावाद् अव्याप्तेः शशशृङ्गादिष्वति(वपि) भावादतिव्याप्तेश्च । न च शशशृङ्गादीनामसत्त्वान्न सत्तायोग इति वाच्यम्, इतरेतराश्रयत्वप्रसक्तेः । तथाहि-तेषामसत्त्वं सत्तायोगविरहात् तद्विरहश्चासत्त्वात् इति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । अथ ५ अर्थक्रियासामर्थ्य विरहान्न तेषां सत्तायोगः, नन्वेवं यद् अर्थक्रियासामर्थ्ययुक्तं सत्तायोगस्तस्यैव इत्यर्थक्रियासामर्थ्यमेव सत्त्वमायातमिति व्यर्थः सत्तायोगः । अत एव सामान्यादीनामपि स्वरूपसत्त्वं अर्थक्रियासामर्थ्यात् सिद्धम् 'सत्'प्रत्ययस्य सर्वत्राविशेषात् । न च सामान्यादिषूपचरितः 'सत्'प्रत्ययः अस्खलढत्तित्वात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्येन(व्याणां) विरोधात् एकस्मिन् धर्मिण्ययोगात् "उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्" [तत्त्वा० अ० ५ सू० २९] इत्येतदपि सत्त्वलक्षणमयुक्तम् । अथ१० 'कथंचिद् उत्पाद-व्ययौ कथंचिद् ध्रौव्यम्' इत्यभ्युपगमः, नैतत्; यतो यथोत्पाद-व्ययौ न तथा ध्रौव्यम् यथा च ध्रौव्यं न तथा उत्पाद-व्ययौ इति कथमेकं वस्तु यथोक्तलक्षणयुक्तं भवेत् ? अतोऽर्थक्रियासामर्थ्यमेव सत्वमक्षणिकात कम-योगपद्यविरोधाद् व्यावर्त्तमानं क्षणिक एवाऽवतिष्ठत इति तदात्मतां कथमतिकामेत् ? तन्न विशेषलक्षणस्याप्ययोगः। तस्मात् 'यत् सत् तत् क्षणिकमेव, सन्ति च द्वादशायतनानि' इति क्षणिकतायामिदमनुमानम्। अत्र च पञ्चस्व(सु) रूपादिष्वध्यक्षतः सत्त्व-१५ सिद्धिः मनो-धर्मायतनयोः स्वसंवेदनतः स्कन्धत्रयस्वभावत्व(?) धर्मायतनस्य संस्कारस्कन्धस्य च विप्रयुक्तस्याभावात् चक्षुरादिच(रादि)पञ्चस्वनुमित्ये(ते)स्तत्कार्यविज्ञानस्य कादाचित्कतया करणान्तरसापेक्षत्वसिद्धेः देशादिविप्रकृष्टेषु च सर्वपदार्थेषु अभ्युपगमविषयेषु प्रसङ्गमुखेन सत्तायाः क्षणिकतासाधन(नम) व्याप्यसद्भावे व्यापकस्य नियतसंनिधित्वा(त्वात्) व्यापकाभावेच व्याप्यस्याप्यभावात् चक्षुरादि-ध्वनीनाम् 'सन(त्')शब्दस्य च प्रवृत्तिनिमित्तभेदादर्थभेदतः परमार्थतो२० मेदाभावेऽपि न धर्मिण एव हेतता। पारमार्थिकरूपस्यावाच्यत्वाद विकल्पावभासिनमेवार्थ ध्वनयः प्रतिपादयन्ति 'क्षणिक'शब्दस्यापि क्ष(अक्ष)णिकसमारोपव्यवच्छेदविषयतया ने 'सत'शब्दार्थता भिन्नार्थतेति तद्वारेणापि न प्रतिज्ञार्थकदेर्शतां(ता)। अन्वयादिनिश्चयस्तु प्रतिबन्धनिश्चायकप्रमाणनिबन्धनः; स च तादात्म्यलक्षणः प्रतिवन्धः स्वभावहेतोः प्रमाणनिबन्धनः, ननु क्षणिकत्वस्य प्रत्यक्षेणाऽनिश्चयात् कथं तत्तादात्म्यं स्वभावहेतोः प्रत्यक्षप्रमाणतः सिद्धम् ? अथ 'कृतका विनाशं प्रति२५ अनपेक्षत्वात् तद्भावनियता यतो भावाः' इत्यनुमानसिद्धं तत्तादात्म्यम्, नैतत्; यतो निर्हेतुकत्वेऽपि विनाशस्य यदैव घटादयो नाशमनुभवन्तः प्रतीयन्ते तदैव तेषामसौ निर्हेतुकः स्यात् नान्यदेति कथं क्षणविशरारुता भावानाम् ? अथ एकक्षणभावित्वेन भावस्योत्पत्तेःप्रागपि विनाशसङ्गतिः। ननु यथैकक्षणस्थायित्वेनोत्पत्तिः स्वहेतुभ्यः तथाऽनेकक्षणस्थायित्वेनापि साऽविरुद्धा, । विचित्रशक्तयः सामयः। न च यदि क्वचित् कदाचित् विनाशोद्भवे(शो भवेत् ) तदा तत्काल द्रव्यापेक्षत्वाद अन्यानपेक्षत्वहानिरिति वक्तव्यम्, विनाशंहेत्वनपेक्षत्वेनानपेक्षत्वात अन्यथा द्वितीयेऽपि क्षणे विनाशो न स्यात तत्कालाद्यपेक्षत्वात् । १-ङ्गादिष्वविनाभा-वा. बा. विना। २ सत्वं सत्वाक्षणिकात् क-वा. बा०। ३-कामेत वा० बा० विना। ४ पृ. ३१८ पं० १४ । ५-प्वक्षतः वा. बा०। ६-भावात्व-वा. बा०। ७-नुमितोस्ताका-आ. हा० वि०।-नुमितास्तत्का-भां० मां०। ८ सशब्दस्य आ० हा० वि० । सब्दस्य वा. बा। ९-मित्तमेदतः भां० मां-मित्तभेदाभेदतः वा० बा०। १० न सच्छब्दार्थतेति त-भां. मां। ११-शतांन्वया-वा. बा० । १२ “यद्भाव प्रति यन्नैव हेत्वन्तरमपेक्षते । तत् तत्र नियतं ज्ञेयं खहेतुभ्यस्तथोदयात्" ॥ "निर्निबन्धा हि सामग्री खकार्योत्पादने यथा । विनाशं प्रति सर्वेऽपि निरपेक्षाश्च जन्मिनः" ॥ -तत्त्वसं• का० ३५४-३५५ पृ० १३२ । १३ नाशनमनु-आ० हा० वि० । नशनमनु-भां० मा० । १४-नाशाद्भवेत् त-मां०।-नाशाद्भवे तभांकर-नाशौद्भिवेत् त-वि० ।-नाशौ वे त-हा। १५ अन्यादपेक्ष-भां० मा हा० वि० । अस्यादपेक्षवा. बा.। १६-शहेतुनपेक्ष-भा० मा० ।-शहेतुत्वनपेक्ष-आ० हा• वि.। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ प्रथमे काण्डे न च क्रम-योगपद्याभ्यां सामर्थ्यलक्षणं सत्त्वं व्याप्तम् क्रमाऽक्रमनिवृत्तौ च नित्यात् सत्वं निवर्तमानं क्षणिकेम्वेवावतिष्ठत इति सत्त्वयुक्तस्य कृतकत्वस्य गमकत्वम्, यतः क्षणिकत्वे सति क्रमाऽक्रमप्रतिपत्तरसंभव एव । तथाहि-येन ज्ञानक्षणेन तत्पूर्वकं वस्तु प्रतिपन्नं न तेनोत्तरकालभावि, येन चोत्तरकालसङ्गतं न तेन पूर्वकालालीढमिति कथं क्रमप्रतीतिः? योऽपि पूर्ववस्तु५प्रीत्य(प्रतीत्य)नन्तरमपरस्य ग्राहकः स क्रमग्राही भवेत् तथा च क्षणिकत्वमस्य स्यात् बौद्धस्यच काल एव नास्ति इति कथं तस्य क्रमग्रहः? भिन्नकालवस्त्वग्रहा(हे) कालाभावे चानेकवस्तुरूप एव कम (मः) तथा, नित्यस्यापि क्रमकर्तृत्वं न विरुध्यते-यथा च नित्यस्य क्रमकर्तृत्वादनेकरूपस्वात्(त्वं) तथा क्षणिकस्यापि स्यात् । अथ क्षणवद् द्वितीये क्षणे नित्यस्याप्यभावो भवेत् कार्या भावात् , अयुक्तमेतत् ; कालाभावाद् भवन्मतेन । भवतु वा ग्रहस्तथापि कथं क्रमाऽक्रमाभ्यां सत्त्वस्य १०व्याप्तिः क्रम-योगपद्यव्यतिरिक्तप्रकारान्तरेणाप्यर्थक्रियासंभवात् न च प्रकारान्तराभावनिश्चयो दृश्यानुपलम्भात् ततो विशिष्टदेशादावेवाभावनिश्चय!सक्तेः न सर्वत्र सर्वदा वा। नाप्यदृश्यानुपलम्भात् तदा(द)भावनिश्चयः तस्य संदेहहेतुत्वात् । तस्मान्नित्येषु क्रमाक्रम(मा)योगेऽपि संत्त्वानिवृत्तेः कथं सत्त्वस्य "क्षणिकभा(कस्वभा)वत्वं प्रमाणतः सिद्धं येनाऽन्वय-व्यतिरेकनिश्चयो भवेत् ? यद्यपि क्रमाक्रमाभ्यां सत्त्वस्य व्याप्तिः प्रकारान्तराभावात् "सिद्धा त्त(त)थापि क्रमाक्रमायोगो न नित्येषु १५ प्रत्यक्षादिना सिद्धः नित्यानामतीन्द्रियत्वात् तदसिद्धौ न तेषु सत्त्वनिवृत्तिसिद्धिस्तदसिद्धौ च न सत्त्वस्य क्षणिकस्वभावत्वसिद्धिः । किञ्च, सत्त्वात् क्रम-योगपद्यानुमानं स्यात् ताभ्यां तस्य व्याप्तत्वात् नेतु क्षणिकत्वानुमानम् तत्र क्रमकर्तृत्वासंभवादिति ।। ___ अत्र केचित् प्रतिविदधति-"प्रत्यक्षसिद्ध( ) एव क्रम-योगपद्ये । तथाहि-सहभावो भावानां योगपंद्यम् क्रमस्तु पूर्वापरभावः, स च ऋमिणामभिन्न एकप्रतिभासश्च तत्प्रतिभासः। अथै२० कप्रतिभासानन्तरमपरस्य प्रतिभासः क्रमप्रतिभासः नत्वेकस्यैव अतिप्रसङ्गात्, एवमेतत् किन्तु यदै. कप्रतिभासः न तदा परस्य, तदा तत्प्रतिभासे योगपद्यप्रतिभासप्रसक्तेः । तस्मात् क्रमिणोः पूर्वाऽपरशा. नाभ्यां ग्रहणे तदभिन्नक्रमोऽपि गृहीत एंव, केवलं पूर्वानुभूतपदार्थाऽऽहितसंस्कारप्रबोधात् 'इदमस्मादनन्तरमुत्पन्नम्' इत्यादिविकल्पप्रादुर्भावे क्रमो गृहीत इति व्यवस्थाप्यते । केंमे(मि)णोद्महेऽपि कथञ्चिदानुपूा विकल्पानुत्पत्तौ क्रमग्रहव्यवस्थापनायोगात् अत एव ऋमिणामेकग्रहेऽपि न २५क्रमग्रहो व्यवस्थाप्यते । अपि च, कथं कालाभ्युपगमवादिनोऽपि क्रमग्रहः सर्वकार्याणामेककालत्वात् ? न च भिन्नकालकारणोपाधिक्रमात् कार्यक्रमो युक्तः, कालस्याऽभिन्नत्वेनाभ्युपगमात् त(नत)द्योगाद् भावानां क्रमसद्भाव इति । न च पूर्वापररूपत्वात् 'कालः क्रमवान्' इति वक्तव्यम्, यतस्तस्याऽपि यद्यपरकालापेक्षः क्रमस्तदाऽनवस्थाप्रसक्तिः। अथ स्वरूपेण तस्य क्रमस्तथासति कार्या णामपि बहूनामसहायानां क्रमो भवेत् अस्माकं तु लोकप्रतीत्या 'पूर्वाह्न'आदिप्रत्ययविषयो महाभूत३० विशेषः कालोऽस्त्येव तद्भात् क्रमादिप्रतीतिर्युक्तैव । नापि नित्यस्य प्रकारान्तरेण कर्तृत्वसङ्गतिः यत एकदेशकार्यकारणानेक (?) करणे ह्यन्यदा प्रकारान्तरेण करणेऽङ्गीक्रियमाणे वस्तुना स्वभा. वभेदाद् भेदप्रसक्तिरिति नैकत्वम् पुनः पुनः कार्यकरणे च क्रम एव न प्रकारान्तरसद्भावः । न च १-नक्षणेम तत्पूर्व-भां० मा० ।-नक्षणेन त्पूर्व-वा० बा० । २ “न चैतच्छक्यं वक्तुम् क्रम-योगपद्ये एव भावानां न सिद्धे व्यतिरिक्तकालपदार्थानभ्युपगमादिति"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० १४४ पं० १५। ३ कालो भावा. बा०। ४ क्रम तथा हा० वि०। ५ क्षणस्यापि वा. बा०। ६ भव वा वा० बा०। ७-प्रसक्तेः तत्सर्वदा वा भां० मा० ।-प्रसक्तेः तत् सर्वत्र सर्वदा वा हा० वि०। ८ वादयुक्तह-वा० बा०। ९त. स्यानित्यत्वेषु वा० बा०। १० सत्त्वान्निवृत्तिः आ. हा. वि. । सत्त्वानिवृत्तेः भां० मां०। ११क्षणिकाभा-वा. बा०। १२ सिद्धो त-भां० मां० आ० । सिद्धो भिन्नथापि त्तमाक्रमायो न नित्ये-हा० । सिद्धो मिनथापित्तथापि त्तकमायो न नित्ये-वि०। १३-सिद्धिच वा. बा. विना। १४ न क्षहा०वि०। १५-पद्य क-वि. विना। १६-सश्चात-वा० बा०। १७-स अ-आ० हा० वि०। १८ एवं हा० वि०। १९-कल्प्यप्रा-भां० मा हा०।-कल्पाप्रा-वा. बा. आ०। २० क्रमेणोन-भां. आ. हा०वि०।. क्रमणोन-मां०। २१ विकल्पानुपपत्तौ वा. बा. विना। २२-कल्प्यानु-हा०। २३-त्वात् कालान् कालक-वा० बा० वि० विना। २४-दा-वा. बा. आ०। २५ कर्तृसं-वा. बा. विना। २६ कारणे । धन्यदा भां. मां० । कारणात्येक करणे व्यत्पदा वा० बा०। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। प्रकारान्तरे(रेण) 'नैकदा कार्य करोति पुनः पुनश्च करोति' इत्येवं करणमभ्युपगन्तव्यम् भावस्यावस्तुत्वप्रसक्तः सर्वदाऽकर्तृत्वात् । अथ 'एकदा कार्य करोत पुन(नः) पुनश्च न करोति' इति प्रकारान्तरेण करणमभिमतं तेथापि न यदा (पि यदा ) न करोति न तदा (ति तदा ) अवस्तु त्वमेव प्रसक्तम् । तस्माद घटादिः पदार्थोऽर्थक्रियाकारी क्रमाक्रमाभ्यां प्रत्यक्षसिद्धः स एवायम्' इति ज्ञानादक्षणिकश्च प्रतीयत एव । तस्यैककार्यकरणं प्रति यत् सामर्थ्य तत् तदैव न पूर्व ५ न पश्चात् तत्कार्याभावात् सामर्थ्य तु ततोऽव्यतिरिक्तमेव उत्तरकार्योत्पत्तावप्येवं द्रष्टव्यमिति सामर्थ्यभेदेन पदार्थभेदात् कथं न क्षणिक एव क्रमाक्रमयोनियमः? अतो यत्र सत्त्वं तत्र क्रमाक्रमप्रतीतावपि क्षणिकत्वप्रतीतिरेव, य एव क्षणिके क्रमाक्रमयोनियमो नित्येऽप्ययमेव न (?) योगः ततो घटादौ यदेतन्नित्यत्वं प्रतीतिविषयत्वेनाध्यव सितं तत् सत्त्वविरुद्धमिति क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधो नित्यस्य सिद्ध उच्यते । यथा च दृष्टेषु घटादिपु क्षणिकत्वव्याप्तं सत्त्वं तथाऽ-१० दृष्टेष्वप्यविशेषादिति सर्वोपसंहारेण व्याप्तिमवगत्य यथा यथा तेषु सत्त्वं निश्चीयते तथा तथा क्षणिकत्वानुमानम् यत्र च सत्त्वानिश्चयस्तत्र सत्त्वाशङ्कया शशविषाणादिष्विव न क्षणिकत्वप्रतीतिरन्यत्र प्रसङ्गसाधनात् । न च तत्राप्यनुमानवैयर्थ्य बाधकप्रमाणादेव क्षणिकत्वस्य (स्या)निश्चितत्वादिति वाच्यम् प्राग् गृहीतव्याप्तिकस्य सत्त्वनिश्चयमात्रेणैव क्षणक्षयाधिगतेर्बाधकप्रमाणवैयर्थ्यात् । ये तु विपक्षाद् व्यावृत्तत्वेन क्षणिकत्वव्याप्तिं सत्त्वस्य सर्वत्रावगम्य तत्रैव सत्त्वात् क्षणिकत्वमनुमापयन्ति तेषां १५ व्याप्तिग्राहकादेव प्रमाणा(णात्) क्षणक्षयस्य सर्वत्र निश्चितत्वादनुमानोत्थानमेव न स्यात् त्रैलोक्यस्य च सर्वस्य प्रत्यक्षत्वाद्धर्मसिद्धिश्च तेषां दोषः असिद्धश्च हेतुः प्राप्नोति पक्षीकृते च सर्वस्मिन् धर्मिणि बाधकं च स्यात् । यदि विपक्षाभावस्सिद्धस्तदा साध्यस्यापि सिद्धत्वादनुमानोत्थानंन स्यात् अन्यश्च धर्मी न सिद्ध इति कथं वा कस्य प्रवृत्तिरिति, यत् किञ्चिदेतत्; त(तत्) स्थितमेतत् सत्त्वविशिष्टस्य कृतकत्वस्य क्षणिकत्वेन सह तादात्म्य(त्म्यं) प्रमाणनिश्चितमिति कथं नान्वयव्यतिरेकनिश्चयः? यद्वा२० सत्त्वविशेषविलस्याऽपि कृतकत्वादेः क्षणपरिणामे साध्ये नानैकान्तिकत्वम् यतस्तस्य प्रथमे क्षणे य एव स्वभावो द्वितीयेऽपि क्षणे स एव चेत् तदा प्रथमक्षणवदभूत्वा भवनमेव प्रसक्तमिति क्षणिकत्वम् । अथ प्रथमक्षणे जन्मैव तस्य न स्थितिः द्वितीये स्थितिरेव न जन्म एवमपि क्षणिकत्वप्रसक्तिर्जन्म-जन्मिनोः स्थिति-स्थितिमतोश्चाभेदात् । न च द्वितीयेऽपि क्षणे जन्मव्यतिरेकेण स्थितियुक्ता। अथ तत्राऽपि जन्म तर्हि न तदा स्थितिद्धितीयादिक्षणभावित्वात् तस्याः एवमुत्तरोत्तर-२५ क्षणेष्वपि सर्वदोत्पत्तिरेव न स्थितिरिति क्षणक्षयित्वमेव उत्पत्तिश्च हेतुकृतेति तत्रैव कृतकत्वं(?) स्थितौ तस्मात् कृतकत्वस्याक्षणिकत्वविरुद्धत्वान्नानैकान्तिकत्वमिति सत्त्वानन्तर्भूतस्याऽपि कृतकत्वस्य व्याप्तिः प्रमाणनिश्चितेत्यत्राप्यन्वय-व्यतिरेकनिश्चयः। परे तु सत्त्वलक्षणस्य हेतोस्तादात्म्यस्वरूपः प्रतिबन्धो विपर्यये बाधकप्रमाणनिबन्धन इत्येवं वर्णयन्ति । यत्र क्रम-योगपद्यायोगो न तस्य क्वचित् सामर्थ्यम् अस्ति चाऽक्षणिकेषु सै यि(इ)ति तेषां३० सामर्थ्यविरहलक्षणासत्त्वसिद्धौ ततो निवृत्ती सत्त्वमर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणं क्षणिकेष्वेवाऽवतिष्ठत इति सत्त्वस्य क्षणिकत्वस्वभावतासिद्धिः अनेन हि बाधकेन प्रमाणेन सत्त्वविरोधमसत्त्व (सत्त्वविरुद्धमसत्त्वं ) क्षणिकेष्वाकृष्यते । न च विरुद्धयोरेकत्र समवधानमिति ततो विरुद्धानकान्तिकते अपि नाशङ्कनीये । अथ कथमर्थक्रियासामर्थ्य निवृत्ति(त्तिः) क्रम-योगपद्यनिवृत्तिनिमित्ता तयोस्तद्वथाप. १-काराणांतरे वा० बा० । २-श्च न करोति पुनः पुनः कारणमभ्यु-वा० बा० । ३-ति पुनश्च न क-वा. बा. हा० वि० ।-ति पुनः क-भां० मा०। ४-णममि-वा. बा. विना। ५ तदापि वा. बा. विना। ६-दा व-आ० हा० वि० ।-दा न करोति तदा वस्तु-वा० बा०। ७-दार्थभे त् क-भां० मां० हा० वि० ।-दार्थवत् क-आ०। ८-व तयो-वा० बा०। ९-दिष्विति क्ष-वा० बा०। १०-सङ्गासा-वा. बा०। ११-स्मिन्नध-वा० बा०। १२-पक्षोभा-वा० वा०। १३-न्यश्चाध-वा. वा. विना। १४ कस्य वृ-वा० बा०। १५-श्चिदेतत् स्थितमतत् स-भां० मा० ।-ञ्चिदेतत् स्थितमन सत्व-आ० हा० वि० । १६ यथा आ० हा० वि०। १७-कल्पस्या-आ०। १८-कमथ वा० बा०। १९-ति क्षयित्व-भां. मां । २०-कत्वं न स्थिते ते तस्मा-वा. बा० ।-कत्व स्थितौ भां० मां०। २१ सत्तेति वा. बा. विना। २२-सत्वो सिद्धो ततो वा. बा०। २३-सत्वं वि-आ०। २४-धमत्व-भा०मा० । ४२ स० त. Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ प्रथमे काण्डे कत्वात् ? अथात्राऽपि यदि व्याप्यव्यापकभावो बाधकान्तरनिबन्धनस्त(नस्त)दा बाधकान्तरं तत्राप्यन्वेषणीयम् तथा तदन्यत्रापि इत्यनवस्थाप्रसक्तेरप्रतिपत्तिः, असदेतत्; यतः क्रम-योगपद्याम्यां सामर्थ्यस्य व्याप्तिः प्रकारान्तरासंभवतो निश्चितेति कुतोऽनवस्था ? प्रत्यक्षबलादेव च प्रकारान्तरासंभवो निश्चितः । प्रत्यक्षस्याऽभावविषयत्वविरोधात् नेति चेत्, न; भावमेव क्रमेणेतरेण वा ५कार्योदयलक्षणं प्रतिपन्ना(पद्य) अध्यक्षेण द्वैराश्यव्यवस्थापनतः प्रकारान्तराभावसाधनात्। तथाहियथा क्रमेण योगपंद्येन वा स्वकार्यमुत्पादयन्तो घटादयो भावा अध्यक्षविषयतामवलम्बन्ते तदेतररूपविवेकिनो ज्ञानात्मनि तथैव प्रतिभासन्ते यतः स्वस्वभावव्यवस्थितयो नात्मानं परेण मिश्रयन्ते भावास्तस्याऽपरत्वप्रसङ्गात् तथा च सर्वत्र सर्वस्योपयोगादिप्रसङ्गः । न चाऽसाधारणरूपा ध्यासितेषु प्रतिभासमानेषु तेषु तत्राऽसतो रूपस्याऽवभासो युक्तः अहेतुकतापत्तेः एवं चाक्षसं. १० विदं (दां) प्रतिनियंतविषयता प्रमाणपरिदृष्टा हीयेत अहेतुकत्वे प्रतिभासस्य विषयान्तराऽवभासन प्रसक्तेः अक्षस्य नियामकत्वेप्य विद्यमानाऽनुकारणे(कारण) न संविद्वशादर्थात्म(त्मा )नः स्वरूप मासादयेयुरिति नियतार्थाध्यवसायतःप्रवृत्तानां नार्थक्रियाप्राप्तिः स्यात् मरीचिकादिषु जलाद्य(ध्य) वसायिनामिव । नापि सुख-दुःखप्राप्ति-परित्यागौ स्यातामिति क्रमवत्कार्यसामोदीयमानमध्यक्षं तद्रूपमेवानुकुर्वत् इतररूपा(प)प्रतिभासविविक्ततया स्वसंवेदनेन "संवेद्यमानं यथाऽनुभवं पाश्चात्य १५ विकल्पद्वयं जनयति तत एवं विभागः संपद्यते 'क्रमांवे(वि) तत् कार्य नोंक्रमम्' इति तस्मात् सर्वस्य तत्राप्रतिभासमानस्य 'यदेवं न भवति तत् क्रमभावि न भवति' इति सर्वस्येतरप्रकारतया व्यवस्थितेः सिद्ध एव तद्वयतिरिक्तप्रकारान्तराभावः अन्यथा तदन्यतया तस्य व्यायभावे स्वविषयव्यवच्छेदीत् तद्रूपतापरिच्छेद एव तस्य न स्यात् । परिच्छेदो हि तदसाधारणरूपानुकरणमेव तच नास्तीति तत्सद्भावे वा कथं न अतद्रूपव्यवच्छेदः? यतो नाकारान्तराऽसंसृष्टरूपानुकरणस्तदन्य. २० (णतः अन्यत् तदन्य)व्यवच्छेदनं नाम ततः सर्वस्य तदतद्रूपतया व्यवस्थितेः प्रकारान्तराभाव: कथं न सिद्धिमध्यास्ते? एवमितरप्रकारप्रतिपत्तावपि शेयम् । क्रमश्च तदन्यासाहित्यमुक्तः स चैकक्षणभाविनाप्यध्यक्षेण वस्तुस्वरूपं गृह्णता तद्व्यतिरिक्तो गृहीत ऐवेत्यप्युक्तम् । ___ यदपि 'उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वे प्रकारान्तरस्य देशादिनिषेध एव स्यान्नात्यन्ताभावः अनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वे विप्रकर्ष(र्षि)णां नाऽभावनिश्चय इति कुतोऽध्यक्षतः प्रकारान्तराभावसिद्धिः' २५ इत्युक्तम् , तदप्युक्तोत्तरमेव; यतः कार्यान्तरासाहित्यं कैवल्यमङ्कुरादेः क्रमः, योगपद्यमप्यपरैः बीजादिकार्यैस्तस्य साहित्यम्, प्रकारान्तरं च तदुभयावस्थाभावेऽप्यकुरादेरन्यथाभवनमध्यक्ष(क्षं?) तस्यान्यसहितश्च(स्य) केवलस्य चाडरादिखभावस्य भावस्य भाव उपलभ्यमान उपलब्धिलक्षणप्राप्त एव स्वभावःक्रम-योगपद्यस्वभाववहिर्भूतो नोपलभ्यते उपलभ्यवस्तुनोऽपरसाहित्ये कैवल्ये वा अपनीते १ बाधकान्तरनिबन्धनं तदा आ० हा०वि०। बाधनं तदा। २ क्रमेणान्तरेण वा वा. बा. विना । ३-पत्ताध्य-वा. बा. भां० मां०। ४-राश्यं व्य-आ० । द्वैराश्यं च"कृतकाकृतकत्वेन द्वैराश्य कैश्चिदिष्यते । क्षणिकाक्षणिकत्वेन भावानामपरैर्मतम्" ॥ -तत्त्वसं० का० ३५२ पृ. १३२ । "इह हि नैयायिकादयः क्षणिकमेकमपि वस्तु नास्तीति मन्यमानाः कृतकाकृतकत्वेन भावानां द्वैराश्यमव. स्थापयन्ति xxx । अपरैस्तु वात्सीपुत्रीयादिभिः क्षणिकाक्षणिकत्वेनापि भावानां द्वैराश्यमिष्यते"। -तत्त्वसं० पजि० पृ० १३२ पं० ५ तथा । ५-पद्येन स्व-वा० बा० विना । ६-म्बन्ते तदित-वि०।-म्बन्ते न तदे-वा. बा०। ७-किनऽज्ञा-वा०बा० । ८ एतदर्थक “सर्वभावाः खभावेन" इत्यादि-पद्यं पूर्व समायातम्-पृ. २४३ पं० १७ तथा टि. अं० २०-२१ । तदेव च पद्यं विद्यते सिद्धिवि० टी० लि. पृ. ५३ प्र० ५० १। तत्त्वोपप्लवे लि. पृ० १२० द्वि. पं०२। ९च सर्वस्यो-भा. मां० । १०-यतावि-वा० बा०। ११ प्रताण-आ० हा० । प्रतारण-वि०। १२ हीयते आ० वि०। १३-सक्तेरस्य नि-वा० बा० । १४-कारेणे वि० । १५-मादी-वा० बा० । १६ संविद्य-आ० । १७ एव हा० वि०। १८-भाव त-वा० बा०। १९ नाक्राम-वा० बा० विना। २०-दा त-वा० बा०। २१-नुकार-हा० वि० । २२-त्सभा-भां० मा. आ. हा० ।-त्साभा-वि० । २३ एवेत्युक्तम् आ० । २४-कर्षणा ना-हा० वि० । २५ पृ. ३२४ पं० १०। २६-स्तस्या सा-हा० वि०। २७-स्यान्य हि-वा. बा० विना। २८-स्वभावस्य भाव उप-हा० वि० ।-स्वभाव उप-वा० बा० । २९-हिर्भूते नो-वा० बा० । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। तद्विविक्तदेशाद्य(ध्य)वसायिनोऽध्यक्षस्यानुभवादभावसिद्धेः । अङ्कुरोदेस्तु(??)स्य कार्यस्य क्रमाक्रमभावव्यतिरेकेणाभावेऽन्यदाभावो न(??) क्षतिमावहति तस्मात् प्रत्यक्षत एव प्रकारान्तराभावसिद्धिः (द्धेः) क्रम-योगपद्ययोगेन कथं न सामर्थ्यस्य व्याप्तिर्भवेत् ? अत एवं न्यायाद् देश-कालविप्रकर्षिणो भावास्तथाविधं कार्य ये विद्धति क्रमेतराभ्यामन्यथा न ते कर्तुमर्हन्ति अन्यथा तस्यैवासम्भवात् । तथाहि-यद्यपि देशादिविप्रकृष्टता तेषां तथापि कार्यस्य भावो दृष्टकार्यधर्मव्यतिरेकेण न ५ सम्भवति कार्यमात्रस्य विशेषाभावात्, कार्यता हि कस्यचिद् भावे भवनम् तच्च अन्यसहितस्य केवलस्य वा नान्यथा इत्यत्र प्रत्यक्षाऽनुपलम्भतः सिद्धम् यथा च प्रत्यक्षानुपलम्भस्तद(?)भावभावित्वसिद्धेः कार्यतायामकुरादेः सर्वत्र तथैव तल्लक्षणव्यवस्थाविशेषाभावात् तथा कार्यस्य भावोऽपि प्रकारद्वयेन सर्वत्र नान्यथा विशेषाभावाद् भवनमात्रस्येत्यनुपलब्धिलक्षणप्राप्तानामपि क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियासामर्थ्यस्य व्याप्तिः। अनुमानतोऽपि सर्वत्र प्रकारान्तराभावः सिद्ध्यत्येव । तथाहि-१० अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकनिषेधेनापरविधानात् तस्याऽपि प्रतिषेधे विधि-प्रतिषेधयोरेकत्र विरोधादुभयनिषेधात्मनः प्रकारान्तरस्य कुतः सम्भवः? प्रयोगश्चात्र-यत्र यत्प्रकारव्यवच्छेदेन तदितरैकप्रकारव्यवस्थापनम् न तत्र प्रकारान्तरसम्भवः, तद्यथा नीलप्रकारव्यवच्छेदेनानीलप्रकारव्यवस्थायां पीते, अस्ति च क्रमाऽक्रमयोरन्यतरप्रकारव्यवच्छेदेन तदितरप्रकारव्यवस्थापनं व्यवच्छिद्यमानप्रकाराविषयीकृते सर्वत्र कार्यकारणरूपे भाव इति विरुद्धोपलब्धिः । व्यव-१५ च्छिद्यमानप्रकारेतरव्यवस्थापन प्रकारान्तरत्वं प्रकारान्तरंश्च (?) ततो बहिर्भावलक्षण इत्यनयोस्तथोऽन्यथारूपयोः परस्परपरिहारलक्षणत्वात् । न च अत्रापि बाधकान्तराशङ्कया अनवस्थानमाशङ्कनीयम् (??) पूर्वप्रसिद्धस्य विरोधस्य स्मरणमात्रत्वविरुद्धोपलब्धिषु हि धर्मिणि सद्भावमुपदर्शि विरोधमेव बाधकं(??) तस्माद् विरुद्धयोरेकत्रासम्भवात् प्रतियोग्यभावनिश्चयः शीतोष्णस्पर्शयोरिव भावाभावयोरिव वेति कुतोऽनवस्था? २० ____ अथ कथं क्रमयोगपद्यायोगोऽक्षणिकेषु भावेषूच्यते ? न तावद् अक्षणिकाः क्रमेणार्थक्रियाकारिणः अकारकावस्थाऽविशेषात् प्रागेव द्वितीयादिक्षणभाविनः कार्यस्य का( क )रणप्रसङ्गाच्च तत्कारकस्वभावस्य प्रागेव सन्निधानात् । न च तदैव सन्निहितोपा(त्पा)दकानां कार्याणामनुदयो युक्तः पक्षा(श्चा)दपि तत्प्रसक्ते(क्तेः)। न च सहकारिक्रमात् कार्यक्रमः इति वक्तव्यम् यतः सहकारिणः किं विशेषाधायित्वेन तथा व्यपदिश्यते(न्ते), आहोखिद् एककार्यप्रतिनियता(मा)-२५ चक्षरादय इवाक्षेपकारिणः स्वविज्ञाने ? तत्र यदि प्रथमो विकल्पः, स न युक्तः, तज्जनितविशेषस्यार्थान्तरत्वप्रसक्तेः यतो नै तस्मिन्निष्पन्ने पश्चान्निष्पद्यमानो भिन्नहेतुको वा तत्स्वभावो युक्तः "अयमेव हि भेदो भेदहेतुर्वा विरुद्धधर्माध्यासः कारणभेदश्च” [ ] ततश्चेन्न भेदो न क्वचिदप्ययं भवेत् अन्यनिमित्ताभावात् । प्रतिभासभेदादिति, ननु प्रतिभासभेदोऽपीतरेतरप्रतिभासाभावरूपतया विरुद्धधर्माध्यासरूपता(तां) नौतिवर्त्तते, भेदे वा(चा)तिशयस्य तद्वस्थ एवासौ भाव ३० १-रादेस्तु म्य का-आ० ।-रादेस्तु म्य का हा० ।-रादे स्य का-वा० या० ।-रादेस्तु म-वि०। २-वन न्या-वा. बा० । ३-था ते वा. बा० । ४-महति वा बा० आ०। ५-कार्यस्या भा-आ० हा०वि०। ६ दृष्टा का-हा०। ७-तस्या के-वा० वा०। ८-म्भतस्त-वा० बा०। ९ वाद् भवनकार्यस्य भावि प्रकार-वा० बा०। १०-त्र यत्र त् प्रका-वा० वा. भां० मां०। ११-लब्धि व्यव-वा. बा० ।-लब्धि विद्य-वि०।-लब्धि द्यमान-आ. हा०। १२-स्थापनं रतत्वं प्रकारान्तरत्वं प्रकारान्तरश्च संभवश्च ततो वा. बा० ।-स्थापनं प्रकारेतरव्यवस्थापन प्रकारान्तरश्च ततो भां० मा०। १३-थारू-आ० वा. बा० विना। १४-लब्धि हि आ० हा० वि० । १५ तस्मा यनतरं प्रकारान्तरकत्रा संभ-वा. बा०। १६-वयोरिवेति आ०। १७-धानन्न च वा. वा.। १८ कार्याक्र-वा. वा०। १९ प्रमेयक. पृ. ४ प्र० पं० ४। २०-था व्युप-वा. बा.। २१ इव क्षेप-वा. बा.। २२-न्तरप्र-वा. बा.। २३ न भाव इति पश्चान्निष्पद्यमानो वा० बा०। २४-भावात् प्रतिभासमेदोपीतरेतर-वा० बा०। २५ नाति प्रवर्त-वा० बा०। २६ “भेदे सम्वन्धासिद्धेस्तदवस्थमेव अकारकत्वमेतेषां पूर्वावस्थायामिव पश्चादपि अनुषज्यते"प्रमेयक.पृ०४प्र.पं०५।२७-शयतदवस्था एवा-वा० बा० । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ प्रथमे काण्डेइति पश्चादप्यकारकः पूर्वावस्थायामिति(मिव) । तस्मादेवातिशया(यात्) कार्यस्योत्पत्तेस्तत्र भावे कारकव्यपदेशो विकल्परचित एव भवेत् । अथ द्वितीयो विकल्पोऽभ्युपगमविषयः, सोऽपि न युकः, यतो न नित्यानामेककार्य प्रतिनियमलक्षणं सहकारित्वमस्माभिरपहृयते किन्तु अक्षणिकत्वे प्राक् पश्चात् पृथग्भावसम्भवात् ५ कार्यस्य तथा क्रियाप्रसङ्गन 'सहैव कुर्वन्ति' इति सहकारित्वनियमो न युक्तिसङ्गतो भवेत् यतो न ति (ते) साहित्येऽपि पररूपणैव कार्यकारिणः स्वयमकारकाणामपरयोगेऽपि तत्कारित्वासम्भवात् सम्भवे वा परमार्थतः कार्य निर्वतको भवेत्, स्वात्मनि तु कारकत्वव्यपदेशो विकल्पनिर्मित एव भवेत् । एवं च नास्यानुपकारिणो भावं कार्यमपक्षेतेति तद्विकलेभ्य एव सहकारिभ्यस्तत् समुत्पद्येत अथवा तेभ्योऽपि न भवेत् स्वयं तेपामप्यकारकत्वात् पररूपेणैव कर्तृत्वाभ्युपग१०मात् । अतः सर्वेषां स्वयमपकर्तृकत्वा(मकर्तृत्वात् ) पररूपेणाप्यकर्तृत्वात् सर्वथा कर्तृत्वो. च्छेदतो न कुतश्चित् किञ्चिदुत्पद्यत । तस्मात्' स्वरूपेणैव कार्यस्वभावाः कर्त्तार इति न कदोचित् तक्रियाविरतिरिति कुन एकार्थक्रियाप्रतिनियमस्वरूपमक्षणिकानां सहकारित्वम् ? सामग्रीजन्यस्वभावतया कार्यस्य तस्याश्चापरापरप्रत्यययोगरूपतयायोग( याऽयोगे) प्रत्येक तक्रियास्वभावत्वेऽप्यनुत्पत्तिरिति चेत्, व्याहतमेतत्; यतोऽयमेकोऽपि क्रमभाविकार्योत्पादने १५समर्थः ततः कथमेपां भिन्नकालापरापरप्रत्यययोगलक्षणानेकसामग्रीजन्यस्वभावता? एकेनापि तेन तजननसामर्थ्य (y) विभ्राणेन तानि जनयतन्मानि(जनयितव्यानि) न ह्यन्यथा केवलस्य तजनन· स्वभावता सिध्यति, तस्याः प्रा(स्याः कार्यप्रादुर्भावानुमीयमानस्वरूपत्वात् कार्याणि च कारणान्तराण्यपेक्षमाणानि कथमयमुपेक्षते? अनादृत्य तानि हठादेव जनयेत् कार्याणि । यो हि यन्न जनयति नासौ तजननस्वभावः, न चायं केवलः कदाचिदप्युत्तरोत्तरकालभोवीनि प्रत्ययान्तरापेक्षाणि कार्याणि २०जनयतीति तत्स्व(तिन तत्स्व )भावो भवेत् । अतत्स्वभावश्च प्रत्ययानन्त(यान्तरसन्निधानेऽध्यत्यतरूपो नैव जनयेत् । स च केवलोऽपि तज्जननस्वभाव इति ततस्तेषामुत्पत्तिं ब्रु(ब)वीषि कार्याणि च सामग्रीजन्यस्वरूपतया सामग्र्यन्तराणि अपेक्षन्त इति ततः केवलादनुत्पत्तिं वदसि एते चोत्पत्ति-अनुत्पत्ती तर्जन्यत्वातजन्य(न्यत्व )स्वभावते विरुद्ध कथमेकत्र स्याताम् ? अथ कारण(णैः) हेत्वन्तरापेक्षकार्यजननस्वभावोऽयमुत्पादित इति केवलो न जनयति, न च सहकारि सहिताऽस. (ब)वीषि कार्याल ततः केवलाद यत्व)स्वभाव १ "विभिन्नातिशयात कार्योत्पत्ती चात्र कारकव्यपदेशोऽपि कल्पनाशिल्पिकल्पित एव"-प्रमेयक पृ० ४ प्र. पं०६। २-कार्य आ०। ३ "एकार्थकारित्वेन त्वेषां सहकारित्वं नास्माभिः प्रतिक्षिप्यते किन्तु अपरिणामित्वे तेषां प्राक् पश्चात् पृथग्भावावस्थायामपि कार्यकारित्वप्रसङ्गतः सहेव कुर्वन्तीति नियमो न घटते"-प्रमेयक० पृ. ४ प्र. पं०७। ४-न्ति स-वा. बा०। ५ "न खलु साहिलेऽपि भावाः पररूपेण कार्यकारिणः खयमकारकाणामन्यसन्निधानेऽपि तत्कारित्यासंभवात्"-प्रमेयक० पृ. ४ प्र० पं० ८। ६ परमार्थः आ० । “संभवे वा पर एवं परमार्थतः कार्यकारको भवेत्"-प्रमेयक० पृ. ४ प्र. पं० ९। ७ एव च भां. मां०। ८-स्यानुपकारिणा आ० हा० वि० ।-स्यानुसारिणो वा. बा० । ९ भावकार्य-वा० बा० हा० । “खात्मनि तु कारकव्यपदेशो विकल्पकल्पितो भवेत् तथा च अन्यस्यानुपकारिणो भावमनपेक्ष्यैव कार्य तद्विकलेभ्य एव सहकारिभ्यः समुत्पद्येत"प्रमेयक० पृ. ४ प्र. पं. ९। १०-कर्तृपर-बा. बा. विना । “अतः सर्वेषां खयमकारकत्वे पररूपेणापि अकारकत्वात् तद्वाभेच्छेदतो न कुतश्चित् किञ्चिद् उत्पद्येत"-प्रगेयक० पृ० ४ प्र. पं० १०। ११-रूपेणेवा का-हा. वि० ।-रूपेणैवा का-आ० । १२-दाचित क्रि-वा० बा०। १३-या योगारूपतया योगरू तक्रियावा. बा० । "तस्याश्च अपरापरप्रत्यययोगरूपत्वात् प्रत्येकं नित्यानां तक्रियास्वभावत्वेप्यनुत्पत्तिस्तेषामिति-"प्रमेयक. पृ० ४ प्र. पं० १२। १४ यतो यामेको वा० बा०। १५-मर्थ ततः वा. बा. विना। १६-णानेका सा-वा० बा०। १७ तानि जनयतनि न ह्य-वा० वा. विना । “एकेनापि हि तेन तजननसामर्थ्य बिभ्राणेन तानि उत्पादयितव्यानि"-प्रमेयक० पृ. ४ प्र. पं. १३। १८ "तस्याः कार्यप्रादुर्भावानुमीयमानस्वरूपत्वात्"प्रमेयक पृ० ४ प्र. पं० १४ । १९-नयेत आ०। २०-भावीति वा. बा. विना। २१-यन्तीति वा० बा०। २२ भवेत् तत्-वा० बा०। २३-यानतर-वा० बा० ।-यांनतर-हा० । २४-प्यभ्यक्त-भां० मा० । २५-त्पत्ति घवीषि वा० बा० ।-त्पत्ति वीषि आ. हा० वि०। २६ तजन्यस्वभावत्वे विरुद्ध वा. बा. विना। २७-रणे हे-वा. बा० विना। २८-कारिसहितावस्थयोरस्य स्वभावप्रत्ययान्तरापेक्षस्वभावजननस्वभावतायाः सर्वदा वा० बा० । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३२९ हितावस्थयोरस्य स्वभावभेदः प्रत्ययान्तरापास्वकार्यजननस्वभावतायाः सर्वदा भावात् , असार मेतत् ; यतः प्रत्ययान्तरसन्निधापि(धानेऽपि) स्वरूपेणैवास्य कार्यकारिता; तच्च प्रागप्यस्ति प्रत्ययान्तरापेक्षायाश्च ततो लभ्यस्यात्मातिशयस्याभावतोऽयोगात् उपकारलक्षणत्वादपेक्षायाः अन्यथाऽतिप्रसक्तेः । तत्सन्निधानस्यासन्निधानतुल्यत्वाच केवल एव कार्य किं न करोति ? अकुर्वश्च केवल: सहितावस्थायां च कुर्वन् कथं न भिन्नस्वभावो भवेत् ? अपि च, यदि सहकार्यपेक्षा कार्यजननस्व- ५ भावता तस्य सर्वदा अस्ति तदा सर्वदा कार्योत्पत्तिप्रसक्तिः । अथ सहकारिसन्निधान एव तत्स्वभावता कथं न स्वभावभेदा(दात्) वस्तुभेदं(दः) स्वभावस्यैव वस्तुत्वात् ? तस्मात् सहितावस्थायाः स्वरूपेणोपकारकस्य प्रागपि तत्स्वभावत्वे कार्यक्रियाप्रसङ्गानाक्षणिकस्य क्रमेण कार्यक्रियासम्भव ति (इति) न क्रमयोगः। यौगपद्यमपि तस्याऽसङ्गतम् द्वितीयादिक्षणेषु तावत एव कार्यकलापस्योदयप्रसङ्गात् हेतोस्तजननस्वभावस्याप्रच्युतेः । सन्निहितसकलकारणानां वा(चा)नुदेयोऽयुक्तः प्रथ-१० मक्षणेऽपि तद्भावापत्तेरिति क्रम-योगपद्यायोगादक्षणिकानामा(र्थ)क्रियासामर्थ्य विरहलक्षणमसत्त्वमायातमिति संत्वलक्षणः स्वभावहेतुः क्षणिकतायां बाधकप्रमाणबलानिश्चिततादात्म्यो विशेषलक्षणभाक् कथं न प्रतीतः? अथाक्षणिकानामिव क्षणक्षयिणामप्यर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणं सत्वमनुपपन्नमेव, क्रमायोगस्य तत्रापि तदवस्थत्वात । अतो न क्षणिका अपि परैरं(र)नाधीयमानस्वरूपभेदाः सामर्थ्यक्रिया-१५ प्रक्रान्तप्रकारमुत्पादयितुं शक्ताः, न च प्रतिक्षणोदयं विभ्राणाः परस्परतो विशेपमासादयन्ति भावभेदप्रसङ्गात् । तथाहि-असौ विशेषस्तेषां प्रागुत्पत्तेः, पश्चाद्वा? न तावत् प्राक् तेषामेव तदाऽसत्त्वात् । पश्चात् तत्स्वरूपस्याकार्यत्वात् तदुपहितानुपहितक्षणानामविवेकादिति न सहकारिमिरुपकारः । ततो निर्विशेषाणां न क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाकारित्वलक्षणं सत्त्वम् । तदुक्तं च"कः शोभेत वेदनेवं यदि न स्यादहीकता। २० अशा(श)ता वा यतः सर्व क्षणिकेष्वपि तत्समम्" ॥ [ "विशेपहेतवस्तेषां प्रत्यया न कथञ्चन । नित्यानामिव युज्यन्ते क्षणानामविवेकता" ॥ "क्रमेण युगपञ्चैव यतस्तेऽर्थक्रियाकृतः। न भवन्ति ततस्तेषां व्यर्थः क्षणिकताश्रमः" ॥ [ ] इति २५ तदयं सत्ताहेतुरसाधारणानकान्तिकः क्षणिकाऽक्षणिकयोरभावात्, प्रकारान्तराभावाच्च न ताभ्यां व्यतिरिच्यत इति संशयहेतुस्तयोरिति, असदेतत्; यतो नैवमुपकारः क्षणिकानामभ्युपगम्यते । तथाहि-उपकारः समग्रकारणाधीनविशेषान्तरविशिष्टक्षणान्तरजननम्; तच्च कथममिन्नकालेषु परस्परं क्षणिकेषु भावेषु भवेत् काय-कारणयाः परस्परकालपरिहारणावस्थानां(नात्) ततः सामग्र्या एवं जनकत्वादेकस्य जनकत्वाविरोधादव्यवधानदेशाः समग्र(?) एव प्रत्येकमितरेतर-३० सहकारिणः खं खं क्षणान्तरं विशिष्टमारभन्ते तदपि चोत्तरोत्तरं तथैव तथैवान्यविशिष्ट कारणमेदाद् भेदसिद्धेः । यथा चक्षुरादयो बीजादयश्चातकि(श्चाऽकि)श्चित्करेभ्यः सन्निहितेभ्योऽपि न १-क्षत्वास्व-हा०वि०। २-ताया स-आव्हा०वि०। ३-रसन्नेपि स्वरूपेणेवा-हा०वि०।-रसतपि स्वरूपेणेवा-आ० । रसन्नपि स्वरूपेणैवा-भां० मा० । “यतः प्रत्ययान्तरसन्निधानेऽपि खरूपेणैवास्य कार्यकारिता"-प्रमेयक पृ०४ द्वि. पं०३। ४-याचा त-आ०। ५-थाति धानस्या-मां०। ६सका-आ. विना। -चमेस्तु भेदस्त्वभावस्येवस्तुभेदस्त्वभावस्यैव वस्तुत्वात् तस्मात् वा. बा० । ८-स्थाया स्व-वा० बा०। ९-मयोगा यौ-वा० बा०। १०-च्युतेऽस-वा. बा.। ११-दयो यु-वा. बा. विना। १२-काना अपि परैरनार्थ्यविरह-वा० बा०। १३-सत्ताल-वा० बा० हा० । सत्वाल-वि० । १४ अथ क्ष-आ. विना । १५ परैरनीयमान-वा. बा. विना। १६-कारित्वं ल-वा. बा. भां० मां। -कारित्वा ल-हा०वि०। १७-दन्नेव वा० बा० भां० मा० हा०। १८-नामिद यु-आ० हा०वि०। १९ व्यतिरिक्तत-वा. बा. विना। २०-काराः आ० हा०वि०। २१-मनाका-मां०। २२-तरंज-आ० हा. वि.। २३-स्पर क्ष-भा० मां. हा०। २४-षु भवेत् वा. बा० विना। २५-वस्थां ततः वा. बा०। २६-नदेश्य: आ० हा०वि०। २७-रभते हा०वि०। २८-तरं तथैवान्य-वि०। २९- श्वात किञ्चिभा० मा० आ० ।-श्रात् किञ्चि-वा. बा.। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० प्रथमे काण्डेकार्यप्रभवस्तत्सन्निधानस्याकिञ्चित्करत्वात् । न च परस्परसहकारित्वेऽप्यव्यवधानतः क्षणिकानां विशिष्टक्षणान्तरारम्भकत्वमयुक्तम्, प्रथमक्षणोपनिपातिनां क्षित्यादीनां परस्परतः तथाभूतक्षणान्तरजननस्वभावातिशयलाभाभावान्निर्विशेषाणां विशिष्टक्षणान्तरजननायोगात् योगे वाध्यमा. णामपि तत्प्रसङ्गो विशेषाभावादिति वक्तव्यम् मा यतः (व्यम् यतः) किं कार्योत्पादानुगुणविशेष५विरहानिर्विशेपास्तदु(स्त उ)च्यन्ते, आहोस्वित् तदुत्पत्तिनिबन्धनविशेषवैकल्यात्, उत विशेषमात्राभावात् ? तत्र यद्याद्यः पक्षः स न युक्तः, यतो नास्मन्मते कारणस्थमेव कार्य व्यक्तिमात्रमनुभवति यतस्तदभावे न स्यात् ; अपि तु कारणं कार्यरूपविकलमेव कार्यमारभते सतः क्रियाविरोधात् भिन्नस्वभावत्वाच्च कारणात् कार्यस्य । द्वितीयपक्षाभ्युपगमोऽप्ययुक्तः यतोऽव्यवहितः क्षित्यादि कारणा(ण)कलापः कार्योपा(त्पा)दानुगुणविशेषजननसमर्थो हेतुस्तद्भा(??)वास्तत्प्रत्यक्षाऽनुपल१०म्भतः सिद्धः, केवलमत्र विवादः 'क्षित्यादयः किं क्षणिकास्तथाभूतविशेषारम्भकाः आहोस्विदक्षणिकाः' इति तत्र च साहित्येऽपि न ते पररूपेण कर्तारः, स्वरूपं च तेषां प्रागपि तदेवेति कथं कदाचित् क्रियाविरामा इति क्षणिकतैव तेषामभ्युपगमनीया । अथ तेषां समर्थहेतुत्वम् कुतः? परस्परोपसर्पिण्याद्याश्रयप्रत्ययविशेषात् तदन्वय व्यतिरेकाऽनुविधानदर्शनात् तेषां च न प्राक् पश्चान्न पृथग्भावः कारणाभावादिति नान्यदोदयप्रसङ्ग(??) प्रत्येकं चेति तृतीयपक्षोऽप्ययुक्तः अपरापर१५ प्रत्यययोगतः प्रतिक्षणं भिन्नशक्तीनां भावानां कुतश्चित् साम्यादेकताप्रतिपत्तावपि भिन्नस्वरूपत्वात् । नहि कारणानां भेदेऽप्येकरूपतैव भावस्याऽनिमित्तताप्रसङ्गात् । तथाहि-(??)यदि न कारणभेदभेदादपि नाभेदः भेदस्वरूपं (??) च कार्यम् तच्चेद् अहेतुकं विश्वस्य वैश्वरूप्यमहेतुकं भवेत् न च कदाचित् किश्चित् एकमेव वाताऽऽतपशीतादीनां यथासम्भवं सर्वत्र भेदकारणानां भावात् । ततः प्रतिक्षणं स्वभावभेदात् किश्चिदेव कस्यचित् कारणम् न सर्व सर्वस्येति क्षणिकानामेवार्थ२० सामर्थ्यलक्षणं सत्त्वं सम्भवतीति नाऽसाधारणानकान्तिकता सत्त्वस्य । अथ क्षणिकानां क्षित्या. दीनां एकदैककार्यक्रियायां सर्वेषामभिन्नेनैवात्मना तत्रोपयोगोऽभ्युपगन्तव्यः अन्यथा कारणभेदात् कार्यस्यापि भेदप्रसक्तिः स चैका(षा)मेकभावेप्यस्ति न च तदैकं कार्य जनयति सर्वेषां भाव इति(?) तत् कारणात् अतैस्तस्य सामान्यात्मनः कदाचित् कार्यकारिणोऽप्यभेदादर्थक्रियासामर्थ्यात् त्वसत्त्वमिति अनैकान्तिकता हेतोः, असदेतत्; यतः किमिदं कारणं भवताऽभिप्रेतम् भेदो वा यद्२५ भेदात् कार्यस्यापि भेदः प्रतिपाद्यते? यदि चक्षु दिकं प्रत्येकं तदवस्थाभावि कारणम् भेदश्चानेक त्वात् तदा नायं नियमः-अनेकस्माद् भवताऽनेकेनैव भवितव्यम् विपर्यये बाधकप्रमाणाभावात् 'एकेनैवैकं कर्त्तव्यम्' इत्यत्रापि न नियमैकारणमुपलभ्यते । "किञ्च, 'एकमेकं करोति' इति कुतोऽवगतम् ? तद्भावे तस्या(स्य) भावादिति चेत् समानमेतदनेकत्र । तथाहि-एकमङ्कुरादि कार्यमगी कृत्य विशिष्टक्षणान्तरोत्पादनलक्षणेनाऽतिशयाधानेन क्षित्यादीनां प्रवृत्तिः तत्र स्वहेतुपरिणामोपा३०त्तधर्माणस्तवस्थाप्राप्तास्तस्यैवैकस्य जनने समर्थाः समुत्पन्ना(नाना) न्यस्येति नापरं तद् जनयन्ति, १-प्रसव-आ० विना। २-प्यव-वा. बा. विना। ३-वावतिश-वा० बा०। ४-वा निर्वि-वा. बा०। ५-सङ्गा वि-वा० बा०। ६-क्तव्यं मा यातः भां. मां० ।-क्तव्यमायातः आ० ।-तव्यमायात किं हा०वि०। ७-गुणावि-हा० वि०। ८-गमो यु-वा० बा। ९-द्भावाप्रत्यक्षा-वा० बा० ।-द्भावाप्तत्प्रत्यक्षा-हा० ।-द्भावात्प्रक्षा-वि० । द्भावात् तत्प्र-वि० सं०। १०-क्रियवि-वा० बा० । “ततः स्वरूपेणैव भावाः कार्यस्य कर्तार इति न कदाचित् तत्कियोपरतिः स्यात्"-प्रमेयक० पृ० ४ प्र० पं० ११। ११-सर्पणाद्यावा० बा०। १२-श्रयविशे-वा० वा०। १३-धानाद-वा० बा० विना। १४-च प्राक पश्चान्न पृ-वा० बा० विना। १५-रूपान्न हि वा. बा. विना। १६ कारणभेदभेदादपि नाभेदा भेदखस्वरू-वि० । कारणभेदभेदाऽभेदादपि नाभेदो भेदाभेदखरू या. बा० । कारणभेदभेदाऽमेदापि नाभेदादपि नामेदाभेदस्वरू-भां० । कारणभेदभेदोऽभेदादपि नामेदादपि नाभेदाभेदस्थरू-मां। १७ कार्य तो वेदहेतुको विवा. बा०। १८-कमेव वाचातातपशीतादीनां आ० ।-कमेव शीतातपवातादीनां वा० बा० । १९ क्षणिकानामेकदैक-भां० मा०। २०-स्यापि मेदाप्र-आ० हा० वि०। २१-कामेष भा-वा. बा० । २२त तस्य वा० बा०। २३-सामर्थ्यास्त्वसत्व-आ० ।-सामर्थ्यात्वसत्व-वा. बा. हा० ।-सामर्थ्यात्वेसत्ववि०। २४-रादिकं तद्-वा० वा. आ. विना। २५-मकारिणामुप-वा० बा०। २६ किचिए-वा० बा० । २७-क्षणोनाति भां. मां.विना। २८ तव ख-वा. बा.। २९-न्यस्यैति आ० हा०वि०। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३३१ न वानेकोद्भुतं तद् अनेकमासज्यते यतः 'न कारणमेव कार्य भवति' इत्येतदस्मदादिभिरभ्युपेयते येनानेकपरिणतेरनेकरूपत्वात् कार्यस्याप्यनेकत्वप्राप्ति(प्तिः) किन्तु केपुचित् सत्स्यपूर्वमेव किञ्चित् प्रादुर्भवति तद्भाव एव भावात् तत्कार्यमुच्यते इति नानेकताप्रसङ्गः। यदि त्वेष्वभिन्नं रूपं जनकं स्यात् तदाँ तस्यैकस्थितावपि भावात् तत्कार्यजननस्वभावत्वाच्च विशेषान्तरविकल्पा(ला)दपि ततः कार्योदयप्रसक्तिः अन्यस्तन्नि(न्यसन्नि)धावपि तस्य विशेषाभावात् तदवस्थायामपि वा न जनयेत् ५ अतो यद्भावाऽभावानुविधायि यत् दृष्टं तत् कार्यम् त एव च विशेषास्तस्य जनका इति कुतोऽनेकान्तः? अथ सामग्रीमाश्रित्य न कारणभेदात् कार्यभेदः स्यादित्युच्यते, तदप्यसत्; सामग्रीभेदे कार्यभेदस्येष्टत्वात् कार्यस्याप्यनेकसामग्रीजनितस्यानेकत्वात् तद्वैलक्षण्ये च तस्यापि विलक्षणत्वात् । तस्मात् न सत्तालक्षणस्य हेतोरनैकान्तिकता। नापि विशेपलक्षणविरहः प्रमाणनिश्चितस्य तन्मात्रानुबन्धस्य स्वभावहेतुलक्षणस्य सद्भावात्। __ यदप्युक्तम् 'कार्यहेतुप्रतिपाद्योऽपि प्रतिक्षणं ध्वंसो न भवति क्षणिकत्वेऽक्षदृशोऽप्रवृत्तेः कार्यकारणभावस्य च प्रत्यक्षानुपलम्भसाधनत्वात्' इति, नदप्यसंगतम् ; यतो यदि सर्वत्र प्रत्यक्षानुपलम्भसाधन एव कार्यकारणभावस्तदा चक्षुरादीनां स्खविज्ञानं प्रति कुतः कारणताप्रतिपत्तिः ? अथ तद्विज्ञानस्याऽन्येषु सत्स्वपि हेतुषु कादाचित्कतया तव्यतिरिक्तकारणान्तरसापेक्षत्वाच्चक्षुरादीनां तंत्र हेतुत्वमनुमीयते स तीहापि न्यायः समानः। तथाहि-विषयेन्द्रियादिवशात् प्रतिक्षणविशरारूणि १५ क्रमवन्त्युपजायमानानि शानानि तथाविधकारणप्रभवत्वमात्मनः सूचयन्तीति कथं (थं न) कार्यहेतुः क्षणध्वंसितां चक्षुरादीनां प्रतिपादयेत् ? कार्यक्रमाद्धि कारणक्रमः प्रतीयमानः कथं कार्यहेतुश्चलप्रतीतिर्भवतीत्यलमतिनिर्बन्धेनाऽज्ञप्रलापेषु । यदप्युक्तमें 'असतोऽजनकत्वान्न क्षणविशरारोः कार्यप्रसवः' इति, तदनभ्युपगमादेव निरस्तम् । यच्च 'अविनष्टा(टान) द्वितीयक्षणव्यापारसमावेशवर्तिनः कार्यप्रभवाभ्युपगमे क्षणभङ्गभङ्गप्रसङ्गः' इत्यभिहितम् , तदप्यसङ्गतम् ; यतो यदि व्यापार-२० समावेशाद् भावाः कार्यनिव()तका भवेयुस्तदा (??) कार्योत्पादने द्वितीयक्षणप्रतीक्षाया स्यादयो दोषा यावता प्रसवव्यापारसमावेशलक्षणदोषो (??) द्वितीयसमयप्रतीक्षाव्यतिरेकेणापि खमहिम्नव कार्यका(?) रणे प्रैवर्तन्ते एवान्यथा द्वितीयक्षणभाविव्यापारजननेऽप्यपरव्यापारसमावेशव्यतिरेके. णाप्रवृत्तेस्तत्रापि व्यापारान्तरसमावेशकल्पनातोऽनवस्थाप्रसक्तेः अपरापरव्यापारजननोपक्षीणश. क्तित्वान्न कदाचनापि कार्यं कुर्युः। अथापरव्यापारनिरपेक्षा एवैकं व्यापार निव(व)त्तयन्ति तथा-२५ सति कार्येण किमपराद्धं येनाद्यव्यापारनिरपेक्षास्तदेवें न जनयन्ति ? पारम्पर्यपरिश्रमाऽप्यै(मोऽप्येषामेवं परिहतो भवति । पदार्थव्यतिरेकेण चोपलभ्य स्वभावं व्यापारमभ्युपगच्छतः प्रत्यक्षविरोधश्च । न च व्यापारमन्तरेणार्थक्रिया नोपपत्तिमतीति वक्तव्यम् व्यापारेणैव व्यभिचारात् । तथा, व्यापारस्याप्यपरव्यापारमन्तरेणापि यदि कार्ये प्रवृत्तिः-अन्यथाऽत्राप्यनवस्थाप्रसङ्गात् कार्यानुत्पत्तिः स्यात्-ता( दा) व्यावृत्त(पृत ?)पदार्थस्यापि तमन्तरेणैव सा भविष्य-३० तीति व्यर्थ व्यापारपरिकल्पनम् तत्स्वभावत एवं स्वकार्यकारिणो भावा न व्यापारवशात् ते च स्व १ नचा-वि० । २-सज्यन्ते हा० वि०। ३-दस्मादिरभ्यु-वा० वा०। ४ प्राप्तिं वा० बा । प्राप्त आ० । ५-चित् सस्वपू-आ० ।-चित सत्स्वत्पू-वा. वा०। ६ यदि तु तेष्वमि-आ० । यदि तु वेमिहा० वि०। ७-दात्तस्यै-वा० बा०। ८-दये प्र-वा. बा. विना। ९ नयति वा० बा०। १० यद्भावाभावात्वाविधा-आ० । यद्भावाभावात्वविधा-वि०। यद्भावानुविधा-वा० वा०। ११-मग्रीनाधिस्या न आ० विना। १२-स न सा-वा० बा। १३ तस्यानेकत्वात् त (न) सता(त्ता) लक्ष-वा० बा० । १४ तन्न सत्ता-वि.। १५-षणल-वा. बा०। १६ पृ० ३१८ पं० १६। १७-क्षणं त्वंसो वा. बा। १८ तत्र भवमनु-वा० बा०। १९-मानानि तथा-वा० बा० विना। २० क्षणिध्वं-वा० बा०। २१-णध्वं. सिनां चक्षु-आ० हा० वि० ।-णध्वंसिनो चक्षु-भां० मा०। २२-पादत् का-वा० वा०। २३ पृ. ३१८ पं० १८। २४ यद्वा वि-भां. मां०। २५ पृ. ३१८ पं० १८। २६ प्रतीक्षास्यादयो दोषो यावता वा० बा० । प्रतीक्षाया स्यादयो दोषो यावता वि.। २७-महिमैव आ० विना।-महिमेवं का-वा०। २८-रणा प्र-वा. बा.। २९-वर्तते हा० । ३०-च ति ज-वा० बा०। ३१-श्रमाच्चैषामेवं आ• विना। ३२-या नोपरपपत्ति-(नोपपत्ति-) वा. बा.। ३३-था व्यापारमन्तरेणापि आ० हा० वि० विना। ३४-था व्रत प-वा० बा०। ३५ स्थापि मन्त-आ० विना। ३६ एवं आ० हा० वि०। ३७-शास्ते च वा. बा. विना । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ प्रथमे काण्डेहेतुभ्य एव तथाविधाः समुत्पन्नाः स्वसन्निधिमात्रैव(मात्रेणैव) कार्य निव(वै)तयति (यन्तीति) कुतः क्षणभङ्गभङ्गप्रसङ्गः ? न चानष्टात् कारणादुपजायमाने कार्य(?)कारणभावसम्भवात् तदभावश्चासतः प्रागसामर्थ्यात् सामर्थ्यकाले च कार्यनिष्पत्तेस्तत्वतःस्याऽ(स्तत्र तस्याऽ)नुपयोगात् । तस्मात् पौर्वापर्येणैव कार्यकारणभावः कारणसत्तानन्तरं च कार्यस्योत्पादने नष्टात् कारणात् कार्यप्रभा(प्रभवा)नु. ५पङ्गः तथाभ्युपगमे च तृतीये क्षणे कार्योदयः स्यात् (??) यस्मात् प्रथमे क्षणे कार्योदयः स्यात् (??) यस्मात् प्रथमे क्षणे कारणसत्ता द्वितीये तद्विनाशः ततः कार्योत्पत्तिः तदनन्तरं भाव इति । ततो यथैव कारणविनाशस्तत्सनापूर्वको न नष्टाद् भवति तथा तत्समानकालं कार्य कार(रण)सत्तानन्तर्यान्नष्टादुपजायते । अथ कारणसत्तापूर्वकत्वाद् विनाशो हेतुमा(मान् ) प्रसजति, न; नीरूपत्वात् तस्य तंत्र हेतुव्यापाराभावात् । तथाहि स एव हेतुव्यापरेण क्रियते यस्य कृतस्य किञ्चिद् रूपैमु. १० पलभ्येत विनाशस्तु ना(नी)रूप इति न तम्य किञ्चित् कर्तव्यम् । दृष्टान्तत्वेन तु विनाशस्योपन्यासो व्यवधायककालासम्भवप्रदर्शनार्थः ततो द्वितीये क्षण(णे ) कारणं नष्टं कार्य चोपजाय(त)मिति कुतस्तयोः सहभावप्रसक्तिः? तदुक्तम् "अनष्टाजागते कार्य हेतुश्चान्येऽपि तत्क्षणम् । क्षणिकत्वात् म्वभावेन तेन नास्ति सहस्थितिः ॥” [ ]इति। १५ अत्रै च अध्ययेना(अध्ययनाऽ)विद्धकर्णोद्योतकरादिभिर्यदुक्तम्-"यदि तुलान्तयो मोना १ एवं हा० वि०। • समुत्पन्नः सुसविधिमात्रैव वा० वा० । ३ यती कुतः एव क्षण-वि० । कार्य स्वकारणेनैककालत्वमनन्तये नियमा यदि हि कायकारणयोः सहितोत्पत्तिर्भवेत् तदास्यादयो योगपद्यं च नास्ति सहभाविनोः कार्यकारणभावसंभवात् तद्भात्तभावश्चासतः वा० बा०। ५-पन्ने सूत्रतः स्यानुप-वा० वा०। ६ कार्यकारणभावः कारणभावः कारणसत्ता-भां. मां०। ७-णसत्ता. नान्तरं वा० वा. ८-त्पादे न वा० वा.। -काल कार्य वा० वा. मां० विना । १०-रसन्न-आ०। -रस्तत्तान-हा० ।-रसत्तात्तत्त कार्या नष्टावा. वा० । ११ नाशो घेतु-वा० बा० । १२-स्य त्तत्र वा. बा. विना। १३-त्र हेतुव्यापार भावा-आ० ।-त्र हेतुापागभावा-भां० म०। १४-तुा-वा० वा. विना। १५-पनुप-आ. वि. विना। १:-रूपं इ-वा० वा०। १७ नष्ट का-भा० मा०। १८-जायततिवा० बा. विना। १९-नष्टा जाय-आ० । नष्टा ज्ञाय-वा० वा०। २०-श्चान्येति त-वा. बा.। २१-त्र च अध्ययतेनाविरुद्ध-आ० हा० वि०।-त्र च अध्ययनेनाविरुद्ध-भां० मां० । “उद्योतकराऽध्ययनप्रभृतिभिः।" "इति अध्ययनादिमतं निरस्तम् ॥"-सम्मति.द्वि. का. प्र. गा० टीका । "इत्यध्ययनाऽविद्धकर्णोद्योतकरादीनाम्"शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. १२२ प्र. पं०१। "अत्र अविद्धकर्णोक्तानि विनाशस्य हेतुमत्त्वसाधने प्रमाणानि निर्दिदिक्षुराह ननु नैव विनाशोऽयं सत्ताकालेऽस्ति वस्तुनः । न पूर्व न चिरात् पथाद् वस्तुनोऽनन्तरं त्वसौ॥ एवं च हेतुमानेष युक्तो नियतकालतः । कादाचित्कत्वयोगो हि निरपेक्षे निराकृतः॥ वस्त्वनन्तरभावाच हेतुमानेव युज्यते । अभूत्वा भावतश्चापि यथैनान्यक्षणो मतः"॥ तत्त्वसं. पजि. पृ. १३६ पं०७ तथा तत्त्वसं. का३६७-३६९ पृ. १३६ । "उद्योतकरोक्तामपि युक्तिमाह अहेतुकत्वात् किच्चायमसन वन्ध्यामुतादिवत् । अथवाऽऽकाशवन्नित्यो न प्रकारान्तरं यतः ॥ असत्त्वे सर्वभावानां नित्यत्वं स्यादनाशतः । सर्वसंस्कारनाशित्वप्रत्ययश्चाऽनिमित्तकः॥ नित्यत्वेऽपि सहस्थानं विनाशेनाऽविरोधतः । अजातस्य च नाशोक्तिनैव युक्त्यनुपातिनी"॥ तत्त्वसं० पजि. पृ० १३६ पं० २७ तथा तत्त्वसं. का३७०-३७२ पृ. १३६-१३७ । २२ तुलातयो-आ० विना। "इति सिद्धः कार्यकारणभावः क्षणिकेष्वपि नाशोत्पादयोरेककालत्वात् तुलान्तयोरुन्नमनाऽवनमनवदिति चेत् अथ मन्यसे कार्यकारणभावः क्षणिकेष्वपि संभवतीति कारणविनाशसमकालं कार्यभावात् यदा कारणं विनश्यति तदा कार्यमुत्पद्यते विनश्यच कारणमस्ति कारण विनाशेन अभिन्नकालः कार्योत्पादः यथा तुलान्तयोर्नामोन्नामाविति"-न्यायवा० पृ. ४०९५०१६-२१ । "न हि तयोमिथः कार्यकारणभावः प्रतिबन्धः समसमयत्वात् नाशोत्पादौ समं यद्वद् नामोन्नामौ तुलान्तयोः।"-अष्टसह. पृ० १९९५० १३ । ___“पूर्वक्षणो विनश्यंस्तु उत्तरक्षणमुत्पादयिष्यति तुलान्तयो मोन्नामवत् इति चेत् एवं तर्हि क्षणयोः स्पष्टवैककालता आश्रिता"-सूत्रकृ. टी० अ० १ उ. १पृ. २७ प्र. पं. १३ । "नाशोत्पादौ समं यद्वत् नामोन्नामौ तुलान्तयोः”-प्रमेयक पृ० १४६ प्र.पं. १४ । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । ] इति मवत् कार्योत्पत्तिकाल एव कारणविनाशस्तदा कार्यकारणभावो न भवेत् यतः [?? कारणस्य विनाशः कारणोत्पाद एव नाशः??] इति वचनात् एवं च कारणेन सह कार्यमुत्पन्नमिति प्राप्तम् । यदि च स एव नाशः प्रथमेऽपि क्षणे न सत्ता भावस्य स्यात् विनाशात् तदैव लोके च भावनिवृत्तिविनाशः प्रतीतः न भाव एव, सर्वकालं च विनाशसम्भवात् सर्वदा भावस्य सत्त्वं स्यात् । अथ कारणोत्पादात् कारणवि(?)नाशो भिन्नस्तदा कृतकत्वस्वभावत्वमनित्यत्वस्य न भवे(वेत्) ५ व्यतिरिक्ते च नाशे समुत्पन्ने न भावस्य निवृत्तिरिति कथं क्षणिकत्वम्" [ ] इति, तन्निरस्तम् । यतो द्विविधो विनाशः-सांव्यवहार्यः तात्त्विकश्च । भावनिवृत्तिरूपः पः प्रथमः, भावरूपश्च द्वितीयः । ततो(?)त्पन्नो भावः कार्य करोति, कार्यकाले च कारणनिवृत्तिरूपो विनाशो लोकप्रतीत एव, नायं भावस्वभावं इष्यते, नापि कारणोत्पादादमिन्नो वा नीरूपत्वात् । भेदाभेदप्रतिषेध एव केवलस्य क्रियते । उक्तं च "भावे ह्येक(ष) विकल्पः स्याद्विधेव(व)स्तु(स्त्व)नुरोध(धतः)।" [ न व्यतिरिक्ते नाशे जाते क्षणरूपस्य भावस्यानिवृत्तिरित्यपास्तम् । यतश्च द्वितीयक्षणोत्पत्तिकाल एव प्रथमक्षणनिवृत्तिः तेनैकक्षणस्थायी भावो 'विनाश'शब्देनोच्यते, अयं च भावरूपत्वात् साधनस्वभाव एव विनाशः कार्योत्पत्तिकाले च निवर्तत इति कार्यभिन्नकालभावी। न च सर्वकालमस्य सद्भावः भावस्यासत्त्वात्, यद् वा विनश्वरोऽयं भावः 'विनाशोऽस्य' इति द्वाभ्यां धर्मि-ध-१५ र्मवाचकाभ्यां अविनाशिव्यावृत्तस्यैवैकस्य भावस्य भेदान्तरप्रतिक्षेपाभ्यामभिधानाद् भाव एव नाश उच्यत इति । यत् पुनरिदमभिहितम् 'विधिरूपेण क्षणिकताऽत्र साधयितुं प्रस्तुतेति प्रतिषेधसा. धिकाया अनुपलब्धेरिहानधिकार इति, तत् लिङ्गव्यापारविषयानभिज्ञा(ज्ञ)ताख्यापनम्। यतो ने लिङ्गं विधिमुखेन किञ्चित प्रवर्तते सर्वस्य समारोपव्यवच्छेदसाधकत्वेनैव व्यापारादिति कार्य-स्वभावहेत्वोरपि नानुपलब्धिरूपताव्यतिक्रमः तेन परमार्थतः अनुपलब्धिरेवैको हेतुरिति २० सुगतसुताभ्युपगतः (मः)। १ एव एव नाशः वा. बा० । एव व नाशः वि.। २ प्राप्त यदि व भास एव नाशः आ० विना। ३-वृत्तिविना-आ. विना। ४ प्रतीतो भाव-वा. बा. विना। ५-स्य संत्वं भां० मां०।-स्य सत्व स्या-आ० हा० वि० । ६ “तदत्र कतमं नाशं परे पर्यनुयुजते । किं क्षणस्थितिधर्माणं भावमेव तथोदितम् ॥ अथ भावस्वरूपस्य निवृत्तिं ध्वंससंज्ञिताम् । पूर्वपर्यु(य)नुयोगे हि नैव किश्चिद् विरुध्यते ॥ द्विविधो हि विनाशो विधेः प्रतिषेधलक्षणः xooox यद्वा भावखभावप्रच्युतिलक्षणप्रध्वंसापरनामा विनशनं विनाश इति"-तत्त्वसं. का. ३७३-३७४ तथा तत्त्वसं० पजि. पृ. १३७ पं० २२। "अयं भावः-द्विविधो ह्यस्माकं विनाशः सांव्यवहार्यः तात्त्विकश्च । आद्यो भावनिवृत्तिरूपः। द्वितीयश्च भावरूपः। तत्र कार्यकाले कारणनिवृत्तिकल्पे आद्यमेव नाशमवलम्बते । वस्तुव्यवस्थापकस्त्वाद्य एव । एतेन 'कार्योत्पत्तिकाल एव कारणविनाशाभ्युपगमे कारणोत्पादरूपत्वात् तस्य सहभावेन कार्यकारणभावव्यवस्थोत्सीदेत् कारणोत्पादात कारणविनाशस्य भिन्नत्वाभ्युपगमे च कृतकत्वखभावत्वमनित्यत्वस्य न भवेत् , व्यतिरिक्त च नाशे समुत्पन्ने न भावस्य निवृत्तिः इति कथं क्षणिकत्वम्"-शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० १२१ द्वि. पं० ९-पृ० १२२ प्र. पं० १। ७ तात्त्विक एव-वा. बा. विना। ८-थम भा-वा. बा. विना। ९ भावः भावरूप इति ततोत्पत्तो भावः वा. बा०। १०-वस्वभाव इ-वा० बा०। ११ भावः ह्ये-वा० बा० । श्लोकोऽयं धर्मकीर्तिसूरेञ्जयते । तथाहि "एतेनैतत् प्रतिक्षिप्तं यदुक्तं न्यायमानिना-न तत्र किञ्चिद् भवति न भवत्येव केवलम्" ॥३२॥ "भावे ह्येष विकल्पः स्यात् विधेर्वस्त्वनुरोधतः । न भावो भवतीत्युक्तमभावो भवतीत्यपि” ॥३३॥ -शास्त्रवा० स्त० ४ पृ० १२७ । "न्यायमानिना तर्कावलिप्तेन धर्मकीर्तिना"-शास्त्रवा०स्याद्वादक. पृ० १२७ द्वि०पं०५। "न तस्य किञ्चिद् भवति न भवत्येव केवलम्"-आप्तमीमा० प०३ श्लो० ५३ अष्टश. पृ. २८५० ३० । अष्टस० पृ. २०. पं. १३। १२ जायतेऽक्ष-वा० बा०। १३ द्वितीयक्षणोत्पत्तिस्तेनैकक्षणनिवत्तिऽभावोविनाशशब्देनोच्येत वा० बा०। १४ च निर्वर्त्त-वा० बा०। १५ कार्य भि-वा. वा०। १६ भाव वि-आ०। १५ त्तस्य चैकस्य वा० बा० विना। १८ पृ० ३१८ पं० २०। १९ न लिङ्ग विधिमखेन भां. मां० आ०।न लिङ्ग वै मुख्येन वा. बा। ४३ स० त. Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ प्रथमे काण्डे दयभ्यध- 'प्रत्यभिशाप्रत्यक्षावसितं भावानामक्षणिकत्वमिति क्षणध्वंसितापरिकल्पनमयुक्तम्' इति, तदप्यसङ्गतम् तस्याः प्रामाण्यासिद्धेः । तथाहि प्रमाणस्येदं लक्षणं परेणाभ्यधायि'तत्राऽपूर्वार्थ विज्ञानम्' इत्यादि । न च वाधकवर्जितत्वं अस्याः संभवति प्राकूप्रतिपादितानुमानबाध्यत्वात् । अथ तया बाधितत्वादनुमानस्य कथं वाधकत्वम् ? असदेतत्; अनिश्चितप्रामाण्याया ५ अस्य बाधकत्वानुपपत्तेः । न चेतरेतराश्रयत्वं दोषः यतो नानुमानस्य प्रामाण्यं प्रत्यभिशोऽप्रामाण्याश्रितम् अपि तु स्वसाध्यप्रतिवन्ध्याः स्य च (बन्धात् सत्र) विपर्यये बाधकप्रमाणवला निश्चित इति कथमितरेतराश्रयत्वलक्षणो दोष: ? न चानुमानंविरोधमनुभवन्त्यपि प्रत्यभिशा प्रमाणम् अन्यथा आकारसाम्यदेवत्व (म्यादेकत्व) मधिगच्छन्ती नीले तर कुसुमसर्पादिवस्तुनः प्रमीणं भवेत् यतो नात्रापि कुसुमादिकार्यदर्शनमनुमीयमानो भेद (?) प्रत्यक्ष प्रतीततामनुभवति । न चानुमानस्यात्र १० बाधकत्वं न इतरत्र प्रमाणावगतसाध्यप्रतिविम्व(बन्ध) पक्षधर्म तात्मक तल्लक्षणसंशिनो ऽनुमानस्य प्रत्यभिज्ञा अन्यद्वा वत्प्र ( तत्प्र ) माणान्तरं बाधकं संभवति विरोधात् । तथाँहि स्वसाध्यप्रतिबन्धे हि सति हेतुः स्वसाध्ये सत्येव तस्मिन् धर्मिणि भवति, वाधा तु तदभावनिमित्तैव कथं न विरोधः ? प्रत्यक्षादिकं च बाधकं तत्र धर्मिणि साध्याभावमवबोधयति स्वसाध्याविनाभूतश्च हेतुस्तत्र प्रवर्त्त - मानः स्वसाध्यसद्भावमिति भावानामस्त्रास्थ्यं भवेत् । अनुमानाप्रामाण्यप्रसङ्गश्चैवं स्यात् तुल्यलक्षणे १५ ह्येकत्र बाधक सद्भावो दृष्ट इति । अश्वाधकेऽपि तदाशङ्का न निवर्त्तते ( तेs) विशेषात् । नहि दृष्टप्रतियोगिनः प्रागितरेण कश्चिद् विशेषो लक्ष्यते यतो न संभवद्वाधकानामपि सर्वदा तदुपलब्धिः सातिशयप्रज्ञानां तु कदाचिद् वाधकोपलब्धिर्भविष्यतीतिं तन्निश्चयो (?) वाधकाभावाऽभावयोरित्यनिश्चिततल्लक्षणत्वादनुमानं न किञ्चिदपि प्रमाणं स्यात् । कुतश्चाध्यक्षज्ञानमप्रमाणम् ? नानुमानतः नहि प्रत्यक्षानुमानयोः प्रमाणरूपतायां विशेषः- प्रत्यक्षेऽप्यर्थाव्यभिचारा (रः) प्रामाण्यनिबन्धनम् स २० च तस्मादात्मलाभः [?? अन्यतो भवतोऽभवतो वा भवतः तदा व्यभिचारनियमाभावात् स पा (चा) र्थात्मलाभः साक्षाद् ?? ] व्यवधानं तथाऽनुमानेऽपि तुल्यः । यदि प्रत्यक्षवाधान (म) न्तरेण प्रत्यभिज्ञानस्याप्रामाण्यं नाभ्युपगम्यते तदा वक्तव्यं किमिति शालिवीजमेव शाल्यङ्कुरजनकं (कं न ) कोद्रवबीजम् ? अथ शालिबीजभावे तदङ्करभावमवगच्छताऽध्यक्षेण तस्यैव तजनकत्वव्यवस्थापनान्न कोद्रववीजस्य कोद्रवबीजभावे [?? शाल्यङ्कुरविविक्ततद्देशप्रतिभासवतोऽध्य क्षेण तस्याजनकत्वव्यवस्थाप२५ नाच्च । नन्वेवमन्वयव्यतिरेकानुविधायि तत्कालकार्यमवगच्छद् अध्यक्षं कस्यचिद् वस्तुनः तदा तज्जनन स्वभावतानुत्तरकालभाविनस्तत्कार्यस्य तदानीं तस्याजनन स्वभावतां च किमिति न प्रत्येति तथा चोत्तरकाल (लभा) विकार्यजननसमये प्रत्यभिज्ञाज्ञानं यदा स एवायम्' इति प्रत्येति तदा कथं प्रत्यक्षेण बाध्यते ? यतः 'अयम्' इत्युल्लेखवत् पुरोवस्थितवत्की (तत्का) लकार्यजनकं वस्तुनः परामृशति 'स एव' इत्युल्लेखवच्च प्रोक्कनम् तदजन कैश्च भावस्तस्य संस्पृशति तत् कथं पूर्वापरकाल३० भावि कार्यजनकस्वभावव्यवस्थापकाऽक्षतप्रत्ययकान्ता बाधां प्रत्यभिज्ञाज्ञानमनुभवति ? तथा, 'स एवायम्' यः प्रागेव तत्कालकार्याजनकस्वभावोऽध्यक्षेण व्यवस्थापितः स यदि न तर्ह्ययं यो जनकस्वभावतयेदानीं परामृष्टः अथायं जनकस्वभावो विरुद्धरूपमाबिभ्रतां द्विचन्द्रादिप्रत्ययानामिव तत्त्वव्यवस्थापकत्वाऽसंभवादिति स्वप्रतीत्याववाप्यतेयप्रत्यभिज्ञा अतो 'बाधावर्जि (र्जित) त्वम्' अप्यस्या १ पृ० ३१८ पं० २३ । २ तत्र पू- वा० बा० विना । पृ० ३१८ पं० २५ । ३- ज्ञाऽप्रमा-वा० बा० । -ज्ञाः प्रामा-आ०।- ज्ञाप्रामा हा० वि० । ४ तु श्रस्खसाध्य प्रतिबन्ध्यस्म विप-आ० । ५- प्रतिवन्ध्यस्य च विप- हा० वि० । ६- पर्यय बा वा० बा० । ७-नविरोधाम - वा० बा० विना । ८-भवत्यपि वा० बा० । ९-कारं सा वा० बा० । १० - तरं कु - वा० बा० । ११ - माणं वे वा० वा० विना । १२-माना भे- वा० बा० । १३- णसंनिनो - वा० बा० ।-णसंज्ञितो मां० । १४ - न्यद्वा त् प्र-आ० हा० वि० विना । १५ - थाहि स्वस्वसाध्य-भां० मां० । १६ – स्वाख्यं भ-आ० हा० वि० । १७- लब्धः सा-वा० बा० विना । १८- तिन निश्चि यो वा० बा० । १९ तदव्य - वा० वा० भ० मां० । २०- धानं नवानु-आ० हा० वि० विना । २१ तत्कार्यभां० मां० । २२- स्तुन त- वा० बा० । २३- कालाका-वा० बा० । २४ - नकव-भां० हा० वि० । २५ प्रा. गमं त - वा० बा० । २६- कश्व भावं तस्य वा० वा० ।-कश्व भावस्वस्य भ० मां० । २७ – त्यभिज्ञाननानुवा० बा० । २८ अथेयं वा० बा० विना । २९ - भावो न तर्हि स एवेत्यंध्यवसीयमानोऽजनस्वभावो विरुद्धरूप - वा० बा० । ३० - पमबि - वा० बा० । ३१-प्यते प्र-वा० बा० । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । ३३५ असङ्गतम् ?? ] यथा शुक्तिकायां रजताध्यवसायो दुष्टकारणा (ण) प्रभवत्वेन (ना) प्रमाणं तथा प्रतिक्षणविशरारुषु सदृशापरोत्पत्त्या दिविप्रलम्भ हेतोरुपजायमानं प्रत्यभिज्ञानं दृ ( दुष्टकारणारब्धत्वादेव(ars ) प्रमाणम् । न च प्रत्यभिज्ञानमेव स्वविषयस्य तत्त्वं व्यवस्थापय (यद) दुष्टकारणारब्ध (ब्धत्व) - मात्मनो निष्टाप (निश्चाय) यति, इतरेतराश्रयत्वप्रेसक्तेः - अदुष्टकारणारब्धत्वात् स्वविषयव्यवस्थाप कत्वम् ततश्चादुष्टकारणारब्धत्वमिति कृत्वा । लूनपुनरुदितकेशादिषु चैकत्वाभावेऽप्यस्य दर्शनात ५ कुतः स्वविषय व्यवस्थापकत्वम् ? ने चा(च) केशादिप्रत्यभिज्ञानस्यान्यत्वान्नायं दोषः अन्यत्वा (त्रा) पि नियामक (?) मन्तरेण व्यभिचारशङ्काऽनिवृत्तेः । न च यो जनित्वा प्रध्वंसते 'नैतदेवम्' इति स मिथ्याप्रत्ययः वज्रोपलादिप्रत्यभिज्ञानं तु देशान्तरादौ न विपर्येतीत्यवितथम् अनुमानस्यात्रापि विपर्ययव्यवस्थापकस्य प्रतिपादितत्वात् । तन्न अदुष्टकारणारब्धत्वमप्यत्र संभवति । अर्थक्रियार्थी र्हि (र्थी हि) सर्वः प्रमाणमन्वेषते न व्यसनितयेत्यर्थक्रियासाधनविषयं प्रमाणमित्यभ्युपगन्तव्यम् । न च प्रत्य- १० भिज्ञानविषयेण स्थैर्यमनुभवताऽर्थक्रिया काचित् साध्यत इति तैमिरिकज्ञानवद पूर्वमर्थक्रिया ( ? ) अक्षमं सामान्याद्यधिगच्छदपि न प्रमाणमिति प्रमाणलक्षणाभावान्न प्रत्यभिज्ञाप्रमाणा ( ? ) मात्मध्येक्षं सता नित्येनार्थेन प्रत्यभिज्ञानजनकाभिमतेनेन्द्रियाणां संप्रयोगासिद्धेस्तद्व्यवस्थापकप्रमाणाभवा(वात्) । भावे वा तत एव तत्सिद्धेः व्यर्था प्रत्यभिज्ञा । न च सत्योदकाध्यक्षेष्वप्येतत् समानम् । अर्थक्रियाज्ञानात् तेषां तथाभावसिद्धेः । न च बहिरर्थाभावेऽप्यर्थक्रियाज्ञानस्य भावात् तत्तथात्व- १५ सिद्धि:, शून्या (न्य ) वाद (दा) पत्तिप्रसङ्गात् तद्व्यतिरेकेणा परस्यार्थव्यवस्थापकस्याभावात् । न चैकत्वे संवादकं प्रमाणं किञ्चित् सिद्धमिति नैं प्रत्यक्षताऽपि प्रत्यभिज्ञाज्ञानस्येति नातः स्थैर्याधिगतिः । किञ्च, एकत्वाध्यवसायिन्यपि क्रमोदयमनुभवन्ती प्रत्यभिज्ञा स्वविषयस्य क्रमं सूचयति, नहाभेदे खालम्बनस्य क्रमवत्प्रत्यभिशोदयः संभवति, ततो येन स्वभावेनाद्यं प्रत्यभिज्ञानं तथालम्बनत्वाभिमतः पदार्थो जनयति तेनैव यद्युत्तरकालभावीनि तदद्यज्ञानकाल एव सर्वेषामुदयप्रसक्तिः सन्नि २० हितकारणत्वात् आद्यज्ञानवत्, अनुदये वा तस्य तानि प्रत्ययजनकत्वमेव । नहि यँदा यद् यन्न जनयति तदा तन्न जैननस्वभावम् पश्चादपि तत् तत्स्वभावमेव नैव तदापि जनयेत् अथान्येन तदा स्वभावे (व) भेदात् कथं न प्रत्यभिज्ञाविषयस्य भेदा (दः) स्वभावभेदनिबन्धनत्वादर्थ भेदस्य ? अपि च, सकलसहकारिसन्निधाने येन स्वभावेन तदालम्बनं प्रत्यभिज्ञाज्ञानं जनयति स्व ( स ) स्वभावस्तस्य तदैवोत्तर (वोत) प्रागप्रा (गप्या) सीत् ? यदि तदैव कथं पूर्वस्मादभेदस्तस्य प्रागसतः तदैव संत्ताभ्युप- २५ गमात् ? अथ अवस्थानां भेदः अवस्थातुश्चाभेदः, नः अवस्थातुरपि तदवस्था भाविनो जनकाजनकस्वरूपतया भेदस्य नी (न्या) यप्राप्तत्वात् । न चावस्थावा ( वान अ )वस्था व्यतिरिक्तोऽस्ति उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वे तस्यानुपलम्भेनासत्त्वात्, अनुपलभ्यस्वभावत्वे च तस्य न प्रत्यभिज्ञाविषयत्वमिति १४- या १-कारणत्वमात्म-वा० बा० । २- प्रसक्तेरदुष्टकारणारव्यत्वमात्मनो निश्चयतीतरेतराश्रयत्वप्रसक्तेरदुष्टकारणारब्धत्वात् स्वविषयव्यवस्थापकत्वम् वा० वा० । ३-पकं तत - वा० बा० । ४-धमिति हा० वि० । ५ न वा के- भ० मां० विना । ६- न्यत्वो पि आ० वि० । ७- शङ्कया S-आ० विना । ८ च या ज-भां० म० । च जो ज-वा० बा० । ९- सतै नै भ० मां० । १० - ज्ञातुं दे वा० वा० विना । ११ - तत्वात्वन्न आ० । तत्वाव्वन्न हा० वि० । १२- यार्थी तर्हि वा० वा० । १३ सर्व प्र-आ० । क्रिया सा-वा० वा० । १५ - णमित्युप - वा० वा० । १६- पयण वा० बा० । १७ न प्रमाणलक्षणा-भां० मां० । १८ - ज्ञाप्रमाणमान्मध्यक्षं भ० मां० । ज्ञाप्रमाणमानात्यद्यंध्यक्षं वा० वा० । १९- ध्यक्षं साता आ० | २० - भावे वा भां० म० । २१ - वादाप्यत्ति भां० म० । वादाप्यपत्ति - हा० वि० । वादयतिवा० बा० । २२ न प्रत्यभिज्ञा - भ० मां० | २३ - नस्येति मात स्थै वा० बा० विना । २४ - गति वा० बा० विना । २५- त्वावासातात्यपि वा० वा० २६ तवालम्ब-वा० बा० । २७-दार्था ज-आ० विना । २८-भावीति त - मां० । २९ - दाद्यतनज्ञान - वा० वा० विना । ३० - दयो वा वा० वा० विना । अत्र 'अनुदये वा तस्य न प्रत्ययजनकत्वमेव' इति पाठः स्यात् । ३१ - त्ययः ज-आ० । ३२ यदाद्यं न जन - वा० बा० विना । ३३ जनयति स्वभावं पश्चा-वा० वा० । ३४ व प- वा० बा० मां० विना । ३५-भाव नै -आ० । ३६ स्वभेदात् वा० वा० । ३७-स्य भेदा निबन्धत्वा-वा० वा० । ३८ तदेवो - वा० वा० विना । ३९ सवा-आ० । ४० - भाविनो जनकस्व वा० बा० । ४१ नायं प्रावा० वा० । ४२ न वावस्थाम्यति - वा० बा० । ४३ - व्यतिरिक्ताऽ - वा० बा० । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ प्रथमे काण्डेनाभेदसिद्धिः । सहकारिप्रत्ययोपजनितस्य वा(चा)तिशयस्यालम्बनाद् (नाद् व्यतिरेके) व्यतिरेकपक्ष भावी दोषो दुर्निवार इत्युक्तं प्राक् । अथ प्रागपि स स्वभाव आसीत् तदोत्तरकालभावीनि प्रत्यभिज्ञाना(भिज्ञा)कार्याणि प्रागेवोदस्तवति(वन्ति) स्युरिति क्रमवता प्रत्यभिज्ञाज्ञानेन स्वसंवेदनेनो. पलक्षितेनाभिन्नत्वेनोपलक्षितस्यापि व्या(बाह्या)लम्बनस्य क्रमः प्रदर्शित एव । अथ दर्शनाविशेषेऽपि ५प्रत्यभिज्ञाकार्यक्रमानुभवः किमिति सत्यत्वेन व्यवस्थाप्यते न पुनरमिन्नतदालम्बनानुभवतः(भवः) उच्यते, क्रमसंवेदने बाधकाभावादितरत्र तद्विपर्ययात् । यदि ह्यसतो ज्ञानक्रमस्य स्वसंवित्या(त्या) विषयीकरणं भवेत् तदा तदभावे स्वसंवित्तेरपि तदव्यतिरिक्ताया(याः) तत्प्रभावान्न केनचित् कस्यापि विषयीकरणं भवेदिति तत्क्रमानुभवः सत्यः बाह्यालम्बनाभेदानुभवस्तु लूनपुनर्जातकेशादिष्विव बाधितत्वादसत्यः । यथा चानुसन्धानप्रत्यया बहिरेकत्वाद्यालम्बनाभावेऽप्यान्तरमेव(मेका). १० कारं बहिर्वद् अवभासमानाः प्रवर्त्तन्ते तथाऽन्यत्र प्रतिपादितम्। यत् पुनः परैरुच्यते-आलम्बनैकत्वाध्यवसायि प्रत्यभिज्ञाकार्यक्रमदर्शनं सहकारिप्रत्ययैरनाधेयातिशयतामालम्बनस्य बाधनो(धते?) कार्यस्यानुत्पादयोगपद्याभावान्न पुनरभेदम् भेदावभासिनोऽनुभवस्याभावादिति, तदप्यसङ्गतमेव; यतो यद्यालम्बनस्याभेदो न वाध्यते तर्हि सहकारिसन्निधावप्यप्रतीयमानातिशयानां वज्रोपलादीनां अनाधेयातिशयताऽपि कथं बाध्येत ? अथ कार्यानुत्पाद१५ यौगपद्याभावान्ना(वात् सा) बाध्यते, नन्वेवमनुपलभ्यमानोऽपि भेदस्तस्यामवस्थायां अतिशयवत् किं नाभ्युपगम्यते? यतोऽनतिशयानुभवस्याप्यनुमानत एवाऽप्रामाण्यं परोऽभ्युपगतवान् अन्यथा भेदानुभवमनादृत्य कथमतः सातिशयत्वं तस्यामवस्थायामभिमन्येत? तथा, यद्योलम्बने भेदोऽप्यङ्गीक्रियते तदा को दोषो विशेषाभावादिति क्रमैत(व)त्प्रत्यभिज्ञालक्षणकार्यदर्शनात् तदालम्बनस्यापि क्रमः सिद्धः । तदुक्तम् "नाक्रमात् ऋमिणो भावो नाप्यपेक्षा विशेषिणः। क्रमाद् भेंवन्ती धीशे (झें)यात् क्रमं सत्या(मं तस्या)ऽपि सत्स(सेत्स्य)ति"[ ]इति । तदेवं न बहिरवस्थितैकार्थसम्प्रयोगेणेन्द्रियेण जन्यते प्रत्यभिज्ञा तदा(द)भावान्न प्रत्यक्ष(क्ष?) नापि प्रमाणसिति स्थितम । तथाचं 'नहि स्मरणतो यत' इत्यादि वचनं सिद्धसाधनमेव. यतो वचनं सिद्धसाधनमेव, यतो यदेवंभूतं तद् भँव(वे)त् प्रत्यक्षम् नत्वेवं प्रत्यभिज्ञानमिति का नः क्षतिः ? यतः पूर्वानुभूतधर्मा२५ रोपणाद् विना 'श (स) एवायम्' इति ज्ञानं नोपजायते तञ्चाक्षजे प्रत्ययेऽसैम्भवि। __ यदप्युक्तम् 'देशोदिभिन्नं सामान्याद्यालम्बनम्' इति, तदप्यसङ्गतम्। सामान्यादेरभिन्नस्य तद्विषयस्याभावात् भावेऽप्यनेकप्रमाणगोचरत्वेन तत्र प्रवर्त्तमानस्य प्रत्यभिज्ञानस्याऽनधिगतार्थाधिगन्तृत्वायोगात् भिन्नाभिन्नालम्बनत्वेऽपि च प्रत्यभिज्ञानस्य न प्रामाण्यम् अपूर्वप्रमेयाभावात् । नहि देशाद्यस्तत्र प्रत्यभिज्ञानांते(ज्ञायन्ते) प्रागदर्शनात् तेषाम् पूर्वोपलब्धे तु सामान्यादौ न प्रमेयाधि. ३० क्यम् । न च पूर्वप्रसिद्धमेवाग्निसामान्यं देशादिविशिष्टतयानुमानस्याधिगच्छति(गच्छतः) प्रमेयातिरेकानु(कात्) यथा न प्रामाण्यव्याहतिस्तथी प्रागुपलब्धमेव सामान्यादिदेशादितिविशिष्ट(दे. शादिविशिष्ट)तया प्रतिपद्यमानस्याप्यपूर्वप्रमेयसङ्गतेन प्रामाण्यक्षतिरिति वक्तव्यम् , द्वितीयप्रत्यक्षत १-क्षभवो दो-आ० । २-सीत् तनोत्त-वा० बा०। ३ प्रतिज्ञा-वा० बा०। ४-लक्ष्यते वा० बा। ५-भतः वा. बा०। ६-स्तु नपुन-भां० मा. हा० वि०। ७-था वा-वा. बा०। ८-रबहिर्वदनासमानाः वा० बा०। ९-स्य वाधतो का-वा० बा० ।-स्य धाना का-आ०। १० कार्यस्य नु-वा० बा० । ११ बाधते आ०। १२-प्य वर्तियमा-वा. बा०। १३-यानापि भां० मा०। १४-शयेना-वा. बा. विना। १५-स्थाया नति-वा. बा०। १६ यतोऽयनेति-भां० मां। १७-नुभाव-वा० बा०मां. विना। १८-थाऽमे-वा० बा०। १९-द्यारम्बल मे-वा० बा०। २०-वादित क्रम-वि. विना। २१-मत्प्र-या० बा०। २२ भवं धी ज्ञेयात् क्रमं तस्यापि सत्सतीति वा० बा० विना। २३-पि सेत्स-वि० । २४-कार्थसप्र-आ० वि० विना। २५-क्ष नापि वा० बा०। २६ च । ते हि वा० बा० विना। २७ पृ. ३१९६०४। २८ भव प्र-वा० बा०। २९ नन्वेवं वा० बा० आ० । ३० संभवति वा० बा० । संभववि आ० । ३१ पृ. ३१९५० ११। ३२-शादिभिन्न सा-वा० बा०। ३३-च्छतिः वा० बा०। ३४-माण्याव्या-भां. मां। ३५-था त्रामुप-वा० बा०। ३६-शादिविविशि-वा. बा.। ३७-ण्यकृति-वा. बा. आ. विना। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३३७ एव तत्सिद्धिः प्रत्यभिज्ञात(न)स्यापूर्वप्रमेयायोगात् । ते व (न च)पश्चादुपलब्धपूर्वदृष्टार्थभावोऽधिकः प्रत्यक्षानवतः(नवगतः) प्रत्यभिज्ञानेन प्रतीयत इति अपूर्वप्रमेयसद्भावः, यतः पूर्वदृष्टार्थभावोन प्रत्यक्षद्वयगोचरादतिरिक्त इति कथं तस्य ततोऽसिद्धिः? व्यतिरेक(के) वा कथं न मिथ्याप्रत्ययः? 'स एव' इत्यभेदोल्लेखवान् अनुसन्धानं व (च) 'योऽयमिदानीमुपलभ्यते प्रागप्येष मया दृष्टः' इति लोकस्य प्रवर्त्तते अतः स एवायम्' इति नहि पूर्वदृष्टतामस्मरतः ‘स एवायम्' इत्यनुसन्धानसंभवः ५ [?? तस्मात् स्मृतिरूपता नातिकामति, प्रत्यभिज्ञानं च यथावस्तुस्वरूपग्राहिणाऽध्यक्षेण तव्य. तिरिक्ते क्षणक्षयेऽधिगतेऽपि तत् निश्चितम् तनिश्चितत्वा नानुमितिः प्रमाणम्, तथा च स्वव्यतिरिक्त एकत्वे दर्शनद्वयगृहीतमपि तन्निश्चा न प्रमाणमभिज्ञायते, अनमितिः साध्याविनाभतलिङ्गसमुद्भवा दर्शनमात्रनिबन्धना न भवतीति प्रतिपन्नेऽप्यंशे समारोप्य व्यवच्छेदं कुर्वाणा प्रमाणम् नन्वेवं प्रत्यभिज्ञादर्शनबलात् तदुत्पत्तेः समारोपव्यवच्छेदविषयों चैवं स्यात् न वस्तुग्राहिणी तथा १० चाऽस्याः कुतः प्रत्यक्षता स्वतन्त्रायाः प्रामाण्यं वेति । यदपि 'प्रमेयातिरेकाभावेऽपि सन्देहाऽपाकरणात् प्रमाण(णं) प्रत्यभिज्ञा' इत्यभ्यधायि, तदप्यसङ्गतम् ; स्मृतेरपि 'किं मया दृष्टं उत न' इति संशयव्यवच्छेदेन 'दृष्टम्' इत्युपजायमानायाः प्रमाणताप्रसक्तः(क्तेः)। आलोचनाज्ञानान्तरं विकल्पकप्रत्यक्षाभ्युपगमात् कालान्तरं सविकल्पकप्रत्यक्षाभ्युपगमात् कालान्तरादिभावोऽपि तत ऐव निश्चित इति कुतो भवदभिप्रायेण सन्देहं (हः) ? नहि निश्चयविषयीकृतमनिश्चितं नाम, न च १५ कालान्तरादौ सद्भावः ततो व्यतिरिक्तः अन्यत्वप्रसङ्गात् इति प्रमेयाऽऽधिक्या(क्य)मेव प्रामाण्यनिबन्धनमभिधातुमु(धातुं यु)क्तम् अन्यथा निष्पादितक्रिये कर्मविशेषाधायि कथं साधनं स्यात् ? ??] यत् तु 'इदानीन्तनमस्तित्वं नहि पूर्वधिया गतम्' इत्युक्तम्, तयुक्तमेव इदानीं (नीन्त)नत्वस्य भेदात् अन्यथा प्राक्तनविकल्पबुद्ध्या वस्त्वव्यतिरेकि इदानीन्तन्ना(नीन्तना)स्तित्वस्य कथमग्रहणम् ? यदि च सविकल्पकं प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षमर्थग्राहकमभ्युपगम्यते ती सर्वात्मनार्थस्य निश्चितत्वात् प्रमा-२० णान्तरप्रवृत्तेवै(4)यर्थ्यप्रसक्तेरिति विचारितमन्यत्रेतीह न प्रतन्यते । यैस्तु निर्विकल्पकं प्रत्यभिज्ञाशानं प्रमाणतया अभ्युपगतम् तेषां तदुत्तरकालभाविसविकल्पकाध्यक्षप्रायो घटादिविषयः प्रमेयातिरेकाभावात् कथं प्रमाणतामनवीत? न च प्रमेयातिरेकमन्तरेणापि सन्दिग्धवस्तुनिश्चयनिबन्धन त्वा(त्वात्) प्रमाणमसौ, निर्विकल्पक-सविकल्पकयोरक्षजप्रत्यययोर्नियतपौर्वापर्ययोरपान्तराले सन्दे १-त्सिद्धि प्र-आ०। २ तञ्च वा. बा. विना। ३-लप्यपू-आ०। ४-क्षाभवतः वा० बा• विना । ५-सिद्धि व्यतिरेक ता कथं वा. बा. विना। ६-धान व वा. बा. विना। -नसंधान संभ-वा० बा० । -तानति-वा० बा०। ९-शान च भां. मा. आ. हा०।-शाने च वा० बा०। १० तन्निश्वत्वा नानु-वा० पा०। ११-था व स्त्वव्यति-वा० बा० ।-था व स्तुव्यति-भां० मां०। १२-त पि वा० बा०। १३ तनिश्वा न वि. विना। १४-ण भि-आ० हा. वि. विना। १५-यतो अ-वा० बा०। १६-नुमिति सा आ. हा. वि.। १७-मानत्रनिबन्ध नभ-भां० ।-मानत्रिनिवन्ध नभ-मां० ।-मात्रनिबन्धन भ-आ. हा० वि०। १८-प्यंशो स-भां. मा० । १९ नत्वेवं प्रत्यभिज्ञानद-हा० वि०। २०-दर्शनं ब-भां० मा । २१-या वैवं हा० वि० ।-या वैव आ०। २२-माणाप्र-हा० । २३ पृ० ३१९५०२५। २४ स्मृतिर-आ० । २५-ल्पक प्र-वा० बा०। २६-मात् कालान्तरादिभा-वा० बा०। २७ एवं नि-हा। २८ सन्देह नघा. बा। २९ "निष्पादितक्रिये चार्थे प्रवृत्तः स्मरणादिवत् । न प्रमाणमिदं युक्तं करणार्थविहानितः" ॥ -तत्त्वसं० का० ४५१ पृ० १५९ । ३० पृ. ३१९ पं० १७॥ ३१-दानीन्ननन्विस्य वा० बा०।-दानींनन्वस्य आ० । “नन्विदानींतनास्तित्वं यदि मिन्नं त्वयेष्यते । पूर्वभावात् तदा भेदस्त्वयैव प्रतिपादितः॥ -तत्त्वसं० का० ४५७ पृ० १६० । ३२ "अनन्यत्वेऽपि सत्त्वस्य कथं पूर्वधियाऽगतम् । तस्यागतौ हि वस्त्वेव नोपलब्धं प्रसज्यते" ॥ -तत्त्वसं० का० ४५८ पृ० १६.। ३३-कल्पाबु-वा० बा. विना। ३४-दा सर्वदात्मनार्थस्य वा० या०।-दा सर्वात्मते तदा सर्वानार्थस्य भां• मा०। ३५-चारिताम-आ.विना। ३६-श्रुवते न वा. बा. विना। ३७-धनिवस्तुनिश्चय-भां० मा. हा०वि०।-पधनिवनिश्चय-वा. बा. ३८-क्षप्र-वा० बा। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेहासंभवात् तदपाकरणाभावान्न निर्विकल्पकप्रत्यक्षेण समाना [?? प्रत्यभिज्ञानेनैकत्वमवगन्तुं शक्यम् यतोऽर्थसाक्षात्कारि प्रत्यक्षं लोके प्रतीतम् पूर्वापरसंवेदनाऽधिगतभावैकत्वग्राहकं च प्रत्यभिज्ञानम् तत् कत(थ)मध्यक्षस्य स्वरूपम्? तथाहि न तावत् प्रथमसंविद॑स्तत्त्वग्रहणसंभवः, तत्संभवे हि भाविसमयादिग्रहणमिति तदैव स्तम्भादेरुदयमध्यास्ते(स्त)मयादिप्रतीतिप्रसक्तिः। न च भौवि५समय-वे(देश-दशादश(श)नादि न गृह(ह्य)ते ते तत्सम्बन्धं (न्धि) तु रूपं पूर्वदर्शने प्रतिभात्येव, कालाद्यग्रहे तत्सम्बन्धिरूपस्याप्यग्रहाद यदेव हि तहेशाद्य व्यक्तं रूपं तत्र प्रतिभातीतिन तदर्शनाऽवसेयम्, यदि तु भाविकालाद्यग्रहेऽपि तत्संबन्धिरूपग्रहस्तथासति सर्वे भावाः समस्तकालदर्शनसंबन्धिन आद्यदर्शनाऽवसेयाः स्युः, एवं च सति सर्वे नित्या भवेयुः अ(अथ) नैषां प्रथम दर्शनं(ने) सर्वकालँस्थायिता प्रतिभातीति नैते तथाऽभ्युपेयन्ते तर्हि तत्र भाविदृगादिपरिष्वक्तताऽपि १०न प्रतिभातीति साऽपि न तत्र सती। न च तस्यैवोत्तरकालं प्रतीतेः भाविविज्ञानग्राह्यताद्यतः तस्यैवो. पलब्धिः किं पूर्वदृशा, उत उत्तरकालाभ(कालभा)विन्या? यदि पूर्वदृशा तदा सोत्तरकालमसती कथं प्रतिपद्यते? नासद् ग्राहकम् अतिप्रसङ्गात् । यदापि सा सतीआसीत् तदान पश्चाद् दर्शनादि संभवतीति न तत्प्रतिभासिरूपग्रहः प्रोक् । अथोत्तरकालभाविनी दृक् तस्योपलब्धि(ब्धिर)युक्तमेतत्, यतो द्वितीयदृगपि स्वप्रतिभासिनमेव पदार्थात्मानमवभासयतुं न पुनस्तत्त्वम् । यतस्तत्त्वं १५दृश्यमानस्याऽर्थस्य पूर्वदेशादिपरिगतत्वम् (गतत्वम् दृष्टता) वा ? ??] न तावदाद्यः पक्षः, पूर्वदेशादीनामसन्निधानेनाप्रतिभासैन(ने) तत्सम्बद्धस्यापि रूपस्याग्रहणात् प्रत्यक्षेण नै चाऽसन्निहिता देशादयः प्रतिभान्ति दर्शनस्य निर्विषयत्वप्रसङ्गात्, सकलातीतभावपरम्पैरापरिच्छेदप्रसक्तेश्च कालत्रयप्रदर्शि प्रत्यक्षं भवेत् । न च तथाऽभ्युपगन्तुं युक्तम्, अतीतादौ विशदप्रतिभासाभावात्, तमन्तरेण च प्रत्यक्षेणाग्रहणात्, न च पूर्वदेशादीनां तो सन्निधानम्, २० सन्निधौ वा तद्दर्शने प्रतिभासनात् पूर्वरूपतात्यागः वर्तमानताप्राप्तेः-नहि तदर्शनप्रतिभासनमन्तरे णान्या वर्तमानता नीलादीनामपि । तथापि पूर्वरूपत्वे वर्तमानव्यवहारोच्छेदप्रसैंक्तिः। न च पूर्वदेशादीनामप्रतिभासे तत्सँम्बद्धरूपप्रतिभासः प्रत्यक्षतः संभवति, अन्यथा सर्वदेश-काल-दशापरिवक्तभावावगमात् सर्व एव व्यापिनो नित्याः सर्वाारस्वभावाः प्रसजन्ति, न च नियतदेशादि संसर्गितया तेषां प्रतीते यं दोषः, पूर्वदेशादिसंसर्गितयों सम्प्रति दर्शनेऽप्रतिभासमानवपुषस्तथा २५ त्वाभावप्रसक्तेः । तन्न पूर्वदेशीदिमत्त्वं दृश्यमानस्य तत्त्वम् । अथ दृष्टता दृश्यमानस्य तत्त्वम् स्या(सा)पि किं सम्प्रति दर्शने प्रतिभॊतता, आहोखित् पूर्व १-वान्न विक-वा० बा० ।-वान्नर्विक-आ०। २ सहमाना-वा. बा०। ३-र्थसाहात्कारि हा. चि०।-र्थसहकारि आ०। ४-कत्वामा-भां० म०। ५-ज्ञातम् आ० विना। ६क त-भां० मां०३ -दस्तत्रग्र-हा०।-दस्वत्रन-आ० ।-दकस्तत्रय-वि०। ८-हणं स-वा. बा. भां० म०। ९-चस्तत्संभवस्तसंभवे हि वा० बा०। १०-मयाविन-वा० बा०। ११ तवैव संभदेरुदयमस्वास्ते वा० बा०। १२ भाविसमयदेशदशादशनादि न गृति तेन तत्स-वा० बा० । भाविसमयदेशनादि न गृ ति ते तत्स-भां० माभाविसमयदेशनादिन गृहते तत्स-हा० वि०। १३-म्बन्धे तु आ० । १४-स्याप्याग्र-वा० बा० विना। १५-नु व्यक्तं भां• मां०।-नुपव्यक्तं आ० हा० वि० । अत्र 'तद्देशाद्यनुष्वक्तं रूपं तन्न प्रतिभाति' इति पाठः संभाव्यते। १६ अन्येषां वा० बा० विना। १७-लग्नायिता वा० बा०। १८-परिव्यक्त-आ०। १९-ह्यतस्तस्यै-हा० वि०। अत्र 'ग्राह्यता स्यात् यतः' इति पाठः संभाव्यः। २०-लाभिवि-वा० बा०। २१-शा स्तदा भां० मां० आ० ।-शास्तदा हा० वि०। २२-सरं का-वा० बा० विना। २३ प्रतिपाद्य-वा० बा० विना। २४-वतीति नत तत्प्र-आ० हा०।-वतीति न न त तत्प्र-भां०मा० । २५-पग्राह्य प्रा-वा० बा०। २६प्राक् । अधोत्तहा। प्रागेवोत्त-आ०। २७-भाविनी व्यक् तस्यो-वा. बा. विना। २८-तु पु-आ०। २९-सन तत्सम्बन्धस्या-आ० वि० ।-सनन तत्सम्बन्धस्या-हा०। ३०-हण प्र-वा० बा०। ३१ न वा-मां० विना। ३२-यप्र-वा० बा०। ३३-म्पराच्छेद-वा. बा. विना। ३४-णाग्रहणन्न च आ०। ३५-दासन्निधौ वा वा. बा०। ३६-सक्तेः आ०। ३७-त्सम्बन्धरू-आ०। ३८-कासत्वभावाः प्रस-आ० ।-कारश्व. भाषः प्रजन्ति वा० बा०। ३९-या तम्प्रति वा० बा० । या सं सम्प्रति आ०। ४० दर्शने प्र-वा० बा. विना। ४१ पूर्वादे-आ० विना। ४२-शातिम-वा. बा०। ४३-नस्या सा त्वस्यापि हा० वि०।-नस्य मा त्वस्यापि आ० ।-नस्य स त्वस्यापि भा० मा ४४ भातिता वा. बा. विना। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३३९ दृशि? यद्याद्यः पक्षः तदा वर्तमानतैव न पूर्वापरटेगव(गवग)तैकत्वम् । अथ द्वितीयः तदा पूर्वदर्शनमपेतत्वाद् असत् कथं वर्तमानदर्शने प्रतिभाति? तदप्रतिभासे च तद्ग्राह्यतापि प्रच्युतत्वाद् न प्रतिभाति, तदृग्ग्राह्यं तु रूपमधुना सन्निहितत्वाद् वर्तमानगधिगम्यं भविष्यति पूर्वदर्शनस्यापरिच्छेदे तदधिगम्यस्यापि रूपस्याधिगमासंभवात् । यतो न वर्तमानं दर्शनं पूर्वदृशमगृहत् तदधिगम्यमधिगन्तुं क्षमम् तद्दिशा(तदृशो) ग्राह्यमधिगच्छतु पूर्वदृग्ग्राह्यतां तु कथमधि- ५ गच्छेत् ? यदि तु पूर्वटैगम(गन)वगमेऽपि तद्ग्राह्यता प्रतीयते तथासति सका(क)लातीतहग्ग्राह्यताऽपि प्रतीयताम् । न च पूर्वदृष्टता नाभाति पूर्वदृष्टरूपं ना(चा)भातीति पूर्वदृष्टताऽप्रतीतौ पूर्वदृष्टरूपाऽप्रतिपत्तेन हि नीलताप्र(ताऽप्र)तिपत्तौ 'नीलोऽर्थोऽधिगतो भवति । खवेद्यतया च प्रति. भासमानः स्ववेद्य एव नान्यवेद्यः तत्राप्रतिभासमानरूपाभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात् सर्वस्य सर्वात्मकता. पत्तेः । न च पूर्वदेशाऽपो(दृशोऽपा)ये तत्कर्मता अर्थस्य प्रच्युतेति न भौति तद्गोचरः सर्वात्मना १० भाव्ये(त्ये)व तदपाये तदवगतत्वेनाऽप्रतिभासनाद्य(नाद)न्यथातिप्रसङ्ग इत्युक्तेः। यदि च प्राग्दर्शनगोचरोऽर्थो वर्तमानदृशि प्रतिभाति पूर्वदृग्गोचरसकलपदार्थप्रतिभासप्रसङ्गः। न च भिन्नं पूर्वहगवंगतं नावभाति अभिन्नं तु तत्प्रतिभासविषयोऽवभासत एव नीलादेर्भिन्नस्यापि वर्तमानदेर्शनप्रतिभासनात् पूर्वदृष्टत्वादेव तस्य न तत्र प्रतिभासः, तैञ्चाभिन्नेऽपि समानम् इति कुतस्तस्य प्रतिभासः? नै चाभिन्नस्य पूर्वदृग्गोचरस्य सन्निहितत्वा(त्वात्) प्रतिभासः नेतरस्य विपर्ययात् १५ तत्सन्निधेरेवासिद्धेः । न च सम्प्रति दर्शनात् तत्सन्निधिसिद्धिः, यतः किं तत् तस्य दर्शनम् , उतान्यस्य ? यद्यन्यस्य कथं तत्सन्निधिसिद्धिः सर्वस्य तत्प्रवृत्ति (त्तेः)। नैं चाप्रतिभासान्न सर्वस्या(स्य) सन्निधिः इतरेतराश्रयदोषात्-तदप्रतिभासात् सर्वासन्निधिः ततश्च सर्वाप्रतिभास इति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । अथ तस्यैव दर्शनात् सत्स(तत्स)निधिः, असदेतत् । यतः पूर्वदर्शनावगतस्य वर्तमानदर्शन मिति न कुतश्चिद्वगम्यते? न तावद् दर्शनात्, सन्निहित एव तस्य वृत्तेः। न च २० पूर्वदृष्टसन्निहितयोरेकत्वाद् वर्तमानदर्शनवृत्तिः, इतरेतराश्रयत्वप्रसक्तेः-तयोरेकत्वात् तद्दर्शनवृत्तिः तद्वत्तेश्च तयोरेकत्वमितीतरेतराश्रयत्वम् । ___अपि च, तदर्शनवृत्त यं दोषः तदप्रच्युतौ प्रमाणाभावात् । न च प्रत्युत्पन्नदर्शनमेव तत्र प्रमाणम् , इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । तथाहि-पूर्वदृष्टस्याप्रच्युतो प्रवर्त्तमानं दर्शनं प्रमाणं सिध्यति तत्प्रामाण्यात्व(च) पूर्वदृष्टस्याप्रच्युतिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । न च परिस्फुटप्रतिभासादेव २५ वर्तमाना दृक् प्रमाणम्, काम-शोकायुपप्लुतविशदृशः प्रमाणताप्रसक्तेः। न च विसंवादात् सा अप्रमाणम् इयं तु विपर्ययात् प्रमाणम्, यतः संवाददृगपि पूर्वदृष्टेऽर्थे प्रवर्त्तमाना न प्रमाणतया सिद्धा अन्यत्राऽप्रवृत्ता न(?)संवादकृता, ततः पूर्वदृष्टार्थनाहित्वे दृग् भ्रान्ता प्रसक्ता । अपि च, उत्तर १-मान न पू-वा० बा० । २-दृग्वतैकत्वम् भां० ।-दृग्वंतैकत्वम् आ० ।-दृगतैकत्वम् वा० बा० । ३-ह्यतोऽपि वा० बा० विना। ४ भविष्यन्ति वा० बा० विना। ५पूर्वमानगृह्नत् तदधिगम्यगम्यमधिगन्तु क्ष-वा० बा०। ६-गच्छत प्र-वा. बा. विना। ७ यदि पूर्व-वा० बा०। ८-हगव-वा. बा. विना । ९ न च पूर्वदृष्टता नाभातीति पूर्वदृष्टताऽप्रती-हा० वि० । न च पूर्वदृष्टता नाभाति पूर्वदृष्टं ताना भाति पूर्वदृएं रूपं नाभातीति पूर्वदृष्टताऽप्रती-भां० मा० । न च पूर्वदृष्टता नाभाति पूर्व, ता नाभातीति पूर्वदृष्टताऽप्रती-वा. बा०। १० नीलार्थी-भां० मां०। ११-या प्रति-भां. मां. आ. हा. वि०। १२-न्यवेद्य एव नावेद्यतया प्रतिभासमानः स्ववेद्य एव नान्यवेद्यस्तत्रा-भां० मां०। १३-४शाऽपाये वा० बा० विना। १४ भा नत्गोचरः सर्वात्मा भाव्ये-वा० बा०। १५ तदापा-वा. बा। १६-र्शनागो-वा० बा०। १७-चरार्थो आ० । १८-वतं भां० मा० ।-वसतं हा०।-वसंतं वि०।-वसंत ना-आ०। १९-पयोऽभा-वा. बा०। २०-दर्शनाप्र-वा० बा०। २१ तत्वाभि-भां० माआ तथाभि-हा. वि.। २२ न वाभि-वा. बा.। २३-वासिद्धर्न त सम्प्र-वा. बा० ।-वासिद्धेर्नि व सम्प्रआ० ।-वासिद्धर्मि व सम्प्र-हा०वि०। २४ नवा प्र-वा. बा. मां० विना। २५-दपि प्रतिभासत सर्वा-वा० बा०। २६ ततश्च सर्वाप्रतिभासात् सर्वाप्रतिभास इति भां० मा०। २७-गम्यंते वा. बा०। २८-यप्र-वा. बा०। २९-माणभा-आ०। ३०-च्युतै प्र-आ० ।-च्युते प्र-हा० वि०। ३१ -मान द-हा। ३२-शहदृशः आ. हा०वि०।-शद् दृशः वा० बा०। ३३-मा न प्र-वा. बा. विना । ३४-न्यथा-हा० वि० । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० प्रथमे काण्डेशान(ने) पूर्वदर्शनग्राह्य किं तदृष्टेन रूपेण प्रतिभाति, उत रूपान्तरेण? यदि पूर्वदृष्टेन तथासति पूर्वदृष्टरूपावभास एव न वर्तमानरूपपरिच्छेदः। अथ रूपान्तरेण तत्रापि वर्तमानदर्शनग्राह्यरूपतैव न पूर्वज्ञानग्राह्यता इति वर्तमानमेव तत्। न च ज्ञानद्वयावभासि रूपं तत्र प्रतिभातीति वक्तुं शक्यम्, शानद्वयाऽभावे तदवभासिनो रूपस्याप्यभावात् यदेव हि ज्ञानमस्ति भवतु तदवभास्येव तद्रूपम् यत् ५तु नष्टज्ञानं न तदवभासि युक्तम् अन्यथा सकलातीतज्ञानावभासिरूपप्रतिभासंप्रसक्तिरित्युक्तम् । तस्माद् इदानीन्तनज्ञानावभासमेवैतद् युक्तम् । न च निर्विकल्पके वर्तमानग्रहणे सति प्राक्तनशानावभासिभावपरिच्छेदः समस्ति विकल्पद्वयान तिवृत्तेः। यतः 'सः' इति पूर्वपरिच्छेदः 'अयम्' इति प्रतिभासानुप्रवेशेन प्रतिभाति, उताननुप्रवेशेन ? यद्याद्यः पक्षः, तदा 'सः' ति(इति) वा परोक्षाकारः प्रतिभासः 'अयम्' इति वा वर्तमानमात्रावभासः। अथाननुप्रवेशेन प्रतिभासस्तदापि प्रतिभासद्वयं १० परस्परविविक्तमायातम् , तथा च तद्ग्राह्यस्यापि भेदः प्रतिभासभेदात् । न च तदवभासद्वयमेकाधि करणम् परोक्षाऽपरोक्षरूंपनिर्भासद्वयस्यैकाधिकरणत्वासिद्धेः अन्यथा भिन्नाधिकरणसर्वसंविदामेका. धिकरणत्वापत्तेः। तन्नैककालम् भिन्नकालं वा प्रतिभासद्वयमेकार्थम् प्रतिभासभेदात् । न चात्र प्रतिभास एव भिन्नो न प्रतिभास्यः, तद्भेदे तदभेदासिद्धेः। तथाहिन स्वतः प्रतिभास्याभेदः सिद्धः, स्वसंविन्मात्रप्रसक्तेः। नापि प्रतिभासात् तस्य भिन्नत्वादिति नैकत्वसिद्धिः। उत्तरकाल१५भाविनोऽपि दर्शनात् सन्निहितमात्रस्यैव तंत्र प्रतिभासात् पूर्वकालादीनां तत्र प्रतिभासने वर्तमान तापत्तेः, तदनवभासे च तत्परिकरितरूपस्याप्यपरिच्छेदः। न च तद्गतत्वेनाऽप्रतिभासेऽप्यत्रुट्यदू पतया प्रतिभासात् प्रतिभास्यस्यैकत्वम् यतो विद्युदादिष्वपि पूर्वरूपाप्रतिभासनं यदि त्रुट्यदूपत्वमङ्गी. क्रियते तर्हि पूर्वदृष्टाप्रतिभासनं वर्तमान(?)वरदृशः स्तम्भादावस्तीति कथं न त्रुट्यदूपप्रतिभासः स्तम्भादेर्भेदः ? अथ ग्राह्यस्याविरतमुपलब्धिरत्रुट्यद्रूपता विद्युदादौ त्ववभासस्य विरतिरित्यत्रुट्यद्रूपता २० न युक्ता, नन्वविरतोपलब्धिरपि किं तस्य, आहोस्विद्न्यस्य इति वक्तव्यम् । यद्यन्यस्य कथमेकत्वम् ? अथ तस्यैव, सा न सिद्धा । नहि पूर्वदृष्टस्य पुनरुपलब्धिरिति सिद्धम् । __ यदपि 'पूर्वदृष्टं पश्यामि' इति व्यवसायबलात् निर्विकल्पकं दर्शनं 'पूर्वापरैकत्वग्राहि' इत्युक्तम् सैदप्यसारम्, यत्ते(यतो) न व्यवसायबलाद् ग्राहकं दर्शन व्यवस्थाप्यते किन्तु प्रतिभासवशात् अन्यथा अश्वविकल्पसमये गोदर्शनव्यवस्था न स्यात् प्रतिभासश्च निराकृतपूर्वापरभावो वर्तमानार्थ२५मारूढः परिस्फुटं सर्व एवाभाति साक्षात्का(त्क)रणं हि परिस्फुटता तत्व(च्च) सन्निहितप्रतिभासनम् असन्निहितस्य साक्षात्क मशक्यत्वात् पूर्वदृष्टं सन्निहितं रूपमिति न तद्रहः प्रत्यक्षस्वभावः । अथापि स्यात् नोत्तरप्रत्यक्षे पूर्वदृष्टं रूपमाभातीति किन्तु धर्मिरूपं नीलादिलक्षणम् , असदेतत्; पूर्वापरदर्शनप्रतिभासि स्वरूपव्यतिरिक्तस्य नीलादित्वस्य धर्मिणस्तभेदेऽप्यभिन्नस्याऽनुपलब्धे(ब्धेः) नहि पूर्वापरदृगवसेयं मुक्त्वा रूपमपरो नीलादिरूपो धर्मी प्रतिभाति, अप्रतिभासमानस्य नित्यत्व३० साधने न कौचित् क्षतिः प्रतिभासँस्यैव सर्वस्यानित्यत्वसाधनात् । तन्न अँध्यवसायवशादध्यक्षस्य ग्रहणव्यवस्था इत्येके। अपरे तु मन्यन्ते यद्यपि नीलाव्य(ध्य)वसाया(यात्) नीलदर्शनस्य तद्हेणं व्यवस्थाप्यते तथापि १-ग्राह्य किं न दृष्टे-वा. बा०। २-दृष्टे त-भां०म०। ३-नशन-आ०।-नदृशंन-वि०।-नवशंनवा० बा०। ४-यावभावे तदभा-वा० बा० विना। ५-ज्ञानं तद-वा. बा० विना। ६ तवभा-वा. बा। ७-ससक्ति-वा. बा. विना । ८-भासमेवे द्युक्त-आ. हा० वि० ।-भासस्येवैतद्युक्त-वा. बा० । ९ सति प्रसकेनशा-वा० बा०। १०-रूपानि-वा. बा०। ११-कार्थप्र-वा० बा०वि० विना। १२ तत्र भासात् आ० हा० वि०। त भासात् भां० मां०। १३-भातात् प्र-वा. बा०। १४ प्रतिभासस्यै-वा. बा. विना। १५-मानं रदृशः भा० मा० ।-मा वरदृशः हा० ।-मानं शिस्तम्भा-वा० बा० ।-मानवरदृशः वि०। १६-ह्यस्य वि-वा० बा०। १७ पृ. ३२० पं०२। १८ तदपप्रति यते न वा० बा०। १९-ना डावा. बा. विना। २. तत्त्वसन्निहितप्रतिभासनमसन्निहितप्रतिभासनमसन्निहितसाक्षात्क-वाबा। २१-नस्यानि-आ०। २२ काचित् कृतिः वा. बा.। २३-सस्यैवं स-मां• आ० हा० वि०।-सस्येवं स-वा० बा०। २४ अव्यव-वा० बा०। २५-हणंव्य-वा० बा०। २६-लान्यव-वा० बा०। २७-सायीनी-वि०। २८-हण व्य-बा० बा। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३४१ लूनपुनर्जातकेशादिषु 'पूर्वदृष्टं पश्यामि' इत्यध्यवसायस्यान्यथापि प्रवृत्त्युपलब्धेः कथं तद्रूपार्थग्राह्यनुभवव्यवस्थापकत्वम् ? न च विच्छेदाभिस्तित्र भेदस्य ग्रहणादभेदग्राहिता मा भूद् अनुभवस्य तन्निबन्धना न पुनरिहैवं भेदावसायस्यैव कस्यचिद्भावादि( वादिति) वक्तव्यम्, भेदावसाय एवात्र कस्यचिन्नास्तीत्यदर्शनमात्रादसिद्धेः। अपि च, अवगतविच्छेदानामपि प्रमातॄणां समानवर्णसंस्थान-प्रमाणेषु केशादिषूपलम्भसमये न प्रत्यक्षनिबन्धनस्तदन्येषामिवाऽन्यत्वनिश्चयः अपि त्वनु- ५ भतविच्छेदेषु पूर्वरूपाऽसम्भवादेकाकारप्रत्ययगोचरेष्वनित्येष्वनुमाननिबन्धन एव, तत्वा(च्चा)ऽन्यत्रापि समानम् विकल्पवशाच्चायमनुभवस्य विषयव्यवस्थां कुर्वन्नन्यथापि विकल्पस्य सम्भवदर्शनात् समुपजातशङ्कः कथं सर्वत्र कुर्वीत ? अथ बाधकप्रमाणबलेनाऽन्यथात्वस्य प्रतीतेः, अत्र च तद्भावान्न शङ्कासम्भवः । तदुक्तम्___ "बाधा ज्ञाने त्वनुत्पन्ने का शङ्का निष्प्रमाणका"[ इत्युच्यते, असारमेतत्; यतो यत्र वाधकप्रमाणवृत्तिस्तत्र विपर्ययानिश्चय एवं न पुनर्बाधकनि. बन्धना शङ्का युक्ता, सा हि तुल्यजातीये प्रतियोगिदर्शनाददृष्टप्रतियोगिष्वपि विशेषादर्शिनामुपजायत इत्युक्तमसकृत् । तन्नैकत्वाव्य(ध्य)वसायिविकल्पबलानिर्विकल्पकप्रत्यभिज्ञानस्य पूर्वदृष्टार्थाधिगन्तृत्वं व्यवस्थापयितुं शक्यम् । यदे पि कैश्चिदभ्युपगम्यते-निर्विकल्पकं ज्ञानमेकत्वग्राहि तदनन्तरभावि च सविकल्पकं प्रमाण-१५ मिति, तदपि प्रतिविहितमेव; निर्विकल्पकेनैकत्र परिच्छेदात् स्वरूँ पप्रतिभासनं निर्विकल्पकमुच्यते सन्निहितमेव च स्वरूपमाभाति असन्निहितप्रतिभासस्य वस्त्वसन्निधे_न्तत्वात् पूर्वदर्शनादिसम्बन्धिता व(च) तदा सन्निहिता नास्ति । तन्न तत्र दर्शना(न)वृत्तिः स्मृतेरेव तत्र प्रवृत्तः, पूर्वदर्शनवृत्त्यायेगतेः स्मरणमन्तरेण पूर्वगादिकं स्मरत एव 'पूर्वदृष्टम्' इत्यध्यवसायोप्याद् विस्मरणे तदभावा( वात् ) स्मृतिविकैलेन्द्रियजप्रतिभासस्य निर्विकल्पकत्वात् । [?? न स्मृतिकृतदर्शनमवि-२० कल्पकज्ञानावसेयमेकत्वम् । अत एव कल्पनाज्ञानमप्येकत्वाध्यवसाये शुक्तिकायां रजत,द्धितत्त्वम् ??] न च तत्र बाधेकप्रवृत्तेर्भ्रान्तता सन्निहितविषये तु प्रत्यभिज्ञाने न कदाचिद् बाँधावृत्तिरिति सत्यार्थता, यतस्तथापि यदि तत्त्वमधिकथं (धिगतं) भवेत् प्रथमदर्शन एवं प्रतिभासेत अप्रतिभासनादसत्यम् । अथ स्मृतिसहिताया दृशस्तत्त्वे व्यापारान्न प्राक्तनदर्शने प्रतिभासनम् , असारमेतत्; यतः स्मरणसहायमपि देर्शनं नैकत्वग्रहणक्षमम् तस्य वर्तमानमात्र एव व्यापारात् वर्तमानमेवाक्ष-२५ प्रभवे ज्ञाने प्रतिभातीति तदेव तद्विषयो नै तत्त्वम् । यच्च यदगोचरस्तद् अन्यसद्भावेऽपि न तत्र प्रतिभाति, यथा गन्धस्मृतावपि न दृशि परिमलः, दृगविषयश्च पौर्वापर्यम् तन्न स्मृतावपि तत् तत्र प्रतिभाति । तथा, स्मृतिरपि नैकत्वमवगच्छति, वर्तमानदग्विषये तस्या अप्रवृत्तेः। नहि वर्तमानदर्शनग्राह्य रूपं स्मृति(तिः) परामृशति परोक्षाकारतया तस्याः प्रवृत्तेः, असंस्पर्श च न स्वविषयस्य १-दृष्ट प-वि. विना। २-रतत्र मेदग्राहिता भां० मा० । स्तत्राभेदस्य ग्रहणादभेदस्य ग्रहणादभेदग्राहिता वा. बा०। ३-दर्शनामा-वा. बा०। ४ त्वभू-भां• मां०। ५-प्वतितेष्व-वा. बा। ६-ना स-वा. बा०। -थ वाधनबाधकवलेनान्यथा-वा. वा०। ८-म्भवतस्तदु-वा० बा०। ९बाध्याशा-आ० हा० वि०। १०-स्तद विप-वा० वा०। ११-व पु-वा० बा०। १२-योगिवपि वा. बा० । १३ पृ. ३१९५० २८। १४-कल्प ज्ञा-भां. मां०। १५-क प वा० बा० । १६-रूपाप्र-आ० । १७-भासं निर्वि-आ० ।-भासन निर्वि-भां० । १८-सन्निधे प्रा-वा० बा । १९-ता व त् त-वा० बा० विना । २०-वृत्ते पू-वा. बा.। २१-धवग-वा. बा. विना। २२-मन्तरेऽपूर्वद्यागादि-वा० बा० । २३-दया वि-आ। २४-रणा त-वा. बा० । २५-कलेन्द्रियाजनप्र-वा० बा०। २६ स्मृतिकृतं दर्शनं विकल्पकमिति नाधिकल्पकल्पकज्ञानाव-वा० बा०। २७-त्वाव्यवसायं मुक्तिकार्या र-वा० बा०। २८-बुद्धिवं न आ० ।-बुद्धितवं न हा० वि०। २९-धकं प्रवृत्तेः भ्रांतरा स-वा० बा। ३० बाध्यावृ-आ०। ३१-व तंत् प्रतिभासेताप्रतिभासेता प्रतिभासनादसत्य-वा. बा० ।-व प्रतिभासेताप्रतिभासेताऽप्रतिभासनादसत्य-मां० । ३२-नप्रद-वा० बा० । ३३-दर्शनं चैकत्वन-वा. बा०।-दर्शनं चैकग्र-भां० मा० ।-दर्शनं चैकत्वं प्र-हा०वि०। ३४ नन्येवं य-वा० बा० । ३५-यदगो-बा. बा. विना। ३६-ग्राह्य रूपं स्मृ-आ० ।-ग्राह्यरूपां स्मृ-हा० वि०।-ग्राह्या रूपः स्मृ-वा० बा०। ३७-वृत्ते दसं-वा० बा० । ४४ स० त. Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द ३४२ प्रथमे काण्डेतेन सहैक्यमवगमयति । न च दर्शन-स्मरणयोरेकाधिकरणता तत्त्वम् तथाप्रतीत्यभावात् तयोः स्फुटास्फुटावाकारौ बिभ्राणे दर्शन-स्मरणे नैकाधिकरणतामैनुवीयाताम् सर्वसंविदामेकाधिकरणतापत्तेः । न च तत्र प्रतिभासभेदाद् भिन्नार्थता, स्फुटेतरप्रतिभासभेदाद् दर्शन-स्मरणयोरपि प्रसक्तेः-दर्शनं हि साक्षात्करणाकारम् स्मृतिश्च परोक्षाव्य(ध्य)वसायस्वभावेपि (ति) कथं ५तयोः प्रतिभासभेदादि(दाद्) भिन्नार्थत्वम् । तन्न ताभ्यामपि एकत्वप्रतिपत्तिः। नाप्यात्मा एकत्वं प्रतिपद्यते दर्शन-स्मरणाभावे स्वापादावर्थप्रतिपत्तेस्ततोऽभावात् । दर्शनस्मरणे च पूर्वापरार्थेः (र्थ)परिहारेण प्रवर्तमाने न तयोरेकत्वमधिगच्छत इति न तद्द्वारेणात्मापि तत्त्वमवैति । न चात्मनोऽपि पूर्वापरावस्थयोरेकत्वावगमः पूर्ववोधेन भाविविवोधसम्बन्धितार्नु (ताननु)भवात् उत्तरानुभवेन पूर्ववित्सम्बन्धिताऽनवगमात्, अनुभवे वाऽनाद्यनन्तसकलजन्म१० परम्परापरिच्छेदप्रसक्तिः। न च शुद्ध एवात्मा स्वसंवेदने प्रतिभाति दृशा(शा) परिगतः तासाम प्रतिभासे तद्गतत्वेन तस्याप्यप्रतिभासनादित्युक्तत्वात् । न च दर्शन-स्मरणव्यतिरेकेणाऽन्योऽनुसन्धाना(ता) भाति, ते चान्योऽन्यपरिहारेण स्थिते इति कथमेक आत्मा ? न च द्रष्टु(प्टुः) स्वरूपं स्मर्तृरूपतया 'दृ(द्र)याऽहं स्मरामि' इति' प्रतीतौ प्रतीतिः(प्रतीयत इति ) कथं नैक आत्मा? येतो द्रष्ट(पू)स्वरूपं किं स्मर्तृस्वरूपानुप्रवेशेन प्रतिभाति, उताननुप्रवेशेन ? द्य(यद्य)नुप्रवेशेन तदा ;ष्ट. १५स्वरूपता (द्रष्टस्वरूपता स्मर्तृस्वरूपता ) वा, एकस्य रूपस्येतरत्रानुप्रवेशात् । अथाननुप्रवेशेन तदा तुरूपे अन्योन्य भिन्ने स च नैक आत्मा। न च द्रष्ट-स्मतृरूपो विकार एव भिद्यते नात्मेति क्रमभाविविकारप्रतिपत्तौ तक्तत्वेन तस्याप्य(स्यापि) प्रतिपत्तेः विकारव्यतिरेकेण तस्याऽनुपलब्धे. रित्युक्तत्वाच्चेति नात्मनोऽप्येकत्वप्रतिपत्तिः । न च स्मरणोत्तरकालभाविनी 'स एवायम्' इत्यनुः सन्धानप्रतिपत्तिरक्षान्वयव्यतिरेकानुविधायितया प्रत्यक्षं प्रमाणम् , तस्याः प्रत्यक्षत्वानुपपत्तेः । यदि २० प्रत्यक्षप्रभवेयं भवेत् पौर्वापर्ये वृत्तिमती न स्यात् अक्षस्य वर्तमान एव व्यापारात् । न च स्मरणोप. ढोकिते पूर्वापरभावेऽक्षस्य वृत्तेः तत्प्रभवायास्तस्यास्तत्र वृत्तिर्युक्ता, अक्षस्य स्मरणोपहितेऽपि पौर्वापर्येऽविषयत्वेनाप्रवृत्तेस्तदुद्भवायास्तस्या अपि प्रवृत्त्यनुपपत्ते(त्तेः) । न(न)द्युत्पलरूपप्रवृत्तिमदक्षं स्मरणोपैनीतेऽपि गन्धादौ प्रतिपत्तिजनैनं (?) स्मरणम् न च चक्षुषो गन्धाविषयत्वात् न च तंत्र लोचनसंवित्प्रसवः स्मरणोपनीतपौर्वापर्येऽप्यक्ष(क्षा)विषयत्वस्य तुल्यत्वात् । अथ कथमक्ष२५ व्यापारानन्तरं प्रत्यभिज्ञा उदयमासादयति यद्यक्षप्रभवान्न( वा न ) भवेत् ? न; तत्र सति पुरोव्य. वस्थितवस्तुदर्शने पूर्वदृष्टे स्मृतेरुदद्यात् यथा दूरव्यवस्थितचन्दनाद्यर्थदर्शनात् गन्धस्मृतेः 'सुरभि चन्दनम्' इति प्रतिपत्तिः । न च लोचनाविषयत्वाद् गन्धस्य तद्विशिष्टं(ट)चन्दनप्रतित्तिस्तद्गतरूपदर्शनाल्लिङ्गप्रभवेति वक्तव्यम्, प्रकृतेऽपि समानत्वात् । तथाहि-वर्तमानदर्शनात् पूर्वकालाद्यनुस्मरणात् तद्विशिष्टपुरोव्यवस्थितार्थप्रतिपत्तिरानुमानिकी पूर्वकालादिसम्बन्धितायास्तदा प्रत्यस्त३० मयतोऽक्षागोचरत्वात् तामध्यवस(स्य)न्ती प्रत्यभिज्ञा कथं प्रत्यक्षतामनुभवेत् ? अन्यथा परोक्षप्रतिपत्तेः सर्वस्याः प्रत्यक्षताप्रसक्तिः । अथ परोक्ष(क्षा)कारैव प्रतीतिरप्रत्यक्षा प्रत्यभिज्ञा तु पूर्वगादियोगित्वे परोक्षाकारा वर्तमानत्वे प्रत्यक्षाकारेति स्मरणाऽध्यक्षरूपा एका प्रतीतिः, नैतदेवम्। १-भ्राणा द-वा० बा० विना। २-रणे मस्नुवीयाताम् वा० बा०। ३-मप्युपधीयताम् वा० बा. विना०। ४-थं न तयोः प्रतिभासाभेदादभिन्नार्थत्वम् वा० बा० विना। ५-रणा च वा. बा० ।-रणो च आ० हा० वि० । ६-राथे प-वा० बा० ।-रार्थो प-भां० मां०। ७ पूर्वाबो-भां० मा० । पूर्वरोधेवा. बा०। ८-नुभावा-वा० बा० हा० वि०। ९ ते वान्यो-आ० विना। १०-या द्रष्टाऽ-वा० बा। ११-ति प्रतीति क-वा० बा०। १२ यतो दृष्ट-वा० बा० विना। १३-न ह्यनु-वा० बा• विना। १४ द्रष्ट्ररू- वा. बा०। १५-रूपतां वा भां० हा० वि०।-रूपंता वा मां०। १६ एवं भि-आ० हा० वि० । एवि मि-भां० मा०। १७-वृत्तेस्तद्भवा-आ० ।-वृत्तेस्तुस्तदुद्भवा-भां० मा० । १८-पत्तेः त तमुत्पलआ. हा० वि० ।-पत्ते तात्पल-भां० मां०। १९-वृत्तिदक्षं स्म-वा० बा० ।-वृत्तिदक्ष स्म-भां० हा० वि० । २०-पनी पि वा. बा. विना। २१-ननस्म-वा० बा० । अत्र 'प्रतिपत्तिजननसमर्थम्' इति संभवेत् । २२-त्वात् त व तत्र आ० । २३ तत्रालो-भां० मा०। २४ भवेन्न सति आ० । भवेत् तत्र सति हा० वि० । २५-ना दन्ध-आ० । २६-न्दनाद्यमिति वा० बा०। २७-पत्तित्तवद्दत-भां० मा० । २८-लादिसंबन्नितावा० बा०। २९-यतोऽक्षी-भां. मां०। ३०-कारो व-आ. हा०वि०। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा | आकारद्वयायोगात् एकवस्तुने आकारलक्षणत्वात् तद्भेदे ज्ञानस्यापि भेदात् अन्यथा परोक्षापरोक्षाकार भेदेऽपि स्मरण-दर्शनयोरभेदप्रसक्तिर्भवेदिति सर्वमपि ज्ञानं स्मृतिः प्रत्यक्षं वा भवेत्, प्रथमपक्षेऽस्पष्टप्रतिभासप्रसक्तिः । द्वितीये तु सर्वप्रतिभासो विशब्दः (दः) स्यात् । न च स्मरण-दर्शनयोरस्पएँ - स्पष्टप्रतिभासभेदाद् भेदः, प्रत्यभिज्ञानेऽपि 'सः' इति पूर्वोले खस्याष्ट (स्यास्पष्ट ) प्रतिभासतया 'अयम्' इति वर्त्तमानोल्लेखः ( खस्य ) स्पष्ट प्रतिभासरूपतया प्रतिभासभेदात् भेदस्य ५ न्यायप्राप्तत्वात् । न च स एवायम्' इत्येकत्वाध्यवसायादेकत्वम् यतः किं पूर्वापराध्यवसायस्यैकत्वम्, यद् वा अध्यवसीयमानस्य ? न तावदाद्यः पक्षः अन्योन्यरूपविवेकेन पूर्वापरयोरवभासनात् । तथा हि- 'सः' इति पूर्वरूपाध्यवसायो वर्त्तमानरूपाध्यवसायविविक्तः प्रतिभाति, 'अयम्' इति च वर्त्तमानाकारावभासः पूर्वावभासविभिन्नतनुराभाति, परस्पररूपानुप्रवेशे वा 'सः' इति वा प्रतिभासः स्यात् 'अयम्' इति वा, तथा च कुतः 'स एव' इत्येका प्रत्यभिज्ञा ? परस्परव्यतिरेके १० च परोक्षाऽपरोक्षप्रतिभासयोर्भेद एवेति कथमेका प्रत्यभिज्ञा ? नाप्यवसीयमानस्याऽभेदः, अवसायमेदे तदवसीयमानस्यापि भेदात् । न च स एवायम्' इति व्यवहारैकत्वादेकत्वम्, यतो व्यवहारो ज्ञानम्, अभिधानम्, प्रवृत्तिर्वा ? तत्र यदि ज्ञानम् तंत्राप्यविकैल्पां (ल्पम् ), स्मृतिः, कल्पना वा ? यदि निर्विकल्पकं तत् पूर्वापरकालभावि भिन्नमेव एककालपि पूर्वापरार्थग्राहि प्रतिभासभेदाद् मिन्नम् । अथ स्मृतिः सापि दर्शनाद् भिन्नैव कथं तदर्थस्यैकत्वं साधयति ? न च पूर्वदर्शन विषय १५ वृत्तिः स्मृतिः, तद्विपयत्वस्य तत्रासिद्धेः । तदा ( था ) हि - न तावद् दर्शनी (नातू) स्मृतेस्तद्विषयत्वं सिध्यति दर्शनकाले स्मृतेरभावात् तदभावे च न तदर्थवेदनं तनः सिध्यति । नापि स्मृतेरेकार्थता वृत्तिः तत्काले दर्शनस्याभावात् तद्भावे वा स्मृनेरयोगात् । नहि दर्शनावस्थायां स्मृतिरुदयवती उपयोगवती वा, दर्शनादेवार्थप्रतिपत्तेः । ततो दर्शनकालपरिहारेण प्रवर्त्तमाना स्मृतिर्न दर्शनार्थविषयतामात्मनोऽधिगन्तुं समर्था । अस्पप्रतिभासा च स्मृतिः कथं स्पष्टप्रतिभासा ( स ) दग्विषय. २० मर्थमधिगच्छति ? इति न तदर्थविषया स्मृतिंवृत्तिः सिद्धा प्रतिभासभेदस्य भेदकत्वात् अन्यथा भेदोच्छेदप्रसक्तिरित्युक्तत्वात् । न च कल्पनाप्येका व्यवहृतिः यतः पूर्वापरावभासा ( भासा ' स एव ) अयम्' इत्युलेख (वती) सापि भिन्नैवेत्युक्तम् । अभिधानमपि 'सः' इति 'अयम्' अपि (इति) च भिन्नम् भिन्नार्थं च प्रतिभाति एकार्थत्व (त्वे) पर्यायताप्रसक्तेः । तेन अभिधाप्येका व्यव हृतिः । प्रवृत्तिस्तु क्रियारूपत्वात् पूर्वापरभाविनी भिन्नवेति कुतो व्यवहारैकत्वादप्येकत्वम् । ५५ ३४३ अथैकत्वाध्यवसायः ' स एवायम्' इति, संवादश्च तत्र विद्यते एवेति कथं न तत्र प्रत्यभिज्ञा प्रमाणम् ? उच्यते, प्रतिभास एवाध्यवसाय-संवादौ प्रतिसत्वन्ये (?) वा सकल एव निरस्तपूर्वापरभावः स्वावधिक मैं वेत्ति भिन्नकालावधेस्तस्य संवेदनासम्भवात् । तथाहि संवेद्यमानरूपसद्भावे वस्तु संवेद्यते वेदनकाल एव च संवेद्यमानं रूपमस्ति, कालान्तरे तस्य सद्भावाभ्युपगमे स्वत एव संवेदनैत्यप्रप्तेिः (?) तत्त्व संवेदन समयाध्यासितमेव सर्वमाभाति नान्यसमयादियोगि अन्यकालादि. ३० विना । ३ परोक्षप - आ० विना । ४ ज्ञान स्मृ६- रस्पष्टप्रवा० वा० विना । ७- अत्र 'ट' स्थाने वा० । ९ पूर्वोल्लेखोस्पष्टप्रवा० बा० विना । १२ इत्येको प्र-भां० मां० । १३ परो । १- गादेवस्तु वा० वा० । २-न अका- हा० वि० वा० वा० । ५ भत्रे अथस पक्षेऽरूप वा० वा० । लिपिकारेण 'पू' इति लिपिः कृता । ८-दा प्रतिज्ञा वा० १०- रयो व वा० बा० विना । ११ - था वत् कुतः भ० मां० । क्षस्यतिभासयो भेदे एवेति वा० बा० । १४ तवाप्य वा० वा० १५- कल्पा स्मृ-वा० बा० विना । १६- मपि पूर्वग्राहि प्रभास - वा० वा० । मपि पूतिभास मां० मां० । १७- न्न विवा स्मृ-वा० बा० । १८ स्मृति त वा० वा० ॥ १९- ना स्मृ - वा० बा० । २० - दर्थावे वा० वा० । २१ स्मृतेरुद - वा० वा० । २२- नार्थ वि-वा० बा० विना । २३ वृत्ति सि-आ० हा ० वि० २४ - वहतिर्य- आ० हा ० वि० । स एवाधमित्युलेख मी सापि वा० बा० । २६-धानाम-वा० बा० । २७- कार्थत्व पर्यायतो प्रवा० बा० । २८ तत्राभि-हा० वि० २९- धाप्यका वा० वा० । ३० - स्तुभि क्रि-भां० म० । ३१-त्वाSव्यव - वा० बा० । ३२ च्यतो प्रवा० बा० । ३३- ध्यवासाय - वा० वा० । ३४ - प्रतिसव्वन्ये वा वा० बा० । प्रतिसवत्ये वा आ० हा० । प्रतिभासत्वेत्ये वा वि० । ३५-मर्थ वेति भि-वा० बा० । ३६तर तस्य वा० वा० । ३७-गमो स्व- वा० बा० । ३८-न समया - वा० बा० । ३९ प्राप्ते तत्व- भ० मां० । २५- राभा Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ प्रथमे काण्डेयोगिनोऽपि तदा प्रतिभासने तदेव प्रकाशरूपसद्भाव इति वर्तमानैव पूर्वकालादियोगता भवेत् नातीता । प्रकाशमानरूपविरहे च न तदा पूर्वकालादियोगितायाः प्रतिभासनमित्येकत्वस्यानुपलब्धेर्न प्रत्यभिज्ञा कथञ्चिदपि सम्भविनी। न च संवादोऽप्येकत्वे 'सिद्धः, स हि तदर्थज्ञा(?)न्तरवृत्तिः म(न)रैकत्वे पुनः ज्ञानवृत्तिः इत्युक्तम् । तजातीये तु पुनदर्शनं प्रवर्तते तदैव च संवादात् समभिमानो ५लोकस्य तत्त्वाध्यवसायात् । तथाहि-'स एवायम्' इति तदर्थक्रियाकारी अयं भाव इत्युच्यते तदर्थकारित्वं च भिन्नस्याप्युपलब्धम् यथा चक्षुरादेस्तज्ज्ञानजननम् तत्रैव च ‘स एवायम्' इति भेदेऽप्येकत्वव्यवहारः अथवा पूर्वाऽपरदर्शनाभ्यां परस्परपरिहारेण प्रवृत्ताभ्यामेकत्वलक्षणस्य तदर्थस्य बाधितत्वादनादिकाला भ्रान्तिरेव प्रत्यभिज्ञा । तन्न क्षणिकाभिव्यक्तिषु शब्दमात्रासु निर्विकल्पक प्रत्यभिज्ञावसितं स्थैर्यम् निर्विकल्पकस्य सविकल्पकस्य वा प्रत्यभिज्ञानस्य प्रामाण्यासिद्धितस्तत्त्वा. १० साधकत्वात् । तन्न प्रत्यक्षविरोधमनुभवन्ति क्षणभङ्गवादिनः। यदपि 'नाशस्य कारणाधीनत्वादसन्निहिते(त)कारणस्य घटादिपु अनुदयात् विनाशकारणात् प्रागनिवृत्तरूपा एव घेटादयः, तदपि प्रतिक्षणध्वंसिताभावे सर्वसामर्थ्याभावलक्षणस्यासत्त्वस्य भावात् स्वरसविनाशितया [?? नापि संयोगाद् विनाशमनुभवन्तीध्व(न्ध)नाद्य इति ??] प्रतिविहितमेव । तथापि किञ्चिद् उच्यते-तत्रेन्धनादीनामग्निसंयोगावस्थायां त्रितयमुपलभ्यते तदे१५ वेन्धनादि, कश्चिद् विकारः, तुच्छरूपस्वभावः कल्पनाज्ञानप्रतिभासी, तत्राग्न्यादीनां क्व व्यापार इति वक्तव्यम् । न तावद् इन्धनादिजन्मनि स्वहेतुत एवैपामुत्पत्तेः । नाप्यङ्गारादौ विवादाभावात् अग्न्यादिभ्यश्चाङ्गाराद्युत्पत्ताविन्धनादेरनिवृत्तत्वात् तथैवोपलन्ध्यादिप्रसङ्गः। न चाङ्गारादिभ्यः काष्टोदेर्धे()सान्नीयं दोपः। ततो वस्तुरूपापरध्वंसोपगमेऽपि काष्ठादेस्तदवस्थात् पुनरपि स्वार्थक्रियानिवृत्ते. र्वन्नक(?)प्रसक्तिः । ततोऽप्यपरतथाभूतध्वंसोत्पत्त्यभ्युपगमेऽप्यनवस्था वाच्या । अथ भावान्तरमेव २० प्रध्वंसाभावः नापरः तत् कथं काष्ठादेस्तथोपलव्ध्यादिप्रसङ्गः ? नेतदेवम् ; यतः 'काष्ठादेरङ्गारादिरेव ध्वंसो नापरः' इत्यत्र किश्चिन्निबन्धनं वाच्यम्, तस्मिन् सति तन्निवृत्तिरिति चेत्, न; तुच्छस्वभावनिवृत्त्यनङ्गीकरणेऽङ्गारादिकमेवार्थान्तरं निवृत्तिशब्देनोक्तम् । ततश्चायं वाक्यार्थः-अङ्गारौंदिभावभावात्(?)काष्ठादेरशारीदिकं ध्वंस इति । न(?)चाङ्गादेर्भावस्वात्मनि हेतुत्वविरोधात् अप्र स्तुताभिधानं च प्रसक्तम् अत्स्या (गया)दिभ्यस्तदुत्पादाभिधानात् काष्टादीनां निवृत्तौ प्रस्तुतायामर्था२५न्तरविधाने तेषामनिवर्त्तनात् । यदप्यभ्यधायि 'बुद्धि-प्रदीपादयो येऽप्यनु(नुप)जातविकारा ,समासादयन्ति तेऽप्यात्माव्यक्तरूपां(पतां)विकारान्तरम( मे )व ध्वंसमनुभवन्ति' इति, तदप्यसङ्गतम्। बुझ्यादीनामात्मरूपविकारापत्तौ प्रमाणाभावात् आत्मनश्चासत्त्वात् कथं तद्रूपता बुद्ध्यादीनां विकारः? 'न च परिणामः सम्भवति' इति प्राक् प्रतिपादितम् । प्रदीपादेस्तु अय॑क्तभावः कार्यदर्शनादनुमेयः तस्याती३०न्द्रियत्वात् । न च ध्वस्तस्य प्रदीपादेः किञ्चित् कार्यमुपलभ्यते यतस्तदव्यक्तभावानुमितिः स्यात् । तन्न भावान्तरं प्रध्वंसाभावः। भावान्तरस्य च प्रध्वंसत्वे तद्विनाशाद् घटाद्यन्मजनप्रसक्तिः। न च १-ता भवेन्नतीता भां० मां. आ० ।-ता भावेन्नतीता हा०वि०। २-रहे चेन्न वा. बा. विना। ३-सममित्ये-भां० मा. आ. हा०वि० ४-कत्व सि-वा. बा. विना। ५सिद्धेः वा० बा०। ६-वृत्तिर्नचैक-वा० बा० विना। ७ तत्रा क्ष-आ० । तत्वा क्ष-हा० वि०। ८ स्थैर्य नि-वा० बा० विना । ९-णसङ्ग-भां० मा० । १० पृ. ३२० पं० २२। ११-घटामुनुद-वा० बा० । घटादिषूनुद-हा०। घटादषूनुद-वि०। १२-तीधूना-भां०। १३ स्थायां त त्रतय-वा. बा०। १४ न वा-वा. बा. हा० वि०। १५-ष्ठादेशान्नांय दो-भां० मा०।-ष्ठादेशान्तायं आ० ।-ष्ठादेवशात्तायं हा०वि०।-ष्ठादेविनाशानायं वि०सं०। १६-नाव्यं दो-वा. बा.। १७-निवर्तप्र-वा. बा०।-निवृत्तेर्वर्त्तकप्र-भां. मां ।-निवृत्तेर्ववतर्कप्र-हा० ।-निवृत्तेर्वतर्कप्र-वि० ।-निवृत्तेर्वतर्कप्र-वि० सं० । १८-वृत्यमंगी-वा. बा०। १९-न्तर नि-वा. बा. विना। २०-रादिभाविभा-वा. बा.। २१-रादिक ध्वं-भां. मां। २२-रादिभावेङ्गारादिर्भावः स्वात्मनि मां०।-रादिभावेगारादेर्भावः स्वात्मनि भां०।-रादिभावे देर्भावः आत्मानि वा. बा०। २३-षामनव-वा० बा०। २४ पृ. ३२१५० २॥ २५-न्ति तन्मा व्यक्तरूपतां विबा. बा. २६-व्यक्ताभा-आ०. २७-भावका-हा०वि०॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३४५ कपालादेर्भावरूपतैव ध्वस्ता नाभावात्मकतेति नायं दोषः भावान्तररूपस्याभावस्य तदभावे प्रच्युतत्वात् । न च कृतकस्याभावस्याविनाशितायामनित्यत्वेन कृतकत्वस्य व्याप्तिः सिंध्येत् अकृतकत्वे त्वभ्युपगम्यमाने भावान्तरकार्यात्मकत्वंसो(त्वं ध्वंसो)न भवेत् । प्रध्वंसाभावाविनाशे तु सर्वदा प्रध्वंसद्भा(ससद्भावात् घटादीनां सत्ता न भवेत् । ततो यथा कारणस्वरूपः प्रागभावः कार्योदये कारणनिवृत्तौ निवर्त्तते-अन्यथा तदात्मकत्वायोगात्-तथा कार्यात्मा ध्वंसाभावोऽपीति नष्टैर्घ- ५ टादिभिः पुनर्मक्तव्यमेव । न च यथा हेतुवन्धे देवदत्तस्य न पुनः प्रादुर्भावः तथेहापीति वक्तव्यम्, देवदत्तहेतुर्देवदत्तमरणारूपत्वात् तस्य दण्डादिकल्पत्वात् । तन्न कपालादिरूपं भावान्तरं घटादे सः तत्र कारकव्यापारासम्भवात् क्रियाप्रतिषेधमात्रप्राप्तेः अकारकस्य वा हेतुकत्वादहेतुमत्त्वाभ्युपगमोऽभावस्य विरुध्येत । हेतुमत्त्वेऽभावस्य कार्यत्वाद् अभावरूपताप्रच्युतिप्रसङ्गः भावस्य कार्यलक्षणत्वात् । तथाहि-यत् स्वकारणसद्भावे भवति तदभावे च न भवति तत् कार्यमुच्यते, भवन-१० धर्मा च कथं न भावः ? यतो 'भवति' इति भावः उच्यते इत्यङ्करादेरपि भावशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं नापरमुपलभ्यते, तच्चेदभावेऽप्यस्ति कथमसौ न भै(भा)वः? न चार्थक्रियासामर्थ्य भावशब्दप्रवृत्तिनिमित्तम् तथा(तच्चा)भावे नास्तीति वक्तव्यम् , सर्वसामर्थ्य विकलस्य तस्य प्रतीतिविषयताsभावात् कथं हेतुमत्त्वावगतिः? प्रतीतिजनकत्वे वा कथं न सामर्थ्य योग्यता? अथ कार्यत्वे सत्यपि यथा घंट-पटादीनों भेदः प्रतिनियतविज्ञानविषयतया तथा भावाऽभावयोः समानेऽपि कार्यत्वे १५ सत्प्रत्ययविषयस्य भावता असत्प्रत्ययविषयस्य वा(चा)भावरूपतेति, असदेतत् ; असत्प्रत्ययविषयत्वे कार्यताऽप्यस्य दूरोत्सारितैव । अथ स्वहेतुभावे भावात् कार्यता अस्य तर्हि कथं न सत्प्रत्ययं(य)विषयता? तथाहि-यद्यसौ 'भवति' इति प्रतीयते 'सन्' इत्यपि प्रतीयेत, नहि 'अस्ति' 'भवति' 'सद्भावः' इति शब्दानां कश्चिदर्थभेदो विद्वद्भिरिष्यते, अथ वा(चा )भावात्मकतयैवासौ भवति, न; व्याहतत्वात् । यतो 'न भवति' इत्यभाव उच्यते स कथं भवतीति ? स्वग्राहिणि ज्ञाने प्रतिनियतेन २० रूपेणाऽप्रतिभासनात् 'अभावः' इत्येतदपि न वक्तव्यम्, अत्यन्तपरोक्षचक्षुरादीनामप्यभावताप्रसक्तेः । न वाभावस्य भवितेषु पर्युदासात् प्रसज्यप्रतिषेधो भिद्यते, नवाऽसद्रूपत्वस्य विधानात् स पर्युदासाद् भिद्यते असदूपस्य भवनविरोधात्, 'भवति' इति हि भूत्या सत्तयाऽभिसम्बध्यते, ऍवं कथमसद्रूपस्य विधानं विधिः सर्वदा प्राधान्यात् ? नअर्थश्च पर्युदास एवैको भवेत् यतो यदि कुतश्चित किश्चिन्निवर्तत तदा तत पर्यदासेन तद्यतिरेकि परामृश्येत न चैवं भवति, 'निवृत्तिर्भवति'२५ इत्युक्तेऽर्थान्तरस्यैव कस्यचित् सर्वत्र विधानात्, एवं वस्त्वन्तरमेवोक्तं स्यात् न तयोविवेकः, अविवेके च न पर्युदासः । अपि च, यद्यंग्न्यादिभ्योऽभावो भवेत् तद्भावे काष्ठादयः किमिति नोपलभ्यन्ते ? न होण्यादिभ्यो ध्वंससद्भावेऽपि काष्ठादयो निवृत्ताः ध्वंसोत्पादन एंव अग्नयादीनां चरितार्थत्वात् काठोपमर्दन ध्वंसस्योत्पत्तेः। न तेषामुपलब्धिरिति चेत्, कुतः पुनस्तदुपमर्दः ? न तावत् प्रध्वंसाभावात् काष्ठादिसत्ताकाले तस्याभावात् । नाग्नयादिभ्यः ध्वंसाविर्भावि(व)न एव तेषां ३० १-पतेव वा० बा० विना। २ सिद्धेतुः अकृ-वा. बा०। ३ प्रध्वंस इति वान् घ-वा. बा० । ४ पुनन्मङ्कव्य-वा० बा० । पुनर्मक्तव्य-भा० । पुनर्मुक्तव्य गं०। ५-था हंतृबन्धे वा० बा० ।-था हेतुंबन्धे हा० वि० । अत्र 'हन्तुर्वधे' इति पाठः स्यात् । ६ अत्र 'देवदत्तहन्तुर्देवदत्तमरणरूपत्वात्' इति संभाव्यते । ७ वा हेतुमत्ताभ्युप-आ. हा० वि० । चा हेतुमत्ताभ्युप-भां० मा०। ८ भवतः न चा-वा० बा० । भवनवा-हा०वि०। ९-था भवे भां० मा० ।-था भावं ना-हा०वि०। १०-स्य प्र-वा. बा. विना। ११-मायो-वा० बा० विना । १२ घटापटादी-बा. बा. भां० मा० । घटादी-हा०। १३-नां भेद प्र-वा. बा. विना। १४-यस्य वा भावरूपतेति वा. बा. विना। १५ सन्नाव इ-वा० बा०। १६-कताया वासौ वा० बा० ।-कतायैवासौ आ० हा० वि०। १७-त्वात् यतो वा० बा० । १८-भावत्येतेतदपि न च व-वा. बा०। १९-क्षुदानीम-वा. बा। २. वास्य आ० हा० वि०। २१-विविषु प-वा० बा०।-वितृष्णु प-वि०। २२-द्यते सद्रू-बा० बा०। २३-वतीतिति हि वा० बा०। २४ एव क-आ० । २५-थनस-वा० बा०। २६ सर्वदाऽप्रा-मां। सर्वद प्रधानात् वा० बा० । २७ वर्तते त-वा. बा.। २८ न चैक भ-वा० बा०। २९-वस्त्यादि-वा. बा.। ३०-द्भावे को काष्टाद-वा० बा०। ३१ ह्यस्यादि-आ. हा. वि.। ३२ एवात्मादी-वा० बा०। ३३ न भावत् वा. बा. विना। ३४-ध्वंसाक्षात् काष्टादि-भां० मा. आ. हा० वि०। ३५-साविन एव तेषां भां. मां० ।-सादेर्भावनं एव तेषां आ० हा. वि.। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेव्यापारात् । न चोत्पन्नः प्रध्वंसाभावः काष्ठादीनुपमर्दयति तद्योगपद्यप्रसङ्गात् ; तथा च सत्यविरोधप्राप्तिः । ध्वंसेन च काष्ठादेविनाशने विकल्पत्रयस्य तदवस्थत्वात् ततश्चानवस्था । न च ध्वंसेनावृतत्वात् काष्ठादेरनुपलम्भः तदवस्थे तस्मिन्नावरणायोगात् ततो विकारभावे वा पुनरपि विकल्पत्रयानतिवृत्तिः। किञ्च, यदि हेतुमान् विनाशस्तदा तद्भेदात् म(स) भेदं किं नानुभवेत् ? कार्यात्म(त्मा)५नो हि घटादयः कारणभेदाद् भेदमनुभवन्तोऽध्यक्षत एवावसीयन्ते, नैवमनासादितभावान्तरसम्बन्धः प्रच्युतिमात्रस्वभावो ध्वंसः तस्याग्यभिघातादिहेतुभेदेऽपि तुस्व(च्छ)रूपतयैव सर्वत्र विकल्पज्ञानेऽवभासनात् । नहि 'अभावो भावः' इति तुच्छरूपतामपहायापरं तस्य किञ्चिद् रूपमीक्ष्यते हेतुमत्त्वे च तद्घस्थस्तस्य विनाशप्रसङ्गः । अथ विनाशस्य विनाशहेतुर्न दृष्ट इति नासौ विनश्यति । तदुक्तम् "घटादिषु (?) यथा हेतवो ध्वंसकारिणः। नैवं नाशंस्य सो हेतुस्तस्य सजायते कथम् ?" [ ] इति । भन्वेवं वुझ्यादीनामप्यविनाशिताप्रसक्तिः विनाशहेत्वदर्शनात् । अथात्राऽदृष्टोऽपि ध्वंसहेतुः कल्प्यते अहेतुकविनाशानुपपत्तेः अन्यत्र तस्य हेतुमत्त्वदर्शनात्, वुद्ध्यादीनां चोत्तरकालं स्वरूपा. संवेदनात् अवस्थितरूपत्वे च तेषां तदद्योगादिति, असदेतत् स्वसंविदितत्वानभ्युपगमे बुढ्यादी. १५ नामस्य प्रलापमात्रत्वात् । तथाहि-यथा घटादयो भावा न सर्वदैव ज्ञानविषयतामुपगच्छन्ति तथा बद्ध्यादयोऽपि ज्ञानान्तरसंवेद्याः सन्तोऽपि नावश्यमनुभवपथमुपयास्यन्तीति कुतस्तेषामनुपलम्भादभावनिश्चयः ? न चैकदोपलब्धानामन्यथा( दा )ऽत्यन्तानुपलम्भादसत्त्वनिश्चयो युक्तः, यत उपलम्भः प्रमेयकार्यम्, न च कार्यनिवृत्तिः कारणाभावं गमयति, "न हि अवश्यं कारणानि फल वन्ति" [ ] इति न्यायात् केवलमनुपलभ्यमाना बुद्ध्यादय उपलंम्भप्रत्ययान्तर विकला २०न 'असन्त एव' इति निश्चयः । येषां त्वर्थापत्तिसमधिगम्या बुद्धिस्तेषां चक्षुरादीनामिव कार्याना रम्भेऽपि कुतोऽस्या प्रभ(अभा)वो भवेत् ? अथवा एकैवावस्थितरूपा बुद्धिस्तांस्तान् पदार्थान् क्रमेणोपलभते, न ह्यस्या घटादीनामिव विनाशकारणमुत्पश्यामः, ततोऽदृष्टोऽपि यथाऽस्या विनाशहेतुः कल्प्यते विनाशस्यापि तथैव कल्प्यताम्, ततो विनौशेनापि स्वविषयज्ञानजननसामर्थ्य बिभ्राणेन विनंष्टव्यमिति घटादीनां पुनरप्युन्मजनप्रसङ्गः । य(त)तोऽयमहेतुर्निःस्वभावोऽभ्युपग२५न्तव्यः, अग्निसंयोगादयस्तु काष्टादिप्वङ्गारादिकमेव जनयन्ति, काष्ठादयस्तु स्वरसत एवं निरुध्यत (न्त) इत्यनवद्यम् । लोकश्चाकिञ्चिद्रूपतामेवे नाशस्य प्रतिपद्यते, तत्त्वमपि(?) वा(चा)सतोऽकिचिद्रूपतैव, यतोऽवैपरीत्यं तत्वमुच्यते, नैं चैतद् विपरीतं यत् 'अकिञ्चिद्रूपो ध्वंसः' इति । ततो यद्यपि 'सदसती तत्त्वम्' इति व्यपदेशस्तथापि नासतो वस्तुता । तेन "विनाशकाले १ न वोत्प-आ० हा० वि० । २-ध्वंस्याभावः भां. मां०। ३-वृत्तत्वा-भा० आ. विना । ४ तद्भेदात् म भेदात्म भेदं वा० बा०। ५-न्तरं स-भां० मां०। ६-स्यायेभिघा-आ० हा०वि०।-स्याट्याविघा-वा० बा०। -शहेतुर्न भां० मां०। ८-था--हेतवो भां० मा०।-था दहेतवो आ० । -थादहेतवो हा० वि०। ९-कारिणाः तैवं हा० वि० ।-कारिणाः ति(ते )वं आ०। १०-शस्य संजा-भां० मा० ।-शस्य सोऽहेतुस्तस्य संज्ञायतो कथ-वा० बा०। ११ नत्वेवं भा० मा० आ० हा० वि०। १२ अ त्रा-वा० बा०। १३-ति चेत् अस-वा० बा० विना। १४-झ्यादीनां नामस्य प्रलापनात्वात् वा० बा० । १५-लम्भावनि-भा० मां०। १६ न वैक-आ० हा० वि० । १७-कदोषलब्धा -वा. बा. भां० मा. आ. वि.। १८ न च कार्य न च कार्यनि-वा. बा० । १९-लम्भः प्र-भां० मा. आ. हा०वि०। २०-रविल्पनास-वा० बा० ।-रविकालनास-आ० हा० वि० । २१ अथचैकै-भां० म०। २२-नाशिनाभां० मा० । २३-मर्थ्य ब बिभ्रा-भां. मां० । २४-व निरूध्यत-भा० मा०वि०।-व विरुत-वा० बा० । २५-व गाशस्य आ० हा०।-व गास्य वि० ।-व गात्रस्य वि० सं०। २६- द्रुपपत्तैव यतो-मां० । -दूपपतैव यतो-भां० ।-द्रूप वि यतो-आ० । २७ यतो वै-वा० बा० विना। २८ न चै परीत्यं तत्त्वमुच्यते न चैव तद्वि-भां. मां०। २९-यदि किञ्चिद्रपौ ध्वं-आ०। ३० "किं पुनस्तत्त्वम् ? सतश्च सद्भावः असतश्च असद्भावः” १, १, १ न्यायद० भा० पृ. २ पं० ५। "किं पुनस्तत् ? सदसती तत्"-न्यायवा० पृ. १५.८ । "किं पुनस्तत्त्वम् ?xoxसदसती" इति-न्यायवा. ता. टी. पृ. ३२ पं० ११॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा ने तस्य किञ्चिद् भवति, न भवत्येव केवलम् , अन्यथा कस्यचिद् विधाने न भावो निवर्तितः स्यात्" [ ] इत्यप्रस्तुताभिधानं भवेत् । यदपि ‘कृतकोऽपि विनाशो नित्यः, अकृतकोऽपि प्रागभावो विनाशी' इत्यभिधानम् , तदपि न न्यायानुगतम् । अथ भावानां कृतकाऽकृतकानां ध्वंसिता-स्थैर्यलक्षणो धर्म एकान्तिकः, न च भाव. धर्मोऽभावेष्वध्यारोपयितुंयुक्तः। कुतः पुनरयमेकान्तिको भावधर्म इत्यवसितम्? अन्यथा भावस्या- ५ नुपलम्भादिति नुपलम्भोऽयं भवन्नप्यात्मादेः सत्ताया अनिवर्तकोऽन्यत्र कथमन्यथाभावं निवर्त्तयेत् ? नै चात्मनोऽनुमानेनोपलम्भादिति वाच्यम् , यतोऽनुमानेऽप्यनुपलम्भ एव हेतोः विप. क्षवृत्तिं कथं निवर्त्तयति ? अथ कृतकाकृतकानां पदार्थानां हेतुकृतविनाशेतरस्वभावदर्शनाव्यभिचारः यद्येवं यस्यैव घटादेः कृतकस्य विनाशकारणवशाद् विनाशो दृष्टः स एव ततस्तथा निश्चीयताम् नान्यः कृतकत्वसाधर्म्यमात्रेण । नहि वस्त्रे रागस्य एव स्वहेतसन्निधिसापेक्षस्यावश्यम्भाविना-१० (ता) तद्धेतुसन्निधेरप्यपरहेतुसन्निधिसापेक्षत्वात् , 'न चावश्यं हेतवः फलवन्तः' इत्युक्तम् । अथ सापेक्षोऽपि वाससि रागः सर्वत्र यापलभ्यते किमित्यवश्यंभावी न भवेत् ? न च तथोपलभ्यते अन्यथापि तस्य ग्रहणात् एवं यदि नाशस्याप्यन्यथापि भाव उपलभ्यते तदा सापेक्षत्वान्नावश्यभाविता भवेत् न चैवं सर्वत्र[?? कृतके श(विनाश)स्योपलब्धेरिति, असदेतत् भवतु समस्तवस्तुव्यापिज्ञानाभावात् भावेऽनुमानवृत्तेन वैफल्यापत्ति(त्तिः) ??] हेतुबलादुपजातध्वंसस्य कस्यचिद् १५ दर्शनेऽपि कारणप्रतिबद्धजन्मनामन्यथापि दर्शनात् , उपजातशङ्को देशादिविप्रकृष्टेषु भावेषु कथं तथाभावं निश्चिनुयात् ? यद्यपि वा(चा)कृतकानां विनाशं(शो) नोपलब्धः तथापि कालान्तरे तदा वा असौ हेतुनिमित्तो न सम्भवीति कुतो निश्चयः? न वा(चा)कृतकः प्रागभावस्तदविनाशो वा सम्भवतीति प्रतिपादितम् । ततोऽसमर्थो विनाशहेतुरिति स्थितम् व्यर्थश्च । तथाहि-यदि स्वभावतो नश्वरो भावः न किञ्चिद् विनाशहेतुमिः तत्स्वभावतयैव तस्य स्वयं नाशतः-नहि स्वयं पतति २० पातप्रयासः फलवान् । अथानश्वरस्तदा तत्स्वभावस्यान्यथाकर्तृमशक्यत्वाद् व्यर्थी नाशहेतुः।न च व(च)लरूपतायां तदुपयोगः, यतो नास्माभिः कार्ये भावानां व्यापारः प्रतिक्षिप्यते किन्त्वचलरूप. तैव । ततो भावानौमुद्भूता[?? भावस्य भावपूर्वस्तु पूर्वको प्रच्युत एवेति तथोपलब्ध्यादिप्रसङ्गः ??] यश्च विनाशहेतोरस्थिरस्वभावो घटादेर्भवति कथं से सस्य( तस्य) स्वभावः तस्मिन्निष्पन्ने भिन्नहेतुकः ? यतो नै तत्स्वभावो युक्तः । न चैं स्वहेतुभिरेव नियमितस्वभावोऽयं कालान्तरस्थायी पदार्था-२५ नां हेतुभिर्जनित इत्युत्पादानन्तरं न विनष्टः स तस्मिन्नेव स्वभावे व्यवस्थितः कथमन्तेऽपि नश्येत् ? तथाहि-उदयकाले यः स्वभावः स्थिरः तत्स्वभाव एवायमन्तेऽपीति पुनस्तावन्तमेव कालं तिष्ठेत, तथा तदन्तेऽपि तावन्तमपरम् कालान्तरस्थितिरूपस्योदयकालभाविनः स्वभावस्य तदन्तेऽपिभावात। न ह्यन्तेऽपि रूपान्तरसम्भवस्तस्यैकस्वभावत्वात् अकिश्चित्करस्य च विरोधित्वाऽयोगात् तत् कथं तदपेक्षोऽयं निवर्तेत ? दण्डादिप्रपातसमयेऽस्य प्रच्युतिलक्षणः स्वभावः स किं प्रोगासीत् येनाऽसौ ३० १ “न तस्य किञ्चिद् भवति, न भवत्येव केवलम्"-आप्तमीमां० प० ३ श्लो० ५३ अष्टश० पृ. २८ पं० ३० । अष्टसह. पृ. २०० पं०१३। २-धाने भावो भां. मां। ३-त्यत्रप्र-वा० बा० विना। ४-वानां कृत. कानां आ० ।-वानां कृताकानां वा. बा०। ५-सितांस्थै-भां. मां. हा० वि० ।-सिनांस्थै-आ० । ६ नत्वनु-आ० हा० वि० । नचनु-भां० मां०। ७ न चात्मानु-भां. मां० । नवात्मानु-आ. हा०वि०। ८ न वा-आ० हा०वि०। ९ पृ० ३४६ पं० १८। १०-स्यान्य-वा० बा०। ११-तकेशास्यो-वा० बा। १२-वृत्ते हाटन विफल्यापत्ति हे-वा. बा० । १३-पि कर- वा० बा० विना। १४-शादिप्र-वा. बा० । १५-कानां विनाश नो-हा०वि०। १६ सम्भवाति आ० हा० वि०। १७-श्चया न आ० ।-श्चय न हा० ।-श्चये न वि०। १८-तक प्रा-वा० बा० भां० मा० विना । १९ च बल-वा० बा० विना। २० कार्य भा-वा. बा० । २१ किन्त्ववल-भां० मां० । २२-नामुद्भताभावस्वभावपूर्वस्तु पूर्वस्तु पूर्वको भां० मां० ।-नासुदूपताभावस्वभावपूर्वस्तु पूर्वको आ० ।-नासद्भूताभावस्वभावपूर्वस्तु को प्रत्युतहा०वि०। २३ स त्यस्य स्वभा-भां० मा. आ. हा० वि०। २४ न तस्वभावे यु-वा. बा०। २५ च स्वभावो युक्तः न च स्वहे-भां. मां०। २६-तभिरिति च निय-वा० बा० भ० मा० विना। २७-दानांतरं आ० हा०वि०। २८-पि नाशात वा. बा.। २९ तदन्तेति ता-वा. बा । तदान्तेपि ता-आ० । ३०-भाविनश्च भा-आ० ।-भाविन स्वभा-वा० बा०। ३१ प्राद्गासी-वा० बा०। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ प्रथमे काण्डेन निवृत्तः ? नहि तद्भावेऽपि पररूपेणायं निवर्त्तते स्वरूपं च तदेवास्य प्रागपि कथं न निवृत्तिः? हेतवश्चानुपकार्यापेक्षायां नियुञ्जानाः स्वकार्यमात्मनोऽस्थानपक्षपातित्वमाविष्कुर्युः, न च भवतामप्यकिञ्चित्करमपि मुद्रादिकमपेक्ष्य कथं प्रवाहो निवर्त्तते इति वाच्यम् यतो न विशरारुक्षणव्यतिरेको(क्य)परः प्रवाहो विद्यते यो निवृत्तावकिञ्चित्करं मुद्गरादिकमपेक्षते किन्तु परस्परविविक्ताः ५पूर्वापरक्षणा एव, ते च स्वरसत एव 'विरु(निरु)ध्यन्त इति न क्वचिदकिञ्चित्करापेक्षानिवृत्तिः अतो मुद्रादिरहिता सामग्री अविभक्तं कार्य सम्पादयन्ती तत्सन्निधाने विभक्तं कार्यान्तरं जनयति न तु मुद्रादयः कारणसामध्ये खण्डयन्ति, विकल्पत्रयस्यात्रापि पूादितस्य प्रसङ्गात् । अतो यदुक्तम् "स्वभावोऽपि स तस्येत्थं येनापेक्ष (?) निवर्तते । (?) विरोधिनं यथाऽन्येषां प्रवाहा मुद्रादिकम्" ॥ [ ] इति, तदपि प्रतिक्षिप्तं द्रष्टव्यम् । अथायं विकल्पः सर्वत्रगत्वादसारः (?) तथाहि-उत्पादेऽप्येवं शक्यते एव वक्तुं स्वभावतो ह्युत्पत्तिस्वभावस्य न किञ्चिदुत्पत्तिहेतुभिस्तत्स्वभावतयैव स्वयमुत्पा. दात्, अनुत्पत्तिखभावस्य तु स्वभावतो व्यर्था उत्पत्तिहेतवः तद्भावान्यथात्वस्य कर्तुमशक्यत्वा. दिति, नैतत् सारम्; यतो यद्युत्पत्तिरभूत्वा भवनलक्षणैव-अन्यथा तदयोगात्-स्वभावो यस्य १५स तथोच्यते तदा सिद्धसाधनमेव, यस्य ह्यभूत्वा भ(?)वत्सम्पन्नस्तत्रोत्पादहेतूनां व्यापाराभी वस्याभीष्टत्वात् सतो निवर्त्तयितुमशक्यत्वात् कार्य-कारणयोः सहभावेनौनिवृत्तः, अथोत्पत्ती स्वभाव आभिमुख्यलक्षणो यस्य सन्निहितसर्वकारणकलापानन्तरभाविन इत्यभिधातुमभिधेयं तदा कथमस्योत्पत्तिहेतूनां वैयर्थ्यम् ? नहि तभूतकारणवशात् तथाव्यपदेशहेतोय॑र्थता युक्ता । द्वितीयो विकल्पः सोऽप्यनुपपन्नः यतोऽनुत्पत्तिर्भावप्रतिषेधमात्र स्वभावः सर्वसामर्थ्यविरह२० लक्षणस्याभावस्य तत्र चानभ्युपगमाद्धेतुव्यापारस्य सिद्धसाध्यतैव, न झुत्पत्तिहेतवोऽभावं भावी. कुर्वन्ति, भावेष्वपि परिणामस्तावदयं न सम्भवति मुत(किमुत) नीरूपेऽभावे? नत्वे(न्वे)वं कथमसदुत्पद्यत इत्युच्यते ? कारणानन्तरं यः सद्भावः स प्रागसन्नित्ययमत्रार्थः न पुनरभावो भावत्वमापद्यत इति न कश्चिद्दोपः अन्यथानुपत्तावनन्तरभावाभावे धो यस्यासन्निहितकारणस्य च स एवमभीष्टस्तदापि तत्राऽसत्त्वादेव कारणानां व्यापारो न भवतीति न काचित् क्षतिः, लोके चोत्पत्ति२५धैर्माऽनागत एवोच्यते, न च तस्य शशविपाणस्येव तीक्ष्णतादिगोचराणामिव भावाश्रयाणां विकल्पानां सम्भवः, न च यदि निर्हेतुको भावस्य विनाशः उत्पादोऽपि तथैवास्तु भावभाव(?)धर्मत्वाविशेषात् यतो न विनाशो नामाऽन्य एव कश्चिदुदयापवर्गिणो भावात् भावश्च स्वहेतोरेव तथाभूत उत्पन्नो न कश्चिद्धर्मोऽस्या(?)निमित्तः केवलं तमस्य स्वभावं पश्यन्नपि मन्दबुद्धिर्न विवेचयति दर्शनपाटवाऽभावात् यदा तु विसदृशः(श)कपालादिविधुरप्रत्ययोपनिपाताद् उत्पद्यते तदा भ्रान्तिकारण३० विगमात् प्रत्यक्षनिबन्धनो निश्चय उत्पद्यते, अनुमानतो भावानां सुविर्दुषां प्रागपि भवत्येव, यथा विषस्वरूपदर्शनेऽप्यतत्कारिपदार्थसाधर्म्यविप्रलँब्धो नै मारणशक्तिं नि(निश्चि)नोति प्राक् पश्चात् तु विकारदर्शनात् तन्निश्चयः, न च शक्तिमतः शक्तयो भेदमनुभवन्तीति प्रतिपादितं सौगतः। जातस्य च स्तभावस्य विनश्वरत्वेऽन्यानपेक्षणान्निर्हेतुको विनाश उच्यते इति स्थितमेतत् यथोक्तप्रकारेणानु १-वास्या प्रा-आ० हा० वि०। २-माविकु-वा. बा०। ३-द्यते माया निवृ-आ० ।-द्यते मोया निवृ-हा० वि०। ४ विरूध्यत इ-मां० । विरुध्यत इ-भां०। ५-रादिना र-वा० बा० विना। ६-रहित सा-आ०। ७-धाने पिभ-वा० बा० विना । ८ ननु मु-भां० मा. आ. हा०वि०।९। तथा-वा. बा. विना। १०-दऽवसारः वा. बा०। ११ तवयो-भां० मां०। १२-त्वा भावत्स-वा० बा०। १३-भावास्या भीष्ट-भां० मा० ।-भावास्याभीष्ट-आ० ।-भावस्या अभीष्ट-हा० वि० । १४-स्यारवाभी-वा. बा०। १५-ना वृ-वा० बा०। १६-स्य सनिहि-भां० मां०। १७-मभिधेयः त-भां० मा० । १८-थानत-वा० बा०। १९-पपन्नाव-वा० बा०। २० धर्मा यस्या-भां० मा०। २१-धर्म्यतानग ए-आ० ।ध गत ए-हा० वि०। २२ भावतावध-वा० बा०। २३ कश्चिद्धर्मा स्या-हा० वि०। २४-दुषो प्राआ०।-दुषां प्र-वा० बा०। २५ यवां वि-आ० । यवा वि-हा. वि.। २६-विषय-वा. बा. विना। २७-लब्धौ न वा. बा. भां० मा० विना। २८ न कारण-वा. बा. विना। २९-शक्ति नितोति भां०।शक्तिं मिनोति वि० सं०।-शक्तिं नोति वा० बा। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३४९ मानतो भावानां क्षणक्षयः सिद्धः, प्रत्यक्षतोऽपि क्षणक्षयाधिगमे तयवहारसाधनानुमानं साफल्यमनुभवतीत्यपरे प्रतिपन्नाः। तदेवं प्रत्यक्षतः अनुमानतश्च क्षणिकत्वव्यवस्थितेः स्थितमेव तद मूलाधारः पर्यायनयस्य ऋणुसूत्रवचनविच्छेद इति । तस्य ऋजुसूत्रतरोः 'तुः' अवधाएँणार्थः तेन तस्यैव न द्रव्यास्तिकस्य शब्दादयः शब्दार्थ गमयन्तः शब्दनयत्वेन प्रतीताः शब्द-समभिरूद्वैवंभूतास्त्रयो नयाः शाखाप्रशाखा इव स्थूलसूक्ष्मतर( लसूक्ष्मसूक्ष्मतर)दर्शित्वात् ५ सूक्ष्मो भेदो विशेषो येषां ते तथा । यथा हि तरोः स्थूलाः शाखाः, सूक्ष्मास्तत्प्रशाखाः, प्रतिशाखाअति(शाखाश्च ) सूक्ष्मतराः एवम् ऋजुसूत्रतरोः स्थूल-सूक्ष्म-सूक्ष्मतराः शाखाःप्रशाखाः (शाखाप्रशाखा)प्रतिशाखारूपा अशुद्धःशुद्धतर-(अशुद्ध-शुद्ध-शुद्धतर)पर्यायास्तिकरूपाः शब्द-समभिरूद्वैवंभूतात्रयो नयाः द्रष्टव्याः। तथाहि-ऋजुसूत्राभ्युपगतं क्षणमात्रवृत्ति वस्तु दिंगा(लिङ्गा)दिभेदाद मिन्नं शब्दो वृक्षाच्छाखामिव सूक्ष्ममभिमन्यते एकसंज्ञं समभिरूढः शब्दाभिमतं वस्तु १० संशाभेदादपि भिद्यमानं शाखातः प्रशाखामिव सूक्ष्मतरमध्यवस्यति, तदेव समभिरूढाभिमतं वस्तु शब्दप्रतिपाद्यक्रियासमावेशसमय एवं स्थिति(?)भूत एवंभूतः क्रियाभेदाद भिन्नं प्रशाखातः प्रतिशाखामिव सूक्ष्मतममधिगच्छत्येवं बाह्याभ्युपगमपरः शब्द-समभिरूद्वैवर्भूतभेदवानवगन्तव्यः। [२ ऋजुसूत्रपदस्य द्वितीयां व्याख्यामाश्रित्य विज्ञप्तिमात्रवादः] [पूर्वपक्षः-बाह्यार्थवादिभिः सौत्रान्तिक-वैभाषिकैः विज्ञप्तिमात्रस्य निराकरणम्] अथवा ऋजु बाह्यापेक्षया ग्राहक-संवित्तिभेदविकलमविभागं बुद्धिस्वरूपमकुटिलं सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः शुद्धः पर्यायास्तिकः । ननु किमविभागबुद्धिस्वरूपावेदकप्रमाणसद्भावतो विज्ञप्तिमात्रमभ्युपगम्यते, आहोस्विदर्थसद्भावबाधकप्रमाणसङ्गतेरिति वक्तव्यम् । तत्र यद्याद्यः पक्षः स न युक्तः, यतस्तथाभूतविज्ञप्तिमात्रोपग्राहकं प्रत्यक्ष वा तद् भवेत् अनुमानं वा प्रमाणान्तरस्य सौगतैरनभ्युपगमात् ? तत्र न तावत् २० प्रत्यक्षमर्थसंस्पर्शरहितं विज्ञप्तिमात्रमेवेत्यधिगन्तुं समर्थमर्थाभावनिश्चयमन्तरेण विज्ञप्तिमात्रमेवेत्यवधारणाधिगमानुपपत्तेः । उक्तं च "अयमेवेति यो ह्येष भावे भवति निर्णयः। नैष वस्त्वन्तराभावसंवित्त्यनुगमाहते" ॥ [श्लो० वा० अभाव० श्लो० १५] न चार्थाभावोऽध्यक्षसमधिगम्यः अर्थविभासकत्वेन तस्योत्पत्तेः, न च तत्रावाँसेऽपि तस्या-२५ भावः विज्ञप्तेरप्यभावप्रसक्तेः नं च तैमिरिकाक्षजप्रतिभासे चकासदिन्दुद्वयं यथाऽसत्यत्वमनुभवति तथा शुद्धप्रतिभा(भास)विषयस्यापि स्तम्भादेरपि वितथा(थ)त्वं यतस्तिमिरपरिकरितहविषय १ तद् मूलधा-वा. बा. भां० मां। अत्र 'स्थितमेतद् मूलाधारः' इति चारु भाति। २-जुनयसू-मां० । ३ तत्र ऋ-वा० बा० विना । ४-रणोर्थस्ते-भां० मां०। ५-दय र्थ ग-आ० ।-दय शब्दोदर्थ ग-हा. वि०।-दर्थ ग-वा० बा०। ६-दर्थ ग-भां० मां० विना। ७ शाखा इव वा० बा०। ८-व मूलसूक्ष्मतरभां० मा० आ० हा० वि० । ९-खाः प्रतिशाखा अतिसूक्ष्मतरा ए-भां० मां० ।-खा सू-आ० ।-खाः सूक्ष्मास्तत्पशाखाः सूक्ष्मा तत्प्राशाश्च स्तत्त्रातरा ए-वा० बा०। १०-तरो मूल सूक्ष्मसूक्ष्मतरा शाखारूपा अ-मां० ।-तरो स्थूलःसूक्ष्मसूक्ष्मतरा शाखारूपा अ-भां० ।तरो स्थूलसूक्ष्मतराः शाखा: प्रशाखाः प्रतिशाखारूपा अ-वा० बा० । ११ स्थूलः सू-आ० । १२-तरा शा-आ० हा० वि०। १३-रूपा श-भां० मा० आ०। १४-स्तु दिगादि-वा० बा. विना। १५ वृक्षाच्छा मिव सूक्ष्माभिमवा० बा०। १६ एकं सं-आ० हा० वि० । एकसंज्ञा स-वा. बा०। १७ तदेवं स-वा० बा० विना । १८-च व स्थि-भां० मां० ।-वच स्थि-वा० बा०। १९-भूताःक्रि-वा०या० विना। २०-भूतामेदावावा० बा० । २१-भागबु-आ०। २२-दनप्र-वा. बा०। २३ "तथाभूतविज्ञप्तिमात्रं(त्र)ग्राहकं प्रत्यक्षम् अनुमानं वा?"-प्रमेयक० पृ०२१ प्र०पं० १। २४-रहितवि-आ०। २५ प्रमेयक पृ० २१ प्र. पं० २। २६-भानेऽपि वा. बा०। २७ "न च तैमिरिकप्रतिभासे प्रतिभासमानेन्दुद्वयवनिर्मलमनोऽक्षप्रभवप्रतिभासविषयस्यापि असत्त्वमिति अभिधातव्यम्"-प्रमेयक. पृ० २१ प्र. पं० ४। २८-यस्या बाध्य-भ० मा०। ४५ स० त. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे स्यार्थस्य बाध्यमानप्रत्ययविषयत्वादसत्त्वं युक्तम् न पुनः शुद्धगवसेयस्य तत्र बाध्यत्वायोगात् यद्वा तैसिरिकावभासिनोऽपीन्दुद्वयादेरवैतथ्यमस्तु । न च बाध्यप्रत्ययावसेयस्य कथमवितथत्वमिति वक्तव्यम् बाध्यत्वाऽयोगात्। _ तथाहि-दर्शनं वा बाध्येत, तत्रावभासमानो वाऽर्थः, प्रयोजनं वा? न तावदाद्यः पक्षः दर्शन५स्योत्पन्नत्वात् । नाप्यों बाध्यः प्रतिभासमानेन रूपेण तस्य सत्त्वात् अन्यथा प्रतीयमानताऽयोगात्। न च प्रतिभासोऽस्ति किन्तु तन्निर्भासि रूपमसत्यमिति वक्तव्यम् प्रतिभासमानं रूपं विभ्रतोऽप्यसत्त्वे संविदोऽपि तथात्वप्रसक्तः । अथार्थक्रियाविरहाद् भ्रान्तज्ञानावभासिनो हिमकरादेर्वैतथ्यम्, अयुक्तमेतत्; यतो यद्य(द्यप्य)र्थक्रिया तत्र नोदिता तथापि पूर्वज्ञानावभासिनः कथं वैतथ्यम् ? नह्यन्याभावादन्याभावः अतिप्रसङ्गात् । न चार्थक्रियानिवन्धनं भावानां सत्त्वमिति यत्र सा नोदेति १० तत् प्रतिभासमानमपि न सत्तामनुभवतीति वाच्यम् यतो यदि भावाः प्रयोजनमुपजनयन्तः सत्तामनुभवन्ति तदा साऽप्यर्थक्रियाजननात् सत्तासंगता स्यात् साऽप्यपरार्थक्रियाजननात् इत्यनवस्थाप्रसक्तिः। अथ अर्थक्रिया प्रतिभासविषयत्वात् सती पदार्थमात्रा अपि तथैव सत्यः (त्याः) स्युरिति व्यर्थाऽर्थक्रिया अत एव तैमिरिकावभासिनः केशादयोऽपि सत्याः प्रतिभासविष. यत्वात् । न च बाधकवशात् तेषां वैतथ्यव्यवस्था, बाधकस्यैवानुपपत्तेः । यतस्तैमिरिकोपलब्ध१५ केशादेर्दर्शनान्तरं यदि बाधकं तदा वक्तव्यम्-एककालम् सिन्नकालं वा? यदि भिन्नकालं बाधकमा श्रीयते तदा पूर्वदर्शनकाले नाऽपरम् अपरदर्शनसमये च न पूर्वमिति परस्परकालपरिहारेण प्रवर्त्तमानयोः कथं बाध्य-बाधकता? अथैककालं तद्वाधकम् तचा(दा)त्रापि वक्तव्यम्-एकविषयम् भिन्नविषयं वा? न तावदेक विषयम् तस्य सुतरां तत्साधकतोपपत्तेः नोकविषयं संविदन्तरं तद्विषयस्यैव संविदन्तरस्य बाधकमुपलब्धम् । भिन्नविषयं संविदन्तरं स्वविषयमेव भासयितं २० समर्थम् न पुनर्विषयान्तरसंवेदनमुप॑दलयितुमलम्, नहि स्वविषयमवतरन्ती नीलसंवित् पीतदृशमपहन्तुं समर्था । न च दर्शनान्तरं पूर्वदर्शनाधिगतमर्थमसत्यमधिगच्छत् तस्य बाधकम् । यतस्तदपि दर्शनं स्वविषयीकृतं वा अस्वविषयीकृतं वा पूर्वदर्शनाधिगतमर्थमसत्यमधिगच्छत् तस्य बाधकं स्यात् ? प्रथमपक्षे पूर्वदर्शनाधिगतोऽर्थ उत्तरकालभाविनि दर्शने परिस्फुटमवभासमानः सुतरां सत्यः स्यात् न वितथ इति कथं तत् 'तदसत्यम्' इत्यावेदयति? अथ द्वितीयः पक्षोऽङ्गी२५ क्रियते तदात्रापि बाध्यदर्शने प्रतिभासमानस्यार्थस्य वाधकसंविदि प्रतिभासाभावात् कथं तस्य ततो वैतथ्यावगतिः? न च विषयान्तरस्य शुक्तिकादेस्तत्रावभासनात् रजतादेरलीकतेति वाच्यम् यतो यदि शुक्तिकाज्ञाने खेन रूपेण शुक्तिका प्रतिभौति रजतादेर्भिन्नकालावभासिनः किमिति वैतथ्यं भवेत् सर्वस्य वैतथ्यप्रसक्तेः ? अथानुपलम्भो बाधकं प्रमाणमुच्यते तदात्रापि वक्तव्यम्-एककालः, भिन्नकालो वा? तत्रै च यद्येककालः सोऽसिद्धः स्वप्रति ससमये रजतस्यानुपलम्भायोगात् । ३० कालान्तरभावी रजतानुपलम्भः तदैव तस्यासत्वं न पूर्वकालम् । न च भाविकाले पूर्वदर्शनप्रत्यस्तमोत् खदर्शनकालावधेरर्थस्याभावः अतिप्रसङ्गात् । तदेवं विशददर्शनावासि सत्यं बहिरर्थस्वरूपम् यथा स्वसंवित्प्रतिभासमानं विज्ञप्तिस्वरूपम् तथा च तैमिरिकदर्शनावभासीन्दुद्वयमिति स्वभावहेतुः असतः प्रतिभासायोगात् । अथेन्दुद्वयादेबहिः सत्त्वे किमिति शशिन प्रतिभासः? यत्र हि बहिरैर्थोऽस्ति तत्र योग्यदेशादितः सकलसामग्रीप्रभवसमस्तजनसंविदि प्रतिभा १ अन्यत्रा प्र-आ०। २-वानां त स-भां० मा० ।-वानोनां स-आ० । ३ त ार्थव भां० मो०। तत्रैव आ०। ४ सव्यः हा० वि० । ५-कालं वा भि-आ०। ६ तत्रापि वा. बा. विना। ७-लब्ध भि-आ० विना । ८-स्तरं सं-वा० बा० विना। ९-पहलयि-हा० ।-पदर्शयि-आ०। १० दर्शनानन्त-वा० बा० विना । ११-दा तत्रा-भां० मा० । १२-भासि र-वा. बा. विना। १३-त्र यद्य-भां. मां०। १४-भासमये भां० मा०। १५-रभावा नु (वी तु) रज-वा. बा०। १६ तदेव वा. बा। १७ बोधयेत् इति शेषः। १८-काले । वा. बा. विना। १९-या स्व-वा० बा०। २०-भासि ससत्यं आ० ।-भावि सत्यं वा० बा०। २१-था त्र तै-वा० बा० । २२-देवहि स-वा. बा. विना। २३-रोंस्तत्र तत्र यो-वा. बा. विना। २४-विदिन्न प्र-वा० बा। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३५१ समाधत्ते यथा नीलादिःन चेन्दुद्वयं नरान्तरविशदशि प्रतिभाति तद्देशव्यवस्थितपुरुषान्तरसंविदि एकेन्दुमण्डलस्य प्रतिभासनात ततो ज्ञानाकार एवेन्दुवयं न वाहाम्, असदेततः यतो न बहिरर्थाः सनिधिमात्रेण ज्ञाने प्रतिभासमादधति किन्तु स्वसामग्रीवशात् अन्यथा अवा(धा)दिशि प्रतिभासमादध्युः । अथ लोचनाद्यभावात् नान्धादिशि तत्प्रतिमाप्तः, नत्वे(न्वे)वं तिमिरादिसामग्र्यभावात् शुद्धशि हिमकरद्वयादेरप्रतिभासमानस्व(त्वम)। न च स्वसामग्रीवशात् क्षपाकरयुगलं संवि.५ दि भासमानं ज्ञानस्वरूपमेव, बहिग्राह्याकारतया प्रतिमासमानस्य इन्दुदयस्यान्ताहकाकारतया(याऽ)प्रतिभासनात् ज्ञानरूपत्वायोगात् तद्रूपत्वे वा ग्राहकाकारतया प्रतिभासमानज्ञानस्यापि तथाप्रतिभासमानस्यार्थरूपताप्रसङ्गः। तत्र(न्न) वहिाहाकारतया प्रतिभासमानस्यन्दद्वयादेर्विशतिरूपता, परिशुद्ध विशदगवसेयस्य तु स्तम्भादेः सुतरां ज्ञानरूपतानुपपत्तिः । तन्न अध्यक्षं वहिरीऽवमासि तदभावं गमयति । न चाध्यक्षमभावग्राहि, तस्य तुच्छतया तद्विपयत्वायोगात् । न च वस्तुत्वादस-१० दंशः प्रत्यक्षग्राह्यः इन्द्रियसम्बन्धाभावेन तस्यापि प्रत्यक्षवायोगात् तदसम्बन्धस्तु योग्यताभावात् इन्द्रियस्य । उक्तं च "न तावदिन्द्रियेणेपा नास्तीत्युत्पाद्यते मतिः । भावांशेनैव संयोगे योग्यत्वादिन्द्रियस्य हि" ॥ [श्लो० वा० अभाव० श्लो० १८] इति । तन्नोभयरूपोऽप्यर्थाभावोऽध्यक्षवेद्यः। नाप्यनुमानं वाह्याभावमावेदयति, प्रत्यक्षाभावे तस्यायोगान् । न च प्रत्यक्षविरोधे अनुमानस्य प्रामाण्यं सम्भवति "प्रत्यक्षनिरीकृतो न पक्षः"[ __] इति वचनात् । न च बाह्यार्थावेदकस्याध्यक्षस्य भ्रान्तत्वान्न तेनानुमानवाधेति वकव्यम्, इतरेतराश्रयप्रसक्तः। तथाहिअर्थाभावे सिद्धे ताहि अध्यक्षं भ्रान्तं सिध्येत् -अन्यथा कथमवितथार्थग्राहिणो भ्रान्तता-भ्रान्तत्वे च तस्य सिद्ध अर्थाभावानुमानस्ये (स्य) न तेन बाध्यते(वाधेति) व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । न च तद, अध्यक्षमेव न भवति अनुमानेन बाधनादिति वक्तव्यम् , अनुमानेऽप्यस्य पर्यनुयोगस्य समानत्वात्। [?? तथाहि-बाह्याभावग्राह्यस्य भ्रान्तत्वात् तेनानुमानवाधेति वक्तव्यम् इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । तथाहि-अर्थाभावे सिद्धे वलादनुमान(न) प्रमाणमिति दर्शनाभावेऽप्यर्थाभावसिद्धिः तत्प्रतिबन्धसिद्धेः अप्यक्षमिति' तत्त्वात् अन्यथा अनवस्थापत्तेरिति नानुमानवेद्योऽप्यर्थाभावः ??] । १-था दि-भां. मां०।-था दि प्रति-आ० । २-मय्या भा-भां० मां० । ३-मग्रीसमावेशात आ०। ४ न वाध्य-आ० हा०वि०। ५ "संयोगो"-श्लो. वा० । ६ “साध्याभ्युपगमः पक्षः प्रत्यक्षाद्यनिराकृतः”। १४ । "प्रतिपाद्यस्य यः सिद्धः पक्षाभासोऽक्ष लिङ्गतः । लोक-स्ववचनाभ्यां च बाधितोऽनेकधा मनः” ॥ २१ ॥ -न्यायावता । "पक्षः xxx प्रत्यक्षाद्यविरुद्ध इति वाक्यशेषः"-न्यायप्रवेशसू• पृ० १५०६। "साधयितुमिष्टोऽपि प्रत्यक्षादिविरुद्धः पक्षाभासः"-न्यायप्रवेशसू० पृ. २६० १३ । "प्रत्यक्षादयो वक्ष्यमाणलक्षणास्तविरुद्धः निराकृतः प्रत्यक्षादिविरुद्धः । किम् ? पक्षाभासः"-न्यायप्रवेशसू० वृ० पृ. १९५० १८ ॥ "स्वरूपेणैव खयमिष्टोऽनिराकृतः पक्ष इति" ॥ ४०॥-न्यायविन्दुप्र. नृतीयप० । "अनिराकृत इति-एतल्लक्षणयोगेऽपि यः साधयितु मिष्टोऽप्यर्थः प्रत्यक्षाऽनुमानप्रतीति-खवचनैर्निराक्रियते न स पक्ष इति प्रदर्शनार्थम्" ॥ ५० ॥ न्यायबिन्दुप्र० तृतीयप० । "प्रत्यक्षनिराकृतो न पक्ष इत्यभिधानात्"-प्रमेयक० पृ० २१ प्र. पं०६। -माने बा-भा० मा० विना । "न च बाह्यार्थावेदकाध्यक्षस्य भ्रान्तत्वान्न तेन अनुमानबाधेत्यभिधातव्यम् , अन्योन्याश्रयात्-सिद्धे ह्यर्थाभावे ताहि अध्यक्षं भ्रान्तं सिध्येत् तत्सिद्धौ च अर्थाभावानुमानस्य तेन अबाधेति"-प्रमेयक. पृ० २१ प्र. पं०६। ८-त्वात् तथाहि अर्था-आ० । ९-त्वा तेना-वा. बा०। १०-यप्र-वा. बा०। ११-ति त्वत्वात् वा०बा। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ प्रथमे काण्डेअपि च, तदनुमानं किं कार्यलिङ्गप्रभवम् , स्वभावहेतुसमुत्थं वा, उतानुपलब्धिप्रसूतमिति विकल्पत्रयम् । न तावत् प्रथम-द्वितीयपक्षी कार्य-स्वभावहेत्वोर्विधिसाधकत्वाभ्युपगमात् "अत्रे द्वो वस्तुसाधनौ” इधि वचनात् ("अत्र द्वौ वस्तुसाधनो" [न्यायबिन्दु० परि०२ सू० १९] इति वचनात् ) । नापि अनुपलब्धिप्रसूतमिति पक्षः अनुपलब्धेरसिद्धात्( रसिद्धत्वात् ) बहिरर्थस्य प्रति. ५भासनात्। उपलभ्यानुपलब्धिस्वा(स्त्व)भावा(व)साधनी सा च नियतदेश-कालमेवार्थाभावंगमयति न सर्वत्र सर्वदेति न ततोऽपि सर्वथा अभावसिद्धिः । तद् भावबाधकप्रमाणाभावात् नार्थाभावतो विज्ञप्तिमात्रसिद्धिः। ____ अथापि स्यात् नार्थाभावद्वारेण विज्ञानमात्रं साध्यते अपि त्वर्थ-संविदोस्सहोपलम्भनियमादभेदः चन्द्रद्वयादिवदिति वि(विधि)मुखेनैव साध्यत इति न पूर्वोक्तो दोषः, असदेतत्; अभेदस्य १० प्रत्यक्षेण बाधनात् यतः पुरस्थस्फुटवपुर्नीलादि प्रतिभाति हृदि रूपग्राहकाकारं बिभ्राणा संविञ्चकास्तीति कुतोध्वान्तसं(कुतोऽर्थ-तत्सं )विदोरभेदः साधयितुं शक्यः शब्देऽश्रावणवत्(णत्ववत्) पक्षस्य प्रत्यक्षेण निराकृतेः, न वा(चा )भेदेऽपि प्रत्यक्षं भेदाधिगन्त्रुपलब्धमिन्दुद्वयादिवत् इति न तेव( तेन ) बाधा यतो द्विचन्द्रादौ बाँधादर्शनात् तस्य भ्रान्तत्वमस्तु स्तम्भादौ त्वर्थक्रियाकारिरूपो. पलब्धि(ब्धे)स्तदभावास्त(त्स)त्यता ततो नील वुढ्योर्भेद एव । असिद्धश्चायं हेतुर्मीमांसकमतेन वि. १५ ज्ञानव्यतिरेकेण बाह्यार्थस्यैवोपलम्भात् प्रत्यक्षार्थव्यतिरिक्तस्य तदा ज्ञानस्यानुपलक्षणात् । न चान्तः सुखाशा(द्या)कारज्ञानोपलम्भात् सिद्धो हेतुरिति वक्तव्यम्, सुखादेर्बाह्या(ह्य)संवेदनं प्रति व्यापारासंवेदनात् । नहि सुखादयः स्वरूपनिमग्नतया प्रतिभासमानास्तदैवार्थग्राहितया प्रतीयन्ते । न च समकालप्रतिभासनात् व्यापारमन्तरेणापि नीलादिग्राहकाः, तेषामपि तद्राहकतापत्तेः । यदि च नीला(लादी)नां सुखादिकं ग्राहक तथासति तदभावे नीलादीनां ग्रहणं न स्यात् । नहि यद् यद्राह्यं तत् ६० तदभावे प्रतिभाति चक्षुरभाव इव रूपम् चक्षुःसभवधाने व(च) सुख(खा)भावेऽपि नीलमाभाति [?? नापि तस्य तद्राहकम् । यदि च सुखादिरूपैव संविद् नान्या ऐवंसति सुखाद्यभावेऽपि नीलादिकस्य स्फुटतया प्रतिभासात् तदा मानसस्य च सुखादेनीलावभासावेप्यवभासनत्वासिद्धो नीलादीनां ग्रहणं न स्यात् नहि यद् यदग्राह्य तत् तदभाँद्धियोः सहोपलम्भनियमः नियतकादाचित्कसहोपलम्भतो यो १ अत्रे न्द्वो वा. बा. विना।। "अत्र द्वौ वस्तुसाधनौ एकः प्रतिषेधहेतुः" ॥ १९॥-न्यायबिन्दुप्र० । " 'अत्र द्वौ वस्तुसाधनौ' इत्यभिधानात्"-प्रमेयक० पृ. २१ प्र. पं० ८। २-धनादिवचनान्नाप्यनु-भां. मां. हा०वि०।-धनान्नाप्यनु-आ०। ३-लब्धिर-भां. मां०। ४-द्धा ब-आ० ।। ___"अनुपलब्धेरसिद्धत्वात् बाह्यार्थस्याध्यक्षादिनोपलम्भात् । किन, अदृश्यानुपलब्धिस्तदभावसाधिका स्यात् दृश्यानुपलब्धिर्वा ? प्रथमपक्षे अतिप्रसङ्गः । द्वितीयपक्षे तु सर्वत्र सर्वदा सर्वथा अर्थाभावाऽप्रसिद्धिः प्रतिनियतदेशादावेव अस्यास्तदभावसाधकत्वसंभवात् "-प्रमेयक. पृ. २१ प्र०५०९। ५-लब्धिस्थाने भा-बा. बा. विना । ६ तदद्भावा० बा०। ७-विदोपलम्भ-वा. बा. विना। ८ "द्विचन्द्रदर्शनवदिति विधिद्वारेणैव साध्यते"-प्रमेयक पृ० २९ प्र० पं० १२। ९-दस्य प्रत्युक्षेण वा. बा० ।-दस्य प्रत्युपेक्षण हा० वि०।-दप्यस्य प्रत्युपेक्षण भां० मां० । "अभेदपक्षस्य प्रत्यक्षेण बाधनात् शब्दे श्रावणत्ववत्"-प्रमेयक. पृ० २१ प्र. पं० १२। १० पुरस्थ फुटंव(पुरस्थं स्फुटव)-वा० बा०। ११ कुतोध्वंतंसं-मां। कुतोध्वतंसवि-भां० । कुतोवंतसंविवि-वा० बा०। १२ शब्दे श्रावणाव-वा० बा०। १३-धिगत्रुप-भां० मा० ।-धिगंत्रुमंप-वा० बा० । १४ बाध्यद-भा० मां०। १५ “अर्थक्रियाकारिस्तम्भाधुपलब्धौ तु तदभावात् सत्यता"-प्रमेयक. पृ० २१ प्र. पं. १४ । १६-बुद्ध्यार्भे-आ० ।-बुद्ध्यादेर्भ-वि० सं०। १७ न चान्तसु-भा० मां० । न चान्तासु-वा० बा० । न वान्तसु-हा० वि०। १८-पारसं-आ०। १९-लादीना सु-वा. बा. विना। २०-दिकां ग्रा-वा. बा. आ. विना। २१-भाति भाति चक्षु-वा. बा. भां. मां। २२ एवंसन्ति भां. मां० हा०वि० विना । २३-खाद्याभावे आ० विना। २४ तदी मा-वा० बा०। २५-खादेनी-वा० बा० विना । २६-लावभासावप्येवभा-आ० हा० ।-लावभासावप्यवभा-वि०।-लावभासाभावेप्यवभा-वि० सं० ।-लावभावप्येवभा-मां०।-लावप्येवभा-भा०। २७-भावाद्वियोः भां. मां. आ० हा० वि०। २८-म्भनियमःऽनयतका-वा. बा०।-म्भनियतका-भां. मां०। २९-भतो यो नि-हा० वि०।-म्भन्तो योनि-वा. बा। -म्भतोययोनि-वि० सं० । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। नियमो युक्तः नील-पीतयोरपि तथाभावप्रसङ्गात् ततः सुखादिरूपा न बुद्धिः ??] नापि नीलोपलम्भकाले प्रतिभाति केवलस्य नीलस्यैव तदा प्रतिभासात्(सात् पश्चात्) त्वर्थप्रत्यक्षता अन्यथानुपपत्त्या गम्यते । ___अन्ये नु(तु) मन्यन्ते पश्चादपि प्रत्यक्षते एव बुद्धिः प्रतीयते न पुनः सा सर्वदा पैरोक्षेत्यसिद्ध एव सहोपलम्भनियमः क्रमेण नील-तद्धियोः प्रतिभासात् अथा(थ) नीलप्रतिभासकाले तद्बुद्धिः५ प्रत्यक्षा भवेत् तथापि सहोपलम्भश्च भवेत् भेदश्चेति नात्र विरोधः तथापि रूपाऽऽलोकयोर्भिन्नयोरपि सहोत्प(प)लम्भात् कथं सहोपलम्भा(म्भ)नियमस्य भेदेन सह विरोधसिद्धिः? कार्यकारणभावप्रतिबन्धतो ग्राह्यलक्षणत्याच रूपाऽऽलोकयोभैदेऽपि सहोपलम्भः नील-तद्धियोरपि प्रतिबन्धादेव सहोपलम्भसंभवात् । न च तयोस्तुल्यकालत्वात् प्रतिबन्ध एव न संभवतीति वाच्यम् एकसामग्यधीनतालक्षणस्य प्रतिवन्धस्य प्रत्यक्षनील-तद्वद्ध्योः संभवात् । ततः सहोप-१० लम्भेऽपि नाभेदो भवेत् । न चाभेदेन व्याप्तः सहोपलम्भः सिद्धः येन ततस्तत्सिद्धिः स्यात् । अथ द्विचन्द्रादावभेदे सहोपलम्भदर्शनाद् अन्यत्रापि ततोऽभेदः, नैतत् सारम् ; दृष्टान्तमात्रात् साध्य सिद्धरयोगात् अन्यथा हेतुवैयर्थ्यप्रसक्तेः । न चानेदव्याप्तः कश्चिद्धेतुरस्ति । न च दृष्टान्तोऽपि सिद्धः चन्द्रद्वयादेरपि ज्ञानाद् भिन्नत्वेन प्रतिपादिनत्वात् । अनैकान्तिकश्चायं हेतुः संवैज्ञज्ञानस्य पृथग्जनचित्तस्य सहोपलम्भेऽपि भेदाभ्युपगमात् । न च सर्वज्ञज्ञानसंवेदनं विनापि पृथग्जन-१५ चित्तसंवेदनसंभवात् न तत्र सहोपलम्भनियम इति वाच्यम् यतः परदृशं विनापि तद्राह्यं नीलादि पृथग्नरान्तराण्युपलम्भत(लभन्त) इति तदर्शनान् तदपि भिन्नमस्तु । अपि च, 'सह शिष्येण पण्डितः' इति 'सह शब्दो भेद एवोपलब्धः ततो हेतुर्विरुद्धो भवेत् सहभावविवक्षायां भेदेन व्याप्तत्वात् । अथ 'सह'शब्दो नैव सहभावार्थवृत्तिः किन्तु एकार्थवृत्तिः ततः 'एकोपलम्भात' इति हेतर्विवक्षितः न चासौ विरुद्धः, असदेनतः एकोपलम्भस्यासिद्धत्वात् तदसिद्धत्वं च नील-२० तद्धियो टोपलम्भात । तथाहि-वहिर्गतत्वेन देश-कालादिभिन्नतया ग्राह्यतया नीलं मिनमाभाति अन्तर्गतत्वेन सुखादिरूपतया ग्राहकरूपापन्ना वुद्धिगभातीति न तयोरेकोपलम्भः सिद्धः।। किञ्च, एकस्यैवोपलम्भो ज्ञानस्य, अर्थस्य वा? यदि ज्ञानस्यैव तदा हेतुरसिद्धः नहि परं प्रति ज्ञानस्यैवोपलब्धिः सिद्धा अर्थस्याप्युपलब्धेः। न च तस्याभावात् अनुपलब्धिः इतरेतराश्रयदोपात् । तथाहि-अर्थाभावे सिद्धे ज्ञानस्यैवैकस्योपलम्भः सिद्धो भवति तदुपलम्भसिद्धौ चार्था-२५ भाव इतीतरेतराश्रयत्वम् । न चैकस्य ज्ञानस्योपलम्भ एवेति हेत्वों युक्तः नीलादेरुपलम्भानिराकरणात् । एवं च कथमर्थाभावसिद्धिरित्यनकान्तिक एव हेतुः। अथ अर्थस्यैवैकस्योपलम्भः एवमपि नार्थाभावसिद्धिः न च 'तथासंवेदनान्' इत्ययमपि हेतुः, असिद्धत्वात् । तथाहियादृग्भूतं ज्ञाने संवेदन(नं न) तारम् अर्थ स्वप्रकाशरूपत्वा(त्वात्) ज्ञानस्य इतरस्य च तद्विप १“ज्ञाते त्वर्थेऽनुमानादवगच्छति बुद्धिम्" इति मीमांसकाभिमतम् अष्टस• पृ० ५७ पं०७। २ अन्येन म-वा. वा० । अन्येऽम-आ०। ३-त व भां• मां०। ४ परोक्षत्यसि-भां० मां० हा० वि० । परोक्षस्य सि-आ०। ५-तद्धियो प्र-भां० ।-तद्धियोग प्र-मां०। ६-काले न बुद्धि प्र-वा० वा. भां. मां० विना । ७-क्षाभावात् वा० वा. विना । ८-म्भश्चाभ-वा. वा० । ९ सहोपलम्भान्नि-वा. बा. विना । १० सर्वज्ञान-वा. बा.। ११-त्तस-वा. वा. विना। "तथा सर्वज्ञज्ञानस्य तज्ज्ञेयस्य चेतरजनचित्तस्य सहोपलम्भनियमेऽपि भेदाभ्युपगमादनेकान्तः"-प्रमेयक पृ. २१ प्र. पं० १५। अत्र पृथग्जनव्याख्या"एको पुव्वे चरित्वान मेथुनं यो निसेवति । यानं भंतं व तं लोके हीनं आहु पुथुज्जनम्" ॥ ८१६ ॥ -सुत्तनिपाते पृ० १२४ ॥ "द्वे पुथुजना [अंधो च कल्याणको च] वुत्ता"-मज्झिमनिकाये पृ० २३१ अं० २। “अनरियो तु पुथुज्जनो" ॥ ३५॥ "नीचे पुथुजनो" ॥ ८४ ॥-अभिधानप्प० पृ. ६४ तथा १३८ । १२ न स-भां. मां। १३-नरान्तरातराण्यु-आ० । १४-ण पिण्डि-वा० बा०। १५-शब्दे भेद एवोपलब्धिस्ततो वा. बा। १६ एकेप-भां० मा०। १७-द्धौ व्यर्था-वा. बा. विना। १८-लम्भनि-वा० बा• विना। १९ तातहभां० मां०। २० अर्थो स्व-वा० बा० विना । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ प्रथमे काण्डे - र्ययात् । अर्थस्य हि ज्ञानाधीनः प्रकाशः जडत्वात् न त्व (स्व) यम् ततो यदि स्वप्रकाशनं तथासंवेदनं हेत्वर्थस्तदाऽसिद्धः (द्धिः) तदर्थस्य । अथ संवेदन सामान्यं स्वपरसंविदो हेतुः तस्य प्रतिबन्धो वाच्यः यतः साधारणं सत् तदर्थ ज्ञानयोः ज्ञानात्मनामेव साधयति । अथापि 'संवेदन शब्दो हेतुः सोऽपि प्रतिबन्धाभावादेव न साध्यं साधयति । किञ्च तदा ( था ) संवेदनं नीलादीनामभावसा ५ धनत्वेनोपन्यस्यते, उत ज्ञानात्मकताप्रसाधकत्वेन ? यद्याद्यः पक्षः स न युक्तः, हेतोर्विरुद्धत्वप्रसक्तेः उपलब्धेः संत्तया व्याप्तत्वात् नहास दुपलभ्यते तथाभ्युपगमे वा शप्तावप्य सत्त्वप्रसक्तिः । न चासतोऽनुपलम्भे द्विचन्द्रादेरनुपलब्धिप्रसक्तिः तस्यापि संत्तायोगित्वप्रतिपादनात् । यदि वा संवेदनं सति ज्ञाने असति च चन्द्रद्वये उपलब्धमित्यनैकान्तिकमस्तु । अथ ज्ञानात्मकता तथासंवेदनात् साध्यते तत्रापि वक्तव्यम् - किं ज्ञानात्मकत्वेन नीलादेः संवेदनम्, उन व्यतिरिक्ततया ? प्रथमपक्षे ज्ञानात्मकं १० संवेदनं नीलादेहेतुः स चाध्यक्षसिद्धोऽभ्युपगन्तव्य इति नापरं साध्यमस्ति यदर्थ हेतुः स्यात् । द्वितीयपक्षेऽपि हेतुर्विरुद्धः भिन्नरूपं हि संवेदनं भेदमेव साधयति नैकत्वमन्यथा भेदोपर तिप्रसकेः तदयमपि हेतुर्न युक्तः । इति न कुतश्चित् विज्ञप्तिमात्रसिद्धिः । 1 [ उत्तरपक्षः - विज्ञानवादिभिर्योगाचारः विज्ञप्तिमात्रस्य स्थापनम् ] अत्र प्रतिविदधति यत् तावदुक्तम् 'कथं प्रत्यक्षप्रतीतवपुषां नीलादीनामभावः साधयितुं १५ शक्यते' इति, तंत्र प्रत्यक्षेणार्थपरिच्छेदाऽसंभवात् कथं नीलादीनां प्रत्यक्षपरिच्छेद्यता ? तथाहिप्रत्यक्षमर्थं तुल्यकालं वा प्रकाशयति भिन्नकालं वा ? तुल्यकालमपि प्रत्यक्षम् परोक्षं वा ? यदि प्रत्यक्षं ज्ञानमर्थात्मानं तुल्यकालमवभासयति तथासति यदेव ज्ञानमवमासतेऽध्यक्षतया नंदे (दे) व नीलादिस्वरूपमपि परिस्फुटमाभाति स्वरूपनिष्ठयोर्द्वयोरपि प्रतिभासनात् कथं ग्राह्यग्राहकभावः ? तथाहि - ज्ञानं नीलाकार विविक्तं स्वरूप निमग्नं हृदि संन्धीयते अर्थस्तु तद्रूपपरिहारे ( रेण ) बहिः २० स्फुटवपुः प्रतिभाति । न च दर्शनप्रतिभासकाले नीलं स्वरूपनिष्टं प्रतिभातीति तद्राहां युक्तम् ज्ञानस्यापि नीलावभासकाले प्रतिभासनात् तद्ब्राह्यतापत्तेः । न च दर्शनं वहिरर्थसंविदं प्रति ग्रहणक्रियामुपरचयतीति तद् ग्राहकम् नीलं तु तत्प्रतिबद्ध प्रकाशतया ग्राह्यमिति वक्तव्यम्, नील-दर्शनव्यतिरिक्ताया ग्रहणक्रियाया अभावात् यतो न तथाभूततद्वयव्यतिरिक्ता ग्रहणक्रिया प्रतिभाति । न च तामन्तरेण कर्तृ - कर्म्मते नील-बोधयोर्युक्ते अतिप्रसङ्गात् । भयतु वा तद्यतिरिक्ताऽपरा क्रिया तथा२५ पि परोक्षायां तस्यां नीलादेः कर्मसम् बन्धोतस्य ( कर्मत्वं बोधस्य ) च कर्तृत्वमतिप्रसङ्गतोऽयुक्तमिति प्रतिभासना ( समान) तनुः अभ्युपगन्तव्या तथाभ्युपगमेऽपि च " किंचित् (किं) सा स्वरूपेण प्रतिभाति, उत तड्राह्यतयेति वक्तव्यम् । प्रथमपक्षे क्रिया स्वरूप निमग्ना प्रतिभातीति नीलम् बोधः ग्रहणक्रिया चेति त्रितयं स्वतन्त्रमाभातीति न कर्म-कर्तृ - क्रियाव्यवहतिर्युक्तिमती । न च परस्परस्वरूप विविक्तनिर्भासादेव कर्म-कर्तृ-क्रियाव्यवहारः, स्तम्भादेरपि तथापरस्परव्यवहारप्रसक्तेः । अथ ग्राह्यतया ३० क्रिया प्रतिभाति तदा तस्या अप्यपरक्रिया विषयीक्रियमाणायाः कर्मता तत्क्रियाया अप्यपरक्रियान्तरविषयीक्रियमाणायाः कर्मतेति निरवधिः क्रियापरम्परा प्रसज्येत । अथा (थ) क्रियान्तरमन्तरेण ग्रहणक्रियाया ग्राह्यता, नन्वेवं नीलादेरपि ग्रहणक्रियाव्यतिरेकेण स्वप्रकाशवपुषः ग्राह्यता समस्तु तथा च नीलादीनां स्वरूपमेव प्रकाशात्मकमिति विज्ञप्तिमात्रमेव सर्व भवेत् । अपि च, बोधककाले (बोधकाले ) यदि संवेदनक्रिया विद्यमाना तदा समानकालतया प्रतिभासनात् कथं ज्ञानस्य संवित्क्रिया २२ । १ प्रकारः प्रकाशः वा० वा० । २-त्वान्नन्वय ततो आ० । त्वान्नत्वायं ततो हा०।- त्वान्नत्वाय ततो वि० । ३-सिस तद-वा० बा० । ४- सामां खप-भां० मां० । ५- शब्दे हे भां० मां० । ६ न साधयति भ० मां० । ७ सत्ताया वा० बा० आ० । ८- सता नुवा० बा० विना । ९ सत्वायो - वा० वा० भ० मां० । १० पृ० ३४९ पं० २५ । ११ तन्न प्रवा० बा० आ० हा० वि० विना १२-त्यक्षज्ञा - वा० बा० भ० मां० विना । १३ यदेव हा० वि० । १४ - नमेव भा-वा० वा० विना । १५ तथैव वा० वा० । १६ संधेयआ० विना । १७ - दं बहिरर्थग्रहणक्रिया - वा० बा० । १८- क्ता क्रिया आ०। १९-सम्बन्धो तस्य भां० मां० आ० हा० | २० - स्य कर्तृ - वा० वा० । २१ - ङ्गतो यु-भ० मां०हा०वि० । २२ - ति भास तनुः अ-वा० बा० वि० विना । २३ किचि सो स्व- वा० वा० । २४ त्रितीयं वा० वा० विना । २५ अथार्थ क्रिया - आ० । अर्थात्रि - भां० मां० । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३५५ (या) प्रति कर्तृता? नहि समानकालयोः सव्येतरगोविषाणयोरिव हेतुफलभावः । अथ बोधोत्तरकाल. भाविनी क्रिया तथापि यदा ज्ञानसत्ता न तदा संविक्रिया यदा तु संवेदनक्रिया प्रतिभाति न तदा ज्ञानप्रतिभास इति कथं हेतुफलभावः? न च पूर्व स्वरूपेण वोधः प्रतिभातः पश्चात् नयनादिसामग्रीवशात् संवेदनक्रियायुक्तो भातीति कर्ताऽसाविति वक्तव्यम् यतो यदा संविक्रियायुक्तो बोधः प्रतीयते न तदा तत्पूर्वदशावगमः यदा च तदवगमः न तदा संविद्युक्तावस्थाधिगतिरिति न पूर्वापरका-५ लावगतिस्तयोरवस्थयोः तदभावे च कथं बोधस्य ग्रहणं प्रति कर्तृताप्रतीतिः? अथ नीलानुभवसमये पूर्वदशां स्मरन् बोधस्यानुभवं प्रति कर्तृतां प्रतिपद्यते, अयुक्तमेतत् ; नीलपरिच्छेदकाले बोध-ग्रहणयोः परस्पराऽसंसक्तयोः समानकालयोः प्रतिभासनात् कर्तृतावगमासम्भवात् । न च बोधस्य पूर्वावस्थामध्यवस्था(स्य)दपि स्मरणं ग्रहणावस्था(स्थां) प्रतिपद्यत इति कथं तत् कर्तृतामुद्द्योतयितुं प्रभुः(भु)? न च बोधात्मैवात्मानमुपलभत इति कर्तृताचगतिः यतो यदा नीलग्राहकमात्मानं बोधः प्रतिपा(प).१० द्यते न तदा पूर्वसत्तामनुभवकी(त्री) प्रतिपद्यत इति कथं ग्रहणं प्रति जनकतामात्मनोऽसावधिगच्छति? न च प्राक्तनीमग्रहणावस्था(स्थां) नीलाऽवभासकालेऽसावध्यवसा(वस्यति) प्रतिभासयोः युगपद्विरुद्धयोरापत्तेः तस्मात् समानकाले(लो) बोधो न ग्रहणक्रियामुपजनयितुं समर्थ इत्यग्राहक एव। किञ्च, यदि वोधो व्यतिरिक्तां ग्रहणक्रियामुपरचयति नीलस्य किमायातं येन तद् ग्राह्यं भवेत् १५ विज्ञानं तबाहकमिति । न च संविदुत्पत्तावपरोक्षतया नीलमाभातीति ग्राह्यं संविदुत्पादेऽपि तस्याप्रकाशात्मकस्य प्रतिभासायोगात् । तथाहि-नीलादिरों जडरूपत्वात् न स्वयं प्रतिपत्तिगोचरताम वतरतीति दर्शनं प्रकाशकमस्याभ्युपगतम् , यदि पुनः स्वप्रकाशात्मकं नीलं स्यात् तदा 'विज्ञप्तिरूपं नीलम्' इति परवाद एवाभ्युपगतो भवेत् । यच्चाप्रकाशात्मकं वस्तु तत् प्रकाशसद्भावेऽपि नैव प्रकाशते यतो न प्रकाशात्मा नीलं सङ्कामति भेदप्रतिहतिप्रसङ्गात् । न चार्थाकारकार्यतया प्रकाश-२० स्यार्थस्य प्रत्यक्षता, यतोऽपरोक्षाकाररूपत्वे तस्य प्रत्यक्षता युक्ता यथा नीलस्वभावंतायां नीलस्य नीलरूपता न तु प्रकाशात्मनं(नः) कार्यस्योद्भूतेः अर्थकार्यतया हि तत्सम्बन्धिता प्रकाशस्य सङ्गता यथा नयनकार्यतया तत्सम्बन्धिता न तु तत्स्वरूपं प्रकाशः। अथेन्द्रियाणां ज्ञाने स्वरूपाऽनर्पणाद(दप्रत्यक्षता अर्थस्य तु तत्र स्वरूपपरिच्छेदात् प्रत्यक्षता, असदेतत् ; अर्थस्य प्रत्यक्षस्वरूपासम्भवात् येतो न नीलादेः स्वरूपं बहिरुन्मुखताऽप्रतीतिः(?)अथाप्यपरा बहिरुन्मुखता तत्रास्ति तथापि स्वरूप-२५ मात्रनिमग्ना प्रतिभासमानमूर्तिः सा तृतीया सिद्धेति न तद्वशाद् बोधस्य ग्राहकता सिंद्धो(द्धा) तन्न नील-संविदोस्तुल्यकालं प्रतिभासनादपरव्यापाराभावतःस्वस्वरूपनिमग्नयोर्वेद्यवेदक(कता)न चनीलतत्संवेदनद्वयस्य स्वरूपनिमग्नस्य स्वतन्त्रतयावभासने तदुत्तरकालभावी कर्म-कत्रभिनिवेशी 'नीलमहं वेद्मि' इत्यवसायो न स्यात नहि पीतदर्शने नीलोल्लेख उपजायमानः संलक्ष्यते भवति च तथाध्यवसायी विकल्प इति तयोािग्राहकतेति वाच्यम्, मिथ्यारूपकल्पनया ग्राह्यग्राहकरूपतायाः परि-३० च्छेदासम्भवात् । तथाहि-'नीलम्' इति प्रतीतिः पुरोवर्ति नीलमुल्लिखन्ती वर्तमानदर्शनानुसारिणी भिन्ना लक्ष्यते, 'अहम्' इत्यात्मानं व्यवस(स्य)न्ती स्वानुभवायत्ता लक्ष्यपरा प्रतीयते, 'वेद्मि' इति प्रतीतिरप्यपरैव क्रियाव्यवसितिरूपा परस्पराऽव्यतिमिश्रसंवित्तित्रितया(य)मेतत् । नातः कर्म-कर्तृ-क्रियाव्यवस्था। भवतु वैकेयं कल्पनाप्रतीतिः कर्म-कर्तृ-क्रियाव्यवसायिनी तथापि नातो ग्राह्य-ग्राहकता सत्या, ३५ मृगतृष्णिकासु जलाध्यवसायाजलसत्यताप्रसक्तेः । न चात्र बाधातोऽसत्यता प्रकृतेऽप्यस्य समानत्वात् । तथाहि-कल्पनोल्लिख्यमानस्य कर्म-कर्तृभावस्य नील-संविदोः स्वतन्त्रतया निर्भासोऽस्त्येव बाधक इति कथं न ग्राह्यग्राहकभावोऽसत्यः? किञ्च,भ्रान्तेऽपि प्रत्यये ग्राह्यग्राहकतोल्लेखे(खो) दृश्यते, १-स्तयोस्तदव-भां० मा०। २-वसाद-आ. विना। ३-साति भा-वा० बा०। ४ तत् तस्याआ० हा० वि०। ५-क प्र-वा० बा०। ६-भा यो-आ० । ७ पराह वाद-वा० बा०। ८-वतयां वा० बा०। ९-काशोत्मन का-वा. बा० ।-काशात्मकं नं का-हा. वि.। १० ननु त-वा. बा. आ० । ११ यतो नी-वा. बा. विना। १२ सिद्धौ त-वा. बा. विना। १३-द्यतोदक-वा. बा.। १४-त्तित्वतायामेतत् भां० मा० हा० वि०।-त्तित्वताया मतव नात क-आ०। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ प्रथमे काण्डेन च तदुल्लेखमात्रभ्रान्तदर्शनावभासिनः केशादेः सत्यता । अथ तत्र बाधकसद्भावादसत्यता, न; बाधाऽयोगादित्यभिधानात् । [?? न च बहिरर्थाभावेऽपि कथं ग्राह्यताऽध्यवसायादयः वितथदर्शनावैसेये केशकलापाध्यवसायेऽप्य(प्यस्य) समानत्वात् । अथात्र सत्यकेशग्राह्यताऽध्यारोप्यते वितथकेशाभावे अर्थाभावे तु सर्वसंविदां न क्वचित् पूर्वदर्शनदृष्टा ग्राह्यता वर्तमानदर्शनेऽध्यारोप्यते तत्रा५प्यपरपूर्वदर्शनदृष्टा तत्राप्येवमित्यनादिरध्यारोपपरम्परा वहिरर्थाभावेऽपि व्यवहार निबन्धनं युक्तैवेति ??] । अपि च, तुल्यकालं प्रकाशमानवपुर्नीलमुद्भासयन्ती(न्तीं) प्रतीतिमभ्युपतैत्य(भ्युपेत्य) व्यापाराभावाद् ग्राह्यग्राहकभावे(वः) प्रतिक्षिप्तः जैव प्रतीतिर्विचार्यमाणा न सङ्गच्छते कुत एवार्थग्राहिणी स्यात् ? तथाहि-अनुभूयमानमर्थाक(का)रं विहाय नान्या प्रति(?)यदाभाति यतः प्रकाश मानं नीलादिकं बहिः अन्तश्च सुखादि स्वसंविदितं विरहय्य नान्या संवित् सता(ती) कदाचित् १० प्रतिभाति इत्यसती सा कथमर्थग्राहिणी भवेत् ? न च सुखादिकमेवाहंकार(रा)स्पदस्य(?)तं हृदि परिवर्तमानं नीलादे ग्राहकम्, मुत्पादेः(सुखादेः) प्रतिभालमानवपुपो ग्राहकत्वानुपपत्तेः। तथाहिसुखादयः स्वसंविदिता हृदि प्रकाशन्ते नीलादयस्तु वहिस्तथाभूता एवाऽऽभान्ति, न च परस्पराऽसंसृष्टवपुषोस्तयोः समानकालयोः वेद्यवेदकता, तुल्यकालता(त)या प्रकाशमाननील-पीतयोरपि रतस्त-द्भावापत्तेः । न च सुखादिराकारः स्वपरप्रकाशतया प्रतिभासमानो नीलादेर्वेदकः १५ सवितृप्रकाश इव घटादीनाम् । यतो दर्शनात्मनः प्रकाश एव किं वहिरर्थावभासः, आहोस्विद् दर्शनकाले तेषां प्रत्यक्षात्मता? आद्ये विकल्पे ज्ञानात्मनः प्रकाशः स्वसंविद्रूपोऽनुभवः तत् ज्ञानस्य रूपं न बाह्यार्थात्मनाम् अन्यथा प्रत्यक्षात्मतया तयोरभेदप्रसङ्गः। तन्न दर्शनानुभव एव नीलानु वः । अथ दर्शनसमये प्रत्यक्षं नीलादिस्यरूपं तेषामनुभवः; नन्वत्रापि दर्शनोदयसमये यदि पदार्थप्रत्यक्षता तथासति सामग्रीवशात् प्रत्यक्षाकारं नीलमुत्पादितमिति दर्शनवत् तत् स्वसंविदितं प्रसक्तम् । २० अत एव दृष्टान्तोऽपि अत्रासङ्गनः । तथाहि-सवितृप्रकाशः स्वरूपनिमग्न एवाभाति घटादिरपि स्वात्म. निश्व(प्ठ) एव भासत इति नानयोरपि परस्परं प्रकाश्यप्रकाशकभावः । अपि च, आलोकोद्(काद्) घटादिः प्रकाशरूपः प्रादुर्भवतीत्यालोकः प्रकाशकः स्यात्, उपकाराभावे व्यतिरिक्तोपकारप्रादुर्भावे वा घटादीनां प्रकाशायोगात् । न चात्राहङ्कारास्पंदनंतर्दनं(दमन्तदर्शनं) बहिःपरोक्षाकारमर्थ जनयति, तुल्यकालतया हेतुफलभावायोगात् उपकार्योपकारकभावमन्तरेण बाह्यार्थानामन्तईशां २५चै तद्य(वेद्य)वेदकभावानुपपत्तेः सर्व वस्तुस्वं(सं)विन्मात्रकमेवेति स्थितम् । [?? न च नीलादिव्यतिरिक्तबोधानभ्युपगमे नीलस्वरूपः प्रकाशः पीतस्य प्रकाश न नीलप्रकाश एव पीतस्य प्रकाशोऽभ्युपगम्यते ??] तयोर्भेदेन प्रतिपत्तेः नहि नीलप्रकाशः पीतप्रकाशानुगामितया प्रतिभाति नौपि पीतात्मानुभवो नीला(ल)स्वरूपानुभवानुप्रविष्टः प्रकाशत इति कथं नील-पीतयोरनुभवः ? तथाभ्युपगमो(मे) वा सर्वपदार्थसङ्कार्य(सार्य)प्रसक्तिः । न च 'अनुभवः' 'अनुभवः' इत्ये. ३० करूपतयोत्पत्तेरनुभवत्ये(स्यै)कता; प्रतिपदार्थ 'स्वरूपम्' 'स्वरूपम्' इत्येकत्वाध्यवसायोत्पत्तेः सर्व १-भासित के-आ० हा०वि०। २-धायो-वा. बा. विना। ३-वसेयो के-वा. बा०।-घसे केभा. मां०। ४ अथात्र समानत्वादथात्र सत्यं के-भां० मां०। ५ सत्यं के-आ. हा. वि.। ६-विदा न भां०। ७ युक्तेवे-आ. विना। ८-य तान्या आ०। ९-मान नी-भां० मा०। १०-रप नान्या सं-हा० वि० ।-रपनान्यां सं-भां. मां० ।-रप न्या संवि शत कदा-आ०। ११-कारस्पदस्यं तं वा० बा० ।-कारस्पतं हा०। १२-कमुत्पादादेः वा. बा. विना। १३-संस्पृष्ट-वा० बा०। १४-खाराकाभां० माआ. हा० वि०। १५-र्शना का-वा. वा. विना। १६-दूपांनु-आ। १७ दर्शनानुभव एव नीलानुभवा एव नीलानुभवाऽथ दर्शनानुभवो एव नीलानभवोऽथ दर्शनसम-वा. बा०। १८-भवोऽत् प्रदर्श-आ०। १९ यदपि पदा-वा. बा. विना। २०-निश्वय ए-आ० ।-निश्चय ए-भां० मा हा० वि०। २१ आलोकोडघटा-हा० । आलोकोद घाटा-वा० बा०। २२-भावेऽपि व्य-आ० । २३-स्पदनंतदर्शनंतदर्शनं बहिः-आ० ।-स्पदनतर्दर्न बहि प-वा. बा०। २४-स्तदृशां वा० बा० ।-स्तदेशों आ० । २५ च नह्मवेदंक-भ० मां० । च नावेदक-आ०। २६ सर्व वसुखंवि-मां० । सर्व त्रसु. खवि-भा०। २७-काशन नीलप्रकाशन नीलप्रकाश एव वा० बा०। २८-काशानुरागितया वा० बा० विना। २९ नापि चात्मानुभावा नीलास्व- मानापि वात्मानुभावा नीलास्व-भां०। ३०-तया (रकानु)-वा० बा०। ३१-त्पत्तिर-भां० मां०। ३२-दार्थ स्वरूपं मित्येकत्वा-आ०। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३५७ पदार्थानां स्वरूपस्यैकताप्रसक्तेः। [?? अथ प्रत्यक्ष एव पैदार्थस्वरूपाप्रत्यक्षं तदूपत्वे ग्रहणरहितस्ये(स्यै)व तस्य प्रतिभासप्रसङ्गः। अथ व्यतिरिक्तं प्रत्यक्षस्वरूपम् एव(व)सति सामग्रीवलादुपजातं तदेकत्व. भासनम् नीलादेस्तु परोक्षत्वात् स्वरूपा(पे)ण परिच्छेदासम्भवः । न चाध्यक्षावभासमानरूपोदय(ये) नीलमध्यक्षीभवति भिन्नाभिन्नविकल्पप्रसङ्गतोनुपपत्तेः ??]। अथाध्यक्ष नीलमपरोक्षस्वभावं जनयतीति ग्राहकम् नीलादेस्त्वध्यक्षरूपतया जन्यमानत्वात् ग्राह्यता, असदेततः एककालत्वे नील-५ -दर्शनयोर्जन्यजनकभावायोगात् भिन्नकालत्वे दर्शनबलाध्यक्षरूपतयोपजायमानं स्वप्रकाशकमिति कथं ग्राह्यता भवेत् ? अपि च, यदि प्रकाशविकलं नीलं सिध्यति तदा प्रकाशरहितस्य नीलस्य प्रकाशमाविर्भावयन्ती बुद्धिर्भवेद् वेदिका। न च दर्शनविकलस्य परिच्छेदः संभवति तस्य दर्शनेनैव परिच्छेदात् । यदा तु दर्शनमुत्पद्यते तदा तत्काला(ली)नमेवार्थमवभासय(यि)तुमलम् पूर्वसत्तां तु तस्य कथमधिगच्छति? न च प्रत्यक्षमपरं प्राग्भावमर्थस्य वेत्ति तत्राप्यपरापरप्रत्यक्षाभ्युपगमादनव.१० स्थावप(स्थाप)त्तेः। ने चार्थस्य प्राग्भावमन्तरेण प्रत्यक्षतानुपपत्तस्तस्य प्राग्भावोऽनुमानेन साध्यते, प्रत्यक्ष(क्षा)भावेऽनुमानस्याप्रवृत्तेः । यदि प्राग्भावोऽर्थस्य प्रत्यक्षतः सिद्धः स्यात् तदा तत्प्रतिबद्धोतरकालभाविप्रत्यक्षादनुमीयते न चाध्यक्षोदयवेलायाः प्रागर्थसत्ता सिद्धेति तत्प्रतिबद्धतया दर्शनलक्षणस्य लिंङ्गैस्याप्रतिपत्तेः। न ततोऽप्यर्थप्राग्भावः सिध्यति । न च प्रागर्थस्य प्राग्भावः सिध्यति, न च प्रागर्थसद्भावमन्तरेण नियता(त)देश-काल दशापरिगतदर्शनानुदयप्रसक्तिः स्वप्नादौ तथाभूतार्थाभा-१५ वेऽपि कुतश्चिद् वासनादेनिमित्तम्(त्तात्) प्रतिनियताकारदर्शनादयो(नोदया)नुभा(भ)वात् अर्थस्य च नियताकारदर्शनाहेतुता । जाग्रद्दशायामपि प्राग्भाविनो(विता) न सिद्धा । न च प्रागर्थसत्ताविरहे भवतोऽपि किं प्रमाणमिति कर्त्त(वक्तव्यम्, यतो यथा नीलविविक्ततया नीताकारस्य परिच्छेदात् तत्र नीलरूपताऽभावः तथा परिस्फुटप्रतिभासस्य नीलाकारस्य वर्तमानतया प्रतिभासनात् तस्य पूर्वरूपताविरहः यदि हि तत् तद्रूपं स्यात् तथा(दा) तथैवावभासेत न ह्यन्यरूपमन्यरूपेण २० प्रतिभाति दर्शनस्य वैत(तथ्य)प्रसङ्गात् । न च वर्तमानप्रतिभासं नीलं पूर्वरूपतया प्रतिभातीति पूर्वरूपताविरहस्तस्य सिद्धः यथा च पूर्वरूपतां न किञ्चिज्ज्ञानमावेदयति तथा क्षणभङ्गं साध. यद्भिः प्रतिपादितमिति नेहोच्यते । तदेव(वं) दर्शनकाल एव नीलादेरवभासनान्न ग्राह्यता। [?? ने च तदर्शनोपरतावपि पैरदृशि नीलादेरवभासनात् साधारणतया ग्राह्यता दर्शना(न) पुनरसाधारणतया वसन्तानान्तर इति ग्राहकम् साधारणतया पदार्थपरिच्छेदासंभवात् । तथाहि-स्व-२५ दर्शने वस्तु प्रतिभातीति स्वस्वदृष्टतया प्रतीयताम् नरान्तरदर्शनपरिच्छेदैन(म)न्तरेण तट(द)ष्टतया कथं तत्परिकल्पना । न हि परदगमनन्त(गवगममन्त)रेण तदेव(तद्व)गम्यता न च तस्य प्रत्येतुं १ पदार्थस्वरूपपदार्थस्वरू प्रत्यक्षं वा. बा.। २-रहितास्यैव वा० बा०। ३-व स त-भां० मा । ४-भास प्रत्यक्ष-भां० मां०। ५-पम् सति वा० बा०। ६ जातं तदेकवभासतम् वा० बा० ।-जातं त तदेकभासं तम् भां० मा० ।-जातं त तदेक भासतम् हा० वि०। ७-त्वाद्रूपेण आ० हा०वि०।-त्वा पेण भां० मां०। ८-म्भवो न चाध्यक्षाद्रपेण परिच्छेदासंभवो न चाध्यक्षावभा-भां० मां० ।-भवावो न चा ----रूपादय-वा. बा०। ९ भिन्ना वि-वा. बा०। १० दर्शनं बला-वा. बा. विना । ११-मानस्व-वा. बा. विना। १२-कल नीलमिति सि-आ० ।-कलं सि-वा० बा०। १३-काशमाविर्भा-भां० म०। १४ बुद्धिर्भावदिका वा० बा० । १५-कल्पस्य वा० बा० । १६ तदा तदा तत्कालानमे. वा-भां० मा० । १७ तत्कालानविमेवार्थ-वा० बा० । १८-वस्था-वा० बा० । १९ न वा-आ० हा० वि० । २०-बद्धातिबद्धोत्तर-भां० मा०। २१ न वा-वा. बा. आ. हा० वि०। २२ लिङ्गस्यालप्र-भां० मां। लिङ्गस्य लिङ्गस्याप्र-आ० । लिङ्गस्यप्र-वि० । २३ तदाभू-वा० बा०। २४-दशनाद-भा० मां०।-दर्शद-आ० । २५-कालदर्शनहेतु जाग्र-वा० बा० विना। २६-भासे न ह्य-वा० बा० विना। २७-स्य वेतहा० वि० ।-स्य चेत-भां० मा० । २८ पूर्व रू-भां० मा०। २९ न च मईर्शनो-वा० बा। ३. तदा र्शनोप-मां० । तर्शनोप-भां०। ३१ परिदृ-भां० माआ. हा० वि०। ३२ स्वसंतातानान्तर-वा. बा० । स्व तानान्तर-भां. मां०। ३३-भातीते स्व-वा. बा. भ. मांहा. वि.। ३४-प्रती तानता. न्त-हा० वि०। ३५-दनान्तरे-मां. हा० वि० ।-दनातरे-भां०। ३६-ण दृष्ट-भां० मा० । ३७-कल्प्य. तां न वा० बा० । ३८ न च स्य वा. वा० । अत्र 'तद्वगम्यता तस्य प्रत्येतुं शक्या' इति पाठः संभाव्यते। Yen an Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ प्रथमे काण्डे शक्ता यतः साधारणतया स्वसन्ततावेव प्रतिभाति न सन्तानान्तर प्रति साधारणमर्थस्य प्रकाशयति अन्वयबलेनानुमानस्य प्रवृत्तेः तस्य च साधारण एव परिच्छेदात् , नानुमानं 'अदृष्टमेवायमर्थमवगच्छति' इति एवं साधारणतां वस्तुनः प्रतिपादयति यथा च साधारणमायां(णतायां) न किञ्चित् प्रमाणं प्रवर्तते तथा प्रतिपादितमद्वैतं निराकुर्वद्भिः। ततोऽसाधारणतया बोधवन्नीलादिकमपि ५हृदिता ??] न च समानकालप्रतिभास(सा)विशेषेऽपि चिद्रूपतया बोधो ग्राहकः अर्थस्त्वचिद्रूपत्वाद् प्राह्यः यतो दर्शनस्यापरोक्षात्मतैव चिद्रूपता अपरोक्षताव्यतिरिक्तायाः चिद्रूपतायाः केनचिदप्रतिपत्तेः सा च नीलादेरपि स्वरूपभासमानमूर्तेरस्तीति कथं ना(न) बोधात्मकता? न च नीलादेवहीरूपतया प्रकाशनाद् ग्राह्यता, संविदोऽपि(?)नीलादिकमपि हृदि प्रतिभास(समा)नाया बहीरूपतासद्भावाद् ग्राह्यताप्रसक्तेः [?? अथ संविदो ग्राहकत्वं बाह्योन्मुखतया प्रकाशता, असदेतत्; संविदाकार१०व्यतिरेकेण तंत्र तस्य भेदप्रतीतेकता एवं तर्हि पदार्थानुभवोऽप्यध्यक्षतो मिन्नः प्रतिभातीति कथमेकत्वाध्यवसायेऽपि न तस्य भिन्नता ??] ततो नीलात्मे(त्मै)वाऽपरोक्षरूपः प्रतिभाति तयति. रिक्तस्यानुभवात्मनो नीलग्राहकस्यादर्शनात् स्वरूपेणाप्रतिभासमानस्य चार्थव्यवस्थापकत्वासंभवात् स्वसंवेदनरूपी नीलादयः सिद्धाः । अथ प्रकाशमाननीलव्यतिरिक्तप्रकाशाभीवा(वात्) 'नीलस्य प्रकाशः' इति भेदप्रतिपत्तिर्न स्यात्, असदेतत् ; भेदाभावेऽपि 'शिलापुत्रकस्य शरीरम्' इति १५ भेदाध्यवसायदर्शनात् । अथात्र अभेदस्य प्रत्यक्षताद् भेदा वाच्यते (क्षत्वाद् भेदो बाध्यते)। ननु नील-तद्धियोरपि "भेदोल्लेखः कल्पनारचितोऽविनिर्भागावभासाद् बाध्यत एव [?? अध्यक्षत परोक्षा संविदपगम्यते तेनापरोक्षनीलावभासतदुद्धरपि परिच्छेदपुरिसच्छिरिति न दूषणावकाशः पैरोक्षेव बुद्धिरर्थमुद्भासयति ??] अर्थस्तु बहिर्देशसंबद्धः प्रत्यक्षमनुभूयते । आह च भाष्यकार: "स हि बहिर्देशसंबन्धः(वद्धः) प्रत्यक्षमुपलभ्यते" [मीमांसाद पृ०७ पं० २३] इति, असदेतत् । २०Qट्यध्यक्षतामन्तरेण नीलादेस्तद्वाह्यत्वायोगात् । यदि ह्यपरोक्षा बुद्धिीलप्रतिभासकाले भवेत तदा युज्येत वक्तुम्-'बुद्धिरर्थान् गृह्णाति' इति, यदा तु बुद्धिस्तदा न प्रतिभाति तदा नीलादेरपरोक्षस्याऽप्रादुर्भाव एवोक्तः स्यात् न ग्राह्यता । किञ्च, यथा परोक्षार्थसद्भावात् तदवभासिनी बुद्धिरनुमीयते तथात्मना(नो) व्यापाराध्यक्षतया प्रतिभासनात् सा तदवभासिन्यप्यनुमीयताम् । न चात्मनो. ऽपि ग्राहिका 'अहम्' इति बुद्धिरस्त्येव इति वक्तव्यम्, परोक्षत्वे तस्याग्राहकत्व(त्वा)योगात् २५ स्वरूपेण वात्मा प्रतिभातीति स्वसंवेद(द्य) एव युक्तः । [?? न चात्मा सत्तादिरूपेण ग्रोह्यः (ग्राहकः) तत्पक्षरूपेण ग्राह्य इति ग्राह्यग्राहकयोर्भेदोऽस्तीति वक्तव्यम्, सत्तादिपरिच्छेदे आत्मपरि १ शक्त्या य-आ० । २-नस्य वृ-वा० बा० विना। ३-मानमह-वा० बा०। ४-मर्थ वगभां० मा. आ. हा० वि०। ५-णतां वास्तु-वा० बा०। ६-मायायां वा. बा. विना। ७ अद्वैतनिराकरणं च पृ० २८५५०६। ८-या वाधवन्नीलादिकमपे हृदिता वा० बा०। ९कथं तांबो-हा। १०-ह्यतःप्रभां० मा० आ० हा०वि०। ११ तत्र स्या मे-वा० बा०। १२-प्रतीतेर्नेक-आ० हा० वि०। १३-स्यादर्शनादर्शनात् वा० बा० भां० मा० हा० । १४-स्य वा-मां० विना। १५-पादी नी-वा० बा०। १६-भा. वनी-वा. बा. विना। १७-दाव्यय-वा. बा. भां. मांहा. वि.। १८-तद्वितयो-भां० मा हा०वि०। १९ भेदाल्लेख दाल्लेख क-भां• मां० । भेदाल्लेखक-आ• हा० वि० । २०-रचितोवनिर्भागाद्विभासाद आ• हा० वि० ।-रचितोवनिर्भागाद्वि भा द् भां० मा । २१-ध्य त प-वा० बा० । २२-परोक्षे च वा. बा० । २३ "स बहिर्देशसंबद्ध इत्यनेन निरूप्यते"-श्लो० वा. शून्य. श्लो. ७९ पृ. २९१ । "स बहिर्देशसंबद्ध इत्यनेन ननूच्यते"-तत्त्वसं. का. २०७० पृ०५७८ । "आकारवान् बाह्योऽर्थः स बहिर्देशसंबद्धः प्रत्यक्षमुपलभ्यते इत्यनेन प्रन्थेन भाष्यकृता शबरेणxxxप्रतिपादितम्"-तत्त्वसं• पञ्जि० पृ. ५७८ ५० १५ । २४ बुद्ध्येध्यक्षता-मां० । बुध्यक्षता-हा० वि०। २५-राक्ष-वा. बा०। २६-माहाकत्वयो-वा. या०। २७-ण चा-वा. बा०। २८ न वात्मा हा०। २९ प्राहाः वा. बा. आ०। ३०-च्छेदे आत्मना परिच्छेदात् आ० हा• वि० ।-च्छेदे त्मनाऽपरिच्छेदात् वा. बा. । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । ३५९ च्छेदात् । यदि हि सत्ताबोधपरिच्छेदेन तदा आत्मसत्तादिपरिच्छेदोऽन्यथा सत्तादेः सर्वत्र भावाद् वात्मसत्ता परिच्छेत्तु बोधरूप एवात्मनोऽप्रत्यक्षतेव भवेत् तस्यान्यरूपाभावात् न च बोधकैप व (एव) आत्मा प्रत्ययान्तरेण प्रकाश्यते तस्य प्रकाशरूपत्वात् यो प्रकाशात्मप्रकाशात्मकः स्वरूपेणैव तस्य प्रकाशनात् ?? ] ततो यद्यात्मा प्रकाश्यते तदा स्वसंवेदनरूप एवावगन्तव्यः यथा वा (चा) त्मा अपरप्रकाशाभावात् स्वप्रकाशः नीलादयोऽपि तथैवाभ्युपगन्तव्या स्तेनामप्यपरप्रका- ५ शासंवेदनात् । यदयुक्तम्- 'बुद्धिः परोक्षा' इति, अत्रापि बुद्धेः प्रत्यक्षताप्रसक्तिः । [ ?? तथाहि अर्थाप्रत्यक्षता बुद्धिसत्ता तत् तस्यैवाव्यक्तं स्वरूपम् यदि पदार्थस्वरूपा या प्रत्यक्षतेति सर्वः सर्वदर्शी भवेत् । अथैतद्दोषपरिजिहीर्षायां द्वयादि सामग्र्यन्तर्गतः प्रतिनियत एवार्थः कस्यचिदध्यक्षी भवतीत्युपगम्यते; नन्वेवं सामग्रीवशात् कस्यचिदर्थस्य प्रत्यक्षं स्वरूपमुपजाति (त) मिति स्वसंविदितमेवार्थस्वरूपमायातम् । २० अथ दर्शन सत्तापूर्वस्य प्रत्यक्षता तर्हि परोक्षतया तस्या अप्रतिभासने तदव्यतिरिक्तपदार्थ प्रत्यक्षताया अप्यप्रतिभासनादर्थः प्रत्यक्षो न भवेत् । न च प्रत्यक्षतायमार्थः न तु तस्यां विदितायामिति वक्तव्यम्, तस्या अंवेदने प्रत्यक्षीभूतार्थोऽवेदनात् । यतश्चक्षुरादिसामग्रीतः प्रादुर्भूतार्थप्रत्यक्षताया एव भाति तदार्थः तद्विशिष्टतया प्रत्यक्षीभवन् विदितो भवेत् प्रत्यक्षताऽनवगमात् तत्परिगतो वात्मानवगत इति haatravयक्षः ? यदि हि प्रत्यक्षाकारतया प्रतिभाति तदा प्रत्यक्षोऽर्थः यथा नीलं नीलाकारतया १५ परिच्छिन्नं नीलमिति व्यवस्थाप्यते नान्यथा । न चार्थः प्रत्यक्षतया प्रतीता (प्रतिभा) तीति दर्शनगोचरातिक्रान्तत्वादव्यतिरिक्त विषय संविदोऽप्यप्रकाशनायात मान्यत्यनवशेषस्य जगतः ?? ] न च पूर्वमर्थावभासः पश्चाद् दर्शनान्तरेण बुद्धेरनवस्थाप्रसक्तेः । यदि पुनरैर्थस्य प्रत्यक्षता अपरोक्षा बुद्धिस्तु पैरोक्षा (?) वगमात् तर्हि चक्षुरादिसामग्रीबलादुपजायमानी सैवार्थस्य प्रत्यक्षता प्रकाशमाना प्रतिपुरुषं भेदमासादयन्ती बुद्धिरस्तु तदुदयेऽर्थपरिच्छेदादिव्यवहार परिसमाप्तेर्व्यर्थाऽपरा बुद्धिः नार्थ- २० प्रत्यक्षतानिबन्धनमपरा बुद्धिरभ्युपगन्तव्या तत्र तस्याः सामर्थ्यादर्शनात् यतश्चक्षुरादिसामग्री सद्भावे प्रत्यक्षैतोद (दे) ति तदभावे नोत्पद्यत इति तन्मात्रदृष्टस्य कल्पना सैवार्थस्य प्रत्यक्षता प्रकाशमाना प्रति पुरुषं भेदसंगात् ततो बुद्धिः प्रत्यक्षा अभ्युपगन्तव्या तदभ्युपगमे च तद्यतिरिक्तार्थानामप्रतिभासनान्निरस्तार्थसद्भावात् पक्षता (?) वा बुद्धिरेवास्तु ननु यदि बुद्धेरेव नीलाद्याकारस्तथासति १- ताबोध पापरिच्छेदेत तदा वा० वा० । तावोधे प-आ०। त्तावोध प-भां०म० । २-सत्तास प आ० । ३च्छेदे तु बोधस्यैव ग्राह्यत्वाततो वोधरूप वात्मानो वा० वा० । ४ बोधस्यैव ग्राह्यत्वात् ततो बोधरूप-आ० हा० वि० । ५-रूप चात्मा भ० मां० । रूपं वात्मा वि० । ६ ह्यप्रकाशात्मकः आ० हा ० वि० । ह्यप्रकाशात्मकः सव्यतिरिक्तं स्वप्रशमपेक्षते ननु यः प्रकाशात्मकः स्वरू-वा० वा० । ७ यथात्मा आ० । ८- काशते वा० वा० । ९ - थाह्यर्थाप्रत्यक्षताप्रसक्तिः तथाह्यर्थाप्रत्यक्षता वुद्धिसत्ता आ० हा ० वि० । १०- सत्तो त तस्यैव व्यक्तं वा० बा० । ११ तस्यैव व्यक्तं हा० वि० । तस्यै वक्तव्यं स्वआ० । १२- स्वरूपमव्यक्तता तथा सर्वार्थानां स्वरूपायां प्रत्यक्ष-आ० हा० वि० । स्वरूपमव्यक्तता तथा सर्वार्थानां स्वरूपा यात्प्रत्यक्ष - वा० वा० । १३ - हीर्षायं द्वियादि - वा० बा० । १४ - तीभ्युपग- भ० मां०आ० हा०वि० । १५ नत्वेवं वि० । १६- पमुपजातमुपजातिमिति आ० विना । १७- सत्तात् पू-वा० वा० । १८ - सने वदव्यतिरिक्तपदार्थ प्रत्यक्षताया अप्यप्र-आ० । सने तदव्य क्षताया अप्यप्र-भां०] मां० । १९ न संभ-आ० | २० अस (सं) वे वा० वा० । २१ - र्थावेद - आ० । २२- ताय एव भा-भां० मां० आ० ।-ताय एवा भा-हा० वि० । २३- मातत् त्प-आ० हा० । २४ कथमवसा-वा० बा० । २५-सादध्य-आ० | २६ नील नीला - वा० बा० विना । २७ न वार्थः आ० हा०वि० । २९ - मान्यत्यनवशेषस्य जनगतः आ०।- मान्यनवशेषस्य जगतः हा० वि० । ३१ - रधिस्य आ० । ३२ परोक्षवगमा तर्हि वा० वा० । ३३-ना सेवार्थ भां० ।-ना स्यैवार्थ - मां० वि० । ३४- शमना प्रवा० बा० । शमाना पु-आ० हा० वि० । शमानां पु-भां०म० । ३५-माप्तेव्य - वा० वा० विना । ३६ तस्याः सा-व'० बा० विना । ३७ - क्षतादिति वि० । क्षतादति भ० मां० आ० हा० । ३८-भाव नोत्पद्य इति वा० बा० । ३९-ना सौवा - आ० । ४० - रस्त्यर्थ सद्भावात्पक्षता वा वा० वा० । २८-तिरिक्तं वि-आ० । ३० - रवस्था - वा० बा० । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० प्रथमे काण्डेग्राह्यग्राहकाकारद्वयस्य संवेदना(न) मेकं ज्ञानं भवेत् ने चाकारद्वयमाभाति नीलादेरेवाकारस्य भासनात् , नैतदेवम् ; दृश्य-दर्शनयोरेकादनिर्भासादेवाकारद्वयप्रतिभासाभावात् । यदि पुनर्लाह्याकारो ग्राहकाकारश्च पृथक् प्रतिभातस्ततो भेदप्रतिभासा(सात्) ज्ञानाद्वैतमेव न भवेत् तस्माद् दृश्यदर्शनयोरेकाकारोपलम्भादेकत्वं व्यवस्थितमिति भ्रान्तज्ञानावसेय इव रजताकारः सत्यदर्शना५धिगम्योऽप्यसौ ज्ञानखभाव एव । [?? न च बहीरूपतया प्रतिभासनाद् भ्रान्तसंविदवभासिनोऽपि रजतासिद्धात्तसंविद्रूपता सिद्धा तस्य बाह्यार्थत्वेऽप्यवहारो भेदप्रसक्तेः । न चे सत्यासत्ययोलॊकेतराभ्यां व्यवहार भेदः वितथाज्ञानावासिनस्तस्यालौकिकत्वपरिज्ञानाभावान्न तावदस्यालौकिकत्वम् तज्ज्ञानादेव तत्र तस्याप्रतिभासना यदि तु तंत्र प्रतिभासेत तदर्थक्रियार्थिनस्तत्र वृत्तिर्न भवेत् । अथालौकिकोऽपि रजतादिौकिकतया १० तत्रावभासत इति प्रवृत्तिरत्वे(स्त्वे)वमलौकिकतया तत्र भातीति विपरीतख्यातिरिति न सर्वेषां प्रतिभासमानानां सत्यता । किञ्च, अलौकिके लौकिकं रूपं तस्य सिद्ध्यत् किं सत्यम् , उतासत्यं कथमवभाति ? अथ सत्यम् न व्यवहारभेदः। यदि पुनरैलौकिके यल्लौकिक रूपमाभाति तदा लौकिकरूपतया सत्यम् ; नन्वत्राप्यलौकिके यल्लौकिकं प्रतिभातं तत् किं सत्यतया; उत असत्यतया? यद्यसत्यतया कथं प्रवृत्तिः ? अथ सत्यतया कथमलौकिक रूपं तस्य सिध्येत् ? किञ्च, यद्यलौकिकं रूपं १५प्रतिभातं स्वरूपेण न गृह्यते "किं वा लौकिकत्वं परेणालौकिकेतररूपेण गृह्यते तदप्यपरेणेति निरा(र)वसानो(ना) लौकिकपरम्परा समासज्येत । ??] [?? यदि पुनर्वितथदर्शनं विपरीतख्यातिरभ्युपेयते तत्रापि वक्तव्यम्-किं विपरीताख्यातिः,आहोखिदू विपरीतस्य वस्तुनो विपरीताकारणे(कारेण) ख्यातिविपरीतख्यातिः? तत्र प्रथमे विकल्पे किं स्वरू पापेक्षया विपरीतख्यातिः, आहोखित् ख्यातानन्तर(रा)पेक्षया सर्वैव ख्यातिः विपरीतख्याति(तिः)? २० आहोस्तदात्रापि वक्तव्यं किं तदैका(दैव) वोत्तरकालम् ? यदि तदैव तदा विरोधस्तथाहि यदि तदा विरोधस्तथाहि यदि तदा ख्यातिः कथं स्वरूपविरहलक्षणा विपरीतताऽथ स्वरूपप्रच्युतिः कथं किं सा ख्यातिः सती अथोत्तरकालं ख्यातेरभावस्तथापि कैथं विपरीता ख्यातीनामुत्तरकालप्रच्युतेर्विपरीतख्यातिप्रसक्तेः। अथ द्वितीयो विकल्पस्तत्रापि ख्यात्यन्तरापेक्षया सर्वे(वै)व ख्यातिविपरीतख्यातिरिति सर्वख्यातेपरीत्यप्रयु(प्रस)क्तिः, यदि पुनर्वैपरीत्यं शुक्तिकादि रजताद्याकारेण विपरीतेन ख्यातीति २५ विपरीतख्यातिरित्यथ पक्षाभ्युपगमः सोऽप्ययुक्तः, अन्यरूपेणान्यस्य परिच्छेदायोगात् । तथाहि-किं १ ग्राह्याया-आ० विना। २ नवा-वा० बा. विना। ३-तदेव -भ० मां०! ४-सादेकाकावा. बा. विना। ५ भवेत् तस्माद् दर्शन-आ० । भवेत् त तस्माद दर्शन-वि०। ६-द्धान्न सं वा०बा. आ०। ७ तस्या बा-आ० । ८-र्थत्तेऽ-वा० बा० । ९ च सत्ययोर्लो-भा० मां। १०-रभेदो त-वा० बा. विना। ११-भासितस्त-भा०। १२ तज्ञा-वा० बा०। १३ तव प्र-भां० । तद प्र-भां० सं० । मां० १४-भासेन तदर्थ-मां०।-भासित तदर्थ-वि०। १५-रत्वेवसलौ-हा० वि० ।-रन्वेवमलौ-वा. बा. आ० । १६ सर्वेषां प्रवृत्तिभास-हा० वि०। १७-नानां सर्वत्यता। किञ्च, अलौकिके रूप तस्य सिध्येत् किं सत्य-वि०। १८ सत्यता किंवा लौकिके लौकिकं रूपं तया सत्यं नन्वत्रा-आ० । सत्यता किंवा लौकिके रूपतया सत्यं नन्वत्रा-वि० सं०। १९-किकं रूप सस्य सिध्यन् किं मत्यमां० ।-किकं रूप सस्य सिध्यत् कि मत्य-भां० ।-किकं रूप तस्य सिध्येत् किं सत्य-हा० । २०-भासिति वा. बा. विना। २१-रलौकिक य-हा० वि०।-रलोकिके य-भां० मा०। २२ तदा लोकि-भां०मा०। तदो लोकि-हा० । २३-या यद्यस-वा. बा. भ. मा. हा. वि० ।-या उत असत्यतया ? यद्यस-वि० सं०। २४ तस्या सिद्धौत् आ०। २५ यद्यल्लौ-वा. बा. विना। २६ किंचालौकि-हा० वि० । किं वा लोकि-भां० मा० । २७-सानोऽलोकि-भां० मां. हा० वि०। २८-दर्शन वि-मां० आ० वि०। २९ आहोवित ख्यानन्तरापे-वा० बा०। ३० ख्याति विपरीतख्याति आहोहा. वि. । ख्यातिर्विपरीतख्यातिः अहो-वा. बा.। ३१-व्यं कि तदैका चौत्त-भां०। ३२ कथ वि-भां. मां०। ३३-परीतेऽख्या- भ० ।-परीतोख्या-आ. हा०वि०। ३४-कारिण हा० वि० । -कारण आ०। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । रूपद्वय निर्भासेऽध्यारोपः कल्प्यते, उतैकरूपनिर्भासे ? यदि प्रथमः पक्षः तदा द्वयं शुक्तिका रजतैस्वरूपं चात्मस्वरूपेणापेक्षया सर्वे ( वै) व ख्यातिः । अथैकं रूपं तत्र चकास्ति तत्रापि यदि रजतमेकं स्वरूपेण भाति कथमयारोपोऽन्याकारपरिहारेण तस्यैवैकस्य प्रतिशा (तिभा) सनात् । अथ शुक्तिका स्वरूपेण प्रतिभाति तत्रापि न विपरीतख्यातिः अन्यरूपविविक्तायास्तस्या एव परिच्छेदादन्यस्यान्याकारेण प्रतिभासना ( भासन ) मन्तरेण ना रजतदृग्ग्राह्यो परिमलादेरपि रूपदृग्ग्राह्यताप्रसक्तेः ॥ ५ किञ्च, यद्यपरे (रो) क्षतया 'रजतम्' रजतसंविदवभासयति कथमस्या विपरीतख्यातित्वम् ? 'न चान्यदेव देशादिमद् रजतमन्यदेशादितयाऽवभासयतीति विपरीतख्यातिः यतो देशान्तरादिमत्ता रजतादेः किं तेनैव दर्शनेन गृह्यते, आहोस्वित् पूर्वदर्शनेन ? तत्र न तावत् तेनैव तत्र वर्त्तमानदेशादिमत्तया रजतादेरवभासनात् तद्धि तद्देशादिमत्तयैव तावद् गृह्णाति न पूर्वादिमत्तया । अथ पूर्वकालदिमत्त्वं रजतादेरवभासयति, ननु तदपि तद्देशादिमत्त्वमेव तस्याव १० भासयति तदानीन्तनदेशादिमत्त्वं तदनवभासने च कथं भ्रान्तदर्शनावसेयस्य रजतादेस्तेन पूर्व देशादिमत्तावगते स्तंत्रान्यदेशादिनादिमानर्थोऽन्यदेशादितया वितथदर्शने प्रतिभातीति वक्तव्यम्, न च वाधकप्रमाणं भ्रान्तद्यगवगतरजतादेरन्यत्र देशादितामावेदयति यतो बाधकप्रतीतिरपि रजतादिकमलीकतया आवेदयति नत्वन्यदेशादितया नहि सौ 'अन्यदेशादी (दि) रजतम्' इत्यवगच्छति किन्तु 'नेदं रजतम्' इति । यदि च भ्रान्तदृशि प्रतिभासमानो रजतादिस्तद्देशादौ नास्ति तर्हि ज्ञा १५ नस्यैवाभावाकारो नार्थस्येति कथं न ज्ञानस्य निरालम्बनता ? निरालम्बनत्वं ह्यार्थसन्निधिनिरपेक्षस्य ज्ञानस्य जन्म तच्चोपरतप्रमेयाणामर्थसन्निधिनिरपेक्षत्वात् स्वप्नादिप्रत्यया ( याना ) मस्तीति न दृष्टान्तासिद्धिः। यदि च स्वप्नादिदर्शनं विशदावभास्यप्यन्यदेशाद्यर्थविषयं परिशुद्धदर्शनमपि यथा प्रतिभासनं पूर्वनां वनं किं नाभ्युपेयेते अथ परित्यागो भवेत् । अथ बाधकेऽपरबो (बा) धकान्तराभावात् तस्य वर्त्तमानावभासकत्वं नै तु बाधकाभावप्रत्ययेऽभावप्रत्ययावतारात् पूर्वदृशार्थग्राहिता नेंनु २० बाधकै वित्तेरपि पूर्वपरिज्ञातयँजता (तरजता) द्यभाववेदित्वं भवेत् नहि कश्चिद् विशेषो वर्त्तमानानुभवं प्रति बाधक -दर्शनयोः यतो रजतदर्शनमतीतविषयग्राहि बाधकं तु वर्त्तमानार्थस्वरूपावेदकमिति विभागो भवेत्। अथ बाधके अपरवाधकान्तराभावात् तस्य वर्त्तमानावभासँकत्वम् न तु बाधकावभासप्रत्ययेऽभावप्रतीतिः पूर्वमभावप्रतीति किं नोपेयते । नैं चापरबाधकाभावात् तत्रापि वर्त्तमानार्थग्राहित्वमिति वक्तव्यम्, तत्रापि तत्पर्यनुयोगादनवस्थाप्रसक्तेः । न च सत्यर्दने ( त्यदर्शने) २५ संवादेयात् (वादात्) सांप्रतिकार्थग्राहित्वम् भ्रान्तज्ञाने तु विपर्ययात् पूर्वदृष्टावभासितसंवादस्यैवायोगात् । तथाहि - किमुत्तरज्ञानोदयः संवादः, उतार्थक्रियाप्रसृ ( सू ) तिः ? ययुत्तरज्ञानोदयः स किमेकविषयः, भिन्नविषयो वा ? यद्येकविषयस्तदा तैमिरिकस्य "केश दु ( केशोण्डु) का दिविषयो ज्ञाना ३६१ । ११ ताद् गृ | १ कल्पते हा० विना० । २-धम पवा० बा० विना ३-तस्वरूपं वात्मरूपेणपेक्षया स - वा० बा० ।-तस्वरूपं चात्मरूपेणापेक्षायां स - हा० ।-तस्वरूपेणांपेक्षया सभां० म० । ४ सवैव आ० हा० वि० । ५ ख्याति थैकं वा० बा० । ६- ध्यारोपान्याकारकप - आ० । ७- स्तस्य ए-वा० बा० । ८-सानन्तरेण रजतदृग्ग्राह्या प-वा० बा० ९ परीतत्वम् आ० | १० न वा वा० वा० विना । वा० बा० | १२ - लादिसद्रजता - आ० १३- ति नतु त भां०] हा० । १४ पूर्वादेशादिमत्तावगतेस्तत्रान्यदेशादितया मां० । १५- स्तन्नान्य- वा० वा० । १६ सामान्य वा० बा० विना । १७ सने र वा० बा० विना । १८- भासस्याप्य - वा० । १९ - शान्यर्थ - हा० वि० । - शादिन्यर्थ - भां० म० । बा० विना २०- मान पू-भां० । २१ यते ऽप परि-भां० ।-यते ऽथ परिभागो वा० वा० । २२ - वात् तस्या व हा० वि० । २३ न नु बा - वा० वा० मां० विना । २४ नतु वा - वि० । २५ - कचित्ते वा० वा० । २६-यज्ञता-वा० बा० विना । २७- सत्वम् वा० वा० ॥ २८ न नु वा वा० वा० मां० । २९ - भावप्रतीतितयतीति किं वा० वा० । भाव अप्रतीति नयतीति किं हा० । भाव अप्रतीति किं वि० । ३० न वा हा० वि० । ३१ केशादुदका - वा० बा० विना । “यथा चिरकालीनाध्ययनादिखिन्नस्योत्थितस्य नीललोहितादिगुणविशिष्टः केशोण्डूकाख्यः कश्चिन्नयनाग्रे परिस्फुटति अथवा करसंमृदितलोचनरश्मिषु येयं केश पिण्डावस्था स केशोण्डूकः” १, १, ५ शास्त्रदीपिका • युक्ति स्नेहप्रपूरणीसिद्धान्त० पृ० ९९ पं० २७ । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेन्तरोदयः संवादः स्यात् । अथ भिन्नविषयस्तदुदयः संवादस्तत्रापि यदि नाम विषयदर्शनान्तरमुदयमासादयति पूर्वदृशस्तु सत्यत्वे किमायातम् ? अन्यथा रजतज्ञानस्य शुक्तिकाज्ञानोदयात् सत्यत्वप्रसक्तिः। अथार्थक्रियाप्रसूतिः संवादः नन्वर्थक्रियापि पूर्वानुभूतादेवोदकादेः किं नाभ्यु. पगम्यते ? अथाविद्यमानं पूर्वानुभूतं जलादि न पानाद्यर्थक्रियामुपजनयितुं समर्थ(थ) तर्हि स्वप्नादि५दर्शनमपि तदविद्यमानं कथं जनयितुमलम् । नह्यविद्यमानस्य तत्रापि कारणत्वं युक्तम् चिरत रातीतस्यापि तत्प्राप्तेः । न चार्थक्रिया-ज्ञानयोः कश्चिद् विशेषो यतो ज्ञानमर्थमासादयति । नार्थक्रिया अर्थाभावेन दृष्टेति सँन्ना(नि)हितार्था जन्मा नँनु तथाभूतार्थाभावेऽपि स्वप्नदशायामर्थक्रियोपलभ्यते एवं जाग्रहशायामपि पित्तोपहततनोर्मलयजरसादिसंस्पर्शी दहन्निवासा कथं नार्थक्रियान्यथा दृष्टान्तसंवादः इति सर्व वासनाप्रतिवद्धं दर्शनं वाह्यार्थसविधानक्रियमिति स्वरू१० पप्रतिभासाः सर्वत्र प्रत्यया ना(न) बाह्यार्थावभासिन इति व्यवस्थितम् ??] । ते(तेन) 'नार्थाभाव प्रत्यक्षवेद्यस्तत्र बहिरर्थप्रतिभासनात्' इति निरस्तम् बहिरर्थप्रतिभासनस्योक्तन्यायेनासिद्धत्वात् । [?? न च प्रत्यक्षतोर्वा भावः साध्यते यतः प्रत्यक्षविरोधो दोषः पक्षस्य स्यात् । अपि तु प्रकाशरूपता नीलादीनां साध्य(ध्या) सा तु यथोक्तप्रकारेण प्रत्यक्षसिद्धैवेति कथं न विज्ञप्ति मात्रता? प्रत्यक्षप्रतीते च ज्ञानमात्रे न किञ्चिदनुमानेनेति? न च तद्भावादोषावकाशोऽस्मा१५ कम् , न च 'सहोपलम्भनियमात्' इति हेतूंपन्यासो व्यर्थ इति वक्तव्यम् , 'परं प्रति व्यवहार साधनाय तस्योपन्यासात् । यो हि नील-तःसं(तत्सं)विदोरप्रतीयमानमपि प्रत्यक्षतो भेदं नीलस्य संविदिति कल्पनावशात् पारमार्थिकं भेदमिच्छति तस्य नील-तद्धियोः पृथगनुपलम्भात् पृथक्त्वं न युक्तमिति प्रतिप(पा)द्यते उपलब्धिर्हि सत्वम् न च नील-तद्धियोः क्रमेण युगपद् वा भेदो. पलब्धिः संख्यव्यतिरेकेण तत्संविद इत्यनुपलब्धेनी(नी)लव्यतिरेकेण तत्संविद इत्यनुपलब्धिर्भेद २०तयोनिराकरोति नै तन्नील-तद्धियोरभेदः प्रत्यक्षविरुद्ध इति निराकृतं द्रष्टव्यम् । न च नील-तद्धियोरभेदे प्रत्यक्षसिद्धे किमनुमानप्रसाध्यमभेदव्यवहारयोग्यताया इव (एव) साध्यत्वादित्यु. तत्वात् न च सहोपलम्भनियमोऽसिद्धः। नीलप्रत्यक्षताव्यतिरिक्तसंविदो निराकृतत्वात् यतो न बोधरूपी बोद्धस्तद्वयतिरिक्तैस्पष्टा येन तदनुपलम्भात् सहोपलम्भोऽसिद्धः स्यात् । अपि तु सुखादिनीलादिप्रत्यक्षतैव संवित् तन्मात्रं च सर्वव्यवहारपरिसमाप्तेश्वरादिव्यापारस्य तत्रैवो२५ पलम्भात् सा च सर्वेषां परिस्फुटमाभाँति तवेदने प्रत्यक्षार्था वेदनोवशे(दने चाशे)षस्य जगतः समायोतःमात्प(यातमान्ध्य)मिति प्रतीतत्वात् नील-तद्धियोः कथं(थं न) सिद्धः सहोपलम्भनियमः ? ??] १ नाम भिषयदर्शनान्तरमुदयमासादयन्ति पूर्व-हा०। २-मुदर्शनान्तरमुदयन्ति पू-भां० मां. आ०। ३ सत्यत्वप्रसक्त का ज्ञानोदयात् सत्यं संप्रसक्तिः हा. विना। ४-मर्थः त-भां० मा० । ५-क्तम् वैर-आ० विना। ६ यतो ज्ञानमर्थाभावे ज्ञानमर्थमा-वा० बा० आ० हा० वि०। ७ संन्निहिआ०। ८ नतु त-वा. बा. आ. हा. विना। ९दहन्निवासा कर्थ ना-भां० मां। दहन्निवाभाव कर्थ ना-वा० बा०। १० दृष्टान्नसं-वा० बा० । दृष्टान्तंसं-आ०। ११-सधिधा-वा० बा०। १२ पृ. ३४९ पं० २५। १३-क्षतो वा भावः सा-भां० मा० ।-क्षता वा भावः सा-हा० ।-क्षतो भावः सा-आ० । -क्षतो भावाभावः सा-वि०। १४-मात्रेण न वा. बा. विना। १५-ति नव त-हा० वि०।-ति व व त-मां० ।-ति नत्र त-भां०। १६-तू न प-वा. बा. विना। १७ पर प्र-आ. विना। १८ उप. लब्धिः संख्याव्य-वा० बा. विना। १९ संख्यावितिरे-मां०। २०-लब्धेन्नील-वा० बा०। २१ न त. नील-द्वियो-वा० बा०। २२-मान प्रमान प्रसा-आ०। २३-हारायो-वा० बा०। २४-ता बोधैस्तआ० ।-ता वोद्धस्त-वा० बा०। २५-क्तस्पष्टां ये-आ० । २६-मात्र च वा. बा०। २७-मास्तैश्ववा० बा०। २८ भाति तदने-वा. बा. हा. वि. विना। २९-क्षार्थवे-वि० । ३० वेदानाव-वा. बा०। ३१ जनतः वा० बा० आ० हा० वि० विना। ३२-यातःमत्यमति वि.। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । ३६३ [?? भीम कमपि नीलं प्रत्यक्षं बुद्धिस्तु तद्धेतुभूता प्रवेशप्रत्यक्षार्थान्यथानुपपत्या पश्चात् प्रतीयत इति सहोपलम्भोऽसिद्ध इति प्राग् दि (नि) रस्तमेव । यदि तेनोकम् - "पश्चादुपलभ्यते बुर्द्धिः" [ ] इति, तत्रापि बुद्धिप्रतीतिकाले यद्यर्थस्यापि प्रतीतिस्तदा द्वयोर्युगपदुपलम्भः स्यात् । नं चैतदिम् इष्टो वा हेतुर्न सिद्धः । न च युगपदुपलभ्यमानयोः ग्राह्यग्राहकभावः सम्भवतीति ज्ञानमिति न सिद्धो (सिध्येत्) यदि तु तदा नार्थप्रतिभासस्तथापि केवलायास्तस्याः प्रति- ५ भासनात् 'अर्थस्य बुद्धि:' इति न युक्तं भवेदित्यादेः प्राक् प्रतिपादितत्वान्नासिद्धो हेतुः । नाप्यनैकान्तिकः सर्वज्ञज्ञानस्य पृथगुपलम्भाद् भेदः यतः सर्वज्ञा ( वैज्ञज्ञा ) नं पृथग्जनचित्ता ( त्तात् ) पृथंगू भाति पृथग्जनस्यापि स्वचित्तं सर्वविद्विज्ञानं विनापि भातीति भेदः नीलतद्धियोस्तु न कदाचित् पृथगुपलम्भः एकलोकी (लोली) भावेन सर्वदोपलम्भात् । नहि नीलव्यतिरिक्ता या प्रत्यक्षता भाँति तद्यतिरिक्तं वा नीलम् एवं स्वै रूपोपलम्भाच्चे ( चै) कत्वव्यवहारः अन्यथा तदयोगात् सर्वे चात्र नीलादयोऽभि- १० नरूपोपलम्भा एकत्र (कत्व) व्यवहारे साध्ये स्वरूपे (रूपापेक्षया दृष्टान्तीभवन्तीति दृष्टान्तासिद्धिरपि न प्रेरणीया । न च सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिरयं हेतुः अभिन्नोपलम्भेऽपि भेदे सर्वत्राभेदोच्छेदप्रसक्तेः । दपि 'भेदो (दे ) ऽप्येक सामग्र्यधीनतया नीलनद्धियोः सहोपलम्भः' इत्युक्तम् द्रष्टव्यम् मेदाऽनवभासनेन तस्याभावात् । यदपि 'रूपालोकयोः सहोपलम्भेऽपि भेदः' इत्युक्तम्, तद्यसम्यकू यतो रूपालोकैोर्ययोरपृथगुपलम्भ (लम्भः) भेदोऽपि तयोर्न सम्भवत्येव यतो न नीलमालोक्य वा (लोको वा ) १५ तदपि निर्भागावर्त्ती पृथगभ्युपगम्यते प्रकाशात्मनो नीलस्यैवोत्पादात् । ययोः पुनर्भेदस्तयोरपृथगुपलम्भो नास्तीति नीलादिभिन्नस्याप्रत्यक्षरूपस्य तस्यानुपलम्भात् । यदप्युक्तम् 'सह' शब्दद्दष्टत्वाद् विरुद्धो हेतुः' इति, तत्रापि विकल्पारूढं भेदमाश्रित्य 'सह'शब्दः प्रयुक्तः परमार्थतस्तदभावेऽपि अथ यदि भेदे विकल्पैरुल्लिख्यते किमिति सत्यो न वस्तुरूपासंस्पर्शित्वाद्धि न तत्र नीलतद्धियोरमेदे एकरूपोपलम्भात् सिध्यत्येव तथा संवेदनादप्यभेदः सिद्धः । नीलादीनां प्रत्यक्षं च २० स्वरूपं संवेदनमुच्यते । विज्ञानस्यापि ह्यपरोक्षस्तद्भेदात् तदर्थस्य सहशब्दस्यावृत्तिर्युक्ता परमातोऽभेदेऽपि ?? ] [ ?? यद्वा एकस्मिन्नप्येर्थे सहशब्दो ष्टो (ट) एव यथा 'सहदेशोऽयमस्माकम्' इत्यकरूपोपलब्धिरेकत्वेन व्याप्ता प्रत्यक्षत एव ते गैंता । ततो ने विरुद्धत्वं विपर्ययव्याप्तेरभावात् । यदत्युक्तम् 'एकरूपोपलब्धिवि(ब्धिर्वि ) ज्ञानस्यार्थस्य वा प्रथमपक्षेऽपि बौद्धं प्रति इति तदपि निराकृतमेव ; २५ नील-तद्बुद्ध्योरेकरूपोपलम्भस्य प्रतिपादितत्वात् विवादश्च तयोर्भेदाभेदा (दो) प्रति न स्वरूपं प्रति तस्य सिद्धत्वात् । न चैकरूपोपलम्भस्तयोरध्यक्षसिद्धो वचनमात्रादेवासिद्धो भवति । तस्मान्नीलतयोरभेद एकरूपोपलम्भात् सिध्यत्येव । तथा संवेदनादप्यभेदः सिद्धः । नीलादीनां प्रत्यक्षं च वि० सं० । । ३-ति प्रारि । १ प्रवे प्रत्य-भां मां० । प्रवशप्रत्य - ० २ पृ० ३५३ पं० २ । वा० बा० । ४ प्राग् विर- वि० । प्राग् निर - वि० ५ पृ० ३५३ पं० ४ । ६ - द्धिति तत्रावि०।- द्धिरि तत्रा वा० बा० भ० मां०हा० । ७ न तैवदि -आ० विना । ८-ष्टमष्टो वा० बा० । ९ सिद्धोद्यदि वा० वा० । १०- थम् भाविति आ० ११-पि स्तवित्तं स वा० वा० ।-पि स्तैर्वित्तं सहा० वि० ।-पि स्तैष्वित्तं स-आ० । १२ भावि त - मां० विना । १३ - लम्भाश्वेक त्व- वा० वा० । लम्भात्वेकं त्व-आ० | १४ - न्यदा त वा० वा० विना | १५- कव्य-आ० । १६ यदि भे-भां० । ३५३ पं० १० । १८ भेदोऽन वा० वा० विना । १९- लम्भो - वा० बा० विना । ६ । २१- कयोयोर - हा० वि० । २२- लम्भेदो वा० बा० । २३-लोक्ये वा वा० भोगावती पृ-आ० हा० ।-पि निर्सागोवर्ती पृ-मां० ।-पि भेद प्युक्तं निर्भागावत्ती ३५३ पं० १८। २६ - रूपां सं-आ० वि० । २७ - रभेदो ए वा० बा० । २८ २९- प्यर्थ स - भां०• मां० आ०।- प्यर्थ स - हा० । ३० दृष्टो एवं य-वा० बा० विना । ब्रा० । ३२ न विरुद्धत्व विप- हा० । न विरुद्धत्व विरुद्धत्वं विप-भां० । न विरुद्धत्वं विरुद्धत्वं विषमां० । ३३ पृ० ३५३ पं० २३ । ३४-पि बौद्ध प्र-आ० हा ० वि० । १७ पृ० २० पृ० ३५३ पं० बा० । २४-पि निपृ-वि० । २५ पृ० संवादना - मां० विना । ३१ गतौ न विरु-वा० Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेस्वरूपं संवेदनमुच्यते विज्ञानस्यापि ह्यभेदः सिद्धः नीलादीनां प्रत्यक्षं च स्वरूपं संवेदनमुच्यतेऽवि. ज्ञानस्यापि ह्यपरोक्षमेव स्वरूपं संवेदनतद्वयतिरिक्तस्य तस्यायोगात् अतो न नील-तद्धियोः संवेदेनभेदः अन्योन्यस्य संवेदनायोगात् । यदप्युक्तम् 'संविदो भिन्नमभिन्नं वा नीलस्य संवेदनं भेदहेतुविरुद्धः अभेदश्चासिद्धः' इति, तद्प्यसंगतमेव; नीलादीनामपरोक्ष आत्मा संविदिति प्रतिपादि५तत्वात् तथा च ज्ञानव्यवहारयोगात् साध्यते परपरिकल्पितबोधवत् अन्यथा वोधव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात् । ननु कः सहोपलम्भनियमादस्य भेदः ? एकोपलम्भ एव तस्याप्यर्थः अत्रापि स एव, नैतत्; सहोपलम्भेन पृथग्भावनिराकरणात् तद्वारेण संविद्रूपा नीलादयः प्रसाध्यन्ते । अनेन तु त एंव बोधरूपा विधिरूपेणेति द्वयोरपि हेत्वोापारभेदोऽस्त्येव परमार्थतस्तु न कश्चिद् भेदः । द्वयोरपि स्वभावहेतुत्वात् तच्चाद्वोधव्यतिरिक्तमभ्युपगम्य सहोपलम्भनियमानीलादेः संवि१० द्रूपता साध्यते नहि सदुपलभ्यमानयोः ग्राह्यग्राहकभावो नील-बोधयोर्युक्तस्तदन्यक्रियाविरहा चन्द्रद्वयस्येव परस्परं बोधेन सहेति प्राक् प्रतिपादितम् ग्राह्यग्राहकभावाभावे स्वसंविद्रूपाः सिद्धा एव नीलादयः तेन नील-तद्धियोः स्वरूपभेदेऽपि चन्द्रद्वयादेरिव परस्परं वोधरूपतयाँऽभेदः सहोपलम्भनियमात् । अयं चार्थः स्वयमेव शास्त्रकृता स्पष्टीकृतः-"नहि भिन्नावभासित्वेऽप्यर्थान्तरमेव रूपं नीलस्यानुभवात् ।” [ ] इत्यनेन प्रतिभासमे१५ दात् स्वरूपभेदेऽपि नीलस्यानुभवादर्थान्तरं जडतया विजातीयमेव रूपं न भवतीति यावत् स्वरूप भेदेऽपि प्रकाशरूपत्वात् । यदि तु सर्वात्मनील-तद्धियोरभेदः साध्यः तथासति एवकारो न युक्तः नार्थान्तरमेवमिदं वाच्यं स्यात् प्रत्यक्षबाधश्च दुर्निवारो नीलादेः सुखादिरूपस्य च बोधस्य भेदे साध्ये यदा तु तैयोर्भेदेऽपि साम्यं बोधरूपतया साध्यते तदा न कश्चिद् दोषः रूपाऽऽलोकयोरपि परस्परं न प्रकाश्यप्रकाशकभावः सहोपलम्भनियमादेव चित्ताचैत्तानामपि स्वसंविद्रूपतैवेति न तैरपि २० व्यभिचारः सर्वविदोऽपि स्वसंवेदनामेव स्वसत्त्वं पैरचित्ततदनं तु व्यवहारमात्रेण विद्वैताव(च)दूरो सादितैवास्मिन् व्याख्याने स्वरूपैकत्वासाधनादेवासिद्ध इति नैव सुखादेरतन्नी(रन्ती)लादेर्बहिश्चावभासनात् । तयोरेव ग्राह्यग्राहकभाराभावतः सहोपलम्भनियमात् स्वप्रकाशरूपता साध्यते व्यतिरिक्तस्य बोधोऽग्राहकोऽप्रतीतेरेवै । अथवा परोक्षो बोध(धः) पुरोव्यवस्थित(ता)र्थान् प्रतिपद्यत इति परेषामभ्युपगमः तदभ्युपगमान्नीलकालो बोधात्मा भवतु प्रत्यक्षस्तथापि न तयोर्वेद्यवेद१५कभावः सहोपलम्भनियमादिति प्रतिपाद्यते तेनायमदोषः संवेदैनं तु प्रत्यक्षरूपं बोधरूपता नीलसुखादेर्वस्तुस्थित्यैव साधयति बोधव्यवहारस्य तत्रैव सिद्धेरन्यथाभूतस्यानुपलब्धेस्तस्याभावात् ततो नीलादेः सुखादेश्चात्मैवानुभवः चक्षुरादिव्यापारीत् परोऽपि तदा स स्यात् । १-च्यतेऽवि-मां०। २-च्यते वि-वा. बा.। ३-दनामे-वा. बा. विना। ४ अन्योन्य संवेवि० । अन्योन्यस्य संवेदनं भेदहेतु-मां० । अन्योन्यस्य संवेदन भेदहेतु-भां०। ५ अभेद इति नश्चासिद्ध इति आ०। ६ तदाप्य-वा. बा. विना। ७ तया व ज्ञा-भां० हा०। तया पक्षा-आ। तया च ज्ञा-वि० सं०1८-कल्पितं बो-मां आ० हा०वि०।९ तद्वा-वा. बा. हा०। १०एवा बो-बाबा। ११तद्वा द्वो-मां. हा० वि०। तद्वो-आ० । तद्वा बोधेन सहेति प्राकु प्रतिपादितम् वा० बा०। १२-भावा नी-आoनभातिवो नी-हा० वि०। १३-स्परबो-भां० आ० । १४-त ग्रा-भां। १५-भावो ख-आ० । १६-द्रूपा: सिविद्रूपाः सिद्धा-भां० ।-द्रूपा सिविद्रूपाः सिद्धा-आ०।-दूपाः सिंचिद्रूपाः सिद्धा-मां । १७-या भेघा. बा.। १८ अयं वार्थः वा० बा० । अयं तार्थः हा० वि० । अयं भार्थः भां०। १९ युक्तो वा नाथतिमित्येवं वाच्यं वा. बा.। २० वाचं स्या-भां० मां०। २१ साधे य-भां. मां०। २२ तयोऽमेभां०। २३-कद्वयोर-वा० बा०। २४-काशभा-वा. बा. विना । २५-व चित्तानामपि आ० ।-व वित्तानामपि हा० ।-व वित्तावित्तानामपि भां. मा०। २६-चार सर्व-हा०।-चारः सर्वाविदोऽपि संव-आ.। २७-स्वसत्व पर-हा० । स्वतन्नं पर-वा. बा.। २८-रचित्ततदनं नु व्य-वा. बा०।रचित्तातदनं मु व्य-आ० ।-रचित्तातदनन्तरं तु-वि० सं० । २९-द्वता च द्वरोत्सा-मां०।-द्वता व द्वरोत्सा-वा० बा० ।-द्वतां व द्वरोत्सा-भां०। ३०-रिक्तास्य आ० । ३१ बोधोग्रा-आ० । बोधो अग्रावा० बा०। ३२-व ऽप्रवा आ०। ३३-वस्थिवार्था-आ० ।-वस्थितच्छिन्नार्था-वि०।-वच्छिन्नार्था-भां. म. हा०। ३४-तु प्र-वा० बा०। ३५-दनुं प्र-वा. बा. आ. हा. वि. विना। ३६-क्षरूपं बोधरूपं बोध-अ०। ३७-पता नी-भां० मां०। ३८-स्तुस्थित्येव सा-वा. बा. हा० वि०।-स्तुस्थत्येव सामां-स्तुस्थत्येवं सा-भां०। ३९-रा पित-वा. बा०। ४. स्यात् व चक्षु-आ० । स्यात् न चक्षु-वि०। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। न च चक्षुरादिव्यापारादेव नीलादयोऽनुभवरूपा जायन्ते यतश्चक्षुरादयोऽपि नानुव्य(नुभवव्य)तिरिक्ताः सत्य(त्या)र्थवादप्रसक्तेः, नैतदेवम् ; स्वप्नादेशावेजा(शाव जाग्रद्दशायामपि वासनावशादेव नियतावभासोदयो भविष्यतीति न कार्यव्यतिरेकादप्यर्थवादकल्पना युक्तिमतीति सर्वत्र विज्ञप्त(प्ति)मात्रैतैव । ?? ] [?? ननु यदि विज्ञप्तिमात्रतैव(वा)भ्युपेय(या) तथासति मेय-मानमिति व्यवहारविलोपः तस्य ५ भेदपूर्वकत्वात्-अर्थो हि प्रेमितिक्रियया व्याप्यमानत्वात् प्रमेयम् कर्मणि कृत्यविधानात् । तथा नीलादयो यदि बोधः स्यात् तदाऽसौ स्वतन्त्रा(तन्त्रो) नीलदृशं प्रतीत्य प्रमाता भवेत् चक्षुरादयश्च करणतया मानं भवेयुरर्थमितिम् उपलम्भसाध्यत्वात् स्यात् तदभावे तु न नीलादयः संविद्रूपाः सिध्यन्ति सिद्धः प्रमाणनिबन्धनत्वात् । न च स्वसंवेदनमेव प्रमाणं व्यवस्थाकारि तंत्र दृष्टान्तासिद्धेः। प्रदीपादयोऽपि हि परप्रकाश्या एव च (न च) तेनैवात्मना स एवाधिगन्तुं शक्यम् १० न ह्यङ्गल्यग्रेण तेनैव तदेवाङ्गल्यग्रं स्पृश्यत इति, असदेतत् ; यतो यथा बाह्यार्थवादे सुखादीनामात्मा विषये प्रमाणम् तेषामेव वेदनं वित्तिः फेलं सुखादयश्च मेयं यथैवापरेषामात्मा अपरोक्षो म(मे)यः तस्य च प्रकाशरूपता मानम् तत्प्रतिभासः फलम् तदन्यग्राहकाभावेऽप्यनवस्थाप्राप्तर्मतनि(र्मतमि)यमेव म(मे)य-मान-फलानां व्यवस्था सर्वत्र नीलादौ योजनीया विज्ञा(ज्ञान)वादे। ??] [?? अथ नीलादीनां जडत्वान्न संविदस्ति सुखादेरात्मनश्च प्रकाशरूपत्वात् संविदिति, अत्रो-१५ च्यते; तत्रापि ज्ञानवादेऽनुभवात्मकत्वात् प्रकाशरूपत्वापत्तेः नीलादयः स्वात्मनः संविदि कर्तव्यायां योग्या नहि ते तत्र दर्शने जडरूपाः संविदस्तथाऽयोगादित्युक्तेरिति तस्मात् सा नीलादीनां प्रकाशाख्याभेदोल्लेखः। यथा स्वरूपमेयं स्वसंवित् फलमित्यस्ति प्रमाणादिव्यवस्थेत्यर्थः श्लोकद्वयस्य "तत्रात्मनि सुखादीनां यथा वित्तिः फलं तैरें। २० तथा सर्वत्र संयोज्या मान-मेय-फलस्थितिः” ॥ [ अत्राप्यनुभवात्मत्वीयोग्योऽस्ती संविदि इति सा योग्यता मानं मेयं रूपं फलं स्ववित्याचार्योक्तस्य यदि तर्हि नीलादीनां स्वप्रकाशो वित्तिश्च ‘कथमहं नीलं वेद्मि' इति कर्तृ-कर्म-क्रियाभेदोल्लेखः यथा लतिसुखादौचामात्राप्यहमात्मानं वेद्मि सुखादीनि वासौ दृष्ट एव । अथान्यग्राहकाभावात तत्रासौ मिथ्योल्लेखस्तर्हि नीलादावपि व्यतिरिक्त प्रकाशाभावात् भेदोऽवसेयः कर्तृ-कर्मादितया २५ मिथ्यो वा परोक्षस्य नीलादेरेव प्रकाशनात् । अथास्याः कर्म-कर्तृ-क्रियाभेदाध्यवसितेबी(तेर्वी) वक्तव्य॑म् निर्बीजं वान्ययोगात्, नैव; तत् क्वचिदपि कादिभेदस्य वास्तवस्यानुपलब्धेर्वातिपरम्परामात्रं अनादिवासनाप्रभवप्रधानादिविकल्पवदसावभ्युपगन्तव्यः। यदपि 'विरोधान्न संवेदनं भवत्यङ्गुल्य १ यश्चक्षु-आ० । २-रिक्तः स-वा० बा०। ३-दशावेजाग्रद्द-वा. बा. आ. हा. वि. विना। ४-त्रतैवाभ्युपेय तथा-वा. बा. विना। ५ प्रमितिक्रि या व्याप्य-आ०। ६-मितिस्तु पलम्भवा० बा०। ७ सिध्यं सि-वा. बा० आ० हा० वि० विना। ८-माण व्य-आ० हा० वि०। ९ तव दृवा० बा० विना। १०-गन्तुं शक्य न वा. बा० । ११-वादे मुखा-वा० बा० ।-वादे नुखा-आ० । १२-मात्मविषाये प्रमाण तेषा-वा० बा०। १३ फलं तु मुखा-आ०। १४-प्राप्तेर्मतिनि-आ०। १५ सर्वग्रनी-वा० बा०। १६-नश्चा प्र-आ० ।-नश्चऽप्र-मां० ।-नश्वा प्र-भां०। १७-दयः संवि-वा. बा. विना। १८ नहि ते त्र वा० बा। १९-थायो-वा. बा. विना । २०-काश्याख्या-वा. बा. विना। २१-ख्याभेदेल्ले-वा० बा०। २२ तरां । त-आ० हा० वि० । ततं । त-वा० बा०। २३ संयोज्य मान-मां. आ० हा०वि० । संयोज्य मानं मे-भां०। २४-त्वान्न यो-वा० बा०। २५-ग्यास्ता संविद इति आ० । २६ मान मेयं रूप फलं आ० । मान मेयं रूपं वि०। २७-चायोकस्य वा० बा० विना। २८-थात्मनि सु-वि० सं०। २९-खादौ वा मा-मां. आ० हा० वि०।-खादी चामत्रा-वा• बा०। ३०-नि नासौ आ। ३१-रिक्तःप्र-वि० ।-रिक्ताप्र-भां०। ३२-वसायः वा० बा०। ३३-कर्मदितया सिद्भ्यो वा प-आ। ३४ मिथ्यो चाप-वा. बा. हा० वि०। ३५-लादेरव प्र-आ०। ३६-व्यं तिबीज वाआ० ।-व्यं निबीजं वा हा. वि.। ३७ वान्यं वा योगात् वा. बा० । ३८-दस्य यास्तचस्या-वा० बा। ४७ स० त० Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ प्रथमे काण्डेग्रवत्' इत्युक्तम् , तदसारम : यतोऽपरोक्षं स्वरूपं स्वानुभवः तत् कुतोऽत्र विरोधः? तथा अङ्गल्यनमपि तेनैव अङ्गल्यग्रेण न संस्पृश(श्य)ते' इत्यत्रापि किं यानित्या(थाऽन्येना)ङ्गुल्यग्रेणाङ्गुल्यग्रं संस्पृश्यते, उन यथा तेनैव ? तत्राद्ये पक्षे सिद्धसाध्यता नहि यथाऽन्येनाङ्गुल्यंग्रेणान्यदगुल्यग्रं संस्पृश्यते तत्सं. स्पर्शः सम्भवी । अथ द्वितीयः पक्षः सोऽप्यनुपपन्नः, तेन तत्संस्पर्श(शस्य) न्यायप्राप्तत्वात् । नहि ५ स्वरूपव्यतिरेकेणाङ्गुल्यग्रसम्भवे(वः)। न च स्वरूपमात्मानं न संस्पृशति तथाभ्युपगमे स्वरूपहानिप्रसक्तेः, नीलादीनां त्वपरोक्षप्रकाशस्वभावता स्वरूपमेव अन्यथा तेषां परोक्षताऽभावप्रसङ्गादिति प्रतिपादितत्वात तत व्यवस्थितमेतत् नीलादयोऽपरोक्षस्वभावाः प्रकाशन्त इति विज्ञप्तिमात्रकमेवेक वहिरर्थ(र्थ)संस्पर्शरहितम् तदपि विज्ञप्तिमात्र पूर्वापरस्वभावविविक्तमध्यक्षणरूपं स्वसंवेदनाध्यक्षतः तथैव प्रतिपत्तेः पौर्वापर्य प्रमाणात्(णाऽ)प्रवृत्तेः प्रतिपादनादिति क्षणिकविज्ञप्तिमात्रावलम्बी १० शुद्धपर्यायाऽस्ति(स्तिक)भेद ऋजुसूत्रः ??] [३ पुनः ऋजुसूत्रपदस्य व्याख्यान्तरमाश्रित्य शून्यवादः] [?? यद्वा एकत्वानेकत्वसमस्तधर्मकलापविकलता(त)या तदपि विज्ञानं छून्यरूपमृजु सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः। स हि माध्यमिकदर्शनावलम्बी सर्वभावनैवात्मा(नैरात्म्य )प्रतिपादनाय प्रमा. १-रूप स्वा-आ०। २- मपि नै-वा. वा. विना। "तेनेव अंगुलग्गेन तं अंगुलग्गं परामसेय्य"-सुमंगलविलासिनी (बुद्धघोषकृता दीघनिकायटीका) भा०१ सामअफलसुत्तवणना पृ. २३५ पं० ३४ । "न हि चित्तं चित्तं समनुपश्यति । तद्यथा न तयैव असिधारया सैव असिधारा शक्यते छेत्तुम् । न तेनैव अङ्गल्यग्रेण तदेव अहल्यग्रं स्प्रष्टुं शक्यते"-शिक्षासमु० परि० १३ पृ. २३५ पं०६ । "उक्तं च लोकनाथेन चित्तं चित्तं न पश्यति ॥१७॥ न छिनत्ति यथात्मानमसिधारा तथा मनः" ॥१८॥-बोधिचर्याव०प्रज्ञापार. पत्रि० परि. ९ पृ. ३९१३९२ तथा ३९३ पं० २-५। मध्यमकवृ. प्रत्ययप०प्र०१पृ०६२ पं०८-पृ० ६३ पं० १ तथा टिप्प०१। ___"न चैकस्यैवमात्मत्वे दृष्टान्तः कश्चिदस्ति ते"। "न हि पाकः पच्यते, छिदा वा छिद्यते, नापि करणकर्मत्वं कर्तृकर्मत्वं वा एकस्य संभवति न हि अगुल्यग्रेण एव अगुल्यग्रं स्पृश्यते” इत्यादि-श्लो० वा. शून्य लो० ६४ पार्थ० व्या० पृ. २८७ पं०२३-पृ० २८८ पं०९। {"अङ्गुल्यग्रं न तेनैव अगुल्यप्रेण स्पृश्यते" "यथा अङ्गल्यग्रं न तेनैव अद्गुल्यग्रेण स्पृश्यते एवं ज्ञानं न तेनैव ज्ञानेन ग्रहीतुं शक्यते"-न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका पृ० ४६६ पं० १०। "अहुल्यग्रं यथात्मानं नात्मना स्प्रष्टुमर्हति । खांशेन ज्ञानमप्येवं नात्मानं ज्ञातुमर्हति" ॥-प्रकरणपश्चिका पृ० ६३ । न्यायकणिका पृ० २६८ । "नो खलु अगुल्यैव अगुली स्पृश्यते" इत्यादि । तथा, "यथोक्तम् अगुल्यप्रं खमात्मानं नात्मना स्प्रष्टुमर्हति" । न्यायमकरन्दे पृ. १३१५.८ तथा पृ. १८३ पं. ११। श्रीभाध्ये पृ. १६९। सर्वार्थ सिद्धी पृ. ३२१ -लाकिकन्याया० भा० ३ पृ. ३। ३-स्पृश इ-आ०। ४-था नित्यङ्गल्यग्रेणातुल्यनं वा० बा०। ५-स्पृश्येते वा• वा० आ० हा. वि. विना। ६ उभ यथा वा० वा. विना। -ल्यप्रेणा द-भां० मा. आ. हा०वि०।-ल्यप्रेदमा-वि० सं०। ८-स्पर्श संभ-वा. बा. विना। -पस्यतिरे-वा. बा० ।-पत्वव्य-भां. मा.हा. वि.। १०-यमा तेषां आ.। ११-ध्यक्षरू-वा. बा. विना। १२-लम्बि शु-आ। १३-पर्यायो-वा. बा. विना। १४ यथा ए-आ.। १५-मस्तं ध-वा. बा. आ. हा. वि.। १६-ल तद्-वा. मा. विना। १७ शून्यं क-आ.। १८-रमा स्माप्र-वा. बा। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । ३६७ णयति-यद् विशददर्शनावभासि न तत् परमार्थसह्यव(सद्वयव)हतिमवतरति यथा तिमिरपरिकरितगवभासि इदु(इन्दु)द्वयं विशददर्शनावभासिनश्च स्तम्भ-कुम्भादयः प्रतिभासाविशेषात् । अथापि यु(उ)क्तं यत् तैमिरिकावभासिनश्चन्द्रद्वयादयो न परमार्थसत्त्वः(न्तः) तत्र कारणा(ण)दोषाद्वा बोधो(बाधो)दयाद्व(द्वा)परिशुद्धगवशेषास्त्वेकेन्दुमण्डलादयो न वितथासू( स्त)त्र कारणदोषविरहाद् वाधाभावत्वेत्यसिद्धः प्रतिभासाविशेपा(पात्), असदेतत् ; बाध्यत्वायोगात् ।५ तथाहि-न विज्ञानस्य तत्कालभाविस्वरूपं वाच्यते(बाध्यते) तदानीं तस्य स्वरूपेण प्रतिभासनात् । नाप्युत्तरकालम् , क्षणिकत्वेन तस्य स्वयमेवोत्तरकाल(लम)भावात् नापि प्रमेयं प्रतिभासमानेन रूपेण बाध्यते, तस्य विशदप्रतिभासादेवाभावासिद्धेः। नाप्यप्रतिभासमानरूपत्वात् तस्याप्यभावे वारिणा स्पर्शादिलक्षणेन प्रतिभासनारूपात् तस्यान्यत्वात् । न चान्याभावेऽन्यस्याप्यभावः अतिप्रसङ्गात् । नापि प्रवृत्तिरुत्पन्ना बाध्यते, उत्पन्नत्वादेवासत्तायोगात् तस्याः। नाप्यनुत्पन्ना स्वत १० एवाऽसत्त्वात् । नाप्यर्थक्रिया उत्पत्ति-क्षययोर्बाध्यत्वायोगात् । न च तस्या भा(अभा )वेऽर्थस्या. सत्त्वम् , तस्यास्ततोऽन्यत्वात् । न चार्थक्रियासद्भावादर्थस्य सत्त्वम् अर्थक्रियाया अपि सत्ता(वा). सिद्धे(द्धः)। नाप्यपरार्थक्रियाभावात् तस्याः सत्त्वम् अनवस्थाप्रसक्ते(क्तेः)। नाप्यर्थजन्यत्वादर्थक्रियासत्त्वम् इतरेतराश्रयप्रसङ्गात् । न च सत्तासम्बन्धाद् भावान(नां) सत्त्वम् सत्ता-तत्सम्बन्धयो"निषेधत्(धात्) । नाप्युत्पाद-व्यय ध्रौव्ययोगात् विरोधाद्यनेकदूषणाघ्रातत्वात् बाधकसद्भावाद् बा-१५ ध्यत्वं सन्तानमतिप्रसङ्गात् । नौप्येकसन्तोनम् एककालमेकतानैककालाविकल्पदर्शनद्वयायोगात् । नापि भिन्नकालमेकार्थम् घटज्ञानानन्तरभाविनसज्ज्ञा( नस्तज्ज्ञा )नस्य बाधेकतापत्तेः । नापि भिन्नार्थम् पटज्ञानबाधकतापत्तेः । नाप्यनुपलब्धिबा(ब्धिर्वा)ध्यज्ञानसमानकाला तदाधिका तस्या असिद्धः(द्धः) । नाप्युत्तरकालभावितयान्यज्ञानैकार्थविषया एकविषयस्य तदर्थसाधकत्वेन बाधकत्वानुपपत्तेः । नापि मिन्नविषयाणायास्तस्यास्तदानीं स्वविषयसाधकत्वेन पूर्वबाध्यज्ञान-२० विषयाभावप्रतिपादकत्वानुपपत्तेरन्यथातिप्रसक्तेः । न च दुटकारणप्रभवत्वेनेन्दुद्वयावभासज्ञानस्यासत्यार्थविषयता तत्प्रभवत्वज्ञातुमशक्तो रिन्द्रियत्वेन तद्गतदोषस्याप्यध्यक्षेणाप्रतिपत्तेः । नाप्य १-भासादिन्दु-मा. आ. हा० वि० ।-भासादिदु-भां० । २ बोधदयाव्व परि-वा. बा० । ३-शेषावके-मां. हा० वि० ।-शेषांखेके-भां० । शेषास्तोके-आ० । अत्र-'गवसेयास्त्वेकेन्दु'-इति पाठः संभवेत् । ४ वितथ्यसूत्र आ० वि० । वितथ्यस्तत्र वा० बा० भां० मां। ५-रणदोषः विर-आ०।रणादोष विर-भां. मां. हा०वि०। ६-हादबा-हा०। ७-भासाविशेषाः सदे-आ० ।-भासाविशेषाऽसदोतदेतद् व्याध्यत्वा-वा० बा०।-भासादिशषाऽसंदे-भां० मा० । अत्र 'बाधाभावाच्चेत्यसिद्धःप्रति. भासाविशेषः असदेतत्' इति पाठसंभवः । ८-रूप वोच्य-भा० ।-रूपं वोच्य-आ० हा. वि०।-रूपं थोच्य-मां०। ९ तदानीं त रू-मां । तदानी त रू-भां० । तदानीं तनस्य स्वरूपं वोच्यते तदानीं तनस्य स्वरूपेण आ० । तदानीं तनस्य स्वरूपेण हा० वि०। १०-मानरूपे-आ०। ११-रूपात्त-वा० बा०। १२-क्षणेम प्र-वा० बा०। १३ तस्यान्यत्वत्वा-वा० बा० । तस्यातत्वा-आ० । तस्या त्वत्वाहा० । तस्य त्वत्वा-वि०। १४ स्वत एवासत्तायोगात् तस्या नाप्यनुत्पन्ना स्वत एवा-वा० बा० । स्वत एवासत्वायोगात तस्या नाप्यनुत्पन्ना स्वत एवा-मां० विना। १५-सत्वासिद्धे । आ०। १६ तस्याऽभावा० बा०। १७ तस्या स-वा. बा. विना। १८ सत्वा त-वा० बा०। १९-निषेधत्वात् ना-आ० हा. वि० ।-षेधत्वा ता-वा० बा० । पृ० १०६ पं० ९ । पृ० ११०५० ८। २०-स्वात् अपि चाबाध-वा० बा० । २१-ध्यत्वां स-बा. बा. विना। २२ नाप्येककालमेकता-वा. बा०। २३-न्तानाम् आ०। २४-कल्पाद-हा० । २५-तु योत् नापि आ० । २६-लमेकालमेकार्थम् भां• मां० । २७-शानानन्तरं भा-मां० ।-शानांनन्तर भा-भां० । २८-नसज्ञान-आ० ।-नसजान-वा. बा. । २९-धता-आ० । ३०-नार्थ प-वा० बा० विना। ३१-स्या सिद्धः।वा० बा० विना। ३२-भाविनया-आ० हा० वि० ।-भाषिनीयाव्यजानै-वा. बा०। ३३-कत्तेन भां०। ३४-याणां यास्त-वा. बा. मा. आ. हा०वि०। ३५-शकोरि-वा० बा० । 'तत्प्रभवत्वस्य ज्ञातुमशक्तेरिन्द्रियस्यातीन्द्रियत्वेन' इति पाठः स्यात् । पृ० १ पं०३। ३६-स्याध्यक्षे-वा. बा०।-स्याप्यक्षे-आ० । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - नुमानात् कारंणदोषावगतिः अध्यक्षाभावेऽनुमानस्याप्रवृत्तेः । न च नैरान्तरस्येन्दुद्वयादेरप्रतिभासनाद् दुष्टकारणजनितविज्ञानविषयत्वामस्य ( त्वमस ) त्यत्वं वा स्वग्राहिज्ञाने परिस्फुटतया प्रति भासनात् । न च समानसामग्रीकस्य नरान्तरस्य तदप्रतिभासः यावत् तिमिरं तावत् तस्याव - भासनात् न च परिन्ना सामग्रीकस्यानवभासनात् तदभावः सत्कारणानामेव तेग्रहणं प्रति ५ सामर्थ्याविरहाद् दुष्टत्वसिद्धे (द्धेः) ?? ] ३६८ [ ?? न च सत्यदर्शित्वात् तस्यै कारणदुष्टतानुपपत्तिः कारणादुष्टत्वे सत्यार्थदर्शित्वम् तद्दशिवच्च क ( कारणादोष इतीतरेतराश्रयदोषापत्तेः । न च तदवभासिविज्ञानस्य मिध्यारूपत्वात् दोषवत्कारणा (ण) जन्यत्वम् अत्रापीतरेतराश्रयदोषस्य तदवस्थानात् । न च विसंवादिज्ञानविष-' यत्वात् इन्दुद्वयादेरपारमार्थिकत्वम् विसंवाद स्यैवासिद्धेः । न तावत् समानजातीयतद्विज्ञानानुप१० त्तिविसंवादा (दो) यावत् तिमिरं तावत् तस्योदयसद्भावेन तदनुत्पत्तेर सिद्धत्वात् । नापि विजातीयविज्ञानसंवादादिन्दुद्धयां देवैतथ्यम् संत्यज्ञानावभासिस्तम्भादेरपि तत्सद्भावेना (न) वैतैध्यप्रसक्तेः । न च स्तम्भादेरवितथत्वं तदवभासिज्ञानबाधाभावादिति वक्तव्यम् बाधाभावस्य तदवैतथ्या साधकत्वात् । तथाहि न तावत् तत्कालो वाधाभावः भावसद्भावम् अ ( अव ) गेमयन्तीन्दुद्वयावभासिज्ञानेऽपि तत्सद्भावात् क्षपाकरयुगलस्य सद्भावप्रसक्तेः । नाप्युत्तरकालभावी तदभावः १५ पूर्वकाल्प ( पूर्वकाला ) मर्थसत्तां साधयति तत्कालपरिहारेण प्रवृत्तेस्तथापि तत्साधकत्वे भ्रान्त(a) सेयस्य रजतादेरुत्तरकालभाविबाधा भावतो भावप्रसक्तिर्भवेत् । नाप्युत्तरकाला ( कालं ) भावमसौ साधयति भ्रान्त डेंगत ( गवगत ) रजतेनैव व्यभिचारात् । नापि समानकाला (कालं ) तमेव गमयति समान कालावभासिनोऽर्थस्य भ्रान्तज्ञानावभासिरजतस्यैव ततः सद्भावसिद्धेः । न च बाधाभावः प्रसज्यरूपस्तुच्छरूपतयार्थसत्त्वस्य व्यवस्थापकः तद्भावे तुच्छत्वायोगात् । नै वासाव२० ज्ञात तद्वयवस्थितः स्या परस्परस्थापकयोगान्नानामपि ज्ञातः स्वसंवेदनं तत्र ज्ञानासम्भव (वात् ) स्वसंविद्रूपतां विभ्राणस्य भावस्वरूपतापत्तेः । नाप्यनुपलैंब्धितस्तज्ज्ञप्तिः तस्या अप्यज्ञाताया गादन्यायो ज्ञापकत्वायोगादन्यानुपलब्धेस्तुच्छरूपायास्तज्ज्ञप्तौ तत्पर्यनुयोगतोऽनवस्थाप्रसक्तेः । न च पर्युदासरूपायास्ततस्तत्सिद्धिः भावविषयत्वेन तस्यास्तदवगमहेतुत्वायोगात् । न बहिर्बाधकविषयगोचरानुपलब्धिर्बाधकाभावमवगमयत्यतथा (त्यन्यथा) देवदत्तनील नावा (व) भासिनी२५ लगोचरात् प्रतिपत्तिनीलदृशमपाकुर्यात् । नापि भिन्नविषया सा तमवगमयत्यन्यथा देवदत्तनीलप्रतिपत्ति तत्पीतप्रतिपत्तिरपाकुर्यात् । न च बाधकप्रत्ययो 'नास्ति' इत्युल्लेखवदर्भाविनाज्ज्ञानं १- रणादो - हा० वि० । हा०वि० । ५-मत्यत्वं वा० बा० । ८- स्यान्नव - वा० बा० २ नवान्त-वा० बा० । ३ - यादे प्र-वा० वा० । ४- ना दुष्ट-वा० बा० आ० बा० विना । मन्यत्वं वि०सं० । ६ - भासा या भां० । ७ भासात् वा० १० सामर्थ्यावरहा दुष्ट-आ० । सामर्थ्यविरहा 1 ९ तद्राह-आ० । दुष्ट- हा०वि० । सा र्थ्यविरहा दुष्ट वा० बा० । ११- सिद्धे न व स-हा० वि० । - सिद्धे त व स-आ० । १२- स्य कर - वा० वा० । १३- पत्तिः कर-आ० विना । १४- त्वाख क-भां० आ० | त्वात्व क मां० । १५ - सिद्धो न आ० ।-सिद्धः न हा० । १६- त्पत्तिर्विसंवादा यावत् वा० बा० । १७ - ज्ञानं सं-वा० बा० विना । १८ - वादादिदु-आ० । वादीविदु-हा० । १९- यादेवोत - आ० । २० सत्पक्षाना-आ० । २१- तथ्याप्र-आ० । २२- गमायन्ती -आ० । २३- वात क्ष-आ० । २४-हगन्त रज-वा० वा० विना । २५ न चा-मां ० । वि० सं० । २६ स्यात् प-आ० । 'न चासावज्ञातः तद्व्यवस्थितये स्यात् परस्परस्थापकतायोगात् नापि ज्ञातः स्वसंवेदनं तत्र' इति पाठो भवेत् । २७ - गात्राना हा० वि० । २८ ज्ञाना स्वआ० । २९- दन त वा० बा० । ३० - वात् संभवा स्व-वा० वा० । ३२- लब्धिस्ततस्त- वा० बा० विना । ३३ तस्या अप्यज्ञानयोगादन्यानुपलब्धेस्तुच्छरूपायास्त- वा० बा० विना । ' तस्या अप्यज्ञाताया ज्ञापकत्वायोगात् अन्यानुपलब्धेस्तुच्छरूपायास्तज्ज्ञप्तौ' इति पाठ योग्यो भाति । ३४ तस्यर्यनु-आ० | तनृत्पर्यनु वा बा० । ३५ - रूपतायास्ततस्तत्सिद्धिः भ० मां० हा० । रूपतायास्ततस्यसित्सिद्धिः आ० ।-रूपतायास्तत्तत्सिद्धिः वि० । ३६ - स्यास्तेद - भां० म० । ३७-य तथा वा० बा० विना । ३८ - ज्ञानांवाभासितील - भां० । ३९ - पत्तिर्नीवड - भ० मां०।- पत्तिनीचढ -आ० हा० । ४० - नीलप्रतिपत्तिं तत्पीतप्रतिपत्तिरपाकुर्यात्' इति पाठः सुचारुः । ४१ वताशा-वा० वा० । ३१-रूपाप वा० वा० विना । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा | तदभावमवगमयति वस्त्वन्तरग्रहणे प्रतियोगिस्सरणे च प्रतियोग्यभावविषयत्वेन परैस्तस्याभ्युप गमात् । उक्तं च ३६९ " गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम्” । [लो० वा० अभावप० श्लो० २७] इत्यादि । वस्त्वन्तरस्य च प्रतियोगिसंसृष्टस्याध्यक्षेण ग्रहणे न ततस्तद्भा (स्तदभा ) वसिद्धिः । असंसृष्ट-५ ग्रहणे चाध्यक्ष एवाभावसिद्धव्य (द्धेर्व्य ) र्थमभावाख्यं प्रमाणम् । न चाभावप्रमाणादेव प्रतियोग्यसंसृष्टता वस्त्वन्तरस्य प्रतीता तस्यापि प्रतियोग्य संसृष्टं (ट) वस्त्वन्तरग्रहणमन्तरेणा प्रवृत्तेः तदभ्युपगमे चानवस्थाप्रसक्तेः, तथा, प्रतियोगिनोऽपि यदि वस्त्वन्तरसंसृष्टस्य स्मरणं कथमभावः ? अथासंसृष्टग्रहणे सति प्रवर्त्तते असंसृष्टताग्रहणं च यदि प्रत्यक्षादभावप्रमाणवैयर्थ्य (र्थ्यम्) । अभावप्रमाणत्वे तदपि वस्त्वन्तरसंसृष्टप्रतियोगिस्मरणे सति प्रवर्त्तते तत् स्मरणमपि तथाभूतवस्तु- १० ग्रहणे तदप्यभावप्रमाणादित्यनवस्थाप्रसक्तिः । नं चभासप्रमाद (न चाभावप्रमाणाद) भावप्रतिपत्तावपि प्रतियोगिनो निवृत्तिसिद्धिः अन्यप्रतिपत्तावन्यनिवृत्त्यसिद्धेः । न च तन्निवृत्तिप्रतिपत्तौ प्रति योगिनिवृत्तिसिद्धिरनवस्थाप्रसक्तेः प्रतियोगिस्वरूपाः (पा5) संस्पर्शिरूपाऽपरापरनिवृत्तिप्रतिपत्त्यपरिसमाप्तेः । न चाभावप्रत्यये प्रतियोगिस्वरूपानुवृत्तौ तत्प्रतिषेधः तस्य तत्र प्रतिभासनात् । अननुवृत्तापि ( वृत्तावपि ) नाभावः अप्रतिभासत् ( सात्) न च तद्विविक्तत्वात् तदवाप्रतिपत्तिः तदवभासे १५ तद्विविक्तताऽप्रतिपत्तेः । न स्मृतौ प्रतियोगिप्रतिभासात् तद्विविक्तैतावगतिः यथाप्रतिभासमवभासासिद्धेः यथा च न प्रतिभासस्तथापि निषेधायोगात् इत्यभावाकारस्य प्रतियोग्यभेदे तत्प्रतिभासेन तन्निराकृतिः भेदेऽपि न प्रतियोगिप्रतिषेध इति न वाधाभावावगमः । अपि च, बाधाभावप्रतीतिरपि यद्यपराधाप्रतीते (तेः) श (स) त्या तदानवस्थाप्रसक्तिः । नापि सत्यविषयप्रतिभासा तत्प्रतीतिः सत्या इतरेतराश्रयदोषात् । तन्न प्रसज्यरूपो बाधाभावो भावस्तद्भावव्यवस्थापकः । ?? ] २० [ ?? नापि पर्युदासरूपो बाधकाभावस्तद्व्यवस्थापकः तस्य विषयोपलम्भस्वभावत्वात् । स यथा नै प्राकालभावी अर्थतथाभावव्यवस्थापकः तथोत्तरकालभव्यपि प्रतिभासाविशेषात् । पुनरप्युत्तरकालभाविपर्युदासरूपबाधाभावात्मन्यव्यवस्थायां चोद्यपरिहारानवस्थाप्रसक्तिरिति न १- भाव गमवा० वा० आ० । २- हण प्र-आ० । ३ - रणे प्र-मां० आ० हा० वि० । ४-स्य प्रतियोगसंस्पृष्ट - वा० वा० विना । " यच्च निषेध्याधारवस्तुग्रहणादिसामग्रीत इत्याद्युक्तम् तत्र निषेध्याधारो वस्त्वन्तरं प्रतियोगिसंसृष्टं प्रतीयते असंसृष्टं वा ? तत्राद्यपक्षोऽयुक्तः— प्रतियोगि संसृष्टवस्त्वन्तरस्याध्यक्षेण प्रतीतौ तत्र तदभावग्राहकत्वेनाभावप्रमाणप्रवृत्तिविरोधात् । प्रवृत्तौ वा न प्रामाण्यम् — प्रतियोगिनः सत्त्वेपि तत्प्रवृत्तेः । द्वितीयपक्षेत्वभावप्रमाणवैयर्थ्यम् - प्रत्यक्षेणैव प्रतियोगिनोऽभावप्रतिपत्तेः । अथ प्रतियोग्यसंसृष्टतावगमो वस्त्वन्तरस्याभावप्रमाणसम्पाद्यस्तर्हि तदप्यभावप्रमाणं प्रतियोग्य संसृष्टवस्त्वन्तरग्रह सति प्रवर्त्तेत तदसंसृष्टतावगमश्च पुनरप्यभावप्रमाण संपाद्य इत्यनवस्था । प्रथमाभावप्रमाणात् तदसंसृष्टतावगमे चान्योन्याश्रयः । प्रतियोगिनोऽपि स्मरणं वस्त्वन्तरसंसृष्टस्यासंसृष्टस्य वा ? यदि संसृष्टस्य तदाऽभावप्रमाणाप्रवृत्तिः । अथासंसृष्टस्य; ननु प्रत्यक्षेण वस्त्वन्तरासंसृष्टस्य प्रतियोगिनो ग्रहणे तथाभूतस्यास्य स्मरणं स्यान्नान्यथा । तथाभ्युपगमे च तदेवाभावप्रमाणवैयर्थ्यम्” — प्रमेयक ० पृ० ५३ द्वि० पं० ७ । १२ त ५ असंस्पृष्ट- मां० । ६- हणे वा वा० वा० विना । ७– ग्यसंस्पृष्टं-आ० । ८- भावः असं-आ० हा०वि० । भावः सअसं भां० मां० । ९ हणो स-वा० वा० आ० । १० न वभा-भां०हा० वि० । न वाभावप्रतिपत्ता - वा० बा० । ११ तद्विविक्तत्वात् तच तद्विविक्तत्वात् तदवाप्रति- भ० मां० । तद्विविकत्वात् तदत्वा प्रति-आ० । तद्विविक्तत्वात् तदवा प्रति - हा० । तद्विविक्तत्वादेवा प्रति - वि०। दभा वा० वा० विना । १३- तताः प्र-आ० । वि० सं० । १४- पत्तेः त स्मृतौ भ० मां०हा० वि० ।-पत्तेऽ त स्मतौ आ० । १५-कताग वा० वा० विना । - भासासिद्धेः हा० । १७ - भासे तन्नि - वा० वा० विना । १८- परावा - वा० वा० । १९- धातती - वा० वा० विना । २०- प्र ते वात्या-भां० । २१ न प्रक्षाल - वा० बा० । न प्रल-भां० म० । न पल- हा० वि० । २२ अर्थः- भ० मां० आ० हा० वि० । २३- था वव्यवहा० ।था व्यव - वि० । २४ - भावोऽपि भ० मां० । भावा पि वा० वा० हा० वि० । २५-रकालभा-वा० बा० विना । २६ - पबोधा - आ० । १६ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेबाधाभावादर्थतथात्वसिद्धिः। न च स्तम्भादीनां परमार्थतस्तत्त्वं सम्बन्धस्य प्रतिभासविषयत्वात्। अप्रतिभासविषयत्वे कथं न तद्भावः अप्रतिभासविषयस्यातत्त्वरूपत्वात् न च संवादित्वादपि स्तम्भादेः सत्यत्वम् समानजातीयोत्तरकालभाविज्ञानवृत्तिलक्षणस्य संवादस्य यावत् तिमिरं तावदिन्दुद्वयादावपि भावात् । नापि भिन्नजातीयाज्ज्ञानसंवादात् , भ्रान्तज्ञानावभासिनो रजतादेः शुद्धि५(क्ति)काज्ञानसंवादात् सत्यत्वप्रसक्तेः, न चैकार्थाद् भिन्नजातीयज्ञानसंवादात् एकार्थत्वे पूर्वापर ज्ञानयोरविशेषात् संवादाज्ञानवत् संवादकस्यापि सत्यत्वव्यवस्थापकत्वायोगात्। न च रूप-स्पर्शज्ञानयोर्विजातीययोरेकार्थविषयत्वम् रूप-स्पर्शयोर्भेदात् । न च रूप-स्पर्शाधिकरणमेकं द्रव्यं तयोर्विषयः एकत्वे प्रमाणवृत्तेः प्रतिपादितत्वात् । नापि भिन्नविषयात् संवादप्रत्ययात् संवादे सत्त्वसिद्धिः शुद्धि(क्ति)कादर्शनात् भ्रान्तगवगतरजतादेः प्र(स)त्यताप्रसङ्गात् । न च स्पर्शज्ञानम१०र्थाभावेनोपलब्धसर्वसत्यप्रतिभासमानस्य दशायां तदभावेऽपि तदुदयोपलब्धेः। न च स्वप्न-जाग्रद्दशाभाविनोज्ञा (आ)नयोः कश्चिद्विशेष इति न संवादादपि सत्यता । न च जाग्रहशायामिव स्वप्नदशायामपि यद॑वति तत् सर्व सत्यं प्रतिभासमानस्यासत्तायोगात् । दृष्टान्तासिद्धितो न सर्वभावाभावः प्रतिभासमानस्य स्तम्भादेरेकानेकरूपतयाऽव्यवस्थितेः । तथाहि-कालभेदाद् भिन्नो ऽध्यक्षतः प्रतिपत्तुं शक्यम् सन्निहित एव तस्य वृत्ते(त्तेः) नहि मृत्पिण्डस्वरूपोह्यध्यक्षं तदा१५ऽसन्निहितं घटमुपलभते तदनुपलम्भे च न तदपेक्षया तेन स्वविषयस्य भेदोऽधिगन्तुं शक्यः प्रतिपादियोगि(प्रतियोगि)ग्रहणमन्तरेण ततो भिन्न मितिन( मित्यन)धिगते तेः)। नापि घटस्व रूपग्राहिणा तेन मृत्पिण्डाद् भेदोऽधिगम्यते तत्स्वरूपाग्रहणे तस्याप्रवृत्तेः। न च स्मरणमपि मेदो. s(दा)धिगमे प्रभुः(भु) अध्यक्षे गृहीत एवार्थे तस्य व्यावृत्तेः (व्यापृतेः)। न वाध्यक्षमेतद्रहणक्षममिति प्रतिपादितत्वात् । न च स्मरणमर्थग्रहणे प्रभवति तस्य स्वरूपमात्रपर्यवसितत्वात् । तत एव २० स्मरणसहायमप्यवाक्षं(प्यध्यक्षं) न भेदग्रहणे पटु । न पूर्वरूपाग्रहणमेव ततो मेदवेदनं तद्ब्रहणस्य व्यवस्थापयितुमशक्तेः । न च तत्स्वरूपमेव भेद इति तद्रहणात् सोऽपि गृहीतः, न; अपेक्षया भेदव्यवस्थितेः अन्यथा स्वरूपापेक्षयापि भेदप्रसक्तेरिति न कालभेदाद् भेदः प्रमाणगोचरः । नापि २'देशभेदाद् भावभेदे मे देशस्याप्यपरदेशमेदाद् भेदशक्तितोऽनवस्थाप्राप्तः। न चान्यभेदो ऽन्यत्रानुविशतीति न देशभेदादपि तद्भेदः । नापि स्वरूपभेदाद् भावभेदः नहि समानकालमुद्भा. २५ समानयोर्घट-पटयोर्भिन्नं संवेदनं भेदमवस्थापयति प्रकाशमाननील-सुखादिव्यतिरेकेण तस्यानुपलम्भतोऽसत्त्वात् सत्त्वेऽपि समानकालस्य भिन्नकालस्य वाऽध्यक्षस्य परोक्षस्य वा ग्रहणक्रियासहितस्य तद्विका(क)लस्य वा तस्यार्थग्राहकत्वे(त्वा)नुपपत्तेरिति ज्ञाननयप्रस्तावप्रतिपादितत्वान्न भेदग्राहकत्वम्। न च तस्य स्वयमथोद भेदेनाप्रतीतस्य भेदग्राहकत्वमन्यथा खरविषाणादेरपि तत्प्रतिशक्तीत त्प्रसक्तेः) । न च तस्यै भेदो शाताज्ञानादवसीयते तस्याप्यप्रतिपन्नभेदस्य तेंद्रेदाव्यवस्थापकत्वादित्या३० धनवस्थाप्रसक्तेः । न च स्वसंवेदनत एव तद्भेदः सिध्यति तथाभ्युपगमे स्वखरूपमात्रपर्यवसितत्वात् तस्य नीलादिभेदब्यवस्थापकत्वानुपपत्तेः । न च स्वत एव स्तम्भादयो भिन्नखरूपा(पाः) प्रथन्ते तथा १-मार्थतस्त्वं सत्वंध-भां० मा० ।-मार्थतस्तं सत्वंध-आ० ।-मार्थतखं सत्वंध-हा० वि० । २-यस्यान्त-वा० बा० मा० आ० हा० वि०। ३-याज्ञा-वा. बा. हा०वि०। ४-दात भ्रान्त-भां० हा०। -दाव भ्रान्त-मां०।-दा भ्रान्त-वि०। ५-वादशा-मां०। ६ प्रत्यन्ताप्र-भां० मां० हा० वि०। प्रत्येताप्रगासेन्नच आ०। ७-ब्ध सवसत्य-आ० ।-ब्धत् सर्वसत्यं प्रतिभासमानस्याद-वा० बा०। ८-दव वि त-वा. बा०। ९ सत्य प्र-आ० । वि० सं०। १०-सत्वायो-वा. बा०। ११-त्तायोगादृष्टान्ताआ० हा० वि ।-त्तायोगादृष्टान्तात् सि-वा० बा० ।-त्तायोगादृष्टाता-मां०। १२ शक्य संनि-वा० बा०। १३-रूपं ग्रा-वा० बा० मा० आ० हा० वि० । १४-ग्राह्याध्य-वा० बा० विना। १५ च त त-आ० हा० वि०। १६-नमिनधि-भां० मां० हा० ।-नमि नधि-वा० बा० ।-नमिवमनधि-वि० ।-नमेवमनधि-वि० सं०। १७-त ग्रहण-वा० बा०। १८-णछममि-वा० बा०।-ण छममि-भां० मां० हा०।-णमत्थममि-वि०। १९-मर्थ प्रतिपादितत्वान्न च स्मरणमर्थग्रहणे आ० विना। २. पूर्वी रू-वा. बा. विना। २१ देशभेदाद् भेदशक्ति-भां० । देशभेदे मे देशस्याप्यपरदेशभेदाद् भेदशक्ति-आ०। 'देशभेदाद् भावमेदः देशस्यापि अपरदेशभेदात् भेदशक्तितोऽनवस्थाप्राप्तेः' इति पाठो योज्यः। २२-स्य भेदो शतोज्ञावा० बा० । २३-तद्भेदव्यव-आ०। २४ स्वरू-वा० बा० । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३७१ भ्युपगमे स्वसंवेदनरूपतया तेषां अ(स्व)रूपवेदनपर्यवसितत्वेनाऽन्यत्राप्रवृत्तेः परस्परासंवेदनतः कतः स्वरूपतोऽपि भेदसंवित्तिर्मवेत् ? द्वयरूपासंवेदने तन्निष्ठस्य भेदस्याप्यप्रतिपत्तेः। न चापरोक्ष नीलस्वरूपं पीतमपरमाभाति तथा(न चा)पराप्रतिभासनमेव भेदे वेदनम यतो नीलस्वरूपस्वसंविदितत्वाप्रतिभासमानं पीतमस्ति नास्तीति वा न शक्यमधिगन्तुम् नास्तित्वावेदने च कुतः स्वरूपैमात्रा(च)प्रतिभासनाद भेदसिद्धिः। अपि च, स्तम्भादेः स्थूलावभासिनोऽनेकदिक्संबन्धाद५ भेदः परमाणुपर्यन्तः पुनस्तत्परमाणूनामपि भेददिक्पट्कसम्बन्धाद् भेदः तत्राप्येवमित्यनवस्थानात् न भेदव्यवस्थितेरेका(क)रूपा व्यवस्थितौ तद्विपर्ययेण भेदव्यवस्थितेरयोगात् ?? ] । [??नन्वनेन न्यायेन यद्यत्प(ध्य)क्षावभासिनो नीलादेन भेदः अभेदस्तु तदा न्यायप्राप्त इत्यद्वैता. पत्तेन शून्यता। अन्तर्वहिश्च प्रतिभासमानयोः सुख-नीलाधोरपह्नोतुमशक्यत्वात् “प्रतिभासतोऽध्यक्षतः”[ 1 इति वचनात, नैतत् सारम् । यतो नास्माभिरवभासमानस्य १० नीलादेवभासशून्यताऽभिधीयते प्रतिभासविरतिलक्षणायास्तस्याः कथञ्चिदप्रतीतेः अपि तु प्रतिभासोपमत्वं सर्वधर्माणां शून्यत्वम् । उक्तं च-"प्रतिभासोपमाः सर्व धर्माः" । [ इति । प्रतिभासश्च सर्वो भेदाभेदशून्यः नहि नीलस्वरूपं सुखाद्यात्मकतयाऽभेदरूपमुपलभ्यते तद्रूपतानुपलम्भे च कथमेकं भवितुं युक्तम् ? न च तस्य भेदावेदनमेवैकत्वम(वे)दनमेकतो स्वस्वरूपावेदनस्यापि भेदत्वेनाभिधातुं शक्यत्वादिति न विशेषः कश्चित् स्व-परपक्षयोः परस्परपरिहारेण १५ देशावभासान्नैकत्वं देशकालाकारैर्जगतः । न चैकत्ववादिनोऽन्योन्यपरिहारेण देशादीनामपल म्भोऽसिद्धः परस्परानुप्रवेशोपलम्भस्यापि तेषामसिद्धेः। न च प्रतिभासा(स)स्तावदयमस्तीत्यदै(द्वैतमस्तु नीलादेर्विचित्रस्य प्रतिभासाज(ज)गतो विचित्रताप्राप्तः। न च वहिनीलादेरेकाऽनेका(क)रूपतया युक्ता(त्या)नुपपत्तेः प्रकृतिपरिशुद्धं ज्योतिर्मात्रं परमार्थसदस्तु तथाभूतज्योतित्रिस्य कदाचनाप्यप्रतिपत्तेरसत्वात् सर्वधर्मशून्यतैव सिद्धिमासादपिऽनगमान् । यदि प्रति-२० भासनाज्योतेरवगम्यमाननीलादिवत् ग्राह्योल्लेखभूतेऽपि सत्यसत्यात्वनीलादेरपि मंधावभासितेः सत्यत्वप्रशैक्तित्वात् । न च विद्याविरचितप्रतिभासविषयत्वाज्योतिषः सत्यतेतरस्य तु विपर्ययादसत्यतेति वाच्यम, कल्पनाया अस्यापि रचयितुं शक्यत्वात् । यदि प्रतिभासैस्सत्योच्यत इति न्यायात् प्रतिभासवपुषां नीलादीनां कथमसत्यं त्यक्तम् तत्रापि प्रतिभासात् सत्यत्वं स्वप्नावभासिनोऽपि तस्य सत्यत्वप्रसक्तिः । न च स्वप्नदेशायांमपि ज्ञानस्वरूपतया नीलादेः सत्यत्वाजाग्रह-२५ १-रूप पी-आ. वि. विना। २-तत्राप्र-वा० बा० । ३-पमात्रःप्र-भां० ।-पममात्र प्र-वा० बा । ४-पि भिद-वा. बा०। ५-नात् भे-वा० बा० विना। -भासंतो-मां०। ७-रभावशू-वा० बा० । ८ सर्व धर्माः भां० । सर्वधाः वा० बा । सर्व धम्या मां. आ० । "माया-स्वप्न-मरीचि-बिम्बसदृशाः प्रोद्भासश्रुत्कोपमा विज्ञेयोदकचन्द्रबिम्बसदृशा निर्माणतुल्याः पुनः । षट् षट् द्वौ च पुनश्च षड्वयमता एकैकशश्च त्रयः संस्काराः खलु तत्र तत्र कथिता वुद्धैर्विवुद्धोत्तमैः” ॥ ३० ॥ xxx तत्र मायोपमा धर्माः षट् xxx स्वप्नोपमाः पद xxx मरीचिकोपमो द्वौ धर्मोंxxx प्रतिबिम्बोपमाः पुनः षट् xxx प्रतिभासोपमाः षडेव xxx षड्द्वयमताः प्रतिश्रुत्कोपमा देशनाधर्माः । उदकचन्द्रबिम्बोपमाः xxx धर्माःxxx निर्माणोपमाः"x-महायानसूत्रालंकारे पृ० ६२ पं०६। शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० २१५ प्र. पं०६। ९-रूप सु-आ०। १०-भ्यन्ते मां० आ० हा० वि०। ११-नमेवैकत्वसदन-हा० वि०।-नमेवैकत्वमेदमेकते स्थस्वरू-वा० बा० । १२-रप्रतिभासपरिहारेण देशावनाशात् वा० बा०। १३-कत्वावादिआ०। १४-शुद्धज्यो-आ०। १५-धर्मा शून्य-आ० विना। १६-दपिऽनगमात् आ० हा० वि०।-दपि न चागमात् वा० बा०। १७-भासासनाज्योतेरेव-आ०। १८-तेरेवग-वा. बा. विना। १९ मथावभासितेःस-वा. बा. हा० वि० । मधावभासिनः स-आ०। २०-शक्तिभात् वा० बा० । २१ अस्य पि वा० बा०। २२-सस्सात्यो-आ० ।-सस्मत्यो-हा०वि०। २३-सत्यं त्युक्त-वा० बा०। २४-दशामआ.। २५-मपि जानस्व-आ० । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - शायामपि तथैव सत्येति विज्ञप्तिमात्रं न शून्यतेति वक्तव्यम् ज्ञानरूपतया प्रसक्तेर्नीलादेरप्रतिभासनात् । नान्यतरस्यापि दशायां प्रकृति परिशुद्धान्तस्तत्त्वज्ञानरूपतया तेषां सर्वदावभासनात् । न च बहीरूपतयाऽवकाशादन्तस्तत्त्वं भवितुमर्हति अन्तरारूपतया सुखादेव भासमानबहीरूपतया प्रसक्तेः । तन्न बहिरुहोतमानो नीलादिरन्तस्तब्धस्याकाराभ्युपगन्तव्य इति न विज्ञानवादो ज्यायान् ?? ] । ५ [?? न च बहीरूपतया प्रतिभासन्नी ( सनान्नी ) लादेस्तथैव सत्यता वान्त ( भ्रान्त ) रजतादौ तद्रूपाभावेऽपि तथाप्रतिभासोपलब्धेः । अथापि स्यात् शुक्तिकायां प्रतिभासमानस्य रजतस्य वा सत्यता पूर्वदृष्टस्यैव तत्र तस्य स्मृतेरनुभूतरजतस्य स्मृतेरनुकारदर्शनेऽपि रजतस्याप्रतिभासात् पूर्वप्रतिभातं च रजतं ततस्तब्धस्याकारोऽभ्युपगन्तव्यः विदसत्यतया पंतिदर्शनं शून्यवादिनो भवेत्, असदेतत् यतो यत् शुक्तिकायां पूर्वदृष्टं रजतरूपं सत्यं तस्य प्रतिभासे स्मर्यमाणतया प्रति१० पत्तिर्भवेत् । यच्च वर्त्तमानमिदानींत नदर्शनाद् विपरीतख्यातिः स्यान्न स्मृतिप्रमोषः । तथाहि -स्मृतिरभावः तदा तदभावे कथं पूर्वदृष्टरजततदभावप्रतीतिः स्यात् । नाप्यन्यदर्शनं स्मृतिप्रमोषस्तद्भावे परिस्फुटवँपुरन्यदर्शनमेव प्रतिभातीति कथं रजैते स्मृतिप्रमोषः सर्वदर्शनस्य स्मृतिप्रमोषतापत्तेः । नापि परीता (नापि विपरीता) कारवेदित्वं स्मृतेः प्रमोषः विपरीतख्यातित्वप्रसक्तेः । येदेव प्रत्यक्षाकारणं स्मृतेरभावेनः आकारस्तदासौ प्रत्यक्षस्य रूपं न स्मृतेरिति कथं तेन रूपेण स्मृतिः प्रतिभाति । १५ अथ प्रत्यक्षभावकारतया प्रतिभाति तर्हि तदेव रूपं तस्याः सदस्तु न स्मृतिरूपता तस्यास्तत्राप्रतिभासना वा बाधकप्रत्ययो रजतमसदेव प्रतिभासमित्युलेखन प्रवर्त्तमानो रजताभावमेवावगतिः । न भ्रान्तेः स्मृतिरूपतामिति न रजताभाससमये नापि बाधकप्रत्ययैप्रवृत्तिकाले चान्तरदृष्टां स्मृतिरूपैंता प्रतिरूपता प्रतिपत्तिप्रमोषकल्पना सर्वत्राप्येतद्दोषपरिजिहीर्षया विपरीतख्यातेरभ्युपगमः श्रेयान् यतो न ताव तेर्विपरीतत्वं तदैवाभावः ख्यातेरभावादप्रतिभासः न तर्हि ख्यातेरभावे २० विपरीतख्यातिः, यतो यदि न नामान्यदाख्यातेस्तु वैपरीत्ये किमायातम् ? नाप्यन्यप्रतिपत्तिर्विपरीतख्यातिः यतो यदन्यप्रतिपत्तिः पूर्वदर्शनं तु कथं विपरीतख्यातिः ? न ह्यन्यदर्शनात् अनाद् ( अन्यद् ) विपरीतं भवत्यतिप्रसङ्गात् । नापि विपरीताकारदर्शित्वं विपरीतख्यातिः यतोऽत्रापि यदि विपरीतमर्थ दर्शनं गृह्णाति कथं तदा तद् भ्रान्तं भवेत् ? अन्यथा नीलदर्शनस्यापि पीत ३७२ १- न्यरतस्या - वा० वा० । २- स्यापि दशाया प्र-भां० हा ० वि० । स्यापि दर्शायां प्र-आ० । ३ - शुद्धं ततस्तत्त्व - वा० बा० विना । ४- स्तत्वं ज्ञा-आ० । ५-या तेषां सर्वदाव भासनान्न च वहीरूपतया तेषां सर्वत्रावभासनान्न च बहीरूपतयावकाशादन्तस्तत्वं आ० हा ० बि० ।- या तेषां सर्वदाव भासनान च वीरूपतया तेषां सर्ववावभासनान्न च वहीरूपतयावकाशादन्तस्तत्वं भां० म० । ६- यावकाशादन्तस्तत्वं भवितुमर्हति अन्तरारूपतया सुखादेव भासमानवहीरूपतया प्रसक्तेः वा० वा० आ० विना । ७- रन्तस्तष्टस्या-आ० । ८-भास नी-भां० म० । ९-ता थान्त-आ० । वि० सं० । १० सत्यादृष्ट-भां० मां । सत्यादृष्टस्येव आ० । ११ स्मृतिर-आ० । १२- रनुकाद-वा० वा० । १३ पूर्व प्र-आ० । १४ - भात च र हा० । भावंच र-आ०।- भावं व त र मां० । भासत्वं च र वि० । १५ रजतं तस्तब्धस्याकारो वा० वा० । रजतं ततसूव्यस्याकारो आ०। रजसं तं ततस्तब्धस्यकारो हा० । रजसं तं ततस्तब्धस्याकारो वि० । १६ - गन्तव्यं विद-आ० । गन्तव्य चिद- मां० । - गन्तव्यचिद वा० वा० । - गन्तव्यं संविद - वि० सं० । १७ पत्तिद - वि० सं० । १८ - दर्शनशू भां० । १९- दभाप्र-वा० बा० । २०- वपुदन्य-वा० वा० । व र - भ० मां० । २१ - जते स्मृतिप्रमोपतापत्तेः भ० मां० । २२- यदव वा० बा० । २३- वतः आ-मां० आ० । वत आ-हा० वि० । वः तः आ-वा० वा० । २४ रूपं न स्मृतेरपि क- भ० मां० हा ० वि० । रूपं ने स्मृते तिरपि क-आ० । २५-वार-वा० वा० । २६ तर्हि तदेवं रू-भां० मां० हा० वि० । तहि तदेवं रू- वा० वा० । २७ - प्रतिभासना व बोधक-भां० मां०हा०वि० । - प्रतिसासना व वाघ - वा० वा० । २८ - त्युलेखन आ० । २९ - वसेवावगति । वा० वा० ३० - य वृत्तिका - आ० । ३१ - काले वा वा० बा० । ३२ - पताप्रतिपत्तिप्रमो- आ० हा० वि० ।- पताप्रतिपत्तिः तन्नस्मृतिप्रमो - वा० बा० । ३३ सर्वन्नाप्ये- आ० । सर्वान्नाप्ये भां० मां० । सार्वानाप्ये वा० बा० । ३४ न तावत् तेर्वि-आ० वि० । न वाव तेर्वि - हा० । न तावत् तैर्वि - वि० सं० । न तावश्वाते - वा० वा० । ३५-भास न आ० । ३६ - भावे पिपरित - मां० । भावें विपरीतेख्या - वा० ३७ - माव्यदाख्यातेर्यतो यदि नामान्यदाख्याते - वा० बा० । ३८- पत्ति पू-भां० । ३९- नात् विप-आ० ।-नार्द्विप - वा० वा० । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३७३ दर्शनविपरीतार्थग्राहिणो भ्रान्तताप्रसक्तिः । न च भिन्नदेशादावभिन्नदेशादितया प्रति तद्विपरीतख्यातिः यतो देशादयः स्तत्र(तत्र) दर्शने प्रतिभासमाना यदि सन्तः प्रतिभान्ति तदा कथञ्चित् विपरीतख्यातिः । अथासन्तस्तदाप्यसत्ख्यातिप्रसक्ति(क्तिः) सतां देशादीनां तत्राख्यातेः, न च तद्देशादिसम्बन्धग्रहणाद् विपरीतख्यातिः यतस्तत्सम्बन्धोऽपि यदि सँन(सन्) प्रतिभासि(ति) तदा संदर्थग्रहणान्न विपरीतख्यातिः । अथासंस्तदाप्यसत्ख्यातिरं स्त(रस)दर्थग्रहणात् । अन्य-५ देशादित्वं च भ्रान्तहगवसेयस्य वार्थस्य कल्पने नान्यस्य न तर्हि स्वप्नदृशो भ्रान्तत्वं तदवभासि. नोऽन्यदेशादित्वाभावात् तथापि तत्त्वे सर्वदशां विपरीतख्यातित्वप्रसक्तिः । अथ भ्रान्तहगवसेयस्यैवान्यदेशादितयाऽन्यदेशस्यापि ग्रहणमिति विपरीतख्यातिस्तत् तर्हि तस्यान्यदेशादित्वं भ्रान्तदृशा अवसीयते, उत पूर्वदर्शनेन ? तदपि यदीदानीन्तनस्यान्यदेशादित्वावगतस्तदो संगतं पूर्वदर्शनस्येदानीनामशक्यत्वादर्शतश्चातिप्रसङ्गतो ग्राहकत्वानुपपत्तेः नापि पूर्वमिदानीन्तनभ्रान्त-१० हगवसेयस्य तेन पूर्वदेशादिगतिः इदानीन्तनशानावसेयस्य पूर्वमभावात् । न चैकमेव पूर्वापरदर्शनावसेयं वस्त्विति न दोषः पूर्वापरटेग्भावयोरेकत्वासिद्धेः पूर्वदर्शनेन वर्तमानदेशादिपरिहारेण पूर्वदेशादितयैव तस्यावगैतेः नेदानीन्तनस्य पूर्वादिताऽवगतिः । न च पूर्वदेशादिरेव वर्तमानादेरपि ग्राहकमिति तेनैव पूर्वापरदेशादिना तथाऽवसीयते पूर्वदर्शनकाले वर्तमानदेशादेरभावेन तत्सम्बन्धित्वस्य तेन तत्र प्रतिपत्तुमशक्तेः भावे वा वर्तमानदेशादेः पूर्वदेशादिरूपतै नेदानीन्तन-१५ देशादितेति तदनुषक्तार्थावगतौ पूर्वदर्शने कथमिदानीन्तनस्य पूर्वादितावगतिः । न च पूर्वदेशादिरेव वर्तमानदेशादिः प्रत्यभिज्ञानादवसितस्य परिगतार्थस्याप्येकतापत्तेः स्वप्नादिप्रत्ययस्य पूर्वप्रत्ययवदभ्रान्तताप्रसक्तः एकविपयत्वात् । न च प्रत्यभिज्ञानात् पूर्वपरदेशादीनां तद्दर्शनकालेऽ. सत्त्वेनाप्रतिभासनात् तत्सम्बन्धित्वस्याप्यप्रतिपत्तेरसतामपि देशादीनां तत्सम्बन्धित्वस्य वा तत्र प्रतिभासे दर्शनमैस(सत्)ख्यातिः स्यात् । अथ तैद्देश द दयस्तत्सम्बन्धित्वं वासत् तत्र प्रति-२० भौति तथासति विद्यमानार्थग्राहित्वात् नै भ्रान्तं भवेत् पूर्वदेशादिमवस्तुप्रतिभीसे च यदभास एव न वर्तमानरूपतावगतिरिति न विपरीतख्यातिः अपास्तवर्तमानावभासस्य पूर्वरूपग्राहिण स्मृतिस्तद्विपरीतस्याख्यातित्वयोगात् । न च पूर्वकालावर्त्तमानकालादितया भ्रान्तावभासनात् तत्र तद्विपरीताख्यातित्वमिदानीन्तनदेशाप्रतिभासमान तत्र जखादेः पूर्वरूपताभावप्रसक्तेः यतो यदेव तत्र सन्निहितरूपमाभाति तदेवं सदसत्तु(सदस्तु) पूर्वदेशादित्वम् न च भासमानं न चाभ्युप-२५ १-शादितया वा० बा०। २ प्रति विपरीताख्यातिः आ० । ३-भाति त-मां०। ४ कथञ्चिवि-भां० मां० । कथञ्चि वि-वा. या० । कथंवि वि-हा० वि०। ५ अथासंस्त-भां. मां० हा० वि० । अवासंस्त-आ०। ६-स्तथाप्य-वा० बा०। ७ सन् प्रतिभाति वि० सं०। ८ सर्वग्रह-आ०। ९-रतस्तद-आ० । वि० सं० ।-रस्तद-वा० बा०। १०-स्य वार्यस्य आ० ।-स्यर्वार्थस्य हा०वि०। ११-था तवा. बा. विना। १२-न तेवापि वा. बा०। १३ यदिदा-आ० । यदादा-भां०। १४-स्यान्यादेशादिभा० मां० ।-स्यादेशादि-आ० । १५-दाऽसं-भां० मा० हा० वि० ।-दाः सं-आ०। १६-नस्येदानीमशआ० ।-नस्येदीनामशत्वादशतश्चाति-वा० बा०। १७-दशत-आ० हा० ।-दसत-वि० सं०। १८-शादि गगति इ-भां० मां० हा० वि० ।-शादितावगगतिरिदा-वा० बा०। १९ पूर्वनभा-भां० । पूर्वनभामां. आ. हा० वि०। २०-वसेय व-भां० मा । २१-दृग्भोवरयो-वा० बा०। २२-गतेः तदा-आ० । २३-रदेशादिशादिना मां०। २४ तस्याव-वा० बा०। २५-शादे पू-वा० बा० ।-शादे नः पू-आ। -शाब्देः पू-हा० वि०। २६-वतन दे-आ०। २७ पूर्वादेव वा० बा. भां. मां० हा० वि०। २८-नदेशा. देःप्र-मां०। २९-प्रत्ययवद-वा. बा. आ. विना। ३०-मसंख्या-आ. हा० वि०। ३१ तद्देश-दयादय-मां. आ० । तद्देशदयादय-हा. वि.। तद्देशादयादय-वा० बा० । ३२ वासन्नं वासत्त-आ० । ३३-भाति विद्य-भां० मा०। ३४ न वांतं भ-भां. हा० वि० । न चांतं भ-मां. आ० । ३५-भासे व पदव-वा. बा. विना। ३६-वसास एव भां० ।-व भासास एव मां० सं०। ३७-पताग्रा-वा. बा। ३८ स्मृति चद्वि-वा० बा०। ३९-ना तत्र द्वि-वा० बा०। ४०-त्र जख्यादेखादेः आ० ।-त्र जखादे खादेः वा० बा० ।-त्र रजतादेः वि० सं०। ४१-व सदसस्तु पू-वा. बा० । ४८ स०त. Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे गमविषयः अन्यथा पीतादेव प्रतिभासमानम्य नीलादेः सस्वापत्तेः सर्वस्य पूर्वात्मकतापत्ते च सर्व सर्वे सर्वात्मकतापत्तः गम्यत एव प्रत्यक्षेण तथा अप्रतिपत्तेः। ने चानुमानमपि सर्वस्य सर्यात्मकतामवगमयति प्रत्यक्ष(क्षा)नवतारे तत्रानुमानस्यापानवत्( स्याप्यनवतारात्) अनुमान च सर्वात्मकत्वसाधकन्वे प्रवृत्तो प्रतिनियतरूपा ग्रोहावाक्षमशेषं विपरीतल्यातितामनुभवेत्।। ५वा मेदग्राहानुमानमागमो वाऽविनथो वितथो व्यक्तं तु मेदायभासिनमस्तं वितथमित्यद्वैतापति रध्यक्षामते मेद अनुमानागमयोग्मेदग्राहिणोः वैतथ्यापत्तेः प्रत्यक्षतोऽविगतभेदे वस्तुन्यभेदग्राहिणो. स्तयोरग्रन्यथा ग्रहणलक्षणम्य वैपरीत्यस्य भावात् नवानुमानायगमवाधिनत्वात् अभेदग्राहायशस्य चैतन्यं तदाधितत्वेन तयोरेकचैतन्यप्रसनः नं च तत्वान् तस्य तदयाधकत्यप्रसक्तेः न चानुमान. योरभेदप्रतिपादकत्वं नयर्भिदप्रतिपादकत्ययोस्ततः प्रतिभासाविशेगत् विपरीतख्यात्यभ्युपगमे १० सर्वासद्विपरीतख्यातिर्भवेत् । न च यदविसंवादि तन्न विपरीतख्यातिरिति वक्तग्यम् अविसंवादि. त्वस्यासिद्धरित्यसकृत् प्रतिपादनान् ?? ] । [?? अपि च, पूर्वगवगतस्य रूपस्य पुनरवगमोऽविसंवादः न च पूर्यटगवगमयो (गवगतयों)रभेदप्रतिपादकत्वम् पूर्वरशः प्रच्युनत्वेन तत्राप्रतिभासे तदयगतस्यापि रूपस्याप्रतिभासमाना. त्(सनात्) । न च पूर्वप्रतिभाम्यवे दर्शनावभासिरूपमित्येकत्वात् न पूर्व प्रतिभासने स्यनमस. १५ त्वामेकत्वस्यवासिद्धेः । तथाहि-दर्शने प्रतिभासमानं रूपं तदर्शन ग्राह्यमस्तु पूर्व न ग्राहां तु तत् कथमवगतं न तावत् सर्यदर्शनेन उत्सरकालं तस्याभावात् यदापि तदासीत् न तदा वर्तमानं दर्शनं तदभावेन तदवसेयरूपावगतिः तदयसायानधिगमे तदवसेयरूपानवगमादन्यथा सकलसन्तानहगवसेयत्वप्रतिपत्तिप्रसक्तेः सर्व(धैः) सर्पविद् भवेत् । न च तदर्शनेन तदवसायाव्यतिरिक्तभावि. सुगवगतरुपपरिच्छेदः न पुनः तद्यतिरिक्तक्षेपपरिच्छेदाभेदादेवेति वक्तव्यम् यतो भाविरगवगमस्थ २० मेदतदवसेयत्वादेवाध्यक्षस्याप्यप्रवृत्तिन पुनर्भेदात् । मिन्नऽपि सन्निहिते पक्षभूनेरुत्पत्तेरुपलंम्भात् तथामिझेऽपि भाविदर्शनाग्राह्यत्वमस्तीति न तत्राध्यक्षवृत्तिः न च मिन्नं भाविज्ञानावसेयसनिहिनत्वात् न तदवसेयममिन्नं तु विपर्ययात् तदधिगम्यमिति वक्तव्यम् भाविरगसन्निधाने तदवभास्यस्याप्यसन्निहितत्वात् । यदि च भाविज्ञानदृशं तत् परिगतं चार्थ(3) पूर्वदर्शनमवभासयति तदाऽसदर्थनाहित्वात् भ्रान्तं तदासज्येत । तन्न प्रथमदर्शनेन भाविज्ञोंने प्राह्यरूप १-तादव प्र-हा० ।-तादवे प्र-वा• बा०।-तादर्थ प्र-वि० सं०। २ न च सर्व स-मां० । न च सर्व सर्वात्मक-हा. वि । न च सर्व सीमर्वात्मकतापते गम्य-वा. बा.। न चा सर्व स-आ० । ३ नवानु-मां. हा. विना। -स्य व सर्वा-भां०।-स्य वा सर्वा-आ०। ५ ग्राह्यचाक्ष-मां०। ६ वा. ऽवितथोऽवितथोव्य-भां० मां. हा. वि. । वावितथोऽवितथो व्य-वा. बा.। -ध्यक्षस्य वैतथ्यं तद्वाधितत्वेन तयोरेकवैतथ्यप्रसक्तेन च तदाधितत्वात् तस्य तदबाधकत्वप्रसक्तेः न चानुमानमयो. रभेदप्रति कत्वं तयोभेदप्रतिपादत्वयोन्ततः प्रतिभासाविशेषात् वा. बा०। ८-स्तयोरन्यथा आ. हा. वि०। ९-चानचान-मां० । १०-त्वात् मे-आ० हा० वि०। ११-तन्य तद्वा-आ०। १२ न च तद्वाधितत्वात् आ० हा०वि०। १३ न वानु-आ. हा. वि.। १४ सर्वा सचिद्वि-चा. बा०। १५ असंवा. बा. विना। १६ अपि पूर्ववदवग-वा. बा. विना। १७ पूर्वदवगम-वा. बा. विना। १८-भा के द-वा. बा०। १५-सते स्य तमस-आ० । सते स्पेनीम-वा० बा० ।-सते स्य नमसत्वमेकत्व-वि० सं०। २० तत्राहि वा० बा०। २१-ग्राह्यमस्तु पूर्व न ग्राह्य तु वा० बा० ।-ग्राह्यं तु भां० मा०। २२-मानं त द-वा. बा.। २३-रूपाप-आ० । २४-मस्ये भे-भां० मा० हा० वि० ।-मस्यै भे-आ०। २५-त्वादेतदवसेयत्वादेवाध्य-वा० बा०। २६-हिते क्षभृते-मां• हा० वि० ।-हिते न्यक्षभृतेरुत्तरुपलम्भात् तत्वासिझेपिभाविदर्शनग्राह्यत्वमस्तीति वा० बा०। २७-लम्भते तच्चा-भां. मां. हा. वि.। २८ च भिन्न भा-ना। २९-म्यतमिति वा० बा०। ३०भावि गसन्नि-वा. बा. विना। ३१-भासस्या-वा. बा. आ० वि०। ३२-गतं वार्थ-भां० मा. आ. हा० वि०। ३३-माहितत्वात् वा० बा• विना। ३४-सघेता त-वि.। ३५-शानं ग्रा-वा. बा. विना। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । ३७५ परिच्छेदः तत्परिहारेण पूर्वकालताप्रतिभासोदयात् तत् प्रतिगतमेव रूपं तद्विषयोऽभ्युपगन्तव्यः । नापि वर्त्तमानं दर्शन (नं) दृश्यमानस्य पूर्वदृगवभौसिरूपमावेद्यति तस्यापि स्वकालभावविरूपावभासत्वेनोदयात् पूर्वदृशोऽप्रतिभासे तदवगतस्यापि रूपस्य तेनाग्रहणात् पूर्वदृशोऽनवगमेऽपि द (पितद) वगतरूपपरिच्छेदाभ्युपगमात् पूर्वपूर्वज्ञानावभासिरूपपरिच्छेदापत्तिरित्युक्तत्वात् । अपि च, पूर्वज्ञानावभासि रूपं वर्त्तमानावभासितया वा गृह्यते वर्त्तमानदर्शनावगम्यं वा पूर्वज्ञाना- ५ भासितया, द्वयं वा परस्परसंसक्तमिति विकल्पाः | आये विकल्पे वर्त्तमानहगवभासिरूपाधिगतिरेव न पूर्वज्ञानावगतरूपाधिगमः । द्वितीयेऽपि प्राक्तनज्ञानावगतरूपाधिगतिरेव पूर्वदृगवगतं च रूपमसदिति तद्राहि वर्त्तमानं ज्ञानं भ्रान्तं भवेत् । पूर्वावभासप्रच्युते (ते) तड्राह्यताया अपि प्रच्युतेः नहि तस्मिन् विनने तत्प्रतिभासमानं रूपं संभवति प्रतिभासमानं रूपं संभवति प्रतिभासनप्रसङ्गात् । नापि तृतीयः पक्षः तत्र हीदानीन्तनडगवभासि पूर्वावैगासा (वभासा ) धिगम्यं १० च परस्परं संसक्तं रूपद्वयमाभातीति नैकतावगम इति न पूर्वदर्शनावगतेन रूपेण दृश्यमानस्यावगमो युक्तः । न च रूपान्तरेण दृश्यमानस्यावगमो युक्तः न च रूपान्तरेण दृश्यमानरूपावगंमो रूपान्तरावगमात् पूर्वज्ञानावभासिरूपानवगमात् यतः अन्यरूपपरिच्छेदे नान्यत् परिच्छिन्नं भवति । न च वर्त्तमानदर्शनात् पूर्वदर्शनग्राह्यरूपपरिच्छेदः अभेदादेवेति वक्तव्यम् यतः भेदसिद्धो (द्धौ ) पूर्वगवगतरूपास्यावगत सि (रूपस्यावगमसि) द्धिः तत्सिद्धो (द्धौ ) चाभेदसिद्धिरितीतरेतराश्रयदो- १५ प्रसक्तिः । तस्मान्न गृहीतस्य पुनर्ग्रहणसंभव इति न संवादः । तदभावे च भ्रान्ताभ्रान्तज्ञानयोर्विशेषाभावान्न विपरीतख्यातिसंभवः । ?? ] नाप्यलौकिकत्वं भ्रान्तज्ञानावभासिनोऽर्थस्यात एव न्यायात् । तथाहि न तावल्लौकिकत्वाप्रतिपत्तिः येतो मभा (तोऽभा ) वस्य निःस्वभावतया केनचिद (दा) कारेण परिच्छेत्तुमशक्यत्वात् परिच्छेदे वास्तु (वा वस्तु) त्वापत्तेः पुनरयलौकिकत्वाशङ्काऽनिवृत्तेरनवस्थाप्रसक्तिः । न च लौकि- २० कत्वादन्यैश्च म (न्यत्वम) लौकिकत्वम् यतो यदि तत् तदैव गृह्यते तदा भ्रान्तदृशोऽप्रवृत्तिर्भवेत् । नार्थक्रियार्थिनोऽलौकिकत्वपरिच्छेद प्रवृत्तियु (र्यु) क्तिमती न्याय्य ( नाप्य) न्यदाऽलौकिकत्वप्रतिपत्तिः यतः 'नेदं रजतम्' इति कालान्तरेऽभावप्रतीतिस्तव जायते नालौकिकत्वावगतिः । तदेवं प्रतिभासाविशेषात् प्रतिभासमानं केशान्दुकादिव (वत्) सर्व निःस्वभावम् । तथा हि-नावभासमानो नीलादिरवयवी देशादिभिन्नस्थूलस्य तस्यैकत्वानुपपत्तेः । न ह्यनेक- २५ देशसैंम्बन्धविरुद्धधर्माध्यासवत एकत्वं युक्तम् तथाप्येकत्वे घट - पटावपि (पटयोरपि ) न भेदो भवेत् विरुद्धधर्माध्यासादन्यस्या भेदकत्वात् । न च देशादिभेदेऽप्येकत्वप्रतिभासादेकता, देशादि - भेदेन व्यवस्थितानामवयवानां प्रतिभासभेदादेव भेदात् । न ह्यवोमध्योर्वदि (ह्यधोमध्योर्ध्वादि)भगाए (एक) रूपतया प्रतिभाति (भान्ति) पिण्डस्याणुमात्रतापत्तेः । न च तद्यतिरिक्तो ग्राह्याकारतां बहिर्बिभ्राणोऽवयवी प्रतिभाति । न च समानदेशतया अवयवेभ्यः पृथक्त्वस्याप्रतिभासः यतः ३० समानदेशा अपि वातातपादयो भावाः पृथगवभासमाना लक्ष्यन्ते । न चैवर्मैवयवनिर्भास इति नासौ १ - च्छेदे त - वा० बा० विना। २ या तत् प्रवा० वा० आ०। ३-भासरू - आ० । ४-भावेपि विरूआ० । ५-दनात् वा० वा० । ६ रूप वर्त -आ० ७ - रससिक्तमिति वा० वा०।- रससिक्ते मिति मां० हा ० वि० । ८- मानज्ञा- मां० आ० हा ० वि० । ९-च्युतोऽत-आ० हा० वि० । च्युतोत- वा० वा० । १०- प्र. तिभासमानं रूपं संभवति प्रतिभासमानरूपं संभवति प्रतिभासमानं रूपं संभवति प्रतिभासनप्रस ङ्गात् भ० मां० । ११- वगमासा-मां० ।– वगगासा - भां० । १२ - गमोऽवगमात् । पूर्व-भां० म० । - गमवगमा रूपान्तरावगमात् पूर्व- हा० वि० । गमोवगमा रूपान्तरावगमा पूर्व - वा० बा० । १३ मात् तयोऽन्य - वा० वा० विना । १५ यतोमभा - वा० बा० । १४ - ह सम्भ-आ० । १६- न्यथम-आ० । -न्यत्र म वा० बा० । १७ न्यायान्यदा-भां० मां० । १९ - भाववप्रतीतिस्तवज्ञाय - हा० । भावप्रतीतिस्तवज्ञाय वि० । भावं च प्रतीति वज्ञाय भ० मां०।- भातवप्रतीतिस्तव ज्ञायआ० । २० तदैवं प्र-आ० विना । २१ - सनामं केशांदु वा० बा० । समान केशादु-भां० मां०] । पृ० ३६१ टि० ३१ । २२ सर्व निः वा० वा० विना । २३ - संबंद्धवि भ० आ० हा० वि० ।- सवद्धवि - वा० बा० । २४ न वोमध्योऽर्वादि- हा० वि० । न ह्यावोमध्योर्वादि वा० बा० । न ह्यवोमध्येऽर्वादि १८- कत्वा प्र-आ० । आ० । २५- भागो ए - हा ० वि० । भागा एव या वा० वा० आ० विना । २६ - मवमयं च निर्भा - भा० । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ प्रथमे काण्डेतद्यवहारविषयः । न च ‘एको घटः' इति प्रतीतेरवयवो(वी) अवयवव्यतिरिक्तमस्ति(क्तः समस्ति) यतो घंट(टा)वसायेऽपि तदवयवानामुल्लेखश्चाध्यवसीयते नापैरोऽवयवी वर्णाकृत्यक्षराकारशून्यस्य तस्य केनचिदप्यनु(प्यननु)भवान्न कल्पनाऽवसेये(यो)ऽप्यवयवी सत्तामासादयति ।। अनादिवासनासमुत्थं व्यवहारमात्रकमेवेदं मिथ्यार्थ ज्ञानम् । न च व्यवहारमात्रादेव ५बहिरेकं वस्तु सिद्ध्यति 'नीलादीनां स्वभावः' इत्यत्रापि व्यवहारैकत्वात् स्वभावस्यैकताप्राप्तेः । अथ तत्र प्रतिभासभेदादेकत्वं बाध्यते तत्रापि मध्यो-दि(ध्योर्ध्वादि)निर्भासभेदात् घटादेरेकत्वं बाध्यत एवेति न बाह्योऽर्थोऽस्त्यवयविरूपः । नापि परमाणुस्वभावः मध्यो;दिविभागप्रतिभासेऽप्यणूनामप्रतिभासनात् । स्थूलरूपो हि नीलाद्यवभासः संवेद्यते न च परमाणुषु प्रत्येकं स्थूल रूपसम्भवः तथात्वे परमाणुत्वायोगात् । नापि तेषु समुदितेषु स्थूलरूप॑सङ्गतिः तथावस्थामा१० विनामप्यणूनां स्वरूपतः सूक्ष्मत्वात् । न च तद्व्यतिरिक्तः समुदायः तथात्वे द्रव्यवादप्रसङ्गात् तस्य चोक्तदोषत्वात् । ततो न परमाणुषु कथञ्चित् स्थूलरूपतासम्भवः । न चान्यादृगवभासोऽन्यादृशस्यार्थस्य ग्राहकः नीलदृशोऽपि पीतग्राहकतापत्तेः नियतव्यवस्थाविलोपश्चैवं प्रसज्यते । अपि च, नानादिक्सम्बन्धात् परमाणोरप्येकता असङ्गतैव । आह चाचार्य:षट्केन युगपद्योगात् परमाणोः षडंशता"। [ ] इति । १५ तदंशानामपि नानादिक्सम्बन्धात् पुनः सांशतापत्तेरनवस्थाप्रसक्तिरिति न परमाणुसद्भावः। न चार्थाभावे नियतदेशकालाकारः प्रतिभासो न भवेत् वासनाबलेन तथाभूतप्रतिभासस्य स्वप्नदशायामुपलब्धेर्जाग्रद्दशायामपि तद्वलेनैव तदुदयसद्भावात् अर्थस्तु स्वरूपेण न क्वचित् सिद्धः । नापि प्रतिभासनियामकत्वेनेति नार्थवादो युक्तिसंगतः। न च वासनाबलान्नियताकारं ज्ञानमेव सदस्तु न शून्यतेति वक्तव्यम् यतो नीलादिरूपं ज्ञानमप्येकानेकरूपमयुक्तम् । तथाहि-तस्यापि दिग्भेदान्नै२० कता अर्थवत् युक्ता प्रतिभासभेदाच्च, नापि नीलादिज्ञानं परमाणुरूपम् ज्ञानपरमाणूनामपि दिषट्कयोगात् सांशतापत्तेरनेकप्रतिपत्तेरयोगाच्चोक्तप्रायम् । न च बहिरवभासमानो नीलादिर्वितथः बोधस्तु परिशुद्धोऽवितथ इति वक्तव्यम् तस्यानुपलब्धेरेवाभावनिश्चयात् । न च वासनाप्रतिबद्धत्वमनुभवस्य निश्चेतुं शक्यम् प्रत्यक्षस्य पौर्षापर्येऽप्रवृत्तेर्नान्वयव्यतिरेकनिश्चायकत्वम् तदनिश्चये च न हेतुफलभावावगतिरध्यक्षात् । नाप्यनुमानम् प्रत्यक्षाभावे तस्याप्यप्रवृत्तेर्न हेतुफलभावः क्वचिदपि २५ सिद्धिमासादयति । किञ्च, यदि वासनाप्रबोधप्रभवं नील-सुखादिव्यतिरिक्तं प्रतिपुरुष नियतं संवेदनमनुभूयेत तदा विज्ञानवादो युक्तिसङ्गतः स्यात् न च तत् कदाचनाप्युपलब्धिगोचरः नील-सुखादेस्त्वेकानेकस्वभावायोगात् वासनाजन्यत्वस्यापि परमार्थतोऽसम्भवात् सर्वधर्मशून्यतैव वस्तुबलायाता । नीलाद्यवभासस्य वासनाप्रतिबद्धत्वं संवृत्या शून्यत्वमुच्यते न सर्वसंवेदनाभावः तस्य कदाचिदप्यननुभवात् । न च प्रतिभासे सति कथं शून्यत्वमिति वक्तव्यम् तस्यैका३० नेकस्वभावायोगतः शून्यतेति प्रतिपादनात् । उक्तं चाचार्येण "भौवा येन निरूप्यन्ते तद्रूपं नास्ति तत्त्वतः। यस्मादेकमनेकं वा रूपं तेषां न विद्यते" [ १-तः मस्ति यतो घटवसाये पि वा० बा०। २ घटवसेयेपि हा० वि०। घटमेवसायेपि आ० । ३-मुल्लेख्यश्चा-आ०। ४-परोऽवसीयते नापरोऽवयवी भां० मां०। ५ ग्रन्थानम् १२८३८ ॥ ६-नादयति वा-आ०। ७ बाह्यार्थी-हा०वि०। ८-पगतिः आ०। ९पृ० १०५५० १३ । "अयमेव चार्थः कारिकया गीयते"षटेन युगपद्योगात् परमाणोः षडंशता । षण्णां समानदेशत्वे पिण्डः स्यादणुमात्रकः" ॥ -४, २, २५ न्यायवा० पृ. ५१६ पं० १७ । "यदुक्तम् आचार्यपादैः” इत्युल्लिख्य श्लोकोऽयमुद्धृतः-बोधिचर्याव० प्रज्ञापार. पञ्जि. परि० ९ पृ. ५०३ पं०६ तथा टिप्प. १। न्यायतात्पर्यटी० ४, २, २५ पृ. ६५० पं० २४ तथा पृ. ६५१ पं० १० पर्यन्तम् । रत्नाकरा० प्र० परि० पृ० ३१ पं० १२ । सर्वदर्शनसं. द. २ पृ. ३१ पं० १९२ । १०-षद् यो-आ. हा०वि०। ११-श्वये न च हे-आ० हा०वि०। १२-रुषं नि- आ० । १३-भावयो-आ. हा०वि०। १४-नुभावा-भां. मां. हा० वि०। १५ अष्टस• पृ० ११५ पं० ९। स्याद्वादर० पृ. ८९ प्र. पं०६। “तदुक्तमाचार्येण" इत्युल्लिख्य निर्दिष्टोऽयं श्लोकः शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ.२१५ प्र.५८-९। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। भगवद्भिरप्युक्तम्-"मायोपमाः सर्वे धर्माः" [ ] इति । तदवस्थितमेतत् यत् प्रतिभाति तद् द्विचन्द्रादिवत् सकलमसत्यम् । ____ न चात्रैतत् प्रेरणीयम् दृष्टान्त दार्शन्तिकभेदाभावे द्विचन्द्रादिनिदर्शनेन नीलाद्यवभासस्यासत्यता न साधयितुं शक्या। न ह्यसतो निदर्शनसङ्गतिः। भेदे वा नासत्यता भवेद् भावानाम् पक्ष-दृष्टान्तयोहि भेदः सत्यत्वे सति भवति असतः शशविषाणादेरिव भेदानुपपत्तेः । तथा५ साधनस्याप्यस्तित्वे न शून्यता, नास्तित्वे न साध्यप्रतिपत्तिः। एवं वादि-प्रतिवादि-प्राश्निकानामभावे न वादः सम्भवी । तत्सद्भावे च न शून्यता । आह च भट्टः "सर्वदा सदुपायानां वादमार्गः प्रवर्तते ॥" "अधिकारोऽनुपायत्वात् न वादे शून्यवादिनः।" [श्लो० वा० निरालम्ब० श्लो० १२८-१२९] इति ।१० यतो यदि पारमार्थिकदृष्टान्त-दार्शन्तिकादिभेदाद् वादमार्गप्रवृत्तिः परस्याप्यसौ कथं भवेत् ? नहि परमार्थतो भावभेदः प्रत्यक्षतोऽधिगन्तुं शक्यस्तदभावात् । नानुमानादपीति प्रतिपादितम् । न च परस्याभ्युपगमात् साधनादिभेदसिद्धेस्तत्प्रवृत्तिः अप्रमाणकाभ्युपगममात्रादासिद्धेः कल्पितात् तु साधनादिप्रविभागाद् बाह्यार्थव्यवस्थायां भेदप्रपञ्चस्य कल्पनारचितत्वं भवेत् न वास्तवत्वम् । न च लोकप्रसिद्धेन साधनादिभेदेन बाह्यार्थव्यवस्था अर्थवादिनो युक्तिमती, शून्य-१५ वादिनोऽपि तत्प्रसिद्धेनैव तेन शून्यताव्यवस्थाया न्यायप्राप्तत्वात् । तथाहि-तस्यापि साधनादि. भेदव्यवहारो लोकप्रसिद्धः प्रागासीत् तेन यदि शून्यता व्यवस्थाप्यते न तेन कश्चिद दोषः। शून्यताव्यवस्थितेरुत्तरकालं यदि साधनादिभेदो विशरति तदा न कश्चिद् दोषः “गतोदके कः खल सेतुबन्धः” [ ] इति न्यायात् । उक्तं चाचार्येण-"सर्व एवायमनुमानानुमेय. व्यवहारः सांवृतः" [ ] इत्यादि । ततः सांवृता अनुमानगम्या शून्यता। २० यद्वा नीलादीनां प्रतिभासमानानां यत् कल्पितमेकत्वादिरूपं तस्याऽप्रतिभासादेव निषेधः । नहि व्यवहारवलादप्रतिभासमानमेकत्वादिकं रूपं कल्पयितुं युक्तम् प्रतिभासव्यतिरेकेण व्यवहारस्याप्ययोगात् । ततो बाह्यमाध्यात्मिकं वा रूपं न तत्वम् किन्तु सांवृतमेव । संवृतिश्च त्रिधा सुगतसुतप्रसिद्धा-लोकसंवृतिर्मरीचिकादिषु जलभ्रान्तिरेका, तत्त्वसंवृतिः सत्यनीलादिप्रतीतिर्द्वितीया, १ पृ० ३७१ पं० १२ । “यत्तु उक्तं भगवता-मायोपमा धर्मा यावत् निर्माणोपमा इति"-महायानसूत्रालंकारे पृ० ६२ पं० १०। "एतदुक्तं भगवता-अनुत्पन्नाः सर्वभावा मायोपमाश्च इति"-लकावतारसू० द्वितीयभा० पृ. १११ पं० ७॥ २ "अत्राप्यभिदधत्यन्ये किमित्थं तत्त्वसाधनम् । प्रमाणं विद्यते किश्चित् आहोखिच्छून्यमेव हि ॥ ५७ ॥ शून्यं चेत् सुस्थितं तत्त्वमस्ति चेच्छून्यता कथम् ? । तस्यैव ननु सद्भावादिति सम्यग् विचिन्त्यताम् ॥ ५८॥ प्रमाणमन्तरेणापि स्यादेवं तत्त्वसंस्थितिः । अन्यथा नेति सुव्यक्तमिदमीश्वरचेष्टितम् ॥५९ ॥ उक्तं विहाय मानं चेच्छून्यताऽन्यस्य वस्तुनः । शून्यत्वे प्रतिपाद्यस्य ननु व्यर्थः परिश्रमः॥६॥ तस्याप्यशून्यतायां च प्राश्निकानां बहुत्वतः । प्रभूताशून्यतापत्तिरनिष्टा संप्रसज्यते" ॥६१॥ -शास्त्रवा० समु० षष्ठस्त० पृ. २१५-२१६ । ३ सम्भवतीति । प्र. मां० बहिः। ४-कारानु-आ० । शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. २१६ प्र० पं० ११-१२ । ५-नादिभेदे व्य-आ. हा० वि०। ६ शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० २१६ द्वि० पं० ९ । ७-द्वा सर्वनी-मां । ८ यदत्र 'लोकसंवृति'-'तत्त्वसंवृति'-'अभिसमयसंवृति'इति संवृतित्रयं निर्दिष्टम् तदेव बोधिचर्यावतारे तत्पत्रिकायाँ च 'मिथ्यासंवृति'-'तथ्यसंवृति'-'योगिसंवृति' इति संज्ञया निरदेशि । तथाहि “संवृतिः परमार्थश्च सत्यद्वयमिदं मतम् । बुद्धेरगोचरस्तत्त्वं बुद्धिः संवृतिरुच्यते" ॥२॥ "संवियते आवियते यथाभूतपरिज्ञानं खभावावरणात् आवृतप्रकाशनाच्च अनयेति संवृतिः अविद्या मोहो विपर्यास इति पर्यायाःxxx सा च संवृतिर्द्विविधा लोकत एव तथ्यसंवृतिः मिथ्यासंवृतिश्चेति । तथाहि किश्चित् प्रतीत्य जातं नीलादिकं वस्तुरूपमदोषवदिन्द्रियैरुपलब्धं लोकत एव सत्यम् । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेअभिसमयसंवृतियोगिप्रतिपत्तिस्तृतीया । योगिप्रतीतेरपि ग्राह्यग्राहकाकारतायाः प्रवृत्तेः। उक्तं च भगवद्भिः-"कतमत् संवृतिसत्वं यावल्लोकव्यवहारः" [ ] । इति व्यवस्थितं सर्वधर्मविरहः शून्यतेति शुद्धतरपर्यायास्तिकमतावलम्वी ऋजुसूत्र एवं व्यवस्थितः। [ऋजुसूत्र-शब्द-समभिरूढ-एवंभूतेषु सौत्रान्तिक-वैभाषिक-योगाचार ___ माध्यमिकानां समवतारः] अथवा सौत्रान्तिक-वैभाषिको बाह्यार्थमाश्रितौ ऋजुसूत्र-शब्दौ यथाक्रमम् वैभाषिकेण नित्या. नित्यशब्दवाच्यस्य पुद्गलस्याभ्युपगमात् शब्दनयेऽनुप्रवेशस्तस्य । बाह्यार्थप्रतिक्षेपेण विज्ञानमात्रं समभिरूढो योगाचारः । एकानेकधर्मविकलतया विज्ञानमात्रस्याप्यभाव इति एवम्भूतो व्यवस्थित एवम्भूतो माध्यमिक इति व्यवस्थितमेतत् तस्य तु शब्दादयः शाखाप्रशाखाः सूक्ष्ममेदा १० इति ॥५॥ मायामरीचि-प्रतिबिम्बादिषु प्रतीत्य समुपजातमपि दोषवदिन्द्रियोपलब्धं यथाखं तीर्थिकसिद्धान्तपरिकल्पितं च लोकत एव मिथ्या। तदुक्तम् "विनोपघातेन यदिन्द्रियाणां षण्णामपि ग्राह्यमवैति लोकः । सत्यं हि तल्लोकत एव शेषं विकल्पितं लोकत एव मिथ्या" ॥-बोधिचर्या० प्रज्ञापार० पजि० परि० ९ पृ. ३५२ पं०३-पृ० ३५३ पं० ७-१६ । "एवं संवृति-परमार्थभेदेन द्विविधं सत्यं व्यवस्थाप्य तदधिकृतश्च लोकोऽपि द्विविध एवेति उपदर्शयन्नाह तत्र लोको द्विधा दृष्टो योगी प्राकृतकस्तथा। तत्र प्राकृतको लोको योगिलोकेन बाध्यते ॥ ३ ॥ लोको जनः xxxxx द्विधा ४ योगी प्राकृतकस्तथा । योगः समाधिः सर्वधर्मानुपलम्भलक्षणः सोऽस्यास्तीति योगी लोकः इत्येकः प्रकारो राशिः । तथा प्रकृतिः संसारप्रवृत्तेः कारणमविद्या तृष्णा तस्या जात इति प्राकृतः प्राकृत एव प्राकृतको लोक इति द्वितीयः”।-बोधिचर्याव० प्रज्ञापार० पञ्जि. परि०९पृ. ३६७ पं०१६-पृ. ३६८५०१० पर्यन्तम् । "न दोषो योगिसंवृत्या लोकात् ते तत्त्वदर्शिनः" ।-बोधिचर्याव. पृ. ३७७ ॥ "द्वे सत्ये । तद्यथासंवृतिसत्यं परमार्थसत्यं चेति"-धर्मसं० पृ. २२५० १२॥ द्वे सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना । लोकसंवृतिसत्यं च सत्यं च परमार्थतः"॥८॥ -मध्यमकवृ० आर्यसत्यप० प्र. २४ पृ० ४९२ । बोधिचर्याव. प्रज्ञापार पजि. परि० ९ पृ. ३६१ पं० १३ । "पितापुत्रममागमे चोक्तम् सत्य इमे दुवि लोकविदूनां दिष्ट स्वयं अश्रुणिल परेषाम् । संवृति या च तथा परमार्थो सत्यु न सिध्यति किंच तृतीयु" ।-बोधिचर्याव. प्रज्ञापार० पञ्जि. परि. ९पृ. ३६१५० १७। शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ. २१५प्र. पं०१०। १-रतयाऽप्र-भा०।-रतयाप्र-मा०। २०३१७६.८॥ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठगाथाव्याख्या। [नयवनिक्षेपाणामपि यथास्वं द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकरूपतया विभजनम्] नयानुयोगद्वारवत् शेषानुयोगद्वारेष्वपि द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिको मूलव्याकरणिनाविति दर्शयन्त्य(यन्न)नयोर्व्यापकताम् नाम ठवणा दविए त्ति एस वढियस्स निक्खेवो । भावो उ पजवट्ठिअस्स परूवणा एस परमत्थो ॥ ६ ॥ इत्यनया गाथया-दर्शयत्याचार्यः। __ अथवा वस्तुनिबन्धनाध्यवसायनिमित्तव्यवहारमूलकारणतामनयोः प्रतिपाद्य अधुना अध्यारोपिताऽनध्यारोपितनाम-स्थापना-द्रव्य-भाव निबन्धनव्यवहारनिवन्धनतामनयोरेव प्रतिपादयन्नाहाचार्यः-नाम ठवणा इत्यादि। अस्याश्च समुदायार्थः-नाम स्थापना द्रव्यम् इति एष द्रव्यार्थिकस्य निक्षेपः। भावस्तु पर्यायार्थिकनिरूपणाया निक्षेप इति एष परमार्थः । [१ नामनिक्षेपः] [नाम व्याख्याय तत्र संकेतविधि-तद्विषययोः प्ररूपणम्] तत्र यस्य कस्यचिद् वस्तुनो व्यवहारार्थमभिधानं निमित्तसव्यपेक्षम् अनपेक्षं वा यत् सङ्केत्यते १५ तन्नाम । सङ्केतकरणात्(णं तु) क्वचिद् अभेदेन यथा 'अयं घटः' इति, क्वचिद् मेदेन यथा 'अस्य चायं घटशब्दो वाचकः' इति भेदेन । एतच्च समानासमानाकारपरिणत्यात्मकेऽपि वस्तुनि समा. नाकारप्रतिपादनायैव नियोज्यते तस्यानुगतत्वेन तत्र सङ्केतकरणसौकर्यात् । असमानपरिणतेष्वननुगमात् आनन्त्याच्च न तत्र सङ्केतः कर्तुं शक्यः । शब्दव्यापाराच वस्तुगतसदृशपरिणतेरेव प्रतिभासता(सनात्) स एव शब्दार्थः यः शाब्द्यां प्रतीतौ प्रतिभातीति" नाऽसदृशपरिणामोऽत्यन्त-२० विलक्षणस्तस्यार्थ इति वस्तुस्थितिः। [भर्तृहरेर्द्रव्यार्थिकानुसारिणः शब्दब्रह्मदर्शनस्य पूर्वपक्षतया वर्णनम्] अत्र च द्रव्यार्थिकमतावलम्बी शब्दब्रह्मवाद्याह भर्तृहरिः "अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । विवर्त्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः" ॥ [वाक्यप० श्लो० १ प्रथमका०] इति। अत्र आदिः उत्पादः, निधनं विनाशः तदभावाद् 'अनादिनिधनम्' । अक्षरम्' इति अकाराद्यक्षरस्य निमित्तत्वात् अनेन च विवर्तोऽभिधानरूपतया निदर्शितः। 'अर्थभावेन' इत्यादिना त्व १ पज्जवट्रिअपरूवणा शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ. २४२ प्र०पं०३। २ शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ. २४२५० पं०४। ३-त्तस्यव्य-आ० हा० वि० विना। ४-नपेक्ष या यत् आ० । ५-रणत्वात् आ० विना । ६-नाकार-आ. हा०वि०। ७-नित्यास-आ०। ८-णतेध्वननु-भां० ।-णते ननु-आ० । ९ शाब्दांप्र-हा। शाब्द प्र-वि०। १०-ति ताह-आ. हा० वि०। ११ अत्रोच्यमानः शब्दब्रह्मवादिपक्षः संपूर्णोऽपि शब्दशोऽविकलतया तत्त्वसंग्रहपत्रिकायां दृश्यते-पृ० ६७ का० १२८-पृ० ७५ का० १५२ । तथाहि"नाशोत्पादासमालीढं ब्रह्म शब्दमयं परम् । यत् तस्य परिणामोऽयं भावग्रामः प्रतीयते" ॥ -तत्त्वसं. का. १२८ पृ०६७ । १२ तत्त्वसं० पजि. पृ. ६७ पं० २१। द्वादशारनय० लि. प्रे० को. पृ. ३३८ पं० ३ । प्रमेयक० पृ० ११ द्वि. पं०६ । स्याद्वादर० पृ. ४४ प्र. पं०३ । शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. २३५ द्वि. पं० १०। नयोप० वृ० पृ. ७५ द्वि. पं०३। १३-माशः तस्य तद-आ. हा. वि. विना। १४-न वि-आ० । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० प्रथमे काण्डे मिधेयो विवर्त्तः। 'प्रक्रिया' इति भेदानामेव संकीर्तनम् । 'ब्रह्म' इति पूर्वापरादिदिग्विभागरहितम् अनुत्पन्नम् अविनाशि यच्छब्दमयं ब्रह्म तश्चायं (तस्यायं) रूपादिभावग्रामपरिणाम इति श्लोकार्थः। एतच्च शब्दस्वभावात्मकं ब्रह्म प्रणवस्वरूपम् स च सर्वेषां शब्दानाम् समस्तार्थानां च प्रकृतिः। अयं च वर्णक्रमरूपो वेदस्तदधिगमोपायः प्रतिच्छन्दकन्यायेन तस्यावस्थितत्वात् । तच्च परमं ब्रह्म ५अभ्युदयनिःश्रेयसफलधर्मानुगृहीतान्तःकरणैरवगम्यते । अत्र च प्रयोगः-ये यदाकारानुस्यूतास्ते तन्मयाः, यथा घट-शरावोदश्चनादयो मृद्विकारानुगता मृण्मयत्वेन प्रसिद्धाः, शब्दाकारानुस्यूताश्च सर्वे भावा इति स्वभावहेतुः। प्रत्यक्षत एव सर्वभावानां शब्दाकारानुगमोऽनुभूयते । तथाहिअर्थेऽनुभूयमाने शब्दोल्लेखानुगंता एव सर्वे प्रत्यया विभाव्यन्ते । उक्तं च "न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्व शब्देन भासते"॥ [वाक्यप० श्लो० १२४ प्रथमका०] इति । ने च वाग्रूपताऽननुवेधे बोधस्य प्रकाशरूपतापि भवेत् तस्यापरामर्शरूपत्वात् तेंदभावे तु तस्याभावात् बोधस्याप्यभावः, परामर्शाभावे च प्रवृत्ता(त्या)दिव्यवहारोऽपि विशीर्येत इति । आह च "वाग्रूपता चेद् व्युत्नामेदवबोधस्य शाश्वती। ने प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमर्शनी ॥" 1 [वाक्यप० श्लो० १२५ प्रथमका०] इति । शानाकारनिवन्धना च वस्तूनां प्रज्ञप्तिरिति नैषां शब्दाकारानुस्यूतत्वमसिद्धम् , तत्सिद्धेश्च तन्मात्रभावित्वात् तन्मयत्वस्य तन्मयत्वमपि सिद्धमेव। अत एव 'अयं घटः' इत्यभेदेन शब्दार्थसम्बन्धो वैयाकरणैः-'सोऽयमित्यभिसम्बन्धाद् रूपमेकीकृतम्' इत्यादिना अभिजल्पस्वरूपं दर्श२० यद्भिः प्रतिपादितः। अत्र च पर्यायास्तिकमतेन प्रतिज्ञादिदोष उद्भाव्यते-किमत्र जगतः शब्दपरिणामरूपत्वाच्छब्द १“'प्रक्रिया' इति मेदाः । 'ब्रह्म' इति नामसंकीर्तनम्-तत्त्वसं० पजि. पृ० ६७ पं० २४ । "प्रक्रिया' इति भेदाः । 'शब्दब्रह्म' इति नामसंकीर्तनम्"-प्रमेयक० पृ० ११ द्वि. पं. ७ । स्याद्वादर० पृ. ४४ प्र. पं० ५। ___“'प्रक्रिया' इति भेदानामेव संकीर्तनम् । 'ब्रह्म' इति विशुद्धखनामकीर्तनम्"-शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. २३५ द्वि० पं० १३ । 'प्रक्रिया' प्रतिनियता व्यवस्था, भेदानां संकीर्तनमेतत्"-नयोप० वृ० पृ. ७५ द्वि. पं०८। २ पूर्वापरादिविभागरहितम् अनुत्पन्नम् अविनाशि यत् शब्दमयं ब्रह्म"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ६७ पं० २०। ३ "तस्यायं रूपादिर्भावग्रामः परिणाम इति प्रतीयते"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ६७ पं० २०-२१। ४ "प्रणवो हि किल सर्वेषां शब्दानाम् सर्वेषां च अर्थानाम् प्रकृतिः स च वेदः । अयं तु वर्ण-पदक्रमेण अवस्थितो वेदः"-तत्त्वसं. पजि. पृ० ६८ पं० २। ५-तास्तेन त-मां । स्याद्वादर० पृ० ४८ द्वि. पं० १३-पृ० ४९ द्वि. पं. ३। ६ “यथा घट-शरावोदश्चनादयो मृद्विकाराः मृदाकारानुगताः पदार्था मृण्मयत्वेन प्रसिद्धाः”-तत्त्वसं० पजि. पृ० ६८ पं०६। ७-क्ष एव आ०। ८-गत एव आ. हा० वि०। ९ "अनुविद्धमिवाऽऽभाति सर्व शब्दे प्रतिष्ठितम्"-प्रमेयक० पृ. ११ द्वि. पं० ५। १० सर्व श-आ. हा०वि० । “सर्व शब्देन वर्तते"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ६८५० १० । स्याद्वादर पृ० ४३ द्वि. पं० १। शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. २३६ प्र. पं० २। “सर्व शब्देन जायते"अनेकान्तज. पृ० ४१ द्वि. पं० १४ । ११ "शब्दसंपर्कपरित्यागे हि प्रत्ययानां प्रकाशरूपताया एवाभावप्रसक्तिः वागू. पता हि शाश्वती प्रत्यवमर्शिनी च तदभावे प्रत्ययानां नापरं रूपमवशिष्यते"-स्याद्वादर० पृ. ४३ प्र. पं० १६ । १२ तदा भा-आ०। १३ अनेकान्तज. पृ० ४१ द्वि. पं० १३। नयोप० वृ० पृ. ७५ द्वि. पं. १३ । “न हि बोधः प्रकाशेत"-स्याद्वादर० पृ. ४३ द्वि. पं० २। १४ पृ० १८० पं० २१ तथा टिप्प० ११। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३८१ मयत्वं साध्यते, उत शब्दात् तस्योत्पत्तेः शब्दमयत्वं यथा 'अन्नमयाः प्राणाः' इति हेतौ 'मयट्'विधानात् ? न तावदाद्यः पक्षः परिणामानुपपत्तेः । तथाहि-शब्दात्मकं ब्रह्म रूपाद्यात्मकतां प्रतिपद्यमानं स्वरूपपरित्यागेन वा प्रपद्येत, अपरित्यागेन वा ? यदि परित्यागेन इति पक्ष आश्रीयते तदा 'अनादिनिधनम्' इत्यनेन यदविनाशित्वमभ्युपगतम् तस्य हानिप्रसक्तिः पौरस्त्यस्वभावध्वंसात् । अथ अपरित्यागेन इति पक्षस्तदा रूपसंवेदनसमये बधिरस्य शब्दसंवेदनप्रसङ्गः तव्यतिरेकात् नीला-५ दिवत् । तथाहि-यत् यव्यतिरिक्तं तत् तत्संवेदने संवेद्यते, यथा तत्स्वरूपम् , रूपाद्यव्यतिरिक्तश्च शब्दात्मेति स्वभावहेतुः । अन्यथा भिन्नयोगक्षेमत्वात् तत् तदात्मकमेव न स्यादिति विपर्यये बाधकं प्रमाणम् । अथ तत्समये न तत्संवेदनमिष्यते तदा रूपादेरप्यसंवेदनप्रसङ्गः एकस्वभावत्वात् । भिन्नधर्मत्वे वा शब्द-रूपादेरत्यन्तभेद एव । नोकप्रमा(मात्र)पेक्षयैकस्यैव ग्रहणमग्रहणं वा एकत्वहानिप्रसङ्गात् । यदि पुनर्विरुद्धधर्माध्यासेऽप्यभेदः घट-पटादिव्यक्तीनामपि कल्पितभेदानाम १० भेदप्रसक्तिः। परेणाभ्युपगतश्च घटादिव्यक्तीनां भेदः यतः स्वात्मनि व्यवस्थितस्य ब्रह्मणो नास्ति भेदः अविकारविषयत्वादस्य इति परसिद्धान्तः । नहि घटाद्यात्मना तस्यानादिनिधनत्वम् किन्तु परमात्मापेक्षया । घटादयश्च परिदृश्यमानोदय व्ययाः परिच्छिन्नदेशायश्चोपलभ्यन्त एव । अयं चोपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वे ब्रह्मणो दोष उक्तः। अतिसूक्ष्मतयाऽतीन्द्रियत्वे तु तस्य तत्स्वरूपवन्नीलादीनामप्यग्रहणप्रसक्तिर्दोषः । तेन 'उदयव्ययवतीमेवार्थमात्रामपरदर्शनाः प्रतियन्ति' इत्ययुक्तमेवाभि-१५ धानम् । न च यथा नीलत्वाव्यतिरिक्तमपि क्षणिकत्वं तत्संवेदने न संवेद्यते तद्वच्छब्दरूपमपीति वक्तव्यम् यतो नॉस्मन्मते नीलसंवेदने क्षणिकत्वं न संवेद्यते किन्तु भ्रान्तिकारणवशानिर्विकल्पकेन गृहीतमपि नि(न नि)श्चीयत इत्यनुभवापेक्षया तद्हणे तदपि गृहीतमेव निश्चयापेक्षया त्वगृहीतमिति शानभेदाद् गृहीतत्वमगृहीतत्वं चैकस्याविरुद्धमेव । न चैवं शब्दब्रह्मणो भवन्मतेन ग्रॅहणाऽग्रहणे, १ "मयद च"-अ०४।३।८। सिद्धान्तकौ० अं० १४६२ । “नृ-हेतुभ्यो रूप्य-मयटौ"-अ० ६।३।१५६। हैमः । २ "इति संचक्षते येऽपि ते वाच्याः किमिदं निजम् । शब्दरूपं परित्यज्य नीलादित्वं प्रपद्यते"॥ तत्त्वसं० का० १२९ पृ. ६८। ३ "न वा तथेति यद्याद्यः पक्षः संश्रीयते तदा। अक्षरत्ववियोगः स्यात् पौरस्त्यात्मविनाशतः"॥ तत्त्वसं० का० १३० पृ०६८। ४ “अथाप्यनन्तरः पक्षस्तत्र नीलादिवेदने । अश्रुतेरपि विस्पष्टं भवेच्छब्दात्मवेदनम्"॥ "येन शब्दमयं सर्व मुख्यवृत्त्या व्यवस्थितम् । शब्दरूपापरित्यागे परिणामानि(भि)धानतः" ॥ "अगौणे चैवमेकत्वे नीलादीनां व्यवस्थिते । तत्संवेदनवेलायां कथं नास्त्यस्य वेदनम्"॥ तत्त्वसं० का० १३१-१३२-१३३ पृ० ६८-६९ । ५ "शब्दः सैवेदन प्राप्नोति नीलादिसंवेदनवत् तदव्यतिरेकात्"-तत्त्वसं० पजि. पृ०६८ पं० २७। ६-कादनीला-आ०। ७ तत्सं-आ० हा० वि०। ८ तथात्म-आ०।। ९ “अस्याऽवित्तौ हि नीलादेरपि न स्यात् प्रवेदनम् । ऐकात्म्याद भिन्नधर्मत्वे भेदोऽत्यन्तं प्रसज्यते" ॥ तत्त्वसं० का० १३४ पृ० ६९। १०-कत्वभा-आ०। ११ "विरुद्धधर्मसंगो हि बहूना भेदलक्षणम् । नान्यथा व्यक्तिमेदानां कल्पितोऽपि भवेदसौ" ॥ तत्त्वसं० का० १३५ पृ०६९। "न हि एकस्य एकदा एकप्रतिपत्रपेक्षया ग्रहणमग्रहणं च युक्तम्"-तत्त्वसं० पजि. पृ०६९पं० २३ । प्रमेयक. पृ० १२ द्वि. पं० ४ । “न हि एकस्य एकदा एकप्रमात्रपेक्षया प्रहणमग्रणं च युक्तम् विरोधात्"-स्याद्वादर० पृ० ४९ प्र. पं० ४। १२-ध्यासोप्य-आ० हा० वि०। १३ “यतस्तस्य खात्मनि व्यवस्थितस्य नास्ति भेदः चिकारविषयत्वादस्येति सिद्धान्तः"-तत्त्वसं० पजि. पृ०६९ पं० २५। १४ “अयं च अश्रुतेः स्पष्ट शब्दसंवेदनं स्यात् इति यः प्रसङ्गः उक्तः स यदि ब्रह्मणो रूपमुपलब्धिलक्षणप्राप्तमिष्यते तदा द्रष्टव्यः। यदि पुनः अतिसूक्ष्ममतीन्द्रियमिति वर्ण्यते तदा अयमदोषः किन्तु नीलादीनामपि तादूप्यात् तत्स्वरूपवत् अग्रहणप्रसङ्ग इत्ययं दोषो वाच्यः"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ६९ पं० २८-पृ० ७० पं० ४। १५ "नीलादिसंवेदनेऽपि न संवेद्यते"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ७० पं०६। १६ नामास्मन्मते भां. हावि. नास्मन्मते प्र. भां० बहिः। नामात्मते आ०। १७ “किन्तु गृहीतमपि निर्विकल्पेन चेतसा भ्रान्तिनिमित्तेन गुणान्तरसमारोपान विनिश्चीयते इत्युच्यते"-तत्त्वसं० पजि.पृ. ७० पं० ८। १८ "प्रहणाग्रहणे युक्ते"-तत्त्वस० पजि. पृ. ७० पं० १०। ४९ स० त० Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ प्रथमे काण्डेसविकल्पकत्वाभ्युपगमात् सर्वसंविदाम् सविकल्पकत्वेन च सर्वात्मना शब्दस्य निश्चितत्वादगृहीतस्वभावान्तरानुपपत्तेः। _ "निश्चयैः। यन्न निश्चीयते रूपं तत् तेषां विषयः कथम् ? ॥"[ ५ इति प्रतिपादनात् । न चाविकल्पकस्यापि ज्ञानस्याभ्युपगमादयं न दोषः, 'न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके' इत्यादेविरुद्धत्वप्रसक्तेः 'शब्दाकारानुस्यूतत्वात्' इति हेतोरसिद्धिप्रसक्तिश्च । न च यथा प्रमाणान्तरतः क्षणिकत्वप्रसिद्धेः 'अध्यक्षतोऽनुभूतमपि तन्न निश्चीयते' इति व्यपदिश्यते तथा शब्दात्मता भावानां व्यपदेशमासादयति, तत्प्रसाधकप्रमाणान्तरस्याप्रसिद्धेः। किन्तु शब्दात्मा घटादिरूपतया परिणमन् प्रतिपदार्थ भिद्यते न वेति वक्तव्यम् । यद्याद्यः पक्षस्तदा शब्दब्रह्मणोऽनेकत्वप्रसक्तिः १० विभिन्नानेकभावात्मकत्वात् तत्स्वरूपवत् एकं च परैर्ब्रह्मेष्यते इत्यभ्युपगमापनमः । अथ यदि द्वितीयः पक्षस्तदा एकदेश-कालाकाररूपतापत्तिर्जगतः इत्येकपः प्रतिभासो भवेत् नीलादेरेकब्रह्मरूपाव्यतिरेकात् । अपि च, नित्यशब्दमयत्वे जगतः शब्दस्वरूपवत् सर्वभावानां नित्यत्वप्रसक्तिरिति तेन सह सर्वदोपलब्धेः परिणामासिद्धिः कैशयति परिणामप्रतीतेः(तिम्)। तन्न परिणामकृतं शब्दमयत्वं भावानाम् । १५ नौपि हेतुकृतम्, शब्दस्य नित्यत्वेन अविकारित्वात् ततः कार्योदयासम्भवात् । नाप्यक्रमा च्छब्दब्रह्मणः क्रमवत्कार्योदयो युक्तः, कारणवैकल्याद्धि कार्याणि उदयं प्रति सविलम्बानि भवन्ति शब्दाख्यं चेत् कारणमविलम्बम् अपरस्यापेक्षणीयस्याभावात् किं न तानि युगपदुदयमनुभवेयुः? अपि च, एकस्वभावाच्छब्दब्रह्मणोऽन्यस्य भावान्तरस्योत्पत्तिर्यद्यङ्गीक्रियते तदा 'अर्थरूपेण तद १-खनान्तरा-आ०। २-श्चयैर्यत्न नि-हा० ।-श्चयैर्यत्र नि-वि० ।-श्वयर्यन्न नि-आ० । “यथोक्तम्"निश्चयः(यैः)। यन निश्चीयते रूपं तत् तेषां विषयः कथम्" इति"-तत्त्वसं. पजि. पृ. ७. पं०१२। ३ पृ. ३८०५०९। ४ "किश्च, क्षणिकत्तं भावानां प्रमाणान्तरतः सिद्धेरनुभूतमपि न निश्चीयते इति व्यपदिश्यते । शब्दात्मता तु भावानां कुतः सिद्धा येन साऽप्येवं व्यवस्थाप्यते"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ७० पं० १६। ५ "किञ्च, असौ शब्दात्मा परिणाम गच्छन् प्रतिपदार्थभेदं प्रतिपद्यते न वा?"-प्रमेयक० पृ. १२ द्वि. पं०५। ६ "प्रतिव्यक्ति तु भेदेऽस्य ब्रह्मानेकं प्रसज्यते । विभिन्नानेकभावात्मरूपत्वाद् व्यक्तिमेदवत्"॥ तत्त्वसं. का. १३७ पृ. ७०। ७ परिव्राह्मे-आ० । “एकं च परमब्रह्मेष्यते"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ७१५० ३। ८-गमेः अगमा अत यदि आ०। ९-रूप प्रति-आ० । "प्रतिभावं च यद्येकः शब्दात्मा(s)भिन्न इष्यते । सर्वेषामेकदेशत्वमेकाकारा च विद भवेत्" । तत्त्वसं० का० १३६ पृ. ७०। १० "नित्यशब्दमयत्वे च भावानामपि नित्यता । तद्योगपद्यतः सिद्धेः परिणामो न संगतः" ॥ तत्त्वसं. का. १३८ पृ. ७१। ११-ब्दरूप-आ० हा० वि०। ११ कृतं शय-हा। "एकरूपतिरोभावे ह्यन्यरूपसमुद्भवे । मृदादाविव संसिध्येत् परिणामस्तु नाऽक्रम"। तत्त्वसं. का. १३९ पृ. ७१। १३ “अथापि कार्यरूपेण शब्दब्रह्ममयं जगत् । तथापि निर्विकारत्वात् ततो नैव क्रमोदयः" ॥ तत्त्वसं• का० १४० पृ०७१। १४-मविकलम् मां. बहिः । “तच्चेद् अविकलम् किमपरं तैरपेक्ष्यं येन युगपन्न भवेयुः”-प्रमेयक० पृ. १२ द्वि० ५० ५। १५ “अन्योन्यरूपसंभूतौ तस्मादेकखरूपतः। विवृत्तमर्थरूपेण कथं नाम तदुच्यते" ॥ तत्त्वसं० का० १४१ पृ. ७१। १६-णोऽन्यान्यस्य प्र० भा० बहिः । "यदि तस्मादेकखभावाच्छन्दात्मनोऽन्यान्यस्य खभावस्य उत्पत्तिरङ्गीक्रियते"-तत्त्वसं० पजि० पृ० ७१ पं० २५। "किश्च, अपरापरकार्यप्रामोऽतोऽर्थान्तरमनान्तरं वोत्पद्येत।"-प्रमेयक० पृ० १२ द्वि०५०९। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३८३ ब्रह्म विवृत्तम्' इत्येतन सिद्धिमासादयेत् नै यतोऽर्थान्तरोत्पादे तत्स्वभावमनासायतोऽन्यस्य तादूप्येण विवतॊ युक्तिसङ्गत इति सर्वथापि प्रतिज्ञार्थो न घटते । 'शब्दानुस्यूतत्वात्' इति हेतुश्चासिद्धः ने यतः परमार्थेनैकरूपानुगमो भावानां सम्भवति स्वस्वभावव्यवस्थिततया सजाती यावृत्तस्वरूपत्वात् तेषाम् विजातीयव्यावृत्तिकृतं त्वेकाकारानुस्यूतत्वं कल्पनाशिल्पिनिर्मितमेषाम् घट-शरावोदञ्चनादिषु परमार्थतो भिन्नेष्वपि अमृदात्मकपदार्थव्यावृत्तिकृतमृदूपानुस्यूतिवत् । न ५ च नीलादीनां कल्पनाविरचितमपि शब्दाकारानुस्यूतत्वमस्ति, नील-पीतादिषु प्रतिभासं बिभ्राणेषु शब्दानुस्यूतत्वस्य कल्पनयाप्यनुल्लेखात् तत् कथं नासिद्धो हेतुः? अथ अविभक्तमेव सदा ब्रह्मात्मकं तत्त्वम् न तस्य परमार्थतः परिणामः-येनैकदेशत्वं नीलादेरेकाकारं वा संवेदनं भवेदिति प्रेर्यते-तैच्च अविद्योपहतबुद्धयो नीलादिभेदेन विविक्तमिव (विचित्रमिव) मन्यन्ते । यदुक्तम् "यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः। सङ्कीर्णमिव मात्राभिश्चित्राभिरभिमन्यते ॥” [ "तदेवममृतं (तथेदममलं) ब्रह्म "निर्विकारमविद्यया। कलुषत्वमिवापन्नं "भेदरूपं विवर्त्तते ॥" [ __] इति । १-म निव-आ. हा. वि. विना। २ “न हि अर्थान्तरस्य उत्पादे अन्यस्य तत्वभावमनाविशतस्ताद्रूप्येण विवर्तो युक्तः”-तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ७१ पं० २६ । "न हि अर्थान्तरस्य उत्पादे अन्यस्य तत्खभावमनाश्रयतस्ताद्रूप्येण विवर्ती युक्तः”-प्रमेयक० पृ० १२ द्वि० पं० १० । ३-ब्दानुस्सूत-हा० वि०।-ब्दानुस्सत-आ०। ४-तुश्च सि-आ० हा. वि. विना। ५ "अतद्रूपपरावृत्तमृदूपत्वोपलब्धितः। कुम्भ-कोशादिभेदेषु मृदात्मैकोऽत्र कल्प(ल्प्य ते" ॥ "नील-पीतादिभावानां न त्वेवमुपलभ्यते । अशब्दात्मपरावृत्तिरवीजा कल्पनाऽपि तत्"। तत्त्वसं० का० १४२-१४३ पृ०७२। "न हि भावानां परमार्थेन एकरूपानुगमोऽस्ति"-तत्त्वसं. पजि. पृ० ७२ पं०७।। ६ “अथाविभागमेवेदं ब्रह्मतत्त्वं सदा स्थितम् । अविद्योपप्लवाल्लोको विचित्रं त्वभिमन्यते"॥ तत्त्वसं० का० १४४ पृ. ७२ । ७ तथाविद्योपह-हा० वि०। ८ विवृत्तमि-आ० हा० वि० । "विचित्रमिव"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ७२ पं० १९ । "ननु परमार्थतोऽनादिनिधनेऽभिन्नखभावेऽपि शब्दब्रह्मणि अविद्यातिमिरोपहतो जनः प्रादुर्भाव-विनाशवत् कार्य मेदेन विचित्रमिव मन्यते"-प्रमेयक. पृ० १२ द्वि. पं० ११। “यथैव हि तिमिरतिरस्कृतलोचनो जनो विशुद्धमपि आकाशं विचित्ररेखानिकरकरम्बितमिव मन्यते”–स्याद्वादर० पृ. ४४ प्र० पं० १२ । ९ शास्त्रवा० समु० स्तब० ८ श्लो०२ पृ. २८६ द्वि०। बृहदा० उ० भाष्यवार्ति० ३,५पृ० १२४६ श्लो० ४३ । अष्टस० पृ० ९३ पं० २१ । प्रमेयक० पृ० १२ द्वि. पं० ११ । स्याद्वादर० पृ. ४४ प्र० पं० १५ । नयोप० वृ० पृ. ७६ प्र.पं. १२। “यथा भवति बालानां गगनं मलिनं मलैः । तथा भवत्यबुद्धानामात्माऽपि मलिनो मलैः" ॥ माण्डुक्योप० गौडपादका०३ पृ. ११३ श्लो०८॥ १० "तथेदममृतं ब्रह्म"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ७२६०२१। “तथेदममलं ब्रह्म"-शास्त्रवा० समु० स्तब०८ श्लो०३ पृ० २८७ द्वि० । बृहदा० उ० भाष्यवार्ति० ३, ५ पृ० १२४६ श्लो० ४४ । अष्टस० पृ. ९३ पं० २२। प्रमेयक० पृ. १२ द्वि० पं० १२। स्याद्वादर० पृ. ४४ प्र० ५० १६ । नयोप० वृ० पृ० ७६ प्र. पं० १३ । ११ “निर्विकल्पमविद्यया"-शास्त्रवा० समु० स्तब० ८ श्लो०३पृ० २८७ द्वि० । अष्टस० । नयोप० वृ० पृ० ७६ प्र. पं० १३ । “निर्विकल्पम् विजातीयभेदविकल्पविकलम्"-शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० २८७ द्वि. पं. ४। १२ "भेदरूपं विवर्ततः"-तत्त्वसंपजि. पृ० ७२ पं० २२ । “भेदरूपं प्रकाशते"-शास्त्रवा०। बृहदा० उ० भाष्यवार्तिक । “भेदरूपं प्रपश्यति"-अष्टस। प्रमेयक पृ० १२ द्वि० ५० १२ । “कलुषत्वमिवापन्नभेदरूपं तु पश्यति"-स्याद्वादर० पृ०४४ प्र. पं० १६॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ प्रथमे काण्डेन हि नीलादीनामवस्तुस्वरूपत्वादेकदेशत्वप्रसङ्गः, नापि संवेदनस्यामेदः अविद्याविरचितत्वात तद्भेदस्येति श्लोकद्वयाभिप्रायः। [तस्य च दर्शनस्य पर्यायास्तिकमतेन प्रतिविधानम्] अत्र प्रतिविधीयते-प्रमाणाधीना हि प्रमेयव्यवस्था । न चैवंभूतब्रह्मसिद्धये प्रमाणमुपलभ्यते ५ किश्चित् । तथाहि-न तावत् प्रत्यक्षं तथावस्थितब्रह्मस्वरूपावेदकम् नीलादिव्यतिरेकेण तत्रापरस्य ब्रह्मस्वरूपस्याप्रतिभासनात् । अथ ज्ञानात्मरूपवत् स्वसंवेदनस्याध्यक्षत एव शब्दब्रह्म सिद्धम् ज्योतिस्तदेव शब्दात्मत्वाच्चैतन्यरूपत्वाच्चेति प्रतिपाद्यते, असदेतत्; स्वसंवेदनविरुद्धत्वात् । तथाहि-अन्यत्र गतचित्तोऽपि रूपं चक्षुषा वीक्षमाणोऽभिलापासंसृष्टमेव नीलादिप्रत्ययमनुभवतीति विस्तरेण प्रतिपादितमेव सौगतैः नेह प्रदर्श्यते ग्रन्थगौरवभयात् । तेन “वाग्रूपता चेद् व्युत्क्रामेत्" इत्यादिना(त्यादि) १० तथा "न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके” इति च प्रत्युक्तं द्रष्टव्यम् । तन्नाध्यक्षतो बाह्येन्द्रियजात् स्वसंवेदनाद्वा तथाभूतब्रह्मसिद्धिः । नाप्यनुमानतस्तत्सिद्धिः यतोऽनुमानं कार्यलिङ्गजम्, स्वभावहेतुप्रभवं वा तत्सिद्धये व्याप्रियेत? अनुपलँब्धेः प्रतिषेधविषयत्वेन विधावनधिकारित्वात् । तत्र न तावत् कार्यलिङ्गजं तत्र व्याप्रियते, नित्यस्य क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् ततः कार्यस्यैव कस्यचिदसम्भवात् । नापि स्वभावहेतुप्रभवस्य तस्य तत्र व्यापारः ब्रह्माख्यस्य धर्मिणोऽसिद्धत्वेन १५ तत्स्वभावभूतस्य धर्मस्य सुतरामसिद्धेः। न चैतद्व्यतिरिक्तमपरं विधिसाधकं लिङ्गमस्ति तस्य स्वसाध्यप्रतिबन्धाभावात् । न चाप्रतिबद्धं लिङ्गं युक्तम् अतिप्रसङ्गात् । शब्दरूपान्वयत्वं चासिद्धत्वात् न पारमार्थिकब्रह्मस्वरूपसाधनायालम् । नाप्यागमात् तत्सिद्धिः तस्यानवस्थितत्वात् । किञ्च, "ज्ञानमात्रार्थकरणेऽप्ययोग्यं ब्रह्म चामृतम् । तदयोग्यतयाऽरूपं तद्वा वस्तुषु (?) लक्षणम् ॥” [ २० इत्येतत् प्रतिपादितमनेकधा न पुनरुच्यते । यदपि न्यगादि "तं तु परमं ब्रह्मात्मानमभ्युदयनिःश्रेयसफलधर्मानुगृहीतान्तःकरणा योगिन एव पश्यन्ति' इति, तदप्यसङ्गतमेव; येतो यदि योगजे १ "तत्रापि वेद्यते रूपमविद्योपप्लुतैर्जनैः । यन्नीलादिप्रकारेण त्यागादाने निबन्धनम्" ॥ तद्रूपव्यतिरेकेण ब्रह्मरूपमलक्षितम् । कथं व्युत्थितचेतोभिरस्तित्वेन प्रतीयते" ॥ तत्त्वसं. का. १४५-१४६ पृ. ७२ । २-ह्मरूपा-आ० हा० वि० । “न तत् प्रत्यक्षतः सिद्धमविभागमभासनात्"। तत्त्वसं० का० १४७ पृ. ७३। ३ "स्यादेतत् स्वसंवेदनप्रत्यक्षत एव तत् सिद्धम् ज्ञानात्मरूपत्वात् । तथाहि-ज्योतिस्तदेव शब्दात्मकत्वात् चैतन्यरूपत्वाच"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ७३ पं० १०। ४ वीक्ष्यमा-आ.विना। ५ पृ. ३८० पं० १४ तथा ९। ६ "नित्यादुत्पत्त्ययोगेन कार्यलिङ्गं च तत्र न" ॥ "धर्मिसत्त्वाप्रसिद्धस्तु न खभावः प्रसाधकः । न चैतदतिरेकेण लिङ्गं सत्ताप्रसाधकम्" ॥ तत्त्वसं. का. १४७-१४८ पृ. ७३ । ७-लब्धे प्र-आ० हा० वि०। ८-करणोऽप्य-आ०। ९-मृताम् । हा० वि० । १० "ज्ञानमात्रार्थकरणेऽप्ययोग्यं ब्रह्म गम्यताम् । तदयोग्यतया रूपं तङ्यवस्तुत्वलक्षणम्" ॥ तत्त्वसं० पजि. पृ. ७३ पं० २६ । ११ "ज्ञानं शेयक्रमात् सिद्धं क्रमवत् सर्वमन्यथा । यौगपद्येन तत् कार्य विज्ञानमनुषज्यते ॥ ज्ञानमात्रेऽपि नैवास्य शक(क्य?)रूपं ततः परम् । भवतीति प्रसकाऽस्य वन्ध्यासूनुसमानता" ॥ तत्त्वसं० का. १४९-१५० पृ०७३-७४ । "एतच्च पूर्वम् ईश्वरपरीक्षायां प्रसाधितम्"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ७४ पं० ४ । तच्चैवम् "क्रमाक्रमविरोधेन नित्या नो कार्यकारिणः । विषयाणां ऋमित्वेन तज्ज्ञानेष्वपि च क्रमः॥ क्रमभावीश्वरज्ञानं ऋमिविज्ञेयसंगतः। देवदत्तादिविज्ञानं यथा ज्वालादिगोचरम्" ॥ तत्त्वसं. का. ७६-७७ पृ.५०। १२ तत्तु भां० मां० वि०। १३ पृ० ३८० ५० ५। १४ "विशुद्धज्ञानसंताना योगिनोऽपि ततो न तत् । विदन्ति ब्रह्मणो रूपं ज्ञाने व्यापृत्य संगतेः" । तत्त्वसं० का० १५१ पृ०७४। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३८५ शाने तस्य व्यापारो भवेत् तदा तत्स्वरूपं योगिनः पश्यन्तीति युक्तं भवेत् । न च तज्ज्ञाने तस्य व्यापार इति प्रतिपादितम् । न च तद्विषयज्ञानोत्पत्त्या योगिनस्तं पश्यन्तीति नास्माभिरभिधीयतेतद्यतिरिक्तस्य योगिनस्तज्ज्ञानस्य चाभावात्-किन्तु योगित्वावस्थायामात्मज्योतीरूपं स्वत एव तत् प्रकाशत इति योगिनस्तत् पश्यन्ति' इत्युच्यत इति वक्तव्यम् , यतो योग्यवस्थातः प्राग् यदि ब्रह्मणो ज्योतीरूपत्वस्वभावस्तदा सदैवात्मज्योतीरूपत्वात् तस्य न कदाचिद् अयोग्यवस्थेत्ययत्न-५ सिद्धः सर्वेषां मोक्षः स्यात् । न च भवदभिप्रेताद्वयसंवेदनचित्राकारपरिग्रहप्रतिभासवद् अविभागस्याप्यविद्यावशाद् ब्रह्मणोऽविशुद्धसन्ततीनां तथाप्रकाशनमिति वक्तव्यम् , यतो न तद्यतिरेकेणान्ये अविशुद्धसन्ततयो भवदभिप्रायेण सन्ति तेषा(येषां) तथातत्प्रतिभासः। न च स्वयमेव तथा प्रकाशत इति वक्तव्यम् , मोक्षाभावप्रसङ्गात् सर्वदैव तस्य तथाप्रकाशात्मकत्वात् । अस्मन्मते तु विशुद्धज्ञानान्तरोदयात् मुक्तिर्घटत एव । न च भवन्मतेन तद्व्यतिरेकिणी अविद्या सम्भवति १० यद्वशात् तथा प्रकाशत इत्युच्यते । तदव्यतिरेके चाविद्यायास्तद्वशात् 'तदेव तथा प्रकाशते' इति वचो जाघटीति । न च 'अविद्यावशात् तत् तथा ख्याति' इत्यनेन तस्याविद्यात्मकत्वमेव प्रकाश्यते इति वक्तव्यम् , मोक्षाभावप्रसक्तेरेव-यतो न नित्यैकरूँपब्रह्मण्यविद्यात्मके स्थिते तदात्मकाऽविद्याव्यपगमः कुतश्चित् सम्भवी येनाविद्याव्युपरतेमुक्तिर्भवेत् । न च तद्यतिरेकवदविद्याङ्गीकरणेऽप्यविद्याप्रकाशात्(द्यावशात्) तस्य तथाप्रकाशनं युक्तिसङ्गतम् , नित्यत्वाद् अनाधेयातिशये ब्रह्मणि १५ तस्या अकिञ्चित्करत्वात् अत एव तस्य तयाऽसम्बन्धात् संसाराभावप्रसक्तिश्च । न च सा तत्त्वाऽन्यत्वाभ्यामनिर्वचनीयेति वक्तव्यम्, वस्तुधर्मस्य गत्यन्तराभावात् । न चावस्तुत्वमेव तस्याः तथात्वे तस्य तथाख्यात्ययोगादतिप्रसङ्गात् । न च तथाभूतार्थक्रियाकारिण्यास्तस्या 'वस्तु' इति नामकरणे कश्चिद् विवादः अस्मन्मते तु तथाभूताऽभिनिवेशवासनैवाऽविद्या, वासना च कारणात्मिका शक्तिरिति पूर्वपूर्वकारणभूतादविद्यात्मकज्ञानादुत्तरोत्तरज्ञानकार्यस्य वितथाकाराभिनिवेशिन उत्पत्तेरेवा-२० विद्यावशात् तथाख्यातिरित्युच्यते, तस्याश्च योगाद्यभ्यासादसमर्थतरतमक्षणोदयक्रमतः प्रच्युतेः शुद्धतरसंवित्सन्तानप्रादुर्भावात् मुक्तिप्राप्तिरित्युपपन्नैव बन्धमोक्षव्यवस्थितिः । नित्यैकरूपे च ब्रह्मणि अवस्थाद्वयायोगात् न संसाराऽपवर्गों भवन्मते सम्भवतः। ब्रह्मणश्चैकत्वादेकस्य मुक्तौ सर्वेषां मुक्तिप्रसङ्गः अमुक्तौ वैकस्य सर्वेषाममुक्तिप्रसक्तिश्चाऽनिवार्या । न चात्मज्योतीरूपत्वेऽयोग्यवस्थायां किञ्चिदस्य प्रमाणं प्रसाधकमस्ति । यथा हि ज्ञानं स्वसंवेदनप्रसिद्धं प्रकाशात्मता २५ नैवं शब्दः सर्वसंविदि संवेद्यत इति प्रदर्शितम् । अथ अयोग्यवस्थायां ब्रह्मणो नात्मप्रकाशता अङ्गीक्रियते; नन्वेवमपि प्रागविद्यमान(ना)योग्यवस्थायां स(सा) प्रादुर्भवतीति सुस्थितं तस्य नित्यत्वम् !!!। निरातश्च पुरुषाद्वैतवादः प्रागिति समानन्यायत्वादयमपि तथैव निराकर्तव्य इत्यलमतिप्रसङ्गेन। १ तज्ञा-भां० मा० । तदशा-आ० वि०। २-संवेदिनविक्तका-आ० । ३-ग्रहःप्र-मां०। ४ “अथापि स्यात् यथा भवतां स्वप्नाद्यवस्थासु ज्ञानमद्वयमपि विचित्राकारपरिग्रहेण प्रतिभासते तथा तदद्वयमपि अविद्यावशात् अविशुद्धसन्ततीनां तथा प्रकाशते"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ. ७४ पं० १९। ५ "न हि तद्यतिरेकेण अन्ये केचित् अविशुद्धसन्ततयः सन्ति येषां तत् तथा प्रतिभासते"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ७४ पं० २१। ६-शात् तथा आ० हा. वि०। ७ "न हि नित्यैकरूपे ब्रह्मणि अविद्यात्मके"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ७४ पं० २७॥ ८-विद्यावशात भा०मा० बहिः । “अविद्यावशात् तथाप्रतिभासनम्"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ. ७५ पं० २। ९-वात् न वा-हा० वि०।-वात तथा व-भां० । “वस्तुधर्मस्य गत्यन्तराभावात् अन्यथा वस्तुत्वमेव न स्यात् । न च अवस्तुवशात् तथा तस्य ख्यातियुका अतिप्रसङ्गात्"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ७५ पं० ४। १०-स्या वस्थित ना-आ० । “तथाभूतस्य चार्थक्रियाकारिणः खभावस्य अवस्थितिनामकरणे"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ७५ पं० ५। ११-निवेशत उ-हा० वि०। १२-दर्भवान्मु-भां. आ. हा० वि०। १३-स्ति तथा भां० म०। १४-या नैव शष्टः आ० ।-या नैवं शाब्दः वि.। -या नैव शाब्दः हा०। १५ “एवमपि प्रागविद्यमानं तदात्मज्योतिष्ट्वमत्यक्तपूर्वरूपस्य ब्रह्मणः पश्चाद् योग्यवस्थायां कुतः संभूतमिति वाच्यम्"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ७५ पं० १६। १६ पृ० २८५५०६। १७ “प्रधानपरिणामेन समं च ब्रह्मदर्शनम् । तदूषणानुसारेण बोद्धव्यमिह दूषणम्"॥ तत्त्वसे० का० १५२ पृ. ७५। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ प्रथमे काण्डेयदपि 'अभेदेन सङ्केतकरणं शब्दार्थयोस्ताद्रूप्यं ख्यापयति' इत्युच्यते, तदप्ययुक्तम् ; नहि 'अयं घटः' इति घटशब्दस्य घटार्थता घटशब्दता(घटार्थस्य वा घटशब्दता) प्रकाश्यते किन्तु 'अयं घटशब्दवाच्यः घटार्थवाचको वा' इत्ययमत्रार्थः प्रकाशयितुमभिप्रेतः अन्यथा प्रत्यक्षप्रतीतिबाधितार्थप्रकाशकत्वेन इदमुन्मत्तकवचनवदनादरणीयं स्यात् । शब्दार्थयोश्च तादात्म्ये क्षुराऽग्नि-मोद५ कादिशब्दोच्चारणे आस्यपाटन-दहन-पूरणादिप्रसक्तिः अनवगतसमयस्याभिधानोपलब्धौ तदर्थस्य अर्थोपलब्धौ च तद्वाचकस्यावगतिप्रसक्तिश्च अन्यथा तादात्म्यायोगात् "निश्चीयमानानिश्चीयमानयोर्भेदान्निश्चायकं वाध्यक्षं परपक्षे" [ ___] इत्युक्तत्वात् । न च यो यत्प्रतिपादकः स तदात्मको धूमक्षा(धूमाश्या)दिभिर्व्यभिचारात् । न च शब्दस्य अर्थविशेषणत्वेन प्रतीतेस्तदात्मकता, देशभेदेन शब्दार्थयोरुपलब्धेः । न च भेदे तस्य तद्यवच्छेदकत्वमनुपपन्नम्, काका१० देर्भिन्नस्यापि गृहादिकं प्रति व्यवच्छेदकत्वप्रेतीतेः। तन्न शुद्धद्रव्यास्तिकाभिमतनामनिक्षेपो युक्ति युक्त इति भावनिक्षेपप्रतिपादकपर्यायास्तिकाभिप्रायः। [शब्दार्थयोरनित्यसम्बन्धवादिना स्वपक्षं समुद्धर्तुं मीमांसकसंमतनित्यसम्बन्धवादस्य निराकरणम्] अशुद्धद्रव्यास्तिकप्रकृतिव्यवहारनयमतावलम्बिनस्तु मीमांसका भिन्नानेव शब्दार्थसम्बन्धानित्यानाहुः-"औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन सम्बन्धः" [मीमां० १-१-५ पृ० ५] इति वचनात् । १५ औत्पत्तिकः' इति विरुद्धलक्षणया नित्यस्तैाख्यातः । नित्यत्वे च सम्बन्धस्य कृतकसम्बन्ध वादिनो येनाधगतसम्बन्धेन 'अयम्' इत्यादिना शब्देनाप्रसिद्धसम्बन्धस्य घंटादेः सम्बन्धः क्रियते तस्यापि यद्यन्येन प्रसिद्धसम्बन्धेन सम्बन्धः तदा तस्याप्यने(न्ये)नेति अनवस्थाप्रसक्तिरिति दोषः सः अकृतसम्बन्धवादिनोऽस्मान्न श्लिष्यतीत्ययुक्तवादिन एतेऽपीति भावनिक्षेपवादी पयोयास्तिकः । अयुक्तवादिता च नित्यवस्तुनः शब्दादेः कस्यचिदसम्भवादिति प्रतिपादितत्वावगन्तव्यो:२० (व्या) । अनवस्थादूषणमपि कृतकसम्बन्धपक्षप्रतिपादितमयुक्तमेव 'अयम्' इत्यादेः शब्दस्यानादिव्यवहारपरम्परातः सिद्धसम्बन्धत्वात्, तेनोनवगतसम्बन्धस्य घटादिशब्दस्य सङ्केतकरणाद् अकृतसम्बन्धवादिनोऽपि चानवस्थादोषस्तुल्य एव । तथाहि-अनभिव्यक्तसम्बन्धस्याभिव्यक्तसम्बन्धेन शब्देन यदि सम्बन्धाभिव्यक्तिः क्रियते तदा तस्यापि सम्बन्धाभिव्यक्तिरन्यतोऽभिव्यक्तसम्ब न्धादिति कथं नानवस्थादोषस्तुल्यः? यदि पुनः कस्यचित् स्वत एव सम्बन्धाभिव्यक्तिः अपरस्यापि २५ तथैवास्तु इति सङ्केतक्रिया व्यर्था । शब्दविभागाभ्युपगमे चास्मन्मतानुप्रवेशः प्रदर्शितन्यायेन । 'द्रव्य-पर्यायरूपमुभयमपि परस्परविविक्तमेकत्र विद्यते' इत्यभिप्रायो नैगमोऽशुद्धद्रव्यास्तिक प्रकृतिः । [सिद्धान्तिना शब्दस्य नित्यत्वानित्यत्वपक्षद्वयमाश्रित्य यथायथं द्रव्यार्थिकनिक्षेपरूप त्वव्यवस्थापनम् ] ३० कृतकत्वेऽपिशब्दस्य यत्र यत्र सङ्केतद्वारेण शब्दो नियुज्यते तत्र तत्र प्रतिपादकत्वेन प्रवर्तत इति १-बाधतार्थ-हा० वि० ।-वाधनार्थ-आ० । २ निश्चायमानीनिश्चायमानीनिनिश्चायमानयोर्भआनिश्चीयमानानिनश्चीयमानानिनश्चीयमानयोर्भ-वि०। ३-यकं चाध्य-मां। ४-मक्षोदिभिर्व्यमां०।-मक्षोदिभिचा-भां०। ५-प्रतीतिः आ० हा० वि० विना ।-प्रतीतेप्र० मा० बहिः। ६-नात् नुत्पआ. हा०वि०विना। ७ “घटादेः शब्दस्य संबन्धः क्रियते"-प्रमेयक० पृ० १२४ प्र. पं० ११ । तत्र चेयं टिप्पणी-"यथा प्रसिद्धसंबन्धेन घटशब्देन घट एव वाच्यस्तथा अप्रसिद्धसंबन्धेनापि घटशब्देन घट एव वाच्य इति"-टि. ४०। ८-द्यनेन आ० हा० वि० । ९-प्यनेनैति आ० हा०। १०-क अ-हा. वि. विना । ११ पृ. ३३ पं० २५। १२-व्याम् । आ०। १३ "अनादिपरम्परातोऽर्थमात्रे प्रसिद्धसंबन्धत्वात्"-प्रमेयक० पृ. १२४ द्वि. पं. ७ । अर्थमात्रे "पुरोवर्तिनि अनिर्धारितार्थे"-टि. ३२। १४-नानगत-आ० । “तेन अवगतसंबन्धस्य घटादिशब्दस्य संकेतकरणात्"-प्रमेयक० पृ० १२४ द्वि० पं० ७। तेन “अर्थेन सह"-टि० ३३ । १५-गमे वाआ. हा०। १६-स्य यस्य यत्र यत्र मां० ।-स्य यत्र सङ्के-आ० हा० वि० । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । ३८७ द्रव्यसाधाद् द्रष्यार्थिकनिक्षेपः शब्दः य(त)था द्रव्यार्थताया अपि सर्वत्राभ्युपगमाद्वाच्य-वाचकयो. नित्यत्वात् तत्सम्बन्धस्यापि नित्यता समस्त्येव सङ्केतश्च तदभिव्यक्तिरिति द्रव्यार्थिकनिक्षेपः शब्दः। _ [२ स्थापनानिक्षेपः] [स्थापना व्याख्याय मुख्य-प्रतिनिध्योर्भेदाभेदपक्षद्वयेऽपि तस्या द्रव्यार्थिकनिक्षेपरूपत्वव्यवस्थापनम् ] सङ्केताभिधानस्यार्थस्य प्रतिकृतिप्रकल्पना स्थापनेति यद् वस्तु सद्भूताकारेण स्थाप्यत इति णिजन्तात् कर्मणि धु(यु)प्रत्ययः । सापि द्रव्यार्थिकस्य निक्षेपः मुख्य प्रतिनिधिविभागाभावात् सदविशेषात् सर्वस्य मुख्यार्थक्रियाका(क)रणात् अन्यथोपयाचितादेस्ततोऽसिद्धिप्रसक्तेः तन्निमित्त. द्रव्यादिविनियोगव्यवहाराभावप्रसक्तेश्च मुख्यपदार्थरूपत्वात् स्थापनाया द्रव्यार्थत्वात् । अथवा अध्यवसायोपरचितमेव स्थापनायास्तदेकत्वम् न पुनर्वास्तवम् अन्यथा मुख्य-प्रतिनिधिविभागाभा-१० वप्रसक्तेस्तद्रपोपलक्षकत्वाभावप्रसक्तेश्च । नाभेदे उपलक्ष्योपलक्षकभाव उपपन्नः। नापि भिन्नदेशकालचेतनाऽचेतनमुक्तादिविभागो न्यायानुगतो भवेदिति सर्वत्र सद्भावासद्भावरूपतया प्रवर्त्तमानत्वात् द्रव्यधर्मसद्भावादेकत्वाध्यवसायकृतमेव तस्या द्रव्यार्थत्वमिति द्रव्यार्थिकनिक्षेपः स्थापना। [३ द्रव्यनिक्षेपः] [द्रव्यं व्याख्याय तत्र द्रव्यार्थिकनिक्षेपत्वभावनम्] द्रवति अतीताऽनागतपर्यायानधिकरणत्वेन अविचलितरूपं स(सत्) गच्छतीति ,व्यम् तच्च भूतभाविपर्यायकारणत्वात् चेतनमचेतनं वा अनुपचरितमेव द्रव्यार्थिकनिक्षेपः। [द्रव्यार्थिकनिक्षेपेण भावनिक्षेपसंमतस्य क्षणभङ्गस्य विस्तरेण अनेकधा निरासः] न च प्रतिक्षणविशरारुतया भावानां नित्यताऽसम्भवान्न द्रव्यार्थिकनिक्षेपः सत्य इति वक्तव्यम् निरन्वयनाशितायां प्रमाणानवतारात् । तथाहि-अध्यक्षम् अनुमानं वा ताहित्वेन प्रवर्तते नान्य-२० (अन्य )स्य प्रमाणत्वेन सौगतैरनभ्युपगमात् ? न तावदध्यक्षं क्षणक्षयितां भावानामवगमयितुमलम् प्रतिक्षणमुदयापर्वर्गसंसर्गितया भावानां तत्राप्रतिभासनात् । नहि प्रतिक्षणं त्रुट्यद्रूपतां बिभ्राणाः पदार्थमात्रास्तैत्रावभान्ति स्थिरस्थूररूपतया तेषां तत्र प्रतिभाससंवेदनात् । न चान्यादृग्भूतप्रतिभासोऽन्याहग्भूतार्थव्यवस्थापकः अतिप्रसङ्गात् । न च प्रतिक्षणं भिन्नस्वभावानुभवेऽपि सहशापरापरोत्पत्तिविप्रलम्भात् यथानुभवव्यवसायाँनुत्पत्तेः क्षणक्षयानुभवेऽपि स्थिरस्थूररूपाध्यवसाय२५ इति वक्तव्यम् प्रमाणाभावात् । न चान्यादृग्भूतार्थानुभवेऽन्यादृग्भूतार्थनिश्चयोत्पत्तिकल्पना ज्यायसी, नीलानुभवेऽपि पीतनिश्चयोत्पत्तिकल्पनायाः सर्वत्र प्रतिनियतार्थव्यवस्थितेरभावप्रसक्तः। [?? न च भावव्यतिरिक्तस्य वा सादृश्यस्यान्यथा सामान्यपक्षोक्तदोषस्यात्रापि प्रसक्तेः सम्भवः यतो निमित्तात् सदृशापरापरोत्पत्तिविभ्रमात् यथानुभवं विकल्पोत्पत्तिर्न भवेत् न वा सहशेष्वपि समानविकल्पजनकेषु दर्शनद्वारेण सदृशव्यवहारहेतुत्वमिति वक्तव्यम् नीलादिविशेषाणामप्यभाव-३० प्रसक्तेः । यथा हि परमार्थतोऽसदृशा अपि तथाभूतविकल्पोत्पादकदर्शनहेतवः सदृशव्यवहारभाजो १-निक्षेप श-हा.-निक्षेपः शब्द सङ्के-वि.। २ "ण्यासश्रन्थो युच्" ३।३।१०। सिद्धान्तकौ० प्र० ५७५ अं० ३२८४ । “णिवेत्त्यासश्रन्थघट्टवन्देरनः" ५।३।१११ । हेम। ३ सर्वस्य -र्थ-हा०। ४-याकर-प्र० मा० बहिः । ५ सद्भावरू-हा० । ६-त्वा द्र-आ० हा० वि० । -रूपं स च्छ-आ० हा०वि०।-रूप गच्छ-मां०1८ द्रष्टव्यम् आ० हा० वि०। ९ “प्रत्यक्षमनुमानं वा प्रवर्तेत अन्यस्य प्रमाणत्वेन सौगतैरनभ्युपगमात्"-प्रमेयक पृ० १४४ द्वि. पं०९। १०-मात् तत्र न तथावद्ध्यक्षं प्र० भ० बहिः । ११-धर्गसर्गि-आ० हा० वि०। १२-स्तवाव-भां० ।-स्तदावभीति आ० ।-स्तदाचभीति हा० वि० । १३ "स्थिरस्थूलसाधारणरूपतयैव तत्र तेषां प्रतिभासनात्"-प्रमेयक. पृ. १४४ द्वि० पं०१०। १४ “न च अन्यादृग्भूतः प्रतिभासः"-प्रमेयक. पृ. १४४ द्वि. पं०११। १५-यादुत्प-मां० । “सदृशापरापरोत्पत्तिविप्रलम्भात् यथानुभवं व्यवसायानुपपत्तेः"-प्रमेयक. पृ. १४४ द्वि. पं० ११ । १६-त्पत्तिवि-आ०। १७ नचास-आ० । न स-मां०। १८-सक्त था हा० वि० । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ प्रथमे काण्डेभावाः तथा स्वयमनीलादिस्वभावा अपि नीलादिविकल्पोत्पादकदर्शननिमित्ततया नीलादिव्यवहारभाक्त्वं प्रतिपत्स्यन्त इति तेषामपि निःस्वभावताप्रसक्तिः। अत एव प्रतिक्षणं भिन्नस्वभावान् भावान् पश्यन्नपि “विषमज्ञ इव नावधारयति" [ ] इत्यभिधानं न युक्तम् । स्वयमद्वयखरूपाणामन्तयनिर्भासदर्शनाद् बहिरप्यनाविलाक्षविज्ञानानां खण्डशः प्रतिभासोपलब्धिः ५याथात्म्येनैवार्थप्रतिभासोऽनुभवैरित्येतस्यासिद्धेः विकल्पवशेने चाध्यक्षस्य प्रामाण्यव्यवस्था अन्यथा दान-हिंसाविरतचेतसामपि स्वर्गप्रापणशक्तेरध्यक्षत एवाधिगमव्यवस्थितेन तत्र विप्रतिपत्तिरिति तव्यदासार्थमनुमानप्रवर्त्तनम शास्त्रविरचनं वा वैयर्थ्यमनुभवेत् । विकल्पस्तु स्थिरस्थरार्था ध्यवसायात् प्रतीतिः कथमध्यक्षतः क्षणिकनिरंशे परमाणुस्वलक्षणे व्यवस्थायामेव सर्वविकल्पानामवस्तुविषयत्वमबाधितार्थ तथा विकल्पस्यावा(वस्तु)विषयत्वे अन्यथाभूतसंवेदनस्यानुपलक्षणाद् १० वस्तुव्यवस्थाभावप्रसक्तेः । संहृतसकलविकल्पावस्थायामश्वविकल्पनसमये एंव चक्षुःप्रणिधाना मन्तरं पुरोग्यवस्थितस्य गवादेर्विशदतया स्थिरस्थूररूपस्यैवानुभवात् अन्यथा भूतार्थप्रतिभासस्य कदाचिदप्यनुपलब्धेः नं च वस्तुनः प्रतिक्षणध्वंसित्वात् तत्सामर्थ्यबलोद्भूतेनाध्यक्षेण तद्रूपमेवानुकरणीयम् अन्यरूपानुकरणे असदर्थग्राहकत्वेन तस्य भ्रान्तताप्रसक्तेः क्षणपरिणामग्रीह्ये वाध्य क्षमिति वक्तव्यम् इतरेतराश्रयप्रसक्तेः-सिद्धे हि क्षणक्षयित्वे भावानां तत्सामर्थ्यभाविनोऽध्यक्षस्य १५ तद्रूपानुकरणं सिद्ध्यति तत्सिद्धौ च क्षणक्षयित्वं तेषां सिध्यतीति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । अपि च, क्षणस्थायित्वेऽपि भावानां यथास्वभावमनुभवः, उतान्यथेति चेत् वस्तुस्वभावानुभवनियमाभावात् कुत आशङ्काव्यावृत्तिरिति चक्षुरादिज्ञानं प्रतिकलमपरापरमेव वस्तुस्वभावमनभवति किन्तु विकल्पवासनाप्रभवाध्यवसायस्य तन्निश्चयं प्रत्यशक्तिरित्यसकतं नीलादिस्वभावेष्वप्यनाश्वासप्रसक्तिरित्यक्तत्वाच्च । तन्न क्षणक्षयिता भावानामध्यक्षावसेया। ??] २० नाप्यनुमानान्निश्चेतव्या, तत्र अध्यक्षावृत्तावनुमानस्याप्यनवतारात् । तथाहि-अध्यक्षाधिगत मविनाभावमाश्रित्य पक्षधर्मतावगमबलादनुमानमुदयमासादयतीति अध्यक्षानवगते तु विषये स्वर्गादाविवाध्यवसायफलस्यानुमानस्य(स्या)प्रवृत्तिरेव सौगतैरभ्युपगता। तथा चाचार्यः-"अष्टेऽर्थेऽर्थविकल्पनमात्रम्” [ ] इत्युक्तवान् । यदपि 'निर्हेतुको ध्वंसः पदार्थोदयानन्तरभावी देश-कालपदार्थान्तरमॅपेक्ष्य ? भवतस्तत्सापेक्षतया निर्हेतुत्वाभावप्रसक्तेः' इत्युक्तम् यतो २५ (तत्र) यदि नाम अहेतुकः प्रध्वंसस्तथापि यदैव मुद्गरव्यापारानन्तरमुपलब्धिगोचरस्तदैव तत्सद्भावोऽभ्युपगमनीयः भावोदयानन्तरं तु न कस्यचिदुपलम्भगोचरतामुपगच्छतीति कथं तदैवास्य सद्भावावगतिः? न च मुद्रादिव्यापारानन्तरमस्य दर्शनात् प्रागपि सद्भावः कल्पनीयः तथाकल्पने ह्यादौ तस्यादर्शनाद् मुद्गरव्यापारसमनन्तरमप्यभावप्रकृतिप्रसक्तिः(वप्रसक्तिः) विशेषाभावात् । न चान्ते क्षयदर्शनाद् आदावण्यसावभ्युपगन्तव्यः सन्तानेनानेकान्तात् । न च ३० मुद्रादिसंयोगादिकं कारणान्तरमनपेक्षमाणः पदार्थसत्तामात्रानुबन्धित्वात् ? तदुदयानन्तरमेव १-धारतीत्य-मा० । २-न बाध्य-आ० हा० वि०। ३-माण्याव्य-आ० हा०वि०। ४-वावस्थिआ. हा० वि०। ५-म् न च शा-भां० बहिः। ६-त् किं विक-मा०। ७ प्रततिः आ. हा. वि.। ८-याम व आ. हा० वि०। ९ “विकल्पोऽवस्तुनिर्भास इत्यस्य विरोधः"-प्रमेयक० पृ. ९ द्वि. पं. ४ । तथा तत्रैव 'अवस्तुनिर्भासः' “अवस्तुनि निर्भासः प्रतिभासो यस्य विकल्पस्य सः" टि. १६। "खलक्षणविषयत्वे च "विकल्पो वास्तनिर्भासादसंवादादुपप्लवः" । इति खवचनविरोधः"-अष्टस०पृ० १७० टि. १८। १० एवं च-हा०। ११ "न च अर्थस्य प्रतिविनाशित्वात् तत्सामर्थ्यबलोद्भूतेन अध्यक्षेणापि तद्रूपमेव अनुकरणीयमिति"-प्रमेयक. पृ. १४४ द्वि०पं. १४ । १२-ग्राह्ये चा-भां० मा० ।-ग्राह्यो वा-मां० बहिः। १३-सायेतस्य आ० हा० वि०। १४ "प्रत्यक्षाविषये तु स्वर्गादाविव अनुमानस्याप्रवृत्तिरेव"-प्रमेयक. पृ. १४४ द्वि. पं. १६ । १५-दृष्टार्थ र्थविक-हा। -दृष्टोर्थ यविक-आ० ।-दृष्टार्थविक-वि०। १६-तत्वान् भां. आ०। १७-मपेक्ष भ-आ. हा. वि. विना। १८-का तथा प्र-आ. हा० वि०। "किश्च, यदि नाम अहेतुको विनाशस्तथापि"-प्रमेयक. पृ० १४५प्र. पं०८। १९-द्भावं क-आ० । “प्रागपि सद्भावः कल्पनीयः प्रथमक्षणे तस्य अनुपलम्भात् मुद्गरादिव्यापारानन्तरमपि अभावानुषडातू"-प्रमेयक० पृ० १४५ प्र. पं०९। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३८९ सत्त्वमासादयतीति वक्तव्यम् । यतो यदि नाम भावसत्तामात्रानुवन्धिता नाशस्य तथापि न प्रति. भणध्वंसित्वं सिध्यति सत्ताया एव तथात्वेनानिश्चयात् । तथाहि-असावेकक्षणसंगता वा भवेत् , अनेकक्षणपरिगता वा? तत्र यद्याद्यः पक्षः स न युक्तः, तस्या एकैकक्षणावस्थानासिद्धः तदसिद्धी च तदनुबन्धिनः प्रध्वंसस्य कथं प्रतिक्षणभावित्वं निश्चेतुं शक्यम् । विशेषणाप्रतिपत्ती तद्विशेष्यस्य प्रतिपत्तुमशक्तेर्न क्षणिकसत्तामात्रानुबन्धित्वान्नाशस्योदयानन्तरभावित्वं सिद्धिमासादयति । अर्था-'५ (था)नेकक्षणस्थायिसत्तामात्रानुबन्धी ध्वंसः तथासति सत्तायाः क्षणान्तरावस्थानादक्षणिकतैव भावस्य न्यायादनुपतति अनेकक्षणस्थितिसत्तानुवन्धे प्रध्वंसस्यानेकक्षणस्थितिसत्तानन्तरं भावेन नंष्टव्यम् अन्यथा तथाभूतसत्तानुर्वन्धित्वयोगा( त्वायोगो) ध्वंसस्यति कथं क्षणिकत्वम् ? किञ्च, उदयानन्तरमेव भावानां ध्वंस इति कुतः प्रतीयते-किं मिन्नाभिन्नविकल्पाभ्यां ध्वंसस्याघटमानत्वात् आहोस्विदन्यतः प्रमाणादिति विकल्पद्वयम् । तत्र यद्याद्यः पक्षस्तदा नोदयानन्तरं ध्वंसः सिद्धिमा-१० सादयति यतो भिन्नाभिन्नविकल्पाभ्यां मुद्रादिनिरपेक्षि(क्ष)त्वं तस्य सिद्धिमासादयति न पुनर्जन्मान्तरं (न्मानन्तरं ) भावः। नहि निहंतुकस्य शशविषाणादेः पदार्थोदयानन्तरभावितोपलब्धा । अथ निर्हेतुकत्वे ध्वंसस्य सर्वदा भावात् कालाद्यपेक्षाऽसम्भवतः पदार्थादयानन्तरमेव भावःः नन्वेवं निर्हेतुकत्वे सर्वदा भावात् प्रथमे क्षणे एव भावप्रसक्तिोंदयानन्तरं सद्भावो ध्वंसस्य न ह्यनपेक्षत्वात् निर्हेतुकः क्वचित् कदाचिच्च भवति तद्भावस्य सापेक्षत्वं न(क्षत्वेन ) निर्हेतुकत्य-१५ विरोधादिति अभ्युपगतमेव एतत् सौगतैः । अथ स्वोत्पत्तिहेतुत एव पदार्था ध्वंसमासादयन्तीति प्रथमक्षण एव तेषां प्रध्वंसे न तथा(तदा) सत्तानुषङ्ग इति पदार्थाभावात् कुतः तत्प्रच्युतिलक्षणो ध्वंसः प्रथमक्षणे भवेत्, असदेतत्; यतो यदि भावहेतुरेव तत्प्रच्युतिहेतुस्तदा किमेकक्षणस्थायिभावहेतोस्तत्प्रच्युतिहेतुत्वम् , किं वानेकक्षणस्थायिभावहेतोरिति वक्तव्यम् । यद्याद्यः पक्ष स्तदोऽसिद्धम् एकक्षणस्थायिभावहेतुत्वस्याप्यसिद्धेः तत्कृतकत्वं तत्प्रच्युतेरसिद्धमेव । द्वितीयपक्ष २० तु 'क्षणिकताऽभावः' इति प्रतिपादितं प्राक् । किञ्च, यदि भावहेतुरेव तत्प्रच्युतिहेतुरभ्युपगम्यते तदा वक्तव्यं किं भावजननादसौ प्राक् तत्प्रच्युतिं जनयति, आहोस्विदुत्तरकालम् , उत समानकालम् ? यद्याद्यः पक्षस्तदा प्रागभावः प्रच्युतिर्भवेन्न प्रध्वंसाभावः । अथ द्वितीयस्तथासति भावप्रभववेलायां तत्प्रच्युतिर्नोत्पन्नेति न भावहेतोस्तस्या उत्पत्तिरिति न भावहेतुस्तद्धेतुः। एवं चोत्तरोत्तरकालभाविभावपरिणतिमपेक्ष्योपजायमाना तत्प्रच्युतिः कथं भावोदयानन्तरभाविनी २५ स्यात् ? अथ तृतीयपक्षोऽभ्युपगमविषयस्तथापि भावोदयसमयभाविन्या प्रच्युत्या सह भावस्य प्रथमक्षणेऽवस्थानेनाविरोधान्न तत्सद्भावेऽपि सति भावेन नंष्टव्यमिति न कदाचिद् भावाभावसद्भावः । किञ्च, यद्यप्युदयानन्तरोदयवती तत्प्रच्युतिस्तथापि न तदैव मुद्रादिव्यापारानन्तरमिव प्रतीतिपथमवतरति किन्तु मुद्रादिव्यापारानन्तरमेव ततश्च प्रागनुपलब्धा मुद्रादिव्यापारानन्तरमुपलभ्यमाना पुनस्तभावेऽनुपलभ्यमाना तजन्यतयासी व्यवस्थाप्यते अन्यत्रापि हेतु-३० फलभावस्यान्वयव्यतिरेकानुविधानलक्षणत्वात् । न च मुद्गरव्यापारानन्तरं न प्रच्युतेरुपलम्भः किन्तु कपालसन्ततेरिति तदुद्य एव मुद्रादेापारः प्रच्युन्युपलब्धिस्तु विषयाभावादुपजा. यमाना वितथैवेति वक्तव्यम् यतो घटीदेः स्वरूपेणैवाधि(वि)कृतस्यावस्थाना(ने) पूर्ववदुपलब्ध्या १-ता नावंशस्य हा० । २-क्षणं ध्वं-आ० विना। ३-भावि श्चेतु श-हा० वि० ।-भावि स्था निश्चेतुं श-आ०। ४-बन्धि ध्वं-आ० हा० वि०। ५ ध्वंस ति सत्ता-वि० । ध्वंस त्ति सत्ता-मां । वंसनाहा। इ-बन्धित्वंयो-मां० विना। ७-सस्य ति क चं क्ष-हा०। ८-न्मान्तरभा-आ० ।-मान्तराभाभां. मां० । “प्रथमविकल्पे तु भिन्नाभिन्न विकल्पाभ्यां मुद्गराद्यनपेक्षत्वमेव अस्य स्यात् न तु उदयानन्तरं भावः"पृ. १४५प्र. पं० ११। ९ "तथाभावस्य सापेक्षत्वेन अहेतुकत्वविरोधिना सहेतुकत्वेन व्याप्तत्वात् तथा सौगतैरपि अ. भ्युपगमात्"-प्रमेयक पृ० १४५ प्र. पं० १३ । १० "ननु प्रथमक्षणे एव तेषां ध्वंसे सत्त्वस्यैव असंभवात् कुतस्तत्प्रच्युतिलक्षणो ध्वंसः स्यात् ? ततः ख हेतोरेव अर्था ध्वंसखभावाः प्रादुर्भवन्तीत्यप्यविचारितरमणीयम् यतो यदि"-प्रमेयका पृ० १४५ प्र. पं० १४ । ११ “प्रथमपक्षोऽयुक्त एव क्षणस्थायिभावहेतुत्वस्य अद्यापि असिद्धेः"-प्रमेयक पृ० १४५ द्वि. पं० २। १२-न तद्भा-मा०। १३ यदप्युदयानन्त-आ० । १४-टादेऽस्व-वि०।-टादेस्व-आ. हा.। "घटादेः खरूपेण अविकृतस्यावस्थाने पूर्ववदुपलन्ध्यादिप्रसङ्गात्"-प्रमेयक० पृ. १४५ द्वि.पं. ७॥ ५० स० त. Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० प्रथमे काण्डेदिप्रसक्तिर्भवेत् । न च तस्य तदा स्वयमेवाभावान्नोपलब्ध्यादिरिति वक्तव्यम् यतः सोऽपि तदभावस्तदैव मुद्रादिव्यापारानन्तरमुपलभ्यते अन्यदा तु नोपलभ्यत इति कथं न तत्कार्यः ? अथ न भावाभावो भावस्वरूपादन्यः केवलं कल्पनाविषयत्वादसदेवासौ (?) व्यवहारपथमवतार्यते; नन्वेवं भावप्रच्युतेः काल्पनिकत्वे भावानामपि काल्पनिकत्वमपरिहार्यम् यतो लाक्षणिको ५विरोधो नील-पीतादेः परैरभ्युपगतः वस्तुस्वरूपव्यवस्थापकं च लक्षणं तन्निमित्तो विरोधो लाक्षणिक उच्यते भावप्रच्युतिश्च लक्षणं यतो नीलस्य विरोधो नीलप्रच्युत्या तद्विरोधे च पीतादीनामपि तत्प्रच्युतिव्याप्तानां तेन विरोधस्तथा च प्रमाणं नीलपरिच्छेदकत्वेन प्रवृत्तं नीलप्रच्युति तयाप्तांश्च पीतादीन् व्यवैच्छिन्ददेव स्वपरिच्छेद्यं नीलं परिच्छिनत्तीत्यभ्युपगमः । स च शशविषाणस्येव भावाभावकाल्पनिकत्वाभ्युपगमे कथं मु(यु)क्तिसङ्गतः? नहि शशविषाणप्रख्यस्य १० भावाभावस्य भावविरुद्धत्वम् पीतादिव्यापकत्वं वा प्रमाणा(ण)विषयत्वेन व्यवस्थापयितुं शक्यम् यतस्तस्य प्रतिनियतपदार्थव्यवस्थाहेतुत्वं भवेत् । न च विनाशस्य मुद्रादिजन्यत्वमसिद्धम् विरोधिरूपतया लोकस्थित्या मुद्रादीनां तत्कारणत्वव्यवस्थापनात् । तथाहि-न परैः कणभुगमतानुसारिभिरिव कार्यकारणभावात् पृथग् विरो धाख्यः सम्बन्धोऽभ्युपगम्यते यतस्तैर्मुद्गरादिजन्यस्य विनाशस्य (?) तदतद्रूपत्वेनासम्भवाद् विनाशस्य १५च तदतत्स्वभावतया विनाशविषयत्वमपाकृत्य घटक्षणो मुद्रादिकं विनाशकारणत्वेन प्रसिद्धमपेक्ष्य समानक्षणान्तरोत्पादनेऽसमर्थक्षणान्तरमुत्पादयति तदपि तदपेक्षमपरमसमर्थतरम् तदप्युत्तरं तदपेक्षस(क्षमस)मर्थतमं यावद् घटसन्ततेर्निवृत्तिः अन्यत्रापि सर्वत्रैवमेव विरोधित्वं प्रतिपादितं परैः एतदभ्युपगमे च क्षणस्यासमर्थक्षणान्तरजनकत्वेनाभ्युपगतस्य मुद्रादेः सकाशात् कश्चित् सामर्थ्य विघातोऽभ्युपगन्तव्यः अन्यथाऽसमर्थक्षणान्तरजनकत्वमेवानुपपन्नं भवेत् । न च मुद्रा. २० द्यपेक्षस्य घटक्षणस्य शक्तिव्यावृत्तिः स्वत एव व्यावतमानस्त्वसौ मुद्गराद्यभावे समानक्षणान्तरो. त्पादकमपरं समर्थ जनयति तत्सद्भावे त्वसमर्थक्षणानन्त(णान्त)रम् न तु मुद्गरायेपेक्षातस्तस्य कश्चित् सामर्थ्य विघात इति वक्तव्यम् यतो मुद्रादिसन्निपाते तजनकस्वभावाव्याहतौ समर्थक्षणाम्तरोत्पादप्रसक्तिः समर्थक्षणान्तरजननस्वभावस्य कारणपरम्परायातस्य भावात् प्राक्तनक्षणस्येव नहि तस्य स्वनिरोधादन्यज(ज)नकत्वम् स च हेतुतः समर्थजननस्वभावो भूत्वा खयमेव न भूतो २५ मुद्गरादिना च न तस्य कश्चिच्छक्तिप्रतिघातो विहित इति । यद्यप्यपरकारणान्तरसन्निधानात् कार्य वैलक्षण्येनैवोत्पत्तुमिच्छति [?? तथापि प्राक्तनघटक्षणस्य तत्स्वभावत्वान्नत्वेवं कार्योत्पत्तिः स्थानान्यथेति न च स्वहेतुतो समर्थजननखभावस्य तस्योत्पत्तेर्नायं दोषः प्रथमक्षण एवं(व) सन्तत्युच्छेदप्रसक्तिः। अतो मुद्रादिव्यापारकालेऽपि यदि स्वहेतुत एव समानक्षणान्तरजननसामर्थ्य घटक्षणस्य समस्ति ततः सदृशक्षणान्तरोत्पत्तेर्मुद्रादिसन्निधानं व्यर्थम् । अथ स्वहेतुतः समान३० क्षणान्तराजननसमर्थो घटक्षणस्तथापि प्राक्तनक्षणादिवत् तत्क्षणादप्यपरक्षणान्तरजनकस्य समा. नक्षणोत्पत्तेर्व्यापारवन्मुद्गरसन्निधिय॑र्थ एव । एतञ्च खहेतुतो भावस्य नश्वरस्वभावत्वे न किश्चिन्नाशहेतुना अनश्वरस्वभावत्वेऽपि 'सुतराम्' इति वदता परेण दूषणमभ्युपगतमेव । १-यमेव भा-आ. विना। “न चास्य तदा स्वयमेवाभावात्”-प्रमेयक. पृ० १४५ द्वि. पं० । २-स्सदा च मां० । ३-वच्छेदादेव स्व-हा० वि० ।-वच्छेदादे स्व-आ०। ४-णस्यैव भ. विना । ५ भावका-भां० । भावाभावप्रमाणाविषयत्वे का-वि०। ६-त्या मुद्रादीनां हा०। ७ तत्कर-आ। ८-दूपावनासम्भ-हा० वि०। ९-स्य तदतत्खभा-हा० वि० ।-स्य तदत्स्वभा-आ०। १० “अथ घट एव मुद्रादिकं विनाशकारणत्वेन प्रसिद्धमपेक्ष्य समानक्षणान्तरोत्पादनेऽसमर्थ क्षणान्तरमुत्पादयति तदपि अपेक्ष्य अपरमसमर्थतरम् तदपि उत्तरमसमर्थतमम् यावद् घटसन्ततेर्निवृत्तिरित्युच्यते । ननु चात्रापि घटक्षणस्य असमर्थक्षणान्तरोत्पादकत्वेन अभ्युपगतस्य मुद्रादिना कश्चित् सामर्थ्य विधातो विधीयते वा न वा ? प्रथमविकल्पे कथमभावस्य अहेतुकत्वम् । द्वितीयवि. कल्पे तु मुद्रादिसनिशते तज्जनकखभावाऽव्याहतो समर्थक्षणान्तरोत्पादप्रसनः समर्थक्षणान्तरजननखभावस्य भावात् प्राकनक्षणवत्"-प्रमेयक पृ. १४५ द्वि. पं. ८। ११-रसमर्थ-मा० ।-रमर्थतर-आ०। १२-धमपे-आ० । १३-रणं प-मां० ।-रणाप-आ• हा०वि०। १४-म् स्वहे-मा० बहिः। १५-तुतोम जन-आ०। १६-दि. पत् तस-हा०वि०।-दित् तत्क्ष-आ०। १५-सहे-आ० हा०वि० विना । । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । ३९१ ने चाकिञ्चित्करस्यापि मुद्गरोदेः खहेतुमन्निर्हेतुसन्निधिबलायातत्वाद् घटक्षणस्यासमर्थक्षणान्तरजननकालेनोपा(प)लम्भविषयता यत एवानेकस्यैव क्षणघटस्य विलक्षणक्षणान्तरोत्पादकत्वाभ्युपगमप्रसक्तिः स्यात् । ऐवं च मुद्रादेर्न विरोधित्वम् विनाशस्याहेतुकत्वात् । नापि जनकत्वं पूर्वोक्तदोषप्रसक्तेरिति विलक्षणसन्तत्युत्पादे सन्तानोच्छेदे वा मुद्गरादेरन्वय-व्यतिरेकाननुविधानप्रसक्तितो नाच्यादीनां दहनादिकार्ये लोकस्योपादानं भवेत् । न च परमार्थकत्वस्याभावे घटादीनां ५ मुद्रादिव्यापारानन्तरमनुपलब्धिर्भवेत् । न च पूर्वसन्तानोच्छेदाद् विलक्षणसन्तानोत्पत्तेश्च तदा घटानुपलब्धिरिति वक्तव्यम् विलक्षणसन्तत्युत्पादस्य प्राक्तनन्यायेनाभावात् पूर्वसन्ततिनिवृत्तेरपि विवर्त्तमानेभ्योऽनन्तरत्वात् तथैवोपलब्ध्यादिप्रसक्तेः तदा तस्य खरूपक्षतेरभावात् । न च न तदा तस्य स्वरूपप्रच्युतिरुत्पद्यते किन्तु तस्यैकक्षणावस्थायित्वेन तदाऽभवनमिति नोपलम्भः यतः स्वरूपादप्रच्युतस्य नाभवनं नाम किश्चित् तत्सद्भावाभ्युपगमे वा कथं न स्वरूपप्रच्युतिस्ततो-१० ऽर्थान्तरभूतोत्पत्तिमती? अथ स एव न भवति न तु तस्यापरं सत्त्वम् न तु तदेवेदं पुना रूपाभवनमभिधीयते, तत्र च तदेवोत्तरम् । तस्माद् विनाशहेतुव्यापारानन्तरा(रं) पदार्थस्यासद्यवहारं विदधता तद्यतिरिक्तार्थान्तरंग्रहणमभ्युपगन्तव्यम् न तु तदग्रहणमात्रम् अन्यथा तस्याभावानिश्चयेक्तन्यादिव्यवहितस्य सद्यवहारनिषेध एव स्यात् नासद्यवहारप्रवर्त्तनम् यतो न कश्चिदभावानिश्चये तत्स्वरूपाग्रहणे वानुपलब्ध्योर्विशेषः येनैकत्रासद्यवहारप्रवृत्तिः अन्यत्र सयवहार-१५ निषेधमात्रौत् किंत्वभावोत्पत्तेः प्राग्भावस्याभावनिश्चय(ये) तदुत्पादककारणोपादानं कुर्वन्त उपलभ्यन्ते प्रेक्षापूर्वकारिणः। तदुत्पत्तौ च निवृत्तव्यापारा विनाशकहेतुव्यापारानन्तरं च स्वरूपातिरिक्तं पदार्थान्तरमवगत्य शत्रुध्वंसे सुखभाजो मित्रप्रक्षये तु दुःखानुषक्ता उपलभ्यन्ते । न च मित्रसद्भावो दुःखहेतुः प्रतीतः नापि शत्रुसद्भावः सुखजनक इति तद्यतिरिक्तोऽभावस्तजनकोऽभ्युपगन्तव्यः। न च मित्राऽमित्राभावे च न दुःख-सुखे विहितोत्तरत्वात् । न चाभावस्य २० भवितृत्वे भावरूपता अभावप्रत्ययविषयत्वेन भवितृत्वेऽप्यभावरूपत्वात् । यथा हि भवितृत्वेनाविशेषेऽपि धैट-पटयोस्तत्प्रतीतिविषयत्वेन तद्रूपता तथा भावाऽभावयोरपि तद्विषयात्(षयत्वात्) तद्रूपत्वे न किञ्चिद् दूषणमुत्पश्यामः । न वा भावस्य भवने विरोध एव दृषण(णम्) स्वरूपेऽबा. धितप्रत्ययविषये विरोधासिद्धेः अन्यथा सर्ववस्तुषु तत्सिद्धिप्रसक्तिः। तेन मुद्गरादिव्यापारात् प्राग् घटादेस्तवापारानन्तरमेव तस्या उपलब्धेः पदार्थात्मभूता प्रच्युतिः । अत एव तस्मिन्२५ 'गृहीतैव प्रमाणता' इति हेतोरसिद्धतेत्यपि न वाच्यम्, यतः किं घट एव प्रच्युतिः, उत कपाललक्षणं भ(भा)वान्तरम् , आहोस्वित् तदपरं पदार्थान्तरमिति विकल्पाः। तत्र यदि घटस्वरूपमेव प्रच्युतिस्तॉपरं तत्रामिधानान्तरं विहितम् घटस्वरूपं त्वविचलितं प्रतीयते कथं न नित्यम? अथैकक्षणस्थायि घटस्वरूपं प्रच्यतिरिति न घटस्य नित्यता; नन्वेकक्षणस्थायितया घटस्वरूपं न प्रतीतिगोचर इति कथं तस्य प्रच्युतिः? अथ कपालस्वरूपमेव घटप्रच्युतिस्तथापि प्राकपालप्रादु-३० १ न वा-आ० हा० वि०। २-रादे स्व-आ० । ३ क्षणे घ-मां०। ४ एवं मु-मा० हा० वि० । एव मु-आ०। ५-शस्य हे आ०। ६-क्षणांसंतत्युदसं-हा। ७-त्पादयं संतानोच्छे-वि० ।-त्पाद संततोच्छे-आ०। ८ पूर्वसंततिनिवृत्तैर-हा० वि० । पूर्वसंतिनिवृत्तैर-आ०। ९-स्य रू-आ० हा० वि० । १० तदा भ-आ० । ११ न नु त-आ०। १२ न नु तदेवेद पु-आ० । १३-शहेतुया-आ० । १४-हार विदधतां त-हा०।-हार विदधता त-वि० । १५-रमग्र-आ. हा० वि०। १६ तस्माभा-हा०वि०। १७-श्चयेत्कन्यादि-आ०।-श्चयेक्तव्यादि-हा०वि०। १८-न यता म कश्चि-आ०। १९-त्रात् किंच भा-मां० ।-त्रा किन्त्व भा-आ० हा० वि०। २० "किञ्च भावोत्पत्तेः प्राग्भावस्य अभावनिश्चये तदुत्पादककारणापादनं कुर्वन्तः प्रतीयन्ते प्रेक्षापूर्वकारिणः"-प्रमेयक० पृ० १४५ द्वि. पं० ११। २१-दकार-आ०। २२ इति त्पद्य-आ० । “ततस्तव्यतिरिक्तोऽभावस्त तुरभ्युपगन्तव्यः"-प्रमेयक० पृ. १४५ द्वि. पं० १३। तद्धेतुः “स मुद्रादिर्हेतुर्यस्य सः" इति तत्रैव टि. २८। २३-प्यभावाभाव-वि०। २४ घटयोस्त-मां. भा. हा.वि. विना। २५-त्यये विषेये विरो-हा. वि० ।-त्यये विषेय विरो-आ०। २६ तत्र मु-हा०बि०। २७-व्यति प्रच्युतित एष आ०। २८-यि स्व-आ. हा०वि०। २९ “अथैकक्षणस्थायि घटखरूपं प्रध्वंसा, न; एकक्षणस्थायितया तपस्याद्यापि अप्रसिद्धेः"-प्रमेयक• पृ. १४६ प्र. पं० १। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० प्रथमे काण्डेदिप्रसक्तिर्भवेत् । न च तस्य तदा स्वयमेवाभावान्नोपलब्ध्यादिरिति वक्तव्यम् यतः सोऽपि तदभावस्तदैव मुद्रादिव्यापारानन्तरमुपलभ्यते अन्यदा तु नोपलभ्यत इति कथं न तत्कार्यः? अथ न भावाभावो भावस्वरूपादन्यः केवलं कल्पनाविषयत्वादसदेवासौ (?) व्यवहारपथमवतार्यते; नन्वेवं भावप्रच्युतेः काल्पनिकत्वे भावानामपि काल्पनिकत्वमपरिहार्यम् यतो लाक्षणिको ५विरोधो नील-पीतादेः परैरभ्युपगतः वस्तुस्वरूपव्यवस्थापकं च लक्षणं तन्निमित्तो विरोधो लाक्षणिक उच्यते भावप्रच्युतिश्च लक्षणं यतो नीलस्य विरोधो नीलप्रच्युत्या तद्विरोधे च पीतादीनामपि तत्प्रच्युतिव्याप्तानां तेन विरोधस्तथा च प्रमाणं नीलपरिच्छेदकत्वेन प्रवृत्तं नीलप्रच्युति तयाप्तांश्च पीतादीन् व्यवच्छिन्ददेव स्वपरिच्छेद्यं नीलं परिच्छिनत्तीत्यभ्युपगमः । स च शशविषाणस्येव भावाभावकाल्पनिकत्वाभ्युपगमे कथं मु(युक्तिसङ्गतः? नहि शशविषाणप्रख्यस्य १० भावाभावस्य भावविरुद्धत्वम् पीतादिव्यापकत्वं वा प्रमाणा(ण)विषयत्वेन व्यवस्थापयितुं शक्यम् यतस्तस्य प्रतिनियतपदार्थव्यवस्थाहेतुत्वं भवेत् ।। न च विनाशस्य मुद्रादिजन्यत्वमसिद्धम् विरोधिरूपतया लोकस्थित्या मुद्रादीनां तत्कारणत्वव्यवस्थापनात् । तथाहि-न परैः कणभुग्मतानुसारिभिरिव कार्यकारणभावात् पृथग् विरो धाख्यः सम्बन्धोऽभ्युपगम्यते यतस्तैर्मुद्रादिजन्यस्य विनाशस्य (?) तदतद्रूपत्वेनासम्भवाद् विनाशस्य १५च तदतत्स्वभावतया विनाशविषयत्वमपाकृत्य घटक्षणो मुद्गरादिकं विनाशकारणत्वेन प्रसिद्धमपेक्ष्य समानक्षणान्तरोत्पादनेऽसमर्थक्षणान्तरमुत्पादयति तदपि तदपेक्षमपरमसमर्थतरम् तदप्युत्तरं तद. पेक्षस(क्षमस)मर्थतमं यावद् घटसन्ततेर्निवृत्तिः अन्यत्रापि सर्वत्रैवमेव विरोधित्वं प्रतिपादितं परैः एतदभ्युपगमे च क्षणस्यासमर्थक्षणान्तरजनकत्वेनाभ्युपगतस्य मुद्रादेः सकाशात् कश्चित् सामर्थ्य विघातोऽभ्युपगन्तव्यः अन्यथाऽसमर्थक्षणान्तरजनकत्वमेवानुपपन्नं भवेत् । न च मुद्रा२० द्यपेक्षस्य घटक्षणस्य शक्तिव्यावृत्तिः स्वत एव व्यावर्त्तमानस्त्वसौ मुद्राद्यभावे समानक्षणान्तरो. त्पादकमपरं समर्थ जनयति तत्सद्भावे त्वसमर्थक्षणानन्त(णान्त)रम् न तु मुद्राद्यपेक्षातस्तस्य कश्चित् सामर्थ्य विघात इति वक्तव्यम् यतो मुद्रादिसन्निपाते तजनकस्वभावाव्याहतौ समर्थक्षणान्तरोत्पादप्रसक्तिः समर्थक्षणान्तरजननस्वभावस्य कारणपरम्परायातस्य भावात् प्राक्तनक्षणस्येय नहि तस्य स्वनिरोधादन्यज(ज)नकत्व स च हेतुतः समर्थजननस्वभावो भूत्वा खयमेव न भूतो २५ मुद्गरादिना च न तस्य कश्चिच्छक्तिप्रतिघातो विहित इति । यद्यप्यपरकारणान्तरसन्निधानात् कार्य वैलक्षण्येनैवोत्पत्तुमिच्छति [?? तथापि प्राक्तनघटक्षणस्य तत्स्वभावत्वान्नत्वेवं कार्योत्पत्तिः स्यान्नान्यथेति न च स्वहेतुतो समर्थजननखभावस्य तस्योत्पत्त यं दोषः प्रथमक्षण एवं(व) सन्तत्युच्छेदप्रसक्तिः। अतो मुद्गरादिव्यापारकालेऽपि यदि स्वहेतुत एव समानक्षणान्तरजननसामर्थ्य घटक्षणस्य समस्ति ततः सदृशक्षणान्तरोत्पत्तेर्मुद्रादिसन्निधानं व्यर्थम् । अथ स्वहेतुतः समान ३०क्षणान्तराजननसमर्थों घटक्षणस्तथापि प्राक्तनक्षणादिवत् तत्क्षणादप्यपरक्षणान्तरजनकस्य समा नक्षणोत्पत्तेापारवन्मुद्गरसन्निधिर्व्यर्थ एव । एतच्च स्वहेतुतो भावस्य नश्वरस्वभावत्वे न किश्चिन्नाशहेतुना अनश्वरस्वभावत्वेऽपि 'सुतराम्' इति वदता परेण दूषणमभ्युपगतमेव । १-यमेव भा-आ० विना। "न चास्य तदा खयमेवाभावात्"-प्रमेयक० पृ. १४५ द्वि० पं० । २-स्तदा च मां०। ३-वच्छेदादेव स्व-हा० वि० ।-वच्छेदादे स्व-आ०। ४-णस्यैव भां. विना। ५ भावका-भां० । भावाभावप्रमाणाविषयत्वे का-वि०। ६-त्या मुद्गरादीनां हा०। ७ तत्कर-आ०। ८-दूपावनासम्भ-हा० वि०। ९-स्य तदतत्खभा-हा० वि० ।-स्य तदत्स्वभा-आ०। १० “अथ घट एव मुद्रादिकं विनाशकारणत्वेन प्रसिद्धमपेक्ष्य समानक्षणान्तरोत्पादनेऽसमर्थ क्षणान्तरमुत्पादयति तदपि अपेक्ष्य अपरमसमर्थतरम् तदपि उत्तरमसमर्थतमम् यावद् घटसन्ततेर्निवृत्तिरित्युच्यते । ननु चात्रापि घटक्षणस्य असमर्थक्षणान्तरोत्पादकत्वेन अभ्युपगतस्य मुद्रादिना कश्चित् सामर्थ्य विघातो विधीयते वा न वा ? प्रथमविकल्पे कथमभावस्य अहेतुकत्वम् । द्वितीयविकल्पे तु मुद्रादिसन्निपाते तज्जनकखभावाऽव्याहतौ समर्थक्षणान्तरोत्पादप्रसङ्गः समर्थक्षणान्तरजननखभावस्य भावात् प्राक्तनक्षणवत्"-प्रमेयक० पृ. १४५ द्वि. पं० ८। ११-रसमर्थ-मां० ।-रमर्थतर-आ०। १२-द्यमपे-आ० । १३-रणं प-मां० ।-रणाप-आ० हा० वि०। १४-म् स्वहे-मां० बहिः। १५-तुतोमर्द्धजन-आ०। १६-दि. पत् तक्ष-हा०वि०।-दित् तत्क्ष-आ०। १७-श्व सहे-आ० हा. वि. विना। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३९१ ने चाकिञ्चित्करस्यापि मुद्गरोदेः स्वहेतुमन्निर्हेतुसन्निधिबलायातत्वाद् घटक्षणस्यासमर्थक्षणान्तरजननकालेनोपा(प)लम्भविषयता यत एवानेकस्यैव क्षणघटस्य विलक्षणक्षणान्तरोत्पादकत्वा. भ्युपगमप्रसक्तिः स्यात् । एवं च मुद्गरादेर्न विरोधित्वम् विनाशस्याहेतुकत्वात् । नापि जनकत्वं पूर्वोक्तदोषप्रसक्तेरिति विलक्षणसन्तत्युत्पादे सन्तानोच्छेदे वा मुद्रादेरन्वय-व्यतिरेकाननुविधानप्रसक्तितो नाग्यादीनां दहनादिकार्ये लोकस्योपादानं भवेत् । न च परमार्थकत्वस्याभावे घटादीनां५ मुद्रादिव्यापारानन्तरमनुपलब्धिर्भवेत् । न च पूर्वसन्तानोच्छेदाद् विलक्षणसन्तानोत्पत्तेश्च तदा घटानुपलब्धिरिति वक्तव्यम् विलक्षणसन्तत्युत्पादस्य प्राक्तनन्यायेनाभावात् पूर्वसन्ततिनिवृत्तरपि विवर्त्तमानेभ्योऽनर्थान्तरत्वात् तथैवोपलब्ध्यादिप्रसक्तेः तदा तस्य स्वरूपक्षतेरभावात् । न च न तदा तस्य स्वरूपप्रच्युतिरुत्पद्यते किन्तु तस्यैकक्षणावस्थायित्वेन तदाऽभवनमिति नोपलम्भः यतः स्वरूपादप्रच्युतस्य नाभवनं नाम किञ्चित् तत्सद्भावाभ्युपगमे वा कथं न स्वरूपप्रच्युतिस्ततो-१० ऽर्थान्तरभूतोत्पत्तिमती? अथ स एव न भवति न तु तस्यापरं सत्त्वम् न तु तदेवेदं पुना रूपाभवनमभिधीयते, तत्र च तदेवोत्तरम् । तस्माद् विनाशंहेतुव्यापारानन्तरा(रं) पदार्थस्यासद्यवहार विदधता तद्यतिरिक्तार्थान्तरंग्रहणमभ्युपगन्तव्यम् न तु तदग्रहणमात्रम् अन्यथा तस्याभावानिश्चयेक्तन्यादिव्यवहितस्य सद्यवहारनिषेध एव स्यात् नासद्यवहारप्रवर्त्तनम् यतो न कश्चिदभावानिश्चये तत्स्वरूपाग्रहणे वानुपलब्ध्योर्विशेषः येनैकत्रासद्यवहारप्रवृत्तिः अन्यत्र सद्यवहार-१५ निषेधमात्रीत् किंवैभावोत्पत्तेः प्राग्भावस्याभावनिश्चय(ये) तदुत्पादककारणोपादानं कुर्वन्त उपलभ्यन्ते प्रेक्षापूर्वकारिणः। तदुत्पत्तौ च निवृत्तव्यापारा विनाशकहेतुव्यापारानन्तरं च स्वरूपातिरिक्तं पदार्थान्तरमवगत्य शत्रुध्वंसे सुखभाजो मित्रप्रक्षये तु दुःखानुषक्ता उपलभ्यन्ते । न च मित्रसद्भावो दुःखहेतुः प्रतीतः नापि शत्रुसद्भावः सुखजनक इति तद्यतिरिक्तोऽभावस्तजनकोऽभ्युपगन्तव्यः। न च मित्राऽमित्राभावे च न दुःख-सुखे विहितोत्तरत्वात् । न चाभावस्य २० भवितृत्वे भावरूपता अभावप्रत्ययविषयत्वेन भवितृत्वेऽप्यभावरूपत्वात् । यथा हि भवितृत्वेनाविशेषेऽपि घेट-पटयोस्तत्प्रतीतिविषयत्वेन तद्पता तथा भावाऽभावयोरपि तद्विषयात(षयत्वात् ) तद्रूपत्वे न किञ्चिद् दूषणमुत्पश्यामः। न वा भावस्य भवने विरोध एव दृषण(णम्) स्वरूपेऽबाधितप्रत्ययविषये विरोधासिद्धेः अन्यथा सर्ववस्तुषु तत्सिद्धिप्रसक्तिः। तेन्न मुद्रादिव्यापारात् प्राग् घटादेस्तद्यापारानन्तरमेव तस्या उपलब्धेः पदार्थात्मभूता प्रच्युतिः । अत एव तस्मिन् २५ 'गृहीतैव प्रमाणता' इति हेतोरसिद्धतेत्यपि न वाच्यम्, यतः किं घट एव प्रच्युतिः, उत कपाललक्षणं भ(भा)वान्तरम् , आहोस्वित् तदपरं पदार्थान्तरमिति विकल्पाः । तत्र यदि घटस्वरूपमेव प्रच्युतिस्तपरं तत्राभिधानान्तरं विहितम् घटस्वरूपं त्वविचलितं प्रतीयते कथं न नित्यम् ? अथैकक्षणस्थायि घटस्वरूपं प्रच्युतिरिति न घटस्य नित्यता; नैन्वेकक्षणस्थायितया घटस्वरूपं न प्रतीतिगोचर इति कथं तस्य प्रच्युतिः? अथ कपालस्वरूपमेव घटप्रच्युतिस्तथापि प्राक्कपालप्रादु-३० १ न वा-आ० हा० वि०। २-रादे स्व-आ०। ३ क्षणे घ-मां०। ४ एवं मु-मां० हा० वि०। एव मु-आ०। ५-शस्य हे-आ०। ६-क्षणांसंतत्युदसं-हा०। ७-त्पादयं संतानोच्छे-वि० ।-त्पाद संततोच्छे-आ० । ८ पूर्वसंततिनिवृत्तैर-हा० वि० । पूर्वसंतिनिवृत्तैर-आ०। ९-स्य रू-आ० हा० वि० । १० तदा भ-आ० । ११ न नु त-आ०। १२ न नु तदेवेद पु-आ० । १३-शहेतुा -आ० । १४-हार विदधतां त-हा०।-हार विदधता त-वि० । १५-रमन-आ० हा० वि० । १६ तस्माभा-हा०वि०। १७-श्वयेत्कन्यादि-आ०।-श्चयेक्तव्यादि-हा०वि०। १८-न यता म कश्चि-आ० । १९-त्रात किंच भा-मां० ।-त्रा किन्त्व भा-आ० हा० वि०। २० "किश्च भावोत्पत्तेः प्राग्भावस्य अभावनिश्चये तदुत्पादककारणापादनं कुर्वन्तः प्रतीयन्ते प्रेक्षापूर्वकारिणः"-प्रमेयक पृ० १४५ द्वि. पं० ११। २१-दकार-आ० । २२ इति त्पद्य-आ० । “ततस्तद्यतिरिक्तोऽभावस्त तुरभ्युपगन्तव्यः"-प्रमेयक० पृ० १४५ द्वि० पं० १३। तद्धेतुः “स मुद्रादिर्हेतुर्यस्य सः" इति तत्रैव टि. २८ । २३-प्यभावाभाव-वि०। २४ घटयोस्त-मां. भा. हा.वि. विना। २५-खये विषेये विरो-हा. वि. -त्यये विषेय विरो-आ०। २६ तत्र मु-हा०बि०। २७-च्युति प्रच्यतित एष आ.। २८-यि स्व-आ. हा०वि०। २९ “अथैकक्षणस्थायि घटखरूपं प्रध्वंतः, न; कक्षणस्थायितया तपस्याद्यापि अप्रसिद्धेः"-प्रमेयक. पृ. १४६ प्र. पं०१। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ प्रथमे काण्डे - र्भावात् घटस्यावस्थितेः कालान्तरस्थायितैव घटस्य भवेन्न क्षणिकता । न च कपालरूपप्रच्युत्यभ्युपगमे मुद्गरादिव्यापारानन्तरमपि घटस्य ध्वंसः' इति पूर्ववदुपलब्ध्यादिप्रसङ्गः येतो न मुदिना घटरूपं क्रियते स्वहेतोरेव तस्य निष्पत्तेः । नाप्यसती स्वरूपप्रच्युतिरुत्पद्यते तत्र परैर्हेतुव्यापारानभ्युपगमात् यत् तु कपालादिषु मुद्गरादिना निष्पाद्यत इति अभ्युपगतम् न तस्य ५ विरोधान हेतुत्वं कुंड्या देरिवेति कथं न प्रागिवोपलब्ध्यादिकं भवेत् अथ स पत्र न तदा न तेन नित्यता न चोपलध्ध्यादिकं स्व (दिकस्व) कार्यका (क) रणम्, नैतदेवम्ः यतः 'सः' 'न' इतिशब्दयोः किं भिन्नार्थत्वम् आहोस्विदेकार्थत्वमिति वक्तव्यम् । यदि भिन्नार्थता कथं न 'नश्र्'शब्दवाच्यः पदार्थान्तरमभावोऽभ्युपगतो भवेत् । अभिन्नार्थत्वे तु पूर्वमपि 'मंत्र' प्रयोगप्रसक्तिः, न चानुपलम्भे सति 'नत्र प्रयोगाभ्युपगम इति वक्तव्यम् यतो व्यवधानाद्यभावे स्वैरूपादप्रच्युतस्य १० तस्यैवानुपपत्तिर्भवेत् । अथ स्वरूपात् प्रच्युतिः कथं न कपालकाले मुद्गरादिहेतुकं भावान्तरं प्रच्युतिर्भवेत् ? ? ? ] [?? अथ कपालकाले घट विनाशा (नाशान) भ्युवर्गेमे स्वभावत एव घटस्याविनश्वरस्य परतोऽपि नाशासम्भवतो यः स्वभावो घटस्य प्रथमक्षणात् क्रियकालावस्थानोत्तरकालविनाशलक्षणस्तस्य मुद्रदिसन्निधानकालेऽपि भावात् अभावे वा स्वभावनानात्वा (त्वात्) क्षणिकत्वप्रसक्तेः पुनरपि ताव१५ कालमव स्थानमनुभूय तेन (तेन न ) नंपुष्ये मिति घटादेः कीटस्थ्यप्रसङ्गः । विनाशहेतुस्व (स्त्व) भावस्याकिञ्चित्करतयाऽनपेक्षणीयः न हासौ भावमेव करोति कृतस्य करणायोगात् । न च भावान्तरं करोति तत्करणेऽपि भावस्य किं सञ्जातमिति तथोपलब्ध्यादिप्रसङ्गात् । न च तस्य तेन सम्बन्धो येन 'तस्यायं विनाशः' इति व्यपदेशभाग् भवेत् तयोरुपकार्योपकारकभावाभावात् तदभावे च पारमार्थिकसम्बन्धायोगात् । यदि पुनर्भावान्तरं विना स्वयमेव क्रियते विनाश हेतु बैक (फ) ल्यम् २० स्वत एव तस्य तत्करणसमर्थत्वात् अन्यापेक्षानुपपत्तेः असमर्थत्वेऽन्य सन्निधानेऽपि करणानुपपत्तर्न भावान्तरमपि विनाशहेतु निर्वर्त्यम् । अभावकरणेऽपि पर्युदासपैक्षेऽयमेव दोषः । प्रसज्यपक्षे भावं करोतीति क्रियाप्रतिषेधमात्रमेव । तत्र च तद्धेतुरकिञ्चित्कर एवेत्यनपेक्षणीयः स्यात् तस्य निर्हेतुकत्वात् स्वरसनो भवन्नभावो भावस्य पावकोष्णत्ववन्न कालान्तरभावीति, असदेतत्; हेतुतः साध्यसिद्धेः प्रत्यक्षस्य च क्षणिकत्वग्राहकत्वेनाप्रवृत्तेः न तत्प्रतिबद्धत्वेन हेतुर्निश्चित २५ इत्युक्तत्वात् अहेतुकत्वेऽपि च नाशस्य जन्मान्त ( जन्मानन्त ) रभावित्वं नित्यस्यापि प्राक् प्रति'पादितत्वात् । न च पावकोष्णत्वदृष्टान्तस्तत्र सम्भवी प्रथमक्षणेऽपि भावध्वंसप्रसक्तेः तद्वदेवेत्यस्याप्यभिहितत्वात् । न च क्षणावस्थितिलक्षणस्य विनाशस्य तदैवेष्टत्वाददोषः, कालान्तर स्थायित्वस्यापि स्वभावत एव सम्भवाद् विशेषाभावात् । तथाहि पेंतदपि वकुं शक्यम् - कालान्तरस्थायी स्वहेतोरेव भाव उत्पन्नः न तद्भावे भावान्तरमपेक्षतो (ते) ऽग्निरे (रि) वोष्णत्व इति किं ३० न स्वत एव स्थिरस्वभावो भावो भवेत् ? न चैवं कौटस्थ्यप्रसङ्गः क्षणिकपक्षेऽप्यस्य समानत्वात् । १- गलादि- मां० । २ यतो मु-आ० हा० वि० । ३ कुतश्वादेरवेति आ० । ४ कथं प्रा-मां० आ० हा ० वि० विना । ५-बध्यादिकं स्वका - वि० । ६ तदा न तेन न नित्यता न चोपलब्ध्यादिकं भवेत् अथ स एव न तदा न तेन न नित्यता ( तेन नित्य- मां०) न चोपलब्ध्यादिक स्वका-भां० मां० हा० । ७ न वो हा० । ८ - रणे नै - हा० । ९ न नञ् आ० । १० सति तत्प्र-आ० हा० वि० । “न चानुपलम्भे सति न प्रयोग इत्यभिधातव्यम् " - प्रमेयक० पृ० १४६ प्र० पं० ३ । ११ “ खरूपादप्रच्युतार्थस्य अनुपलम्भानुपपत्तेः " - प्रमेयक० पृ० १४६ प्र० पं० ४ । स्वरूपात् “पृथुवुनोदरादेः " टि० ९। अर्थस्य " घटलक्षणस्य " टि० १० । १२-पा प्र-आ० हा ० वि० विना । १३- तुक भा-आ० विना । १४- गमे श्व स्व-आ० । घ-आ० । १६-स्था मनु-आ० | १७ - नुभूयं ते आ० हा० । १८- ते त नष्ट -आ० | १९ - व्यमिति ते घ - हा०वि० । २० - क्षणो न आ० । २१- नर्भवा-आ० हा० वि० विना । २२ स्वभायमे - हा० । स्वभावमे - वि० । २३- पक्षेपिऽयमे - मां० । २४ तस्यानिर्हेतु - हा० । तस्यार्निहेतु - वि• । तस्यार्निर्हेतुआ० । २५-वत्त भावस्य आ० वि० । २६-पि वा ना-आ० हा० वि० । २७स्य न ज-आ० हा० वि० । २८-त्वात्वददो - आ० हा ० वि० विना । २९ “ शक्यते हितत्राप्येवं वक्तुम् कालान्तरस्थायी स्वहेतोरेव उत्पन्नो भावो न तद्भावे भावान्तरमपेक्षते अग्निरिव उष्णत्वे" - प्रमेयक० पृ० १४६ प्र० पं० ६ । ३० - मपेक्षितो - आ० । १५ एवं ३१- भावो भवेत् भ० । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३९३ तथाहि-क्षणमपि स्वरसत एव स्थानोः कल्पान्तरस्थायित्वमपि किं न भवेत् अन्यथा अग्निरिव शैत्ये न क्षणमपि स्वयमस्थानोः स्थायिता युक्तिमती । विनाशहेतुपक्षनिक्षिप्तश्च विकल्पो भावोत्पत्तिहेतावपि समानः । तेस्या(तथा)हि-उत्पत्तिहेतुः स्वभावत एव भावमुत्पित्सुमुत्पादयति, आहोखिदनुत्पित्सुम् ? प्रथमपक्षे विफलता तद्धेतोः। द्वितीयपक्षेऽप्यनुत्पित्सोरुत्पादने वियत्कुसुमादेरप्युत्पादनप्रसङ्गः। वहेतुसन्निधेरेवोत्पित्सोरुत्पादनाभ्युपगमे विनाशहेतुसन्निधानादू विनाशहेतु-५ विनश्वरं विनाशयतीत्यभ्युपगमनीयम् न्यायस्य समानत्वात् स्वयमेवोत्पित्सोस्तत्कृतोपकाराभावात् सम्बन्धाभावतो व्यपदेशाभावतोऽपि(भावोऽपि) समानः एवं च प्रयोजनाभावाद् भावहेतुर्भावं नोत्पादयतीति नाप्यभावं भावयतीति कथं नाकिञ्चित्करत्वम? अभावं भावीकरोति इति चेत् नन्वेवं हेतुर्विनाशहेतुर्भावमभावीकरोतीति तुल्यम् । यदपि 'स्वकारणादुत्पत्तिरात्मलाभो धर्मो यस्योः सा (यस्य स) स्वोत्पत्तिधर्मा तं यदि स्वहेतुर्नोत्पादयति तदा विरुद्धमभिधानं स्यात्' इत्याद्युक्तं तद् विना-१० शहेतावपि तुल्यम् । तथाहि-विनाशकारणाद्विनाश आत्मप्रच्युतिलक्षणो धर्मो यस्य तं यदि विनाशहेतुर्न विनाशयति तदा विरुद्धाभिधानमित्याद्यपि कथ(थं) न समानम् । यदपि 'उत्पत्तः प्रार उत्पत्तिधर्मिणोऽसत्त्वात् किमुत्पत्तिधर्माणमुत्पत्तिहेतुरुत्पादयति, आहोस्विद् अनुत्पत्तिधर्माणम् इत्यादिविकल्पानुपपत्तिः' तदपि विनाशहेतौ समानम्-प्रागभाववत् प्रध्वंसाभावस्यापि भवन्मतेना. भावात् कथं तत्रापि विकल्पोत्पत्तिः? 'येषां च न घटनिवृत्तिः कपालस्वरूपादन्या तेषां कथं न १५ कपालहेतुर्घटध्वंसहेतुर्भवेत् ? अथ कथं कपाललक्षणस्य वस्त्वन्तरस्य प्रादुर्भावे 'घटो विनष्टः' इति व्यपदिश्यते? नैष दोषः, मुद्गरादेर्घटस्यैव कपालभावाद् 'घटो विनष्टः' कथं स एवान्यथा भवतीति चेत् , नन्वसत् कथं भवतीति समानम् । अथ प्राग् घटादिकमसत् सद् भवत्युत्पत्तिसमय इत्यविरुद्धम् । नन्वन्यदा घटः सन् कपालीभवति इत्यविरुद्धमेव । कथं तस्यैव तदन्यत्वमिति चेत् , यथा संवेदनस्यैकय ग्राह्यग्राहकाद्याकारभेदः यथा ह्यरूपेणानेकमेवं(क) भवन्न विरुध्यते इत्यस-२० कृदावेदितम् तेने निवृत्तिः कारणस्य कार्यात्मना परिणतिरेवाभिधीयते तथा च घटप्रच्युतेः कपालस्वरूपत्वे कुतःक्षणिकत्वम् ? अथ भावान्तरं घट-कपालव्यतिरिक्तं घटप्रच्युतिः, नन्वेवमपि तेन सह घटस्य युगपदवस्थानाद्यविरोधात् कथं तत् तत्प्रच्युतिः ? अथ कपालमन्यभावोपलक्षणम् तेन घटाणस्यान्यस्य प्रादुर्भावः पूर्वस्य च प्रध्वंसः सदृशापरापरानुभवश्च दलितपुनरुदितकररुहनिकरादिष्विव 'स एवायम्' इत्येको(का)ऽध्यवसायोदयः। नन्वत्रापि किं स एव पदार्थात्मा प्रतिभाति, २५ आहोस्वित् तत्प्रतिसमयमन्यान्यसंवेदनेऽपि सादृश्यादेकत्वभ्रान्तिरिति नात्र निश्चयो बाधकानुत्पत्तौ दर्शनस्य वितथत्वात् सिद्धः?? ] न च क्षणक्षयव्यवस्थापकमनुमानमेकत्वाध्यवसायि दर्शनस्य बाधकम् अनुमितेरध्यक्षबाधकत्वेन प्रवृत्तेस्तस्यास्तत्पूर्वकत्वात् यतोऽध्यक्षावगतं प्रतिबन्धमाश्रित्य पक्षधर्मता. दर्शनबलादूनुमितिरुदयति अनुमानादविनाभावावगमेऽनवस्थाप्रसक्तेः । न च स्थायितादर्शनमनु मानेन बाधितत्वान्नाध्यक्षतामनुभवतीति वाच्यम्, क्षणक्षयानुमानमध्यक्षेण बाधनादनुमान(नं न)३० भवतीत्यपि पर्यनुयोगस्य तुल्यत्वात् । अतः स्थायितादर्शनं क्षणक्षयग्राहिणा परेणाध्यक्षेण बाधकेनाध्य(नानध्यक्षीकर्तव्यम् क्षणक्षयनिर्भासविरहेण तस्य (?) अन्यथा तेन सह विरोधासिद्धेः । ततः प्रतिक्षणभेदावास्येवाध्यक्षं नित्यताध्यवसायिदर्शनस्य बाधकं नान्यत् । न च प्रतिक्षणविशरारुतावभास्यध्यक्षमनुभूयते, स्थिरस्थूरार्थावभासिनोऽध्यक्षप्रभवस्य संवेदनस्य सर्वदोपलक्षणत्वात् । अथ प्रत्यक्षेऽपि बाधकेऽभ्युपगम्यमाने द्वयोरपि दर्शनयोः परस्परप्रतिहतिद्वारेणानध्यक्षता कस्मान्न भवति३५ येनैकमेवानध्यक्षीभवति, नैतदेवम् ; अतुल्यत्वात् दुर्बलं हि बलवता प्रतिहन्यते रजतदर्शनमिव १ "तथाहि-उत्पादहेतुः खभावतः" इत्यादि-प्रमेयक० पृ० १४६ प्र. पं० ११ । २-प्य भावयती-आ० । ३-स्था सा हा० वि०। ४-था वि-आ० । ५ धर्मोप्यस्य हा०। ६ येषां न च घ-आ० हा. वि.। ७-पादेन्या मा. आ. वि. विना। ८-स्य ग्राहकाद्या-हा० ।-स्य श्रीकाद्या-आ० । ९-रहेतभे-वि० । १०-न न निवृत्तिः भां० मा० ।-न विवृत्तिः हा० । वि० सं० । ११ “युगपदवस्थानाविरोधात् कथं तत् तत्प्रध्वंसः"-प्रमेयक० पृ० १४६ प्र० ५० ५। १२-क्षणस्यान्यप्रा-आ० ।-क्षणान्यस्य प्रा-भां० मां० । १३-परानु-आ०। १४ नत्तत्रापि हा०। नतत्रापि वि० । न त्रापि आ० । १५-कत्वं भ्रा-हा० । १६-नाथप्र-आ०। १७-क्षयि ग्रा-भां० मा०। १८ तत प्र-भां०। तत्र प्र-आ० हा० वि०। १९-भा स्यैवा-हा०। २०-णाध्यक्ष-आ० हा. वि.। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ प्रथमे काण्डेशुक्तिकादर्शनेन बलवता रजतदर्शनमयार्थ(मयथार्थ)क्रियाकारि रूपावभासि दुर्बलमनध्यक्षीक्रियते। न च लूनपुनर्जातकेशादिष्यपि प्रत्यभिज्ञानोदया(यात्) स्थायिताप्रतिपत्तिः सर्वत्रालीका, ना दृष्टान्तमात्रादर्थसिद्धेरभावात् अन्यथा हेतूपन्यासस्य वैफल्यापत्तेः। हेतूपयोगितयैव निदर्शनस्य परैः साफल्याभ्युपगमात् । आह च-“स एवाविनाभावो दृष्टान्ताभ्यां दर्शाते" [ ] इति । ५यद्वा लूनपुनर्जातशिरसिजा दिष्वपि प्रत्यभिज्ञानात् एकता भवतु अप्रध्वस्तः केशादिः कथं प्रत्यमिज्ञायते ? नन्वेवं ध्वस्तेऽपि शिरोरुह निकरादौ समानम् । अथा ध्वस्ते तत्र पुनदर्शनात् 'ते एवामी केशाः' इत्येकताप्रतीत्यनुभवात् प्रत्यभिज्ञानम्। ननु ध्वस्तेष्वपि तेषु पुनदर्शनात तुल्यप्रमाणादियोगेष्वेकताप्रतिपत्तिदर्शनात् कथं न प्रत्यभिज्ञानम् ? तस्माद् ध्वस्तोदितेष्वपि शिरसिजादिषु प्रत्यभिज्ञानादेकत्वं कस्यचित् रूपस्याभ्युपगन्तव्यम् । अथ दलिताध्यवसायी १० प्रत्यय(यः) स्थायिताध्यवसायिता(यिनीं) प्रत्यभिज्ञां बाधत इति न तेष्वेता, न; भिन्नकालेन दलितकेशाध्यवसायिप्रत्ययेन प्रत्यभिज्ञाया बाधायोगात् अथवा लूनपुनर्जातकेश-नखादिभेदामेदा. ध्यवसायादुभयतैवास्तु स्तम्भादिषु तु विशददर्शनावभासिषु क्षणक्षयविकला स्थायिता प्रतिभातीति तेषां स्थिररूपतैवास्तु। अथ कथं प्रत्यभिक्षा प्रामाण्यमनुभवति ? कारणदोषाभावात् बाधारहितापूर्वार्थग्राहित्वाच । १५तदुक्तम् "तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवर्जितम् । अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम्”॥ [ __] इति । प्रथमदर्शनानधिगतां स्थायितां प्रत्यभिज्ञानमध्यवस्यति विश्वासादिव्यवहारप्रवर्तिका चेति कथं न प्रमाणम् ? ने चाद्यदर्शनमेव स्थायिताध्यवसायात् उत्तरकालभाविनो नित्यताग्राहितया २० व्यवस्थाप्यत इति आद्यदर्शनगृहीतां नित्यतामध्यवस्यत् प्रत्यभिशाज्ञानमपूर्वार्थाधिगन्तृत्वाभावान प्रमाणम् यत एवमाद्यदर्शनावसेयमेव नित्यत्वमिति कथं क्षणक्षयिता भावानाम् ? न चाध्यक्षानवतारे प्रतिक्षणध्वंसितायामनुमानमपि प्रवृत्तिमासादयतीत्युक्तम् । किञ्च, स्वभावलिङ्गप्रभवमनुः मानं क्षणक्षयितां भावानामवगमयति इति पराभ्युपगमः । न चाध्यक्षगृहीतं प्रतिक्षणध्वंसित्वम् येन स्वभावहेतुस्तत्र व्यवहृतिमुपरचयति यथा शिंशपा विशददर्शनावभासिनि तरौ वृक्षत्व. २५व्यवहतिम् प्रत्यक्षप्रतीत एवार्थे स्वभावहेतोर्व्यवहृतिप्रदर्शनफलत्वात् । न च विद्युदादौ सत्ता-क्षणिकत्वयोरध्यक्षत एव प्रतिबन्धग्रहणादन्यत्रापि शब्दादौ सत्तोपलभ्यमाना क्षणिकत्व. मवगमयति, जातरूपे सत्तातः शुक्लतानुमितिप्रसक्तेः । अथ हेमाकारनिर्भासिदर्शनं शुक्लताप्रसाधकमनुमानमुपहन्तीति न तत्र शुक्लतासिद्धिः; नन्वेवं स्तम्भादौ क्षणिकतामुल्लिखन्तीमनुमिति 'स एवायम्' इत्यभेदप्रतिभासोऽपहन्तीति कुतः क्षणिकतासिद्धिः ? अथ प्रत्यभिज्ञा भिन्नेष्वप्यभेद३० मुल्लिखन्ती दलितपुनरुदितकररुहादिषूपलभ्यत इति नासावेकत्वे प्रमाणम् तर्हि कामलोपहतदृशां धवलिमानमाबिभ्राणेषु पदार्थेषु कनकाकारनिर्भासिदर्शनमुदेतीति तत् पीतेऽपि न प्रमाणतामा. सादयेत् तथा च शुक्लतानुमानस्यापि कुतो बाधाप्रसक्तिः ? अथ शुक्लताप्रसाधकस्यानुमानस्यान्यथासिद्धत्वात् युक्तं प्रत्यक्षबाध्यत्वम् तस्यानन्यथासिद्ध. त्वात् । न ानुपहतेन्द्रियस्य पीतावभासि दर्शनं पीतार्थव्यतिरेकेण सम्भवति कनकादौ तु शुक्लता३५प्रसाधकमनुमानमन्यथासिद्धत्वात् अध्यक्षविरोधे न तद्विपरीतार्थसाधकं युक्तम् । स्तम्भादौ तु नित्यतावेदकस्याध्यक्षस्य कुतश्चिद् भ्रान्तिकारणादन्यथासिद्धत्वेनानन्यथासिद्धानुमानबाधकत्वमयु. १-मथार्थ-मां०। २-शानोद-आ० । ३-का, त; दृ-भां० मा०। ४-त्यभिज्ञानं बा-आ० हा. वि०। ५-कता, म; भि-आ० वि०। ६-त्यभिज्ञया मां०। ७-खादिमेदाध्य-आ० हा. वि. विना । ८ "क्षणक्षयवादी स्थिरतावेदकप्रत्यभिज्ञावादिनं प्रत्याह"-बृ० भ० टि.। ९ “आचार्यः"-बृ. टि. । १०-च उक्त-वा. बा०। ११-श्वादिव्य-वा. बा० । १२ न वादिद-वा. बा० । १३-प्य इ-वा० बा० । १४-तम् स्व-वा० बा०। १५ “खभावहेतू रचयतीति योगः"-वृ० मा. टि. । १६ प्रतिबिम्बग्र-वा० बा० । १५-पहरन्तीति वा० बा० । १८-त्यमेदःप्र-वा० बा०। १९-बाधत्वम् वा० बा०। २०-क्षविरोधिन बृ० वा. बा. विना। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । 1 कम्। तथा हि- सति प्रतिबन्धग्रहणेऽनुमितिप्रवृत्तिः प्रतिबन्धग्रहेणं च साध्यव्यतिरेकेण साधनस्याभवनज्ञानम् तदेव चाऽनन्यथासिद्धत्वं तस्योच्यते अत एवानुमानस्य प्रामाण्यमपाकुर्वता तत् प्रतिबन्धप्रसाधकप्रमाणस्याप्रामाण्यमुपदर्शनीयम् यतः प्रतिबन्धासिद्धितोऽनुमानं प्रामाण्यादपाकियेत । तथा चोक्तं न्यायविदा - "लक्षणयुक्त बाधासम्भवे तल्लक्षणमेव दूषितं स्यात् " [ इति । नित्यताप्रसाधकस्य त्वध्यक्षस्य आस्तामनुमानेन तुल्यकक्षत्वम् तत्प्रतिबन्धप्रसाधकेनाप्य ५ तुल्यकक्षतैव । तथाहि क्षणक्षयविपरीत नित्यत्व लक्षणार्थमन्तरेणानुपजायमानमध्यक्षं तथाभूतमर्थ व्यवस्थापयत् क्षणिकत्वानुमानबाधकमुच्यते । न चाध्यक्षावसेयं नित्यत्वं वस्तुनो व्यवस्थापयितुं शक्यम् यतः पूर्वापरकालताविष्टमध्यक्षावसेयं तच्च न वस्तुधर्मः वर्त्तमानकालं हि वस्तु पूर्वापरकालभावित्वं च वर्त्तमानवस्तुविरुद्धत्वात् न तद्धर्मत्वेनावस्थापयितुं युक्तमिति प्रत्यभिज्ञाप्रमेयस्य यथाप्रतीत्यसम्भवात् बाधकप्रमाणेनाप्यतुल्यकक्षत्वात् तद्राहिणोऽध्यक्षस्य कुतः क्षणक्षयानुमानबाधकता ११० विपर्ययस्य प्रमाणेनात्र विषये निश्चितत्वात् । [?? न च मूलबाधकत्वेन अनुमानस्यानुभव आशङ्कनीयः प्रत्यक्षाभासस्य कस्यचिद् बाधनात् उत्पलपत्रशतव्यति भेदाद्यध्यक्षबाधकत्वेनानुमानस्य प्रवृत्तावपि यतो नोच्छेदः एवमंत्रापि इति न कश्चिद्दोषः अत एव सर्वत्र प्रत्यक्षं विरोधि बाधकमनुमानं तु तद्विरोधद् वाध्यमेवेति नियमाभावात् निराकृतम् ?? ] इतरेतराश्रयत्वमपि नात्राशङ्कनीयम् प्रत्यक्षाभासत्वे अनुमानं वाधकम् अनुमानप्रामाण्यात् प्रत्यक्षस्याभासतेति यस्मान्नानुमानप्रामाण्य- १५ मध्यक्षाभासनिबन्धनम् किन्तु प्रतिबन्ध प्रसाधकप्रमाणनिमित्तं तत्प्रामाण्यमिति कुत इतरेतराश्रयत्वम् ? असदेतत् यतो यद्यपि परिच्छिद्यमानस्य वस्तुनः पूर्वकालतापि निश्चीयते तथापि नावस्तुधर्म ग्राहकमध्यक्षमिति कथं तद्विषयस्य यथाप्रतीत्यसम्भवः ? तथाहि तस्य पूर्वकालसम्बन्धिता स्वरूपेण गृह्यते नेदानीन्तनसम्बन्धितानुप्रवेशेन तेनेदानीं यद्यपि कुतश्चिन्निमित्तात् तस्य पूर्वकालादित्वमवसीयते तथापि तह्राहकमध्यक्षं कथं न वस्तुग्राहकमिति कुतः तस्याप्रामाण्यम् १२० यदि ह्यविद्यमानं पूर्वकालादित्वम् विद्यमानं वा वर्त्तमानौ रोपेणाध्यक्षमध्यवस्येत् तदा भवेदस्यायथाग्राहित्वाद् अप्रामाण्यम् एतश्च नास्तीति कुतोऽस्याप्रामाण्यप्रसक्तिः ? ३९५ न च सन्निहित विषय बलोत्पच्याऽविचारकत्वादध्यक्षेण पूर्वकालसम्बन्धित्वं परामष्टुमशक्यम् यतो यद्यप्यतीत कालत्वमसन्निहितं तथापि सन्निहितविषयबलादुपजायमानमध्यक्षं वर्त्तमानवस्तुनस्तै निश्चिनोत्येव यथा अन्त्यसङ्ख्ये ग्रहणकाले 'शतम्' इति प्रतीतिः क्रमगृहीतानपि सङ्ख्येयन् । २५ न चैषा अनिन्द्रियजा इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधानात् । नाप्यनर्थजा सन्निहितान्त्य सङ्ख्ये यजन्यत्वात् । न चैकावभासिनी एकप्रतिपत्तिसमये 'शतम्' इत्यप्रतिपत्तेः अन्यथा प्रथमव्यक्तिप्रतिभी समय एवैष भवेत् । न चाप्रमाणमेषा बाधकाभावात् । घटाद्यध्यक्षेण तुल्यत्वात् नास्या वि कल्पमात्रता । तस्मात् यथा अन्त्यसङ्ख्येयप्रतिपत्तिसमये प्रागवगैत (?) तदौऽपरिच्छिद्यमानार्थोपयोगः तद्विशिष्टप्रतिपत्तौ तथा प्रत्यभिज्ञावसेयवस्तुपरिच्छेदसमये पूर्वकालभाविताया अपि । न च ३० विशिष्टप्रतिपत्तिकाले सङ्ख्येयानां विद्यमानता पूर्वकालतायास्तु तद्वैपरीत्यमिति न तत्रोपयोगः येतोऽगृह्यमाणानां तत्कालविद्यमानता नोपयोगिनी यत्र चान्त्य सङ्ख्येयग्रहणसमये पूर्वावगतसङ्ख्येयानामभावस्तत्र यथा तेषामुपयोगः तथा पूर्वकालादिताया अपि तदविशिष्टाया उपयोगो भविष्यतीत्यनवद्यम् । १- हणं सा - वा० वा० । २-नप्रा-आ० । ३ - बन्धसा - वा० बा० । ४ - कप्रामाण्यस्याप्रा-वा० वा० । ५-क्रियेत् । भां० 1 - क्रियते । वा०वा० मां०। ६ "लक्षणयुक्त बाधासंभवे तलक्षणमेव दूषितं स्यात् इति न्यायात् " - प्रमेयक० पृ० १७५ प्र० पं० ४ । ७ नित्यं वस्तु-ल० । ८ " तव हि युगपद्भेदग्राहि प्रत्यक्षं विपरीतप्राहिणाऽनुमानेन बाध्यते " - घृ० भां०मां• टि० | ९-मन्यत्रापि वृ० ल० वा० वा० भ० मां० विना । १० " परगदितम् ” - मां० टि० । “परविदितम्” -वृ० टि० । ११-धादबा - आ० । १२ - नारोपणा-आ० हा ० वि० । १३-लम-ल० | १४ - मानं व-आ० । १५ " अतीतकालत्वम् " - बृ० टि० । १६ - यमप्र - हा० वि० । १७ - तमपि प्र-ल० । १८ " निश्चिनोतीति योगः " - बृ० भ० मां० टि० । १९ -भासम-आ० । २० “‘शतम्' इति प्रतिपत्तिः" - मां० टि० । “यथा एषा एकमेव गृह्णीयात् " - बृ० टि० । २१ गतं त-आ० हा० वि० । २२- दा अप-वा० बा० ।-दाप-आ० हा ० वि० । २३ “ “शतम्' इत्येवंरूपायाम्” - धृ० भ० मां० टि० । २४ यतो गृ-वृ० ल० विना । २५-पि विशि-आ० हा० वि० । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - अथापि स्यात् वर्त्तमानतापरिच्छेदसमये तदभावनियतभावत्वात् न पूर्वताऽवगतिर्भावानाम् नील परिच्छेदे पीतादीनामिव । तथाहि - नीलप्रच्युत्य विनाभूतत्वात् पीतादीनां नीलपरिच्छेदकं प्रमाणं तत्प्रच्युतेरिव तदविनाभूतपीतादिव्यवच्छेदं कुर्वदेवे तत् परिच्छिनत्ति तद्वद् इदानीन्तनपदार्थपरिच्छेदाय प्रमाणं प्रवृत्तं तत्प्रच्युत्यविनाभूतानां व्यवच्छेदकम् वर्त्तमानश्च समयस्तत्प्रच्यु५ त्या विरुद्ध इति तद्व्याप्तावप्यतीतानागतौ तेन विरुद्धाविति तदवच्छिन्नस्यापि भावस्य वर्त्तमानावच्छिन्नेन सह न समावेशः तयोः परस्परपरिहारत्वेन विरोधात् तेन वर्त्तमानसम्बन्धिताग्राहिणा प्रमाणेन तत्प्रच्युत्यविनाभूतव्यवच्छेद्यस्य व्यवच्छेदमकुर्वाणेन वर्त्तमानसम्बन्धित्वमेव न परिच्छिन्नं भवेत् ततः पूर्वापर समयसम्बन्धिनोर्नानात्वे यन्नानाभूतानामेकत्वग्राहि प्रमाणं तस्यें अतस्मिंस्तनहणरूपत्वात् अप्रामाण्यम् अत एवैकत्वाध्यवसायस्य सदृशीपरापरेत्यादिभ्रमनिमित्तादुत्पादः परि१० गीयते, असदेतत्; यतो नैकत्वेन निश्चीयमानस्य परस्परविरुद्धकालादिव्यवच्छेदात् नानात्वम् छत्र- कुण्डलाद्यवच्छिन्नस्य देवदत्तादेरिव । न च देवदत्तादेः सहभाव्य नेक विशेषणावच्छिन्नत्वादेकत्वम् तदभावनियैतभावलक्षणस्य विरोधस्य सह सम्भविनामपि भावात् ततो विरुद्धावच्छिन्नस्य नानात्वे देवदत्तस्यापि नानात्वप्रसक्तिः । न च देवदत्तादेरेकस्य कस्यचिदभावात् तन्नानात्वप्रसक्तिः न सौगतपक्षे दोषायेति वाच्यम् एकप्रतिभासवलात् देवदत्तादेरेकत्वसिद्धेः अन्यथा नीलसंवेदन१५ स्यापि स्थूलाकारावभासिनो विरुद्ध दिक्सम्बन्धात् प्रतिपरमाणुभेदेप्रसक्तेः तदवयवानामपि षट्कयोगात् भेदापत्तितोऽनवस्थाप्रसक्तेः प्रतिभासविरतिलक्षणोंऽप्रामाणिका शून्यता भवेत् इति सर्वव्यवहारविलोपः । न च च्छत्र - कुण्डलादेरिन्द्रियावसेयवस्तुव्यवच्छेदकत्वेन इन्द्रियजप्रतिपत्तिविषयता सन्निहितत्वेन युक्ता पूर्वापरौंदित्वस्य तु वर्त्तमानकालावच्छिन्ने वस्तुन्यसन्निधानात् कथं तद्राहि. ज्ञानग्राह्यता युक्तेति वक्तव्यम् यतो यथाऽन्त्यसङ्ख्येयकाले पूर्वसङ्ख्येयानामसन्निधानेऽपि इन्द्रि २० यजप्रतिपत्तिविषयता तथा पूर्वापरकालभाविताया अपीत्युक्तं प्राक् । अथवा 'तदेवेदम्' इति ज्ञानस्यानिन्द्रियजत्वेऽप्यलिङ्गजस्य प्रामाण्यमभ्युपगन्तव्यं बाधारहितत्वेन अनेन प्रतीयमानस्य वस्तुनः पूर्वापरकालभाविता पूर्वापरदर्शन कर्म्मत चावसीयत इति चाभ्युपगन्तव्यम् अन्यथाऽनक्षालिङ्गप्रत्य यस्य निश्चयात्मनो बाधारहितस्यैवं जातीयस्य कस्यचित् प्रामाण्यानभ्युपगमे अक्षजस्य सन्निहितार्थमात्रग्राहित्वेन लिङ्गजस्यै चानवस्थाप्रसक्तितः सकलपदार्थाक्षेपेण प्रतिबन्धग्राहकत्वायोगात् अनुमान२५ प्रवृत्तेरभाव इति कुतः क्षणिकत्वादिधर्म्म सिद्धिः ? यथोक्तविकल्पस्य च प्रामाण्ये कथं न क्षणक्षयानुमानबाधा ? ३९६ भवतु वा प्रत्यभिज्ञाज्ञानस्य तदाभाससमानत्वात् क्षणक्षयानुमानाबाधकत्वं तथापि स्मृत्याद्यव्यवहिताक्षप्रभववर्त्तमानतासम्बद्धस्वविषय परिच्छेदकावभासबाधितत्वात् न क्षणक्षयानुमानस्य स्वविषयव्यवस्थापकत्वम् यतो न भवन्मतेन नीलादिर्शानसमान कालभावी जनकत्वेन व्यवस्थितः ३० वर्त्तमानज्ञानसत्तासमयत् जनकत्वेन तस्य प्राक्कालभावित्वाभ्युपगमात् जनकश्च ज्ञानविषयः परमतेन तस्य वर्त्तमानसम्बन्धित्वावगमे क्षणद्वयावस्थितत्वेन ग्रहणात् कथं नाक्षणिकत्वग्रहणम् ? तथाहिएतद्राहिज्ञानमुपजायमानमेवं स्वविषयमवभासयति 'नायं सम्प्रत्येव नीलाद्यर्थः अपि तु प्रागासीत्' इति । यतश्चक्षुरादिव्यापारोद्भूतप्रतिपत्तिभेदः प्रादुर्भूतप्रादुर्भवत् (?) घटविषयत्वेन सुप्रसिद्ध एव उत्पद्य १ “वर्तमानता” - बृ० मां० टि० । २ पूर्वभाव - आ० । ३ " यथा नीलप्रच्युतेर्व्यवच्छेदं कुर्वत् नीलं परिच्छिनत्ति तथा नीलप्रच्युत्य विनाभूतपीतादीनाम (मपि ) व्यवच्छेदं कुर्वदेव तत् परिच्छिनत्तीति" - वृ० टि० । ४- 'भूतपीतादेर्व्यवच्छेदम्' इति सुचारु । ५-व तस्य तत् मां० । ६ " नीलम् " - बृ० मां० टि० । ७ “ वर्तमानत्व प्रच्युत्या” - बृ० टि० । ८ " वर्तमानप्रच्युतिव्याप्तौ " - वृ० टि० । ९ तदविच्छि - बृ० ल० वा० बा० विना । १०-स्य त-ल० । ११- शापरेत्या - बृ० । १२ - त्तादि स-आ० हा० वि० । १३ यतं भावा० बा० । १४- दप्रणतापरादववा० बा० । १५ - णाप्रमा-भां० मां० विना । १६ “ विशेषत्वेन" - मां० टि० । “विशेषकत्वेन " - बृ० टि० । १७ -रादेवास्य तु बृ०।- रादि नु व वा० बा० । १८ - स्तुस -आ० हा ० वि० । १९- थान्तस - भ० मां० । २०–ङ्गस्य वा० बा० । २१ - रकर्मदर्शनकर्मता वा० वा० । २२-ता वा वा० बा० । २३-स्य वा बृ० । २४-भासमा - बृ० ल० भां० विना । २६ ला दिशा - वा० बा० । २७-या जन-वा० बा० । २८ - हि अत - हा० वि० । २५- त्वात् तन्न आ० । २९ - पारो दूरप्र - वा० बा० । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। भानविषयावगमस्वभावप्रतिपत्तेः तद्विपरीतार्थालम्बनाप्रतीतिः अपरैव लोकेनानुभूयते । न चैकसन्तानपूर्वसन्तानव्यावृत्तिनिवन्धनाऽपरसन्तानोत्पत्तिनिवन्धनोऽयं प्रतिपत्तिभेदः क्षणिकत्वसिद्धावेतद्वचनस्य घटमानत्वात् तत्र चाद्यापि विवादात् । न च जनकोऽर्थी वर्तमानकालतया नाक्षसंविदि प्रतिभाति किन्तु तस्यां तत्समानकालभाव्याकारस्तेनाधीयते तस्य तथावभासात वर्तमानार्थावगम इत्यच्यते ज्ञानकाले बहिरवभासमानस्य नीलादेओनाकारतयाऽसिद्धरन्यथाऽन्तरवभासमानस्य५ सखादेरप्याकारताप्रसक्तिः इति ज्ञानसत्तैवोत्सीदेत् । निराकरिष्यते च साकारता ज्ञानस्य ।न चार्थस्य ज्ञानजनकत्वे अवगते क्षणद्वयस्थायित्वमर्थस्य सिध्यति तदेव तु तस्यावगन्तुमशक्यम् । तथाहि-न तावत् तदवभासिना ज्ञानेन तस्य जनकताऽवगन्तुं शक्या तेन तत्स्वरूपस्यैव ग्रहणात्, जनकता तु तज्ज्ञानहेतुत्वम् न तत् तेन परिच्छेत्तुं शक्यम् , नापि तदवभासिना झानान्तरेण तस्यापि तत्तुल्यत्वात् अतत्प्रतिभासिनाप्यतणस्वभावत्वात् न तज्जनकतापरिच्छेदः तत्स्वरूप-१० प्रतिभासे हि 'इदमस्मादुत्पन्नम्' इत्यवगन्तुं शक्यं नान्यथेति वक्तव्यम् यतो देवदत्तावभासिनो ज्ञानस्य तद्देशदेवदत्तसन्निधेः प्रागभावमवगत्य तद्देशसन्निहितदेवदत्तावभासोदये तस्य तदन्वय-व्यतिरेकानुविधायित्वमवगतं तजन्यतां तस्य व्यवस्थापयति अन्वय-व्यतिरेकावगमनिबन्धनत्वात् तज्जन्यतावगतेः अथवा कार्यव्यतिरेकाच्चक्षुरादेरिव विषयस्यापि तज्जनकत्वमवसीयते केवलं चक्षुरादेर्विशिष्टज्ञानव्यतिरेकेण जनकत्वावधारणेऽपि स्वरूपाप्रतिभासादेतीन्द्रियत्वम् विष-१५ यस्य पुनः कार्यव्यतिरेकादवगतस्य जनकत्वेन तत्स्वरूपावभासात् तदध्यक्षता । नहीन्द्रियज्ञानविषयत्वव्यतिरेकेणान्यत् प्रत्यक्षलक्षणमिति विषयस्य तजनकत्वे स्थिते वर्तमानताहण एव तस्याक्षणिकत्वग्रह इति तेन तद्विरुद्धानुमानवाधा। अथ वर्तमानार्थावभासिनाऽध्यक्षेण न प्राक्तनक्षणभाविनोऽर्थस्य जनकत्वनिश्चयः तस्यानुमानगम्यत्वात् तेन ज्ञानोदयात् प्रागर्थप्रतिपत्तिरनुमानफलम् जनकत्वात् ज्ञानसत्तातः प्राग्भावो विषयस्यान्यकारणस्येव इति कथमनुमानबाधा २० वर्तमानावभासिनाऽध्यक्षेणेत्युच्यते, असदेतत्; यतो न जनकत्वमनुमानगम्यम् तस्याध्यक्षाविषयत्वे तत्प्रतिबद्धत्वेन लिङ्गस्यानिश्चयादनुमानगम्यताऽपि न भवेत् तत् कुतो ज्ञानार्थव्यतिरिक्तस्यापि वस्तुनो जनकत्वमनुमीयेत? तत् मानसाध्यक्षगम्यम् ऊहाख्यप्रमाणगम्यं वा अभ्युपगन्तव्यम् । यच्च 'जनकत्वात् कार्यसत्तातः पूर्व कारणसत्तेत्यनुमानगम्यत्वं जनकस्य' इत्युक्तम् , तदपि परिहृतमेव; यतः एका भावावगमपूर्विका चक्रमूर्द्धव्यवस्थितघटप्रतिपत्तिः अपरा प्रदीपादिव्यापार-२५ प्रभवा तदनवगमपूर्विका यया स्वविषयपरिच्छेद एवं क्रियते-'न सम्प्रत्येवायं भावः अपि त प्रागा सीत्' इति अतीते च क्षणेऽक्षव्यापारः शतादिप्रतीत्या प्रदर्शितः। यदपि 'न गृह्यमाणस्य ज्ञानसमानसमयस्य जनकता जनकस्य च क्षणिकत्वेन वर्त्तमानतयाऽतीतस्य न प्रतिभासः इति समारोपिताकारग्राहि सर्वमेव ज्ञानम्' इत्युच्यते, तदप्यसारम्; नील-द्विचन्द्रज्ञानयोरविशेषप्रसक्तेः। न च बाह्यार्थवादिना तयोरविशेषोऽभ्युपगन्तव्यः प्रमाणाऽप्रमाणपविभागप्रलयप्रसक्तेः। न चानेन ३० न्यायेन विज्ञाननय एवावतार्यत इति वक्तव्यम् तस्य निषेत्स्यमानत्वात् । न च ज्ञानाऽर्थयोरेकसामग्रीजन्ययोः सहभावित्वेन वर्तमानग्रहणं क्षणिकत्वेऽपि वैभाषिकमताश्रयणेनाभ्युपगन्तव्यम क्रियानियमस्य कर्मशक्तिनिमित्तत्वेन व्यवस्थापितस्याभावप्रसक्तेः।। भवतु वाऽनुमानात् प्राक्तनक्षणे सत्ताप्रतीतिस्तथाप्यनन्यथासिद्धनानेनान्यथासिद्धस्य क्षणक्षयानुमानस्य बाधनात् कुतस्तत्सिद्धिः? न च क्षणक्षयानुमानस्यान्यथासिद्धत्वासिद्धिर्बाधकप्रमाणब-३५ लात् सत्ता-क्षणिकत्वयोरविनाभावसिद्धेरिति वक्तव्यम्, यतस्तद्वाधकं प्रमाणं सत्तायाः क्षणिकावि १-न पूर्व सन्तानव्या-बृ० ।-न ६ पूर्वसन्तान ६ व्या-वा० बा०। २-नाभिधीय-बृ० ल० वा. बा.विना। ३ इत्यच्यते बृ०। ४ “यदि हि ज्ञानेऽवभासमानत्वेन बहिः सत्त्वेन ज्ञायते तदा सुखादेरप्यवभासमानत्वेन ज्ञाने बहिर्भावप्रसक्तिः"-वृ. भा. मा. टि०। ५ "ज्ञानजनकत्वम्"-बृ० मां. टि.। ६ शक्य तेन तत ल.। ७ “परेण"-बृ० मांटि.। ८-सन्निधिः आ०। ९-दपीन्द्रिय-ल.। १०-ग्रह एव बृ० वा. बा. भां० मां०। ११ "क्षणक्षयग्राहि"-बृ. टि.। १२-म्यं ते त-आ०। १३-गम्यं चा-भां०मा०। १४ "चक्रमूर्धनि व्यवस्थितघट"-भां० मा० टि। १५ “अध्यक्षेण"-मां० टि। ५१ स० त० Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ प्रथमे काण्डेनाभावप्रतिपादकमध्यक्षम् अनुमानं वा भवेत् ? न तावदध्यक्षरूपम् तत्र क्षणिकताप्रतिभासामा. वात् । न चानवभासमानक्षणक्षयस्वरूपमध्यक्षं सत्तायास्तदविनाभावमावेदयितुमलम्, न च प्रत्यक्षवपुषि स्फुटमाभाति प्रतिक्षणविशरारुता भावानाम् किन्तु विपरीताध्यवसायोदयात् प्रतिहन्यत इति वक्तव्यम् विहितोत्तरत्वात् प्रागेव। किञ्च, यद्यध्यक्षं प्रतिक्षणमपायमवभासयति भावानां किमि५ति तदनुसारी निश्चयो नोदयमासादयति? सादृश्यदर्शनाद् भ्रान्तेनिश्चयानुदय इति न च वक्तव्यम् सादृश्ये प्रमाणाभावात् । न चाप्रामाणिका सादृश्यपरिकल्पना ज्यायसी। किञ्च, यदि विपरीतनिश्चयोत्पादात् प्रतिक्षणापायप्रतिभासप्रतिहतिरभ्युपगम्यते; नन्वेवं पुरोवर्तिनि स्तम्भादौ विजातीयस्मरणसमये प्रतिभासमाने क्षणक्षयनिर्भासो भवेत् नित्योल्लेखाभावात् । किञ्च, यदि क्षणक्षयविभासि संवेदनं स्थायिताध्यवसायश्च परस्परासंसक्तरूपं प्रत्यक्षद्वयमुदयमासादयति तदा क्षणक्षयावभासस्य १०न काचित प्रतिहतिः। न च नित्याध्यवसायसन्निधानमेव तस्य प्रतिहतिः, क्षणक्षयावभासस्यापि नित्याध्यवसायप्रतिघातकत्वप्रसक्तेः सन्निधेरविशेषात् पूर्वोत्तरकालभावित्वस्याप्यकिञ्चित्करत्वात् । अपि च, विजातीयविकल्पोदयेऽपि विशददर्शनस्य प्रतिहतिप्रसक्तिरिति पीताद्यध्यवसायप्रसवे नीलादिकं न प्रतिपन्नं स्यात् । न च विजातीयत्वात् पीतविकल्पो नीलादिदर्शनस्य न प्रतिघातक इति वक्तव्यम् नित्यताध्यवसायस्यापि क्षणक्षयदर्शनं प्रति प्रतिघातकत्वाप्रसक्तेर्विजातीयत्वाविशेषात् १५आकारभेदादेव ह्यन्यत्रापि विजातीयत्वम् तच्च नित्यानित्ययोरपि तुल्यमेव । न च प्रथमोत्पन्नक्षणिक दर्शनसमानाधिकरणतया नित्योल्लेखस्योत्पत्तेः प्रतिघातकत्वं विरुद्धाकारावभासिनोः प्रत्यययोः सामानाधिकरण्यानुपपत्तेः अन्यथाऽतिप्रसक्तेः। तँन्न सामानाधिकरण्यात् तत्प्रतिहतिरित्यध्यक्षस्वरूपबाधकप्रमाणनिश्चयो न क्षणक्षय-सत्तयोरविनाभाव इति न सत्तातः क्षणक्षयसिद्धिः। न चानुमानरूपेण बाधकप्रमाणेन क्षणक्षयाविनाभूता सत्ताऽध्यवसीयते तदनुमानेऽप्यविनाभावस्यान्यानुमानबलात् २० प्रसिद्ध्यभ्युपगमादनवस्थाप्रसक्तेः। अपि च, किं तद्बाधकं प्रमाणमिति वक्तव्यम् अथार्थक्रियालक्षणं सत्त्वम् नित्ये क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् ततो व्यावर्त्तमानमनित्ये एवावतिष्ठते इति तेन व्याप्तं तत् सिध्यति इत्येतद् बाधकं प्रमाणम्, असदेतत् ; सत्ता-नित्यत्वयोर्विरोधासिद्धेः विरोधो हि भवन् सहानवस्थानलक्षणः परस्परपरिहारस्थितिलक्षणो वा तयोर्भवेत् ? न तावत् स्थायिता-सत्तयोराद्यो विरोधः सम्भवी, स हि पदा. २५र्थस्य पूर्वमुपलम्भे पश्चात् पदार्थान्तरसद्भावादभावावगतौ निश्चीयते शीतोष्णवत् । न च नित्यताव भासि दर्शनमुदयमासादयति तदभ्युपगमे वा विशददर्शने नित्यतायाः प्रतिभासात् सा विद्यमानैवेति कथं क्षणक्षयिणः सर्वे भावाः स्युः? नापि द्वितीयो विरोधस्तयोः सम्भवति नित्यतापरिहारेण सत्तायाः सत्तापरिहारेण वा स्थायिताया अनवस्थानात् क्षणिकतापरिहारेण ह्यक्षणिकता व्यवस्थिता अक्ष. णिकतापरिहारेण च क्षणिकतेत्यनयोः परस्परपरिहारस्थितिलक्षणताविरोधः । न चार्थक्रियालक्षणा ३० सत्ता क्षणक्षयितया व्याप्तेति नित्यताविरोधिनी सेति वक्तव्यम् इतरेतराश्रयप्रसक्तेः । तथाहि-अर्थक्रियालक्षणा सत्ता क्षणिकतया व्याप्ता नित्यताविरोधात् सिध्यति सोऽपि तस्याः क्षणिकतया व्याप्तेरिति परिस्फुटमितरेतराश्रयत्वम्। न चान्वयनिश्चयद्वारेण सत्व-क्षणक्षययोरविनाभावः सिध्यति प्रत्यक्षस्यान्वयग्राहित्वेनात्राप्रवृत्तेः । अनुमानादन्वयप्रतिपत्तावनवस्थाप्रसक्तेरिति प्रतिपादनॊत् । १ “अध्यक्षेण"-बृ० टि.। “न चाप्रतिभासमानक्षणक्षयस्वरूपं प्रत्यक्षं विपक्षाद् व्यावीं सत्त्वं क्षणिकत्वनियतमादर्शयितुं समर्थम्"-प्रमेयक. पृ. १४६ द्वि. पं. १४ । २-भाति क्षण-बृ० वा. बा. भां. मां. विना। ३-परीत्याविवसा-वा. बा०। ४ न व-बृ०। ५-चाप्रमा-बृ० वा. बा०। ६-वात् यदि वा० बा। ७-याभा-वा. बा०। ८ प्रति पत्तिघात-वा. बा०। प्रतिघात-मां. हा० वि०। ९-सक्तिर्वि-बृ. वा. बा. विना। १० तत्र सा-वा. बा. हा०वि०। ११-निश्चयो वा. बा. भ. मा. विना। १२-रस्थितलआ० हा. वि. विना। "क्षणिकतापरिहारेण ह्यक्षणिकता व्यवस्थिता तत्परिहारेण च क्षणिकता इत्यनयोः परस्परपरिहारस्थितिलक्षणो विरोधः"-प्रमेयक. पृ० १४७ प्र.पं०४॥ १३-क्षण स-ल.। १४ प्र.पृ.पं.२०॥ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ३९९ अथापि स्यात् अर्थक्रियास्वरूपं सत्वं नित्यतायामसम्भवि अन्यथाभूतं च तन्न सम्भवतीति क्षयिणः सर्वेऽपि भावाः। तथाहि-सत्तासम्बन्धः तावत् सत्त्वं नोपपद्यते व्यक्तिव्यतिरेकेण तस्या अनवभासनात् । न ह्यक्षान्वय-व्यतिरेकानुविधायिनि दर्शनोदये परिस्फुटप्रतिभासव्यक्तिस्वरूपव्यतिरेकेणाऽपरा वर्णसंस्थानविरहिणी बहिग्राह्याकारतां बिभ्राणा सत्ता प्रतिभाति तदवभासिन्या अक्षप्रभवसंविदोऽननुभवात् । न च सकलजनताविशदसंवेदनगोचरातिकान्ता सा समस्तीति५ शक्यमभिधातुम् अभावव्यवहारोच्छेदप्रसक्तेः । न च कल्पनावुद्धिः 'सत सत्' इति सत्तास्वरूपम्ल्लिखन्ती प्रतिभातीति तदवसेयत्वात् सत्ता सतीति वक्तव्यम् कल्पनाबुद्धावपि बहिःपरिस्फुटव्यक्तिस्वरूपान्तर्नामोल्लेखाध्यवसायव्यतिरेकेण सत्तास्वरूपस्याप्रकाशनात् । तन्न कल्पनार्बुद्ध्यध्यवसेयापि सत्तेति कथं सा सतीति? किञ्च, न तावत् सतः सत्तासम्बन्धात् सत्त्वम् सत्तासम्बन्धात् प्रागेव पदार्थस्य सत्त्वप्रसक्तेः प्राक् सत्ताभ्युपगमे च सत्तासम्बन्धवैयर्थ्यम् । नाप्यसतस्तत्सम्बन्धात् सत्वम् १० शशशृङ्गादेरपि सत्त्वप्रसक्तेः। न च खरविषाणादेः स्वरूपविरहात् न सत्तासम्बन्धः इतरेतराश्रयप्रसक्तेः-शशशृङ्गादेः स्वरूपविरहात् सत्तासम्बन्धाभावसिद्धिः तत्सिद्धौ च खरूपविरह सिद्धिरितीतरेतराश्रयत्वम् । यदि च शशशृङ्गादेः स्वरूपविरहान्न सत्तासम्बन्धस्तर्हि यत्र गोशृङ्गादौ स्वरूपसद्भावस्तत्र सत्तासम्बन्ध इति स्वरूपसत्त्वमायातम् तथा सत्ताऽपि यदि न स्वरूपेण सती तदा अपरसत्तासम्बन्धात् सा सती स्यात् साऽपि सत्ता अन्यसत्तासम्बन्धात् सत्यभ्युपेयेत्यनवस्थाप्र-१५ सक्तिः । अथ सा न सती न तर्हि तत्सम्बन्धो भावसत्त्वव्यवस्थापकः न हि गगनारविन्दसम्बन्धः कस्यचित् सत्त्वव्यवस्थापकः । न च गगनारविन्दस्य सम्बन्धाभावात् न तद्योगः कस्यचित् सत्त्वं व्यव स्थापयति सत्तायास्तु सम्बन्धसद्भावात् तद्योगात् पदार्थसत्त्वमिति वक्तव्यम् यतः सम्बन्धोऽपि विद्यमानस्य भवेत् अविद्यमानस्य वा? यदि विद्यमानस्य न किञ्चित् सम्बन्धकल्पनया तदन्त(तमन्त) रेणापि विद्यमानत्वात् । अथाविद्यमानस्य गगनारविन्दस्यापि स्यात् इति न सत्तासम्बन्धः२० सत्त्वम् । नापि स्वरूपतः सत्त्वम् स्वप्नावस्थावगतेऽपि पदार्थात्मनि स्वरूपसद्भावात् सत्वप्रसक्तः। यदि हि परिस्फुटसंवेदनावभासनं स्वरूपमुच्यते तत् स्वप्नदशायामपि पदार्थात्मनो विद्यत इति कथं न तत्सत्त्वप्रसक्तिः? तत्पारिशेप्यात् अर्थक्रियायोगः सत्त्वम् स च क्रम-योगपद्याभ्यां व्याप्तः ते च न नित्ये सम्भवतः यतो न क्रमवती अर्थक्रिया नित्ये सम्भविनी तस्य स्वरूपमात्रेण कार्यकरणसामर्थ्य तदैव सकलकार्योत्पत्तिप्रसक्तिः कालविलम्बायोगात्। नहि पदार्थस्वरूपनिवन्धनं कार्य २५ तत्स्वरूपस्य प्रागपि सन्निधाने क्रमोत्पत्तिकं युक्तम् । न च नित्यस्याविचलितरूपस्य सहकारिसव्यपेक्षस्य स्वकार्यकरणात् सहकारिक्रमात् कार्यक्रमः, नित्यस्य सहकार्यपेक्षायोगात् । नहि स्थायिनो निरतिशयं स्वरूपं बिभ्राणस्य सहकारिणा क्रमवता कश्चिद्व्यतिरिक्त उपकारः कर्तुं शक्यः। नापि व्यतिरिक्तोपकारजननात् तस्य सहकारीणि किञ्चित्कराणि भवन्ति अतिप्रसङ्गात् । न चाकिञ्चि. त्कराण्यपेक्ष्यन्त इति युगपत् सकलकार्योदयप्रसक्तिः। न च योगपद्येनाप्यर्थक्रिया नित्यात् सम्भवति ३० पूर्वोत्तरकालयोरपि तत्स्वभावाप्रच्यतेस्तावतः कार्यस्योदयप्रसक्तरित्यादिक्षणिकतां व्यवस्थापयद्भिः सौगतैः प्रतिपादितम् न पुनरुच्यते ग्रन्थविस्तरभयात् । ततः क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रिया नित्याद् व्यावर्त्तमाना क्षणिकतायामेवावतिष्ठत इति कथं न सत्ता क्षणिकताव्याप्ता? __ असदेतत्, यतो यद्यर्थक्रिया क्रमेणोत्पत्तिमती भिन्ना हेतोः किमायातम् येन तद्भेदाद्धेतोर्भेदो भवेत् न ह्यन्यभेदादन्यद भिन्नमतिप्रसङ्गात् । न च हेतोः प्रतिक्षणमभिन्नरूपत्वे एकस्वभावत्वादर्थ-३५ क्रियापि युगपद् भवेत् यतो नायं नियमः एकस्वभावत्वे हेतोरर्थक्रियया युगपद् भवितव्यम् यदि हि कारणसद्भावेऽर्थक्रिया युगपदुपलभ्येत तदा युगपदुदेतीति व्यवस्था भवेत् न च कारणाभेदेऽपि युगपदुदयमासादयन्ती सा ततो लक्ष्यत इत्यनुभववाधितमर्थक्रियायोगपद्यम् । न च प्रतिक्षणविशरारुताऽविनाभूतः क्रमवदर्थक्रियोत्पादः क्वचिदुपलब्धो येन तदुदयक्रमात् तद्धेतोः प्रतिक्षणभेदः १ बहिरप-बृ० वा० बा०। २-व्यक्तिः स्व-वा० बा० । ३-न्तर्नामोल्लेख्यध्य-आ० । ४-बुद्ध्यवभा० हा० वि०। ५-दार्थ स-आ०।६ यदि श-आ०। ७ यदि स्व-बृ०। ८-गते प-वा० बा० । -कतां प्रस्था-आ. हा० वि० । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेसिद्धिमासादयेत् । न चार्थक्रियापि प्रतिक्षणं भेदवती सिद्धा तत् कथं स्वयमसिद्धा हेतोः प्रतिक्षणभेदमवगमयति । न च सौगतानां कालाभावादर्थक्रियाक्रमो युक्तिसङ्गतः । यदि ह्यतीतानागतवर्तमानकालभेदसङ्गतिमासादयेयुः कार्याणि तदा क्रमवन्ति भवेयुः। न च कार्यपरम्पराव्यतिरिक्तः कालः सौगतैरभ्युपगत इति भिन्नफलमात्रमेव । न च फलभेदमात्राद्धेतुभेदव्यवस्था कर्तु ५शक्या एकस्यापि प्रदीपादेरेकदाऽनेककार्यकरणात् । अथ वैशेषिकादिपरिकल्पितः पदार्थव्यतिरिक्तः कालोऽभ्युपगम्यते तथापि तस्यैकत्वात् न तद्भेदनिमित्तः कार्यभेदो युक्तिसङ्गतः। न चैककालानुपङ्गात् कार्याणि क्रमवन्ति भवन्ति योगपधाभावप्रसक्तेः। न च कालस्यैकत्वेऽपि क्रमवद्वर्षातपादिसम्बन्धात् क्रमः इतरेतराश्रयप्रसक्तेः। तथाहि-कालक्रमाद् वर्षादेः क्रमः तत्क्रमाच्च कालक्रम इति कथं नेतरेतराश्रयत्वम् ? न च काल१० क्रमहेतुरपरः कालोऽभ्युपगमविषयः अनवस्थाप्रसक्तेः कालक्रमनिमित्तापरापरकालाभ्युपगमानिष्ठितेः । न च कालः स्वरूपादेव क्रमवान् कार्याणामपि स्वरूपत एव क्रमवत्त्वप्रसक्तेः एवं च कालपरिकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तिः । तन्न कालाभ्युपगमेऽपि कार्यक्रमो युक्त्या सङ्गच्छत इति कथं कार्यक्रमो हेतुभेदमवगमयति? न च कार्यक्रमाभ्युपगमेऽपि हेतुरनित्यतामासादयतीत्युक्तम् । अथ क्रमेण कार्योदये अनेककर्तृत्वसङ्गतेरनित्यता, ननु कार्यक्रमदर्शनात् यदि नाम कारणस्य क्रमः स्वभाव. १५ मेदस्तु कथं सिध्यति? न च क्रमेण कार्यजनने जनकत्वाजनकत्वे भवत इति स्वभावभेदलक्षण मनित्यत्वं सिध्यति यतः क्रमोपेतकार्योपलम्भाद्धेतोर्जनकाजनकस्वभावं भेदं कल्पनाऽध्यवस्यति । न च तत्प्रदर्शितस्वभावभेदाद भावा भिद्यन्ते तथाऽभ्युपगमे वा कल्पना भावानामेकत्वमध्यवस्य न्त्युदयतीति नित्यता तेषां भवेत् । कल्पनाप्रदर्शितश्च भावानां जनकत्वाजनकत्वलक्षणः स्वभावभेदः । तथाहि-उदितप्रयोजनापेक्षया कल्पना भावानां जनकत्वमध्यवस्यति अनुदितफलापेक्षया तु २० तत्रैवाऽजनकत्वं सैवाध्यारोपयति, न च कल्पनाप्रदर्शितस्वभावभेदात् भावानां भेदो युक्तः अन्यथा परोपजनितकार्यापेक्षयैकस्यैव क्षणस्याजनकत्वम् स्वोत्पाद्यकार्यापेक्षया तु जनकत्वं तदैव तस्यासौ व्यवस्थापयति इति युगपदेकस्य क्षणस्य स्वरूपभेदप्रसक्तिः। अथात्राभेदप्रतिभासः कल्पनाप्रदर्शितं मेदं बाधते तर्हि क्रमेण कार्यजननेऽपि कल्पनाप्रदर्शितो जनकत्वाजनकत्वलक्षणः स्वभावभेदोऽभेदनिर्भासेन किं न बाध्यते ? न च क्रमेण कार्योत्पत्ती हेतुभेदः प्रतिक्षणमवभात्येव भ्रान्त्या तु २५न निश्चीयत इति वक्तव्यम् प्रतिक्षणं भेदसंवेदनस्याननुभवात् अननुभवे तु तत्कल्पने अतिप्रसंक्तिरित्युक्तमिति नार्थक्रियाभेदात् कारणभेदः अन्यभेदस्यान्याभेदकत्वात् । किञ्च, यदि नाम क्रम-योगपद्याभ्यां नित्यात् अर्थक्रिया व्यावृत्ता तथापि न ततः क्षणक्षयसिद्धिः। तथाहि-यथैषा अक्षणिकेभ्यो व्यावृत्तत्वात् क्षणिकत्वं साधयति तथा क्षणिकेभ्योऽपि व्यावृत्त त्वादक्षणिकतां साधयेत् । न च क्षणिकेभ्योऽस्या अव्यावृत्तिः। यतः क्षणिका अपि कार्यमुत्पादयन्तः ३० किं केवला एकमुत्पादयन्ति, उतानेकम् ? तथा समुदिता अपि तदेकम् , अनेकं वा? न तावदेक एकमुत्पादयत्यनभ्युपगमात् अदर्शनाच्च । तथाहि-एक एवाग्निः इन्धनविकार-धूम-भस्मादिकमनेकं कार्यमुत्पादयन्नुपलभ्यत इति नैक एकमेव जनयतीति नियमः "न वै किश्चिदेकं जनकम्" ] इत्यभ्युपगमविरोधश्चैकस्यैकजनकत्वेनाप्येकमनेकोत्पादकम् सामग्र्या एव जनकत्वाभ्युपगमात् अनेकस्मात् कार्योत्पत्युपलब्धेश्च । नाप्यनेकमेकोत्पादकम् कार्यस्यानेक३५ स्मादुपजायमानस्य नानात्वापत्तेः। न हि विज्ञानवाद्यभ्युपगतकार्यव्यतिरेकेण बाह्य वस्तु सामग्रीत उपजायमानं विज्ञानं वा एकं भवति । सौत्रान्तिक-वैभाषिकमतेन सञ्चितेभ्यः परमाणुभ्यः सश्चि १-त्रकमे-आ० हा० वि०विना। २-र्यकारणा-आ० हा० वि० । ३-भाव मेदं क-आ०। ४-क्षण स्व-आ०। ५ "कल्पना"-बृ० टि.। ६-दात् मेदानां भेदो हा० वि०। ७ “कल्पना"-बृ० टि० । ८-दर्शितजन-६०। ९-सक्तिरित्युक्तमिति अत्र बृ० प्रतौ 'रि' 'मि' इत्यनयोरुपरि यदेतद् अर्धचन्द्रसदृशं चिह्नमस्ति तद् इकारदर्शकमस्ति । १० “न तु खोपादानमात्रभावि किञ्चित् कार्य संभवति सामग्रीतः सर्वस्य संभवात् । यथोक्तम्-"न किञ्चिदेकमेकस्मात् सामय्याः सर्वसंभवः" "-तत्त्वसं० पजि० पृ० १५५ पं०१३। ११ “विज्ञानवादिमते विज्ञानमनेकस्मादुपजायमानं नैकम् सौत्रान्तिकमते बाह्य वस्तु । एतदेव विवृण्वन्नाह"-बृ० म०टि०। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ नयमीमांसा। तानां तेषामुत्पत्तेः सञ्चितपरमाणुव्यतिरेकेणापरस्य भिन्नस्याभिन्नस्य वा सञ्चयस्य वस्तुसतोऽभावात् यस्य च संवृतिसत एकता घटादेः न तस्य जन्यता, विज्ञानमपि विषयाऽऽलोकमनस्कारादिसामग्रीप्रभवं नैकं युक्तम् । नापि तद् एकरूपमभ्युपगम्यते ग्राह्यग्राहकाकारद्वयरूपस्य तस्य संवेदनात् । न चैकस्य रूपद्वयं वोधावोधरूपमुपपन्नम् । तथाहि-अहङ्कारास्पदः सुखादिरूपो ग्राहकाकारः अन्तस्तद्वैपरीत्येन च ग्राह्याकारोऽपर एवं प्रतिभाति तथा च स्वसंवेदनसिद्धभेदत्वात् रूप-रसयो-५ रिव तयोर्नेकत्वम् । अथायमनयोभदावभासो भिन्नयोरिव न पुनर्भिन्नयोरेव । तदुक्तम्-"ग्राह्यग्रा. हकसंवित्तिमेदवानिव लक्ष्यते ॥"[ ] इति, नैतदेवम् ; बाह्यार्थवादत्यागप्रसक्तेः सौत्रान्तिकैमतस्य वैभाषिकमतस्य चात्र विचारयितुं प्रक्रान्तत्वात् ज्ञानवादस्य च निषेत्स्यमानत्वात् । न च ग्राह्यग्राहकाकारयोः संवृतत्वं स्वकारणान्वयव्यतिरेकानुविधानात् । ग्राहकाकारो हि बोधरूपतया समनन्तरप्रत्ययान्वयव्यतिरेकानुविधायी विषयाकारोऽपि विषयस्यान्वय-व्यतिरेका-१० वनुविधत्ते एवं च रूप-रसादेरिव नानयोरेकता। न च निराकारममिन्नस्वभावमेकसामग्रीजन्यं ज्ञानं सम्भवति पराभ्युपगमेन निराकारत्वेन तस्य विषयसंवेदनत्वानुपपत्तेः । तस्मान्नैकमनेकजन्यमिति स्थितम्। नापि पूर्वसामग्रीत उत्तग सामग्री प्रभवतीति बौद्धाभ्युपगमात् अनेकमनेकमुत्पादयतीति वक्तव्यम्, यतः कारणायत्तः कार्याणां स्वभावः अन्यथा निहंतुकत्वं तस्य स्यात् पूर्वसामग्री च १५ सर्वेषां सामग्र्यन्तर्भूतानां समग्राजनकत्वेन व्यवस्थितेति कथं कार्यविशेषस्य सामग्र्यन्तर्गतस्यैकस्वभावता? एवं च रूपस्य ज्ञानरूपतापत्तिान जन्यत्वात् ज्ञानस्वरूपवत् ज्ञानस्यापि रूपस्वरूपतापत्तिः रूपजन्यत्वात् रूपस्वरूपवदित्यनेकत्वव्याघातः । न वा किञ्चिद् रूपम् प्रतिनियतस्वरूपाभावात् । अथावान्तरकारणसामग्रीविशेषसम्भवान् तजन्यस्य कारणभेदादेव स्वभावनानात्वमिति नायं दोषः। तथाहि-चक्षुरूपालोकमनस्कारादिपु विज्ञानादिकार्यान्पादकपु मनस्कारो विज्ञानमुपादानत्वेन २० जनयति शेपकार्याणि सहकारित्वेन एवं रूपादिकमपि रूपादिकार्यमुपादानत्वेन शेषाणि सहकारित्वेनेत्यवान्तरसामग्रीभेदेन सिद्धः तन्नन्यानां स्वभावभेदः। नन्यत्रापि किं येन रूपेण मनस्कारो ज्ञानस्य जनकस्तनव चक्षुगदिकमपि जनयति, आहाम्वित् रूपान्तरेण? यदि तेनैवेति पक्षस्तदा चक्षुरादे नत्वापत्तिः । तथाहि-सकलस्वगतविशेषाधायकत्वं कार्य उपादानत्वम् तद्रूपेण चेत प्रवृत्तो मनस्कारश्चक्षुगदिजनने कथं न चक्षुगदेशीनरूपतापत्तिः? अथ स्वभावान्तरेण चक्षुरादि-२५ जननेऽसौ प्रवर्तते: नन्वेवं स्वभावभेदात् मनस्कारस्य भेदापत्तिः स्वभावमेदलक्षणत्वात् वस्तुमेदस्य । अथ स्वसंविदि एकत्वेनावभासनात् मनस्कारस्यकत्वमुपादानसहकारिशक्तिमेदेऽपिः नम्वेवमक्षणिकस्यापि तदतत्कालभाविकार्यजनकत्वाजनकत्वभाव मेदेऽप्येकत्वेनाध्यक्ष प्रतिभासनात कथं नैकत्वम् ? अथ न स्वभावभेदाद भावभेदः अपितु विरुद्धस्वभावभेदात् तदतत्कार्यजनकत्वाजनकत्वे चाक्षणिकस्य विरुद्धौ स्वभावाविति तस्य भेदः: नन्वेवं मनस्कारक्षणस्यापि भेदप्रसक्तिः उपादान-३० स्व-सहकारित्वलक्षणयोः शक्त्योर्मनस्कागत् परस्परतश्च भेदात् । अथ न शक्तीनां शक्ति-शक्तिमतोर्वा मेदस्तथापि विरुद्धस्वभावद्वययोगात् मेद एव यतो मनस्कारस्योपादेयज्ञानं प्रति यैव जनिका शक्तिः सैव चक्षुरादिकं प्रति ततश्चक्षगदिकं प्रति जनकस्वभावः अजनकस्वभावश्च मनस्कार: १-केण पर-आ. हा. वि.। २ "विभागोऽपि बुद्ध्यामा विपर्यासितदर्शनैः” इति पूर्वार्धम्"-बृ० भां० मां. टि. । अष्टस० पृ. ९३ पं. १८ । म्याद्वादर० पृ. ८५.द्वि. पं. ६ । लो० वा. पार्थ० व्या० पृ. २७२ पं० १५। सर्वदर्शनसं० द. २ पृ. ३२५० २०६। शास्त्रवा• स्याद्वादक. पृ. २१५ द्वि. पं० २। ३-क-वै-बृ० वा. बा. भां• मां० । ४-स्य वा-वृ० वा. वा. हा. वि. विना । ५ एवं रू-आ० । ६-जन्यज्ञा-बृ. भां. मा० विना। -रत्वे तस्य वि-वृ० वा. बा० ।-रत्वेन तस्यावि-आ. हा. वि०। ८-ग्री भ-आ० । ९ एवं रू-ल. भां० मां० विन।। १०-स्यापि रूपताप भां० मा० आ० वि०। ११-पं प्रति प्रतिनिवा. बा. भ. मां० ।-प प्रतिनि-आ०। १२ अथवान्तर-वा. बा०। १३-वा तज्ज-ल० वा. बा। १४-दादेवं स्व-वृ० । १५ चक्षुस्वरूपा-आ० । चक्षु रूपा-हा० वि०। १६ एव रू-ल०। १७-त्यथान्त-चा. बा०। १८ तज्जन्मनां आ०। १९-कत्वभाव-आ० । २०-त्वक्ष-आ० हा० वि०। २१-श्च चक्षु-भां. मां०। २२-ननव-भा. मां। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ प्रथमे काण्डेप्रसक्तः चक्षुरादिजननात् तत्स्वभावः सकलस्वगतविशेषानाधायकत्वादतत्स्वभावः नहि जनकत्वादन्यत् सकलस्वगतविशेषाधायकत्वम् । नापि मनस्कारोजनकत्वम् धर्मधमिणोरभेदाभ्युपगमात् अतः शक्ति-शक्तिमतोरमेदपक्षे तदतत्स्वभावत्वमेकदैकस्यैकस्मिन् जन्ये पूर्वोक्तनीत्या प्रसक्तम् तेन विधि-प्रतिषेधरूपविरुद्धधर्म५संसर्गाद् भेदः प्रसक्तः । भेदपक्षेऽप्युपादानत्व-सहकारित्वयो रूप-रसवत् तदभावनियतभावत्वेनैफकालत्वेऽपि भेदात् मनस्कारलक्षणस्य भावस्य भेदः सिद्ध एव । न चैवमापादितभेदस्याप्यवाधि. तैकावभासिप्रत्ययविषयत्वात् न नानात्वम् अक्षणिकस्यापि पूर्वक्षणग्रहणपरिणामाजहद्वृत्तोत्तरक्ष रिणामवदध्यक्षेणकतया ग्रहणात् तदतजनकाजनकस्वभावभेदेऽपि न नानात्वमित्युक्तत्वात् । न च शक्ति-शक्तिमतोः शक्त्योश्चाभेदे 'इदमुपादानम् इदं च सहकारिकारणम्' इति विभागः १०क्षणिकपक्षे भवेत् । यदपि 'अन्त्यावस्थायां सर्वेषां प्रत्येकमभिमतकार्योत्पादकत्वम् अन्यसन्निधिस्तु स्वहेतुप्रत्ययसामर्थ्यात् नोपालम्भमर्हति न च भिन्नकार्योत्पत्तिः सर्वेषां तस्यैव जनने सामर्थ्यात् पर्यायानपेक्षणाच्च नोत्पन्नोत्पादोऽपि' इत्युक्तम् तदपि प्राक्तनन्यायेन निरस्तम् । किञ्च, अत्र पक्षे उप्णाद् गर्भगृहं प्रविष्टस्य मनस्कारादिः कारणकलापश्चक्षुर्माने समर्थः परस्परनिरपेक्षतयेति यथा मनस्कारस्य चक्षुर्ज्ञानं प्रत्युपादानता नस्यैवैकस्य तजनने सामर्थ्यात् तथा आलोकादेरपि इति १५ दर्शनक्षतिः प्रतीतिविरुद्धं चैकैकस्यैवोत्पादकत्वम् न चैकैकस्मात् कार्योत्पादः कदाचिदप्युपलब्ध इति कथं न तदभ्युपगमः प्रतीतिविरुद्धः? न च प्रकारान्तरेण क्षणिकानां कार्यकरणसम्भव इति क्षणिकेभ्योऽपि प्राक्तनन्यायेन कार्यकरणसामर्थ्य निवृत्तमक्षणिकत्वं प्रसाधयेत् श्रावणत्ववद् वा उभयव्यावृत्तत्वात् संशयहेतुर्भवेत् । नाप्येतद् वक्तव्यम् उक्तप्रकारेणाक्षणिकेष्वप्यर्थक्रियानुपपत्तिरिति निर्हेतुकं सकलं जगद् भवेत् अक्षणिकपक्षे बहुभ्यः समवायिकारणत्वादिरूपेभ्य एकमभिन्नं २० च वस्तूत्पद्यत इत्यभ्युपगमात् तत्र च विरोधाभावादियुक्तत्वात् । यदपि 'सत्त्वस्वरूपम्पवर्णयता प्रतिपादितमर्थक्रियालक्षणं भावानां सत्त्वम' इति तत्र किमर्थक्रियातः सत्त्वम्, आहोवित् सत्त्वादर्थक्रिया? तत्र यद्यर्थक्रियातः सत्त्वं तदा प्राक् सत्त्वव्यतिरेकेणापि तस्या उत्पत्तेर्निर्हेतुको सा । अथ सत्त्वादर्थक्रिया तदा अर्थक्रियातः प्रागपि भावसत्त्वसिद्धेः १-त्वादेत-मां० । २-राजन-भां. हा० वि०। ३ पूर्वग्र-ल. । ४-त्तरग्रह-वा. बा० । ५- नकस्व-आ० हा० वि०। ६-मभिगत-१०। ७ "क्रमः"-वृ० टि०। ८ परनिर-आ०। ९-नक्षि. तिः भां० मां० विना। १० "न हि आलोकं विनाऽपि अन्धकारे ज्ञानमुत्पद्यते ततो मनस्कारस्येव ज्ञानं प्रति आलोकादेरपि उपादानता किं न स्यात् (तदभावेऽपि तस्याभावात् ) इति"-वृ० मा० टि०। ( ) एतत्कोष्टकान्तर्गतः भागः ६० प्रतौ नास्ति। ११ “नित्यः शब्दः श्रावणत्वादिति । अत्र 'श्रावणत्वात्' इति हेतुर्नित्यानि. त्यपक्षाभ्यामाकाश-घटादिरूपाभ्यां व्यावृत्तः शब्दं विना अन्यत्र श्रावणत्वस्य अभावात् नित्यानित्यविनिमु(मुक्तस्य च अन्यस्य असंभवात् संशयहेतुः किम्भूतस्य अस्य श्रावणत्वमिति यतः शब्दं विना श्रावणत्वयुक्तो नान्यः पदार्थोऽस्ति यत्र श्रावणत्वे सति नित्यत्वमनित्यत्वं वा निश्चीयते शब्दस्यैव श्रावणत्वादिति । एवमत्रापि"-मांटि.। १२-कारेण क्ष-वृ० ल. वा. बा. विना। १३-मभिन्नं व-बृ० विना। १४ “यञ्चार्थक्रियालक्षणं सत्त्वमित्युक्तं तत्र लक्षणशब्दः कारणार्थः स्वरूपार्थः ज्ञापकार्थो वा स्यात् ? प्रथमपक्षे किमर्थक्रियालक्षणं कारणं सत्त्वस्य तद्वा अर्थक्रियायाः। तत्रार्थक्रियातः सत्त्वस्योत्पत्तौ प्राक् पदार्थानां सत्त्वमन्तरेणाप्यस्याः प्रादुर्भावात् निर्हेतुकत्वम् निराधारकत्वं वानुषज्येत । अथ सत्त्वादर्थक्रियोत्पद्यते तदार्थक्रियातः प्रागपि सत्त्वसिद्धेर्भावानां खरूपसत्त्वमायातम् । अथ स्वरूपार्थोऽसौ तत्रापि तद्धेतोरसत्त्वप्रसङ्गः । न हि अर्थक्रियाकाले तद्धेतुर्विद्यते । न चान्यकालस्य अस्य अन्यकाला सा खरूपमतिप्रसङ्गात् । नापि ज्ञापकार्थोऽसौ अर्थक्रियाकालेऽर्थस्यासत्त्वादेव। असतश्चास्याऽतः कथं सत्ताज्ञप्तिरतिप्रसङ्गात् । न चार्थक्रियोदयात् प्राक् कारणमासीदिति व्यवस्थापयितुं शक्यम् । यतो यदि स्वरूपेण पूर्व हेतुरवगतो भवेत् तदनन्तरं चार्थक्रिया तदार्थक्रिया प्रतिपन्नसम्बन्धोपलभ्यमाना प्राग्घेतुसत्ता व्यवस्थापयतीति स्यात् । न चार्थक्रियामन्तरेण हेतुः स्वरूपेण कदाचिदप्युपलब्धः परैः खरूपसत्त्वप्रसङ्गात् । अर्थक्रियायाश्चापरार्थक्रिया यदि सत्त्वव्यवस्थापिका तदानवस्था । न चार्थक्रियाऽनधिगतसत्त्वस्वरूपापि हेतुसत्त्वव्यवस्थापिका अश्वविषाणादेरपि तत्सत्त्वव्यवस्थापकत्वानुषङ्गात् । न च हेतुजन्यत्वादर्थक्रिया सती नार्थक्रियान्तरोदयादित्यभिधातव्यम् इतरेतराश्रयानुषङ्गात्-हेतुसत्त्वाध्यऽर्थक्रिया सती तत्सत्त्वाच हेतोः सत्त्वमिति”-प्रमेयक० पृ. १४८ द्वि. पं०२। १५ "अर्थक्रिया"-वृ० मां० टि। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । स्वरूपसत्त्वमायातम्, अपि चार्थक्रियाकाले हेतोरदर्शनात् असतस्तस्य कथं सत्ताऽवगम्यते ? न च 'अर्थक्रियोदयात् प्राक् कारणमासीत्' इति व्यवस्थापयितुं शक्यम् , यतो यदि स्वरूपेण पूर्व हेतुरवगतो भवेत् तदनन्तरं चार्थक्रियोपलम्भानुभवः स्यात् ततोऽर्थक्रिया अवगतप्रतिबन्धोपलभ्यमाना प्राग् हेतुसत्ताव्यवस्थापनपटीयसी भवेत् । न चार्थक्रियामन्तरेण हेतुः स्वरूपेण कदाचिदप्युपलब्धिगोचरः स्वरूपसत्त्वप्रसक्तेः। किञ्च, यद्यर्थक्रिया हेतुसत्ताव्यवस्थापिका तस्या अप्यपरार्थ-५ क्रिया व्यवस्थापिकेत्यनिष्ठाप्रसक्तेर्न हेतुसत्ताव्यवस्थितिर्भवेत् । न चार्थक्रिया अनधिगतसत्त्वस्वरूपाऽपि हेतुसत्त्वव्यवस्थापिका शशविषाणादेरपि तत्सत्त्वव्यवस्थापकत्वप्रसक्तेः। न च हेतुजन्यत्वादर्थक्रिया सती नार्थक्रियान्तरोदयादिति वक्तव्यम् इतरेतराश्रयप्रसक्तेः। तथाहि-हेतुसद्भावादर्थक्रिया सती तत्सत्त्वाञ्च हेतोः सत्त्वमिति परिस्फुटमितरेतराश्रयत्वमिति नार्थक्रियालक्षणं सत्त्वम् । भवतु वार्थक्रियालक्षणं सत्त्वं तथापि नातः क्षणक्षयानुमानम् यतोऽसौ भावानां १० क्षणस्थायितां साधयति, उत क्षणादूर्ध्वमभावम् ? प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता नित्यस्यापि भावस्य क्षणावस्थानाभ्युपगमात् अन्यथा सदावस्थितिरेव न भवेत् क्षणावस्थितिनिवन्धनत्वात् क्षणान्तरादिस्थितेः। न चोत्तरकालमभावमवगमयति अभावेन सह तस्याः प्रतिबन्धाभावात् न चाप्रतिबन्धविषयः शशविषाणादिवदनुमेयः । किञ्च, समानकालं वा सा साध्यं साधयेत् मिन्नकालं वा? यदि समानकालं सदूपं साध्यं साधयति तदा तत्समानकालभाविनः सत्तामात्रस्य १५ सिद्धत्वात् सिद्धसाध्यता अभावेन च प्रतिवन्धाभावान्न ततस्तत्सिद्धिः। अथ मिन्नकालं साधयति तत्रापि प्रतिबन्धाभावात् न ततस्तत्सिद्धिः न हि भिन्नकालेन विद्यमानेनाविद्यमानेन वा सत्तायाः कश्चिदविनाभाव इति यत्राविनाभावस्तत्र विप्रतिपत्तिर्नास्ति यत्र च विप्रतिपत्तिस्तत्राविनाभावस्याभाव इति न सत्तातः क्षणक्षयानुमानम् । न च सत्त्वं वर्तमानकालभावित्वम् तच्च पूर्वापरकालसम्बन्धविकलतया क्षणिकत्वं तदात्मकतया भावानां प्रकटयति यतो वर्तमानं क्षणिक-२० मिति कुतोऽवगम्यते ? पूर्वापरयोस्तत्रादर्शनादिति चेत्, न; दृश्यादर्शनस्यैवाभावव्यवहारसाधकत्वात् । अदर्शनमात्रस्य तु सत्यपि वस्तुनि सम्भवात् न तत्र प्रमाणता । न च सर्व वस्तु सर्वदा दर्शनयोग्यम् चक्षुर्व्यापाराभावे वस्तुनोऽप्रतिभासनात् तदैव च चक्षुर्व्यापारात् परेणोप लम्भात् तन्न पूर्वापरयोरनुपलम्भमात्रादभावनिश्चय इति न प्रत्यक्षानुमानाभ्यां क्षणिकतावगमः । न चैतद्यतिरिक्त प्रमाणान्तरं परैरभ्युपगम्यते इति कुतः क्षणिकत्वसिद्धिः? २५ यदपि 'यद् यथावभासते तत् तथैवाभ्युपगन्तव्यम् यथा नीलं नीलरूपतया प्रतिभासमानं तेनैव रूपेणाभ्युपगमविषयःक्षणपरिगतेन च रूपेण पदार्थाः प्रतिभान्तीति प्रत्यक्षसिद्धे क्षणिकत्वे तद्यवहारसाधनाय हेतूपादानम् इति परैः प्रतिपादितम् तदप्ययुक्तम् । 'क्षणपरिगतेन रूपेण प्रतिभासनात्' इति हेतोरसिद्धेः कालान्तरस्थायितयाऽध्यक्षे भावानां प्रतिभासनस्य प्रतिपादितत्वात् । यदप्यभिहितम् 'न प्रथमदर्शनेन कालान्तरस्थितिरवसातुं शक्या' तदप्यसङ्गतम् : स्थिर-३० रूपपदार्थदर्शनात आ विनाशकारणसन्निधानात् स्थायितया आद्यदर्शनेनैव भावस्य ग्रहणात अन्यथैकक्षणस्थायितया तस्य ग्रहणे व्यवहारार्थमुपादानं न भवेत् । न च तत् क्षणप्रभवं वस्तु व्यवहारं साधयिष्यतीति तदुपादानम् एवंभूतप्रतिपत्तेरभावात् । नहि व्यवहारिणः 'इदमर्थक्रियाकारि वस्त्वन्यदेव' इति प्रतिपद्यन्ते। न च सन्ताननिबन्धनोऽयं व्यवहारःक्षणिकत्वासिद्धौ सन्तानस्यासिद्धेः। न च भ्रान्तोऽयं व्यवहारः अतस्मिंस्तद्ब्रहणरूपस्य भ्रान्तत्वस्य क्षणक्षयासिद्धावसिद्धेः । न च क्षणिकत्वं ३५ १ तत्स्वत्वव्य-वा. बा. आ०। २-दत्रार्थ-आ०। ३ “अस्तु वा अर्थक्रियालक्षणं सत्त्वम् तथापि अतोऽर्थानां क्षणस्थायिता क्षणिकत्वं साध्येत क्षणाद् ऊर्ध्वमभावो वा"-प्रमेयक० पृ. १४८ द्वि० ५० १०। ४ “यदि हि एकस्मिन् क्षणे न स्थितिर्भावस्य तदा क्षणान्तरेऽपि कथं स्यात्"-वृ० मां.टि.। ५ तस्याप्र-वृ० वा. बा. हा०वि०। ६ वा साध्यं आ० हा० वि० । ७-कालसद्र-बृ०। ८ "सत्ता"-मां. टि. । “साधन"-वृ० टि। ९-वान्नतस्त-वा० बा० ।-वात् ततस्त-ल. । वा ततस्त-आ० । १० “अन्येन पुंसा"-बृ० मां.दि.। ११-क्षसिद्धक्ष-भां० मा०। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेतथाप्रतिभासात् सिद्धम् इतरेतराश्रयप्रसक्तेः। तथाहि-प्रतिभासात् क्षणिकत्वसिद्धौ एकत्वव्यवहारो भ्रान्तः सिध्यति तत्सिद्धेश्च तथाप्रतिभाससिद्धौ क्षणिकता सिध्यतीतीतरेतराश्रयत्वम् । न चान्यदनुमानं क्षणिकताप्रतिपादकमस्ति यत एकत्वव्यवहारस्य भ्रान्तता भवेत् । न च भाविजन्मपरम्पराग्रहणप्रसक्तिराद्यप्रत्यक्षेण कालान्तरस्थायिताप्रतिपत्तौ यतोऽबाधितप्रतिपत्ती यत् प्रतिभाति तदेव ५तबाह्यतया व्यवस्थाप्यते नत्वप्रतिभासमानस्यापि ग्राह्यताप्रसक्तिप्रेरणं युक्तिसङ्गतम् । नहि 'सुरमि चन्दनम् इति विशेषणविशेष्यभावग्रहणे वाहोऽपि विपये बाह्यन्द्रियनिरपेक्षं स्वातन्येण प्रवृत्तं मानसमध्यक्षमेकीयमतेनेति सर्वत्रैव तत् प्रवर्ततामिति प्रेरणायुक्तिसङ्गता सर्वस्य तत्राप्रतिभासनात् यत्रैव विशेषणविशेष्यभावनियतं लिङ्गाद्यनपेक्षं मनः प्रवर्तते तत्रैव तद्रहणव्यापारोऽभ्युपगन्तव्यः न सर्वत्र एवं भाविकालान्तरादिस्थितेरपि वक्तव्यम् यतः तत्रापि भाविकालादीनामसन्निहितत्वेऽपि १० तद्यापिनो भावस्य सन्निहितत्वात् तत्र व्याप्तमक्षं तद्विशेषणत्वव्यवस्थितानां भाविकालादीनामपि ग्राहकम् न चैवं तदनिन्द्रियजमसन्निहितार्थजत्वेन भ्रान्ततरं च इन्द्रियान्वय-व्यतिरेकानुविधानेन सन्निहिते 'विशेष्ये भावात्, न चासन्निहितानां भाविकालादीनां तत्राप्रतिभासः विशेष्यप्रतिभासाऽऽकृष्टानां शतादिग्रहणे पूर्वसङ्ख्येयानामिव तेषां तत्र प्रतिभासंसंवेदनात् अन्यथा अस्ख लद्रप एकत्वनिवन्धन उपादेयव्यवहारस्तत्र कथं भवेत? इत्युक्तमसन्निहितार्थस्यापि चेन्द्रियजत्वं १५तैमिरिकन्नानस्येवोपपन्नम् केवलमसत्यत्वे विवादः तत्र च वाधकाभावात् कालान्तरस्थायिता प्रतिपत्तेः सत्यता व्यवस्थाप्यते । न च विषयसन्निधानासन्निधाने इन्द्रियजत्वप्रयोजके अपि त्विन्द्रियव्यापारानुविधानम् तच्चात्रास्तीति कथं न कालान्तरस्थितिप्रतिपत्तिरक्षजा? न चावच्छेदकाऽग्रहणेऽवच्छेद्यस्याप्यग्रहणमिति वक्तव्यम् अवच्छेदकप्रतिभासस्य प्रसाधितत्वात् । किञ्च, यदि पूर्वापरविविक्तमध्यक्षणप्रतिभास्येव अध्यक्ष भवेत् तदा वाधकसंवादप्रत्यया२० नुत्पत्तितः प्रमाणेतरव्यवहारो ज्ञानानां विशीर्येत । तथाहि-बाधकं पूर्व विषयापहारेणोत्पत्तिमासादयति पूर्वप्रत्ययेन च ययुत्तरप्रत्ययसमये स्ववियसत्त्वं' नावभातं तदा स्वसमये बाधकेन पूर्व विज्ञानगोचरस्यासत्वावेदनेऽपि कथं वाधकता ? नहि विनाशकारणव्यापारोत्तरकालभा. विभावासत्त्वावेदकज्ञानस्य पूर्वज्ञानवाधकता । न च बाधकेन पूर्वविज्ञानविषयस्य पूर्वमेवासत्त्व. परिच्छेदात् वाधकता तस्य पूर्वविज्ञानविषये प्रवृत्त्यभ्युपगमप्रसक्तेरिति वाध्यवाधकभावाभ्युपगमे २५ पूर्वोत्तरविज्ञानयोरेकविषयता अभ्युपगन्तव्या अन्यथा सन्तानकल्पनाया असम्भवतो बाध्यबाधकभावविलोपप्रसक्तेरप्रामाण्यव्यवस्था न क्वचित् विज्ञाने भवेत् पूर्वविज्ञानविषये अविजातीयोत्तरज्ञानवृत्तिः संवादः सोऽपि पूर्वापरज्ञानविषयैकत्वे सम्भवति नान्यथेति तद्यवहारादपि स्थायिताग्राह्यध्यक्षसिद्धिः पूर्वज्ञानवदुत्तरज्ञानमपि 'तदेवेदम्' इत्युल्लेखवत् पूर्वक्षणेषु वर्त्तते इत्यभ्युपगन्तव्यम् न्यायस्य समानत्वात् । न च पूर्वदेश-काल-दशा-दर्शनानामुत्तरज्ञानप्रतिभासे ३०तहेशादिताप्रसक्तिरिति वर्तमानतामात्रग्रहणात् क्षणिकताह एव अग्रहणे न तेन स्वविषयस्य पूर्वादिताग्रह इति वक्तव्यम् क्षणिकत्वग्रहेऽप्यस्य चोद्यस्य समानत्वात् । तथाहि-उत्तरज्ञानेन पूर्वदेशादीनां ग्रहणे न स्वविषयस्य ततो 'भेदग्रहः अग्रहणेऽपि सुतरां तेषामग्रहे 'ततो भिन्नमिदम्' इति प्रतीतेरयोगात् प्रतियोगिग्रहणसव्यपेक्षत्वाद् भेदावगतेः । न च स्वविषयस्य तेन तदनुप्रवेशा १-वर्तनमि-भां० मां०। २ व्यावृत्तम-आ०। ३ भ्रान्तरं च भां० हा० वि० । भ्रान्तं च ६० ल. वा. बा०। ४ विशेष्यभा-आ०। ५ "तद्विशेषणत्वेन"-मां० टि.। ६ “भाविकालादीनाम्"-बृ. मां० टि०। ७"तद्विशेषणत्वेन"-बृ० टि०। ८ "ज्ञानस्य"-मां० टि०। ९न वि-आ० । १०-धानेन्द्रियव्यापा-बृ०। ११ “भाविकाल"-मांटि०। १२-ध्यक्षेण-आ० हा०वि०। १३-शीर्यते त-बृ० ल. वा. बा० विना। १४-षयं स-मां०। १५-त्वंनावभाव तदा बृ० ।-वंतावभावत्तदा वा० बा०। १६ “ततो यथा पूर्वस्मिन् विज्ञानेऽसत्यपि प्रवृत्तिर्बाधकस्य तथा भाविकालेऽपि किं न स्यात् । तथा च नित्यता कथं सिध्येत् (न सिध्येत्)" बृ० टि.। १७-ग्रहण एव अग्र-आ० ।-ग्रह एवं अन-भां० हा०वि०। १८ मेदः अग्रहणे-वा० बा। मेदग्रहणेऽ-हा०वि० । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ४०५ ग्रहणमेव मेदग्रहणम् तद्भेदाग्रहणमेव तदनुप्रवेशस्वरूपनित्यत्वग्रहणमित्यस्यापि वक्तुं शक्यत्वात् । न च स्वरूपमेव भेद इति तद्हणे भेदग्रहः अभेदेऽप्यस्य समानत्वात् । तथा च 'पूर्वमेवेदं मया दृष्टम्' 'पूर्वदृष्टं पश्यामि' इति च पूर्वोत्तरज्ञानयोर्भाविभूतज्ञानेकार्थविषयताव्यवस्थापकं निश्चयद्वयं यथाक्रममुपजायमानं संलक्ष्यत इति यथा 'नीलमिदं पश्यामि' इति तद्यापारानुसारिविकल्पोदयात् तत्प्रतिभासोऽध्यक्षस्याविकल्पकस्य व्यवस्थाप्यते तथा प्रकृतेऽपि पूर्वोत्तरशानद्वये अभेद-५ प्रतिभासो व्यवस्थापनीयः न्यायस्य समानत्वात् । इदमेव वा निश्चयद्वयमक्षव्यापारानुसारित्वादध्यक्षतामनुभवति यतो नेमानुमानिकम् लिङ्गाद्यनपेक्षतयोत्पत्तेः, नापि भ्रान्तम् बाधकाभावात् , न च स्मृतिरूपम् अपूर्वार्थप्रतिपत्तेः । न च प्रथाँक्षव्यापारानन्तरमनुत्पत्तेः स्मरणरूपताऽस्य, विशिष्टसामग्र्यन्तर्भूतेन्द्रियजन्यतया प्रागनुत्पादेऽपि स्मरणरूपतानुपपत्तेः । अत एवोत्पाद्यमाने पटादौ 'अनागताध्यवसायोऽध्यक्षम्' इति केचित् सम्प्रतिपन्नाः । न हनध्यवसितमुत्पाद्यते तथा १० चोत्पन्ने तदुत्पादकानां प्रतिपत्तिः यदेवोत्पादयितुमध्यवसितं तदेवोत्पादितम् यदेव चोत्पादितं तदेवाध्यवसितमित्यभेदप्रतिपत्तिः सङ्गता भवति । न चास्या अनिमित्तता अनियतनिमित्तता वा कादाचित्कतयाऽनिमित्तत्वस्याभावात् लिङ्गादिनिमित्ताभावतः पारिशेष्यादिन्द्रियलक्षणनियतनिमित्तत्वाचे । न चैवम्भूतप्रतिपत्तर्मिथ्यात्वेनोपलब्धेरियमपि मिथ्या, प्रत्यक्षस्यापि कस्यचिन्मि थ्यात्वोपलब्धेः सर्वस्य मिथ्यात्वप्रसक्तेः । न च तत्र बाधकाभावात् सार्थतेति वक्तव्यम् अत्रापि १५ समानत्वात् बाधारहिता हि सविकल्पा प्रतिपत्तिः प्रमा नान्येत्यभ्युपगमात् । न च मनसः सर्वत्रातीते अनागते वाऽव्याहतप्रसरत्वादुत्पाद्यमाने भावे तदध्यवसायस्य मनोजन्यत्वेनाध्यक्षता युक्ता चक्षुरादेस्त्वतीतानागतयोरविषयत्वेन तत्प्रतीतेः कथमध्यक्षतेति वक्तव्यम् उक्तोत्तरत्वात् अतीतानागतविषयस्य मानसाध्यक्षत्वेऽपि वा क्षणप्रतिभासलक्षणस्य हेतोरसिद्धता भवत्येव अबाधितमानसाध्यक्षेण भावानामेकत्वग्रहणात् । २० यदपि 'किं क्षणिकेन ज्ञानेन स्थायिता युगपत् क्रमेण वा भावानां गृह्यते, आहोस्वित् अक्षणिकेन' इति विकल्प्य सर्वत्र दोषप्रतिपादनं कृतम् तत् क्षणिकत्वग्रहेऽपि समानम् । तथाहि-न क्षणिके ज्ञाने क्षणस्थिति-क्षणान्तरस्थित्योर्युगपत् क्रमेण वा प्रतिभासे तयोर्भेदप्रतिपत्तिः परस्पराभावस्य भावग्राहिणि तत्राप्रतिभासनाद् भावाभावयोर्विरोधात् तदप्रतिभासने च न तद्भेदप्रतिपत्तिः अभावप्रतिपत्तौ वा भावाभावयोर्विरोधाभावात् न क्षणस्थिति-क्षणान्तरस्थित्योर्भेदप्रतिपत्तिः । नापि२५ तयोरप्रतिभासने मेदावगतिः प्रतियोगिग्रहणसव्यपेक्षत्वाद् भेदप्रतिपत्तेरिति भवतैवाभिधानात् । अन्तर्बहिश्च स्थिरस्थूराध्यक्षप्रतिभासबाधितत्वाच्च प्रकृतविकल्पानामनुत्थानमिति न प्रतिपदमेषां निराकरणे प्रयत्नः सफलः पिष्टपेषणरूपत्वात् दियात्रप्रदर्शनं तु विहितमेवेत्यलमतिविसारिण्या कथया। तत् क्षणक्षयप्रसाधने प्रत्यक्षादेः प्रमाणस्यानवताराद् बाधकत्वेन च तस्यैकत्वाध्यवसायिनः प्रवृत्तिप्रतिपादनात न पर्यायास्तिकाभिमतपूर्वापरक्षणविविक्तमध्यक्षणमौत्रं वस्तु किन्तु ३० अतीतानागतपर्यायाधारमेकं द्रव्यवस्त्विति द्रव्यार्थिकनिक्षेपः सिद्धः। [द्रव्यनिक्षेपविषयस्य द्रव्यस्य आगमोक्तरीत्या स्वरूपवर्णनम् ] द्रव्यं च अनुभूतपर्यायम् अनुभविष्यत्पर्यायं चैकमेव तेन 'अनुभूतपर्याय'शब्देन तत् कदाचिदभिधीयते कदाचिच्च 'अनुभविष्यत्पर्याय'शब्देन यथा अतीतघृतसम्बन्धो घटो 'घृतघटः' इत्यमिधीयते भविष्यत्तत्सम्बन्धोऽपि तथैवाभिधानगोचरचारी। शुद्धतरपर्यायास्तिकेन च निरा-३५ कारस्य ज्ञानस्यार्थग्राहकत्वासम्भवात् साकारं ज्ञानमभ्युपगतम् तत्संवेदनमेव चार्थसंवेदनम् ज्ञानानुभवव्यतिरेकेणापरस्यार्थानुभवस्याभावात् घटोपयोग एव घटस्तन्मतेन । तत्पर्यायेण अतीतेन १-ष्टं पूर्वदृशं पश्या-मां० ।-टं पश्या-आ० हा० वि०। २ इममे-वा० बा० ३-व चा नि-बृ० । ४-माध्यक्ष-मां०। ५ “यथाक्रमं हेतुद्वयं योज्यम्"-बृ० मां० टि०। ६-त्यार्थेति वा० बा०। ७-कल्पकां प्र-वा० बा०। ८-दुत्पद्य-प्र० मां० बहिः। ९ “अध्यवसायस्य"-बृ० मां० टि.। १०-दन तत् वा० बा० । ११-वस्य भावस्य ग्राहि-वा० बा० ।-वग्राहि-आ०। १२-पत्तेरपि भ-वा० बा० ।-पत्तिरिति भ-आ०१ १३-मात्र व-आ०। १४ायं वैक-वा. बा०। १५-नच त-आ० । ५२ स० त० Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे परिणतम् परिणस्यद् वा द्रव्यं तच्छब्दवाच्यं द्रव्यार्थिकमतेन व्यवस्थितं पूर्ववत् । अत एव घटाद्यर्थाभिशः तत्र च अनुपयुक्तो 'द्रव्यम्' इति प्रतिपादितः द्रव्यार्थिकनिक्षेपश्च । द्रव्यमार्गेमे अनेकधा प्रतिपादितम् इह तु युक्तिसंस्पर्शमात्रमेव प्रदर्श्यते तदर्थत्वात् प्रयासस्य । ४०६ [ ४ भावनिक्षेपः ] [ भावं व्याख्याय तत्र पर्यायार्थिकत्वकथनम् ] भवति - विवक्षितवर्त्तमानसमयपर्यायरूपेण उत्पद्यते इति भावः, "विभाषा ग्रहः” [३|१|१४३ सिद्धान्तकौ० अं० २९०५ ] इत्यत्र सूत्रे कैश्चिद् “भवतेश्व" इति णोऽपीष्यते । अथवा भूतिर्भावः वज्र- किरीटी दिधारणवर्त्तमानपर्यायेणेन्द्रादिरूपतया वस्तुनो भवनम् तग्रहणपर्यायेण वा ज्ञानस्य भवनम् । यथा चायं पर्यायार्थिकप्ररूपणा तथा प्रदर्शित एव प्राकू न पुनरुच्यते । एष एव नय१० निक्षेपानुयोग प्रतिपादितः उभयनयप्रविभागः परमार्थः परमं हृदयमागम स्यैतदव्यतिरिक्तविषयत्वात् सर्वनयवादानाम् न हि शास्त्रपरमहृदयनयद्वयव्यतिरिक्तः कश्चिन्नयो विद्यते सामान्यविशेषस्वरूपविषयद्वयव्यतिरिक्तविषयान्तराभावाद् विषयिणोऽप्यपरस्य नयान्तरस्याभाव इति प्राक् प्रतिपादितमिति ॥ ६ ॥ गा० १ " अणुवओगो दव्वं" - अनुयोग० पृ० ३२ द्वि० सू० ३३ । “अनुपयोगो द्रव्यम्"- विशेषा० बृ० वृ० पृ० २५ २९ प्र० पं० १६ । २- मे वाच्यं । अ-भां० मां० । ३ " भवतेश्च इति वक्तव्यम्" - काशिका पृ० १७३३।१।१४३ सूत्रवृत्तौ । “भवतेश्व इति काशिका" - सिद्धान्तकौ० पृ० ४९० सूत्र २९०५वृत्तौ । ४-टादिकरण - वृ० । ५ " भावः " - बृ० ल० मो० टि० । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। [ द्रव्य-पर्याययोरन्योन्यव्याप्तिज्ञप्तये निरपेक्षनयाश्रितवचसामसत्यत्वकथनम् ] एतदपि नयद्वयं शास्त्रस्य परमहृदयम् 'द्रव्यं पर्यायाशून्यम् पर्यायाश्च द्रव्याविरहिणः' इत्येवं. भूतार्थप्रतिपादनपरम् नान्यथेत्येतस्यार्थस्य प्रदर्शनार्थमाह पजवणिस्सामण्णं वयणं दवट्ठियस्स 'अत्थि'त्ति। अवसेसो वयणविही पज्जवभयणा सपडिवक्खो ॥७॥ परस्परनिरपेक्षस्य नयद्वयस्य प्रत्येकमेवं वचनविधिः-द्रव्यास्तिकस्य अननुषक्तविशेषं वचनम् 'अस्ति'इत्येतावन्मात्रम्, पर्यायास्तिकस्य स्वपरामृष्टसत्तास्वभावं 'द्रव्यम्' 'पृथिवी' 'घटः' 'शुक्लः' इत्याद्याश्रितपर्यायम् । परस्परनिरपेक्षं चोभयनयवचोऽसदेव, वचनार्थासत्त्वात् । वचनमसदर्थमिति तदर्थस्याप्यसत्त्वमावेदितं भवतीति समुदायार्थः । अवयवार्थस्तु-पर्यायनयेन सह निःसामान्यम् असाधारणं वचनं द्रव्यास्तिकस्य १० 'अस्ति' इति एतत् , भेदवाद्यभ्युपगतस्य विशेषस्य सत्तारूपतानुप्रवेशात् । एतच्च वचो निर्विषयम्, निर्विशेषत्वात्, वियत्कुसुमाभिधानवत् "निर्विशेषं हि सामान्यं भवेच्छशविषाणवत्" [ श्लो० वा० आकृति० श्लो० १०] इति प्रसाधितत्वान्नाव्याप्तिहेतोः । असिद्धिः पराभ्युपगमादेव परिहृता । तन्न एकान्तभावनाप्रवृत्तस्य द्रव्यास्तिकनयस्य परमार्थता । पर्यायोस्तिकस्याप्येवंप्रवृत्तस्य न सेति पश्चार्द्धन प्रतिपादयति-१५ अवशेष इति शेषः स चोपयुक्तादन्यः वचनविधिः वचनभेदः सत्ताविकलविशेषप्रतिपादकः पर्यायेषु सत्ताव्यतिरिक्तेष्वसत्सु भजनात्-सत्ताया आरोपणात् सप्रतिपक्षः इति सतः प्रतिपक्षः-विरोधी असन् भवति । तथाहि-पर्यायप्रतिपादको वचनविधिरवस्तुविषयः, निःसामान्यत्वात्, खपुष्पवत् । भावना तु द्रव्यार्थिकवचनविपर्ययेण प्रयोगस्य कार्या। __ अथवा “अर्थाभिधानप्रत्ययास्तुल्यनामधेयाः" [ ] इति अर्थ-प्रत्यययोः स्वरूप-२० मभिधाय अभिधानस्य द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिकस्वरूपस्य तद्भिधायकस्य वा प्रतिपादनार्थमाहपजवणिस्सामण्णं इत्यादि । पर्यायान्निष्क्रान्तम्-तद्रिकलम्-सामान्य सङ्ग्रहस्वरूपं यस्मिन् वचने तत् पर्यायनिस्सामान्यं वचनम् । किं पुनस्तत् ? इत्याह-'अस्ति' इति, तच्च द्रव्यार्थिकस्य स्वरूपम् प्रतिपादकं वा । यद्वा पर्यायः ऋजुसूत्रनयविषयाद् अन्यो द्रव्यत्वादिविशेषः, स एव च निश्चितं सामान्यं यस्मिंस्तत् पर्यायनिस्सामान्यं वचनम् द्रव्यत्वादिसामान्यविशे-२५ षाभिधायीति यावत् । तच्च अशुद्धद्रव्यार्थिकसम्बन्धि तत्प्रतिपादकत्वेन तत्स्वरूपत्वेनं वा। अवशेषो वचनविधि:-वर्णपद्धतिः सप्रतिपक्षः अस्य वचनस्य पर्यायार्थिकनयरूपः तत्प्रति. पादको वा पर्यायसेवनात् ; अन्यथा कथमवशेपवचनविधिः स्यात् यदि विशेषं नाश्रयेत् ? ॥७॥ १-वक्खे वा० बा०। २-यार्थिक-वृ० वा. बा०। ३-दक प-आ• हा० वि०। ४-रिक्तेषु रूपभवा. बा०। ५-कस्वरू-भां० मा०। ६-त्वावि-वा. बा०। ७ यस्मिन् वचने तन्निःसा-हा. वि०। यस्मिन् वचने तस्मिन् वचने तन्निःसा-आ०। ८-व्यार्थिकं स-बृ०। ९-नच वा. बा। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ प्रथमे काण्डे [द्रव्य-पर्याययोरन्योन्यसम्मिश्रत्वसूचनाय ज्ञानानेकान्तवर्णनम्] एवं तावद् द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकभेदेन मेदमनुभवतां नयानां स्वरूपं प्रतिपाद्य अनेकान्तभावभावनयैवैषां सत्यता नान्यथेत्येतत्प्रतिपादनार्थ मानानेकान्तमेव तावदाह पजवणयवोकतं वत्धुं दवट्टियस्स वयणिज्जं । जाव दविओवओगो अपच्छिमवियप्पनिव्वयणो॥८॥ द्रव्यास्तिकस्य वक्तव्यम्-परिच्छेद्यो विषयः, निश्चयकर्तृ वचनं निर्वचनम् , विकल्पश्च निर्वचनं च विकल्प-निर्वचनम्, न विद्यते पश्चिमं यस्मिन् विकल्पनिर्वचने तत्-तथा-तथाविधं तद् यस्य द्रव्योपयोगस्यासौ अपश्चिमविकल्पनिर्वचनः सङ्ग्रहावसान इति यावत् ततः परं विकल्पवचना ऽप्रवृत्तेः । यावद् अपश्चिमविकल्पनिर्वचनो द्रव्योपयोगः प्रवर्त्तते तावद् द्रव्यार्थिकस्य १० विषयो वस्तु, तच्च पर्यायाक्रान्तमेव; अन्यथा ज्ञानाऽर्थयोरप्रतिपत्तेरसत्त्वप्रसक्तिः। न हि पर्याः याऽनाफ्रान्तसत्तामात्रसद्भावग्राहकं प्रत्यक्षम् अनुमानं वा प्रमाणमस्ति, द्रव्यादिपर्यायाक्रान्तस्यैव सर्वदा सत्तारूपस्य ताभ्यामवगतेः। __ यद्वा यद् वस्तु सूक्ष्मतरतमादिबुद्धिना पर्यायनयेन स्थूलरूपत्यागेनोत्तरतत्तत्सूक्ष्मरूपाश्रयणाद् व्युत्क्रान्तम् गृहीत्वा त्यक्तम् , यथा किमिदं मृत्सामान्यं घटादिभिर्विना प्रतिपत्ति१५ विषयः यावत् शुक्लतमरूपस्वरूपोऽन्त्यो विशेषः एतद् द्रव्यार्थिकस्य वस्तु विषयः यतो यावद् अपश्चिमविकल्पनिर्वचनोऽन्त्यो विशेषस्तावद् द्रव्योपयोगः द्रव्यमानं प्रवर्तते; नहि द्रव्यादयो विशेषान्ताः सदादिप्रत्यया विशिष्टैकान्तव्यावृत्तबुद्धिग्राह्यतया प्रतीयन्ते, न च तथाऽप्रतीयमा. नास्तथाभ्युपगमार्हाः अतिप्रसङ्गात् ॥ ८॥ [ वस्तुगत्या व्यात्मक एव तत्वे नयद्वयविषयविवेकस्य विवक्षाधीनत्वाभिधानम् ] २० सदेवं न सत्ता विशेषविरहिणी, नापि विशेषाः सत्ताविकला इति प्रदोपसंहरनाह दव्वढिओ ति तम्हा नत्थि णओ नियम सुद्धजाईओ। ण य पज्जवडिओ णाम कोइ भयणाय उ विसेसो ॥९॥ तस्माद् द्रव्यार्थिकः इति नयः शुद्धजातीयः विशेषविनिर्मुक्तो नास्ति-नियमेन इत्यवधारणार्थः-विषयाभावेन विषयिणोऽप्यभावात् । न च पर्यायार्थिकोऽपि कश्चिन्नयः२५'नाम' इति प्रसिद्धार्थः-नियमेन शुद्धस्वरूपः सम्भवति, सामान्यविकलात्यन्तव्यावृत्तविशेषविषयाभावेन विषयिणोऽप्यभावात् । यदि विषयाभावाद् इमौ नयौ न स्तः यदुक्तम् 'तीर्थकरवचनसङ्ग्रह'-इत्यादि तद् विरुध्यत इत्याह-भयणाय उ विसेसो भजनायास्तु विवक्षाया एव विशेषः–'इदं द्रव्यम् अयं पर्यायः' इत्ययं भेदः तथा तद्भेदाद् विषयिणोऽपि तथैव मेद इत्यभिप्रायः । भजना च-सामान्यविशेषात्मके वस्तुतत्त्वे उपसर्जनीकृतविशेषं यद् अन्वयि३० रूपं तद् 'द्रव्यम्' इति विवक्ष्यते यदा तदा द्रव्यार्थिकविषयः, यदा तूपसर्जनीकृतान्वयिरूपं तस्यैव वस्तुनो यद् असाधारणं रूपं तद् विवश्यते तदा पर्यायनयविषयस्तद् भवतीति ॥९॥ १ परिच्छेद्यवि-आ० । २-त्वा त्युक्तम् बृ०। ३-त्ति जम्हा वा. बा०। ४-ओ णिय-बृ० । ५ पृ. २७१ पं० ७ । ६-व्यार्थवि-वा० बा० । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०९ नयमीमांसा । [विवक्षाकृतस्य नयद्वयविषयविवेकस्य विशदीकरणम् ] एवंरूपभजनाकृतमेव भेदं दर्शयितुमाह दव्वढियवत्तव्वं अवत्थु णियमेण पजवणयस्स। तह पन्जववत्थु अवत्थुमेव दव्वढियनयस्स ॥१०॥ पर्यायास्तिकस्य द्रव्यास्तिकाभिधेयमस्तित्वम् अवस्त्वेव मेरूपापन्नत्वात् द्रव्या-५ स्तिकस्यापि पर्यायास्तिकाभ्युपगता भेदा अवस्तुरूपा एव भवन्ति, सत्तारूपापश्नत्वात् । अतो भजनामन्तरेणैकत्र सत्तायाः अपरत्र च भेदानां नटत्वात् 'इदं द्रव्यम् एते च पर्यायाः' इति नास्ति भेदः। न च प्रतिभासमानयोर्द्रव्य-पर्याययोः कथं पर्यायास्तिक-द्रव्यास्तिकाभ्यां प्रतिक्षेपः इति वक्तव्यम् यतः प्रतिभासोऽप्रतिभासस्य वाधकः न तु मिथ्यात्वस्य; मिथ्यारूपस्यापि प्रतिभासनात्। तथाहि पर्यायास्तिकः प्राह-न मया द्रव्यप्रतिभासो निषिध्यते-तस्यानुभूयमानत्वात्-किन्तु १० विशेषव्यतिरेकेण द्रव्यस्याप्रतिभासनात् अव्यतिरेके तु व्यक्तिस्वरूपवत् तस्यानन्वयात् उभयरूपतायाश्चैकत्र विरोधात् गत्यन्तराभावात् द्रव्यप्रतिभासस्तत्र मिथ्यैव। विशेषप्रति सस्त्वन्यथा, बाधकाभावात् यतः प्रतिक्षणं वस्तुनो निवृत्ते शोत्पादौ पर्यायलक्षणं न स्थितिः। द्रव्यार्थिकस्तु भजनोत्थापितस्वरूपः प्राह-अस्माकमप्ययमेवाभ्युपगमः-न विशेषप्रतिभासप्रतिक्षेपः किन्तु तस्य भेदाभेदोभयविकल्पैर्वाध्यमानत्वाद् मिथ्यारूपतैव अभेदप्रतिभासस्तु अनुत्पाद्व्ययलक्षणस्य द्रव्यस्य १५ -तद्विषयस्य सर्वदाऽवस्थितेरबाध्यमानत्वात्-सत्य इति ॥ १०॥ २० [निरपेक्षनयद्वयमेकमेव वस्तु यथा यथा मन्यते तथा विभज्य वर्णनम् ] कल्पनाव्यवस्थापितपर्यायास्तिक-द्रव्यास्तिकयोरेवलक्षणप्रदर्शितस्वरूपयोमिथ्यारूपताप्रतिपत्तिः सुकरा भविष्यतीत्याह उप(प्प)जंति वियंति य भावा नियमेण पज्जवणयस्स । दव्वढियस्स सव्वं सया अणुप्पन्नमविणटुं ॥११॥ उत्पद्यन्ते प्रागभूत्वा भवन्ति विशेषेण निरन्वयरूपतया गच्छन्ति नाशमनुभवन्ति भावाः पदार्थाः-नियमेन इत्यवधारणे पर्यायनयस्य मतेन-प्रतिक्षणमुत्पाद-विनाशखभावा एव भावाः पर्यायनयस्यामिमताः। द्रव्यार्थिकस्य सर्व वस्तु सदा अनुत्पन्नमविनष्टम् आकालं स्थितिस्वभावमेवेति मतम् । एतच्च नयद्वयस्याभिमतं वस्तु प्राक् प्रतिपादितमिति न पुनरु-२५ च्यते ॥ ११॥ १-रूपं भ-आ०। २-ण होइ पजाए। बृ०। ३-स्तिकंद्र-आ०। ४-दस्थापन्न-बृ० वा. बा० । ५-धादिग-आ. हा०वि०। ६-भावस्त्व-आ० हा० वि०। ७-व्यास्तिक-बृ० वा. बा०। ८-कयोरेवलबृ० वा० बा० आ०। ९-स्यापि म-वा. बा० । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे द्वादशगाथाव्याख्या। [अन्योन्यमुक्तयोर्द्रव्य-पर्याययोर्नास्तित्वोक्तिपूर्वकमुत्पाद-व्यय-ध्रौव्याणां द्रव्यलक्षणत्वेन वर्णनम्] परस्परनिरपेक्षं चोभयनयप्रदर्शितं वस्तु प्रमाणाभावतो न सम्भवतीत्याह दव्वं पजवविउयं दव्वविउत्ता य पन्जवा णत्थि । उपाय-ट्टिइ-भंगा हंदि दवियलक्खणं एयं ॥१२॥ द्रव्यं पर्यायवियुक्तं नास्ति मृत्पिण्ड-स्थास-कोश-कुशूलाद्यनुगतमृत्सामान्यप्रतीतेः। द्रव्यविरहिताश्च पर्याया न सन्ति अनुगतैकाकारमृत्सामान्यानुविद्धतया मृत्पिण्ड-स्थास. कोश-कुशूलादीनां विशेषाणां प्रतिपत्तः। अतो द्रव्यार्थिकाभितं वस्तु पर्यायाक्रान्तमेव न तद्विवि क्तम् पर्यायाभिमतमपि द्रव्यार्थानुषक्तं न तद्विकलम् परस्परविविक्तयोः कदाचिदप्यप्रतिभासनात् । १० किंभूतं पुनर्द्रव्यमस्तीत्याह-उत्पाद-स्थिति-भङ्गा यथाव्यावर्णितस्वरूपाः परस्पराविनिर्भागवर्तिनः, 'हन्दि' इत्युपप्रदर्शने; द्रव्यलक्षणं द्रव्यास्तित्वव्यवस्थापको धर्मः एतद् दृश्यताम् , यतः पूर्वोत्तरपर्यायपरित्यागोपादानात्मकैकान्वयप्रतिपत्तिस्तथाभूतद्रव्यसत्त्वं प्रतिपादयतीत्युत्पाद-व्यय-ध्रौव्य. लक्षणं वस्त्वभ्युपगन्तव्यम् । एतच्च त्रितयं परस्परानुविद्धम् , अन्यतमाभावे तदितरयोरप्यभावात् । __ [उत्पाद-व्यय-ध्रौव्याणां परस्परव्याप्यत्वसमर्थनम् ] १५. . तथाहि-न ध्रौव्यव्यतिरेकेण उत्पाद-व्ययौ सङ्गतो, सर्वदा सर्वस्याऽनुस्यूताकारव्यतिरेकेण 'विज्ञान-पृथिव्यादिकस्याप्रतिभासनात् । न चानुस्यूताकारावभासो बाध्यत्वादसत्यः तद्बाधकत्वा. नुपपत्तेः यतोऽनुस्यूताकारस्य विशेषप्रतिभासो बाधकः परिकल्प्येत; स एव चानुपपन्नः । तथाहि-अनुगतरूपे प्रतिपन्ने अप्रतिपन्ने वा विशेषावभासोऽभ्युपगम्येत ? यदि प्रतिपन्ने तदा किमनुस्यूतप्रतिभासात्मको विशेषप्रतिभासः, उत तयतिरिक्त इति कल्पनाद्वयम् । यद्यव्यति२० रिक्तस्तदा ध्रौव्यावभासस्य मिथ्यात्वे विशेषावभासस्यापि तदात्मकत्वाद् मिथ्यात्वापत्तेः कथमसौ तस्य बाधकः ? अथ द्वितीयो विकल्पस्तत्रापि ध्रौव्यप्रतिभासमन्तरेण स्थास-कोशादिप्रतिभासस्य तयतिरिक्तस्यासंवेदनात् कथं तद्वार्धकतोपपत्तिः? न चाक्षव्यापारानन्तरमन्वयप्रतिभासमन्तरेण विशेषप्रतिभास एवोपजायत इति वक्तव्यम् , प्रथमाक्षव्यापारे प्रतिनियतदेशवस्तुमात्रस्यैव प्रतीतेः। अन्यथा तत्र विशेषावभासे संशयाद्यनुत्पत्तिप्रसक्तिः, विशेषावगतेस्तद्विरोधित्वात् । न च तदुत्तर२५कालभाविसादृश्यनिमित्तैकत्वाध्यवसायनिबन्धनेयं संशयाद्यनुभूतिः प्राग् विशेषावगमे एकत्वाध्यवसायस्यैवासम्भवात् अनुभूयते च दूरदेशादौ वस्तुनि सर्वजनसाक्षिकी प्राक् सामान्यप्रतिपत्तिः तदुत्तरकालभाविनी च विशेषावगतिः । अत एव अवग्रहादिज्ञानानां कालभेदानुपलक्षणेऽपि क्रमोऽभ्युपगन्तव्यः उत्पलपत्रशतव्यतिभेद इव । द्वितीयविकल्पोऽप्यत एवानभ्युपगमार्हः, अनुग. ताकाराप्रतिपत्ती तद्विशेपावभासस्यासम्भवादिति । नहि मूल-मध्याऽग्रानुस्यूतस्थूलैकाकारप्रति३०भासनिह्नवे विविक्ततत्परमाणुप्रतिभासानपह्नव इति कुतस्तस्य स्वविषयव्यवस्थापनद्वारेणान्यबाधकत्वम् ? न चकत्वप्रतिभासस्य मिथ्यात्वम् तद्विषयस्य विकल्प्यमानस्याघटमानत्वादिति वक्तव्यम, विकल्पमात्रात् प्रमाणस्यान्यथात्वायोगात् । न चानुगतावभासस्याप्रामाण्यम्, तन्निबन्धनाभावात् । न च क्षणिकानेकनिरंशपरमाण्ववभासस्तनिवन्धनम्, तस्याभावात् । न ह्यसंवे. द्यमानस्तथाभूतावभासः प्रमाणम् इतर वा, प्रतीतिधर्मत्वात् प्रमाणेतरयोः। न च सञ्चितपरमाणु १-झानि पृ-वा. बा.। २-गम्यते घृ. ल.। ३-स्य त मि-वा. वा०। ४-थ्यात्ववि-आ० हा. वि०। ५-थ्याप-वा. बा०। ६-धकोपप-आ० हा०वि०। ७-पारप्र-वा. बा०। ८ "संशय"विरोधित्वात्-पृ. ल. मां० टि०। ९-क्षणोऽपि भां० मां०। १०-तिमेदा -भां० मा० । ११ “'अप्रतिपन्नम्' इत्ययम्"-बृ० ल. मा. टि.। १२-व्यं किं वि-आ० हा०वि०। १३-गात् तान् न वा. बा. Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । निबन्धन एवायमनुस्यूतस्थूलावभासः, सञ्चितेष्वपि तेषु प्रत्येकं समुदितेषु वा स्थूलरूपतायाः परेणानभ्युपगमात् सञ्चयस्य च वस्तुरूपस्यैकस्य द्रव्यपक्षोक्तदोषप्रसक्तितोऽनिष्टेः । न चान्यथावभासोऽन्यथाभूतार्थव्यवस्थापकः अतिप्रसक्तेः । तेन आलम्बनप्रत्ययतया परमाणवः स्थूलावभासजनकाः तत्र स्वरूपानकत्वेनाप्रतिभासनात्; स्थूलाकारस्य वा तेष्वनुस्यूतज्ञानावभासिनो भावेऽनुगतव्यावृत्तहेतुफलरूपभावाभ्युपगमात् परवादाभ्युपगमप्रसक्तिः । यदि च स्तम्भादिप्रतिभासो ५ मिथ्या तर्ह्यतथाभूते तथाभूतारोपणं मिथ्येत्यन्यथाभूतवस्तु सद्भावावेदकं प्रमाणं वक्तव्यम् । तच्च न प्रत्यक्षम् उक्तोत्तरत्वात् । नाप्यनुमानम् क्षणिक परस्परविविक्तपरमाणु स्वभावभाव कार्यादर्शनात् स्थूलैकस्वभावस्य चोपलभ्यमानस्यै न तत्कार्यत्वम्, तस्यावस्तुसत्वेन परैरभ्युपगमात् । न चावस्तुसत् कस्यचिद् व्यवस्थापकम् अतिप्रसङ्गात् । वस्तुसत्त्वेऽपि न तस्य क्षणिकविविक्त परमाणुव्यवस्थापकत्वम्, तस्य तद्विरुद्धत्वात् । न हि पावकप्रतिभासो जलव्यवस्थापकत्वेन प्रसिद्धः । न च वनादिप्रत्ययतः १० शिंशपादिविशेषावगतिरिवात्रापि भविष्यतीति वक्तव्यम्, शिंशपादेः प्राक् प्रतिपत्तेर्वनादेश्च तद्धर्मतया वस्तुत्वात् परमाणूनां न कदाचनापि प्रतिपत्तिः । नापि तद्धर्मतया वस्तुत्वाभ्युपगमः स्थूलस्य पराभ्युपगमविषयः, वस्तुत्वाभ्युपगमे तु तस्य स्यात् सूक्ष्मव्यवस्थापकता, सूक्ष्मापेक्षित्वात् स्थूलस्य अन्यथा तदयोगात् । सूक्ष्मपर्यन्तरूपश्च परमाणुः तस्याभेद्यत्वात् । भेद्यत्वे वा वस्तुत्वापत्तेः तदवयवानां परमाणुत्वापत्तिः, भेदपर्यन्तलक्षणत्वात् परमाणुस्वरूपस्य । १५ ४११ न च धौव्योत्पत्तिव्यतिरेकेण प्रतिक्षणविशरारुता अणूनामपि सम्भवति, तयोरभावे एकक्षणस्थितीनामपि तेषामभावात् कुतो विनश्वरत्वम् ? अथ देशकालनियतस्य स्थैर्याभावेऽपि क्वचित् कदाचित् पदार्थस्य वृत्तेरन्यदा अन्यत्र च निवृत्तिः, नैतदेवम्; अन्यदा अन्यत्र चावृत्तेरेवानिश्चयात् । तथाहि कार्यकारणयोः परस्परतो व्यावृत्तिः कथञ्चिदनुस्यूतमेकमाकारं बिभ्रतोर्विज्ञानग्राह्यग्राहकाकारयोरिवापरित्यक्ततादात्म्यस्वरूपयोः, आहोखित् घट-पटयोरिवात्यन्तभिन्नस्वरूपयोः इत्यत्र २० न निश्चयः । किञ्च प्रत्यक्षेणैव हेतु-फलयोः कथञ्चित्तादात्म्यस्य निश्चयान्न घट-पटयोरिवात्यन्तव्यावृत्तिस्तयोः परस्परतोऽभ्युपगन्तव्या न ह्यध्यक्षतः प्रसिद्धस्वरूपं वस्तु तद्भावे प्रमाणान्तरमपेक्षते, अग्निरिवोष्णत्वनिश्चये । न च कालभेदान्यथानुपपत्त्या प्रतिक्षणं भेदेऽपि पूर्वोत्तरक्षणयोःकथञ्चित्तादात्म्यं वस्तुनो विरुध्यते येनाध्यक्षविरुद्धो निरन्वयविनाशः कल्पनामनुभवति अध्यक्षविरोधेन प्रमाणान्तरस्याप्रवृत्तेः । न चानुवृत्ति-व्यावृत्योः परस्परं विरोधैकान्ताभ्युपगमे विज्ञान- २५ मात्रमपि सिध्येदिति कुतः क्षणस्थितिर्भावानां निरन्वया व्यावृत्तिर्वा सिद्धिमासादयेत् ? अन्तर्बहिश्च भावानामनुगतव्यावृत्तात्मकत्वात् प्रमाणतस्तथैवानुभवात् तत्स्वरूपाभावे निःस्वभावतया भावाभावप्रसक्तेः । यदि च परस्परव्यावृत्तस्वभावानां परमाणूनां कथञ्चिदनुवृत्तस्थूलैकाकारः पारमाथिको न भवेत् न किञ्चिद् बहिरध्यक्षेऽवभासेत, परमाणु-पारिमाण्डल्य - नानात्व- परोक्षखभावत्वस्वभावानां सञ्चितेष्वप्यणुषु स्थूलैकाकाराध्यक्ष स्वभावेन विरोधात् अविरोधे वाऽनेकान्तत्वप्र- ३० सक्तेः तथाभूतस्वभावसद्भावेऽपि तेषु पारिमाण्डल्य - नानात्व- परोक्षत्वस्वभावानपायात् । अपाये वा परमाणुरूपतात्यागात् स्थूलैकाकारस्य तेषु सांवृतत्वे साकाराध्यक्षाऽजनकत्वेन न किञ्चिदपि तत्र प्रतिभासित, तदनध्यक्षत्वे तत्प्रत्यनीकस्य स्वभावस्य पारिमाण्डल्यादेश्चक्षुरादिबुद्धौ रसादेरिवा प्रतिभासनाद् बहिरर्थप्रतिभासशून्यं जगद् भवेत् । स्थूलैकाकारग्राह्यवभासस्य च भ्रान्तत्वे न किञ्चित् कल्पनापोढं प्रत्यक्षमभ्रान्तं भवेत्, तदभावे च प्रमाणान्तरस्याप्यप्रवृत्तेरन्तर्बाह्यरूपस्य ३५ प्रमेयस्याव्यवस्थितेर्न कस्यचिदभ्युपगमः प्रतिक्षेपो वेति निर्व्यापारं जगद् भवेत् । तस्मात् क्षणस्थितिधर्मणोऽपि बाह्यान्तलक्षणस्य वस्तुनः परस्परव्यावृत्तपरमाणुरूपस्य कथञ्चिदनुवृत्तिरभ्युप ३- गमाप्र - आ० । ४-स्य त आ० । ७- भासोऽपि प्रतिपत्तिः नापि १० - द्यत्वे चा व-ल० । ११ । १ तत्र आ-बृ० वा० बा० हा० वि० । २-स्य ते ल० । ५- स्तुत्वे - वृ० वा० बा० भ० मां० विना । ६-मात् तथा व-आ० तद्धर्मजलव्य - वा० बा० । ८-ल प-वा० बा० - भावोऽपि भां० म० । १२ किं न प्र-आ० । १३- न्त स्याप्र - बृ० वा० बा० । १४- मननुग-भां० मां० । १५ - कारोऽध्य-आ० हा ० वि० । १६ भावेषु वि वा० वा० । १७- धात् वि-मां०] मां० । १८ - भासते त-भां० मां० आ० हा० वि० । । ९ सूक्ष्माव्य-आ० । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ प्रथमे काण्डेगन्तव्या, अन्यथा प्रतिभासविरतिप्रसक्तेः। तदभ्युपगमे च परस्परव्यावृत्तयोर्हेतु-फलयोरपि प्रत्यक्ष. गता अनुगतिरभ्युपगमनीयैव, कल्पनाशाने भ्रान्तसंविदि वा स्वसंवेदनापेक्षया विकल्पेतरयोा. न्तेतरयोश्च परस्परव्यावृत्तयोराकारयोः कथञ्चिद् अनुवृत्तिमभ्युपगच्छन् कथमध्यक्षा हेतु-फलयोरनुवृत्तिं प्रतिक्षिपेत् ? संशयज्ञानं वा परस्परव्यावृत्तोल्लेखद्वयं विभ्रद् यधेकमभ्युपगम्यते कथं न पूर्वा. ५परक्षणप्रवृत्तमेकं हेतुफलरूपं वस्तु? शब्द-विद्युत्-प्रदीपादीनामप्युत्तरपरिणामाप्रत्यक्षत्वेऽपि तस्य सद्भावोऽभ्युपगन्तव्यः, पारिमाण्डल्यादिवत् संविद्राह्याकारविवेकवद् वा अध्यक्षस्यापि केनचिद् रूपेण परोक्षता, अविरोधात् । न च पारिमाण्डल्यादेः प्रत्यक्षतेति वाच्यम्, शब्दाद्युत्तरपरिणामेऽप्यस्य वक्तुं शक्यत्वात् विशेषाभावात् । अत एव अन्ते क्षयदर्शनात् प्रागपि तत्प्रसक्तिरिति न वक्तव्यम् , मध्ये स्थितिदर्शनस्य पूर्वापरकोटिस्थितिसाधकत्वेन प्रसिद्धेः । न हि शब्दादेरनुपादाना उत्पत्तिर्यु१० क्तिमती, नापि निरन्वया सन्ततिविच्छित्तिः, चरमक्षणस्याकिञ्चित्करत्वेऽवस्तुत्वापत्तितः पूर्वपूर्व क्षणानामपि तैदापत्तितः सकलसन्तत्यभावप्रसक्तेः। न च शब्दादेर्निरुपादानोत्पत्त्यभ्युपगमेऽन्ये. षामपि सा सोपादानाऽभ्युपगन्तुं युक्ता; तथा च सुप्तप्रबुद्धबुद्धेरपि निरुपादानोत्पत्तिप्रसक्तिः तत्रापि शब्दादेरिव प्रागुपादानादर्शनात् । न चानुमीयमानमत्रोपादानम्, शब्दादावपि तथाप्रस ङ्गात् । न च 'दृष्टस्यार्थस्याखिलो गुणो दृष्ट एवं' इति परिणामसाधनं निरवकाशम् , दृष्टेऽप्यर्थे १५पारिमाण्डल्यादेाह्याकारविवेकादेर्वा अंशस्यादृष्टत्वेनानुमीयमानत्वात्, एवं च परिणामसाधनं निरवद्यमेव । यदि हि दृपस्याऽदृष्टोंऽशः सम्भवति कथमुत्पन्नस्वभावस्यानुत्पन्नः कश्चनाऽऽत्मा न सम्भवी ? स्वभावभेदस्य भावभेदसाधनं प्रत्यनैकान्तिकत्वेन प्रदर्शितत्वात् । तस्माद् वस्तु यत् नष्टं तदेव नश्यति नयति च, यदुत्पन्नं तदेवोत्पद्यते उत्पत्स्यते च कथञ्चित् , यदेव स्थितं तदेव तिष्ठति स्थास्यति च कथञ्चिदित्यादि सर्वमुपपन्नमिति भावस्योत्पादः स्थितिविनाशरूपः विनाशोऽपि २० स्थित्युत्पत्तिरूपः स्थितिरपि विगमोत्पादात्मिका कथञ्चिदभ्युपगन्तव्या। सर्वात्मना चोत्पादादेः परस्परं तद्वतश्च यद्यमेदैकान्तो भवेत् नोत्पादादित्रयं स्यादिति न कस्यचित् कुतश्चित् तद्वत्ता नाम । न च वस्तुशून्य विकल्पोपरचितत्रयसद्भावात् तद्वत्ता युक्ता अतिप्रसङ्गात्; खपुष्पादेरपि ततस्तद्वत्ताप्रसक्तेः। न चोत्पादादेः परस्परतः तद्वतश्च मेदैकान्तः, सम्बन्धासिद्धितो निस्वभावताप्रसक्तेः । एतेन 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययोगाद् यदि असतां सत्त्वम् २५ शशशृङ्गादेरपि स्यात् सतश्चेत् स्वरूपसत्त्वमायातम् , तथोत्पाद व्यय-ध्रौव्याणामपि यद्यन्यतः सत्त्वम् अनवस्थाप्रसक्तिः स्वतश्चेत् भावस्यापि स्वत एव तद् भविष्यतीति व्यर्थमुत्पादादिकल्पनम् एवं तद्योगेऽपि वाच्यम्' इत्यादि यदुक्तम् तन्निरस्तं द्रष्टव्यम् एकान्तभेदाभेदपक्षोदितदोषस्य कथञ्चिद्भेदाभेदात्मके वस्तुन्यसम्भवात् । नहि भिन्नोत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययोगाद् भावस्य सत्वमस्माभिरभ्यु: पगम्यते किन्तु 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययोगात्मकमेव सत्' इत्यभ्युपगमः। विरोधादिकं चात्र दूषणं ३० निरवकाशम् , अन्तर्बहिश्च सर्ववस्तुनस्त्रयात्मकस्याबाधिताध्यक्षप्रतिपत्तिविषयत्वात् स्वरूपे विरोधा. सिद्धेः; अन्यथातिप्रसक्तेः। एकान्त नित्यानित्यस्य प्रमाणबाधितत्वात् अनुभयरूपस्य चासम्भवात् शून्यताया निषेत्स्यमानत्वात् पारिशेष्यात् कथञ्चित् नित्यानित्यं वस्तु अबाधितप्रमाणगोचरमभ्युपगन्तव्यम्। अत एव "उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्" [तत्त्वार्थ० अ० ५ सू० २९] इति सल्लक्षणम्, ३५ अन्यस्य तल्लक्षणत्वानुपपत्तेः । न तावत् सत्तायोगः सत्त्वम् , सामान्यादिना अव्यापकत्वात् निषि द्वत्वाच्च सत्तायास्तद्योगस्य वेति । नाप्यर्थक्रियालक्षणं सत्त्वम् , नश्वरैकान्ते तस्यासम्भवात् तस्य क्वचिदप्यभावात् । उत्पाद स्थितिस्वभावरहितस्य नश्वरत्वे खपुष्पादेरेव तत् स्यात् न घट-सुखादेः, क्षणस्थितिरेव जन्म विनाशश्च यद्यभ्युपगम्येत कथमनेकान्तसिद्धिर्न स्यात् ? न च क्षणात् पूर्वमस्थितौ भावानां किश्चित् प्रमाणमस्तीति प्रतिपादितम् । न चावस्थितावपिन प्रमाणमिति वक्तव्यम् । ४०प्रत्यक्षस्य तत्र प्रमाणत्वात् । न च सदृशापरापरोत्पत्तिविप्रलम्भाद् अनवधारितक्षणक्षयस्यैकत्व प्रतिपत्तिन्तेिति वक्तव्यम् , निरन्वयविनाशप्रसाधकप्रमाणाभावात् । न चाक्षणिके क्रम-योगपद्या १-वाऽस्व-बृ० । २ वाक्यम् भां. मां०। ३ तदुत्पत्तितः भा० म०। ४ स्यात् स्वत-बृ. ल. विना। ५ प्र० ११०५०९। ६ “अर्थक्रियात्मकसत्त्वस्य"-ब. ल. मांकि । Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। भ्यामर्थक्रियाविरोधात् ततो निवर्तमानं सत्त्वं निरन्वयविनश्वरस्वभावमिति सत् क्षणिकमेवेति प्रमाणम् , क्षणिकेऽपि तथैवार्थक्रियाविरोधात् । तथाहि-क्षणिकत्वे कार्य-कारणयोर्योगपद्येन कुतः कार्यकारणभावव्यवस्था? क्रमोत्पादे हेतोरसतः कुतः फलजनकत्वम्? निरन्वयविनाशाभ्युपगमे चानन्तरं विनष्टस्य चिरतरविनष्टस्य च विनष्टत्वाविशेषाञ्चिरतरविनष्टादपि कार्योत्पत्तिप्रसक्तिः । भावस्य हि विद्यमानत्वाद् अनन्तरकार्योत्पादनसामर्थ्यम् न व्यवहिततदुत्पादनसामर्थ्य मिति५ विशेषो युक्तः न पुनरभावस्य, निःस्वभावत्वाविशेषात् । अनेकान्तवादिना हि कथञ्चिद्भेदाभेदी हेत-फलयोर्व्यवस्थापयितुं शक्यी संवेदनस्य ग्राह्यग्राहकाकारयोरिव । भेदाऽभेदेकान्तो तु परस्परता न विशेषमासादयत इति न निरन्वयविनाशव्यवस्था नित्यताव्यवस्था वा कर्तुं शक्या, यतो न क्षणिकपक्षेऽपि सत्ताव्यतिरेकेण अपरार्थक्रिया सम्भवति सा चाक्षणिकेऽपि समाना। यथा हि क्षणिकस्य खसत्ताकाले कुर्वतोऽपि कार्य स्वत एव न भवति, भावे वा कार्य-कारणयोर्योगपद्येन न१० कार्यकारणव्यवस्था नापि सन्तानव्यवस्था भवेत् किन्तु कार्यस्य स्वकालनियमात् तत्तदभावाविशेबेऽपि द्वितीय एव क्षणे भावः तथा अक्षणिकस्यापि प्रागपि विवक्षितकार्योत्पादनसामयें ततो भवत् कार्य स्खकालनियतमेव भविष्यतीति समानं पश्यामः। न चासति कारणविनाशे कार्योत्पत्तिर्न भवतीत्यत्र निबन्धनं किञ्चिदस्ति येनाक्षणिकात् कार्योत्पत्तिर्न भवेत् । यदि चाक्षणिकस्य कार्योत्पत्तिक्षणे स्थितिः कार्योत्पत्तिप्रतिबन्धहेतुः एवं क्षणिकस्यापि तदा तदभावः किं न प्रतिबन्धहेतु-१५ र्भवेत् ? यदि च कारणविनाशे कार्योत्पत्तिः, स प्रागिव चिरतरविनष्टे कारणेऽस्तीति तदापि कार्योत्पत्तिः स्यात् । अथ कार्योत्पत्तिकाले नैव कारणसन्निधेरुपयोगः; ननु कारणव्यावृत्तेरपि तदुत्पत्तिकाले नैव कश्चिदुपयोगः, यतः कारणव्यावृत्तौ कार्य भवेत् । कारणव्यावृत्तिश्च तदभावः, स च प्राक् पश्चादपि कालान्तरेऽस्त्येवेति सर्वदा कार्योत्पत्तिप्रसक्तिरित्युक्तम् । न च कारणस्य प्राग्भावित्वमात्र कार्योत्पत्तावुपयोगः तस्याकारणाभिमतेष्वपि जगत्क्षणेषु भावात् ; तद्विशेषकल्पनायास्त्व-२० क्षणिकेष्वप्यविरोधात । तथाहि-यद यदा यत्र कार्यमुत्पित्सु तत् तदा तत्रोत्पादनसमर्थमक्षणिक वस्त्विति कल्पनायां न काचित् क्षतिः। न च स्वयमेव प्रतिनियतसमयस्य कार्यस्योत्पत्त्यभ्युपगमे न किञ्चित् कारणाभिमतभावेन तस्य कृतमिति न तत् कार्यतया तद्यपदेशमासादयेदिति वक्तव्यम् , क्षणिकपक्षेऽप्यस्य समानत्वात् । तस्मात् कथञ्चिद व्यवस्थितस्यैव भावस्य जन्म-विनाशयोर्दर्शनाद यथादर्शनं हेतुफलभावव्यवस्थितेः परिणामसिद्धिः समायाता । न चाभेदबुद्धिर्धान्ता, भेदबुद्धावपि तत्प्रसक्तेः, स्वप्नावस्थाहस्त्यादिभेदबुद्धिवत् । न च मिथ्याबुद्धीनामपि विसंवादो भावमात्रे, भेदेष्वेव तद्दर्शितेषु विप्रतिपत्त्युपलब्धेः। तस्माद् अक्षणिकत्वे क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् क्षणिकत्वमभ्युपगच्छन् क्षणिकानामर्थक्रियादर्शनमभ्युपगच्छेत्; अन्यथा सत्त्वादेहेंतोर्विपक्षव्यावृत्तिप्रसाधिकाया अनुपलब्धेर्व्यतिरेकासिद्धेरक्षणिकत्वेऽर्थक्रियाविरोधः क्षणिकत्वेऽर्थक्रियोपलम्भमन्तरेण कथं सिद्धिमासादयेत् ? न चाक्षणिकेऽर्थक्रिया-३० विरोधादेव क्षणिकेऽर्थक्रियोपलब्धिः , इतरेतराश्रयप्रसक्तेः। [?? तथाहि-विपक्षे प्रत्यक्षवृत्तेरनुपलब्धे र्व्यतिरेकसिद्धिः, तत्र प्रत्यक्षवृत्तिरक्षणिकत्वेऽर्थक्रियाविरोधात् तद्विरोधसिद्धिरनुपलब्धेय॑तिरेकनिश्चयात् तद्विपक्षे प्रत्यक्षवृत्तेरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् ??] । क्षणिकत्वेऽपि च भावानां यथातत्त्वमुपलम्भनियमाभावाद् ग्राह्यग्राहकाकारसंवेदनवद् अयथातत्त्वोपलम्भसंभवान्न क्षणिकत्वमध्यक्षगोचर इत्यतोऽप्यनेकान्तः सिद्धिमासादयति । न च सदृशापरापरोत्पत्तिरनिश्चयहेतुः, मेदैकान्ते ३५ तस्या अप्ययोगात् । न हि तत्र सादृश्यं भावानां व्यतिरिक्तमव्यतिरिक्तं वा सम्भवति । न चाविद्यमानमनुपलभ्यमानं वा तद् विभ्रमहेतुः, अतिप्रसङ्गात् । न च विशेषाणां स्थितिभ्रान्तिजननशक्तिरेव सादृश्यम्, क्षणिकावेदकप्रमाणान्तराभांवतः स्थितिप्रतिपत्तेभ्रान्त्यसिद्धेः । न चान्याहग्भूतं १ कर्तुं युक्ता य-भां०। २-कस्व स-बृ०। ३-पद्येन कार्य-वा० बा० । ४ भवेत् ल. भां. मां०। ५-ति सामान्यं प-वा० बा०। ६ “प्राग्भावित्वस्य"-बृ० ल. मा. टि.। ७ पृ. २५७ पं० २४-२७ तथा टि. २७॥ ८-मर्थ क्ष-बृ० वा. बा० । ९-बुद्धिभ्रा-बृ०। १० “सत्त्वग्राहक"प्रत्यक्षवृत्तेः-मांटि.। ११-भावात् स्थि-आ० ।-भावातः स्थि-हा० वि० ।-भावतः सिद्धिस्थि-वा. बा। ५३ स० त. Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ प्रथमे काण्डे वस्तु अबाधितप्रतिपत्तिजन्मनो हेतुरभ्युपगन्तव्यम् , अभ्रान्तप्रतिपत्तेर्वस्त्वव्यवस्थापकत्वेन प्रतिनियतव्यवहारोच्छेदप्रसक्तेः। अत एव उपलब्धमपि क्षणिकत्वं विषमज्ञ इव न निश्चिनोतीत्युदाहरणमप्यसिद्धम् , यथावस्तूपलम्भनियमाभावात् । ___यदपि 'ये यद्भावं प्रत्यनपेक्षास्ते तद्भावनियताः, यथा अन्त्या कारणसामग्री स्वकार्योत्पादने, ५विनाशं प्रत्यनपेक्षश्च भावः' इत्यभिधानम् , तदपि परिणामप्रसाधकम्; भावस्योत्तरपरिणाम प्रत्यनपेक्षतया तद्भावनियतत्वोपपत्तेः । पूर्वक्षणस्य स्वयमेवोत्तरीभवतोऽपरापेक्षाऽभावतः क्षेपायोगात्, उत्पन्नस्य चोत्पत्ति-स्थिति-विनाशेषु कारणान्तरानपेक्षस्य पुनः पुनरुत्पत्ति-स्थिति-विनाशत्रय. मवश्यं भावि तदेवं कस्यचिदंशस्य पदार्थाध्यक्षतायामप्यनिर्णये तस्य सांशतामभ्युपगच्छन् कथमंशे नोत्पन्नस्यांशान्तरेण पुनः पुनरुत्पत्तिं नाभ्युपगच्छेत् येनैकं वस्त्वनन्तपर्यायं नाङ्गीकुर्वीत ? न चैका१०न्तसाधने उदाहरणमपि किञ्चिदस्ति, अध्यक्षाधिगतमनेकान्तमन्तरेणान्तर्बहिश्च वस्तुसत्तानुपपत्तेः । न च निरन्वयविनाशमन्तरेण किञ्चिद् वस्तु अनुपपद्यमानं संवेद्यते, यतो बहीरूप-संस्थानाद्यात्मना अध्यक्षप्रतीतमनेकान्तमन्तर्विकल्पाविकल्पस्वरूपं संशय-विपर्याससंवेदनात्मकं वा स्वसंवेदनसिद्धमपहाय निरन्वयक्षणक्षयलक्षणं वस्तु प्रकल्पेत । न चानुस्यूतिव्यतिरेकेण ज्ञानानां कार्यकारण भावोऽपि युक्तिसङ्गतः आस्तां स्मृति-प्रत्यभिज्ञा-वासना-सन्तानादिव्यवहारः । नहि भेदाविशे१५षेऽपि कथञ्चित् तादात्म्यमन्तरेण भेदानामयं नियमः सिद्धिमासादयति केषाश्चिदेव, अन्यथा ग्राह्य ग्राहकाकारयोरपि तादात्म्याभावप्रसक्तिर्भवेत् यतः शक्यमत्राप्येवं वक्तुम्-ग्राह्यग्राहकानुभवयोः स्वकारणवशाद् भिन्नस्वभावयोरेव प्रतिक्षणं विशिष्टयोरुत्पत्तिस्तेन रूपेणेति । एवं च ___ "अविभागोऽपि बुद्ध्यात्मा विपर्यासितदर्शनैः । ग्राह्यग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते ॥” [ २० इत्ययुक्तमेवाभिधानं स्यात् । परेणापि चैवं वक्तुं शक्यत एव "परमात्माऽविभागोऽप्यविद्याविप्लतमानसैः। सुख-दुःखादिभिर्भागैर्भेदवानिव लक्ष्यते ॥” इति । न हि भेदाऽभेदैकान्तयोरागमोपलम्भं परमार्थादर्शनं च प्रति कश्चिद् विशेषः संलक्ष्यते कथञ्चित् परमार्थदर्शनाभ्युपगमे च 'उत्पन्नं कथञ्चित् पुनरुत्पादयेत्' इत्यनेकान्तसिद्धिः स्यादित्युक्तम् । २५ स्वलक्षणस्य परमात्मनो वा परमार्थसतः सर्वथाऽनुपलम्भैकान्ताभ्युपगमे परीक्षाक्षमस्य संवृतिरूपस्याविद्यास्वभावस्य वा दर्शनासम्भवाद् अनेकान्तात्मकस्य सतः सर्वथैकान्तव्युदासेन प्रमाणतो दर्शनमायातमिति कथं तत्प्रतिक्षेपः? न च संवृतेरेवोत्पाद-विनाशाभ्यपगमः, क्षणस्थितिव्यतिरेकेणापरस्य परमार्थसल्लक्षणलक्ष्यस्याभावात् क्षणस्थायिन एव स्वलक्षणताभ्युपगमात् क्षणव्यवस्थितयश्च ग्राह्यग्राहकसंवित्त्यादयोऽध्यक्षत्वेनेष्यन्ते तदस्वलक्षणत्वे कोऽपरः स्वलक्षणार्थों ३०भवेत् ? तदाकारविविक्तस्यापरस्यात्यन्तानुपलम्भतः प्रत्यक्षत्वानुपपत्तेः । न चानंशमसाधारणं स्वलक्षणं सांशमिव विपर्यासात् प्रतिभातीति वक्तव्यम् अकार्यकारणरूपं कार्यकारणरूपमिव सर्व विकल्पातीतं संविकल्पमिव पुरुषतत्त्वं प्रतिभातीत्येवं पराभिधानस्यापि सम्भवादित्यक्तत्वात् । ततश्च न कस्यचिद् उत्पादः क्षयो वा भवेत् । न चोत्पाद-विनाशयोः भ्रान्तिकल्पनायां किश्चिदप्य भ्रान्तं सिध्येत्, निरंशक्षणक्षयाद्यवभासाभावात् स्वसंवित्तिसद्भावमात्रसिद्धेरप्यभावप्रसङ्गात् । ३. क्षणक्षयाद्यवभासस्यासत्यत्वे सैवानेकान्तसिद्धिः समापतति । अथ नेयमसती संवित्तिः कुतश्चिनिमित्तात् सतीव प्रतिभाति किन्तु सत्येव प्रतिभातीत्यस्याः स्वभावसिद्धिः; नन्वेवं न सर्वथापि भ्रमः सिध्येत् किन्तु भ्रान्ताभ्रान्तैकविज्ञानाभ्युपगमादनेकान्तवाद एव पुनरपि सिद्धिमायातः। १ यभावं ल. भां. मां० आ० हा० वि० । पृ. ३२३ पं० २५ तथा टि. १२। २ "विलम्बा"योगात्बृ० ल.टि.। ३-स्तु न स-ल०। ४-पस्था-वा. बा०। ५-स्यूतव्य-ल.। ६ अष्टस• पृ. ९३ पं० १८ । स्याद्वादर० पृ० ८९ द्वि. पं०६। श्लो० वा. पार्थ० व्या० पृ. २७२ पं० १५। सर्वदर्शनसं० द.२ पृ. ३२ पं० २०६। शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० २१५ द्वि. पं० २। न हि नहि मे-बृ० वा. बा। ८ "स्थूला"कारविविक्तस्य-मां.टि.। ९-स्यात्य--आ. हा. वि.। १०-कार्यकर-भां. मां०। ११ सवि. कल्पातीतं सविकल्पमिव वा. बा.। १२ "क्षणज्ञानं सत्यमसत्यं वेति विकल्पो"-मा.टि.। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। यदपि 'कार्य-कारणयोरमेदाभावः सिध्यति भेदात् अकार्यकारणवत्' इति, तदपि ग्राह्यग्राहकसंवित्यादिभिरनैकान्तिकमित्युपेक्षामर्हति । नहि स्वभावभेदात् अभेदे ग्राह्यग्राहकसंवित्त्यादेः कालभेदाद्धेतु-फलयोरभेदाभावो युक्तः कालभेदादपि स्वरूपमेद एव भावानामवसेयः स्वभावतोऽभिनस्य कालमेदादपि भेदायोगात्-स्वभावभेदश्चेन्न भेदकः कालभेदः क्वोपयोगी? इति न तद्भेदात कार्यकारणयोरात्यन्तिकमेदसिद्धिः एवं चांशेन वृत्तिः कार्य कारणस्योपपन्ना। न च प्रतिक्षणमंशवृत्तौ५ दृष्टान्ताभावः संवित्तेााग्राहकाकारादेदृष्टान्तत्वेन सिद्धत्वात् अनंशवृत्तिस्तु न क्वचिदर्थस्य प्रमाणसिद्धा या दृष्टान्तत्वेन प्रदश्येत सर्वस्य सांशवृत्तितयोपलब्धेः। ततो नाध्यक्षसिद्धमनुगमस्वरूपं भावानां लक्षणं प्रतिक्षेप्तं युक्तम् तत्प्रतिक्षेपे प्रमाणान्तराभावात्। नहि सुखादि-नीलादीनां निरन्वयानां क्वचित् संवेदनमध्यक्षम् अनुमानं वाऽनुभूयते । नापि तेषां भेदविकलानां कदाचिदप्यनुभूतिरिति यथा संविदाकारमन्तरेण ग्राह्यग्राहकाकारयोरसंवित्तेरनुपपत्तिस्तथा तावन्तरेण १० तस्या अप्यसंवित्तेरनुपपत्तिरिति भेदाभेदरूपं सर्व प्रमाणप्रमेयलक्षणमभ्युपगन्तव्यम्। न च पूर्वापराऽधोमध्योर्ध्वादिभेदाभावेऽनुगताकारलक्षणं सामान्यं तेष्वेकाकारप्रतिभासग्राह्य सम्भवति, अनुगतिविषयाभावे तदनुगतैकाकारस्याप्यभावात् । तदभावे च तेदवृत्तेः सामान्यस्याभाव एव । न च तेष्ववर्तमानमपि तत् सामान्य व्यक्त्यन्तरस्वरूपवत् । किञ्च, तदनुगतं रूपं व्यावृ. तरूपाभावे किं कार्यरूपम् , उत कारणरूपम्, आहोस्विदुभयात्मकम् , उतानुभयस्वभावम्, इति १५ विकल्पाः । आद्यविकल्पे तस्यानित्यत्वप्रसक्तिः। द्वितीयेऽपि सैवेति न तत् सामान्यस्वभावम् । तृतीयपक्षे उभयदोषप्रसक्तिः। तुर्यविकल्पेऽप्यभावप्रसङ्ग इति विशेषाभावे नानुगतिरूपसामान्यसम्भवः सम्भवेऽपि तत्प्रतिपादकं प्रमाणमभिधानीयम् , तच्चाक्षणिकत्वविरोधि कथञ्चित् क्षणिकत्वावासितयाऽनुभूयत इति विपर्ययसाधकं भवेत् कथञ्चित् क्षणिकत्वावभासस्य भ्रान्तत्वे विप. रीतावभासस्यापि भ्रान्तत्वप्रसक्तिः । तदवभासस्याभ्रान्तत्वे वा भ्रान्ताभ्रान्तरूपमेकं विज्ञानमेकान्त-२० पक्षप्रतिक्षेप्यनेकान्तं साधयतीत्यलमतिप्रसङ्गेनेति स्थितमेतत्--ध्रौव्यमुत्पाद-व्ययव्यतिरेकेण न सम्भवति तौ च तदन्तरेणेत्युत्पाद-स्थिति-भङ्गा अपरित्यक्तात्मस्वरूपास्तदितरस्वरूपत्वेनं त्रैलक्षण्यं प्रत्येकमनुभवन्तो द्रव्यलक्षणतामुपयान्ति अन्यथा पृथकपक्षोक्तदोषप्रसक्तिनिवारेति व्यवस्थितम् उत्पाद-स्थिति-भङ्गा द्रव्यलक्षणम् इति ॥ १२॥ [स्वतत्राणामुत्पाद-व्यय-ध्रौव्याणां द्रव्यलक्षणत्वाभावात् प्रत्येकं नयद्वयस्य मिथ्यात्वकथनम् ] २५ एते च परस्परसव्यपेक्षा द्रव्यलक्षणम् न स्वतन्त्रा इति प्रदर्शनायाह एए पुण सङ्गहओ पाडिक्कमलक्खणं दुवेण्हं पि। तम्हा मिच्छद्दिट्ठी पत्तेयं दो वि मूलणया ॥१३॥ एते उत्पादादयः सङ्ग्रहतः शिबिकोद्वाहिपुरुषा इव परस्परखरूपोपादानेनैव लक्षणम् । प्रत्येकं एकका उत्पादादयो द्वयोरपि द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिकयोः अलक्षणम् उक्तवत् तथा-३० भूतविषयाभावे तबाहकयोरपि तथाभूतयोरभावात् उत्पादादीनां च परस्परविविक्तरूपाणामसम्भवात् । तस्मात् मिथ्यादृष्टी एव प्रत्येकं परस्परविविक्तौ द्वावपि एतौ द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकस्वरूपौ मूलनयौ समस्तनयराशिकारणभूतौ ॥ १३ ॥ [उभयारब्धतृतीयनयाभावेऽपि द्वयोरेव नययोरन्योन्यसव्यपेक्षयोस्सम्यक्त्वप्रतिपादनम् ] __ स्यादेतत् भवतु परस्परनिरपेक्षयोमिथ्यात्वम् , उभयनयारब्धस्त्वेकः सम्यग्दृष्टिभविष्यती ३५ त्याह १ कार्यका-ल० । २-मनस्व-वा० बा०। ३ “संविदः"-बृ० ल० मां० टि०। ४ तदनुगतैकाकारस्य "ज्ञानस्य"-मां० टि०। ५ “विशेषा"वृत्तेः-मां. टि.। ६-भासतया-बृ० वा. बा०। ७-न वैल-बृ. क. वा. बा. विना। ८ पाडेक-ल.। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - णय तइओ अत्थि णओ ण य सम्मत्तं ण तेसु पडिपुण्णं । जेण दुवे एगन्ता विभज्जमाणा अणेगन्तो ॥ १४ ॥ न च तृतीयः परस्परसापेक्षोभयग्राही अस्ति नयः कश्चित् तथाभूतार्थस्यानेकान्तात्मकत्वात् तद्राहिणः प्रत्ययस्य नयात्मकत्वानुपपत्तेः । न च सम्यक्त्वं न तयोः प्रतिपूर्ण ५ प्रतिषेधद्वयेन प्रकृतार्थावगतेः । अशेषं हि प्रामाण्यं सापेक्षं गृह्यमाणयोरनयोरेवंवि. ययोर्व्यवस्थितं येन द्वावपि एकान्तरूपतया व्यवस्थितौ मिथ्यात्व निबन्धनम् तत्परित्यागेनाऽन्व- व्यतिरेकौ विशेषेण परस्परात्यागरूपेण भज्यमानौ गृह्यमाणावनेकान्तो भवतीति सम्यक्त्वहेतुत्वमेतयोरिति ॥ १४ ॥ ४१६ १० [ निरपेक्षग्राहित्वे मूलनयवदुत्तरनयानामपि मिथ्यात्ववर्णनम् ] एवं सापेक्षद्वयग्राहिणो नयत्वानुपपत्तेस्तृतीयनयाभावः प्रदर्शितः, निरपेक्षग्राहिणां तु मिथ्यात्वं दर्शयितुमाह २५ जह एए तह अण्णे पत्तेयं दुण्णया णया सवे । हंदि हु मूलणयाणं पण्णवेणे वावडा ते वि ॥ १५ ॥ यथा एतौ निरपेक्षद्वयग्राहिणौ मूलनयौ मिथ्यादृष्टी तथा उभयवादरूपेण व्यवस्थिताना१५ मपि परस्परनिरपेक्षत्वस्य मिथ्यात्वनिबन्धनस्य तुल्यत्वात् प्रत्येकम् इतरानपेक्षा अन्येऽपि दुर्नयाः न च प्रकृतनयद्वयव्यतिरिक्तनयान्तरारब्धत्वादुभयवार्दंस्य नयानामपि वैचित्र्यादन्यत्रारोपयितुमशक्यत्वात् तद्रूपस्यान्ये सम्यक्प्रत्यया भविष्यन्तीति वक्तव्यम्, यतः हंदि इत्येवं गृह्यतां हुः इति हेतौ मूलनयद्वयपरिच्छिन्नवस्तुन्येव व्यापृतास्तेऽपि तद्विषयव्यतिरिक्तविषयान्तरा भावात् सर्वनयवादानां च सामान्यविशेषोभयैकान्तविषयत्वात् । तन्न नयान्तरसद्भावः यतः तदा२० रब्धोभयवादे नयान्तरं भवेत् ॥ १५ ॥ [ सङ्ग्रहादीनां मूलनयग्राह्यग्रा हित्वान्नोभयवादप्रज्ञापकत्वमिति प्रदर्शनम् ] ननु सङ्ग्रहादिनय सद्भावात् कथं तद्व्यतिरिक्तनयान्तराभावः ? सत्यम्, सन्ति सङ्ग्रहादयः किन्तु तद्विषयव्यतिरिक्तविषयान्तराभावतस्तद्वितयविषयास्तेऽपि तद्दूषणेनैव दूषिताः यतो न मूलच्छेदे तच्छाखास्तदवस्थाः संभवन्तीत्याह सव्वणयसमूहम्मि वि णत्थि णओ उभयवायपण्णर्वओ । मूलणयाण आणं पत्तेय विसेसिंयं बिंति ॥ १६ ॥ संग्रहादिसकलनयसमूहे ऽपि नास्ति कश्चिद् नय उभयवादप्ररूपकः यतः मूलनयाभ्यामेव यत् प्रतिज्ञातं वस्तु तदेव आश्रित्य प्रत्येकरूपाः संग्रहादयः पूर्वपूर्वनयाधिगतांशविशिष्टमंशान्तरमधिगच्छन्तीति न विषयान्तरगोचराः । अतो व्यवस्थितम् परस्परात्यागप्रवृत्तसा ३० मान्यविशेषविषयसङ्ग्रहीं द्यात्मकै नयद्वयाधिगम्यात्मैकत्वात् वस्त्वप्युभयात्मकम् ॥ १६ ॥ परिभाषावचनं प्रसिद्धम् । २ अन्वयरूपो द्रव्यार्थिकः व्यतिरेकरूपः ४ - ग्राहिणोर्नय - वृ० वा०बा० आ० हा० वि० । ५-वणावा-ल० ७ व्यावृतास्ते- बृ० ल० । व्यावृत्तास्ते वा० वा० । ८- स्तद्विष१० उ याणं आ हा० वि० । ११-यं बेंति वृ० १३-कभय-वा० बा० । १४- गमात्म-वृ० ल० वा० । १ 'द्वौ नत्रौ प्रकृतमर्थं गमयतः' इति पर्यायार्थिकः । ३-तुत्वभूत- वा० बा० । भां० मां० । ६- दस्या न-ल० विना । यविषया वा० बा० । ९ चउ । बृ० । कहा० वि० । हाश्वात्मक-आ० । बिना । १५ - स्मत्वात् वा० वा० । १२-हाद्या बा० भ० मां० Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ४१७ [नित्यानित्यैकान्तपक्षद्वयेऽप्यात्मनि संसारसुख-दुःखादेरनुपपत्तिप्रदर्शनम् ] न केवलं बाह्यघटादिवस्तु उभयात्मकं तथाविधप्रमाणग्राह्यत्वात् किन्त्वान्तरमपि हर्ष-शोकभय-करुणौदासीन्याद्यनेकाकारविवर्तात्मकैकचेतनास्वरूपम् तदात्मकहर्षाद्यनेकविकारानेकात्मकं च खसंवेदनाध्यक्षप्रतीतम् तस्य भेदाभेदैकान्तैकरूपताभ्युपगमे दृष्टाऽदृष्टविषयसुखदुःखसाधनखीकार-त्यागार्थप्रवृत्ति-निवृत्तिस्वरूपसकलव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिरिति प्रतिपादयितुमाह ण य दव्वढियपक्वे संसारो व पजवणयस्स। सासय-वियत्तिवायी जम्हा उच्छेअवाईआ॥ १७ ॥ द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनयद्वयाभिमते वस्तुनि न संसारः सम्भवति, शाश्वतव्यक्तिप्रतिक्षणान्यत्वैकान्तात्मकचैतन्यग्राहकविषयीकृतत्वात् पावकज्ञानविषयीकृते उदकवत् । तथाहि-संसारः संसृतिः सा चैकान्तनित्यस्य पूर्वावस्थाऽपरित्यागे सति न सम्भवति तत्परित्यागे-१० नैव-गतेःभावान्तरापत्ता-संसृतेः सम्भवात्। नाप्युच्छेदे उत्पत्त्यनन्तरनिरन्वयध्वंसलक्षणे संसृतिः सम्भवति गतेः भावान्तरापत्तेर्वा कथञ्चिद् अन्वयिरूपमन्तरेण अयोगात्। अथैकस्य पूर्वाऽपरशरीराभ्यां वियोग-योगौ संसारः असावपि सदा अविकारिणि न सम्भवति, नित्यस्य पूर्वाऽपरशरीराभ्यां वियोग-योगानुपपत्तः । निरन्वयक्षणध्वंसिनोऽप्येकाधिकरणत्वासम्भवात् न तल्लक्षणः संसारः। न च अमुर्तस्यात्मनः असर्वगतैकमनोऽभिष्वक्तशरीरेण विशिष्टवियोग-योगौ संसारः मन-१५ सोऽकर्तृत्वेन शरीरसम्बन्धस्यानुपपत्तेः। यो ह्यदृष्टस्य विधाता स तन्निर्वर्तितशरीरेण सह सम्बध्यते, न चैवं मनः; न च मनसः शरीरसम्बन्धेऽपि तत्कृतसुख-दुःखोपभोक्तत्वम् आत्मनि तस्याभ्युपगमात् तदर्थ च शरीरसम्बन्धोऽभ्युपगम्यत इति तत्सम्बन्धपरिकल्पनं मनसो व्यर्थम् मनसि सुख-दुःखोपभोक्तत्वाभ्युपगमे वा आत्मकल्पनायथ्ये मनस आत्मत्वसिद्धेः॥ १७ ॥ तथा सुह-दुक्खसम्पओगो ण जुज्जए णिच्चवायपक्खम्मि । एगंतुच्छेयम्मि य सुह-दुक्खवियप्पणमजुत्तं ॥१८॥ सुखेन अबाधास्वरूपेण, दुःखेन बाधनालक्षणेन, सम्प्रयोगः सम्बन्धः न युज्यते न घटते आत्मनो नित्यवादपक्षे द्रव्यास्तिकाभ्युपगमे सुखस्वभावस्य अविचलितरूपत्वात् सदा सुखरूपतैव आत्मनः न दुःखसम्प्रयोगः दुःखस्वभावत्वे तद्रूपतैव तत्त्वादेव । एकान्तोच्छेदे च २५ पर्यायास्तिकपक्षे सुख-दुःखसम्प्रयोगो न युज्यत इति सम्बन्धः। तथा पक्षद्वयेऽपि सुखार्थम् दुःखवियोगार्थ च विशिष्टं कल्पनं यतनम्-'कल्पतेः' अत्र यतनार्थत्वात्-अयुक्तम् अघटमानकम् सुख-दुःखोपादानत्यागार्थप्रयत्नस्याप्ययुक्तत्वमुक्तन्यायात् । "संसरति निरुपभोगं भीवैरधिवासितं लिङ्गम्।" [साल्यका०४०] इति साङ्ख्यमतमपि निरस्तम् न्यायस्य सर्वेकान्तसाधारणत्वात् ॥ १८॥ ३० १-भयात्मकस्तथा-बृ० वा. बा०। २णेय प-वृ० ल० वा. बा। "नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते । प्रागेव कारकाभावः क प्रमाणं व तत्फलम्" ॥३७॥ "प्रमाण-कारकैयक्तं व्यक्तं चेदिन्द्रियार्थवत् । ते च नित्ये विकार्य किं साधोते शासनाद् बहिः" ॥३८॥ "यदि सत् सर्वथा कार्य पुंवन्नोत्पत्तुमर्हति । परिणामप्रकृप्तिश्च नित्यत्वैकान्तबाधिनी" ॥ ३९॥ "पुण्य-पापक्रिया न स्यात् प्रेत्यभावः फलं कुतः । बन्ध-मोक्षौ च तेषां न येषां त्वं नासि नायकः" ॥ ४०॥ "क्षणिकैकान्तपक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्यसंभवः । प्रत्यभिज्ञाद्यभावान्न कार्यारम्भः कुतः फलम् ।" ॥४१॥ -आप्तमीमां० पृ०२२-२३ परि० ३ । अष्टस• पृ० १७८-१८१। ३-तिःस चै-आ. ४-निवर्तित-ल.। ५ सम्बन्ध्य-आ०। ६-सिद्धेः सुह-आ० हा०वि०।-शिष्ट क-भा.। . "अहंकारादिभिः"-मांटि.। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ प्रथमे काण्डे[एकान्तपक्षे चात्मनि कर्मणो बन्ध-स्थितिकारणानुपपत्तिप्रकटनम् ] एकान्तपक्षे आत्मसुख-दुःखोपभोग-निर्वर्त्तकशरीरसम्बन्धहेत्वदृष्टोत्पादकनिमित्तानामप्यसम्भवं दर्शयन्नाह कम्म जोगनिमित्तं यज्झइ बन्ध-ट्टिई कसायवसा। अपरिणउच्छिण्णेसु य बंधढिइकारणं णत्थि ॥ १९ ॥ कर्म अदृष्टम् , योगनिमित्तं मनो वाक्-कायव्यापारनिमित्तम् , बध्यते आदीयते, बध्यत इति बन्धः अदृष्टमेव तस्य स्थितिः कालान्तरफलदातृत्वेन आत्मन्यवस्थानम् सा कषायवशात् क्रोधादिसामर्थ्यात् एतदुभयमपि एकान्तवाद्यभ्युपगते आत्मचैतन्यलक्षणे भावे अपरिणते उत्सन्ने च बन्धस्थितिकारणं नास्ति । न ह्यपरिणामिनि अत्यन्ताऽनाधेया१० तिशये आत्मनि क्रोधादयः सम्भवन्ति, नाप्येकान्तोत्सन्ने अनुसन्धानविकले 'अहमनेनाऽऽक्रुष्टः' इति द्वेषसम्भवः तथा च 'अन्य आक्रुष्टः अन्यो रुष्टः' 'अंन्यो व्यापृतः अपरो बद्धः अपरश्च मुक्तः' इति कुशलाकुशलकर्मगोचरप्रवृत्त्याद्यारम्भवैफल्यप्रसक्तिः। न चैकसन्ततिनिमित्तोऽयं व्यवहारः, क्षणिकैकान्तपक्षे सन्ततिकल्पनाबीजभूतोपादानोपादेयभावस्यैव अघटमानत्वात् । न चेयमनुसन्धानप्रतिपत्तिर्मिथ्या, द्वेष-गर्व-शाठ्याऽसन्तोषादीनामन्योन्यविरुद्धस्वभावानांक्रमविवर्तिनांचिद्विवर्तानां १५स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धानाम् तथा तथाऽनुभवितुश्च संशय-विपर्यासाऽदृढशानागोचरीकृतस्यैकस्य चैतन्यस्यानुभवात् । न च वाधारहितानुभवविषयस्यापह्नवः सुखादेरप्यनुभवविषयस्यापह्नुतिप्रस जात् तथा च प्रमाणप्रमेयादिव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः । यदपि "मिथ्याऽध्यारोपहानार्थ यत्नोऽसत्यपि मोक्तरि" [ इत्युक्तम् , तदप्यनेनैव प्रतिविहितम् ; यथोक्तप्रतिपत्तेर्मिथ्यात्वासिद्धेः । न चानुमाननिश्चितेऽर्थे २० आरोपबुद्धरुत्पत्तिधूमनिश्चयावगतधूमध्वज इव, न च मिथ्याज्ञानस्य सहजत्वात् विपरीतार्थोपस्था पकानुमानप्रवृत्तावपि न निवृत्तिः तथाभ्युपगमे बोधसन्तानवत् तस्य सर्वदाऽनिवृत्तिरित्यमुक्तिप्रसक्तिः असहजं तु तत्त्वज्ञानप्रादुर्भावेऽवश्यं निवर्तते शुक्तिकावगमे रजतभ्रम इव अनिवृत्ती वा न प्रमाणमप्रमाणबाधकं भवेत् । न च क्षणक्षयनिश्चये ‘स एवाहम्' इति प्रत्ययो युक्तः अपि तु 'स इव' इति स्यात् , नहि गवयनिश्चये 'गौरेव' इति प्रत्ययो दृष्टः अपि तु 'गौरिव' इति । न च क्रमर्व२५र्तिम्वमिष्वङ्ग-द्वेषादिपर्यायेषु चैतन्यानुस्यूतिप्रत्ययस्य मानसत्वमात्मनि क्षणक्षयमनुमानाद् निश्चिन्वतोऽपि तदैव स्पष्टमनुभूयमानत्वाद् विकल्पद्वयस्य युगपदुत्पत्तिः परैर्नेटेति विकल्परूपत्वे एकत्वप्रत्ययस्य क्षणिकत्वनिश्चयसमये सद्भावो न भवेत् इत्येकान्तनित्याऽनित्यव्युदासेनोभयपक्ष एव बन्धस्थितिकारणं युक्तिसङ्गतम् ॥ १९ ॥ [एकान्तवादे बन्धाऽभावेन तन्मूलकसंसारनिवृत्यादेरनुपपत्तिप्रकाशनम् ] ३० किश, एकान्तवादिनां संसारनिवृत्ति-तत्सुखमुक्तिप्राप्त्यर्था प्रवृत्तिवासनतेत्याह १ अन्यो व्यावृत्तः वा० बा० आ० । अन्यो वावृतः बृ.। २ तथाऽनु-आ• हा०। ३-निश्चितार्थ आ-आ० ।-निश्चितथे आ-हा०। ४-तार्थो स्था-ल.। ५-दा नि-वा० बा०। -दुर्भावोमा० ।-दुर्भावे प्र. मां• बहिः। स एव भा० मा. विना। -वत्तेप्व-मा० ।-वर्तिप्व-प्र. मा० बहिः। -स्य च युन. वा. बा.। १.-कत्वं प्र-वृ. वा. बा.। "-निवृत्तिवस्तुब-बा.बा. -मिर्च्यवस्मक-.-विधिवतम-प्र• मां• बहिः । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। बंधम्मि अपूरन्ते संसारभओघदन्सणं मोझं । बन्धं व विणा मोक्खसुहपत्थणा णत्थि मोक्खो य ॥२०॥ बन्धे वाऽसति संसारो जन्म-मरणादिप्रबन्धस्तत्र तत्कारणे वा मिथ्यात्वादावुपचारात् तच्छब्दवाच्ये भयोघो भीतिप्राचुर्यम् तस्य दर्शनम् ‘सर्व चतुर्गतिपर्यटनं दुःखात्मकम्' इति पर्यालोचनं मौढ्यं मूढता अनुपपद्यमानसंसारदुःखौघविषयत्वात् मिथ्याज्ञानं वन्ध्यासुतजनितबाधा-'५ गोचरभीतिविषयपर्यालोचनवत् मिथ्याज्ञानपूर्विका च प्रवृत्तिर्विसंवादिन्येव, बन्धन विना संसारनिवृत्ति-तत्सुखप्रार्थना च न भवत्येव तथा मोक्षश्चानुपपन्नः निरपराधपुरुषवत् अबद्धस्य मोक्षासम्भवात्, बन्धाभावश्च योग-कषाययोः प्रकृति-स्थिति-अनुभाग-प्रदेशात्मकबन्धहेत्वोरेकान्तपक्षे विरुद्धत्वात् । न चैकरूपत्वात् ब्रह्मणो बन्धाद्यभावप्रेरणा न दोषाय, चेतनाऽचेतनादिभेदरूपतया जगतः प्रतिपत्तेः। न च भेदप्रतिपत्तिर्मिथ्या अविद्यानिर्मितत्वादिति वक्तव्यम१० अविद्यायाः प्रतिपत्तिजननविरोधात्, अविरोधे विद्यारूपताप्राप्तेद्वैतप्राप्तिरिति । प्रतिविहितैश्चाद्वै. तवाद इति न पुनः प्रतन्यते ॥ २०॥ [ सर्वेषामपि नयानामन्योऽन्यानिश्रितत्वे मिथ्यात्वम् अन्योन्यनिश्रितत्वे पुनः सम्यक्त्वमिति प्रतिपादनम् ] तदेवमेकान्ताभ्युपगमे बन्धहेत्वाद्यनुपपत्तरैहिकाऽऽमुष्मिकसर्वव्यवहारविलोपः इत्येकान्तव्य-१५ वस्थापकाः सर्वेऽपि मिथ्यादृष्टयो नयाः अन्योन्यविषयाऽपरित्यागवृत्तयस्तु त एव सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्त इत्युपसंहरन्नाह तम्हा सव्वे वि णया 'मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा। अपणोण्णणिस्सिआ उण हवंति सम्मत्तसब्भावा ॥ २१ ॥ यस्माद् एकान्तनित्याऽनित्यवस्त्वभ्युपगमो बन्धादिकारणयोग-कषायाभ्युपगमबाधितः तद-२० भ्युपगमोऽपि नित्यायेकान्ताभ्युपगमप्रतिहतः इत्येवंभूतपूर्वोत्तराभ्युपगमस्वरूपाः तस्माद् मिथ्यादृष्टयः सर्वेऽपि नयाः स्वपक्षप्रतिबद्धाः स्व आत्मीयः पक्षः अभ्युपगमस्तेन प्रतिबद्धाः प्रति. हता यतस्तत इति । नयज्ञानानां च मिथ्यात्वे तद्विषयस्य तदभिधानस्य च मिथ्यात्वमेव । तेनैवं प्रयोगः-मिथ्या सर्वनयवादाः, स्वपक्षेणैव प्रतिहतत्वात् चौरवाक्यवत् । अथ तेषां प्रत्येकं मिथ्यात्वे बन्धाद्यनुपपत्तौ सम्यक्त्वानुपपत्तिः सर्वत्रेत्याह-अन्योन्यनिश्रिताः परस्परापरित्यागेन २५ व्यवस्थिताः पुनर् इति त एव सम्यक्त्वस्य यथावस्थितवस्तुप्रत्ययस्य सद्भावा भवन्तीति न बन्धाद्यनुपपत्तिः। ननु यदि नयाः प्रत्येकं सन्ति कथं प्रत्येकावस्थायां तेषां सम्यक्त्वाभावः स्वरूपव्यतिरेकेण अपरसम्यक्त्वाभावात् तस्य च तेष्वभ्युपगमात् ? अथ न सन्ति, कथं तेषां समुदायः सम्यक्त्वनिबन्धनो भवेत असतांसमुदायानुपपत्तेः?न च असतोऽऽपि सम्यक्त्वम् नयवादेष्वपि सम्यक्त्वप्रसक्तेः।३० न च प्रत्येकं तेषां संतामसम्यक्त्वेऽपि तत्समुदाये सम्यक्त्वं भविष्यति 'दव्वढिओ त्ति तम्हा नस्थि णओ' इत्याद्युपसंहारसूत्रविरोधात् । न च प्रत्यकमेकैकांशग्राहिणः सम्पूर्णवस्तुग्राहकाः समुदिता इति सम्यग्व्यपदेशमासादयन्ति, तत्तत्स्वगोचरापरित्यागेन तंत्रापि विषयान्तरे तेषा १-धमि अ-बृ० ल० ।-धमि अपूरेंते बृ०-धमि यपूरेंते वा० बा०। २ चासति बृ० ल० वा. बा०। ३-ज्ञान व-वृ० ल०। ४ पृ. २८५ पं०६। ५ मिच्छाद्दिट्टी वा० बा० । मिच्छहिट्रि आ० । ६-निःसृताः बृ० विना। -दावो भ-आ. हा. विना। ८ "वरूपस्य"-बृ० ल. मां० टि०। ९ सतो सम्य-वा. बा०। १०णउ बृ० हा०। ११ पृ०४०८ गा०९। १२ “समुदाये"-मांटि। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० प्रथमे काण्डेमप्रवृत्तेः । न च प्रत्येकमसम्यक्त्वे समुदायेऽपि सम्यक्त्वं युक्तम् सिकतासु तैलवत् , असत सदुत्पत्तेः सतो वा असदुत्पत्तेर्विरोधाच्च । अत्राभिधीयते-प्रत्येकमप्यपेक्षितेतरांशस्व विषयग्राहकतयैव सन्तो नयाः तद्यतिरिक्तरूपतया त्वसन्त इति सतां तत्समुदाये सम्यक्त्वे न कश्चिद् दोषः, नन्वितरेतरविषयाऽपरित्यागवृत्तीनां ५ज्ञानानां कथं समुदायः सम्भवी येन तत्र सम्यक्त्वमभ्युपगम्येत? अनुक्तोपालम्भ एपः न ह्येकदा. ऽनेकज्ञानोत्पादस्तेषां समुदायो विवक्षितः अपि त्वपरित्यक्तेतररूपविषयाध्यवसाय एव समुदायः। अन्योन्यनिश्रिताः इत्यनेनाप्ययमेवार्थः प्रतिपादितः । नहि द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकाभ्यामत्यन्तपृथग्भूताभ्यामङ्गुलिद्वयसंयोगवदुभयवादोऽपरः प्रारब्धः, ननु यदि प्रमाणं नयाः “प्रमाण-नये रधिगमः” [ तत्त्वार्थ० अ० १ सू० ६] इति प्रमाण-नयभेदकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तिः अथ अप्रमाणम् १० तथाप्यधिगमानुपपत्तिः तत्पृथग्भूतस्यापरस्यासंवेदनात् प्रमाणाभावप्रसक्तिश्च, असदेतत्; यतः अप्रमाणं नेयाः नयन्ति इतररूपसापेक्षं स्वविषयं परिच्छिन्दन्तीति नया इति व्युत्पत्तेः । न चापरिच्छेदकाः नयतेर्गत्यर्थत्वेन ज्ञानार्थत्वात् ज्ञानस्य च परिच्छेदात्मकत्वात् । न च परिच्छेदकत्वेऽपि प्रमाणता, समस्तनयविषयीकृतानेकान्तवस्तुग्राहकत्वेन 'प्रकृष्टं मानं प्रमाणम्' 'इतरांशसव्यपेक्ष. स्वांशग्राही नयः' इति तत्स्वतत्त्वव्यवस्थितेः। न चानेकान्तात्मकवस्तुग्राहिणो नया न भवन्ति, १५प्रत्येकं स्वविषयनियतत्वात तेषाम् तयतिरिक्तस्य चान्यस्य तद्विषयस्याननुभवात् । प्रमाणाभावोऽपि न, आत्मनः कथञ्चित् तद्यतिरिक्तस्य प्रमाणत्वेनानुभवसिद्धत्वात् तत्तन्नयविषयीकृताशेषवस्त्वं. शात्मकैकद्रव्यग्राहकत्वस्य तंत्र प्रतीतेः। न च संशयादिज्ञानैरात्मनः प्रमाणत्वेऽतिप्रसङ्गः, प्रमीयतेऽनेन प्रमिणोतीति वा प्रमाणमिति 'प्र'शब्देन तस्य निरस्तत्वात् । न चात्मनः कर्तृत्वात् करण रूपप्रमाणतानुपपत्तिः, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकस्य तस्यानेकरूपत्वेन कर्तृ-करणभावाविरोधात २०एतेन 'प्रत्येकं मिथ्यायो नयाः समुदिताः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्त इत्यत्र न नयसमुदायोऽर्थद्रया प्रत्येकमद्रपृत्वात् जात्यन्धसमूहवत्' इत्येतन्निरस्तम् अद्रष्टतत्समूहस्य सम्यक्त्वानभ्युपगमात् स्वविषयपरिच्छेदकत्वाच्च नयानाम् 'अद्रष्ट्रत्वात्' इति हेतुरसिद्धः । 'परिपूर्णवस्त्वनधिगन्तृत्वात्' इति हेतौ प्रतिज्ञार्थंकदेशासिद्धिः सिद्धसाध्यता च समुदायिनो द्रष्टुत्वनिषेधे साध्ये । अथ तत्समु. दायस्य द्रष्टुत्वनिषेधः साध्यस्तदा अध्यक्षविरोधः समुदायिव्यतिरिक्तस्यैकान्तेन समुदायस्याभावात् २५धर्मिणोऽप्रसिद्धिः सिद्धसाध्यता च ॥ २१ ॥ [प्रत्येकं नयेषु मिथ्यात्वेऽपि समुदितेषु सम्यक्त्वस्य रत्नावलीदृष्टान्तेन समर्थनम् ] न च समुदायाभावे नया एय परस्परव्यावृत्तस्वरूपा इति न क्वचित् सम्यक्त्वम्, नय-प्रमाणात्मकैकचैतन्यप्रतिपत्तेः रत्नावलीवत् इत्येतदाह 'यद्वा यत् प्रत्येकं नयेषु न सम्यक्त्वम् तत् तेषां समुदायेऽपि न भवति, यथा सिकतासु ३० प्रत्येकमभवत् तैलं तासां समुदायेऽपि न भवति' इत्यत्र हेतोरनैकान्तिकताप्रतिपादनार्थमाह १-धात्व । अ-भां० आ० । २ "उत्तरम्"-बृ० मां० टि। ३-दतस्ते-आ० हा०। ४ पृ. ४१९ प्र० गा। ५-नापायनेकार्थः प्र-भा० मां० ।-नापायमेवार्थः प्र-आ० ।-नापायमेकार्थाः प्र-हा० ।-"नाप्यमेवार्थः इत्यर्थः-प्रत्यन्तरे ।-नाप्य उ तस्यार्थः द्वितीयप्रत्य० । (अयं च द्वितीयप्रयन्तरसत्कः पाठः वा० बा. पुस्तके विद्यते)-नाप्ययमेवार्थः प्रतिपादितः इति तु संभावना"-मां. बहिः । ६ तत् “प्रमाण"-मांटि.। . अपरस्य "अधिगमस्य"-मां० टि.। ८ प्रमाणभावप्र-वा. बा० आ. हा० वि० ।-प्रमाणाभावाप्र-भां० । -प्रमाणाभावप्र-मां० सं०। ९ नया नयन्तातररू-हा। नया न नयन्तीतररू-बृ० । नया य नयन्तीतरू-वा० बा०। १०-परिच्छेदकेत्वे-बृ० ।-परिच्छेदात्मकत्वे-भां० । ११-कृष्टमा-बृ०। १२ "तयोः प्रमाण-नययोः"-बृ० ल० मा० टि.। १३ “आत्मनि"-बृ. ल. मां० टि०। १४-स्वादि हेतौ भां० मां० हा० वि० । -स्वादिहिती आ० । १५ “ 'अनित्यः शब्दः अनित्यत्वात्' इतिवत् अत्र च अर्थाद्रष्टत्वं साध्यम् तदेव च अक्षरान्तरिहेतुतयोपन्यस्ता (न्तरैर्हेतुतयोपन्यस्तम् )"-मां. टि.।-शासिद्धः बृ० वा. बा० । १६-णात्मिकै- बृ० वा. बा। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ नयमीमांसा। जहणेयलक्खण-इत्यादि जहणेयलकवणगुणा वेरुलियाई मणी विसंजुत्ता। रयणावलिववएसं न लहंति महग्घमुल्ला वि ॥ २२॥ तह णिययवायसुविणिच्छिया वि अण्णोण्णपक्वणिरवेक्खा। सम्मइंसणसहं सव्वे वि णया ण पावेंति ॥ २३ ॥ जह पुण ते चेव मणी जहा गुणविसेसभागपडिबद्धा। 'रयणावलि'त्ति भण्णइ जहंति पाडिकसण्णाउ ॥ २४ ॥ तह सव्वे णयवाया जहाणुरूवविणिउत्तवत्तव्वा । सम्मइंसणसई लहन्ति ण विसेससण्णाओ॥ २५ ॥ यथा अनेकप्रकारा विषविघातहेतुत्वादीनि लक्षणानि नीलत्वादयश्च गुणा येषां ते १० वैडूर्यादयो मणयः पृथग्भूता रत्नावलीव्यपदेशं न लभन्ते महार्घमूल्या अपि ॥२२॥ तथा प्रमाणावस्थायाम् इतरसव्यपेक्षस्वविषयपरिच्छेदकाले वा खविषयपरिच्छेदकत्वेन सुनिश्चिता अपि अन्योन्यपक्षनिरपेक्षाः 'प्रमाणम्' इत्याख्या सर्वेऽपि नया न प्राप्भवन्ति निजे च इतरनिरपेक्षसामान्यादिवादे सुविनिश्चिता हेतुप्रदर्शनकुशला अन्योन्यपक्षनिरपेक्षत्वात् सम्यग्दर्शनशब्दं 'सुनयाः' इत्येवंरूपं सर्वेऽपि संग्रहादयो नया न प्रामुवन्ति ॥ २३ ॥ १५ यदा पुनस्त एव मणयो यथा गुणविशेषपरिपाट्या प्रतिबद्धाः 'रत्नावलि' इति आख्यामासादयन्ति प्रत्येकाभिधानानि च त्यजन्ति रत्नानुविद्धतया रत्नावल्यास्तदनुविद्धतया च रत्नानां प्रतीतेः 'रत्नावली' इति तत्र व्यपदेशः न पुनः प्रत्येकाभिधानम् ॥ २४ ॥ तथा सर्वे नयवादा यथानुरूपविनियुक्तवक्तव्या इति यथा इति वीप्साथै अनु इति सादृश्ये रूपम् इति स्वभावे तेनानुरूपमित्यव्ययीभावः पुनर्यथाशब्देन स एव "यथाऽसा-२० दृश्ये” [पाणि० अ०२ पा०१ सू०७ सिद्धान्तकौ० अं० ६६१ पृ० १६३] इत्यनेन । यद् यदनुरूपं तत्र विनिर्युक्तं वक्तव्यं उपचारात् तद्वाचकः शब्दो येषां ते तथा-यथानुरूपद्रव्यध्रौव्यादिषु प्रमाणात्मकत्वेन व्यवस्थिताः सम्यगूदशेनशब्द 'प्रमाणम्' इत्याख्या लभन्त न विशेषसंज्ञा: पृथग्भूतामिधानानि एकानेकात्मकत्वेन चैतन्यप्रतिपत्तेरन्यथा चाप्रतिपत्तेरिति । ननु नय-प्रमाणास्मकचैतन्यस्याध्यक्षसिद्धत्वेन 'रत्नावलि' इति दृष्टान्तोपादानं व्यर्थम्, न अध्यक्षसिद्धमप्यनेका-२५ न्तमनभ्युपगच्छन्तं प्रति व्यवहारसाधनाय दृष्टान्तोपादानस्य साफल्यात् । प्रवर्तितश्च तेनापि तत्रानेकान्तव्यवहारः॥२५॥ १-सद्दा स-ल.। २-रूपं चि-बृ०। ३ अत्र मूलगाथागत 'विणिउत्त' इति प्राकृतपदानुसारेण 'विनियक्त' इत्येव सम्यग् भाति, 'विनियुक्त'इत्यस्य तु प्राकृतपदम् 'विणिजुत्त' इति भवेत्। ४ “अव्ययीभावः"-बृ० ल. मांटि ५ “यथाऽथा" | ३।१।४१। हैम०। ६ “सत्रेण"-बृ० ल. मा० टि०। ७ “वक्तव्ये" उपचारात् बृ. ल. मां. टि०। ८-द्धत्वे र-बृ० वा. बा० । ५४ स० त० Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ प्रथमे काण्डे[ दृष्टान्तोपन्यासप्रयोजकानां तद्गुणानां परिगणनम् ] दृष्टान्तगुणप्रतिपादनायाह लोइयपरिच्छयसुहो निच्छयवयणपडिवत्तिमग्गो य। अह पण्णवणाविसउ त्ति तेण वीसत्थमुवणीओ ॥ २६ ॥ ५ व्युत्पत्तिविकल-तयुक्तप्राणिसमूहसुखग्राह्यत्वम् एकानेकात्मकभावविषयवचोऽवगमजनकत्वं च अथ इत्यवधारणार्थः अनन्तधर्मात्मकवस्तुप्ररूपकवाक्यविषयत्वं दृष्टान्तस्यैव । एतैः कारणैः शडा. व्यवच्छेदेन अयमुपदर्शित इति गाथातात्पर्यार्थः। न चावल्यवस्थायाः प्राग् उत्तरकालं च रत्नानां पृथगुपलम्भात् इह च सर्वदा तथोपलम्भाभा. वाद विषममुदाहरणमिति वक्तव्यम् , आवल्यवस्थाया उदाहरणत्वेनोपन्यासात् । न च दृष्टान्त-दार्टा१०न्तिकयोः सर्वथा साम्यम् तत्र तद्भावानुपपत्तेः ॥ २६ ॥ [ दृष्टान्तस्य साध्यसमतां वदतामेकान्तवादिनां निरासाय पश्चानां तदभिप्रायाणां निर्देशः] (१) "रत्नादिकारणेष्वावल्यादिकार्य सदेव" [ ] इति साह्वयः। (२) “तेषामेवानेन रूपेण व्यवस्थितत्वात् तदव्यतिरिक्तं विकारमानं कार्य त एव" [ ] इति साङ्ख्य विशेष एव । १५ (३-४) “न कार्य कारणे विद्यते इति तेभ्यस्तत् पृथग्भूतम् नहि कारणमेव कार्यरूपेण व्यवतिष्ठते परिणमते वा" [ ] इति वैशेषिकादयः । (५) "न च कार्यम् कारणं वास्ति द्रव्यमात्रमेव तत्त्वम्" [ ] इत्यपरः। एवंभूताभिप्रायवन्त एकान्तवादिनो दृष्टान्तस्य साध्यसमतां मन्यन्ते तान् प्रत्याह इहरा समूहसिद्धो परिणामकओ व्व जो जहिं अत्थो। ते तं च ण तं तं चेव व त्ति नियमेण मिच्छत्तं ॥ २७॥ इतरथा उक्तप्रकारादन्यथा समूहे रत्नानां सिद्धो निष्पन्नः परिणामकृतो वा मण्या २० १ "परीक्षक"-बृ० ल. मां. टि.। "अथ दृष्टान्तः xxx यत्र लौकिक-परीक्षकाणां दर्शनं न व्याहन्यते"-अ० १। आ० १। सू० १ न्यायद. वात्स्या० पृ. ४ पं० १९।। "लौकिक-परीक्षकाणां दर्शनाविघातहेतुरिति"-न्यायवा० पृ० १५५० १२ । न्यायवार्तिकता० पृ० ५२ पं० ११ । "लौकिक-परीक्षकाणां यस्मिन्नर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः”-अ० १ । आ० १ । सू० । २५ । xxx यथा यमर्थ लौकिका वुध्यन्ते तथा परीक्षका अपि सोऽर्थो दृष्टान्तः"-न्यायद० वात्स्या० पृ० ४८ पं० १७॥ न्यायवा० पृ० १०२ पं० १६ । न्यायवार्तिकता. पृ० २६१ पं०१६ । नियुक्तिकारो भद्रबाहुखामी दृष्टान्तपर्यायाने निर्दिशति"नायमुदाहरणं ति अ दिटुंतोवम निदरिसणं तह य। एगटुं तं दुविहं चउव्विहं चेव नायव्वं" ॥५२॥ -दशवै. निर्यु. पृ. ३४ प्र.। खयं प्रन्थकारस्तु स्खीये न्यायावतारसूत्रे दृष्टान्तखरूपमेवं विवृणोतिः "साध्य-साधनयोर्व्याप्तिर्यत्र निश्चीयतेतराम् । साधर्येण स दृष्टान्तः सम्बन्धस्मरणान्मतः" ॥ “साध्ये निवर्तमाने तु साधनस्याप्यसंभवः । ख्याप्यते यत्र दृष्टान्ते वैध>णेति स स्मृतः"। "अन्तर्व्याप्त्यैव साध्यस्य सिद्धर्बहिरुदाहृतिः । व्यर्था स्यात् तदसद्भावेप्येवं न्यायविदो विदुः" ॥ -न्यायावता० श्लो० १८-१९-२० । २-वण्णावि-भां०। ३ "रत्नावलीति दृष्टान्तः"-बृ. ल. भां० मा.टि.। ४ तं व वृ. ल. वा. बा. हा०। तं वं-भां। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । ४२३ 'दिष्वावल्यादिः क्षीरादिषु दध्यादिर्वा यो यत्र अर्थः ते मण्यादय आवल्यादि कार्यम् क्षीरं वा दध्यादिकैम् तत्र तत्सद्भावात् तस्य तत्परिणामरूपत्वात् । 'समूह सिद्ध:' 'परिणामकृतो वा' इति aureurari लौकिकव्यवहारापेक्षया । परमार्थतस्तु परमाणुसमूहपरिणामात्मकत्वात् सर्व एव समूहकृतः परिणामकृतो वेति न भेदः । [ ( १ ) सांख्याभिमतत्वेनोपन्यस्तस्य सत्कार्यवादस्य निरसनम् ] अयं चाभ्युपगमो मिथ्या । तथाहि - यद्येकान्तेन कारणे कार्यमस्ति तदा कारणस्वरूपवत् कार्यस्वरूपानुत्पत्तिप्रसक्तिः । न हि सदेवोत्पद्यते उत्पत्तेरविरामप्रसङ्गात् । न च कारणव्यापारसाफयम् तैयापार निर्वर्त्यस्य विद्यमानत्वात् । तथाहि कारणव्यापारः किं कार्योत्पादने, आहोस्वित् कार्या भिर्व्यक्तौ, उत तदावरणविनाशे इति पक्षाः । तत्र न तावत् कार्योत्पादने, तस्य सत्त्वे कारकव्यापारवैफल्यात् असत्वे स्वाभ्युपगमविरोधात् । अभिव्यक्तावपि पक्षद्वयेऽप्येतदेव दूषणम् । आवरणवि- १० नाशेऽपि न कारकव्यापारः, सतो विनाशाभावात् असतो भावस्योत्पादवत् । तन्न सत्कार्यवादे कर कव्यापार साफल्यम् । न चान्धकारपिहितघटाद्यनुपलम्भे अन्धकारोपलम्भवत् कार्यावारकोपलम्भः येन प्रतिनियतं किञ्चित् तदावारकं व्यवस्थाप्येत । न च कारणमेव कार्यावारकम् तस्य तदुपकारकत्वेन प्रसिद्धेः न ह्यालोकादि रूपज्ञानोपकारकं तंदावारकत्वेन वकुं शक्यम् । किञ्च, आवारकस्य मूर्त्तत्वे कारणरूपस्य न कार्यस्य तदभ्यन्तरप्रवेशः मूर्त्तस्य मूर्त्तेन प्रतिघातात् अप्रतिघाते च यथा १५ कार्य कारणाभ्यन्तरप्रविष्टत्वात् तेन आवृतमिति नोपलभ्यते तथा कारणस्याप्यनुपलब्धिप्रसङ्गः अप्रतिघातेन तदनुप्रविष्टत्वाविशेषात् । अथ अन्धकारवत् तद्दर्शनप्रतिबन्धकत्वेन तद् आवारकम् ; नवे दर्शनेऽपि तस्य स्पर्शोपलम्भप्रसङ्गः तैस्याप्यभावे तैस्याऽसत्त्वमिति तद् आवारकं तत्स्वरूपविनाशकं प्रसक्तम् । न च पटादेरिव घटादिकं प्रति कारणस्य कार्याssवारकत्वमिति न स्पर्शोपलब्धिः, पटध्वंसे इव मृत्पिण्डध्वंसे तदावृतकार्योपलब्धिप्रसङ्गात् एकाभिव्यञ्जकव्यापारादेव २० सर्वव्यङ्गयोपलब्धिश्च भवेत् एकप्रदीपव्यापारात् तत्सन्निधानव्यवस्थिताने कघटादिवत् । किञ्च, कारणकाले कार्यस्य सत्वे स्वकाल इव कथमें सौ तेनांवियते ? नापि मृत्पिण्डकार्यतया पटादिवत् घटो व्यपदिश्येत, असत्त्वे च नावृतिः अविद्यमानत्वादेव । एकान्तसतः करणविरोधात् असदकरणादिभ्यो न सत्कार्यसिद्धिः । प्रतिक्षिप्तश्च प्रागेव सत्कार्यवाद इति न पुनरुच्यते । ५ [ (२) सांख्यविशेषमतत्वेनोपन्यस्तस्य कारणात्मक परिणामवादस्य निरसनम् ] अनर्थान्तरभूत परिणामवादोऽपि प्रतिक्षिप्त एव । न हि अर्थान्तरपरिणामाभावे परिणाम्येव कारणलक्षणोऽर्थः पूर्वापरयोरेकत्वविरोधात् । न च परिणामाभावे परिणामिनोऽपि भावो युक्तः परिणाम निबन्धनत्वात् परिणामित्वस्य । अभिन्नस्य हि पूर्वापरावस्थाहानोपादानात्मतया एकस्य वृत्तिलक्षणः परिणामो न युक्तियुक्तः । तन्नैकान्ताभेदे कारणमेवानर्थान्तरकार्यरूपतया परिणमत इति स्थितम् । २५ ३० १ “यथाक्रमं योगः " - बृ० ल० मां० दि० । २ " समूहः " - मो० टि० । ३ परिणामः " - मां०] टि० । ४ तस्य परि-प्र० मां० बहिः । ५ " कारणव्यापार " - वृ० ल० मां० टि० । ६ - व्यक्तात वृ० । यथा 'तेऽत्र' 'कोऽत्र ' इत्यादौ अकारलोपे तत्सूचकम् अवग्रहाभिधेयं चिह्नं विधीयते तथा पुरातनप्रतिषु 'व्यक्तौ उत' इत्यस्य संधौ 'व्यक्तावत' इति निष्पन्ने 'वु' इत्यस्य शिरसि ७ इति चिह्नम् उकारसूचकं विहितं लिपिकारैः इति प्रदर्शनार्थमयं पाठो न्यस्तः नैतत् पाठान्तरम् । ७ “ सदसत्व " (त्व) रूपपक्षद्वये मां० टि० । ८ कारणव्या - बृ० ल० भ० हा० विना । ९ "ज्ञानावारकत्वेन" - मां० टि० । १० " कार्यदर्शन" - बृ० ल० मां० टि० । ११ " कारण " - मां० टि० । १२ " कार्यस्य"मां० टि० । १३ तस्य " स्पर्शस्य" - मां० टि० । १४ तस्य " कार्यस्य " - मां० टि० । १५ - शकत्वं प्रवृ० ल० वा० बा० विना । १६ “ कार्यरूप भावः " - बृ० ल० टि० । “कार्यरूपोऽभावः " मां० टि० । १७ तेन " कारणेन"बृ० ल० मां० टि० । १८ - सत्कर-आ० हा० । १९ “ असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत् कार्यम् ॥ साङ्ख्य सप्ततौ” ( साङ्ख्यका ० ९ ) - भ० मां० दि० । पृ० २८२०१८ । २० पृ० २९६ पं० ८ । २१-क्षण प-मां० आ० हा ० वि० । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ प्रथमे काण्डे[ (३) वैशेषिकाभिमतत्वेनोपन्यस्तस्यासत्कार्योत्पत्तिवादस्य निरसनम् ] । मृत्पिण्डावस्थायां घटार्थक्रिया-गुणव्यपदेशाभावात् 'असदुत्पद्यते कार्यम्' इत्ययमप्येकान्तो मिथ्यावाद एव । कार्योत्पत्तिकाले कारणस्याविचलितरूपस्य कार्याव्यतिरिक्तस्य सत्त्वे पूर्वोक्क दोषप्रसङ्गात् । तद्यतिरिक्तस्य तस्य सद्भावे कारणस्य प्राक्तनस्वरूपेणैवावस्थितत्वात् अकारणा ५कार्योत्पत्तिर्भवेत् कारणस्य प्राक्तनाऽकरणस्वरूपापरित्यागात् परित्यागे वा कार्यकरणस्वरूपस्वीकारेण तस्यैवावस्थितत्वादनेकान्त सिद्धिः । व्यतिरेके च कारणात् कार्यस्य पृथगुपलम्भप्रसङ्गः। न च तदाश्रितत्वेन तस्योत्पत्तेर्न तेत्प्रसङ्ग इति वक्तव्यम्, अवयविनः समवायस्य च निषेत्स्यमानत्वात् निषिद्धत्वाच्च। [(४) बौद्धाभिमतत्वेनोपन्यस्तस्य 'कारणाद् भिन्नं कार्य तत्रासदेव' इति वादस्य निरसनम् ] १० कारणाद् व्यतिरिक्तं तत्र असदेव कार्यमित्ययमपि पक्षो मिथ्यात्वमेव । तथाहि-एकान्ततो निवृत्ते कारणे कार्यमुत्पद्यत इत्यत्र कारणनिवृत्तिः सद्रूपा, असद्रूपा वेति वक्तव्यम् । सद्रूपत्वेऽपि न तावत् कारणस्वरूपा, कारणस्य नित्यत्वप्रसक्तेः निवृत्तिकालेऽपि कारणसद्भावात् । न चाविचलितस्वरूपमृत्पिण्डसद्भावे घटोत्पत्तिदृष्टेति कार्यानुत्पत्तिप्रसक्तिश्च । नापि कार्यरूपा तन्निवृत्तिः कारणानिवृत्ती कार्यस्यैवानुत्पत्तेः । एवं च कार्यानुत्पादकत्वेन कारणस्याप्यसत्त्वमेव । न च कार्योत्पत्तिरेव कारण१५ निवृत्तिरिति कारणानिवृत्तेर्न कार्योत्पत्तिरिति नायं दोषः, कार्यगतोत्पादस्य कारणगतविनाशरूपत्वायोगात् भिन्नाधिकरणत्वात् कारण निवृत्तेश्च कार्यरूपत्वे कारणं कार्यरूपेण परिणतमिति घटस्य मृत्स्वरूपवत् कपालेष्वप्युपलब्धिप्रसङ्गः। नाप्युभयरूपा तन्निवृत्तिः, कारण निवृत्तिकाले कार्य-कारणयोर्युगपदुपलब्धिप्रसक्तेः। नाप्यनुभयस्वरूपा तन्निवृत्तिः, मृत्पिण्डविनाशकाले विवक्षितमृत्पिण्डघटव्यतिरिक्ताऽशेषजगदुत्पत्तिप्रसक्तेः। अथ असद्रूपा तन्निवृत्तिः तत्रापि यदि कारणाभावरूपा २० तदा कारणाभावात् कार्योत्पादप्रसक्तेर्निर्हेतुकः कार्योत्पाद इति देश-कालाऽऽकारनियमः कार्यस्य न स्यात् अभावाञ्च कार्योत्पत्तौ विश्वमदरिद्रं भवेत् । नापि कार्याभावरूपा तन्निवृत्तिः कार्यानुत्पत्तिप्रसङ्गात् । नाप्युभयाभावस्वभावा द्वयोरप्यनुपलब्धिप्रसक्तेः। नाप्यनुभयाभावरूपा विवक्षितकारण-कार्यव्यतिरेकेण सर्वस्यानुपलब्धिप्रसक्तेः कारणस्योपलब्धिप्रसक्तेश्च । कारणभावाभावरूपापि न तन्निवृत्तिः, कारणस्यानुगतव्यावृत्तताप्रसक्तेः । अत एव च सदसद्रूपं स्व-पररूपापेक्षया अनेकान्त२५वादिमिर्वस्त्वभ्युपगम्यते । पररूपेणेव स्वरूपेणाप्यसत्त्वे वस्तुनो निःस्वभावताप्रसक्तेः । स्वरूपवत् पररूपेणापि सत्त्वे पररूपताप्रसक्तेः। एकरूपापेक्षयैव सदसत्त्वविरोधात् अन्यथा वस्त्वेव न भवेत् । नापि कार्यभावाभावरूपा, कार्यस्योत्पत्त्यनुत्पत्त्युभयरूपताप्रसक्तेः तथा च सिद्धसाध्यता केवलोभयपक्षोक्तंदोषप्रसक्तिश्च । नापि कार्यकारणोभयभावाभावरूपा, प्रत्येकपक्षोदितसकलदोषप्रसक्तेः। परस्परसव्यपेक्षकार्यकारणभावाभावरूपकारणनिवृत्त्यभ्युपगमेऽनेकान्तवादप्रसक्तिश्च । नाप्यनुभय३० भावाभावरूपा अनुभयरूपस्य वस्तुनोऽभावात् । न च तन्निवृत्तेः सत्त्वम् एकान्तभावाभावयोर्वि रोधात । अनुभयभावाभावरूपत्वे तु तस्याः कारणस्याऽप्रच्यतत्वात तथैवोपलब्धिप्रसङ्गः। अपि च, कारणनिवृत्तिस्तत्वरूपाद मिन्ना, अभिन्ना वा? यद्यभिन्ना, निवृत्तिकालेऽपि कारणस्योपलब्धिप्रसङ्गः तन्निवृत्तेः कारणात्मकत्वात् स्वकालेऽपि वा कारणस्योपलब्धिर्न स्यात् तस्य तन्निवृत्तिरूपस्वात् । भिन्ना चेत् 'कारणस्य निवृत्तिः' इति सम्बन्धाभावात् अभिधानानुपपत्तिः। सङ्केतवशात् ३५ अभिधानप्रवृत्तावपि आधेयनिवृत्तिकाले अधिकरणस्य सत्त्वम् असत्त्वं वेति वक्तव्यम् । सत्वे कारः णविनाशानुपपत्तिः आधेयनिवृत्त्या कारणस्वरूपस्याऽऽधारस्याऽविरोधात् विरोधे वा कारण-तन्निवृ. १घटाद्यर्थ-मा. आ.वि.। २-रणे का-वृ० ल० वा. बा. विना।-रणका-भां०। ३-नाकारणमां०। ४ कार्यकार-वा. बा. मां०। ५ "पृथगुपलम्भः"-मां. टि.। ६ पृ० १०६५०९। ७-पालेखूपल-बृ० ल० ।-पालेष्टपल-वा. बा० । ८ "घटस्यानिवृत्तेः"-मां० टि०। ९ प्र. पृ० पं० १३ तथा पं० २१॥ १० प्र० पृ. पं० १७ तथा २२ । ११-गमे । ने-बृ०। १२ तस्य का-बृ०। ल. सं० । १३ "कारण"खरूपातू-बृ. ल.टि.। १४ "आधेया चासौ निवृत्तिश्च"-मांटि। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । ४२५ त्योर्यौगपद्यासम्भवात् असत्वेऽप्यधिकरणत्वविरोधः असतोऽधिकरणत्वायोगात् तस्य वस्तुधर्मत्वात् । अथ कारणं निवृत्तेर्नाधिकरणम् अपि तु तद्धेतुः, न निवृत्तेरुत्तर कार्यवत् तत्कार्यत्वप्रसङ्गात् तदनभ्युपगमे कारणस्य तद्धेतुत्वप्रतिज्ञाहानिः अकार्यस्य तद्धेतुत्वविरोधात् अविरोधे वन्ध्याया अपि सुतं प्रति हेतुत्वप्रसक्तेः । न च कारणा हेतुकैव कारणनिवृत्तिः, कारणानन्तरभावित्वविरोधात् । न च कारणहेतुका तन्निवृत्तिः, कारणसमानकालं तदुत्पत्तिप्रसङ्गतः प्रथमक्षण एवं कारणस्यानुपलब्धि- ५ प्रसक्तेः उपलम्भे वा न कदाचित् कारणस्यानुपलब्धिर्भवेत् तन्निवृत्त्याऽविरुद्धत्वात् । न च कारण निवृत्तिः स्वहेतुका, स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । न च निर्हेतुकैव कारणानन्तरमेव तस्या भावविरोधात् अहेतोर्देशादिनियमाभावात् । अथ न कारणं निवृत्तेर्हेतुः अधिकरणं वा किन्तु स्वयमेव न भवति, नन्वत्रापि किं स्वसत्तासमय एव स्वयं न भवति, आहोस्विदुत्तरकालमिति विकल्पद्वयानतिक्रान्तिः । यदि प्राक्तन विकल्पस्तदा १० कारणानुत्पत्तिप्रसङ्गः प्रथमक्षण एव निवृत्त्याऽऽक्रान्तत्वात् उत्पत्त्यभावे न निवृत्तिरपि अनुत्पन्नस्य विनाशासम्भवात् । नापि द्वितीयः तदा निवृत्तिभवने उत्पन्नाऽनुत्पन्नतया कारणस्वरूपाऽभवनयोस्तादात्म्यविरोधात् यदि हि स्वसत्ताकाल एव न भवेत् तदा भवनाऽभवनयोरविरोधात् “स्वयमेव भावो न भवेत्" [ ] इति वचो घंटेत नान्यथा । न च जैन्मानन्तरं भावाभावस्य भावात्मकत्वात् तदव्यतिरिक्त एवाभावः नन्वेवमपि जन्मानन्तरं 'स एव न भवति' इत्यनेन १५ अभावस्य भावरूपतैवोक्तेत्युत्तरकालमपि कारणानिवृत्तेस्तथैवोपलब्ध्यादिप्रसङ्गः । भावस्य अभावात्मकत्वान्नायं दोष इति चेत्, नः अत्रापि पर्युदासाभावात्मकत्वं भावस्य प्रसज्यरूपाभावात्मकत्वं वा ? प्रथमपक्षे स्वरूपपरिहारेण तदात्मकतां प्रतिपद्यते, अपरिहारेण वा ? प्रथमपक्षे स्वभवनप्रतिषेधपर्यवसानत्वान्न पर्युदासाभावात्मको भावो भवेत् । न चासौ तथा तड्राहकप्रमाणाभावात् तथाभूतभावग्राहक प्रमाणाभ्युपगमे च प्रसज्यपर्युदासात्मको भावो भवेदित्यनेकान्त- २० प्रसिद्धिः । द्वितीयपक्षेऽपि न पर्युदासः अनिषिद्धतत्स्वरूपत्वात् पूर्वभावस्वरूपवत् । प्रसज्यरूपाभावात्मकत्वेऽपि भावस्य प्रतिषिध्यमानस्याश्रयो वक्तव्यः न तावत् मृत्पिण्डलक्षणं कारणमाश्रयः तस्य प्रतिषिध्यमानत्वात् निषिध्यमानस्य चाश्रयत्वानुपपत्तेः । नापि घटलक्षणं कार्यमाश्रयः, कारणनिवृत्तेर्हि प्रागू घटस्यासत्वेन 'अयम्' इतिप्रत्ययाविपयत्वात् 'अयं' प्रत्ययविषयत्वे च 'अयं ब्राह्मणो न भवति' 'ब्राह्मणादन्योऽयम्' इति च प्रसज्यपर्युदास व्यवहारो दृष्टः नान्यथेति प्रतिषेध-: प्रधान विध्युपसर्जन विधिप्रधान प्रतिषेधोपसर्जनयोः शब्दयोः प्रवृत्तिनिमित्तधर्मद्वयाधारभूतं द्रव्यं विषयत्वेनाभ्युपगन्तव्यमन्यथा तदयोगात् । तथा चानेकान्तवादापत्तिरयत्न सिद्धेति तथाभूतस्यै तस्य वस्तुनः प्रमाणबलायातस्य निषेद्धुमशक्यत्वात् । एकान्तेन घटस्योत्पत्तेः प्रागस्तित्वे क्रियायाः प्रवृत्यभावः फलसद्भावात् तत्सद्भावेऽपि प्रवृत्तावन वस्थाप्रसक्तेः । कारणेऽप्येतद विशेषतस्तद्वैत् सङ्गे द्वयोरप्यभावप्रसङ्गः । न चैतदस्ति तथाऽप्रतीतेः । तन्न मृत्पिण्डे घटस्य सत्त्वम् । २५ नाप्येकान्ततोऽसत्वम्, मृत्पिण्डस्यैव कथञ्चित् घटरूपतया परिणतेः । सर्वात्मना पिण्डनिवृत्तौ पूर्वोक्तदोषानतिवृत्तेः घटसदसत्त्वयोराधारभूतमेकं द्रव्यं मृलक्षणमेकाकारतया मृत्पिण्डघटयोः प्रतीयमानमभ्युपगन्तव्यम् । न च कारणप्रवृत्तिकाले कारणगता मृदूपता तन्निवृत्तिकाले च कार्यगता सापरैव नोभयत्र मृद्रूपताया एकत्वम्, भेदप्रतिपत्तावपि मृत्पिण्ड - घटरूपतया कथञ्चिदेकत्वस्यावाधितप्रत्ययगोचरत्वात् उपलभ्यत एव हि कुम्भकारव्यापारसव्यपेक्षं मृद्रव्यं ३५ १" कार्यत्ववत् " - बृ० टि० । २ " कार्यत्वा" मभ्युपगमे वृ० टि० । मा० । च कारणहे - बृ० सं० । ४ घटते भां० मां० । घटेत प्र० मां० नन्तरं प्र० मां० बहिः । ६ "भावा" व्यतिरिक्तः घृ० ल० मां० टि० । बहिः । ८ "पर्युदासात्मको (S)भावः " - वृ० ल० टि० । “पर्युदासात्मकोऽभावः " - मां०] टि० । हाररूपतया " - बृ० ल० मां० टि० । १०-पगमे वा प्र-० ल० वा० बा० । १४- कान्तघट-आ० । का - आ० । १३ -स्य वस्तु वा० वा० आ० । टि० । १६ “ कार्यवत् " - बृ० ल० मां० टि० १७ प्रसङ्गेन द्व-आ०। १८ “कारण-कार्ययोः” - बृ० ल० मां० । टि० । ३ च कारण कारण हे वृ० भा० बहिः । ५ जन्मान्तरं मां० । जन्मा७- रण नि-मां० । रणानि - प्र० मां० ९ तथा " स्वरूपपरि११- त्मकेऽपि मां० । १२ - क्षण १५ " सत्त्वाविशेषात् बृ० ल० मां० “क्रियायाः " प्रसङ्गे - बृ० ल० मां० टि० । १९ चैवत - आ० । २० कारणनिवृ-प्र० मां० बहिः । ३० Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे पिण्डाकारपरित्यागेन शिवकाद्याकारतया परिणममानम् नहि तत्र 'इदं कार्यमाधेयभूतं मित्रमुपजातं पं पङ्कजवत्' इति प्रतिपत्तिः । नापि तत्करण निर्वर्त्यतया दण्डोत्पादितघटवत् । नापि तत्कर्तृतया कुविन्दव्यापारसमासादिनात्मलाभपटवत् । नापि तदुपादानतया आम्रवृक्षोत्पादिताम्रफलवत् । तस्मात् पूर्व पर्यायविनाश उत्तरपर्यायोत्पादात्मकः, तद्देशकालत्वात्, उत्पादात्म५ वत् । अभावरूपत्वाद्वा प्रदेशस्वरूपघटाद्यभाववत् । प्रागभावाभावरूपत्वाद्वा घटखात्मवत् एवमनभ्युपगमे पूर्व पर्यायस्य ध्वंसात् उत्तरस्य चानुत्पत्तेः शून्यताप्रसक्तिः । उत्तरपर्यायोत्पादाभ्युपगमे वा तदुत्पादः पूर्वपर्यायप्रध्वंसात्मकः प्रागभावाभावरूपत्वात् प्रध्वंसाभावाभाववत् । न च प्राक्तनपर्यायविनाशात्मकत्वे उत्तरपर्याय भवनस्य तद्विनाशे पूर्व पर्यायस्योन्मज्जनप्रसक्तिः अभावाभावमात्रवानभ्युपगमाद् वस्तुनः तस्य प्रतिनियतपरिणतिरूपत्वान् । भावाभावोभयरूपतया प्रतिनियतस्य १० वस्तुनः प्रादुर्भावे मुरादिव्यापारानन्तरमुपलभ्यमानस्य कपालादेग्भावस्य नाहेतुकता । न चोभयस्यैकव्यापारादुत्पत्तिविरोधः तथाप्रतीयमाने विरोधासिद्धेः । ततस्तद्विपरीत एव विरोधसिद्धेरुभयैकान्ते प्रमाणानवतारात् । तथात्मकत्वेन प्रतीयमानं प्रति हेतोर्जनकत्वविरोधे घटक्षणसत्तायाः स्व परविनाशोत्पादकत्वं विरुध्येत एवं चाकारणा घटक्षणान्तरोत्पत्तिर्भवेत् । न च विनाशस्य प्रसज्य - पर्युदासपक्षद्वयेऽपि व्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्तादिविकल्पतो हेत्वयोगान्निर्हेतुकता युक्ताः, सत्ता१५ हेतुत्वेऽपि तथाविकल्पनस्य समानत्वेन प्राक् प्रदर्शितत्वात् । ४२६ यदपि 'विनाशस्य निर्हेतुकत्वात् स्वभावादनुबन्धितेति निरन्वयक्षणक्षयिता भावस्येति नान्वयः, ' तदप्यसङ्गनम् ः विनाशहेतोर्मुङ्गरादे घटादिनाशस्य प्रत्यश्न सिद्धत्वान् । न हाध्यक्ष सिद्धे वस्तुन्यनुमानं विपरीतधर्मापस्थापकत्वेन प्रामाण्यमात्मसात्करोति । यदपि 'विनाशं प्रति तद्धेतोरसामर्थ्यात् क्रियाप्रतिषेधाच्च स्वरसवृत्तिर्विनाश इति नान्वयः, तदप्यसङ्गतम् ः विनाशहेतोर्भावाभावीकरणसामर्थ्यात् । २० यथा हि भाव हेतुर्भावीकरोति, अन्यथा स्वयमेव नाशेऽपि भावानां द्वितीयक्षणे 'स्वयंमेवभावो भावीभवति' इति भवेत् । यथा हि निष्पन्नस्य भावस्य नाभावो नाम कश्चित् तत्सम्बन्धी यद्यन्योऽभावो भवेत् निष्पन्नस्य भावस्य तदा तेन तस्य सम्बन्धासिद्धेः पूर्ववद् दर्शनप्रसङ्ग इति 'स्वयमेव भावो न भवति' इत्यभिधीयते तथा न निष्पन्नस्य भावस्य भावो नामान्यः कश्चित् तेन तस्य सम्बन्धासिद्धेर्न भावस्य सत्ता भवेदिति 'स्वयमेव हेतुनिरपेक्षो भावो भवति' इत्येतदपि वक्तव्यम् । यदि पुनस्तत्र २५ न किञ्चिद् भवतीति क्रियाप्रतिषेधमात्रमिति न हेतुव्यापारः कथं तर्हि तदवस्थस्य भावस्य दर्शनादिक्रिया न भवेदिति वक्तव्यम् ? स एव न भवतीति चेत्, तर्हि तस्यैवाभवनं करोति विनाशहेतुरित्यन्यभ्युपगन्तव्यमिति तद्धेतृनाम किञ्चित्करतयाऽनपेक्षणीयत्वमनुपपन्नम् । अत एवापेक्षणीयत्वोपपत्तिर्भावस्यान्यथाकरणात् कथञ्चिदन्यथा सहानवस्थानलक्षण विरोधीसिद्धेः प्रतिनियतव्यवहारोच्छेदप्र सक्तिः । अपि च, यदि नाम स एव न भवति तथापि प्रध्वंसाभावः प्रागभावाभावात्मक उत्तरकार्य३० वदभ्युपगन्तव्यः तस्यापि तदनन्तरमुपलम्भात् । एतावान् विशेषः - विनाशप्रतिपादनाभिप्राये सति तत्प्राधान्येतरोपसर्जनविवक्षायाम् 'विनष्टो भावः' इति प्रयुज्यते प्रतिपत्तिरपि तथैव, विनाशोपसजनेतर प्राधान्यविवक्षायाम् 'उत्पन्नानि कपालानि' इति प्रयुज्यते प्रतिपत्तिरपि तथैव । परमार्थतस्तु उभयमप्युभयात्मकम् अन्यथा पूर्वोक्तदोषानतिवृत्तेः । न च कारणस्य निरन्वयविनाशे कार्यस्यादलस्यात्यन्तासत उत्पत्तिर्घटते, विनष्टस्य सकलशक्तिविरहिणः कारणस्य कार्यक्रियायोगात् अविनष्टस्य ३५ स्वसत्ताकाले कार्यनिर्वर्त्तने हेतु फलयोः सहभाव इति तद्व्यपदेशः सव्येतरगोविषाणयोरिव न 'भवेत् । स्वकाले पश्चात् कार्यस्य भावे तदा कारणस्य स्वसत्तामत्यजतः क्षणक्षयपरिक्षयोऽनिष्टोऽ• नुषज्यते । १ शिबिका - भ० मां० । २ " साध्यं त्रिष्वपि एकमेव " - बृ० ल० मां० टि० । भां० मां० । वा० । ४ " यथाक्रमम्" - बृ० ल० मां० टि० । ५- रुध्यते तेति मां । स्वभावानुबन्धितेति वा० १० - द्यन्यो भा-आ० । ११ - सङ्गत इ-आ० । बा० । १४ " प्रध्वंसाभावस्य " - बृ० ल० टि० । १५ १७- निर्वर्तनो हे - वा० बा० । निवर्तने ल० आ० । आ० । ३- साभाववत् । आ० । ६ एवं वा-आ० । ७ स्वभावहेतुबन्धि ८ नाशोऽपि मां० आ० । ९ - यमेवा भावा० बा० । १२ - पत्तिभा - बृ० वा० सं० । १३ - धासिद्धिः प्र-वा० “प्रागभावा”नन्तरम् बृ० ल० दि० । १६- क्रियायो-ल० Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ४२७ किञ्च, कारणसत्तासमये कार्यस्याभवतः स्वयमेव पश्चाद् भवतः तदकार्यत्वप्रसक्तिश्च । तथाहि-यस्मिन् सति यन्न भवति असति च भवति तत् तस्य न कार्यम् इतरच्च न कारणम् , यथा कुलालस्य पटादिः। क्षणक्षयपक्षे च प्रथमक्षणे कारणाभिमतभावसद्भावे न भवति कार्यम् असति तस्मिन् द्वितीयक्षणे भवति चेति ने तत् तत्कार्य इतरञ्च तत्कारणमिति हेतुफलभावाऽभावस्य तन्मात्रनिबन्धनत्वात् । अत एव क्षणिकाद् अर्थक्रिया व्यावर्त्तमाना खं व्याप्यं सत्त्वलक्षणमादाय निवर्त्तत५ इति यत्र सत्त्वं तत्राऽक्षणिकत्वं सिद्धिमासादयति । न च कार्यकालेऽभवतोऽपि कारणस्य प्राक्तनानन्तरक्षणभावित्वात् कारणत्वम् कार्यकाले खयमेवाभवतोऽकारणान्तरवत् कारणत्वायोगात् कार्यस्य च कारणकाले आत्मनैवाऽभवतः कार्यान्तरवत तत्कार्यत्वानुपपत्तेः। क्षणिकस्य च प्रमाणाविषयत्वान्न तत्र कार्यकारणभावपरिकल्पना युक्तिसङ्गता। न चानुपलब्धेऽपि तत्र कार्यकारणभावव्यवस्था अतिप्रसङ्गात् । न च क्षणक्षयमीक्षमाणोऽपि सदृशापरापरोत्पत्त्यादिविभ्रम निमित्ताद् १० नोपलक्षयतीति वक्तव्यम् यतो नाध्यक्षात् क्षणक्षयमलक्षयंस्तत्र कार्यकारणभावं व्यवस्थापयितुं शक्नोति, नाप्यनुमानात् क्षणिकत्वं व्यवस्थापयितुं समर्थः, तस्य स्वांशमात्रावलम्वितया वस्तु. विषयत्वायोगात् । न च मिथ्याविकल्पेनाध्यवसितं क्षणिकत्वं वस्तुतो व्यवस्थापितं भवति । यदपि 'अक्षणिके क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात्' इत्याद्युक्तम् , तदपि सहकारिसन्निधानवशादक्षणिकस्य क्रमेणार्थक्रियां निर्वर्त्तयतोऽयुक्तमेव । यदप्युक्तम् 'तत्करणस्वभावश्चदक्षणिकः १५ प्रागेव तत्करणप्रसङ्गः पश्चादिव स्वभावाविशेषात्' इति, तदप्ययुक्तम् । यतो ने वै किञ्चिदेकं जनकम् सामग्रीतः फलोत्पत्तेः । अक्षणिकश्च सामग्रीसन्निधानापेक्षया कार्य निर्वर्तनस्वभावः केवलस्तु तदकरणस्वभावः। न च तदा भाविकार्याकरणादवस्तुत्वम् , क्षणिकेऽपि प्रथमक्षणे कार्याकरणादवस्तुत्वप्रसक्तेः । अत एकत्र कारणान्तरापेक्षानपेक्षाभ्यां जनकत्वाजनकत्वे अविरुद्ध यतः न क्षणिकवाद्यभ्युपगतक्षणस्यापि सम्बन्ध्यन्तरसन्निधानासन्निधानकृतः स्वभावभेदः अन्यथा २० अनेकसामग्रीसन्निपातिन एकक्षणस्यैकदा विलक्षणानेककार्योत्पादनेऽनेकत्वप्रसक्तिर्भवेत् दृश्यते च प्रदीपक्षणस्य समानजातीयक्षणान्तरकजलचक्षुर्विज्ञानाद्यनेककार्यनिर्वर्तकत्वमेकस्य नानासामग्र्युपनिपातिन इति क्रमेणाप्यक्षणिकस्य तदविरुद्धम् । यथा चैकक्षणस्य स्वपरकार्यापेक्षयैकदा जनकत्वाजनकत्वे अविरुद्ध तथा अक्षणिकस्यापि सहकारिकारणसन्निधानाऽसन्निधानाभ्यां क्रमेण कार्यजनकत्वाजनकत्वे न "विरोत्स्यते । विज्ञप्तिपरमाणपक्षऽपि यथको शानपरमाणुः सम्वन्ध्यन्तरजनितस्वभावभेदेऽप्यभिन्नः अन्यथा दिक्षट्कयोगात् सावयवत्वकल्पनया अवस्तुत्वप्रसक्तेः सेना-वनादिवत् स्वसंविदि निर्विकल्पिकायाम प्रतिभासतः सर्वप्रतिभासविरतिर्भवेत् एवमक्षणिकोऽपि क्रमभाव्यनेकतत्तत्सहकारिसम्बन्ध्यन्तरसव्यपेक्षकार्यजननस्वभावमेदेऽप्यभिन्नोऽभ्युपगन्तव्यः जनकत्वाजनकत्वमेदेऽपि वाऽभिन्नस्वभाव इति नाक्षणिकेऽर्थक्रियाविरोधः। न च क्षणक्षये अध्यक्षप्रवृत्तिव्यतिरेकेण अक्षणिके अर्थक्रियाविरोधः सि-३० ध्यति इतरेतराश्रयप्रसक्तेः-तथाहि-अक्षणिकत्वे अर्थक्रियाविरोधात् प्रतिक्षणविशरारुषु अध्यक्षप्र १-श्चाद्भाव-बृ० । “सत्यभवतः खयमेव नियमेन पश्चाद् भवतस्तत्कायेत्वं विरुद्धम्" सति "कारणत्वेनाभिमते पूर्वक्षणे" अभवतः "उत्तरक्षणलक्षणकार्यस्य" खयमेव "पूर्वक्षणरूपकारणमन्तरेण" तत्कार्यत्वम् "पूर्वक्षणकार्यत्वम" अष्टश तथा टि.अं.२-३-४-५ अष्टस० पृ. ९० पं०१। २ न तत्का-भां० मा० आ०। ३-ना स्वव्यावा० बा० आ०। ४ व्याप्य स-भां० मां०। ५-यतो का-वा० बा० भां० मा० आ०।६ "अनमानस्य" बृ० ल• टि०। ७-कल्पना-आ०। ८-स्तुनो व्य-वा. बा. भां० मा० विना। ९ “यथोक्तम् "न किश्चिदेकमेकस्मात् सामन्याः सर्वसंभवः"-तत्त्वसं० पजि. पृ. १५५५० १४ । १. कत्ववाद्य-वा. बा०।-कत्वाद्य-आ०। ११-कत्वाप्र-ल. भां० मा० ।-कत्वप्र-प्र. मां. बहिः । १२-नादने-भां० मा० ।-नाद्यने-प्र० मा० बहिः। १३ विरात्स्येते आ० । विरात्स्यते वा० बा०। १४-सम्बन्धान्त-आ० । १५-त्वभेदेऽप्यभिन्न-आ० ।-त्वमेदेऽपि वा अभ्युपगन्तव्य भिन्न-भां० मा० । १६ “अभ्युपगन्तव्यः" इति शेषः-मां. टि.। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ प्रथमे काण्डेवृत्तिसिद्धिः तस्याश्च अक्षणिके अर्थक्रियाविरोधसिद्धिरिति । न च अक्षणिकवादमतेऽप्ययं समानो दोषः, कालान्तरस्थायिनि भावेऽध्यक्षप्रवृत्तिनिश्चयादेव क्षणिकत्वेऽर्थक्रियाविरोधस्य सिद्धेः। न च क्षणिके अध्यक्षप्रवृत्तिरुपजातैव केवलं भ्रान्तिकारणसद्भावान्न निश्चितेति वक्तव्यम् विहितोत्तरत्वात् । तन्नैकान्तक्षणिकस्य अर्थक्रियाकरणलक्षणं सत्वम् अन्यस्य च सत्तासम्बन्धादेः सत्त्वस्य परेणानभ्युप. ५गमात् असन्त एकान्तक्षणिकाः । क्षणिकवद् एकान्ताक्षणिकेष्वप्यर्थक्रियालक्षणं सत्त्वं पूर्वोपदर्शितन्यायेन व्यावृत्तम् सत्तासम्बन्धलक्षणस्य च सत्त्वस्यातिव्याप्तित्वाऽसम्भवादिदोषदुष्टत्वात् असत्त्वमित्येकान्ताऽक्षणिका अप्यसन्तो भावा इत्युत्पाद-व्यय-ध्रौव्यलक्षणमेव भावानां सत्त्वमभ्युपगन्तव्य. मिति नैकान्ततः कारणेषु कार्यमसदिति न तत् इति पक्षो मिथ्यात्वमिति स्थितम् । [(५) अपराभिमतत्वेनोपन्यस्ते अद्वैतवादे निरसनीये सर्वेषां तत्त्व-द्रव्य प्रधान-शब्द-ब्रह्माद्वैतवादानां निरसनम् ] अपरस्तु कार्यकारणभावस्य कल्पनाशिल्पिविरचितत्वात् तदुभयव्यतिरिक्तमद्वैतमात्रं तत्त्वमित्यभ्युपपन्नः तन्मतमपि मिथ्या कार्यकारणोभयशून्यत्वात् खरविषाणवत् अद्वैतमात्रस्य व्योमोरपलतुल्यत्वात् । तथाहि-अद्वैतप्रतिपादकप्रेमाणस्य सद्भावे द्वैतापत्तितो नाद्वैतम्, प्रमाणाभावे अद्वैतासिद्धिः प्रमेयसिद्धेः प्रमाणनिवन्धनत्वात् । किञ्च, 'अद्वैतम्' इत्यत्र प्रसज्यप्रतिषेधः, पर्युदासो १५वा? प्रसज्यपक्षे प्रतिषेधमात्रपर्यवसानत्वात् तस्य नाद्वैतसिद्धिः, प्रधानोपसर्जनभावेनाङ्गाङ्गि. भावकल्पनायां द्वैतप्रसक्तिः। द्वितीयपक्षेऽपि द्वैतप्रसक्तिरेव प्रमाणान्तरप्रतिपन्ने द्वैतलक्षणे वस्तुनि तत्प्रतिषेधेनाद्वैतसिद्धिः । द्वैताद्वैतस्य व्यतिरेके च द्वैतप्रसक्तिरेव पररूपव्यावृत्तस्वरूपाऽव्यावृत्ता. त्मकत्वेन तस्य द्विरूपताप्रसक्तेः अव्यतिरेके पुनद्वैतप्रसक्तिः । न चाद्वैतस्य अविद्यमानाद् द्वैताद् व्यावृत्ततासम्भवः अविद्यमानस्यापि विद्यमानाद् व्यावृत्तिप्रसक्तेः अन्यथा सदूपताविशेषप्रसक्ति. २०र्भवेत् । प्रमाणादिचतुष्टयसद्भावे च न द्वैतवादान्मुक्तिः तदभावे शून्यतावादादिति नाद्वैतकल्पना ज्यायसी । न च नित्यत्वाद्वैतकल्पना भावानामनेकत्वेऽपि युक्तिसङ्गता, सर्वदा सर्वभावानां नित्यत्वे ग्राह्यग्राहकरूपताऽभावप्रसक्तेः तद्भावाभ्युपगमे वा अनेकान्तवादाश्रयणम् ग्राह्यग्राहकरूपताया विकारिताव्यतिरेकेणायोगात् सा च कथञ्चिदेकस्यानेकरूपानुषङ्गादिति कथं नानेकान्तसिद्धिः? __द्रव्याद्वैतवादे रूपादिभेदाभावप्रसङ्गश्च । न च चक्षुरादिसम्बन्धात् तदेव द्रव्यं रूपादिप्रतिप२५त्तिजनकम् सर्वात्मना तत्सम्बन्धस्य तथैव प्रतीतिप्रसक्तेः रूपान्तरस्य तद्यतिरिक्तस्य तत्राभावात् । तन्न द्रव्याद्वैतमपि । । प्रधानाद्वैतं त्वयुक्तमेव सत्त्वादिव्यतिरेकेण तस्याभावात् । न च सत्त्वादेस्तव्यतिरेकादद्वैतं प्रधानस्य, सत्वाद्यव्यतिरेकात् द्वैतप्रसक्तेः महदादिविकारस्य चाभ्युपगमे कथमद्वैतम् ? विकारस्य च विकारिणोऽत्यन्तमभेदे 'न विकारी' इति प्रतिपादितम् । भेदाभेदे अनेकान्तसिद्धिः व्यतिरेके द्वैता३०पत्तिरिति । प्रतिक्षिप्तश्च प्रधानाद्वैतवाद इति न पुनः प्रतिषिध्यते। शब्दाद्वैतं तु नामनिक्षेपावसरे प्रतिक्षिप्तमिति न तद्भ्युपगमोऽपि श्रेयान् । ब्रह्माद्वैतवादस्यापि प्रागेव प्रतिषेधः कृत इति तदेव वा इति अयमपि पक्षो मिथ्यात्वम् । ततः कारणे परिणामिनि वा कार्यम् परिणामो वासदेव तावेव तावसदेव वा तत् तत्रेतिन कारणमेव १-या विरोधस्य सिद्धेन बृ० ल०। २-क्षवृ-भां० मा० विना। ३ पृ० ४२७ पं० १०। ४ पृ० ४२२ गा० २७॥ ५ “हेतोरद्वैतसिद्धिश्चेत् द्वैतं स्याद् हेतु-साध्ययोः । हेतुना चेद् विना सिद्धिद्वैतं वाङ्मात्रतो न किम्" ॥२६॥ -आप्तमी० पृ० १८, अष्टस० पृ० १६० । ६-तमिति प्र-आ०। "अद्वैतं न विना द्वैतादू अहेतुरिव हेतुना । संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्याद् ऋते क्वचित्"॥ २७ ॥ -आप्तमी० पृ० १८, अष्टस• पृ० १६१ । ७-रूपिता-भां० मा० आ० ।-रूपता प्र. मां० बहिः । ८ तस्यापि विद्यमानत्वाद् द्वै-भां० मा० आ० । ९ "प्रमेय-प्रमातृ-प्रमिति" प्रभृति-मांटि.। १० पृ० ४२२ गा० २७॥ ११ सदेता-आ० । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ४२९ कार्यम् परिणामी वा परिणामः। न कार्यम् नापि कारणम् अपि तु द्रव्यमानं तत्वमिति तदेव वेति नियमेन एकान्ताभ्युपगमे सर्व एवैते मिथ्यावादा उक्तन्यायेन नियमेन मिथ्यात्वम् इत्यभिधानात् कथञ्चिदभ्युपगमे सम्यग्वादा एवैते इत्युक्तं भवति यत उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकत्वे वस्तुनः स्थिते तद् वस्तु तत्तदपेक्षया कार्यम् अकार्य च, कारणम् अकारणं च, कारणे कार्य सच्च असच्च, कारणं कार्यकाले विनाशवत् अविनाशवच्च तथैव प्रतीतेरन्यथा चाऽप्रतीतेः ॥ २७॥ ५ [खे स्खेंशे सत्यानामपि नयानां परांशविचालने मिथ्यात्वात् समयज्ञः ___ सापेक्षावधारणं करोतीति वर्णनम् ] अत एकान्तरूपस्य वस्तुनोऽभावात् सर्वेऽपि नयाः स्वविषयपरिच्छेदसमर्था अपि इतरनय. विषयव्यवच्छेदेन स्वविषये वर्तमाना मिथ्यात्वं प्रतिपद्यन्त इत्युपसंहरन्नाह णिययवयणिजसच्चा सम्वनया परवियालणे मोहा । ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सचे व अलिए वा ॥ २८॥ निजकवचनीये स्वांशे परिच्छेद्ये सत्याः सम्यग्ज्ञानरूपाः सर्व एव नयाः संग्रहादयः परविचालने परविषयोत्खनने मोहाः मुह्यन्तीति मोहा मिथ्याप्रत्ययाः परविषयस्यापि सत्यत्वेनोन्मलयितमशक्यत्वात् तदभावे स्व विषयस्याप्यव्यवस्थितेः ततश्च परविषयस्याभावे स्वविषय स्याप्यसत्त्वात् तत्प्रत्ययस्य मिथ्यात्वमेव तद्व्यतिरिक्तग्राहकप्रमाणस्य चाभावात् तस्मात् तानेव नयान १५ पुनः शब्दस्यावधारणार्थत्वात् न इति प्रतिषेधो विभजनक्रियायाः दृष्टः समयः सिद्धान्तवाच्यमनेकान्तात्मकं वस्तुतत्त्वं येन पुंसा स तथा से न विभजते सत्येतरतया-स्वेतरविषयमवधारयमाणोऽपि तथा तान् न विभजते अपि वितरनयविषयसव्यपेक्षमेव स्वनयाभिप्रेतं विषयं सत्यमेवावधारयतीति यावत् । 'ग्राह्यसत्यासत्याभ्यां ग्राहकसत्यासत्ये' इत्येवमभिधानम् तच्च दृष्टाऽ. नेकान्ततत्त्वस्य विभजनम् 'स्यादस्त्यव द्रव्याथेतः' इत्येवरूपम् ॥२८॥ २० [सर्वस्यापि वस्तुनोऽभेदरूपेण द्रव्यार्थिकपरिच्छेद्यस्यैव भेदरूपेण पुनः पर्यायार्थिकपरिच्छेद्यत्वाभिधानम् ] अतो नय-प्रमाणात्मकैकरूपताव्यवस्थितमात्मस्वरूपम् अनुगतव्यावृत्तात्मकम् उत्सर्गापवादरूपग्राह्यग्राहकात्मकत्वाद् व्यवतिष्टन इत्यर्थप्रदर्शनायाह दव्वढियवत्तव्वं सव्वं सव्वेण णिच्चमवियप्पं । आरद्धो य विभागो पजववत्तव्वमग्गो य ॥ २९ ॥ यत् किश्चिद् द्रव्यार्थिकस्य संग्रहादेः सदादिरूपेण व्यवस्थितं वस्तु वक्तव्यं परिच्छेद्यं तत् सर्व सर्वेण प्रकारेण नित्यं सर्वकालम् अविकल्पं निर्भेदम् सर्वस्य सदसद्विशेषात्मकत्वात् तच्च भेदेन सम्पृक्तमिति दर्शयितुमाह-आरब्धश्च विभागः स एवाविभागः सत्तारूपो यो द्रव्यादिनाऽऽकारेण, प्रस्तुतश्च भेदः चशब्दस्य प्रक्रान्ताऽविभागानुकर्षणार्थत्वात् पर्यायव-३० क्तव्यमार्गश्च पर्यायास्तिकस्य यदू वक्तव्यं विशेषः तस्य मार्गः पन्था जातः-पर्यायार्थिकपरिच्छेद्यस्वभावो विशेषः सम्पन्न इति यावत् ॥ २९ ॥ १ सन् वि-ल. भां० म०। २ "खेतरविषयतया"-मां० टि.। ३-व त्वनया-बृ. वा. बा। -व वन्यनया-बृ० सं० । प्र. मां. बहिः । ४ सत्ये असत्य वा अवधारयतीति प्र. मां. बहिः। ५५ स० त० Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० प्रथमे काण्डे[शब्दार्थगतत्वेन पर्यायस्य द्वैविध्यं प्रदर्य तस्स द्विविधस्यापि पुनर्भेदाभेदरूपेण विवेचनम् ] एवं भेदाभेदरूपं वस्तूपदर्य भेदस्य पर्यायार्थिकविषयस्य द्वैविध्यमाह सो उण समासओ चिय वंजणणिअओ य अत्थणिअओ य । अत्थगओ य अभिण्णो भइयव्वो वंजणवियप्पो ॥ ३०॥ ५ स पुनर्विभागः समासतः संक्षेपतो व्यञ्जननियतः शब्दनयनिबन्धनः अर्थनियतश्च अर्थनयनिबन्धनश्च । तत्र अर्थगतस्तु विभागः अभिन्नः सङ्ग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्रार्थप्रधाननयविषयोऽर्थपर्यायोऽभिन्नः असदद्रव्यातीतानागतव्यवच्छिन्नाभिन्नार्थपर्यायरूपत्वात् तद्विषया नया अपि 'अर्थगतो विभागोऽभिन्नः' इत्युच्यते । भाज्यो व्यञ्जनविकल्प इति । विकल्पितः शब्दपर्यायो भिन्नः अभिन्नश्चानेकाभिधान एकः एकाभिधानश्चैकः इति कृत्वा, समानलिङ्ग-सङ्ख्या-काला१० दिरनेकशब्दो 'घटः' 'कुटः' 'कुम्भः' इत्यादिक एकार्थ इति शब्दनयः । समभिरूढस्तु भिन्नाभिधेयौ घंट-कुटशब्दौ, भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तत्वात् , रूप-रसादिशब्दवत् इत्त्येकार्थ एकशब्द इति मन्यते । एवंभूतस्तु चेष्टासमय एव घटो 'घट'शब्दवाच्यः अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । तदेवम् अभिन्नोऽर्थो वाच्योऽस्येत्यभिन्नार्थो घटशब्द इति मन्यते ॥ ३०॥ [एकस्यैव वस्तुनौकालिकानन्तशब्दार्थपर्यायशालितयाऽनन्तप्रमाणत्वेन सर्वात्मकत्वाख्यानम्] १५ यत् तदन्यतो विभक्तेन स्वरूपेणैकमनेकं च वस्तूक्तम् तद् अनन्तप्रमाणमित्याख्यातुमाह एगदवियम्मि जे अत्थपजया वयणपज्जया वावि । तीयाणांगयभूया तावइयं तं हवइ दव्वं ॥ ३१॥ एकस्मिन् जीवादिद्रव्ये अर्थपर्याया अर्थग्राहकाः संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्राख्याः तबाह्या वा अर्थभेदाः वचनपर्यायाः शब्दनयाः शब्द-समभिरूढ-एवंभूताः तत्परिच्छेद्या वस्त्वंशा वा २० ते च अतीतानागतवर्तमानरूपतया सर्वदा विवर्त्तन्ते विवृत्ताः विवर्तिष्यन्त इति तेषामानन्त्याद् वस्त्वपि तावत्प्रमाणं भवति । तथाहि-अनन्तकालेन सर्वेण वस्तुना सर्वावस्थानां परस्परानुगमेनाऽऽसादितत्वात् अवस्थातुश्चावस्थानां कथञ्चिदनन्यत्वात् घटादिवस्तु पट-पुरुषादिरूपेणापि कथञ्चिद् विवृत्तमिति सर्वे सर्वात्मकं कथञ्चिदिति स्थितम् । दृश्यते चैकं पुद्गलद्रव्यं अतीताऽनागतवर्तमानद्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेषपरिणामात्मकं युगपत् क्रमेणापि तत् तथा. २५भूतमेव । एकान्ताऽसत उत्पादायोगात् सतश्च निरन्वयविनाशासम्भवादिति प्रतिपादितत्वात् ॥३१॥ [व्यञ्जनार्थपर्यायभावनया पुरुषस्य भेदाभेदात्मकत्वसमर्थनेन वस्तुमात्रस्याऽनेकान्त रूपत्वसूचनम्] एवं तावद् बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधस्यापि वस्तुनोऽनेकान्तात्मकत्वं प्रतिपाद्य तत्प्रतिपादनवाक्यनयानामपि तथाविधमेव स्वरूपम् नान्यादृग्भूतमस्तीति प्रतिपादयन्नाह पुरिसम्मि पुरिससद्दो जम्माई मरणकालपज्जन्तो। तस्स उ बालाईया पजवजोया बहुवियप्पा ॥ ३२॥ १-ओ अ-ल. भां० विना। २-ण्णो इयइव्वो वज-वा० बा०। ३ भयइव्वो बृ० ल०। ४ विअप्पो बृ. ल.। ५-त्युच्यन्ते । बृ०।-त्युच्यति । आ० । ६-कल्पितश-वा. बा०। ७ “अनेकमभिधानं यस्य"-बृ० ल. मां० टि.। ८ "समभिरूढनयाशयेन"-बृ. मा. टि०। ९ घटः कु--भां०। घट-पटशवा० बा०। १०-गइभू-बृ०। ११-परिमाणात्म-आ०। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । ४३१ अथवा अर्थ-व्यञ्जनपर्यायैः शक्ति-व्यक्तिरूपैरनन्तैरनुगतोऽर्थः सविकल्पः निर्विकल्पश्च प्रत्यक्षतोऽवगतः, इदानीं पुरुषदृष्टान्तद्वारेण व्यञ्जनपर्यायं तदविकल्पकत्वनिबन्धनम् अर्थपर्यायं च तत्सविकल्पकत्वनिमित्तमाह-पुरिसम्मि इत्यादिना सूत्रेण अतीतानागतवर्त्तमानानन्तार्थ-व्यञ्जनपर्यायात्मके पुरुषवस्तुनि 'पुरुष'इति शब्दो यस्यासौ पुरुषशब्दः तेद्वाच्योऽर्थो जन्मादिमरणपर्यन्तोऽभिन्न इत्यर्थः 'पुरुषः' इत्यभिन्नाभिधान-५ प्रत्ययव्यवहारप्रवृत्तेः तस्यैव बालादयः पर्याययोगाः परिणतिसम्बन्धा बहुविकल्पा अनेकभेदाः प्रतिक्षणसूक्ष्मपरिणामान्तर्भूता भवन्ति तत्रैव तथाव्यतिरेकज्ञानोत्पत्तेः एवं च 'स्यादेकः' इत्यविकल्पः 'स्यादनेकः' इति सविकल्पः सिद्धः, अन्यथाऽभ्यपगमे तदभाव एवेति विपक्षे 'अत्थि'त्ति णिव्वियप्पं' इत्यनन्तरगाथया वाधां दर्शयिष्यति।। ___ द्वितीयपातनिकाऽऽयातगाथार्थस्तु-पुरुषवस्तुनि पुरुषध्वनिय॑ञ्जनपर्यायः शेषो बालादि-१० धर्मकलापोऽर्थपर्याय इति गाथासमुदायार्थः। [व्यञ्जनपर्यायप्रसङ्गेन वाचकशब्द-वाच्यतत्सम्बन्धयोस्स्वरूपमीमांसा ] ननु कोऽयं 'पुरुष'शब्दः कथं वा शब्दोऽर्थस्य पर्यायस्ततोऽत्यन्तभिन्नत्वात् घटस्येव पटः ? [वर्णेषु वाचकत्वं व्युदस्य स्फोटे तत् प्रतिपादयतो वैयाकरणमतस्य वर्णनम् ] अत्र वैयाकरणाः प्राहुः- “यस्मात् उच्चरितात् ककुदादिमदर्थप्रतिपत्तिः स शब्दः”[ ]१५ ननु अत्र किं गकार-औकार-विसर्जनीयाः ककुदादिमदर्थप्रतिपादकत्वेन शब्दव्यपदेशं लभन्ते, आहोस्वित् तद्व्यतिरिक्तः पद-स्फोटादिः ? तत्र न तावद् वर्णा अर्थप्रत्यायकाः यतस्ते किं समुदिता अर्थप्रतिपादकाः, उत व्यस्ताः? यदि व्यस्तास्तदैकेनैव वर्णेन गवाद्यर्थप्रतिपत्तिरुत्पादितेति द्वितीयादिवर्णोच्चारणमनर्थकं भवेत् । अथ समुदिता अर्थप्रत्यायकाः, तदपि न सङ्गतम्; क्रमोत्पन्नानामनन्तरविनष्टत्वेन समुदायासम्भवात् । न च युगपदुत्पन्नानां समुदायप्रकल्पना, एकपुरुषापेक्षया२० १-कल्पकश्च भां० मा । "सभेदः अभिन्नश्च"-बृ० टि.। "सभेदः अभेदश्च"-ल. मा. टि.। २ "वाचकः पुरुषत्वादेः"-मांटि। ३ तद्वाच्यः-"शब्द"वाच्यः-मां. टि.। ४-मादिम-भां०। ५ गा० ३३ । ६ "येनोच्चारितेन साना-लाल-ककद-खुर-विषाणिनां संप्रत्ययो भवति स शब्दः"-महाभा० प्र० ख० पृ० १६ पं० १५ । अनेकान्तज. पृ. ४४ प्र. पं० १० अम० । ७ “अथ 'गौः' इत्यत्र कः शब्दः? गकार-औकार-विसर्जनीयाः इति भगवान् उपवर्षः"-मीमां० पृ० १०५० ११। प्रमेयक पृ० १३६ प्र. पं० ५। स्याद्वादर० पृ० ३१७ प्र. पं० २। श्लो० वा. पार्थ. व्या० पृ. ५११ पं० १०। ८ "तद्वाचकस्तु पदादिस्फोट एव, न पुनर्वर्णाः। ते हि किं समस्ता व्यस्ता वा तद्वाचकाः ? यदि व्यस्तास्तदैकेनैव वर्णेन गवाद्यर्थप्रतिपत्तिरुत्पादितेति द्वितीयादिवर्णोच्चारणमनर्थकम्" इत्यादिसमग्रोऽयं वैयाकरणपक्षः अक्षरशो वर्तते प्रमेयकमलमार्तण्डे-पृ० १३१ द्वि. पं० ११। "तथाहिन वर्णाः प्रत्येकमर्थविषयां धियमाविर्भावयन्ति शेषवर्णवैयर्थ्यात् समुदायश्च तेषां न संभवति अन्त्यवर्णग्रहणसमये पूर्वेषामसंभवात्" इत्यादि-प्रशस्त० के० पृ. २६९ पं० २। “न चास्य विषयो वर्णास्तेषु नैकत्वधीभवेत् । न च तत्समुदायोऽपि ऋमिकत्वादसंभवात् ॥४॥ -स्फोटसि. पृ० १॥ ९ "तत्र तावद् गकारादेरेकैकस्मान वाच्यधीः। उदेति यदि चेदस्ति प्रथमेनैव गादिना" ॥ १२॥ "वर्णेनोच्चरितेनेह गवाद्यर्थाभिधानतः। उच्चारणं द्वितीयादिवर्णानां स्यान्निरर्थकम्" ॥१३॥ -स्फोटसि० पृ०२॥ १० "तदुच्चारणसामर्थ्य नैकैकस्मात् ततोऽर्थधीः । समुदायोऽपि वर्णेषु क्रमज्ञातेष्वसंभवी" ॥ १४ ॥ -स्फोटसि०पृ०२ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ प्रथमे काण्डे भिन्नपुरुषप्रयुक्त यगपदत्पत्त्यसम्भवात प्रतिनियतस्थान-करण-प्रयत्नप्रभवत्वात तेषाम। न च भिन्नपरुषप्रयत गकार-औकार-विसर्जनीयानां समुदायेऽप्यर्थप्रतिपादकत्वं दृष्टम् प्रतिनियतक्रमवर्णप्रतिपत्त्युत्तरकालभावित्वेन शाब्द्याः प्रतिपत्तेः संवेदनात् । न चान्त्यो वर्णः पूर्ववर्णानुगृहीतो वर्णानां क्रमोत्पादे सत्यर्थप्रत्यायकः, पूर्ववर्णानामन्त्यवर्ण प्रत्यनुग्राहकत्वायोगात् यतो नान्त्यवर्ण प्रति जनकत्वं ५ पूर्ववर्णानां तदुपकारित्वम् वर्णाद वर्णोत्पत्तेरभावात्-प्रतिनियतस्थान-करणादिसम्पाद्यत्वाद वर्णा नाम् वर्णाभावेऽपि च वर्णोत्पत्तिदर्शनान्न वर्णजन्यत्वम् । अथार्थज्ञानोत्पत्तौ सहकारित्वं पूर्ववर्णानामन्त्यवर्ण प्रत्युपकारकत्वम्, एतदप्ययुक्तम्। अविद्यमानानां सहकारित्वानुपपत्तेः अत एव प्राक्तनवर्णवित्तीनामपि सहकारित्वमयुक्तम् । न च पूर्ववर्णसंवेदनप्रभवसंस्काराः तत्सहायतां प्रतिपद्यन्ते, यतः संस्काराः स्वोत्पादकविज्ञानविषयस्मृतिहेतवो नार्थान्तरज्ञानमुत्पादयितुं समर्थाः१० नहि घटज्ञानप्रभवः संस्कारः पटे स्मृतिं विदधद् दृष्टः । न च तत्संस्कारप्रभवाः स्मृतयः सहायतां प्रतिपद्यन्ते, युगपदयुगपद्विकल्पानुपपत्तेः । न हि स्मृतीनां युगपदुत्पत्तिः अयुगपदुत्पन्नानां वाऽवस्थितिरस्ति । न च समस्तसंस्कारप्रभवैका स्मृतिस्तत्सहकारिणी, परस्परविरुद्धानेकपदार्थाऽनु. भवप्रभवप्रभूतसंस्काराणामप्येकस्मृतिजनकत्वप्रसक्ते नेकवर्णसंस्कारजत्वं स्मृतेः सम्भवतीति कुतोऽस्या अन्त्यवर्णसहकारित्वम् ? न चान्य विषया स्मृतिरन्यत्र प्रतिपत्तिं जनयति खदिरव्यापृतप१५रशोः कदिरच्छेदक्रियाजनकत्वप्रसक्तेः। न चान्यवर्णनिरपेक्ष एव 'गौः' इत्यत्रान्त्यो वर्णः ककुदादिमदर्थप्रत्यायकः पूर्ववर्णोच्चारणवैयर्थ्यप्रसक्तेः घटशब्दान्तव्यवस्थितस्यापि तत्प्रत्यायकत्वप्रसक्तेश्च तस्मान्न वर्णाः समस्त-व्यस्ता अर्थप्रत्यायकाः सम्भवन्ति । अस्ति च गवादिशब्देभ्यः ककुदादिमदर्थप्रतिपत्तिरिति तदन्यथानुपपत्त्या वर्णव्यतिरिक्तोऽर्थप्रतिपत्तिहेतुः स्फोटाख्यः शब्दो ज्ञायते । श्रोत्रविज्ञाने च वर्णव्यतिरिक्तः स्फोटात्मा निरवयवोऽक्रमः २० स्फुटमवभातीति तस्याध्यक्षतोऽपि सिद्धिः । तथाहि-श्रवणव्यापारानन्तरभाविन्यभिन्नार्थावभासा संविदनुभूयते, न चासौ वर्णविषया, वर्णानां परस्परव्यावृत्तरूपत्वाद् एकावभासजनकत्वविरोधात् तेदजनकस्यातिप्रसङ्गतस्तद्विषयत्वानुपपत्तः । न चेयं सामान्यविषया, वर्णत्वव्यतिरेकेणापरसामान्यस्य गकार-औकार-विसर्जनीयेष्वसम्भवात् वर्णत्वस्य च प्रतिनियतार्थप्रत्यायकत्वायोगात् । न चेयं भ्रान्ता, अबाध्यमानत्वात् । न चावाध्यमानप्रत्ययगोचरस्यापि स्फोटाख्यस्य वस्तुनोऽसत्त्वम्, २५ अवयविद्रव्यस्याप्यसत्त्वप्रसक्तेः । एवमप्यवयव्यभ्युपगमे स्फोटाभ्युपगमोऽवश्यंभावी तत्तुल्ययोगक्षेमत्वात् । स च वर्णेभ्यो व्यतिरिक्तः नित्यः अनित्यत्वे सङ्केतकालानुभूतस्य तदैव ध्वस्तत्वात् कालान्तरे देशान्तरे च गोशब्दश्रवणात् ककुदादिमदर्थप्रतिपत्तिर्न स्यात् असङ्केतिताच्छब्दादर्थप्रतिपत्तेरसम्भवात् । सम्भवे वा द्वीपान्तरादागतस्य गोशब्दाद् गवार्थप्रतिपत्तिर्भवेत् सङ्केतकरणवैयर्थ्य च प्रसज्येत तस्मान्नित्यः स्फोटाख्यः शब्दो व्यापकश्च सर्वत्रैकरूपतया प्रतिपत्तेः । असदेतदिति ३० वैशेषिकाः। १-न साध्याःप्र० मा० बहिः। २ "उपाकरिष्यद् वर्णेभ्योऽप्युदपत्स्यत वाच्यधीः । इदं तावद् भवानद्य प्रष्टव्यो मतिमत्तमः" ॥२२॥ "एकत्वेऽप्यन्त्यवर्णस्य गौरित्यादाविहार्थधीः । भिद्यते स तु भेदोऽत्र कस्मादित्यथ मन्यसे" ॥ २३ ॥ "सहायभेदाद् भेदः स्यादिति नेह सहायता । कार्ये व्याप्रियमाणस्य सहायत्वं हि दृश्यते" ॥ २४ ॥ "असतां पूर्ववर्णानां तदानीं व्यापृतिः कथम् ? । असतामपि साहाय्यं वर्णानां यदि विद्यते" ॥ २५॥ "केवलान्त्यप्रयोगेऽपि भवेदेवाभिधेयधीः"॥ २६॥ इत्यादि-स्फोटसि. पृ.३-४ । ३ वर्णचित्तानामपि वा. बा.। ४ वित्तिर्ज्ञानम्। ५ "पूर्ववर्णसहायताम्"-वृ. ल. मां. टि.। ६-सक्तेः अने-वृ० ।-सक्ते अने-वा. बा.। . सम्भवीति वृ०। ८ "एकस्मृतेः"-. ल. मां. टि.। ९ 'घटः' इत्यत्र अन्ते स्थितस्य विसर्गस्यापि गवार्थप्रत्यायकत्वं स्यात् । १. तदजनकस्य "एकावभासाजनकस्य"-वृ. ल. मां. टि.। ११ इयम् "एकत्वप्रतिपत्तिः"-वृ० ल• मां. टि.। १२-स्याप्यस्यत्व-वा. बा.। १३ "देशान्तरे असतादेव शब्दादू अर्थप्रतिपत्तिर्मविष्यतीत्याशकावारणाय आह"-.मा.टि.। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ४३३ [ वर्णेषु वाचकत्वमभ्युपगम्य स्फोटे तन्निरस्यतो वैशेपिकमतस्य वर्णनम् ] __ ते ह्याहुः-एकदा प्रादुर्भूता वर्णाः स्वार्थप्रतिपादका न भवन्तीत्यत्राविप्रतिपत्तिरेव । क्रमप्रादुर्भूतानां न समुदाय इत्यत्राप्यविप्रतिपत्तिरेव । अर्थप्रतिपत्तिस्तु उपलभ्यमानात् पूर्ववर्णध्वंसविशि. टादन्त्यवर्णात् । न चाभावस्य सहकारित्वं विरुद्धम् वृन्त-फलसंयोगाभावस्येवाऽप्रतिबद्धगुरुत्वफलप्रपातक्रियाजनने, दृष्टं चोत्तरसंयोगं विदधत् प्राक्तनसंयोगाभाव विशिष्टं कर्म परमाण्वग्निसंयोगश्च ५ परमाणौ तद्गतपूर्वरूपप्रध्वंसविशिष्टो रक्ततामुत्पादयन् । यद्वा उपलभ्यमानोऽन्त्यो वर्णः पूर्ववर्णविज्ञानाभावविशिष्टः पदरूपतामासादयन् पदार्थे प्रतिपत्तिं जनयति प्राक्तनवर्णसंवित्प्रभवसंस्कारसव्यपेक्षो वा? न च संस्कारस्य विषयान्तरे कथं विज्ञानजनकत्वमिति प्रेर्यम् तद्भावभावितयार्थप्रतिपत्तेरुपलब्धेः पूर्ववर्णविज्ञानप्रभवसंस्कारश्चान्त्यवर्णसहायतां पूर्वपूर्वसंस्कारप्रभवतया प्रणालिकया विशिष्टः समुत्पन्नः सन् प्रतिपद्यते । तथाहि-१० प्रथमवणे तावद् विज्ञानम् तेन च संस्कारो जन्यते ततो द्वितीयवर्णविज्ञानम् तेन पूर्ववर्ण विज्ञानाऽऽहितसंस्कारसहितेन विशिष्टः संस्कारो जन्यते ततस्तृतीयवर्णे ज्ञानम् तेन पूर्वसंस्कारविशिष्टेनापरो विशिष्टतरः संस्कारो निर्वर्यंत इति यावदन्त्यः संस्कारोऽर्थप्रतिपत्तिजनकान्त्यवर्णसहायः तथाभूतसंस्कारप्रभवस्मृतिसव्यपेक्षो वाऽन्त्यो वर्णः पदरूपः पदार्थप्रतिपत्तिहेतुः । ___ अथवा शब्दार्थोपलब्धिनिमित्ताऽदृष्टनियमादविनष्टा एव पूर्ववर्णसंवित्प्रभवाः संस्कारा अन्त्य-१५ संस्कारं विदधति तस्मात पूर्ववर्णेषु स्मृतिरुपजाता अन्त्यवर्णेनोपलभ्यमानेन सहार्थप्रतिपत्तिमत्पादयति, वाक्यार्थप्रतिपत्तौ वाक्यस्याप्ययमेव न्यायोऽङ्गीकर्तव्यः । वर्णाद् वर्णोत्पत्त्यभावप्रतिपादनं च सिद्धसाधनमेव । तदेवं यथोक्तसहकारिकारणसव्यपेक्षाद् अन्त्याद वाद अर्थप्रतिपत्तिरन्वय-व्यतिरेकाभ्यामुपजायमानत्वेन निश्चीयमाना स्फोटपरिकल्पनां निरस्यति तदभावेप्यर्थप्रतिपत्तेरुक्तप्रकारेण सम्भवेऽन्यथानुपपत्तेः प्रक्षयात् । न हि दृष्टादेव कारणात् कार्योत्पत्तावदृष्टतदन्तरपरि-२० कल्पना युक्तिसङ्गता अतिप्रसङ्गात् । किञ्च, यापलभ्यमाना वर्णा व्यस्त समस्ता नार्थप्रतिपत्तिजननसमर्थाः स्फोटाभिव्यक्तावपि न समर्था भवेयुः। तथाहि-न समस्तांस्ते स्फोटमभिव्यञ्जयन्ति सामस्त्यासम्भवात् । नापि प्रत्येकम वर्णान्तरवैफल्यप्रसङ्गात् एकेनैव स्फोटाभिव्यक्तेर्जनितत्वात् । न च पूर्ववर्णैः स्फोटस्य संस्कारेऽन्त्यो वर्णस्तस्याभिव्यञ्जक इति न वान्तरवैयर्थ्यम् , अभिव्यक्तिव्यतिरिक्तसंस्कारस्वरूपानवधारणात् ।२५ तथाहि-न तावत् तत्र तैर्वेगाख्यः संस्कारो निर्वय॑ते तस्य मूर्तेष्वेव भावात् । नापि वासनारूपःअचेतन १ "प्रतीयमानात् पूर्ववर्णध्वंसविशिष्टाद् अन्त्यवर्णाद् अर्थप्रतीतेरभ्युपगमाद् उक्तदोषाभावः। न चाभावस्य सहकारित्वं विरुद्धम्-वृन्तफलसंयोगाभावस्य अप्रतिबद्धगुरुत्वफलप्रपातक्रियाजनने तर्शनात्" इत्यादिकोऽयं वैशेषिकपक्षः सर्वोऽक्षरशः प्रमेयकमलमार्तण्डेऽपि निर्दिष्टः-पृ० १३२ प्र. पं० १४-पृ. १३३ द्वि. पं० ८।। "शब्दाच शब्दनिष्पत्तिं कथयति-शब्दात् संयोगविभागनिष्पन्नात् वीचीसंतानवत् शब्दसंतानः यथा जलवीच्या तदव्यवहिते देशे वीच्यन्तरमुपजायते ततोऽपि अन्यत् ततोऽपि अन्यत् इत्यनेन क्रमेण वीचीसंतानो भवति तथा शब्दाद् उत्पन्नात् तदव्यवहिते देशे शब्दान्तरम्-ततोऽपि अनयोर्गमनागमनाभावात् प्राप्तस्यैव उपलब्धिरिति-ततोऽपि अन्यत् ततोऽपि अन्यत् इत्यनेन क्रमेण शब्दसंतानो भवति । एवं संतानेन श्रोत्रदेशे समागतस्य अन्त्यशब्दस्य ग्रहणम्”प्रशस्त. के. पृ. २८९ पं० १०-१५। २ "परमाणुगत"-वृ० मा. टि.। ३-ति प्रेय स्फोटवादिना वितयार्थ-वा. बा० । अत्र 'स्फोटवादिना' इति टिप्पणमपि पाठे प्रविष्टम्। ४ "स्फोटवादिना" इति शेषः-बृ० मां. टि०। ५-यार्थाप्र-आ० हा०। ६ “अथ प्रथममाद्यवर्णज्ञानम् तदनु संस्कारः तदनु तृ(द्वितीयवर्णज्ञानम् तेन प्राक्तनेन संस्कारेण अन्त्यो विशिष्टः संस्कारो जन्यते इत्यनेन क्रमेण अन्ते निखिलवर्णविषयः संस्कारो जातः" इत्यादि प्रशस्त० के० पृ० २६९ पं० ९-११। ७-दन्त्य सं-आ० । "कृतानुग्रहसामो वर्णोऽन्त्यः प्रतिपादकः" ॥ ९॥ "एष एव तु संस्कार इति केचित् प्रचक्षते" ॥ ९८॥-श्लो० वा. स्फोट. पृ० ५३५ । ८ तदभावे "स्फोटाs"भावे-वृ० मा.टि.। ९ "वर्णाः"-बृ० मा० टि०। १०-रणत्वात् । आ० । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ प्रथमे काण्डेत्वात् स्फोटस्य तच्चैतन्याभ्युपगमे वा स्वशास्त्रविरोधः । नापि स्थितस्थापकः तस्यापि मूर्त्तद्रव्यवृत्तित्वात् स्फोटस्य चामूर्त्तत्वाभ्युपगमात् । किञ्च, असौ संस्कारः स्फोटस्वरूपः, तद्धर्मो वा? न तावदाद्यः कल्पः स्फोटस्य वर्णोत्पाद्यत्वप्रसक्तेः । नापि द्वितीयः व्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्तविकल्पानुपपत्तेः । तथाहि-असौ धर्मः स्फोटाद् व्यतिरिक्तः, अव्यतिरिक्तो वा? यद्यव्यतिरिक्तस्तदा तत्करणे स्फोट ५एव कृतो भवेदिति तस्यानित्यत्वप्रसक्तेः स्वाभ्युपगमविरोधः। अथ व्यतिरिक्तस्तदा तत्सम्बन्धा. नुपपत्तिस्तदनुपकारकत्वात् , तस्योपकाराभ्युपगमे व्यतिरिक्ताव्यतिरिक्त विकल्पः तत्रापि पूर्वोक्त एव दोषोऽनवस्थाकारी। न च व्यतिरिक्तधर्मसद्भावेऽपि स्फोटस्यानभिव्यक्तिस्वरूपव्यवस्थितस्य पूर्ववदर्थप्रतिपत्तिहेतुत्वम् तत्स्वरूपत्यागे वाऽनित्यत्वप्रसक्तिः। अथ न व्यतिरिक्तसंस्कारकृतमुपकारमपेक्ष्य पूर्वरूपपरित्यागादसावर्थप्रतिपत्तिं जनयति किन्तु संस्कारसहायोऽविचलितरूप एव एककार्यका१०रित्वस्यैव सहकारित्वाभ्युपगमात्; नन्वेवं वर्णानामप्यन्यकृतोपकारनिरपेक्षाणामेककार्यनिर्वर्त्तनलक्षणसहकारित्ववत् सहकारिसहितानामर्थप्रतिपत्तिजनने किमपरस्फोटकल्पनयाऽप्रमाणिकया का. र्यम् ? किञ्च, पूर्ववर्णैः संस्कारः स्फोटस्य क्रियमाणः किमेकदेशैः क्रियते, सर्वात्मना वा? यद्येकदेशैस्तदा ते ततोऽर्थान्तरभूताः, अनर्थान्तरभूता वा? यद्यर्थान्तरभूतास्तदा तेषां तदनुपकारे सम्बन्धासिद्धिः उपकारे व्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्तविकल्पोक्तदोषानुषङ्गः । न च समवायाद् अनुपका१५रेऽपि तेषां तत्सम्बन्धिता तस्यानभ्युपगमात् , परैरभ्युपगमे च स्वकृतान्तविरोधः अर्थान्तरभूतत्वे चैकदेशानाम् तेभ्य एवार्थप्रतिपत्तेः न स्फोटस्यार्थप्रत्यायकता। अपि चैकदेशानामर्थप्रतिपत्तिहे. तुत्वाभ्युपगमे च वरं वर्णानामेव तैदभ्युपगतम् एवं लोकप्रतीतिरनुसृता भवेत् । अथाव्यतिरिक्ता स्तदा स्फोटस्यैकेनैव संस्कृतत्वाद अपरवर्णोच्चारणवैयर्थ्यम। नच पूर्ववर्णसंवित्प्रभवसंस्कारसहितः तत्स्मृतिसहितो वाऽन्त्यवर्णः स्फोटसंस्कारकः एवंभूतस्यास्यार्थप्रतिपत्तिजननेऽपि २० शक्तिप्रतिघाताभावात् स्फोटपरिकल्पना निरवसरैव । अपि च, स्फोटसंस्कारः स्फोटविषयसंवेदनोत्पादनम् , उतावरणापनयनम् ? यद्यावरणापनयनम् तदैकत्रैकदाऽऽवरणापगमे सर्वदेशावस्थितैः सर्वदा व्यापिनित्यरूपतयोपलभ्येत तस्य नित्यत्व-व्यापित्वाभ्यामपगतावरणस्य सर्वत्र सर्वदोपलभ्यस्वभावत्वात् अनुपलभ्यस्वभावत्वे वा न केनचित् कदाचित् कुत्रचिदुपलभ्येत । अथैकदेशावरणापगमः क्रियते; नन्वेवमावृताऽनावृतत्वेन २५ सावयवत्वमस्यानुषज्येत । अथ निर्विभागत्वादेकत्रानावृतः सर्वत्रानावृतोऽभ्युपगम्यते तदा तदव स्थाऽशेषदेशावस्थितरुपलब्धिप्रसक्तिः यथा च निरवयवत्वादेकत्रानावृतः सर्वत्रानावृतस्तथा तत एवैकत्राप्यावृतः सर्वत्रैवावृतः इति मनागपि नोपलभ्येत । किञ्च, एकदेशाः स्फोटादर्थान्तरम् , अनर्थान्तरं वा? अर्थान्तरत्वेऽपि शब्दस्वभावाः अशब्दात्मका वा? यद्यशब्दात्मका नार्थप्रतिपत्तिहेतवः। अथ शब्दस्वभावास्तत्रापि यदि गोशब्दस्वभावास्तदा गोशब्दानेकत्वप्रसक्तिः। अथ ३० अगोशब्दस्वरूपा न तर्हि गवार्थप्रत्यायका भवेयुः। अथाव्यतिरिक्तास्तदा स्फोट एव संस्कृत इति सर्वदेशावस्थितैयापिनस्तस्य प्रतिपत्तिप्रसक्तिरिति पूर्वोक्तमेव दूषणम् । किञ्च, एकदेशावरणापाये स्फोटस्य खण्डशः प्रतिपत्तिः प्रसज्येत । अथ स्फोटविषयसंविदुत्पादस्तत्संस्कारः सोऽपि न युक्तः, वर्णानामर्थप्रतिपत्तिजनन इव स्फोटप्रतिपत्तिजननेऽपि सामर्थ्यासम्भवात् न्यायस्य समानत्वात् । यदि च स्फोट उपलभ्यस्वभावः सर्वदोपलभ्येत, अनुपलभ्यस्वभावत्वे आवरणापगमेऽपि तत्स्वभा३५वानतिक्रमाद् मनागपि नोपलभ्येत इत्यर्थाप्रतिपत्तितः शाब्व्यवहारविलोपः। अनेनैव न्यायेन वायूनामपि तव्यञ्जकत्वमयुक्तम् वायूनां च व्यञ्जकत्वपरिकल्पने वर्णवैफल्यप्रसक्तिः स्फोटाभिव्यक्तावर्थप्रतिपादने वा तेषामनुपयोगात् स्थिते च स्फोटस्य वर्णोच्चारणात् प्राक् सद्भावे वर्णानाम् वायूनां वा व्यजकत्वं परिकल्प्येत । न च तत्सद्भावः कुतश्चित् प्रमाणावगत १-याऽप्रामा-वा. बा०। २-गमेवा ख-वृ० ल. वा. बा.। ३ तदू "अर्थप्रत्यायकत्वम्"-ल. टि.। ४-रक ए-बृ०। ५-तस्यार्थ-भां० मां०। ६ अस्य "अन्त्यवर्णस्य"-बृ० ल. टि०। ७-वा स्फो-वा० बा. भां०। ८ "निरवयवत्वादेव"-बृ० ल. मां. टि.। ९प्र० पृ. पं० २२। १०-माभावा-भां• मां० । ११ "स्फोट" व्यजकत्वम्-बृ० ल. मां० दि०। १२ "वायुभिरेव तयोः कुतत्वातू"-बृ० ल० मा० टि.। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। इति न तत्परिकल्पना ज्यायसी । यदपि 'प्रत्यभिज्ञाज्ञानं स्फोटस्य नित्यत्वप्रसाधकं वर्णोच्चारणात् प्रागप्यस्तित्वमवबोधयति' इत्यभ्युपगतम् तदपि-प्रत्यभिज्ञाज्ञानस्य सादृश्यनिबन्धनत्वेनात्र विषये प्रतिपादितत्वात्-असङ्गतम् ; एकगोव्यक्तौ संकेतितात् गोशब्दात् गोव्यक्त्यन्तरे अन्यत्रान्यदा च नित्यत्वमन्तरेणापि प्रतिपत्तियथा सम्भवति तथा प्रतिपादितम् प्रतिपादयिष्यते च । नातोऽपि स्फोटस्य प्राग् व्यञ्जकात् सत्त्वसिद्धिरिति । "नादेनाऽऽहितबीजायामन्त्येन ध्वनिना सह । आवृत्तपरिपाकायां बुद्धौ शब्दोऽवभासते ॥” [वाक्यप० प्र० का० श्लो० ८५] इति भर्तृहरिवचो निरस्तं द्रष्टव्यम् ।। यदपि 'विभिन्नतनुषु वर्णेष्वभिन्नाकारं श्रोत्रान्वयव्यतिरेकानुविधाय्यध्यक्ष स्फोटसद्भावमवबोधयति' इत्युक्तम् तदप्यसारम् ; घटादिशब्देषु परस्परव्यावृत्तानेकवर्णव्यतिरिक्तस्य स्फोटात्मनो-१० ऽर्थप्रत्यायकस्यैकस्याध्यक्षप्रतिपत्तिविषयत्वेनाप्रतिभासनात् । न चाभिन्नावभासमात्राद अभिन्नार्थव्यवस्था, अन्यथा दूराद् अविरलाने कतरुष्वेकतरुवुद्धेरेकत्वव्यवस्थाप्रसक्तेः न चाविरलानेकतरुष्वेकत्वबुद्धेर्बाध्यमानत्वात् नैकत्वव्यवस्थापकत्वम् स्फोटप्रतिभासबुद्धेरपि बाध्यत्वस्य दर्शितत्वात् । न चैकत्वावभासः स्फोटसद्भावमन्तरेणानुपपन्नः, वर्णत्वान्त्यवर्णविषयत्वेनाप्येकत्वावभासस्योपपद्यमानत्वात् निरवयवस्याक्रमस्य नित्यत्वादिधर्मोपेतस्य स्फोटस्यैकावभासज्ञानेनाननुभवात् अन्यथावभा-१५ सस्य चान्यथाभूतार्थाव्यवस्थापकत्वात् व्यवस्थापनेऽतिप्रसङ्गात् अवयवि द्रव्यं त्ववयवजन्यत्वेन तदाश्रितत्वेन चाध्यक्षप्रत्यये प्रतिभासत इति न तच्यायः स्फोटे उत्पादयितुं शक्यः। तन्न स्फोटात्मा शब्दो वर्णेभ्यो व्यतिरिक्तः। अथ तदव्यतिरिक्तोऽसावभ्युपगम्यते तदा वर्णनानात्वे तन्नानात्वप्रसक्तिः तदेकत्वे वा वर्णानामप्येकत्वप्रसक्तिः। [सानुपूर्विकनित्यवर्णवाचकत्वपरं मीमांसकमतमुपन्यस्य तन्निरसनम् ] २० अथ गकाराद्यानुपूर्वीविशिष्टोऽन्त्यो वर्णः विशिष्टानुपूर्वीका वा गकारौकारविसर्जनीयाः शब्दः। तथा च मीमांसकाः प्राहु: "यावन्तो यादृशा ये च यदर्थप्रतिपादकाः। वर्णाः प्रज्ञातसामर्थ्यास्ते तथैवाववोधकाः ॥" [श्लो० वा० स्फोटवा० श्लो० ६९] इति। २५ एतदपि न सम्यक्; यतः आनुपूर्वी यद्यनर्थान्तरभूता तदा वर्णा एव नानुपूर्वी, ते च व्यस्ताः समस्ता वा अर्थप्रत्यायका न भवन्तीत्यावेदितम् । अथार्थान्तरभूता तदा वक्तव्यम सा नित्या. अनित्या वा? न तावदनित्या स्वसिद्धान्तविरोधात्-वैदिकानुपूर्व्या नित्यत्वेनाभ्युपगमात् । "वक्ता नहि क्रम कश्चित् स्वातन्येण प्रपद्यते ।" [श्लो० वा० शब्दनित्य० श्लो० २८८] १ "किश्च शब्दस्य नित्यत्वं श्रोत्रजप्रत्यभिज्ञया । विभुत्वं च स्थितं तस्य कोऽध्यवस्येद् विपर्ययम्"। "तस्माद्वा सर्वकालेषु सर्वदेशेषु चैकता। प्रत्यक्षप्रत्यभिज्ञानप्रसिद्धा साऽस्य बाधिका" ॥ तत्त्वसं० का० २११७-२११८ पृ. ५९०-५९१ । २ तत्त्वसं० पृ. ७२२ का० २७११ । प्रमेयक० पृ. १३३ द्वि० पं०३ । “बुद्धौ शब्दोऽवधार्यते"-वाक्यप। तत्त्वसं० पजि० पृ. ६३६ पं०७। स्याद्वादर० पृ. ३१९ प्र. पं. ५ । सर्वदर्शनसं० द. १३ पं० १८९ पृ० ३०३। ३ "दूरदेशावस्थितस्य हि विरलपदार्थस्य घनरूपताप्रतीतिः उत्तरकालभाविबलिष्ठविरलरूपताप्रत्ययेन बाध्यत इति तत्र घनत्वप्रतीतिवशाद् व्यवस्थाप्यमानं घनत्वमस्तु अवास्तवम्" इत्यादिकं स्फोटप्रतिविधानावसरे-स्याद्वादर० प्र० ३२३ प्र. पं०८। "यथा हि दूरे दृश्यन्ते तरवः करिरूपिणः । (पूर्व पश्चाच) तत्रस्थैस्त एव तहरूपिणः" ॥ १५९॥ "दर्शनाहितसंस्कारक्रमादेवमिहापि ते। नादास्तत्त्वपरिच्छेदे विपर्यासेऽपि कारिणः (१)॥ १६॥ स्फोटसि० पृ. १८-१९ । ४ यदर्थप्रतिपादने-गुणग्रन्थे संस्कार. प्रशस्त० के० पृ० २७० पं. १८। “तदुक्तं तौतातितैः” इति कृत्वा निर्दिष्टोऽयं श्लोकः-सर्वदर्शनसं० द. १३ पं० १६४ पृ० ३०२। ५ पृ. ४३१ पं० १७॥ ६ “आनुपूर्वी"-बृ. ल. टि०। ७ कंचित् श्लो. वा। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - इत्याद्यभिधानात् । नापि नित्या स्फोटपक्षोदितंसमस्त दोषप्रसक्तेः । न च वैदिकवर्णाद्यानुपूर्वी नित्या, लौकिकतदानुपूर्व्यविशेषात् । तथा हि-वैदिकवर्णाद्यानुपूर्वी अनित्या, वेदानुपूर्वीशब्दवाच्यत्वात् लौकिकवर्णाद्यानुपूर्वीवत् । न च लौकिकानुपूर्व्या विलक्षणेयम्, वैलक्षण्यासिद्धेः । तथाहिकिमपौरुषेयत्वमस्या वैलक्षण्यम्, आहोखिद् विचित्ररूपता ? न तावदाद्यः पक्षः अपौरुषेयत्वस्य ५ निरस्तत्त्वात् । नापि वैचित्र्यम् तस्यानित्यत्वेनाऽविरोधात् तत्सद्भावेऽपि नित्यत्वाप्रसाधकत्वात् लौकिकवाक्येष्वपि वैचित्र्यस्योपलब्धेश्व | न च वर्णानां नित्यव्यापिनामानुपूर्वी सम्भवति, देश - कालकृतक्रमानुपपत्तेः । न चाभिव्यक्त्यानुपूर्वी तेषां सम्भविनी अभिव्यक्तेः प्राग् निर स्तत्वात् । 'पूर्ववर्णसंवित्प्रभवसंस्कारसहितः तत्स्मृतिसहितो वा अन्त्यो वर्णः पदम्' इत्यभ्युपगमोsपि न युक्तिसङ्गतः संस्कार स्मरणादेरनुपलभ्यमानस्य तदा सहकारित्वकल्पनायां १० प्रमाणाभावात् । न चार्थप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्तिस्तत्कल्पनायां प्रमाणम्, तत्प्रतिपत्तेरन्यथा सिद्धत्वात् । न चानुपूर्वीसम्भवेऽपि परपक्षे वर्णा अर्थप्रतीतिहेतुतया सम्भवन्ति तेषां तत्प्रतिपत्तिजननस्वभाव सर्वदा तत्प्रतिपत्तिप्रसक्तेः तज्जननस्वभावस्य सर्वदा भावात् अतजननस्वभावत्वे न कदाचिदप्यर्थप्रतिपत्तिं जनयेयुः अनपगताऽतज्जननस्वभावत्वात् । न च सहकारिसन्निधानेऽपि तेषामतज्जननस्वभावती व्यपगच्छति अनित्यताप्रसक्तिदोषापत्तेः 'नित्याश्च' परैस्ते अभ्युपगता इत्य१५भ्युपगमविरोधश्च । ४३६ [ वाच्य-वाचकयोः सम्बन्धस्य नित्यत्वं निषिध्य तस्य कृतकत्वव्यवस्थापनम् ] न च नित्यसम्बन्धवादिनस्तदपेक्षा वर्णा अर्थप्रत्यायकाः सम्भवन्ति, नित्यस्यानुपकारकत्वेनाऽपेक्षणीयत्वायोगात् । न च नित्यः सम्बन्धः शब्दार्थयोः प्रमाणेना वसीयते प्रत्यक्षेण तस्य अननुभवात् । तदभावे नानुमानेनापि तस्य तत्पूर्वकत्वाभ्युपगमात् । न च शब्दार्थयोः स्वाभाविकस२० म्बन्धमन्तरेण गोशब्दश्रवणानन्तरं ककुदादिमदर्थप्रतिपत्तिर्न भवेत् अस्ति च स इति शब्दस्य वाचिका शक्तिरवगम्यत इति वाच्यम्, अनवगतसम्बन्धस्यापि ततस्तदर्थप्रतिपत्तिप्रसक्तेः । न च सङ्केताभिव्यक्तः स्वाभाविकः सम्बन्धोऽर्थप्रतिपत्तिं जनयतीति नायं दोषः सङ्केतादेव अर्थप्रतिपत्तेः स्वाभाविकसम्बन्धपरिकल्पना वैयर्थ्यप्रसक्तेः । तथाहि - सङ्केताद् व्युत्पाद्याः 'अनेन शब्देनेत्थम्भूतमर्थ व्यवहारिणः प्रतिपादयन्ति' इत्यवगत्य व्यवहारकाले पुनस्तथाभूतशब्दश्रवणात् सङ्केतस्मरणे तत्स२५ दृशं तं चार्थ प्रतिपद्यन्ते न पुनः स्वाभाविकं सम्बन्धमवगत्य पुनस्तत्स्मरणे अर्थमवगच्छन्ति । नच वाच्य - वाचर्कैसङ्केतकरणे स्वाभाविकसम्बन्धमन्तरेणानवस्थाप्रसक्तिः वृद्धव्यवहारात् प्रभूतशब्दानां वाच्यवाचकस्वरूपावधारणात् । तथाहि —एको व्युत्पन्नव्यवहारः तथाभूताय 'गामभ्याज शुक्लां देवदत्त ! दण्डेन' इति यदा व्यपदिशति द्वितीयस्तु तद्यपदेशानन्तरं तथैव विदधाति तदा अव्युत्पन्नसङ्केतः शिशुस्तं तथाकुर्वाणमुपलभ्यैवमवधारयति - 'अनेन गोशब्दाद् गवार्थः प्रतिपन्नः अभ्याजादिशब्दाद् अभ्याजिक्रियादिकः अन्यथा कथमपरनिमित्ताभावेऽपि गोपिण्डाऽऽनयनादिकं 'वाक्यश्रवणानन्तरं विदध्यात्' एवमपोद्धारकल्पनया अव्युत्पन्नानां सङ्केतग्रहणसम्भवान्नानवस्थादोषः । न च प्रथमसङ्केतविधायिनः स्वाभाविकसम्बन्धव्यतिरेकेण वाच्य वाचकयोः कुतो वाच्यवाचकरूपावगतिरिति वक्तव्यम्, अनादित्वादस्य व्यवहारस्य अपरापरसङ्केतविधायिपूर्वकत्वेन निर्दोपत्वात् । न च वाच्यवाचकसम्बन्धस्य पुरुषकृतत्वे शब्दवदर्थस्यापि वाचकत्वम् अर्थवच्छब्दस्यापि वाच्यत्वं प्रसक्तमिति वक्तव्यम्, योग्यताऽनतिक्रमेण सङ्केतकरणात् । न च स्वाभाविकसम्बन्धव्य ३५ ३० १ पृ० ४३४ पं० २ । २ - त्या तदा - बृ० विना । ३ पृ० ३३ पं० २५ । ४ " नित्यवर्णानाम् ” - बृ० टि० । ५ पृ० ३४ पं० ३३ । ६- पत्तिस्तत्प्रकल्प - बृ० वा० बा० । ७ तद् "संस्कारस्मरणादि" - बृ० टि० । ८-भावसा सर्व-वा० बा० । - भावः सर्व - बृ० । ९वत्वे न सर्वदा कदा भां० म० । १०-ता व्युपमां० । ताभ्युप - बृ० वा० बा० । ११ “नित्यसंबन्धापेक्षा : " - बृ० टि० । १२ - कारत्वेना-भां० मां० । १३ “ अनुमानस्य " - बृ० टि० । १४ " अर्थप्रतिपत्तिः " - बृ० टि० । १५ तं वार्थ बृ० वा० बा० । बन्धकर - भ० मां० । १६-कसं Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा | ४३७ तिरेकेण प्रतिनियतयोग्यताया अभावः कृतकत्वेऽपि प्रतिनियतयोग्यतावतां भावानामुपलब्धेः । तथाहि — यत्र लोहत्वं छेदिकाशक्तिस्तत्रैव क्रियमाणा दृष्टा न जलादौ यत्रैव तन्तुत्वमस्ति तत्रैव निष्पाद्यते पटोत्पादनशक्तिर्न तु वीरणादौ तत्र तन्तुत्वाभावात् एवं च यत् यथोपलभ्यते तत् तथैवाभ्युपगन्तव्यम् दृष्टाऽनुमितानां नियोग-प्रतिषेधानुपपत्तेः । तेन यत्रैव वर्णत्वादिकं निमित्तं तत्रैव वाचिका शक्तिः सङ्केतेनोत्पाद्यते यत्र तु तन्नियतं निमित्तं नास्ति तत्र न वाचिका शक्तिरिति ५ न 'नित्यवाच्यवाचकसम्बन्धपरिकल्पनया प्रयोजनम् । एकान्तनित्यस्य तु ज्ञानजनकत्वे सर्वदा ज्ञानोत्पत्तिः । तदजननस्वभावत्वे न कदाचिद् विज्ञानोत्पत्तिरिति प्राक् प्रतिपादितम् । समयबलेन तु शब्दाद् अर्थप्रतिपत्तौ यथासङ्केतं विशिष्टसामग्रीतः कार्योत्पत्तौ न कश्चिद् दोषः । [ अनुमानात् शब्दस्य प्रमाणान्तरत्वप्रसाधनम् ] अत एवानुमानात् प्रमाणान्तरं शाब्दम् अनुमानं हि पक्षधर्मत्वान्वयव्यतिरेकवल्लिङ्गबलादुद- १० यमासादयति, शाब्दं तु सङ्केतसव्यपेक्षशब्दोपलम्भात् प्रत्यक्षानुमानाऽगोचरेऽर्थे प्रवर्त्तते । स्वसाध्याव्यभिचारित्वमप्यनुमानस्य त्रिरूपलिङ्गोद्भूतत्वेनैव निश्चीयते शाब्दस्य त्वातो त्वनिश्चये सति शब्दस्योत्तरकालमिति । किञ्च, शब्दो यत्र यत्रार्थे प्रतिपादकत्वेन पुरुषेण प्रयुज्यते तं तमर्थ यथासङ्केतं प्रतिपादयति, न त्वेवं धूमादिकं लिङ्गं पुरुषेच्छावशेन जलादिकं प्रतिपादयतीत्यनुमानात् प्रमाणान्तरं सिद्धः शब्दः । न च शब्दाद् अर्थप्रतिपत्तौ शब्दस्य त्रैरूप्यमस्ति यतो न तस्य पक्षधर्मता १५ १ नित्यत्वाद्वाच्य भां० मां० । २ - त्यत्वस्य भ० मां० । ३ पृ० ४३६ पं० १२ । ४ - ब्दार्थप्र वा० बा० । ५ " अन्तरा तुण्डं निक्षिप्य वदतस्तथागतसुतस्य मतं निरस्यन्नाह" - बृ० ल० टि० । ६ 'शब्दप्रमाणमनुमानप्रमाणान्तर्भावि' इति पक्षं स्वीकुर्वाणस्य वचनमिदम् - " यदपि उच्यते ' शब्दो हि यत्रैव पुरुषेच्छया विनियुज्यते संकीर्त्यते तदेव प्रत्याययति न तथा धूमादयः अतोऽनुमानादू मेदः' तदपि अनैकान्तिकम् ; हस्ताद्यङ्गचेष्टानां लिङ्गानामपि यथेष्टविनियोगेन प्रत्यायकत्वदर्शनात् इत्याह यथेष्टविनियोगेन प्रतीतिर्याऽपि शब्दतः । न धूमादेरितीहापि व्यभिचारोऽङ्गवृत्तिभिः " ॥ इत्यादि । -श्लो० वा० शब्दप० श्लो० १९ पार्थव्या० पृ० ४११ । ७ " तदेवं विषयभेदमुक्त्वा इदानीं त्रैलक्षण्यं निराकुर्वन् पक्षधर्मत्वं निराकरोतितस्मादर्थं विशिष्टस्य न शब्दस्यानुमेयता । कथं च पक्षधर्मत्वं शब्दस्येह निरूप्यते ॥ न क्रियाकर्तृसंबन्धाद् ऋते संबन्धनं क्वचित् । राजा भर्ता मनुष्यस्य तेन राज्ञः स उच्यते ॥ वृक्षस्तिष्ठति शाखासु ता वा तत्रेति तस्य ताः । देशेऽग्निमति धूमस्य कर्तृत्वं भवनं प्रति ॥ कार्यकारणभावादौ क्रिया सर्वत्र विद्यते । न चानवगताकारः संबन्धोऽस्तीति गम्यते ॥ न चात्यसति संबन्धे षष्ठीतत्पुरुषोऽपि वा । तस्मान्न पक्षधर्मोऽयमिति शक्या निरूपणा ॥ निवृत्तेऽन्यत्र संबन्धे येऽपि तद्विषयात्मना । वदेयुः पक्षधर्मत्वं शब्दस्याऽनुपलब्धिवत् ॥ तैरप्येतन्निरूप्यं तु शब्दस्तद्विषयः कथम् । न तद्देशादिसद्भावो नाऽऽभिमुख्यादि तस्य वा ॥ तस्मादुत्पादयत्येष यतोऽर्थविषया (यां) मतिम् । तेन तद्विषयः शब्द इति धर्मत्वकल्पना ॥ तत्र वाचकतायां च सिद्धायां पक्षधर्मता । न प्रतीत्यङ्गतां गच्छेन्न चैवमनुमानता ॥ गमकत्वाच्च धर्मत्वं धर्मत्वाद् गमको यदि । स्यादन्योन्याश्रयत्वं हि तस्मान्नैषाऽपि कल्पना ॥ इतश्च न पक्षधर्मत्वं शब्दस्य इत्याह न चाऽगृहीतसंबन्धाः स्वरूपव्यतिरेकतः । शब्दं जानन्ति येनात्र पक्षधर्ममतिर्भवेत् ॥ न च स्वरूपमात्रेण धूमादेः पक्षधर्मता । न चापि पूर्वसम्बन्धमपेक्ष्यैषा प्रसज्यते ॥ धूमवानय मित्येवमपूर्वस्यापि जायते । पक्षधर्ममतिस्तेन भिद्येतोत्तरलक्षणात् ॥ न त्वत्र पूर्वसम्बन्धादधिका पक्षधर्मता । न चाऽर्थप्रत्ययात् पूर्वमित्यनङ्गमियं भवेत् ॥ न च धर्मी गृहीतोऽत्र येन तद्धर्मता भवेत् । पर्वतादिर्यथा देशः प्राग्धर्मत्वाऽवधारणात् ॥ यश्चात्र कथ्यते धर्मी प्रमेयोऽस्य स एव नः । न चाऽनवधृते तस्मिंस्तद्धर्मत्वाऽवधारणात् ॥ प्राक् स चेत् पक्षधर्मत्वाद् गृहीतः किं ततः परम् । पक्षधर्मादिभिज्ञतैर्येन स्यादनुमानिता ॥ ५६ स० त० Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - यत्रार्थस्तत्र धर्मिणि शब्दस्याऽवृत्तेः गोपिण्डाधारेण प्रदेशेन शब्दस्याश्रयाश्रयिभावस्य जन्यजनकभावनिबन्धनस्याभावात् अतः 'गोपिण्डवानयं देशः गोशब्दवत्त्वात्' इति नाभिधातुं शक्यम् । नापि गोपिण्डे गोशब्दो वर्त्तते आधाराधेयवृत्त्या जन्यजनकभावेन वा गोपिण्डाभावेऽपि गोशब्दस्य दर्शनात् । न च गम्यगमकभावेन तंत्रासौ वर्तते पक्षधर्मत्वाभावे तस्यैवानुपपत्तेः वाच्यवाचकभावेन वृत्तावनुमा५ नात् प्रमाणान्तरत्वम् । तेन 'गोपिण्डो गोत्ववान् गोशब्दवत्त्वात्' अयमपि प्रयोगोऽनुपपन्न एवै । नापि गोत्रे गोपिण्डविशेषणे वर्त्तते तत् सामान्येनाश्रयाश्रयिभावस्य जन्यजनकभावस्य वा अस्याभावात् । अतः 'गोत्वं गोपिण्डवत् गोशब्दवत्त्वात्' इत्यपि वक्तुमशक्यम् । विशेषे च साध्ये अनन्वयश्चात्र पक्ष दोषः । न च ' गोशब्दो गवार्थवान् गोशब्दत्वात्' इति प्रयोगो युक्तः तथाप्रतीत्यभावात् । न हि 'गौर्गच्छति' इत्युक्ते गमनक्रियाविशिष्टगवार्थप्रतीतिमन्तरेण गोपिण्डेन तद्वान् शब्दो लोकेनावगम्यते, न च गोशब्दो गवार्थवाचकत्वेन गोशब्दत्वाद् अनुमीयते किन्तु गवार्थप्रतिपत्यन्यथानुपपत्त्या गवार्थवाचकत्वं तस्य गम्यते । प्रतिनियतपदार्थनिवेशिनां तु देवदत्तादिशब्दानां नान्वयः नापि १० ४३८ निराकृतं पक्षधर्मत्वम्, सपक्षान्वयमिदानीं दूपयति अन्वयो न च शब्दस्य प्रमेयेण निरूप्यते । व्यापारेण हि सर्वेषामन्वितत्वं प्रतीयते ॥ ६८-८८ यत्र धूमोऽस्ति तत्राग्रस्तित्वेनाऽन्वयः स्फुटः । न त्वेवं यत्र शब्दोऽस्ति तत्राऽर्थोऽस्तीति निश्चयः ॥ न तावत्तत्र देशेऽसौ तत्काले वाऽवगम्यते । भवेन्नित्यविभुत्वाच्चत्सर्वार्थेषु च तत्समम् ॥ तेन सर्वत्र दृष्टत्वाद् व्यतिरेकस्य चाऽगतेः । सर्वशब्दैरशेषार्थप्रतिपत्तिः प्रसज्यते" ॥ " ननु ये ज्ञातसम्बन्धास्तेषां दृष्टोऽन्वयः स्फुटः । यद्येवमन्वयात् पूर्व संबन्धः कोऽपि कल्पितः ॥ नाऽङ्गमर्थधियामेषा भवेदन्वयकल्पना । अन्वयाऽधीनजन्मत्वमनुमानस्य च स्थितम् ॥ ज्ञाते प्रतीतिसामर्थ्य तद्वशादेव जायते । पश्चादन्वय इत्येष कारणं कथमुच्यते ॥ तस्मात्तनिरपेक्षैव शब्दशक्तिः प्रतीयते । न च धूमाऽन्वयात् पूर्व शक्तत्वमवगम्यते ॥ व्यतिरेकोऽप्यविज्ञातादर्थाच्छन्दधियो यदि । सोऽपि पश्चात् स्थितत्वेन नाऽर्थप्रत्ययसाधनम् ॥ सम्बन्धं यं तु वक्ष्यामस्तस्य निर्णयकारणम् । स्यादन्वयोऽतिरेकश्च न त्वर्थाऽधिगमस्य तौ ॥ तदिदं लक्षण्यभावेन विषयभेदेन चोपपादितम् अननुमानत्वं प्रयोगेण दर्शयति तस्मादननुमानत्वं शब्दे प्रत्यक्षवद् भवेत् । त्रैरूप्यरहितत्वेन तादृग्विषयवर्जनात् ॥ ९२-९८ " प्रमिते च प्रवृत्तत्वात् स्मृतेर्नास्ति प्रमाणता । परिच्छेदफलत्वाद्धि प्रामाण्यमुपजायते ॥ तादात्विक परिच्छेदफलत्वेन प्रमाणता । प्रत्यभिज्ञानवत् कस्मात् स्मृतेरपि न कल्प्यते ॥ यावान् पूर्वपरिच्छिन्नस्तावानेवावधार्यते । स्मृत्या तदनुसारेण तदाऽसत्त्वेऽस्य नैव धीः " ॥ -१०४-१०६ श्लो० वा० शब्दप० पार्थ० व्या० पृ० ४२४, ४२६, ४२७, ४३० । " शब्दज्ञानात् परोक्षार्थज्ञानं शाब्दं परे जगुः । तञ्चाकर्तृकतो वाक्यात् तथाप्रत्ययिनोदितात् ॥ इदं च किल नाध्यक्षं परोक्षविषयत्वतः । नानुमानं च घटते तल्लक्षणवियोगतः ॥ धर्मी धर्मविशिष्टो हि लिङ्गीत्येतत् सुनिश्चितम् । न भवेदनुमानं च यावत् तद्विषयं न तत् ॥ यश्चात्र कल्प्यते धर्मी प्रमेयोऽस्य स एव च । न चानवधृते तस्मिंस्तद्धर्मत्वावधारणा ॥ प्राक् स चेत् पक्षधर्मत्वाद् गृहीतः किं ततः परम् । पक्षधर्मादिभिर्ज्ञातैर्येन स्यादनुमानता ॥ अन्वयो न च शब्दस्य प्रमेयेण निरूप्यते । व्यापारेण हि सर्वेषामन्वेतृत्वं प्रतीयते ॥ यत्र धूमोऽस्ति तत्राने रस्तित्वेनान्वयः स्फुटम् । नत्वेवं यत्र शब्दोऽस्ति तत्रार्थोऽस्तीति निश्चितम् ॥ न तावत् तत्र देशेऽसौ न तत्काले च गम्यते । भवेन्नित्यविभुत्वाच्चेत् सर्वशब्देषु तत्समम् ॥ तेन सर्वत्र दृष्टत्वाद्यतिरेकस्य चागतेः । सर्वशब्दैरशेषार्थप्रतिपत्तिः प्रसज्यते ॥ तस्मादननुमानत्वं शाब्दे प्रत्यक्षवद् भवेत् । त्रैरूप्यरहितत्वेन तादृग्विषयवर्जनात् " ॥ - तत्त्वसं ० का ० १४८९ - १४९८ पृ० ४३३-४३५ । स्याद्वादर० पृ० १३४ द्वि० पं० ७ पृ० १३५ द्वि० पं० ७ । १ तत्र “गोपिण्डे” असौ " गोशब्दः " - बृ० ल० टि० । २-रत्वेन गो- बृ० । गमकभावेन, आहोखित् वाच्यवाचकभावेन ? पक्षद्वये दूषणमुक्तम्" - बृ० ल० टि० । ५ गोशब्दो गवार्थगोशब्दः गवार्थगोशब्दत्वात् भ० मां० । ३ “ यतः गोशब्दवत्त्वं गम्य४ साध्येऽन्व - वा० बा० । Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । ४३९ पक्षधर्मता दृष्टान्ताभावात् दृष्टान्तदान्तिकभेदे चानुमानप्रवृत्तेः। न च शाब्दं स्वभावलिङ्गजमनुमानम् शब्दस्यार्थस्वभावत्वासिद्धेः आकारभेदात् प्रतिनियतकरणग्राह्यत्वात् वाचकस्वभावत्वाश्च तस्य । नापि कार्यलिङ्गजम् अर्थाभावेऽपीच्छातः शब्दस्योत्पत्तेः। न च न बाह्यार्थविषयत्वेन शब्दस्यानुमानता सौगतैरभ्युपगम्यते अपि तु विवक्षाविषयत्वेनेति वक्तव्यम, यतो यथा न तदर्थों विवक्षा तथा शब्दप्रामाण्यप्रतिपादनेऽभिहितम् न पुनरुच्यते । [परकल्पिता वर्णानां नित्यताम् तत्पदादिप्रक्रियां च प्रदूष्यानेकान्तदृष्ट्या शब्द-तदर्थसम्बन्धयोः __स्वरूपनिरूपणम् ] न च मीमांसकाभिप्रायेण वर्णानां वाचकत्वम् अभिव्यक्तानभिव्यक्तपक्षद्वयेऽपि दोषात् अनभिव्यक्तानां ज्ञानजनकत्वे सर्वपुरुषान् प्रति सर्वे सर्वदा ज्ञानजनकाः स्यः केनचित प्रत्यासत्ति -विप्रकर्षाभावात् अभिव्यक्तानां ज्ञानजनकत्वे एकवर्णाऽऽवरणापाये सर्वेषांसमानदेशत्वेनाऽभिव्य-१० तत्वात् युगपत् सर्वश्रुतिप्रसक्तिरित्युक्तं प्राक । इन्द्रियसंस्कारपक्षेऽपि पूर्वप्रतिपादितमेव दूषणमनुसतव्यम् । किञ्च, यद्यनवगतसम्बन्धा वर्णा अर्थप्रत्यायकास्तदा नालिकेरद्वीपवासिनोऽप्युपलभ्यमाना अर्थावगतिं विदध्युः। अथावगतसम्बन्धाः तथासति पदस्य स्मारकत्वमेव स्यात् न वाचकत्वम् तथा चानधिगतार्थाधिगमहेतुत्वाभावात् न प्रमाणता भवेत् । तदुक्तम् "पदं त्वभ्यधिकाभावात् सारकान्न विशिष्यते । अथाधिक्यं भवेत् "किश्चित् स पदस्य न गोचरः" ॥ [श्लो० वा० शब्दप० श्लो० १०७] इति । तन्न मीमांसकमतेनापि वर्णानां शब्दत्वम् । कथं तर्हि वर्णाः शब्दरूपतां प्रतिपद्यन्ते ? उक्तमत्र परिमितसङ्ख्यानां पुद्गलद्रव्योपादानाऽपरित्यागेनैव परिणतानामश्रावणस्वभावपरित्यागाऽवाप्तश्रावणस्वभावानां विशिष्टानुक्रमयुक्तानां वर्णानां वाचकत्वात् शब्दत्वम् अन्यथोक्तदोषानतिवृत्तेः ।२० वैशेषिकपरिकल्पितपदादिप्रक्रिया त्वनुभवबाधितत्वादयुक्ता। न च निरन्वयविनाशिनां विज्ञानहेतुता सम्भवतीत्यसकृत् प्रतिपादितम् । षटक्षणावस्थायित्वलक्षणमप्यनित्यत्वं तत्परिकल्पितं निरन्वयविनाशपक्षे अर्थक्रियानिर्वर्तनानुपयोगि तेपाम् । न च पटूक्षणावस्थानमपि सम्भवति, प्रथमक्षणसत्ताया द्वितीयक्षणसत्तानुप्रवेशे तत्क्षणसत्ताया अपयुत्तरक्षणसत्तानुप्रवेशपरिकल्पनायां क्षणिकत्वमेव अननुप्रवेशेऽपि परस्परविविक्तत्वात् क्षणस्थितीनां तदेव क्षणिकत्वमिति कुतःषक्षणावस्थानमेकस्य १२५ अक्षणिकत्वे चार्थक्रियाविरोधः प्रतिपादित एवेति न पदादिपरिकल्पना वैशेषिकपक्षे युक्तियुक्तेति स्थितम् । ननु भवत्पक्षेऽपि क्रमस्य वर्णेभ्यो व्यतिरेके न वर्णविशेषणत्वम् अव्यतिरेके वर्णा एव केवलाः तेच न ब्यस्तसमस्ता अर्थप्रतिपादका इति पूर्वमेव प्रतिपादितमिति न शब्दः कश्चिदर्थप्रत्यायकः, असदेतत्; वर्णव्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्तस्य क्रमस्य प्रतिपत्तेः। तथाहि-न वर्णेभ्योऽर्थान्तरमेव क्रमः वर्णानुविद्धतया तस्य प्रतीतेः। नापि वर्णा एव क्रमः तद्विशिष्टतया तेषां प्रतिपत्तेः। न ३० च तद्विशेषणत्वेन प्रतीयमानस्य क्रमस्यापह्नवो युक्तिसङ्गतः वर्णेष्वपि तत्प्रसक्तेः। न च भ्रान्तिरूपा प्रतिपत्तिरियम्, वर्णानां तद्विशिष्टतयाऽबाधिताध्यक्षगोचरतया प्रसाधितत्वात् अर्थप्रतिपत्तिकारणतोऽनुमितत्वाञ्च । न चाभावः कस्यचिद् भावाध्यवसायितया विशेषणम् नाप्यर्थप्रतिपत्तिहेतुः न चक्रमोऽप्यहेतुः तथात्मकवणेभ्योऽर्थप्रतीतेः। ततो भिन्नाभिन्नानुपूर्वीविशिष्टा वर्णा विशिष्टपरिणतिमन्तः शब्दः स च पद-वाक्यादिरूपतया व्यवस्थितः तेन विशिष्टानुक्रमवन्ति तथाभूतपरिणति-३५ मापन्नानि पदान्येव वाक्यमभ्युपगन्तव्यम् । तद्व्यतिरिक्तस्य तस्य पदवदनुपपद्यमानत्वात् । १ "शब्दस्य"-बृ. ल.टि.। २ नच बा-भां० मा०। ३ "शब्दार्थः"-बृ. ल.टि.। ४ पृ० १८५ पं०१।५ पृ. ३५ पं० १२ तथा पृ० ४३४ पं० २२। ६ पृ. ३६ पं० ४। ७ न च वा-मां. आ० । ८ पदमभ्यधि-श्लो. वा०। १ पदाधिक्यं श्लो० वा० । १० किञ्चित् तत् पदस्य श्लो. वा०। ११पृ. १३६ पं० १३। १२-कानां वाच-बृ० ल० वा. बा०। १३ “वैशेषिकाणाम्" बृ० ल.टि.। १४ पृ० ४३१ पं० १७ । १५ “अपहव"प्रसक्तेः-६० ल० टि० । १६ “वर्णविशेषणत्वेन क्रमप्रतीतिः"-बृ० ल. टि.। १७ "क्रमविशिष्टतया"-बृ० ल.टि.। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेयश्च 'कथं शब्दो वस्त्वन्तरत्वात् पुरुषादेर्वस्तुनो धर्मो येनासौ तस्य व्यञ्जनपर्यायो भवेत्' इत्युक्तम् तत्र नामनयाभिप्रायात् नाम-नामवतोरभेदात् 'पुरुष'शब्द एव पुरुषार्थस्य व्यञ्जनपर्यायः यद्वा 'पुरुष'इति शब्दो वाचको यस्यार्थगततद्वाच्यधर्मस्यासौ पुरुषशब्दः स चाभिधेयपरिणामरूपो व्यञ्जनपर्यायः कथं नार्थधर्मः? स च व्यञ्जनपर्यायः पुरुषोत्पत्तेरारभ्य आ पुरुषविनाशाद् भवति इति ५जन्मादिमरणसमयपर्यन्त उक्तः, तस्य तु बालादयः पर्याययोगा बहुविकल्पाः तस्य पुरुषाभिधेयपरिणामवतो बालकुमारादयस्तत्रोपलभ्यमाना अर्थपर्याया भवन्त्यनन्तरूपाः। एवं च पुरुषो व्यञ्जनपर्यायेणैकः बालादिभिस्त्वर्थपर्यायैरनेकः ॥ ३२ ॥ [पुरुषस्य भेदाभेदैकान्ताभ्युपगमे अभावरूपतापत्या दूषणम् ] यथा पुरुषस्तथा सर्व वस्त्वेकम् अनेकं वा सर्वस्य तथैवोपलब्धेः अन्यथाभ्युपगमे एकान्तर१० पमपि तन्न भवेदिति दर्शयन्नाह अस्थि त्ति णिव्वियप्पं पुरिसं जो भणइ पुरिसकालम्मि । सो बालाइवियप्पं न लहइ तुलं व पावेजा ॥ ३३ ॥ इति । 'अस्ति' इति एवं निर्विकल्पं निष्क्रान्ताशेषभेदस्वरूपं पुरुषम् एकरूपं पुरुषद्रव्यं यो १५ ब्रवीति पुरुषकाले पुरुषोत्पत्तिक्षण एव असौ बालादिभेदं न लभते बालादिभेदरूपतया नासौ स्वयमेव व्यवस्थितिं प्राप्नुयात् । नापि तद्रूपतया अपरमसौ पश्येत् । एवं चाभेदरूपमेव तत् पुरुषवस्तु प्रसज्येत । तुल्यं वा प्रामुयात्-तदप्यभेदरूपं बालादितुल्यतामेव अभावरूपतया प्राप्नुयात् भेदाऽप्रतीतावभेदस्याप्यप्रतीतेरभाव इति भावः। यद्वा 'अस्ति' इति एवं निर्विकल्पम्-निर्चितो विकल्पो भेदो यस्मिन् पुरुषद्रव्ये तद् निर्वि२.कल्पं भेदरूपं पुरुषं तत्स्वरूपलाभकाले भणति असौ बालादिविकल्पं न लभेत तुल्यम् इति द्व्यतुल्यतामेवासौ प्राप्नुयात् । अत्रापि पूर्ववत् तद्ग्रहे तद्ग्रहाद् भेदरूपताया अप्यभाव इति भावः । न चैवमेवास्त्विति वक्तव्यम् सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसक्तेरिति भेदाभेदरूपमेव वस्त्वस्तु ॥३३॥ [पुरुषे शब्दार्थ-पर्यायाभ्यां भेदाभेदरूपत्वस्य व्यवस्थापनम् ] अस्यैवोपसंहारार्थमाह वंजणपजायस्स उ पुरिसो 'पुरिसो' त्ति णिच्चमवियप्पो। बालाइवियप्पं पुण पासइ से अस्थपन्जाओ ॥ ३४॥ शब्दपर्यायेणाऽविकल्पः पुरुषः बालादिना त्वर्थपर्यायेण सविकल्पः सिद्ध इति गाथातात्पर्यार्थः। "व्यञ्जयति व्यनक्ति वाऽर्थानिति व्यञ्जनम्-शब्दः न पुनः शब्दनयः तस्य ऋजुसूत्रार्थनयविषयत्वात्” इति केचित्-तस्य पर्यायः आ जन्मनोमरणान्तं यावदभिन्नस्वरूपपुरुषद्रव्यप्रतिपादकत्वम् ३० तेद्वशेन तत्प्रतिपाद्यं वस्तुस्वरूपमत्र ग्राह्यम् उपचारात् एवं च द्वितयमप्येतत् 'पुरुषः पुरुषः इति __ अभेदरूपतया न भिद्यते-व्यञ्जनपर्यायमतेन पुरुषवस्तु सदा अविकल्पम् भेदं न प्रतिपद्यत इति यावत् । बालादिविकल्पं बालादिमेदं पुनस्तस्यैव पश्यति अर्थपर्यायः ऋजुसूत्राद्य १पृ० ४३१५०१३। २-च्यस्य ध-वृ०।३दिौरण-बृ० वा. बा०। ४ यथा गुरुवस्त-बृ०। ५-वस्वरू-आ०। ६-श्चिनोति वि-भां• मां०। ७ "अभेदतुल्यताम्"-बृ. ल. टि.। ८ “यथा अमेदरूपता नास्ति तन्मते तथा भेदरूपताऽपि न स्यात् अमेदाभावे भेदावस्थानाभावातू"-बृ० ल.टि.। ९ "शब्द"वशेनवृ. ल. टि.। १० पुरुषः-आ०। ११ “पुरुषवस्तुनः"-वृ० टि.। १२ अर्थप्राय: ल.। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । ४४१ र्थनयः । अत्रापि विषयिणा विषयः ऋजुसूत्राद्यर्थनयविषयः अभिन्ने पुरुषरूपे भेदस्वरूपो निर्दिष्टः उपचारात् । एवं चाभिन्नं पुरुषवस्तु भेदं प्रतिपद्यत इति यावत् ॥ ३४ ॥ [वस्तुनोऽनेकान्तात्मकत्वेऽप्येकान्तरूपत्वं वदतोऽप्रमाणत्वख्यापनम् ] एवं निर्विकल्प-सविकल्पस्वरूपे प्रतिपाद्ये पुरुषादिवस्तुनि तद्विपर्ययेण तद् वस्तु प्रतिपादयन् वस्तुस्वरूपानवबोधं स्वात्मनि ख्यापयतीति दर्शनार्थमाह सवियप्प-णिव्वियप्पं इय पुरिसं जो भणेज अवियप्पं । सवियप्पमेव वा णिच्छएण ण स निच्छिओ समए ॥ ३५॥ सविकल्पनिर्विकल्पं स्यात्कारपदलाञ्छितं पुरुषद्रव्यं यः प्रतिपादकः तद् वस्तु यात् अविकल्पमेव सविकल्पमेव वा निश्चयेन इत्यवधारणेन स यथावस्थितवस्तुप्रतिपादने प्रस्तुते अन्यथाभूतं वस्तुतत्त्वं प्रतिपादयन् न निश्चित इति निश्चयो निश्चितम् तद् अस्यास्तीति २० निश्चितः-अर्शआदित्वात् अच्-समये परमार्थेन वस्तुसत्त्वस्य परिच्छेत्तेति यावत् । तथाहिप्रमाणपरिच्छिन्नं तथैवाविसंवादि वस्तु प्रतिपादयन् वस्तुनः प्रतिपादक इत्युच्यते । न च तथाभूतं वस्तु केनचित् कदाचित् प्रतिपन्नम् प्राप्यते वा येन तथाभूतं तद्वचस्तत्र प्रमाणं भवेत् तथा. भूतवचनामिधाता वा तज्ज्ञानं वा प्रमाणतया लोके व्यपदेशमासादयेत् ॥ ३५॥ [सप्तभङ्गीस्वरूपविचारणा ] परस्पराक्रान्तमेदाभेदात्मकस्य वस्तुनः कथञ्चित् सदसत्त्वमभिधाय तथा तदभिधायकस्य वचसः पुरुषस्यापि तदभिधानद्वारेण सम्यग्मिथ्यावादित्वं प्रतिपाद्य अधुना भावाभावविषयं तत्रैवैकान्तानेकान्तात्मकमंशं प्रतिपादयतो विवक्षया सुनय-दुर्नय-प्रमाणरूपतां तत्प्रतिपादकं वचो यथा अनुभवति तथा प्रपञ्चतः प्रतिपादयितुमाह यद्वा यथैव तद् वस्तु व्यवस्थितं तथैव वचनात् प्रतिपादयतो वक्तुनिपुणत्वं भवति अन्यथा २० साङ्ख्य-बौद्ध-कणभुजामिव अभिन्न-भिन्न-परस्परनिरपेक्षोभयवस्तुस्वरूपाभिधायिनाम् अर्हन्मतानुसारिणामपि 'स्यादस्ति' इत्यादिसप्तविकल्परूपतामनापन्नवर्चनं वक्तृणां स्यात्कारपदाऽलाञ्छितव. स्तुधर्म प्रतिपादयतामनिपुणता भवेदिति प्रपञ्चतः सप्तविकल्पोत्थाननिमित्तमुपदर्शयितुं गाथासमूहमाह अत्यंतरभूएहि य णियएहि य दोहि समयमाईहिं । १-त्रार्थन-आ०। २-षयेऽभि-वा. बा.। ३-यत् व-बृ० ल. विना। ४ अविअप्पं ल.। ५ अव-आ० । अत्-बृ०। अन्-मां० । अन-वा० बा० । “अर्शआदिभ्योऽच्" ॥ ५।२।१२७ । अं० १९३३ सिद्धान्तकौ० । “अभ्रादिभ्यः" । ७।२।४६। हैम०। ६ “एकान्तविकल्पादिरूपम्”-बृ० ल. टि.। ७-प्यते येन वृ० वा. बा. मां० विना। ८ यथा य-बृ०। ९-चनवक्तृ-भां० मा०।-चन क्तृ-वा. बा० । १. श्रीभगवतीसूत्रे सप्तभङ्गया बीजभूतवाक्यत्रयमेवमुपलभ्यतेः प्र.-"से नूर्ण भंते ! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमद? उ०-हंता, गोयमा ! जाव परिणमई। इत्यादि-भगवती० श. १ उ०३ पृ. ५५ । प्रश्नसूत्रांक ३२ । प्र.-"आया भंते ! रयणप्पभा पुढवी अन्ना रयणप्पभा पुढवी ? उ.-गोयमा! रयणप्पभा सिय आया, सिय नोआया, सिय अवत्तव्वं आया ति य नो आया ति य"। इत्यादिभगवती० श० १२ उ० १० पृ० ५९२ द्वि०-५९४ द्वि० सूत्रांक ४६९ । अयं च भगवतीसूत्रगतोल्लेखः नयचक्रेऽपि ज्ञापकत्वेन इत्थं वर्णितः "भावः पर्यवः प्रवेशः समन्तात् अवः पर्यवः इति 'परि'शब्द(ब्दः) समन्तादर्थ(र्थः) 'अव'शब्दः प्रवेशार्थः। तद् वस्तुतो दर्शयति-समन्तात् प्रविशति एकताम् अन्यताम् उभयताम् अनुभयतां च योऽर्थः स पर्यवःxxx पर्यवे Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ प्रथमे काण्डेवयणविसेसाईयं व्वमवत्तव्वयं पडइ ॥ ३६॥ अस्यास्तात्पर्यार्थः-अर्थान्तरभूतः पटादिः निजो घटः ताभ्यां निजार्थान्तरभूताभ्यां सदसत्त्वं घटवस्तुनः प्रथम-द्वितीयभङ्गनिमित्तं प्रधान-गुणभावेन भवतीति प्रथम-द्वितीयौ भङ्गौ १-२ । यदा तु द्वाभ्यामपि युगपत् तद् वस्तु अभिधातुमभीष्टं भवति तदा अवक्तव्यभङ्गकनिमित्तम् तथाभूतस्य ५वस्तुनोऽभावात् प्रतिपादकवचनातीतत्वात् तूंतीयभङ्गसद्भावः वचनस्य वा तथाभूतस्याभावाद् अवक्तव्यं वस्तु ३। आस्तिकः पर्यवास्तिकः इति मूलसंज्ञा अस्य नयस्य शब्दस्य (3) किमेताः खमनीषिका उच्यन्ते उत अस्त (स्त्य)स्य उपनिबन्धनम् आकर्षम् (आषम् ) अपीति । अस्तीत्युच्यते, उपनिबन्धनमस्य तदुभयः स आदिष्टः इत्यादि । “इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी आता नोआता ?' इति पृष्टे भगवद्वचनम् -'गोयमा ! अप्पणो आदिढे आया, परस्स आदिढे नोआया, तदुभयस्स आदिढे अवत्तव्यं आता ति य णोआता ति य'" इति । एवम् अवक्तव्यत्वम् आत्माऽ. नात्मपर्यायाभ्यामादेशेऽत्र ज्ञापकनिबन्धनमुच्यते इति। नियमभङ्गो नवमोऽरः श्रीमल्लवादिप्रणीतनयचक्रस्य टीकायां न्यायागमानुसारिण्यां सिंहसूरिगणिवादिक्षमाश्रमणहब्धायां समाप्तः"।-नयचक्रलि. को० पृ० ९२९ पं० ३-१४ । अनुयोग. पृ० ५५ द्वि० सूत्रांक ७६। १-साइय ल. विना। २ प्रमेयर० को० पृ० १२-पृ. २० सप्तभङ्गीस्थापनम् । ३१ 'स्याद् अस्ति' । २ 'स्यान्नास्ति' ३ 'स्याद् अवक्तव्यः' ४ 'स्याद् अस्तिनास्ति' इत्येवं भङ्गक्रमः अत्र मूले टीकायां चास्ति । एवमेव च तत्क्रमः तत्त्वार्थसूत्रभाष्ये, विशेषावश्यकभाष्ये, दिगम्बरीयप्रवचनसारेऽपि दृश्यते । तथाहि "उत्पन्नास्तिकस्य उत्पन्नं वा, उत्पन्ने वा, उत्पन्नानि वा, सत्" । "अनुत्पन्नं वा, अनुत्पन्ने वा, अनुत्पन्नानि वा असत्"। "अर्पिते अनुपनीते न वाच्यम्-सदिति असदिति वा"-तत्त्वार्थसू० भा० अ०५ सू० ३१ पृ. ४०६ पं० २० तथा पृ० ४१० पं० २९ । "सब्भावाऽसब्भावोभयप्पिओ सपरपजओभयओ। कुंभाऽकुंभऽवत्तव्वोभयरूवाइमेओ सो" ॥ -विशेषाव. भा० गा०२२३२ पृ. ९१० । "अस्थि त्ति य णत्थि त्ति य हवदि अवत्तव्वमिदि पुणो दव्वं । पज्जाएण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा" ॥२३॥ -प्रवचनसा० पृ० १६१। प्रवचनसारटीकायामपि तथैवास्ति । "अयं च (स्याद् अवक्तव्यमेव) भगः कैश्चित् ('स्थादस्त्येव स्यान्नास्त्येव' इति) तृतीयभजस्थाने पठ्यते । तृतीयश्च एतस्य स्थाने"-रत्नाकराव. चतु. परि. सू. १८ पृ. ६२ पं० २६॥ १ 'स्याद् अस्ति' २ 'स्यान्नास्ति' ३ 'स्याद् अस्तिनास्ति' ४ 'स्याद् अवक्तव्यः' इत्येवं तृतीय-चतुर्थभङ्गयोः स्थानव्यत्ययः श्वेताम्बरीयप्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार-रत्नाकरावतारिका-स्थाद्वादमजरी-नयोपदेशेषु दिगम्बरीयपनास्तिकाय-आप्तमीमांसा-तत्त्वार्थराजवार्तिक-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-सप्तभङ्गीतरङ्गिणीषु च वर्तते । तथाहि १ "स्यादस्त्येव सर्वमिति विधिकल्पनया प्रथमो भङ्गः"। २ "स्यान्नास्त्येव सर्वमिति निषेधकल्पनया द्वितीयः" । ३ "स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येवेति क्रमतो विधि-निषेधकल्पनया तृतीयः”। ४ "स्यादवक्तव्यमेवेति युगपद् विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः" । -प्रमाणनयत. चतु० परि० सू० १७-१८ । रत्नाकराव० चतु० परि० सू० १७-१८ पृ०६२ । स्याद्वादमञ्ज.पृ. १८९५० ८ आ० । नयोप० पृ. १२ द्वि० पं०९। "सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं । दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि" ॥१४॥ -पञ्चास्तिका" पृ० ३० । प्रवचनसार-पञ्चास्तिकाययोः समानकर्तृकतायामपि प्रवचनसारे पूर्वोक्तः क्रमः पञ्चास्तिकाये तु ततो भिन्नः क्रमः। "कथंचित् ते सदेवेष्टं कथंचिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा" ॥ १४ ॥ -आप्तमीमां० पृ. १२॥ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ४४३ [मूलभङ्गत्रयं विवेच्य तत्समर्थकानां षोडशानामपेक्षाभेदानां व्यावर्णनम् ] तथाहि-असत्त्वोपसर्जनसत्त्वप्रतिपादने प्रथमो भङ्गः। तद्विपर्ययेण तत्प्रतिपादने द्वितीयः । द्वयोस्तु धर्मयोः प्राधान्येन गुणभावेन वा प्रतिपादने न किञ्चिद् वचः समर्थम् यतो न तावत् समा. सवचनं तत्प्रतिपादकम् नापि वाक्यं सम्भवति । समासपढ़े तावन्न बहुव्रीहिरत्र समर्थः तस्यान्यपदार्थप्रधानत्वात् अत्र चोभयप्रधानत्वात् । अव्ययीभावोऽपि नात्र प्रवर्तते तस्यात्रार्थऽसम्भवात् ।५ द्वन्द्वसमासे तु यद्यप्युभयपदप्राधान्यम् तथापि द्रव्यवृत्तिस्तावन्न प्रकृतार्थप्रतिपादकः गुणवृत्तिरपि द्रव्याश्रितगुणप्रतिपादकः द्रव्यमन्तरेण गुणानां तिष्ठत्यादिक्रियाधारत्वासम्भवात् तस्या द्रव्याश्रित. त्वान्न प्रधानभूतयोर्गुणयोः प्रतिपाद्यत्वम् । तत्पुरुषोऽपि नात्र विपये प्रवर्त्तते तस्याप्युत्तरपदार्थप्र. धानत्वात् । नापि द्विगुः सख्यावाचिपूर्वपदत्वात् तस्य । कर्मधारयोऽपि न, गुणाधारद्रव्यविषयत्वात्। न च समासान्तरसद्भावः येन युगपद् गुणद्वयं प्रधानभावेन समासपदवाच्यं स्यात् अत एव न१० वाक्यमपि तथाभूतगुणद्वयप्रतिपादकं सम्भवति तस्य वृत्त्यभिन्नार्थत्वात् । न च केवलं पदम् वाक्यं वा लोकप्रसिद्धम् नस्यापि परस्परापेक्षद्रव्यादिविषयतया तथाभूतार्थप्रतिपादकत्वायोगात् । न च "तौ सत्" [ ३।२।१२७। सिद्धान्तकौ० अं० ३१०६] इति शत-शानयोरिव सङ्केतितकपदवाच्यत्वम् विकल्पप्रभवशब्दवाच्यत्वप्रसक्तेः । विकल्पानां च युगपदप्रवृत्त.कदा तयोस्तद्वाच्यतासम्भवः । न च निजार्थान्तरैकान्ताभ्युपगमेऽप्यर्थस्य वाच्यता, तथाभूतस्य तस्यात्यन्ताऽसत्त्वात्-१५ सर्वथा सत्त्वेऽन्यतोऽव्यावृत्तत्वात् महासामान्यवद् घटार्थत्वानुपपत्तः। अर्थान्तरत्वे पररूपादिव स्वरूपादपि व्यावृत्तः खरविषाणवद असत्त्वादवाच्यतैव । न च घटत्वे घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्त विधिरूपे सिद्धेऽसम्बद्ध एव तत्र पटाद्यर्थप्रतिषेध इति वाच्यम् पटादेस्तत्राभावाभावे घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्य घटत्वस्यैवाऽसिद्धेः। शब्दानां चार्थज्ञापकत्वं न कारकत्वमिति तथाभूतार्थप्रकाशनं तथाभूतेनैव शब्देन विधेयमिति नासम्बद्धस्तत्र पटाद्यर्थप्रतिषेधः। अथवा 'सर्व सर्वात्मकम्' इति २० सांख्यमतव्यवच्छेदार्थ तत्प्रतिषेधो विधीयते तत्र तस्य प्रतीत्यभावात् १। ____ या नाम-स्थापना-द्रव्य-भावभिन्नेषु विधित्सिताऽविधित्सितप्रकारेण प्रथम-द्वितीयौ भनौ । तत्प्रकाराभ्यां युगपद् अवाच्यम् तथाभिधेयपरिणामरहितत्वात् तस्य यतो यदि अविधित्सितरूपेणापि घटः स्यात् प्रतिनियतनामादिमेदव्यवहाराभावप्रसक्तिः तथा च विधित्सितस्यापि नारमलाम इति सर्वाभाव एव भवेत् । तथा यदि विधित्सितप्रकारेणाप्यघटः स्यात् तदा तन्निबन्धनव्यवहारो-२५ च्छेदप्रसक्तिरेव । एकपक्षाभ्युपगमेऽपि तदितराभावे तस्याप्यभाव इति अवाच्यः २। १ 'स्याद् घटः' २ 'स्याद् अघटः' ३ 'स्याद् घटश्च अघटश्च' ४ 'स्याद् अवक्तव्यः' -१-६ तत्त्वार्थराजवा० पृ. २४ वा० ५। १ "स्यादस्त्येवाखिलं यद्वत् खरूपादिचतुष्टयात्" ॥ ४९ ॥ २ "स्यानास्त्येव विपर्यासादिति कश्चिनिषेधने । ३ स्याद् द्वैतमेव तदद्वैतादित्यस्तित्व-निषेधयोः॥५०॥ ४ क्रमेण योगपद्याद्वा स्यादवक्तव्यमेव तत्" ॥५१॥ -१-६ तत्त्वार्थश्लो० वा. पृ. १२८ । १ "स्यादस्त्येव घटः। २ स्यानास्त्येव घटः। ३ स्यादस्ति नास्ति च घटः। ४ स्यादवक्तव्य एव" । -सप्तभङ्गीत. पृ. २६०२ १ शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० २५. प्र. पं० ७-११। २ तस्यावृत्ताभि-वा० बा० । ३ सयापर्षभमां०। ४-नवोरिव ६० ल० वा. बा०। ५ न चानि-वृ०। ६ अत्रत्याः सत्त्वासत्त्वाऽवक्तव्यत्वसमर्थनपरा दशापेक्षाप्रकाराः तत्त्वार्थराजवार्तिके दृश्यन्ते-१.६वा०५५, पं० २१-पृ. २५ पं० १८। त एव च दश प्रकाराः प्रमेयरत्नकोशे समुद्धृताः-पृ० ५५० २३-पृ. ८५०१०। शास्त्रवार्तासमुच्चयटीकायामत्रत्याः सर्वेऽपि तथैव परिगृहीताः- पृ० २५० द्वि. पं. १४-पृ. २५२ द्वि. पं. Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डे - अथवा स्वीकृत प्रतिनियतप्रकारे तत्रैव नामादिके यः संस्थानादिः तत्स्वरूपेण घटः इतरेण चाघटइति प्रथम-द्वितीयौ, ताभ्यां युगपदभिधातुमशक्तेरवाच्यः । विवक्षितसंस्थानादिनेव यदीतरेणापि घटः स्याद् एकस्य सर्वघटात्मकत्वप्रसक्तिः अथ विवक्षितेनाप्यघटः पटादाविव घटार्थिनस्तत्राप्यप्रवृत्तिप्रसक्तिः । एकान्ताभ्युपगमेऽपि तथाभूतस्य प्रमाणाविषयत्वतोऽसत्त्वादवाच्यः ३ । ५ व स्वीकृत प्रतिनियन संस्थानादो मध्यावस्था निजं रूपम् कुशूल-कपालादिलक्षणे पूर्वोत्त रावस्थे अर्थान्तररूपम् ताभ्यां सदसत्त्वं प्रथम-द्वितीयौ । युगपत् ताभ्यामभिधातुमसामर्थ्याद् अवाच्यलक्षणस्तृतीयो भङ्गः । तथाहि - मध्यावस्थावदितरावस्थाभ्यामपि यदि घटः स्यात् तस्य अनाद्यनन्तत्वप्रसक्तिः अथ मध्यावस्थारूपेणाप्यघटः सर्वदा घटाभावप्रसक्तिः । एकान्तरूपत्वेऽप्ययमेव प्रसङ्ग इत्यसत्त्वादेव अवाच्यः ४ | ४४४ १० 'अथवा तस्मिन्नेव मध्यावस्थास्वरूपे वर्त्तमानाऽवर्त्तमानक्षणरूपतया सदसत्त्वात् प्रथम-द्वितीयभङ्गौ । ताभ्यां युगपदभिधातुमशक्तेरवाच्यलक्षणस्तृतीयः । तथाहि - यदि वर्त्तमानक्षणवत् पूर्वोत्तरक्षणयोरपि घटः स्यात् वर्त्तमानक्षणमात्रमेवासौ जातः पूर्वोत्तरयोर्वर्त्तमानताप्राप्तेः । न च वर्त्तमानक्षणमात्रमपि पूर्वोत्तरापेक्षस्य तदभावे अभावात् । अथातीतानागतक्षणवद् वर्त्तमानक्षणरूपतया अप्यघटः एवंसति सर्वदा तस्याभावप्रसक्तिः, एकान्तपक्षेऽप्ययमेव दोष इत्यभावादेव अवाच्यः ५ । यद्वा क्षणपरिणतिरूपे घटे लोचनजप्रतिपत्तिविषयत्वाविषयत्वाभ्यां निजार्थान्तरभूताभ्यां सदसत्वात् प्रथम-द्वितीयौ भङ्गौ । ताभ्यां युगपदादिष्टोऽवाच्यः । तथाहि - लोचनेज प्रतिपत्तिविषयत्वेनेव यदीन्द्रियान्तरजप्रतिपत्तिविषयत्वेनापि घटः स्यात् इन्द्रियान्तरकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तिः इन्द्रि यसङ्करप्रसक्तिश्च । अथेन्द्रियान्तरजप्रतिपत्तिविषयत्वेनेव चक्षुर्जप्रतिपत्तिविषयत्वेनापि न घटस्तर्हि तस्यारूपत्वप्रसक्तिः एकान्तवादेऽपि तदितराभावे तस्याप्यभावादवाच्य एव ६ । अथवा लोचनजप्रतिपत्तिविषये तस्मिन्नेव घटे 'घट' शब्दवाच्यता निजं रूपम् 'कुट' शब्दाभिधेयत्वमर्थान्तरभूतं रूपम् ताभ्यां सदसत्त्वात् प्रथम- द्वितीयौ । युगपत् ताभ्यामभिधातुमिष्टोऽवाच्यः । यदि हि 'घट' शब्दवाच्यत्वेनेव 'कुट' शब्दवाच्यत्वेनापि घटः स्यात् तर्हि त्रिजगत एकशब्दवाच्यताप्रसक्तिः घटस्य वाऽशेषपटादिशब्दवाच्यत्वप्रसक्तिरिति घटशब्दवाच्यत्वप्रतिपत्तौ समस्ततद्वाचकशब्दप्रतिपत्तिप्रसङ्गश्च । तथा घटशब्देनापि यद्यवाच्यः स्यात् घटशब्दोच्चारणवैयर्थ्यप्रसक्तिः । २५ एकान्ताभ्युपगमेऽपि घटस्यैवासत्त्वात् सङ्केतद्वारेणापि न तद्वाचकः कश्चित् शब्द इत्यवाच्य एव ७ । अथवा घटशब्दाभिधेये तत्रैव घटे हेयोपादेयान्तरङ्ग बहिरङ्गोपयोगानुपयोगरूपतया सदसत्त्वात् प्रथम-द्वितीयौ। ताभ्यां युगपदादिष्टोऽवाच्यः । यदि हि हेयवहिरङ्गानर्थक्रियाकार्यसन्निहित रूपेणाtयर्थक्रियाक्षमादिरूपेणेव घटः स्यात् पटादीनामपि घटत्वप्रसक्तिः तद्वद् यद्युपादेयसन्निहितादिरूपेणाप्यघटः स्यात् अन्तरङ्गस्य वक्तु श्रोतृगत हेतुफलभूत घटाकाराव बोध कविकल्पोपयोगस्याप्यभावे ३० घटस्याप्यभावप्रसङ्ग इत्यवाच्यः । एकान्ताभ्युपगमेऽप्ययमेव प्रसङ्ग इत्यवाच्यः ८ । तत्रैवोपयोगेऽभिमतार्थावबोधकत्वानभिमतार्थानवबोधकत्वतः सदसत्वात् प्रथमद्वितीयौ | ताभ्यां युगपदादिष्टोऽवाच्यः । विवक्षितार्थप्रतिपादकत्वेने वेतरेणापि यदि घटः स्यात् प्रतिनियतोपयोगाभावः तथाभ्युपगमे विविक्तरूपोपयोग प्रतिपत्तिर्न भवेत् । तदुपयोगरूपेणापि यद्यघटो भवेत् तदा सर्वाभावः अविशेषप्रसङ्गो वा । न चैवम् तथाऽप्रतीतेः । एकान्तपक्षेऽप्ययमेव ३५ प्रसङ्ग इत्यवाच्यः ९ । अथवा १५ २० अथवा सत्वम् असत्खं वा अर्थान्तरभूतम् निजं घटत्वम् ताभ्यां प्रथम-द्वितीयौ, अभेदेन ताभ्यां निर्दिष्टो घटोऽवक्तव्यो भवति । तथाहि - यदि सत्त्वमनूद्य घटत्वं विधीयते तदा सत्त्वस्य घटत्वेन व्याप्तेर्घटस्य सर्वगतत्वप्रसङ्गः तथाभ्युपगमे प्रतिभासबाधा व्यवहारविलोपश्च । तथा अस मनूद्य यदि घटत्वं विधीयते तर्हि प्रागभावादेश्चतुर्विधस्यापि घटेन व्याप्तेर्घटत्वप्रसङ्गः । अथ ४० घटत्वमनूद्य सदसत्त्वे विधीयेते तदा घटत्वं यत् तदेव सदसत्त्वे इति घटमात्रं सदसत्त्वे प्रसज्येते तथा च पटादीनां प्रागभावादीनां चाभावप्रसक्तिरिति प्राक्तनन्यायेन विशेषणविशेष्यलोपात् 'सन् घटः' इत्येवमवक्तव्यः 'असन् घटः' इत्येवमप्यवक्तव्यः । न चैतत्त ( चैकान्त ) तोऽवाच्यः अनेकान्तपक्षे तु कथञ्चिदवाच्य इति न कश्चिद् दोषः १० । १ कुसूल बृ० वा० बा० । २ " ताभ्यां सदसत्त्वात् " - शास्त्रवाः ३-न प्र-मां० । ४ " घटत्वेन " - शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० २५२ प्र० पं० २। स्याद्वादक० पृ० २५१ प्र० पं० ८ | ५-नां वा भा-वृ० ल० मां० विना Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। यद्वा व्यञ्जनपर्यायोऽर्थान्तरभूतः तदतद्विषयत्वात् तस्य, घटार्थपर्यायस्त्वन्यत्रावृत्तेनिजः ताभ्यां प्रथम-द्वितीयौ, अभेदेन ताभ्यां निर्देशेऽवक्तव्यः । यतोऽत्रापि यदि व्यञ्जनमनूद्य घटार्थपर्यायविधिः तदा तस्याशेषघटात्मकताप्रसक्तिरिति भेदनिबन्धनतद्व्यवहारविलोपः । अथार्थपर्यायमनद्य व्यञ्जनपर्यायविधिः तत्रापि कार्यकारणव्यतिरेकाभावप्रसक्तिः सिद्धविशेषानुवादेन घटत्वसामान्यस्य विधाने तस्याऽकार्यत्वात् । एवं च घटस्याभावादवाच्यः। अनेकान्तपक्षे तु युगपदभिधा-५ तुमशक्यत्वात् कथञ्चिदवाच्यः सिद्धः ११ । यद्वा सत्त्वमर्थान्तरभूतम् तस्य विशेषवदेकत्वादनन्वयिरूपता अत एव न तद्वाच्यमन्त्यविशेषवत् अन्त्यविशेषस्तु निजः सोऽप्यवाच्योऽनन्वयात् प्रत्येकावक्तव्याभ्यां ताभ्यामादियो घटोऽवक्तव्यः। अनेकान्तपक्षे तु कथञ्चिदवक्तव्यः १२। अथवा 'संद्रुतरूपाः सत्त्वादयो घटः' इत्यत्र दर्शने अर्थान्तरभूताः सत्त्वादयः, निज संद्रुतरूपम् १० ताभ्यामादिष्टो घटोऽवक्तव्यः यतः सद्रुतरूपस्य सत्त्वरजस्तमस्सु सत्त्वे सत्वरजस्तमसामभावप्रसक्तिः तेषां परस्परवैलक्षण्येनैव सत्त्वादित्वात् सन्द्रुतरूपत्वे च वैलक्षण्याभावादभाव इति विशेष्याभावादवाच्यः। असत्त्वे त्वसत्कार्योत्पादप्रसङ्गः। न चैतदभ्युपगम्यते अभ्युपगमेऽपि विशेषणाभावादवाच्यः १३। ___ अथवा रूपादयोऽर्थान्तरभूताः असंद्रुतरूपत्वं निजम् ताभ्यामादिष्टोऽवक्तव्यः। यथाहि-अरूपा-१५ दिव्यावृत्ता रूपादयस्त । एवं च रूपादीनां घटताऽवाच्या अरूपादित्वाद् घटस्य । नहि परस्परविलक्षणबुद्धिग्राह्या रूपादय एकानेकात्मकप्रत्ययग्राह्याऽरूपादिरूपघटतां प्रतिपद्यन्त इति विशेष्यलोपादवाच्यः। अथाप्यरूपादिरूपा रूपादयः; नन्वेवमपि रूपादय एव न भवन्तीति तेषामभावे केऽसंद्रुतरूपतया विशेष्या येनासंद्रुतरूपा रूपादयो घटो भवेत् इत्येवमप्यवाच्यः अनेकान्तवादे च कथञ्चिदवाच्यः१४। यदि वा रूपादयोऽर्थान्तरभूताः मंतुबर्थो निजः ताभ्यामादिष्टो घटोऽवक्तव्यः रूपाद्यात्मकैकाकारावभासप्रत्यय विषयव्यतिरेकेणापरसम्बन्धानवगतेर्विशेष्याभावात् 'रूपादिमान् घटः' इत्यवाच्यः। न चैकाकारप्रतिभासग्राह्यव्यतिरेकेणापररूपादिप्रतिभास इति विशेषणाभावादप्यवाच्यः। अनेकान्ते तु कथञ्चिदवाच्यः १५। ___ अथवा बाह्योऽर्थान्तरभूतः उपयोगस्तु निजः ताभ्यामादिष्टोऽवक्तव्यः । तथाहि-य उपयोगः स २५ घट इति यद्युच्येत तर्जुपयोगमात्रकमेव घट इति सर्वोपयोगस्य घटत्वप्रसक्तिरिति प्रतिनियतस्वरूपाभावादवाच्यः । अथ यो घटः स उपयोग इत्युच्येत तथाप्युपयोगस्यार्थत्वप्रसक्तिरित्युपयोगाभावे घटस्याप्यभावः ततश्च कथं नावाच्यः? १६।। "एते च त्रयो भङ्गा गुण-प्रधानभावेन सकलधर्मात्मकैकवस्तुप्रतिपादकाः स्वयं तथाभूताः सन्तो निरवयवप्रतिपत्तिद्वारेण सकलादेशाः वक्ष्यमाणास्तु चत्वारः सावयवप्रतिपतिद्वारेणाशेष-३. धर्माकान्तं वस्तु प्रतिपादयन्तोऽपि विकलादेशाः” इति केचित् प्रतिपन्नाः । वाक्यं च सर्वमेकानेकात्मकं सत् स्वाभिधेयमपि तथाभूतमवबोधयति यतो न तावन्निरवयवेन वाक्येन वस्तुस्वरूपाभिधानं सम्भवति अनन्तधर्माक्रान्तकात्मकत्वाद् वस्तुनः निरवयववाक्यस्य त्वेकस्वभाववस्तुविषयत्वात् तथाभूतस्य च वस्तुनोऽसम्भवात् न निरवयवस्य तस्य वाक्यमभिधायकम् । नापि सावयवं वाक्यं वस्त्वभिधायकं सम्भवति वस्तुन एकात्मकत्वात् । न च वस्तुनो व्यतिरिक्तास्तदंशाः,३५ तद्व्यतिरेकेण तेषामप्रतीतेः-एकस्वरूपव्याप्तानेकांशप्रतिभासात् । न च तद् एकात्मकमेव अनेकांशानुरक्तस्यैव एकात्मनः प्रतिभासात् अतो वस्तुन एकानेकस्वभावत्वात् तथाभूतवस्त्वभिधायकाः २० १ "घटोऽर्थपर्यायः"-शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० २५२ प्र. पं०६। २ “सत्त्वाऽन्त्यविशेषाभ्याम्”-बृ. ल. टि०।३ संभूतरू-वा० बा० । ४ “यतो रूपादि-" शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ. २५२ द्वि० पं० २।५-च्या रूपादिवा० बा०। ६-रूपत्वादि-बृ० विना। -ग्राह्यरू-वा. बा०। ८ मनुवजों वा. बा०। ९-त्मकैकाराबृ० मां० ।-त्मकेकारा-भां० ।-मकौकारा-आ० । १०-पररूपसम्ब-आ० हा० वि० । “अपररूपसम्बन्ध्यनवगतेविशेष्याभावाद् न रूपादिमान्"-शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ. २५२ द्वि. पं० ६। ११-भावे स-आ। १२-द्वारेण शे-बृ०॥ ५७ स० त० Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेशब्दा अपि तथाभूता एव नैकान्ततः सावयवा उभयकान्तरूपा वा। तत्र विवक्षाकृतप्रधानभावसदाद्येकधर्मात्मकस्यापेक्षितापराशेषधर्मक्रोडीकृतस्य वाक्यार्थस्य स्यात्कारपदलाञ्छितवाक्यात् प्रतीतेः स्यादस्ति घटः १ स्यान्नास्ति घटः २ स्यादवक्तव्यो घटः ३ इत्येते त्रयो भङ्गाः सकलादेशाः। विवक्षाविरचितद्वित्रिधर्मानुरक्तस्य स्यात्कारपदसंसूचितसकलधर्मखभावस्य धर्मिणो वाक्यार्थरूपस्य ५प्रतिपत्तेश्चत्वारो वक्ष्यमाणका विकलादेशाः-स्यादस्ति च नास्ति घट इति प्रथमो विकलादेशः। स्यादस्ति चावक्तव्यश्च घट इति द्वितीयः २ । स्यात् नास्ति चाऽवक्तव्यश्च घट इति तृतीयः ३। स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च घट इति चतुर्थः ४।एत एव सप्त भङ्गाः स्यात्पदलाञ्छनविरहिणोऽवधा रणैकस्वभावा विषयाभावतो दुर्नया भवन्ति । धर्मान्तरोपादानप्रतिषेधाकरणात् स्वार्थमात्रप्रतिपा दनप्रयणा एते एव सुनयरूपतामासादयन्ति । स्यात्पदलाञ्छनविवक्षितकधर्मावधारणवशाद् वा १० सुनयाः सहव्यादेरेकदेशस्य व्यवहारनिबन्धनत्वेन विवक्षितत्वात् धर्मान्तरस्य चानिषिद्धत्वात् । अतः 'स्यादस्ति' इत्यादि प्रमाणम् 'अस्त्येव' इत्यादि दुर्नयः 'अस्ति' इत्यादिकः सुनयो नैनु (न तु) संव्यवहा. राङ्गम् 'स्यादस्त्येव' इत्यादिस्तु नय एव व्यवहारकारणं स्वपराव्यावृत्तवस्तुविषयप्रवर्तकवाक्यस्य व्यवहारकारणत्वात् अन्यथा तद्योगात् ॥ ३६॥ [चतुर्थभङ्गनिरूपणम् ] १५ एवं निरवयववाक्यस्वरूपं भङ्गकत्रयं प्रतिपाद्य सावयववाक्यरूपचतुर्थभङ्गक प्रतिपादयितुमाह अह देसो सभीवे देसोऽसम्भावपजवे णियओ।। तं दवियमत्थि णत्थि य आएसविसेसियं जम्हा ॥ ३७॥ अथ इति यदा देशो वस्तुनोऽवयवः सद्भावेऽस्तित्वे नियतः 'सन्नेवायम्' इत्येवं निश्चितः अपरश्च देशोऽसद्भावपर्याये-नास्तित्व एव-नियतः-'असन्नेवायम्' इत्यवगतः अवयवेभ्यो. २० ऽवयविनः कथञ्चिदभेदाद् अवयवधर्मेस्तस्यापि तथाव्यपदेशः यथा 'कुण्ठो देवदत्तः' इति । ततोऽवयवसत्त्वासत्त्वाभ्यामवयवी अपि सदसन् सम्भवति । ततः तद् द्रव्यमस्ति च नास्ति चेति भवत्युभयप्रधानावयवभागेन विशेषितं यस्मात् । तथाहि-यद् अवयवेन विशिष्टधर्मेण आदिश्यते तद् अस्ति च नास्ति च भवति । तथा, स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावैर्विभक्तो घटः स्वद्रव्यादिरूपेणास्ति परद्रव्यादिरूपेण च स एव नास्ति । तथा च पुरुषादि वस्तु विवक्षितपर्यायेण बालादिना २५ परिणतम् कुमारादिना चापरिणतमित्यादिष्टमिति योज्यम् ॥ ३७॥ [पञ्चमभङ्गप्रदर्शनम् ] पूर्वभङ्गकप्रदर्शितन्यायेन पञ्चमभङ्गकप्रदर्शनायाह सम्भावे आइटो देसो देसो य उभयहा जस्स । तं अस्थि अवत्तव्वं च होइ दविअं वियप्पवसा ॥ ३८॥ ३० सद्भावेऽस्तित्वे यस्य घटादेर्धर्मिणो दशो धर्म आदिष्टोऽवक्तव्यानुविद्धस्वभावे अन्यथा तदसत्त्वात् । न ह्यपरधर्माप्रविभक्ततामन्तरेण विवक्षितधर्मास्तित्वमस्य सम्भवति खरविषाणादेरिव । तस्यैवापरो देश उभयथा अस्तित्वनास्तित्वप्रकाराभ्यामेकदैव विवक्षितोऽस्तित्वानुविद्ध एवावक्तव्यस्वभावः अन्यथा तदसत्त्वप्रसक्तेः न ह्यस्तित्वाभावे उभयाविभक्तता शशशृङ्गादेरिव तस्य सम्भविनी, प्रथम-तृतीयकेवलभङ्गव्युदासस्तथाविवक्षावशादत्र कृतो द्रष्टव्यः तत्र प्रथम-तृती १-क्यार्थवरूप-आ०। २-भावात् दु-आ० । ३ न तु वृ० सं० । ४-त्यादिसुन-बृ० वा. विना ।स्यादिन-भां०। ५-रण स्व-बृ• • विना०। ६-ब्भावो बु. ल.। -द्भाव एव प-बृ० वा० बा० मा०। ८ पश्चममङ्गप्र-वृ. ल. वा. बा. विना। ९-इद्धो ल०। १० अव्वत्त-बृ० ल० । अवत्तयं च मा.बा.. Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा। ४४७ ययोर्भङ्गकयोः परस्पराविशेषणभूतयोः प्रतिपाद्येनाधिगन्तुमिष्टत्वात् प्रतिपादकेनापि तथैव विवक्षितत्वात् अत्र तु तद्विपर्ययात् अनन्तधर्मात्मकस्य धर्मिणः प्रतिपाद्यानुरोधेन तथाभूतधर्माकान्तत्वेन वक्तुमिष्टत्वात् तद् द्रव्यमस्ति च अवक्तव्यं च भवति तद्धर्मविकल्पनवशात् धर्मयोस्तथापरिणतयोस्तथाव्यपदेशे धर्म्यपि तेद्वारेण तथैव व्यपदिश्यते ॥ ३८॥ [षष्ठभङ्गप्रदर्शनम्] षष्ठभङ्ग दर्शयितुमाह आइट्ठोऽसब्भावे देसो देसो य उभयहा जस्स । तं णत्थि अवत्तव्वं च होइ दवियं वियप्पवसा ॥ ३९॥ यस्य वस्तुनो देशोऽसत्त्वे निश्चितः 'असन्नेवायम्' इत्यवक्तव्याविद्धः अपरश्वासदनुविद्ध उभयथा 'सन्नसंश्च' इत्येवं युगपनिश्चितस्तदा तद् द्रव्यं नास्ति च अवक्तव्यं च भवति १० विकल्पवशात् तद्यपदेश्यावयववशात् द्रव्यमपि तद्यपदेशमासादयति। केवलद्वितीयतृतीयभङ्गकव्युदासेन षष्ठभङ्गः प्रदर्शितः ॥ ३९ ॥ [सप्तमभङ्गप्रकाशनम् ] सप्तमप्रदर्शनायाह सब्भावाऽसब्भावे देसो देसो य उभयहा जस्स। तं अस्थि णत्थि अवत्तव्वयं च दवियं वियप्पवसा ॥ ४० ॥ यस्य देशिनो देशोऽवयवः देशो धर्मो वा सद्भाव नियतो निश्चितः अपरस्तु असद्भावे असत्वे तृतीयस्तु उभयथा इत्येवं देशानां सदसवक्तव्यव्यपदेशात् तद् अपि द्रव्यमस्ति च नास्ति चावक्तव्यं च भवति विकल्पवशात् तथाभूतविशेषणाध्यासितस्य द्रव्यस्यानेन प्रतिपादनादरभङ्गव्युदासः। एते च परस्पररूपापेक्षया सप्तभङ्गयात्मकाः प्रत्येकं स्वार्थ प्रतिपादयन्ति २० नान्यथेति प्रत्येकं तत्समुदायो वा सप्तभङ्गात्मकः प्रतिपाद्यमपि तथाभूतं दर्शयतीति व्यवस्थितम् ।। ___अत्र चाद्यभङ्गकस्त्रिधा, द्वितीयोऽपि विधैव, तृतीयो दशधा, चतुर्थोऽपि दशधैव, पञ्चमादयस्तु त्रिंशदधिकशतपरिमाणाः प्रत्येकं श्रीमन्मल्लवादिप्रभृतिभिर्दर्शिताः। पुनश्च षड्विंशत्यधिकचतुर्दशशतपरिमाणास्त एव च यादिसंयोगकल्पनया कोटीशो भवन्तीत्यभिहितं तैरेव । अत्र तु ग्रन्थविस्तरभयात् तथा न प्रदर्शितास्तत पवावधार्याः। २५ अथानन्तधर्मात्मके वस्तुनि तत्प्रतिपादकवचनस्य सप्तधा कल्पने अष्टमवचनविकल्पपरिकल्पनमपि किं न क्रियत इति न वक्तव्यम् तत्परिकल्पननिमित्ताभावात् । तथाहि-न तावत् सावयवास्मकमन्योन्यनिमित्तकं तत् परिकल्पयितुं युक्तम् चतुर्थादिवचनविकल्पेषु तस्यान्तर्भावप्रसक्तः। नापि निरवयवात्मकमन्योन्यनिमित्तकं तत् परिकल्पनामहति प्रथमादिश्वन्तर्भावप्रसक्तेः। न च गत्यन्तरमस्तीति नाष्टमभङ्गपरिकल्पना युक्ता। किञ्च, असी क्रमेण वा तद्धर्मद्वयं प्रतिपादयेत्,३० योगपद्येन वा? प्रथमपक्षे गुणप्रधानभावेन तत्प्रतिपादने प्रथमद्वितीययोरन्तर्भावः प्रधानभावेन तत्प्रतिपादने चतुर्थे । योगपद्येन तत्प्रतिपादने तृतीये, भङ्गकसंयोगकल्पनया भङ्गान्तरकल्पनायां प्रथमद्वितीयभङ्गकसंयोगे चतुर्थभङ्गक एव प्रसज्यते, प्रथमतृतीयसंयोगात् पञ्चमप्रसक्तिः, द्वितीयतृतीयसंयोगात् षष्ठप्रसक्तिः, प्रथद्वितीयतृतीयसंयोगात् सप्तमः, प्रथमचतुर्थादिसंयोगकल्पनायां पुनरुक्तदोषः । तस्मान्न कश्चिदष्टमभङ्गसम्भव इत्युक्तन्यायात् वस्तुप्रतिपादने सप्तविध एव ३५ वचनमार्गः॥४०॥ १ "धर्म" द्वारेण-बृ० ल.टि.। २ “न हि अपरधर्म-इत्यादिभावना अत्रापि कार्या-" बृ. ल.टि.। सा च पृ० ४४६ पं० ३१। ३-मभङ्गप्र-आ० । ४ “प्रथम-द्वितीय-तृतीय"भङ्गब्युदासः-बृ० ल. टि.। ५ सप्तभङ्गा-वा. बा०।६-कमपरं निमित्तं तत् परि-बृ० ल• वा० बा०। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ प्रथमे काण्डे[सप्तानां भङ्गानामर्थनये शब्दनये च यथासंभवं विभजनम्] अन्योन्यापरित्यागव्यवस्थितस्वरूपवाक्यनयानां शुद्ध्यशुद्धिविभागेन संग्रहादिव्यपदेशमासा. दयतां द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयावेव मूलाधार इति प्रदर्शनार्थमाह एवं सत्तवियप्पो वयणपहो होइ अत्यपज्जाए। वंजणपजाए उण सवियप्पो णिव्वियप्पो य ॥४१॥ एवं इत्यनन्तरोक्तप्रकारेण सप्तविकल्पः सप्तभेदः वचनमार्गो वचनपथः भवत्यर्थपर्याये अर्थनये संग्रह-व्यवहार-ऋजुमूत्रलक्षणे सप्ताप्यनन्तरोक्ता भङ्गका भवन्ति । तत्र प्रथमः संग्रहे सामान्यग्राहिणि, 'नास्ति' इत्ययं तु व्यवहारे विशेषग्रा हिणि, ऋजुमूत्र तृतीयः, चतुर्थः संग्रह-व्यवहारयोः, पञ्चमः संग्रह ऋजुत्रयोः, पष्टो व्यवहार ऋजुमृत्रयोः, सप्तमः संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्रेषु । १०व्यञ्जनपोये शब्दनये सविकल्पः प्रथमे पर्यायशब्दवाच्यताविकल्पसद्भावेऽप्यर्थस्यैकत्वात् । द्वितीय तृतीययोनिर्विकल्पः द्रव्यार्थात् सामान्यलक्षणान्निर्गतपर्यायामिधायकत्वात् सममिरूढस्य पर्यायमेदभिन्नार्थत्वात् एवंभूतस्यापि विवक्षितक्रियाकालार्थत्वात् लिङ्ग-संज्ञा क्रियाभेदेन भिन्नस्यैकशब्दावाच्यत्वात्। शब्दादिषु तृतीयः, प्रथम-द्वितीयसंयोगे चतुर्थः तेष्वेव चानमिधेयसंयोगे पञ्चम-षष्ठ-सप्तमा वचनमागो भवन्ति । १५ अथवा प्रदर्शितस्वरूपा सप्तभङ्गी संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्रेष्वेवार्थनयेषु भवतीत्याह-एवं सत्तवियप्पो इत्यादिगाथाम् । अस्यास्तात्पर्यार्थः अर्थनय एव सप्त भङ्गाः शब्दादिपु तु त्रिषु नयेषु प्रथम-द्वितीयावेव भङ्गो । यो ह्यर्थमाश्रित्य वक्तृस्थः संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्राख्यः प्रत्ययः प्रादुर्भवति सोऽर्थनयः अर्थवशेन तदुत्पत्तेः अर्थ प्रधानतयासौ व्यवस्थापयतीति कृत्वा, शब्दं तु स्वप्रभवमुपसर्जनतया व्यवस्थापयति तत्प्रयोगस्य २० परार्थत्वात् । यस्तु श्रोतरि तच्छब्दश्रवणादुद्गच्छति शब्द-समभिरूढ-एवंभूताख्यः प्रत्ययस्तस्य शब्दः प्रधानम् तद्वशेन तदुत्पत्तः अर्थस्तूपसर्जनम् तदुत्पत्तावनिमित्तत्वात् स शब्दनय उच्यते । तत्र च वचनमार्गः सविकल्प-निर्विकल्पतया द्विविधः-सविकल्पं सामान्यम् निर्विकल्पः पर्यायः तदभिधानाद वचनमपि तथा व्यपदिश्यते । तत्र शब्द-समभिरुढी संज्ञा-क्रियामेदेऽप्यभिन्नमर्थ प्रतिपादयत इति तदभिप्रायेण सविकल्पो वचनमार्गः प्रथमभङ्गकरूपः। एवंभूतस्तु क्रियाभेदाद् २५भिन्नमेवार्थ तत्क्षणे प्रतिपादयतीति निर्विकल्पो द्वितीयभङ्गकरूपस्तद्वचनमार्गः। अवक्तव्यभङ्गकस्तु व्यञ्जननये न सम्भवत्येव यतः श्रोत्रभिप्रायो व्यञ्जननयः स च शब्दश्रवणादर्थ प्रतिपद्यते न शब्दाश्रवणात् अवक्तव्यं तु शब्दाभावविषय इति नावक्तव्यभङ्गका व्यञ्जनपर्याये सम्भवतीत्यभिप्रायवता व्यञ्जनपर्याये तु सविकल्प-निर्विकल्पौ प्रथमद्वितीयावेव भङ्गावभिहितावाचार्येण 'तु'शब्दस्य गाथायामेवकारार्थत्वात् ॥४१॥ [ केवलपर्यायार्थिकनयस्य मतमुपदर्य तस्यापूर्णत्वाभिधानम् ] इदानी परस्पररूपापरित्यागप्रवृत्तसंग्रहादिनयप्रादुर्भूततथाविधा एव वाक्यनयास्तथाविधार्थप्रतिपादका इत्येतत् प्रतिपाद्य अन्यथाभ्युपगमे तेषामप्यध्यक्षविरोधतोऽभाव एवेत्येतदुपदर्शनाय केवलानां तेषां तावन्मतमुपन्यस्यति १ "अस्तित्वनिषेधेन द्वितीयभङ्गस्य 'नास्ति'इत्यस्य प्रवृत्तः"-बृ० ल. टि.। २ त श-वृ०।३ तदुपपत्ते-बृ० वा. बा. विना । तदुप तदुपपत्ते-मां। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४९ नयमीमांसा। जह दवियमप्पियं तं तहेव अत्थि त्ति पजवणयस्स । ण य स समयपन्नवणा पजवणयमेत्तपडिपुण्णा ॥४२॥ यथा वर्तमानकालसम्बन्धितया यद् द्रव्यमर्पितं प्रतिपादयितुमभीष्टं तत् तथैवास्ति नान्यथा अनुत्पन्न-विनष्टतया भावि-भूतयोरविद्यमानत्वेनाप्रतिपत्तेः अप्रतीयमानयोश्च प्रतिपादयितुमशक्तेरतिप्रसङ्गाद् वर्तमानसम्बन्धिन एव तस्य प्रतीतेः इति पर्यायार्थिकनयवाक्यस्या-५ भिप्रायः। एतद् अनेकान्तवादी दूषयितुमाह-न इति प्रतिषेधे, स इति तथाविधो वाक्यनयः परामृश्यते समय इति सम्यग् ईयते परिच्छिद्यत इति समयोऽर्थस्तस्य प्रज्ञापना प्ररूपणा पर्यायनयमात्रे द्रव्यनयनिरपेक्षे पर्यायनये प्रतिपूर्णा पुष्कला सम्पद्यते । न स वाक्यनयः सम्यगर्थप्रत्यायनां पूरयतीति यावत् पर्यायनयस्य सावधारणकान्तप्रतिपादनरूपस्याध्यक्षबाधनात् तद्बाधां चाग्रतः प्रतिपादयिष्यति ॥४२॥ __ [ केवलद्रव्यार्थिकनयमतस्य प्रदर्शनम् ] द्रव्यार्थिकवाक्यनयेऽप्ययमेव न्याय इति तदभिप्राय तावदाह पडिपुण्णजोव्वणगुणो जह लजइ बालभावचरिएणं । कुणइ य गुणपणिहाणं अणागयसुहोवहाणत्थं ॥ ४३ ॥ प्राप्तयौवनगुणः पुरुषो लज्जते बालभावसंवृत्तात्मीयानुष्ठानस्मरणात् 'पूर्वमहमप्यस्पृ-१५ श्यसंस्पर्शादिव्यवहारमनुष्ठितवान्' यथा इत्युदाहरणार्थो गाथायामुपन्यस्तः यथैव ततोऽतीत-वर्त्तमानयोरेकत्वमवसीयते । करोति च गुणेषु उत्साहादिषु प्रणिधानमैकाग्र्यम् अनागतं यत् सुखं तस्योपधानं प्राप्तिस्तस्यै तदर्थम् ‘मयैतस्मात् सुखसाधनात् सुखमाप्तव्यम्' इति । यतश्चैवमतोऽनागत-वर्तमानयोरैक्यम् ॥ ४३ ॥ [ केवलद्रव्यार्थिकनयमतस्याप्यपूर्णत्वमिति प्रदर्शनेन वस्तुनो भेदाभेदरूपत्वसूचनम्] अत्रापि मते यथावस्थितवस्तुस्वरूपप्ररूपणा न प्रतिपूर्यत इति सूत्रान्तरेण दर्शयति २० १-यमेत्तिप-बृ० वा. बा० ।-यमित्तिप-ल. मां० आ० । २ वर्तमानं का-मां० । ३-कालंसम्ब-बृ० भां. मां आ० हा०वि०। ४ साधारणे-वृ० ल. । ५ "तदिदं लोकानुभवतोऽपि साधयन्नाहलज्जते बाल्यचरितैर्बाल एव न चापि यत् । युवा न लज्जते चान्यस्तैरायत्यैव चेष्टते" ॥२९॥ "लजते बाल्यचरितैः चौर्याऽसंस्पृश्यस्पर्शक्रीडादिभिः अतो बाल एवं युवा 'अहमेव पूर्व चौर्यादि अनुष्ठितवान्' इति लजानिबन्धनाऽभेदप्रत्यभिज्ञानाद् बाल-यूनोरभेदसिद्धेः । न चापि एकान्तः बाल एव यद् यस्माद् युवा, एवं हि 'अयमिदानी युवा न बालः' इति भेदप्रतिभासो नानुरुद्धः स्यात् । न च बालखभावापरित्यागे युवखभावपरिग्रहोऽपि स्यात् उत्तरखभावे पूर्वखभावपरित्यागस्य हेतुत्वात् । न च तत्काले यूनि बालसामान्यभेद एव 'इदानीं युवा न बालः' इतिप्रतीतेरिति वाच्यम् , यतो न चान्यः भिन्नसंतानान्तरयुवा तैः बाल्यचरितैः लज्जते अतस्तत्र न तत्संतानीयबालभेद एव । तदेवमतीत-वर्तमानयोर्भेदाभेदो भावितः। एवमनागत-वर्तमानयोरपि, यत आयत्यैव वार्धके सुखहेतुधनाद्यर्थमेव चेष्टते । अतो युव-वृद्धयोरभेदः । नहि अन्योऽन्यार्थ चेष्टत इति" ॥ २९ ॥ शास्त्रवा० समु० स्तब० ७, स्याद्वादक० पृ० २५७ द्वि०। ६ गुणेष्टत्सा-वा. बा० । गुणेष्ट उत्सा-ल. । गुणेषु तु उत्सा-भां० मां। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे काण्डेण य होइ जोव्वणत्यो बालो अण्णो वि लज्जइ ण तेण । ण वि य अणागयवयगुणपसाहणं जुजइ विभत्ते ॥४४॥ न च भवति यौवनस्थः पुरुषो बालः अपि त्वन्य एव अन्योऽपि न लज्जते बालचरितेन पुरुषान्तरवत् 'तेनानन्यः। नाप्यनागतवृद्धावस्थायां सुखप्रसाधनार्थमुत्साहस्तस्य ५युज्यते अत्यन्ताभेदे । एतदेवाह-विभक्त इति विभक्तिर्भेदः। अकारप्रश्लेपाद् अविभक्ते मेदा. भावेऽविचलितस्वरूपतया तत्प्रसाधकगुणयनासम्भवात् । तस्मान्नाऽभेदमात्रं तत्त्वम् कथञ्चिद्भेदव्यवहृतिप्रतिभासवाधितत्वात् । नापि भेदमात्रम् एकत्वव्यवहारप्रतिपत्तिनिराकृतत्वादिति मेदा. मेदात्मकं तत्त्वमभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा सकलव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः॥ १४ ॥ [ पुरुपदृष्टान्ते भेदाभेदात्मकत्वपरिणतिर्बाह्यप्रत्यक्षेण सिद्धति प्रदर्शनम् ] १० एवमभेदभेदात्मकस्य पुरुपतत्त्वम्य यथा अतीतानागतदोगुणनिन्दाभ्युपगमाभ्यां सम्बन्धः तथैव भेदाभेदात्मकस्य तस्य सम्बन्धादिभियोग इति दन्तदान्तिकोपसंहारार्थमाह जाइ-कुल-रूव-लश्रवण-सण्णा-संबंधओ अहिंगयस्स । बालाइभावदिविगयस्स जह तस्स संबंधो ॥ ४५ ॥ जातिः पुरुषत्वादिका, कुलं प्रतिनियतपुरुषजन्यत्वम् , रूपं चक्षुहित्विलक्षणम् , लक्षणं १५तिलकादि सुखादिसूचकम् , संज्ञा प्रतिनियतशब्दाभिधेयत्वम् , एभिर्यः सम्बन्धस्तदात्मपरिणामः ततस्तमाश्रित्य अधिगतस्य ज्ञानस्य ( ज्ञातस्य ) तदात्मकन्वेनाभिन्नावभासविषयस्य यद्वा सम्बन्धो जन्यजनकभावः एभिरधिगतस्य तत्स्वभावम्यैकात्मकस्यति यावत् बालादिभावैदृष्टैविगतस्य तैरुत्पाद विगमान्मकस्य तथाभेदप्रतीतेस्तस्य यथा तस्य सम्बन्धो भेदाभेदपरिणतिरूपो भेदाभेदात्मकत्वप्रतिपत्तेर्वाह्याध्यक्षतः ॥ ४५ ॥ २० [आध्यात्मिकप्रत्यक्षतोऽपि तत्र दृष्टान्ते यथा भेदाभेदात्मकत्वसिद्धिस्तथा दार्टान्तिके जीवेऽपि तद्योजनम् ] आध्यात्मिकाध्यक्षतोऽपि तथाप्रतीतेस्तथारूपं तद् वस्त्विति प्रतिपादयन्नाह दृष्टान्तदाWन्तिकोपसंहारद्वारेण तेहिं अतीताणागयदोसगुणदुगुंछणऽभुवगमेहिं । तह बंध-मोक्ख-सुह-दुक्खपत्थणा होइ जीवस्स ॥ ४६॥ ताभ्यामतीतानागतदोष-गुणजुगुप्साऽभ्युपगमाभ्यां यथा भेदाभेदात्मकस्य पुरु. षत्वस्य सिद्धिः तथा दान्तिकेऽपि तह बंध-मोक्ख-सुह-दुक्खपत्थणा होइ जीवस्स १"न चाप्यभेद एव इत्याह युवैव न च वृद्धोऽपि नान्यार्थ चेष्टनं च तत् । अन्वयादिमयं वस्तु तदभावोऽन्यथा भवेत्" ॥३०॥ "न च युवैव वृद्धोऽपि सर्वथा वृद्धपर्यायापन्न एव 'इदानीमयं युवा न वृद्धः' इतिप्रतीतेः। न च तत्काले तत्र यूनि तत्संतानीयवृद्धभेद एव यतः अन्यार्थ संतानान्तरवृद्धवत् न च चेष्टनं कायव्यापाररूपम्। तत् तस्मात् वस्तु अन्वयादिमयम् आदिना व्यतिरेकग्रहाद् अन्वय-व्यतिरेकशबलम् अन्यथा तदभावः अधिकृतवस्त्वभावो भवेत् सर्वथा असत्सद्भावविरोधात्" ॥३०॥ शास्त्रवा० समु. स्तब० ७, स्याद्वादक. पृ० २५८ प्र.। तेनान्यः वृ० ल. भां० मां० विना। ३ अत्यन्तमे-आ. हा. वि. विना। ४ हिययस्स बृ०। ५-ह्यत्वलक्षणं तिल-वा. बा० ।-ह्यत्वं लक्षणं तिल-ल. आ०। ६-रभिगतस्य लक्षणं तत्स्व-बृ०।-रवि तस्य लक्षणं तत्स्व-वा० बा। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा | इति तथा बन्ध-मोक्ष सुख-दुःखप्रार्थना तत्साधनोपादानपरित्यागद्वारेण भेदाभेदात्मकस्यैव जीवद्रव्यस्य भवति बालाद्यात्मक पुरुषद्रव्यवत् । न च जीवस्य पूर्वोत्तरभवानुभवितुरभावाद् बन्ध-मोक्षभावाभावः उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मकस्य तस्यानाद्यनन्तस्य प्रसाधितत्वात् । [ उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मकतया जीवतत्त्वस्य साधनम् ] तथाहि - मरणचित्तं भाव्युत्पादस्थित्यात्मकम् मरणचित्तत्वात् जीवदवस्थाविनाशचित्तवत् ५ जन्मादौ चित्तप्रादुर्भावोऽतीतचित्तस्थितिविनाशात्मकः चित्तप्रादुर्भावत्वात्, मध्यावस्थाचित्तप्रादुर्भाववत् अन्यथा तस्याप्यभावप्रसक्तिः, न चास्याभाव: हर्षविषादाद्यनेकविवर्त्तात्मकस्यानन्यवेद्यस्यान्तर्मुखाकारतया स्वसंवेदनाध्यक्षतः शरीरवैलक्षण्येनानुभूतेः । न च तथाप्रतीयमानस्याप्यभावः शरीरादेरपि बहिर्मुखाकारतया प्रतीयमानस्याभावप्रसक्तेः । न च नित्यैकान्तरूपे आत्मनि जन्म-मरणे अपि संभवतः कुतो बन्धमोक्षप्रसक्तिः ? न च नित्यस्याप्यात्मनोऽ- १० भिनवबुद्धिशरीरेन्द्रियैर्योगो जन्म तद्वियोगो मरणमिति कल्पना सङ्गता अस्याः पूर्व निषिद्धत्वात् । न चैकान्तोत्पाद - विनाशात्मके चित्ते इहलोक - परलोकव्यवस्था बन्धादिव्यवस्था वा युक्ता यत ऐहिककाय त्यागेनाऽऽमुष्मिकतदुपादानमेकस्य परलोकः पूर्वग्रामपरित्यागावाप्ततदन्तरैकपुरुषवत् । न च दृष्टान्तेऽप्येकत्वमसिद्धम् उभयावस्थयोस्तस्यैकत्वेन प्रतिपत्तेः । न चेयं मिथ्या बाधकाभावात् विरुद्धधर्मसंसर्गादेर्वाधकस्याध्यक्ष वाधादिना निरस्तत्वात् । न च पूर्वावस्थात्याग एकस्योत्तरावस्थोपादा- १५ नमन्तरेण दृष्टः पृथुवुनोदराद्याकारविनाशवत् मृद्रव्यस्य कपालोपादानमन्तरेण तस्यादर्शनात् । न च कपालोत्पादमन्तरेण घटविनाश एव न सिद्धः घट-कपालव्यतिरेकेणापरस्य नाशस्याप्रतीतेरिति वक्तव्यम् कपालोत्पादस्यैव कथञ्चिद् घटविनाशात्मकतया प्रतिपत्तेः अत एव सहेतुकत्वं विनाशस्य कपालोत्पादस्य सहेतुकत्वात् । न च कपालानां भावरूपतैव केवला घटानिवृत्तौ तद्विविक्ततायास्तेष्वभावप्रसक्तेः । न चैकस्योभयत्र व्यापारविरोधः दृष्टत्वात् । न च घटनिवृत्ति-कपालयोरेका- २० न्तेन भेदः कथञ्चिदेकत्वप्रतीतेः । न च मुद्गरादेर्नाशं प्रत्यव्यापारे क्वचिदप्युपयोगः कपालेषु न तदुपयोगः अन्त्यावस्थायामपि घटक्षणान्तरोत्पत्तिप्रसक्तेः । तस्य तदुत्पादनसामर्थ्याविनाशात् तस्य स्वरसतो विनाशात् तदव्यतिरिक्त सामर्थ्यस्यापि विनाशः, नः पूर्व तद्विनाशेऽपि तस्याविनाशात् विरोधिमुद्गरसन्निधानात् समानजातीयक्षणान्तरं न जनयतीति चेत्, न; 'घटविरोधी न च तं विनाशयति' इति व्याहतत्वात् । न च तद्धेत्वभावात् सामर्थ्याभावः तथाविधकार्य जनन समर्थहेतोर्भावात् २५ अन्यथा प्रागपि तथाविधफलोत्पत्तिर्न भवेत् । न च स्वहेतु निर्वर्त्तित एव दण्डादिसन्निधौ सामर्थ्याभावः दण्डादिसन्निधिमपेक्षमाणस्य तस्य तद्धेतुत्वोपपत्तेः अन्यत्रापि तद्भावस्य तन्मात्रनिबन्धनत्वात् । न च तयापारानन्तरं तदुपलम्भात् तस्य तत्कार्यत्वे मृद्रव्यस्यापि तत्कार्यताप्रसक्तिः तस्य सर्वदोपलम्भात्, सर्वदा तस्यानभ्युपगमे उत्पाद - विनाशयोरभावप्रसक्तिश्चेति प्रतिपादितत्वाच्च । तस्यैव तद्रूपतया परिणतौ कथञ्चिदुत्पादस्यापीष्टत्वात् । यदा च पूर्वोत्तराकारपरित्यागोपादानतयैकं मृदा- ३० दिवस्त्वध्यक्षतोऽनुभूयते तदा तत् तदपेक्षया कारणम् कार्यम् विनष्टम् अविनष्टं च उत्पन्नम् अनुत्पन्नं च एककालम् अनेककालं च भिन्नम् अभिन्नं चेति कथं नाभ्युपगमविषयः ? तथा ४५१ न चात्र विरोधः मृदव्यतिरिक्ततया घट - कपालयोरुत्पन्नविनष्टस्थितिस्वभावतया प्रतीतेः । न च प्रतीयमाने वस्तुस्वरूपे विरोधः अन्यथा ग्राह्यग्राहकाकाराभ्यामेकत्वेन स्वसंवेदनाध्यक्षतः प्रतीयमानस्य संवेदनस्य विरोधप्रसक्तेः । न च संशयदोषप्रसक्तिरपि उत्पत्ति-स्थिति-निरोधानां ३५ निश्चितरूपतया वस्तुन्यवगमात् । न च ' स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इति प्रतिपत्ताविव प्रकृतनिश्चये १- मपु- मां० । २ पृ० ७८ पं० २४ । ३ भावाव्यु -ल० विना । ४-दभ्युप- वृ० ल० वा० बा० । - दप्यभ्यु - आ० । ५- नाशोऽपि वृ० ल० विना । धानात्र स-वा० वा० । परिहारोऽन्यत्र - प्रमेयक० पृ० १५६ ६- धानान्न स बृ० । ७ एकान्तवादिना अनेकान्तवादे समुद्भावितानां विरोधादीनामष्टानां दोषाणां प्र० । स्याद्वादमञ्ज • श्लो० २४ पृ० १९७ आ०। सप्तभङ्गीत० पृ० ८१ । ८- सक्तिरिति उत्प- वा० वा० । ९न्यधिग वृ० ।-न्य विग - वा० बा० । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ प्रथमे काण्डे"सामान्यप्रत्यक्षात् विशेषाप्रत्यक्षात् विशेषस्मृतेश्च संशयः" [ वैशेषिकद० २, २, १७ ] इति निमित्तमस्ति । न च व्यधिकरणतादोपासक्तिरपि घटकपालविनाशोत्पादयोर्मुद्रव्याधिकरणतया प्रतिपत्तेः । न चोभयदोपानुषङ्गः व्यात्मकस्य वस्तुनो जात्यन्तरत्वात् । सङ्करदोषप्रसक्तिरपि नास्ति अनुगतव्यावृत्त्योस्तदात्मके वस्तुनि स्वस्वरूपेणैव प्रतिभासनात् । अनवस्थादोषोऽपि न सम्भवी ५भिन्नोत्पाद-व्यय-ध्रौव्यव्यतिरेकेण तदात्मकस्य वस्तुनोऽध्यक्षे प्रतिभासनात् स्वयमतदात्मकस्यापरयोगेऽपि तदात्मकतानुपपत्तेरन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । तथाप्रतिभासादेव अभावदोषोऽपि न सम्भवी अबाधितप्रतिभासस्य तदभावे अभावात् भावे वा न ततो वस्तुव्यवस्थितिरिति सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः। न च च्यात्मकत्वमन्तरेण घटस्य कपालदर्शनाद् विनाशानुमान सम्भवति तत्र तेषां प्रतिबन्धानवधारणात् नहि तद्विनाशनिमित्तानि तानि मुद्गरादिहेतुत्वात् अभावस्य कारण १०स्वाभावाच्च । यद्यपि घटहेतुकानि तानि तथापि घटसद्भावमेव गमयेयुर्न तदभावम् नहि धूमः पावक हेतुकस्तदभावगमक उपलब्धः। न चाभिन्ननिमित्तजन्यता तयोः प्रतिबन्धः अभावस्याऽकार्यत्वाभ्युपगमात् । नापि तादात्म्यलक्षणः तयोस्तादात्म्यायोगात् । न च घटस्वरूपव्यावृत्तत्वात् तेषां तदभावप्रतिपत्तिजनकत्वम् सकल त्रैलोक्याभावप्रतिपत्तिजनकत्वप्रसक्तेः तेषां ततोऽपि व्यावृत्त. स्वरूपत्वात् । न च घटविनाशरूपत्वात् तेषां नायं दोषः तेषां वस्तुरूपत्वात् विनाशस्य च निःस्व१५भावत्वात् तथा च तादात्म्यविरोधः अन्यथा घटानुपलम्भवत् तेषामपि तदाऽनुपलब्धिर्भवेत् तस्मात् प्रागभावात्मकः सन् घटः प्रध्वंसाभावात्मकतां प्रतिपद्यत इत्यभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा पूर्वोक्तदोषानतिवृत्तिः । सत्त्वलक्षणस्यापि हेतोर्गमकत्वमनेनैव प्रकारेण सम्भवति अन्यथा उत्पत्त्यभावात् स्थित्यभावः तदभावे विनाशस्याप्यभावः असतो विनाशायोगादिति व्यात्मकमेकं वस्त्व. भ्युपगन्तव्यम् अन्यथा तदनुपपत्तेरिति प्राक् प्रदर्शितत्वान्न पुनरुच्यते । यथा चात्मनः परलोकगा२०मित्वम् शरीरमात्रव्यापकत्वं च तथा प्रतिपादितमेव । ननु शरीरमात्रव्यापित्वे तस्य गमनाभावाद् देशान्तरे तहुणोपलब्धिर्न भवेत् , न; तदधिष्ठितशरीरस्य गमनाविरोधात् पुरुषाधिष्ठितदारुयन्त्रवत् । न च मुर्तामृर्तयोर्घटाकाशयोरिव प्रतिवन्धाभावात् मूर्त्तशरीरगमनेऽपि नामूर्तस्यात्मनो गमनमिति वक्तव्यम्, संसारिणस्तस्यैकान्तेनामूर्तत्वासिद्धेस्तत्प्रतिबद्धत्वाभावासिद्धेः॥४६॥ [जल-दुग्धदृष्टान्तेन जीव-कर्मणोरविभागकथनम् ] एतदेवाह अण्णोण्णाणुगयाणं 'इमं व तं व' त्ति विभयणमजुत्तं । जह दुद्ध-पाणियाणं जावंत विसेसपज्जाया ॥ ४७॥ अन्योन्यानुगतयोः परस्परानुप्रविष्टयोः आत्म-कर्मणोः 'इदं वा तद् वा' इति 'इदं कर्म अयमात्मा' इति यद् विभजनं पृथक्करणं तद् अयुक्तम् अघटमानकम् प्रमाणाभावेन ३० कर्तुमशक्यत्वात् । यथा दुग्ध-पानीययोः परस्परप्रदेशानुप्रविष्टयोः । किंपरिमाणोऽयमविभागो जीवकर्मप्रदेशयोः? इत्याह-यावन्तो विशेषपर्यायास्तावान् । अतः परमवस्तुत्वप्रसक्तेः अन्त्यविशेषपर्यन्तत्वात् सर्वविशेषाणाम् 'अन्त्य' इति विशेषणान्यथानुपपत्तेः ॥ ४७ ॥ १ "समानानेकधर्मोपपत्तेर्विप्रतिपत्तरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातश्च विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः"-१, १, २३ न्यायद० पृ. ४५। २-दोषाप्रसक्ति-वा. बा. भां० मा०। ३ यथा वात्म-आ० विना। ४ पृ. ७२ पं० ३ तथा पृ. १३४ पं० ३१। ५-स्तावन्तः पर-भां० मा०। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा । ४५३ [ जीव - कर्मणोरन्योन्यानुप्रवेशेन तदाश्रितज्ञानादि - रूपादीनामपि परस्परानुप्रवेशवर्णनम् ] जीव- कर्मणोरन्योन्यानुप्रवेशे तदाश्रितानामन्योन्यानुप्रवेश इत्याहरूआइपज्जवा जे देहे जीवदवियम्मि सुद्धम्मि । ते अण्णोष्णाणुगया पण्णवणिजा भवत्थम्मि ॥ ४८ ॥ रूप-रस-गन्ध-स्पर्शादयो ये पर्याया देहाश्रिता जीवद्रव्ये विशुद्धस्वरूपे च ये ज्ञाना- ५ दयस्तेऽन्योन्यानुगता जीवे रूपादयो देहे ज्ञानादय इति प्ररूपणीया भवस्थे संसारिणि अकारप्रश्लेषाद् वा असंसारिणि । न च संसारावस्थायां देहात्मनोरन्योन्यानुबन्धात् रूपादिभिस्तद्व्यपदेशः स्थायां तदभावात् नासौ युक्त इति वक्तव्यम्, तदवस्थायामपि देहाद्याश्रितरूपादिग्रहणपरिणतज्ञान- दर्शनपर्यायद्वारेणात्मनस्तथाविधत्वात् तथाव्यपदेशसम्भवात् आत्मपुन्नलयोश्च रूपादि- ज्ञानादीनामन्योन्यानुप्रवेशात् कथञ्चिद् एकत्वम् अनेकत्वं च मूर्त्तत्वम् अमूर्त्तत्वं चाव्यतिरेकात् १० सिद्धमिति ॥ ४८ ॥ [ परस्परानुप्रवेशादात्म-पुद्गलयोः कथंचिदेकत्वस्यानेकत्वस्य चोपपादनम् ] एतदेवाह - एवं "एगे आया एगे दंडे य होइ किरियां य" । करणविसेसेण यतिविजोगसिद्धी वि अविरुद्धा ॥ ४९ ॥ १५ एवं इत्यनन्तरोदितप्रकारेण मनो- वाकू - कायद्रव्याणामात्मन्यनुप्रवेशात् आत्मैव न तयति - रिक्तास्त इति तृतीयाङ्गैकस्थाने "एगे आया" [स्थाना० सू० २ पृ० १०] इति प्रथमसूत्रप्रतिपादितः सिद्धः एक आत्मा एको दण्ड एका क्रियेति भवति मनो- वाक्- कायेषु दण्ड- क्रियाशब्दौ प्रत्येकमभिसम्बन्धनीयौ करणविशेषेण च मनो-वाकू - कायस्वरूपेणात्मन्यनुप्रवेशावाप्तत्रिविधयोगस्वरूपत्वात् त्रिविधयोगसिद्धिरपि आत्मनः अविरुद्वैवेति एकस्य सतस्तस्य त्रिवि . २० धयोगात्मकत्वात् अनेकान्तरूपता व्यवस्थितैव । न चान्योन्यानुप्रवेशात् एकात्मकत्वे बाह्याभ्यन्तरविभागाभाव इति अन्तर्हर्षविषादाद्यनेकविवर्त्तात्मकमेकं चैतन्यम् बहिर्वाल-कुमार-यौवनाद्यनेकास्थैकात्मकमेकं शरीरमध्यक्षतः संवेद्यत इत्यस्य विरोधः बाह्याभ्यन्तरविभागाभावेऽपि निमित्ताम्तरतः तद्व्यपदेशसम्भवात् ॥ ४९ ॥ [ आत्म-पुद्गलयोर्वस्तुतो बाह्याभ्यन्तरविभागाभावेऽप्यभ्यन्तरव्यपदेशस्य मनोनिमित्तकत्वेन २५ समर्थनम् ] एतदेवाह - णय बाहिरओ भावो अभंतरओ य अत्थि समयस्मि । णोइंदियं पुण पहुच होइ अभंतरविसेसो ॥ ५० ॥ ३० आत्म-पुनलयोरन्योन्यानुप्रवेशात् उक्तप्रकारेण अर्हत्प्रणीतशासने न बाह्यो भावः अ-. भ्यन्तरो वा संभवति मूर्त्तामूर्त्तरूपादितयाऽनेकान्तात्मकत्वात् संसारोदरवर्त्तिनः सकलवस्तुनः। ‘अभ्यन्तरः' इति व्यपदेशस्तु नोइन्द्रियं मनः प्रतीत्य तस्यात्मपरिणतिरूपस्य पराप्रत्यक्षत्वात् शरीर - वाचोरिव । न च शरीरात्मावयवयोः परस्परानुप्रवेशात् शरीरादभेदे आत्म १-स्थायां तद्-मां० आ० । २ "एगे आया। एगे दंडे । एगा किरिया " - स्थाना० सू० २-३-४५० १० तथा १३ । ५० स० त० Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ प्रथम काण्डेनोऽपि तद्वत् परप्रत्यक्षताप्रसक्तिः इन्द्रियज्ञानस्याशेषपदार्थस्वरूपग्राहकत्वायोगादित्यस्य प्रतिपा. दयिप्यमाणत्वात् अतः 'शरीरप्रतिबद्धत्वमात्मनो न भवति अमूर्त्तत्वात् अत्र प्रयोगे हेतुरसिद्धः। यदि चात्मपरिणतिरूपमनसः शरीरादात्यन्तिको भेदः स्यात् तद्विकाराऽविकाराभ्यां शरीरस्य तत्त्वं न स्यात तदुपकारापकाराभ्यां वा आत्मनः सुख-दुःखानुभवश्च न भवेत् शरीरविघातकृतश्च ५हिंसकत्वमनुपपन्नं भवेत् शरीरपुष्टयादेः रागाद्युपचयहेतुत्वम् शरीरस्य 'कृशोऽहं स्थूलोऽहम्' इति प्रत्ययविषयत्वं च दूरोत्सारितं भवेत् । पुरुषान्तरशरीरस्येव घटाकाशयोरपि प्रदेशान्योन्यप्रवेशलक्षणो बन्धोऽस्त्येवेत्ययुक्तो दृष्टान्तः अन्यथा घटस्यावस्थितिरेव न भवेत् । न चान्योन्यानुप्रवेश. सद्भावेऽप्याकाशवत शरीरपरतन्त्रता आत्मनोऽनुपपन्ना, मिथ्यात्वादेः पारतन्यनिमित्तस्यात्मनि भावात् आकाशे च तदभावात् । न च शरीरायत्तत्वे सति तस्य मिथ्यात्वादिबन्धहेतुभिर्योगः १० तस्माश्च तत्प्रतिबद्धत्वम् इतीतरेतराश्रयत्वम् अनादित्वाभ्युपगमेनास्य निरस्तत्वात् । न च शरीरसम्बन्धात् प्राग् आत्मनोऽमूर्त्तत्वम् सदा तैजस-कार्मणशरीरसम्बन्धित्वात् संसारावस्थायां तस्य अन्यथा भवान्तरस्थूलशरीरसम्बन्धित्वायोगात् पुद्गलोपष्टम्भव्यतिरेकेणोर्ध्वगतिस्वभावस्यापरदिग्गमनासम्भवात् स्थूलशरीरेणातिसूक्ष्मस्य रज्वादिनेवाकाशस्य सम्बन्धायोगात् संसारिश न्यमन्यथा जगत् स्यादिति संसार्यात्मनः सूक्ष्मशरीरसम्बन्धित्वं सर्वदाभ्युपगन्तव्यम् । १५ अथ शरीरात्मनोस्तादात्म्ये शरीरावयवच्छेदे आत्मावयवस्यापि छेदप्रसक्तिः अच्छेदे तयो भेदप्रसङ्गः, न; कथञ्चित् तच्छेदस्याभ्युपगमात् अन्यथा शरीरात् पृथग्भूतावयवस्य कम्पोपलब्धिर्न भवेत् । न च छिन्नावयवानुप्रविष्टस्य पृथगात्मत्वप्रसक्तिः, तत्रैव पश्चादनुप्रवेशात् छिन्ने हस्तादौ कम्पादितल्लिङ्गादर्शनादियं कल्पना। न चान्यत्र गमनात् तस्य तल्लिङ्गानुपलब्धिः एकत्वादात्मनः शेषस्यापि तेन सह गमनप्रसक्तेः । न चैकत्र सन्ततावनेक आत्मा अनेकज्ञानावसेयानामेकत्रानुभ२० वाधारेऽप्रतिभासप्रसक्तेः शरीरान्तरव्यवस्थितात्मान्तरवत् । न च पृथग्भूतहस्ताद्यवयवस्थितोऽसौ तत्रैव विनष्ट इति कल्पनापि युक्तिसंगता, शेषस्याप्येकत्वेन तद्वद् विनाशप्रसक्तेः ततोऽन्यत्राऽगतेः तत्रासत्त्वात् अविनष्टत्वाश्च तदनुप्रवेशोऽवसीयते गत्यन्तराभावात्। न चैकत्वे आत्मनो विभागाभावाच्छेदाभाव इति वक्तव्यम् , शरीरद्वारेण तस्यापि सविभागत्वात् अन्यथा सावयवशरीरव्यापिता तस्य कथं भवेत् ? न चारभ्यमूर्त्तद्रव्यावच्छिन्नावयवस्य(?) सर्वदैव तेस्य तथाभावः-उत्तरकालमपि २५ तदवयवोपष्टम्भोपलब्धस्यार्थस्य तथैव स्मरणात् अन्यत्वे चैतदर्शनात् । न चासावारभ्यमूर्चद्रव्यवद् घणुकादिप्रक्रमेणावस्थितसंयोगैस्तैरारब्धः येन तद्वत् तस्य तथैव भावप्रसक्तिः । न चानारब्धत्वात् तस्य निरवयवत्वम् शरीरसर्वगतत्वाभावप्रसक्तेः । न च शरीराऽसर्वगतोऽसौ, तत्र सर्वत्रैव स्पर्शोपलम्भात् । न तद्व्यापकस्य तच्छेदे छेदः अतिप्रसङ्गात् । न च तदवयवच्छेदे न छिन्नः तत्र कम्पाद्युपलब्धेः अतस्तत्रैवानुप्रविष्ट एकत्वादिति ज्ञायते । कथं छिन्नाच्छिन्नयोः संघटनं पश्चादिति ३० चेत् ? न; एकान्तेन छेदाभावात् पद्मनालतन्तुवदविच्छेदाभ्युपगमात् संघटनमपि तथाभूतादृष्टवशा. दविरुद्धमेव । न चात्मनः शरीरमात्रव्यापकत्वे अन्यत्र शरीरान्तरसम्बन्धान्यथानुपपत्त्या गतिक्रिया. प्रसक्तेरनित्यत्वप्रसक्तिर्दोषः, कथंचित् तस्येष्टत्वात् गृहान्तर्गतप्रदीपप्रभावत् संकोच-विकाशात्मकत्वेन तस्य न्यायप्राप्तत्वात् । न च देहात्मनोरन्योन्यानबद्धत्वे देहभस्मसाद्भावे आत्मनोऽपि तथा. त्वप्रसक्तिः, क्षीरोदकवत् तयोर्लक्षणमेदतो भेदात् । नहि भिन्नस्वरूपयोरन्योन्यानुप्रवेशे सत्यप्येक३५क्षयेऽपरस्य क्षयः यथा क्वाथ्यमाने क्षीरे प्रथममदकक्षयेऽपि न क्षीरक्षयः। न चेह लक्षणमेदो नास्ति। तथाहि-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शादिधर्मवन्तः पुद्गलाः चेतेनालक्षणश्चात्मेति सिद्धस्तयोर्लक्षणभेदः। यथा चैकान्तामूर्त्तादिरूपत्वे अर्थक्रियादेर्व्यवहारस्याभावस्तथा प्रतिपादितमनेकधेति मूर्त्तामूर्ताद्यनेकान्तात्मकत्वमात्मनोऽभ्युपगन्तव्यम् ॥५०॥ १ यदि वा-वा. बा. आ०। २ तस्या तथा-दा। प्रमेयक० पृ.-१७१ प्र०-पृ. १७६ द्वि० । रक्षाकराव. परि० ७, ५६ पृ. १४९ पं० २४-पृ० १५३ । स्याद्वादमज० श्लो. ९ पृ. ५९-६६ आ० । शास्त्रवा० समु. स्तब० ३ श्लो. ३२ स्याद्वादक० पृ. १११। ३-था वचाप्यमा-मां० ।-था कथ्य-चा. मा० । ४ "पर्श-रस-गन्ध-वर्णवन्तः पुद्रलाः"-तत्त्वार्थ. भ. ५ सू० २७ । ५ "उपयोगो लक्षणम्"तत्वार्य. भ.१००। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमीमांसा | [निरपेक्षयोर्द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिकयोर्मतेन यथा यथा कर्मबन्धस्तत्फलप्ररूपणा भवति तथोपवर्णनम् ] ४५५ अस्य च मिथ्यात्वादिपरिणतिवशोपात्तपुद्गलाङ्गाङ्गिभावलक्षणो वन्धः तद्वशोपनतसुख-दुःखा धनुभवस्वरूपश्च भोगः अनेकान्तात्मकत्वे सत्युपपद्यते अन्यथा तयोरयोग इति प्रतिपादनार्थमाहCoastस इत्यादि । ५ अथवा परस्परसापेक्षद्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिकयोः प्ररूपणा प्रदर्शितन्यायेन सम्भविनी निरपे क्षयोः कथं सा ? इत्याह व्वद्वियस्स आया बंधइ कम्मं फलं च वेएइ । बीयस भावमेत्तं ण कुणइ ण य कोइ वेएइ ॥ ५१ ॥ द्रव्यास्तिकस्येयं प्ररूपणा - आत्मा एकः स्थायी कर्म ज्ञानादिविबन्धकं बघ्नाति १० स्वीकरोति तस्य कर्मणः फलं च कार्यरूपं वेदयते भुङ्क्ते आत्मैव । द्वितीयस्य तु पर्यायार्थिकस्येयं प्ररूपणा - नैवात्मा स्थाय्यस्ति किन्तु भावमात्रं विज्ञानमात्रमिति न करोति न च कश्चिद् वेदयते उत्पत्तिक्षणानन्तरध्वंसिनः कर्तृत्वाऽनुभवितृत्वायोगात् ॥ ५१ ॥ तथेयमपि तयोस्तथाभूतयोः प्ररूपणेत्याह १५ दव्वट्ठियस्स जो चैव कुणइ सो चेव वेयए णियमा । tort करे अण्णो परिभुंजइ पज्जवणयस्स ॥ ५२ ॥ य एव करोति स एव वेदयते नित्यत्वात् द्रव्यास्तिकस्यैतन्मतम् । अन्यः करोत्यन्यश्च भुङ्क्ते क्षणिकत्वात् पर्यायनयस्य । ननु पूर्व गाथोक्तमेव पुनरभिदधता पिष्टपेषणमाचार्येण कृतं भवेत्, नः उत्पत्तिसमनन्तरध्वस्तेन करणम् भोगो वा सम्भवीति प्राक् प्रतिपादितम् इह तु उत्पत्तिक्षण एव कर्त्ता तदनन्तरक्षणश्च भोक्तेति न पुनरुकता। उक्तं च परैः - २० "भूतिर्येषां क्रिया सैव कारकं सैव वोच्यते " [ ] इति ॥ ५२ ॥ [सापेक्षनयद्वयाश्रितानामेव कथंचित्पदाङ्कितानां वचसां स्वसमयप्ररूपणात्वं नान्येषामित्यभिधानम् ] इयमसंयुक्तयोरनयोः स्वसमयप्ररूपणा न भवति या तु स्वसमयप्ररूपणा तामाहजिविया संजुजंतेसु होन्ति एएसु । सा ससमयपण्णवणा तित्थयराऽऽसायणा अण्णा ॥ ५३ ॥ ये वचनीयस्यामिधेयस्य विकल्पास्तत्प्रतिपादका अभिधानभेदाः संयुज्यमानयोरम्योन्यसम्बद्धयोर्भवन्त्यनयोर्द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिकवाक्यनययोः । ते च - 'कथंचिन्नित्य आत्मा कथञ्चिदमूर्त्तः' इत्येवमादयः । सा एषा स्वसमयस्येति तदर्थस्य प्रज्ञापना निदर्शना अन्या तु ३० निरपेक्षयोरनयोरेव नययोर्या प्ररूपणा सा तीर्थकरस्यासादनाऽधिक्षेपः । “एगैमेगेणं जीवस्स २५ १ " क्षणिकाः सर्व संस्कारा अस्थिराणां कुतः क्रिया । भूतिर्येषां क्रिया सैव कारकं सैव चोध्यते " ॥ - बोधिचर्यावता ० प्रज्ञापार पञ्जि० परि० ९ पृ० ३७६ पं० २२, २, २० ब्रह्म० भामती पृ० ५३१ । रत्नाकराव० परि० १-१५ पृ० २९ पं० १४ । स्याद्वादमञ्ज० श्लो० १६ पृ० १३८ पं० ७ आ० । मध्यमकवृ० पृ० ११६ टि० १ । २ प्र० - " एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपएसे णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवइएहिं अविभागपलिच्छेदेहिं आवेढिए परिवेढिए सिया ? उ०- गोयमा ! सिय आवेढियपरिवेढिए सिय नो आवेढियपरिवेढिए । जब आवेढियपरिवेढिए नियमा अनंतेहि” । - भगवती • शत० ८ उद्दे० १० सू० ३५९ । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ प्रथमे काण्डेपएसे अणंतेहिं णाणावरणिजपोग्गलेहिं आवेढियपवेढिए"[ ] इति तीर्थकवचने प्रमा. णोपपन्ने सत्यपि __"नामूर्त मूत्ततामेति मूर्त नायात्यमूर्तताम् । द्रव्यं कालत्रयेऽपीत्थं च्यवते नात्मरूपतः" ॥[ इति। ५ तीर्थक्रम्मतमेवैतन्नयवादनिरपेक्षमिति कैश्चित् प्रतिपादयद्भिस्तस्याधिक्षेपप्रदानात् ॥ ५३॥ [ स्याद्वादशः अधिकारिविशेषे सति निरपेक्षनयद्वयाश्रितान्यपि वासि प्रयुञ्जानो न दोषभागिति प्रथनम्] परस्परनिरपेक्षयोरनयोः प्रज्ञापना तीर्थकरासादना इत्यस्यापवादमाह पुरिसजायं तु पडुच जाणओ पण्णवेज अण्णयरं । परिकम्मणाणिमित्तं दाएही सो विसेस पि ॥५४॥ पुरुषजातं प्रतिपन्नद्रव्यपर्यायान्यतरस्वरूपम् श्रोतारं वा प्रतीत्य आश्रित्य ज्ञक: स्थाद्वादवित् प्रज्ञापयेत् आचक्षीत अन्यतरत् पर्यायम् द्रव्यं वा-अभ्युपेतपर्यायाय द्रव्यमेव, अङ्गीकृतद्रव्याय च पर्यायमेव कथयेत् । किमित्येकमेव कथयेत्? परिकर्मनिमित्तं बुद्धिसंस्का रार्थम् । परिकर्मितमतये दर्शयिष्यत्यसौ स्याद्वादाभिशः विशेषमपि द्रव्य-पर्याययोः पर१५ स्पराविनिर्भागरूपमेकांशविषयविज्ञानस्यान्यथा विपर्ययरूपताप्रसक्तिः स्यात् तदितराभावे तद्विषयस्याप्यभावात् ॥ ५४॥ इति तत्त्वबोधविधायिन्यां सम्मतिटीकायां प्रथमकाण्डम् ॥ १ "परः शङ्कते” इति निर्दिश्य समुद्धृतमिदं पद्यमित्थम्__ “नामूर्त मूर्ततां याति मूर्त नायात्यमूर्तताम् । यतो बन्धाद्यतो न्यायादात्मनोऽसंगतं तया ॥४१॥-शास्त्रवा० समु० स्तब ३ । १सन्मति-बृ० वा. बा।संमति-ल. भा. भा०। ३ प्रथम काण्डं बृ०। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી જિનશાસના જય હો !!! || શ્રી ગૌતમસ્વામીન નમ: || || શ્રી સુધમસ્વિામીને નમ: II ! Tii > રે જિનશાસનના અણગાર, કલિકાલના શણગારા પૂજ્ય ભગવંતો અને જ્ઞાની પંડિતોએ શ્રુતભક્તિથી પ્રેરાઈને વિવિધ હસ્તલિખિત ગ્રંથો પરથી સંશોધન-સંપાદન કરીને અપૂર્વજહેમતથી ઘણાગ્રંથોનું વર્ષો પૂર્વે સર્જનકરેલછે અને પોતાની શક્તિ, સમય અને દ્રવ્યનો સવ્યય કરીને પુણ્યાનુબંધી પુણ્ય ઉપાર્જન કરેલ છે. કાળના પ્રભાવે જીણી અને લુપ્ત થઈ રહેલા અને અલભ્ય બની જતા મુદ્રિત ગ્રંથો પૈકી પૂજ્ય ગુરુદેવોની પ્રેરણા અને આશીર્વાદથી 5//ww2. સ.૨૦૦૫માં 54 ગ્રંથોનો સેટ ની-૧ તથા સ.૨૦૦૬માં 36 ગ્રંથોનો સેટ ની 2 સ્કેન કરાવીને મર્યાદિત નકલ પ્રીન્ટ કરાવી હતી. જેથી આપણો શ્રુતવારસો બીજા અનેક વર્ષો સુધી ટકી રહે અને અભ્યાસુ મહાત્માઓને ઉપયોગી ગ્રંથો સરળતાથી ઉપલબ્ધ થાય. પૂજ્ય સાધુ-સાધ્વીજી ભગવંતોની પ્રેરણાથી જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી તૈયાર કરવામાં આવેલ પુસ્તકોનો સેટ ભિન્ન-ભિન્ના શહેરોમાં આવેલા વિશિષ્ટ ઉત્તમ જ્ઞાનભંડારોની ભેટ મોકલવામાં આવ્યા હતા. આ બધાજપુસ્તકો પૂજ્યગુરુભગવંતોને વિશિષ્ટ અભ્યાસ-સંશોધન માટે ખGUજરુરી છે અને પ્રાયઃ અપ્રાપ્ય છે. અભ્યાસ-સંશોધનાર્થે જરૂરી પુસ્તકો સહેલાઈથી ઉપલબનતીમજ પ્રાચીન મુદ્રિત પુસ્તકોનો ક્યુત વારસો જળવાઇ રહે તે શુભ આશયથી આ ગ્રંથોનો જીર્ણોદ્ધાર કરેલ છે. જુદા જુદા વિષયોના વિશિષ્ટ કક્ષાના પુસ્તકોની જીર્ણોદ્ધાર પૂજ્ય ગુરૂભગવતીની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી અમો કરી રહ્યા છીએ. તો આશાએ તથા સંશોધના માટેવઘુમાં વઘુઉપયોગ કરીને શ્રુતભક્તિના કાર્યને પ્રોત્સાહન આપશો. લી.શાહ બાબુલાલ સરેમલ વોડાવાળાની વેદના મંદિરો જીર્ણ થતાં આજકાલના સોમપુરા દ્વારા પણ ઊભા કરી શકાશે....! પણ એકાદ ગ્રંથ નષ્ટ થતા બીજા કલિકાલસર્વજ્ઞ કે. મહોપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજી ક્યાંથી લાવીશું...???