Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
বীন আনিকা কা ৰূঢ়নিষ্কাষ
(आदिकाल से वर्तमान युग तक)
लेखिका एवं सम्पादिका साध्वी डॉ. प्रतिभाश्री प्राची
प्रकाशक
- सिविल लाइन स्थानकवासी जैन संघ, लुधियाना (पंजाब) . प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.)
For Private & Personal use only
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
समर्पण सुमनाज्ञ्जली
आ. सम्राट पू. श्री आनन्दऋषिजी म.सा.
पू. श्री पार्वतीजी म.सा.
25
श्रीदेवीमहाराज
पू. श्री मोहनदेवीजी म.सा. पू. श्री केसरदेवीजी म.सा.
पू. श्री कोश्लयादेवीजी म.सा.
आ. सम्राट पू. श्री शिवमुनिजी म.सा.
तपस्वीनी माता सुशीलादेवी जै
पू. डॉ. श्री विजयश्रीजी म.सा.
पिताश्री बंसीलालजी जैन
अनंत अनंत जिनेश्वरों को, अनंत निर्बंध गुरुजनों को,
अनंत जिनधर्म को,
जयवंत जिनशासन को
जन्मदाता जनक जननी को
सर्वात्मना सादर समर्पित ।
al Use Only
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
ISBNNo.-13/978-81-910801-0-0
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
(आदिकाल से वर्तमान युग तक)
लेखिका एवं सम्पादिका साध्वी डॉ. प्रतिभाश्री 'प्राची'
मार्गदर्शक डॉ. सागरमल जैन
प्रकाशक
सिविल लाइन स्थानक वासी जैन संघ, लुधियाना (पंजाब)
प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.)
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
• जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय द्वारा पीएच. डी. उपाधि हेतु स्वीकृत शोध प्रबन्ध
• जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
( आदिकाल से वर्तमान युग तक )
सहस्रों जैन श्राविकाओं के अवदान का अंकन करने वाला दुर्लभ ऐतिहासिक शोध ग्रन्थ
• शुभाशीर्वाद : पंजाब प्रवर्तिनी महासाध्वी पू. श्री केसरदेवीजी म.सा.
अध्यात्म - योगिनी महाश्रमणी पू. श्री कौशल्यादेवीजी म.सा.
जैन इतिहास चन्द्रिका पू. महासाध्वी डॉ. श्री विजय श्री जी म.सा. "आर्या”
• लेखिका एवं सम्पादिका: साध्वी डॉ. प्रतिभाश्रीजी " प्राची"
• मार्गदर्शक : डॉ सागरमलजी जैन
• प्रकाशक :
(१) सिविल लाईन स्थानक वासी जैन संघ, लुधियाना (पंजाब) प्राध्य विद्यापीठ, दुपाड़ा रोड, शाजापुर (म. प्र. )
• प्राप्ति स्थल :
(१) आरती समाधिया, १४/३, फोर्थ क्लास, लक्ष्मी रोड़, शांतिनगर, बैंगलोर - ५६००२७ मो. ६४४८४ -७८२२३ अशोक जैन, शीतल छाया, ५५६/२, आत्म मार्ग, सिविल लाईन्स, लुधियाना (पंजाब) मो. ६८७२६ - ५६५०६ दिलीप जैन, ३६७३/७४, मेन बाजार, दिल्ली- ११०००६ मो. ९८११२-०५५४५
सी.बी. गांधी, घनश्री अर्पाटमेन्ट, १२४४/४५, आप्टे रोड़,
आप्टे सभार्गह के पास, डेक्कन जीम खाना, पुणे - ४११००४ मो. ९८८११ - २३५०१
(५) प्राच्य विद्यापीठ, दुपाड़ा रोड, शाजापुर (म.प्र.) ४५६००१
दूरभाष : ०७३६४-२२२२१८
• प्रसंग : साध्वी डॉ. प्रतिभाश्रीजी म.सा. "प्राची" की दीक्षा - रजत जयन्ती वर्ष अक्षय तृतीया सन् २०१०
• प्रथम संस्करण ई. २०१०
वीर निर्वाण संवत् २५३६
विक्रम संवत् २०६७
• मूल्य: ५५०/
• मुद्रक :
आकृति ऑफसेट
५, नईपेठ, उज्जैन (म. प्र. )
दूरभाष : ०७३४-२५६१७२०
मोबाइल : ६६३००- ७७७८०, ६८६३०-७७७८३
भूल-सुधार
'
C
प्रस्तुत ग्रन्थ में तकनीकि कारणों से ऋ की मात्रा नहीं आ सकी है अतः मृगावती के स्थान पर मगावती एवं इसी प्रकार अन्य भूलें भी रह गई है कृपया पाठक सुधार कर पढे । भूल के लिए हम क्षमाप्रार्थी है।
- सम्पादक
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
समर्पण सुमनाज्ञ्जली
अनंत अनंत जिनेश्वरों को, अनंत निर्बंध गुरुजनों को,
अनंत जिनधर्म को,
जयवंत जिनशासन को
जन्मदाता जनक जननी को
सर्वात्मना सादर समर्पित /
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओ का बृहद् इतिहास
आचार्य श्री शिव मुनिजी का शुभाशीष
चतुर्विध श्री संघ में चारों तीर्थों का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। भगवान् महावीर के शासन में चतुर्विध संघ को बराबर का महत्त्व दिया गया है। साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ भगवान् की वाणी का अनुकरण करते हुए अपनी आत्म साधना तथा जिनशासन की प्रभावना में सतत प्रयत्नशील रहते हैं। ___महासाध्वी श्री प्रतिभाश्री जी महाराज "प्राची" ने "चतुर्विध जैन संघ में श्राविकाओं का योगदान” नामक शोध ग्रन्थ तैयार किया है। उनका यह प्रयास हमें दर्शाता है कि जिन शासन में कहीं कोई भेदभाव नहीं है। श्राविकाओं के योगदान और उनके द्वारा किये गये कार्यों का उल्लेख, नारी का मनोबल, विपत्तियों में सहनशीलता, समाजोत्थान और शिक्षा में जो योगदान श्राविकाओं ने दिया है, उसे समाज के समक्ष प्रस्तुत किया है. यह एक ऐतिहासिक कार्य
इतिहास अतीत का दर्पण होता है। वर्तमान इतिहास से प्रेरणा लेता है कि हम किस प्रकार अपने भविष्य को सुन्दर बना सकते हैं। अपने गौरवमय इतिहास को पढ़कर प्रत्येक व्यक्ति का सर ऊँचा उठता है। उससे प्रेरणा ले कर स्वयं भी अपने जीवन को उन्नत करता है।
जिनशासन में तीर्थंकर की माता को रत्नकुक्षी कहा जाता है। जो माता तीर्थंकर को जन्म देती है, उसका आदर मान और उसकी कुक्षी को नमस्कार किया जाता है। भगवान् महावीर की माता त्रिशला भी एक श्राविका थी। ऐसी ही अनेक श्राविकाएँ-धर्म का पालन करते हुए संयम मार्ग की ओर बढ़ीं। अनेक श्राविकाओं ने इतिहास में विशिष्ट कार्य किये हैं, जैसे साधना के लिये गुफाओं का निर्माण कराना, शिक्षण संस्थाओं का निर्माण करना, महिलाओं को शिक्षित करने का प्रयास करना आदि। ऐसे अनेक कार्य हैं जो पहले भी हुए हैं, वर्तमान में चल रहे हैं और भविष्य में भी चलते रहेंगे। यह शोध ग्रन्थ सबके लिये एक प्रेरणादायी शिलालेख बन जाए, जिसे पढ़कर हमारा समाज अपने भविष्य को उज्ज्वल करे, यही हार्दिक मंगल मनीषा है।
- एस.एस. जैन सभा जैन स्थानक, शिवपुरी
लुधियाना- पंजाब दिनांक : २५ दिसम्बर २००८
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
आचार्य श्री रत्नाकर सूरीश्वरजी म.सा. का शुभ - सन्देश
आर्य एवं अनार्य का प्रमाण संस्कारों पर आधारित है। भारत भूमि को आर्य देश माना गया है। जिसके पास संस्कारों का संस्करण, संस्कारों की पूंजी है, वह नारी नारायणी है। संस्कारों का वैभव न होने से वह नारी नागिन का स्वरूप धारण करती है ।
इस पुस्तक के अन्तर्गत भगवान् के शासन में होने वाली संस्कारों से अलंकृत श्राविका का परिचय दिया है, उसे पढ़कर अपने जीवन में आर्यत्व की खुमारी लाकर सुश्राविका के स्तर तक पहुँचते-पहुँचते, भावों में सर्व विरति स्वीकार करके आत्मोन्नति करें। इसी शुभाभिलाषा के साथ,
रत्नाकर सूरि
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
अनुशंसा
भारतीय संस्कृति का वैचारिक वैभव विश्व में सर्वाधिक समीचीन एवं तर्कसंगत है। जैन, बौद्ध व वैदिक - तीनों प्रमुख परम्पराओं के दर्शन तथा सिद्धान्त से परिपूर्ण ग्रन्थ सार्वजनीन वर्गीकरण व सामाजिक संविधान को प्रतिपादित करने में सक्षम व मान्य रहे हैं। अनेकानेक आगम, वेद, पुराण, विविध ग्रन्थ तथा विशाल पुस्तकालयों की आगम ज्ञान सरिता में अवगाहन करने के पश्चात् विदुषी साध्वी श्री प्रतिभाश्री जी " प्राची" ने चतुर्विध जैन संघ में श्राविकाओं का योगदान " अनुपम शोध प्रबन्ध अत्यन्त कुशलतापूर्वक तैयार कर यह प्रमाणित कर दिया है कि श्राविका (नारी) जहाँ एक ओर आचरण, सहनशीलता, त्याग, तपस्या, प्रेम, करुणा, उपकार, कृतज्ञता, साहस, सेवा, एवं श्रद्धा आदि गुणों से प्राकृतिक रूपेण सम्पन्न है, वहीं वह धर्म व शासन की प्रमुख धुरी भी है।
अज्ञानतिमिरतरणि, महान शिक्षाशास्त्री जैनाचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी म.सा. ने पचास वर्ष तक अपने विविध प्रवचनों के माध्यम से श्रमणी एवं श्राविका वर्ग के उत्थान व प्रतिष्ठा के सरलतम प्रयास किए थे। "प्राचीजी" का यह अद्भुत शोध ग्रन्थ जैन ही नहीं अपितु समग्र मानव जाति के लिए नारी की अन्तश्चेतना को आधिभौतिक से उठाकर आध्यात्मिक स्तर पर प्रतिष्ठित करने का सफल व प्रशंसनीय प्रयास कहा जाएगा। मैं जैन इतिवृत्त के एक महत्वपूर्ण खण्ड को नवीन आयाम प्रदान करने वाले इस सुकृत्य की भूरि-भूरि प्रशंसा व अनुमोदना करता हूँ।
वेजय नित्यानन्द सूरि रूप नगर, दिल्ली - ७
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
अभिमत
महासती श्री प्रतिभाश्रीजी म. प्राची ने अपने शोध का विषय "चतुर्विध जैनसंघ में श्राविकाओं का योगदान" स्वीकार करके पाठकों को नारीशक्ति के मूल तक ले जाने का प्रयत्न किया है। नारी जगत के मूल में, सृष्टि ऊर्जा के रूप में परिव्याप्त है, उस नारी ऊर्जा का पूर्ण विकसित स्वरूप है- "श्राविका" | नारी जगत की पूर्ण परिष्कृत अवस्था विशेष का सम्माननीय सम्बोधन है- "श्राविका"। "चतुर्विध जैन संघ में श्राविकाओं का योगदान" जितना बृहद विषय है उसे शब्दों में बाँधना उतना ही कठिन है, जैसे "सागर को बूंद" में सीमित करना। जिसे जगत जननी कहकर महिमा दी जाती है, जगत का अस्तित्व ही जिस पर हुआ है, वह नारी शक्ति सृष्टि के कण कण में व्याप्त है। नारी शक्ति को शब्दों की सीमा में बाँधने का प्रयत्न करना दुस्साहस ही कहा जा सकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शोधकर्ता वैज्ञानिक होता है, उसकी सोच सूक्ष्म होकर चलती है। एक वैज्ञानिक दिमाग यह अच्छी तरह समझता है कि बूंद और सागर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उसकी सूक्ष्म दृष्टि में बूंद और सागर में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। वह बूंद में सागर को देख सकता है एवं सागर में "बूंद" को। यही दृष्टि अध्यात्म की ओर मुड़ जाती है, तो आत्मा में परमात्मा को एवं परमात्मा में आत्मा को देखने, अनुभव करने की क्षमता पैदा हो जाती है। अज्ञान की सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं और वह स्वयं ज्ञानरूप रह जाता है। ज्ञाता और ज्ञेय का भेद तक मिट जाता है। नारीशक्ति का महत्त्व :
इस जगत में जो महत्त्व नर का है, वही महत्त्व नारी का है। पुरूष और नारी परस्पर सहयोगी सम्बन्ध हैं फिर भी पुरूष का महत्त्व अधिक माना जाता है। पुरूष कहीं अभिमान के कारण, अन्याय, अत्याचार और पाशविकता के कारण अपना पौरूष सिद्ध करने के लिये पुरूष-प्रधान संस्कृति का निर्माता बना रहा। इसके लिये नारी पर अत्याचार, अनाचार तक करता रहा। नारी के प्राकृति अधिकारों को छीन कर अपनी महत्ता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहा जबकि नारी जाति अपनी पहचान को तिलांजलि देकर नर के प्रत्येक कार्य में सहचारिणी बनी रही। हर स्थान पर, हर मोड़ पर अपने आपको गुप्त रखकर नर के महत्त्व को उजागर करती रही। उसकी महानता को स्वीकार करने में पीछे नहीं रही। नारी के इसी बलिदान ने ही उसे ऊँचा उठाया है। यही कारण है कि नर को शक्ति के रूप में, विधा के रूप में, साधनों के रूप में नारी का वर्चस्व स्वीकार करना पड़ा है। यही कारण है कि महाशक्ति के रूप में, महासरस्वती के रूप में, महालक्ष्मी के रूप में आज नारी को पूजा जाता है और नारी को नर से आगे रखा जाता है। शोधग्रन्थ साधिका महासती श्री प्रतिभा श्रीजी ने "चतुर्विध जैन संघ में श्राविकाओं का योगदान” विषय लेकर पाठकों को यथार्थ की ओर मोड़ने का प्रयत्न किया है।
धार्मिक जगत में नारी का योगदान इतना अधिक रहा है कि नर इसकी बराबरी कभी नहीं कर सकता क्योंकि नर स्वभावतः कठोर होने के कारण कठोर कर्मों (पापकर्मों) की ओर प्रवाहित हो जाता है। कठोर स्वभाव वाला. कठोर कर्मों में ही रस लेने लग जाता है। जबकि नारी तन मन से कोमल, सरल, विनम्र, लज्जाशील और करूणाशील होती है, प्रेम और वात्सल्य की प्रतिमूर्ति होती है अतः आध्यात्मिक वृत्तियों में सहज ही प्रवेश कर जाती है।
आध्यात्मिकता में दया, करूणा, लज्जा, सहनशीलता का स्वाभाविक महत्त्व रहता है। इन भावों को प्राप्त करने के लिये नारी जाति को विशेष प्रयत्न की आवश्यकता ही नहीं होती है। वह स्वभावतः धर्मात्मा होती है या
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
है कि धार्मिक जगत् में नारी का योगदान नर की अपेक्षा बहुत अधिक है। उसे हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं, अनुभव कर सकते हैं । महासागर को गागर में भरने का प्रयत्न :
चतुर्विध धर्म संघ में श्राविकाओं का योगदान इतना बृहद् विषय है जिसकी कल्पना कर पाना कठिन है। जैन धर्म संघ श्री आदिनाथ भगवान् के समय से चला आ रहा है। ऐतिहासिक काल ही बड़ा विराट् है उसमें करोड़ों श्राविकाएँ धर्म संघ में अविस्मरणीय योगदान दे चुकी हैं। प्रागैतिहासिक काल में संख्यातीत श्राविकाएँ समाज को अकल्पनीय योगदान प्रदान कर चुकी हैं । इतने विराट् श्राविका रत्नों, नारी रत्नों के सागर को एक पुस्तिका में समेटने का प्रयास वास्तव में हम सबके लिये प्रेरणाप्रद
है ।
अपने शोध विषय को सार्थक करने के लिये अभिलेखीय साक्ष्यों को जुटाने के लिये जो प्रयत्न हुआ है, उससे साध्वीजी की कर्मठता प्रत्यक्ष झलकती है। जैन साहित्य जगत साध्वीजी के लिए सदियों सदियों तक आभारी रहेगा। उनके अनुग्रह से अनुगृहीत रहेगा ।
परिचय देने की अनुत्कण्ठा :
भारतीय साहित्यकारों, कवियों, काव्यकारों, महान् लेखकों, समाज सेवकों के सम्बन्ध में जब भी कुछ जानने का प्रयत्न किया जाता है, तो उनका परिचय मिलता ही नहीं है। जितने भी ऐतिहासिक युग के कवि, लेखक, साहित्यकार, मूर्तिकार, विद्वान आदि हुए हैं, उनका परिचय विवादास्पद रूप से उपलब्ध होता है। कहीं-कहीं लिखे गये के आधार पर ही हमें उनका परिचय भिन्न-भिन्न किंवदन्तियों से जोड़कर तैयार करना पड़ता है। उसमें भी नारी जाति ने तो जो कुछ भी किया है, वह सब बेनाम, बिना परिचय के ही किया है। उन्होंने अविस्मरणीय सेवा कार्यों को बिना नाम के किया है, पर्दे के पीछे रहकर किया है तथा नींव का पत्थर बन करके किया है। ऐसी स्थिति में श्राविकाओं का इतिहास खोजने का प्रयत्न करना उनके ऐतिहासिक तथ्यों को जोड़ने का प्रयत्न करना अपने आपमे बड़ा ही दुरूह कार्य है जिसे साध्वी प्रतिभाश्रीजी म.सा. ने सहज रूप में ही कर दिखाया है।
जिन-जिन ऐतिहासिक रत्नों को सागर की तलहटी में जा जाकर के निकाल लाने का प्रयत्न हुआ है, वह सराहनीय है। इस ग्रन्थ में ऐसे-ऐसे प्रसंग आए हैं, जिन्हें पढ़कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं, दिल-दिमाग आश्चर्य से भर उठता है। हर पल प्रशंसा करते रहने की भावना बनी रहती है।
शोधग्रन्थ को सुन्दर, उपयोगी एवं आकर्षक बनाने का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है। शोधार्थी ने उस सम्पूर्ण कालखण्डको सात भागों में बाँट करके एक-एक खण्ड को एक-एक अध्ययन के रूप में प्रस्तुतीकरण देकर इस ऐतिहासिक दस्तावेज को बड़ा उपयोगी बना दिया है। इस विषय पर तथा सम्बन्धित विषयों पर कार्य करने वाले शोधार्थियों के लिये यह शोधग्रन्थ बड़ा ही सुखद एवं सर्वथा उपयोगी सिद्ध होगा ।
भारतीय इतिहास में "चतुर्विध जैन संघ में श्राविकाओं का योगदान " मील के पत्थर का काम करेगा। इससे और कुछ-न-कुछ कर गुजरने की भावना प्रबल हो जायेगी। इस प्रकार अच्छे साहित्य से ज्ञानवृद्धि भी होती है, साथ-ही-साथ पाठकों को नयी-नयी प्रेरणाएँ भी मिलती रहती हैं।
नारी समाज में " श्राविका का स्थान स्वभावतः ऊँचा होता है। जो स्त्री से ऊपर उठ जाती है, स्वपर कल्याण की भावना में लग जाती है उनके विशेष चार्सिक गुणों का विकास हो जाता है। जब धर्म, श्रद्धा एवं धर्माचरण की वृत्ति बढ़ने लगती है तब नारी श्राविका के सम्मान को प्राप्त क ती है। ऐसी श्राविकाएँ अनेक विध समाज सेवा की भावना से ओत-प्रोत होती हैं। समाज के ऐसे छिपे हुए रत्नों को उजागर करूं का अतिकठिन कार्य है- "चतुर्विध धर्म संघ में श्राविकाओं का योगदान" शोध प्रबन्ध । महासती "प्राची" ने ऐसे विषय को उजाग करने का प्रयत्न किया है। समय की मोटी परत के नीचे दबी हुई नारी-रत्नों को उजागर करके सामाजिक समृद्धि बढ़ाया है। इसके लिये शोधार्थी का हार्दिक हार्दिक अभिनन्दन ।
पू. डॉ. विशालमुनि जी म.सा.
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
मंगल-मनीषा
भारतीय संस्कृति के सुमेरू शृंग पर स्वर्ण लेख से उटुंकित जैन संस्कृति विश्व की एक अनन्यतम संस्कृति है जिसके अध्यात्म का अनहद नाद जिनवाणी के तारों पर बजा करता है। यहाँ पुरूषों के समकक्ष स्त्रियों ने भी तप, त्याग, वैराग्य, भक्ति, प्रेम से अनुरंजित रहकर विश्व मंगल और लोक कल्याण हितार्थ उल्लेखनीय योगदान दिया है। जीवन को नया मोड़ देने वाली, अन्धकार में प्रकाश की किरण बनकर चमकने वाली, भयंकर अपवाद, विवाद और प्रमाद के प्रसंगों में जीवन को स्फूर्ति, शाक्ति व प्रसन्नता देने वाली जगज्जननी महिमामयी नारी प्रकृति का एक अनुपम वरदान ही है। नारी के सम्बन्ध में आचार्य देवेन्द्र मुनिजी म.सा. ने बड़ा सुन्दर व सटीक चित्रण किया है
नारी की जीवन गाथा बड़ी विचित्र रही है। कभी इसने अपनी वीरता से संसार को नतमस्तक किया, कभी अपने पुरूषार्थ से असम्भव को सम्भव किया। समय के परिवर्तन के साथ नारी की अवस्थाएँ भी बदलती हैं। कभी वे माता के रूप में पूजी गई, तो कभी विषय-वासना की पुतली बनी। रीतिकाल में वह रति के समान काम्या बनीं और भोग्या के रूप में कामातुरों के लिये प्रेयसी कहलाई । यद्यपि तीर्थंकरों की माताएँ प्रणम्य हैं, आराध्या हैं, आदर्शवाद की प्रतीक हैं, फिर भी सामान्य नारी के लिये कथाकारों ने कई ऐसे प्रंसग उपस्थित किये हैं, जो उसकी गरिमा के लिये उपयुक्त नहीं कहे जा सकते। यह सब होते हुए भी नारी ने जिस धैर्य से अपने शील को सुरक्षित रखा है, वह चिरस्मरणीय है, चिरवन्दनीय है तथा युगों-युगों तक कालजयी होने के कारण अमर है।
भगवती ब्राह्मी, वैराग्यमूर्ति सुन्दरी, धैर्य की देवी दमयंती, महासती सीता, राजमती, प्रभावती, मृगावती, चन्दनबाला, सुभद्रा, अंजना, मदनरेखा, चेलना, आदि क्या कभी भुलाई जा सकती हैं? कभी नहीं। उनकी उदारता, दया, क्षमा, सरलता, सत्य, समर्पण, श्रम, दान, लज्जा, मर्यादा, विनय, कला, मैत्री, शील, स्वाभिमान, संकल्प, बलिदान, साहस, त्याग, कर्तव्यनिष्ठा, दृढ़ता, संयम, सन्तोष, अहिंसा आदि गुण सृष्टि में सदा चिरंतन रूप से जीवित रहेंगें।
विदुषी महासती श्री प्रतिभाश्री ने इस ग्रन्थ के प्रणयन में अपनी व्यापक दृष्टि और गहन अध्ययन का परिचय दिया है। इतिहास ग्रन्थमाला में भूमिका रूप में सभी धर्मो की नारियों के साथ जैनधर्म की नारियों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है, तत्पश्चात् ऋषभदेव के समय से लेकर चौबीसवें तीर्थकर भगवान् महावीर तक के समय की नारियों के योगदान इतिहास ग्रन्थ में समाविष्ट किया है। इतना ही नहीं. आधनिककाल की जैन नारियों का उज्ज्वल इतिहास के सुनहले पृष्ठ भी साथ-ही-साथ खुलते से नजर आते हैं।
प्रस्तुत वर्ण्य विषय ऐसे हैं, जिन पर स्वतन्त्र रूप से कई शोध ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ शोध अध्येताओं के लिये मार्गदर्शक का काम भी करता है। इसमें जैन धर्म की प्राचीन संस्कृति एवं कला की सामग्री भी संकलित है।
Sesce
ARROR00868806ARE
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
नारियाँ निर्लिप्त भाव से प्रचार-प्रसार किये बिना, स्व पर कल्याण के लिए अग्रसर रहीं हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में नारियों का इतिहास लेखन करना, दुरूह और दुष्कर कार्य है। अलग-अलग ग्रन्थों में, पन्नों में, मूर्ति व शिलालेखों में बिखरे साक्ष्यों को लिपिबद्ध कर क्रम से प्रस्तुत करना यद्यपि कठिन है लेकिन ऐतिहासिक ग्रन्थ में तथ्यों का पूर्ण प्रामाणिकता से आकलन करना भी जरूरी है। सन्दर्भ ग्रन्थों के अभाव में कार्य सम्पन्न करना कठिन होता है तथापि साध्वी प्रतिभा श्री जी ने ज्ञात-अज्ञात स्रोतों के आधार पर अधिकांश प्रमुख-प्रमुख नारियों के व्यक्तित्व और कृतित्व का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है, जो अद्यावधि नहीं हुआ। वस्तुतः यह अत्यन्त श्रम साध्य कार्य है। विषय का संचयन एवं संग्रहण क फो श्रम के साथ उदार दृष्टि से किया गया है। ग्रन्थ की भाषा सरल, सरस व धाराप्रवाह है। सुधी पाठकों को इस ग्रन्थ में श्राविकाओं से सम्बन्धित अनेकानेक नूतन व अदृश्य जानकारियाँ प्राप्त होंगी, ऐसा मुझे पूर्णतः विश्वास है। महासतीजी आगे भी अपनी ज्ञान-गरिमा के साथ ज्ञान-सम्पदा को साहित्य-गगन में विकीर्ण करती रहें। इसी मंगल मनीषा के साथ।
- श्रमणी डॉ. विजयश्री "आर्या'
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
| एक महत्वपूर्ण शोध कार्य
जैन धर्म निवृत्ति प्रधान होते हुए भी संघीय साधना का धर्म है। उसमें संघीय साधना ही मुक्ति का सरलतम साधन है। वह भीड़ में रहकर भी एकाकी रहना सिखाता है। जैन धर्म में संघ के चार पाए माने गए है- १) साधु, २) साध्वी, ३) श्रावक और ४) श्राविका । इस चतुर्विध संघ को भगवती सूत्र में तीर्थ कहा गया है। तीर्थ उसे कहते है जो व्यक्ति को संसार रूपी समुद्र से पार कराता है। इस प्रकार संघीय साधना के अंग के रूप में यह चतुर्विध संघ की अवधारणा अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतीत होती है। मूलभूत आगम-साहित्य में यद्यपि मुनि-आचार का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है किन्तु उनमें साधु और साध्वी दोनों के ही आचार का वर्णन है। श्रावक-आचार से सम्बन्धित वर्णन मात्र उपासक दशांग सूत्र में मिलता है। जिसमें इन प्रमुख दस श्रावकों के साथ-साथ इनकी कुछ पत्नियों के द्वारा जैन धर्म की साधना करने का उल्लेख है। इस प्रकार आगम युग से ही जैन संघ में श्राविकाओं का महत्वपूर्ण स्थान रहा है, फिर भी श्राविकाओं के सन्दर्भ में स्वतन्त्र और विस्तृत विवेचन का प्रायः अभाव ही देखा जाता है। यद्यपि भगवती सूत्र में जयन्ती आदि कुछ श्राविकाओं का उल्लेख है जो भगवान महावीर से भी धर्म चर्चा करते हुए देखी जाती हैं। इस प्रकार यदि हम कहें कि चतुर्विध संघ में श्राविकाओं का एक महत्वपूर्ण स्थान होते हुए भी उनका चरित्र-चित्रण एवं उनके अवदान का मूल्यांकन कम ही हुआ है। ____शोध-कार्यों की अपेक्षा से भी यदि हम विचार करे तो श्राविकाओं के अवदान को लेकर एक-दो शोध कार्यों को छोड़कर प्रायः इसका अभाव ही देखा जाता है। केवल एक के ग्रन्थ 'जैन धर्म की साध्वियों और महिलाएँ' को छोड़कर मुझे ऐसा एक भी शोध-ग्रन्थ देखने को नहीं मिला, जिसमें श्राविकाओं के जैन धर्म के क्षेत्र में दिए गए अवदानों की चर्चा हुई हो। इसी दृष्टि से साध्वी विजय श्रीजी ने जब जैन श्रमणियों पर व्यापक दृष्टि से शोध कार्य करने का निर्णय किया तो मैंने उनके नेश्रायवर्तिनी साध्वी प्रतिभाजी को 'जैन धर्म में श्राविकाओं का अवदान' विषय पर शोध-कार्य करने का निर्देश दिया। जिस प्रकार साध्वी विजयाश्रीजी ने विभिन्न ऐतिहासिक स्त्रोतों के आधार पर हजारों जैन श्रमणियों की जैन धर्म में उपस्थिति का संकेत किया उसी प्रकार साध्वी प्रतिभाजी ने भी भगवान ऋषभदेव के काल से लेकर वर्तमान युग तक की श्राविकाओं की चर्चा अपने शोध प्रबन्ध में की है। मेरी यह हार्दिक अभिलाषा थी कि जिस प्रकार पूज्या साध्वी विजयाश्रीजी के वृहकाय शोध-प्रबन्ध का प्रकाशन हुआ उसी प्रकार साध्वी प्रतिभा श्रीजी के भी शोध-प्रबन्ध का प्रकाशन हो। इस शोध-कार्य में जहाँ एक ओर साहित्यिक आधार के रूप में आगमों से लेकर वर्तमान युग तक के ग्रन्थों का सहयोग लिया गया वहीं दूसरी ओर पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण जो भी अभिलेख उपलब्ध हो पाए उनका तथा प्रतिष्ठा-लेखों का भी उपयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त हस्तलिखित पुस्तिकाओं के आधार पर भी श्राविकाओं के इतिहास का संकलन किया गया। संकलनात्मक होते हुए भी यह शोध की दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण कार्य था जिसमें लगभग पाँच हजार से अधिक श्राविकाओं के अवदान का उल्लेख हुआ है। ऐसे श्रमपूर्ण एवं इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण कार्य के लिए साध्वीजी निश्चय ही बधाई की पात्र है।
मेरा ऐसा विश्वास है कि इस ग्रन्थ का अध्ययन करके ही जन-सामान्य उनके अविरल श्रम और योगदान को समझ सकेगा। अपेक्षा है कि यह ग्रन्थ जैन समुदाय में लोकप्रिय बनेगा और नारी-जगत के मस्तक को गर्व से ऊँचा करने में सहायक भी बनेगा। सम्भवतः श्राविका-संघ के अवदान को समझाने में इस ग्रन्थ की भूमिका न केवल वर्तमान में अपितु भविष्य में भी महत्वपूर्ण बनी रहेगी। मैं साध्वी प्रतिभाजी से यह अपेक्षा करता हूँ कि वे इस शोध कार्य को अपनी साहित्यिक साधना की इतिश्री न मानकर भविष्य में भी उत्तरोत्तर सद्ग्रन्थों का प्रणयन करते हुए जैन संघ को उपकृत करते रहें।
- डॉ. सागरमल जैन
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
अभिमत
3888888888
अनुसन्धात्री साध्वी प्रतिभाश्री जी 'प्राची' द्वारा जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं के जैन विद्या और तुलनात्मक धर्म-दर्शन विभाग में पी-एच.डी. की उपाधि हेतु प्रस्तुत "चतुर्विध जैन संघ में श्राविकाओं का योगदान” विषयक शोध प्रबन्ध का अवलोकन करने के अनन्तर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि शोध प्रबन्ध पी-एच.डी. की उपाधि प्रदान किए जाने के लिए सर्वथा उपयुक्त है।
साध्वी प्रतिभाश्री ने शोधप्रबन्ध के माध्यम से एक महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पादित किया है। शोधकार्यों को उन्होंने अध्यायों में प्रस्तुत किया है। प्रागैतिहासिक काल से लेकर आधुनिक काल तक की प्रमुख श्राविकाओं के सम्बन्ध में जानकारी एकत्रित करना एक कठिन कार्य था, जिसे साध्वीजी ने श्रमपूर्वक सम्पन्न किया है। अपने कार्य को पूर्ण करने हेतु उन्होंने आगम-साहित्य, आगमिक व्याख्या-साहित्य, चरित एवं कथा काव्यों, पुराण, वाङमय, प्रबन्ध साहित्य, ऐतिहासिक ग्रन्थों, शिलालेखों, ग्रन्थ प्रशस्तियों एवं पुरातात्विक साक्ष्यों को आधार बनाया है। कहीं अनुश्रुति को भी स्थान दिया है।
शोध प्रबन्ध का प्रथम अध्याय विस्तृत है, जिसमें वैदिक काल से पौराणिककाल तक भारतीय नारियों की संक्षिप्त चर्चा करने के अनन्तर बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म में नारी के महत्व का प्रतिपादन किया गया है। इसी अध्याय में श्राविका के आचार एवं बारह व्रतों का संक्षेप में निरूपण करने के साथ उन स्त्रोतों का भी उल्लेख किया गया है जिनके आधार पर शोधकार्य सम्पन्न किया गया। यह अध्याय भारतीय परम्परा में संक्षेप में नारी का चित्रण करने के साथ-साथ जैन परम्परा में श्राविका के रूप में उसके स्वरूप का भी निर्धारण करता है। इस अध्याय का चित्रखण्ड अभिलेखीय एवं स्थापत्य साक्ष्यों का भण्डार है जिसमें पृष्ठ ५० से पृष्ठ १०८ तक अनेक चित्र संयोजित हैं, जिनमें खारवेल की रानी सिंघुला के योगदान से लेकर, कंकाली टीला मथुरा, देवगढ़ की कला, मन्दिरों के स्तम्भों पर श्राविकाओं के चित्र दिए गए हैं। ई. सन् १०वीं शती की जैन श्राविका गुलिकायज्जिका का चित्र मैसूर से प्राप्त हुआ है। ताड़पत्र पर चित्रित श्राविकाओं तथा श्राविकाओं द्वारा निर्मित पट्टिकाओं के चित्र दिए गए हैं। मुगलकालीन कला पर जैन श्राविकाओं के प्रभाव को प्रदर्शित किया गया है। चित्र खण्ड से यह अध्याय एवं शोध प्रभावी बन गया है।
तृतीय अध्याय में प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव जी से लेकर बाईसवें तीर्थकर श्री अरिष्टनेमि जी के काल में हुई। श्राविकाओं की संख्या एवं प्रमुख श्राविकाओं का परिचय दिया गया है। अनुसन्धात्री अपने कार्य में प्रामाणिक स्त्रोतों एवं अनुश्रुतियों में अन्तर करते समय सावधान है। इस अध्याय में विभिन्न स्त्रोतों से २२ तीर्थंकरों के काल की ३२८ श्राविकाओं का परिचय निबद्ध किया गया है, जो महत्त्वपूर्ण है।
BR888888888888888880
8888888888888
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
चतुर्थ अध्याय में तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ जी एवं तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी के काल की श्राविकाओं की संख्या एवं प्रमुख श्राविकाओं का परिचय दिया गया है। इस अध्याय में १३० श्राविकाओं का परिचय देने के साथ तीर्थंकर महावीर स्वामी के काल में नारी जाति के क्रान्तिकारी परिवर्तन की चर्चा भी की गई है।
पंचम अध्याय में महावीरोत्तरकालीन ४१ श्राविकाओं का परिचय दिया गया है जो ई.पू. तीसरी शती से ई.पू. सातवीं शती की है। इस अध्याय के लेखन में मात्र साहित्यिक स्त्रोत ही नहीं वरन् अभिलेखीय एवं पुरातात्विक आधारों को भी स्थान दिया गया है। यह अपने आप में श्राविकाओं के योगदान का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है।
षष्ठ अध्याय में ८वीं से १५र्वी शती की जैन श्राविकाओं का परिचय दिए जाने के साथ-साथ उनके द्वारा जैन धर्म को प्रदत्त अवदान की भी चर्चा है। यह काल आचार्य हरिभद्र से प्रारम्भ होकर अकबर प्रतिबोधक आचार्य हीरविजयसूरि आदि जैन आचार्यों तक का काल है। इसी काल में श्राविकाओं के द्वारा कलापूर्ण मन्दिरों, साहित्य के संरक्षण एवं प्रतिलिपियों में कृत योगदान का उल्लेख इस अध्याय की विशेषता है। अध्याय में दक्षिण भारत एवं उत्तर भारत की श्राविकाओं का उल्लेख सुंदर रीति से हुआ है।
षष्ठम अध्याय में मुगलों के पतन एवं अंग्रेजी शासनतंत्र की स्थापना तक अर्थात् १६वीं शती से १६वीं शती की श्राविकाओं एवं उनके योगदान को रेखांकित किया गया है। इस अध्याय में ५३०० श्राविकाओं का उल्लेख है तथा ११२ श्राविकाओं की सूची गई है।
सप्तम अध्याय में १८.५७ के स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात् अब तक की श्राविकाओं का उल्लेख, परिचय एवं योगदान चर्चित है। इस अध्याय में राजनीति, स्वतन्त्रता संग्राम, साहित्यिक क्षेत्र, समाज से शिक्षा, कला, तप, संलेखना आदि में कृत श्राविकाओं के योगदान का उल्लेख है ।
शोध प्रबन्ध में सारिणियों के माध्यम से श्राविकाओं के द्वारा कृत कार्यों का उल्लेख किया गया है। विशेषतः मूर्ति स्थापना अथवा मन्दिर निर्माण के सम्बन्ध में ये सारिणियाँ दी गई हैं।
यह शोध कार्य श्रम सापेक्ष था, जिसे अनुसन्धात्री ने सम्पन्न कर श्राविकाओं के इतिहास का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज उपलब्ध कराया है। लेखन में सर्वत्र समीक्षात्मकता दृष्टिगोचर होती है। आठ अध्यायों में अन्वेषणात्मक एवं समालोचनात्मक दृष्टि को लिए हुए जो ऐतिहासिक सामग्री उपस्थापित की गई है वह अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। मैं अनुसन्धात्री साध्वी प्रतिभाश्री को इस शोध प्रबन्ध के आधार पर पी-एच. डी. उपाधि प्रदान किए जाने की संस्तुति करता हूँ ।
- डॉ. धर्मचंद जैन जोधपुर
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
साध्वी प्रतिभाश्री जी 'प्राची' द्वारा लिखित शोध प्रबन्ध का आद्यन्त गहन चिन्तन किया । प्रबन्ध निम्न सात अध्यायों में समायोजित किया गया है
१.
२.
3.
४.
५.
६.
७.
अभिमत
युगानुकूल भारतीय - परम्परा में नारी की स्थिति का चित्रण विस्तार से किया गया है।
प्रागैतिहासिक प्रथम तीर्थंकर से बाईसवें तीर्थंकर कालीन विविध नारियों का जैन धर्म को योगदान प्रतिपादित है ।
अंतिम दो तीर्थंकरों के काल (ई.पू. आठवीं शताब्दी से ई.पू. छठी शताब्दी) को माध्यम बनाकर श्राविकाओं का वर्णन है ।
ई.पू. छठी शताब्दी से लेकर सातवीं शताब्दी तक की श्राविकाओं की धर्म प्रभावना का उल्लेख है ।
ई. आठवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी को माध्यम बनाया गया है।
ई. १६वीं से २०वीं शताब्दी की श्राविकाओं का जैनधर्म के विकास में योगदान चित्रित है।
इसमें १६वीं से २१वीं शताब्दी की श्राविकाओं के द्वारा राजनीति, शिक्षा, कला, संस्कृति आदि के विविध क्षेत्रों में किये गये अवदानों का विवरण है।
इस शोध प्रबन्ध में जैन आगम साहित्य, आगमेत्तर साहित्य, अभिलेख आदि विविध स्रोतों को आधार बनाया गया है। विवेचन ऐतिहासिक क्रम से होने से यह प्रबन्ध एक ऐतिहासिक अभिलेख जैसा हो गया है। इसके शोध-निदेशक डॉ. सागरमल जैन एक मंजे हुए जैन विद्या के मनिषी हैं। शोध प्रबन्ध लेखिका ने बड़ा परिश्रम करके महत्त्वपूर्ण तथ्यों का संग्रह किया है। शोध प्रबन्ध बहुत उच्च कोटि का है। तार्किक और शोधपरक विश्लेषण है। प्रथमतया इतना महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया है। अतः मैं सहर्ष साध्वी प्रतिभाश्री जी "प्राची" को जैन विद्या में पी-एच. डी. उपाधि प्राप्त करने की संस्तुति करता हूँ ।
-
डॉ. सुदर्शन जैन
बनारस
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
भारतीय संस्कृति अध्यात्म संस्कृति
भारतीय संस्कृति चिरकाल से अध्यात्म प्रधान संस्कृति रही है। इसे अनेक प्रकार के विचारों, परम्पराओं, सम्प्रदायों का एक समन्वित रूप माना जाता है। समता या समत्व इसके प्रधान तत्व माने गए हैं और यही तत्व भारत की अनेकता की संस्कृति को एकता के सूत्र में पिरोकर रखे हुए है। प्राचीनकाल से लेकर आज तक मानव जगत् में वैचारिक संघर्ष का ऊहापोह चलता रहा है परन्तु समत्व का यह तत्व इस वैचारिक संघर्ष के मंथन से नवनीत के रूप में नए विचारामृत का सृजन करता रहा है।
जैन धर्म विशाल विश्व रूपी नन्दन वन का एक सुंदर सुरभित प्रसून है जो अपनी दिव्य शक्ति और सिद्धान्त रूपी सौरभ से समस्त संसार के वायुमंडल को सुगन्धित कर रहा है। जैन धर्म के सिद्धान्त विश्व शांति के प्रमुख स्त्रोत हैं। इस जगती के आंगन में सुख और शांति रूपी सुधा का संचार एवं विस्तार करने का सर्वोपरि श्रेय यदि किसी को है तो वह जैन धर्म को ही है। जैन धर्म ही अहिंसामय संस्कृति का आद्य प्रणेता है। इसका लक्ष्य बिन्दु इस दृश्यमान स्थूल संसार तक ही सीमित नहीं वरन् विराट अन्तर्जगत की सर्वोपरि स्थिति सिद्ध अवस्था को प्राप्त करना है। ऐसा मानना है कि आत्मा में अनन्त शक्ति है और प्रत्येक आत्मा अपने पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकती है। उसे किसी दूसरे पर अवलम्बित रहने की आवश्यकता नहीं है। जैन धर्म का यह स्वावलम्बनमय सिद्धान्त मानव को मानव की दासता से मुक्त करता है और अपने परम और चरम साध्य को प्राप्त करने के लिए अदम्य प्रेरणा प्रदान करता है । जैन धर्म का प्रभाव उत्तर और दक्षिण भारत में समान रूप से पड़ा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म परम उदार व्यापक और सार्वजनिक है। यह सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय है ।
जीवन में ऐसे स्नेहिल, उल्लास पूर्ण प्रसंग आते हैं जो अपनी गरिमा से हमें अविस्मरणीय अर्थ दे जाते हैं। ऐसा ही शुभ प्रसंग आज के दिन आया है पू. महाराज साहब के शोध-प्रबन्ध के बारे में लिखने बैठी हूँ। अनन्त मे विराजित अरिहन्त भगवन्तों की असीम अनुकम्पा से पू.म.सा. साध्वी प्रतिभाश्री जी प्राची' द्वारा लिखित यह शोध प्रबंध रूपी ज्ञान-पुंज आप सुविज्ञ पाठकों को समर्पित करते हुए अतीव हर्ष एवं गौरव का अनुभव कर रहीं हूँ ।
इस शोध प्रबंध की भाव-व्यंजना, शाब्दिक शिल्पज्ञता, भाषा की प्राञ्जलता, लेखनी की प्रगल्भता आदि अत्यन्त सराहनीय हैं। जैसे-जैसे आप इसकी पठन सामग्री में गोता लगायेंगे, ज्ञान की अजस्रधारा से सिक्त होते चले जायेंगे। पू. साध्वीजी ने अपने विहार में शस्य श्यामला धरती को, उसके अनेक पहलुओं को, स्थान-स्थान के जन जीवन को, वहाँ की स्थानीय संस्कृति को बोली भाषा को बहुत निकट से देखा है और उस मिट्टी की सोंधी महक से आपका व्यक्तित्व अछूता नहीं रहा है। इस विशाल यात्रा ने उनकी लेखनी को अनुभूति और अभिव्यक्ति के सामर्थ्य से समृद्ध किया है। इसमें हृदय की विशुद्धि है और वाणी का सहज प्रकटीकरण है।
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
'थोड़ा सा अपनापन पाकर मिट्टी कितना दे जाती है। मिट्टी माणिक, मिट्टी मोती, मिट्टी सोना उपजाती है। कल्पतरू, है ये मिट्टी शाखाओं पर स्नेह खिलाती है
हम गुलाब होकर तो देखें, मिट्टी खुशबू हो जाती है।। उन्होंने अपनी भावाभिव्यक्ति को, अपनी खोज को इस प्रशस्त मार्ग से सजाया संवारा है और संपूर्ण लालित्य से मंडित कर दिया है। सृजनात्मक लेखन में उन्होंने चुनिंदा मोती बिखेरे हैं और विविध रंगी आयाम प्रदान किये हैं। सरल हिन्दी में अवतरित इस ग्रंथ ने इतिहास के गर्भ में छिपे अनेक अनछुये पटों को खोलकर तथ्यों को सामने लाने का कार्य किया है, यही इस ग्रन्थ की विशेषता है।
___ अपने अनुभव से इन्होंने इस कृति को बहुत ही सरल, सहज और रोचक बना दिया है। पाठक एक बार पुस्तक पढ़ना आरंभ करेगा तो अंत तक पढ़े बिना छोड़ नहीं पायेगा। उसकी चेतना और संवेदना दोनों के भीतर गहरे तक प्रवेश करने में यह कृति सक्षम रहेगी, असीम सुख एवं अपार संतोष प्रदान करेगी।
भारतीय मनीषियों ने सभ्यता के प्रारंभ से ही नारियों के प्रति सम्मान एवं आदर का विशेष भाव प्रकट किया है। जैन वाड:मय में स्त्री-पुरूष को विकास के समान अवसर प्राप्त हैं और पुरूष की तरह स्त्री भी साधना के सर्वोच्च शिखर-वीतरागता पर आरोहण कर सकती है। जैन तीर्थंकरों ने चतुर्विध संघ की व्यवस्था की है जिसके अंतर्गत श्रमण-श्रमणी, श्रावक और श्राविका का समावेश किया है। इतना सब होते हुए भी जैन इतिहास में श्राविका संघ की उपेक्षा हुई है और उसका मुख्य कारण है मानव सभ्यता का विकास के साथ संक्रमण और पुरूष प्रधान संस्कृति का आविर्भाव व उनका प्राधान्य।
पू. महासतीजी ने अपने शोध कार्य में इसी प्रमुख सत्य को उठाया है और अपनी लेखनी द्वारा इस उपेक्षित पक्ष के अवदानों को उभारा है। इतना ही नहीं उन्होंने जैन धर्म के क्षेत्र में उन्हें उचित न्याय दिलाने का भरसक प्रयास किया है जो अपने आप में श्लाघनीय एवं स्तुत्य कार्य है। उन्होंने भारतीय परम्परा में नारी, उसके स्थान और उसके चरित्र पर प्रकाश डाला है जो शनैः, शनैः एक-एक काल की सीमा रेखा को पार करके आधुनिक काल तक पहुंचा है। इस ग्रंथ को सात अध्यायों में विभक्त किया गया है जिनमें श्राविकाओं के व्यक्तित्व की विशेषताओं का संलेखन है। इन सूत्रों पर चिंतन चर्वण करने से भयंत मान्यताओं की धुंधली चद्दर हट जाती है और सत्य सम्मुख आ जाता है। सर्वप्रथम उन्होंने वैदिक कालीन नारी, स्त्रोत सूत्रों में नारी, उपनिषद काल में नारी, रामायण काल में नारी, महाभारतकालीन नारी, स्मृतिकाल में भारतीय नारी, पौराणिक काल की भारतीय नारी, बुद्ध और महावीरकालीन नारी और जैन धर्म की चतुर्विध संघ-व्यवस्था पर प्रकाश डाला है। जैन आगम ग्रंथों में श्रावकाचार एवं श्राविकाचार के महत्त्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी खोजकर आगम साहित्य, पुराण साहित्य, प्रबंध साहित्य, ऐतिहासिक ग्रंथ, शिलालेख और ग्रंथ प्रशस्तियां, पुरातात्विक साक्ष्य, हस्तलिखित ग्रंथों की प्रशस्तियों में श्राविकाएं, श्रद्धा सम्पन्न श्राविकाएं, व्रत सम्पन्न श्राविकाएं तक की यात्रा पूरी कर समस्त तीर्थंकरों के समय की श्राविकाओं की जानकारी प्रदान की है। यह खोज यहीं तक सीमित नहीं रही बल्की आगे जैन कथाओं में वर्णित जैन श्राविकाओं तथा अन्य श्राविकाओं की लम्बी श्रृंखला पार करके महाविरोत्तरकालीन जैन श्राविकाओं की भरपूर जानकारी प्रदान कर आठवीं से बीसवीं शताब्दी तक की जैन श्राविकाओं के चरित्रों को उभारने में, उन्हें न्याय दिलाने का अभूतपूर्व कार्य किया है। इसमें उन्होंने शैवों और वैष्णवों के काल को भी सम्मिलित किया है, जो जैन धर्म के पतन का कारण बने थे और दक्षिण भारत की श्राविकाओं, जिनमें श्रवणबेलगोला के महत्त्वपूर्ण शिलालेख, कर्नाटक की जैन श्राविकाएं, दक्षिण भारत की विविध वंशोत्पन्न जैन श्राविकाओं के बारे में भी विस्तारपूर्वक चर्चा की है। साथ ही साथ सोलहवीं से बीसवीं शताब्दी
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
की जैन श्राविकाएं उन पर मध्यकालीन राजनैतिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का प्रभाव, मुगलसाम्राज्य पर जैन धर्म का प्रभाव एवं उस समय जैन धर्म की प्रभावना में श्राविकाओं का योगदान, उत्तर और दक्षिण भारत की जैन श्राविकाओं एवं इस कालक्रम की महत्वपूर्ण श्राविकाओं के बारे में विस्तारपूर्वक विचार विनिमय किया गया है। अंत में आधुनिककालीन परिस्थितियाँ, राजनीति के क्षेत्र में श्राविकाएं, स्वतंत्रता संग्राम में जैन श्राविकाएं, इस काल की प्रभावशाली श्राविकाओं की गौरव गरिमा की अभिवृद्धि और अभिव्यक्ति करने में यह ग्रंथ पूर्णतः सक्षम है। इस प्रकार महाराज श्रीजी ने अतीत की गोद में समाई हुई अनेक श्राविकाओं का उल्लेख किया है। इतिहास के महत्त्व को इस ग्रंथ से भलीभांति जाना जा सकता है। आनेवाले समय में यह ग्रंथ मील का पत्थर साबित होगा। जो निश्चित रूप से पठन-पाठन, चिंतन-मनन, श्रवण की अक्षय निधि के रूप में आत्मीयता का रिश्ता जोड़ देगा। श्राविकाओं के ज्ञान-दर्शन-चारित्र की इस गौरव गाथा से एक अलौकिक प्रकाश जगतीतल पर निरन्तर प्रवाहित होता रहेगा। यद्यपि वह प्राचीन वैभव अब दर्शन पथ से तिरोहित हो चूका है तथापि धर्म की यह अक्षय कीर्ति सदा अक्षुण्ण रहेगी। जिस प्रकार सुंदर-सुंदर फूल चुनकर माली गुलदस्ता तैयार कर देता है, उसी प्रकार महासतीजी ने तथ्यों को उजागर कर अतिसुंदर, सर्वग्राह्य, संगमेश्वरीय ग्रंथ का निर्माण किया है। मैं अपने हृदय के अन्तःस्थल से उन्हें बधाई देती हूँ कि विशाल वर्ग को विराट की ओर ले जाने की शक्ति इन्हें प्राप्त हो। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ भावना रखती हूँ कि :
"सब कुछ चूक जाये पर विश्वास को मत चूकने दो पर्वत भले झुक जाये पर सर को मत झुकने दो। तमन्ना हैं जो भीतर में कुछ पाने की और लुटाने की तूफान रूक जाये पर कदम मत रूकने दो।।"
- डॉ. मंजु चोपड़ा
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
प्राक्कथन
विश्व की प्राचीन संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति का अपना एक विशिष्ट स्थान है। इसका अपना इतिहास है, अपनी सभ्यता और संस्कृति है जो विभिन्न विचारधाराओं के समन्वय से निर्मित हुई है। भारत के प्राचीन इतिहास के विभिन्न स्रोत हैं, जिनमें जैन, बौद्ध और वैदिक परंपरा के धर्म और इनमें वर्णित घटनाओं के विवरण प्रमुख हैं। इन ग्रंथों से विभिन्न काल की धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक स्थितियों का ज्ञान होता है, अतः भारतीय संस्कृति के सम्यक् अध्ययन हेतु तीनों परंपराओं के प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन आवश्यक है। संपूर्ण भारतीय संस्कृति दो धाराओं में विभक्त है, वह है, (प) ब्राह्मण एवं (पप) श्रमण
ब्राह्मण-संस्कृति वेद को प्रमाण मानती है, अतः इसे वैदिक परंपरा भी कहते हैं । वैदिक परंपरा में चतुर्विध वर्ण व्यवस्था है यथा ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र एवं क्षत्रिय । वैदिक परंपरा में मान्य चार पुरूषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । "अर्थ" का आशय है- जीवन जीने के आवश्यक साधनों की उपलब्धि और "काम" का अर्थ है- पाँच इंद्रियों के विषयों का सेवन । "धर्म" का कार्य है, अनावश्यक इच्छाओं को नियंत्रित करना और "मोक्ष" अर्थात् सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र की पूर्णता ।
I
श्रमण-संस्कृति में जैन एवं बौद्ध संस्कृति का समावेश है। जैन धर्म, संस्कृति और साहित्य की अजस्रधारा भारत में अत्यंत प्राचीनकाल से ही समृद्ध रूप में प्रवाहित है। प्राचीन काल से अनेक तीर्थंकरों ने इस संस्कृति को अक्षुण रूप से प्रवाहित रखा है। श्रमण-संस्कृति में चतुर्विध संघ व्यवस्था है यथा श्रमण, श्रमणी श्रमणोपासक एवं श्रमणोपासिका। वर्तमान में तीर्थंकर न होने पर भी चतुर्विध संघ का अस्तित्व बना हुआ है और परंपरागत मान्यता है कि पंचम काल के अंतिम समय तक वह अवश्य बना रहेगा। तीर्थंकरों द्वारा कथित उपदेश "आगम" कहलाते हैं। आगमों में जिस आचार का निर्देश किया गया है, उस आचरण के अनुरूप चलना इस चतुर्विध संघ का कर्त्तव्य है । चतुर्विध- संघ व्यवस्था की मुख्य आधार शिला है आचरण । श्रमण - श्रमणियों के पाँच महाव्रत रूप आचार हैं और श्रमणोपासक तथा श्रमणोपासिकाओं के बारह अणुव्रत रूप आंचार हैं। चतुर्विध संघ के लिए चतुर्विध मार्ग हैं, जिनसे मोक्ष रूपी लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है, वे हैं सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्तप । वर्तमान में चतुर्विध संघ इसके परिपालन में प्रयत्नरत है। बौद्ध परंपरा में भी संघ के चार प्रकार हैं I
यह बिल्कुल स्पष्ट है कि जैन परंपरा में जहाँ श्रमण श्रमणी महाव्रती हैं वहाँ जैन श्रावक श्राविका अणुव्रती हैं। अतः संघीय दृष्टि से जो महत्व श्रमणी का है, वही महत्व श्राविका का भी है। यद्यपि चतुर्विध जैन धर्म संघ के चार स्तम्भ - साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका में चारों वर्गों का महत्त्व बराबर हैं। लेकिन मेरी दृष्टि में ऊपरलिखित तीनों स्तंभों के लिए श्राविका संघ आधारभूत है। तीनों संघ श्राविका - संघ के बिना अपनी गतिविधियों को सम्पन्न करने में असमर्थ हैं । श्राविकाएं ही श्रमण-- श्रमणियों की सेवा सुश्रुषा का पूरा ध्यान रखती हैं तथा गृहस्थ जीवन से जुड़ी समस्त गतिविधियों का भी वे कुशलता से निर्वाह करती हैं। आश्चर्य है कि ऐसी मंगलमूर्ति श्राविकाओं का क्रमबद्ध इतिहास आज अनुपलब्ध है तथा उनका उल्लेख नहींवत् है । साध्वी संघ में दीक्षित होने के कारण हमारा संपर्क श्राविकाओं से ही बना रहता है। जब शोध के विषय चयन की बात सामने आई तब प्रत्यक्ष सहयोगिनी इन श्राविकाओं द्वारा समाज,
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
धर्म, साहित्य एवं संस्कृति की सेवा में दिये गये अमूल्य योगदान को उजागर करने का निर्णय दृढीभूत हुआ । परिणाम स्वरूप प्रस्तुत शोध प्रबन्ध की रचना श्राविका के बृहद इतिहास के रूप में हुई।
"चतुर्विध जैन संघ में श्राविकाओं का योगदान" यह विषय व्यवहारिक दृष्टि से अत्यंत उपयोगी और प्रेरणास्पद है, अतः इस विषय को सात अध्यायों में प्रस्तावित कर मैनें निम्न प्रकार से संयोजित किया है।
प्रथम अध्याय में भूमिका के रूप में प्रत्येक युग की नारी के स्थान एवं महत्व पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया गया है, जिसमें भारतीय परंपरा की वेदकालीन, उपनिषद्कालीन, रामायण एवं महाभारतकालीन, मध्यकालीन, मुस्लिमकालीन एवं आधुनिक युगीन नारियों की अवस्था का सामान्य चित्रण, तद्-तद् काल की नारी शक्ति एवं उसके शील गुणों का परिचय इस प्रथम अध्याय में दिया गया है।
द्वितीय अध्याय में प्रागैतिहासिक कालीन अर्थात् प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव जी से लेकर बाईसवें तीर्थंकर भगवान श्री अरिष्टनेमि जी के काल की जैन श्राविकाओं के योगदान का उल्लेख है। इसमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि को जन्म देनेवाली माताओं उनकी धर्मपत्नियाँ तथा तद्युगीन उपलब्ध श्राविकाओं का वर्णन है।
तृतीय अध्याय में सर्वप्रथम ई.पू. आठवीं शताब्दी के तेइसवें तीर्थंकर प्रभु पार्श्वनाथ एवं ई.पू. छठी शताब्दी के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी के समय की सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् उस युग के राजवंश की तथा अन्य वंशों की शील गुणसंपन्न, त्यागी, अनुकरणीय श्राविकाओं का वर्णन है ।
चतुर्थ अध्याय में ई.पू. की छठी शताब्दी से लेकर ई. सन् की सातवीं शताब्दी अर्थात् महावीरोत्तर काल का वर्णन किया गया है । इस कालक्रम में भारत के महत्त्वपूर्ण राजवंशों का जैसे नंदवंश, चेदिवंश, मौर्यवंश, गंगवंश, उत्तर भारत में मथुरा तथा दक्षिण भारत में श्रवणबेलगोला के महत्त्वपूर्ण अभिलेखों में उल्लेखित श्राविकाओं का तथा अशोक, संप्रति, चंद्रगुप्त, कुणाल, प्रभृति मौर्यवंश के राजाओं के समय की महत्वपूर्ण श्राविकाओं की धर्म प्रभावना का समुल्लेख है ।
पाँचवें अध्याय में आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी तक के कालक्रम में गुजरात के प्रसिद्ध राज्यवंशों का वर्णन तथा उस समय की प्रसिद्ध श्राविकाओं का वर्णन प्रस्तुत किया गया है। साथ ही उत्तर एवं दक्षिण भारत की राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक गतिविधियों से सम्बन्धित सरस इतिहास के सहज बोध के साथ पांचवां अध्याय समाप्त किया है। इसमें परमारवंश, धारावंश सिसोदिया वंश, गंगवाड़ी वंश, होयसल वंश के काल की श्राविकाओं एवं अन्य श्राविकाओं का वर्णन भी किया गया है।
छठे अध्याय में सोलहवीं शताब्दी से बीसवीं शताब्दी अर्थात् आधुनिक कालीन श्राविकाओं का वर्णन किया गया है। इस कालक्रम में सोलहवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी के काल को मुगल साम्राज्यकाल कहा गया है। मुगल साम्राज्य के श्रेष्ठ राजा अकबर महान् हुए । उनके समय में महान् तपस्विनी चम्पा श्राविका हुई थी। इस तपस्विनी के तप के प्रभाव से अकबर बादशाह भी प्रभावित हुए तथा उन्होंने अहिंसात्मक जीवन शैली को अपनाया। इसी अध्याय में मेवाड़, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश तथा दक्षिण प्रांत की सुश्राविकाओं का उल्लेख किया गया है। उन्नीसवीं शताब्दी की एक उल्लेखनीय जर्मन श्राविका चारलेट क्रॉस हुई थी, उसका वर्णन भी इस अध्याय में किया गया है।
सातवें अध्याय में उन्नीसवीं, बीसवीं तथा इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ की तथा उत्तर एवं दक्षिण भारत की आधुनिक कालीन जैन श्राविकाओं के विभिन्न क्षेत्रों में दिये गये अवदानों की चर्चा है। इस अध्याय में विभिन्न कार्यक्षेत्रों जैसे राजनीति, शिक्षा, साहित्य, संस्कृति, संगीत, कला एवं धर्म के संरक्षण एवं उन्नयन में श्राविकाओं की महत्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डाला गया है। शोध कार्य करते हुए उत्तर भारत में विचरण होने से उस क्षेत्र की श्राविकाओं का प्रत्यक्ष परिचय प्राप्त हुआ, किंतु पत्र-पत्रिकाओं एवं पत्राचार के संपर्क से ही दक्षिण भारत की श्राविकाओं का विशेष विवरण उपलब्ध हो पाया है। वर्तमान कालीन श्राविकाओं की संख्या और उनके योगदान बहुत ही व्यापक हैं, अतः विस्तार भय से इस अध्याय को सीमित ही रखा गया है।
इस सामग्री को संयोजित करने के लिए मैंनें (१) जैन आगम साहित्य (२) आगमेत्तर साहित्य (३) व्याख्या साहित्य ( ४ ) अभिलेखीय सूचनाएँ (५) पुरासाक्ष्य एवं (६) अन्य साहित्यिक स्त्रोतों को आधार बनाया है। सम्पूर्ण शोध सामग्री को संकलित करने
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
मैंने निम्नलिखित पुस्तकालयों का सहयोग ग्रहण किया है, जैसे: सरस्वती विद्या केन्द्र (नासिक), दिवाकर जैन पुस्तकालय (इंदौर), महावीर जैन सिद्धांत शाला (फरीदकोट), प्राच्य विद्यापीठ (शाजापुर) आदि । इसके अतिरिक्त दिल्ली के अनेक पुस्तकालयों जैसे बी.एल.आई.आई., अहिंसा भवन पुस्तकालय, विचक्षण जैन पुस्तकालय, आध्यात्मिक योग साधना केन्द्र का पुस्तकालय, महावीर जैन पुस्तकालय, जवाहरलाल नेहरू पुस्तकालय, नेशनल लाइब्रेरी, कुंदकुंद भारती विद्यापीठ, महासती कौशल्या देवी जैन पुस्तकालय आदि । इन सभी पुस्तकालयों के प्रति मैं हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ । पाद विहारी जैन साध्वी की मर्यादा होने से मुझसे समग्र पुस्तकालयों का निरीक्षण नहीं हो सका, और न ही अनेक विद्वानों से इस विषय पर विचार विमर्श करने का सुअवसर ही प्राप्त हो सका अतः क्षमाप्रार्थी हूँ ।
कृतज्ञता प्रकाश :
इस बृहद् कार्य को सम्पन्न करने के पीछे जैन धर्म संघ की पंजाब प्रवर्तिनी महासाध्वी पूज्या श्री केसरदेवी जी म. सा. की कृपा दृष्टि, अध्यात्मयोगिनी स्वनाम धन्या पूज्या श्री कौशल्यादेवी जी म.सा. का शुभाशीष व उनकी सुशिष्या जैन इतिहास चंद्रिका पूज्या सद्गुरुवर्या महासाध्वी डॉ. श्री विजय श्री जी म.सा. "आर्या" का प्रकाश पुंज वरदहस्त विद्यमान रहा। उनकी सद्प्रेरणा एवं सहयोग से ही यह असंभव कार्य सम्भव बन पाया है। मैं उनके चरणों में श्रद्धा सहित नमन करते हुए कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ। इस संपूर्ण शोध कार्य के निदेशक मृदु स्वभावी विद्ववर्य श्रीमान् डॉ. सागरमलजी जैन ने क्षेत्रगत दूरी होते हुए भी प्रयत्नपूर्वक इस कार्य को गति प्रदान की है, वे विद्वद्जगत् की एक देदिप्यमान् मणि हैं, उनकी मैं हृदय से आभारी हूँ। मेरी इस मनुष्य देह एवं धर्म-संस्कारों की जननी तपस्विनी सुश्राविका मम मातेश्वरी श्रीमती सुशीला बाई धोका की चिरकालीन भावनाएँ प्रस्तुत शोध प्रबंध के लिए संबल बनी हैं, उनके प्रति मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ। शोध कार्य के विषय चयन हेतु प्रो. एन. डी. राणा का सहयोग रहा। डॉ. शशी जैन ने संपूर्ण मेटर देखकर यथावश्यक सुझाव प्रदान किये। साध्वी श्री प्रशंसा श्री जी म. सा. का भी सराहनीय सहयोग प्राप्त हुआ है। इन सबके प्रति कृतज्ञता के भाव प्रकट करती हूँ । इस ग्रन्थ के निर्माण में श्राविकाओं के वर्णन से सम्बन्धित शायद ही कोई कृति हो, जिसका सहयोग न लिया गया हो। इस प्रकार जिन सैंकडों पुस्तकों का सहयोग इसमें रहा है, मैं उन सभी रचनाओं तथा उनके लेखकों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करती हूँ। शोध कार्य की इस संपूर्ण सामग्री के कम्पोजिंग में जिनका आर्थिक सहयोग रहा वे है श्रीमान् स्वदेशभूषण जी जैन, श्रीमान् डी. के जैन (दिल्ली) श्रीमती प्रभा जैन (जम्मू), मेटर कम्पोजिंग में सहयोगी विपिन जैन जम्मू, संजीव जैन (दिल्ली) एवं श्रीमान् सुरेन्द्र जैन (अमृतसर) ने अथक परिश्रम के साथ पूर्ण संलग्नता पूर्वक इस कार्य को सम्पन्न करवाया है। श्री एस.एस. जैनसभा राणाप्रताप बाग दिल्ली के महामंत्री श्रीमान् वेद प्रकाशजी जैन ने परिश्रम पूर्वक प्रूफ संशोधन का कार्य संपन्न किया है। स्व-पर कल्याणकारी पूज्य निर्ग्रन्थ गुरुओं ने आशीर्वचनों के पुष्प बरसाकर मुझे उपकृत किया है तथा प्रस्तुत ग्रंथ को गौरवान्वित किया है। अतः इन सभी को साधुवाद देते हुए इनका हृदय से आभार प्रकट करती हूँ। समस्त प्रत्यक्ष एवं परोक्ष सहयोगी महानुभावों के प्रति भी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ ।
अंत में समुद्र के समान अनेक विशाल जैन कृतियों में बूंद के समान इस छोटी सी कृति को सुज्ञ पाठकों को समर्पित करती हूँ। आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि सरस्वती पुत्रों द्वारा इसे अवश्य स्वीकार किया जाएगा। यद्यपि पूर्ण श्रम द्वारा इस कृति को प्रामाणिक बनाने का पूर्ण प्रयत्न किया गया है, तथापि संभव है कई त्रुटियाँ भी इसमें रह गई हों, किंतु उन्हें परिस्थिति जन्य विवशता मानकर पाठकगण मुझे क्षमा करेंगे। इन्हीं मंगल भावों के साथ :
अर्हतोपासिकाः जैन साध्वी डॉ० प्रतिभा श्री " प्राची"
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
अध्याय-१
१.१ भारतीय परम्परा में नारी का स्थान
१.१.१ वैदिक कालीन भारतीय नारियाँ
(अ) परिवार व्यवस्था और नारी का स्थान । (ब) पत्नी के कर्त्तव्य । (क) वैवाहिक विधान और नारी (ख) नारी श्रेष्ठत्व में हास ।
१.१.२ स्रोत - सूत्रों में नारी
१.१.३ उपनिषदकाल में नारी
१.१.४ रामायणकाल में नारी
अ) कन्या की स्थिति (ब) रामायणकालीन शिक्षा और नारी । म) विवाह व्यवस्था और नारी (क) विवाह प्रकार और प्रणालियाँ ।
ख) एकाधिक पत्नीत्व प्रथा (ग) दाम्पत्य सम्बन्ध और विच्छेद |
घ) नारी का वधू रुप एवं पत्नी रूप (ड) पति के कर्तव्य पत्नी के प्रति ।
च) स्त्री अवमानना के विविध पक्ष ।
विषय सूची
१.१.५ महाभारतकालीन नारियाँ
१.१.६ स्मतिकाल में भारतीय नारी
१.१.७ पौराणिक काल की भारतीय नारियाँ एवं समाज में उनका स्थान
१.२ बुद्ध और महावीर कालीन नारियों का सामाजिक अवदान
१.२.१ बौद्ध धर्म में नारी
१.२.२ जैन धर्म में नारी
१.३ जैन धर्म की चतुर्विध संघ व्यवस्था
१.४ जैन धर्म का स्वरूप
१.४.१ संघ का महत्त्व
१.५ भ० महावीर का श्रमणी - संघ एवं श्राविका संघ
१.५.१ श्राविका शब्द की परिभाषा
१५२ श्राविका अभिप्राय एवं अन्य नाम
1
m
११
१४
१४
१५
२०
२१
२२
≈≈ ☹ 2 2 2 2 2 2 2
२३
२३
२४
२४
२५
२५
२६
२६
२६
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय सूची
१.५.३ व्रत ग्रहण करने से : व्रती श्राविका १.५.४ श्रमणोपासिका : श्रमण धर्म की उपासिका १.५५ श्रमणोपासिका के अणुव्रती आदि अन्य नाम १.५.६ रत्न पिटारा १५.७ व्रत स्वीकरण क्यों आवश्यक १.५.८ व्रत का स्वरूप और भेद १.५.६ जैन आगम ग्रंथों में श्रावकाचार एवं श्राविकाचार १.५.१० द्वादश श्रावक - श्राविका व्रत १५.११ अहिंसा अणुव्रत १.५.१२ सत्य अणुव्रत १.५.१३ अस्तेय अणुव्रत १.५.१४ ब्रह्मचर्य अणुव्रत १.५.१५ अपरिग्रह अणुव्रत १.५.१६ दिशाव्रत अणुव्रत १.५.१७ उपभोग - परिभोग परिमाण व्रत १.५.१८ अनर्थदण्ड विरमण व्रत १.५.१६ सामायिक व्रत १.५.२० देशवकाशिक व्रत १.५.२१-२२ पौषध व्रत एवं अतिथिसंविभाग व्रत १५.२३संलेखना १.६ श्राविका की दैनिक चर्या १.७ आगम में श्राविका के अष्टमूल गुणों की चर्चा १.८ जैन धर्म में नारी जाति का अवदान : एक सामान्य विवेचन १.६ नारी का अवदानः एक समीक्षा १.१० नारी जाति के इतिहास की आधारभूत सामग्री १.११ भ० महावीर कालीन श्राविकाओं का जैन धर्म को अवदान १.१२ नारी जाति के इतिहास का काल विभाजन १.१३ साहित्यिक - स्रोत १.१४ आगम साहित्य एवं आगमिक व्याख्या साहित्य १.१५ चरित एवं कथा – काव्यों में श्राविकाएँ १.१६ पुराण साहित्य में श्राविकाओं का योगदान १.१७ प्रबंध साहित्य
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.१८ ऐतिहासिक ग्रंथ
१.१६ शिलालेख और ग्रंथ प्रशस्तियाँ
१.२० पुरातात्विक साक्ष्य
१.२१ हस्तलिखित ग्रंथों की प्रशस्तियों में श्राविकाएँ
१. २२ प्रस्तुत शोध की क्षेत्र सीमा
१.२३ श्रद्धासंपन्न श्राविकाएँ
१. २४ व्रतसंपन्न श्राविकाएँ
-
२ - पौराणिक काल की जैन श्राविकाएँ
अध्याय
२.१ साहित्य के आलोक में
२.२ जैन साहित्य में पुराण
२.३ जैन आगम साहित्य के अनुसार पौराणिक काल का विभाजन
२.४
प्रथम तीर्थंकर भ०. ऋषभदेव जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ २.५ द्वितीय तीर्थंकर भ०. अजितनाथ जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ २.६ ततीय तीर्थंकर भ०. संभवनाथ जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ २७ चतुर्थ तीर्थंकर भ०. अभिनंदननाथ जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ
२.८ पाँचवें तीर्थंकर भ० सुमतिनाथ जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ २.६ छठें तीर्थंकर भ०. पद्मनाथ प्रभु जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ २.१० सातवें तीर्थंकर भ० सुपार्श्वनाथ जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ २.११ आठवें तीर्थंकर भ० चंद्रप्रभुनाथ जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ २.१२ नौवें तीर्थंकर भ० सुविधिनाथ जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ २.१३ दसवें तीर्थकर भ० शीतलनाथ जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ २.१४ ग्यारहवें तीर्थंकर भ० श्रेयांसनाथ जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ
२.१५ बारहवें तीर्थंकर भ० वासुपूज्यनाथ जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ २. १६ तेरहवें तीर्थंकर भ० विमलनाथ जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ २.१७ चौदहवें तीर्थंकर भ० अनंतनाथ जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ २.१८ पंद्रहवें तीर्थंकर भ० धर्मनाथ जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ २.१६ सोलहवें तीर्थंकर भ० शांतिनाथ जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ २.२० सत्रहवें तीर्थंकर भ० कुंथुनाथ जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ २.२१ अठारहवें तीर्थंकर भ० अरनाथ जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ २.२२ उन्नीसवें तीर्थंकर भगवति मल्लिनाथ जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ
२. २३ बीसवें तीर्थंकर भ० मुनिसुव्रत जी से सम्बन्धित श्राविकाएँ
पुराण
8565656 6 6 6
४०
४१
४१
४१
४२
४२
४२
१०५
१०५
१०५
१०६
१०८
११०
११०
११०
११०
१११
१११
१११
१११
११२
११२
११२
११३
११३
११४
११५
११६
११६
१२०
१२१
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय सूची
२.२४ इक्कीसवें तीर्थंकर म०. नमिनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ २.२५ बाईसवें तीर्थंकर म०. अरिष्टनेमि जी से संबंधित श्राविकाएँ २.२६ जैन कथाओं में वर्णित जैन श्राविकाएँ २.२७ विविध श्राविकाएँ
१५५
१५५
१५६
अध्याय - ३ - ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ ३.१ तीर्थंकर भ०. पार्श्वनाथ जी : ' ऐतिहासिक पुरूष ३.२ तथागत बुद्ध की साधना पर भगवान् पार्श्व का प्रभाव ३.३ तीर्थंकर भ०. महावीर जी कालीन परिस्थितियाँ
(१) धार्मिक (२) सामाजिक (३) राजनैतिक । ३.४ तीर्थंकर महावीर की देन
(१) सामाजिक (२) धार्मिक (३) सांस्कृतिक (४) राजनैतिक (५) भाषा सम्बन्धित। ३५ तीर्थंकर भ००. महावीर जी के शासन काल में नारी चेतना ३. तीर्थंकर भ०. पार्श्वनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ ३.७ तीर्थंकर भ०. महावीर स्वामी से संबंधित श्राविकाएँ
१५८
१५६
१६०
१६४
૧૬૧
૧૬૧
१६५
૧૬૬
૧૬૬
अध्याय - ४ - महावीरोत्तरकालीन जैन श्राविकाएँ ४.१ महावीरोत्तरकालीन धार्मिक एवं राजनैतिक स्थिति ४.२ आंध्र प्रदेश अथवा कलिंग देश में जैन धर्म ४.३ खारवेल परिवार का जैन धर्म प्रभावना में योगदान ४.४ लेन गुफा निर्माण में खारवेल की रानी का योगदान ४.५ म्युरा में चतुर्विध - संघ प्रस्तरांकन एवं जैन श्राविकाएँ ४.६ चतुर्विध – संघ प्रस्तरांकन ४.७ मारा में चैत्य निर्माण, जिन प्रतिमा प्रतिष्ठा आदि में श्राविकाओं का अवदान ४.८ देवनिर्मित स्तूप। ४.६ इस काल की महत्वपूर्ण श्राविकाएँ
१६७
१६७
१६७
१६८
१६८
२१७
अध्याय - ५ . आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ ५.१ उत्तर भारत में जैन धर्म ५.२ ग्यारहवीं से तेरहवीं शती की जैन श्राविकाएँ
२१७
२१७
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
२२५
२२६
૨૨૭
५.३ चौदहवीं पंद्रहवीं शती की जैन श्राविकाएँ ५.४ ओसिया तीर्थ एवं ओसवाल जाति की उत्पत्ति का इतिहास ५.५ दक्षिण भारत में जैन धर्म ५.६ शैवों और वैष्णवों का काल ; जैन धर्म का पतन ५.७ श्रवणबेलगोला के ५०० शिलालेख ५.८ कर्नाटक की जैन श्राविकाएँ ५.६ दक्षिण भारत में विविध वंशोत्पन्न जैन श्राविकाओं का योगदान ५.१० इन शताब्दियों की जैन श्राविकाओं का योगदान
२२६
२३०
२३२
३६३
३६३
३६३
अध्याय - ६ - सोलहवीं से बीसवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
मध्यकालीन राजनैतिक एवं धार्मिक परिस्थितियाँ ६.१ मुगलकालीन साम्राज्य पर जैन धर्म का प्रभाव ६.२ मुगलकाल में श्राविकाओं का जैन धर्म प्रभावना में योगदान ६.३ उत्तर और दक्षिण भारत की श्राविकाओं का जैन धर्म प्रभावना में योगदान ६.४ जैसलमेर की जैन श्राविकाओं का योगदान ६.५ इस कालक्रम की महत्वपूर्ण श्राविकाएँ
३६५
३६७
३७२
३७२
દર૬
६२६
६२६
६३०
अध्याय - ७ - आधुनिक काल की जैन श्राविकाएँ ७.१ आधुनिक कालीन परिस्थितियाँ ७.२ राजनीति के क्षेत्र में श्राविकाएँ ७.३ स्वतंत्रता संग्राम मे जैन श्राविकाएँ ७.४ साहित्यिक क्षेत्र में जैन श्राविकाएँ ७.५ समाज, संस्कृति, शिक्षा, कला, ध्यान आदि विभिन्न क्षेत्रों में श्राविकाएँ ७.६ तप एवं संलेखना के क्षेत्र में जैन श्राविकाओं का योगदान ७.७' इस काल की प्रभावशाली श्राविकाएँ
६३१
६३१
६३४
६३५
अध्याय - ८
७०१
उपसंहार
७०१
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
6
प्रा. ले. सं. भा. १
जै. शि. सं.
जै. गु. क.
जे. जै. ले. सं
ख. प.
जे. प्रा. जै. ग्रं.भं. हस्त. सूची
के.सं. प्रा. में.
जै. इ. इ. त.
जै. इ. आं.
जै. सि. भा.
द. भा. जै. ध
जे. जै. ता. ग्रं. भं. सू. प.
लों. ज्ञा. भं. ता. प. प्र.
क. प्रां. ता. ग्रं. सू.
बी. जै. ले. सं.
श्री. प्र. सं.
भ. सं.
इ. अ. ओ.
ग्रंथो के नामों की सांकेतिक सूची
रा. अ. भ १, २
प्रा. जै. स्मा
जै. बि. पा. १
म. दि. जै. ती. भा. ३
ख. ब. गु. जि. प्र. ले.
भा. इ. द.
जै. इ. रा. श्र. शि. सं.
ए. क.
पं. चं. अ. ग्रं.
जै. इ. आं. डे. इ. इ.
प्राचीन लेख संग्रह भाग १।
जैन शिलालेख संग्रह भाग १-५ ।
जैन गुर्जर कवियों भाग १-५ ।
जेसलमेर जैन लेख संग्रह भाग १- ३ |
खरतरगच्छ पट्टावली ।
जेसलमेर के प्राचीन जैन ग्रंथ भंडारों की हस्तलिखित सूची । केटलॉग ऑफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मेनुस्क्रिप्ट्स |
जैना इंस्क्रिप्शंस. इन तमिलनाडु ।
जैनिज़म इन आंध्रा ।
जैन सिद्धांत भास्कर ।
दक्षिण भारत में जैन धर्म ।
जेसलमेर जैन ताड़पत्रीय ग्रंथ भंडार सूची. पत्र. । लोकागच्छ ज्ञान भंडार की ताड़ पत्रीय प्रति. ।
कन्नड़ प्रांतीय ताड़पत्रीय ग्रंथ सूची । बीकानेर जैन लेख संग्रह | श्री प्रशस्ति संग्रह |
भट्टारक संप्रदाय ।
इतिहास की अमरबेल ओसवाल । राजस्थान के अभिलेख. भाग १, २.
प्राचीन जैन स्मारक ।
जैन बिब्लियोग्रॉफी पार्ट - १ |
मध्यप्रदेश के दिगंबर जैन तीर्थ. भाग-३ |
खरतरगच्छ बहद् गुर्वावली ।
जिनमूर्ति प्रशस्ति लेख. ।
भारतीय इतिहास एक दष्टि । जैना इंस्क्रिप्शंस ऑफ राजस्थान । श्रवणबेलगोला के शिलालेख संग्रह ।
एपिग्राफिका कर्नाटिका ।
पंडित चंदाबाई अभिनंदन ग्रंथ ।
जैनिज़म इन आंध्रा एज़ डेपिक्टेड इन इंस्क्रिप्शंस।
सांकेतिक सूची
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
जै.लिट्. इ. त. जै.बि.टु.वो. आ. इ. अ. ग्रं.
जै. ध. प्र. सा. म.
ख. जै. स. ब. इ.
अ. प. जै. धा. प्र. मं.
दि. जै. इ. इ. अ.
जै. धा. प्र. ले. सं. भा. म. जै. वि. सु. म. ग्रं.
जै. प्र. ले. सं.
प्रा. जै. ले. सं.
जै. ग्रं. भं. इ. ज. ना.
ऐ. ले. सं.
जै. स्क. इ.
जै.
स्वर्ण जा
पु. ले. सं.
वे.
भ. पा. प. इ.
म. राज. जै. ध.
मु. स. धा. नी. जै. सं.
ह.ग्र.सू.बी.ए.आ.प.सं.प.स.
ख. प. सं.
ख. ई. प्र. खं.
म्यु
रा. ह. ग्र. सू. भा. १-३
प्र. ऐ. जै. पु. म.
त्रि.ष. श. पु. च. ग. ल जै. इ. आं. मि. क
स्था. जै. इ.
म. ए. पं. जै. ध.
जै. ध. मौ. इ.
डोशी. रतन. तीर्थ. च.
ख. जै. स. का. ब. इ.
जै. इ. इ. त.
जै. इ. सा. इं.
पा. जै. धा. प्र. ले. सं.
जैना. लिटरेचर इन तमिल ।
जैन बिब्लियोग्राफी इन टु वोल्यूम । आर्यिका इंदुमती अभिनंदन ग्रंथ ।
जैन धर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएँ । खंडेलवाल जैन समाज का बहद् इतिहास ।
अर्बुद परिमंडल की जैन धातु प्रतिमाएँ एवं मंदिरावली ।
दि जैना इमेज इंस्क्रिप्शंस ऑफ अहमदाबाद ।
जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह भाग. ।
श्री महावीर जैन विद्यालय स्वर्ण महोत्सव ग्रंथ ।
जैन प्रतिमा लेख संग्रह ।
प्राचीन जैन लेख संग्रह ।
जैन ग्रंथ भंडार इन जयपुर और नागपुर ।
ऐतिहासिक लेख संग्रह ।
जैन
जैना स्कल्पचर्स इन इंडियन एण्ड वर्ल्ड म्युज़ियम्स । पुराण लेख संग्रह । स्वर्णगिरि जालौर ।
भगवान् पार्श्वनाथ की परंपरा का इतिहास । मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म ।
मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति पर जैन संतों का प्रभाव । हस्तलिखित ग्रंथ सूची बी. एल. आई. परिग्रहण संस्था ।
खरतरगच्छ पट्टावली संग्रह ।
खरतरगच्छ का इतिहास. प्रथम खंड ।
राजस्थान हस्तलिखित ग्रंथ सूची भाग १-३ | प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरूष एवं महिलाएँ। त्रिषष्टि शलाका पुरूष चरित्र. गणेश ललवाणी । जैनिज़म इन आंध्रा एण्ड मिडिवल कर्नाटका । स्थानकवासी जैन इतिहास ।
मध्य एशिया व पंजाब में जैन धर्म ।
जैन धर्म का मौलिक इतिहास ।
डोशी रतनलाल तीर्थंकर चरित्र । खरतरगच्छ जैन समाज का बहद् इतिहास | जैन इंस्क्रिप्शंस इन तमिल ।
जैन इंस्क्रिप्शंस इन साउथ इण्डिया । पाटण जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह ।
7
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
वंश / गोत्रों की सांकेतिक शब्द सूची
श्री. ज्ञा. श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ओ. ज्ञा.
उस. ज्ञा.
ऊ. ज्ञा.
उप. ज्ञा.
प्रा. व्यव.
नाण. ग.
प्रा. श्रे.
ज्ञा.
ना. ज्ञा.
प्रा. श्रे.
उप. वंश
मोढ़. ज्ञा.
डीसावाल. ज्ञा.
ख. बृ.गु.
| भा. इ. दृ.
ग्रंथों के नामों की पूरक सांकेतिक सूची -
खरतरगच्छ बृहद गुर्वावली
भारतीय इतिहास एक दृष्टि
खंडेलवाल जैन समाज का
बृहद इतिहास (पं. सं. कट डाउन)
बृहद
बृहत्तपागच्छ
ख. जै. स. बृ.इ.
बृ
बृहत्तपा
वृद्ध
वृद्ध
-
वृद्ध
- वृद्ध
श्रीमाल ज्ञातीय ।
श्री श्रीमाल ज्ञातीय ।
प्राग्वाट् ज्ञातीय ।
ओसवाल ज्ञातीय ।
उसवाल ज्ञातीय ।
ऊकेश ज्ञातीय ।
उपकेश ज्ञातीय ।
प्राग्वाट् व्यवसायी ।
नाणकीय गच्छ ।
प्राग्वाट् श्रेष्ठी ।
ज्ञातीय ।
नागर ज्ञातीय ।
प्राग्वाट् श्रेष्ठी ।
उपकेश वंश |
मोढ़ ज्ञातीय ।
डीसावाल ज्ञातीय ।
गच्छों की सांकेतिक
शब्द सूची
तपा.
पिप्पल.
सिद्धांत.
आ. ग.
खरतर.
बह तपा.
चैत्र.
अंचल.
नागेंद्र.
पूर्णिमा.पू.ग/प
सरस्वती
ब्रह्माण
वद्ध थिरापद्
वद्ध. तपा.
सुविहित.
भावडार.
संडेर
कोरंट
जीरापल्ली.
हारीज.
ग.
चतु. प.
भीमा.
राज.
बाल.
चतु.
पंच.
प्रति.
सांकेतिक सूची
तपागच्छ ।
पिप्पलगच्छ ।
सिद्धांतगच्छ ।
आगम गच्छ ।
खरतरगच्छ ।
बह तपागच्छ ।
चैत्र गच्छ ।
अंचल गच्छ ।
नागेंद्र गच्छ ।
पूर्णिमा गच्छ / पक्ष ।
सरस्वती गच्छ ।
ब्रह्माण गच्छ ।
वद्ध थिरापद्रगच्छ ।
वद्ध तपागच्छ ।
सुविहितगच्छ ।
भावडार गच्छ ।
संडेर गच्छ ।
कोरंट गच्छ । जीरापल्ली गच्छ ।
हारीज गच्छ ।
गच्छ ।
चतुर्विंशतिपट्ट ।
भीमापल्ली गच्छ ।
राजगच्छ ।
बालगच्छ ।
चतुर्मुख |
पंचतीर्थी । प्रतिवंदनीक गच्छ ।
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
MOcroscomchoROcrocRcIRRORockce प्रथम अध्याय
ROcscsiposecsecshoosecsitochocockck
पूर्व पीठिका
१.१ भारतीय परम्परा में नारी का स्थानः
___ नारी और नर दोनों का योग समग्रता या परिपूर्णता की रचना करता है। महाभारत में वर्णित है "अर्ध" भार्या मनुष्यस्य, भार्या श्रेष्ठतमः सखा" अर्थात् भार्या पुरूष का आधा अंग है, भार्या सबसे श्रेष्ठ मित्र है। व्यापक अर्थ में 'नर' शब्द प्राणी जगत् के पुरूष वर्ग का द्योतक है तथा 'नारी' शब्द स्त्री वर्ग का द्योतक हैं। नर और नारी दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। संसार रथ के दो समान
नारी स्नेह, सौन्दर्य, कमनीयता, और सुकुमारता की प्रतीक है। नारी के सहज गुणों के उद्घाटन के साथ आगमकार कहते हैं "सुसीला चारू पेहिणी" अर्थात् वह “सुशीला" और " चारू प्रेक्षिणी" सुंदर दष्टि वाली होती है। आत्मदष्टा ऋषियों की भाषा में नारी सुदिव्य कुल की गाथा है। सुवासित शीतल मधुर जल और विकसित पद्मिनी के समान है।
___ मध्य युग में स्त्री निंदा और अवमानना के प्रसंगों में नारी शब्द का प्रयोग होता रहा है। कवियों ने कहा-नारी नरक की खान है। हिन्दी साहित्य के भक्ति युग की निर्गुण, सगुण धारा में न्यूनाधिक रूप में यही स्थिति बनी रही। तुलसीदास जी ने तो यहाँ तक कह दिया – "ढोल, गवार, शूद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी" अर्थात् मोक्ष सिद्धि में नारी बाधक कही गई है।
___ स्त्री जाति के नारी के अतिरिक्त मैना, ग्ना, योषा, सुंदरी, ललना, मानिनी, कामिनी, भामिनी, रमणी, मानवी, भार्या, महिला आदि अनेक पर्यायवाची शब्द हैं। नारी के इतने पर्यायवाची शब्द उसकी अनेक विशिष्टताओं के परिचायक हैं। पुरूषों की अपेक्षा अधिक मानवीय गुणों से सुसज्जित नारी नरक की नहीं, सद्गुणों की खान है। इसलिए वह पुरूषों के लिए वन्दनीय और पूज्यनीय मानी गई है। "मानयन्ति एनाः पुरुषाः"- ऋग्वेद में नारी को सम्माननीय मानते हुए उसके गौरव को स्थापित किया गया है। वह गौरव के साथ कहती है:- मैं अपने परिवार की केतु (ध्वजा) हूँ, मस्तक हूँ। "अहं केतुरहं मूर्धाग्ना गच्छन्ति एनाः" अर्थात् नारी गन्तव्य है, नर पथिकवत् चलकर अपनी प्राप्या नारी के पास पहुँचता है, अतः उसे "ग्ना" कहा गया है। पुनश्च निरूक्त में संयोगावस्था में नारी को "योषा" कहा है, किन्तु जैन आगम उपासकदशांग में "भारिया धमम सहाइया" कहकर सामाजिक दायित्वों के साथ धर्म कार्यों में पुरूष की सहयोगिनी बनी नारी का ही योषा "रूप" सार्थक कहा है। इस प्रकार वह धर्म समाज परिवार आदि क्षेत्रों में तो क्रियाशील रहती ही है, वह सज्जन-रक्षा, दुष्ट निग्रह आदि कार्यों में भी संलग्न रहती है। नारी का यह रूप भी "योषा" संज्ञा से व्यक्त होता है।
नारी बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही कोटियों के सौन्दर्य की निधि होती है। भर्तहरि ने अपने "श्रंगार शतक" और "वैराग्य शतक" में इसी रूपाधिक्य के कारण नारी को सौन्दर्य का सार और कलाओं की सष्टि के रूप में स्वीकारा है। नारी पुरूष को पुलक और प्रसन्नता प्रदान करती है, अतः "प्रमदा" है। पुरूष में लालसा जागरण की हेतु बनती है अतः "ललना" कहलाती है। मन को रमाने वाली होने के कारण रमणी, गह संचालिका होने के कारण "गहिणी", घर को सुन्दर बनाने वाली हैं, अतः "भामिनी" कही जाती है। अपने पूज्य स्वरूप के कारण वह "महिला" तथा मानवीय गुणों के आधिक्य के कारण मानवी और कामनाओं को उद्दीप्त करने की अपनी सहज प्रवत्ति के कारण वह कामिनी कहलाती है। वह. मानप्रिय होने के कारण "मानिनी" भी कहलाती है।
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व पीठिका
गुणों के आधार पर नारी के अन्यान्य अनेक नाम और भी हैं और नित नये नामों का प्रयोग भी असंभव नहीं है। संसति प्रसार में भी नारी का योगदान महत्वपूर्ण है। मातत्व के वरदान स्वरूप वही प्रजोत्पत्ति करती है। पुरूष नारी के प्रति रूपासक्त हो कर कामेच्छा करता है। नारी और नर की पारस्परिक मिलनेच्छा स्वाभाविक होती है। इस इच्छा का उद्दाम और अनियमित स्वरूप असामाजिकता और अशिष्टता को जन्म देता है। विवाह संस्कार वासना को नियमित कर उसे सुष्टु स्वरूप प्रदान कर देता है।
परिवार में नारी सर्वप्रथम कन्या या पुत्री रूप में जन्म लेती है। वात्सल्यमयी वातावरण में पल्लवित होती हुई, परिणय योग्य होने पर, दाम्पत्य सूत्र में बंधकर, धर्मपत्नी और गहिणी का स्वरूप ग्रहण करती है। वही कालान्तर में ममतामयी माता का गौरव पूर्ण पद प्राप्त करती है। सामाजिक व धार्मिक आदि नाना क्षेत्रों में सक्रिय रहती है। समाज में उसे गौरव और प्रतिष्ठा मिलती है तथा परिवार में मान सम्मान। किन्तु नारी की सामाजिक स्थिति युगानुयुग परिवर्तनशील रही है। कभी उसे गरिमा-महिमा का पात्र माना गया है तो किसी युग में उसकी उपेक्षा और अवमानना भी कम नहीं हुई।
साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य में तत्कालीन युग की सामाजिक स्थिति झलकती है। समाज की दष्टि में नारी जाति किस काल में क्या स्थान रखती थी, यह साहित्य के अन्यान्य प्रकरणों से स्पष्ट हो जाता है। आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी ने "भारतीय वाड्म्य में नारी " पुस्तक में नारी की सामाजिक स्थिति को स्पष्ट करने के लिए नारी के विकास के इस दीर्घ क्रम को वैदिक काल से प्रारम्भ कर निम्नलिखित युगों में विभक्त किया है:
(१) वैदिककाल (२) महाकाव्यकाल (३) उपनिषद्काल (४) जैनकाल (५) बौद्ध काल (६) संस्कृत युग (७) अपभ्रंश युग (८) मुस्लिम युग (६) आधुनिक युग
भारतीय संस्कति में नारी को अति सम्माननीय माना जाता है। वैदिक युग की मान्यता थी कि स्त्री, स्वदेह तथा संतति से पुरुष को परिपूर्णता प्रदान करती है। यज्ञादिधर्म क्रियाओं में पुरुष के साथ नारी की सहभागिता अनिवार्य है। नारी को पुरुष की अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार करने का मूल विचार वैदिक युग में ही अस्तित्व में आया। इस युग की स्त्री अधिकार संपन्ना थी, तथा अपने अधिकारों को क्रियान्वित करने में भी पीछे नहीं थी और विद्वत्ता में भी पीछे नहीं थीं। अपाला, घोषा, लोपा, मुद्रा आदि अनेक विदुषी महिलाएं प्रसिद्ध थी, जिनके कंठ में ऋचाओं का निवास था। इला, माही, भारती, आदि का तो ऋग्वेद में परम ज्ञानवती महिलाओं के रूप में उल्लेख किया गया है। पुरुष के आदि गुरु के रूप में नारी को सम्मान मिला है। वेदों के पश्चात् स्मतियां रची गई, किन्तु इन दोनों के मध्य उपनिषद्काल रहा है। उपनिषद्काल में अनेक स्त्रियां परम मेधावी एवं चिन्तनशीला थीं। ज्ञान प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा और सक्रिय चेष्टा भी उनमें रही थी। वह स्वचेतनाधीन रहती थी और अपने उत्थान का मार्ग चयन करने में वह सर्वथा स्वतंत्र थी। पति का वर्चस्व भी उसके मार्ग में व्यवधान नहीं बनता। राजा जनक की राजसभा में युग के शिखरस्थ ज्ञान संपन्न ऋषि याज्ञवल्क्य के साथ विदुषी गार्गी का प्रखर शास्त्रार्थ एक अति महत्त्वपूर्ण प्रसंग है। उपनिषदकाल में पुरुषों को बहुविवाह का अधिकार था । फलस्वरूप नारी के वर्चस्व में मंदी आने लगी। यह प्रथा उत्तरोत्तर प्रबल होती गई। रामायण काल में पुरुष अनेकानेक विवाह करने लगा, जैसे राजा दशरथ चार रानियों के स्वामी थे। इस अधिकार हास की स्थिति में भी उपनिषद्काल की नारी का वर्चस्व परवर्तीकालीन नारी की अपेक्षा अधिक ऊर्जस्वी रहा, इसमें कोई संदेह नहीं। उत्तरवैदिककाल में भी नारी-सम्मान तथा उसके प्रति उच्च भावना यत्किंचित् रूप में प्रबल रही।
शिक्षा प्राप्ति की स्वाधीनता उसे मिलती रही और स्वयं को विदुषी रूप देने में वह सचेष्ट रहा करती थी। ब्रह्मवादिनी वर्ग की स्त्रियां तो आजीवन शैक्षिक विकास में ही लगी रहती थी। बाद में चलकर धर्म के क्षेत्र में आडम्बर के बढ़ने से निम्नवर्गीय स्त्रियाँ वैदिक कर्मकाण्ड की प्रतिभागिता से वंचित रहने लगी।
सूत्रों व स्मतियों के काल में नारी अनेक प्रतिबंधों एवं बाधाओं से घिर गई। उसकी स्वाधीनता के स्थान पर उसकी मर्यादा अधिक महत्व पाने लगी। इसी क्रम में जैन और बौद्ध परंपराओं का विकास भी आ जाता है। बौद्ध परंपरा में तो नारी के धर्मक्षेत्र में प्रवेश से. संघ-प्रवेश से संघ की आय में ही हास की आशंका का अनुभव किया जाता था।
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
इसके विपरीत जैन परम्परा बड़ी उदार और विशाल हृदयता की परिचायक रही। भगवान महावीर स्वामी ने स्त्री और पुरूष में किसी प्रकार के भेदभाव को स्वीकार नहीं किया। महावीरकाल में नारी को पुरुष की परम सहचरी होने का गौरव पुनः प्राप्त हुआ। बहत् कल्पभाष्य के अनुसार भी संकट की अवस्था में नारी को प्रथम संरक्षणीय माना गया। नारी को पुरूष के समान ही मुक्ति की अधिकारिणी मानकर नारी सत्ता को सर्वोच्च सम्मान प्रदान किया गया।
नारी की स्थिति और उसकी विकास यात्रा की यह झलक मात्र है। उसके व्यक्तित्व में अनेक अंधियारे-उजियारे पक्ष आते जाते रहे हैं। वैदिक काल से आरंभ हुई नारी की स्वरूपगत विकास यात्रा का विवेचन क्रमिक ओर सुविस्तत रूप में हम आगे प्रस्तुत कर रहे हैं। १.१.१वैदिक कालीन भारतीय नारियां :
वैदिक काल से लेकर ईस्वी सन् के प्रारम्भ तक कन्या का वेदाध्ययन भी उपनयन संस्कार से प्रारम्भ होता था। सूत्र युग में भी स्त्रियां वेदों का अध्ययन करती थीं तथा मंत्रोच्चार भी करती थी। न केवल वे मन्त्रोच्चारण करती थी अपितु वैदिक ऋचाओं की दष्टा भी होती थी। उस काल में विवाह के योग्य बनने के लिए भी अध्ययन की अनिवार्यता थी, त कन्या को ब्रह्मचर्य जीवन में समुचित रूप से प्रतिष्ठित किया करते थे। अध्ययनरत छात्राओं की दो श्रेणियां थी। प्रथम श्रेणी की छात्रायें "ब्रह्मवादिनी" कहलाती थीं, जो आजीवन अध्यात्म तथा दर्शनशास्त्र की छात्रा रहती थी। द्वितीय श्रेणी की छात्राएं "सद्योवधू" कहलाती थीं और विवाह के पूर्व तक ये अपना अध्ययन जारी रखती थीं। कन्याओं के लिए वेदाध्ययन आवश्यक था क्योंकि स्त्रियों को नियमित रूप से प्रातः संध्या वैदिक प्रार्थनायें करनी पड़ती थीं और पत्नियां यज्ञादि में अपने पति के साथ मंत्रोच्चारण करती थीं। रामायण में विवरण है कि सीता नियमित रूप से संध्या पाठ करती थीं, जिसे डॉ० अलतेकर ने (Position of Women, प. ११ में) वैदिक मंत्रों का पाठ माना है।
जब तक समाज में वेदों एवं दर्शन ग्रंथों के अध्ययन का विशेष महत्त्व रहा, उसमें स्त्रियां पुरुषों के समान भाग लेती रहीं। मीमांसा जैसे गूढ़ विषय में भी स्त्रियां रूचि लेती थीं। इसका प्रमाण "काशकत्सनी" नामक ग्रंथ है जिसकी रचना "काशकत्स्न" नामक ब्रह्मवादिनी ने की थी। जो स्त्रियां विशेष ज्ञानी होती थी उन्हें "काशकत्स्ना" कहा जाता था।
दूसरा उदाहरण उच्च कोटि की दार्शनिक महिला गार्गी का है जिसने दर्शनशास्त्र पर ऋषि 'याज्ञवल्क्य' से अनेक प्रश्न किये थे। ऋषि 'याज्ञवल्क्य' की दूसरी पत्नी 'मैत्रेयी' भी वेदांत की गंभीर अध्येता थीं। ___महाभारत के अनुसार पांडवों की माता कुन्ती अथर्ववेद में निष्णात थी। प्राचीन भारत में स्त्रियों का विदुषी होना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। ___अध्ययन के पश्चात् कुछ स्त्रियां अध्यापन का कार्य भी करती थीं। उपनिषदों में स्त्री शिक्षिकाओं के वर्णन हैं किन्तु है विवाहित थीं अथवा अविवाहित यह स्पष्ट नहीं है। शिक्षिकाओं को "उपाध्याया" कहा जाता था। फिर भी स्त्री शिक्षिकाओं की संख्य अधिक नहीं थी।
ततीय शताब्दी ईसा पूर्व तक सामान्यतया परिवार में ही बालिकाओं को शिक्षा दी जाती थी, तथा उनका तत्संबंधी उपनय संस्कार भी होता था। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य कन्याओं को वैदिक एवं साहित्यिक शिक्षा भी दी जाती थी, किन्तु कालान्तर, स्थिति में परिवर्तन हुआ तथा बाल विवाह जैसी कुप्रथा के प्रचलन के कारण बालिकाओं की शिक्षा पर आघात किया गया। ईरथी शती के प्रारम्भ तक बालिकाओं का उपनयन संस्कार केवल प्रतीकात्मक रह गया और अंत में उसे समाप्त कर दिया गया
वेदकाल मे नारी बड़ी उन्नत और उत्तम स्थिति में रही है। सम्मान, समकक्षता, अधिकारवत्ता और गौरव गरिमा की दटे से नारी के लिए यह काल स्वर्णिम युग था। राजसभा के अनेक रत्नों मे "महिषी रत्न" या स्त्री रत्न (इत्थीरयण) राजा के साथ राजसिंहासन पर आसीन होकर शासन कार्य में महत्वपूर्ण सहयोग देती थी। नारी रण प्रसंग मे पति के रथ की सारथी बनकर सक्रियतापूर्वक युद्ध में भाग भी लेती थी। एक प्रतिघात मे 'विश्चला' का पैर टूट गया था और अश्विनीकुमारों ने उसकी चिकित्सा की थी। नमुचि ने तो महिलाओं का एक पूरा सैन्य ही संगठित कर लिया था।
For Private & Personal use only
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
12
“तत्र ब्रह्मवादिनी नामन्नींधनं वेदाध्ययन स्वगुहे च भैक्षचर्येति" अर्थात् ब्रह्मवादिनी स्त्रियाँ यज्ञाग्नि प्रज्वलित करने, वेदों का अध्ययन करने तथा अपने घर में भिक्षा मांगने की अधिकारिणी हुआ करती थी । ऋग्वेद के अनेक सूक्त एवं मंत्र ऋषिभाव को प्राप्त घोषा, रोमेशा, विश्वारा, प्रलोभतनयाशची, अपाला आदि के योगदान का परिणाम है। 'लोपामुद्रा' ने अपने पति 'अगस्त्य ऋषि' के पास सूक्तों का साक्षात्कार किया था ।
अ. परिवार व्यवस्था और नारी का स्थान :
पूर्व पीठिका
परिवार का वरिष्ठ पुरूष ही मुखिया कहलाता था। चाहे वह ज्येष्ठ भ्राता, पिता अथवा पितामह हो, वही समाज में परिवार का प्रतिनिधित्व करता था ।
स्त्री घर की संचालिका थी, वह घर की रानी थी। सौमनस्यपूर्ण पारस्परिक व्यवहार की, सांस्कृतिक वैभव की वही नियामिका थी, विधायिका ओर संचालिका थी । पतिगह में प्रवेश के साथ ही नवपरिणीता वधू को गह की "साम्राज्ञी" की संज्ञा प्राप्त होती थी । वेदकाल में नारी तो पुरूष का आधा भाग मानी जाती थी । यज्ञ प्रसंगों में स्त्री रहित अकेला पुरूष आहूति का अधिकारी नहीं हुआ करता था । परिवार में नारी का तीन रूपों में सम्मानीय स्थान था दुहिता, पत्नी एवं माता ।
परिवार में गो दोहन (गाय दुहने) का कार्य परिवार की पुत्रियाँ करती थी, वे जनक जननी की लाडली हो जाया करती थी। यास्क ने "दोग्धेर्वा" दुहने के कारण उसे दुहिता कहा है। "दुहिता" की व्याख्या शुभाशुभ अनेक रूपों में की गई है। पिता से धन दुहती रहती है अतः दुहिता । विवाहोपरान्त वह परिजनों से दूर चली जाती है, पिता के लिए दुःखद बनी रहती है, अतः दुहिता शब्द T की अनेक व्याख्याएं हैं।
"पुंसै पुत्राय बेतवै” उस युग में पुत्र प्राप्ति की कामना इस हेतु की जाती थी कि उस संघर्षपूर्ण काल में परिवार की सुरक्षा के लिए वीर पुरूषों का आधिक्य रहे । पुत्री की चाहे कामना नहीं की जाती हो, किंतु पुत्र प्राप्ति के समान ही कन्या जन्म को मांगलिक माना जाता था, वैसा ही उत्साह और मोद का भाव रहता था । पुत्र एवं पुत्री को समान स्नेह पूर्ण लालन पालन मिलता था। "तज्जाया जाया भवति यादस्यां जायते पुनः" कन्या ही विकास पाकर जाया और जननी होगी, उससे पुरूष की पुनः अवतारणा होगी, इस कारण सभी का स्नेह कन्या को प्राप्त होता था ।
माता का परिवार में सर्वाधिक सम्मानीय स्थान स्वीकृत था । "मात" शब्द की व्युत्पत्ति से ही यह सिद्ध हो जाता है, मान + त = (मात); अर्थात् आदरणीया। माता जननी है जीवन निर्मात्री है, संतति के प्रति निश्छल स्नेह उसकी पावनता का प्रतीक है, तथा उससे सारा जगत् सेवा, त्याग, और स्नेह की प्रेरणा लेता है। ऋग्वेद मे भी चर्चा है कि माता सर्वाधिक प्रिय ओर घनिष्ठ संबंधी होती है। मनुष्य परमात्मा को पिता के स्थान पर माता मानकर अधिक समर्पित हो सका है आज भी 'भारत माता के गौरव की रक्षा करना देशभक्तों का परम कर्तव्य है। पिता की अपेक्षा माता का स्थान अधिक सम्माननीय है - 'मातदेवो भव', 'पितदेवो भव' कहा गया है। ऋग्वेद में माता को गुरू रूप में भी मान्यता दी गई है। "मात भवतु सम्मनाः" अथर्ववेद में निर्देश है कि माता के अनुकूल मन वाले बनो। उपनयन संस्कार के समय भी ब्रह्मचारी सबसे पहले अपनी माता से भिक्षा मांगे इसका मान्य विधान है। कन्याओं के विवाह भी माता की अनुमतिपूर्वक निश्चित और सम्पन्न हुआ करते थे ।
नारी का गहस्थ रूप अधिक गरिमा पूर्ण है। पति-पत्नी मिलकर तो यज्ञ करते ही थे, कितु "योषितो यज्ञया इमाः” अर्थात् स्त्रियों को यज्ञादि का पथक् अधिकार भी था। उल्लेख मिलता है कि शस्यः वद्धि के लिए सीता स्वतंत्र रूप से यज्ञ किया करती थी । पति और पत्नी दोनों ही संयुक्त रूप से यजमान होते थे किन्तु इसके लिए पत्नी का पावन रूप अनिवार्य था। इसी अनिवार्यतावश महर्षि याज्ञवल्क्य ने यह विधान किया कि यदि पत्नी का देहान्त हो जाये तो पति यज्ञ कार्य के लिए तुरन्त विवाह करे ।
इस युग में पशुओं को धन माना जाता था, उनकी वुद्धि को ही समद्धि, कहा जाता था। पशुपालन एक महत्वपूर्ण प्रवत्ति थी । पशुओं की रक्षा और पालन करने वाली होने से स्त्रियों की विशेष महत्ता थी । वीर माता समादत थी, पुरूष देवताओं से गुणवती पत्नी पाने की प्रार्थना करता था । गहिणी पति की प्रिया होने के कारण "जाया", संतति की माता होने से "जननी, पति की सहधर्मिणी होने से "पत्नी" की संज्ञा से शोभित होती थी ।
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
13
(ब) पत्नी के कर्तव्यः
प्रत्येक पत्नी सच्चे अर्थों में नारी है, विवाहोपरान्त नर से संबद्ध होकर वह नारी कहलाती है, अतः सधवा स्त्रियों को प्रथम स्थान प्राप्त है। ऋग्वेद के अनुसार नारी के सौभाग्य का अर्थ है पति का निरोग जीवन। पत्नी की दो कामनाएं होती हैं:"आयुष्यमानस्तु पति" मेरा पति दीर्घायु हो, "एधन्तां ज्ञातयो मम" अर्थात् मेरी जाति की अभिवद्धि हो। विवाहित नारी की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह पति के प्रति एकनिष्ठता का भाव अचल रूप में रखे। नैतिक शैथिल्य पत्नी के लिए निंदा का विषय माना गया । पति परायणा होने के साथ ही वह सास-ससुर की सेवा करे, घर समाज की पुष्टि भी करे, प्राणिमात्र के हित के लिए कामना करे। वह कोमल व्यवहारी हो तथा उसकी दष्टि में भी क्रोध न झलके।
ऋग्वेद में उल्लेख है कि अधिक संतान होने से जीवन कष्टमय हो जाता है। वैदिक काल में सामान्यतः दस संतति का आधान मिलता है, जो कदाचित् सुरक्षा के कारणों से रहा होगा। भाग्यशालीनी वह स्त्री मानी जाती थी, जिसके शरीर में अनेक संततियों को जन्म देने पर भी कोई विकार न आये। पुत्र पुत्री समान समझे जाते थे, तथापि पुत्र संतति से स्त्री की प्रशंसा है" ऐसा उल्लेख भी ऋग्वेद में मिलता है, इसके पीछे भी सुरक्षा-क्षमता के विकास की आवश्यकता का कारण प्रमुख रहा होगा। (क) वैवाहिक विधान और नारी:
वेदों के काल में विवाह संस्था बड़े व्यवस्थित रूप में थी। ऋग्वेद में बाल विवाह के प्रचलन के साक्ष्य नही मिलते । पर्याप्त यौवन अवस्था प्राप्त होने पर विवाह किया जाता था। ऋग्वेद में सामान्यतः एकल विवाह का ही विधान था। बह विवाह का प्रचलन नगण्य-सा था। विवाह तीन प्रकार के होते थे। प्रथम क्षत्रिय (राक्षस) विवाह जो वर द्वारा अपहृत कन्या के साथ होता था। इसमें शक्ति और पराक्रम का आधार रहता था, कन्या की सहमति भी संदिग्ध रहा करती थी। दूसरा था स्वयंवर विवाह, जिसमें कन्या स्वयं अपने लिए वर का चयन कर सके यह भी गौरव पूर्ण विवाह संस्कार था। तीसरा-प्रजापत्य या ब्रह्म विवाह; जिसमें दाम्पत्य जीवन की पावनता का स्पर्श भी था, इसके शास्त्रीय विधिविधान भी थे, और यह आध्यात्मिक संबंधों पर आधारित था। यही पुण्य विवाह माना जाता था। प्रजापत्य विवाह के लिए माता-पिता की अनुमति की अपेक्षा रहा करती थी। वर-वधू इसे सहर्ष स्वीकार करते थे, तथा अपने लिए श्रेयस्कर मानते थे। कन्या के लिये उपयुक्त और श्रेष्ठ वर निश्चित करने में माता-पिता को भी सुख और संतोष मिलता था। विध्वा विवाह को सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं थी। सती प्रथा का सामान्तया प्रचलन नहीं था, किंतु जो स्त्रियां स्वेच्छा से इस विकल्प को स्वीकार करती थी, वह समाज में सम्मान के भाव से देखी जाती थी। वेदों के काल में पर्दा-फाश रंच मात्र भी नहीं था। अपने गह में महिलाएं उन्मुक्त भाव से रहा करती थी। जब घर से बाहर निकलती तो ऊपरी-परिधान का प्रयोग अवश्य करती थीं, चादर जैसे अतिरिक्त वस्त्र से अपना तन आवत्त कर लिया करती थीं। इसमें नारी सुलभ लज्जा की उपस्थिति तथा सभ्यतापूर्ण व्यवहार झलकता है। इस सलज्जता को नारी की एक अनिवार्य मर्यादा के रूप में समाज भी मानता था और स्वयं नारी वर्ग भी। जहां सभ्सता व सलज्जता उनके शोभन, तथा अलंकार होकर उनके सौंदर्य को सच्चा रूप देते और बढ़ाते थे, वहीं प्रासंगिक मर्यादाओं से उनकी गरिमा भी बढ़ती थी। ऋग्वेद में निर्दिष्ट किया गया है कि स्त्री को इस प्रकार रहना चाहिए कि पर-पुरुष उसके रूप को देखते हुए भी नहीं देख सके, उसकी वाणी को सुनते हुए भी नहीं सुन सके। पुरुषों की सभा में बैठना, पुरुषों के सम्मुख भोजन करना शास्त्रों में वर्जित माना गया था। वेद का आदेश है "हे साध्वी नारी! तुम नीचे को देखा करो, ऊपर न देखो। पैरों को परस्पर मिलाकर रखो। वस्त्र इस प्रकार पहनो कि तुम्हारे ओष्ठ तथा कटि के नीचे के भाग पर किसी की दष्टि न पड़े। यह लज्जावनत्ता सतीत्व धारण में पत्नियों के लिए सहायक और प्रेरक मानी गई थी।
स्त्रियों की आभूषणप्रियता उस युग मे प्रायः उनकी सहज वत्ति मानी गई है। वेदों में इस वत्ति को मान्य समझा गया कि "स्त्रियों को मस्तक पर आभूषण धारण करना चाहिए, उसे शयन विदग्धा होना चाहिए, सदा निरोग अंजन एवं स्निग्ध पदार्थों से भूषित रहना चाहिए। सूती, ऊनी, रेशमी वस्त्रों का उपयोग किया जाता था, जो सुन्दर रंग-बिरंगे, बेल-बूटों से अलंकृत होते थे। वस्त्र बुनना ओर उन्हें अलंकृत करना, स्त्रियाँ इन कामों में भी रूचि लिया करती थी। स्त्रियाँ प्रतिदिन की जिंदगी में प्रायः श्वेत वस्त्र ही धारण किया करती थी। उत्सवादि अवसरों पर ही रंगीन परिधान प्रयुक्त होते थे। ऋग्वेद और अथर्ववेद में विवाह पद्धति
स्थापना मिल चुकी थी। मंत्र ब्राह्मण में उन बिन्दुओं का विस्तत वर्णन प्राप्त होता है। विवाह के पश्चात् लाजाहोम
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
14
होता था, जिसमें वधू भुना हुआ धान उछालकर अपने पति की दीर्घायु की कामना करती थी । पाणिग्रहण के समय वर भी वधू के दीर्घ जीवन और सौभाग्य के लिए प्रार्थना करता थी। मंत्र ब्राह्मण में एक मौलिक प्रसंग आता है, जिसमें वर वधू को कहता है। “तुम्हारा हृदय मेरे व्रतों, धार्मिक कर्तव्यों और आदेशों का पालन करें, बहस्पति तुम्हें आदेश - पालन की शक्ति दे" । एक श्लोक में कहा गया है कि "जो कुछ तुम्हारे हृदय में है वही मेरे हृदय में हो, और जो कुछ मेरे हृदय में हो, वही तुम्हारे हृदय में हो" । भावात्मक एकता की यह कामना भी कम स्तुत्य नहीं है। पति-पत्नी का यह आदर्श सर्वयुगीन महत्व रखता है।
(ख) नारी श्रेष्ठत्व में हास:
ऋग्वेद नारी के श्रेष्ठत्व का साक्ष्य है तो अथर्ववेद उसे कुछ निम्न करके ही प्रस्तुत करता है । अथर्ववेद के अनन्तर ही ह्रास का यह क्रम जारी होने लगा था ! ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है - "नारी निरींद्रिय (शक्तिहीन) होने से सोम की अनधिकारिणी एवं पापी पुरुष से भी गई बीती है।" आदि
पूर्व पीठिका
अथर्ववेद में कन्या जन्म को अहितकर और अशुभ माना जाने लगा । पुत्र की अपेक्षा पुत्री का महत्व घटने लगा । कन्या जन्म को रोकने के लिए प्रार्थनाएं होने लगी । पुत्र प्राप्ति के मंत्र भी अथर्ववेद में मिलते हैं। कन्या का उपनयन संस्कार वेदस्पर्श, मंत्रोच्चारणादि की साधिकारता पूर्ववत् चलते रहे। इस काल में विवाह पूर्व प्रेम - " पूर्व राग" के प्रसंगों के उल्लेख प्राप्त होते हैं । यह कन्या संबंधी माता-पिता के अधिकारों के ह्रास का प्रतीक रहा । ब्राह्म विवाह और गांधर्व विवाह भी इस युग में गोपनीय ढंग से होते थे। अथर्ववेद मंत्र प्रधान है। ये मंत्र, मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि विषयों से संबंधित हैं। ऋग्वेद में दंपत्ति का अर्थ है - गहपति (एकवचन ) जबकि अथर्ववेद में इसका अर्थ पति-पत्नी लिया गया है, तथा दोनों के कर्तव्य भी संयुक्त हैं। सती होने की प्रवत्ति लुप्तप्राय होती जा रही थी, तथा विधवा विवाह ( पुनर्विवाह) के प्रसंग अधिक मिलते हैं।
१.१.२ स्त्रोत- सूत्रों में नारी:
I
स्त्रोत सूत्र ऐसे ग्रंथ हैं जो वैदिक कर्मकांड व विवेचक हैं निर्धारक हैं। अतः इनमें यज्ञादि कार्यों में नारी की भूमिका का परिचय तो मिल जाता है किंतु सामाजिक स्थितियों का वर्णन प्राप्त नहीं होता । ब्राह्मण ग्रन्थों की धारणा का खण्डन करते हुए स्त्रोत में इस संदर्भ में वेदों में नारी की स्थिति की पुष्टि की और उसे यज्ञाधिकारिणी माना गया । स्मति में वर कहता है कि धर्म कार्यों में, संपत्ति प्राप्ति में ओर उचित इच्छा पूर्ति में पत्नी का पूरा अधिकार है। वेदों में नारी पति की अर्जित संपत्ति की अधिकारिणी कही गई है। वेदों में विवाह की आयु २४ वर्ष की मानी गई थी। किंतु गुप्तकाल में यह अपेक्षाकृत कुछ कम हो गई थी। माता को सर्वोच्च गुरू माना जाता था । माता का भरण पोषण करना पुत्र का अनिवार्य कर्तव्य था । व्यभिचारिणी स्त्री पति के लिए परित्याज्य हो सकती थी, किंतु पुत्र के लिए नहीं। उसके लिए माता किसी भी अवस्था में पतिता नहीं मानी गई थी। १.१.३ उपनिषदकाल में नारी:
वेद के अनन्तर उपनिषदों का युग आया। ये वैचारिक ग्रन्थ हैं, जिनका मूल विषय दर्शन और विचार हैं। उपनिषदों में गतिक नारी के स्वरूप का आंकन कम और नारी तत्व का दार्शनिक विवेचन अधिक हुआ है। शक्तिमान् परमात्मा की शक्ति रूपा में उसका उल्लेख मिलता है। यह नारी तत्व, माया, प्रकृति, इच्छा, श्री आदि विविध रूपों में अंकित है। शक्ति और शक्तिमान् दोनों पर पर आश्रित हैं, दोनों का अस्तित्व अन्योन्याश्रित है। दोनों अभिन्न हैं और दोनों का समन्वय ही परिपूर्ण स्वरूप है।
सामान्यतः विवाह संस्कार वयस्कों के लिए ही था । उस युग में ए मे प्रसंग भी प्राप्त होते हैं कि ब्राह्मण पुत्र का शूद्र पुत्री से विवाह संबंध हो गया था। सत्यकाम और जकाला का आख्यान इस युग की विशेषता को अंकित करता था जिसमें संतानें अवैध भी मानी जाती थी, किंतु उनके गुणों और प्रवत्तियों के आधार पर उन्हें वेदोप श ग्रहण करने के योग्य माना जाता था। जाकाला दासी कार्य करने के कारण शूद्रवत् थी । उसके पुत्र सत्यकाम में ब्रह्म प्राप्ति के उत्कृष्ट अभिलाषा थी । अतः आचार्य ने उसे ब्राह्मण स्वीकार कर आश्रम में प्रवेश दिया। पत्नी का रूप इस युग में धर्म कर्म में सहयोगिनी का रहा ।
वेदों में पत्नी का कर्त्तव्य पति की आज्ञानुवर्तिनी रहना बताया ग है। बहदारण्यक उपनिषद् में पति की आज्ञा का उल्लंघन करने वाली पत्नी को ताड़ना देकर भी बलपूर्वक आज्ञा पलवाई जाती थी । अन्य पुरुष द्वारा पत्नी के चाहने पर वह उस पुरूष के
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
विनाश हेतु मंत्र का प्रयोग करती थी। उपनिषद् काल में पुत्र-पुत्री में कोई अंतर नहीं था। उपनिषद् काल में यह प्रार्थना और कामना की जाती थी कि उन्हें विदुषी कन्या प्राप्त हो। उसकी पूर्ति हेतु चेष्टा भी की जाती थी। कन्या प्राप्ति के निमित्त चावल और तिलमिश्रित घतयुक्त खिचड़ी का आहार लिया जाता था तथा ऐसे अन्य कई विधान अपनाए जाते थे। हमें भी इससे प्रेरणा लेनी चाहिए और कन्या के प्रति अनिच्छा तथा अनादर के भाव की उपेक्षा करनी चाहिए। १.१.४ रामायणकाल में नारी
रामायण और महाभारत ये दो अति महत्वपूर्ण महाकाव्य हैं। महाभारत में द्यूत प्रसंग रहा है तो रामायण का प्रमुख विषय नारी है। समाज सापेक्ष होने से इनमें समाज की अनेकानेक स्थितियों, वर्गों, आदर्शों और विशेषताओं के परिचायक विवरण ओर कान्त प्राप्त होते हैं। तत्कालीन नारी चरित्र की विशिष्टतायें एवं नारी के सामाजिक स्थान की विस्तत व्याख्या का सुलभ व सार्थक चिःण हुआ है। रामायण समकालीन नारी का एक समग्र चित्र ही प्रस्तुत नहीं करती वह आगत अनेक सहस्त्राब्दियों तक नारी जाति के लिए एक आदर्श आचरण संहिता दिग्दर्शित करती है, जिसका प्रभाव अपनी गुणवत्ता और श्रेष्ठता के आधार पर निरन्तर बना रहेगा।
में माताएं पुत्र प्राप्ति हेतु तपस्याएं भी किया करती थी। पति-पत्नी मिलकर यज्ञादि धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न करते थे, इसी महत्तावश पत्नी के लिए धर्मपत्नी. की संज्ञा अधिक सार्थक हो रही थी। समीक्षक और यशस्वी चिंतक श्री बलदेव उपाध्याय की दष्टि में - "रामायण वास्तव में पति-पत्नी की विमल प्रीति का प्रस्थापक महाकाव्य है"।
इस युग में समाज पुरूष प्रधान था किंतु परंपरागत रूढ़ियों-प्रथाओं और संस्कारों के अनुवर्तन में स्त्रियों के निर्देश की प्रमुखता रहती थी। विपरीत आचरणवाली नारियाँ निंदनीय थी।
___ अ. कन्या की स्थिति : रामायणकाल में पुत्र प्राप्ति प्रसन्नता और संतोष का आधार था, किंतु परिवार में कन्या का आगमन असंख्य पुण्यों का एवं तपस्या का फल माना जाता था। कुमारी कन्याओं की उपस्थिति शुभ शकुन और मांगल्यपूर्ण मानी जाती थी, तथा अनेक धार्मिक अनुष्ठानों में उन्हें आदर एवं स्नेहपूर्वक आमंत्रित किया जाता था। जैसे युवराज के रूप में श्री राम के अभिषेक के प्रसंग में भी आठ कन्याओं द्वारा उनके जलाभिषेक का वर्णन प्राप्त होता है। पुत्री के चरित्र तथा पावनता की रक्षार्थ तथा उपयुक्त वर की खोज में पिता दुःखी एवं चिंतित रहते थे। कन्या परित्याग की कुलषित प्रवत्ति उस काल में रही हो यह आशंकित है। स्वयं जानकी भी शैशवास्था में राजा जनक को खेत के गड्डे में मिली, जब राजा हल हाँक रहे थे। कतिपय विद्वज्जन इसे भी कन्या विसर्जन के प्रसंग के रूप में ही अनुमानित करते हैं। ऐसी विसर्जित कन्याओं के लिए संरक्षण-तत्परता भी समाज में व्याप्त थी। ब. रामायण कालीन शिक्षा और नारी : तत्कालीन व्यवस्थाओं में शिक्षा के चार प्रकार थे:
(क) शारीरिक (ख) मानसिक
(ग) व्यवहारिक (घ) और नैतिक रामायण कालीन स्त्रियों के लिए इन चारों प्रकार की शिक्षा का विधान था। बालिकावस्था से ही उन्हे आयुधसंचालन, रथ संचालन आदि सामरिक विद्याएं सिखायी जाती थीं। रणस्थल में आहत योद्धाओं की प्राथमिक चिकित्सा के लिए भी उन्हें अभ्यास कराया जाता था। रामायण के एक प्रसंग में कैकेयी ने अपने स्वामी की समरस्थली में प्राण-रक्षा की और उन्हें बचाकर ले आई थी। जानकी के पाणिग्रहण के लिए राजा जनक की प्रतिज्ञा के पीछे भी एक रहस्य था। जानकी इतनी शक्तिमती थीं कि वे शंकर के विशाल धनुष को सुगमतापूर्वक उठा लेती थीं। उसके लिए इससे उच्चत्तर शक्तिवान वर ही अपेक्षित था। शारीरिक शिक्षा के फलस्वरूप ही तत्कालीन नारियों में इस भांति का सामर्थ्य और क्षमता थीं। स्त्रियों को प्रारम्भ से ही कर्मकांड, वेद-वेदांग, पुराण, उपनिषद्, इतिहास, शस्त्रादि के ज्ञान में पारंगत किया जाता था। संगीत, चित्र, नत्यादि कलाओं में स्त्रियां निपुण होती थीं। सीता इन विलक्षण गुणों से सम्पन्न थी। कौशल्या हवन करती हुई, जानकी संध्यावंदन करती हुई ओर तारा मंत्र प्रयोगकरती हुई रामायण में दष्टिगत होती हैं। माता पिता, ऋषि, द्विज आदि के द्वारा कन्याओं को स्त्रीधर्म के विभिन्न पक्षों का ज्ञान करा दिया जाता था। यह नैतिक शिक्षा का ही परिणाम था जो उन्हें पति-पत्नी के पारस्परिक कर्तव्यों, पतिगह में मर्यादापूर्ण आचरण, शील की महत्ता
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व पीठिका
आदि विभिन्न आवश्यक विषयों का ज्ञान हो जाता था। यही कारण है कि स्त्रियों की मर्यादाहीनता, अनाचार आदि के उद्धरण कम ही मिलते हैं। म. विवाह व्यवस्था और नारी:
रामायणकाल मे पिता ही कन्या के लिए वर का चयन किया करता था,। उसके निर्णय एवं विवेक में कन्या की पूर्ण श्रद्धा रहा करती थी। विवाह के पूर्व पारस्परिक परिचय, रूपाकर्षण, आसक्ति, प्रणय-प्रस्ताव एवं पूर्वराग के लिए कोई स्थान नहीं था। स्वयंवर में श्रीराम ने सीता के वरण की पात्रता प्राप्त कर ली थी किंतु विवाह पिता दशरथ की आज्ञा पाकर ही किया, कन्या की याचना स्वयं कन्या से नहीं,अपितु उसके पिता से की जाती थी। बाल विवाह का कोई प्रसंग प्राप्त नही होता। वर और कन्या का अल्पायु में तथा बेमेल विवाह नहीं होता था। आयु क्रम से ही भाइयों के विवाह हुआ करते थे। क. विवाह प्रकार और प्रणालियाँ:
इस युग में छ: प्रकार के विवाह प्रचलित थे। जिनका स्मृतिकारों ने निम्नलिखित रूप में नामकरण किया है। (१) ब्राह्मण-विवाह – दोनों पक्षों मे परस्पर द्रव्यादि के लेन देन का व्यवहार नहीं रहता है। (२) प्रजापत्य-विवाह – वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष का समुचित सत्कार तथा धर्माचारिणी के रूप में कन्या का दान कर दिया
जाता है। (३) आसुर विवाह – वर द्वारा धन सम्पति शुल्क के रूप में कन्या को दी जाती है। (४) गांधर्व विवाह - प्रच्छन्न रूप में होते थे, सार्वजनिक रूप मे नहीं। (५) राक्षस विवाह - कन्यापहरण के पश्चात् किया जाने वाला विवाह। (६) पैशाच विवाह - विवाह से पूर्व वासनोपशांति का बलपूर्वक क्रम रहता है। ऐसे विवाह के मूल में अनाचार रहा करता
प्रजापत्य विवाह ही सामान्य रूप से प्रचलित था। इस काल में अग्नि के तीन फेरे होते थे। पिता कन्या को स्वेच्छा से उपहार देते थे, जिस पर कन्या का अधिकार होता था। वर पक्ष द्वारा प्राप्त उपहारों पर भी कन्या का अधिकार होता था। दहेज प्रथा का प्रचलन नहीं था। कन्या यदि सामान्य से अधिक गुणवती, रूपवती होती तथा वर अधिक उम्र वाला होता तब वर पक्ष की ओर से अल्प मात्रा में ही कन्या पक्ष को कुछ शुल्क देना होता था। परम गुणवती सीता के लिए श्रीराम को धनभंग करना पड़ा, तथा कैकेयी के लिए नृपति दशरथ को वचन देना पड़ा कि कैकेयी - पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। ख. एकाधिक पत्नीत्व प्रथा:__राजवंशों के अनुकरण से प्रजाजनों में भी बहुपत्नी प्रथा प्रचलित थी। इसे श्रेयस्कर नहीं माना जाता था। इसका परिणाम था:- सौतिया डाह, गृहकलह तथा षडयन्त्र एवं नारी गौरव की अवमानना। एक पत्नीत्व की महिमा अपरंपार थी। राम एक पत्नीव्रती थे, सीता हरण प्रसंग में उन्होंने पुनर्विवाह नहीं किया, अपितु यज्ञादि के लिए सीता की स्वर्ण प्रतिमा के विकल्प को अपनाया । नारी का शील एक पतिव्रत्य में ही निहित था। दक्षिण भारत इसका अपवाद रहा। तारा, रंभा, मंदोदरी आदि रानियां ऐसी थी जिनके एक से अधिक पति रहे, किंतु वे दो पति एक ही समय में रहे, अथवा अन्य पुरूष को पति स्वीकार किया इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है। (ग) दाम्पत्य संबंध और विच्छेदः
स्वार्थपरता, अराजकता, सपत्नी कलह, परदारा या पर पुरूष में अनुरक्ति या व्यभिचार मधुर ओर पवित्र दाम्पत्य संबंध को कलुषित कर देते हैं। इन कारणों से पत्नी परित्याग के उद्धरण अपवाद रूप में ही प्राप्त होते हैं। कैकेयी की माता अपने पति के प्रति लापरवाही के कारण परित्यक्ता थी। व्यभिचार के कारण अहिल्या, व लोकापवाद के कारण सीता का परित्याग कर दिया गया।
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
रणों के निवारण होने पर पनर्ग्रहण भी संभव हो गया था। अराजकता के कारण पत्नी द्वारा पति के परित्याग के प्रसंग भी रामायण में उपलब्ध होते हैं। रामायण काल में एकाकी या एकल पक्षीय प्रेम हेय माना जाता था। इसी आधार पर रावण सीता का स्पर्श नहीं कर पाया था। कामुकता निंदनीय प्रवृत्ति समझी जाती थी। विवाह का प्रयोजन मात्र संतति लाभ माना जाता था। वासना तप्ति नहीं। स्त्रियों के । लिए तो तिः गार्हित मानी गयी थी। पर स्त्री संग महापाप माना जाता था। पर-दाराएं पुरूष के पराभव का कारण मानी जाती थीं। ऐसा परिणय प्रस्ताव भी सामाजिक अनाचार माना जाता था। जो व्यक्ति धर्म और अर्थ को एक तरफ रखकर मात्र काम का सेवन करता है, वह दशरथ की भांति संकट में पड़ता है। जीवन के अन्यान्य पदार्थों के साथ काम का संतुलित रूप ही वरेण्य था। (घ) नारी का वधू रूप एवं पत्नी रूपः____ वधू रूप में नारी रामायण काल मे भी गरिमामयी, मदुल ओर स्नेह पात्र रही। पतिगह में नवीन वातावरण में संकोचशीला ना बनी रहे, अतः सास ससुर अपनी संतति से भी अधिक ममता और स्नेह उसे देते थे। पति का असीम प्रेम भी उसे मिलता तथा सास, ननंद, जेठानी-देवरानी, जेठ–देवरादि से कभी कलह या अप्रिय, कटु व्यवहार का प्रसंग ही नहीं बनता था। वधू शीघ्र ही इस नव–परिवार की रीतिनीति के अनुरूप ढ़ल जाया करती थी।
रामायणकाल में पत्नी के लिए पतिव्रता होना एक सहज धर्म ही हो गया था। पत्नी स्वयं को पति की सहधर्मिणी और दुःख सुख में उसकी सहचरी मानती थी। परलोक के लिए भी वे स्वयं को अपने पति की सहवर्ती मानती थी। सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक कार्यों में ही नहीं अपितु अपने दायित्व पूर्ण करने में भी पुरूष को पत्नी का सहयोग प्राप्त रहता था। वे अपने परामर्श से राजनैतिक स्थितियों तक को प्रभावित परिवर्तित कर उन्हें अनुकूल बना देती थी। सीता के जीवन में भी ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं। युद्ध में भी पत्नी पति संगिनी रहती थी, और सार्थक भूमिका निभाती था। रानी कैकेयी राजा दशरथ के साथ उन्हीं के रथ में आरूढ़ हो कर युद्ध क्षेत्र में गई। रथचक्र के भग्न होने के कारण संकट की घड़ी में अपने प्राणों को जोखिम में डालकर उसने पति की जीवन रक्षा की थी। वनवास के लिए प्रस्थान करते समय श्रीराम ने अपनी माता कौशल्या को जो उपदेश दिया, उससे नारी आदर्शों की पुनर्स्थापना हुई। उन्होंने कहा कि स्त्री के लिए पति ही देवता, गुरू, गति, धर्म, प्रभु और सर्वस्व है। अतः पति में एकान्त निष्ठा ही पत्नी का धर्म है। पति-चरणों की सेवा का सुख रिद्धि-सिद्धियों के सुखों से भी अधिक श्रेयस्कर होता है। माता-पिता, पुत्रादि सीमित सुख दे पाते हैं। पति ही अमित सुख का स्त्रोत होता है। यही भाव अनसूया ने सीता से कहे थे। अन्यत्र भी वर्णित है - " स्त्री के लिए पति सेवा से बढ़ कर अन्य कोई तप नहीं। स्त्री को शौर्य, पराक्रम, साहस की प्रतिमा रूप में भी वाल्मीकि ने चित्रित किया है। ऐसी स्त्रियाँ पति के मन पर शासन करने लग जाती हैं।
ग का आखेट करने का आग्रह अस्वीकार्य नहीं कर सके। कैकेयी ने भी पति दशरथ की शासिका होने का खूब परिचय दिया। पत्नियाँ पतियों को समरांगन हेतु प्रस्थान के लिए प्रेरित करती थी, और योद्धापति अपनी पत्नियों से भर्त्सना पाने के भय से युद्धभूमि में शत्रुओं को पीठ नहीं दिखाते थे। इन प्रवृत्तियों का प्रचुर वर्णन रामायण में उपलब्ध होता है। रामायण में अग्निपरीक्षा से सर्वथा पवित्र सिद्ध हो चुकी जानकी का भी पति श्रीराम ने लोकापवाद के भय से पुनर्वनवास दे दिया किंतु स्वयं सीता ने पति की आज्ञा को तत्परतापूर्वक स्वीकार किया। इस प्रसंग ने भारतीय नारी की प्रश्नहीन निष्ठा, कष्ट सहिष्णुता और तितिक्षा भावना की उच्चता को दढ़तापूर्वक सुस्थापित किया है और भावी नारियों के लिए सन्मार्ग सुझाया है तथा नारी सीता के माध्यम से ममता, मांगल्य और मंजुलता का कोष चित्रित हुई है। सहज व्रीड़ा, संकोचशीलता, श्रद्धा, स्नेह, माधुर्यादि महिमाओं से मंडित जानकी महान नारियों, शची, रोहिणी, सावित्री, दमयन्ती से भी शीर्ष स्थान की अधिकारिणी है। सीता ने पति राम के साथ वनवास के समस्त कष्टों को स्वीकार किया श्री राम के बिना उन्हें स्वर्ग लाभ भी स्वीकार्य नही हआ। पुरूष के साथ सदा सर्वदा रहने वाली उसकी परछाई भी अंधकार में उसका संग छोड़ देती है किंतु विपत्तिकाल में सीता ने श्रीराम का साथ निभाया है।
पत्नी की अनुपस्थिति में पति यज्ञ क्षमता नहीं रखता था, किंतु पति के अभाव में स्त्रियां यज्ञ करती थी, तथा पितरों के तर्पण
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व पीठिका
करने की शक्यता भी रखती थी। राज्याभिषेक पति का ही नहीं पत्नी का भी साथ ही साथ किया जाता था। पति के निधन पर विध्वा पत्नी पति के अंतिम संस्कार में भी सम्मिलित हुआ करती थी। राजा दशरथ की पत्नियों ने श्मशान कार्य संपन्न किये थे। शवयात्रा में स्त्रियां आगे चला करती थी, चाहे अन्य अवसरों पर वे पुरूषों का अनुगमन किया करती हों।
रामायणकाल में यह मान्यता थी कि भंगार प्रसाधनों और आभूषणों से पत्नी का तन अधिक कमनीय ओर रमणीय हो उठता है। किंतु पति परायणता का अभाव हो तो ये सारे भूषण दूषण बनकर रह जाते हैं। हंसमुख स्वभाव, प्रगाढ़ अनुरक्ति और मृदु व मधुर भाषिता विनम्रता स्त्री के लिए अत्यावश्यक तत्व हैं तथा ये सही अर्थों में उसके अंगार प्रसाधन हैं।
पति समर्पिता होने के साथ ही नारी का ओज और तेजस्विता भी अपने स्थान पर नीतियुक्त एवं आवश्यक मानी गई हैं। पति के विपथगामी हो जाने की घड़ियों में भर्त्सना कर ,पति को दोषमुक्त कर, पुनः सन्मार्ग पर आरूढ़ करना इसका हेतु था। ऐसे अवसरों पर ओजस्विनी नारी का अपना असंतोष, आक्रोश और खिन्नता प्रकट करना स्वाभाविक ही है। अपने वचन से हटते देखकर कैकेयी ने दशरथ को बुरा भला कहा, शूर्पणखा ने रावण को कर्तव्य विमुख ओर कायर कहा। कौशल्या ने श्रीराम को वन में भेज देने पर दशरथ को तीखे वचन कहे। दशरथ द्वारा क्षमायाचना करने पर कौशल्या को भी पश्चात्ताप हुआ। उसने दशरथ से अपने कुवचनों के लिए क्षमा याचना की। उस युग की मान्यता थी कि यदि पत्नी पति से अनुनय विनय करवाती है तो वह दोनों लोकों से जाती
(ङ) पति के कर्तव्य पत्नी के प्रतिः
पत्नी के प्रति पति के तीन सर्वप्रमुख कर्तव्य थे:(१) पत्नी का भरण पोषण करना। (२) स्त्रीधन का उपयोग न करना। (३) दाम्पत्य सम्बंधी एक निष्ठता का पालन करना।
पुरूष पत्नी का पालन करने के कारण ही "पति" ओर उसका भरण करने के कारण ही "भर्ता" कहलाता है। जो पति अपनी पत्नीयों को आजीविका का आधार मानते थे, उन पतियों को समाज आदर की दृष्टि से नहीं देखता था। वे महाघ्रणित समझे जाते थे। पत्नी के सद्परामर्श पति के लिए आदरणीय एवं विचारणीय होते थे। कोई परामर्श यदि पति मान्य नहीं करता तब भी पत्नी के सम्मान में कमी नहीं आती थी। मंदोदरी की सम्मति रावण ने चाहे अमान्य कर दी हो, किंतु उसने पत्नी को अप्रिय वचन नहीं कहे |पति का आदर्श और कर्तव्य था कि वह एक दारा रत रहे । पर स्त्री सेवन महापाप माना जाता था। पत्नी के सम्मान की रक्षार्थ पति प्राणों की बाजी लगा देते थे। राम-रावण युद्ध के पीछे सीता के सम्मान की रक्षा का ही मूल प्रश्न था। श्री राम ने संकेतित किया था कि नारी के सम्मान की प्रथम रक्षिका वह स्वयं है, और उसका सदाचरण है। न तो घर, न वस्त्र, न दीवारें, न राजसत्कार ही किसी स्त्री के सम्मान की रक्षा कर सकता है। सदाचारिणी स्त्री सर्वत्र वंदनीय सदैव पूज्यनीय होती है।
___ नारी के साथ वार्तालाप में भी पुरूष शिष्ट मृदु और मधुर भाषा का प्रयोग करता था, सम्मानसूचक व्यवहार करता था। बद्धकरों को मस्तक तक पहुँचाकर हनुमान और विभीषण सीता से वार्तालाप करते थे। रथारूढ़ होते समय स्त्रियों को पहले अवसर दिया जाता था। स्त्रियों को घूरना भी वर्जित था। बिना पूर्व सूचना सहसा स्त्रियों के सन्मुख उपस्थित होना, अशिष्टता मानी जाती थी। पति के अभाव में स्त्री से अकेले में बात करना मर्यादाहीन माना जाता था। स्त्री वध सर्वथा वर्जित था। मत्युदण्ड के अपराध में स्त्रियों को कुरूप कर दिया जाता था। मानवता की रक्षार्थ अन्य कोई उपाय न होने पर स्त्रीवध को शक्य माना जाता था। च. स्त्री अवमानना के विविध पक्षः___नारी के गौरव को प्रभावित करने वाले विविध पक्षों पर सम्यक् प्रकार से विचार करने के लिए निम्नसूत्र चिन्तनीय हैं :
१. पर्दा प्रथा : भारतीय समाज में मध्यवर्ती काल में पर्दा प्रथा व्यापक और सुदढ़ रूप से प्रचलित रही, किंतु प्राचीन काल में इसका आरंभ भी नहीं मिलता। वेदकाल में तो स्त्रियां जब घर से बाहर निकलती तो एक अतिरिक्त उत्तरीय या चादर से देह
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
कर लेती थीं। रामायणकाल में भी स्त्रियों के लिए पर्दे में रहने का विधान नहीं मिलता, राक्षस स्त्रियां किसी हद तक इसकी अपवाद कही जा सकती थी। रामायण में एक स्थल पर वाल्मीकि खेद व्यक्त करते हैं कि जिस सीता को नभचर भी देख नहीं पाते थे, उसे आज पथचर देख रहे हैं। इस कथन से पर्दा प्रथा के अस्तित्व का संकेत मिलता है किंतु इसे राजसी जीवन की भव्यता का सूचक ही अधिक कहा जा सकता है। स्त्रियां यज्ञ महोत्सव, स्वयंवर, विवाह समारोहादि विशिष्ट अवसरों पर अवगुंठनहीन अवस्था में उपस्थित होती थीं। सीता श्रीराम के संग अवगुंठनहीन अवस्था में विचरण करती थी,। मात्र विभीषण ने राम के पास उन्हें पर्दे में भेजा जो राक्षस समाज में पर्दा प्रथा का संकेत करता है। पर्दा प्रथा का एक हेतु नारी के विमल रूप को दुष्टों की कुदृष्टि से रक्षित करना था। रामायणकाल में तो नारी अपने चरित्रबल में आत्म रक्षार्थ सबल थी तेज से ही लंका में भी सीता ने अपने सतीत्व की रक्षा कर ली थी। अतः रामायण काल में स्त्रियों के लिए कोई रोक टोक नहीं थी। ज्यों ज्यों नारी की सबलता और आत्म रक्षा की क्षमता कम होती गई, त्यों-त्यों पर्दा सबल होता गया। इस प्रकार रामायण काल में कोई बाह्य प्रतिबंध पर्दे के नाम से नहीं था।
२. नारी पर पुरूष वर्चस्व का प्राबल्य :- रामायणकाल में नारी वर्चस्व में हास होने लगा था। पुरूष उस पर संपत्तिवत् अधिकार रखकर उपहार स्वरूप आदान प्रदान करता था। पिता द्वारा कन्यादान के साथ अनेक कन्याएं और दासियां उपहार में दी जाती थीं। श्री राम ने वनगमन के समय ऋषि को उपहार में अनेक कन्याएं दी। अश्वमेघ यज्ञों में तो पुराहितों को राजा अपनी रानियां भी दान करते थे। प्रदत्त कन्याएं अपने नये स्वामी के घर में दासीवत् सेवा कार्य करती हुई सर्वथा गौरव हीन जीवन व्यतीत करती थी। यद्यपि उनसे यौन तृप्ति का प्रयोजन नहीं रहता था, तथापि उनके गौरव और मर्यादा को निम्न तो कर ही देता था। राक्षसों द्वारा नारी अपहरण, शील भंग एवं मृत भाई की भार्या से विवाह कर लिया जाता था। देवतागण मृर्त्यलोक की सुंदरियों से आकृष्ट रहते तथा मृर्त्यलोक के नर अप्सराओं के संग प्रणय के लिए लालायित रहते थे। पुरूष की नजर में स्त्री का भोग सामग्री रूप ही महत्त्वपूर्ण था, ऐसा इससे स्पष्ट होता है।
श्री राम ने कहा था कि- मैं राज्य ही क्या, पिता की आज्ञा से पत्नी भी भरत को दे सकता हूँ। लक्ष्मण के शक्ति आघात से मूर्छित होने पर राम ने कहा था कि स्त्री और बांधव तो सर्वत्र मिल जाते हैं, किंतु सहोदर नहीं मिल सकता । आत्म सम्मान के लिए, लोकापवाद के भय से सीता का परित्याग आदि प्रसंगों से नारी के गौरव में आए हृास का परिचय मिलता है। इस युग में अपहरण जघन्य अपराध माना जाता था, जिसका परिणाम सर्वनाश होता है। जैसे; सीता का हरण रावण के लिए सर्वनाश का कारण बना।
३. नारी का परम गौरव, मातृत्व :- नारी का मातृत्व रूप अत्युच्च वरदान है। रामायणकाल में भी विवाह का चरम और परम लक्ष्य सुयोग्य और सद्गुणी संतान पैदा करना था। नारी पुत्र रूप में पति को ही पुनर्जन्म देती है। पुत्र से अतिशय समता रखती है। माताएं पत्र और पति के प्रेम में से पति प्रेम को प्राथमिकता देती थी, जो नारी आदर्श है। इस आदर्श की अवहेलना करने पर ही कैकेयी निंदा भर्त्सना की पात्र हो गई थी। पुत्र को संस्कारशील बनाने हेतु माता गर्भकाल में ही वेदों और शास्त्रों का श्रवण,-मनन और पठन पाठन करती थी तथा आचार विचार की पवित्रता का ध्यान रखती थी। रावण की माता अपनी दुष्प्रवृत्तियों के परिणाम स्वरूप ही रावण और कुंभकर्ण जैसे दुराचारियों को जन्म देकर अपयश की भागी बनी। अतः सफल मातृत्व सुसंतति में ही निहित माना जाता था।
४. विधवाओं की स्थिति :- रामायण काल में सामाजिक, धार्मिक एवं मांगलिक कार्यों में विधवाओं की उपस्थिति न वर्जित थी न ही अशुभकर मानी जाती थी। राम-सीता के अयोध्या आगमन पर, विधवा माताओं ने आरती उतारकर उनका स्वागत किया तथा श्रीराम का राज्याभिषेक भी किया। राक्षसों में पुनर्विवाह की प्रथा थी। रावण ने कई राजाओं का वध करके उनकी विधवाओं के साथ विवाह रचाए। वानरों में भी यह प्रथा थी। आर्यों में पुनर्विवाह की कल्पना तक भी नहीं थी। विधवा स्त्रियां संयम, व्रत तपादि में बहुत आगे निकल जाती थीं और समाज का अधिक सम्मान उन्हें प्राप्त होता था। कैकेयी के प्रति दशरथ का यह कथन कि "मेरी मृत्यु के पश्चात् तूं पुत्र के साथ राज्य करना" इस तथ्य को प्रकट करता है कि सती प्रथा सामान्य नहीं थी। इस विकल्प को अपनानेवाली स्त्रियों की संख्या अत्यल्प थी।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
20
पूर्व पीठिका
५. नारी दोष निर्देश :- तुलसी दास ने रामचरितमानस में नारी के दोषों को आठ वर्गों में रखकर वर्णित किया है। वे दोष हैं:- साहस, अनत, चपलता, माया, भ्रम, अविवेक, अशौच और अदया। कैकेयी का दुराग्रह तथा सीता का स्वर्णमृगार्थ ठ विनाशक सिद्ध हुए। स्त्रियां विवेकहीनता के कारण अस्थिरता, उत्सुकता, यौन प्रवृत्ति तथा पर पुरूष आकर्षण जैसे दूषणों से घिर जाती हैं। स्त्रियों को रामायण में भी फूट की निर्मात्री कहा गया है। सीता के कटु वचनों के उत्तर में लक्ष्मण ने पंचवटी में कहा था- स्त्रियां भाइयों में अलगाव करा देती हैं। किंतु ये अवगुण नारी जाति के न होकर अमुक नारी विशेष तक ही सीमित हैं। कतिपय स्त्रियों के विकारों के आधार पर तत्कालीन समग्र नारी वर्ग का मूल्यांकन करना उसका अवमूल्यन होगा अन्यथा, रामायणकाल में योग रूप में नारी का जो स्वरूप रहा उसे देवत्व के समीप का स्वरूप कहा जा सकता है। वह स्वरूप तो ऐसे सद्गुणों से संयुक्त है कि युग-युग में भारतीय नारी का दिग्दर्शक बना हुआ है जिसका महत्व चिरंतन शाश्वत है। १.१.५ महाभारत कालीन नारियां :
रामायण और महाभारत काल के मध्य लगभग तीन सहस्त्राब्दियों का अंतराल माना जाता है। इस दीर्घ कालान्तर में भारतीय जीवन मूल्यों में बड़ा बदलाव आया । राम कहते थे कि भरत राजा बनेगा, मैं नहीं और भरत कहते थे कि राम राजा बनेंगें मैं नहीं। दोनों उस काल में एक दूसरे को राजा बनाना चाहते थे, स्वयं राजा बनना नहीं चाहते थे। महाभारत काल में यह त्याग भावना स्वार्थ भावना में बदल गई। एक भाई दूसरे भाई से कहता था - तूं नहीं मैं राजा बनूंगा। इसी प्रकार दूसरा भाई भी कहता था । भौतिक सुखोपभोग के लिए मनुष्य नीति अनीति का भेद भी विस्मत करता जा रहा था । नारी स्थिति के इतिहास क्रम में महाभारतकालीन परिवर्तन एक महत्वपूर्ण मोड़ माना जा सकता है।
अ. कन्या का शुभ स्वरूप :- रामायणकाल की भांति ही इस काल में भी मंगल अवसरों पर कन्यादर्शन, कार्यसिद्धि के लिए कुमारी कन्याओं द्वारा कर्ता का अभिनंदन, कार्यारम्भ के समय कराया जाता था । कन्यायें माता-पिता तथा परिजनों की अत्यंत स्नेह पात्र होती थी । कन्याएं भी अपने पितकुल के लिए सर्वस्व परित्याग करने के लिए तत्पर रहतीं थीं । शर्मिला ने कुल प्रतिष्ठा की रक्षार्थ देवयानी का दासत्व आजीवन स्वीकार किया ।
ब.
कौमार्य पावनता का प्रश्न :- इस काल में कन्या की मांगलिकता का आधार उसका कौमार्य ही था। कौमार्य - पतन राज्य के पतन का सशक्त कारण बन जाता है। यदि कन्या स्वयं सहकारी रूप से प्रतिभागी हो तो उसे ब्रह्महत्या के पाप का तिहाई पाप लगता है। कुंती, द्रौपदी आदि के कौमार्य अवस्था में समागम को अपावन नहीं माना गया।
म. विवाह संस्कार :- रामायणकाल की तरह महाभारतकाल में भी विवाह के आठ प्रकार प्रचलित थे, अंतर यह था कि रामायणकाल में निम्न और हेय कोटि के विवाहों का प्रचलन अत्यल्प एवं नहींवत् था तथा महाभारतकाल में उनका प्रचलन कुछ बढ़ गया था, किंतु ऐसे विवाहों की निंदा ही होती थी ।
क. पति-पत्नी संबंध :- इस युग में स्त्रियों को पूजा योग्य माना गया था । तथा स्त्रियों को अलंकृत करना, पुरूषों का कर्तव्य था । भरण के दायित्व के कारण वह भर्ता और पालन करने के कारण पति कहलाता रहा। पत्नी रक्षा के दायित्व निर्वाह में असमर्थ पति नरकगामी होता है, निंदनीय होता है तथा पत्नी द्वारा भर्त्सना प्राप्त करताहै । निष्क्रिय पांडवों की द्रौपदी द्वारा भर्त्सनाकी गई थी। स्त्री पुरूष के नियंत्रण में तो थी किंतु यह नियंत्रण अमर्यादित नहीं रहा। इस युग में भी पति सेवा पत्नी की प्रमुख प्रवृत्ति रही, साथ ही उसके पति - प्रेम में अनन्यता का भाव भी ध्रुव रूप में रहा। पतिव्रता स्त्री को परपुरूष देखना भी चाहे तो उसकी अभिलाषा पूर्ण नहीं हो पाती थी। पति के दोष निवारण में आदर्श पत्नी अग्रणी रहती, किंतु वह पत्नी, पति को अपना शासित नहीं बनाती थी । पत्नी - शासित पति निंदा और अपयश ही प्राप्त करता है। पत्नी के धन पर स्वयं उसका अधिकार था। भार्योपजीवी पुरूषों को गोहत्या के समान पाप लगता था । इस काल में राजा को कन्याओं का उपहार देने का प्रचलन था। यज्ञ कराने वालों को भी कन्याएं दान में दी जाती थीं किंतु पत्नी का दान किया जाना प्रचलित नहीं था। द्रौपदी पर दुर्योधन का अधिकार अवांछित और घोर निंदनीय घटना थी ।
ख. महाभारत काल में नारी की स्थिति का ह्रास :- स्त्री की हीनदशा पूर्वापेक्षा अधिक अंकित हुई, । भीष्म पितामह का कथन है कि वचन से, वध से बंधनों से विधि-क्लेशों से नारी की रक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि वे सदा असंयत हैं । युधिष्ठिर
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
21
का कथन है कि स्त्रियां गौओं की भांति नये-नये पुरूष ग्रहण करती हैं। स्त्रियां कामांध तथा अगणित दोषों का घर हैं । ५
१.१.६ स्मृतिकाल में भारतीय नारी:- वेदोपनिषदों के अनंतर समाज व्यवस्था के स्वरूप विवेचक ग्रंथों में स्मृतियों का विशेष महत्व है । मनुस्मृति का शास्त्रों में विशेष स्थान है। मनुस्मृति में हिंदु समाज की संरचना एवं संचालन का संविधान सुव्यवस्थित है। वर्ण व्यवस्था, परिवार व्यवस्था, समाज में नारी का स्थानादि, विभिन्न लोक व्यवहारगत विषयों का अधिकारिक निर्धारण एवं विवेचन इस स्मृति का मूल प्रतिपाद्य रहा है। सुदीर्घ परवर्तीकाल में तथा वर्तमान में जो संस्कार और संस्थाएं हिंदु समाज में परंपरागत रूप में विद्यमान हैं उनका स्त्रोत मनुस्मृति ही है। अतः निविर्वाद रूप में उनमें प्रस्तुत नारी स्वरूप को तत्कालीन नारी स्थिति माना जा सकता है।
अ. पत्नी रूप में नारी के कर्तव्य :- मनु याज्ञवल्क्य, शंख, व्यास, आदि दार्शनिक ऋषियों ने पत्नी के कर्तव्यों का निर्धारण और विवेचन निम्न रूपों में किया है। पत्नी पति सेवा परायण, हँसमुख स्वभावी, गृहकार्यदक्ष, आदत से स्वच्छ मितव्ययी, पति के मनोरोगों की चिकित्सक, गुरूजनों के पश्चात् सोने वाली और उनके उठने से पूर्व निद्रा का त्याग करने वाली हो एवं निषिद्ध व्यक्तियों के संपर्क से दूर रहने वाली हो ।
पुरुषों का दायित्व था कि वे प्रत्येक अवस्था में संबंधित नारियों के मान-सम्मान-प्रतिष्ठा की रक्षा करें। पति का कर्तव्य था "धर्मे अर्थे च नाति चरामि' अर्थात् धर्म ओर अर्थ सम्बंधी कोई कार्य पत्नी के बिना नहीं करूंगा। स्मृतिकाल में कन्या का विवाह शिक्षा की अपूर्ण अवस्था में रजोदर्शन से पूर्व होता था। उसके शिक्षाक्रम को बढ़ाने का काम पति पर था। इस हेतु पति का गौरव क्रमशः उन्नयन प्राप्त करता रहा। इस क्रम ने तीव्र गति धारण की तथा पति पत्नी के लिए देवतावत् पूज्यनीय बन गया। पति के कोढ़ी, पतित अंगहीन, या रूग्ण होने पर भी पति को देवता मानकर "पति सेवा" का विधान किया गया।
ब. पत्नी के अधिकार :- पति की समस्त संपदा पर नारी का अधिकार था। स्त्री धन जैसी संपदा पर मात्र पत्नी का एकाधिकारयुक्तस्वामित्व भी रहता था । व्यभिचारिणी स्त्रियों को दंडित किया जाता था ।
इस काल में स्त्रियों के लिए उपनयन संस्कार निषिद्ध था । फलतः वेदाध्ययन निषिद्ध था । अक्षत कौमार्य कन्या का विवाह होता था । पुत्र और पुत्री को समान माना जाता था । पुत्र के अभाव में पुत्री धन की अधिकारिणी होती थी। शौनिक कारक में आठ मंगलकारी वस्तुओं में कन्या दर्शन भी एक मंगल माना जाता था ।
म. नारी सम्मान :- मनुस्मृति का कथन है कि "यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता" अर्थात् जहां नारी का सम्मान होता है वहां प्रसन्नतापूर्वक देवता निवास करते हैं। जहां स्त्री दुःखी रहती है, वहां वह कुल शीघ्र ही सर्वनाश को प्राप्त हो जाता है। यदि पिता रजस्वला आयु प्राप्ति के तीन वर्ष बाद भी अपना कर्तव्य पूर्ण नहीं करे तो कन्या को स्वयं पति चयन करने का अधिकार होता था। अयोग्य वर निषिद्ध था। परिवार में स्त्रियां सबके भोजन करने के पश्चात् भोजन करती थी किंतु नववधू को सर्वप्रथम भोजन कराया
जाता था।
माता देवताओं से अधिक पूजित मानी जाती थी। दस उपाध्यायों से अधिक एक आचार्य का सौ आचार्यों से अधिक एक पिता का, और हजार पिताओं से अधिक एक माता का गौरव होता है। माता पिता में विवाद हो जाए पिता कुमार्गी हो जाये तो संतान माता की ओर से बोले तथा माता के पास ही रहे।
क. स्मृतिकाल में नारी शिक्षा :- मनु तथा याज्ञवल्क्य की व्यवस्था ने स्त्रियों की शिक्षा को अत्यंत आघात पहुंचाया। इन्होंने विवाह के संस्कार को ही उपनयन का रूप मानकर, पति सेवा को ही गुरुकुल निवास बना दिया और यहीं से स्त्रियों की पराधीनता का प्रारम्भ हुआ । धर्मशास्त्रकारों ने स्त्रियों के विरुद्ध षडयंत्र सा रच डाला तथा वैदिक अध्ययन के अतिरिक्त अन्य विषयों में उन्हें शूद्रों के समकक्ष रखकर उनकी शिक्षा समाप्त कर दी ।
डॉ० अलकर ने नारी शिक्षा के ह्रास पर विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि 'संपन्न परिवारों में कम आयु में विवाह होने के कारण बालिकाओं को शिक्षा पूर्ण करने का बहुत कम अवसर उपलब्ध होता था । निर्धन परिवार की बालिकायें विवाह के समय आवश्यक मंत्रों का उच्चारण भी नहीं कर पाती थीं। गृहकार्यों में व्यस्तता के कारण अध्ययन का समय उपलब्ध नहीं होता था ।
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
22
वैदिक मंत्रोच्चारण की अल्प त्रुटि भी भयंकर समझी जाती थी। संभवतः इसीलिए त्रुटिपूर्ण वेदाध्ययन को प्रतिबंधित करना ही उचित समझा गया। वैदिक तथा साहित्यिक शिक्षा का ह्रास अवश्य हो रहा था, किन्तु गृहविज्ञान की शिक्षा में किसी प्रकार की कमी नहीं की जाती थी।
पूर्व पीठिका
वैदिक युग में युवक तथा युवतियों को अपने योग्य जीवन साथी चुनने की पूर्ण स्वतन्त्रता थी । ऋग्वेद काल में स्वयंवर होते थे। बाद में यह प्रथा क्षत्रियों में सर्वाधिक प्रचलित रही । अल्पायु में विवाह प्रारम्भ होते ही इस प्रथा का विलोप होने लगा। पुराणों ..में इस प्रथा का घोर विरोध किया गया। पौराणिक काल में स्त्रियों का स्थान महत्व कम हुआ ।
१.१.७
पौराणिक काल में भारतीय नारी का सामाजिक महत्व:
भार्या को गृहधर्मिणी के रूप में स्वीकार किया गया जो वैदिक कालीन परम्परा एवं पौराणिक युग में भी दृष्टव्य है । विष्णुपुराण में पत्नी को सद्धर्मचारिणी की संज्ञा दी है, जिसके साथ गृहस्थ धर्म का पालन करने से महान् फल की प्राप्ति होती है। ब्रह्माण्डपुराण
मातंग की पत्नी को भी सहधर्मिणी की उपाधि दी गई। याज्ञिक अनुष्ठानों में पत्नी की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती थी । पुराणों में पृथ्वी का उद्धार करने वाले वराह की क्रिया को "यज्ञ" का रूपक माना गया। वर्णनक्रम में निरूपित है कि उस समय उनकी पत्नी छाया उनके साथ विद्यमान थीं। ब्रह्माण्डपुराण में निरूपित है कि नप सागर ने सपत्नीक यज्ञीय स्नान संपन्न किया । उपर्युक्त उद्धरण से ज्ञात होता है कि समाज में जब तक याज्ञिक अनुष्ठान परंपरा विद्यमान थीं, पति के साथ पत्नियां भी उसमें सहयोग देती थीं।
पत्नी का सर्वश्रेष्ठ गुण संयम माना जाता था । इंद्रियों पर संयम सर्वाधिक कठिन कार्य है और इसमें पत्नी सफलीभूत होती थी। ऋषि वशिष्ठ की पत्नी अरुंधती ने पति के साथ रहकर अपनी इंद्रियों को वश में कर स्वयं को संयमी स्त्री सिद्ध किया । इसके पीछे दो मुख्य धारणायें काम कर रही थीं। प्रथम, तत्कालीन सामाजिक नियम विश्रंखलित हो रहे थे और उसे व्यवस्थित करना आवश्यक था। पत्नी के संयम से पति को संयमित रहने की प्रेरणा मिली अतः पति भोग विलास में लिप्त न होकर सामाजिक कर्तव्यों की ओर अपना ध्यान आकष्ट करने लगे। दूसरे बाह्य आक्रमण तथा युद्धों के कारण देश का आर्थिक संतुलन भी डावाँडोल हो रहा था, अतः आर्थिक स्थिति को सुदढ़ बनाये रखने के लिए परिवार को सीमित करना भी आवश्यक हो गया था। इस युग में साहित्य और मूर्तिकला में कहीं भी एक या दो से अधिक बच्चों का संकेत नहीं मिलता। सीमित परिवार के नियोजन का श्रेय स्त्रियों की संयम शक्ति को ही दिया जाना चाहिये ।
नारी जीवन की सार्थकता मातृत्व में है, यह मानकर पुराणों तथा तंत्रों में स्त्री के मात रूप की आराधना महाशक्ति जगदम्बा और जगज्जननी आदि अनेक नामों से की है। भारतीय नरेशों द्वारा उत्कीर्ण करवाये गये अभिलेखों में भी माता को ही प्रधानता दी गई है। ये शासक अपनी दिवंगत माता के नाम पर दानादि दिया करते थे तथा उनके सम्मान में अभिलेख उत्कीर्ण करवाते थे।
कभी कभी पुत्रियाँ भी अपनी माता की कीर्ति के लिए धार्मिक कृत्य करती थीं। लोणियवंशीय श्री कृष्णादेवी इसका प्रमाण है जिन्होंने अपने माता-पिता की कीर्ति के लिए धार्मिक कार्य किये थे। चेदिराज ने माता के अनुरोध पर अपने शत्रु के परामर्शदाताओं तथा शत्रु पत्नियों को कैद से मुक्त कर दिया था।
हिन्दू विवाह संस्था का उद्देश्य पति-पत्नी के सम्बन्ध स्थापित करना ही नहीं वरन् उनमें प्रेम तथा सौहार्दपूर्ण व्यवहार उत्पन्न कर घर को स्वर्ग बनाना तथा समाज की उन्नति करना था । भवभूति ने मालती - माधव ग्रंथ में पति-पत्नी के आदर्श प्रेम का उदाहरण प्रस्तुत किया है। उत्तररामचरित की सीता रामचन्द्रजी के लिए गह लक्ष्मी थीं । आदर्श दाम्पत्य जीवन की कसौटी पति-पत्नी के अटूट सम्बन्ध थे। सुशिक्षित एवं कुलीन परिवारों में पत्नी को सम्मान एवं प्रतिष्ठा प्राप्त थीं। रानियों को महारानी जैसी उपाधियों से विभूषित किया जाता था । इस सम्बन्ध में अनेक अभिलेखीय साक्ष्य मिलते हैं । "
पत्नी में प्रेम तथा दूसरों के हितों का ध्यान रखना आदि गुणों का होना स्वाभाविक था । नारायणपाल के बद्दल स्तंभ लेख में चर्चित इच्छना में दोनों गुण थे। गोपाल की पत्नी रम्भादेवी के गुणों की प्रशंसा प्रजा करती थीं। सल्लक्षणवर्मन के अन्तःपुर में मालव्यदेवी अपने विशेष गुणों के कारण महारानी के पद पर आसीन हो सकी थीं।
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
परिवार में पुत्रवधू के साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार किया जाता था। पुत्रवधू के विध्वा हो जाने पर कभी-कभी स्नेहसिक्त सास भी पुत्रवधू का अनुसरण (अग्नि में) करती थीं। सास-ससुर पुत्रवधू को पुत्रीवत् स्नेह करते थे तथा उसका विरह उन्हें सह्य नहीं होता था। परिवार का प्रत्येक सदस्य पुत्रवधू का सम्मान करता था। देवर के लिए भाभी पूज्या थीं तथा आदर सूचक संबोधन की पात्र थीं। जैसे लक्ष्मण सीताजी को आदरणीया कहकर संबोधित किया करते थे। पुत्रवधू सास-ससुर की सेवा करना अपना कर्तव्य समझती थीं। ___पौराणिक नारी आर्दश, परवर्ती नारियों के लिए दिशाबोधरूप है। पुत्र के समान इस युग में पुत्री प्राप्ति के लिए भी यज्ञादि होते थे, कन्या दर्शन को मंगलकारी माना जाता था। वैवस्वत मनु की धर्मपत्नी श्रद्धा ने पुत्रेष्टि यज्ञ के समय होता से कन्या प्राप्ति की कामना की थी।
___ आदर्श पत्नी को व्रत, तपस्या, देवार्चा सबको त्यागकर केवल पति-सेवा, पति स्तवन, और पति-परितोषण ही करना चाहिए, चाहे पति कोढ़ी और अपंग ही क्यों न हो। पुराणों का मत है कि पति के वचन सर्वथा पालनीय हैं विचारणीय नहीं। पुराणकालीन पत्नी पति का नाम अधरों पर नहीं आने देती थी, आदरसूचक विशेषणों का आश्रय लेकर ही काम निकाला जाता था। नारी का हासः
इस युग में दम्पत्ति आराध्य और आराधक जैसी स्थिति में आ गए थे। तत्कालीन स्त्री ने स्व का ही विलीनीकरण कर दिया था। वह पति की संरक्षिता अर्थात् दासीवत् निरीह प्राणी होकर रह गई थी। १.२ म०. बुद्ध और म०. महावीरकालीन नारियों का सामाजिक अवदान:
१.२.१ बौद्ध धर्म में नारी:
भ०. बुद्ध व भ०. महावीर ने सामाजिक उत्थान के लिए नारियों को धर्म कर्म एवं सामाजिक क्षेत्र में आगे किया। भ०. महावीर स्वामी ने चंदना को दीक्षा दी। बुद्ध ने गौतमी को धर्म क्षेत्र में आगे बढ़ाया। बौद्ध युग में स्त्री शिक्षा का पर्याप्त प्रसार था । बौद्ध संघ की छत्र छाया में अनेक भारतीय महिलाओं ने उच्चतम आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया तथा अपनी विद्वत्ता से संघ को गौरवान्वित भी किया। संघ के अन्तर्गत तथा बाहर अनेक स्त्रियां थी, जो धर्म तथा दर्शन के शाश्वत सत्यों को समझने के उद्देश्य से ब्रह्मचर्य का जीवन व्यतीत करती थीं। एक उदाहरण है अशोक की पुत्री संघमित्रा का जो बौद्ध धर्म के सिद्धांतों के प्रसार के लिए श्री लंका गई थी।
धम्मपद की अट्ठकथा में कई स्त्रियों का वर्णन है जिन्होंने विशेष प्रसंग पर भिक्षु भिक्षुणियों को आहार दान दिया था। तिस्स की माता ने पांच सौ भिक्षुओं को जो सारिपुत्र के साथ थे, उन्हें विपुल भिक्षा दी। ___ बंधुला की पत्नी मल्लिका ने दो प्रमुख शिष्यों सहित पांच सौ भिक्षुओं को अपने घर आमंत्रित किया। भगवान् बुद्ध ने भिक्षु भिक्षुणियों के जीवन निर्वाह के लिए उपासक उपासिकाओं का होना आवश्यक माना था। गृहस्थ लोग ही इनके लिए चीवरदान, पिण्डदान, औषधिदान और स्थान दान (शय्यादान) आदि की व्यवस्था करते थे। भगवान बुद्ध ने धर्मनिष्ठ और धर्मानुरागी १० उपासिकाओं का वर्णन किया है, जो विशिष्ट गुणों से युक्त थीं। बौद्ध संघ को मुक्त हस्त से दान देने वाली उपासिकाओं में विशाखा का नाम प्रमुख है। इसने करोड़ों की दान राशि भिक्षु-भिक्षुणियों के लिए दी थी तथा एक संघाराम बनवाया था। इस कार्य के लिए उसने भगवान से आठ आशीर्वाद प्राप्त किये थे। पतिकुल में जाने के बाद भी बौद्ध उपासिकायें अपने ससुराल वालों का धर्म परिवर्तन करवा देती थीं। विशाखा ने भी ऐसा ही किया था।
ब्राह्मण धर्म की तरह बौद्ध धर्म में भी नारी विषयक परस्पर विरोधी विचारधारायें देखने को मिलती हैं। भगवान बुद्ध ने एक ओर तो नारी को धार्मिक जीवन के लिए बाधा स्वरूप, पाप स्रोत, परिग्रह रूप और अस्थिरमना आदि कहकर निरुपित किया है तथा दूसरी ओर उन्होंने नारी का सम्मान किया हैं, जब राहुल की माता उन्हें वंदन करने नहीं आई तो वे स्वयं उसके समक्ष उपस्थित हुए। बुद्ध ने स्वयं कहा कि नारी में कोई क्षुद्रता नहीं होती और न ही वह घृणा की पात्र होती है। अतः भगवान् बुद्ध ने जहां नारी की आलोचना की है, वहीं उन्होंने उसकी प्रशंसा भी की है। भगवान् बुद्ध ने बौद्ध की उपासिका बनने के लिए महिलाओं को
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व पीठिका
प्रेरणा दी। बुद्ध उपासिकाओं का उतना ही आदर करते थे जितना उपासकों का । नारी पर पुरुष की अपेक्षा अधिक मर्यादाएँ आरोपित की गई, जिनकी पृष्ठभूमि तत्कालीन परिस्थितियां थीं। कुछ नियम उनकी सुरक्षा की दृष्टि से भी अनिवार्य कर दिये गये थे। नारी की परिधि पति एवं परिवार के प्रसंग से ही विकसित हुई। कालान्तर में सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक जागृति के आधार पर नारी उन परिधियों से बाहर निकलीं जो उसकी स्वतंत्रता में बाधक थी।११
१.२.२ जैन धर्म में नारी:
जैन धर्म में नारी को पुरुषों की भांति ही धार्मिक अधिकार प्रदान किये गये थे। जहां भगवान बुद्ध ने संशय की स्थिति के उपरान्त पांच वर्ष बाद नारी को दीक्षित किया वहीं भगवान महावीर ने कैवल्य प्राप्ति के बाद गौतम को दीक्षित करने के साथ ही चंदना को भी दीक्षित कर उसे श्रमणी संघ की प्रवर्तिनी नियुक्त किया। श्रावक एवं श्राविकाओं के लिए समान रूप से बारह व्रतों का विधान किया गया था। उन्नीसवें तीर्थंकर भगवती मल्लि ने तीर्थंकर पद को प्राप्त किया था। पुरुष तीर्थंकर के समान ही कुछ मल्लि द्वारा दीक्षाग्रहण की गई तथा अन्य तीर्थंकरों के समान भगवती मल्ली ने चतुर्विध संघ बनाया। यद्यपि दिगंबर परम्परा स्त्री तीर्थंकर और मुक्ति की अवधारणा स्वीकार नहीं करती। किन्तु पांडव पुराण (पष्ठ ५०६) में उल्लेख है कि राजीमती, कुंती, द्रौपदी
और सुभद्रा ने धर्म का पालन कर स्त्री वेद का नाश किया और १६वें स्वर्ग देव पद को प्राप्त किया तथा बाद में वे सभी पुरुष रूप में उत्पन्न होकर तपस्या कर मोक्ष प्राप्त करेंगी। दिगंबर परंपरा में मल्लि भगवती को भी पुरुष माना जाता है।
श्वेतांबर परंपरा के अनुसार उपरोक्त सभी नारियों ने मोक्ष को प्राप्त किया है। जो नारी शील धर्म का पालन करती है देवता भी उसको वंदन करते हैं। उस काल में नारी को धार्मिक स्वतंत्रता थी। एक ही राजा की रानियां अलग-अलग धर्म की उपासिकाएं हो सकती थीं, जो धर्मनिष्ठ और विद्वान थीं। आगमों में सुलसा, सुभद्रा, जयन्ति आदि श्राविकाओं के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। जैन धर्म में जहां नारी को पुरुष के समान अधिकार दिये गये हैं, वहीं अनेक ऐसे उदाहरण भी प्राप्त होते हैं जब उसकी निंदा की गई है और उसे मोक्ष मार्ग में बाधक माना गया है। नारी को प्रतीकात्मक दृष्टि से काम का रूप प्रतिपादित किया गया है। यह भी स्पष्ट किया गया है कि नारी-मोह से छुटकारा पाने से व्यक्ति कल्याण को प्राप्त होता है।
नारी निंदा के अनेक प्रसंग सूत्रकतांगसूत्र में मिलते हैं। १२ किन्तु प्रसंगों को सम्यक् दृष्टि से देखने पर हम पायेंगे कि नारी की यह आलोचना लोकोत्तर दृष्टि से की गई है। मुनियों को निवृत्ति मार्ग पर स्थित रखने के लिए और पुरुषों को संसार के जन्म-मरण से छुटकारा दिलाने के लिए है। अतः जैन धर्म में वर्णित नारी की आलोचना केवल नारी के रमणी, कामिनी और पतिता रूप में की गई है। साथ ही साध्वियों के लिए भी पुरुषों से दूर रहने का विधान किया गया है। "साध्वियों के लिए पुरुष का त्याग भी साध्वी जीवन की रक्षा के लिए अनिवार्य माना गया है। अतः जहां नारी को नरक ले जाने वाली कुंजी माना है, वहीं जैन धर्म में ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जब राजीमती जैसी नारी ने रथनेमि मुनि को भी संयम धर्म में स्थिर किया था जो अपने पथ से विचलित हो गया था। ब्राह्मी और सुंदरी ने बाहुबली को सन्मार्ग का बोध देकर उनके अहंकार को समाप्त किया था। इस प्रकार नारी को माता, उपासिका, और साध्वी रूप में हमेशा पूजा गया है।१४
प्रश्न उठता है कि जहां पुरुष के लिए पतन का कारण नारी को समझा जाता है, वहां नारी के पतन का कारण पुरुष क्यों नहीं हो सकता? वासना का दास पुरुष भी हो सकता है, केवल नारी ही नहीं। वासनाएं समान रूप से पुरुष और नारी दोनों में होती हैं। अतः केवल एक पक्ष पर दुर्बलता का आरोपण करना सर्वथा अनुचित तथा अवांछित है। जैन धर्म में नारी को आध्यात्मिक क्षेत्र में जितना अधिक महत्व प्रदान किया गया है, उतना प्राचीन संस्कृति में अन्यत्र नहीं मिलता। १.३ जैन धर्म की चतुर्विध संघ व्यवस्थाः
जैन धर्म क्या है? : "जैन” शब्द 'जिन' धातु से निष्पन्न हुआ है। 'जिन' के ही अन्य सम्मानसूचक नाम हैं देवाधिदेव, जिनेश्वर, जिनेंद्र आदि। जिन के उपासक जैन कहलाते हैं। इन्हीं को पूज्य अर्थ में लेने पर अर्हत् या अर्हन्त रूप बनते हैं। इसी अर्हत् शब्द के प्राकृत रूप अरिहंत अरहंत अरूहंत आदि हैं "अरिहंत" शब्द से यह अर्थ निकलता है यथा “अरि" अर्थात् विषय, वासना, कषाय आदि आंतरिक शत्रुओं का "हन्त" अर्थात् नाश करने वाले । आत्मा के शत्रु कर्म हैं उनका नाश करने वाला "अरिहंत" कहलाता है।१५ अरहन्त शब्द का अर्थ पूजनीय है और अरूहन्त का अर्थ है- जो जन्म-मरण से रहित है। जैन परंपरा में अरिहंत, सिद्ध,
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
आचार्य, उपाध्याय, साधु ये पांच परमेष्ठि माने गये हैं। आत्म-पुरुषार्थ से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन चार घाति कर्मों का क्षय करने पर अरिहंत पद प्राप्त होता है।१६
जैन धर्म में प्रत्येक कालचक्र में चौबीस तीर्थंकरों के होने की मान्यता है। तीर्थंकर भगवान धर्म तीर्थ की स्थापना करते हैं। तीर्थंकर किसी नये धर्म के संस्थापक नहीं होते क्योंकि धर्म तो अनादि अनिधन है सदा शाश्वत है। वे तो धर्म-तीर्थ (धर्मसंघ) की स्थापना करते हैं। वे धर्म तीर्थ के उपदेष्टा है। धर्म संस्थापक नहीं। धर्म साधना से तीर्थंकर बनते हैं, तीर्थंकर से धर्म नहीं बनता। धर्म आत्मा का स्वभाव है, वह स्वभाव किसी के द्वारा बनाया नहीं जाता, केवल बताया जाता है, अतः तीर्थंकर धर्म उपदेष्टा है। धर्म के संस्थापक नहीं। वस्तुतः तीर्थंकर पद की प्राप्ति उत्कृष्ट पुण्य प्रकृति का परिणाम है। तीर्थंकरों की माता उनके जन्म से पूर्व १४ या १६ स्वप्न देखती हैं। जन्म से ही उनमें कुछ विशेष लक्षण होते हैं। सेवा और लोककल्याण की उत्कृष्ट वृत्ति होने पर तीर्थंकर नाम कर्म की पुण्य प्रकृति का बंध होता है १९ अर्थात् तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है। काल चक्र के दो विभाग हैं, यथा :
१. उत्सर्पिणीकाल
२. अवसर्पिणीकाल प्रत्येक काल चक्र में चौबीस-चौबीस तीर्थंकर होते हैं। तीर्थंकर जन्म से ही तीन ज्ञान से युक्त होते हैं,-मति ज्ञान, श्रुत ज्ञान एवं अवधिज्ञान। योग्य समय आने पर स्वतः दीक्षित होकर घोर तपश्चर्या करते हैं, कष्टों को सहन करते हैं; कर्मों का क्षय करके अहंत पद अर्थात् केवल ज्ञान को प्राप्त करते हैं।
नन्दी सूत्र में वर्तमान काल के २४ तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार हैं२० १. श्री ऋषभदेव जी २. श्री अजितनाथ जी ३. श्री संभवनाथ जी ४. श्री अभिनंदन नाथ जी ५. श्री सुमतिनाथ जी ६. श्री पद्मप्रभु जी ७. श्री सुपार्श्वनाथ जी ८. श्री सुविधिनाथ जी १०. श्री शीतलनाथ जी ११. श्री श्रेयांसनाथ जी १२. श्री वासुपूज्य जी १३. श्री विमलनाथ जी १४. श्री अनंतनाथ जी १५. श्री धर्मनाथ जी १६. श्री शांतिनाथ जी १७. श्री कुंथुनाथ जी १८ श्री अरनाथ जी १६. श्री मल्लिनाथ जी २०. श्री मुनिसुव्रत जी २१. श्री नमिनाथ जी २२. श्री अरिष्टनेमि जी
२३. श्री पार्श्वनाथ जी २४. श्री महावीर स्वामी जी। १.४ जैन धर्म का स्वरूपः
ज्ञान, दर्शन, चारित्र द्वारा कर्मों का नाश करने वाले गुण समूह को संघ कहते हैं ।२१ सम्यगदर्शन् सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्-चारित्र की भावनाओं से भावित चार प्रकार के संघ को अर्थात् साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाओं के समूह को संघ कहते हैं । भावपाहुड़ टीका में कहा गया है कि चातुर्वर्ण श्रमण संघ में धर्म के अनुकूल चलने वाले साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका आदि चातुर्वर्ण संघ का समावेश होता है।२३
१.४.१ संघ का महत्वः-२४
संघ स्वयं में एकता, व्यवस्था, संगठन एवं शक्ति का प्रतीक है। एकाकी जीवन जीने से अनाचार की ओर प्रवृत्ति होने की आशंका बनी रहती है। आत्मकल्याण, त्याग और संयम के इच्छुक साधकों के लिए संघ में रहना अनिवार्य है जिससे धर्म का निर्विघ्न पालन संभव होता है। इसी दृष्टि कोण को ध्यान में रखते हुए श्रमणों के लिए ससंघ विहार करने का विधान है। बृहत्कल्पभाष्य में संघस्थित श्रमण को ज्ञान का अधिकारी बताया है, वही दर्शन और चारित्र में विशेष रूप से स्थिर होता है।
|
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व पीठिका
मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध-संघ चारों गति (नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव) का नाशक है। अतः नवप्रसूता गाय जैसे अपने बछड़े पर वात्सल्य भाव रखती है, उसी प्रकार प्रयत्नपूर्वक परस्पर वात्सल्य भाव रखना चाहिए क्योंकि संघ भयभीत जनों को आश्रय देता है। वह निश्छल व्यवहार के कारण माता-पिता तुल्य तथा सर्व प्राणियों के लिए शरणभूत होता है। अतः संघ से विमुख नहीं होना चाहिए। ___नंदीसूत्र स्थविरावली में संघ को कमल की उपमा से उपमित किया है। संघ कर्मरज रूपी कीचड़ से सदा अलिप्त रहता है। श्रुतरत्न (आगम या ज्ञान) उसकी दीर्घनाल है, पांच महाव्रत उसकी स्थिर कर्णिका हैं तथा उत्तरगुण उसकी मध्यवर्ती केशर/पराग है। संघ श्रावकगण रूपी भ्रमरों से सदा घिरा रहता है, प्रमण-श्रमणी रूपी सहस्रपत्तों से युक्त होता है, तथा जिनेश्वर देव रूपी सूर्य के तेज से सदा विकसित होना है।२५ १.५ म०. महावीर का श्रमणी-संघ एवं श्राविका संघ:
जैन धर्म में श्रावक-श्राविका और श्रमण-श्रमणी दोनों की साधना का विस्तार से निरुपण है। योग्यता के अनुसार साधकों के दो विभाग किये गये है। सर्व विरति एवं देश--विरति । श्रमण-श्रमणियों की साधना उत्कृष्ट साधना होती है। अहिंसा आदि व्रतों का पूर्ण से पालन करने से इनकी साधना सर्वविरति साधना कहलाती है। साधु साध्वियां सांसारिक प्रपंचों से अलग रहकर तथा आरम्भ परिग्रह से मुक्त होकर साधना करते हैं।
श्रावक-श्राविकाओं की साधना उतनी उत्कृष्ट एवं कठोर नहीं होती। श्रावक-श्राविकायें गृहस्थाश्रम में रहकर अहिंसा आदि व्रतों की आंशिक साधना करते हैं। अतः ये देशविरत कहलाते हैं। यही कारण है कि श्रावक-श्राविकाओं के अन्य नाम "अणुव्रती", "देशव्रती", "देशविरत", "देशसंयमी" और "देशसंयती" "सागारी" आदि भी मिलते हैं।
१.५.१"श्राविका" शब्द की परिभाषाः
जैन साहित्य में श्राविका शब्द के दो अर्थ प्राप्त होते हैं। प्रथम "श्र" धातु का अर्थ है सुनना। जो श्रमणों से श्रद्धापूर्वक निग्रंथ प्रवचन को श्रवण करती है और तदनुसार यथाशक्ति उस पर आचरण करने का प्रयास करती है श्राविका है। प्रायः श्राविका शब्द का यही अर्थ ग्रहण किया जाता है।
श्राविका शब्द का दूसरा अर्थ "श्रा-पाके" धातु के आधार से किया जाता है। प्रस्तुत धातु से संस्कृत रूप श्राविका बनता है, जिसका अर्थ है जो भोजन पकाती है। श्रमणी भिक्षा से अपना जीवन निर्वाह करती हैं किन्तु श्राविका एवं गृहस्थाश्रमी होने से भोजन आदि पकाती हैं।२७
१.५.२ "श्राविका" अभिप्राय एवं अन्य नाम :
एक आचार्य ने "श्राविका" शब्द के तीनों अक्षरों पर गहराई से चिन्तन करते हुए लिखा है कि ये तीनों अक्षर श्राविका के पथक्-पथक् कर्तव्य का बोध कराते हैं। ९ प्रथम "श्र" अक्षर से यह अर्थ द्योतित है-जो जिन प्रवचन पर दृढ़ श्रद्धा रखती है। "श्रा" का अर्थ यह भी है कि जो श्रद्धापूर्वक जिनवाणी का श्रवण करती है। श्राविका मनोरंजन की दृष्टि से या दोषदृष्टि से उत्प्रेरित होकर शास्त्र श्रवण नहीं करती, अपितु श्रद्धा से करती है। विवेकपूर्वक जिज्ञासा बुद्धि से तर्क भी करती है, उन सभी के पीछे श्रद्धा प्रमुख रूप से रही हुई होती है।
श्राविका शब्द में दूसरा शब्द "वि" है। "वि" से यह अर्थ ध्वनित होता है कि श्राविका सुपात्र, अनुकंपापात्र, मध्यमपात्र सभी को विवेक पूर्वक या विचारपूर्वक दान देती है। किसी भी पुण्यकार्य या धर्मकार्य का पावन प्रसंग उपस्थित होने पर वह इधर-उधर बगलें नहीं झांकती। वह स्वयं कष्ट सहकर भी दूसरों का कष्ट दूर करने में संकोच नहीं करती। इसी प्रकार श्राविका के शब्द में आये हुए "व" का अर्थ सत्कार्य का वपन, 'व' अक्षर का अन्य अर्थ "वरण" भी है। श्राविका हठाग्रही नहीं होती है। जो बात, धर्म, समाज व आत्मा के हित के लिए है, उसका वह वरण करती है अर्थात उसे स्वीकार करती है। "व" का तीसरा अर्थ "विवेक" भी है। श्राविका की सभी क्रियायें चाहे वे लौकिक हों या धार्मिक विवेकर्पूण होती है। वह विवेक की तुला पर तोलकर ही कोई आचरण करती है। उसका कोई भी कार्य अविवेकपर्ण नहीं होता।
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
27
श्राविका शब्द में तीसरा अक्षर "का" है। इसके भी दो अर्थ होते हैं। प्रथम अर्थ है, जो पाप को काटता है। श्राविका किसी भी पाप कार्य में प्रवृत्त नहीं होती। परिस्थिति विशेष के कारण कदाचित् पाप कार्य में फंस जाती है तो विवेकबुद्धि से अपने आपको पाप कार्य से बचा भी लेती है। वह पूर्वकृत पापकृत्यों को काटने के लिए दान, शील, तप और भाव की आराधना करती है। "क" का दूसरा अर्थ है - अपनी आवश्यकताओं को कम करना । उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति में संयम और संवर विद्यमान रहता है। 'क' शब्द क्रियाशीलता का भी वाचक है। वह धर्माराधना में सदैव क्रियाशील या सक्रिय रहती है।
१.५.३ व्रत ग्रहण करने से : श्राविका ( व्रती):
जिस प्रकार डॉक्टर के घर जन्म लेने से कोई डॉक्टर नहीं बनता, उसके लिए चिकित्सा विज्ञान की परीक्षा समुत्तीर्ण करनी होती है। उसी प्रकार किसी श्रावक-श्राविका के घर में जन्म लेने मात्र से ही कोई श्रावक या श्राविका नहीं बन जाता । अपितु व्रत ग्रहण करने वाली ही श्राविका कहलाती है। यह एक ऐसा गुण है जो जन्मजात प्राप्त नहीं होता, उसे अर्जित करना पड़ता है।
१.५. ४ श्रमणोपासिका श्राविका का अन्य नाम:
श्राविका के लिए दूसरा शब्द श्रमणोपासिका भी है अर्थात् श्रमणों की उपासना करनेवाली । श्रमण सद्गुणों के आकर होते हैं, अतः श्रावक श्राविका उनके सद्गुणों को ग्रहण कर अपने जीवन को भी सद्गुणों से परिपूर्ण बनाते हैं। श्रावक या श्राविका संसार में रहते हैं किन्तु उनका मन सांसारिक भौतिक पदार्थों में लुब्ध नहीं होता ।
उपासना तभी पूर्ण होती है जब उपास्य और उपासक हो । यदि उपास्य सामने विद्यमान नहीं है तो उपासक उपासना किस प्रकार कर सकेगा? काल चक्र में अरिहंत परमात्मा सदैव नहीं होते हैं। वे किसी विशिष्ट काल में ही विद्यमान होते हैं परन्तु श्रमण प्रायः सदैव विद्यमान रहते हैं। श्रमण के अभाव में श्रमणोपासक और श्रमणोपासक के बिना श्रमण नहीं रह सकता । यो एक दृष्टि से देखा जाये तो अरिहंत परमात्मा भी श्रमण ही हैं। अरिहंत वीतरागी श्रमण होते हैं तो सामान्य श्रमण छद्मस्थ श्रमण होते हैं। फिर भी सामान्य छद्मस्थ श्रमण की साधना भी श्रमणोपासक की साधना से उच्च कोटि की होती है। श्रमण का साक्षात् उपासक होने से वह श्रमणोपासक कहलाता है। सम्यक्त्व स्वीकार करते समय व्यवहारिक की दृष्टि से श्रमण ही उसका गुरु बनता है । ३० श्रमण की उपासना करने वाले पुरुष श्रमणोपासक और स्त्रियां श्रमणोपासिका कहलाती हैं।
१.५.५ श्रमणोपासिका के अणुव्रती आदि अन्य नाम ३१:
श्राविका पूर्ण रूप से व्रतों की आराधना नहीं करती है। अतः व्रताव्रती, विरताविरत, देशविरत, देशसंयती और संयमासंयमी भी कहलाती है । 'आगार' अर्थात् घर में रहने के कारण वह सागारी भी कहलाती है। आगार का एक अर्थ छूट या सुविधा भी है इस कारण भी वह सागारी कही जाती है। गृहस्थ धर्म का पालन करने से वह गृहस्थधर्मी के नाम से भी विश्रुत है। उपासना करने के कारण उपासिका भी कहलाती है, श्रद्धा की प्रमुखता होने से वह श्राद्ध भी कहलाती है ।
१.५.६ रत्न-पिटारा:
दिगंबर परंपरा के आचार्य समंतभद्र ने श्रावक-श्राविका धर्म को रत्नकरण्डक अर्थात् रत्नों का पिटारा कहा है । सूत्रकृतांगसूत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि जिन्होंनें हिंसा की वृत्ति कुछ अंशों में त्याग दी है आगे भी त्याग करने की निर्मल भावना है और इस हेतु प्रयास भी करते हैं, वे गृहस्थ श्रावक-श्राविकाएं भी आर्य धर्मी हैं। उनका मार्ग भी मोक्ष का मार्ग है। श्रमण के समान श्रावक भी आर्य धर्म की भूमिका पर प्रतिष्ठित है। इसके विपरीत जो मिथ्यात्वी हैं, हिंसा आदि में जो रत हैं, वे अनार्य हैं । ३२
उपरोक्त पंक्तियों में श्रावक की जो विशिष्ट भूमिका है, उसके पर्यायवाची शब्दों के पीछे जो रहा हुआ रहस्य है, वह स्पष्ट हैं। श्रावक की भूमिका कितनी महान् है, यह भी स्पष्ट है। व्रती श्रावक किस रूप से व्रतों को स्वीकार करता है, उन व्रतों का स्वरूप क्या है । व्रत की जीवन में क्या आवश्यकता है। इन बातों पर आगे प्रकाश डाला जाएगा।
१.५.७ व्रत स्वीकरण क्यों आवश्यक?:
श्रावक और श्राविकाओं को व्रत ग्रहण करना आवश्यक माना गया है। व्रत अंगीकार करने से जीवन नियंत्रित हो जाता है। व्रत के अभाव में जीवन का कोई समुद्देश्य नहीं रहता । व्रत अंगीकार करने पर एक निश्चित लक्ष्य बन जाता है।
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व पीठिका
व्रती का जीवन दूसरों को पीड़ा प्रदायक नहीं होता, किसी को संताप नहीं देता है। वह धर्म, शान्ति, सहानुभूति, करूणा और संवेदना जैसी दिव्य भावनाओं का प्रतीक होता है। अतएव जीवन में व्रत-विधान की अत्यन्त आवश्यकता है। व्रती स्त्री-पुरुष कुटुम्ब, समाज, तथा देश में भी शान्ति का आदर्श उपस्थित कर सकते हैं और स्वयं भी अपूर्व शान्ति के उपभोक्ता बनते हैं।
१.५.८व्रत का स्वरूप और भेदः
हिंसा, असत्य, चोरी अब्रह्म और परिग्रह, से विरत होना ही व्रत है। विरति भी दो प्रकार की है-देशतः या अंशतः और सर्वतः ।
अविरति आत्मा का अत्याग रूप परिणाम है, इसमें आशा, इच्छा, वांछा, कामना आदि का सदभाव रहता है। इन सभी का बुद्धिपूर्वक सोच-समझकर त्याग करना, प्रतिज्ञाबद्ध होना है। व्रत ग्रहण करना अटल निश्चय का प्रतीक है। साधक अपनी योग्यता और क्षमतानुसार व्रतों को ग्रहण करता है। व्रतों का मूल उद्देश्य कर्मों की निर्जरा है।
विरति दो प्रकार की है, सर्वतः विरति होना महाव्रत है और अंशतः विरति होना अणुव्रत । अणुव्रत अथवा अंशतः विरति में आत्मा की संसार सम्बन्धों व सांसारिक सुख भोग सम्बन्धों अनादिकालीन मूर्छा टूटती तो है, पर पूरी तरह नहीं टूटती। इसमें सांसारिकता के प्रति राग भाव का अंश काफी मात्रा में अवशेष रह जाता है। यदि मूर्छा न टूटे तो उसके त्याग रूप परिणाम होंगे ही नहीं। अतः यह तो स्पष्ट है कि उसका रागभाव कुछ कम हुआ। जितने अंश में राग कम होता है, उतनी ही उसकी विरति होती है। वह व्रत ग्रहण कर लेता है, यही अणुव्रत कहलाते हैं। अणुव्रती श्रावक या श्राविका सामान्यतया तीन योग और दो करण (अनुमोदन को खुला रखकर) व्रत ग्रहण करते हैं। जैन ग्रंथों में अणुव्रती के व्रत ग्रहण करने के ४६ विकल्प या भंग हैं।
१.५.६ जैन आगम ग्रंथों में श्रावकाचार एवं श्राविकाचारः
ज्ञातव्य है कि जैनागमों में श्रमणाचार के साथ-साथ श्रमणी के आचार का उल्लेख हआ है. जो दोनों के स आचार-नियम है। श्रमणाचार में श्रमणी के आचार-नियम भी समाहित किये गये हैं। यद्यपि जहां श्रमणी के आचार सम्बन्धी विशेष नियमों का उल्लेख आवश्यक लगा वहां, उतना निर्देश किया है इसी प्रकार श्रावकों एवं श्राविकाओं के जो आचार नियम सामान्य थे, उनमें श्राविकाओं के लिए अलग से उल्लेख नहीं है, फिर भी जहां श्राविकाओं के लिये जो विशेष नियम आवश्यक थे उनका उल्लेख हुआ है। जैन आगमग्रंथों में श्रावकाचार एवं श्राविकाचार का प्रारम्भ सूत्रकृतांगसूत्र से होता है। ३५ जहां श्रमणोपासक और श्रमणोपासिका नामों का उल्लेख मिलता है। इसके बाद स्थानांगसूत्र में श्रावक के पालन करने योग्य पांच अणुव्रतों और तीन मनोरथों का वर्णन किया गया है।३६ समवायांगसूत्र उपासकदशांगसूत्र एवं दशाश्रुतस्कन्धसूत्र में श्रावक के आध्यात्मिक विकास की ग्यारह प्रतिमाओं का उल्लेख है।३७ उपासकदशांग जो कि जैन आगम साहित्य में श्रावकाचार एवं श्राविकाचार का प्रतिपादन करने वाला एक मात्र प्रतिनिधि ग्रंथ है उसमें श्रावकों एवं श्राविकाओं की जीवनचर्या, बारह व्रत, नियम, प्रतिमाओं आदि का विस्तत वर्णन किया गया है।३८
श्राविका की व्रतव्यवस्था तीन प्रकार की है-पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, एवं चार शिक्षा व्रत।
सागार धर्मामत में कहा है-जो मर्यादायें सार्वभौम है। प्राणिमात्र की हितैषी है। और जिनसे 'स्व' 'पर' का कल्याण होता है उन्हें 'नियम' या'व्रत' कहा जाता है।४०
१.५.१० द्वादश श्रावक . श्राविका व्रत
जिस प्रकार सतत् गतिशील प्रवाहित होने वाली नदी के प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए दो तटों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार जीवन को नियंत्रित बनाये रखने के लिए व्रतों की आवश्यकता होती है। श्राविका के द्वादश व्रतों में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों की गणना की गई है।४१
(अ.) बारह व्रतों के नाम ___१. अहिंसा अणुव्रत
२. सत्य अणुव्रत ३. अस्तेय अणुव्रत
४. स्वपति संतोष अणुव्रत
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
*
इच्छा परिमाण अणुव्रत
६. दिशा परिमाण व्रत उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत
अनर्थदण्ड विरमण व्रत ६. सामायिक व्रत
१०. देशावकाशिक व्रत ११. पौषधोपवास व्रत
१२. अतिथिसंविभाग व्रत इनका संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत कर रहे हैं साथ ही १२ व्रतों के प्रत्येक के पांच-पांच अतिचारों का वर्णन है। अतिचार का तात्पर्य उस आचरण से है, जिनसे व्रत में दोष लगने की संभावना रहती है। श्राविकाओं को इन अतिचारों को ध्यान में रखना चाहिए और इनसे बचकर अपने व्रतों का पालन करना चाहिए।
१.५.११ अहिंसा अणुव्रत२:
जैन शास्त्रों में संकल्पी, आरंभी, उद्योगी और विरोधी इन चार प्रकार की हिंसाओं का उल्लेख प्राप्त होता है। श्राविका संकल्पी हिंसा का त्याग करती है "मैं किसी को मारूँ" इस भावना से की गई हिंसा संकल्पी हिंसा है। गही जीवन सुचारू रूप से चलाने के लिए श्राविका पूर्ण अहिंसा का पालन नहीं कर पाती है अतः उसे विवेकपूर्वक अपना कार्य करना चाहिए।
(अ.) अहिंसा-अणुव्रत के अतिचार :- अहिंसाअणुव्रत के ५ अतिचार हैं-बंध, वध, छविच्छेद, भत्तपान व्यवच्छेद, एवं अतिभार। किसी को बांधना, मारना, अंगो को काट देना, खाने-पीने में बाधा उपस्थित करना एवं व्यक्ति की सामर्थ्य से अधिक भार डालना, व्रत भंग के कारण है। इन पांचों अतिचारों से बचना वर्तमान परिवेश में भी पूर्ण प्रासंगिक है। राज्य व्यवस्था की दृष्टि से भी ये अपराध माने गये हैं।
इस प्रकार अहिंसाअणुव्रत व्यक्ति को नैतिक और सामाजिक बनाता है और समाज तथा राष्ट्र की आत्म सुरक्षा एवं औद्योगिक प्रगति में सहयोगी बनकर चलता है।
१.५.१२ सत्य अणुव्रत३:
कन्या, पशु, भूमि, धरोहर आदि के संबंध में असत्य भाषण का त्याग करना सत्य अणुव्रत है। इस व्रत में श्राविका ऐसे स्थूल असत्य का त्याग करती है, जिससे समाज, देश और राष्ट्र की हानि होती हो और व्यक्ति के आत्म सम्मान को ठेस पहुंचती हो। इसके साथ ही साथ इस व्रत में श्राविका ऐसे सत्य का भी त्याग करती है जो सत्य होते हुए भी अन्य व्यक्ति के मन को पीड़ित करता हो। भगवान महावीर के अनन्य श्रावक महाशतक का कथानक इसका सर्वोत्तम शास्त्रीय उदाहरण है।
अ. सत्याणुव्रत के अतिचार
सत्य व्रत में किसी पर बिना सोच-विचार किये दोषारोपण करना, एकांत में बातचीत करते हुए व्यक्तियों पर झूठा आक्षेप लगाना, झूठा उपदेश देना, जाली चेक, ड्राफ्ट आदि जारी करना, अतिचार माने गये हैं। वर्तमान में भी इन सभी पर राज्य द्वारा रोक लगायी जाती है।
इस प्रकार सत्य अणुव्रत में श्रावक सत्य, तथ्य और प्रीतिपूर्ण वचनों का ही प्रयोग करता है, जो समाज को उन्नत और पवित्र बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
१.५.१३ अस्तेय अणुव्रत :
स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी वस्तु को ग्रहण नहीं करना अस्तेय है। सार्वजनिक रूप से प्रकृति द्वारा प्रदत्त वस्तुओं को छोड़कर अन्य वस्तुओं को स्वामी की अनुमति के बिना ग्रहण नहीं करना ही श्रावक या श्राविका का अस्तेय अणुव्रत हैं। ___ अ. अस्तेयाणुव्रत के अतिचार :
चोरी की वस्तु खरीदना, चोर को सहायता करना, राज्य नियमों के विरुद्ध आचरण करना, वस्तुओं में मिलावट करना व नाप--तोल में बेईमानी करना अस्तेय व्रत के अतिचार हैं, दोष हैं।
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
30
वर्तमान जगत् में भी उपरोक्त सभी अपराध की श्रेणी में माने जाते हैं। अस्तेय व्रत का निरतिचार पालन करने से हम मानव जाति व राष्ट्र के प्रति अपने दायित्व को भली प्रकार निभा सकते हैं ।
१.५.१४
ब्रह्मचर्य अणुव्रत४५:
अपनी काम प्रवृत्ति पर अंकुश श्रावक एवं श्राविका का चौथा स्वपत्नी या स्वपति संतोष अणुव्रत है। गृहस्थावस्था में रहकर व्यक्ति पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता। अतः श्रावक एक मात्र विवाहिता पत्नी (स्वपत्नी) में पूर्ण संतोषी बनकर शेष सभी स्त्रियों के साथ मैथुन सेवन का त्याग करता है। उसी प्रकार श्राविकाओं के लिए भी स्वपति संतोषव्रत का विधान किया गया है ।
अ. ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार :
यहां यह स्पष्ट कर दिया गया है कि अन्य स्त्रियों या अन्य पुरुषों से काम व्यवहार रखना, अनंगक्रीड़ा करना, अपने पुत्र-पुत्री को छोड़कर अन्य का विवाह कराना, काम सेवन की तीव्र भावना रखना व्रत भंग के कारण है, यही अतिचार है।
१.५.१५
अपरिग्रह अणुव्रत
धन-धान्य हिरण्य स्वर्ण, दास-दासी, खेत-वस्तु आदि के परिग्रहण की मर्यादा निश्चित कर लेना परिग्रह परिमाण अणुव्रत
है ।
पूर्व पीठिका
:
परिग्रह परिमाण अणुव्रत वर्तमान प्रसंग में समाजवाद सह अस्तित्व और समानता की दिशा में उठाया गया बहुत महत्वपूर्ण कदम सिद्ध हो सकता है। परिग्रह की मर्यादा का अतिक्रमण करना ही इस व्रत के अतिचार हैं।
पांच अणुव्रतों को व्यवस्थित रूप से पालन करने के लिए गुणव्रत और शिक्षाव्रतों का विधान किया गया है।
अ. गुणव्रत - दिशाव्रत, उपभोग परिभोग परिमाण व्रत एवं अनर्थदंड विरमण व्रत ये तीन गुणव्रत हैं ।
दिशाव्रत -
१.५.१६
सभी दिशाओं में गमनागमन की मर्यादा निश्चित करने को दिशाव्रत कहा गया है। दसों दिशाओं में कहां तक आवागमन करना है इसकी सीमा इस व्रत मे निश्चित की जाती है। अतिचार इसमें ऊँची, नीची, तिरछी, दिशा का उल्लंघन करना निश्चित की हुई सीमा में वृद्धि करना, सीमा मर्यादा का विस्मरण होने पर उस मर्यादा क्षेत्र से आगे जाना व्रत भंग के कारण माने गये हैं। उपभोग परिभाग परिमाण व्रत
१.५.१७
खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने आदि दैनिक व्यवहार में काम में आने वाली वस्तुओं की मर्यादा निश्चित करना उपभोग - परिभोग परिमाण व्रत हैं । उपासक दशांग सूत्र में ऐसी वस्तुओं की सूची दी गई है जिनकी इस व्रत में मर्यादा निश्चित की जानी चाहिए । ४६ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र में इन वस्तुओं की संख्या छब्बीस बताई गई है।
अ. अतिचार :
गृहीत मर्यादा का अतिक्रमणकर, सचित्त वस्तु सेवन करना सचित्त मिश्रित वस्तु का सेवन करना, कच्ची वनस्पति का सेवना करना अधपकी वनस्पती को खाना एवं ऐसी वस्तु खाना जिसमें खाने योग्य पदार्थ कम हों, फेंकने योग्य अधिक हों-ये सब इस व्रत भंग के कारण हैं ।
ब.
पन्द्रह कर्मादान
उपभोग परिभोग परिमाण व्रत में उपर्युक्त पांच अतिचारों के अतिरिक्त निषिद्ध व्यवसाय के पन्द्रह अतिचार बताये गये हैं। ये पन्द्रह ऐसे व्यवसाय हैं जिनके करने में जीवों की अति हिंसा होती है। अतः श्रावक या श्राविका को ऐसे व्यवसाय नहीं करने चाहिए। इनके नाम इस प्रकार हैं-कोयले का व्यवसाय, जंगल काटना, लकड़ी बेचना, रथ आदि बेचना, पशुओं को भाड़े पर देना, खान आदि किराये पर चलाना, हाथी दांत का व्यापार लाख का व्यापार, मदिरा आदि का व्यापार, विष आदि का व्यवसाय, दास-दासी का व्यापार, घाणी आदि से पेरने का व्यापार, बैल आदि को नपुंसक बनाने का व्यवसाय, जंगल में आग लगाना, तालाब,
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
झील आदि सुखाना, व्यभिचार आदि के लिए वेश्याएँ आदि रखना। इन पन्द्रह व्यवसायों में त्रस जीवों का घात, सामाजिक असुरक्षा तथा पर्यावरण संकट से संस्कृति का विनाश किसी न किसी रूप में होता है, अतः श्रावक श्राविकाओं के लिए ऐसे व्यापार त्याज्य हैं।
१.५.१८ अनर्थदण्डविरमणव्रत :
निष्प्रयोजन किसी की हिंसा करना अनर्थदण्ड है। निरर्थक हिंसक कार्य करना, हिंसात्मक शस्त्रों का आदान-प्रदान या संग्रह करना, पाप कर्म करने का उपदेश देना एवं कुमार्ग की ओर प्रेरित करना इन सब का त्याग करना अनर्थदण्डविरमणव्रत है।
अ. अतिचार :
हास्यमिश्रित अशिष्ट वचन बोलना, शरीर से विकृत चेष्टा करना, निरर्थक बकवास करना, उपभोग परिभोग की वस्तुओं का आवश्यकता से अधिक संग्रह करना व हिंसक अस्त्र-शस्त्र का संग्रह करना इस व्रत के दोष या अतिचार हैं।
इस प्रकार अनर्थदण्डविरमण व्रत अनर्थकारी हिंसा पर रोक लगाता है। निरर्थक पानी फैंकना, राह चलते वनस्पति तोड़ना, गलत शारीरिक चेष्टायें करना, इस व्रत के दोष माने गये हैं।
ब. चार शिक्षाव्रत व्यक्ति के आत्मिक उत्थान के द्योतक है-१. सामायिक व्रत २. देशावकाशिक व्रत ३. पौषधोपवास व्रत और ४. अतिथिसंविभाग व्रत।
१.५.१६ सामायिक व्रत : एक निश्चित समय के लिए साधु तुल्य आचरण करना सामायिक व्रत है। १.५.२० देशावकाशिक व्रत : सीमा मर्यादा का संकोच व सीमा के बाहर के आश्रव सेवन का त्याग करना देशावकाशिक व्रत है। १.५.२१.२२ पौषध व्रत एवं अतिथिसंविभाग व्रत४.५५ ३०
पूर्ण उपवास के साथ धर्म स्थान में रहकर सम्यक् आराधना करना पौषध व्रत है। सुपात्र को यथाशक्ति निर्दोष आहार प्रदान करना अतिथिसंविभाग व्रत है।
ये चारों शिक्षाव्रत आत्मा के आध्यात्मिक विकास से संबंधित हैं, इनसे मानव सेवा, सहभागिता, सहयोग, अभावग्रस्त के प्रति सामाजिक कर्तव्य का बोध प्राप्त होता है।
इस प्रकार इन बारह व्रतों की संक्षेप में चर्चा करने से स्पष्ट है कि ये बारह व्रत व्यक्ति के लिए कितने महत्त्वपूर्ण हैं। ये व्रत व्यक्ति को व्यक्ति के प्रति अनुराग सहयोग-सहकार एवं बन्धुत्व की भावना को उत्पन्न करते हैं। ये व्यक्ति को सामाजिक बनाते हैं। समाज में गृहस्थ वर्ग की भूमिका वैसे भी दोहरी है। एक ओर वह स्वयं साधना करता है दूसरी ओर पूर्णसाधना करने वाले साधु-साध्वियों की साधना का सहायक एवं पर्यवेक्षक भी है। अतः श्रावक अपने कर्तव्य को पहचानें और इन व्रतों की उपयोगिता को समझ कर जीवन में अपनाने का प्रयास करें तो निश्चित ही हम सामाजिक सौहार्दता को ला सकेंगे, जिसकी हमें अभी भी प्रतीक्षा
१.५.२३ संलेखना:
जीवन के अन्तिम समय में तप आदि की आराधना करना संलेखना कहलाता है। संलेखना साधना की वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा देह एवं कषायादि को कृश किया जाता है। यह सम्यक् आलोचनायुक्त देह विसर्जन की साधना है। संलेखनापूर्वक होने वाली मृत्यु को जैन आचार-शास्त्र ने समाधिमरण या पंडितमरण कहा है. इसे संथारा भी कहते हैं। संथारा अर्थात संस्तारक. इसका अर्थ बिछौना होता है। चूंकि इसमें व्यक्ति आहारादि का त्याग कर बिछौना बिछाकर शांत चित्त से देह त्याग पर्यन्त एक स्थान पर लेटा रहता है। इस प्रकार क्रोधादि कषायों से रहित होकर प्रसन्नचित्त से आहारादि का त्याग कर आत्मिक चिन्तन करते हुए समभावपूर्वक प्राणोत्सर्ग करना ही इस व्रत का महान उद्देश्य है।
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व पीठिका
अ. अतिचार :
जीवित रहने की इच्छा, सेवा 'शुश्रूषा के अभाव में शीघ्र मरने की इच्छा, मित्रों के प्रति अनुराग जागत करना, भोगे हुए सुखों का पुनः पुनः स्मरण करना, तपश्चर्या का फल, भोग सामग्री के रूप में चाहना अर्थात् निदान करना इस व्रत के दोष हैं।
१.६ श्राविका की दैनिक चर्या :
श्रावक या श्राविका अपना सर्वांगीण विकास निर्लिप्त भाव से स्वकर्तव्य का संपादन करते हुए घर में रहकर भी कर सकता है। अतः उसे आत्म-शुद्धि के लिए, कर्मों का संवर व निर्जरा करने के लिए एवं शुभ कर्म संचय करने के लिए छ: कार्य प्रतिदिन करने चाहिएँ यथा :
१. देव पूजा - पूजा के दो प्रकार हैं (क) भाव पूजा और (ख) द्रव्य पूजा । अष्ट द्रव्यों से वीतराग परमात्मा की पूजा करना द्रव्य पूजा है। बिना द्रव्य के केवल सर्वज्ञदेव के गुणों का चिन्तन और मनन करना "भाव-पूजा" है। इससे सम्यगदर्शन गुण की विशुद्धि होती है तथा वीतरागता की प्रेरणा मिलती है।
२. गुरु उपासना - जीवन में संस्कारों का प्रारम्भ निग्रंथ त्यागी, गुरु या गुरुणी के चरणों की उपासना से ही संभव है। गुरु उपासना से प्राणी को स्व पर के भेद-विज्ञान की उपलब्धि होती है। अतः श्रावक या श्राविका का प्रतिदिन गुरु उपासना या गुरु भक्ति करना आवश्यक है।
३. स्वाध्याय - स्वाध्याय अर्थात् स्व आत्मा का अध्ययन, चिन्तन और मनन । स्वाध्याय से व्यक्ति रत्नत्रय की प्राप्ति करने में समर्थ होता है। बुद्धिबल एवं आत्मबल का विकास होता है और आत्म तत्व की विशुद्धि होती है।
४. संयम - सावधानी से कार्य करना ताकि जीवों की हत्या न हो तथा अपनी इन्द्रियों और मन को विषय वासनाओं से रोकना व दूर हटाना संयम है। मन, वचन, काया की अशुभ प्रवत्तियों पर नियंत्रण रखना संयम हैं।
५. तप - इच्छा निरोध को “तप" कहते हैं। तप से आत्मा शुद्ध होती है। अहंकार और ममकार का त्याग भी तप के द्वारा ही संभव है। श्रावक या श्राविका को रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए शक्ति के अनुसार तप करना चाहिए।
६. दान - संपत्ति की सार्थकता दान में ही है। श्रावक या श्राविका का व्रती पुरुषों को श्रद्धा, भक्ति, विनय पूर्वक आहार, शास्त्र आदि उपकरण देना तथा दीन दुखी, दरिद्र, अनाथ, अपाहिज जीवों को दया भाव से भोजन, वस्त्र आदि देकर उनका दुःख दूर करना "दान" है।
७. प्रतिमा - प्रतिमा अपने आध्यात्मिक विकास के लिए श्राविकाएं शास्त्र में बतायी गयी प्रतिमाओं या सोपानों पर आरोहण कर अपना चारित्रिक विकास करती जाती हैं और इस तरह वह मुनि बनने लायक या मुनि जीवन के निकट पहुंचने की अधिकारिणी हो जाती हैं। 'प्रतिमा' का अर्थ प्रतिज्ञा विशेष या व्रत विशेष होता है। (अ) प्रतिमा के ११ भेद हैं यथा - १. दर्शन प्रतिमा
२. व्रत प्रतिमा ३. सामायिक प्रतिमा
४. पौषध प्रतिमा ५. रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा ६. ब्रह्मचर्य प्रतिमा ७. सचित्त विरत प्रतिमा ८. आरम्भ त्याग प्रतिमा ६. परिग्रह त्याग प्रतिमा १०. अनुमति त्याग प्रतिमा
११. उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा श्राविका का तीसरा आधार पक्ष चर्या साधन है। हिंसा की शुद्धि के तीन प्ररूपित प्रकार हैं : वीतराग एवं सर्वज्ञ परमात्मा को देव, निग्रंथ मुनि को गुरु ओर जिन दयामय धर्म को ही धर्म मानना पक्ष है, ऐसे पक्ष को
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
रखने वाला श्रावक पाक्षिक कहलाता है। ऐसे श्रावक की आत्मा में मैत्री, प्रमोद, करूणा व माध्यस्थ्यवृत्ति होती है। जीवहिंसा न करते हुए न्यायपूर्वक आजीविका का उपार्जन करना तथा श्रावक के बारह व्रतों एवं ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करना "निष्ठा" है। इस प्रकार का आचरण करने वाले गृहस्थ को "नैष्ठिक श्रावक" कहते हैं। जीवन के अन्त में आहारादि का सर्वथा त्याग करना मोक्ष का साधन है। इस प्रकार के साधन को अपनाते हुए ध्यानशुद्धिपूर्वक आत्मशोधन करने वाले गृहस्थ को साधक श्रावक कहते हैं |
आचार्य हरिभद्र ने धर्म बिन्दु ग्रन्थ में श्रावक द्वारा व्रत ग्रहण करने से पूर्व चारित्र को सुस्थिर करने के लिए ३५ नियमों का विधान किया हैं। इसमें न्याय पूर्वक धन कमाना, नैतिकता पूर्वक जीवन यापन करना आदि गृहस्थ के सामान्य धर्म की शिक्षा दी है। साथ ही विशिष्ट साधना के लिए जो व्यक्ति अपने सामर्थ्य के अनुसार नियम, व्रत आदि ग्रहण करता है, वे विशेष गुण या धर्म कहे जाते हैं। ये विशिष्ट गृहस्थ के लिए हैं किन्तु दोनों ही परस्पर अविरोधी हैं ,सापेक्ष हैं। विशेष धर्म का पालक गृहस्थ से सदगृहस्थ होता हुआ ऊपर उठता है।
सामान्य धर्म पैंतीस प्रकार का है और विशेष धर्म बारह प्रकार का है। मनीषियों ने गृहस्थ के उसकी अन्तर्दृष्टि के आधार पर दो भेद किये हैं, सामान्य और विशेष । सामान्य मार्गानुसारी और विशेष श्रावक । श्रावक की दृष्टि सम्यक् और निर्मल होती है। वह तत्वज्ञ होता है, अतः मार्गानुसारी होता है। ये गृही के सामान्य धर्म कहे गये हैं। इनमें आध्यात्मिकता कम और व्यवहारिकता अधिक होती है। मार्गानुसारी से श्रावक या श्राविका का स्तर ऊँचा होता है।
१.७ आगम में श्राविका के अष्टमूल गुणों की चर्चा :
मूलगुण अर्थात मुख्य गुण, जिनको धारण किये बिना श्रावकपना ही संभव न हो। जिस प्रकार मूल (जड़) के बिना वृक्ष का खड़ा रहना संभव नहीं है, उसी प्रकार मूलगुणों के बिना श्रावकपना भी संभव नहीं है। ये मुख्य रूप से आठ हैं-अतः इन्हें अष्ट मूलगुण कहते हैं। वे आठ मूलगुण हैं मद्य मांस मधु का तथा पांच उदुम्बर फलों का त्याग, क्योंकि ये त्रस जीव से युक्त होते हैं।६०
___ चामुण्डराय ने स्थूल हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह से मुक्त होना तथा जुआं, मांस और मद्य से विरत होना गृहस्थ के ये आठ मूल गुण माने हैं ।६१
भूधरशतक में कविवर भूधरदासजी कहते हैं मद्य-मांस मधु व पांच उदुंबर फलों के त्याग के अतिरिक्त, जुआ खेलना, शिकार खेलना, चोरी करना, 'पर-स्त्री गमन करना, वेश्यागमन करना इत्यादि सप्त कुव्यसनों का त्याग भी श्रावक या श्राविका का प्राथमिक कर्तव्य है।६२
१.५ जैन धर्म में नारी जाति का अवदान : एक सामान्य विवेचन
नारी मानव जाति के इतिहास का वह प्रथम स्वर्णपष्ठ है जहां से मानव जाति के गरिमामय इतिहास का शुभारम्भ होता है। मर्यादाओं के अम्लान पुष्पों को, अंजली में लिए, अकंप गति से चलना नारीसमाज का सर्वोपरि श्रृंगार है। यह माता, भगिनी, पत्नी, दुहिता आदि के रूप में युगों युगों से मानव जाति के लिए नैतिक संबल रही है। देहरी पर रखा हुआ दीपक जैसे घर और बाहर दोनों ओर प्रकाश विकीर्ण करता है, उसी प्रकार सुशिक्षिता, सुशीला, सन्नारी परिवार और समाज को पवित्र, धन्य और यशस्वी कर देती है। नारी की शक्ति से समाज सदा उपकृत और उसकी कर्मण्यता से गौरवान्वित होता रहा है। __जैन तीर्थंकरों के द्वारा चतुर्विध संघ की स्थापना में नारी को पुरुष के समान ही स्थान दिया जाता रहा है। तीर्थंकरों द्वारा स्थापित तीर्थ में साधु साध्वी, श्रावक और श्राविकायें चारों ही वर्ग होते हैं।
ब्राह्मी और सुन्दरी न केवल लिपि और गणित विद्या की प्रथम अध्येता बनी, अपितु मान के हाथी पर आरूढ़ बाहुबली को प्रतिबोधित कर मोक्ष प्राप्ति में सहायक भी बनी। राजीमति ने न केवल अपने शील की रक्षा की अपितु स्थनेमि को भी धर्म मार्ग में स्थिर किया। इस प्रकार नारी ने अपनी प्रतिभा और तेजोमय व्यक्तित्व से समाज में अपना अपूर्व स्थान बनाया है। तत्ववेत्ता एवं दार्शनिक नारी के रूप में 'जयन्ति' श्राविका की चर्चा भगवती सूत्र में है। जयन्ति श्राविका राजा उदायन की बूआ और महासती • मृगावती की ननंद थी तथा भगवान महावीर की परम भक्त थी। भगवती सूत्र में जयन्ति श्राविका द्वारा पूछे गये प्रश्न उसकी ज्ञान
और दर्शन के प्रति गहन रूचि के परिचायक हैं। सुलसा जैसी दृढ़प्रतिज्ञ श्राविका का वर्णन भी आगम में हैं तो भद्रा जैसी
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व पीठिका
आत्म-निर्भर साधिका का भी वर्णन है, जिसने पति के स्वर्गवास के पश्चात् देश-विदेश में व्यापार का बखूबी संचालन कर परिवार का सात्विक रीति से भरण-पोषण किया था। महाराजा श्रोणिक को जैन धर्मानुयायी बनाने का पूरा श्रेय महारानी चेलना को जाता है, जो राजा चेटक की पुत्री और कुल परम्परा से ही जैन धर्मानयायिनी थीं।
जैन संघ में नारी कई वर्गों में विभक्त थीं। पहले प्रकार के अन्तर्गत व्रतधारी साधिकाएं ६३ और दूसरे वर्ग में सामान्य गृहीधर्म का पालनकरने वाली उपासिकाएं थीं।६४ कोशा वेश्या ने अपने श्राविका व्रत में दढ़ रहते हुए स्थूलिभद्र के गुरु भाई को संयम में पुनः स्थिर किया था। महारानी कमलावती ने अपने पति इक्षुकार राजा को अपरिग्रह का उपदेश देकर त्याग म किया था। राजा दधिवाहन की पत्नी महासती चंदना की माता धारिणी ने शील रक्षा के लिए अपने प्राण त्याग दिये थे। महारानी देवकी ने अपने गृह पर पधारे छह मुनिराजों को आहार दान देकर जैन सन्तों के प्रति अपनी श्रद्धाभक्ति का परिचय दिया था।
__ इसी क्रम में भ० महावीर की कुछ और प्रमुख उपासिकाओं का भी उल्लेख किया जा सकता है। (१) आनन्द की पत्नी शिवादेवी (२) सद्दालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा (३) नन्दिनीपिता की पत्नी अश्विनी (४) चुलनी पिता की पत्नी श्यामा (५) कामदेव की पत्नी भद्रा, आदि उपासिकाओं का नाम जैन आगम उपासकदशांग में आये हैं। भगवान महावीर के सिद्धांतों के प्रचार प्रसार में इन महिलाओं ने उल्लेखनीय योगदान दिया था। शील के प्रभाव से सुभद्रा ने चंपा के द्वार खोल दिये थे।
ईसा पूर्व की तीसरी-चौथी शताब्दी, ईस्वी सन की छठी शताब्दी के इतिहास में गंगवंश की रानियों ने भी जैन धर्म की उन्नति के लिए अनेक उपाय किये थे। ये रानियां मन्दिरों की व्यवस्था करती, नये मन्दिर और तालाब बनवाती एवं धार्मिक कार्यों के लिए दान की व्यवस्था करती थीं।६५
इस तरह से आगमों तथा आगमिक परंपरा के साहित्य में यत्र-तत्र विदुषी एवं तप त्यागमयी श्राविकाओं के अनेक वर्णन हैं। गृहस्थ धर्म की चर्चा शास्त्रों में श्रावक धर्म के नाम से मिलती है। सभी आत्मायें शुद्ध धर्म का पालन कर सिद्ध बुद्ध एवं मुक्त हो सकती है। अतः शास्त्रकार उन पुरुष और स्त्रियों के गृहस्थ धर्म के आचार में विशेष भिन्नता नहीं मानते थे। साधना का सम्बन्ध आत्मा से है और आत्मा का कोई लिंग नहीं होता। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में हमारा उद्देश्य एक श्राविका के रूप में नारी जाति का जैन संघ को क्या अवदान रहा है, उसे ऐतिहासिक कालक्रम में प्रस्तुत करना है। अ. विभिन्न क्षेत्रों में नारी की भूमिका :१. कुटुम्ब के संचालन में नारी का अवदान।
सामाजिक क्षेत्र में नारी का योगदान।
आर्थिक क्षेत्र में नारी का योगदान। ४. कला एवं साहित्य में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका।
५. राजनीतिक क्षेत्र में उनका अवदान। जैन ग्रन्थ इसिभासियाई में नारी के महत्व और अवदान को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वह सुवासित मधुर जल के सदश्य है, विकसित कमलिनी के तुल्य है। व्याल से लिपटी मालती लता के समान है। वह स्वर्ण की गुफा है, जिसमें सिंह प्रसुप्त है। दूसरों के संहार के लिए वह विषमिश्रित गंध पुटिका है। वह नदी की निर्मल जल धारा है किंतु उसके बीच में भयंकर भंवर भी हैं जो प्राणों को हरण करने वाले हैं। वह मत्त बना देने वाली मदिरा तो सुंदर सुयोग्य कन्या के सदश्य भी है। संसार में नारी को सद्गुणों की प्रकाशक जानना चाहिए।
१.६ नारी जाति का मूल्यांकन :
सदियों से भारत के प्रायः सभी वर्गों और धर्मों में स्त्री की उपेक्षा होती रही है। उसे पुरुष से निम्न समझा गया है। अनेक सामाजिक सुविधाएँ और अधिकार जो पुरुष को प्राप्त हैं स्त्री उनसे वंचित है। आज भी रूढ़ीवादी कुछ लोग स्त्री जाति को पुरुषों की काम वासना की तृप्ति का साधन या सन्तानोत्पत्ति की मशीन समझते हैं। उसको अबला कहा जाता है और अनेक दुर्गुण उसके सिर पर लादे जाते हैं।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
भविष्यपुराण के सातवें अध्याय में लिखा है-जैसे एक पहिये का रथ नहीं चल सकता, उसी प्रकार गृहस्थाश्रम रूपी रथ के स्त्री और पुरुष दो पहिये हैं। दोनों पहिये समान और दृढ़ होंगे तभी जीवन यात्रा सुचारू रूप से चल सकेगी। नारी 'शक्ति' है तो पुरुष उस शक्ति का संचालक है। शक्ति 'अबला' नहीं हो सकती, वह "सबला" है। हमारे देश में सिंह को वाहन बनानेवाली दुर्गा की पूजा होती है जो शक्ति स्वरूपा मानी जाती है। भारत में यदि स्त्री अबला बन गई है तो यह हमारी सामाजिक व्यवस्था का परिणाम है। हमारा समाज पुरूष प्रधान समाज है जिसमें स्त्री का वर्चस्व बंधनों में जकड़ी हुई दासी के समान है। सदियों से नारी जाती को व्यापक रूप में अपनी शक्तियों का विकास करने का मौका ही नहीं मिला। जब कभी मौका दिया गया तो पुरुष के बराबर रहने की तो बात ही क्या वह उनसे भी आगे बढ़ गई है। वास्तव में प्रारम्भ में स्त्री या पुरुष किसी को भी जिसे सांचे में डाल दिया जाये, वह वैसा ही बन जाता है। कठिन परिश्रम के बल पर ही स्त्री-पुरूष एक-दूसरे से आगे निकल सकते हैं। आज ऐसी अनेक पहाड़ी जातियां हैं जिनमें पुरुष घर का काम संभालते हैं और स्त्रियां बाहर के कृषि व्यापार आदि कार्य करती हैं। वहां स्त्रियां बलवती होती हैं और पुरुष निर्बल । अतएव स्त्रियों का अबलापन कोई स्वाभाविक दोष नहीं है, किन्तु सामाजिक जीवन के वर्गीकरण का परिणाम है। जब जब स्त्री जाति को उसकी शक्तियों के विकास के लिए उचित अवसर दिया गया तब-तब वह किसी क्षेत्र में पुरुष से कम नहीं रही। जिन कार्यों को पुरुषों ने किया उनको करने में स्त्रियां भी पिछे नहीं रही थी। विद्या के क्षेत्र में देखिये, जिस प्रकार वेदों के प्राचीनतम ऋग्वेद के मंत्रों के बनाने वाले या दृष्टा ऋषि थे इसी प्रकार लोमशा, घोषा, विश्वातारा, इंद्राणी, और अपाली आदि स्त्रियां भी वेदमंत्रों ऋषि थीं। गार्गी मैत्रेयी और सरस्वती की विद्वत्ता से तो सब परिचित हैं ही।
वीरता के क्षेत्र में भी स्त्री पुरुष से पीछे नहीं रही। पुरुषों की भांति स्त्रियां भी बड़े बड़े संग्रामों में वीरता दिखलाती आई हैं। मुद्गल पत्नी इंद्रसेना ने बड़ी चतुराई से संग्राम में रथ हांका था और बड़ी वीरता से उसने इंद्र के शत्रुओं का नाश किया था। शस्त्र संचालन कला में वह बड़ी प्रवीण मानी जाती थी। जब शत्रु गउएं चुराकर ले जाने लगे तब इस वीर नारी ने उनसे ऐसा युद्ध किया कि वे गौएं वहीं छोड़कर अपनी जान बचाकर भागे। पुरुष की तरह राज्यसत्ता भी स्त्रियों के हाथ में रह चुकी है और उसे बड़ी प्रवीणता से वे चलाती भी रही हैं। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, रजिया बेगम और इन्दिरा गाँधी इसके उदाहरण हैं। इस प्रकार शिक्षा, विज्ञान, वीरता और राज्यशासन आदि सभी सामाजिक क्षेत्रों में स्त्री पुरुष के समान ही प्रख्याति प्राप्त करती आई है। आचरण, सहनशीलता, त्याग, तपस्या, प्रेम, करूणा, उपकार, कृतज्ञता, साहस, सेवा और श्रद्धा इन गुणों में तो पुरुष भी स्त्री की समानता नहीं कर सकता।
नारी का हर क्षेत्र में अदभुत योगदान होने के उपरान्त स्त्रियों का क्रमबद्ध इतिहास हमें प्राप्त नहीं होता। यत्र तत्र बिखरे हुए जीवन चरित्र हैं जो अपर्याप्त है। कहीं कहीं देखने को मिलते हैं। उन सबको खोजकर एक स्थान पर लाने की आवश्यकता है।६६ जिस प्रकार हिन्दू धर्म में नारियों का प्रत्येक क्षेत्र में अति विशिष्ट योगदान रहा है, उसी प्रकार जैन धर्म में भी नारियों का अति विशिष्ट योगदान रहा है, किन्तु उसका विधिवत् आकलन नहीं हुआ है। विकीर्ण सूचनाएं तो मिल जाती है। किन्तु उनका ऐतिहासिक काल क्रम में सुव्यवस्थित अध्ययन अभी तक नहीं हुआ है। प्रस्तुत गवेषणा में हमारा प्रयोजन जैन धर्म में नारी के विशेष रूप से गृहणियों के अवदान की कालक्रम से सम्यक् विवेचना करना है।
१.१०. नारी जाति के इतिहास की आधारभूत सामग्री :
भारतीय नारी अनादि काल से आत्म चेतना के स्वर गुंजित करती रही है। नारी जहाँ एक ओर नर की सहायिका हैं वहीं दूसरी ओर वह उसकी मार्गदर्शिका भी हैं। विषमता के विष को पीकर भी परिवार और समाज के जीवन में समता और सरसता का अमत बांटने वाली रही है।
चतुर्विध जैन संघ में श्राविका संघ का महत्वपूर्ण स्थान है। उसके बारे में क्रमबद्ध इतिहास उपलब्ध नहीं होता, जबकि प्रभु महावीर ने जैन धर्म संघ में स्त्री-पुरुषों में किसी प्रकार का भेद नहीं किया है। आत्म-कल्याण के पथ पर अग्रसर होने के लिए जो अधिकार भगवान ने पुरुष वर्ग को दिये, वे ही सारे अधिकार महिलाओं को भी दिये हैं। इस आध्यात्मिक मार्ग की समानता के
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
36
फलस्वरूप प्रभु के शासन में जितने श्रमण , उनसे अधिक श्रमणियां थी । जितने श्रावक थे उनसे तीन गुना अधिक श्राविकाएं थी । उनके मन में स्त्रियों के लिए विशेष आदर भाव था और वास्तव में यही उनकी महावीरता थी ।
पूर्वपीठिका
आगमग्रंथों में नारी को पुत्री, पत्नी, भगिनी, माता, एवं तपस्विनी आदि रूपों में वर्णित किया गया है। जैन साहित्य में वर्णित जैन श्राविकाओं के जीवन वत्त को एक कालक्रम में श्रंखलाबद्ध करके उनके मूल्यांकन करने का प्रयास प्रस्तुत शोध ग्रंथ में किया गया है ।
जैन परम्परा में नारी के महत्व का विवरण प्रथम तीर्थंकर भ० ऋषभदेव के समय से ही मिलने लगता है। धर्म, कला एवं संस्कृति के इस प्रारम्भिक काल में नारी शक्ति के विकास में इनका अद्भुत योगदान रहा है। ब्राह्मी ने भ० ऋषभदेव से स्त्री की चौंसठ कलाओं का लिपि ज्ञान अर्जन कर मानव जाति में विसर्जित किया । सुन्दरी ने गणित विद्या का अर्जन कर मानव जाति में वितरित किया। चौंसठ कलाओं का अर्जन दोनों ने किया, और अन्त में धर्म कला में आगे बढ़कर दीक्षित हुई । भ० ऋषभदेव की माता मरुदेवी ने पुत्र स्नेह को त्यागकर केवलज्ञान प्राप्त किया, गृहस्थलिंग में सिद्ध बुद्ध मुक्त बनी। परवर्ती तीर्थंकरों के समय में भी नारी का योगदान सतत् रहा।
जैन साहित्य ग्रंथों में तीर्थंकरों की माताओं का वर्णन तो प्राप्त होता है, किन्तु तीर्थंकरों की पत्नियों के वर्णन को पूर्ण रूप से उपेक्षित किया गया है। केवल नामोल्लेख शेष रह गया है, उनके उज्जवल त्याग का वर्णन नगण्य है। उदाहरणार्थ : महावीर की सहधर्मिणी यशोदा का इतिहास तो अवश्य उपलब्ध है, क्योंकि यह काल दृष्टि से अत्यधिक निकटतम है। जहां महावीर के परिवार के समस्त सदस्यों का वर्णन उपलब्ध होता है, वहां इस महान त्यागमयी नारी के जीवन का बड़ा भाग अज्ञात ही है । वर्द्धमान महावीर भ्रातृ-स्नेह के वशीभूत होकर जब दो वर्ष गह में अनासक्त भाव से रहे तब यशोदा ने उनकी किस प्रकार सेवा की ? महावीर की प्रव्रज्या के समय यशोदा की क्या मनोदशा थी? पति के दीक्षित होने के पश्चात् उन्होंने अपना जीवन कैसे व किन मनोभावनाओं के बीच व्यतीत किया, इन सबका विस्तृत वर्णन किसी भी प्रामाणिक ग्रंथ में उपलब्ध नहीं हो पाया। ये सब प्रश्न पहेली बनकर उपस्थित होते है। यशोदा के मानसिक चिंतन एवं मनोभावों का चित्रण केवल कल्पना के विषय ही रह जाते हैं। इसी प्रकार रामायण में लक्ष्मण पत्नी उर्मिला एवं बौद्ध साहित्य में गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा के जीवन की घटनाओं के दिग्दर्शन की भी उपेक्षा की गई है।
भारतीय लोक जीवन में नारी को सजग सचेत एवं संरक्षिका कहा गया है। कुलकरों को जन्म देने वाली माताएँ कुल की संरक्षिका थीं। तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रति नारायण आदि को जन्म देने वाली माताओं का अवदान अपने देश और समाज के लिए महत्वपूर्ण रहा है। इन के कारण ही समाज ऐसे नर रत्नों को प्राप्त कर सका। आगमों में नारी की बुद्धिमत्ता के कई उदाहरण भी मिलते हैं जिनमें महत्वपूर्ण उदाहरण है रोहिणी का जिसने धान्य को सुरक्षित रखने के साथ-साथ उसकी वृद्धि भी की थी। तीर्थंकरों की अधिष्ठायिका देवियां, चक्रेश्वरी, अम्बिका, पद्मावती, सिद्धायिका आदि जगत कल्याण करने वाली देवियां थीं । राजीमती अर्थात् राजुल का नाम किसी से छिपा हुआ नहीं है। जयंति श्राविका कमलावती रानी और कौशल्या, कुंती, सीता आदि कई ऐतिहासिक नारियों ने समाज और राष्ट्र को महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
जैन धर्म में नारी को श्रमणी एवं श्राविका के रूप में प्रस्तुत किया गया है और सत्य उसके जीवन के आधार होते हैं। एक साध्वी के रूप में वह समस्त जगत के प्राणियों की रक्षिका बन जाती हैं, तो श्राविका के रूप में जीवों को अभयदान दात्री होती
है ।
अ. आध्यात्मिक क्षेत्र में नारी का योगदान :
ब्राह्मी, सुंदरी, राजीमती, चंदना आदि नारियों ने आध्यात्मिक जगत में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि नारी की आध्यात्मिक शक्ति ने संघ और समाज का बहुत कल्याण किया है।
१.११ महावीरकालीन नारियों का जैन धर्म को अवदान :
समस्त जैन इतिहास की प्रधान धुरी तथा सर्वाधिक स्पष्ट पथचिन्ह वर्धमान महावीर (५६६.५२७ ई. पू.) का व्यक्तित्व और
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
जीवनचरित है। उनके पूर्व का पुरातन या पुराण युग महावीर पूर्व युग है तो उनके उपरान्त का महावीरोत्तर काल । वह अन्तिम पुराण पुरुष थे तो प्रथम विशुद्ध ऐतिहासिक हस्ती भी थे। इतना ही नहीं, गत ढाई हजार वर्षों में जितने जैन ऐतिहासिक व्यक्ति हुए हैं वे सब तीर्थकर भगवान महावीर के अनुयायी थे। उक्त ईसा पूर्व छठी शताब्दी में तो जितने और जो जैन इतिहासांकित स्त्री-पुरुष हुए वे सब प्रायः साक्षात् रूप में भगवान् महावीर से संबंधित थे। कुछ उनके आत्मीयजन, कुटुम्बीजन या परिवार के सदस्य थे, कुछ नाते-रिश्तेदार आदि संबंधी थे, अन्य अनेक उनके शिष्य, अनुयायी, उपासक, उपासिकायें थे अथवा उनके व्यक्तित्व से प्रभावित
थे।
महावीर के सिद्धांतो का अनुगमन करने वाली उपासिकाओं में प्रमुख थी वैशाली गणतंत्र के अधिपति चेटक की महारानी सुभद्रा तथा उनकी स्वनामधन्या सात सुपुत्रियाँ त्रिशलादेवी, चेलना, प्रभावती, मगावती, शिवादेवी, ज्येष्ठा, दधिवाहन की पत्नी पद्मावती (धारिणी) तथा उनकी पुत्री (चंदना) वसुमति आदि। ये सभी महादेवियां भ० महावीर के श्राविका संघ की अग्रणी थी। उनमें से अनेकों की गणना सुप्रसिद्ध सोलह सतियों में है। ज्येष्ठा और चंदना कौमार्यकाल में ही दीक्षित होकर साध्वी बन गयी थी। उनमें से जिनका विवाह हुआ वे सब पति परायणा, शीलगुण विभूषिता एवं धार्मिक वत्ति की थीं। भगवान महावीर के परम भक्त (दस श्रावक) प्रमुख उपासक एवं उपासिकाओं का वर्णन आता है। इन श्राविकाओं ने भगवान के बताये हुए व्रतों को धारण कर जीवन को धन्य किया, पवित्र किया।
देवानंदा, रेवती, सुलसा और विदुषी जयंति श्राविका जैसी गहिणियां महावीर युग की नारियाँ थी। आदर्श गही श्रावक-श्राविका के रूप में रहते हुए वे अपनी स्वयं की इच्छाओं और आवश्यकताओं को सीमित कर, अपनी उत्पादन सामर्थ्य को तनिक भी व्यर्थ किये बिना, शेष धन एवं आय को लोक सेवा में लगा देते थे। भ०. महावीर के श्रावक-श्राविकाएं ही परवर्ती काल के जैन गृहस्थ स्त्री-पुरुषों के लिए, प्रेरणा के सतत् स्रोत तथा अनुकरणीय आदर्श रहे हैं। चाहे वे किसी वर्ण, जाति या वर्ग के, किसी व्यवसाय या वृत्ति के, और किसी भी क्षेत्र के हों। ६७
१.१२ नारी जाति के इतिहास का काल-विभाजन :जैन धर्म में नारी जाति के अवदान के अध्ययन को कालक्रम की दृष्टि से इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है। १. कुलकर युग एवं बाईस (२२) तीर्थंकरो के काल की नारियां । २. भ०. पार्श्वनाथ एवं भ०. महावीर स्वामी के काल की नारियां। ३. भ०. महावीर स्वामी के निर्वाण से ईसा की सातवीं शती तक की जैन नारियां । ४. ईसा की आठवीं शती से १५वीं शती तक की जैन नारियां । ५. ईसा की १६वीं शती से २०वीं शती तक की जैन नारियां । १.१३ साहित्यिक स्त्रोत :साहित्यिक स्त्रोतों के आधार पर नारी जाति का जो अवदान देखा गया वह निम्न प्रकार
केया जा रहा है। १.१४ आगम साहित्य एवं आगमिक व्याख्या साहित्य :
उपलब्ध जैन साहित्य में सबसे प्राचीन ग्रंथ अंग उपांगादि संज्ञक आगम ग्रंथ हैं। भगवान महावीर की दीर्घ तपश्चर्या व चिंतन के पश्चात् जो केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था और उससे वस्तु तत्व का जो ज्ञान व दर्शन हुआ उसे जनता के लिए जिन वाणी के रूप में प्रसारित किया गया है। वही कल्याणकारी वाणी इन आगमों में गुंथित है, अतः इनका महत्व सर्वाधिक निर्विवाद है। परवर्ती समस्त जैन वाडमय की जड़ इन्हीं आगमों में एवं अनुपलब्ध "पूर्व" संज्ञक ग्रन्थों में सन्निहित है। असाधारण पाण्डित्य संपन्न जैनाचार्यों ने इन पर नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, वृत्ति, टबा, अवचूरि व बालाबोध आदि अनेक विवरणात्मक टीकाएं रचकर इन्हें अधिकाधिक सुबोध बनाने का प्रयत्न किया है और आज भी वह क्रम चालू है। इसके अतिरिक्त इनके आधार से रचे गये स्वतंत्र जैन ग्रन्थों का विशाल साहित्य भी उपलब्ध है। छोटे बड़े सैंकड़ों प्रकरण व कथादि ग्रन्थ इन्हीं आगम रूपी वृक्षों की शाखाएं, प्रतिशाखाएं, फल,
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व पीठिका
फूल आदि समझना चाहिए। विद्वान मुनियों ने अनेक ग्रन्थ रचकर श्रुत ज्ञान की भक्ति की तो श्रावक-श्राविकाओं ने इनकी सुंदर अक्षरों में प्रतिलिपि करवाई । भगवती, उत्तराध्ययनादि की तो स्वर्णाक्षरी एवं उत्तराध्ययन, ज्ञातादि सूत्रों की सचित्र प्रतियाँ लिखवाने में लाखों रूपये खर्च किये। कल्पसूत्रादि की सैंकडों सचित्र एवं पचासों स्वर्णाक्षरी, रौप्याक्षरी, प्रतियां लिखवाने में तों करोड़ों की धनराशी व्यय हो चुकी है। भगवती सूत्र को सुनते हुए प्रत्येक प्रश्नोत्तर पर रौप्य मुद्रा ही नहीं स्वर्ण मुद्रा व मौक्तिक चढ़ाने वाले भक्त श्रावक-श्राविकाओं की भक्ति अविस्मरणीय रही है। भारत वर्ष का प्राचीन इतिहास जो बहुत कुछ अंधकार में पड़ा है उसको स्पष्ट करने वाली कई किरणें जैनागमों व उनकी नियुक्ति, चूर्णि व टीकाओं में पायी जाती है।
___ आगम साहित्य का निर्माणकाल पांचवी शताब्दी ई. पूर्व से लेकर ई. सन् की पांचवी शती माना जाता है। इस तरह से आगम एक हजार वर्ष की सुदीर्घ कालावधि में निर्मित, परिष्कारित और परिवर्तित हुआ है। उसके समस्त संदर्भ एक ही काल के नहीं हैं। उनमें जो भी कथा भाग है, वह मूलतः अनुश्रुतिपरक ओर प्रागैतिहासिक काल से संबंध रखता है। कथा लिखने की परम्परा ई. सन् की प्रथम शताब्दी से लेकर ई. सन् की सोलहवीं शताब्दी तक चलती रही। इन कथाओं में अपने काल से भी पूर्व के अनेक तथ्य उपस्थितहैं जो अनुश्रुति से प्राप्त हुए हैं। उनमें कुछ ऐसे भी तथ्य है जिनकी ऐतिहासिकता विवादास्पद हो सकती है और उन्हें मात्र पौराणिक कहा जा सकता है। जहां तक आगमिक व्याख्या साहित्य का संबंध है। वह मुख्यतः आगम ग्रन्थों पर, प्राकृत एवं संस्कृत में लिखी गई टीकाओं पर आधारित है, अतः इसकी कालावधि ईसा की पांचवी शती से बारहवीं शती तक है। उसमें भी अपने युग के सन्दर्भो के साथ आगम युग के संन्दर्भ भी मिल गये हैं। इसके अतिरिक्त इन आगमिक व्याख्याओं में कुछ ऐसे उल्लेख मिलते हैं, जिनका मूल स्त्रोत न तो आगमों में ओर न व्यख्याकारों के समकालीन समाज में खोजा जा सकता है। वे आगमिक व्याख्याकारों की मनः प्रसूत कल्पना भी नहीं कहे जा सकते है। उदाहरण के रूप में मरूदेवी, ब्राह्मी, संदरी, तथा भ०. पार्श्वनाथ की परमपरा की अनेक श्राविकाओं से संबंधित विस्तत विवरण जो आगमिक व्याख्या ग्रंथों में उपलब्ध है, वह या तो आगमों में अनुपलब्ध है, या संकेत मात्र हैं। किंतु हम यह नहीं मान सकते हैं कि ये आगामिक व्याख्याकारों की मनः प्रसूत कल्पना है। वस्तुतः वे विलुप्त पूर्व साहित्य के ग्रंथों से या अनुश्रुति से व्याख्याकारों को प्राप्त हुए हैं। अतः आगमों और आगमिक व्याख्याओं के आधार पर नारी का चित्रण करते हुए हम यह नहीं कह सकते कि वह केवल आगमिक व्याख्याओं के युग के संदर्भ है या उनमें एक ही साथ विभिन्न कालों के संदर्भ उपलब्ध हैं। अध्ययन की सुविधा की दष्टि से उन्हें निम्न कालखण्डों में विभाजित किया जा सकता है। यथा:
(१) पूर्व युग - ई. पू. छठी शताब्दी (२) आगम युग - ई. पू० छठी शती से लेकर ई. सन् की पांचवीं शती तक । (३) आगमिक प्राकृत व्याख्या युग - ईसा की पांचवी शती से आठवीं शती। (४) आगमिक संस्कृत व्याख्या एवं पौराणिक कथा साहित्य युग - आठवीं से बारहवीं शती तक।
भारतीय लोक जीवन में नारी को सजग सचेत एवं संरक्षिका कहा गया है। कुलकरों को जन्म देने वाली माताएँ कुल की संरक्षिका थीं। तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रति नारायण आदि को जन्म देने वाली माताओं का अवदान देश और समाज के लिए महत्वपूर्ण रहा है। इनके कारण ही समाज ऐसे नर रत्नों को प्राप्त कर सका है। आगमों में नारी की बुद्धिमत्ता के कई उदाहरण भी मिलते हैं जिनमें महत्त्वपूर्ण उदाहरण है रोहिणी देवी का जिसने धान्य को सुरक्षित रखने के साथ-साथ उसकी वद्धि की थी। राजीमती अर्थात् राजुल का नाम किसी से छिपा हुआ नहीं है। जयंति श्राविका कमलावती रानी आदि उपासिकाएं एवं अन्य कई ऐतिहासिक नारियों ने समाज में महत्वूपर्ण योगदान दिया है।
जैन धर्म में नारी को श्रमणी एवं श्राविका के रुप में प्रस्तुत किया गया है सत्य और शील उसके जीवन के आधार होते हैं। एक साध्वी के रूप में यह समस्त जगत के प्राणियों की रक्षिका बन जाती है, तो श्राविका के रूप में जीवों को अभयदान देती है। भारतीय नारी युग-युगों तक आत्म चेतना के स्वर गुंजित करती रही है। एक ओर नर की सहायिका वहीं दूसरी ओर उसकी मार्गदर्शिका रही है। विषमता के विष को पीकर भी परिवार और समाज के जीवन में समता और समरसता का अमत ही बांटती है।
श्रावक जीवन के आचरण का दर्पण श्री उपासकदशांग सूत्र हैं जिसमें बारह व्रतों को जीवन में धारण करने वाली श्राविकाओं
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
का वर्णन मिलता है:- जिनमें निम्नलिखित नाम उल्लेखनीय है। सद्दालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा, नन्दिनी पिता की पत्नी अश्विनी, सालिनीपिता की पत्नी फाल्गुनी, शंख की पत्नी उत्पला, सुरादेव की पत्नी धन्या, चुल्लशतक की पत्नी बहुला, कामदेव की पत्नी भद्रा, आनन्द की पत्नी शिवानंदा आदि। अंतकृतदशांग सूत्र जैन अंग साहित्य का आठवां अंग है। इसके सातवें वर्ग में पोलासपुर नगरी के "विजय" महाराजा की महारानी एवं मुक्तिगामी अतिमुक्तक की माता "श्रीमती" का उल्लेख आता है, जिनकी श्रमण-भक्ति एवं सेवा की झलक के संस्कारों से अतिमुक्तक दीक्षित हुए।
छठे अंग ज्ञातासूत्र के चौदहवें अध्ययन में तेतलीपुत्र की पत्नी पोट्टिला ने श्राविका व्रतों का आराधन किया, इसका उल्लेख प्राप्त होता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के नौवें शतक में उल्लेख हुआ है कि देवानंदा ब्राह्मणी श्रमणोपासिका के व्रतों को धारण करती हुई विचरण कर रही थी। भगवान् महावीर द्वारा नगरी में पदार्पण के समाचार सुनकर वह अतिप्रसन्न हुई।
भगवतीसूत्र के पंद्रहवें शतक में प्रभु महावीर के प्रति समर्पित श्राविका व्रतों का सम्यक् परिपालन करने वाली रेवती का वर्णन आता है। रेवती ने सिंह अणगार को कोलपाक श्रद्धापूर्वक अर्पित किया, जिसका सेवन करके प्रभु महावीर का दाहज्वर दूर हुआ। बारहवें शतक प्रथम उद्देशक में शंख श्रावक की पत्नी श्रमणोपासिका उत्पला का पति के धर्म कार्य में सहायिका बनने का उदाहरण प्राप्त होता है। इसी बारहवें शतक के दूसरे उद्देशक में इतिहासप्रसिद्ध श्रमणोपासिका जयंति श्राविका ने सर्वजन लाभकारी तात्विक प्रश्न भगवान् महावीर से पुछे थे। उन प्रभावशाली प्रश्नोत्तरों का इसमें उल्लेख हुआ है। कल्पसूत्र में भ०. महावीर की माता देवानंदा एवं त्रिशला द्वारा देखे गये चौदह स्वप्नों का वर्णन है, जिसमें त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर प्रभु की जन्मदात्री माताओं के अमूल्य योगदान का वर्णन है। उत्तराध्ययन सूत्र जो प्रभु की अन्तिम वाणी है, उसमें महारानी कमलावती का प्रेरक प्रसंग प्राप्त होता है। भोग, ऐश्वर्य एवं धन की लालसा कितनी घणित होती है, यह रानी कमलावती ने महाराज इषुकार को समझाकर त्याग मार्ग के लिए प्रेरित किया तथा स्वयं भी साध्वी बन गई। दशवैकालिक सूत्र के द्वितीय अध्ययन में भोगों के दल-दल में फंसनेवाले रथनेमि को, भोगों के कीचड़ से निकालकर पवित्र त्याग मार्ग पर बढ़ाने वाली राजीमती की प्रेरणा इतिहास के स्वर्ण पृष्ठों पर रेखांकित है।
हरिभद्रीयवृत्ति, आवश्यक नियुक्ति भाग २ प. १३७. व प. १५६ में बारह व्रतधारी कोशा श्राविका के उज्जवल जीवन की झांकी प्राप्त होती है। तथा माता मरूदेवी के मोक्षगमन द्वारा अवसर्पिणी काल में सिद्धत्व पद प्राप्त करने वाली प्रथम आत्मा के रूप में वर्णन प्राप्त होता है। आगमिक व्याख्या साहित्य अर्थात् आगमों पर प्राकृत एवं संस्कृत में लिखी गई टीकायें हैं। ईसा की पांचवी शती से बारहवीं शती तक का समय इसके अन्तर्गत लिया जा सकता है। आगमिक व्याख्या साहित्य में श्राविकाओं के उल्लेखनीय योगदान की झलक मिलती है। आवश्यक चूर्णि भाग १ में राजा दधिवाहन की रानी एवं चंदना की माता धारिणी का उल्लेख है। जिसने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए देह की मूर्छा का त्याग कर प्राणों की आहुति दी।
आगमिक व्याख्याओं में कुछ ऐसे भी वर्णन उपलब्ध हैं जो आगमों में अनुपलब्ध हैं, जैसे ऋषभदेव की माता मरूदेवी, ब्राह्मी, सुन्दरी आदि इनका मात्र संकेत किया गया है। इन नारियों का शिक्षा के क्षेत्र में अपूर्व योगदान रहा है। आगमिक व्याख्याओं में प्राप्त उल्लेखों से ज्ञात होता है कि वेश्यायें और गणिकायें भी धर्म संघ में प्रवेश करके श्राविकायें बन जाया करती थीं । कोशा ऐसी वेश्या थी, जिसकी शाला में जैन मुनियों को निःसंकोच भाव से चातुर्मास व्यतीत करने की अनुज्ञा आचार्य दे देते थे। मथुरा के अभिलेख इस बात के साक्षी हैं कि गणिकाएं जिनमंदिर और आयागपट्ट (पूजापट्ट) बनवाती थीं। वेश्याओं और गणिकाओं की भी अपनी नैतिक मर्यादाएं थी, जिनका वे कभी उल्लंघन नहीं करती थीं/७१
१.१५ चरित एवं कथा काव्यों में श्राविकायें :
आचार्य हेमचंद्र विरचित त्रिषष्टिशलाका पुरूष चरित्र चौबीस तीर्थंकरों, नौ बलदेवों, नौ वासुदेवों एवं नौ प्रतिवासुदेवों की माताओं, पत्नियों तथा उस समय की प्रमुख श्राविकाओं का जीवनवृत्त है। "पउमचरिउं" में बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी के शासनकाल में हुई श्राविकाओं का वर्णन है। पं. शुक्लचंदजी म. की शुक्ल जैन महाभारत में महाभारत काल की श्राविकाओं का वर्णन है। जैन पुराणकोष में भी पौराणिक काल की श्राविकाओं का जीवनवृत्त प्राप्त होता है। जैन साहित्य में श्रीकृष्ण चरित्र में देवकी को अतिमुक्तक मुनि द्वारा दिये गये वचन का तथा देवकी के छः पुत्रों का पालन सुलसा के यहां होने का वर्णन आदि का उल्लेख
हुआ है।
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व पीठिका
0
:/
डॉ० प्रेमसुमन जैन के निबन्ध जैन कथा साहित्य में नारी की प्रतिष्ठा में प्राचीन आगमों की प्रसिद्ध कथा "धन्य की चार पुत्रवधुएं" प्रस्तुत की है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने उपदेशशतक में इस कथा को प्रस्तुत किया है, तथा छोटी बहू ससुर धनश्रेष्ठी द्वारा प्रदत्त कुल परम्परा रूपी धान्य को अपने श्रम से कई गुना कर देने वाली घर की स्वामिनी बनती है, इसका वर्णन प्राप्त होता है।३ हरिभद्रसूरि ने धूर्ताख्यान में आठवीं शताब्दी की नारी खण्डयाना द्वारा पांच सौ धूर्त पुरुषों पर वाद-विवाद द्वारा विजय की प्राप्ति तथा अन्त में उन्हें भोजन कराकर तप्त करती है, इसका वर्णन किया है, महाकवि स्वयम्भू को मंदोदरी द्वारा रावण को समझाने का प्रयत्न करना आदि का उल्लेख किया है।७४
१.१६ पुराण साहित्य में श्राविकाओं का योगदान
अ. पुराण का भारतीय संस्कृति में स्थान : प्राचीन भारत में पुराणों का महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता है, ये हमारी संस्कृति एवं धर्म के संरक्षक है। इनका उद्देश्य सर्वसाधारण जनों को धार्मिक संस्कारों में दृढ़ करना तथा सरल, सुबोध भाषा में अध्यात्म के गूढ तत्त्वों को समझाना रहा है, इसलिए ही ये ज्ञान विज्ञान के कोष कहे जाते हैं। इनमें सभी वेद और उपनिषदों के ज्ञान को विभिन्न कथानकों के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है।
पुराण साहित्य का विकास आज से नहीं, अपितु प्राचीन काल से ही होता आया है। इनकी कथा, कहानी और दृष्टांत प्राचीन ही हैं। ये सर्वसाधारण के उपकार की दृष्टि से ही लिखे गए हैं। इनमें तत्वों का विवेचन लोकोपकारी कथानकों तथा प्रभावशाली दृष्टांतों द्वारा किया गया है, इसलिए इनका प्रभाव आज भी स्पष्ट है। यदि हम इसके विशिष्ट पहलुओं पर विचार करके देखें, तो इनकी शिक्षा को कभी भी किसी भी युग में अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। आज जो कुछ भी धार्मिकता हम देख रहे हैं, वह सब पुराण साहित्य का ही योगदान है। अतः यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि पुराण भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के लोकप्रिय और अनुपम रत्न हैं।
इसमें काल वर्णन, कुलकरों की उत्पत्ति, वंशावली, साम्राज्य, अरिहंत अवस्था, निर्वाण और युग विच्छेद का वर्णन है। दिगंबर परम्परा के आदिपुराण में उल्लेख है कि ऋषभदेव ने अपनी पुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी को लिपि विज्ञान एवं गणित की शिक्षा दी थी। पद्मपुराण में महासती सीता व महासती कौशल्या को कठिन परिस्थितियों में भी अपने ज्ञान और विवेक से सामना करते हुए चित्रित किया गया है। पाण्डवपुराण में महासती द्रौपदी एवं महासती कुंती के नारी जीवन का महान् आदर्श चित्रित किया गया है।
१.१७ प्रबंध साहित्य :
जैन परम्परा में आगमिक व्याख्याओं और पौराणिक रचनाओं के पश्चात् जो प्रबंध साहित्य लिखा गया, उसमें सर्वप्रथम सतीप्रथा का ही जैनीकरण किया हुआ एक रूप हमें देखने को मिलता है। तेजपाल-वस्तुपाल प्रबंध में बताया गया है कि तेजपाल और वस्तुपाल की मृत्यु के पश्चात् उनकी पत्नियों ने अनशन करके प्राण त्याग दिये। यहाँ पति की मृत्यु के पश्चात् शरीर त्यागने का उपक्रम तो है किन्तु उसका स्वरूप सौम्य और वैराग्य प्रधान बना दिया गया है। वस्तुतः यह उस युग में प्रचलित सती प्रथा की जैन धर्म में क्या प्रतिक्रिया हुई थी, उसका सूचक है।
१.१८ ऐतिहासिक ग्रंथ :
ऐतिहासिक ग्रंथों में जैसे उत्तर प्रदेश और जैन धर्म, उत्तर भारत में जैन धर्म, दक्षिण भारत में जैन धर्म, मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म, जैनिज़म इन आंध्रा, श्री स्वर्णगिरि जालोर, इतिहास की अमर बेल ओसवाल, भ० पार्श्व की परम्परा का इतिहास, भट्टारक संप्रदाय, मद्रास व मैसूर प्रांत के प्राचीन जैन स्मारक, प्राचीन जैन स्मारक, खंडेलवाल जैन समाज का बृहद् इतिहास, भारतीय इतिहास एक दृष्टि, भारत के दिगंबर जैन तीर्थ, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ, जैन आगम में नारी, जैन धर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएँ, प्राचीन भारतीय अभिलेख संग्रह भाग १ आदि ग्रंथों में उन प्रतिष्ठित श्राविकाओं का वर्णन है, जिन्होंने जिन मंन्दिरों, जिन मूर्तियों की स्थापना करवाकर जैन धर्म के प्रचार प्रसार में योगदान दिया तथा भिक्षुओं के लिए भूमि आदि का दान दिया।
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.१६ शिलालेख और ग्रंथप्रशस्तियां :
डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर द्वारा संग्रहित जैन शिलालेख संग्रह भाग १ से ५ तक के ग्रंथ में उन राजकुमारीयों, राजरानियों, श्रेष्ठि पत्नियों आदि श्राविकाओं का वर्णन है जिन्होने जिन मन्दिरों, जिन मुर्तियों व उच्च श्रावक-श्राविकाओं के समाधी स्थलों का निर्माण कराया। ये श्राविकाएं इतिहास की कड़ी को जोड़ने में लाभदायक सिद्ध हुई हैं।
41
इसी प्रकार जैसलमेर जैन लेख संग्रह भाग १ २३ में, जैन प्रतिमा लेख संग्रह बीकानेर, जैन लेख संग्रह में, जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह में, पाटण जैन धातु प्रतिमा लेख में, जिनमूर्ति प्रशस्ति लेख, ऐतिहासिक लेख संग्रह, प्राचीन लेख संग्रह, ब्राह्मी इंस्क्रिप्शन्स आदि लेख संग्रहों में उन उल्लेखनीय श्राविकाओं का वर्णन है जिन्होंने अपने धन का उपयोग वीतराग प्रभु की मूर्ति के निर्माण में व्यय नहीं किन्तु सदुपयोग किया तथा पुण्य का अनुबंध किया। ऐतिहासिक संशोधन में ग्रंथकारों और लिपिकारों की प्रशस्तियां बड़ा महत्व रखती हैं।
श्रीमान् कस्तूरचंदजी कासलीवाल ने अपने प्रशस्ति संग्रह में उन श्राविकाओं का वर्णन किया है जिन श्राविकाओं ने अपने धन का सदुपयोग साहित्य ग्रंथों के प्रणयन में लगाया । श्रुतज्ञान तथा महापुरुषों के चरित्र को सुनने पढ़ने से शुद्ध भावों का प्रसरण होता है। उन श्राविकाओं ने उस समय मुद्रण व्यवस्था नहीं होते हुए भी लिपिकारों से ग्रंथों एवं शास्त्रों की प्रतिलिपियां लिखवाकर आचार्यों को, व साधु-साध्वियों को, श्रावक-श्राविकाओं व चतुर्विध श्रीसंध को भेंट की जिससे श्रुतज्ञान का प्रचार प्रसार बढ़ा।
इसी प्रकार श्रीमान् अमृतलाल मगनलाल शाह ने अपने प्रशस्ति संग्रह में उन श्राविकाओं का साहित्यिक योगदान प्रकाशित किया, जिन्होंने जिन वाणी के मूल आगमों को, आगम पर लिखी गई वृत्तियों को, महापुरुषों के चरित्रों को लिखवाकर भेंट में दिया ।
१.२० पुरातात्विक साक्ष्य :
पुरातात्विक साक्ष्यों का अवलोकन करते हुए श्राविकाओं की मूर्ति, एवं श्राविका के चित्र का आधार हमें प्राप्त हुआ है । माउंट आबू के लूणवसहि मन्दिर के निर्माता महाअमात्य तेजपाल तथा श्राविका अनुपमादेवी का चित्र प्राप्त होता है। नेशनल म्युज़ियम दिल्ली में मुख्य द्वार के बायीं ओर प्रवेश करते ही नमस्कार मुद्रा की विनम्र मुद्रा में खड़ी (श्राविका ) उपासिका की मूर्ति प्राप्त होती है। दिल्ली चांदनी चौक नौग्रहा के जैन मन्दिर में वंदना की मुद्रा में बायें घुटने को मोड़कर नमस्कार मुद्रा में हाथ जोड़ी मुगल काल की श्राविकाओं के चित्र तथा आचार्य श्री की सभा में उपदेश श्रवण करती हुई श्राविकायें, श्रावक आदि समुदाय के चित्र प्राप्त होते हैं जो प्रमाणित करते हैं कि श्राविकायें जिन मूर्ति की उपासना, साधु संतों का सत्संग, प्रवचन - श्रवण आदि कार्य करती थी व धर्म के प्रति आस्थाशील थी ।
देवगढ़ (ललितपुर) स्थित श्री दि० जैन० अतिशय क्षेत्र स्थित सुखी दंपत्ति के चित्र में चित्रित श्राविका का चित्र प्राप्त होता है। मथुरा के चतुर्विध प्रस्तरांकन पर श्राविकाओं के चित्र है तथा अभिलिखित जैन आयागपट्ट भी श्राविकाओं द्वारा निर्मित हैं जो पूजा के उपयोग में आते थे। वे चित्रपट वर्तमान में भी उपलब्ध हैं। इमेजस फ्रम अर्ली इण्डिया नामक ग्रंथ में पृ. ६३ तथा पृ. २१६ पर श्रावकों द्वारा हाथों में फूलमाला लिये तथा श्राविकाओं द्वारा नमस्कार मुद्रा में स्त्री पुरुष के चित्र मथुरा शिल्प शैली का चित्रण करता है। तथा चतुर्थ एवं पांचवी शताब्दी की वंदना की मुद्रा में बैठी हुई एक प्रतिमा भी है। प्रतिमा की ओर निरखती हुई श्राविका के वस्त्र क्षत्रिय तथा संपन्न घराने के प्रतीक हैं। उस प्रतिमा की पूजा उसने पहले भी की थी। उसने बायें हाथ में फल लिया है तथा पुनः वह पूजा की मुद्रा में ही प्रतिमा का दर्शन करती हुई चित्र में प्रतीत होती है।
१.२१ हस्तलिखित ग्रंथों की प्रशस्तियों में श्राविकायें :
प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर के ज्ञान भण्डार में हस्तलिखित ग्रंथों की कुछ प्रतियों में श्राविकाओं के कृतित्व का परिचय प्राप्त होता है। इसमें कुछ स्वतंत्र रचनाएं हैं तो कुछ चातुर्मास की विनती पत्र के रूप में लिखी गई हैं। कुछ श्राविकाओं के पठनार्थ लिखी गई शास्त्रों की, चौपाई आदि की हस्तलिखित प्रतियां भी उपलब्ध हुई हैं।
मुनि जंबूविजय द्वारा संपादित जैसलमेर के प्राचीन जैन ग्रंथ भंडारों की सूची में जिनभद्रसूरि ताड़पत्रीय एवं जिनभद्रसूरि कागजी हस्तलिखित प्रतियों में जिन श्राविकाओं का योगदान रहा उन ऐतिहासिक नामों की अकारादि क्रम से सूची दी गई है।
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व पीठिका
इसी प्रकार तपागच्छ ताड़पत्रीय हस्तलिखित ग्रंथ भंडार एवं लोंकागच्छ, आचार्यगच्छ ताड़पत्रीय हस्तलिखित ग्रंथ भंडार की हस्तलिखित प्रतियों में भी श्राविकाओं के ऐतिहासिक नामों का उल्लेख प्राप्त होता है।
पी०सी० जैन संपादित भट्टारकीय ग्रंथ भंडार, नागौर के हस्तलिखित ग्रंथ भंडार की हस्तलिखित प्रतियों में श्राविकाओं के जीवन पर लिखे गये चरित्र का उल्लेख हुआ है। इसी प्रकार श्राविकाओं पर चौपाई, रास, टीका, प्रबंध, गाथायें, आदि का उल्लेख पंजाब में जैन साहित्य रचना, उत्तर प्रदेश और जैन धर्म, बृहद् (बड़) गच्छीय कवि मुनिमाल (यति) की रचनाएं, श्रावक कवि खुशीराम दुग्गड़ की रचनाएं आदि अनेक ग्रंथों में प्राप्त होता है। राजस्थान हिन्दी हस्तलिखित ग्रंथसूची भाग ३ में रानियों द्वारा हस्तलिखित स्तवन की पत्री, बाई वीरो श्राविका पठनार्थ अंजना सुन्दरी रास आदि का वर्णन प्राप्त होता है। कन्नड़ ताड़पत्रीय ग्रंथ सूची में भी श्राविका के लिये लिखी गई ग्रंथ, टीका आदि का वर्णन उपलब्ध होता है।
श्रीमान मोहनलाल दलीचंद देसाई कृत जैन गुर्जर कविओं में (जिनके १ से लेकर ६ भाग है) उन श्राविकाओं का वर्णन है, जिन्होंने स्तवन, सज्झाय, चौपाई, गीत, रास आदि साहित्य लिखवाकर पुण्यशीला, स्वाध्यायशीला श्राविकाओं के पठनार्थ समर्पित किया है। जैन गुर्जर कविओं में श्राविकाओं पर लिखी गई कतियां, रास, चौपाई कथा, प्रबंध आदि उल्लेखनीय हैं जो विभिन्न कवियों द्वारा लिखित हैं। जैन गुर्जर कविओं भाग १ से ६ (नवीन संस्करण) में ही श्राविकाओं ने अपने स्वाध्याय एवं पठन हेतु जिन ग्रंथों का प्रणयन करवाया, उन हस्तलिखित प्रतियों का उल्लेख भी किया गया है। ___जैन समाज के प्राचीन ग्रंथ भंडारों में, संग्रहों में सैंकड़ों वर्षों पहले हाथ से लिखवाये गये सैंकड़ों ग्रंथ आज भी दृष्टिगोचर होते हैं। इनमें सुशील जैन महिलाओं का बहुत बड़ा योगदान है। उन शीलवती श्राविकाओं ने अपनी संपत्ति ज्ञान आराधना की भावना
और उत्साह भरी प्रेरणा से जैन सिद्धांत एवं सूत्रादि विविध साहित्य की ताड़पत्रादि पुस्तिकायें लिखवाई हैं। योग्य विद्वान् एवं व्याख्याता मुनियों को अर्पण की है तथा ज्ञान भंडारों में रखवाई है। जैनाचार्यों के सदुपदेश उनमें निमित्त भूत बने हैं। उसमें उनका अपना तथा रचना आदि में भी अनेक महत्तराओं, आर्याओं, प्रवर्तिनीयों, गणिनीयों, व श्रमणिओं का भी प्रशंसनीय परिश्रम दिखाई देता है। सौराष्ट्र, गुजरात, मारवाड़, मेवाड़, दक्षिण आदि विविध देशों की श्रीमाल, पोरवाड़, ओसवाल, धर्कट, दिशावाल, अग्रवाल, मोढ़, हुंबड़, आदि विविध वणिक वंश-ज्ञातिओं की, क्षत्रिय तथा अन्य उच्चकुलीन राज्याधिकारिओं के परिवार की महिलाओं का महत्वपूर्ण स्थान है जिन्होंने ज्ञानाराधना के लिए, आत्म कल्याण के लिए तथा माता-पिता, पति-पुत्र एवं स्वजनों आदि के कल्याण के लिये अनेक पुस्तिकायें लिखवाई। पठन पाठन तथा व्याख्यान आदि के सदुपयोग के लिए उस समय के सुयोग्य विद्वान् जैनाचार्य आदि को भक्ति से समर्पित की और भविष्य की पीढ़ी के लिए जैन संघ के सुरक्षित ज्ञानभंडारों में संग्रहित करवाई थी। इन महिलाओं ने पुण्य से प्राप्त चंचल लक्ष्मी को विवेक पूर्वक पुण्य कार्यों में विनियोग करके सफल किया था।
जैन मन्दिरों, देवकुलिकाओं, जैन मूर्ति प्रतिमाओं की तरफ देखने पर उनकी प्रशस्तियों, शिलालेखों, प्रतिमालेखों की सावधानी से खोज की जाएं तो जैन श्राविकाओं के अनेक सत्कार्यों के इतिहास की जानकारी का हमें बोध होता है।
१.२२ प्रस्तुत शोध का सीमा क्षेत्र :
हमारा प्रस्तुत शोध प्रबंध श्राविका वर्ग तक सीमित है। श्राविका शब्द के हमने दो विभाग किये हैं, श्रद्धाशील एवं व्रतसंपन्न श्राविकायें।
१.२३ श्रद्धासंपन्न श्राविकायें :
देव, गुरु, धर्म के प्रति, श्रद्धाशील, श्रमण-श्रमणियों से प्रवचन श्रवण, गुरु चरण उपासना, धार्मिक पुस्तकों का पठन पाठन, मूर्ति निर्माण एवं साहित्यिक ग्रंथों की हस्तलिखित प्रतिलिपियों के निर्माण में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहता है। सामाजिक राजनीतिक, सेवा, परस्पर उपकार तथा सद्भावना के क्षेत्र में इनका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है।
१.२४ व्रतसंपन्न श्राविकायें :
जैन साहित्य में गृहस्थ श्राविकाओं के आचार के लिए बारह व्रतों का प्ररूपण किया गया है। व्रतसंपन्न श्राविकायें वे हैं जो इनमे से एक या बारह ही व्रतों को धारण करने वाली हैं। व्रत आराधना के साथ ही अनेक प्रकार की तपस्यायें, जाप, संथारा आदि
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
की विशिष्ट साधनायें करती हैं। इनका अवदान आध्यात्मिक है। अग्रिम पष्ठों में हम इन सब के अवदानों की ऐतिहासिक कालक्रम से चर्चा करेंगे।
संदर्भ सूची (अध्यायः १ )
१
२
३
४
५
६
७
८
૬
१०
११
१२
१३
१४
१५
१६
१७
१८
१६
२०
२१
8 ~ ~ 20 or w
२२
२३
२४
२५
२६
२७
आचार्य श्री देवेंद्रमुनि भारतीय वाङ्मय में नारी पृ. १६.२६ ।
पृ. ३०.४३ ।
पृ. ४४.४७
वही पू. ४८.७१ ।
वही १८
डॉ. उर्मिला प्रकाश मिश्र, प्राचीन भारत में नारी प. ४.६ ।
वही पू. ६६.८११
डॉ. कोमल जैन, जैन आगम में नारी प्र. २६.३३ ।
आचार्य देवेंद्रमुनि. भारतीय वाङ्मय में नारी पृ. ८६.६३ ।
मुनि श्री नगराज जी आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन खण्ड १ पृ. २१६ ।
डॉ श्रीमति कोमल जैन, जैन आगम में नारी
सं. शोभाचंद्र भारिल्ल. सूत्रकृतांग सूत्र. प्रथम उद्देशक अध्ययन गां. २.६ पृ. २३.२७९ ६६.७६ ।
युवाचार्य मधुकर मुनि दशवैकालिक सूत्र. अ. २ गा. ६.११ ।
देवेंद्रमुनि शास्त्री. ऋषभदेव एक परिशीलन. पृ. १४४ ।
अरिहननादरिहंता. धवला टीका. प्रथम पुस्तक. पृ. ४२.४४ ।
वदुघाइकम्मो दंसणसुहणाण वीरियमईओ. ।
सुहत्थे अम्मा सुद्धो अरिहो विचिंतिज्जो ।। द्रव्य संग्रह ५० ।
धम्मनायगाणं...........
प्र. ३७.३८ ।
31)
कल्पसूत्र. पृ. ५३.५४ ।
तत्वार्थसूत्र. अध्याय ६ गाथा २३ दर्शनविशुद्धि... ...तीर्थकृत्वस्य ।
वंदे उसभमजिय....... .वद्धमाणं च नंदीसूत्र. गाथा. २०.२१ । चिमनलाल जैचंद शाह, उत्तर भारत में जैन धर्म पू. १८ ।
सं. प्रो. हीरालाल, जैन सिद्धांत भास्कर, जनवरी १६४७ पृ. ८६.६४ ।
सुमेरचंद दिवाकर, जैन शासन. पृ. २७२।
बलभद्र. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग. प्रथम पृ. ११॥
नंदीसूत्र. गाथा ७.८ ।
..चक्कवट्टीणं णमोत्थुणं का पाठ, कल्पसूत्र. पू. ३७ ।
सम्मत्तदंसण पइदिअहं जइजणा सुणेइ य ।
सामायारी परमं जो खलु तं सावगं वित्ति ।। समणसुत्तं, गाथा ३०१ ।
(अ) जैन आचार मीमांसा, प० २५५ (ब) संस्कृत धातुकोष पृ० २६५ ।
(ब) श्रावक कर्तव्य, मुनि सुमनकुमार पृ० १.२ ।
43
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
44
पूर्व पीठिका
२८ श्रद्धालुतां श्राति, अणोति शासनम्। दानं वपेदाशु वणोति दर्शनम् । कृन्तत्यपुण्यानि करोति संयमम् ।तं श्रावकं प्राहुरमी विचक्षणाः ।।
(अ) जैन आचार मीमांसा, पृ० २५५ए २५६ ।
(ब) श्रावक कर्तव्य, मुनि सुमनकुमार, पृ० १२ । ३० जैन आचार मीमांसा, पृ० २५७ । ३१ जैन आचार मीमांसा पृ० २५८.२५६ ।
एस ठाणे आरिए, जावे सव्वदुक्खपहीण मग्गे एगंतसम्मे साहू। सूत्रकृतांग सूत्र। ३३ हिंसानतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम तत्वार्थसूत्र अ.७ केवल मुनि। ३४ देशसर्वतोणुमहती।।२।। त. सूत्र अ.७ पृ० २६४ उपाध्याय केवलमुनि। ३५ सूत्रकृतांगसूत्र. सं. मुनि मधुकर, सूत्र ८। ३६ स्थानांगसूत्र. सं. मुनि मधुकर ५१३८६ ।
स्थानांगसूत्र. सं. मुनि मधुकर, १ से १० अध्ययन। उगसगदसा. सं. मुनि मधुकर.१ से १० अध्ययन। आगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ तंजहा।
पंच अणुव्बयाई तिण्णि गुणव्वयाइं चत्तारि सिक्खावयाई। ४० संकल्पपूर्वकः सेव्यो नियमो शुभकर्मणः । निवृत्तिवां व्रतं स्याद्वाद प्रवृत्ति शुभकर्मणि।।१६४।। ४१ संपादक, डॉ सुभाष कोठारी जैन नीतिशास्त्र; एक तुलनात्मक अध्ययन प० ८८| ४२ प्रो. सागरमल जैन, श्रावकाचार का मूल्यात्मक विवेचन, जैन विद्या के आयाम प० १५२ । ४३ जैन विद्या के आयाम. डॉ० अशोक कुमार जैन पृ० १५३। ४४ जैन विद्या के आयाम. डॉ० अशोक कुमार जैन पृ० १५३ । ४५ जैन विद्या के आयाम. डॉ. अशोक कुमार जैन पृ० १५४। ४६ जैन विद्या के आयाम. डॉ० अशोक कुमार जैन पृ० १५४.१५५' ४७ जैन विद्या के आयाम. डॉ० अशोक कुमार जैन पृ० १५५।
जैन विद्या के आयाम डॉ. अशोक कुमार जैन पृ० २५५ । उवासगदसाओ, १६२२.४२। श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र-अणुव्रत ७। श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र-अणुव्रत १५५।
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र-अणुव्रत १५६ । ५३ जैन विद्या के आयाम. डॉ० अशोक कुमार जैन प० १५६.१५७ । ५४ वही प० १५६.१५७। ५५ वही प० १५६.१५७। ५६ जैन नीतिशास्त्र : एक तुलनात्मक अध्ययन पृ० ६३.६४ । ५७ जैन नीतिशास्त्र : एक तुलनात्मक विवेचन पृ० ६४.६७ । ५८ डॉ. कमल जैन हरिभद्र साहित्य में समाज एवं संस्कृति पृ०६०। ५६ तत्र च गृहस्थ धर्मोपि द्विविधः समान्यतो विशेषश्चेति। धर्मबिंदु अ० १ए सू० २।
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
५६ तत्र च गृहस्थ धर्मोपि द्विविधः समान्यतो विशेषश्चेति । धर्मबिंदु अ० १ए सू० २। ६० मज्जु मंसु महु परिहरति, करि पंचुदुम्बर दूरि।
आयहं अंतरि अट्ठहानि तस उप्पज्जई भूरि।। योगीन्द्र देवसेन कृत सावयधम्मदोहा गाथा २२ । हिंसासत्यस्तेयादब्रह्म परिग्रहाच्च बादरभेदात्। द्यूतानमांसानमद्याद्विरति, गृहिणोष्ट सन्त्यमीमूलगुणाः ।।
चरित्रसार श्रावकाचार श्लोक १५| ६२ जुआं खेलना, मांस मद, वेश्या विसन शिकार | चोरी पर रमनी रमण, सातों विसन निवार ।।५०।। भूधर शतक। ६३ (अ) उपासकदशांग सूत्र १११
(ब) भगवतीसूत्र ८३१ ६४ उपासकदशांग सूत्र १११
उपासकदशांग सूत्र (१) अ.१ प० ४१० गा०५६ (२) अ.७ गा ४१ प० ५०० (३) अ.६ प० ५२६ गा. १७ (४) अ. ३ गा. १७ प० ४४३ (५) अ.२
पृ० ४२३ गा. १७। ६६ भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मय का अवदान द्वितीय खण्ड प० १२६ । ६७ प्रो० पुरुषोत्तमचंद्र जैन श्रमण संस्कृति की रूपरेखा, पृ० ७७.८१ । ६८ आवश्यक चूर्णि, भाग १ पृ. ३१८ / ६६ प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष एवं महिलाएँ पृ. २ ३०३४। ७० जैन साहित्य में श्रीकृष्णचरित्र, श्री राजेन्द्र मुनि पृ. १३३.१३५। ७१ वही पृ. १३३.१३५। ७२ वही पृ. १३३.१३५। ७३ उपदेशपद. गा. १७२.१७६ पृ. १४४ । ७४ चाँद स्मृति ग्रंथ पू. १००।
चौपाया में प्रत्येक पाये का महत्वपूर्ण स्थान है। उसी प्रकार चतुर्विध जैन धर्म-संघ में
श्राविका का प्रमुख स्थान है।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
46
पूर्व पीठिका
चित्र खण्ड
१. जैन कला एवं स्थापत्य में जैन श्राविकाओं का योगदान :
कला कला के लिए है अथवा “कला जीवन के लिए है, इस संबंध में भारतीय एवं पाश्चात्य चिंतकों ने गहरा ऊहापोह किया है जिससे कई तथ्य सामने आए हैं। कला यदि कला के लिए होती है, तो वह मात्र नेत्रों को आकर्षित करती है, मनोरंजन का एक साधन बनती है। जीवन के निर्माण में, मनोरंजन में उसकी कोई भूमिका नहीं होती। यदि कला का निर्माण जीवन के लिए होता है तो कला उत्कृष्टता को प्राप्त होती है। कईयों के जीवन को निर्माण पथ पर बढ़ाती है। भक्ति के साथ जुड़ी हुई कला वासना के द्वारों से मुक्त करती हई सुगति का मार्ग प्रशस्त करती है। अतः कला जीवन के लिए हो यह अधिक महत्त्वपूर्ण है। कला एवं स्थापत्य अतीत की गौरव गाथाओं को कथन करने वाली महत्त्वपूर्ण सामग्री है। कला एवं स्थापत्य इतिहास की कड़ियों को जोड़ने में अपना महत्त्वपूर्ण सहयोग प्रदान करते हैं। प्रस्तुत शोध प्रबंध में प्राप्त आधारों पर कालक्रम से अपने विषय के अनुरूप जैन कला एवं स्थापत्य पर श्राविकाओं का जो प्रभाव रहा है, उसे यथासंभव वर्णन करने का प्रयत्न किया गया है। इसमें ई. पू. द्वितीय शती से लेकर ई. सन की बीसवीं शती तक के लगभग ६३ चित्रों को संकलित किया गया है। चित्रों का विवरण भूमिका विभाग में तथा चित्रों को विवरण के अंत में प्रदर्शित किया गया है।
१.१ उड़ीसा के स्थापत्य एवं कला पर जैन श्राविकाओं का प्रभाव :
ई.पू. की द्वितीय शती से संबंधित उड़ीसा के हाथीगुंफा शिलालेख द्वारा निम्न तथ्य प्रमाणित होते हैं। कलिंग के चेदिवंश के तृतीय नरेश खारवेल ने नंदराजा पर विजय प्राप्त कर कलिंग जिन मूर्तियों को उदयगिरि पहाड़ी पर पुनर्प्रतिष्ठित किया था। उनकी माता ऐरादेवी तथा पत्नी सिंधुला देवी दोनों ही सुश्राविकाएं थी। दोनों ही जिन धर्म के प्रति श्रद्धाशील एवं दृढ़ प्रतिज्ञ थी। ई. पू. १५३ में कुमारी पर्वतपर जिन मंदिर का निर्माण किया गया था, जैन मुनिसंघ का महासम्मेलन आयोजित हुआ था, तथा द्वादशांगी श्रुत ज्ञान का समुद्धार हुआ था, इसकी पृष्ठभूमि में इन दोनों सुश्राविकाओं की प्रबल प्रेरणा निहित थी। कुमारी पर्वत के समीप ही रानी सिंधुलादेवी ने अपनी दानशीलता का विस्तार करते हुए भ्रमणशील श्रमणों के निवास हेतु कृत्रिम गुफाएं बनवाई थी। उसी के निकट एक काय निषिद्या का निर्माण करवाया था, जो "अरहंत प्रासाद" के रूप में प्रसिद्ध हुआ था, तथा उसकी रचना स्तूपाकार थी। इन गुफाओं का विशेष विवरण चतुर्थ अध्याय की भूमिका में उल्लेखित किया गया है।
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.१ चित्र सं. (१) राजा खारवेल की रानी सिंधुला देवी द्वारा श्रमणों के निवास हेतु निर्मित गुफा का निर्माण काल ई. पूर्व प्रथम शती
आंध्र की उदयगिरि गुफा ई. पू. की प्रथम शताब्दी (चित्र साभार : सं. अमलानंद घोष जैन कला एवं स्थापत्य खण्ड, १ प्र. ७६)
१.१ चित्र सं. (२)
ई. पूर्व की प्रथम शती
उदयगिरि गुफा में जैन उपासिकाओं द्वारा पूजन का दृश्य (चित्र साभार : सं. अमलानंद घोष जैन कला एवं स्थापत्य खण्ड, १ पृ. ७६)
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
48
१.१ चित्र सं. (३)
१.१ चित्र सं. (४)
अगर
लगभग ई. पूर्व प्रथम शती
WTS TOS
गुफा
उदयगिरि की भित्ति की शिल्पाकृतियों पर श्राविकाओं का चित्रांकन (चित्र साभार : सं. अमलानंद घोष जैन कला एवं स्थापत्य खण्ड १ पृ. ८०)
राजा खारवेल की रानी सिंधुला देवी द्वारा श्रमणों के निवास हेतु गुफा निर्माण में योगदान लगभग ई. पूर्व प्रथम शंती
EEORBERE
उदयगिरि गुफा की भित्ति की शिल्पाकतियों पर श्राविकाओं का चित्रांकन (चित्र साभार : सं. अमलानंद घोष जैन कला एवं स्थापत्य खण्ड १ प्र. ८० )
पूर्वपीठिका
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.१ चित्र सं. (५)
सम्भवतः ई. पूर्व की प्रथम शती
उदयगिरि - गुफा सं. १, निचला तल, दाहिना भाग, बरामदे की पिछली भित्ति की शिल्पाकृतियां
विनयावनत श्राविकाओं की मुद्रा
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
50
पूर्व पीठिका
१.२
मथुरा के शिल्प एवं स्थापत्य में जैन श्राविकाएं :
जैन धर्म के उत्थान में पुरुषों की अपेक्षा स्त्र्यिों का योगदान अधिक रहा है। मथुरा से प्राप्त सैंकड़ों जैन अभिलेखों से ज्ञात होता है कि धर्म के प्रति नारी जाति की आस्था पुरुषों से कहीं अधिक थी। धर्मार्थ दान देने में वे सदा पुरुषों से आगे रहती थी। मथुरा के प्रमुख जैन स्तूपों के आयागपट्ट आदि के निर्माण में महिला दान दाताओं का उल्लेखनीय योगदान इसका प्रमाण है। मथुरा में ई. सन् की प्रथम द्वितीय शती के अनेक शिल्पांकन में श्राविकाओं की विद्यमानता इस तथ्य को पुष्ट करती है। आइए नीचे देखें सुश्राविका अमोहिनी एवं लवणशोभिका के द्वारा निर्मित आयागपट्ट जो अभिलेख से युक्त, जिन प्रतिमा एवं जिन भक्ति में लीन श्राविकाओं से परिवत्त है। दूसरी ओर आर्यावती एवं श्रमण कष्णर्षि की मुनिचर्या में सहयोगिनी श्राविकाएं नज़र आती हैं।
१.२ चित्र सं. (१)
जैन श्राविकाओं द्वारा निर्मित्त आयागपट्ट ई. सन् की प्रथम-द्वित्तीय शती
Iddebe
AGAR
AWARARIANS
अर्हत् पूजा हेतु श्राविकाओं द्वारा निर्मित मथुरा का आयाग-पटट
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.२ चित्र सं. (२)
ई. सन् की प्रथम द्वितीय शती
TMALSS
LAR
EARNEDRISTREETA
अभिलिखित जैन अयागपट्ट (मथुरा)
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
52
१.२ चित्र सं. (३)
आर्यावती एवं श्रमण कष्णर्षि के प्रति श्रद्धा भक्ति अर्पित करती श्राविकाएँ
FOOTJX
Ra2086 188
G
BE
FA
25/04
मथुरा कंकालीटीला ई.सन्. द्वितीयशती चित्र साभार : गेलेक्सी क्रिओशन, राजकोट
wa
स
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.२ चित्र सं. (४)
श्रावक-श्राविकाओं से युक्त चरण- चौकी पर भ०. 'सम्भवनाथ' जी की प्रतिमा से अभिलिखित मूर्ति (कंकाली टीला, मथुरा) लगभग दूसरी शती
53
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
54
पूर्व पीठिका
१.२ चित्र सं. (५)
चरण-चौकी पर धर्मचक्र के दाएँ श्राविकाएँ एवं बाएँ श्रावकगण (कुषाणकाल, मथुराशैली, अहिच्छत्र, रामनगर, उत्तर प्रदेश)
प्रथम-द्वितीय शती
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.२ चित्र सं. (६)
चतुर्विध संघ, लेखरहित एकमात्र प्रतिमा (कुषाण काल, कंकाली टीला, मथुरा)
लगभग द्वितीय शती
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व पीठिका
१.२ चित्र सं. (७)
कंकाली टीला मथुरा से प्राप्त चतुर्विध-संघ प्रस्तरांकन एवं जैन श्राविकाएँ
ई. सन् की प्रथम-द्वितीय शती
Pt
सर्वतोभद्र प्रतिमा के चरणों के दोनों ओर श्रावक एवं श्राविकाएँ (कंकाली टीला मथुरा)
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.२ चित्र सं. (८)
कायोत्सर्ग मुद्रा वाली भ. वर्द्धमान की प्रतिमा की चौकी-मध्य स्थित धर्मचक के दोनों ओर खड़े हुए आभूषित उपासक - उपासिकाओं के साथ तीन-तीन बालक। (कुषाण काल सं. २०, कंकाली टीला, मथुरा ) ई. सन् प्रथम शती
१.२ चित्र सं. (६)
आद्य तीर्थकर म०. ऋषभदेव जी की चरण- चौकी पर चतुर्विध-संघ (सम्राट् हुविष्क ६० ई., कंकाली टीला, मथुरा) ई. सन् प्रथम शती
57
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
58
१.२ चित्र सं. (१०)
सम्राट् सम्प्रति के परिवार की जैन श्राविकाएँ ई. पू. की द्वितीय शती
३
४
انوان
पूर्व पीठिका
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.३ चित्र सं. (१)
side
मथुरा स्तंभ पर नमस्कार मुद्रा में जैन श्राविकाएँ ई. सन् द्वितीय शती (कुषाणकाल, मथुरा, गोविंदनगर)
चित्र साभार - इमेजस फ्राम अर्ली इंडिया. स्टेनिसलॉ. जे.जुमा. प. ६३
For Private & Personal use only
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व पीठिका
१.३ चित्र सं. (२)
क्षत्रिय कुल की संपन्न महिला, एक हाथ में फल लिए पूजा में तत्पर भक्तिपूर्वक प्रतिमा की ओर निहारते हुए
संभवतया जैन श्राविका (कुषाणकाल, गांधार शैली, ई. सन् की ४-५ वीं शताब्दी)
चित्र साभार - इमेजस फम अर्ली इंडिया. स्टेनिसलॉ. जे.जुमा. प. २१६
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.४
देवगढ़ की कला में जैन श्राविकाओं का अवदान :
"देव' शब्द देवता का एवं “गढ़' शब्द दुर्ग का वाचक है। यहाँ दुर्ग के भीतर देवमूर्तियों की प्रचुरता होने से ही संभवतया इस स्थान का नाम देवगढ़ रखा गया होगा। ई. सन् की नौवीं-दसवीं शती में यहाँ देववंश का शासन भी रहा था। मथुरा के समान देवगढ़ का श्रावक-श्राविका वर्ग कर्त्तव्यपालन एवं धर्माचरण में साधु-साध्वी वर्ग से पीछे नहीं था। अतिथियों का सत्कार करते हुए श्रावक-श्राविका वर्ग की तत्परता और श्रद्धा दर्शनीय होती थी। जिन प्रतिमाओं के समक्ष नत्य और संगीत आदि के कार्यक्रमों की प्रस्तुति का प्रचलन देवगढ़ में प्रचुरता से था ऐसा स्पष्ट परिलक्षित होता है। जिन मंदिरों के प्रवेश द्वारों पर अर्हत् प्रभु के समक्ष नवधा भक्ति में संलग्न श्रावक-श्राविकाएं समान रूप से सहभागी बनते थे। श्राविकाएं पूजन सामग्री लेकर पूजा के लिए तत्पर रहती थी। कई श्राविकाएं पाठशालाओं में जाकर शिक्षा भी ग्रहण करती थी। आचार्य जी की सेवा में खड़े एक चंवरधारी श्रावक के कंधे पर झोली टंगी है, जिसके दोनों हाथ कलाइयों के ऊपर से खंडित हैं तथा झुका हुआ मस्तक दर्शकों को श्रद्धा व भक्ति से अभिभूत कर देता है। आचार्य श्री के पीछे एक श्राविका संभवतः उक्त श्राविक की पत्नी होगी, छत्र धारण किये खड़ी है। यह छत्र किंचित खंडित होकर भी अपनी कलागत विशेषता के लिए उल्लेखनीय है। श्राविका की वेश-भूषा और आभूषण सादे किंतु मोतियों के हैं। उत्तरीय पीछे से हाथों में फंसकर पीछे निकल गया है। मुख-मंडल खंडित है। केश-सज्जा खजुराहो की कला का स्मरण दिलाती है। इसी मंदिर में एक मूर्तिफलक के पादपीठ में विनम्र श्राविका की वेश-भूषा है।
देवगढ़ में शिक्षा का प्रचार बहुत अधिक था। शिक्षा का कार्य प्रायः साधु साध्वी वर्ग द्वारा सम्पन्न होता था। उनकी कुछ कक्षाओं में केवल साधु, कुछ में साधु और साध्वियां तथा कुछ में साधु साध्वियों के साथ श्रावक श्राविकाएं भी सम्मिलित होती थी। छात्राओं को शिक्षा देने का कार्य विदुषी महिलाओं द्वारा सम्पन्न होता था। प्राचीन भारत में उन्हें "उपाध्यायिनी" और "उपाध्याया” कहा जाता था। सागरसिरि, सालसिरि, उदयसिरि, देवरति, पद्मश्री, रत्नश्री, सावित्री, सलाखी, अक्षयश्री, क्षेमा, गुणश्री, पूर्णश्री, कालश्री, जसदेवी, ठकुरानी, सदिया आदि श्राविकाओं ने विभिन्न अवसरों पर विविध धर्म कार्यों के लिए धनराशि दान की थी। गुरु-शिष्य परंपरा महिलाओं में भी प्रचलित थी। सागरसिरि नामक महिला गुरुणी की दो शिष्याओं सालसिरि और उदयसिरि के नाम उत्कीर्ण हुए हैं। अध्ययन-अध्यापन विविध विषयों का होता था। एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि वहाँ समयसार जैसे अध्यात्मशास्त्र, ज्ञानार्णव जैसे योगशास्त्र और यशस्तिलक चंपू जैसे काव्यग्रंथों का पठन पाठन होता था। अधिकांश अभिलेखों में मूर्तियों और मंदिरों के निर्माण एवं जीर्णोद्धार आदि के हेतु दान करने वाले श्रावक श्राविकाओं के उल्लेख मिलते हैं जिनसे उनके जीवन की सम्पन्नता का बोध होता है।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
62
१.४ चित्र सं. (१)
देवगढ़ की कला के विकास में जैन श्राविकाओं का योगदान सन् ६वीं - १०वीं शती
देवगढ़ (ललितपुर) स्थित जिनालय में भक्त श्राविकाओं के चित्र
पूर्वपीठिका
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
63
१.४ चित्र सं. (२)
पौराणिक कथाएँ - नवधा भक्ति में लीन श्राविकाएँ (नवधा भक्ति-श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, सख्य, दास्य, आत्मनिवेदन)
११वीं-१२वीं शती
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व पीठिका
१.४ चित्र सं. (३)
-
-
(ORCYOGYORG HUDAIबधान
अर्हत् भक्ति में डूबी श्राविकाएँ (नत्य एवं संगीत मंडली के साथ में)
लगभग ११वीं-१२वीं शती या परवर्ती
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.४ चित्र सं. (४)
नारिकेल आदि सामग्री को लेकर पूजन के लिए तत्पर श्राविकाएँ
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
66
१.४ चित्र सं. (५)
जिन भक्ति में लीन विनम्र श्राविका एवं लगभग ८वीं-६वीं शती
पूर्व पीठिका
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
१.४ चित्र सं. (६)
पू० आचार्य, जी जिनके पीछे एक ओर श्राविका छत्र लिए खड़ी है तथा दूसरी ओर अंजलिबद्ध भक्त (झोली लटकाये हुए) अंकित हैं यह पाठशाला का दश्य है।
१.४ चित्र सं. (७)
तीर्थंकरः भगवान की प्रतिमा तथा पाठशाला में शिक्षा ग्रहण करती हुई श्राविकाएँ
. १०वीं-११वीं शती
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
68
पूर्व पीठिका
१.४ चित्र सं. (८)
जैन मन्दिर संख्या ग्यारह के स्तंभ पर श्राविकाएँ
NONTA
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.४ चित्र सं. (६)
की नवधा भक्ति (आहार ग्रहण करते हुए मुनि) : मन्दिर संख्या १२ के प्रदक्षिणापथ के प्रवेश-द्वार के दायें पक्ष पर
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व पीठिका
१.४ चित्र सं. (१०)
hDEEमन
जैन मन्दिर संख्या ३१ का प्रवेश-द्वार एवं श्रद्धाशील श्राविकाएँ
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
१.४' चित्र सं. (११)
संगीतमण्डली, नृत्यमण्डली में श्राविकाएँ तथा तीर्थंकर प्रभु की प्रतिमाएं।
(जैन चहारदीवारी)
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
72
१.४ चित्र सं. (१२)
'१.४ चित्र सं. (१३)
48530
८१. पाठशाला दृश्य में अध्यापन कराती हुई श्राविकाएँ द्वितीय कोट का प्रवेश द्वार
WORTERA PAYI
F
८२. पाठशाला दृश्य तथा तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा मन्दिर संख्या १२ के सामने रखा हुआ, (सिरदर) किसी द्वार का
पूर्व पीठिका
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
१.५ चित्र सं. (१)
__जैन श्राविका गुलिकायज्जि का चित्र (ई.सन् की १०वीं शती)
श्रवणबेलगोला में मूर्ति निर्माण के पश्चात् भगवान् बाहुबली का छोटी गड़वी द्वारा संपूर्ण
अभिषेक करने वाली जैन श्राविका गुलिकायज्जि का चित्र
(चित्र साभार) : श्रीमान बी. ए. कैलाशचंद जैन, मैसूर (कर्नाटक)
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व पीठिका
१.६ चित्र सं. (१)
राष्ट्रीय संग्रहालय, जनपथ, नई दिल्ली द्वार के निकट प्राप्त जैन उपासिका की प्रतिमा
लगभग ११वीं शती
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
१.७ चित्र सं. (१)
जैन आचार्य श्री से प्रवचन श्रवण करती हुई भक्तिमग्न श्राविकाएँ
( C
e
यह चित्र कुम्भारियाजी के प्राचीन मन्दिर के रंगमण्डप की छत में शिल्पकाल के उत्कर्ष समय का है। आचार्य श्री व्याख्यान दे रहे हैं और चतुर्विध श्रीसंघ व्याख्यान सुन रहा है। संभवतः ई. सन् की ११ वी १२ वीं शती
चित्र साभार : गेलेक्सी क्रिशन, राजकोट
१.७ चित्र सं. (२)
ताड़पत्र की प्राचीन प्रतियों पर चित्रित श्राविकाएँ
ये दोनों चित्र पाटण
के ज्ञान-भंडार की प्राचीन ताडपत्र की प्रति
में सुरक्षित हैं।
आचार्य गणधर सुधर्मा स्वामी, श्री जंबू स्वामी
व कालकाचार्य से संबंधित ये दोनों चित्र ईडर के ज्ञान भंडार के ताड़पत्र की प्रति से प्राप्त हुए हैं
जधाका
कुमावा
माम सी
चित्र साभार : गेलेक्सी क्रिशन, राजकोट (ई. सन १३-१४वीं शती)
www.janeliorary.org
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व पीठिका
१.७ चित्र सं. (३)
१२वीं शती ई. सन् १२०३ में स्थापित, खंभात के जैन मंदिर से प्राप्त श्रावक श्राविका का चित्र
DO
KIYugurs-
गाजगिरrinti Hasayariशामायामासाहाराहानियस्ता
PAगलमटायाः॥URG एक दानी - दम्पत्ति भाण्डारिक धांधु और उसकी पत्नी शिवदेवी
(साभार - सं. अमलानंद घोष, जैन कला एवं स्थापत्य खण्ड २ प. ३११)
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
ताड़पत्रों पर चित्रित श्राविकाएं
बारहवीं शताब्दी में खरतरगच्छ के प्रभावशाली आचार्य श्री जिनदत्तसूरी हुए थे। उनसे धर्मदेशना सुनने में तत्पर श्राविकाएं एवं भक्ति से अभिभूत नमस्कार की मुद्रा में श्रद्धाशील श्राविकाएं चित्र में दृष्टिगोचर होती हैं। इसी प्रकार आचार्य श्री जिनवल्लभसूर की धर्मदेशना में सम्मिलित श्राविकाएं भी चित्र में दष्टव्य हैं। यह चित्र जैसलमेर स्थित श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भंडार एवं पालीताणा स्थित श्री जिनहरिसागरसूरि ज्ञान भंडार में संग्रहित हैं। दादा जिनदत्तसूरि श्री की धर्मसभा में उपस्थित श्राविकाओं के चित्र विशिष्ट सुसज्जित वेश-भूषा एवं सिर से पांव तक अलंकारों से सुशोभित हैं। पालीताणा के चित्रों में अपेक्षाकृत श्राविकाओं के चित्र सादगीमय हैं। चित्र कालक्रम से क्रमशः तेरहवीं चौदहवीं पंद्रहवीं एवं सोलहवीं शती के हैं।
१.७ चित्र सं. (४)
आचार्य शिरोमणि श्री जिनवल्लभसूरि जी म. की सभा में धर्मश्रवण करती हुई जैन श्राविकाएँ
FECCEXCE
کشور سالار بی دار کر
बारहवीं सदी, काष्ठपट्टिका, श्री जिनहरिसागरसूरि ज्ञान भण्डार, पालीताना
युगप्रधान दादा श्री जिनदत्तसूरि जी म. की सभा में जैन श्राविकाएँ
श्रीजिनदत्त स्थः
बारहवीं सदी, काष्ठपट्टिका, श्री जिनहरिसागरसूरि ज्ञान भण्डार, पालीताना
77
Co
(चित्र साभार : महोपाध्याय विनय सागर, खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास पृ. ३७७ के साथ संलग्न) (रचनाकाल १५र्वी - १६वीं शती)
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
78
१.७ चित्र सं. (५)
मनाए
周四
काष्ठपट्टिका पर चित्रित श्राविकाएँ (१३वीं - १४वीं शती) ।
PAID
7
यमन) सस्य
ऐमिला निरक्ष
उपाश्रय में उपदेश देते हुए दादा जिनदत्तसूरी एवं हाथ जोड़ती हुई श्रद्धाशील श्राविकाएँ।
paT
पूर्व पीठिका
(चित्र साभार : महोपाध्याय विनय सागर, खरतरगच्छ का बृहद इतिहास प. ४४ के आगे संलग्न)
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
কাসহ ফি সরকারও
१.७ चित्र सं. (६)
काष्ठपट्टिका पर चित्रित श्राविकाएँ (बारहवीं शताब्दी)।
प्राय
समस्या
दादा जिनदत्तसूरि खी, काष्ठपडिका, जिनाभद्रसूरि ज्ञान भण्डार, जैसलमेर
गदा जिनदत्तसूरि जी आशीर्वाद मुद्रा में, जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार, जैसलमेर
(चित्र साभार : महोपाध्याय विनय सागर, खरतरगच्छ का बहद इतिहास प्र.४४ के आगे संलग्न)
१३वीं-१४वीं शती
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
80
१.८ तीर्थाधिराज आबू पर जैन श्राविकाओं का प्रभाव
अर्बुद परिमंडल के तीर्थराज आबू के लूणवसही मंदिर के निर्माण में सुश्राविकारत्न अनुपमादेवी का अनुपम प्रभाव परिलक्षित होता है। चंद्रावती के ठाकुर धरणिग एवं परम धर्मरूचिसंपन्ना तिहुण देवी से संस्कारित यह पुत्री सुश्रावक तेजपाल की धर्मपत्नी थी। इस सन्नारी ने स्वयं के मार्गदर्शन में मंदिर निर्माण करवाया। किंवदन्ति है कि कारीगरों का उत्साह बढ़ाने के लिए अनुपमादेवी ने जितना पत्थर उकेरा जाता, उतनी ही स्वर्ण मुद्राएं कारीगरों को प्रदान की थी। सुश्रावक वस्तुपाल एवं उनकी दोनों पत्नियां राजल देवी और रत्नदेवी की मूर्तियाँ भी मंदिर में पाई गईं हैं। संभवतः आबू स्थित देवरानी जिठानी का गोखरा इसी परिवार की श्राविकाओं द्वारा निर्मित शिल्पाकृति है । मन्दिर में स्थित पद्मावती देवी की प्रतिमा के पार्श्व भाग में चँवर डुलाती हुई भक्तिमान श्राविकाओं के चित्र भी दृष्टव्य हैं।
१.८ चित्र सं. (१)
Bay By-The
ई. सन् १२वीं - १३वीं शती
सुश्रावक तेजपाल और उसकी धर्म पत्नी सुश्राविकारत्न अनुपमादेवी
पूर्व पीठिका
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
१.८ चित्र सं. (२)
१२वीं शती
पद्मावती देवी, विमलवसही मंदिर, देलवारा, (माऊंट आबू) में भक्तिमान श्राविकाएँ
(चित्र साभार : सेठ कल्याणजी परमानंद जी पेढ़ी, सिरोही राज.)
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व पीठिका
१.८ चित्र सं. (३)
विनियम विनिया का पाठक
ई. सन् १३वीं शती
VAVAVAVAV
माउण्ट आबू - लूण - वसही मंदिर, हस्तिशाला में सुश्रावक वस्तुपाल और उसकी धर्म पत्नियाँ
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.८ चित्र सं. (४)
ई. सन् की १३वीं शती
देरानी का गोखला, लूणवसही मंदिर देलवाड़ा, माउंटआबू
चित्र साभार : सेठ कल्याणजी परमानंद जी पेढ़ी, सिरोही राज.)
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
STO
पूर्व पीठिका
साध्वी सरस्वती की घटना ई. पूर्व की प्रथम शती से संबंधित है, किंतु निम्न चित्र १५वीं - १६वीं शती का है
आचार्य कालक श्री (द्वितीय) का ससंघ उज्जयिनी नगरी में पदार्पण हुआ। उनकी बहन साध्वी सरस्वती परम विदुषी एवं रूपसंपन्ना थी। उज्जयिनी नरेश गर्दभिल्ल ने साध्वी सरस्वती के सौंदर्य से आकष्ट होकर उसका अपहरण कर लिया। आर्य कालक जी द्वारा गर्दभिल्ल राजा से अपहृत साध्वी सरस्वती को मुक्त कराने की घटना को चित्रकार ने चार भागों में विभाजित किया है। प्रस्तुत चित्र में दो भक्त श्राविकाएँ साध्वी सरस्वती से मनोयोगपूर्वक एवं नम्रतापूर्वक प्रवचन श्रवण कर रही हैं। चित्र बड़ा ही प्रभावशाली एवं मनोहर है। कालक कथा की अनेक प्रतियों में ऐसे चित्र मिलते हैं।
१.८ चित्र सं. (५)
१. कालकाचार्य कथा में साध्वी सरस्वती से उपदेश श्रवण करती हुई जैन श्राविकाएँ)
(१५वी. - १६वी. शती).
१.८ चित्र सं. (६)
२. जैन साधु से प्रवचन श्रवण करती हुई जैन श्राविकाएँ (१५वीं शती)।
चित्र साभार : १. साध्वी शिलापी जी, समय की परतों में प.३५ । २. वही प. ३५,
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.६
जैसलमेर की प्रशस्तियों पर अंकित श्राविकाएँ :
जैसलमेर स्थित तपपट्टिका की प्रशस्ति में एवं आर.वी. सोमानी की पुस्तक जैना इंस्क्रिपशंस ऑफ राजस्थान में निम्न उल्लेख प्राप्त होता है कि जैसलमेर के चोपड़ा परिवार में श्राविका पंछु की पुत्री गेली हुई थी। उसका विवाह शंखवाल गोत्रीय अशराज से हुआ था। गेली ने आबू एवं गिरनार आदि की यात्राएं निकाली थी। वि. संवत १५०५ में उसने एक तप-पट्टिका जैसलमेर में बनवाई थी। श्री मेरुसुंदरसूरि ने उसे लिखी। इस तप पट्टिका का विशाल शिलालेख ऊपर की तरफ से कुछ टूटा हुआ है। इसकी लम्बाई २ फुट १० इंच और चौड़ाई १ फुट साढ़े १० इंच है। इसमें बाईं ओर प्रथम २४ तीर्थंकरों के च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान इन चार कल्याणकों की तिथियाँ कार्तिक वदी से अश्विन सुदी तक महीने के हिसाब से खुदी हुई हैं। तत्पश्चात् महीने के क्रम से तीर्थंकरों के मोक्ष कल्याणक की तिथियाँ भी दी गई हैं। दाहिनी तरफ प्रथम छ: तपों के कोठे बने हुए हैं तथा इनके नियमादि खुदे हुए हैं। इसके नीचे वज मध्य और यव मध्य तपों के नकशे हैं। एक तरफ श्री महावीर तप का कोठा भी खुदा है। इन सबके नीचे दो अंशों में लेख हैं। प्रस्तुत तप पट्टिका जैसलमेर स्थित श्री संभवनाथजी के मंदिर की
जैसलमेर स्थित श्री शांतिनाथ मंदिर की एक प्रशस्ति में उल्लेख आता है कि संवत् १५८३ में श्राविका माणिकदे, कमलादे, पूनादे, आदि ने शत्रुजंय महातीर्थ की श्रीसंघ सहित यात्रा की थी। तथा अपने धन का सदुपयोग किया था। प्रस्तुत प्रशस्ति में यह उल्लेख आता है कि श्राविका गेली ने इसी समय में शत्रुजयादि तीर्थावतार की पाटी बनवाई। तोरणसहित नेमिनाथ भगवान् का परिकर बनवाया तथा समस्त कल्याणक आदि तप की पाटी बनवाई। संवत् १५३६ में गेली श्राविका ने अष्टापद महातीर्थ प्रासाद बनवाया। श्री कुंथुनाथ श्री शांतिनाथ मूलनायक सहित चौबीस तीर्थंकरों की अनेक प्रतिमाएं बनवाईं । उनकी प्रतिष्ठा आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरी श्री जिनसमुद्र सूरि द्वारा करवाई। नायकदे, अमरादे, कनकादे आदि ने परिवार सहित शत्रुजय, आबू, गिरनार आदि तीर्थों की यात्राएँ की। प्रस्तुत प्रशस्ति में उनके योगदानों की चर्चा की गई है।
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
86
१.६ चित्र सं. (१) कभी
ול
115
दिदिदि
C
२२
52.37647
इत
मरा
जल
१५वीं - १६वीं शती
जैसलमेर की जैन श्राविका गेली द्वारा निर्मित तपपट्टिका ।
आई
स्
32
馬
मान वि
र
स
ra
3
२ 20 ही दावेदार
1315
दादा
3 309
स
?
३ tota 37
SMELE4
३१
राजशा 420 34 1031
ZMAGA
वा
काण्डाद
३
आता अशा
साउ
विशाल श
Nam
३७
STM
$560056049 accesso DRA
9595
ज
800
तरकीब एक
990971713 cabbetog 3793009 3050908 KODE KNAGGRO
त
करताना जा
ไปม
Car
दर्शनतः 30 21:02 नागाज्यको
उनसे
समदम रंगत वर्ष दिन बस श्रीददार बापाचा देवस्पर्ष २४ उद्यान केंद
दानपूर्वक
का
भा
I ho adeep dacad
मन
श्री उद्योतनश्र श्रीमान श्री जयदेवसूरी
श्री संभवनाथ मंदिर तपपट्टिका जैसलमेर संवत् १५०५ (श्री बा. पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से)
1
बायकोवर २६० विचार
नादन] 3201
करत
उपासना से करे पार्क जान वेटिकन दालन
तसे
किंतु तिन मित्र
O
C
नवी स
合金
18
उम्म
पूर्वपीठिका
TRE
STAR
ZIPFE
शकि
काय
पूर्व
(चित्र साभार) एस. आर. भंडारी ओसवाल जाति का इतिहास प. १५६.
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
१.६ चित्र सं. (२) जैसलमेर की जैन श्राविकाओं द्वारा तीर्थ यात्रा एवं मंदिर व प्रतिमा निर्माण संबंधी प्रशस्ति
जीपी ई. सन् की १५वी.-१६वी. शती निधी वनावश्यजिनेश्वरस्याप्रशादतः उसमादितानियोति
रस्थाशादत: सउसमादतातापाशा तनावस्यमा सादादिमानिनदयउ मवेजशांतिः सत्य वादमाग सरमुदि
निसलमेरुमदाउर्धेराउलीचादिगदेवपहराउनषादवकास महाराजाधिराज राउलश्रीजयतसिंहविजविराज्य ऊमरणीलावायचा जय भीम केशबहाथी सरखवालगोरस नाबापत्र साकाचरकयाजरकोरड vieas संरखवाली मामा उलगातोरणजनमासादकरागाआरजाराजलश्त्रीसखा यहाकावा नपापा उदारगुणापावरनउसवानलोकनाद कोरटश्कल मनानीवन संपवावर नसेमलानावसंघरउलासही रासकरउला तामिमालिकने।
महा-विदेगलामा आएमलराकमतादेशसम्पयासनामासम्जेवासंग निदेव वासरासमधरामविकासपाणी स०अाराराजश्त्रीशईजयमहाता तरसंहितयाकरी आपण विनसालकीचासत्रासराजलायांची संपनिाप्रधागेला ।
जायगिरनाराबतीयानाकीदाराउजयादिताधावतारपाटाकागासतार। मानमिनाली विद रानी श्री संत वामनदहरुमायासमलवल्याशकार। जनामा समयकरावी सास राजनाो संयनाममातासम्तमसम्मपत्री राजयगर Jaisी संघसाहित्यानाकीधामवरसरती ध्यानाकरतासवरपस्यतरमायानाकराश्रीराज परिवारीपना श्री आदिनाइ पसरवतीर्थकरना प्रणाकरता उत्पकाराबिलापनवकारगणीचज
मि. पविजसकनकी वलीदोपडामपाचापत्र संस(सवराजसमा रानसंगलोलास TRUEFANHOTली जाण संसिरा स०समरा सन्माला स०महासंसहासंकी समिति सवालम राजपुत्रसम्वेतापनिजामली श्रीजसजस्लारिया
SHAम हातीधा साद कराया ०१५ कायमस्वदीरातादेवकराय। जापानिजसरि लिनसार सरकार निभानाशकारावायाधुनाव भाशानिनाव तलना। मायावी समिकरनी अनेक प्रतिमान रावीसिंधतई सननमारुयात्मिाहत्माताकासाहतसग कितलाक गीली कलामतनामावालि वायापानिनसमरिक दशाशीनसागरमरित्रावायना। RAM मारती महविजयामिकारजगतिकरावीदिबसमाध्यासितानामिसरसात उच मोडेम विकाoनाया सनायकरे सरना संख्या दानाय सं०मरादे सणवमला देममस्मन सं०TA HRSनिकाहपसलबहसासम्सयसहसमा लाथास
सास: मवीर भाडामबरण काकादेवीमाहातालासरावादीपरागदप NAसादिकारवानासंबीदा नया गिरनाराबताया कामासमाकलमा
साकारलीलाक्षणिकथामिनई सरसन नायकवषयविस होस्वकाराप्रल्ला बरश्वता MAHESIमावापांव सोनवयासरत अनेकवचक जमणमामाग्रीकल्पासहीतवनकया। स्वावदारलाइनवकारगणीचारसा जोडीलानालाह(लकामासंसहसमल श्रीमान बनवाकर नजराणवीरमगामपाटणपारकरियामजीला विकराया।
दइयतश्वसरसरतलाया महापधासादविजानकारजगनिनाबारण नानी133पजा सिहावारदरामपरिकागराप्रापश्कराया काउसीया यविकाराच्या विजयाविर सं०वतासंसरसतिनामा नकारावीमियावर्षमागासरवा विवारे महाराजाधिराज राउलीजयतसिंह तथा अरबील्लूपाकासीवचनात श्रीपामानाचा पनि वासरालाब ऊतजावधाद्याबारापउउसागकरायाविश्वधन।
को-२२ककारायागाइस इसरजा रतनशुलतवणवारषदरसरण वालाण सादीन मजिसलगरुगनीदिदिसावरावाच्यादिहरामासरानघाघराबकत्रीतम
न पादेमावीकाराव्यापक रावादसनवतारसहितलापमानारायलमान Sani निनोदशादतारापवताररहितरावाश्रीवाउदा लिइस्यासमियायपरायण MARधारिवाजालावकरलता सलमीकः समायाता निनादायमचा प्रयामापा नराइसमान संकाRiomकरा विस्वाषाप्रविश्रारखरतरगयामा सरातकारश्री निनमक मरिविजयरात्रीदेवतिलकोपाध्यायेनालाखता वित्तत्व पारसननुल रावधारषिताकिनछदकारपशास्ति रेषाकोरीताजा
श्री शान्तिनाथ मंदिर प्रशस्ति जैसलमेर (श्री बा. पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से)
चित्र साभार, एस.आर, भंडारी ओसवाल जाति का इतिहास प. १५४.
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
REP
पूर्व पीठिका
ई. सन् की १५वीं शती के इस चित्र में श्राविकाएँ कतारबद्ध होकर श्रुत ज्ञान के प्रति, एवं जिन प्रतिमा के प्रति अंजलिबद्ध होकर अपना आदरभाव प्रदर्शित कर रही हैं। इनकी वेशभूषा एवं अलंकरण सु-व्यवस्थित हैं। सम्भवतः प्रस्तुत हस्तलिखित प्रति में इन श्राविकाओं ने अपना सहयोग प्रदान किया है।
१.६ चित्र सं. (३)
FREE
लावत श्रहमा
विक्रम संवत् १५०६ (ई. सन् १४५२) की एक पाण्डुलिपि की प्रशस्ति में जैन साहित्य समर्पिता
दान दाता श्राविकाओं का चित्रांकन
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.६ चित्र सं. (४)
१.६ चित्र सं. (५)
ई. सन् की १५वीं - १६वीं शती
"सिद्धहेमव्याकरण ग्रंथ" जुलूस में जैन श्राविकाएँ (घटना भाव १२वीं शती).
४. "सिद्धहेमव्याकरण ग्रंथ" का पठन करती हुई जैन श्राविकाएँ घटना भाव १२वीं शती, चित्र-काल १५वी - १६वीं शती
89
१.
(चित्र साभार) : साध्वी शिलापीजी, समय की परतों में प ७३.
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
90
पूर्व पीठिका
१.६ चित्र सं. (६)
इतिहास प्रसिद्ध १२ व्रतधारी कोशा श्राविका । ई. पूर्व की चतुर्थ शती की घटना का चित्रांकन।
चित्र लगभग १७वीं शती
ANTITTWITTHAL
WhdORLD
TAK
(चित्र साभार) : साध्वी शिलापीजी, समय की परतों में प.७३.
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
१.१० मुगल-कालीन कला पर जैन श्राविकाओं का प्रभाव :
ई.सन् की सोलहवीं से अठारहवीं शती का काल मुगलकालीन कला का उत्कर्षकाल है |इस काल के उपलब्ध चित्र विशेष रूप से आकर्षक हैं। निम्न चित्र दिल्ली श्वेतांबर जैन मंदिर से प्राप्त हुए हैं। इनका समय ई. सन् की अठारहवीं शती है। ये चित्र दिल्ली नौघरा मोहल्ले में स्थित श्री सुमतिनाथ भगवान् एवं चेलपुरी स्थित संभवनाथ भगवान् के प्राचीन जैन मंदिर के है। ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि आचार्य जिनप्रभसूरि ने संवत् १३८६ में "विविध तीर्थकल्प” की रचना यहीं पर की थी। उनकी रचना में इन मंदिरों का उल्लेख है। ये मंदिर प्राचीन होने के कारण इनमें दीवारों पर प्राचीन स्वर्ण चित्रकला से अलंकृत चित्रकारी परिलक्षित होती है। बादशाह पर्फरूखसियर के समय सेठ घासीराम शाही खजांची ने ई. सन् १७१३-१७१६ में इन मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया था। प्रस्तुत चित्र उसी काल की श्राविकाओं से संबंधित प्रतीत होते हैं। इसी समय के एक चित्र में तीर्थंकर भ०. महावीर के भव्य समवसरण की रचना एवं उस समवसरण में प्रभु का उपदेश श्रवण करती हुई भक्तिसंपन्न श्राविकाएं दृष्टिगत होती हैं। धर्म समवसरण में पहुंचने के लिए तत्पर श्राविकाओं का उत्साह स्पष्ट प्रतिभासित होता है।
१.१० चित्र सं. (१)
मुगल कालीन जैन श्राविकाओं के चित्र (सन् १७७०-७६) १८वीं शती निम्न चित्र में श्राविकाएँ राजस्थानी परिधान युक्त होकर धर्म विधि सम्पन्न कर रही हैं।
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
92
१.१० चित्र सं. (२)
कलाक०१.
मुगल कालीन जैन श्राविकाएँ (१८वीं शती)
क
निम्न चित्रों में एक विशेष बात नज़र आती है कि श्राविकाएँ धर्मसभा में साद्गीपूर्ण वेश-भूषा में उपस्थित हैं
Mols
जिन उपासना एवं जिन प्रवचन श्रवण करती हुई श्राविकाओं का चित्र (१८वीं शती)
fone F FISTS STE
你取
पूर्व पीठिका
जी
OP.P
चित्र साभार: नवग्रहा मंदिर, चांदनी चौक, दिल्ली)
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.१० चित्र सं. (३)
मुगल कालीन जैन श्राविकाएँ प्रवचन सभा में जिन वचनों को संतों के श्री मुख से श्रवण करती हुई ( १८वीं शती)
४० (
93
OP.P
( चित्र साभार : चेलपुरी मंदिर, चांदनी चौक, दिल्ली)
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्वपीठिका
१.१० चित्र सं. (४)
समवसरण में जैन श्राविकाएँ. ई. सन् की १८वीं शती.
भगवान महावीर की धर्मवाणी सुनने जाती हुई तथा एकाग्रता पूर्वक उपदेश सुनती हुई
जैन श्राविकाएँ (दिल्ली चाँदनी चौंक से प्राप्त) संवत् १७७०-७६
(चित्र साभारः श्रीमान् प्रेमकुमार जी जैन, बटन वाले अमतसर (पंजाब)
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.११ हस्तलिखित पांडुलिपियों में श्राविकाओं का अवदान :
उन्नीसवीं शती की हस्तलिखित प्रतियों में विशेष रूप से सचित्र धन्ना-शालीभद्र की चौपाई में तयुगीन श्राविकाओं के वे चित्र हैं, जिनके हाव-भाव उनके मनोभावों को प्रकट करते हुए अत्यंत सजीव प्रतीत हो उठे हैं। धन्ना एवं शालीभद्र की पत्नियाँ उन्हें गृहस्थ में रहते हुए ही धर्म करने की सलाह देती हैं। एवं त्याग मार्ग की कठिनाईयों का वर्णन करते हुए उन्हें संयम मार्ग पर जाने से रोकती हैं। इतिहास प्रसिद्ध महासती अंजना सती चौपाई की हस्तलिखित प्रति में दान देती हई श्राविका तथा सश्राविकाएं अंजना सती ज्ञानी मुनिराज से अपने प्रश्नों का समाधान करती हुई दृष्टिगत होती हैं। इसी प्रकार उन्नीसवीं शती की एक हस्तलिखित प्रति में साधुओं से, हाथ जोड़ कर व्रतों को ग्रहण करती हुई श्राविका भी नज़र आती है
ई. सन् की बीसवीं इक्कीसवीं शती में संपादक श्री अमरमुनि जी के सचित्र श्री अंतकृत् दशांग सूत्र में महारानी देवकी भी अपनी हृदयगत शंका का समाधान करने हेतु बाईसवें तीर्थकर श्री अरिष्टनेमि भगवान् के चरणों में पहुंची और समाधान को प्राप्त हुई। इसी सूत्र के अन्य स्थान पर राजमाता श्रीदेवी दीक्षा जुलूस में सम्मिलित हैं। तत्पश्चात् तीर्थंकर महावीर प्रभु से अपने पुत्र अतिमुक्तक कुमार को दीक्षा प्रदान करने हेतु विनम्र मद्रा में विनंती करती हैं।
१.११ चित्र सं. (१)
दीक्षा के लिए जाते हुए धन्ना को, समझाती हुई उनकी धर्म पत्नियाँ । धनवान
(चित्र साभार : सचित्र धन्ना-शालीभद्र चौपाई. संवत् १८३७)
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व पीठिका
१.११ चित्र सं. (२)
सचित्र धन्ना-शालीभद्र चौपाई में जैन-श्राविकाएँ (संवत् १८३७)
१२वीं शती का प्रसंग सालनाममामातेरो गाईक
DADOO
पुत्र शालीभद्र को राजा श्रेणिक के दर्शनार्थ बुलाने आई माँ भद्रा।
१.११ चित्र सं. (३)
सालिनानुमातस्त्रासमका
*
शालीभद्र को गहवास में ही रहने के लिए समझाती हुई माँ भद्रा और पत्नियों।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.११ चित्र सं. (४)
शालीभद्र एवं धन्ना के दीक्षित होने के पश्चात् दर्शनार्थ आई उनकी पत्नियाँ एवं माता।
१.११ चित्र सं. (५)
साधानशस्खलनाउसमानारश्वरामा
शालीभद्र के पूर्वभव की माता भद्रा ने अत्यंत प्रीति एवं भक्तिपूर्वक उन्हें दही बहराया।
(चित्र साभार) : सचित्र धन्ना-शालीभद्र चौपाई (संवत १८३७) पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
98
१.११ चित्र सं. (६)
१.११ चित्र सं. (७)
महासती अंजना व सखी बसंतमाला मुनिराज से प्रश्न पूछते हुए
संवत् १८५०, ई. सन् की १६ वीं शती
साधुओं को आहार देती जैन श्राविका संवत् १८५० ई. सन् की १६वीं शती
दोनों चित्र बीकानेर के जै किसन कवि द्वारा लिखित अंजना-सती चौपाई की हस्तलिखित प्रति से उद्धत हैं।
पूर्व पीठिका
PPP
FT PP.F
(चित्र साभार ) पू. आचार्य अमर सिंह जी महाराज ज्ञान भंडार मलेरकोटला (पंजाब) १६वीं शती
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१.११ चित्र सं. (८)
१६वीं शती की हस्तलिखित प्रति में चित्रित श्राविका
कनावामात साधुनाजी जिलाप्रश्नोपा/श्राकाश्री राजनाशि एसपी देई अनुराज ताइकलपना सुबल म्रराज एक तरगतानिलोजी श्रीरंगचोरासीरगोजी साधामाहारिमा निलो' श्री जयतिलक सूरिश मोटामोट भूपताजी अणमैतेनाथाय वेधसोमण करें। जिनोदयसू २० नगे तिहारपूरच्या करी श्रायसूलिबा काजसूयो मायाजी सनबराज २१ एहवासानसुंसदका स
चरित्रलार्थमचपईसंपूर्ण संवत कातीव दिपलितं मद्येनानैरामश्री
क
१.१२ चित्र सं. (१)
भगवान् अरिष्टनेमि के समीप सुश्राविका महारानी देवकी द्वारा प्रश्न पच्छा व समाधान । ई. सन् की २०वीं शती ।
99
• साधुओं से श्रावक व्रतों को धारण करती हुई श्राविका (चित्र साभार) श्री शहजादराय रिसर्च इंस्टीटयूट ऑफ इन्डॉलोजी बड़ौत में संग्रहित संवत् १८३५.
(चित्र साभार) सं. श्री अमरमुनि सचित्र श्री अन्तकृद् दशा सूत्र प. ६६. के साथ संलग्न ।
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
•
100
()
अतिमुक्तककुमार के दीक्षा जुलूस में दाहिनी तरफ हंस चिन्हांकित पट शाटक लिए बैठी राजमाता श्रीदेवी, बाईं तरफ पात्र व रजोहरण लिए बैठी है धायमाता तथा सुशोभित हैं मध्य में बाल वैरागी श्री अतिमुक्तक कुमार
१.१२ चित्र सं. (२)
ਕਰਤਾ ਕਿ ਕਾ ਨਾ
a por la F
APNICE
2231
दीक्षा की शोभायात्रा
भगवान के पास दीक्षाग्रहण:
भगवान् महावीर से पुत्र अतिमुक्तक को दीक्षा प्रदान करने की विनंती करती हुई माता श्रीदेवी ।
RED
(P)
FISER
पूर्व पीठिका
हंसी
(चित्र साभार) सं. अमर मुनि सचित्र श्री अंतकृद्दशासूत्र प. २२४ के साथ संलग्न (२०वीं शती)
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
101
ओसिया तीर्थ के प्राचीन जैन मंदिर में आचार्य श्री से धर्म श्रवण करती हुई श्राविकाएँ
चूना खड़ी का लेप लग जाने से फोटो साफ नहीं आया है।
लगभग ई. सन् की ११वीं शती
(चित्र साभार) गेलेक्सी क्रिोशन, राजकोट
तमिलनाडु में जैन साधुओं की आवास गुफा
तेनिमलै (तेनुर्मलै) सितन्नवासल के उत्तर में एक अन्य पहाड़ी है तेनिमलै, जिसके पूर्वी भाग में एक अन्दर-मदम् नामक प्राकृतिक गुफा है, जहाँ प्राचीन काल में जैन मुनि तपस्या किया करते थे।
इस गुफा में पार्श्व में सातवीं-नौवीं शताब्दियों की कुछ जैन मूर्तियाँ हैं।
(साभार : सं. अमलानंद घोष, जैन कला एवं स्थापत्य, खण्ड १ प. १०५)
For Private & Personal use only
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
102
पूर्व पीठिका
श्रवणबेलगोला की पंडित-मरण को प्राप्त हुईं श्राविकाएँ
माचिकब्बे का पंडित-मरण
माता
sirean
अन्तिम आराधना श्रवण करती हुई श्राविका
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
103
श्रवणबेलगोला की पंडित-मरण को प्राप्त हुईं श्राविकाएँ
लक्ष्मीमती का समाधि-मरण
या
तीर्थकर प्रतिमा के समक्ष समाधिस्थ जैन श्राविका
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
104
Earl XX
मांगुलम - अभिलेख का एक अंश
जैन मुनियों की आवास गुफा सितन्नवासल, ई. पू. की प्रथम द्वितीय शताब्दी
-
पूर्वपीठिका
(साभार: सं. अमलानंद घोष, जैन कला एवं स्थापत्य, खण्ड १ प. १०६)
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
१.
२.१ साहित्य के आलोक में पुराण :
पुराण से अभिप्राय है प्राचीन पुराण वे प्राचीन ग्रंथ हैं, जिनमें प्राचीन भारत का इतिहास छिपा पड़ा है ये संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं । पुराण महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री प्रदान करते हैं। हिंदु पुराणों की संख्या १८ हैं, प्रत्येक पुराण आगे ५ भागों में विभक्त है। भिन्न-भिन्न पुराणों के काल, भाषा तथा विषय में काफी अंतर है। श्री एन. एन. घोष ने बताया है कि पुराण प्रथम शताब्दी से लेकर छठीं शताब्दी के बीच लिखे गये थे ।
२.
३.
४.
५.
६.
७.
ॐ द्वितीय अध्याय
पौराणिक / प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
८.
पुराणों में अनेक राजवंशों की सूचना दी गई है। अतः ये हमें उन राजवंशों के राजनैतिक, सामाजिक तथा धार्मिक जीवन की काफी जानकारी कराते हैं।
ये मौर्य वंश के इतिहास पर काफी प्रकाश डालते हैं।
ये आंध्र वंश के इतिहास पर काफी प्रकाश डालते हैं।
105
इनमें गुप्त राजाओं की शासन पद्धति का परिचय मिलता है।
इनमें अभीर, यवन, शक, हूण, म्लेच्छ आदि राजवंशों का उल्लेख मिलता है।
इनसे प्राचीन नगरों तथा उनमें परस्पर दूरी का पता चलता है। इस प्रकार ये भौगोलिक ज्ञान भी कराते हैं।
ये हमें दर्शाते हैं कि तत्कालीन विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरू के घर जाया करते थे।
इनमें हिंदु देवी-देवताओं की स्तुति का भी वर्णन किया गया है। कुछ इतिहासकार पुराणों को कल्पित तथा मनगढ़ंत कहानियाँ ही मानते हैं। परन्तु आज यह बात सत्य सिद्ध हो चुकी है कि पुराण प्राचीन भारत के इतिहास का बहुमूल्य कोष हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार श्री एन. एन. घोष तो यहाँ तक कहते हैं,
"प्राचीन भारत के धार्मिक साहित्य में भी अन्य साहित्यों के मुकाबले पुराणों का वास्तविक इतिहास से कहीं अधिक संबंध हैं।"
२. २ जैन साहित्य में पुराण :
पुराण पुरातन महापुरूषों से उपदिष्ट मुक्तिमार्ग की ओर ले जाने वाले त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित्र से युक्त रचनाएं हैं। ये ऋषि प्रणीत होने से आर्ष, सत्यार्थ का निरुपक होने से सूक्त, धर्म का प्ररुपक होने से धर्मशास्त्र तथा इति + ह् + आस् यहाँ ऐसा हुआ यह बताने के कारण इतिहास कहलाते हैं। इनमें क्षेत्र, काल, तीर्थ, सत्पुरुष और उनकी चेष्टाओं का वर्णन रहता है। क्षेत्र रुप से ऊर्ध्व, मध्य और पाताल लोक का, काल रुप से भूत, भविष्यत् और वर्तमान का, तीर्थ रुप से सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र का तथा नीर्थसेवी सत्पुरुष (शलाकापुरुष) और उनके आचरण का वर्णन इनमें होता है। इनकी रचना ई.पू. की पांचवीं शती से प्रारंभ होती
भ
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
106
२.३ जैन आगम साहित्य के अनुसार पौराणिक काल का विभाजन :
जैन आगम साहित्य में बीस कोटा कोटि सागर की उपमा से परिमित समय को काल-चक्र की संज्ञा दी है और प्रत्येक काल चक्रार्ध छः छः आरों में विभक्त हैं जिनके नाम इस प्रकार है
--
१.
२.
३.
४.
पौराणिक / प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
सुषमा - सुषमा
सुषमा - सुख रूप, तीन कोटा - कोटि सागरोपम समय का है।
सुषमा - दुःखमा - सुख-दुःख रूप दो कोटा कोटि सागरोपम का है।
दुःखमा- सुषमा – दुःख-सुख रूप, ४२ हजार वर्ष न्यून एक कोटा - कोटि सागरोपम प्रमाण है।
दुःखमा - दुःख रूप, इक्कीस हजार वर्ष का है ।
अत्यंत सुखरूप, चार कोटा - कोटि सागरोपम प्रमाण समय का है।
५.
६.
दुःखमा - दुःखमा अत्यंत दुःख रूप इक्कीस हजार वर्ष का है।
उपर्युक्त क्रम अवसर्पिणीकाल के आरों का है। उत्सर्पिणी काल के छः आरों का क्रम इससे विपरीत है। वह काल दुःखमा दुःखमा से प्रारंभ होकर सुखमा सुखमा पर समाप्त होता है। इस काल में अधिकाधिक सुख आदि की क्रमशः अभिवृद्धि होती है । ' प्रत्येक काल चक्रार्ध के तृतीय एवं चतुर्थ आरे में त्रेसठ (६३) श्लाघ्य ( प्रशंसनीय) पुरूष जन्म लेते हैं, जिनमें चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव, नौ प्रतिवासुदेव सम्मिलित हैं। वर्तमान अवसर्पिणी के तृतीय आरे में प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव जी का जन्म हुआ। तृतीय आरे के तीन वर्ष साढ़े आठ मास शेष रहने पर उनका निर्वाण हुआ। उनके शासन काल में मरूदेवी, ब्राह्मी, सुंदरी, सुनंदा, सुमंगला आदि महान् सन्नारियाँहुई । चतुर्थ आरे में शेष तेईस तीर्थंकरों का जन्म एवं निर्वाण हुआ ।
द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ जी से चतुर्थ तीर्थंकर श्री अभिनंदन नाथ जी तक के तीर्थंकर काल की माताओं के सिवाय अन्य श्राविकाओं के वर्णन उपलब्ध नहीं होते। बीसवें तथा बाईसवें तीर्थंकर के काल को छोड़कर पाँचवे से लेकर चौबीसवें तीर्थंकर के काल तक उनकी माताओं के साथ ही कतिपय अन्य श्राविकाओं के वर्णन भी उपलब्ध होते हैं । किन्तु बीसवें तीर्थंकर के काल की, (जिसे रामायण काल कहते है) तथा बाईसवें तीर्थंकर काल की, (जिसे महाभारतकाल कहा है) उस काल की माताओं के अतिरिक्त भी जैन श्राविकाओं के उल्लेख प्राप्त होते हैं।
I
इतिहासकारों ने प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव जी तथा बाईसवें तीर्थंकर भगवान् अरिष्टनेमि जी के काल को प्रागैतिहासिक/पौराणिक काल के अंतर्गत रखा है। पौराणिक / प्रागैतिहासिक काल अर्थात् इतिहास की गणना से परे सुदूर अतीतकाल । तथाकथित काल के अंतर्गत महान् नारियाँ / महिलाएँ / श्राविकाएँ / पुण्यात्मायें हुई हैं जिनमें प्रमुख रूप से तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव तथा माण्डलिक राजाओं की माताएँ थी, जो अपना एक विशिष्ट स्थान रखती थी । संसार के सभी पुरूषों में तीर्थंकर सर्वश्रेष्ठ पुरूष होते हैं। इनको जन्म देनेवाली पुण्यशालिनी माताओं के संबंध में आचार्य मानतुंग ने कहा है, "इस पथ्वीलोक पर सैंकड़ों माताएँ सैंकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं, लेकिन जैसे सर्वदिशा प्रकाशक सूर्य को पूर्व दिशा जन्म देती है, इसी प्रकार त्रिलोकप्रकाशक पुत्र को जन्म देने वाली तीर्थंकर माताएँ ही होती है ।२.अ तीर्थंकर प्रभु की माताएँ तीर्थंकर के जन्म से पूर्व शुभ फलदायक चौदह स्वप्न देखकर आनंदित होती हैं, तथा उनके जन्म के पश्चात् भी अभूतपूर्व अनिर्वचनीय आनंद का 'अनुभव करती हैं। चक्रवर्ती की माताएँ इन्हीं चौदह स्वप्नों को कुछ अस्पष्ट देखती हैं। वासुदेव की माताएँ सात स्वप्न, बलदेव की माताएँ चार स्वप्न, मांडलिक राजा की माताएँ एक शुभ स्वप्न देखती है। पुण्यवान् आत्माओं के गर्भ में आगमन से माताओं को शुभ दोहद पैदा होते है । अस्तु प्रस्तुत द्वितीय अध्याय में हम उन सब महिमामयी सन्नारियों का वर्णन प्रस्तुत करेंगे। यद्यपि इनमें व्रतधारिणी श्राविकाओं के कतिपय उल्लेख उपलब्ध होते हैं। अधिकांश श्राविकाएँ जैन धर्म के प्रति आस्थावान् थी, किंतु उनके श्राविका व्रत ग्रहण आदि संपूर्ण घटनाओं का विवरण उपलब्ध नहीं होता है। अतः जितना विवरण उपलब्ध हो पाया है, उतना विवरण लिखने का पूर्ण प्रयत्न किया है। इस अध्याय में उन ३२८ श्राविकाओं का वर्णन है ।
प्रस्तुत पौराणिक काल की जैन श्राविकाओं के संबंध में जो मूलस्त्रोत उपलब्ध है, वे मूलतः तीन भागों में विभक्त हैं : यथ
१.
आगम साहित्य की कथाएँ, जिनका रचनाकाल ई० पू० पाँचवीं शती से ई० सन् की पाँचवीं शती है।
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
107
२. श्वेताम्बर परम्परा के चरित-काव्यों, का रचनाकाल ई० सन् की दूसरी, तीसरी शती से लेकर उन्नीसवीं, बीसवीं शती
३. दिगम्बर परंपरा के जैन पुराण ग्रंथों का रचनाकाल ई. सन् की आठवीं से पंद्रहवीं शतीं है।
तथाकथित तीनों प्रकार के साहित्य का समावेश जैन कथा वाङ्मय में हुआ है। इस विशाल जैन कथा साहित्य के मूल केन्द्र तीर्थंकर रहे हैं। सारी कथाएँ उनको अथवा उनके पूर्व जीवन वृत्त को अथवा उनके शासनकाल में हुए साधकों / साधिकाओं को आधार बनाकर लिखी गई हैं। किंत जहाँ तक उनकी ऐतिहासिकता का प्रश्न है. भ. पार्श्वनाथ जी और भ. महावीर जी के शेष सभी तीर्थंकरों को प्रागैतिहासिक/पौराणिक काल के अंतर्गत रखा है, अतः इसी आधार पर भ०. ऋषभ देवजी से लेकर भ०. अरिष्टनेमि जी के शासनकाल की श्राविकाओं का वर्णन हमने पौराणिक काल की श्राविकाओं के रूप में किया है।
प्रस्तुत वर्णन में जो मुख्य आधार ग्रंथ रहे हैं, वे हैं, दसवीं शताब्दी के आचार्य शीलांक रचित चउपन्न महापुरिसचरियं, बारहवीं शताब्दी के आचार्य हेमचन्द्रसूरि रचित त्रिषष्टिशलाका पुरूष चरित्र तथा दिगंबर परंपरा में इन पौराणिक आख्यानों का आधार है जिनसेन का महापुराण, विमलसूरि का पउम चरियं तथा महाकवि स्वयंभू कृत पउमचरित्रं, जो महाकाव्यों के रूप में प्रतिष्ठित है। अन्य आधार ग्रंथों में हमने उपाध्याय पुष्करमुनिकृत जैन कथा साहित्य के एक सौ आठ (१०८) भाग ग्रहण किये है।
परंपरागत मान्यता के अनुसार प्रत्येक तीर्थंकर के संघ में श्राविकाओं की संख्या कितनी थी? उसका विवरण निम्न सूची द्वारा उपलब्ध होता हैं ।२.व क्र.सं. तीर्थकर नाम
श्रावकों की संख्या
श्राविकाओं की संख्या १ भ०. श्री आदिनाथ जी.
३ लाख
५ लाख २ भ०. श्री अजितनाथ जी.
३लाख
५ लाख ३ भ०. श्री सम्भवनाथ जी.
३ लाख
५ लाख ४ भ०. श्री अभिनन्दननाथ जी.
३ लाख
५ लाख ५ भ०. श्री सुमतिनाथ जी.
३ लाख
५ लाख ६ भ०. श्री पद्मप्रभु जी.
३ लाख
५ लाख ७ भ०. श्री सुपार्श्वनाथ जी.
३ लाख
५ लाख ८ भ०. श्री चन्द्रप्रभु जी.
३ लाख
५ लाख ६ भ०. श्री पुष्पदन्त जी.
२ लाख
४ लाख १० भ०. श्री शीतलनाथ जी.
२ लाख
४ लाख ११ भ०. श्री श्रेयांसनाथ जी.
२ लाख
४ लाख १२ भ०. श्री वासुपूज्य जी.
२ लाख
४ लाख १३ भ०. श्री विमलनाथ जी.
२ लाख
४ लाख १४ भ०. श्री अनन्तनाथ जी.
२ लाख
४ लाख १५ भ०. श्री धर्मनाथ जी.
२ लाख
४ लाख १६ भ०. श्री शान्तिनाथ जी.
२ लाख
४ लाख १७ भ०. श्री कुन्थुनाथ जी.
३ लाख १८ भ०. श्री अरनाथ जी.
१ लाख
३लाख
ज
0
0
0
१ लाख
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
108
पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
१ लाख
३ लाख ३ लाख
१लाख
१लाख
१६ भ०. श्री मल्लिनाथ जी. २० भ०. श्री मुनिसुव्रतनाथ जी. २१ भ०. श्री नमिनाथ जी. २२ भ०. श्री नेमिनाथ जी. २३ भ०. श्री पार्श्वनाथ जी. २४ भ०. श्री महावीर जी.
३ लाख ३ लाख
१ लाख
१ लाख
३ लाख
१ लाख
३ लाख
२.४ प्रथम तीर्थंकर भ०. श्री ऋषभदेव जी के काल से संबंधित श्राविकाएँ :
२.४.१ चन्द्रकांता :- चन्द्रकान्ता पश्चिम महाविदेह की गंधिलावती विजय में वैताढ्य पर्वत की गंधसमद्धि नगर के विद्याधर राजा शतबल की पत्नी थी जिसके पुत्र का नाम था महाबल, पुत्रवधू का नाम था विनयवती।
२.४.२ नागश्री :- नागश्री विदेह क्षेत्र के नंदीग्राम निवासी नागिल की पत्नी थी, जिसकी सातवीं पुत्री का नाम निर्नामिका था।
२.४.३ निर्नामिका :- निर्नामिका नागश्री ओर नागिल की पुत्री थी, अपनी माता नागश्री द्वारा अम्बरतिलक पर्वत पर भिजवाने पर वह मुनिराज के केवल ज्ञान महोत्सव में सम्मिलित हुई । मुनि से धर्मोपदेश श्रवण किया तथा सम्यक्त्व सहित पाँच अणुव्रतों को स्वीकार किया। श्राविका व्रतों का सम्यक् आराधन किया। कुरूपता और दुर्भाग्य के कारण वह जीवन पर्यन्त अविवाहित कुमारिका रही, उसने विविध प्रकार के तप किये, अंत में अनशन पूर्वक समाधिमरण को प्राप्त किया।
२.४.४ लक्ष्मी :- लक्ष्मी पुष्कलावती विजय के लोहार्गल नगर निवासी स्वर्णजंघ की पत्नी थी। पुत्र का नाम वज्रजंघ था।
२.४.५ श्रीमती :- श्रीमती पुष्कलावती विजय की पुण्डरिकिणी नगर निवासी चक्रवर्ती राजा एवं गुणवती रानी की पुत्री थी।" ईशानचन्द्र नरेश की रानी कनकावती, सुनाशीर की पत्नी लक्ष्मी, सार्थवाह पत्नी अभयमति, धनश्रेष्ठी की पत्नी श्रीमती ये चारों जंबूद्वीप के क्षितिप्रतिष्ठित नगर की निवासिनी थी।
२.४.६ प्रियदर्शना :- प्रियदर्शना धनाढ्य श्रेष्ठी पूर्णभद्र की सुपुत्री एवं श्रेष्ठी सागर चन्द्र की पत्नी थी। सागरचन्द्र के मित्र अशोकदत्त ने पति पत्नी के मध्य में वैमनस्य पैदा करने की चेष्टा की किंतु प्रियदर्शना ने अपने प्रति आकर्षित अशोकदत्त को फटकारा । स्वयं शांति रखकर अपना पातिव्रत्य निभाया। उसके अनंतर प्रथम कुलकर विमलवाहन की पुत्री सुरूपा थी, जो तृतीय कुलकर यशस्वी की पत्नी थी तथा उसकी पुत्री प्रतिरूपा चतुर्थ कुलकर अभिचन्द्र की पत्नी थी। उसकी पुत्री चक्षुकांता पांचवें कुलकर प्रसेनजित की पत्नी थी तथा उसकी पुत्री श्रीकांता छठे कुलकर मरूदेव की पत्नी थी। उसकी पुत्री मरुदेवी सातवे कुलकर नाभि की पत्नी थी।१०
२.४.७ माता मरूदेवी : इस अवसर्पिणीकाल के तीसरे आरे में जंबूद्वीप के भारतवर्ष में इक्ष्वाकुभूमि मे नाभि कुलकर की पत्नी का नाम मरूदेवी था।" माता मरूदेवी ने चौदह स्वप्न देखकर प्रथम तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव को जन्म दिया। ऋषभदेव ने राज्य व्यवस्था, समाज-व्यवस्था आदि कार्य संपन्न किये तथा अवसर्पिणीकाल के प्रथम साधु बने । एक हजार वर्षों के बाद पुरिमताल नगर के बाहर शकट मुख नामक उद्यान में केवल ज्ञान को प्राप्त हुए।१२ वात्सल्यमूर्ति मरूदेवी ने एक हजार वर्षों से अपने पुत्र का मुँह नहीं देखा था। उसने भरत से ऋषभदेव विषयक खोज करने के लिए कहा। भरत ने भगवान् के पुरिमताल नगर के बाहर स्थित उद्यान में पधारने का सुखद संदेश मरूदेवी को सुनाया। मरूदेवी और भरत तुरन्त सुसज्जित हस्तिरथ पर आरूढ़ होकर भगवान् के समोसरण द्वार पर पहुँचे । प्रभु ऋषभदेव को अनासक्त देखकर मरूदेवी पहले आर्तध्यान करने लगी, तत्पश्चात् मोह का आवरण दूर होते ही धर्मध्यान शुक्लध्यान में आरूढ़ हुई तथा केवल ज्ञान, केवल दर्शन को प्राप्त कर गई । आयु पूर्ण होने से हस्तिरत्न प
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
ही सिद्ध बुद्ध और मुक्त बनी। तीर्थ स्थापना से पूर्व ही सिद्ध होने से उन्हें अतीर्थसिद्ध एवं स्त्रीलिंग सिद्ध भी कहा है। इस अवसर्पिणी काल में मुक्त होने वाली प्रथम आत्मा माता मरूदेवी थी। भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान प्राप्त होने के अन्तर्मुहूर्त पश्चात् ही मरूदेवी को मुक्ति प्राप्त हो गई थी । १४
109
माँ मरूदेवी वह सन्नारी थी जिसकी ऊँचाईयाँ अपरिमेय हैं। पुत्र के वनगमन के पश्चात् साधु जीवन से अनभिज्ञ सरल हृदयी माता मरूदेवी ने पुत्र ऋषभ का विरह सहन किया है। ऋषभदेव प्रभु को देखकर कई उपालम्भ मोहवश देती रही, लेकिन वाह रे माँ मनस्वी मरूदेवी ! भरत द्वारा ऋषभ के वीतराग स्वरूप का वर्णन करने पर स्वयं पुत्र से पहले ही अपूर्व परिणामों की धारा में बहकर मुक्ति पथ की बाजी जीत ली। ऐसा दूसरा उदाहरण इतिहास में प्राप्त होना दुर्लभ है।
२.४.८ सुमंगला :- सुमंगला महाराज नाभि की पुत्री थी, वह भगवान् ऋषभदेव की युगल बहन थी । वह उनकी बड़ी पत्नी भी थी, तथा प्रथम चक्रवर्ती सम्राट् भरत की माता थी। एक बार सुमंगला रानी तीर्थकरों की माता के समान ही चौदह महास्वप्न देखकर परम प्रसन्न हुई। गर्भकाल पूर्ण हाने पर देवी सुमंगला ने भरत और ब्राह्मी को जन्म दिया तत्पश्चात् उसने ४६ युगल पुत्रों को जन्म दिया । १६ माता ने सुयोग्य चरमशरीरी संतानों को जन्म देकर, धर्म-ध्यान द्वारा जीवन को कृतार्थ किया।
1
२.४.६ सुनंदा :- प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की पत्नी का नाम सुनंदा था। श्री ऋषभदेव का बाल्यकाल आनंद से व्यतीत हुआ। शनैः शनैः वे दस वर्ष के हुए तभी एक अपूर्व घटना घटी। एक युगल अपने नवजात पुत्र-पुत्री को ताड़ के वृक्ष के नीचे सुलाकर स्वयं क्रीड़ा हेतु प्रस्थान कर गया । भवितव्यता से एक बड़ा परिपक्व ताड़फल बालक के ऊपर गिरा । मर्म-प्रदेश पर प्रहार होने से असमय में ही बालक मरकर स्वर्गवासी हो गया। यह प्रथम अकाल मृत्यु इस अवसर्पिणी काल के तृतीय आरे में हुई । यौगलिक माता-पिता ने बड़े लाड प्यार से अपनी इकलौती कन्या का पालन किया, अत्यंत सुंदर होने से "सुनंदा" नाम रख दिया गया। कुछ समय पश्चात् उसके माता-पिता की भी मृत्यु हो गई ।
C
१७
इस कारण वह बालिका यूथभ्रष्ट मृगी की तरह इधर उधर परिभ्रमण करने लगी। अन्य यौगलिकों ने नाभि राजा से उक्त समस्त वृत्तान्त कह सुनाया । नाभि ने अपने पास यह कहकर उसे रख लिया कि यह ऋषभ की पत्नी बनेगी। कालांतर में सुनंदा के भ्राता की अकाल मृत्यु से ऋषभदेव ने सुनंदा एवं सहजात सुमंगला के साथ विवाह कर नई व्यवस्था का सूत्रपात किया । " सुनंदा से बाहुबली और सुंदरी का जन्म हुआ। सौंदर्य संपन्न शक्तिसंपन्न बाहुबली एवं अनुपम सौन्दर्य सम्पन्न पुत्री सुंदरी जैसी कन्या को जन्म देनेवाली सुनंदा महासौभाग्यशालिनी ऐतिहासिक श्राविका हो गई। श्रीमद्भागवत् के अनुसार ऋषभदेव की एक पत्नी का नाम जयंति था जो देवराज इंद्र की कन्या थी ।
२.४.१० ब्राह्मी :- ब्राह्मी ऋषभ और सुमंगला की पुत्री थी । प्रभु ऋषभदेव ने ब्राह्मी को संगीत, नृत्य, शिल्प, काव्य, चित्र आदि चौंसठ कलाएँ एवं दाहिने हाथ से अठारह प्रकार की लिपि सिखाई । २° कालांतर में उसने दीक्षित होकर जैन धर्म की प्रभावना की ।
श्री ब्राह्मी का महत्त्वपूर्ण योगदान यह है कि उसने अठारह प्रकार की लिपियाँ स्वयं ग्रहण की तथा धारणा शक्ति से औरों को भी सिखाई उसने चौंसठ कलाओं द्वारा महिलाओं में मंगलमयी प्रवृत्तियाँ जाग्रत की जो समाज निर्माण के लिए बहुत उपयोगी रही। यह कार्य किसी प्रखर प्रतिभा द्वारा ही संपन्न हो सकता है। ब्राह्मी ने लिपि सिखाकर ब्रह्म प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया । २१
२.४.११ सुन्दरी :- ऋषभदेव और सुनंदा की सुपुत्री का नाम सुंदरी था । भगवान् ऋषभदेव के प्रथम प्रवचन से प्रभावित होकर वह संयम ग्रहण करना चाहती थी। उसने यह भव्य भावना अभिव्यक्त भी की थी किंतु सम्राट् भरत के द्वारा आज्ञा न दिये जाने से वह प्रभु के संघ की प्रथम श्राविका बनी । २२ उसने श्राविका के व्रतों का आराधन करते हुए साठ हजार वर्ष तक आयंबिल तप किया । २३ अन्त में सुंदरी ने प्रबल भावों से अपनी इच्छा के अनुरुप दीक्षा अंगीकार कर ली । २४
प्रभु ऋषभदेव ने सुंदरी को स्त्रियों की चौंसठ कलाएँ तथा बायें हाथ से गणित, तोल, माप, आदि कलाएँ सिखलाई और मणि आदि के उपयोग करने की विधि सिखलाई २५
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
110
पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
सुंदरी अलौकिक प्रतिभा की धनी थी। श्री ऋषभदेव जी ने गणित विद्या की शिक्षा सुंदरी को दी, एवं सुंदरी ने उसे स्वयं ग्रहण करके औरों को भी सिखायी। इस प्रकार गणित के प्रचार की प्रथम प्रचारिका बनने का श्रेय सुंदरी को ही प्राप्त हुआ था। सुन्दरी के कारण हि गणित विद्या आज सर्वत्र प्रसारित है। २.५ द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ :
२.५.१ विजयादेवी :- इस अवसर्पिणीकाल के द्वितीय तीर्थंकर भगवान अजितनाथ की माता का नाम विजया देवी था। वे भगवान् ऋषभदेव के इक्ष्वाकु वंश परंपरा में विनिता नगरी के महाप्रतापी राजा जितशत्रु की सर्वगुणसंपन्न, रूप लावण्य संपन्न महारानी थी। वह प्रजा का पालन करते हुए श्रमणोपासक धर्म का सुचारूरूपेण पालन करती थी। जब से पुत्र गर्भ में आया जितशत्रु राजा को कोई जीत न सका। प्रत्येक क्षेत्र में वह अजित रहा, अतः बालक का नाम "अजित” रखा गया आवश्यक चूर्णि में उल्लेख है कि जब से प्रभु गर्भ में आए महाराज जितशत्रु महारानी विजया से हारते रहे और महारानी विजया जीतती रही, अतः पुत्र का सार्थक नाम अजित रखा गया ।२६ अपने देवर सुमित्र के पुत्र सगर से भी विजयादेवी पुत्रवत् स्नेह रखती थी। विजया देवी ने सजल नेत्रों से अपने पति एवं पुत्र को उनकी इच्छा के अनुरूप त्याग मार्ग पर अग्रसर किया। तत्पश्चात् स्वयं भी दीक्षा अंगीकार की। एक त्यागी तपस्विनी वंदनीय महिला के रुप में वह सदैव स्मरणीय रहेगी।
__२.५.२ वैजयन्ती :- द्वितीय तीर्थंकर भगवान् अजितनाथ के चाचा युवराज सुमित्र विजय की युवरानी का नाम वैजयंती था। वैजयंती महारानी ने चौदह स्वप्न देखे तथा अजितनाथ भगवान् के जन्म के कुछ ही क्षणों के अंतर से चक्रवर्ती पुत्र सगर को जन्म दिया। तेजस्विनी माता ने बड़ी कुशलता से वीरता एवं धर्ममय संस्कारों से पुत्र को सिंचित किया तथा समाज पर महान उपकार किया। २.६ ततीय तीर्थंकर श्री संभवनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ :
सेना देवी :- इसी जंबूद्वीप में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। इस नगरी के राजा इक्ष्वाकु कुल के चंद्र सम महाराजा जितारि की रानी का नाम सेना देवी था।३२ सेनादेवी रूप तथा गुणों से संपन्न थी। किसी समय उसने चौदह शुभ स्वप्न देखे। गर्भ का उचित आहार-विहार और मर्यादा से पालन करते हुए, तीर्थंकर पुत्र को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त किया। जब से प्रभु गर्भ में आए देश में सांब एवं मूंग आदि धान्य प्रचुर मात्रा में उत्पन्न हुए थे। चारों ओर देश की भूमि धान्य से लहलहा उठी थी, अतः माता-पिता ने बालक का सार्थक नाम "संभव' रखा। भावी त्रिलोक वंद्य, आकर्षक, पुत्र छवि को देखकर सेना देवी परम हर्षित हुई। इस उदार हृदय स्त्री ने अपने पति एवं पुत्र को त्याग मार्ग पर सहर्ष विदा किया, तथा संभवनाथ की अनेक पत्नियों को संतुष्ट करते हुए इस सुश्राविका ने कुशल सास होने का प्रमाण उपस्थित किया। २.७ चतुर्थ तीर्थंकर श्री अभिनंदननाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ :
सिद्धार्था : महारानी सिद्धार्था चतुर्थ तीर्थंकर भगवान् अभिनंदन नाथ जी की माता थी, वह अयोध्या नगरी के महाराजा संवर की महारानी थी। जब से पत्र गर्भ में आया और उनका जन्म हआ. नगर और देश में ही नहीं वरन संपूर्ण विश्व में सख शांति एवं आनंद की लहरें फैल गई। अतः माता-पिता और परिजनों ने मिलकर आपका नाम अभिनंदन रखा। महारानी सिद्धार्था श्रद्धालु श्रमणोपासिका थी। अपने पति एवं पत्र की त्यागमयी वत्तियों को देखकर उसने सहर्ष आज्ञा प्रदान की तथा उनकी अनुपस्थिति में बहुत वर्षों तक कुशलता से पारिवारिक गतिविधियों का संचालन किया। अंत में स्वयं भी दीक्षा अंगीकार की तथा मोक्ष प्राप्त किया।
चतुर्थ तीर्थंकर के शासन काल की अन्य श्राविकाएँ के नामोल्लेख तथा विवरण अनुपलब्ध है। २.८ पाँचवे तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ :
२.८.१ सुदर्शना : जंबूद्वीप के पुष्कलावती विजय में शंखपुर नामक नगर था। वहाँ विजयसेन राजा राज्य करते थे। उनकी पट्टमहिषी का नाम सुदर्शना था। एक बार उसने लीलोत्सव में सेठानी सुलक्षणा को आठ पुत्रवधुओं के साथ विचरण करते हुए
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
देखा। स्वयं को संतान के अभाव में देखकर वह अत्यन्त दुःखी हुई तथा आत्मग्लानि से भर उठी। महाराज विजयसेन ने बेले की तपस्या से कुलदेवी की आराधना की। कुलदेवी ने राजा को आश्वस्त किया कि उन्हें महाप्रतापी पुत्र की प्राप्ति होगी। फलस्वरुप महारानी सुदर्शना ने सिंह का स्वप्न देखा । यथा-समय परम तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया तथा पुरुषसिंह नाम रखा गया। सुदर्शना ने अपने पुत्र को गुणवान् बनाकर समाज को अमूल्य सहयोग दिया।३५
२.८.२ मंगलावती :- इक्ष्वाकुवंश के अयोध्यापति मेघ की महारानी मंगलावती थी।" किसी समय उसने अनमोल चौदह शुभ स्वप्न देखकर यथासमय महिमामयी पुत्ररत्न को पैदा किया तथा बारहवें दिन उनका नामकरण संस्कार रखा जब से बालक गर्भ में आया तब से माता मंगलावती ने बड़ी-बड़ी उलझी हई समस्याओं का भी अनायास ही अपनी सन्मति से हल ढूंढ निकाला, तथा राजा के राजकार्य में सहयोगिनी बनी, अतः बालक का गुण निष्पन्न “सुमति” नाम रखा गया। अपनी इच्छा का त्याग करके पति और पुत्र को त्याग मार्ग पर बढ़ाया, स्वयं भी अंत में दीक्षित हुई, मोक्ष को प्राप्त किया। २.६ छठे तीर्थकर श्री पदमप्रभु जी से संबंधित श्राविकाएँ :
२.६.१ सुसीमा : कौशांबी नगरी के महाराजा धर की महारानी का नाम सुसीमा था | महारानी सुसीमा ने चौदह शुभ स्वप्न देखे तथा यथासमय सुखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया। तेजस्वी पुत्र के जन्म के प्रभाव से लोक में सर्वत्र शांति और हर्ष की लहर दौड़ गई। जब बालक गर्भ में आया तब माता को पद्म (कमल) की शय्या में सोने का दोहद उत्पन्न हुआ, तथा बालक के शरीर की प्रभा पद्म के समान थी, अतः बालक का नाम “पद्मप्रभ* रखा गया। अपने पुत्र के प्रति मोह बंधनों का त्याग कर, संसार के कल्याण के लिए उसने तपोमार्ग पर बढ़ने की आज्ञा दी। तथा स्वयं भी अंत में विरक्तिमय जीवन अपनाया। २.१० सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ :
२.१०.१ पृथ्वीदेवी ४० : इसी जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में वाराणसी नगरी के राजा प्रतिष्ठसेन हुए। राजा प्रतिष्ठसेन की महारानी का नाम पृथ्वीदेवी था, जो सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ जी की माता थी। ४१ महापुरूष सूचक चौदह मंगलकारी स्वप्नों को देखकर
हुई और यथासमय सुपार्श्वनाथ को जन्म दिया। जब बालक गर्भ में था तब माता के पार्श्व शोभायमान रहे, अतः उनका नाम 'सुपार्श्व' रखा गया। जब सुपार्श्वनाथ केवलज्ञानी हुए तब माता ने स्वप्न में एक फण, पाँचफण तथा नवफणों वाले सर्प को भगवान् सुपार्श्वनाथ के ऊपर छत्र की तरह देखा। एक तरफ जहाँ माता ने पुत्र के मोह वश उसके कई विवाह किये, वहीं दूसरी तरफ पुत्र की इच्छा को देखते हुए उसे विरक्ति पथ पर भिजवाया। स्वयं भी संसार में जल कमलवत् धर्ममय जीवन व्यतीत किया, अंत में दीक्षित हुई। २.११ आठवें तीर्थंकर श्री चंद्रप्रभु जी से संबंधित श्राविकाएँ :
२.११.१ लक्ष्मणा५२ : जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में चन्द्राननपुरी के राजा महासेन की महारानी लक्ष्मणा थी। लक्ष्मणा देवी मंगलकारी चौदह स्वप्न देखकर जागत हुई। राजा से स्वप्न के फल को सुनकर गर्भ का समुचित पालन किया । यथा समय बालक का जन्म हुआ। जब बालक गर्भ में आया तब माता को चंद्रपान की इच्छा हुई तथा बालक के शरीर की प्रभा चंद्र जैसी थी। अतः बालक का गुणनिष्पन्न नाम “चंद्र प्रभ' रखा गया। अपने पुत्र के साधनामय जीवन में सदैव सहायिका बनकर रही। पुत्र को प्रव्रजित कर पुत्रवधूओं के साथ घर में ही साधनामय जीवन व्यतीत किया, अंत में स्वयं भी दीक्षित हुई। २.१२ नौवें तीर्थंकर श्री सुविधिनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ :
२.१२.१ रामादेवी : इसी जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में काकंदी नगरी थी, जिसके राजा सुग्रीव थे। महाराजा सुग्रीव की सर्वदोषों से रहित, निर्मल गुणवाली रामादेवी नामक पटरानी थी। किसी समय रामा देवी ने मंगलकारी श्रेष्ठ चौदह सपनों को देखा । अत्यंत प्रफुल्लित हुई और यथासमय सर्वगुणसंपन्न पुत्ररत्न को जन्म देने वाली माता बनी। जब बालक गर्भकाल में था तब माता सब विधियों में कुशल रही, अत: “पुष्पदंत नाम रखा गया ।५ माता ने अपने प्रिय पुत्र को धर्मसंस्कारों से सींचा, समय आने पर उसे प्रव्रजित किया तथा पुत्रवधुओं को संयमित रखा। धर्म साधना में रत रही, अंत में श्री सुविधिनाथ जी के तीर्थ में दीक्षित हुई।
माता है
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
२.१३.दसवें तीर्थंकर श्री शीतलनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ :
२.१३.१ नंदा देवी : इसी जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में भद्दिलपुर नगर के राजा थे दढ़ रथ, जिनकी पटरानी का नाम था नंदा देवी। सुखपूर्वक सोते हुए उन्होंने चौदह महास्वप्न देखे तथा पुण्यशाली पुत्र प्राप्ति का फल सुनकर हर्षोल्लास पूर्वक समय व्यतीत करने लगी। महारानी ने सुखपूर्वक यथासमय पुत्र को जन्म दिया। एक बार महाराजा दृढ़रथ के शरीर में भयंकर दाह-ज्वर की पीड़ा हुई। विभिन्न उपचारों से भी पीड़ा शान्त नहीं हुई, परन्तु एक दिन गर्भवती नंदादेवी के कर स्पर्श मात्र से वेदना शांत हो गई। तथा राजा के तन मन में शीतलता छा गई। इससे अभिभूत होकर सबने मिलकर बालक का नाम शीतलनाथ रखा। वैभव विलास की चकाचौंध में रहकर भी अपने पुत्र के अनासक्त योग को नज़र में रखते हुए उसने उन्हें दीक्षित किया, तथा इस महिमामयी माता ने स्वयं भी धर्मसाधनामय जीवन व्यतीत किया। २.१४ ग्यारहवे तीर्थंकर श्री श्रेयांसनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ :
२.१४.१ विष्णुदेवी :- भारतवर्ष के सिंहपुर नगर के महाराजा विष्णु की रानी का नाम विष्णुदेवी था। विष्णुदेवी ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान् श्रेयांसनाथ को जन्म देनेवाली महिमामंडित सन्नारी रत्ना थी। जब बालक गर्भ में आया, माता ने चौदह स्वप्न देखें । यथा समय सुखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया, जिससे सर्वत्र सुख शांति का वातारण हो गया। बालक के गर्भकाल से जन्म तक समस्त राज्य का कल्याण हुआ, अतः सबने मिलकर गुणनिष्पन्न श्रेयांस कुमार नाम रखा। इस धर्ममयी सन्नारी ने अपने पति एवं पुत्र को त्याग के पुण्यपथ पर अग्रसर किया । पारिवारिक जिम्मेदारियों का स्वयं कुशलतापूर्वक निर्वाह किया तथा अन्त में संयमी जीवन को अंगीकार किया।
२.१४.२ भद्रा :- पोतनपुर के महाराजा प्रजापति की रानी भद्रा की कुक्षी से प्रथम बलदेव अचल जी का जन्म हुआ।१ रानी भद्रा भद्र 'प्रकृति वाली पति भक्त शीलवती सन्नारी थी। एक बार सुखपूर्वक सोते हुए उसने परम आनंदकारी चार शुभ स्वप्न देखे, हर्षित हुई। स्वप्नफल सुनकर गर्भ का समुचित रीति से पालन किया तथा कालांतर में पुत्ररत्न को जन्म दिया। पुत्ररत्न का नाम उन्होंने अचल रखा। भद्रा भक्तिमान् सुश्राविका थी। वह देवपूजा आदि षट्कर्मों में लीन रहती थी।
२.१४.३ मृगावती ५२ :- पोतनपुर निवासी महाराजा प्रजापति की महारानी मृगावती की कुक्षी से प्रथम वासुदेव त्रिपृष्ठ का जन्म हुआ/६३ मृगावती मगसदश नेत्रोंवाली मृग चिन्हित चंद्रमा के समान सुंदर तथा रोहिणी के समान बुद्धिमती थी। अतः वह महाराजा द्वारा पटरानी पद पर आसीन थी। मृगावती ने सुखपूर्वक सोते हुए सात महास्वप्न देखे। स्वप्न देखकर उसका फल सुनकर वह प्रसन्न मन से गर्भ का सम्यक् पालन करने लगी। यथासमय सुखपूर्वक तेजस्वी बालक को जन्म दिया तथा तीन वंश को उनके पीछे देखकर उनका नाम त्रिपृष्ठ रखा। इस सन्नारी ने अपने प्रिय पुत्र को समस्त कलाओं में निपुण बनाया, तथा धर्म संस्कारों से सिंचित किया। स्वयं भी धर्ममय जीवन व्यतीत किया।
२.१४.४ प्रियंगु :- प्रियंगु भरतक्षेत्र की राजगही नगरी के राजा ऋषभनंदी की रानी थी, उसके पुत्र का नाम विशाखानंदी
था (५४
२.१४.५ धारिणी :- धारिणी ऋषभनंदी के छोटे भाई विशाखाभूति की पत्नी थी, उसके पुत्र का नाम ऋषभभूति था ।५५ २.१५ बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्य जी से संबंधित श्राविकाएँ :
२.१५.१ जयादेवी :- भारत की प्रसिद्ध चम्पानगरी के प्रतापी राजा वसुपूज्य की महारानी का नाम जयादेवी था [५६ वह सीता की तरह गंभीर, मंदगति से चलनेवाली तथा सबकी प्रीतिपात्र थी। एक बार महारानी जयादेवी सुखपूर्वक निद्राधीन थी, तभी उसने चौदह महास्वप्न देखें एवं गर्भधारण किया । यथा समय सर्वांगसौंदर्य संपन्न पुत्ररत्न को जन्म दिया। सब ओर खुशियाँ छा गई। वसु । सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र का जन्म हुआ है जो जगत् के प्राणी रूप कमलों को विकसित करनेवाला है। महाराजा वसुपूज्य का पुत्र होने से बालक का सार्थक नाम “वासुपूज्य रखा गया। माता ने अपने धर्मम्य संस्कारों के फलस्वरुप पुत्र को त्यागमार्ग पर अग्रसर किया तथा पुत्र के केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात् स्वयं भी दीक्षित होकर आत्म कल्याण किया।
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
२.१५.२ गुणमंजरी :- वह एक गणिका थी । गुणमंजरी को प्राप्त करने के लिए विंध्यपुर नगर के राजा विंध्यशक्ति एवं साकेतपुर के अधिपति राजा पर्वत के बीच युद्ध हुआ था
113
२. १५. ३ श्रीमती :- विजयपुर के राजा श्रीधर की पत्नी श्रीमती रानी थी, तारक उसका पुत्र था । ५९
२.१५.४ उमादेवी° :- द्वारका नगरी में महाराजा ब्रह्म बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य के शासन में हुए थे। ब्रह्म की पटरानी का नाम था उमादेवी जिनकी कुक्षी से द्वितीय वासुदेव द्विपृष्ठ का जन्म हुआ था । " सुखपूर्वक सोते हुए माता उमादेवी ने सात महास्वप्न देखे तथा हर्षित हुई। कालांतर में उन्होंने तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया नाम रखा द्विपृष्ठ। इस महिमामयी माता के संस्कारों का ही प्रभाव था कि द्विपष्ठ वासुदेव भोगों में भी धर्माभिमुख बने रहे। उस संस्कारवान् पुत्र ने धर्म तीर्थ के आगमन पर भक्तिवश महादान दिया ।
२.१५.५ सुभद्रा :- द्वारका नगरी के राजा ब्रह्म की पटरानी का नाम सुभद्रा था, जो द्वितीय बलदेव विजय की माता थी । ६३ किसी समय सुखपूर्वक सोते हुए सुभद्रा चार महास्वप्न देखकर जागत हुई, । स्वप्न फलीभूत बने अतः सावधानी से गर्भ का पालन पोषण करती रही, कालांतर में उसने तेजस्वी स्फटिक सम निर्मल उज्जवल वर्ण युक्त पुत्ररत्न को जन्म दिया जिसका नाम रखा गया "विजय"। माता सुभद्रा ने पुत्र को धर्मसंस्कारों से सिंचित कर गुणवान् बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
२.१५.६ रोहिणी :- भगवान् वासुपूज्य का पुत्र राजा मघवा और रानी लक्ष्मी की पुत्री थी रोहिणी । वह नागपुर के राजा अशोकचंद्र की रानी थी। रोहिणी ने अपने जीवन में कभी दुःख देखा ही नहीं था। राजा ने उसके पुत्र को जमीन के ऊपर पटक दिया, फिर भी उसे दुःख नहीं हुआ। दुःख क्या है? शोक क्या होता है? इससे वह सर्वथा अनभिज्ञ थी। एक बार वासुपूज्य भगवान् के शिष्य मुनि रूप्यकुम्भ और मुनि स्वर्णकुम्भ नागपुर पधारे। राजा अशोक चन्द्र ने मुनि से प्रश्न पूछा - भन्ते । रोहिणी सर्वथा सुखिया क्यों हैं? तब मुनि ने बताया कि रोहिणी ने पूर्व भव में रोहिणी तप किया था, जिसके प्रभाव से वह इस भव में सदा सुखिया रही है। मुनि से पूर्वभवका वृत्तान्त सुनकर राजा रानी दोनों ने श्रावक व्रतों को अंगीकार किया । ६४
२.१६ तेरहवें तीर्थंकर श्री विमलनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ :
२.१६.१ श्यामादेवी :- इसी जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में कांपिल्यपुर नाम का नगर था जहाँ गुण संपन्न राजा पद्मसेन राज्य का संचालन करते थे। उनकी पतिपरायणा, सौंदर्यसंपन्न, शीलसंपन्न महारानी श्यामादेवी थी । चतुर्दश स्वप्नदर्शन के पश्चात् माता ने सुखपूर्वक तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया ।६५ बालक के गर्भ में रहने के समय माता तन मन से निर्मल बनी रही, अतः सबने मिलकर "विमल" नाम प्रदान किया । ६६ समस्त भोगों के प्राप्त होने पर भी अपने पुत्र को अनासक्त देखकर धर्म परायणा माता ने उसे त्याग मार्ग पर बढ़ने की अनुमति प्रदान की तथा पुत्रवधुओं को सान्त्वना दी। अंत में स्वयं भी धर्म तीर्थ में गोते लगाते हुए धर्ममय जीवन व्यतीत किया ।
२.१६.२ सुप्रभा ७ :- इसी भरतक्षेत्र के द्वारिका नगरी में रूद्र नामक महाराजा राज्य करते थे जिनकी रानी का नाम सुप्रभा था। महारानी ने एक बार सुखपूर्वक सोते हुए बलदेव पुत्र के जन्म सूचक चार स्वप्न देखे। कालांतर में गर्भ का समुचित पालन करते हु उसने तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया भद्र कुमार
२.१६.३ पृथ्वीदेवी " :- द्वारिका नगरी के महाराजा रूद्र की महारानी थी पृथ्वीदेवी। एक बार सुखपूर्वक शयन करते हुए सात महास्वप्न देखकर वह जाग्रत हुई । यथासमय उसने वैडूर्यमणि के समान तेजस्वी कांतिवाले पुत्ररत्न को जन्म दिया जिसका नाम रखा गया "स्वयंभू " 19°
महायशस्वी पृथ्वीदेवी ने ऐसे समृद्धिशाली संस्कारी सुपुत्र को जन्म दिया, जिसने धर्म तीर्थंकर के आगमन की खुशी में महादान अर्पित किया ।
२.१७ चौदहवें तीर्थंकर श्री अनंतनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ :
२.१७.१ सुदर्शनादेवी" :- द्वारिका नगरी के सोम राजा की शीतल कांतिवाली महारानी थी सुदर्शना। किसी समय सुखपूर्वक
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
114
पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
सोते हुए उसने चार महास्वप्न देखे । यथासमय महाबलशाली शीतल स्वभाव वाले सुपुत्र "सुप्रभ” को जन्म दिया।२ सुसंस्कारी माता ने महापुण्यवान व्रत धारी सुश्रावकरत्न सुप्रभ जी को जन्म दिया जिसने जिन धर्म की महती प्रभावना की।
२.१७.२ सीता देवी :- द्वारिका नगरी में सोम नामक प्रसिद्ध राजा राज्य करते थे। उनकी शीतल कांतिवाली स्निग्धदर्शना सीता नाम की महारानी थी। किसी समय सुखपूर्वक सोते हुए उसने सात स्वप्न देखे । कालांतर में शुभ लक्षण संपन्न एक पुत्ररत्न को जन्म दिया। सीता देवी का यह सुपुत्र “पुरूषोत्तम” नामक वासुदेव हुआ। जो दृढ़ धर्मी प्रियधर्मी था। उसके धर्मसंस्कारों के सींचन में सीतादेवी का बहुत बड़ा योगदान था।
२.१७.३ सुयशा देवी :- इसी जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में इक्ष्वाकुवंश के कुलदीपक महाराजा सिंहसेन एवं उनकी पतिपरायणा सद्गुण संपन्ना महारानी थी सुयशादेवी । जो क्रमशः चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथ भगवान् के पिता एवं माता थे। माता ने सुखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया। चूंकि बालक के गर्भावस्था में रहते हुए पिता ने दुर्दान्त शत्रु सैन्य दल पर विजय प्राप्त की थी, अतः बालक का नाम “अनन्त कुमार रखा गया। माता सुयशा ने यह जानते हुए भी कि पुत्र अनासक्त योगी है, भोगों के लिए उन्हें विवश किया। परन्तु पुत्र की इच्छा के अनुरुप उन्हें त्यागमार्ग पर बढ़ने की अनुमति भी प्रदान की। अतः प्राणी मात्र के कल्याण हेतु उनका अमूल्य योगदान रहा। २.१८ पंद्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ :
२.१८.१ सुव्रतादेवी :- रत्नपुर के महाप्रतापी महाराजा भानु की पटरानी सुव्रतादेवी की कुक्षी से पंद्रहवें तीर्थंकर धर्मनाथ प्रभु का जन्म हुआ। महारानी सुव्रतादेवी नारी के समस्त उत्तम लक्षणों व गुणों से युक्त थी। बालक के गर्भ में रहते हुए माता को धर्म साधना के उत्तम दोहद उत्पन्न होते रहें अतः महाराजा सहित सबने मिलकर "धर्मनाथ" नाम रखा। माता ने पुत्र की त्यागमयी वृत्तियों के प्रवाह को देखते हुए उसे संयम मार्ग पर बढ़ाया तथा पुत्रवधुओं को धैर्य बंधाया, स्वयं ने भी धर्ममय जीवन व्यतीत किया।
२.१८.२ अम्बिकादेवी :- (अम्मदेवी) अश्वपुर नगर के महाराजा शिव की महारानी थी तथा पांचवें वासुदेव पुरूष सिंह की माता थी। माता अम्बिका वासुदेव जन्म के सूचक सात महास्वप्न देखकर अति हर्षित हुई। कालांतर में पुत्ररत्न का जन्म हुआ। पुरूषों में सिंह के समान पराक्रमी होने से उनका नाम रखा गया “पुरूषसिंह" कुमार | अम्बिका देवी पति के स्वर्गगमन को सन्निकट जानकर व देखकर सोलह शृंगार करके उनसे पूर्व ही सती बन गई। माता ने धर्म संस्कारों से पुत्र को सिंचित किया, जिसके प्रभाव से पुरुष सिंह कुमार ने तीर्थंकर धर्मनाथ के शासन की महती प्रभावना की। अंबिकादेवी के जीवन से यह प्रमाणित होता है कि पौराणिक काल में स्त्रियाँ पति की उपस्थिति में ही सती हो जाया करती थी। २.१८.३ विजयादेवी :- इसी जंबूद्वीप के अश्वपुर नगर में शिव नामक राजा राज्य करते थे, जिनकी महारानी का नाम
देवी। माता विजयादेवी चार शुभस्वप्न देखकर हर्षित हुई। गर्भ का समुचित पालन पोषण करते हुए उसने यथासमय (बलदेव) पुत्ररत्न को जन्म दिया।२ क्योंकि वह सुदर्शन स्वरूप वाला था अतः उसका नाम रखा गया “सुदर्शन" कुमार। माता विजयादेवी के धर्म संस्कारों का ही पुण्यप्रभाव था कि उसका पुत्र बलदेव सुश्रावक एवं सुसाधु बनकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गया।
२.१८.४ भद्रा :- इसी जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में श्रावस्ती नगरी में महाराजा समुद्रविजय शासन करते थे। उनकी महारानी का नाम भद्रा था। सुखपूर्वक शयन करते हुए एक बार भद्रा ने चतुर्दश महास्वप्न देखे। समय आने पर माता भद्रा ने सुखपूर्वक इंद्र के समान पराक्रमी एक पुत्ररत्न को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया “मघव" | माता भद्रा ने पुत्र को धर्मसंस्कारों से सिंचित किया जिसके प्रभाव से चक्रवर्ती पुत्र मघव ने चारित्र अंगीकार कर मोक्ष प्राप्त किया। ___२.१८.५ सहदेवी५ :- भगवान् धर्मनाथ के शासन में हस्तिनापुर नगर में महाराजा अश्वसेन राज्य करते थे। उनकी गुणसंपन्ना
का नाम सहदेवी था जो चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार की महिमामयी मातेश्वरी थी।६ रानी ने सुखपूर्वक सोते हुए चौदह मंगलकारी शुभ स्वप्न देखे। गर्भ का समुचित रूप से पालन पोषण कर कालांतर में सुखपूर्वक तेजस्वी पुत्र रत्न सनत् कुमार को जन्म दिया। सर्व नेत्रों को हरण करने वाले आनन्द देने वाले आकर्षक देहयष्टि रूप पुत्र का जन्म माता के पुण्य का ही प्रभाव था।
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
२.१८.६ कनकश्री :- कनकश्री प्रतिवासुदेव दमितारि की पुत्री थी । वह परम सुंदरी एवं गुणवान् थी। शुभा नगरी के महाप्रतापी राजा अनन्तवीर्य 'वासुदेव' की पत्नी थी। केवल ज्ञानी मुनिराज से यह सुनकर कि धर्म में संदेह(शंका करने) तथा मोहोदय के कारण वह स्त्री बनी है, वह संसार से विरक्त हुई। उसने केवली भगवान् स्वयंभव स्वामी से दीक्षा अंगीकार की।८७ भवितव्यता अद्भुत है। प्रतिवासुदेव की पुत्री वासुदेव की पत्नी बनी थी।
२.१८.७ जयंतिप्प :- वाराणसी नगरी में महाराजा अग्नि सिंह राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम जयंति था जिनकी कक्षी से सातवें बलदेव नंदन का जन्म हुआ। माता ने चार शुभ स्वप्न देखें फल स्वरूप महापुण्यवान बालक उत्त्पन्न हुआ। सबके लिए यह बालक अत्यन्त रमणीय था जयंति के धर्मसंस्कारों का ही पुण्य प्रभाव था कि "बलदेव नन्दन" विपुल भोगों का परित्याग कर चारित्र अंगीकार कर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए।
२.१८.८ शेषवती :- वाराणसी नगरी के महाराजा अग्निसिंह की महारानी का नाम था "शेषवती" जिनकी कुक्षी से सातवें वासुदेव 'दत्त' का जन्म हुआ था। माता ने वासुदेव सूचक सात स्वप्न देखे, यथा समय पुत्र जन्म के पश्चात् नाम रखा गया दत्तकुमार। तेजस्वी सम्यक्त्वी यशस्वी वासुदेव जैसे पुत्र को पैदा करने का सौभाग्य किन्ही पुण्यवान माताओं को ही प्राप्त होता है।
२.१८.६ चुलनी२ :- कांपिल्य नगर के पांचालपति ब्रह्म की महारानी थी चुलनी। चुलनी ने किसी समय चक्रवर्ती जन्म के सूचक चौदह शुभ स्वप्न देखे । यथा समय महारानी ने तपाये हुए सोने के समान कांतिवाले परम तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया।३ इस सुन्दर तेजस्वी पुत्र का मुख देखते ही ब्रह्म में रमण (आत्मरमण) के समान परम आनंद की अनुभूति हुई, अतः बालक का नाम "ब्रह्मदत्त' रखा गया।
माताओं का ही पुण्य प्रभाव था जो शक्ति एवं समृद्धिशाली सोलहवें तीर्थंकर श्री शांतिनाथ जी सत्तरहवें तीर्थंकर श्री कुंथुनाथ जी तथा अठारहवें तीर्थंकर श्री अरहनाथ जी पैदा हुए। ये तीनों एक भव में ही चक्रवर्ती बनकर तीर्थंकर बने थे। इनकी माताओं का परिचय तीर्थंकर की माताओं के रुप में लिखा है। २.१६ सोलहवें तीर्थंकर श्री शांतिनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ :
२.१६.१ अचिरादेवी४ :- हस्तिनापुर के महाराजा विश्वसेन थे। उनकी महारानी अचिरादेवी ने सोलहवें तीर्थंकर तथा चक्रवर्ती पदवी धारी पुत्र श्री शांतिनाथ भगवान् को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त किया था।५ माता ने चतुर्दश स्वप्न देखे। कालांतर में एक पुत्ररत्न को जन्म दिया। श्री शांतिनाथ भगवान् के जन्म से पूर्व हस्तिनापुर में महामारी का भयंकर प्रकोप चल रहा था। प्रजा तथा राजा-रानी सभी चिंतित थे। माता अचिरादेवी के गर्भ में प्रभु के अवतरण से महामारी का भयंकर प्रकोप शांत हो गया। अतः नामकरण संस्कार के समय आपका नाम "शांतिनाथ' रखा गया । रोग दूर होने से चारों ओर शांति हो गई, खुशहाली छा गई। इस महिमामयी माता ने अपने पुत्र को त्यागमार्ग की ओर बढ़ाया, पुत्रवधुओं को सान्त्वना दी तथा उसने श्राविका व्रतों की आराधना की तथा देवलोक में उत्पन्न हुई।
२.१६.२ सत्यभामा :- श्री शांतिनाथ भगवान् के शासनकाल में मगध देश के अचलग्राम में "धरणीजट' ब्राह्मण एवं उनकी पत्नी यशोभद्रा निवास करते थे। उनके यहाँ "कपिला' नाम की दासी थी। उसके एक पुत्र था “कपिल । कपिल वेद वेदांगों का ज्ञाता था। उसकी विद्वत्तता से प्रभावित होकर रत्नपुर के महापंडित सत्यकी ने अपनी उत्तम गुणोंवाली सर्वांगसुंदरी पुत्री "सत्यभामा उसे प्रदान कर दी। एक बार किन्हीं कारणों से सत्यभामा ने जान लिया कि उसका पति नीच कुल का पैदा हुआ प्रतीत होता है। अपने ससुर धरणीजट से उसने सत्य बात का पता कर लिया तथा स्वयं महाराजा श्रीसेन से न्याय मांगने गई। राजा ने सत्यभामा को कपिल से मुक्त करने के लिए एक मार्ग निकाला वह यह था कि सत्यभामा महारानी के पास रहकर तपोमय जीवन व्यतीत करेगी। अंत में विषैले कमल को सूंघ कर वह मृत्यु को प्राप्त हो गई। ६७ सत्यभामा को एकाकी रहना पसंद था किंतु गुणहीन के साथ वह रहना पसंद नहीं करती थी।
२.१६.३ स्वयंप्रभा :- विद्याधर राजा ज्वलनजटिन की पुत्री थी स्वयंप्रभा तथा प्रथम वासुदेव त्रिपृष्ठ की महारानी थी। स्वयंप्रभा की माता का नाम वायुवेगा था । स्वयंप्रभा आकर्षक, मनोहर और परम संदरी थी। उसके सौंदर्य के आगे देवांगना का सौंदर्य
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
116
पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
भी फीका लगता था। ग्यारहवें तीर्थंकर श्री श्रेयांसनाथ भगवान् के शासनकाल में त्रिखण्डाधिपति वासुदेव एवं त्रिपृष्ठ को स्वयंप्रभा रूप हीरा ज्वलनजटिन ने समर्पित किया था।
स्वयं प्रभा का मनोहर चित्ताकर्षक रूप एवं पुण्यों का फल था कि वह त्रिपृष्ठ वासुदेव की महारानी बनी। उसके दो पुत्र पैदा हुए जिनके नाम थे "श्री विजय” और “विजय भद्र" और एक पुत्री थी ज्योतिप्रभा । ज्योतिप्रभा का विवाह अर्ककीर्ति के पुत्र अमिततेज से हुआ।०० कालांतर में स्वयंप्रभा प्रव्रजित हुई। स्वयंप्रभा जिन धर्मानुयायिनी श्राविका थी, सद्गुणों से मंडित थी।
२.१६.४ ज्योतिर्माला :- ज्योतिर्माला प्रभंकर नगरी के पराक्रमी महाराजा मेघवाहन की सुपुत्री थी। उसके भाई का नाम "विद्युतप्रभ था। ज्योतिर्माला देवकन्या सदृश अनन्य सौंदर्यशालिनी थी। १०१ रथनूपुर चक्रवाल नगर के राजा ज्वलनजटी के सुपुत्र वीर पराक्रमी युवराज अर्ककीर्ति के साथ उसका विवाह हुआ। युवराज अर्ककीर्ति एवं ज्योतिर्माला की कुक्षी से सुतारा नाम की कन्या पैदा हुई सुतारा का विवाह स्वयं प्रभा के पुत्र श्री विजय के साथ हुआ था ०२ ज्योतिर्माला स्वयं धर्म संस्कारों से ओत प्रोत थी उसने अपने पुत्र अमिततेज को भी धर्म संस्कारों से सिंचित किया था।
२.१६.५ सुमति :- "सुमति' बलदेव श्री अपराजित जी की पुत्री थी। वह बचपन से ही धर्मरसिक थी। वह जीवादि तत्वों की ज्ञाता थी, वह विविध प्रकार के तप तथा व्रत भी करती रहती थी। एक बार उपवास के पारणे में सुपात्रदान की भावना से द्वार की ओर उसने देखा। सुयोग से तपस्वी मुनिराज का घर में प्रवेश हुआ। चित्त, वित्त और पात्र की शुद्धता से वहाँ पाँच दिव्य की वृष्टि हुई। बलदेव और वासुदेव ने वहाँ पहुँचकर सुपात्रदान की अद्भुत महिमा का प्रत्यक्ष फल देखा। उनके मन में राजकुमारी सुमति के प्रति आदर का भाव पैदा हुआ। सुमति के सुयोग्य वर प्राप्ति के लिए उन्होंने स्वयंवर का आयोजन किया। वरमाला हाथ में लेकर वह आगे बढ़ रही थी, कि अचानक उस सभा के मध्य में एक देवविमान आया, उसमें से एक देवी निकली सिंहासन पर बैठी और उसने राजकुमारी को प्रतिबोध दिया। उसे जातिस्मरण ज्ञान प्रकट हुआ, और वह मूर्छित होगई। सावधान होने पर उसने दीक्षा लेने की आज्ञा मांगी। दीक्षा लेकर कालांतर में मुक्त हुई।१०३ सुमति ने पूर्वभव के शुभ संस्कारों की परंपरा के परिणाम स्वरुप वर्तमान जीवन को भी धर्ममय बनाकर सफल बनाया। धर्म प्रभावाना में इनका महत्वपूर्ण योगदान है।
२.१६.६ श्रीकांता :- भगवान शांतिनाथ के शासन में कौशांबी नगरी के राजा बल की पुत्री थी श्रीकांता । युवावस्था में पदार्पण होने पर योग्य वर की इच्छा से पिता ने स्वयंवर की रचना की थी।१०४ इससे आगे का कोई विवरण श्रीकांता के विषय में उपलब्ध नहीं होता है।
२.१६.७ अनन्तमति :- अनन्तमति एक गणिका थी, जिसकी अनुपम सुंदरता से आकर्षित होकर श्रीसेन के पुत्र इंद्रसेन एवं बिंदुसेन दोनों भाइयों ने आपस में युद्ध छेड़ दिया। एक विद्याधर ने उन दोनों के सामने अनंतमति के पूर्वभव का रहस्य प्रकट किया। अनंतमति पूर्वभव में साध्वी थी।१०५ विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होता।
२.१६.८ कनक श्री :- कनक श्री पुष्करवर द्वीप की सलिलावती विजय में वीतशोका नगरी के राजा रत्नध्वज की रानी थी। कनकश्री की दो पुत्रियां थी, जिनका नाम कनकलता और 'पद्मलता था।१०६ विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होता।
२.१६.६ हेमामालिनी :- यह भी पुष्करवर द्वीप की सलिलावती विजय में वीतशोका नगरी के राजा रत्नध्वज की रानी थी। हेमामालिनी की एक कन्या थी, जिसका नाम 'पद्मा" था। विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होता।
२.१६.१० अभिनंदिता :- भरतक्षेत्र में रत्नपुर नगरी के राजा श्रीसेन की रानी थी। उनके दो पुत्र थे इंदुसेन और बिंदुसेन. विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होता |
२.१६.११ शिखानंदिता :- भरतक्षेत्र में रत्नपुर नगरी के राजा श्रीसेन की रानी थी। विशेष विवरण अनुपलब्ध है।
२.१६.१२ यशोभद्रा :- मगधदेश के अचल ग्राम में धरणीजट ब्राह्मण की पत्नी थी। उसके शिवभूति और नंदीभूति नाम के दो पुत्र थे।१० विशेष विवरण अनुपलब्ध है।
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
117
२.१६.१३ मदनमंजरी :- वह एक गणिका थी, उसे प्राप्त करने के लिए दो राजकुमार लड़ रहे थे।११ विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होता।
२.१६.१४ वसुंधरा :- जंबूद्वीप के विदेह क्षेत्र की शुभा नगरी के राजा स्तिमित सागर की रानी थी। उसके पुत्र का नाम अपराजित था।२ विशेष विवरण अनुपलब्ध है।
२.१६.१५ अनंगसेना (अनुहारा) :- जंबूद्वीप के विदेह क्षेत्र की शुभा नगरी के राजा स्तिमितसागर की रानी थी। इसने वासुदेव के योग्य सात महास्वप्न देखे और वासुदेव अनंतवीर्य को जन्म दिया।१३ विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होता।
२.१६.१६ बर्बरिका और किराती :- ये दोनों ही वासुदेव अनंतवीर्य के राज्य की गणिकाएँ थी। इनको पाने के लिए वैताढ्य पर्वत के राजा दमितारि ने वासुदेव अनंतवीर्य से युद्ध किया, विशेष विवरण अनुपलब्ध है। १४
२.१६.१७ कनक श्री :- वैताद्य पर्वत के राजा दमितारि की पुत्री थी। पिता की इच्छा के विरूद्ध वासुदेव अनंतवीर्य के साथ पलायन कर गई। दमितारि और अनंतवीर्य में युद्ध हुआ। अनंतवीर्य दमितारि को हराकर वासुदेव हुआ।१५
२.१६.१८ श्रीदत्ता :- धातकीखंड द्वीप के पूर्व भरत में शंखपुर नगरी थी। वहाँ पर श्रीदत्ता नामक एक दरिद्र स्त्री रहती थी। एक बार उसने तपोधनी संत सत्ययश का उपदेश श्रवण किया। उन्होंने धर्मचक्र तप करने हेतु मार्गदर्शन किया। अपने स्थान पर आकर उसने धर्मचक्रतप की आराधना की। पारणे में उसे स्वादिष्ट भोजन मिला, धनवानों के घर में सरल काम तथा अधिक पारिश्रमिक तथा पारितोषिक भी मिलने लगा। श्रीदत्ता ने थोड़े ही दिनों में कुछ द्रव्य भी संचय कर लिया। अब वह प्रसन्न मन से दानादि भी करने लगी। एक बार वायु के प्रकोप से उसके घर की दीवार का कुछ भाग गिर गया और उसमें से धन निकल आया। उसकी प्रसन्नता का पार नहीं रहा। अब वह विशेष रूप से दानादि सुकृत्य करने लगी। एक बार तपस्या के अंतिम दिन वह सुपात्र दान के लिए किसी उत्तम पात्र की प्रतीक्षा करने लगी। अचानक सुव्रत अणगार को देखा। मासखमण तपधारी मुनिराज को श्रीदत्ता ने भक्तिपूर्वक आहार दान देकर सुपात्रदान का लाभ लिया। उपाश्रय में जाकर श्रीदत्ता ने मुनिराज से धर्मोपदेश श्रवण किया। श्रीदत्ता ने सम्यक्त्व पूर्वक व्रत धारण किया और आराधना करने लगी। उदयभाव की विचित्रता से एक बार उसके मन में धर्म के फल में संदेह उत्पन्न हुआ। एक दिन वह सुयश मुनिराज को वंदन करने गई। वहाँ विमान द्वारा आए दो विद्याधरों के अद्भुत रूप को देखकर मोहित हुई और बिना शुद्धि किये ही आयुष्यपूर्ण कर मर गई।११६ श्रीदत्ता ने श्राविका व्रतों की आराधना की तथा धर्म की आराधना से जन्मी हुई श्रद्धा में गहरी अभिवद्धि की।
२.१६.१६ रत्नमाला :- जंबूद्वीप के पूर्व महाविदेह में मंगलावती विजय में रत्नसंचया नगरी के क्षेमंकर राजा की रानी थी। किसी समय महारानी ने चौदह महास्वप्न और पंद्रहवाँ वज देखा। वज्र देखने से पुत्र का नाम “वज्रायुध रखा । विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होता।
२.१६.२० लक्ष्मीवती :- वजायुध की पत्नी थी, उसके पुत्र का नाम “सहस्त्रायुध था। विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होता।
२.१६.२१ कनकश्री :- सहस्त्रायुध की रानी थी। उसने महाबली पुत्र “शतबल' को जन्म दिया। विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होता।
२.१६.२२ सुकान्ता :-शुक्लनगर के शुक्लनरेश के पुत्र पवनवेग की रानी थी और दीपचूल नरेश की पुत्री थी। इसकी पुत्री शांतिमति थी।२० विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होता।
२.१६.२३ शांतिमति :- शुक्लनगर राजा पवनवेग एवं रानी सुकान्ता की पुत्री थी। इसने मणिसागर पर्वत पर भगवती प्रज्ञप्ति नाम की विद्या सिद्ध की थी।१२१
२.१६.२४ प्रभंकरा :- जंबूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र के विंध्यपुर नगर में धर्ममित्र सार्थवाह के दत्त नामक पुत्र की पत्नी थी। कालांतर में राजकुमार नलिनकेतु ने प्रभंकरा के रूप से आकर्षित होकर उसका अपहरण किया और अपनी रानी बनाया। सरल एवं भद्र स्वभाव वाली रानी प्रभंकरा ने प्रवर्तिनी सती सुव्रता के पास चंद्रायण तप किया।१२२
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
118
२.१६.२५ सुलक्षणा :- जंबूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में विंध्यपुर नगर के विध्यदत्त राजा की रानी थी। उसने नलिनकेतु नामक पुत्र को जन्म दिया । १२३ विशेष विवरण अनुपलब्ध है।
पौराणिक / प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
२.१६.२६ जयना :- चक्रवर्ती सम्राट् सहस्त्रायुध की रानी थी। उसने एक बार गर्भवती होने पर स्वप्न में प्रकाशमान स्वर्णशक्ति देखी । पुत्र का जन्म होने पर "कनकशक्ति" नाम रखा गया । १२४ विशेष विवरण अनुपलब्ध है।
२.१६.२७ कनकमाला : कनकशक्ति की रानी थी । १२५ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता ।
२.१६.२८ बसंतसेना :- श्रीसार नगर के राजा अजितसेन तथा रानी प्रियसेना की पुत्री थी। पिता ने उसके अनुरूप वर न मिलने पर कनकशक्ति के साथ उसका विवाह कर दिया । १२६ वह वनमाला की प्रियसखी भी थी। विशेष विवरण अनुपलब्ध है।
२. १६.२६ प्रियमती :- जंबूद्वीप के पूर्व महाविदेह में पुष्कलावती विजय की नगरी पुण्डरीकिनी के राजा धनरथ की रानी थी। एक बार रानी ने स्वप्नावस्था में गर्जन करता, बरसता, विद्युत प्रकाश फैलाता हुआ एक मेघखण्ड अपने मुँह में प्रवेश करते हुए देखा । स्वप्न के फलस्वरूप यथासमय प्रियमती ने मेघरथ नामक पुत्र को जन्म दिया । १२७ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता ।
२.१६.३० मनोरमा :- जंबूद्वीप के पूर्वमहाविदेह में पुष्कलावती विजय की पुंडरिकीनी नगरी के राजा धनरथ की रानी थी। एक बार महारानी ने एक ध्वजा पताका से युक्त सुसज्जित रथ अपने मुँह में प्रवेश करता हुआ देखा। तथा कालांतर में यथा समय दृढ़त नामक पुत्र को जन्म दिया ।२८ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता ।
२.१६.३१ प्रियमित्रा, मनोरमा :- सुमंदिरपुर के महाराजा निहतशत्रु की पुत्रियाँ थी । राजा धनरथ के पुत्र मेघरथ के साथ इन दोनों का विवाह संपन्न हुआ । प्रियमित्रा दृढधर्मी थी। उसने समय समय पर मेघरथ राजा से पुण्य और पाप फल के विपाक प्राणी को किस तरह प्राप्त होते हैं इसकी चर्चा की। १३० इससे उसकी धार्मिक रूचि स्पष्ट झलकती है।
T
२.१६.३२ सुमति :- महाराजा निहतशत्रु की पुत्री थी, राजा दृढ़रथ से विवाह हुआ था । १३१ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता । २.१६.३३ सुरसेना :- वह एक गणिका थी। एक बार महाराजा धनरथ के दरबार में वह एक कर्कुट (मुर्गा) लेकर आई। उसके मुर्गे के साथ युवराज्ञी मनोरमा के मुर्गे को लड़ाया गया । १३२ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता । .
२.१६.३४ स्वर्णतिलका :- धातकी खंड के पूर्व ऐरावत क्षेत्र में वज्रपुर नगर था। वहाँ अभय घोष नाम का दयालु राजा था । उसकी रानी का नाम स्वर्णतिलका था। उसके दो पुत्र थे जिनका नाम विजय और वैजयन्त था । १३३ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता ।
२.१६.३५ पृथ्वीना :- वह स्वर्णद्रुम नगर के शंखराजा की पुत्री थी, उसका विवाह महाराजा अभयघोष के साथ हुआ था। वह बड़ी ही रूपवती एवं गुणवती भी थी, वह धर्मपरायणा श्राविका थी। एक बार एक तपस्वी ज्ञानी मुनिराज को देखकर उसने भक्तिपूर्वक वंदन किया, धर्मोपदेश सुना, संसार से विरक्त होकर दीक्षा धारण की । १३४ मुनि पर श्रद्धा और उनके उपदेश से पृथ्वीसेना ने अपना जीवन सफल बना लिया।
२.१६.३६ वज्रमालिनी :- जंबूद्वीप के पूर्व महाविदेह में पुष्कलावती विजय की पुंडरिकिनी नगरी के महाराजा हेमांगद की रानी थी। उसने तीर्थंकर पुत्र जन्म के योग्य चौदह महास्वप्न देखे तथा "धनरथ' नामक तीर्थंकर पुत्र को जन्म दिया । १३५ इस पुण्यशालिनी माता ने अपने पुत्र की अनासक्ति को देखते हुए उन्हें त्याग मार्ग पर बढ़ाया और अपना जीवन सफल किया ।
२.१६.३७ मानसंवेगा :- वैताढ्य पर्वत की उत्तर श्रेणी में अलका नाम की नगरी के विद्याधरपति विद्युद्रथ की रानी थी ।१३६ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता ।
२.१६.३८ वेगवती :- वह विद्याधर विद्युद्रथ के पुत्र पराक्रमी सिंहरथ की पत्नी थी । १३७ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता ।
२.१६.३६ शंखिका :- पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व भरत क्षेत्र के संघपुर नाम के बड़े नगर में राज्यगुप्त नामक गरीब कुलपुत्र की पत्नी थी। एक बार मुनि सर्वगुप्तजी से उपदेश सुनकर दरिद्रता निवारण हेतु उन्होंने उपाय पूछा। मुनि ने उन्हे सम्यक् तप का स्वरूप समझाया। दोनों ने तप प्रारंभ किया। पारणे वाले दिन मुनिवर धृतिधरजी को भक्तिपूर्वक आहार दान देकर लाभ लिया। मुनि सर्वगुप्तजी के पुनरागमन पर धर्मोपदेश सुनकर वह दीक्षित हुई। गुरु भक्ति से शंखिका ने अपने आत्मद्वीप को प्रज्वलित किया । तप भक्ति व सेवा का लाभ लिया।
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
२.१६.४० केसरा :- वह जयंति नगरी के जयंतदेव की बहन थी। वसंतदेव नामक व्यापारी के साथ केसरा का विवाह हुआ । १६ विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होता ।
119
२. १६.४१ मदिरा :- मदिरा शंखपुर की निवासिनी थी, वह वणिक् कन्या थी। जयंति नगरी की केसरा की मामा की लड़की थी । कृतिकापुर के कामपाल व्यापारी की वह पत्नी थी। १४० विशेष योगदान उपलब्ध नहीं होता ।
२.२० सत्तरहवें तीर्थंकर श्री कुंथुनाथ जी से संबंधित श्राविका
२.२०.१ श्रीदेवी १४१ हस्तिनापुर के महाराजा वसु की महारानी श्रीदेवी ने सर्वोत्कृष्ट महापुरूष के जन्मसूचक चौदह कल्याणकारी महास्वप्न देखें तथा यथासमय सुखपूर्वक चक्रवर्ती एवं तीर्थंकर पदधारी पुत्ररत्न को जन्म दिया | १४२ प्रभु के गर्भ में आने के बाद माता श्रीदेवी ने स्वप्न में रत्नमय विशाल स्तूप को देखा व कुंथु नाम के रत्नों की राशि देखी अतः बालक का नाम "कुंथुनाथ" रखा गया। श्री देवी ने अपने पुत्र के त्याग में सहयोगी बनकर उन्हे संयम मार्ग पर अरूढ़ किया तथा पुत्र वधुओं को सान्त्वना दी । अन्त में स्वयं भी संयमी जीवन अंगीकार किया ।
२. २१ अठारहवें तीर्थंकर श्री अरनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ :
२.२१.१ महादेवी १४३ :- हस्तिनापुर के महाराजा सुदर्शन की रानी महादेवी की कुक्षी से चक्रवर्ती एवं तीर्थंकर पुत्र भगवान अरनाथ का जन्म हुआ ।१४४ माता ने चौदह स्वप्न देखे तथा यथासमय पुत्र का जन्म हुआ। चूँकि जब बालक गर्भकाल में था, तब माता ने बहुमूल्य रत्नमय चक्र के अर को देखा इसलिए बालक का नाम "अरनाथ" रखा गया ४५ । निराभिमानी माता ने अपने पुत्र की इच्छा के अनुरुप उसे त्याग मार्ग पर बढ़ाया, पारिवारिक जिम्मेदारी संभाली, अंत में धर्म-ध्यानपूर्वक जीवन व्यतीत किया ।
२.२१.२ वैजयन्ती४६ :- अठारहवें तीर्थंकर भगवान् अरनाथ श्री के शासन में चक्रपुर नामक नगर में महेश्वर नामक परमप्रतापी राजा राज्य करते थे। उनकी महारानी थी वैजयंती महारानी वैजयंती की कुक्षी से छठे बलदेव आनंद का जन्म हुआ था । १४७
२.२१.३ लक्ष्मीवती ४८ :- चक्रपुर नगर के महाराजा महेश्वर की महारानी का नाम लक्ष्मीवती था जो छठें वासुदेव "पुरूष पुण्डरीक" की माता थी ।१४६ पुरूषों में पुण्डरीक कमल के समान सुलक्षण संपन्न होने से पुत्र का नाम 'पुरूष पुण्डरीक' रखा गया । इस महिमामयी धर्मपरायणा सन्नारी के सुसंस्कारों के फलस्वरुप ही वासुदेव पुत्र ने भगवान् अरनाथ के चरणों में सम्यक्त्व को प्राप्त किया तथा धर्म प्रभावना में अपना सहयोग प्रदान किया ।
२. २१.४ प्रियदर्शना :- 'पद्मिनीखंड' नामक नगर के निवासी सेठ सागरदत्त की पुत्री थी। रूप, यौवन, कला और चतुराई में वह परम कुशल थी । उसका विवाह ताम्रलिप्ति नगरी के सेठ ऋषभदत्त के पुत्र वीरभद्र के साथ हुआ था । वीरभ्रद ने अपनी कला और निपुणता का उपयोग करने के लिए विदेश जाने का निर्णय किया। एक बार प्रियदर्शना को सुखपूर्वक सोती हुई छोड़कर वीरभद्र चला गया। प्रियदर्शना प्रवर्तिनी महासती सुव्रताजी के पास जाकर धर्म ध्यानपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने लगी। वामन वेषधारी पति वीरभद्र द्वारा में उसके साथ बीती घटना का वर्णन करने पर उसने पति को पहचान लिया ।१५० प्रियदर्शना की प्रेरक घटना से यह शिक्षा प्राप्त होती है कि दुःख के समय धर्म ध्यान पूर्वक समय व्यतीत करने से समय सुख शांति पूर्वक व्यतीत होता है । उसकी धर्मनिष्ठा सभी श्राविकाओं के लिए प्रेरणाप्रद है ।
२.२१.५ अनंगसुदरी :- रत्नपुर नगर के राजा रत्नाकर की पुत्री का नाम अनंग सुंदरी था। अनंगसुंदरी के पास उसी नगर के सेठ शंख की पुत्री विनयवती सखी भाव से जाती रहती थी। वीरभद्र विनयवती का धर्म भाई था । वीरभद्र ने स्त्रीवेश में राजकुमारी अनंगसुंदरी को चित्र एवं संगीत कला से प्रभावित किया। अनंगसुंदरी ने स्त्रीवेशधारी वीरभद्र (वीरमती) को सदा के लिए साथ रखने की बात कही। वीरभद्र ने अपना असली पुरूष रूप प्रकट किया। राजा रत्नाकर ने भी वीरभद्र को अनंगसुंदरी के योग्य वर जानकर उन दोनों का विवाह संपन्न किया। वीरभद्र ने पत्नी सहित घर आने हेतु समुद्र यात्रा प्रारंभ की। समुद्र मार्ग से चलते हुए महावायु के प्रकोप से वाहन टूट गया । अनंगसुंदरी के हाथ में जहाज का टूटा हुआ पटिया आ गया। वह पटिया के सहारे तैरते हुए किनारे लग गई। भूखी प्यासी मूर्च्छित अवस्था में किनारे पर पड़ी थी। तापस कुमारों ने उसकी बेहोशी दूर की तथा कुलपति ने उसे
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
120
"पद्मिनीखंड” नगर भिजवाया। नगर के बाहर ही उसने साध्वियों को देखा। उनके साथ ही वह उपाश्रय में पहुँची। प्रियदर्शना तथा साध्वी सुव्रता को उसने सारा समाचार सुनाया । स्वयं भी उनके साथ मिलकर धर्मध्यान पूर्वक समय व्यतीत करने लगी । वामन रूपधारी पति वीरभद्र से उसके जीवन में बीती घटना को सुनकर उसने पति को पहचान लिया । ५१ अनंगसुंदरी ने एकाकी धैर्यपूर्वक दुःख का समय व्यतीत किया, तथा धर्म ध्यान में अपने अमूल्य क्षणों को सार्थक किया, शील धर्म का पालन किया ।
पौराणिक / प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
२.२१.६ रत्नप्रभा :- रत्नप्रभा रति वल्लभ नामक विद्याधर की इकलौती संतान थी । वीरभद्र को "आभोगिनी" विद्या से विद्याधर ने उसकी पूर्व की दोनों पत्नियों का समाचार सुनाया। वीरभद्र को अपनी पुत्री रत्नप्रभा के योग्य जानकर विद्याधर ने उन दोनों का विवाह किया। कुछ समय बाद वे दोनों पद्मिनीखंड नगर आए । रत्नप्रभा को उपाश्रय से बाहर बिठाकर बोला मै अभी देहचिंता से मुक्त होकर आता हूँ, तुम यहीं बैठना । बहुत प्रतीक्षा के बाद भी जब वीरभद्र नहीं लौटा तो रत्न प्रभा रोने लगी। एक साध्वी आवाज सुनकर बाहर आई तथा उसे अंदर ले गई तीनों हिलमिलकर रहने लगी। वीरभद्र ने वामन का रूप बनाया तथा प्रतिदिन उपाश्रय में आकर तीनों पत्नियों को देखकर प्रसन्न होता था । वामन वेषधारी वीरभद्र ने अपनी कला से सब नगर वासियों को संतुष्ट किया । उसने सुना कि उपाश्रय में तीन सुंदर युवतियाँ पवित्र हैं, किसी पुरूष से नहीं बोलती । यदि कोई उनसे बोले तब भी वे पुरुष से नहीं बोलती । तब वीरभद्र ने कहा मैं उनमें से एक एक को अपने से बोला सकता हूँ। वीरभद्र द्वारा पूर्व बीती बातें सुनाने पर रत्नप्रभा ने पति को पहचान लिया ।१५२ रत्नप्रभा ने प्रेमपूर्वक धर्म ध्यान में अपना चित्त जोड़कर सुखशांति पूर्वक दुःख के समय को व्यतीत किया। शीलधर्म पर दृढ़ रही धर्मश्रद्धा में दृढ़ रही, यही उसकी परम धैर्यता थी।
२.२१.७ पद्मश्री :- आठवें सुभूम चक्रवर्ती की रानी थी । ५३ विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होता ।
२.२१.८ पद्मावती :- वह राजेन्द्रपुर के राजा उपेंद्रसेन की अनुपम सुंदरी कन्या थी ।५४ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता ।
२.२१.६ रेणुका : ऋषि जमदाग्नि की पत्नी थी। वह राजा जितशत्रु की सौ पुत्रियों में से एक थी । ५५ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता। भगवान् अरनाथ जी के शासन में 'दत्त' नामक सातवाँ वासुदेव तथा 'नंदन' बलदेव और प्रहलाद प्रतिवासुदेव हुआ था। उनकी भी धर्मपत्नियाँ थी किंतु विवरण अनुपलब्ध है।
२.२१.१० तारा*५६ :- आठवें चक्रवर्ती सुभूम की माता थी, जो हस्तिनापुर के महाराजा कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन की रानी थी । ५७ जमदग्नि ऋषि का वध कार्तवीर्य ने किया, अतः ऋषिपुत्र परशुराम ने कार्तवीर्य को मार डाला । क्रोधाग्नि शांत न होने से परशुराम
सात बार पृथ्वी को निःशस्त्र किया। उस समय कार्तवीर्य की रानी तारा गर्भवती थी । अतः वह हस्तिनापुर से गुप्तरूप से पलायन कर अन्य तापस आश्रम में तलघर (भूमिगृह) में रहने लगी। गर्भ काल पूर्ण होने पर तारा ने ऐसे पुत्र को जन्म दिया जिसके मुख में जन्म ग्रहण करने के समय ही दाढ़े और दांत थे । तारा का वह पुत्र माता की कुक्षी से बाहर निकलते ही भूमितल को अपनी दाढ़ों में पकड़कर खड़ा हो गया, अतः उसका नाम सुभूम रखा गया। उस तलघर में ही सुभूम का लालन पालन माता ने किया वहीं क्रमशः वह बड़ा हुआ ।
२.२२ उन्नीसवें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ :
२.२२.१ प्रभावती :- मिथिला नगरी के कुम्भ महाराजा की महिमामयी महारानी प्रभावती ने एक बार सुप्तावस्था में चौदह शुभ स्वप्न देखे । यथा समय पुत्री रत्न को जन्म देने वाली माता बनी। १५६ एक बार जब पुत्री गर्भ में थी तब माता को दोहद पैदा हुआ कि मैं छः ऋतुओं के फूलों की सुकोमल स्पर्श वाली शय्या पर बैठूं तथा शयन करूं । वाणव्यंतर देवों को इसका ज्ञान होते ही माता की इच्छा के अनुरूप उन्होंने सभी भांति के सुविकसित सुगंधित पुष्पों की शय्या तैयार की तथा एक अद्भुत अलौकिक गुलदस्ता महारानी के सन्मुख प्रस्तुत कर दिया तथा दोहद की पूर्ति की थी । महारानी हर्षित प्रफुल्लित हुई । यथा समय संतान को जन्म दिया। क्योंकि माता को दामगण्ड तथा पांच वर्णों के पुष्पों का दोहद पैदा हुआ था, अतः महाराजा कुम्भ ने पुत्री का नाम " मल्लि" रखा। मल्ली कुमारी ने श्राविका जीवन में ही अपने पूर्व जन्मों के छः मित्रों को प्रतिबोध दिया। पूर्व जन्म के तप के प्रभाव से, तीर्थंकर गोत्र नाम कर्म के उदय से, तथा माता प्रभावती जी से मिले शुभ संस्कारों के ही कारण तीर्थंकर पद प्राप्त कर जिन शासन को दीपाया था ।
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
२.२२.२ कमल श्री आदि पांच सौ राजकुमारियाँ :- जंबूद्वीप के महाविदेह में सलिलावती विजय में वीतशोका नगरी के राजा बल के पुत्र राजकुमार महाबल की रानियां थी ।१६० विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता ।
121
२.२२.३ धारिणी :- वीतशोका नगरी के राजा बल की रानी थी। उसके पुत्र का नाम महाबल था । १६१ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता ।
२.२२.४ पद्मावती :- कौशल देश के साकेतपुर नगर के महाराजा प्रतिबुद्धि थे। उनकी रानी का नाम पद्मावती था, महारानी पद्मावती ने नागदेव उत्सव में भाग लिया था । १६२ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता ।
२.२३ २०वें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी जी से संबंधित श्राविकाएँ :
१६४ थी ।
२.२३.१ अपराजिता :- (कौशल्या) १६३ अपराजिता दर्भस्थलनगर के राजा सुकौशल और रानी अमतप्रभा की पुत्री ' अयोध्या नगरी के महाराजा दशरथ की पटरानी तथा आठवें बलदेव "पद्मरथ" अर्थात् मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम की महिमामयी माता थी*६५। जिसने पद्मरथ (राम) के गर्भ में आगमन पर बलदेव के जन्म सूचक चार महास्वप्न देखे थे । कौशल्या का जीवन भारतीय आदर्श नारी का था। वह लज्जा, शील, समता और वात्सल्य की प्रतिमूर्ति थी । पुत्र राम के राज्याभिषेक के स्थान पर I वनगमन के आदेश जैसी विपरीत परिस्थिति में भी न तो उसने कैकेयी के प्रति कषाय किया और न ही पति दशरथ के आदेश पर उन्हें कटु शब्दों का उलाहना दिया । संकट की कठोर घड़ियों में उसने क्षमा, विनय और विवेक को धारण किया तथा पति की विश्वास पात्र रही। तभी तो सोलह महान सतियों की श्रेणी में आदरणीय स्थान पाया, पुत्र विरह को अपूर्व धैर्यता के साथ सहन किया । १६६
२.२३.२ पद्मावती'६७ :- भरतक्षेत्र की राजगृही नगरी के राजा सुमित्र की रानी का नाम पद्मावती था, १६ वह रूपवती एवं गुणवती थी। एक बार तीर्थंकर योग्य चौदह शुभ स्वप्न देखकर उसने एक बालक को जन्म दिया। जब पुत्र गर्भ में था तब इस महिमामयी माता ने मुनियों की भांति व्रतों का सम्यक् पालन किया था । अतः बालक का नाम मुनिसुव्रत रखा गया । पुत्र को त्याग के पथ पर अग्रसर किया तथा इस धर्ममयी माता ने स्वयं भी अंत में धर्मसाधनामय जीवन व्यतीत किया ।
२.२३.३ ज्वाला१६९ :- भगवान् ऋषभदेव की वंश परंपरा में हस्तिनापुर के राजा पद्मोत्तर की पटरानी थी* यथा समय उसने चौदह स्वप्न देखकर चक्रवर्ती पुत्र को जन्म दिया । उसका नाम रखा गया महापद्म । ज्वाला के दूसरे पुत्र का नाम विष्णु कुमार था। इस महिमामयी नारी ने सुसंस्कारों से पुत्रों को सिंचित किया और अपने पुत्र को त्याग के पथ पर आगे बढ़ाया, विष्णु कुमार लब्धिसंपन्न महामुनि हुए थे जिन्होंने संतों को नमुचि के प्रकोप से बचाया था ।
२.२३.४ अनंगकुसुम :- अनंगकुसुम खर तथा चंद्रनखा की पुत्री शंबूक कुमार की बहन, तथा हनुमान की पत्नी थी, पिता खर की मृत्यु के समाचार सुनकर वह मूर्च्छित हुई। परिजनों व पंडितों द्वारा समझाने पर वह आश्वस्त हुई। इसमें उसका पितृप्रेम एवं धर्मपरायणता स्पष्ट झलकती है। १७१
२.२३.५ पुष्परागा :- पुष्परागा सुग्रीव की पुत्री, अंगद की बहन तथा हनुमान की पत्नी थी। अपने पिता सुग्रीव की सुरक्षा राम और लक्ष्मण का सहयोग जानकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। तथा राम एवं लक्ष्मण के प्रति उसे सात्विक गर्व तथा आदर भाव पैदा हुआ।१७२
२.२३.६ लंकासुंदरी • लंकासुन्दरी वज्रायुध की पुत्री थी। हनुमान की पत्नी थी। लंका प्रवेश पर आसाली विद्या को परास्त कर हनुमान ने वज्रायुध को मार गिराया। लंकासुंदरी ने क्रुद्ध होकर हनुमान के साथ वीरता पूर्वक युद्ध किया, अंत में लंका सुंदरी हनुमान से पराजित हुई । हनुमान के पराक्रम से प्रभावित हुई और दोनों का परस्पर विवाह संपन्न हुआ 1993
२.२३.७ अचिरा :- अचिरा लंका सुंदरी की सखी थी। युद्ध में लंकासुंदरी की सारथी बनकर उसने युद्ध की प्रेरणा लंकासुंदरी में भरी । १७४
२.२३.८ तडिन्माला :- कुम्भपुर के राजा महोदर तथा रानी सुरूपनयना की पुत्री थी, तथा कुंभकर्ण की पत्नी थी । १५
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
122
पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
२.२३.६ इंदुमालिनी : इंदुमालिनी कपिराज आदित्यराज की पत्नी थी। उसके बाली एवं सुग्रीव नाम के दो पुत्र तथा सुप्रभा नाम की पुत्री थी।७६
२.२३.१० अनुराधा :- अनुराधा चंद्रोदय की पत्नी थी, उसके पुत्र का नाम विराध था।७७ २.२३.११ कनकप्रभा :- कनकप्रभा मारूत् राजा की पुत्री तथा रावण की पत्नी थी।७८ २.२३.१२ माधवी :- माधवी हरिवाहन की पत्नी थी। उसके पुत्र का नाम मधु था।७६ २.२३.१३ मनोरमा :- मनोरमा रावण की पुत्री तथा मधु की पत्नी थी।१८० २.२३.१४ इंद्राणी :- इंद्राणी पाताल लंका के राजा सुकेश की रानी थी। माली, सुमाली और माल्यवान् की माता थी।८१
२.२३.१५ तारा :- तारा ज्वलन सिंह की पुत्री तथा राजा सुग्रीव की पत्नी थी। संकट के समय उसने पातिव्रत्य निभाया। बाली के पुत्र चंद्रकिरण के सान्निध्य में रहकर उसने धैर्यतापूर्वक संकट को पार किया।१८२
२.२३.१६ हरिकांता :- हरिकांता ऋक्षराज की पत्नी थी, वह नल और नील की माता थी।१८३ २.२३.१७ श्रीप्रभा :- श्रीप्रभा सुग्रीव की बहन, तथा रावण की पत्नी थी।८४
२.२३.१८ विदग्धादेवी :- विदग्धा देवी विभीषण की पत्नी थी, विदग्धादेवी ने एक हजार सुंदरियों के साथ, दही, दूब, जल और अक्षत हाथ में लेकर मंगल गीत और बधाईयाँ गा कर अपने द्वार पर पधारे राम-लक्ष्मण का अभिनन्दन एवं स्वागत सत्कार किया था ।१८५
२.२३.१६ उपरम्भा :- उपरम्भा कामध्वज और सुंदरी की कन्या थी। नलकूबेर की पत्नी थी। रावण को उसने आसाली नामक विद्या सिखाई तथा पुनः पतिगृह लौट आई। १८६
२.२३.२० हेमवती :- हेमवती सुरसंगति नगरी के राजा मय की रानी थी, मंदोदरी तथा सुमाली की माता थी।१८७ २.२३.२१ सर्वश्री :- मेघरथ पर्वत की सुंदरी सर्वश्री रावण की पत्नी थी।१८८ २.२३.२२ पद्मावती :- पद्मावती सर्वसुंदर की कन्या थी, तथा रावण की पत्नी थी।६ २.२३.२३ विद्युतप्रभा :- विद्युतप्रभा संध्या एवं कनक की कन्या थी, रावण की पत्नी थी।६०
२.२३.२४ प्रीतिमती :- प्रीतिमती कौतुक मंगल नगर के राजा व्योमबिंदु की पुत्री तथा सुमाली की पुत्रवधू थी, तथा उसके पुत्र रत्नश्रवा की पत्नी थी।१६१
२.२३.२५ कौशिका :- कौशिका कौतुक मंगल नगर के राजा व्योमबिंदु की पुत्री तथा यक्षपुर के वैश्रवा की पत्नी थी तथा वैश्रवण की माता थी।१६२
२.२३.२६ अशोकलता :- अशोकलता मदनवेगा और बुध की कन्या थी तथा रावण की पत्नी थी।९३
२.२३.२७ चंद्रलेखा, विद्युतप्रभा, तरंगमाला :- ये तीनों राजा दधिमुख तथा तरंगमती की पुत्रियाँ थी। इन तीनों के वर के विषय में मुनि कल्याण मुक्ति ने कहा था कि विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी के राजा सहस्त्रगति को पराजित करने वाले वीर इनके पति होंगे। हनुमान से उन्हें सूचना मिली कि सहस्त्रगति को पराजित करने वाले श्री राम हैं। तब राजा दधिमुख ने किष्किंधा नगर में विराजमान श्रीराम को अपनी तीनों पुत्रियाँ अर्पित कर दी। इन तीनों पुत्रियों ने मंत्र तथा विद्या की साधना की थी। १६४
२.२३.२८ कैकसी :- कैकसी राजा सुमाली के पुत्र रत्नश्रवा की पत्नी थी। उसके पुत्र ने नौ माणिक्यों से युक्त हार को धारण किया था। उसमें दस मुख प्रतिबिंबित होने से दशानन नाम रखा गया। अन्य पुत्र थे कुंभकर्ण, विभीषण तथा पुत्री थी चंद्रनखा।९५ कैकसी धर्मपरायणा सन्नारी थी। उसने अपने पुत्रों को धर्म-संस्कारों से सिंचित किया था। स्वयं भी धर्ममय जीवन व्यतीत करती
थी।
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
२.२३.२६ पद्मा :- पद्मा राजा पद्मोत्तर की कन्या थी । मेघपुर के राजा अतींद्र के पुत्र श्रीकंठ की पत्नी थी । उसके पुत्र का नाम वज्रकंठ था । १९६०
123
२.२३.३० विशल्या :- विशल्या राजा द्रोणधन की तथा महादेवी सुप्रभा की कन्या थी । वह लक्ष्मण की पत्नी थी । प्रतिचंद्र की बहन थी। विशल्या देवांगना के समान सुंदर थी। उसके स्नान का जल अमृत तुल्य था जो व्याधि को दूर कर देता था । अनेकों पीड़ित अयोध्यावासियों की व्याधि उसके जल से दूर हुई। शक्ति से आहत राजा चण्डराव को विशल्या के जल से सींचने पर स्वस्थता तथा सचेतनता प्राप्त हुई । विशल्या के तेजोमय दर्शन से रावण की अमोघशक्ति से आहत लक्ष्मण की मूर्च्छा दूर हुई। विशल्या के पवित्र जल से सारी सेना जीवित हो उठी । १६७
२.२३.३१ अनंगसरा :- विशल्या का पूर्वभव अनंगसरा के रूप में था । अनंगसरा त्रिभुवन आनंद नामक चक्रवर्ती राजा की कन्या थी। विद्याधर पुनर्वसु ने जबर्दस्ती उसका अपहरण किया । पर्णलघु विद्या के सहारे से सूने भयंकर वन में उसे फेंका गया। वह जिनधर्मोपासिका थी। साठ हजार वर्ष तक कामसरा नाम की विशाल नदी के किनारे समाधिपूर्वक वह तप करती रही । एक बार एक विशाल अजगर ने उसके आधे शरीर को निगल लिया। सौदास विद्याधर ने उसे देख लिया । उसने अनंगसरा से पूछा कि अजगर के टुकड़े कर उसके प्राणों को बचा लूं। तब अनंगसरा ने कहा, तपस्वियों के लिए प्राणीवध उचित नहीं है। पिता जी से कहना उनकी पुत्री ने शील की रक्षा की है। अजगर ने उसके शरीर को निगल लिया। जिनेश्वर भगवान् की जय के साथ उसने प्राण त्याग दिये । १६८
२.२३.३२ जितपद्मा :- क्षेमंजली नगर के राजा अरिदमन तथा रानी कन्यकादेवी की पुत्री थी । वासुदेव लक्ष्मण की पत्नी थी १९६ राजा अरिदमन की प्रतिज्ञा को लक्ष्मण ने पांचों ही फैंकी गई शक्तियों के प्रहार को सहन कर पूर्ण किया और जितपद्मा लक्ष्मण का वरण कर लिया। जितपद्मा अनुपम सुंदरी एवं गुणवती थी |२००
२.२३.३३ वनमाला :- वनमाला विशालबाहु राजा महीधर की पुत्री थी । वासुदेव लक्ष्मण की पत्नी थी। लक्ष्मण के वनगमन के समाचार पाकर, अन्य वर की कामना से रहित होकर आत्मघात हेतु प्रयत्नशील रही। लक्ष्मण उसी स्थान पर विद्यमान थे। उन्होंने वनमाला की प्राणरक्षा की तथा राजा महीधर ने लक्ष्मण के साथ पुत्री का विवाह संपन्न किया । २०१
२.२३.३४ हिडिम्बासुंदरी :- विद्याधर श्रेणी के संध्याकार नगर में हिडिम्बवंशोत्पन्न राजा सिंहघोषा तथा रानी लक्ष्मणा की प्रिय पुत्री थी । हिडिम्बा सुंदरी, लक्ष्मण की पत्नी थी। उसकी विमाता का पुत्र भाई हिडिम्बासुर था, जिसके उपकार के वश होकर हिडिम्बासुंदरी ने भाई का साथ दिया । नरभक्षी हिडिम्बासुर की निष्यप्रयोजन हिंसक प्रकृति को उसने रोका। भाई की मृत्यु के निमित्त बने भीमसेन से उसने विवाह किया। कालांतर में पुत्र वीर घटोत्कच को जन्म दिया ।२०२
२.२३.३५ चित्रसुंदरी :- चित्रसुन्दरी वैताढ्य पर्वत के रथनुपुर नगर के अशनिवेग के पुत्र सहस्त्रार की पत्नी थी। गर्भ प्रभाव से उत्पन्न दोहदवश उसके पति ने इंद्र का रूप बनाकर पत्नी के साथ संभोग किया। इसी कारण पुत्र का नाम इंद्र रखा था । २०३
२.२३.३६ चंद्रनखा :- चंद्रनखा रावण की सगी छोटी बहन थी तथा पाताल लंका के राजा खरदूषण की पत्नी थी। उसका पुत्र शंबूक था। पुत्र एवं पति को मारने वाले राम लक्ष्मण से बदला लेने के लिए उसने रावण को प्रोत्साहित किया ।२०४
२.२३.३७ पुरन्दरयशा :- पुरन्दरयशा जितशत्रु राजा और धारिणी की पुत्री, कुम्भकारकटक के राजा दण्डक की पत्नी तथा स्कंदक की बहन थी। एक बार छत पर गिरे हुए मांस और रक्त से रंजित रजोहरण को देखा। उसे पता चला कि उसके पति राजा दण्डक ने उसके मुनि भाई स्कंदक एवं उनके पाँच सौ शिष्यों को घाणी में पिलवा दिया है तथा उनकी मत्यु का निमित्त बना है। तब उस धर्मपरायणा श्रमणोपासिका ने साध्वी दीक्षा अंगीकार कर ली । २०५
२.२३.३८ सीता :- सीता मिथिला नगरी के राजा जनक की पुत्री थी । भामंडल की बहन थी तथा राजा दशरथ के पुत्र श्री राम की पत्नी थी। बचपन में भामण्डल का अपहरण हुआ । विद्याधर चंद्रगति ने पुत्र रूप में उसका पालन किया। चंद्रगति ने शर्त रखी जो वज्रावर्त्त और समुद्रावर्त नामक मजबूत प्रत्यंचा वाले दो दुर्जेय धनुषों को तोड़ेगा वह सीता का वरण करेगा। जनक राजा शर्त मान ली। स्वयंवर का आयोजन किया गया। दशरथ पुत्र श्री राम ने उन दोनों धनुषों को सामान्य धनुष की तरह उठाकर,
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
124
पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
उस पर डोरी चढ़ा दी। राम सीता का विवाह सानंद संपन्न हुआ। राम के साथ वनवास गमन के काल में किसी समय सीता के सौंदर्य को देखकर रावण काम विव्हल हो उठा। उसने विद्याबल से छल पूर्वक सीता का अपहरण कर लिया। लंका के बाहर नंदनवन में शिंशपा वक्ष के नीचे अन्न जल का त्याग कर सीता धर्म ध्यान में लीन हो गई । २०६ पवन पुत्र हनुमान के द्वारा श्री राम व लक्ष्मण की कुशलता का समाचार पाने के पश्चात् सीता ने बाईस दिनों के तप का पारणा किया।०७ मंदोदरी द्वारा रावण के लिए सीता को मनाये जाने पर सीता ने मंदोदरी को ललकारा तथा उसकी घोर भर्त्सना की। श्री राम ने लंका विजय के पश्चात् लोगों की शंका को सुनकर सीता को वन में अकेला छोड़ दिया। लेकिन सीता ने धैर्य नहीं छोड़ा। उसने कहा जिस प्रकार राम ने मेरा परित्याग किया है इसी प्रकार लोगों के कहने पर वे धर्म का परित्याग न कर बैठें। पुण्डरीक नगर के राजा वज्रजंघ ने सीता को बहन बनाकर अपने महल में रखा । वहीं पर सीता ने लवण और अंकुश दो बेटों को जन्म दिया ।२०८ अंत में राम ने सीता से क्षमा माँगी, महल में बुलाया किंतु सीता ने स्वयं को पवित्र सिद्ध करने के लिए अग्नि परीक्षा देनी चाही। राम ने लोकापवाद की निवृत्ति के लिए इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। सीता के सतीत्व के प्रभाव से अग्नि शांत हो गई तथा लोगों ने उसकी जय जयकार की। सीता ने राम से अनुमति लेकर संसार से विरक्त होकर भागवती दीक्षा ग्रहण की ।२०६९
२.२३.३६ कनकमाला :- कनकमाला राजा पृथु की कन्या थी तथा रामपुत्र लवण की पत्नी थी। २१० २.२३.४० तरंगमाला :- तरंगमाला राजा पृथु की कन्या थी तथा रामपुत्र अंकुश की पत्नी थी। २११
२.२३.४१ कैकेयी :- कैकेयी कौतुक मंगल नगर के राजा शुभमति एवं रानी पृथुश्री की कुक्षी से जन्मी थी। वह रूपवती, गुणवती, सरलमना एवं पराक्रमी थी। उसने स्वयंवर में दशरथ का वरण किया, जिससे क्रुद्ध होकर राजा हेमप्रभु और राजा हरिवाहन ने दशरथ के विरूद्ध युद्ध छेड़ दिया। कैकेयी ने राजा दशरथ की सारथी बनकर दशरथ की विजय श्री में अविस्मरणीय सहयोग प्रदान किया। जिससे प्रसन्न होकर कैकेयी को दो वचन (वर) दशरथ ने प्रदान किये। जिसे कैकेयी ने समय आने पर पुत्र भरत के लिए राजा दशरथ से मांगे थे। कैकेयी ने वर मांगा था कि राज्य भरत को मिले किंतु जब वर सच्चाई में परिवर्तित हुआ, तब राम का वनवास हुआ और भरत ने राज्य का स्वामी नहीं किंतु राम का सेवक बनकर रहने की बात की तब कैकेयी ने पश्चाताप से भरकर अपने आप को धिक्कारा और राम को पुनः अयोध्या में लाने के लिए भरत के संग वन में जाकर राम से बार बार अयोध्या लौटने का आग्रह किया। वह जिन धर्म की श्रद्धालु श्रमणोपासिका थी, जिसने संसार से विरक्त होकर संयम को धारण किया था।१२
२.२३.४२ सुमित्रा२३ :- कमलसंकुल नगर के राजा सुबंधुतिलक एवं महासनी मित्रादेवी की सुपुत्री का नाम सुमित्रा था ।१४ वह अयोध्या नरेश दशरथ की द्वितीय महारानी थी, जिनकी कुक्षी से आठवें वासुदेव लक्ष्मण का जन्म हुआ था। गर्भ में आगमन पर सुमित्रा ने सात शुभ स्वप्न देखे। सुमित्रा परम पतिव्रता, कर्तव्यनिष्ठ, वात्सल्यमयी सन्नारी थी, जिसके मन में श्रीराम के प्रति अपने पुत्र लक्ष्मणवत् ही अपार प्रीति थी। लक्ष्मण द्वारा वनवास में राम का अनुगमन करने पर सुमित्रा ने प्रसन्नतापूर्वक पुत्र को विदा किया तथा सेवा धर्म की सुंदर शिक्षा दी। पुत्रविरह के दुःख को तथा पति के आदेश को उसने समभाव से सहन किया।
२.२३.४३ मंदोदरी :- मंदोदरी रावण की पटरानी थी। वह परम सुंदरी, गुणवती तथा जिनशासन में अनुरक्त श्रमणोपासिका थी। उसने रावण को बार बार समझाया कि वह सीता को लौटा दे क्योंकि जिनशासन में पांच बातें वर्जित मानी गई हैं। वे पाँच बातें इस प्रकार हैं, हिंसा, मषावाद, पर द्रव्य हरण (अर्थात् चारों) परिग्रह तथा स्त्री संग ।मंदोदरी ने सीता को रावण के प्रति आसक्त करने का प्रयत्न किया। धमकी भी दी। २१६ किंतु सीता ने अपना पतिव्रत धर्म नहीं छोड़ा। रावण को सीता की आसक्ति को छोड़कर उसे राम के सुपुर्द करने की प्रेरणा मंदोदरी ने दी। मंदोदरी ने संसार से विरक्त होकर दीक्षा धारण की थी।
२.२३.४४ गांधारी : गांधारी गांधार नरेश शकुनि की बहन तथा हस्तिनापुर के राजा धतराष्ट्र की पत्नी थी। उसकी अन्य सात बहनें भी धतराष्ट्र से विवाहित थी । २१६ किंतु गांधारी सर्वाधिक प्रिय थी। वह धर्मिष्ठ, समझदार एवं पतिव्रता सन्नारी थी। पति के अंधे होने से, उसने अपनी आंखों पर पट्टी लगाकर रखी थी। जिसके प्रभाव से उसकी आंखों में वह शक्ति पैदा हुई कि उसकी एक दष्टि पड़ने से दुर्योधन का पूरा शरीर इस्पात (वज्र) का हो गया था। दुर्योधन महाबली भीम से स्वयं की रक्षा करने के लिए
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
125
कृपाचार्य के मार्गदर्शन से नग्नावस्था में माँ के समीप जा रहा था, किंतु कृष्ण के कहने से पुष्पों की मोटी सी माला से जंघा को ढ़ककर पहुंचा। पुत्र वात्सल्यवश गांधारी ने आँखों की पट्टी खोली। जंघा पर माला देखकर वह कुपित हुई, कि यही जंघा का भाग तेरे वध का कारण बनेगा |२० युद्ध के अंत में दुर्योधन दुश्शासन आदि सौ पुत्रों के मरने से वह अत्यंत व्यथित हुई२२१ उसकी पुत्री का नाम था दुशल्या।
२.२३.४५ अंजना : अंजना महेंद्रनगर के राजा महेंद्र एवं रानी मनोवेगा की पुत्री थी। आदित्युपर के राजा प्रह्लाद एवं केतुमती के पुत्र पवनंजय इसके पति थे। सखियों द्वारा मिथ्या प्रलाप करने पर अंजना के मौन से क्षब्ध होकर विवाह की रात्रि से बारह वर्ष तक पवन ने उसका त्याग कर दिया। रावण की तरफ से वरूण कुमार के विरूद्ध युद्ध में जाते हुए मार्ग में चकवा चकवी से विरह कि बातें सुनी। अपनी प्रिया अंजना सुंदरी के विरह के विचार से पवन ने पुनः लौटकर अंजना को अल्प समय का रति सुख दिया और अपना स्मृति चिन्ह देकर युद्ध के लिए तुरन्त प्रस्थान कर दिया। पीछे से गर्भवती अंजना की सास ने उसे दुराचारिणी समझकर घर से निकाल दिया। सखी बसंत माला के संग अंजना अपने पीहर चली गई। माता-पिता ने भी कुलकलंकिनी कहकर उसे रहने का स्थान नहीं दिया। भूखी प्यासी अंजना सखी के संग वन में चली गई। एक बार वन में उन्हें शुभगति एवं अमृतगति नामक दो मुनियों के दर्शन हुए। अंजना एवं सखी दोनों ने वंदना की। अंजना ने मुनि से अपने दुःख का कारण पूछा। पूर्व भव में सौतिया डाह से जिन प्रतिमा को घर के आंगन में छुपाने से यह दुःख तुम्हें प्राप्त हुआ है, अब शीघ्र ही तुम्हें सुख प्राप्त होगा, मुनियों ने अंजना को कर्मफल का स्वरूप बता दिया। यथाकाल अंजना ने शुभ लक्षणों वाले एक बालक को जन्म दिया। मामा प्रतिसूर्य ने
र्य ने अंजना को देखकर उसे अपने महल में रखा। हनुमत द्वीप में बालक का लालन, पालन हुआ, अतः उसे हनुमान नाम दिया गया। अंजना ने अपने मन को धर्म आराधन एवं श्राविका व्रतों के पालन में लगा लिया। युद्ध से लौटने पर पवनंजय को वस्तुस्थिति का बोध हुआ। उसने अंजना की खोज की। अंजना के ना मिलने पर पवनंजय ने अग्निप्रवेश का निश्चय किया। कालांतर में अंजना का पता मिलने पर सबने उससे क्षमा याचना की। अंजना ने किसी को दोष नहीं देते हुए इसे अपने अशुभ कर्मों का फल बताया। अन्त में अंजना ने दीक्षा ग्रहण करके संयम का पालन किया। अपनी अत्मा का कल्याण करके अंजना सती के नाम से विख्यात हई |२२२
२.२३.४६ सत्यवती :- वह वरूण की पुत्री थी, तथा हनुमान के साथ उसका पाणिग्रहण संस्कार हुआ था।२२३ २.२३.४७ चित्रमाला :- वह कीर्तिधर नरेश की रानी थी तथा उसके पुत्र का नाम सुकोशल था।२४ २.२३.४८ चित्रमाला :- वह राजा सुकोशल की रानी थी तथा उसके पुत्र का नाम हिरण्यगर्भ था।२२५ २.२३.४६ मगावती :- वह राजा हिरण्यगर्भ की वीरांगनी रानी थी तथा उसके पुत्र का नाम नघुष था।२२६
२.२३.५० सिंहिका :- वह नघुष नरेश की वीरांगना रानी थी। उसने राजा की अनुपस्थिति में दक्षिण पथ के शत्रुओं से वीरता पूर्वक युद्ध किया तथा अपने राज्य की सुरक्षा की। इस बात पर राजा संदेहग्रस्त हुआ। और कालांतर में राजा नघुष भयंकर रोगों से पीड़ित हो गया। रानी ने अपने सतीत्व की आन देकर राजा को जल दिया, जिसने चमत्कार(प्रभाव) दिखाया था। रानी प्रदत्त जल द्वारा प्रक्षालन करने पर राजा का रोग शांत हो गया। रानी सिंहिका के सतीत्व की जयजयकार हई। रानी के पुत्र का नाम सोदासकुमार था|२२०
२.२३.५१ पृथ्वीदेवी :- वह अयोध्या के राजा अनरण्य की तथा दशरथ की माता थी। इनके दो पुत्रों के नाम थे “अनंतरथ" और 'दशरथ ।२८
२.२३.५२ अनुकोशा :- वह जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में दारू नामक ग्राम में वसुभूति ब्राह्मण की पत्नी थी, पुत्र अतिभूति को खोजते हुए संत समागम से अनुकोशा साध्वी कमलजीव के समीप दीक्षित हुई।२२६
२.२३.५३ सरसा :- वह अतिभूति की पत्नी थी। 'क्यान' नामक ब्राह्मण उसपर मोहित होकर उसका अपहरण कर ले गया
था |२३०
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
126
पौराणिक /प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
२.२३.५४ पुष्पवती :- वह चन्द्रगति राजा की रानी थी। वह सुन्दर व सुशील तथा उत्तम चारित्र से संपन्न थी ।२२१
२.२३.५५ अतिसुंदरी :- वह चक्रपुर की राजकुमारी थी। वह राजकुमार कुलमंडित से आकर्षित हुई। उससे पूर्व ही पुरोहित पिंगल उसे लेकर विदग्ध नगर में आया था।२३२
२.२३.५६ वेगमती :- वेगमती विदेहा पुरोहित की पुत्री थी ।२३३
२.२३.५७ विदेहा :- वह मिथिलेश श्री जनकराजा की रानी थी। उसका पुत्र भामण्डल व पुत्री सीता थी।२३४ खोये हुए पुत्र भामंडल के मिलने पर उसका पुत्र स्नेह उमड़ पड़ा ।२३५ उसने अपनी संतान को धर्म-संस्कारों से सिंचित किया था।
२.२३.५८ सुभद्रा :- सुभद्रा जनकजी के भाई कनकजी की पुत्री थी तथा लक्ष्मण के साथ उसका विवाह किया गया था।२२६
२.२३.५६ उपास्तिका :- सोनपुर नगर के भावन व्यापारी तथा उनकी पत्नी दीपिका की यह पुत्री थी। वह साधु साध्वियों से द्वेष रखती थी, अतः चिरकाल तक दुःखों को भोगती रही ।२२७
२.२३.६० सुंदरी :- सुंदरी बंगपुर के धन्य व्यापारी की पत्नी थी, उसके पुत्र का नाम वरूण था।२२८ २.२३.६१ विद्युल्लता :- वैताढ्यगिरि की उत्तर श्रेणी के शिशिपुर नगर के विद्याधर रत्नमाली की रानी थी, सूर्यजय उसका
पुत्र था।२३
२.२३.६२ वनमाला :- वह विजयपुर नरेश महीधरजी की पुत्री थी। पिता महीधर जी नरेश ने बचपन में ही अपनी पुत्री को लक्ष्मण जी के प्रति आसक्त देखकर उन से संबंध जोड़ना चाहा लेकिन वनमाला ने लक्ष्मण के वनगमन की बात सुनी तो उसने आत्मघात का निश्चय किया। वह उसी उद्यान में आई जहां राम लक्ष्मण और सीता थे। लक्ष्मण ने उसको आत्मघात से बचाया। अपने आराध्य पति तथा श्री राम व सीता जी से मिलकर वनमाला अत्यंत प्रसन्न हुई।२४०
२.२३.६३ रतिमाला :- रतिमाला विजय रथ की बहन तथा लक्ष्मण की पत्नी थी।४१ २.२३.६४ विजयसुंदरी :- विजयरथ की छोटी बहन तथा भरतजी की पत्नी थी।२४२
२.२३.६५ उपयोगी :- पद्मिनी नगरी में पर्वत राजा का अमृतसर दूत था, उसकी पत्नी का नाम उपयोगा था। वसुभूति में आसक्त होकर अपने पति अमृतसर की मृत्यु की निमित्त बनी थी। २४३
२.२३.६६ पद्मावती :- भरतक्षेत्र के रिष्टपुर नगर के प्रियंवद नरेश की रानी थी। रत्नरथ और चित्ररथ दोनों उनके पुत्र थे ।२४४ २.२३.६७ कनकाभा :- प्रियंवद नरेश की अन्य रानी थी उसके पुत्र का नाम अनुद्धर था।४५ २.२३.६८ श्रीप्रभा :- श्रीप्रभा रत्नरथ राजा की रानी थी।२४६ २.२३.६६ विमला :- सिद्धार्थपुर के क्षेमंकर नरेश की रानी थी। उसके दो पुत्र थे कुलभूषण और देशभूषण २०७ २.२३.७० कनकप्रभा :- विमलादेवी रानी एवं क्षेमंकर राजा की पुत्री थी तथा कुलभूषण देशभूषण की बहन थी।
२.२३.७१ मैनासुंदरी :- मैनासुंदरी उज्जयिनी के राजा पुण्यपाल एवं रानी रूप सुंदरी की पुत्री थी तथा राजा श्रीपाल की रानी थी। मैनासुंदरी जैनधर्मोपासिका थी। कृत कर्मो के अनुसार ही व्यक्ति को सुख दुःख प्राप्त होता है, पिता पुत्री को सुखी अथवा दुःखी नहीं बना सकता। मैना के इन वचनों से क्रुद्ध होकर अहंकारी पिता ने कुष्टी पुरूष उम्बर राणा के साथ उसका विवाह कर दिया। मैना सुंदरी ने तन मन से पति की सेवा की तथा ज्ञानी मुनिराज के समीप आकर वंदना नमस्कार कर के दुःख से मुक्ति का उपाय पूछा। मुनि ने अशुभ कर्मों को तोड़ने का उपाय धर्म बताया। नवकार मंत्र तथा आयंबिल तप आराधना की विधि को मुनि के मुख से श्रवण कर मैना सुंदरी ने नौ दिनों की आयंबिल ओली की आराधना की, नव पद एवं आयंबिल आराधना की पवित्र साधना से उसके पति उम्बर राणा उर्फ श्रीपाल का कष्ट रोग दर हो गया। उसका शरीर कंचन सदश कांतिमय बन गया। मैना सुंदरी के माता-पिता ने मैना सुन्दरी से क्षमा मांगी। मैना के प्रभाव से वे भी जिन धर्म के श्रद्धालु भक्त बन गये । सात सौ कुष्टियों का रोग नवपद की आराधना से दूर हुआ। मैना सुंदरी व श्रीपाल का एक पुत्र था जिसका नाम त्रिभुवनपाल था।
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
२.२३.७२ मदनसेना :- भरूच नगर के राजा महाकाल की पुत्री तथा श्रीपाल कुँवर की दूसरी पत्नी थी। वह गुणवती थी। नवकार मंत्र की उपासिका थी।२५०
२.२३.७३ रयणमंजुषा :- रयणमंजुषा राजा कनककेतु की पुत्री तथा श्रीपाल की पत्नी थी। वह परम धर्मपरायणा थी। अपने दादा श्री द्वारा निर्मित श्री ऋषभदेव जिनालय में निरन्तर सुबह, दोपहर, शाम वह भक्ति भाव से पूजन करती थी। वह चौंसठ कलाओं में निपुण थी। प्रभु की आंगी कलात्मक ढंग से रचाती थी।२५१
२.२३.७४ गुणमाला :- गुणमाला राजा पशुपाल की पुत्री तथा श्रीपाल की पत्नी थी। उसके लिए ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी, कि समुद्र के किनारे चंपावृक्ष के नीचे जो पुरूषरत्न सोता हुआ मिलेगा वही तुम्हारा पति होगा। वह श्रीपाल ही था, जिसके साथ गुणमाला का विवाह हुआ था |२५२ ।।
२.२३.७५ गुणसुंदरी :- गुणसुंदरी श्रीपाल की पत्नी थी। उसकी प्रतिज्ञा थी कि वीणा बजाने में जो मुझसे अधिक कुशल होगा, जो मुझे पराजित कर देगा, मैं उसी की पत्नी बनूंगी। परिणामस्वरूप वह श्रीपाल की पत्नी बनी।५३
२.२३.७६ त्रिलोक सुंदरी :- त्रिलोक सुंदरी श्रीपाल की पत्नी थी। वह सर्वगुणसंपन्न राजकन्या थी ।२५५
२.२३.७७ शृंगार सुंदरी :- श्रृंगार सुंदरी राजा धरापाल एवं रानी गुणमाला की पुत्री थी। उसकी प्रतिज्ञा थी कि काष्ठ की पुतलियों द्वारा पूछे गये प्रश्नों का जो सही उत्तर देगा, वह मेरा वर होगा। श्रीपाल ने प्रतिज्ञा पूर्ण की। राजा धरापाल ने अपनी पुत्री श्रृंगार सुंदरी का विवाह श्रीपाल के साथ किया था। उसकी पंडिता, विचक्षणा, प्रगुणा, निपुणा, दक्षा आदि पांच सखियों को भी राजा ने श्रीपाल को प्रदान कर दिया था ।२५५
२.२३.७८ तिलक सुंदरी :- तिलकसुंदरी श्रीपाल की पत्नी थी, विवाह से पूर्व तिलकसुंदरी को सर्प ने डस लिया था, अतः वह मृत घोषित की गई। किंतु श्रीपाल ने मंत्रादि से राजकुमारी को जीवित किया और उसका सारा जहर उतार दिया। अतः पिता ने खुश होकर तिलकसुंदरी का विवाह श्रीपाल के साथ कर दिया था ।२५६ २.२४ इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नमिनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ :
२.२४.१ वप्रादेवी२५७ :- मिथिलानगरी के महाराजा विजय की महारानी वप्रादेवी की कुक्षी से इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नमिनाथ जी का जन्म हुआ |२५८ माता वप्रादेवी ने चौदह प्रसन्नतादायक शुभ स्वप्न देखें । योग्य आहार, विहार और आचार से गर्भ का पालन किया। यथा समय उसने एक पुत्ररत्न को जन्म दिया। जब बालक गर्भ में था तब शत्रु सेना ने मिथिला नगरी को घेर लिया था। माता वप्रा ने राज्यमहलों की छत पर जाकर उन शत्रुओं की ओर सौम्य दृष्टि से देखा तो शत्रु राजा का मन परिवर्तित हो गया। इस प्रकार शत्रु राजाओं ने भी विनम्रता दिखाई अतः माता पिता ने बालक का सार्थक नाम नमिनाथ रखा। इस धर्म परायण महिला ने अपने पति एवं पुत्र को तपोमार्ग पर सहर्ष बढ़ने की अनुमति प्रदान की। स्वयं भी अनासक्त जीवन व्यतीत कर आत्म कल्याण किया।
२.२४.२ महिषी (मेरा)२५६ :- इक्कीसवें तीर्थंकर श्री भगवान् जी नमिनाथ के शासनकाल में दसवें चक्रवर्ती सम्राट् हरिषेण हुए थे। इसी भरतक्षेत्र के कांपिल्यपुर नगर में इक्ष्वाकुवंशीय महाराजा हरि हुए थे। महाराजा हरि की सर्वगुणसंपन्ना महारानी का नाम महिषी था|२६० महारानी ने चौदह स्वप्न देखे तथा समयानुसार चक्रवर्ती के समस्त लक्षणों से युक्त एक बालक को जन्म दिया। जिसका नाम रखा गया 'हरिषेण' । माता-पिता ने समस्त विद्याओं एवं कलाओं मे बालक को निपुण किया। माता के धर्म संस्कारों का ही प्रभाव था कि युवावस्था प्राप्त होने पर युवराज हरिषेण राजा बने । चक्ररत्न पैदा होने पर समस्त षट्खंड के चक्रवर्ती बने। तद् उपरान्त वैराग्य को प्राप्त कर संयम अंगीकार किया तथा अंत मे कर्मों को क्षय कर सिद्ध बुद्ध और मुक्त हुए।
२.२४.३ वप्रा देवी२६१ :- इक्कीसवें तीर्थंकर भगवान् श्री नमिनाथ जी के शासन काल में लम्बे समय के बाद ग्यारहवें चक्रवर्ती सम्राट् जयसेन हुए। मगध देश की राजगृही नगरी में विजय राजा राज्य करते थे, जिनकी शुभ लक्षणों वाली सद्गुणसंपन्ना महारानी थी वप्रा |२६२ वप्रा ने सुखपूर्वक शयन करते हुए मंगलकारी चौदह शुभ स्वप्नों के दर्शन किये तथा सुखपूर्वक ही यथासमय पुत्ररत्न
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
128
पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
को जन्म दिया। पुत्र का नाम जयसेन रखा गया। माता के धर्म-संस्कारों के प्रभाव से षट्खण्ड के चक्रवर्ती पद पर होते हए भी पुत्र जयसेन ने संयम एवं तप के पालन से मोक्ष प्राप्त किया। २.२५ बाईसवें तीर्थंकर भ०. श्री अरिष्टिनेमि जी से संबंधित श्राविकाएं :
२.२५.१ धारिणी देवी :- जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में अचलपुर नाम की नगरी में महाराजा विक्रमधन की महारानी का नाम धारिणी देवी था ।वह सशील गणशील सौंदर्यसंपन्न सन्नारी थी। उसने एक बार फलों से लदे हुए आम्रवृक्ष का स्वप्न देखा और यथासमय धनकुमार नामक पुत्र को जन्म दिया जो बहुत होनहार था ।२६३
२.२५.२ धनवती :- धनवती कुसुमपुर के सिंह नरेश और विमला रानी की पुत्री थी। तथा अचलपुर के राजकुमार विक्रमधन की पत्नी थी। एक बार उसने मूर्छित मुनि का उपचार किया तथा मुनि से धर्मोपदेश श्रवण किया। तद् उपरान्त धनवती ने पति सहित श्राविका व्रतों को धारण किया ।२६४ कालांतर में दीक्षित हुई तथा आत्म कल्याण किया।
२.२५.३ विद्यन्मति :- भरतक्षेत्र के सुरतेज नगर में चक्रवर्ती राजा शूरसेन की रानी थी। उसके पुत्र का नाम "चित्रगति" था।२६५
२.२५.४ रत्नवती :- रत्नवती वैताढ्यगिरि की दक्षिण श्रेणी में शिवमंदिर नगर के राजा अनंगसिंह की शशिप्रभा रानी की पुत्री थी। वह रूपवती, गुणवती तथा शुभ लक्षणों वाली थी।२६६
२.२५.५ यशस्वी :- यशस्वी भरतक्षेत्र के चक्रपुर नगर में सुग्रीव राजा की रानी थी। उसके पुत्र का नाम सुमित्र था।२८७
२.२५.६ भद्रा :- भद्रा भरतक्षेत्र के चक्रपुर नगर में सुग्रीव राजा की रानी थी, उसके पुत्र का नाम पदम था। उसने अपनी सौत के पुत्र सुमित्र को मारने हेतु विष दे दिया। अतः नगर भर में उसकी निंदा हुई, भर्त्सना हुई। वह राजभवन से निकलकर वन में जाकर दावानल में जलगई। रौद्रध्यानपूर्वक मरकर वह नरक में उत्पन्न हुई ।२६८
२.२५.७ प्रियदर्शना :- पूर्व विदेह के पद्म नामक विजय में सिंहपुर नगर के हरिनंदी राजा की वह पटरानी थी। उसके पुत्र का नाम 'अपराजित' था |२६६
२.२५.८ कनकमाला :- वह कोशल नरेश की पुत्री थी, उसका विवाह अपराजित कुमार के साथ संपन्न हुआ था।२७०
२.२५.६ रत्नमाला :- वह वैताढ्य पर्वत पर रथनूपुर नगर के विद्याधरपति अमृतसेन की पुत्री थी, तथा राजकुमार अपराजित की पत्नी थी।७१
२.२५.१० कमलिनी और कुमुदिनी :- ये दोनों विद्याधर राजा भुवनभानु की पुत्रियाँ थी तथा राजकुमार अपराजित के साथ उनका पाणिग्रहण संस्कार हुआ था ।२७२
२.२५.११ प्रीतिमती :- प्रीतिमती जनानंद नगर के जितशत्रु राजा और धारिणी रानी की पुत्री थी। राजकुमारी की प्रतिज्ञा के अनुसार गुणों और कलाओं में श्रेष्ठ अपराजित कुमार ने राजकुमारी के प्रश्न का उत्तर दिया। अतः उत्तम गुणों वाली प्रीतिमती का विवाह योग्य वर अपराजित के साथ संपन्न हुआ।७३
२.२५.१२ श्रीमती :- जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में कुरू देश के हस्तिनापुर नगर मे श्रीसेन राजा की रानी का नाम श्रीमती था। एक रात्रि को रानी ने स्वप्न में शंख के समान निर्मल चंद्रमा को अपने मुंह में प्रवेश करते हुए देखा। अतः जन्म के बाद पुत्र का नाम शंखकुमार रखा गया।२७४
२.२५.१३ यशोमती :- अंगदेश की चम्पा नगरी के जितारी राजा और कीर्तिमती रानी की पुत्री का नाम यशोमती था। वह अनुपम सुंदरी और सद्गुणों की खान थी। वह पुरूषद्वेषिनी थी। कालांतर में शंखकुमार से आकर्षित होकर उसकी पत्नी बनी। यशोमती परम शीलवती थी।७५
२.२५.१४ सोमिला :- वह मगधदेश के नंदीग्राम के गरीब ब्राह्मण की पत्नी थी। उसके पुत्र का नाम नंदिसेन था।६ २.२५.१६ वैदर्भी :- वैदर्भी रूक्मिणी के भाई चंदेरी नरेश रूक्मी की पुत्री थी, जो अत्यधिक रूपवती, गुणवती और शीलवती
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
थी। जिसके विवाह के विषय में चिंतन करते हुए रूक्मिणी ने उसे अपने पुत्र प्रद्युम्नकुमार के योग्य समझा । रूक्मिणी द्वारा प्रेषित विवाह प्रस्ताव की रूक्म ने उपेक्षा की, परन्तु विद्या एवं बुद्धिबल से प्रद्युम्नकुमार ने वैदर्भी को मां के समक्ष उपस्थित किया। रूक्मिणी ने प्रसन्नतापूर्वक समारोह के साथ दोनों का विवाह संपन्न किया तथा अपनी इच्छा पूर्ण की २७६ कालांतर मे वैदर्भी से धार्मिक सुसंस्कारी पुत्र अनिरूद्धकुमार का जन्म हुआ । २७६
129
२.२५.१७ देवकी° :- देवकी मुक्तिकावती नगरी के राजा देवक की पुत्री एवं वसुदेव की पत्नी थी । २८१ देवकी का वैवाहिक जीवन संघर्षों से ही प्रारंभ हुआ । देवकी के सातवें पुत्र द्वारा कंस की मृत्यु का वृत्तांत जीवयशा ने अतिमुक्त अणगार द्वारा सुना । तब से देवकी का जीवन चारों ओर से संकटों से घिर गया। कंस के कठोर निग्रह में उसे रखा गया। देवकी ने छः बार गर्भ का भार ढोया किंतु संतान प्राप्ति का सुख नहीं उठा पायी। सातवी बार जब उसने गर्भ धारण किया, तब उसे शुभ संकेत प्राप्त हुए । वासुदेव के जन्मसूचक सात मंगलकारी स्वप्न उसने देखे । यथा समय तेजस्वी पुत्र रत्न को जन्म दिया। देवकी ने वसुदेव से सलाह की, तथाकथित पुत्र का संरक्षण किया जो श्रीकृष्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ । किंतु श्रीकृष्ण के पालन पोषण से देवकी वंचित रही । अंत में आठवें पुत्र गजसुकुमाल की बाल क्रीडाओं से देवकी ने अपने मन की खुशी पाई तथा दिल की इच्छाओं को पूर्ण किया देवकी बाईसवें तीर्थंकर भगवान् अरिष्टनेमि की श्रमणोपासिका थी । एक दिन देवकी ने एक समान रूप कांति वाले छः अणगारों को आहार दान दिया । तथा अतिमुक्तक मुनि की वाणी की सत्यता को प्रमाणित करने हेतु अरिष्टनेमी प्रभु के चरणों में पहुँचकर अपनी शंका का समाधान किया यह उल्लेख अन्तकृद्दशांग सूत्र में उपलब्ध होता है। अरिष्टनेमी प्रभु ने बताया कि सुलसा के द्वारा पालित छः पुत्र यही छः अणगार हैं जो तुम्हारे अंगजात है। तथा हरणैगमेषी देव की कपा से यह संभव हुआ है यह माया थी ऐसा जानकर देवकी अत्यंत प्रफुल्लित हुई। उसका पुत्रस्नेह उमड़ पड़ा। छः एक समान कांतिवाले अणगार पुत्रों को वंदन - नमन कर वह स्वस्थान लौट आई। देवकी के मातृत्व के प्रति श्रीकृष्ण सदा नतमस्तक थे। धर्मपरायणा देवकी ने उत्कृष्ट परिणामों से तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया जिससे देवकी का जीव आगामी उत्सर्पिणीकाल मे मुनिसुव्रत नामक ग्यारहवां तीर्थंकर बनेगा |२८२
२.२५.१८ शिवादेवी :- शिवादेवी शौर्यपुर नगरी के राजा समुद्रविजय की महारानी २८४ तथा ऐतिहासिक महापुरूष तीर्थंकर भगवान जी अरिष्टनेमि की माता थी। उनके गर्भ में आगमन पर शिवादेवी ने चौदह स्वप्न देखे थे। साथ ही अरिष्ट रत्नमय चक्र नेमि के दर्शन किये थे। शिवादेवी माता के अन्य पुत्र सत्यनेमि, दृढ़नेमि और रथनेमि थे। २८५ बाईसवें तीर्थंकर भगवान अरिष्टनेमी की इच्छा के अनुसार वात्सल्यमयी माता ने उन्हें त्याग के पथ पर बढ़ाया तथा स्वयं भी धर्ममय जीवन व्यतीत किया ।
२.२५.१६ राजीमती :- राजीमती भोजराज की पौत्री उग्रसेन की पुत्री तथा सत्यभामा की छोटी बहन थी । वह सुशीला, सदाचारिणी, बहुश्रुता तथा अनिंद्यसुंदरी थी। सर्वलक्षण संपन्न समुद्रविजय के पुत्र व श्री कष्ण के चचेरे भाई अरिष्टनेमि से उसका विवाह तय हुआ था । विशाल बारात उग्रसेन के प्रांगण की तरफ बढ़ रही थी। तभी राजीमती की दाहिनी बाहु और दाहिनी आंख फड़क उठी। आशंका से वह सिहर उठी। उसने तत्काल सुना कि नेमिनाथ ने पशुओं की दयावश बारात लौटा ली है ।२८६ अपने प्रीतम के विरह का समाचार सुनकर राजीमती अत्यंत व्याकुल हुई। परिजनों के समझाने पर भी राजमती अन्य के साथ विवाह करने तैयार नहीं हुई । अरिष्टनेमि के छोटे भाई रथनेमि भी राजीमती के सौंदर्यवश कामज्वर से पीड़ित थे। राजीमती ने अपने प्रियतम अरिष्नेमि के दर्शनार्थ गिरनार पर्वत की ओर विहार कर दिया (चलपड़ी)। अरिष्टनेमि भगवान से उसने पिछले नौ जन्मों की प्रीत इस जन्म में साध्वी बन कर निभाई। अपना प्रयोजन सिद्ध कर लिया । राजीमती ने रथनेमि को समझाने के लिए दूध का गिलास मंगवाया और पी लिया। एक सुवर्ण थाली मंगवाई। और वमन करने के लिए मदनफल खाया । थाली में दूध का वमन करके रथनेमि को पीने के लिए कहा। रथनेमि नाराज हुए। राजीमती ने मधुर शब्दों में कहा। मैं भोजराज कुल की पुत्री हूँ तुम अंधकवृष्णि कुल के पुत्र हो । अगन्धन कुल के सर्प की भांति अग्नि में जलना पसन्द करो वरन वमन किए हुए विष को पुनः ग्रहण करना नहीं। मैं भी अरिष्टनेमि की परित्यक्ता हूँ, आप मुझे क्यों ग्रहण कर रहे हो? तथा अधमतापूर्ण पशुता का अनुगमन कर रहे हो? राजीमती की सतीत्वपूर्ण फटकार से रथनेमि निराश होकर लौट गया । २८७ राजीमती का विवेक जाग्रत हुआ उसने स्वयं दीक्षा पाठ पढ़ा। उस नारी आदर्श की जगमगाती दीप शिखा, शील की साक्षात प्रतिमूर्ति राजीमती का निर्मल जीवन प्रेरणास्पद एवं वंदनीय है उन्हें सौ-सौ बार नमन - नमन - नमन ।
२८८
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
130
पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
२.२५.२० रोहिणी :- कौशलपति रूधिर की पुत्री का नाम रोहिणी था। वह अनुपम सुंदरी, सर्वगुणसंपन्ना एवं विदुषी थी। उसके स्वयंवर में ढ़ोंगी वेष में आए वसुदेव को उसने प्रज्ञप्ति विद्या द्वारा पहचान लिया, तथा उनके गले में वरमाला पहनाकर ढ़ोल की पोल खोल दी। उपस्थित नरेशों के समक्ष ही वसुदेव का परिचय सबको प्राप्त हुआ । दोनों का विवाह सानन्द संपन्न हुआ |८६ कालांतर में रोहिणी बलदेव के जन्म सूचक चार शुभ स्वप्न देखकर आनंदित हुई। पुत्र जन्म के पश्चात् पुत्र का नाम रख दिया बलराम ।२६० रोहिणी के धर्म संस्कारों के परिणाम स्वरूप पुत्र बलराम ने जीवन में श्रावक व्रतों की आराधना की, धर्ममय जीवन व्यतीत किया।
२.२५.२१ सोमश्री :- सोमश्री ब्राह्मण सुरदेव तथा क्षत्रिया की पुत्री थी, जो सुंदर होने के साथ ही शास्त्रों की ज्ञाता भी थी। उसकी प्रतिज्ञा थी कि जो युवक उससे वेद शास्त्रों में विजयी होगा, उससे वह विवाह करेगी। उसकी इस प्रतिज्ञा को वसुदेव ने पूर्ण किया।२१ अतः सोमश्री वासुदेव की पत्नी बनी। वेदशास्त्रों में निष्णात थी। ज्ञान के प्रति उसके हृदय में पूरा अहोभाव था।
२.२५.२२ बालचंद्रा :- विद्युदंष्ट्र वंश की पुत्री केतुमती ने रोहिणी विद्या को सिद्ध किया। वह पुण्डरीक वसुदेव की पत्नी बनी। उसी वंश में बालचन्द्रा का जन्म हुआ। जो विद्यावती, गुणवती एवं सुंदरी थी। तथा वह भी वसुदेव की पत्नी बनी २६२
२.२५.२३ बंधुमती :- बंधुमती कामदेव सेठ के पुत्र कामदत्त की पुत्री थी और वसुदेव की पत्नी थी।२६३
२.२५.२४ ऋषिदत्ता :- ऋषिदत्ता भरतक्षेत्र में श्रीचंदन नगर के राजा अमोघरता और रानी चारूमती की पुत्री थी, और शिलायुध की पत्नी थी। उसके पुत्र का नाम था एणीपुत्र। चारणमुनि के उपदेश को सुनकर ऋषिदत्ता ने श्राविका व्रतों को गहण किया था।६४
२.२५.२५ कामपताका :- कामपताका श्रीचंदन नगर की वेश्या अनंगसेना की पुत्री थी। वह अति सुंदर व आकर्षक थी। उसने कालान्तर में श्राविका के व्रतों की आराधना की।२९५
२.२५.२६ प्रियंगुसुंदरी :- प्रियंगुसुंदरी श्रावस्ती नगरी के एणीपुत्र राजा की पुत्री थी तथा वसुदेव की पत्नी थी।२९६
२.२५.२७ प्रभावती :- प्रभावती गंधसमृद्ध नगर के राजा गंधधार पिंगल की पुत्री थी। उसने सुवर्णाभनगर में रानी सोमश्री के विरह को दूर करने के लिए श्रावस्ती नगरी से वसुदेव को सोमश्री के समक्ष उपस्थित किया।२५७
२.२५.२८ बालचंद्रा :- बालचंद्रा उत्तरश्रेणी के गगनवल्लभ नगर के राजा चंद्राभ और महारानी मेनका की पुत्री थी। विद्या सिद्ध करते हुए वह नागपाश में बंध गई। वसुदेव द्वारा मुक्त होने पर उसने बदले में महादुलर्भ विद्या उन्हें प्रदान की। तथा वसुदेव के साथ ही उसका पाणिग्रहण हुआ।२६८
२.२५.२६ मदनवेगा :- मदनवेगा कनखलपुर के विद्याधर राजा की पुत्री थी। तथा वसुदेव की पत्नी थी, उसके पुत्र का नाम अनाधष्टि कुमार था। मदनवेगा ने वसुदेव पर आने वाले संकट को अपनी बुद्धिमत्ता और अवसरज्ञता से पहचान कर वसुदेव की रक्षा की।
२.२५.३० पद्मश्री :- वसुदेव की पत्नी थी, पुत्र का नाम जराकुमार था।३०० .
२.२५.३१ पुंद्रा :- पुंद्रा भद्दिलपुर नगर के महाराजा पुंद्रराजा की पुत्री थी। पिता की मृत्यु के पश्चात् पुरूषवेष में राज्य का संचालन करती थी। वसुदेव के साथ उसका विवाह हुआ और पुंद्र नामक उसका पुत्र पैदा हुआ था।३०१
२.२५.३२ पद्मावती और अश्वसेना :- सालगुह नगर के राजा भाग्यसेन की पुत्री का नाम पद्मावती था और मेघसेन की पुत्री का नाम अवश्वसेना था, वसुदेव के पराक्रम से प्रभावित होकर दोनों के पिता ने उनका विवाह वसुदेव के साथ किया था।०२
२.२५.३३ कपिला :- कपिला वेदसाम नगर के राजा कपिल की पुत्री थी। राजा की प्रतिज्ञा के अनुसार वसुदेव ने स्फुल्लिंगमुख अश्व को पछाड़ा। अंतः में राजा ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार कपिला का विवाह वसुदेव से किया। उसके पुत्र का नाम कपिल रखा गया था।०३
,
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
131
२.२५.३४ धारिणी :- धारिणी द्वारिका नगरी के राजा वसुदेव की रानी थी। उसके दो पुत्र थे :- दारूक कुमार और अनाधृष्टि कुमार।३०४
२.२५.३५ नीलयशा :- नीलयशा मातंग विद्याधर वंश परंपरा के राजा प्रहसित के पुत्र राजकुमार सिंहदाढ़ (सिंहदृष्ट्र) की पुत्री थी तथा वसुदेव को विद्याएं सीखने हेतु प्रेरित ही नहीं किया, किंतु सिखाने हेतु प्रयत्नशील भी रही।३०५
२.२५.३६ दमयंती :- दमयंती विदर्भ देश में कुण्डिन नगर के राजा भीमरथ तथा रानी पुष्पदंती की कुक्षी से पैदा हुई थी। रानी ने स्वप्न में दावाग्नि से भयभीत एक श्वेत वर्ण के हाथी को राजभवन में प्रवेश करते हुए देखा। अतः इस आधार पर दवदंती नाम रखा जो आगे चलकर दमयंती के रूप में प्रसिद्ध हुआ। वह रूपवती, गुणवती, नवतत्वों की ज्ञाता, समस्त कलाओं में निपुण तथा जैनधर्म की उपासिका थी। उसका विवाह कोशला नगरी के इक्ष्वाकुवंशीय निषध नरेश और सुंदरा रानी के सुपुत्र युवराज नल के साथ संपन्न हुआ। किसी समय नल ने अपने भाई कुबेर के साथ जुआ खेलते हुए सब कुछ खो दिया। वनवास की शरण ग्रहण की। दमयंती भी पति का अनुगमन कर वनवासिनी हई। उसने बीहड जंगलों को वीरांगना की तरह पार किया। एक दिन जब वह सोई हुई थी तब नल उसे अकेली छोड़ कर अन्यत्र चला गया। दमयंती ने इस अन्तराल में अपनी वीरता से डाकूसेना को भगाया और राक्षस को प्रतिबोध दिया। अनेक संकटों को पार कर अन्तोगत्वा वह अपनी मौसी रानी चंद्रयशा की पुत्री राजकुमारी चंद्रवती के साथ रहने लगी। रानी के साथ वह भी प्रतिदिन याचकों को दान देती थी। याचकों से अपने पति के विषय में पूछती थी। इसी बीच एक बार दमयंती के माता पिता के द्वारा भेजे हुए अनुचर हरिमित्र ने दमयंती को देखकर पहचान कर उससे बातचीत की, जिसे चंद्रयशा ने सुन लिया। उसने अपनी भानजी को ससम्मान यथायोग्य वस्त्राभूषण पहनाये तथा उसके पिता के घर भेज दिया। दमयंती के पिता ने पुत्री दमयंती के पुनर्लग्न का आयोजन रखा, नल भी वहाँ कूबड़े के रूप में उपस्थित हुआ। कूबड़े बने हुए नल राजा को पहचान कर उनके गले में दमयंती ने वरमाला पहना दी। नल अपने मूल रूप में प्रकट हुआ। कालांतर में अपनी शक्ति से भाई कुबेर को पराजित कर नल ने बहुत वर्षों तक राज्यसुख भोगा। अंत में नल और दमयंती प्रव्रजित हुए ।३०६ विपत्ति में भी श्राविका दमयंती ने अपने शील एवं धैर्यता को नहीं छोड़ा। उनका जीवन नारी जगत के लिए प्रेरणा प्रदीप है तथा सोलह सतियों में आज उनका नाम आदरणीय, पूजनीय एवं वंदनीय है।
२.२५.३७ गंधर्वदत्ता (गंधर्वसेना) :- गंधर्वसेना अंगदेश की राजधानी चंपानगरी के सेठ चारूदत्त की पुत्री थी, जो संगीत, नत्य एवं वीणावादन में अत्यंत निपुण थी। गंधर्वसेना की प्रतिज्ञा के अनुसार वासुदेव ने घंटों तक गंधर्वसेना को गाने बजाने में सहयोग दिया, फलस्वरूप प्रसन्नमन से गंधर्वसेना ने वसुदेव के गले में वरमाला डाली तथा सेठ ने पुत्री का विवाह वासुदेव के साथ किया।३०७ गंधर्वसेना ने अपने जीवन में कला को सम्माननीय स्थान प्रदान किया था।
२.२५.३८ श्यामा और विजया :- चंपानगरी के संगीताचार्य सुग्रीव तथा यशोग्रीव की पुत्रियाँ थी श्यामा और विजया, जिनका विवाह वसुदेव के साथ संपन्न हुआ था।०८
२.२५.३६ पद्मावती : पद्मावती कोल्लयर नगर के राजा पद्मरथ की पुत्री थी। वह कला में निपुण थी। वह वसुदेव द्वारा निर्मित श्रीदाम की सुंदर पुष्पमाला को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुई। मंत्री ने महल में बुलाकर वसुदेव से हरिवंश चरित्र सुना, तथा राजा ने नैमित्तिक की भविष्यवाणी के अनुसार पद्मावती का विवाह वसुदेव के साथ किया।३०६
२.२५.४० कनकवती :- कनकवती पेढालपुर के प्रतापी राजा हरिश्चंद्र और रानी लक्ष्मीवती की आत्मजा थी। जो चौंसठ कलाओं में निपुण परम मेधावी थीं। उसके स्वयंवर में उसके पूर्वभव के पति कुबेर देव रूप में उपस्थित हुए थे। कुबेर के दूत बनकर आए वसुदेव को कनकवती ने पहचान लिया, जब वसुदेव ने कुबेर से संबंध स्थापित करने के लिए कहा, तब कनकवती ने स्पष्ट कहाः- देव और मनुष्य के विवाह संबंध सर्वथा अनुचित हैं। अतः कनकवती वसुदेव की पत्नी बनी। कनकवती उसी भव में मोक्ष जानेवाली चरम शरीरी आत्मा है ऐसा कुबेर का कथन था।३१०
२.२५.४१ अटवीश्री :- अटवीश्री शोभा नगर के शांति नामक सामंत की भार्या तथा सत्यदेव की जननी थी। अमितमणि गणिनी से शुक्लपक्ष की प्रतिपदा और कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन पाँच वर्ष तक निराहार रहने का नियम लिया था। पति पत्नी दोनों ने मुनियों को शुद्ध भावों से आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किया था।३११
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
132
पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
२.२५.४२ अनड्.गपताका :- अनड्.गपताका राजा सत्यंधर की छोटी रानी तथा बकुल की जननी थी, उसने धर्म का स्वरूप समझकर श्राविका व्रतों को धारण किया था।३१२
२.२५.४३ अनङ्पुष्पा :- अनड्.पुष्पा चंद्रनखा की पुत्री थी, रावण द्वारा वह हनुमान को प्रदान की गई थी।३१३
२.२५.४४ पुष्पपालिता :- पुष्पपालिता एक मालिन की पुत्री थी, उसने श्राविका के व्रतों को धारण किया था, और स्वर्ग की शची देवी हुई थी।
२.२५.४५ पुष्पवती :- पुष्पवती एक मालिन की पुत्री थी, पुष्पपालिता उसकी बहन थी, उसने भी श्राविका व्रतों को धारण किया था और स्वर्ग मे मेनका देवी हुई थी।३१५
२.२५.४६ पूतिका :- पूतिका मंदिर ग्राम निवासी त्रिपद धीवर और उसकी पत्नी मण्डूकी की पुत्री थी। माता द्वारा त्यागे जाने पर समाधिगुप्त नामक मुनिराज द्वारा दिये गये उपदेश को ग्रहण करके इसने सल्लेखनापूर्वक मरण किया और अच्युत स्वर्ग में अच्युतेंद्र की गगनवल्लभा नाम की महादेवी हुई। इसका दूसरा नाम पूतिगंधिका था ।१६
२.२५.४७ पृथ्वी :- पृथ्वी पुण्डरिकिणी नगरी के राजा सुरदेव की रानी थी। दान धर्म के प्रभाव से वह अच्युत स्वर्ग में सुप्रभा देवी हुई।३०
२.२५.४८ पद्मलता :- पलाश द्वीप में स्थित पलाशनगर के राजा महाबल और रानी कांचनलता की पुत्री थी। श्रेष्ठी नागदत्त से इसका विवाह हुआ था। अनेक उपवास करती हुई मृत्यु के पश्चात् वह स्वर्ग गई। वहां से च्युत होकर वह चंदना बनी। ३१८
२.२५.४६ सिंहनंदिता :- सिंहनंदिता रत्नपुर नगर के राजा श्रीषेण की बड़ी रानी थी। इसके पुत्र का नाम इंद्रसेन था। इसने आहार दान की अनुमोदना करके उत्तरकुरूक्षेत्र में उत्तम भोगभूमि की आयु का बंध किया था।३१६
२.२५.५० सिंहिका :- सिंहिका अयोध्या के राजा नघुष की रानी थी, जो अस्त्र, शास्त्र दोनों में निपुण थी। नघुष की अनुपस्थिति में विरोधी राजाओं द्वारा ससैन्य आक्रमण के प्रत्युत्तर में उसने वीरतापूर्वक युद्ध किया। इससे कुपित होकर नघुष ने इसे महादेवी के पद से च्युत कर दिया था। एक बार राजा को दाहज्वर हुआ तब सिंहिका ने कर संपुट में जल लेकर राजा के शरीर पर छिड़का जिसके प्रभाव से राजा की वेदना शांत हुई और उन्हें रानी के शील की अपरिमित शक्ति का परिचय प्राप्त हुआ।३२०
२.२५.५१ शीला :- शीला व्याघ्रपुर नगर के राजा सुकांत की पुत्री और सिंहेंदु की बहन थी। श्रीवर्द्धित ब्राह्मण ने इसका अपहरण किया था। पूर्वभव मे इसने भद्राचार्य के समीप अणुव्रत धारण किये थे। वहाँ से यह शीला नामक स्त्री के रूप में उत्पन्न हुई थी ३२१
२.२५.५२ श्री :- श्री त्रिश्रंग नगर के राजा प्रचण्डवाहन और रानी विमलप्रभा की दस पुत्रियों में चतुर्थ पुत्री थी। ये सभी बहनें पहले युधिष्ठिर को दी गई थी किंतु युधिष्ठिर की मृत्यु संबंधी समाचार सुनने पर ये सब अणुव्रत धारिणी श्राविकाएँ बन गई थी। ३२२
२.२५.५३ श्री दत्ता :- श्रीदत्ता जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र निवासी देविल वैश्य और बंधु श्री की पुत्री थी। इसने मुनि सर्वयश से अहिंसा व्रत लेते हुए धर्मचक्र व्रत किया था। आर्यिका सुव्रता के वमन को देखकर घणा करने के फलस्वरूप कनक श्री की पर्याय में इसका पिता मारा गया और इसका अपहरण हो गया था ।३२३
२.२५.५४ पद्मावती : पद्मावती यदुराजा के पौत्र सुवीर के पुत्र राजा भोजकवृष्णि की रानी थी। पद्मावती रानी के तीन पुत्र उग्रसेन, महासेन, एवं देवसेन थे तथा दो पुत्रियाँ सत्यभामा एवं राजीमती थी।३२४
२.२५.५५ धारिणी :- द्वारिका नगरी के महाराजा बलदेव की रानी का नाम धारिणी था। उसके पुत्र थे सुमुख कुमार, दुर्मुख कुमार एवं कूपदारक कुमार ।३२५
२.२५.५६ विनय श्री :- कृष्ण की पटरानी गांधारी के पांचवे पूर्वभव का जीव । वर्तमान भव में कौशल देश की अयोध्या नगरी के राजा रूद्र की रानी थी। जिसने सिद्धार्थ वन में अपने पति के साथ श्रीधर मुनि को आहार दिया था। तथा इस दान के प्रभाव से उत्तरकुरू में तीन पल्य की आयुधारिणी आर्या हुई थी।२६
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
133
-
२.२५.५७ विनयश्री :- कृष्ण की आठवीं पटरानी पद्मावती के आठवें पूर्वभव का जीव जो भरतक्षेत्र के उज्जयिनी नगरी के राजा अपराजित और रानी विजया की पुत्री थी। जिसका विवाह हस्तिनापुर के राजा हरिषेण से हुआ था। इसने पति सहित वरदत्त मुनि को आहार दिया था। तथा आहार दान के परिणाम स्वरूप वह हेमवत् क्षेत्र में एक पल्य की आयु वाली आर्या हुई थी।३२७
२.२५.५८ धनमित्रा :- धनमित्रा उज्जयिनी नगर के सेठ धनदेव की पत्नी थी। यह महाबल का जीव था, इसकी बहन अर्थस्वामिनी थी तथा इनके पुत्र का नाम नागदत्त था। पति द्वारा त्याग किये जाने से देशांतर में इसने शीलदत्त गुरू के पास श्रावक के व्रत ग्रहण किये और अपने पुत्र को शास्त्राभ्यास के लिए उनके चरणों में सौंप दिया था। अपनी बहन का विवाह उसने मामा के पुत्र कुलवाणिज के साथ कर दिया था।३२८
२.२५.५६ रत्नवती तथा लहसुणिका :- इलावर्धन नगर के भद्र सार्थवाह की दासपुत्री लहसुणिका के मुंह की दुर्गंध को वसुदेव ने औषधी के प्रयोग से दूर किया। इससे प्रसन्न होकर भद्र सार्थवाह ने अपनी पुत्री रत्नवती एवं दासपुत्री लहसुणिका का विवाह वसुदेव के साथ कर दिया था।३२६
२.२५.६० वेगवती :- वेताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी में स्वर्णाभ नगर के राजा चित्रांग एवं रानी अंगारवती की पुत्री का नाम वेगवती था। वेगवती का विवाह वसुदेव से हुआ था, उसने वसुदेव की सहायता की थी।३३०
२.२५.६१ ललित श्री :- ललित श्री गणिका पुत्री थी, तथा वसुदेव की पत्नी थी। वह पुरूषों से नफरत करती थी। वसुदेव ने उसके मन की भ्रान्ति दूर की अतः उसकी माता ने उसका विवाह वसुदेव के साथ किया था।३१
२.२५.६२ अम्बा, अम्बिका, अंबालिका :- ये तीनों काशी नरेश की सुपुत्रियाँ थी। महाराज शांतनु एवं सत्यवती के पुत्र विचित्रवीर्य की रानियाँ थी। महारानी अंबिका से धृतराष्ट्र, अंबाली से पाण्डु, तथा अम्बा से विदुर कुमार उत्पन्न हुए थे। ३३२ ।
२.२५.६३ कुमुदवती रूपवती :- भीष्मजी की आज्ञा से इन दोनों राजकुमारियों का विवाह विदुर जी के साथ हुआ था।३३३
२.२५.६४ रेवती :- रेवती राजा रैवतक की पुत्री थी तथा बलभद्रजी की पत्नी थी। श्रीकृष्ण के विवाह से पूर्व ही रेवती का विवाह बलभद्र के साथ संपन्न हुआ। वह अत्यंत रूपवती, गुणवती थी, उसकी छोटी तीन अन्य बहनों का विवाह भी बलभद्र जी के साथ संपन्न हुआ था ३३४
२.२५.६५ भानुमती :- भानुमती दुर्योधन की पतिव्रता पत्नी थी। एक बार दुर्योधन पाण्डवों को मारने के लिए द्वैतवन में गया, वह भी साथ थी। अर्जुन के शिष्य चित्रांगद के भवन पर दुर्योधन ने अधिकार जमा लिया। दुर्योधन पाण्डवों को मारने आया है, यह जानकर अति क्रुद्ध होकर चित्रांगद ने दुर्योधन के विरूद्ध युद्ध छेड़ दिया। भानुमती द्वारा पाण्डवों की शरण ग्रहण करने पर युधिष्ठिर की प्रेरणा से दुर्योधन के प्राणों की रक्षा हुई ।३३५
२.२५.६६ हिरण्यमती :- नलिनीसभ नगर के राजा हिरण्यरथ एवं रानी प्रीतिवर्द्धना की पुत्री का नाम हिरण्यमती था। वह मात्तंग विद्याधर वंश परंपरा के राजा विधसितसेन की पुत्रवधू तथा राजा प्रहसित की पत्नी थी। उसके पुत्र का नाम सिंहदाढ़ था ।३६
२.२५.६७ माद्री :- माद्री मद्र नरेश शल्य की बहन थी, तथा राजापाण्डु की पत्नी थी। पाण्डु ने दीक्षा लेने का निश्चय किया तो माद्री ने भी पति के पदचिन्हों का अनुगमन किया। अपने पुत्र नकुल एवं सहदेव का मोह त्यागकर उसने उन्हें कुंती को समर्पित किया तथा स्वयं साध्वी बनी ।३३७
२.२५.६८ सत्यवती :- रत्नपुर के राजा रत्नांगद एवं रानी रत्नवती की पुत्री का नाम सत्यवती था। राजा रत्नांगद का एक शत्रु विद्याधर इसे उठाकर यमुना तट पर एक अशोक वक्ष के नीचे डाल गया। एक नाविक ने घर लाकर उसका पालन किया। फलस्वरुप एक बार शांतनु ने नाविक से सत्यवती की मांग की, पिता शांतनु की इच्छा को पूर्ण करने के लिए बदले मे गंगापुत्र भीष्म ने आजीवन शीलव्रत की आराधना करने की कड़ी प्रतिज्ञा धारण की। नाविक ने अपनी शर्तेपूर्ण हुई जानकर शांतनु से सत्यवती का विवाह कर दिया। सत्यवती ने अपने पुत्र चित्रांगद तथा विचित्रवीर्य को सुसंस्कार दिये तथा गंगापुत्र गांगेयकुमार (भीष्म) को भी पुत्रवत् वात्सल्य दिया था।३३८
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
134
पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
२.२५.६६ सुदेष्णा :- सुदेष्णा चूलिका नरेश चूलिका की पुत्री मत्स्य नरेश् विराट् की रानी तथा कीचक की बहन थी। सुदेष्णा ने कीचक को सौरन्ध्री (द्रौपदी) के प्रति कामविकार भाव मन में न लाने के लिए सचेत किया। उसके पुत्र का नाम उत्तर तथा पुत्री का नाम उत्तरा था। वह कोमल स्वभावी तथा अवसरज्ञ (अवसर को पहचानने वाली) थी। उसने अपनी संतान को धार्मिक संस्कारों से सुसंस्कारित किया था।
२.२५.७० सुभद्रा :- सुभद्रा श्रीकृष्ण की बहन तथा अर्जुन की पत्नी थी। उसके तेजस्वी पुत्र का नाम अभिमन्यु था। मां सुभद्रा ने पति अर्जुन से चक्रव्यूह में प्रवेश करने की विधि को ध्यानपूर्वक श्रवण किया था। अतः अभिमन्यु ने भी चक्रव्यूह में प्रवेश कर युद्ध लड़ा था। सुभद्रा धीर वीर गम्भीर एवं सहनशील थी। अपने पुत्र की मृत्यु के समाचार को उसने धैर्य पूर्वक
२.२५.७१ उत्तरा :- उत्तरा मृत्स्य देश के राजा विराट् की पुत्री, राजकुमार उत्तर की बहन तथा वीर अभिमन्यु की पत्नी थी। पिता की अनुपस्थिति में राजकुमारी उत्तरा ने अपने भाई उत्तरकुमार को क्षत्रिय के अनुरूप युद्धवीर बनने के लिए प्रेरित किया था। बहन्नला (अर्जुन) को उत्तर राजकुमार का सारथी बनने के लिए विवश किया था। अपने पति अभिमन्यु द्वारा
नी बनी, तथा वैधव्य जीवन भी धैर्यता के साथ व्यतीत किया। अतः वह आदर्श पत्नी आदर्श पुत्री एवं आदर्श बहन थी।३४१
२.२५.७२ धारिणी :- राजा उग्रसेन की रानी का नाम धारिणी था, उसकी एक पुत्री राजीमती थी तथा पुत्र का नाम नभसेन था।३४२
२.२५.७३ ऊषा :- ऊषा प्रद्युम्नकुमार एवं रानी वैदर्भी की पुत्रवधू थी तथा अनिरूद्ध कुमार की पत्नी थी। उसने पति अनिरूद्ध को कई विद्याएं सिखाई, एवं बाण नरेश के विरूद्ध युद्ध करने में उन्हें सहयोग दिया था ।४३
२.२५.७४ कमलामेला :- श्री बलभद्रजी के पौत्र एवं निषधकुमार के पुत्र सागरचंद्र की पत्नी थी तथा धनसेन की पुत्री थी, वह अनुपम सुंदरी एवं गुणवती थी।४४
२.२५.७५ श्यामा और विजया :- ये दोनों विजयखेट नगर के महाराजा की पुत्रियाँ थी। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि संगीत, नत्य आदि विद्याओं में जो हम से बढ़कर होगा, हम उसी से विवाह करेगी। उनकी इस प्रतिज्ञा में वसुदेव खरे उतरे, अतः महाराजा ने दोनों कन्याओं का विवाह वसुदेव से किया तथा आधा राज्य भी समर्पित किया। कालांतर में विजया गर्भवर्ती हुई। उसने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम अक्रूर रखा गया।३४५ श्यामा और विजया की विशेषता थी कि वे संगीत एवं नत्य कला में निपुण थी, साथ ही रूपवती, गुणवती भी थी।
२.२५.७६ श्यामा :- श्यामा विद्याधर राजा अशनिवेग तथा रानी सुप्रभा की पुत्री एवं वसुदेव की पत्नी थी। अपने भाई अंगारक द्वारा क्रुद्ध होने पर उसने वीरतापूर्वक भाई के साथ युद्ध किया तथा लघु परसी विद्या के प्रयोग से वसुदेव सहित कुशलतापूर्वक पथ्वी पर सरोवर तट पर आ गई। इससे श्यामा की वीरता एवं विद्यावती होना सिद्ध होता है । ३४६
२.२५.७७ रूक्मिणी :- विदर्भ देश की कुंदन पुर नगरी के राजा भीष्मक एवं महारानी यशोमती की कन्या, रूक्म की बहन, एवं श्रीकृष्ण की पटरानी थी। वह रूपवती, गुणवती, धर्मपरायणा श्राविका थी। वह सरल एवं कोमल हृदय वाली थी। उसने सत्यभामा के द्वारा ईर्ष्याग्रस्त होने पर न तो बदले की भावना रखी और न ही किसी प्रकार का दुष्कृत्य करने का विचार किया। वह रूपवती होने पर भी अहं से कोसों दूर थी। वह गुरूजनों पर श्रद्धा रखने वाली थी। स्वयं नारद जी भी उसके रूप एवं गुणों से प्रभावित थे। उसके पुत्र का नाम प्रद्युम्न कुमार था।
२.२५.७८ सुमित्रा :- सुमित्रा वाराणसी नगरी के राजा हतशत्रु की पुत्री तथा पंडित सुप्रभ की पत्नी थी। उसने अपने स्वयंवर की इच्छा न रखते हुए पिता से कहा कि "इह भव पर भव सुखकारक" उस प्रश्न का उत्तर देने वाले युवक से ही मैं विवाह करूँगी। उसके प्रश्नों का उत्तर पंडित सुप्रभ ने दिया कि तपस्वियों का तप इहभव परभव सुखकारक है। उत्तर से संतुष्ट होकर जिन धर्म उपासिका सुमित्रा ने सुप्रभ से विवाह किया।
२.२५.७६ जाम्बवती :- जाम्बवती वैताढ्य गिरि के राजा विष्वकसेन की पुत्री तथा श्रीकृष्ण की रानी थी, वह रूप एवं गुणों
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
में श्रेष्ठ थी अंत समय में अरिष्टनेमि से दीक्षा लेकर दुष्कर तपस्या की तथा अपना प्रयोजन सिद्ध कर लिया। उसके पुत्र का नाम सबकुमार था । ३४६
135
२.२५.८० लक्ष्मणा :- लक्ष्मणा सिंहलद्वीप के श्लेक्षण राजा की पुत्री थी, श्रीकृष्ण ने राजा के सेनापति का मान मर्दन किया । इससे प्रसन्न होकर राजा ने पुत्री का विवाह श्री कृष्ण से किया था । ३५०
२.२५.८१ सुषमा :- सुषमा राजा राष्ट्रवर्धन की पुत्री थी, श्रीकृष्ण ने उसके उद्दण्ड भाई का वध करके सुषमा के साथ विवाह किया था। कालांतर में वह दीक्षित हुई । ३५१
२.२५.८२ गौरी :- गौरी सिंधु देश के मेरू भूपति की कन्या थी, उसने श्रीकृष्ण का वरण किया था, कालांतर में वह दीक्षित
हुई (३५२
२.२५.८३ पद्मावती :- बलराम के मामा हिरण्यनाभ की पुत्री थी उसने स्वयंवर में श्रीकृष्ण का वरण किया था। कालांतर में वह दीक्षित हुई |३५३
२.२५.८४ गांधारी :- गांधारी गांधार देश के राजा नागजीत की कन्या थी । श्रीकृष्ण की पत्नी थी । कालांतर में वह दीक्षित
हुई | ३५४
२.२५.८५ धारिणी :- धारिणी द्वारिका नगरी के राजा अंधकवृष्णि की पत्नी थी। उसके दस पुत्र थे गौतम, समुद्र, सागर, गंभीर, आदि । ३५५ उस धर्म संस्कारमयी माता का ही प्रभाव था कि उसने अपने पुत्रों को त्याग मार्ग पर आगे बढ़ाया।
२.२५.८६ धारिणी :- धारिणी द्वारिका नगरी के राजा वृष्णि की रानी थी, इनके अक्षोभ, सागर, समुद्र, अचल, धरण पूरण आद आठ पुत्र थे । ३५६ आठों को योग मार्ग पर बढ़ाने वाली माता वास्तव में एक आदर्श माता थी ।
२.२५.८७ धारिणी :- वह द्वारिका नगरी के राजा वसुदेव की रानी थी, उसके पुत्र थे जालि, मयालि, उवयालि, पुरूषसेन एवं वारिषेण कुमार । २५७ पुण्यमयी माता के सुसंस्कारों के प्रभाव से पुत्र त्याग मार्ग पर आरूढ़ हुए ।
२.२५.८६ दुःशल्या :- दुःशल्या धृतराष्ट्र एवं गांधारी की पुत्री थी। सौ भाइयों की इकलौती बहन एवं शक्तिसंपन्न सिंधुपति जयद्रथ की पत्नी थी ३५६
|
२.२५.६० धारिणी :- धारिणी मथुरा के राजा उग्रसेन की महारानी थी। गर्भस्थ शिशु के प्रभाव उसे पति का मांस खाने का दोहद पैदा हुआ। मंत्रियों के परामर्श से प्रयत्नपूर्वक रानी का दोहद राजा ने पूर्ण किया । पुत्र के जन्म के साथ ही भारी अपशकुन हुए अतः धारिणी ने पुत्र मोह का त्याग किया तथा कांस्य पेटी में सुरक्षित ढंग से राजा रानी की नामांकित मुद्रिका पहनाकर यमुना जल में प्रवाहित किया । वह पेटी सुभद्र श्रेष्ठी के हाथ लगी। बालक कंस के नाम से प्रसिद्ध हुआ । ३६०
२.२५.६१ थावच्चा :- थावच्चा श्रीकृष्ण के राज्य की गाथापत्नि थी । वह प्रभावशाली समद्धिशाली तथा व्यापार आदि लेन देन के समस्त कार्यों में अति कुशल थी। उसके पुत्र थावच्चा पुत्र की दीक्षा की भव्यता के लिए उसने राजा श्रीकृष्ण से छत्र, चामर और मुकुट की याचना की थी तथा पुत्रवधुओं के उत्तरदायित्व को भी बखूबी निभाया था । ३६१०
२.२५.६२ सोमा :- सोमा द्वारिका नगरी के सोमिल ब्राह्मण एवं सोमश्री की पुत्री थी। वह रूप एवं लावण्य संपन्न तथा उत्तमोत्तम देह वाली थी । स्वयं श्रीकृष्ण ने उसे सुवर्ण गेंद से क्रीड़ा करते हुए देखा। उसकी अद्भुत सौन्दर्य सुषमा से आकर्षित हुए, और अपने छोटे भाई गजसुकुमाल के लिए उसे कन्याओं के अन्तः पुर में रखवाया । ३६२
२.२५.६३ सुभद्रा :- सुभद्रा हरिवंश के राजा यदु के प्रपौत्र पौत्र, नरपति के पुत्र शूर के पुत्र राजा अंधक वृष्णि की गुणवत शीलवती रानी थी। सुभद्रा के दस पुत्र समुद्रविजय, अक्षोभ, स्तिमित, सागर, हिमवान् अचल, धरण, पूरण, अभिचंद्र और वसुदेव थे तथा दो पुत्रियाँ थीं कुंती और माद्री । ३६३ इस महिमामयी माता ने अपनी संतानों को धर्म संस्कारों से सिंचित किया था ।
२. २५.६४ सोमश्री :- सोमश्री राजा सोमदेव की पुत्री थी । वसुदेव ने मदोन्मत्त हाथी से सोमश्री की रक्षा की अतः राजा ने पुत्री का विवाह वसुदेव से किया था । ३६४
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
136
पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
२.२५.६५ सुलसा :- सुलसा भदिदलपुर नगरी के नाग गाथापति की पत्नी थी। वह शुभ लक्षणों एवं गुणों से संपन्न थी। जब वह बाल्यावस्था में थी तब निमित्तज्ञ ने उसे मृतवत्सा घोषित कर दिया था तभी से वह हरिणैगमेषी देव की भक्त बन गई। उसकी निरन्तर की गई भक्ति के प्रभाव से देव प्रसन्न हुआ। उसने देवकी के गर्भ को सुलसा के गर्भ में तथा सुलसा के मत पुत्रों को देवकी के गर्भ में स्थानांतरित किया। इस प्रकार सुलसा ने एक समान रूप, वय, कांति से संपन्न अनीकसेन, अनंतसेन, अनहितरिपु, देवसेन अजितसेन और शत्रुसेन आदि छ: पुत्रों का पालन पोषण किया एवं पुत्रवती होने का सौभाग्य प्राप्त किया।६५
२.२५.६६ नागश्री :- नागश्री चंपानगरी के ब्राह्मण सोमदेव की पत्नी थी। एक बार प्रीतिभोज में उसने कई मीठे और नमकीन व्यंजन बनाए; साथ में उसने घत मसाला आदि डालकर लौकी की सब्जी बनाई। चखने पर वह कड़वी निकली। एक मासखमण के तप धारी मुनिराज आहार लेने उसके घर पधारे। उसने कड़वे तुंबे की सारी सब्जी मुनि के पात्र में डाल दी। मुनि ने गुरू को वह सब्जी दिखाई गुरू ने उसे खाने के अयोग्य जानकर उसे परठने (फेंकने) के लिए मुनि को भेजा। लाखों चीटियों के विनाश की आशंका से करूणा शील मुनि ने अपने उदर में वह शाक डाल लिया अर्थात् खा लिया जिससे वे मत्यु को प्राप्त हुए। नागश्री को मुनि हत्या के अपराध के कारण घर से निकाल दिया। नगर के लोगों ने उसे दुत्कारा। नागश्री मरकर छठी नरक में उत्पन्न हई। तत्पश्चात मत्स्य योनि प्राप्त की, सातवीं नरक में दो बार गई तथा अनेक योनियों में परिभ्रमण करते हुए सुकुमालिका बनी। तत्पश्चात् निदान करके द्रौपदी बनी ।३६६
२.२५.६७ द्रौपदी :- द्रौपदी पांचाल देश के महाराजा द्रुपद की कन्या थी, पांडवों की पत्नी थी। तथा धष्टद्युम्न, एवं शिखण्डी की बहन थी। द्रौपदी के स्वयंवर का आयोजन रखा गया । द्रौपदी ने अर्जुन के गले में वरमाला डाली। दैव योग से पांचों पाण्डवों के गले में वरमाला दिखाई दी। राजा द्रुपद चिंतित हुए पांचों को पुत्री कैसे दी जाए? अचानक उसी समय चारण मुनि उपस्थित हुए। कृष्ण आदि राजाओं ने इस विषय पर चारण मुनि से चर्चा की। चारण मुनि ने बताया द्रौपदी पूर्वभव में सागरदत्त सार्थवाह की पुत्री थी साध्वी सुकुमालिका श्री के भव में देवदत्ता वेश्या को निर्जन स्थान पर पांच पुरूषों द्वारा सेवा कराते हुए देखा था। तब सुकुमालिका ने निदान किया था कि मेरे तप संयम के प्रभाव से मै भी पांच पतियों का वरण करूं । अतः निदान के परिणाम स्वरूप ऐसा घटित हुआ है। राजा द्रुपद ने निःशंक होकर पांच पांडवों के संग उसका विवाह कर दिया। द्रौपदी को जीवन में कई बार कठोर संघर्षों से गुजरना पड़ा। जैसे दुश्शासन द्वारा चीर हरण, अमरकंका के राजा पद्मनाभ के भवन में अपहरण कर ले जाना, अज्ञातवास में कीचक द्वारा कामोत्तेजक होना आदि। इन सभी परिस्थितियों का अपने शील की दढ़ता एवं शासन देव की कपा से उसने डटकर मुकाबला किया। अंत में सर्वाधिक कठिन परिस्थिति थी एक साथ पाँचों प्रिय पुत्रों की हत्या। उसने ऐसी स्थिति में भी शांति एवं सहिष्णुता का परिचय दिया। अंत में विरक्तमन से वह दीक्षित हुई। द्रौपदी के पातिव्रत्य से सत्यभामा प्रभावित थी।उसे घोर आश्चर्य था कि पाँचों पतिदेवों को द्रौपदी कैसे इतना प्रसन्न रख पाती है? द्रौपदी स्वाभिमानी सन्नारी थी। उसे अपने अपमान का बड़ा क्षोभ था। उसने पांडवों को शिथिल हो जाने होने पर अपने बिखरे केशों एवं चीर हरण की स्मति दिलाकर उनके क्षत्रियत्व को जगाया उसने घोर विपत्ति के समय पांडवों को समय के अनुकूल सलाह दी ३६७
२.२५.६८ कुन्ती :- कुंती शौरीपुर के यदुवंशी राजा अंधकवृष्णि की पुत्री तथा राजा पाण्डु की पत्नी थी। विवाह से पूर्व ही देवांगना सी सुंदर कुंती से आकर्षित होकर पाण्डु ने उसके मना करने पर भी गंधर्व विवाह किया तथा उसके साथ काम सेवन किया जिससे कुंती ने कर्ण को जन्म दिया। लोक लाज के भय से पुत्र को संदूक में रखकर उसे नदी में प्रवाहित कर दिया जो एक रथिक के हाथ लगा। रथिक ने कर्ण का पालन पोषण किया। कालांतर में कुंती और पांडु का विधिवत् विवाह संपन्न हुआ। कुंती ने अति प्रभावशाली स्वप्न देखकर युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन को यथा समय जन्म दिया तथा तीनों के जन्म के समय आकाशवाणी से ही उनके चरम शरीरी होने का संकेत प्राप्त किया। कुंती ने अपने तीनों पुत्रों के साथ ही साध्वी बनी हुई बहन माद्री के दोनों पुत्रों नकुल और सहदेव को भी सुसंस्कारित किया। पति पाण्डु और बहन माद्री के दीक्षित होने के पश्चात् उसने पारिवारिक दायित्वों को बखूबी निभाया। युद्ध स्थगित करने हेतु भी प्रयत्नशील रही। अपने पुत्रों के साथ वनवास का समय उसने धैर्य विवेक एवं समता से व्यतीत किया। पांडवों के हर घटनाचक्र के साथ कुंती जुड़ी हुई थी।६८
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
137
२.२५.६६ गंगा :- गंगा गंधर्व नगर के राजा "जन्हु की पुत्री थी। वह एक सुन्दर, सुशील, विदुषी एवं धर्मपरायणा नारी थी। उसकी यह दृढ़ प्रतिज्ञा थी कि मैं उसी वर के साथ विवाह करूंगी जो सद्गुणी, सुशील, शूरवीर तथा उसकी इच्छा के अनुकूल चलने वाला होगा। अन्यथा आजीवन कुमारी रहूंगी। अपना मनोरथ पूर्ण करने के लिए वह उत्तम वाटिका में जाकर साधना करने लगी। भगवान् आदिनाथ के पुत्र कुरू से कौरव वंश चला। इसी वंश परंपरा के सद्गुणी महाप्रतापी राजा "शान्तनु" थे, जिनमें शिकार खेलने का एक अवगुण था। वे उस वाटिका के निकट शिकार खोजते हुए आए। देवांगना के समान परम सुंदरी युवती को देखकर राजा ने उससे परिचय पूछा और गंगा की शर्त स्वीकार की। कदाचित् शर्त का दैवयोग से उल्लंघन हो जाये तो तुम मुझे त्याग देना इस प्रकार राजा ने गंगा की प्रतिज्ञा पूर्ण की। महाराज जन्ह वहाँ पहुँचे। सखी मनोरमा ने राजा जन्ह को शान्तनु के अभिप्राय का परिचय दिया। जन्हु ने बड़े समारोह के साथ उसी समय दोनों को विवाह बंधन में बांध दिया। शान्तनु अपनी राजधानी में आये तथा कालांतर में गंगा ने “गांगेय कुमार' को जन्म दिया। एक बार शांतनु के मन में आखेट पर जाने की तीव्र लालसा उत्पन्न हुई। शांतनु की पहनी हुई वेशभूना से रानी उसका अभिप्राय समझ गई। राजा को मधुर शब्दों में उसने समझाया, किंतु राजा नहीं रूका वह आखेट के लिए निकल गया। रानी को राजा के व्यवहार से गहरा आघात लगा। वह गांगेय कुमार को साथ में लेकर अपने पीहर चली गई। शांतनु ने आकर वहां रानी को नहीं देखा तो वह विरह से व्याकुल हो उठा। गंगा अपने पीहर रत्न पुरी में आकर धर्मध्यान पूर्वक अपना समय व्यतीत करने लगी। एक बार गंगा पुत्र गांगेय कुमार की क्रीड़ा वाटिका में राजा शांतनु शिकार हेतु आया। गांगेय द्वारा शिकार के लिए मना करने पर शांतनु तथा गांगेय में युद्ध प्रारंभ हो गया। गंगा ने पिता-पुत्र को वस्तुस्थिति की जानकारी दी। गंगा ने पुत्र गांगेय को पिता के सुपुर्द किया तथा स्वयं जैन भागवती दीक्षा धारण की। गंगा की संकल्प शक्ति तथा अहिंसा धर्म पर आस्था प्रशंसनीय है।३६६
२.२५.१०० यशोदा :- गोकुल के अधिपति नंद की पत्नी का नाम यशोदा था, जिसे देवक राजा ने अपनी पुत्री देवकी के विवाह पर गायों सहित नंद को प्रीतिदान में दिया था। यशोदा ने बहुत बड़ा त्याग किया, अपनी पुत्री को कंस के भक्षण हेतु अर्पित किया तथा कृष्ण के रक्षण हेतु उसका पालन पोषण गोकुल में किया ।३७०
२.२५.१०१ सत्यभामा :- सत्यभामा उग्रसेन राजा की पुत्री, श्रीकृष्ण की पटरानी थी, परम रूपवती होने का उसे बड़ा गर्व था। एक बार शीशे में नारदजी का मुख देखने पर उसने हँसी उड़ाई थी, इससे रूष्ट होकर नारद जी ने रूपवती गुणवती रूक्मिणी और श्रीकृष्ण के मन में परस्पर एक दूसरे के प्रति अनुरक्ति पैदा की और दोनों का विवाह संपन्न हुआ। रूक्मिणी से सत्यभामा ईर्ष्या करती थी। उसने रूक्मिणी के साथ शर्त रखी कि जिसके पुत्र का विवाह पहले होगा, दूसरी को सिर के बाल कटवाकर देने पड़ेंगे, इसमें भी सत्यभामा के ही बाल काटे गये। नेमिनाथ भगवान् के उपदेशों को सुनकर सत्यभामा का हृदय परिवर्तित हुआ। वह अर्हतोपासिका बनी। कालान्तर में दीक्षित हुई।३७१ अहं को दूर कर अर्ह पद की अधिकारिणी बनी।७२
२.२५.१०२ जीवयशा :- जीवयशा राजगृही के राजा प्रतिवासुदेव जरासंध की पुत्री तथा कंस की पत्नी थी। वसुदेव और देवकी के विवाह के पश्चात् मथुरा में आगमन पर जीवयशा व कंस ने विवाह की प्रसन्नता में एक महोत्सव का आयोजन किया। इसी बीच कंस के दीक्षित भ्राता तपस्वी अतिमुक्तक मुनि भिक्षा हेतु जीवयशा के द्वार पर आए। जीवयशा ने मुनि मर्यादा से विपरीत उच्छंखल मजाक किया। रोष पूर्वक ज्ञानी मुनि ने जीवयशा से कहा, जिस राज्य का तुझे घमंड है, वह देवकी के सातवें गर्भ से, कंस की मृत्यु द्वारा विनष्ट हो जाएगा। जीवयशा ने दुःखपूर्वक कंस को मुनि के वचन सुनाये, तथा वह सदैव कृष्ण की मृत्यु की कामना तथा प्रयत्न में लगी रहती थी। फलस्वरूप कृष्ण द्वारा कंस वध के पश्चात् उसने अपने पिता जरासंध को कृष्ण के साथ युद्ध करने के लिए प्रेरित किया। युद्ध में उसने अपने पिता को भी खो दिया। पिता एवं पति के विरह से व्याकुल होकर अग्नि में प्रवेश कर उसने अपने जीवन को समाप्त कर लिया ।३७३
२.२५.१०३ पुप्पचूला :- पुष्पचूला पुष्पचूल नरेश की पुत्री थी। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की पत्नी थी। पुष्पचूला का अपहरण करने वाला विद्याधर विद्या सिद्ध करते हुए ब्रह्मदत्त के हाथों मारा गया। विद्याधर ब्रह्मदत्त की दोनों बहनें खंडा और विशाखा अपने भाई के विवाह के लिए सामग्री लेकर, अपनी सेविकाओं एवं पुष्पचूला के साथ आई। भाई की मत्यु का समाचार सुनकर विद्याधर बहनों ने बदले की भावना से विकराल रूप बनाया। पुष्पचूला ने स्थिति का सामना धैर्य से किया ।३७४
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
138
पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
२.२५.१०४ श्रीकांता :- श्रीकांता बसंतपुर के राजा शबरसेन के पुत्र की कन्या थी। वह अनुपम सौंदर्यशालिनी थी उपवन में श्रीकांता और ब्रह्मदत्त एक दूसरे को देखकर आकर्षित हुए। श्रीकांता के पिता ने उन दोनों का विवाह कर दिया |
२.२५.१०५ रत्नावती :- रत्नावती नगरसेठ धनप्रभव की पुत्री थी। कौशांबी में कुर्कुट युद्ध देख रहे चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त से आकर्षित होकर उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा। ब्रह्मदत्त ने उसे स्वीकार किया। मगधपुर की ओर जाते हुए भयंकर डाकू दल ने उनके रथ को घेर लिया। ब्रह्मदत्त ने भीषण बाण वर्षा की तथा ब्रह्मदत्त का मित्र वरधनु कहीं लुप्त हो गया। ब्रह्मदत्त व्याकुल होकर रोने लगा। तब रत्नावती ने सूझ बूझ से अपने पति को समझाया कि इस घोर वन में रूकना संकट को आमंत्रित करना है। अतः हमें यहाँ से शीघ्र चलना चाहिए। सुरक्षित स्थान पर पहुँचकर हम उसकी खोज करेंगे। इस प्रकार संकट की घड़ियों में भी पति को धीरज दिलाकर आश्वस्त किया।३७६
२.२५.१०६ खण्डा और विशाखा :- खंडा और विशाखा वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी के शिव मंदिर नगर के नरेश ज्वलनशिखजी की पुत्रियाँ थी। एक बार उनके पिता ने एक महात्मा से पूछा कि दोनों बहनों के पति कौन होंगे। महात्मा ने बतलाया जो पुरूष इनके भाई को मारेगा वही इनका पति होगा। परिणामस्वरूप ब्रह्मदत्त के साथ उनका विवाह हआ और वह दे पुष्पवती के साथ व्यतीत करने लगी।३७०
२.२५.१०७ पुण्यमानी :- पुण्यमानी चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त की पत्नी थी।३७८
२.२५.१०८ श्रीमती : धनकुबेर सेठ वैश्रमण की पुत्री थी तथा ब्रह्मदत्त की पत्नी थी।३७६ २.२६ जैन कथाओं में वर्णित जैन श्राविकाएँ :
२.२६.१ लीलावती :- सागरदत्त के कनिष्ठ पुत्र श्रीराज की पत्नी थी। लीलावती दृढ़ किंतु पतिव्रता सन्नारी थी। एक बार ठग और चोरों के चंगुल में वह फंस गई थी, किंतु अपनी बुद्धि चातुर्य से उसने शील धर्म की रक्षा की है, साथ ही उन ठगों का हृदय परिवर्तित कर उन्हें सभ्य नागरिक भी बनाया।८०
२.२६.२ रोहिणी :- श्रमणोपासक सुदर्शन सेठ एवं श्रमणोपासिका सेठानी मनोरमा रोहिणी के माता-पिता थे। बालवय में ही वह पति विहीन हो गई। और धार्मिक संस्कारों के प्रभाव से वह अपना अधिकांश समय धर्म-ध्यान तथा तप त्याग में करने लगी। अन्य श्राविकाओं को भी वह धर्म कथायें सुनाने लगी। समय के साथ-साथ उसकी धर्मकथा विकथा में परिवर्तित हो गई। नगर के नरेश और पटरानी के विषय में अपशब्द बोलने से वह तिरस्कृत हुई। नगर से निकाली गई तथा दुर्गति रूप नरक में गई ।३८१
२.२६.३ चंद्रा :- भरत क्षेत्र के वर्धमानपुर नगर के एक कुलपुत्र सिद्धड़ की स्त्री चंद्रा थी। चंद्रा का एक पुत्र था जिसका नाम था सर्ग। ये तीनों प्राणी मेहनत मजदूरी करके अपना पेट नहीं भर पाते थे। एक दिन किसी व्यापारी के यहाँ सुबह से शाम तक चन्द्रा भूखी प्यासी काम करती रही। शाम को सेठ ने मजदूरी भी नहीं दी वह घर लौट आई। सर्ग गाय बछड़े को लेकर सवेरे से ही जंगल चला गया था। जोरों की भूख उसे लग रही थी। मां की इंतजार में वह व्याकुल होकर क्रोध मे मां से बोला-पापिने! दुष्टे! क्या व्यापारी ने तुझे शूली पर चढ़ा दिया था, जो तूं अब तक वहीं बैठी रहीं? चंद्रा को भी सर्ग की विष भरी वाणी से क्रोध आ गया। वह सर्ग से बोली "क्या तेरे हाथ कट गये थे जो तूं न सांकल खोल सका और न ही छींके पर से रोटियां उतार कर खा सका। इस प्रकार दोनों ने एक दूसरे से कठोर वचन कहे तथा अशुभ कर्मों का बंधन कर लिया। कालांतर में मुनि के उपदेश को सुनकर सर्ग तथा चंद्रा ने श्रावक के १२ व्रतों की आराधना की तथा समाधिमरण से देव भव को प्राप्त किया। तत्पश्चात् वे दोनों अरूण देव और देयिणी के रूप में ताम्रलिप्ती नगर में उत्पन्न हुए। देयिणी एक बार सखियों के साथ उद्यान में भ्रमण कर रही थी। चोर ने कंगन सहित उसकी कलाई काट दी। संयोग से अरूण देव उसी उद्यान में बैठा हुआ था। चोर सिपाहियों के भय से अरूणदेव के समीप कलाई तथा छुरी रखकर कहीं छिप गया। राजा के सैनिकों ने अरूण देव को पकड़ लिया। उसे शूली का हुकुम हुआ। अरूण देव के मित्र द्वारा वास्तविकता प्रकट हुई। पिछले जन्म में किये गये कठोर वचनों के प्रयोग के कारण ऐसा कठोर शारीरिक व मानसिक दुःख उन्हें भुगतना पड़ा ।३८२
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
139
२.२६.४ मदनवल्लभा :- अंगदेश की राजधानी धारापुर नगर के राजा संदर की रानी का नाम मदनवल्लभा था। कुलदेवी ने राजा को भावी संकट के बारे में सावधान किया। राजा अपनी रानी एवं दो पुत्रों सहित मंत्री को राज्य सौंपकर स्वयं सेवक बनकर जीवन चलाते रहे। विपत्ति के कारण राजा रानी तथा बच्चों का विछोह हो गया। राजा तथा रानी परीक्षा लिए जाने पर भी अपने शीलधर्म में दढ रहे। मदनवल्लभा ने सेविका रूप में कश काय होने पर भी अपने शील धर्म को सुरक्षित रखा है। कालांतर में अचानक ही श्रीपुर के राजा की मृत्यु हो जाने पर सुंदर पुनः राजा बन गया। दोनों पुत्रों और मदनवल्लभा से मिलन हुआ। पुनश्च मंत्री ने राजा को ससम्मान धारापुर में बुलाया। वहाँ मुनि के दर्शनो का संयोग मिला। मुनि से पूर्वभव पूछा और पुनः धर्म में दृढ़ हो कर राजा रानी ने श्रावक व्रतों की आराधना की तथा स्वर्ग को प्राप्त हुए।३८३
२.२६.५ स्मिता :- कुसुमपुर के अधिपति राजा विमलसेन की पुत्री तथा राजा सूर्यसेन एवं महारानी ज्योत्सना के सुपुत्र युवराज कुमारसेन की वह रानी थी। युवराज की प्रतिज्ञा थी कि मैं अनुपम सुंदरी एवं विलक्षण प्रतिभा की धनी राजकुमारी से ही विवाह करूँगा। अन्ततः राजकुमारी स्मिता से कुमार सेन का विवाह हुआ। स्मिता ने अपने बुद्धिचातुर्य एवं धर्म परायणता से पति एवं पारिवारिक जनों का हृदय जीत लिया। उसके सद्गुणों व धार्मिकता का प्रभाव कुमारसेन पर भी पड़ा। फलस्वरूप कुमार सेन ने भी श्रावक व्रतों को अंगीकार किया ।३८४
२.२६.६ बसन्तसेना :- सेठ जिनदत्त विदेश यात्रा के लिए तैयार हुए। उसने सभी नगर निवासियों से पूछा- बताओ! मैं विदेश से आपके लिए क्या लाऊँ ? किसी ने खाद्य पदार्थ मंगवाया, किसी ने आभूषण तो किसी ने वस्त्र इत्यादि। श्रेष्ठी ने राजा के पास पहुँचकर पूछा महाराज आपके लिए विदेश से क्या लाऊँ। राजा ने उसे चार सार लाने के लिए कहा। सेठ ने करोड़ों का धन विदेश में अर्जित किया। नगर निवासियों की पसन्द की सभी वस्तुएं खरीदी, किंतु राजा के चार सार के लिए वह चिंतित हुआ ।पूछने पर किसी बुद्धिमान सज्जन ने उसे बताया कि नगर वधू बसन्त सेना से आपको चार सार उपलब्ध हो सकते हैं। वह वेश्या बसंतसेना के पास गया एवं प्रत्येक सार एक-एक लाख मुद्राओं में खरीदा। स्वदेश लौटकर उसने सभी की मन पसंद वस्तुएं उन्हें प्रदान की। राजा की इच्छा के अनुरूप चार सार उसने राज सभा में पेश किए जो इस प्रकार हैं :-(१) बुद्धि पाने का सार है- तत्व चिंतन । (२) शरीर का सार है- व्रतों का पालन। (३) धन का सार है- सुपात्र का दान । (४) वाणी का सार- मधुर वचन । राजा अति प्रसन्न हुआ तथा चारों को जीवन में अपनाया। जिनदत्त को मुँह मांगा इनाम दिया गया तथा वसन्त सेना को अपने राज दरबार में बुलाकर उसका बहुत सम्मान किया। बसन्त सेना ने वेश्या वृत्ति का त्याग कर दिया तथा धर्ममय जीवन व्यतीत करने लगी। इस प्रकार चार सार का पालन करने से सारा नगर धर्म के रंग में रंग गया।३८५
२.२६.७ विद्युल्लता :- विद्युल्लता सज्जन शेखर के पुत्र विद्युतसेन की पत्नी थी। विवाह की प्रथम रात्रि में ही कुलदेवी द्वारा विद्युतसेन का अपहरण हो गया। विद्युल्लता के धैर्य और धार्मिक प्रवृत्ति के प्रभाव से चोरों ने उसके भाई बनकर विद्युतसेन का पता सती विद्युल्लता को दिया। और उन्होंने बताया कि विद्युतसेन का अपहरण देवी द्वारा हुआ है तथा वह अमुक स्थान पर मिल सकता है। विद्युल्लता अपने पति की खोज में निकली तथा अपने सतीत्व के बल पर उसने कुलदेवी को प्रसन्न किया। फलस्वरुप कुलदेवी ने उसके पति को सकुशल घर लौटा दिया ।२८६
२.२६.८ मृगासुंदरी :- मृगासुंदरी राजा चंद्रशेखर की एवं रानी चंद्रावली की पुत्रवधू एवं सज्जनकुमार की पत्नी थी। परिणय की प्रथम रात्रि में पति सज्जनकुमार का अपहरण होने पर मगासुंदरी पुरूष वेष में पति को खोजने निकली, योगिनी का वेश बनाकर पाखंडी योगी के चक्रव्यूह में फंसे पति एवं अन्य व्यक्तियों का भी उसने उद्धार किया। अपनी सूझबूझ, साहस और चातुर्य के बल पर उसने सतीत्व का तेज दिखाया और साथ ही नारी जाति की गरिमा में चार चांद लगाए ।३८७
२.२६.६ गुणसुंदरी :- गुणसुंदरी राजा अरिदमन की पुत्री थी जिसको राजा ने चुनौती दी कि पुत्री का सुख दुख पिता पर निर्भर है। पुत्री गुणसुंदरी कर्मवाद के सिद्धान्त पर अटूट विश्वास रखती थी। उसने कहा पिता जी! प्रत्येक व्यक्ति को अपने किये कर्मों के अनुसार फल मिलता है। पिता अरिदमन ने क्रुद्ध होकर एक लक्कड़हारे से उसका विवाह कर दिया। किंतु गुण सुंदरी को अपने भाग्य पर भरोसा था कालांतर में वह सब प्रकार से सुखी हो गई।८८
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
140
२.२६.१० मदनरेखा :- मदनरेखा सुदर्शनपुर नगर के युवराज युगबाहु की धर्मपत्नी थी। पति परायणता, शीलधर्म आदि उदात्त गुणों के लिए प्रसिद्ध थी तथा वह समकित धारिणी श्राविका एवं परम बुद्धिमती थी । युगबाहु के बड़े भाई मणिरथ ने मदनरेखा को पाने के लिए छलपूर्वक छोटे भाई युगबाहु पर तलवार का प्रतिघात किया। मदन रेखा ने अपने हृदय की व्यथा को दबाकर परिस्थिति से समझौता किया। मरणासन्न युगबाहु के मन में भाई के प्रति प्रतिशोध के भाव न जगें इसका पूरा ध्यान रखा। पति को अठारह पापों के प्रत्याख्यान करवाये। संलेखना संथारा द्वारा उनका अंतिम समय सुधारा । फलस्वरूप पति ने देव बनकर मुनि के समक्ष उपकारिणी सती मदनरेखा को पहले प्रणाम किया। मदन रेखा ने अपने प्रति आसक्त विद्याधर मणिप्रभ को योग्य मार्गदर्शन देकर भाई बनाया। अपने बड़े पुत्र चंद्रयश तथा छोटेपुत्र मिथिला नरेश नमिराजा के बीच हो रहे युद्ध को रूकवाया। भाई-भाई में प्रेम करवाया। स्वयं मदनरेखा ने दीक्षा लेकर आत्म कल्याण किया । ३८६
२. २७ विविध श्राविकाएँ :
२.२७.१ विरता :- पांचवें सुनंद बलदेव की पत्नी थी विरता । उसके गर्भ से सुमति नामक एक कन्या पैदा हुई थी, वह बाल्यावस्था से ही जिनोपदिष्ट धर्म का पालन करती थी तथा विभिन्न तप भी करती थी, वह बारह व्रतधारिणी श्राविका थी । एक बार उसने मुनि को आहार दिया। रत्न वर्षादि पाँच दिव्य वहाँ प्रकट हुए। उसके स्वयंवर में एक देवी जो उसके पूर्वभव की बहन कनकश्री थी उसने पूर्वजन्म का स्मरण करवाकर उसे प्रतिबोध दिया। फलस्वरूप उसने दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया । ३६०
पौराणिक / प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
२. २७.२ स्वयंप्रभा :- वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी में रथनुपूर चक्रवाल नामक एक नगर था। वहां जवलनजटी नामक विद्याधर तथा उनकी प्रधान महिषी वायुवेगा की पुत्री थी स्वयंप्रभा । स्वप्न में माता ने स्वयंप्रभा से आकाश को आवृत्त करने वाली चंद्रकला देखी अतः कन्या का नाम स्वयंप्रभा रखा गया। उसके भाई का नाम अर्ककीर्ति था। अभिनंदन और जगनंदन नामक दो मुनियों के समीप स्वयंप्रभा ने सम्यक्त्व ग्रहण किया । तथा श्राविका व्रतों को अंगीकार किया। कालांतर में स्वयंप्रभा से श्री विजय और विजय नामक दो पुत्रों का जन्म हुआ । ३९१
I
२.२७.३ सुकेशा :- गगन वल्लभ नामक नगरी के राजा विद्याधरपति सुलोचन की पुत्री तथा द्वितीय चक्रवर्ती सागर की स्त्रीरत्न थी सुकेशा । चक्रवर्ती पद पर आसीन होते समय भी स्त्री रत्न तथा अंतःपुर की रानियाँ पास में ही उपस्थित रहती हैं। बत्तीस हजार राजकन्याएं, बत्तीस हजार स्त्रियां, कुल चौंसठ हजार रानियां चक्रवर्ती सगर के अंतःपुर में थी । उनसे सगर के साठ हजार पुत्र हुए थे । ३९२
पुत्र
२.२७.४ वासुदेव लक्ष्मण की पत्नियाँ :- • वासुदेव लक्ष्मण की कुल मिलाकर सोलह हजार रानियां थी । और अढ़ाई सौ थे । विशल्या, रूपवती, वनमाला, कल्याणमाला, रत्नमाला, जितपद्मा, अभयवती और मनोरमा, ये आठ पटरानियाँ थी । ३६३
२. २७.५ राम की चार पत्नी थी- सीता, प्रभावती, रतिनिभा, और श्रीदामा ।
श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार श्री वासुपूज्य जी, मल्लि भगवती, श्री अरिष्टनेमि भगवान और श्री पार्श्वनाथ प्रभु ये चारों तीर्थंकर अविवाहित
३६४
२.२७.६ मगधसुंदरी :- राजगृही में प्रतिवासुदेव जरासंध का राज्य था, मगधसुंदरी और मगधश्री नाम की दो नृत्यांगनाएं मगध राज्य की कला विभूतियां मानी जाती थी । जरासंध दोनों का ही बड़ा सम्मान करता था । मगधश्री कुटिल तथा ईर्ष्यालु स्वभाव की थी, अतः उसने मगध सुंदरी को मारने की कुटिल योजना बनाई। राजगृह में कोई विशेष उत्सव था, मगध सुंदरी का नृत्य होने वाला था। नृत्य आंगन में भी रंग बिरंगे फूल बिछाये गये थे। वहीं मगधश्री ने भी सफेद गुलाब के फूल बिछा दिये। उन फूलों को उसने विषैले धुएं से वासित कर विषाक्त बना दिया था। मगध सुंदरी का नृत्य प्रारंभ हुआ। मगध सुंदरी की आका (संरक्षिका-माता) ने देखा भ्रमर सफेद गुलाब पुष्पों पर नहीं बैठते हैं। उसने गीतिकामय गाथा पढ़ी जिसके भाव थे गुलाब के फूलों को छोड़कर भ्रमर आम्र मंजरियों की तरफ क्यो जा रहे हैं? आका का संकेत समझकर नृत्य करते समय मगध सुंदरी फूलों से दूर ही रही। सकुशल नत्य पूर्ण किया । मगध सुन्दरी की सर्वत्र प्रशंसा हुई।
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
141
२.२७.७ मृग सुंदरी :- मृग पुर नगर के सेठ जिनदत्त की पुत्री थी, अन्य मतावलंबी धनेश्वर ने छलपूर्वक जैन धर्म का ढ़ोंग रच कर मृग सुंदरी को अपनी पत्नी बनाया। मृग सुंदरी के तीन नियम थे। पहला था, जिनेंद्र भगवान् की स्तुति के बाद ही कुछ खाना पीना, दूसरा निग्रंथ श्रमणों को प्रतिलाभित करके ही खाना पीना, तीसरा सूर्योदय के दो घड़ी बाद से सूर्यास्त की दो घड़ी पहले ही खान पान की समस्त क्रियाएं समाप्त कर लेना। उसने गुरूदेव से लिए नियमों का दृढ़तापूर्वक पालन किया। ससुराल वाले उसके नियम पालन में विघ्नरूप बने किंतु वह अपने नियमों में दृढ़ रही। उसके ससुराल वालों ने जब देखा कि एक संपूर्ण परिवार रात्रि में सर्प गिरे हुए विषाक्त भोजन खाने से मृत्यु को प्राप्त हुआ। तब उन्हें नियमों की उपयोगिता का भान हुआ। और वे भी धर्माभिमुख हुए। नियम दढ़ता के कारण वह अगले जन्म में ऐसी शील संपन्ना नारी बनी जिसके स्पर्श मात्र से राजकुमार का कुष्ठ रोग दूर हो गया तथा वह भी जिन धर्मानुयायी बन गया। उसी राजकुमार के साथ विवाह होने से वह राजरानी बनी और आयु के अंत में संयम का पालन करके उसने अपनी आत्मा का कल्याण किया ।३६६
२.२७.८ भवानी :- पूर्वजन्म में अभक्ष्य भक्षण से वह बीमार हुई। गुरूणीजी से पूर्वभव की घटना सुनकर अभक्ष्य का उसने त्याग किया। फलस्वरूप अगले जन्म में वह मंत्री की पुत्री बनी। रसना इंद्रिय को वश में करने के कारण वह अमोघवादिनी और परम बुद्धिमती बनी। वह इतनी भाग्यशालिनी थी कि उसके जन्म लेते ही देश में अकाल की मंडराती भीषण काली छाया सुकाल की सुखद चंद्ररश्मियों में परिवर्तित हो गई। युवावस्था में अनेक धूर्तों को वाद में पराजित करके अपने देश का उसने गौरव बढ़ाया, कालांतर में संयम अंगीकार कर वह सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुई।३९७
२.२७.६ झणकारा :- झणकारा श्रेष्ठीपुत्र लीलापत की पत्नी थी। कई रूप लोभी कापुरुषों द्वारा झणकारा का अपहरण किया गया। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी झणकारा ने अपने बुद्धिबल एवं आत्मबल से शील धर्म की रक्षा की एवं अंत में दीक्षित
हुई।३६८
२.२७.१० सुरूपा :- गगन धूली की पत्नी थी। गगन धूलि के गले की माला सुरूपा के शील के प्रभाव से मुझौती नहीं थी। राजा विक्रमादित्य ने मूलदेव और शशीभत नामक विश्वस्त सेवकों को परीक्षा हेतु भेजा दोनों असफल हुए और स्वयं फंस गये। पिक्रम राजा ने सती की जयजयकार की एवं उससे क्षमा याचना की।३६६
२.२७.११ शुभमती :- अवंती के राजा विक्रमादित्य की रानी थी। राजकुमारी के रूप में युक्ति पूर्वक उसने शील की रक्षा
२.२७.१२ तिलकमती:- सेठ जिनदत्त एवं जिनदत्ता सेठानी की पुत्री थी तथा कनकपुर के राजा कनकप्रभ की रानी थी। तिलकमती के जन्म के कुछ महीनों के बाद ही उसकी माँ की मत्यु हो गई। तथा विमाता बंधुमती ने तिलकमती को हानि पहुँचाने
का विफल प्रयत्न किया। तिलकमती के पुण्योदय से वह राजा कनकप्रभ की रानी बनी। मुनि से पूर्वभवों का वत्तान्त सुनकर, तितकमती ने श्राविका व्रतों का आराधन किया तथा सुगंधदशमी व्रत की आराधना की। ईशान नामक दसरे स्वर्ग में दो सागर की आयुवाली देव बनी, आगामी भव में उसे मोक्ष लाभ होगा।४०१
२.२७.१३ सती कमला :- भृगुकच्छ के राजा मेघरथ एवं रानी पद्मावती की पुत्री तथा सोपारपुर के राजा रति वल्लभ की रानो थी। सागरद्विपीय राजा कीर्तिध्वज ने सती कमला का अपहरण कर लिया। उसे लोहे की जंजीरों से जकड़वाकर एक अंधेरी कोठरी में डलवा दिया। कमला के शील के प्रभाव से बेंड़ियाँ कच्चे धागे की तरह टूट गई राजा कीर्तिध्वज को माफ कर कमला ने उन्हें भाई बनाया। शील की जयजयकार हुई।०२।
२.२७.१४ बंधुमती :- श्रेष्ठी रतिसार की पुत्री थी, तथा कंचनपुर के श्रेष्ठीपुत्र बंधुदत्त की पत्नी थी। राजा ने चोरी के झूठे आरोप में बंधुदत्त को पकड़ा एवं उसे शूली की सजा दे दी। बंधुमती के कंगन चुराने के आरोप मे बंधुदत्त पकड़ा गया। सेठ रतिसार ने राजा को वस्तुस्थिति से ज्ञात करवाया कि यह मेरा दामाद है। कालांतर मे सुयश नामक ज्ञानी मुनिराज पधारे । रतिसार ने जंमाई को अकारण चोर बताने का कारण पूछा। मुनि ने बताया कि पूर्वजन्म में बंधुमती और बंधुदत्त माता और पुत्र थे। कठोर वचनों का प्रयोग करने से इस जन्म में यह फल मिला है। यह सुनकर सेठ रतिसार ने दीक्षा अंगीकार की तथा दोनों बंधुदत्त एवं बंधुमती ने श्राविका व्रतों की आराधना की।४०३
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
142
२.२७.१५ नंदयंती :- सोपारपुर नगर के सेठ नागदत्त की कन्या थी तथा पोतनपुर के नगर सेठ सागरपोत के पुत्र समुद्रदत्त की पत्नी थी। गर्भवती नंदयंती पर सासुजी ने कुलकलंकिनी का आरोप लगाकर जंगल में छोड़ दिया। भडौचनगर के राजा पद्म ने उसे बहन बनाकर रखा। नंदयंती ने याचकों के लिये सदाव्रत खोला। समुद्रदत्त नंदयंती को ढूंढता हुआ वहीं पहुंच गया। नंदयंती ने समुद्र दत्त को पहचान लिया। दोनों का मिलन हुआ। वे दोनों सकुशल अपने नगर में पहुँचे । केवली मुनि से पूर्वभव को सुनकर व जानकर नंदयंती ने श्राविका व्रतों को धारण किया । ४०४
२.२७.१६ कनकसुंदरी :- वह सेठ धनदत्तकुमार के पुत्र मदन कुमार की पत्नी थी। नगर की कामलता गणिका ने मदनकुमार के मन में कनकसुंदरी के प्रति नफरत पैदा कर दी। मदन कुमार कनकसुंदरी से विमुख हो गए। कनकसुंदरी ने अपनी हिम्मत एवं बुद्धिमानी के बल पर धीरे धीरे पति की भ्रांति को दूर किया और पति को सन्मार्ग पर आई | ४०५
२.२७.१७ अनंतमती :- सती अनंतमती बाल ब्रह्मचारिणी थी । विकारवर्धक दूषित वातावरण के बीच, प्रलोभनों और कामांध पुरूषों के अनेक आक्रमणों एवं आमंत्रणों के बावजूद भी जान हथेली पर लेकर अनंतमती ने अपनी ब्रह्मज्योति को अखण्ड बनाये
रखा | ४०६
२. २७.१८ सती रोहिणी :पाटलीपुत्र के सेठ धनावह की पत्नी थी। राजा श्रीनंद रोहिणी पर मोहित हो गया। रोहिणी ने राजा को युक्ति से सन्मार्ग दिखाया तथा राजा ने उसे बहन बना लिया। राजा श्रीनंद के मन में रोहिणी के प्रति शंका पैदा हो गई। सती के शील के प्रभाव से सात दिन तक पाटलीपुत्र नगर में निरन्तर वर्षा हुई। संपूर्ण नगर जल मे डूब गया। सती नारी रोहिणी ने अंजली में जल लेकर पानी को कम करने का संकल्प किया। पानी कम हो गया। राजा श्रीनंद सती रोहिणी के शील धर्म से प्रभावित हुआ, उससे क्षमा याचना की तथा सती की सर्वत्र जय जयकार हुई |४०७
२.२७.१६ रति सुंदरी :- साकेतपुर के राजा नरकेशरी की पुत्री तथा नंदन देश के राजा चंद्र की रानी थी । कुरूदेश के राजा महेन्द्र ने रति सुंदरी को पाने के लिए युद्ध किया । राजा चंद्र युद्ध में मारे गये। रतिसुंदरी ने छः माह तक तप से तन को सुखाया, अंत में दो नेत्र निकाल दिये, तब राजा महेंद्र को बहुत पश्चाताप हुआ । ४०८
सन्दर्भ सूची (अध्याय- २)
१. युवाचार्य श्री मधुकरमुनि जी, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र प ३१
२. अ स्त्रीणां शतानि शतशोः जनयंति पुत्रान्
नान्याः सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्त्ररश्मि,
२. ब. सु० डोशी रतनलाल तीर्थंकर चरित्र भा० १ परिशिष्ट
३.
सुश्रावक डोशी रतनलाल जी तीर्थंकर चरित्र भाग १ प्र. ४.
४.
वही
पृ
१४.१५.
वही प्र.१५.१६.
वही १७.
५.
६.
७.
८.
प्राच्येव दिग्जनयति स्फरदंशुजालम् (भक्तामर स्तोत्र श्लोक सं. २२)
६.
१०.
११.
पौराणिक / प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
वही पृ० १७.
वही
फ्र १६.
वही पृ. २६.२८..
२६.
पू. श्री अमोलक ऋषिजी म. समवाया. सूत्र पृ० ३०६.
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१३.
१४.
१५.
१६.
१७.
१८.
१६.
२०.
२१.
२२.
२३.
२४.
२५.
२६.
२७.
२८.
२६.
३०.
३१.
३२.
३३.
३४.
३५.
आ. हस्तीमलजी म. जै० ध॰ का मौलिक इतिहास, पृ० ७१. ७२.
युवाचार्य श्री मधुकर मु. जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र प्र. ६६.
पू. श्री अमोलकऋषिजी म. समवायाङ्ग सूत्र पृ० ३१६.
आ. हेमचन्द्र त्रिषष्टि शलाका पुरूष चरित्र पर्व १ सर्ग २ प्र० ५१.५५.
आ. हेमचंद्र त्रिष. श. पु. च. पर्व १ सर्ग २ पृ० ५० ५१ ५२
३६.
४०.
वही
४१.
४२.
पृ. ५५.
सुश्रावक डोशी रतन लाल जी तीर्थंकर च० भा० १ पृ० ४२
वही. पृ. ४४.
आ. हेमचंद्र त्रि. ष. श. पु. च. पर्व १ सर्ग २ पृ. ५५
सु०. डोशी रतन लाल जी तीर्थं च भा १ पृ. ६१
वही पृ. १०३, १०५, ४४.
वही
वही
प्र. ६६.१००
प्र. ६६.१००
प्र. ६६.१००
पू. श्री अमोलक ऋषि जी म० समवायाङ्ग सूत्र पृ. ३०७
आ. हेमचंद्र त्रि.ष. श. पु. च. पर्व २ सर्ग १ पृ. १७१
आ. हस्तिमल जी म. जैन धर्म का मौलिक इतिहास पु १५०
आ. हेम. त्रि.ष. पु. च. पर्व २ सर्ग २ पृ. १७०
वही पर्व ३ सर्ग १ पृ. २५८. २५६
पू. श्री अमोलक ऋषि जी. म०. . समवायांग
वहीं. पृ. ३०७
आ. हेमचंद्र, त्रि.ष.श.पु.च. पर्व ३ए सर्ग २ पृ. २६६, २७२
(अ) वही पर्व ३ सर्ग ३ पृ. २७५,२७८
(ब) डोशी रतन, तीर्थंकर चरित्र, भाग १. प्र. १३७ ३६. हेमचंद्र त्रिषष्टि. पर्व ३ सर्ग ३ पृ. २७६ २८१२८३
३७. पू. श्री अमोलक ऋषि जी म. सम० सू० पृ० ३०७
३८.
सूत्र. पृ. ३०७
(अ) आ. हेमचंद्र त्रिषष्टिशलाका पुरुष, पर्व ३ सर्ग ४ प्र. २८४२८५२६०
(आ) सु०. डोशी रतन लाल जी तीर्थ. च. भाग १ पृ. १४१
पू. अमोलक ऋषि. समवायाङ्ग सूत्र पृ. ३०७
(अ) हेमचंद्र त्रिषष्टि, पर्व ३ सर्ग ५ पृ. २६१२६३
(आ) सु०. डोशी रतन लाल जी तीर्थं च भाग. १ ० १४६
पू० अमोलक ऋषि जी म०. सम. सूत्र. पृ ३०७
(अ) आ. हेमचंद्र त्रिषष्ठिशलाका पुरूष चरित्र पर्व ३ सर्ग ६ पृ. २६६.२६८
(आ) सु०. डोशी रतनलाल जी तीर्थं चरित्र भाग १, पृ० १५२
पू० अमोलक ऋषि सम. सूत्र. पृ. ३०७
(अ) वही. पृ. ३०७ (आ) हेमचंद्र त्रिषष्टिशलाका पुरूष, च० पर्व ३ सर्ग ७ पृ. ३०१.३०२
४३.
४४.
४५. (अ) सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थं. च. भाग १..
प्र. १६१
(आ) आ. हेम. त्रिषष्टि, पर्व ३. सर्ग ८ पृ. ३०७.३१०
143
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
पौराणिक /प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
-
४६. पू० अमोलकऋषिजी म. समवायांग सूत्र पृ. ३०७ ४७. (अ) वही पर्व. ४ सर्ग १ पृ. ३१३.३१५
(आ) वही. पृ. १६५ ४८. (अ) हेमचंद्र त्रिषष्टिशलाका पुरूष च. पर्व ४ सर्ग १ पृ. ३१३.३१५
(आ) सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थ च. भाग १ पृ. १६५ ४६. (अ) अमोलक ऋषि जी समवायांग सूत्र न. ३०७..। ५०. (अ) आ. हेमचंद्र त्रिषष्टि शलाका पुरूष चरित्र पर्व ४ सर्ग १ प्र. ३१८ ३२१ ३४३
(ब) सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थकर चरित्रभाग १ प. १७० ५१. पू० अमोलक ऋषि. सम. सूत्र. पृ. ३१८ ५२. (अ) आ. हेमचंद्र त्रिपिष्टि शलाका पुरूष चरित्र पर्व ४ सर्ग १ पृ. ३१८ ३२१ ३२५
(आ) सु० डोशी रतन लाल तीर्थं च. भा. १ पृ. १७१.१७२ ५३. पू० अमोलक ऋषिजी सम सूत्र पृ. ३१७ ५४. सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थंकर चरित्र भाग १ पृ. १६७ ५५. वही पू. १६७ ५६. पु० अमोलकऋषिजी म. सम. सूत्र. पृ. ३०७ ५७. आ. हेमचंद्र, त्रिषष्टिशलाका पुरूष च. पर्व ४ सर्ग २ पृ. ३४४ ३४५ ३५५ ५८. सु० डोशी. रतनलाल जी तीर्थकर चरित्रभाग १. १६३.१६४ ५६. वही. पृ. १६४
(अ) आ. हेमचंद्र त्रि. प. श. पु. च. पर्व ४ सर्ग २ प्र. ३५० ३५५
(ब) सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थकर चरित्र भाग १ पृ. १६४ ६१. पू० अमोलक ऋषिजी म. सम सूत्र प्र. ३१७ ६२. (ब) आ. हेमचंद्र त्रि. ष. श. पु. च पर्व ४ सर्ग २ पृ. ३५०.३५५
(य) सू० डोशी रतनलाल जी तीर्थ च. भाग १ प्र. १६४ ६३. पू० अमोलक ऋषिजी म. सम. सूत्र. पू. ३१८ ६४. उपा० पुष्कर मुनि जी जैन कथाएँ भाग - ६६ प्र. १३६.१६४ ६५. (अ) पू० अमोलक ऋषि जी म. सम. सूत्र पृ. ३०७
(ब) सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थकर च. भा. १ प्र. २०३ ६६. आचार्य हेमचंद्र त्रि. ष. श. पु. पर्व ४ सर्ग ३ प्र. ३५६ ३५७ ३६२ ३६३ ६७. आ. हेमचंद्र त्रि. प. पु. च. पर्व ४ सर्ग ३ प्र. ३५८ ३५६ ३६२ ३६३ ६८. पू० अमोलकऋषि जी सम. सूत्र. ३१८ ६६. आ. हेमचंद्र त्रि. ष. श. पु. च. पर्व ४ सर्ग ३ पृ. ३५८ ३६३ ७०. पू० अमोलक ऋषि जी सम. सूत्र प्र ३१७ ७१. अ. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थ. च. भाग १ पृ. २१०
आ. हेमचंद्र त्रि.ष.श.पु.च. पर्व ४ सर्ग ४ प्र. ३६७.३७४ ७२. पू० अमोलक ऋषि. जी म० सम. सूत्र प्र ३१८ ७३. (अ) आ. हेमचंद्र त्रि.ष.श.पु.च. पर्व ४ सर्ग ४.प्र. ३६६.३७४
(आ) सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थं. च. भाग १ पृ. २१० ७४. पू० अमोलक ऋषि जी म. सम. सूत्र प्र ३१७
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
145
७५. (अ) सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थ. च. भाग १ पृ. २०६
(आ) पू० अमोलक ऋषि जी म. सम सूत्र प ३०७
आ. हेमचंद्र त्रि.ष.श.पु.च. पर्व ४ सर्ग ४ पृ. ३६४ ३६५ ३७४ ७७. (अ) सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थ. च. भाग १ पृ. २१६
(आ) आ. हेमचंद्र त्रि.ष.श.पु.च. पर्व ४ सर्ग ५ पृ. ३७५ ३७६ ३८६ ७८. पू० अमोलक ऋषि जी म०ि सम. सूत्र १ ३०७ ७६. (अ) आ. हेमचंद्र त्रि.प.श.पु.च. पर्व ४ सर्ग ५ प्र. ३७७ ३८६
(आ) सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थकर चरित्र भा. १पू. २२० (अ) पू० अमोलकऋषि जी म० सम. सूत्र पृ. ३१७
(आ) तीर्थ. च. भा. १, प. १७० ८१. (अ) आ. हेमचंद्र त्रि. प. श. पु. च. पर्व ४ सर्ग ५ पृ. ३७७.३८६
(आ) सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थकर चरित्र भाग १ पृ. २२० ८२. पू० अमोलकऋषिजी म. सम, सूत्र, प. ३१८ ८३. (अ) आचार्य हेमचंद्र त्रि. प. श. च. पर्व ४ सर्ग ७ पृ. ३८६.३६०
(ब) सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थकर चरित्र भाग १ प्र. २३३ ८४. पू० अमोलक ऋषि जी म० सम. सूत्र प्र. ३१६ ८५. (अ) आ. हेमचंद्र त्रि. प. श. पु. च. पर्व ४ सर्ग ७ पृ. ३६१.३६६ ४०१.४०
(ब) सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थकर चरित्र भाग १ पृ. २३५ ८६. पू० अमोलक ऋषिजी, म. सम. सूत्र, पृ. ३१६ ८७. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थ चरित्र भाग १ पृ. २६३.२६४ ५८. श्री ग.ल.त्रि.प.श.पु.च. हिंदी अनुवाद पर्व. ६ सर्ग ५ पृ. १७१.१७३
अ. अमोलक ऋषिजी म. सम. सूत्र पृ. ३१८ आ. सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थं च. भाग, १ प्र. २०३ श्री गणेश ललवाणी त्रि. प. श. पु. च. भाग ४ हिंदी अनुवाद पर्व ६ सर्ग ५. पृ. १७१.१७२ पू० अमोलक ऋषि जी म० सम. सूत्र, प्र. ३१७ आ. हस्तीमलजी म. जैन धर्म का मौलिक इतिहास प्र. ४३८.४७० पू० अमोलकऋषि जी म० सम सूत्र. पृ. ३१६ (अ) श्री गणेश ललवाणी त्रि. प. श. पु. च. हिंदी अनुवाद पर्व ५ सर्ग ५. प्र. ६४.१२५
(आ) सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थं च. भाग, १ प्र. २८१.२८२ ६५. पू० अमोलक ऋषि जी म. सम सूत्र पृ. ३०७ ६६. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थ च. भा. १, पृ. २४५.२४७ ६७. वही प्र. २४८ ६८. आ. हेमचंद्र त्रि.ष.श.चु. पर्व ४ सर्ग १ पू. ३२८.३३५ ६६. सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थं च. भाग १. १७८.१७६ १००. वही प्र. २४६ १०१. सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थं च. भाग १ प्र. १७६ १०२. वही पृ २४६ १०३. सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थं च. भाग १ पृ. २६४.२६५
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
146
पौराणिक /प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
१०४. वही प्र २४७ १०५. वही पृ. २४७.२४६ १०६. वही प्र. २४८
वही प्र. २४८ सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थ च. भाग १ पृ. २४५
प्र. २४५ ११०. वही पृ २४५
वही पृ. २४८ वही पृ. २५७
पृ. २५७ वही पृ. २५८ ११५. सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थकर चरित्र भाग १ प्र. २६०.२६२ ११६. वही पू. २६२.२६३ ११७. वही पृ २६५
वही पू. २६५
१२०. वही पृ. २६७ १२१. वही पृ २६७
FFFFFFF
i pe bu bt p bu
१२५. वही प्र. २६६
वही प्र. २६६ १२७. वही पृ. २७०.२७१ १२८. वही प्र. २७०.२७१ १२६. वही प्र २७१ १३०. वही पृ २७५.२७६ १३१. सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थ च. भा. १ पृ. २७१ १३२. वही पृ २७२ १३३. वही प्र २७३ १३४. वही पू १३५. वही पू
१३७. वही प्र. २७५ १३८. वही पृ. २७६ १३६. वही पू. २८७.२६० १४०. वही प्र. २८७.२६१
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
147
१४१. (अ) श्री ग.ल. त्रिष. शु. पु. च. हिं अनु. पर्व ६ सं. १ पृ. १२८.१३० .(ब) सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थकर चरित्र भाग १ पृ. २६२ १४२. पू० अमोलक ऋषिजी म. सम सूत्र पृ. ३०७ १४३. (अ) श्री ग.ल. त्रि. प. शु. पु. च. हिं अनु. पर्व ६, सर्ग. २ पृ. १३६.१३७
(ब) सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थंकर चरित्र भाग १ पू. २६५ १४४. पू० अमोलक ऋषिजी म. सम. सूत्र पू. ३०७ १४५. आ. हस्तीमलजी म. जैन धर्म का मौलिक इतिहास पृ. २४५ २४८ १४६. (अ) श्री ग.ल. त्रि. प. शु. पु. च. हिं अनु. पर्व ६, सर्ग. ३ प्र. १६०.१६२
(ब) सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थंकर चरित्र भाग १प्त. ३०५.३०६ १४७. पू० अमोलक ऋषि जी सम सूत्र प्र. ३१८ १४८. (अ) श्री गणेश ल, त्रि. प. श. पु. च. पर्व ६, सर्ग ३ प्र. १६१.१६२
(ब) सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थ. च. भाग १. ३०५.३०६ १४६. पू० अमोलक ऋषि जी सम. सूत्र पू. ३१७ १५०. सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थ, च. भाग १ प्र. २६७.३०३ १५१. डोशी रतन तीर्थ च. भा. १ पृ. २६७.३०३ १५२. वही प. ३०१३०३ १५३. सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थ चरित्र भाग १ पृ. ३०५ १५४. सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थं चरित्र भाग १ प्र. ३०६ १५५. वही फ ३०६ १५६. अ. श्री गणेश ल. त्रि. प. श. पु. च. पर्व ६, सर्ग ४ पू. १६७.१७० १५७. पू० अमोलक ऋषि जी सम सूत्र प्र. ३१६ १५८. (अ) श्री गणेश ल. त्रि.प. श. पु. च. पर्व ६. सर्ग ६ पृ. १७५.१७७
(आ) सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थ चरित्र भाग १ प्र. ३१४ १५६. पू० अमोलक ऋषि जी सम सूत्र प्र. ३०७ १६०. सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थं चरित्र भाग १ पृ. ३१३ १६१. वही फ्र. ३१३ १६२. वही प्र. ३१६ १६३. श्री गणेश ल. त्रि. प. श. पु. च. हिंदी अनुवाद भाग ५ए पर्व ७. सर्ग ४ स. ८६.२६१ १६४. डोशी रतनलाल तीर्थकर चरित्र भाग २ . ६६.७० १६५. पू० अमोलक ऋषि जी सम सूत्र प. ३१८ १६६. जैन देवेंद्र पउम चरित्रं भाग २ प्र. ३६.३७ १६७. श्री गणेश ल. त्रि. प. श. पु. च. हिंदी अनुवाद पर्व ६, सर्ग ७ प्र. १६८.१६६ १६८. पू० अमोलक ऋषि जी सम सूत्र प्र. ३०७ १६६. श्री गणेश ल. त्रि. प. श. पु. च. हिंदी अनुवाद पर्व ६, सर्ग ८ प्र. २०६ १७०. पू० अमोलक ऋषि जी सम सूत्र प्र. ३१६ १७१. पू० देवेंद्र मुनि आचार्य जैन पउम चरित्रं हिंदी अनुवाद भाग ३ प ४६.५३ १७२. वही प्र. ४६.५३ १७३. वही पृ. १०११११
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
148
पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
-
१७४. वही प्र. १०१.१११ १७५. श्री गणेश ल. त्रि. ष. श. पु. च. हिंदी अनुवाद भाग ५ १७६. वही पृ. २३
१७७.
+ 89
na na
१७८. १७६. वही पू १८०. वही फू १८१. वही प्र.७ १८२. पू० देवेंद्र मुनि आचार्य जैन पउम चरिउं हिंदी अनुवाद भाग ३ प्र. ७.२३ १८३. श्री गणेश ल. त्रि. ष. श. पु. च. भाग ५ पर्व. ७ पृ. २३ १८४. वही २७ १८५. देवेंद्र जैन पउम चरित्रं हिंदी अनुवाद भाग ५ प ६३.६७ १८६. श्री गणेश ल. त्रि. प. श. पु. च. भाग ५ पर्व. ७ पृ. ५०.५१ १८७. वही फ १७ १८८. वही पू. १७ १८६. वही १६०. वही १६१. वही १६२. वही पृ १६३. वही प्र १७ १६४. देवेंद्र जैन पउम चरिउं हिंदी अनुवाद भाग ३ प्र.८१.६३ १६५. श्री गणेश ल. त्रि. प. श. पु. च. भाग ५ए पर्व.७ प्र. १०.१२ १६६. वही त १३ १६७. देवेंद्र जैन पउम चरिउं हिंदी अनुवाद भाग ४ पृ. १८७.१६१ २१६.२२६ १६८. वही प्र. १६३.२०१ १६६. वही भाग २ए प्र. १७५.१८६ २००. सु० डोशी रतन लाल जी तीर्थकर चरित्र भाग २ प. १०७.१०८ २०१. देवेंद्र जैन पउम चरित्रं हिंदी अनुवाद भाग २ पृ. १४५.१५७ २०२. पं मुनि शुक्ल. शुक्ल जैन महाभारत भाग २ पृ. १५.२० २०३. श्री गणेश ल. त्रि. प. श. पु. च. भाग ५ पर्व.७ प्र. ७.१० २०४. श्री गणेश ल. त्रि. प. श. पु. च. भाग ५ पर्व.७ प्र. २५.२७७ए ३४७ २०५. श्री गणेश ल. त्रि. प. श. पु. च. भाग ५ पर्व.७ प्र. १३८.१४० २०६. देवेंद्र जैन एउम चरिउं हिंदी अनुवाद भाग २ प्र. ६.१७ ३०६ ३६१ २०७. वही भाग ३ए प्र. २३३ २०८. वही भाग ५ए प्र. १४५ए १५५ २०६. वही प्र. १८६.२०३ २१०. वही पू. १६३ २११, वही पृ. १६३
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
२१२. वही भाग २ए प्र० ५९ ७ए २७ए ११६
२१३. श्री ग. ल. त्रि.ष. श. पु. च. हिं अ० भाग ५ पर्व ६ सर्ग ४० ६०.६१
२१४. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थंकर चरित्र भाग १ प्र०७०
२१५. पू० अमोलक ऋषि जी म. सम, सूत्र पृ० ३१७
२१६. देवेंद्र जैन पृउम चरिउं हिंदी अनुवाद भाग २ पृ. ३५१.३५७ २१७. वही भाग ४ प्र. ३१६.३२१
२१८. वही भाग ५ प्र० ८७
२१६. मुनि शुक्ल शुक्ल जैन महाभारत भाग १ पृ. २६३
२२०. वही भाग २ प्र० ५८६.५६०
२२१. वही प्र. ६०८
२२२ (अ) देवेंद्र जैन पउम चरिउं हिंदी अनुवाद भाग १ पृ. २६५.३२६ (आ) सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थंकर चरित्र भाग २ पृ. ६१
२२३. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थंकर चरित्र भाग २ पृ. ६३ २२४. वही प्र. ६६
२२५. वही प्र. ६७
२२६. वही ६८
२२७. वही ६८
२२८. वही पृ ६६
२२६. वही पृ. ७४
२३०. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थकर चरित्र भाग २ प. ७४
२३१. वही पृ०७४
२३२. वही पृ. ७५
२३३. वही पृ७५ २३४. वही 7. 99.96
२३५. वही पृ. ८३
२३६. वही पृ८२
२३७. वही पृ८३
२३८. वही पृ० ८३
२३६. वही पु. ८४
२४०. वही पु. १०३.१०४
२४१. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थकर चरित्र भाग २ १०६ २४२ . वही
प्र.१०६
२४३. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थंकर चरित्र, भाग २ प्र० १०८ २४४. वही प्र १०६
२४५. वही प्र. १०६
२४६. वही १०६
२४७. वही ११० २४८. वही ११०
149
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
२४६. जैन दिवाकर श्री चौथमल जी म. श्रीपाल चरित्र प्र. ४.८४६ २५०. वही पृ. १६ २५१. वही पृ. १८ २५२. वही पृ. २१.२८ २५३. वही प्र.३१ २५४. जैन दिवाकर श्री चौथमल जी म. श्रीपाल चरित्र प्र. ३३ २५५. वही . ३४.३६ २५६. वही पृ ३८ २५७. श्री गणेश ललवाणी त्रिषष्टि शलाका पुरूष चरित्र हिंदी पर्व ७ सर्ग ११ प. २६२.२६४ २५८. पू० अमोलक ऋषि जी महाराज समवायांग सूत्र पू. ३०७ २५६. श्री गणेश ललवाणी त्रिषष्टि शलाका पुरूष चरित्र हिंदी पर्व ७ सर्ग १२ पृ. २६६.२७० २६०. पू० अमोलक ऋषि जी महाराज समवायांग सूत्र पू. ३१६ २६१. श्री गणेश ललवाणी त्रिषष्टि शलाका पुरूष चरित्र हिंदी पर्व ७ सर्ग १३ पृ. २७१ २६२. पू० अमोलक ऋषि जी महाराज समवायांग सूत्र प्र. ३१६ २६३. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थकर चरित्र, भाग २ प्र. २१० २६४. वही . २१४ २६५. वही पृ. २१४ २६६. वही पृ. २१४ २६७. वही पू. २१० २६८. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थकर चरित्र, भाग २ प्र. २१४.२१५ २६६. वही २१८
प्र. २१६
प्र. २२०.२२१ २७२. वही २२२ २७३. वही पृ. २२३.२२५ २७४. वही प्र. २२६
२२७.२२६ २७६. वही त २३१ २७७. वही त. ५२१ २७८. जैन मुनि पं शुक्ल चन्द्र शुक्ल जैन महाभारत भाग १. ५३८.५४४ २७६. युवाचार्य श्री मधुकर जी म० अन्तगढ़ सूत्र अध्ययन ८ वर्ग ४ पृ. ८७.८८ २८०. वही वर्ग ३ प्र. ३०.५२ २८१. पू० ऋषि अमोलक चन्द्र जी म० समवायांग सूत्र प्र. ३१८ २८२. वही पृ. ३२५.३२६ २८३. वही पू. ३११.३१२ २८४. सु० डोशी रतनलाल जी उत्तराध्ययन सूत्र अ. २२ए गाथा ३४ प्र. ७३ २८५. आ. हस्तीमल जी म. जैन धर्म का मौलिक इति. भा. १ प्र. ३१४.३१५ २८६. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थकर चरित्र, भाग २१.४८६.४६२
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
151
२८७. वही पृ. ४६६.४६६ २८८. वही पृ. ५०६.५०८ २८६. वही प, २६६३०१ २६०. पू० ऋषि अमोलक जी म० समवायांग सूत्र पृ. ३१८ २६१. मुनि शुक्ल. शुक्ल जैन महाभारत प्र. १४६.१४७ २६२. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थकर चरित्र, भाग २ . २५६ २६३. वही पृ. २६०.२६१ २६४. वही पृ. २६१२६२ २६५. वही फ्र. २६१ २६६. वही पृ. ३६३ २६७. वही पृ. २६३ २६८. जैन मुनि प्र० शुक्ल शुक्ल चन्द्र जी जैन महाभारत भाग १ १६६.१७२ २६६. वही प्र१६३.१६४ ३००. वही प २२४ ३०१. वही पृ. १५२ ३०२. वही पृ. ११ ३०३. वही पू. १५०.१५१ ३०४. मुनि मधुकर अन्तगढ़ सूत्र अध्ययन १२.१३ वर्ग ३ पृ.८६ सूत्र ३२ ३०५, मुनि शुक्ल शुक्ल जैन महाभारत भाग १. १४४.१४६ ३०६. डोशी रतनलाल तीर्थकर चरित्र, भाग २ पृ. २७१.२६८ ३०७. जैन मुनि पू० शुक्ल शुक्ल चन्द्र जी जैन महाभारत भाग १ प्र.८५.६७ ३०८. वही ८५.६७ ३०६. वही पू २२०.२२३ ३१०. वही भाग २ फू. १८५.२१६ ३११. प्रो. प्रवीण जैन. जैन पुराण कोष. प्र. १० ३१२. वही फ्र. १५
FFE 48 FE
WWWala
३१७. वही प्र.२३१ ३१८. वही प्र. १३ ३१६. वही फू ४३८ ३२०. प्रो. प्रवीण जैन. जैन पुराण कोष. प्र. ४४० ३२१. वही म. ४०४ ३२२. वही पू. ४०७ ३२३. वही पृ. ४०६ ३२४. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थकर चरित्र, भाग २ पृ. ४६०
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
152
पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
३२५. युवाचार्य श्री मुनी जी मधुकर अन्तगढ़ सूत्र वर्ग ३ अ. ६.११ प्र.८५ ३२६. प्रो. प्रवीण जैन. जैन पुराण कोष. पृ. ३७२ ३२७. वही प्र. ३७२ ३२८. वही पू. १७६ ३२६. जैन मुनि प्र० शुक्ल चन्द्र जी शुक्ल जैन महाभारत भाग १ पृ. १५२.१५३ ३३०. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थकर चरित्र, भाग २ पृ. २५५ २५८ ३३१. वही भाग १ पृ. २२७.२२६ ३३२. जैन मुनि पृ० शुक्ल चन्द्र जी शुक्ल जैन महाभारत भाग १ पृ. २८६.२६३ ३३३. वही पृ. ३१७ ३३४. वही प्र. ४७४ ३३५. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थंकर चरित्र, भाग २ पृ. ४२२.४२६ ३३६. वही भाग १ प्र. १४२.१४३ ३३७. जैन मुनि प० शुक्ल चन्द्र जी शुक्ल जैन महाभारत भाग २ पृ. १.११ २८७ ३३८. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थंकर चरित्र, भाग २ प्र. ३५६.३६१ ३३६. जैन मुनि प्र० शुक्ल चन्द्र जी शुक्ल जैन महाभारत भाग २ पृ. १७२.२०७ ३४०. वही भाग १ पृ. ४७.४६ ३४१. वही भाग २ पृ. २१७.२२५ ३४२. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थंकर चरित्र, भाग २ पृ. ४८१ ३४३. वही प्र. ४८३ ३४४. वही प्र. ४८१.४८२ ३४५. जैन मुनि पृ० शुक्ल चन्द्र जी शुक्ल जैन महाभारत भाग १ पृ. ७६.७८ ३४६. वही ८२.८४ ३४७. वही . ४४६.४७३ ४७७.४८२ ३४८. वही पृ. २४.३८ ३४६. वही पृ ४७४ ३५०. वही प्र. ४७४ ३५१. जैन मुनि प० शुक्ल चन्द्र जी शुक्ल जैन महाभारत भाग १ . ४७४ ३५२. वही प्र. ४७४ ३५३. वही प. ३७४ ३५४. वही पृ. ६७४ ३५५. युवाचार्य श्री मधुकर मुनी जी म० अन्तगढ़ सूत्र अध्ययन १.१० वर्ग १ पृ. १०.१८ ३५६. वही पृ. १६ वर्ग. २ ३५७. वही वर्ग. 3 अ. १५ पृ. ८७.८८ ३५८. वही अ.७ ३५६. जैन मुनि प्र० शुक्ल चन्द्र जी शुक्ल जैन महाभारत भाग १. प्र. ३२५ ३६०. वही प्र. ४५५ ३६१. युवाचार्य श्री मधुकर मुनी जी म० ज्ञाता सूत्र. अध्ययन ५ प्र. १५८.१६६ ३६२. युवाचार्य श्री मधुकर मुनी जी म० अन्तगढ़ सूत्र अध्ययन ८ वर्ग ३ सूत्र १६ १८ २२
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
३६३. जैन मुनि पृ० शुक्ल चन्द्र जी शुक्ल जैन महाभारत भाग १ पृ० १६.२० ३६४. वही पृ० १५३.१५७
३६५. (अ) युवाचार्य श्री मधुकर मुनी जी म० अन्तगढ़ सूत्र अध्ययन १.६ वर्ग ३ पृ. २०.२७ (आ) सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थकर चरित्र भाग २ पृ० ५१६.५१७
३६६. जैन मुनि पृ० शुक्ल चन्द्र जी शुक्ल जैन महाभारत भाग १ ० ५५३.५५८
३६७. वही पृ ७७.८७ ५५३.५८८ भाग २ पृ. ६०८
३६८. वही भाग १ पृ. २६४.३२३
३६६. वही भाग २ ३४८.३५६
३७०. वही भाग १ पृ० :
३७१ वही प्र. ४५४.४५८ ४७८
३७२. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थंकर चरित्र भाग २ पृ० ५३०
३७३. जैन मुनि पृ० शुक्ल चन्द्र जी शुक्ल जैन महाभारत भाग १ पृ॰ २४७.२६० भाग २ पृ॰ ४६ ३७४. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थंकर चरित्र भाग १
१ पृ. १२.१३
३७५. वही १४
३७६. वही
पृ
३७७. वही पृ २०.२१
३७८. वही प्र. २३
१८.१६
२४७.२६०
३७६. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थंकर चरित्र भाग १ पृ. २३ ३८० उ० श्री पुष्कर मुनि जी जैन कथाएं भाग २६
३८१. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी जैन कथाएं भाग ११०, पृ. १.१२ ३८२. उ० श्री पुष्कर मुनि जी जैन कथाएँ भाग ४१, पृ० १३५.१४८ ३८३. उ० श्री पु० मु० जी जैन कथा भाग ४१, प १६४.१८४ ३८४. उ० श्री पु० मु० जी जैन कथाएं भाग ७४ पृ० १५.२४ ३८५. उ० श्री पुष्कर मुनि जी जैनकथाएं भाग ७४ ० ७५.८५
३८६. उ० श्री पुष्कर मुनि जी जैन कथाएं भाग २६
३८७. उपाध्याय पुष्कर जैन कथाएं भाग ७ पृ० ११६.१६७
३८८. उ० श्री पुष्कर मुनि जी कथाएँ भाग २६
३८६. उपाध्याय जी पुष्कर मुनि जी जैन कथाएं भा ७ पृ० १.११८
३६०. श्री ग. ल. त्रि.ष. पु. च., हिं अनु. भाग ४ पर्व ५ सर्ग २ पृ० ५२.५५
३६१. श्री ग. ल. त्रि. ष० पु० च०, हिं अनु. भाग ४ पर्व ४ सर्ग १ पृ० १२६ १३० १५३ ३६२. श्री ग. ल. त्रि. ष० पु० च०, हिं अनु. भाग ४ पर्व ४ सर्ग ४ पृ० १२ १३ १३७ ३६३. श्री ग. ल. त्रि. ष० पु० च०, हिं अनु० भाग ५ पर्व ७ ० २२०.२२१ ३६४. श्री ग. ल. त्रि. ष॰ पु॰ च., हिं अनु. भाग ४ पर्व ४ सर्ग २ प्र. १६१ ३६५. उ० श्री पुष्कर मुनि जी जैन कथा भाग ८४ ० ७६.७८
३६६. वही भाग ६७, पृ. ६०.८७
३६७. वही भाग ६७, पृ० १८.५६
३६८. वही भाग २०, पृ. १०८. १७२
३६६. वही भाग २३. पृ॰ १६७.२०८
153
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
154
पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
३६६. वही भाग २३, पृ. १६७.२०८ ४००. वही भाग २४, पृ. ८२.११८ ४०१. वही भाग ६५, प. ४०.४६ ४०२. वही भाग ६५, पृ. ४०.४६ ४०३. वही भाग ६५, ८, १६ ४०४. वही भाग ६५, पृ. २८.३६ ४०५. वही भाग २६ ४०६. वही भाग २६ ४०७. वही भाग ६५ प. १.१८ ४०८. वही भाग ६५ पृ. १६.२७
मध्यकालीन मुगल साम्राज्य काल में चम्पा श्राविका का नाम स्वर्णाक्षरों में
अंकित है। सम्राट अकबर स्वयं उस अद्भुत नारी के छह माह की तपश्चर्या पर साश्चर्य मंत्र मुग्ध हुए। यह तप कैसे संभव हुआ ? अकबर द्वारा पूछने पर चम्पा श्राविका ने सविनम्र उत्तर दिया- देव, गुरू, धर्म
की पुण्यमयी सद्कृपा मुझ पर बरस रही है। मेरे गुरूदेव आचार्य हीरविजयसूरि मेरे इस तप के प्रेरक है। सम्राट अकबर को जैन धर्म से
प्रभावित करने में निमित्त बनी थी चम्पा श्राविका।
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
155
wwcododootococcorrecome ततीय अध्याय
PROPORossessoooooose |
ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
बाईसवें तीर्थंकर भगवान् श्री अरिष्टनेमि जी के पश्चात् तेइसवें तीर्थंकर भगवान श्री पार्श्वनाथ जी हुए। आपका समय ईसा से पूर्व लगभग आठवीं शताब्दी माना जाता है। आप भगवान् महावीर से दो सौ पच्चास वर्ष पूर्व हुए थे। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर आज के इतिहासकार भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर को ऐतिहासिक पुरुष मानने लगे हैं। ३.१ तीर्थंकर पार्श्वनाथ : एक ऐतिहासिक पुरुष :
भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर ऐतिहासिक पुरुष हैं। इनके काल की श्राविकाओं की चर्चा के पूर्व यहाँ भगवान पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता पर विचार कर लेना आवश्यक है। भगवान् पार्श्वनाथ जी भगवान् महावीर से ३५० वर्ष पूर्व वाराणसी में जन्में थे। तीस वर्ष तक गृहस्थाश्रम में रहे, फिर संयम लेकर उग्र तपश्चरण कर कर्मों को नष्ट किया, केवल ज्ञान प्राप्त कर भारत के विविध अंचलों में परिभ्रमण कर जन-जन के कल्याण हेतु उपेदश दिया। सौ वर्ष की आयु पूर्ण कर सम्मेद शिखर पर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए।
भगवान् पार्श्वनाथ जी के जीवन प्रसंगों में अनेक चमत्कारिक प्रसंग हैं, जिनको लेकर कुछ लोगों ने उन्हें पौराणिक महापुरुष माना है। किंतु वर्तमान शताब्दी के अनेक इतिहासज्ञों ने उस पर गंभीर अनुशीलन, अनुचिंतन किया और सभी इस निर्णय पर पहुंचे कि भगवान पार्श्वनाथ जी एक ऐतिहासिक महापुरुष हैं। सर्वप्रथम डॉक्टर हर्मन जेकोबी ने जैनागमों के साथ ही बौद्ध पिटकों के प्रमाणों के प्रकाश में भगवान् पार्श्वनाथ जी को एक ऐतिहासिक पुरुष सिद्ध किया है। उसके पश्चात् कोलब्रुक, स्टीवेन्सन, एडवर्ड टॉमस, डॉ० बेलनकर, डॉ० दासगुप्ता, डॉ० राधाकृष्णन, शार्पेन्टीयर, गेरीनोट, मजमुदार, ईलियट और पुसिन प्रभति अनेक पाश्चात्य एवं पौर्वापत्य विद्वानों ने भी यह सिद्ध किया है कि भ० महावीर से पूर्व एक निग्रंथ संप्रदाय था और उस संप्रदाय के प्रधान भगवान् पार्श्वनाथ थे।
___ डॉक्टर वासम के अभिमतानुसार भगवान् महावीर को बौद्ध पिटकों में बुद्ध के प्रतिस्पर्धी के रूप में अंकित किया गया है, अतः उनकी ऐतिहासिकता असंदिग्ध है। भगवान् पार्श्वनाथ चौबीस तीर्थंकरों में से तेइसवें तीर्थंकर थे। डॉक्टर चार्ल शाटियर ने लिखा है:- हमें इन दो बातों का भी स्मरण रखना चाहिए कि जैन धर्म निश्चितरूपेण महावीर से प्राचीन है। उनके प्रख्यात पूर्वगामी भ० पार्श्वनाथ प्रायः निश्चित रूपेण एक वास्तविक व्यक्ति के रूप में विद्यमान रह चुके हैं। परिणामस्वरूप जैन धर्म के मूल सिद्धांतों की मुख्य बातें भ० महावीर से बहुत पहले अस्तित्व में आ चुकी थी। विज्ञों ने ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर निग्रंथ संप्रदाय का अस्तित्व भ० महावीर से पूर्व सिद्ध किया है। यथाः उत्तराध्ययन सुत्र के तेइसवें अध्याय में श्री केशी श्रमण और श्री गौतम स्वामी का संवाद है। वह संवाद भी इस बात पर प्रकाश डालता है कि भ० महावीर से पूर्व निग्रंथ संप्रदाय में चार याम को मानने की परम्परा रही है और उस संप्रदाय के प्रधान नायक भगवान् पार्श्वनाथ थे।
भगवती, सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन आदि आगमों में ऐसे अनेक पार्खापत्य श्रमणों का वर्णन आया है जो भ० पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म के स्थान पर भ० महावीर स्वामी के पंच महाव्रत रूप धर्म को स्वीकार करते हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि भ० महावीर स्वामी से पूर्व भी चातुर्याम धर्म को मानने वाला निग्रंथ संप्रदाय था। भगवती (शतक १५) के वर्णन से यह भी ज्ञात होता
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
156
ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
है कि शान, कलंद, कर्णिकार आदि छ: दिशाचर जो अष्टांग निमित्त के ज्ञाता थे, उन्होंने गोशालक का शिष्यत्व स्वीकार किया। चूर्णिकार के मतानुसार वे दिशाचर भ० पार्श्वनाथ संतानीय थे।
बौद्ध साहित्य में भ० महावीर स्वामी और उनके शिष्यों को चातुर्याम युक्त लिखा है। संयुक्तनिकाय में निक नामक एक व्यक्ति ज्ञातपुत्र महावीर को चातुर्याम युक्त कहता है। जैन साहित्य से यह पूर्ण सिद्ध है कि भगवान् महावीर की परंपरा पंचमहाव्रतात्मक रही है तथापि बौद्ध साहित्य में उसे चातुर्याम युक्त कहा गया है। यह इस बात की ओर संकेत करता है कि बौद्ध भिक्षु पार्श्वनाथ की परंपरा से परिचित व सम्बन्धित थे इसी कारण भ० महावीर स्वामी के धर्म को भी उन्होंने उसी रूप में देखा है। यह पूर्ण सत्य है कि भ० महावीर स्वामी से पूर्व निर्ग्रथो संप्रदाय में चार याम का ही महात्म्य था और इसी कारण से वह अन्य संप्रदाय से विश्रुत रहा होगा। संभव है बुद्ध और उनकी परंपरा के विज्ञों को श्रमण भगवान महावीर ने निग्रंथ संप्रदाय में जो आंतरिक परिवर्तन किया, उसका पता नहीं लगा।
धम्मपद की अट्ठ कथा में निर्ग्रथों को वस्त्रधारी कहा गया है जो संभवतः भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा से सम्बन्धित थे। उसी सत्त की अट्ठ कथा में यह भी निर्देश है कि बुद्ध का चाचा बप्प निर्ग्रथा परम्परा का उपासक था, हालांकि जैन परंपरा में इस संबंध में कोई उल्लेख नहीं है। उल्लेखनीय बात तो यह है कि बुद्ध के पितृव्य का निग्रंथ धर्म में होना भगवान् पार्श्वनाथ और उनके निग्रंथ धर्म की व्यापकता का स्पष्ट परिचायक है। ३.२ तथागत बुद्ध की साधना पर भगवान पार्श्व का प्रभाव :
एक बार बुद्ध श्रावस्ती में विहार कर रहे थे। उन्होंने भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए कहा-"भिक्षुओ! मैं प्रव्रजित होकर वैशाली गया, जहाँ अपने तीन सौ शिष्यों के साथ आराड कालम रहते थे। मैं उनके सन्निकट गया। वे अपने जिन श्रावकों को कहते त्याग करो! त्याग करो! जिन श्रावक उत्तर में कहते, "हम त्याग करते हैं, हम त्याग करते हैं।" "मैंने आराड कालम से कहा-मैं भी आपका शिष्य बनना चाहता हूं। उन्होंने कहा-जैसा तुम चाहते हो वैसा करो। मैं शिष्य रूप में वहाँ पर रहने लगा, जो उन्होंने सिखाया मैंने वह सब सीखा। वे मेरी प्रखर बुद्धि से प्रभावित हुए। उन्होंने कहा-जो मैं जानता हूं वही यह गौतम जानता है। अच्छा हो गौतम! हम दोनों मिल कर संघ का संचालन करें। इस प्रकार उन्होंने मेरा सम्मान किर मुझे अनुभव हुआ, इतना-सा ज्ञान पाप नाश के लिए पर्याप्त नहीं, मुझे और गवेषणा करनी चाहिए।" यह विचार कर मैं राजगृही आया। वहाँ पर अपने सात सौ शिष्यों के परिवार सहित उद्रक रामपुत्र रहते थे। वे भी अपने जिन श्रावकों को वैसा ही कहते थे। मैं उनका भी शिष्य बना, उनसे भी मैंने बहुत कुछ सीखा, उन्होंने भी मुझे सम्मानित पद दिया, किन्तु मुझे यह अनुभव हुआ कि इतना ज्ञान भी पाप क्षय के लिये पर्याप्त नहीं, मुझे और भी खोज करनी चाहिए यह सोच कर मैं वहाँ से भी चल पड़ा।"
प्रस्तुत प्रसंग में जिन श्रावक शब्द का प्रयोग हुआ है वह यह सूचित करता है कि 'आराड कालम, उद्रक रामपुत्र और उनके अनुयायी निग्रंथ धर्मी थे। यह प्रकरण 'महावस्तु' ग्रंथ का है, जो महायान संप्रदाय का प्रमुखतम ग्रंथ रहा है। महायान के त्रिपिटक संस्कृत भाषा में हैं। पालि त्रिपिटकों में जिस उद्देश्य से निग्गण्ठ शब्द का प्रयोग हुआ है, उसी अर्थ में यहाँ पर "जिन श्रावक" शब्द का प्रयोग किया गया है। उससे यह स्पष्ट है कि बुद्ध ने जिन श्रावकों के साथ रहकर बहुत कुछ सीखा । इससे यह भी सिद्ध होता है कि तथागत के पूर्व भी निग्रंथ धर्म था। भगवान् पार्श्वनाथ की परंपरा से बुद्ध का संबंध अवश्य रहा है, वे अपने प्रमुख शिष्य सारिपुत्र से कहते हैं - सारिपुत्र! "बोधि प्राप्ति से पूर्व मैं दाढ़ी मूंछों का लुंचन करता था, मैं खड़ा रह कर तपस्या करता था। उकडू बैठकर तपस्या करता था। मैं नंगा रहता था, लौकिक आचारों का पालन नहीं करता था। हथेली पर भिक्षा लेकर खाता था। बैठे हुए स्थान पर आकर दिये हुए अन्न को, और निमंत्रण को भी स्वीकार नहीं करता था।" यह समस्त आचार जैन श्रमणों का है। इस आचार में कुछ स्थविर कल्पिक है, और कुछ जिन कल्पिक है। दोनों ही प्रकार के आचारों का उनके जीवन में संमिश्रण है। संभव है प्रारम्भ में गौतम बुद्ध भ० पार्श्वनाथ की परंपरा से संबंधित रहे हों।
जैन साहित्य से यह भी सिद्ध होता है कि अंतिम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर धर्म के प्रवर्तक नहीं, अपितु सुधारक थे। उनके पूर्व प्रस्तुत अवसर्पिणी काल में तेईस तीर्थंकर हो चुके हैं, किन्तु बाईस तीर्थंकरों के संबंध में कुछ ऐसी बातें हैं जो आधुनिक विचारकों के मस्तिष्क में नहीं बैठती, लेकिन भगवान पार्श्व के संबंध में ऐसी कोई बात नहीं है जो आधुनिक विचारकों की दष्टि
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
में अतिशयोक्तिपूर्ण हो । जिस प्रकार १०० वर्ष की आयु, तीस वर्ष गृहस्थाश्रम और ७० वर्ष तक संयम तथा २५० वर्ष तक उनका तीर्थ चला इसमें ऐसी कोई भी बात नहीं है जो असंभवता एवं ऐतिहासिक दृष्टि से संदेह उत्पन्न करती हो। इसलिए इतिहासकार उनको ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं ।
157
जैन साहित्य से ही नहीं, अपितु बौद्ध साहित्य से भी उनकी ऐतिहासिकता सिद्ध होती है। इसी ऐतिहासिकता के साथ यह भी सिद्ध हो जाता है कि भगवान् महावीर का परिनिर्वाण ई.पू. ५२७.५२८ माना गया है। निर्वाण से ३० वर्ष पूर्व ईसा पूर्व ५५७ में महावीर ने सर्वज्ञत्व प्राप्त कर तीर्थ का प्रवर्तन किया, भ० महावीर एवं भ० पार्श्वनाथ के तीर्थ में २५० वर्ष का अंतर है। इसका अर्थ है कि ई.पू. ८०७ में भगवान् पार्श्वनाथ ने इस धरा पर धर्म तीर्थ का प्रवर्तन किया ।
भगवान् पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती तीर्थंकर भ० अरिष्टनेमि और उत्तरवर्ती तीर्थंकर भ० महावीर स्वामी, दोनों ने ही अहिंसा के संबंध में क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किये हैं। युग की कुछ धार्मिक मान्यताओं में संशोधन परिवर्तन भी किया है। श्रीकृष्ण जिस घोर अंगीरस अध्यात्म एवं अहिंसा की शिक्षा प्राप्त करते हैं, वे तत्वज्ञ महात्मा भ० अरिष्टनेमि थे- ऐसा इतिहाकारों का मत है। भगवान् महावीर तो निःसन्देह ही अहिंसा के महान् उद्घोषक मान लिए गए हैं। इन दोनों विचारधाराओं का मध्य बिंदु भगवान् पार्श्व ही बनते हैं । वे अहिंसा के संबंध में प्रारम्भ से ही क्रांतिकारी विचार रखते हैं और गृहस्थ जीवन में भी कमठ तापस के प्रसंग पर धर्म क्रांति का सौम्य स्वर दृढ़ता के साथ मुखरित करते हैं। तीर्थंकरों के जीवन में इस प्रकार की धर्म क्रांति की बात गृहस्थ जीवन में सिर्फ भगवान् पार्श्वनाथ के द्वारा ही प्रस्तुत होती है। दीक्षा के बाद भी वे अनार्य देशों में भ्रमण करके अनेक हिंसक व्यक्तियों के मन में अहिंसा की श्रद्धा जागृत करने में सफल होते हैं।
इस प्रकार भगवान् पार्श्वनाथ का व्यक्तित्व भगवान् अरिष्टनेमि एवं भगवान् महावीर स्वामी के विचारों का मध्य केन्द्र सिद्ध होता है। धर्म क्रांति तथा अहिंसा की गंगा को महाभारत युग से लेकर भ० महावीर और गौतम बुद्ध के युग तक पहुंचा देने वाला भगीरथी व्यक्तित्व भी ।' भगवान् पार्श्व का भी चतुर्विध धर्मसंघ था, उनकी भी तीन लाख श्राविकाएं थी ।
यद्यपि आगमों में और कथा साहित्य में पार्श्व की परम्परा की साध्वियों के उल्लेख तो मिलते हैं किन्तु श्राविकाओं के उल्लेख नहीं ही हैं। ज्ञाताधर्मकथांग के द्वितीय श्रुत स्कन्ध में एवं चूर्णि साहित्य में पार्श्वपत्य साध्वियों के अनेक उल्लेख हैं। वहाँ यह भी उल्लेख है कि वे साध्वियाँ शिथिलाचारी होकर निमित्त शास्त्र व ज्योतिष के माध्यम से अपनी आजीविका चलाती थी ।
कल्पसूत्र में ऐसा उल्लेख है कि भगवान महावीर के माता पिता पार्वापत्य श्रावक थे। इससे महावीर की माताओं का भ० पार्श्वनाथ की परम्परा की श्राविका होना सिद्ध होता है। इसीप्रकार प्रभावती जी जिसे श्वेताम्बर परम्परा भ० पार्श्वनाथ की पत्नी के रूप में भी मानती है वह भी भ० पार्श्वनाथ की परम्परा की ही एक उपासिका थी । भ० पार्श्वनाथ की माता और भ० महावीर स्वामी की माता, का सबसे बड़ा अवदान यही है कि उन्होंने भ० पार्श्वनाथ और भ० महावीर जैसे नर रत्न समाज को प्रदान किये । ३. ३ तीर्थंकर महावीर कालीन परिस्थितियाँ :
३.३.१ धार्मिक परिस्थितियाँ: ई. पू. की छठीं शताब्दी का युग धार्मिक उथल-पुथल का युग था । इस युग में न केवल प्राचीन धर्म परंपराओं में क्रांतिकारी महापुरुषों का जन्म हुआ अपितु अनेक नये संप्रदायों का आविर्भाव भी हुआ। इस युग में भारत में ही नहीं अपितु संपूर्ण एशिया खण्ड में ही एक प्रकार की धार्मिक उथल पुथल हुई। चीन में लाओत्से और कन्फ्यूशियस ने धार्मिक चेतना की नई लहर पैदा की थी तो ग्रीस में पाइथागोरस, सुकरात और प्लेटों की नई विचारधारा ने पुरानी धार्मिक मान्यताओं को झकझोरा था। ईरान और परशिया में जरथुस्त भी अपनी विचारधारा को इसी युग में प्रसारित कर रहे थे। ई.पू. छठीं शताब्दी का भारत तो इस प्रकार की धार्मिक हलचलों का केन्द्र था । अनेक धार्मिक महापुरुष दार्शनिक और विचारक पुरानी मान्यताओं के परिवेश में अपनी नई स्थापनाओं को प्रस्तुत कर रहे थे। जिसे भी सत्य की एक किरण दिखाई दी बस वही अपने को सत्य का सम्पूर्ण दृष्टा और प्रवक्ता मानने का ढिंढोरा पीटने लगा। बौद्ध साहित्य के अनुसार उस समय त्रेसठ श्रमण संप्रदाय विद्यमान थे। जैन साहित्य में तीन सौ त्रेसठ मत मतान्तरों का उल्लेख मिलता है। संक्षेप में इन समस्त संप्रदायों को चार वर्गों में विभक्त किया गया है । यथा:- क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद । वैदिक परंपरा के धर्मनायकों का विस्तृत और प्रामाणिक वर्णन कम उपलब्ध होता है । अतः उपलब्ध श्रमण परंपरा के दार्शनिकों की चर्चा प्रस्तुत की है।
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
158
ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
3.३.२ सामाजिक परिस्थितियाँ :- इस काल में ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा हिन्दू धर्म अधिकाधिक जटिल होता चला गया। अंधविश्वासों और बाह्य कर्मकाण्डों का बोलबाला हो गया। जाति प्रथा ने अपना जटिल रूप धारण कर लिया। उच्च जाति के लोग (द्विज) निम्न जाति (क्षुद्र) के लोगों के साथ जानवरों से भी अधिक क्रूर व्यवहार करने लगा। शूद्रों को मन्दिरों में जाने, वैदिक साहित्य पढ़ने, यज्ञ करने, कुओं से पानी भरने की आज्ञा नहीं थी। समाज में ब्राह्मणों का प्रभुत्व था। वर्षों तक चलने वाले यज्ञों में तथा अनेक रीति रिवाजों में ब्राह्मणों की उपस्थिति आवश्यक होती थी। इन अवसरों पर काफी धन खर्च करना पड़ता था जो जन सामान्य की पहुँच से बाहर था। ब्राह्मण वर्ग भ्रष्टाचारी लालची तथा धन बटोरने में लगे रहते थे। सादगी के स्थान पर वे भोग विलास पूर्ण जीवन व्यतीत करने लग गए थे। उस समय लिखे गए सभी धार्मिक ग्रंथ जैसे वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण ग्रंथ, रामायण, महाभारत आदि संस्कृत भाषा में रचित थे, जिसे साधारण लोग पढ़ने में असमर्थ थे। ब्राह्मणों ने इस स्थिति का लाभ उठाकर धर्मशास्त्रों की मनमानी व्याख्या करनी शुरु कर दी। लोग भूत-प्रेत, जादू-टोना आदि के अंधविश्वास में पड़ गये। उनका विचार था कि जादू-टोनों की सहायता से शत्रुओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है, रोगों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है और संतान की प्राप्ति की जा सकती है। इस प्रकार हिंदू धर्म की जटिलता, जाति-प्रथा, ब्राह्मणों के नैतिक पतन, कठिन भाषा का प्रचार तथा अंधविश्वास से घिरे लोगों के लिए सच्चे पथ प्रदर्शक की आवश्यकता थी।
३.३.३ राजनैतिक परिस्थितियाँ :- ई. पू. की छठी शताब्दी में उत्तर भारत में मगध राज्य सबसे शक्तिशाली राज्य था। बिम्बिसार और अजातशत्रु इस राज्य के दो महान शासक थे। ये दोनों शासक ब्राह्मणों के प्रभाव से मुक्त थे। वे बहुत सहनशील शासक थे। अतः ब्राह्मणों द्वारा किये जा रहे झूठे प्रचार और समाज में प्रचलित बुराईयों के विरुद्ध आवाज उठाने की आवश्यकता थी तथा सीधे सादे और व्यक्ति से जुड़ने जोड़ने वाले महापुरुष एवं धर्म की आवश्यकता थी। इन परिस्थितियों का लाभ उठाते हए जैन धर्म और बौद्ध धर्म ने मगध में अपना सर्वाधिक प्रचार किया। बिम्बिसार और अजातशत्रु ने इन दोनों धर्मों को अपना संरक्षण दिया। इसी कारण जैन ग्रंथों ने इन दोनों शासकों को जैनी और बौद्ध ग्रंथों ने इन्हें बौद्धी बतलाया है। मगध राज्य की देखा-देखी अन्य राज्यों ने भी की। जैन धर्म और बौद्ध धर्म को शासकों ने अपना संरक्षण देना शुरु कर दिया। परिणामस्वरूप ये दोनों धर्म दिन दुगुनी रात चौगुनी उन्नति करने लगे। इन शासकों के अतिरिक्त राजा उदयन, राजा चेटक, राजा चण्डप्रद्योत, चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक महान का पौत्र संप्रति, कलिंग का शासक-खारवेल, चालुक्य शासक सिद्धराज एवं कुमारपाल, बंगाल के राजा पाल तथा दक्षिण के कदम्ब, गंग, राष्ट्र-कूट वंश के शासकों तथा उत्तर भारत के राजपूत वंश के अनेक शासकों ने जैन धर्म के प्रसार में प्रशंसनीय योगदान दिया। ३.४ तीर्थंकर भ० महावीर स्वामी की देन :
३.४.१ सामाजिक देन : तीर्थंकर भ० महावीर स्वामी ने युगीन परिस्थितियों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने जातिप्रथा पर कड़ा प्रहार किया। परस्पर भ्रातभाव तथा समानता का प्रचार किया। उनकी शिक्षा थी, सभी जीवों में समान आत्मा का निवास है। अतः समस्त जीव जगत के साथ प्रेम भरा व्यवहार करना चाहिए । मनुष्य मात्र में धनी-निर्धन, जात-पात का भेदभाव नहीं होना चाहिए। भगवान महावीर ने अपने संघ में हरिकेश बल चाण्डाल को भी मुनि दीक्षा प्रदान की थी। इस प्रकार के उपदेशों के फलस्वरूप लोगों में परस्पर की कटुता समाप्त हुई तथा निम्न वर्ग को समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त हुआ। उस समय स्त्री वर्ग को धार्मिक तथा सामाजिक अधिकारों से वंचित रखा जाता था, परन्तु अपने धर्मसंघ में श्रमणी दीक्षा तथा श्राविका दीक्षा प्रदान कर भगवान् ने स्त्रियों को पुरुषों के समकक्ष लाकर खड़ा किया और उसे पुरुषों के समान ही मुक्ति प्राप्ति का अधिकार है यह भी सिद्ध किया। परिणामस्वरूप स्त्रियों में आत्म सम्मान की एक नई भावना उत्पन्न हुई।
३.४.२ धार्मिक देन : भगवान् महावीर स्वामी ने बाह्य कर्मकाण्डों का विरोध किया। उन्होंने सत्कर्म और सदाचारमय जीवन जीने को श्रेष्ठ प्ररूपित किया। उनकी दृष्टि में धर्म नाम पर यज्ञ तथा बलि देना अनुपयुक्त था। उन्होंने विभिन्न टुकड़ों में बंटी हुई विचारधाराओं के समन्वयवाले अनेकांतवाद का प्रतिपादन स्यावाद के माध्यम से किया। वे ज्ञान की सभी अवस्थाओं से स्वयं गुजरे एवं अपने युग के तर्कप्रिय एकांतवादी लोगों के समक्ष धर्म को अधिक व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत किया। वे श्रोताओं के अंतस् तक पहुंचकर उनके अनुरुप धर्मदेशना करते रहे। उन्होंने अहिंसा, अनेकांतवाद, स्याद्वाद, आत्मवाद तथा रत्नत्रय आदि सिद्धांतों
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
का प्रतिपादन कर भारतीय दर्शन को समृद्ध किया। सभी धर्मों के प्रति सहनशीलता की नीति का प्रचलन कर एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया जो आज भी जनता के लिए प्रेरणादायी है।
३.४.३ सांस्कृतिक देन (साहित्य) : भगवान् महावीर स्वामी के उपदेश समस्त भारत में प्रसारित हुए। जैन विद्वानों ने भारत की अनेक भाषाओं जैसे प्राकृत, संस्कृत, गुजराती, हिन्दी, मराठी, कन्नड़, तमिल तथा तेलुगु आदि में अनेक ग्रंथों की रचना की। ये ग्रंथ व्याकरण, काव्य, कोश, छंदशास्त्र, योगशास्त्र, कथाकाव्यों तथा चरित काव्यों आदि विभिन्न विषयों से संबंधित थे। जैन ग्रंथों में ११ अंग, १२ उपांग, १० प्रकीर्ण, ४ छेद सूत्र तथा चार मूलसूत्र आदि को प्रमुख स्थान प्राप्त है। इन ग्रंथों द्वारा भारतीय साहित्य का विकास हुआ तथा भारत की भाषाओं को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। इन साहित्यिक ग्रंथों से धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त होती है।
३.४.४ राजनीतिक देन : अहिंसा के सिद्धांत के परिणामस्वरूप कई राजा शांतिप्रिय बन गए तथा उन्होंने निरर्थक युद्धों में भाग लेना बंद कर दिया।
३.४.५ भाषा विकास सम्बन्धी देन : भगवान महावीर ने अपने उपदेश जन साधारण में प्रचलित अर्द्ध मागधी भाषा में किये जिसके कारण लोग इस धर्म के प्रति आकृष्ट हुए। ३.५ तीर्थंकर भ० महावीर स्वामी के काल में नारी चेतना :
बिहार संस्कृति का जन्मदाता है। वहाँ का प्रत्येक रजकण महावीर के चरणचिन्हों से अंकित है। वहाँ की गुफायें उनके संदेश से प्रतिध्वनित हो रही हैं। वहाँ के पहाड, नदी, नाले और खण्डहर उन्हें याद करते है। राजगृही, पाटलीपुत्र, नालंदा, वैशाली, अपापा, चम्पा तथा दूसरे श्रमण-संस्कृति के केंद्र आज भी अपनी पुरानी गाथा सुना रहे हैं। मगध का सांस्कतिक महत्व भारत के इतिहास में कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण माना गया है। १० आज से २६०० वर्ष पूर्व भगवान् महावीर ने भगवान् ऋषभदेव की क्रमागत परंपरा के अनुसार नारी-जागरण और नारी-स्वतंत्रता की जो ज्योति जगाई थी उसी का यह प्रस्फुटन है कि नारी चेतना और नारी विकास में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ है। कल तक घर की चार दीवारी में बंद रहनेवाली नारियां आज पुरूषों के साथ कदम से कदम मिलाकर कार्य कर रही हैं।
जैन संस्कृति में नारियों को निरन्तर ही गरिमापूर्ण स्थान प्राप्त रहा है। उनकी स्वतंत्रता मात्र सैद्धान्तिक न होकर व्यावहारिक भी रही है। यदि प्राचीन जैन-साहित्य पर दृष्टि डाली जाये, तो आद्य-तीर्थंकर ऋषभदेव ने अपने पुत्रों के साथ-साथ अपनी पुत्रियों- ब्राह्मी व सुंदरी को भी समान रूप से शिक्षा प्रदान की थी। जिसके आधार पर उन्होंने ज्ञान-विज्ञान और कला के क्षेत्र में प्रगति कर अपनी प्रतिभा से सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था। राजकुमारी ब्राहमी के नाम पर ही विश्वप्रसिद्ध प्राचीन-लिपि का नामकरण भी ब्राहमी लिपि किया गया, जिसमें सम्राट अशोक, कलिंगाधिपति जैन सम्राट् खारवेल तथा परवर्ती अनेक शासकों के धर्मलेख उपलब्ध हैं। पूर्वकाल में सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक क्षेत्रों में भी पुत्र और पुत्री में कोई भेदभाव नहीं था, किंतु काल के दुष्प्रभाव से भगवान् महावीर का युग आते-आते पुरूषों की मनोदशा में बहुत परिवर्तन आ गया था। उनके काल में नारी की दशा अत्यंत शोचनीय हो गई थी। उसे एक तुच्छ दासी के समान समझा जाने लगा था। खुलेआम उसका क्रय विक्रय किया जाने लगा था। उसके अधिकारों की अवहेलना की जा रही थी। उसे शिक्षा से भी वंचित रखा जाता था। भगवान् महावीर स्वयं प्रकाशित थे। भ० महावीर ने समृद्ध राजवंश में जन्म लेकर भी बारह वर्षों तक केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिए जो सतत् प्रयत्न किया उसका प्रभाव लोक जीवन पर ही नहीं, किंतु उनके अपने परिजनों पर भी पड़ा। उनकी दया, सहनशीलता, क्षमा, व त्याग का ही प्रभाव था कि उनकी मौसी धारिणी (पद्मावती) जैसी सन्नारी ने शील की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया।
__ महासती चंदनबाला ने संघर्षों के पहाड़ों का आलिंगन किया किन्तु अपने शील धर्म को नहीं छोड़ा। वैशाली की राजकुमारी चंदनबाला, जो बेड़ी में जकडी हुई एक क्रीत दासी का जीवन व्यतीत कर रही थी, उसे भगवान महावीर ने दासता से ही मुक्त नहीं किया, अपितु उसे अपने चतुर्विध संघ में दीक्षित कर साध्वी संघ की प्रमुखा बनाया। इस प्रकार उन्होंने स्त्रियों को भी पुरूषों की भांति आध्यात्मिक उन्नति के संपूर्ण अधिकार प्रदान किये। जैसे - बारह व्रतों का पालन करना पूजा करना आराधना करना सामायिक करना तथा ग्यारह अंग सूत्रों का पठन-पाठन करना इत्यादि। इस आध्यात्मिक उत्कृष्टता के कारण भगवान् महावीर
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
160
ने नारियों के जीवन में जागरण की ऐसी क्रांति उत्पन्न की, जिसने तुच्छ, हीन एवं अबोध समझी जाने वाली अबलाओं में भी उच्च भावनाओं को उद्बुद्ध कर दिया ।
निर्भीक एवं तत्वज्ञ श्राविका जयंति साधुओं के लिए प्रथम शय्यातर के रूप में प्रसिद्ध थी । विचरण करते हुए कौशांबी में जो भी नवीन साधु आते वे सर्वप्रथम जयंति के यहाँ पर वसति की याचना करते थे। मगध देश के महाराजा बिम्बसार (श्रेणिक) की दृढ़ धर्मी, प्रियधर्मी महारानी चेलना भ० महावीर स्वामी की परम भक्त थी जिसने राजा श्रेणिक को जैन धर्म का अनुयायी बनाकर जिन शासन की प्रभावना में सहयोग दिया। सुलसा श्राविका जैसी महावीर भक्त श्रमणोपासिका हुई जिसे कोई भी शक्ति धर्म मार्ग से विचलित नहीं कर सकी । श्रमणोपासिका रेवती बहुमूल्य तेल के गिर जाने के लिए नहीं, किंतु भिक्षा हेतु आए हुए मुनि के खाली लौटने पर रंज करती है। श्रमणोपासिका रेवती देवी की दृढ़ श्रद्धा अनुकरणीय है जो भिक्षा हेतु घर आये मुनि के खाली हाथ लौट
से खेद खिन्न हुई परन्तु बहुमुल्य तेल जमीन पर गिर जाने से रंच मात्र भी दुःखी नहीं हुई। तपस्वी महावीर के पारणे में विशेष सहयोगिनी सुश्राविका 'नन्दा जी' एवं महारानी मृगावती का अवदान कभी भुलाया नहीं जा सकता । अन्तकृद्दशांग सूत्र में वर्णित प्रभु महावीर की अनन्य भक्त श्रेणिक महाराजा की १० महारानियाँ - काली, महाकाली, सुकाली, कृष्णा आदि ने जब रथमूसलसंग्राम नामक युद्ध में मारे गए अपने पुत्रों के विषय में भगवान् महावीर के श्रीमुख से सुना तो वे भोगों से पराङ्मुख होकर प्रभु के धर्म संघ में दीक्षित हो गई। उग्र तपश्चर्या से अपने जीवन को कुंदन बनाया तथा कर्मबंधनों को तोड़कर मुक्ति को प्राप्त हुई । कोशा, सुलसा, जयन्ती, अनंतमती, रोहिणी, रेवती आदि ऐसी ही प्रबुद्ध महिलाएँ थीं, जो किसी भी महारथी विद्वान से, बिना किसी झिझक के शास्त्रार्थ कर सकती थीं और अपनी प्रतिभा चातुर्य से वे उन्हें निरूत्तर कर सकती थीं। यह भगवान महावीर की नारी के प्रति उच्च - सम्मान की भावना का ही प्रतिफल था कि उनके संघ में जहाँ साधुगण १४००० थे। वहीं साध्वियों की संख्या ३६००० थीं और श्रावकों की संख्या जहाँ १ लाख और ५० हजार थी, वहीं श्राविकाओं की संख्या ३ लाख १८ हजार थी। भगवान महावीर के सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार में इन महिलाओं ने उल्लेखनीय योगदान दिया।
इस प्रकार भ० महावीर स्वामी का धर्म राजमहल वर्ग से लेकर झोंपड़ियों तक पहुंच चुका था । उसमें कल्याणकारी और मंगलकारी तत्व कूट-कूट कर भरे हुए थे । जन-मानस की दृष्टि को भौतिकवाद से हटाकर अध्यात्म की ओर खींचने में उसने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया । अशांति और विषमता के कारणों का विश्लेषण कर उन्हें दूर करने का प्रयत्न किया और समाज में स्थायी शांति, समन्वय, सद्भाव तथा सहयोग का वातावरण निर्मित किया । यही कारण था कि महावीर का व्यक्तित्व और उनका धर्म आकर्षण का केंद्र बन चुका था । जनता के प्रत्येक वर्ग ने उसे स्वीकार किया, उसका प्रचार और प्रसार किया। अतः वह किसी संप्रदाय विशेष का धर्म न होकर जनधर्म बन गया । "
३. ६ तीर्थंकर भ० पार्श्वनाथ से संबंधित श्राविकाएँ :
३.६.१ श्रीमती लीलावती जी :- लीलावती क्षेमपुरी के सेठ धनंजय की धर्म पत्नी थी, इनके शुभदत्त नाम का पुत्र पैदा हुआ था। माता के धर्म संस्कारों के प्रभाव से वे पार्श्वसंघ के प्रथम गणधर बने थे । १२
ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
३.६.२ श्रीमती शान्तिमती जी :- शांतिमती सुरपुर के अधिपति कनककेतु राजा की रानी थी। इनके पुत्र का नाम ब्रह्म था जो पार्श्व संघ के चतुर्थ गणधर थे । १३
३.६.३ श्रीमती रेवती जी :- रेवती क्षितिप्रतिष्ठ नगर के राजा महीधर की रानी थी, इनके पुत्र का नाम सोम था। माता के धर्म संस्कारों के पोषण से पुत्र सोम पंचम गणधर बने । रेवती ने पुत्र को सत्पथ पर लगाया तथा पुत्रवधू चम्पकमाला को भी धर्म
किया और स्वयं भी धर्ममय जीवन व्यतीत किया । १४
में
दृढ़
३.६.४ श्रीमती सुंदरी जी :- पोतनपुर के राजा नागबल की महारानी सुंदरी थी । युवावस्था में प्रसेनजित राजा की पुत्री राजीमती से उसके पुत्र का विवाह हुआ था, भाई की मृत्यु से विरक्त होकर भ० पार्श्वनाथ के पास दीक्षित हुए, वें छठें गणधर बनें। ३.६.५ श्रीमती यशोधरा जी :- यशोधरा मिथिला नगरी के नमिराजा की रानी थी, इनके पुत्र का नाम वारिसेन था जो भगवान् पार्श्वनाथ के सातवें गणधर हुए। १६
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
३.६.६ श्रीमती पद्मा जी :- पोतनपुर के निवासी समरसिंह की पत्नी का नाम पद्मा था, इनके पुत्र का नाम भद्रयश था जो आठवें गणधर हुए।
३.६.७ ततीय, नव दसवें गणधर की माताओं के धर्म संस्कारों के प्रभाव से उनके पुत्र भी भ० पार्श्वनाथ के संघ के गणधर बने।
३.६.८ श्रीमती देवानंदा जी :- ब्राह्मणकुण्डग्राम में चार वेदों का ज्ञाता, धनाढ्य प्रसिद्ध, एवं तेजस्वी ऋषभदत्त नामक ब्राह्मण रहता था। उस ब्राह्मण की सुकोमल, सुंदर, गुणवान् देवानंदा नामक पत्नी थी। भगवान् पार्श्वनाथ की परंपरा के मुनियों के सम्पर्क से दोनों श्रमणोपासक धर्म के धारक बन गये। देवानंदा जीव-अजीव, पुण्य-पाप आदि नौ तत्वों की जानकार सुश्राविका थी। एक बार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ब्राह्मणकुण्डग्राम में पधारे यह समाचार सुनकर देवानंदा प्रसन्न होकर प्रभु के समवसरण में गई। प्रभु महावीर को देखकर उसके नेत्र हर्षाश्रुओं से भीग गए स्तनों में से दुग्ध की धारा निकल आई। निष्पलक दृष्टि से वह भगवान् को निहारने लगी। उसकी इस अवस्था को देखकर गौतम ने कारण पूछा। प्रभु ने बताया, देवानंदा ब्राह्मणी मेरी माता हैं मैं इसका पुत्र हूं १६ साढ़े बियासी रात्रि तक भ० महावीर स्वामी देवानंदा की कुक्षी में रहे। देवानंदा ने प्रभु के उपदेश को सुनकर दीक्षा अंगीकार की सिद्ध बुद्ध और मुक्त हुई ।२१
३.६.६ श्रीमती त्रिशला देवी :- लिच्छविशिरोमणि महाराज चेटक की पुत्री थी। ज्ञातकवंश की प्रसिद्धि के परिणामस्वरूप चेटक ने अपनी पुत्री का विवाह राजा सिद्धार्थ के साथ कर दिया ।२ रानी त्रिशला जी का अपरनाम प्रियकारिणी व विदेहदत्ता भी था। पति-पत्नि दोनों ही धीर वीर, सुशिक्षित, प्रबुद्ध, धार्मिक तथा उदार प्रवृत्ति के थे वे कुलपरंपरा के अनुसार जैनधर्म के अनुयायी तथा भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा के उपासक थे। त्रिशला रानी ने तीर्थंकर के योग्य चौदह स्वप्नों को देखा तथा वर्धमान भगवान महावीर स्वामी की जननी बनने का सौभाग्य प्राप्त किया। बहुपत्नीवादी सामंतयुग के राजन्य वर्ग के सम्भ्रांत सदस्य होते हुए भी भगवान् महावीर के पिता तथा पितामह सिद्धार्थ और सर्वार्थ एक पत्नीव्रत के पालक थे। उनके दो पुत्र और एक सुपुत्री थी। वह नन्दी वर्धन को राज्य का भार सौंप दिया और अंत में अनशनपूर्वक समाधीमरण को प्राप्त करके राजा व रानी दोनों अच्युत नामक बारहवें स्वर्ग में उत्पन्न हुए। वहाँ की देवायु पूर्ण कर के महाविदेह क्षेत्र में संयम अंगीकार के कर मोक्ष प्राप्त करेंगे।२५
३.६.१० श्रीमती देवी :- वर्धमान महावीर का जन्म स्थान कुण्डलपुर पूर्वी भारत के विदेह देश के अन्तर्गत महानगरी वैशाली से नातिदूर स्थित था। शक्तिशाली वज्जिगण संघ की वह राजधानी थी। उक्त गणसंघ में लिच्छवि, ज्ञात विदेह, मल्ल आदि अनेक स्वाधीनताप्रेमी गण सम्मिलित थे। इन्हीं गणों में से ज्ञातकवंशी व्रात्य क्षत्रियों का एक गण था, जिसका केंद्र कण्डग्राम था। कुण्डग्राम के स्वामी और गण के मुखिया राजा सर्वार्थ थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम श्रीमती देवी था। यह दम्पत्ति श्रमणों के उपासक तीर्थंकर प्रभु पार्श्वनाथ की परंपरा के अनुयायी थे। वे अपने अर्हत चैत्यों में अर्हतों की उपासना किया करते थे तथा शील, सदाचार संपन्न थे। इनके पुत्र का नाम सिद्धार्थ था जो भ० महावीर स्वामी के पिता और कुण्डलपुर के राजा थे।
३.६.११ रानी सूर्यकांता : अर्ध केकयदेश श्वेताम्बिका नगरी के राजा प्रदेशी थे, उनकी रानी का नाम सूर्यकांता था। राजा का युवराज 'सूर्यकांतकुमार था। युवराज राज्य कार्य संभालता था। राजा प्रदेशी को रानी सूर्यकांता अत्यंत प्रिय थी। चित्त सारथी ने राजा प्रदेशी की केशी कुमार श्रमण से भेंट करवाई। नास्तिक प्रदेशी ने अनेक तर्क-वितर्क किये तथा अंत में वह परम धार्मिक बन गया। अधिकतर समय वे धर्म ध्यान में व्यतीत करने लगे। सूर्यकांता रानी ने देखा प्रदेशी राजा न राज्य कार्य में रूचि लेते हैं, न ही भोग भोगते हैं, अब इनसे मुझे क्या प्रयोजन? एक दिन स्वयं राजमाता बनने के चक्कर में उसने पूर्व के अनुरुप राजा प्रदेशी को भोजन एवं पानी में विष मिलाकर दे दिया। राजा ने समझ लिया कि रानी ने मुझे मारने के लिए विष दिया है, परन्तु धार्मिक राजा शांतिपूर्वक, संथारा करके धर्म ध्यान में लीन हो गया, वह काल धर्म प्राप्त कर सूर्याभ देव बना । भगवान् महावीर को वंदना नमस्कार करने अपने परिवार के साथ आया था।
३.६.१२ धारिणी : आम्रकल्पा नगरी के राजा सेय की रानी का नाम धारिणी था। धारिणी रानी प्रियदर्शना और सुरूपवती थी। भगवान महावीर स्वामी आम्रकल्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन में पधारे। तब सेय राजा एवं रानी धारिणी ने प्रभु के दर्शन किये तथा उपासना की। राजा रानी धर्मपरायण थे तथा रानी धारिणी पतिपरायणा सन्नारी थी।
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
162
३.६.१३ कालश्री : भगवान् पार्श्वनाथ के समय की घटना है। आम्रकल्पा नगरी में काल नामक गाथापति रहता था, वह धनाढ्य था, उसकी मनोहर रूपवाली कालश्री नाम की पत्नी थी । २६
ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
३.६.१४ काली : काली आम्रकल्पा नगरी के काल एवं कालश्री की पुत्री थी तथा अविवाहित थी । वह कुमारी होते हुए भी जीर्ण शरीरवाली थी । उसका शरीर वद्धा स्त्रियों जैसा कांतिहीन था। पति बनने वाले पुरुष उससे विरक्त हो गए थे, कोई उसे चाहता नहीं था, अतएव वह अविवाहित ही थी। एक बार पार्श्वनाथ भगवान् संघ सहित नगरी में पधारे। माता-पिता से अनुमति लेकर उसने भगवान् के दर्शन किए तथा उपदेश श्रवण किया । वैराग्य हुआ और माता-पिता की आज्ञा लेकर दीक्षित हो गई। पुष्पचूला आर्या के समीप रहते हुए वह शरीरासक्त हुई, तथा गुरुणी से अनुशासनहीन होकर अलग उपाश्रय में स्वच्छंद रहने लगी। शरीर बकुशता जन्य दोषों की आलोचना किये बिना ही स्वर्गवासी हुई।
इसी प्रकार राजी", रजनी, विद्युत और मेघा कुमारिकाओं ने जो क्रमशः राजश्री, रजनीश्री, विद्युतश्री और मेघश्री की सुपुत्रियां थी, सभी आमलकप्पा नगरी की निवासिनी थी तथा भगवान् पार्श्वनाथ की श्राविकाएं थी जो कालांतर में दीक्षित हुई। इसी प्रकार द्वितीय वर्ग के पांच अध्ययनों में श्रावस्ती में भगवान् पार्श्वनाथ के पदार्पण पर श्राविका सुंभा, निसुंभा, रंभा, निरंभा, मदना* इन सबने दीक्षा ली।
३.६.१५ सोमा जी जयन्ति जी : अस्थिक ग्राम में भ० पार्श्वनाथ जी की परंपरा के उत्पल नामक निमित्तवेत्ता विद्वान् रहते थे । उत्पल की दो बहनें थी सोमा और जयन्ति । वे दोनों दीक्षित होने में असमर्थ थी, अतः पार्श्व परंपरा की परिव्राजिकाओं के रूप में रहती थी। जब वे चोराग सन्निवेष में थी तब भगवान् महावीर स्वामी को वहाँ के अधिकारियों ने गुप्तचर समझकर पकड़ लिया, और अनेक यातनाएं दी। तब इन्हीं उत्पल की दोनों बहनों ने अधिकारियों को भ० महावीर के संबंध में यथार्थ जानकारी दी। अधिकारियों ने प्रभु महावीर तथा उनके साथ रह रहे शिष्य गोशालक को बंधनमुक्त कर दिया ।
३.६.१६ विजया जी प्रगल्भा जी : ये दोनों भगवान् पार्श्वनाथ की परंपरा की परिव्राजिकाएँ थी। एक बार भगवान् महावीर कुवि सन्निवेश पधारे, गोशालक भी उनके साथ ही था । वहाँ के अधिकारियों ने उन्हें गुप्तचर समझकर पकड़ लिया। तब विजया और प्रगल्भा दोनों ने घटना स्थल पर पहुंचकर उन्हें छुड़ाया। वे धर्मश्रद्धालु तथा भक्तिपरायणा थी ।
३.६.१७ श्रीमती सुभद्रा जी : वाराणसी नगरी में भद्र नामक एक अतिसमृद्ध सार्थवाह रहता था। उसकी पत्नी सुभद्रा, सुन्दर और सुशीला थी। अपने पति के साथ अनेक वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी वह वन्ध्या थी । अपने इस दुःख से वह दुःखी रहने लगी। एक दिन भगवान् पार्श्वनाथ की सुव्रता आर्या भिक्षा के लिए घूमते हुए सुभद्रा के घर पहुंची। सुभद्रा ने साध्वियों से संतान उत्पन्न होने का उपाय पूछा। सुभद्रा ने साध्वियों के लिए ये कार्य अकल्पनीय बताये, तथा उसकी इच्छा देखकर वीतराग प्ररूपित धर्म का महत्व समझाया। सुभद्रा ने संतोष एवं प्रसन्नतापूर्वक श्राविका के बारह व्रतों को अंगीकार किया। कालांतर में प्रव्रजित होकर वह बहुपुत्रिका देवी के रूप में उत्पन्न हुई । ४३
३.६.१८ प्रिया जी : राजगृह नगर में सुदर्शन गाथापति की पत्नी थी प्रिया । प्रिया ने एक पुत्री को जन्म दिया जो जीर्ण शरीरवाली थी तथा वरविहीन श्राविका थी, उसने पार्श्वनाथ भगवान् के संघ में दीक्षा धारण की । ४४
भगवान् पार्श्वनाथ परंपरा की श्राविकाएं इलश्री, सेतरा श्री सौदामिनी श्री, इन्द्राश्री, घनाश्री, विद्युताश्री, वाराणसी के गाथापतियों की इन पत्नियों के नाम इनकी पुत्रियाँ जो श्राविकाएँ थीं, उन्होंने भगवान् पार्श्वनाथ के संघ में दीक्षा धारण की थी । ४५ भगवान् पार्श्वनाथ चम्पानगरी में पधारे। श्राविका रूपक श्री, सुरुपा श्री, रुपांशा श्री, रुपवती श्री रूपकान्ता श्री, रत्नप्रभा श्री, इनकी सुपुत्रियाँ जो रूपा, सुरूपा, रुपांशा, रुपवती, रुपकांता, रत्नप्रभा के नाम से प्रसिद्ध हुई, भगवान् पार्श्व के संघ में दीक्षित हुई । ४६
भगवान् पार्श्वनाथ एक बार नागपुर पधारे सहस्राम्रवन में विराजमान हुए तब श्राविकाएं. १ कमल श्री, २ कमलप्रभा श्री, ३ उत्पला श्री, ४ सुदर्शना श्री, ५ रूपवती श्री, ६ बहुरूपा श्री, ७ सुरूपा श्री, ८ सुभगा श्री, ६ पूर्णा श्री, १० बहुपुत्रिका श्री, ११ उत्तमा श्री, १२ भारिका श्री,१३ पद्मा श्री, १४ वसुमती श्री, १५ कनका श्री, १६ कनक प्रभा श्री, १७ अवतंसा श्री, १८ केतुमती श्री, १६ वज्रसेना श्री, २० रतिप्रिया श्री, २१ रोहिणी श्री, २२ नवमिका श्री, २३ ह्रीं श्री, २४ पुष्पवती श्री, २५ भुजंगा श्री, २६ भुजंगवती श्री, २७ महाकच्छा
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
श्री, २८ अपराजिता श्री, २६ सुघोषा श्री, ३० विमला श्री, ३१ सुस्वरा श्री, ३२ सरस्वती श्री आदि की सुपुत्रियों ने जो इन्हीं के नाम वाली थी, जिनके नाम के आगे "श्री" नहीं है। सभी श्राविकाओं ने भगवान् पार्श्व संघ में दीक्षा ग्रहण की थी।
एक बार भगवान् पार्श्वनाथ अरक्खुरी नगरी में पधारे। श्राविकाएं सूर्यश्री, आतपा श्री, अर्चिमाली श्री, प्रभंकरा श्री, पुत्रियाँ सूर्यप्रभा, आतपा, अर्चिमाली और प्रभंकरा, सुपुत्रियों ने भगवान् पार्श्वनाथ के चरणों में दीक्षा धारण की। भगवान् पार्श्वनाथ के समीप श्रावस्ती की दो ;पदमा, शिवा हस्तिनापुर की दो; सती, अंजु कांपिल्यपुर में दो, रोहिणी-नवमिका साकेतनगर की दो अचला, अप्सरा आदि श्राविकाओं ने दीक्षा धारण की। मथुरा में भ० पार्श्वनाथ पधारे। श्राविका चंद्रप्रभा श्री, ज्योत्सनाप्रभाश्री, अर्चिमाली श्री, प्रभंगा श्री की सुपुत्रियों ने प्रभु पार्श्वनाथ के उपदेशों को सुनकर दीक्षा अंगीकार की।
इसी प्रकार ज्ञाता सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के १० वर्गों में २०१ देवियां अपने अपने पूर्वभव में अविवाहित श्राविकाएँ रही तथा जराजीर्ण अवस्था में भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेश को सुनकर दीक्षा धारण की।
३.६.१६ वरुणा जी : जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में "पोतनपुर" नगर में अहँतोपासक राजा अरविंद के पुरोहित तत्वज्ञ विश्वभूति के पुत्र कमठ की पत्नी थी। वह सदाचारिणी थी, वह चाहती थी कि उसका पति कमठ भी सदाचारी बने। अतः उसने अपने देवर मरुभूति के समक्ष सच्चाई प्रकट करनी आवश्यक समझी।
३.६२० वसुन्धरा जी : जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में "पोतनपुर" नगर में राजा अरविंद के पुरोहित तत्वज्ञ विश्वभूति के द्वितीय पुत्र "मरुभूति" की पत्नी थी। मरूभूति की अनासक्ति तथा कमठ की लंपटता की वह शिकार बन चुकी थी।५३
३.६.२१ महारानी पद्मावती जी : महाराजा किरणवेग की रानी थी और उसके पुत्र का नाम किरणतेज था।
३.६.२२ कनकतिलका जी : पूर्व विदेह के सुकच्छ विजय पर तिलका नाम की नगरी के राजा विद्युतगति की रानी थी जो राजकुमार किरणवेग की माता थी।५५
३.६.२३ श्रीमती लक्ष्मीवती जी : जंबूद्वीप के पश्चिम महाविदेह के सुगंध विजय में शुभंकरा नगरी के राजा वज्रवीर्य की रानी थी जिसके पुत्र का नाम वजनाभ था |५६
३.६.२४ सुदर्शना जी : जंबूद्वीप के पूर्वविदेह में “पुरानपुर" नगर के राजा कुलिशबाहु की प्रिय रानी थी जिसने चौदह शुभ स्वप्न देखकर यथासमय चक्रवर्ती पुत्र “सुवर्णबाहु" को जन्म दिया। यही इसका महत् योगदान है।
३.६.२५ पद्मावती जी : विद्याधरेन्द्र रत्नपुर नरेश की पुत्री थी जिसकी माता का नाम रत्नावती था। दोनों कुलपति गालव मुनि के आश्रम में रहती थी। चक्रवर्ती सुवर्णबाहु अश्व के निमित्त से वहाँ पहुंचे। भवितव्यता के अनुसार राजमाता रत्नवती ने सुवर्णबाहु और पद्मावती का गंधर्व विवाह संपन्न करवाया।
३.६.२६ प्रभावती जी : कुशस्थल के महाराजा प्रसेनजित की पुत्री थी, जो पार्श्वकुमार की पत्नी थी। वह अत्यंत रूपवती एवं गुणवती थी और पार्श्वकुमार के प्रति पूर्णतः समर्पित थी। उसकी शीलसंपन्नता नारी जगत के लिए आदर्श हैं।
३.६.२७ माता वामादेवी जी : जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में "वाराणसी” नगरी के इक्ष्वाकुवंशीय महाराजा अश्वसेन की महारानी थी, जो नम्रता, पवित्रता, सुंदरता, आदि उत्तम गुणों से संपन्न थी। तीर्थंकर जन्म के सूचक चौदह शुभ स्वप्नों को देखकर उसने यथासमय सर्वलक्षण संपन्न पत्र पार्श्वकुमार को जन्म दिया। जब पुत्र गर्भ में था, तब अंधकार में महारानी ने पति के पार्श्व (बगल) में होकर जाते हुए सर्प को देखा अतः बालक का नाम पार्श्वकमार रखा ६० तीर्थंकर प्रभु पार्श्वनाथ की माता का असीम उपकार चिर स्मरणीय रहेगा।
३.६.२८ ग्वालिन जी : वणिक् सागरदत्त की पत्नी थी जो रूपवती, बुद्धिमती एवं पतिव्रता थी। उसने सागरदत्त के मन से स्त्री के प्रति हीन भाव को दूर किया।
३९६७२६ सुंदरी जी : नागपुरी के राजा सूरतेज के कपापात्र सेठ धनपति की पत्नी थी। वह सुंदर एवं सुशीला थी। बंधुदत्त उसका विनीत एवं गुणवान् पुत्र था।६२
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
३.६.३० वसुमती जी : वत्स नामक विजय की कौशाम्बी नगरी में जिनदत्त नामक संपत्तिशाली सेठ रहता था। उसकी पत्नी वसुमती थी तथा पुत्री थी प्रियदर्शना ।६३
३.६.३१ प्रियदर्शना जी : जिनदत्त सेठ एवं वसुमती की पुत्री थी। वह जिन धर्मरसिक थी। जिनधर्मानुयायी बंधुदत्त की पत्नी थी। उसके पुत्र का नाम "बांधवानंद' था।६४ कालांतर में उसने दीक्षा ली।
३.६.३२ मगांकलेखा जी : प्रियदर्शना की सखी थी।५
३.६.३३ श्रीमती देवी : भरतक्षेत्र के विध्यादि में शिखासन नामक भील जाति का राजा था, उनकी पत्नी का नाम श्रीमती था। श्रीमती ने अपने पति को सम्मुख आये सिंह की हिंसा करने से रोका। सिंह उन्हें मार कर खा गया, वे अपनी समाधि में तल्लीन रहे।६६
३.६.३४ कुरुमती जी : अपरविदेह में सुभूषण राजा की रानी थी, बसंतसेना उसकी पुत्री थी।६७ ३.६.३५ बालचंद्रा जी : अपरविदेह के चक्रपुरी के राजा कुरुमगांक की रानी थी। शबरमृगांक उसका पुत्र था। ६८
३.६.३६ बसंतसेना जी : कुरूमती और सुभूषण राजा की पुत्री थी। पति का नाम शबरमृगांक था। बसंतसेना के कारण जयपुर के वर्धनराजा और शबरमृगांक में युद्ध हुआ था। ६६ ३.७ तीर्थंकर भ० महावीर स्वामी से संबंधित श्राविकाएँ :
३.७.१ प्रियंगु जी : भरत क्षेत्र के राजगृह नगर में "विश्वनंदी" राजा की पत्नी थी। पुत्र का नाम विशाखानंदी था। ७० ३.७.२ धारिणी जी : विश्वनंदी राजा के छोटे भाई विशाखाभूति की रानी थी। विश्वभूति उसका पुत्र था।
३.७.३ भद्रा जी : पोतनपुर नगर के राजा 'रिपुप्रतिशत्रु' की रानी थी। वह पतिभक्ता, शीलवती और सुशीला थी। उसकी पुत्री का नाम मगावती था। पुत्र का नाम अचल था। ७२
३.७.४ मगावती देवी : पोतनपुर नगर के राजा "रिपुप्रतिशत्रु" की वह रानी थी। उसने सात स्वप्न देखे और त्रिपृष्ठ-कुमार वासुदेव को जन्म दिया। बालक की पीठ पर तीन बांस के चिन्ह देख कर उक्त नाम दिया गया।७३
३.७५ भद्रा जी : मंख जाति के "मंखली" नामक पुरुष की पत्नी थी। गोशालक उसका पुत्र था।७४
३०.६ विजया देवी : महारानी मृगावती की एक दासी थी, जिसने महारानी को भगवान महावीर द्वारा महामात्य की पत्नी नंदा के घर से आहार पानी लिये बिना ही लौटने की बात कही थी।
३.७.७ बंधुमती जी : चम्पा एवं राजगही के मध्य गोबर ग्राम के गोशंखी नामक अहीर की पत्नी थी। ७६
३.७.. शिका देवी : गोबर गांव के निकट खेटक नामक छोटा सा गांव था। उसमें 'वेशिका' नामक स्त्री रहती थी। उसका न तपस्वी पेशिकायन था।७७ __३० सुकोमला : प्रतिष्ठानपुर के राजा शालिवाहन की नर द्वेषिणी पुत्री थी। राजा विक्रमादित्य की रानी थी, जब वह गर्भवती श्री तर्भ ।ज्य कार्य वश राजा उसे छोड़कर उज्जयिनी चला गया था। रानी ने कालांतर में पुत्र देवकुमार को जन्म दिया। देवकुमार विकरित्र के निमित्त से राजा ने रानी को स्वीकार किया। रानी सुकोमला के सरल व्यवहार व निश्छल अंतःकरण से राजा भी प्रा (वेत हुआ ।
३.७.१० शुभमती जी : सौराष्ट्र देश के वल्लभीपुर के राजा महाबल और रानी वीरमती की पुत्री थी। वह धर्मनिष्ठा, विद्यावती और रूपवती थी। उसका विवाह राजा विक्रमादित्य के पुत्र विक्रमचरित्र के साथ संपन्न हुआ। शुभमती को एक किसान हरण कर ले गया। शुभमती ने अपने बुद्धिबल से माता-पिता, किसान आदि सबका मार्गदर्शन किया. सबको प्रभावित किया।७६
३.७.११ स्मिता जी : कुसुमपुर के राजा विमलसेन की पुत्री थी। स्मिता अनुपम सुंदरी और विलक्षण बुद्धिमती थी। राजकुमारी स्गिता से प्र' 'वित होकर राजा सूर्यसेन और महारानी ज्योत्स्ना के सुपुत्र राजकुमार कुमारसेन ने उससे विवाह किया। स्मिता ने
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन प्राविकाओं का बृहद् इतिहास
श्राविका व्रतों को ग्रहण किया था, वह धर्मनिष्ठ सुश्राविका थी। उसके धर्म प्रभाव से उसके पति भी धर्म के सम्मुख हुए, यह उसका उल्लेखनीय अवदान था।
३.७.१२ महासती सुभद्रा जी : बसंतपुर के राजा जितशत्रु के मंत्री जिनदास एवं उनकी पत्नी तत्वमालिनी की सुपुत्री का नाम था सुभद्रा। सुभद्रा बचपन से ही जिन धर्मानुयायी श्राविका बनी थी, अतः पिता उसका विवाह जैन कुल में करना चाहते थे। चंपानगरी में बौद्धधर्मी बुद्धदास नामक युवक रहता था। सुभद्रा के रूप लावण्य से आकर्षित होकर उसने जैनधर्मी होने का ढोंग करके छलपूर्वक सुभद्रा के साथ विवाह किया। ससुराल में सुभद्रा ने देखा कि उसके परिजन जैन धर्म का पालन नहीं करते। सुभद्रा के देव उपासना, गुरु उपासना के प्रति भी वे शंकित थे। एक बार सुभद्रा के घर भिक्षा हेतु एक जिनकल्पी मुनि पधारे। मुनि की आंखों में तिनका अटका था तथा पानी बह रहा था। प्रतिमाधारी मुनि कष्ट सह लेते हैं परन्तु उसे निकालने की इच्छा नहीं रखते हैं। अतः सुभद्रा ने अपनी जीभ से मुनि की आंख में अटकी फांस निकाल दी। फांस निकालने पर सुभद्रा के ललाट पर लगी सिंधूर की बिंदी मुनि के भाल पर लग गई। उसी समय उसकी ननंद ने मां और भाई को बुलाकर यह दिखाया और जिनकल्पी जैन मुनि पर कलंक आया, उनकी छवि धूमिल हो गई। सुभद्रा के प्रति पति सहित सबका व्यवहार बदल गया, सबने मिलकर सुभद्रा को दुश्चरित्रा घोषित किया। सभद्रा ने संकल्प किया कि जब तक वह कलंकमुक्त नहीं होगी, तब तक वह अन्न जल स्वीकार नहीं करेगी। तीन दिन व्यतीत हुए, चतुर्थ दिन चम्पा नगरी के चारों द्वार बंद हो गए। नगर से बाहर आवागमन के सारे मार्ग बंद हो गए लोग परेशान थे।
आकाशवाणी हुई, कि सती स्त्री के द्वार कच्चे धागे से चलनी को बांधकर, कुएँ से पानी निकालने तथा उसके छींटे दरवाजों पर डालने से दरवाजे खुल सकते हैं। राजा ने नगर में घोषणा करवाई कि जो स्त्री यह महान कार्य संपन्न करेगी, उसे राजकीय सम्मान प्राप्त होगा। पूर्व दिशा के द्वार पर नगर की स्त्रियों का मेला लग गया और द्वार के निकट के कुएँ में चलनियों का ढेर हो गया, पर पानी नहीं निकला। सुभद्रा ने सास से आज्ञा माँगी पर सास ने व्यंग्य कसा। सुभद्रा ने पहले घर के कुएँ से चलनी द्वारा पानी निकालकर उन्हें विश्वास दिलाया। फिर सास की आज्ञा लेकर वह कुएँ के पास गई और चलनी से पानी निकालकर पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा के दरवाजों पर छिड़का, दरवाजे स्वतः खुल गए। चतुर्थ दरवाजा उसने किसी अन्य सती के लिए बंद ही छोड़ा कि वह चाहे तो इसे खोल सकती है। दरवाजे खुलते ही सती की जय जयकार हुई। राजा ने राजकीय सम्मान देकर उसे घर तक पहुंचाया। सुभद्रा के सास-ससुर, ननंद, एवं पति ने लज्जा से आंखें नीची कर ली और सुभद्रा से क्षमा-याचना की। सुभद्रा के मन में किसी के प्रति रोष न था। सुभद्रा की नम्रता, शालीनता और सहिष्णुता से परिजन प्रभावित हुए अपने जीवन में वे भी जैन धर्म के प्रति आस्थावान् और पवित्र आचार वाले बने। जैनशासन जयवंत बना। यह सुभद्रा का महान् योगदान था।
३.७.१३ माता पृथ्वीदेवी जी : गोबर ग्राम निवासी गौतम गोत्रीय वसुभूति के तीन पुत्र थे इंद्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति, जो भगवान् महावीर के गणधर बने थे। उनकी माता का नाम था पृथ्वी देवी । ८२
३.७.१४ श्रीमती वारुणी देवी : कोल्लाग सन्निवेष के भारद्वाजगोत्रीय ब्राह्मण "धनमित्र" की पत्नी थी वारूणी। उनके पुत्र का नाम "व्यक्त" था। जिसने भगवान महावीर के संघ में गणधर बनकर जिन शासन की प्रभावना की थी।
३.७.१५ श्रीमती भद्दिला जी : कोल्लाग सन्निवेश के अग्निवेश्यायन गोत्रीय धम्मिल ब्राह्मण की पत्नी थी। इनके एक पुत्र था जिनका नाम सुधर्मा था। जो भगवान महावीर के पांचवे गणधर बने, इस प्रकार भद्दिला संस्कारवान् पुत्र को जन्म देनेवाली सौभाग्यशालिनी माता बनी थी।४।।
३.७.१६ श्रीमती विजया देवी जी : मौर्य सन्निवेश के वशिष्ठ गोत्रीय ब्राह्मण "धनदेव" की पत्नी थी। इनके पुत्र का नाम था मंडितपुत्र । जो भगवान् महावीर के गणधर बने, जिनशासन की सेवा करने वाली यह महान् सन्नारी थी।५
३.७.१७ श्रीमती विजया जी : मौर्य ग्राम निवासी काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण की पत्नी थी। इनके पुत्र का नाम मौर्यपुत्र था।८६ जो भगवान महावीर के गणधर बने। माता विजया का यह अवदान है कि उसने संस्कारवान पुत्र को जन्म दिया।
३.७.१८ श्रीमती जयंति जी : मिथिला निवासी गौतम गोत्रीय ब्राह्मण देवशर्मा की पत्नी थी। इनके पुत्र का नाम अकम्पित था, जो भगवान महावीर के गणधर बने सुयोग्य माता ने सुयोग्य पुत्र को जन्म दिया।
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
166
ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
३.७.१६ श्रीमती नंदा जी : कोशला नगरी के हारीत गोत्रीय ब्राह्मण वसु की पत्नी थी। इनके एक पुत्र था जिनका नाम "अचलभ्राता" था ८ ये भगवान महावीर के गणधर बने थे। जिनशासन प्रभावक पुत्र को मां नंदा ने पैदा करने का सौभाग्य प्राप्त किया।
३.७.२० श्रीमती वरूणा जी : तुंगिका नगरी के कौडिण्यगोत्रीय, ब्राह्मण दत्त की पत्नी थी। इनके पुत्र का नाम “मेतार्य" था। भगवान् महावीर के गणधर बनने योग्य सुयोग्य पुत्र को मां वरूणा ने पैदा किया। . ३.७.२१ श्रीमती अतिभद्रा जी : राजगह के कौडिण्य गोत्रीय ब्राह्मण "बल" की पत्नी थी। इनके पुत्र का नाम "प्रभास" था।५ माता अतिभद्रा ने संस्कारवान् गणधर जैसे सुयोग्य पुत्र को जन्म दिया था।
३.७.२२ श्रीमती यशोदा जी : यशोदा कलिंग नरेश राजा जितशत्रु (कल्पसूत्र में वर्णित) और रानी यशोदया की पुत्री थी। अन्य मान्यता के अनुसार वसन्तपुर के महासामंत समरवीर राजा की सुपुत्री थी तथा वर्द्धमान महावीर की सहधर्मणी थी। अत्यंत सुंदर व गुणवान् पुत्रवधु को पाकर माता त्रिशला अति प्रसन्न थी। मानव श्रेष्ठ वर्धमान की सहधर्मिणी होने से यशोदा अपने जीवन को धन्य मानती थी। पति की त्यागमयी मनोकांक्षाओं को समझकर पतिपरायणा यशोदा ने अपनी मनोवत्तियों को उनके अनुरुप मोड़ लिया था। कालान्तर में उन्हें एक कन्या की माता बनने का सौभाग्य प्राप्त हआ, जिसका नाम प्रियदर्शना रखा गया था।६२ विवाह उपरान्त भी कुमार वर्द्धमान का मन भौतिकता की चकाचौंध में लिप्त न हो पाया और वे अपनी सहधर्मिणी यश की असारता के बारे में समझाने लगे। वे राज वैभव से दूर रहते, धरती पर सोते तथा सादा भोजन करते । यशोदा भी पति के विराग भाव को समझते हुए त्यागवृत्ति से रहती। उन्हें किसी प्रकार कष्ट न हो, इसकी सावधानी रखती । संसार की क्षणभंगुरता के उपदेशों को अपने पति से आदरपूर्वक सुनती तथा आचरण में लाने का प्रयत्न करती। यशोदा अपने पति के सुख में अपना सुख मानकर संतोष करती थी। वह कहती "नाथ! आपका सुख जगत के सुख में है, मेरा सुख आपके सुख में है। दीक्षा के समय विदा होते हुए वर्द्धमान स्वामी से यशोदा ने कहा-"आर्यपुत्र! शरद ऋतु में जब क्षत्रिय प्रवास व संग्राम के लिए जाते हैं, तब क्षत्राणियां, अपने शूरवीर पति को कुंकुम व केशर से तिलक लगा कर उन्हें विदाई देती हैं। आप तो संसार जीतने के लिए प्रयाण कर रहे हैं, अतः आपका मार्ग सरल हो, आप विजयी हों यही मंगल भावना है। इस महान नारी ने स्वयं के सुखों की आहुति देकर अपने पति महावीर के मार्ग को आलोकित किया। यह नारी के मौन त्याग का अनूठा व दुर्लभ उदाहरण है।
३.७.२३ महासती चंदनबाला जी : चंदनबाला का बचपन का नाम वसुमती था। वह चंपा नगरी के महाराजा दधिवाहन और महारानी धारिणी देवी की पुत्री थी। रानी धारिणी शीलपरायणा संस्कारवान् सन्नारी थी। युद्ध में जीतने पर शतानिक के एक सैनिक की दुर्भावना के कारण शील रक्षण के लिए महारानी धारिणी ने प्राणोत्सर्ग कर दिये। वसुमती को पुत्री मानकर सैनिक घर ले गया। कौशाम्बी पहुंचकर उसने उसे बेच दिया। श्रेष्ठी धनावह ने उसे खरीदा और अभिजातकुलीन कन्या समझकर उसे अपनी पत्नी मूला को सौंप दिया। पति-पत्नी ने उसका पत्रीवत पालन किया। वसमती का स्वभाव चंदन के समान शीतल और आनंदकारी था, श्रेष्ठी परिवार ने उसका नाम चंदना रखा। चंदना बड़ी मेधावी और प्रतिभासंपन्न कन्या थी। ___ चंदना जब तरूणावस्था में आई तब उसके निखरते हुए रूप सौंदर्य को देखकर मूला के मन में यह भाव आने लगा कि कहीं धनावह सेठ इससे आकर्षित होकर विवाह न कर ले। एक बार जब धनावह सेठ के पैर धुलाते हुए चंदना के बाल नीचे बिखर गए तब सेठ ने संतति वात्सल्य से उन्हें उसके जूड़े में लगा दिया। मूला की आशंका यह देखकर दृढ़ हो गई। चंदना को उसने सदैव के लिए मार्ग से हटाना उचित समझा।
सेठ कहीं बाहर गये थे। तब मला ने चंदना को खब पीटा और उसके सारे बाल कटवा दिये। बाद में हाथ-पैर में हथकड़ी-बेड़ी डालकर उसे भोयरे में डाल दिया। तीन दिन तक वह भूखी प्यासी वहीं पड़ी हुई अपने कर्मों की गति पर चिंतन करती रही। तीन दिन बाद धनावह सेठ आये. सप में उडद के बाकले थे. वे चंदना को खाने के लिए प्रदान कर सेठ लहार के पास दौड़े गए। भ० महावीर की साधना का बारहवां वर्ष चल रहा था। घोर तपस्वी भ० महावीर अपने कठोर तेरह अभिग्रह धारण करके आहार को निकले व चंदना के द्वार पर आये। चन्दना हर्षित हो उठी। उसके पास सूप में मात्र उड़द के बाकले थे,
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
167
उसके मन में यह शंका हुई कि इतने बड़े तपस्वी को इतना तुच्छ आहार कैसे समर्पित करूँ ? यही सोचकर उसकी आंखे भर
आई।
___ आधुनिक विज्ञों ने ऐसा भी लिखा है कि भ० महावीर स्वामी ने अपने अभिग्रह की पूर्ति में कुछ कमी देखी। वे भिक्षा ग्रहण किये बिना ही बाहर निकलने लगे, यह देख चंदना की आंखों में आंसू आ गये। अब तपस्वी साधक महावीर का अभिग्रह पूरा हो चुका था। उन्होंने चन्दना की भिक्षा को स्वीकार कर लिया। चंदना के इस भाग्योदय पर सभी श्रावक उसे श्रद्धा से देखने लगे। महाराजा शतानीक भी सपरिवार अभिवंदना करने आये। शतानीक के साथ दधिवाहन का अंगरक्षक भी बंदी के रूप में आया था। चंदना को देखकर वह उसके पैरों में गिर पड़ा। पूछने पर उसने चंदना का सम्पूर्ण परिचय दिया। शतानीक की पत्नी मृगावती चंदना की माता पद्मावती की बहिन थीं, सभी परस्पर मिलकर बड़े गद्गद हुए। ___ चंदना को इस घटना के कारण संसार से वैराग्य हो गया। वह भ० महावीर स्वामी के चरणों में दीक्षित हुई। चंदना का दासत्व महावीर के कारण ही छुट सका। वर्द्धमान के समय की साध्वियों एवं श्राविकाओं की अग्रणी महासती चन्दना ही थी। चंदना ने विषम परिस्थितीयों में शान्ति एवं सहिष्णुता का परिचय दिया तथा अपने धर्म पर अटल रही। अकेले ही जीवन से संघर्ष किया शांति एवं सहिष्णुता का परिचय दिया तथा धर्म की दढ़ता को बनाये रखा। वह युग मनुष्य के क्रय-विक्रय का युग था। आज हमें पशु क्रय-विक्रय जितना स्वाभाविक लगता है। उस युग में मनुष्य का दास, दासियों का व्यापार उतना ही स्वाभाविक था। बिका हुआ मनुष्य दास बन जाता था। और वह खरीद्दार की चल-संपत्ति हो जाता, उस युग में मनुष्य का मूल्य आज जितना नहीं था। आज का मनुष्य पशु की श्रेणी से ऊँचा उठ गया है, इस आरोहण में दीर्घ तपस्वी भ० महावीर का विशेष योगदान है।
३.७.२४ महासती मृगावती जी : कौशाम्बी के राजा शतानीक की पत्नी महारानी मृगावती भ० महावीर स्वामी की परम भक्त थीं। मगावती वैशाली के गणराजा चेटक की पुत्री थी। वह रूप गुण संपन्न थी तथा महाराजा शतानीक की राजकीय समस्याओं के समाधान में सतत् सहयोगिनी थी।५ प्रभु महावीर कौशाम्बी पधारे। भगवान् ने तेरह अभिग्रह धारण किये थे। प्रभु का पारणा न होने से वह व्यथित थी। एक बार मार्ग में हो रहे जन कोलाहल और जयघोष से महारानी मृगावती को ज्ञात हुआ कि दीर्घ तपस्वी भगवान् महावीर का पारणा धनावह सेठ की दासी द्वारा हुआ है। वह अत्यंत प्रसन्न हुई और स्वयं धनावह के घर पहुंची। उसी समय एक सैनिक से उसे ज्ञात हुआ कि यह दासी दधिवाहन की पुत्री वसुमती है। इस रिश्ते के अनुसार वसुमती महारानी की बड़ी बहन की पुत्री थी, अतः उसने स्नेहपूर्वक वसुमती को गले लगाया और राजमहलों में ले गई।६६
रानी मृगावती अनुपम सौंदर्य की स्वामिनी थी। उज्जयिनी के राजा चंडप्रद्योत ने किसी चित्रकार के पास महारानी का चित्र देखा। महाराजा उसके सौंदर्य से अभिभूत हुआ। उसने मृगावती को पाने के लिए कौशांबी पर आक्रमण किया। युद्ध में शतानीक की मत्यु हो गई। महारानी मगावती ने अद्भुत धैर्यता, चतुरता व साहस के साथ परिस्थितियों का सामना किया एवं कौशाम्बी की एवं स्वयं की रक्षा की। भगवान महावीर स्वामी का कौशाम्बी में पदार्पण हुआ । समवसरण की रचना हुई। मगावती चण्डप्रद्योत के साथ प्रभु के दर्शनार्थ गयी। महावीर का उपदेश सुनकर मगावती अपने राजकुमार पत्र उदायन की सुरक्षा का भार चण्डप्रद्योत को सौंपकर साध्वी बन गई।६७ महासती मगावती के नारी पराक्रम एवं सतीत्व की कथा वैदिक, बौद्ध तथा जैन तीनों साहित्य में समान रूप से प्रसिद्ध है। भगवतीसूत्र एवं आवश्यक चूर्णि में मृगावती सम्बद्ध कथा का उल्लेख हुआ है।१
३.७.२५ शिवादेवी जी : उज्जयिनी नरेश महाप्रतापी राजा चण्डप्रद्योत की रानी तथा राजा चेटक महाराजा की पुत्री थी। प्रभु महावीर की मौसी थी तथा उनकी उपासिका थी। एक बार उज्जयिनी नगरी में महामारी का प्रकोप फैल गया। राजवैद्यों से परामर्श किया गया। उन्होंने बताया कि यह दैवी प्रकोप है। अतः अंत:पुर की शीलवती रानी द्वारा यक्ष को पूजा से संतुष्ट किये जाने पर रोग का शमन संभव है। शिवादेवी ने आगे आकर यक्ष का पूजन किया, परिणामस्वरूप नगरी में महामारी का रोग शांत हुआ। अन्य उल्लेख के अनुसार नगरी में भयंकर आग लगी जो शांत नहीं हुई। मंत्रणा द्वारा पता चला कि यह दैवी प्रकोप है। कोई पतिव्रता सती स्त्री अग्नि पर जल छिड़केगी तब अग्नि का प्रकोप शांत हो जाएगा। रानी शिवादेवी ने सम्पूर्ण श्रद्धा एवं आत्मविश्वास के साथ जल छिड़का, जिससे भयंकर अग्नि का प्रकोप शांत हुआ। शिवादेवी के पुत्र का नाम पालक था।८
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
168
३.७.२६ महारानी चेलना जी भगवान महावीर के भक्त मगध सम्राट् राजा श्रेणिक की पत्नी तथा वैशाली गणराज्य के अध्यक्ष चेटक महाराज की पुत्री थी। रानी चेलना प्रभु महावीर की परम उपासिका थी । वह पतिव्रता सन्नारी थी। अपने पति राजा श्रेणिक को धर्म के प्रति दृढ़ करने में वह सदा प्रयत्नशील रही और उसमें सफल भी हुई। राजा श्रेणिक एवं महारानी चेलना न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करते थे। रानी चेलना के गर्भ में कूणिकं का जीव आया। गर्भ के प्रभाव से रानी को श्रेणिक के कलेजा का मांस खाने की इच्छा हुई। अभयकुमार ने युक्तिपूर्वक माता की इच्छा पूर्ण की। रानी ने ऐसे बालक को जन्म के साथ ही जंगल में छोड़ दिया, किन्तु संतति वात्सल्य से राजा श्रेणिक उसे उठाकर ले आये। कालांतर में राज्य की महत्वाकांक्षावश कूणिक ने श्रेणिक को बंदी बनाया। कर्तव्यबोध से चेलना को कारागह में जाने की अनुमति थी। चेलना सौ बार सुरा से बालों को धोकर गीले बालों को बांधकर शीघ्रता से श्रेणिक के कारावास में जाती थी और केश के बीच कुल्माष (उड़द) का एक लड्डू भी छिपाकर ले जाती थी। राजा इसे ही दिव्य भोजन समझकर खाता था तथा बालों से टपकनेवाली सुरा का पान करके तप्त होता था ।
ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
पुत्र
एक बार कोणिक अपने पुत्र को गोद में लेकर भोजन कर रहा था तथा माता चेलना भी पास में बैठी थी। भोजन करते समय पैशाब कर दिया तथा भोजन के थाल में भी उसका कुछ अंश चला गया। राजा कूणिक ने कुछ हिस्सा फैंका शेष खाना खाते हुए माता चेलना से पूछा, माते मुझ जैसा पित-प्रेम और किसी का होगा क्या? रानी चेलना ने उसे उसके पिता श्रेणिक की सारी घटना बतायी कि उनके पुत्रस्नेह के सामने तेरा पुत्रस्नेह नहीं के बराबर है। कूणिक के मन में यह सुनकर पितृस्नेह जाग उठा, पिता को बंधनों से मुक्त करने के लिए लौह दण्ड लेकर दौड़ा। श्रेणिक ने कोणिक को इस अवस्था में आते हुए देखा तो स्वयं ही तालपुट विष जिव्हा पर रखकर अपने प्राण त्याग दिये । चेलना ने पत्नी एवं माता के रूप में अपना कर्तव्य निभाकर एक आदर्श उपस्थित किया। महारानी चेलना धर्मपरायणा सन्नारी थी। राजा श्रेणिक ने उसकी धर्म आराधना हेतु देवों की सहायता से अभयकुमार द्वारा एक स्तंभवाला महल बनवाया, तथा नंदनवन जैसा उद्यान भी तैयार कर दिया। वहाँ रहकर महारानी चेलना सर्वज्ञ प्रभु की उपासना में अपना समय व्यतीत करने लगी ।
चेलना की साधु-भक्ति: प्रभु महावीर का नगरी में आगमन हुआ। रानी चेलना एवं राजा श्रेणिक दोनों प्रभु को वंदन करके लौट रहे थे। लौटते समय रास्ते में एक मुनि को उत्तरीय वस्त्र रहित (बिना वस्त्र के ) शीत परिषह सहन करते हु देखा। दोनों ने रथ से उतरकर मुनि को नमन किया। रात्रि को सोते समय रानी चेलना का एक हाथ रजाई से बाहर निकल आया और ठण्ड में ठिठुर गया। महारानी को मुनि का स्मरण हो आया, कि ऐसी शीत में उन मुनिराज का क्या होगा? ऐसे शब्द धीरे से मुंह से "आह" के साथ निकल पड़े। राजा श्रेणिक को अपनी प्रिय रानी के चरित्र पर शंका हुई और रानी के महल में आग लगा देने का आदेश दे दिया। राजा श्रेणिक ने प्रभु महावीर के समक्ष उपस्थित होकर प्रश्न किया कि चेलना पतिव्रता है या नहीं । प्रभु बोले- राजन् । तुम्हारी धर्मपत्नी चेलना महासती हैं, तथा शील और अलंकार से शोभित हैं। राजा तत्काल नगर अभयकुमार के बुद्धि कौशल से अपने अन्तःपुर को सुरक्षित पाकर अत्यंत हर्षित हुआ । देव, गुरू धर्म की भक्ति से मंडित चेलना का व्यक्तित्व, नारी जगत के लिए प्रेरक था ।
आया और
।
३.७.२७ महारानी धारिणी देवी : धारिणी राजगृही के महाराजा श्रेणिक की रानी थी, तथा भगवान महावीर के संघ में दीक्षित मेघकुमार मुनि की माता थी। रानी धारिणी पतिव्रता सद्धर्मचारिणी तथा श्रेणिक की प्रिय पत्नी थी। एक बार रात्रि के चतुर्थ प्रहर रानी धारिणी ने स्वप्न देखा कि चार दांतों वाला श्वेत वर्ण का हाथी उसके मुंह में प्रवेश कर रहा है। स्वप्न देखकर रानी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अपने इष्ट का स्मरण किया एवं राजा श्रेणिक के शयनागार में पहुंचकर मृदु शब्दों में स्वप्न की बातें कही। राजा ने कहा- हे देवानुप्रिय ! तुम्हारा स्वप्न शुभ है। तुम सुंदर लक्षणोंवाले एक पुत्र को जन्म दोगी। गर्भ के तीसरे माह रानी धारिणी को दोहद हुआ-मेघों से आच्छादित आकाश हो, बरसात हो रही हो हरियाली हो, मंद-मंद पवन बह रही हो और मैं महाराजा श्रेणिक के साथ भ्रमण करती हुई प्रकृति के सौन्दर्य का आनन्द लूँ। वर्षाऋतु अभी दूर थी । अतः दोहद पूरा नही हो सकता था। इसी चिंता में रानी दुःखी रहने लगी। राजा श्रेणिक को पता चला तब उन्होंने रानी को आश्वस्त किया । पुत्र अभयकुमार ने माता की इच्छा पूर्ति के लिए तीन दिनों तक तेले का अनुष्ठान किया तथा मित्रदेव की आराधना की । मित्र देव ने अभयकुमार की सहायता की तथा रानी धारिणी का दोहद पूर्ण हुआ । पुत्र का जन्म होने पर उसका नाम मेघकुमार रखा गया। अपने इकलौते पुत्र का पालन पोषण रानी धारिणी ने बड़े लाड़ प्यार से किया । युवावस्था में प्रवेश करने पर आठ कन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण किया गया ।
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
उसी समय प्रभु महावीर का पदार्पण नगरी में हुआ। युवराज मेघकुमार प्रभु प्रवचन सुनकर ऐश्वर्य से विमुख हो वैरागी बने और माता से दीक्षा की अनुमति माँगी। माता ने दीक्षा के कष्टों का वर्णन करते हुए कई तरह से समझाया किंतु मेघकुमार अपने संकल्प पर दृढ़ रहे। मेघकुमार के साथ ही उनकी आठों पत्नियां भी दीक्षित हुई। रानी धारिणी की आंखों में बार- बार मेघकुमार का बचपन घूमने लगा, लेकिन के पुत्र आग्रह को देखते हुए उसने अनुमति दे दी। महारानी धारिणी ने पुत्र स्नेह के स्थान पर धर्मस्नेह निभाया अतः उसके पुत्र का भविष्य उज्जवल बना । १००
169
३.७.२८ राजकुमारी वासवदत्ता : वासवदत्ता उज्जयिनी के महापराक्रमी राजा चंडप्रद्योत तथा महारानी अंगारवती की पुत्री थी। वह सुंदर, सुशीला एवं शुभ लक्षणों वाली थी। कई कलाओं में वह पारंगत थी किन्तु गंधर्व कला (संगीत) शिक्षा गुरु के अभाव में प्राप्त नहीं कर पाई थी। राजा चण्डप्रद्योत इस कमी को पूर्ण करना चाहते थे। उन्हें पता चला कि कौशाम्बी का राजा उदायन संगीत विद्या में पारंगत है। राजा उदयन को प्रद्योत के सैनिकों छल पूर्वक ने पकड़कर राज दरबार में उपस्थित किया। प्रद्योत ने इस आशंका से कि कहीं उदयन उसकी पुत्री के प्रति आकर्षित न हो जाए। उदयन को कुष्ट रोग से पीड़ित तथा अपनी पुत्री को एक आंखवाली बताकर विद्या सिखाने के समय बीच में पर्दा डलवा दिया। कुछ समय बाद यह भेद खुल गया तथा बीच के व्यवधान के दूर होते ही दोनों एक दूसरे पर मोहित हो गये, तथा प्रणयसूत्र में बंध गये। एक बार प्रद्योत के अनलगिरि हाथी को वश में करने में वासवदत्ता तथा उदयन ने अपनी कला का परिचय दिया जिससे राजा प्रसन्न हुआ। राजा उदयन अपनी राजधानी लौटना चाहता था। कौमुदी (बसंतोत्सव ) उत्सव के समय एक बार जब राजा तथा प्रजा नगर के बाहर के उद्यान में रंग - राग में व्यस्त थे, तब वासवदत्ता अपनी राखी आदि के सहयोग से पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार वेगवती हथिनी पर आरूढ़ हुई । तब उदयन उसे लेकर अपनी राजधानी लौट आया। अंत में पुत्री के वात्सल्य के कारण प्रद्योत ने गुणवान् राजा उदायन को अपना दामाद स्वीकार कर लिया । वासवदत्ता भगवान महावीर की उपासिका थी, साथ ही वीणावादन में निपुण थी व स्त्री का चौंसठ कलाओं में पारंगत थी । १०१
३.७.२६ महारानी | पृथा जी: पृथा वैशाली गणराज्य के अध्यक्ष राजा चेटक की रानी थी। वह परम धर्मोपासिका सुश्राविका थी। अपने धर्म परायण पति चेटक की समस्त धार्मिक गतिविधियों में परम सहयोगिनी थी। धैर्य एवं साहस की वह अद्भुत प्रतिमा थी, कठिनतम परिस्थितियों में भी धैर्य एवं साहस के साथ उसने शील धर्म की रक्षा की। उसने प्राणों का मोह त्याग दिया। उसने चेलना, धारिणी, मृगावती आदि सात पुत्रियों के विवाह की जिम्मेदारी वहन की तथा प्रसिद्ध राजाओं के संग कन्याओं का विवाह किया।१०२ नारी के धैर्य एवं साहस का महान् आदर्श प्रथा के जीवन से प्रकट होता है।
३. ७.३० सुभद्रा जी : सुभद्रा वैशाली गणराज्य के अध्यक्ष महाराजा चेटक की रानी थी, वह श्रमणोपासिका तथा जिनभक्त
थी । १०३
३.७.३१ श्रीमती कालिका जी : कालिका पुंडरिकिणी नगरी के समीपवर्ती मधुक वन के निवासी पुरुरुवा भील की पत्नी थी, वह भद्र प्रकृति की थी। अपने संघ से बिछुड़े हुए सागरसेन मुनि उस वन में आए। मृग समझकर भील ने उन्हें बाण से मारना चाहा, किंतु कालिका ने अपने पति को समझाया कि यह तो वनदेवता हैं, ये तो वंदनीय होते हैं। उन्होंने मुनि के समीप जाकर उन्हें वंदना की, व्रत ग्रहण किये, अंत में समाधिमरण से स्वर्ग प्राप्त किया। यह प्रभु महावीर का पूर्व का भव था ।१०४ सात्विक प्रवृत्ति की कालिका ने श्राविका व्रतों का सम्यक् परिपालन किया था, यही इसका महत् योगदान है।
३.७.३२ सुसेनांगजा जी : सुसेनांगजा राजा विद्याधर एवं रानी सुसेना की पुत्री थी । महाराजा श्रेणिक की भाजी थी। बचपन में ही माता की छत्रछाया से वंचित रही, अतः पिता ने उसके संरक्षण के लिए उसके मामा श्रेणिक को सुपुर्द किया। समस्त कलाओं में निपुणता प्राप्त करने पर युवावस्था प्राप्त होने पर तथा श्रेणिक ने अपने पुत्र एवं मंत्री अभयकुमार के साथ उसका धूमधाम से विवाह किया। सुसेनांगजा प्रतिभासंपन्न सन्नारी थी। उसने पति के कठिन एवं विचित्र कार्यों में अपूर्व सहयोग दिया। वह प्रभु महावीर की परम भक्त श्राविका तथा परम धर्मोपासिका थी । १०५ धर्म परंपरा के निर्वाह में श्राविका व्रतों का सम्यक् परिपालन किया, यही इसका महत्वपूर्ण योगदान है।
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
170
ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
३.७.३२ बहुलिका जी : बहुलिका सानुयष्टिक ग्राम के गहस्थ आनंद की अनेक दासियों में से एक थी। वह अपने परिश्रम, कार्यकुशलता तथा सेवा भाव के लिए प्रसिद्ध थी। एक बार प्रभु महावीर भिक्षा के लिए आनंद श्रेष्ठी के घर पर आए। बहुला अवशिष्ट भोजन को एक ओर रखकर बर्तन साफ कर रही थी। अपने द्वार पर मुनि को देखकर, उसने अत्यंत भक्ति से अवशिष्ट भोजन सामग्री महावीर को दी। इस दान के प्रभाव से श्रेष्ठी के घर पांच दिव्य प्रकट हुए, तथा बहुला को दासत्व से मुक्ति मिली, उसने प्रभु महावीर की उपासिका बनकर शेष जीवन व्यतीत किया। यही इसका महत्वपूर्ण योगदान था।०६
३.७.३३ श्रीमती जी : श्रीमती वसंतपुर के सेठ देवदत्ता एवं सेठानी धनवती की पुत्री थी तथा आदर्शकुमार की पत्नी थी। एक बार सखियों के संग पति वरण का खेल खेलती हुई श्रीमती ने खम्भा समझकर कोने में ध्यानावस्थित मुनि को पति चुन लिया तथा अंत तक अपने संकल्प पर दृढ़ रही। आर्द्रकुमार मुनि ने प्रथम तो मना किया, किंतु आग्रहवश, भोगावली कर्म के उदय वश, श्रीमती से विवाह किया। उनके एक पुत्र पैदा हुआ। पति द्वारा पुनः दीक्षित होने का संकल्प सुनकर उसने चरखे पर सूत कातना प्रारम्भ किया। स्वावलंबी बनकर उसने अपने पुत्र का लालन-पालन किया, धर्म की आराधना करते हुए अपना शेष जीवन व्यतीत किया। नारी को पुरुष आश्रित न रहकर स्वावलंबी जीवन बनाना चाहिए। धैर्य की डोर से धर्म आराधना करनी चाहिए, अपने जीवन से यही प्रेरणा दी यह उसका महत्वपूर्ण अवदान है।
३.७.३४ सुश्राविका सुलसा जी : राजगह नगर के रथिक नाग की धर्मपत्नी थी सुलसा। वे निग्रंथ धर्म की दृढ़ अनुयायी प्रभु महावीर की बारहव्रतधारिणी श्रमणोपासिका थी। पुत्र के अभाव से पीड़ित नाग को सुलसा ने पुनर्विवाह करने को कहा, किन्तु नाग ने दढ़तापूर्वक कहा-मुझे तुम्हारे ही पुत्र की आवश्यकता है, मैं दूसरा विवाह नहीं करना चाहता। सुलसा ने कहा-यह तो संयोग वियोग की बात है, जो व्यक्ति इनसे ऊपर उठता है, वह अपने लक्ष्य पर अवश्य पहुंच जाता है। सुलसा की इस प्रेरणा से नाग अपने अन्य कार्यों के साथ धार्मिक क्रियाओं में भी दढ़ता से संलग्न हो गया। सुलसा ने पूर्ण श्रद्धा, विश्वास, भक्तिभाव से देव प्रदत्त गोलियों का सेवन किया किंतु एक-एक न खाते हुए बत्तीस गोलियां एक साथ ले ली। परिणामस्वरूप सुलसा ने बत्तीस लक्षणों वाले बत्तीस पुत्रों को जन्म दिया। कालांतर में वे पुत्र सब विद्याओं में पारंगत हुए। उन बत्तीस पुत्रों को राजा श्रेणिक ने अपने अंगरक्षक के स्थान पर नियुक्त किया।
एक बार राजा श्रेणिक वैशाली में अंगरक्षकों के साथ सुज्येष्ठा का अपहरण करने गये । सुरंग के गहन अंधकार में स्वामीभक्त अंगरक्षकों की मृत्यु हो गई। बत्तीस ही पुत्रों की एक साथ मृत्यु से सुलसा को बहुत आघात लगा। वह दृढ़ धार्मिक थी, पर अपने पुत्रों के अनुराग से विव्हल हो उठी। प्रधानमंत्री अभयकुमार उसे ढ़ाढ़स बंधाने के लिए आया, उन्होंने उसको बहुत सान्त्वना दी। सुलसा ने अपने विवेक को जागृत किया और धर्म ध्यान में लीन हो गई। एक बार चंपा नगरी में भगवान् का समवसरण लगा। राजगृह का अंबड़ श्रावक भी भगवान् की देशना सुनने व दर्शन करने के लिए आया, वह अपनी विद्या के आधार पर नाना रूप बदल सकता था। वह बेले बेले की तपस्या करता और श्रावक के बारह व्रतों का पालन करता था। देशना के अंत में उसने कहा-भंते! आपके उपदेश से मेरा जन्म सफल हो गया, आज मैं राजगह जा रहा हूँ। भगवान महावीर ने कहा-राजगृह में एक सुलसा श्राविका है, वह अपने श्राविका धर्म में बहुत दृढ़ है, ऐसे श्रावक-श्राविका विरले ही होते हैं।
सलसा के इस अहोभाग्य पर अम्बड़ श्रावक ने सोचा, सलसा का ऐसा कौन सा विशेष गुण है, जिसको लेकर भगवान ने उसे धर्म में दृढ़ बताया। उसने परीक्षा लेने का निश्चय किया। अम्बड़ ने एक परिव्राजक (सन्यासी) के रूप में सुलसा के घर जाकर कहा-"आयुष्यमती! तुम मुझे भोजन दो, इससे तुझे धर्म होगा। सुलसा ने उत्तर दिया-मैं जानती हूँ, किसे देने में धर्म होता है, और किसे देने में केवल व्यवहार साधना।" अम्बड़ ने अपनी विद्या के बल पर कई प्रकार के विवित्र वेश धारण कर सुलसा को भुलावा देने की कोशिश की पर उस पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। अंत में एक निग्रंथ के वेश में वह सुलसा के घर आया। सुलसा ने उसे देखा, तो नमस्कार किया और भक्तिपूर्वक सम्मान भी। अम्बड़ ने अपना असली रूप बनाया और भगवान् महावीर द्वारा की गई उसकी प्रशंसा की सारी घटना सुनाई। सम्यक्त्व में दृढ़ होने के कारण सुलसा ने तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म का उपार्जन किया। १०८
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
1
आगामी चौबीसी में वह निर्मम नामक पंद्रहवां तीर्थंकर होगी । ६ अम्बड़ सुलसा की दढ़ता देखकर विस्मित रह गया। अपने मूल रूप में प्रकट होकर वह बोला- "सुलसा! तुम कसौटी पर खरी उतरी हो । भगवान् महावीर ने तुम्हारी प्रशंसा में जो शब्द कहे थे तुमने उनको सत्य ज्ञापित कर दिया है। इससे मैं आज बहुत प्रसन्न हूँ।" सुलसा ने अंबड़ को पहचान लिया। उससे भगवान का सुख-संवाद पूछा। महावीर का भक्त होने के नाते उसे साधर्मिक भाई मानकर उसने उसका सम्मान किया। धर्म और धर्माचार्य के प्रति जिसकी आस्था निश्छल होती है, वही व्यक्ति सुलसा जैसी दढ़ता रख सकता है। अन्यथा जिज्ञासा और कुतूहलवश व्यक्ति कहीं भी चला जाता है। ऐसी श्राविकाएं भी सौभाग्यशालिनी होती है, जो अपने धर्मगुरुओं के मन में स्थान बना पाती हैं।
171
३.७.३५ नंदा जी : नंदा कौशाम्बी के अमात्य सुगुप्त की पत्नी थी । वह करुणाशील श्रमणोपासिका थी । प्रभु महावीर के प्रति उसकी अनन्य भक्ति एवं निष्ठा थी। महारानी मगावती के साथ उसका सखीवत् स्नेह था। एक बार प्रभु महावीर ने तेरह कठोर अभिग्रह धारण किये। कौशाम्बी नगरी में भिक्षा हेतु जाते किन्तु पुनः खाली लौट आते। प्रभु भिक्षार्थ नंदा के घर पधारे किंतु भिक्षा लिये बिना ही लौट गये। इस बात से नंदा अत्यंत व्याकुल हुई। उसने यह सम्पूर्ण घटना महारानी मगावती तक पहुंचाई। नारीद्वय ने अपने अपने पतियों से इस बारे में चर्चा की। अमात्य सुगुप्त ने समूचे नगर की भावना भगवान् के सामने प्रस्तुत की परन्तु प्रभु मौन रहे। उन्होंने समस्त कौशाम्बी वासियों को साधुओं के आहार- पानी लेने देने के नियमों की जानकारी करा दी, किंतु भगवान
अभिग्रह पूर्ण नहीं हुए। जीवन में आये हुए इन अमूल्य क्षणों के कारण दोनों नारियों की धर्म श्रद्धा एवं धर्म - भक्ति परिपुष्ट हुई, दोनों की प्रभु महावीर के प्रति अनन्य निष्ठा की चर्चा कौशाम्बी के घर घर में फैल गई। उपासिका नंदा की धर्म - भक्ति ने सारी नगरी को श्रमणों के दढ़ संयम के प्रति ध्यान आकर्षित कराया और धर्म भाव जगाया तथा सेवा से दुख को दूर करने का प्रयास भी किया । नन्दा जी नारी जीवन में रही हुई उस समय की धर्म जागरूकता की परिचायक है | ११०
३. ७.३६ प्रभावती जी प्रभावती वैशाली के राजा चेटक की पुत्री थी । भ० महावीर के परम भक्त उपासक सिंधु - सौवीर देश के शक्तिशाली एवं लोक प्रिय महाराजाधिराज उदायन की वह रानी थी। महाराजा उदायन की राजधानी "वीतभयपत्तन" थी। यह भारत के पश्चिमी तट की महत्वपूर्ण बन्दरगाह थी । महारानी प्रभावती एवं महाराजा उदायन अत्यंत निरभिमानी, विनयशील, साधुसेवी एवं धर्मानुरागी थे। भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित बारहव्रतधारी श्रमणोपासक थे। अभीचिकुमार नाम का इनका एक पुत्र था और केशीकुमार नामक अपने भानजे से भी वे पुत्रवत् स्नेह करते थे।
महारानी प्रभावती की उत्कट धर्मनिष्ठा से प्रभावित होकर महाराज ऐसे धर्मरसिक बन गये थे कि उन्होंने राजधानी में एक अत्यंत मनोरम जिनायतन का निर्माण कराकर उसमें स्वयं भगवान् महावीर की एक देहाकार सुवर्णमयी प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी । तथा यह भी किंवदन्ति प्रचलित है कि उन्होंने भगवान् के कुमारकाल की एक चन्दनकाष्ठ निर्मित प्रतिमा भी बनवाई थी, जिसे बाद में "जीवंतस्वामी" कहा जाने लगा। एक आक्रमण में अवंतिनरेश चंडप्रद्योत छल से उस प्रतिमा को अपहृत करके ले गया था, तथा मालवदेश की विदिशा नगरी में जिसका सर्वप्रथम ससमारोह रथ यात्रोत्सव किया गया था। राजा रानी की इच्छा थी कि भगवान् उनके राज्य और नगर में पधारें। एक बार भगवान महावीर स्वामी मगवन उद्यान में पधारे। समाचार पाते ही राजा रानी समस्त प्रजाजनों सहित प्रभु के दर्शनार्थ गए। प्रभु के उपदेश से राजदम्पत्ति इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भगवान् से श्रावक के बारह व्रत धारण कर लिए। धर्मध्यान, साधुओं की सेवा तथा वैयावत्य आदि में उन्हें विशेष आनंद आता था । १११
T
एक बार वीतभय नगर के चौक में एक वजनदार काष्ठ की पेटी एक नाविक ने लाकर रख दी। वहाँ के नागरिक व कई अन्य धर्मों के साधुसंत अपने मंत्रादि के प्रभाव से उस पेटी का ढक्कन खोलना चाहते थे, पर उन्हें सफलता नहीं मिली। राजा ने रानी को भी यह आश्चर्य देखने के लिए बुलवाया। रानी भी रथारूढ़ हो नगर के चौक में आई। रानी ने राजा की अनुमति प्राप्त कर सन्दूक के ऊपरी सतह को धोया, चन्दन, पुष्प अर्पित कर अरिहंत परमात्मा का स्मरण करते हुए बोली - "हे राग-द्वेष और मोह रहित तथा अष्ट प्रतिहार्य से आवत्त ऐसे देवाधिदेव अरिहंत परमात्मा मुझे दर्शन दो" । श्रद्धा एवं एकाग्रतापूर्वक किये गये नामस्मरण के प्रभाव से मंजूषा का ढक्कन धीरे से खुला और उसमें स्थित देव की प्रतिमा का दर्शन सबको हुआ । इसी घटना के फलस्वरूप राजा जैन धर्म के प्रति आस्थाशील बना। राजा, रानी और पुत्र अभीचिकुमार तीनों ने ही दीक्षा धारण कर आत्मकल्याण किया | १२
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
172
३.७.३७ रेवती श्राविका : भगवान महावीर एक बार श्रावस्ती नगरी पधारे। आजीवक मत का प्रवर्तन करने वाला मंखलिपुत्र गोशालक भी वहीं था । उसने लोगों में अनेक प्रकार की भ्रांतियां फैला दीं। भगवान महावीर ने उनका निराकरण किया। इससे गोशालक का आक्रोश बढ़ा। वह भगवान के समवसरण में गया। उसने क्रुद्ध होकर भगवान पर तेजोलब्धि का प्रयोग किया | चरमशरीरी होने के कारण उस लब्धिप्रयोग से भगवान का शरीरान्त नहीं हुआ। भगवान के शरीर को झुलसाकर वह शक्ति पुनः गोशालक के शरीर में प्रविष्ट हो गई।
ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
तेजोलब्धि के प्रभाव से भगवान महावीर के शरीर में पित्तज्वर हो गया। उसके कारण भगवान को छ: महीनों तक खून के दस्त लगे। उस समय भगवान श्रावस्ती नगरी से विहार कर "मींढाग्राम' नाम के नगर में पधारे। वहाँ रेवती नाम की श्राविका रहती थी। वह भगवान के प्रति विशेष श्रद्धा रखती थी । उसके घर में कूष्माण्डपाक और बिजोरापाक बना था । भगवान ने सिंह नामक मुनि को बुलाकर कहा- सिंह! तुम उपासिका रेवती के घर जाओ। उसके घर में दो प्रकार के पाक । उसने कूष्माण्डपाक मेरे लिए बनाया है। वह मत लाना, बीजोरापाक ले आना।" सिंह मुनि प्रसन्न होकर रेवती के घर गए। रेवती ने उनके आने का प्रयोजन पूछा। सिंह मुनि ने कुष्माण्ड पाक को अकल्प्य बताकर बिजोरापाक लेने की इच्छा प्रकट की । रेवती बोली - मुनिप्रवर ! मेरे मन का रहस्य आपको कैसे ज्ञात हुआ । सिंह मुनि ने कहा-श्राविका रेवती । भगवान महावीर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं। उन्होंने ही मुझे इस रहस्य से परिचित कराया है। यह सुनकर रेवती अत्यधिक प्रसन्न हुई । उसने उत्साह के साथ सिंह मुनि को बिजोरापाक का दान दिया । उस पाक का सेवन करने से भगवान महावीर का पित्तज्वर शांत हुआ। भगवान पूर्णरूप से स्वस्थ हो गए। भगवान ने अपनी ओर से सिंह मुनि को प्रेरणा देकर श्राविका रेवती के घर भेजा था। इससे रेवती के सौभाग्य का अनुमान लगाया जा सकता है। भाग्य के बिना ऐसा मौका किसी को सुलभ नहीं हो सकता । ११३
T
३.७.३८ महासती सुभद्रा जी यह बात प्रसिद्ध है कि सती सुभद्रा ने अपने शील के प्रभाव से चंपा के बन्द द्वार खोल दिए थे । द्वार खोलने से पहले उसने अपने ओजभरे शब्दों में आह्वान करते हुए कहा था- "मैं कच्चे धागे से चलनी बांधकर कुएं से पानी निकाल रही हूँ ।" उसकी अपील सुनकर लोग विस्मित हो गए। सुभद्रा ने अपने सतीत्व का जो पक्का प्रमाण प्रस्तुत किया, उससे जैनशासन की गरिमा बढ़ी। बसन्तपुर के राजा जितशत्रु के मंत्री जिनदास एवं उसकी पत्नी तत्वमालिनी की सुपुत्री थी सुभद्रा । सुभद्रा बचपन से ही धार्मिक प्रवत्ति की बालिका थी। लोगों में उसके गुणों की चर्चा थी। सुभद्रा ने यौवनावस्था में कदम रखा, योग्य वर की खोज होने लगी। जिनदास का मानसिक संकल्प था कि वह अपनी पुत्री का विवाह जैन युवक के साथ ही करेगा। चंपानगर में ही बौद्ध धर्मानुयायी बुद्धदास नाम का युवक रहता था। उसने एक बार सुभद्रा को देखा, उसके रूप, लावण्य और गुणों पर अनुरक्त हो गया। उसके लिये सुभद्रा की माँग की गई। जिनदास ने उसकी धार्मिक आस्था को न देखते हुए उस सम्बन्ध को अस्वीकार कर दिया । बुद्धदास को समझ में आ गया कि सुभद्रा को पाने के लिए जैन श्रावक होना जरूरी है। वह छद्म श्रावक बना, बारह अणुव्रत स्वीकार कर लिये। लोगों की दष्टि में वह पक्का श्रावक बन गया। जिनदास ने बुद्धदास को धर्मनिष्ठ और जैन श्रावक समझकर सुभद्रा का उसके साथ विवाह कर दिया। सुभद्रा ससुराल गई। वह बौद्ध भिक्षुओं की भक्ति नहीं करती थी । इस बात को लेकर उसकी सास और ननंद दोनों उससे नाराज थीं। एक दिन उन्होंने बुद्धदास से कहा- "सुभद्रा का आचरण ठीक नहीं है। श्वेतवस्त्रधारी जैन मुनियों के साथ उसके गलत संबंध हैं। बुद्धदास ने उनकी बात पर विश्वास नहीं किया ।
एक दिन सुभद्रा के घर एक जिनकल्पी मुनि भिक्षा लेने आए, सुभद्रा ने उनको भक्तिपूर्वक भिक्षा दी । उसने देखा मुनि की आंख में फांस अटक रही थी, और उससे पानी बह रहा था। सुभद्रा जानती थी कि जिनकल्पी मुनि किसी भी स्थिति में अपने शरीर की सार संभाल नहीं करते। उसने अपनी जीभ से मुनि की आंख में अटकी फांस निकाल दी। ऐसा करते समय सुभद्रा के ललाट पर लगी सिंदूर की बिंदी मुनि के भाल पर लग गई। सुभद्रा की ननंद खड़ी खड़ी सब कुछ देख रही थी, वह ऐसे ही अवसर की टोह में थी। उसने अपनी मां को सूचित किया। मां बेटी ने बुद्धदास को बुलाकर कहा - "तुम अपनी आंखों से देख लो, बुद्धदास ने उन पर विश्वास कर लिया। सुभद्रा के प्रति उसका व्यवहार बदल गया। सुभद्रा पर दुश्चरित्रा होने का कलंक आया । जिनकल्पी मुनि पर कलंक आया और जैनधर्म की छवि धूमिल हो गई। सुभद्रा के लिए यह स्थिति असहय हो गई। सुभद्रा ने प्रतिज्ञा की कि
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
173
जब तक वह कलंकमुक्त नहीं होगी तब तक अन्न जल ग्रहण नहीं करेगी। सुभद्रा की तीन दिन की तपस्या पूर्ण हो गई। चौथे दिन लोग सोकर उठे तो चम्पा के चारों द्वार बंद थे। द्वारपालों ने बहुत प्रयास किया पर द्वार नहीं खुले। नगर से बाहर आने जाने के सब रास्ते बंद होने से लोग परेशान हो गए।
सहसा आकाशवाणी हुई-कोई सती कच्चे धागे से चलनी बांधकर कुएं से पानी निकाले और उससे दरवाजों पर छीटें लगाए तो वे खुल सकते हैं।" राजा ने नगर में घोषणा करवा दी कि जो महासती यह महान् कार्य करेगी, उसे राजकीय सम्मान दिया जाएगा। पूर्व दिशा के द्वार पर महिलाओं का मेला लग गया। निकटवर्ती कुएं में चलनियों का ढेर हो गया, पर पानी नहीं निकला। चारों ओर व्याप्त निराशा के बीच सुभद्रा ने अपना सतीत्व प्रमाणित करने के लिए सास से आज्ञा माँगी। सास ने दो चार खरी-खोटी सुनाई। भद्रा ने अपने घर में ही चलनी से पानी निकालकर सास को विश्वास दिलाया। उसके बाद सास की आज्ञा प्राप्त कर वह कुएँ पर गई। उसने कच्चे धागे से चलनी को बांधा, चलनी कुएँ में डालकर पानी निकाला। उस पानी से पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा के दरवाजों पर पानी के छींटे दिये। दरवाजे अपने आप खुल गये। चौथा दरवाजा उसने यह कहकर बंद ही छोड़ दिया कि कोई अन्य सती इसे खोलना चाहे तो खोल दे। दरवाजे खुलते ही नगर में उल्लास छा गया, सुभद्रा सती के जयघोषों से आकाश गूंज उठा। राजा ने राजकीय सम्मान के साथ उसे घर पहुंचाया। सुभद्रा घर पहुंची, उससे पहले ही उसके सतीत्व का संवाद वहाँ पहुंच गया था। बुद्धदास, उसके माता-पिता और बहन की स्थिति बहुत दयनीय हो गई। अपराध बोध के कारण वे आंख भी ऊपर नहीं उठा पाए। उन्होंने अपनी जघन्य भूल के लिए क्षमायाचना की। उस समय भी सुभद्रा के मन में उनके प्रति किसी प्रकार का रोष नहीं था। उसकी सहिष्णुता, विनम्रता और शालीनता ने परिजनों को इतना प्रभावित किया कि वे सब आस्था और कर्म से जैन बन गए। जैनशासन की अद्भुत प्रभावना हुई ।११४
३.७.३६ सेठानी भद्रा जी : भद्रा राजगह के धनाढ्य गहपति गोभद्र की पत्नी थी। उनके एक पुत्र तथा एक पुत्री थी। पुत्र का नाम शालिभद्र तथा पुत्री का नाम सुभद्रा था। शालीभद्र के बाल्यकाल में ही गोभद्र गहपति का शरीरान्त हो गया था। पति के असामयिक निधन के कारण भद्रा को न केवल पुत्र पुत्री के लालन-पालन की जिम्मेदारी निभानी पड़ी, वरन् पति के विस्तीर्ण विकसित वाणिज्य व्यवसाय की देखरेख का भार भी उठाना पड़ा। वात्सल्य प्रेम के कारण भद्रा ने शालिभद्र को व्यापार संचालनादि के दायित्व का भार नहीं सौंपा था। माता ने रुप-गुण तथा शीलयुक्त बत्तीस श्रेष्ठी कन्याओं के साथ अपने इकलौते पुत्र शालीभद्र का विवाह किया और शालीभद्र अपने सप्तखंडी प्रासाद पर अहर्निश सांसारिक सुख भोगने में लीन हो गया। भद्रा की असाधारण सूझबूझ तथा व्यावसायिक कुशलता के कारण व्यापार में निरन्तर वद्धि होती रही। भद्रा की व्यावसायिक संचालन क्षमता व सफलता ने दैवी चमत्कार की संभावना उत्पन्न कर दी। किंवदन्ती तो यह है कि पति गोभद्र मत्यु उपरान्त देव योनि में उत्पन्न हुआ था। वह अपने पुत्र स्नेह के कारण अपने पुत्र एवं पुत्रवधुओं की सुख सुविधा के लिए वस्त्र आभूषणों और भोजन से परिपूरित तैंतीस पेटियां प्रतिदिन उन्हें भेजता था। पिता की दानशीलता एवं माता की कार्य कुशलता ने शालीभद्र को निश्चिंत कर दिया और वह अपने राग रंग में रत, भौतिक सखों में जीवन व्यतीत करता था।
एक दिन राजगह में रत्न कंबल के व्यापारी आए। उनके पास सोलह रत्नकंबल थे। एक-एक कंबल का मूल्य सवा लाख स्वर्ण-मुद्राएं था। राजगह के बाजार में उन्हें कोई खरीदार न मिला । श्रेष्ठी भद्रा ने नगर का गौरव रखने के लिए उन सभी कंबलों को खरीद लिया और एक-एक के दो-दो टुकड़े बनाकर बत्तीस पुत्र वधुओं को दे दिए। इन कम्बलों की यह विशेषता थी कि ये शीत ऋतु में गर्मी और गर्मी में शीतलता प्रदान करते थे। इन अद्भुत कंबलों को प्राप्त करने का रानी चेलना का अति आग्रह देखकर राजा श्रेणिक ने व्यापारियों को बुलाया पर उन्होंने विवशता प्रकट करते हुए कहा-"आपके न कंबल क्रय कर लिये हैं।" राजा श्रेणिक का संदेशा पाकर भद्रा राजा के योग्य बहुमूल्य उपहार ले बोली-राजन्! बुरा न मानें । शालिभद्र और उसकी पत्नियां देव-दूष्य वस्त्र ही पहनती हैं। मेरे पति अब देवगति में हैं और वे प्रतिदिन उन्हें वस्त्र-आभूषण आदि भेजते हैं। रत्न कंबल का स्पर्श मेरी बहुओं को कठोर प्रतीत हुआ और इसीलिए उन्होंने उसका उपयोग पैर पोंछने के वस्त्र के रूप में किया है। "राजा और सभासद यह सुनकर आश्चर्य-मग्न हो रहे थे। भद्रा ने अति आग्रहपूर्वक राजा क को गाने पर लाने का लगा । गतान नीमा
।
For Private & Personal use only
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
174
ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
भद्रा अपने रथ में बैठकर आवास पर आई। राजा के स्वागत की तैयारी में व्यस्त हो गई और राजा भी राजकीय समारोहपूर्वक भद्रा के निवास पर आये। भद्रा ने श्रेणिक राजा का अपने गह पर उचित स्वागत किया तथा पुत्र शालीभद्र को राजा से भेंट करने को बुलाया। माता का संबोधन कि “राजा श्रेणिक आए हैं वे अपने नाथ है" शालीभद्र को उचित नहीं लगा। "मैं स्वयं अपना स्वामी नहीं हूँ, मेरे पर भी कोई स्वामी है, यह क्या? मैं तो अब वही रास्ता खोजूंगा, जिसमें अपना स्वामी मैं स्वयं ही रहूँ। मुनि की धर्मदेशना सुनकर उसका मन सांसारिक भोगों से विरक्त हो गया। माता के अति आग्रह से प्रतिदिन एक पत्नी और एक शय्या का त्याग करते हुए क्रमशः वैराग्य की ओर अग्रसर होने लगा। प्रभु महावीर के राजगह पदार्पण पर शालीभद्र तथा उसके साले धन्ना ने प्रवज्या ग्रहण की। माता भद्रा भी पुत्रवधुओं के साथ श्रावक-धर्म स्वीकार कर साधनामय जीवन व्यतीत करने लगी।११५ एक बार तीर्थंकर महावीर अपने मुनिसंघ के साथ राजगही पधारे। शालीभद्र मुनि ने कठोर साधना से अपनी काया को कश
हावीर स्वामी की आज्ञा लेकर भद्रा माता के यहाँ आहार के लिए गये। पर महावीर के दर्शनार्थ जाने की आकुलता में माता भद्रा अपने पुत्र (मुनि) को नहीं पहचान सकी, और शालीभद्र बिना आहार प्राप्त किये ही लौट गये। मार्ग में पूर्व जन्म की माता धन्या ने मुनि वात्सल्य के वशीभूत होकर उन्हें दहीं से पारणा करवाया। प्रभु ने स्पष्ट किया कि दही देने वाली तुम्हारे पूर्व जन्म की माता थी। मुनि शालीभद्र भ० महावीर स्वामी की आज्ञा प्राप्त कर संलेखना कर के पर्वत पर चले गये। माता भद्रा अपने परिवार सहित समवसरण में आई। भ० महावीर ने इस अवसर पर शालीभद्र की भिक्षाचरी से लेकर अनशन तक का सारा वत्तान्त कह सुनाया। यह ज्ञात होने पर कि द्वार पर आये उपेक्षित मुनि कोई और नहीं बल्कि पुत्र शालीभद्र तथा जामाता धन्य ही थे, माता भद्रा को वज्राघात सा लगा। वह शीघ्रता से पर्वत पर पुत्र को देखने गई। पुत्र की कशकाया तथा साधनामय जीवन को देखकर माता का हृदय विकल हो उठा, वह मूर्च्छित हो गई। सम्राट् श्रेणिक भी वहाँ उपस्थित थे, उन्होंने माता भद्रा को आश्वस्त किया तथा धर्म में दढ़ रहने के लिए प्रेरित किया। माता भद्रा के पुत्र शालीभद्र का वैभव विलासमय सांसारिक जीवन तथा कठोर साधना युक्त साधु जीवन दोनों ही असाधारण तथा अद्वितीय थे।°१६
३.७.४० जयंति श्राविका : कौशाम्बी नगरी में सहस्त्रनीक राजा की पुत्री, शतानीक राजा की भगिनी, उदयन राजा की बुआ, मगावती देवी की ननन्द और वैशालिक भगवान महावीर के श्रावक (वचन श्रवणरसिक) अर्हतो (अर्हन्त-तीर्थंकरो) के साधुओं की पूर्व (प्रथम) शय्यातरा (स्थानदात्री) 'जयन्ती' नाम की श्रमणोपासिका थी। वह सुकुमाल यावत् सुरुपा और जीवाजीवादि तत्वों की ज्ञाता होकर यावत विचरती थी। उस काल और उस समय में भगवान महावीर स्वामी कौशाम्बी नगरी पधारे। उनका समवसरण लगा यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। जयन्ती श्रमणोपासिका एवं बहुत सी कुब्जा आदि दासियों सहित मगावती देवी श्रमण भगवान महावीर की सेवा में देवानन्दा के समान पहुंची, यावत् भगवान को वन्दना-नमस्कार किया और उदयन राजा को आगे करके समवसरण में बैठी और उसके पीछे स्थित होकर पर्युपासना करने लगी। तदनन्तर वह जयंति श्रमणोपासिका श्रमण भगवान महावीर से धर्मोपदेश श्रवण कर एवं अवधारण करके हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई। फिर भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-भगवन् जीव किस कारण से शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं? जयन्ती। जीव प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थानों के सेवन से शीघ्रगुरुत्व को प्राप्त होते हैं और इससे निवत्त होकर जीव हल्के होते हैं यावत् संसारसमुद्र से पार हो जाते हैं। प्र० भगवन्! जीवों का सुप्त रहना अच्छा है या जागत रहना अच्छा? उ० जयन्ती! कुछ जीवों का सुप्त रहना अच्छा है और कुछ जीवों का जागत रहना अच्छा है। प्र० भगवन्! ऐसा किस कारण कहते हैं कि कुछ जीवों का सुप्त रहना और कुछ जीवों का जागत रहना अच्छा है? उ० जयन्ती! जो ये अधार्मिक, अधर्मानुसरणकर्ता, अधर्मिष्ठ, अधर्म का कथन करने वाले, अधर्मविलोकनकर्ता, अधर्म में आसक्त,
अधर्माचरणकर्ता और अधर्म से ही आजीविका करने वाले जीव हैं, उन जीवों का सुप्त रहना अच्छा है क्योंकि ये जीव सुप्त रहते हैं तो उनके प्राणों, भूतों, जीवों और सत्वों को दुःख शोक और परिताप देने में प्रवत्त नहीं होते। ये जीव सोये रहते हैं तो अपने को, दूसरे को और स्व-पर को अनेक अधार्मिक संयोजनाओं (प्रपंचो) में नहीं फंसाते, इसलिए इन जीवों का सुप्त रहना अच्छा है।
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
प्रo भगवन्! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जायेंगे, फिर भी लोक भवसिद्धिक जीवों से रहित नहीं होगा ?
175
उ० जयन्ती ! जिस प्रकार कोई सर्वाकाश की श्रेणी हो, जो अनादि, अनन्त हो एकप्रदेशी होने से परित्त (परिमित) और अन्य श्रेणियों द्वारा परिवत्त हो, उसमें से प्रतिसमय एक-एक परमाणु- पुद्गल जितना खण्ड निकालने से अनंत उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी तक निकल जाए तो भी वह श्रेणी जीवों से खाली नहीं होती। इसीलिए हे जयन्ती ! ऐसा कहा जाता है कि सब भवसिद्धिक जीवों से लोक रहित नहीं होगा ।
प्रo
भगवन! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि कई जीवों की सबलता अच्छी है और कई जीवों की दुर्बलता अच्छी है ? उ० जयन्ती । जो जीव अधार्मिक यावत् अधर्म से ही आजीविका करते हैं, उन जीवों की दुर्बलता अच्छी है क्योंकि वे जीव दुर्बल
होने से किसी प्राण, भूत, जीव और सत्व को दुःख आदि नहीं पहुंचा सकते, इत्यादि सुप्त के समान दुर्बलता का भी कथन करना चाहिए। और 'जागत' के समान सबलता का कथन करना चाहिए। यावत् धार्मिक संयोजनाओं में मन संयोजित करते हैं, इसलिए इन धार्मिक जीवों की सबलता अच्छी है।
प्रo भगवन्! जीवों का दक्षत्व उद्यमीपन अच्छा है या आलसीपन ?
उ० जयन्ती। कुछ जीवों का दक्षत्व अच्छा और कुछ जीवों का आलसीपन अच्छा है।
प्र० भगवन्! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि यावत् कुछ जीवों का आलसीपन अच्छा है।
उ० जयन्ती ! जो जीव अधार्मिक यावत् अधर्म द्वारा आजीविका करते हैं, उन जीवों का आलसीपन अच्छा है। यदि वे आलसी होंगे तो प्राणों, भूतों, जीवों और सत्वों को दुःख, शोक और परिताप उत्पन्न करने में प्रवत्त नहीं होंगे इत्यादि सब सुप्त के समान करना चाहिए तथा दक्षता (उद्यमीपन) का कथन जागत के समान कहना चाहिए, यावत् वे (दक्ष जीव) स्व पर और उभय को धर्म के साथ संयोजित करने वाले होते हैं। ये जीव दक्ष हों तो आचार्य की वैयावत्य (उपाध्याय), स्थविरों की वैयावत्य, तपस्वियों की वैयावत्य, ग्लान (रुग्ण) की वैयावत्य शैक्ष (नवदीक्षित) की वैयावत्य, कुल की वैयावत्य, गणवैयावत्य, संघवैयावत्य और साधर्मिकवैयावत्य (सेवा) से अपने आपको संयोजित (संलग्न) करने वाले होते हैं इसलिए इन जीवों की दक्षता अच्छी है।
श्राविका जयंती के जीवन का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि उस समय की सामाजिक स्थिति स्त्रियों के अनुकूल थी । धर्मोपासना, धर्मजिज्ञासा और साधुओं को दान देने के प्रसंग में उनका अच्छा वर्चस्व था । जयन्ति समर्थ राजपुत्री थी। भगवान महावीर और उनके शिष्यों के प्रति उसका प्रशस्त धर्मानुराग था। संभव है, जयंति का मकान नगर के बाहर था, इसलिए कौशाम्बी आने वाले साधु-साध्वियों को वहाँ ठहरने में सुविधा रहती थी। वह जीव, अजीव आदि नौ तत्वों का गहरा ज्ञान रखती थी। भगवान महावीर के साथ हुई उसकी धर्म चर्चा की संक्षिप्त सी सूचना प्रस्तुत पद्यों में मिलती है। भगवती सूत्र में उसके अनेक प्रश्न और भगवान के यौक्तिक उत्तर उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त जीवों के द्वारा संसार को अपरिमित व परिमित, दीर्घकालिक व अल्पकालिक करने, जीवों की भव्यता, अभव्यता, भव्य जीवों की मोक्ष गामिता भव्य जीवों से संसार की शून्यता, इन्द्रियों की वशवर्तिता से होने वाले बंधन आदि के विषय में श्राविका जयंति ने अनेक गंभीर प्रश्न किए। भगवान ने एक-एक कर सब प्रश्नों को समाहित कर दिया। उनके समाधानों से केवल जयंति श्राविका ही लाभान्वित नहीं हुई, समवसरण में उपस्थित अन्य लोगों को भी नया प्रकाश मिला जो जयंति श्राविका का अनमोल योगदान है। भगवतीसूत्र का स्वाध्याय करने वाले लोग वर्तमान में भी इस प्रश्नोत्तर शैली में हुई धर्मचर्चा से लाभान्वित हो सकते हैं । १७
३.७.४१ मां वत्सपालिका जी : वज्रग्राम में वत्सपालिका नाम की वद्धा ग्वालिन रहती थी। भगवान् महावीर साधना के ग्यारहवें वर्ष में छः मास की तपस्या पूर्ण कर वज्रग्राम में गोचरी लेने के लिए गये। वत्सपालिका नाम की वद्धा ग्वालिन ने कृशकाय तपस्वी को देखकर श्रद्धापूर्वक वंदन किया और भक्तिभाव से अपने यहाँ पारणा लेने की भावना भायी। ग्वालिन ने प्रभु को परमान्न (दूध
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
176
ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
की खीर) से पारणा करवाया। संगमदेव ने भगवान् महावीर को छ: माह तक जो उपसर्ग दिया था, उस उपसर्ग की दीर्घकालिक तपस्या का यह पारणा था। ग्वालिन वत्सपालिका का दारिद्रय सदा के लिए मिट गया। वह महावीर की भक्त बन गई।११८ मुनियों को आहार से प्रतिलाभित करने की पवित्रता के फलस्वरूप वत्सपालिका ने दान का परम फल प्राप्त किया, एक आदर्श उपस्थित किया।
३.७.४२ महारानी पद्मावती जी : पद्मावती तेतलीपुर नगर के राजा कनकरथ की रानी थी। पद्मावती जिन धर्म की उपासिका धर्मपरायणा नारी थी। वह चाहती थी कि कनक रथ भी धर्म मार्ग पर अग्रसर हो। किन्तु राजा कनकरथ अपने राज्य तथा भौतिक ऐश्वर्य में इतने आसक्त थे कि वे उसे रंचमात्र भी छोड़ना नहीं चाहते थे। उनकी सतत् चिंता बनी रहती थी कि यदि पुत्र का जन्म होगा तब वह राजा बन जाएगा । अतः इस आंतरिक भय के कारण जो भी पुत्र रानी पद्मावती को पैदा होता राजा उसे विकलांग कर देता तथा संतुष्ट होता था। क्योंकि उस समय की व्यवस्था के अनुसार विकलांग (खंडित) व्यक्ति राज्य का अधिकारी नहीं हो सकता था। महारानी पद्मावती को इससे बड़ा कष्ट होता था। पुत्र वात्सल्यवश वह चिंतातुर हुई तथा होने वाले शिशु की सुरक्षा के लिए अपने विश्वासपात्र अमात्य तेतलीपुत्र से इस विषय में चर्चा की अमात्य तेतलीपुत्र ने आश्वासन दिया कि राजपुत्र को सुरक्षित स्थान पर रखा जाएगा।
गर्भवती रानी ने जब पत्र को जन्म दिया तब उसे विश्वासपात्र धायगाता के साथ उस नवजात शिश को अमात्य तेत के यहाँ पहुँचा दिया। तथा तेतलीपुत्र की मत कन्या को लाकर रानी के पास सुला दिया। पत्नी पोट्टिला को इस बात का पहले ही पता दे दिया गया था। पोट्टिला भी आनंदित होकर राजपुत्र का पालन पोषण करने लगी। धायमाता ने राजा को संदेश दिया की रानी ने मत कन्या को जन्म दिया। अमात्य ने बालक का नाम कनकध्वज रखा क्योंकि वह कनकरथ का पुत्र था। कुछ समय बाद राजा कनकरथ की मत्यु हो गई। अनुकूल अवसर जानकर अमात्य ने नगर के लोगों के समक्ष यह भेद खोला और लोगों को विश्वास दिलाया कि यह पुत्र कनकरथ राजा एवं रानी पद्मावती का आत्मज है। १६ पदमावती रानी की दूरदर्शिता का परिणाम था कि उसने राजकुमार को जीवित रखा एवं उसे एक योग्य राजा बनाया, यह उसका महत्वपूर्ण योगदान है।
३.७.४३ सुश्राविका शिवानंदा जी : भगवान् महावीर के शासनकाल में वाणिज्य ग्राम में प्रभु का प्रमुख उपासक आनंद रहता था, जिसकी पत्नी का नाम शिवानंदा था। शिवानंदा शुभ लक्षणों वाली, गुणसंपन्न सन्नारी थी। एक बार प्रभु महावीर के उपदेशों को सुनकर आनन्द ने श्रावक के बारह व्रत ग्रहण किये घर आकर अपनी पत्नी शिवानंदा को भी कल्याणकारी व्रतों को धारण कर आने की प्रेरणा की। शिवानंदा पति के वचन का आदर करती हुई प्रभु का उपदेश सुनने गई तथा व्रतधारिणी श्रमणोपासिका बन गई। आनंद श्रावक ने जीवन की संध्या में अनशन ग्रहण किया। शिवानंदा ने पूर्ण सहयोगी बन पति के कर्तव्यों को वहन किया। वह एक आदर्श गहिणी और श्रमणोपासिका बनी। १२० उसने स्वयं व्रतों का पालन किया तथा पति के अनशन व्रत की समाधि में पर्ण सहयोगिनी बनकर महान योगदान दिया।
३.७.४४ माता भद्रा जी : वाराणसी के श्रावक चुलनी पिता की माता थी। एक बार श्रावक व्रतों से डिगाने के लिए चुलनी पिता के सामने देव ने कहा-चुलनी पिता! यदि तू धर्म की हठ नहीं छोड़ेगा तो तेरी देव-गुरु के समान पूज्यनीय तेरी माता को मारूंगा। इस प्रकार का दूसरी तीसरी बार कथन सुनकर, चुलनी पिता उसके कार्य को रोकने के लिए उसकी ओर झपटा, तो उसके हाथ में एक खंभा आ गया। देव लुप्त हो चुका था। पुत्र का चिल्लाना सुनकर माता भद्रा ने समीप आकर पुत्र से कारण पूछा। पुत्र ने माता को सारी घटना सुनाई। माता समझ गई, उसने पुत्र को समझाया-"पुत्र" | किसी मिथ्यात्वी देव से तुम्हें उपसर्ग हुआ है। तुम आश्वस्त होकर अपने नियम रूप पौषध की आलोचना करके शुद्ध हो जाओ। माता से प्रेरित किये जाने पर चुलनी पिता ने प्रायश्चित कर आलोचना की। अनशन किया और सौधर्म स्वर्ग में देव बने ।१२१ मां का पुत्र की धार्मिक स्थिरता में सहयोग का यह सुन्दर आदर्श और अवदान है।
___३.७.४५ श्राविका बहुला जी२१ : आलंभिका नगरी के गाथापति चुल्लशतक की पत्नी थी। वह समद्धिशालिनि थी। भगवान् महावीर से धर्मदेशना सुनकर दोनों श्रमणोपासक धर्म में दीक्षित हुए। एक बार चुल्लशतक श्रावक को देव उपसर्ग हुआ (पुत्रों के
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
घात का तथा धन नष्ट करने का)। उस पुरुष को पकड़ने के लिए हाथ फैलाने पर "खंभा" हाथ में आया। पति की चिल्लाहट सुनकर पत्नी बहुला आई, उसने पति से चिल्लाने का कारण पूछा। चुल्लशतक ने सारी बात बताई। बहुला ने इसे देव उपसर्ग बताया तथा व्रत में दोष लगने के कारण प्रायश्चित्त करने के लिए पति को प्रेरित किया। चुल्लशतक प्राचश्चित्त कर पुनः धर्म में स्थिर हुए ।२२ इस प्रकार उसने अपनी पति को जिनधर्म में तथा पौषध की साधना में सहयोग दिया, यह उसका महत्वपूर्ण अवदान है।
३.७.४६ श्राविका भद्रा जी : चम्पा नगरी के गाथापति “कामदेव" की पत्नी का नाम भ्रदा था। कामदेव ने श्रावक व्रतों को ग्रहण किया, इससे प्रेरित होकर पत्नी भद्रा भी श्रमणोपासिका बनी तथा व्रतों का सम्यक परिपालन किया ।१२३
३.७.४७ श्राविका श्यामा जी : वाराणसी नगरी में चुलनीपिता गाथापति निवास करते थे। उनकी पत्नी का नाम श्यामा था। दोनों ने भगवान् महावीर से श्रमणोपासक व्रत ग्रहण किया और उनका सम्यक् रुप से परिपालन भी किया |१२४
__ ३.७.४८ श्राविका धन्या जी : वाराणसी नगरी में गाथापति सुरादेव हुए थे, उनकी पत्नी का नाम धन्या था। भगवान् महावीर की धर्म प्रज्ञप्ति सुनकर दोनों ने श्रमणोपासक धर्म अंगीकार किया। एक बार सुरादेव को देव का उपसर्ग हुआ। उसने देखा कि देव ने तीनों पुत्रों को मारकर उनके रक्त-मांस को पकाकर उसके देह का सिंचन किया था। अंत में उसके शरीर में एक साथ सोलह महारोग उत्पन्न करने का भय दिखाया, इस भय से विचलित होकर सुरादेव उसे पकड़ने के लिए उठा, तो खंभा हाथ में आया। पत्नी धन्या उनकी चीख पुकार सुनकर आई और कारण पूछा। सुरादेव द्वारा सारा विवरण सुनाने पर बुद्धिमती धन्या ने पति को आश्वस्त किया कि आपको धर्म से डिगाने के लिए यह देव उपसर्ग था। आपने भयवश व्रत खंडित कर दिया। आप आलोचना कर के शुद्ध हो जाइए। प्रेरित वचनों को सुनकर सुरादेव धर्म में पुनः स्थिर हुआ।२५ इस प्रकार धन्या ने पति को प्रेरणा देकर धर्म में दढ़ किया। उनके व्रतों के पालन में सहयोगिनी बनी।
३.७.४६ श्राविका पुष्पा जी : कांपिल्य नगर के श्रेष्ठी कुण्डकौलिक गाथापति की पत्नी पुष्पा थी। पुष्पा सुख-सुविधाओं में अपना जीवन सानंद व्यतीत करती थी। एक समय कांपिल्य नगर के सहस्त्राम्रवन उद्यान में भगवान महावीर स्वामी का आगमन हुआ। उनके पहुँचने का समाचार नगर में फैलते ही जन-समूह दर्शनार्थ एकत्रित हो गया। कुण्डकौलिक श्री महावीर की परिषद् में धर्मदेशना सुनने के लिये गया। धर्म देशना श्रवण कर श्रेष्ठी अत्यन्त प्रभावित हुआ । अणुव्रतों के अनुसार उसने वैभव को सीमित कर अपनी सम्पदा की मर्यादा निश्चित की। पति से प्रेरणा पाकर पत्नी पुष्पा ने भी समवसरण में जाकर श्राविका के बारह व्रत अंगीकार किये। कालांतर में पुष्पा ने श्राविका धर्म का पालन करते हुए अपने धर्मनिष्ठ पति को सहयोग दिया और अपना भी कल्याण किया।१२६
___ ३.७.५० सुश्राविका अग्निनित्रा जी : अग्निमित्रा, पोलासपुर नगर के धनाढ्य कुंभकार शकडाल की धर्मपत्नी थी। मंखला गोशालक द्वारा प्रतिपादित धर्म सिद्धान्तों में अग्निमित्रा की आस्था थी। कुम्भकार दम्पत्ति अतुल वैभव सम्पदा के साथ जीवन व्यतीत कर रहा था। हे सद्दालपुत्र! नगर में त्रिकालदर्शी महामानव का आगमन हो रहा है, तुम उनके वंदन के लिए जाना। इस मंगल-संवाद से सद्दालपुत्र अपने गुरू मंखलि गोशालक का आगमन जानकर हर्षित हुआ। सद्दालपुत्र ने उद्यान में हो रही धर्मसभा में देखा कि उसके परम पावन गुरू की असन्दी पर तीर्थंकर महावीर बिराजमान हैं। उसने भगवान् का अभिवन्दन किया। भगवान् महावीर से सद्दालपुत्र ने कर्मवाद का और गहस्थ धर्म के सच्चे स्वरूप को समझ कर द्वादश व्रत अंगीकार किये। भगवान् महावीर को वदन कर वह स्वगह आया। उसने अपनी सहधर्मिणी अग्निमित्रा को तीर्थंकर महावीर का धर्म समझाते हुए परिषद् में जाने की प्रेरणा दी। पति से प्रेरणा पाकर धर्मपरायण कुशल गहिणी, ऐश्वर्यशालिनी अग्निमित्रा सहस्त्राम्रवन उद्यान में हो रही परिषद में रथ में बैठकर गई, उसके साथ कई सेविकाएँ भी थीं। उसने श्रद्धा से तीन बार भ० महावीर स्वामी की प्रदक्षिणा की। तीर्थंकर भ० महावीर ने अग्निमित्रा को धर्मोपदेश दिया। धर्मोपदेश श्रवण कर अग्निमित्रा परम हर्षित व उत्साहित हुई। उसने भगवान् से निवेदन किया, हे भगवन्! मैं निर्ग्रन्थ प्रकान पर श्रद्धा रखती हूँ, अतः मैं श्राविका के बारह व्रतों को अंगीकार करना चाहती हूँ। इस प्रकार उसने प्रभु महावीर से बारह व्रत अंगीकार किए।
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
178
ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
सद्दालपुत्र अपने धर्म पर पूर्ण विश्वास रखता था। देव उन्हें अपने धर्म व व्रतों से विचलित करना चाहते थे। देव ने धर्म व्रतों से विचलित करने के लिए सद्दालपुत्र की परीक्षा ली। देव ने पाया कि सद्दालपुत्र निर्भय धर्माचरण कर रहा है। जब देव अपने कृत्य में सफल नहीं हो पाया तब उसने सद्दालपुत्र को यह चेतावनी देकर भयभीत किया कि वह उसकी पत्नी अग्निमित्रा को मार डालेगा। इस संवाद से सद्दालपुत्र कुछ विचलित हुआ लेकिन निर्भयता के साथ वह देव को पकड़ने दौड़ा और उसका पीछा करने लगा। कोलाहल होने से अग्निमित्रा भी वहाँ आ गई, उसने यह सब दश्य देखा। अग्निमित्रा ने पति के सन्तप्त मन को शान्त करते हुए उनसे आग्रह किया कि वे भयग्रस्त न हों वह सुरक्षित है। धर्म मार्ग में अटल रहना ही उनके लिये श्रेयस्कर है, विचलित होने की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है। सहधर्मिणी अग्निमित्रा की इस दढ़ प्रेरणा और भक्ति से सद्दालपुत्र पुनः ध्यानावस्थित हुआ। १२०
३.७.५१ रेवती : रेवती, राजगही के सम्पत्तिवान् श्रेष्ठी महाशतक की पत्नी थी। समद्धिशाली माता-पिता की पुत्री होने के कारण रेवती को आठ करोड़ स्वर्ण मुद्रा तथा दस-दस हज़ार गायों के आठ गोकुल दहेज में मिले थे। महाशतक की अन्य बारह पत्नियाँ अपने दहेज में केवल एक-एक करोड़ स्वर्ण मुद्रा तथा दस-दस हज़ार गायें लाई थीं। अतः रेवती सौतिया डाह से अन्य सहपत्नियों से ईर्ष्या-द्वेष रखती थी। तीर्थंकर महावीर के आगमन पर अन्य उपासकों के समान महाशतक ने भी धर्मदेशना के पश्चात् श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये तथा अपनी विपुल सम्पत्ति की सीमा निर्धारित की। महाशतक श्रावक ने अपनी तेरह पत्नियों के अतिरिक्त अन्य किसी नारी से देहिक सम्पर्क न रखने का प्रण लिया। रेवती को पति के इस प्रण का पता शीघ्र लग गया। उसने सौतिया डाह के वशीभूत होकर मन में सोचा कि यदि मैं इन बारह सौतों का अन्त कर दूं तो संपूर्ण समद्धि एवं पति के साथ सांसारिक सुखों का भोग अकेली कर सकूँगी। अनुकूल अवसर देखकर उसने छ: को शस्त्र द्वारा तथा छः को विष देकर मरवा दिया। इसके पश्चात् वह आनंदित होकर अपने पति महाशतक के साथ सांसारिक सुख भोगने लगी। रेवती मांस के बने विभिन्न व्यंजनों का भोजन तथा मदिरा पान उन्मुक्त मन से करती थी।
___ एक बार राजगही नगरी में अमारि की घोषणा हुई। तब रेवती ने अपने पीहर से सेवकों को बुलाकर आदेश दिया कि तुम मेरे माता-पिता के यहाँ से प्रतिदिन दो बछड़े नित्य मारकर लाया करो। सेवकों ने रेवती की आज्ञा का पालन किया। रेवती पूर्ववत् मांस मदिरा का सेवन करती हुई समय व्यतीत करने लगी। महाशतक श्रावक ने चौदह वर्ष तक व्रत नियमों का सम्यक् पालन किया। ज्येष्ठ पुत्र को परिवार की जिम्मेदारी सौंपकर पौषधशाला में धर्म ध्यान में अधिक समय तक लीन रहने लगे। एक दिन रेवती पौषघशाला में पहुँची और पति से बोली "संसार में विषय भोगों से बढ़कर दूसरा कोई सुख नहीं है, अतः परलो प्राप्ति के इन सभी प्रयत्नों को छोड़कर मेरे साथ सांसारिक जीवन के सुख का उपभोग करो।"
महाशतक श्रावक तीर्थंकर महावीर के उपदेशानुसार साधना को ही जीवन का ध्येय मानते थे। रेवती के बार बार बोलने पर भी वे अपने धर्म ध्यान से विचलित नहीं हुए। महाशतक ने श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का शास्त्रानुसार पालन किया। इस कठोर व उग्र तपस्या के कारण उनका शरीर अत्यंत कृश हो गया। यह देखकर मत्यु की कामना न करते हुए उन्होंने संलेखना व्रत अंगीकार किया। साधना के शुभ अध्यवसायों के कारण उन्हें अवधिज्ञान प्राप्त हुआ। इसी बीच एक बार रेवती पुनः उन्मादिनी होकर महाशतक के पास आई और महाशतक को अपने प्रण से विचलित करने का प्रयत्न करने लगी। इस बार महाशतक श्रावक को क्रोध आ गया और वे बोले “अपना अनिष्ट चाहने वाली हे रेवती, तूं अवगुणों की साक्षात् मूर्ति है। तूं सात दिन में ही अलस रोग (मंदाग्नि के रोग) से पीड़ित होकर असमाधि मत्यु प्राप्त कर रत्नप्रभा पथ्वी के नीचे लोलुपच्युत नरक में चौरासी हजार वर्ष की स्थितिवाले नारकी जीवों में उत्पन्न होगी। श्राविका के बारह व्रतों का पालन न करने से रेवती के जीवन का दुःखद अंत हुआ। श्रावक महाशतक ने रेवती के प्रति किये गये कटु शब्दों का प्रायश्चित्त किया /२८
___ ३.७.५२ सुश्राविका अश्विनी जी : श्रावस्ती के वैभवशाली श्रेष्ठी नंदिनीपिता की धर्मपत्नी अश्विनी थी, जो रूपवती गुणवती तथा विद्यावती थी। तीर्थंकर महावीर शिष्य शिष्याओं सहित श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य में पधारे। नंदिनीपिता ने भगवान के समवसरण में धर्मदेशना सुनी एवं बारह व्रतों को ग्रहण किया, संपत्ति की मर्यादा की। स्वगह आकर उसने अपनी धर्मपत्नी अश्विनी को प्रेरित
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
179
किया कि वह भी प्रभु के चरणों में अविलम्ब पहुँचकर अलभ्य देशना को श्रवण करे तथा आत्मोन्नति हेतु बारह व्रतों को अंगीकार करे। अश्विनी ने कोष्ठक चैत्य में भगवान् महावीर के सान्निध्य में पाँच अणुव्रत और शिक्षाव्रतों को समझकर गहस्थ धर्म के बारह व्रतों को श्रद्धापूर्वक अंगीकार किया, अपने घर आकर उसने बारह व्रतों का दढ़तापूर्वक पालन किया । १२६
३.७.५३ सुश्राविका फाल्गुनी जी : श्रावस्ती के सेठ शालिनीपिता की पतिपरायणा सहधर्मिणी थी फाल्गुनी । एक बार प्रभु महावीर का पदार्पण नगरी में हुआ। शलिनीपिता ने भगवान का धर्मोपदेश सुनकर श्रावक के बारह व्रतों को धारण किया तथा अपनी धर्मपत्नी को भी प्रेरित किया। फाल्गुनी समवसरण में पहुँची, श्रद्धापूर्वक वंदन कर वह परिषद् के मध्य बैठ गई। भगवान् के मुखारविंद से जब उसने बारह व्रतों को सुना तो उनके मन में यह विश्वास हो गया कि गहस्थी में प्रवत्त रहते हुए इन सबका सहज रूप से पालन किया जा सकता है। उसने उन व्रतों को अंगीकार किया और प्रसन्न मन से उसने अपने जीवन में बारह व्रतों का पालन करते हुए अपनी आत्मा का कल्याण किया।१३०
३.७.५४ सुदर्शन श्रेष्ठी की माता : राजगही नगर में 'सुदर्शन' नामक धनाढ्य श्रेष्ठी रहते थे। वे जीव-अजीव के ज्ञाता प्रभु महावीर के उपासक थे। उनकी माता भगवान् की दढ़ श्रद्धालु श्रमणोपासिका थी। माता के संस्कार भी सुदर्शन श्रेष्ठी की धर्मश्रद्धा के कारण ही थे। एक बार राजगह में अर्जुन माली का आतंक छाया हुआ था, तब प्रभु महावीर नगरी के बाहर उपवन में पधारे। सुदर्शन ने माता-पिता से भगवान् के दर्शनार्थ जाने की अनुज्ञा माँगी। सुदर्शन की दढ़ भावना को देखकर, बड़े साहस एवं प्रभु के प्रति अट श्रद्धा के कारण पत्र मोह पर विजय प्राप्त कर माता-पिता ने आज्ञा दे दी। सदर्शन की तेजस्विता के समक्ष अर्जन के भीतर रही हुई दैवी शक्ति पराजित हुई। अर्जुन भी सुदर्शन श्रेष्ठी से प्रभावित हुआ। प्रभु महावीर के दर्शन कर पापों का प्रायश्चित्त किया। संयम अंगीकार कर घोर तप किया और मुक्त हुए। संस्कारवान सुदर्शन श्रेष्ठी जैसे वीरधीर पुत्र को पैदा करने वाली ऐसी माता इतिहास की मिसाल है |१३१
३.७.५६ सुश्राविका श्रीमती देवी : पोलासपुर में विजय राजा राज्य करते थे, उनकी रानी का नाम "श्रीमती" था। उनके पुत्र का नाम अतिमुक्तक था जो "एवंता" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। एक बार गौतम स्वामी भिक्षार्थ नगरी में पधारे। बच्चों के साथ खेल रहे अतिमुक्तक गौतम की ऊंगली पकड़कर अपने घर ले आया। श्रीमती अपने पुत्र द्वारा साधु को आते हुए देखकर प्रसन्न हुई तथा उन्हें भक्तिपूर्वक आहार दिया।३२ श्राविका श्रीमती ने मुनियों को आहार से प्रतिलाभित कर श्राविका की भक्तिमत्ता का आदर्श रखा। चरम शरीरी अतिमुक्तक कुमार को भगवान् के शासन में दीक्षित किया और जिनशासन की प्रभावना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
३.७.५६ सुंसुमा (सुषमा) : राजगही नगरी में धन्य सार्थवाह रहता था। उसके पांच पुत्र थे तथा एक ही पत्री थी, जिसका नाम "सुंसुमा" था। सुंसुमा को क्रीड़ा करवाने के लिए "चिलात" नाम का दासपुत्र नियुक्त था। वह दूसरे बच्चों के खिलौने और कपड़े तथा गहनें ले लेता और उन्हें मारपीट भी करता। चिलात को धन्ना सेठ ने बहुत समझाया पर उसकी आदत नहीं छूटी। अंत में उसे घर से निकाल दिया। चिलात कुव्यसनों में फंसकर सिंहगुफा नाम की चोरपल्ली के सरदार विजय चोर के गिरोह में शामिल हो गया। सुषमा युवावस्था को प्राप्त हुई। सुंसुमा का सौंदर्य उसके हृदय में बस गया। उसने एक रात्रि अचानक धन्ना सेठ के घर पर हमला कर दिया। सेठ-सेठानी, पांचों पुत्र इस अकस्मात आक्रमण से भाग खड़े हुए। सेठ का धन और बेटी सुंसुमा को लेकर डाक दल वन में भाग गया। शांति होने पर घर आकर संसमा को नहीं पाकर कीमती भेंट लेकर परिजन नगर रक्षक के समीप गए। नगर रक्षकों ने चोर पल्ली पर जबरदस्त हमला किया। चोरों ने धन फेंक दिया। नगर रक्षक उसे बटोरने में लग गए । धन्य सेठ और पांचों पुत्र ने चिलात द्वारा सुंसुमा बालिका को लेकर भागते हुए देखा, तथा उसका पीछा किया। भार से दौड़ने में असमर्थ चिलात सुंसुमा का सिर काटकर धड़ को फेंकता हुआ झाड़ी में लुप्त हो गया । लगातार दौड़ने के परिश्रम से भूख-प्यास से तड़फते हुए पिता पुत्रों की स्थिति भी मरने जैसी हुई। उन्होंने विश्राम किया आहार खाया तथा नगरी में आकर पुत्री का क्रियाकर्म किया। कालांतर में शोक रहित हुए ।३३
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
180
३.७.५७ धारिणी देवी : धारिणी पोतनपुर नरेश सोमचंद्र की रानी थी। एक बार रानी अपने पति के मस्तक के बाल स्नेहपूर्वक संवार रही थी, कि उनकी दष्टि एक श्वेत बाल पर पड़ी। उसने पति से कहा - "स्वामी! दूत आ गया है।" रानी द्वारा श्वेत बाल रूप दूत बताने पर राजा खेदित होकर बोला, इस दूत के आने से पूर्व ही मुझे त्याग मार्ग अंगीकार कर लेना चाहिए था। लेकिन अब मैं शीघ्र ही त्यागी बनने को तत्पर हूँ, तुम राज्य संभालो । रानी ने भी त्याग मार्ग अपनाया। राजा रानी ने पुत्र प्रसन्नचंद्र को राज्य दिया। स्वयं "दिशा - प्रोक्षक" जाति के तापस होकर रहने लगे। वे सूखे पत्ते खाकर तप साधना करते, घास की मढ़ी विश्राम के लिए बना ली। पके हुए फल आदि खाकर जीवन निर्वाह करने लगे। कालांतर में तापसी रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम रखा गया "वलकलचीरी । संस्कारवान पुत्र को जन्म देना ही धारिणी का महत्वपूर्ण योगदान है । १३४
T
ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
:
३.७.५८ सुवर्णगुलिका जी सिंधु सौवीर की राजधानी वीतभय नगरी थी। महाराज "उदयन" वहाँ के राजा थे। उनकी प्रभावती नाम की रानी थी, अभीचिकुमार उनका पुत्र था । उदयन नरेश श्रमणोपासक थे। उनके राज्य में अनुपम सुंदरी सुवर्णगुलिका नामक दासी थी । अवंतिनरेश चण्डप्रद्योत ने यह जान लिया तथा उसे प्राप्त करने के लिए एक विश्वस्त दूत भेजा। दासी ने दूत का संदेश समझा उस पर विचार किया कि दासी से महारानी बनने का मुझे सुयोग प्राप्त हो रहा है। उसने सन्देश भिजवाया कि महाराजा लेने आयेंगे तो मैं उनके साथ जाने को तत्पर हूँ। कामासक्त चंडप्रद्योत अनलवेग हाथी पर सवार होकर वीतभय नगर आया और सुवर्णगुलिका को अपने साथ लेकर उज्जयिनी लौट आया । १३५ सुवर्णगुलिका अपने सौंदर्य के कारण राजरानी बन गई।
३.७.५६ सरस्वती देवी जी : भ. महावीर के शासनकाल में ऋषभपुर नामक नगर में धनावह राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम सरस्वती देवी था। किसी समय सुखपूर्वक सोते हुए उसने सिंह का स्वप्न देखा । यथासमय तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया भद्रनंदीकुमार । माता-पिता ने भद्रनंदी कुमार का श्रीदेवी प्रमुख पांच सौ कन्याओं के साथ पाणिग्रहण किया । १३६
३.७.६० श्रीदेवी जी : वीरपुर नाम का एक नगर था, वीरकष्णमित्र वहाँ के राजा थे, उनकी रानी का नाम था श्रीदेवी । कालान्तर में श्रीदेवी के उदर से सुजात कुमार नाम का तेजस्वी पुत्र पैदा हुआ। माता-पिता ने उसका विवाह बलश्री आदि पांच सौ राजकन्याओं के साथ किया । १३७
३.७.६१ कृष्णा जी : विजयपुर नाम का नगर था। वासवदत्त नाम का राजा राज्य करता था। उनकी रानी का नाम कष्णा था। कालांतर में शुभ स्वप्न देखकर रानी ने एक पुत्ररत्न को जन्म दिया जिसका नाम रखा "सुवासव" कुमार और जिसका भद्रा आदि पाँच सौ राजकन्याओं के साथ विवाह किया गया । १३८
३.७.६२ सुकन्या जी : सौगंधिका नाम की नगरी थी। उसमें अप्रतिहत राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम सुकन्या था। कालांतर में उससे महचंद्र नामक तेजस्वी कुमार पैदा हुए। उनकी स्त्री अरहदत्ता थी । उनसे जिनदास नामक पुत्र पैदा
हुआ । १३६ ३.७.६३ सुभद्रा जी : कनकपुर नाम का नगर था । प्रियचंद्र राजा राज्य करते थे। उनकी रानी सुभद्रा थी। जिसने वैश्रमण कुमार को जन्म दिया था । वैश्रमण के युवावस्था प्राप्त होने पर श्रीदेवी प्रमुख पांच सौ राजकन्याओं के साथ उनका पाणिग्रहण हुआ। १४०
३.७.६४ सुभद्रा जी : महापुर नामक नगर था। वहाँ पर बल राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम सुभद्रा था। सुभद्रा के पुत्र का नाम महाबलकुमार था जिसका रक्तवती आदि पांच सौ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण किया गया था । १४१
३.७.६५ तत्ववती जी : सुघोष नामक नगर था । अर्जुन नामक राजा राज्य करता था, उसकी रानी का नाम तत्ववती था । उसके भद्रनंदी नाम का कुमार था। श्रीदेवी प्रमुख पांच सौ राजकन्याओं के साथ उसका विवाह हुआ । १४२
३.७.६६ रक्तवती जी : चम्पा नाम की नगरी थी। दत्त नामक राजा राज्य करता था । उसकी रानी का नाम रक्तवती था । महचंद्र कुमार युवराज था जिसका श्रीकांता आदि पांच सौ राजकन्याओं के संग पाणिग्रहण हुआ ।१४३
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
३.७.६७ श्रीकांता जी : भ. महावीर के शासनकाल में, साकेत नाम का सुरम्य नगर था। मित्रनंदी नाम का राजा राज्य करता था । । उसकी रानी का नाम श्रीकांता था जिसके वरदत्त कुमार नाम का पुत्र था । वीरसेना आदि पांच सौ राजकन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण हुआ । १४४
३.७.६८ धारिणी देवी : भ. महावीर के शासनकाल में हस्तिशीर्ष नामक नगर में अदीनशत्रु नामक राजा राज्य करते थे । उनकी प्रमुख रानी का नाम धारिणी था । धारिणी ने किसी समय सुखपूर्वक सोते हुए शुभ लक्षणों वाले सिंह को क्रीड़ा करते हुए आकाशमार्ग से उतर कर स्वमुख में प्रवेश करते हुए देखा, अत्यंत हर्षित हुई । यथासमय उसने एक तेजस्वी पुत्र रत्न को जन्म दिया, जिसका गुणनिष्पन्न नाम रखा गया सुबाहुकुमार । १४५ इन माताओं का महत्वपूर्ण योगदान इस रूप में रहा है कि इन्होंने संस्कारवान् पुत्रों को जन्म ही नहीं दिया किंतु उनको धर्म पथ पर चलने में पूर्ण सहयोग दिया। अंतगढ़ सूत्र में वर्णित श्रेणिक महाराजा की नन्दवती, नन्दोत्तरा, नंदा, मरूता, सुमरूता, महामरूता, मरूदेवा, भद्रा, सुभद्रा, सुजाता, सुमनायिका, भूतदत्ता आदि तेरह रानियाँ भगवान् महावीर की परम उपासिका थी, विरक्त होकर संसार का त्याग किया और मोक्ष में गई | १४६
181
श्रेणिक महाराजा की अन्य काली, सुकाली, महाकाली, कष्णा, सुकष्णा, महाकष्णा, वीरकष्णा, रामकष्णा, पितसेनकष्णा, महासेनकष्णा आदि दस रानियों ने भी प्रभु महावीर से अपने युद्ध में गये हुए अपने ही नाम वाले दस पुत्रों की मत्यु का समाचार सुनकर भगवान् महावीर के चरणों में दीक्षा धारण की तथा तप के विविध आभूषणों से काया को सजाकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुई । सभी रानियां धर्म में दढ़ होकर संयम लेकर मोक्ष को प्राप्त हुई । १४७
३.७.६६ फल्गुसेना जी : फल्गुसेना दुःषम काल (पंचम आरे) की अंतिम श्राविका होगी, यह साकेत नगर की रहने वाली होगी। दुषम काल के साढ़े आठ मास शेष रहने पर कार्तिक मास में कष्ण पक्ष के अंतिम दिन प्रातः स्वाति नक्षत्र के उदयकाल में शरीर त्याग कर प्रथम स्वर्ग में जाएगी । १४८
३.७.७० यशा जी : तीर्थंकर महावीर के शासन में कौशाम्बी नगरी के राजा जितशत्रु का पुरोहित "काश्यप " ब्राह्मण था, यशा उसकी पत्नी थी, तथा कपिल पुत्र था । कपिल बालक था, तभी पिता की मत्यु हुई तथा राजा से सम्मान मिलना बंद हो गया। नये पुरोहित की राजसवारी को निकलते हुए देखकर यशा रोने लगी। पुत्र ने कारण पूछा मां को आश्वस्त किया कि मैं पढ़ लिखकर पिता का पद प्राप्त करूंगा। मां ने पढ़ने के लिए पति के मित्र पंडित इंद्रदत्त के समीप श्रावस्ती नगरी में पुत्र को भिजवाया । १४६ इस प्रकार यशा की जागरूकता नज़र आती है, वह पुत्र को उचित शिक्षा देकर उसे सुयोग्य पद पर प्रतिष्ठित देखने हेतु पुरुषार्थरत है।
३.७.७१ भद्रा जी : काकंदी नगरी में भद्रा सार्थवाही रहती थी, उसका धन्य नामक पुत्र था। बत्तीस कन्याओं के संग उसका विवाह हुआ बाद में दीक्षीत हुआ था । १५° इसी प्रकार भद्रा के सुनक्षत्र, ऋषिदास, पेल्लक, रामपुत्र, चंद्रिक, पुष्टिमातक, पेढ़ालपुत्र, पोष्टिल्ल आदि आठ पुत्र हुए । धन्य की तरह उन्होंने भी दीक्षा ली। भद्रा का योगदान यह था कि उसने जिनधर्मप्रभावक पुत्रों को जन्म दिया था । १५१
३.७.७२ धारिणी जी : राजगही के महाराजा श्रेणिक की रानी थी । यथासमय उसने क्रम से दीर्घसेन, महासेन, लट्ठदंत, गूढदंत, शुद्धदन्त, हल्ल, द्रुम द्रुमसेन, महाद्रुमसेन, सिंह, सिंहसेन, महासिंहसेन, पुण्यसेन आदि राजकुमारों को जन्म दिया। उसने धर्म प्रभावक सुयोग्य पुत्रों को जन्म दिया, यही उसका महत् योगदान है । १५२
३.७.७३ नंदा जी : श्रेणिक एक बार वेणातट नगर आया, वहाँ भद्र नामक श्रेष्ठी रहता था। उसकी पुत्री का नाम था नंदा । श्रेणिक की तेजस्विता को देखकर उन्होंने नंदा का विवाह श्रेणिक के साथ संपन्न किया । १५३ कालांतर में उसके उदर से अभय कुमार नामक पुत्र पैदा हुआ। एक बार भगवान् महावीर स्वामी से यह सुनकर कि मुनि जीवन स्वीकार करने वाले उदयन अंतिम राजा होंगे, अभय ने राजा बनने से पूर्व राज्य त्याग का निश्चय किया। माता नंदा स्वयं भी दीक्षित होने के लिए तत्पर थी । श्रेणिक ने माता-पुत्र का महोत्सव मनाया। १५४ नंदा महासती चंदनबाला की शिष्या बनी । १५५ नंदा स्वयं धर्म संस्कारवान थी । संस्कारवान् पुत्र को जन्म देने मात्र का ही नहीं, किंतु पुत्र के साथ ही स्वयं भी जीवन को पावन करनेवाली पुण्यशालिनी वीर माता थी ।
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
182
ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
३.७.७४ धारिणी देवी : भगवान् महावीर स्वामी के शासनकाल में महाराजा श्रेणिक की रानी थी धारिणी । धारिणी ने कालांतर में सिंह का सपना देखा तथा जाली कुमार को जन्म दिया। युवावस्था में कलानिपुण जालीकुमार का विवाह आठ कन्याओं से किया गया।१६ इसी प्रकार धारिणी के मयालि, उवयालि, पुरुषसेन, वारिषेण, दीर्घदंत, लष्टदंत आदि छ: अंगजात चरम शरीरी हुए। इस प्रकार धारिणी का योगदान इस रूप में रहा कि उसने धर्म संस्कारों से अपने पुत्रों को भी धर्म मार्ग पर बढ़ाया।
३.७.७५ सुभद्रा जी : राजगही नगरी में “धन्य" नाम का धनाढ्य श्रेष्ठी रहता था। सुभद्रा धन्य की पत्नी थी तथा गोभद्र ठ की पुत्री एवं शालीभद्र की बहन थी। सुभद्रा भाई शालीभद्र के संसार त्याग की बात सुनकर बंधु विरह के दुःख से भरी हुई थी। धन्य श्रेष्ठी स्नान करने बैठा। उसकी पत्नियाँ उबटन आदि कर रही थी, सुभद्रा सुगंधित जल से स्नान करवा रही थी। उसके नेत्र से आंसू की धारा बह निकली। धन्य द्वारा कारण पूछने पर सुभद्रा ने भाई की दीक्षा तथा प्रतिदिन एक नारी का त्याग आदि ही उसके दुःख का कारण है ऐसा बताया। धन्य ने कहा-वीर पुरुष एक साथ ही त्याग करता है, तेरा भाई तो कायर है। अन्य पत्नियां बोली-यदि त्यागी बनना सरल है तो आप ही एक साथ सर्वस्व त्याग कर निग्रंथ दीक्षा क्यों नहीं ले लेते? कहना सरल, करना कठिन होता है। धन्य उठ खड़ा हुआ-बोला मैं यही चाहता था, तुमने सहज ही मैं मुझे आज्ञा प्रदान कर दी है। धन्ना मनाने पर भी न माना, पत्नियां भी संयम लेने के लिए तत्पर हो गई। भगवान् महावीर पुण्य योग से पधारें | धन्य ने दीनजनों को विपुल दान दिया, पत्नियों सहित शिविका में बैठकर भगवान् के समीप गया दीक्षित हुआ।५८
३.७.७६ धन्या जी : राजगह के निकट शालीग्राम में धन्या नाम की स्त्री थी, वह अन्य किसी ग्राम से आकर यहाँ रहने लगी थी। उसके "संगमक" नामक पुत्र था। शेष संपूर्ण परिवार काल कवलित हो चुका था। धन्या दूसरे घरों में मजदूरी करती थी और सगमक दूसरे के गौ बच्छड़ों को चराया करता था। एक बार पर्वोत्सव के दिन सभी लोगों के घरों में खीर बनाई गई थी। संगमक ने लोगों को खीर खाते देखा तो मां से खीर बनाने को कहा। धन्या पूर्व की संपन्न स्थिति तथा आज की दरिद्र अवस्था का विचार कर रोने लगी। आस पास की महिलाओं ने उसका रुदन देखा, कारण पूछा, तब उसने सारी स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा। मेरी वर्तमान स्थिति रूखा सूखा खाकर पेट भरने की है। बेटे को मैं खीर कैसे खिलाऊँ? पड़ोसिन महिलाओं ने करुणा कर दूध, चीनी आदि सामग्री अपने घरों से लाकर दी, धन्या ने खीर पकाई, अपने पुत्र को थाली में डालकर दे दी। पुत्र को खीर देकर धन्या दूसरे कामों में लग गई। मासखमण तपस्वीधारी मुनिराज पारणे के लिए भिक्षा हेतु विचरण करते हुए धन्या के घर आ गए। संगमक थाली की खीर को ठंडी होने तक रूका हुआ था। मुनिराज को देख कर अपने भाग्य की सराहना करने लगा और समस्त खीर मुनि के पात्र में डाल दी। तपस्वी संत लौट गए, धन्या अपना काम निबटाकर घर में आई। उसने देखा थाली में खीर नहीं है, पुत्र खा गया है, उसने दूसरी बार खीर परोसी। संगमक ने रुचिपूर्वक आकण्ठ खीर खाई, उससे अजीर्ण होकर वह रोगातंक हुआ। रोग उग्रतम हुआ, परन्तु संगमक के मन में तपस्वी संत और उन्हें दिये हुए दान की प्रसन्नता रम रही थी, उन्हीं विचारों में संगमक ने आयु पूर्ण कर देह छोड़ी और गोभद्र सेठ के पुत्र शालीभद्र के रूप में पैदा हुआ "५६ तत्पश्चात् शालीभद्र जब मुनि अवस्था में थे तब अंतिम दही का आहारदान माता धन्या ने दिया, तत्पश्चात शालीभद्र ने अनशन स्वीकार किया। धन्या महाभाग्यशालिनी माता थी१६० स्वावलंबन पुत्र प्रेम तथा मुनिभक्ति उसके जीवन का आदर्श था।
३.७.७७ प्रियदर्शना जी : महावीर एवं यशोदा की पुत्री थी तथा जमालि की पत्नी थी। अनोद्या उसका अन्य नाम था, उसकी पुत्री का नाम शेषवती (यशवती) था।१६१ प्रियदर्शना प्रभु महावीर की श्राविका थी तथा वह महावीर के संघ में दीक्षित भी हुई थी।६२ इस प्रकार प्रियदर्शना ने पिता के साथ धर्मस्नेह का रिश्ता जोड़कर पितावत अपनी आत्मा का उत्थान किया, पवित्र जीवन व्यतीत किया।
३.७.७८ पद्मावती जी६३ : महाराज कुणिक की रानी का नाम पद्मावती था। एक बार उसने कुणिक के छोटे भाई विहल्ल और वेहास को चेलना प्रदत्त अठारह लड़ी वाला हार, कुण्डल और वस्त्र पहनकर सेचनक हस्ति पर बैठकर निकलते हुए तथा रानियों के साथ जलक्रीड़ा करते हुए देखा और ईर्ष्या से जल गई। उसने हठ पकड़ ली और कोणिक से निवेदन किया कि ये वस्तुएं आप ले लेवें। मोह से दबे कुणिक ने हार और हाथी की माँग की। दोनों कुमारों ने कहा-बदले में आप आधा राज्य दे दीजिए। कूणिक इस बात पर राजी नहीं हुआ विहल्ल और वेहास मातामह चेटक की शरण में वैशाली गए। चेटक को कणिक ने संदेश भिजवाया
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
कि हार और हाथी लौटा दे। चेटक ने बदले में आधा राज्य देने का संदेश कहलवाया। तथा यह भी कहा कि शरणागत की रक्षा मेरा प्रथम दायित्व है, अन्त में चेटक-कूणिक संग्राम छिड़ा । १६४ नारी का आभूषण प्रेम तथा पुरुषों का नारी स्नेह युद्ध जैसे अनर्थ को आमंत्रित कर देता है।
३.७.७६ पोटिला जी : तेतलीपुर नगर में कनकरथ राजा राज्य करता था, जिनके मंत्री तेतलीपुत्र की पत्नी का नाम पोटिला था। किसी समय पोटिला तेतली पुत्र को अप्रिय हो गई। पोटिला को चिंतामग्न देखकर तेतलीपुत्र ने उसे भोजनशाला खोलकर आहार दान करने का निर्देश दिया। एक बार सुव्रता आर्या की शिष्यायें भिक्षार्थ परिभ्रमण करते हुए तेतलीपुत्र के गह पर आई, तब पोटिला ने साध्वियों से कहा, आप कोई ऐसा मंत्र, औषध बतायें, जिससे में पुनः तेतलीपुत्र को इष्ट हो सकूँ । बदले में साध्वियों ने उसे जिनवाणी का उपदेश दिया, पोटिला ने भक्ति के साथ श्राविका के द्वादश व्रतों को अंगीकार किया१६५ और कालांतर में दीक्षित हुई।१६६
३.७.८० उत्पला जी : श्रावस्ती नगरी में समद्धिशाली जीवादि नव तत्वों के ज्ञाता शंख श्रावक रहते थे। उनकी सुकोमल, जीवादि नव तत्वों की ज्ञाता भगवान् महावीर की श्रमणोपासिका उत्पला नाम की पत्नी थी। उसी नगरी में पुष्कली आदि कई श्रमणोपासक थे, एक बार उन्होंने पक्खी के दिन शंख श्रावक की प्रेरणा से आहार से युक्त पौषध (दया) करने का विचार किया। घर आकर शंख श्रावक ने आहारत्याग रूप पौषध अंगीकार किया और पौषधशाला में धर्म ध्यान में लीन बने । पुष्कली श्रावक शंख श्रावक को बुलाने के लिए उनके घर गए। पति की अनुपस्थिति में उत्पला श्राविका ने पुष्कली श्रावक का उचित आदर सत्कार किया, आने का प्रयोजन पूछा और मुधर शब्दों से शंख द्वारा ब्रह्मचर्य तथा आहारत्याग युक्त पौषध की आराधना का वर्णन प्रस्तुत किया। उत्पला ने उस युग की परंपरा के अनुसार शिष्टाचार संबंधी पांच बातें प्रस्तुत की (१) पुष्कली श्रावक को अपने घर आते देख हर्षित और संतुष्ट हुई (२) आसन से उठकर स्वागत के लिए सात-आठ कदम सामने गई (३) वंदन नमस्कार किया (४) बैठने के लिए आसन दिया तथा (५) आदरपूर्वक आने का प्रयोजन पूछा इत्यादि। उत्पला के आदर सत्कार तथा मदु शब्दों के संबोधन से पुष्कली श्रावक संतुष्ट हुए।१७ इस प्रकार उत्पला ने आतिथ्यसत्कार की उज्जवल परंपरा को जीवित रखा तथा अतिथिदेवो भवः के अनुरूप घर पर आये पति के मित्र का मन मधुर व्यवहार से जीत लिया।
३.७.८१ भद्रा जी : श्रेणिक राजा की राजगही में धन्य सार्थवाह रहता था, उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। भद्रा के कोई संतान न होने से वह दुःखी थी। उसने पति की अनुज्ञा लेकर नाग यावत् वैश्रमण देवों की उपासना तथा मन्नत की। वह विपुल आहार आदि का दान भी किया करती थी। कुछ समय व्यतीत होने पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। देवों की अनुकंपा द्वारा होने से उसका नाम देवदत्त रखा गया। एक बार विजय चोर ने देवदत्त को मार दिया तथा कैदी बना दिया गया। कालांतर में धन्य सार्थवाह किसी कारणवश कैदी हुए। धन्य सार्थवाह और पुत्रघातक विजय चोर एक ही जंजीर में बंधे होने से तथा शौच आदि में सहयोग ग्रहण करने के लिए, धन्य आधा भोजन उसे भी देता था। भोजन लाने वाले सेवक द्वारा यह समाचार मिलने से भद्रा सार्थवाही ने धन्य सार्थवाह द्वारा कैद मुक्त होकर आने पर भी आदर नहीं किया। धन्य द्वारा स्पष्टीकरण करने पर वह संतुष्ट हुई तथा भोग भोगती हुई सुखपूर्वक रहने लगी।१६८
३.७.८२ भद्रा जी : भगवान् के परम भक्त राजा श्रेणिक की राजगही में धन्य सार्थवाह निवास करता था। उनकी भद्रा नाम की गुणवती रूपवती धर्मपत्नी थी। भद्रा के चार पुत्र थे धनपाल, धनदेव, धनगोप और धनरक्षित । उनकी क्रमशः चार पुत्रवधुओं को पारिवारिक दायित्व सौंपने के लिए उन्होंने परीक्षा ली। प्रत्येक वधू को पांच-पांच शालि अक्षत (चावल के दाने) दिये तथा पांच वर्षों के बाद पुनः देने के लिए कहे। पांचवे वर्ष में उनसे पुनः दाने माँगे। बड़ी ने दाने फेंक दिये अतः उसे पौंछा लगाना, तथा घर का कचरा बाहर फेंकने का काम सौंपा। दूसरी ने उसे खा लिये, उसे रसोई घर का कार्य सौंपा। तीसरी ने ५ दाने संभाल कर रखे, उसे घर तथा संपत्ति की चाबियां सुपुर्द की। तथा चौथी ने चावल के दानों को पिता की खेती में बोकर खूब बढ़ा लिये थे, अतः उसे घर की प्रमुख गहिणी के रूप में नियुक्त किया, क्योंकि वह घर की प्रतिष्ठा और संपत्ति में वद्धि करने वाली थी। उनके नाम क्रमशः उज्झिता, भोगवती, रक्षिता तथा रोहिणी था /१६६
,
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
184
३.७.८३ स्कंदश्री : पुरिमताल नगर में विजय नामक चोर सेनापति जो बड़ा ही क्रूर था, उसकी निर्दोष सर्वांगसुंदरी स्कंदश्री नाम की भार्या थी । उनके अभग्नसेन नामक पुत्र था । १७०
३. ७. ८४ श्रीनाम : वाणिज्यग्राम में मित्र नाम का राजा था, उसकी पटरानी का नाम श्रीनाम था । १७१
ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
३. ७.८५ सुभद्रा : वाणिज्यग्राम में विजय मित्र नामक धनी सार्थवाह की पत्नी का नाम सुभद्रा था। सुभद्रा का एक पुत्र था उज्झितक जो सर्वांग सुंदर और रूपवान बालक था । १७२
३.७.८६ देवदत्ता : रोहीतक नगर के दत्त सेठ की सेठानी कृष्णा श्री के उदर से पैदा हुई। वह एक बार क्रीड़ा कर रही थी तब राजा ने उसे देखा था। उस कन्या की युवराज पुष्यनंदी के लिए दत्त सेठ से याचना की। पुण्यनंदी से उसका विवाह हुआ । यथा समय पुष्यनन्दी राजा बना। राज माता श्रीदेवी की भक्ति में राजकुमार संलग्न रहता था । देवदत्ता को यह सहन नहीं हुआ । एक बार जब श्रीदेवी सूखपूर्वक सो रही थी, तब देवदत्ता ने तपे हुए लोहदण्ड को श्रीदेवी के गुह्य स्थान में प्रविष्ट कर दिया। फलस्वरूप वह महान् शब्द से आक्रंदन कर मर गई । पुष्यनंदी ने क्रोधपूर्वक पकड़वाकर उसका वध करने की आज्ञा दी । पाप के फल को भोगती हुई वह दुरवस्था को प्राप्त हुई । ७३
३.७.८७ उत्पला : हस्तिनापुर में भीम नामक कूटग्राह रहता था, उसकी पत्नी का नाम उत्पला था । उत्पला के गर्भ में गर्भस्थ जीव के प्रभाव से पशुओं का मांस और रूधिर पीने की इच्छा हुई, भीम ने इच्छा पूर्ण की उसने पुत्र को जन्म दिया नाम रखा गया 'गोत्रास' कुमार क्योंकि जन्म लेते ही बालक ने कर्णकटु और चीत्कारपूर्ण भीषण शब्द किया था जिससे गौ आदि नागरिक पशु भयभीत और उद्विग्न होकर चारों तरफ भागने लगे थे । १७४
३. ७. ८८ मगादेवी : मगा ग्राम नामक प्रसिद्ध नगर था जहाँ विजय क्षत्रिय राजा राज्य करता था। मगादेवी का आत्मज था मगापुत्र, जो कि जन्मकाल से ही अंधा, गूंगा, बहरा, पंगु, हुण्ड और वातरोगी था । पुत्र वात्सल्यवश माता मगादेवी गुप्त भूमिगह में गुप्त रूप से आहार पानी आदि के द्वारा उस मगापुत्र बालक की सेवा करती हुई जीवन व्यतीत कर रही थी ।१ पूर्वभव में कपट रूप व्यापार को अपना कर्तव्य बनाने से इस प्रकार का अशुभ कर्म परिणाम सामने आया। माता मगादेवी ने बड़ी धैर्यता के परिस्थिति का सामना किया । १७५
३.७.८६ गंगादत्ता : पाटलीखंड नगर में सागरदत्त नाम का धनाढ्य सार्थवाह रहता था। उसकी गंगादत्ता भार्या से उम्बरदत्त नामक पुत्र पैदा हुआ । १७६
३.७.६० समुद्रदत्ता : शौरिकपुर में समुद्रदत्ता नामक मच्छीमार रहता था, वह अधर्मी और अप्रसन्न था । उसकी समुद्रदत्ता नामक भार्या थी, उसके आत्मज का नाम था शौरिकदत्ता । १७७
३.७.६१ बंधुश्री देवी : मथुरा नगरी में श्रीदाम राजा की बंधुश्री देवी की कुक्षी से नंदिषेण नामक कुमार पैदा हुआ था । ३.७.६२ वसुदत्ता : कौशांबी नगरी में समस्त वेदों का ज्ञाता विद्वान सोमदत्त नाम का पुरोहित रहता था। उसकी पत्नी का नाम वसुदत्ता था, तथा पुत्र का नाम था बहस्पतिदत्त । १७६
३.७.६३ भद्रा : साहंजनी नगरी में सुभद्र नामक प्रतिष्ठित सार्थवाह रहता था । उनकी निर्दोष पचेंद्रिय शरीर वाली भद्रा नाम की पत्नी थी, उनके पुत्र का नाम शकट था।
३.७.६४ अजु : धनदेव सार्थवाह की पत्नी से अजू नामक लावण्यमयी कन्या पैदा हुई। वह बुभुक्षित, निर्मांस, कष्टमय, करूणाजनक तथा दीनतापूर्ण वचनों से विलाप करती थी। गौतम ने उसे मार्ग में देखा। भगवान् ने पूर्वभव के अशुभ कर्म बंधन के परिणाम हैं, ऐसा प्रकाश डाला। १८१
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
__
185
संदर्भ ग्रन्थ सूची (अध्याय- ३) १. आचार्य देवेंदमुनि जी शास्त्री, भगवान पार्श्व : एक समीक्षात्मक अध्ययन प.६१-६२-६४-६६-१६३ २. वही. भगवान महावीर : एक अनुशीलन. प. ६८-६६
मंजीतसिंह सोधी, हिस्ट्री ऑ.ए. इंडिया, प. ६२-६३ प्रो. मंजीतसिंह सोधी, हिस्ट्री ऑ.ए. इंडिया, प.६२
वही प. ७० ६. सव्वे जीवा पिआउया, सुहसाया दुक्खपडिकूला
उत्तरा सूत्र अ. १२ गा. १ कम्मुणा बंभणो हो..... उत्तरा अ. २५ गा. ३३ डॉ० प्रेमसुमन जैन भ.महावीर एक अनु. प्राक्कथन प. १८.१६
इंद्र एम.ए. अपनी बात. वर्ष १, १६४६ अंक १ प. १७ नवंबर, श्रमण सं. इंद्रचंद शास्त्री एम.ए. ११. प्रो. डॉ. विद्यावती जैन. प्राकृत विद्या, जन-जून २००२ प. ११५
आचार्य श्री देवेंद्र मुनि जी भ. पार्श्व प. ११० १३. आचार्य श्री देवेंद्र मुनि जी भ. पार्श्व प. ११० १४. आचार्य श्री देवेंद्र मुनि जी भ. पार्श्व प. ११० १५. आचार्य श्री देवेंद्र मुनि जी भ. पार्श्व प. ११० १६. आचार्य श्री देवेंद्र मुनि जी भ. पार्श्व प. १११ १७. आचार्य श्री देवेंद्र मुनि जी भ पार्श्व प. १११ १८. आचार्य श्री देवेंद्र मुनि जी भ. पार्श्व प. १११ १६. युवा. श्री मधु, मुनि, जी भगवती सूत्र, भा. २ उद्दे. ३३. प. ५०८-५१४
उपा. प्यारचंदजी म. कल्प. सूत्र प. ५१ २१. वही प ५१५ २२. डॉ. ज्योति, जैन, प्र.ऐ.जै.पु. एवं म. प. २१ २३. उपा. पं. मु. श्री प्यारचंदजी म. कल्पसूत्र प. १२४ २४. डॉ. ज्योति, जैन, प्र.ऐ.जै.पु. एवं म. प. २१ २५. सुश्रावक श्री डोशी रतनलाल जी तीर्थं च, भा. ३ प. १२० २६. डॉ. ज्योति जैन, प्र.ऐ.जै.पु. एवं म. प. २१ २७. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि, जी राजप्रश्नीय सूत्र प. १३१ २०२-२०४ २८. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि, जी राजप्रश्नीय सूत्र प. ६.१० २६. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि. जी ज्ञातासूत्र श्रुत २ वर्ग १ प. ५३० ३०. वही प. ५२६-५३७ ३१. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, श्रुत. २. वर्ग १ अ. २ प. ५३८ ३२. वही अ. ३. प. ५३६ ३३. वही अ. ४. प. ५४०
,
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
186
३५.
३६.३६. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, वही अ. २.५ प. ५४३
४०. देवेन्द्र मुनि, भ. पार्श्व, प. १३१-१३२
४१.
देवेन्द्र मुनि, भ. पार्श्व, प. १३२
४२.
युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, निरयावलिका, वर्ग ३ अ. ४ प ६८-७३
४३.
वही. प. ७३.७६
४४.
युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी निरयावलिका, प. ६५-६७
(अ) युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, ज्ञातासूत्र श्रुत २ वर्ग ३. प. ५४४ - ५४५
(ब) आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी, भ. पार्श्व प. ११६
(अ) युवाचार्य मधुकर मुनि जी, ज्ञातासूत्र श्रुत २. वर्ग ४ प ५४४ - ५४५ (ब) आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी भ. पार्श्व प. ११६
युवाचार्य मधुकर मुनि जी, ज्ञातासूत्र श्रुत २. वर्ग ५. प. ५४६
(अ) युवाचार्य मधुकर मुनि जी ज्ञातासूत्र श्रुत २. वर्ग ७ प. ५५२ (ब) आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी, भ. पार्श्व प. १२१
(अ) युवाचार्य श्री मधुकर मुनि, ज्ञातासूत्र श्रुत २. वर्ग ६. प. ५५४ (ब) आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी, भ. पार्श्व प. १२२
युवाचार्य श्री मधुकर मुनि, ज्ञातासूत्र श्रुत २. वर्ग ८ प. ५५३
आ. हस्ती, म. जैन धर्म का मौ. इति, भाग १ प. ५२२
सुश्रावक डोशी रतनलाल जी तीर्थकर चरित्र भाग ३ प. ३४
वही भाग ३ प ३४
वही भाग ३ प ३७
४५.
४६.
४७.
४८.
४६.
५०.
५१.
५२.
५३.
५४.
युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, ज्ञातासूत्र श्रुत २ वर्ग २. अ. १ प. ५४२
५५. वही भाग ३ प.
५६.५८. सु० डोशी रतनलाल जी, तीर्थंकर चरित्र भाग ३ प. ३८.३६४०.४२
५६.६६. सु० डोशी रतनलाल जी, तीर्थंकर चरित्र भाग ३
प. ४६.५० ४४ ६२.६३. ६३ ६४ ६४. ६५ ७० ६४.७१-७२.७२. ७२.७२
७०-७७ सु० डोशी रतनलाल जी, तीर्थंकर चरित्र भाग ३ प ८३.८३.८६ ८८. १४२.१७८.१५६.१५६ - १५७
७८-८० उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि, जैन कथाएं भाग २४. २४.५४
८१. आ. श्री तुलसी जी, श्रावक संबोध प. १६१-१९३
८२ - ६० रतन, तीर्थंकर च. भाग ३ प १६२. १६३. १६३. १६३. १६३. १६४. १६४. १६४. १६४
६१-६२ (अ) वही. प. ११६.१२०
६१-६२ (ब) उपा. प्यारचंदजी म. कल्प सूत्र प. १२४
६३.
६४.
डॉ० हीराबाई बोरडिया जैन धर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएं प. ६१-६२
(क) उत्तर भारत में जैन धर्म प० ८४-८५
(ख) डॉ० हीरा बाई बोरडिया, जैन धर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ प. ६७-७०
(ग) डोशी रतनलाल, तीर्थंकर चरित्र, भाग ३ प. १७६ - १८५. १६६
ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
187
६५. युवाचार्य मधुकर मुनि, भगवती सूत्र, भाग ३, शतक १२, उद्देशक २ पु. १२६-१२७ ६६. आचार्य हस्तीमलजी, जैन धर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग, प० १२६-१७ ६७. (अ) डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं प. २३
(ब) डोशी रतनलाल, तीर्थंकर चरित्र, भाग ३ प. २७५ ६८. प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष एवं महिलाएँ प.७८-७६ ६६. (क) जैन धर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ प० ८१-८३
(ख) सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थकर चरित्र भाग ३ प. २११ २१३-२१६. २२७-२२६ (ग) युवाचार्य मधुकर मुनि, निरयावलिका प. १२-२१. अनुत्तरौपपातिक वर्ग १
अ. ८.६. प. १० १००. युवाचार्य मधुकर मुनि, ज्ञातासूत्र प. १३-१०३ १०१. (अ) सु० डोशी रतनलाल जी, तीर्थकर चरित्र, भाग ३, प. ३१७-३२०
(आ) डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ. प. २३ १०२. डॉ. हीराबाई बोरडिया, जैन धर्म की प्रमुख साध्वियों एवं महिलाएँ प० ६२.६३ १०३. प्रो. प्रवीण जैन, जैन पुराण कोष, प. २२६ १०४. डॉ. हीराबाई बोरडिया, जैन धर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ प० ६५-६६ १०५. डॉ. हीराबाई बोरडिया, जैन धर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ प० १२८ १०६. सु० डोशी रतनलाल जी, तीर्थकर चरित्र भाग ३ प. २३६-२४१ १०७. (अ) आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन : खण्ड १, प० २३६-२४३ १०६. जैन धर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ प० ११४-११७ १०६. (क) जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग एक प० ६०६-६०७
(ख) जैन धर्म की प्रमुख साध्वियों एवं महिलाएँ, डॉ० हीराबाई बोरडिया, प० १२७–१२८
(ग) श्रमण महावीर, आचार्य महाप्राज्ञ, प०८३-८५ ११०. प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष एवं महिलाएँ प० २५ १११. जैन धर्म की प्रमुख साध्वियों एवं महिलाएँ प०७१ ११२. (अ) आचार्य श्री तुलसी जी श्रावक संबोध प० १८६-१८७
(ब) सु० डोशी रतनलाल जी, तीर्थंकर चरित्र, भाग ३. प. २७६-२८५ ११३. आचार्य श्री तुलसी जी, श्रावक संबोध प. १६१-१६३ ११४. मुनि नगराज, आगम और त्रिपिटक: एक अनुशीलन, खण्ड.१ प. १६४-१६७ ११५. सु० डोशी रतनलाल जी, तीर्थकर चरित्र, भाग ३, प. ३०६-३०८ ११६. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, भगवती सूत्र, खण्ड ३, शतक १२, उद्देशक २, प. १२६-१३७ ११७. डॉ. हीराबाई बोरडिया, जैन धर्म की प्रमुख साध्वियाँ एव महिलाएँ, प. १२६ ११८. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, ज्ञातासूत्र प. ३५८-३७३ ११६-१२० (अ) युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, उवासगदशा अध्याय १ प. १२. ५८. ६०. वही अ. ३ प. १११–११६
(ब) सु० डोशी रतनलाल जी, तीर्थ च. भाग ३ प. २५८-२६१. २६५ १२१. युवाचार्य मधुकर मुनि, उवासगदशा अध्याय ५ प. १२५–१२८
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
188
१२२-१२३
(अ) युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, उवासगदशा अध्याय २ प ८६. अ. ३. प. १०७ (आ) सु० डोशी रतनलाल जी. तीर्थं च भाग ३ प १६३. २६४ १२४ (अ) युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी. उवासग अध्याय ४ प ११६ - १२२ (ब) सु० डोशी रतनलाल जी, तीर्थं च भाग ३ प. २६५
१२५. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, उवासगदशा अध्याय ६ प १३१-१३७ १२६. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, उवासगदशा अध्याय ७ प १४२-१६७ १२७. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, उवासगदशा अध्याय ८ प. १७४ -१८४ १२८. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, उवासगदशा अध्याय ६ प १८८-१८६ १२६. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, उवासगदशा अध्याय १० प. १६१
१३०. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, अन्तगढ़ सूत्र वर्ग ६ अध्याय ३ प ११२-१२०
१३१. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, अन्तगढ़ सूत्र वर्ग ६ अध्याय ३ प १०७ - १२६
१३२. वही १५ प १२७-१३५
१३३. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी ज्ञातासूत्र प. ४६१-५१०
१३४. सु० डोशी रतनलाल जी, तीर्थंकर चरित्र भाग ३ प. ३५७
१३५. सु० डोशी रतनलाल जी, तीर्थंकर चरित्र भाग प. ३२४-३२६
१३६. १४५. सुश्रावक सं. नेमीचंद जी, बांठिया, विपाक सूत्र प. ३२७-३२८. ३२६. ३३०. ३३१.३३२. ३३३. ३३४. ३३५. ३३७
१४६. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, अन्तगढ़ सूत्र वर्ग ७ अध्याय १.१३ प १३७ - १३८
१४७. वही वर्ग ८ अध्याय १.१० प १३६ - १७०
१४८. प्रो. प्रवीण, जैन. पुराण कोष प. २४५
१४६. सु० डोशी रतनलाल जी तीर्थंकर चरित्र भाग ३ प ३३०.३३३
१५० युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, अनुत्तरौपपातिक सूत्र वर्ग ३ अध्याय १ प. १५-४४
१५१. वही अध्याय २-६ वर्ग ३ प ४५-४७
१५२. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, अनुत्तरौपपातिक सूत्र वर्ग २ अध्याय १-१३ प १३-१४
१५३. सु० डोशी रतनलाल जी, तीर्थंकर चरित्र भाग ३ प. २०३-२०४
१५४. वही प. ३३४
१५५. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, अन्तगढ़ सूत्र वर्ग ७ अध्याय १ प १३८
१५६. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी, अनुत्तरौपपातिक सूत्र वर्ग १ अध्याय १–७ प. ७-१०
१५७. वही प. १०
१५८. सु० डोशी रतनलाल जी, तीर्थंकर चरित्र भाग ३ प ३०६-३०८
१५६. सु० डोशी रतनलाल जी, तीर्थंकर चरित्र भाग ३ प ३०३-३०४
१६०. वही ३०६ - ३०८
१६१. उपाध्याय श्री प्यारचंदजी म. कल्पसूत्र प. १२४
१६२. सु० डोशी रतनलाल जी, तीर्थंकर चरित्र, भाग ३, प. १२०
१६३. सु० डोशी रतनलाल जी, तीर्थंकर चरित्र, भाग ३, प. ३३८-३४६
१६४. युवाचार्य मधुकर मुनि, निरयावलिका सूत्र प. २६-३८
ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
189
१६४. युवाचार्य मधुकर मुनि, निरयावलिका सूत्र प. २६-३८ १६५. युवाचार्य मधुकर मुनि, ज्ञातासूत्र, अध्याय १४. प. ३५६-३८० १६६. वही प. ३७१ १६७. युवाचार्य मधुकर मुनि, भगवती सूत्र खण्ड ३ श. १२ उद्देशक १ प. १११-१२५ १६८. युवाचार्य मधुकर मुनि, भगवती सूत्र प. १०४-१३१ १६६. युवाचार्य मधुकर मुनि, ज्ञाता सूत्र अध्याय ७ प. १६४-२०८ १७०. सं. नेमीचंद बांठिया, विपाक सूत्र अध्याय ३ प. ७३ १७१. वही अ. २ प.४१ १७२. सं. नेमीचंद जी बांठिया, विपाक सूत्र अध्याय २ प. ४२. ४६ १७३. सं. नेमीचंद जी बांठिया, विपाक सूत्र अध्याय ६ प. १८२-१६२ १७४. सं. नेमीचंद जी बांठिया, विपाक सूत्र अध्याय २ प. ५२-५४ १७५. सं. नेमीचंद जी बांठिया, विपाक सूत्र अध्याय १ प. ११. १८ १७६. सं. नेमीचंद जी बांठिया, विपाक सूत्र अध्याय १ प. २५ १७७. सं. नेमीचन्द जी बांठिया, विपाक सूत्र, अध्याय ७ प. १३८-१४५ १७८. सं. नेमीचन्द जी बांठिया, विपाक सूत्र, अध्याय ८ प. १५८-१६३ १७६. सं. नेमीचंद जी बांठिया, विपाक सूत्र अध्याय ६ प. १३३-१३६ १८०. सं. नेमीचंद जी बांठिया, विपाक सूत्र अध्याय ५ प. ११५-११७ १८१. सं. नेमीचंद जी बांठिया, विपाक सूत्र अध्याय १० प. १६५-२००
धर्म संघ में श्रमण-श्रमणी को आहार-पानी, वस्त्र-पात्र औषधी से लाभान्वित करने वाली श्राविका ही है। दान के अतिरिक्त वैयक्तिक तप साधना तथा धर्म प्रभावना में वह अग्रणी है।
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
ॐ चतुर्थ अध्याय
महावीरोत्तर - कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन् की सातवीं शती
191
४. १ महावीरोत्तर कालीन धार्मिक एवं राजनैतिक स्थिति :
"
भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् भी भगवान महावीर का धर्म-संघ भारत के विभिन्न धर्म संघों में सदा से सुविशाल, प्रमुख, तथा बहुजन सम्मत रहा हैं। निर्वाणोत्तर काल के एक हजार वर्ष के इतिहास का अवलोकन करने पर यह विश्वास करने के लिए अनेक प्रमाण उपलब्ध होते है कि जैन धर्म सूदूरवर्ती देशों में फैला, फला-फूला और एक लम्बे समय तक उत्तरोत्तर अभिवद्धि को प्राप्त होता रहा है। इसके पीछे कुछ कारण है, यथा; सर्वज्ञ जिन द्वारा प्ररूपित धर्म होने से इस धर्म संघ का संविधान सभी दष्टियों से सुगठित और सर्वांगपूर्ण था। अनुशासन, संगठन की स्थिरता, सुव्यवस्था, कुशलतापूर्वक संघ के संचालन की विधि इस धर्मसंघ की अप्रतिम विशेषताएँ थी। दूसरा मुख्य कारण था इस धर्म का विश्व बंधुत्व का महान् सिद्धान्त, जिसमें प्राणी मात्र के कल्याण की सच्ची भावना सन्निहित थी । इन सबसे बढ़कर इस धर्म संघ की घोरातिघोर संकटों में भी रक्षा करने वाला था इस धर्म संघ के कर्णधार महान् आचार्यों का त्याग, तपोपूत अपरिमेय आत्मबल । ये तीन ऐसे प्रमुख कारण थे, जिसने जैन धर्म पर समय-समय पर आये संकटों को छिन्न भिन्न कर प्रचण्ड सूर्य की तरह अपने अलौकिक ज्ञानालोक से जन-जन के मंदिर और मुक्ति-पथ को प्रकाशित करता रहा है।
పోటుతోలి
ई. पू. ५२७. ५०७ में उड़देश के राजा यम ने सुधर्मा स्वामी से दीक्षा ग्रहण की। उन्हीं के साथ महारानी धनवती ने भी श्राविका के व्रत ग्रहण किये थे । धनवती की अपूर्व धर्मनिष्ठा के प्रभाव से संपूर्ण परिवार सहित उड़देश की समस्त प्रजा जैन धर्मानुयायिनी बन गई थी। श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु तक जैन धर्मसंघ का एक सर्वांगपूर्ण एवं अतिविशाल संविधान विद्यमान था। उस संविधान में साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका वर्ग के लिए ही नहीं किंतु संघ के प्रति निष्ठा रखने वाले साधारण से साधारण सदस्य के कर्तव्यों एवं कार्यकलापों के लिए मार्गदर्शक विधान था। उसमें निर्दिष्ट विधि विधानों के अनुसार इस धर्म संघ का प्रत्येक सदस्य अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए अपने दायित्वों का निष्ठापूर्वक निर्वहन करता था ।
जैन मतानुसार आचार्य जंबू अंतिम केवलज्ञानी हुए थे। जंबूस्वामी ने जब दीक्षा अंगीकार की तब मगध पर श्रेणिक पुत्र कूणिक एवं अवंती पर चंद्रप्रद्योत पुत्र पालक का शासन था। जंबू के शासनकाल में मगध के राजा उदायी जैन धर्म के प्रति निष्ठावान थे। उदायी के स्वर्गवास वी. नि. ६० के बाद उनकी संतान न होने से शिशुनाग वंशी शासकों की सत्ता नंद के सम्यक् संचालन में आ गई। अवंती नरेश पालक के अवंतिवर्द्धन और राष्ट्रवर्धन ये दो पुत्र थे। राष्ट्रवर्द्धन की रूपवती रानी धारिणी ने साध्वी दीक्षा अंगीकार की। राष्ट्रवर्द्धन के पुत्र अवंति सेन को राज्य सौंपकर अवंतिवर्द्धन दीक्षित हुए ।
राष्ट्रवर्द्धन के पुत्र मणिभद्र के हाथों में कौशांबी की सत्ता थी। इस प्रकार मगध, अवंति और कौशांबी तीनों राजवंशों की भगवान् महावीर के संघ के प्रति गहरी आस्था थी। आचार्य प्रभव एवं आचार्य शय्यंभव (वी. नि. ६०) के समय नंदवंश चल रहा था। आचार्य संभूति विजय के आचार्य काल में नंद राज्य शकडाल के पुत्र श्रीयक, एवं उनकी सात पुत्रियाँ यक्षा, यक्षदिन्ना, भूता, भूतदिन्ना, सेणा, वेणा, रेणा ने वि० पू० ३१७ (वी. नि. १५३ ) में आचार्य संभूति विजय के पास दीक्षा धारण की थी । स्थूलभद्र की दीक्षा इनसे ७ वर्ष पूर्व हो चुकी थी, ये शकडाल के ज्येष्ठ पुत्र थे। मुनि के दिव्य तपोमय जीवन से प्रभावित होकर कोशा गणिका
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
192
महावीरोत्तर - कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन् की सातवीं शती
दढ़व्रतधारिणी श्राविका बनी । ई० पू० ३१२ में ऐतिहासिक कालक्रम की दष्टि से नवमें नंद के शासनकाल में नंद साम्राज्य का पतन हुआ। आचार्य संभूति विजय के प्रभाव से नंद राजवंश में अध्यात्म संस्कार पल्लवित हुए । आचार्य स्थूलभद्र के शासनकाल में भी नंद साम्राज्य शकडाल परिवार के प्रति कृतज्ञ था । स्थूलभद्र के बाद महागिरि तथा सुहस्ति आचार्य हुए। तत्पश्चात् आचार्य बलिस्सह के समय सम्राट् खारवेल हुए । हिमवंत स्थविरावली के अनुसार सम्राट् खारवेल के द्वारा आयोजित कुमारगिरि पर्वत पर महाश्रमण सम्मेलन में आचार्य बलिस्सह उपस्थित थे। इसी प्रसंग पर उन्होंने विद्यानुप्रवाद पूर्व से अंगविज्जा जैसे शास्त्र की रचना की थी । सम्राट् खारवेल द्वारा आयोजित महाश्रमण सम्मेलन का काल वी. नि. ३००. ३३० ( ई० पू० १६७ वि.पू. १४०) तक का संभव हैं। सम्राट् खारवेल का वी. नि. ३३० में स्वर्गवास हो गया था।
आचार्य बलिस्सह के समय में मगध पर मौर्य वंश का शासन था। इस राज्य का प्रथम सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य था, अंतिम सम्राट् बहद्रथ था। मौर्य सम्राट् अंधिकांश जैनी या जैन धर्म के समर्थक रहे है। मौर्य राज्य का सुप्रसिद्ध आमात्य भी जैन था । ४ आचार्य सुस्थित एवं आचार्य सुप्रतिबुद्ध ने भुवनेश्वर के निकट स्थित कुमारगिरि पर्वत पर ही कठोर तप की साधना की थी । सम्राट खारवेल की रानी ने उदयगिरि एवं खण्डगिरि पर श्रमणों की साधना के लिए जैन गुफाओं का निर्माण करवाया था। भिक्षुराज खारवेल ने सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध दोनों मुनियों का विशेष सम्मान किया था । आचार्य कालक जैन इतिहास प्रसिद्ध अवंती नरेश गर्दभिल्ल के समकालीन थे। आचार्य कालक ने अपनी साध्वी बहन सरस्वती को शक्तिशाली नरेश गर्दभिल्ल से छुड़ाने के लिए विदेशी सत्ता शकों को (संभवतः सिथियन जाति के लोग थे) अपने विद्याबल से प्रभावित कर उन्हें भारत में लाये थे। उनके सहयोग से तथा अपने विद्याबल के योग से बहन सरस्वती को गर्दभिल्ल के पंजों से छुड़ाया एवं अन्यायी शासक गर्दभिल्ल को पदच्युत कर दिया। क्रांतिकारी कालक वी. नि. की पूवीं शती (वि. की प्रथम शती) के विद्वान् आचार्य थे। गर्दभिल्ल के पदच्युत की घटना का समय वी. नि. ४६६ माना गया है। प्रतिष्ठानपुर में चतुर्थी को संवत्सरी मनाने का प्रसंग इन्हीं के समक्ष उपस्थित हुआ था।
प्राप्त अभिलेखों के अनुसार ई. पू. की छठी शती में जैन एवं बौद्ध दोनों धर्म का उद्भव, स्थापना एवं प्रसार हुआ । इतिहासविज्ञों के अनुसार बौद्धधर्म को विश्वधर्म के उत्कर्ष में ले जाने का श्रेय जाता है ई. पू. तीसरी शताब्दी के सम्राट् अशोक को जो बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। बौद्ध अनुश्रुति में बौद्ध धर्म के लिए अशोक के किये गये जितने कार्यों का उल्लेख है, उससे कई बढ़कर जैन जनश्रुति में जैनधर्म के लिए राजा सम्प्रति के कार्यों का उल्लेख है। किंतु राजा संप्रति के नाम और कार्य के विजयी स्मारक उपलब्ध नहीं है जो, विश्व के सामने अशोक स्तंभ की तरह भारत का परिचय चिन्ह हो । जैन इतिहास वेत्ता मुनि श्री कांतिसागरजी के अनुसार मौर्य सम्राट् संप्रति ने जैन संस्कृति के प्रचार हेतु न सिर्फ अपने पुत्रों बल्कि अपनी पुत्रियों को भी साध्वी वेश में सामंतों के साथ सुदूर देशों में भेजा । सम्प्रति के आग्रह से उनके गुरु आचार्य सुहस्ती ने श्रमणों को अनार्यों की भूमि पर भेजना स्वीकार किया। विन्सेण्ट स्मिथ के अनुसार संप्रति ने अरब ईरान जैसे इस्लाम धर्मी देशों में भी जैन धर्म प्रतिष्ठित किया । कतिपय जैन धर्मग्रंथ तो यह बताते हैं कि सम्प्रति ने इतने जिनमंदिरों का निर्माण करवाया कि भारत के आर्य-अनार्य प्रदेशों की भूमि मंदिरमय हो गई। वस्तुतः अशोक और सम्प्रति, दोनों के कार्यों से भारतीय संस्कृति विश्व - संस्कृति बन गई और आर्यावर्त का आध्यात्मिक प्रभाव भारत की सीमाओं से आगे, मरूस्थलों, पर्वतों, सिंधुओं को पार करता दूसरे देशों पर छा गया। डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन का शोध यह निष्कर्ष भी सामने रखता है कि जिन अभिलेखों में "देवानांपियस्स पियदस्सिन लाजा" देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा उनके अंकित कराये जाने का उल्लेख है, संभव है वे अशोक के न होकर संप्रति के हो, क्योंकि "देवानांप्रिय" शब्द जैन परंपरा का शब्द है जो संभवतः संप्रति के लिए प्रयुक्त हुआ होगा ।"
सम्राट् सम्प्रति के समकक्ष खड़े जैन इतिहास की परंपरा के एक ओर दीप्तिमान नक्षत्र हुए है ई. पू. द्वितीय शताब्दी के सम्राट् खारवेल । प्राचीन भारत के अब तक उपलब्ध सारे शिलालेखों के मध्य स्फटिक की आभा लिए अद्वितीय ही नहीं, सर्वोपरि है। विद्वानों के शोध एवं आकर्षण का केन्द्रबिंदु है खारवेल का शिलालेख । यह शिलालेख वर्तमान उड़ीसा - राज्य के पुरी जिले में राजधानी भुनवेश्वर से तीन मील की दूरी पर स्थित, खण्डगिरि पर्वत के उदयगिरि नामक उत्तरी भाग पर बने हाथीगुम्फा नाम के एक प्राचीन तथा विशाल गुहा मंदिर के अग्रभाग तथा छत पर सत्रह पंक्तियों में जिनकी भाषा अर्धमागधी तथा जैन प्राकृत - मिश्रित अपभ्रंश है और लगभग चौरासी वर्ग फीट के विस्तार में उत्कीर्ण है । लेख की लिपि ब्राह्मी है। स्वस्तिक, नन्द्यावर्त, अशोक वक्ष तथा मुकुट जैसे विविध जैन मंगल प्रतीकों से युक्त इस अभिलेख का प्रारंभ अर्हतो एवं सिद्धों की वंदना से किया गया है। सम्राट् खारवेल
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
.93
जैनधर्म की उस प्राचीन निर्ग्रथ परम्परा के साक्ष्य है जिनके वंश - सूर्य वैशाली गणाध्यक्ष महाराजा चेटक थे। चेटक के पुत्र शोभनराय की राजपरंपरा में खारवेल का नाम अंकित है। यह खारवेल का प्रभाव था कि उनके शासनकाल में जैन धर्म कलिंग का राष्ट्रधर्म बन गया और शताब्दियों तक उसने अपना स्थायित्व बनाये रखा। जिनालयों के निर्माण और जिनमंदिरों के जीर्णोद्धार के साथ सभी धर्मों को सम्मान और उनके सर्वदा बने रहने की भावना खारवेल के व्यक्तित्व को सर्वथा अलग, एकाकी, आकाशीय साम्राज्य में उगने वाले ध्रुवतारे की महत्ता प्रदान करती है ।
भगवान महावीर निर्वाण की चतुर्थ शताब्दी के प्रथम चरण में राजा खारवेल ने आगम साहित्य को सुरक्षित एवं सुव्यवस्थित करने के लिए एक परिषद् का आयोजन किया जिसमें आचार्य बलिस्सह, आचार्य सुस्थित की परंपरा के पाँच सौ श्रमण, पोइणी आदि तीन सौ श्रमणियाँ तथा पूर्णमित्रा आदि सात सौ श्राविकाओं ने भाग लिया। यह सम्मेलन कुमारगिरि पर्वत पर संपन्न हुआ। भिक्खुराय खारवेल की प्रार्थना पर उन स्थविर श्रमणों एवं श्रमणियों ने अवशिष्ट जिन प्रवचन को सर्वसम्मत स्वरूप में भोजपत्र, ताड़पत्र तथा वल्कल आदि पर लिखकर उपदिष्ट द्वादशांगी के रक्षक बने । राजा खारवेल की रानी ने श्रमणों के आवास के लिए उदयगिरि एवं खण्डगिरि पर गुफाओं का निर्माण करवाया था। उसके मन में जिनभक्ति एवं साधु-साध्वियों के प्रति अत्यंत आदर भाव का परिचय इसके द्वारा प्रतिभासित होता है । अतः जैन धर्म के इतिहास के लिए यह शिलालेख जिसमें सम्मेलन का वर्णन है अत्यंत मूल्यवान् है। श्रुतकेवली भद्रबाहु के उपरांत मौखिक द्वार से प्रवाहित चले आए आगमश्रुत को पुस्तकारूढ़ करने तथा पुस्तक साहित्य का प्रणयन करने के लिए चलाये गये सरस्वती आंदोलन का प्रारंभ इत्यादि तथ्यों का इस लेख से समर्थन होता है। इस सम्मेलन का महत्वपूर्ण तथ्य है साध्वियों तथा श्राविकाओं का उपस्थित होना। अंग साहित्य की सेवा करने का उन्हें भी समान अवसर प्राप्त हुआ था। यह इस बात को प्रमाणित करता है कि, उस समय की साध्वियाँ तथा श्राविकाएं ज्ञान गार्भित थी एवं साहित्य सेवा में उनका भी महत्वपूर्ण योगदान था ।
कलिंग देश के नरेश खारवेल के शासनकाल में ही ( ई. पू. १६६) मगध नरेशों ने (नंदराजा) कलिंग पर चढ़ाई की और वहाँ पर स्थित भगवान् आदिनाथ की विशालकाय प्रतिमा को मगध देश में ले गए थे । खारवेल के लेख से यह स्पष्ट होता है कि इस घटना के कुछ वर्ष पश्चात् कलिंग नरेश खारवेल ने पुनः मगध पर चढ़ाई करके विजय पाकर उस पावन प्रतिमा को वापिस कलिंग में ले आया था। इस महत्वपूर्ण विजय से प्रसन्न होकर खारवेल नरेश ने बहद् सम्मेलन बुलाया, जिसमें भारत के सभी प्रान्तों के नपगणों ने भाग लिया। दक्षिण भारत के तमिल प्रांत के पाण्ड्य जनपद के नरेश जो जैन धर्मी था, अपने परिवार सहित जाकर उस ऋषभदेव के प्रतिमा की वंदना की थी । "नालिदियर" तमिल ग्रंथ की रचना के संबंध में कहा जाता है कि उत्तर भारत के आठ हजार साधु पुनः उत्तर भारत लौटना चाहते थे परन्तु पाण्ड्य उन्हें वही बसाना चाहते थे । रात्रि में लौटते समय प्रत्येक साधु ने एक-एक ताड़पत्र पर एक-एक पद लिखकर रख दिया । इन्हीं को एकत्रित कर "नालिदियर" ग्रंथ का संकलन हुआ । ई० पू० चतुर्थ शताब्दी (ई० पू० ३४५) चंद्रगुप्त का जन्म समय का युग है जो भारतवर्ष के सुचारू रूप से व्यवस्थित राजनैतिक इतिहास का स्वर्णयुग माना जाता है । अनेक मत मतान्तरों के बाद इतिहासज्ञों ने एक मत होकर स्वीकार किया है कि चंद्रगुप्त मौर्य जैन धर्मावलम्बी थे। चंद्रगुप्त के जैन होने के इतने अकाट्य प्रमाण मिले हैं कि प्रसिद्ध इतिहासकार सर विंसेण्ट स्मिथ ने भी अपनी पुस्तक "भारत का प्राचीन इतिहास" के तीसरे संस्करण में यह लिखा है। "श्रवणबेलगोल के शिलालेखों के अध्ययन से यह स्पष्टतः सिद्ध है कि चंद्रगुप्त सचमुच राज्य त्यागकर, आचार्य भद्रबाहु के निर्देश में जैन मुनि हो गये थे। चंद्रगुप्त की शासन क्षमता, राष्ट्र विस्तार एवं संगठन की शक्ति इतिहास विदित तथ्य है। चंद्रगुप्त जैसे-जैसे अपने राज्य का विस्तार करते गये, जैन धर्म के प्रति उनकी श्रद्धा भावना, उनके विजित क्षेत्रों में निर्ग्रथ मुनियों के लिए गुफाओं, आवासीय सुविधाओं, जिनालयों एवं शिलालेखों की व्यवस्था करती चली गई 19
मौर्य सम्राज्य से पूर्व मगध में पाटलीपुत्र के राजा नन्द के महामंत्री शकडाल एवं उनकी पत्नी लांछन देवी जैन धर्मानुयायी थे। उनके दो पुत्र स्थूलभद्र और श्रीयक थे तथा यक्षा, यक्षदत्ता, भूता, भूतदत्ता, सेना, वेना, रेणा आदि सात पुत्रियाँ थीं। ये सातों बहनें विलक्षण स्मरण शक्ति से युक्त थी तथा क्रमानुसार यक्षा एक बार तथा अन्य बहनें दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात बार किसी भी गद्य अथवा पद्य को सुनकर यथावत् सुना देती थी। कालांतर में ये साध्वियाँ बन गई । १२ स्थूल भद्र को सांसारिक आकर्षणों में अनुराग पैदा करवाने के लिए मंत्री शकडाल ने उन्हें राजगणिका रूपकोशा के पास भेजा। कोशा गणिका के रूप लावण्य में आसक्त
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीरोत्तर-कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन् की सातवीं शती
स्थूलभद्र बारह वर्ष तक अपने कर्तव्य से विमुख होकर उसके आवास पर रहे। कोशा भी मंत्री पुत्र प्रतिभाशाली स्थूलभद्र को पाकर धन्य हो उठी। कालान्तर में स्थूलभद्र राज्यकारणों से पिता की मत्यु को जानकर राजा द्वारा मंत्रीपद स्वीकार करने के निमंत्रण को ठुकराकर आचार्य संभूति विजय के चरणों में दीक्षित हुए। कुछ समय के बाद गुरू आज्ञा से स्थूलभद्र ने कोशा के रंगमहल में वर्षावास किया और मुनि की अद्भुत संयम दढ़ता ने उसके जीवन को परिवर्तित कर दिया। यह वही रुप कोशा है जिसने श्राविका के व्रतों को धारण किया तथा साधु को संयम में स्थिर किया था।
चंद्रगुप्त मौर्य के सामने दो स्पष्ट उद्देश्य थे। प्रथम, वह मगध में से नंदों के अत्याचारी शासन का अंत करना चाहता था। दूसरा वह भारत को यूनानी दासता से मुक्त करवाना चाहता था। चंद्रगुप्त और कौटिल्य ने मिलकर पंजाब को अपने अधीन किया। फिर मगध पर आक्रमण कर ई. पू. ३२१ में शक्तिशाली मगध साम्राज्य को अधीन किया, स्वतंत्र शासक होने की घोषणा की। किंवदन्ति है कि चंद्रगुप्त की माँ मुरा थी, अतः उनका मुरा से मौर्य नाम प्रसिद्ध हुआ। पराजित राजा नंद अपनी पुत्री सुप्रभा को स्थ में साथ लेकर राजधानी से दूर जा रहा था। सुप्रभा वीर चंद्रगुप्त को देखकर आकर्षित हुई। राजा नंद ने परिस्थितियों को देखते हुए उसका विवाह चंद्रगुप्त से कर दिया। सुप्रभा श्रमणोपासिका थी तथा आचार्यों एवं साधुओं की सेवा में तत्पर रहती थी। सुप्रभा ने अपने विशिष्ट गुणों के परिणामस्वरूप सम्राट् चंद्रगुप्त के राजा की उद्घोषणा के साथ ही अग्रमहिषी का उच्च पद प्राप्त किया था।१५ __मौर्य वंश के पूर्व मगध में नंदराजाओं ने जैन धर्म को राज्याश्रय दिया था। मौर्य वंश के प्रतापी राजा चंद्रगुप्त ने नंद को पराजित कर मगध पर अपना राज्य स्थापित किया। उसके राज्य में भी जैन धर्म को पूर्ण राज्याश्रय प्राप्त था। चंद्रगुप्त मौर्य ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में मैसूर तक, पूर्व में बंगाल से लेकर उत्तर-पश्चिम में हिंदुकुश पर्वत तक। जी.के. पिलाई के अनुसार "चंद्रगुप्त मौर्य सा विशाल साम्राज्य न तो भारत में इससे पूर्व था, न बाद में देखने में आया। जैन परंपरा के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य अपने जीवन के अंतिम दिनों में राज्य एवं वैभव का परित्याग कर मुनि दीक्षा अंगीकार की। चौबीस वर्ष तक शासन कर राजगद्दी अपने पुत्र बिंदुसार को सौंप दी। स्वयं अपने गुरू भद्रबाहु के साथ मैसूर (कर्नाटक) चले गये। श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर उनका समाधिमरण हुआ। यह घटना ई. पू. २६८ की है। चंद्रगुप्त के राज्यकाल में कौटिल्य ने 'अर्थशास्त्र' तथा भद्रबाहु ने “कल्पसूत्र' नामक बहुमूल्य ग्रंथों की रचना की।
___ कालांतर में बिंदुसार का पुत्र अशोक चंद्रगुप्त मौर्य के दक्षिण की ओर प्रस्थान करने पर पाटलीपुत्र तथा उज्जयिनी का शासक बना। अशोक की एक पत्नी जैन असन्ध्यमित्रा थी, जिनका पुत्र कुणाल था। कुणाल की पत्नी भी जैनधर्मानुयायिनी थी। कुणाल का पुत्र सम्प्रति अशोक के उत्तराधिकारियों में से सबसे योग्य था। ई. पू. २१६ में वह सिंहासन पर बैठा । वह जैन धर्मानुयायी था, उसने जैन धर्म के प्रसार के लिए अथक प्रयास किये। इतिहासकार उसे मौर्य साम्राज्य का द्वितीय चंद्रगुप्त मानते है।"
__प्राचीनकालीन भारतीय इतिहास में उत्तर भारत में गुप्त काल (३२० ई. - ५४० ई.) को सबसे महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। समद्रगुप्त और चंद्रगुप्त विक्रमादित्य गुप्त वंश के दो सर्वाधिक महान और शक्तिशाली शासक थे। ३२० ई. में चंद्रगुप्त प्रथम सिंहासन पर बैठा। उसने गुप्त संवत् चलाया तथा भगवान् महावीर के कुल में उत्पन्न पाटली पुत्र के तत्कालीन लिच्छविनरेश की एक मात्र दुहिता राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया था। चंद्रगुप्त एवं कुमारदेवी का पुत्र समुद्रगुप्त गुप्त वंश के महान् शासकों में एक था। उसने न केवल उत्तर भारत में विजय प्राप्त की अपितु दक्षिण भारत के बारह शासकों को भी पराजित किया था। पाटलीपुत्र गुप्त साम्राज्य की प्रधान राजधानी थी और उज्जयिनी उपराजधानी थी। ३८० ई. में समुद्रगुप्त का सुयोग्य पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय राज्य सिंहासन पर बैठा। उसने ध्रुवदेवी एवं नागराजा की पुत्री कुबेरनाग से विवाह किया। अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वाकाटक शासक रूद्रसेन द्वितीय तथा पुत्र का विवाह कुंतल राजा की पुत्री से किया। चीनी यात्री फाह्यान ने अपनी पुस्तक "फो-को-की" में गुप्तकाल का वर्णन किया है।८
___ सम्राट् कुमारगुप्त के राज्य में ई. सन् ४३२ में श्राविका शामाढ्या ने मथुरा में एक जिन प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई थी। लगभग ई. सन् की पांचवीं शती के मध्य गुजरात के वलभीनगर में ध्रुवसेन द्वितीय का शक्तिशाली शासन था। यही राजा मैत्रकवंश का संस्थापक था। ईस्वी सन् ४५३ (मतांतर से ४६६ ई.) में इसी शासक के आश्रय में आचार्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने एक यति सम्मेलन
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
195
बुलाकर उसमें श्वेतांबर परंपरा में प्रचलित आगम सूत्रों का वांचन और संकलन किया तथा प्रथम बार उन्हें लिपिबद्ध किया था।
जैन श्वेतांबर साहित्य के इतिहास में यह घटना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इस प्रकार वलभी उसके एक दो शताब्दी पहले से ही जैनों का एक गढ़ रहता आया था। चतुर्थ शती के प्रारंभ में भी नागार्जुन सूरि ने वहाँ आगमों की वाचना की थी। सातवीं शताब्दी में उत्तरापथ के एकाधिपति सम्राट हर्षवर्धन के राज्यकाल में बड़ोदा के निकट अकोटा नामक स्थान में खुदाई में जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई। उनमें कुछ मूर्तियों पर अभिलेख भी हैं। जिस पर जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का नाम है तथा एक अन्य अभिलेख में चंद्रकुल की जैन महिला नागेश्वरी देवी का नाम है। जिसने जीवन्त स्वामी की मूर्ति निर्माण करायी थी। हर्षवर्धन के समय में चीनी यात्री ह्यूनसांग भारत आया था, उसने अपनी पुस्तक में लिखा है कि उस समय बहु पत्नीत्व का बहुत प्रचार था, विधवा विवाह निषिद्ध था, बाल विवाह प्रारंभ हो गया था, सती प्रथा प्रचलित थी। हर्ष की माता यशोमति पति की मत्यु पर उसके साथ सती हो गई थी, धार्मिक वातावरण सम्यक् था। लोग उच्च नैतिक जीवन जीते थे।२० ई. पू. की तीसरी चौथी शताब्दी से लेकर ई. सन् की छठी शती के इतिहास में गंगवंश की महिलाओं की उल्लेखनीय सेवा का निर्देश प्राप्त होता हैं। राजाओं के साथ गंगवंश की रानियों ने भी जैन धर्म की उन्नति के लिए अनेक उपाय किये थे। ये रानियाँ मंदिरों की व्यवस्था करती, नये मंदिर और तालाब बनवाती एवं धर्म कार्यों के लिए दान की व्यवस्था करती थी। उस राज्य के मूल संस्थापक दडिग और उनकी भार्या कंपिला के धार्मिक कार्यों के संबंध में कहा गया है कि इस दम्पत्ति ने अनेक जैन मंदिर बनवाए थे तथा मंदिरों की पूर्ण व्यवस्था की थी। श्रवणबेलगोला के शक सं. ६२२ के अभिलेखों में ओदेयरेनाड़ में चित्तूर के मौनी गुरू की शिष्या नागमती, पेरूमालु गुरू की शिष्या धण्णकुत्तारे, बिगुरवि नमिलूर संघ की प्रभावती, मयूरसंघ की अध्यापिका दनितावती आदि का उल्लेख आता है। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की राज्यसभा में (३८०. ४१४) जैन आचार्य सिद्धसेन का बड़ा प्रभाव था। ४.२ आंध्र देश अथवा कलिंग देश में जैनधर्म
"कलिंग देश में जैनधर्म" से यहाँ प्रमुख रूप से खारवेल के राज्यकाल में जैन धर्म का इतिहास ही अभिप्रेत है। परन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं हैं कि खारवेल से पूर्व कलिंग-देश में जैनधर्म के कोई चिन्ह ही नहीं थे। ऐसा करने से तो हाथीगुफा के शिलालेख, ई. पू. पांचवी और चौथी शती के स्मारकों से वहाँ के स्थापत्य और शिल्प की सभ्यता एवं जैनागमों में अत्यंत पूज्य ग्रंथ में से निकलनेवाले निष्कर्षों से ही इन्कार करना हो जाएगा। फिर भी यह तो स्वीकार करना ही चाहिए कि खारवेल के हाथीगुंफा के और उसी की रानी के स्वर्गपुरी के शिलालेख के अतिरिक्त कोई भी अन्य साधन हमें उपलब्ध नहीं हैं कि जिसके निश्चित आधार पर हम इस देश के जैन इतिहास के अपने अनुमान खड़े कर सकते हैं। यह सम्राट् खारवेल कब, कहाँ और कितने समय तक राज करता रहा था, वह जैन था या नहीं, इसका प्रमुख ऐतिहासिक प्रमाण तत्कालीन हाथीगुंफा का वह शिलालेख ही है। सम्राट् खारवेल कलिंग का महान् सम्राट् था। उस कलिंग देश की सीमाएँ क्या थीं, यह ठीक-ठीक नहीं बताया जा सकता है
खारवेल का यह शिलालेख "भारत के प्राचीन स्मारकों में से एक महान् विशिष्ट स्मारक होते हुए भी अत्यंत जटिल हैं। भ. महावीर के अनुयायी प्राचीनतम राजाओं में से किसी भी राजा का शिलालेख में मिलनेवाला नाम एक सम्राट् खारवेल का ही हैं। मौर्य समय के बाद के राजाओं और उस समय के जैनधर्म के प्रताप की दष्टि से खारवेल का यह शिलालेख देश में उपलब्ध एक महत्व का ही नहीं अपितु एक मात्र लेख हैं। जैन इतिहास की दष्टि से भी इसकी महत्ता अपूर्व है। उड़ीसा के सम्राट् खारवेल उसकी साम्राज्ञी के खण्डगिरि पर के दो शिलालेख जैनों की इस प्रगति को प्रमाणित करते हैं और इस ऐतिहासिक सत्य को हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं । यह सम्राट्, ई. पू. दूसरी शती के मध्य में याने ई. पू. १८३ से १५२ में भारतवर्ष के पूर्वी तट पर राज्य करता था। उदयगिरि और खण्डगिरि पर की अन्य गुफाएँ एवं मंदिरों के ध्वंसावशेषों से भी इसका समर्थन होता है।
__ स्वर्गपुरी गुफा में तीन शिलालेख हैं जिसमें पहले का कलिंग सम्राट् खारवेल की पटरानी का है। वह लालाक की पुत्री थीं। उसके द्वारा निर्मित गुफा और जैन मंदिर का उल्लेख छोटे शिलालेख वाली गुफा के साथ जुड़ी हुई है। डॉ बेनर्जी इसे मंचपुरी गुहा कहते हैं। इसे स्वर्गपुरी, बैकुण्ठ गुफा के नाम से भी जाना जाता रहा है। बेनर्जी के अनुसार-- “वस्तुतः यह गुफा दो मंजिली और पार्श्व पक्षवाली गुफा की ही ऊपरी मंजिल हैं, परन्तु स्थानिक लोग बहुधा भागों को भी पथक् कह देते हैं।" प्रथम लेख सामने के दूसरे और तीसरे द्वार के बीच के आए हुए स्थान पर खुदा हआ और तीन पंक्तियों का हैं, और वह कहता हैं कि "कलिंग के
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
196
महावीरोत्तर-कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन की सातवीं शती
श्रमणों के लिए एक गुफा और एक अर्हतो का मंदिर हस्तिसाहस (हस्तिसाह) के पौत्र लालाक की पुत्री, खारवेल की पटरानी ने बनाया है।"
बेनर्जी के अनुसार इन तीनों शिलालेखों की लिपि खारवेल के हाथीगुंफा के शिलालेख के थोड़े ही समय बाद की है। हाथीगुंफा का लेख यद्यपि तिथि रहित है, फिर भी खारवेल का समय डिमोट्रियस और सातकर्णी के समय के साथ याने ई. पू. दूसरी सदी का पूर्वार्ध मानने के पर्याप्त कारण है। जायसवाल के अनुसार खारवेल की रानी का नाम या तो लेख में दिया नही गया है, अथवा वह "घुषिता" है, खारवेल की रानी वज्रकुल की थी।२१ ४.३ खारवेल परिवार का जैन धर्म प्रभावना में योगदान ___महाराजा खारवेल का जन्म लगभग ई. पूर्व १६० में हुआ था। १५ वर्ष की आयु में उन्हें युवराज पद प्राप्त हुआ, २४ वर्ष की आयु में उनका राज्याभिषेक हुआ था, लगभग तेरह वर्ष तक उन्होंने राज्य किया था। राजा खारवेल कलिंग (उड़िसा) के समर्थ शासक थे। राज्य प्राप्ति के तेरहवें वर्ष में उन्होंने जैन धर्म के बारह श्रावकव्रतों को स्वीकार किया था। इनका इतिहास प्रसिद्ध हाथीगुंफा शिलालेख उड़ीसा प्रदेश के पुरी जिले में स्थित भुवनेश्वर से तीन मील की दूरी पर उदयगिरि पर्वत पर बने हुए हाथीगुफा मंदिर के मुख एवं छत्त पर उत्कीर्ण है, इसकी तिथि ई. पू. १५२ है। इस शिलालेख का प्रारंभ अर्हतो और सिद्धों की वंदना से होता
है।
राजा खारवेल की माता ऐरादेवी थी और पत्नी रानी सिंधुला थी। दोनों ही परम जिनभक्त श्राविकाएँ थीं। खारवेल द्वारा जिनधर्म-मंदिर निर्माण में एवं मुनि सम्मेलन करवाने में इनकी प्रबल प्रेरणा रही थी। ई. पू. १५३ में कुमारी पर्वत पर इन्होंने जैन मुनियों का महासम्मेलन किया था। उस सफल सम्मेलन में द्वादशांगी श्रुत के उद्धार के लिए प्रयत्न किया गया था।
उदयगिरि का प्रांत भाग "कुमारी पर्वत" के नाम से प्रसिद्ध था। उसे अत्यंत पवित्र स्थान माना जाता था। इसी कुमारी पर्वत पर राजा खारवेल ने निर्वाण प्राप्त अरहंतों की पूजा के लिए कायनिषद्या बनवाई थीं। कुमारी पर्वत के समीप ही राजा खारवेल की रानी सिंधुला ने भ्रमणशील श्रमणों (तपस्वियों) के निवास के लिए एक कृत्रिम गुफा (लेण) बनवाई थी, तथा उसी के निकट एक निसिया का निर्माण करवाया था। संभवतः अभिलेख में इसे 'अरहंत प्रासाद' भी कहा गया हैं। दोनों अब सुरक्षित नहीं है, किंतु दोनों की रचना स्तूपाकार होती थीं। मूर्तिपूजा का प्रचलन होने से स्तूप पूजा भी पहले प्रचलित थी।
__ विद्वानों ने अशोक का राज्यकाल ई. पू. २७२ से लेकर २३६ तक का तथा खारवेल का ई. पू. १८५ से १७३. १७२ तक का माना है। इस प्रकार खारवेल का राज्यारोहण अशोक के देहावसान के लगभग ५० वर्ष बाद हुआ था। जिस प्रकार प्रियदर्शी राजा अशोक व्यक्तिगत रूप से श्रमण भगवान बुद्ध का उपासक बन गया था उसी प्रकार कलिंगराज खारवेल जिसने मगध के राजा को अपनी पद-वंदना के लिए विवश किया था, मथुरा को (बहुत संभवतः यवन) आक्रमणकारियों से विमुक्त कराया था तथा सुदूर दक्षिण तक विजय यात्रा की थी भगवान् महावीर का उपासक था। मथुरा से शक शत्रप एवं कुषाण शासन-काल की उनकी अनेक प्रतिमाएँ तथा आयागपट्ट मिले हैं, जिन पर उनके वर्धमान तथा महावीर दोनों नाम अंकित है। जिस प्रकार अशोक के शिलालेखों से बौद्ध धर्म के विकास तथा प्रचार प्रसार पर ऐतिहासिक प्रकाश पड़ता है। उसी प्रकार खारवेल के शिलालेख से जैन धर्म के इतिहास पर पुरातात्विक प्रकाश पड़ता है। खारवेल अरहंत तथा सिद्धों का उपासक था। ४.४ जैन गुफा निर्माण में खारवेल की रानी का योगदान
ई. पू. द्वितीय शती के हाथीगुंफा शिलालेख से प्रमाणित होता हैं कि कलिंग के चेदी राजवंश के महामेघवाहन कुल के ततीय नरेश खारवेल ने नंदराजा द्वारा बलपूर्वक ले जाई गई कलिंग की मूर्ति को पुनः लाकर उदयगिरि पहाड़ी पर ही संभवतया पुनर्प्रतिष्ठित किया है। उदयगिरि की निचली पहाड़ी और इसके निकट की खण्डगिरि पहाड़ी अत्यंत प्राचीन समय से ही जैन धर्म का केंद्र रही है। ध्यान और मुनि जीवन की साधना के लिए उपयुक्त वातावरण प्रदान करती रही हैं। खारवेल नरेश ने अपने शासन के तेरहवे वर्ष में कुमारी पर्वत (आधुनिक उदयगिरि) पर जैन मुनियों के लिए गुफायें बनवाई। राजकुल के अन्य व्यक्ति भी गुफायें बनवाकर दान करने के पवित्र कार्य में सक्रिय भाग लेते थे।
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
|
उदयगिरि की गुफा संख्या १ ( अपर नाम स्वर्गपुरी) के ऊपरी तल के मुखभाग पर निर्मित समर्पणात्मक शिलालेख से ज्ञात होता हैं कि इसका निर्माण खारवेल की पटरानी की दानशीलता के कारण हुआ था । अपने आत्म निग्रह के लिए विख्यात जैन मुनियों के निवास के लिए निर्मित इन गुफाओं में सुख सुविधाएँ बहुत ही कम थी । उदयगिरि पहाड़ी की रानी गुंफा की ऊँचाई इतनी कम है कि कोई व्यक्ति उनमें सीधा खड़ा भी नहीं हो सकता । कोठरियों में देवकुलिकाएँ नहीं बनाई गई थी । धर्मशास्त्र और अत्यंत आवश्यक वस्तुएँ रखने के लिए बरामदे की पार्श्व भित्तियों में शिलाफलक उत्कीर्ण किये गये हैं । कोठरियों का अंतरिम भाग एवं बरामदे की छतों को सहारा देनेवाली भित्तियों को शिल्पांकन तथा मूर्तियों से सजाया गया हैं।
रानी गुंफा की विशेषता यह है कि इसमें मुख्य स्कंध के समकोण की स्थिति में कोठरियों के दो छोटे स्कंध हैं जिनके सामने बरामदा है और भूतल पर दो छोटे सुरक्षा कक्ष है। स्वर्गपुरी के सामने खुले स्थान में एक शैलोत्कीर्ण वेदिका आगे को निकली हुई है जो एक छज्जे का आभास देती है। कोठरियों में प्रकाश की पर्याप्त व्यवस्था है, दरवाजों की अधिकता के कारण भी यह संभव हो सका है, जिनकी संख्या कोठरियों के आकार के आधार पर एक से चार तक है। दरवाजों की बाहरी चोखटों में चारों ओर छेद बनाये गये हैं ताकि उनमें घूमनेवाले लकड़ी के कपाट लगाए जा सके। चित्रों में देखिए, श्राविकाएँ विनयावनत मुद्रा में स्थित है । २४ ४. ५ मथुरा में चतुर्विध संघ प्रस्तरांकन एवं जैन श्राविकाएँ
भारत के पौराणिक नगरों मे मथुरा का गौरवशाली स्थान है। इस महानगर में भारत की सामाजिक सभ्यता एवं संस्कृति का उदय तथा विकास हुआ था । भौगोलिक कारणों से तत्कालीन भारतीय समाज में मथुरा की विशेष स्थिति थी । शताब्दियों से इस प्रदेश को दूर-दूर के कला-प्रेमियों, तक्षकों, पर्यटकों, वाणिज्यिक सार्थवाहों, महत्वाकांक्षी शासकों, धनलोलुप आक्रांताओं को आकर्षित करने के अतिरिक्त प्रमुख नगरों एवं अनेक मार्गों को परस्पर संबंधित कर रखा था। इन्हीं राजमार्गों पर विचरण करते हुए अनेकानेक सन्तों ने भारतीय जनमानस को धर्मोपदेश देते हुए इसी नगर को अपनी धार्मिक गतिविधियों एवं विद्या के प्रचार-प्रसार का केंद्र बना लिया था। इस प्रकार के नगरों की गौरव गाथाएँ इतिहासज्ञों, दार्शनिकों, एवं चिंतकों को शोध की प्रेरणा देती रहती है। चतुर्विध प्रस्तरांकन में जो दष्टि दी है, उस पर डॉ. भगवतशरण उपाध्यायजी के मतानुसार प्राचीन तीर्थंकर मूर्तियों में वी. ४ आधार पर सामने दो सिंहों के बीच धर्मचक्र बना है, जिसके दोनों ओर उपासकों के दल हैं। कुषाणकालीन तीर्थंकर मूर्तियों पर इस प्रकार का प्रदर्शन एक साधारण दश्य है ।
४.६ चतुर्विध संघ प्रस्तरांकन
राज्य संग्रहालय, लखनऊ में कंकाली टीला मथुरा की कुल ६६ प्रतिमाएँ हैं, जिन पर जैन धर्म के चतुर्विध संघ का बहुलता से प्रस्तरांकन किया गया है। इनमें ४५ बैठी, ५ खड़ी, ६ सर्वतोभद्र, २ ऐसी प्रतिमाएँ हैं जिन पर शेरों का रेखांकन हैं व लेख ११ पर ऐसी घिसी हुई प्रतिमाएँ हैं जिनके नीचे संघ बनाया गया होगा किंतु इस समय आभासमात्र ही शेष हैं। एकमात्र प्रतिमा है जिस पर लेख नही हैं । २५ तीन प्रतिमाएँ ऐसी हैं जिनपर मात्र गहस्थ ही धर्मचक्र पर बने है। इन्हीं तथा इसके बायीं ओर वस्त्राभूषणों से समलंकृत माला लिए एक श्राविका और दायीं ओर श्रावक, जो बायें कंधे पर उत्तरीय डाले खड़ा हैं। दोनो ही ने दाएँ हाथों में पुष्प ले रखा है । २६ कायोत्सर्ग प्रतिमाओं पर त्रिरत्न पर धर्मचक्र एवं बायीं ओर तीन स्त्रियाँ, जो हाथों में कमल लिए लम्बी धोती, कुण्डल व चूड़ी पहने खड़ी है, श्राविकाएँ हैं । ये काफी लम्बी है, ऐसा लगता है कि विदेशी है। श्राविकाएँ कई ढंग से साड़ी बांधे, माथे पर टीका पहने, कान व हाथ तथा पैरों में आभूषणों से मंडित रूपायित की गई हैं। ये दायें हाथ से माला, बायें हाथ से साड़ी का छोर, कहीं हाथ कमर पर रखे, क्वचित पुष्प लिए पाई जाती हैं।२७ तीर्थंकर प्रतिमा की सिंहासन वेदी पर तीन स्त्रियाँ हाथ जोड़े, चौथी कमल लिए हैं। अहिच्छत्रा की मात्र प्रतिमा की चौकी पर सुंदर से चारों वंदन मुद्रा में पुरुष-स्त्री, साधु-साध्वी बने हैं। यह संवत् ७४ की हैं तथा अहिच्छत्रा से प्राप्त हुई है। इस प्रकार ईसा की प्रथम एवं द्वितीय शती पुराशिल्प में अविच्छिन्न रूप से प्रभूत मात्रा में विलेखन पाते हैं ।
४. ७ मथुरा में चैत्य निर्माण, जिन प्रतिमा प्रतिष्ठा आदि में श्राविकाओं का अवदान.
197
मथुरा में ई० सन् से
लगभग चार-पाँच शताब्दी पूर्व, जैन धर्म के स्तूपों की स्थापना हुई जो आज कंकाली टीले के नाम से
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
198
महावीरोत्तर-कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन् की सातवीं शती
वर्तमान मथुरा संग्रहालय से पश्चिम की ओर करीब आधा मील की दूरी पर स्थित है। वह पवित्र स्थान ढाई हजार वर्ष पहले जैन धर्म के जीवन का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। उत्तर भारत में यहाँ के तपस्वी आचार्य सूर्य की तरह तप रहे थे। यहाँ की स्थापत्य और भास्कर कला के उत्कृष्ट शिल्पों को देखकर दिग्दिगंत के यात्री दाँतों तले ऊँगली दबाते थे। यहाँ के श्रावक और श्राविकाओं की धार्मिक श्रद्धा अनुपम थी। अपने पूज्य गुरूओं के चरणों में धर्म भक्त लोग सर्वस्व अर्पण करके नाना प्रकार की शिल्पकला के द्वारा अपनी अध्यात्म साधना का प्रदर्शन करते थे। यहाँ के स्वाध्यायशील भिक्षु और भिक्षुणियों द्वारा संगठित जो अनेक विद्यापीठ थे, उनकी कीर्ति भी देश के कोने-कोने में फैल रही थी। इन विद्यास्थानों को गण कहते थे, जिनमें कई कुल और शाखाओं का विस्तार था। इन गण और शाखाओं का विस्तत इतिहास जैन (श्वेतांबर) कल्पसूत्र तथा मथुरा के शिलालेखों से प्राप्त होता है। ४.८ देवनिर्मित स्तूप
कंकाली टीले की भूमि पर एक प्राचीन जैन स्तूप और दो मंदिर या प्रासादों के चिन्ह मिले थे। अर्हत नन्द्यावर्त अर्थात् अठारहवें तीर्थंकर अरह नाथ जी की प्रतिमा की चौकी पर खुदे हुए एक लेख में लिखा हैं कि कोट्टिय गण की वज़ी शाखा के वाचक आर्य वद्धहस्ति की प्रेरणा से एक श्राविका ने देवनिर्मित स्तूप में अर्हत की प्रतिमा स्थापित की थी। २८ ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से लेकर ईसा के बाद ग्यारहवीं शताब्दी तक के शिलालेख और शिल्प के उदाहरण इन देवमंदिरों से मिले हैं। लगभग १३०० वर्षों तक जैनधर्म के अनुयायी यहाँ पर चित्र-विचित्र शिल्प की सष्टि करते रहे। इस स्थान से प्रायः सौ शिलालेख और डेढ़ हजार के करीब पत्थर की मूर्तियाँ मिल चुकी हैं। प्राचीन भारत में मथुरा का स्तूप जैन धर्म का सबसे बड़ा शिल्पतीर्थ था। यहाँ के भव्य देव-प्रासाद, उनके सुंदर तोरण, वेदिका, स्तम्भ, मूर्धन्य या उष्णीष पत्थर, उत्फुल्ल कमलों से सुसज्जित सूची, पूजा का चित्रण करनेवाले स्तम्भ तोरण आदि अपनी उत्कृष्ट कारीगरी के कारण आज भी भारतीय कला के गौरव समझे जाते हैं। माथुरक लवदास की भार्या का आयागपट्ट जिसमें षोडश आरेवाला चक्र चित्रित हैं, मथरा शिल्पकला का मनोहर प्रतिनिधि करता है। फलायश नर्तक की भार्या शिवयशा के सुंदर आयागपट्ट अविस्मरणीय है। महाक्षत्रप शोडास के राज्यकाल के ४२वें वर्ष में उत्सर्गित अमोहिनी का आयागपट्ट भी उल्लेखनीय हैं।२६
मथुरा के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि उस समय जैन समाज में स्त्रियों का बड़ा सम्मान था। अधिकांश दान और प्रतिमा प्रस्थापना उन्हीं की श्रद्धा भक्ति का फल थी। सर्व सत्वों के हितसुख के लिए तथा अर्हतपूजायै ये दो वाक्य कितनी ही बार लेखों में आते हैं। ये उस काल के भक्तिधर्म की व्याख्या करनेवाले दो सूत्र हैं, जिनमें इसलोक के जीवन को परलोक के साथ मिलाया गया है। गहस्थों की पुरंध्री कुटुम्बिनी बड़े गर्व से अपने पिता, माता, पति, पुत्र, पौत्र, सास-ससुर का नामोल्लेख करके उन्हें भी अपने पुण्य भागधेय अर्पण करती थी। स्वार्थ और परमार्थ का समन्वय ही मथुरा का प्राचीन भक्तिधर्म था।
इन पुण्यचरित्र श्रमण श्राविकाओं के भक्तिभरित हृदयों की अमर कथा आज भी हमारे लिए सुरक्षित हैं और यद्यपि मथुरा का वह प्राचीन वैभव अब दर्शनपथ से तिरोहित हो चुका है, तथापि इनके धर्म की अक्षम्य कीर्ति सदा अक्षुण्ण रहेगी। वस्तुतः काल प्रवाह में अदष्ट होनेवाले प्रपंच चक्र में तप और श्रद्धा ही नित्य मूल्य वस्तुएँ हैं। जैन तीर्थंकर तथा उनके शिष्य श्रमणों ने जिस तप का अंकुर बोया था, उस छत्रछाया में सुखासीन श्रावक-श्राविकाओं की श्रद्धा ही मथुरा के पुरातन वैभव का कारण थी। उल्लेखनीय है कि ब्रज में मात्र मथुरा के कंकाली टीले से ही नहीं अपितु सैंकड़ो मीलों में तीर्थंकरो की प्रतिमाएँ पाई जाती हैं, जो मथुरा और लखनऊ संग्रहालयों में सुरक्षित रखी गई हैं, और ये सब श्वेतांबर जैनाचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित की गई थी।३० ४.६ ईश्वरी : ईस्वी सन् की प्रथम शती
सोपारक देश के धनी मानी श्रेष्ठी जिनदत्त निग्रंथ धर्म का उपासक था। उसकी धति संपन्न पत्नी का नाम ईश्वरी था। एक बार दुष्काल का भयंकर प्रकोप चल रहा था। तब श्राविका ईश्वरी का धैर्य धान्याभाव के कारण डगमगा गया। उसने पारिवारिक जनों से परामर्श कर सविष भोजन खाकर प्राणान्त करने की बात सोची और एक लक्ष्य स्वर्ण मुद्रा मूल्य के शालि पकाए और वह भोजन में विष मिलाने का प्रयत्न कर ही रही थी तभी आर्य वज्रसेन भिक्षार्थ परिभ्रमण करते हुए श्रेष्ठी जिनदत्त के घर पहुंचे। मुनि को देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने विष पूरित पात्र को भोजन से दूर रखा। मुनि को विशुद्ध भावों से आहार दान दिया। चतुर ईश्वरी ने मुनि के समक्ष अपनी योजना बताई, तब मुनि ने उन्हें दुष्काल समाप्ति का संकेत दिया। ईश्वरी परिवार सहित दुष्काल
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
199
समाप्ति का समत्व भाव से इंतजार करने लगी। दूसरे दिन प्रभात में अन्न से भरे पोत नगर की सीमा पर आ पहुँचे। आर्य वज्रसेन की वाणी सत्य सिद्ध हुई और उधर ईश्वरी देवी ने अपने पति एवं नागेन्द्र, चन्द्र, विद्याधर और निवत्ति आदि के चार पुत्रों सहित दीक्षा अंगीकार की।
श्राविका ईश्वरी की गुरू के प्रति श्रद्धा स्पष्ट झलकती है। दुष्काल जैसे मुश्किल के समय में भी वे मुनि को आहार देकर लाभित करती है। तथा संस्कारवान पुत्रों को भी जन्म देकर धर्मप्रभावना में उसने अदभुत योगदान दिया था। ४.१० श्रीमती :- ई. सन् की प्रथम शताब्दी
दक्षिण भारत में कुरूमई नामक ग्राम में करमण्डु नाम के एक धनिक वैश्य रहते थे। उस वैश्य की पत्नी का नाम श्रीमती था। श्रीमती के यहाँ एक ग्वाला रहता था। एक बार जंगल में वह गाय चराने गया दावाग्नि से जलकर सारा जंगल भस्म होते देखा, मध्य के कुछ स्थान में हरियाली देखी, नजदीक जाने पर पता चला कि यह किसी मुनिराज का स्थान है, वहाँ पेटी में आगम ग्रंथ रखे हुए थे, वह आदर भाव से उन आगम ग्रंथों को घर ले गया तथा कुछ दिनों के पश्चात् वे सभी आगम पुनः मुनि को लौटा दिये। वही बालक श्रीमती की कुक्षी से पुत्र रूप में पैदा हुआ। माता श्रीमती पुत्र को पालने में झुलाती हुई कहती थी 'शुद्धोसि बुद्धोसि निरंजनोसि संसार माया परिवर्जितोसि’। माता के इन शुभ संस्कारों के फलस्वरूप बालक प्रतिभासंपन्न प्रकांड पंडित के रूप में विख्यात हुआ। यही पुत्र आगे चलकर दिगंबर संप्रदाय के महान् आचार्य कुंदकुंदाचार्य के रूप में जैन धर्म की भारी प्रभावना कर गये ।२ माता जैसा चाहे वैसा ही रूप अपने संतान को दे सकती है। श्रीमती के धर्म संस्कारों से पुत्र सिंचित किया गया, उसी का प्रतिफल था शासन को सुयोग्य आचार्य की प्राप्ति हुई। ४.११ वासुकी (ई. सन् की प्रथम शती)
तमिल भाषा के विश्वविख्यात ग्रंथकार तिरूवल्लवर की पत्नी थी। उनका वैवाहिक जीवन अत्यंत सुखमय था। एक बार एक मुनि ने इनके दाम्पत्य जीवन की सफलता का रहस्य पूछा। उन्होंने साधु को कुछ दिन अपने यहाँ रहने के लिए कहा, साधु वही रहने लगे। एक दिन तिरूवल्लुवर ने अपनी पत्नी को मुट्ठिभर नाखून तथा लोहे के टुकड़ों का भात पकाने को कहा। वासुकी ने लेशमात्र भी संदेह न करते हुए वैसा ही किया। उसी प्रकार एक बार ठंडे भात को बहुत गर्म है, मेरा तो छूते ही हाथ जल गया पति के ऐसा कहने पर वह शीघ्र आई और पंखा झलने लगी। एक बार गर्मी से तप्ती हुई दोपहर को, घना अंधकार बताकर पति ने दीपक जलवाया। वासुकी ने बिना हिचकिचाहट के शीघ्र दीपक जला दिया। इन सभी बातों को देखकर साधु समझ गया कि जब पति-पत्नी में पूर्ण एकता हो और लेश मात्र संदेह न हो तभी वैवाहिक जीवन सुख का सागर बन सकता है। यह देख साधु बोले “मैं आपके सुखी जीवन का मर्म समझ गया हूँ"। इतना कहकर मुनि अपने स्थान पर चले गये। पति के प्रति पतिव्रता पत्नी की श्रद्धा का यह अपूर्व उदाहरण है। इसी प्रकार जब तक पूर्ण विश्वास न हो, तब तक धर्म आराधना कठिन है। वासुकी का जीवन आदर्श पत्नी के स्वरूप को उजागर करने वाला है। ४.१२ औवे : (ईस्वी सन् के प्रारंभ में)
औवे सुप्रसिद्ध प्राचीन तमिल कवयित्री थी। वह एक जैन राजकुमारी थी, और बाल ब्रह्मचारिणी थी। निःस्वार्थ समाज की सेवा सुमधुर वाणी और नीतिपूर्ण उपदेशों के लिए आज भी वह तमिल भाषा भाषियों के लिए माता औवे के रूप में स्मरणीय पूज्यनीय बनी हुई है। कवियित्री एवं समाज सेविका के रूप में जीवन यापन करना, इनका महत्वपूर्ण योगदान है। ४.१३ कण्णकी : (ईस्वी सन् की दूसरी शताब्दी)
___ ईसा की द्वितीय शताब्दी में तमिल के प्रसिद्ध ग्रंथ 'शिलप्पदिकारम्” की यह कथा है। यह महाकाव्य है। इसके रचयिता ल्लंगोवाडिगल है, जो संभवतः जैन कवि थे। चोल राज्य की राजधानी पुहार नगर के महान् वणिक परिवार की यह कन्या थी। उसका विवाह उसी नगर के एक वणिक् के पुत्र कोवलन से हुआ था। कोवलन माधवी नर्तकी के रूप पर मुग्ध होकर अपनी संपत्ति खो बैठा, पूर्ण गरीबी की अवस्था में घर लौटा। उसकी पत्नी कण्णकी ने स्नेह के साथ उसे व्यापार आरंभ करने के लिए उत्साहित किया। कण्णकी के पास कुछ आभूषण शेष थे। उन्होंने अपने नगर को छोड़कर मदुरा में जाकर आभूषण बेचने का निश्चय किया।
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
200
महावीरोत्तर-कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन की सातवीं शती
मार्ग में जैन साधुओं के आश्रम में उन्हें कौन्ती नाम की साध्वी मिली। वह उन दोनों के साथ चलने को राजी हो गई। लम्बी यात्रा के पश्चात् वे मदुरा पहुंचे और एक गडरियें की स्त्री के पास ठहरे। कोवलन अपनी स्त्री के पैर का शिलप्पयदिकारम अर्थात् नुपूर लेकर उसे बेचने के लिए शहर में गया। स्वर्णकार को नुपूर दिखलाया। स्वर्णकार उस नुपूर को राजा के पास ले गया और नुपूर को रानी का बतलाकर कोवलन को प्राणदण्ड दे दिया। कण्णकी ने सुना दूसरा नुपूर लेकर राजा के पास पहुँची। राजा को अपनी भूल महसूस हुई और निर्दोष कोवलन का वध करने के पश्चाताप में उन्होंने प्राण त्याग दिये। कण्णकी ने मदुरा नगरी को श्राप दिया कि वह अग्नि से भस्म हो जाये, नगर जलकर भस्म हो गया। कण्णकी स्वर्ग में जाकर अपने पति से मिल गई। शीलवती कण्णकी की स्मति में मंदिर बनवाने का वर्णन प्राप्त होता है। ३५ कण्णकी के शील की तेजस्विता नारी जगत के लिए प्रेरक है। ४.१४ कंचनमाला : ई. पू. की दूसरी, तीसरी शती.
विदिशा मध्य प्रदेश प्रांत की श्रेष्ठी पुत्री का नाम कंचल माला था। देवोपम रूप गुणसंपन्न सम्राट् कुणाल की वह रानी थी। वह अपने पति की एक मात्र पत्नी थी। पति की बड़ी प्यारी थी। उसने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम था सम्प्रति। कंचनमाला भी जैन धर्म की उपासिका थी। पुत्र सम्प्रति ने जैन धर्म की उन्नति हेतु बहुत कार्य किये। इतिहास में जैन धर्म की अमर कीर्ति फैलाने वाले सम्प्रति जैसे धर्म संस्कारवान् पुत्र को जन्म देना कंचनमाला का महत्त्वपूर्ण योगदान है। ४.१५ असंध्यमित्रा : ई. पू. दूसरी तीसरी शती.
असंध्यमित्रा विदिशा के एक जैन श्रेष्ठी की रूप गुण संपन्न कन्या थी तथा भारत के महान सम्राट अशोक महान् की पत्नी थी। वह जैन धर्म की उपासिका थी, असंध्यमित्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया था, जिसका नाम रखा गया कुणाल", कुणाल जैसे सुयोग्य शासक को पैदा करने वाली असंध्यमित्रा जैसी सहनशील माता ही थी। असंध्यमित्रा का सर्वोपरि योगदान इस रूप में है कि उसने जैन धर्म प्रभावक सुसंस्कारी पुत्र को जन्म दिया जो अपनी सहिष्णुता के लिए जगत् विख्यात् बना। ४.१६ मणक की माता : लगभग ई. पू. की पांचवी शती.
राजगही में शय्यंभव भट्ट ब्राह्मण निवास करते थे। शय्यंभव भट्ट ने गर्भवती नवयुवती का परित्याग कर दिया एवं आचार्य प्रभव के चरणों में उन्होंने दीक्षा धारण की। शय्यंभव पत्नी से सखियाँ पूछती “बहन ! गर्भ की संभावना है? वह संकुचित हो कहती है 'मणयं अर्थात् कुछ है। भट्ट पत्नी ने पुत्र को जन्म दिया माता द्वारा उच्चरित ध्वनि के आधार पर उसका मणक नाम रखा गया। बालक आठ वर्ष का हुआ उसने माँ से अपने पिता के विषय में पूछा माँ ने पुत्र से पिता द्वारा जैन मुनि बनने का वत्तान्त सुनाया। पुत्र पिता का अचानक चंपा नगरी में मिलन हुआ। शय्यंभव ने मणक को परिचय दिया कि वह उसके पिता का अभिन्न मित्र है। शय्यंभव ने मणक को अध्यात्म बोध दिया, मणक ने दीक्षा अंगीकार की। आचार्य शय्यंभव चतुर्दश पूर्व के धारक थे। मणक की अल्पायु जानकर शय्यंभव ने पूर्यों का निहण किया, दशैवकालिक सूत्र की रचना की। मणक ने छ: महीने तक संयम पालन किया।३८ शय्यंभव भट्ट की पत्नी का आदर्श त्याग था, जिसने एकाकी रहकर अपने पुत्र एवं पति को धर्म मार्ग पर बढ़ने में सहयोग दिया। ४.१७ श्राविका शामाढ्या : ई. सन् की पांचवी शती.
भट्टिमव की पुत्री का नाम शामाढ्या था। वह गहमित्रपालित की धर्मपत्नी थी। कोट्टियगण की विद्याधरी शाखा के आचार्य दत्तिल की वह गहस्थ शिष्या थी। सम्राट् कुमारगुप्त के राज्य में इस जिन भक्त श्राविका ने मथुरा में एक जिन प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवायी थी। इससे उस काल की स्त्रियों में धार्मिक रूचि दष्टिगत होती है, यही इनका योगदान है। ४.१८ श्रीदेवी : ई. सन् की पाँचवी - छठी शती.
श्रीदेवी कर्नाटक निवासी ब्राह्मण माधवभट्ट की पत्नी थी। श्रीदेवी की प्रेरणा से माधवभट्ट ने जैन धर्म स्वीकार किया था। श्रीदेवी के भाई का नाम पाणिनी था। श्रीदेवी ने उनको भी जैन बनने की प्रेरणा दी पर उन्होंने जैन धर्म स्वीकार नहीं किया। वे मंडीगुंडी गाँव में वैष्णव सन्यासी बन गए। श्रीदेवी के पुत्र दिव्य विभूति आचार्य देवनंदी (पूज्यपाद) थे। उन्होंने विद्वान् पाणिनी के
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
अवशिष्ट व्याकरण ग्रंथ के अधूरे कार्य को उनकी आज्ञा से ही पूर्ण किया। श्रीदेवी की पुत्री का नाम कमलिनी था। उसका विवाह गुणभट्ट नामक ब्राह्मण विद्वान् के साथ हुआ। कमलिनी के पुत्र का नाम नागार्जुन रखा गया था। इस प्रकार एक माता सुसंस्कारी होने से समस्त परिवार धर्म रस से सराबोर बना। ४.१६ पूर्णमित्रा : ई. पू. की द्वितीय शती.
पूर्णमित्रा कलिंग के राजा खारवेल की अग्रमहिषी थी, और राजा हस्तिसिंह की पुत्री थीं। पूर्णमित्रा ने मंचुपुरी की गुफा का निर्माण जैन मुनियों के उपयोग के लिए कराया था। तथा महारानी ने इन गुफाओं में लेख उत्कीर्ण करवाए थे। रानी पूर्णमित्रा जैन धर्म एवं सिद्धांतों पर अटूट श्रद्धा रखते हुए जैन साधु-साध्वियों का विशेष आदर करती थी। महारानी पूर्णमित्रा ने धर्म प्रभावना तथा संतों के आवास निवास की व्यवस्था के लिए स्वतंत्र रूप से निर्णय लेकर गुफा निर्माण करवाया व जिन शासन की प्रभावना
की।
४.२० रानी उर्विला : ई. पू. की द्वितीय शती.
रानी उर्विला मथुरा नगरी के राजा पूतिमुख की रानी थी। किसी समय एक प्राचीन स्तूप को लेकर राजा की पत्नियों में आपसी संघर्ष होने लगा। राजा की दूसरी पत्नी बौद्धधर्मानुयायिनी थी। उसने स्तूप पर अपना कब्जा जमा लिया। रानी उर्विला ने दूर-दूर से जैन विद्वानों को बुलाकर शास्त्रार्थ करवाया और अथक छानबीन के बाद यह सिद्ध किया कि यह स्तूप जैनों का ही हैं। इस शुभ अवसर पर धार्मिक उत्सव मनाये जाने के पश्चात् रानी ने अन्न-जल ग्रहण किया।२ रानी उर्विला की सूझ-बूझ तथा सत्य को युक्ति पूर्वक प्रमाणित करवाना तथा जैन धर्म प्रभावना में सहयोगी बनना एक अपूर्व कदम है। ४.२१ लांछन देवी : ई. पू. की चतुर्थ शती.
पाटलीपुत्र के नंदराजा महापद्म के महामंत्री श्रमणोपासक शकडाल की पत्नी का नाम लांछन देवी था। वह परम धर्मोपासिका थी, प्रतिभासंपन्न सन्नारी थी। उसी के धर्म संस्कारों का तथा बुद्धिमानी का पुण्य प्रभाव था कि उसकी प्रथम पुत्री यक्षा कठिन से कठिन पद्यों को एक बार सुनकर स्मति में धारण कर लेती थी। दूसरी पुत्री यक्षदत्ता दो बार, तीसरी पुत्री भूता तीन बार, चौथी पुत्र भूतदत्ता चार बार, पाँचवी पुत्री सेना पाँच बार, छठी पुत्री वेना छः बार सातवीं पुत्री रेणा सात बार, सुनकर कंठस्थ कर लेती थी। लांछनदेवी के दो पुत्र थे, स्थूलीभद्र और श्रीयक ।३ लांछन देवी ने धर्म प्रभावक संतानों को जन्म देकर जैन परंपरा के विकास में भारी योगदान दिया है। ४.२२ सुप्रभा : ई. पू. ३१७ चतुर्थ शती.
सुप्रभा राजा नंद की पुत्री थी। पराजित राजा नंद अपनी पुत्री सुप्रभा को रथ में साथ लेकर राजधानी से दूर जा रहा था। रथ में बैठी हुई सुप्रभा की दष्टि वीर चंद्रगुप्त पर पडी। पुत्री के आकर्षण एवं विषम परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए राजा नंद ने सुप्रभा का विवाह चंद्रगुप्त से कर दिया। ई. पू. ३१७ में पाटलीपुत्र में चंद्रगुप्त को सम्राट् घोषित किये जाने पर उसकी रानी सुप्रभा को अग्रमहिषी का उच्च स्थान दिया गया। शत्रु राजा की पुत्री होते हुए भी उसे अग्रमहिषी होने का गौरव मिला, यह उसके विशिष्ट गुणों का ही परिणाम था। सुप्रभा श्रमणोपासिका थी, पिता के समान वह भी आचार्यों तथा साधुओं को आदर की दष्टि से देखती थी। ४.२३ कोशा : ई. पू. ३५७.३१२ चतुर्थ शती.
कोशा मगध सम्राट् नवम नंद के महामात्य शकडाल के पुत्र आचार्य स्थूलभद्र की अनन्य भक्त श्राविका थीं। कोशा बड़ी चतुर, वाकपटु, अवसरज्ञ, अवसरानुकूल नैसर्गिक अभिनय कला में निष्णात गणिका थीं। अतः शकड़ाल ने भोगों से विरक्त स्थूलभद्र को गहस्थ मार्ग की ओर आकृष्ट करने के लिए कोशा के संसर्ग में रखा। दोनों का पारस्परिक आकर्षण अन्ततोगत्वा उस चरम सीमा तक पहुँच गया कि बारह वर्ष पर्यन्त उन दोनों ने दासियों के अतिरिक्त किसी अन्य का मुख तक नही देखा था।
कालान्तर में स्थूलभद्र विरक्त हो आचार्य संभूति विजय के शिष्य बने। वे एक बार कोशा गणिका के यहाँ चातुर्मास व्यतीत
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
202
महावीरोत्तर-कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन की सातवीं शती
करने आये। कोशा ने मुनि को काम भोगों की ओर आकृष्ट करने का विफल प्रयास किया, किंतु मुनि स्थूलीभद्र की उत्कृष्ट इंद्रियदमन शक्ति को देखकर कोशा ने मुनि से क्षमा माँगी, स्वयं श्राविका के बारह व्रतों को धारण कर विशुद्ध सेवा भक्ति करने लगी। मुनि स्थूलभद्र के गुरू ने उनकी इस साधना को “दुष्कर दुष्करकारी” बताया। एक मुनि को गुरू की प्रशंसा पसंद नहीं आई, उन्होंने जिद्द कर गुरू से अनुमति लेकर कोशा गणिका के यहाँ चातुर्मास हेतु पहुँचे। कोशा ने मुनि को षड्रस भोजन कराया। मुनि की परीक्षा हेतु कोशा अति मनोरम एवं आकर्षक वेशभूषा से मुनि के सम्मुख उपस्थित हुई। मुनि ने काम विव्हल हो भोगों की याचना की। कोशा ने कहा - आप अपने मनोरथ को पूर्ण करना चाहते हो तो नेपाल देश के राजा क्षितिपाल के पास जाइए वे साधुओं को रत्नकंबलों का दान करते हैं। आप उसे लेकर आइए। अपनी कामाग्नि को शांत करने के लिए बीहड़ रास्तों को पार कर चोरों से मुकाबला कर कोशा के हाथों में मुनि ने रत्नकंबल थमाया। कोशा ने उस रत्नकंबल से अपने पैरों को पोंछकर उसे गंदी नाली के कीचड़ में फैंक दिया। मुनि ने आश्चर्य पूर्वक कहा – महामूल्यवान रत्नकंबल को तुमने इस अशुचिपूर्ण कीचड़ में फैंक दिया, तुम मूर्ख हो । कोशा ने तुरन्त उत्तर दिया, आप एक महामूढ़ व्यक्ति की तरह इस रत्नकंबल की तो चिंता कर रहे हो, अपने चरित्र-रत्न को अत्यंत अशुचिपूर्ण पंकिल गहन गर्त में गिरा रहे हो। कोशा की बोधप्रद कटूक्ति को सुनकर मुनि को अपने पतन पर पश्चाताप हुआ, उन्होंने कोशा वेश्या के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की और कठोर तपश्चरण का संकल्प किया। गुरू चरणों में उपस्थित होकर संपूर्ण सच्चा विवरण बताकर क्षमायाचना की, प्रायश्चित्त ग्रहण कर विशुद्धि की, और कामविजेता स्थूलीभद्र की तारीफ की। इस प्रकार कोशा ने एक मुनि को साधना पथ पर स्थिर किया।
वी. नि. सं. १५६ में मगधपति नंद ने अपने एक सारथी के रथ संचालन कौशल पर प्रसन्न हो उसे पारितोषिक के रूप में कोशा–वेश्या प्रदान की। श्राविकाव्रत पर संकटपूर्ण स्थिति आई समझकर कोशा ने बड़ी चतुराई से काम लिया, अपनी अदभुत कला
। प्रसन्न किया, सारथी ने कोशा को वर माँगने को कहा। कोशा ने सारथी से कहा "न आपकी कला कठिन है, न मेरी कला कठिन है, निरन्तर अभ्यास किये जाने पर इससे भी कठिन कार्य किये जा सकते हैं।" मेरे निरन्तर सहवास में बारह वर्षों तक स्थूलिभद्र भोग भोगते रहे, दीक्षित होने के बाद यहाँ चातुर्मास में षड्रस भोजन करते हुए चित्रशाला में संयमपूर्वक रहते हुए अजेय कामदेव पर विजय प्राप्त की। उनसे प्रेरणा लेकर मैंने श्राविका व्रत अंगीकार किया है। संसार का प्रत्येक पुरुष मेरे सहोदर के समान है। कोशा की बात सुनकर रथिक निषण्ण (स्तब्ध) रह गया। कोशा से मुनि स्थूलीभद्र का परिचय प्राप्त कर संसार से विरक्त हो गया और उनके पास दीक्षित हो श्रमणाचार का पालन करने लगा। स्थूलभद्र का स्वर्गगमन वी. नि. सं २१५ में राजगह के समीप वैभारगिरि पर हुआ। कोशा ने गणिका के रूप में कला का चतुर्मुखी विकास किया। श्राविका बनकर एक मुनि के जीवन का उद्धार किया। महासाधक स्थूलीभद्र के प्रति सच्ची आस्थाशील बनी। अनेक साधकों की भी उनके प्रति आस्था बढ़ाई। उसने इतिहास में अपना दुर्लभ कीर्तिमान स्थापित किया, जो स्वर्णाक्षरों में अंकित है। ४.२४ नागिला : ई. पू. की छठी शती
__नागिला नागदत्त एवं वासुकी की कन्या थी। नागिला का विवाह मगध जनपद के सुग्राम नामक ग्राम में हार्जव नामक (रहठउड़ो) राष्ट्रकूट और रेवती के पुत्र भवदेव के साथ हुआ था। भवदेव के बड़े भाई भवदत्त ने युवावस्था में ही आचार्य सुस्थित के समीप दीक्षा अंगीकार की थी। मुनि भवदत्त के पदार्पण के समाचार सुनकर नव विवाहिता नागिला को अर्द्धश्रंगारितावस्था में ही छोड़कर सबके मना करने पर भी भवदेव शीघ्रता से भवदत्त के पास पहुँचा भावविभोर हो अपना मस्तक मुनि के चरणों पर रख दिया। मुनि भवदत्त ने घत से भरा अपना एक पात्र भवदेव के हाथों पर रख दिया। समस्त ग्रामवासी साधुओं को कुछ दूरी तक पहुँचाकर लौट आए। लेकिन भवदेव, मुनि की आज्ञा न मिलने से मुनि भवदत्त के पीछे पीछे आचार्य सुस्थित तक पहुँच गया। आचार्य श्री के पूछने पर मुनि भवदत्त ने भवदेव को प्रव्रजित किया। भोग मार्ग की ओर उठे हुए चरण त्याग मार्ग पर चल पड़े। कालान्तर में मुनि भवदत्त ने अनशनपूर्वक समाधि के साथ नश्वर शरीर का त्याग किया। सौधर्मेंद्र के सामानिक देव बने।
मुनि भवदत्त के स्वर्गगमन के पश्चात् भवदेव के मन में नागिला को देखने की बड़ी तीव्र उत्कंठा जागत हुई। स्थविरों की आज्ञा लिये बिना ही अपने ग्राम सुग्राम की ओर चल पड़ा। ग्राम के पास पहुँच कर वह एक चैत्य घर के पास विश्राम हेतु बैठ गया। थोड़ी ही देर में नागिला ने एक ब्राह्मणी के साथ प्रवेश किया एवं मुनि को वंदन नमस्कार किया। मुनि भवदेव ने अपने पूर्व
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
203
माता-पिता तथा नागिला के विषय में प्रश्न किया। महिला नागिला ने मुनि के एकाकी आगमन का प्रयोजन पूछा । मुनि ने अपना प्रयोजन स्पष्ट बतलाया। नागिला ने मुनि भवदेव को परिचित कराया कि नागिला वह स्वयं है। अखण्ड ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करती हुई कठोर तपश्चर्या द्वारा श्राविका के व्रतों का पालन कर रही है और अनेक महिलाओं से भी श्राविकाओं के व्रतों का पालन करवा रही है, उत्तम आत्मार्थी साधु-साध्वियों के उपदेशामत का पान कर रही है, और प्रतिक्रमण प्रत्याख्यानादि से भवभ्रमण की महाव्याधि के समूल नाश के लिए सदा प्रयत्नशील रहती हैं।
नागिला ने मुनि को मनुष्य जीवन की क्षणभंगुरता का उपदेश दिया। कुत्सित भावनाओं को गुरू के समक्ष प्रायश्चित्त कर शुद्ध होने की प्रेरणा दी एवं बाह्यरूप से चिरकाल तक परिपालित श्रमणाचार का अंतर्मन से पूर्णरूपेण पालन करने की प्रेरणा दी। नागिला के हितप्रद एवं बोधपूर्ण वचन सुनकर भवदेव के हृदय पटल पर छाये हुए मोह के घने बादल तत्क्षण छिन्न भिन्न हो गए। उनका अज्ञान तिमिराच्छन्न अन्तःकरण ज्ञान के दिव्य प्रकाश से आलोकित हो उठा। मुनि ने निश्छल स्वर में नागिला को सच्ची सहोदरा, गुरूणीतुल्या और उपकारी माना, संकल्प ग्रहण किया कि शेष जीवन निर्दोष साधु धर्म का त्रिकरण त्रियोग से पालन करूंगा। इस प्रकार श्राविका नागिला ने पवित्र नारी जीवन की प्रतिमूर्ति बनकर त्याग वैराग्य में मुनि को स्थिर किया। स्वयं भी मुक्ति पथ की अनुगामिनी बनी। यह घटना भ. महावीर ने निर्वाण गमन से १६ वर्ष पूर्व श्रेणिक से कहीं थीं। यह विद्युनमाली देव (जंबू कुमार) के पूर्वभव की घटना है। ४.२५ चणकेश्वरी : ई. पू. चतुर्थ शती.
चणकेश्वरी मौर्य सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य के मंत्रीश्वर चाणक्य की माता थी तथा गोल्ल निवासी चणक की पत्नी थी। चणक और चणकेश्वरी दोनों धर्म प्रधान वत्ति के दम्पत्ति थे। ई. पू. ३७५ में चणकेश्वरी ने पुत्र चाणक्य को जन्म दिया था। जिस समय चाणक्य का जन्म हुआ उस समय जैन संत ब्राह्मण चणक के मकान में बिराज रहे थे। संतो ने बालक के लिए भविष्यवाणी की थी कि यह राजा के समकक्ष प्रभावशाली होगा। संतों की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। चाणक्य सम्राट चंद्रगुप्त का अभिन्न अंग था। चणकेश्वरी चाणक्य जैसे धैर्यवान एवं प्रतिभासंपन्न व्यक्तित्व को जन्म देने वाली वीर माता थी।४७ ४.२६ धारिणी : ई. पूर्व की पांचवी शती.
मगध राज्य की राजधानी राजगह नगर में ऋषभदत्त श्रेष्ठी रहते थे। उनकी निर्मल स्वभाव वाली शीलवती सन्नारी धारिणी थी। उसने देव की आराधना की तथा एक बार सिंह एवं जंबूफल का शुभ स्वप्न देखकर जागत हुई और यथासमय तेजस्वी पुत्ररत्न जंबूकुमार को जन्म दिया। युवावस्था में जंबू कुमार का आठ कन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ। उनके नाम इस प्रकार है, पद्मावती की पुत्री समुद्रश्री, कमलमाला की पद्मश्री, विजयश्री की पद्मसेना, जयश्री की कनक सेना, कमलावती की नभसेना, सुषेणा की कनकश्री, वीरमती की कनकवती, जयसेना की पुत्री जयश्री आदि। इन आठों कुमारियों ने जंबू कुमार के दढ़ वैराग्य को देखा। देखकर अपने भोगमय जीवन को आठों कुमारीयों ने तिलांजली दी तथा त्यागमय जीवन अपनाया । माता धारिणी ने भी जंबू कुमार का ही अनुगमन कर सच्चा मातत्व निभाया। जंबू की आठ पत्नियों की माताओं ने भी दीक्षा अंगीकार की। एक अनूठा त्याग का आदर्श स्थापित किया। इन सत्तरह श्राविकाओं ने भोगों की क्षणभंगुरता को देखने की दष्टि प्राप्त की एवं जिन शासन की प्रभावना की। ४.२७ अन्निका : ई. पू. की पाँचवी शती.
अन्निका दक्षिण मथुरा की निवासी वाणिक पुत्र जयसिंह की रूप गुणसंपन्ना बहन थी। उत्तर मथुरा निवासी युवा व्यवसायी देवदत्त जयसिंह का मित्र था। देवदत्त अन्निका से आकर्षित हुआ व जयसिंह से अन्निका की याचना की। जयसिंह ने इस शर्त पर अन्निका का विवाह किया कि जब तक अन्निका पुत्रवती नहीं होगी तब तक देवदत्त अन्निका सहित उसी के घर पर रहेगा। देवदत्त ने इस शर्त को स्वीकार किया, जयसिंह के घर पर ही रहने लगा। कालांतर में देवदत्त के वद्ध माता-पिता ने एक पत्र पुत्र को प्रेषित किया कि हम कराल काल के मुख में जाने वाले है, एक बार आकर हमसे मिलो, हमें शांति प्राप्त होगी। देवदत्त बार-बार पत्र को पढ़कर खूब रोया अन्निका ने भी पत्र पढ़ा और भाई से उत्तर मथुरा जाने की अनुमति माँगी। अग्निका ने मार्ग
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
204
महावीरोत्तर-कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन् की सातवीं शती
में जाते हुए तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया, साथ वाले लोगों ने उसे अन्निका पुत्र के नाम से संबोधित किया । देवदत्त और अन्निकने माता-पिता को दर्शन दे प्रसन्न किया। अन्निका पुत्र कालांतर में दीक्षित हुए तथा केवलज्ञानी बनकर मुक्त हुए। अन्निका का ससुर एवं सास के प्रति स्नेह प्रशंसनीय है तथा संस्कारवान् पुत्र को पैदा करना एक महत्वपूर्ण योगदान है। ४.२८ देवदत्ता : ई. पू. की छठी शती.
चम्पानगरी में देवदत्ता गणिका रहती थी, वह तेजस्विनी और समद्धिशालिनी थी। वह चौंसठ कलाओं में पंडिता थी। वह अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में निपुण थी तथा एक हजार गणिकाओं की स्वामिनी थी। नत्य, गीत और वाद्यों में मस्त रहती थी तथा राजा के द्वारा उसे छत्र चामर और बाल व्यंजनक प्रदान किया गया था। इस प्रकार देवदत्ता ने कलाओं के विकास में अपना अमूल्य योगदान दिया था। ४.२६ रूद्रसोमा : ईस्वी सन् की प्रथम शती.
__रूद्रसोमा दशपुर नरेश उदायन की प्रसिद्धि प्राप्त राजपुरोहित सोमदेव की पत्नी थी। रूद्रसोमा उदारहृदया, प्रियभाषिणी महिला थी। जैन धर्म की वह दढ़ उपासिका थी। उनके दो पुत्र थे रक्षित और फल्गुरक्षित। आर्य रक्षित विशिष्ट अध्ययन हेतु पाटलीपुत्र गये, रक्षित ने वहाँ रहकर वेद वेदांग आदि चतुर्दश विद्याओं का अध्ययन किया पुनश्च रक्षित माँ के पास पहुँचा। माँ सामायिक कर रही थी, उसने आशीर्वाद देकर पुत्र का वर्धापन नहीं किया। जननी वत्सल रक्षित माँ के आशीर्वाद के अभाव में खिन्न चित्त हुआ। माँ ने सामायिक संपन्न की और पुत्र से कहा "बेटा जो विद्या तुझे आत्मबोध ने करा सकी उस विद्या से क्या लाभ ! मेरे मन को प्रसन्न करने के लिए आत्म कल्याणकारी जिनोपदिष्ट दष्टिवाद का अध्ययन करो।" आर्यरक्षित ने दष्टिवाद का अध्ययन कहां और किनसे पढ़ा जा सकता है ? यह प्रश्न किया । तब रूद्रसोमा ने बताया, दष्टिवाद के ज्ञाता आर्य तोषलिपुत्र नामक आचार्य हैं जो इक्षुवाटिका में विराज रहे है। पुत्र! तुम उनके पास जाकर अध्ययन करो। उस प्रवत्ति से मुझे शांति प्राप्त होगी। आर्य रक्षित ने मां की प्रेरणा से आचार्य तोषलिपुत्र के पास दीक्षित होकर दष्टिवाद का गंभीर अध्ययन किया। कालांतर में छोटा भाई फल्गुरक्षित माँ रूद्रसोमा की प्रेरणा से रक्षित मुनि के समीप आया। मां का संदेश उन्हें दिया कि माँ आपको बहत याद कर रही है। आप उन्हें दर्शन देकर उनका मार्ग प्रशस्त करो। आर्य रक्षित से बोध पाकर फलारक्षित मनि बन गए। स्वनगर आए, समस्त परिवार प्रतिबोधित हुआ।१ इस प्रकार माता रूद्रसोमा ने अपने पुत्र ममत्व को श्रेय मार्ग से जोड़कर समस्त परिवार का कल्याण सच्चे अर्थों में किया। ४.३० पुष्पचूला : ई. पू. की पांचवी शती.
पुष्पचूला पुष्पभद्रा नगरी के राजा पुष्पचूल की रानी थी। वास्तव में ये दोनों पुष्पकेतु और पुष्पवती की संतान थे। राजा पुष्पकेतु ने दोनों संतान का स्नेह देखकर लोक नियम के विरूद्ध विवाह संबंध जोड़ा। पुष्पवती ने राजा के उस विवाह से विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण की। अनेक वर्षों तक तपश्चर्या की। अंत मे देवरूप में उत्पन्न हुई। पुष्पचूल एवं पुष्पचूला भोगों में सुखपूर्वक समय व्यतीत करने लगे। देवरूप से उत्पन्न हुई पुष्पवती ने पूर्व स्नेहवश पुष्पचूला को प्रतिबोध देने के लिए स्वप्न में उसे नरक के दश्य दिखाए। पुष्पचूला ने अन्निका पुत्र से उक्त स्वरूप के विषय में चर्चा की तथा नरक में जीव किस कारण जाता है इसका समाधान उनसे किया। सम्यक ज्ञान पाकर पुष्पचूला ने भी विरक्त होकर अन्निका पुत्र से दीक्षा अंगीकार की।२ पुष्पचूला ने व्रतों की आराधना से अपने जीवन को पवित्र बनाया। ४.३१ कुबेर सेना : ई. पू. की छठी शती.
मथुरा नगर की गणिका का नाम था कुबेरसेना। एक बार वह गर्भवती हुई यथासमय एक पुत्र एक पुत्री रूप युगल संतान को उसने जन्म दिया। पुत्र का नाम कुबेरदत्त रखा तथा पुत्री का नाम रखा कुबेरदत्ता। गणिका व्यवसाय में संतान को बाधक समझकर उसने उनके गले में सूत्र के साथ उनके नाम वाली अंगूठी बांध दी और उन्हें बहुमूल्य रत्नों की दो गठरियों के साथ लकड़ी के संदूक में रख दिया। रात्रि के समय उन दोनों संदूकों को यमुना नदी के प्रवाह में बहा दिया। दो भिन्न श्रेष्ठिपुत्रों के यहाँ इनका पालन हुआ। युवावस्था प्राप्त होने पर दोनों को एक दूसरे के योग्य समझकर श्रेष्ठिपुत्रों ने धूमधाम से उन दोनों का
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
205
परस्पर विवाह किया। विवाह के दूसरे दिन एक जैसी अंगूठी देखकर कुबेरदत्त ने अपने माता-पिता से इसका रहस्य पूछा । रहस्य खुला। कुबेरदत्ता ने संसार से विरक्त हो साध्वी दीक्षा अंगीकार की। कुबेरदत्त भी धन का पाथेय लेकर अन्य नगर जाने के लिए निकल पड़ा। मथुरा नगर जाकर कुबेरदत्त ने कुबेरदत्ता के साथ अपना संबंध जोड़ा। महासती कुबेरदत्ता ने विशिष्ट (अवधिज्ञान) ज्ञान से यह जाना, प्रतिबोध देने के लिए वह गणिका के भवन में ही स्थान की याचना कर वहाँ रहने लगी। कुबेरदत्त से कुबेरसेना को एक बालक की प्राप्ति हुई थी। उस बालक को कुबेरसेना बार-बार साध्वी कुबेरदत्ता के पास लाने लगी। कुबेरदत्ता ने उस बालक को दूर से ही दुलार भरे स्वर में हुलराना प्रारंभ किया तथा अपने साथ उसके अठारह रिश्ते बतलाये। यथा-माता, बुआ, बहन आदि। कुबेरदत्त चौंक गया उसने साध्वीजी से इसका समाधान माँगा। कुबेरदत्ता ने बतलाया मैं आपकी वही बहन हूँ जिसके साथ विवाह हुआ था एवं यह कुबेरसेना हमारी माता हैं। कुबेर सेना और कुबेरदत्त आश्चर्यचकित हुए। साध्वीजी से विस्तारपूर्वक समस्त वत्तान्त सुनकर कुबेरदत्त ने भी दीक्षा अंगीकार की एवं कुबेर सेना ने श्राविका धर्म अंगीकार किया। ५३ कुबेरदत्ता अपने साध्वी समुदाय में चली गई। कुबेर सेना ने श्राविका व्रतों का सम्यक् पालन किया व पवित्र जीवन व्यतीत किया। पवित्र रिश्तों को पवित्र बनाकर रखा यही इसका धर्म के प्रति अवदान है। ४.३२ भद्रा : ईसा पूर्व की ततीय शती.
भद्रा श्रेष्ठी की पत्नी थी। उसके पुत्र का नाम अवंतिसुकुमाल था। एक बार आर्य सुहस्ति श्रेष्ठी पत्नी भद्रा के “वाहक-कुट्टी नामक स्थान में बिराजे थे। रात्रि के प्रथम प्रहर में वे "नलिनी-गुल्म” नामक अध्ययन का परावर्तन (स्वाध्याय) कर रहे थे। रात्रि का शांत वातावरण था। भद्रापुत्र अवंतिसुकुमाल अपनी बत्तीस पत्नियों के साथ भवन की सातवीं मंजिल पर सोये हुए थे। उन्हें आर्य सुहस्ति का स्वर बड़ा कर्णप्रिय लगा। वे उसका अर्थ समझने के लिए बड़े ध्यान से सुनने लगे। चिंतन करते हुए उन्हें जातिस्मरण ज्ञान पैदा हुआ। उन्होंने देखा कि पूर्वभव मे वे नलिनी गुल्म विमान में देव थे। पुनः वही जाने की इच्छा से उन्होंने आर्य सुहस्ति के चरणों में दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के प्रथम दिन ही गुरू की अनुज्ञा लेकर कठोर तप हेतु श्मशान भूमि की तरफ बढ़े। कंकर पत्थरों से पैर लहुलुहान हुए। रक्त की बूंदों के निशान का अनुगमन करते एक क्षुधा पीड़ित अगालिनी ने अपने परिवार सहित मुनि के पैरों से प्रारंभ कर संपूर्ण शरीर के मांस का भक्षण किया। मुनि भावों की श्रेणी पर चढ़ते हुए कष्ट को समभाव से सहते हुए नलिनी गुल्म विमान में देव भव को प्राप्त हुए। देवताओं ने मत्यु महोत्सव मनाया एवं महानुभाव कहकर मुनि के गुणों की प्रशंसा की। दूसरे दिन भद्रा की पुत्रवधू मुनि के दर्शनार्थ गई। मुनि के विषय में आचार्य सुहस्ति से सुनकर घर आकर सबको सूचना दी। भद्रा माता श्मशान भूमि में जाकर मुनि के दाह संस्कार की संपन्नता के साथ ही बहुत रोई। मुनि के दाह संस्कार के साथ भद्रा विरक्त होकर दीक्षित हुई। एक पुत्रवधू को छोड़कर शेष समस्त पुत्रवधूएँ दीक्षित हुई। भद्रामाता ने पुत्र के प्रति सच्चा वात्सल्य का रिश्ता निभाया था ४ ४.३३ सुरसंदरी : ई. सन् की प्रथम शती.
सुरसुंदरी धारावास के राजा वैरसिंह की रानी थी। उनकी दो संताने थी। पुत्री का नाम था सरस्वती और पुत्र का नाम था कालक कुमार । दोनों भाई बहन में परस्पर प्रगाढ़ प्रेम था। गुणाकार मुनि के उपदेश को सुनकर कालक कुमार संसार से विरक्त हुआ। इस भावना का प्रभाव बहन सरस्वती पर भी पड़ा। दोनों भाई बहन को माता-पिता ने दीक्षा की अनुमति दी। दोनों दीक्षित हुए। साध्वी सरस्वती के रूप पर मोहित होकर राजा गर्दभिल्ल ने उसका अपहरण किया। कालकाचार्य द्वितीय ने शकों की सैन्य शक्ति से अवधूत का वेश धारण कर युद्ध द्वारा गर्दभिल्ल को पराजित किया। साध्वी बहन को मुक्त किया ।५ सुरसुंदरी ने सुयोग्य संस्कारवान् पुत्र पुत्री को जन्म दिया जिन्होंने जिनशासन की प्रभावना में अपना बहुमूल्य सहयोग दिया। ४.३४ प्रतिमा : ई. सन् की प्रथम द्वितीय शती.
अयोध्या नगर के निवासी श्री संपन्न श्रेष्ठी फूलचन्द्र की पत्नी का नाम प्रतिमा था। वह रूपवती और गुणवती थी। किंतु निस्संतान होने के कारण चिंतित रहती थी। उनसे कई उपाय संतान की प्राप्ति हेतु किये गये। एक बार उसने वैरोट्या देवी की आराधना में आठ दिन का तप किया। तप के प्रभाव से देवी प्रकट हुई। उसने कहा कि "तुम लब्धिसंपन्न आचार्य नागहस्ति के
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
206
महावीरोत्तर - कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन् की सातवीं शती
पाद - प्रक्षालित उदक का पान करो, उससे तुम्हें पुत्र प्राप्ति होगी।" देवी के मार्गदर्शन से प्रसन्न हुई प्रतिमा भक्तिपूरित हृदय से उपाश्रय में पहुँची। एक मुनि के द्वारा उसने आचार्य नागहस्ति के दर्शन किए। आचार्य श्री ने कहा "तुम्हें दस पुत्रों की प्राप्ति होगी । प्रथम पुत्र तुमसे दस योजन दूर जाकर धार्मिक विकास करेगा, वीतराग शासन की गौरव वद्धि करेगा" अन्य पुत्र भी यशस्वी होंगे। प्रतिमा विनम्र होकर बोली- गुरूदेव मैं प्रथम पुत्र आपके चरणों में समर्पित करूँगी। काल क्रम के संपन्न होने पर प्रतिमा ने सूर्य जैसे तेजस्वी सुंदर पुत्ररत्न को जन्म दिया । पुत्र के गर्भकाल के समय प्रतिमा ने नाग देखा, अतः पुत्र का नाम नागेंद्र रखा। माता की ममता, पिता के वात्सल्यमय वातावरण में वह बड़ा हुआ । पुत्र जन्म से पूर्व ही वचनबद्ध होने से प्रतिमा ने अपने पुत्र को गुरु नागहस्ती के चरणों में समर्पित किया । ५६ धन्य है वह माता जिसने लम्बे समय से इच्छित संतान को गुरू चरणों में समर्पित किया, अपनी गुरु भक्ति का परिचय दिया ।
४. ३५ सुनंदा : ई. सन् की प्रथम शती सन् ५७.
अवंति प्रदेश के तुम्बवन नगर में वैश्य धनगिरि रहते थे। उनकी पत्नी का नाम सुनंदा था। धनगिरि का मन प्रारंभ से ही विरक्त था । विवाह के बाद एक बार धनगिरि ने सुनंदा से दीक्षा की अनुमती मांगी। सुनंदा उस समय गर्भवती थी। पति के बार-बार प्रस्ताव रचाने पर सौम्यहृदया सुनंदा ने विवश हो दीक्षा की सहमति दे दी । धनगिरि ने शीघ्र ही दीक्षा धारण कर ली। गर्भ काल पूरा होने पर सुनंदा ने पुत्ररत्न को जन्म दिया। जन्मोत्सव पर सुनंदा की सखियाँ आई थी । परस्पर वार्तालाप चल रहा था कि धनगिरि दीक्षा ग्रहण नहीं करते तो खुशी कुछ ओर ही होती थी। बच्चे ने ध्यानपूर्वक वार्तालाप को सुना और जाति स्मरण ज्ञान पैदा हुआ । चिंतन आगे बढ़ा। पिता की तरह मुझे भी प्रव्रज्या पथ पर बढ़ना श्रेयकर है किंतु माँ की ममता इसमें बाधक है। यह चिंतन कर बालक ने माँ की ममता शिथिल करने हेतु रूदन करना प्रारंभ कर दिया । सुनंदा हर प्रकार से बच्चे को स्नेह देकर रूदन बंद करना चाहती थी। किंतु बच्चा माँ के लिए दुःख का कारण बना। एक बार पिता धनगिरि सुनंदा के घर आहार लेने आए। सुनंदा ने बालक मुनि को इस शर्त पर समर्पित किया कि वह पुनः बालक की याचना नहीं करेगी। बालक, धनगिरि के पास जाकर शांत हुआ। सुनंदा दर्शनार्थ गई। प्रफुल्ल वदन बालक को देखा। मात वात्सल्य जागत हुआ। उसने मुनि से पुनः बालक की याचना की। मुनि ने शर्त याद करवाकर बालक को पुनः देने से इन्कार किया । निरूपाय सुनंदा राजा के पास पहुँची और न्याय मांगा। राजा ने गंभीर चिंतन किया और कहा - "बालक स्वेच्छा से जिसको चाहेगा, वह उसी का होगा दोनों पक्ष उपस्थित हुए । सुनंदा
खिलौने व मिठाइयों का प्रलोभन बालक को दिया, दूसरी ओर मुनि धनगिरि ने रजोहरण रखा और कर्मरज को रजोहरण द्वारा हटाने का उपदेश दिया। बालक उछलता हुआ रजोहरण को हाथ में लेकर बैठ गया। मुनि धनगिरि को बालक प्राप्त हुआ । आर्य वज्र के नाम से, दीक्षित होकर बालक ने जिन शासन की महती उन्नति की। सुनंदा ने भी सच्चे मातत्व को निभाते हुए पुत्र व पति का अनुगमन कर दीक्षा अंगीकार की । ५७ सुनंदा ने धैर्य के साथ अपना जीवन व्यतीत किया था। उसने संस्कारवान सुयोग्य जिन शासन प्रभावक पुत्र को जन्म देने का लाभ प्राप्त किया था ।
४.३६ दमयंती : ई. पू. की प्रथम शती.
वह भावड़शाह के मित्र राघव की पत्नी थी। वह सौंदर्यशालिनी और गुणवान् थी। वह सदा सच्चाई के पथ पर बढ़ने वाले भावड़शाह एवं भाभी भाग्यवती की सहयोगीनी बनी, यह उसका उल्लेखनीय योगदान है।
४.३७ सूरजमुखी : ई. पू. की प्रथम शती.
सूरजमुखी श्रेष्ठी सुन्दरदास की पुत्री तथा भावड़शाह की बहन थी। सौराष्ट्र के एक अन्य नगर नन्दपुर के श्रेष्ठ व्यापारी मूलकचंद की वह पत्नी थी। तीर्थ यात्रा पर जाते हुए भाई भावड़ और भाभी उससे मिलने आये। सूरजमुखी उन्हें देखकर प्रसन्न हई | भाई के द्वारा सब कुछ गंवा बैठने की स्थिति में वह चाहती थी कि उसके ससुराल वाले उसके भाई की मदद करे पर उसकी भावनाएं सफल इसलिए नहीं हुई कि पति सहित उसके ससुराल वालों को धन का गरूर था । वह दरिद्र अवस्था में भी भाई से सच्चा प्यार निभाती है। धन का नशा उसके प्रेम में दीवार नहीं बन सका । इस प्रकार सूरजमुखी के जीवन में नारी का निश्छल स्नेह छलकता है I
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
४.३८ भाग्यवती : ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी.
विक्रमादित्य के समकालीन राजा तपनराज की राजधानी सौराष्ट्र के काम्पिल्यपुर नगर में अनेक जैन श्रेष्ठी निवास करते थे। इसी नगर में भावड़शाह नामक धर्मानुयायी थे । माल से लदे हुए बारह जहाज डूबने, सब कुछ गंवा बैठने के बाद भी वे प्रसन्नचित्त रहे। संतान के अभाव के दुःख को समता से सहन किया तीर्थ यात्राएँ भी कीं । भाग्यवती ने हर संकट में अपने पति के धर्म तथा दान में सहयोगिनी रही। उन्हें उत्साहित करती रही। दुःख में भी धर्म भावना, नेकी, ईमानदारी का साथ नहीं छोड़ा। सुख का सुखद सूर्य उदित हाने पर वह मधुमती (महुआ) की राजरानी बनी। उसका एक तेजस्वी पुत्र हुआ जिसका नाम जावड़ कुमार रखा गया। भाग्यवती के जीवन से प्रेरणा प्राप्त होती है कि समत्वभाव तथा शांति से सुख दुःख में भी आनंदित रहा जा सकता है।
207
४.३६ धनवती : ई. पू. ५२७-५०७ .
धनवती उड्रदेश के महाराजा यम की रानी थी। महाराजा यम ने सुधर्मा स्वामी के समीप दीक्षा ग्रहण की थी। उस प्रसंग पर महारानी धनवती ने श्राविका व्रतों को ग्रहण किया था। तत्पश्चात् धनवती ने जैन धर्म के प्रसार के लिए कई उत्सव किये थे। वह परम श्रद्धालु और धर्म प्रचारिका नारी थी । धनवती के प्रभाव से संपूर्ण परिवार जैन धर्मानुयायी बन चुका था । महारानी की धर्म निष्ठा का गहरा प्रभाव जनता पर पड़ा। समस्त उड्रदेश की प्रजा जैन धर्मानुयायिनी बन गई थी । ६१
४. ४० धनदेव की पत्नी : ई. पू. ३५७-३१२.
श्रावस्ती नगरी में आचार्य स्थूलभद्र के घनिष्ठ मित्र श्रेष्ठी धनदेव सपरिवार निवास करता था । आचार्य स्थूलभद्र मित्र को प्रतिबोध देने की भावना से विशाल जनसंघ के साथ धनदेव के घर पर पधारे। महान् आचार्य के पदार्पण से धनदेव पत्नी परम प्रसन्न हुई। उसने श्रद्धाभाव से मस्तक भूतल पर टिकाकर वंदन किया। आचार्य स्थूलभद्र ने धनदेव के विषय में पूछा । खिन्नमना होक. वह बोली आर्य! दुर्भाग्य से घर की संपत्ति नष्टप्रायः हो गई है, अतः व्यवसाय के लिए धनदेव परदेश गए है।
श्रेष्ठी धनदेव के आंगन में स्तंभ के नीचे विपुलनिधि निहित थी । धनदेव इससे सर्वथा अनजान था। आर्य स्थूलभद्र ने ज्ञान बल से इसे जाना एवं मित्र की पत्नी से बात करते समय उनकी दष्टि उसी स्तंभ पर केंद्रित हो गई थी। हाथ के संकेत भी स्तंभ की ओर थे। आर्य स्थूलभद्र ने कहा - बहन ! संसार में सुख और दुःख धूप छाँववत् आते जाते है । धनदेव पत्नी को धर्मोपदेश के प्रभाव से अनुपम शांति प्राप्त हुई। कुछ दिनों के पश्चात् श्रेष्ठी धनदेव दयनीय स्थिति में पुनः घर लौट आए। पत्नी ने आर्य स्थूलभद्र के पदार्पण से लेकर सारी घटना कह सुनाई। उसने यह भी बताया कि उपदेश देते समय आर्य स्थूलभद्र स्तंभ के अभिमुख बैठे थे। उनका हस्ताभिनय भी इसी स्तंभ की ओर था । बुद्धिमान श्रेष्ठी ने यह सुनकर स्तंभ के नीचे से धरा को खोदा, विपुल संपत्ति की उसे प्राप्ति हुई। आर्य स्थूलभद्र के समीप धर्मोपदेश सुनकर धनदेव व्रतधारी श्रावक बना । धनदेव पत्नी भी उसी राह पर आगे बढ़ी। धनदेव की पत्नी की बुद्धिमत्ता एवं समझ से संपूर्ण परिवार खुशहाल बना । धनदेव भी धर्मराह पर अग्रसर हुआ ।६२
४.४१ लक्ष्मी : ई. पू. ३५७-३१२.
मगध की राजधानी पाटलीपुत्र थी । वहाँ पर नंद साम्राज्य के अमात्य गौतम गोत्रीय शकडाल थे। शकडाल की पत्नी का नाम लक्ष्मी था। “यथा नाम तथा गुणवान्" लक्ष्मी धर्म-परायणा, सदाचार संपन्न, शीलवती विदुषी नारी रत्न थी। फलस्वरूप उसने कुशाग्र प्रतिभा संपन्न सात पुत्रियाँ तथा दो पुत्रों को जन्म दिया । पुत्रियों के नाम थे यक्षा, यक्षदत्ता, भूता, भूतदिन्ना, सेणा, वेणा, रेणा । सातों पुत्रियों की तीव्रतम स्मरण शक्ति विस्मयकारक थी। प्रथम पुत्री प्रथम बार में दूसरी दो बार में क्रमशः सातवीं पुत्री सात बार में अश्रुत श्लोक श्रंखला को सुनकर उसे कण्ठस्थ कर लेने में और ज्यों का त्यों तत्काल उसे दोहरा देने में समर्थ थी । लक्ष्मी का कनिष्ठ पुत्र श्रीयक भक्तिनिष्ठ था, सम्राट् नंद के लिए गोशीर्ष चंदन की तरह आनंददायी था । स्थूलभद्र लक्ष्मी का अत्यंत मेधा संपन्न पुत्र था। जिसने आगे चलकर भद्रबाहु से १० पूर्वो का ज्ञान प्राप्त कर श्रुतपरंपरा को उत्तरोत्तर बढ़ाया था। संतानों की प्रतिभा संपन्नता के पीछे माता का बहुत बड़ा योगदान रहा । ३ सातों पुत्रियाँ एवं दोनों पुत्रों ने आगे चलकर दीक्षा धारण की, इसमें भी माता के दिये गये धार्मिक संस्कारों की ही परिणति कारणभूत बनी ।
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
208
महावीरोत्तर-कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन की सातवीं शती
४.४२ कुण्डवे : ई. सन् की तीसरी - ५ वीं शती.
कुण्डवे राजा चोल की बहन थी। तमिलनाडु के दक्षिण आरकाट में ग्राम थिरूनरूनकोण्डे के निकट पहाड़ी पर जिनगिरि नामक तीर्थ क्षेत्र है। उस तीर्थ पर कुण्डवे ने पानी की एक टंकी बनवाई थी, जो आज भी विद्यमान है।६४ ४.४३ गंगा : ई. सन् की छठी शती.
चित्रकूट नगर (चित्तौड़) नरेश जितारि के राज्य समय में शंकरभट्ट नामक ब्राह्मण निवास करते थे। उनकी पत्नी का नाम गंगा था। उनके पुत्र का नाम हरिभद्र था। हरिभद्र ने अपने विद्वत्ता के बल पर राजा जितारि के राज पुरोहित पद को प्राप्त किया था। चतुर्दश ब्राह्मण विद्याओं पर उनका विशेषाधिपत्य था। उनकी समाज में अच्छी प्रतिष्ठा थी। साध्वी याकिनी महत्तरा के ज्ञान से प्रभावित होकर इन्होने दीक्षा धारण की।६५ ४.४४ चामेकाम्बा : ई. सन् की छठी शती.
कर्नाटक के कलचुम्बरु (जिला अत्तोली) से प्राप्त एक शिलालेख में वर्णन आता है कि पट्टवर्द्धिक कुल की तिलकभूता, गणिका जन में प्रसिद्ध चामेकाम्बा नाम की श्राविका की प्रेरणा से चालुक्य वंश के (२३ ३) तेइसवें राजा अम्मराज द्वितीय (विजयादित्य षष्ठ) ने सर्वलोकाश्रय जिन भवन (जिन मंदिर) की मरम्मत के लिए बलहारिगण, अड्डुकलिगच्छ के अर्हनंदि मुनि को कलचुम्बरू नामक ग्राम दान में दिया था। इस वंश के राजाओं ने जैन धर्म के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। ४.४५ दुर्लभ देवी : ई. सन् की पाँचवी शती.
सौराष्ट की राजधानी है वल्लभी। दुर्लभदेवी वल्लभी नरेश शिलादित्य की बहन थी। दुर्लभदेवी के मामा जिनानंदसूरि थे। दुर्लभदेवी स्वयं जैन धर्म की उपासिका थी। दुर्लभदेवी के तीन पुत्र थे, अजितयश, यक्ष और मल्ल । गुरू भक्ति एवं गुरू सेवा में वह आनंद का अनुभव करती थी। एक बार भरूच में बिराजमान जिनानंदसूरि के उपदेश को श्रवण कर, दुर्लभदेवी ने तीनों पुत्रों सहित दीक्षा अंगीकार की।६७ ४.४६ मदनावती : ई. सन् सातवीं शती.
कलिंगनरेश बौद्धों की महायान संप्रदाय के आस्थावान् राजा हिमशीतल की जिनभक्त राजमहिषी मदनावती थी। कार्तिकी अष्टान्हिका के दिन निकट थे। रानी रथोत्सव समारोह पूर्वक मनाना चाहती थी। राजा ने आदेश दिया कि यदि कोई जैन विद्वान्
स्त्रों में पराजित कर देंगे तो जैनों को रथ का उत्सव मनाने दूंगा। रानी तथा जैन बंधु चिंतित हुए। रानी सहित सभी ने जैनाचार्य भट्टाकलंकदेव के सामने समस्या रखी। उन्होंने बौद्धों को शास्त्रों में पूर्णरुप से पराजित किया। बौद्ध सुदूर पूर्व के भारतीय राज्यों एवं उपनिवेशों में चले गए। जैनों ने बड़े उत्साह से यह विजयोत्सव एवं अपना धर्मोत्सव मनाया ६८
भगवान् महावीर के श्रमण-श्रमणियों के लिए निर्दोष स्थान दात्री थी सुश्राविका
जयंति। वह परम विदुषी सन्नारी थी। प्रभु महावीर का धर्मोपदेश सुनने के पश्चात् इस साहसी नारी ने अनेकानेक तात्विक प्रश्न पच्छा की जिनके उत्तर
आज भी सम्यक् ज्ञान की दिशाएँ उद्घाटित करते हैं।
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
209
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
ई.पू. 26
| गृह श्री
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
अवदान
संदर्भ ग्रंथ । पृ. गच्छ / आचार्य
प्रतिमा निर्माण आदि बुद्धदास की पुत्री तथा आर्यिका गोदासा की प्ररेणा से | आ. इंदु. अमि. | देवीदास की पत्नी थी। जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठापना की | ग्रं.
थी। वसु (रंगरेज) और नंदिन की पुत्री | भेंट देने का वर्णन प्राप्त होता | जै.सि.भा. एवं जंभक की पुत्रवधू वर्मा की पुत्री एवं जय दास की आर्यिका श्यामा की प्रेरणा से आ. इंदु. अभि. | 54 पत्नी थी।
ऋषभदेव की प्रतिमा बनवाई
2
ई.पू. 32
जयभट्ट की पत्नी
3
ई.पू. 43
गदा
थी।
4
ई.पू. प्रथमशती | लवदास की भार्या
5 | ई.पू. प्रथमशती | शिवघोषक की पत्नी
6 | ई.पू. प्रथमशती | अमोहिनी
(कौत्स गौत्रवाली)
7 | ई.पू. प्रथमशती | गोपाली वैहदरी ।
(राजकन्या)
8 | ई. सन् 98.
|दिना (दत्ता)
9
ई.पू. 100.
धर्मसोमा
10 | ई. सन्. 108. |बोधिनंद।
अर्हत् महावीर के सम्मान में पं.च.अ.ग्र.
500 कलापूर्ण आयागपट्ट प्रतिष्ठापित करवाया था। आयागपट्ट निर्मित किया (मध्य | पं.च.अ.ग्र. एवं में भ. पार्श्वनाथ बिराजमान है) स्टडीज इन
जैना आर्ट. हारीती के पत्र पाल की पत्नी थी | आर्यावर्ती का चौकोर शिलापट्ट | जै.शि.सं.भा. 2 पालघोष, प्रोष्ठघोष, धनघोष तीन | स्थापित किया था। पुत्र हुए थे। पुत्र आसाढ़ सेन थे।
दसवीं गुफा में काश्यप गोत्री |जै.शि.सं.भा. 2 | 12 अरिहंतो की प्रतिमा निर्मित
करवाई थी। जयपाल, देवदास और नागदत्त आर्य संघसिंह के आदेश से जै.शि.सं.भा. 2 | 26 की माता थी। पुत्री का नाम एक विशाल वर्धमान प्रतिमा की नागदत्ता था।
स्थापना की थी। सार्थवाह की पत्नी थी। आर्य मातृदत्त की प्रेरणा से जै.शि.सं.भा. 2 | 28
जिन प्रतिमा का दान किया
था। गृहहस्ति की प्यारी पुत्री थी। दत्त शिष्य गृहप्रणिक की प्रेरणा | जै.शि.सं.भा. 2
से भ. वर्द्धमान की प्रकीर्ण
प्रतिमा स्थापित करवाई थी। जय की माता थी।
वच्छनीय कुल के गणि के जै.शि.सं.भा. 2 | 30 आदेश से सर्वतोभद्र प्रतिमा
बनवाई थी। आर्य बलत्रात की शिष्या थी, एक विशाल वर्द्धमान प्रतिमा जै.शि.सं.भा. 2 | 30 शिवसेन देवसेन, शिवदेव की की स्थापना करवाई थी। माता थी.. नवहस्ति की पुत्री, गृहसेन की वधू थी। पसक की पत्नी थी
आर्य खर्ण के आदेश से दान | जै.शि.सं.भा. 2 | 40 धर्म किया था। अर्हत् पूजा के निमित्त से एक | जै.शि.सं.भा. 2 | 14 देवकुल, एक कुंड, आयागपट्ट एवं आयागसभा का निर्माण
कराया था। सेन की पुत्री दत्त की पुत्रवधू, प्रतिमा का दान दिया था। जै.सि.भा. गंधी व्यास की पत्नी थी। दमित्र और दत्ता की पुत्री थी। | धरणीवृद्धि आर्यिका की प्रेरणा | आ.इदु.अभि.ग्रं.
से वर्द्धमान भगवान की प्रतिमा | स्थापित की थी।
मासिगि
11 | ई. सन्.98
हुविष्क वर्ष 18.
12 | ई. सन्. 103. | जया
हुविष्क वर्ष 25.
13 | ई. सन्. 138. | दत्ता
हविष्क वर्ष 60. 14 | प्रथम शताब्दी | वसु
15 | सन् 26
जिनदासी
16
सन् 27
| कुटुम्बिनी
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
210
क्र०
17
18
19
20
21
22
23
24
26
127
28
29
30
31
32
33
25 सन् 110
34
संवत्
35
सन् 58
सन् 76
सन् 83
सन् 93
सन् 95
सन् 96
सन् 98
सन् 103
सन् 113
सन् 118
सन् 118
सन् 123
सन् 125
सन् 126
सन् 128
सन् 140
सन् 140
सन् 157
श्राविका नाम
कौशिकी
सुचिल की धर्मपत्नी
खुड्डा (क्षुद्रा)
कुमार मित्रा
गृहरक्षिता
मित्रश्री
मित्रा
रयगिनी (राजगगणी)
जितमित्रा
श्यामाढ्य
सिंहदत्ता
दिना (दत्ता)
धर्मवृद्धि की भार्या
पुष्पदत्त की माता
यशा
विजयश्री
वैहिका
दिना, दत्ता
दिना (दत्ता)
महावीरोत्तर - कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन् की सातवीं शती
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
अवदान प्रतिमा निर्माण आदि
| सिंह नामक वणिक् की पत्नी थी । पुत्र सहित सुंदर आयागपट्ट की पं.च.अ. ग्रं. स्थापना की थी।
वह देवपाल सेठ की पुत्री, सेन की पत्नी थी।
वह श्रेष्ठी वेणी की पत्नी थी, भट्टिसेन की माता थी ।
मणिकार जयभट्ट की पुत्री थी। लोहव्यवसायी फल्गुदेव की पत्नी थी ।
वह जयभट्ट की पत्नी थी। नांदगिरी के जृभक की बहू थी । वह ऋतुनंदी की पुत्री तथा गंधिक बुद्धि की धर्मपत्नी थी ।
वह भट्टिभव की पुत्री थी । गृहमित्र की पालित प्रातारिक (नाविक) की पत्नी थी ।
वह ग्रामिक देव की वधू तथा ग्रामिक जयनाग की पत्नी थी।
बुद्धि की बहू
पुष्प की वधू थी।
वह सर्वत्रात की पोती, बंधुक की पत्नी थी।
थी।
राजा वसु की पत्नी थी, बबु पुत्री थी आर्या जिनदासी की शिष्या थी ।
की
वज्रनंदि की पुत्री वृद्धिशिव की बहू थी ।
आर्य मातृदिन्न की प्रेरणा से भ. जै.शि.सं.भा.2 शांतिनाथ जी की प्रतिमा अर्पित
की थी।
वर्धमान प्रतिमा का दान दिया था ।
आर्यावसुला के उपदेश से सर्वतोभद्रिका प्रतिमा की स्थापना की थी ।
एक जिन प्रतिमा का दान किया था ।
अरिष्टनेमी की प्रतिमा का दान दिया था।
आर्यनंदिक की प्रेरणा से सर्वतोभद्रिका प्रतिमा की स्थापना की थी।
अक्का नंदा के उपदेश से एक शिला स्तंभ तथा सर्वतोभद्रिका प्रतिमा का दान किया था । ऋषभ देव की प्रतिमा का दान दिया था।
जिन प्रतिमा का निर्माण करवाकर, दान में दी थी।
कोट्टियगण के आर्य सिंह की प्रेरणा से विशाल प्रतिमा का दान किया था।
जिन प्रतिमा का दान दिया था जै.शि.सं.भा. 2
वाचकसेन के अनुरोध से जिनप्रतिमा का दान दिया था।
धन्यपाल की शिष्या धन्यमिश्रिता की प्रेरणा से संभवनाथ भगवान् की प्रतिमा बनवाई थी।
एक माह के उपवास के पश्चात् वर्द्धमान प्रतिमा की स्थापना की थी।
संदर्भ ग्रंथ
विद्याधरी शाखा के दत्तिलाचार्य जै. शि.सं. भा. 2 की आज्ञा से प्रतिमा बनवाई थी।
मुनि की प्रेरणा से प्रतिमा का दान किया था।
आर्य संघसिंह की प्रेरणा से भ० वर्धमान स्वामी की प्रतिमा बनवाई थी।
मुनिसुव्रत की प्रतिमा को देवनिर्मितवोद्व या बोद्ध शब्द
पं.चं.अ. ग्रं.
जै.शि.सं.भा. 2
पं.चं. अभि. ग्रं.
जै.शि.सं.भा. 2
जै.शि.सं.भा. 2 व पं.चं. अ. ग्रं.
जै.शि.सं.भा. 2
जै.शि.सं.भा. 2
पं.च.अ.ग्र.
पं.च.अ.ग्र.
जै.शि.सं.भा. 2
पं.च.अ.ग्र.
जै.शि.सं.भा. 2
जै. शि.सं. भा. 2
जै.शि.सं.भा. 2
पं.चं.अ. ग्रं.
पृ.
493
495
25
26
493
495
23
495
25
25 497
29
23
58
35
496
499
29
497
38 39
52
496
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
36
37
38
39
40
41
42
43
44
45
46
क्र०
47
48
49
50
51
52
53
संवत्
सन् 159
सन् 160
सन् 161
सन् 162
सन् 162
सन् 164
सन् 187.188
ई. सन् प्रथम द्वितीय शती
ई. सन् 130
ई. सन् 356
ई. सन् की चतुर्थ शती
संवत्
ई.पू. द्वितीय
शती
ई.पू. द्वितीय
शती
ई.पू. द्वितीय
शती
ई.पू. द्वितीय
शती
ई.पू. द्वितीय
शती
ई.पू. द्वितीय
शती
ई.पू. द्वितीय
शती
श्राविका नाम
गृहश्री
जयदेवी
जिनदासी
भट्टदत्त की वधू
ओखरिका
प्रिय की पत्नी
विकटा
त्रैवण राजकन्या
सामणेरी यशोदत्ता की स्मृति में
ओखा ओखरिका, उज्झतिका, शिरिक, शिवदिन्ना
कम्पिला चेली
श्राविका नाम
कुमारमित्रा
सचिल की धर्मपत्नी
मित्रा
क्षुद्रा
शिवयशा
गूढा
शिवमित्रा
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
दत्ता की प्रेरणा से
सेन की पुत्री, दत्त की वधू गंधिक की पत्नी थी।
दमित्र एवं दत्ता की पुत्री थी।
दास की पुत्री थी।
कोटिकगण के नागनंदिन नामक धर्मगुरु की शिष्या थी । अधिक्षेत्र के शोतकायन की पत्नी थी । पुत्र राजा आषाढ़सेन थे।
सिंहल पुत्र मदन की पत्नी थी।
-------------------
वह गंगवंश की वीरांगना थी।
वंश / गोत्र
अवदान
प्रतिमा निर्माण आदि वृद्ध (पुराने) के लिए प्रयुक्त
हुआ है। जिन प्रतिमा का दान किया था।
दर्द्धमान प्रतिमा का दान किया
था।
तीर्थंकर प्रतिमा का दान किया था ।
कुमारदत्त की प्रेरणा से ऋषभदेव की प्रतिमा स्थापित की थी।
कोट्टियगण के सत्यसेन व धर वृद्धि की प्रेरणा से वर्धमान प्रतिमा का दान दिया था । | आर्या वसुला के उपदेश से जिन प्रतिमा अर्पित की थी। धर्म श्रद्धालु जैन श्राविका थी ।
पुत्र सहित पद्मप्रभु की तथा विशाल शिला पर चार प्रतिमायें, ऊपर दो गुफा निर्मित करवाई।
उसने यष्टि खड़ी करवाई थी।
जिन मंदिर बनवाया एवं महावीर स्वामी की प्रतिमा स्थापित करवाई थी । जिन शासन की उन्नति के लिए जिन मंदिरों का निर्माण किया था ।
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
अवदान
प्रतिमा निर्माण आदि सर्वतोभद्रका
शांतिनाथ
जिन प्रतिमा
भ० वर्धमान स्वामी ।
संदर्भ ग्रंथ
आयागपट्ट
पं.चं. अ. ग्रं.
पं.चं.अ.ग्रं.
पं.चं.अ.ग्रं.
पं.चं. अ. ग्रं.
पं.चं.अ. ग्रं.
पं.चं.अ. ग्रं.
स्था. जैन इति.
जै.शि.सं. भा. 2
प्रा.भा.अ.सं. खंड 1
जै.शि.सं.भा. 2
पं.चं. अ. ग्रं.
संदर्भ ग्रंथ
म.ए.प. जै.ध.
म.ए.प. जै.ध.
म.ए.प. जै.ध.
म.ए.प. जै.ध.
म.ए.प. जै.ध.
ऋषभदेव
म.ए.प. जै.ध.
शकों का विध्वंस करने म.ए.प.जै.ध. वाली
211
पृ.
496
495
496
500
493
495
499
50
13
14
318
319
54
551
पृ.
449
449
449
449
448
449
450
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
212
महावीरोत्तर-कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन की सातवीं शती
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
संदर्भ ग्रंथ
अवदान प्रतिमा निर्माण आदि प्रतिमा
...................
म.ए.प.जै.ध.
449
बप्पनाग
श्री रत्नप्रभ सूरी जी
श्री महावीर स्वामी
भ.पा.प.इ.
157
ई.पू. द्वितीय | कुटुम्बनी शती ई.पू. द्वितीय | मायादे शती ई. सन की छांडदे, नागणदे, 5वीं शती छाहड़ी ई. सन की देवलदे 7वीं शती ई. सन की मांगी, जसादे 7वीं शती
उप, चोरड़िया | उप. देवगुप्तसूरि जी
श्री महावीर स्वामी
भ.पा.प.इ.
157
बप्पनाग
उप. कक्कसूरी जी
श्री शांतिनाथ स्वामी
भ.पा.प.इ.
157
58
आदित्यनाग
| उप. देवगुप्तसूरी जी
श्री महावीर स्वामी
भ.पा.प.इ.
157
क्र० | संवत्
श्राविका नाम
59 | अनुपलब्ध
शिवमित्रा
498
60 | अनुपलब्ध
शिवमित्रा
27
61 | अनुपलब्ध
| दिना(दत्ता)
496
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
अवदान
संदर्भ ग्रंथ गच्छ / आचार्य
प्रतिमा निर्माण आदि गोतिपुत्र की पत्नी थी। सुंदर आयागपट्ट की स्थापना | पं.च.अ.ग्र.
की जो भग्न है। मत्स्य युक्त सरोवर में पुष्पित एवं मुकुलित कमलों की सुंदर बेल उसपर
चित्रित है। फल्गुयश नर्तक की पत्नी थी। मध्य में वेदिकायुक्त तोरण जै.शि.सं.भा. 2
चित्रित सुंदर आयागपट्ट दान में दिया। आजु बाजु में आभूषणों
सहित दो सुंदरियाँ प्रदर्शित है। वजनंदिन की पुत्री वृद्धि शिव की | एक प्रतिमा का दान किया पं.च.अ.ग्र. बहू थी। भदंत जयसेन की अंतेवासिनी एक प्रसाद का दान किया था। | पं.च.अ.ग्र. शिष्या थी। बुद्धि की पुत्री तथा देविल की। गोदासगणि के आदेश से दान | जै.शि.सं.भा. 2 पत्नी थी।
दिया था। वयरसिंह की पत्नी थी। पुत्रियाँ रूडी, व गांगी के साथ | जै.शि.सं.भा. 2
मिलकर नेमिनाथ का मंदिर बनवाया था। मुनि सिंह ने
प्रतिष्ठा करवाई थी। वरणहस्ति व देवी की पुत्री गुरुआर्य क्षेरक की प्रेरणा से जै.शि.सं.भा. 2 कुठकुसुत्य की पत्नी जयदेव व सर्वतो भद्रिका प्रतिमा बनवाकर मोहिनी की बहू थी।
भेंट की थी। मोगली पुत्र की पत्नी पुष्पक थी। | दान का वर्णन है।
जै.शि.सं.भा. 2
था।
62 | अनुपलब्ध
धर्मघोषा
496
| अनुपलब्ध
गृहश्री
| 32
64 | अनुपलब्ध
फाऊ
| 164
65 | अनुपलब्ध
स्थिरा
| 21
66 | अनुपलब्ध
असा
53
67 | अनुपलब्ध
| 48
| मारसिंह की लघु बहन
68 | अनुपलब्ध
अचला
48
वह माघनंदी की शिष्या थी। जैन मंदिरों का निर्माण व जैन | जै.शि.सं.भा. 2
मुनियों के आवास का प्रबंध
किया था। भद्रयश की बहू व भद्रनंदि की। अर्हतो के पूजार्थ एक
जै.शि.सं.भा. 2 पत्नी थी, तथा गृहदत्त की पुत्री आयागपट्ट स्थापित किया था। थी। वह गृहदत्त की पुत्री थी। धर्मार्थ नामक श्रमण के उपदेष | पं.चं.अ.ग्रं.
| से षिलापट्ट का दान दिया था।
69 | अनुपलब्ध
|धनहस्ति की पत्नी
48
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
213
70
अनुपलब्ध
| बलहस्तिनी (लहस्तिनी) धर्ममित्र की वधू
71 | अनुपलब्ध
72 | अनुपलब्ध
| तेजाबाई
73 | अनुपलब्ध
| नागश्री
74 | अनुपलब्ध
| भवनक की पत्नी
75 | अनुपलब्ध
गुल्हा
76 | अनुपलब्ध
कमलदेवी
परिजनों के साथ एक बड़ा जै.शि.सं.भा. 2 | 499 तोरण बनवाया था। एक जिन प्रतिमा का निर्माण पं.चं.अ.ग्रे. 499 कराया था। भ, रत्नकीर्ति भ. कुमुदचन्द्र व राज.के जैन संत | 29 भ. अभयचन्द्र को संघयात्रा
निकालने में सहयोग दिया नाग की पत्नी थी, जीजू पुत्र
चित्तौड में चंद्रप्रभ मंदिर एवं जै.शि.सं.भा.5 64 था।
कोट्टरनगर में भी एक मंदिर बनवाया था। नागनंदि हरि और रूद्धि के जै.शि.सं.भा. 2 अनुरोध से जिन प्रतिमा का
दान किया था। वर्मा की पुत्री तथा जयदास की कोट्टियगण के आर्यागाढ़क की | जै.शि.सं.भा. 2 पत्नी थी।
शिष्या आर्याश्यामा की प्रेरणा से ऋषभदेव की प्रतिमा का
दान किया था। बोम्मल देवी के पुत्र वीर भैररस पुत्री रामादेवी के स्वर्गवास के जै.शि.सं.भा. 2 वोडेयर कारकल की छोटी बहन | पश्चात् भूमि का दान किया। थी।
था। पाषाण का शासन उत्कीर्ण करवाया। दैनिक पूजा हेतु दो दीपक तथा प्रतिदिन दो अंजुली चावल दान हेतु अर्पित
की थी। मोगली के पुत्र पुष्पक की पत्नी एक आयागपट्ट का निर्माण पं.चं.अ.ग्रं. 496 थी।
कराया था। पुत्र सिंह विष्णुपल्लवाधिराज ने | जै.सि.भा. अर्हत देवायतन का निर्माण 1946 दिसं.
किया था। शांति सेन मुनि की पत्नी थी। संलेखना का व्रत ग्रहण किया | जै.सि.भा. 69
था।
1940 दिसं. संलेखना व्रत ग्रहण किया था। जै.सि.भा.
1940 दिसं. तोगरीकुंटे बसदि का निर्माण । | जै.सि.भा. किया था
| 1943 दिसं.
77 | अनुपलब्ध
पूसा (पुष्या)
78 | अनुपलब्ध
| माता श्रेयार्थ
79 | अनुपलब्ध
ईचल गारवि कुट्टर
80 | अनुपलब्ध
नच्छिकब्वे
81 | अनुपलब्ध
चन्द्रप्रभा
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
21बस
महावीरोत्तर-कालीन जैन श्राविकाएँ ई.पू. छठी शती से ई. सन की सातवीं शती
संदर्भ ग्रन्थ सूची (अध्याय- ४) १. आचार्य हस्तीमलजी म. जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग २ प्राक्कथन प.४८-४६. २. साध्वी संघमित्रा, जैन धर्म के प्रभावक आचार्य प. ५७-५८. ३. सा. संघमित्रा, जै. ध. के. प्र. आ. प. ७५ ७६-८०. ४. सा. संघमित्रा, जै. ध. के. प्र. आ. प. १२५–१२६. ५.. वही प. १३०. ६. सा. संघमित्रा, जै. ध. के. प्र. आ. प. १४६-१४७. १४६. ७. साध्वी शिलापी, समय की परतों में प. २६-३०. ८. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष एवं महिलाएं, प. ५४. ६. सा. संघमित्रा, जै. ध. के. प्र. आ. प. १६. १०. पं. सिंहचंद्र जैन शास्त्री, तमिलनाडु में जैन धर्म एवं तमिल भाषा के विकास में जैनाचार्यों का योगदान, आस्था और चिंतन प. १८२. ११. समय की परतों में, साध्वी शिलापी, प. ३३-३४.
आचार्य हस्तिमलजी म., जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग २. प. ७७८.
आचार्य हस्तिमलजी म., जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग २. प. ३६६-४०२. १४. मंजीतसिंघ सोधी, मॉर्डन अपरोच टु हिस्ट्री ऑफ एनशेंट इंडिया प. ६७. १५. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं प. ४०.
६. आचार्य हस्तिमलजी म., जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग २ प. ४३३. १७. मंजीतसिंध सोधी, मॉर्डन अपरोच टु हिस्ट्री ऑफ एनशेंट इंडिया प. ६६. १८. प्रो. मंजीतसिंध सोधी, मॉर्डन अपरोच टु हिस्ट्री ऑफ एनशेंट इंडिया प. १३१ १८१. १६. जैन डॉ. ज्योतिप्रसाद प्र.ऐ.जै.पु.म.प. २१६ २१६ २२१.
सोधी प्रो. मंजीत, हिस्ट्री ऑफ एनशेंट इंडिया प. १८१.
आचार्य महाप्राज्ञ. जैन परंपरा का इतिहास प. ६४-६५. २२. जैन अजित, शोधादर्श प. ३६-४४ मार्च २००० वी नि २५-२६. २३. सं. अमलानंद घोष, जैन कला एवं स्थापत्य खंड १ प. ७७-७६. २४. मध्य एशिया और पंजाब में जैन धर्म. प. ४४६ ४४८. २५. उत्तर भारत में जैन धर्म प. २१२-२१३. २६. मध्य एशिया और पंजाब में जैन धर्म. प. ४४८-४५०. २७. साध्वी संघमित्रा, जैन धर्म के प्रभावक आचार्य प. २०६.
बोरडिया हीराबाई. जै. ध की. प्र. सा एवं म. प. १८१. २६. डॉ० हीराबाई बोरडिया, जैन धर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएं. प. १६५-१६६. ३०. जैन डॉ. ज्योति, प्र. ऐ. जै. पु. एवं म. प. ८५. ३१. दक्षिण भारत में जैनधर्म, पं. कैलाशचंद्र शास्त्री प. १० ५१-५२.
डॉ. ज्योतिप्रसाद. प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष एवं महिलाएं प. ६२-६४. ३३. डॉ. ज्योतिप्रसाद. प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष एवं महिलाएं. प. ५६.
सा. संघमित्रा, जै. ध. के. प्र. आ. प. ६६-७१. ३५. डॉ. ज्योतिप्रसाद. प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष एवं महिलाएं. प. २१८.
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
३६.
जैन सिद्धांत भास्कर, पं. के भुजबल शास्त्री प. ७०-७१.
३७.
जैन बलभद्र, भारत के दिगंबर जैन तीर्थ, भाग-२ प. १६६.
३८. (अ) आचार्य हस्तिमलजी महाराज, जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग - २ प ७८७.
(ब) डॉ० हीराबाई बोरडिया, जैन धर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएं प १३६.
डॉ० हीराबाई बोरडिया, जैन धर्म की मुख्य साध्वियां एवं महिलाएं प. १४४ – १४५.
(क) जैन धर्म का मौलिक इतिहास, द्वितीय भाग, (आ. हस्तीमलजी म.), प. ३६३३६४ ३६६ ४०४.
(ख) जैनधर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएँ प. १४१-१४३.
जैन धर्म का मौलिक इतिहास, द्वितीय भाग, आ. हस्तीमलजी म. सा. प. १८६ - १६५.
सा. संघ, जै. ध. के. प्र. आ. प. १४.
जैन धर्म का मौलिक इतिहास, द्वितीय भाग, आ. हस्तीमलजी म. सा. प. २०२-२०७.२२१. जैन धर्म का मौलिक इतिहास, द्वितीय भाग, आ. हस्तीमलजी म. सा. प. २५७ - २५८.
जैन धर्म का मौलिक इतिहास, द्वितीय भाग, आ. हस्तीमलजी म. सा. प. २६२.
३६.
४०.
४१.
४२.
४३.
४४.
४५.
४६.
युवाचार्य मधुकर मुनि ज्ञातासूत्र अ.३ प. १३७.
साध्वी संघमित्रा जैन धर्म के प्रभावक आचार्य प. १६२ - १६६.
जैन धर्म का मौलिक इतिहास, द्वितीय भाग, आ. हस्तीमलजी म. सा. प. २५६-२६१.
जैन धर्म का मौलिक इतिहास, द्वितीय भाग, आ. हस्तीमलजी म. सा. प. ३००-३०४.
(अ) सा. संघ, जै. ध. के. प्र. आ. भाग २ प. १२१-१२३.
(ब) जैन धर्म का मौलिक इतिहास, द्वितीय भाग, आ. हस्तीमलजी म. सा. प. ४६० - ४६२.
सा. संघ, जै. ध. के. प्र. आ. प. १४५-१४७.
सा. संघ, जै. ध. के. प्र. आ. प. १६१-१६२.
सा. संघ, जै. ध. के. प्र. आ. प. १७६- १८२. ५४. वही.
५५-५६ आचार्य विजय नित्यानंद सूरि, कर्मयोगी भावड़ शाह प. ६८-७०.
५७. सा. संघ, जै. ध. के. प्र. आ. प. १७६-१८२.
५८-५६-६० आचार्य विजय नित्यानंद सूरि, कर्मयोगी भावड़ शाह प. ६-३६.
भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ् मय का अवदान प. १२६.
सा. संघ, जै. ध. के. प्र. आ. प. १०६-११०.
४७.
४८.
४६.
५०.
५१.
५२.
५३.
ॐ ॐ
६१.
६२.
६३.
६४.
६५.
६६.
६७.
६८.
वही प. १०१-१०७.
सत्यरंजन बेनर्जी एनशंट जैन टेम्पल्स ऑफ तमिलनाडु, प. ६२-६३.
सा. संघ, जै. ध. के. प्र. आ. प. ३३६-३३८.
पं. विजयमूर्ति जैन शिलालेख संग्रह. भा. २ प. १८५-१८६.
साध्वी संघमित्रा जैन धर्म के प्रभावक आचार्य प. २७३.
जैन डॉ. ज्योतिप्रसाद. प्र. ऐ. जै. पु. म. प. २४०-२४१.
215
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
217
| Crocktocockoooooooooooooooooo पंचम अध्याय
OCHORooooococcsecsiece
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
उत्तर और दक्षिण इन दो विभागों में संपूर्ण भारत देश का विस्तार है। उत्तर और दक्षिण दोनों ही विभागों में भारत की समद्ध, सांस्कतिक, धार्मिक, राजनैतिक धरोहर उपलब्ध होती है। भारत में अनेक संस्कतियों का अस्तित्व रहा है, अनेक विदेशी संस्कतियों ने भी भारत में अपने पैर जमाने का प्रयत्न किया हैं। विभिन्न परिस्थितियों के चक्रवात से जझती हई भारतीय संस्कति ने अपने अस्तित्व को कायम रखा है तथा समय समय पर जहाँ एक ओर इस संस्कति ने विदेशी संस्कतियों को प्रभावित किया है, वहीं उस पर भी विदेशी संस्कतियों का प्रभाव पड़ा है। प्रस्तुत अध्याय में हमने उत्तर और दक्षिण भारत की राजनैतिक और धार्मिक परिस्थितियों में जैन नारी वर्ग का जो महत्वपूर्ण योगदान रहा है, उस पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है। ५.१ उत्तर भारत में जैन धर्म
___ उत्तर भारत में जैन श्राविकाओं ने जैनधर्म के उन्नयन में महत्वपूर्ण सहयोग दिया है। राजा भोज की धारा नगरी के राजकवि धनपाल की पुत्री ने अपनी विलक्षण स्मरणशक्ति से अग्नि में भस्मीभत कादम्बरी के समान अनमोल तिलकमंजरी नामक आधा हिस्सा अपने पिता को सुनाया। पिता ने आधा हिस्सा नया जोड़कर ग्रंथ को संपूर्ण किया। इस प्रकार धनपाल की पुत्री को तिलकमंजरी ग्रंथ को संपूर्ण करने का श्रेय जाता है। प्राकृत भाषा की प्रखर प्रतिभा के रूप में सुंदरी श्राविका का योगदान भुलाया नही जा सकता। उसने धनपाल कवि द्वारा रचित "पाइयलच्छी नाम माला” नामक प्राकृत कोष से सर्वप्रथम प्राकृत भाषा का अभ्यास किया था। इस ग्रंथ की रचना की वह प्रेरणास्त्रोत बनी। गुर्जर देश की श्राविका श्रीमती ने अंबिका देवी से आबू पर्वत पर मंदिर निर्माण का वरदान मांगा, किन्तु पुत्र प्राप्ति के वरदान को ठुकरा दिया। उस श्राविका श्रीमती के त्याग की जीवंत यश गाथा है विमलवसहि का कलापूर्ण मंदिर । ई.सन् ११०० के आसपास वरूम गाँव में चालुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज की माता मीनलदेवी ने मॉनसून झील बनवाई थी। पाहिनी श्राविका ने गुरू आदेश को शिरोधार्य करते हुए पुत्र मोह का त्याग किया था। आचार्य हेमचंद्र जैसा शासनसेवी सुपुत्र जिनशासन को समर्पित किया था। सोलंकी वंश के राजा कुमारपाल जैसे जिनधर्मप्रभावक सपूत को सुसंस्कारित करने में माता कश्मीरी का महत्वपूर्ण योगदान रहा था। उसने बचपन से ही पुत्र को कठिनाईयों का सामना करने की शिक्षा दी थी। कुमारपाल की रानी भोपाला ने संकट के समय में अपने पति को पूर्ण सहयोग दिया था। कुमारपाल के राजा बनने तक इस रानी का पूर्ण सहयोग रहा था। साहित्य जगत में तत्कालीन श्राविकाओं का बड़ा महत्व रहा है। १३वीं शताब्दी में क्षत्रिय राजा विजयपाल की रानी नीतल्लादेवी ने मंदिर एवं पौषधशाला का निर्माण करवाया तथा योगशास्त्र निवत्ति की पुस्तक लिखवाई जो पाटण में विद्यमान है। कलिंगदेश (उड़ीसा) अतिप्राचीन काल से जैनधर्म का गढ़ था। छठी-सातवीं शताब्दी के बाणपुर-शिलालेख से प्रकट हैं कि, उस समय कलिंगदेश के शैलोद्भववंशी नरेश धर्मराज की रानी कल्याणदेवी ने जैनमुनि को धर्म कार्य के लिए भूमि का दान दिया था। महाराजा हिमशीतल की राजमहिषी मदनावती ने रथोत्सव का विशाल आयोजन किया था, और जैनमत की स्थापना की थी। ५.२ आठवीं से दसवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ:
उत्तर भारत के मध्यकालीन इतिहास में भट्टारक संप्रदाय के पद चिन्ह दिखाई देते है। भट्टारक परंपरा दिगंबर और श्वेतांबर दोनों में ही पाई जाती है। भट्टारक एक प्रकार के जैन मुनि या यति है जो धर्मशास्ता की तरह प्रतिष्ठित थे। मंदिरों के लिए दान
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
218
में दी गई बड़ी बड़ी भूमियों को संभालाने थे एवं सभी धार्मिक गतिविधियों में उनको प्राथमिकता दी जाती थी । धवला तथा हरिवंशपुराण में भट्टारक परंपरा का उल्लेख प्राप्त होता है। महावीर के बाद की प्रथम सात शताब्दी तक इनका क्रमिक इतिहास प्राप्त नहीं होता है । भद्रबाहु द्वितीय तथा लोहार्य द्वितीय इस परंपरा के अंतिम दो सदस्य माने जाते है। भट्टारक की पारंपरिक पट्टावली की विभिन्न गद्दी भी संभवतया इन दोनों से ही प्रारंभ होती है। ईस्वी सन् की आठवीं शताब्दी से इस परंपरा के बारे में निश्चित संदर्भ प्राप्त होते हैं। तब से अब तक यह परंपरा चली आ रही हैं। भट्टारक परंपरा का मध्यकालीन समाज में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इस परंपरा में कई प्रभावशाली भट्टारक हुए है जिनकी प्रेरणा से जैन श्राविकाओं द्वारा जैन ग्रंथों के निर्माण में एवं तीर्थंकर प्रतिमाओं के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस काल में हस्तलिखित ग्रंथों की सुरक्षा हुई थी। हर व्रतके उद्यापन समारोह पर भट्टारकों को हस्तलिखित प्रतियाँ भेंट स्वरूप दी जाती थीं ।
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
आठवीं शताब्दी में (ई. सन् ७२६ - ७६) गंग नरेश श्रीपुरूष मुत्तरस, पथ्वीकोंगुणी के दीर्घकालीन शासन में गंगराज्य पुनः अपनी शक्ति एवं समद्धि की चरम सीमा पर पहुँच गया। गंग नरेश ने पाण्ड्यनरेश राजसिंह के पुत्र के साथ अपनी पुत्री का विवाह करके उस राज्य से मैत्री संबंध बनाया । परिणाम स्वरूप पाण्ड्य देश में पिछले दशकों में जैनों पर जो भयंकर अत्याचार हो रहे थे उनका अंत हुआ। तमिल भाषा की साहित्यिक प्रवत्तियों में जैन विद्वानों का पुनः सहयोग प्राप्त हुआ । इन्हीं राजा श्रीपुरूष के राज्यकाल में श्रीपुर की उत्तरदिशा में सागर कुल तिलक मरूवर्मा की पुत्री राजमहिला कुन्दाच्चि ने लोकतिलक नामक भव्य जिनालय का निर्माण करवाया था एवं राजा ने इसके लिए कुछ दान भी दिया था ।
T
नववीं शताब्दी में वीर राजा पथ्वीपति और उसकी रानी कम्पिला परम जैन धर्मानुयायिनी थी। इनके पुत्र मारसिंह तथा पौत्र आदि भी जैन धर्मी थे। इसी शती में राष्ट्रकूट सम्राट् अमोघवर्ष प्रथम की पुत्री राजकुमारी चन्द्रबेलब्बा ; अब्बलब्बा भी दढ जैन श्राविका थी । दसवीं शताब्दी में बूतुग द्वितीय, गंग गंगेय के शासनकाल में उनकी तीन रानियाँ थी रेवा, कलम्बरसी, तथा दीवलाम्बा । तीनों में दीवलाम्बा दढ़ जैन श्राविका थी, उसने सुंदी नामक स्थान में जिनालय का निर्माण करवाया, जिसके संरक्षण के लिए राजा ने बहद् दान दिया । ५ नौवीं शताब्दी में ही कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारवंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं सर्वमहान् नरेश मिहिरभोज था । इनके राज्य काल में सौराष्ट्र के जैन तीर्थ गिरनार के जैन मंदिर में एक भग्न शिलालेख प्राप्त हुआ था । उसमें अंकित हैं कि महीपाल नामक सामंत राजा के संबंधी वयरसिंह की भार्या फाऊ, पुत्रियाँ रूडी एवं गांगी ने परिवार के साथ मिलकर नेमिनाथ जिनालय बनवाया तथा मुनिसिंह द्वारा उसकी प्रतिष्ठिा करवायी थीं। उस समय समाज में विद्वानों के प्रति पूरा आदर का भाव था ऐसा स्पष्ट दिखाई देता है । ६
दसवीं शताब्दी में बीजब्बे, सोमिदेवी आदि श्रद्धाशील श्राविकायें हुई हैं। दसवीं शती में ही इस वंश के राजा राचमल्ल सत्यवाक्य चतुर्थ के अद्वितीय मंत्री सेनापति चामुण्डराय ने अपनी माता कालल देवी की इच्छा पूरी करने के लिए ई. ६७८ में • गोम्मटेश्वर - बाहुबली की विश्व विश्रुत ५७ फीट उत्तुंग खड्गासन प्रतिमा का निर्माण करवाया था | चामुण्डराय की छोटी बहन धर्मात्मा पुलवे ने विजय मंगलम् स्थान की चंद्रनाथ बसदि में समाधिमरण किया था। इस काल में वीर महिलारत्न लोक विद्याधर की पत्नी सावियब्बे हुई थी, जो परम जिनेंद्र भक्त थी । ईस्वीं सन् की ग्यारहवीं शताब्दी में राष्ट्रकूट नरेश कष्ण ततीय के राज्यकाल में सन् ६११. ईस्वी में नागर खण्ड के अधिकारी सत्तरस नागार्जुन का स्वर्गवास हो गया था। उनके स्थान पर उनकी पत्नी जक्कियब्बे को अधिकारी के पद पर नियुक्त किया गया था । जक्कियब्बे शासन में सुदक्ष और जैन शासन की भक्त सुश्राविका थीं। इसी शताब्दी में जैन इतिहास में स्मरणीय अतिमब्बे नाम की एक आदर्श उपासिका हुई थी। इसने अपने धन से पोन्नकत शांति पुराण की एक हज़ार प्रतियाँ और डेढ़ हज़ार सोने एवं जवाहरात की मूर्तियाँ तैयार करवायी थी। अतिमब्बे का धर्मसेविकाओं में अद्वितीय स्थान हैं। दसवीं शताब्दी के अंतिम भाग में वीर चामुण्डराय की माता काललदेवी श्रेष्ठ धर्मप्रचारिका सुश्राविका हुई है, उसने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक गोम्मट देव के दर्शन नहीं करूंगी तब तक दूध नहीं पीऊँगी। चामुण्डराय को अपनी पत्नी अजितादेवी द्वारा माता की प्रतिज्ञा ज्ञात हुई। मातभक्त पुत्र ने अपनी माता की इच्छा पूर्ण की। गोम्मट देव की प्रतिमा का निर्माण हुआ तथा माता की आज्ञा से प्रतिमा का दुग्धाभिषेक भी हुआ । इस प्रकार काललदेवी गोम्मट देव की प्रतिमा स्थापन करवाने की प्रेरिका रही जैन धर्म के प्रचार प्रसार के लिए उसने कई उत्सव भी किये। "
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
५.३ ग्यारहवीं से तेरहवीं शती की जैन श्राविकाएँ :
गुजरात का शासन जयसिंह सिद्धराज, सम्राट् कुमारपाल, अजयपाल, भीमदेव आदि के हाथों में रहा । ई. सन् की ग्यारहवीं शती में गुजरात के प्रतापी सोलंकी नरेश भीमदेव प्रथम के राज्यकाल में उनके स्वामीभक्त अमात्य थे विमलशाह । वे धनी वणिक् प्रचण्ड सेनानायक, धर्मानुरागी, उदार और दानी थे। विपुल द्रव्य व्यय करके ई. १०३२ में आबूपर्वत पर विश्वविख्यात कलाधाम भगवान् आदिनाथ का मंदिर उन्होंने बनवाया । कर्ण की रानी और जयसिंह की जननी राजमाता मीनलदेवी, कुमारपाल की रानी भोपालादेवी, पुत्री लीलू आदि जैन धर्म की उपासिकाएँ थी। ई. सन् की ग्यारहवीं शताब्दी में गंगरस सत्यवाक्य नामक श्रद्धानिष्ठ जिनोपासक राजा की रानी बाचलदेवी ने गंगवाड़ी के बन्निकेरे नगर में भव्य जिनालय का निर्माण करवाया । चालुक्यराज सोमेश्वर की पटरानी माललदेवी जिनधर्मी थी। मारसिंह देव द्वितीय की छोटी बहन सुम्मियब्बरसि तथा उसकी बड़ी बहन कनकियब्बरसि जिनमंदिर बनवाये तथा उनकी व्यवस्था के लिए भूमि का दान भी दिया था । ग्यारहवीं शताब्दी में ही राजेंद्र कोंगालव की माता पोचब्बरसि, कदम्बशासक कीर्तिदेव की बड़ी रानी माललदेवी ने जिन मंदिर का निर्माण करवाया था। शांतरवंश की महिला चट्टलदवी ने शांतरों की राजधानी पोंबुच्चपुर में जिनालयों का निर्माण करवाया। अनेक मंदिर, बसदियाँ, तालाब, स्नानगह तथा गुफाएँ बनवायीं तथा आहार, औषध, शिक्षा एवं आवास की व्यवस्था की थी।
219
ई. सन् ११७५ में मल्लाम्बिका श्राविका ने कवि आचाण्ण द्वारा रचित पार्श्वनाथ पुराण लिखवाया। ई. सन् १२०६ में श्राविका गंगादेवी ने कवि जन्न रचित यशोधरा चरित्र की प्रतिलिपि करवाई । १३वीं शती में कामांबिका ने कुमुदेंदु रामायण, महादेवी ने पुष्पदंतपुराण, तथा १४वीं शती में अकम्बि ने जिनेंद्र कल्याणाभ्युदय नामक ग्रंथ की रचना करवाई । ग्यारहवीं शताब्दी के दो वीर भ्राता थे नेढ़ और विमल । विमल अणहिलपुर पाटन के राज्य सिंहासनाधिपति गुर्जर देश के चौलुक्य महाराज भीमदेव का मंत्री था । वह अत्यंत कार्यदक्ष, शूरवीर तथा उत्साही था, अतः महाराज भीमदेव ने उसको सेनापति नियत किया । भीमदेव ने अचलगढ़ को अपना निवास स्थान बनाया चन्द्रावती में धर्मघोष सूरि का चातुर्मास कराया और इनके उपदेश से आबू पर्वत पर विमल वसहि नामक मंदिर बनवाया, जो अत्यंत कलापूर्ण था ।
गुप्त सम्राटों के समय में वर्तमान विधयप्रदेश (बुन्देलखण्ड) उनके साम्राज्य का एक प्रसिद्ध प्रांत था । देवगढ़, खजुराहो आदि उसके प्रमुख नगर थे। खजुराहों में श्रेष्ठी बीबतसाह और उनकी पत्नी सेठानी पद्मावती ने ई. १०८५ में खजुराहो में एक जिन प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। उक्त मंदिर में भी इनका सहयोग रहा है, यह मंदिर भी अत्यंत कलापूर्ण है। इसी बुंदेलखण्ड में दानी भैंसाशाह (पाड़ाशाह) १२वीं. - १३वीं शताब्दी में हुए थे।" ई. सन् ११८८ के दो अभिलेखों से ज्ञात होता है कि श्राविका लहिया की पुत्री, देवचंद्र की
पुत्रवधू, एवं यशोधर की पत्नी ने अपना भवन महावीर मंदिर के रथ को रखने हेतु दान दिया था। संवत् १०८८ में अभयदेवसूरि नौ अंगों पर टीकाएँ लिखी तथा डोसी, पगारिया, मेड़तवाल नामक गोत्रों की स्थापना की। १२वीं शती के मल्लधारी हेमचंद्राचार्य तथा श्री जिनवल्लभसूरी ने लोगों को जैनधर्म की दीक्षा दी तथा गोत्रों की स्थापना की । धंधुका निवासी हुंबड़ गोत्रीय संस्कारी माता वाहड़देवी के पुत्र जिनदत्तसूरी का जन्म वि. सं. ११३२ में हुआ था। आपने ७० गोत्रों की स्थापना की थी। आपकी स्मति में देश भर में दादावाड़ी बनी हुई है। आप दादाजी के नाम से प्रसिद्ध हुए थे । संवत् ११६७ में माता देल्हणदेवी के सुपुत्र जिनचंद्रसूरि हुए थे । श्राविका जयंतश्री की कुक्षी से जिनकुशलसूरि का जन्म हुआ था। आप भी दादा जी के नाम से जैन समाज में विख्यात् हुए है। " ई. सन् की बारहवीं शताब्दी में गंगवाड़ी के राजा भुजबल गंग की रानी महादेवी एवं बाचलदेवी दोनों ही जैनमत की संरक्षिका थी। बाचलदेवी ने बन्निकेरे में सुंदर जिनालय का निर्माण कराया था। राजा तैल की पुत्री तथा विक्रमादित्य शांतर की बड़ी बहन चम्पादेवी थी। इसकी पुत्री बाचलदेवी दूसरी अतिमब्बे थी। दोनों माँ - पुत्री चतुर्विध संघ भक्ति में आस्थावान् थी। जैन सेनापति गंगराज की पत्नी लक्ष्मीमती अपने युग की अत्यंत प्रभावशालिनी नारी थी। गंगराज के बड़े भाई की पत्नी अक्कणब्बे जैन धर्म के प्रति दढ़ श्रद्धा थी। सेनापति सूर्यदण्डनायक की पत्नी दावणगेरे की भक्ति भी प्रसिद्ध है । १२
बारहवीं - तेरहवीं शताब्दी में सिद्धराज जयसिंह का सामंत था चण्डप्रसाद का पुत्र सोम । सोम का पुत्र था अश्वराज तथा अश्वराज के तीन पुत्र हुए थे मालदेव वस्तुपाल और तेजपाल । वस्तुपाल ने यात्रा संघ निकाला था। इनकी दो पत्नियाँ थी । ललितादेवी और बेजलदेवी । ललितादेवी से शूरवीर पुत्र जयन्तसिंह का जन्म हुआ था । महामात्य तेजपाल की भी दो पत्नियाँ थी,
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
220
अनुपमादेवी और सुहड़ादेवी । अनुपमादेवी से महाप्रतापी, प्रतिभाशाली, उदार हृदय लूणसिंह नामक पुत्र पैदा हुआ। वह राजकार्य में निपुण था तथा पिता के साथ अथवा अकेला भी युद्ध, संधि-विग्रहादि कार्यों में भाग लेता था। गुजरात की राजधानी अणहिलपुरपाटन का उत्तराधिकार भीमदेव द्वितीय को प्राप्त हुआ था । उस समय गुजरात में धोलका में, महामण्डलेश्वर सोलंकी अर्णोराज का पुत्र लवणप्रसाद राजा था। और उसका पुत्र वीर धवल युवराज था । ये दोनों भीमदेव के मुख्य सामंत थे, इस कारण उन्होंने अपनी राज्य सीमा को बढ़ाने और सम्हालने का कार्य लवणप्रसाद को सौंपा और वीरधवल को अपना युवराज बनाया। इन्हीं वीरधवल के मंत्री थे प्रागवाट् वंशी वस्तुपाल और तेजपाल । मंत्री वस्तुपाल और तेजपाल ने कई युद्ध किये थे और बुद्धिबल से उनमें विजय प्राप्त की थी। धर्म प्रभावना के कार्यों में धरणाशाह का नाम भी गणनीय है। इनके दादा का नाम नाग सांगण, पिता का नाम कुरपाल तथा माता का नाम कमिल या कर्पूरदे था । ये दो भाई थे रत्नाशाह और धरणा शाह । ये सिरोही के नंदियाग्राम के मूल निवासी थे । तथा आगे मालवा तत्तपश्चात् मेवाड़ में कुम्बलगढ़ के समीप गालगढ़ आ बसे, जहाँ इन्होंने राणकपुर का जैन मंदिर बनवाया । इन्होंने अजाहरि सालेर और पिण्डवाड़ा में कई धार्मिक कार्य सम्पन्न किये थे । १३
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
१२वीं शताब्दी के मालवादेश की धारा नगरी में परमार राजा भोज का उत्तराधिकारी जयसिंह प्रथम विद्वानों का आश्रयदाता था। राजा नरवर्मदे ( १२वीं शताब्दी) जैनधर्म का अनुरागी था। उज्जैन के महाकाल मंदिर में जैनाचार्य रत्नदेव और शैवाचार्य विद्याशिववादी के साथ शास्त्रार्थ उसी के समय में हुआ था। जैनयति समुद्रघोष और श्रीवल्लभसूरि जी का भी सम्मान राजा ने किया था। पंडित आशाधर जी की पत्नी सरस्वती, उनकी सच्ची अनुगामिनी थी। उसने अपने पति की साहित्यिक रचनाओं में महत्वपूर्ण सहयोग दिया था । श्रीमती रत्नी पंडितजी की माँ थी तथा कमलश्री भक्त श्राविकाओं में में एक थी। ग्यारहवीं शताब्दी के राजा विक्रमसिंह एवं कच्छपसिंह घात ग्वालियर के जैन मतानुयायी राजा थे। उसी समय में श्रेष्ठी जासूक का पुत्र वैभवशाली जयदेव हुआ था। उसकी पत्नी यशोमती सर्वगुणों से सम्पन्न और रूपवान् थी । उनके ऋषि और दाहड़ दो सुपुत्र थे । श्रेष्ठी दाहड़ ने चण्डोभ में विशाल जिनमंदिर का निर्माण करवाया था । १५ १२वीं शताब्दी में राजस्थान के स्थली प्रदेश में अम्बर नाम के गहस्थ वैद्याचार्य हु थे । उनके सुपुत्र पापाक तथा प्रपौत्र आलोक, साहस और लल्लुक थे । आलोक की पत्नी हेला के तीन पुत्र हुए थे । बाहुक, भूषण और लल्लाक। बाहुक की सीड़का नाम की पत्नी थी । भूषण की दो पत्नी थी लक्ष्मी और सीली । ई. सन् की ग्यारहवीं शताब्दी में गंगरस सत्यवाक्य नामक श्रद्धानिष्ठ जिनोपासक राजा की रानी बाचलदेवी ने गंगवाड़ी के बन्निकेरे नगर में भव्य जिनालय का निर्माण करवाया था। चालुक्यराज सोमेश्वर की पटरानी माललदेवी जिनधर्मी थी। मारसिंह देव द्वितीय की छोटी बहन सुग्गियब्बरसि तथा उसकी बडी बहन कनकियब्बरसि ने जिनमंदिर बनवाये तथा उनकी व्यवस्था के लिए भूमि का दान दिया था । १६
बारहवीं शताब्दी में जैन नर रत्नों की श्रंखला में भामाशाह का नाम अत्यंत गौरवास्पद है। उन्होंने मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप को उस समय अपना सारा वैभव - कोष दे दिया, जब वे निराशा के कगार पर खड़े मेवाड़ छोड़ देने की तैयारी में थे। भामाशाह का यह उदार, मित्रवत् सहयोग महाराणा को उस दुष्काल में यदि नहीं मिलता तो स्पष्ट है कि मेवाड़ का इतिहास विषम स्थितियों की भेंट चढ़ गया होता।
बारहवीं शताब्दी के पश्चात् राजस्थान में जिन मंदिरों का निर्माण राज्यकुल और श्रेष्ठी वर्ग के जीवन स्तर का परिचय और प्रतिष्ठा की कसौटी बन गया। वह राजस्थान में जैनों का उत्कर्ष काल था । ऐसे समय जैन श्रावक होते हुए भी मंदिर - निर्माण में व्यय करने की जगह राष्ट्र की सुरक्षा हेतु उन्होंने धन संपदा दी। कर्नल टॉड का कहना है कि वह धन इतना था कि उस धन से बारह वर्षों तक, पच्चीस हजार सैनिकों का पूरा खर्च चलाया जा सकता था । "
१३वीं शताब्दी में लवणप्रसाद के पुत्र वीरधवल के मंत्री थे भ्रातद्वय वस्तुपाल और तेजपाल । जैन धर्म का प्रभाव बढ़ाने के लिए जितना द्रव्य उन्होंने व्यय किया था, उतना किसी अन्य ने किया हो, ऐसा इतिहास में नहीं मिलता। इसी राजघराने में त्रिभुवनपाल की पत्नी कश्मीरादेवी थी, जिसके कुमारपाल आदि तीन पुत्र हुए तथा प्रमिला एवं देवल नाम की दो पुत्रियाँ हुई थी
जो जैन धर्म की उपासिकाएँ थीं।
ईस्वी सन् बारहवीं शताब्दी के मध्य में राजा अर्णोराज के पुत्र विग्रहराज चतुर्थ एवं पथ्वीराज द्वितीय का अनुज, गुजरात के सोलंकी नरेश जयसिंह सिद्धराज का दौहित्र, दिल्ली के अनंगपाल तोमर का जामाता सोमेश्वर चौहान अपर नाम चाहड़, तथा
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
221
अजमेर के चौहानों में जैनधर्म पोषक एवं भक्त नरेश हुए। इनके राज्यकाल में ११८२ ईस्वी में लाहड़ की पत्नी तोलो ने अन्य तीन श्राविकाओं के साथ मल्लिनाथ की प्रतिमा बनवाई थी। महीपाल देव की सम्मानित माता श्राविका आस्ता ने ११६० ईस्वी में पार्श्व-प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी। इनकी प्रतिष्ठा दिल्ली अजमेर के चौहान पथ्वी राज ततीय के समय में हुई थी। इस समय में श्रेष्ठी लोलार्क की तीन पत्नियाँ ललिता, कमलाक्षी और लक्ष्मी हुई थी। ललिता विशेष प्रिय थी, ललिता की प्रेरणा पाकर भगवान् पार्श्वनाथ जिनालय का पुनरुद्धार कर नया जिनालय श्रेष्ठी लोलार्क ने बनाया। उत्तर प्रदेश के असाई खेड़ा (इटावां जिला) नगर में ११७३ ईस्वी में माथरवंशी नारायणसाह की भार्या रूपिणी ने श्रुतपंचमीव्रत के फल को प्रकट करने वाली भविष्यदत्त कथा कवि श्रीधर से लिखवायी थी। दिल्ली के ही तोमर नरेश अनंगपाल ततीय के समय में वील्हा माता के पत्र श्रीधर कवि ने चंद्रप्रभ च की थी। नट्टलसाहू तोमर नरेश का राज्य सेठ था, जिनकी माता साहू जेजा की धर्मपत्नी शीलगुण मंडिता भार्या मेमड़ि थी। बारहवीं शताब्दी की महान श्राविका पाहिनी देवी धन्य है जिन्होंने हेमचंद्र जैसे रत्न को जन्म दिया। जैन साहित्य के सरस्वती
सिद्धहेम व्याकरण" एक ऐसा उच्च कोटि का व्याकरण ग्रंथ है, जिसका नामकरण गुरू और शिष्य के संयुक्त नाम पर हुआ है। सिद्धराज शैव धर्मावलम्बी थे, किंतु आचार्य हेमचंद्र के उपदेशों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने जैनों के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व पर्युषण तथा अन्य जैनधर्म से जुड़े उत्सवों पर अमारि-घोषणा करवायी। गुरू के आदेशानुरूप सिद्धराज ने अपने राज्य के समस्त जैन मंदिरों पर कनक-कलश चढ़ाये और जिनशासन के प्रसार में आनेवाली बाधाओं को यथा सामर्थ्य दूर किया। एक प्रबल अनुशास्ता होने के साथ-साथ आचार्य हेमचंद्र महान् साहित्यकार भी थे। सिद्धराज की विनंती पर हेमचंद्र ने "सिद्धहेमव्याकरण" की रचना की जिसका योग पाकर गुजरात का साहित्य श्रीसंपन्न हो गया और गुजरात के पाठ्यक्रम में इसे स्थान मिला। सरस्वती का ऐसा शुभ्रवर्ण, शुभ-कांति से दीप्त शिरोधार्य मोती गुजरात में ही पैदा हुआ था। हाथी पर रखे हौदे में उस व्याकरण ग्रंथ को आसीन कर राज्य में उसका प्रवेश करवाया गया था। तीन सौ विद्वानों ने बैठकर उसकी प्रतिलिपियाँ तैयार की थी। आठ विशाल अध्यायों में निर्मित, ३५६६ सूत्रों में निबद्ध इस व्याकरण को साहित्यिक-क्षेत्र में पाणिनी तथा शाकटायन के व्याकरण जैसा ही सम्मान मिला तथा कटक से कश्मीर तक के पुस्तकालयों में इसने प्रतिष्ठा अर्जित की।
___ "त्रिषष्ठिशलाका पुरूष" नामक कति जिसमें तिरसठ (६३) महापुरूषों के जीवन-चरित्र, तत्कालीन सांस्कतिक चेतना और सभ्यता का उत्कर्ष, जैन इतिहास के मानक पुरूषों का सरस काव्यात्मक चित्रण, धर्म, दर्शन, अध्यात्म आदि विविध विषयों की सुंदर विवेचना प्रस्तुत की गई है, जो इतिहास प्रेमी पाठकों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुई। साढ़े तीन करोड़ श्लोकों से भी अधिक श्लोकों की रचना कर आचार्य हेमचंद्र ने गुजरात के वाड्.मय के प्रशस्त ललाट पर जैनों का नाम सदा के लिए अंकित कर दिया। मोहनलाल दलीचंद देसाई लिखते हैं कि जैन आचार्यों द्वारा रचित साहित्य को शेष कर दिया जाये तो गुजरात का साहित्य अत्यंत क्षुद्र दिखाई देगा।
प्रभावक चरित्र के उल्लेखानुसार समद्ध गुर्जर प्रदेश में चालुक्यराज कर्ण के शासनकाल में धंधुका नामक सुंदर नगर में चाचिंग नामक मोढ़ जाति का श्रेष्ठी रहता था। श्रेष्ठी चाचिंग की धर्मपत्नी का नाम पाहिनी था जो धर्मनिष्ठा, पतिपरायणा एवं रूप-गुण संपन्ना श्राविकारत्न थी। आचार्य हेमचंद्र जी ने गुर्जर राज्य के ग्रंथागार में सूत्र वत्ति तथा अनेकार्थ बोधिका नाम माला सहित “सिद्ध-हेम व्याकरण" नामक व्याकरण के नवीन ग्रंथ की रचना की। चालुक्यराज सिद्धराज जयसिंह आचार्य हेमचंद्रजी के प्रति अपार श्रद्धा भक्ति रखता था। आचार्य श्री हेमचंद्रजी ने साहित्य सजन के क्षेत्र में क्रांति लाकर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया था। आपकी प्रेरणा से सिद्धराज जयसिंह और परमार्हत कुमारपाल ने सुदूरस्थ प्रान्तों से प्रचुर मात्रा में प्राचीन ग्रंथ रत्नों को मंगवाकर न केवल गुजरात के ज्ञान भण्डारों को ही समद्ध किया था। अपितु व्याकरण, न्याय, साहित्य, योग आदि अनेक विषयों के अभिनव ग्रंथरत्नों के निर्माण में अपना अमूल्य योगदान दिया था। गुर्जर राज्य के निवासियों में राष्ट्र, साहित्य, सदाचार, नैतिकता, पुरातन भारतीय संस्कृति, साहसिकता, कर्तव्य-निष्ठा, कला आदि के प्रति जो विशिष्ट प्रेम आज भी दष्टिगोचर होता है, उसके पीछे वस्तुतः निर्विवाद रूप से आचार्य श्री हेमचंद्रसूरि जी की प्रेरणाओं, अमोघ उपदेशों और उनके द्वारा सिद्धराज जयसिंह एवं महाराज कुमारपाल को समय-समय पर दी गई सत्प्रेरणाओं एवं सत् परामर्शो का बहुत बड़ा योगदान रहा है। आचार्य श्री हेमचंद्रसूरि जी, चालुक्यराज सिद्धराज जयसिंह, परमार्हत महाराजा कुमारपाल इन तीनों ही युगपुरूषों के जीवन वस्तुतः एक दूसरे के पूरक रहे हैं।
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
222
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
इन तीनों में से किसी भी एक के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का मौखिक अथवा लिखित रूप में वर्णन किया जाये तो अनिवार्य रूप से शेष दो के नाम भी स्वतः ही उस विवरण में सम्मिलित हो जाएंगे।२२
सम्प्रति महाराज को बोध देकर जैनधर्म का सुदूरस्थ प्रदेशों में प्रचार करवानेवाले, आचार्य सुहस्ति जी एवं वीर विक्रमादित्य को प्रतिबोध एवं जिनशासन की प्रभावना करने वाले आचार्य सिद्धसेन जी के पश्चात् आचार्य श्री हेमचंद्र जी ही विगत ढ़ाई हज़ार वर्षों में ऐसे महान जिनशासन प्रभावक आचार्य हुए हैं, जिन्होंने सिद्धराज जयसिंह को जिनशासन का हितैषी और कुमारपाल राजा को श्रावक बनाकर जिनशासन की महती प्रभावना की थी। यह हेमचंद्रसूरि जी के उपदेशों का ही प्रभाव था कि कुमारपाल ने अपने विशाल राज्य के विस्तत भूभाग में चौदह वर्ष तक निरन्तर अमारि की घोषणा करवाकर कोटि-कोटि मूक पशुओं को अभयदान प्रदान कर जैनधर्म की प्रतिष्ठा को बढ़ाया था।२३
तीर्थाधिराज आबू संसार के दर्शनीय स्थानों में से एक है। यह तीर्थ भारतवर्ष का तो अंगार है, सिरमौर है। विश्व का कोई भी पर्यटक आबू के कला-वैभव को देखे बिना हिन्दुस्तान के भ्रमण को अधूरा मानता है। आबू प्रागैतिहासिक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक तीर्थस्थल है। ओं का आदितीर्थ, जैनों की धर्म-संस्कति एवं कला का संगम तथा अन्य धर्मों के लिए भी यह पावनभूमि है। कर्नल टॉड़ ने अपनी पुस्तक' ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इण्डिया (Travels in Western India) में विमलवसहि-आदिनाथ मंदिर के लिए लिखा है, "सम्पूर्ण भारत में कला की दष्टि से यह मंदिर सर्वोत्तम है एवं ताजमहल के अतिरिक्ति दूसरी वास्तु रचनाएँ इसके समक्ष बौनी दिखाई देती है। दूसरे मंदिर लूणवसहि-नेमिनाथ मंदिर (वस्तुपाल निर्मित) के संबंध में शिल्पकला मर्मज्ञ एवं पाश्चात्य वास्तुविद् फर्ग्युसन ने अपनी पुस्तक 'इलस्ट्रेशन ऑफ इनोसेन्ट आर्कीटेक्चर इन हिंदुस्तान (Illustration of Innocent Architecture in Hindustan) में लिखा है "संगमरमर से निर्मित, छैनी एवं हथौड़े से टंकित इस मंदिर की आकतियों को कलम से कागज पर भी उत्कीर्ण करना बहुत कठिन है।२४ ।
आज के राजस्थान प्रदेश के इतिहास निर्माण में अर्बुद मण्डल की जैन संस्कति का स्थान महत्वपूर्ण है। यहाँ की संस्कृति, जैन मंदिरों तथा हिन्दू मंदिरों की स्थापत्य कला ने राजस्थान एवं गुजरात के इतिहास को प्रभावित किया है। अर्बुद परिमण्डल (आबू) की बसन्तगढ़ नगर की बसन्तगढ़ शैली की धातु प्रतिमाओं का सबसे बड़ा संग्रह सिरोही की जैन मंदिर गली का जैन पुरातत्व मंदिर है। ७०० के लगभग धातु प्रतिमायें दर्शनार्थ संगहीत है। ये धातु प्रतिमायें संवत् १०७७. वि. सं. से १६वीं सदी तक की है। इन पाँच सौ इकतालीस धातु प्रतिमाओं में से ४३४ धातु प्रतिमाओं के निर्माण में श्राविका वर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अधिकांश श्राविकायें प्राग्वाट्ज्ञातीय, ओसवाल ज्ञातीय, उपकेशज्ञातीय आदि गोत्र की हैं। इन श्राविकाओं के कुछ नाम इस प्रकार है, शोभा, विमला, तीजा, सोमी, रूपी, रूपिणी, हीरू, पूरी, ललिता, करमा, सविता, सीतादे, रसलदेवी, पूनमदे, खेतू चापल, नामल आदि है। इन श्राविकाओं ने चौबीस तीर्थंकरों में प्रथम, द्वितीय, ततीय, पांचवें, ग्यारहवें, बारहवें, सोलहवें, बाईसवे, तेईसवे, चौबीसवे आदि तीर्थंकरों की प्रतिमाओं को बनवाया था। इन श्राविकाओं के प्रेरणास्त्रोत आचार्यों के कुछ नाम इस प्रकार है, जिन्होंने मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई थी। वे हैं श्री रत्नाकरसूरि, शांतिसूरि, माणिक्यसूरि हेमतिलकसूरि, कमलचंद्रसूरि, जिनवर्द्धनसूरि, रत्नशेखरसूरि आदि। ये आचार्य खरतरगच्छ, तपागच्छ, चैत्रगच्छ, मडाहडगच्छ, नागेंद्रगच्छ आदि से संबंधित है।२५ तेरहवीं शताब्दी में आबू का विश्व प्रसिद्ध जैन कलाधाम लूणिगवसही मंदिर है, जिसका निर्माण वस्तुपाल एवं तेजपाल ने करोड़ो रूपयों की लागत से करवाया था। लूणिगवसही के इस मंदिर के निर्माणकाल में कारीगरों का उत्साह बढ़ानेवाली, श्रेष्ठी तेजपाल की बुद्धिमती पत्नी अनुपमा, जिसने मंदिर के सौंदर्य को शाश्वत और चिरंतन रूप देने के प्रयत्न में प्राणपण से, कारीगरों के अंतर की सूक्ष्मता को उभारते, उन्हें पत्थर से निकलने वाले टुकड़ों के बराबर सोना और चाँदी दान करते, उनकी कार्यक्षमता को बढ़ाते और निखारते देखा है। अनुपमा की प्रेरणा के फलस्वरूप कारीगरों ने पत्थरो में प्राण उंडेले और यह मंदिर स्थापत्य कला के इतिहास में अमर हो गया। अनुपमा की त्याग-भक्ति एवं उदारता की अमर देन से न केवल जैनों का भाल उन्नत हुआ, बल्कि, भारत के कला क्षेत्र को भी जगत-प्रसिद्धि मिली।
सुप्रसिद्ध कवि आशाधरजी की पत्नी पद्मावती ने बुलडाना जिले के मेहंकर (मेघंकर) नामक ग्राम के बालाजी मंदिर में जैन मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई थी। राजपूताने की जैन महिलाओं में पोरवाड़वंशी तेजपाल की भार्या सोहड़ादेवी, जैन राजा आशाशाह
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
की माता का नाम उल्लेखनीय है। चौहान वंश के राजा कीर्तिपाल की पत्नी महिबलदेवी का नाम भी प्रसिद्ध है। इस देवी ने शांतिनाथ भगवान् का उत्सव मनाने के लिए भूमि का दान किया था। धर्म प्रभावना के लिए कई उत्सव भी किये थे। यह चौहान वंश ई. सन् की १३वीं शती में था। इस वंश में होने वाले पथ्वीराज द्वितीय और सोमेश्वर ने अपनी महारानियों की प्रेरणा से बिजौलिया के मंदिर में दान दिया तथा मंदिर की व्यवस्था के लिए राज्य की ओर से वार्षिक चंदा भी दिया था। परमारवंश में उल्लेख योग्य धारावंश की रानी भंगारदेवी हुई थी। इस रानी ने झालोनी के शांतिनाथ मंदिर के लिए पर्याप्त दान दिया था तथा धर्म प्रसार के लिए और भी कई कार्य किये थे। सिसोदिया शाखा के राणा हम्मीर ने १३२५ ईस्वी के लगभग पुनः चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया, राज्य का अभूतपूर्व उत्कर्ष प्रारंभ हुआ ।२६ ई. सन्. १२३४ में श्राविका पाहिणी ने भट्टारक ललितकीर्ति की प्रेरणा से एक देवी प्रतिमा का निर्माण करवाया। ई. सन् १२५८ में भट्टारक देशनंदी की प्रेरणा से श्राविका हर्षिणी ने संभवनाथ प्रतिमा का निर्माण करवाया था। मेवाड़ क्षेत्र जैन धर्म के दिगंबर एवं श्वेतांबर दोनों ही संप्रदायों का महत्वपूर्ण केंद्र था। ई. सन् १२७७ में समदा के पुत्र महणसिंह की भार्या साहिणी की पुत्री कुमारिला श्राविका ने पितामह पूना और मातामह धाड़ा के श्रेयार्थ देवकुलिका बनवाई। यह देवकुलिका चित्तौड़ में नवलख भंडार की दीवार के लेख में प्राप्त हुआ है। इनमें रानियों की उदार दानवत्ति का उल्लेख प्राप्त होता है। ई. सन् १२७८ के लेख के अनुसार मेवाड़ के महारावल तेजसिंह की रानी जयतल्लादेवी ने चित्तौड़ में श्याम पार्श्वनाथ का एक जैनमंदिर निर्मित किया था। अन्य लेख के अनुसार जयतल्लादेवी ने अपनी माता के आध्यात्मिक कल्याण हेतु कुछ भूमि भरतपुरिय जैन मंदिर को प्रदान की जिसकी प्रेरणा उन्हें साध्वी सुमला के उपदेशों से प्राप्त हुई थी। जयतल्लादेवी मेवाड़ के शासक समरसिंह की माता थी। अजमेर के राजा चौहान अजयराज ने अपने राज्य की मुद्राओं पर रानी सोमलदेवी का नाम अंकित किया था। सांडेराव के वि. संवत् १२२१ के शिलालेख के अनुसार जैन मंदिर के लिए रानी द्वारा बगीचे के दान का उल्लेख है। ई. सन् १२८६ के जैन मंदिर के एक लेख में महणदेवी द्वारा द्रमों का दान देने एवं उनके ब्याज से जैनोत्सव मनाने का उल्लेख है। ई. सन् १३०६ के अभिलेख से ज्ञात होता है कि जयतल्लादेवी के कल्याणार्थ रत्नादेवी ने तेजाक पति एवं पुत्र विजयसिंह सहित जैन प्रतिमा की स्थापना की थी। १३वीं शताब्दी के एक लेख में श्राविका वांछी ने पति दीनाक एवं पुत्र नाथ के साथ एक जिनमंदिर का निर्माण किया। नाथ की पत्नी नागश्री ने अपने पुत्र जीजु के साथ चित्तौड़ में चंद्रप्रभ मंदिर और खोहर नगर में भी एक मंदिर बनवाया था। तेरहवीं शताब्दी मे दानशूर अन्नदाता जगडूशाह हुए थे, जिन्होंने लक्ष्मी का सदुपयोग कर लक्ष्मी को गौरवान्वित कर दिया। सैंकडों नये जिनालयों का निर्माण, प्राचीन जिनालयों का पुनरूद्धार तथा सैंकड़ो अन्न सत्रों का संचालन कर अमर कीर्ति प्राप्त की थी। १२७७ ईस्वी में साह महण की भार्या सोहिणी की पुत्री श्राविका कुमरल ने अपनी मातामह की स्मति में एक देवकुलिका स्थापित की थी। तेरहवीं शताब्दी मे होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन की रानी शांतलदेवी द्वारा जैनधर्म के लिए किये गये कार्य चिरस्थायी है। विष्णुवर्द्धन की पुत्री हरियब्बरसि भी जैन धर्म की भक्त थी। नागले भी विदुषी और धर्मसेविका महिला थी, उसकी पुत्री देमति चारों प्रकारों का दान करती थी। ५.४ चौदहवीं - पंद्रहवीं शती की जैन श्राविकाएँ :
विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में मांडवगढ़ के उपकेश वंशीय श्रेष्ठी महामंत्री पद पर सुशोभित ज्ञान भंडारों की स्थापना करने वाले जैन मंदिरों की स्थापना करने वाले सेवा, उदारता आदि सद्गुणों से मंडित पेथड़शाह नामक सद्गहस्थ हुए थे, इनकी माता विमल श्री तपस्वीनी श्राविका थी तथा पत्नी प्रथमिणी दढ़ व्रती श्राविका थी। चित्तौड़ पर चौदहवीं शताब्दी में (ई. १३२५) राणा भीमसिंह की अनिंद्य विश्वप्रसिद्ध सुंदरी पद्मिनी के रूप पर लुब्ध होकर अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर भयंकर आक्रमण किया था। असंख्य राजपूत मारे गये। रानी पद्मिनी के साथ सहस्त्रों स्त्रियाँ जीवित चिता में भस्म हो गई। पुनः सिसोदिया शाखा के राणा हम्मीर ने १३२५ ईस्वीं के लगभग पुनः चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया, राज्य का अभूतपूर्व उत्कर्ष प्रारंभ हुआ। महाराणा कुम्भा के समय की कला के क्षेत्र की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि राणकपुर के अद्वितीय जिनमंदिर है। राणा के राज्य में पाली जिले के सादड़ी कस्बे से छ: मील दक्षिण पूर्व में, अरावली पर्वतमाला से घिरे राणकपुर का भगवान् ऋषभदेव मंदिर अत्यंत मनोरम एवं बेजोड़ है। महाराणा कुम्भा के कृपापात्र थे सेठ धन्नाशाह पोरवाल । धन्नाशाह ने महाराणा कुम्भा से ही इस मंदिर का शिलान्यास करवाया था। राणा ने १२ लाख रूपए का अनुदान इसके लिए दिया था। मंदिर निर्माण में संपूर्ण व्यय नब्बे (६०) लाख स्वर्ण मुद्रायें उस काल
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
224
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
में हुआ बताया जाता है। ई. १४६८ में धन्नाशाह के पुत्र रत्नाशाह ने राणा राचमल्ल के समय मे उसे पूर्ण किया तथा प्रतिष्ठा करवायी थी। सेठद्वय की अमरकीर्ति का यह सजीव स्मारक है। इसके प्रतिष्ठापक खरतरगच्छीय आचार्य जिनसमुद्र सूरि थे। रत्नाशाह और धरणाशाह दोनों की धार्मिक रूचि को बढ़ाने में माता कर्पूरदे का महत्वपूर्ण योगदान था।२८
ई. सन् की १४वीं शताब्दी में श्राविका उदयश्री ने अनेक प्राचीन जिनमंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया था। ई. सन् १३६७ में कवि धनपाल से उसने अपभ्रंश भाषा में बाहुबली चरित्र नामक काव्य की रचना करवाई थी। संवत् १२५५ में धारावर्ष की रानी अंगारदेवी ने जैन मंदिर के लिए कुछ भूमि प्रदान की थी। संवत् १२४२ के एक लेख में परमार धारावर्ष की पटरानी गीगादेवी का नाम आता है। इस रानी ने परसाल (सिरोही से कुछ दूर) गाँव के बीच में एक सुंदर बावड़ी का निर्माण करवाया था। संवत् ११८६ में चौहान वंश के महाराजाधिराज रायपाल की धर्मपत्नी तथा रूद्रपाल, अश्वपाल की माता मीनलदेवी का उल्लेख आता है। मीनलदेवी ने वल्लभपुर (मारवाड़) स्थित भगवान् आदिनाथ के प्राचीन मंदिर के लिए कुछ भेंट अर्पित की थी।
चौदहवीं शताब्दी में दिल्ली के खिलजी सुलतानों के शासनकाल में ठक्कुर फेरू नाम के एक जैन शाही रत्नपरीक्षक और सरकारी टकसाल के अधयक्ष थे, बड़े विद्वान और लेखक थे। इन्होंने युगप्रधान चौपाई, रत्न परीक्षा, द्रव्य धातु उत्पत्ति' वास्तुसार प्रकरण, जोईसार, नामक ग्रंथों की रचना की थी, तथा कई अन्य ग्रंथ भी रचे थे। इसी शताब्दी में माँडू निवासी सुलतान गयासुद्दीन के मंत्रीमंडल में प्रतिष्ठित प्राग्वाट् वंशी जैन भ्राता युगल सूर और वीर नामक दानी, सकती, यशस्वी वीर हुए थे। पाटन निवासी अग्रवाल जैन साहू सागिया हुए थे, जिन्होंने पाँच विशेष ग्रंथ लिखवाए थे। जिनालय में परिवार सहित पूजोत्सव भी कराया था। दिल्ली के सुलतान मोहम्मद बिन तुगलक को जिनप्रभसूरि से संपर्क भी स्थापित करवाया था। दिल्ली के सुलतान मोहम्मद बिन तुगलक ने जिनप्रभसूरि से प्रभावित होकर कई फरमान जारी किये थे। फलस्वरूप आचार्य जी ने हस्तिनापुर, मथुरा आदि अनेक तीर्थों की संघ सहित यात्राएँ की थी, तथा अनेक धर्मोत्सव भी किये थे। राजदरबार में वादियों से शास्त्रार्थ भी किये थे। सुलतान ने एक पौषधशाला दिल्ली में स्थापित की थी तथा भ० महावीर जी की प्रतिमा मंगवाकर देवालय में प्रतिष्ठित करवाई थी। सुलतान की माँ मखदूमेजहाँ बेगम भी जैन गुरूओं का आदर करती थी।
__ पंद्रहवीं शताब्दी में हिसार निवासी अग्रवाल जैन साहू हेमराज दिल्ली के सुलतान सैयद मुबारकशाह के राजमंत्री थे। उनकी पत्नी का नाम देवराजी था, इनके तीन पुत्र थे। हेमराज का पिता वील्हासाहु और माता का नाम धेनाही था। पितामह का नाम जालपुसाहू तथा पितामही का नाम निउजी था। सारा परिवार परम जिनभक्त था। भट्टारक यशः कीर्ति इनके गुरू थे। पंद्रहवीं शताब्दी में दिल्ली में गर्गगोत्रीय अग्रवाल जैन देवचंद्र साह के पत्र दिउढासाह की पल्हाडी और लाडो नाम की दो पत्नियाँ थी। लाडो का पुत्र वीरदास तथा पौत्र उदयचंद था। इन्होंने गुणवान् पुत्रों को जन्म देकर धर्म प्रभावना में अपना अमूल्य सहयोग प्रदान किया था। भायाणदेश के श्रीपथनगर के अग्रवाल सेठ लखमदेव की वाल्हाही और महादेवी नाम की दो पत्नियाँ थी। साहु थील्हा, महादेवी के पुत्र थे जो दानी, उदार राजमान्य और विद्यारसिक थी। संपूर्ण परिवार धनी और धर्मात्मा था। इस शती में चौधरी चीमा के पुत्र महणचंद की पत्नी खेमाही से सद्गुणसंपन्न चौधरी देवराज पैदा हुए थे।२६
चौदहवीं पंद्रहवीं शताब्दी में आगरा नगर के पूर्व-दक्षिण और ग्वालियर राज्य के उत्तर में, यमुना और चम्बल के मध्यवर्ती प्रदेश में असाई खेड़ा के भरों का राज्य था, जो जैन धर्म के अनुयायी थे। इस काल में १३८१ (या १३७१ ईस्वीं) में चंद्रपाट दुर्गनिवासी महाराज पुत्र रावत होतमी के पुत्र चुन्नीददेव ने अपनी पत्नी भट्टो तथा पुत्र साधुसिंह सहित काष्ठासंघी अनंतकीर्तिदेव से एक जिनालय की प्रतिष्ठा करायी थी। इटावा जिले के करहम नगर चौहान सामंत राजा भोजराज के मंत्री यदुवंशी अमर सिंह जैन धर्म के सम्पालक थे, उनकी पत्नी कमल श्री थी। तीन पुत्र थे नंदन, सोणिग एवं लोणा, जिनमें लोणा साहु विशेष रूप से अपने धन का उपयोग जिनयात्रा, प्रतिष्ठा, विधान-उद्यापन आदि प्रशस्त कार्यों में करते थे। __पंद्रहवीं शताब्दी में मंत्रीश्वर कुशराज (जैसवाल कुलभूषण) जैन धर्मानुयायी थे, उनके दादा-दादी भुल्लण और उदितादेवी थे। पिता जैनपाल तथा माता लोणादेवी थी। मंत्रीश्वर कुशराज की रल्हो, लक्षण श्री और कौशोरा नामक तीन पत्नियाँ थी। तीनों ही सती-साध्वी, गुणवती, जिनपूजानुरक्त धर्मात्मा महिलाएँ थीं। इसी शती में ग्वालियर के महाराजा डूंगरसिंह एवं कीर्तिसिंह दोनों ही नरेश परम जिनभक्त थे। इनके शासनकाल में अनेक जिनबिम्ब प्रतिष्ठाएँ हुई थी। इनके समय में ग्वालियर जैनविद्या का प्रसिद्ध
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
225
केंद्र बन गया था। अनेक ग्रंथ रचे गये थे अनेक ग्रथों की प्रतिलिपियाँ की गई थी। महाराजा डूंगरसिंह की पटरानी चाँदा बड़ी जिनभक्त थी पुत्र कीर्तिसिंह भी परम धार्मिक थे। पंद्रहवीं शताब्दी में मुद्गलगोत्री अग्रवाल जैन साहू आत्मा का पुत्र साहु भोपा था, जिसकी भार्या नान्हीं थी। चार पुत्र क्षेमसी, महाराजा असराज, धनपाल और पालका थे। क्षेमसी की भार्या नीरादेवी थी, तथा काला और भोजराज उसके दो पुत्र थे। काला की प्रथम पत्नी सरस्वती से पुत्र मल्लिदास, दूसरी पत्नी सरा से चंद्रपाल पुत्र पैदा हुआ था। साहु काला ने गोपाचलदुर्ग (ग्वालियर) में भट्टारक यश कीर्तिदेव के उपदेश से भगवान् आदिनाथ का मंदिर निर्माण करवाया था तथा उसकी प्रतिष्ठा पण्डित रइधू से करायी थी।३०
पंद्रहवीं शताब्दी में ही राजा डूंगरसिंह के राज्य में खण्डेलवाल जातीय बाकलीवालगोत्री सेठ लापू ने अपने पुत्रों साल्हा और पाल्हा तथा अपनी भार्या लक्ष्मणा और पुत्रवधुओं सुहागिनी एवं गौरी सहित अनेक जिन-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करायी थी। ग्वालियर के तोमर नरेश कीर्तिसिंह के समय में भट्टारक गुणभद्र की आम्नाय के भक्त जैसवालकुलभूषण उल्लासाहू की द्वितीय पत्नी भावश्री से उत्पन्न उसके चार पुत्रों में ज्येष्ठ धनकुबेर पद्मसिंह थे, जिनकी पत्नी का नाम वीरा था। परिवार सहित पद्मसिंह ने चौबीस जिनालयों का निर्माण कराया, विभिन्न ग्रंथों की कुल मिलाकर एक लाख प्रतियाँ लिखवायी तथा अन्य धर्मकार्य किये थे। तेरहवीं शताब्दी में लवणप्रसाद के पुत्र वीरधवल के मंत्री थे भ्रातद्वय वस्तुपाल और तेजपाल । जैनधर्म का प्रभाव बढ़ाने के लिए जितना द्रव्य उन्होंने व्यय किया था, उतना किसी अन्य ने किया हो, ऐसा इतिहास में नहीं मिलता। इसी राजघराने में त्रिभुवनपाल की पत्नी कशमीरादेवी थी, जिसके कुमारपाल आदि तीन पुत्र हए तथा प्रमिला एवं देवल नाम की दो पत्रियाँ हई थीं. जो जैन धर्म की उपासिकाएँ थी।३१ ५.५ ओसिया तीर्थ. एवं ओसवाल जाति की उत्पति का इतिहास
भारतवर्ष के क्षत्रियों के लिए यह स्थान बहुत प्रसिद्ध है। शोधकर्ता एवं इतिहासज्ञ मुंशी देवीप्रसाद ने कोटा राज्य के अटरू गांव से वि. सं. ५०८ के एक शिलालेख की सूचनाओं एवं अन्य साधनों से यह ज्ञात होता हैं कि ओसवालों की उत्पत्ति का समय विक्रम की दूसरी या तीसरी शताब्दी है। रत्नप्रभसरिने दूसरी शताब्दी में यहीं से ऋषभ-वषभ- उसभ-उस-असवाल-ओसवाल वंश की नींव डाली थी। उसवाल का प्रतीकार्थ हैं ऋषभ प्रणीत जैन धर्म के अनुयायी। इन्हीं ओसवालों ने बाद में ओसिया नगर मे ओसिया माता का मंदिर बनवाया था।
राजस्थान के ऐतिहासिक नगर जोधपुर से ५२. कि. मी. दूर उत्तर पश्चिम दिशा में ओसिया स्थित है। ओसिया ग्राम जैन धर्म और स्थापत्य का प्रमुख केंद्र है। अभिलेखों और साहित्यिक ग्रंथों में ओसियाँ को "उपकेशपट्टन "अथवा "उपशीशा" कहकर पुकारा गया है। ओसवाल जाति का मूल निवास स्थान ओसियाको महाजनों की ओसवाल जाति की उत्पत्ते से संबंधित माना जाता है। यहाँ जनसाधारण में प्रचलित एक कथानक के अनुसार ओसिया का राजा उप्पलदेव (श्रीपुंज) चामुण्डा देवी का कट्टर भक्त था। एक बार प्रसिद्ध जैनाचार्य रत्नप्रभसूरी (भ. पार्श्वनाथ के सातवें पट्टधर) अपने ५०० शिष्यों सहित चातुर्मास करने के लिए ओसिया आये, लेकिन वहाँ पर जैन मुनियों हेतु निवास की उचित व्यवस्था न होने से उन्होंने किसी अन्य स्थान पर जाकर चातुर्मास करने का निश्चय किया। भगवती चामुण्डा माता की प्रेरणा से कुछ साधुओं ने आचार्य रत्नप्रभसूरी से ओसिया में ही चातुर्मास करने की प्रार्थना की जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। एक दिन ओसिया के राज-परिवार के किसी बालक को काले नाग ने डस लिया। परिणाम स्वरूप उस बालक की अकाल मत्यु हो गई। लेकिन आचार्य रत्नप्रभसूरी ने अपने आध्यात्मिक प्रभाव से उस बालक को पुनः जीवित कर दिया। इस चमत्कार से प्रभावित होकर राजा और प्रजा भेंट लेकर आचार्य जी के पास पहुँचे। लेकिन आचार्य महोदय ने भौतिक भेंट लेने से मना कर दिया। राजा ने आचार्य रत्नप्रभसूरि जी से उनकी इच्छा के अनुरूप सेवा का मौका देने की प्रार्थना की। आचार्य रत्नप्रभसूरि जी ने राजा से कहा कि, उनकी तो एक मात्र इच्छा यही है कि ओसिया के सभी लोग अहिंसामय जैनधर्म स्वीकार कर ले। आचार्य रत्नप्रभ सूरी जी से जो लोग दीक्षित हुए, वे और उनके वंशज ओसवाल कहलाए। आचार्य रत्नप्रभसूरी जी का ओसियां की जनता पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि वहाँ के राजा ने स्वयं भी जैन धर्म स्वीकार कर लिया और वहाँ की चामुण्डामाता की पशुबली को भी बंद करवा दिया। इस घटना के बाद वहाँ की अधिष्ठात्री देवी को सच्चियाय माता कहकर उनकी पूजा की जाती है।
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
226
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
विक्रम से ४०० वर्ष पूर्व ४५७ ई. पू. में ओसवाल वंश की स्थापना हुई थी। संवत् ६०० से संवत् १६०० तक जैनाचार्यों के द्वारा ओसवाल गोत्रों की स्थापना का वर्णन प्राप्त होता है। ओसवाल जाति के समुचित विकास का प्रारंभ सं. १००० के पश्चात् होता हैं। संपूर्ण ओसवाल जाति जैन धर्म की अनुयायी थी। आचार्य रत्नप्रभसूरी जी ने ओसियाँ में ओसवाल वंश की स्थापना की तथा उस क्षेत्र में जैन धर्म का प्रचार प्रसार किया था। आचार्य बप्पभट्टसूरि जी वि. सं. ८०० में हुए थे। उस समय अणहिलपुर पाटन में महाप्रतापी वत्सराज, आमराजा के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। आचार्य बप्पभट्टसूरि जी ने उन्हें जैन धर्म में दीक्षित किया था। आमराजा ने संवत् ८२६ में मथुरा, कन्नौज, अणहिलपुरपाटण, तारक नगर, मोडेरा आदि शहरों में जैन मंदिर बनवाए थे। आमराजा की एक रानी वणिक् पुत्री थी, उसकी संतान ओसवाल जाति में सम्मिलित हुई थी। जिनका गोत्र कोठारी के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। तत्पश्चात् वि. सं १५० मे आचार्य नेमिचंद्रसूरि जी हुए थे, संवत् ६५४ में उन्होंने बरड़िया गोत्र की स्थापना की थी। संवत् १००० में आचार्य जी वर्द्धमानसूरि जी हुए थे। उन्होंने संवत् १०५५ में आचार्य हरिश्चंद्रसूरि जी के “उपदेशपद" ग्रंथ की रचना की थी। "उपदेशमाला" बहद् उपमितिभवप्रपंचा-समुच्चय उनकी अन्य रचनाएँ हैं। आपने लोढ़ा एवं पीपाड़ा गोत्र की स्थापना की थी। संवत् १०६१ से ११११ के बीच श्री जिनेश्वरसूरि हुए थे, चैत्यवासी परंपरा के राजा दुर्लभराज के पुरोहित शिवशर्मा को उन्होंने शास्त्रार्थ में पराजित किया था। संवत् १०८० में आपको खरतर का विरूद प्राप्त हुआ था। आपका गच्छ खरतरगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ, आपने ढड्डा एवं भणसाली गोत्रों की स्थापना की थी।
___आचार्य श्री जिनभद्रसूरी जी खरतरगच्छ के प्रतिभाशाली जिन शासन प्रभावक आचार्य हुए है। आपके उपदेश से गिरनार, चित्रकूट (चित्तौड़) मंडोवर आदि अनेक स्थानों में बड़े बड़े जिनमंदिर बने थे। अणहिलपुर पट्टन आदि स्थानों में आपने विशाल पुस्तक भंडारो की स्थापना की थी। मांडवगढ़, पालनपुर, तलपाटक आदि नगरों में अनेक जिन बिम्बों की प्रतिष्ठा की थी। जैसलमेर के तत्कालीन राजा रावत श्री वैरसिंह, और त्र्यंबकदास जैसे प्रतिष्ठित व्यक्ति आपके चरणों में नतमस्थक थे। आपके उपदेश से साह शिवा आदि चार भाईयों ने संवत् १४६४ में जैसलमेर में एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था। संवत् १४६७ में आचार्य श्री जी ने जैसलमेर मंदिर में ३०० जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की थी। जिसकी प्रशस्तियाँ आज भी इस मंदिर में लगी हुई है।३२
सन् १६७२ में आचार्य प्रवर श्री पुण्यविजय जी महाराज ने जैसलमेर जैन ग्रंथ भंडारों की हस्तलिखित सूची प्रकाशित करवाई थी। इसमें जिनभद्र ज्ञानभंडार के ताड़पत्रीय तथा कागज की हस्तलिखित प्रतियों में लिखे कर्ता, लेखक आदि की पुष्पिका तथा प्रशस्ति ग्रंथ में लिखे गये ऐतिहासिक नाम प्राप्त होते हैं। इन हस्तलिखित ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ करवाने में श्राविकाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। श्राविका अभयश्री एवं कर्पूरदेवी ने भगवतीसूत्र के वत्ति की प्रतिलिपि करवाई थी। आल्ही व कउतिग ने कल्पसूत्रसंदेहविषौषधी वत्ति लिखवाई थी। कुमरिका, कुँअरी, केल्हणदेवी, गुणदेवी, गंगा, कर्पूरी, चंद्रावली, जयश्री, जाल्हणदेवी, जयदेवी, जयंति, जसमाई, चतुरंगदे आदि श्राविकाओं ने विविध ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ करवाई थी तथा साहित्य के भण्डार को अक्षुण्ण बनाया था। ५.६ दक्षिण भारत में जैन धर्म :
उत्तर भारत जैन धर्म की जन्मभूमि है। भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर तक चौबीस तीर्थंकरों का जन्म और निर्वाण उत्तर भारत में ही हुआ था। किन्तु उनका विहार दक्षिण भारत में भी हुआ था, अतः दक्षिण भारत में जैन धर्म के प्रवेश का कोई सुनिश्चित काल नहीं है। किन्तु कतिपय ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर इतिहासकार, अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु स्वामी की दक्षिण यात्रा के साथ दक्षिण में जैनधर्म का प्रवेश मानते हैं। श्रवणबेलगोला के ७वीं शती के एक अभिलेख के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य के समय में श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी ने हजार मुनियों के संघ के साथ दक्षिण की ओर प्रस्थान किया था। श्रवणबेलगोला में ही एक पहाड़ी पर जिसे कलवधु या कटवप्र कहते थे, उस पर अपने शिष्य चंद्रगुप्त के साथ उन्होंने अपना अंतिम समय बिताया था। और समाधिपूर्वक शरीर का त्याग किया था। श्रवणबेलगोला के चंद्रगिरी पहाड़ी पर ईसा की छठी सातवीं शताब्दी के एक शिलालेख पर उक्त विवरण अंकित हैं। विद्वत्वर्ग इसे पर्याप्त परवर्ती होने के कारण इसकी प्रामाणिकता पर संशय करते
हैं।
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
कलिंग से आंध्र की सीमा मिलती हैं, अतः कलिंग से आंध्र में जैन धर्म का प्रवेश भगवान् महावीर के समय में होना संभव हैं और वहीं से सभवतः तमिल प्रदेश में उसका प्रवेश हुआ होगा। इसका प्रमाण उत्तर आरकाट जिला है, जो तेलुगु प्रदेश के निकटवर्ती तमिल प्रदेश के उत्तर भाग से संबद्ध हैं। उनमें पाये जाने वाले पाषाण खण्डों पर उत्कीर्ण शिलालेख और मूर्तियां हैं। वहां से जैन धर्म तमिल देश के दक्षिण में गया और वहां से समुद्र पार करके श्रीलंका में पहुंचा। यह घटना ईसा पूर्व चौथी या तीसरी शताब्दी की घटित होनी चाहिए। जैन गुरुओं का दूसरा स्रोत तमिल देश में ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में कर्नाटक की ओर से प्रवाहित हुआ था। ये जैन साधु आचार्य भद्रबाहु स्वामी जी के शिष्य थें, जो विशाखाचार्य जी के नेतत्व में अपने गुरू के अंतिम आदेशानुसार उनकी भावना को क्रियात्मक रूप देने के लिए उधर गए थे । अतः इससे यह स्पष्ट होता है कि भद्रबाहु के काल
जैन धर्म का दक्षिण भारत में प्रवेश हुआ था । उसके प्रचार और प्रसार को बल मिला और दक्षिण भारत जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र बन गया था । अनेक शासकों और राजवंशों के सदस्यों ने उसे संरक्षण दिया था और जनता ने उसका समर्थन किया था ।
दक्षिण भारत में जैन धर्म की स्थिति के दिग्दर्शन का प्रारम्भ इस तमिल प्रदेश से करना उचित होगा, क्योंकि जो शिलालेख आदि प्रकाशित हुए हैं, वे प्रायः दक्षिण भारत के प्रारम्भिक इतिहास की अपेक्षा मध्यकालीन इतिहास से अधिक निकट पड़ता है। दक्षिण भारत में जैन धर्म की पूर्व स्थिति को जानने के लिए हमें मुख्य रूप से तमिल साहित्य का ही आश्रय लेना होता है। समस्त तमिल साहित्य को तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है- १. संगमकाल २. शैवनायनार काल (वैष्णव अलवरों का काल ) तथा ३. आधुनिक काल । संगमकालीन तमिल साहित्य से तमिल राज्यों में जैनधर्म के इतिहास तथा जीवन के संबंध में नीचे लिखित तथ्य प्रकाश में आते हैं।
१.
२.
३.
४.
227
तोलकाप्पिय के समय , जो अवश्य ही ई. पू. ३५० से पहले रचा गया ग्रंथ था, उस समय में संभवतः भारत एकदम दक्षिण प्रदेश तक जैनों का प्रवेश नहीं हुआ था ।
ईसा की प्रथम शताब्दी से पूर्व अवश्य ही जैन धर्मानुयायी भारत के एकदम दक्षिण तक प्रवेश करके वहां बस गये थे और स्थायी रूप से निवास करने लगे थे ।
जिसे तमिल साहित्य का उच्चतम काल कहा जाता है वह जैनों का भी उत्कर्षकाल था ।
ईसा की पांचवी शताब्दी के पश्चात् जैन धर्म इतना प्रभावशाली और शक्तिशाली हो गया था कि वह कुछ पाण्ड्य राजाओं का राजधर्म बन गया था ।
५.७ शैवों और वैष्णवों का काल : जैनधर्म का पतन
ईसा की छठीं शताब्दी से जो काल प्रारम्भ होता है, उसे ब्राह्मण धर्म के उत्थान का और जैन धर्म के पतन का काल कहा जा सकता है। किसी धर्म की शक्ति और अभ्युन्नति राजा से प्राप्त मदद पर भी निर्भर करती है। जब वे उस धर्म को संरक्षण देना बंद कर देते हैं या उसके विरोधी धर्म को स्वीकार कर लेते हैं तो उस धर्म के मानने वालों की संख्या में भी ह्रास होता है। तंजोरा जिले के पुरोहित पुत्र सम्बंदर ने पाण्ड्य राज्य में जैन धर्म का पतन कराया तो अप्पर ने पल्लव देश से जैन धर्म को निष्कासित किया। जैन धर्म के प्रबल शत्रु सम्बन्दर की प्रेरणा से आठ हजार जैन कोल्हु में पेल दिये गये थे । वे सब जैन धर्म के मात्र अनुयायी नहीं किंतु मुखिया थे । इस तरह ईसा की सातवीं शताब्दी के मध्य और आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में पल्लव और पाण्ड्य देशों में जैनों को लगातार आपत्तियों का सामना करना पड़ा था। दढ़ जैन धर्मानुयायी सुंदर घाण्ड्य का धर्मपरिवर्तन मदुरा राज्य के धार्मिक इतिहास में केवल एक प्रासंगिक घटना नहीं है। यह एक राजनैतिक क्रांति थी जिसका लाभ ब्राह्मण संत सम्बन्दर ने खूब उठाया था। फलस्वरूप हजारों जैनों को बलात् शैव बनाया गया और जिन्होंने अपनी कट्टरतावश शैव धर्म स्वीकार नहीं किया उन्हें देश से निकाल दिया गया। दक्षिण में जैनों का दढ़ प्रभुत्व मदुरा में था और उसके सूत्रधार जैन साधु मदुरा के समीपवर्ती आठ पहाड़ियों पर रहते थे। दिगंबर जैन संतों की चर्चा का उसमें वर्णन है। सम्बन्दर और अय्यार ने जैनों को पराजित करने के जो ढंग अपनाये वे असभ्य और क्रूर थे ।
दक्षिण भारत में कर्नाटक प्रांत को जैन धर्म का घर कहते हैं । कर्नाटक की स्थानीय जनता के साथ जैन धर्म के प्रवर्तकों
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
228
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
और अनुयायियों का इतना अनुराग रहा कि धीरे धीरे जैनधर्म प्रवासी धर्म न रहकर कर्नाटक का निवासी धर्म बन गया और ई. सन् की दूसरी शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक कर्नाटक के कतिपय अत्यंत प्रभावशाली और यशस्वी राजवंशों के भाग्य का वह सूत्र संचालक रहा । कर्नाटक में जैन धर्म की प्रतिष्ठा एवं उत्तरोत्तर विकास की तीव्र गति और गौरवमयी सफलता का श्रेय केवल उसकी आंतरिक वारिद सम योग्यता को नहीं जाता । अन्य अनेक पहलू भी थे जिनमें सबसे महत्वपूर्ण था, राजनैतिक जीवन में जैन गुरूओं का प्रवेश एवं प्रभाव । जैन गुरूओं ने राज्यों के निर्माण में भाग लिया, जन कल्याणकारी प्रवत्तियों को प्रोत्साहित किया फलस्वरूप दक्षिण के प्रमुख एवं यश प्राप्त राजवंशो ने जैन संस्कृति के अभ्युदय में रचनात्मक सहयोग दिया और राज्य संचालन से जुड़े पदासीन प्रमुख लोगों ने इसका अनुकरण किया । यह सहयोग भावना एक पक्षीय नहीं थी । राजवंशों की उन्नति में जैनाचार्यों के उदात्त मनोबल की वजशक्ति ने नींव की ईंट का काम किया । लुई राईस के अनुसार दक्षिण के प्रमुख गंग राजवंश ने शताब्दियों तक जैन धर्म का संपोषण एवं संवर्द्धन किया । इसका श्रेय जाता है आचार्य सिंहनंदी की दूर दष्टि और कुशल कार्य प्रणाली को जो गंग-राजवंशियों की मार्गदर्शिका बनी और समय पर उन्हें पूरा सहयोग दिया । राष्ट्रकूट, चालुक्य, तथा होयसल राजवंशों के उत्तराधिकारी एक के बाद एक जैनधर्म की उत्थान-प्रक्रिया में एक पथ के यात्री बनते चले गये और स्वयं को जैनधर्म के उत्थान के साथ एकमेक कर दिया । राष्ट्रकूट वंश के राजा अमोघवर्ष की जैनधर्म के प्रति अनन्य प्रीति उसकी धवल कीर्ति बन गई जिसके उपलक्ष्य में दो उच्च कोटि के ग्रंथ "षट्खण्डागम" की धवलाटीका एवं "कषायपाहुड" की जयधवलाटीका की रचना हुई । इसके श्रेय भागी है आचार्य वीरसेन एवं जिनसेन। ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों से लेकर बारहवीं शताब्दी तक तमिल तथा तेलुगु साहित्य के साथ ही जैनों ने कन्नड़ भाषा में भी साहित्य की रचना की । कन्नड़ भाषा के साहित्य में "आदि पम्प" और "अभिनव पम्प” के नाम उल्लेखनीय है । "आदि पुराण" और "भारत" जैसे दो ग्रंथों की रचना के माध्यम से पम्प कवि ने भारतीय संस्कति की अरूण छवि को जिस भांति चित्रित कर उपमेय से उपमान बनाया है, उसका मूल्य नहीं आंका जा सकता । कन्नड़ साहित्य की संपन्नता की अभिवद्धि में जैन लेखिकाओं की भी सशक्त भूमिका रही है । इनमें कवियित्री कति का नाम उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने स्व रचना के अलावा "अभिनवपम्प" की अधूरी कविता पूरी की और काव्य-दक्षता के साथ-साथ नैतिक, धार्मिक, दायित्वों के निर्वाह के प्रति अपनी जागरूकता का प्रशंसनीय परिचय दिया।
श्रवणबेलगोला का इतिहास ईसा से ३०० वर्ष पूर्व उस समय प्रारंभ होता है, जब अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ने उज्जयिनी में १२ वर्ष के दुर्भिक्ष की आशंका से अपने १२००० शिष्यों सहित उत्तरापथ से दक्षिणा पथ को प्रस्थान किया। उनका संघ क्रमशः एक बहुत समद्धियुक्त जनपथ में पहुंचा। चंद्रगुप्त भी उनके साथ थे, यहाँ आकर उनको विदित हुआ कि उनकी आयु अब बहुत कम शेष है । उन्होंने विशाखाचार्य को संघ का नायक बनाकर उन्हें चोल और पाण्ड्यदेश भेज दिया । भद्रबाहु स्वयं संलेखना (समाधिमरण) धारण करने के लिए पास वाले चंद्रगिरि पर्वत पर चले गये जिसको कटवप्र भी कहते हैं । नवदीक्षित चंद्रगुप्त मुनि ने अपने गुरू की खूब सेवा की और स्वयं ने भी गुरू के पथ का अनुसरण किया । इसी पहाड़ी पर प्राचीनतम मंदिर चंद्रगुप्त बस्तिका
पर भद्रबाहु गुफा में चंद्रगुप्त के चरणचिन्ह है । इसी स्थान पर ७०० जैन श्रमणों ने समाधिमरण किया । इसी नगर की दूसरी पहाड़ी विंध्यगिरि पर गंग नरेश राचमल्ल के मंत्री तथा सेनापति वीरमार्तण्ड चामुण्डराय ने अपनी माता काललदेवी की प्रेरणा से बाहुबली की ५७ फुट ऊँची विशालमूर्ति बनवाई। श्रवणबेलगोला से जिन तीन महापुरूषो का संबंध हैं, वे तीन महापुरूष हैं :
१. प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की द्वितीय रानी सुनंदा के पुत्र बाहुबली. २. सम्राट चंद्रगुप्त ३. बाहुबली की मूर्ति के निर्माता वीर मार्तण्ड चामुण्डराय,
जिस प्रकार सम्मेद शिखरजी क्षेत्र उत्तर भारत के बिहार प्रांत में स्थित पुण्य क्षेत्र है, उसी प्रकार श्रवणबेलगोला दक्षिण भारत के कर्नाटक प्रांत में स्थित अद्वितीय क्षेत्र है। इसी श्रवणबेलगोला के अंतर्गत द्वय पर्वत चंद्रगिरि और विधयगिरि है जो हमारी आस्था और श्रद्धा के प्रतीक हैं ।
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
229
५.८ श्रवणबेलगोला के ५०० शिलालेख
इतिहास के अनेक स्त्रोत हमारे सामने हैं । इनमें अभिलेख, मूर्तिलेख, प्रशस्ति, किंवदन्ति, जनश्रुति, साहित्य आदि, प्रमुख हैं। इनमें भी सबसे महत्वपूर्ण, अभिलेख एवं शिलालेख हैं, क्योंकि ये पाषाण, या धातुद्रव्यों पर उत्कीर्ण पाये जाते हैं। इस कारण ये जल्दी नष्ट नहीं होते, दूसरे इनमें कालान्तर में परिवर्तन, परिवर्धन, संशोधन, गुपचुप विनष्टीकरण की संभावना नहीं रहती। साहित्यिक कृतियों में परिवर्तन, परिवर्धन, संशोधन और उनका अपने नाम से न्यूनाधिक उपयोग विख्यात है। अतः किसी भी देश काल की धर्म-संस्कृति, रहन-सहन, उत्कर्ष-अपकर्ष, शिक्षा आदि के ज्ञान के लिए अभिलेख, शिलालेख, एवं साहित्य, सर्वाधिक प्रामाणिक आधार हैं। जैन संस्कृति के लिए यह भी गौरव की बात है कि सर्वाधिक अभिलेख शिलालेख जैनियों द्वारा लिखवाए गए हैं या फिर जैन तीर्थों आदि पर उपलब्ध है। दक्षिण भारत में अत्यधिक जैन अभिलेख शिलालेख पाये गये है। श्रवणबेल अधिकांश शिलालेख चंद्रगिरि पर पाये गये हैं। एक मंदिर को छोड़कर शेष सभी मंदिर परकोटे के अंदर है। प्राचीन मंदिर लगभग आठवीं शताब्दी के है, सभी दक्षिण शैली में बने है व सभी का ढंग एक सा है। श्रवणबेलगोला में गोम्मटेश की प्रतिमा दोड्डबेट अर्थात बड़ी पहाड़ी पर है, इसे विंध्यगिरी भी कहा जाता है, यह पहाड़ी सबसे महत्वपूर्ण है। इस पर समतल चौक है जो एक छोटे से घेरे से घिरा है। चौक के बीचों बीच भगवान् बाहुबली की प्रतिमा है। इस पर सिद्धरबस्ति, अखण्ड बागिलु, सिद्धरगुण्ड, गुलकायज्जिबागिलु, त्यागदब्रह्मदेवस्तम्भ, चेन्नण्णबस्ति, ओढ़ेगल बस्ति, चौबीस तीर्थंकर बस्ति, ब्रह्मदेव मंदिर आदि जिनालय हैं। श्रवणबेलगोल नगर में भी आठ दस जिनालय है। आसपास में जिननाथपुर, ओदेगलबस्ति, हलेबेल्गोल, साणेहल्लि आदि ग्राम है। इन सभी में शिलालेख है, जिन्हें श्रवणबेलगोला के शिलालेख नाम से ही अभिहित किया गया है।
उक्त शिलालेखों में लगभग १०० लेखों में मुनियों, आर्यिकाओं, श्रावक, और श्राविकाओं के समाधिमरण का उल्लेख है। लगभग १०० शिलालेखों में मंदिर निर्माण, मूर्ति प्रतिष्ठा, दानशाला, वाचनालय, मंदिरों के दरवाजे, परकोटे, सीढ़ियाँ, रंगशालाएँ, तालाब, कुण्ड, उद्यान, जीर्णोद्धार आदि कार्यों का उल्लेख है। लगभग सौ शिलालेखों में मंदिरों के खर्च, पूजा, अभिषेक, जीर्णोद्धार, आहारदान, ग्राम, भूमि, द्रव्य दान आदि का उल्लेख है। १६० शिलालेखों में संघों, यात्रियों की तीर्थयात्रा का, ४० शिलालेखों में आचार्य, श्रावक व योद्धाओं की स्तुति आदि है। लगभग इन शिलालेखों में गंगवंश, राष्ट्रकुटवंश, चालुक्यवंश, होयसलवंश, मैसूर राजवंश, कदम्ब वंश, नोलंब व पल्लव वंश, चोल वंश, कोंगाल्व वंश, चंगल्व वंश, निटुगल वंश, आदि का उल्लेख हुआ है । इन वंशों के महत्वपूर्ण व्यक्तियों और उनके द्वारा दिये गये दानादि का उल्लेख भी इन शिलालेखों की विशेषता है । १६० तीर्थयात्रियों के लेख में लगभग १०७ दक्षिण भारत के यात्रियों के और ५३ उत्तर भारत के यात्रियों के है | कुछ लेखों में यात्रियों के नाम है तो कुछ में नाम के साथ उपाधियाँ भी हैं। उत्तरभारत के यात्रियों के लेख मारवाड़ी-हिंदी भाषा में है। कुछ यात्रियों के साथ उनकी बघेरवाल जाति, व गोनासा, गर्रा, और पीतला गोत्र का उल्लेख हैं। श्रवणबेलगोला के शिलालेखों में आचार्यों की वंशावली दी गई है, जिस कारण ये जैन इतिहास की अमूल्य धरोहर है । लगभग १५० आचार्यों का उल्लेख इसमें हुआ है।
शिलालेखों में वर्णन है कि जिनभक्त अनेक महिलाओं ने यहाँ निर्माण कार्य कराए, तथा संलेखना विधि से अपना शरीर त्यागा। कतिपय शिलालेखों में श्राविकाओं के नामों की भी अच्छी जानकारी प्राप्त होती है यथा अक्कब्बे, जक्कणब्बे, नागियक्के, माचिकब्बे, शांतिकब्बे, एचलदेवी, शांतला, श्रियादेवी, पदमलदेवी आदि । शिलालेख लिखे जाने के अनेक विषय रहे हैं। मात्र संलेखना संबंधी एक सौ लेख चंद्रगिरि पर है। लेखों से सूचना मिलती हैं कि मुनियों, आर्यिकाओं, श्रावक, श्राविकाओं ने कितने दिनों का उपवास, व्रत या तप करके शरीर लाया था । संलेखना संबंधी सर्वाधिक लेख आठवीं सदी के है ।३४
श्रवणबेलगोला को यदि शिलालेखों का संग्रहालय कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी । लगभग पाँच हज़ार की आबादी वाले इस गाँव की दोनों पहाड़ियों पर गाँव में और आसपास के कुछ गाँवों के शिलालेखों की संख्या ५७३ तक पहुँच गई है । तेईस सौ वर्ष पुराने इतिहास वाले इस स्थान के कितने ही लेख नष्ट हो गए होंगे । इधर उधर जड़ दिए गए होगें या अभी प्रकट नहीं
| अंग्रेज विद्वान् बी. लुइस राईस मैसूर राज्य के पुरातत्व शोध कार्यालय के निदेशक थे। उन्होंने मैसूर राज्य के हजारों शिलालेखों की खोज की और उन्हें एपिग्राफिका कर्नाटका (कर्नाटक के शिलालेख) के रूप में प्रकाशित कराया। श्रवणबेलगोला
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
230
के बेशुमार लेखों को देखकर वे आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने ई. सन् १८८१ में इंस्क्रिप्शन एट श्रवणबेलगोला नामक एक पुस्तक में १४४ शिलालेख अलग से प्रकाशित किए ।
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
श्री राईस के बाद रायबहादुर. आर. नरसिंहाचार निदेशक नियुक्त हुए । उन्होंने एपिग्राफिका कर्नाटिका वॉल्यूम-२, इंस्क्रिप्शन एट श्रवणबेलगोला के रूप में ५०० शिलालेखों का संग्रह प्रकाशित किया। स्व. नाथुराम प्रेमी की दष्टि इस संग्रह पर गई और उन्होंने, जैन शास्त्रों, एवं पुरातत्व के चोटी के विद्वान स्व. डॉ हीरालालजी जैन से इन लेखों का संग्रह एक विस्तत भूमिका के साथ माणिकचंद्र दिंगबर जैन ग्रंथमाला के अंतर्गत जैन शिलालेख संग्रह भा-१ देवनागरी लिपि में, शिलालेखों की विषय वस्तु के संक्षिप्त परिचय के साथ संपादित कराकर प्रकाशित किया। यह बात १६२८ ईस्वी की है। बाद में जैन शिलालेखों के चार भाग और प्रकाशित किए गए है | श्रवणबेलगोल के शिलालेखों की संख्या ५७३ तक पहुँच गई। मैसूर विश्वविद्यालय के "इन्स्टीट्युट ऑफ कन्नड़ स्टडीज़" के प्रयत्नों से यह संग्रह कन्नड़ रोमन लिपि में है। सामान्य उपयोगिता इन शिलालेखों की यह है कि भारतीय, विशेषकर कर्नाटक के इतिहास और जैन धर्म के इतिहास की अनेक गुत्थियाँ जानने समझने में इनसे बड़ी सहायता मिली है। श्रवणबेलगोला के ये शिलालेख ईसा की छठीं शताब्दी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक के है ।
चंद्रगिरि के पार्श्वनाथ बसदि के दक्षिण की ओर ई. सन् ६०० ( शक संवत् ५२२ ) का जो शिलालेख है, उसी से हमें ज्ञात होता है कि आचार्य भद्रबाहु और चंद्रगुप्त मौर्य (दीक्षा नाम प्रभाचंद्र) संघ सहित अनेक जनपदों को पार कर उत्तरापथ से दक्षिणापथ आए, और वही कटवप्र पर उन्होंने समाधिमरण किया था । संख्या की दृष्टि से सबसे अधिक शिलालेख बारहवीं शताब्दी के है, ७६ शिलालेख संख्या इस क्रम में हैं। यहाँ के शिलालेखों में निम्नलिखित लिपियों का प्रयोग हुआ हैं- कन्नड़, मलयालम, तमिल, तेलुगु, देवनागरी। इस विविधता से यह निष्कर्ष निकलता हैं कि श्रवणबेलगोल उत्तर और दक्षिण भारत में समान रूप से एवं प्राचीनकाल से ही एक लोकप्रिय तीर्थस्थान रहा हैं। आज की भांति, अतीत में भी यहाँ की यात्रा सभी प्रदेशों के लोग करते रहे हैं। पंजाब प्रदेश की ढ़ोंगरी भाषा में भी यहाँ लेख पाया गया हैं । ३५
आचार्य जिनसेन (द्वितीय) के आदिपुराण में वर्णित भरत बाहुबली आख्यान को सुनकर चामुण्डराय की माता काललदेवी को बाहुबली की प्राचीन मूर्ति के दर्शन की इच्छा हुई, जिसके परिणामस्वरूप श्रवणबेलगोल में बाहुबली की मूर्ति का निर्माण हुआ । यह ऐतिहासिक नाम स्वयं चामुण्डराय के समय से ही प्रचलित हुआ है । या फिर कन्नड़ के प्रसिद्ध कवि बोप्पण के ई. सन्. ११८० के शिलालेख के बाद प्रचलित हुआ । जिसमें गोम्मटेश्वर के अतिरिक्त बाहुबली और दक्षिण कुक्कटेश नामों का भी प्रयोग किया हैं। संभवतः इसी के साथ चामुण्डराय का एक नाम गोम्मट या गोम्मटराय और श्रवणबेलगोल का गोम्मटपुर नाम भी प्रचलित हो गया । चामुण्डराय के गुरू आचार्य नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रर्ती ने गोम्मटेस थुदि और गोम्मटसार की रचना की हैं ।
५.६ कर्नाटक की जैन श्राविकाएँ
जैनधर्म ने देश को अत्यंत समद्ध सांस्कतिक वारसा प्रदान किया है। कलाओं की प्रगति के क्षेत्र में इसकी देन महान हैं। अनेक स्तूप, कलापूर्ण चित्रांकित शिला स्तम्भ, और बहुसंख्यक मूर्तियाँ जैन कला की महानता के प्रमाण हैं। मैसूर राज्य के अंतर्गत श्रवणबेलगोला और दक्षिण कर्नाटक के अन्तर्गत कारकल में गोम्मटेश्वर की विशालकाय मूर्तियाँ विश्व के आश्चर्यों में से हैं ।
देश के नैतिक व आचार संबंधी प्रभाव के अतिरिक्त कलाओं और भाषाओं के विकास में भी जैन धर्म की अद्भुत देन है। देश के भाषा संबंधी विकास में जैनों ने बहुत योगदान दिया है। उन्होंने धर्म प्रचार तथा ज्ञान की रक्षा के निमित्त भिन्न-भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न समय की प्रचलित भाषाओं का उपयोग किया है। कुछ भाषाओं को सर्वप्रथम साहित्यिक रूप देने का श्रेय उन्हीं को है । कन्नड़ का प्राचीनतम् साहित्य जैनों द्वारा निर्मित है, प्राचीन तामिल साहित्य भी अधिकांशतः जैन लेखकों का ही है । तामिल के मुख्य महाकव्यों में से दो -"चिंतामणी' और "शीलप्पदिकरम्" जैन लेखकों की ही कतियाँ हैं। प्रसिद्ध नालदियर का मूल भी जैन है। दक्षिण मैलापुर (मद्रास शहर का एक भाग) किसी समय जैन साहित्यिक रचनाओं का मुख्य केन्द्र था ।
कर्नाटक को जैन धर्म की एक बड़ी देन उसकी मूर्तिकला है। जैन मूर्ति का एक निर्धारित रूप है, और कलाकार को उसे लेकर चलना होता है। इसीसे एक हजार वर्ष के विभिन्न समयों मे निर्मित जैन मूर्तियों की स्टाइल में अंतर नहीं देखा जाता। इसके उदाहरण के रूप में कर्नाटक की तीन विशाल जैन मूर्तियों को उपस्थित किया जा सकता है। वे है श्रवणबेलगोला, कारकल, और
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
वेनूर की गाम्मटेश्वर या बाहुबली की मूर्तियाँ । इनमें वेनूर की मूर्ति तीनों में सबसे छोटी अर्थात् ३५ फीट ऊँची है और श्रवणबेलगोला की मूर्ति सबसे बड़ी अर्थात् ५७ फीट ऊँची है। उनका समय क्रम से ६८३ ई., १४३ ई. और १६०४ ई. के लगभग है। तीनों मूर्तियाँ यथायोग्य ऊँचे स्थान पर बिराजमान हैं, दूर से दष्टिगोचर होती है, और दर्शकों को बरबस अपनी ओर आकष्ट करती है। तीनों में भव्यता पायी गई।
श्रवणबेलगोला के चंद्रगिरि पर १५ बस्तियाँ है। वे सब द्रविड शैली की है। उत्तर भारत के जैन मंदिरों पर पाये जानेवाले शिखर उन पर नहीं है। उनका साधारण बाह्यरूप उत्तर भारत के जैन मंदिरों के साधारण रूप से कहीं अधिक अलंकत है। श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में अनेक श्राविकाओं एवं आर्यिकाओं का उल्लेख हैं, जिन्होंने तन-मन-धन से जैन धर्म अपनाया था। श्राविकाओं ने अपने द्रव्य से अनेक जिनालयों का निर्माण कराया था तथा उनकी समुचित व्यवस्था के लिए राज्य की ओर से भी सहायता का प्रबंध किया था। उनमें श्राविका अतिमब्बे (१०वीं सदी), सावियब्बे, जक्कियब्बे, कंती आदि प्रमुख हैं। अतिमब्बे का धर्म सेविकाओं में अद्वितीय स्थान है। ___ १०वीं शताब्दी के अंतिम भाग में वीरवर चामुण्डराय की माता काललदेवी एक बड़ी धर्मप्रचारिका हुई है। भुजबल चरितम् से ज्ञात होता हैं कि इस देवी ने गोम्मटदेव की प्रशंसा सुनी तो प्रतिज्ञा की कि जब तक गोम्मट देव का दर्शन नहीं करूंगी तब तक
द्ध नहीं पीऊँगी। जब चामुण्डराय को अपनी पत्नी अजिता देवी के मुख से अपनी माता की प्रतिज्ञा ज्ञात हुई तो मातभक्त पुत्र ने माता को गोम्मटदेव के दर्शन कराने के लिए पोदनपर की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में उसने श्रवणबेलगोला की चंद्रगप्त बसति के भ० पार्श्वनाथ जी के दर्शन किये और आचार्य स्वामी भद्रबाहु के चरणों की वंदना की । इसी रात पद्मावती देवी ने काललदेवी को स्वप्न दिया कि कुक्कुट सर्यों के कारण पोदनपुर की वंदना संभव नहीं है, पर तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न होकर गोम्मटदेव तुम्हें यहीं बड़ी पहाड़ी पर दर्शन देंगे। दर्शन देने का प्रकार यह है कि तुम्हारा पुत्र शुद्ध होकर इस छोटी पहाड़ी पर से एक स्वर्ण बाण
है तो पाषाण शिलाओं के भीतर से गोम्मट देव प्रकट होंगे। प्रातः काल होने पर चामुण्डराय ने माता के आदेशानुसार नित्य कर्म से निवत्त हो दक्षिण दिशा की ओर मुँह कर एक बाण छोड़ा जो विंध्यगिरि के मस्तक पर की शिला में लगा। बाण के लगते ही शिलाखण्ड के भीतर से गोम्मट स्वामी का मस्तक दष्टिगोचर हुआ। अनंतर हीरे की छेनी और हथोड़ी से शिलाखण्ड को हटाकर गोम्मट देव की प्रतिमा निकाल ली गई। इसके पश्चात् माता की आज्ञा से वीरवर चामुण्डराय ने दुग्धाभिषेक किया। इस पौराणिक घटना में कुछ तथ्य हो या ना हो, पर इतना निर्विवाद सत्य है कि चामुण्डराय ने अपनी माता काललदेवी की आज्ञा और प्रेरणा से ही श्रवणबेलगोला में गोम्मटेश्वर की मूर्ति स्थापित करायी थी। इस देवी ने जैन धर्म के प्रचार के लिए भी कई उत्सव किये थे। प्राचीन शिलालेखों ओर वाड्मय के उल्लेख से ज्ञात होता है कि जैन श्राविकाओं का तत्कालीन समाज पर पर्याप्त प्रभाव था, जिसका विवरण आगे के पष्ठों में दिया जा रहा है। होयसल वंश, राष्ट्रकूट वंश, गंग राजवंश, कदंब शासक पश्चिमीय चालुक्य आदि कई राजवंश के जैन सेनापतियों की स्त्रियों ने अपने समय में जैन धर्म के संरक्षण के महत्वपूर्ण कार्यों में सक्रियात्मक भाग लिया है। राजघरानों, सामंतों और सेनापतियों की पत्नियों की तरह नागरिक महिलाओं में भी जैन धर्म के प्रति गाढ़ अनुराग था। शिलालेख संग्रह में ऐसी अनेकों महिलाओं का उल्लेख है जिन्होंने समाधिपूर्वक शरीर त्यागा। इन महिलाओं के लिए प्रेरणा स्त्रोत हमारे जैनाचार्य, संत एवं साध्वियाँ हैं जिन्होंने अपनी उदारता, बुद्धिमत्ता, तपस्या और त्याग से केवल राजाओं, सामंतों, सेनापति-मंत्रियों को ही प्रभावित नहीं किया, जनसाधारण में जो प्रभावशाली और उनके संपन्न वर्ग थे, उन्हें भी आकष्ट किया । जारवंशों को सहयोग देकर उन्होंने अपना अनुयायी बनाया और धर्मोपदेश आदि के द्वारा मध्यमवर्ग की भक्ति अर्जित की। अनेक मंदिरों, प्रमुख केंद्रों
और स्मारकों के साथ राजाओं, सामंतों और मंत्री सेनापतियों का जो क्रियात्मक समर्थन जैन धर्म को प्राप्त हुआ उससे दक्षिण भारत में जैन धर्म के प्रचार और शक्ति को पूर्ण बल मिला। तमिल और तेलगु साहित्य पर जैनों का प्रभाव न तो उतना गंभीर था और न स्थायी जितना कर्नाटक साहित्य पर। ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों से लेकर बारहवीं शताब्दी तक जैनों ने कन्नड में साहित्य रचना की। केवल पुरुषों ने ही नहीं, जैन स्त्रियों ने भी कन्नड़साहित्य को समद्ध करने में योगदान दिया। उनमें कंति का नाम उल्लेखनीय हैं। यह देवी होयसल नरेश लल्ला प्रथम के राज दरबार को सुशोभित करती थी, तथा उसने राजदरबार में अभिनव पम्य की अपूर्ण कविता की पूर्ति की थी। जैनी बड़े अध्ययनशील और सुलेखक थे, साहित्य और कला के प्रेमी थे। तमिल साहित्य को जैनों की देन तमिल साहित्य के भण्डार की बहुमूल्य संपत्ति है। जैन तमिल साहित्य की एक बड़ी विशेषता यह है कि कुछ
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
232
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
उच्च कोटि के ग्रंथों में उदाहरण के लिए कुरूल और नालडियार में किसी विशेष धर्म और देवता का निर्देश नहीं है। दक्षिण भारत में बहत् परिमाण में मूर्तिपूजा और मंदिरों का निर्माण जैन धर्म के प्रभाव की ही देन हैं। ५.१० दक्षिण भारत के विविध वंशोत्पन्न जैन श्राविकाओं का योगदान
__ तिरूमले में लगभग एक दर्जन शिलालेख प्राप्त हुए हैं जो तमिल मे है और जिनमें जैनधर्म का इतिहास निबद्ध है। वे शिलालेख विभिन्न स्थानों पर खुदे हुए हैं। ६५७ ईस्वी के शिलालेख में राष्ट्रकूट नरेश की रानी गंगमादेवी के एक सेवक के द्वारा तिरूमलै पहाड़ी पर स्थित यज्ञ के लिए एक दीपदान का उल्लेख है। तिरूमलै पहाड़ी पर दो शिलालेख चोलराज राजेंद्र प्रथम के राज्य के १२ वें और १३वें वर्ष के हैं। अतः उनका समय १०२३ ई. और १०२४ ई. हैं। इनमें से प्रथम में प्रसंगवश पल्लव नरेश की रानी सिन्नवई के द्वारा दीपदान का निर्देश है, दूसरे शिलालेख में श्री कुंदवइ जिनालय में देवता के लिए भेंट दान का उल्लेख है। कुंदवई चोलवंश की राजकुमारी और प्रसिद्ध चोल नरेश राज-राज प्रथम की बड़ी बहन थी। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण उसी ने कराया था। उसने दो जैन मंदिर और भी बनवाए थे। उनमें से एक दक्षिण आरकाट जिले के दादापुरम में और दूसरा त्रिचनापल्ली जिले के तिरूमलवाड़ी नामक स्थान मे बनवाया था। सित्तन्नवासल तिरुच्चिरुप्पल्लि जिले के तिरुमयम् तालुक में है। यह वह स्थान हैं जहाँ ई. पू. तीसरी शताब्दी से लेकर १२वीं शताब्दी पर्यंत १५०० वर्ष तक जैन धर्म का प्रभाव रहा था। यह स्थान अनेक प्रकार के पुरातत्वों की सामग्री से समद्ध है। यहाँ से खुदाई में जैन धर्म के अनेक उल्लेखनीय अवशेष प्राप्त हुए हैं। पहाड़ियों की एक लम्बी कतार का नाम सितन्नवासल है। सितन्नवासल का अर्थ होता है-सिद्धों या जैन साधओं का वास स्थान। तमिल में सिद्ध का सच्चारण "सित्" होता है और “वासल" का अर्थ होता है-रहने का स्थान।
इस पहाड़ी पर एक प्राकतिक गुफा है। उसमें सत्रह शयन स्थान तकियों के साथ बनाये गये हैं। सबसे बड़ी शयिका पर ईस्वी पूर्व दूसरी या तीसरी शताब्दी के लगभग का एक शिलालेख ब्राह्मी अक्षरों में हैं और शेष आठवीं, नौंवीं शताब्दी के हैं। सितन्नवासल के अतिरिक्त तेनीमलै, नारट्ठीमलै नामक पहाड़ियों में भी प्राकतिक गुफाएँ पाई गई हैं। आलरूट्ठिमलै के पास में ही बोम्मलै नाम की पहाड़ी है, जिसका दूसरा नाम है समणरमलै । समरणमलै का अर्थ होता हैं-जैन साधुओं की पहाड़ी। १३वीं शताब्दी के प्रारंभ में इसे विष्णु मंदिर के रूप में बदल दिया गया।३६
शिलालेखों, ताम्र-पत्रों आदि में निबद्ध तथा वंश परंपरा की अनुश्रुतियों के आधार पर दक्षिण भारत में प्राचीन गंग वंश के मूल संस्थापक दहिंग और माधव नाम के दो राजकुमार थे । भगवान् ऋषभदेव के इक्ष्वाकु वंश में अयोध्या के एक राजा हरिश्चंद्र थे, उनके पुत्र भरत की पत्नी विजय महादेवी से गंगदत्त का जन्म हुआ । उसी के नाम से कर्नाटक का उक्त वंश जान्हवेय, गांगेय या गंगवंश कहलाया ।२७ गंग का एक वंशज विष्णुगुप्त जो अहिच्छत्रपुर का राजा हुआ तीर्थंकर अरिष्टनेमि का भक्त था । उसका वंशज श्रीदत्त भगवान् पार्श्वनाथ का अनन्य भक्त था । उन्हीं के वंश में कंप का पुत्र पद्मनाभ अहिच्छत्र का राजा हुआ । उसके राज्य पर जब उज्जयिनी के राजा ने आक्रमण किया तब दद्दिग और माधव के पिता पदमनाथ एवं माता रोहिणी ने उन्हें कुछ राजचिन्ह देकर दूर वेदेश में भेज दिया । यात्रा करते हुए दोनों राजकुमार कर्नाटक के पेरूर नामक स्थान में पहुँचे । वहाँ पर मुनिराज सिंहनंदि आचार्य के दर्शन उन्होंने किये । आचार्य सिंहनंदि ने राजकुमारों की परीक्षा ली, उन्हें योग्य देखकर उचित शिक्षा दीक्षा देकर उन्हें कर्णिकार पुष्पों का मुकुट पहनाकर उनका राज्याभिषेक किया । गंगवंश की स्थापना के समय उन्होंने सात शिक्षाएँ दी थी, जिसका पालन विष्णुगोप को छोड़कर सभी राजाओं ने किया ।
वी. नि. सं. १000 के उत्तरवर्तीकाल में समय समय पर सातवाहन, चोल, चेर, पाण्ड्य, कदम्ब, गंग, चालुक्य, राष्ट्रकूट, रट्ट, शिलाहार, पोयसल, आदि राजवंशों ने जैन धर्म को प्रश्रय प्रदान कर इसके अभ्युदय उत्कर्ष के कार्यों में उल्लेखनीय योगदान दिया। ईसा की पाँचवी-छठी शताब्दी तक जैन धर्म मुख्य रूप से दक्षिणापथ का एक प्रमुख, शाक्तिशाली, एवं बहुजन सम्मत धर्म रहा । अनेक शिलालेखों, पुरातात्विक अवशेषों एवं "जैन संहार चरितम्" आदि शैव परंपरा की प्राचीन साहित्यिक लघु कतियों से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि तमिलनाडु तथा आंध्र कर्नाटक में शैव संप्रदाय एवं वैष्णव संप्रदाय के अभ्युदयोत्कर्ष से पूर्व जैन धर्म का दक्षिणी प्रान्तों में सर्वाधिक वर्चस्व रहा था। प्राप्त उल्लेखों से यह स्पष्ट होता है कि सुंदर पाण्ड्य के शासनकाल में समस्त दक्षिणापथ में और विशेषतः तमिलनाडु में जैन धर्मावलम्बियों की गणना प्रबल बहसंख्यक के रूप में की जाती थी ! मदुरै में ज्ञान
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
सम्बन्धर से प्रतिस्पर्धा में जैन श्रमणों के पराजित हो जाने पर सुंदर पाण्ड्य जैन धर्म का परित्याग कर शैव बन गया और उसने स्पर्धा की शर्त के अनुसार पराजित पाँच हजार जैन श्रमणों को फांसी के फंदों पर लटका दिया। इस दुर्भाग्यशालिनी घटना को इतिहास के अनेक विद्वानों ने न केवल काल्पनिक किंतु ऐतिहासिक तथ्य के अंतर्गत माना है। मदुरै के मीनाक्षी मंदिर की भित्तियों पर भित्तिचित्रों में श्रमण संहार की इस घटना को चित्रित किया गया है। पाण्ड्य राजवंश द्वारा जैन धर्म के स्थान पर शैवधर्म स्वीकार कर लिये जाने के पश्चात् चोलराजवंश ने भी शैव धर्म अंगीकार कर जैन धर्मानुयायियों पर अत्याचार करना प्रारंभ कर दिया। उसके पश्चात् बसवा, एकांतद रमैया एवं रामानुजाचार्य द्वारा दक्षिणापथ में क्रमशः शैव एवं वैष्णव (रामानुज) संप्रदाय के फैलने पर सामूहिक लूट-खसोट, हत्या एवं बलपूर्वक धर्म परिवर्तन जैनों पर किये गये। परिणामस्वरूप जो आंध्रप्रदेश शताब्दियों से जैनों का मुख्य गढ़ था वहाँ से जैनों का अस्तित्व ही मिट गया। तमिलनाडु में भी शताब्दियों से बहुसंख्यक के रूप में माने जाते रहे जैन धर्मावलम्बी अतीव स्वल्प अथवा नगण्य संख्या में ही अवशिष्ट रह गये। इस प्रकार के संक्रांतिकाल में भी जैन धर्म की रक्षा करने में, जैन धर्म को एक सम्मानास्पद धर्म के रूप में बनाये रखने में प्रमुख राजवंशों का एवं उनके द्वारा जैन धर्म के अभ्युदय उत्कर्ष के लिए किये गये कार्यों का एवं जैन श्राविकाओं का सामाजिक, धार्मिक योगदान का वर्णन इसमें उल्लिखित है| भारत गौरव मध्यकालीन हिंदु साम्राज्य के संस्थापक संगम नामक एक छोटे से यदुवंशी राजपूत सरदार के पाँच वीर पुत्र
ता प्रेमी. वीर. साहसी और महत्वाकांक्षी थे तथा अंतिम होयसल नरेश वीर बल्लाल ततीय की सीमांत चौकियों के रक्षक थे। १३३६ ई. में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में वे सफल हुए। हरिहर राय प्रथम (१३४६-६५) विजयनगर राज्य का प्रथम अभिषिक्त राजा बना। १७ वीं शती के अंत तक इनका राज्य चला।
विजयनगर के राजाओं का कुलधर्म एवं राज्यधर्म हिंदु था, किंतु प्रजा का बहुभाग जैन था। उसके अतिरिक्त श्री वैष्णव, लिंगायत व कुछ सदाशैव थे। राजा लोग सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु, समदर्शी और उदार थे। जैन धर्म को उनसे प्रभूत संरक्षण एवं पोषण प्राप्त हुआ। राजधानी विजयनगर (हम्पी, प्राचीन पंपा) के वर्तमान खंडहरों में वहाँ के जैनमंदिर ही सर्वप्राचीन हैं। जिसमें विजयनगर की स्थापना से पूर्व भी अनेक जैनमंदिर विद्यमान थें । कला और शिल्प की दष्टि से भी विजयनगर के जैनमंदिर अत्युत्तम है। विजयनगर साम्राज्य युग ने इतिहास को अनेक उल्लेखनीय जैन विभूतियाँ भी प्रदान की। हरिहर प्रथम की पत्नी ने हिरेआवलि में पंच नमस्कार महोत्सव किया था । १३५४ ई. में वीर-हरियप्प ओडेयर के राज्य में मालगौड़ की भार्या चेन्नके ने सन्यासविधि से मत्यु को प्राप्त किया था । इस काल के प्रमुख जैन विद्वान् वादीसिंहकीर्ति मंगरस और भट्टारक धर्मभूषण थे। ४०
हरिहर प्रथम के पुत्र बुक्काराय प्रथम के राज्यकाल में ई. १३७१ में बिट्टलगौड की सुपुत्री, ब्रह्म की पत्नी लक्ष्मी-बोम्मक्क ने समाधिमरण किया था । हरिहर द्वितीय (१३७७–१४०४ ई.) के राज्य में कूचिराज एवं अन्य जैन मंत्री एवं राजपुरूष भी थे । इनके राज्य में जैनधर्म खूब फला-फूला । महारानी बुक्कवे परम जिनभक्त थी, उसने ई. १३६७ में कुंथुनाथ जिनालय के लिए दान दिया था । इन्हीं के राज्यकाल में विजय कीर्तिदेव की शिष्या कोंगाल्ववंश की रानी सुगुणिदेवी ने १३६१ ई. में अपनी जननी पोचब्बरसि के पुण्यार्थ जिन प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई तथा दान दिया था । १३६५ ई. में एक प्रतिष्ठित महिला कानरामण की सती पत्नी कामी-गोडि ने समाधिमरण किया था । राजा हरिहर द्वितीय ने कनकगिरि, मूडबिद्रि आदि की अनेक जैन-बसदियों को स्वयं भी उदार भूमिदान दिये थे । उसका राजकवि मधुर भी जैन था, जो "भूनाथस्थान चूड़ामणि" कहलाता था तथा धर्मनाथपुराण, एवं "गोम्मटाष्टक" का रचयिता था । ई. १४०५ में बय्यिराज की सुपुत्री मेचक ने समाधि-मरण किया था। देवराय प्रथम (१४०६-१० ई.) की महारानी भीमादेवी परम जिनभक्त थी। उसने १४१० ई. में मंगायि बसदि का जीर्णोद्धार कराया था। रानी भीमादेवी के साथ ही पण्डिताचार्य की अन्य शिष्या बसतायि ने वर्धमान स्वामी की प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई थी । अयप्प गौड की पत्नी कालि-गौडि ने १४१७ ई. में समाधिमरण किया था तथा १४१६ ई. में गेरूसोप्पे की श्रीमती अब्वे ने तथा उसके साथ समस्त गोष्ठी ने धर्मकार्यों के लिए श्रवणबेलगोल में दान दिये थे। इसी प्रकार देवराय द्वितीय (१४१६-४६ ई.) जैन मंत्री बैचप दण्डाधिनायक, दण्ड नाथ मंगय की भार्या जानकी शीलगुणमंडिता जिनभक्त थी। राजकुमारी देवमति भी इसी काल में हुई थी । गोपचमूप, गोपमहाप्रभु, बाचायि पुत्र मायण्ण, गोपगौड, कम्पन गौड़ और नागण्ण वोडेयर, राजा कुलशेखर आलुपेंद्र देव, वीर पाण्ड्य भैररस आदि पंद्रहवी शताब्दी के जैनधर्म प्रभावक व्यक्तित्व थे।४२
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
234
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
कदम्बवंश की स्थापना कदम्ब नामक वक्ष-विशेष के नाम पर ईसा की दूसरी शती के मध्य के लगभग, सातवाहनों के एक सामंत पुक्कण अपरनाम त्रिनेत्र ने की बताई जाती है। इनका कुलधर्म मुख्यतया ब्राह्मण था, किंतु इस वंश में अनेक राजा परम जैन हुए । दूसरा राजा शिवकोटि अपने भाई शिवायन के साथ स्वामी समंतभद्र द्वारा जैन धर्म में दीक्षित कर लिया गया था। शिवकोटि का पुत्र श्रीकंठ था तथा पौत्र शिवस्कंदवर्मन का उत्तराधिकारी मयूरवर्मन था, तीसरी शती के उत्तरार्ध के समय में ही कंदब राज्य शक्तिसंपन्न एवं सुप्रतिष्ठित हो सका था। उसी ने वैजयन्ती (वनवासी) को राजधानी और हल्सी (पलाशिका) को उपराजधानी बनाया था। उसका पुत्र भगीरथ और पौत्र रघु एवं काकुस्थवर्मन थे। लगभग ई. सन् ४०० के हल्सी ताम्रशासन से विदित होता है कि यह नरेश जैनधर्म का भारी पोषक था। उसका पुत्र शान्तिवर्मन एवं पौत्र मगेशवर्मन ने जैन मंदिर बनवाया एवं मंदिर की व्यवस्था के लिए भूमिदान आदि दिया। मगेशवर्मन के पश्चात् उसकी प्रियपत्नी कैकय राजकन्या प्रभावती से उत्पन्न पुत्र रविवर्मन राजा हुआ। इस प्रकार कदम्ब राजवंश एक सुशासित, सुव्यवस्थित, शांति और समद्धिपूर्ण राज्य था। कदम्ब नरेशों की स्वर्णमुद्रायें अति श्रेष्ठ मानी जाती है। उनके समय में विविध जैन साधु-संघ और संस्थाएँ सजीव एवं प्रगतिशील थी। वे राजा तथा प्रजा की लौकिक उन्नति एवं नैतिकता में साधक और सहायक थी। जैन धर्म के विभिन्न संप्रदाय-उपसंप्रदाय उनके समय में परस्पर सौहार्दपूर्वक रहते हुए स्व-पर कल्याण करते थे।
पल्लव वंश की स्थापना दक्षिण भारत के धुर पूर्वीतट पर तमिलनाडु में दूसरी शती ई. के उत्तरार्ध में हुई। कीलिकवर्मन चोल का प्रथम पुत्र पल्लव वंश का संस्थापक था तथा अन्य पुत्र शांतिवर्मन जैनाचार्य समंतभद्र के रूप में प्रसिद्ध हुए। पल्लवों का राज्य-चिन्ह वषभ था, अतः वे वषध्वज भी कहलाए। संभव है प्रारंभ में उनमें वषभलांछन ऋषभदेव (आदि तीर्थंकर) की पूजा उपासना विशेष रही हो। समय के साथ पल्लव वंश की कई शाखाएँ उपशाखाएँ होती रही ! तीसरी शाखा में उत्पन्न सिंहविष्णु का उत्तराधिकारी महेंद्रवर्मन प्रथम (६००-६३० ई.) प्रसिद्ध प्रतापी एवं पराक्रमी नरेश था। वह जैनधर्म का अनुयायी था। कई जिनमंदिर तथा सित्तन्नवासल के प्रसिद्ध जैनगुहामंदिर उसी ने बनवाए थे। इन चैत्यालयों का निर्माण कराने के कारण उसे “चैतन्यकंदर्प" की उपाधि प्राप्त हुई थी। शैव सन्त अप्पर के संपर्क में आकर राजा शैव हो गया था, तब उसने जैनों पर अत्याचार किये, कई जैन मंदिरों को शैव मंदिरों में परिवर्तित किया। पल्लवों की ही एक शाखा नोलम्बवाड़ी के नोलम्बों की थी, और उनमें जैनधर्म की प्रवत्ति प्रायः निरन्तर बनी रही। अंतिम पल्लवनरेशों में नन्दिवर्मन ततीय (८४४-६० ई.) का पुत्र एवं उत्तराधिकारी, जिसकी जननी शंखादेवी राष्ट्रकूट सम्राट् अमोघवर्ष प्रथम की पुत्री थी, अपने नाना की ही भांति जैनधर्म का समर्थक था। उसने पाण्ड्यनरेश श्रीमारन को पराजित करके उसकी राजधानी मदरा को भी लूटा था ।
चालुक्य वंश की वह शाखा जिसके शासकों ने बीजापुर जिले में स्थित बादामी अथवा वातापी को अपनी राजधानी बनाकर शासन किया, वे इतिहास में बादामी के चालुक्य कहलाए। यह चालुक्यों का सबसे प्राचीनतम व मूल वंश है। ई. की पाँचवीं शती के मध्य में महाराष्ट्र प्रदेश में इस राज्यशक्ति का उदय हुआ। छठी शताब्दी में राजा जयसिंह तथा उसके पुत्र रणराग ने इस राज्य की सुदढ़ नींव जमाई तथा सातवीं शताब्दी में तो दक्षिणापथ का ही नहीं, वरन् संपूर्ण भारतवर्ष का यह समद्ध एवं शक्तिशाली राज्य रहा था। इस वंश के प्रमुख शासक पुलकेशिन द्वितीय विनयादित्य, विजयादित्य आदि थे। विनयादित्य राजा की पुत्री कुमकुमदेवी ने एक जैन मंदिर का निर्माण करवाया था।५
वेंगि के चालुक्य, चालुक्य राजवंश की दूसरी महत्वपूर्ण शाखा थी। क्योंकि इस वंश के शासकों ने वेंगी से शासन किया, इसलिए वे वेंगी के चालुक्य कहलाए। वेंगी राज्य वातापी राज्य के पूर्व में स्थित था, इसलिए इस राजवंश को पूर्वी चालुक्य भी कहा जाता है। इस वंश का संस्थापक सम्राट् पुलकेशी द्वितीय के अनुज कुब्जविष्णुवर्द्धन था। इस वंश के अनेक शासकों ने (लगभग २७.) आंध्रप्रदेश पर लगभग ५०० वर्ष तक राज्य किया। कुब्जविष्णुवर्द्धन की रानी जैन धर्मी थी । विजयादित्य प्रथम की रानी अय्यन महादेवी ने ई. ७६२ में जैन धर्म की प्रभ पना हेतु दान दिया था। इस वंश में अम्मराज द्वितीय का प्रधान दुर्गराज सेनापति था । । कुलचुम्बरू दानपत्र के अनुसार इस नरेश ने चालुक्यवंश के पट्टवर्धिक घराने की राजमहिला चामकाम्बा जो शायद स्वयं राजा की । गणिकापत्नी थी, के निवेदन पर सर्वलोकाश्रय-जिनभवन के लिए उक्त ग्राम दान किया था । संभवतया इस महिला ने इस मंदिर ।
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
235
का निर्माण अम्मराज के नाम पर ही किया था। अम्म द्वितीय को पाँचवी पीढ़ी में १०२२ ई. के लगभग विमलादित्य राजा हुआ था। उसकी पटरानी थी कुन्दब्बे जिसने कुन्दब्बे जिनालय ग्राम का भव्यजिन मंदिर बनवाया था।
राष्ट्रकूट वंश दक्षिण के प्रमुख राजवंशों में से एक था। इस वंश ने आठवीं से दसवीं शताब्दी तक शासन किया। इसने दक्षिण की राजनीति तथा सांस्कतिक जीवन में प्रशंसनीय योगदान दिया। राष्ट्रकूट वंश के विषय में विद्वानों के विभिन्न मत है। अधिकांश इतिहासकारों का कथन है कि राष्ट्रकूटों के पूर्वज चालुक्यों के अधीन राष्ट्र (प्रान्त) के शासक थे। उन्हें राष्ट्रपति कहा जाता था। इस उपाधि के आधार पर उनके राजवंश का नाम राष्ट्रकूट पड़ गया। राष्ट्रकूट वंश की स्थापना दन्तिदुर्ग ने ७४२ ईस्वी में की थी । इस वंश ने ६७३ ईस्वी तक शासन किया। ध्रुव एवं गोविंद ततीय राष्ट्रकूट वंश के सर्वाधिक महान् शासक थे। दन्तिदुर्ग के उपरांत उसका चाचा कृष्ण प्रथम अकालवर्ष-शुभतुंग (ई. ७५७-७७३) राजा हुआ। वह भी भारी विजेता और पराक्रमी नरेश था। एलोरा के सुप्रसिद्ध कैलाश मंदिर के निर्माण का श्रेय उसे ही दिया जाता है। इसी परंपरा में कष्ण प्रथम का लघु पुत्र ध्रुव धारावर्ष निरूपम (७७६-७६३ ई.) की पटरानी शीलभट्टारिका बेंगि के चालुक्य नरेश विष्णुवर्द्धन चतुर्थ की पुत्री थी, जैन धर्मी थी तथा श्रेष्ठ कवियित्री भी थी। अपभ्रंश भाषा के जैन महाकवि स्वयंभू ने अपने रामायण, हरिवंश, नागकुमारचरित, स्वयम्भूछंद आदि महान् ग्रंथों की रचना इसी नरेश के आश्रय में उसी की राजधानी में रहकर की थी। स्वयम्भू की पत्नी सामिअब्बा भी बड़ी विदुषी थी। सम्राट ने अपनी राजकुमारियों को शिक्षा देने के लिए उसे नियुक्त किया था। सम्राट् अमोघवर्ष प्रथम का इस वंश के सर्व महान् सम्राटों में उल्लेखनीय स्थान है। वह जैन धर्म का अनुयायी था और राजर्षि के रूप में विख्यात था। राजर्षि ने ई. ८७६ में राज्यकार्य का भार यवराज कष्ण को सौंपकर अवकाश ले लिया था और एक आदर्श त्यागी श्रावक के रूप में समय व्यतीत किया था। सन ८७८ और ८८० ई. के मध्य इस राजर्षि का निधन हुआ। स्वयं सम्राट् के अतिरिक्त उसकी महारानी गामुण्डब्बे, पट्टमहिषी उमादेवी, राजकुमारियाँ शंखा देवी, और चन्द्रबेलब्बे, चचेरा भाई कर्कराज, युवराजकृष्ण, इत्यादि राजपरिवार के अधिकतर सदस्य जिनभक्त थे। सम्राट अमोघवर्ष प्रथम के राजपुरूषों में जैनधर्म की दष्टि से सर्वाधिक उल्लेखनीय उसका महासेनापति वीर बंकेयरस है। वह मुकुल नामक व्यक्ति के कुल में उत्पन्न हुआ था, जो राष्ट्रकूट कष्ण प्रथम की सेवा में था। उसका पुत्र एरिकोटि तथा एरिकोटि का पुत्र धोर था । धोर की पत्नी विजयांका से इस बंगकेश का जन्म हुआ था कृष्ण द्वितीय शुभतुंग अकालवर्ष और इसकी पटरानी दोनों जैन धर्मानुयायी थे । इस दसवीं शताब्दी में ही कष्ण द्वितीय का पौत्र इंद्र ततीय हुआ था। उसके महान् सेनापति नरसिंह
और श्रीविजय दोनों ही जैनधर्म के अनुयायी थे। श्रीविजय जीवन के अंतिम समय में जैन मुनि हो गया था। इंद्र ततीय ने अपने पट्टरंधोत्सव पर चार सौ ग्राम दान में दिये थे। उसकी जननी लक्ष्मीदेवी थी। राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्णा द्वितीय के समय में ६११ ई. में बंकेयपुत्र महासामन्त कलिबिट्टरस था, उसके अधीन नागरखण्ड का सामंत सत्तरस नागार्जुन था। उसकी मत्यु हो गई तो उसकी पत्नी जाक्कियब्बे को उसके स्थान पर सामंत नियुक्त किया गया । यह महिला उत्तम प्रभुशक्तियुक्त, जितेंद्र शासन की भक्त और अपनी योग्यता एवं सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध थी । इसने सात-आठ वर्ष पर्यंत अपने पद का सफल निर्वाह किया और अपने प्रदेश
THE१८ ई. में रूग्ण होने पर अपनी संपत्ति और पदभार अपनी पुत्री को सौंप दिया और स्वयं बंदनि के एक बसदि में जाकर सल्लेखनापूर्वक देह का त्याग किया 180
इंद्र ततीय के उपरान्त, इस वंश के अंतिम नरेशों में राष्ट्रकूट कष्ण ततीय अकालवर्ष (६३६-६६७ ई.) हुए जो स्वयं एक वीर योद्धा, दक्ष सेनानी, मित्रों के प्रति उदार, विद्वानों का आदर करनेवाला, धर्मात्मा एवं प्रतापी नरेश था । अपने पूर्वजों की भांति वह जैन धर्म का पोषक था । जैनाचार्य वादिघंगल भट्ट का वह बड़ा आदर करता था । उन्हीं की मंत्रणा एवं परामर्शों के फलस्वरूप वह अपने युद्धों में तथा विभिन्नप्रदेशों को विजयी करने में सफल हुआ था । "शांतिपुराण" और "जिनाक्षर माले' के रचयिता कन्नड़ के जैन महाकवि पोन्न को "उभयभाषाचक्रवर्ती” की उपाधि देकर कृष्ण ततीय ने उन्हें सम्मानित किया था एवं प्रश्रय दिया था । सम्राट् के प्रधान मंत्री भरत और उनके पुत्र नन्न अपभ्रंश भाषा के जैन महाकवि "पुष्पदंत" के प्रश्रयदाता थे । महामंत्री भरत जैन धर्मावलम्बी कौण्डिन्यगोत्रीय ब्राह्मण थे । इनके पितामह का नाम अणप्या, पिता का एयण और माता का नाम श्रीदेवी श । इनकी पत्नी का नाम कुंदव्वा और सुपुत्र का नाम नन्न था । कष्ण ततीय की मत्यु के पश्चात् उसका छोटा भाई राष्ट्रकूट सिंहासन पर बैठा। इस नरेश ने अर्हत् शांतिनाथ के लिए पाषाण की एक सुंदर चौकी बनवाकर समर्पित की थी । इसी नरेश के सामत पड्डिग ने, अपनी भार्या जक्किसुंदरी द्वारा काकम्बल में निर्मापित भव्य जिनालय के लिए दो ग्राम प्रदान किये थे । यह दान ६६८ ई. में
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
236
दिया गया था । लगभग ढाई सौ वर्ष के राष्ट्रकूट युग में जैनधर्म, विशेषकर उसका दिगंबर संप्रदाय, संपूर्ण दक्षिणापथ में सर्वप्रधान धर्म था । डॉ. आल्लेकर के मतानुसार राष्ट्रकूट साम्राज्य की लगभग दो तिहाई जनता तथा उनके अधीनस्थ राजाओं, उपराजाओं, सामंत सरदारों, उच्च पदाधिकारियों, राजकर्मचारियों एवं महाजनों और श्रेष्ठियों में से अधिक्तर लोग इसी धर्म के अनुयायी थे । लोकशिक्षा भी जैन गुरूओं एवं बसदियों द्वारा संचालित होती थी । अपने इस महत् प्रभाव के फलस्वरूप जैनधर्म ने जन जीवन की प्रशंसनीय नैतिक उन्नति की राजनीति को प्राणवान् बनाया, और भारतीय संस्कति की सर्वतोमुखी वद्धि की । इस युग के अमोघवर्ष प्रमुख जैन नरेशों और उनके बंकेय, श्रीविजय, नरसिंह, चामुण्डराय जैसे प्रचण्ड जैन सेनापतियों ने पूरे दक्षिण भारत पर ही नहीं पूर्वी, पश्चिमी एवं मध्य भारत तथा उत्तरापथ के मध्यदेश पर्यंत अपनी विजय वैजयन्ती फहरायी, और बड़े बड़े रणक्षेत्रों में यमराज को खुलकर भयंकर भोज दिये । उनके लिए जैनधर्म इन कार्यों में तनिक भी बाधक नहीं हुआ।
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
दक्षिण के इतिहास में चोल वंश के इतिहास को सबसे शानदार माना जाता है। नौवीं शताब्दी में इसने अपने गौरव को पुनः स्थापित किया तथा तेरहवीं शताब्दी के आरंभ तक शासन किया। राजराजाप्रथम तथा उसका पुत्र राजेंद्र प्रथम चोल को सूर्यवंशी क्षत्रिय बताया गया है, जो पहले उत्तरी भारत में रहते थे, कालांतर में वे दक्षिण भारत में पहुँच गए तथा वहाँ स्थायी रूप बस गए। डॉ. आर. सी. मजुमदार का मत है कि "चोल" शब्द का अर्थ श्रेष्ठ है। क्यों कि चोल अति प्राचीन तथा श्रेष्ठ वंश से संबंधित थे इसलिए इन्हें चोल कहा गया। नौवीं दसवीं शताब्दी के मध्य चोल शासक विजयाचलम् ने तंजौर को राजधानी बनाकर अपने वंश की स्थापना की और चोल राज्य का पुनरूत्थान किया। उसके वंश में राज- राजा केसरिवर्मन चोल (६८५-१०१६ई.) इस वंश का सर्वमहान नरेश था। जैन तीर्थ पंच पाण्डवमलै के ६६२ ई. के तमिल शिलालेख के अनुसार इस नरेश के एक बड़े उपराजा लाटराज वीर चोल ने अपनी रानी लाटमहादेवी की प्रार्थना पर, तिरुप्पानमलै के जिनदेवता को एक ग्राम की आय समर्पित की थी। उन्हीं के समय में ईस्वी १०२३ में पवित्रपर्वत तिरुमलै के शिखर पर स्थित कुन्दवे जिनालय को दान दिया था, जो राजराजा चोल की पुत्री, राजेंद्र चोल की बहन और विमलादित्य चालुक्य की रानी कुन्दवै द्वारा बनवाया गया जिनालय था । कोलुत्तुंग चोल (१०७४–११२३ ई.) बड़ा चतुर वीर और पराक्रमी था। स्वयं सम्राट् जैन धर्म का अनुयायी था और उसके आश्रय में अनेक जैन धार्मिक एवं साहित्यिक कार्य हुए। राजेंद्र चोल द्वारा नष्ट किये गये जैन मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया गया। प्राचीन भारत के चरित्रवान् नरेशों में कोलुत्तुंग चोल की गणना की जाती है। इस नरेश के पश्चात् उसका चतुर्थपुत्र अकलंक सिंहासन पर बैठा, उसकी राजसभा भी विद्वानों और गुणियों से भरी रहती थी। इसके उपरान्त अन्य कोई जैन नरेश इस वंश में नहीं हुआ। अतिगैमान चेर जो राजराजा का पुत्र था, उसने तिरूमलै पर्वत के मंदिर में यक्ष मूर्तियों का जीर्णोद्धार कराया । यह राजकुमार संभवतया केरल नरेश एरणि चेर के वंश की राजकुमारी से उत्पन्न था। ४६
वातापी के पश्चिमी चालुक्यों की राजसत्ता का अंत कीर्तिवर्मन द्वितीय के साथ ७५७ ई. में हो गया था। उसके चाचा भीम पराक्रम की सन्तति से उत्पन्न तैलप द्वितीय द्वारा दो सौ वर्ष के उपरान्त चालुक्य राज्यश्री का पुनः अभ्युत्थान हुआ, और इस बार इतिहास में वे कल्याणी के उत्तरवर्ती चालुक्य कहलायें । तैलप द्वितीय आहवमल्ल वातापी के चालुक्यों के वंश में उत्पन्न विक्रमादित्य चतुर्थ का पुत्र था। और ६५७ ई. में राष्ट्रकूट कष्ण ततीय के अधीन वह एक निरूपाधिक शासक था। आठ वर्ष में वह अपने साहस, पराक्रम और युद्ध सेवाओं के बल पर सम्राट् का कपापात्र बन गया और महासामन्ताधिपति चालुक्यराम आहवमल्ल तैलपरस कहलाने लगा। उसका विवाह राष्ट्रकूटवंशी सामंत बम्महाट्ट की कन्या जकब्बे अपर नाम लक्ष्मी के साथ किया गया। कहा जाता है कि मुंज परमार ने छः बार तैलप के राज्य पर आक्रमण किया और प्रत्येक बार पराजित होकर लौटा। अंतिम बार वह तैलप द्वारा बंदी बना लिया गया । तैलप की बहन मणालवती से प्रेम करके वह बन्दीगह से निकल भागा, किंतु पकड़ा गया और मार डाला गया । तैलप का निधन ६६७ ई. में हुआ । ई. ९७४ में कल्याणी में उसका राज्याभिषेक हुआ था । कन्नड़ भाषा का जैन महाकवि रन्न (रत्नाकर) उसका राजकवि था । कवि के प्रारंभिक आश्रयदाता चामुण्डराय दिवंगत हो चुके थे। सन् ६६३. ई. में कवि के अजितपुराण अपरनाम पुराण तिलक महाकाव्य की समाप्ति पर तैलपदेव ने उसे "कवि चक्रवर्ती" की उपाधि से विभूषित किया था । कल्याणी के उत्तरवर्ती चालुक्यों के वंश एवं साम्राज्य की स्थापना में जिन धर्मात्माओं के पुण्य, आशीर्वाद और सद्भावनाओं का योग रहा उनमें सर्वोपरि महासती अतिमब्बे थी, जिनके शील, आचरण, धार्मिकता, धर्मप्रभावना, साहित्य सेवा, वैदुष्य, पातिव्रत्य, दानशीलता आदि सद्गुणों
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
के उत्कष्ट त्याग से तैलपदेव का शासन काल धन्य हो उठा। वह सम्राट् के प्रधान सेनापति मल्लप की सुपुत्री थी, वाजीवंशीय प्रधानामात्य मंत्रीश्वर धल्ल की पुत्रवधु थी । प्रचण्ड महादण्डनायक और वीर नागदेव की वह प्रिय पत्नी थी, और कुशल प्रशासनाधिकारी वीर पदुवेल तैल की स्वनामधन्या जननी थी। आनेवाले शताब्दियों में बाचलदेवी, बम्मलदेवी, लोक्कलदेवी, आदि अनेक परम जिन भक्त महिलाओं की तुलना इस आदर्श नारी रत्न अति मब्बे के साथ की जाती थी। डॉ. भास्कर आनंद सालतोर के शब्दों में "जैन इतिहास के महिला जगत में सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्रशंसित नाम अतिमब्बे है। सत्याश्रय इरिव बेडेंग (६६७-१००६ ई.) ने अपने पिता तैलप द्वितीय के शासनकाल में ही अपनी वीरता, पराक्रम और रणकौशल के लिए ख्याति प्राप्त कर ली थी । इस नरेश के गुरू द्रमिलसंघी विमलचंद्र पंडितदेव थे। अंगडि नामक स्थान में उक्त पण्डितदेव की एक अन्य गहस्थशिष्या हवुम्बे की छोटी बहन शांतियब्बे ने गुरू की पुण्य स्मति में एक स्मारक निर्माण कराया था। इस नरेश का प्रधान राज्याधिकारी उसके परम मित्र नागदेव और देवी अतिमब्बे का पुत्र पदुवेल तैल था, जो अपनी लोक पूजित जननी का अनन्य भक्त होने के साथ ही साथ परम स्वामी भक्त, सुयोग्य, स्वकार्यदक्ष तथा जिनेंद्र भक्त था । रन्न और पोन्न दोनों ही महाकवियों का वह प्रश्रयदाता था । ५° सोमेश्वर प्रथम त्रैलोक्यमल्ल आहवमल्ल (१०४२ - ६८ ई.) जयसिंह का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था । वह पराक्रमी, वीर, योद्धा, श्रेष्ठ, कूटनीतिज्ञ भी था । वह एक निष्ठावान् जैन सम्राट् था । बेल्लारी जिला का कोंगली नामक स्थान पुरातन काल से एक प्रसिद्ध जैन केंद्र था। यहाँ एक महत्वपूर्ण जैन विद्यापीठ बनी हुई थी । सम्राट् के सान्तर, रट्ट, गंग, होयसल आदि इनके अनेक सामंत सरदार भी जैनधर्म के अनुयायी थे, उन्होंने जिनमंदिर बनवाये तथा भूमि आदि के दान दिये थे । सोमेश्वर की महारानी केतलदेवी ने भी, जो पोन्नवाड़ "अग्रहार" की शासिका थी, अपने सचिव चांकिराज द्वारा त्रिभुवनतिलक जिनालय में उसके स्वयं द्वारा निर्मापित उपमंदिरों के लिए १०५४ ई. में महासेन को दान दिया था। सोमेश्वर द्वितीय भुवनैकमल्ल (१०६६ - ७६ ई.) सोमेश्वर प्रथम का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था तथा अपने पिता की ही भांति "भव्य " जैन था। चोलों के साथ उसके युद्ध चलते रहे और दो बार उसने उन्हें बुरी तरह पराजित किया । कदम्बों का भी उसने दमन किया। उसके राज्य के प्रथम वर्ष (१०६८ ई.) में ही उसके महासामंत लक्ष्मणराज ने बलिग्राम में जिनमंदिर बनवाया था, तथा शांतिनाथ मंदिर के लिए भूमि का दान दिया था। कई प्रतिमाएँ राजा ने प्रतिष्ठित कीं तथा भूमि का दान आदि दिया ।
T
237
ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दी में विक्रमादित्य षष्ठ त्रिभुवनमल्ल साहसतुंग की ज्येष्ठ रानी जक्कलदेवी इंगलंगि प्रांत की शासिका थी। वह कुशल प्रशासक, वीर तथा जैन थी । अर्हत् शासन का स्तम्भ, अत्तिकाम्बिका और कोम्मराज का पुत्र चांकिराज, चालुक्य सम्राट् त्रैलोक्यमल्ल की महारानी केतलदेवी का दीवान था। महारानी केतलदेवी स्वयं पोन्नवाड़ अग्रहार की शासिका थी। इस ग्यारहवीं शताब्दी में दानी धर्मात्मा हरिकेसरी देव जो चालुक्यों का कदम्बवंशी सामन्त था, उसकी पत्नी लच्चलदेवी भी उसी की भांति जिनभक्त थी । इस दंपत्ति ने जैन मंदिर के लिए बहुत-सा भूमिदान दिया था। कुंतल देश में बनवासि नरेश कीर्तिदेव की अग्रमहिषी माललदेवी जिनभक्त, एवं धर्मपरायण सुंदरी थी। पाण्ड्य के महाप्रधान दण्डनायक सूर्य की भार्या कालियक्का ने ११२८ ई. में पार्श्व जिनालय बनवाया। कदम्ब कुल में चट्टलदेवी, श्रीदेवी, शंकर सामंत की पत्नी जक्कणब्बे आदि जिनभक्त श्राविकाएँ हुई थी । ५१
ई.
सन् की बारहवीं शताब्दी में गंगवाड़ी के राजा भुजबल गंग की रानी महादेवी एवं बाचलदेवी दोनों ही जैनमत की संरक्षिका थी। बाचलदेवी ने बन्निकेरे में सुंदर जिनालय का निर्माण कराया था। राजा तैल की पुत्री तथा विक्रमादित्य शांतर की बड़ी बहन चम्पादेवी थी, इसकी पुत्री बाचलदेवी दूसरी अतिमब्बे थी। दोनों माँ-पुत्री चतुर्विध भक्ति में आस्थावान् थी। जैन सेनापति गंगराज की पत्नी लक्ष्मीमती अपने युग की अत्यंत प्रभावशालिनी नारी थी। गंगराज के बड़े भाई की पत्नी अककणब्बे जैन धर्म की बड़ी श्रद्धालु थी, सेनापति सूर्यदण्डनायक की पत्नी दावणगेरे की भक्ति भी प्रसिद्ध है |२
तेरहवीं शताब्दी में होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन की रानी शांतलदेवी द्वारा जैनधर्म के लिए किये गये कार्य चिरस्थायी है। विष्णुवर्द्धन की पुत्री हरियब्बरसि भी जैन धर्म की भक्त थी। नागले भी विदुषी और धर्मसेविका महिला थी, उसकी पुत्री देमति चारों प्रकारों का दान करती थी। राष्ट्रकूट, चोल, चालुक्य और कलचुरि नामक सम्राट् वंशों के बाद दक्षिण भारत में इस युग का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं महत्वपूर्ण राज्यवंश होयसलों का था, जो प्रारंभ में कल्याणी के चालुक्य सम्राटों के अधीन महासामंत रहे और उनकी
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
238
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
सत्ता समाप्त होने पर, कम से कम संपूर्ण कर्नाटक में सर्वोपरि राज्यशक्ति के स्वामी हुए। कर्नाटक के प्राचीन गंगवाड़ि राज्य की भांति ही होयसल राज्य की स्थापना का श्रेय भी एक जैनाचार्य विमलचंद्र पंडितदेव के आशीर्वाद का परिणाम है। द्वारावती (द्वारसमुद्र या दोरसमुद) का यह शक्तिशाली एवं पर्याप्त स्थायी होयसल-महाराज्य, जैन प्रतिभा की दूसरी सर्वोत्कृष्ट सष्टि थी।
कर्नाटक की पर्वतीय जाति का एक अभिजात्य सल नामक वीर युवक था। उसकी जननी गंगवंश की राजकन्या थी, तथा पितकुल में भी जैनधर्म की प्रवत्ति थी। एक बार गुरू विमलचंद्र के समीप वे एकाकी ही अध्ययन कर रहे थे, एक भयंकर शार्दूल वन में से निकलकर गुरू के ऊपर झपटा, गुरू ने मयूरपिच्छी सल की और फैक कर कहा “पोय-सल" (हे सल, इसे मार) सल ने पिच्छिका के प्रहारों से सिंह को मार गिराया। गुरूने उसपर प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया और उसे स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की आज्ञा दी। तब से 'सल' 'पोयसल' कहलाने लगा जो कालांतर में "होयसल" शब्द में परिवर्तित हो गया और सल द्वारा स्थापित राज्यवंश का नाम प्रसिद्ध हुआ ।
विष्णुवर्द्धन होयसल, होयसल वंश का सर्वप्रसिद्ध नरेश है, जो भारी योद्धा, महान् विजेता एवं अत्यंत शक्तिशाली था। साथ ही वह बड़ा उदार, दानी व सर्वधर्मसहिष्णु था। उसने द्वारसमुद्र (हलेविड) को अपनी राजधानी बनाया, उस सुंदर नगर के निर्माण का श्रेय इसी नरेश को है। महाराज विष्णुवर्द्धन पोयसल की पट्टमहिषी शांतलदेवी थी। लक्ष्मी देवी आदि अन्य कई रानियाँ थी, जिसमें शांतलदेवी प्रधान एवं ज्येष्ठ होने से यह पट्टमहादेवी कहलाती थी। शांतलदेवी जिनभक्त एवं धर्मपरायण थी । ११२२ ई. में महारानी ने जिनमंदिर बनवाया। माचिकब्बे, चन्दिकब्बे, बाचिकब्बे, हरियबरसि, लक्ष्मीदेवी, लक्कलदेवी आदि इसी वंश की जिन भक्त श्राविकाएँ थी। धर्मात्मा आचलदेवी, महासती हर्यले, ईचण, सोवलदेवी, बिज्जलरानी, देवलदेवी आदि जिनभक्त श्राविकाएँ हुई थी। बारहवीं शताब्दी में गंगवंश के उत्तरवर्ती राजाओं में रक्क्सगंग द्वितीय का भतीजा और कलियंग का पुत्र बर्मदेव अधिक प्रसिद्ध हुआ। उसकी रानी गंग महादेवी भी यशस्वी महिला-रत्न थी। यह दंपत्ति प्रभाचंद्र सिद्धांतदेव के गहस्थ शिष्य थे। बम्मदेव महामण्डलेश्वर कहलाते थे। उनके चार पुत्र थे मारसिंग, सत्य (नन्निय) गंग, रक्कसगंग, और भुजबलगंग तथा पौत्र मारसिंहदेव नन्नियगंग था। बारहवीं शताब्दी में इस वंश की अनेक देदीप्यमान श्राविकाएँ हुई हैं। महारानी बाचलदेवी, सुगियब्बरसि, कनकियब्बरसि, चट्टियब्बरसि, शांतियक्के, पालियक्के, सामियब्बे, चन्दलदेवी, होचलदेवी, मांकब्बरसि, केलेयब्बरसि, चागलदेवी, विज्जलदेवी, अचलदेवी, चट्टलदेवी, विदुषी पम्पादेवी, बाचलदेवी, अलियादेवी, आदि जिनभक्त महिलाओं ने धर्म,एवं समाज को नैतिक बल दिया और सुंदर वातावरण का निर्माण किया ।५३
__ पश्चिमी दक्षिणापथ के कोंकण प्रदेश में १०वीं शती ईस्वी में कई शिलाहार (सेलार, सिलार) वंशी सामंत घरानों का उदय हुआ। ये विद्याधरवंशी क्षत्रिय थे और स्वयं को पौराणिक वीर जीमूतवाहन की सन्तति से हुआ मानते थे । इनका मूलस्थान तगरपुर (पैठन से ६५ मील दूर स्थित तेर) था। अतः ये अपने नाम के साथ तगरपूरवराधीश्वर उपाधि प्रयुक्त करते थे। रट्टराज शिलाहार, भोज प्रथम शिलाहार, गण्डरादित्य, विजयादित्य, भोज द्वितीय, शिलाहार, गोंकिरस, महासामंत निम्बदेव, सामंत कालन, चौघौरे कामगावुण्ड आदि शासक हुए थे। इसमें गोंकिरस की माता और वीर मल्लीदेव की धर्मात्मा पत्नी थी बाचलदेवी। वह इस समय की धर्मात्मा रानी थी। इसने ११२३ई. में नेमिनाथ जिनालय की स्थापना की थी।
____प्राचीन चालुक्यवंश की एक शाखा पुलिगेरे (लक्ष्मेखर) प्रदेश पर राष्ट्रकूटों के सामंतों के रूप में लगभग ८०० ई. से शासन करती आ रही थी। दसवीं शताब्दी में इस वंश की राजधानी के रूप में गंग धारा का नाम मिलता है जो संभवतया पुलिगेरे का ही अपरनाम या उपनगर था। इस वंश का प्रथम राजा युद्धमल प्रथम संभवतया वातापी के अंतिम चालुक्य कीर्तिवर्मन द्वितीय का ही निकट वंशज था। उसके उपरांत अरिकेसरी प्रथम, मारसिंह प्रथम, युद्धमल्ल द्वितीय, बद्दिग प्रथम, मारसिंह द्वितीय, और अरिकेसरी द्वितीय क्रमशः राजा हुए। अरि केसरी द्वितीय कन्नड़ भाषा के सर्व महान् कवि आदि पम्प (६४१ ई.) के ( जो जैन था.) आश्रयदाता थे। उनके पुत्र बद्दिग द्वितीय के समय में देवसंघ के आचार्य सोमदेव ने उसी की राजधानी गंग धारा में निवास करते हुए, ६५६ ई. में अपने सुप्रसिद्ध यशस्तिलक चम्पू की रचना की थी। आचार्य की प्रेरणा से जिनालय बनवाया, अन्य राजाओं ने दान जादि दिया।
नागरखण्ड के कदम्ब राजाओं में इनका वर्णन चालुक्यों और कलचुरियों के अन्तर्गत आ चुका है, जिनके वे सामंत थे। इस
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
239
वंश में हरिकेसरीदेव, कीर्तिदेव, रानी माललदेवी, सोविदेव, बोप्पदेव आदि प्रसिद्ध जिनभक्त हुए है। कर्नाटक राज्य के कुर्ग और हासन जिलों में अथवा कावेरी और हेमवती नामक नदियों के मध्य कोंगाल्वंशी सामंत राजा हुए थे। सन् ६०० ई. के लगभग गंग-राजकुमार एयरप्प ने इस वंश के प्रथम ज्ञात व्यक्ति को इस प्रदेश में अपना सामंत नियुक्त किया था। १००४ ई. में पंचम महाराय को राजराजा चोल ने “कोंगाल्व" विरूद दिया, मालबि प्रदेश दिया और अपना प्रमुख सामंत बनाया था। इसका पुत्र राजेंद्रचोल कोंगाल्व था जो परम जैन था, उसकी पत्नी रानी पोचब्बरसि भी परम जैन थी। उसने भव्य जिनालय बनवाया तथा स्वगुरू गुणसेन पण्डित की एक मूर्ति भी बनवाकर स्थापित की थी। ई. १३६१ में किसी धर्मात्मा रानी सुगणीदेवी ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। चंगाल्ववंश का अस्तित्व ग्यारहवीं से लगभग पंद्रहवीं शती तक रहा। इस वंश के राजा चंगनाड़ (मैसूर राज्य के हनसूर तालुक) के शासक थे। ये स्वयं को यादववंशी क्षत्रिय कहते थे। ये प्रारंभ में चोलों के, तदनंतर होयसलों के सामंत हुए। इसके अधिकांश राजा शैव मतानुयायी थे, किंतु कतिपय परम जैन भी थे। इस वंश का सर्वप्रसिद्ध जैन नरेश राजेंद्रचोल नन्नि चंगाल्व हुआ था। इस नरेश ने कई जैन मंदिर बनवाये थे, कईयों का पुनर्निर्माण किया था एतदर्थ दान आदि भी दिया था |५४ ___अलुपवंश के शासक तुलुवनाड़ के थे, इनका उदय १०वीं शती में हुआ था, किंतु यह प्रदेश उसके बहुत पूर्व से ही जैनधर्म का गढ़ रहता आया था। मूडबिद्रि, गेरूसप्पे, भट्टकल, कार्कल, बिलिंग, सोदे, केरेवासे, हाडुहल्लि, होन्नावर आदि उसके प्रायः सभी प्रसिद्ध नगर जैनधर्म के केंद्र थे और प्रायः पूरे मध्यकाल में भी बने रहे। भुजबल अलुपेन्द्र (१११४-५५ ई.) इस वंश का प्रसिद्ध राजा था। मलधारिदेव, माधवचन्द्र, प्रभाचंद्र आदि जैन गुरूओं को इस वंश के राजाओं से सम्मान प्राप्त हुआ था। तुलुवदेश के एक भाग का नाम बंगवाड़ि था। इसके संस्थापक बंगराजे सोमवंशी क्षत्रिय थे और प्राचीन कदम्बों की एक शाखा में से थे। गंगवाड़ि के गंगों के अनुकरण पर उन्होंने स्वयं को बंग और अपने राज्य को बंगवाड़ि नाम दिया लगता है। यह वंश प्रारंभ से अन्त पर्यंत, गंग वंश की ही भांति जैन धर्म का अनुयायी रहा। इस वंश में पुत्री बिट्ठलादेवी ने १२४० ई. से १२४४ ई. तक राज्य किया। अपने पुत्र कामिराय वीर नरसिंह को समुचित शिक्षा दीक्षा दी। माता-पत्र ने सयोग्य शासन द्वारा राज्य की सेवा की। ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी के मध्य के लगभग तैलंगाने में ककातीय वंश का उदय हुआ। वारंगल उसकी राजधानी थी, शीघ्र
। गया था, और १३वीं शती में अपने चरम उत्कर्ष पर था। इसी जिले के भोगपुर नगर में पूर्वी गंगनरेश अनन्तवर्मन के आश्रय में राज्य श्रेष्ठी कण्णम-नायक ने राज-राज जिनालय नाम की बसदि का निर्माण कराया था, तथा ११८७ ई. में इसकी व्यवस्था के लिए प्रभूत दान दिया था। अनंतपुर जिले के ताड़पत्री नगर के निवासी सोमदेव और कंचलादेवी के धर्मात्मा पुत्र उदयादित्य ने ११६ ई. में जैनमंदिर बनवाकर स्वगुरू को दान में दिया था। अंतिम राजा रूद्रदेव द्वितीय (१२६१-१३२१ ई) था, इसी राजा के समय में जैन कवि अप्यपार्य ने कन्नड़काव्य "जिनेंद्र-कल्याणाभ्युदय" की रचना की थी। देवगिरि के यादव नरेश के वंश के संस्थापक सुएन प्रथम था जो ६वीं शताब्दी में राष्ट्रकूट सम्राट अमोघवर्ष प्रथम के अधीन
| था और सुएन देश का जागीरदार था। अत: यह वंश सुएन-वंश के नाम से भी प्रसिद्ध था। इस वंश का भिल्लम द्वितीय, कल्याणी के चालुकय वंश के संस्थापक तैलप द्वितीय का सहायक था। उसकी छठी पीढ़ी में सुएनचंद्र ततीय (११४२ ई.) जैनधर्म का विशिष्ट पोषक था। उसने ११४२ ई. में अंजनेरी के चंद्रप्रभ जिनालय के लिए नगर की तीन दुकानें दान की थी। इसी अवसर पर साहु वत्सराज, राहु लाहड़, साहु दशरथ नामक तीन धनी व्यापारियों ने भी एक दुकान एवं एक मकान समर्पित कर दिया था। यह दान शासन कालेश्वर पण्डित के पुत्र दिवाकर पण्डित ने लिया था। रामचंद्रराय (रामदेव) १२७०-१३०६ ई. का जैन सामंत कूचिराज बेतूरप्रदेश का शासक था, वह परम धार्मिक था, उसके पिता सिंहदेव, माता मल्लाम्बिका, पत्नी शीलवान रूपवान् लक्ष्मी देवी थी। पत्नी लक्ष्मीदेवी के स्वर्गवास पर स्वगुरू पदमसेन भट्टारक के उपदेश से "लक्ष्मी जिनालय" नामक भव्य मंदिर का निर्माण किया तथा ११७१ ई. में उसकी व्यवस्था हेतु भूमि का दान भी दिया था। इसी वंश में कोटि नायक की भार्या शिरियमगौडि ने १२६६ ई. में समाधिमरण किया था। वह बड़ी गुणवान्, शीलवती, उदार और धर्मात्मा थी। उसने अनेक जिनालयों का जीर्णोद्धार कराया था। निडुगलवंशी राजाओं का राज्य १२वीं १३वीं शताब्दी में मैसूर प्रदेश के उत्तरी भाग में था। इस वंश के नरेश अपने आपको चोल महाराज, मार्तण्ड-कुलभूषण और उरैयूर पुखराधीश्वर कहते थे। इस वंश में भोगनप का पुत्र बर्मनप था, जिसकी भद्र लक्षणोंवाली रानी बावलदेवी कलिवर्म की पुत्री थी। इस वंश में गंगेयनायक की पत्नी चामा के पुत्र गंगेयन-मारेय और उनकी पत्नी बाचले भी पिता की तरह परम धर्मवान थी। इस दंपत्ति ने पार्श्वजिन बस्ति का निर्माण कराया था। इस मंदिर के लिए
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
240
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
बाचले की प्रार्थना पर इरंगोल द्वितीय ने १२३२ ई. में कुछ भूमियों का दान दिया था। मेलब्बे और बोम्मिसेट्टि का पुत्र मल्लिसेट्टि था। उसने ब्रह्म जिनालय बनवाकर पार्श्व देव की प्रतिष्ठा की थी। अन्य विशिष्ट जनों में भूपाल गोल्लाचार्य ने ११वीं शती ई. के आरंभ में भूपाल-चतुर्विंशति-स्तोत्र की रचना की थी, जिसकी गणना भक्तामर, कल्याणमंदिर आदि पंच-स्तोत्रों से की जाती है। मंत्रीश नेमदण्डेश के पुत्र पार्श्वदेव की पत्नी मुद्दरसि गंगवंश में उत्पन्न हुई थी। कम्बदहल्लि जो प्राचीन और प्रसिद्ध जैन केंद्र था, वहाँ पर इन्होंने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया तथा हनसोगे के जैनाचार्यों को ११६७ ई. में समर्पित कर दिया था। इस वंश में राजा अच्युत-वीरेंद्र-शिक्यप की पत्नी चिक्कतायि सुशीला, भक्तियुक्ता थी, तत्वशीला,थी एवं विद्यानंदस्वामी की गहस्थ शिष्या थी। धर्मात्मा चिक्कतायि ने कनकाचल में भगवान् पार्श्वेश की पंचवर्षीय पूजा, मुनियों को नित्य आहार दान, और सदैव शास्त्रदान के निमित्त ११८१ ई. में किन्नरपुर का दान दिया था। राजभक्त सोम की पत्नी सोमाम्बिका रूप-लावण्य में रति के समान और सम्यग्दर्शन में रेवती रानी के समान थी। सोम नप की पुत्रियाँ थी वीराम्बिका और उदयाम्बिका, जो साक्षात् जिन शासन देवियों के समान धर्मरक्षक और धर्मात्मा थी। उदयाम्बिका का विवाह जूजकुमार से हुआ था। इस राजपुत्री और राजरानी ने भव्य जिनेंद्र भवन बनवाया था। श्रीवर्द्धनपुर निवासी धर्मात्मा सेठ राणुगी के पुत्र म्हालुगि की धर्मपत्नि का नाम स्वर्णा था। शिलालेखों में दिण्डिकराज, सामन्त नागनायक, पाण्ड्यनरेश वीरपल्लवराय, गरूड़केसरीराज, वत्सराज बालादित्य, हेग्गडे, दण्डनायक, बम्मदेव
और नागदेव, सिंग्यपनायक, गन्ध हस्ति, बोयिग आदि अन्य अनेक जैन राजाओं, सामंत-सरदारों तथा गावुण्डों, श्रेष्ठियों धर्मात्मा-महिलाओं आदि के पूर्व मध्यकाल में नामोल्लेख मिलते हैं। अनेक धर्मात्माओं द्वारा श्रवणबेलगोल आदि में किये गये दान या अन्यधर्म कार्यों के संकेत भी मिलते हैं ।५५
जैनसंघ सदा से आर्य धरा पर एक सुदढ़ शक्तिशाली धर्मसंघ के रूप में प्रतिष्ठित रहा है । आदिकाल से इक्ष्वाकु वंश के राजाओं ने, तदनंतर हरिवंश-यदुवंश, पौरववंश, शिशुनाग वंश, गर्दभिल्लवंश, सातवाहन वंश, चेदि वंश एवं मौर्य वंश आदि अनेक यशस्वी राजवंशों के राजाओं ने समय-समय पर अपने-अपने शासन काल में विश्व बंधुत्व की भावनाओं से ओत-प्रोत विश्वकल्याण कारी जैन धर्म के प्रचार प्रसार में अनेक उल्लेखनीय कार्य किये हैं । ५.११ मेलादेः वि. सं. १४८६ ई. सन् १४२६,
रामदेव, राणा खेता के समय में मेवाड़ का मुख्यमंत्री था। इसकी दो पत्नियां थी एक थी मेलादे और दूसरी थी मालहणदे। करेडा के जैन मंदिर के विज्ञप्ति लेख में इसका संदर वर्णन आया है। मेलादे का पुत्र सहनपाल नवलखा भी राणा कुम्भा और मोकल के समय में मुख्यमंत्री था। मेलादे ने ज्ञानहंसगणि से संदेहदोलावली नामक पुस्तक लिखवाई थी। प्रशस्ति में इसकी बड़ी प्रशंसा की गई है। रामदेव नवलखा ने अनेक साधुओं को ज्ञान दिया था। और तीर्थों के जीर्णोद्धार तथा मंदिर निर्माण के लिए सहस्रों रूपए व्यय किये थे। ५.१२ धनपाल की प्रतिभाशालिनी पुत्रीः ई. सन ६७०,
धारा नगरी के राजा भोज एक महान कवि और विद्वान लेखक थे। उनके दरबार में कई प्रसिद्ध विद्वानों, पंडितों, कवियों तथा लेखकों को सम्मान प्राप्त था। उनमें धनपाल को राज कवि का स्थान प्राप्त था। धनपाल उज्जैनी में रहने लगे। उनके भाई शोभन ने जैन धर्म में महेन्द्र सूरि से दीक्षा अंगीकार की थी। कवि धनपाल कट्टर ब्राह्मण होते हुए भी अनुज से प्रभावित होकर जैन धर्म को मानने लगे। बहन सुंदरी भी श्रमणोपासिका थी। धनपाल का विवाह धनश्री नामक अति कुलीन कन्या से हुआ था। बचपन से ही वेद वेदान्त, स्मति, पुराण आदि के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनकी प्रसिद्ध रचना तिलकमंजरी संस्कृत भाषा का श्रेष्ठ गद्य काव्य है, इस तिलकमंजरी की रचना के साथ एक घटना का उल्लेख प्राप्त होता है। राजा भोज ने किसी कारण रूष्ट होकर इसे जला दिया। वर्षों के परिश्रम से लिखी कादम्बरी के समान सुंदर कति को इस प्रकार अग्नि में भस्म होते देख धनपाल अत्यंत उद्विग्न हो गये। पिता को ग्लानियुक्त तथा उदास देखकर उनकी नौ वर्ष की बाल पंडिता पुत्री ने कारण पूछा। धनपाल ने राजदरबार की घटना कह सुनाई। बालिका ने उन्हें सान्त्वना देते हुए धीरज बंधाया तथा तिलकमंजरी की मूल प्रति का आधा भाग अपनी स्मरण शक्ति से बोलकर सुनाया जिसे पिता ने लिख दिया | धनपाल ने शेष आधे भाग की पुनः रचना करके तिलकमंजरी को संपूर्ण किया। इस प्रकार इस अद्भुत प्रतिभाशालिनी बालिका ने एक बहुमूल्य ग्रंथ को लुप्त होने से बचा लिया।
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
५.१३ सुंदरी: ई. सन् ६७२,
कवि धनपाल की बहन सुंदरी प्राकत एवं संस्कृत भाषा की ज्ञाता विद्वान् महिला थी । उस समय संस्कत के अमरकोष जैसा प्राकत में कोई ग्रंथ नहीं था । धनपाल ने वि. सं. १०२६ (ई. सन् ६७२) में धारा नगरी में "पाइयलच्छी नाम माला" नामक प्राकत कोष की रचना की। बहन सुंदरी ने इसी ग्रंथ से प्राकृत भाषा का अभ्यास किया। अतः प्राकत भाषा के इस अमर ग्रंथ की रचना की प्रेरणा स्त्रोत सुंदरी को माना जा सकता है। अतः यह निर्विवाद है कि धनपाल की पुत्री एवं बहन दोनों विदुषी तथा संस्कत प्राकत भाषा की ज्ञाता थी और साहित्य रचना में रूचि रखती थी । ३
241
इस प्रकार दसवीं शताब्दी में भी साहित्य, भाषा तथा धर्म के क्षेत्र में श्राविकाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। वे जैन धर्म पर दढ़ आस्था रखती थी, और प्राकत भाषा का अध्ययन और उन्नयन करती थी ।
५. १४ श्रीमती : ई. १०१० - १०६२,
अणहिलपुरपाटन के राज्य सिंहासनाधिपति गुर्जर देशके चौलुक्य महाराजा भीमदेव का मंत्री था विमलशाह । विमल अत्यंत कार्य दक्ष, शूरवीर और उत्साही था । श्रीमती मंत्री विमलशाह की पत्नी थी । विमल ने अपने उत्तरार्ध जीवन में चंद्रावती और अचलगढ़ को अपना निवास स्थान बनाया और चंद्रावती में धर्मघोष सूरि का चातुर्मास कराया और इनके उपदेश से आबू पर्वत पर विमल वसहि नामक मंदिर बनवाया । इस मंदिर की भूमि के खरीदने में अपार धन का व्यय हुआ । विमल - वसही अपूर्व शिल्प कला का उदाहरण हैं। आचार्य विजय धर्म सूरि ने श्राविका श्रीमती की महिमा बताते हुए लिखा है।
श्राविका श्रीमती तथा विमलशाह सुख समद्धि के सब साधन होते हुए भी संतान के अभाव में सतत चिंतित रहते थे । उन्हें अपना जीवन निरर्थक लगता था । पति द्वारा उदासी का कारण पूछने पर पत्नी ने अपनी मनोकामना व्यक्त की । अनुश्रुति के अनुसार विमलशाह ने अपनी इष्ट देवी अंबिका की तीन दिन तक अन्न जल त्यागकर आराधना की। मंत्रीश्वर की भक्ति तथा उनके पुण्य प्रभाव से तीसरे दिन अर्ध रात्रि को देवी ने दर्शन दिये तथा वरदान मांगने को कहा। मंत्री ने दो वर - एक पुत्र दूसरा आबू पर्वत पर मंदिर का निर्माण मांगे। इस पर देवी ने कहा तुम्हारा पुण्य संचय एक वरदान जितना ही हैं। "मंत्रीश्वर ने यह बात अपनी अर्द्धांगिनी से जाकर कही। इस पर श्रीमती ने पुत्र का मोह त्यागकर कहा - प्राणेश्वर! संसार तो असार है, पुत्र से भी कोई महिला चिरकाल तक अमर नहीं रहती। संतान कुसंतान भी निकल सकती है और उसके दुष्कत्यों से सात पीढ़ी बदनाम भी हो सकती है। माता, पुत्र, पति आदि तो सांसारिक जीवन के नाते हैं। पर यदि तीर्थोद्धार हुआ तो उसका पुण्य जन्म जन्मान्तर तक रहेगा। अतः पुत्र प्राप्ति के स्थान पर मंदिर के तीर्थोद्धार का वर देवी से प्राप्त करें।
धर्मनिष्ठ श्राविका श्रीमती ने संतान का मोह छोड़कर जिस महान त्याग का उदाहरण दिया है वह वास्तव में आदर्श व अनुकरणीय है । पुत्र प्राप्ति तथा मातत्व पद प्राप्त करने के लिए स्त्रियां कई प्रकार के तप, जप, करती है। तथा सिद्ध पुरूषों से आशीर्वाद प्राप्त करती है। परन्तु आदर्श नारी श्रीमती ने अपने व्यक्तिगत क्षणिक सुख को समष्टि के सुख आनंद के लिए न्यौछावर कर दिया है। और इस त्याग की नींव पर ईस्वी सन् १०३ में एक ऐसे जिनालय का निर्माण हुआ। जिसके समान स्थापत्य कला का दूसरा उदाहरण संसार में मिलना दुर्लभ है। श्रीमती के इस त्याग की महिमा जैन इतिहास में सुवर्ण अक्षरों में लिखी जाने योग्य है। विमलशाह तथा उनकी पत्नी श्रीमती ने आबू पर्वत पर कलापूर्ण मंदिर का निर्माण कर अक्षय यश प्राप्त किया है।
५. १५ मीनल देवी: ई. सन् १०.
मीनल देवी राजा कर्ण की रानी थी तथा गुजरात के चालुक्य नरेश जय सिंह सिद्धराज की माता थी । वह जैन धर्म पर अनन्य आस्था रखती थी। राजा के प्रधानमंत्री मुंजाल मेहता के मार्गदर्शन में रानी मीनल देवी ने कई धार्मिक कार्य संपन्न किये। ई. सन् ११०० के आसपास वरूम गांव में मॉनसून झील" बनवाई थी। जैन धर्म के प्रचार प्रसार में राजमाता मीनलदेवी का बहुत योगदान था। माता की धार्मिकता का प्रभाव पुत्र जयसिंह पर भी बहुत था। राजा सिद्धराज ने जैन तीर्थ शत्रुंजय की यात्रा करके आदिनाथ जिनालय को बारह ग्राम समर्पित किये थे। सिद्धपुर में राय विहार नामक सुंदर आदिनाथ जिनालय तथा गिरनार तीर्थ पर भगवान् नेमिनाथ का मंदिर बनवाने का श्रेय राजा जयसिंह को है। ई. सन् १०६४ - ११४३ में जैन धर्म को गुजरात में राज्याश्रय प्राप्त था । *
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
242
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
५.१६ पाहिनीः ई. सन् १०८८ वि. सं. ११४५. ____ गुजरात के धंधुका नामक नगरी के धार्मिक गहस्थ चाचिग की धर्मपत्नी का नाम पाहिनी था। एक बार पाहिनी ने पुत्र जन्म से पूर्व रात्रि में एक स्वप्न देखा कि उसने एक चिंतामणि रत्न अपने गुरूदेव मुनि को भेंट किया है। स्वप्न का जिक्र करने पर गुरूदेव ने पुत्र रत्न प्राप्ति का संकेत किया। यथा समय पाहिनी ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया जिसका नाम चांग रखा गया। चांग शनैः शनैः बड़ा हुआ । एक बार बालक चांग खेलते हुए उपाश्रय में देवचंद्र मुनि के पाट पर जा बैठा। गुरू देवचंद्र ने विशिष्ट लक्षणों वाले बालक को देखकर उसे शिष्य रूप में प्राप्त करने की इच्छा माता पाहिनी के सामने रखी एवं पाहिनी को स्वप्न की बात का स्मरण कराया (चांगदेव के दीक्षित होने के कई प्रकार की कथाएं प्रचलित है) पाहिनी इस सुझाव से अवाक रह गई। परन्तु गुरू पर श्रद्धा तथा उनके अत्यधिक आग्रह से प्रभावित होकर उसने अपनी इच्छा न होते हुए भी गुरू को अपना पुत्र भेंट कर दिया। गुरू देवचंद्र बालक चांग को लेकर स्तभ तीर्थ (खंभात) की ओर विहार कर गये और खंभात के पार्श्वनाथ मंदिर में बालक चांग को दीक्षित किया। उस समय तत्कालीन गुजरात के सुप्रसिद्ध मंत्री उदयन भी दीक्षा महोत्सव में सम्मिलित हुए। दीक्षा के पश्चात् चांगदेव का नाम सोमचंद्र रखा गया। मुनि सोमचंद्र विद्याभ्यास में आशातीत प्रगति करने लगे। उन्होंने व्याकरण, अलंकार, कोष, न्यायदर्शन, ज्योतिष, त्रिषष्टिशलाका पुरूष आदि सभी विषयों पर ग्रंथ रचना कर जैन धर्म के साहित्य का भंडार भर दिया। २१ वर्ष की आयु में वि. सं. ११६६ में आचार्य पद से विभूषित हुए और आचार्य हेमचंद्र नाम दिया गया। तत्कालीन गुजरात में जैन संघ के विशेष वर्चस्व की स्थापना हेमचंद्राचार्य ने की। भारतीय धर्मपरायणा महिला के मन में पुत्रैषणा के साथ ही पुत्र के धार्मिक इष्ट मंगल और कीर्तिमान होने की भावना से प्रेरित होकर, संकुचित पुत्र स्नेह की भावना त्यागकर समष्टिवादी दष्टि अपनाई । यह बहुत बड़ा त्याग धार्मिक माता ने किया जो कि मनोवैज्ञानिक धरातल पर भी अपना विशिष्ट महत्व रखता है। जैन धर्म में सूर्य के समान सदा चमकने वाले इस महान विद्वान के प्रभाव से जैन धर्म व संघ का सभी दिशाओं में विकास हुआ। आचार्य हेमचंद्र जैसे प्रकाण्ड विद्वान् को जन्म देने वाली माता धन्य है। पाहिनी जैसी माता के त्याग ने ही पुत्र को इतिहास में सदा के लिए अमर कर दिया। तथा नागरिकों में जैन धर्म के प्रति श्रद्धा थी। श्राविकाएं मंदिरों एवं उपाश्रयों में साध्वियों से व्याख्यान सुनने जाया करती थी। कुमारपाल ने अपने आध्यात्मिक गुरू हेमचंद्र से वि. सं. १२१६ ई. सन् ११६० में संघ के समक्ष जैन धर्म स्वीकार किया था। ५.१७ अनुपमा देवीः ईस्वी सन् १२३२.
महामात्य तेजपाल की दो पत्नियां थी। अनुपमा देवी और सुहडा देवी। अनुपमा देवी की कुक्षी से महाप्रतापी प्रतिभाशाली उदार हृदय लूण सिंह नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ, जो राज कार्य में भी निपुण था। वह पिता के साथ और अकेला भी युद्ध, संधि, विग्रहादि कार्यों में भाग लेता था। गुजरात में धोलका में महामण्डलेश्वर सोलंकी अर्णोराज का प्रपौत्र वीरधवल युवराज था। उनके सामंत वस्तुपाल और तेजपाल थे। तेजपाल ने अपनी धर्मपत्नी अनुपमादेवी और पुत्र लावण्यसिंह के कल्याण के लिए आबू पर्वत स्थल देलवाडा ग्राम में विमल वसहि मंदिर के पास ही उत्तम कारीगरी सहित संगमरमर का गूढ मंडप, नवचौकियां, रंग मण्डप, बालानक, खत्तक, जगति एवं हस्तिशाला आदि का निर्माण कराया। ईस्वी सन् १२३२ में निर्मित आबू के आदिनाथ मंदिर के पास देलवाडा नेमिनाथ मंदिर जो पति तेजपाल ने निर्माण कराया. उस मंदिर के निर्माण कार्य की देख-भाल अनुपमा देवी ने स्वयं की थी। निर्माण कार्य में विलम्ब देख वह स्वयं निर्माण स्थान पर गई और कलापूर्ण कोतरणी के कार्य करने वाले कारीगरों को सभी सुविधायें प्रदान की थी। वास्तुकला में अनुपमादेवी निपुण थी। उसने कारीगरों को महत्वपूर्ण सुझाव दिये जिसके प्रभाव से शिल्पकला की दष्टि से यह मंदिर आबू के आदिनाथ मंदिर के समकक्ष बन गया। इस दष्टांत से यह प्रतीत होता है कि उस समय गुजरात में स्थापत्य कला का ज्ञान विशेष था। धनिक वर्ग तथा राज्य प्रमुख अपने पुत्र और पुत्रियों को भी इस कला में पारंगत करते थे। स्थापत्य कला की सूक्ष्मता किसी मनोगत भाव का स्थूल प्रतीक है। कला की सामग्री के बाह्य रूप से हमें उस समय की ऐतिहासिक
और सांस्कतिक पष्ठभूमि का अध्ययन करने में सुविधा प्राप्त होती है। ऐसे कलात्मक भव्य मंदिर की देख-रेख तथा उसके निर्माण में सक्रिय मार्गदर्शन देने की निपुणता और क्षमता इस अनुपमादेवी में अवश्य रही थी। ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि इन्होंने शबंजय मंदिर निर्माण में भी अपने सुझाव दिये थे, जो मान्य किये गये थे। अध्यात्मरसिक पंडित देवचंदजी को अठारहवीं शताब्दी के श्राविकाओं के लिखित दो पन्ने मिलें हैं, जिसमें श्राविका अनुपमा के वैदुष्य और अध्यात्म से, उनके अनुपम गुणों का ज्ञान होता है।
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
243
५.१६ अंगार देवीः विक्रम संवत १२५५,
मंडलपति केल्हण की नीतिशालिनी सुपुत्री अंगारदेवी थी। आबू के समीप एक सौ अठारह ग्रामों से युक्त चंद्रावती के प्रतापी परमार राजा थे धारावर्ष। उनकी पटरानी थी अंगारदेवी। झाड़ोली (सिरोही जिला) गांव पर नागड सचिव अधिकारी था। वि. सं. १२५५ में महारानी श्रंगारदेवी ने महावीर स्वामी की पूजा के लिए अद्भुत वाटिका की भूमि दान में अर्पण की थी। पूज्य तिलकप्रभसूरि ने अपने शिलालेख की प्रशस्ति में इसका सूचन किया है।६ ५.२० नीतल्लादेवी; नीतादेवी ई. सन् की १३वीं शती.
क्षत्रिय शिरोमणि सूरा के बंधु शांतिमदेव के पुत्र विजयपाल की प्रिय रानी नीता देवी थी। नीता देवी नीतिज्ञ राजगुणों से विभूषित तथा धर्मकार्यों में उद्यमी थी। उनके पुत्र का नाम राणा पद्मसिंह था। पुत्री का नामरूपल देवी था, जो शूरवीर दुर्जनशल्य को ब्याही गई थी। नीतल देवी ने मुनि विद्याकुमार के सदुपदेश से पाटडी में पार्श्वनाथ भगवान् का मंदिर और पौषधशाला (उपाश्रय) बनवाई थी तथा योगशास्त्र निवृत्ति की पुस्तक भी लिखवाई जो पाटण में विद्यमान है। १० ५.२१ उदयश्री श्राविकाः ई. सन १३६७
राजा जयचन्द्र का उत्तराधिकारी राजा रामचंद्र के प्रधान मंत्री सोमदेव के पुत्र वासाधर की भार्या थी उदयश्री। वह पतिव्रता, सुशीला और चतुर्विध संघ के लिए कल्पद्रुम थी। चन्द्रवाड़ में उन्होंने एक विशाल एवं कलापूर्ण जिन मंदिर बनवाया तथा अनेक पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया था। ईस्वी सन् १३६७ में गुजरात निवासी कवि धनपाल से उसने अपभ्रंश भाषा में बाहुबली चरित्र नामक काव्य की रचना कराई थी। ५.२२ जिनमतीः ई. सन् की आठवीं शती.
कांची निवासी ब्राह्मण जिनदास की पत्नी का नाम जिनमती था। जिनमती धर्मपरायणा एवं विदुषी थी। उसने सत्संस्कार संपन्न मेधावी दो पुत्रों को जन्म दिया। उनके नाम थे अकलंक एवं निष्कलंक। किसी भी पद्य अथवा सूत्र पाठ को अकलडन्क एक बार सुनकर याद रख लेने में समर्थ थे। एक बार जिनमती अपने पति एवं पुत्रों सहित जैन गुरू रविगुप्त के पास अष्टान्हिक पर्व के अवसर पर गए। उनके उपदेश के प्रभाव से दोनों पति-पत्नी एवं बंधुयुगल ने ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर लिया। आगे चलकर दोनों बंधयुगल ने दीक्षा लेकर जैन धर्म की भारी प्रभावना की थी। माता जिनमती धार्मिक विचारों वाली तथा गुरू भक्ति से ओत-प्रोत थी। फलस्वरूप पुत्र सन्मार्ग के राही बने थे।२ कथाकोष एवं आराधना कोष में जिनमती की जगह पद्मावती नाम प्राप्त होता है। ५.२३ मदनसुंदरीः ई. सन् की आठवीं शती.
कलिंग देश के रत्नसंचयपुर में नरेश हिमशीतल राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम मदनसुंदरी था। मदनसुंदरी जैन धर्म की उपासिका थी। एक दिन अष्टान्हिक पर्व के अवसर पर वह धूमधाम से रथयात्रा निकालना चाहती थी, किंतु नगरी में बौद्ध गुरू का भारी प्रभाव था। उन्होंने नरेश हिमशीतल को एक शर्त के साथ अपने विचारों से सहमत कर लिया कि, किसी जैन गुरु के द्वारा बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करने पर ही यह रथयात्रा निकल सकती है। रानी राजा के इन विचारों से चिंतित हुई। संयोग से यह बात भट्ट अकलंक के पास पहुंची। वे स्वयं शस्त्रार्थ करने के लिए नरेश हिमशीतल की सभा में उपस्थित हुए। छः महीने तक उन्होंने बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ किया। जैन शासन की उपासिका चक्रेश्वरी देवी ने एक दिन वस्तु स्थिति स्पष्ट की। पर्दे के पीछे बौद्ध गुरू नहीं अपितु घट में स्थापित तारादेवी शास्त्रार्थ कर रही है। उसे पराजित करने की युक्ति देवी ने बतलाई । अगले दिन तारादेवी की पराजय हुई। अकलंक ने तत्काल पर्दे को खींचकर घड़े को ठोकर से तोड़ डाला। घट का स्फोट होते ही सारा रहस्य उद्घाटित हो गया। बौद्धों की भारी पराजय और अकलंक की विजय हुई। जैन रथयात्रा धूमधाम से संपन्न हुई। जैन शासन की महती प्रभावना हुई। इस प्रकार रानी मदनसुंदरी की धर्म श्रद्धा का सुपरिणाम प्रकट हुआ। उसकी चिर मनोकामना पूर्ण हुई।
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
244
५. २४ गोपा :
ई. सन् की आठवीं शती.
गोपा नाग की धर्मपत्नी थी । गोपा के सात पुत्र थे । देहड़, सीह, थोर, ये तीन उनसे ज्येष्ठ थे। देउल, णण्ण, तिउज्जग ये तीन उनसे कनिष्ठ थे। जिनदास महत्तर बीच के थे। गोपा सत्संस्कारमयी, धार्मिक विचारों वाली थी, अतः उसने जिनदास महत्तर जैसे मेधासंपन्न जिनशासन प्रभावक सुपुत्र को जन्म देने का गौरव प्राप्त किया । १४
५. २५ भट्टी : ई. सन् की सातवीं-आठवीं शती.
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
गुजरात प्रदेशान्तर्गत डुम्बाउधि ग्राम में बप्प नामक क्षत्रिय वंशज रहता था । बप्प की पत्नी का नाम भट्टी था। उसने एक मात्र कुलदीपक को जन्म दिया। पुत्र का नाम सूरपाल रखा था। जब बालक छ: वर्ष का था तभी आचार्य सिद्धसेन के साथ संपर्क स्थापित हुआ 1 वैराग्य रंग से अनुरंजित हुआ। आचार्य जी ने सूरपाल की जन्म भूमि में प्रवेश किया तथा उनके माता-पिता से बालक को दीक्षित करने की अनुज्ञा मांगी। माता-पिता ने बालक की दढ़ इच्छा देखी, अपने मोह का त्याग कर उन्होंने निवदेन किया"आर्य ! आप इसे ग्रहण करें और इसका नाम बप्पभट्टि रखें, इससे हमारा नाम भी विश्रुत होगा। माता ने अपने जीवन का एक मात्र आधार पुत्र को समर्पित कर जिनशासन की महती प्रभावना की थी ।
५.२६ धनश्री : ई. सन् की ग्यारहवीं शती.
गुजरात प्रदेशान्तर्गत उन्नतायु (उणा ) ग्राम में वैश्य वंशीय श्रीमाल गोत्रीय धनदेव निवास करते थे। उनकी पत्नी का नाम धनश्री था। धनश्री साक्षात् लक्ष्मी स्वरूपा थी । दोनों पति पत्नी जिनेश्वरदेव के चरणोपासक थे । धनश्री भी जैन धर्म के प्रति आस्थावान् थी। उनका एक पुत्र था जो प्रज्ञाबल के साथ शरीर संपदा से युक्त था । आचार्य विजयसिंहसूरि के प्रति श्रद्धावनत होकर माता-पिता ने अपने पुत्र को गुरु चरणों में समर्पित किया। आगे चलकर आचार्य शांतिसूरि के रूप में उनके पुत्र प्रख्यात हुए थे । १६ माता धनश्री की जिनमार्ग के प्रति प्रबल आस्था तथा संसार के प्रति मोह विजय की भावना स्पष्ट झलकती है।
५. २७ धनदेवी: ई. सन् की ११ वीं १२ वीं सदी.
वैश्य परिवार के महीधर श्रेष्ठी धारानगरी में रहते थे। उनकी पत्नी का नाम धनदेवी था। धारा नगरी में उस समय राजा भोज का शासन था। धनदेवी के पुत्र का नाम अभयकुमार था । आचार्य जिनेश्वसूरि के चरणों में पुत्र अभयकुमार ने दीक्षा अंगीकार की। आगे चलकर, नवांगी टीकाकार के रूप में आचार्य अभयदेव प्रसिद्ध हुए। यह माता-पिता के संस्कारों की ही सुखद देन थी ।
५.२८ मेलादेः ई. सन् की १५ वीं शती.
रामदेव राणा खेता के समय में मेवाड़ का मुख्यमंत्री था। इसकी दो पत्नियाँ थी । एक थी मेलादे और दूसरी थी माल्हणदे । करेड़ा के जैन मंदिर के विज्ञप्ति लेख में इसका सुंदर वर्णन आया है। मेला का पुत्र सहनपाल नवलखा भी राणा कुम्भा और मोकल के समय में मुख्यमंत्री था। मेलादे ने ज्ञानहंसगणि से "संदेह दोहावली" नामक पुस्तक लिखवाई थी। प्रशस्ति में इसकी बड़ी प्रशंसा की गई है। रामदेव नवलखा ने अनेक साधुओं को ज्ञान दिया था और तीर्थो के जीर्णोद्धार तथा मंदिर निर्माण के लिए सहस्त्रों रुपए व्यय किये थे ।
५.२६ भीमादेवी: ई. सन् की १५ वीं शती.
भीमादेवी विजयनगर के राजा देवराज प्रथम की धर्मपरायणा पत्नी थी। जैन धर्म के प्रति उसकी गहरी आस्था थी । भीमादेवी स्वयं का बहुत-सा द्रव्य देकर ईस्वी सन् १४१० के लगभग श्रवणबेलगोला के मंगायी बस्ति के लिए शांतिनाथ भगवान् की मूर्ति को स्थापित करवाया, जिसका निर्माण १३२५ ईस्वी के लगभग मंगायी नाम की एक राजनर्तकी ने करवाया था। महारानी भीमादेवी की अत्यंत धर्मनिष्ठा के कारण ही राजा देवराज का भी जैनधर्म के प्रति अच्छासद्भाव था । विजयनगर के राजा कांगु ने राज्य को अपने नियंत्रण में लेकर जैनधर्म का प्रचार किया। विजयनगर के राजा बुक्का ने निम्न प्रकार की घोषणा अपने अपने राज्य में करवाई थी । "जब तक चाँद व सूर्य रहेगा, तब तक जैन तथा वैष्णव दोनो संप्रदाय का समान आदर राज्य में रहेगा । वैष्णव I
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
तथा जैन एक ही धर्म है, इन्हें समान मान्यता देनी चाहिए। दक्षिण भारत में प्रचार-प्रसार में राजा तथा उनके मंत्रीगणों ने तो सर्वप्रकार का सहयोग दिया किंतु मुनि तथा आचार्यों की प्रेरणा से महिलाओं ने अद्भुत कारीगरीवाले एवं सुंदर मंदिर बनवाकर जो योगदान स्थापत्य कला में दिया है, उसकी दूसरी मिसाल भारतीय इतिहास तथा अन्य देशों के इतिहास में मिलना असंभव है । ऐशो आराम तथा भोग के संपूर्ण साधनों को त्याग कर धर्म तथा तपोनिष्ठ होकर जैन धर्म के सिद्धांतों को अपनाकर जीवन में चरितार्थ करने का जो कार्य दक्षिण भारत की महिलाओं ने किया उससे जैनधर्म ही नहीं, भारत के सर्व धर्म-संप्रदाय गौरवान्वित हुए हैं।
245
५.३० मीनलदेवी: ई. सन् ११००.
1
मीनलदेवी राजा कर्ण की रानी थी तथा गुजरात के चालुक्य नरेश जयसिंहंसिद्धराजकी माता थी। वह जैन धर्म पर अनन्य आस्था रखती थी। राजा के प्रधानमंत्री मुंजाल मेहता के मार्गदर्शन में रानी मीनलदेवी ने कई धार्मिक कार्य संपन्न किये थे । ई. सन् ११०० के आसपास वरूम गाँव में उसने "मानसून" झील बनवाई थी। जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में राजमाता मीनलदेवी का बहुत योगदान था। माता की धार्मिकता का प्रभाव पुत्र जयसिंह पर भी था । राजा सिद्धराज ने जैन तीर्थ शत्रुंजय की यात्रा करके आदिनाथ जिनालय को बारह ग्राम समर्पित किये थे। सिद्धपुर में रायविहार नामक सुंदर आदिनाथ जिनालय तथा गिरनार तीर्थ पर भगवान् नेमिनाथ का मंदिर बनवाने का श्रेय राजा जयसिंह को है। ई. सन् १०६४ - ११४३ में जैन धर्म को गुजरात का राज्याश्रय प्राप्त था । २० रानी मीनलदेवी ने अपने महारानी पद पर रहते हुए उसका पूरा लाभ उठाया तथा मंदिर आदि के लिए दान देकर धर्म प्रभावना के विकास में चार चाँद लगाएं।
५. ३१ काश्मीरी : ईस्वी सन् ११६०.
काश्मीरी देवी राजा त्रिभुवनपाल की पत्नी थी तथा गुजरात (पाटण) के सोलंकी वंश के राजा कुमारपाल की माता थी। माता बाल्यकाल से ही पुत्र को कठिनाईयों का सामना करने की शिक्षा दी थी। माता पुत्र के अमंगल की आशंका से अपना जीवन अधिक्तर धर्मध्यान में व्यतीत करती थी । काश्मीरी देवी के पेमलदेवी और देवलदेवी नामक दो विदुषी कन्याएँ थी, परंतु उनका धार्मिक विवरण प्राप्त नहीं होता है। कुमारपाल राजा ने अपने धर्म गुरु हेमचंद्राचार्य को उच्च सम्मान दिया था। मुनि जिनविजयजी के शब्दों में- "महर्षि हेमचंद्र के राज्यकाल में जैन धर्म की स्थिति केवल सुदढ़ ही नहीं हुई थी किंतु कुछ समय के लिए यह राज्यधर्म भी बन गया था । श्रावक श्राविकाओं ने भी इस धर्म को अपनाकर अपना आत्मकल्याण किया । २१
इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उस समय समाज में तथा नागरिकों में जैन धर्म के प्रति श्रद्धा थी । श्राविकाएँ मंदिरों एवं उपाश्रयों में साध्वियों से व्याख्यान सुनने जाया करती थी । कुमारपाल ने अपने आध्यात्मिक गुरू हेमचंद्र से वि. सं. १२१६ ई. सन् ११६० में संघ के समक्ष जैन धर्म स्वीकार किया। माता काश्मीरी देवी के धर्म संस्कारों का ही प्रभाव था, जो पुण्यवान् जैन धर्म प्रभावक पुत्र कुमारपाल जैसे शासक को उसने पैदा किया।
५.३२ भोपालाः ई. सन् ११६०.
भोपाला राजा कुमारपाल की तीन रानियों में से एक थी। राज्य प्राप्ति से पूर्व जब राजा कुमारपाल जयसिंह के डर से इधर-उधर घूमते थे तब रानी उनके साथ थी । रानी भोपाला सुख दुख में सदैव पति के साथ रही व उनके हर कार्य में पूर्ण सहयोगिनी रही। रानी पर आचार्य हेमचंद्र जी का प्रभाव था। रानी का एक पुत्र था जिसका नाम लीलू था । जनश्रुति है कि आचार्य हेमचंद्र के ११७२ में हुए स्वर्गवास के पश्चात् रानी को अपने पति की मृत्यु का भी दारूण दुःख सहना पड़ा था । २२ भोपाला अपने पद पर रहती हुई बखूबी से पति की धर्म सहायिका बनी यह उसका अनमोल योगदान है।
५.३३ श्रुतोद्धारक राजकुमारी देवमतिः ई. १४२६.
तौलव देश की राजकुमारी का नाम देवमति था । राजकुमारी देवमति ने श्रतुपंचमीव्रत किया तथा उसका उद्यापन सुप्रसिद्ध महाविशालकाय धवल, जयधवल, महाधवल की ताड़पत्रीय प्रतियाँ लिखाकर मूड़बिद्रि ( वेणुपुर ) की गुरू- बसदि, अपरनाम सिद्धांत बसदि में स्थापित की थी । इस विपुल द्रव्य एवं समय साध्य महान् कार्य द्वारा उसने सिद्धांत शास्त्रों की रक्षा की थी । यह नगर
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
246
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
उस युग में प्रसिद्ध जैन केंद्र था और ई. १४२६ के एक शिलालेख के अनुसार वह सद्धर्म के पालक पुण्य कार्यों को सहर्ष करनेवाला और धर्मकथा श्रवण के रसिक भव्य समुदाय से भरा हुआ था। ५.३४ कुन्दब्बे : ई. १०२३.
वह महाराज विमलादित्य की पटरानी थी। वह परम धार्मिक और जिनभक्त थी। उसके पिता राजराजा चोल तथा भाई राजेंद्र चोल थे। संभवतया इस रानी के प्रभाव से ही राजा भी जैनधर्म का अनयायी हुआ था। राजेंद्र चोल के राज्य के १२वें वर्ष, सन् १०२३ ई. में संभवतया विमलादित्य की मत्यु हो चुकी थी और विध्वा महारानी कुन्दब्बे अपने भाई के आश्रय में धर्मध्यानपूर्वक जीवन व्यतीत करती थी। रानी ने अपने भाई के परामर्श से ई. सन् १०२३ में पवित्र पर्वत तिरूमलै पर कुन्दब्बे जिनालय नामक भव्य जिनालय बनवाया, तथा उसकी व्यवस्था के लिए ग्राम आदि को दान में दिया था।२४ ५.३५ ललिता : १२ वीं शताब्दी.
सोमेश्वर चौहान नरेश के राज्यकाल में श्रेष्ठी लोलार्क हुए थे। उनकी तीन पत्नियाँ थी, ललिता विशेष प्रिय थी। एक बार सुखपूर्वक शयन करते हुए ललिता ने स्वप्न देखा कि नागराज धरणेंद्र ने उसे कहा कि, श्री पार्श्वनाथ भगवान् का प्रासाद बनवाओ। सेठानी ललिता ने सेठ को स्वप्न की बात सुनाकर प्रेरणा दी कि खेती तीरवर्ती पार्श्वनाथ-तीर्थ का उद्धार करे। लोलार्क ने उक्त स्थान पर खेतीकुण्ड के तट पर भव्य पार्श्वनाथ जिनालय बनवाया, चहूँ और छ: अन्य जिनमंदिर बनवाये। नि "उन्नतिशिखर पुराण" का संपूर्ण ग्रंथ उत्कीर्ण करवाया। चौहान नरेशों की वंशावली, अपने एवं अपने पूर्वज पुरूषों के धार्मिक कार्य संपन्नता का वर्णन लिखवाया। विभिन्न ग्राम एवं भूमि दान में दी।५ प्रशस्ति की रचना, कवियों के कण्ठभूषण, माथुरसंघी गुणभद्र महामुनि ने की, जो श्रेष्ठी लोलार्क के गुरू थे। ५.३६ रूपसंदरी : ई. सन की १३वीं शती.
पंचासर के राजा जयशेखर की रानी थी। कल्याणी-पति भुवड़ के साथ युद्ध करते हुए रणांगन में उसके पिता का स्वर्गवास हुआ । उस समय वह गर्भवती थी। गर्भस्थ शिशु को राज्य के लोभ में आकर कोई हत्या न करदे, इस संभावित भय से शत्रुओं से बचकर राजमहलों से एकाकी निकलकर विकट बन में जाकर वह वन्य जीवन व्यतीत करने लगी। उसने वि. सं ७५२ में वैशाख शुक्ला पूर्णिमा के दिन एक बालक को जन्म दिया, उस बालक ने दुर्भाग्य से राजप्रसाद के स्थान पर वन मे जन्म लिया, इसलिए उसका नाम "वनराज" रखा गया था। रूपसुंदरी के भाई सुरपाल थे। यह वनराज ही आगे चलकर चापोत्कट वंश का महान् कुलदीपक वनराज चावड़ा के नाम से बहद् गुर्जर नरेश बना । अपने जीवन के ऊषाकाल से ही राजमहलों में रहनेवाली एक क्षत्रिय बाला हिंस्त्र पशुओं से संकुल निर्जन वन में रहीं यह उसके साहस और शौर्य की अद्भुत महिमा है। चैत्यवासी परंपरा नागेंद्रगच्छ के आचार्य शीलगुणसूरि ने विहार के समय वन में इस वीर बाला को देखा, उन्होंने उसके अद्भुत साहस की सराहना की, उसे पूर्ण संरक्षण दिया, तथा उसके वीर पुत्र वनराज को युद्ध कौशल्य एवं जैन धर्म सिद्धांतों का परिज्ञान करवाया। सुयोग्य होने पर उसका राज्याभिषेक करवाया। वनराज चावड़ा ने जीवनपर्यंत चैत्यवासी परंपरा के आचार्य शीलगुणसूरि एवं आचार्य देवचंद्रसूरि को अपना गुरु माना। पाँच शताब्दियों तक चैत्यवासी परंपरा उतरोत्तर निर्बाध गति से फलती फूलती रही। अंत में १०६ वर्ष की उम्र में वि. सं ८६२ में अनशनपूर्वक उसने मत्यु का वरण किया। वीर माता के वीर पुत्र की यशगाथा सम्मान से समाज गाता रहेगा। २६ ५.३७ नाल्हणदेवी : ई. सन् की १४वीं-१५ वीं शती.
राजस्थान के नाणी ग्राम में रहने वाले पोरवाल (प्रागवार) ज्ञातीय श्रीमान् वीरसिंह जी की पत्नी का नाम नाल्हणदेवी था। उनका एक बालक था जिसका नाम वस्तिग रखा गया । वस्तिग धार्मिक प्रवत्ति का था। मात्र सात वर्ष की अवस्था में बालक वस्तिग को माता-पिता ने आचार्य महेंद्रप्रभसूरि के चरणों में दीक्षित करने की अनुज्ञा दे दी। यही बालक शासन के सुयोग्य आचार्य मेरूतुंग के रूप में विख्यात हुए। धन्य हैं माता-पिता का उत्कृष्ट धर्मभाव ।
,
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
247
५.३८ खेतल : ई. सन् की १३वीं-१४ वीं शती.
हीलवाड़ी निवासी श्रेष्ठी महीधर की पुत्रवधू एवं श्रेष्ठी रतनपाल की पत्नी थी। खेतल देवी के पाँच पुत्र थे। बीच वाले पुत्र थे सुभटपाल। सुभटपाल बचपन से ही बड़े समझदार थे। सभी भाईयों में सबसे योग्य थे। एक बार जिनसिंहसूरि का श्रेष्ठी परिवार से परिचय हुआ। उन्होंने रतनपाल से बीच वाले पुत्र को संघहितार्थ समर्पित करने को कहा । गुरू के निर्देशानुसार श्रेष्ठी रतनपाल तथा खेतल ने अपने सुयोग्य पुत्र को शासन हेतु समर्पित किया। जो आगे चलकर जिनप्रभसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए।२८ ५.३६ नेढ़ी : ई. सन् की १२वीं-१३वीं शती.
धर्मानुरागी श्रेष्ठी दाहड़ सोपारक नगर का समद्ध व्यक्ति था। उसकी पत्नी नेढ़ी भी धर्मपरायण चतुर महिला थी। नेढ़ी ने एक बार पूर्ण चंद्र का स्वप्न देखा और यथासमय तेजस्वीपुत्र बुद्धिमान बालक जासिग को जन्म दिया। वह पढ़ाई भी करता था, तथा माँ के साथ संतों का प्रवचन सुनने भी जाया करता था। उन्होंने कक्कसूरि से जंबूचरित्र का आख्यान सुना विरक्त हुए। दीक्षित होने के पश्चात् यशेशचंद्र नाम रखा तथा सूरिपद पर प्रतिष्ठित होने के बाद जयसिंहसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। माँ के संस्कार तथा धार्मिक वातावरण पुत्र के लिए कल्याणदायक रहा था। ५.४० देदी : ई. सन् की ११ वीं-१२ वीं शती. ___ मंत्री द्रोण की पत्नी का नाम देदी था। इनका पुत्र गोदुह कुमार था। संपूर्ण परिवार जैन धर्म के प्रति आस्थाशील था। इन्हीं संस्कारों के परिणाम स्वरूप गोदुह कुमार विरक्त हुए। दीक्षा के पश्चात् वे सुयोग्य आर्यरक्षितसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए, इन्होंने अंचलगच्छ की स्थापना की थी। ५.४१ जिनदेवी : ई. सन् की ११ वीं-१२वीं शती.
गुणवान् श्रेष्ठी वीरनाग की पत्नी का नाम जिनदेवी था। जिनदेवी सरलाशया, विनम्र, विवेक संपन्न, एवं साक्षात् देवी स्वरूप थी। एक दिन जिनदेवी ने स्वप्न में चंद्रमा को अपने मुख में प्रवेश करते हुए देखा । समयानुसार चंद्र के समान तेजस्वी पुत्र को जिनदेवी ने जन्म दिया, पुत्र का नाम पूर्णचंद्र रखा। शासन हित के लिए.मुनिचंद्रसूरि के आग्रह पर माता-पिता ने गुरू चरणों में पुत्र को समर्पित किया। दीक्षा के बाद इनका नाम रामचंद्रसूरि रखा गया। आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने पर देव नाम रखा, आगे चलकर वादिदेवसूरि के नाम से वे प्रसिद्ध हुए। माता जिनदेवी की ममता का त्याग शासन के लिए वरदान सिद्ध हुआ था।३१ ५.४२ वाहड़देवी : ई. सन् की १३ वीं शती.
गुजरात प्रदेश के धवलकनगर (धोलका) के वैश्य वाच्छिग की पत्नी का नाम वाहड़ देवी था। वाच्छिग गुजरात राज्य के अमात्य पद पर आसीन थे। माता वाहड़देवी धार्मिक विचारों वाली महिला थी। अपने पुत्र जिनदत्त को लेकर वाहड़देवी धर्मकथाएँ सुनने के लिए जाती थी। पुत्र जिनदत्त धर्मकथा को सुनकर वैरागी हुए। मुनिजीवन धारण करने के इच्छुक बने । माता स्वयं धर्मानुयायी थी, अतः उसने पुत्र को धर्मसंघ में समर्पित किया। उपाध्याय धर्मदेव के चरणों में पुत्र दीक्षित हुआ।२ माता की धर्मानुसारिणी वत्ति ही इसका एक मात्र कारण नज़र आता है। ५.४३ यशोमती : ई. सन् की १२ वी १३ वीं शती.
यशोमती पांचाल प्रदेश के भद्रेश्वर ग्राम के श्रीमाली जातीय शाह सोलग के पुत्र जिनशासन प्रभावक महादानी मानवसेवी जगडूशाह श्रमणोपासक की पत्नी थी। वह जैन धर्मानुयायिनी बारह व्रत धारी श्रमणोपासिका थी। वह स्वर उदार स्वभाववाली महिला थी, धन समद्धि होते हुए भी वह धन के गर्व से तथा धन की आसक्ति से परे थी। एक दिन मध्यान्ह वेला में एक योगी उसके द्वार पर आकर खड़ा हुआ, पति से अनुमति पाकर शाह पत्नी जलेबी से भरा थाल लेकर योगी से उसे ग्रहण करने की विनंती की। योगी ने उसे ग्रहण नहीं किया, पूर्ववत् वही खड़ा रहा। शाहपत्नी ने तत्काल अपने पति की आज्ञा से एक भारी भरकम चाँदी का थाल इमरतियों से भरकर उस योगी को सादर प्रदान किया। योगी उसकी उदारता तथा दानशीलता से अत्यंत संतुष्ट हुआ। इस घटना से शाह पत्नी की पति परायणता आतिथ्य सत्कार की पवित्र भावना नजर आती है। भयंकर
,
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
248
दुष्काल से देशवासियों की रक्षा हेतु दोनों पति पत्नी ने एक सौ बारह (११२) सत्रागार विभिन्न नगरों में खोले ।, सुदूरस्थ प्रदेशों के राजा श्रेष्ठी, जनसेवियों द्वारा अनाज की मांग करने पर प्रचुर मात्रा में धान्यराशियाँ प्रदान की तथा अणहिल्लपुरपाटण गुर्जरराज बीसलदेव द्वारा सम्माननीय स्थान प्राप्त किया था। शाहपत्नी एक आदर्श भारतीय महिला थी, जिसने अपने पति को जनसेवा के इस महान यज्ञ में करोड़ों लोगों की सेवा करने में अपना अनमोल सहयोग प्रदान किया था । इतिहास की वह एक मिसाल थी ।
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
५. ४४ विमलश्री : ई. सन् की १३वीं शती.
विमलश्री दौलताबाद के धनीमानी श्रेष्ठी देदाशाह की सेठानी थी। वह धर्मात्मा, उदार हृदयी तथा असहायों का सहारा थी । विमल श्री ने पाँच दिन का उपवास किया, पारणे में खीर का भोजन करते हुए मालिन की ललचाती कुपित दष्टि का शिकार बनी। पेट में दर्द हुआ, और मत्यु को प्राप्त हुई । ४ उसने जैन धर्म की तप परंपरा का पालन किया यह उसका प्रमुख अवदान है। ५.४५ प्रथमिणी : ई. सन् की १३वीं शती.
सेठ देदाशाह एवं विमलश्री के पुत्र पेथड़शाह की पत्नी का नाम प्रथमिणी था । प्रथमिणी सच्चे अर्थों में पतिव्रता, सद्धर्मिणी तथा सम्यक्त्वी श्राविका थी। उसने पति की निर्धनता में भी धर्मपथ का विश्वास बनाये रखा, अतः सुख के दिन भी नसीब हुए। घी का बहुत बड़ा कारोबार उनका हो गया था। बत्तीस वर्ष की छोटी अवस्था में उसने आजीवन ब्रह्मचर्य का नियम ग्रहण किया । प्रथमिणी के बुद्धिमान पुत्र का नाम झांझण कुमार था ।३५
५. ४६ लीलावती : ई. सन् की १३वीं शती.
माण्डवगढ़ के राजा जयसिंहदेव की रानी लीलावती थी। लीलावती को ज्वर ने पीड़ित किया था, जो मंत्री पेथड़शाह के अभिमंत्रित चादर के प्रभाव से ठीक हो गया था। इस बात से लीलावती पर कलंक लगाकर राजा ने उसे महलों से निष्कासित किया । तथा सच्चाई के प्रकट होने पर राजा ने लीलावती को पटरानी बनाया। लीलावती ने श्रमणोपासिका के व्रतों को धारण किया। राजा ने रानी लीलावती की धर्म प्रेरणा से महल में भगवान् पार्श्वनाथ का स्वर्णमंदिर बनाया था । ३६
५.४७ सौभाग्यवती : ई. सन् की १३वीं शती.
झांझण की पत्नी का नाम सौभाग्यवती था, वह दिल्ली के श्रेष्ठी की पुत्री थी । वह भी श्रमणोपासिका तथा धर्मश्रद्धालु सन्नारी
थी। ३७
५. ४८ नायकीदेवी : ई. सन् की १२वीं शती.
जैन धर्म के प्रति शताब्दियों से प्रगाढ़ निष्ठा रखने वाले कदम्ब राजवंश के महाराजा परमर्दिन् की राजकुमारी और "परमार्हत्" विरूद से विभूषित एवं अहिंसा के सक्रिय परमोपासक गुर्जरेश्वर कुमारपाल की पुत्रवधू तथा गुर्जराधिपति अजयदेव की महारानी थी नायकीदेवी । अपने पति अजयदेव के तीन वर्ष के अत्याचारपूर्ण शासन के समाप्त हो जाने के अनंतर उसके अल्पवयस्क बड़े पुत्र मूलराज (द्वितीय) को अणहिलपुर पत्तन के राजसिंहासन पर आसीन किया गया। तब राजमाता नायकीदेवी ने विशाल गुर्जर राज्य की संरक्षिका के रूप में शासन की बागडोर अपने हाथों में सम्हाली । उसने गुर्जर राज्य की प्रजा को सुशासन देने के साथ-साथ गुर्जर राज्य को एक शक्तिशाली राज्य बनाने के भी प्रयास किये। वि. सं. १२२५ ई. सन् ११७८ में गौर के सुल्तान मोहम्मद गौरी ने गुजरात पर आक्रमण किया । राजमाता नाइकीदेवी ने अपने बालवय के पुत्र मूलराज (द्वितीय) को अपनी गोद में बिठा गुर्जर राज्य की सेना का नेतत्व करते हुए, मोहम्मद गोरी के सम्मुख बढ़कर उसपर भीषण आक्रमण किया। आबू पर्वत के अंचल में अवस्थित गाड़रारघट्ट नामक घाटे में दोनों सेनाओं के बीच तुमुल युद्ध हुआ । राजमाता नायकीदेवी ने रणांगन की अग्रिम पंक्ति पर शत्रु सेना का संहार करते हुए अद्भुत साहस और शौर्य के साथ गुर्जर राज्य की सेना का कुशलतापूर्वक संचालन किया । प्रकति ने भी मुक्तहस्त से राजमाता की सहायता की। मुसलाधार वर्षों में युद्ध की अनभ्यस्त शत्रुसेना के रणांगन से पैर उखड़ गये। नायकीदेवी ने अपने योद्धाओं का उत्साह बढ़ाते हुए शत्रुसेना पर प्रलयंकर प्रहार किये। गौरी की सेना प्राण बचा उल्टे पांवों
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
भाग खड़ी हुई। शहाबुद्दीन गौरी भी गुर्जर सेना के शस्त्राघातों से घायल हो अपनी बची सेना के साथ गौर की और लौट गया। नायकीदेवी ने मुहम्मद गौरी जैसे दुर्दान्त विदेशी आततायी को अपने साहस, शौर्य एवं रणकौशल से युद्ध में परास्त तथा घायल कर अहिंसा के गौरवशाली समुन्नत भाल पर कायरता की कलंक-कालिमा की छाया तक न पड़ने दी। नायकीदेवी की अदभुत वीरता का परिचय प्राप्त होता है। ५.४६ लक्ष्मी : ई. सन् की ६ वी १० वीं शती.
गुजरात के श्री वर्मताल राजा के मंत्री सुप्रभदेव के सुपुत्र शुभंकर की पत्नी थी लक्ष्मी। सुप्रभदेव के बड़े भाई दत्त के पुत्र माघ कवि थे, जिन्होंने शिशुपाल आदि उत्कष्ट काव्यों की रचनाओं से प्रसिद्धि प्राप्त की थी। लक्ष्मी और शुभंकर के पुत्र थे सिद्धर्षि, उनका जन्म गुजरात राज्य की तत्कालीन राजधानी श्रीमाल नामक ऐतिहासिक नगर में हुआ था। सिद्धर्षि के जीवन में औदार्य आदि अनेक गुण थे, लेकिन जुआँ खेलने का बुरा व्यसन था। परिजनों द्वारा समझाने पर भी व्यसनों से उपरत होने के बजाय वे धीरे-धीरे दुर्व्यसनों में घिर गये एवं रात्रि में बड़ी देर से घर लौटने लगे। पत्नी धन्या इस कारण दुःखी थी, दिन प्रतिदिन कशकाय होती जा रही थी। लक्ष्मी ने बहू से आग्रहपूर्वक कारण पूछा । धन्या ने सास को वस्तुस्थिति से परिचित किया। लक्ष्मी ने बहू को सोने के लिए भेज दिया, स्वयं रात्रि को पुत्र के लौटने की प्रतीक्षा करने लगी। रात्रि के तीसरे प्रहर में सिद्धर्षि ने द्वार खटखटाया। बोला मैं आपका पुत्र सिद्ध हूँ, दरवाजा खोलो। माता लक्ष्मी कठोर स्वर में पुत्र को शिक्षित करने हेतु बोली मैं नहीं जानती उस स्वेच्छाचारी सिद्ध को, जिसके घर आने जाने का कोई समय निश्चित नहीं है। यह भी कोई समय है घर लौटने का । गहस्थों के घरों के द्वार रातभर खुले नहीं रह सकते। पुत्र के अनुनय करने पर भी लक्ष्मी ने द्वार नहीं खोला और कहा-चला जा वही, जहाँ रात में द्वार खुले रहते हो। इसे माँ का आदेश समझकर सिद्ध उल्टे पाँव लौटा। नगर में घूमने लगा। खुले द्वार वाले घर की खोज में घूमते हुए सिद्ध विभिन्न मार्गों, गलियों में घूमते हुए जैन उपाक्षय में पहुँचा । वहाँ उसने शांत दांत, स्वाध्याय, ध्यान तथा विविध आसनों में रत मुनिजनों को देखा । देखकर अत्यंत प्रभावित हुआ तथा अपने जीवन को धिक्कारते हुए, माँ को इस स्थान तक पहुँचाने हेतु मन ही मन धन्यवाद दिया। वह पट्ट पर बिराजमान आचार्य के समीप पहुँचकर अपना द्यूत, व्यसन आदि संपूर्ण वत्तांत सुनाया, और आचार्य जी को चरणों में रखने हेतु विनंती की। आचार्य श्री जी से संयमी जीवन की कठोरता को श्रवण करने पर भी सिद्धर्षि अपने संकल्प से विचलित नहीं हुए, पिता की अनुमति प्राप्त कर वे दीक्षित हुए। सिद्धर्षिमुनि श्रमण जीवन धारण कर उपमिति-भव प्रपंच कथा नामक महाकाव्य के सभी गुणों से परिपूर्ण अध्यात्म रस से ओतप्रोत विशाल ग्रंथ की रचना कर अक्षयकीर्ति अर्जित की। निश्चय ही सिद्धर्षि के लिए माँ की शिक्षा भी वरदान बन गई। लक्ष्मी ने पुत्र सिद्धर्षि को व्यसनों से मुक्त बनाकर एक साहित्यकार संत बनाने में अपना महत्वपूर्ण ऐतिहासिक योगदान दिया था। ५.५० जाकलदेवी :
जाकलदेवी चालुक्य राजा त्रिभुवनमल्ल की धर्मपत्नि थी । राजा चालुक्य जैन बिंबो से घणा करने वाला राजा था । एक बार सुयोग्य शिल्प कलाकार ने अतिशय सुंदर, भव्य मनोज्ञ, विशाल, जिन प्रतिमा बनाकर राजा के सम्मुख उपस्थित की । राजा
देखकर अनयमनस्क और उद्विग्न हुआ । रानी ने राजा के हृदयगत भावों को पहचानकर प्रेरणा भरे वचन कहे - "राजन क्षमा कीजिए मैं आपकी अर्धांगिनी हूँ, अतः आपसे कुछ कहने का अधिकार रखती हूँ । राजन् । यह भौतिक रंग क्षणस्थायी एवं विनश्वर है । इस जिन प्रतिमा की नग्नमुद्रा में जो सन्देश है। वह संसार सागर से पार कर चिरंतन और अमर सुख देने वाला है। रानी के शिक्षा भरे वचन ने राजा के हृदय को अत्यधिक प्रभावित किया । राजा जिन धर्मानुयायी बना, अपने जीवन में मन्दिर, जिनालय आदि बनवाकर जैन धर्म की प्रभावना और प्रचार में अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत किया। शीलवती जाकलदेवी जैन संस्कति की संरक्षिका, पतिभक्ता, धर्मपालिका, सत्यशीला एवं कर्तव्य परायणा नारी रत्नों में से एक थी ४० ५.५१ पंपा देवी : ई. सन् की १२ वीं शती.
हुम्मच में तोरनबागिल के उत्तर खंभे पर प्राप्त शिलालेख के अनुसार राजकुमारी पंपादेवी प्रसिद्ध दानवीर राजा तैलसांतार एवं महारानी चत्तलेदवी की पुत्री थी । पंपादेवी महापुराण में विदुषी थी, परमविद्यासंपन्नता के कारण वह शासन देवता के विरूद
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
250
I
से विभूषित थी । पंपादेवी ने "अष्टविध अर्चना", "महाभिषेक" एवं "चतुर्भक्ति की रचना "कन्नड़ भाषा में की थी । पुण्यचरित्रशीला पंपाने छने हुए प्रासु जल से एक मास की अल्प अवधि में "उर्वीतिलक - जिनालय" का निर्माण करवाकर धूमधाम से प्रतिष्ठा करवाई थी । अष्ट प्रकारी पूजा, जिनाभिषेक, चतुर्विध-भक्ति में उनकी अत्यंत आस्था थी । जिनमंदिरों के जीर्णोद्धार, पूजन, व्यय तथा शास्त्र - लेखन के लिए वह दिल खोलकर दान देती थी । पंपादेवी की पुत्री बाचलदेवी अतिमब्बे के समान प्रवीण थी । दोनों ही द्राविलसंघ नंदीगण, अरूंगलान्वय अजितसेन पंडितदेव (वादीभसिंह) की शिष्या श्राविका थी । धर्मपरायण वल्लभराजा (विक्रमादित्य सान्तर) पंपादेवी के लघु भ्राता थे । ४१ कन्नड़ के महाकवियों ने पंपादेवी के विषय में प्रमुदित होकर कहा है- आदिनाथ चरित्र का श्रवण पंपादेवी का कर्णफूल था, चतुर्विध दान ही उसका हस्तकंकण था, तथा जिनस्तवन ही उसका कण्ठहार था। ५.५२ कुन्दाच्चि (कदाच्छिका ) ई. सन् की आठवीं शती.
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
देवरहल्लि में पटेल कष्णप्य के ताम्रपत्रों पर लिखे ७७६ ईस्वी के लेख के अनुसार कुन्दाच्चि सागरकुलतिलक पल्लवराज और मरूवर्मा की प्रिय पुत्री थी। इनके पति थे पथ्वीनिर्गुण्ड राज, जिनका पहला नाम परमगुल था । गंगनरेश श्रीपुरूष (ई. सन् ७२६ से ७७६) के राज्यकाल में कुन्दाच्चि ने श्रीपुर की उत्तर दिशा में "लोकतिलक" नामक जिनमंदिर बनवाया था, जिसके जीर्णोद्धार, नव निर्माण, देव पूजा, दानधर्म आदि के लिए परमगुल के महाराजा परमेश्वर श्री जसहितदेव ने "पोनाल्लि' ग्राम दान स्वरूप प्रदान किया था, तथा रानी की प्रेरणा से इस जिनालय को समस्त करों से मुक्त रखकर अन्य अनेकों भूमि भी प्रदान की गई थी । लेख में ग्राम सीमाओं का तथा दान के साक्षिओं का भी उल्लेख हैं । ४२
५.५३ लक्ष्मीमति : (लक्ष्मीयाम्बिके, लक्कले) ई. सन् की १२ वीं शती.
वह शूरवीर, धर्मवीर, होयसल राजवंश के महाराजा विष्णुवर्द्धन के महाप्रतापी जैन सेनापति गंगराज की धर्मपरायणा पत्नी थी। जैन धर्म में वर्णित चारों दान- आहारदान, अभयदान, औषधदान, ज्ञानदान, (शास्त्रदान) को सतत देकर "सौभाग्यखानी" की उपाधि प्राप्त की थी। लक्ष्मी देवी ने श्रवणबेलगोल में ई. सन् १११८ में एक सुन्दर जिनालय का निर्माण करवाया जो एरडुकट्टेवसति के नाम से प्रसिद्ध है। कई जिनालय बनवाये, जीर्णोद्धार करवाया, जिनके संचालन के लिए गंगराज ने उदारतापूर्वक भूमि का दान दिया था । लक्ष्मीमति को अपने पति की "कार्यनीतिवधू" और "रणेजयवधू" कहा गया है। निपुणता, सौंदर्य तथा ईश्वरभक्ति में वह अग्रणी थी। ईस्वीं सन् ११२१ में लक्ष्मीमति ने संलेखनापूर्वक शरीर का त्याग किया था। ३
५. ५४ महासती हर्यले : (हर्यल) ई. सन् की १२वीं शती.
लू. राईस के अनुसार करडालु स्थान की ध्वस्त बस्ति के एक स्तम्भ पर कन्नड़ भाषा में लिखा यह लेख प्राप्त हुआ है। कर्नाटक की नागरिक महिला हर्यले की जैन धर्म के प्रति गाढ़ अनुरक्ति थी। महासती हर्यले बड़ी धर्मपरायणा एवं धर्मप्रेरिका सन्नारी थी । मत्यु के समय उसने अपने पुत्र भुवननायक को बुलाकर कहा- स्वप्न में भी मेरा ख्याल न करना, धर्म का ही विचार करना । यदि तुम्हें पुण्योपार्जन करना है तो जिन मन्दिर बनवाना, साधर्मी का आदर करना । जिनेंद्र प्रतिमा के चरणों की उपस्थिति में पंच नमस्कार मंत्र का स्मरण करते हुए, आसक्ति के बंधनों को तोड़ते हुए अंतिम समय में हर्यले ने समाधिपूर्वक मत्यु का वरण किया था। हर्यले की धर्म प्रेरणा इतनी गजब की थी कि उसने मत्यु को सन्निकट देखते हुए भी पुत्र को सन्मार्ग पर बढ़ने के लिए प्रेरित किया था । ४४
५. ५५ अतिमब्बे : ई. सन् की १०वीं शती : ( अतिमब्बरसि है )
• १०वीं शती की यह श्राविका केवल कर्नाटक ही नहीं अपितु समस्त जगत के गौरव की प्रतीक है। दानचिंतामणि अतिमब्बे पढ़े लिखे घर में जन्मी थीं। उसके दादा नागमय्या नाम के सुप्रसिद्ध जैन थे, जिनके दो पुत्र थे मल्लपय्या और पौन्नमया । अतिमब्बे के पिता (जनरल) सेनापति मल्लपय्या थे जो भारी विद्वान, माने हुए ज्योतिषी, धनुर्विद्या के कुशल शिक्षक थे। उनकी एक ओर पुत्री थी, जिसका नाम गुंडमब्बे था। दोनों की शादी चालुक्य सेनापति नागदेव के साथ हुई जो प्रधानमंत्री धालप्पा के पुत्र थे, तथा राजा आहवमल्लदेव के सेनापति थे ।
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
251
आपका गहस्थाश्रम आनंदमय था। परन्तु निर्दयी विधि को सहन नहीं हुआ व अनायास ही पति की मत्यु से अतिमब्बे का जीवन अंधकारमय हो गया । उस समय की प्रथा के अनुसार नागदेव की दूसरी पत्नी गुंडमब्बे पति के साथ सती हो गई । परन्तु सती प्रथा को जैनधर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध समझ कर अतिमब्बे ने ऐसा करना उचित नहीं समझा | वह अपने एकमात्र पुत्र अण्णिगदेव की रक्षा करती हुई श्राविका व्रतों का पालन करते हुए गहस्थाश्रम में रही । यद्यपि अतिमब्बे आमरण जैन श्राविका रही, फिर भी कठिन से कठिन व्रतों के द्वारा इसने अपने शरीर को इतना कश कर दिया था कि तत्कालीन महाकवि रन्न ने उनको कामपराङ्मुखता तथा देहदंडन नाम के दोनों गुणों की साक्षात् मूर्ति बताकर बड़ी प्रशंसा की है। उसने अपने शील सदाचार, अखण्ड पातिव्रत्य धर्म और जिनेन्द्र भक्ति में अडिग आस्था के फलस्वरूप गोदावरी नदी में आई हुई प्रलयकारी बाढ़ के प्रकोप को भी शांत कर दिया था, और उसमें फंसे हुए अपने पति के साथ-साथ सैंकड़ों वीर सैनिकों को सुरक्षित रूप से स्वस्थान वापिस ले आई थी।
अतिमब्बे स्वयं तो विदुषी थी ही, उसने आग्रहपूर्वक सुप्रसिद्ध महाकवि रन्न (रत्नाकर) से 'अजितनाथ-पुराण' की रचना अपने आश्रम में रखकर करवाई थी । इस देवी ने अपने व्यय से उभयभाषा चक्रवर्ती महाकवि पोन्न द्वारा सन ६३३ में लिखे गये "शांति-पुराण" की एक सहस्र प्रतियां लिखवाकर विभिन्न शास्त्र भंडारों में वितरित की थी। इससे कर्नाटक में सर्वत्र जैन धर्म का बहुत प्रचार हुआ। उसने अन्य हस्तलिखित काव्यों की भी रक्षा की थी। मुद्रणालयों के अभाव के कारण उस जमाने में प्रत्येक ग्रंथ की प्रत्येक प्रति को हाथ से लिखना-लिखवाना पड़ता था। अतः जिस ग्रंथ की प्रतियां अधिक तैयार होती थीं, उस ग्रंथ का प्रचार उतना ही अधिक हुआ करता था। इसकी सुचारू व्यवस्था न होने के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ और उसके रचयिता का नाम हमेशा के लिए लुप्त हो जाया करता था। अतिमब्बे की प्रेरणा से ऐसे कई महत्वपूर्ण ग्रंथ पुनर्जीवित किए गये थे। साहित्य-सेवा के साथ-साथ उन्होंने "मणिकनकखचित” (सोने तथा रत्नों से मढ़ी हुई) १५०० जिन प्रतिमाएं विधिवत् बनवाकर विभिन्न जिनालयों में प्रतिष्ठित कराई थीं। प्रत्येक प्रतिमा के लिए एक-एक चित्ताकर्षक बहुमूल्य मणिघटा, दीपमाला, रत्न तोरण तथा बितान (चंदरवा-मूर्ति के ऊपर बांधने का नक्षीदार चौकोर कपड़ा) भी भेंट किया। अपने इन्हीं उदार एवं प्रेरक सत्कार्यों के कारण वह सर्वत्र "दान-चिंतामणि" के नाम से प्रसिद्ध थी।
एक बार अतिमब्बे ग्रीष्मकाल में श्रवणबेलगोला में बाहुबली स्वामी के दर्शनार्थ गई। पर्वत पर चढ़ी तीखी धूप से संतप्त हो सोचने लगी कि इस समय कुछ वर्षा हो तो बड़ा अच्छा हो। तत्क्षण मेघ एकत्रित हुए जोरों से पानी बरसने लगा। इस घटना से अतिमब्बे की भक्ति द्विगुणित हुई। बाहुबली स्वामी की भक्ति से पूजा कर संतुष्ट हुई। कन्नड़ कवि रत्नत्रयों में सर्वमान्य महाकवि रन्न ने अपने अजितपुराण में इस घटना का उल्लेख किया है। स्वयं सम्राट एवं युवराज की इस देवी के धर्मकार्यों में अनुमति, सहायता एवं प्रसन्नता थी। सर्वत्र उसका अप्रतिम सम्मान और प्रतिष्ठा थीं। उक्त घटना के लगभग एक सौ वर्ष पश्चात् भी सन् ११८ ईस्वी के शिलालेख के अनुसार होयसल नरेश के महापराक्रमी सेनापति मंगराज ने महासती अतिमब्बे द्वारा गोदावरी के प्रवाह को स्थिर कर देने की साक्षी देकर ही उमड़ती हुई कावेरी नदी को शांत किया था। किसी सतवंती, दानशीला या धर्मत्मा महिला की सबसे बड़ी प्रशंसा यह मानी जाती थी कि "यह तो दूसरी अतिमब्बे हैं अथवा अभिनव अतिमब्बे हैं। डॉ भास्कर आनंद सालतौर के शब्दों में "जैन इतिहास के महिला जगत् में सर्वाधिक प्रशंसित प्रतिष्ठित नाम अतिमब्बे हैं। तत्कालीन कवियों ने दानचिंतामणि अतिमब्बे को कई उपाधियों से विभूषित किया है। तथा शिलालेख में जिन प्रतिमाओं की निर्माता के रूप में उनका सादर स्मरण किया है। वस्तुतः अतिमब्बे एक आदर्श जैन महिला श्राविका थी, जिसका स्मरण कर आज भी नारी जाति का मस्तक गौरवान्वित होता है।५ ५.५६ श्राविकारत्न महारानी शांतलदेवी : (ई. सन् की १२ वीं शती).
___वह महाराज विष्णुवर्द्धन पोयसल की पट्टमहिषी थी। महाराज इनका बड़ा आदर करते थे तथा इन्हें उद्वत सवति-गंधवारण अर्थात् उच्छंखल सौतों को काबू में रखने के लिए 'मत्तहस्ति' विरूद्व दिया था। शांतलदेवी के पिता कट्टर शैव धर्मानुयायी मारसिंगय्य पेन्डै थे, माता परम जिन धर्मानुयायी माचिकब्बे थीं। देशीगण पुस्तकगच्छ के श्री प्रभाचंद्र सिद्धांत देव की शिष्या महारानी शांतलदेवी ने जैन धर्म की प्रभावना के लिए अनेक स्थायी कार्य किये थे तथा दान आदि देकर उसने चतुर्विध संघ का उत्कर्ष किया
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
252
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
था। श्लाघ्यपुरूषों के पुराण चरित्र सुनने में उसकी बड़ी दिलचस्पी थी। शांतलदेवी ने श्रवणबेलगोला तीर्थ पर ईस्वी सन् ११२३ में भगवान् शांतिनाथ की विशालकाय प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। ईस्वी सन् ११२३ में वहीं पर उसने गंगसमुद्र नामक सुंदर सरोवर का निर्माण कराया था तथा सवति-गंधवारण बस्ति नामक एक अत्यंत सुन्दर एवं विशाल जिनालय भी बनवाया था । नित्य देवार्चन संरक्षण आदि के लिए महाराज विष्णुवर्द्धन की अनुमतिपूर्वक मन्दिर के लिए एक ग्राम भेंटस्वरूप अपने गुरू को दिया था। शांतलदेवी धर्मात्मा, सती-साध्वी नारी-रत्न थीं। अपनी सुंदरता एवं संगीत, वाद्य, नत्य आदि कलाओं में निपुणता के लिए यह विदुषी नारी रत्न सर्वत्र विख्यात थी। अपने अनुज दद्द महादेव के साथ रानी शांतलदेवी ने एक ग्राम वीर कोंगाल्व जिनालय के लिए भी प्रदान किया था। अन्य शिलालेखों में कई छोटे-छोटे गांवों के दान का वर्णन है। अंतिम समय में श्रमणोपासिका शांतलदेवी ने विषय भोगों से विरक्त हो कई महीनों तक अनशन और ऊनोदरी आदि तपों का पालन किया था । ईस्वी सन् ११३१ में शिवगंगे नामक स्थान में इस देवी ने संलेखना धारण कर समाधिपूर्वक शरीर का त्याग किया था। शिलालेख में शांतलदेवी को सम्यक्त्व चूडामणि आदि सार्थक नाम दिये गये हैं। शांतलदेवी की पुत्री हरियब्बरसि विशेष दानशीला एवं समाज सेविका रही हैं। जैन महिलाओं के इतिहास में इस देवी का नाम चिरस्थायी है।
जैन शांतलदेवी (विष्णुवर्द्धन की बड़ी रानी थी) का समय ईस्वी सन् १११७ से ११३१ का है । वह अति कला प्रिय, अति मिलनसार, सुसंस्कत, सभ्य एवं सुंदर थी। सभी कलाओं में पारंगत, भरतनाट्यम की प्रतिभा संपन्न विद्यार्थिनी, नत्यकला में भूषण स्वरूप, गायन कला में सरस्वती सम, न्याय में बहस्पति समान, तुरन्त वाद में वाचस्पति के समान थी। उसकी धार्मिक सहिष्णुता के कारण वह प्रशंसनीय थी। चारो वर्णो के प्रति उसका समान आदर का भाव था, और सभी धर्मों की श्रद्धा को वह सुरक्षित रखनेवाली थीं। ५.५७ चट्टलदेवी : ई. की १० वीं शती.
__ गंग वंशावली में अंतिम प्रमुख नाम राजा रक्कस गंग पेर्मानडि राचमल्ल पंचम का है। चट्टल देवी इनकी पौत्री थी। इनके पति पल्लवनरेश काडुवेट्ठी थे । रानी चट्टलदेवी ने अपने पुत्र एवं पति का मत्यु के बाद अपनी छोटी बहन की चार संतानों को अपना माना और उनके साथ शान्तरों की राजधानी पोम्बुच्चपुर में जिनालयों का निर्माण कराया था। उसने अनेक मन्दिर, बसदियाँ, तालाब, स्नानगह तथा गुफायें बनवायीं और आहार, औषध, शिक्षा तथा आवास, दान आदि की समुचित व्यवस्थायें की। चट्टलदेवी के गुरू द्रविड़ संघ के विजयदेव भट्टारक थे।४७ ५.५८ पालियक्क : ई. सन् की १० वीं शती.
पार्श्वनाथ बस्ति एवं द्वार के पश्चिम भींत पर अंकित शिलालेख के अनुसार यह तौल पुरूष सांतार की स्त्री थीं। वह बड़ी ही धर्मपरायणा स्त्री थी। उसने अपनी माता की स्मति में एक पाषाण का जिनमन्दिर बनवाया, और उस मन्दिर की व्यवस्थाओं के लिए दान आदि दिया था। कालान्तर में वह मन्दिर "पालियक्क बसदि" के नाम से प्रसिद्ध हुआ । ५.५६ जक्कियव्वे : ई. सन् की १० वीं शती.
१० वीं शताब्दी के प्रथम चरण में राष्ट्रकूट नरेश कष्णततीय के राज्यकाल में ६११ ई. में नागरखण्ड के अधिकारी सत्तरस को नियुक्त किया गया। जक्कियव्वे शासन में सुदक्ष थी और जिनशासन की भक्त थी, यद्यपि वह नारी थी पर बहादुरी में किसी से कम नहीं थी। उसने नागरखण्ड की सुरक्षा की थी। मत्यु को समीप आया देखकर उसने बन्दनि नामक पवित्र स्थान में जाकर वहां के जिनालय में सल्लेखनापूर्वक प्राणों का त्याग किया था। ५.६० बाचलदेवी : ई. सन् की १२ वीं शती.
सन् ११४७ तोरनबागिल के उत्तर दिशा के खम्भे पर प्राप्त शिलालेख के अनुसार यह महाविदुषी पंपादेवी की पुत्री थी। बाचलदेवी अतिमब्बे के समान प्रवीण थी, वह नागदेव की भार्या थी एवं पाडल तैल की माता थी। वह बड़ी ही जिन धर्मपरायणा थी। इसने पोन्नकत शांतिपुराण की १००० प्रति लिखवाकर वितरित की तथा १५०० सुवर्ण जवाहरात की मूर्तियां बनवाई थी। बाचलदेवी द्राविलसंघ, नंदीगण, अरूंगलान्वय, अजितसेन पंडितदेव अथवा वादीभसिंह की गहस्थ शिष्या थीं । ५०
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
253
५.६१ माचिकब्बे एवं शांतिकब्बे : ई. सन् की १२ वीं शती.
शक संवत् १०३८ लेख सं. १३७ श्रवणबेलगोल के चंद्रगिरि पर्वत पर पोयसल सेठ की माता माचिकब्बे और नेमि सेठ की माता शान्तिकब्बे ने एक मन्दिर का निर्माण कराया, जो "तेरिन-बस्ति" के नाम से विख्यात है । इस मन्दिर के सम्मुख एक रथ (तेरू) के आकार की इमारत बनी हुई है, अतः इसे "तेरिन-बस्ति” के नाम से पुकारा जाता है । रथाकार मन्दिर पर चारों ओर बावन जिनमूर्तियाँ खुदी हुई है । इस मन्दिर में बाहुबली की मूर्ति होने से इसे बाहुबली बस्ति भी कहते हैं । यह जिनालय नरेश विष्णुवर्द्धन के समय का है ।५१ ५.६२ अक्कादेवी : ई. सन् की ११ वीं शती.
अक्कादेवी चालुक्य वंशी राजा सत्याश्रय की बहिन एवं दशवर्मन की पुत्री थीं । राज्य कार्य में दक्ष होने के कारण वे राज्य के एक प्रांत की गवर्नर नियुक्त की गई थी (ईस्वी सन् १०३७) । राज्य शासन में सहयोग देने के लिए उनके साथ सात मंत्रियों की एक कौंसिल थी, जो प्रांत की व्यवस्था सुचारू रूप से करते थे, जिसमें अक्कादेवी स्वयं राजस्व मंत्री थी । इनके शासन-काल में राजस्व मंत्री को ही धार्मिक कार्य के लिए सरकारी जमीन बिना मूल्य देने का अधिकार था । इसी प्रकार राजस्व अधिकारी को यह भी आदेश था कि सरकारी कर वसूली में से कुछ धनराशि धार्मिक कार्यों के लिए दी जाये । कुछ उच्च अधिकारियों को धार्मिक कार्यों के लिए गांव तक दे देने के अधिकार राज्य की ओर से प्राप्त थे। राज्य शासन द्वारा धार्मिक कार्य में सहूलियत प्राप्त होने से कई धनाढ्य तथा मध्यम स्थिति के नागरिक अपने धन को धार्मिक कार्यों में लगाकर उसका सदुपयोग करते थे । ऐसे ही एक दान का वर्णन एक शिलाफलक पर प्राप्त हुआ है । चालुक्यनरेश विक्रमादित्य के समय सिंगवाड़ी क्षेत्र की नालिकब्बे नाम की महिला ने अपने स्वर्गीय पति की स्मति में एक मन्दिर का निर्माण करवाया था। इस मन्दिर के खर्च के लिये राज्य द्वारा भूमि तथा अन्य वस्तुएं दी गई जिसका शिलालेख में उल्लेख प्राप्त होता है। ५.६३ केतलदेवी : ई. सन् की ११ वीं शती.
होयसल राजवंश के राजा आहवमल्ल (ईस्वी सन् १०४२–१०६८) के शासनकाल में यह महिला "पोन्नवाड़ अग्रहार" की शासिका थीं । इन्हें सोमेश्वर की महारानी केतलदेवी के नाम से संबोधित किया जाता था। इन्होंने त्रिभुवन-तिलक जिनालय में कई उप-मन्दिरों का निर्माण ई. सन् १०५४ में करवाया था। उसके खर्च के लिए महासेन मुनि को दान में बहुत सा धन भी दिया था ताकि मन्दिर का खर्च सुविधा से चल सके। प्रसिद्ध अर्हत् शासन का स्तम्भ चाकिराज रानी का दीवाना था। इसी राज्य के बेल्लारी जिले का कोंगली नामक स्थान पुरातन काल से एक प्रसिद्ध जैन केन्द्र रहा था। यहां तभी से एक महत्वपूर्ण जैन विद्यापीठ की स्थापना हुई थी। इस महत्वपूर्ण जैन विद्यापीठ में कई शिलालेखों का संग्रह किया गया था ।२ ५.६४ चन्द्रवल्लभा : ई. सन् की १० वीं शती.
चंद्रवल्लभा राष्ट्रकट नरेश अमोघवर्ष रासकता की पत्री तथा राजा राचमल द्वितीय की पत्नी थी। अपने पिता के पदचिन्हों पर चलने वाली इस राजकुमारी ने अपनी दढ़ आस्था के कारण जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में विशेष सफलता प्राप्त की थी।
श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं. ४८६ में उल्लेख मिलता हैं कि, उसके अपने गुरू शुभचंद्र सिद्धांतदेव की प्रेरणा से उसने एक विशाल जैन प्रतिमा की स्थापना करवाई थी। पति के समान चन्द्रवल्लभा भी बारह सौ (१२००) ब्राजिल के उच्च पदाधिकारी के पद पर कार्य करती थी जो उस समय के इतिहास में गौरवशाली पद माना जाता था। अपने व्यक्तिगत जीवन में व्रतों का पालन करते हुए उसने अंतिम समय में विधिपूर्वक संलेखना व्रत धारण कर शरीर का त्याग किया था। वीरता तथा पराक्रम से युक्त यह महिला जिनेंद्र शासन की भक्त तथा अपनी योग्यता एवं सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध थी। इसने सात-आठ वर्ष तक अपने प्रदेश पर सुशासन किया था। अंत में ई. सन् ६१८ में वह रूग्ण हुई तो शरीर और संसार को क्षण-भंगुर जानकर उसने अपनी पुत्री को संपत्ति एवं पदभार सौंप दिया तथा स्वयं बन्दनि तीर्थ की वसति में जाकर श्रद्धा के साथ सल्लेखना व्रत पूर्वक देह का त्याग किया था।३
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
-
५.६५ जक्किसुंदरी : १० वीं शती.
कष्णराज ततीय की मत्यु के पश्चात् उनका लघुभ्राता (खोटिग नित्यवर्ष ई. सन् ६६७-६७२) राष्ट्रकूट सिंहासन पर बैठा। इस नरेश के सामन्त पड्डिग ने अपनी धार्मिक भार्या जक्किसुन्दरी द्वारा काकम्बल में निर्मित भव्य जिनालय के लिए दो ग्राम प्रदान किए थे (ई. सन् ६६८)। इनके गुरू कवलिगुणाचार्य को प्रेरणा से साधु-साध्वियों के ठहरने के लिए एक वसति बनवाई गई थी। यह महिला राजवैभव तथा विलासिता से दूर रहकर धर्म ध्यान पर श्रद्धा रखती थी।५४ ५.६६ चामेकाम्बा :
कर्नाटक के कल चुम्बरू (जिला अत्तोली) से प्राप्त एक शिलालेख में वर्णन आता है कि पट्टवर्द्धिक कुल की तिलकभूता, गणिका जन में प्रसिद्ध चामेकाम्बा नाम की श्राविका की प्रेरणा से चालुक्य वंश के (२३) तेइसवें राजा अम्मराज द्वितीय (विजयादित्य षष्ठ) ने सर्वलोकाश्रय जिनभवन (जिनमंदिर) की मरम्मत के लिए बलहारिगण, अड्डुकलिगच्छ के अर्हनंदि मुनि को कलचुम्बरू नामक ग्राम दान में दिया था। इस वंश के राजाओं ने जैनधर्म के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान दिया था ५ ५.६७ चन्द्रायव्वे : ई. सन् की १० वीं शती.
अडोनी तालुका के हालहरवि नामक ग्राम की एक पहाड़ी पर प्राप्त राष्ट्रकूट काल का यह शिलालेख है। उसमें उल्लेख है कि कन्नर की रानी चन्द्रायब्वे सिंदवाड़ी १००० पर शासन करती थी, उसने नन्दवर पर एक जैन मन्दिर का निर्माण कराया था तथा मन्दिर की व्यवस्थाओं के लिए दान भी दिया था।५६ ५.६८ चागलदेवी : ई. सन् की ११ वीं शती.
कन्नड़ भाषा का यह लेख पार्श्वनाथ बस्ति में मुख मंडप के दक्षिण स्तंभ पर अंकित है । वीर शांतर की पत्नि चागल देवी थी । प्रसिद्ध अरसीकब्बे की यह पुत्री थी । वह बड़ी दानवीर और धर्मपरायणा सन्नारी थी । शिलालेख में उसकी प्रंशसा में बहुत से श्लोक दिये गये हैं । अपने पति वीर शांतर के कुलदेवतारूप नोकियब्बे की बसदि के सामने उसने "मकर-तोरण" बनवाया था। बल्लिगांव में चागेश्वर नाम का मन्दिर बनवाया था, बहुत से ब्राह्मणों को कन्यादान करके "महादान" पूर्ण किया था। अपने आश्रय में आये हुए आश्रितों को और प्रशंसकों को यथेष्ट दान देकर संतुष्ट किया था, अतः दानी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की थी।५० ५.६६ सावियब्बे :
वीरांगना सावियब्बे श्रावक शिरोमणि वीर मार्तण्ड महासेनापति चामुण्डराय जो सिद्धांत चक्रवर्ती नेमिचंद्राचार्य के शिष्य थे, उनके समकालीन थी । यह वीर महिला-रत्न पराक्रमी वीर बायिक तथा उसकी धर्मपत्नि जाबय्ये की पुत्री थी और लोक विद्याधर की भार्या थी । एक ओर तो वह अपने पति के साथ युद्ध क्षेत्र में जाकर वीरतापूर्वक रण-जौहर दिखलाती थीं और दूसरी ओर अतिरिक्त समयों में वह नैष्ठिक श्राविका-व्रताचार का पालन करती थी।
श्रवणबेलगोल की बाहुबली बसति में पूर्व दिशा की ओर एक पाषाण पर इस युद्धप्रिय महिला की वीरगति लेखांकित है। लेख के ऊपर एक दश्य हैं, जिसमें यह वीर नारी घोड़े पर सवार है और हाथ में तलवार उठाये हुए अपने सम्मुख एक गजारूढ़ योद्धा पर प्रहार कर रही है । लेख में इस महिला-रत्न को रेवती रानी जैसी पक्की श्राविका, सीता जैसी पतिव्रता, देवकी जैसी रूपवती, अरुन्धती जैसी धर्मप्रिया और शासन देवी जैसी जिनेन्द्र भक्त बताया है। ५.७० सोवल देवी : ई. सन् की १३ वीं शती.
सोवल देवी महामण्डलेश्वर मल्लिदेवरस संधिविग्रही मंत्री एच की पत्नी थी। उसने अपने छोटे भाई ईच के स्मरणार्थ एक मन्दिर का निर्माण किया था। भगवान् शांतिनाथ के अष्टविध पूजन के लिए तथा मन्दिर की मरम्मत के लिए ईस्वी सन् १२०८ में भूमि का दान दिया था। डॉ. ज्योतिप्रसादजी की पुस्तक के अनुसार सोवलदेवी वीर बल्लाल के मंत्री ईचण की पत्नी थी । इस जिनभक्त दंपत्ति ने गोग्ग नामक स्थान में वीरभद्र नामक सुन्दर जिनालय का निर्माण कराया था, तथा एक और वसति का निर्माण करवाकर उसके लिए दानादि दिया था। इस धर्मात्मा पति परायणा महिला की उपमा सीता और पार्वती से दी गई है ।
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
५.७१ जैन कवियित्री कंती देवी : ई. सन् की १२ वीं शती.
साहित्य गगन की उज्जवल चंद्रिका कंती देवी का समय ईस्वी सन् ११०६ से ११४१ होयसल राजा विष्णुवर्द्धन के समय का है। प्रसिद्ध कवियित्री होने के कारण द्वार समुद्र गांव के होयसल नरेश लल्ला प्रथम के राजदरबार में कंति देवी को सम्माननीय और उच्च पद प्राप्त था। इसने राज दरबार के प्रसिद्ध कवि पंप को अपनी काव्य शक्ति से निस्तेज कर दिया था। कंती की अलौकिक प्रतिभा और विलक्षण बौद्धिकता के कारण कवि पंप इनसे डाह करता था । कठिन से कठिन समस्यायें पेश कर उसने परास्त करने का प्रयास किया, किन्तु वह सफल नहीं हुआ। एक दिन कवि पंप निश्चेष्ट सा हो पथ्वी पर गिर पड़ा। कंती पंप को मत समझ नजदीक बैठकर रूदन करने लगी.....पंप जैसे महान कवि से ही राज दरबार की शोभा थी, उस सुषमा के साथ मेरा भी कुछ विकास था इत्यादि, इन शब्दों को सुनकर पंप की आंखे खुल गई। उनका हृदय, घणा, पश्चाताप आदि कुत्सित भावों के प्रति विद्रोह कर उठा, कंती जैसी उदार, विशाल और पवित्र नारी के प्रति उसका सम्मान बढ़ा। कंति ने राजदरबार में अभिनव पम्प की अपूर्ण कविता की पूर्ति की थी ।
255
कंती की काव्य प्रतिभा के संबंध में किंवदन्ति प्रचलित है। धर्मचंद्र नामक राजमंत्री का पुत्र अध्यापक था । उसने तीव्र बुद्धि संपन्न छात्रों के लिए "ज्योतिषमति तेल" नामक औषधी तैयार की थी। इस तेल की एक बूंद बुद्धि को प्रखर बनाने के लिए पर्याप्त थी। एक बार कंती अज्ञानवश, सम्पूर्ण तेल पी गई और दाह पीड़ा सहन न होने से कूप में गिर गई । औषधि के प्रभाव से बच गई, अपितु अद्भुत प्रतिभा से विभूषित हो बाहर आई ।" कंती देवी ने काव्य प्रतिभा से धर्म और नारी गौरव की सुरक्षा की है तथा आश्चर्यजनक काव्य प्रतिभा से जैन नारियों को नई दिशा प्रदान की है ।
५.७२ जक्कणब्बे : ई. सन् की १२ वीं शती.
शिलालेखों में इनके अपर नाम जक्कणिमब्बे, जक्कमब्बे तथा जक्किमब्बे भी मिलते हैं। गंगराज के ज्येष्ठ भ्राता बम्मदेव दण्डनायक की पत्नी जक्कणब्बे थी । वह सेनापति बोप्प की माता थी तथा मूलसंघ देशीगण पुस्तकगच्छ के शुभचंद्र सिद्धांतदेव की शिष्या थी । वह जैन धर्म में भारी आस्था रखती थी। उसने "मोक्षतिलक" नामक व्रत किया था । इसने योग्यता और कुशलता से राज्य शासन का परिचालन करते हुए धर्म की गौरव पताका को फहराने के लिए ११२० ईस्वी में पाषाण की एक जिनमूर्ति खुदवाकर प्रतिष्ठित कराई थी। एक तालाब का निर्माण भी करवाया था । १११७ ईस्वी में पाषाण निर्मित एक जिनमन्दिर "साहलि" या "साणेहल्लि" ग्राम में करवाया था। इस प्रकार जक्कणब्बे राज्य कार्य में निपुण, जिनेंद्र शासन के प्रति आज्ञाकारिणी और लावण्यवती थी ।
५.७३ लक्ष्मीमती : (लक्कले) ई. सन् की १२ वीं शती.
होयसल वंशीय महाराज विष्णुवर्द्धन के सेनापति गंगराज की भार्या थीं। इसने शूरवीरता, राज्यसेवा और धर्मोत्साह से होयसल राजवंश को प्रभावित किया था। राज्य में जैन धर्म की नींव को मजबूत करने में बहुत सराहनीय कार्य किया था । लक्ष्मीमति अपने पति के युद्ध एवं राज्यकार्यों में सक्रिय सहायक रही थी । अतः उसे पति की "कार्यनीतिवधू" और "रणेजयवधू" भी कहा गया है । वह बड़ी धर्मात्मा और दानशीला थी। उसने पति की सहायता से जैनधर्म में वर्णित चारों दानों-आहारदान, अभयदान, औषधी दान, ज्ञानदान (शास्त्रदान) को सतत देकर "सौभाग्यखानी" की उपाधि प्राप्त की थी। ईस्वी सन् १११८ में उसने श्रवणबेलगोला में एक जिनालय बनवाया था, जो अब एरडुकट्टेबस्ति के नाम से प्रख्यात है। उसने अन्य कई जिनालय बनवाएं तथा जीर्णोद्धार भी करवाया था। वह गुरू शुभचन्द्र की शिष्या थी। लक्ष्मीमती ने अपने भ्राता बूचन के स्मरणार्थ, जैनाचार्य मेघचंद्र त्रैविद्यदेव के स्मरणार्थ, अपनी भगिनी देमति के स्मरणार्थ क्रमशः लेख नं. ४६, ४७ एवं ४६ लिखवाया था। ईस्वी सन् ११२१ मे "एरडुकट्ठेबस्ति” जिनालय में उसने समाधिपूर्वक प्राणों का त्याग किया था । १२
५.७४ हरियब्बरसि (हरियलदेवी) ई. सन् की १२ वीं शती.
आप होयसल वंश के राजा विष्णुवर्द्धन एवं प्रसिद्ध महारानी शांतलदेवी की सुपुत्री थी तथा बल्लालदेव की बहन थी । हरियब्बरसि के पति सिंह सामंत थे और गुरू गंडविमुक्त सिद्धांतदेव थे जो अपनी विद्वत्ता के लिए तत्कालीन राजाओं में विख्यात
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
256
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
थे। हन्तूर नामक स्थान के एक ध्वस्त जिनालय में प्राप्त ११३० ई. सन् के शिलालेख से ज्ञात होता है कि उक्त प्रांत के तत्कालीन शासक बल्लालदेव की बहन राजकुमारी हरियब्बरसि ने अपने गुरू की प्रेरणा तथा भाई के सहयोग से स्वद्रव्य से हन्तियूर नगर में एक अत्यंत विशाल एवं मनोरम जिनालय बनवाया जो रत्नखचित तथा सुंदर मणिमय कलशों से युक्त उत्तंग शिखरोंवाला था। उक्त जिनालय में नित्य पूजा साधुओं के आहार दान, असहाय वद्धा स्त्रियों की शीत आदि से रक्षा हेतु आवास एवं भोजन आदि की सुविधा देने के लिए तथा जिनालय के जीर्णोद्धार आदि के लिए बहुत सी राज कर से मुक्त भूमि गुरू सिद्धांतदेव को दान स्वरूप प्रदान की थी । इस दानपत्र में राजकुमारी की तुलना सीता, सरस्वती आदि प्राचीन महिलाओं से की गई है तथा उन्हें पतिपरायण, विदुषी, और सम्यक्त्व चूड़ामणि लिखा है । इस दान में पिता महाराजा विष्णुवर्द्धन की सहमति थी।६३ ५.७५ आचल देवी : ई. सन् की १२ वीं शती.
शिलालेखों में अन्य नाम आचियक्क, आचाम्बा भी पाये जाते हैं । आचलदेवी होयसल नरेश बल्लाल द्वितीय, ब्राह्मणमंत्री चंद्रमौलि की जैन धर्मावलम्बिनी भार्या थी। उस रूप-गुण-शील संपन्न महिलारत्न ने ११८२ ईस्वी में श्रवण बेलगोला में बड़ी भक्तिपूर्वक एक अतिभव्य एवं विशाल पार्श्व जिनालय का निर्माण कराया था। आचियक्कन का संक्षिप्त रूप 'अक्कन' होने से यह मन्दिर "अक्कन-बस्ति" के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस मन्दिर की प्रतिष्ठा आचलदेवी ने अपने गुरू देशीगण नयकीर्तिसिद्धांतदेव के शिष्य बालचंद्र मुनि के सान्निध्य में बड़े समारोहपूर्वक संपन्न करवाई थी ।
मंदिरों के उक्त नगर में यही एक मन्दिर होयसल कला का अवशिष्ट तथा उत्कष्ट नमूना है। सप्तफणी पार्श्वनाथ की पांच फुट उंची प्रतिमा के साथ धरणेंद्र-पद्मावती की साढ़े तीन फुट उंची मूर्तियां है। सुंदर जालियां चार चमकदान स्तंभ, कलापूर्ण नवछत्र और शिखर पर सिंह ललाट है। मंत्री चंद्रमौलि की प्रार्थना से (होयसल नरेश) वीर बल्लाल ने इस मन्दिर के लिए 'बम्मेयनहल्लि" नामक एक ग्राम प्रदान किया था। गोम्मटेश्वर की पूजा के लिए भी "बेक्क" नामक ग्राम को राजा से प्राप्त करके आचलदेवी ने दान कराया था। पति के कट्टर शैव भक्त होते हुए भी इस महिला ने उनसे पूरा सहयोग प्राप्त किया और पति ने भी अपनी धर्मात्मा जैन पत्नी आचलदेवी के धार्मिक कार्यों में पूरा सहयोग दिया एवं सच्चे अर्थो में धर्मपत्नि का कर्तव्य निभाया था। यह उसकी तथा उसके राज्य एवं काल की धार्मिक उदारता का परिचायक हैं।६४ ५.७६ माललदेवी : ई. सन् की ११ वीं शती,
(कुप्पटूर) कुप्पडूर के ईस्वी सन् १०७५ के कन्नड़ शिलालेख के अनुसार माललदेवी कदम्ब कुल के महाराजा कीर्तिदेव की भी पट्टमहिषी थी। कुप्पटूर नामक नगर में उसने अतिभव्य पार्श्व देव चैत्यालय का निर्माण करवाया। अपने गुरू पद्मनंदि सिद्धांत देव से उस मन्दिर को सुसंस्कत करवाकर, वहां से साधुओं के गुणों के समान पूज्य ब्राह्मणों से उसका नाम "ब्रह्म जिनालय" रखवाया।
कोटिश्वर मूलस्थान तथा वहां के १८ अन्य मंदिरों के पुरोहितों तथा वनवासी मधुकेश्वर को बुलवाकर उनका यथायोग्य सम्मान किया । उचित धनराशि (५०० होन्नु) प्रदान कर उनसे भूमियाँ प्राप्त की। जिनेंद्र देव की नित्य पूजा एवं साधुओं के आहार आदि की व्यवस्था के लिए महाराज कीर्तिदेव से "सिड्डणिवल्लिकों" नामक ग्राम प्राप्त किया और इन सबको अपने गुरू पदमनंदि सिद्धांतदेव को समर्पित किया था। ५.७७ पोचल देवी : ई. सन् की १२ वीं शती,
शिलालेखों में अपर नाम पोचाम्बिका, पोचिकब्बे, पोचब्बे भी मिलता हैं। चामुण्डराय बस्ति में मंडप में उत्कीर्ण, ईस्वी सन् ११२० के शिलालेख में उल्लिखित है कि मार और माणकव्वे के पुत्र तथा होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन के महादण्डनायक "एचि” या "एचिगांक की भार्या" पोचलदेवी थी। पोचलदेवी धर्मपरायणा सन्नारी थी, उसने अनेक धार्मिक कार्य किये, श्रवणबेलगोला में अनेक जिन मंदिर बनवाए। उनका पुत्र महाराज विष्णुवर्द्धन का प्रसिद्ध शक्तिशाली सेनापति "गंगराज" था, जिसने अपनी माता की स्मति में "कत्तले-बस्ति" नामक जिन मंदिर का निर्माण कराया था। अंतिम समय में शक संवत् १०४३ में संलेखनापूर्वक पांच पदों का उच्चारण करते हुए पोचलदेवी ने अपने देह का त्याग किया था। पोचलदेवी का उल्लेख अनेक शिलालेखों में हुआ है। गंगराज परम
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
जिनभक्त था। उसने अपनी माता तथा पत्नी के समाधिमरण की स्मति में स्मारक भी स्थापित किये थे, गंगवाड़ी नामक प्रदेश राजा से पुरस्कार रूप में मांगा, वहां पर प्राचीन जैन तीर्थों और जिनमंदिरों का बाहुल्य था, जिसका जीर्णोद्धार गंगवाड़ी प्रान्त की समस्त आय से होता था। पुरस्कार में प्राप्त 'परम' ग्राम भी उन्होंने अपनी माता और भार्या द्वारा निर्मित जिनमंदिरों के लिए भेंट कर दिया था । ६६
५.७८ कुंदवड : वीं शती,
T
कुंदवइ चोलवंश की राजकुमारी थी और प्रसिद्ध चोलनरेश राजराज प्रथम की बड़ी बहन थी । उसने तिरूमलै में एक जिनालय का निर्माण कराया था जो “कुन्दवई जिनालय" के नाम से प्रसिद्ध हुआ था । उसने दो जैन मंदिर और भी बनवाए थे। एक दक्षिण आरकाट जिले के दादापुर में और दूसरा त्रिचनापल्ली जिले के तिरूमलवाड़ी नामक स्थान में बनवाया था ।६७
५.७६ भीमा देवी : ई. सन् की १२ वीं शती.
257
भीमादेवी विजयनगर के राजा देवराज प्रथम की धर्मपरायणा पत्नी थी। जैन धर्म के प्रति उसकी गहरी आस्था थी । भीमा देवी ने स्वयं का बहुत-सा द्रव्य देकर ईस्वी सन् १४१० के लगभग श्रवणगेलगोला के मंगायी बस्ति के लिए शांतिनाथ भगवान् की मूर्ति को स्थापित करवाया, जिसका निर्माण १३२५ ईस्वी के लगभग मंगायी नाम की एक राजनर्तकी ने कराया था। महारानी भीमादेवी की अत्यंत धर्मनिष्ठा के कारण ही राजा देवराज का भी जैनधर्म के प्रति अच्छा सद्भाव था। विजयनगर के राजा कांगु
राज्य को अपने नियंत्रण में लेकर जैनधर्म का प्रचार किया था। विजयनगर के राजा बुक्का ने निम्न प्रकार की घोषणा अपने राज्य में करवाई थी । "जब तक चांद व सूर्य रहेगा, तब तक जैन तथा वैष्णव दोनों संप्रदाय का समान आदर राज्य में रहेगा । वैष्णव तथा जैन एक ही धर्म हैं, समान मान्यता देनी चाहिए ।" दक्षिण भारत के प्रचार-प्रसार में राजा तथा उनके मंत्रीगणों ने तो सर्वप्रकार का सहयोग दिया, किन्तु मुनि तथा आचार्यों की प्रेरणा से महिलाओं ने अद्भुत कारीगरी वाले एवं सुन्दर मन्दिर बनवाकर जो योगदान स्थापत्य कला में दिया है उसकी दूसरी मिसाल भारतीय इतिहास तथा अन्य देशों के इतिहास में मिलना असंभव है। ऐशो आराम तथा भोग के सम्पूर्ण साधनों को त्याग कर धर्म तथा तपोनिष्ठ होकर जैन धर्म के सिद्धांतों को अपनाकर जीवन में चरितार्थ करने का जो कार्य दक्षिण भारत की महिलाओं ने किया उससे जैनधर्म ही नहीं, भारत के सर्व धर्म-संप्रदाय गौरवान्वित हुए हैं
राजीमती एक साहसी सन्नारी थी। उसने वासना के पंक में फँसे रथनेमि को उबारा था। उसने रथनेमि को मानव जीवन की बहुमूल्यता का भाव करवाया। भोगों की क्षणभंगुरता के प्रति सावधान किया। परिणामस्वरूप रथनेमि दीक्षित हुए तथा उन्होंने मुक्ति का वरण किया। उसका श्रेय राजीमंती को जाता है।
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
258
क्र.
१
२
३
४
५
६
८
w
τ
१०
सन् श्राविका नाम
७०८
७६१
वीं शती
७ ६ वीं शती
८ वीं शती
θεξ
८ वीं शती अय्यनमहादेवी
८७६
६ वीं शती
६६०
कुंकुमादेवी
देवकी पुत्री
कुवावन
अम्मा द्वितीय
भागियबे
महादेवी अपर नाम माण्डवी
कमलप्रभा
वंश / गोत्र
शान्तियव्वे
हैरणयक (सुनार) देव की पुत्री थी।
दुहमुत्तरेन की पत्नी थी
पुंडीमुप्पावा विल्लुकम के जिनडीयार की पुत्री थी।
वेंगी के चालुक्य वंश के संस्थापक शैव
धर्मी कुब्ज विष्णुवर्द्धन की पत्नि थी।
वेंगी के चालुक्य वंश के परिवार की है।
हनुम्बे की छोटी बहन थी। विमल चंद्र पंडित
देव की गहस्थ शिष्या
थी
प्रेरक / प्रतिष्ठापक आचार्य/गच्छ
नंदी
चालुक्य राजा के समय में पुरिगेरे नगर मे एक जिनमंदिर बनवाया था ।
आचार्य चंद्रप्रभ
पल्लव राजवंश के राजा नंदिवर्मन के समय
जिनवल्लभ की पत्नी
कातकत्तियराययर की पत्नी थी
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
अवदान प्रतिमा निर्माण आदि
पोनविलैनटानपट्टी गाँव के जिनमंदिर के लिए कुछ सोना
भेंट में दिया था।
भ. महावीर की प्रतिमा जैन. इन. इन त. नाडु
जैनधर्मी थी, उसने विजयवाड़ा में नम्ब बसदि (जिनमंदिर) का निर्माण कराया था।
संदर्भ ग्रंथ
जैशि. सं. भा. ४
जैन इन. इन त. नाडु
पं. विमलचंद्र की
स्मति में स्मारक
खड़ा किया था।
कई ग्राम जैन मंदिरों के लिए दान में प्रदान किये
211
मंदिर के लिए १७ कलंजु जैना. लिट् इन तमिल मुद्रायें, एक उलक्कु चावल भेंट स्वरूप दिये। कर्नाटक मे निर्मित एक मूर्ति स्थापित करवाई थी।
जै. शि. सं. भा. ४,
॥ ॥ ॥" "
तिरुकोयली जैन मंदिर एवं साधुओं के निवास स्थान
का पुनरूद्धार किया, मुख जैन इन. इन त. नाडु
मंडप बनवाया, भट्टारि यक्ष
यक्ष हेतु मंदिर बनवाया
प
जैनि. इन. आंध. एज ६४-६५ डेपि. इन. इन.
२५
४२
जै. शि. सं. भा. २
४२६
२३४
१४३७
जैन लिट् इन तमिल १५४
२५
तथा मंदिर हेतु बड़ा घंटा
भेंट किया।
मंदिर बनवाया था। जैन. सि. भा. १९४३ ६३
८२
२०७
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
259
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
क्र. | संन् श्राविका नाम | वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
आचार्य/गच्छ ६३८ | दीवलाम्बा | पश्चिमीगंग युवराज| मलखेड़ा राजवंश के समय में
बूतूग की पत्नी
१. जै. शि. सं. भा. २. २. प्रा. जै स्मारक
१२७
सूदी में एक जिनमंदिर का निर्माण करवाया १ एवं छः आर्यिकाओं का समाधिमरण
करवाया था।
दावणगेरे के सेंबूर स्थान मे जिनालय बनवाया व भूमिका
दान दिया था।
१२ १०वीं शती पाण्ड्य मंत्री व
सेनापति | सूर्य दण्डनायक की
पत्नी १३ | ६० निजियब्बे (निजीकब्बे) पथ्वीराम पुत्र बिट्टग के
| प्रपौत्र शांतिवर्मा की माता
जै. शि. सं. भा.२
सुगंधवर्ति में बनवाये मंदिर को | १५० मत्तर (माप) भूमि का
दान दिया था।
| २०१ b०३,२०४॥
थी।
१४ ।
६७८
२३-२८
जै.शि.सं. जै. सि. भा.
काललदेवी । गंगानरेश राचमल्ल (कलिकादेवी) | सत्यवाक्य चतुर्थ के मंत्री
चामुण्डराय की माता
थी।
| माता की दर्शन इच्छा पूर्ण करने || के लिए विश्व विख्यात ५७ फीट उत्तुंग खड्गासन बाहुबली की प्रतिमा का निर्माण करवाया था।
| १५ | ६५७ । गंगमादेवी
|
राष्ट्रकूट नरेश कष्ण ततीय की रानी थी।
रानी के सेवक द्वारा तिरूमलै पहाड़ी पर स्थित | द. भा. मे. जै. ध. |
यक्ष हेतु दीपदान दिया गया था।
१६ ० वीं शती बिड़क्क
बिड़क्क ने समाधिस्थापित | जै. शि. सं. भा. ४ | ७१
की थी।
चन्दियब्बे | कन्नरदेव की रानी थी
१७ | ई.स. ६३२ |
(१०वीं शती)
आचार्य पद्मनंदि
नन्दवर में एक जैन बसदि का | जै. शि. सं. भा. ४ | ४५ | निर्माण कराया था तथा उसमंदिर के लिए आचार्य पद्मनंदि को
दान अर्पित किया था।
| १८ ई. सन् ६५०/ पद्मब्बरसि | राष्ट्रकूट सम्राट, अकाल | कुंदकुंदान्वय गुणचंद्र
वर्ष कष्ण राजदेव ततीय
की रानी थी
| एक बसदि का रानी ने | जै. शि. सं. भा. ४ | ४५ |
निर्माण कराया था, दानशाला निर्मित की थी.
तथा उसके लिए एक तालाब भी अर्पित किया
जै. शि. सं. भा. ५
१६ १० वीं शती
तिरूनग
अलुदूर नाडु के एलुमूर ग्राम के इलाडै अरैयन तिरूवडि की पत्नी थी
,
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
260
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
|
| सन्
श्राविका नाम| वंश/गोत्र
अवदान
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
आचार्य/गच्छ
संदर्भ ग्रंथ
|
चाँदकव्वे
|४७८
जैनधर्म के उपासक
चतुर्थ रहराजा शांतिवर्मा की रानी
थी।
१५० महत्तर भूमि जिनमंदिर के लिए व्याकरणाचार्य बाहुबली देव|
को प्रदान की थी।
ब्रपं.चंदाबाई अभिनंदन ग्रंथ
५० ।
पालियक्क
जै. शि. सं. भा.२
पालियक्क बस्ती " नामक मंदिर| बनवाया, व्यवस्था के लिए दान
दिया था।
|
द. भा. में. जै.६
२४
२२१० वीं शती जक्कियब्बे | कर्नाटक के जैन
सेनापति पुणिसमथ्य
की पत्नी थी।
कपाजपेठ तालुका के होसकोट बस्ती मेंएक जिनमंदर बनाक्याथ।
२३ | ६६२ ।
कल्लब्बा
कॉल देश मेंएक जिनमंदर | जै. शि. सं.भा.५ | २१ का निर्माण करवाया था।
चालुक्य राजा सिंह वर्मा की कन्या थी गंगराज बूतुग जयदुत्तरंग की पत्नी थी। पुत्र
मरसिंथा
| १७५
२४ १० वीं शती लामादेवीयर |
वीरवेल की रानी थी।
जैन. लिट् इन.
तमिल
रानी की प्रेरणा से राजा ने | तिरूपनमलै के देव को कुरगनपाड़ गाँव से कुछ आय
फुर देनी शुरू कर दी
| २५ १० वी शती
पुल्लप्पइ ।
| चामुण्डराज की छोटी
बहन थी
चंद्रायने
कन्नर की रानी थी।
निषीदिका अर्थात् | जैना. इन. इन. त. oo-३० अनशनपूर्वक मत्यु का
वर्णन है। सिंदवाड़ी १००० पर | द. भा. में. जै. ६ | १३५, शासन किया था। मंदिर का निर्माण किया तथा दानादि भी दिया था।
जै. बि. पा.1 | २१६ सात वर्ष तक बड़े कौशल
से राज्य चलाया था. समाधिमरण किया था।
२७ । ६६ ।
जक्कियब्बे
नागरगुण्ड के नालगवुण्ड की पत्नी
कांचिकब्बे | पति आयनगावुण्ड
बसदि का निर्माण किया था। कुछ भूमिदान में दी थी। एक | जै. शि. सं. भां. ४ | ७६
उद्यान भी
अर्पित किया था।
१. पी. बी. देसाई के अनुसार तिरूपनमलै के देव बैठे हुए जिन की मूर्ति है।
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन प्राविकाओं का बृहद् इतिहास
261
क्र. | सन् श्राविका नाम
वंश/गोत्र
अवदान
प्रेरक/प्रतिष्ठापक आचार्य/गच्छ
संदर्भ ग्रंथ
२६ | १०२७
सोमलदेवी
७६
चालुक्य राजा जयसिंह की कन्या
पिरियमोसंगिकी बसदि के | जै. शि. सं. भा. ४ लिए कुछ दान दिया था।
३० - ०४७ | अक्कादेवी
जै. शि. सं. भा.४ |
३
| विक्रमपुर के गोणद बेडगि जिनमंदिर के लिए दान
दियथ।
मूलसंघ, सेनगण, हेगरि गच्छ| के नागसेन पंडित कोदान
समपित कियाथ।
नाविकबे
र
महामण्डलेश्वर जोयिमध्यरस की पत्नी थी।
कोण्डकुन्देय तीर्थ में चट्ट | जै. शि. सं. भा. ४ जिनालय का निर्माण किया, तथा मंदिर के लिए भूमि दान
में दी थी।
| ३२ | १८ |
भोगवे ।
तिप्पिसेट्टी सातय्य की पत्नी भोगव थी। देसीगण पुस्तक गच्छ कुंदकुंदान्वय के सकलचंद्र भट्टारक की
शिष्या थी।
अपरायणा थी तथा अंतिम | जै. शि. सं. भा. ४, | समय में समाधिमरण के साथ
देह त्याग किया था।
माकब्बे गति
समाधिमरण
|
जै. शि. सं. भा.४
७४
-
महादेवी
जै. बि. पा.
१६६
लालपत्थर की महावीर
प्रतिमा
महादेवी
| धर्मसेन की पत्नी
वागट संघ
जै. शि. सं. भा.५ | २५
जिनमूर्ति की स्थापना
की थी
थी
५
।
पदमावती
बीबतसाह श्रेष्ठी की
पत्नी थी।
| प्रतिमा की प्रतिष्ठापना| जै. शि. सं. भा. २ | ३३२
करवाई थी।
प्रभावती
बीवनशाह की पत्नी
|
म. प्र. जै.६
आदिनाथ भ. की मूर्ति स्थापित करवाई थी।
मोहिनी
ठकुर फारूककी
पत्नी थी।
पदमावती मूर्ति की | जै. शि. सं.भा.५ | ३१४३ स्थापना करवाई थी।
पोचब्बरसि । राजाधिराज कोंगाल |
की माँ थी।
जै. शि. सं. भा. २ | २३२,२३३/
गुरू गुणसेन पंडितदेव द्रविलगण, नंदीसंघ
अपने गुरू की प्रतिमा बनवाकर | | जलधारापूर्वक उन्हें समर्पित
की थी।
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
262
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र. | संन्
श्राविका नाम | वंश/गोत्र
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
आचार्य/गच्छ
१०२४
सिन्नवइ
पल्लव राजा की रानी थी।...........
१६४
तिरूमले के देव मंदिर के लिए | १.जैन. लिट्. इन. त.
आरंभनंदिन् नामक दीपक भेंट नाडु किया तथा अन्य दीपक की | २. द. भा. में. जै. ध व्यवस्था हेतु पैसे दिये थे।
४१ |
३०६
दी | नालिकब्बे । त्रिभुवनमल्लदेव के राज्य के
समय का है।
अपने पति की स्मति में छत्त जिनालय का निर्माण कराया था।| जैनि. इन. आंध.
१०२५
चामुण्डाबाई | वाणिक नण्णप्पयन की
पत्नी थी पेरूम्बणप्पडी
की निवासी थी
जैन कुंदवइ जिनालय के लिए | जैना लिट्. इन. तमिल. | १६५ |
एक दीपक समर्पित किया उसके लिए पैसे भेंट में दिये थे।
नाडु
४३ / १६ी |
भोगव्वे,
| तिप्पिसेट्टी सातय्या | पुस्तक संकलचंद्र |
की पत्नी
मत्यु का उल्लेख है।
|
जै. सि. भा.
६३
४४ | १०७७ |
माललदेवी
पद्मनंदी सिद्धांतदेव
कुप्पटूर में विक्रमादित्य ब्रह्म | जैन. बिब्लि. ग्राफी. | २०२ |जिनालय का निर्माण किया था। इन. टु. वोल्यू
४५ | १७ | पद्मावतीयक्क
अभयचंद्र
जै. शि. भा.
| ६३ |
अभयचंद्र द्वारा प्रांरभ की गई| बसदि दिवमंदिर) को पूर्ण किया तथा देवमंदिर के चारों ओर एक
घेरा भी बनवा दिया।
१०७७ | रानी चट्टलदेवी
| पाँच मंदिरों का निर्माण किया था।
जै. बि. पा.
७६२
MTR
महादेवी
जैनम की बेजोड़ संरक्षिका | आ. इंदुमती. अ. ग्रं. | ५
गंगवाड़ी के राजा भुजबलगंग की पत्नी
वाचलदेवी
जिन भवनों का निर्माण करवाकर धर्मप्रभावना की थी।
४६ | १२ वी शती |
चन्दब्बे
राजा महासेठी के पत्नी थी।
४६
वर्द्धमान स्वामी की मूर्ति की | प्रा. जै. स्मारक. पुनः प्रतिष्ठा कराई थी।
५० | १० |
आस्त
। महिपालदेव की माता | मूलसंघ की शिष्या | भ. पार्श्वनाथ की प्रतिमा की | जै. शि. सं. भा. ३
थी। प्रतिष्ठा करवाई थी।
| २२५
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
क्र.
५१
५२
५३
५५
५६
५४ ११११ ई.
५८
५६
६०
६१
सन् श्राविका नाम
६२
११६१ जक्कणने
५७ १२वीं शती
६३
कीर्द
99RE
१११६
११६०
११२०
११२१
११२२
११४६
११२३
११३०
पद्मक्के
कालियक्का
महादित्य
की पत्नी
लक्ष्मी
हव्वक्का
नागव्वे
मायक्के
पोछाम्बिका
दंडनकिति लक्कव्वे
शांतले शांतलदेवी
A
वंश / गोत्र
महादेवी नायकिति
की पुत्री
चालुक्यत्रिभुवन मल्ल के दंडनायकसूर्य की भार्या थी ।
गंगराज की पत्नी
सर्वाधिकारी ब्रह्मचारी की स्त्री जोकवे की स्त्री
मंत्री गंगराज की
माता
गंगराज की माता
विष्णुवर्द्धन की
रानी
प्रेरक / प्रतिष्ठापक आचार्य / गच्छ
मंदिर का तोरण निर्मित
करवाया था ।
जिनमंदिर का निर्माण
पुष्पसेन देव
माध्व चंद्र देव
अवदान
समाधिमरण द्वारा स्वर्गवासी हुई थी ।
अपनी सास महादेवी की जै. शि. सं. भा. ३ १३१
स्मृति में मंदिर के लिए भूमि प्रदान की थी।
सेंबूर में पार्श्वनाथभ. का अतिसुंदर जिनालय
बनवाया, शांति शयन पंडित को प्रभूत भूमिका दान दिया था।
समाधिमरण
समाधिमरण
संलेखना
संदर्भ ग्रंथ
जै. बि. पा १.
जै. बि. पा १.
जै. सि. भा. १९४०
संलेखना ग्रहण की थी जै. सि. भा. १६४०
मृत्यु का वर्णन है उसने | शंतिनाथ का मंदिर बनवाया था।
सावतिगंधवारण बस्ति श्रवणबेलगोल में
मल्लिनाथ बस्ति मंड्या
तालुक में
जै६ की प्र. सा एवं म.
जै. शि. सं. भा. ३ २२५,२२६
म. राज. जै ६
संलेखना ग्रहण की थी जै. सि. भा. १६४०
जै. बि. पा । .
प
जै. बि. पा १.
जै. बि. पा. १.
१७३
१८२
७२५
५१२
५२७
७०
७०
७०
263
७२६ २३५
२०३
२०३
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
264
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र.
सन्
श्राविका नाम |
संबंध
अवदान
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
आचार्य/गच्छ
संदर्भ ग्रंथ
११३३
। विष्णुवर्द्धन की
जै. बि. पा. 1.
शांतले शांतलदेवी
रानी
हल्लिगॉव हालेबीड़ के पास में पार्श्वनाथ की
बस्ति बनाई
मैलम
वरंगल, आंध्र-प्रदेश
मंत्री बेता की पत्नि मैलम थी
बूचब्बे
मालब्बेय के पुत्र | बामि-सेट्टी की पत्नि
अन्मकोण्ड पहाड़ी पर | द. भा. ज.ध. | ७ एक जिनमंदिर बनवाया था, मंदिर की व्यवस्था के लिए भूमि का दान
भी किया था।
बूचब्बे का स्मारक बना| जै. शि. सं. भा. ३ | २६७ |
हुआ है।
६८ | १६६४
अन्नलदेवी | केल्हन की माता थी।
सांडेराव का शिलालेख
जै. इं. आं.
४०
महावीर मंदिर के लिए
दान दिया था।
६६ |
झारोली शिलोलख
जै.इं.आं
| जैन मंदिर के लिए बगीचे का दान किया
|७० | पार | बाचलदेवी
गंगवाड़ी के राजा भुजबलगंग की दूसरी पत्नि थी। मूलसंघ देशीगण की गहस्य
शिष्या थी।
बन्नी केरे में एक सुंदर | १. जै. शि. सं. भा. Real जिनालय का निर्माण | २२. जै. शि. सं. | कराया था। अपने पति भा.३ को पात्र जगदल्ले की उपाधि दी थी।
|
| 4
| देमति, देमवति. | राजसम्मानित चामुण्ड | गुरू शुभचंद्र सिद्धांतदेव | बहन लक्कले या देमियक्क | नाम के वणिक् की थे। लक्ष्मीमति ने देमति के | जै. सि. भा. सन् भार्या थी नगले की
स्मरणार्थ लेख नं ४६ १२६ | १६४६ पुत्री थी भाई
लिखवाया था। धार्मिक बूचिराज था।
कार्यों में देमति का योगदान उल्लेखनीय है।
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र.
७२ ११७१
७३
७४
७५
७६
७७
संन् श्राविका नाम
७८
११६०
990
११५५
११९६०
११६०
१११५
तोतर्
गोय्यद - गवुड़
सांतले
सान्तियक्क
पोचिकव्वे
जकब्बे
जकव्वे
माचियक्क
लक्ष्मीमति दण्डनय किती
संबंध
लोकगण्डकी पत्नि
सांतले के पिता
संकय नायक, माता | मुछव्वे, गुरू नयकीर्ति देव मुनि थे,
एचिगांक की पत्नि थी।
नरसिंहदेव के एक मंत्री ताम्बुलवाहक चाविमथ्य की पत्नि
थी ।
गाडि जक्कय की पत्नि थी । मूलसंघ के आचार्य बालचंद्र की
शिष्या थी ।
नाकिट्टी की पुत्री ईश्वर चमूपति की पत्नि थी चंदिकब्बे माता थी।
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
भानुकीर्ति सेद्धांतिक देव अतिमब्बे की तरह प्रसिद्ध थी, भानुकीर्ति सेद्धांतिक देव को भूमि दान में प्रदान की थी।
नयकीर्ति सिद्धांतदेव
आचार्य बालचंद्र देव
गंडविमुक्ति देव
प्रभाचंद्र सिद्धांत देव
अवदान
सान्तले की समाधि का स्मारक है।
अनेक मंदिर बनवाए
हेरगु में चेन्नपार्श्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया
दीगुरू में सुपार्श्वनाथ भ. की प्रतिमा स्थापित की थी. देव पूजा मुनि आहार हेतु भूमिका
दान किया था।
मयबोव्वल तीर्थ में जिनमंदिर तथा
“पद्मावती गेरे”
नामक तालाब
बनवाया देवपूजा तथा मुनियों के
आहार एवं मंदिर जीर्णोद्धार हेतु भूमि का दान किया था
आहार, स्थान, दवा आदि का भारी योगदान था ।
संदर्भ ग्रंथ
जै. शि. सं. भा. ३ १५२-१५६
द. भा. जै. ध.
ए. क. VII शिकरपुर २०० टेबलेट नं. २००
भा. इ. ए. द.
प
जै. शि. सं. भा. ३
265
जै. सि. भा.
१५
३५२-३५३
१२६-१३०
जै. शि. सं. भा. ३ १२६-१३०
७४
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
266
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
सन्
| श्राविका नाम
संबंध
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक आचार्य/गच्छ
जै. सि. भा.
पति की निषद्या निर्माण कराई थी।
५५
७६ | ११५७ । चट्टिकब्बे | राज्याधिकारी
मल्लिसेट्टी की जैन धर्म परायण पत्नि
थी। ८० १२वीं सदी| नागवे
समाधिमरण का | जै. शि. सं. भा. ४ | २३३ उल्लेख है।
स १२ वीं सदी
श्रीयादेवी
सामंतगोव की पत्नि
| जिनमूर्ति की स्थापना | जै. शि. सं. भा. ४ | १०
८२
वीसदी १५
मुत्तब्वे
चंद्रप्रभदेव
जै. शि. सं. भा. ४
समाधिमरण का । उल्लेख है।
८३ १२ वीं सदी
बोमवे
शंबुदेव की पत्नि
अनंतनाथ की मूर्ति | जै. शि. सं. भा.४ | २२६
गंगवे
मुनिचंद्रदेव यापनीयसंघ
जै. शि. सं. भा.४ | २२७
८५ १२ वीं सदी|
बाचवे
| सत्यवेग्गडे की पत्नि
समाधिसहित | जै. शि. सं. भा.४ | २२ देहत्याग का
उल्लेख है। नेमिचंद्र पंडितदेव | जै. शि. सं. भा. ४ को दान दिया था।
८६
वसदी ११
देमलदेवी
। वीरचामुण्डरस की
पत्नि थी
।।
19 १२ वीं सदी मल्लियक्का
प्रशंसा की गई है।
जै. शि. सं. भा. ४ | २२६
| ५ | ११५६ | पद्मलदेवी
।
दान दिये जाने का | जै. शि. सं. भा. ४ | १६
उल्लेख है।
८६ १२ वीं सदी
नीलिकब्बे
।
प्रशस्ति में नाम का | जै. शि. सं. भा. ४ | १७२ उल्लेख आता है।
६० | १० | हव्वक्का
जै. शि. सं. भा. ४ | २१
समाधिमरण का | उल्लेख है।
।।
१ १२ वीं सदी
बोचिकब्बे
| कुंदकुंदान्वय के चंद्रकीर्ति भट्टारक के शिष्य चेंचिसेट्टि की पत्नि बोचकब्बे थी।
बोचिकब्बे ने गोम्मट | जै. शि. सं. भा. ५ | ५८ पार्श्वजिन की स्थापना
की थी।
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
267
संवत् श्राविका नाम
संबंध
|
अवदान
प्रेरक/प्रतिष्ठापक आचार्य/गच्छ
संदर्भ ग्रंथ
११६०
|
वीग
४७
माथुर संघ के आचार्य चारूकीर्ति के शिष्य सोनम और
राहिल की कन्या थी।
जैन सरस्वती मूर्ति के पादपीठ | जै. शि. सं. भा. ५ पर अंकित अभिलेख में
इनका नाम है।
६३ | १७
सूहवा
जै. शि. सं. भा.५ | ४६
सूहवा धहड़ की पत्नि थी. तथा देवधर की माता थी।
सूहवा ने नेमिनाथ मंदिर में दो | स्तंभ लगवाये, जिनका मूल्य
१० द्रम्य था।
| ६४ | १३ | मानलदेवी
रूद्रपाल तथा अस्तपाल
की माता थी।
नडलड़ागिका के आने वाले | जै. शि. सं. भा. ४ 145-६० यतियों के लिए दान अर्पित
किया था।
सेमा
वणिक उसराक की मार्या थी।
४६८
पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा | पं. चं. अभि. ग्रं.
का दान दिया था।
११६६
७३
जै. सि. भा. सन् १६४६
कामलदेवी | नागदेव व चंदब्बे की पुत्री थी नयकीर्ति सिद्धांत चक्रवर्ती नगर जिनालय व पार्श्वदेव बस्ति | मल्लिदेवभाई थे होयसल वंश
सम्मुख शिलाकुट्टम व रंगशाला नरेश द्वितीय बल्लादेव
का निर्माण कराया था। को मंत्री परिवार था। | शांतिका, जत्नी
माथुरसंघ आचार्य श्री | जिन प्रतिमा बनवाई अनंतकीर्ति की शिष्या थी
रा. अ. भा. १
६८ | २०७ | रानी गिरिजादेवी।
रा. अ.भा.१
रत्नपुर के शासक पूतपक्षदेव की रानी
पशुवधनिषेध अमारि की राजाज्ञा निकलवायी थी।
आशादेवी
श्रेठी बहुदेव की पत्नि
सरस्वती प्रतिमा
विद्यादेवी
सर्वदेव की पत्नि
प्रतिमा तोरण
जाल्हणदेवी
महाराज केल्हणदेव की रानी थी।
रद्ध १२६६
भ० पार्श्वनाथमंदिर हेतु भूमि का दान सन् १२६६ में स्तंभ का उद्वार किया
PARE
जसदेवी | महुडुआ की पत्नि
भिवडेश्वरदेव के मंदिर में
मंडप का निर्माण
घासकी :उपकेश ज्ञा.
| १३ | १२४२
१६
चतुष्किका चौकी का जीर्णोद्वार कराया
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
268
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र. | सन् श्राविका नाम
संबंध
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक आचार्य/गच्छ
१०४३ वीं सदी मायक्क
सूरस्थ गुण नयकीर्ति | जिनर्मानुपायी थी, अंतिम समय | जै. शि. सं. भा. ५ |२७.७१/
| में इसने समाधिमरण सहित मत्यु
का वरण किया था।
मुनींद्र
१०५ /
७१ | सातिरही की पत्नि
अनंतकीर्ति भट्टारक की
शिष्या थी।
सतिसेट्टी की पलि ने समाधि | जै. शि. सं. भा.५ | ६० मरण से मृत्यु का वरण किया
१०६ | १२३० ।
सोवलदेवी
प्रा. जै. स्मारक.
सहस्त्रकूट के लिए भूमि |
का दान दिया था।
८७ १२११ ई | मल्ले गवुण्डि
सकलचंद्र मुनि देवजिनेंद्र | मुक्ति को प्राप्त किया था। | जै. शि. सं. भा. ३
| जक्कने जक्कलेद्ध | मण्डनमुछ और लाचचे की पुत्री | तपस्वी अनंतकीर्ति थे
थी, विख्यात भरत की पत्लि थी
१०६
१२०७ ।
सोमलदेवी | एचण की पत्नि थी
| तपस्वी जक्कव्वे ने | जै. शि. सं. भा. ३ | २३४ | समाधिमरण से स्वर्ग प्राप्त किया था।
जै. सि. भा. ६६ बेलवट्टिनाड़ स्थान में एक बसदिका | निर्माण करवाकर उसके लिए भूमि
का दान दिया था। | हग्गरे तीर्थ भरत पंडित को दान | जै. सि. भा. ७
दिया था।
का १३वीं शती | जक्कियचे की पुत्री
का | १२२३ | अच्छाम्बिके । मंत्री चंद्रमौली की पत्नि थी
जै. शि. सं. भा. ३
श्रवणबेलगोल में उसने पार्श्वनाथ मंदिर अक्कन बस्तिबनवाया था
R | १२६० । सोवलदेवी । मंत्री एच की पत्नि थी।
जै. बि. पा १.
४५३/
एक मंदिर का निर्माण किया | पूजन तथा मंदिर के लिए दान
दिया था।
१३ | १२७७ |
कुमारला
जै. बि. पा. १.
६३७
शांतिनाथ मंदिर में देवकुलिका का निर्माण
जै. बि. पा.१.
५१६
18 | १३वीं शती | जक्कियब्बे की
| पुत्री
आदिनाथ बस्ति का निर्माण किया था।
५
२0१ | चंद्रिका महादेवी | कार्तवीर्यदेव की माता थी
सट्टो का मंदिर
जै. शि. सं. भा.३ | २६७
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
269
संवत् श्राविका नाम
अवदान
वंश/गोत्र || प्रेरक/प्रतिष्ठापक
आचार्य/गच्छ
संदर्भ ग्रंथ
प
प्राहिणी
ललितकीर्ति
देवीप्रतिमा
भ. सं.
हर्षिणी
देशनंदी
संभवनाथ प्रतिमा
चाणइ
धर्मभूषण
प्रतिमा
भ. सं.
रोहिणी, प्राहिणी
प्रतिमा
म. दि. जै.
255
गौरी
ऋषभदेव प्रतिमा | म. दि. जै. ती भा ३२
राया, वायणि
प्रतिमा
पाणु, पाहुणी
प्रतिमा
जमनी, रतना
प्रतिमा
श्रियादेवी, पूर्णदेवी
संवेग रंगशाला
|
के. सं. प्रा. मे
७
प्रिया, मूर्तिमती. सुंदरी, शीलमती, राजीमती
चउपन्नमहापुरिसचरियं
____ वही.
पादिका, सेहिणी, अइहवदेवी
ननी
श्री जिनपद्मसूरि
भवभावनाप्रकरण
स्वोपज्ञ
१२७ | १२७४ |
देवानंदसूरि
भगवती वत्ति
वही.
जिनदेवी, श्रीमति, गुणमति, कपूरदेवी,
सौभाग्यदेवी
७१-७२
१२६५ | माघलदेवी, अंगारदेवी,
लूणदेवी, सहजला.
प्रवचनसारोद्धार
वत्तिसह
१२४२ श्राविकाओं का चित्र है|
वही
नन्नी, नानी
1008-940 महावीरचरित्र गद्य-पद्य
जेप्रा.जैगंभहस्तसूची | ५८३ भवभावनावत्ति की
प्रति लिखवाई अभयकुमारगणि को | वही. ५.३|| ग्रंथ समर्पित किया था
| १२६२ |
जयति
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
270
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
अवदान
| क्र.| सन् श्राविका नाम| वंश/गोत्र | | प्रेरक/प्रतिष्ठापक
आचार्य/गच्छ
संदर्भ ग्रंथ
के. सं प्रा. मेनु
१३२ ३ वीं शती देवकी, सुव्रता,
शील, रम्या.
की
| उपदेशमालाबहद्वत्तिसह
प्राकत कथा सह
१३३ १३ वीं शती
युगमुनिरवि
हसला, अनुपमादेवी
भवभावनाप्रकरण स्वोपज्ञ
त्ति सह
१३४ | १२६५-१२६६
मादवे
।
जक्कय की पत्नि
समाधिमरण का स्मारक है
जै शि. सं भा.४
| २५८
..
चण्डिगैडिके | सिरिचय गौड़ की
पनि
बसदि को दान तथा समाधि जै. शि. सं. भा. ४
मरण का उल्लेख है।
१३६ १३ वीं सदी
सेटी महादेवी
ब्रह्मदेव प्रतिमा की स्थापना, जै. शि. सं.भा.४
जकौब्बे
कमलसेन
समाधिमरण
जै. शि. सं. भा.४ ।
चेकवा
निसिधि स्थापित की थी
जै. शि. सं. भा.४ | २५
नागसिरियव्वे
जै. शि. सं. भा.४
पार्श्वनाथ बसदि के लिए भूमि का दान दिया था।
१२४५ | एक श्राविका
जै. शि. सं. भा.४ | २५५
चैत्यालय मंदिर बनवाया
था।
१२४७
राजलदेवी
पद्मसेन मुनि
| विजयजिनालय के लिए | जै. शि. सं. भा.४ कुछ भूमिएवं द्रव्य का
दान दिया था।
| १४२ | RA | चंद्रिका महादेवी | राजा कार्तवीर्यदेव
की माता थी।
| रट्टो का मंदिर बनवाया था। जै. शि. सं. भा. त. | २६७।
| १४३ / १२५५ ।
सेयिदेवी
जै. शि. सं. भा. | ३५०
माधव तथा कामांबिका | मूलसंघ, बालचंद्र देव | समाधिपूर्वक स्वर्गवासिनी| | की पुत्री थी। सोमाम्बिका
हुई थी। की माँ थी
१४४ | १२४३ ।
कामले
जै. शि. सं. भा. ३ | ३३८
पेक्किमसेट्टि की पुत्री] शुभकीर्ति पंडितदेव शीलवती सर्वगुणयुक्त, आहार
भेषज, शास्त्रदान में निरत, | समाधि के साथ मत्यु का वरण
किया था।
,
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
| क्र. | संवत् श्राविका नाम |
संबंध
प्रेरक/प्रतिष्ठापक अवदान संदर्भ ग्रंथ प
आचार्य/गच्छ पक्कनसेट्टि की पत्नि थी. जैनविधिपूर्वक समाधिमरण किया| जै. शि. सं. भा. ३ | ३३७
था। जिसका स्मारक बना हुआ है|
१४५ सन् १२३६/
मल्लब्बे
१४६ | सन् १२३२)
बाचले
राजा इरूडुल देव बाचले ने | पार्श्वनाथ प्रभु की दैनिक पूजा | जै. शि. सं. भा. ३ | ३३१ दान हेतु प्रार्थना की। एवं महाभिषेक हेतु एवं चातुर्वर्ण
को आहार दान के लिए भूमि का
दान किया था।
जै. इ. आ.
१५
8 | सन् | नागलदेवी
१३ वीं सदी
कुंदकुंदान्वय देशीगण | मत्यु का उल्लेख है मूलसंघ के भट्टारक केशनंदी
की शिष्या थी
नागल
त्रिभुवन चूडामणि
जै. सि. भा.
।
रानी नागल ने मानस्तंभ
बनवाया
विनयभद्र
ख. ब गु
श्री देवसेन
- जि.प्र.ले.
लखमा, कल्ला भामिनी, अलिका
नीमा
जि. प्र. ले.
सुधनी
जै. सि. भा. (सन् १६३५)
दमति
श्री सूरि
श्री महावीर
जे. जै.
पोई.
चंद्रसिंहसरि
जिन प्रतिमा
बी.जै. ले. सं
।
प्रियमति
शांतिनाथ
यशोमती, नाऊ
श्री सिद्धसेनाचार्य
जिनप्रतिमा
धना श्रेयार्थ
श्री शांतिनाथ
भूमिणि
धनेश्वसूरि
जिनप्रतिमा
पद्मिनी
नेमिचंद्रसूरि
श्रीपार्श्वनाथ
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
272
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
। सन्
श्राविका नाम |
वंश/गोत्र
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प
प्रेरक/प्रतिष्ठापक आचार्य/गच्छ महेंद्रसूरि
सं १२६३
जयाटा
जिनप्रतिमा
जै.शि.सं.भा. ३
सं १२६५
सलखणदेवी
माणिक्यचंद्रसूरि
माणिक्यचंद्रसूरि
श्रीशांतिनाथ
जै.शि.सं.भा. ३
| सं १२६८
जसवइ
नरचंद्रसूरि
नरचंद्रसूरि
जिन प्रतिमा
जै.शि.सं.भा. ३
।
१७
श्री कक्कसूरि
श्री कक्कसूरि
श्री आदिनाथ
जे. जै. ले. सं. भा.२
७
सं १३०० मोषलदे १६४ | सं १३०० | कमूदेवी लक्ष्मी ।
श्री यशोभद्रसूरि
श्री यशोभद्रसूरि
श्री मल्लिनाथ
वही.
|
ललियादेवी | सेनरस की प्रपितामही | वीरनंदि सिद्धांत चक्रवर्ती | उसने एक जिनमंदिर का निर्माण| जै. शि. सं. भा.५ | ७६ थी।
कराया था, मूर्तिकार जिन्नोज द्वारा मूर्ति बनवाकर भट्टारक लक्ष्मीसेन द्वारा स्थापित की गई थी।
| १६६ / १३४६ | नाल्लात्ताल
जै. इ. इ. त. |
२|
| पोन्नुर निवासी मन्नइ पोन्नानदइ की पुत्री थी।
तिरूमलै में विहार नायनार | पोनेइलनाथर नामक अर्हत प्रतिमा
की स्थापना की थी।
१६७१४ वीं शती
मारूदेवी
माणिक नागय्या की
मारूदेवी कला में निपुण थी।
जै. इ. आंध्र.
३०
पुत्री थी।
र
१३८४
मारदेवी
मारदेवी की मत्यु
केशवदेवी की बड़ी
बहन
जै. सि. भा. जै.शि.संभा.४
७
| १६६
१३०१
।
लक्ष्मीदेवी
लक्ष्मीदेवी श्रीबाथा की पलि थी।
लाखाक में उसने आदिनाथ | जै. शि. सं. भा. ५ | ७४ भगवान की मूर्ति स्थापित की थी
१०
१३७२
लक्ष्मी बोम्मक्क | सोहरबवीरगोड़ की पुत्री. सोहरब वंश | तवनिधि ब्रह्म गौण की
पत्नि थी।
उदारदानादि कार्य किया, अंतिम | दा. भा. में. जै. ध. | १५३ समय में समाधि पूर्वक मत्यु का
वरण किया ।
रामक्क
| ११४ वी शती का
यसन्५३६
गेरूसोप्पे के सेठ | योजनसेट्टी की पत्नि थी।
अनंततीर्थ चैत्यालय का निर्माण | कराया था। चतुर्विध दान में |
अग्रणी थी।
द. भा. जै. ध. जै. सि. भा.
१५६ ११
| १७२ | 8 वी शती | शांतलदेवी | बोमण्णसेट्टी की पुत्री, का मध्य
राजा हरिण्णरस की रानी थी।
द. भा. जै. ध. | १५६
समाधिपूर्वक मत्यु | का वरण किया था ।
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
क्र. | संवत् श्राविका नाम वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक
आचार्य/गच्छ १७३ | सन् १३६०/ सुगुनी देवी | शासक की पत्नि
थी।
द. भा. जै.६
रानी ने अपने अंगरक्षक विजय देव | द्वारा चंद्रप्रभु म. की मूर्ति स्थापित
करवाकर पूजादि अनुष्ठान के लिए भूमि का दान किया था।
| 4७४ | सन् १३६१ / पोचब्बरसि | राजा कोंगालव की
राजा ने माँ पोच्चबरसि के पुण्यार्थ जिनप्रतिमा की स्थापना की थी। सीमाओं सहित दान भी दिया था।
जै. शि. सं. भा.३
2-6
माँ थी।
श्री शांतिनाथ
घाटी
चैत्र आमदेवसूरि
जै. जै. ले. सं. भ. २ | २३५
श्री पार्श्वनाथ
देवल
सोमतिलकसूरि
श्री महावीर
सींगारदेवी
श्री सुमतिनाथ
गुणचंद्रसूरि
श्री पार्श्वनाथ
श्री अमरप्रभसूरि
| नान्ही, मंसिरि, देवश्री,
नायकदेवी, हीरा
| नान्ही, ललतू, लीलू
श्री अमलप्रभसूरि
श्री शांतिनाथ
जयतेन, क्षियादेवी,
।।।।।।।।।
श्री जयचंद्रसूरी
रूपलदे
देवभद्रसूरी
श्रीपार्श्वनाथ
आसलदे
श्री कक्कसूरि
| जमल्ह, मील्हा
षण्डेरक गच्छ ज्ञात्यसूरि
श्री आदिनाथ
ललतू
जाइल
सेमतिलकसूरि
श्री पार्श्वनाथ
पामना
श्री सूरि
जे.जै. ले. सं. भा. २] ८६
श्री शांतिनाथ
मालू
श्रीविजयसेनसूर
वही
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
274
क्र. संवत् श्राविका नाम
१८६
청
१६०
959
१६२
१९६४
१६५
१६६
१९३ १३१३
१६७
१६८
१९६
१३६१
१३६० राजुलदेवी, राजुल
देवह, पुनदेवी
लसिरि
१३१६
२०१
१३०६
१३४३
१३०२
१३३०
१३४०
१३१०
१३३४
२०० १४वीं शती
लहणदेवी
सहज
महणदेवी
लषमादेवी
जाल्ह
वइजलदेवी
सुषमणि, ही,
सोहगदे, कामलदे,
सोहिणी, रल,
१३१६ सुभटादेवी, केल्हणदेवी,
मतदेवी, अनुपम, देवी
| २०२ १४वीं शती सुंदरी, सरस्वती चारित्रसुंदरी
२०३ १४ वीं शती नागिणी, ऊदल ।
२०४ १३०४ सोहिणी, लाडी, मोहिणी
गोपी
२०५ १४ वीं शती पुण्यश्री, यशोदेवी
वंश / गोत्र
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
आचार्य/गच्छ
विबुधप्रभसूर
हीरभद्रसूरि
धर्मप्रभसूर
श्री माणिक्यसूरि
श्री पूर्वभद्रसूरि
श्री सूरिः
श्री बहदगच्छ
जिनेश्वरसूरि
विमलाचार्य
अवदान
वही
पंचतीर्थी
श्री महावीर
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
जिन प्रतिमा
श्री शांतिनाथ
श्री पार्श्वनाथ, श्री आदिनाथ
श्री महावीर
श्री मल्लाथ
श्री पार्श्वनाथ
श्री वासुपूज्य
श्री शांतिनाथ
त्रि.श. पु. च. ती शीतलनाथ चरित्रपर्यंत
आवश्यक लघुवित्त
प्रश्नोत्तर - रत्नमालिका वत्ति सहित
मुनिसुव्रतस्वामी चरित्र, पद्य पर्वत्रयात्मक
संदर्भ ग्रंथ
प्रत्येकबुद्धचतुष्क चरित्र पद्य
वही.
वही
वही
वही
वही
कट
R
वही
वही
वही
केट. सं. प्रा. मेनु
वही
वही.
वही.
प
वही
२३
२५
६२
११५
उपदेशमाला, बहद. वत्ति की प्रति जे प्रा. जै ग्रं भं हस्त. ५८५
को खरीदकर श्री जिनेश्वर सूरि
सूची
को समर्पित की थी ।
१३७
१६३
१८८
१६४
१६४
१६६
२०४
६५-६६
३७-३८
|७६-७७
907-903
११०-१२०
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र.
संवत् | श्राविका नाम |
वंश/गोत्र ।
अवदान
प्रेरक/प्रतिष्ठापक आचार्य/गच्छ
संदर्भ ग्रंथ
२०६ लेखन सं. १३००
विपुलमति
ज्ञाताधर्मकथासूत्र
वही.
३६१
२०७| ले.सं. १३०७रत्नी, माद, प्रियमंति
ज्ञाताधर्मकथांग
सूत्रवत्ति
| २०८
ले. सं. १३०७
दियादेवी, पूनी, वलालदेवी, देल्हणादेवी
जे. जै. ता. ग्रं. भं. सू लों. ज्ञान, भं. ता. प.
२०६/ शालि. शक. सुब्बांबिका पठनार्थ
वरधि सेट्टि की धर्म पत्नि
क. प्रा. ता. ग्रं. सू.
१७
१३३१
पद्मपुराण
मल्लिकब्जा देवी
राजा शांतिसेन की पत्नि
क. प्रा. ता. ग्रं. सू.
२५७
| सिद्धांत मुनि माघनंदी को शास्त्रदान दिया था
चंद्रमतिअम्म
प्रा. ज्ञा.
वही.
६६
पठनार्थ
"श्रावक चारित्र"
लिखवाया
अमीदे
श्री सूरि
बी. जै. ले. सं.
२
पार्श्वनाथ
तिहुणपालही
श्री जिनेश्वरसूरि
जिनप्रतिमा
लखमसिरि
नाणकीय श्री धनेश्वरसूरि
शांतिनाथ
जासल
परमानंदसूरि
अभयसिरि
पदत्ती महेश्वरसूरि
श्री पार्श्वनाथ
स७] १३६३ | साजणदेवी माल्हणदेवी
जिनदत्तसूरि
रूप
स|१४वीं सदी
:१६६३
जिनसिंहसूरि
श्री शांतिनाथ
| २१६ | १३७८
गउरि, वी, तील्ही ने पित मात क्षेयार्थ
श्री पार्श्वनाथ
जै. गु. क. भा. १.
कच्छूली रास
|२२०/
१३५२
श्री. प्र. सं.
:
आभूमति, ऊदी, उदयसिरि जयश्री. चांकु आदि
अभयदेवसूरि को पठनार्थ
समर्पित
कल्पपुस्तिका
| २२१/
आल्हणदेवी, विशलदेवी श्रार देवी आदि ने लिखवाय
श्री प्र. सं.
| श्री सिद्धसूरी के सान्निध्य में उत्तराध्ययन सूत्र लघुवत्ति
को ससूत्र करवाया।
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
276
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संवत् श्राविका नाम
| श्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक अवदान
आचार्य/गच्छ रत्नाकरसूरि ने प्रशस्ति | श्री उत्तराध्ययन
लिखी है। टीका. ता. प्र. १४
श्री प्र. सं.
१३०८ | आलहुका, लीली, जयश्री.
पद्मश्री आदि ने लिखवाया
२२३ | १३०८ | कमलश्री, महणु, आदि
ने लिखवाया
श्री प्र. सं.
| श्री उत्तराध्ययन टीका.
ता. प्र. १४
क्रिया कलाप प्रतिक्रमण वत्ति
श्री.प्र.सं.
।
हलो, वीसी ने पंचमी उद्यापन पर
भट्टा. दुर्लभसेन के पठनार्थ पुस्तकेप्रदान
ताण, महादेवी
मूलसंघ
जै. शि. सन् १६३६ | ३२
जैसवाल
अर्हत तीन खड़गासन
| जै.सि भा. सन् १९३५, ३६ १३-३१
ऊतापा
श्री. श्री. ज्ञा
मुनिशेखरसूरि
संभवनाथ
श्रमण. सन् १६६६ ।
१४६२ | फहश्री, ठाकरसी हीरा
हुंबड ज्ञा.
श्री सकलकीर्ति ;मूलसंघ |
पार्श्वनाथ
जै सि मा सन् १४०
गौतमस्वामी नो रास
सुलसा. रेवती प्रेमबाई पठनार्थ
जै. गु. क. भा.१
पासी, भोली
हुंबड ज्ञा.
आदिनाथ प्रतिमा
कह, तेजाबाई हीराबाई
बड ज्ञा.
श्री सकलकीर्ति
पार्श्वनाथ प्रतिमा
भोली, सोमा, पासी
हुंबड ज्ञा.
श्री सकलकीर्ति
आदि नाथ प्रतिमा
रूडी, श्रेया
हुंबड ज्ञा.
विद्यानंदी
चौबीस प्रतिमा
मटकू
कुंथुनाथ प्रतिमा
इ. अ. ओ.
हीरादेवी
ओसवाल, कांकरिया
आदिनाथ प्रतिमा
इ अ. ओ.
| ३१८
तपा. सोमसुंदर सूरि
श्री श्रेयांसनाथ
जे. जै. ले. सं. भा. २ | २७४
लहिकू, हीसू, लक्ष्मी, हीरू
विनयप्रभुसूरि
श्री वासुपूज्य
वही.
मेलादे, जसमादे
श्री देवगुप्तसूरि
श्री पार्श्वनाथ
२३६ | १४८४ | माल्हा, सामी
पद्मानंदसूरि
श्री संभवनाथ
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र. संवत् श्राविका नाम
२४० १४६१
२४१
२४२
२४३
२४४
"
२४५ 855
१४६६
२४७ सन् १४५६
२५०
१४६२ आल्हणदे, चाहणदे
१४६५ चापलदे, लषमादे
२४८ सन् १४६०
२५१
२४६ सन् १४०५
२५३
१४७६
9889
२५२ १४५५
पूनादे, हीरादे
२४६ सन् १४१७ कालि-गौण्डि अपप्य गौड़ की पत्नि
थी.
लीलादे
१४६७
सोहग
घस्थति
भागीरथी
भामिनी
शांतलदेवी
उदौसिरि, सरो, जोल्हा ने लिखवाया
कमलाइ, भोली, मारूचा ने लिखवाया
२५४ सन् १३६२ पटरानी वर्द्धमानक्क
मील पुत्री पूजी
ने लिखवाया
चांपलदेवी, आल्ह ने लिखवाया
वंश / गोत्र
ओसवाल वंश
प्रा. ज्ञा.
बु
हुंबड़. ज्ञा.
वायड़ ज्ञा.
उसके पति चेन्नराज थे ।
प्रेरक / प्रतिष्ठापक आचार्य / गच्छ
खरतर जिनसागरसूरि
सोमसुंदरसूरि
धर्मघोष विजयचंद्रसूरि
श्री सूरि
हेमरत्नसूर
सेन सिद्धांती देव
अकलंक
बोम्मणसेट्टि की पुत्री थी.
मंगराज नरेश के पुत्र वण्णरस पति थे।
जयानंदसूर
देवसुंदर गुरू की प्रेरणा
अवदान
बुल्लप्प एवं मल्लब्बे की जैनविधि पूर्वक मत्यु पुत्री थी
का स्मारक है।
श्री मेघनाद ने लिखी
भैरव अरस की पटरानी थी
श्री सुमतिनाथ
श्री अजितनाथ
श्री नमिनाथ
श्री शांतिनाथ
श्री वासुपूज्य
श्री शीतलनाथ
समाधि-विधि के द्वारा मत्यु को प्राप्त किया था ।
पं. अग्रोत रामचंद्र ने लिखा षट्कर्मोपदेशरत्नमाला, बाई
विमलश्री को अर्पित की
संलेखना द्वारा मृत्यु हुई थी।
समाधिमरण किया
था।
श्री प्रश्नोत्तररत्नमाला क्त
श्री पंचांगीसूत्रवत्ति
| श्री सूक्ष्मार्थविचारसार प्रकरण चूर्णि
उत्तरपुराण
संदर्भ ग्रंथ
वही.
वही.
वही.
नही.
वही.
बी. जै. ले. सं.
जै. शि. सं. भा. ३
जै. शि. संभा. ३
जै. सि. भा. ७३
जै. सि. भा.
श्री. प्र. सं.
श्री. प्र. सं.
श्री. प्र. सं.
श्री. सं.
क. प्रां. ता. ग्रं. सू.
P
१५
1
भू
岸
१६
m
३
४५७
४८८४८६
७३
११
277
993-998
४
७७
"
१४५
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
278
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
| क्र. | संवत् श्राविका नाम |
वंश/गोत्र
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
आचार्य/गच्छ
२५५ १५वीं शती नाथी, श्रेयार्थ
चतुर्विशति जिनस्तुती| जै. गु. क. भा.
२५६ | १४६२ जसमादे श्रीयार्थ
श्री. श्री. ज्ञा.
नायल गुणरत्नसूरि
सुविधिनाथ पंचतीर्थी
वही.
६६
२५७ १५वीं शती राउबाई पठनार्थ
मुनिसुखसागर लिखित | अष्टापद स्तवन
जै. गु. क. भा.
| २५८ १४वीं शती नागाम्बिका | वाजीवंश. भारद्वाज
माथुर
| धर्मनाथ पुराण गोम्मटाष्टक | ख. प. सं. प. ४४०
|२५६ १५वीं शती
शमक
कोटिश्वर
ख. प.सं.
|२६०१५वीं शती
देविले
छ: कतियाँ उपलब्ध
ख. प.सं.
२६१ / १४५३
माम्मणी
श्रीजिनवर्द्धनसूरि
जिनबिंब
जे. प्रा. जै. ग्रं. भं. हस्त. सूचि २१-२२
ऊकेश. चोपड़ा
२६२, १४८७ | रूपादे गेली सूहवदे ।
हीराई, महधल, लीलादे,
शत्रुजयरैवतगिरि तीर्थ | जे. प्रा. जै. ग्रं. भ. हस्त सूचि २-२३/
यात्रा पंचमी उद्यापनपर
लाषाई.
राउलश्री
जिनभद्रसूरि
संभवनाथ
जे. प्रा. जै. ग्रं भं. हस्त. सूचि | २३
| १४८
जिनचंद्रसूरि या जिनभद्रसूरि विशेषावश्यक वत्ति द्वितीयखंड |
केट. सं. प्रा. मे.
३-४०/
तारादेवी, रूपादे,
श्रंगारदे, चाहिणीदे नायकदे, पुंजी. बहुरी पूरी, माल्हणदे
जिनभद्रसूरि
कल्पसूत्रसंदेहविषषधि कत्ति
केट. सं. प्रा. मे.
१४७१
|
गंगा
चापल की पत्नी
म. रा. जै.ध.
| ११८
यंत्र का स्थापना समारोह मनाया था।
|
भटकू
श्री. श्री. ज्ञा.
बहत्तपा श्री विजयतिलकसूरी
श्री कंथनाथ
जे. जै. ले. सं. भा.२
१५७
| १४८० | रजाई धरणू
प्रा. ज्ञा.
हेमविमलसूरी
श्री कुंथुनाथ
| १४८६ | पूजल, कपूरी ||
प्रा. ज्ञा.
सोमसुंदरसूरी
श्री शांतिनाथ
| १४८८ |
रूपादे
श्री. ज्ञा.
आगम श्री सूरि
श्री पार्श्वनाथ
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र. संवत् श्राविका नाम
२७१ १४६१ तिहुणश्री
२७२
२७३
२७४
२७५
२७६
२७७
२७६
२८०
२८२
१४७६ कूरमादे, भरमादे.
२७८. १४८४
१४०५
१४६६
"
२८७
१४७६
२८८
१४८.३
२८१ १४८२
२८६
१४२२
१४३६
२८३ १४६९
२८४ १४६८
२८५ १४०६
२८६ १४७१
१४८१
बलनू
१४६४
रत्नू
लाषणदे, घेतलदे.
मयणलदे, ता.
१४६३ वीमणि
जइती श्री.
मेलादे
मालदेवी, हेमा
माल्हणदे
ललती
इल्हा
१४८५ माल्हणदे, नमदे
माल्हणदे
पूर्णसि
रूड़ी
सामलदे
वंश / गोत्र
लाइणि
नाहर
गयणलदे, वीरणी सालेचा / पल्लीकीय
उकेश बाह
ओसवाल ज्ञा.
उ. ज्ञा. गुंदेचा
उप. ज्ञा. वडालिया
श्री. श्री.
उप.ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
संडेर. पीपल गोत्र
श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ओस.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
धर्मघोष मलयचंद्रसूरी
पल्लीवाल यशोदेवसूरी
अभयदेवसूर
खरतर जिनभद्रसूरि
चैन्न गुणाकरसूरि
मलधरी श्री विद्यासागरसूरि
ब्रह्माण वीरसूरि
श्रीकक्कसूरि
रत्नशेखरसूरि
विजयसेनसूरि
यशोदेवसूर
यशोभद्रसूरि
खरतर जनप्रभसूर
श्री सूरि
श्री कक्कसूर
ब्रह्माणीय उदयाणंदसूरि
सोमसुंदरसूरि
महाड उदयप्रभसूर
अंचल जयकीर्तिसूरि
अवदान
श्री शांतिनाथ
श्री आदिनाथ
श्री आदिनाथ
श्री कुंथुनाथ
श्री सुमतिनाथ
श्री आदिनाथ
श्री शांतिनाथ
श्री संभवनाथ
श्री संभवनाथ
श्री सुमतिनाथ
श्री श्रेयांसनाथ
श्री शांतिनाथ
श्री पार्श्वनाथ
श्री सुमतिनाथ
श्री पार्श्वनाथ
श्री सुपार्श्वनाथ
श्री अभिनंदन
श्री नेमिनाथ
संदर्भ ग्रंथ
वही.
वही.
वही.
वही.
無
वही
वही
जे. जै. ले. सं. भा. २
悟
वही
वही.
वही.
वही.
वही.
वही.
वही.
प
२२५
२२७
२२८
२३१
२३१
२८१
२८१
२८२
२३
२३६
२३६
२३७
२४१
२५८
२६०
२६०
२६०
279
२६८
२६६
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
280
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
| श्राविका नाम| वंश/गोत्र
अवदान
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ/आचार्य
संदर्भ ग्रंथ
२६०
१४५७ | महदे, करमू
मूलसंघ
जे. जै. ले. सं. भा.
३
पोमी, रूपिणी
तपा सोमसुंदरसूरि
श्री पार्श्वनाथ चतुर्विंशति
वही.
२६२
१४३७
मेघ्री
ओस. वंश
हेमतिलकसूरि
विमलनाथ
वही.
२६३
१४३७
ललता
प्रा. ज्ञा.
रत्नप्रभसूरि
पार्श्वनाथ
वही.
२६४
| १४३६
मोषलदे
बुद्धिसागरसूरि
शांतिनाथ
वही.
१४४६
षेतलदे
श्री. ज्ञा.
नागेंद्र उदयदेवसूरि
संभवनाथ
वही.
२६६
| १४७७
पूमलदे
मलधरी मुनिशेखरसूरि
चंद्रप्रभु
वही.
२६७, १४८६
हु. ज्ञा.
रत्नसिंहसूरि
शांतिनाथ
वही.
धर्मश्री कानू
संकर शांतिसूरि
वही.
२६६
१४२३
पूजी
उप. ज्ञा. आदित्यनाग |
उपकेश सिद्धसूरी
श्रेयांसनाथ
वही.
श्रीमाल वंश
तपा. सोमसुंदरसूरि
सुपार्श्वनाथ
वही.
३०१ | १४७६
मानी
श्रीमाल ठोरगोत्र
खरतर श्रीजिनचंद्रसूरि
शांतिनाथ
वही.
३०२ | १४६६ ।
गजसीही
उप. ज्ञा. घरकरगोत्र
बहद रत्नप्रभसूरि
संभवनाथ
वही.
३०३
१४३६
नावलदे
ओस. सुराणा
श्री सूरि
श्री वासुपूज्य
जे. जै. ले. सं. भा. | ८४
३०४
१४६१
पूजलदे
उपकेश. ज्ञा.
व्हद् श्री रामदेवसूरि
श्री शांतिनाथ
वही.
३०५
१४६६
मूडी
श्री. ज्ञा.
श्री वीर सूरि
श्री संभवनाय
जे. जै. ले. सं. भा. | ७८
२
कपूरदे, माल्हणदे
पंडेरकीय
श्री सुमति सूरि
श्री शांतिनाथ
वही.
३०७ | १४७०
सांवत
आदित्यनाग गोत्र
श्री देवसूरि
वही.
| १४८२ | मटकू वरणू कपूरादे
श्री. ज्ञा.
तपा. श्री सोमसुंदरसूरि
श्री मुनिसुव्रत
वही
३०६
१४८६
नाऊ
श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा श्री विद्याशेखर
श्री श्रेयांसनाथ
वही.
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
281
| क्र.| संवत् श्राविका नाम |
वंश/गोत्र
अवदान
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ/आचार्य
संदर्भ ग्रंथ
१४६६
शानी
श्री. ज्ञा.
श्री शीलरत्नसूरि | श्री सुविधिनाथ
वाल्हणदे
श्री सूरि
श्री आदिनाथ
भाही
श्री. ज्ञा.
नागेंद्र श्री गुणसमुद्रसूरि
श्री सुविधिनाथ
वही.
रूदी, जसमादे
उप ज्ञा.
श्री धर्मदेवसूरी
श्री चंद्रप्रभु
जे. जै. ले. सं. भा. २] ४५
श्रीयादे
पल्लि शांतिसूरी
श्री सुमति बिंब
| उप. ज्ञा. केकडिया
गोत्र सापुणगोत्र
वील्हणदे
श्रीमलचंद्रसूरी
श्री शांतिनाथ
हीमादे
सुराणा
धर्मघोष पद्मशेखरसूरि
श्री आदिनाथ
सीतादे
प्रा. ज्ञा.
पूर्णिमा श्री सर्वानंदसूरि
श्री संभवनाथ
जासू
ओशवंश ज्ञा.
अचल श्री सूरि
श्री चंद्रप्रभु
१४६३ कर्मादे, अणुपमदे
उप. ज्ञा.
श्री अमरचंद्रसूरि
श्री वासुपूज्य
देल्हादे
उपकेश. वंश
खरतर श्री जिनसागरसूरि
श्री मुनिसुव्रत
चांपू, देपू
उपकेश. वंश
श्री धर्मतिलकसूरि
श्री वासुपूज्य
कुमरी
फांफटिया गोत्र
धर्मघोष श्री विजयचंद्रसूरि
श्री वासुपूज्य
साल्ही
जाइलवाल
तपा. श्रीहेमहंसूरि
श्री सुविधिनाथ
झबकू, रोहिणी
ऊकेश. ज्ञा.
कोरंट श्रीसावदेवसूरि
श्री शांतिनाथ
वरजू
प्रा. ज्ञा.
श्री मुनिप्रभसूरि
श्री श्रेयांसनाथ
धणू
| नागर. ज्ञा. अलियाण,
मेरुतुासूर
श्री शांतिनाथ
वर्द्धमान
श्री वासुपूज्य
श्री जिनसागरसूरि श्रीजिनचंद्रसूरि
सहजाई
काष्ठासंघ
धातु के यंत्र पर
जे. जै. ले. सं. भा. २
कांऊ, कील्हणदे
नाणकीय
श्री शांतिसूर
श्री कुंथुनाथ
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
282
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संवत् | श्राविका नाम | वंश/गोत्र
अवदान
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
आचार्य/गच्छ
संदर्भ ग्रंथ
उप. ज्ञा.
श्री ईश्वर सूरि
श्री आदिनाथ
मल्हणदे, सहजादे, केली, णेमि
उपकेश ।
श्री रामदेवसूरि
श्री आदिनाथ
अहवदे
उसवाल.खांटड
श्री पद्मशेखरसूरि
श्री संभवनाथ
सहजलदे, संगाई,
ऊकेश
खरतर श्री जिनभद्रसूरि
श्री अजितनाथ
जासलदे
पदमाही
गादहियागोत्र
उपकेश श्री सिद्धसूरि
श्री पार्श्वनाथ
अमरी, घसी
चऊथ गोत्र
तपा.श्री लक्ष्मीसागरसूरि
श्री आदिनाथ
नामलदे, वईजलदे
श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा श्रीचंद्रसूरि
श्री नमिनाथ
जयतादे | उप.ज्ञा. सुचिंती गोत्र
उपकेश श्री सर्वसूरि
श्री शांतिनाथ
देवल
प्रा. ज्ञा.
पिप्पल वीरप्रमसूरि
श्री पद्मप्रभु
माचियक्के
भा. इ.द
साहिणी बिट्टिग की पुत्री, गण्डविमुक्तदेव की शिष्या थी।
जिनमंदिर का निर्माण करवाकर दान में दिया
था।
३४० | ११
हरिहरदेवी
जै. शि. सं. भ.३ | १६६
कौण्डकुंदान्वय के | करडालु में ध्वस्तबस्ति के पंच नमस्कार मंत्र का
चंद्रायणदेव की | स्तंभ पर कनन्ड़ भाषा | उच्चारण कर गहस्थ शिष्या थी। का लेख है। | समाधिमरण को प्राप्त
किया था।
३४१५६
अलियादेवी | बिज्जलदेवी की पुत्री | हेरेकेरी में बस्ति के पाषाण | सेत में संदर जिन मंदिर जै. शि. सं. भा.३ |
थी, होन्नेयरस की | पर संस्कृत तथा कन्नड़ बनवाया, भूमि का दान पत्नि थी। भाषा का लेख है। 'दोसिवने का आचार्य
भानुकीर्ति सिद्धांतदेव को
दिया था।
३४२
जै. सि. भा.
७४
जक्कवब्बे जक्कमब्बे
विख्यात जैन | श्रवण बेलगोल शिलालेख सेनापति
प.३६६ पुणिसमय्य की भार्या थी।
कृष्णराजपेठ के | होसकोटे स्थान में एक मंदिर निर्मित
करवाया। सीता, रूक्मिणी से तुलना की
जा सकती है।
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१५ वीं शती संवत १४६७. सन १४४०, की जैन श्राविकाएँ।
• जैसलमेर जैन ग्रंथ भंडारों की हस्तलिखित प्रतियों के सांकेतिक शब्द १. जिनभद्रसूरि ताड़पत्रीय गंथभंडार (जि. ता.) २. जिनभद्रसूरि कागल नो हस्तलिखित ग्रंथ भंडार. (जि. का.)
तपागच्छ ताडपत्रीय हस्तलिखित ग्रंथभडार (त. ता.) ४. लोकागच्छ आचार्यगच्छ ताड़पत्रीय हस्तलिखित ग्रंथभंडार (लो. ता.)
जैसलमेर जैन ग्रंथ भंडारों की सूची में उल्लिखित ऐतिहासिक श्राविकाएँ
परिशिष्ट १३ :- हस्तलिखित ग्रंथगत ऐतिहासिक विशेष नामों की अकारादि क्रम से सूची; पष्ठ ५८६-६१२ इस परिशिष्ट में जैसलमेर स्थित जिनभद्र ज्ञानभंडार के ताडपत्रीय तथा कागज की हस्तलिखित प्रतियों में लिखे कर्ता लेखक आदि की पुष्पिका प्रशस्ति ग्रंथ, आदि में लिखे गये ऐतिहासिक नामों की पुस्तक की सूची में से उद्ध्त करके दी जाती है। यह नाम किस ग्रंथ में आते हैं यह जानने के लिए पु. सू. के आधार से नाम के सामने ग्रंथांक दिया है। प्रशस्ति पुस्तिका आदि में विशिष्ट नाम कहाँ आता है उसकी विस्तत जानकारी जिज्ञासु वर्ग पु. सू. में से प्राप्त कर सकते है। पु. सू. सन् १६७२ में आ. प्र. श्री पुण्यविजयमहाराज द्वारा संपादित लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कति विदयामंदिर अहमदाबाद. ६ द्वारा प्रकाशित पुस्तक है ।
क्र. संवत् श्राविका नाम
क्र.
संदर्भ ग्रंथांक जि. ता २३६
संदर्भ ग्रंथांक जि. ता २३६
जासला
| संवत् श्राविका नाम
जासला जिनदेवी
३५७
जि. ता . २०६
३५८
जि. ता . २०६
जिनदेवी जिनमती
जि.ता.१५
३५६
जिनमती
जि. ता. १५
जीवणी
जि. ता. ४२६
३६०
जीवणी
जि. ता. ४२६
जीवंदही
जि. ता. ३१/२
369
जीवंदही
जि. ता. ३१/२
व तर
टीबू
जि. ता. १०८६
३६२
टीबू
जि.ता. १०६६
तारादेवी
जि. ता. ११६
३६३
तारादेवी
जि. ता. ११६
तिहणदेवी
जि. ता. २३६
३६४
तिहणदेवी
जि. ता. २३६
अलक्सर
जि. का. १३६६
३६५
अलक्सर
जि. का. १३६६
कन्हाई
जि. का. १३५२, १३६५
३६६
कन्हाई
जि. का. १३५२, १३६५
कमलादे
जि. का. १३७७
कमलादे
जि. का. १३७७
जि. का. १०८६
३६८
जि. का. १०८६
खोतु
जि. का. १२७६
३६६
खोतु
जि. का. १२७६
गंगादेवी
१०८६
३७०
गंगादेवी
१०८६
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
284
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संवत्
श्राविका नाम
संदर्भ ग्रंथांक
क्र. | संवत् । श्राविका नाम
संदर्भ ग्रंथांक
३७१
चतुरंगदे
जि. ता. १३६६
पुंजी
जि. ता. ४२६
302
चगाई
त. ता. ८
पूनाई
त. ता. ८
३७३
चंद्रावली
जि. ता. ४२६
३६७
पूर्णदेवी
जि. ता. २३६
३७४
चंदिका
त ता. ८
३९८
पथिवीदेवी
जि. ता. २०६
3७५
चंपाई
जि. का. १३६५, त. ता.८
प्रतापदेवी
जि. ता. २०६
३७६
जगद्देविका
जि. ता. ४०३१४
४००
प्रियमती
लो. ता. ८
७७
जयती
जि. ता. २३२
४०१
प्रेमिका
जि. ता. ३१
३७८
जयदेवी
जि. ता. ११२
४०२
फतुबाई
जि. का. २२३६
३७६
जयश्री
जि. ता. २३२
EE
४०३
कूदी
जि.ता. २३२
जयसिरि
जि. ता. २३२
४०४
बकुलाश्री
जि.ता. २०६
जसमाई
जि. का. २१७५, त. ता. ८ |
बकुलाभी
जि. ता. १५
चाहणीदेवी
जि. ता. ११४
४०६
बलादेवी
3८३
चाहणी
जि. ता. २३६, २५६, ३४० । ४०७
बहुदेवी
जि. ता. ८५/२
३८४
चाही
जि. ता. ४१५/११
बहुरी
जि.ता. ४२६
३८५
चांदु
जि. ता. २३१
बहुभी
जि. ता. १५
३८६
चापलदे
| जि. का. १०८, जि. का ६४|
प्र०
भरमादेवी
३७
चांपला
जि. ता. २०६, २५६
४स
भाऊ
त. ता. ८
जाल्हणदेवी
जि. ता. ४०३.१
भारती
जि. ता. २५६
पाहिणी
जि.ता. १५
भुवमी
जि. ता. २२८
पुण्यिनी
जि. ता. २१७
४१४
भोपला
जि. ता. २५६, ३४० जि. ता. २३६/२
asa
पुनिणी
लो. ता. ८
४१५
अनुपमदेवी
३
पुत्राग
जि. ता. ५०, २८
x
अनुपमादेवी
जि. ता. २३१
३६३
जि. ता. १५
४१७
अभयश्री
जि. ता. १५
जि. ता. ४२६
अमतदेवी
जि. ता. २३६/२
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
285
क्र. संवत् | श्राविका नाम
संदर्भ ग्रंथांक
क्र. | संवत् | श्राविका नाम
संदर्भ ग्रंथांक
४३८
तिहुणी
४१६
पुंजी
जि. ता. ४२६
४३६
४४०
त. ता.८
४४१
४२१
पूर्णदेवी
जि. ता. २३६
४४२
४४३
४२२
अविध्वदेवी
जि. ता. २३२
४४४
दाडिम
४२३
आमी
जि. ता. २३६
४४५
४४६
४२४
आल्ही
जि. ता. ४२६
४४७
आशामती
जि. ता. ४०३/४
४४८
४४६
आसुला
जि. ता. २७२
४५०
देवकी
४२७
उदयमती
जि. ता. २३१
5 EEEEE
४५१ ४५२ ४५३
४२८
उदयश्री
जि. ता. २८
जि. ता. २२८ तील्हिका जि. ता. ३४० तेउका
जि. ता. २३१ त्रिभुवन देवी जि. ता. २३६/२ त्रिभुवनपालधदा | जि. ता. २१७, २७०/४, २७२ त्रिभुवनी
जि. ता. ३४०
जि. ता. १०८६ दुलही
जि. ता. २३० दुअक
जि. ता. २२५ देदी जि. ता. २३२, ३४० देमाई
ता. ता.८ देल्हण देवी
लो. ता. ३/८
जि. ता. २२८ देवत
जि. ता. २२८ देवश्री जि. ता. ११२, २२८, २८०/४ देवीणी
जि. ता. २५६ धनदेवी
जि. ता. २२५ धन्नाई
जि. ता.८ धन्या धन्या देवी
जि. ता. १०८६ धर्मिणी जि. ता. ३१/२ धवल, गुणदेवी
जि. ता. ८५/२ धऊका
जि. ता. २३५ धंधल देवी जि. ता. २०६ धंधी
जि. ता. ३४० धींदी
जि. ता. २७०/४
जि. का. १२८६ धींधी
जि. ता. ३४० नयणा
जि. ता. २०५ नवलादे
जि. का. ४५० नाइकि
जि. ता. ४०३/४ नागिनी जि. ता. २०६,२१८
४२६
उदयश्री
जि. ता. २१७
४५४ ४५५
४३०
कउतिग
जि. ता. ४२६
४५६
जि. ता. २८, ५०
४५७
४३१
कर्पूरदेवी
जि. ता. १५
४५८
कर्पूरी
४३२
जि. ता. ४२६
४५६
४६०
४३३
कुमरिका
जि. ता. २१७
४६१
४६२
४३४
कुंअरी
जि. ता. ४२०
४६३ ४६४
कूरला
जि. ता. २५६
धींधी
४६५
४३६
केलिका
जि. ता. २३६
४६६
४३७
केल्हणदेवी
जि. ता २३६/२
४६७
४६८
४६६
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
286
क्र. संवत् श्राविका नाम
४७०
४७१
४७२
४७३
४७४
४७५
४७६
४७७
४७८.
४७६
४८०
४८१
४८२
४८३
४८४
४८.५
४८६
४८७
४८८
४८६
४६०
४६१
४६२
४६३
४६४
४६५
४६६
४६७
४६८
४६६
५००
नाथी
नाथू
नानी
नायका
नायकदे
नायक देवी
नायिका
नालू देवी
नीलू
पद्मिनी
पदमला
पदमावती
पदमीका
पालू
पाहीका
पाहीण
पुर्णयिनी
पुनी
पुत्राग
पुत्री
पुरी
पुंजी
पूनाई
पूर्ण देवी
पथिवी देवी
प्रताप देवी
प्रियानली
प्रेमिका
फतुबाई
फुंदी
बकुलदेवी
संदर्भ ग्रंथांक
जि. का. १३६६, त. ता. ८
जि. ता. ४२६
जि. ता २३२ जि. का १०८६
जि. ता. ७६, २३६
जि. ता. ४२६ जि. का ८
जि. का. प
जि. ता. २०६
जि. ता २३७
जि. ता २०६
जि. ता. ३४०
जि. ता. २३२, २३६
१५, २०६, २३६
जि. ता. २५६
जि. ता. २३७
जि. ता. २५६
जि. ता. ३२५
जि. ता. १५
जि. ता. २१७
जि. ता. ८
जि. ता. ५०, २८
जि. ता. १५
जि. ता. ४२६
जि. ता. ४२६
जि. ता. ८
जि. ता. २३५
जि. ता. २०६
जि. ता. २०६
लो. ता. ८
जि. ता. ३१
जि. का. २२३६
जि. ता. २३२
जि. ता. २०६
क्र. संवत्
५०१
५०२
५०३
५०४
५०५
५०६
५०७
५०८
५०६
५००
पूर्वी
५१२
५१३
५१४
५१५
५१६
५१७
पूछि
५१६
५२०
५२१
५२२
५२३
५२४
५२५
५२६
५२७
५२८
५२६
५३०
५३१
५३२
श्राविका नाम
कुलश्री
बलादेवी
बहुदेव
बहुरी
बहुश्री
भरमादेवी
भाऊ
भारती
भुवमी
भोपला
मणकाई
मरध
मरूदेवी
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
माउ
माणिकी
माधलदेवी
मानू
माल्हणदे
मांडलिका
मंजला
मूला
गाई
मगादे
मगावती
बू
मोहिणी
यशोदेवी
रत्नदेवी
रत्नी
रमा
रमाई
रली
संदर्भ ग्रंथांक
जि. ता. १५
लो. ता. ८
जि. ता. ८५/२
जि. ता. ४२६
जि. ता. १५
त. ता. ८
त. ता. ८
जि. ता. २५६
जि. ता. २२८
जि. ता. २५६ ३४०
जि. का. ३०४
जि. ता. १०८६
जि. ता. ७६
ता. ता. १०८६
जि. ता. २३६
जि. ता. २०६
जि. का ३६४
जि. ता. ४२६
त. ता. ८
जि. ता. २३६
त. ता. ८
जि का. २६५
जि. का. १३६६
जि. का. १५३६
जि. ता. २३६
जि. ता. २५६
जि. ता. १५२३५, २७२
जि. ता. २३६
जि. ता. १५२३०, २३६
जि. ता. २७२
जि. ता. २६५
जि. ता. २३६
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र. संवत् श्राविका नाम
५३३
५३४
५३५
५३६
५३७
५३८
५३६
५४०
५४१
५४२
५४३
५४४
५४५
५४६
५४७
५४८
५४६
५५०
५५१
५५२
५५३
५५४
५५५
५५६
५५७
५५८
५५६
५६०
५६१
५६२
५६३
५६४
रंगाई
राजणी
राजिणी
राजीमती
राजुका
राजू
राणिका
राणी
राणू
राह
रासला
रूक्मिणी
रूपल
रूपा
रूपाई
रूपादे
रूडी
रोहीणी
लकखुका
लाक्षिका
लाक्ष्मणी
लक्ष्मी
लखमाई
लाड़ी
ललतू
ललिता देवी
लाखुका
खू
'लाघू
लाडिम
लाडी
लालबाई
संदर्भ ग्रंथांक
जि. का. ७२१, त. ता. ८
जि. ता. २६४
जि. ता. २३५
जि. ता. २३७, २६०
जि. ता. २३६जि. ता. ३४०
जि. ता ३४०
५७०
जि. ता. २०६
५७१
जि.ता . २३६, ४२६ जि.का. १३६६ ५७२
जि. ता. २३६
५७३
५७४
५७५
५७६
५७७
५७८.
५७६
५८०
५८१
५८२
५८३
५८४
५८५
जि. ता. २५६
जि. ता. २२८
जि. ता. २३६
जि. ता. २५६
जि. का. २६७
तता. ८
जि. ता. ११६
जि. ता. ३४०
जि. का. १२७६
जि. ता. २३५
जि. ता. ६४०
जि. ता. २५६
त. ता. २
जि. का. २१७५
जि. ता. २३२
जि. ता. २३६
जि. का. २१७५
जि. ता. २०६
जि. ता. २३६
जि. ता. २५६
जि. का. १०२८
क्र. संवत्
जि. ता. २३२, २५६
जि. का. ८२१/२
५६५
५६६
५६७
५६८
५६६
५८६
५८७
५८८
५८६
५६०
५६१
५६२
५६३
५६४
५६५
५६६
श्राविका नाम
लीला देवी
ललूणदेवी
लोहनी
वइजू
वयजल देवी
विजयमती
विनामिका
विपुलमती
विमलमती
बीका
वीरवती
राई
वीरी
वीरोध
शांतिमती
शांती
शिवा देवी
सीता
शीलमती
सुषमणी
श्रंगारदे
श्रृंगार
शोलिका
श्रीदेवी
श्रीमती
श्रीमती
श्री
सज्जन
सज्जना
सज्जना
समधरधि
सरस्वती
संदर्भ ग्रंथांक
त. ता. ८
जि. ता. २०६
जि. ता. ३४०
जि. ता. २५६
जि. ता. २३६
जि. ता. २३५
त. ता. ८
लो का. न. ३१८
जि. ता. ३४०
जि. ता. २०६
जि. ता. १५
जि. का. २१७५
जि. का. ६५५
जि. ता. १२७६
जि. ता. ८५
जि. ता. २५६
जि. ता. १५
जि. ता. २३५
जि. ता. २३७
287
जि. ता. ३१२
जि. ता. ११६
जि. ता. २०६
जि. ता. २५६
जि. ता. २३५, २३६, ३४०
जि. ता. ४०३/३. लो. ता. ११८
जि. ता. ४/१५ जि. ता. २३१
जि. ता. २३१
जि. ता. २३१
जि. ता. २३१
जि. का. १२७६
जि. ता. १६, २८५०, ११४,
२३६, ४२६
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
288
क्र. संवत् श्राविका नाम
५६७
५६८
५६६
६००
६०१
६०२
६०३
६०४
६०५
६०६
६०७
६०८
६०६
६१०
६११
६१२
६१३
६१४
६१५
६१६
६१७
६१८
६१६
६२०
६२१
६२२
६२३
६२४
६२५
६२६
६२७
६२८
सलक्षणा
सल्लक्षण
सहजगति
सहजलदेवी
सहजला
सहिजला
संपिका
संपूर्ण
संसारदे
सांई
साऊ
साहलदी
साल्ह
सावित्री
सांपू
सीणी
सीतादेवी
सीत
सीमका
सीलुका
सील
सुवा
सुभटा देवी
सुषमता
सुंदरी
सूमिणि
सूमला
सूहवदेवी
सूहव
सोणला
सोनाइबा
सोमना
संदर्भ ग्रंथांक
जि. ता. २३६, २३७
जि. ता. १५
जि. ता. १५
जि. का. ६५५
जि. ता. २०६
जि. ता. २३६
जि. ता. २३७
जि. ता. २३६
जि. का. २१६६
जि. ता. २३६
जि. ता. ३४०
जि. ता. ११४, २७० / ४, २७२
जि. का. १२७६
जि. ता. २३६, २७०/५
त. ता. ८ जि. ता. २५६
जि. ता. १५, २०६,
२३६, २३७, ४०३, जि. ता. २३१
७६
जि. ता. २३५
जि. ता. २५५
जि. ता. २३६
जि. ता. २३६/२
जि. ता. २०६
जि. ता. ११४, २३७
जि. ता. २५६
जि. ता. २०३६
जि. ता. २०६
जि. ता. २३७
जि. ता. १५
जि. ता. १३७७
जि. ता. ४०३/३
क्र. संवत्
६२६
६३०
६३१
६३२
६३३
६३४
६३५
६३६
६३७
६३८
६३६
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
श्राविका नाम
सोभी
सोभाग्य देवी
स्याणी
हस्तू
हंसला
हंसाई
हंसिनी
हीरला
हीराई
हेमा
होला
संदर्भ ग्रंथांक
जि. ता. १५
जि. ता. १५
जि. ता. ४२६
जि. ता. ४२६
जि. ता. २३१, जि. ता. २३६
ता. ता. ८
जि. ता. ११२, २७२
जि. ता. २७२, ४१५/११
त. ता. ८
जि. का. १५३६, १५५८
जि. ता. २११
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
289
| संवत्
| श्राविका नाम
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य प्रा. ज्ञा. | अंचल महीतिलकसूरि
मुनिसुव्रतनाथ
जै.ध.प्र.ले.सं.भा. |
१६
जवनू सुहगदे
ऊके. वंश
वासुपूज्य
जै.ध.प्र.ले.सं.भार
हेली
हू ज्ञा
कल्याणकीर्ति
जै.ध.प्र.ले.संभा.२
६४३ | १४६६ नसिरि, भोजसिरि
ऊकेश
तपा श्री गुणरत्नसूरि
शांतिनाथ
जै.ध.प्र.ले.सं.भा.२
सिंगारदे
ओ. ज्ञा.
जीरापल्ली उदयरत्नसूरि
चंद्रप्रभु
जै.ध.प्र.ले.संभार
कर्मादे, आसू
प्रा. ज्ञा.
समसुंदरसूरि
महावीर
जै.ध.प्र.ले.सं.भार
शाणी, हीरू
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री हेमरत्नसूरि
शांतिनाथ
जै.ध.प्र.ले.संभार
सुहागदे
प्रा. ज्ञा.
आदिनाथ पंचतीर्थी
जै.ध.प्र.ले.संभार
तेजलदे
श्री. श्री. ज्ञा.
तपा देवसुंदरसूरि
देवराज
जै.ध.प्र.ले.सं.भार
गुणमत
उकेश वेसट | सच्चिकामूर्ति का निर्माण,
गोत्र
मजैविसुमग्रभाग
हीरल
मोढ़ ज्ञा.
जिन प्रतिमा
हीरामसूरी/जालोदर म.जै.वि.सुम.ग्रभा
लूणदेवी
गुणाकरसूरि
आदिनाथ
मजैविसुमग्रभाग
| ११२
मातरादेवी
श्री. श्री. ज्ञा.
सोमचंद्रसूरि
जिनप्रतिमा
| मजैविसुमग्रभा।। ११२
हुवंजना
नरमद्रसूरि
आदिनाथ
मजैविसुमग्रभा.१ | ११२
सोमश्री
श्री भावडार | श्री विजस सिंह सूरि
पार्श्वनाथ
जै. प्र.ले. सं.
जयतु, कपूरदे, लूणी, गउरादे
श्री अभयदेवसूरि
आदिनाथ
|
जै. प्र. ले. सं.
६५६
१३७७ ।
चरण श्री
साखुला गोत्र
श्री सोमदेवसूर
पार्श्वनाथ
|
जै. प्र.ले. सं.
६५७/ १३६४ ।
सुहडा
उस.ज्ञा.
विजयवल्लभसूरि
पदमप्रभु
जै.प्र.ले. सं.
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
290
क्र.
६५८
६६०
६५६ १३२८
६६१
६६२
संवत्
१३६२
६६७
६६३ १३२८
६६८
१३५१
६६४ १३६६
१३५१
६६५ १३४६
६७०
६६६ १२७६
६७३
१३४३ सिरियादे, वीरी,
अनुपम
१२३४
६६६ १२७०
१२२८
१२४७
६७१ १२६६
६७२ १२७६
१२६८
६७४ १२०४
श्राविका नाम
विजयादे
६७६ १२०४
टमकू
राउल, पदमा,
मोहनि
पद्मल
टमकू
लाछी
सोमश्री
सुहागदेवी
नाथू
पद्माई, पूरीपु
आदि
जयतलदे
पाल्ही
वाविणि
देल्ही
६७५ १२४४ सिरियादे
देल्ही
राजु
मादकारण
वंश / गोत्र
ब्रह्माण ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ब्रह्माण ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री. श्री ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
दीसा
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
विजयचंद्रसूरि
श्री बुद्धिसागरसूर
कंछोली गुरू
श्री. बुद्धिसागर
श्री सूरि
श्री विजससिंह सूरी
चंद्रगच्छ वीरचन्द्रसूरि
ब्रह्माण महेन्द्रसूरि
मुनिसुव्रत पंचतीर्थी
मरुदेवीमाला ग्रहण की
रत्नसूर
जीवदेवसूर
श्री शांतिसूर
श्री प्रसन्नसूर
श्री शांतिसूर
अवदान
पार्श्वनाथ
धर्मनाथ. चतु
जिन युग्म
पार्श्वनाथ
धर्मनाथ चतु
आदिनाथ
पार्श्वनाथ
पार्श्वनाथ
पार्श्वनाथ
साधुन
शांतिनाथ
ऋषभदेव
आदिनाथ
महावीर
पार्श्वनाथ
चतुर्विंशति प्रतिमा
पार्श्वनाथ
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संदर्भ ग्रंथ
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
वही.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्रे. ले. सं
जै. ध. प्र. ले. सं.भा. २
जै. ध. प्र. ले. सं.भा. २
ख. बगु. प
प
प्रा. जै. ले. सं...
१३५
प्रा. जै. ले. सं.
१६५
१६६
१६६
१६८
१६५
१७२
१६६
जै. ध. प्र. ले. सं.भा.२ १२३
जै. ध. प्र. ले. संभा.२ १६८
८६
११४
म. जै. वि. सु. म. ग्र.भा. १ ११२
म. जै. वि. सु. म. ग्र.भा. १११२
म. जै. वि. सु. म. ग्र.भा. १११२
प्रा. जै. ले. सं.
५३
११५
१७२
२४५
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र.
६७७ १२४४
६७८
संवत् श्राविका नाम
राजीमती
६७६ १२६३
६८१
६८० १२४२
१३००
६८२ १४२४
६८४
१४८८
६८.३ १४२१
१४३३
६८६ १४६५
६८७ १४२६
६८८ १४३२
६६२
६८६ १४८३
६६० १४६६
ओसंज्ञा.
| ६८५१४२७ नामलदे, सहजलदे श्री. श्री. ज्ञा.
देलहणदे, पोमादे
१४८८
६६३ १४८२
नयनादे
६६४ १४५३
उदयादे
ब्रह्मदत्ता, पोल्हा
नानकदे, जिहा
भोली
हांसीदे
जयतलदे
मंदोदरी
आल्हणदे
६६१ १४६७ माकू लाछी
जय श्री
काउ
वंश / गोत्र
जयतलदे
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
लखमादे, प्रेमलदे श्री. श्री. ज्ञा.
आल्हणदे
६६५ १४७६ महंध्ल, वल्लालदे
क्षेत्रदे
उप. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा.
हमा
हमा
श्री. श्री. ज्ञा. पिप्पल धर्मशेखरसूरि
डीसा. ज्ञा
पूर्णिमा जयशेखरसूरि
श्री धर्मशेखरसूरि
श्री. ज्ञा. हांसलदे, भावलदे श्री. श्री. ज्ञा. पिप्पल धर्मशेखरसूरि
ओस. ज्ञा.
शालीभद्रसूरी
खरतर. जिनभद्रसूरि.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
मतिप्रभसूर
चैत्र हरिश्चंद्रसूरि
धर्मघोषसूरि
काक वंश
सोमसुंदरसूरी
अवदान
जिनप्रतिमा
शांतिनाथ
देवकुलिका
पद्मशिला
पार्श्वनाथ
नागेन्द्र गुणाकरसूरी पार्श्वनाथ पंचतीर्थी
भावदेवसूर
शांतिनाथ पंच
तीर्थी.
पिप्पल गुणदेवसूरि
वासुपूज्य
पज्जुनसूरि
प्रभसूर
प्रभसूर
मणिचंद्रसूरि
पद्मप्रभु
धर्मनाथ
पार्श्वनाथ
वासुपूज्य
नेमिनाथ
शीतलनाथ
सुपार्श्वनाथ
विमलनाथ
अजितनाथ
शांतिनाथ
संदर्भ ग्रंथ
प्रा. जै. ले. सं.
प्रा. जै. ले. सं.
प्रा. जै. ले. सं.
प्रा. जै. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
प
२५७
६६
१६०
१६७
T
T
१६४
१९४
१६७
१६७
१६७
१६६
२००
२०८
२१०
२
२१२
२१२
२१३
291
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
292
क्र.
६६६ १४८५
६६७ १४७१
६६८ १४६६
६६६
७००
1909
७०२
७०४
७०६
७०७
संवत्
७०८
७०६
श्री. श्री ज्ञा.
७०३ १४८५ साजणदे, सिरिया श्री. श्री. ज्ञा.
७१०
७०५ १४६६
Um
१४६३
१४७६
७१४
१४८१
१४८३ वउलदे, चांपलदे
१४८८
१४६३
१४२२
१४६६
१४८.३
१४६४
१४८१
७१२ १४८१
७१३ १४८.३
श्राविका नाम
वंश / गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
छाहू, छाजू फलौदिया गोत्र
लखमादे, रामू श्री. श्री. ज्ञा.
उकेश
१४८.३
झनकूदे
मंजू
महणदे
भरमादे
आल्हणदे
रामलदे
लाड़ी
लाखणादे
मोखलदे
मीलनदे
सोनलदे
पिंगलदे
पिंगलदे
रंगादे
आल्हणदे
उप. ज्ञा.
आगम. अमरसिंहसूर
पिप्पल. धर्मशेखरसूरि
धमघोष विजयचंद्रसूरि
श्री शांतिसूर
श्री शांतिसूरि
नागेन्द्र पदमाणदसूर
पिप्पल. धर्मशेखरसूरि
श्री सूरि
श्री. ज्ञा.
पिप्पल. धर्मशेखरसूरि श्री सूरि
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा. पिप्पल मुनिप्रभसूरि
भावडार, वीरसूरि
श्री. श्री. ज्ञा.
थारापद. श्री शांतिसूर
श्री. श्री. ज्ञा. पूर्णिमा. विजयप्रभसूरि
रत्नसिंहसूर
रत्नसिंहसूर
जयचंद्रसूरि
तपा. भुवनसुंदरसूरि चतुष्किका शिखर
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक आचार्य / गच्छ
पूर्णिमा. विद्याशेखरसूरि
उस ज्ञा.
अवदान
पद्मप्रभु
चतु, जिनपट्ट
चंद्रप्रभु
सुमतिनाथ
आदिनाथ
संभवनाथ
संभवनाथ
शांतिनाथ
अभिनंदन
शीतलनाथ
शीतलनाथ
विमलनाथ
नमिनाथ
आदिनाथ
कुंथुनाथ
देवकुलिकात्रय
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संदर्भ ग्रंथ
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
जै. प्र. ले. सं.
प
२१५
२१६
२१७
२२३
१२४
१२४
१२७
१३०
१३२
१३२
१३४
१३४
१३७
१४१
१४२
१४३
१४३
१५६
१६०
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
293
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
संवत् | श्राविका नाम वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य राजुलदे, पूंजी | उप. ज्ञा. | श्री रत्नाकरसूरि
जै. प्र. ले. सं.
.
शांतिनाथ देवगेहिका शिखर
अहड़दे, झमकुदे
जै. प्र. ले. सं.
| १६३
७७
१४०६
सहगदे
| श्री. श्री. ज्ञा.
धनेश्वरसूरि
पार्श्वनाथ
जै. प्र. ले.सं.
१६८
१४४६
भोली
श्री सूरि
महावीर पंचतीर्थी
जै. प्र. ले. सं.
१७२
७१६
१४७२
माल्ही
श्री. श्री. ज्ञा. नागेन्द्र रत्नसिंहसूरि
शांतिनाथ
जै. प्र.ले. सं.
|
७२०
१४३४
क्षेमलदे
श्री. ज्ञा.
पिप्पल मुनिप्रभसूरि
शांतिनाथ
जै. प्र. ले. सं.
।
७२१
। १४६२
साथलदे
प्रा. ज्ञा.
हरिभद्रसूरि
आदिनाथ
जै. प्र. ले. सं.
|
रामलदे
ओस. ज्ञा. | पिपल प्रीतिसूरि
आदिनाथ
जै.प्र.ले. सं.
२
१४३६
हमीरदे
श्री. ज्ञा. | पिप्पल. उदयानंदसूरि ।
पार्श्वनाथ
जै. प्र. ले. सं.
२२७
७२४
सुहवदे
श्री. श्री. ज्ञा. | पिप्पल धर्मशेखरसूरि
संभवनाथ
जै. प्र. ले. सं.
२३३
७२५
१४७१
देल्हणदे
| श्री. श्री. ज्ञा. | पिप्पल धर्मप्रभसूरि
विमलनाथ
जै.प्र. ले. सं.
२४१
७२६
। १४४६
कामलदे
| उप. ज्ञा. |
पार्श्वचंद्रसूरि
सुमतिनाथ
जै. प्र. ले. सं.
२४१
७२७
१४४२
हीरादे
| श्री. श्री. ज्ञा. पिप्पल. सागरचंद्रसूरि
आदिनाथ
जै. प्र. ले. सं.
७२८
माणिकदे, पातूदे | प्रा. ज्ञा. |
सेमसुंदरसूर
सुमतिनाथ
जै. प्र. ले.सं
।
७२६
| ४१८२
ऊमादे
श्री. श्री. ज्ञा. पिप्पल सागरभद्रसूरि
संभवनाथ
जै. प्र. ले. सं.
७३०] १४३६
वांसलदे
प्रा. ज्ञा.
पार्श्वचंद्रसूरि
महावीर
जै. प्र. ले. सं.
5
७३१ | १४८५
कर्णदे
श्री. श्री. ज्ञा.
विजयसिंह सूर
संभवनाथ
जै. प्र. ले. सं.
७३२
१४०४
नीनादे
श्री. श्री. ज्ञा.
श्रीसूर
पद्मप्रभु पंचतीर्थी
जै. प्र. ले. सं.
सुगुणादे, कुरदे
प्रा. ज्ञा.
रत्नप्रभसूरि
संभवनाथ
जै. प्र. ले. सं.
,
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
294
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प
क्र. | संवत् | श्राविका नाम | वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य ७३४ | १४६५ वील्हणदे | श्री. श्री. ज्ञा. नागेन्द्र रत्नसिंहसूरि |
संभवनाथ
जै. प्र. ले. सं.
१३५ १५५३
सुहडादे
श्री. श्री. ज्ञा.
धनतिलकसूरि
आदिनाथ पंचतीर्थी
जै. प्र. ले. सं.
७३६/ १४६६
पोमी
श्री. श्री. ज्ञा.| पिप्पल, प्रीतिरत्नसूरि
कुंथुनाथ
जै. प्र. ले. सं.
२४८
55
७३७] १४८४ |
हांसलदे
कुंथुनाथ
जै. प्र. ले.सं
।
श्री. श्री. ज्ञा. पिप्पल धर्मशेखर
| सूरि | ब्रह्माण श्री क्षमासूरी
हीरादे, साणी
आदिनाथ
जै. प्र.ले. सं.
कश्मीरदे
श्री. श्री. ज्ञा. पिप्पल धर्मशेखरसूरि| सुविधिनाथ. पंच.
जै. प्र. ले. सं.
5
७४०
१४६४ ।
जाल्हणादे
श्री. श्री. ज्ञा. पिप्पल धर्मशेखरसूरि| सविधिनाथ. पंच.
जै. प्र. ले.सं
५१
5
७४१
१४८६
भ्रमादे
श्री. श्री. ज्ञा. | पिप्पल सोमचंद्रसूरि
शांतिनाथ
जै. प्र. ले. सं
७४२ १४३७
किसलदे
श्री. श्री. ज्ञा. पिप्पल जयतिलकसूरि
ऋषभदेव
जै. प्र. ले. सं.
आदिनाथ चतु
जै. प्र.ले.सं.
७४४
१४७६
आदिनाथ. चतु
जै. प्र.ले. सं.
७४५
१४८३
संभवनाथ
जै.प्र. ले.सं.
.
भरमी, तारू, उप. ज्ञा. | कक्कसूरि आशूदे
श्री. श्री. ज्ञा. शांतिसूर लखमादे, रामादे
उप. वंश | षंडेरक शांतिसूरि चांपलदे, वडली
श्री. श्री. ज्ञा. नागेन्द्र पद्मानंदसूरि भ्रमरदे
| श्री. श्री. ज्ञा. | पिप्पल धर्मशेखरसूरि साजनदे, श्रीदेवी
नागर ज्ञा. | अंचल जयकीर्तिसूरि आल्हणदे परिक्षक गोत्र
७४६१४८१
संभवनाथ
जै. प्र. ले. सं.
७४७, १४८५
शांतिनाथ. चतु.
जै. प्र. ले. सं.
न515
७४८ | १४८८
अभिनंदन
जै. प्र. ले. सं.
७४६
१४६६
रामलदे
| श्री. श्री. ज्ञा. पिप्पल धर्मशेखरसूरि
शीतलनाथ
जै. प्र. ले. सं.
२६३
७५०
१४६३
लाडी
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री सूरि
शीतलनाथ
जै. प्र. ले. सं.
७१ १४३६
हमीरदे
श्री. ज्ञा. | पिप्पल उदयानंदसूरि
पार्श्वनाथ
जै. प्र. ले. सं.
७५२
१४६६
सुहवदे
| श्री. श्री. ज्ञा. | पिप्पल धर्मशेखरसूरि
संभवनाथ
जै. प्र. ले. सं.
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
'जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
295
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
| क्र. | संवत् | श्राविका नाम | वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक |
गच्छ/आचार्य ७५३, १४७१ | देल्हणदे श्री. श्री. ज्ञा. | पिप्पल. धर्मप्रभसूरि।
विमलनाथ
जै. प्र. ले. सं.
७५४
१४४२
हीरादे
श्री. श्री. ज्ञा. | पिप्पल. सागरचंद्रसूरि ।
आदिनाथ
जै. प्र.ले. सं.
माणिकदे पातु
तपा. सोमसुंदरसूरि
सुमतिनाथ
जै. प्र.ले. सं.
७५६] १४८२
ऊमादे
श्री. श्री. ज्ञा. | पिप्पल. सागरभद्रसूरि ।
संभवनाथ
जै. प्र. ले. सं.
७५७/ १४३६
वांसलदे
प्रा. ज्ञा.
पासचंद्रसूर
महावीर
जै. प्र. ले. सं.
| १४८५
करणादे
विजयसिंह सूरि
संभवनाथ
जै. प्र. ले. सं.
७५६
१४०४
नीनादे
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा. श्री सूरि
पद्मप्रभु
जै. प्र. ले. सं.
|
७६०
१४५६
सुगुणादे
रत्नप्रभसूरि
संभवनाथ
जै. प्र. ले. सं.
७६१
१४६५
वील्हणदे ।
श्री. श्री. ज्ञा. | नागेन्द्र रत्नसिंहसूरि
संभवनाथ
जै. प्र.ले. सं.
।
७६२॥
१४६६
पोमी
श्री. श्री. ज्ञा. | पिप्पल प्रीतिरत्नसूरि
कुंथुनाथ
जै. प्र. ले. सं.
७६३] १४८४
हांसलदे
श्री. श्री. ज्ञा. | श्री धर्मशेखरसूरि
कुंथुनाथ
जै. प्र. ले.
हीरादे, साणी
जजजजज
| ब्रह्माण. श्री क्षमासूरि
आदिनाथ
जै. प्र. ले. सं.
| ७६५ १४६६
कश्मीरदे
श्री. श्री. ज्ञा.
धर्मशेखरसूरि
शांतिनाथ
जै. प्र. ले. सं.
७६६, १४६४
जाल्हणदे
श्री. श्री. ज्ञा.
धर्मशेखरसूरि
सुविधिनाथ
जै. प्र. ले. सं.
।
७६७
१४८६
भरमादे
श्री. श्री. ज्ञा. | नागेन्द्र विनयप्रभसूरि ।
55555
शांतिनाथ
जै. प्र. ले. सं.
७६८
१४३७
कीसलदे
| श्री. श्री. ज्ञा. पिप्पल. जयतिलक सूरि
ऋषभदेव
जै. प्र. ले. सं.
|
१४८० भरमी, तारू, आसू | उप कोरटंक
भामिनदे
कक्कसूरि
आदिनाथ
जै. प्र. ले. सं.
१२३
७७०
१४२१
जयतलदेवी
श्री. ज्ञा.
।
नागेन्द्र गुणाकरसूरि
पार्श्वनाथ
जै. प्र. ले. सं.
७७ | १४३३
मंदोदरी
ऊके. ज्ञा.
श्री भावदेवसूरि
शांतिनाथ
जै. प्र. ले. सं.
,
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
296
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प
क्र. | संवत् | श्राविका नाम । वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य ७७२| १४१७ नामलदेवी, सहजल श्री. श्री. ज्ञा. | पिप्पल गूणदेवसूरि
देवी ७७३, १४२६ | आल्हण देवी | श्री. श्री. ज्ञा. नरप्रमसूरि
वासुपूज्य
जै. प्र. ले. सं.
पार्श्वनाथ
जै. प्र. ले. सं.
७७४/ १४६५ देलहणदेवी, पोमादेवी श्री. श्री. ज्ञा..
पज्जुन्नसूरि
धर्मनाथ
जै.प्र. ले.सं.
६६
७७५
१४३२
विजयश्री
नरप्रभसूरि
वासुपूज्य
जै. प्र. ले. सं.
७१
७७६] १४८३
प्रीमलदेवी
श्री. श्री. ज्ञा.
मणिचंद्रसूरि
नेमिनाथ
5555555
जै. प्र. ले. सं.
।
७७७
१४५३
आल्हणदेवी
...........
जीराउली, शालीभद्रसूरि
चतु, जिनपट्ट
जै. प्र. ले. सं.
७७८
१४१७
माकु, लाछी | डीसा, ज्ञा. | पूर्णिमा, जयशेखरसूरि |
पार्श्वनाथ
जै. प्र. ले. सं.
१४८२ हांसलदेवी, भावलदेवी श्री. श्री. ज्ञा. | पिप्पल र्भशेखरसूरि |
आजितनाथ
जै. प्र. ले. सं.
155
खरतर. जिनभद्रसूरि
शांतिनाथ
जै. प्र. ले. सं.
७८० | १४७६ | महघलदे, खेतलदे
वल्लादे ७१ १४८८ जइतलदेवी
श्री. श्री. ज्ञा
पिप्पल मशेखरसूरि
विमलनाथ
जै. प्र. ले. सं.
७८२
१४६६
काउं
श्री. श्री. ज्ञा.
भशेखरसूरि
शीतलनाथ
जै. प्र. ले. सं.
७८३, १४८५
झनकु
पूर्णिमा, विद्याशेखरसूरि
पद्मप्रभु
जै. प्र. ले. सं.
७८४] १४७१
श्री. श्री. ज्ञा. | आगम, अमरसिंहसूरि
जै. प्र. ले. सं.
७८५] १४६६
माहणदे
श्री. श्री. ज्ञा. | पिप्पल धर्मशेखरसूरि
चंद्रप्रभु
जै. प्र. ले. सं.
७८६१४६३
फलऊधया गोत्र भघोष, विजयचंद्रसूरि
सुमतिनाथ
जै. प्र. ले. सं.
७८७
१४३४
खेमलदे
पिप्पल मुनिप्रभुसूरि
शांतिनाथ
जै. प्र.ले. सं.
७८८
१४६२
साथलदे
प्रा. ज्ञा.
हरिभद्रसूरि
आदिनाथ
जै. प्र.ले. सं.
७८६/ १४३०
रामलदे
ओ. वंश | पिप्पल, मदेवसूरि
आदिनाथ
जै. प्र. ले. सं.
धनी, हीरल
श्री सूरि
पार्श्वनाथ
जै.ध. प्र. ले. सं. भा.२
११६
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
297
| क्र. | संवत्
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
श्राविका नाम | वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक |
गच्छ/आचार्य पाल्हण देवी पल्लीवाल ज्ञा,
७६१
पार्श्वनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १२०
७६२॥
पाचू
डीसावाल ज्ञा.
रत्नाप्रभसूरि
पार्श्वनाथ
७६३
१३६१
देल्हणदे
सेमतिलकसूरी
शांतिनाथ
|७६४ | १३५६
लाछि
पदमचंद्रसूरि
पार्श्वनाथ
७६५ / १३०६] नायकपु, पाल्हा
प्रा. ज्ञा.
सेमतिलकसूरी
पार्श्वनाथ
लक्ष्मादे, पूर्वज, प्रपुअदे उप. ज्ञा. | पल्लीवाल अभयदेवसूरि
पार्श्वनाथ
७६७
१३२६
श्री. ज्ञा.
भावडार भावदेवसूरि
आदिनाथ
|७६८ | १३५४
सीतपु लषम
चैत्र धर्मदेवसूरि
पार्श्वनाथ
७६६
१३४४
मल्हणदे
गुणाकरसूरि
आदिनाथ
८००
|१३५६
सुहवदेवी
ऊकंश
शांतिनाथ
१३८२
रतनल
श्री. ज्ञा. |
श्री जज्जगसूरि
शांतिनाथ
299
८०२
मालहाणि
महावीर
८०३ | १३५०
सिंगारदेवी
प्रा. ज्ञा.
विमलचंद्रसूरि
पार्श्वनाथ
८०४ | १३८७ कील्हणदेवी, कपूरदेवी श्री. श्री. ज्ञा.
चैत्र मानदेवसूरि
पार्श्वनाथ
८०५
१३७६]
वीजल देवी
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री सूरी
आदिनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भाश६
८०६ | १३८६
राजलदेवी
प्रा. ज्ञा.
मेरुतुासूरी
शांतिनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार
५
८७ १३६४
लूणादेवी
नागर ज्ञा.
श्री प्रद्युम्नसूरि
चंद्रप्रभु
जै. ध. प्र. ले. सं. भार ३
८०८ | १३८३
वील्हणदे
| श्री. श्री. ज्ञा. हारीज श्री महेन्द्रसूरी
पार्श्वनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भा२७
८०६
१३६३
प्रतापदे
| गूर्जर |
श्री हंसराजसूर
आदिनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १३
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
298
क्र.
८१०
दी
८१२
८३
८
८१७
दर्द
८६
८.२०
८५ १३३०
८२१
८१६ १३८७
संवत् श्राविका नाम
८२४
१३७७
८२५
१३७३
१३८६
८२७
१३३१
८२८
१३६३
१३३२
१३१२
८२२ १३७६
१३६७
८२३ १३७०
१३८६
१३०६
१३८०
८२६ १४७७
१४७६
१४८६
१४६१
साभू
हीरल
षीमलदे
जयतू
आल्हणदेवी
लखमा देवी
जयतलदे
सालूणि
सालूणि
धंधलदे
वंश / गोत्र
घेतलदे, चमकू
उपकेश ज्ञा.
मोढ़. ज्ञा.
हूंबड ज्ञा.
ज्ञा.
भावडारगच्छ
पाल्हू
पद्मणि
पूनिणि
जयतल्लदेवी
विजय सिरी
आसधर, देसल उप वेसटगोत्र
वनी, लालू
रणादे, देवलदे,
उप. खुरिया गोत्र
गूर्जर ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
ऊकेश वंश
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
श्री मेरुप्रभसूर
श्री पार्श्वदत्तसूर
श्री वीरसूरि
कक्क्सूरि
सर्वदेवसूरि
शांतिदेवसूर
सूरि
रत्नसूर
धर्मदेवसूरि
कमलप्रभसूर
भद्रेश्वरसूरि
कक्कसूर
श्री सूरि
श्री सूर
शीलरत्नसूर
तपा सोमसुंदरसूर
अवदान
आदिनाथ
पार्श्वनाथ
पार्श्वनाथ
आजितनाथ
शांतिनाथ
शांतिनाथ
शांतिनाथ
पार्श्वनाथ
पार्श्वनाथ
आदिनाथ
पद्मप्रभु
चतुर्विंशतिपट जै. ध. प्र. ले. सं. भार २४
पार्श्वनाथ
महावीर
चतुर्विंशति पट्ट
धर्मनाथ. पंच.
शांतिनाथ
अजितनाथ
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
मुनिसुव्रत
संदर्भ ग्रंथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार
जै. ध. प्र. ले. सं. भार
यं
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १४
यं
यं
जै. ध. प्र. ले. सं. भार
यं
जै. ध. प्र. ले. सं. भार २२
जै. ध. प्र. ले. सं. भार
यं
जै. ध. प्र. ले. सं. भार
यं
जै. ध. प्र. ले. सं. भार
यं यं
नहं छिं छिं छिं हिं छिं छिं छिं छिं छिं छिं छिं छिं छिं छिं छिं छिं
यं
जै. ध. प्र. ले. सं. भार
यं
जै. ध. प्र. ले. सं. भार
यं
जै. ध. प्र. ले. सं. भार
यं
जै. ध. प्र. ले. सं. भार ३५
जै. ध. प्र. ले. सं. भार
प
१४
यं
जै. ध. प्र. ले. सं. भार
१४
यं
२१
२४
३१
३३
४७
७४
८४
८८
६६
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १४७
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १४७
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १४८
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १४८
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
299
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
क्र. | संवत् | श्राविका नाम | वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य सूल्ही ।
मोढ़, ज्ञा. देवप्रभसूरि
१४६०
सुविधिनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १४६
भाउलदे, कउतिगदे उप. सुचिंतीगोत्र
उप कक्कसूरि
विमलनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १५०
स। १४८१
नागलदे
ऊकेश वंश
तपा. रत्नसिंहसूरि
पार्श्वनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १५२
नागूपु, अरघू
श्री सर्वसूरि
आदिनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १५५
1८३३ | १४६५
पाल्हणदे
श्री. श्री.
विद्याशेखर सूरि
शांतिनाथ पंच
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १५७
८3४१४६५
भावलदे
श्री. श्री.
देवेन्द्रसूरि बहमाण
ज.ध. प्र. ले. सं. भार १५७
देई
उप. ज्ञा.
जीरा वीरभद्रसूरि
श्रेयांस. पंचतीर्थी
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १५८
८३६ | १४४५
लाडी
मोढ. ज्ञा.
गुणप्रभसूरि
पार्श्वनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १५६
राजू
श्री. श्री.
अंचल जयकीर्तिसूरि
पार्श्वनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १६०
८२८
१४६४
___प्रा. जी.
श्रीर
धर्मनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १६१
हीरादे, गंगादे,
रूपिणी हीरादेवी
८३६ | १४२३
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा सुमतिसिंहसूरि |
पदमप्रभु
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १६६
८४०
१४३७
कुंतादे
श्री. श्री. ज्ञा. | पिप्पल.भतिलकसूरि
वासुपूज्य
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १६७
89
देवपु. हीदेदी
| श्री. श्री. ज्ञा. | नागेंद्र पद्मानन्दसूरि
।
सुमतिनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १६८
८४२
| १४२६
आल्हण देवी
श्री. ज्ञा.
श्री सूरि
आदिनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १६६
८४३ | १४६१
साधू, रमाई
ऊकेश
| अंचल जयकीर्तिसूरि
सुमतिनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १६६
८४४ | १४२४
महालक्ष्मी
श्री. ज्ञा.
श्रीकमलचंद्रसूरि
।
महावीर पंचतीर्थी
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १६६
८४५ | १४४७
सहजलदे
प्रा. ज्ञा.
श्रीमद्र
शांतिनाथ पंच
ज.ध. प्र. ले. सं. भार १७६
८४६
चमकू
श्री. श्री. ज्ञा.
श्रीसूर
मुनिसत्त
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १७६
८४७ | १४१७
लाछलदे
गुर्जर, ज्ञा.
धर्मचंद्रसूरि
शांतिनाथ
जै.ध. प्र. ले. सं. भार १७८
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
300
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
|
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
।
क्र. | संवत् | श्राविका नाम | वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य ८४८, १४८१ षेतलदे श्री. ज्ञा. | तपा. रत्नसिंहसूरि
शांतिनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार| १८०
८४६ | १४६८ | हीरादे, विजादे | ऊकेश वंश | तपा. रत्नसिंहसरि
अभिनंदन
जै.ध. प्र. ले. सं. भार] १८०
वउलादे, गोमति | श्री. श्री. ज्ञा. | पूर्णिमा. गुणसागरसूरि
धर्मनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार
| १४८८ | गंगादे, नागलदे | श्री. श्री. ज्ञा.
तपा. सोमदरसूरि
शांतिनाथ पंच
जै.ध.प्र.
5
| १४८७
वील्हणदे
चैत्र. जिनदेवसूरि
श्रेयांसनाथ
जै.ध.प्र. ले. सं. भार
१८३
ओसवाल ज्ञा. श्री. ज्ञा. |
| १४१८
घटीसु
विद्याधरसूरि
पार्श्वनाथ
जै.ध.प्र. ले. सं. भार| १६१
१४८६
गोमति
श्री. श्री. ज्ञा. | पूर्णिमा गुणसागरसूरि
धर्मनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार/ १९२
१४८६ ।
मुक्तादे
ओसवाल ज्ञा.
तपा. रत्नसिंहसूरि
अजितनाथ
जै.ध. प्र. ले. सं. भार| १६५
संपूरी, वजू
मोढ ज्ञा. ]
आगम. जयानंदसूरि ।
विमलनाथ चतु
जै. ध. प्र. ले. सं. भार| १६५
८५७/ १४५०
फनू
उपकेश | तपा. जयतिलकसूरि
संभवनाथ
जै.ध. प्र. ले. सं. भार| १६६
|
१४
|
साजणि
| श्री. श्री. ज्ञा. पिप्पल. धर्मशेखरसूरि
संभवनाथ
जै.ध.प्र. ले.
८५६/ १४२२
आसलदे
| श्री. श्री. ज्ञा.
चद्रप्रभु पंचतीर्थी जै. ध. प्र. ले. सं. भार] १६८
८६०१४६६
धंधलदे
श्री. ज्ञा.
ब्राह्मण श्री. वीरसूरि
वासुपूज्य
जै.ध. प्र. ले. सं. भार| २०४
राजलदे, तेजलदे | हुं ज्ञा. | तपा. ज्ञानकलशसूरि
धर्मनाथ
जै.ध. प्र. ले. सं. भार| २०५
८६२
१४७३
पचू, खेतलदे | श्री. श्री. ज्ञा. | अंचल. जयकीर्तिसूरि
धर्मनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार| १०७
८६३, १४३२
लूणदे
श्री. श्री.
पूर्णिमा. रत्नशेखरसूरि
पद्मप्रभुपंच.
जै. ध. प्र. ले. सं. भार| ११०
155
ऊकेश
श्रीसूरि
अभिनंदन. चतु.
जै. ध. प्र. ले. सं. भार
११०
८६४/ १४७६ राजलदे, वील्हणदे,
हमीरदे
८६५] १४८२
ऊमादे
प्रा. ज्ञा.
|
श्रीसूरि
सुमतिनाथ. पंच
जै.ध.प्र. ले. सं. भार| ११३
नाल्ही
श्री ढीर गोत्र खरतर श्री जिनहितसूरि पार्श्वनाथ. पंच.
जै. ध. प्र. ले. सं. भा२ | ११४ |
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
क्र. संवत्
८६७ १४६१
८६८१४३६
८६६ १४७४
100
d99 १४६०
८७२ १४८८
८७३ १४३६
८७४
८७६
८७५ १४६१
८७७
50c,
१४५६
८८०
टी
८८२
१४६१
८७६१४८५
८८४
१४८६
१४२१
१४६६
१४१०
१४११
१४७७
८८३ १४३५
१४६६
८८५ १४८३
श्राविका नाम
लक्ष्मादे
माणिकदे, जीणी
सुहवदे, फदी
लषमादे
नालदे, महण
जामू
वाऊ
रूपादे, रमाई
साऊं, देवलदे
कमलाई, जीविण,
साजूसु
हीमादे
हर्ष
वानू, पूरी
लषणदे, झणकू
कुरंदे
गंगादे
माल्हणदे
सूद, कां
मल, कां
वंश / गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
डींसवाल ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
ऊकेश
हुंबडज्ञा. बुद्ध. गोत्र
उपकेश. ज्ञा.
उपकेश. ज्ञा.
उपभो
गोत्र
ऊकेश ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
ऊकेश. ज्ञा.
उप. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उप. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
पिप्पल. उदयदेवसूरि
श्री. श्री. ज्ञा.
अवदान
नाणकीय श्वरसूरि
मदाहडीय मानदेवसूरि
जीरापल्लीय सालिभद्रसूरि
मदाहडीय उदयप्रभुसूरि
तपा. मुनिसुंदरसूरि
पूर्णिमा गुणसागरसूरि
श्रेयांसनाथ चतु.
जयाणंदसूर
तपा. सोमसुंदर
जै. ध. प्र. ले. सं. भार ११८
नागेंद्र रत्नसू
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १२०
तपा सोमसुंदर
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १२१
तपा. ज्ञानकलसूरि
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १२६
उपदेवगुप्तसूर
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १२८
कोरंट सावदेवसूर
शीतलनाथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १३६
धर्मघोष पद्मशेखरसूरि सुविधिनाथ चतु जै. ध. प्र. ले. सं. भार १३६
तपा. मुनिसुंदरसूरि
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १३६
रत्नशेखरसूरि
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १४०
कॉरट सावदेवसूरि
सोमसुंदरसूरि
पार्श्वनाथ
विमलनाथ
वासुपूज्य
विमलनाथ
आदिनाथ
पार्श्वनाथ
सुमतिनाथ
पार्श्वनाथ
अभिनंदन. चतु.
मुनिसुव्रत
पार्श्वनाथ
आदिनाथ
महावीर
संभवनाथ
मुनिसुव्रत
संदर्भ ग्रंथ
जै. ध. प्र. ले. सं. भार ११५
जै. ध. प्र. ले. सं. भार ११६
संभवनाथ
प
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १४०
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १४४
जै. ध. प्र. ले. सं. भार १४५
जै. ध. प्र. ले. सं. भार ८०
जै. ध. प्र. ले. सं. भार ८०
जै. ध. प्र. ले. सं. भार ८१
जै. ध. प्र. ले. सं. भार ८१
जै. ध. प्र. ले. सं. भार ८१
301
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
302
संवत् श्राविका नाम
वंश/गोत्र
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
1077 | शोभा
धारागच्छ
पार्शवनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
2
1185 | देमती
एकतीर्थी दो दीपस्तंभ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
3
1200 दूल्हादेवी
ब्रह्माण
एकतीर्थी
वही
1204 जेलछि
थारापद्रीगच्छ
पार्श्वनाथ
वही
1225 | आसिणि
महेन्द्रसूरि
शांतिनाथ
वही
1251 | तिहण देवी
झणकू
श्री सूरि
पार्श्वनाथ एकतीर्थी
वही
1253 | पूनदेवी
वही
श्री पार्श्वनाथ एकतीर्थी त्रितीर्थी पार्श्वनाथ
1259 | लखमसिरी
नाणकीय गच्छ
वही
1280 | ललता
श्री रिखबदेव
वही
एकतीर्थी
10
| 1299 | रत्नसिरी
श्री जिनसूरि
एकतीर्थी
वही
11
| 1300 | पोयणि
भवडार गच्छ
श्री वीर सूरि
श्री शांतिनाथ
वही
1310 | सरसति
श्री नाणकीय
श्री सिद्धाचार्य
पार्श्वनाथ एकतीर्थी
131314 | भार्यार्थ
| भांडारिक
श्री सुमति सूरि
पार्श्वनाथ एकतीर्थी
14 | 1314 | माल्हणदेवी
पतनसिरि
श्री विजय प्रभसूरि श्रा विजय प्रभसूरि
श्री पार्श्वनाथ
वही
15
| 1314 | वस्तिणि
___...............
श्री पार्श्वनाथ
ना
161322 | देल्ही
चन्द्रगच्छ पद्मसूरि
| श्री आदिनाथ
17
1326 | सूरीइ, रतन
सूरि
श्री पार्श्वनाथ
18 | 1337 | सिरिया
| श्री मान् देव सूरि
श्री रिषभदेव
19
1240/ पानी
श्री परमदेव सूरि
श्री शांतिनाथ
20
| 1349/ हीरू
प्राग्वाट ज्ञा.
श्री पद्मानन्दसूरि
श्री शांतिनाथ
211352 | सोखी
श्री प्रभणंद सूरि
श्री पार्श्वनाथ
वही
221361 | वीलूण देवी, रंभल
श्री नेमिनाथ
वही
23 | 1362 | तेजूदे
श्री आनंद प्रभ सूरि
पार्श्वनाथ
वही
46
24
1364 भीणा देवी
श्रीज्ञा तिलक सूरि
श्री सुविधिनाथ
वही
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
303
संवत् श्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
25
1364 | विमली
दूगड
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | अवदान
गच्छ / आचार्य मल्लधारि श्री तिलक श्री पार्श्वनाथ सूरि श्री सर्वदेव सूरि प्रतिमा
अ.प.जै.धा.प्र.म.
26 | 1368 | तेहिण
| अ.प.जै.धा.प्र.म.
| 46
27
1373 | लखमणि
प्राग्वाट्
श्री रत्नाकर सूरि
श्री आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
| 1373 | तिहुणा
नाणकीय गच्छ श्री सिद्धसेन सूरि
| प्रतिमा
अ.प.जै.धा.प्र.म.
29 | 1374 | तेजलदेवी
श्री पद्मचंद्र सूरि
श्री महावीर
अ.प.जै.धा.प्र.म.
30
1374| गोगड़ा
श्री देव गुप्त सूरि
पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
311374सिरियादे
श्री शांतिसूरि
श्री पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
321375 | सुमड देवी
अंचल श्री मणिभद्र सूरि | श्री शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
33
1376 | जासू
नाणकीय गच्छ | श्री सिद्धसेन सूरि
श्री महावीर
अ.प.जै.धा.प्र.म.
47
341379 | मोहिणिदे
श्री मदन सूरि
श्री शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
148
35
1379 | काली
ऊकेश ज्ञातीय | मल्लधारी श्री तिलक
| श्री शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
| सूरि
36
| 1380 | वीरी
श्री देवभद्रसूरि
आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
48
37
1384 | सुद्रजादे
प्राग्वाट् ज्ञा.
श्री रत्नप्रभ सूरि
प्रतिमा
अ.प.जै.धा.प्र.म.
49
381385 | लखणदेवी
श्री रत्नाकर सूरि
श्री पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
1438/काल्हणदे
प्राग्वाट् ज्ञा.
मडाहडीय श्री हरिभद्र
श्री आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
40
| 1438 | सुहडादे, पूर्णनदे
प्राग्वाट् ज्ञा.
श्री वर्द्धमान सूरि
श्री महावीर
अ.प.जै.धा.प्र.म.
A1
1438| सिरियादे
प्राग्वाट् ज्ञा.
उकेशगच्छ श्री सिद्धसूरि | श्री महावीर
अ.प.जै.धा.प्र.म.
1439 | कीन्हण देवी
प्राग्वाट् ज्ञा.
श्री सिरचन्द्र सूरि
श्री आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
43
1439 | देलूण
श्री माल ज्ञा.
ब्रह्म श्री रत्नाकर सूरि | श्री महावीर
अ.प.जै.धा.प्र.म.
57
44
1440 समरा
श्री महावीर
अ.प.जै.धा.प्र.म.
57
ओसवाल ज्ञा. ब्रह्माण श्री हेमतिलक
सूरि श्री माल ज्ञा. | चैत्र श्री देवेन्द्र सूरि
45
1440 | दीलूण
श्री सुमतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
46
1440 झाजाजु
श्री महावीर
अ.प.जै.धा.प्र.म.
मडाहडीय श्री सोमचंद्र सूरि मडाहडीय श्री सोमप्रभ सूरि
47
1441| कडू
प्रा. ज्ञा.
श्री महावीर
अ.प.जै.धा.प्र.म.
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संवत् | श्राविका नाम
वंश/गोत्र
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
بن
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य | श्री धर्मघोष सूरि
|
1441 | मेघी, रहयणी
प्राग्वाट् ज्ञा.
| श्री शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
49
1444 | मोखलदे
ब्रह्माण श्री वीर सूरि
श्री संभव पंचतीर्थी | अ.प.जै.धा.प्र.म.
58
श्री माल ज्ञातीय प्राग्वाट् ज्ञा.
50
| 1444/ रामकोर
श्री देवचंद्र सूरि
श्री पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
51
1445/लेज्यादे
ओसवाल ज्ञा.
अ.प.जै.धा.प्र.म.
1446 | सीतादे
प्राग्वाट् ज्ञा.
श्री ब्रह्माण श्री विज्ञान श्री महावीर | सूरि मडाहडीय श्री मुक्तिन | श्री पार्श्वनाथ प्रभ सूरि | श्री सूरि
श्री शांतिनाथ
| अ.प.जै.धा.प्र.म.
53
1446|श्रेयस
प्राग्वाट् ज्ञा.
अ.प.जै.धा.प्र.म.
158
1447 | वील्हूणदे
प्राग्वाट् ज्ञा.
श्री मुनिप्रभसूरि
श्री शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
1449 | प्रीमलदे
श्री ललितप्रभसूरि
श्री शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
| 1449 | भरमारदे
श्री भवदेव सूरि
श्री मुनिसुव्रत
अ.प.जै.धा.प्र.म.
1449 | भमरी, पोमादे
प्राग्वाट् ज्ञा.
श्री देवसुंदर सूरि
श्री शांतिनाथ
| अ.प.जै.धा.प्र.म.
58
1450 | सलखणदे, झाजण
प्राग्वाट् ज्ञा.
श्री धर्मतिलक सूरि
श्री महावीर
अ.प.जै.धा.प्र.म.
59
1451 | दीलहणदे
प्राग्वाट् ज्ञा.
श्री रत्नप्रभसूरि
श्री पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
59
1451 | लातुर देवी
ऊकेश ज्ञा.
श्री जितेन्द्र सूरि
श्री चंद्रप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
61
1452 | सोढी
प्राग्वाट् ज्ञा.
श्री रत्नप्रभु सूरि
श्री पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
160 |
62
1452 | काभलदे
उपकेष ज्ञातीय | मडाहड श्री धर्मचंद्र सूरि | श्री शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
63
1453 | कामलदे, वाहिणादे
प्राग्वाट् ज्ञा.
श्री रत्नप्रभु सूरी
श्री चंद्रप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
64
1453
उकेष वंष
श्री सूरि
| श्री मुनिसुव्रत स्वामी
| अ.प.जै.धा.प्र.म.
| 60
65 | 1455 | सीतादे, गाहिदी
प्राग्वाट् ज्ञा.
श्री सूरि
श्री सुमतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
| 1455 | सुदड़ाजे
श्री माल ज्ञा.
| श्री मदन प्रभ सूरि
| श्री पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
67
1387 ] ललरू
उकेष वंष
उकेष श्री देव प्रभ सूरि | श्री धर्मनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
49
68
| 1388| पदमल
प्राग्वाट् ज्ञा.
| श्री सदगुरू
श्री महावीर
अ.प.जै.धा.प्र.म.
49
69
1390 लछमा
श्री नरदेवसूरि
श्री वासुपूज्य
अ.प.जै.धा.प्र.म.
149
70
1390 जाजत्म
अंचल गच्छ
श्री आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
711392 गीता, माणकदे
श्रीमान देव सूरि
श्री आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
50
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र
121
72
73
74
75
76
77
78
79
80
81
82
83
84
85
86
87
88
89
90
91
92
93
94
संवत् श्राविका नाम
1393 हालीरदे
| 1393 मोहिवि
1393 णयणा देवी, तालूरादेवी
1393 खेतु
1394 खूि
1399 सांजणि
1404 नाथि
1405 खीलिणि
1407 गउरी, हीरू
1407 बद्रीसा
1410 जीन्हणदे
1412 वसीद देवी
1415 चापल, सोटा
1418 पद्मल
1420 नामल
1420| कालीसुत, सयणदे
1422 लखमादे
1425 पाथलदे, देल्हणदे
1425 देवल
1425 नयणादे
1425 | सहजलादे
1425 मूंझी
1429 मेघी
वंश / गोत्र
ओसवाल ज्ञा.
भावडार
उपकेष ज्ञा.
ओसवाल ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री सूरि
श्री हेमतिलक सूरि
श्री रत्नाकर सूरि
श्री माणिक्य सूरि
श्री जय प्रभु ि
प्राग्वाट् ज्ञातीय श्री सिद्ध देव सूरि
उपकेष ज्ञा.
गोपी सिंहड
प्रा.
सांखलगोत्र
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
प्राग्वाट्
उपकेष ज्ञा.
श्री सूरि
श्री हरिदेव सूरि
श्री विजय देव तिलक सूरि
श्री मंत्री तिलक सूरि
श्री नरचंद्र सूरि
श्री पूर्णिमा श्री जयचंद्र सूणामुपदेन श्री जिनचंद्रसूरि
पूर्णिमा श्री गुणदेव सूरि
ब्रह्ममणेत्य श्री सूरि
ब्रहद् बंदरिसेण सूरि
श्री देव गुप्त सूरि
धर्मघोष श्री सागरचंद्र
श्री वीर देव सूरि
श्री रत्नप्रभ सूरि
अवदान
श्री सुमतिनाथ
श्री महावीर
श्री आदिनाथ
पंचतीर्थी
श्री आदिनाथ
श्री पार्श्वनाथ
श्री शांतिनाथ मुख्य पंचतीर्थी
श्री पार्श्वनाथ
श्री महावीर
श्री आदिनाथ
श्री महावीर
श्री महावीर
श्री आदिनाथ
श्री आदिनाथ
श्री पद्म प्रभु
श्री अभिनंदन
श्री आदिनाथ
श्री पार्श्वनाथ
संभवनाथ
श्री शांतिनाथ
श्री महावीर
श्री पार्श्वनाथ
श्री वासुपूज्य
संदर्भ ग्रंथ
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ. प. जै.धा. प्र.म.
305
पृ.
50
50
50
in
5
51
51
51
$1
12
32
52
52
52
53
53
53
53
54
54
54
54
55
55
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
18
संवत् | श्राविका नाम
अवदान
| संदर्भ ग्रंथ
वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य नाणकीय गच्छ | श्री महेन्द्र सूरि
951429 | पाल्हणदे
श्री शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
96
1430 | यसजेणि, लीला देवी
| प्रा. ज्ञा.
गूढाओगच्छ श्री षिरचंद्र | श्री शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
97
| 1432 | चापल, धरणु
श्री सूरि
श्री आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
98
| 1433 | चूनादे
प्रा. ज्ञा.
श्री सोमप्रभु सूरि
श्री शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
99
| 1433
खेता
उपकेष ज्ञा.
श्री देव प्रभु सूरि
श्री पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
100
| 1434
तेजलदे
प्रा. ज्ञा.
श्री रत्नप्रभ सूरि
श्री शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
56
101
1435| रामा
प्रा. ज्ञा.
मडाहड श्री सोमप्रभ सूरि | श्री शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
156
102 | 1436 | माल्हणदे, उमादे
उपकेष ज्ञा.
श्री देव प्रभ सूरि
अ.प.जै.धा.प्र.म.
श्री पार्श्वनाथ पंचतीर्थी श्री पार्श्वनाथ
103
1437 | कूरदे
प्राग्वाट् ज्ञा.
श्री पूर्णाभद्र सूरि
अ.प.जै.धा.प्र.म.
1041456 | जयतलदे
| श्री धर्मनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
160
श्री जीरापल्ली श्री शांतिभद्र सूरि श्री धर्मतिलक सूरि
105 | 1456 | हीजलदे
श्री पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
161
106
1456 | झांज
पीपाडा गोत्र
श्री पूर्णचंद्र सूरि
श्री पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
61
107 | 1456 | भ्रूणल, भगिणि
छाजहड गोत्र | श्री शांतिसूरि
श्री शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
1081456 | हीमादे, वइजलदे, हीरा
श्री धनदेव सूरि
श्री सुमतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
109 | 1457 | चंदा
मडाहड श्री मुनि प्रभ
श्री पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
सूरि
1101458 | रामादे, घिरा, जसमादे
प्रतिमा
अ.प.जै.धा.प्र.म.
मडाहड श्री मुनि प्रभ सूरि श्रीमान देव सूरि
111
1458 | भीचल, संसृलदे
श्री पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
61
112
1458| हांसलदे
भावडार श्री विजय सिंह | श्री सुमतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
सूरि
113
1458 | अनुपमदे
श्री माल ज्ञा.
श्री वासुपूज्य
अ.प.जै.धा.प्र.म.
श्री पिप्पलगच्छ उदयाणंद सूरि श्री सोमचंद्र सूरि
114 | 1460 नागल
श्री आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
1151462 | कर्मादे, सोनल
प्राग्वाट् ज्ञा.
| श्री आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
116 | 1462 | सीतादे
श्री महेन्द्र सूरि
श्री चंद्रप्रभ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
117
| 1462 | धारू
| श्री सूरि
श्री पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
162
1181463 | हांसलदे
प्राग्वाट् सूरि
श्री सूरि
श्री शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
क्र
119
120
121
122
123
124
125
126
127
128
129
130
131
132
133
134
135
136
137
138
139
140
141
संवत् श्राविका नाम
1463
1464 कुतांदे
1464 मोढ़ी
1465 छ्यजलदे, सिरीयादे
1465 जटू, सरलदे
1465 कासले
1465 वसिणि
1465 | सकूण, माणलदे
1465 वउल
1465 रूरी
1465 देल्हण
1466 कली
1468 नयणादे
1468 | भामलदे, कमलादेवी
1469 रूपादे, सोनी
1469 नीवी, सान्ही
1469 खेतू
1470 दलूणदे
1471 राऊ
1471 ललतादे
1471 रत्नादे, गोकू
1472 माल्ही
1472
वंश / गोत्र
श्री श्री माल
ज्ञा.
प्राग्वाट् ज्ञा.
प्राग्वाट् ज्ञा.
प्रा. ज्ञातीय
श्री माल ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञातीय
उपकेष ज्ञा.
प्रा. ज्ञातीय
प्रा. ज्ञातीय
उपकेष ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उकेष ज्ञातीय
कोरंटक उपकेष श्री नन्न सूरि
श्रीकासद्र
उपकेष
नाणावाल
ठाकुर
नाणाकीय उप.
ज्ञा.
नाहर गोत्र
प्रा. ज्ञातीय
उकेष वंष
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
ऊकेष ज्ञातीय
श्री जिनदेवसूरि
पू. धर्मचंद्र सूरि
श्री सूरि
श्री गुणप्रभ सूरि
श्री भावदेव सूरि
पिप्पल श्री सोमचंद्र सूरि श्री शांतिनाथ
पिप्पल भ. श्री वीर प्रभ
श्री शांतिनाथ
सूरि
गुदाऊ श्री रत्नप्रभु सूर
गच्छ श्री महेन्द्र सूरि
श्री सूरि
श्री मुनि प्रभु सूरि
तपागच्छ श्री देव सुन्दर सूरि
श्री धर्म तिलक सूरि
श्री देव चन्द्र सूरि
श्री वीरूचन्द्र सूर
उज्जे अणसूरि
श्री वीरूचंद्र सूरि
श्री सोमचंद्र सूरि
श्री शांति सूरि
नागेन्द्र श्री गुणसागर
सूरि
बृहद् श्री कमल चंद्रसूरि
बृहद् श्री कमल चंद्र सूरी
अवदान
श्री पार्श्वनाथ
श्री आदिनाथ
अ.प. जै.धा.प्र.म.
श्री मुनि सुव्रत स्वामी अ.प. जै.धा.प्र. म.
श्री संभवनाथ
श्री पार्श्वनाथ
श्री अभिनंदन
श्री श्रेयांसनाथ
श्री महावीर
श्री महावीर
श्री संभवनाथ
श्री वासुपूज्य
श्री आदिनाथ
श्री शांतिनाथ
श्री संभवनाथ
श्री सुमतिनाथ
श्री आदिनाथ
श्री शांतिनाथ
श्री वासुपूज्य
श्री संभवनाथ
श्री शांतिनाथ
संदर्भ ग्रंथ
श्री नमिनाथ
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र. म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प.जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
307
पृ.
62
63
63
63
63
63
63
63
63
64
64
64
64
64
64
65
65
65
65
65
65
65
65
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
308
क्र
142
143
144
145
146
147
148
149
150
151
152
153
154
155
156
157
158
159
160
161
163
164
संवत् श्राविका नाम
1473 | कमलादे, भावलदे
1473 हांसी, सलखमादे, रसलखणदे
1474 खेतलदे
165
1475 समरदे
1476 नीणू राणी
1477 कडुआ, नरमादे, धांधलदे
1478 विजय, सिरि
1480 मनू पोमीणा
1480
1480 कामलदे
1480 भरमादे
1481
कर्म्मसिरि
1481 प्रेमा
1482 कर्मादे
1482 मेथी
162 1483 आसल
1482 | कामलदे
1482 कामलदे, पांची
1482 सुगणादे
मयणाल, पावणदे, चांपलदे मणियार गोत्र
1482 मनू सागणदे
1483 तोड़ी
1484 पोरा, पोमादे, हेमी
1484 | भरमादे
1485 पाल्दी, आल्हरण
वंश / गोत्र
प्रा. ज्ञातीय
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
सांखला गोत्र
प्रा. ज्ञा. उपकेष श्री सूरी
नाणकीय उपकेष घणानी
गोत्र
प्रा. ज्ञा.
ओसवाल ज्ञा.
प्रा ज्ञा.
उपकेष ज्ञा
उकेष ज्ञा
प्रा. ज्ञा.
उपकेष ज्ञा. बोहरा
उ.श्रे.
उपकेष ज्ञा
उपकेष ज्ञा.
श्रीमाल ज्ञा
ऊकेष ज्ञा.
प्राग्वाट् ज्ञा.
प्रागवाट् ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
तपा श्री सोमसुंदर सूरि
उपकेष ज्ञा.
गुढाउ रतन सूरि
श्री धर्मघोष श्री पद्मषेखर सूरी
च.......... पंचतीर्थी
श्री शांति सूरी
| जीरापल्लीय श्री शांति
भद्रसूरी
सूरी
जीरापल्लीय श्री उदय चंद्र सूरी
पूर्णिमा श्री सूरी
श्री जिनवर्द्धन सूरी
बृहद श्री रत्न प्रभसूरी
श्री सोम सुंदर सूरी
अवदान
उपकेष श्री सिद्ध सूरी
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
गच्छ श्री हेमतिलक सूरि श्री शांतिनाथ
श्री सूरी
श्री आदिनाथ
श्री सोमचंद्र सूरी
श्री आदिनाथ
श्री जयचंद्र सूरी
श्री कुंथुनाथ
श्री हीरानंद सूरी
श्री वासुपूज्य
संडेर श्री शांति सूरी
श्री चन्द्र प्रभु
श्री सोम सुंदर सूरी
श्री अजितनाथ
तपा श्री सोमचंद्र सूरी
श्री मुनिसुव्रत
श्री पद्मनाथ
बृहद् श्री कमचन्द्र सूरी
श्री वीर चंद्र सूरी
श्री शांतिनाथ
श्री संभवनाथ
श्री पार्श्वनाथ
श्री वासुपूज्य
श्री अजितनाथ
श्री आदिनाथ
श्री सुमतिनाथ
श्री मुनिसुव्रत
श्री शांतिनाथ
श्री कुंथुनाथ
श्री सुमतिनाथ
श्री चन्द्रप्रभ स्वामी
श्री शांतिनाथ
श्री कुंथुनाथ
श्री वासुपूज्य
संदर्भ ग्रंथ
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ. प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ. प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ. प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
पृ.
65
66
66
66
66
66
66
66
67
67
67
67
67
67
68
68
68
68
68
68
68
68
69
69
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
संवत् श्राविका नाम
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य बालदा गोत्र | भोवाल पूर्णिमा
166
1485 | कमलादे
श्री मुनि सुव्रत
अ.प.जै.धा.प्र.म.
6
167
1485 | दानू
उपकेष ज्ञा.
श्री शांति सूरी
श्री आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
168 | 1486 / लुटक, झयनलदे
प्रागवाट् ज्ञा.
श्री सागर चन्द्र सूरी
श्री संभवनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
169 | 1486 | झवा, पोमादे
श्री श्रीमाल ज्ञा. | प्रति सिंह सूरी
श्री चन्द्र प्रभ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
170 | 1486 | हीमादे, मोहणदे
| कोरंटकीय श्रीकाक सूरी श्री त्रितीर्थी
अ.प.जै.धा.प्र.म.
ऊकेष रातीडीया गोत्र उपकेष ज्ञा.
1711486 सीतादे
श्री देव गुप्त सूरी
श्री चंद्र प्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
| 70
172
| 1489 | खेतलदे, बोधी, हांसू
| प्रा. ज्ञा.
श्री पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
10
173
1489 | माल्हणदे
प्रा. ज्ञा.
तपा श्री सोम सुंदर सूरी | श्री पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
| 70
174 | 1489 | नायलदे, पुरी
तपा. सोम सुंदर सूरी
श्री धर्मनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
170
1751489 माणिकदे
उपकेष श्री सिद्ध सूरी
श्री पद्म प्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
उपकेष ज्ञा. बाफणा गोत्र प्रा. ज्ञातीय
176
1490 | पूजा, मीघलदे
तपा. श्री सोम सुंदर सूरी श्री सुमतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
70
177 | 1490 | म्यापुरी, ढम्मीरदे
प्रा. ज्ञातीय
तपा. श्री सोम सुंदर सूरी श्री विमलनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
178 | 1491 | पांची, देल्हू
| प्रा. ज्ञातीय
श्री सूरी
श्री शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
179
1491 लाखणदे
प्रा. ज्ञातीय
तपा. श्री सोम सुंदर सूरी | श्री मुनि सुव्रत स्वामी
अ.प.जै.धा.प्र.म.
71
180
1492 | पोमादे, सोनलदे
प्रा. ज्ञातीय
गूंदाप श्री रत्न प्रभु सूरी | श्री सुविधिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
71
1811492 | बूची, नागू
प्रा. ज्ञा.
मडाहड श्री नाणचन्द्र
श्री विमलनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
171
सुरी
182
1492 | रांभू, अमकू
................
तपा. श्री सोम सुंदर सूरी | श्री शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
| 1492 | काल्हणदे
हुंबड ज्ञा
तपा श्री सोम सुंदर सूरी | श्री कुंथुनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
71
184
1492 | राणी
प्रा. ज्ञा.
तपा श्री सोम सुंदर सूरी | श्री संभवनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
171
1851492 | कमलादे, लूणी, रूपादे
| उकेष ज्ञा
तपा श्री सोम सुंदर सूरी | श्री मुनि सुव्रत
अ.प.जै.धा.प्र.म.
186
1492
।
श्री महावीर
अ.प.जै.धा.प्र.म.
187
1492 ललतादे
उकेष वंष खरतर श्री जिन भद्र लूणीया गोत्र सूरी श्रीमाल ज्ञातीय | पिप्पल श्री उदय प्रभ
देव सूरी प्रा. ज्ञातीय श्री मुनि प्रभ सूरी
श्री चन्द्र प्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
188| 1492 | पुनी, पाल्हदे
श्री सुमतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
72
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
310
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संवत् श्राविका नाम
वंश/गोत्र
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य श्री उदय प्रभ सूरी
| 1493 | पूजी, पूनी
उपकेष ज्ञा
श्री अजितनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
72
190 | 1494 | भावलदे
प्रा. ज्ञातीय
श्री वीरचंद्र सूरी
श्री चन्द्र प्रभ स्वामी
अ.प.जै.धा.प्र.म.
191
| 1494 | रामीदे, कमलादे
छाजहड़ गोत्र
श्री पल्लीरूद्र
श्री आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
192
| 1494 | घांघलदे
अ.प.जै.धा.प्र.म.
73
193 | 1494 मीणलदे, सुहागदे
अ.प.जै.धा.प्र.म.
रांडेर गच्छ भं. | श्री शांति सूरी श्री धर्मनाथ गोत्र प्रा. ज्ञा. तपागणेन्द्र श्री सोम श्री अनंतनाथ
सुंदर सूरी उपकेष वंष श्री धर्म घोष श्री श्री चन्द्रप्रभ खाटड गोत्र विजयचंद्रसूरी प्रा. ज्ञा. गोत्र खरतर श्री जिन सागर | श्री अजितनाथ
1941495 | घन्वादे, वील्हणदे
अ.प.जै.धा.प्र.म.
73
| 1497 | सुद्रदे
अ.प.जै.धा.प्र.म.
173
सूरी
196
| 1497 | चापल
श्री कक्क सूरी
श्री धर्मनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
|73
197| 1797 | दल्हा, ललतादे
अ.प.जै.धा.प्र.म.
174
198 | 1497 | श्री मलदे
अ.प.जै.धा.प्र.म.
74
उपकेष ज्ञा. उपकेष श्री सिद्ध सूरी श्री धर्मनाथ बाफणा गोत्र भावडार श्री श्री | उपकेष गच्छ श्री वीर | श्री संभवनाथ माल ज्ञा. श्री उसवंष श्री विजय चंद्र सूरीश्री कुंथुनाथ पारख गोत्र प्रा. ज्ञा. तपा श्री सोम सुंदर सूरी | श्री सुमतिनाथ
| सूरी
199
1498 | पूनादे
अ.प.जै.धा.प्र.म.
200
1498 | हांसलदे, तजनी
अ.प.जै.धा.प्र.म.
74
201
1498| खीमलदे, हीरादे,
उपकेष ज्ञा
श्री नवभद्र सूरी
श्री वासुपूज्य
अ.प.जै.धा.प्र.म.
202
1499 | पोमी, पाणी
श्री नवभद्र सूरी
श्री संभवनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
74
203
1499/संगादे
उपकेष ज्ञा.
बृहद् गच्छ श्री धर्मसिंह | श्री शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
सूरी
204
1499 माणिकदे
श्रीमाल ज्ञा.
श्री श्री पूर्ण भद्र सूरी
श्री श्रेयांस पंचतीर्थी | अ.प.जै.धा.प्र.म.
205 | 1500 हासलदे
श्री ब्रह्माण
श्री प्रद्युम्न सूरी
श्री कुंथुनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
206
1499 | जइतलदे, हर्दा
प्रा. ज्ञा.
मुनिसुंदर सूरि/तपा
मुनिसुव्रत
दी.जै.इ.इ.ऑ.अ.
207
1499 | सरसू. लषणादे
उसवाल ज्ञा.
मुनिसुंदरसूरि/तपा
महावीर
दी.जै.इ.इ.ऑ.अ.
208
1500 पाल्हणदे
श्रीमाल ज्ञा.
दी.जै.इ.इ.ऑ.अ.
209
1500
अची
ऊकेंष वंष
| जयकीर्तिसूरि/ सुमतिनाथ | अंचलगच्छ जिनसागरसूरि/ |श्रेयांसनाथ | खरतरगच्छ हेमरत्नसूरि/आगमगच्छ सुमतिनाथ
दी.जै.इ.इ.ऑ.अ.
210 | 1500 | पंचू, मचकू
श्री श्री
दी.जै.इ.इ.ऑ.अ.
211 | 1500 जासू
ऊकेष वंष
मुनिसुव्रत
दी.जै.इ.इ.ऑ.अ.
जयकीर्तिसूरि/ अंचलगच्छ महेन्द्रसूरी
212
1235| देमति
नाणकीयगच्छ
शांतिनाथ
दी.जै.इ.इ.ऑ.अ.
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
संवत् श्राविका नाम
वंश/गोत्र
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य रत्नसूरी
213
1249 | धणसी
उकेषवंष
पार्श्वनाथ
दी.जै.इ.इ.ऑ.अ.
2141260 रालहा
सूरी
पार्श्वनाथ
दी.जै.इ.इ.ऑ.अ.
215 | 1303 | पालहणदेवी
श्री श्रीमाल ज्ञा. | सूरी
ऋषभदेव
दी.जै.इ.इ.ऑ.अ.
216 | 1341 | प्रेमलदेवी, मोखा
अंचलगच्छ यषोदेवसूरी | ऋषभनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
217 | 1349 | पद्मश्री
ऊकेष वंष
बृहद्गच्छ मुनिरत्नसूरी | शीतलनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
218
| 1352 | पुनी
श्री सुमतिसूरी
शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
2191368 | जासल
श्री श्रीमाल
। वीरसिंह सूरी
महावीर
अ.प.जै.धा.प्र.म.
220 | 1369 | सहजलदे ।
श्री श्रीमाल
| ब्रह्माणगच्छ श्री वीरसूरी | पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
2211374 | देवश्री
आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
भोराणकीय वंष राजगच्छ श्री
ज्ञानचंद्रसूरी पल्लीवाल सिंहदन्तसूरी
222
| 1391 | धरणा, पाल्हणा
पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
223
| 1393 | लखम
प्रा. ज्ञा.
महेन्द्र सूरी
पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
224 | 1394 ललन
प्रा. ज्ञा.
मुनिषेखरसूरी
आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
225
| 1493 | कुंती
सोमसुंदरसूरी/तपा.
| सुपार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
226 | 1493 मालहणदे
सोमसुंदरसूरी/तपा.
सुमतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
| 1493 करणू भली
देवगुप्तसूरी
संभवनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
228
1495 प्रीमलदे, संसारदे
श्री. श्री.
श्री सूरी
मुनिसुव्रत
अ.प.जै.धा.प्र.म.
229 | 1495 | उमादे, गंगादे
प्रा.
सोमसुंदर/तपा
संभवनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
230
1496 कर्मणि
श्री. श्री.
श्री सूरि
धर्मनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
231
1496 धनादे, नामलदे
ऊकेष
| सोमसुंदरसूरि/तपा
| चंद्रप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
232
1496 | चापलदे
श्री. श्री.
श्री सूरि
कुंथुनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
233
| 1496 | माझू धारू
प्रा. ज्ञा.
सोमसुंदरसूरि/तपा
संभवनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
234
1497 | प्रथमदे
श्री. श्री.
हेमरत्नसूरि/आगमगच्छ | शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
235
1498 | संपूरी, धर्मिणी
प्रा. ज्ञा.
सोमसुंदर सूरी/तपा
। कुंथुनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
७
संवत् श्राविका नाम
वंश/गोत्र
| अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य सोमसुंदरसूरी/तपा
236 | 1498 | सहवदे, अरघू, वची
प्रा.
सुपार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
237
1498 | पाल्हणदे
विजयचंद्रसूरि
पदमप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
238
1499 | सावलदे, दलूणदे
वर्षणा गो.
कक्कसूरि/उपकेष
सुविधिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
239
1499 | वीलह, हनादे
सोमसुंदर सूरि
मुनिसुव्रत
अ.प.जै.धा.प्र.म.
240 | 1499 रूडी
श्री. श्री.
रत्नसिंह सूरी/ वृद्धतपा संभवनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
2411499 | वानू
उपकेष
शांतिसूरि/संडेरगच्छ
विमलनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
242 | 1499 | नागलदे, माल्हणदे
| वरहडिअ गोत्र
मुनिसुरसूरी/तपा
संभवनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
243
1489 | कीलहणदे, रूडी
प्रा. ज्ञा.
सोमसुंदरसूरि/तपा
चंद्रप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
2441490 | गांगी, सूलटी
प्रा. ज्ञा.
श्री सूरी
धर्मनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
245
1490 सलदे
श्रीमाल ज्ञा,
लक्ष्मीचंद्रसूरी/पूर्णिमापक्ष | पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
246
1490 भरमादे
श्रीमाल ज्ञा.
आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
गुणसागरसूरि/ पूर्णिमापक्ष सोमसुंदरसूरि/तपा
247 | 1490/ नामलदे, वीलहणदे, हांसा | प्रा. ज्ञा.
वर्धमान
अ.प.जै.धा.प्र.म.
248
1490 | सूहवदे, रूड़ी
प्रा. ज्ञा.
| सोमसुंदरसूरि/तपा
सुपार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
249 | 1491 | हली, मची
जिनदेवसूरि/कूचडगच्छ | चंद्रप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
2501491 | कामलदे
श्री. श्री.
सोमसुंदरसूरि/तपा.
शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
2511491 | कर्माद, षिमही, सीतादे । उपकेष
श्री सिंघडसूरि
शीतलनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
252 | 1491 | सारू, राजू, जसूं, चमकू
गूजर ज्ञा.
सोमसुंदरसूरि/तपा.
शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
23 | 1492 | संपूरी
प्रा. ज्ञा.
श्री सूरी
वासुपूज्य
अ.प.जै.धा.प्र.म.
1493 | मेलादे
उकेष ज्ञा.
पालिभद्रसूरि
श्रेयांसनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
2551493 | भरमादे, रणू
| ऊकेष वंष
जिनभद्रसूरि
पद्मप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
256
1493 | पाल्हदे
श्रीमाल ज्ञा.
रामचंद्रसूरि
| चंद्रप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
257
1493 लूणादे
श्री. श्री.
मुनितिलकसूरि
शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
258
1493 | अनुपमादे, पद्माई
ऊकेष
कक्कसूरि
संभवनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
259
1487 | देल्हणदे
| श्री. श्री
| आदिनाथ
| अ.प.जै.धा.प्र.म.
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
संवत् | श्राविका नाम
| वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
260
1487 | चांपलदे
उप. ज्ञा.
अ.प.जै.धा.प्र.म.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक अवदान
गच्छ / आचार्य षीलभद्रसूरि/
संभवनाथ हारीजगच्छ जयाणंदसूरि/
चंद्रप्रभु रूद्रपल्लीगच्छ सोमसुंदरसूरि/तपागच्छ विमलनाथ
261
1487| सोमलदे
अ.प.जै.धा.प्र.म.
उप. ज्ञा. भरहटिगोत्र नानीमा. ज्ञा.
262
1488 | बूची, नागड़े, जासू
अ.प.जै.धा.प्र.म.
263
1488 | कपूरी
श्री. श्री.
आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
जयकीर्तिसूरि/ अंचलगच्छ सोमसुंदरसूरि
264
1488 | हीमल, वीरू
प्रा. ज्ञा.
सुमतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
265
11488 | हांसलदे
ऊकेष ज्ञा.
| सोमसुंदर सूरि
मल्लिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
266
| 1488 | पाल्हणदे, रत्नादे
प्रा. ज्ञा.
सोमसुंदरसूरी
विमलनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
267
| 1488 | माणिकी, हादी, पाणी
श्री. ज्ञा.
| सोमसुंदरसूरि/तपा.
पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
268
1489 | तधापदे
श्री. श्री.
| गुणसागरसूरि
अभिनंदन
| अ.प.जै.धा.प्र.म.
269
| 1489 | दूया
श्री. ज्ञा.
श्री सूरि
आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
270
1489 | रूहवदे
श्री मोढ. ज्ञा. |
| श्रीदेवप्रभसूरि
पद्मप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
271
श्री. ज्ञा.
धर्मसिंहसूरि
कुंथुनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
272
1489 | राजपुत्र
श्री. श्री.
श्रीसूरि
मुनिसुव्रत
अ.प.जै.धा.प्र.म.
273 | 1489 नागलदे
श्रीमाल ज्ञा.
मुनिसिंह सूरि
संभवनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
274 | 1489 | मोषलदे
श्री. श्रीमाल ज्ञा. | रत्नसिंहसूरि बृहत्तपा | | संभवनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
275 | 1482 | तेजलदे, सुकतादे
उ. ज्ञा.
वीरभद्रसूरि
सुविधिनाथ
| अ.प.जै.धा.प्र.म.
276
1482 | भली, माकू
प्रा. ज्ञा.
सोमसुदरसूरि/तपा.
| आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
277
1482 रयणादेवी
श्री. श्री.
सुमतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
जयकीर्तिसूरि/ अंचलगच्छ हेमरत्नसूरि
278
1482 | लाडी
शीतलनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
279 | 1483 | मंची
| श्री. श्री.
गुणसागरसूरि/पूर्णिमा | शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
280
1483 | आल्हणदे, चाहणदे
ऊके. वंष
शांतिसूरि/संडेर
| चंद्रप्रभस्वामी
अ.प.जै.धा.प्र.म.
281
1483 | लषमादे
श्री. श्री.
जयकीर्तिसूरि/अंचल
वासुपूज्य
अ.प.जै.धा.प्र.म.
282
1483/नीमल
प्रा. ज्ञा.
सोमसुंदरसूरि/तपा.
धर्मनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संवत् श्राविका नाम
वंश/गोत्र
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
283
| 1484 | मेघी, देवलदे
प्रा. ज्ञा.
पद्मप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
284
| 1484 | कपूरदे
डीसावाल, ज्ञा. | सोमसुंदरसूरि/तपा.
| पद्मप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
285
| 1485 | कनी
प्रा. ज्ञा.
रत्नसिंहसूरि/तपा.
| पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
286
1485 | पूनादे, भरमी
श्री. श्री.
मुनिसिंहसूरि/आगम
वासुपूज्य
अ.प.जै.धा.प्र.म.
287 | 1485 आसलदे, भरमी, गंगादेवी | प्रा.
सोमसुंदरसूरि /तपा
मुनिसुव्रत
अ.प.जै.धा.प्र.म.
288| 1485 | हलहदे, सूहवदे
ऊकेष वंश
जिनसागरसूरि /खरतर
चंद्रप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
| 1485 | डाही
प्रा. ज्ञा.
सोमसुंदरसूरि
आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
290 | 1486 | चांपू, जोली
प्रा. ज्ञा.
सोमसुंदरसूरि
चंद्रप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
291 | 1486 / वीलहणदे, कउलदे
उसवंष
श्रीसूरि
पद्मप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
292
| 1486 | वीकमदे
उसवाल ज्ञा.
जयचंद्रसूरि (पूर्णिमा)
वासुपूज्य
अ.प.जै.धा.प्र.म.
293 | 1475 | पूनादे
उकेष वंष
| सोमसुंदरसूरि तपागच्छ
आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
294
14761 मचकू
श्री. श्री.
श्री वीर सूरि
विमलनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
295 | 1476 | ललतादेकाउ
अभिनंदन
अ.प.जै.धा.प्र.म.
श्री. श्री. सागरचंद्रसूरि/
पिप्पलगच्छ दीसावाल ज्ञा. | सोमसुंदर सूरि/तपा
296
1476 | कीलहणदे, मचकू
अभिनंदन
अ.प.जै.धा.प्र.म.
297 | 1477| आलूणसिगारदे
प्रा. ज्ञा.
मुनिसिंहसूरि
पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
298 | 1477 | धर्मादे
उप. वंष
सोमसुंदरसूरि /तपा.
शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
299 | 1478 | हांसलदे
धर्मनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
300 | 1478 | रूडी, सूइजलदे
उसिवाल ज्ञा. | महेंद्रसूरि हारीजगच्छ श्री. श्री ज्ञा. अमरसिंह सूरी
आगमगच्छ प्रा. ज्ञा. सोमसुंदरसूरि/तपा.
सुविधिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
301
1478| माकु
शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
302 | 1479 | नागिया
उसवाल ज्ञा.
| सागरतिलकसूरि
पद्यप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
303
1480| देदी
श्रीमाल ज्ञा.
अजितनाथ
| अ.प.जै.धा.प्र.म.
पद्माणंदसूरि/ नागेन्द्रगच्छ श्रीसूरि
304
पार्श्वनाथ पंचतीर्थी
अ.प.जै.धा.प्र.म.
1481 | षोतलदे, हमीरदे, प्रीमलदे, प्रा. ज्ञा.
सलसणादे, धर्मादे 1481 | धांधलदे मेलू
श्री. श्री.
305
श्री सूरी/अंचलगच्छ
शीतलनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
306 | 1481 | जालहणदे दिरूलदे।
उप ज्ञा.
पूज्य सूरि/ब्रह्माणी
चंद्रप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र
307
308
309
310
311
312
313
314
315
316
317
318
319
320
321
322
323
324
325
326
327
328
329
संवत् श्राविका नाम
1481 हरषू
1481 कील्हणदेवी
1482 माकु रूडी, सहिजलदे,
सूचकू
1466 | कीलहणदे
1466 भूमि लाछू
1466 जसमा
1468 सिंगारदे
1468 देवलदे
1468 राजलदे
1468 माकु
1461 सीतादे
1469 पूनादे
1469 सुंदरदे
1469 चनूपु
1469 धरणू
1469 पूजी
1470 चांपलदे
1471 चमकू
1472 सेलादे
1472 रत्नादे
1472 गुरूमादे
1472 लहकू
1475 अमकी
वंश / गोत्र
श्री. ज्ञा.
श्री सूरी
प्रा. ज्ञा.
नागर ज्ञा.
हुबंड ज्ञा. काष्ठा संघ
श्री. श्री
श्री. श्री.
श्री. श्री.
उपकेष ज्ञा.
उपकेष ज्ञा
श्री. ज्ञा.
उपकेष ज्ञा.
हुबड़ ज्ञा.
हुबड़ ज्ञा.
हुबड़ ज्ञा.
हुबड ज्ञा.
श्री. श्री.
श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
उ. ज्ञा.
श्री. श्री.
वायड़ ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
जयकीर्तिसूरि अष्मादा
सोमसुंदरसूरि / तपापक्ष
सोमसुंदरसूरि / तपागच्छ
रत्नसागरसूरि तपागच्छ
रत्नकीर्ति
रत्नतिलकर
पक्षगच्छ
श्री सूरी
श्री वीरभद्रसूरि जीरापल्ली
महेंद्रसूरी ज्ञानकीयगच्छ
उदयानंदसूरी ब्रह्माण
श्री सूरी
सिंहदत्तसूरी
सिंहदत्तसूरी
श्री विजय सिंह सूरी /
भावडारगच्छ
जयतिलकसूरी
राषिल्लसूरी, नाणंद
अवदान
अनंतनाथ
महावीर
वर्धमान
शांतिनाथ
पार्श्वनाथ
शांतिनाथ
मुनिसुव्रत
मुनिसुव्रत
शांतिनाथ
चंद्रप्रभ
शांतिनाथ
कुंथुनाथ
शांतिनाथ
चंद्रप्रभु
सिंहदत्तसूरी
सुमतिनाथ
सिंहदत्तसूरी, नागेन्द्रच्छ
सुमतिनाथ
देवगुप्तसूरी, उपकेषगच्छ | सुमतिनाथ
पार्श्वनाथ
जयतिलकगणि पिप्पलगच्छ
हेमरत्नसूरी
महावीर
वासुपूज्य
सुमतिनाथ
पार्श्वपाथ. चतु
पार्श्वनाथ
संदर्भ ग्रंथ
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प.जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा.प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
अ.प. जै.धा. प्र.म.
315
पृ.
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संवत् श्राविका नाम
वंश/गोत्र
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य | सावदेवसूरी
330
1433 हीमादे
उप. ज्ञा.
सुमतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
331
1434 जासलदे
श्री माल
मुनि ब्राह्मण गच्छ
शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
1437 | पद्मलदे
प्रा. ज्ञा.
देवचंद्रसूरी पूर्णिमापक्ष
आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
333
1438 | चांपलं
प्रागवाट्
महाहडीया श्री सूरी
वासुपूज्य
अ.प.जै.धा.प्र.म.
334
| 1440 | देलुणदे
मलयचंद्रसूरी
धर्मनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
| 1443 | माणिक्षि
उकेष
महावीर
अ.प.जै.धा.प्र.म.
336
| 1446 | धांधलदेवी
श्री. श्री.
श्री सूरि
वासुपूज्य
अ.प.जै.धा.प्र.म.
337
1447 सुहागदे
उकेष
श्रीमुनिप्रभसूरी
संभवनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
337
1450 षतालदे
श्री. श्री.
ब्राह्मण मुनिचंद्रसूरि मुनि | आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
338
1452 | लाषणदे, चांपलदे
सिंहदत्तसूरी
पद्मप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
श्री. श्री. नागडगच्छ उपकेष
339
1453 | सुरदेवी, रामती
मडाहडगच्छ, धणचंद्रसूरी नमिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
340
| 1454 | माल्हणदे
प्रा. ज्ञा.
धर्मतिलकसूरि
आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
341
1459| माल्हणदे
गूजर ज्ञा.
पूर्णिमापक्ष, पार्श्वचंद्रसूरि | अजितनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
342 | 1459 मीणलदे
श्री. श्री.
श्रीसूरी पूर्णिमापक्षे
आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
3431459 विक्रमदे, वईजलदे
अ.प.जै.धा.प्र.म.
श्री धर्मप्रभसूरी, चतुर्विषतिपट पिप्पलाचार्य प्रज्ञातिलकसूरी, तपागच्छ पार्श्वनाथ
344
1460
देवलदे
श्री. श्री.
अ.प.ज.धा.प्र.म.
345
| 1462 | लाडी, हासु
प्रा. ज्ञा.
हेमचंद्रसूरि
वासुपूज्य
अ.प.जै.धा.प्र.म.
346
1465
देवलदेलापू
..................
रत्नप्रभसूरी, गुदाउगच्छ | शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
| 1394 | रांदलदे
श्रीमाल.
पीपलगच्छमलय चंद्रसूरी | पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
348
1394 षिमिणि
उपकेष
हेमतिलकसूरि
| शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
3491404 वइजलदे, लाल
उपकेष
मडाहडगच्छ धणचंद्र
पद्मप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
| 1405 | लीलादेवी
श्री श्रीमाल
श्री सूरी
वासुपूज्य
अ.प.जै.धा.प्र.म.
3511406 दागल
वायडज्ञाति
बायडगच्छ जीवदेवसूरी | आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
3521408 | रूपादे माल्हागदे
उ. ज्ञा.
देवचंद्रसूरी
पद्मप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
संवत् | श्राविका नाम
| वंश/गोत्र
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
353
1409 | पूजल
श्री श्रीमाल
षांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य पूर्णिमापक्ष, सुमतिसिंह सूरी रूद्रपल्लीयगच्छे, गुणचन्द्रसूरी धर्मचंद्रसूरी
354
1415 | संगाहा
उप. ज्ञा.
| अ.प.जै.धा.प्र.म.
मंदिर में एकतीर्थी प्रतिमा पद्मप्रभु
355
1420 | वईजलदे
प्रा. ज्ञा.
अ.प.जै.धा.प्र.म.
356
1420| सिंगारदे, तलदे
उके. ज्ञा.
उकेषगच्छ श्री कक्कसूरी शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
357
1420| पूंजी
प्रा. ज्ञा.
श्री सूरी
| एकतीर्थी प्रतिमा
अ.प.जै.धा.प्र.म.
1422 | मोषलदे
श्री. श्री.
पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
359
| 1423 | धरणू
नेमिबिंब
अ.प.जै.धा.प्र.म.
ब्रह्माणगच्छ, बुदिसागरसूरी षंडेरकीयगच्छ, श्री ईष्वरसूरि बृहदगच्छ श्रीगुणसमुद्रसूरी चित्रगच्छ गुणदेवसूरी
360 | 1423 | लषमादेवी
श्री. श्री.
पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
| 1428 | वेरू, पातादे
प्रा. ज्ञा.
आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
362
1429 | मदमल
श्री. श्री.
श्री. सूरी
आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
3631431 | रूडी
नीमाज्ञा.
श्री सूरी अंचलगच्छ
पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
364
1193 राजश्री
महावीर
प्रा.ले.सं.भा.1
365
| 1181| सत्यभामा
प्रा.ले.सं.भा.1
3661207 | स्त्रामी, सांपी
प्रा.ले.सं.भा.1
संडेरकगच्छ
धर्मनाथ षालिभद्रसूरि अड्डालिजीय गच्छ अजितनाथ देवाचार्य सरवाल
प्रतिमा गच्छजिनेष्वराचार्य सरवाल ग. जिनेष्वराचार्य | वासुपूज्य
367
| 1208 | लक्ष्मी
प्रा.ले.सं.भा.1
368
1212 | मोहिनी
प्रा.ले.सं.भा.1
369 | 1213 | मंदनिका
सिंह सेन सूरि
पार्श्वनाथ
प्रा.ले.सं.भा.
370 | 1215 | छिरदेवी
हेमचंद्र सूरि
पार्श्वनाथ
प्रा.ले.सं.भा.1
371
| 1228 | चड़व
मोढ़. वंष
श्रेयांसनाथ
प्रा.ले.सं.भा.1
372 | 1243 | बांदी
महावीर
प्रा.ले.सं.भा.1
373 | 1249 | रत्नी
देवानंदसूरि
नेमिनाथ
प्रा.ले.सं.भा.1
374 | 1261 | देवड़ी, सिरयासदे
श्री नरचंद्रोपाध्याय
प्रा.ले.सं.भा.1
375
1261 वेनिश्री
पद्मनाथ
प्रा.ले.सं.भा.1
,
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
318
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
श्राविका नाम
वंश/ गोत्र
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य भावदेवसूरि
376 | 1270 | वीन्ह
अजितनाथ
प्रा.ले.सं.भा..
377
1299 णिश्रेय
चंद्रसूरि
प्रतिमा
प्रा.ले.सं.भा.1
378
1325
श्री वासुदेव सूरि
आदिनाथ
प्रा.ले.सं.भा.1
379
1305 | सलषणदेवी रोहिणी
प्राग्वाट्ज्ञातीय श्री रत्नप्रभसूरि
श्री जिनप्रतिमा
प्रा.ले.सं.भा.1
3801339 | षेढी
| श्री गुणचंद्रसूरि
सुमतिनाथ
प्रा.ले.सं.भा.1
| 1339 नीनू माकू चापल |
श्री श्रीमालवंश | देवसूरि
श्री पार्श्वनाथ
प्रा.ले.सं.भा.1
| 1341 | झांझल देवी
श्रीसूरि
पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
383 | 1345 | सूमल
श्रीमालज्ञातीय
वासुपुज्य
अ.प.जै.धा.प्र.म.
384
1353 जासल
कमला कर सूरि
धर्मनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
देसावालज्ञातीय
385
1361 | विहलण देवी
विबुधप्रभसूरि
प्रतिमा
अ.प.जै.धा.प्र.म.
386
1369 | लालू
देवेन्द्रसूरि
शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
387 | 1382 | वींझू
नीमा वंष
सूरि
पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
388 | 1392 | संसारदे
सदगुरू
धर्मनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
389
| 1392 | भांवल
मोढ ज्ञातीय
गुणचंद्रसूरि
चंद्रप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
390
| 1392 | मुंजाल
मोढ वंष
विबुधप्रभसूरि
नेमिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
3911402 रयणादे
ओस वंष
अ.प.जै.धा.प्र.म.
| नागेन्द्रगच्छ विनय प्रभ | विमलनाथ सूरि रत्नाकर सूरि पार्श्वनाथ
392 | 1404 | मालहणदेवी
प्रागवाट् ज्ञा.
अ.प.जै.धा.प्र.म.
393
1405 | नीमलदे
श्रीमाल
बुद्धिसागरसूरि
शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
3941414 | षीमिणि आलहणदे
| उप.
पिप्पलाचार्य वीर देवसूरि | आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
395
| 1415 | तिहुण श्री
चंद्रप्रभु
अ.प.जै.धा.प्र.म.
विणवट गोत्र | धर्मघोष गच्छ सर्वानन्द
सूरि प्रागवाट रत्नप्रभसूरि
396
1422 | चाहणि
पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
397
1423 | मालहणदे
श्रीमाल
अभयचंद्र सूरि
वासुपूज्य
अ.प.जै.धा.प्र.म.
398 | 1423 लाडी
मोढ ज्ञातीय
।
ललित प्रभसूरि
शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
399
1427 | प्रीमलदेवी
प्राग्वाट्
आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
मुनिषेखर सूरि (मल्लधारि)
/
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
319
क्र
संवत् श्राविका नाम
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक
प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य श्रीमाल ज्ञातीय | अभय देव सूरि
400 | 1432 | सूमलदे
शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
401
1437 | मेघी
ओस
हेमतिलक सूरि
विमलनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
| 1438 | मयणली, लमादे
मयणली
देवेन्द्र सूरि
महावीर
अ.प.जै.धा.प्र.म.
403
1439 | नागलदे
ऊकेष ज्ञा.
अजितसूरि
पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
4041440| कमला
उपकेष वंष
सागरचंद्र सूरि
शांतिनाथ पंचतीर्थी
अ.प.जै.धा.प्र.म.
4051446 रूपी
प्रागवाट वंष
उदयानंद सूरि
शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
4061
1446 | पाल्ह श्रेयार्थ
प्रागवाट् ज्ञा.
कमलचंद्रसूरि
अजितनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
407
1446 | अनुपम
उपुर गोत्र
देवगुप्त सूरि
शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
| 1449 | षेतलदे
श्री श्रीमाल
उदयदेवसूरि
संभवनाथ
8
अ.प.जै.धा.प्र.म.
|
षीमश्री
उपकेष ज्ञा.
देवसूरि
वासुपूज्य
अ.प.जै.धा.प्र.म.
410
1451 | दीमी
श्रीमाल ज्ञा.
अमर सिंह उप
शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
| 1453 | माहूलणदे
श्री श्रीमाल ज्ञा. गुणप्रभसूरि
पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
412 | 1457 मोषलदे
......................
धर्मतिलक सूरि
पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
413 | 1458 | ललतादे
श्री श्रीमाल ज्ञा. | मुनिचंद्र सूरि
वासुपूज्य
अ.प.जै.धा.प्र.म.
414 | 1461 | चाहुलनदे
श्री श्रीमाल ज्ञा | नागेन्द्रगच्छ शांति सूरि | नमिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
415
1464 | समूलदे
गुर्जर ज्ञा.
श्री सूरि
पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
416
1466 | लाऊल देवी
प्रागवाट्न
न्नसूरि
आदिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
417 | 146 | हालू
प्रागवाट् ज्ञा.
देवसुंदर सूरि
पार्श्वनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
418 | 1468 | सहजनदे
श्री श्रीमाल ज्ञा. | श्री सूरि
शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
419 | 1468 | भीमणि
ऊकेष गच्छीय | देवगुप्त सूरि
शांतिनाथ
अ.प.जै.धा.प्र.म.
गो.
420 | 1424 | मालहण देवी, हेमादे
ऊकेष/ नवलक्षा गोत्र
| श्री जिनसागरसूरि
1244
4211486 | लावी, देवलदे
| श्री सर्वानंद सूरि
पार्श्वनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं. भाग-2 जै.धा.प्र.ले.सं. भाग-2 जै.धा.प्र.ले.सं. भाग-2
246
422
1486| मेला, देव्या
श्री जिनचंद्रसूरि
245
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
320
क्र
423
424
425
426
427
428
429
430
431
432
428
434
435
436
437
438
439
440
441
442
443
444
445
446
संवत् श्राविका नाम
1494 | सूहडा, चनू
1494 राणादे, मेलादे
1494 सुधुवेद
1485 मेलादे, नारिंगदे
1464 सूमलदे, सिंगारदे
1464 मालहणदे
1469 मालहणदे
1473 मलादे, नारिंगदे
1473 आंबा
1469 | मेलादे
1484 पाल्हणदे, मेलादे
1476 साजणि
1500 मनू, अधू
1405 जगदल देवी
1407
1409
1421 रूपी, नाल्ही
1422 वांहणि
1423 | आल्हणदे
1922 माल्हाणदे
1436 सारू, सुहवदे
1437 सूमलदे
1450 षीमश्री
1453 | चामलदेवी, हलू
वंश / गोत्र
प्रा. ज्ञा.
ऊकेष ज्ञा.
ऊकेष
वंष / नवलखा
गोत्र
गुर्जर ज्ञा.
श्री माल वंष, नाहर गोत्र
श्री माल वंष
नाहर गोत्र
ऊकेष वंष, नवलखा गोत्र
ऊकेष वंष
उपकेष वंष
मोढ ज्ञा.
श्री ज्ञा.
श्रीमाल ज्ञा.
श्रीमाल ज्ञा.
हुंबड ज्ञा.
उपकेष ज्ञा.
उपकेष ज्ञा.
हंबड ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
सोमसुंदर सूरि/ तपा.
सोमसुंदर सूरि
देवगुप्त सूरि
श्री जिनसागर सूरि
श्री सूरि
जिनचंद्रसूरि / खरतर
जिनचंद्र सूरि / खरतर
जिनसागर सूरि
जिनसागर सूरि
जिनवर्द्धन सूरि
श्री जय प्रभ सूरि
श्री सूरि
श्री विमलसूरि
नागेन्द्र श्री रत्नाकर
सूरि
गुणप्रभसूर
सर्वदेव सूरि
जिनराज सूरि
रत्नप्रभ सूरि
षालिभद्र सूरि
चंद्रसूरि
खरतर गच्छ
जिनचन्द्रसूरि
सोमदेव सूरि
नागेन्द्र देवगुप्त सूरि
सिंहदत्त सूरि
अवदान
द्वासप्तति परिकर
श्री नंदीष्वर पट्ट
श्री आदिनाथ श्री सुमतिनाथ
पार्श्वनाथ
आदिनाथ
आदिनाथ
चतु. पट्ट.
शांतिनाथ
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
शांतिनाथ
अंबिका देवी
शीतलनाथ
श्री शांतिनाथ
श्री आदिनाथ
श्री आदिनाथ
श्री शांतिनाथ
श्री पार्श्वनाथ
श्री पार्श्वनाथ
श्री वासुपूज्य
श्री कुंथुनाथ
श्री आदिनाथ
श्री वासुपूज्य
संदर्भ ग्रंथ
जै.धा. प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा. प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा. प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा. प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा. प्र.ले.सं.
भाग--2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा. प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं. भाग-2
जै.धा. प्र.ले.सं.
पृ.
246
247
247
250
251
252
252
253
253
253
254
256
73
11
11
12
12
12
12
12
12
12
13
13
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र
447
448
449
450
451
452
453
454
455
456
457
458
459
460
461
462
463
465
466
467
468
संवत् श्राविका नाम
1499 कस्तूरी, देवलदे
1401 खेतलदे
1405 लूणादे
464 1406 पाल्हणदे, वस्तिणी
469
1455 तिहुणश्री
1457 मोखलो
1468 श्रीमिणी
1972 होरादे
1473
1474 रूकी
1478 गांगी, कडू
1489 नीणू
1480 कुसमीरदे
1481 कील्हणदे
1482 तेलजदे, रयणीदे
1483 सारू
1484 कुंवरदे, भावलदे
1439 दानू
1408 लीलू
1409 राल्डू
1411 लींबी
1412 हीमादेवी
1413 हेमादे
वंश / गोत्र
प्रा. ज्ञा.
गाधहीया
हुंबड ज्ञा. श्रीमाल
बाबेल गोत्र
हुंबड ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. व्य.
उप. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उदयप्रभसूर
उपकेष श्री सिद्धी सूरि
अंचल नायक
जय कीर्ति सूरि
उपष देवगुप्त सूरि
श्री शांतिसूरि
धर्मचंद्रसूरि
श्री धरेश्वर सूरि
श्री क्
धनेश्वर सूरि
धनेश्वरसूरि
श्री हेमतिलक सूरि
श्री सूर
अच्छत्र्यवालवंष सर्वाणंदसूरि
उपकेष ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उपकेष ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
संडेर गच्छ
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
धर्मघोष श्री सर्वाणन्द सूरि श्री चन्द्र प्रभ
धर्मतिलक सूरि
उपकेष श्री देवगुप्त सूरि श्री शांतिनाथ
श्री आदिनाथ
श्री आदिनाथ
श्री मुनिसुव्रतस्वामी
श्री चन्द्र प्रभ
बृहद् ग.
श्री श्री ज्ञा.
कोरंटक ग.
नाणकीय अंबिकागोत्र
नाणकीय
अवदान
| धर्मघोष श्री पद्मसिंह
सिंहदत्त सूरि
श्री सूरि
तपा. श्री सोमसुंदर सूरि श्री कुंथुनाथ
श्री नमिनाथ
श्री पार्श्वनाथ
श्री चंद्रप्रभस्वामी
श्री प्रतिमा
श्री मुनिसुव्रतस्वामी
श्री वासुपूज्य
श्री पार्श्वनाथ
श्री शीतलनाथ
पार्श्वनाथ
महावीर स्वामी
संदर्भ ग्रंथ
जै.धा. प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा. प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा. प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा. प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा. प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा.प्र.ले.सं.
भाग-2
जै.धा. प्र.ले.सं. भाग-2
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
वासुपूज्य नाथ
आदिनाथ
बी. जै. ले. सं.
शांतिनाथ
बी. जै. ले. सं.
श्रीपद्मप्रभु
बी. जै. ले. सं.
शांतिनाथ चतुर्विंषति बी. जै. ले. सं.
321
पृ.
13
13
13
13
13
14
14
13
14
14
14
15
15
176
219
46
47
47
48
49
50
50
50
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र
संवत् | श्राविका नाम
वंश/गोत्र
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य श्री कक्कसूरि
| 1414 | ताल्ह, मडणी
कोरंट ग.
अजितस्वामी
| बी. जै. ले. सं.
| 1415 | रूपिणी
उकेष ज्ञा.
| मानदेवसूरि
शांतिनाथ
बी. जै. ले. सं.
472
1417 | धरणू
| उस ज्ञ.
| श्री रत्नाकर सूरि
आदिनाथ
बी. जै. ले. सं.
1418 | सीतादे
| सागरचंद्रसूरि
| बी. जै. ले. सं.
474
1420 नागल. धरणादे
प्रा. व्यव.
विजयचंद्र सूरि
पार्श्वनाथ
बी. जै. ले. सं.
151
1421 | आलहणदे
प्रा. ज्ञा.
अभयतिलक सूरि
आदिनाथ
बी. जै. ले. सं.
152
476
1422 | सलखणदे
श्री माल ज्ञा. | | अमरचंद्र सूरि
बी. जै. ले. सं.
52
477
1423 | रमादे
प्रा. ज्ञा.
श्री रत्नप्रभ सूरि
जिनप्रतिमा
बी. जै. ले. सं.
478
| 1424 | टउलसिरी
उकेष वंष
| महेन्द्र सूरि
श्री पद्मप्रभ
| बी. जै. ले. सं.
479 | 1425 | नलदे, संभल
श्री श्री ज्ञा.
श्री सूरि
बी. जै. ले. सं.
155
श्री आदिनाथ पंचतीर्थी पार्श्वनाथ
480
1426 | नागलदे
नाणकीय
धनेश्वरसूरि
बी. जै. ले. सं.
481
| 1428 | मटू
प्रा. ज्ञा.
धर्मतिलकसूरि
बी. जै. ले. सं.
482
1429 | माधलदे
श्री माल व्यव.
धर्मतिलक सूरि
वासुपूज्य
बी. जै. ले. सं.
483
1430 | वइजलदे, वीहीमादे
............. | ब्रह्माणीय रत्नाकर सूरि | श्री महावीर
बी. जै. ले. सं.
58
484 | 1432 | राजलदे, सुंदरी
प्रा. ज्ञा. व्यव.
श्री विजयप्रभ सूरि
कुंथुनाथ
बी. जै. ले. सं.
58
485
1432 | वलालदे
डांगी गोत्र
श्री सिद्धसूरि
महावीर स्वामी
बी. जै. ले. सं.
58
486
1433 | देवलदे
प्रा. ज्ञा.
| धर्मतिलक सूरि
महावीर स्वामी
| बी. जै. ले. सं.
159
487 | 1434 | मुक्ति
उकेष ज्ञा.
श्री कमल चंद्र सूरि
संभवनाथ
बी. जै. ले. सं.
59
488
1435] ऊनादे
प्रा. ज्ञा.
160
प्रा. शा. | उस ज्ञा.
चैत्र गुणदेव सूरि श्री पार्श्वनाथबी . . ले. सं. ब्रह्माणीय श्री हेमतिलक विमल नाथ पंचती थी. जै. ले. सं.
चैत्र गुणदेव सूरि श्री पार्श्वनाथ बी. जै. ले. सं.
पंचतीर्थी ब्रह्माणीय श्री हेमतिलक | विमल नाथ पंचतीर्थी | बी. जै. ले. सं.
489
1435| तारादे
उस ज्ञा.
सूरि
490
1436 रत्नादे
नाणकीय ग.
महेन्द्र सूरि
सुमतिनाथ
बी. जै. ले. सं.
61
491
1437 | वीझलदे
प्रा. ज्ञा. व्यव.
श्री भावदेव सूरि
पार्श्वनाथ
बी. जै. ले. सं.
62
492
1438 | नयणादे, ललतादे
प्रा. ज्ञा.
बी. जै. ले. सं.
जीरापल्लीय श्री वीर चंद्र सूरि श्री सोमदत्त सूरि
493
1438 | लाखणदे
छाजहड गोत्र
अभिनंदनाथ
बी. जै. ले. सं.
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
|
क्र
494
495
496
497
498
490
491
492
493
494
495
496
497
498
499
500
501
502
503
504
505
506
507
संवत् श्राविका नाम
1439 नोडी
1440 मीणल
1441 नाइकदे
1442 बयजलदे
1445 भोली
1446 पाल्हू
1447 पाल्हणदे
1449 जाल्हणदे
1450 यउदी
1451 तासीह
1453 कील्हणदे, रूपिणि
1454 गोराही, वीरिणि
1456 झीकी
1457 जइतलदे, सिरियादे
1458 सामलदे, वीलहणदे
1459 उमादे
1460 भावलदे, हमीरदे
1461 चत्रु
1462 चत्रु
1463 जदू हीरादे
1463 करणू
1464 रूपी
1465 मेधादे, कनौदे
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य श्री धर्मघोष सूरि
श्री भावदेव सूरि
श्री सूरि
श्री शालि चंद्र सूरि
धर्मदेव सूरि
श्री कमलचंद्र सूरि
श्री पूर्णचंद्र सूरि
श्री सोमसूरि
तपा श्री पुण्य प्रभ सूरि
श्री सोमदेव सूरि
खरतर, जिनराज सूरि
मेरुतुंग सूरि
श्री नन्नसूरि
उप. बलद उठा श्री धर्मदेव सूरि
श्री धनचंद्र सूरि
उदयानंद सूरि
श्री पासचंद्र सूरि
वासुपूज्य
श्री वीर प्रभु सूरि पिप्पल शांतिनाथ
श्री सुमतिसूर
आदिनाथ
श्री सुमतिसूर
आदिनाथ
श्री सूरि
तपा. रत्नसागर सूरि
कमलचंद्र सूरे
वंश / गोत्र
ओस ज्ञा.
उप ज्ञा. खांटहड गोत्र
उकेष वहडरा
उपकेष ज्ञा.
उपकेष ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उप ज्ञा.
हींगडगोत्र
उस ज्ञा.
उप ज्ञा.
प्रा. ज्ञा०
उप. चोपडा
गोत्र
उकेष गोखरू
गोत्र
उपकेष ज्ञा.
उप. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उस ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उप. ज्ञा.
उप ज्ञा.
उप. ज्ञा.
ओ. ज्ञा.
प्रा. व्यव.
अवदान
शांतिनाथ
वासुपूज्य पंचतीर्थी
आदिनाथ
पार्श्वनाथ पंचतीर्थी
शांतिनाथ
आदिनाथ
शांतिनाथ
श्री सुमतिनाथ
पद्मप्रभु
नमिनाथ
आदिनाथ
मुनिसुव्रत स्वामी
पद्म
चंद्रप्रभु
कुंथुनाथ
धर्मनाथ
पार्श्वनाथ
आदिनाथ
वासुपूज्य
संदर्भ ग्रंथ
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
323
نے
63
63
64
64
64
64
65
65
65
66
66
66
67
68
68
69
70
70
41
71
71
72
72
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
324
क्र
508
509
510
511
512
513
514
515
516
517
518
519
520
522
523
1477 देवलदे
1478 कस्मीरदे
1479 हासू, पूनादे
521 1480 मोहिलहि, वामहि
524
526
527
संवत् श्राविका नाम
528
1466 नयणादे
530
1467 | सारू, मेलादे
1468 पोभी
1469 भरमी
531
1471 प्रीमलदेवी, सोहगदेवी
1472 | पूनादेवी, सुहवदे, सोमी
1473 सुहागदे
525 1485 मंदोअरि
1474 वालहू
1486 चांपलदे
1487 नयणादे
1488 | सलखणदे, लाखू
529 1489 रत्नादे, देवलदे
1490 पोमी
1470 भावलदे, वल्ही, अच्छवादे
1475 तिहुणा, महण श्री, तिहुश्री
1476 करणू
1481 भावलदे
1482 लाछी
1483 तिहुण श्री, काऊ
वंश / गोत्र
उप. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उप. वप्पणाग गोत्र
भावडार ग.
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उप. ज्ञा.
नाणकीय व्य.
उ. ज्ञा.
उके ज्ञा.
हुं. व्यव.
उ. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उप. ज्ञा.
दुगड़गोत्र
भावडार ग.
उप. ज्ञा.
करणाद प्रा. ज्ञा. गो.
नाणकीय ग.
उ. ज्ञा.
सुराणा गो.
उप. ज्ञा.
उप. ज्ञा. / तेलहरगो
श्री श्री ज्ञा.
ऊकेष वंष
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य श्री गुणप्रभसूर
तपा. श्री देवसुंदर सूरि
श्री देवगुप्त सूरि
श्री विजयसिंहसूर
श्री सूरि
श्री रासिलसूरि
श्री देवगुप्त सूरि
धनेश्वर सूरि
श्री शांतिसूर
श्री शांतिसूर
सोमसुंदर सूरि
श्री नरचंद्र सूरि
श्री सोमसुंदर सूरि
श्री हर्षसुंदर सूरि
श्री विजयसिंहसूर
श्री सिद्ध सूरि
श्री सूरि
धनेश्वर सूर
श्री ललित प्रभ सूरि
श्री पद्मषेखरसूरि
सूरि
श्री शांतिसूर
श्री वीर सूरि
तपागच्छ सोमसुंदर सरि
अवदान
माल्लिनाथ
शांतिनाथ
सुमतिनाथ
मुनिसुव्रत
सुमतिनाथ
आदिनाथ
आदिनाथ
शांतिनाथ
शांतिनाथ
शांतिनाथ
मुनिसुव्रत
संभवनाथ
शांतिनाथ
आदिनाथ
धर्मनाथ
वासुपूज्य
मुनिसुव्रत
शांतिनाथ
सुमतिनाथ
मुनिसुव्रत
शांतिनाथ
अनंतनाथ
विमलनाथ
शांतिनाथ
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संदर्भ ग्रंथ
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
बी. जै. ले. सं.
प्रा. ले. सं. भा. 1
पृ.
74
75
75
77
77
77
79
79
80
80
81
82
82
82
83
83
85
86
87
87
88
88
89
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
325
क्र
संवत् श्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | अवदान
गच्छ / आचार्य धिनवर्द्धन सूरि
5321469 | मेलादे
बिम्ब
5331469 | माल्हदे
श्री माल वंष
चंद्रसूरि
आदिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
534
1469 | सोहम
हूंबड ज्ञा.
श्री सूरि
वासुपूज्य
प्रा. ले. सं. भा. 1
535 | 1471| रत्नादे, वाहणेद
भावषेखर सूरि
शांतिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
536
| 1472 | देवलदे, मुंजी
उसवाल ज्ञा.
श्री षालीभद्र सूरि
शांतिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
537 | 1476 | भरमादे, राभलदे
श्री श्री माल
श्री सोमचंद्रसूरि
शांतिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
538
1478 | हांसू, पूनी
प्रागवाट् ज्ञा.
श्री सोमसुंदर सूरि
शांतिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
539
1481 | पिंगलदे
प्रा. ज्ञा.
| श्री जै.प्र.ले.सं.
144
बृहतपा अ. श्री रत्नसिंह | श्री देवकुलिका सूरि श्री अंचल श्री जयकीर्ती
540
1487 | संयो
प्रा. ज्ञ.
श्री जै.प्र.ले.सं.
144
541 | 1483 | तिलकू
उस. ज्ञा.
तपा श्री भुवनसुंदर सूरि | श्री जीराउलाभुवनदेव | श्री जै.प्र.ले.सं.
145
| तिलकू
श्री ओस. ज्ञा.
तपा. श्री भुवनसुंदर सूरि | श्री जीराउलाभुवनदेव | श्री जै.प्र.ले.सं.
5431483 | तिलकू
उस. ज्ञा.
श्री तपा. भुवनसुंदर सूरि | श्री जीराउलाभुवनदेव | श्री जै.प्र.ले.सं.
146
544 | 1483 | देमाइ
श्री ओस ज्ञा.
श्री जै.प्र.ले.सं.
146
श्री तपा. भुवनसुंदर सूरि कटारिया श्री
राउलाभुवन श्री देव
545
1483 | छीतू
147
546
1483 | वामलदे
147
547
1483 | पूनाई, हीरू, कस्तूरी
| 148
5481483| वीरू
। 148
549 | 1483 | पूनासीरी, वाबी
149
श्री उस. ज्ञा. श्री तपा. भुवनसुंदर सूरि | श्री जीराउलाभुवनदेव | श्री जै.प्र.ले.सं. बरहडिया गोत्र नाहर
श्री तपा. भुवनसुंदर सूरि | श्री जीराउलाभुवनदेव | श्री जै.प्र.ले.सं. गोत्र/उस ज्ञा. सांवल श्री तपा. भुवनसुंदर सूरि | श्री जीराउलाभुवनदेव | श्री जै.प्र.ले.सं. गोत्र/उस ज्ञा. सांवल श्री तपा. भुवनसुंदर सूरि | श्री जीराउलाभुवनदेव | श्री जै.प्र.ले.सं. गोत्र/उस ज्ञा. छामुकी श्री कृष्णर्षिगच्छत् पा श्री | श्री जीराउलाभुवनदेव | श्री जै.प्र.ले.सं. गोत्र/उस. वंष | जयसिंहसूरि
कु. चतुष्किका षिखर सोनीहर/ | तपा श्री भुवनसुंदर सूरि श्री जीराउलाभुवनदेव | श्री जै.प्र.ले.सं. उसवाल ज्ञा. नाहर गोत्र धर्मघोष श्री विजयचंद्र श्री जीराउलाभुवनदेव | श्री जै.प्र.ले.सं.
सूरि
श्री कृ. तपा. श्री श्री जीराउलाभुवनदेव | श्री जै.प्र.ले.सं. गोत्र/उसवाल | जयसिंहसूरि ज्ञा. उपकेष ज्ञा. श्री कृ. तपा श्री जयसिंह श्री जीराउलाभुवनदेव | श्री जै.प्र.ले.सं.
550 | 1483 | तिलकू
150
551 | 1483 | मानी बाई
150
552 | 1483 | पोमाई
गांधी
151
553
1424 | कर्मादे, खीमादे, खीमादे
151
सूरि
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संवत् श्राविका नाम
554 | 1483 | संघविणिराजू
वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक अवदान
संदर्भ ग्रंथ गच्छ / आचार्य गांधी
श्री मल्लधारि श्री विद्या | श्री जीराउलाभुवनदेव | श्री जै.प्र.ले.सं. गोत्र/उसवाल | सागर सूरि ज्ञा. श्री माल ज्ञा | तपा श्री भुवनसुंदर सूरि | श्री जीराउलाभुवनदेव | श्री जै.प्र.ले.सं.
555
1483 | चंपाइदे
| 152
5561483 | मेघू
ओसवंष
अंचल श्री जयकीर्ति सूरि | देवकुलिका
| श्री जै.प्र.ले.सं.
557
1483/ लखमादे
उस वंष
अंचल श्री जयकीर्तिसूरि
श्री जै.प्र.ले.सं.
558
उस वंष
अंचल श्री जयकीर्तिसूरि | पूजा देहरी
श्री जै.प्र.ले.सं.
153
| 1483 | प्रतापदे, लखमादे, भीखी,
कौतिकदे | 1483 | तेजलदे, कौतिकदे
559
ओस ज्ञा.
|श्री जै.प्र.ले.सं.
M.स.
560
| 1483/ तेजलदे, कौतिकदे
ओस ज्ञा.
|श्री जै.प्र.ले.सं.
| अंचल श्री जयकीर्तिसूरि | श्री जी. पार्श्वचैत्य
देहरीत्रयं अंचल श्री जयकीर्तिसूरि | श्री जी. पार्श्वचैत्य
देहरीत्रयं कारापिता अंचल श्री जयकीर्तिसूरि | श्री जी. पार्श्वचैत्य
देहरीत्रयं कारापिता अंचल श्री जयकीर्तिसूरि | श्री जी. कारापिता
561 | 1483 | तेजलदे, कडतिगदे
ओस ज्ञा.
| श्री जै.प्र.ले.सं.
154
562 | 1483 | तेजलद, कडतिग, नारंगीदे | ओस ज्ञा.
| श्री जै.प्र.ले.सं.
563
1483 | रूडया
ओस. ज्ञा.
अंचल श्री जयकीर्तिसूरि | आत्म श्रेयार्थ देहरी | श्री जै.प्र.ले.सं.
155
1483 | तेजलदे, खीमादे
ओस ज्ञा.
अंचल श्री जयकीर्तिसूरि | आत्म श्रेयार्थ देहरी
|श्री जै.प्र.ले.सं.
565 | 1483 माऊ, हिचकु, ऊदी
श्री श्री ज्ञा.
अंचल श्री जयकीर्तिसूरि | देहरी
श्री जै.प्र.ले.सं.
156
566
श्री जै.प्र.ले.सं.
15
1421 | भोली, भावलदे, मुक्तु,
| भावलदे 1483
567
श्री जै.प्र.ले.सं.
158
| श्री उपकेष ज्ञा. | उपकेष देवगुप्तसूरि | श्री पार्श्व. चैत्य चीचत्रगोत्र
देवकुलिका श्री ज्ञा. बृहतपा. श्री जिनसुंदर | अग्रेषिखरं कारितं
सूरि मोढ ज्ञा.
आगमिकगच्छ पद्म प्रभ पार्श्वदेव आगमिक श्री ज्ञा. भ. श्री जिनसुंदर सूरि रंगदेव
568
1421 हीमादे
श्री जै.प्र.ले.सं.
569
| 1483 | गज
श्री जै.प्र.ले.सं.
570
1483 | हंसादे
श्री जै.प्र.ले.सं.
श्री तपा. भ. श्री अंगज रंग देव जयचंद्रसूरि जयदेव सूरि प्रतिष्ठित | आदिनाथ
571
1301 | सहजलदेवी
प्रा. ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
3
572
1303 | श्रृंगारदेवी
प्रा. ज्ञा.
आचार्य प्रतिष्ठित
शांतिनाथ प्रतिमा
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
573 | 1214 | कुर देवी
प्रा. ज्ञा.
| आचार्य प्रतिष्ठित
पार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
574 | 1215 | देमति
प्रा. ज्ञा.
देवभद्र सूरि
पार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
9
575
1357 | नाथी
प्रा. ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
शांतिसूरि, अजितसूरि के | शांतिनाथ उपदेष से धर्मदेव सूरि
पार्श्वनाथ
576 | 1365 | हांसल
प्रा. ज्ञा०
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
5
577 |1367 | लखमादेवी, विलहण देवी । प्रा. ज्ञा.
| धर्मदेव सरि
आदिनाथ
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
15
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क
संवत् श्राविका नाम
वंश/गोत्र
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य तिलकसूरि
578 | 1373 लखिण
प्रा. ज्ञा.
महावीर स्वामी
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
579 | 1373 भवता देवी
प्रा. ज्ञा.
तिलकसूरि
शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
580
1379 | जयतलदेवी
तिलकसरि
महावीर स्वामी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
581
1380 | जयतलदे
तिलकसूरि
पार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
.स.
16
श्री माल ज्ञातीय श्री माल ज्ञातीय श्री माल ज्ञातीय श्री माल ज्ञा.
582 | 1381 सजल, सिंगार देवी,
तिलकसूरि
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
583
1386 | मालहण देवी
तिलकसूरि
शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
17
584 | 1387 | सहजल श्री
प्रा. ज्ञा.
तिलकसूरि
शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
585
1390 | भादी, लाडी, पतरसी
प्रा. ज्ञा.
राजेन्द्र सूरि
त्रीमटावी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
586
1392 | श्रीमति प्रताप सिंह जी
।
प्रा. ज्ञा.
| सागर चंद्र प्रतिष्ठित
| शांतिनाथ
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
587 | 1394 हांसलदे
प्रा. ज्ञा.
देवसूरि
धर्मनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
588 | 1379 | जयतलदेवी
श्री माल ज्ञातीय
देवसूरि
महावीर
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
589 | 1373/भवता देवी
शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
590
| 1373 | लखिण
तिलकसूरि
महावीर
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
591 | 1367 | लखमादेवी, वीलहणदेवी
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
592 | 1365 | हांसल
धर्मदेव सूरि
पार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
5931357 | नाथी पुत्र
अजितसूरि
शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
594
1241) कुरदेवी
प्रा. ज्ञातीय
शांतिप्रभसूरि
पार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
595 | 1386 | माल्हणदेवी
शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
5961215 | हेमति
| देवभद्रसूरि
शांतिनाथ
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
597 | 1301 | सहजदेवी
प्रा. ज्ञातीय
जयदेवसूरि
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
598 | 1755 | गुलाब कुंअर जी
पार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
599
1212 |जसकेण
.................
.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
600
1427 | वील्हणदे, वीकमदे
उपकेष ज्ञातीय | जिनदेव सूरि
पद्म प्रभ पंचतीर्थी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
/
W
संवत् श्राविका नाम
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य प्रागवाट् ज्ञातीय | पार्षचंद्र सूरि
601
| 1426 | नामलदे
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
602
1424 | लूणा देवी
नो. गोत्र
हरिषेण सूरि
शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
603
1422 | पुजी,
माल ज्ञातीय
वृद्धिसागर सूरि
| पार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
604 | 1421 | सूहवदे
प्रद्युम्नसूरि
नमिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
605 | 1387 | सहजल श्री
प्रा. ज्ञातीय
शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
606 | 1421 | सूमलदे मेघादे
जयानन्दसूरि
विमलनाथ
श्री माल ज्ञातीय
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
607 | 1420 | वीरूलदे
देवचंद्र सूरि
पार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
608
1412 | मयणल, लखनादे
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
609
1404 | हमीरदे
प्रागवाट्ज्ञातीय
.
........
| महावीर
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
610
1394 | हांसलदे
देवसूरि
धर्मनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
611 | 1392 | प्रताप सिंह जी भार्या
शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1390 | भाढी, लाड़ी, पतरसी
| राजेन्द्र सूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
613
138c | जैतलदे
पार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
614 | 138: सिंगारदेवी
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
श्री माल ज्ञातीय प्रा. ज्ञा.
615 | 140 | हेमाकेन
महावीर
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
616 | 1412 | मइनल लखमादे
प्रा. ज्ञा.
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
617
1413 | दील्हणदे
श्री श्री माल
हर्षतिलक सूरि
संभवनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
618 | 1420 | वीरूल देव
देव चंद्र सूरि
पार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
9
619 | 1421 | सूमलदे, मेघादे
जयानंद सूरि
विमलनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
10
श्री श्री माल ज्ञा. श्री श्री माल
620
| 1421 | सूहवदे
प्रद्युम्न सूरि
नमिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
10
ज्ञा.
621
1422 | पूंजी
| श्री वृद्धि सागर सूरि
पार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
10
622
1424 | लूणा देवी
श्री श्री माल ज्ञा. श्री श्री माल ज्ञा. प्रा. ज्ञा.
हरिषेण सूरि
शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
6231424| नामलदे
पार्श्वचंद्र सूरि
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
624
| 1427 | वील्हणदे
उपकेष ज्ञाजिनदेव सूरि के उपदेष | पद्मप्रभ पंचतीर्थी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
संवत् श्राविका नाम
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
625
| 1426 | सिंगया देवी
वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य श्री माल श्री सूरि ज्ञातीय प्रागवाट् ज्ञातीय | श्री उदयसूरि
श्री महावीर
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
11
626
1424 | नयणादे
श्री आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
11
627
1433 | जिहुणदे
श्री सागरचंद्रसूरि
श्री आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
श्री वृढायर गोत्र प्रागवाट् ज्ञा.
628143: | देलहणदे
श्री विजयसिंह सूरि
पार्श्वनाथ पंचतीर्थी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
11
629
| 143:: | वीजलदे
प्रागवाट् ज्ञा.
श्री पार्षचंद्र सूरि
श्री धर्मनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
11
6301436 | भावलदे
प्राग्वाट दोसी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
631 | 1433 | तिहुणदे, बिखमादे, लाषदे | उकेष ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
13
632 | 1440 | पूनादे, श्रेयार्थ
श्री माल ज्ञा.
जयानंद सूरि, देवसुंदर | आदिनाथ सूरि श्री रामचंद्र सूरि श्री शांतिनाथ
चतुर्विशाति पट्ट पिप्पलाचार्य श्री वासुपूज्य जयतिलक सूरि श्री उदयानंद सूरि श्री वासपूज्य
पंचतीर्थी हरिषेनसूरि
श्री आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
13
633
1440 | कुंतादे
श्री माल ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
13
| 1442 | पूंजी, श्रेयार्ध
श्री माल
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
635
1445 / नामलदे
| अभय सूरि
श्री पार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
श्री माल गोत्रीय श्री माल ज्ञा.
636
1446षेखसुता
रत्नषेखर सूरि
वासुपूज्य
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
14
637
1447 | मीणलदेवी
प्रागवाट ज्ञा
श्री रत्नप्रभुसूरि
कुंथुनाथ पंचतीर्थी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
6381447 गहिणि
श्री सूरि
वासुपूज्य
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
639
1447 | सहजलदे
श्री माल ज्ञा.
| आदिनाथ
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
ब्रह्माण गच्छ के श्री मुनिचंद्र सूरि श्री भाव देव सूरि
640 | 1450 प्रमलदे
भावडगच्छ
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
15
श्रीशांतिनाथ, श्री चतुर्विंशति पट्ट श्री शांतिनाथ
श्री माल ज्ञा.
श्री पुण्यदेव सूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
15
641 1450 करमीनदे, संसारदे,
सिरियादे 642 | 1450 विकमदे, भा. सरसइ
| श्री माल ज्ञा.
श्री सूरि
श्री आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
15
643
1451 | संसारदे, लाडी
अजितनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
15
1452 | कामलदे
श्री सुमतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
15
प्रागवाट
जयतिलक सूरि गोत्रीय प्रागवाट गोत्रीय | नागेन्द्र गच्छ श्री
उदयदेवसूरि श्री श्री माल | ब्रह्माणगच्छ के श्री ज्ञा.
विमलसूरि श्री श्री माल । महेन्द्र सूरि
645 | 1452 | वील्हणदेवी
श्री आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
16
646
1452 | नागलदे पुत्र
महावीर
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
16
647
1453 | श्रेणी
| अंचल गच्छ, मेरूतुंगसूरि | महावीर
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
16
श्री श्री माल ज्ञा.
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
का
क्र
संवत् प्राविका नाम
| वंश/गोत्र
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
648
| 1453 | फबकू जीविणि
प्रागवाट् ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य श्री पूर्णिमापक्ष के सूरि जी श्री गुणाकर सूरि
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
16
649
1454 | कीहलणदे
प्रागवाट् ज्ञा.
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
650 | 1454 | मालूणदे
प्रागवाट् ज्ञा.
देवसुंदरसूरि
वासुपूज्य
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
6511465 / सीसादे
श्री श्री माल
श्री पद्मप्रभ सूरि
अजितनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
16
1456 | सिंगारदे
प्रागवाट् ज्ञा.
कोरंटगच्छ श्री नन्नसूरि | महावीर
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
653
1458 | बडलादे
श्री माल ज्ञा.
श्री सूरि
सुमतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
117
654
| 1459 | सिंहजलदे
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
17
| आगमिक गच्छ, श्री मुनिसिंह सूरि श्री उदयदेव सूरि
655
1459 | कस्मीरदे
श्री शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
तसं 17
श्री श्री माल ज्ञा. श्री माल ज्ञातीय भावडार गच्छीय, श्री माल ज्ञातीय श्री माल ज्ञा.
656
1459 | लखमादे
श्री विजयसिंह सूरि
श्री संभवनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
657
1464 गामी
सूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
18
श्री शांतिनाथ पंचतीर्थी श्री आदिनाथ
658
1465 नाउ
प्रागवाट् ज्ञा.
| श्री शीलचंद्र सूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
659 | 1465 | उत्तमदे, लाछु ।
प्रागवाट् ज्ञा. | पल्लीगच्छ श्री सूरि
श्री शीतलनाथ
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
660 | 1465 | मेघा
भंडारी गोत्र
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
18
661
1465 | मातृ, समूलदे
श्री माली ज्ञा.
शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
18
धर्मघोष गच्छ के श्री सूरि श्री नागर गच्छ के श्री गुणसागर सूरि रतनाकर गच्छ के श्री रत्नसागर सूरि श्री मलयचंद्र सूरि
562
1465 | कपूरदे
प्रागवाट ज्ञा.
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
363
1465 | सहजलदे
श्री श्री माल
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
19
ज्ञा.
564|1466 | बाइ, कपूरदे, बाछा, आका | प्रागवाट ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| रत्नाकर गच्छ के आदिनाथ
रत्नसागर सूरि | कोरंटगच्छ श्री नन्नसूरि | श्री संभवनाथ
865
1466 | भावलदे, पुत्रवधू, ष्याणी
उपकेष ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
19
636
1466 | भावलदे, बाई, राजू
उपकेष ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
637 | 1466 | मेघा
हुंबड ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
19
कोरंटगच्छ के श्री श्री वासुपूज्य नन्नसूरि काष्ठा संघ श्री नरेन्द्र श्री वासुपूज्य कीर्ति श्री धर्मघोष गच्छ के श्री शीतलनाथ वलयचंद्रसूरि तपा गच्छ श्री देवसुंदर | श्री अभिनंदन
638 | 1466 | मेंघू भावनादेवी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
19
उसिवल ज्ञा. मंडोरा गोत्र प्रागवाट ज्ञा.
669 | 1466 | भा. मीणलदे
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
___670 | 1468 | भा. आलहू
प्रागवाट् ज्ञा.
| श्री शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
120
श्री मेरूतुंगसूरि के उपदेष से | पिप्पल धर्मप्रभसूरि
3711463 | मातृरदेवी, मातृ त्रखदेवी
श्री अजितनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
20
श्री श्री माल ज्ञा.
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
|संवत् श्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | अवदान
गच्छ / आचार्य तपा. गच्छ गुणरत्नसूरि | शांतिनाथ
672
1469 | सलखा, हांसलदे
प्रागवाट ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
20
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
20
673 | 1469 | देलहणदे, हांसलदे, गउरदे | उकेष वंष तपा. गच्छ श्री
सुमतिनाथ
गुणरत्नसूरि 674 1469/ बाई, पूनादे
श्री माल ज्ञा. | श्री चरित्र तिलक सूरि | श्री शांतिनाथ
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
675
1470 | भार्या, भांजू
प्रागवाट् ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
सं.
21
676
1471 | धारसिंह, प्रीमलदे
प्रागवाट् ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
20
677 | 1471 | मचकू
तपागच्छ के श्री कुंथुनाथ सोमसुंदर सूरि अंचल गच्छ के श्री सुमतिनाथ महितिलक सूरि पिप्पलगच्छ श्री सोमचंद्र | चंद्रप्रभ स्वामी
चतुर्विंशति पट्ट नागेन्द्र गच्छ के श्री श्री शांतिनाथ सिंहरत्नसूरि
पंचतीर्थी श्री सूरि
शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
678
श्री श्री माल | ज्ञा. श्री श्री माल ज्ञा. प्रागवाट् ज्ञा.
1471| सूहवदे
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
21
679
1472| श्री
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
21
680 | 1472 | रामिति, फनू
| चंद्रप्रभु
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
21
681 | 1472/ पाल्हणदेवी
सुमतिनाथ पंचतीर्थी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
हुंबड ज्ञा. मूलसंघ नंदिसंघ रजीयाणा गोत्र | बलात्कार सरस्वती श्री
पद्मनंदी श्री श्री माल । श्री सूरि ज्ञा. श्री श्री माल | पूर्णिमापक्ष मुनि
तिलकसूरि प्रागवाट् ज्ञा. प्रति श्री सूरि
682 | 1473/ सहजलदे, पाणी
धर्मनाथ चतुर्विंशतिपट्ट | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
।
6831473 | सलखणदेवी
नमिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
प्रागवाट ज्ञा.
विमलचंद्रसूरि
वासुपूज्य
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
684 1474| वीकमदे, खेतलदे,
आणलदे 685 | 1476 गांगी
उपकेंष डा गो | सूरि
श्री पद्मप्रभ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
22
686
1475 | भा. माल्हणदे
प्राग-गट ज्ञाश्री पासचंद्रसूरि
पार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
687 | 1476 | रत्नादे, वांधू
23
688
1476 | कामलदे, सुतने
23
689
1476 | कामलदे
ज्ञा.
690
1476 | माणिकदे
23
श्री माल ज्ञा. | पिप्पलगच्छ श्री सोमचंद्र | श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| सूरि श्री श्री माल श्री सूरि
मुनिसुव्रत
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. ज्ञा. सिंघवी श्री श्री माल तपागच्छ श्री सोमसुंदर | ऋषभदेव
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. सूरि प्रागवाट् ज्ञा तपागच्छ भ. श्री शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. सोमचंद्रसूरि श्री श्री माल श्री गुणसागर सूरि धर्मनाथ मुख्यपंचतीर्थी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. ज्ञा. श्री श्री माल श्री चैत्रगच्छ श्री श्री पद्मप्रभादि | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. ज्ञा. गुणदेवसूरि
चतुर्विशति श्री माल ज्ञा. चैन्नगच्छ श्री गुणदेवसूरि | मुनिसुव्रत स्वामी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
चतुर्विशति
| 1477 | गंगादेवी
692
1477 | प्रीमलदे, सहिगदे
23
693
| 1477 | प्रीमलदे, मेलादे
23
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संवत् | श्राविका नाम
वंश/गोत्र
694
1477 | प्रीमलदे, मेलादे
श्री माल ज्ञा.
24
प्रेरक/प्रतिष्ठापक अन्दान
संदर्भ ग्रंथ गच्छ / आचार्य चैत्र गच्छ श्री
नेमिनाथ चतुर्विंशति । पा.जै.धा.प्र.ले.सं. गुणदेवसूरि ७. गच्छ देवाचार्य, श्री आदिन थ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. पूर्वचंद्र सूरि प्रति श्री सोमसुंदर सूरि | सुमतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
695
| 1478 | राजू
उपकेष ज्ञा.
696
| 1478| अहिवदे, करण
प्रागवाट् ज्ञा.
697 | 1478 | सरसइ, लखमादे
प्रागवाट ज्ञा. | तपागच्छ श्री सोमसुंदर | शांतिनाथ चतुर्विंशति | पा.जै.वा.प्र.ले.सं.
सूरि ओसवाल ज्ञा. | पूर्णिमा श्री षीलचंद्रसूरि | सुपार्श्वनाथ पा..धा.प्र.ले.सं.
698 | 1478 | मनू,
25
699
| 1478 लखमीदे
श्री माल ज्ञा.
वासुपूज्य
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
25
पूर्णिमा पक्ष श्री जयप्रभसूरि श्री सूरि
700
1478 | सिंगारदे
श्री माल ज्ञा.
शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
25
701
1479 | रूडी, देऊ
श्री माल ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
25
ब्रह्माणगच्छ भट्टा. श्री वीर सूरि श्री बुद्धिसागर सूरि
जीवित स्वामी श्री सुविधिनाथ पंचतीर्थी | चंद्रप्रभ
7021479 माधलदे
श्री माल ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
703
1478 | लखमीदे
श्री माल ज्ञा.
पूर्णिमा पक्ष श्री जयप्रभ
वासुपूज्य
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
125
7041478 सिंगारदे
श्री श्री माल
श्री सूरि
श्री शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
25
ज्ञा.
705 | 1479 | रूडी, देऊ, माघलदे
श्री माल ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 25
ब्रह्माणगच्छ भट्टारक श्री | सुविधिनाथ पंचतीर्थी वीर सूरि श्री बुद्धिसागर श्री चंद्रप्रभु
706
1479 | लखमादे, राणीदे, भली
श्री माल ज्ञा..
25
707 | 1480 माउ, चांपलदेवी
प्रागवाट् ज्ञा.
7081481 भली, सुत, देऊ
प्रागवाट् ज्ञा.
| थारापद्रगच्छ के श्री संभवनाथ चतुर्विंशति । पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
शांतिसूरि तपा पक्ष के श्री श्री चंद्रप्रभ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. सोमसुंदर सूरि तपागच्छ श्री सोमसुंदर | श्री शंतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. सूरि चैत्रवालगच्छ श्री जीवितस्वामी श्री पा.जै.धा.प्र.ले.सं. | जिनदेवसूरि
अनंतनाथ श्री सोमसुंदर सूरि श्री पार्श्वनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
126
709 | 1481 चांपलदे, रूपादे
श्री माल ज्ञा.
126
710 | 1481 उमादे
प्रा. ज्ञा.
26
711
1482 | सोनी, वाहिणी
उसवाल ज्ञा.
| मद्रडीयनाणचंद्र सूरि
श्री पद्मप्रभ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 26
712
1483 हमीरदे, देऊ
प्रा. ज्ञा.
तपागच्छ श्री सोमसुंदर | सुमतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
126
सूरि
713
1483 | सुहगल
मोढ ज्ञा.
श्री ज्ञानकलषसूरि
कुंथुनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
27
714 | 1483 | वीरू
ऊकेष ज्ञा.
श्री शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
27
श्री संडेर गच्छ के श्री श्री शांतिसूरि श्री कक्करसूरि
715
1483 | साऊ, कुंती
ऊकेष ज्ञा.
श्री विमलनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
27
716
1484 | वारू
प्रा. ज्ञा.
श्री सोमसुंदर सूरि
सुमतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
उकेष वंष
717 | 1484 | सुहवदे in Educatio Internatonal
श्री कुंथुनाथ
उकेषगच्छ श्री देवगुप्तसूरिnal use Only
For
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
27 www.jaine brary.or
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क
संवत् । श्राविका नाम
वंश/गोत्र
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
7181484 | दुउ,काउ
वीरवंष
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य अंचल गच्छ श्री जयकीर्तिसूरि श्री गुणसागरसूरि
श्री सुमतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
719
1484 लाखणदे, पाअडे
श्री माल ज्ञा.
श्री नेमिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
27
720
1484 प्रीमलदेवी, सोहगदेवी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
28
श्री श्री माल चैत्रगच्छ के श्री
जिनदेवसूरि श्री श्रीमाल ज्ञा. श्री वीरचंद्रसूरि
श्री पद्मनाथ चतुर्विशति पट्ट श्री शांतिनाथ
7211484 धांधलदे
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
27
722 | 1484
संभलदे
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
28
श्री श्री माल ज्ञा. प्रा. ज्ञा.
7231484 | पद्मलदे, पाल्हणदे
चैत्रगच्छ के श्री पंचतीर्थी श्री जिनदेवसूरि
अजितनाथ तपागच्छाधिराज श्री श्री सुपार्श्वजिनचतु. सोमसुंदर सूरि विशतिपट्ट बृहद्गच्छ के श्री षुभचंद्र | पार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
28
7241485| धारू, डाही,
उपगच्छ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 28
725 | 1485 | विणलदेवी
श्री माल ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
28
726
1485 | मोषलदे, मेषादे, घाई
प्रागवाट् ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
29
| पूर्णिमापक्षीय मुनितिलक | पार्श्वनाथ सूरि पूर्णिमापक्ष भट्टारक श्री सुमतिनाथ गुणदेव सूरि श्री संडेर गच्छ श्री आदिनाथ शांतिसूरि धारापद्रीय श्री सूरि | शीतलनाथ
7271485 | लीलादे
ऊकेश वंष
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
728| 1485 | चांपलदे, पहासु
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
29
श्री श्री माल ज्ञा. प्रागवाट ज्ञा.
729 | 1485 | करमी, लहिक
तपागच्छ श्री सोमसुंदर | षांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
सूरि
7301485 साहगदे
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
7311486| झबकू जासुआ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
29
प्राग्वाट ज्ञातीय | तपागच्छ श्री
श्री पद्मप्रभु सोमसुंदरसूरि उपकेष ज्ञातीय | उपकेष गच्छ के श्री । नमिनाथ
सिद्धिसूरि श्री श्री माल उपकेष गच्छ
मुनिसुव्रतनाथ ज्ञातीय ककुदाचार्य, संतान श्री
सिंहसूरि प्रागवाट् ज्ञातीय | तपागच्छ श्री सोमसुंदर | शांतिनाथ
732 | 1486 | सूहवदे, पांची
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
30
a
733 | 1486 | गांगी, धीरू, पूरी, रतना
sdiनी, धीक. पूरी, रतना प्रागवाट जातीय तिपालक श्री सोमसूदर शातिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
30
सूरि
734
1486 | छाड़ी, तोल्हाही
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 30
उपकेष ज्ञातीय, | श्री सिंहसूरि जी अजितनाथ आदित्य नाग गोत्र श्रीमाल ज्ञातीय | ऊकेष गच्छ श्री देवगुप्त | विमलनाथ
735 | 1486 / लूली
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
30
सूरि
736
1486 | खेतलदे, राणी
मुनिसुव्रतस्वामी
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
737
1486 | कुंतादेवी
पार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
30
प्राग्वाट ज्ञातीय | तपागच्छ के श्री
पार्श्वमूर्तिगणि उसवाल ज्ञातीय | खरतरगच्छ के श्री
जिनचंद्र सूरि श्री श्री माल पूर्णिमापक्ष श्री ज्ञातीय मुनितिलक सूरि श्री श्री माल आगमगच्छ श्री ज्ञातीय हेमरत्नसूरि
738 | 1487 | धांधलदे
आदिनाथ गंचतीर्थी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
30
739 | 1487 | नायकदे, मारू
सुमतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
,
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
334
क्र
740
741
742
743
744
745
746
747
748
749
750
751
752
753
754
755
756
757
758
759
760
761
762
763
संवत् श्राविका नाम
1487 खेतलदे
1488 पाल्हणदे, मेचु, लखमादे
1488 वी
1488 रूपी
1488 | कष्मीरदे, जासूणा
1488 वीझलदे, भा. सारू
1489 पद्मलदे, नमलदे
1489 अहिवदे
1489 कामलदे
1489 पूंजी, रूडी, वारू, सहित
1489 हषू भीमसिरि
1489| हरखू लाडी
1489 माणि
1490 पांचू
1490 बाईषरी
1490 सिरिआदे
1490 वल्हादे
1490 धनाई
1490 हीरादे
1491 कपूरदे
1491 लूणादे, करमी
1491 वुलदे, मटकू
1491 गांगी, हरखू, मरगादे
1491 कामलदे, माकू
वंश / गोत्र
श्री श्री माल ज्ञातीय
प्राग्वाट ज्ञातीय
सानगोत्र
प्राग्वाट ज्ञातीय
ऊकेष
प्रागवाट् वंष
धुल्हागोत्री
श्री श्रीमाल ज्ञातीय
श्री श्री माल ज्ञातीय
श्री श्री माल ज्ञातीय
उकेष ज्ञातीय
श्री माल ज्ञातीय
उपकेष ज्ञातीय
श्री माल ज्ञातीय
श्री माल ज्ञातीय
श्री माल ज्ञातीय
उस वंष
ऊकेष वंष, बालाही गोत्र
श्री श्री माल ज्ञातीय
प्रागवाट ज्ञातीय
श्री माल गोत्री
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
श्री सूरि
श्री सिंह सूरि
उपकेषगच्छ श्री
सिद्धसूरि
प्राग्वाट ज्ञातीय उकेष गच्छ श्री
प्रागवाट वंष
श्री माल वंष
श्री पूर्णिमापक्ष के श्री साधुरत्नसूर
तपागच्छ श्री सोमसुंदर सूर
तपागच्छ श्री सोमसुंदर
सू
तपापक्ष भट्टा श्री रत्नसिंह सूरि
तपा गच्छ के श्री सोमसुंदर सूरि
उपकेष गच्छ श्री भंडारी देव
खरतरगच्छ श्री जिनभद्रसूरि
देवगुप्तसूर
पूर्णिमा पक्ष के श्री मुनि तिलकसूरि
आगमगच्छ श्री
हेमरत्नसूर
अंचल गच्छ श्री
जयकीर्ति
खरतर गच्छ श्री
जिनसागर सूरि
खरतर गच्छ के श्री जिनसागर सूरि
पिप्पलगच्छ के श्री श्री उदयदेव सूर सोमसुंदर सूरि
पिप्पलगच्छ श्री सोमचंद्रसूरि
श्री तपागच्छ श्री सोमसुंदर
पूर्णिमापक्ष श्री धनप्रभसूरि पार्श्वनाथ
चैत्र गच्छ श्री
| जिनदेवसूर
श्री सूरि
तपागच्छ श्री सोमसुंदर सूरि
For Private &
अवदान
rose Only
सुमतिनाथ
पार्श्वनाथ
अंबिका देवी
शांतिनाथ
मुनिसुव्रत
श्री संभवनाथ
श्री पद्मप्रभु
अजितनाथ
सुमतिनाथ पंचतीर्थी
श्री सुविधिनाथ
अनंतनाथ
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
चंद्रप्रभ
शांतिनाथ
संदर्भ ग्रंथ
शीतलनाथ
अजितनाथ
आदिनाथ
मुनिसुव्रत
जीवंतस्वामी श्री आदिनाथ
सुमतिनाथ
धर्मनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
श्री नेमिनाथ मुख्य चतुर्विंशति पट्ट
धर्मनाथादि चतुर्विशति पा. जै. धा.प्र.ले.सं.
पट्ट
धर्मनाथ
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पृ.
31
31
31
31
31
31
32
32
1241
32
32
33
33
33
33
e
33
33
33
34
34
34
34
34
34
34
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
संवत् श्राविका नाम
संदर्भ ग्रंथ
| 1422 | वीजलदे, कपूरी
वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक अवदान
गच्छ / आचार्य प्रागवाट ज्ञातीय | तपागच्छ नायक श्री आदिनाथ
सोमसुंदर सूरि प्रागवाट ज्ञातीय | वृद्धतपा श्री रत्नसिंहसूरि | मुनिसुव्रत
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
35
765
1492 | वानू
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
135
766
1492 | पोमी
35
767 | 1492 | लूणादे
35
768
1493 | झाझू
36
श्री श्री माल | नागेन्द्रगच्छ के श्री सुविधिनाथ पंचतीर्थी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. ज्ञातीय गुणसमुद्र सूरि प्रागवाट् ज्ञातीय तपागच्छ नायक प्रभु श्री धर्मनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. सोमसुंदर सूरि श्री माल पूर्णिमा गच्छ भ. श्री श्रेयांसनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. ज्ञातीय | जयप्रभ सरि श्री माल पूर्णिमा पक्षीय श्री सूरि | कुंथुनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. ज्ञातीय श्री माल पूर्णिमापक्षीय श्री सूरि कुंथुनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. ज्ञातीय प्रागवाट ज्ञातीय | सुविहित सूरि
अजितनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
769 | 1493 | सहिजलदे,बदू
36
770_1493 | पूनादे
36
771 | 1494 | वानू
36
772 | 1494 | राउ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
37
773 | 1489 | सिरियादे
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
37
774
1449 रूपादे
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
775
1494 | लाछू फाई
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
37
776 | 1495 | जयतलदे, वुल्हादे
श्री माल अंचल गच्छ श्री सुमतिनाथ ज्ञातीय जयकीर्ति सूरि उसवाल ज्ञातीय | भीमपल्लीय पूर्णिमा श्री | संभवनाथ पंचतीर्थी
जयचंद्रसूरि श्री माल भीमपल्लीय पूर्णिमा भट्टा धर्मनाथ ज्ञातीय श्री जयचंद्रसूरि ऊकेश ज्ञातीय तपागच्छ नायक श्री आदिनाथ
सोमसुंदर सूरि श्री श्री माल मल्लधारीगच्छ श्री शीतलनाथ ज्ञातीय गुणसुंदरसूरि ऊकेश वंश खरतरगच्छ श्री
अजितनाथ जिनसागरसूरि डपकेश ज्ञातीय भावडार गच्छ श्री श्रेयांसनाथ
वीरसूरि ऊकेश वंश | बृहत्पक्ष भट्टा
श्री कुंथुनाथ,
चतुर्विषति पट्ट प्राग. गोत्र श्री सूरि
मुनिसुव्रत स्वामी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
37
777
1495 | अमरी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
37
778
1495/ सूमलदे
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
37
779
1495 | सूहवदे, सहजलदे
पा.जै.धा.प्र.ले.सं
38
780
1496 | झली, टबकू
पा.जै.धा.प्र.ले सं.
781
1496 | जीविणि, सनखत
प्राग. गो.
कोरंटगच्छ श्री सारदेव
वासुपूज्य
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
38
सूरि
7824496 | लाफ लीबू
प्रा. गो.
श्री सोमसुंदर सूरि
सुपार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.से.सं.
38
783 | 4496 | झमकू अणपमदेवी
38
7844496 | रूपीणि, जयतलदे
प्राग. ज्ञातीय चैत्र गच्छ सौराष्ट्र श्री । आदिनाथ चतुर्विंशति । पा.जै.धा.प्र ने.सं. रत्नाकर सुरि
पट्ट उकेष ज्ञातीय | तपागच्छ श्री सोमसुंदर धर्मनाथ
| पा.जै.धा.प्र ले.सं. सूरि प्रागवाट् ज्ञातीय | तपागच्छ नायक श्री । मुनिसुव्रतनाथ पा.जै.धा.प.ले.सं.
सोमसुंदर सूरि प्रागवाट् ज्ञातीय श्री सूरि
अनंतनाथ | पा.जै.ध.प्र.ले.सं.
785
4496 | खेतलदे, लींबा
786
| 1496 | गोई, माकू
39
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
336
संवत् श्राविका नाम
787 |1496 | जइतलदे, देहलदे, माकू
139
788
1496 रत्नी
789
| 1497 | पाल्हणदे, लली
वंश/गोत्र
| अवदान
संदर्भ ग्रंथ गच्छ / आचार्य |श्री श्री माल | तपागच्छ नायक श्री संभवनाथ चतुर्विषति | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. ज्ञातीय, संघवी | सोमसुंदर सूरि प्रागवाट ज्ञातीय उकेषगच्छ श्री
शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. देवगुप्तसूरि प्रा. ज्ञा. तपागच्छ श्री सोमसुंदर संभवनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. (पतननिवासी) सूरि श्री माल पूर्णिमापक्ष के श्री पद्मप्रभनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. गोत्रीय धर्मप्रभसूरि रामसिणिग्राम | तपा. श्री सोमसुंदर सूरि | श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. प्रागवाट ज्ञातीय उकेष ज्ञातीय | तपा. श्री मुनिसुंदर सूरि महावीर
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
39
7901497 | अहिवदे
40
791 | 1497 | राजदे, वाहली
40
792_1497 | दुलहादे, हर्षु
7931497| देवलदे
धर्मनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
40
7941498 | सिंगारदे
श्री श्री माल ब्रह्माणगच्छ श्री ज्ञातीय वृद्धिसागर सूरि श्री माल आगम गच्छ भट्टा श्री ज्ञातीय सूरि प्रागवाट् ज्ञातीय श्री सूरि
। सुविधिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
40
795
1498 | देऊ, टबू
कुंथुनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
A1
796 | 1499 | गाऊ, साजणि
प्रागवाट् ज्ञातीय श्री जयकीर्ति सूरि
धर्मनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
797
1499] दूंसी
श्री चंद्रप्रभ स्वामी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
पूर्णिमापक्ष श्री गुणसमुद्रसूरि श्री सूरि
798
1499 | वानू
विमलनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
41
799
1499 | वानू
श्री श्री माल ज्ञातीय श्री रसल ज्ञातीय पतननिवासी श्री रसल ज्ञातीय पतननिवासी श्री श्री माल ज्ञातीय प्राग, ज्ञातीय
श्री सूरि
विमलनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
41
800
1500 | राणी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
अ.ल.स.
42
ब्रह्माणगच्छ
धर्मनाथ श्रीमुनिसुंदरसूरि तपा श्री मुनिसुंदर सूरि | कुंथुनाथ
801 | 1500 | तेजू, हर्पू
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
42
802 | 1500
मनी, संपूरी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
42
ऊर्केष वंष खरतरगच्छ श्री सुमतिनाथ
जिनसागरसूरि ऊकेष ज्ञातीय | तपा. श्री मुनिसुंदर सूरि | नमिनाथ
803 | 1500 मल्हाइ, लाखणदे
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
42
804
1500 हर्षाई
ऊकेष वंष
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
805
1500 नामलदे
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
42
श्री श्रीमाल ज्ञातीय प्रागवाट् ज्ञा.
खरतरगच्छ श्री
पद्मप्रभ जिनसागरसूरि मधुकरगच्छ श्री धन | नमिनाथ प्रभसूरि | तपागच्छ श्री मुनिसुंदर | श्रेयांसनाथ सूरि श्री जयप्रभसूरि संभवनाथ
806 | 1500 भावलदे, गोमति
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
807 | 1500 टीबू, गोमति
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
श्री श्री माल ज्ञातीय श्री श्री माल ज्ञातीय
808 | 1500 | धरमणि, बर
विमलनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
43
श्री आगमगच्छ श्री हेमरत्नसरि
809
1193 | राजश्री
महावीर
प्रा. ले. सं. भा. 1
WWwlanellonary.org
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
संवत् | श्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
810 | 1181 | सत्य भामा
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रेरक/प्रतिष्ठापक अवदान
गच्छ / आचार्य खंडेरकगच्छ
धर्मनाथ षालिभद्रसूरि अड्डालिजीय गच्छ अजितनाथ देवाचार्य सरवाल ग. जिनेष्वराचार्य प्रतिमा
| 1207 | स्त्रामी, सांपी
प्रा. ले. सं. भा. 1
812 | 1208 | लक्ष्मी
प्रा. ले. सं. भा. 1
813
1212 | मोहिणी
सरवाल ग. जिनेष्वराचार्य | वासुपूज्य
प्रा. ले. सं. भा. 1
814
| मंदनिका
| सिंह सेन सूरि
पार्श्वनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
815 | 1215 | छिर देवी
हेमचंद्र सूरि
पार्श्वनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
816
| 1228 | चडव
मोक्षवंश
श्रेयांसनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
817
| 1243 | बांदी
महावीर
प्रा. ले. सं. भा. 1
818
1249 | रत्नी
देवानंद सूरि
नेमिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
819
1261 | देवड़ी सिरियादे
| श्री नरचंद्रोपध्याय
प्रा. ले. सं. भा. 1
| 1261 | वैलिश्री
पद्मनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
821
1270 | वीन्ह
भावदेव सूरि
अजितनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
822
1299 | णिश्रेय
चंद्रसूरि
प्रा. ले. सं. भा. 1
823
1325
| श्री वासुदेव सूरि
आदिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
824 | 1305 | सलषण देवी
प्रतिमा
प्रा. ले. सं. भा.1
प्रागवाट
| श्री रत्नप्रभसूरि ज्ञातीय, रोहिणी
गुणचंद्र सूरि
825
1339 | पेढी
सुमतिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
826 | 1339 | नीनू माकू, चांपल
श्री श्री माल
देवसूरि
श्री पार्श्वनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
वंष
827 | 1341 झांझल देवी
श्री सूरि
पार्श्वनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
828
| 1345 | सूमल
श्रीमाल ज्ञातीय
.....................
वासुपूज्य
प्रा. ले. सं. भा. 1
829 | 1353 | जासल
श्री देसावाल ज्ञातीय
कमलाकर सूरि
धर्मनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
830
1361 | वीलहण देवी
बिम्ब विबुधप्रभसूरि
.....................
प्रा. ले. सं. भा.1
831
| 1369 | लालू
देवेन्द्रसूरि
शांतिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
832 | 1382 | बीझू
नीमा वंष
पार्श्वनाथ सूरि
प्रा. ले. सं. भा. 1
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
38
क्र
833
834
835
836
837
838
839
841
संवत् श्राविका नाम
1392 संसारदे, धर्मनाथ
༄ །ལྷ །རྨ །༞ །༔ ་༞ ་ ིི ༞ 「༔ 「ཧྥ「༅ 「༝ 」ཧྥ ིི༔
1392 भावल
139 मुंजाल
840 1415 तिणश्री
1422 चाहणि
1423 माल्हणदे
1402 रयणादे
1404 माल्हण देवी
1405 नीमलदे
1414 षीमिणि
1423 लाडी
1427 प्रीमलदेवी
1432 सूमलदे
1437 मेघी
1438 मयणली, लष्मादे
1439 नागलदे
1440 कमला
1446 पाल्ह श्रेयार्थ
1446 अनुपम
1449 घेतलदे
1450 षीमश्री
1451 दीमी
1453 माहुलणदे
1457 मोषलदे
वंश / गोत्र
मोढ ज्ञातीय
मोढ वंष
ओस वंष
प्रागवाट ज्ञा.
श्री माल ज्ञा.
उप.
विणवर गोत्र
प्रागवाट
श्री माल
मोढ ज्ञातीय
प्रागवाट
श्री माल ज्ञातीय
ओस
मयणली
ऊकेष ज्ञा.
उपकेष वंष
प्रागवाट ज्ञा.
उर्धुर गोत्र
श्री श्री माल
उपकेष ज्ञा.
श्री माल ज्ञा.
श्री श्री माल
ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
रत्नप्रभसूर
अभयचंद्र सूरि
चंद्रप्रभु गुणचंद्र सूरि
विबुध प्रभसूर
नागेन्द्र गच्छ श्री विनय
प्रभ सूरि
रत्नाकर सूरि
बुद्धिसागर सूरि
शांतिनाथ
पिप्पलाचार्य वीरदेव सूरि आदिनाथ आलहणदे
धर्मघोष सर्वानन्द सूरि
चंद्रप्रभु
पार्श्वनाथ
ललितप्रभसूर
ललितप्रभसूरि
अभयदेव सूरि
हेमतिलकसूरि
देवेन्द्रसूरि
अजितसूरि
सागरचंद्र सूरि
कमलचंद्र सूरि
उदयानंदसूर
देवगुप्त सूरि
देवसूरि
अमरसिंह उप.
गुणप्रभ सूरि
धर्मतिलक सूरि
अवदान
सद्गुरू
नेमिनाथ
विमलनाथ
पार्श्वनाथ
वासुपूज्य
शांतिनाथ
आदिनाथ
शांतिनाथ
विमलनाथ
महावीर
पार्श्वनाथ
शांतिनाथ पंचतीर्थी
अजितनाथ
शांतिनाथ
संभवनाथ
वासुपूज्य
शांतिनाथ
पार्श्वनाथ
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
पार्श्वनाथ
संदर्भ ग्रंथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
पृ.
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र
857
858
1461 | चाहुल
1464 समूलदे
860 1466 लाऊल देवी
859
861
862
863
864
865
866
867
868
869
870
871
872
873
874
875
876
877
संवत् श्राविका नाम
878
1458 ललतादे
हालू
1468 | सहजलदे
1468 भीमिणि
1424 माल्हणदेवी हमादे
लावि, देवलदे
मेला, देव्या
146
486
486
1494 सूहडा, चनू
1494 रत्नादे
1485 राणादे, मेलादे
1485 सुघुवदे
1491 मेलादे, नारिंगदे
1464 सूमलदे, श्रृंगारदे
1469 माल्हणदे
1491 मलादे, नारींगदे
1473 आंबा
1469 मेलादे
1484 मालहणदे, मेलादे
1476 साजणि
वंश / गोत्र
श्री श्री माल ज्ञा
श्री श्री माल
ज्ञा
गुर्जर ज्ञा.
प्रागवाट
प्रागवाट ज्ञा.
श्री श्री माल
ऊकेष गद्दहीय गोत्र
ऊकेष / नवलक्षा गोत्र
प्रा. ज्ञा.
ऊकेष ज्ञा.
ऊकेष ज्ञा.
ऊकेष वंष / नवलखा
गोत्र
गुर्जर ज्ञा.
श्री माल वंष नाहर गोत्र
ऊकेष वंष नवलखा गोत्र
ऊकेष वंष
उपकेष वंष
मोढ ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
मुनिचंद्रसूरि
वासुपूज्य
नागेन्द्र गच्छ सुमतिसूरि नमिनाथ
श्री सूरि
पार्श्वनाथ
नन्नसूरि
देवसुंदरसूरि
श्री सूरि
देवगुप्त सूरि
श्री जिनसागरसूर
श्री सर्वानंद सूरि
श्री जिनचंद्रसूरि
सोमसुंदर / तपा
सोमसुंदर सूरि
सोमसुंदर सूरि
देवगुप्त सूरि
श्री जिनसागर सूरि
श्री सूरि
जिनचंद्रसूरि / खरतर
जिनसागर सूरि
जिनसागर सूरि
जिनवर्द्धन सूरि
श्री जयप्रभ सूरि
श्री सूरि
अवदान
आदिनाथ
पार्श्वनाथ
शांतिनाथ
शांतिनाथ
पार्श्वनाथ
द्वासप्तति परिकर
श्री आदिनाथ
श्री नंदीश्वर पट्ट.
श्री आदिनाथ श्री सुमतिनाथ
पार्श्वनाथ
आदिनाथ
चतु. पट्ट
शांतिनाथ
शांतिनाथ
अंबिका देवी
संदर्भ ग्रंथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
339
पृ.
244
246
245
246
247
147
250
250
251
252
253
253
253
254
256
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
340
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संवत् श्राविका नाम
वंश/गोत्र
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य श्री विमल सूरि
| 1500 | मनू अधू
श्री ज्ञा.
शीतलनाथ
प्रा. ले. सं. भा.
1
73
880
1405 | जगदल देवी
श्री माल ज्ञा. | नागेन्द्र श्री रत्नाकर सूरि | श्री शांतिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
| 11
881
1407
श्री माल ज्ञा.
गुणप्रभ सूरि
श्री आदिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1 | 11
882
| 1409
.
हुबंड ज्ञा.
सर्वदेवसूरि
आदिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1 | 12
883 | 1421 | रूपी, नालही
जिनराजसूरि
श्री शांतिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1 | 12
884
1423 वाहणि
प्रा. ज्ञा.
रत्नप्रभसूरि
श्री पार्श्वनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
12
885
1423 | आल्हणदे
| पालीभद्रसूरि
श्री पार्श्वनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
| 12
886
1423 | माल्हणदे
चंद्रसूरि
वासुपूज्य
प्रा. ले. सं. भा. 1
| 12
887 | 1436 | सारू, सुहवदे
श्री कुंथुनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
| 12
खरतर गच्छ जिनचंद्रसूरि सामदेव सूरि
888 | 1437 | सूमलदे
उपकेष ज्ञा.
आदिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
| 12
889
1450 | षीमश्री
उपकेष ज्ञा.
नागेन्द्र देव गुप्त सूरि
श्री वासुपूज्य
प्रा. ले. सं. भा. 1
13
890
11453 | चामल देवी, हलू
हुंबड़ ज्ञा.
सिंहदत्त सूरि
प्रा. ले. सं. भा. 1
| 13
891
1455 | तिहुण श्री
श्री चन्द्र प्रभु
| प्रा. ले. सं. भा. 1
13
धर्मघोष सूरि श्री सर्वाणंदसूरि धर्मतिलक सूरि
892
| 1457 | मोखलो
प्रा. ज्ञा.
श्री पार्श्वनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
| 13
893
1468| श्रीमिणी
गाधहीया गोत्र | उपकेष श्री देवतगुप्त
|श्री शांतिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
13
सूरि
894
1474 | होरादे
श्री आदिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
14
हुंबड ज्ञा. श्री माल बावेल गोत्र
895
|1473
श्री आदिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1 | 13
| धर्मघोष श्री पद्मसिंह धर्मघोष श्री पासिंह सूरि सिंहदत सूरि
896
1474| रूकी
हुंबड ज्ञा.
श्री मुनिसुव्रतस्वामी
प्रा. ले. सं. भा. 1 | 14
897
1478 गांगी
प्रा. ज्ञा.
श्री सूरि
श्री चंद्रप्रभु
प्रा. ले. सं. भा. 1
14
898
1489 / नीणू
प्रा. वय.
तपा. श्री सोमसुंदर सूरि | कुंथुनाथ
प्रा. ले. सं. भा.1
14
899
1480 | कसमीरदे
उप ज्ञा.
श्री नमिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
14
900
1481 | कोल्हाणदे
प्रा. ज्ञा.
उदयप्रभ सूरि
श्री चंद्रप्रभ स्वामी
प्रा. ले. सं. भा. 1
| 14
901 | 1482 | तेजलदे, रयणीदे
| उपकेष ज्ञा.
| उपकेष श्री सिद्ध सूरि | प्रतिमा
प्रा. ले. सं. भा. 1
14
902
| 1483 | सारू
प्रा. ज्ञा.
अंचल नायक जयकीर्ति | श्री मुनिसुव्रत स्वामी | प्रा. ले. सं. भा. 1 |
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
ला
संवत् श्राविका नाम
वंश/गोत्र
|अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य उपकेष देवगुप्त सूरि
903
| 1484 | कुंवरदे, भावलदे
| उपकेष ज्ञा.
|श्री वासुपूज्य
प्रा. ले. सं. भा. 1
| 15
904 | 1439 | दानू
प्रा. ज्ञा.
देवगुप्तसूरि/तपा
| श्री पार्श्वनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
176
905
1499 | कस्तूरी, देवदे
संडेर गच्छ
श्री शांतिसूरि
श्री शीतल नाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
| | 219
906 | 1401 | खेतलदे
बृहद् ग.
धर्मचंद्र सूरि
प्रा. ले. सं. भा. 1
|46
907 | 1405 | लूणादे
श्री श्री ज्ञा.
श्री धनेश्वरसूरि
पार्श्वनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
|
908 | 1406 | पाल्हणदे, वास्तिणि
कोरंटक ग.
। | श्री कक्कसूरि
महावीर स्वामी
प्रा. ले. सं. भा. 1
909
1408 | लीलू
धनेश्वर सूरि
वासुपूज्य नाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
48
नाणकीय ग. अंबिका गोत्र नाणकीय
910
1409 | राल्हू
धनेश्वर सूरि
आदिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
49
911 | 1411 | लीबी
नाणकीय
| श्री हेमतिलक सूरि
शांतिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
50
912 | 1412 हीमादेवी
नाणकीय
| श्री सूरि
श्री पद्मप्रभु
प्रा. ले. सं. भा. 1
50
913
1413 | हेमादे
अच्छयवालवंष | सर्वाणंदसूरि
शांतिनाथ चतुर्विंशति | प्रा. ले. सं. भा. 1 | 50
पट्ट
9141414 | ताल्ह, मंडणी
कोरंट गो.
श्री कक्कसूरि
अजितस्वामी
प्रा. ले. सं. भा. 1
|50
915
1415/ रूपिणि
उप ज्ञा.
मानदेव सूरि
शांतिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
50
916
|1417 | धरणू
उस ज्ञा.
|श्री रत्नाकर सूरि
आदिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
|
| सीतादे
उस ज्ञा.
सागर चंद्र सूरि
आदिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
|51
918
1420| नागल, धरण के
प्रा. ज्ञा. व्यव,
श्री विजयचंद्र सूरि
पार्श्वनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
51
919
1421 | आल्हणदे
प्रा. ज्ञा.
अभयतिलक सूरि
आदिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
|
920
1422 | सलखणदे
श्री माल ज्ञा.
अमरचंद्र सूरि
आदिनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
|
921
1423 | रामादे
प्रा. ज्ञा.
श्री रत्नप्रभ सूरि
जिनप्रतिमा
प्रा. ले. सं. भा. 1
53
922
1424 | टउल सिरि
ऊकेष वंष
| महेन्द्र सूरि
श्री पद्मप्रभु
प्रा. ले. सं. भा. 1
|54
923
1425 | नलदे, संभल
श्री श्री ज्ञा.
श्री सूरि
आदिनाथ पंच. ती.
प्रा. ले. सं. भा. 1 |55
924
1426 | नागल
नाणकीय
धनेश्वर सूरि
पार्श्वनाथ
प्रा. ले. सं. भा, 1
55
925
1428 | मटू
प्रा. ज्ञा.
धर्मतिलक सूरि
| पार्श्वनाथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
26
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
342
क्र
926
927
928
929
930
931
932
933
934
935
936
937
938
939
942
༔」
संवत् श्राविका नाम
940 1441 नाइकदे
943
1429 माधलदे
1430 वइजलदे, वीही, मादे
1432 | राजलदे, सुंदरी
1432 वलालदे,
1433 | देवलदे
1434 मुक्ति
1435 | ऊनादे
1435 तारादे
941 1442 बयजलदे
རྩ་༝ །ལྷ་ཚི་ལྷ།ལྷ
1436 रत्नादे
1437 वीझलदे
1438 नयणादे, ललतादे
1438 लाखणदे
1439 नोडी
1440 मीणल
1445 भेली
1446 पाल्हू
1447 पाल्हणदे
1449 जालहणदे
1450 यउधी
1451 तावीह
1453 कील्हणदे, रूपिणि
1454 गोराही, वीरिणि
वंश / गोत्र
श्री माल व्यव.
श्री माल व्यव.
प्रा. ज्ञा. व्यव.
डांगी गोत्र
प्रा. ज्ञा.
उकेष ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उस ज्ञा.
नाणकीय ग.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
छाजहडगोत्र
ओस. ज्ञा.
उप ज्ञा. खांटहड गोत्र
ऊकेष वहडरा
उप. ज्ञा.
उप. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उप ज्ञा. हींगड गोत्र
उस ज्ञा.
उप. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उप. चोपड़ा गोत्र
उकेष गोखरू गोत्र
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य धर्मतिलक सूरि
ब्रह्मणीय रत्नाकर सूरि
श्री विजयप्रभसूरि
श्री सिद्धसूरि
धर्मतिलक सूरि
श्री कमल चंद्र सूरि
चैत्र गुणदेव सूरि
श्री कमल चंद्र सूरि
श्री पूर्णचंद्र सूरि
श्री शीतलचंद्र सूरि
तपा. श्री पुण्यप्रभसूर
श्री सोमदेव सूरि
खरतर जिनराजसूरि
मेरुतुंग सूरि
अवदान
वासुपूज्य
श्री महावीर प्रतिमा
कुंथुनाथ
महावीर स्वामी
महावीर स्वामी
संभवनाथ
ब्रह्माणीय श्री हेमतिलक
सूरि
महेंद्रसूरि
श्री भावदेव सूरि
जीरापल्लीय श्री वीरचंद्र पार्श्वनाथ सूरी
श्री सोमदत्त सूरि
श्री धर्मघोष सूरि
श्री भावदेव सूरि
श्री सूरि
श्री षालिचंद्रसूरि
धर्मदेव सूरि
श्री पार्श्वनाथ पंच.
विमलनाथ पंचतीर्थी
सुमतिनाथ
पार्श्वनाथ
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संदर्भ ग्रंथ
अभिनंदननाथ
शांतिनाथ
वासुपूज्य पंचतीर्थी
आदिनाथ
पार्श्वनाथ पंचतीर्थी
शांतिनाथ
आदिनाथ
शांतिनाथ
सुमतिनाथ
पद्मप्रभु
नमिनाथ
आदिनाथ
मुनिसुव्रतस्वामी
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
पू.
57
58
58
58
59
| |
59
60
60
61
62
62
62
63
63
64
64
64
64
65
65
65
66
66
66
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र
950
951
952
953
954
955
956
957
958
959
960
961
962
963
964
965
966
967
968
969
970
971
972
संवत् श्राविका नाम
1456 झाफी
1457 जइतलदे, सिरियादे
1458 सामलदे, वील्हणदे
1459 ऊमादे
1460 भावलदे, हमीरदे
1461 चत्रु
1462 जटू हीरादे
1463
1464 रूपी
1465 मेघादे, कनौदे
1466 नयणादे
1467 सारू, मेलादे
1468 पोभी
1469 भरमी
1471 प्रीमलदे, सोहगदेवी
1472 पूनादेवी, सूहवदे, सोमी
1473 सूहागदे
1474 | वाल्हू
1475 सुहाग
1476 करणू
1477 देवलदे
1478 कस्मीरदे
1479 हांसु, पूनादे
वंश / गोत्र
उप. ज्ञा.
उप. बलदउठा
उप. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उस. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उप. ज्ञा.
उप. ज्ञा.
ओ. ज्ञा.
प्रा. व्यव.
उप. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उप. बप्पणाग गोत्र
भावडार गच्छ
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उप. ज्ञा.
नाणकीय ग.
उप. ज्ञा.
ऊके ज्ञा.
हूं. व्यव.
उ. ज्ञा.
उ. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक आचार्य
गच्छ
श्री नन्नसूरि
श्री धर्मदेव सूरि
श्री धणचंद्र सूरि
श्री उदयनंद सूरि
श्री पास चंद्र सूरि
श्री वीरप्रभ सूरि पिप्पल
श्री सुमतिसूरि
श्री सूरि
तपा. रत्नसागरसूरि
कमलचंद्र सूरि
श्री गुणप्रभ सूरि
तपा. श्री देवसुंदरसूरि
श्री देवगुप्त सूरि
श्री विजयसिंह सूरि
श्री सूरि
श्री रासिलसूरि
देवगुप्तसूरि
धनेश्वरसूरि
श्री शांतिसूर
श्री शांतिसूर
सोमसुंदर सूरि
श्री नरचंद्र सूरि
श्री सोमसुंदर सूरि
अवदान
श्री पद्मप्रगु
चंद्रप्रभु
कुंथुनाथ
धर्मनाथ
वासुपूज्य
शांतिनाथ
आदिनाथ
पार्श्वनाथ
आदिनाथ
वासुपूज्य
मल्लिनाथ
शांतिनाथ
सुमतिनाथ
मुनिसुव्रत
सुमतिनाथ
आदिनाथ
आदिनाथ
शांतिनाथ
शांतिनाथ
शांतिनाथ
मुनिसुव्रत
संभवनाथ
शांतिनाथ
संदर्भ ग्रंथ
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
343
पृ.
67
68
68
69
70
70
71
71
72
72
74
75
75
77
77
77
79
79
80
80
81
82
82
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
344
क्र
973
974
975
976
977
978
979
980
981
982
983
984
985
986
987
988
989
990
991
992
993
994
995
996
संवत् श्राविका नाम
1480 मोहिलहि, वामहि
1481 भावलदे
1482 लाछी, करणादे
1483 |तिहुणसी काऊ
1485 मंदोओरि
1486 चांपलदे
1487 नयणादे
1488 सलखणदे, लाखु
1489 रत्नादे, देवलदे
1490 पोमी
1470 भावलदे, वल्ही अछबादे
1469 मेलादे
1469 माल्हदे
1469 सोहम
1471 रत्नादे, वाहणदे
1472 | देवलदे, मुंजी
1476 भरमादे, संभलदे
1478 हासू पूनी
1481 पिंगलदे
1487 संयो
1483 तिलकू
1483 | तिलकू
1483 तिलकू
1483 दमाई
वंश / गोत्र
उप. ज्ञा.
दूगडगो.
भावडार ग.
उप. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
नाणकीय ग.
उ. ज्ञा.
सुराणा गो.
उपकेष ज्ञा.
उपकेष ज्ञा. / तेलहर गो.
श्री श्री ज्ञा.
ऊकेश वंश
श्री माल वंश
हुंबड ज्ञा.
ज्ञा.
उसवाल ज्ञा.
श्री श्री माल
प्रागाट् ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उस. ज्ञा.
श्री ओस ज्ञा.
श्री ओस ज्ञा.
श्री ओस ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
अवदान
श्री हर्षसुंदरसूरि
श्री विजयसिंहसूर
श्री सिद्धसूरि
श्री सूरि
धनेश्वर सूरि
श्री ललितप्रभ सूरि
श्री प्रेमशेखर सूरि
सूरि
श्री शांतिसूर
श्री वीर सूरि
विमलनाथ
तपागच्छ सोमसुंदर सूरि शांतिनाथ
धिनवर्धन सूरि
चंद्र सूरि
श्री सूरि
भावषेखर सूरि
श्री षालिभद्र सूरि
श्री सोमचंद्र सूरि
श्री सोमसुंदर सूरि
आदिनाथ
धर्मनाथ
वासुपूज्य
मुनिसुव्रत
शांतिनाथ
सुमतिनाथ
मुनिसुव्रत
शांतिनाथ
अनंतनाथ
बिम्ब
आदिनाथ
वासुपूज्य
शांतिनाथ
शांतिनाथ
शांतिनाथ
शांतिनाथ
बृहत्तपा
अंचल श्री जयकीर्ति सूरि
तपा. श्री भुवनसुंदर सूरि श्री
तपा. श्री भुवनसुंदर सूरि श्री
तपा. श्री भुवनसुंदर सूरि श्री
कटारिया श्रीराउलाभुवन श्री
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संदर्भ ग्रंथ
जीराउलाभुवनदेवकु.
जीउलाभुवनदेवकु.
जीराउलाभुवनदेवकु
जीराउलाभुवनदेवकु. श्री दे.
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1 88
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
प्रा. ले. सं. भा. 1
श्री देवकुलिकाकारिता श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
पृ.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
82
83
84
85
86
87
87
888
89
144
144
145
145
146
146
www.jainelitrary.org
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र
997
998
999
1000
1001
1002
1003
1004
1005
1006
1007
1008
1009
1010
1011
1012
1013
1015
1014 1483 रूडया
1016
1017
1018
संवत् श्राविका नाम
1019
1483 छीतू
1483 वामलदे
1483 पूनाई, हीरू कस्तूरी
1483 वीरू
1483 पूनासिरि, बाबी
1483 तिलकू
1483 माणिबाई
1483 | पोमाई
1424 कमीदे, खीमादे, खीमदे
1483 | संघविणिराजू
1483 चंपाइदे
1483 मेघू
1483 लखमादे
1483 प्रतापदे, लखमादे, भीखी, कौतिकदे
1483 तेजलदे कौतिकदे
1483 तेजलदे, कउतिगदे
1483 तेजलदे, कउतिगदे, नारंगीदे
1483 तेजलदे, खीमादे
1483 तेजलदे, खीमादे
1483 | माउ, हिचकू, ऊंदी
1421 भोली, भावलदे
1483
वंश / गोत्र
श्री उस. ज्ञा. बरहदियागोत्र
संदर्भ ग्रंथ
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री तपा. भुवनसुंदर सूरि श्री
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री तपा. भुवनसुंदर सूरि श्री
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री तपा. भुवनसुंदर सूरि श्री
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री कृष्णर्षिगच्छ तपापक्ष श्री जय सिंह सूरि
तपा. श्री भुवनसुंदर सूरि चतुष्किका शिखर
श्री. जै. प्र. ले. सं.
चतुष्किका शिखर
श्री. जै. प्र. ले. सं.
चतुष्किका शिखर
श्री. जै. प्र. ले. सं.
चतुष्किका शिखर
श्री. जै. प्र. ले. सं.
चतुष्किका शिखर
श्री. जै. प्र. ले. सं.
चतुष्किका शिखर
श्री. जै. प्र. ले. सं.
अंचल श्री जयकीर्तिसूरि देवकूलिका कारापिता श्री. जै. प्र. ले. सं.
अंचल श्री जयकीर्तिसूरि
श्री. जै. प्र. ले. सं.
अंचल श्री जयकीर्तिसूरि पूजा देहरी
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
अंचल श्री जयकीर्तिसूरि श्री जी. पार्श्वचैत्यै देहरीत्रयं कारापिता अंचल श्री जयकीर्तिसूरि श्री जी. पार्श्वचैत्य देहरी कारापिता अंचल श्री जयकीर्तिसूरि श्री जी. पार्श्वचैत्यै देहरी कारापिता
श्री. जै. प्र. ले. सं.
अंचल श्री जयकीर्तिसूरि
श्री. जै. प्र. ले. सं.
| अंचल श्री जयकीर्तिसूरि
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री श्री ज्ञा.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
अंचल श्री जयकीर्तिसूरि आत्मश्रेयार्थ देहरी कारापिता अंचल श्री जयकीर्तिसूरि देहरी कारापिता श्री उपकेष ज्ञा. अंचल श्री जयकीर्तिसूरि श्री पार्श्वचैत्य श्री श्री ज्ञा.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
अग्रेशिखरंकारित
श्री. जै. प्र. ले. सं.
नाहर
गोत्र / उस ज्ञा.
सावल
गोत्र / उस ज्ञा.
सांवल
गोत्र / उस ज्ञा. छामुकी गोत्र
उस वंष
सोनीहर/ उसव
ल ज्ञा.
नाहर गोत्र
गांधी गोत्र /
उपकेष ज्ञा.
गांधी गोत्र / उसवाल ज्ञा.
श्री माल ज्ञा.
ओस वंश
उस वंश
उस वंश
ओस ज्ञा.
ओस ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
ओस ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
श्री तपा. भुवनसुंदर सूरि
धर्मघोष श्री विजयचंद्र
सूर
श्री कृ. तपा. श्री जय सिंहसूर
श्री मल्लधारि श्री विद्यासागर सूरि
श्री भुवन सुंदर सूरि
बृहतपा श्री जिनसुंदरसूरि
अवदान
श्री
| जीराउलाभुवनदेवकु.
जीराउलाभुवनदेवकु.
जीराउलाभुवनदेवकु.
राउलाभुवनदेवकु. चतुष्किका शिखर
345
पृ.
147
147
148
148
149
150
150
151
151
151
152
152
152
153
153
154
155
155
155
156
156
157
158
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
346
क्र
1020
1021
1022
1023
1024
1025
1026
1027
1028
1029
1030
1031
1032
1033
1034
1035
1036
1037
1038
1040
1041
1042
संवत् श्राविका नाम
1043
1421 हिवादे
मोढ ज्ञा. आगमिक
श्री ज्ञा.
श्री ज्ञा.
प्राग्वाट्ज्ञातीय
1394 हांसलदे
प्राग्वाट्ज्ञातीय
1392 प्रतापसिंह जी
प्राग्वाट्ज्ञातीय
1390 भादी, लाडी और पतरसी प्राग्वाट्ज्ञातीय राजेन्द्रसूरि
प्राग्वाट्ज्ञातीय
श्री माल ज्ञातीय
प्रा. ज्ञा.
1483 गज
1483 हंसादे
1404 हमीरदे
1039 1428 सिगंयादेवी
1380 जयतलदे
1381 सिंगारदेवी
1404 हेमाकेन
1412 मइणल, लखमादे
1413 वीलहणदे
1420 वीरूलदेवी
1421 सूमलदे, मेघादे
1421 | सूहवदे
1422 पूंजी
1424 लूणादेवी
1426 नामलदे
1427 वील्हणदे
1428 नयणादे
1430 |तिहु
1432 | देलहणदे
1432 विजलदे
वंश / गोत्र
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री माल
श्री श्री माल
श्री श्री माल
ज्ञा.
श्री श्री माल
ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य आगमिक गच्छ
श्री श्री माल
ज्ञा.
श्री श्री माल
ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री जिनसुंदर सूरि
श्री तपा भ. श्री जयचंद्रसूरि
देवसूरि
हर्शतिलक सूरि
देवचंद्रसूरि
जयानंदसूर
प्रद्युम्नसूर
श्री वृद्धिसागर सूरि
हरिषेणसूरि
पार्श्व चंद्रसूरि
जिनदेवसूरि
उपकेश ज्ञा.
श्री मालज्ञातीय श्री सूरि
गांधी
प्रागवाट ज्ञातीय | श्री उदयसूरि
श्री वृढायर गोत्र
श्री सागरचंद्र सूरि प्राग्वाट् ज्ञातीय श्री विजयसिंहसूरि
प्राग्वाट् ज्ञातीय श्री पार्ष्णचंद्र सूरि
अवदान
पदमप्रभपार्श्वदेवकु.
रंगदेवन कारिता
महावीर
धर्मनाथ
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
अंगजरंगदेवन कारिता श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
शांतिनाथ
पार्श्वनाथ
आदिनाथ
महावीर
आदिनाथ
संभवनाथ
पार्श्वनाथ
विमलनाथ
नमिनाथ
पार्श्वनाथ
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
शांतिनाथ
आदिनाथ
पद्मप्रभ पंचतीर्थी
श्री महावीर
संदर्भ ग्रंथ
श्री आदिनाथ
श्री आदिनाथ
श्री पार्श्वनाथ पंचतीर्थी
श्री धर्मनाथ
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
श्री. जै. प्र. ले. सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पृ.
158
159
159
9
9
9
9
10
10
10
10
10
11
11
11
11
11
11
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
संवत् | श्राविका नाम
वंश/गोत्र
।
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य जयानंदसूरि, देवसुंदर
1044
1438 | भावलदे
प्राग्वाट् दोसी
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
12
कल्हा
| सूरि
1045 | 1439 | तिहुणदे खमादे लाषणदे
ऊकेष ज्ञातीय | श्री रामचंद्र सूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
13
श्री शांतिनाथ चतुर्विषतिपट्ट वासुपूज्य
1046 | 1440 | पुनादे
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
13
श्री माल ज्ञातीय श्री माल ज्ञा.
पिप्पलाचार्य श्री जयतिलकसूरि हरिशेनसूरि
1047 | 1440 | पूंजी
श्री आदिनाथ
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1048 | 1445 | नामलदे
श्री पार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
114
1049 | 1446 | षेखसुता
श्री माल अभयसूरि गोत्रीय श्री माल रत्नषेखरसूरि ज्ञातीय प्राग्वाट्ज्ञातीय | श्री रत्नप्रभसूरि
वासुपूज्य
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
14
1050 | 1447 | मीणलदेवी
कुंथुनाथ पंचतीर्थी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
|
1051 | 1447 गहिणी
श्री सूरि
वासुपूज्य
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
14
1052
11447 | सहजलदे
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
14
ब्रह्मणगच्छ श्री मुनिचंद्रसूरि श्री भावदेव सूरि
10531450 | प्रेमलदे
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
श्री श्री माल ज्ञातीय भावडगच्छ श्री माल ज्ञातीय श्री माल ज्ञातीय श्री माल
श्री शांतिनाथ चतुर्विंशति पट्ट शांतिनाथ
श्री पुण्यदेवसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
15
1054 | 1450 | कष्मीरदे, संसारदे,
सिरियादे 1055 1450 विक्रमदे, सरसइ
| श्री सूरि
श्री आदिनाथ
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
ज्ञातीय
1056
1451 | संसारदे, लाडी
प्राग्वाट्गोत्रीय | जयतिलकसूरि
श्री अजितनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
15
1057 | 1452 | कामलदे
श्री सुमतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1058
| 1452 | वीलहणदेवी
श्री आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
16
1059
11452 | नागलदे
प्राग्वाट्गोत्रीय |
| नागेन्द्रगच्छ श्री
उदयदेवसूरि श्री श्रीमाल ब्रह्माणगच्छ श्री ज्ञातीय
विमलसूरि श्री श्रीमाल महेंद्रसूरि ज्ञातीय श्री
अंचलगच्छ श्री श्रीमालज्ञातीय | मेरूतुंगसूरि प्राग्वाट्ज्ञातीय | श्री पूर्णिमापक्ष सूरिजी
महावीर
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
16
1060
1453/श्रेणी
महावीर
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
16
10611453 | फबकु, जीवणी
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
16
1062 | 1454 | कीलहणदे
प्राग्वाट्ज्ञातीय श्री गुणाकरसूरि
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
16
1063 | 1454 | भा. मालूणदे
प्राग्वाट्ज्ञातीय | देवसुंदरसूरि
वासुपूज्य
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1064
1456| सीसादे
श्री श्री माल
श्री पद्मप्रभसूरि
अजितनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1065 | 1456 | श्री सिंगारदे
प्राग्वाट्ज्ञातीय | कोरंटगच्छ श्री नन्नसूरि महावीर
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
17
1066 | 1458 | भा. बउलादे
श्री सूरि
श्री सुमतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
श्रीमालज्ञातीय
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
भा
संवत् श्राविका नाम
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
1067 1459 | सिंहजलदे
श्री
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1068 | 1459 | कस्मीरादे
वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
आगमिकगच्छ श्री श्रीमालज्ञातीय | मुनिसिंह सूरि
श्री उदयदेवसूरि श्रीमालज्ञातीय भावडारगच्छ
श्री विजय सिंह सूरि श्रीमालज्ञातीय श्री मालज्ञातीय | सूरि के उपदेश से
श्री शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
17
1069 | 1462 | लखमादे
श्री संभवनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1070 | 1464 | गामी, श्रेयार्थ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
18
श्री शांतिनाथ पंचतीर्थी श्री आदिनाथ
1071 | 1465 | नाउ पुत्र
प्राग्वाट्ज्ञातीय
श्री शीलचंद्रसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
18
1072 | 1465 | कर्मणि पुत्र
प्राग्वाट्ज्ञातीय | श्री देवसुंदर सूरि
श्री पार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
18
1073 | 1465 | उत्तमदे, लाछू
शांतिसूरि पट्ट के श्री
श्री शीतलनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
सूरि
1074
| 1465] मेघा
भंडारी
धर्मघोष श्री पद्मचंद्रसूरि | आदिनाथ
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
18
1075 | 1465 | मातृसमूलदे श्रेयार्थ
शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
18
1076 | 1465 | कपूरदे
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
श्रीमालज्ञातीय श्री नागरगच्छ श्री
गुणसागरसूरि प्रागवाट्ज्ञातीय | रत्नाकरगच्छ श्री
रत्नसागरसूरि
श्रीमलयचंद्रसूरि श्रीमालज्ञातीय प्राग्वाट्ज्ञातीय | रत्नसागरसूरि
1077 | 1465 | सइजलदे
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
19
आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
19
1078 1466 | बाइ. कपूरदे पुत्री वाछा
आका 1079 | 1466 | सइजलदे
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
19
श्री श्रीमाल श्रीमलयचंद्रसूरि आदिनाथ ज्ञातीय उपकेष ज्ञातीय | कोरंटगच्छ के नन्नसूरि | श्री संभवनाथ
1080 | 1466 | भावलदे, पुत्रवधू ष्याणी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1081 | 1466 | भावलदे, बाई राजू
श्री वासुपूज्य
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1082
1466 मेघा
श्री शीतलनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
19
1083 | 1466 | मेघू भावनादेवी
श्री शीतलनाथ
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
उपकेष ज्ञातीय | कोरंटगच्छ के भी
नन्नसूरि हूंबड ज्ञातीय नरेंद्र कीर्तिगुरू के
उपदेष से उसि वाल श्री धर्मघोष गच्छ के ज्ञातीय कमलचंद्रसूरि मंडोरागोत्र प्राग्वाट्ज्ञातीय तपागच्छ नायक श्री
देवसुंदर सूरि
पिप्पलगच्छ के श्री श्रीमालज्ञातीय धर्मप्रभसूरि
| तपागच्छ श्री रत्नसूरि
1084 | 1468 मीणलदे
श्री अभिनंदन
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
20
1085
1468 | मातृदेवी
श्री अजितनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
20
1086
1469 सलखा, हासलदे
शांतिनाथ ।
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
20
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
20
1087 | 1469 | भा. देल्हणदे, हांसलदे,
गउरदे 1088 1469 | बाई पुनादे
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
20
। ऊकेषवंष तपागच्छ के श्री सुमतिनाथ
गुणरत्नसूरि श्रीमाल ज्ञातीयः | श्री चारित्रतिलक सूरि के | श्री शांतिनाथ
उपदेष से प्राग्वाट्ज्ञातीय तपागच्छ के श्री कुंथुनाथ
सोमसुंदर सूरि प्राग्वाट्ज्ञातीय अंचलगच्छ श्री महि सुमतिनाथ
| तिलकसूरि के - -- For Pivate &Personal use only
1089 | 1470| माजु
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
21
1090 | 1471 | धारसीह प्रीमलदे
पा.ज.धा.प्र.ले.सं.
21
Jaduatoriem
'
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
___349
संवत् श्राविका नाम
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
10911471 | भार्या, मचकू
श्री
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
पिप्पलगच्छ के श्री श्रीमालज्ञातीय | सोमचंद्र सूरि के श्री श्री माल | नागेंद्रगच्छ के श्री ज्ञातीय
सिंहरत्नसूरि प्रागवाट् ज्ञातीय | श्री सूरि
1092_1471 | सूहवदे
चंद्रप्रभस्वामी चतुर्विशतिपट्ट श्री शांतिनाथ पंचतीर्थी शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
21
1093 | 1472| श्री
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
21
1094 | 1472 | षमिति, फणुं
चंद्रप्रभु
| 1472 | पाल्हणदेवी
हुंबडज्ञातीय मूलसंघ नंदिसंघ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. रजीयाणा गोत्र | बलातकारगणे
सरस्वतीगच्छ श्री
पद्मनंदी श्री श्रीमाल श्री सूरि
सुमतिनाथ पंचतीर्थी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं... ज्ञातीय श्री श्रीमात | पूर्णिमापक्षीय मुनि तिलक | धर्मनाथचतुर्विंशतिपट्ट | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. ज्ञातीय प्राग्वाट्नातीय श्री सूरि
नमिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
21
1096 | 1473 | सहजलदे, पाणी
सूरि
1097 | 1473 | सलखण देवी
22
1098 | 1474 | वीकमदे, खेतलदे आणलदे | प्राग्वाट्ज्ञातीय | विमलचंद्र सूरि
वासुपूज्य
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1099 | 1476 | गांगी
उपकेष डागो | सूरि
श्री पद्मप्रभ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1100 | 1475 | माल्हणदे
प्राग्वाट्ज्ञातीय | श्री पासचंद्र सूरि
पार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1101 | 1476 | रत्नादे, बांधू
श्री शीतलनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
23
1102 | 1476 | कामलदे
मुनिसुव्रतनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
23
1103 | 1476 कामलदे
श्री मालज्ञातीय | पिप्पलगच्छ श्री
सोमचंद्रसूरि श्री श्रीमाल | श्री सूरि ज्ञातीय सिंघवी श्री श्रीमाल श्री सोमसुंदर सूरि ज्ञातीय सिंघवी प्राग्वाट्ज्ञातीय | तपागच्छ भ. श्री
सोमचंद्रसूरि श्री श्रीमाल ज्ञा. | श्री गुणसागरसूरि
ऋषभदेव
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
23
11041476 | माणिकदे
शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
23
1105 | 1477 | गंगादेवी
धर्मनाथमुख्यपंचतीर्थी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
23
1106 | 1477 | प्रीमलदे, सहिगदे
1107
1477 | प्रीमलदे मेलादे
23
1108 | 1477 | प्रीमलदे, मेलादे
श्री श्रीमाल ज्ञा. श्री चैत्रगच्छ भट्टा. श्री श्री पद्मप्रभ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. | गुणदेवसूरि .
चतुर्विशतिबिंब श्री श्रीमाल ज्ञा. | चैत्रगच्छ भट्टारक श्री मुनिसुव्रतस्वामी पा.जै.धा.प्र.ले.सं. गुणदेवसूरि
चतुर्विशति श्री श्रीमाल ज्ञा. चैत्रगच्छ भट्टारक श्री नेमिनाथ चतुर्विंशति | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
गुणदेवसूरि उपकेष ज्ञातीय | बृ. गच्छ देवाचार्य श्री । सुमतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
पूर्णचंद्रसूरि प्राग्वाट् ज्ञातीय | श्री सोमचंद्रसूरि सुमतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
25
1109 | 1478 | राजू
24
| १४० अहिरवे, करण परिवार प्राण्याद आतीय की सोमबदभूरि
1110
| | 1478 | अहिवदे, करण परिवार
सुमतिनाथमा .याप्रलेस. कि
24
1111
1478 | सरसइ, लखमादे
शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
24
प्राग्वाट् ज्ञातीय | तपागच्छ भट्टा श्री
सोमसुंदर सूरि ओसवाल पूर्णिमा पं. श्री ज्ञातीय जयप्रभसूरि
1112 | 1478 | मनू
सुपार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
25
Jain Equcation International
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र
संवत् श्राविका नाम
संदर्भ ग्रंथ
1113 1478/सिंगारदे
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
25
1114 | 1479 | रूडी देऊ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1115 | 1479 | माधलदे
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
25
1116
1478 लखमीदे
वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक अवदान
गच्छ / आचार्य श्री श्री सूरि
शांतिनाथ ओसवालज्ञातीय
ब्रह्माण भट्टा श्री वीरसूरि जीवितस्वागी श्री ओसवालज्ञातीय
सुविधिनाथ पंचतीर्थी श्री बुद्धिसागरसूरि चंद्रप्रभ ओसवालज्ञातीय
पूर्णिमापक्ष श्रीजयप्रभसूरि | वासुपूज्य ओसवालज्ञातीय श्री श्रीमाल श्री सूरि
श्री शांतिनाथ ज्ञातीय उकेष वंष खरतर श्री
पद्मप्रभ जिनसागरसूरि श्री श्रीमाल मधुकरगच्छ श्री नमिनाथ ज्ञातीय धनप्रभसूरि प्रागवाट् ज्ञातीय | तपागच्छ मुनि सुंदरसूरि | श्रेयांसनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
25
1117 | 1478 | सिंगारदे सुत
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1118 | 1500 | हर्षाई
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1119 | 1500/ नामलदे
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1120
1500 भावलदे, गोमति
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1121 | 1500 | टीबू, गोमति
श्री जयप्रभसूरि
संभवनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
43
श्री श्रीमाल ज्ञातीय श्री श्रीमाल ज्ञातीय
1122
| 1500 | धरमणि, षर
विमलनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
43
श्री आगमगच्छ श्री हेमरत्नसूरि श्री सूरि
1123
1476 | लाड़की, हरदेवन
शांतिनाथ पंचतीर्थी
1124 | 1461 | सूहवदे
उपज्ञा.
पार्श्वनाथ
देवचंद्रसूरि / काषहदगच्छ पार्श्वचंद्र सूरि पूर्णिमा
1125 | 1459 | जयतिलदे
श्री ज्ञा.
शांतिनाथ पंचतीर्थी
1126 | 1454 | लाषणदे
श्री ज्ञा.
श्री देवप्रभसूरि
आदिनाथ
1127 | 1424 | लाछी
प्रा. ज्ञा.
देवचंद्र सूरि
महावीर
1128 | 1471 | ऊमल
प्रा. ज्ञा.
सोमसुंदर सूरि /तपा
शांतिनाथ
1129 | 1484 | सिंगारदे, राजू
श्री श्री ज्ञा.
जयकीर्ति/अंचल
सुपार्श्वनाथ
1130 | 1492 | सहजलदे, लाछलदे
श्री. श्री. ज्ञा.
वीरसूरि ब्रह्मण
विमलनाथ चतु.
जै. धा. प्र. ले. सं. 82 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 82
भा. 2 | जै. धा. प्र. ले. सं. 84
भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 85 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 86 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 86 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 86 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 87 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 89 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 90 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 90 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 90 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 100 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 103 भा. 2
113
1480पूरी
प्रा. ज्ञा.
गुणाकरसूरि
संभवनाथ
1132
1466 | किल्हणदे
उप. ज्ञा.
पासचंद्र सूरि
आदिनाथ
1133 | 1438 | सोमलदे
प्रा. ज्ञा.
मलयचंद्र सूरि
धर्मनाथ
113
1415 | माल्हणदे
वायड ज्ञा.
| रासिल्ल सूरि
पार्श्वनाथ
1135 1495लदे
श्री श्री ज्ञा.
उदय देव सूरि / पिप्पल | संभवनाथ
1138| 1471] तिल
श्री.
महितिलक सूरि/अंचल | अजितनाथ
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र
1137
1138
1139
1140
1141
1142
1143
1144
1145
1146
1147
1148
1149
1150
1151
1152
1153
1154
1155
1156
1157
1158
1159
संवत् श्राविका नाभ
1497 रूडी
1431 प्रीमलदे
1401 आल्हणदे
1480 चांपलदे, जाणिसु
1486 देऊ, कामलदे
1496 सुहवदे
1452 पूरदे
1486 | सूहवदे, जासू
1477 प्रीमलदे, मेलादे
1481 खेतलदे, हमीरदे
1488 धर्मिणी, पूनादे, सहजलदे,
डाही
1479 रूपल
1423 | लखमादे
1489 राणी, लाहू
1445 लालहणदे
1489 | सोमलदे, चांपु
1488 रूपिणि
1489 राणी
1497 लाछलदे, मेबू
1475 सोभागिणि, देवलदे
1495 लषमादे
1478 | मनू, राणी, वमडू
1490 मेलू, वारू, सेहरू
वंश / गोत्र
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उकेष ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
.ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
मोढ ज्ञा.
उकेष ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य पदमाणंदसूरि/नागेंद्र
राजषेखर सूरि / पिप्पल
माणिक्यसूरि
सोमसुंदर सूरि / तपा.
सोमसुंदर सूरि / तपा.
जयचंद्रसूरि / तपा.
उदयदेवसूरि / नागेंद्र
सोमसुंदर सूरि / तपा
गुणदेवसूरि/चैत्र
श्री सूरि
सोमसुंदरससूरि / तपा.
सोमसुंदर सूरि / तपा.
गुणभद्रसूरि
श्री सूरि
विमलसूरि / ब्रह्माण
ज्ञानकलश सूरि
सोमसुंदर सूरि / तपा.
सोमसुदंर सूरि / तपा.
मुनिचंद्रसूरि / ब्रह्मण
| अमरसिंह सूरि / आगम
चतु. श्री सूरि
ज्ञान कलष सूरि / तपा.
सोमसुंदर सूरि / तपा.
अवदान
संभवनाथ
शांतिनाथ
पार्श्वनाथ
चंद्रप्रभु
मुनिसुव्रत
सुपार्श्वनाथ
सुमतिनाथ
विमलनाथ
अनंतनाथ चतु.
शांतिनाथ पंचतीर्थी
आदिनाथ पंचतीर्थी
शांतिनाथ
आदिनाथ
शांतिनाथ चतु.
संभवनाथ चतु.
अजितनाथ
शांतिनाथ पंचतीर्थी
शांतिनाथ
चंद्रप्रभु
पद्मप्रभु
वर्धमान चतु.
वासुपूज्य चतुर्विंशति
चंद्रप्रभु
संदर्भ ग्रंथ
जै. धा. प्र. ले. सं.
भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं.
भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं.
भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं.
भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं.
भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं.
भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं.
भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं.
भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं. भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं.
भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं.
भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं. भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं. भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं. भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं. भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं.
भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं.
भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं. भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं. भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं.
भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं. भा. 2
जै. धा. प्र. ले. सं. भा. 2
351
पृ.
103
29
30
30
32
32
41
44
45
46
48
48
49
50
51
55
56
62
67
68
69
2
3
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
आठनों से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
352
भा
संवत् श्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | अवदान
गच्छ / आचार्य मेरुतुंगसूरि /अंचल पार्श्वनाथ
1160
1445| सलषणदे
प्रा. ज्ञा.
1161
| 1468 | ऊमल, धर्मादे
प्रा. ज्ञा.
श्री सूरि
शांतिनाथ
1162
| 1429 | राजलदे, तिहुणदे
प्रा. ज्ञा.
हेमचंद्रसूरि
पार्श्वनाथ चतु.
1163
| 1499 | षीमा, मालहदे
प्रा. ज्ञा.
जयकीर्तिसूरि/अंचल
सुमतिनाथ
1164
| 1487 | वीजलदे, भाभलदे
श्री श्री
जयकीर्ति सूरि/अंचल | संभवनाथ
1165
1488 | जीवाणि
प्रा. ज्ञा.
सोमसुंदरससूरि/तपा.
मल्लिनाथ
1166 11493 | पचू
श्री श्री
सोमसुंदरसूरि/तपा.
मुनिसुव्रत
1167
1487 | जयति, सारंगे, लहकू
| भावसार
| सोमसुंदरसूरि/तपा.
| सुपार्श्वनाथ
1168
1408 हीरादे, जलदे
प्रा. ज्ञा.
जयषेखरसूरि/तपा
अजितनाथ
1169
1456
लषमादे
श्री श्री ज्ञा.
| रत्नसूरि/नागेन्द्र
वासुपूज्य
1170
1490 | नामलदे, महणदे
| ऊकेष
सोमसुंदरसूरि/तपा.
| विमलनाथ
जै. धा. प्र. ले. सं. भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 8 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 9 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. | 13 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 13 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. | 15 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 15 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 15 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 15 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 120 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 121 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 129 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. | 128 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 136 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 136 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. | 139 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 140 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 140 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 144 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 145 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 80 भा. 2 जै. धा. प्र. ले. सं. 80 भा. 2
1171
1488 | जामू
हुंबड ज्ञा. बुद्ध | ज्ञानकलष सूरि/तपा. | आदिनाथ गोत्र उपकेष ज्ञा. देवगुप्तसूरि/उप. पार्श्वनाथ
1172
1439 वाऊ
1173
1491 | रूपादे, धरमाई
उपकेष ज्ञा.
सावदेवसूरि/कोरंट
शीतलनाथ
1174
सुविधिनाथ चतु.
11491| सांऊपु. देवलदे उप. भोचु गोत्र | पद्मषेखर सूरि
/धर्मघोष 11489 | कमलाइ, जीविलि, साजूसू | ऊकेष ज्ञा. | मुनिसुंदर सूरि/तपा.
1175
| सुमतिनाथ
1176
| 1421 | हीमादे
श्री. श्री. ज्ञा.
रत्नषेखर सूरि
पार्श्वनाथ
1177
1496
हफूंपू
श्री श्री ज्ञा
| सावदेवसूरि/कोरंट
अभिनंदन चतु.
1178
1485 | वानू पूरी
ऊकेष ज्ञा.
सोमसुंदर सूरि
मुनिसुव्रत
1179
1410 | सलषणदे, झलकू
उप ज्ञा.
धनेश्वरसूरि/नाणकीय पार्श्वनाथ
1180
1411 | कुरंदे
प्रा. ज्ञा..
मानदेवसूरि/मडाहडीय | आदिनाथ
1181
1477 | गंगादे
उप. ज्ञा.
सालिभद्रसूरि/ जीरापल्लीय
महावीर
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र० संवत् श्राविका नाम
1301 सहजदेवी श्रेयार्थ
1303 श्रृंगार
1241 कुरदेवी
1185 125 हेमति
1182
1183
1184
1186 1357 नाथि
1187 1365 हासल
1188
1189
1190
1191
1192
1193 1381
1194
1386 माल्हणदेवी
1195 1387 सहजलश्री
1196
1367 लखमादेवी, वीलहणदेवी
1373 लखिण श्रेयार्थ
1373 भवतादेवी
1379 जयतलदेवी
1380 जयतलदे
1390 भदी, लाड़ी, पतरसी
1197 1393 श्रीमती प्रतासिंह जी
सजल भार्य सिंगार देवी श्रेयार्थ
1198 1394 हासलदे
1199 1379 जयतलदेवी
1200
1373 भवतादेवी
1373 लखिण
1202 1367 लखमादेवी वीलहणदेवी
1201
1203 1364 हासल
1204
1357 नाथि पुत्र
1205 1241 कुरदेवी
वंश / गोत्र
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
देवभद्रसूरि
शांतिसूरि, अजितसूरि, उपवेष शांतिनाथ
से
| धर्मदेव सूरि
पार्श्वनाथ
धर्मदेव सूरि
आदिनाथ
तिलकसूरि
महावीर
तिलकसूरि
शांतिनाथ
तिलकसूरि
| तिलकसूर
तिलकसूरि
तिलकसूरि
तिलकसूरि
तिलकसूरि
तिलकसूरि
तिलकसूरि
श्रीमाल ज्ञा. तिलकसूरि
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री माल ज्ञातीय.
श्री माल ज्ञातीय.
श्री माल ज्ञा.
श्री माल ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्रीमाल ज्ञा.
श्रीमाल ज्ञा.
श्रीमाल ज्ञा.
श्रीमाल ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
प्रा. ज्ञातीय
प्रा. ज्ञातीय
जयदेवसूरि
आचार्य
आचार्य
तिलकसूरि
तिलकसूरि
तिलकसूरि
धर्मदेव सूरि
अजित सूरि शांतिप्रभसूरि
शांतिप्रभसूरि
अवदान
आदिनाथ
शांतिनाथ प्रतिमा
पार्श्वनाथ
पार्श्वनाथ
महावीर
पार्श्वनाथ
आदिनाथ
शांतिनाथ
शांतिनाथ
महावीर
शांतिनाथ
धर्मनाथ
महावीर
शांतिनाथ
महावीर
आदिनाथ
पार्श्वनाथ
शांतिनाथ
पार्श्वनाथ
संदर्भ ग्रंथ
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पृ.
353
3
3
10
9
4
5
5
6
5
6
6
6
7
7
7
7
8
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
354
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र० संवत् ।
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
अवदान
|
संदर्भ ग्रंथ - पृ.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य शांतिप्रभसूरि
1206 ] 1386 | मालहणदेवी
प्रा. ज्ञातीय
शांतिनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1207 | 1215 | हेमति
| प्रा. ज्ञातीय
देवभद्रसूरि
शांतिनाथ
| पा.ले.धा.प्र.सं.
1208 | 1301 | सहजदेवी
प्रा. ज्ञातीय
जयदेवसूरि
आदिनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1209 | 1755 | गुलाबकुँअरजी
प्रा. झातीय
जयदेवसूरि
पार्श्वनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1210|1212 | जसकेन
| प्रा. ज्ञातीय
जयदेवसूरि
पार्श्वनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1211 | 1427 | वीहलणदे वीकमदे
उपकेष ज्ञातीय | जिनदेवसूरि
पद्मप्रभपंचतीर्थी . | पा.ले.धा.प्र.सं.
1212/1426 | नामलदे
प्राग्वाज्ञातीय
पार्षचंद्रसूरि
आदिनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1213 | 1424 | लूणादेवी
प्राग्वाज्ञातीय | हरिषेणसूरि
शांतिनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
12141422 | पूजी
श्रीमाज्ञातीय
वृद्धिसागरसूरि
पार्श्वनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1215 1421 | सूहवदे
श्रीमाज्ञातीय
प्रद्युम्मसूरि
नमिनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1216 1387 | सहजल श्री
प्रा. ज्ञातीय
शांतिनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1217 | 1421 | सूमलदे मेघादे
श्रीमाल ज्ञातीय | जयानन्दसूरि
विमलनाथ
| पा.ले.धा.प्र.सं.
1218| 1420| विरूलदे
श्रीमाल ज्ञातीय | देवचंद्रसूरि
पाश्वनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1219 | 1412 | मइणल लखमादे
श्रीमाल ज्ञातीय
आदिनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1220 | 1478 | सिंगारदे सुत
श्री श्रीमाल झा. | श्री सूरि
श्री शांतिनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1221 | 1479 | भा. रूडी, देऊसहितेन
| श्री श्रीमाल ज्ञा. | श्री वीरसूरि
पा.ले.धा.प्र.सं.
|
25
सुविधिनाथ पंचतीर्थी श्री चंद्रप्रभु
1222] 1479 | माघलदे
श्री बुद्धिसागरसूरि
पा.ले.धा.प्र.सं.
श्री श्रीमाल ज्ञा. थारापद्गच्छ श्री शांतिसूरि
पा.ले.धा.प्र.सं.
1223 | 1479 | लखमादे, रांणीदे भली
श्रेयार्थ 1224|1480| माउ, चांपलदेवी
संभवनाथ चतुर्विशांति श्री चंद्रप्रभ
प्राग्वाट्ज्ञातीय | तपापक्ष श्री सोमसुंदरसूरि
पा.ले.धा.प्र.सं.
1225 | 1481 | भली, पुत्रवधूभाऊ
प्राग्वाट्ज्ञातीय | तपागच्छ श्री देवसुंदरसूरि
| श्री शांतिनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1226 | 1481 | चापलदे, रूपादे
श्री श्रीमाल ज्ञा. | चैत्रवालगच्छ श्री जिनदेवसूरि | जीवितस्वामी श्री | पा.ले.धा.प्र.सं.
अनंतनाथ प्रा. ज्ञातीयश्री सोमसुंदरसूरि
श्री पार्श्वनाथ पा.ले.धा.प्र.सं.
1227 | 1481 | उमादे
1228 | 1482 | सोनी,, वाहणि सहित
उसवाल ज्ञातीय | मद्रडीयनाणचंद्रसूरि
श्री पद्मप्रभ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1229/1483 | हमीरदे, देऊ
पा. ज्ञातीय
श्री सोमसुंदरसूरि
सुमतिनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र० संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
अवदान
संदर्भ ग्रंथ | पृ.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य श्री ज्ञानकलषसूरि
1230/1483 | सुहगल
मोदज्ञातीय
कुंथुनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1231/1483 | भा.साऊ कुंती
उकेष. ज्ञातीय | पूर्णिमा श्री विमलचंद्र सरि | | मुनिसुव्रत
| पा.ले.धा.प्र.सं.
27
1232/1483 | साऊ मंदोअरि
प्रा. ज्ञातीय
श्री कक्कसूरि
श्री विमलनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1233/1484
भा. वारू
| प्रा. ज्ञातीय
श्री सोमसुंदर सूरि
सुमति नाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
27
1234/1484सुहवदे
ऊकेषवंषीय
ऊकेषगच्छ श्री देव गुप्त सूरि | श्री कुंथुनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
27
1235/1484
सुहवदे.
ऊकेषवंषीय
ऊकेषगच्छ श्री देव गुप्त सूरि | श्री कुथुनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
27
1236/1484 | देउ, काउ
वीरवंष
अंचलगच्छ श्री जयकीर्तिसूरि
श्री सुमतिनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
27
1237 | 1484 लाखणदे, पासडे
| श्री मालज्ञातीय | श्री गुणसागरसूरि
श्री नेमिनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
27
1238 | 1484 | प्रीमलदेवि सोहगदेवि
| श्री श्रीमाल ज्ञा. | चैत्रगच्छ श्री जिनदेव सूरि ।
पा.ले.धा.प्र.सं.
श्री पद्मनाथ चतुर्विंशति पट्ट श्री शांतिनाथ
1239 | 1484 | धांधलदे
श्री श्रीमाल ज्ञा. श्री वीरचंद्रसूरि
पा.ले.धा.प्र.सं.
124011484 संभलदे
श्री श्रीमाल ज्ञा. | चैत्रगच्छ श्री जिनदेवसूरि
पा.ले.धा.प्र.सं.
1241/1484 | पदमलदे, पाल्हणदे, झबकू | प्रा. ज्ञातीय
तपाबच्छ श्री सोमसुंदरसूरि
पंचतीर्थी श्री अजितनाथ श्री सुपार्श्वजिन चतुर्विंशति पट्ट पार्श्वनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1242 | 1485 | धारू, डाही, डाही
उपगच्छ
बृहद्गच्छ श्री शुभचंद्र
पा.ले.धा.प्र.सं.
12431485| विणलदेवी
श्रीमाल ज्ञा.
| पूर्णिमापक्ष. मुनि तिलक सूरि | पार्श्वनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1244 | 1485 | मोषलदे, मेषादे
प्राग्वांट् ज्ञातीय | पूर्णिमापक्ष श्री गुण देवसूरि
। सुमतिनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1245| 1485 | लीलादे
ऊकेषवंश
| श्री शांतिसूरि |
आदिनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1246/1485
चांपलदे, पहासु
श्री श्रीमाल ज्ञा. | थारापद्रीय श्री सोमसुंदरसूरि | शीतलनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
29
1247 | 1485
करमी लहिकू
प्राग्वाट्ज्ञातीय | तपागच्छ श्री सोमसुदरसूरि
शीतलनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1248 | 1485 | साहगदे,
प्राग्वाट्ज्ञातीय | तपागच्छ श्री सोमसुदरसूरि |श्री पद्मप्रभु
पा.ले.धा.प्र.सं.
| 29
1249 | 1486 | झबकू जासूआ
| उपकेष ज्ञातीय | उपकेषगच्छ श्री सिद्धसूरि
नमिनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1250 | 1486
सूहवदे, पांची
पा.ले.धा.प्र.सं.
1251 | 1486 / गांगी, धीरू, पूरी
पा.ले.धा.प्र.सं.
श्री श्रीमाल ज्ञा. | उपकेषगच्छ ककुदाचार्य मुनिसुव्रत
संतान श्री सिंह सूरि प्राग्वाट्शातीय | तपागच्छ श्रीरत्ना
शांतिनाथ सोमसुंदरसूरि उपकेष ज्ञातीय | श्री सिंह सूरि जी
अजितनाथ आदित्यनागगोत्रे श्री माल ज्ञा. | ऊकेष गच्छ श्री देवगुप्तसूरि | विमलनाथ
1252 | 1486 | छाड़ी, तोल्हाही
पा.ले.धा.प्र.सं.
1253|1486 | लूली
पा.ले.धा.प्र.सं.
।
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
356
क्र० संवत् श्राविका नाम
1254
1255
1256
1257
1258 1487 खेतलदे
1259 1488 पालहणदे, मेचु लखमादे
1488 विनू
1488 रूपी
1488 कष्मीरदे, जासूना
1263 1488 वीझलदे, सारू
1489 पद्मलदे, नमलदे
1260
1261
1262
1264
1265 1489 अहिवदे
1266 1489 कामलदे
1267
1489 पूंजी, रूढ़ी वारू
1268 1489 हषू भिमसिरि
1489 हरखू लाडी
1489 बाणि
1490 पांचू
1490 बाई शरी
1269
1270
1486 खेतलदे, रानी
1486 कुंतादेवी
1487 धांधलदे
1487 नायकदे, मारू
1271
1272
1273 1490 सिरिआदे
1274 1490 वलहादे
1275
1276
1277
1491 धनाई
1491 हीरादे
1491 कपूरदे
वंश / गोत्र
श्री श्रीमाल ज्ञा.
प्राग्वाट्ज्ञातीय
सानगोत्र
प्राग्वाट्ज्ञातीय
ऊकेष
प्राग्वाट्ज्ञातीय
पा. ले.धा.प्र.सं.
उसवाल ज्ञातीय खरतरगच्छ श्री जिनचंद्रसूरि
पा. ले.धा.प्र.सं.
श्री श्रीमाल ज्ञा. पूर्णिमापक्ष श्री मुनितिलकसूरि आदिनाथपंचतीर्थी पा. ले.धा.प्र.सं.
श्री श्रीमाल ज्ञा.
आगमगच्छ श्री हेमरत्नसूरि
पा. ले.धा.प्र.सं.
सुमतिनाथ श्री पूर्णिमापक्ष श्रीसाधुरत्नसूरि सुमतिनाथ
तपागच्छ श्री सोमसुंदरसूरि
पार्श्वनाथ
आम्बिकादेवी
शांतिनाथ
तपापक्ष भट्टा श्री रत्नसिंह सूरि
तपागच्छ के श्री सोमसुंदरसूरि मुनिसुव्रतनाथ
उपकेषगच्छ श्री सिद्धाचार्य
श्री संभवनाथ
खरतरगच्छ श्री जिभद्रसूरि
उसवंष
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
तपागच्छ श्री पं. हर्षमूर्तिगणि मुनिसुव्रतस्वामी
पार्श्वनाथ
ऊकेष वंष बलाही गोत्र
श्री श्रीमाल ज्ञा. पिप्पलगच्छ श्री
श्रीउदयदेवसूरि
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
अवदान
प्राग्वाट्ज्ञातीय
घुलहागोत्री
श्री श्रीमाल ज्ञा. पिप्पलगच्छ के श्री
पा.ले.धा.प्र.सं.
सोमचंद्रसूरि
श्री श्रीमाल ज्ञा. श्री तपागच्छ श्री सोमचंद्रसूरि सुमतिनाथपंचतीर्थी पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
श्री श्रीमाल ज्ञा. पूर्णिमापक्ष श्री धनप्रभसूरि उकेष ज्ञातीय
श्री सूरि
पा. ले.धा.प्र.सं.
श्री श्रीमाल ज्ञा.
श्री सुनिसिंह सूरि
पा. ले.धा.प्र.सं.
उपकेष ज्ञा.
| उपकेषगच्छ श्री सिद्धसूरि
पा. ले.धा.प्र.सं.
प्रागवाट्ज्ञातीय उकेषगच्छ श्री देवगुप्तसूरि
पा. ले.धा.प्र.सं.
श्रीमाल ज्ञा.
पूर्णिमापक्ष श्री मुनितिलकसूरि
पा. ले.धा.प्र.सं.
श्रीमाल ज्ञा.
आगमगच्छ श्री हेमरत्नसूरि
अंचलगच्छ श्री जयकीर्ति
खरतरगच्छ श्री जिनसागरसूरि शीतलनाथ
खरतरगच्छ श्री जिनसागरसूरि अजितनाथ
आदिनाथ
श्रीपद्मप्रभ
अजितनाथ
पार्श्वनाथ
संदर्भ ग्रंथ
श्री सुविधिनाथ
अनंतनाथ
चंद्रप्रभ
शांतिनाथ
श्री नेमिनाथमुख्य चतुर्विंशांति पट्ट
धर्मनाथ चतुर्विषतिट्ट
धर्मनाथ
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पा. ले.धा.प्र.सं.
पृ.
30
30
30
31
31
31
31
31
31
31
32
32
32
32
33
33
33
33
33
33
33
34
34
34
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र० संवत्
वंश/गोत्र
अवदान
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य सोमसुंदरसूरि
1278/1491
लूणादे कष्मीरदे
प्राग्वादज्ञातीय
मुनिसुव्रत
पा.ले.धा.प्र.सं.
1279 | 1491 | वुलदे, मटकू
जीवंतस्वामी
पा.ले.धा.प्र.सं.
श्री मालगोत्री | चैत्रगच्छ श्री जिनदेवसूरि
आदिनाथ प्राग्वाटवंष श्री सूरि
1280 | 1491 | गांगी, हरखू मरगादे
सुमतिनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1281 | 1491 | कामलदे, माकू
श्रीमाल वंष
तपागच्छ श्री सोमसुंदरसूरि
धर्मनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1282 | 1422 | वीझलदे, कपूरी
प्राग्वाट्
तपागच्छ श्री सोमसुंदरसूरि
आदिनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1283 | 1492 | वानू
प्राग्वाट्ज्ञातीय | वृद्धतपागच्छ श्री रत्न सिंह
मुनिसुव्रत
पा.ले.धा.प्र.सं.
1284/1492 | पोमी
श्री श्रीमाल ज्ञा. | नागेंद्रगच्छ श्री गुणसमुद्रसूरि
पा.ले.धा.प्र.सं.
35
सुविधिनाथ पंचतीर्थी | धर्मनाथ
1285] 1492
लूणादे
प्राग्वादज्ञातीय
पा.ले.धा.प्र.सं.
1288 | 1493 | झाझू
श्रीमाल ज्ञा.
तपागच्छनायक प्रभु श्री सोमसुंदरसूरि पूर्णिमागच्छ भ. श्री जय | प्रभसूरि पूणिमापक्ष श्री सूरि
श्रेयांसनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
1287|1493
सहिजनदे, बदू
श्रीमाल ज्ञा.
कुंथुनाथ
पा.ले.धा.प्र.सं.
नारी गुणों की गौरव गाथा। धरती के जन-जन गाएँगे। और तो सब कुछ भूल सकेंगे।
तुमको भुला ना पाएँगे।
नारी तुम गंगा सी पावन महान। तुम गीता सी गौरव निधान। तुम सेवा की साकार देवी। और सीता सी करूणा निधान।
नारी तुम केवल श्रद्धा हो। विश्वास रजत नभ पग-तल में। पीयूष स्त्रोत सी बहा करो। जीवन के सुंदर समतल में।
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
358
संदर्भ ग्रन्थ सूची (अध्याय - ५)
प्रस्तावना संदर्भ सूची
१ साध्वी शिलापीजी. समय की परतों में प. ७०-७१.
सोहनलाल पाटनी. अर्बुद परिमंडल की जैन धातु प्रतिमाएँ एवं मंदिरावली. प्रस्तावना.
डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन. प्र. ऐ. जै. पु. म. प. २७५.
डॉ. राजेश जैन मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म प. ३४-३६.
डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन. प्र. ऐ. जै. पु. म. प. २७७.
वही. प. २६१-२६४.
वही. प. २६६-२७२.
२
३
४
५
६
७
८
६
१०
११
१२
१३
१४
१५
१६
१७
१८
१६
२०
२१
२२
२३
२४
वही. प. २५२-२५६.
एस. आर. भंडारी ओसवाल जाति का इतिहास प. २६-३४.
आचार्य श्री पुण्य विजय जी महाराज जै. जै. ग्रं. भं. हस्त सूची प. ५८६ - ६१२.
प्रो. राजाराम जैन श्रवणबेलगोला के शिलालेख प. ३७.
वही. प. ३५-३६.
आ. हस्तीमलजी म. जैन धर्म का मौलिक इतिहास. प. २६०७२६१.
वही.
वही. प. २६०-२६१
वही. भाग - ३ प. २५३-२५६.
वही. प. २८० - २८३.
डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन. प्र. ऐ. जै. पु. म. प. २८६-२८७.
वही. प. २६० - २६२.
वही. प. १०१-१०४.
वही. प. १०४ - १०५.
सोधी. प्रो. मंजीत सिंघ. हिस्ट्री ऑफ एनशेंट इंडिया प. १६२ - १६५.
वही. प. १६६, ११०-११२.
डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन. प्र. ऐ. जै. पु. म. प. ११४, ११८, १२४.
२५ वही. प. १२५ - १२८.
२६
सोधी. प्रो. मंजीत सिंघ. हिस्ट्री ऑफ एनशेंट इंडिया प. २०४.
२७
भारतीय संस्कति के विकास में जैन वाङ्मय का योगदान. प २४०.
२८ डॉ. राजेश जैन, मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म प. ३४-३६.
२६ डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन. प्र. ऐ. जै. प्र. औ. म. प. ३४-३६.
३०
वही. प. ६३.
३१
वही. प. ६५.
३२
डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन. प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ. प. २२४ .
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
359
३३ भारतीय संस्कति के विकास का योगदान . प. १२७-१२८. ३४ जैन. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन. प्र. ऐ. जै. पु. म. प. २५०-२५६. ३५ भारतीय संस्कति के विकास में जैन वाङ्मय का अवदान. प १२८. ३६ एस.आर. भंडारी. ओसवाल जाति का इतिहास. प. ३०, ३४. ३७ साध्वी शिलापीजी. समय की परतों में. प. १२८-१२६, ३८ वही. प. १२२–१२३. ३६ जैन डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन प्र. ऐ. जै. पु. म. प. २३०-२३१. ४० वही. प. २३०-२३२. ४१ वही. प. ६८-१००. ४२ साध्वी शिलापीजी. समय की परतों में. प. ६७-६६. ४३ जैन डॉ. ज्योति. प्र. ऐ. जै. पु. म. प. २५२, २५६. ४४ वही. प २२८. ४५ साध्वी शिलापीजी समय की परतों में. प. ७४, ७६. ४६ आ. हस्तीमलजी म. जैन धर्म का मौलिक इतिहास. भाग. ४, प ३३३. ४७ वही. प. ३७१-३७२. ४८ वही. प. ३७१. ४६ जैन डॉ. ज्योति. प्र. ऐ. जै. पु. म. प. १२६, १३०-१३२, १३६. ५० वही. प. १३६-१३८, १४०-१४३, १४७-१५०. ५१ भारतीय संस्कति के विकास में जैन वाङ्मय का अवदान. प १२८, १२६. ५२ वही. प. १५१-१६८. ५३ वही. प. १६८-२०८ ५४ वही. प. २०६-२१५.
Foॐ
श्राविका विवरण संदर्भ सूची
अध्याय -५ १. भा. सं. वि. में जै. वा. का अवदान. प. १२४. २. डॉ. हीराबाई बोरदिया. जै. ध. प्र. सा. एवं म. प. १८४. १८५.
डॉ. हीराबाई बोरदिया. जै. ध. प्र. सा. एवं म. प. १८४. डॉ. हीराबाई बोरदिया. जै. ध. प्र. सा. एवं. म. प. १८७. १८८. डॉ. हीराबाई बोरदिया. जै. ध. प्र. सा. एवं. म. प. १६३. डॉ. हीराबाई बोरदिया. जै. ध. प्र. सा. एवं. म. प. १८८.१६१. डॉ. हीराबाई बोरदिया. जै. ध. प्र. सा. एवं. म. प. १६१. १६२. डॉ. हीराबाई बोरदिया. जै. ध, प्र. सा. एवं. म. प. १६२. अ) भारतीय संस्कति के विकास में जैन वाङ्मय का अवदान प. १२२. १२३. ब) डॉ. हीराबाई बोरदिया. जैन धर्म की प्र, सा, एवं म, प. १६४-१६५.
ॐ
ॐ bui
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
360
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
१०. ऐतिहासिक लेख संग्रह. प. ३४०. ११. ऐतिहासिक लेख संग्रह. प. ३४१. १२. जैन ज्योतिप्रसाद. उत्तर प्रदेश और जैन धर्म. प. १६. १३. साध्वी संघमित्राा. जैनधर्म के प्रभावक आचार्य, प. ३२१-३२२. १४. साध्वी संघमित्रा. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य. प. ३२३-३२४. १५. साध्वी संघमित्रा. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य. प. ३३१. १६. वही. प. ३४८-३४६. १७. साध्वी संघमित्रा. जैनधर्म के प्रभावक आचार्य. प. ४१६ १८. सा संघ, जै. ध. के प्र. आ. प. ४३२
भा. सं. वि. में. जै. वा. अवदान. प. १२४ क) दक्षिण भारत में जैन धर्म. पं. कैलाश चंद्र शास्त्री. प. १४६. ख) जैन. बि. पा. १. प. २३०.
ग) दक्षिण भारत की जैन साधिवयाँ एवं विदुषी महिलाएँ. प. १८० २१ डॉ. हीराबाई बोरडिया. जैन धर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएं प. १६३. २२ वही प. १४६. २३ डॉ. हीराबाई बोरदिया, जैन धर्म की प्रमुख सा. एवं म. १६१-१६२. २४ डॉ. जैन ज्योति प्र. ऐ. जै. पु. और. म. म. प. २६०. २५ जैन डॉ. ज्योति. प्र. ऐ. जै. पु. औ. म प. ११२.
जैन डॉ ज्योति. प्र. ऐ. जै. पु. औ म. प. २२६-२२७. आ हस्ती . म. जै.ध. का. मौ. इ. भा. ३ प. ५७३-५७५. सा. संघ. जै. ध. के. प्र. आ. प. ५११.
सा. संघ. जै. ध. के. प्रआ प. ५१६-५२१. ३० सा. संघ. जै.ध. के. प्र. आ. प. ५०२-५०३.
सा. संघ. जै.ध. के. प्र. आ. प. ४६८.
सा. संघ. जै. ध. के. प. आ. प. ४५६-४६२. ३३ सा संघ. जै. ध. के. प्र. आ. प. ४४८-४४६. ३४ आचार्य श्री हस्तीमलजी म. जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग. ४. प. ५६२-५६८. ३५ आचार्य विजय नित्यानंदसूरि, पुण्य पुरूष पेथड़ शाह. प. १०-११. ३६ वही. ३७ वही. पष्ठ ११०–१२६. ३८ वही. प ५५. ३६ साध्वी डॉ. दिव्यप्रभा. उप. मिति भव. प्रपंच कथा "एक. अधययन. प. १००-१०३. ४० अ) आचार्य हस्तीमल जी म. जैन धर्म का मौलिक इतिहास भा. ४. प. ४४७, ४४८.
ब) श्री शेरवती देवी, कर्नाटक की प्राचीन जैन महिलाएँ पं. चंदा, बाई, अभि, ग्रंथ, प. ५४६-५५०.
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
361
४१ जैन शिलालेख संग्रह भा. २ प. ४७, भा. ३, ७१-७३. ४२ वही प. ११२. ४३ जैन धर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ प. १७६ -१७७. ४४ क) जैन सिद्धांत भास्कर प. ६४ अंक १६४१ माह दिसंबर.
ख) जैन शिलालेख संग्रह भा. ३ प. १६४ - १६६.
ग) दक्षिण भारत में जैन धर्म प. १२६. ४५ क) जैन बिबलियोग्रफी, पार्ट. II. छोटेलाल जैन. प. १३३६.
ख) पं. चंदाबाई अभिनंदन ग्रंथ, श्री शेरवती देवी, प. ५१२. ग) प्राकत विद्या, प्रो. राजाराम जैन प. ११७ जनवरी-जून, २००२, घ) प्रमुख एतिहासिक जैन पुरूष और महिलाएँ, प. १३२-१३५, डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन. ङ) प्राकत विद्या, प्रो. राजाराम जैन प. ११७. च) जैन धर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ. डॉ. हीराबाई बोरड़िया प. १७१. छ) जैन शिलालेख संग्रह भा. २ प. विजयमूर्ति प. १४. ज) जैन सिद्धांत भास्कर भाग. २ किरण-२ प. ४७.
२. प्रमुख एतिहासिक जैन पुरूष और महिलाएँ. प. ११५–११८ डॉ बीराबाई बोरड़िया. ४६ क) भारतीय इतिहास : एक दष्टि: ज्योतिप्रसाद जैन भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प. ३३१.
ख) प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरूष और महिलाएँ. प. १४० डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन. ग) पं. चंदाबाई अभिनंदन ग्रंथ : श्री शेरवती देवी, आ. भा. दि. जै. महिलापरिषद प. ५५२. घ) प्रमुख एतिहासिक जैन पुरूष और महिलाएँ. प. १४० डॉ जयोतिप्रसाद जैन. ङ) पं. चंदाबाई अभिनंदन ग्रंथ : श्री शेरवती देवी. आ. भा. दि. जै. महिलापरिषद प. ५५२.
च) जैन बिबलियोग्रफी. पार्ट. || . छोटेलाल जैन. प. १३३६.१३३७. । क) दक्षिण भारत में जैन धर्म प. ८ और १२३.
ख) आर्यिका इंदुमती अभिनंदन ग्रंथ, विजयमति माताजी, प.८ ४८ क) मद्रास व मैसूर प्रांत के प्राचीन जैन स्मारक ब्र शीतलप्रसाद जी, प. ३२०
ख) जै. शि. सं. भाग २, पं. विजय मूर्ति, प. १४५–१४६ के अनुसार लगभग १५० ई. ४६ क) दक्षिण भारत में जैन धर्म प. १२२-१२३, पं. कैलाशचंद्र शास्त्री भारतीय ज्ञान पीठ, दिल्ली कलकत्ता. प्र. सं. १६६७ वी. नि. २४६४.
ख) मद्रास व मैसर प्रांत के प्राचीन जैन स्मारक. ब्र. शीतलप्रसाद जैन प. ३१६. ५० जै. शि. सं. भा. १, जैन हीरालाल प. ११ सन् १६२८, मुम्बई. ५१ जैन धर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ. डॉ. हीराबाई प. १७३-१७४. ५२ जैन धर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ. डॉ. बोरड़िया प. १७४. ५३ जैन धर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ. डॉ. हीराबाई बोरड़िया प. १६६. ५४ जैन धर्म की प्रमुख साध्दियां एवं महिलाएँ. डॉ. हीराबाई बोरड़िया प. १६६-१७०. ५५ क) दक्षिण भारत में जैन धर्म प. १२२-१२३ पं. कैलाशचंद शास्त्री प. १०१.
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
362
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
५६ ५७ ५८
५६ ६०
ख) जैन शिलालेख संग्रह भा. २ पं विजयमूर्ति प. १८५-१८६. दक्षिण भारत में जैन धर्म प. १२२-१२३ पं. कैलाशचंद शास्त्री प. १०१. जैन शिलालेख संग्रह भा. २ विजयमूर्ति प. २४१-२४५. क) जैन धर्म की प्रमुख साधिवयां एवं महिलाएँ. डॉ. हीराबाई प. १६८-१६६. ख) प्राकत विद्या, प्रो. राजाराम जैन, कुंद कुंदभारती विद्यापीठ २००२, प. ११८, नई दिल्ली. ग) प्रमुख एतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ. प. १०० डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, जैन शिलालेख संग्रह भा. ३विजयमूर्ति प. ४५३. क) डॉ ज्योतिप्रसाद जैन की प्रमुख एतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ, प. १६०. ख) पं. चंदाबाई अभिनंदन ग्रंथ प. ५५०-५५१. ग) जैन धर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ. डॉ. हीराबाई बोरडिया प. १८०. घ) दक्षिण भारत में जैन धर्म प. १४४. क) जैन शिलालेख संग्रह भा. १ श्री हीरालाला जैन प. ४६, ६१. ख) दक्षिण भारत में जैन धर्म प. १२४. ग) भारतीय इतिहास : एक दष्टि : श्री ज्योतिप्रसाद जैन प. ३४८ - ३४६. घ) पं. चंदाबाई अभिनंदन ग्रंथ : श्रीमती शेरवती देवी प. ५५१. ङ) जैन सिद्धांत भास्कर (पत्रिका) भाग १३ किरण-१ प. ७४. जैन शिलालेख संग्रह भा. १. श्री विजयमूर्ति प. ४६. क) जैन शिलालेख संग्रह भा. १ हीरालाल जैन प. ६१. ख) भारतीय इतिहास : एक दष्टि : श्री ज्योतिप्रसाद जैन प. ३४८ - ३४६. ग) जैन धर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ. डॉ. हीराबाई बोरडिया प. १७६ - १७७. घ) दक्षिण भारत में जैन धर्म प. १२४. ङ) आर्यिका इंदुमति अभिनंदन ग्रंथ, विजयमति माताजी, प. ३. च) जैन शिलालेख संग्रह भा. १ श्री हीरालाल जैन प. ६१. जैन धर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ. डॉ हीराबाई बोरडिया प. १७६. क) जैन धर्म की प्रमुख साध्वियां एव महिलाएँ. डॉ. हीराबाई बोरड़िया प. १७८. ख) दक्षिण भारत में जैन धर्म कैलाशचंद्र शास्त्री प. १२६ भा. ज्ञा. पीठ दिल्ली. ग) जैन शिलालेख संग्रह भा. १ श्री हीरालाल जैन प. ४३ -४४ एवं प. २३३ -२४५. घ) प्रमुख एतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ. प. १६० डॉ ज्योतिप्रसाद जैन, जैन शिलालेख संग्रह भा. २ विजयमूर्ति प. २६६ से २७०. क) जैन धर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ. डॉ. हीराबाई प. १७०.. ख) दक्षिण भारत में जैन धर्म प. १२३. ग) जैन शिलालेख संग्रह भा. १ डॉ. हीरालाल जैन प. ५१ मा. दि. जै. गं स. घ) दक्षिण भारत में जैन धर्म प. ११५. क) जैन धर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ. डॉ. हीराबाई बोरड़िया प. १७७. ख) दक्षिण भारत में जैन धर्म श्री कैलाशचंद्र शास्त्री प. ३०. क) दक्षिण भारत में जैन धर्म श्री कैलाशचंद्र शास्त्री प. ४६. ख) जैन. बि. पा. १ प. २३०. ग) दक्षिण भारत में जैन साध्वियां एवं विदुषी महिलाएं प. १८०,
.
६५
६७
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
363
socicodeossessoriod षष्ठम अध्याय
HORORSCORDING
सोलहवीं से २०वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
मध्यकालीन भारत की राजनैतिक एवं धार्मिक परिस्थितियाँ :६.१ मुग़ल साम्राज्य पर जैन धर्म का प्रभाव :
मध्यकाल का उत्तरार्ध प्रधानतया मुगलों का शासनकाल था। ई. सन १५२६ में पानीपत के युद्ध में लोधी वंश के सुलतानों के राज्य को समाप्त करके तथा दिल्ली एवं आगरा पर अधिकार करके मुगल बादशाह बाबर ने मुगल राज्य की नींव डाली थी। बाबर का पुत्र हुमायूँ हुआ था, तथा हुमायूँ का पुत्र मुगल सम्राट अकबर महान् था, वही मुगल साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक था। ___अकबर महान् (सन् १५५६-१६०५ई. में) ने सर्वथा शून्य से प्रारंभ करके सुव्यवस्थित, शक्तिशाली साम्राज्य का निर्माण एवं उपभोग किया। भारतवर्ष के बहुभाग पर उसका एकाधिपत्य था। उसके शासनकाल में देश की बहुमुखी उन्नति हुई। वह महत्वाकांक्षी तो था किंतु गुण-ग्राहक और दूरदर्शी एवं कुशल नीतिज्ञ भी था। युद्धबंदियों को गुलाम बनाने की प्रथा, हिन्दु और जैन तीर्थों पर पूर्ववर्ती सुल्तानों द्वारा लगाये गये जजिया कर आदि को समाप्त करके उसने स्वयं को भारतीय जनता में लोकप्रिय बना लिया था। अनेक हिंदु और जैन भी राजकीय उच्च पदों पर नियुक्त थे। आगरा के निकट शौरीपुर और हथिकंत में तथा साम्राज्य की द्वितीय राजधानी दिल्ली में नंदिसंघ के दिगंबर भट्टारकों की गद्दियाँ थी। दिल्ली में काष्ठासंघ तथा श्वेतांबर यतियों की भी गद्दियाँ थी। श्री रणकाराव, श्री भारमल्ल, श्री टोडर साहू, श्री हीरानंद मुकीम, श्री कर्मचंद बच्छावत आदि अनेक जैन बन्धु राज्य के प्रतिष्ठित पदों पर आसीन् थे और सम्राट के कृपापात्र थे। उसके राज्यकाल में लगभग दो दर्जन जैन साहित्यकारों एवं कवियों ने साहित्य-सजन किया था। इस काल में कई प्रभावक जैन संत हुए थे। जैन मंदिरों का निर्माण हुआ, जैन तीर्थ यात्रा संघ निकाले गये, और जैन जनता ने सैकड़ो वर्षों के पश्चात् धार्मिक संतोष की सांस ली थी। स्वयं सम्राट् ने प्रयत्नपूर्वक तत्कालीन जैन गुरूओं से संपर्क किया और उनके उपदेशों से लाभान्वित हुआ । आचार्य हीरविजयसूरि की प्रसिद्धि सुनकर सम्राट् ने ई. सन् १५८१ में गुजरात के सूबेदार साहबखाँ के द्वारा उनको आमंत्रित किया। सूरिजी अपने शिष्यों सहित ई. १५८२ में आगरा पधारे। सम्राट् ने धूमधाम के साथ उनका स्वागत किया। उनकी विद्वत्ता एवं उपदेशों से प्रभावित होकर उन्हें "जगद्गुरू" की उपाधि दी। विजयसेनगणि ने सम्राट् के दरबार में "ईश्वर कर्ता-धर्ता नहीं है"। इस विषय पर अन्य धर्मों के विद्वानों से शास्त्रार्थ किया और भट्ट नामक प्रसिद्ध ब्राह्मण को वाद में पराजित करके 'सवाई' उपाधि प्राप्त की। सम्राट ने लाहौर में भी गणिजी को अपने पास बुलाया था। यति भानुचंद ने सम्राट् के लिए "सूर्य सहस्त्रनाम' की रचना की। अकबर ने उनके फारसी भाषा के ज्ञान से प्रसन्न होकर "खुशफहम" उपाधि भी प्रदान की थी। मुनि शांतिचंद्र जी ने भी सम्राट को बहुत प्रभावित किया था। एक बार ईदुज्जुहा (बकरीद) के त्यौहार पर जब मुनि जी सम्राट् के पास थे, तो उन्होंने ईद से एक दिन पूर्व सम्राट् से कहा कि मैं आज ही यहाँ से विहार करना चाहता हूँ। क्योंकि अगले दिन यहाँ हजारों लाखों निरीह पशुओं का वध होने वाला है। मुनि श्री ने स्वयं कुरानों की आयतों से यह सिद्ध कर दिखाया कि "कर्बानी का मांस और रक्त खदा को नहीं पहुँचता। खुदा इस हिंसा से प्रसन्न नहीं होता बल्कि परहेजगारी से प्रसन्न होता है, रोटी और शाक खाने से ही रोजे कबूल हो जाते हैं। इस्लाम के अनेक धर्मग्रंथों के हवाले देकर मुनिजी
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
364
ने अपनी बात की सच्चाई सम्राट् और दरबारियों के हृदय में जमा दी। अतएव सम्राट् ने घोषणा करा दी कि इस ईद पर किसी भी जीव का वध न किया जाए। बीकानेर के राज्य मंत्री श्री कर्मचंद बच्छावत की प्रेरणा से ई. १५२२ में सम्राट् ने श्री जिनचंद्रसूरि जी महाराज को खम्भात से आमंत्रित किया । मूनिजी ने सम्राट् को प्रतिबोध देने के लिए "अकबर - प्रतिबोधरास" लिखा । सम्राट् ने उन्हें युगप्रधान आचार्य की उपाधि दी तथा उनके कहने से दो फरमान जारी किये :- (१) खम्भात की खाड़ी में मछली पकड़ने पर प्रतिबंध लगाया । (२) आषाढ़ी अष्टान्हिका में पशुवध निषिद्ध किया गया। सूरिजी के साथ मुनि मानसिंह जी श्री वैपहर्ष मुनि जी, मुनि श्री परमानंद जी, मुनि समयसुंदर जी, नाम के शिष्य भी आए थे। सम्राट् की इच्छानुसार सूरिजी ने मुनिश्री मानसिंह जी को जनसिंह सूरि नाम देकर अपना उत्तराधिकारी बनाया आचार्य पद प्रदान किया। उन्होंने श्री कर्मचन्द्र जी बच्छावत को जैन धर्मानुसार गहशांति का उपाय करने को कहा तथा जैन धर्म के सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ प्रतिमा का पूजन किया गया अकबर
अभिषेक का गंधोदक विनयपूर्वक अपने मस्तक पर चढ़ाया तथा अन्तःपुर में बेगमों के लिए भी भिजवाया, तथा जिन मंदिर को दस सहस्त्र मुदाएँ भेंट की। उसने गुजरात के सूबेदार आज़मखाँ को फरमान भेजा था कि मेरे राज्य में जैनों के तीर्थों, मंदिरों और मूर्तियों को कोई भी व्यक्ति किसी तरह की क्षति न पहुँचाए। जो इस आदेश का उल्लंघन करेगा, उसे भारी दण्ड दिया जाएगा।
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
अकबर के मित्र एवं प्रमुख अमात्य अबुलफ़ज़ल ने अपनी प्रसिद्ध " आईने-अकबरी "में जैनों का और उनके धर्म का विवरण दिया है। आईने अकबरी में अकबर की कुछ उक्तियाँ संकलित हैं जो उसकी मनोवत्तियों की परिचायक हैं। यथा- "यह उचित नहीं है कि मनुष्य अपने उदर को पशुओं की कब्र बनाएँ । कसाई, बहेलिये आदि जीव हिंसा करने वाले व्यक्ति जब नगर से बाहर रहते हैं, तो मांसाहारियों को नगर के भीतर रहने का क्या अधिकार है ? मेरे लिए यह कितने सुख की बात होती कि यदि मेरा शरीर इतना बड़ा होता समस्त मांसाहारी केवल उसे ही खाकर संतुष्ट हो जाते और अन्य जीवों की हिंसा नहीं करते। प्राणी हिंसा को रोकना अत्यंत आवश्यक है, इसीलिए मैंने स्वयं मांस खाना छोड़ दिया है।" स्त्रियों के सम्बंध में वे कहा करते थे "यदि युवावस्था में मेरी चित्त वत्ति अब जैसी होती तो कदाचित् मैं विवाह ही नहीं करता, किससे विवाह करता? जो आयु में बड़ी हैं, वे मेरी माता के समान हैं, जो छोटी है वे पुत्री के तुल्य हैं, जो समवयस्का हैं, उन्हें मैं अपनी बहनें मानता हूँ।"
विन्सेण्ट स्मिथ प्रभति इतिहासकारों का मत है कि जीवन के उत्तरार्ध में लगभग ई. सन् १५८० - १५८१ ई. के उपरान्त, सम्राट् अकबर के अनेक कार्य एवं व्यवहार उसके द्वारा जैन आचार विचार को अंशतः स्वीकार कर लेने के परिणाम स्वरूप हुए। पुर्तगाली जेसुइट पादरी, पिन्हेरो ने अपने प्रत्यक्ष अनुभव के आधार से अपने बादशाह को ई. १५६५ में आगरा से भेजे गए पत्र में लिखा था कि, अकबर जैनधर्म का अनुयायी हो गया है। वह जैन नियमों का पालन करता है। जैनविधि से आत्म चिंतन और आत्म आराधना में बहुधा लीन रहता है, इत्यादि । अनेक आधुनिक विद्वान् इतिहासकार भी स्वीकार करते हैं कि सम्राट् जैनधर्म पर बड़ी श्रद्धा रखता था। उस धर्म और उसके गुरूओं का बड़ा आदर करता था। कुछ तो यहाँ तक कहते है कि उसके अहिंसा धर्म का पालन करने सेही मुल्ला मौलवी और अनेक मुसलमान सरदार उससे असंतुष्ट हो गये थे। उन्हीं की प्रेरणा एवं सहायता से ही राजकुमार सलीम जहाँगीर ने विद्रोह किया था। कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं है कि मुगल सम्राट् अकबर महान्, ईसाई आदि सभी धर्मो के विद्वानों के प्रवचन आदरपूर्वक सुनता था, और जिसका जो अंश उसे रूचता उसे ग्रहण कर लेता था । वस्तुतः उसे किसी भी एक धर्म का अनुयायी नहीं कहा जा सकता। जैन इतिहास में उसका उल्लेखनीय स्थान इसी कारण से है कि किसी भी जैनेतर सम्राट् से जैन धर्म, जैन गुरूओं और जैन जनता को उस युग में जो उदारता सहिष्णुता, संरक्षण, पोषण और आदर प्राप्त हो सकता था, उसके शासनकाल में हुआ। यहाँ तक कहा जा सकता है कि श्री भावदेवसूरि के शिष्य श्री शालिदेव सूरि से प्रभावित होकर इस सम्राट् ने ई. १५७७ के लगभग एक जिन-मंदिर के स्थान पर बनाई गई मस्जिद को तुड़वाकर फिर से जिन मंदिर बनवाने की आज्ञा दी थी। इस प्रकार के अन्य उदाहरण भी हैं, यथा सहारनपुर के सिंधियान मंदिर संबंधी किंवदंती आदि।'
अकबर के पुत्र एवं उत्तराधिकारी मुगल सम्राट् नूरूद्दीन जहाँगीर ईस्वी १६०५ - २७ ने सामान्यतया अपने पिता की धार्मिक नीति का अनुसरण किया था । अपने आत्म चरित्र "तुजुके- जहाँगीरी " के अनुसार उसने राज्याधिकार प्राप्त करते ही घोषणा की थी कि "मेरे जन्म मास में सारे राज्य मांसाहार निषिद्ध रहेगा। सप्ताह में एक दिन ऐसा होगा जिसमें सभी प्रकार के पशुवध का निषेध है, राज्याभिषेक के दिन, गुरूवार को तथा रविवार को भी कोई मांसाहार नहीं करेगा, क्योंकि उस दिन (रविवार) को सष्टि
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
365
का सजन पूर्ण हुआ था। अतएव उस दिन किसी भी प्राणी का घात करना अन्याय है। मेरे पूज्य पिता जी ने ग्यारह वर्षों से अधिक समय तक इन नियमों का पालन किया है। रविवार को तो वे कभी भी मांसाहार नहीं करते थे। अतः मैं भी अपने राज्य में उपर्युक्त दिनों में जीव-हिंसा के निषेध की उद्घोषणा करता हूँ।" जिनसिंहसूरि (यति मानसिंह) आदि जैन गुरूओं के साथ भी वह घण्टों दार्शनिक चर्चा किया करता था।
उन्हें "युगप्रधान" उपाधि भी प्रदान की थी। कालांतर में जब उन्होंने विद्रोही शाहज़ादे खुसरो का पक्ष लिया तो जहाँगीर उनसे अत्यंत रुष्ट हो गया और उनके संप्रदाय के व्यक्तियों को अपने राज्य से भी निर्वासित कर दिया था। वैसे उसके शासनकाल में कई नवीन जैन मंदिर भी बने । अपने धर्मोत्सव मनाने और तीर्थयात्रा करने की भी जैनों को स्वतंत्रता थी। गुजरात आदि प्रांतों के जैनियों ने उसके प्रांतीय सूबेदारों से पशुवध-निरोधविषयक फरमान भी जारी कराये थे। सांभर के राजा भारमल और आगरे के श्री हीरानंदजी-मुकीम जैसे कई जैन सेठ उसके कपापात्र थे। श्री ब्रह्मरायमल्ल, श्री बनवारीलाल, श्री विद्याकमल, श्री ब्रह्मगुलाल, श्री गुणसागर, श्री त्रिभुवनकीर्ति, श्री भानुकीर्ति, श्री सुंदरदास, श्री भगवतीदास, कवि विष्णु, कवि नंद आदि अनेक जैन गहस्थ एवं साधु विद्वानों ने निराकुलतापूर्वक साहित्य रचना की थी। पण्डित श्री बनारसीदास की विद्वद्गोष्ठी इस काल में आगरा नगर में जम रही थी और यह जैन महाकवि अपनी उदार काव्यधारा द्वारा हिन्दु-मुस्लिम एकता को प्रोत्साहन दे रहे थे तथा अध्यात्म रस प्रवाहित कर रहे थे। ___ जहाँगीर के उत्तराधिकारी शाहजहाँ (ई.१६२८-५८) के समय में प्रतिक्रिया प्रारंभ हो गई थी और अकबर की उदार सहिष्णुता की नीति में उत्तरोत्तर पर्याप्त अंतर दष्टिगोचर होने लगा था।
अकबर के दरबार में धर्मपुरूष श्री ज्ञानचंदजी एवं श्री सिद्धिचंद्रजी की निरन्तर उपस्थिति एवं राजदरबारियों का उनके प्रति असाधारण सम्मानभाव इस तथ्य का द्योतक है कि मुगल सम्राट अकबर के उदार शासन में जैन धर्म निरन्तर वद्धि पर था। तत्कालीन इतिहासवेत्ताओं ने अकबर के उपासनागह में जिन धर्मों के प्रतिनिधियों का उल्लेख किया है, उनमें भी जैनियों के दोनों संप्रदायों का उल्लेख प्राप्त होता है। अकबर के ग्रंथागार में जैनधर्म से संबंधित पांडुलिपियाँ बड़ी संख्या में थी। सम्राट अकबर ने स्वयं मुनि श्री हीरविजय को एक हस्तलिखित धर्मग्रंथ की पांडुलिपि भेंट की थी।'
अकबर और हीरविजयसूरि के बीच में संपर्क स्थापित करानेवाली थी जैन श्राविका चंपा बहन। चंपाबहन की लम्बी तपस्या की पूर्णाहुति के उपलक्ष्य में निकाले गये जुलूस का कारण जानकर अकबर ने उस बहन की परीक्षा स्वयं अपने महल में कड़े प्रहरों के बीच रखकर की थी। चंपा बहन ने तीस दिन की तपस्या द्वारा बादशाह अकबर को आश्चर्य में डाल दिया था। चंपा बहन के धर्मगुरु हीर विजयसूरि के संपर्क में आकर अकबर ने स्वयं भी अहिंसा के मार्ग पर कदम बढ़ाया था।
मुगल शासनकाल में राजा भारमल सम्राट अकबर के विशेष कपा पात्र थे तथा उनके पिता श्री रणकाराव, सम्राट् की ओर से आबू प्रदेश के शासक नियुक्त थे। राजा भारमल की दैनिक आय एक लाख टका (रूपए) थी और स्वयं सम्राट् के कोष में वे प्रतिदिन पचास हज़ार टका देते थे। वे जैन धर्मानुयायी, उदार और असांप्रदायिक मनोवत्ति के विद्यारसिक श्रीमान् थे। धार्मिक कार्यों और दानादि में लाखों रूपए खर्च करते थे। वे सांभर के संपूर्ण इलाके के शासक थे। भट्टारक कविवर पाण्डे राचमल्ल (१६वीं शती) ने उनकी प्रेरणा से "छंदोविद्या" नामक महत्वपूर्ण पिंगलशास्त्र की रचना की थी। इसी प्रकार पंचाध्यायी, अध्यात्मकमलमार्तण्ड, समयसार की बालबोधटीका" की रचना की तथा साहु श्री टोडरमल जी के लिए "जंबूस्वामीचरित" की रचना की थी। ६.२ मुगलकाल की श्राविकाओं का जैन धर्म की प्रभावना में योगदान :___ आगरा के प्रसिद्ध गर्गगोत्रीय अग्रवाल जैन पार्श्व साहु के पुत्र का नाम साहु टोडरमल था। उनकी धर्मपत्नी का नाम कसूम्भी था। इनके चार पुत्र थे- ऋषभदास, मोहनदास, रूपचंद और लछमनदास । सारा परिवार अत्यंत धार्मिक व विद्यारसिक था। उन्होंने मथुरा नगर में प्राचीन जैन तीर्थ का उद्धार किया। ५१४ नवीन स्तूपों का निर्माण करवाया, १२ दिक्पाल आदि की स्थापना की तथा ई. सन् १५७३ में प्रतिष्ठोत्सव किया एवं चतुर्विध संघ को आमंत्रित किया था। उन्होंने आगरा नगर में भी एक भव्य जिन मंदिर बनाया था। जिसमें ई. १५६४ में हमीरी बाई नामक आत्मसाधिका ब्रह्मचारिणी रहती थी। ई. १५७६ में बागड़ देश निवासी हुमड़वंशी सेठ
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
366 3
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
श्री हर्षचंद्रजी की पत्नी श्रीमती देवी दुर्गा ने अनन्त जिन व्रत पूजा के उद्यापन के उपलक्ष्य में भट्टारक गुणचंद्रजी से “अनन्त जिनव्रत पूजा' की रचना करायी थी, जो उन्हीं के पूर्वजों द्वारा निर्मित उस नगर के आदिनाथ-चैत्यालय में लिखकर पूर्ण की गई थी। महाराज सामंत सिंह जी के पुत्र राजकुमार पद्मसिंह थे, उनका अन्य नाम शिवाभिराम था। वे ब्रह्मचर्य व्रतधारी तथा जिनभक्ति में लीन रहने वाले थे। उनकी भार्या रानी वीणाजी भी शीलादि गुणोज्जवलांग अर्हतोपासक श्राविका थी। उसकी प्रेरणा से राजकुमार
ने "चंद्रप्रभ-पुराण" नामक संस्कत काव्य की रचना की थी। अकबर के समय में अग्रवाल जैन मंत्री श्री क्षेमसिंह जी हुए, जिन्होंने : १५६१ में रणथम्भौर-दुर्ग में एक-एक भव्य जिनालय बनवाया था। अग्रवाल जैन श्री साहरनवीरसिंह जी सम्राट अकबर के कृपा
पात्र थे। उन्होने उत्तर प्रदेश में अपने नाम पर “सहारनपुर" नगर बसाया था। उनके पिता राजा रामसिंह ने भी राज्य सम्मान प्राप्त किया था। कई स्थानों में जैन मंदिर बनवाए थे। इनके पौत्र गुलाबराय तथा प्रपौत्र सेठ मिहिरचंद ने अपने नाम से दिल्ली के कूँचा सुखानंद में जैन मंदिर बनवाया था।
मध्यप्रदेश के निमाड़ से प्राप्त लेख के अनुसार- ईस्वी १५६१ में सुराणा वंशीय श्री उदयसिंह जी के पुत्र संघपति साहु पालहंस की भार्या नायकदे जैन धर्मानुरागिनी थी। उसके पुत्र श्री साहु माणिकचन्द ने प्रतिमा का निर्माण करवाया था। ग्वालियर के कविवर परिमल ने ई. १५६४ में श्रीपालचरित्र नामक हिन्दी काव्य की रचना की थी। मध्यप्रदेश में इंदौर के निकट रामपुरा भानपुरा क्षेत्र में साहु हामाजी के पुत्र सिंघई खेताजी थे, उनके पौत्र संघपति डूंगरजी थे, उन्होने ईस्वी १५५६ में कमलापुर में एक सुंदर महावीर चैत्यालय बनवाया था जो "सास बहू का मंदिर" कहलाता था। संभव है कि संघपति डूंगर की माता और पत्नी ने मिलकर स्वद्रव्य से इसे बनवाया हो। महामात्य नानूजी अकबर के विश्वसनीय थे। वे खण्डेलवाल ज्ञातीय, गोधागोत्रीय साहु श्री रूपचंद्रजी के पुत्र थे। नानूजी ने बीस तीर्थकरों के निर्वाण स्थल पर बीस जिनगह (मंदिर या टोंक) बनवाये थे। चंपापुर में भी जिनालय बनवाए थे। आमेर के निकट मौजमाबाद में एक विशाल कलापूर्ण जिनमंदिर बनवाकर प्रतिष्ठोत्सव किया था, जिसमें सैंकडों जिनबिम्ब प्रतिष्ठित हुए थे। उसके पश्चात् बीकानेर राज्य के संस्थापक राव बीकाजी के परम सहायक श्री कर्मचंद्रजी बच्छावत हुए थे। प्रधानमंत्री बच्छराज के समय से ही उसके वंशज बीकानेर नेरशों के दीवान रहते आए थे। उन्होंने अनेक धार्मिक कार्य भी किये थे। अकबर के अंतिम वर्षों में आगरा के ओसवाल ज्ञातीय सेठ श्री हीरानंदजी मुकीम अत्यंत धनवान् एवं धर्मात्मा पुरूष थे। वे शाह श्री कान्हड़जी एवं उनका भार्या भामनीबहू के सुपुत्र थे। सत्तरहवीं शती में जहाँगीर के शासन काल में, श्री नेमा साहु के पुत्र आगरे के धनी जैन श्री सबल सिंह मोठिया थे। इसी प्रकार वर्द्धमान कुँअरजी, साह बंदीदासजी, साहु ताराचंद्रजी, दीवान धन्नारायजी, ब्रह्म गुलालजी आदि हुए थे। बीहोलिया-गोत्रीय, श्रीमाल वैश्य, पंडित श्री बनारसीदासजी आगरा के मुगल कालीन सुप्रसिद्ध जैन महाकवि, समाज सुधारक, अध्यात्म रस के रसिया विद्वान्, पंडित व व्यापारी थे। जौनपुर के सूबेदार को उन्होंने 'श्रुतबोध "आदि पढ़ाए थे। स्वयं सम्राट् शाहजहाँ ने उन्हें अपना मुसाहब बनाया था और मित्रवत् व्यवहार करता था। उनका लिखित आत्म चरित अर्धकथानक ऐतिहासिक दष्टि से महत्वपूर्ण है। उससे पूर्व पुरूषों, शासकों, शासन-व्यवस्था, लोकदशा इत्यादि का बहुमूल्य परिचय प्राप्त होता है। उससे ज्ञात होता है कि जैन व्यापारियों का संबंध सम्राटों, सूबेदारों, नवाबों और स्थानीय शासकों से विशेष था तथा वे सुशिक्षित भी होते थे। इसी प्रकार सूरत गुजरात के जैन कोट्याधीश सेठ वीर जी व्होरा हुए थे। उनकी पुत्री फूलाँबाई हुई थी, जो परम
न सिद्धांतों का पालन करती थी। इसी शती में श्रीमान हीराचन्द्रजी सेठ की भतीजी तथा बागड़ देश के सागवाड़ा निवासी हेमराज पाटनी की पत्नी का नाम श्रीमती हमीरदे था, जो धर्मपरायणा जैन श्राविका थी। जिसने सम्मेदशिखर आदि की तीर्थ यात्रा की थी। हुमड़ज्ञातीय खरजागोत्रीय संघई श्री ऋषभदासजी की भार्या नारंगदे थी, जिसने अपने पति एवं पुत्र के साथ कारंजा में भ० पार्श्वनाथ बिम्ब की प्रतिष्ठा करायी थी। भट्टारक जगत भूषण की आम्नाय में श्री दिव्य नयनजी सुश्रावक की पत्नी श्राविका दुर्गा, पौषधोपवासयुक्त नियम व्रत वाली थी। श्री चक्रसेनजी की पत्नी श्रीमती कष्णाजी, मित्रसे यशोदाजी, श्री भगवानदासजी की भार्या श्रीमती केशरिदेजी जिनचरणानुरागिनी श्राविकाएँ हुई थी। सिरोही के महाराज श्री अश्वराजजी के राज्य में साह गागाजी की पत्नी श्रीमती मनरंगदे ने पुत्र, पौत्रों सहित भ० पार्श्वनाथजी एवं श्री शांतिनाथजी की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करायी थी। मध्यप्रदेश के सागर जिले के धर्मावनिपुर में जैनवैश्य संघपति श्री आसकरणजी निवास करते थे। उनकी भार्या का नाम श्रीमती मोहनदे था। उनके ज्येष्ठ पुत्र संघपति श्री रत्नाई जी की पत्नी का नाम श्रीमती साहिबा देवी था,द्वितीय पुत्र संघपति श्री हीरामणि जी की श्रीमती कमला देवी एवं श्रीमती वासंती देवी नाम की दो पत्नियाँ थी। तथा पुत्र पौत्रों सहित समस्त
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
जन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
परिवार धर्मपरायण था। इस परिवार ने कई नवीन जिनमंदिर बनवाए थे तथा पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया था। लाहौर नगर निवासी श्रीमान् हेमराजजी जैन की पत्नी श्रीमती लटकी देवी थी। उनके पुत्र श्री भगवानदासजी की धर्मात्मा पत्नी हेवरदे थी तथा उनके पुत्र श्री हीरानंदजी की श्रीमती शहज़ादीदेवी, श्रीमती रामों देवी और श्रीमती दयादेवी तीन पत्नियाँ थी। इनमें से श्रीमती दया देवी विशेष सुशीला, दानशील, विनयी एवं धर्मात्मा थी । इस प्रकार दष्टव्य है कि मुगलकाल में जैन धर्म का प्रचार बहुत था, तथा जैन श्राविकाओं का धर्म के प्रति पूरा समर्पण था । *
367
मेवाड़ में सुप्रसिद्ध परम प्रतापी महाराणा संग्रामसिंह हुए थे। उस समय महाराणी की प्रेरणा से भट्टारक श्री प्रभाचंद्रजी, मण्डलाचार्य श्री धर्मचंद्रजी आदि के सहयोग से विपुल साहित्य सजन हुआ था। कर्नाटक से आये आचार्य श्री नेमिचन्द्रजी ने चित्तौड़ में श्रावक जिनदासजी द्वारा निर्मित श्री पार्श्वनाथ जिनालय में ई. १५१५ में "गोम्मटसार" की संस्कृत टीका रची थी। ज्ञात्तव्य है कि ये नेमिचन्द्रजी गोम्मटसार के रचयिता श्री नेमिचन्द्रजी से भिन्न थे। राज्य में अनेक जैन लोग उच्चपदों पर आसीन थे । यथा कुम्भलनेर का दुर्गपाल श्रीमान् आशाशाह, रणथम्भौर का दुर्गपाल श्री भारमलजी कावड़िया, राणा का मित्र श्रीमान् तोलाशाह आदि । श्री बप्पभट्टसूरि द्वारा आम राजा जैन धर्म में दीक्षित किए गए ग्वालियर के राजपूत श्री आमराज की वैश्यपत्नी से पैदा हुआ पुत्र राजकोठारीजी के नाम से प्रसिद्ध हुआ था, और ओसवाल जाति में सम्मिलित हुआ था ऐसी अनुश्रुति है। उसका एक वंशज श्री सारणदेव था, जिसकी आठवीं पीढ़ी में श्रीमान् तोलाशाह हुआ जो राणा सांगा का परम मित्र था । वह बहुत प्रतिष्ठित, न्यायी, विनयी, ज्ञानी और धनी था तथा याचकों को हाथी, घोड़े वस्त्राभूषण, आदि प्रदान कर कल्पवक्ष की भांति उनका दारिद्र्य नष्ट कर देता था, वह जैनधर्म का दढ़ अनुरागी था । तोलाशाह का पुत्र कर्माशाह ( कर्मसिंह) राणा सांगा के पुत्र रत्नसिंह का मंत्री था । श्रीमान् तोलाशाह ने विपुलधन व्यय करके शत्रुंजय तीर्थ का उद्धार भी करवाया था । रत्नसिंह की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई विक्रमाजीत गद्दी पर बैठा। वह अयोग्य था तथा उससे छोटा भाई उदयसिंह नन्हा बालक था। अतएव राज्य के सरदारों ने विक्रमाजीत को गद्दी से हटाकर दासीपुत्र बनवीर को राणा बना दिया। वह बड़ा दुराचारी और निर्दयी था । उसने विक्रमादित्य की हत्या कर दी, और रात्री में उदयसिंह की भी हत्या करने के लिए महल में पहुँचा । उदयसिंह की परम स्वामीभक्त पन्ना धाय ने अपनी तात्कालिक बुद्धि द्वारा स्वयं के पुत्र का बलिदान देकर छल से उदयसिंह की प्राण-रक्षा की और रातों रात विश्वस्त सेवकों के साथ राजकुमार को लेकर चित्तौड़ से बाहर हो गई। इधर उधर आश्रय के लिए भटकते हुए अन्ततः वह दुर्गपाल श्री आशाशाहजी देपरा नामक जैनी के पास गयी। प्रारंभ में तो वह भी बालक को शरण देने में हिचकिचाया, किंतु उसकी वीर माता के द्वारा प्रेरित करने पर उसने उदयसिंह को अपना भतीजा कहकर प्रसिद्ध किया, तथा कुछ समय उपरान्त उदय सिंह को चित्तौड़ के सिंहासन पर आसीन किया। इस प्रकार वीर माता और वीर आशाशाह ने राणावंश की रक्षा की तथा मेवाड़ पर प्रशंसनीय उपकार किया
था ।
जालौर के चौहान नरेश युद्धवीर सामंत सिंह देवड़ा की संतति में अविस्मरणीय है मारवाड़ के जेसलजी बोथरा का पुत्र बच्छराज, बड़ा चतुर, साहसी और महत्वाकांक्षी था। वह राव बीका का प्रमुख परामर्शदाता और दीवान था । उसने बीकानेर में अपना आवास बनाया था। बच्छराज के वंशज ही बच्छावत कहलाये। मारवाड़ के मुहणोत, भण्डारी आदि कई प्रसिद्ध जैनवंशों का उदय भी इसी समय के लगभग हुआ। उन्होंने राज्य के प्रतिष्ठित पदों पर कार्य करते हुए राज्य उत्कर्ष में भारी सहयोग दिया । डूंगरपुर-बांसवाड़ा, बूंदी, नागौर आदि नगरों में भी उस समय अनेक जैन परिवार निवास करते थे ।
उत्तर मध्यकाल में राजस्थान में मेवाड़ जोधपुर, बीकानेर, जयपुर, बूंदी आदि प्रमुख राजपूत राज्य थे । इन राज्यों के नरेश बहुधा उदार और धर्मसहिष्णु थे। उनके द्वारा शासित क्षेत्रों में जैनों की स्थिति अपेक्षाकृत श्रेष्ठतर थी। उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता भी कहीं अधिक थी। जैन मुनियों, यतियों और विद्वानों का राजागण आदर करते थे। मंदिर आदि निर्माण करने और धर्मोत्सव मनाने की भी जैनों को खुली छूट थी। मुख्यतया साहूकारी, महाजनी, व्यापार और व्यवसाय जैनों की वत्ति थी और इन सब क्षेत्रों में प्रायः उनकी प्रधानता थी। इसके अतिरिक्त उक्त राज्यों के मंत्री, दीवान, भण्डारी, कोठारी आदि अन्य उच्च पदों पर जैनी ही नियुक्त होते थे । अनेक जैनी तो भारी युद्धवीर, सेनानायक, दुर्गपाल तथा प्रान्तीय, प्रादेशिक, या स्थानीय शासक भी थे। मेवाड़ राज्य में चित्तौड़ पर १५६७ ईस्वी में सम्राट् अकबर का अधिकार हो जाने पर राणा सांगा ने उदयपुर नगर बसाकर उसे ही अपनी राजधानी बनाया। इस नगर के निर्माण एवं उदयसिंह के राज्य को सुगठित करने में मंत्री राजा भारमल का पर्याप्त योगदान था। उनके पुत्र
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
368
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
दानवीर भामाशाह व ताराचंद जी आदि भी राज्य-सेवा में नियुक्त थे। ताराचंद जी भारी युद्धवीर, कुशल सैन्य संचालक और प्रशासक थे। वे अंत तक अपने राणा और स्वदेश की एकनिष्ठता के साथ सेवा करते रहे। सादडी ग्राम के बाहर ताराचंद जी ने सुंदर बारहदरी बनवाई थी, जिसमें उसकी चार पत्नियों की मूर्तियाँ पाषाण में उत्कीर्ण है। वीर भामाशाह राणा उदयसिंह के समय से ही राज्य के दीवान एवं प्रधान मंत्री थे। १५७६ ईस्वी में महाराणा प्रताप हल्दीघाटी के युद्ध में पराजित हुए। महाराणा ने स्वदेश
का परित्याग करने का निश्चय किया। राणा को भामाशाह ने मार्ग रोककर धैर्य बंधाया और पच्चीस हजार सैनिकों का बारह वर्षों - तक निर्वाह हो सके उतना धन राणा को समर्पित किया। भामाशाह की पत्नी परम दानवीर, उदार, पतिपरायणा और बुद्धिमति
सन्नारी थी। भामाशाह ने अपने हाथ की लिखी एक बही (पुस्तक) अपनी धर्मपत्नी को देकर कहा कि कोई राणाजी कष्ट में हो, तब इस द्रव्य से उनकी सहायता करें। मेवाड़ोद्धारक वीर भामाशाह का स्वर्गवास १६०० ईस्वी में हुआ। उदयपुर में आज भी उनकी समाधि विद्यमान है। सत्तरहवीं शताब्दी में संघवी तेजाजी के पुत्र संघवी गजूजी, उनके पुत्र संघवी राजाजी की पत्नि रयणदे से चार पुत्र हुए। उनमें सबसे छोटे संघवी दयालदास जी की सूर्यदे और पाटन दे दो पत्नियाँ हुई तथा पुत्र साँवलदास मगादे थी। पति की तरह ये सब महिलाएं भी जैन धर्मानुयायिनी थी, तथा अपने पति के सभी कार्यों में सदैव सहयोग करती थी।
मारवाड़ (मरूदेश) जोधपुर राज्य में जैन राजपुरूषों में सर्वप्रसिद्ध वंश मुहनौतों का रहा। मारवाड़ के राव रायपाल जी (१२४६ ईस्वी) के १३ पुत्र थे, जिनमें चौथे पुत्र मोहनलालजी की प्रथम पत्नी जैसलमेर के भाटी राव जोरावरसिंह की पुत्री थी। अन्य पत्नी श्रीमाल जातीय जीवणोत छाजूराम की पुत्री थी, ये श्राविकाएँ भी जैनधर्मानुयायिनी थी।
जैसलमेर स्थित तपपट्टिका की प्रशस्ति में एवं जैन इंस्क्रिपशंस ऑफ राजस्थान में निम्न उल्लेख प्राप्त होता है कि जैसलमेर के चोपड़ा परिवार में श्राविका श्रीमती पुंछुजी की पुत्री श्रीमती गेली देवी हुई थी। उसका विवाह शंखलाल गोत्रीय श्री अशराज जी से हुआ था। श्रीमती गेलीदेवी ने आबू एवं गिरनार आदि की संघयात्राएँ निकाली थी। वि. संवत् १५०५ में उसने एक तप-पट्टिका जैसलमेर में बनवाई थी। श्री मेरू सुंदर सूरि ने उसे लिखी। इस तपपट्टिका का विशाल शिलालेख ऊपर एक कोने की तरफ से कुछ टूटा हुआ है। इसकी लम्बाई २ फुट १० इंच और चौड़ाई १ फुट १० इंच है। इसमें बाई ओर प्रथम २४ तीर्थंकरों के च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान इन चार कल्याणक की तिथियाँ, कार्तिक वदी से अश्विन सुदी तक महीने के हिसाब से खुदी हुई हैं। तत्पश्चात् महीने के क्रम से तीर्थंकरों के मोक्ष कल्याणक की तिथियाँ भी दी गई है। दाहिनी तरफ प्रथम छ:, तपों के कोठे बने हुए हैं तथा इनके नियमादि खुदे हुए हैं। इसके नीचे वज़ मध्य तपों के नकशे हैं। एक तरफ श्री महावीर तप का कोठा भी खुदा है। इन सबके नीचे दो अंशों में लेख है। प्रस्तुत तप पट्टिका जैसलमेर स्थित श्री संभवनाथ जी के मंदिर की है।
___ अजमेर स्थित श्री शांतिनाथ मंदिर की एक प्रशस्ति में उल्लेख आता है कि सोलहवीं शताब्दी में श्राविका श्रीमती माणिकदे, श्रीमती कमलादे, श्रीमती पूनमदे आदि ने शत्रुजय महातीर्थ की श्रीसंघ सहित यात्रा की तथा अपने धन का सदुपयोग किया। प्रस्तुत प्रशस्ति में यह भी उल्लेख आता है कि श्राविका श्रीमती गेली ने इसी समय में शत्रुजयादि तीर्थावतार की पट्टिका बनवाई थी। तोरण सहित नेमिनाथ भगवान् का परिकर भी बनवाया था। तीर्थंकरों के सभी कल्याणकों की तिथियों का निर्देश करनेवाली एक तपपट्टिका भी बनवाई थी। इसी प्रकार उसने अष्टापद महातीर्थ का प्रासाद बनवाया तथा मूलनायक श्री कुंथुनाथजी, श्री शांतिनाथजी आदि प्रमुख चौबीस तीर्थंकरों की अनेक प्रतिमाओं का निर्माण करवाया। जिसकी प्रतिष्ठा उसने आचार्य श्री जिनचंद्रसूरीजी एवं श्री जिनसमुद्र सूरीजी के सान्निध्य में करवाई थी। इसी शती में व्रतधारिणी सश्राविका नाथीबाईजी ने संस्कारवान् धर्मप्रभावक आचार्यजी हीरविजयसूरि को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त किया था।
सोलहवीं शती में आगरा की एक श्राविका श्रीमती कसूंभीबाई हुई थी। श्रीमती नायकदे, श्री हेमराज पाटनी की पत्नी श्रीमती हमीरदे, श्रीमती नारंगदे, श्रीमती मोहनदे, श्रीमती रत्नाबाई, लाहौर नगर निवासी श्रीमान् हेमराज जैन की पत्नी श्रीमती लटकीबाई आदि धर्मनिष्ठ सुश्राविकाएँ हुई थी। मेवाड़ के राणा उदयसिंह को राज्यसिंहासन पर बिठाने में जिनका महत्वपूर्ण सहयोग था, वह थी वीरांगना पन्ना धाय! पन्ना धाय ने अपने पुत्र का बलिदान किया, तथा उदयसिंह के प्राणों की रक्षा की। यह इतिहास की एक विरल घटना है। इस काल में श्रीमती सूर्यदे, श्रीमती पाटनदे, मगादे आदि जैनधर्मानुयायिनी सुश्राविकाएँ हुई थी। इस काल में विशेष रूप से जर्मन जैन श्राविका चारलोटे क्रॉस का चरित्र चित्रण ग्रहण किया है, जिसने जर्मन मूल में जन्म लेकर भी जैन श्राविका
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
373
के रूप में दिगंबर पंरपरा के प्रभावक आचार्य हुए। यह माता उमरावबाई के सुकत का ही सुप्रभाव था। १४ ६.११ श्रीमती वदनांजी - ई. सन् की २० वीं शती. ___राजस्थान के लाडनूं शहर के खटेड़ वंश के श्रीमान् झूमरमलजी की धर्मपत्नी का नाम श्रीमती वदनांजी था। उनकी नौ संतान थी, आठवें पुत्र आचार्य श्री तुलसी ने गणाधिपति के रूप में तेरापंथ धर्मसंघ को विकास के नवक्षितिज पर लाकर खड़ा कर दिया। सरल नम्र, धर्मस्वभावी वदनांजी स्वयं ५८ वर्ष की उम्र में पुत्र द्वारा दीक्षित हुई । यह इतिहास की विरल घटना है।* ६.१२ श्रीमती फूलांबाई - ई. सन् की १७ वीं शती.
___ गुजरात प्रदेशांतर्गत सूरत के समद्ध श्रीमाल श्रेष्ठी थे वीरजी बोरा। उनकी पुत्री फूलांबाई थी। फूलांबाई का एक पुत्र था लवजी । छोटी उम्र में ही पति का साया सिर से उठ गया, अतः फूलांबाई पुत्र सहित पिता के घर में रहने लगी। पुत्र लवजी को भी नाना से ही पिता का प्यार मिला ! वीरजी बोरां का समस्त परिवार दढ़ जैन धर्मी था। उस समय ऋषि बजरंगजी सूरत के प्रसिद्ध यति थे। वे लोंकागच्छ के थे। वीरजी बोरा का समस्त परिवार धर्म श्रवणार्थ उनके आश्रम में जाता था । फूलांबाई की प्रेरणा से पुत्र बजरंगजी यतिजी के पास जैनागमों का अभ्यास करने लगे। बुद्धिमान लवजी ने दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग आदि शास्त्रों का अध्ययन किया। संसार से विरक्ति हुई, माता की, व नानाजी की अनुज्ञा से करोड़ो की संपत्ति के उत्तराधिकारी होने पर भी बजंरगजी यति के पास लवजी दीक्षित हो गए। आगे चलकर वे महान् क्रियोद्धारक बने। माता फूलांबाई स्वयं तो उपासिका थी ही, उसकी महान प्रेरणा के फलस्वरूप जिनशासन को क्रियोद्धारक ऋषि लवजी प्राप्त हुए। ६.१३ श्रीमती शिवादेवी जी - ई. सन् की १७ वीं शती.
सौराष्ट्र के जामनगर में दशाश्रीमाली गोत्रीय श्रीमान् जिनदासजी निवास करते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम श्रीमती शिवादेवी था। दोनों पति-पत्नी जैन धर्मोपासक थे, प्रज्ञासंपन्न थे। माता शिवादेवी ने विलक्षण पुत्र रत्न को जन्म दिया जो एक सहस्त्र श्लोक दिन भर में कंठस्थ कर लेते थे। वे अवधानकार भी थे। दो हाथ दो पैरों के सहारे चार कलमों से एक साथ लिख लेना उनकी विरल विशेषता थी। लोंकागच्छ के यति शिवजी के समीप दोनों पिता एवं पुत्र ने दीक्षा धारण की। पुत्र ने आगे चलकर आचार्य धर्मसिंह जी भ०. के नाम से क्रियाद्धार कर धर्म प्रभावना की। शिवादेवी ने पति एवं पुत्र को सहर्ष त्याग मार्ग पर बढ़ाया, स्वयं भी धर्ममय जीवन व्यतीत किया। ६.१४ श्रीमती डाही बाई जी - ई. सन् की १७ वीं-१८ वीं शती.
__ अहमदाबाद जिलान्तर्गत सरखेज ग्राम में भावसार गोत्रीय शाह जीवनदासजी रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम श्रीमती डाहीबाई था। घर का वातावरण धार्मिक था। माता ने भी जैन भगवती दीक्षा लेकर धर्म प्रभावना की। पुत्र धर्मदास ने जैन भागवती दीक्षा अंगीकार की। आचार्य धर्मदास जी का बाईस शिष्यों का दल बना जो बाईस संप्रदाय के नाम से जाना जाता है। माता श्रीमती डाहीबाई ने पुत्र को त्याग मार्ग पर बढ़ाकर जिन शासन का उपकार किया। अन्यत्र डाही बाई का नाम भी उपलब्ध होता
है।
६.१५ श्रीमती रूपादेवी जी - ई. सन् की १७ वीं शती.
राजस्थान के अंतर्गत नागौर क्षेत्र में श्रीमान् माणकचंदजी की धर्मपत्नी थी श्रीमती रूपा देवी। संपन्न एवं धार्मिक परिवार में उनके एक पुत्र का जन्म हुआ जो प्रभावशाली व्यक्तित्व से संपन्न था। श्रीमती रूपादेवी तथा माणकचंदजी ने पुत्र भूधर का विवाह सोजत निवासी शाहदलाजी रातड़िया मुथा की पुत्री कंचनदेवी से किया था। चतुर तथा शरीर से सुदढ़ भूधरजी बचपन में ही सैनिक शिक्षा प्राप्त करने की रूचि रखते थे। वे फौज में उच्च अधिकारी पद पर नियुक्त हो गए। इस पद पर वे कई वर्षों तक कार्य करने के पश्चात् आचार्य धन्नाजी के संपर्क में आए तथा उन्हीं के पास यथासमय दीक्षित हुए।* माता श्रीमती रूपादेवी ने अपने पुण्यप्रभाव से ऐसे होनहार पुत्र को पैदा किया।
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
374
६.१६ श्रीमती सोमादेवी ई सन् की १८ वीं शती.
-
सोजत राजस्थान में वल्लावत जाति, ओसवाल गोत्रीय श्रावक नथमलजी रहते थे। उनकी धर्म परायणा सुशीला सन्नारी थी श्रीमती सोमादेवी । उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया जो आगे चलकर धर्म प्रभावक आचार्य रघुनाथजी के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे भूधरजी के शिष्य बने । माता सोमादेवी ने धर्म कार्य के लिए अपने पुत्र को समर्पित कर शासन सेवा में सहयोग दिया । २० ६. १७ श्रीमती दीपांबाई जी ई. सन् की १८ वीं शती.
-
जोधपुर कंटालिया ग्राम निवासी सकलेचा परिवार के श्रीमान् शाह बल्लूजी की धर्मपत्नी श्रीमती दीपांबाई थी। एक बार धर्म परायणा माता ने सिंह का स्वप्न देखा और यथासमय तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, नाम रखा गया "भीखण" । अपनी पत्नी के स्वर्गवास से भीखणजी वैराग्योन्मुख बने तथा रघुनाथजी के समीप दीक्षित हुए। आगे चलकर इन्होंने तेरापंथ धर्म संप्रदाय का सूत्रपात किया ।२१ नाम था कालूगणि आचार्य एक क्रांतिकारी पुत्र शासन को अर्पित करने में श्रीमती दीपाबाई का योगदान महत्वपूर्ण है ।
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
६. १८ श्रीमती कल्लूजी - ई. सन् की १६ वीं शती.
मारवाड़ रोयट में श्रीमान् आईदानजी निवास करते थे। उनका विवाह कल्लूजी से हुआ था। श्रीमती कल्लूजी भी धार्मिक संस्कारों से संस्कारित थी । उसने प्रज्ञापुरूष जयाचार्य जैसे उग्र विहारी सन्त शासन को समर्पित किया, तथा पुण्यशाली आत्मा बनी | २२
६. १६ श्रीमती बन्नादेवी ई. सन् की १६ वीं शती.
-
बीदासर (राजस्थान) बेगवानी परिवार के सज्जन श्रीमती पूरणमलजी की धर्म पत्नी श्रीमती बन्नादेवी थी। उनकी एक पुत्री का नाम गुलाब देवी था तथा पुत्र थे मघवागणी क्षेत्र में जयाचार्यजी पधारे। उनकी वाणी सुनकर तीनों के मन में संयम के भाव जगे । बन्नादेवी, गुलाब तथा मघवागणी ने दीक्षित होकर शासन की प्रभावना की । २३ माता श्रीमती बन्नादेवी की निरासक्तता अन्य माताओं के लिए प्रेरणास्पद है।
६.२० श्रीमती महिमादेवी ई. सन् की १६ वीं शती.
राजस्थान के लांबिया ग्राम निवासी बीसा ओसवाल गोत्रीय समदड़िया मेहता सेठ मोहनदासजी की धर्मपत्नी थी श्रीमती महिमादेवी । उन्हें आचार्य श्री जयमलजी को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । जयमलजी की धर्मपत्नी का नाम श्रीमती लक्ष्मी देवी था। विवाह हुए अभी छः मास ही हुए थे कि जयमल जी दीक्षित हो गए। २४ नाम के अनुरूप माता महिमादेवी ने अपने हृदय की ममता का त्याग किया तथा पुत्र एवं पुत्रवधू दोनों को दीक्षित किया। स्वयं भी धर्ममय जीवन व्यतीत किया था । ६.२१ श्रीमती धारिणी - ई. सन् की १६ वीं शती.
मेवाड़ के ओसवाल वंशीय लोढ़ा गोत्रीय श्रीमान् किशनोजी की धर्म पत्नी का नाम श्रीमती धारिणी देवी था । इन्होंने पुत्र भारमल जी को जन्म दिया, आगे चलकर वे आचार्य भिक्षु के निर्भीक शिष्य बने । २५ यह धारिणी देवी के धर्म संस्कारों का सुपरिणाम था, उसने शासन में स्व-पुत्र को दीक्षित कराने का सौभाग्य प्राप्त किया ।
६.२२ श्रीमती कुशलांजी ई. सन् की १६ वीं शती.
मेवाड़ के रावलिया ग्राम में ओसवाल गोत्रीय श्रीमान् चतरोजी की भार्या का नाम कुशलांजी था। उन्होंने शासन प्रभावक आचार्य रायचंदजी जैसे सुपुत्र को जन्म दिया । २६ कुशलांजी ने योग्य पुत्र शासन को सुपुर्द किया तथा तेरापंथ धर्मसंघ के विकास में सहयोग दिया।
६. २३ श्रीमती छोटांजी ई. सन् की १६ वीं - २० वीं शती.
राजस्थान की राजधानी जयपुर के जौहरी परिवार में खारड़ गोत्रीय श्रीमान् हुक्मीचंदजी रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम श्रीमती छोटांजी था। लम्बे समय के बाद घर आंगन में पुत्र माणकगणी का जन्म हुआ । माता पुत्र पर वात्सल्य भी नहीं
पिता
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
375
लुटा पाएँ और दुनियाँ से चल बसे। बड़े पिताजी श्रीमान् लछमणदासजी के सान्निध्य में माताजी के द्वारा प्रदत्त धर्म-संस्कारों को
एवं पुष्पित होने का सौभाग्य प्राप्त किया। धर्मप्रभावक आचार्य को छोटांजी ने पैदा कर शासन प्रभावना में सहयोग दिया
पल्लवित एव पुष्प
६.२४ श्रीमती रूपांबाई - ई. सन् की २० वीं शती.
पंजाब में झेलम नदी के किनारे "कलश" ग्राम के श्रेष्ठी गणेशचंद्रजी की धर्मपत्नी का नाम श्रीमती रूपांबाई था। उसने यथासमय एक तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया जिसका नाम दित्ता या देवदास रखा गया था। बचपन में ही पुत्र के सिर से पिता का साया उठ गया था। श्रीमती रूपांबाई पति के मित्र जोधमलजी जैन के घर पर पत्र सहित रहने लगी। गाँव में जैन स्थानकवासी परंपरा के साधु-साध्वियों का आवागमन होता रहता था।
श्रीमती रूपांबाई के धर्मसंस्कार वश बालक को संतों का संपर्क रूचिकर लगने लगा। परिणाम स्वरूप यथासमय बालक ने वैराग्य भाव के साथ दीक्षा धारण की तथा विजयानंद (आचार्य आत्माराम) के नाम से मूर्तिपूजक संप्रदाय के प्रभावशाली आचार्य
बने ।२८
६.२५ श्रीमती विद्यादेवी - ई. सन् की २० वीं शती.
पंजाब फरीदकोट जिले के मलौटमंडी में ओसवाल भाबू गोत्रीय श्रीमान चिंरजीलाल जी श्रेष्ठी निवास करते थे। उनकी धर्म-संस्कारी, दान व धर्म प्रवत्ति में रूचिवान धर्मपत्नी का नाम विद्यादेवी था। उनका परिवार संपन्न एवं धार्मिक था। विद्यादेवी ने तेजस्वी पुत्र ध्यान योगी आचार्य श्री शिवमुनि जी भ. को जन्म देकर स्वकुक्षी को धन्य बनाया। ६.२६ श्रीमती नेमादेवी · ई. सन की २० वीं शती.
राजस्थान के चुरू जिलान्तर्गत सरदारशहर में ओसवाल दुगड़ गोत्रीय श्रीमान् झूमरमलजी निवास करते थे। उनकी धर्मपत्नी थी नेमादेवी। वह सरल, सहज, धर्मपरायण एवं व्यवहार कुशल महिला थी। उनकी दो पुत्रियाँ एवं छः पुत्र थे। उनका सातवां पुत्र मोहन धर्म मार्ग पर अग्रसर होते हुए दीक्षित हुआ। आज मोहन युवाचार्य श्री महाश्रमणजी के रूप में तेरापंथ धर्मसंघ की प्रभावना कर रहे हैं। तेजस्वी त्यागी पुत्र से माँ की कुक्षी धन्य हुई। ६.२७ श्रीमती परमेश्वरी देवी जी - ई. सन् की १६ वीं - २० वीं शती.
पंजाब जालंधर जिले के "राहों" ग्राम निवासी श्रीमान् मनसारामजी चोपड़ा की धर्मपरायणा शीलसंपन्ना धर्मपत्नी श्रीमती परमेश्वरी देवी थी। माँ परमेश्वरी देवी पुत्र वात्सल्य लुटा भी नहीं पाई, और वह स्वर्गवासी हो गई। माता के धर्म संस्कारों से पोषित पुत्र गुरू शालिग्रामजी से दीक्षित होकर स्थानकवासी श्रमण-संघ के प्रथम आचार्य श्री आत्मारामजी भ०. के रूप में सुविख्यात हुए।३१ ६.२८ श्रीमती हुलसादेवी जी - ई. सन् की १६ वीं शती.
महाराष्ट्र अहमदनगर जिले के अंतर्गत चिचोंडी ग्राम में गुगलिया गोत्रीय श्रीमान् देवीचंद जी निवास करते थे। उनकी शील सम्पन्ना, धर्मपरायणा धर्मपत्नी श्रीमती हुलसादेवी था। हुलसादेवी जैन श्रमणोपासिका थी। हुलसादेवी के दो पुत्र थे, बड़े उत्तम चंद जी तथा छोटे थे, श्री नेमिचंदजी नेमिचंदजी ने माँ की प्रेरणा से गुरू रत्नऋषिजी के सान्निध्य में प्रतिक्रमण सूत्र तथा कई थोकड़े आदि भी सीखे। माँ से दीक्षा का स्वसंकल्प सुनाया। माँ ने मोहवश प्रारंभ में कई तरह से पुत्र को गहस्थाश्रम में रखने का प्रयत्न किया, किंतु पुत्र के दढ़ संकल्प वश उसे गुरू रत्नऋषिजी के चरणों में दीक्षित किया। आगे चलकर कई पदों को धारण कर स्थानकवासी श्रमण-संघ पंरपरा के द्वितीय आचार्य आनंदऋषिजी के रूप में वे सुविख्यात हुए ३२ माँ की प्रेरणा पुत्र के जीवन हेतु वरदान सिद्ध हुई। ६.२६ श्रीमती सत्यवती जी · ई. सन् की १६ वीं शती.
दक्षिण भारत के बेलगाँव जिले के येलगुल गाँव में क्षत्रिय वंशज भीम गौंडा पाटिल की धर्मपत्नी थी सत्यवती। श्रीमती सत्यवती जी ने चार पुत्र एवं एक पुत्री कष्णा बाई को जन्म दिया था। उनके धर्मसंस्कार एवं शीलस्वभाव के प्रभाव से पुत्र सात
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
376
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
गौड़ा आगे चलकर आचार्य शांति सागरजी के नाम से प्रसिद्ध हुए। दिगंबर परंपरा के विकास में सत्यवती के इस पुत्ररत्न का महत्वपूर्ण सहयोग रहा है। ६.३० श्रीमती हुलासी जी - ई. सन् की १६ वी - २० वीं शती.
राजस्थान के ओसवाल परिवार के श्रीमान् केवलचंदजी कांसटिया की धर्मपत्नी का नाम श्रीमती हुलासी देवी था। छोटी उम्र में हुलासी का स्वर्गवास हो गया। श्री केवल चदं जी ने दीक्षा ग्रहण की, पीछे बालक अमोलक ऋषि भी दीक्षित हुए। वे प्रथम जैन मुनि थे जिन्होंने बत्तीस आगमों का सरल हिंदी अनुवाद किया था। माता हुलासी का नाम ऐसे पुत्र को पैदा कर अमर हो गया। ६.३१ श्रीमती धारिणी देवी - ई. सन् की २० वीं शती.
राजस्थान में स्थित बाली नगर के श्रीमान् शोभाचन्द्रजी की धर्मपत्नी का नाम श्रीमती धारिणी देवी था। उनके एक पुत्र का नाम सखराज जी था जो आगे चलकर शाकाहार प्रेरक आचार्य श्री विजय समुद्रसूरिजी के रूप में विख्यात हुए। धारिणी के धर्म संस्कारों के प्रभाव से ऐसा महान् आचार्य उनकी कुक्षी से अवतरित हुआ । ६.३२ श्रीमती जडावांजी - ई. सन् की २० वीं शती.
उज्जयिनी नगरी में ओसवाल श्रेष्ठी श्री कानीरामजी निवास करते थे। उनकी पत्नी का नाम जड़ावांजी था। वे पीपाड़ा गोत्र के थे। जडावांजी धार्मिक महिला थी। पति के देहावसान के बाद संसार के भोग प्रधान जीवन से उसका मन विरक्त हुआ। पुत्र डालचंद्र दूसरे दशक में प्रवेश कर रहा था। परिवारिकजनों के संरक्षण में पुत्र को रखकर स्वयं दीक्षित हुई, आगे चलकर डालचंद भी दीक्षित हुए एवं प्रभावशाली आचार्य बने।६ ६.३३ श्रीमती कमलदेवी जी - ई. सन् की १६ वीं शती.
गुजरात के महुआ ग्राम में बीसा श्रीमाल परिवार के श्रीमान् रामचंद्रजी की धर्मपत्नी कमलदेवी थी। उनका एक पुत्र था। मूलचंद। आगे चलकर वे आचार्य श्री विजयधर्मजी के रूप में प्रसिद्ध हुए।३७ माता कमलदेवी ने इस धर्मनिष्ठ पुत्र को शासन की प्रभावना के लिए जिन शासन को समर्पित किया। ६.३४ श्रीमती नाथीबाई जी - ई. सन् की १६ वीं शती.
मालवा प्रदेश के थांदला ग्राम में श्रेष्ठी जीवराजजी अपनी पत्नी श्रीमती नाथी बाई सहित निवास करते थे। उनके एक पुत्र आचार्य श्री जवाहरलालजी के रूप में विख्यात हुए थे।३८ माँ के धर्मसंस्कार पुत्र के लिए वरदान बने। ६.३५ श्रीमती इच्छांबाई जी - ई. सन् की १६ वीं शती.
बड़ौदा गुजरात में श्रीमान् दीपचंद भाई निवास करते थे। उनकी धर्मपत्नी थी इच्छांबाई। उनके एक पुत्र था छगनलाल । माता-पिता आस्थावान जैनधर्मोपासक थे। आगे चलकर पुत्र छगन श्री वल्लभविजयजी के नाम से प्रभावशाली आचार्य बने । ६.३६ श्रीमती बालूजी - ई. सन् की २० वीं शती.
राजस्थान के टमकोर ग्राम में चोरड़िया परिवार के श्रीमान् तोलारामजी की धर्मपत्नी का नाम बालूजी था। बालूजी सुशीला व धार्मिक प्रवत्ति वाली महिलारत्न थी। पति के स्वर्गवास के पश्चात उसने संतान के प्रति पिता की भमिका का भी निर्वहन किया। माँ की धार्मिक वत्तियों से संतान में भी धार्मिक चेतना का जागरण हुआ। माँ द्वारा प्रदत्त प्रबल वैराग्य भावना ने पुत्र नथमल को दीक्षित होने का परम सौभाग्य प्रदान किया। वे आचार्य श्री महाप्राज्ञजी के रूप में तेरापंथ परंपरा की महती प्रभावना कर रहे हैं। आपकी बड़ी बहन साध्वी मालूजी के रूप में प्रसिद्ध हुई। माँ बालूजी ने अपना सच्चा दायित्व निभाया, अपनी संतान को सच्चे मार्ग का साधक बनाया। ६.३७ श्रीमती सरस्वती जी ई. सन् की २०वीं शती. .
कर्नाटक के सेड़वाल ग्राम में श्रीमान् कालप्पा आणप्पा निवास करते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम सरस्वती था । सरस्वती यथा नाम तथा गुणवाली धर्म संस्कारी महिलारत्न थी। फलस्वरुप उनके सपत्र सुरेंद्र ने आगे चलकर दिगंबर परंपरा में आचार्य
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
का जीवन यापन किया तथा अंत समय तक उन नियमों पर दढ़ रही । जैन आचार्य श्री विजयधर्मसूरीजी से प्रभावित होकर वह इस धर्म से जुड़ी। उसने जैनधर्म की प्रभावना के क्षेत्र में साहित्य सजन आदि का उल्लेखनीय कार्य किया है। इस अध्याय के अंतर्गत उल्लेखनीय अन्य कई श्राविकाएँ ओर भी हुई हैं। किंतु विस्तार भय से हमने उन शेष श्राविकाओं को आगे के सातवें अध्याय के अंतर्गत रखा है।
369
सत्तरहवीं शताब्दी के मेहता श्री जयमल श्री जोधपुर के मेहता श्री अचलोजी के पौत्र थे । तथा नरेश श्री सूरसिंहजी के शासनकाल में गुजरात देशस्थ बड़नगर के सूबेदार थे। तदनंतर फलौदी के शासक नियुक्त हुए थे तथा श्रीमती सरूपदे और श्रीमती सुहागदे नाम की उनकी दो पत्नियाँ थी। प्रथम पत्नी से नैणसी श्री नयसिंह, श्री सुंदरदासजी, श्री आसकरणजी, और श्री नरसिंहदासजी चार पुत्र हुए थे। दूसरी पत्नी से श्री जगमालजी नाम का पुत्र पैदा हुआ था। श्रीमती सरूपदे का बहुत बड़ा योगदान इस रूप में रहा कि उसने मूता नैणसी जैसे अत्यंत कुशल राजनीतिज्ञ, प्रशासक, युद्धवीर, सैन्य संचालक, सुकवि, विद्यानुरागी तथा इतिहासकार पुत्र को जन्म दिया। मूता नैणसी के तीन पुत्र थे- श्री करमसी, श्री वैरसी और श्री समरसी। श्री करमसी की दो विध्वा पत्नियाँ थी जो राज्य संकट के समय अपने पुत्र श्री संग्राम सिंह एवं श्री सामंतसिंह के साथ किसी प्रकार बचकर भाग निकली। ये दोनों पुत्र आगे चलकर मारवाड़ के राजा जसवंतसिंह के पुत्र श्री अजितसेन की राजसेवा में नियुक्त हुए थे ।
ईस्वी सन् १७५१ में उदयपुर में ही वहाँ के सेठ श्री कालुवालालजी और सेठ श्री सुख जी की विदुषी पत्नियाँ श्रीमती मीठीबाई एवं श्रीमती राजबाईजी ने अपने हाथ से "वसुनंदि श्रावकाचार" की प्रथम प्रतियाँ लिखी थी। जिसकी भाष्य टीका, सेठ बेलाजी की प्रेरणा से साहित्यकार, नीतिपटु, राज्यकार्यकुशल जयपुर राज्य के बसवा नगर निवासी श्री दौलतराम कासलीवाला ने की थी। इसी जयपुर राज्य में अपनी पुत्री श्रीमती नगीनाजी के व्रत उद्यापनार्थ उनके पिता गंगा गोत्रीय अग्रवाल सेठ सामाजी ने षोडशकारण यंत्र ईस्वी सन् १५६८ में प्रतिष्ठित कराया था ।
दक्षिण भारत के राज्यों में विजयनगर के प्रथम राजा श्री तिरूमलजी हुए थे। तदनंतर श्री रंगरायजी प्रथम, श्री वेंकटजी प्रथम, जी वेंकटी द्वितीय, श्री रंगरायजी द्वितीय, इत्यादि राजा क्रमशः हुए। पेनुगांडा के महाराजा वेंकट प्रथम के अधीन बोम्मण हेग्गड़े मुत्तूर का शासक था। उसकी शासनभूमि का स्वामी मेलिगे नगर निवासी वणिक् वर्धमान था । उसकी पत्नी श्रीमती नेमाम्बाजी थी तथा पुत्र बोम्मणश्रेष्ठी था, जिसने १६०८ ईस्वी में एक भव्य जिनालय बनवाकर उसमें अनंत जिन की स्थापना की थी तथा मंदिर के लिए दान दिया था ।
भैरसवोडेयर, (भैरव प्रथम ) की बहन एवं वीरवरसिंह वंगनरेंद्र की धर्मपत्नि श्रीमती गुम्मटाम्बा का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उसने इम्मडिभैररस - वोडेयर (भैरव द्वितीय) जैसे धर्म पुरूष को जन्म दिया, जिसने पाण्ड्यनगरी कारकल में मंदिर बनवाया, दान दिया तथा राजमहल के प्रांगण में स्थित चंद्रनाथ - बसदि तथा गोवर्धनगिरी पर स्थित पार्श्वनाथ बसदि में जिन पूजा की उत्तम व्यवस्था कर दी थी ।
तुलु देश के वेनूर ( वेणुरू) नगर में राज्य करने वाले अजिल राज्यवंश के संस्थापक तिम्मण अजित प्रथम हुए (ई. ११५४ -८०), उनका भानजा रायकुमार प्रथम उसका उत्तराधिकारी रहा, तत्पश्चात् उसका भानजा वीर तिम्मराज अजित चतुर्थ (१५५० - १६१० ई.) हुआ। उसकी जननी श्रीमती पांड्यदेवी तथा पिता श्री पाण्ड्य भूपति था। धर्मसंस्कारमयी माता पांड्यदेवी के सुसंस्कारों के प्रभाव से ही धर्मात्मा, वीर, प्रतापी, उदार पुत्र अजित चतुर्थ ने राजधानी वेनूर में कार्कल जैसी ही एक विशाल गोम्मटेश प्रतिमा का निर्माण कराया तथा १६०४ ईस्वी में वेनूर के सुप्रसिद्ध गोम्मटेश बाहुबली की प्रतिमा की प्रतिष्ठापना समारोहपूर्वक हुई। यह कर्नाटक की बाहुबली जी की तीसरी विशाल मूर्ति है। उल्लेखनीय है कि गोम्मटेश की मूर्ति के सामने वाले द्वार के दोनों पावों में दो छोटे मंदिर हैं जो तिम्मराज की दो रानियों ने बनवाए थे। तिम्मराज स्वयं प्रतापी और कुशल प्रशासक था और उसके शासनकाल में राज्य का प्रभूत उत्कर्ष था । वेनूर राज्य का प्रदेश पुंजलिके भी कहलाता था । तिम्मराज के पश्चात् उसकी भानजी मधुरिकादेवी गद्दी पर बैठी। उसने १४८७ ईस्वी तक शासन किया। अपने राज्य काल में उसने संभवतया ईस्वी १६३४ में, वेनूर के गोम्मटेश का महामस्ताभिषेक महोत्सव किया था । तदनंतर कई अन्य शासक वेनूर की गद्दी पर क्रमशः बैठे जिनमें एक थी रानी पद्मलादेवी जो धर्मपरायणा थी ।
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
370
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
कर्नाटक देश में मैसूर (महिशूर, म्हैसूर) का ओडेयर वंश भी प्राचीन गंगवंश की ही एक शाखा थी। प्रारंभ में यह वंश पूर्णतया जैनधर्म का अनुयायी था। कालांतर में राजाओं द्वारा शैव-वैष्णवादि हिंदूधर्म अंगीकार कर लिये जाने पर भी मैसूर के राजा स्वयं को श्रवणबेलगोला और उसके गोम्मटेश के रक्षक समझते रहे, उन्हीं की पूजा-भक्ति भी करते रहे तथा अन्य प्रकार से भी जैनधर्म एवं जैनों का पोषण करते रहे। काश्यपगोत्रीय ब्राह्मण श्री सेनवो सायन्न और श्रीमती महादेवी के पुत्र जिनभक्त हिरियन्न १६०६ ई. के लगभग गोम्मटस्वामी के चरणारविंद की वंदना कर स्वर्गवासी हए थे। १६७३ ई.में श्रीमान पटसामि और देवी रम्भा जी के धर्मसंस्कारों के प्रभाव से उनके पत्र चेन्नन जी ने श्रवणबेलगोल की विंध्यगिरि पर समुद्दीश्वर चन्द्रप्रभ स्वामी का मण्डप, एक कुंज (उद्यान) और दो सरोवर बनवाए थे तथा १६७४ ई. में उन सबके संरक्षण के लिए उसने जिन्नयेन हल्लिग्राम भेंट कर दिया था।
र नरेश श्री चामराज ओडेयर, श्री देवराज ओडेयर, श्री कृष्णराज ओडेयर आदि राजाओं ने जैन धर्म की उन्नति के लिए अनेक धार्मिक कार्य किये थे।
१७६६-६७ ईस्वी में मैसूर के श्री राजमंत्री जी नंजराज के आश्रित सेनापति हैदर अली तथा उसके पुत्र टीपू सुलतान का सारा जीवन अंग्रेजों के साथ युद्ध करते हुए ही बीता। उन्नीसवीं शताब्दी में प्रसिद्ध जैन विद्वान् श्री देवचंद्र जी पंडित हुए थे, तथा महाराज चामराज की महिषी महारानी रम्भा देवी परम विदुषी एवं जैन धर्म की पोषक थी। छठे अध्याय में १६ वीं से २० वीं शताब्दी तक की उन श्राविकाओं का उल्लेख किया गया है, जिनका वर्णन शिलालेखों में, ग्रंथ-प्रशस्तियों में, हस्तलिखित ग्रंथो में आता है। इस काल में श्राविकाएँ भक्ति रस में डूबकर ही नहीं रह गई, अपितु उनमें ज्ञान रूचि का विकास भी होने लगा था। इस काल में श्राविकाओं ने अध्ययनार्थ शास्त्र की प्रतिलिपियाँ आचार्यों, साधु-साध्वियों एवं श्रावक-श्राविकाओं के द्वारा करवाई थी तथा उन्हें श्राविकाओं श्रीमती पदमसिरिजी श्रीमती महासिरीजी व श्रीमती मानिकीजी को प्रदान की थी। श्रीमती तिपुरू, श्रीमती मदना तथा श्रीमती अमरी ने बाहुबली चरित्र लिखवाया एवं रत्नाजी को प्रदान किया। श्रीमती पीथी, श्रीमती लाड़ी व श्रीमती पद्मसिरीजी ने दसलक्षणव्रत उद्यापनार्थ प्रद्युम्न चरित्र लिखवाया। सोलहवीं शती में श्राविका श्रीमती हीराबाईजी तथा श्रीमती हंसाजी के पठनार्थ तपागच्छ आचार्य हेमविमलसूरि ने स्थूलीभद्र एकवीसो की रचना की। पटुबाई पठनार्थ चहुंगति चौपाई लिखवाई गई। वाल्ही पठनार्थ अभयकुमार श्रेणिक रास की रचना की गई थी। इसी प्रकार १६वीं शती की ही श्राविका श्रीमती नारू, श्रीमती वरसिणि, श्रीमती साई ने मनिसंदर के उपदेश से श्री हरि विक्रमचरित्र लिखा। इसी प्रकार श्रीमती माजाटी एवं श्रीमती सोनाई ने सवर्ण अक्षरों में नंदीसत्र की प्रति लिखकर मुनि श्री लावण्यशीलगणि को प्रदान की। १८वीं शती में उदयपुर मेवाड़ में भोजराज की पत्नी तथा १६वीं शती में मेहता श्री लक्ष्मीचंदजी की विध्वा पत्नी बड़ी ही बुद्धिमती, कर्मठ और स्वाभिमानिनी थी। उसने कष्ट उठाकर भी अपने पुत्रों का पालन पोषण किया, जो बड़े होकर राज्य सेवा में नियुक्त हुए। वे थे जोरावरसिंह तथा जवानसिंह। मेवाड़ (उदयपुर) राज्य में राणा फतेहसिंह (मत्यु १६३१ ईस्वी) के समय तक अनेक राजमंत्री तथा उच्च पदस्थ कर्मचारी जैनी होते रहे और उदयपुर के नगर सेठ भी प्रायः जैनी ही होते रहे। ___ श्राविका पुंजाजी, जातुजी, सुताजी, कुंआरी के पठनार्थ चरणनंदनगणि ने कुमारपाल रास की रचना की थी। श्राविका लखा पठनार्थ पद्महंसगणी ने नेमिरास की रचना की थी। श्राविका पुण्यजयगणि की प्रेरणा से चुनाई, अमराई के पठनार्थ जिनभद्रसूरि पट्टाभिशेकरास की रचना की गई थी। सुश्राविका चमकू पूरी, रूपिणिके वाचनार्थ अभयकुमार श्रेणिक रास की रचना तपागच्छ के श्री कमल चारित्र गणि ने की थी। १६वीं शती की श्राविका जाई आधी ने पं. तिलकवीरगणि के लिए श्री सिद्धहेम शब्दानुशासनम् प्रति ४२ को लिपिबद्ध किया था। सुश्राविका पवयणी, सुहावदे, लक्ष्मी, लवणदे ने रत्नकरण्ड शास्त्र लिखवाकर मुनि हेमकीर्ति को प्रदान किया। १६वीं शती में सुश्राविका कावलदे, लाछी, लाडी, दमयंती, करणादे, सरो ने सम्यक्त्व कौमुदी लिखवाकर ब्रह्मवूच को प्रदान की। सुश्राविका गुणसिरि, सु. केलुदेवी ने श्रीमती ललतादे, नयणसिरि ने प्रवचन सार प्राभत वत्ति लिखवाकर मुनियों को प्रदान की। सुश्राविका पुरी, चोखा, राता, लाड़ी, सहजू ने बाई पदमसिरि के लिए हरिषेण चरित्र लिखवाया।
१८वीं शती में जैसलमेर राज्य के भाटी राजपूत वंश का राजा मूलराज (मूलसिंह) था। कुचक्रियों ने राजा को कारागार में कैद कर युवराज को गद्दी पर बिठा दिया। किंतु लगभग तीन मास के उपरान्त ही एक वीर महिला के सहयोग से राजा बंदीगह से मुक्त हुआ तथा पुनश्च सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। २०वीं शती तक मारवाड़ (राजस्थान) के जोधपुर, जयपुर, भरतपुर आदि के
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
371
कई जैनधर्मप्रभावक दीवान आदि हुए है। इनमें धर्मप्रभाविका महिलाएँ आदि भी अवश्य हुई होंगी किंतु उनके वर्णन में महिलाओं के कोई स्पष्ट विवरण नामोल्लेख आदि उपलब्ध नहीं होते। कुछ प्रसिद्ध श्रेष्ठी परिवार आधुनिक काल में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। अठारहवीं शताब्दी के मुर्शिदाबाद घराने के बंगाल के सुप्रसिद्ध जगतसेठ श्रीमान् फतेहचंदजी के पुत्र या पौत्र जगतसेठ श्री शुगनचंदजी हुए हैं। सेठ सुगनचंदजी के पुत्र या पौत्र संभवतः सेठ श्री डालचंदजी थे, वे कारणवश वाराणसी में आ बसे । उनकी पत्नी रत्नकुंवर बीबी का मायका भी मुर्शिदाबाद में ही था। वह बड़ी विदुषी थी तथा कवियित्री भी थी। उसने "प्रेमरत्न" नामक काव्य ग्रंथ की रचना की थी। बुंदेलखंड के झाँसी जिले की महरौनी तहसील में स्थित कुम्हेडी अपरनाम चंद्रापुरी ग्राम के मंजु चौधरी की पत्नी का नाम नगीनाबाई था। वह विदुषी, सुलक्षणा, एवं धर्म परायणा थी। नगीना बाई ने भट्टारक सुरेंद्रकीर्ति की प्रेरणा से ज्येष्ठ-जिनवर-पूजा-व्रत कथा पूरी करके उसका उद्यापन भी किया था। मंजु चौधरी का भानजा था भवानीदास चौधरी, जिनकी पत्नी थी चम्पो बाई। उसने सन १७८४ और १८०५ ईस्वी में लला-बजाज द्वारा दो ग्रंथो की प्रतिलिपियाँ करायी थी। भवानी दादू के छोटे भाई तुलसी दादू की दो पुत्रियाँ थी, जिनमें से छोटी मुक्ताबाई थी। उसकी पुत्री श्रीमती सोनाबाई श्री हीरालाल मोदी की पत्नी थी। उसने १८४० ईस्वी में पचास धार्मिक रचनाओं के संग्रह की प्रतिलिपि करायी थी। उसकी भाभी धूमाबाई ने लगभग उसी समय खण्डगिरी का छोटा मंदिर बनवाया था।
१६वीं शताब्दी में ब्रजगोत्री खण्डेलवाल जैन चंदेर के चौधरी सिंघई श्री सभासिंहजी की धर्मपत्नी श्रीमती कमलाजी थी, वह बड़ी ही कार्यकुशल, उदार और धर्मोत्साही थी। ईस्वी सन् १८१६ में चंदेरी से आठ मील दूर अतिशयक्षेत्र "थूबौनजी", तपोवन में इन्होंने एक विशाल जिनमंदिर बनवाया था तथा उसमें भगवान् आदिनाथजी की देशी पाषाण की ३५ फुट उत्तुंग खड्गासन प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराई थी। इसी शती में सिंधिया राजा की महारानी बैंजाबाई ने मंदिर निर्माण के लिए द्रव्य दिया था। जिससे सेठ मनीराम ने मथुरा में द्वारकाधीश का सुप्रसिद्ध मंदिर बनवाया तथा चौरासी पर जंबूस्वामी का मंदिर भी इन्होंने बनवाया था। इसी प्रकार उन्नीसवीं शती में ही जगतसेठ के वंशज श्रीमान् डालचंद की विदुषी भार्या बीबी रतनकुँवरि हुई थी। मेवाड़ में शाह हीराचंदजी की पत्नी बिजलीबाई हुई थी, जो सुशीला और धर्मपरायणा थी। जिनकी हेमकुमारी एवं मंछाकुमारी नाम की धर्मसंस्कारमयी दो पुत्रियाँ थी। बीसवीं शती में कर्मठ धर्म सेवी एवं समाज सेवी ब्रह्मचारी श्री शीतलप्रसादजी हुए थे, जिनकी धर्मपरायणा सुपुत्री महिलारत्न मगनबेन थी। इसी प्रकार धर्मकुमार की विध्वा पत्नी बालिका चंदाबाईजी संस्कृत भाषा तथा धर्मशास्त्रों की शिक्षा लेकर आगे चलकर ब्रह्मचारिणी पंडिता चंदाबाई बनी तथा आरा के प्रसिद्ध बालाश्रम की संस्थापिका एवं संचालिका हुई थी। जीवनपर्यंत वह स्त्री शिक्षा एवं समाज सेवा में रत रही थी।
इसी काल में कुछ ऐसी श्रद्धाशील श्राविकाएँ भी हुई हैं जो स्वयं तो धर्म के प्रति समर्पित थी ही, उनकी पावन प्रेरणा से उनकी संतान भी धर्म के प्रति समर्पित हो गई थी। इस कड़ी में क्रियोद्धारक पूज्य श्री लवजी ऋषिजी की माँ फूलांबाई का नाम उल्लेखनीय है। वह वीरजी बोरा की सुपुत्री थी। उसने अपने पुत्र को प्रेरणा देकर यति बजरंगजी से जैनागमों का ज्ञान करवाया। ज्ञान का आश्चर्यकारी प्रभाव बालक पर पड़ा, वे करोडों की संपत्ति त्यागकर संयम के महापथ पर बढ़े और क्रियोद्धार किया। इसमें माँ फूलांबाईजी की प्रेरणा की ही प्रबलता थी। इसी परंपरा में आगे चलकर श्राविका हुलसादेवी के लाल आचार्य आनंद ऋषिजी हुए। माँ हुलसाजी ने अपने पति के स्वर्गवास के पश्चात् खिन्नचित्त नेमिचंद्र को भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञानार्जन की ओर बढ़ाया। माँ ने गुरू रत्नऋषि का संपर्क पुत्र नेमिचंद्र को करवाया एवं प्रतिक्रमण सीखने की प्रेरणा की। इसी ज्ञान ने नेमिचंद्र को वैराग्योन्मुख बनाया। दीक्षित होकर आगे वे संघनायक आचार्य श्री आनंद ऋषिजी के नाम से विख्यात हुए। बीसवीं शती में माता बालूजी हई हैं। माता बालूजी ने अपने पुत्र को त्याग और वैराग्य के पथ पर आगे बढ़ाया। वही पुत्र आज आचार्य श्री महाप्राज्ञजी के रूप में शासन की प्रभावना कर रहे हैं।
संवत् १८८५ में श्राविका गुलाब बहन की प्रेरणा से मुर्शिदाबाद निवासी बाबू किशनचंद जी और श्री हर्षचंद जी ने पुण्डरीक देवालय से दक्षिण की तरफ एक चंद्रप्रभु स्वामी का छोटा देवालय बनवाया। खरतरगच्छ के आचार्य श्री जिनहर्षसूरिजी ने उसकी प्रतिष्ठा करवाई। इसी प्रकार संवत् १८८६ में सेठ श्री वखतचंद खुशालचंदजी के पौत्र श्री नगीनदासजी की पत्नी ने अपने पति की प्रेरणा से हेमा भाई की टौंक पर एक देवालय बनवाया। उसने चन्द्रप्रभू स्वामी की एक प्रतिमा भी अर्पण की जिसकी प्रतिष्ठा
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
372
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
सागरगच्छ के श्री शान्तिसागर सूरि जी ने करवाई। संवत् १९३२ में अजीमगंज निवासी श्रीमती महताब कुँअर बाई ने पावापुरी में अपनी देख रेख में महावीर स्वामी का मंदिर बनवाया। जैसलमेर की जैन श्राविकाओं का योगदान :
जैसलमेर स्थित तपपट्टिकाकी प्रशस्ति में एवं आर. वी. सोमानी द्वारा लिखित पुस्तक जैना इंस्क्रिप्शंस ऑफ राजस्थान में निम्न उल्लेख प्राप्त होता है कि जैसमेर के चोपड़ा परिवार में श्राविका श्रीमती पंछु बाई की पुत्री श्रीमती गेली हुई थी। उसका विवाह शंखवाल गोत्रीय अशराज से हुआ था। श्रीमती गेली ने आबू एवं गिरनार आदि की संघयात्राएँ निकाली थी। वि. संवत् १५०५ में उसने एक तप-पट्टिका जैसलमेर में बनवाई थी। श्री मेरू सुंदरसूरि ने उसे लिखी थी। इस तपपट्टिका का विशाल शिलालेख ऊपर एक कोने की तरफ से कुछ टूटा हुआ है। इसकी लम्बाई २ फुट १० इंच और चौड़ाई १ फुट १० इंच है। इसमें बाईं ओर प्रथम २४ तीर्थंकरों के च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान इन चार कल्याणकों की तिथियाँ कार्तिक वदी से अश्विन सुदी तक महीने के हिसाब से खुदी हुई हैं। तत्पश्चात् महीने के क्रम से तीर्थंकरों के मोक्ष कल्याणक की तिथियाँ भी दी गई हैं। दाहिनी तरफ प्रथम छ: तपों के कोठे बने हुए हैं तथा इनके नियमादि खुदे हुए हैं। इसके नीचे वज्र मध्य और यव मध्य तपों के नकशे हैं। एक तरफ श्री महावीर तप का कोठा भी खुदा है। इन सबके नीचे दो अंशों में लेख है। प्रस्तुत तप पट्टिका जैसलमेर स्थित श्री संभवनाथ जी के मंदिर की है। १०.अ ६.६ श्रीमती काकलदेवी - ई. १५३०.
वह काकल नरेश वीर भैररस वोडेयर की छोटी बहन थी जो बगुंजि सीमा की रक्षिका एवं शासिका थी । उसने ई. सन्. १५३० में अपने कुलदेवता कल्लबसदि के पार्श्व तीर्थकर की नित्य पूजा के लिए भूमिदान किया था । अपनी पुत्री कुमारी रामादेवी की पुण्य स्मति में उसने भूमि, चावल, तेल, धातु आदि के विविध द्रव्य दान दिये थे । काललदेवी की माता श्रीमती बोम्मल देवी थी व पिता बोम्मरस थे। भाई वीर भैररस था, उसकी रानी भैरवाम्बा सालुव वंश की राजकुमारी थी और बड़ी जिनभक्त धर्मात्मा थी।१०.व ६.७ महारानी रम्भा - १६ वीं शती.
मैसूर नेरश कष्णराज के पुत्र एवं उत्तराधिकारी महाराज चामराज की रानी थी । वह परम विदुषी, इतिहास की रसिक, विद्वानों की प्रश्रयदाता व जैनधर्म की पोषक थी। पण्डित श्री देवचंद्रजी ने अपना प्रसिद्ध इतिहास ग्रंथ "राजावलिकथा" इसी महारानी को ईस्वी सन् १८४१ में समर्पित किया था। ६.५ श्रीमती वीरादेवीजी - सन संवत् अनुपलब्ध.
श्रीमती वीरादेवी दक्षिण भारत की वीर नारी थी। वह बाल ब्रह्मचारिणी तथा, कुशल नारी रत्ना थी। श्रीमती वीरादेवी ने अपने पिता, नाना तथा अपनी छ: मौसियों के राज्यों के एक बड़े प्रदेश पर गोसय्या तथा वाटुल्ला को राजधानी बनाकर न्याय तथा वीरता के साथ निष्कंटक राज्य किया। अपने राज्य के पड़ोसी वैष्णव राजा के सेनापति वेंकटप्पा के साथ कुशलतापूर्वक युद्ध किया था। युद्ध का संचालन स्वयं वीरादेवी ने किया था और वेंकटप्प को युद्ध क्षेत्र से मार भगाया था। ६.६ श्रीमती विमलाबाई - ई. सन् की १६ वीं शती.
मेवाड़ में श्रीमान् प्रभुदत्त की धर्मपत्नी थी श्रीमती विमलाबाई। विमलाबाई जैन श्रमणोपासिका थी। अपने पुत्र घासीलाल को धर्म संस्कारों से सिंचित कर उसे बाल्यावस्था में ही छोड़ कर स्वर्ग सिधार गई। आगे चलकर श्रुत सेवी आचार्य घासीलालजी के रूप में वे सुविख्यात हुए तथा ३२ आगमों पर आपने संस्कत टीका लिखने का उल्लेखनीय कार्य किया। १३ ६.१० श्रीमती उमरावबाई - ई. सन् की २० वीं शती.
राजस्थान के बूंदी जिले के अंतर्गत "गंभीरा" ग्राम में खण्डेलवाल जाति एवं छाबड़ा गोत्रीय श्रीमान् वख्तावरमलजी की धर्मपत्नी थी श्रीमती उमरावबाई । उनके एक पुत्र का नाम चिरंजीलाल रखा गया था । यही पुत्र आगे चलकर आचार्य धर्मसागरजी
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
देशभूषण जी से मुनि दीक्षा ग्रहण की। आचार्य श्री विद्यानंदजी के रूप में वे सुविख्यात हैं । ४१ माँ सरस्वती की कुक्षी मुनि श्री विद्यानंद जी जैसे पुत्र को पाकर धन्य हुई।
६.३८ श्रीमती चम्पा श्राविका - ई. सन् की १६ वीं - १७ वीं शती.
चम्पा श्राविका आगरा की रहनेवाली थी। उन दिनों आगरा को अकबराबाद भी कहा जाता था और वह हिंदुस्तान की राजधानी थी। देश पर अकबर का शासन था। उस समय वहाँ प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री हीर विजय सूरि विराजित थे। उनके पावन सान्निध्य में एक बार चम्पाबाई ने एक सौ अस्सी दिवसीय सुदीर्घ तपस्या की । नगरवासी धन्य धन्य कह उठे । तपस्या संपन्न हुई तब नगर में भव्य शोभायात्रा निकाली गई। शोभायात्रा किले के सामने से भी गुजरी। अकबर ने पूछा यह कैसा जुलूस है ? सेवकों ने बताया कि एक सौ अस्सी - दिन तक श्राविका चंपाबाई द्वारा किये गये उपवास पूर्ण हो गये हैं, उसी उपलक्ष्य में जैन समाज ने ये जुलूस निकाला है। एक सौ अस्सी दिन सिर्फ गर्म पानी के आधार पर कोई कैसे जिन्दा रह सकता है ? छ: महिने तक कोई भूखा नहीं रह सकता अकबर की यह बात चम्पाबाई ने सुनी तो उसने कहा, मैं महाराजा अकबर के पहरे में रहते हुए एक बार फिर यह तपस्या करके दिखा सकती हूँ। अकबर ने जैन धर्म के तप की सच्चाई स्वयं देखने के लिए चम्पाबाई को अपने महल में रखा।
377
एक सप्ताह बीता, दो सप्ताह बीते, सांच को कैसी आंच ? चम्पाबाई की देह कांति तपस्या से बढ़ती ही चली गई, साथ साथ अकबर का विस्मय भी बढ़ता गया । आत्म-शक्ति पर धीरे-धीरे उसका भरोसा जमने लगा। चम्पाबाई को जब तप करते एक महीना बीत गया तब अकबर मान गया कि दीर्घ तपस्यायें हो सकती हैं। उन्होंने चंपाबाई से पारणा करने का आग्रह किया और अपनी बात वापिस ली। बादशाह स्वयं पारणे में शामिल हुआ । अनुश्रुति यह भी है कि चम्पाबाई से उसने इतनी लम्बी तपस्यायें कर पाने का रहस्य पूछा। चम्पाबाई ने इसका श्रेय आचार्य श्री हीरविजय जी सूरि द्वारा प्रदत्त प्रेरणा को बताया और कहा - "उन्हीं की कृपा से मैं तप कर पाती हूँ ।"
इस बात से प्रभावित होकर बादशाह अकबर स्वयं आचार्य प्रवर के दर्शन करने गए। आचार्य श्री ने उन्हें अहिंसा का मंगलमय उपदेश देते हुए जीव रक्षा का महत्व समझाया। जीवन में अहिंसा को धारण करने की प्रेरणा दी। कहा जाता है कि अकबर को चिड़ियों की जीभ का मांस खाना बड़ा पसंद था। इस कारण बहुत सारी चिड़ियाँ मारी जाती थी । आचार्य श्री के पावन संदेश व प्रेरणा से बादशाह ने मांस खाना छोड़ दिया। चिड़ियों ने अभय पाया । जितने दिन चम्पा बहन ने व्रत रखा, बादशाह ने राज्य में अमारि का आदेश दिया, अतः अन्य धर्मो के साथ-साथ अकबर के राज्य में जैन धर्म के आचार्यों का बहुत आदर था । अकबर ने जैन तीर्थों पर यात्रियों का लगनेवाला जज़िया कर (टैक्स) भी माफ कर दिया था। जैनधर्म की प्रभावना हुई। पर्युषण पर्व के पहले आज भी चंपा बहन का वत्तान्त प्रवचन में पढ़ा जाता है।
चंपा बाई इतिहास की उन जैन श्राविकाओं में से एक थीं, जिन्होंने संयमी जीवन जीकर मानव देह का तो भरपूर लाभ उठाया ही, अपना नाम इतिहास के साथ-साथ लोक मानस में भी अंकित कर दिया। अपने समय के जैन एवं जैनेतर समाज़ों में उनकी विविध तप-आराधनाओं की पर्याप्त प्रसिद्धि व प्रतिष्ठा थी। अपनी आत्म शक्ति से लोगों को चमत्कत कर देने की उनमें क्षमता थी। इस क्षमता का उपयोग अपने जीवन में अनेक बार उन्होंने किया । ४२
६.३६ चारलेट क्रॉस (जर्मन जैन श्राविका १६ वीं शती)
विदेशी विद्वानों में जर्मन के विद्वानों ने जैन धर्म में काफी रूचि दिखाई है। जर्मन के Maxmullar Albrecht Weber, Hermann Jacobi आदि विद्वानों में Dr. Charlotte Crause का नाम चमकते हुए सितारे के समान है। मई १८, १८६५ में उनका जन्म हुआ, Leipzig University से उसने पी. एच. डी की डिग्री प्राप्त की तथा राजस्थान की प्राचीन कथा "Nasaketari Katha" पर प्राचीन राजस्थानी व्याकरण सहित टीका लिखी । १६२० में २५ वर्ष की उम्र में प्राचीन गुजराती की खोजी गई पुस्तक "जैन पंचतंत्र" पर उसने आश्चर्यजनक निबंध लिखकर जैन विद्वानों की कोटि को प्राप्त किया। विश्वविद्यालय ने उसे भारत आकर जैन धर्म का ज्ञान पाने के लिए दो वर्ष की छुट्टी प्रदान की Academic Leave दी। भारत में सन् १९२६ में आई। उसने भारत के जैन तीर्थो के परिभ्रमण का विचार बनाया। विद्वानों एवं आचार्यों से मिली। आचार्य श्री विजय धर्मसूरि जी मुनि मंगलविजय जी, एवं
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
378
मुनि जयंतविजय जी की सौम्यता एवं समता से प्रभावित हुई। जैन धर्म के परिचय से उसका जैन धर्म में दो प्रकार का योगदान रहा। एक जैन धर्म में विद्वत्ता तथा दूसरा जैन धर्म के अनुयायी के रुप में प्रसिद्ध हुई । Dr. Lueigard Soni ने उनके जीवन चरित्र पर निबंध लिखा है। उसने जैन साधु एवं साध्वियों जैसा जीवन जीने का प्रयास किया और शिवपुरी से बम्बई तक की पैदल यात्रा की। उनके साथ बराबर के प्रवास में उसने जाहिर निर्णय लिया तथा जैन अहिंसा व्रत को जीवन पर्यन्त धारण किया । उसने अपना I नाम भी सुभद्रा देवी रख लिया था । यद्यपि जन्म वह ईसाई थी, किंतु इन सब बातों को एक तरफ रखकर उसने स्वेच्छा से जैन व्रतों को सही रूप में धारण किया। प्रो० सागरमल जी राजापुरा में उनसे मिले तब उन्हें पता चला कि वह जैन मंदिर में जिन देव के दर्शन के बिना मुँह में पानी भी नहीं डालती थी । वद्धावस्था में उनकी जैन धर्म पर आस्था डगमगा गई, क्यों कि उसकी देखभाल में लापरवाही की गई। मत्यु के अंतिम समय तक ( Jan 27, 1980) उसने अपना जीवन रोमन कैथोलिक चर्च, ग्वालियर में व्यतीत किया। जैन धर्म के आर्थिक सहयोग के बिना चारलोट ने कई भाषाओं पर जर्मन, अंग्रेजी, हिंदी और गुजराती में विभिन्न पहलुओं पर जैन-धर्म, दर्शन, काव्यरीतिरिवाजों पर आरव्यान लिखे। उसके महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद भी किसी ने पुस्तक छपवाने का प्रयत्न नहीं किया। उसके १५ निबंधों की चर्चा एवं संपादित कार्यों की प्रस्तुति उसकी जीवनी की पुस्तक में हैं। उसके अपने निबंध दी केलीडिस्केप ऑफ इंडियन वीजडम में है। उसने दर्शन के आस्तिक नास्तिक भेदों को वैदिक तथा अवैदिक दो विभागों में बांटा है। सांख्य और योग को उसने वैदिक में रखा जब कि ये दोनों श्रमण परंपरा के हैं। The Interpretation of Jain ethics, Jain महाकाव्यों को व्यवहारिक स्तर पर जिनकल्प और स्थविर कल्प, पुण्य, पाप, आश्रव-संवर, ५ समिति, ३ गुप्ति, २२ परिषह, १० धर्म, १२ अनुप्रेक्षायें, ५ चरित्र, ५ महाव्रत साधु के श्रावक के १२ व्रत, १२ प्रकार निर्जरा के षड्ावश्यक आदि पर उसनें व्याख्यायें कीं हैं, अपनी आलोचना उसपर उसने प्रस्तुत नहीं की है।
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
"The Heritage of last Arhat" Perfect Soul free from passions could be attained through self restraint and renunciation pratyakhyana and saiyama".
"The Jain canon and Early Indian Court Life. "This Essay lacks the original references जैन आगमों के मौलिक आधारों से रहित है, यदि लेखक ने आधार दिया होता तो एक अच्छा शोध प्रबंध बन जाता ।
वर्तमान के जैन धर्म के सामाजिक वातावरण के संबंध में Dr. C. Krause ने कहा है कि जैन जन्म से नहीं किंतु कर्म से होता है, जो उसके आदर्शों को अपने जीवन में अपनाता है । अनेकांतवाद जैसे सिद्धांतों को पाकर भी जैन धर्म संप्रदायों में बाँट गया, यह बड़ा ही शोचनीय विषय है।
Pythagoras di Vegetarian में उसने शाकाहार के संबंध में पैथागरस के विचार रखते हुए कहा कि भगवान स्वामी महावीर की तरह ही शाकाहार का प्रचार करने वाले ग्रीक विचारक भगवान स्वामी महावीर के समकालीन ही हुए थे । भ. महावीर से पूर्व भ. पार्श्वनाथ और भ. अरिष्टनेमिनाथ जी ने भी शाकाहार का प्रचार किया था। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और विक्रमादित्य दोनों के संबधों का पता, सिद्धसेन रचित कृति गुणवचनद्वात्रिंशिका के द्वारा प्रकाश में उन्होंने लाया कि वह कति समुद्रगुप्त पर लिखी गई, जो राजा चंद्रगुप्त (विक्रमादित्य) के पिता थे। सिद्धसेन दिवाकर पाँचवीं शताब्दी के थे, यह उनका दढ़ निश्चय है। क्षपणक नाम के कवि जो विक्रमादित्य राजा के राज्य में थे, वे सिद्धसेन दिवाकर ही थे यह उनका मन्तव्य है ।
पुस्तिका Jawad of Mandu (जावड़ ऑफ माण्डु) में एक व्यक्ति जो विक्रम की १६ वीं शती का है, उसका वर्णन है। जावड़ ने अपने गुरू का स्वागत किया था और उनसे १२ व्रत धारण किये थे। जावड़ ने दो मूर्तियाँ बनवाई थीं जिसमें एक १० K.G सोने की थी, दूसरी में 20 KG चाँदी थी । एक उत्सव में उसने १५ लाख रूपये का खर्चा किया । जावड़ दानशील था, धनाढ्य श्रावक था । अंग्रेजी विभाग में अंतिम दो निबंध श्री विजयधर्म सूरिजी म. के जीवनचरित्र एवं उनके उपदेशों पर आधारित हैं। श्री विजय धर्मसूरिजी म. उनके गुरू ही नहीं अध्यात्म के शिक्षक भी रहे हैं। उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है कि उन्होंने जैन धर्म को पाश्चात्य विद्वानों तक विदेशों में पहुँचाया। राजनैतिक रिवाजों में विशिष्ट परिवर्तन, देवद्रव्य तथा अनेक कलहों के समाधान रूप का वर्णन उनके प्रेरक आध्यात्मिक उपदेशों का वर्णन उस में किया है, जिससे व्यक्तित्व का निर्माण हो सके ।
इस निबंध में हिंदी विभाग के २ महत्वपूर्ण निबंध हैं, "जैन साहित्य और महाकाल मंदिर" एवं "आधुनिक जैन समाज की
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
379
सामाजिक प्रशस्ति।" इन निबंधों में वर्तमान जैन धर्म के सामाजिक वातावरण का हिंदी अनुवाद है। प्रथम निबंध में उज्जैन के महाकाल मंदिर के साहित्यिक स्रोतों के कई प्रयोग मंदिर के उदभव से संबंधित हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि उसने साहित्यिक दष्टि से जैन साहित्य का अन्वेषण किया है। कहावली भद्रेश्वर से (सन् १२०५) विजयलक्ष उन्होंने श्वेतांबर और दिगंबर ग्रंथों के आगमिक एवं अनागमिक कतियों में वर्णित अवंतिसुकुमाल की घटना का वर्णन किया है, जिसने
नकादीश्वर, कुंडगेश्वर या कुटुम्बेश्वर के रूप में महाकाल का रूप ग्रहण किया, उसके आधार रूप में वर्णन किया है। गुजराती विभाग में उसके महत्वपूर्ण निबंध हैं। श्री हेमविमलसूरिकत तेरकाथियानी सज्झाय, भानु मेरू कृत महासती चंदनबाला सज्झाय, कैणक संखेश्वर साहित्य, श्रीफलवद्धि भ. पार्श्वनाथ स्तति आदि हैं। इससे इनकी गुजराती भाषा की योग्यता और गहरी रूचि, तथा परिश्रम का पता चलता है। उनकी दो प्रसिद्ध कृतियाँ "प्राचीन जैन स्तुति (Hymes) और नासकेतरी कथा हैं। प्राचीन जैन स्तुति में उन्होंने संपादन किया। ‘मुनिसुव्रत स्तवन, श्री देवकुलादिनाथ स्तवन, श्री वरुकाणा पार्श्वनाथ स्तोत्र, 'श्री सीमंधर स्वामी स्तवन" आदि एवं उनके महत्वपूर्ण बिंदुओं को उजागर किया है, जो उनकी विद्वत्तता और प्रतिभा का परिचय देता है। परिशिष्ट विभाग उनके जीवन की कुछ घटनाओं, कुछ पत्र जर्मन और भारतीय जैन विद्वानों के हैं जो उनकी प्रशंसा के हैं। कुछ दोहे भी उनकी प्रशंसा में लिखे हैं। जन्मादिव्रतम हिंदी निबंध श्री हजारीमल बाँठिया का जर्मन जैन श्राविका Dr.Charlotte Krause और उसकी अंतिम इच्छा पर लिखा गया है।४३
संदर्भ ग्रन्थ सूची (अध्याय-६) १ जैन डॉ. ज्योति. प्र. ऐ. जै. पु. औ. म. प. २६६-३०४ २ वही. प. ३०४
श्री संजयकुमार जैन- सम्राट अकबर की जैन धर्म में रूचि आस्थांजली. प १८६ ४ डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन- प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ. प. ३०६-३१६ ५ डॉ. ज्योति प्रसाद जैन. प्र. ऐ. जै. पु. और. म. प. २७८, २७६, २८०
डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन. प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरूष एंव महिलाएँ प. ३२२-३४७
डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, प्रमुख ऐतिहासिक जैनपुरूष और महिलाएँ पू. ३४८-३८६ ८. एस. आर. भंडारी. ओसवाल जाति का इतिहास प. १५६, १५४ प. १३७ ६ डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन. प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरूष और महिलाएँ. प. २६७ १०अ.-१०ब. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन. प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरूष और महिलाएँ. प. ३४६. ११ जैन धर्म का परिचय. प. ३५ - ३६. १२ साध्वी श्री संघमित्रा-जैन धर्म के प्रभावक आचार्य प. ६१० १३ वही. प. ६१६ १४ वही. प. ६१८ - ६१६ १५ साध्वी श्री संघमित्रा-जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, प. ५४०
वही प. ५४१ १७ वही प. ५४५ १८ वही. प. ५४७. १६ वही प. ५४६. २० वही. प. ५५३ - ५५४ २१ वही. प. ५५६. २२ वही. प. ५६८.
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
380
२३
२४
२५
I w 2 v w ♡ ♡
२६
२७
२८
२६
३०
३१
≈ m x 24 w 2 ~ ~
३२
३३
३४
३५
३६
३७
३८
३६
४०
४१
४२
४३
वही. प. ५५१
वही. प. ५५७- ५५८
वही. प. ५५७ - ५५६
वही.
प. ५६८- ५७१.
वही प. ५७४.
संपादक श्री शिवमुनि, अन्तकद्दशांग सूत्र. प. २४३
साध्वी
श्री संघमित्रा - जैन धर्म के प्रभावक आचार्य. प. ६४६
वही. प. ६०६
(अ) वही प. ६११
(ब) प्रवर्तक कुंदन ऋषि जी म. आनंद दर्शन ३, ८-१५,
डॉ. ज्योति जैन. प्र. ऐ. जै. पु. औ. म.
प २६७.
वही. प. ५६८
वही. प. ६०३
वही. प. ६०४
वही. प. ५७६ - ५७७
वही. प. ५८१. वही. प. ५६५
वही. प. ५६७.
साध्वी श्री वही
साध्वी संघमित्रा - जैन धर्म के प्रभावक आचार्य. प. ६३४.
जैन प्रकाश. प. १८५. ७ अप्रैल १६६८.
जै. धर्म की प्र. सा. एवं. म. डॉ. हीराबाई बोरदिया, प. २०३ - २०४.
31)
ब)
सं. डॉ. सागरमल जी जैन, जर्मन जैन श्राविका चारलोट क्रॉस.
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
381
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
।
आदि
1
1501
रत्नू, रूड़ी
वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
मच्छ /आचार्य प्रा. ज्ञा | तपा.श्रीमुनिसुंदरसूरि जी | भ. श्री सुपार्श्वनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी श्री. श्री. ज्ञा आगम.श्री हेमरत्न सूरि भ. श्री नमिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी म. | उप.ज्ञा. बहुरागोत्र | पूर्णिमा जयभद्रसूरि जी म. | भ. श्री अनंतनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
2
1501
शाणी
3
1501
रयणी, निगाही
1501
जमणादे कर्मादे | | प्रा. ज्ञा.
पिप्पल.श्री वीरभद्रसूरि जी | भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
5
1501 | सिरीयादे
श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा गुणसमुद्र सूरि जी | भ. श्री चंद्रप्रभु जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
6
1501
पाल्हणदे, पोमादे | श्री. ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
7
1501 | हीरादे, मुंजी, दकू
श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा.श्री साधुप्रभसूरि भ. श्री जी म.
मुनिसुव्रतस्वामी जी मलधारि श्रीगुणसुंदरसूरि | भ. श्री शीतलनाथ जी म. तपा.श्रीमुनिसुंदरसूरि जी | भ. श्री मनाथ जी
|पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
8
1501
श्री. ज्ञा.
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
विजलदे, सारू, हांसी, धनाई राजू देमति
म.
[1502
|श्री. श्री. ज्ञा
10
1502
राजू
प्रा. ज्ञा.
अंचल.श्री जयकेसरीसूरि भ. श्री धर्मनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. जी म. अंचल.श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री धर्मनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. जी म. तपा.श्री जयचंद्रसूरी जी | भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
11
|1503
करमी, संपूरी
प्रा. ज्ञा.
121503
|लांपू, वील्हणदे
प्रा. ज्ञा.
श्रीसूरि जी म.
भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
13
1503
धरणा, कोल्हू
भावसार. ज्ञा
सलषु
आगम.श्रीदेवरत्न सूरि जी | भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| जी तपा.श्री जयचंद्र सूरि जी | भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
14
1503
सोथल, राजू
प्रा. शा.
।
वानू, लाडकी
उ. ज्ञा.
तपा.श्रीजयचंद्र सूरि जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
प्रा. ज्ञा.
| 45
तपा.श्रीजयचंद्र सूरि जी | श्री सुमतिनाथ.चतु, पा.जै.धा.प्र.ले.सं. म.
जी पट्ट | भट्ट सूरि जी म. म. श्री कुंथुजिन जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
17
|1503
श्री. श्री. ज्ञा
18
|1503
सोनलदे, मालहणदे रूपादे, सोखू, झटकू देवलदे, धारू, गुणदेवी, रमाई धर्मणि, लधी, कर्मिणि, आसू दुलहादे, जासू
श्री. श्री. ज्ञा
48
पूर्णिमा.श्रीसागरतिलकसूरि भ. श्री आदिनाथचतु | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. जी म.
| पट्ट आगम.श्री देवरत्नसूरि जी म. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
19
1503
श्री. श्री. ज्ञा
146
201503
श्री. श्री. ज्ञा
आगम.श्री हेमरत्नसूरि जी | भ. श्री श्रेयांसनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
211503 | जीवीणि
प्रा. ज्ञा.
श्रीसावदेवसूरि जी म.
भ. श्री अभिनंदन जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
382
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत् । श्राविका नाम
प्रतिमा निर्माण
आदि
संदर्भ ग्रंथ
वंश/गोत्र - प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ /आचार्य | प्रा.जा. तपा जयचंद्रसूरि
पृ.
1503
सरसई, रामति
भ. श्री मुनिसुव्रत जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1503
श्री. श्री. ज्ञा
पिप्पल श्री धर्मशेखरसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1503
नानीदे, कुंतिगदे । उप. ज्ञा.
श्री वीरसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
47
25
1503
तपा श्री जयचंद्रसूरि
भ. श्री नमिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 47
खेतलदे, मरगादे, | प्रा. ज्ञा. माकू | अहिवदे, हेमादे पल्लिवाल ज्ञा
11503
चैत्र. श्रीजिनदेवसूरि
47
जीवितस्वामी भ. श्री | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. आदिनाथ जी भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
27
1503
माल्हणदे
श्री. श्री.. ज्ञा
नागदह गुणसमुद्रसूरि
| 47
28
1503
उकेशवंश
| अंचल. जयकेसरीसूरि
कोल्हणदे, दूल्हणदे, रूड़ी | तेजलदे, अर्ध
भ. श्री धर्मनाथचतु. पा.जै.धा.प्र.ले.सं. पट्ट जी भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
29
1503
श्री. ज्ञा.
श्री प्रद्युम्नसूरि
48
301503
मनी, धरमिणि
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीजयचंद्रसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
वीरवंश
उप. श्री कक्कसूरि
भ. श्री अजितनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
311504
1504
नागल, मांकू | कुर्मादे
ऊ. ज्ञा.
ऊकेश, श्रीदेवगुप्तसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री सुविधिनाथ जी भ. श्री धर्मनाथ जी
33
|1504
पानू
ऊ. ज्ञा.
ऊकेश.श्रीदेवगुप्तसूरि
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1504
वाहिणिदे, आसी | श्री. ज्ञा.
भ. श्री आदिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. चतु.पट्ट जी भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1504
| जासू, धारू, मांजू | हुंबड़. ज्ञा.
वागड़.श्री धर्मसेन
जाम
361504
राऊ, चांई
।
श्री. ज्ञा.
अंचल. जयकेसरीसूरि
भ, श्री नमिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
|1504
धांधलदे, बोधी
श्री. ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1504
| चापलदे, बोधी
|डीसावाल. ज्ञा.
तपा.श्री जयचंद्रसूरि
भ. श्री नमिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
49
39
1504
कांदे, वीजलदे | श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा.गुणसमुद्रसूरि
| धर्मादे
हारिज उस. ज्ञा.
महेश्वरसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. स्वामी जीवित जी भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी पाजै.धा.प्र.ले.सं. जी भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
49
1504
षोनी
उप. ज्ञा.
महेश्वरसूरि
421504 | भविणि, माणिकी | श्री. श्री. ज्ञा
श्रीसागरतिलकसूरि
। भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
2744
43
44
45
46
47
==
48
49
50
51
52
53
54
55
56
57
59
13 2 8
संवत्
63
1504
1505
1505
1505
1505
1505
1505
1505
1505
1506
1506
1506
1506
58 1506
1506
1506
1507
1507
1507
1507
1507
श्राविका नाम
चकू
मेघु. महिगलदे
वीहणदे
हासलदे, पांचू
वाहणदे
लाषणदे
नलादे
लीलादे, लाघुलदे ब्रह्माणगच्छ
लीलादे, सजी
श्री.श्री.ज्ञा
गौरी, वालही
देवलदे
देहलदे, वाहली
हीरू
माल्हणदे, टमकू
भा.धरण, धरमणि
कांऊ
गौरी
जीविणि
वंश / गोत्र
तेजलदे
प्रा. श्रेष्ठी
डीसावाल गोत्र
ओ. ज्ञा हारिज. गच्छे
श्रीज्ञा
प्रा. ज्ञा. सुहूआ
उप. ज्ञा.
श्री.श्री.ज्ञा
उप. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री.श्री.ज्ञा
श्री.श्री.ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
प्रा.ज्ञा. कोठारी
श्री.श्री.ज्ञा
सुहाग, सलखणदे उ. ज्ञा. ठाकुर गोत्र
विरणी, नाद्रभ
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
तपा. श्री. जयचंद्रसूरि
तपा. श्री. जयचंद्रसूरि
श्री जयचंद्रसूरि
श्री. प्रधुम्नसूरि
श्रीसूरि
तपा. श्रीजयचंद्रसूरि
श्री. महेश्वरसूरि
श्री. सूरि
तपा. श्रीजिनरत्नसूर
बृहद. श्रीकमलप्रभसूरि
ब्रह्माण. श्रीमुनिचंद्रसूरि
शेखरसूरि
अंचल, श्रीजयकेसरीसूरि
पिप्पल, श्रीउदयदेवसूरि
ब्रह्माण श्रीविमलसूरि
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
सूरि
श्रीसूरि
श्री शांतिसूरि
श्री भीमसेन
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री धर्मनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री सुमतिनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री धर्मनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री संभवनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री आदिनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री पार्श्वनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री पार्श्वनाथ भ. पा. जै.धा.प्र.ले.सं. श्री जी
भ. श्री जीवितस्वामीचंद्रप्रभु
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री विमलनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी जी
भ. श्री विमलनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री अजितनाथ जी
भ. श्रीकुंथुनाथ जी
भ. श्री सुविधिनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
भ. श्री विमलनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा. प्र.ले.सं.
भ. श्री शांतिनाथ पंचतीर्थी जी
भ. श्री संभवनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
383
पृ.
51
51
51
51
51
51
52
52
52
52
52
124
52
53
53
53
53
53
53
53
54
54
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
384
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र० | संवत् | श्राविका नाम
वंश/गोत्र
पृ.
प्रा.ज्ञा.
भ. श्री
54
641507 65_1507
| पदमल, वानू । सिंगारदे, जानु
प्रेरक/प्रतिष्ठापक प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ /आचार्य
आदि तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
मुनिसुव्रतस्वामी जी पल्लीवाल. श्रीयशोदेवसूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
चतु जी तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| ओ.ज्ञा.
66
1507
| वीझलदे, सारू,
श्री.ज्ञा
दूछी
1507
|
| टीबू, सांतू
ऊ.ज्ञा.
ऊकेश. श्रीकक्कसूरि
भ. श्रीशीतलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
68
|1507
प्रा.ज्ञा.
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
भ. श्रीसुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1507
| शाणी, गोमति
..........
तपा. श्री रत्नशेखरसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 55
70
1508
लीली, वारू।
उप.ज्ञा.
उपकेश श्री कक्कसूरि
भ.श्री यांसनाथ जी
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
71
1508 1508
मांकु
श्री.ज्ञा.
श्री सूरि
भ. श्री शीतलनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
।
जी
|1508
| पांचा, अमरी
| प्रा.ज्ञा.
तपा. श्री रत्नशेखरसूरि
। भ. श्री सुपार्श्वनाथ
जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
73
|1508
श्री जिनसागरसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
कुंतादे, जसादे | ऊवंश लखमाई गउरि, भाऊ प्रा.ज्ञा.
74
11508
|
तपा. श्री रत्नशेखसूरि
भ. श्री अजितनाथ
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
751508
लहकू माणिकदे
श्री वीरवंश
अंचल श्री जयशेखरसूरि
भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
।
761508फदी, चमी
श्री वीरवंश
श्री जयकेसरीसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
77
1508
फदकू धर्मिणी
श्री.श्री.ज्ञा
अंचल. श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 58
सिंगारदे
1508
अंचल. श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
धर्मिणी, सिंगारदे, श्री.श्री.वंश गउरी हीरू, काऊ श्री वीरवंश
1508
अंचल. श्री जयकेसरीसूरि भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
80
1508
मचकू, धरमिणी,
प्रा.ज्ञा.
811508
तपा श्रीरत्नशेखसूरि भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी श्री गुण......सूरि भ. श्री अभिनंदननाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी अंचल श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
82
राजलदे, धर्मिणी, | श्री.ज्ञा. पूरी, पूतली सरसती, राणी, प्रा. वंश देमति खीमिणि, कपूरी श्री.ज्ञा
1508
।
83|1509
खरतर श्रीजिनभद्रसूरि
भ. श्रीमहावीर जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
84
1509
मालो को उनका भरपालि बार भी जिनदारी नियम पातु पाताले त -
माल्हणदे, धरणाके, पुराई
उकेशवंश भण्सालि ।
खरतर श्री जिन भद्रसूरी | भ. श्री धर्मनाथ चतु | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
85
86
87
88
89
90
91
92
93
94
95
96
97
98
99
100
101
103
संवत्
1509
105
1509
1509
1509
1509 लाड़कि
लीलाई
संपूरी
खीमाइ, मरघाई,
माकू
भरमादे
1509
1509
1509
1509
1509
1509
1509
1509
1509
1509
1509
102 1510
1510
1510
104 1510
1510
श्राविका नाम
रानू रोहिणी
राजू
रणादे, रमाई
तिलकू तेजू
रत्ना
लक्ष्मी, रूपिणि
माकू राणी
नाद्रणिदे, रत्नादे,
वाहणदे, माणिकदे
नाद्रणिदे, रत्नादे
वाहणदे, माणिकदे
सोहगदे, चंपाइ,
नागणि
लहिकू
वाहणदे, अहिणवदे, सोषू उरदे
गोमति, धनाइ
लाखु
मेलादे. रानु
माजू, चंपाइ,
संपु
धर्मिणि, गोमति
वंश / गोत्र
ऊकेशवंश
रीहड़गोत्र
उसवाल. ज्ञा
श्री.श्री.ज्ञा.
प्रा. ज्ञा
नागर. ज्ञा
श्रीमाल. ज्ञा.
पूर्णिमा भीमपल्लीय. श्रीजयचंद्रसूरि
चैत्र. श्री लक्ष्मीदेव सूरि
तपा. श्री रत्नशेखरसूरि
भ. श्रीवीर जी
वृद्धतपा. श्री. रत्नसिंहरि भ. श्री शांतिनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
श्री . सूरि
श्री. श्रीमाल, ज्ञातीय श्री सूरि
उपकेश. ज्ञा.
श्री श्रीमाल ज्ञा
ओसवाल ज्ञा.
श्रीमाल ज्ञातीय
श्री. श्रीमाल. ज्ञातीय
श्री. श्रीमाल ज्ञा
श्री. श्रीमाल, ज्ञा
श्री. श्रीमाल ज्ञा
प्राग्वाट्ज्ञातीय
मोढ़. ज्ञातीय
श्रीमाल ज्ञातीय
प्रागवाट डोसी
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
खरतर श्री जिनभद्रसूरी
श्रीमाल ज्ञा
चैत्र.......
सूरि
श्रीसर्वसूरि
संडेरग श्री शांतिसूरि
श्रीसुविहितसूर
आगम. श्रीरत्नसूर
| आगम. श्रीरत्नसूर
तपा, श्रीरत्नशेखरसूरि
आगम. श्रीशीलरत्नसूर
आगम. श्रीशीलरत्नसूरि
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
विद्याधर. विजयप्रभसूरि
पीपल. श्रीगुणरत्नसूर
तपा. श्रीरत्नशेखसूरि
आगम. श्री हेमरत्नसूरि
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री अभिनंदन नाथ जी
जीवितस्वामी श्री सुमतिनाथ जी
भ जी नमिनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री ऋषभदेव प्रतिमा जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री विमलनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ श्री कुंथुनाथचतु. पः जी
पा. जै.धा. प्र.ले.सं.
भ. श्री कुंथुनाथचतु पत्रः जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री पार्श्वनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री मुनिसुव्रतस्वामी जी भ. श्री मुनिसु तस्वामी जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री पार्श्वनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री मुनिसुव्रतस्वामी जी भ. श्री सुविधिनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्रीमुनिसुव्रतनाथ जी
भ. श्री चंद्रप्रभ जी
पा... पा. प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री मुनिसुव्रतनाथ पा. जै. धा.प्र.ले.सं. जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा. प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
प.. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
385
पृ.
£7
57
57
58
58
58
58
58
58
6
59
59
69
59
59
59
59
60
60
60
60
60
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
386
क्र०
106
107
108
109
110
111
112
113
114
115
116
117
118
119
120
121
संवत्
1510
1510
1510
126
1510
1510
1510
1510
1510
1510
1510
1510
1510
1510
1510
1510
1511
122 1511
123 1511
124 1511
125 1511
1511
श्राविका नाम
सलूपि, मेघू
सूहाली, लहकू
वरजू फाइ, पची
सोभा
पाल्हणदे, लक्ष्मी
धीरू, मनकू
माहलणदे
चांपू करमी,
रामति
कामलदे
टहकू
पुरी, कपुरदे
दुहा
टुंटी
धुरी, हीराई
राणी लाछी
सोनल टीबू
भादी
मनी
गोमति
मरगादे
लाखू, झाझू,
जयतु
राउ, चमकू
वंश / गोत्र
देकावाटकीय
प्राग्वाट्
प्राग्वाट ज्ञा.
श्री श्रीमाली
प्राग्वाट् ज्ञा
श्री. श्रीमाल ज्ञा
श्रीमाल. ज्ञा.
श्रीमाल. ज्ञातीय.
श्रीमाल. ज्ञातीय.
प्रा.ज्ञा.
प्राग्वाट् ज्ञा
प्रागवाट ज्ञातीय
श्रीमाल. ज्ञा.
डीसावाल ज्ञा
प्राग्वाट् ज्ञा
श्री श्रीमाल ज्ञा
श्री. माल ज्ञा
श्री. श्रीमाल. ज्ञा
श्रीमाल ज्ञा
श्री. श्रीमाल ज्ञा
उकेश ज्ञा
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
श्री. सूर
वृहत्तपा. श्रीरत्नसिंहसूरि
अंचल, जयकेसरीसूरि
तपा श्रीरत्नशेखरसूरि
उकेश कक्कसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री सुमतिनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री सुमतिनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री आदिनाथादि चतु. पट्टः जी
भ. श्री वासुपूज्य जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री कुंथुनाथ जी
पूर्णिमा श्रीसाघुरत्नसूरि
पूर्णिमा श्रीसागरतिलकसूर
वृद्धतपा श्रीरत्नसिंहसूर
तपा श्री रत्नशेखरसूरि
ऊकेश. श्री सिद्ध सूरि
उकेश भट्टा० श्री सिंह
तपा श्री रत्नशेखरसूरि
| तपा श्रीरत्नशेखरसूरि
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
तपा श्रीरत्नशेखरसूरि भ. श्री नमिनाथ जी पिप्पल. श्रीधर्ममहेशेखसूरि भ. श्री सुमतिनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं. विमलसूरि 'भ. श्री कुंथुनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
ब्रह्माण श्रीमुनिचंद्रसूरि
भ. श्री वासुपूज्य जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पिप्पल श्री कनकप्रभसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ पंचतीर्थी जी
भ. श्री संभवनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री अभिनंदन नाथ जी
भ. श्री धर्मनाथ
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री शीतलनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री सुविधिनाथ जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ
जी
भ. श्री सुमतिनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी जी
भ. श्रीकुंथुनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री शीतलनाथ
जी
भ. श्री विमलनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पृ.
60
61
61
61
61
61
61
61
62
62
62
62
62
62
62
63
63
63
63
63
63
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
387
क्र० । संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ /आचार्य खरतर श्री जिनभद्रसूरि
प्रतिमा निर्माण -
आदि
संदर्भ ग्रंथ
127
1511
उकेष. ज्ञा
भ. श्री शांतिनाथ चतु | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. पट्टः जी भ. श्री धर्मनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
128
झमकू, रूड़ी, कपूरदे, सिंगारदे हरखू, अमकू रामति | वीझलदे, पूरी
1511
अंचल श्रीजिनभद्रसूरि
129
1511
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
सदगुरू
भ. श्रीसंभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
130 |1511
जासू, रतनू, सोमा | प्रागवाट्ज्ञातीय
तपा श्रीरतनशेखरसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1311511
| रमकू पिणि
श्रीमाल ज्ञा
पिप्पलश्री उदयदेवसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
132
1511
राजु, मरगादे
प्रागवाट ज्ञा
| पूर्णिमा श्रीसोमंचद्रसूरि
भ. श्री नमिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
133
1511
विल्हणदे, संपूरी | श्रीमाल ज्ञातीय
पीपल श्रीगुणरत्नसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1341511
| तेजु, तारू
प्राग्वाट ज्ञा
तपा श्रीरत्नशेखरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1351511
हांसलदे, वील्हण | उकेशवंश
खरतर जिनभद्रसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 65
1361511
चांपलदे
भ. श्री धर्मनाथ जी
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
65
उकेशवंश. नाहटा | खरतर जिनभद्रसूरि गोत्र प्रागवाट. ज्ञा | श्री रत्नशेखरसूरि
137 |1511
सीधू, हेमादे
| भ. श्री अभिनंदन जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1381511
हेमादे
प्रागवाट. ज्ञा
खरतर रत्नषेखर सूरि
भ. श्री अभिनंदन जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
65
139
1512
सुहागदे
खरतर. पू. हीर सूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
65
भावडार. श्रीमाल. ज्ञा भावडार ओसवाल ज्ञा अंबिकागोत्र
140
1512
भावलदे सिरी, जीवणि, करमाइ
खरतर श्री वीरसूरि भ. श्री कुंथुनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
प्रमुख चतुर्विंशतिपट्ट
जी पिप्पल. श्री धर्मसुंदरसूरि | भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1411512 | रूपादे
| उपकेश. ज्ञा
| 66
1421512 | सिंगारदे, गुरी
उपकेश. ज्ञा
तपा. उदयनंदिसूरि
भ. श्री नमिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
143
1512
कपूरी, अमकू
। श्रीमाल. ज्ञा
वड़गच्छ. हेमचंद्रसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
144
| 1512
धांधलदे, जासु
प्रागवाट्वंश
अंचल. श्रीजयकेसरीसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
66
145
1512
वानू, हीरू
प्रागवाट्वंश
अंचल. श्रीजयकेसरीसूरि | भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
146
1512
संपूरी, लखमाई
प्रागवाट्वंश
अंचल. श्रीजयकेसरीसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 67
147
1512
पाहिणि, नागलदे | उकेशवंश
अंचल. श्री जयकेसरी
भ. श्री श्रेयांसनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
,
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
388
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत् । श्राविका नाम
वंश/गोत्र
आदि
148
1512
श्रीमाल ज्ञा
सूरि
प्रेरक/प्रतिष्ठापक प्रतिमा निर्माण ___ संदर्भ ग्रंथ गच्छ /आचार्य
भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
चतु. पट्टः जी अंचल श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
सुरा झमकलदे, मोहणदे कुंअरि हांसु. संपूरि
67
149
1512
श्रीमाल वंश
67
150
1512
कपूरदे, सेगू
| श्रीपाल ज्ञा
पिप्पल उदयदेवसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
67
151
1512
| तिलकु, जोगिणि | प्रा. जा
वृद्धतपा श्रीरत्नशेखरसूरि | भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 67
152
1512
श्रीमान ज्ञा
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
68
__
भ. श्री कुंथुनाथचतु पट्टः जी | भ. श्री श्रेयांसनाथ
1531512
तपा श्रीरत्नशेखरसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं..
जी
झमकलदे, मोहणदे, टूटी सिरिआदे, सोमी, अनकू, भली, क'मसी खेतलदे, लखमादे, मानू सवतइ
1541012
श्रीश्रीमाल ज्ञा
पिप्पल श्री उदयदेवसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 68
1551512
वीरवंश
अंचल श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री धर्मनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 68
156
हुंबड़ ज्ञा
सरस्वती
68
भ. श्री दशलाख यंत्र | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. जी भ. श्री पद्मप्रभु चतु | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. पट्ट: जी
157
1512
मर गादे, वीरी, वांउ साजगदे. मंदोउरि, आल्हणदे लीलादे कर्मी
उपकेश ज्ञा
| पूर्णिमा श्री जयचंद्रसूरि
158
1512
प्रगवाट ज्ञा
आगम श्री सिद्धदत्तसूरि
भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 69
159
1512
भोली, अग्धू
भ. श्री सुविधिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
69
ब्रह्मण
श्री विमलसूरि श्रीमालज्ञातीय श्रीमाल. ज्ञा. गांधी | तपा श्रीरत्नशेखरसूरि
जी
1601512
रूपी, राजू
| भ. श्री सुविधिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
161
1512
| रतू, मेघादे
प्राग्वाट् ज्ञा.
| तपा. रत्नशेखरसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
162
1512
| फदी
प्राग्वाट् ज्ञा.
तपा. रत्नशेखरसूरि
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| भ. श्री
मुनिसुव्रतस्वामी जी | भ. श्री सुविधिनाथ
163|1512
| फदी
प्राग्वाट् ज्ञा.
तपा. रत्नशेखरसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
164|1513
| सरसति, रमकू
प्रा.ज्ञा.
पूर्णिमा श्रीपुण्यचं. सूरि
भ. श्री चंद्रप्रभु जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
165
1513
हरवू
श्रीमाल. ज्ञा
ब्रह्माण श्रीमुणिचद्रसूरि
भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
166
1513
ह'
श्रीमाल. ज्ञा
ब्रह्माण श्रीमुणिन्द्रसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| ter on भी होतातप्रा
167
1513
प्रा.ज्ञा.
| मेघी, सेउ, भावलदे, रमकू
सोमदेवरि
सोमदेवसूरि
म. श्री पार्षनाथ जी पालेका प्रतः । ।
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
168
169
170
172
173
174
171 1513
175
177
178
180
181
182
183
संवत्
176 1513
184
1513
185
1513
1513
187
1513
179 1513
1513
1513
1513
1513
1513
1513
1513
1513
1513
1513
1513
186 1513
1514
188 1515
श्राविका नाम
अरधू, चांइ
कपूरदे
बाबली
वरदमी, राजू
माहलणी, मणिकदे करमादे
राणी, गोमति
लहक संपूरी
लहक संपूरी
मीणलदे, भली
भीमलदे, सहजलदे
चांपू नागलि
कील्हणदे,
सिरिआदे, वारू
वीरी, कली
भरमी, तनू, गांगी, वड. ज्ञा
रतनू
भाछी
राणी, रत्नू
सिंगारदे, देमी, फदू
चांपलदे, हरषू
वंश / गोत्र
रत्नू
मुंजी, वांच्छी
दोसी, माकू
वीरवंश
श्रीमाल ज्ञा
श्रीमाल ज्ञा
प्रा.ज्ञा.
श्री ज्ञा.
सीलोरेयागोत्रे
नागर ज्ञा
प्रा.ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा.ज्ञा.
***********
भावसार
उएसवंश वांछी आगोत्र
प्रागवावंश
प्रा.ज्ञा.
प्रा.ज्ञा.
प्रा.ज्ञा.
उसवाल. ज्ञा
श्रीमाल ज्ञा
प्रा. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
| अंचल जयकेसरीसूरि
पिप्पल श्रीशालीभद्रसूरि
| पिप्पल श्री गुणरत्नसूर
तपा श्रीरत्नाकरसूरि
सरस्वती विमलकीर्ति
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री मुनिसुव्रत जी पा. जै. धा.प्र.सं.सं.
भ श्री कुंथुनाथ जी
संदर्भ ग्रंथ
पा. जै.पा.प्र.ले.सं.
भ. श्री श्रेयांसनाथ
जी
भ. श्री मुनिसुव्रत जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री शांतिनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
सरस्वती विमलकीर्ति
नाणकीय श्रीसिद्धसे रि भ. श्री कुंथुनाथ जी
नागेंद्र श्री विजयचंद्र
तपा. श्री रत्नाने खरसूरि
वृहत् तपा. श्रीजिनरत्नसूर तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
पल्ली श्रीयशोदेवसूरि
| आगम श्रीदेवरत्नसूर
अंचल श्रीजयके सूरि
अंचल श्रीजयकेसूरि
तपा श्री रत्नशेखर सूरि
अ. श्री महावीर चतुर्विंशतिपट्ट जी भ. श्री आदिनाथ चतुर्विंशतिपट्टी
तपा. श्री रत्नेशेखर सूरि
श्री सूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
तपा. श्री रत्नशेखरसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभु जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
श्री गुणसुंदरसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभु जी
मलधारी श्री गुणसुंदरसूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री अजितनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री आदिनाथ जी पा. जै.धा. प्र.ले.सं.
भ. श्री शांतिनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री वासुपूज्य जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री शीतलनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा.जे.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा. प्र.ले.सं.
पा. जै.धा. प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
389
पृ.
70
70
70
71
71
71
71
71
124
72
72
72
72
72
72
72
73
73
73
73
73
73
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
390
क्र०
189
190
191
192
193
194
195
196
197
198
200
201
202
205
206
संवत्
207
1515
208
1515
209
1515
199 1515
1515
1515
1515
1515
1515
1515
1515
203 1515
1515
204 1515
1515
1515
1515
1515
1515
1515
श्राविका नाम
मटकू
सलखणदे, माधलदे
वाछु कुंयरि
जीवनीणू
काऊ, रंगाई
1515 सिरिया, रत्नू
सावित्रि, वारू
लवी, देवलदे
लवी, देवलदे
कर्मादे
सेड, गोमति, मरगादे
लालु
माई, धनाई
सलखणदे, माधलदे
माई, धनाई
सलखणदे, माधलदे
वाछु, कुंयरि
जीवू नीणू
माई, धनाई
सलूण, हीरू
काली, हलू
वंश / गोत्र
प्रा. ज्ञा
शालीपति ज्ञा
प्रा.ज्ञा.
प्रा.ज्ञा.
श्रीमाल. ज्ञा.
श्रीमाल. ज्ञा.
श्रीमाल. ज्ञा.
श्रीमाल. ज्ञा.
श्रीमाल, वंश
श्री. श्रीमाल, ज्ञा
श्री. श्रीमाल, वंश
श्री. श्रीमाल ज्ञा
श्री. श्रीमाल ज्ञा
श्री. माल. ज्ञा
श्री. श्रीमाली. वंश
श्री. श्रीमाली. वंश
श्री. श्रीमाली. ज्ञा.
श्री. श्रीमाली, वंश,
श्री. श्रीमाली. वंश
उपकेश. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
मलधारी श्री गुणसुंदरसूरि भ. श्री धर्मनाथ जी
सोमचंद्रसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी
अंचल श्री जयकेसरी सूरि भ. श्री संभवनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
अंचल श्री जयकेसरी सूरि भ. श्री विमलनाथ जी पा. जै.धा. प्र.ले.सं.
ब्रह्माण श्री मुनिचंद्रसूरि
सद्गुरू
हारीज उपकेश. ज्ञा महेश्वरसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
श्रीमलयचंद्रसूरि
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री शीतलनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री विमलनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पीप्पल श्री गुणसागरसूरि
श्री वृद्धतपा श्री रत्नसिंहरि.
अंचल श्रीसूरि
तपा. श्री सिंहरत्नसूरि
अंचल श्री जयकेसरी सूरि भ. श्री सुमतिनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पीपल श्री गुण सागरसूरि भ. श्री शांतिनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पीपल श्री गुण सागरसूरि भ. श्री कुंथुनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
वृहद्तपा. श्री रत्नसिंहसूरि भ. श्री नमिनाथ जी
अंचल श्री जयकेसरी सूरि भ. श्री सुमतिनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पीपल. श्री गुण सागरसूरि भ श्री शांतिनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
साधूरत्नसूर
भ. श्री कुंथुनाथ जी
ब्रह्माण प्रद्युम्नसूर
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री सुविधिनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री सुपार्श्वनाथ जी
भ. श्री शांतिनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री कुंथुनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री नमिनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री सुमतिनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री नमिनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पृ.
74
74
74
74
74
74
74
74
74
75
75
75
75
75
75
75
75
75
75
75
75
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीन विकास का हर अतहास
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
391
-
क्र०
संवत् । श्राविका नाम
वंश/ गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ /आचार्य तपा. श्री रत्नशेखरसूरि
प्रतिमा निर्माण
आदि भ. श्री चंद्रप्रभु जी
210
1515
माकु, वाहली
प्रा. ज्ञा.
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 76
2111515
| अधु, सोहासिणि
श्रीमाल. ज्ञा.
पूर्णिमा सदगुरू
भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
2121515वीलहा, सोमी
प्रा. ज्ञा.
तपा श्री रत्नशेखरसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
76
213
1515
| चाहिणिदे, हीराई । ओसवाल ज्ञा
पूर्णिमा श्री जयचंद्रसूरि
| भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 78
2141515
| गिरसु, चंगाइ
प्रा.ज्ञा.
तपा.श्री रत्नशेखरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
।
215 1515
सोषू, पध्नाइ
श्रीमाल. ज्ञा
पूर्णिमा श्री सागर | भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तिलकसूरि पिप्पल श्री धर्मसागरसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
216
1515
देवलदे, अमरादे
| उपकेश. ज्ञा.
217
11515
| हरखू, रमाई
श्रीमाल. ज्ञा.
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
भ. श्री नमिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
2181515
पुरी, टहकू
श्रीमाल, ज्ञा.
पूर्णिमा, श्रीसूरि
| भ. श्री नमिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
219
|1515
सोषु, रोहिणि
उकेशवंश
खरतर, जिनचंद्रसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
|
2201515
| सूलसरि
श्रीमाल. ज्ञा.
रत्नशेखरसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
77
भ. श्री शीतलनाथ जी भ. श्री विमलनाथ जी
221
1515
नागलदे
श्रीमाल. ज्ञा.
ब्रह्माण. विमलसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
77
222
1515
| करणू मेलू
श्रीमाल. ज्ञा.
चित्रवाल श्रीरत्नदेवसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
77
223_1515
| धरमिणि
प्रा.ज्ञा.
तपा श्रीरत्नशेखरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
।
224|1515
| जसम्मदे, गदू
प्रा.ज्ञा.
तपा श्रीरत्नशेखरसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री नमिनाथादि चतुर्विशति पट्टः जी भ. श्री सुमतिनाथ जी
2251515
| वनू मालहणदे
श्री. श्रीमाल. ज्ञा
नागेंद्र श्रीकमलचंद्रसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
226
1515
देवलदे, धर्मिणि | श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
नागेंद्र श्रीकमलचंद्रसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
227
1515
श्रीजिनचंद्रसूरि
भ. श्री शांतिदेव जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| जशमादे, उकेशवंश वाल्हीरूड़ी नीनादे, वील्हणदे | प्रा.ज्ञा.
228
1515
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
| भ. श्रीसंभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
229
1515
| आल्हणदे
प्रा.ज्ञा.
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
230
1516
माल्हणदे, हीराई, श्रीमाल. ज्ञा. कुंअरि
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
भ. श्री शीतलनाथदि | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. चतुपट्टः जी
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र० | संवत् | श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ गच्छ / आचार्य
आदि उसवाल कक्कसूरि भ. श्री वासुपूर जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं...
2311516
लाड़ी, रूपिणी
उकेश. ज्ञा
232
1516
पूर्णिमा श्रीजयचंद्रसूरि
| भ. श्री नामिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
2331516
| सिद्धांत. श्रीसोमचंद्रसूरि
| भ. श्री धर्मनाथ जी
पा.जै.धा.प्रले.सं.
करणी,
श्रीमाल. ज्ञा टीबकूतेजू कर्माइ मापरि, दुल्हादे, श्रीमाल. ज्ञा चंपाई नुहणदे, तेजलदे | श्रीमाल, ज्ञा. अहिवदे, मेघु, | राजुलदे सालहू, खीमाई | उकेश. ज्ञा.
234
1516
आगम,श्री आणंदसूरि
भ. श्री संवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
80
235
1516
रूद्रपल्लीय गुणसुंदरसूरि | भ. श्री नमिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
2361516
| पोमी, भली
वीरदंश
तपा.श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
237
1516
साल
वीरवंश
अंचल श्रीजयकेसरीसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
81
तपा.श्रीरत्नशेखरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
81
श्रीसूरि
238 1516 गौरी, सावी, माऊदीशावाल. ज्ञा.
सुहासिणि 1516
सहिजलदे, श्री. श्रीमाल. ज्ञा हांसलदे सिंगारदे,
खेतू, धर्मसी 240 1516वीझू राणी प्राग्वाट् ज्ञा
भ. श्री धर्मनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| श्रीसूरि
भ. श्री वासुपूज्य जी
पा जै.धा.प्र.ले.सं.
241
1516
मांजू
श्रीमाला
विप्पल उदयदेवसरि
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
।
242 1516वील्हणदे, मो,
तपा. धीरत्नशेखर
श्री कुंथ नाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
मूला
243
1516
राणी
श्रीमाल ज्ञा
पूर्णिमा श्रीसाधुरनसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा प्र.ले.सं.
24+
1516
चमकू साधु
श्रीमाल ज्ञा
पूर्णिमा गुणधीरसूरि
भ. श्री धर्मन!थ जी
| पा.जै.धा प्र.ले.सं.
81
245
1516
मामलो
उपकेश ज्ञा
मडगड श्रीसूरि
भ. श्री नमिनाथ जी
पा.धा.प्र.ले.सं....
245
1516
धरणू धनी
प्रा. ज्ञा
तपा. श्रीर नशखरपूर
भ. श्री शांतिनाथ जी | पा जै.धा.प्र.ले.सं.
247
1516
| सरसइ, फदी
श्री. श्रीभाल
तपा.भीरत्नशेखररुरि
भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
WY
248 11516
देदर्ल', धनाई
प्रावाट ज्ञा
वृद्धतपा श्रीविजयरत्नसूरि
म. श्री विमलनाथ जी | पा.जै:धा ले.सं.
249156
हांसलदे, भाजलदे | उपकेश ज्ञा
उकेश श्री कक्कसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. जी भ. श्री अभिनंदन जी | पा.जै.धा.प्र ले.सं.
2501516
प्रज्ञा
चमकू काई लाडकी
तप.. श्रीरलर खरसूरि
,
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
393
क्र०
संवत् | श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रतिमा निर्माण
संदर्भ ग्रंथ
आदि
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ /आचार्य तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
251
1516
प्रा.ज्ञा.
भ. श्री नमिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं...
ललतादे, रंगाई हारषादे तेजलदे, धनी,
252
1516
प्रा.ज्ञा.
पूर्णिमा श्रीसूरि
| भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
पूजी
253
1516
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
| भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| दूसी, साधु, पुतली प्रा.ज्ञा. रंगाइ मापटि, करमी | उकेश. ज्ञा
2541516
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
2551516
प्रा.ज्ञा.
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
हांसलदे, माणिकिदे | अरख, हीरू
256
1516
प्रा.ज्ञा.
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
भ. श्री शीतलनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
257
1516मरगादे
श्रीमाल. ज्ञा
पूर्णिमा. गुणधीरसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
2581516
रतू मटा
प्रा.ज्ञा.
खरतर श्री जिनचंद्रसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
।
भ. श्री शीतलनाथ जी भ. श्री श्रेयांसनाथ
259
1516
| बउलदे, चमकू
श्रीमाल. ज्ञा.
पूर्णिमा गुणधीरसूरि
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
260
11516
भ. श्री सुविधिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
मानलदे, उकेशवश खरतर श्री जिनचंद्रसूरि बगीचत्नर माणिकदे, मन्ना | श्री. श्रीमाल. ज्ञा | पीपल श्रीविजयदेवसूरि
जी
2611516
83
भ. श्री शीतलनाथादि | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. पंचतीर्थी जी भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
262
11516
| सिंगारदे, लापू
श्री. श्रीमाल
पूर्णिमा श्रीगुणधीरसूरि
।
263
|1517
देऊ
श्री.. श्रीमाल ज्ञा. चैत्रलक्ष्मीदेवसूरि भ. श्री
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
मुनिसुव्रतस्वामी जी श्री. श्रीमाल ज्ञा. | पिप्पल श्रीधर्मसागरसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
264_1517
बउलदे
265
11517
प्रा. ज्ञा.
आगम आणंदसूरि
84
महिगलदे, सारू, चकू | राणी राणी
भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. जी भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
266
1517
श्री. श्रीवंश
अंचल जयकेसरीसूरि
267
1517
वरणू
उपकेष. ज्ञा.
भट्टा. श्रीदेवसुंदर
भ. श्री
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. पदमप्रभस्वामीजी भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
268|1517
सहिजलदे, कर्मी | श्रीमाल. ज्ञा.
चैत्र भट्टा श्रीलक्ष्मीदेवसूरि
|85 ।
269
1517
उपकेश. ज्ञा.
उपकेश कक्कसूरि
| भ. श्री श्रेयांसनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 85
लोली, इसरदे, वीरणि जीबाई वानू
जी
270
11517
श्री. श्रीमाल.
ज्ञानांगेद्र, देवचंद्रसूरि
भ. श्री जीवितस्वामी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. श्रीविमलनाथ जी भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
271
1517
चाहणदे
श्री. श्रीमाल. ज्ञा
पिप्पल. धर्मसागरसूरि
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र० | संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रतिमा निर्माण
आदि
|
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ /आचार्य आगम. श्रीहेमरत्नसूरि
संदर्भ ग्रंथ
272
1517
| वालू, भरमु
वायड. ज्ञा.
| भ. श्री सुपार्श्वनाथादि | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
चतुर्विशति पट्टः जी भ. श्री श्रेयांसनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
273
1517
|हर्छ , हेमी
---
आगम श्रीदेवरत्नसूरि
जी
274_1517
शाणी
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
ब्रह्माण. श्रीवीरसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
86
जी
275
1517
भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| साणी, देमति, श्रीमाल. वंशे नाथी धर्माणि, संसारदे श्री. वंशे
276
श्री आदिनाथ जी या माय
1517
अपन बलवा
अंचल श्रीजयकेसरीसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
को भी बस
2771517
| सिंगारदे, राजु
। श्री. वंशे
अंचल श्रीजयकेसरीसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
278
1517
| राजु, लींनी
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| netsmराणी
राणी
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ जी पा.ज.पा प्रले.
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं....
280
1517
श्री. श्रीमाल, ज्ञा.
तपा. सुरसुंदरसूरि
पोमी, चमकू सोभागी खेमलदे, हलूके
भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. जी भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
281
1517
| श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
आगम श्रीआणंदप्रभसूरि
87
282
1517
साऊ साऊ
हुंबड. ज्ञा
हरिसिंहसूरि
| भ. श्री पार्श्वनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 87
283
1517
नरभी, वारू
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 87
284_1517
पूरी
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
ब्रह्माण श्रीविमलसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
87
जी
285
1517
रमादे, सुहासिणि | प्रा. ज्ञा.
तपा.श्रीसूरसुंदरसूरि
| भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
87
2861518
जासू, मच पुरी
| ओसवाल. ज्ञा.
श्रीसिद्धसूरि
भ. श्री नमिनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
287 1518
श्रीमाल. ज्ञा.
श्री. भाव() देवसूरी
भ. श्री नमिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
87
खेतू, देवलदे, हेमीस | तेजू नाई
288
1518
भटेउर. ज्ञा.
श्री संडेर श्रीशांतिसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
88
289
1518
ओसवालविमलगोत्र | चैत्र श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 88
सूल्ही, वीनू धरणु, मालही | जिविणि, हलकू
290|1518
तपा.श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
11518
भोली, मंदोयरि,
प्रा.ज्ञा.
| तपा.श्रीरत्नसिंह सूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
टींबू
2921518
रती, मृपई
उएसवंशे
| अंचल श्रीभावसागरसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र० | संवत्
संदर्भ ग्रंथ
- प्रतिमा निर्माण
आदि
293|1518
| श्राविका नाम वंश/गोत्र । प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ /आचार्य झटकू, लाडकी, | प्रा.ज्ञा.
मलधारी गुणसुंदरसूरि हेडकी सोनाई वानु तेजू
श्री. श्रीमाल. ज्ञा. | श्रीदेवेंद्रसूरि
88
| जीवित स्वामी श्री पा.जै.धा.प्र.ले.सं. मुनिसुव्रत जी भ. श्री सुपार्श्वनाथ । पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
2941518
1518
| पुरी, चांपलदे
प्रा.ज्ञा.
अंचल. श्रीजयकेसरीसूरि | अजितनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
2961518
काहिणि, पध्नलदे | उकेश. ज्ञा.
श्रीकमलप्रभसूरि
भ, श्री सुविधिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
297
1518
प्रा. ज्ञा.
89 |
वन्हादे, जूआ, जीणा, गंगा मुंजी फकु
298
1518
श्रीमाल. ज्ञा.
उवएस श्रीसिद्धसूरि | भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी | मलधारी गुणसुंदरसूरि भ. श्री शीतलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी नागेंद्र श्रीगुणसमुद्र सूरि | भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
89
299
1518
| गुरूदे
श्रीमाल,. ज्ञा.
300
1518 | नागलदे, हीमादे | श्रीमाल. ज्ञा.
| पिप्पल श्रीरत्नदेवसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
301 |1518
माल्हणदे
श्रीमाल. ज्ञा.
| मधुकर श्रीधन प्रभसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
श्रीमाल. ज्ञा.
कोरंट श्रीसावदेवसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
302 1518 | ऊमादे, गांगी,
संभलदे 1518 | पाल्हणदे, मांजु
ब्राडिकि 304_1518 | सइंभू, रमकू
प्रा.ज्ञा.
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
प्रा.ज्ञा.
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
305
1518
| कड़, देमति,
नागर. ज्ञा.
अंचल जयकेसरीसूरि
भ. श्री सुपार्श्वनाथ
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
आसी
जी
306
1518
धांधलदे, पूरी
उकेश. वंश
खरतर जिनचंद्रसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
90
307
1518
| लखमादे |
श्री. श्रीमाल. ज्ञा. | चैत्र श्रीरत्नदेवसूरि
| भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
308
1519
रामति, गोमति
प्रा.ज्ञा.
अंचल जयकेसरीसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
309
|1519
लखमादे, कीबी
प्रा.ज्ञा.
अंचल विजयकेसरीसूरी
| भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं..
जी भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
310
1519
सूहवदे, रूपीका | वायडा. ज्ञा.
श्रीजीवदेवसूरि
91
3111519
| वानू
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा भट्टा श्री श्री. ....... | भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
3121519
| प्रा.ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मी सागर
भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 91
| मदूना, मृगदेव, राऊल, राणा, लखमदि पूनी
313
11519
उसवाल. ज्ञा.
वृद्धतपा.जिनरत्नसूरि
भ. श्री पद्मप्रभ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 91
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
396
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र. | संवत् । श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ /आचार्य तपा.श्री जिनरत्नसूरि
| प्रतिमा निर्माण
आदि
संदर्भ ग्रंथ
314
1519
वरणू
प्रा. ज्ञा.
| भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
315
1519
प्रा. ज्ञा.
पूर्णिमा श्री पुण्यचंद्रसूरि
।
प्रेथलदे, वारू, रमाइ जीविणि
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. जी भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
316
1519
प्रा. ज्ञा.
वृद्धतपा. जिनरत्नसूरि
92
3171519
तपा. पुण्यनंदगणि
| भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
318
11519
वल्हिणदे, अती, कीडी सूलेसरि, सहिजलदे कांआं, सहजू
प्रा.ज्ञा.
तपा. सावदेवसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
319
1519
श्री. श्रीमाल. ज्ञा
श्री श्री विमलसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
320
1519
सुहासिणि
श्रीमाल. ज्ञा.
| भ. श्री श्रेयांस जी
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
92
श्रीपूर्णतिलक श्रीहेमचंद्रसूरि श्रीसद्गुरू
3211519
गुणदे, वइजी
श्रीमाल. ज्ञा.
भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
322
1519
देऊ, गांगी
प्रा.ज्ञा.
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री शीतलनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
323
1519
सलखणदे, सांपू
श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा गुणतिलकसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
93
324 | 1519
ह' संपूरी
प्रा. ज्ञा.
तपा.श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
93
325
|1520
फालू, धनी
प्रा. ज्ञा.
अंचल. जयकेसरीसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री शीतलनाथ
जी | भ. श्री शांतिनाथ चतु
326
|1520
देमाई
ओसवाल. ज्ञा
श्रीजयचंद्रसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
327
1520
गुरी, रंगी
श्रीमाल. ज्ञा.
पूर्णिमा. श्रीजयचंद्रसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
328
1520
चित्रावाल, लक्ष्मीदेवसूरि
भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
कपूरदे भवलदे, | श्रीमाल. ज्ञा. टबकू
श्रीमाल. ज्ञा.
329
|1520
लूणादे
नागेंद्र. श्रीगुणदेवसूरि
वासुपूज्य
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
330
1520
हीरू हीरू
श्रीमाल. ज्ञा.
विद्याधर, श्रीहेमप्रभसूरि
सुमतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
331 |1520
सूहावदे, धावलदे | श्रीमाल. ज्ञा.
| चैत्र. श्री लक्ष्मीसागर सूरि | भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी तपा. श्री रत्नमंडनसूरि भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
332 |1520
अंधू, वाछु
प्रा.ज्ञा.
333
11520
माई, धना
प्रा.शा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
334
1521
हुंबड. झा.
सरस्वती विमलेंद्रकीर्ति
चांपू. अमकू बड़धु
भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
397
क्र०
| संवत्
प्रतिमा निर्माण |
आदि
संदर्भ ग्रंथ
335
|1521
| श्राविका नाम वंश/गोत्र । प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ /आचार्य महगलदे, नयणादे | ऊकेश. ज्ञा चैत्र श्रीरामचंद्रसूरि जयतलदे टहकू, धर्मी श्री. श्रीमाल. ज्ञा. |विधिपक्ष श्री सूरि
| भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
336_1521
| भ. श्री मुनिसुव्रत जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
95
337
1521
सूलही, कामलदे, | श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
अंचल श्रीजयकेसरी सूरि
टीबू
भ. श्री विमलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. चतु जी भ. श्री नमिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
337
1521
लहकू, सांपू
ऊकेश. ज्ञा.
श्रीदेवचंद्रसूरि
95
3381521
ओसवाल. ज्ञा.
श्रीविंवदणीक. श्रीदेवगुप्तसूरि
| भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| वल्हाहे, अधक, गुणीआभा, गंगादे,
खेताके | जशमादे, हांसी,
339
प्रा.ज्ञा.
तथा श्री लक्ष्मीसागरपरि का भी विमलनाथ जी या धागलेली.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
95
खेतू
340
|1521
चांपू, झींकू
| प्रा.ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
11521
आसलदे, सुहावदे | ऊकेश.
342
|1521
| अपूरवदेवी
ऊकेश. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
97
343
|1521
वाहली, लाडी
प्रा.शा.
भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
344
|1521
फूदी अरषू
वीरवंश.
अंचल. श्रीजयकेसरीसूरि
भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
97
1521
| मेलू, करनी
| श्री. श्रीमाल. वंश
श्रीजयकेसरीसूरि
भ. श्री शीतलनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
97
जी
346
|1521
मटकू रूपाइ
प्रा.ज्ञा.
श्रीसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
347
1522
लालु
प्रा.शा.
श्री श्री सूरि
98
भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी | भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
348
1522
| राउ
प्रा.ज्ञा.
तपा. श्रीसोमदेवसूरि
349
1522
काचु, नाथी
| प्रा.ज्ञा.
तपा. श्रीसोमदेवसूरि
| भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
350
1522
महणदे, दूढी
श्री. श्रीमाल. ज्ञा
श्रीसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
98
जीवंतस्वामी श्री कुंथुनाथ भ, श्री पद्मस्वामी
351
1522
श्री. मोढ़. ज्ञा.
श्री हेमप्रभसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
98
गाऊ, हीरू, रामति, धनी वानू लालू
352
|1522
श्रीसूरि
भ. श्री नमिनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
353
1522
देऊ देमति
| श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
चैत्र श्री रत्नदेवसूरि
भ. श्री नमिनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
99
354
1522
| कपूरी
प्रा.शा.
| श्री सूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
398
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत् । श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ /आचार्य | चैत्र श्री रत्नदेवसूरि
प्रतिमा निर्माण
आदि
संदर्भ ग्रंथ
355
1522
भ. श्री सुविधिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
99
नाझलदे, प्रीमी, हर्षादे | हेमादे, सरभू
3561522
चैत्र श्री रत्नदेवसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
99
पल्लीवाल ज्ञा. नायलगोत्र पल्लीवाल ज्ञा. नायलगोत्र | पल्लीवाल ज्ञा. नायलगोत्र प्रा. ज्ञा.
357|1522
हेमादे, सरभू
चैत्र श्री रत्नदेवसूरि भ. श्री जीवितस्वामी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
शीतल जी नागेंद्र श्री. कमलचंद्रसूरि | भ. श्री नमिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
358
1522
राणी
| 99
359
|1522
| कासी, पोमा
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
99
ओसवाल. ज्ञा. जीहलवाल गोत्रे श्रीमाल. ज्ञा
360|1523
राणी, रत्नाई
पूर्णिमा श्रीपुण्यरत्नसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 99
361
|1523
प्रा.शा.
| तपा.श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
रूपिणि, कुंअरि, चंगाई रमाई इंद्राणी
362|1523
ओस. ज्ञा.
तपा.श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 100
363
1523
प्रा.ज्ञा.
तपा.श्री लक्ष्मीसागरसूरि
100
| लखी, सुलेसरि, दादि लली
भ. श्री कुंथुनाथ चतुः | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. जी भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
364
1523
प्रा.शा.
तपा.श्री लक्ष्मीसागरसूरि
100
365
|1523
भ. श्री शीतलनाथ
। पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
100
धर्मिणि, पालही, | प्रा.ज्ञा.
तपा.श्री लक्ष्मीसागरसूरि माणिकि सनसव, देवी श्री. श्रीमाल. ज्ञातपा.श्री लक्ष्मीसागरसूरि
जी
3661523
भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
100
3671523
रही, मानू
| श्री. श्रीमाल. ज्ञा | तपा.श्री लक्ष्मीसागरसूरि
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 100
भ. श्री मुनिसुव्रतस्वामी जी भ. श्री अजितनाथ
368 1523दूलादे, रती
श्री. श्रीमाल.
ज्ञातपा.श्री लक्ष्मीसागरसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 101
जी
369
1523
प्रा.ज्ञा.
आसु, गौरी, यौवनी
तपा.श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 101
3701523
भरमी
| प्रा.ज्ञा.
तपा.श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री मुनिसुव्रत जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
371
1524
प्रा.ज्ञा,
तपा.श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री अनंतनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
101
ललतादे, टीबू सहजलदे रूपी, अहिवदे
372|1524
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
पूर्णिमा पुण्यरत्नसूरि
भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 101
373
|1524
4
मनू रतू
श्री. विमलनाथसुरि
| भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
101
श्री. श्रीमाल. ज्ञा. ब्रह्माणगच्छ श्रीमाल. ज्ञा.
374
1524
रलू
पिप्पल. श्रीरत्नदेवसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
101
375_1524
डाही, वाल्ही
श्रीमाल. ज्ञा.
पिप्पल. श्रीरत्नदेवसूरि
भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
102
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
।
संवत् | श्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण गच्छ /आचार्य
आदि पिप्पल. श्रीरलदेवसूरि भ. श्री धर्मनाथ जी
376
|1524
रत्न, हांसी
श्रीमाल. ज्ञा.
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
102
377
11524
श्रीमाल. ज्ञा
सिद्धांत. श्रीसोमचंद्रसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 102
लखमादे, सोभगिणि लष्मादे, गांगी
378
1524
| श्रीमाल. ज्ञा
श्रीसोमसुंदरसूरि
भ. श्री पद्मप्रभस्वामी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं..
जी
379
11524
सूलसूरि, पातलि, | प्रा.ज्ञा.
| आगम. श्रीदेवरत्नसूरि
| भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
गोइ
380 |1524
टीबू रंगाइ
ऊकेशवंश वहुरा गोत्र
श्रीसंध
भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
381
|1524
प्रा.ज्ञा.
सिद्धांत. सौमचंदूसूरि
| सनषत, वीरू, मांकू मणिआ मंची
| भ. श्री पद्मप्रभस्वामी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
3821524
प्रा.ज्ञा.
383|1524
| वारू, अरधू
श्री. श्रीमाल. ज्ञा
भ. श्री पद्मप्रभस्वामी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
वृद्धतपा. भट्टा विजयरत्नसूरि धर्मसागरसूरि
384
|1524
श्री. श्रीमाल. ज्ञा
भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
103
|1524
| वानू, वारू.
खीमाई | वाच्छ, वीरू, राजलदे, देउ मूज, पाना
श्री. श्रीमाल. ज्ञा
| अंचल. जयकेसरीसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
103
386
|1525
प्रा.ज्ञा.
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 103
1525
शालापति. ज्ञा.
सिद्धांत. श्रीसोमचंद्रसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
103
| जी
388
|1525
रामति
शालापति. ज्ञा.
| सिद्धांत. श्रीसोमचंद्रसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
।
103
389
|1525
| मंचू, रूपाई
| प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
390 |1525
| हांसी, रामति
श्री. श्रीमाल. ज्ञा. | पूर्णिमा गुणधीरसूरि
| भ. श्री
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं. मुनिसुव्रतस्वामी जी भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी | भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
104
391
1525
करमी, नागिणी
श्री. श्रीमाल. ज्ञा. | आगम. अमररत्नसूरि
| 104
392
1525
प्रा.ज्ञा.
104
शाणी, राजलदे, चंगी, मानू सलखणदे
393
|1525
104
उपकेश ज्ञा. अरडक गोत्रे
| तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| जी कासहृद. भट्टा श्री भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. संघसूरि श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
मुनिसुव्रतस्वामी जी सगरसूरि जी
भ. श्री शांतिनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
394|1525
| फदू, धांधी
प्रा. ज्ञा.
104
395 |1525
देऊ, जसमादे
प्रा.ज्ञा.
105
396
1525
नागर. श्रीज्ञानसागरसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 105
पाल्हणदे, अधकू कपूरदे, मचकू
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
400
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
। । प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण । संदर्भ ग्रंथ गच्छ /आचार्य
आदि तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
3971525
| 105
398
1525
टबकू जासू. डीसवाला ज्ञा. जीविणि लहिकू सुहासिणि प्रा.ज्ञा. करमी, माई, लाडकी, सोनाई
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
105
चंगी
399
1525
रूपी, हीरादे
प्रा.ज्ञा.
105
भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. जी भ. श्री मुनिसुव्रत जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
400
1525
पूर्णिमापक्षे श्रीजयशेखरसूरि वृद्धतपा.भट्टा. श्रीज्ञानसागरसूरि तपा.श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
माणिकदे, वानू । | प्रा.ज्ञा.
106
रमकू
401
1525
| वारू, धर्मि
प्रा.शा.
भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
106
402
1525
पुनादे
श्री. श्रीमाल. ज्ञा. | पिप्पल. श्रीरत्नदेवसूरि
भ. श्री नमिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
। | 106
4031525
दुल्हादे, चंपाई
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
106
404|1525
सिद्धांत. श्रीसोमचंद्रसूरि भ. श्री श्रेयांसादिचतु. पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
पट्ट जी खरतरगच्छ.
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. श्रीजिनभद्रसूरि
जी धर्मधोष. श्रीसाधुरत्नसूरि | भ. श्री नमिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
106
|1528
107
| रंगू चांदू फदकू | उकेशवंश
नाहटागोत्रे नयण श्री, ऊकेश. ज्ञा. कमलादे | सहज श्री, जिण उपकेश. ज्ञा.
आदित्यनाग गोत्रे. साखल ऊकेश. ज्ञा.
|1526
उपकेश. श्रीकक्कसूरि | भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
107
श्री
जी
| श्री सूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
107
सहजलदे, झाझू | प्रा.ज्ञा.
श्री सूरि
भ. श्री वीर जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
107
409
1527
चमकू
श्री. श्रीमाल. ज्ञा. | पिप्पलत्र श्रीधर्मसागरसूरि | भ. श्री धर्मनाथ जी
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
107
410 1501
| हेमादे
...........
श्री मुनिसुंदरसूरी
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
75
411
|1501
मीणल, वील्ही,
प्रा.ज्ञा.
तपा श्री मुनिसुंदरसूरी,
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
रूपी
| भ. श्री मीणल, वील्ही, रूपी जी भ. श्री प्रीमलदे जी
412
11501
प्रीमलदे
प्रा.शा.
श्री पूर्णिमा. हीरसूरी
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
75
4131501
| सुगना, रूपा
तपा श्री मुनि सुंदर सूरि | भ. श्री सुगना, रूपा | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी अंचल श्री मुनि सुंदर सूरि | भ. श्री दूल्हीदे जी जै.प्र.ले.सं.
414
|1501
| दूल्हीदे
उकेश वंश
415
|1523
लांपू. मरधू
प्रा.ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री वासुपूज्य जी | जै.प्र.ले.सं.
264
4e on महिमाल
416
1506
महिगल
र प्रमाण, श्री श्री. की पडूनरिक श्री सुमतिनाथ जी शालेत.
ब्रह्माण, श्री. श्री.
श्री पज्जूनसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.प्र.ले.सं.
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र० | संवत्
श्राविका नाम
|
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ /आचार्य
प्रतिमा निर्माण
आदि
417
1564
श्रृंगारदे, हेमादे
श्री. श्री. ज्ञा.
भ. श्री वासुपूज्य पंच | जै.प्र.ले.सं.
265
जी
418 |1503
| जीवदही
उप. ज्ञा.
उकेश ......
भ. श्री श्रेयांसनाथ
| जै.प्र.ले.सं.
237
419
1508
तपा. श्रीलक्ष्मी सागरसूरि | भ. श्री संभवनाथ जी | जै.प्र.ले.सं.
237
| हेमा, पोलू उकेश लक्षम्या गाऊ, आल्हू नाई | प्रा. ज्ञा.
4201525
भ. श्री शांतिनाथ जी
जै.प्र.ले.सं.
237
देल्हणदे, मलहादे
श्री संडेर
भ. श्री वासुपूज्य जी | जै.प्र.ले.स
238
करआ
|1552
| धर्मादे, भोजा
उकेशवंश
| खरतर श्री जिनचंद्रसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ
| जै.प्र.ले.सं.
238
जी
423|1538
मालादे, सिवा
| तपा. श्रीरत्न शेखरसूरि
| भ. श्रीपदमप्रभ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.
238
424 |1527
मापुरि, अजूना
| उकेश
श्रीसूरि
| भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
107
425
1527
| धाधलदे, शाणी
श्रीमाल. ज्ञा.
| पिप्पल. श्रीरत्नदेवसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
107
426
1527
| पिप्पल श्रीरत्नदेवसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
108
वील्हणदे, अमकू । श्रीमाल. ज्ञा. झाझु | पूरी, रूपा प्रा. ज्ञा.
.427
|1527
सिद्धांत श्रीसोमचंद्रसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
|
108
428
1527
| धरणू
धरणू
श्री श्रीमाल. ज्ञा.
श्रीसर्वदेवसूरि
| भ. श्री सुमतिनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 108
1527
| राजलदे, नाथी
श्री श्रीमाल. ज्ञा.
आगम, श्रीआणंदप्रभसूरि
भ. श्री अजितनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
108
4301527
उकेश ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
सखी, गमा, झमकू हीमी, माणिकि
431
1527
श्रीमाल. ज्ञा.
आगम. अमररत्नसूरि
| भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
108
432
1527
मकू, हर्दो
श्रीमाल. ज्ञा.
आगम, अमररत्नसूरि
108
| भ. श्री सुमतिनाथादि पा.जै.धा.प्र.ले.सं. पंचतीर्थी जी भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
433
|1527
श्रीशांतिसूरि
| 109
सोनी, संपूरी, गंगादे, गुरादे | चमकू लखाई
श्रीमाल. ज्ञा. थारापद्रगछे प्रा.ज्ञा.
434
1527
आगम. अमररत्नसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
109
435
1527
धनादे, रूपिणि
प्रा.ज्ञा.
आगम. अमररत्नसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
109
436 |1527
चमकू, कुंअरि
| प्रा.ज्ञा.
आगम. अमररत्नसूरि
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
109
| भ. श्री | मुनिसुव्रतस्वामी जी भ. श्री चंद्रप्रभ जी
437
1527
हेसाई, रमाई
ऊकेश वंश
खरतर श्री जिनहर्षसूरि
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
109
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
402
क्र०
ཆུ ་ཞུ ་ཧི ་ཅི་ལྷ ་ལྷ་ཆུ་ལྷ ་ ་༄ ་ ་ཅི ་ ་རྩྭ་རྩ་ཕུ་ཆུ་|ཞུ ་་གླ་༄ ་ ིི་རྩ་ཕུ་ཆུ
संवत् श्राविका नाम
1527
1527
1527
1527
1527
1527
1527
1528
1528
1528
1528
1528
1528
1528
1528
1528
1528
1528
1528
1528
1528
अधक जीवीणि
वीझलदे, मचकू
वारू, कर्मादे
जासू मांजी, लीलाई
चंपाई, गाई
साइ, मांइ
धरण फांही
रमाई
भावलदे, सिली, माणिक चमकू राणी
हीरू, मापिरि
आसू, सूहिवदे
हेमादे, रजाई
वीरू, सोभागिणि
सारू
नासिणि, हांसी
संपुरी
संगारदे, रजाइ
माणिकिदे, गोमति, रमक धरणू वासण
मंदोअरि, डाही
वंश / गोत्र
प्रा.ज्ञा.
ऊकेशवंश
प्रा.ज्ञा.
श्री. श्रीवंश
श्री. श्रीवंश
वीरवंश
श्रीमाल. ज्ञा.
श्रीमाल. ज्ञा.
नातीयाण गोत्र नागर ज्ञा.
श्रीमाल ज्ञा
श्रीमाल ज्ञा
उपकेश. ज्ञा.
श्री. श्रीवंश
प्रा.ज्ञा.
श्री वंश
श्री वंश
श्री वंश
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
श्रीसर्वसूरि
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
अंचल. श्रीजयकेसरीसूरि
अंचल. श्रीजयकेसरीसूरि
अंचल. श्रीजयकेसरीसूरि
पिप्पल. श्रीरत्नशेखरसूरि
चैत्र. श्रीज्ञानदेवसूरि
बृहत्तपा. ज्ञानसागरसूरि
नगेंद्र हेमरत्नसूर
पुण्यरत्नसूर
श्री लक्ष्मीसागरसूर
चैत्र. श्रीरत्नदेवसूरि
टंचल. श्रीजयकेसरीसूरि
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
श्रीसूरि
अंचल श्रीजयकेसरीसूरि
टंचल. श्रीजयकेसरीसूरि
त्पा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
श्री श्रीमाल. ज्ञा.
प्रा.ज्ञा. ब्रह्माणमच्छे श्रीबुद्धिसागरसूरि
ऊकेशवंश कूकडागोत्रे
खरतर, श्रीजनचंद्रसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री विमलनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री पद्मप्रभ जी
भ. श्री मुनिसुव्रत जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री सुविधिनाथ जी
भ. श्री अजितनाथ जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी
भ. श्री धर्मनाथ जी
भ. श्री सुविधिनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री शीतलनाथ जी
भ. श्री शीतलनाथ जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी
भ. श्री विमलनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री नमिनाथ जी
भ. श्री सुविधिनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री शीतलनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री सुविधिनाथ जी
भ. श्री शांतिनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा. प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
पा. जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
पा. जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री सुपार्श्वनाथ जी
भ. श्री शांतिनाथ जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
पृ.
109
109
110
110
110
110
110
110
111
111
111
111
111
111
111
112
112
112
112
112
112
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
403
क्र० | संवत् | श्राविका नाम
वंश/ गोत्र
459
1506
भानदे
प्रेरक/प्रतिष्ठापक प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ /आचार्य
आदि काष्ठासंघ. कमलकीर्ति | भ. श्री चंद्रप्रभु जी जै.सि.भा. सन् 1935 | 13 जी की शिष्या खरतर. श्री जिनसागरसूरि | भ. श्री शांतिनाथ जी | जै.सि.भा. सन् 1940
460
1507
| हीरादे, षेतलदेओसवंश
4611509
मूंगा, मूला
खरतर. श्री जिनसागरसूरि | भ. श्री जिन प्रतिमा | जै.सि.भा. सन् 1936 | 31
जी
4621509
चदुवंश लम्ब कंचुकान्वय चदुवंश लम्ब कंचुकान्वय अग्रोत गर्ग
मूलसंघ प्रतापचंद्र देव
13
4631510
देन्ही, वारू
| भ. श्री जिन प्रतिमा जै.सि.भा. सन् 1935 शांतिनाथ जी भ. श्री जिन प्रतिमा जै.सि.भा. सन् 1936 जी भ. श्री जिन प्रतिमा । जै.सि.भा. सन् 1936
4641511 | गोलसिरि
पोरवाड़ जाति
31
जी
-
4651512
सूहवदे
श्रमण सन 1999
| 130
अंचल गच्छ. श्रीभावसागरसूरि
अजितनाथ (बाई सोनाई पुण्यार्थी
466
1513
गविति
काष्ठासंघ
जै.सि.भा. सन् 1940 | 17
467
1513
गांगी
काष्ठासंघ
जै.सि.भा. सन् 1940
468
1512
वाछी, वीरू
श्रीमाल ज्ञा.
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी
। श्रमण सन 1999
131
4691515
| लड़ो
|
जै.सि.भा. सन् 1936 | 31
अग्रेत गोलालारान्वचे वीरवंश
470
1517
| जासु
अंचल. जयशेखरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | श्रमण सन 1999
471
1504
वाछू, हीरू
उकेष
अंचल. जयकेसरीसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 178
472
1563
| कस्तुराई, नाकू | उकेष, भंडारी गोत्र | खरतर श्रीजिनहंससूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
आ.ज.पा.प्र.ल.स.
178
4731595
नाकू
तपा. विजयदानसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
178
474
1530
माणिकदे
श्री श्री ज्ञा.
पूर्णिमा. देवेंद्रसूरि
| भ. श्री सुमतिनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
178
475
|1528
हशु, रंगाई
ऊ.वाढ़ीक गोत्र
खरतर. श्रीजिनचंद्रसूरि
भ. श्री नमिनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
179
476
1531
कर्मणि, माणिकि
श्री श्री. ज्ञा
नागेंद्र. श्रीहेमरत्नसूरि
भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
180
477
1522
श्री श्रीवंष
अंचल. श्रीजयकेसरीसूरि
भ. श्री शीतलनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 180
| अहवदे, अरधु, भावलदे लाडिकि, गांगी
जी
१1०1523
वायड ज्ञा
टागम. मुनिरत्नसूरि
| भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
479
1513
कांऊ, पूरी
वीरवंष
टंचल, श्रीजयकेसरी
भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
180
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
404
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ /आचार्य तपा. श्री हेमविमलसूरि
प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ
आदि
480
1551
वायड़ ज्ञा
भ. श्री धर्मनाथ जी
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
181
कुतिगदे, पूगी, माईसु, जअमादे दीवाडि, चंगाई
481
1598
मोढ़ ज्ञा.
तपा. श्री विजयदानसूरि | भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
181
482_1530
लीलसु, सताई
| श्री श्री ज्ञा.
आगम, देवरत्नसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 181
483
1509
| पची, तिलू
डाभिलागोत्र प्रा.ज्ञा | तपा. श्रीरत्नषेखरसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 181
जी
4841520
गउरि, वल्हादे।
प्रा.ज्ञा.
तपा. श्री सोमदेवसूरि
भ. श्री शीतलनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
181
जी
485
1561
रंगाई, अरधाई | श्री श्री. ज्ञा
पूर्णिमा, श्रीपुण्यरत्नसूरि
भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
181
486
1563
रत्नाई, लकू
श्री श्री. ज्ञा
श्रीसुविहितसूरि
| भ. श्रीधर्मनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
487
1598
181
करमी, देवलदे, सोभागिणि धांधलदे
488
ऊकेष आंबलिया | तपा. विजयदानसूरि भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. गोत्र उपकेष. ज्ञा. | नाणावाल. श्री धनेष्वरसूरि | भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी प्रा.ज्ञा.
श्री कक्कसूरि भ. श्री पद्मप्रभु जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 183
489
1504
करमादे, नाथी
183
490
1549
लखी, देमाई
प्रा.ज्ञा.
आगम. विवेकरत्नसूरि
भ. श्री पद्मप्रभु जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
205
|
491
1521
उमा मलाई भी की जा... अचल जावेतरीहरि भी अपिता
लबकू, मल्हाई
श्री श्री. ज्ञा.
अंचल. जयकेसरीसूरि
205
धनी
492
|1529
मटकू
प्रा.ज्ञा.
आगम अमररत्नसूरि
भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. जी भ. श्री संभवनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. पंचतीर्थी जी भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
205
493
1521
मचकू
गूर्जर ज्ञा.
बृहतपा. विजयधर्मसूरि
205
4941560
सांतू लीलादे
श्री श्री. ज्ञा.
अंचल. सिद्धांतसागरसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
205
4951537
| रतनू, भरमादे
श्री श्री. ज्ञा.
श्रीसूरि
| भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
206
496
|1506
प्रा. ज्ञा.
तपा. उदयनंदिसूरि
भ. श्री अनंतनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
206
497
1547
देई. कपूरा, कमलाई | पूरीसु, रूपाई, कबाई देवलदे
श्री श्री. ज्ञा.
तपा. सुमतिसाधुसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
206
498
1515
श्री श्री. ज्ञा
पूर्णिमासाधूसुंदरसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 184
490
1509
कपूरी, कुंती
| गूर्जर. ज्ञा
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.
184
491
1549
टबकू, वल्हादे
श्री. श्री. ज्ञा
वृद्धतपाः उदयसागरसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.
184
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत्
| श्राविका नाम
प्रतिमा निर्माण
आदि
संदर्भ ग्रंथ
वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ /आचार्य ओस. ज्ञा. गांधी | मलधारिगुणसुंदरसूरि
492
1521
| चांपासिरि, सीतादे
भ. श्री धर्मनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.
184
गोत्र
493
1593
खंडेलवाल अजमेरा | विनयसिरि को प्रदान गोत्र
किया
170
भ. श्री वर्द्धमान चरित्र जी
| श्री. प्र. स.
| तोला, चोखी, नेमीआदि ने लिखवाया | गउरी
494
भ. श्री कल्पसूत्र जी | श्री. प्र. स.
495
1543
मोढ़ ज्ञा.
काली, रत्ना ने लिखवाई अजू पठनार्थ
भ. श्री विपाकसूत्र | श्री. प्र. स.
जी विजयराजमुनि ने लिखी | श्री उपदेशमाला सूत्र | श्री. प्र. स.
496 |1595
497
1556
498
1546
गेली पठनार्थ
प्रवर्तिनी सौभाग्य आवश्यक नियुक्ति श्री. प्र. स.
लक्ष्मीगणि ने लिखा ग्रंथ कर्णदेवी, मंत्री भुवनपाल की | जिन चंद्राख्यसूरि की श्री कल्पसूत्रम् श्री. प्र. स. लैगमदेवी ने | पत्नी एवं परिवार | प्ररेणा से परिवार सहित लिखवाया कर्मादे ने प्रा.ज्ञा.
श्री प्रवचन सारोद्धार | श्री. प्र. स. स्वश्रेयार्थ अपने
सूत्र हाथों से लिखा हैं उदयलक्ष्मी ने
श्री ऋषि डूंगर श्रीपाल ने | श्री तंदुलवैयालीय | श्री. प्र. स. स्वहस्तेन
लिखवाया
सूत्रम स्वपठनार्थ लिखा
4991516
500
1584
501
1514
जै.धा.प्र.ले.सभा.2
| 18
502
1543
|जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| 44
503
1597
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
504 |1509
जै.धा.प्र.ले.सभा.2
रूपिणि ने माता | प्रा.ज्ञा.
तपा. विजयसमुद्रगणि को | श्री कल्पसूत्रम् देमति श्रेयार्थ
प्रदान किया लिखा तेजू, काली | मोढ़ ज्ञा. गणि चरित्रसागर के श्री विपाकसूत्रम्
पठनार्थ | भावलदे, सोनलदे, | ऊकेश वंश श्री रंगतिलकगणि श्री सिरियादे पामेचागोत्र लिखित (अंचलगच्छ) उपासकदशांगसूत्र श्रृंगारदेवी, सोनाई | श्रीमालवंश जिनभद्रसूरि (प्रेरका श्री कल्पसूत्र आदि ने परिवार
खरतर) सहित प्रकाशित करवाया
अग्रोत गर्ग गोत्र | पं. हीगाय को समर्पित | पद्मपुराण प्यारी आदि ने
किया लाडी, गुणसिरि | खंडेलवाल पहाड्या | पठनार्थ प्रदान किया । कर्मप्रकृति ने पुत्र सहित गोत्र लिखवाया रूपा, चौसिरि, खंडेलवाल मुनि श्री धर्मचंद्र को षट्पाहुड टीका दानसिरि आदि ने | वाकलीवाल गोत्र प्रदान किया। रोहिणी व्रत उद्यापनार्थ
505
1551
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
119
506
1577
जै.धा.प्र.ले.संभा.2
| 96
507
1585
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
174
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
406
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र० | संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रतिमा निर्माण
आदि
।
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ /आचार्य
संदर्भ ग्रंथ
508
1594
षट्पाहुड टीका
श्री प्र. सं
175
| पूनी, गूजरी, रूपा | खंडेलवाल आदि ने
| वाकलीवाल गोत्र लिखवाया रोहिणी व्रत उद्योतनार्थ
509
1515
हडो
जिनचंद्र देव
पार्श्वनाथ प्रतिमा
भ. स.
510
1561
गोमाई
श्री लक्ष्मीसेन
बघेरवाल बोरखंडयागोत्र
पद्मावती प्रतिमा
भ. स.
282
511
1534
पांचु
ब्रह्मदेवदास पठनार्थ
पुण्यासव कथाकोष
भ. स.
159
512
1525
सोना, मना
श्री सिंहकीर्ति
श्रेयांसनाथ प्रतिमा
भ. स.
126
513
|1520
इंदा
श्री सिंहकीर्ति
महावीर प्रतिमा
| भ. स.
126
514
1586
राजाई
पार्श्वनाथ प्रतिमा
भ. स.
515
1580
मेघ की भार्या
बघेरवाल ज्ञा. हरसौशगोत्र
धर्मभूषण
नेमिनाथ मूर्ति
भ. स.
516
|1521
धनश्री
श्री नेत्रनंदिदेव
पउमचरियं
| भ. स.
खंडेलवाल लुहाडिया गोत्र खंडेलवाल
5171533
धनश्री.
भ. स.
101
सुमेध पंडित को पठनार्थ | अध्यात्मतरंगिणी प्रदान की
टीका श्री ज्ञानसागर पठनार्थ महाभिषेक भाष्य
518
1582
भ, स.
180
519
1544
श्री मल्लिभूषण
पद्मावती प्रतिमा
भ. स.
177
विनयश्री ने स्वयं लिखवाया रूपिणी.. नारिंगदे | हुंबड़ ज्ञा जिनमति ने करवाया कुसुमा
बराहिया कुल
520
1545
अर्जुन ने स्वपूजनार्थ करवाया था
आदिनाथ प्रतिमा
भ. स.
104
521
1510
मालेही
चंद्रप्रभु प्रतिमा
भ. स.
तोमर वंश, वासिल गोत्र ओस. वंश.
522
1553
मानू
वासुपूज्य प्रतिमा
319
523
1533
धनश्री
भ. स.
482
524
1560
माणिक बाई
हूमड़. ज्ञा.
भ. स.
482
आचार्य पद्मनंदि को जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति समर्पित की थी
लिपिबद्ध करवाई गोम्मटसार पंजिका लिखवाकर लघविशालकीर्ति को
भेंट में दी ज्ञानभूषण मुनि की प्ररेणा | श्रुतपंचमी एवं से प्रदान की
भविष्यदत्त चरित्र
525
1540
भ. स.
149
| ललतादे. वीलहणदे आदि ने लिखवाया मलाई
526
1510
हुंबड. ज्ञा.
भ. सकलकीर्ति
पंच परमेष्ठि मूर्ति
भ. स.
138
,
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत् । श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ /आचार्य ज्ञानभूषण
प्रतिमा निर्माण ।
आदि
संदर्भ ग्रंथ
527
1544
रेमाई
प्रतिमा
भ. स.
142
528
1531
जयश्री
आदिनाथ प्रतिमा
भ. स.
220
5291537
| जाल्ही
अग्रोत गोयल गोत्र
नेमिनाथ प्रतिमा
221
530
1502
जैणी
यंत्र
भ. स.
219
531
1572
सौनबाई
काश्यपगोत्र
ऋषभनाथ प्रतिमा
भ. स.
229
532
1513
विद्यानंदी
चौबीसी जिनमूर्ति
भ. स.
170
वारू, स्वश्रेयार्थ | हुमड़ वंश आर्यिका संयमश्री श्रेयार्थ ताकू
हुंबड. ज्ञा
533
1560
विजयकीर्ति
शांतिनाथ प्रतिमा
143
534
1552
देऊ
हुंबड. ज्ञा
ज्ञान भूषण
सुमतिनाथ प्रतिमा
भ. स.
142
535
1518
जीवी नवकरण
हूमड़ वंश
ज्ञान भूषण.
प्रतिमा
भ. स.
183
536
1573
सामू
खंडेलवाल ठोल्या गोत्र
दसलक्षणयंत्र
भ. स.
170
537
|1511
गेली
5381536
श्री देवतिलक उपाध्याय
जेसलमेर के गढ़ पर | जै.प्रा.जै.ग्रं.मं.सू. अष्टापद,महाती येकंट प्रसाद बनवाया पार्श्वनाथ व सरस्वती वही की प्रतिमा बनवाई। आबू शत्रुजय गिरनार | की यात्रा की
धानू, बीजू, नायकदे, हरवू सलवू, हस्तू, लाला, वालही, विमलादे, कनकादे, धरणिगदे माणिकदे,
ऊकेशवंश संखवाल कमलादे, पूनादे, गोत्र गेली
539
1583
वही
नेमिनाथ, संभवनाथ बिंब बनवाया, शत्रुजय, आबू गिरनार की यात्रा
5401505
गेली
शंखवाल गोत्र
लेखक मेरुसुंदरगणि
श्री तपः पट्टिका
| वही
महजये (पुण्याथी
श्री जिनचंद्रसूरि
श्री शत्रुजय गिरनार | वही अवतार पट्टिका
542
1518
प्रेमलदे
नंदीवर पट्टिका
5431518
गेली
वही
शत्रुजयगिरनारावतार
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
408
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत् | श्राविका नाम
वंश/गोत्र
पृ.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ /आचार्य
प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
आदि | पट्टिका श्री नंदीष्वर पट्टिका | वही
5441518
सूहवदे
5451518
विणि सिंगारदे
शत्रुजयगिरनारावतार | जै.प्रा.जै.ग्रंभ.सू. पट्टिका क्ल्प सूत्रा सचित्रा के.सं.प्रा.में. सुवर्णाक्षरी (काष्ठ)
546
1524
नायकदेवी लीलादेवी रंगाई. चंगाई, रूपाई. हंसाई | सोमा
547
1508
श्री श्रीमाल ज्ञा.
जे.जै.ले.सभा.2
246
548
1506
रूडी
श्रीरत्नशेखरसूरि
जे.जै.ले.स.भा.2
1247
श्री शत्रुजय गिरनार पट्टिका श्री समतिनाथ
549
1510
सुहागिणी
घांघगोत्र
गुणसुंदरसूरि
| जे.जै.ले.स.भा.2
252
5501515षीमसिरि, भरमी
संडेर कश्यपगोत्र
ईश्वरसूरि
श्री नेमिनाथ
जे.जै.ले.सभा.2
252
551
1520
| सुहमादे, लावलदे | गुगलिया गोत्र
श्री शालिभद्र सूरि
| श्री शीतलनाथ
| जे.जै.ले.स.भा.2
254
552
1534
सुंदी, दूल्हादे
बी.जै.ले.स
ऊकेश वंश (बोथरा | खरतर, जिनचंद्रसूरि गोत्र)
खरतर. जिनहंससूरि
शीतलनाथ चतुर्विंशति । श्री अजितनाथ
553_1566
| वील्हादे, रत्नादे
बी.जै.ले.स.
554
1595
| बीझलदे, हीरादे
| खरतर, जिनमाणिक्यसूरी | श्री अभिनंदन
बी.जै.ले.स.
5551580
ऊकेश ज्ञा.
तपा. श्री हेमविमलसूरी
कई यंत्रपट्ट
बी.जै.ले.स.
556
1593
ऊकेश वंश बोथरा | श्री. जिनमाणिक्यसूरि गोत्र
श्री जिनमाणिक्यसूरि | बी.जै.ले.स.
देवलदे, रमाई, गोई, लाली वील्हादे, कउतगदे, रधणादे, अमृतदे, वीरमदे कउतिगदे सूरज देवी सकतादे, कपूरदे, रेडाई. पावां, पुन्नु कोल्ही
557
1593
बी.जै.ले.स.
558
1593
बी.जै.ले.स.
559
1542
पार्श्वनाथ
जि.मू.प्र.ले.
गर्गगोत्र (अग्रोत) | काष्ठा संघ भट्टारक श्री
गुणनदेव खंडेलवाल जाति | मुनिरल कीर्ति
560
1534
| वीना, थाल्हा
मोज्हायंत्र
खं.जै.स.बृ.इ.
140
5611581
कवलादे
साह गोत्र
मंडलाचार्य धर्मचंद्र
ताम्रयंत्र
खं.जै.स.बृ.इ.
562
1590
तोलादे
बाकलीवाल गोत्र
शांतिनाथ का ताम्र यंत्र
खं.जै.स.बृ.इ.
172
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
563
564
565
566
567
568
569
570
571
573
574
575
577
579
572 1556
581
संवत्
1595
582
1571
583
1519
584
1520
1525
"
576 1597
1549
1551
578 15..
1580
1588
580 1527
1596
1595
1528
1529
1531
श्राविका नाम
चोख श्री
सुहाग
सोमाई
इंदा, खेमा
परमा, रणा
सोना, मना
"
पोबाही
सिंगार
सलखणदे, खेतलदे
लिबाइ, बमटाइ
गोताइ, दाइ
प्रगंधा, जैसी,
तावसी
नयणश्री, मेहादे,
सुहाग
लीलादे, राजलदे
अंबा
राजाही
ताल्ही, विणी,
जिनमति
लाडो
जयश्री, भावश्री
वंश / गोत्र
कांधावल गोत्र
वोटवाड़ गोत्र
श्री श्रीवंश
लंबकंचुकान्वय अउली निवासी
गोलालारान्वय
लंबकचुकान्वय
"
अग्रोत, गोल गोत्र
उकेश. ज्ञा. वरहडाआ गोत्र
प्रा. ज्ञा
खंडेलवाल. ज्ञा. कटरिया गोत्र
वघेरवाल, सावलिया गोत्र
माहिमवंश
खंडेलवाल, गोधा गोत्र
नरसिंहपुरा ज्ञा. नागर गोत्र
घरकौ. ज्ञा.
खंडेलवाल वंश
झबकू, राजू महिगलदे
बुध गोत्र
वैसा, रेना, तावसी महियवंश
अग्रोत गर्ग
अग्रोत, मित्तल
सवाल काष्ठासंघ
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
मंडलाचार्य धर्मचंद्र को प्रदान की थी
अंचल. भावसागरसूरि
भट्टा. श्री सिंहकीर्ती
मूलसंघ सिंहकीर्ति
भाववर्धनगणि.
जिनसेन
मूलसंघ भट्टा श्री लक्ष्मीसेन
मूलसंघ सकलकीर्ति भुवनकीर्ति
मूल. सिंहकीर्तिदेव
प्रतिमा निर्माण आदि
पांडुलिपि लिखवाई
ताम्र यंत्र
मुनिसुव्रतस्वामी
महावीर समवसरण
श्रेयांसनाथ
जिन प्रतिमा
चंद्रप्रभु
पार्श्वनाथ
शीतलनाथ
जिन प्रतिमा
जिन प्रतिमा
धर्म परीक्षा ग्रंथ लिपिबद्ध अनंतयंत्र
करवाया
विश्वसेन
जिन प्रतिमा
संदर्भ ग्रंथ
जिन प्रतिमा"
" जिन प्रतिमा"
खं.जै.स.बृ.इ.
खं.जै.स.बृ.इ.
श्रमण 1999
जै. सि.भा. सन् 1935
जै.सि.भा. सन् 1936
जै.सि.भा. सन् 1936
जै.सि.भा. सन् 1936
जै. सि.भा. सन् 1936
जै.सि.भा. सन् 1936
श्रमण 1999
जै. सि.भा. सन् 1947
जै. सि.भा. सन् 1947
जै.सि.भा. सन् 1936
जै.सि.भा. सन् 1940
जै.सि.भा. सन् 1940
मुनि देवनंदि को भेंट पं.चं. अं.ग्र. में दिया
पार्श्वनाथ
जै.सि.भा. सन् 1935
जै.सि.भा. सन् 1940
जै. सि.भा. सन् 1935
जै.सि.भा. सन् 1936
जै.सि.भा. सन् 1940
जै.सि.भा. सन् 1935
409
पृ.
142
141
131
31
31
132
128
128
31
83
16
17
482
16
2
31
1
31
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
410
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत् | श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ /आचार्य
प्रतिमा निर्माण
आदि
___ संदर्भ ग्रंथ
585
1537
सामा
जेसवाल, मूलसंघ
" जिन प्रतिमा
जै.सि.भा. सन् 1936
586
जालही
अग्रोत, गोयल
" जिन प्रतिमा"
जै.सि.भा. सन् 1936 |
587
जाल्ही, टूंडा, उदी, चार्युदे
'काष्ठासंघ
नेमिनाथ
जै.सि.भा. सन् 1935 | 14
588
सामा
मूलसंघ
महावीर
जै.सि.भा. सन् 1935 -
3
589
1540
रूषी
................
काष्ठासंघ सोमकीर्ति
जिन प्रतिमा
जै.सि.भा. सन् 1940
16
590
1545
| कुसुमा, उदयश्री
वरहिया कुल
जै.सि.भा. सन् 1936 | 32
591
सता
वरहिया कुल
आदिनाथ
मूलसंघ भट्टारक श्री जिनचंद्रदेव
जै.सि.भा. सन् 1935 |
1
592
पुनिमा
अग्रोत, मित्तल
.................
जिन प्रतिमा
जै.सि.भा. सन् 1936
31
हूंबड ज्ञा.
मूलसंघ के ज्ञानभूषण
संभवनाथ
जै.सि.भा. सन् 1940
18
5931547 594|1549
हर्षु, रूक्मिणी गदा
जै.सि.भा. सन् 1938
| 32
595
1593
दालक्खू, अमरा । ऊकेश, बोथरा
गोत्र
श्री जिनमाणिक्यसूरि
। श्री आदिनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
596
सकतादेवी
श्री शीतलनाथ
| जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
597
सुहागदेवी
श्री शांतिनाथ
| जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
598 11598
जीविणिपठानार्थ
खरतर, श्रीवंत (कडवागच्छ)
| साहू जबाकेन ने लिखवाया
| जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| 312
ऋषभदेव विवाहलु धवल बंध 44 ढाल लिखवाईगई थी।
599
1556
| 996
लीलादेवी की पुत्री डोसी जिदा की पत्नी
आदिनाथ चैत्य में | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2 देवकुलिका का निर्माण करवाया था।
600
1579
अरधाई. कुंयरि
उकेश वंश
कल्याणातिलकगणि लिखित
जंबूचरित्र चौपाई
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
367
601
1525
शंकरदेवी
वसदि के लिए भूमि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2 का दान
| 317
602
1596
पिरोजांपठनार्थ
ऋषि देवसागर द्वारा लिखित
लीलावती चोपाई
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
603
1562
प्रेमबाई पठनार्थ
आलोचणविनति जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
170
गणिरत्नविजय द्वारा लिखित
604
1500
हासलदे
| श्री ब्राह्मणगच्छे
श्री प्रद्युम्नसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| 75
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र० | संवत् । श्राविका नाम | वंश/गोत्र ।
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ /आचार्य
प्रतिमा निर्माण
आदि
संदर्भ ग्रंथ
श्री. श्री. मा.
605
1501
| हेमादे
75
श्री मुनिसुंदरसूरि | भ. श्री चन्द्र प्रभु जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2 तपा. श्री मुनि सुंदरसूरि | भ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
606
1501
प्रा.ज्ञा.
गणिल, वील्ही, रूपी
प्रा.व्य.रता
प्रमीलदे
पूर्णिमा हीरसूरि
| भ. श्री पद्मप्रभु जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
6071501 608 1501
| सुगना, रूपा
प्रा.ज्ञा.
तपा. श्री मुनि सुंदरसूरि
भ. श्री संभवनाथ पंच. जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
609
1501
ऊकेश वंश
अंचल श्री मुनिसुंदरसूरि
भ. श्री पद्म प्रभु जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 75
दूल्हीदे, प्रष्टम दुहडाकेन
6101501
| रत्नादे
श्री श्रीमाल ज्ञा
| पिप्पल श्री धर्मसुंदरसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1501
सिंगारदे, रामादेवी | प्राग्वाट् ज्ञा
तपा. श्री मुनिसुंदरसूरि
भ. श्रीसुमतिनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
6121501
तापलदे
कोरंटकी,
| श्री शांतिदेव सूरि
भ. श्रीशीतलनाथ जी
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
613|1502
ग्रहणदे, वातू
प्रा.ज्ञा.
तपा. श्री चन्द्रसूरि
भ. श्री सुपार्श्वनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
76
जी
614_1503
श्री माल ज्ञा
| अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 76
पिप्पल. श्री धर्मशेखरसूरि | भ. श्री सविधिनाथ
जी
615
1503
घीहाड़ी मूला
कृष्णर्षि. श्री जयकीर्तिसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
76
1503
संसारदे
श्री जयचंदसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
617
|1503
| हिमादे
लावणदे
तपा श्री जयचन्द्रसूरि
भ' श्री अरनाथ जी
| अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
618
|1504
| रसलदेवी
भ. श्री सुमतिनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
श्रीवीरचन्द्रसूरि तपा श्री जयचन्द्रसूरि
619
1505
हरसिणी, देल्हू ऊरा
भ. श्री नमिनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
620
1505
| मयणादे, नरसी
पिप्पल. हीराणंदसूरि
| भ. श्री श्रेयांसनाथ
जी
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
77
6211505वीलूणदे
श्री मुनितिलकसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
77
622
|1505
आपू
प्रा. ज्ञा.
श्री रत्नशेखर सूरि
भ. श्री शीतलनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
77
जी
623
11506
पूनमदे
श्री श्रीमाल ज्ञातीय | श्री गुणरत्नसूरी
भ. श्री कुंथुनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
हर्षादे, रयणादे
श्री ज्ञानकीय
| श्री शांतिसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत जी
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
For Private & Personal use only
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
412
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र० | संवत्
| श्राविका नाम | वंश/गोत्र
| प्रतिमा निर्माण
आदि
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ /आचार्य श्री कक्कसूरि
625
1506
| लूणा
श्री उपकेश
भ. श्री संभवनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
|1506
हर्षि, माकू
प्रा.ज्ञा
तपा श्री रलशेखरसूरि
भ. श्री आदिदेव जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
627
|1507
देऊ
तपा श्रीरत्नशेखरसूरि
भ. श्री विमलनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
|1507
| आसी, देवलदे
| श्री श्रीमाल ज्ञा
पिप्पल श्री अमयचन्द्रसूरि | भ. श्री संभवनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
629
1507
खीमादे
सुराणा गोत्र
धर्मघोष. श्री पद्मानंदसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
78
630_1507
| प्रा. ज्ञातीय
| ऊकेश. श्री कक्कसूरि
भ. श्री सुमति नाथ
| अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
6311507
| रासू
प्रा.ज्ञा. गोत्र
श्रीवीरसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ
| अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
| तिड़गणागा
ब्रह्माण. श्री उदयप्रभसूरि | भ. श्री विमलनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
- 79
|
6321508 633_1509
| गउरदे, सरसदे
उपकेश बलहि गोत्र
| श्रीकक्कसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
634_1509
| आल्हण बीलह
प्रा. ज्ञा गोहिल वाले गोत्र
| मडाहडीय श्रीनयचन्द्रसूरि | भ. श्री चन्द्रप्रभ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
635
1509
| सासू, षोषा
ऊकेशवंश लोढ़ा गोत्र
खरतर. श्रीजिनसागर सूरि | भ. श्री मुनि सुव्रत
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
6361509
|जसमादे, देवलदे | ऊ.ज्ञा.
ऊकेश. श्री कक्कसूरि
भ. श्री शीतलनाथ
| अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
6371509
थानी, पूरी
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री रत्नशेखरसूरि
भ. श्री शीतल जी
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
79
638
1510
ऊकेश
प्रा.श्रीसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी
सुहाडादे. वाहिणदे
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
79
639
|1510
भावलदे, तारी
| सुराणा
| तपा. श्री रत्नशेखरसूरि
भ. श्री चन्द्र प्रभु जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
640
|1510
कपूरी, हीरा
प्राग्वाट्,
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री कुंथु जी
| अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
80
641
1510
प्रा. व्य.
तपा.श्री. रत्नशेखरसूरि
भ. श्री आदि नाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
वाछाकेन, विमलादे
जी
642
1512
| वीलूणदे, कमलादे | अपकश ज्ञातीय
| खरतर श्री जिनचन्द्रसूरि | भ. श्री शीतल नाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
643
1512
पूनादे
उपाकेश श्री कक्कसूरि
|
80
| भ. श्री सुमति नाथ | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
644
1512
मदाई
मूसल गोत्रे
भ. श्री कुंथुनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
80
श्री धर्मघोष श्री पास मुनिसूरि
6451512
खेंतलदे, राणी
दोसी गोत्रे
खतर. श्री जिनचन्दुसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
80
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
646
648
647 1512
649
650
651
652
653
654
655
658
संवत्
659
1512
661
1513
1513
1513
1513
1514
656 1515
666
1514
657 1515
1515
1514
1515
660 1515
1515
1516
662 1516
663 1517
664 1518
665 1519
1519
श्राविका नाम
वेतनादि, यान्हदि
गंगादे, वरजु
जाल्हणदे,
वील्हणदे
कर्मावे
पोमादे, झागू
माघलदे
मकूना
विमलादे
लीबी, रतनू
वीझल, खीमादे
वरजू लींबल
विमलादे, दूल्हादे
धावलदे, हासलदे
रमणदे, माणिकदे
करषू
आलाणदे, लषमादे
कून तोलू
वंश / गोत्र
सीता
प्रा. ज्ञातीय
ऊकेश वंशे गोलवणा गो
प्रा. ज्ञा.
उ. ज्ञातीय लीबला
गोत्र
उपकेश ज्ञा
प्रा.ज्ञा.
ज्ञानकीय ठाकुर गोत्र
आशापल्ली, वारत
लाषणदे वानू
भोली, होरर
पिंचाणदे, कीडकू उपकेश ज्ञातीय
ऊकेश वंश झगा गोत्र
श्रीमाल ज्ञातीय
प्रा. ज्ञातीय
उ. ज्ञा. सागर. गोत्र
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
नगह, श्री विजयप्रभुसूरि
तपा. श्री रत्नशेखरसूरि
श्री रत्नशेखरसूरि
खरतर श्री जिनभद्रसूरि
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
श्री महड श्री धर्मसुंदरसूरि
तपा. श्री उदयानंदसूर
तपा. श्री रत्नशेखरसूरि
बृहद तपा. रत्नसिंह सूरि
तपा श्री रत्नशेखर सूरि श्री जिनभद्र सूरि
प्रतिमा निर्माण आदि
ब्रह्माण तपा. श्री उदयप्रभु सूरि नयभद्र सूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागर सूरि
भ. श्री वासुपूज्य जी
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री विमलनाथ जी अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री संभवनाथ जी अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री शीतलनाथ जी
भट्टारक. श्री धनेष्वर सूरि भ. श्री धर्मनाथ जी
भ. श्री विमलनाथ जी अ. जै.धा. प्र.ले.सं.
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री मुनिसुव्रत जी अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री नमिनाथ जी
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री चन्द्रप्रभु स्वामी जी
अ. जै.धा. प्र.ले.सं.
भ. श्री आदिनाथ जी अ.जै.धा.प्र.ले.सं. भ. श्री मुनिसुव्रत जी अ. जै. धा.प्र.ले.सं. भ. श्री शीतलनाथ अ. जै.धा.प्र.ले.सं. जी
पूर्णिमा श्री गुणसागरसूरि भ. श्री विमलनाथ जी अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
कोरंट श्री कक्कसूरि
अ. जै.धा. प्र.ले.सं.
भ. श्री प्रभु जी भ. श्री विमलनाथ जी अ.जै.धा. प्र.ले.सं.
पिप्पल भट्टारक श्री धर्म सागरसूरि
श्री सूरि
पूर्णिमा श्री यशोसागरसूरि भ. श्री सुविधिनाथ जी पूर्णिमा श्री यशोसागरसूरि भ. श्री चन्द्रप्रभु जी
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा. प्र.ले.सं.
भ. श्री शांतिनाथ जी अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री चन्द्र प्रभु जी अ. जै.धा.प्र.ले.सं. भ. श्री नमिनाथ जी अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री शान्तिनाथ जी अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा. प्र.ले.सं.
413
पृ.
81
81
81
81
81
81
82
82
82
82
82
82
82
82
83
83
83
83
83
83
83
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
414
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र० | संवत् |
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रतिमा निर्माण |
आदि
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ /आचार्य | जीराउला श्री उदयचन्द्रसूरि
667
1519
| सोषल, शाषी
ऊकेश. ज्ञातीय
| भ. श्री कुंथुनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
668
1519
कपूरदे, हमीरादे | उकेश. ज्ञातीय
मड्डाहड. श्रीउदयप्रभुसूरि | भ. श्री विमलनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
|1520
तपा. श्री लक्ष्मीसागर सूरि | श्री विमलनाथ जी
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
670
1520
भ्या, पोमी
प्रा.ज्ञा
श्री ...... सूरि
भ. श्री संभव नाथ जी
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
6711520
तपा. श्री लक्ष्मीसागर सूरि भ. श्री कुंथुनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
84
672 |1521
सूमा
उपकेष. ज्ञा.
नाणकीय. श्री धनेष्वर
भ. श्री शांतिनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
सूरि
6731521
गांगी
प्रा. ज्ञा.
| श्री लक्ष्मीसागर देवसूरि | भ. श्री वासुपूज्य जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं. श्री उदयचन्द्र सूरि भ. श्री विमलनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
674
|1521
लषमादे
675
1521
माल्हणदे, तारह
तपा.श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
676
|1521
| मेघादे, धरण
पूर्णिमा. श्री विजयप्रभसूरि | भ. श्री आदिनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
677
1521
सोहणदे, चापलादे | प्रा. ज्ञा.
श्री लक्ष्मीसागर सूरि
भ. श्री नमिनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
678
1521
सरमादे, सामलदे, | प्रा. ज्ञातीय
तपा. श्री सागर सूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
679
1522
पूनी खीका
ऊकेश. ज्ञा.
वृहद तपा. सागर सूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
85
680
|1522
कुंभादे, सुवीरदे
प्रा.ज्ञा.
तपा श्री जयकल्याण सूरि | भ. श्री वासुपूज्य जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
85
प्रा.ज्ञा.
तपा श्री लक्ष्मीसागर सूरि | भ. श्री विमलनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
86
681 1523 | तोतू
|1523
| लावू
श्री. ज्ञा.
भ. श्री शांतिनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
तपा श्री लक्ष्मी सागर सूरि
683 |1523
सोनलदे
तपा. श्री लक्ष्मीसागर सूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
86
684 |1523
हांसलदे, दूला
तपा. श्री लक्ष्मीसागर सूरि | भ. श्री सुमितनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
685 |1524
सोनलदे, वाला
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागर सूरि
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री शीतलनाथ जी
686
|1523
मोती, नाई
हूंबड़, ज्ञा.
बृहद. श्री कुनसागर सूरि | भ. श्री नमिनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
687 |1525
| सुहासिणि
प्रा.ज्ञा.
श्री सूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
6881525
पूजी कउतिगदे
प्रा. ज्ञा.
तपा श्री लक्ष्मीसागर सूरि | भ. श्री सुमितनाथ जी | अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
87
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
689
690
691
692
|
693
695
696
697
694 1526
700
701
702
संवत्
703
1525
704
1525
705
1525
1525
698 1527
1526
699 1527
1526
1527
1527
1501
1501
1501
1501
1501
1501
श्राविका नाम
देऊ, अधू
हास्तू, राजू
हांसू, वीजू
अमरी, ललतू
लाबलदे
वाली, रूपिणि
सलषणदे, लीलादे
गुरादे कामलदे
माणिकदे, वीमादे
सोलनदे, नीनू, धनी
राज, नाना, लीलादि
माल्हणदे
सूदी
भोली, आरजू
अमरी
माल्हणदे रही
भावलदे
वंश / गोत्र
प्रा.ज्ञा.
प्रा.ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा.ज्ञा.
प्रा.ज्ञा.
उसवपाल ज्ञा.
उप.ज्ञा. बागरेचा
ऊकेश. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्रीमाल. ज्ञा.
मोढ़ ज्ञा.
मोहादीचा गोत्र
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
तपा श्री लक्ष्मीसागर सूरि भ. श्री धर्मनाथ जी
"
""
"
बृहद् देवचन्द्र सूरि
नागेंद्र श्री सोमरत्न सूरि
ऊकेश श्री सिंह सूरि
ऊकेश श्री सिंह सूरि
जीरापल्लीय श्री सागरचन्द्र सूर
श्री सूरि
पूर्णिमा जयचंद्रसुरि
नागेंद्र गुणसमुद्रसूरि
आगम देवरत्नसुरि
तपा श्री लक्ष्मीसागर सूरि भ. श्री कुंथुनाथ जी
श्रीकक्कसूरि
तपा. मुनिसुंदरसूरि
पूर्णिमा. गुणसमुद्रसूरि
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री सुविधिनाथ जी
भ. श्री विमलनाथ जी अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री कुंथुनाथ जी
अ. जै.धा. प्र.ले.सं.
भ. श्री संभवनाथ जी अ.जै.धा. प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री चंद्रप्रभु जी
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री सुमितनाथ जी अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री शीतलनाथ
जी
भ. श्री पद्मनाथ जी अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री शांतिनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री पार्श्वनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री संभवनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
भ. श्री अनंतनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री सुमतिनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
415
पृ.
87
87
87
87
87
88
88
88
88
88
88
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
416
क्र०
706
707
708
709
710
711
712
713
714
715
716
717
718
719
720
|
721
722
संवत्
1501
1501
1501
1502
1502
1502
1503
1504
1504
1504
1504
1504
श्राविका नाम
1504
1504 लाषणदे
1505
सांतरी, हमीररिदे उकेश. ज्ञा
पूनादे
मटकू
1504 सारू
कुतिगदे
सहजादे, गुरी
पूनी
जसमादे
कई यू
हलू माई
आसू झुमकु
वारू, पारू
1504 पोमी, वालहीग
सीतादे
सेनू
वंश / गोत्र
पुरि, रतनू, वजू
उके. वंश.
श्री. श्री.
उपकेश. ज्ञा.
उप. ज्ञा.
प्रा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री.
श्री. श्री.
वानू, राणी, हीराई श्री. श्री.
श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री.
उकेश. ज्ञा.
प्र. ज्ञा.
श्री. श्री.
श्री. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
तपा. मुनिसुंदरसूरि
अंचल. जयकेसरीसूरि
तपा. मुनिसुंदरसूरि
धर्मघोष. विजयचंदसूरि
पूर्णिमा. जयचंद्रसूरि
तपा. जयचंद्रसूरि
जयचंद्रसूरि
नागेन्द्र कमलचंद्रसूरि
सिंहाली. मुनिसिद्धसूरि
श्रीसूरि
तपा. जिनरत्नसूरि
सुविहितसूरि
सुगुरु के अपदेश से
| खरतर, जिनसागरसूरि
तपा. जयचंद्रसूरि
तपा. रत्नसिंहसूर
जिनदेवसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री अनंतनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
भ. श्री आदिनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
भ. श्री चंद्रप्रभु जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
संदर्भ ग्रंथ
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री आदिनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
भ. श्री नेमिनाथ जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री मुनिसुव्रत जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री आदिनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ श्री चंद्रप्रभु जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री शांतिनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
भ. श्री श्रेयांसनाथ
जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री शांतिनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
भ' श्री सुमतिनाथ
जी
भ. श्री सुमतिनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री सुमतिनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री सुमतिनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
पृ.
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र० । संवत् । श्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ /आचार्य
प्रतिमा निर्माण
आदि
723
1505
गांगी, फइ
प्राा ज्ञा.
तपा. जयचंद्रसूरि
| भ. श्री पार्श्वनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
724
| 1505 | पूरी
प्रा. ज्ञा.
तपा. जयचंद्रसूरि
भ. श्री महावीर जी
दि.जै.इ.इ.अ.
725
| 1505 | जसमादे
उकेश. वंश
अंचल, जयकेसरी
| भ. श्री चंद्रप्रभु जी
दि.जै.इ.इ.अ.
726
1505 | गुरदे
श्री. श्री.
तपा. जिनरत्नसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
727
1505
राणी
श्री. श्री.
नागेन्द, गुणसमुद्रसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी
| दि.जै.इ.इ.अ.
728
1505
| राजी, सिंगारदे
श्री. श्री.
अंचल. जयकेसरीसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
729
| 1505 | कपूरदे, राघू
श्री. ज्ञा.
| बह्मण. मुनिचंद्रसूरि
भ. श्री विमलनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
730
| 1505 | चंदुई
श्री. मोढ
विद्याधर, विजयप्रभुसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
731
1505
| भरमादे, मचकू
| प्रा. ज्ञा.
तपा. जयचंद्रसूरि
भ. श्री नेमिनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
732
1505 | देउ, वरजू
प्रा. ज्ञा.
तपा. जयचंद्रसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी - दि.जै.इ.इ.अ.
733
1505
चमकु
प्रा. ज्ञा.
श्रीसूरि
भ. श्री अभिनंदन जी | दि.जै.इ.इ.अ.
1505
प्रा. ज्ञा.
तपा. जयचंद्रसूरि
पालहणदे, काजलदे, उमी
| भ. श्री पद्मनाभ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
735
1505
आसलदे, सललदे प्रा. ज्ञा.
तपा. जयचंद्रसूरि
भ. श्री पद्मनाभ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
736
1506 | पूजी
श्री. श्री.
| पिप्पल. विजयदेवसूरि
| भ. श्री विमलनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
737
1506 | रतनी, चमकू
श्री. श्री.
पूर्णिमा. गुणसमुद्रसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी
| दि.जै.इ.इ.अ.
738
1506 | तेजलदे, भरमादे | श्री. श्री.
अंचल. जयकेसरीसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
739
|
1506 | राजू, वाछा
श्री. श्री.
पूर्णिमा. साधुरत्नसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ
दि.जै.इ.इ.अ.
जी
740
1506 | सारूं, सांताई,
रत्नादे
उप. ज्ञा.
श्रीसूरि
भ. श्री वासुपूज्य जी
दि.जै.इ.इ.अ.
1506 | बूची, कर्मी, हरपू | प्रा. ज्ञा.
| कक्कसूरि
भ. श्री विमलनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
742 |
1507 | ललतादे, शाणी | श्री. ज्ञा.
बह्माण. विमलसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
743
1507
लाडकि
श्री. श्री.
पूर्णिमा. जयचंद्रसूरि
भ. श्री नेमिनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
744
1507
वारू, कूनु
प्रा. ज्ञा.
त्पा.. रत्नशेखरसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभु जी
| दि.जै.इ.इ.अ.
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
418
745
746
747
748
749
750
751
752
753
754
755
756
757
758
759
760
761
762
763
764
765
766
767
1507
1507
1507
1507
1507
1508
1508
1508
1508
1508
1509
1509
1509
1509
1509
1509
1509
1509
1509
1509
1509
1509
1509
सलषणदे, जसमा
बांझ
गांगी, फदू
अमरी, हरमादे
मचकू, अमरादे
| माणिकदे
सुहागदे
वाल्ही, वरदे
लाच्छी, जसमादे
लाटी, देउ
सूणदे
संपूरी
कामलदे, हर
माई
गंगादे
नीणादे, राजलदे
लीलादे, कर्मिणि
जीविणि, गांगी
सारू, सलाषू
माल्हणदे
जसमादे, शाणी,
हरषू
चांपलदे
झमकलदे, पाल्हणदे
देल्हणदे, उमी, लषी
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री.
उसवाल. झा.
उकेश वंश
श्री. श्री.
श्री. श्री.
डीसावाल. ज्ञा.
भावसार
प्रा. ज्ञा.
डी. सा. ज्ञा.
काकरियागोत्र उकेश. वंश
श्रीमालवंश मघाल गोत्र
श्री. श्री.
श्री. श्री.
उसवाल. ज्ञा.
श्री. श्रीमाल
श्री. श्रीमाल
श्री. श्रीमाल
गूर्जर श्रीमाल
उकेश ज्ञा.
श्री. श्री. ब्रह्माण
श्री. श्री.
उसवाल, झा.
| आगम. देवरत्नसूर
नागेन्द्र. विनयप्रभसूर
कक्कसूर
श्रीसूरि
अंचल. जयकेसरीसूरि
तपा. जिनरत्नसूर
तपा. रत्नशेखरसूरि
तपा. सोमसुंदरसुरि
रत्नशेखरसूरि
तपा. रत्नशेखरसूरि
खरतर, जिनचंद्रसूरि
खरतर. जिनचंद्रसूरि
तपा. रत्नसिंहरि
रत्नसिंहसूर
रत्नशेखरसूरि
श्रीसूरि
अंचल. जयकेसरीसूरि
अंचल. जयकेसरीसूरि
कोरंट सावदेवसूर
पूर्णिमा. सोमचंद्रसूरि
विमलसूरि
पिप्पल. धर्मशेखरसूरि
पूर्णिमा. जयचंद्रसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
भ. श्री सुविधिनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री कुंथुनाथ जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री संभवनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री धर्मनाथ जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री वर्धमान जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री आदिनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
भ. श्री शांतिनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री संभवनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री चंद्रप्रभु जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री सुमतिनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री पार्श्वनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
भ. श्री शांतिनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
भ. श्री शांतिनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
भ. श्री संभवनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री शांतिनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री सुमतिनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
768
1509
| रूडी, काल्ही
श्री. श्री. माल ।
विद्यासुंदरसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभु जी
दि.जै.इ.इ.अ.
769
- 1509
हांसलदे, राही, लषमादे
श्री. श्री.
वृद्धतपा. रत्नसिंहसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
1509
| सइतलदे, राणी,
श्री. श्री
| पिप्पल. धर्मशेखरसूरि
| भ. श्री संभवनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
पूरी
771 | 1509 | समराधि, देसाई | उकेश. वंश चंडाली | खरतर. जिनभ्रदसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
गोत्र
1510 | | पांची, पूरी
माणिकि
श्री. श्री.
अंचल. जयकेसरीसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
1510 | संसारदे, रत्न
| श्री. श्री.
गुणरत्नसूरि
भ. श्री वासुपूज्य जी | दि.जै.इ.इ.अ.
1510
| कपूरी
श्री. ज्ञा
हेमचंद्रसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
775
1510 | देवाई, मका
तपा. रत्नशेखरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
| 1510 | हांसलदे, मयकू
श्री. श्री.
पूर्णिमा. गुणसमुद्रसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
777 | 1510 | पालहणदे, घेघू
श्री. श्री.
श्रीसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
778 | 1510 | चंगी
दीसावंश
| खरतर. जिनसागरसूरि
| भ. श्री अजितनाथ
जी
| दि.जै.इ.इ.अ.
779
1510 | सोषू ह—
उके. चोपड़ा गोत्र | खरतर जिनसागरसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
780
A
कारुणा गोत्र
| 1510 | हांसू, रगाई
| जिनसागर
दि.जै.इ.इ.अ.
भ. श्री सुपार्श्वनाथ जी
781 | 1510 | रांकु, कलहणदे
| प्रा. ज्ञा.
आगम. देवरत्नसूरि
भ, श्री धर्मनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
| 1510
| घीकी, पूना
खरतर, जिनसागरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
सुनामडा गोत्र वीसलपूरा ज्ञा.
783 | 1510
लाछलदे
| ज्ञानकीय. शांतिसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
784
1510
सारू
श्री. श्री.
चैत्र.लक्ष्मीदेवसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
785
1510
रूपाई
वायड़ गोत्र
खरतर. जिनसागरसूरि
भ. श्री महावीर जी
दि.जै.इ.इ.अ.
786
1510
|साई, झमकू
डीस. ज्ञा.
तपा.रत्नशेखरसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
787
1510 | वरजू, जसबादे
उकेश. वंश
खरतर.जिनभद्रसूरि
| भ. श्री वासुपूज्य जी
दि.जै.इ.इ.अ.
7881510
लखमादे पूरी
| | प्रा. ज्ञा.
तपा.रत्नशेखरसूरि
| भ. श्री संभवनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
भ
789
| 1510
| सूदी, दिउ
प्रा. ज्ञा.
तपा.लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
790
1510
सूहवदे
सलजणपुर निवासी श्रीसुरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
420
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
791
1511
लक्ष्मी, हली
श्री. श्री.
श्रीसुरि
भ. श्री शांतिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
792
| 1511
अरधू
उप. झा.
जीराउला.उदयचंद्रसूरि
भ. श्री अजितनाथ
दि.जै.इ.इ.अ.
जी
7931511
महणसिरि वीरमबाई
| भ. श्री पार्श्वनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
उकेश ज्ञा भंडारअर गोत्र
| साधुरत्नसूरि
7941511
राजू (कुतिग) | श्री. ज्ञा.
कोरंट.सावदेसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
795
1511 | जोहिणि, सूपादे
उप. ज्ञा. (यचणा | उपकेश.कक्कसुरि
भ. श्री शांतिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
गोत्र)
| 1511
| रंगाई, गारदे
श्रीसुरि
दि.जै.इ.इ.अ.
हारीजगच्छ उस. झा.
भ. श्री शीतलनाथ जी
797
| 1511
साजणि
श्री. श्री.
पूर्णिमा कमलप्रभसूरि
भ. श्री नमिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
798
1511
| कूली, सहदे
श्री. श्री.
तपा. रत्नसिंहसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
799
| 1511
| प्रा. ज्ञा.
तपा. रत्नसिंहसूरि
| भ. श्री धर्मनाथ जी
| दि.जै.इ.इ.अ.
8001511
प्रा. ज्ञा.
रत्नदेवसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
आसू, सारू, रामति
801
| 1511
| राजलदे, कुंयरि | उस. वंश
जीराउल.उदयचंद्रसूरि
भ. श्री विमलनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
8021511 | मंजकु, राणी
श्री. श्री.
पूर्णिमा.कमलप्रभसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
803
1511
लषमादे
उकेश, वंश
अंचल.जयकेसरीसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी । | दि.जै.इ.इ.अ.
804
1511
जासू
श्रीमाल
पिप्पल.विजयदेवसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
805 | 1511 | सूहवदे, अमरी
।
उकेश. वंश
खरतर.जिनभद्रसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
806
1511 | गउरदे
उकेश वंश
खरतर, जिनचंद्रसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
807
1511 | चनू सुहवदे जेसू | उकेश वंश
खरतर. जिनचंद्रसूरि
भ. श्री वासुपूज्य जी | दि.जै.इ.इ.अ.
808
| 1511 | रूमादे चंपाई
भंसाली गोत्र
खरतर. युगप्रधान राजेन्द्र | भ. श्री शीतलनाथ भ. | दि.जै.इ.इ.अ.
श्री जी
809
1511
वारू
प्रा. ज्ञा.
तपा. रत्नशेखरसूरि
भ. श्री शीतलनाथ भ. दि.जै.इ.इ.अ. श्री जी
810
| 1512 | रतनादे
श्री. श्री.
बह्माण. मुनिचंद्रसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
811
1512 | वारू, नीकू
श्री. श्री.
पिप्पल. कनकप्रभसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
812
1512 | चांपलदे, भरमी
श्री. श्री.
पिप्पल. जयचंद्रसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
813
1512
| जसमादे, चंगाई
श्री. श्री.
रत्नशेखरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
814
1512
| माई श्रेयार्थ
श्री. ज्ञा.
साधुरत्नसूरि
भ. श्री विमलनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
815
1512
माणिकदे
श्री. श्री.
पूर्णिमा साधुरत्नसूरि
भ. श्री नेमिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
816
श्री. श्री.
आगम. सिंहदत्तसूरि
1512 | जासलदे, वाछु,
चंगाई
भ. श्री वासुपूज्य जी
दि.जै.इ.इ.अ.
817
| 1512 | सेउ, टबकू
| प्रा. ज्ञा.
तपा. जिनरत्नसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ
| दि.जै.इ.इ.अ.
818 | 1512 | हांसू, रंगादे
श्री. श्री.
| सिंहदत्तसूरि
भ. श्री विमलनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
819
1512 | लार्ता, गुरी
उसवाल. ज्ञा.
भ. श्री अभिनंदन जी | दि.जै.इ.इ.अ.
| श्रीसुरि | तपा. रत्नसिंहसूरि
820 | 1512 | गुणिया, गंगादे । | उसवाल. ज्ञा.
| भ. श्री आदिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
821
1512 | पाल्हणदे, जीविणि श्री. श्री.
आगम. हेमरत्नसूरि
भी
| भ. श्री सुपार्श्वनाथ
जी
दि.जै.इ.इ.अ.
822
1512 | पंचू, लाछू
श्री. श्री.
पूर्णिमा. जयचंद्रसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी
| दि.जै.इ.इ.अ.
823
| 1512 | मांकु, धनी
श्री. श्री.
खरतर. जिनचंद्रसूरि
भ. श्री सुपार्श्वनाथ
दि.जै.इ.इ.अ.
जी
824 | 1512 | रूपिणि अमकू।
मेवाड़ा. ज्ञा.
श्रीसूरि
भ. श्री विमलनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
825
1512
| मीनी, लली
श्रीमाल. ज्ञा.
पिप्पल. उदयदेवसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
826
1512
कुअरि
श्री. श्री.
आगम. हेमरत्नसूरि
| भ. श्री मुनिसुव्रत जी
| दि.जै.इ.इ.अ.
827 | 1512
| हीरी, आसलदे | उकेश.वंश
कोरंट. सावदेवसूरि
भ. श्री नेमिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
828
1512
|सूलेसरी, समति
दीसावाल
तपा. उदयंदिसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
829
1513
श्री. श्री.
लालू
लीलू
पिप्पल. गुणरत्नसूरि
| भ. श्री सुविधिनाथ
| दि.जै.इ.इ.अ.
जी
830 | 1513
| रतनू, हीरादे
श्री. ज्ञा.
ब्रह्माण. विमलसूरि
| भ. श्री संभवनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
831 | 1513
|भमी कुंअरि
प्रा. ज्ञा.
उकेश. देवगुप्तसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ
दि.जै.इ.इ.अ.
832
| 1513
| चांडणदे,
देवगुप्तसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
ललतादे, गंगादे, धर्मादे
प
8331513
| गुरी, शंभू
श्री. श्री.
श्री विद्याधर. हेमप्रभसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ.
834
1513 | राजी, हला, हांसा | श्री. श्री.
तपा. रत्नशेखरसूरि
भ. श्री अजितनाथ
दि.जै.इ.इ.अ.
जी
835
1513
पूंजी., धीरा, कपूरी, जानू
श्री. श्री.
पूर्णिमा. सुगुरू
भ. श्री शांतिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.अ..
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
422
836
837
838
839
840
841
842
843
844
845
846
847
848
849
850
851
852
853
854
855
856
857
858
1513
1513
1513
1513
1513
1513
1513
1513
1513
1513
1513
1513
1513
1514
1514
1514
1515
1515
1515
1515
1515
1515
1515
चांपा, लारूकि
वीर वंश
कमादे, पाल्हणदे श्री. श्री.
लीलादे
माणिकदे, उंबी,
हरकु
हरषू
वइरसी, गांगी, लषमादे
जाऊ, साधू
हर्षू भली, रमादे
हासू, पूरी
माहगलदे
धरू, वाकू
वरजू, संपूरी, कील्हणदे
यू रही
करमणिषु वील्ह
कौतिकदे, शंकु लाछी
अरघू
हर्षू, लषम
गोमती, हीरादे
मेघलदे, टीबू
वइजलदे वारू
करमादे, सालहा
उटकू
मनु
श्री. श्री.
उकेश वंश
श्री. ज्ञा.
नागर. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
सुराणा गोत्र
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्रीमाल. ज्ञा.
उसवाल
हूंबड
प्रा ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री.
अंचल. जयकेसरीसूरि
पिप्पल. अभयचंद्रसूरि
आगम. हेमरत्नसूर
| तपा. रत्नशेखरसूरि
ब्रह्माण. विमलसूर
श्रीसूरि
आगम, आणंदप्रभसूर
तपा. रत्नशेखरसूरि
तपा. रत्नशेखरसूरि
| धर्मघोष. पद्मानंदसूरि
तपा. रत्नशेखरसूरि
तपा. रत्नशेखरसूरि
तपा. रत्नशेखरसूरि
| धर्मघोष. महीतिलकसूरि
ता... रत्नशेखरसूरि
मूलसंघ. सकलकीर्ति
तपा. रत्नशेखरसूरि
तपा. रत्नशेखरसूरि
विधिपक्ष श्रीसूरि
पूर्णिमा. विजयचंद्रसूरि
आगम. सिंहदत्तसूरि
तपा. रत्नशेखरसूरि
पिप्पल. उदयदेवसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
भ. श्री चंद्रप्रभु जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री संभवनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
भ. श्री चंद्रप्रभु जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री आदिनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
भ. श्री नेमिनाथ जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री संभवनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
भ. श्री सुविधिनाथ जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री सुमतिनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
भ. श्री आदिनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
भ. श्री वासुपूज्य
जी
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री शांतिनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्री सुविधिनाथ जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री विमलनाथ जी
भ. श्री चंद्रप्रभु जी
भ. श्री महावीर जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री चंद्रप्रभु जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री सुमतिनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
859
860
861
862
863
864
865
866
867
868
869
870
871
872
873
875
876
877
878
879
1515
880
1515
1515
1515
1515
1515
1515
1515
1515
1515
874 1516
1515
1515
1515
1515
1516
1516
1516
1516
1516
1516
1516
हेमाद्री, मांई
सचकु, गौरी, धरणू, लाडी, पूंजी
हर्षू
चापूरी मरग
लहकू हीराई
वारू, सोनाई,
देमाई
सलषू, गोरी
सदू देमति
शंभू जीविणि
आसा, वाल्ही
हांसलदे
लाडी
लष्मादे
संपूरी
माल्हणदे
वलहादे
पांयू, लीलादे
देवलदे, अकू
हांसू
मचकु
उकेश. ज्ञा.
सलषू
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री.
उप. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री.
हारीज उसवाल
ज्ञा.
श्री. श्री.
श्री. श्री.
प्रा. ज्ञा.
महतीयाण, ज्ञा.
गंगादे, पालहणदे, श्री. श्री. वंश रंगी, झांझू
आसू
अमकू
उपकेश. ज्ञा.
श्री. श्री. वंश
उकेश ज्ञा.
उकेश वंश
उसवाल ज्ञा
श्री. श्री
सावदेवसूरि
तपा. रत्नशेखरसूरि
पिप्पल. चंद्रप्रभसूर
सरसूरि
वृद्ध. तपा जिनरत्नसूरि
तपा. रत्नशेखरसूरि
तपा. रत्नशेखरसूरि
तपा. रत्नशेखरसूरि
तपा. रत्नशेखरसूरि
चैत्र. लक्ष्मीदेवसूरि
आमसरसूरि
श्रीसूरि
मधुकर धनप्रभसूरि
तपा. रत्नशेखरसूरि
तपा. रत्नशेखरसूरि
पूर्णिमा. महातिलसूरि
अंचल. जयकेसरीसूरि
अंचल. जयकेसरीसूरि
श्रीसूरि
खरतर जिनचंद्रसूरि
रत्नसिंहसूर
वृद्ध देवचंद्रसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री सुमतिनाथ जी
भ. श्री शीतलनाथ जी
भ. श्री धर्मनाथ जी
भ. श्री पद्मप्रभु जी
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री शीतलनाथ
जी
भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री अजितनाथ
जी
भ. श्री अजितनाथ जी
भ. श्री चंद्रप्रभु जी
भ. श्री सुविधिनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री अनंतनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्री पद्मप्रभु जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री अभिनंदन जी
भ. श्री शीतलनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ जी
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
423
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
881
1516
गंगादे
उसवाल ज्ञा.
पूर्णिमा. जयचंद्रसूरि
| भ. श्री श्रेयांसनाथ
दि.जै.इ.इ.अ.
जी
882
| 1516
कादे, वाद्यु
प्रा. ज्ञा.
रत्नसिंहसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
883
1516.
देलहणदे (पद्माई) सोनाई
उकेश. वंश
खरतर. जिनचंद्रसूरि
भ. श्री वासुपूज्य जी
दि.जै.इ.इ.अ.
884 | 1516
| माणलदेवी
उसवाल. ज्ञा.
नाणावाल धनेश्वरसूरि
भ, श्री शीतलनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
885
1516
| | जयतलदे, इव्हादे | उप, वंश
हारीज महेश्वरसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
886
| | 1516
हीसी
श्री.
भ. श्री नेमिनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
| सुंदरसूरि अंचल. जयकेसरीसूरि
| 1516
| सहजलदे, पूरी
| उके. वंश
| भ. श्री शीतलनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
888
1516 | करणू वाल्ही
प्रा. ज्ञा.
आगम. हेमरत्नसूरि
भ. श्री विमलनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
889
| 1516
| पांचू, कमलादे
उकेश वंश
अंचल. जयकेसरीसूरि
भ. श्री नेमिनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
890
1516
धरणू, भरमादे
| प्रा. ज्ञा.
तपा. रत्नशेखरसूरि
| भ. श्री शांतिनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
891
1516
| माणिकि करणू
प्रा. ज्ञा.
आगम. हेमरत्नसूरि
| भ. श्री कुंथुनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
892
11516
धांधलदे
श्री. श्री.
पूर्णिमा.. जयप्रभसूरि
| भ. श्री विमलनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
893
1516
| प्रीमलदे
श्री. श्री.
भ. श्री अनंतनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
पूर्णिमा. गुणधीरसूरि तपा. रत्नशेखरसूरि
1516
सयू, मटकू
प्रा. ज्ञा.
| भ. श्री आदिनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
895
1516
राजलदे चंगाई
| श्री. श्री.
आगम. देवरत्नसूरिभ. श्री नेमिनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
896
1516 |अबू राजलादे
उसवाल
| भावदेवसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ
दि.जै.इ.इ.अ.
897
1516
राजू
प्रा. ज्ञा
विजयचंद्रसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
898
1516
वरणू
श्री. श्री.
आगम. सिंहदत्तसूरी
| भ. श्री संभवनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
899
1516
सांउ
श्री. श्री.
पूर्णिमा. जयचंद्रसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ
दि.जै.इ.इ.अ.
जी
900
| 1516 | भोली
श्री. श्री.
अंचल. जयकेसरीसूरि
दि.जै.इ.इ.अ.
भ. श्री शीतलनाथ जी
901 | 1516
मुहतेयाण वंश गोबर गोत्र
खरतर. जिनसुंदरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी|
चांपू, मुचकू राजलदे
दि.जै.इ.इ.अ.
902
1516
चांपू, चमकू
-
श्रीमाल ज्ञा
वृद्धतपा. रत्नसिंहसूरी
भ. श्री सुमतिनाथ जी | |
दि.जै.इ.इ.अ.
9031516 |वांनू रत्नू
प्रा. ज्ञा.
तपा. रत्नशेखरसूरी
दि.जै.इ.इ.अ.
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
904
1516
| उमी
प्रा. ज्ञा.
तपा. रत्नशेखरसूरी
दि.जै.इ.इ.अ.
1516
वृद्धतपा. जिनरत्नसूरि
दि.जै.इ.इ.अ.
| सुहासिणि, माई | प्रा. ज्ञा | राजलदे, अंहिदि । श्री. श्री
906
1516
आगम. हेमरत्नसूरी
दि.जै.इ.इ.अ.
907
1517
| नीणादे मालहणदे | श्री. श्री.
वृद्धतपा. रत्नसिंहसूरि
दि.जै.इ.इ.अ.
908 | 1517
| हुलहादेसू, दूबी | उसवाल ज्ञा
वृद्धतपा. रत्नसिंहसूरि
दि.जै.इ.इ.अ.
909
1517
| हरषू परबत
| प्रा. ज्ञा
द्विवंदनीक सिद्धसूरि
दि.जै.इ.इ.अ.
910
|
1517
| श्री. श्री. ज्ञा.
सूली, जासूसु कामलदे, गजी
आगम. गुणचंद्र
दि.जै.इ.इ.अ.
| 1517
टची, सनषति, पक्षाई
उकेश ज्ञा
धर्मचंद्रसूरि
दि.जै.इ.इ.अ.
912 | 1517
| लाछि, गंगादे
उप. ज्ञा सुराणा गोत्र
पद्मनंदसूरि
दि.जै.इ.इ.अ.
1597
| कर्मी देवलदे सोभागिणी
भ. श्री आदिनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
28
उकेष वंष आदिलीया गोत्र
914 | 1524
कमलादेवी
चोपड़ा गोत्र
| आ.जिनहंससूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 ख. पट्टा. स.
915 | 1598
सिरियादेवी
| रीहड गोत्र
आ. जिनचंद्रसूरि
182
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
ख.इ.प्र.ख.
916
1549
रयणादेवी
चोपड़ा गोत्र
आ. जिनमाणिक्य
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
ख.इ.प्र.ख.
191
917
|1524
कमलादेवी
चोपडा गोत्र
| आ.जिनहंससूरि
- 190
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
ख.इ.प्र.ख.
918
| | 16वी
भामक
जै.धा.प्र.ले.सभा.2
503
शती
919
छेविले
16वी शती
मंगराज तृतीय
6 कृतियां उपलब्ध
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
485
920
मनिनी
धर्मदेव
शांतिक विधि
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
85
शती
921
लोणादेवी
16वी शती
पदमनाथ
यशोधर चरित्र
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
5-6
922
पदमश्री
गोविंद
पुरुषार्थानु षासन
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
शती
502
923
16वी
समक्क
कोटि वर
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
503
शती
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
426
924
925
926
927
928
929
930
931
932
933
934
935
936
937
938
939
940
941
942
943
1507
1509
1513
1513
1529
1536
1542
1559
1532
1580
1549
1551
1556
1580
2580
1588
1597
1596
1596
1595
माल्लू
उनी, सुतोशता, गोमति
काऊ, चादरी
तिलीतयो
टीबू पूरी, लाढी
कामलदे, चली,
नामला
लीलादे, जालू
अमरी पाती
ईशाणी
तारू, कील्ह
लीलादे
पेबाही
सिंगारदे
सलखणदे खेतलदे
लिंबाइ, बमटाइ
गोताइ, दाइ
प्रगंधा, जैसी,
तावसी
नयणश्री, मोहादे, सुहागदे
लीलादे, राजलदे
टंबा
राजाही
प्रा. ज्ञा
वीर वंष.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उपकेष ज्ञा. वर्द्धमान गोत्र
अग्रोत, गोल गोत्र
ऊकेश. ज्ञा. वरहडाआ गोत्र
प्रा. ज्ञा.
खंडेलवाल. ज्ञा. | कटारिया गोत्र
वघेरवाल, सावलिया गोत्र
माहिमवंश
खंडेलवाल, गोधा
गोत्र
नरसिंहापुरा. ज्ञा नागर गोत्र
घरकौ. ज्ञा
खंडेलवाल
शेखरसूरि
कुंदकंदाचार्य
आत्म श्रेयार्थ
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
बुद्धिसागर सूरि
भावदेवसूरि
गुणचंद्रसूरि
लक्ष्मीसागरसूरि
जिनहर्षसूरि
अंचल, श्रीसिद्धान्त सागर सूरि
जिनसेन
जिनसेन
जिनसेन
जिनसेन
जिनसेन
गुरु
प्रेरक थे
मूलसंघ भट्टा. श्री लक्ष्मीसेन
साह छीतरमल की पत्नि
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री अजितनाथ जी
भ. श्रीशीतलनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ पंचतीर्थी
भ. श्री शीतलनाथ जी
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
भ. श्री मुनिसुव्रत जी
भ. श्री सुमतिनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
प्रतिमा
प्रतिमा
भ. श्री चंद्रप्रभु जी जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्री शीतलनाथ
जी
प्रतिमा
भ. श्री प्रतिमा
विश्वसेन की प्रतिष्ठा की थी।
अनंतयंत्र
धर्म परीक्षा ग्रंथ लिपिबद्ध करवाया।
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.स.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.स.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.स.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.स.भा. 2
29
29
30
29
30
37
29
39
30
37
30,3
1
30,3 1
132
128
31
83
16
17
482
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
944
945
946
947
948
949
950
951
952
953
954
955
956
957
958
959
960
961
962
963
16वीं
शती
1527
1528
1529
1529
1531
1537
1537
1537
1537
1540
1545
1545
1545
1547
1549
1537 सामा
1593
1593
1593
964 1598
छेवरसि
झबकू, राजू महिगलदे
वैसा, रैना, तावसी महियवंश
ताल्ही, विणी
जिनमति
लाडो
जयश्री, भावश्री
समा
जालही
जाल्ही, टूंडा,
उदी
चार्यदे
रूषी
कुसुमा, उदयश्री
कुसुमा, उदयश्री,
मता
पुर्णिमा
हर्षू, रूक्मिणी
गदा
दालक्खू, अमरा
अंबवन सेट्टी की
पत्नि
बुध गोत्र
सकतादेवी
सुहागदेवी
अग्रोत, मित्तल
अग्रोत मित्तल
जेसवाल काष्ठासंघ
जेसवाल, मूलसंघ
अग्रोत, गोयल
अग्रोत. गोयल
काष्ठासंघ
मूलसंघ
मूलसंघ
वरहिया कुल
वरहिया कुल
अग्रोत, मित्तल
हूंबड ज्ञा
ऊकेश, बोथरा
गोत्र
मूलसंघ सकलकीर्ति भुवनकीर्ति
मूल. सिंहकीर्तिदेव
जीविणिपठनार्थ खरतर श्रीवंत (कडवागच्छ)
काष्ठासंघ, सोमकीर्ति
मूलसंघ भट्टारक श्री जिनचंद्रदेव
ऊकेश, बोथरा गोत्र
ऊकेश बोथरा गोत्र श्री जिनमाणिक्यसूरि
श्री जिनमाणिक्यसूरि
मूलसंघ के ज्ञानभूषण
श्री जिनमाणिक्यसूरि
साहू जबाकेन ने लिखवाया
पार्श्वनाथ
पार्श्वनाथ
जिन प्रतिमा
जिन प्रतिमा
जिन प्रतिमा
जिन प्रतिमा
जिन प्रतिमा
भ. श्री नेमिनाथ जी
भ. श्री नेमिनाथ जी
भ. श्री महावीर जी
जिन प्रतिमा
जिन प्रतिमा
आदिनाथ
जिन प्रतिमा
संभवनाथ
श्री आदिनाथ
श्री शीतलनाथ
श्री शांतिनाथ
ऋषभदेव विवाहुल धवल बंध 44 ढाल लिखवाई गई थी ।
जै.धा. प्र.ले.स.भा. 2
जै.सि.भा. सन् 1940
जै.सि.भा. सन् 1935
जै.सि.भा. सन् 1936
जै.सि.भा. सन् 1936
जै.सि.भा. 1936
जै.सि.भा. 1936
जै.सि.भा. 1936
जै.सि.भा. 1935
जै.सि.भा. 1935
जै.सि.भा. 1940
जै.सि.भा. 1940
जै.सि.भा. 1936
जै.सि.भा. 1935
जै.सि.भा. 1936
जै.सि.भा. 1940
जै.सि.भा. 1936
बी. जै.ले.सं.
बी. जै.ले.सं.
बी. जै.ले.सं.
जै.गु.क.भा. 1
427
156
16
2
30,3
1
-
30,3
1
31
35
30,3
14
14
3
16
32
1
30.
31
18
32
7
8
8
312
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
428
965
966
967
968
969
970
971
973
974
975
976
977
978
972 1554
979
980
981
1556
982
1579
1525
1596
1562
1590
1542
1595
1556
1560
1546
1543
1529
1526
1570
1504
1563
लीलादेवी की पुत्री डोसी जिदा की पत्नी
| अरघाई, कुंरि
शंकरदेवी
पिरोजांपठनार्थ
प्रेमबाई पठनार्थ
धन श्री.
पाल्हे (अग्रवाल वंश)
सरे (अग्रवाल)
अजूपठनार्थ
गेली पठनार्थ
देल्हणदेवी ने मातृ-श्रेयार्थ लिखा
गदा ने परिवार सहित लिखवाया
गउरी ने पुत्र सहित लिखवाया
पांपजऔर साजन ने परिवार सहित प्रतिलिपि करवाया
बैदेउ, झबकू कर्मादे स्वहस्तेन लिखा स्वश्रेयार्थ
माणकदे जीवादे
वाछ हीरू
कस्तुराई, नाकू
ऊउकेश वंश
पं. मेधावी से प्राकृत भाषा में लिखवाकर
साहू वच्छराज की पत्नी थी ।
साहू जैतू की धर्मपत्नी थी।
प्रा. ज्ञा.
श्रीमाली वंश
प्रा. ज्ञा.
उकेष वंश
ऊकेष भंडारी गोत्र
कल्याणतिलकगणि लिखित
ऋषि देवसागर लिखित
गणिरत्नविजय लिखित
आचार्य पद्मनंदि
काष्ठासंघ के आचार्य अमरकीर्ति
विजयराजमुनि
श्री सौभाग्य लक्ष्मीगणि
श्री भावसागर गणि
कर्मसागर प्रेरक है ( चतुर्दशी उद्यापनपर)
अंचल. जयकेसरीसूरि
खरतर जिगहंससूरि
आदिनाथ चैत्य में देवकुलिका का निर्माण करवाया था।
जंबूचरित्र चौपाई
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
बसदि के लिए भूमि
का दान
लीलावती चोपाई
आलोयण विनति
जंबूद्वी प्रज्ञप्ति ग्रंथ
उपदेशमाला सूत्र
आवश्यक नियुक्ति
श्री कल्पसूत्रम् (सुवर्ण वर्ण)
श्री कल्पसूत्रम् (सावचूरि)
श्री बरसा सूत्र
ब्रह्मदेवकृत द्रव्यसंग्रह पं.च.अ.ग्रं.
वृत्ति
षट्कर्मोपदेश
प्रवचनसारोद्वार सूत्र
जै.बि. पार्ट. 1
उपासक दशांग सूत्र
रा. हिं. ग्रं. सू.भा. 1
जै. षि.सं.भा. 4
भ. श्री कुंथुनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.स.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
पं.च.अ. ग्रं.
श्री कल्पसूत्रम् (सुवर्ण जै.प्र.सं. अक्षर)
पं.च.अ. ग्रं.
श्री. प्र.सं.
श्री. प्र.सं.
जै.प्र.सं.
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
जै.धा. प्र.ले.स.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री सुमतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
996
367
317
360
170
482
482
482
95
56
62
47
44
84
1516
72
178
178
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
983
| 1595
नाकू
तपा. विजयदानसूरिभ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
178
| 1530
माणिकदे
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा देवेंद्रसूरि
| भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
178
985
1528
कर्मणि, माणिकि
श्री. श्री. ज्ञा.
| नागेंद्र श्रीहेमरत्नसूरि
भ. श्री वासुपूज्य जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
180
986
|1522
अहवदे, अरधु, भावलदे
श्री. श्री. वंश
| अंचल जयकेसरीसूरि
| भ. श्री शीतलनाथ
जी
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
180
987 | 1523 | लाडकि, गांगी
वायड़ ज्ञा
आगम मुनिरत्नसूरि
| भ. श्री शांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
988
1513
कांऊ, पूरी
वीरवंश
अंचल श्रीजयकेसरी
भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
180
989
| 1551
वायड़ ज्ञा
तपा श्री हेमविमलसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी
। जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| कुतिगदे, पूगी, माईसु, जसमादे
181
990 | 1598
दीवड़ि, चंगाई
मोढ़ वंश
तपा श्री विजयदानसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| 1530
| लीलसु, सताई
श्री श्री ज्ञा
आगम देवरत्नसूरि
| भ. श्री कुंथुनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
181
992 | 1509 | पची, तिलू
डाभिलागोत्र, प्रा.
चंद्रप्रभस्वामी
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
ज्ञा.
181
993
1520
गउरि, वल्हादे
प्रा. ज्ञा.
शीतलनाथ
तपा. श्रीसोमदेवसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
181
994
| 1561
रंगाई, अरधाई
श्री. श्री. ज्ञा.
विमलनाथ
जै.धा.प्र.ले.सभा.2
पूर्णिमा श्रीपुण्यरत्नसूरि
181
| 1563
| रत्नाई, लकू
श्री. श्री. ज्ञा
श्रीधर्मनाथ
श्रीसुविहितसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
181
996
1598
आदिनाथ
करमी, देवलदे, सोभागिणि
ऊकेश आंबलिया गोत्र
तपा. विजयदान सूरि
| जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
997
|1520
| धांधलदे |
उप. ज्ञा.
सुविधिनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
नाणावाल श्री धनेश्वरसूरि
| 183
998
1504
करमादे, नाथी
प्रा. ज्ञा.
पद्मप्रभु
श्री कक्कसूरि
| जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
183
999
| 1549
टबकू वल्हादे
श्री. श्री. ज्ञा.
पार्श्वनाथ
वृद्धतपा. श्री उदयसागरसूरि
| जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
184
1000 | 1521
धर्मनाथ
चांपारसिरि, सीतादे
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
ओस ज्ञा. गांधी गोत्र
गुणसुंदरसूरि
184
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
1001
। 1510
| रत्न, कर्माई
हुंबड ज्ञा.
चंद्रप्रभस्वामी
वृद्धतपा. श्रीविजय धर्मसूरि
| जै.धा.प्र.ले.सभा.2
185
1002 | 1516
| वरजू, रमाई
| श्री. श्री. ज्ञा.
वासुपूज्य
आगम. सिंहदत्तसूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
1003 | 1576
धर्मिणि, गंगादे
श्री. श्री. ज्ञा.
सुविधिनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
वृद्धतपा श्री धनरत्नसूरि
1004 | 1509
| रत्नीसु, राभूसु
| श्री. श्री. ज्ञा.
भांतिनाथ चतु
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
पूर्णिमा श्री गुणसमुद्रसूरि
185
1005
| 1531 | गूजरी, मचकू
प्रा. ज्ञा.
मुनिसुव्रतनाथ
तपा. श्री लक्ष्मीसागर | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 सूरि
- 185
1006 | 1510 | सजूणि, रामति
प्रा. ज्ञा.
आदिनाथ
तपा. श्री लक्ष्मीसागर | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
सूरि
185
1007 | 1532
| रामति, डाही
श्री. ज्ञा.
विमलनाथ
पूर्णिमा, साधुसुंदरसूरि | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
186
1008 | 1529
| मानू, राजू
प्रा. ज्ञा.
सुपार्श्वनाथ
तपा. विजयरत्नसूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
186
1009
| 1518
माकू
ओ. ज्ञा.
रूपाई, सिंगारदेवी, हY
धर्मधोष. साधुरत्नसूरि | जै.धा.प्र.ले.सभा.2
187
1010
1507
रूपाई, सिंगारदेवी, हy
ऊ. ज्ञा.
कुंथुनाथ
तपा.रत्नशेखरसूरि
जै.धा.प्र.ले.सभा.2
1011
| 1518
सीतादे, वरजू रामति
प्रा. ज्ञा.
अनंतनाथ
तपा,रत्नशेखरसूरि
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
1012
| 1571
उके. ज्ञा.
तारूसु. माणिकिसारू
मुनिसुव्रत चतु.
सुविहित.सुविहितसूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
187
1013
1529
| टीबू, कुयरि,
| श्री. श्री. ज्ञा.
कुंथुनाथ
पिप्पल. सवसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
कमली
188
1014 | 1508
|पोमादे, कपूरी,
रामति
ऊके0
सुविधिनाथ
तपा रत्नशेखरसूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
188
1015
| 1509
सलशू, रत्नू हरशपु
प्रा. ज्ञा.
धर्मनाथ
पूर्णिमा पुण्यचंद्रसूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
189
1016
| 1566
ओसवंष, अंबिका | कतीपु, सिकूदे पुo | कुंथुनाथ
भावडार श्रीविजय
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
गोत्र
190
1017
| 1522
| श्री. श्री. ज्ञा.
आदिनाथ
कउतिगदे, लीलादे
संडेर. सालिभद्रसूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
1018 | 1589
सुहवदे, गौरी, कामलदे
श्रीमाल ज्ञा
कुथुनाथ
ब्रह्माण विमलसूरि
| जै.धा.प्र.ले.सभा.2
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
431
!
1019
1519
कुतिगदे, लीलादे प्रा. ज्ञा.
आदिनाथ
संडेर श्री सालिभद्रसूरि
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
191
1020
1517
| जमणादे
शीतलनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
उपकेष. ज्ञा मंडो. वंष गोत्र
धर्मधोश श्रीसाधुरत्नसूरि
| 191
1021 | 1553
मानूपु, माल्हूसु
| श्री श्री वंष
शीतलनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
पीपल. श्री धर्मवल्लभसूरि
192
1022
1569
हेमादे, खिमाई
| श्री. ज्ञा.
वासुपूज्य
कोरंट/श्रीनन्नसूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
192
10231561
जालणदे
ऊकेष. ज्ञा
आदिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
पूर्णिमा श्रीउदयचंद्रसूरि
192
1024
1531
कर्मणि, माणिकिदे | श्री. श्री. ज्ञा.
सुमतिनाथ
अंचल गुणनिधानसूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| 193
10251520
ओएसवंष
हीरू, करमाई, कपूराई
श्रेयांसनाथ
अंचल जयकेसरीसूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
193
1026
| 1523
वायड़. ज्ञा
मुनिसुव्रत चतु.
सूहवदे, कुंअरि, टबकू, रत्नादे, वनादे
| तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
1027 | 1525 | नागलदे, विमलादे | ओस ज्ञा. मंडोवरा | पार्श्वनाथ
गोत्र
जै.धा.प्र.ले.सभा.2
धर्मधोश श्री साधुरत्नसूरि
| 193
1028
1529
कूसरि, हेमाई
श्री. श्री. ज्ञा.
वासुपूज्य
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
वृद्धतपा ज्ञानसागरसूरि
194
1029
| 1506
राजू, रंगाई
श्री श्री ज्ञा
सुमतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
पूर्णिमा. श्रीगुणसमुद्रसूरि
194
1030 | 1547
| रमाई
गौतम प्रतिमा
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
194
1031 | 1558
| रूड़ीसु
ओसवंष
पार्श्वनाथ
श्रीसूरि
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
1032 | 1541
संपू. हर्षाई
श्री श्रीमाल ज्ञा०
सुमतिनाथ
भावडार, भावदेवसूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
1033 | 1519 | राजू, संपूरी।
वायड ज्ञा
धर्मनाथदिपंचतीर्थी.
आगम.हेमरत्नसूरी
जै.धा.प्र.ले.सभा.2
196
1034 | 1512
| 1512
लूण श्री
| उपकेश ज्ञा मंडोवरा गोत्र
आदिनाथ
| धर्मधोष. साधुरत्नसूरि जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
196
1035
1523
लाडी, मंदोअरि
नीमा. ज्ञा.
| नमिनाथ
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
196
1036 | 1529
आसू, माकूणदे
| प्रा. ज्ञा.
वासुपूज्य
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
बृहत्तपा. विजयधर्मसूरि
| 197
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
1037
1564
| हली, अहवदे
प्रा. ज्ञा.
अजितनाथ
वृद्धतपा. लब्धिसागर | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
सूरि
197
1038 | 1521
धनाई
प्रा. ज्ञा.
संभवनाथ
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| 197
1039 | 1523
लाडी, मंदोअरि नीमा ज्ञा.
नमिनाथ
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
197
1040
| 1529
| श्री. प्रा. ज्ञा.
वासुपूज्य
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| राजू, आसू. माकूणदे
बृहत्तपा. विजयरत्नसूरि
197
1041
1521
।
धनाई
प्रा. ज्ञा.
संभवनाथ
तपा लक्ष्मीसागरसूरि | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
1042
1513
राणी, लाशणदे
श्री श्री ज्ञा.
श्रेयांसनाथ
आगम. देवरत्नसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
1043|1525
| राजूपु, वानूपु. माणिकि
| दीसा वाल ज्ञा.
कुंथुनाथ
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
198
1044 | 1560
| लीलू, जीवाई, चंपाई
श्री श्री ज्ञा.
धर्मनाथ
सद्गुरू
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
198
1045
| 1583
भीआदे, सरीयादे | श्री श्री ज्ञा.
| आदिनाथ
पूर्णिमा. श्रीसूरि
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
198
1046
1549
लखी, देमाई
प्रा. ज्ञा.
अजितनाथ
आगम. विवेकरत्नसूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
205
1047
| 1521
लबकू, मल्हाई, धनी
श्री श्री वंश
अजितनाथ
अंचल. जयकेसरीसूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
1048
1829
| मटकू
प्रा ज्ञा.
संभवनाथ पंचतीर्थी
आगम. अमररत्नसूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
1049
152|
मचकू
गूर्जर ज्ञा.
संभवनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
बृहत्तपा. विजयधर्मसूरि
1050
| 1560
सांतू लीलादे
श्री श्री वंश
संभवनाथ
अंचल
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
सिद्धांतसागरसूरि
1051 | 1537
| रतनू, भरमादे
श्री श्री ज्ञा.
संभवनाथ चतु.
श्रीसूरि
| जै.धा.प्र.ले.स.भा.2 | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
1052
| 1506
प्रा ज्ञा.
अनंतनाथ
| देई, कपूरी, कमलाई
तपा. उदयनंदिसूरि
206
1053
| 1547
पूरीसू, रूपाई, कबाई
श्री श्री ज्ञा.
कुंथुनाथ
तपा. सुमतिसाधुसूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
206
10541515
देवलदे
| श्री श्री ज्ञा.
आदिनाथ
पूर्णिमासाधूसुंदरसूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
184
1055 | 1509
कपूरी, कुती
| गूर्जर ज्ञा.
तपा श्रीरत्न शेखरसूरि
शांतिनाथ
| जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
184
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
1056 | 1549
टबूक, वल्हादे
श्री श्री ज्ञा
बृद्धतपा उदयसागरूसरि
पार्श्वनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
184
1057 |1521
चंपासिरि, सीतादे
ओस ज्ञा० गांधी
मलधारिगुणसुंदरसूरि
। | धर्मनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
1521
गोत्र
1058
| 1505
| सिंगारदे, दूदा, देवलदे
प्रा. ज्ञा.
आदिनाथ
तपा.श्री जयचं, परि
| जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
1059 | 1536 | वल्हादे, पूतलि
श्रीमाल ज्ञातीय
आगम.श्री अमरराज
श्री विमलानाथादि पंचतीर्थी
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
108 |
1060 | 1536 बाल, जलियता
श्रीमाल ज्ञातीय
आगम.श्री अमरराज
श्री विमलनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
108
1061 | 1509 | सांसल, रामदे
| शेखवलिया गोत्र | श्री सर्वदेव सूरि
श्री वासुपूज्य
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
1062 | 1524
धारणा, कुंथि
| श्री श्रीमाल ज्ञातीय | ब्रह्माण.श्री विमल सूरि
| श्री नमिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
108
1063 | 1534
माणिकदे
उसवाल ठाकुर
श्री सुमतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
गोत्रे
| नाणावाल तपा. श्री | सोमसुंदर सूरि
108
1064 | 1470 | मेलादे, जसमादे | वाफणा गोत्र
| उपकेश देवगुप्त सूरि
श्री पार्श्वनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
109
1065 | 1509
| हासलदे, तनुदे, ।
| उपकेशज्ञातीय उमादे
खारेड गोत्र
| श्री वीर सूरि
श्री शांतिनाथ .
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
109
1066
1558
सासू
प्रा. ज्ञा.
तपा.श्री कमलकलश सूरि | श्री शीतलनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
109
1067
1558
अरलू, कमला
उपकेश ज्ञातीय मडाहड़
श्री सर्वदेव सूरि
श्री अजितनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
109
1068
| 1521
जीविणि
तपा.लक्ष्मीसागरसूरि
श्री शांति चत
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| 109
1069 | 1515
| प्रा. ज्ञा.
श्री आदिनाथ
तपा रत्नशेखर सूरि | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| मटकू, वजुमई। गोड़ी पार्श्वनाथ
1070 | 1517
| अहिव, अमरी
श्री शांतिनाथ
उपकेश ज्ञातीय कोठारी गोत्र
श्री सूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
110
1071
1553
रामू, हेमी, नीबा
श्री धर्मनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
उराग गोत्र उसवाल ज्ञा.
श्री ज्ञानकीय धनेश्वर सूरि
110
1072 || 1552
| कुंतिमदे, पुरादे | लहरा गोत्र
श्री धनेश्वर सूरि
श्री संभवनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
102
1073
|1530
करमा
उपकेश ज्ञा.
मलधारी गुणनिधान सूरि | श्री शीतलनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
102
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
1074
| 1536
वीरणि
प्रा. ज्ञा.
श्री जिनचंद्रसूरि
श्री रघुनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
103
1075 | 1562
माथलदे
उपकेश ज्ञा.
जीरापल्ली. श्री सालिभद्र | श्री पार्श्वनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
सूरि
104
1076
| 1543
लारका
श्रीमाल ज्ञा.
श्री अजितनाथ
तपागच्छ श्री विजयसेनसूरि
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| 104
1077
| 1559
| पतीसु, वंगी
श्री इन्द्रनन्दिसूरि
श्री शांतिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
104
1078
1510
श्रृंगारदे, मोहणदेवी
तपा. श्री राजशेखरसूरि
श्री वर्द्धमान
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
104
1079
| 1523
| देऊ, चापलदे, धनी
उसवाल ज्ञा.
श्री मुनिसुव्रत
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
वृद्धतपा. श्री ज्ञानसागर सूरि
1080
| 1528
वरजलदे, सालू
| उपकेशज्ञा.
तपा. श्री सोमसुंदर सूरि | श्री संभवनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
106
1081
| 1556
भावलदे, रत्नादे, रयणादे
उकेश ज्ञा.
श्री वर्द्धमानुणसुंदर सूरि | श्री सुमतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
106
1082 | 1525
प्रा. ज्ञा.
श्रीसूरि
श्रीसुविधिनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
98
| घोघरि, देवलदे सुहवदे
1083
| 1523
पित्तलहर
श्री शीतलनाथ
श्री खरतर श्री जिनहर्षसूरि
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1084 | 1525
| सूल्ली, भोली,
प्रथम तीर्थंकर
| अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
तपा नायक श्रीजिनसोमगणि
हासी
1085
1510
भरमादे, जासू रामति
श्री श्रीमाल ज्ञा.
अंचल. श्री जयकेसरी
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
| श्री पार्श्वनाथ चतुर्विशांति
100
1086 | 1520
रूपी, रूपिणि
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागर सूरि श्री मुनिसुव्रत
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
100
1087
| 1520
रूपिणि, वीकमादि | प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीलक्ष्मी सागरसूरि | श्री मुनिसुव्रत
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
100
1088
1520
प्रा. ज्ञा.
महापाध्याय
प्रथमजिन
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
100
भोली, हासी, आसू
1089
1520
नागल, करमी
प्रा. ज्ञा.
श्री जिनसोमगणि
प्रथमजिन
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
100
1090
| 1527
माणिकदे, सोमी
उपकेश ज्ञा. बेगडगोत्र
श्री धनदत्तसूरि
श्री मुनिसुव्रत
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1091
| 1516
माणिक
तपा. श्री रत्नशेखर सूरि | श्री सुमतिनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1092
| 1549 |तीजा
उसवाल वंश
ब्रह्माण, श्री गुणसुंदर सूरि | श्री शांतिनाथ
| अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
|.102
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
1093 1542
1094
1095
1096
1097
1098
1099
1100
1101
1102
1103
1104
1105
1107
1108
1109
1110
1111
1112
1543
1113
1545
1546
1549
1549
1551
1106 1554
1551
1551
1552
1552
1552
1553
1554
1555
1555
1555
1555
1558
1559
1114 1559
रेवादे, नागलदे
हीमादे, तारादेवी
राणी, पाल्हणदे
लाही, जीवादे
नीनू जसमादे,
भीखादि
कसमादे, जीवादे
विल्लू, चांपलदे
वाल्ही
भरमी
हरखू ललतादे
कुमदे, नामदे
नीनादे, महिरा
दूली, वाल्ही
सापू, षीगिणि
करमादे
देल्ह, जयपतलदे
रूपादे, हांसलदे
मचकू, रूक्मिणि
माणिकदे, मानू
पद्मादे, नेनू
रूपादे
खेत, पाल्हणदे, दाडिमदे
नागगोत्र
प्रा. ज्ञा.
ऊकेश ज्ञा. कर्नावट
उकेश ज्ञातीय
प्रा. ज्ञा.
उकेश वंश
उसवाल ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
दूगड़ गोत्र
उकेश वंश. महाजन गोत्र
उकेशवंश महाजन. गोत्र
प्रा. ज्ञा.
ज्ञानकीय श्री धनेश्वरसूरि श्री कुंथुनाथ
पीप्पल. श्री देवदत्तसूरि
श्री शंखेश्वर
उकेश श्री कक्कसूरि
श्री शीतलनाथ
उपकेश
तपा विमलसूर
खरतर श्री जिनसमुद्रसूरि श्री शांतिनाथ
श्री मुनिचन्द्रसूरि
तपा हेमविमलसूरि
श्रीविमलसूरि
श्री हेमविमलसूरि
श्री हेमविमलसूरि
तपागच्छ श्री विजयराजसूरि
श्री हेमविमलसूर
श्रीसूरि
नाणावाल श्री धनेश्वर सूरि
जीरावाल श्री देवरत्नसूरि
नाणावाल. श्री धनेश्वरसूरि
तपा. श्री हेमविमलसूरि तपा. श्री हेमविमलसूरि श्री नन्नसूरि
खरतर, श्री जिनचंद्रसूरि
श्री हेमविमलसूरि
श्री अजितनाथ
श्री धर्मनाथ
श्री सुमतिनाथ
श्री संभवनाथ
श्री कुंथुनाथ
श्री शांतिनाथ
श्री शांतिनाथ
श्री संभवनाथ
श्री आदिनाथ
श्री शांतिनाथ
रूपादे, हांसलदे
श्री कुंथुनाथ श्री आदिनाथ
श्री संभवनाथ
श्री वासुपूज्य
श्री शीतलनाथ
श्री धर्मनाथ
श्री संभवनाथ
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा. प्र.ले.सं.
अ. जै.धा. प्र.ले.सं.
अ. जै.धा. प्र.ले.सं.
अ. जै.धा. प्र.ले.सं.
अ. जै.धा. प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा. प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
अ. जै.धा.प्र.ले.सं.
435
93
93
93
93
93
93
94
94
94
94
94
94
94
94
95
95
95
95
95
95
96
96
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
436
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
| श्रीमाली. ज्ञा.
. ब्रह्माण. सुजशसरि
श्री शीतलनाथ
| अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1115 | 1560 | कुंतिगदे, भूरी 1116 11568 | पोमादे, बावड़,
भीरादे
प्रा. ज्ञा.
श्री सिद्धसूरि
श्री चंद्रप्रभु
| अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1117
1575
सोनी, पहपू, अदिवादे
खरतर, श्री जिणहंससूरि | श्री वासुपूज्य
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
उपकेष गणधर गोत्र
1118
| 1575
| खेतू, नीलू
श्री धर्मनाथ
उकेश वंशीय, गोत्र | भावडार श्री
विजयसिंहसूरि
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1119 | 1575
हासलदे, मूहवइ
प्रा. ज्ञा.
श्री विजयसिंहसूरि
षांतिनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1120
1581
मूल, पिमाई
प्रा. ज्ञा.
श्री हेमविमलसूरि
श्री अजितनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1121
1581
नागू, देवलदे
। प्रा ज्ञा
| तपा श्री जयकल्याणसूरि | श्री शांतिनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1122
1584
| पूनी
उसवाल
श्री जिनभद्रसूरि
श्री मुनिसुव्रत
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
97
1123
| 1589
लापु
उपकेश ज्ञा.
श्रीसूरि
श्री संभवनाथ
| अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1124 | 1528
ताल्हागदे, थारू | लोखा गोत्र
श्री शीतलनाथ
श्री नाणकीय श्री घनेश्वरसूरि
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1125
| 1529
प्रेमादे, लाछनदे
| नानकीय उकेश
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
गोत्र
| श्री नाणकीय श्री घनेश्वर | श्री आदिनाथ सूरी
1128 | 1529 | देनु, कर्मिणि
...............
तपा. श्री लक्ष्मीसागर सूरि | श्री धर्मनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
89
1127 | 1530
वारू, सोढी
उपकेश ज्ञा. भाद्रगोत्र
श्री देवगुप्तसूरि
श्रीसुमतिनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1128 | 1530
नामलदे, संसारदे
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
89
ज्ञानकीय . श्री धनेश्वर | श्री कुंथुनाथ सूरि
1129 | 1530 | नामलदे, कांतिगदे | उकेश वंशा
ज्ञानकीय . श्री धनेश्वर
श्री धर्मनाथ
| अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
सूरि
1130
1530
| माणिकदे, गामादे | प्रा. ज्ञातीय |
तपा. श्री. लक्ष्मीसागर सूरि
श्री पद्म प्रभु
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1131
| 1530
करबू, लाणू शाही
तपा. श्री. लक्ष्मीसागरसूरि | श्री वासुपूज्य
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1132
| 1530
मयणलदे, कमलादे
श्री शालिसूरि
| श्री शीतलनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1133
| 1530
| नथू, लीषमण |
कोरंट श्री सावदेवसूरि
श्री सुमतिनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1134
1530
लाषण दे
अंचल सूरि
श्री धर्मनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
90
1135
1531 . | देल्ही, सुगणादे ।
उकेशज्ञा. गोत्र
श्रीमालज्ञा. गुणनिधानसूरि | श्री सुमतिनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1136 | 1531
| मदा, सूरादे
उकेशज्ञा. गोत्र
श्री घनेश्वरसूरि
श्री कुंथुनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
1137 | 1531
| सांपू सोहवदे ।
प्रा. ज्ञा.
| तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | श्री नमिनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1138
1532
चारू, लीला
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
श्री आदिनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1139
1532
भुगतादे, उमादे
प्रा. ज्ञा.
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | श्री वासुपूज्य | उपकेश. श्री देवगुप्तसूरि | श्री वासुपूज्य
1140
सानलदे, कुं
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
उप. ज्ञातीय कुकुटगोत्र
1141
1532
| राऊ, सुंदरी
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
श्री आदिनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
|
91
1142
1532
| कीलू, सूरमदे
उकेश.
श्री सालिसूरि
श्री चन्द्रप्रभु
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1143
1533
लाबी
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
श्री शीतलनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1144
| 1533
ओसवाल
जमणादे पाल्हणादे
श्री जयकीर्तिसूरि
| श्री भैयांसनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1145
| 1534
कली, लघिमी, जीवादे
प्रा. ज्ञा.
| श्री सूरि
| श्री सुमतिनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
92
1146
1534
समी, नाथा
प्रा. ज्ञा.
श्री सूरि
श्री मुनिसुव्रत
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1147
| 1534 | कपूरदे, नीमादे
| प्रा. ज्ञा.
श्री विजयप्रभसूरि
श्री कुंथुनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1148
1535
सुहडादे
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | श्री सुमतिनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1149
1536
कली, गेरादे
संघवी गोत्र
श्री सार्वदेवसूरि
श्री महावीर
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1150
1536
| कपूरी, ललतू
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | श्री मुनिसुव्रत
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1151
1536
| हांसलदे प्रभादे
प्रा. ज्ञा.
श्रीसूरि
श्री मुनिसुव्रत
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1152
1536
रूपादे, टीबू
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | श्री मुनिसुव्रत
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1153
1536
सीतादे, जसमादे
उपकेष भंडारी गोत्र
संडेर. श्री सालिसूरि
श्री सुमतिनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
1154
1536
अमरी, सूरिमदे
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | श्री कुंथुनाथ
अ.जै.धा.प्र.ले.सं.
93
1155
1514
| अहिवदें
उकेश ज्ञा.
धर्मघोष. श्री साधुरत्नसूरि | अभिनंदन
जै.धा.प्र.ले.सं.
158
1156
1565
राजलदे, धर्माई | प्रा. ज्ञा.
वृद्धतपा. धर्मरलसूरि
सुमतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
158
रही
1157
| 1523
वइजाई, बीजी, जीना सोनाई
प्रा. ज्ञा.
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
मुनिसुव्रत चतु.
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
- 160
1158
| 1540
सूढी, संपूरी
| उकेश ज्ञा.
तपा श्री सुमतिसाधुसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 161
1159
1516
| दूबी, माजू, साधू | श्री. श्री. ज्ञा.
आगम, आणंदप्रभसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभु जी
|जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 161
1160
11518
अमकू, लापूपु,
श्री गुणसुंदरसूरि
| भ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 161
रंगाई
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
438
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
1161
1552
मांजू, सोनाई
श्री श्री वंश
| आगम सोमरत्नसूरि
| भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
162
1162
1548
पिप्पल पद्माणंदसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
162
मांजू, माकूसु, सौभागिणि
1163
1576
नाई, मटकी, इंद्राणी
श्री श्री वंश
| सर्वसूरि
भ. श्री अरनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
162
1164
| 1556
राणी, धनाई
| श्री श्री ज्ञा
तपा इंद्रनंदिसूरि
| भ. श्री कुंथुनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
162
1165
1528
चांपलदे, देवलदे | श्री. श्री. ज्ञा.
श्री बुद्धिसागरसूरि
भ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
163
1166
1523 | अरघो, नामलदे | श्री. श्री. ज्ञा.
| श्री वीर सूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
1167
1568 | रही, रूषादे
| तपा. श्री हेमविमलसूरि
| भ. श्री शांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 163
1168
1573 | मटकी, इंद्राणी । | श्री श्री वंश
सुविहितसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 163
1169
1548
ओसवंश
हीरादे, कत्थाई, रूपाई
भवसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री अभिनंदन नाथ जी
164
1170
1528 | मणकी, डाही
उकेश वंश
खरतर श्री जिनचंद्रसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 164
1171
1553 | कर्माई, मिरगाई
ओसवंश
अंचल सिद्धांतसागरसूरि | भ. श्री सुविधिनाथ
जी
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
1172
1508 | अमकू
प्रा. ज्ञा.
आगम सिंहदत्तसूरि
| भ. श्री शांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
1173
1525 | फली, रत्नादे
प्रा. ज्ञा.
तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री अनंतनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
166
1174
1525
अमरादे, रामति
| चिचटगोत्र ।
श्री कक्कसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
166
1175
1536 | नाई. राणी
श्री श्री ज्ञा
श्री वीरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| 167
1176
1528 | माणिकदे
श्री श्री ज्ञा
श्री वीरसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
168
1177
1513 | सिरि, पूरी
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी
| जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| 168
1178
1568
मटकू, वल्हादे
प्रा. ज्ञा.
श्रीहेमविमलसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
168
1179
___1525
| पोमी जीविणि
श्री. श्री. ज्ञा.
आगम. देवरत्नसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ
| जै.धा.प्र.ले.सभा.2
168
जी
1180
1528 | रत्नाई, राजगेई
प्रा. वंश
खरतर. जिनचंद्रसूरि
| भ. श्री श्रेयांसनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा2
168
जी
1181
1530
भ. श्री अभिनंदन जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| मूजी, सोनलदे, कुंअरि
उपकेश. श्री देव | गुप्तिसूरि
169
| उप. ज्ञा. गोवर्द्धनगोत्र
1182
1584
षीमाई, वीराई
उकेश
भ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
खरतर. श्रीजिनमाणिकयसूरि
169
कांकरियागोत्र
1183
1536 | वीजलदे, माणिकि | श्री. श्री. ज्ञा.
| भट्टा श्री बुद्धिसागरसूरि | भ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
|
170
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
439
| 1184
|1529 | लीलू, हीराई ।
श्री. ज्ञा.
आगम. देवरत्नसूरि
| भ. श्री अभिनंदन जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
170
1185
__1515 | माल्हणदे
श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा, साधुरत्नसूरि
भ. श्री शीतलनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
जी
171
1186
1519 | दुलदे
श्री. ज्ञा.
नागेन्द्र. श्री गुणदेवसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभु जी
। जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
171
1187
श्री. श्री. ज्ञा.
1553 | सिंगारदे, मटकू
गुरदे
वृद्धतपा. श्री उदयसागरसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
171
1188
1525 | रमकू, दूबी
प्रा. ज्ञा.
श्रीसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
1189
1535 | अमकू मऊकू
डीसा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री धर्मनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
171
1190
ऊसवंश
श्री सर्वसूरि
| भ. श्री धर्मनाथ जी
1554 | कीकी, धनीपु.
श्रृंगारदे, इंदी
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
171
1191
1512 | सिंगारदे, मांजू
श्री. श्री. ज्ञा.
भ. श्री धर्मनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
1192
| 1508 | कुतिगदे, सुलहीसु | श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा. श्रीगुणसमुद्रसूरि | भ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
172
1193
1513 | लाछू, माणिकि
| श्री. श्री. ज्ञा.
श्रीसूरि
भ. श्री नमिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
172
1194
1537
श्री. श्री. ज्ञा.
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| | धाऊं, नागिणि, कुतिमदे
वृद्धतपा. श्री उदयसागरसूरि
1195
| 1513 | लाडी, गांगी
श्री. ज्ञा.
वृद्धतपा. श्रीरत्नसिंहसूरि
भ. श्री नमिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सभा.2
173
1196
| 1506 | पातू, सारू
| श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा. राजतिलकसूरि
भ. श्री शीतलनाथपंचतीर्थी
| जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
173
1197
1525 | फनूपु, हांसी
वडागोत्र
| विशालराजसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत जी | 76जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
1198
| 1512 | रमादे
श्री. श्री. ज्ञा.
| पूर्णिमा श्री जयप्रभुसूरि । भ. श्री शांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
173
1199
1510 | कर्मादे, लावू
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा. श्री गुणसमुद्रसूरि | भ. श्री शांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
1200
1533 | हकू, तेजू
श्री. श्री. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री नमिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
1201
1515 | जइतू, भर्मादे,
| प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री रत्नशेखरसूरि
भ. श्री महावीर जी
|जै.धा.प्र.ले.सभा.2
कमोद
174
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
440
1202
1203
1204
1205
1206
1207
1208
1209
1210
1211
1212
1213
1214
1215
1216
1217
1218
1219
1220
1551
1567
1573
1517
1512
1530
1517
1508
1511
1515
1506
1517
1528
1589
1519
1517
1553
1569
कुंअर, राजूपु रंगादे
कीकी, चंगी, पूतली, रही
तू बगूकया
सरसति, पोमादे
नागल, हर्षू
1508 गुरी, मागिणि
दवक अमरी,
वीरू
बासू
मनी, माहादि
जासू, अमकू
सहिजलदे
कपूरी, मानू लीलाई
| नामलदे, कर्मादे
कर्मा, वनू
सुहवदे, गौरी, कामलदे
कुतिगदे, लीलादे
जमणदे
मानूपु, माल्हूसु
हेमादे, षीमाई
श्री. श्री. ज्ञा
ओस. ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उकेश ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्रीमाल ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उपकेश ज्ञा मंडोवंश गोत्र
श्री श्री वंश
श्री ज्ञा
अंचल श्री सिद्धांतसागरसूरि
श्री देवगुप्तसूरि
श्री विजयसिंहसूर
नागेन्द्र विजयप्रभुसूरि
श्री सुविहितसूरि
श्री कमलप्रभसूरि पूर्णिमा
तपा. श्री रत्नशेखर सूरि
श्रीसूरि
ब्रह्माण. श्री मुनिचंद्रसूरि
तपा. रत्नशेखर सूरि
बृहतपा. श्रीजयचंद्रसूरि
ब्रह्माण. विमलसूरि
संडेर. श्री सालिभद्रसूरि
धर्मघोष श्री साधुरत्नसूर
करंट / श्री नन्नसूर
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
भ. श्री सुविधिनाथ जी
भ. श्री वासुपूज्य
भ. श्री चंद्रप्रभु जी
जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री सुविधिनाथ जी
भ. श्री अभिनंदन चतु. जी
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी जी
भ. श्री मुनिसुव्रतस्वामी जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री नमिनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
पीपल. श्री धर्मवल्लभसूरि भ. श्री शीतलनाथ जी
भ. श्री • वासुपूज्य जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ जी जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
पूर्णिमा. श्री साधुसुंदरसूरि भ. श्री संभवनाथ जी जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
ब्रह्माण. विमलसूरि पिप्पल. श्रीगुणसागरसूरि
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
भ. श्री संभवनाथ जी जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
भ. श्री विमलनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री सुविधिनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री आदिनाथ जी जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री शीतलनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
174
174
174
174
175
175
175
175
176
176
176
177
177
177
191
191
191
192
192
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
1221
1561
जालणदे
उकेश ज्ञा.
पूर्णिमा. श्री उदयचंद्रसूरि | भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| 192
1222
1531 | कर्मणि, माणिकदे | श्री. श्री. ज्ञा.
नागेन्द्र श्री हेमरत्नसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
193
1223
।
1520
ओएसवंश
अंचल. जयकेसरीसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| 193
| हीरू, करमाई, कपूराई
जी
1224
| 1523
वायड ज्ञा.
| तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत चतु | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
सूहवदे, कुंअरि, टबकू रत्नादे, वनादे
1225
1525
नागलदे, विमलादे | ओस ज्ञा, मंडोवरा | धर्मघोष. श्री साधुरत्नसूरि
गोत्र
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| 193
1226
1529 | कूसरि, हेमाई
श्री श्री ज्ञा.
वृद्धतपा. ज्ञानसागरसूरि भ. श्री वासुपूज्य जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2 पूर्णिमा. श्री गुणसमुद्रसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
1227
1506 | राजू, रंगाई
श्री श्री ज्ञा.
194
1228
1547 | रमाई
194
............ | भ. श्री गौतम प्रतिमा | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| जी
1229
श्री श्री ज्ञा
1524 | गोमति मकांसु
कमली
पूर्णिमा, श्री पुण्यरत्नसूरि | भ. श्री नमिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सभा.2
194
1230
1525 | सूहवदे, कुंअरि,
रत्नादे
वायड ज्ञा.
| श्री लक्ष्मीसागरसूरि
| भ. श्री शांतिनाथ चतु. जी
| जै.धा.प्र.ले.सभा.2
| 195
1231
1541 | सिरीठ लाडिकि
मोढ ज्ञा.
तपा. श्री
भ. श्री संभवनाथ चतु. जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 199
1232
1534
भीमलदे जयतु
..........................
नाणावाल. श्रीघनेश्वरसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 199
1233
1552
| काऊ, रंगी
मोढ़ ज्ञा.
वृद्धतपा. उदयसागरसूरि | भ. श्री शांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
200
1234
1524 | सहिषलदे, कपूरी
श्री श्री ज्ञा.
पूर्णिमा. गुणसुंदरसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
200
भ. श्री चतुविशति नमिनाथ जी
1235
1525 | रोहणि
ओस ज्ञा.
श्री विजयदानारि
भ. श्री पार्श्वनाथ जी । पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
201
1236
|1529
रूपाई, रतनीई | उपकेश वंश
भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
201
1237
| 1531
करणू, पारबती
श्री श्री ज्ञा
आगम श्री शीलवर्धनसूरि | भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
201
1238
1573
श्री श्री ज्ञा
आसी मंगाई, | पल्हाई
पूर्णिमा सद्गुरू
भ. श्री नमिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
201
1239
1510 धर्माई, हंसाई
श्री. श्री. ज्ञा.
| वृद्धतपा श्री रत्नसिंहसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
202
1240
|
1512
राजलदे
श्री. ज्ञा.
ब्रह्माण मुनिचंद्रसूरि
भ. श्री शीतलनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
202
1241
1515 | जसमादे
प्रा. ज्ञा.
तपा. सोभागसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
202
1242
1517 | वासू
श्री. श्री. ज्ञा.
श्रीसाधुसुंदरसूरि
भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
203
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
442
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
1243
1558 | रूडीसु
ओसवंश
श्रीसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ जी - पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
203
1244
1541 | संपू, हर्षाई
श्री श्रीमाल ज्ञा.
| भावडार. भावदेवसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| 196
1245
1519 | राजू, संपूरी
| वायड ज्ञा.
| आगम. हेमरत्नसूरि
जै.धा.प्र.ले.सभा.2
196
भ. श्री धर्मनाथादिपंचार्थी जी
1246
1512 | लणू श्री
उपकेश ज्ञा. मंडोवरा गोत्र
धर्मघोष. श्रीसाधुरत्नसूरि | भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
196
1247
1523
लाडी, मंदोअरि
नीमा ज्ञा.
तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री नमिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सभा.2
196
1248
1529 | आंसू माकूणदे
प्रा. ज्ञा.
बृहतपा. श्रीविजयरत्नसूरि | भ. श्री वासुपूज्य जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
197
1249
1564 | हली, अहवदे
प्रा. ज्ञा.
भ. श्री अजितनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
197
बृद्धतपा. श्रीलब्धिसागरसूरि
1250
1521 | धनाई
प्रा. ज्ञा.
| तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
1251
1523 | लाही, मंदोअरि । नीमा ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री नमिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
197
1252
1529
प्रा. ज्ञा.
बृहतपा. श्रीविजयरत्नसूरि | भ. श्री वासुपूज्य जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
197
राजू, आसू, माकूणदे
1253
1521
धनाई
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
197
1254
1513राणी, लाषणदे
| श्री श्री ज्ञा.
आगम. देवरत्नसूरि
जै.धा.प्र.ले.सभा.2
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी
197
1255
1525
दीसवाल ज्ञा.
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
198
राजूपु वानूपु माणिकि
1256
1560
श्री श्री ज्ञा
लीलू, जीवाई चंपाई
सद्गुरू
भ. श्री धर्मनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
1257
1583 | शीआदे, सरीयादे | श्री. श्री. ज्ञा
| भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
पूर्णिमा श्रीसूरि आगम. विवेकरत्नसूरि
1258
1549 | लखी, देमाई
प्रा. ज्ञा.
| भ. श्री अजितनाथ
जी .
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 205
1259
|
1521 - लबकू मल्हाई
धनी
श्री. श्री. वंश
अंचल. जयकेसरीसूरि
भ. श्री अजितनाथ जी
| जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
1260
- 1529
मटकू
प्रा. ज्ञा.
आगम. अमररत्नसूरि
| जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
205
| भ. श्री संभवनाथ पंचतीर्थी जी
1261
1560
सांतू लीलादे
| श्री. श्री. वंश ।
अंचल. सिद्धांतसागरसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
205
1262
1537
| रतनू, भरमादे
श्री. श्री. ज्ञा.
श्रीसूरि
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
- 206
भ. श्री संभवनाथ चतु. जी
1263
1506 | देई, कपूरी,
कमलाई
प्रा. ज्ञा..
तपा. उदयनंदिसूरि
| भ. श्री अनंतनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
206
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
443
1264
1547 | पूरीसु, रूपाई,
कबाई
श्री श्री ज्ञा.
तपा. सुमतिसाधुसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
2068
1265
1515
| देवलदे
श्री श्री ज्ञा.
पूर्णिमा. साधुसुंदरसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सभा.2
|
184
1266
1509 | कपूरी, कुती
गूर्जर ज्ञा.
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
184
1267
1549
टबकू, वल्हादे
श्री. श्री. ज्ञा.
मा.
वृद्धतपा. उदयसागरसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
शा.
184
1268
1521 | चांपासिरि, सीतादे
ओस. ज्ञा. गांधी गोत्र
मलधारिगुणसुंदरसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
| 184
जर्मनी मूल की जन्मी थी। श्राविका चारलेट क्रॉस। जैनाचार्य से जैन सिद्धांतों से इतनी अधिक प्रभावित हुई थी कि उसने अपना नाम सुभद्रादेवी (हिन्दुस्तानी) रखा
___ था। उसने जैन धर्म की श्राविका दीक्षा स्वीकार की थी।
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत् ।
श्राविका नाम
1269
1520
काचू, माई
1270
1513
सरू, सहमाई
वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ - पृ. गच्छ/आचार्य
आदि श्री मोढ़ ज्ञा श्री हेम प्रभसूरि भ. श्री कुंथुनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. 59
जी उसवाल ज्ञा लोढा रूद्रपल्लीय . श्री भ. श्री विमलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. गोत्र
सोमसुंदर सूरि उप. ज्ञा. अंचल. श्री जयकेसर भ. श्री मुनिसुव्रत - पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी उप वंष बोधरा गोत्र | खरतर. श्री जिनचंद्रसूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी
| 1527 | आहलदे, मानू
1272
| 1534 | सुहागदे, लखी
जी
1273
| 1534
| हरखू, वीजलदे
भ. श्री विमलनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
60
जी
1274
|1534 | देऊसु, वानरि
उप. ज्ञा. नाहर गोत्र | धर्मघोष श्री
लक्ष्मीसागरसूरि प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागर
सूरि उप. ज्ञा.
| तपा. हेमविमलसूरि
भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1275
1560 | भावलदे मोई
61
भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री शांतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1276
1577 | पामलदे, भाशणदे
नाहर गोत्र
श्री नन्दिवर्धन
61
1277
1527
अमरी, नाई
प्रा. ज्ञा.
उप. श्री सिद्धसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ । पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी
1278
1532 | हलू, जीवि
वायड़ज्ञा
आगम. श्री अमररत्नसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
62
जी
1279
1503 | भरमी
माल्हू गोत्र
श्री जिनभद्रसूरि
भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी भ. श्री धर्मनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1280
1559 | भोजी
ओसवाल.ज्ञा. सुराणा | धर्मघोश. श्री गोत्र
पद्मानंदसूरि प्रा. ज्ञा.
श्री सूरि
1281
| 1545 | माघू हेमी
भ. श्री पाशर्वनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1282
| 1566 | चाहिणदे
श्री नाणावाल
| श्री शांतिसूरि
163
1283
1507 | अमरी
श्री कक्कसूरि
भ. श्री विमलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
ओसवाल ज्ञा. सुचिंती गोत्र उपकेष गोत्र
64
12841510 | तल्ही, जेगी
श्री कक्कसूरि
164
ऊकेष. भामु गोत्र
श्रीसूरि
भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
12851518 | फती, कर्मादे,
सहजलदे 12861534 | वीरिणि, लशमादे
जी
उप. गोत्र
श्री गुणविमलसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
65
जी
12871536 | प्रेमलदे, भावलदे
ओसवाल
| ज्ञानकीय धनेशवरसूरि
| भ. श्री विमलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स..
65
1288
| 1536 | गरलदे, रासारदे
तइट गोत्र
श्री देवगुप्तसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
65
भ. श्री कुंथुनाथ जी भ. श्री पार्श्वनाथ
1289
1539
धर्मिधि, म्यापुरि
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
उ. ज्ञातीय प्रादेचा भावड़ार भावदेवसूरि गोत्र ओस. ज्ञा. तपा श्री हेमविमलसूरि
जी
1290
| 1552
मुजादे
भ. श्रीविमलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
1291
| संवत् श्राविका नाम | वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ ।
गच्छ/आचार्य
आदि 1561 | हीरू, चांपू रवी हुंबड ज्ञा. श्रेष्ठि | तपा श्री हेमविमलसूरि
।
भ. श्रीविमलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. 66
जी 1507 | वीरमदे श्री ओस वंश
भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. 66
1292
जी
1293
1596 | पऊमादे
आदित्यनाग गोत्र | सिद्धसूरि
भ. श्री शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1294
| 1509 | हेमसिरि
ओसवंश नाहर गोत्र | धर्मघोष सूरि
भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
72
जी
1295
| 1530
| कुनिगदे, देल्हा
| प्रा. ज्ञा.
श्री विद्यासागर सूरि
भ. श्रीधर्मनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1296
| 1545 | ईसरदे, जीवादे
उप. ज्ञा. श्रेश्ठि गोत्र | श्री कमलचंद्रसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
72
जी
1297
1501
जामि
श्री मंगल चंद्र सूरि
भ. श्री चंद्रप्रभु जी| पा.जै.धा.प्र.ले.स.
173
1298
| 1509 | ऊमादे, देवलदे
श्री जिन सागर सूरि
भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
74
उकेशवंश माल्हू गोत्र ओसवाल ज्ञा
1299
1512 | नयणी, मी
| श्री कक्कसूरि
भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
74
1298
1513
..................
उकेशवंश
ब्रह्माण तपा. हेमहंस सूरि | भ. श्री नमिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी श्री सागरचंद्रसूरि भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1299
| 1513 | क्षेमश्री, सोम श्री
उकेशवंश
174
जी
1300
| 1515 | रूपिणि वइजी
| गूर्जर ज्ञा.
श्री जयचंद्रसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1301
1520 | गउवदे हर्शमदे
| श्रीमाल ज्ञा.
धर्मघोष श्री साधुरत्नसूरि | भ. श्री सुविधिनाथ| पा.जै.धा.प्र.ले.स.
75
जी
1302
| 1521 | पाल्हणदे माकू।
प्रा. ज्ञा.
पूर्णिमा श्रीपूज्यचंद्रसूरि
भ. श्री पद्मप्रभु | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1303
1529. | राजलदे
श्रीमाल ज्ञा
पूर्णिमासाधुसुंदरसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी
1304
| 1530 | तेजलदे कुनिगदे ।
उप. ज्ञा
तपा श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्रीमुनिसुव्रत | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
53
जी
1305
1530 | आधू माणिकदे
प्रा. ज्ञा.
तपा लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1306
1530 | राजलदे
श्रीमाल ज्ञा
अंचल श्रीजयकेसरीसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1307
| 1532 | मीमी पाहणदे
|54
जी
1308
1533
खेत श्री
54
उएसवंश मलधारि पुण्यनिधान सूरि | भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. चणमालिया गोत्र ओसवंष बाबेल गोत्र | मलधारि गुणनिधानसूरि भ. श्री अभिनन्दन | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी उकेशवंश कटारीया | खरतर. श्री जिनचंद्रसूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. गोत्र उप. वंश
श्री कमलचंद्रसूरि भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1309
1534 | पाल्हणदे
154
जी
1310
1534 | लशमादे, कील्हणदे
55
जी
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
446
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
| श्राविका नाम
वंश/गोत्र
|
पृ.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य खरतर श्रीजिनचंद्रसूरि
- प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ
आदि भ. श्री धर्मनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1311
| 1534
| नीविणि |
उकेशवंश जाहड गोत्र
55
1312
| 1534 | नमलदे
श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
55
जी
13131535 | मयहलदे
उप. ज्ञा.
श्रीदेव गुप्तसूरि
भ. श्री पद्मप्रभु
पा.ज.धा.प्र.ले.स.
55
1314
| 1546 | सिंगारदे
ओस. श्रेष्ठि गोत्र
श्रीदेव गुप्तसूरि
| भ. श्रीचंद्रप्रभु जी | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1552
| केल्ही, गिरसू
ओसवाल ज्ञा.
श्रीजिनसुंदरसूरि
56
भ. श्रीआदिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1316
1555
सालिग
56
उप. वंष मेडतावाल | हर्शपुरीय. गोत्र
श्रीगुणसुंदरसूरि सण्डेर बढ़ाला गोत्र श्रीशांतिसूरि
जी
जिस समय का कविता
1317
माता नाम ।
1556
| तारू
भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
56
जी
| 1559 /
| देवल
पल्हुबड़ गोत्र
श्री मुनिदेव सूरि
भ. श्री कुंथुनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
56
जी
1319
| 1559 | भंगादे, धनश्री
उपकेषवंश
खरतर. जिनहंससूरि
| भ. श्री शीतलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
56
जी
1320
| 1563 | देवलदे, वील्हणदे
57
धर्मघोश लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी | उपकेश श्रीसिद्धसूरि भ. श्री नमिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1321
1566
रूपादे
57
उपकेषवंश रांका गोत्र श्री वंश
1322
1572
रहा, रमादे, आहवदे
नागेन्द्र सुगुरू
भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
स.
57
जी
1323
1576 | रमादे हीरादे
श्रीमाल ज्ञा.
पूर्णिमा श्री मुनिचंद्रसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
157
जी
1324
|1576 | हेम श्री
सुराणा गोत्र.
धर्मघोश नन्दिवर्धनसूरि
57
1325
| 1576 | सवतादे, प्रेमलदे
उप. ज्ञा.
श्री शांतिसुंदरसूरि
भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री मुनिसुव्रत | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री अभिनन्दन | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
58
1326
1592 | सूहवदे
आदित्यनाग गोत्र. | उप. गच्छ श्री सिद्धसूरि
|58
जी
13271599 | कील्हू
सण्डेर गोत्र
श्री शांति सूरि
भ. श्री नेमिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
58
जी
1328
1500
उपकेष ज्ञा.
तपा. श्री मुनिसुंदरसूरि
भ. श्रीचंद्रप्रभु जी | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 106
मल्हाड़ लाखणदे चापल.दे | कल्हो, दत्तसिरी
| उप. वीरोलिया गोत्र | श्रीऊजोअण सूरि
भ. श्री संभवनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स..
106
जी
1330
1588 | सहलालदे
उप. ज्ञा. चोरडिया गोत्र
ऊकेश श्रीसिद्धसूरि
भ. श्रीसुमतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 106
जी
1331
प्रा. ज्ञा.
| श्री लक्ष्मीसागर सूरि
भ. श्रीआदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 106
| 1536 कर्मादे, नायकदे,
हरशमदे 1533 | रूल्ही, जोगी
जी
1332
ओस. ज्ञा. बड़ गोत्र | श्रीसूरि
|108
भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
1333
1334
1335
1336
1337
1338
1339
1340
1341
1342
1343
1344
1345
1346
1347
1348
1349
1350
1351
1352
1353
1354
संवत्
1597
1513
1513
1520
1554
1505
1511
1581
1525
1503
1509
1509
1554
1512
1529
1510
1519
श्राविका नाम
1524 कील्हण
1519
हर्श, पूंजी, माऊ, सापा, सागू आदि
प्रथम सिरी, हीमादे
1518
धानी
धारलदे
1596 सवीराई
लखमादे, माल्हणदे
चण श्री, मोहण श्री
कश्मीर, मेथू
लखमाई, सिंगारदे
देल्हू, माल्ही, पूरा
हर्शमदे
मीथही
1517 हीमी
केल्ही, संसारदे
वणकरम्मदे
लखी
साशेल, रतू
धारी वैरामति
धूली
लशी, वारू भाजी
वंश / गोत्र
श्रीमाल ज्ञा.
उकेष ज्ञा.
सुराणा गोत्र
श्री श्रीमाली ज्ञा. बहरा गोत्र
प्रा. ज्ञा.
उप. ज्ञा. आदित्य नाग गोत्र
श्री श्रीमाल ज्ञा.
ऊकेष घांघ गोत्र
मुहरल गोत्र श्री माल ज्ञा
उठितवाल गोत्र
उप सुचिन्ति गोत्र
उप. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्रीमाल. ज्ञा.
श्रीमाल. ज्ञा.
उप. ज्ञा.
श्री माली
उसवंश बहुरा गोत्र
उसवंश बरडिया गोत्र
प्रेरक / प्रतिष्ठापक प्रतिमा निर्माण गच्छ / आचार्य आदि
तपा. श्री सुमति साधुसुरि
अंचल. श्री जयकेसरीसूरि भ. श्री कुंथुनाथ जी
श्री धर्मघोश पद्माणंदसूरी
श्री सूरि
श्री हेमविमलसूरि
उप. श्री कक्कसूरि
पूर्णिमा, श्री राजतिलक सूर
मलधारि
श्रीजयकेसरी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
श्री कक्कसूरि
ब्रम्हाण. श्रीउदयप्रभसूरि
श्री सूरि
श्री विजयदानसूरि
उकेश श्री कक्क सूरि
आगम हेमरत्नसूर
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री पार्श्वनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री शांतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री सुविधिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री अजितनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री सुमतिनाथ पा. जै.धा. प्र.ले.स. जी
धर्मघोष. महातिलकसूरि
भ. श्री शांतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्रीविमलनाथ
जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री शांतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री आदिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री सुपार्श्वनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री अजितनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री शीतलनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री शांतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
श्री रत्नशेखरसूरि
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री वासुपूज्य जी बृहत. श्री शांतिसागरसूरि भ. श्री वर्धमान जी पा. जै.धा.प्र.ले.स.
श्री सूरि
तपा. श्री. हेमविमलसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री शांतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
पृ.
108
108
109
109
109
110
110
110
111
111
111
111
111
111
116
447
115
115
115
123
124
124
124
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
448
क्र०
1355
1356
1357
1358
1359
1360
1361
1362
1363
1364
1365
1366
1367
1368
1369
1370
1371
1372
1373
1374
1375
1376
संवत्
1503
1508
1510
1511
1516
1527
1536
1564
1577
1501
1505
1519
1524
1525
1523 पोईणी, राजलदे,
मारू
रानू जीविणी
देल्हणदे, वीजलदे
1528
1529
1571
वालदे, ललतादे
संभूरही
1554 सरूपदे, रत्नादे
1515
1517
श्राविका नाम
1535
सहजलदे
वारू, कोला
राजू, चांपू
सीतू मणकाई
माल्हणदे, कर्मादे
लशमादे रत्नादे भाल्हणदे
वाचा, मदना, नाथी
जीविणि, वानू
वारू, डूसी
लाखण, मेघू
| जासू, काईसु
चमकू हीरू
मूल्ही, लाशणदे, लशमादे
गोपालदे, दमहलदे
गुरा, रूपाई
वंश / गोत्र
ओस. ज्ञा. आजमेरा गोत्र
श्री संडेरगच्छ
प्रा. ज्ञा.
श्री उकेषवंष दोसी गोत्र
श्री ज्ञान कीय किलासीया गोत्र
उसवाल ज्ञा.
माईलेवा गोत्र
काकरेचा गोत्र
श्री श्रीमाल. ज्ञा.
श्री श्रीमाल
श्री श्रीमाल
उप. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उपकेष. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उप. ज्ञा.
वायड़ ज्ञा.
उएस वंष
ओस. शावली गोत्र
ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
धर्मघोश विजयचंद्रसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री आदिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
प्रतिमा निर्माण आदि
| श्री शांतिसूरि
श्री रत्नशेखरसूरि
खरतर. श्री जिनभद्रसूरि भ. श्री आदिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
श्री धनेष्वर सूरि
संडेर श्री शांतिसूरि
पल्लीवाल. उद्योतनसूरि
श्री शांतिसूर
श्री पार्श्व चंद्रसूरि
म. श्री शांतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी पूर्णिमा श्री गुणसमुद्रसूरि भ. श्री कुंथुनाथ जी
श्री जयकेसरी सूरि
श्री पुण्यरत्नसूर
भ. श्री शीतलनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री सुविधिनाथ | पा. जै. धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री आदिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री कुंथुनाथ
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
जी
भ. श्री चंद्रप्रभु जी पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री पार्श्वनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री विमलनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्रीआदिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
कनकरत्न सूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री शांतिनाथ पा. जै.धा. प्र.ले.स. जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि म. श्री संभवनाथ पा. जै.धा. प्र.ले.स. जी उप. श्री देव गुप्त सूरि
श्री लक्ष्मी सागर सूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | पा. जै.धा. प्र.ले.स. जी
भ. श्री नमिनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री विमलनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स.
जी
अंचल, सिद्धांत सागरसूरि
आगम. श्रीसोमरत्नसूर
भ. श्री पा. जै.धा.प्र.ले.स. अभिनंदननाथ जी भ. श्री पार्श्वनाथ पा. जै.धा. प्र.ले.स. जी
श्री जयकेसरी सूरि
तपा. श्री कमलवज्रसूरि
भ. श्री नेमिनाथ जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री शांतिनाथ पा. जै.धा. प्र.ले.स.
जी
भ. श्री सुमतिनाथ पा. जै.धा. प्र.ले.स. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
पृ.
125
125
125
125
126
126
126
126
127
128
129
129
129
129
129
129
130
131
135
135
135
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
क्र०
संवत्
| श्राविका नाम
आदि
1377
| 1528 | वीरू, सहिदे, वरदे
135
.
वंश/ गोत्र । प्रेरक/प्रतिष्ठापक - प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ ।
गच्छ/आचार्य श्री श्रीमाल वृहत्तपा ज्ञानसागर सूरि | भ. श्री कुंथुनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी उपकेषज्ञा हुडोयूरा श्रीदेव गुप्त सूरि भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. गोत्र
| जी ऊ. ज्ञा.
तपा श्री हेम विमल सूरि | भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1378
1544 | मोहणदेवी
138
| 1379
1552 | सारू, कील्हू
138
1380
1558
वरजू, जासू
श्री श्रीमाल ज्ञा
| श्री हेमरत्न सूरि
1381
| 1527 | करणूं, लशू
श्री वीर वंष
अंचल जयकेसरीसूरि
139
भ. श्री शीतलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री श्रेयांसनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी | भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी भ. श्री कुंथुनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1382
| 1563 | हीरूं, पुहुति
मोढ़. ज्ञा.
तपा इंद्रनंदि सूरि
1383
1528 | मेघाई
ओएस वंष
अंचल
140
जी
1384
1570
हेमसिरि, नारिगदे, संघवीणि
भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
141
सूराणा गोत्र धर्मघोश श्री
नंदिवर्धनसूरि उप. ज्ञा. सोनी गोत्र | श्री देवसुंदर सूरि
1385
| 1538
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
141
1386
| 1518 | राऊ
श्री मोढ़ ज्ञा.
श्री हेमप्रभ सूरि
141
भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी
1387
श्रीसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ| पा.जै.धा.प्र.ले.स.
142
1388
1576 पूना, रेडाही, डूला, | डूगड़ गोत्र
मूलाही | 1567 | लाबी, रूपी, जयमादे, | श्री. श्री. ज्ञा
रत्ना | 1578 | तेजू, वीर भदेऊरा
श्री सर्वदेव सूरि
भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
142
जी
1389
संडेर श्री शांति सूरि
भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
143
1390
1523
भावलदे
त्पा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
144
जी
1391
1558
| पद्मलदे
श्री देवगुप्तसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
144
उसवाल ज्ञा कठउतिया गोत्र सुचिंति गोत्र
जी
13921567 | जस्मादे, हशु
| 146
1393
1575 | आल्हशदे, विल्हणदे, प्रा. ज्ञा.
| श्री नन्दीसूरि भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी तपा श्री जयकल्याणसूरि | भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी द्विवंदणीक. श्री सिद्धसूरि | भ. श्री सुविधिनाथ| पा.जै.धा.प्र.ले.स.
147
13941512 | फाली, जासी
150
जी
1395
| 1567 |बाजी
उपकेष. ज्ञा.
उपकेश श्री सिद्ध सूरि
भ. श्रीपार्श्वनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
150
1396
1553 | मानू धनाई
ऊकेष वंष
खरतर. श्रीजिनसमुद्रसूरि | भ. श्रीवासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
157
जी
1397
1570
सोमलदे
सुराणा गोत्र
धर्मघोष. नंदिवर्धनसूरि
157
| भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स..
जी भ. श्री कुंथुनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1398
|1507 | मोटू, मंदोअरि
श्री रत्नषेखरसूरि
157
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी का जन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
प्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ । गच्छ/आचार्य
आदि श्री रत्नसिंहसूरि भ. श्रीआदिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1399
| 1511 | सहनलदे, पाल्हणदे । हुंबड़ ज्ञा.
158
जी
1400
1553 | सोनी, हीरू
बारडेचा गोत्र
कोरंट श्रीनन्नसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
160
जी
1401
| 1506 | आर्या सोही
श्रीमाल ज्ञा.
श्री हेमरत्न गुरू
भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्रीचंद्रप्रभु जी | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
14021517 | धावलदे, कनुतिगदे । उकेषवंष लोढ़ागोत्र | खरतर, श्रीजिनधर्मसूरि
14031518 | हीरादे
श्रीमाल ज्ञा.
श्री विमलसूरि
भ. श्रीधर्मनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1404
| 1519 | समूलदे, बगू
उ. ज्ञा.
श्री मलयचंद्रसूरि
4
भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री धर्मनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
14051523 | मेघू, जीवादे
उकेसवंष
अंचल.श्रीजयकेसरीसूरि
1406
| 1513 | काउ, नेतादे
उकेष ज्ञा.
संडेर. ईश्वरसूरि
17
भ. श्री सुमतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्रीवासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1407
| 1557 | रत्नादे, हांसू
प्रा. ज्ञा.
हेम विमलसूरि
7
जी
1408
1517 | सुहासिणी, सोनाई
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
9
1409
1557 | सोंगलदे, पूजी
महेंद्रसूरि
भ. श्री शीतलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
9
जी
1410
1526
| पामेचा गोत्र
श्री जिनचंद्रसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
75
जइतो, जारी, उल्लादे जासहदे, संसारदे
1411
| 1532
श्री कोरंट
श्री सांवदेवसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
14121533 | मानू, माही, मनकू
| प्रा. ज्ञा.
भ. श्री विमलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
साधुपूर्णिमा. जयशेखरसूरि श्री विमलप्रभसूरि
1413
1534
प्रा. ज्ञा.
भ. श्रीवासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
76
मोहणदे, कुंती,
लशमण 1549 | माणिकदे, गंगादे
1414
ओसवाल ज्ञा.
1415
1563 | चांपले, चंगी
| सण्डेर. सुमतिसूरि भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी धर्मघोष. श्रुतसागरसूरि । भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी अंचल. सूरि
जिनप्रतिमा पा.जै.धा.प्र.ले.स.
76
1416
1567
उपकेष ज्ञा. भूरि गोत्र गुंदेचा गोत्र ऊकेषवंष फूलपगर गोत्र
टहन, जसा
1417
| 1572 | पाबू, पूरी
श्री चंद्रप्रभसूरि
भ. श्री आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
76
14181579 | धनी, लशमादे
77
1419
1521 | धाई, वीराणि
नागर ज्ञा.
बृहतपा.
सौभाग्यसागरसूरि उपकेष ज्ञा. बाफणा | श्री कक्कसूरि गोत्र | उप. श्रेश्ठि गोत्र |श्री कमल चंद्रसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री कुंथुनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
177
1420
1541
रत्न, टहकू भरी, करमी, रामति
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत् | श्राविका नाम
वंश/गोत्र
।
पृ.
1421
1504 | भोला ही
नाहर गोत्र
79
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि धर्मगच्छ.
भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स. श्रीविजयचंद्रसूरि जी श्री जिनभद्रसूरि भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी त्पा. श्रीरत्नशेखरसूरि भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1422
| 1507 | कपूरदे
ऊकेश वंश
79
1423
| 1511 | राजू, कमा
प्रा. ज्ञा.
180
जी
1424
| 1521 | वीसलदे, सोनाई
भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
ओसवाल ज्ञा. बृहतपा. श्री
उदयवल्लभसूरि श्री संडेर ओस. ज्ञा. श्री शांतिसूरि
जी
1425
1533
भ. श्री चंद्रप्रभ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
81
1426
1536 | सूहवदे, कपूर
| श्री. श्री. ज्ञा.
चैत्र. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री विमलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
81
जी
1427
| 1536 | सहजलदे
श्रीसूरि
| भ. श्री धर्मनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1428
1554 | जाल्ही, सूहवदे
भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.प. | जी | भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1429
ऊ. ज्ञा. गांधी गोत्र अंचल.
श्रीसिद्धान्तसागरसूरि ऊकेशवंश भणसाली श्रीसूरि गोत्र उपकेष ज्ञा. श्रीमणिचंद्रसूरि
1559 | राजी, लाली
जी
| 1430
| 1559 | तुरी
भ. श्री सुविधिनाथ| पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1431
1569 | संपूरी
श्रीमाल धांधीया गोत्र | श्री जिनचंद्रसूरि
भ. श्रीसुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
82
14321581 | चांगू करमा
उ. भीसोधा गोत्र
श्री संडेर. ईश्वरसूरि
| भ. श्रीअजितनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी
1433
| 1523
| फडू, मरगादे
प्रा. श्रेष्ठि
| तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्रीकुंथुनाथ जी| पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1434
| 1579
| सालिगदे
गांधी गोत्र
अंचल. श्रीगुणनिधानसूरि | भ. श्रीपार्श्वनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
96
1435
| 1524 | ऊदी सूहावदे
उप. ज्ञा. लिंगा गोत्र | डपकेश श्रीकक्कसूरि
भ. श्रीकुंथनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
89
1436
| 1533
| माई
ओसवाल ज्ञा.
बृहत्तपा. उदयसागरसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| जी बृहत्तपा. उदयसागरसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1437
1536
हपारा
श्री श्रीमाली
9
| जी
1438
1574 | बल्हा, हीसू
98
1439
1537 | मुहड़ादे, हिमादे
ओसवाल ज्ञा. वलह | डपकेश श्री सिद्धसूरि भ. श्रीधर्मनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.स. गोत्र धर्मघोष श्री मानदेवसूरि | भ. श्रीविमलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी | प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री धर्मनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
सूराणा गोत्र.
269
1440
1541 | सूलेसिरि, लखी
| 269
1441
| 1505 | मूदलदे, सुहड़दे
धर्मघोष. श्री महेन्द्रसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभु जी| पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 272
1442
1517 | जासी, हीरू
श्री श्रीमाल ज्ञा.
पिप्पल. श्रीधर्मसागरसूरि | भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
274
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________
452
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
| पृ.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक - प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1443
1519 | जीविणी, वीरू
ऊकेश ज्ञा.
जी
1444
| 1521
टबकू, रामी, जीविणि | प्रा. ज्ञा.
274
तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री पद्मप्रभु | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी श्री धनप्रभसूरि भ. श्री नमिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1445
1513 | सिरियादे, मल्ली
| उपकेष ज्ञा.
274
जी
1446
| 1517 | साही, आसि
श्री श्रीमाल
पूर्णिमारत्नसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
274
जी
1447
| 1576 | भावलदे, माणकदे ।
उप. ज्ञा. नाग गोत्र
नाणांवाल .............
भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
274
1448
|1524 | धरणा, कुंथि
श्रीमाल ज्ञा.
श्री विमलसूरि
भ. श्रीनमिनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
278
1449
1534 | माणिकदे
उसवाल ठाकुर गोत्र | श्री सोमसुंदरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्रीविमलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1450
1536
| वाला, ललियता
श्रीमाल ज्ञा.
श्रीसूरि
279
जी
खांटेड गोत्र उप.ज्ञा. श्रीवीरसूरि
279
14511509 | ठांसलदे, नतुदे,
उमादे 1452 1524 माल्हणदे
भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री पदमप्रभु पा.जै.धा.प्र.ले.स.
श्रीमाल ज्ञा.
श्री भावदेवसूरि
280
जी
1453
1563 | अघु
उप. ज्ञा.
श्री कातिक्त सूरि
भ. श्री विमलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1280
जी
1454
258
1455
259
जी
1456
1259
M.ल.स.
1457
261
|1527 | जासू, चमकू, कर्माई | श्री. श्रीमाल वंष | अंचलश्रीजयकेसरी भ. श्री
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
चंद्रप्रभुस्वामी जी 1509 | सांसलदे,
उएस. वश | श्री सावदेवसूरि भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
पंखवालेचा गोत्र 1528 माणिकदे, बाल्हा, | श्री. ज्ञा. बृहतपा ज्ञानसागरसूरि भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. नामलदे
जी 1515 | सोखू, हीराई, रोहिणि उकेष वंष दरड़ागोत्र | श्री जिनचंद्रसूरि भ. श्री अंबिका पा.जै.धा.प्र.ले.स.
मूर्ति जी 1520 रूपिणि सोमादे.
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्रीमुनिसुव्रत | पा.जै.धा.प्र.ले.स. वीकमादि 1525 भोली, हासी, आसू.
| श्री जिनसोमगणि
पा.जै.धा.प्र.ले.स. करमी | 1566
तपा. श्री चरणसुंदरसूरि भ. श्री सुपार्श्वनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| जी | 1512 | भटि
नागर ज्ञा.
बृहतपा श्री रत्नसिंहसूरि | भ. श्री धर्मनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1458
261
जी
1459
| 262
1460
| 262
1461
267
1482
| 1530 माल्ही, महू
1267
वड़ानुलागोत्र | संडेर श्रीयषचंद्रसूरि ओसवंष ऊकेषवंष धोखागोत्र खरतर श्री जिनचंद्रसूरि
भ. श्री शातिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री सुमतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1463
1512 | वाहिणदे, रत्नादे
1268
जी
1464
| 1534 | लखमादे
उतष शा श्रेष्ठी । श्रीदेवगुप्तसूरिन भी पदमप्रभु पाजमारले स. ।
उकेष ज्ञा श्रेष्ठी गोत्र
| श्रीदेवगुप्तसूरि
भ. श्री पद्मप्रभु
| पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 269
,
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
क्र०
संवत् । श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य नागेन्द्र श्रीसर्वसूरि
प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
आदि भ. श्री षांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1465
| 1520 | सहजू, काली
श्री.श्री.ज्ञा.
282
1466
| 1522 | कर्मणि, मेथा
पाल्हाउत गोत्र
| मलधारि. गुणसुंदरसूरि
282
1467
1537 | जसमादे
उप उप. ज्ञा. बाप गोत्र
| श्री देव गुप्तसूरि
282
| भ. श्री आदिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स. पंचतीर्थी जी भ. श्री | पा.जै.धा.प्र.ले.स. वासुपूज्यपंचतीर्थी
1468
1547 | रई, इंदु
वायडा ज्ञा.
श्री अमररत्न सूरि
282
1469
| 1542
साहू लखमादे, वड़ी | उप. ज्ञा.
श्री धनप्रभसूरि
203
1470
| 1527 | नामलदे, नानुं
| 204
ओस. ज्ञा. श्रीनाणकीय धनेष्वरसूरि | भ. श्री चंद्रप्रभु जी| पा.जै.धा.प्र.ले.स. मादरेचागोत्र उप. ज्ञा. गजड़ गोत्र | पल्लीवाल श्री नन्नसूरि भ. श्री मुनिसुव्रत | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1471
1528
सुहविदे
204
जी
1472
1530
पदमिनी
उसभ गोत्र
श्री धनेष्वरसूरि
204
1473
1544 | वयजलदेवी
ओस. ज्ञा.
श्री रत्नदेवसूरि
भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री पार्श्वनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्रीअजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
281
1474
1517
ललतादे, संसारदे
उप. ज्ञा.
श्री कक्कसूरि
227
1475
| 1519 | नासलदे, चांकूमाल्ही | प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1227
जी
1476
1513 | सूल्ही, गउरी
ऊकेषवंष
श्री यशोदेव सूरि
भ. श्री कुंथुनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
228
1477
1506
धारू, लाड़ी
श्री संडेर, उप. ज्ञा.
श्री शांतिसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
228
जी
1478
1533 | झबकू
श्रीमाल ज्ञा०
229
नागेन्द्र श्री गुणदेवसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी बृहदत्तपा. श्रीवल्लभसूरि | भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1479
1559 | सिरिया, धरमाई
डूगड़गोत्र.
229
जी
1480
1572 | डीडी, रानादे,अचलादे | ऊकेष वईतालागोत्र | खरतर. श्रीजिनचंद्रसूरि | भ. श्रीधर्मनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
230
1481
1529
पोमादे, दई
प्रा. ज्ञा.
श्री लक्ष्मीसागर सूरि
भ. श्री कुंथुनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
231
1482
| 1511 | झांब, सोमश्री, अधकू
श्री कक्कसूरि
231
उप. ज्ञा. | आदित्यनाग गोत्र प्रा. वर्ष
1483
1509 | माजू, साहिणि
श्री जयकेसरी सूरि
भ. श्री कुंथुनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्रीनमिनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
233
14841516 | संपूरी, झांऊ
...........
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
233
| tass 127 | रंगाई. कुंवरि
1485
1527 | रंगाई, कुंवरि
श्री श्री रसोइया | श्री जयकेसरी सूरि
श्री श्री रसोइया
म. श्री शांतिनाथ पा.ज.या प्रले.स. | 23 |
श्री जयकेसरी सूरि
भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
233
गोत्र
जी
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________
454
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
| क्र.
संवत् । श्राविका नाम ।
वंश/गोत्र
।
पृ.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि तपा. श्री जिनरत्नसूरि भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1486
1541
मानू
234
जी
14871 533 | महताब कुंवर
दूगड़ गोत्र
सर्वसूरि
भ. श्री अभिनंदन | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
211
1488
श्री.श्री. ज्ञा.
तपा. श्री हेमविमलसूरि
भ. श्री अनंतनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 239
1565 कुतिंगदे, बारधाई,
राकू, बीनाई | 1509 | जीजाबाई, बेन
जी
1489
तपा श्री शांतिसागरसूरि | भ. श्री चंद्रप्रभु जी| पा.जै.धा.प्र.ले.स.
212
1490
1587 | वइजलदे, अबवादे
उप. ज्ञा.
श्री मलयहंससूरि
234
भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
उकेष ज्ञा.
श्रीसूरि
215
1491 1512 | भरमादे, नायकदे,
सोनाई 14921504 | लखाई, बेणी
जी
महतीया वंष
215
भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री महावीर जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1493
1504
.............
जाटड़ गोत्र
खरतर, जिनसागरसूरि
219
1494
1504 | लाड़ो
महतीयाण वंष
। | 219
1495
1553 | रामति, माणिकदे
हुंबड़ ज्ञा.
। खरतर, भाभु शीलगणि भ. श्री पार्श्वनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी बृहतपा श्री
भ. श्री मुनिसुव्रत | पा.जै.धा.प्र.ले.स. उदयसागरसूरि तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्रीसुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 266
1496
1523
| मानूं, जासी, धादि, प्रा. ज्ञा. लाली
| 176
जी
1497
1503
लाखणदे
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीजिनरत्नसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 177
1498 | 1512 | पचू, चमकू, वाल्ही
| प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
177
भ. श्रीसुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री कुंथुनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1499
1517 | चाई
उकेष, लुंकड गोत्र | खरतर. श्रीविवेकरत्नसूरि
177
जी
1500
1518 | वारू, गोमति, धर्मिणी प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्रीसुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
177
1501
1519
वाल्ही
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा राजतिलकसूरि
भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
177
1502
1521
सखी, कमकू
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा. श्रीगुणतिलकसूरि भ. श्रीसुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
178
जी
1503
|1531 | राजवदे, राजाई
श्री. श्री. ज्ञा.
आगम. श्रीदेवरत्नसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ| पा.जै.धा.प्र.ले.स.
178
जी
1504
1548 | देल्हणदे, धनी
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा. सौभाग्यरत्नसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
178
जी
1505
1552 | अमकू, हांसी
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीउदयसागरसूरि | भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
178
जी
बृहत्तपा संवेगसुंदरसूरि
जिनप्रतिमा
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
180
1506 1529 | बाई, मनाई, सलबाई, | उस. ज्ञा.
मृगाई, बाई 15071517 | कमुई
181
आगम श्री आनंदप्रभसुरि | भ. श्री कुंथुनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
A
क्र०
संवत्
| श्राविका नाम
वंश/गोत्र
1508
1536 | बरघू, गंगादे
ओस. ज्ञा.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि वृद्ध.तपा. श्रीजिनरत्नसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी अंचल. सिद्धान्तसागरसूरि | भ. श्रीविमलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
182
1509
1555
मांकी जीविनी, दगा | श्री. श्री. ज्ञा.
182
जी
15101557 | जीवी
श्री. श्री. ज्ञा.
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्रीनमिनाथ जी| पा.जै.धा.प्र.ले.स.
182
1511
1553 | रमा
श्री.श्री.वंष
श्रीधर्मवल्लभसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
182
जी
अंचल, जयकेसरीसूरि,
भ. श्री नमिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 183
1512 1524 सोहादे, गुरी, श्री.श्री.वंश
जयतलदे 15131525 | चांपूकी बाई, संपूरी | मोढ़. ज्ञा.
जी
श्रीदेवरत्नसूरि, आगम
204
भ. श्री अभिनंदन | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री पद्मप्रभु | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1514
1519 | गोमती
श्री. श्री. ज्ञा
टागम, श्री हेमरत्नसूरि
170
जी
15151509 | भूपादे, संसारदे
ऊकेषवंष साहू गोत्र
भ. श्री कुंथुनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
171
खरतर. श्री जिनसागरसूरि श्री सावदेवसूरि
जी
15161510 | रांऊ, सांपू
| श्री कोरंट
भ. श्री चंद्रप्रभु जी | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
172
1517
|1524 | जासू. डीरू, जसमादे | श्री श्रीमाल ज्ञा
भ. श्री धर्मनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
172
द्विवंदनीक. श्री कक्कसूरि पूर्णिमा. गुणतिलकसूरि
1518
1532
हवकू, मांनू
श्री श्रीमालि ज्ञा.
भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
172
जी
का पता होता ।
1519
| 1570 | चांपलदे, माणिकदे
श्री श्रीमालि ज्ञा.
श्री तिलकप्रभसूरि
भ. श्री षीतलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
172
की तितिका कविता
जी
1520
| 1580 | जसमादे, रूपाई
प्रा. ज्ञा.
तपा. हेमविमलसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 172
1521
1504
धरणू देमाई
प्रा. ज्ञा.
पूर्णिमा. श्री पूर्णचंद्रसूरि
भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
173
जी
1522
1508
| वारू, संपूरदे
उप. ज्ञा. डागलिक | कोरंट. श्रीसामदेवसूरि
भ. श्री संभवनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
173
गोत्र
जी
1523
1516 | बानू, हांसू, बाऊलदे | श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
|श्री मधुकर..........
174
भ. श्री श्रेयांसनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी | भ. श्री नमिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1524
1536 | लखा
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
आगम. सिंहदत्तसूरि
174
15251517 | जीविणि, माणिकि
श्रीमाल. ज्ञा
आगम. हेमरत्नसूरि.
भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी
1526
1517
|
जसनादे, रामति
वायड़ ज्ञा
श्रीसूरि
भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी
1527
1517 | धर्मादे, माणिकि
श्री. श्री ज्ञा.
अंचल. जयकेसरीसूरि.
भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1528
श्रीमाल. मोढ़ ज्ञा.
आगम. देवरत्नसूरि.
| भ. श्री पद्मप्रभु | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 1517 | ललतादे, करमी,
रामति | 1517 | झटकू सहागदे
1529
प्रा. ज्ञा.
लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री अभिनंदन | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
,
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________
456
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र० | संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य | नागेंद. गुणप्रभसूरि.
1530
1517 | | पुंदरी, तीउ
श्री. श्री ज्ञा.
| प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ ।
आदि भ. श्री विमलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री सुविधिनाथ| पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1531
श्री. श्रीवंश
अंचल. जयकेसरीसूरि.
1517 भावलदे, संसारदे,
जीविणि 1517 | | शाजी, पूरीयु शंभू
1532
श्री. श्री. ज्ञा
आगम. आणंदप्रभसूरि. । भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी विमलसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1533
1518 | भक्ति, तिदुणा हरषु | श्री. श्री. ज्ञा
15341518 | वाल्ही, इंद्राणि
उसवाल ज्ञा
उकेश. देवगुप्तसूरि.
| भ. श्री कुंथुनाथ । पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी
1535
1518 | सुदा गंगादे
श्री. श्री. ज्ञा
विमलसूरि
भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी
1536
1518
झांकू कडू
| प्रा.
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि.
भ. श्री वासुपूज्यपा .जै.धा.प्र.ले.स.
1537
| 1518 | झाकू, राजू
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि.
भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री कुंथुनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
15381518 | मचकू, धत्ती
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि.
जी
15391518 | माघलदे, अरघू
| श्री. श्री ज्ञा.
आगम. हेमरत्नसूरि.
भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1540
| 1518 | नामलदे
श्री. श्री ज्ञा.
| नागेंद्र. गुणदेवसूरि.
भ. श्री मुनिसुव्रत | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1541
1518 |प्रीमलदे
श्री. श्री ज्ञा.
पिप्पल. रत्नदेवसूरि.
भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1542
| 1518 | वानू, वाछू
श्री. श्री ज्ञा.
| आगम. आणंदप्रभसूरि...
भ. श्री चंद्रप्रभु जी| दि.जै.इ.इ.अ.
15431518 | रतनू, माणिकि
| मोढ़ ज्ञा
विद्याधर. देवप्रभूसुरि
| भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1544
1518 | जालहणदे अहीव
उकेश. वंश
अंचल, जयकेसरीसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत | दि.जै.इ.इ.अ.
देवी
1545
1518 | जासूसी, पूधाभा
श्री. श्री ज्ञा.
पिप्पल. अमरचंद्रसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
15461518 | लषणदे, रत्नादे
उसवाल ज्ञा
संडेर, श्रीसूरि.
भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
1547
1518 | झमकू
श्री. श्री ज्ञा.
अंचल. जयकेसरीसूरि
15481518 | कुतगदे
की भी आधा । पूर्णिमा यानुसूरि
श्री. श्री ज्ञा.च
पूर्णिमा. जयप्रभुसूरि
भ. श्री नेमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
भी नित्य दिलीका
1549
| 1518 | हांसू
प्रा. ज्ञा
लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1550
1518 | कपूरदे, हीरू
उसवंश
अंचल. जयकेसरीसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
1551
1518 | हीरू, नाकु
प्रा. ज्ञा
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत् । श्राविका नाम
वंश/गोत्र
। प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
1552
| 1518 | मथी, कमलाबाई
प्रा. ज्ञा
प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ । | आदि
भ. श्री कुंशनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. | जी
भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. | जी भ. श्री श्रेयांसनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
1553
1518 | मघलदे, लषमादे
| श्री. श्री ज्ञा.
आगम. हेमररत्नसूरि
1554
| 1519 | हीमादे
श्री. श्री ज्ञा.
भावदेवसूरि
जी
1555
श्री. श्री ज्ञा.
| भावदेवसूरी
| भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
1519 पावती, चापा,
पाल्हणदे 1519 | कसमीरदे
1556
श्री. श्री ज्ञा.
| ब्रह्माण. वीरसूरि
1557
1519 | पोमादे, पूजलदे
उ. ज्ञा
| वृहद्. कमलप्रभसूरि
1558
1519 | राजलदे, माणिकदे | उकेश, वंश
जयकेसरीसूरी
भ. श्री शीतलनाथ दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री शीतलनाथ| दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री मुनिसुव्रत | दि.जै.इ.इ.अ. स्वामी जी भ. श्री नेमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री शीतलनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
15591519
| माणिकदे, गंगाद
| उकेश. वंश
अंचल. जयकेसरीसूरि
1560
1519
मूलही
श्री. श्री ज्ञा.
पूर्णिमा. जयचंद्रसूरी
जी
15611519 | धारू
श्री: श्री ज्ञा.
विमलसूरि
भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1562
1519
| गौरी
श्री. श्री वंश
अंचल, जयकेसरीसूरी
भ. श्री शीतलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1563
| 1519 | जासू, मांजू नागलदे | प्रा. ज्ञा.
श्रीसूरि
भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री शीतलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1564
1519 | रही।
प्रा. ज्ञा.
सुदाधरसूरि
जी
15651519 | धनी, दूबी
प्रा. ज्ञा.
वृद्धतपा. जिनरतनसूरि
भ. श्री शीतलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री सुविधिनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
1566
1519 | फालू, अमकू
| श्री. श्री ज्ञा.
पूर्णिमा. गुणधीरसूरि.
जी
1567
1519 | वजू
प्रा. ज्ञा
जिनरत्नसूरि. वृद्धतपा
भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ.
1568
1519 | महणदे
मोढ़ ज्ञा.
विद्याधर, हेमप्रभसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
1569
1519
धरणी
श्री. श्री.
देवेंद्रसूरि
भ. श्री अजितनाथ| दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री चंद्रप्रभु जी| दि.जै.इ.इ.अ.
1570
| 1519 | जासू
प्रा. ज्ञा.
तपा. जिनरत्नसूरि
15711519
लाही, दूबी
प्रा. ज्ञा
पूर्णिमा. राजतिलकसूरि
भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ.
| 1519
चमकू संपूरी
उसवाल. ज्ञा.
सोमचंद्रसूरि
जी
1573
1519
जीविणि
श्री. श्री ज्ञा.
लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री श्रेयांस जी दि.जै.इ.इ.अ.
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संवत् |
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
- प्रतिमा निर्माण
आदि
संदर्भ ग्रंथ
।
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य नाणावाल श्रीसूरि
पृ.
1574
1519
| रूपिणि, धनादे
उसवाल. ज्ञा
भ. श्री नेमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1575
| 1520 | लीलादे अरधू
श्री. वंश
पूर्णिमा. कमलप्रभसूरि
भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1576
| 1520 | लाछी
श्री श्री ज्ञा.
उकेश. कल्कसूरि
भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री श्रेयांस जी | दि.जै.इ.इ.अ.
1577
| 1520 | करमाई, सोनाई
| उसवंश
अंचल. जयकेसरीसूरि
1578
1520 | वरजू लाडण
श्री. श्री
पिप्पल. विजयदेव सूरि
भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
15791520 | लषी, भली
प्रा. ज्ञा.
संडेर. ईश्वरसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री शीतलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1580
1520
पालहणदे
श्री. श्री ज्ञा
अंचल. जयकेसरी
1581
| 1520 | धाई, आसू
श्री. श्री ज्ञा.
श्रीसूरि
भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री शीतलनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
15821520 | देवलदे
प्रा. ज्ञा
ब्रह्माण. मुनिचंद्रसूरि
जी
1583
| 1520
जसमादे
श्री. श्री ज्ञा.
पूर्णिमा. राजतिलकसूरि
भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ.
1584
1520
हषू
प्रा. ज्ञा
तपा. रत्नमंडनसूरि
गर
जी
1585
|1520 | आपू
चींचटगोत्र
उपकेश. कक्कसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
1586
| 1520 | वरजू
श्री. श्री ज्ञा.
नागेंद्र. गुणदेवसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ..
1587
1520 | राहू जरमी
श्री. श्री ज्ञा.
श्रीसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री चंद्रप्रभु जी| दि.जै.इ.इ.अ.
15881520 | जसमा, लीछू।
श्रीमाल ज्ञा
श्रीसूरि
1589
| 1520 | प्रीमलदे, वनादे
| श्री. श्री ज्ञा.
ब्रह्माण वीरसूरि
भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1520 | जडितदे
श्री. श्री ज्ञा.
आणंदप्रभसूरि
भ. श्री शीतलनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
1591
1520 | राजू, कबू
श्री. श्री ज्ञा.
धर्मशेखरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ
दि.जै.इ.इ.अ.
जी
15921520 माकू, देमाई
श्री. श्री ज्ञा.
| सूरि
भ. श्री शीतलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री अरनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
1593
1520
तपा. ज्ञानसागरसूरि
| सहिजलदे, माणिकि, | श्री. श्री ज्ञा. शिवा हीसा
उपकेश, ज्ञा
1594
1520
बोकडिया. मलसंचद्रसूरी | भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी सोमदेवसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
1595
| 1520 | सुलेसिरि, रूडी
डीसा. ज्ञा
,
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
1596
1597
1598
1599
1600
1601
1602
1603
1604
1605
1606
1607
1608
1609
1610
1611
1612
1613
1614
16:5
1616
1617
संवत्
1520
1520
1520
1520
1520
1520
1520
1520
1521
1521
1521
1521
1521
1521
राणी, कस्तूरी, मुगरी, प्रा. ज्ञा कुंअरि
कपूरी, कुंअरि
उकेष वंष
पूनादे, मुहगलदे
रूडी, अमकू
श्री. श्री ज्ञा.
जमकू, लषाई, पूनादे श्री. श्री ज्ञा.
सीतू कपूरी
1521 धरणू माणिकदे
1521
1521
1521
1521
1521
1521
*521
श्राविका नाम
प्रेमी, वर्जू, कर्मादे
सहिजलदे, माणिक,
शिवा
हीसा
सुलेसिरि, रूडी
वर्जू कर्मादे
सीतादे, मणकाई
वाछू भोली
राजलदे, देहलणदे
माणिकदे, रामति
हेमादे, रामति
धारू, चंगाई
धरणू जासू
नांक, आसू
ft.
शाणी सातू तेजलदे
वंश / गोत्र
श्री. श्री ज्ञा.
श्री. श्री ज्ञा.
उप. ज्ञा
डीसावाल ज्ञा
श्री. श्री ज्ञा.
उकेश. ज्ञा
श्री. श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. ज्ञा
श्री. श्री ज्ञा.
उकेश. ज्ञा
प्रा. ज्ञा
श्री. श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा
श्री. श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा
श्री. श्री ज्ञा.
उसवाल ज्ञा
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
पिप्पल. विजयदेवसूरि
तपा. ज्ञानसागरसूरि
बोकडीया. मलचंद्रसूरि
सोमदेवसूरि
पिप्पल. विजयदेवसूरि
तपा. सोमदेवसूर
तपा. सोमदेवसूरि
| अंचल. जयकेसरीसूरि
उदयवल्लभसूर
नागेंद्र. कमलचंद्रसूरि
अंचल. जयकेसरीसूरि
तपा. रत्नशेखरसूरि
विमलसूरि
पूर्णिमा. गुणतिलकसूरी
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
आगम, आणंदप्रभसूर
आगम, आणंदप्रभसूर
अंचल. जयकेसरीसूरि
पूर्णिमा. गुणधीरसूरि
सर्वसूरि
अंचल. जयकेसरीसूरि
चैत्र. रत्नदेवसूरि
प्रतिमा निर्माण आदि
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री शीतलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री अरनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री सुमतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री कुंथुनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री शीतलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री सुमतिनाथ | दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री शांतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री ऋषभदेव दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री कुंथुनाथ दिजै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री धर्मनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री संभवनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री संभवनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री दि. जै.इ.इ.अ. अभिनंदननाथ जी
भ. श्री चंद्रप्रभु जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री धर्मनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री धर्मनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री धर्मनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री अजितनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री पार्श्वनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जीवितस्वामी जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री महावीर जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री कुंथुनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
459
पृ.
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________
460
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक - प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि सुविहितसूरि
भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1618
1521 | धर्मादे भली
श्री. श्री ज्ञा.
1619
1521 | हांसलदे, वाल्हादे
उसवाल
लक्ष्मीसागरसूरी
भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1620
1521 | पाकू, माही
श्री. श्री ज्ञा.
पिप्पल. चंद्रप्रभसूरि.
भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
16211522 | मेटू दडू |
प्रा. ज्ञा
तपा. सावदेवसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1622
उकेश
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
| 1522 नीतादे, जसमादे,
षीमलदे 22 | कपूरी, ससी
1623
| 15
उपकेश ज्ञा
पूर्णिमा. पुण्यरत्नसूरि
भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी | भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1624
| 1522 | गांगी, पुहती
नीमा ज्ञा
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
जी
1625
1522 | काऊ, रत्नू
उपकेश ज्ञा
वृद्ध. देवचंद्रसूरि
भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
| 1523
प्रा. ज्ञा
तपा. पुण्यनंदगणी
भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
1626
नालेदे, जइती,
जोगाण 16271523 | सुहासिनि, पुहती,
सहजू 1628 1523 | वाल्ही सांकु
प्रा. ज्ञा
तपा लक्ष्मीसागरसूरि
श्री. श्री ज्ञा.
पूर्णिमा. गुणतिलकसूरि
| भ. श्री मुनिसुव्रत | दि.जै.इ.इ.अ.
जी | भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी भ. श्री मुनिसुव्रत | दि.जै.इ.इ.अ.
1629
1523
सारू, धारू, माधलदे | श्री. श्री ज्ञा.
पूर्णिमा. गुणतिलकसूरि
1630
| 1523 | मेघु, काछा
गूजर. ज्ञा
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
| भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1631
| 1523 | देकू रूपिणि, श्रेयार्थ | जालहरा. ज्ञा
| पुर्णिमा. साधुसुंदरसूरि | पूर्णिमा. साधुसुंदरसूरि
| भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ.
जी | भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1632
| 1523 | लीलादे, जानू
श्रीमाल. ज्ञा
1633
प्रा. ज्ञा
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री ऋषभनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
| 1523 | षनी, धर्मिणि
सहजलदे |1523 | कपूरी पद्माई
जी
.
1634
उके. ज्ञा
सावदेवसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1635
प्रा. ज्ञा
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि.
1523 लषम, लाली,
अणुअरि 1523 | जइतू
भ. श्री शीतलनाथ| दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1636
| श्री. श्री.
राजतिलकसूरि
1837
| 1523 | सिंगारदे, माल्हणदे,
श्री. श्री.
तपा. ज्ञानसागरसूरि
| भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
आसू
1638
1523 | गिरसू, रामति
श्री. श्री.
तपा. ज्ञानसागरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1639
1523 | सुहवदे
खरतर. जिनहर्षसूरि
भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
Page #483
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत्
। श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
आदि भ. श्री शीतलनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
16401523
गंगादे, हीरू, रामति | श्री. श्री.
जी
1641
1523 | झमकु, अजी
श्री. ज्ञा.
ब्रह्माण. वीरसूरि
भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री मुनिसुव्रत दि.जै.इ.इ.अ.
1642
1523 | झाझू लाछी
प्रा. ज्ञा.
| तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
जी
1643
|1523 | वाकु, रामति
मंत्रीदलीय.ज्ञा.
खरतर. जिनहर्षसूरि
1644
|1523 | अरघू, भावलदे।
उसवाल ज्ञा.
म्हेश्वरसूरि
भ. श्री शीतलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री
दि.जै.इ.इ.अ. मुनिसुव्रतनाथ जी भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री अजितनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
1645
|1523 | जाही, नाथी, दाडमदे | प्रा. ज्ञा.
श्रीसूरि
1646
1523 | वयजलदे, रंगादे
उकेश ज्ञा.
धर्मघोष. साधुरत्नसूरि
जी
1647
|1524 | पाल्हणदे, चमकू
श्री. श्री
पूर्णिमा. पुण्यरत्नसूरि
भ. श्री शीतलनाथ दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1648
1524
श्री. श्री
वृद्धतपा. ज्ञानसागर
| माधलदे, पुनादे मेघलदे जीविणि वल्हादे, प्रीमलदे नामलदे | कपूराई
1649
1524
उकेश. ज्ञा
लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
1650
1524 | पोमादे, जमणादे
उकेष. ज्ञा
| संडेरकीय. शीलसूरि
1651
1524 | धर्मादे, रूड़ा
उकेष, ज्ञा
| तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री अजितनाथ दि.जै.इ.इ.अ. जी.. . भ. श्री पार्श्वनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1652
| 1524
| वउलदे, धनादे. | माणिकदे
उकेश. वंश
भावड़ार. भावदेवसूरि
जी
1653
ma on सी अस्पू. उसेवा शाला पीसागरपुरि क मी आदिनाथ दिन इ.स.
1524
| राणी, अरघू
उकेश. ज्ञा
| तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री मुनिसुव्रत | दि.जै.इ.इ.अ.
1654
1524
| ठाकुरसी
श्री. श्री
चित्रगसूरी
1655
|1524 | धरणूं ललतादेवी
उकेश. ज्ञा
| तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1656
|1524 | अजी, चमकू
श्री. श्री
| पूर्णिमा. गुणसुंदरसूरि
| भ. श्री नेमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
| पूर्णिमा गुणसुंदरसूरि म जी नेमिनाथ दि जइ.अ. । ।
जी
|1524 | मेलादे, सादगदे
ब्रह्माण श्री. श्री
| विमलसूरि ।
1658
|1524 | संघविणि, पूरी
श्री. श्री
श्रीसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री पद्मावती | दि.जै.इ.द.अ. मूर्ति जी भ. श्री विमलनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
1659
| 1524| गंगादे, नागल
श्री. श्री
| तपा. ज्ञानसागरसूरि
जी
1660
|1524 | गहरी, गोमति
प्रा. ज्ञा.
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
Page #484
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत् । श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि पूर्णिमा. साधुसुंदरसूरि भ. श्री विमलनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
16611524 | कीछी
श्री. श्री
जी
1662
| 1524 | अरघू, भूरी
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा. राजतिलकसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1663
|1524 | नाणू, वरजू
श्री. श्री. ज्ञा.
कारट. सावदेवसूरि
भ. श्री विमलनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
जी
| 1664
|1524 | पांती, जसमादे, वीकू | श्री. श्री. ज्ञा.
कारट. सावदेवसूरि
भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1665
1524 | पूनादे
श्री. श्री. ज्ञा.
आगम. अमररत्नसूरि
भ. श्री अभिनंदन | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ...
1666
1525
वाछु डाही
प्रा. ज्ञा
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
1667
| 1525 | अधकू चंपाई
प्रा. ज्ञा
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभु जी| दि.जै.इ.इ.अ.
1668
1525 | ह', डाही
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
| भ. श्री अभिनंदन
दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1669
1525 | हांसलदे, वाल्ही
श्री. श्री. वंश
अंचल जयकेसरीसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1670
|1525 | मेयू, रमादे
श्रीसूरि
जी
16711525 | हीराई
श्री. ज्ञा
पूर्णिमा. साधुरत्नसूरि.
| भ. श्री श्रेयांसनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी | भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ.
16721525 | उमादे, मांई
श्री. श्री
| पूर्णिमा. गुणधीरसूरि.
16731525 | माणिकदे, भावलदे
अंचल तयकेसरीसूरि.
भ. श्री आदिनाथ दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1674
| 1525 | नाकुं, लाछी
उपकेश. ज्ञा
| सर्वसूरि
1675
1525
लषमणि
सुराणागोत्र
धर्मधोष पद्मानंदसूरि.
भ. श्री शीतलनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
1676
1525 | धांधलदे
श्री. श्री
| नागेंद्र गुणदेवसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
1677
1525 | माणिकदे, तेजू
उसवाल. ज्ञा
| तपा विजयदत्तसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ
दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1678
| 1525
हीरू, कुतिगदे
प्रा. ज्ञा.
तपा लक्ष्मीसागरसूरि
| भ. श्री मुनिसुव्रत | दि.जै.इ.इ.अ.
जी भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1679
1525 | वाछु अबू
प्रा. ज्ञा.
उकेश सिंहसूरि
1680
1525 | हषू, गाऊ
प्रा. ज्ञा.
तपा लक्ष्मीसागरसूरि
| भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ.
1681
1525 | वानू, अमकु, डाही
|
उकेश. ज्ञा.
तपा लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री नेमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1682
1525 | वरजू, राजू, रमाई
प्रा. ज्ञा.
तपा लक्ष्मीसागरसूरि
| भ. श्री श्रेयांसनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
1683
1684
1685
1686
1687
1688
1689
1690
1691
1692
1693
1694
1695
1696
1697
1698
1699
1700
1701
1702
1703
1704
संवत्
1525
1525
1525
1525
1525
1525
1525
1525
1525
1525
1525
1525
1525
1525
1525
1525
1525
1525
1525
1525
1525
श्राविका नाम
सारू, जाल्हणदे
लाषणदे, अछबादे,
भली
लाभू नामू
हांशी
हेमलदे, माकु
जेतलदे, जसमादे
सरसइ, साधू
सासु
रामति
तेजलदे जसमादे
गांगी. माल्हणदे
पूरी. जीवणि
हमीरदे. जसमादे
पूरी, वांउ, अमरा
फइ
विल्हा
पाल्हणदे, सोनी
रई, नाथी
1525 लालू
नाणादे, वीरू
हांसी, पूतलि
हर्ष, गउरि
वंश / गोत्र
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उकेश. ज्ञा
श्री. श्री
खरतरगोत्र हुंबड़ ज्ञा ज्ञानसागरसूरि
श्री. श्री
श्री. श्री. वंश
उपकेश. ज्ञा
उपकेश. वंश
प्रा. ज्ञा
उकेश वंश
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. ज्ञा
श्री. श्री
उस. ज्ञा
श्री. श्री
श्री. श्री
उपकेश
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
प्रा. ज्ञा.
उपकेष सिद्धाचार्य
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
| नागेंद्र गुणदेवसूरि
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
तपा. लक्ष्मीसागर
प्रतिमा निर्माण आदि
संदर्भ ग्रंथ
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री धर्मनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री श्रेयांसनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री वासुपूज्य दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री मुनिप्रभ जी दि. जै.इ.इ.अ.
पूर्णिमा. साधुसुंदरसूरि
ब्रह्माण, वीरसूर
भ. श्री श्रेयांसनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
अंचल. जयकेसरीसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
उपकेष. ज्ञा. पुण्यचंद्रसूरी भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
हारीज. महेष्वरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
जी
| संडेर. लक्ष्मीसागरसूरि
अंचल, जयकेसरी
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
पूर्णिमा. साधुसुंदरसूरि
पूर्णिमा. राजतिलकसूरि
सालिसूरि
तपा. ज्ञानासगरसूरि
तपा. ज्ञानसागरसूरि
बृहद. देवचंद्रसूरि
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री संभवनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री आदिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री शीतलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री शीतलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री अजितनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री विमलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री आदिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री चंद्रप्रभु जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री कुंथुनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री सुमतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री आदिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री पद्मप्रभु जी
463
पू.
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________
4
464
क्र०
1705
1706
1707
1708
1709
1710
1711
1712
1713
1714
1715
1716
1717
1718
1719
1720
1721
1722
1723
1724
1725
1726
संवत्
1525
1527
1527
1527
1527
1527
1527
1527
1527
1527
1527
1527
1528
1528
1528
1528
1528
1528
1528
1528
1528
1528
श्राविका नाम
हर्ष, गुरी
वीरू, पातू
शकणी, भरमादे
गागी, नेजाई, संपूरी
झटकू, माणिक
लाछू
रमादे, देमति, पेत्र
कुंता नाकु मटकादे
राजू
धारलदे, सलषू
सांपू, राणी
शंभू पांचू वनादे
मति
संपूरी, कामलदे
भोली, लीलाई
मेघलदे, प्रीमलदे
करण धर्माई
रणादे, लाषणदे, नाथी
फोकी, रही
रमाई, वाछी
हीरू, गोरी
मा मचक पूतलि
वंश / गोत्र
श्री. श्री
श्री. श्री. भणसाली
गोत्र
प्रा. ज्ञा
उ. ज्ञा
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री
उसवाल ज्ञा
श्री. श्री
प्रा. ज्ञा
श्री. ज्ञा
उसवाल ज्ञा
उसवाल ज्ञा
श्री. श्री
चंदुआ गो
श्री. ज्ञा
श्री. श्री
उप. ज्ञा
श्री. श्री
श्रीमाल ज्ञा
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
श्रीसूरि
पिप्पल. धर्मसागरसूरि
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
आगम. देवरत्नसूर
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
शांतिसूरी
ज्ञानकीय धनेषवरसूरि
पूर्णिमा. पक्ष साधुसूरि
लक्ष्मीसागरसूरि
वृद्धतपा. ज्ञानसागरसूरि
महेश्वरसूरि
महेश्वरसूरि
ब्रह्माणवीरसूरि
श्रीसूरि
तपा ज्ञानसागरसूरि
आगम सिंहदत्तसूरी
तपा लक्ष्मीसागरसुरि
| अमररत्नसुर
|गुणसुंदरसूरि मलधारि
बुद्धिसागरसूरि
पुर्णिमा. गुणवीरसुरी
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ आदि
भ. श्री सुविधिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री विमलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री सुविधिनाथ) दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री मुनिसुव्रत दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री पार्श्वनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री सुमतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री नेमिनाथ
जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री संभवनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री शीतलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री शीतलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री अभिनंदन दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री मुनिसुव्रत दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री संभवनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री विमलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री आदिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री आदिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री शांतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री सुविधिनाथ | दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री अजितनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री आदिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
पृ.
Page #487
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
1727
1728
1729
1730
1731
1732
1733
1734
1735
1736
1737
1738
1739
1740
1741
1742
1743
1744
1745
1746
1747
1748
संवत्
1528
1528
1528
1529
1529
1529
1529
1529
1529
1529
1529
1529
1529
1529
1529
1530
1530
1530
1530
1530
1530
श्राविका नाम
1530 हलमा मा
वाछु, धारू
धनी
मनू, मांई, देवलदे
सलषू, नारिंगदे
मूजी, वनदे
हांसलदे, धांधलदे
नाई, अमक, वीरादे,
कुंयरि
कर्मादे, मानू
मीणलदे
रत्नू, रूक्मिणि
भोमी, काला
वर्जू देवी
मालदे, आसु
गउराई
विजलदे, महिपा
गुरी
सारू भावलदे
शांभलदे
पांची, पाल्हणदे
वरजू, मरघू
वंश / गोत्र
प्रा. ज्ञा.
वायड़. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा
उपकेश. ज्ञा.
उसवाल. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री. श्री.
प्रा. ज्ञा
प्रा. ज्ञा
प्रा. ज्ञा
श्री. श्री
श्री. श्री
ऊकेश कुकडा गोत्र
उसवालः ज्ञा
उसवाल ज्ञा
बड़ ज्ञा
श्री. ज्ञा
श्री. श्री
उपकेष. ज्ञा
श्री. श्री वंष
देल्ही, करमिणि, नाकु उकेष वंष
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
श्रीसूरी
तपा. ज्ञानसागरसूरि
लक्ष्मीसागरसूरि
नागेंद्र. सोमरत्नसूरि
तपा. श्रीसुर
पुर्णिमा. श्रीसूरि
वृद्धतपा. ज्ञानसागरसूरि
आगम, अमररत्नसूरि
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
रत्नसागरसूरि
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
वीरसूरि
आगम. अमररत्नसूरि
खरतर. जिनहर्षसूरि
महेश्वरसुरि
देवगुप्तसूरी
तपा. ज्ञानसागरसूरि
शांतिसूर
पूर्णिमा. जयप्रभुसूरि
बृहद्. मलयचंद्रसूरि
चैत्र. रत्नदेवसूरि
अंचल. जयकेसरीसूरी
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री मुनिसुव्रत दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री सुविधिनाथ | दि. जै.इ.इ.अ. जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री सुमतिनाथ | दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री सुमतिनाथ दिजै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री शीतलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री वासुपूज्य दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री शीतलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री धर्मनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री नेमिनाथ
जी
भ. श्री धर्मनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री चंद्रप्रभु जी दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री पद्मप्रभु जी
भ. श्री पार्श्वनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
जी
भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री श्रेयांसनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री कुंथुनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
जी
भ. श्री नेमिनाथ
जी
भ. श्री विमलनाथ | दि. जै.इ.इ.अ. जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री संभवनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
जी
भ. श्री नेमिनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
दि. जै.इ.इ.अ.
465
पृ.
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________
466
क्र०
1749
1750
1751
1752
1753
1754
1755
1756
1757
1758
1759
1760
1761
1762
1763
1764
1765
1766
1767
1768
1769
1770
संवत्
1530
1530
1530
1530
1530
1530
1530
1530
1530
1531
1531
1531
1531
1531
1531
1531
1531
1531
1531
1531
1531
1531
श्राविका नाम
पोमी, वीलणदे
वाछू वल्हादे, वालहा श्री. श्री
मची, नाई
मंदोदरी
सारू, चमकू
शाणी, लाषू सहिजाई
धारू, मणिकी
धारू, अमकू
सींगारी, नांकु
शाणी
जीवी
झाझूसु
पांची, मानू
मच सिरियादे
हलक प्रीमलदे,
रूपाई
धरण सोही
वरजू, मांकु
वनी, माणिकदे
माणिकदे, रूपाई
अधकू
संसारदे, रयणादे
वंश / गोत्र
भाउ, मंदोदरी, सारू
श्री. श्री
प्रा. ज्ञा
बड़ ज्ञा
श्री. श्री
प्रा. ज्ञा
प्रा. ज्ञा
उ. ज्ञा
प्रा. ज्ञा
श्री. श्रीमाल
श्री. श्री वंष
श्री. श्री वंष
प्रा. ज्ञा
श्री. श्रीवंष
श्री. श्रीमाल
श्री. श्रीमाल
श्री. श्रीमाल
श्री. श्रीमाल
उसवंष
उप. ज्ञा
श्री. श्रीमाल
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
पूर्णिमा. गुणधीरसूरी
आगम. आणंदप्रभुसूरि
उपकेष. मुनिवर्धनसूरी
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
शीलकुंजरगणि
अंचल. जयकेसरीसूरी
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
बृहद् मलयचंद्रसूरि
तपा. हेमविमलसूरी
पिप्पल. रत्नदेवसूरी
अंचल. जयकेसरीसूरी
अंचल. जयकेसरीसूरि
तपा. ज्ञानसागरसूरि
अंचल. जयकेसरीसूरी
.मधुकर धनप्रभुसूरी
श्रीमलधारी, पिप्पल. धर्मसासू
गुणनिधानसूरी
श्रीमलधारी.
गुणनिधान
कारट. सावदेवसूरि
धर्मघोष. साधुरत्नसूरि
पूर्णिमा. पुण्यरत्नसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री शांतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री सुमतिनाथ | दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री सुमतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री मुनिसुव्रत दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री संभवनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री पार्श्वनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री शांतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री शांतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री कुथुनाथ
जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री अजितनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
जी
भ. श्री शीतलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री मुनिसुव्रत दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री संभवनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री आदिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री संभवनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री मुनिसुव्रत दि. जै.इ.इ.अ. स्वामी जी
भ. श्री सुमतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री सुमतिनाथ (दि.जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री सुमतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री आदिनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
जी
भ. श्री नेमिनाथ
जी
भ. श्री अनंतनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
पृ.
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
467
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रतिमा निर्माण
संदर्भ ग्रंथ
।
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य श्रीसूरि
आदि
1771
1531
धनी, मंगाई
श्री. श्रीमाल
भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1772
| 1531 | नाथी, टबकू
डीसावाल. ज्ञा
तपा. सुमतिसुंदरसूरि
| भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
17731531 | जीविणि
श्री श्रीमाल
तपा. ज्ञानसागरसूरि
भ. श्री नेमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1774
1532
| रूडी
उपकेष ज्ञा
भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
जीरापल्लीय. सागरचंद्रसूरि आगम. अमररत्नसूरि
1775
1532 | राजलदे, लाड़िकी
श्री. श्रीमाल
भ. श्री श्रेयांसनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1776
1532 | कपूरदे
श्री. श्रीमाल
कमलप्रभुसूरि
17771532 | रूपी, सहजलदे ।
प्रा. ज्ञा
लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री कुंथुनाथ दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री सुविधिनाथ दि.जै.इ.इ.अ..
1778
| 1532 | बीजलदे
उसिवाल ज्ञा
महेश्वरसूरि
जी
1779
| 1532
हफूं, मफी
श्री. श्रीमाल
....................
भ. श्री अंबिका जी| दि.जै.इ.इ.अ.
1780
1533 | लाडी, जीविणि
उकेष
श्रीसूरि
भ. श्री शीतलनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1781
1533 | तीणादे
श्रीमाल. ज्ञा
उदयसागरसूरि
1782
| 1533 | हांसू रमकू
श्री श्रीमाल
| बुद्धिसागरसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1783
1533
उदयचंद्रसूरि
रूपिणि, सिरिआदेउ. ज्ञा प्रीमलदे हर्षा राणी, वीडू
प्रा. ज्ञा
जी
17841533
गुणदेवसूरि. नागेंद्र
भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
1785
1533
हांसी, सोमी
प्रा. ज्ञा
जयकेसरीसूरि, अंचल
भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
1786
उसवंष
श्रीसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
| 1533 हीसु, सूपी, नाई,
| भानू | 1533 | लाढी, झमकू
जी
1787
प्रा. ज्ञा
सिद्धसूरि. द्विवंदनीक
भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1788
1534 | तेजलदे, राउ, सारू
श्री श्रीमाल
चैत्र. लक्ष्मीसागरसूरि.
भ. श्री पंचतीर्थी | दि.जै.इ.इ.अ.
1789
1534 | कउतिगदे
श्री श्रीवंष
अंचल. जयकेसरीसूरि.
भ. श्री सुविधिनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
17901534 लाषलदे, नाथी
उकेष
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री
दि.जै.इ.इ.अ. चंद्रप्रभुस्वामी जी | भ. श्री पार्श्वनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
17911534
करणू
उकेष
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
1792
| 1534 | पोमादे
उसवाल. वद्ध ज्ञा
| तपा. श्रीसूरि
भ. श्री शीतलनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
Page #490
--------------------------------------------------------------------------
________________
468
क्र०
1793
1794
1795
1796
1797
1798
1799
1800
1801
1802
1803
1804
1805
1806
1807
1808
1809
1810
1811
1812
1813
1814
संवत्
1535
1535
1535
1535
1535
1535
1535
1535
1535
1535
1536
1536
1536
1536
1536
1536
1536
1536
1536
1536
1537
1537
श्राविका नाम
रूपी, रूपिणि, करणू
अरघू
श्री. श्री. ज्ञा
अमकू, नंदुआ, मचकू डीसावाल. ज्ञा.
मटक पूतलि
सहिजलदे, लीलू
मटकू, पूतलि, अमकू प्रा. ज्ञा.
रमाई, सइ
मचकू, चमकू
वाछु
हीराई
माजू प्रीमलदे
माजू वयजलदे
रामलदे, तेजू
काऊँ, लखमादे
गांगी, रंगाई
वउलदे, सीखलदे, भावलदे, रोहिणी
पदक लाई
साही, अरघू
वईजलदे
धर्मिणि, चंगी
अरघू
वंश / गोत्र
लाछी, सिरिया, धनी
प्रा. ज्ञा
प्रा. ज्ञा
श्री. श्रीमाली
श्री. श्री
श्री श्रीमाल
उकेष वंष
उपकेष ज्ञा
वादीआगोत्र
वादीआगोत्र
नागर. ज्ञा
उपकेष. ज्ञा
ऊकेष. ज्ञा
श्री. श्री
श्री. श्री
उसवाल ज्ञा
ऊकेष. ज्ञा
श्री. श्री
प्रा. ज्ञा
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
पिप्पल. पद्मानंदसूरि
लक्ष्मीसागरसूरि
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
भावड़हेरा. जिनरत्नसूरि
तपा लक्ष्मीसागरसूरि
आगम अमररत्नसूरि
तपा लक्ष्मीसागरसूरि
श्रीसूरि
अंचल केसरीसूरी
भावदेवसूरी
भावदेवसूरी
भावदेवसूरी
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
साधु पूर्णिमा पक्ष. विजयचंद्रसूरी
खरतर जिनचंद्रसूरि
तपा. उदयसागरसूरि
सर्व सूरि.
तपा. उदयसागरसूरि
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
शीलगुणसूरि
|ऊकेश. धनवर्धनसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ आदि
भ. श्री सुमतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री सुविधिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री शांतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
जी
भ. श्री नेमिनाथ
दि. जै.इ.इ.अ.
जी
भ. श्री चंद्रप्रभु जी दि.जै.इ.इ.अ.
भ. श्री मुनिसुव्रत दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री अनंतनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री संभवनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री पदमप्रभु
जी
भ. श्री शीतलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री विमलनाथ | दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री आदिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री शांतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
जी
भ. श्री सुमतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री कुंथुनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री सुमतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री कुंथुनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री विमलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री आदिनाथ दि. जैइ.इ.अ. जी
भ. श्री वासुपूज्य दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ दिजै.इ.इ.अ. जी
पृ.
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
1815
1816
1817
1818
1819
4921
1821
1822
1823
1824
1825
1826
1827
1828
1829
1830
1831
1832
1833
1834
1835
संवत्
1538
1538
1539
1540
1541
1542
1542
1542
1543
1543
1544
1544
1545
1546
1546
1547
1547
1547
1548
1548
1549
श्राविका नाम
हीरू, रूपी
सां
जीवादे, मेलादे
अधक जीवी
रणकु
नीतु, नाथी
मांकी, हीरू, हेमाई
वालदे, कुतिगदे, जानीदे
जसमादे, अमरादे,
आसू
नासलदे, विजलि.
सला, रमाई
मही, रत्नदे
यात्रा, हासु
झांझ वीरू, नाथी
फइ. माणिकदे
शाणी, जीवाई
हेमी
र्हषू पुंजी, मांकु सांगु धनाई, जीवादे,
रमाई
कर्माई
झाझू, जीवां, हांसी
फलकू
वंश / गोत्र
प्रा. ज्ञा
ऊकेष बलाहीगोत्र
श्री. श्री
श्री. श्री. वंष
उपकेष. ज्ञा
गुजर. ज्ञा
गुजर, ज्ञा
प्रा. ज्ञा
वायड़ ज्ञा
उसवंष
गुजर. ज्ञा
हूबंड. ज्ञा
ऊकेष. ज्ञा
श्री. श्री
गुर्जर. ज्ञा
गुर्जर. ज्ञा
श्रीमाल ज्ञा
ऊकेस. वंष
श्रीमाली. ज्ञा
उसवाल. ज्ञा
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
खरतर, जिनचंद्रसूरि
पिप्पल. धर्मसागरसूरि
अंचल. जयकेसरीसूरि
पुर्णिमा. मुनिचंद्रसूरि
आगम. जिनचंदसूरि
उपकेश. देवगुप्तसूरि
तपा. उदयसागरसूरि
आगम, अमररत्नसूर
वड़गच्छ. देवकुंवरसूरि
आगम. जिनचंदसूर
वृद्धतपा धर्मरत्नसूर
नाणावाल धनेष्वरसूर
श्री सूरि
उपकेष. देवगुप्त सूरी
तपा. सुमतिसाधुसू
धर्मरत्नसूरि
तपा. सुमतिसाधु सूरि
अंचल, सिद्धान्तसागर सूर
तपा. हेमविमलसूरि
तपा. उदयसागरसूरि
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री सुमतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री अनंतनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
जी
भ. श्री अजितनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
जी
भ. श्री चंद्रप्रभु जी दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री आदिनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
जी
भ. श्री वासुपूज्य
जी
भ. श्री पार्श्वनाथ दि.जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री सुमतिनाथ | दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री पार्श्वनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री धर्मनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री पार्श्वनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री अजितनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री विमलनाथ, दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री पार्श्वनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री धर्मनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री शीतला दि.जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री कुंथुनाथ दिजै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री अनागत
श्री निर्ममनाथ,
प्रतिमा
दि. जै इ.इ.अ.
भ. श्री आदिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री शीतलनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
जी
भ. श्री आदिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
469
पू.
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________
470
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
।
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य आगम. सोमरत्नसूरि
1836
1549 | अमकू माहलणदे
श्री. श्री
। प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
आदि | भ. श्री पार्श्वनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी भ. श्री अजितनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
जी | भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1837
| 1549 | चांदु, हर्षाई
।
उपकेष. ज्ञा
बृहद्. पुण्यप्रभुसूरि
1838
1549 | सोही, रमाई
श्री. श्रीमाल
पूर्णिमा. मुनिचंद्रसूरि
18391549 | जाकु, लाड़कि
श्री. श्रीमाल
पूर्णिमा. मुनिचंद्रसूरि
| भ. श्री शीतलनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
जी भ. श्री श्रेयांसनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1840
1549 | सोही, धर्माई
| श्री. श्रीमाल
पूर्णिमा. मुनिचंद्रसूरि
जी
18411549 | फदी, पुहति
श्री. श्रीमाल
पूर्णिमा. मुनिचंद्रसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी | भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
1842
| 1549 | मिहसू, रूडी ।
श्री. श्रीमाल
आगम, मुनिरत्नसूरि
1843
1549 | जेठी, सोनाई
ऊकेष. वंष
| खरतर. जिनहर्षसूरि
| भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी | भ. श्री श्रेयांसनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
18441549 | सांतू, नायकदे
उसवाल. ज्ञा
पूर्णिमा. मुनिचंद्रसूरि
जी
18451549 | लक्ष्मी, वीरू, रमादे
श्री. श्री
सुविहितसूरि
भ. श्री नेमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1846
1549 | लाडा, लतादे, वालु | श्री. श्री
शांतिसूरि
भ. श्री अजितनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
1847
1551वांनू, पांचू, कुंअरी
प्रा. ज्ञा
तपा. हेमविमलसूरी
| भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1848
उस. ज्ञा
तपा. हेमविमलसूरी
भ. श्री पार्श्वनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
11552 | वल्ही, हंसाई,
लालीई, सरूपदे 1552 | वइजलादे, गंगादे
1849
उस, ज्ञा
श्रीसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभु जी दि.जै.इ.इ.अ.
18501553 | अमकू लसमाई
श्री. श्री
साधू पूर्णिमा. चंद्रसूरि
1851
1553
पूरी
तपा. इंद्रनंदिसूरि
| भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. | जी
भ. श्री नेमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. | जी | भ. श्री मुनिसुव्रत | दि.जै.इ.इ.अ.
18521553
मनी, नाथी
प्रा. ज्ञा
तपा. इद्रनंदिसूरि
1
1853
| 1553
माणिकदे
प्रा. ज्ञा
आगम. मुनिरत्नसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
1854
1553 | कीकी आणुयरि
श्री. ज्ञा
वृद्धतपा. उदयसागरसूरि | भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ.
1855
| 1553 | ललितादे, रगू
उस. वंष
वृद्धतपा. उदयसागरसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1856
1553 | रत्नाई, मल्हाई, नाथी | श्री. श्री
वृद्धतपा. उदयसागरसूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी वृद्धतपा. उदयसागरसूरि | भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1857
1554 | मनकू अमरादे
श्री. श्री
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
1858
1859
1860
1861
1862
1863
1864
1865
1866
1867
1868
1869
1870
1871
1872
1873
1874
1877
संवत्
1878
1554
1879
1554
1554
1554
1555
1555
1555
1555
1556
1556
1557
1558
1558
1558
1558
1875 1559
1558
1876 1559
1558
1559
1559
1559
श्राविका नाम
कोई, गुरदे
कांता सोना
| कीकू
माल्हणदे, नयणू
वल्हाणदे, रंगी चंगा सहिसा, हांसा
हरषू अक्तू
चमकू मरगदि, सडी
राम
सजलदे, हांसलदे, गौरी
अमरादे
जसमादे, वल्हादे
अरघु, रंगी, धाधलदे
जस्मादे
अरषू जसण
| माही, देवलदे, ढाकु
महदोलदे
रामति, लाली
सिंगारदे, नामलदे, अजाई
वीनका
बाली
वनादे, सषू, राजलदे
राजी, मेघाई, सिंगारदे
वंश / गोत्र
श्री. श्री
उ. ज्ञा
श्री श्रीमाल
प्रा. ज्ञा
श्री. श्री
श्री. श्री
श्री. श्री
वीरवंष
श्रीमाल वंष
चुड्गरा गोत्र
श्री. श्री
उकेष. ज्ञा
प्रा. ज्ञा
उस वंष
प्रा. ज्ञा
उसवाल. ज्ञा
......
मोढ़ ज्ञा
प्रा. ज्ञा
उस. ज्ञा
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
वृद्धतपा. उदयसागरसूरि
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री मुनिसुव्रत दि. जै.इ.इ.अ.
जी
वृद्धतपा. उदयसागरसूरि भ. श्री आदिनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
जी
भावदेवसूरी
कच्छोलीडा विजयराजसरी
तपा. हेमविमलसूरी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री सुमतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री मुनिसुव्रत दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री आदिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
वृद्धतपा. उदयसागरसूरि भ. श्री अजितनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
जी
आगम. श्रीसू
पिप्पल. धनप्रभसूर
अंचल सिद्धांत सूरी
| अंचल जिनहंससूरी
आणंदसूर
आगम. मुनिरत्नसूरी
पूर्णिमा. पद्मषेखरसूरि
तपा. हेमविमलसूरी
भावडार. विजयसिंहसूरी
श्रीसूरी
तपा. हेमविमलसूरी
श्रीसूरि
तपा. विजयदानसूरी
वृद्धतपा. लब्धिसागरसूरी
पूर्णिमा. उदयचंद्रसूरी
विजयसिंहसूरी
भ. श्री शीतलनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
जी
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री सुमतिनाथ | दि. जै.इ.इ.अ.
जी
भ. श्री चंद्रप्रभु जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री वासुपूज्य
जी
भ. श्री सुमतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री धर्मनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री वासुपूज्य दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री अभिनंदन दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री सुविधिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री शीतलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
म. श्री श्रेयांसनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री धर्मनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री अजितनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री पंचतीर्थी दि. जै.इ.इ.अ. प्रतिमा जी
471
पृ.
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________
472
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि कक्कसूरी
भ. श्री शीतलनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
1880
उप. ज्ञा
1559 | कुअरि, भक्ति,
सोभागिणी 1560 | सघई, हेमई
1881
उस. ज्ञा
| देवगुप्तसूरी
भ. श्री आदिनाथ
दि.जै.इ.इ.अ.
1882
1560 | पोई, सूहवदे,
सिंगारदे 1560 | वनादे, कहरणादे
1883
उछतवाल उप. ज्ञज्ञ | वीरचंद्रसूरी
भ. श्री कुथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. गोत्र उकेषवंष
जी श्री. श्री पूर्णिमा. सौभाग्यरत्नसूरी | भ. श्री नेमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी उसवाल. ज्ञा श्रीसूरी
भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1884
1560
लीलादे, देमाई
1885
1560 | गंगादे, लसा
तपा. हेमविमलसूरी
भ. श्री सुमतिनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1886
1560 | पद्माई
श्री वंष
भावसागरसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
1887 | 1561
लाडू, रामति, हर्षमदे | हूंबड़ ज्ञा
वृद्धतपा बुद्धिसागरसूरि
भ. श्री शीतलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री सुमतिनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
1888 | 1561 | अमकू, माघलदे
उकेष. ज्ञा
उकेष. सिद्धसूरी
जी
1889 | 1563
सहिजलदे, अमरादे | प्रा. ज्ञा
पूर्णिमा. उदयचंद्रसूरी
भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
1890
| 1563 | गउरदे
उकेष, वंष ढींगसेत्र | खरतर. जिनहंससूरि
भ. श्री चंद्रप्रभु जी| दि.जै.इ.इ.अ.
18911564 हर्षाई, टीकु
श्रीमाल. ज्ञज्ञ
तपा. हेमविमलसूरी
भ. श्री आदिनाथ दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री सुमतिनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
1892
| 1564| गोरी; गेली, मज्लाई
श्री. श्रीवंष
अंचल. भावसागरसूरि
जी
1893
1564| गोरी, गेली, जेठी
श्री. श्रीवंष
| अंचल. भावसागरसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभु जी दि.जै.इ.इ.अ.
1534 | गोरी. गेल्ही
श्री. श्रीवंष
| अंचल. भावसागरसूरि
भ. श्री अजितनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
1895
1565 | माणिकदे, रूपी
श्री. श्री
पूर्णिमा. सौभाग्यसूरी
भ. श्री श्रेयांसनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
1896
1565 | माघलदे, पांची
श्री. श्री
सुमतिप्रभसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
1897
1565
उसवाल. ज्ञा
वृद्धतपा. लब्धिसागरसूरि | भ. श्री नेमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
सोमाई, कुलवंती, राजलदे माकू
1898
श्री. श्री
नागेंद्र. हेमरत्नसूरि
भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1899
1566 | नागिणि, सिरियादे
श्री श्री वंष
अंचल. भावसागरसूरि
भ. श्री अभिनंदन
दि.जै.इ.इ.अ.
1900
1566 | कसूराई
प्रा.ज्ञा
हेमविमलसूरि
भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
19011566 गोमति
प्राग्वंष जिनरक्षत
जिनहंससूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत
दि.जै.इ.इ.अ.
गोत्र
Page #495
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
___473
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य विमलनाथसूरि
प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ ।
आदि भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1902
| 1567 | रमी, पुतलि
श्री. श्रीमाल ज्ञा
1903 | 1567 | हीरू
श्री. श्री
मुनिचंद्रसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1904 | 1567
| पद्माई, जीवाई
श्री. श्री.ज्ञा
सर्वसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
1905
| श्री. श्री. ज्ञा
आगम. सागररत्नसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत | दि.जै.इ.इ.अ.
1568 | वलहादे, पूतलि.
मलहाई | 1568 | संपूरी
जी
1906
श्री. श्री
मुनिचंद्रसूरि
भ. श्री शीतलनाथ दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री पार्श्वनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
तपा. जयकल्याणसूरि
1907 | 1568 | अमरी, चमकू सूदारि, हुबंड़ ज्ञा
रंगा, रूपी, नाचकदे,
वईजलदे 1908 | 1568 | झमकू मयकू उकेष ज्ञा
तपा. हेमविमलसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री कुंथुनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
1909 | 1569 | सोहीगदे, मुरदे
नागर ज्ञा
अंचल. भावसागरसूरि
जी
1910
1570
तेजलदे, धर्माई,
श्री. श्री
वृद्धतपा. धनरत्नसूरि
रंगादे
भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी भ. श्री चंद्रप्रभु जी दि.जै.इ.इ.अ.
1911 | 1570 | सहिजलदे, जसमादे | | प्रा. ज्ञा
नागेंद्र. हेमसिंहसूरि
1912 | 1570 | चमक, चंगी, दूबी
अंचल. भावसागरसूरि
भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1913
1570 | चंगी, लषमाई
श्री. श्री
पिप्पल. पद्मसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1914
1570 | प्रभा, हरषी
श्री. श्री
तपा. हेमविमलसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1915
1570 | कइ, मरगहि
श्री. श्री. ज्ञा
ब्रह्माण. जइसूरी
भ. श्री चंद्रप्रभु जी| दि.जै.इ.इ.अ..
1916
1570 | वाली, हापाई
मोढ़ ज्ञा
वृद्धतपा, धनरत्नसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभु जी| दि.जै.इ.इ.अ.
प्रा. ज्ञा
तपा हेमविमलसूरि
भ. श्री संभवनाथ
दि.जै.इ.इ.अ.
1917 | 1571 | लाली, राजलदे,
नाथी माली 1918 | 1571 | हेरादे, वलहादे
जी
उसवाल. ज्ञा
आगम श्रीसूरि
भ. श्री वासुपूज्य
दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1919 | 1572 | देवलदे लीलादे
श्री. श्री
पिप्पल विनयसागरसूरि
भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री श्रेयांसनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1920 | 1572 | फता, हीरादे
श्री. श्री
आगम श्रीसूरि
1921
1572 | राजलदे
वृद्धतपा सौभाग्यसागरसूरि वृद्धतपा सौभाग्यसागरसूरि
भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री चंद्रप्रभु जी| दि.जै.इ.इ.अ.
1922
| 1572 | संपूरी, वईजलदे
श्री. श्री
Page #496
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
।
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य तपा धनरत्नसूरि
| प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
आदि भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1923 | 1572 | जानू, सहजलदे
श्री. श्री
जी
1924 | 1572 | जानू, सहजलदे,
| श्री. श्री
भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1925 | 1572 | चंपाई
उसवाल
वृद्धतपा सौभाग्यसागरसूरि वृद्धतपा सौभाग्यसागरसूरि राकापक्ष सागरदत्त्सूरि
भ. श्री पद्मप्रभु दि.जै.इ.इ.अ.
जी | भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1926 | 1572 | कीकी, नाथी
श्री. श्री
जी
1927
1573
| सूलही, रूपाई
श्री. श्री. वंष
लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1928 | 1573 | चापलदे, कमलादे
श्री. श्री
नागेंद्रगच्छ हेमसंघसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत | दि.जै.इ.इ.अ.
1929 | 1573 | जीवू
भ. श्री नेमीयुता | दि.जै.इ.इ.अ. अंबिकापूर्ति जी भ. श्री चंद्रप्रभु जी| दि.जै.इ.इ.अ.
1930
1574 | सूलेसरि
उपकेष. ज्ञा
सावदेवसूरि
1931
1576 | वीरा
कलधरगोत्र
नंदीतगच्छ विष्वसेन
भ. श्री आदिनाथ
दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1932
1576 | वाषू, सेउ
श्रीमाल. ज्ञा
भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ.
चित्रावाल लक्ष्मीसागरसूरि ब्रह्माण वीरसूरि
जी
1933 | 1577
| गुरी, वइजलदे
श्री. श्री
भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1934
1577 | घेतलदे, वीरू
श्री. श्री
ब्रह्माण वीरसूरि
भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1935 | 1577
बाई
उपकेष. ज्ञा
हेमविमलसूरि
जी
1936 | 1578 | लाली, धीमकेन
प्रा. हा
सौभाग्यहर्षसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1937 | 1579 | चमकू, राजलदे
श्री श्री
सर्वसूरि
भ. श्री नेमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1938
1579
धेटी
उसवंष
कक्कसूरि
भ. श्री आदिनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
1939 | 1579 | षीमी
उस वंष, लाहीगोत्र | खरतर जिनहंससूरि
1940
श्री. श्री
आगम उदयरत्नसूरि
| 1580 |
लाड़कि, सोमाई,
मनाई 1581 | माणिकि, लाला
भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1941
| प्रा. ज्ञा
तपा. सौभाग्यनंदीसूरि
जी
1942 | 1582 | अधकू, लीलादे
वायड ज्ञज्ञ
आगम. गुणनिधानसूरि
चंद्रस्वामी पंचतीर्थी दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री शीतलनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
1943
1583 | सोनाई, गुराई
उसवाल. ज्ञा
हारीज. शीलभद्रसूरि
1944 | 1584 | सषी, वरबाई
आदिनाथ जी
दि.जै.इ.इ.अ.
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत् | श्राविका नाम
वंश/गोत्र
आदि
1945
1584 | पोपदि, नारीगदे
प्रा.ज्ञा
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
गच्छ/आचार्य तपा. सौभाग्यनंदीसूरी भ. श्री श्रेयांसनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
| जी तपा. आणंदविमलसूरि भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1946 | 1585 | कमलादे
उकेष. ज्ञा
1947 | 1585 कपूरदे, वीहादे, उसवाल ज्ञज्ञ
हीरादे 1948 | 1586 | रूली, वीराकेन, नाकू | भावसागर
| श्रीसूरि
भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी वृद्धतपा श्रीविद्याधनसूरि | भ. श्री पदमप्रभु | दि.जै.इ.इ.अ.
जी तपा सौभाग्यहर्ष भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी | आगम उदयरत्नसूरि भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
1949
1587 | जीवी
प्रा. ज्ञा
1950 | 1587 | पीमादे जाल्हणदे
श्री. श्री
1951
1587 | रूपाई, लालू
श्री. श्रीवंष
अंचल गुणनिधानसूरि
भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1952 | 1587 | हेमांदे सूहवदे
श्री. श्री
पूर्णिमा मुनिचंद्रसूरि
भ. श्री अजितनाथ| दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री विमलनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
1953 | 1587 | हर्षादे, पूरी
श्री. श्री
गुरू
जी
1954 | 1587
धीरणि, पूरी
ऊकेष, वंष
अंचल गुणसुंदरसूरि
भ. श्री अनंतनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1955 | 1588 | जीवी, जाकू
प्रा. ज्ञा
सौभाग्यनंदीसूरी
भ. श्री अभिनंदन दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1956
1589 | अमरी, मानू
श्री. श्री
चैत्र विजयदेवसूरि
जी
1957
1589 | पुडली, पूंगी
उकेष. देवगुप्तसूरी
भ. श्री चंद्रप्रभु जी| दि.जै.इ.इ.अ.
1958
| 1589 | भावलदे
प्रा. ज्ञा
तपा. सौभाग्यनंदिसूरि
भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1959
| 1591
उसवंष
कक्कसूरी
भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
टीबू, सूहवदे,
ललितदे | पीनलदे, दीवी
जी
1960
| 1591
श्री. श्री
| पूर्णिमा. मुनिचंद्रसूरी
भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1961 | 1596
जइती
उकेष. ज्ञा
तपा. विजयदानसूरी
| भ. श्री श्रेयांसनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1962
A
तपा. विजयदानसूरी
1596 | पुहती, वीरादे, श्रीबाई | प्रा. ज्ञा
| भ. श्री पार्श्वनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1963
1596 | अमरादे
प्रा. ज्ञा
तपा. सोमचंद्रसूरी
भ. श्री अभिनंदन | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
1964 | 1596 | अमरादे हेमादे
प्रा. ज्ञा
साधुपूर्णिमा विद्याचंद्रसूरी | भ. श्री अरनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
1965 | 1599 | वना, रत्नादे
प्रा. ज्ञा
श्रीसूरि
भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1966
1537 | रामति
श्री. वीर वर्ष
अंचल श्री जयकेसरी
| भ. श्री अनंतनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. | जी
| सरि
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________
476
क्र०
1967
1968
1969
1970
1971
1972
1973
1974
1975
1976
1977
1978
1979
1980
1981
1985
संवत्
1986
1527
1987
1516
1988
1516
1505
1516
1524
1529
1510
1503
1515
1524
1982 1503
1506
1983 1527
1510
1984 1552
1527 मापू, राजलदे
1503
1537
1533
1501
1505
श्राविका नाम
फरकूदे, खेतलदे
वीझलदे
कील्हणदे, सूले सिरि
धांधलदे
खेतलदे, जसमादे
मांजू वीजू
लीलादे, पल्हादे
झनु मचकू
महीदे
मथू, मांजी
लालू, राजू
रूपादे
पाल्हणदे
लाडी, पालूदे
कमलादे
हमीरदे
वानू वरजू
गोली, टब
करमी, माल्ही, देकूनि
जेसलदे
लाढी सोनाई
वंश / गोत्र
उप. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
प्रा. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. ज्ञा
श्रीउएसवंष
प्रा. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
प्रा. ज्ञा
प्रा. ज्ञा
श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. प्रा. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
लठाउरागोत्र
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
श्री वीरप्रभसूर
पूर्णिमा. श्री गुणधीरसूरी
पूर्णिमा. श्री देवचंद्रसूरी
श्री विजयसिंहसूर
पिप्पल श्री शीलभद्रसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री नमिनाथ
जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री अजितनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री शीतलनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
जी
भ. श्री आदिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री चंद्रप्रभ जी दि. जै.इ.इ.अ.
श्री रत्नदेव सूरि
अंचल श्री केसरी सूरी
तपा श्री रत्नषेखरसूरी
भ. श्री सुमितनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
श्री वीरसूरि
दि. जै.इ.इ.अ.
तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री संभवनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी वृद्धतपा श्री रत्नसिंहरि भ. श्री अजितनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
श्री लक्ष्मीदेव सूरि
पिप्पल श्री विजयदेवसूरि भ. श्री संभवनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भावडार श्री वीरसूरि
श्री पजूनसूरि
श्री वीर सूरि
श्री शांतिसूरि
पूर्णिमा विजयराजसूरि
तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री अजितनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
श्री कमलप्रभसूर
भ. श्री सुमतिनाथ | दि. जै.इ.इ.अ. जी नागेन्द्र श्री विनयप्रभसूरि भ. श्री सुमतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
खरतर श्री जिनभद्रसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री विमलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ | दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री अभिनंदन दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री नमिनाथ
जी
भ. श्री वासुपूज्य दि. जै.इ.इ.अ. जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री अजितनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री सुमतिनाथ | दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री सुविधिनाथ, दि.जै.इ.इ.अ. जी
पृ.
106
106
107
107
107
108
108
108
109
109
110
110
111
111
112
112
113
113
114
114
94
94
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
।
संवत ।
| श्राविका नाम
श्राविका
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक - प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि पिप्पल धर्म सागर सूरि | भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1989 | 1517 | सुहवदे
श्री. श्री. ज्ञा
1990
प्रीमलदे
श्री. श्री. ज्ञा
पूर्णिमा श्री भुवनप्रभ सूरि | भ. श्री सुविधिनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
95
19911506 | पातली
श्री. श्री. ज्ञा
श्री जिनमाणिकसूरि
1992
1511
श्री. श्री. ज्ञा
पिप्पल श्री उदयदेवसूरि
खेतलदे, भोली कामलदे वापू
भ. श्री नमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री नमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1993
11506
श्री. श्री. ज्ञा
पूर्णिमा श्री वीरप्रभसूरि
जी
1994
1536 | रयणादे, माणिकदे
| श्री. उएसवंष
अंचल श्री जयकेसरीसूरि भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
100
जी
1995
| 1511 | मदी
श्री. श्री. ज्ञा
100
1996
| 1560 | रंगी, पालू
श्री. श्री. ज्ञा
101
श्री सूरि
भ. श्री अजितनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
जी नागेन्द्र श्री हेमसिंहसूरि | भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी धर्मघोष पद्मनाथ सूरि भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी भावडार श्री भावदेवसूरि | भ. श्री नमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1997 |1521
कल्हणदे
उप. ज्ञा
101
1998
1532 | सरसइ, रंगी
उपकेष.. ज्ञा
101
1999 | 1560 | हांसलदे अधिकादे
102
2000
| 1543
जीविणी, माणिकी
श्री. श्री. ज्ञा
तपा श्री कमलसूरि भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ.
जी श्री सौभाग्यरत्नसूरि भ. श्री शीतलनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
जी तपा श्री लक्ष्मीसागर सूरि | भ. श्री अभिनंदन | दि.जै.इ.इ.अ.
102
2001
1523 | जसू, रत्नादे
प्रा. ज्ञा
103
2002
1536 | रत्नादे, वील्हणदे
श्री. ब्रह्माण
श्री बुद्धिसागर सूरि
म. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
103
2003
| 1517 | हेली
श्री. श्री. ज्ञा
पिप्पल. श्री गुणरत्नसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
103
जी
2004 | 1548 | मांजू, मांकू, मल्हाई | श्री. श्री. ज्ञा
| श्री पद्मानंद सूरि
भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
103
जी
2005
1513 | नोडी, कली
श्री. श्री. ज्ञा
ब्रह्माण श्री मणिचंद्रसूरि | भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
104
जी
2006
1527
माणिकदे
104
2007
| 1534
माल्हणदे, टूंबह
105
श्री. सिद्ध शाखीय | पिप्पल शालिभद्रसूरि भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी | श्री. श्री. ज्ञा श्री पज्जूनसूरि | भ. श्री नमिनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
जी श्री. श्री. ज्ञा पूर्णिमा श्री पुण्यरत्नसूरी | भ. श्री नमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
2008 | 1505 | सिणगार देवी
2009 | 1517 | भाणी, मानू
2010 | 1535
विमलादे
उकेषवंष
खरतर श्री जिनभद्रसूरी | भ. श्री नमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________
478
क्र०
2011
2013
2012 1506
2014
2015
2016
2017
2018
2019
2021
2024
2025
संवत्
2026
1508
2027
2028
1527
2020 1525
1571
1510
1529
2022 1561
2032
2023 1530
1517
1511
1510
1516 कमलादे
1501
1524
1517
1511
1536
2029 1519
2030 1515
2031 1528
1534
श्राविका नाम
आल्हादेवी
वापलदे
बागू
लीलादे, ऊमादे
लूणदे, वाल्हादे
धांधल आसू
हरखू
संसारदे, नयणादे
गुरदे, हीरादे
पाल्हणदे, हीरा
पावी, वरजू
लाछू धांधलदे
मूली, ललितादे
सीरी, पांतीदे
विल्हदे, धीरू
मदी
वमकू अमकू
वंश / गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा
लखी, कीमी
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
प्रा. ज्ञा
श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री
लाछनदेवी, हमीरदेवी, श्री. श्री. ज्ञा वयजलदेवी
खेतलदेवी, राजलदेवी श्री. श्री. ज्ञा महिंगलदेवी
बाहीदेवी
श्री. श्री. ज्ञा
प्रा. ज्ञा
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
पिप्पल श्री भाभुचंद्रसूरी
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संदर्भ ग्रंथ
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्रीषीतलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
पिप्पल श्री उदयदेवसूरी भ. श्रीशीतलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
पूर्णिमा श्री पुण्यरत्नसूरी भ. श्री कुंथुनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
श्री आनंदसागरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
पिप्पल श्री क्षेमषेखरसूरि भ. श्री शांतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
आगम श्री अमररत्नसूरि
दि. जै.इ.इ.अ.
दि. जै.इ.इ.अ.
पिप्पल श्री उदयदेवसूरि भ. श्री नमिनाथ जी
खरतर श्री जिनचंद्रसूरि
भ. श्री शांतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
श्री धर्मसुन्दरसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी दि. जै.इ.इ.अ.
ब्रह्माण श्री वीरसूरि
भावडार श्री वीर सूरि
पिप्पल श्री धर्मप्रभसूरि
भ. श्री पद्मप्रभु जी
भ. श्री अजितनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री आदिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री नमिनाथ जी पिप्पल श्री अमरचंद्रसूरि भ. श्री शीतलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
श्री पजूनसूरि
भ. श्री वासुपूज्य दि.जै.इ.इ.अ. जी
तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री सुविधिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी पूर्णिमा श्री मुनिसिंहसूरि भ. श्री सुविधिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी पूर्णिमा राजतिलकसूरि
पूर्णिमा श्री गुणधीरसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी पिप्पल श्री अमरचंद्रसूरि भ. श्री शीतलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
पिप्पल श्री चंद्रप्रभुसूरि
चैत्र श्री ज्ञानदेवसूरि
तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री आदिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री विमलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री शांतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
पृ.
88
88
89
89
90
90
90
91
91
91
92
92
92
92
93
93
93
94
76
76
76
77
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
| संवत् |
श्राविका नाम
|
वंश/गोत्र
। प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य नागेन्द्र श्री गुण देवसूरि
प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
आदि भ. श्री सुविधिनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
2033
1533 | | लाछु देवली
| श्री. श्री. ज्ञा
2034
| 1522 | साल्हीकेन
उप. ज्ञा श्री गोत्र | उपकेष श्री कक्कसूरि
भ. श्री शीतलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
2035
1510 | भावदेवी, हेमला
श्री. श्री. ज्ञा
पिप्पल. धर्मशेखरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
2036
| 1506 | लूणादेवी
श्री. श्री. ज्ञा
श्री पिप्पल. धर्मशेखरसूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
2037 | 1517 | कपुरदेवी
श्री. ब्रह्माण
पज्जूनसूरि
भ. श्री अजितनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
2038
| 1507 | टहिकू, हांसू
श्री. श्री. ज्ञा
2039 | 1506 | तिलुश्री
श्री. श्री. ज्ञा
सिद्धांती श्री सोमचंद्रसूरि भ. श्री शीतलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी पिप्पल. धर्मशेखरसूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी खरतर. श्री जिनभद्रसूरि | भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
2040
1510 | माल्हण देवी
उपकेष भ०
श्री. प्रा. ज्ञा
भ. श्री सुविधिनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
2041 | 1528
देमति 2042 | 1534 | तेजू, वमी
बृहतपा श्री ज्ञानसागरसूरि श्री सूरि
प्रा. ज्ञा
भ. श्री श्रेयांसनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
जी
2043
1515
धापू
श्री. श्री. ज्ञा
पूर्णिमा श्री साधुरत्नसूरि
भ. श्री नमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
2044 | 1517
सुहवदेवी, नीनादेवी
श्री. श्री. ज्ञा
श्री विजयसिंह सूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री श्रेयांसनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
2045 | 1535 | हीरादेवी, नीनादेवी
श्री उएस वंष
श्री विजयसिंह सूरि
जी
2046 | 1507 | मोटी, जयरू
वीरवंष
अचंल श्री जयकेसरीसूरी | भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
2047 | 1501 | सुहवदेवी
भ. श्री श्रेयांसनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
बुध गोत्र श्री. श्री. ज्ञा श्री. श्री. ज्ञा
थारापद्र श्री विजयसिंहसूरि चैत्र श्री लक्ष्मीदेव सूरि
जी
2048
1511 | गेली, बाऊ
भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
2049
1533डाही, रंगी
श्री. श्री. ज्ञा
भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
पिप्पल श्री पद्मसनंदसूरि आगम श्री हेमरत्नसूरि
जी
2050 | 1505 | खीमलदेवी, मांजूदेवी | श्री. ज्ञा
भ. श्री सुमितिनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
जी
2051 | 1515 | जानू देवी
श्री. ज्ञा
श्री पूर्णिमारराधुरत्नसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
2052
| 1513 | बाईपन्ना, राजू
श्री. श्री. ज्ञा
श्री सोमचंद्रसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ
दि.जै.इ.इ.अ.
2053
1528 | भाणी
श्री. श्री. ज्ञा
धर्मसागरसूरी
भ. श्री विमलनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
2054
1519 | हरखू
श्री. ज्ञा
पूर्णिमा श्री साधुरत्नसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________
480
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र० . | संवत्
| श्राविका नाम
वंश/गोत्र
।
पृ.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक - गच्छ/आचार्य श्री वीरसूरि
प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
आदि भ. श्री सुमतिनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
2055 | 1512 | पाल्हदे, माल्हाणदेवी | श्री. श्री. ज्ञा
2056 | 1583 | पूंजरी, हेमादेवी
श्री यक्षदेवसूरि
भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
2057 | 1536 | धर्मिणी, गूरी, कुंअरि | श्री. श्री. ज्ञा
पूर्णिमा श्री पुण्यरत्नसूरि | भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी पिप्पल श्री धर्मसागरसूरि भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
2058
1528 | फदू
श्री. श्री. ज्ञा
जी
2059 | 1501 | कमलादेवी,माल्हणदेवी | श्री अंचल
श्री जयकीर्तिसूरी
भ. श्री अजितनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
जी
2060
1513 | कर्मादेवी, धारणदेवी
श्री. श्री. ज्ञा
चैत्र श्री लक्ष्मीदेवसूरि
भ. श्री अजितनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
20611511 | रतूदेवी
श्री. श्री. ज्ञा
भ. श्री कुंथुनाथ
दि.जै.इ.इ.अ.
श्रीराजतिलकसूरि श्री सूरि सिद्धान्ती सोमचन्द्रसूरि
जी
2062 | 1509 | राजी, पूरी
श्री. श्री. ज्ञा
भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
2063
पिप्पल श्री सोमचंद्रसूरि
भ. श्री शीतलनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
| 1509 | | हांसलदेवी,
श्री. श्री. ज्ञा चांपलदेवी, लूणादेवी 1505 | परमलदेवी,सिंगारदेवी | श्री. श्री. ज्ञा
जी
2064
श्री प्रद्युम्नसूरि
भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
72
2065
1525
श्री. ज्ञा
| ब्रह्माण श्री वीरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ
दि.जै.इ.इ.अ.
| कसमीरा, | फलीझाबली टीबू, धारिणी
2066 / 1528
श्री. श्री. वंष
अंचल श्रीराजकेसरीसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
जी
2067
1513 | डाही, लाछी
पूर्णिमा. जयशेखरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ
दि.जै.इ.इ.अ.
| श्री. श्री. ज्ञा
श्री सुमतिरत्नसूरि
भ. श्री सुपार्श्वनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
20681580 राखी, हमीरदेवी,
नीति 20691517 | वाल्ही
प्रा. ज्ञा
श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
2070
| 1563 | अमरी
श्री. श्री. ज्ञा
पूर्णिमा सुमतिप्रभुसुरी
भ. श्री चंदप्रभु जी| दि.जै.इ.इ.अ.
2071
1529 | भावलदे
| ब्रह्माण. श्री.
ज्ञाश्री वृद्धिसागर सूरि
| भ. श्री संभवनाथ
दि.जै.इ.इ.अ.
1115
2072 | 1532 | पाल्हणदे, अहिवदे
श्री. श्री. ज्ञा
| श्री शांतिसूरी
भ. श्री अजितनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
115
2073 | 1513 | वानू, वाल्ही, गोमति | श्री मूलसंघ सरस्वती | श्री विमलेंद्रसूरि
भ. श्री शांतिनाथ - दि.जै.इ.इ.अ.
| 115
2074|1537 | रत्नू धन्नी
श्री. वीर वंष
अंचल जयकेसरी सूरि । | भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
116
2075 | 1591
लाखू लालीदे
श्री. श्री. ज्ञा
ब्रह्माण श्री विमलसूरि
116
| भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
2076
1552 | झाझु जारू, रामती
श्री. श्री. वंष
अंचल सिद्धांतसागरसूरि
119
जी
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
| संवत् | श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक । प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि वीरसूरि श्री जिनदेवसूरि | भ. श्री शीतलनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
2077
| 1515
लाछू
श्री. श्री. ज्ञा
119
जी
.
प्रा.शा
2078 | 1547 | रमक टमकू
अंथन सिद्धांतसागर जूति की शातिनाथ विजीकइन
प्रा. ज्ञा
अंचल सिद्धांतसागर सूरि | भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
| 121
|
2079
1517 | राणलदे, माणक दे
श्रीउएसवंष
अंचल श्री जयकेसरीसूरि भ. श्री चन्द्रप्रभ | दि.जै.इ.इ.अ.
121
2080
1507
राजलदे
श्री. श्री. ज्ञा
नागेन्द्र श्री विनयप्रभसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी पूर्णिमा श्री कमलप्रभसूरि | भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
2081 | 1582
जीविनी, वइजलदे,
श्री. श्री. ज्ञा
124
लीला
2082 | 1505
हांसू, नयणादे
श्री. श्री. ज्ञा
अंचल श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री सुविधिनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
125
2083
| 1503 | कामलदे, ह', देही
श्री. श्री. ज्ञा
तपा श्री रत्नशेखरसूरी
भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
125
2084
1555
श्री. ओसवंष
श्री सूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
125
जसमादे, देवासिरी कामलदे, सोही पोमी लावी
2085
1515
प्रा. ज्ञा
सिद्धान्ती सोमचन्द्रसूरि
| दि.जै.इ.इ.अ.
126
भ. श्री चन्द्रप्रभ जी भ. श्री चन्द्रप्रभ
2086
1538 | भाली
श्री. श्री. ज्ञा
चैत्र अमरदेवसूरि
|दि.जै.इ.इ.अ.
126
जी
2087
| 1525 | आसू
गुर्जर. ज्ञा
126
2088
| 1533 | लाछू देसलदे
श्री. श्री. ज्ञा
126
2089 | 1545 | नागिनी, पूतली
श्री. श्री. ज्ञा
127
श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री नमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी नागेन्द्र श्री गुणदेव सूरि | भ. श्री सुविधिनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
जी पूर्णिमा श्री देवसुंदरसूरी | भ. श्री नमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी वृहद श्री पार्श्वचन्द्रसूरि भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी वडगच्छ श्री सर्वदेवसूरि | भ. श्री पदमप्रभ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी पूर्णिमा श्री साधुरत्नसूरी | भ. श्री चंद्रप्रभु जी| दि.जै.इ.इ.अ.
2090
1503
| माल्हणादे
श्री. श्री. ज्ञा
128
2091
1513 | देवलदे, संसारदे
श्री. उपकेष. ज्ञा
128
2092
| 1510
मीणलदे
श्री. श्री. ज्ञा
2093
1506 | वाहणदे
श्री. श्री. ज्ञा
पिप्पल श्री धर्मषेखरसूरी
भ. श्री चंद्रप्रभु जी| दि.जै.इ.इ.अ.
130
2094 | 1512 | पूंजी, सुहवदे, नाईदे | श्री. श्री. ज्ञा
श्री विजयसिंहसूरी
भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
| 130
2095 | 1568 | सलखू
श्री. श्री. ज्ञा
मुनिचंद्रसूरि
भ. श्री चन्द्रप्रभु | दि.जै.इ.इ.अ.
| 131
जी
2096 | 1518 | आमलदे, माउदे
उपकेवंष ज्ञा
भावडार श्री भावदेव सूरि | भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
131
जी
2097 | 1532
कर्मा, दीपीदे
तपा श्री लक्ष्मीसागर सूरि भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
132
जी
2098
1520
हरखू, कुंअरि
श्री. श्री. वंष
अंचल श्री जयकेसरीसूरी | भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ.
133
Page #504
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
| संवत् ।
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
। पृ.
20s | 128 प्रीमी. लीलू
श्री. श्री. झा
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
_ आदि ब्रह्माण श्री वीरसूरि भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
ब्रह्माण का कारनारम भी युनाथ दिन इ.इ.स.
2099
| 1525 | प्रीमी, लीलू
श्री. श्री. ज्ञा
133
2100
| 1581
लीलादे, वीझलदे
श्री. श्री. ज्ञा
13
निगमप्रभावकश्री आनंदसूरि तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
2101 | 1523 | मेहा, मरघू
प्रा. ज्ञा
133
'-जी
2102 | 1506 | महिगल
2102
1506 | महिगल
श्री. श्री. झाश्री पूजनसूरि
श्री. श्री. ज्ञा
श्री पूजनसूरि
म. श्री वासुपूज्य | दि.जे इ.इ.अ.
भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ.
134 |
जी
2103 | 1564| सिंगारदे, हीमादे
श्री. श्री. ज्ञा
135
2104 | 1581 | पातमदे
श्री. श्री. ज्ञा
पूर्णिमा श्री रत्नषेखरसूरि | भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ.
जी आगम श्री सोमचन्द्रसूरि ।
| भ. श्री
दि.जै.इ.इ.अ.
मुनिसुव्रतनाथ जी पिप्पल चन्द्रसागरसूरि | भ. श्री वासूपुज्य | दि.जै.इ.इ.अ.
135
2105
| 1507 | वामूणादे
श्री. श्री. ज्ञा
135
जी
2106
1508 | टहीकू
श्री. श्री. ज्ञा
सिद्धांतीय सोमचंद्रसूरि
भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
136
जी
2107 | 1508
माल्हणदे, सलखा
श्री. श्री. वंष
137
अंचल श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री वासूपुज्य | दि.जै.इ.इ.अ.
जी जीरापल्ली उदयचंद्रसूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
2108
| 1508 | टूयडी
137
2109 | 1553 | हपूं, लीलाई
जी भ. श्री
प्रा. ज्ञा
पूर्णिमा मुनिचंद्रसूरि
138
| दि.जै.इ.इ.अ. मुनिसुव्रतनाथ जी | भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
2110 | 1519 | हमीरदे, जमनादे
श्री. श्री. ज्ञा
पूर्णिमा श्री जयप्रभसूरी
139
श्री. श्री. ज्ञा
पूर्णिमा श्री साधुसुंदरसूरी | भ. श्री नमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
139
2111 | 1515 रतनादे, ललितादे
रूपिणी, झाझू 2112 | 1519 | हीमादे, चांपू
श्री. श्री. ज्ञा
अंचल श्री जयकेसरीसूरी | भ. श्री चंदप्रभ जी| दि.जै.इ.इ.अ.
139
2113 | 1520 | झबू, वारू
140
2114 1158
जाणी
प्रा. ज्ञा
भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी पूर्णिमा श्री जिनहर्षसूरी | भ. श्री श्रेयांसनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी धर्मघोष पद्मानंदसूरि भ. श्री सुविधिनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
140
2115
1518 | कील्हणदे
श्री. उपकेष ज्ञा
141
जी
2116 | 1587 | वानू, लवणदे
श्री. श्री. ज्ञाश्री सूरि
भ. श्री भांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
141
2117 | 1519 | मांई, सुलेसिरि
।
श्री. प्रा. ज्ञा
अंचल श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
142
2118 | 1511 | पाल्हणदे, वीकलदे | श्री. श्री. ज्ञा
पूर्णिमा राजतिलकसूरि | भ. श्री अजितनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
175
2119 | 1523 | लखमादे, अमरी,नाथी | प्रा. ज्ञा
श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
176
2120 | 1532 | आजी, झाली, रामति | प्रा. ज्ञा
बृहत्तपा श्री जिनरत्नसूरि | भ. श्री मुनिसुव्रत | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
483
क्र०
संवत्
| श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ
गच्छ/आचार्य पीप श्री धर्मसागरसूरि भ. श्री अजितनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
आदि
2121 |1527 | डाही, आसीन
श्री. श्री. ज्ञा
177
जी
2122
| 1505 | सामलदे
श्री. श्री. ज्ञा
पूर्णिमा श्री गुणसमुद्रसूरी | भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
177
जी
2123 | 1532 | धांधलदे, फकू
श्री. श्री. वंष
177
2124 | 1513 | सुहडदे, अमरी
.................
178
2125 | 1590 | सोनाई
मोढ. ज्ञा
178
2126 | 1510 | सोहगदे, मांगू
श्री. श्री. ज्ञा
अंचल श्री जयकेसरीसूरी | भ. श्री सुविधिनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
जी पूर्णिमा श्री कमलसूरी भ. श्री शांतिनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
जी तपा श्री धनरत्नसूरि भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
| जी नागेन्द्र गुण समुद्रसूरि भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी चैत्र श्री विजयदेवसूरि भ. श्री नमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
| जी पूर्णिमा सागरतिलकसूरि | भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
| जी आगम श्री हेमरत्नसूरि भ. श्री सुविधिनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
178
2127 | 1582 | सुहवदे, सिरिया
श्री. श्री. ज्ञा
179
2128 | 1515 | वरजू, सोनू
श्री. श्री. ज्ञा
179
2129 | 1505 | खीमलदे, मांजु
श्री. ज्ञा
179
2130 | 1515 | जानूदे
श्री. ज्ञा
193
पूर्णिमा श्री साधुरत्नसूरी | भ. श्री सुविधिनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
जी सिद्धांती श्री सोमचंद्रसूरि भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
2131 | 1501 | पत्रापदी, राजू
श्री. श्री. ज्ञा
193
| जी
2132
| 1528 | रतनू, भाणीदे
श्री. श्री. ज्ञा
पिप्पल श्री धर्मसागरसूरि भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
194
जी
2133
| 1519 | हरखू, भवकूबाई
श्री. ज्ञा
पूर्णिमा श्री साधुरत्नसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
194
जी
2134 | 1512 | पाल्हणदे, माल्हणदे
श्री. ज्ञा
श्री वीरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
195
2135
| 1583
| पुजारदे, हेमादे
उप. ज्ञा
श्री यक्षदेवसूरि
भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
195
जी
पूर्णिमा श्री पुण्यरत्नसूरि
भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
196
2136 | 1536 | धर्मिणी, गूरी, कुंअरि | श्री. श्री. ज्ञा
रलमाण 2137 | 1528 | फटू
जी
श्री. श्री. ज्ञा
| पिप्पल श्री धर्मसागरसूरि भ. श्री षांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
196
जी
2138 | 1501 | कमलादे, माल्हणदे
.....
196
2139
| 1513 | कमदि, धारण
श्री. श्री. ज्ञा
अंचल श्री जयकीर्तिसूरि | भ. श्री अजितनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
जी चैत्र. श्री लक्ष्मीदेवसूरि भ. श्री अजितनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
जी श्री सूरि
भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
198
2140
| 1511 | रतू
श्री. श्री. ज्ञा
198
जी
2141 | 1509 | राजी, पूरी
श्री. श्री. ज्ञा
सिद्धान्त सोमचन्द्रसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. चतु. जी
2142
1505 | प्रीमलदे, सिंगारदे
श्री श्री ज्ञा
श्री प्रद्युम्नसूरि
199
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा
200
2143 | 1525 मीरश्री, फली,
झाबली, पांची 2144 | 1528 | टीबू धारिणी
श्री. श्री. वंष
200
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ । गच्छ/आचार्य
आदि श्री वीरसूरि
भ. श्री षांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
चतु. जी अंचल श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री सुविधिनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
जी पूर्णिमा श्री जयषेखरसूरि | भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी पूर्णिमा. श्रीसुमतिरत्नसूरि | भ. श्री सुपार्श्वनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
2145 | 1513 | डाही, लाछी
प्रा. ज्ञा
201
2146 | 1580 | राखी, हमीरदे, नीति | श्री. श्री. ज्ञा
201
2147 | 1517 | रूडी, वाल्ही
प्रा. ज्ञा
202
जी
2148
1563
अमरी
थिरापद्रनगर श्री ज्ञा | पूर्णिमा. श्री सुमतिनाथ | भ. श्री चंद्रप्रभ जी| दि.जै.इ.इ.अ.
202
2149
| 1519 | लाछादे, हमीरादे
श्री. श्री. ज्ञा
202
पिप्पल. श्री अमरचन्द्रसूरि भ. श्री शीतलनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
चतु. जी पिप्पल. श्री चंदप्रभसूरि भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
2150
1515
श्री. श्री. ज्ञा
2004
| खेतलदे, राजलदे महिगलदे वाल्ही
2151
| 1528
प्रा. ज्ञा
204
चैत्र श्री ज्ञानदेवसूरि भ. श्री विमलनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
2152
1534 | लाखी, कीमी
प्रा. ज्ञा
205
2153
। लाछू, देवली
श्री. श्री. ज्ञा
नागेन्द्र. श्री गुणदेवसूरि
| भ. श्री सुविधिनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
205
जी
2154
1522 | साल्हादे
उप ज्ञा. श्रेष्ठि
उपकेष. श्री कक्कसूरि
भ. श्री शीतलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
205
2155
1510 | भावलदे
श्री. श्री. ज्ञा
पिप्पल. श्री धर्मषेखरसूरी | भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
205
जी
2156
1506
लूणादे
यारापद्र
पिप्पल श्री धर्मषेखरसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
206
2157 | 1517 | कपुरदे
ब्रह्माण
श्री प्रद्युम्नसूरि
भ. श्री अजितनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
206
जी
2158 | 1508 | टही, हासू
श्री. श्री. ज्ञा
सिद्धांत श्री सोमचंद्रसूरि | भ. श्री शीतलनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
207
2159
1506 | तिलश्री
श्री. श्री. ज्ञा
पिप्पल श्री धर्मशेखरसूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
207
21601510 माल्हवदे
उप. भणषाली
207
खरतर. श्री जिनभद्रसूरि | भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी बृहतपा ज्ञानसागरसूरि | भ. श्री सुविधिनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
| प्रा ज्ञा
208
2161 | 1528 माल्हवदे, लाम्ब
देवमति 2162 | 1534 | तेजू, वमी
प्रा. ज्ञा
डीसानगर श्री सूरि
| भ. श्री श्रेयांसनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
208
जी
2163 | 1515
धापू
श्री. श्री. ज्ञा
209
पूर्णिमा श्री साधुरत्नसूरि । भ. श्री नमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
| जी पिप्पल धर्मषेखरसागर | भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
| जी
2164
1517
सुहवदे
श्री. श्री. ज्ञा
210
सूरि
Page #507
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
।
आदि
2165 | 1516 | श्रीदे, नीनादे
श्री. श्री. ज्ञा
प्रेरक/प्रतिष्ठापक प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
गच्छ/आचार्य श्री विजयसिंहसूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी अंचल श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
| 211
2166 | 1535 | हीरादे, पूर्णिमादे
| उप. ज्ञा
212
जी
2167 | 1507 | मोटी, जयरूदे
अंचल श्री जयकेसरीसूरि भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
213
2168
| 1501 | सुहवदे
वराही. श्री. श्री. ज्ञा | श्रीविजयसिंह सूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
213
जी
2169 | 1511 | गेली, बाऊ
श्री. श्री. ज्ञा
चैत्र श्री लक्ष्मीदेवसूरि
भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
1213
जी
2170 | 1553 | डाही, रंगी
श्री. श्री. ज्ञा
214
पिप्पल श्री पद्मानन्दसूरि भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.स.
जी श्री पज्जूनसूरि भ. श्री नमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
2171
| 1505 | श्रृंगारदे, महंगदे
| श्री. श्री. ज्ञा
214
जी
2172 | 1517 | भानी, भानू
श्री. श्री. ज्ञा
पूर्णिमा श्री पुण्यरत्नसूरि | भ. श्री नमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
214
2173 | 1535
विमलादे
उप. ज्ञा
खरतर श्री जिनचंद्रसूरि
भ. श्री नमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
215
जी
2174
1598
कर्मादे
श्री. श्री. ज्ञा
पिप्पल श्री भाभुचंद्रसूरि
215
भ. श्री शीतलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री शीतलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
2175
1506 | चापलदे
श्री. श्री. ज्ञा
पिप्पल श्री उदयदेवसूरि
216
जी
2176
|1527 | बागू
श्री. श्री. ज्ञा
217
2177 | 1581
| लीलादे, उमादे
| श्री. श्री. ज्ञा
217
2178
1510 | लूणादे, वाल्हीदे।
| श्री. श्री. ज्ञा
पूर्णिमा श्री रत्नसूरि भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी श्री आनन्दसागरसूरि | भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी पिप्पल श्रीक्षेम भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. शेखरसूरि
जी आगम श्री अमर रत्न | भ. श्री पद्मप्रभ | दि.जै.इ.इ.अ. सूरि
पंच जी पिप्पल श्री सोमचन्द्रसूरि | भ. श्री नमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
218
2179 | 1529 | धाधलदे, आबादे
श्री. श्री. ज्ञा
218
2180
1516 | कमलादे
श्री. श्री. ज्ञा
| 218
जी
2181 | 1517 | हर्षादे
श्री. ज्ञा
खरतर श्री जिनचंद्रसूरि | भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
219
जी
2182
1511
संसारदे, नयनादे
श्री. ज्ञा
पिप्पल धर्मसुन्दरसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
219
2183 | 1525 | गुरूदे, हीरादे ।
श्री. श्री. ज्ञा
ब्रह्माण श्री वीरसूरि
भ. श्री अजितनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
| 219
2184
| 1510 | पाल्हणदे
श्री. श्री. ज्ञा
220
2185
| 1581 | पावी वरजू
श्री. श्री. ज्ञा
भावडार श्री वीरसूरि भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी पिप्पल श्री धर्मप्रभसूरि भ. श्री नमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी पिप्पल श्री अमरचंद्रसूरि | भ. श्री शीतलनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
220
2186
| 1530 | लाछू धांधलदे
श्री. श्री. ज्ञा
220
जी
Page #508
--------------------------------------------------------------------------
________________
486
क्र०
2187
2188
2189
2190
2191
2192
2194
2196
2199
2193 1505
2200
2201
2195 1512
2203
संवत्
2204
1501
2205
1524
2197 1511
2206
1517
2198 1506
2207
1511
2208
1536
1501
1510
1506
2202 1521
1536
1511
1560
1532
1560
1543
15
1523
1526
श्राविका नाम
मूला, ललिता, रत्नू
श्रीदे, पातीदे
विल्हणदे, धीरजदे
मदी
वमकू अमकू
जेसलदे
लाठी, सुवर्णी
सुहवदे
सुहवदे
पातली
खेतलदे, भोली, कामलदे
वादे
रयवा, माणिक
मदी
रंगी, पालू
कोल्हणदे
सरस्वती, रंगी
हांसलदे, अधिकदे
जीवनीदे, माणिकदे
पंगादे, मटकूदे
जसूदे, रतनादे
रत्नदे, वील्हणदे
वंश / गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा
प्रा. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
लढाऊ गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
उप. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
उप. ज्ञा. नाहर
उप. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
प्रा. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
श्री पज्जूनसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री वासुपूज्य दि. जै.इ.इ.अ. जी
संदर्भ ग्रंथ
तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री सुविधिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
पूर्णिमा श्री मुनिसिंह सूरि भ. श्री सुविधिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
|पूर्णिमा श्री राजतिलक
पूर्णिमा श्री गुणधीरसूरि
नागेन्द्र विनय प्रभसूरि
खरतर श्री जिनभद्रसूरि
पिप्पल श्री धर्मसागरसूरि भ. श्री शांतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी पिप्पल श्री धर्मसागरसूरि भ. श्री शांतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
श्री जनमाणिक्यसूरि
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री नमिनाथ जी पिप्पल श्री उदयदेवसूरि भ. श्री नमिनाथ जी
पूर्णिमा श्री वीर प्रभसूर
अंचल श्री जयकेसरीसूरि भ. श्री संभवनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
थिरापद्र श्री सूरि
| नागेन्द्र श्री हेमसिंहसूरि
| र्धमघोष पदमानंदसूरि
भावडार श्री भावदेवसूरि
तपा. श्री कमलसूरि
श्री सौभाग्यरत्नसूरि
वृद्धतपा श्री जिनसुन्दरसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
श्री बुद्धि सागरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री सुमतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री सुविधिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री शांतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री अजितनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री शांतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री सुमतिनाथ | दि. जै.इ.इ.अ. जी
दि. जै.इ.इ.अ.
भ. श्री वासुपूज्य दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री नमिनाथ
जी
भ. श्री शीतलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री विमलनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री अभिनंदन दि. जै.इ.इ.अ. जी
भ. श्री सुमतिनाथ दि. जै.इ.इ.अ. जी
पृ.
221
221
221
222
222
222
223
223
223
224
224
225
229
229
229
230
230
230
231
231
231
232
Page #509
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
___487
क्र०
संवत् | श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य | पिप्पल श्री गुणरत्नसूरि
| प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
आदि भ. श्री श्रेयांसनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
2209 | 1517 | हेली
श्री. श्री. ज्ञा
232
| जी
2210
| 1548
श्री. श्री. ज्ञा
पिप्पल श्री पद्मानंदसूरि | भ. श्री शीतलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
232
| गांजूदे, गांवदू
मल्हादे | नाडी, कालीदे
| जी
2211 | 1513
श्री. श्री. ज्ञा
ब्रह्माण श्री मणिचन्द्रसूरि | भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
233
2212
| 1527
माणिकदे
पिप्पल शांतिभद्रसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
233
2213 | 1534 | माल्हणदे, तूबी
| | श्री वीरवंष
234
2214 | 1537 | रामती
234
श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री आदिनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
जी अंचल श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री अनंतनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
जी जीरा श्री सागरचंद्रसूरि | भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी श्री वीरप्रभ सूरि भ. श्री नमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
2215 | 1527 | कर्ण, अदी, समू
उप. ज्ञा
234
2216 | 1505 | फखुदे, खेतलदे
| श्री. श्री. ज्ञा
| 235
जी
2217 | 1516 | वीझलदे
श्री. श्री. ज्ञा
पूर्णिमा श्रीदेवचंद्रसूरि
भ. श्री अजितनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
235
जी
2218 | 1516 | कील्हणदे, सुलह
प्रा. ज्ञा.
पूर्णिमा श्री देवचंद्रसूरि
250
भ. श्री शीतलनाथ| दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी
2219 | 1505
धांधलदे
प्रा. ज्ञा.
श्री विजयसिंहसूरि
236
2220
1520 | गेरी, रूपमति
श्री. श्री. ज्ञा
| पिप्पल श्री धर्मसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
236
जी
22211515 | खेतलदे, जसमादे
श्री. श्री. ज्ञा
पिप्पल श्री विजयदेवसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभ जी| दि.जै.इ.इ.अ.
237
222n | 1524 | मंजूदे, विजयदे
| श्री. श्री. ज्ञा
237
2223|1529 | लीलादे, पल्हादे
उपवंष
237
22241510 | झनू, मचकू
प्रा. ज्ञा
पिप्पल श्री रत्नदेव सूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
जी अंचल श्री जयकेसरीसूरि भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी तपा श्री रत्नषेखरसूरि भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी ब्रह्माण श्री मणिचंद्रसूरि भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
| जी श्री वीर सूरि
भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ.
238
2225 | 1507 | महगलदे
238
| 2228
1503 | महीदे
श्री. श्री. ज्ञा.
238
जी
2227 | 1527 | मंथू, भांजी .
प्रा. ज्ञा
बृहत्तपा श्री रत्नसिंहसूरि
भ. श्री अजितनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
239
जी
2228
1515
लालूदे, राजू
प्रा. ज्ञा.
श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
| 239
2229 | 1524 | रूपा, सूडी
श्री. श्री. ज्ञा
पिप्पल विजयदेव सूरि
| भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
| 240
जी
2230
1510 | पाल्हणदे
श्री. श्री. ज्ञा
भावडार श्री वीरसूरि
भ. श्री अभिनंदन | दि.जै.इ.इ.अ.
1240
Page #510
--------------------------------------------------------------------------
________________
488
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संवत् ।
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
2231 | 1503 | लाडी, पालू
ब्रह्माण. श्री श्री
241
प्रेरक/प्रतिष्ठापक प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि श्री पज्जूनसूरि भ. श्री वासुपूज्य | दि.जै.इ.इ.अ.
जी पूर्णिमा विजयराजसूरि भ. श्री अजितनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
जी तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
2232 |1527 | हमीरदे
श्री. श्री. ज्ञा
242
2233
| 1552 | वानू, वरजू, कामलदे
243
जी
2234 | 1537 | गोली, टबकू
प्रा. ज्ञा
पूर्णिमा श्री कमलप्रभसूरि | भ. श्री अजितनाथ| दि.जै.इ.इ.अ.
243
जी
श्री. श्री. ज्ञा
पूर्णिमा श्री कमलप्रभसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
245
2235 | 1533 | कर्मादे, माल्हणदे,
देवकु | 1529 | भावलनदे, लाडीदे
जी
ब्रह्माण. श्री. ज्ञा
श्री बुद्धिसागरसूरि
245
भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. जी भ. श्री अजितनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
2237 | 1532 | पाल्हणदे, अहिवदे
श्री. श्री. ज्ञा
श्री शांतिसूरि
255
जी
2238 | 1505 | हासूदे, नयनादे
श्री. श्री. ज्ञा
अंचल जयके सरसूरि
| भ. श्री सुविधिनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
255
2239 | 1503 | कामलदे, हफूंदे, देही | श्री. श्री. ज्ञा
| तपा श्री रत्नषेखरसूरि
| भ. श्री विमलनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
256
जी
A
ओस. ज्ञा
श्री सूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी दि.जै.इ.इ.अ.
256
2240 1515 | जसमा, देवश्री,
कामलदे, सोही 22411515 | पोमी, लांबी
प्रा. ज्ञा
सिद्धान्त श्री सोमचंद्रसूरि भ. श्री चंद्रप्रभ जी| दि.जै.इ.इ.अ.
256
2242 | 1538 | भली
श्री. श्री. ज्ञा
चैत्र श्री अमरदेवसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभ जी| दि.जै.इ.इ.अ.
257
22431525
गुर्जर. ज्ञा
तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री नमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
257
2244 | 1533 | लाछू देसल
श्री. श्री. ज्ञा
नागेन्द्र श्री गुणदेवसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ दि.जै.इ.इ.अ.
258
2245
| 1545 | पुतली
श्री. श्री. ज्ञा
पूर्णिमा श्री देवसुन्दरसूरि भ. श्री नमिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
258
| जी
2246
11503 | माल्हणदे
बृहद् श्री पार्षचन्द्रसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
258
जी
2247 | 1513 | देवली, संसार
उप. ज्ञा
बडगच्छ सर्वदेवसूरि
| भ. श्री पद्मप्रभ | दि.जै.इ.इ.अ.
259
2248 | 1510 | मीनल
श्री. श्री. ज्ञा
पूर्णिमा श्री साधुरत्नसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभ जी| दि.जै.इ.इ.अ.
259
2249 | 1506
वाहनदे
श्री. श्री. ज्ञा
पिप्पल. श्री धर्मषेखरसूरि | भ. श्री चंद्रप्रभ जी दि.जै.इ.इ.अ.
260
2250
| 1512 | पूंजी, सूहवदे, नाई
श्री. श्री. ज्ञा
261
थारापद्र श्री विजयसिंहसूरि मुनिचंद्रसूरि
भ. श्री आदिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ. चतु जी भ. श्री चंद्रप्रभ जी| दि.जै.इ.इ.अ.
2251 | 1568 | सलखणा
ब्रह्माण. श्री. श्री.
262
2252 | 1518 |नामल, भावदे
उप. ज्ञा
262
भावडार श्री भावदेवसूरि भ. श्री संभवनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
जी
Page #511
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
489
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री विमलनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
262
2253 1532 कमीदे, द्वीपदे,
रत्नदे 2254 | 1520 | प्रमी, लीलादे
जी
श्री. श्री. ज्ञा
| ब्रह्माण श्रीवीरसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
263
264
Maहम
80
32
2255 1581 लीलादे, वीझलदे श्री. श्री. ज्ञा | निगम प्रभावक श्री भ. श्री शांतिनाथ | दि.जै.इ.इ.अ.
आनन्दसूरि 2256 1504 | जांइ. आधी
पं. तिलकवीरगणि सिद्धहेम
प्र.सं. शब्दानुशासनम् (पंचाध्यायानि)
प्र.42 2257 1563 | रमाइ, टांक, सोमी.
मुनि विजयरत्न (तपा) उपदेशमाला प्र.सं. खीमी, पठनार्थ
प्र.249 2258 | 1571 | ककू, रही, जोशी प्रा. ज्ञा.
विवेकरत्नसूरि
श्री संदेहविषौषधी | प्र.सं. (आगमगच्छ)
पर्युषणा
कल्पटीका लिखी 2259 1501 | कर्मिणि
श्री कालिकाचार्य | प्र.सं.
कथा 2260 | 1528 | तिलकाइ, पूरी, श्री. ज्ञा.
श्री आवश्यक प्र.सं. निज श्रेयार्थ
नियुक्ति 2261 | 1586 | हंसाइ पठनार्थ
विवेकचारित्र गणि द्वारा श्री आराधना प्र.सं. लिखित
(बालावबोध) 2262 | 1570 भीमी, मटकू, सोमा,
उपाध्याय कमल-संयम ठाणांग वृत्ति प्र.सं. चांपलदे 2263 | 1597 ललितादे,रयणादे खंडेलवाल मुनि पद्मकीर्ति को सुदर्शन चरित्र प्र.सं. आदि ने लिखवाया
समर्पित किया 2264 1595 | केलू गौरी गंगा पूना | खंडेलवाल,पटनीगोत्र | ज्ञानपाल को प्रदान भविष्यदत्त चरित्र | प्र.सं. हीरा ने लिखवाया
किया
लिखवाया 2265 | पौसिरि, काल्हासिरि | खंडेलवाल,गोधागोत्र
भविष्यदत्त चरित्र प्र.सं.
लिखवाया 2266 |1583 | कवलदे, खणादे, | खंडेलवाल
चंद्रप्रभ चरित्र प्र.सं. भावलदे, धारादे
लिखवाया 2267 1581 कावलदे सीलवती खंडेलवाल,कासलीवा | ब्रह्मभोजा जोगी को करकण्डू चरित्र | प्र.सं. आदि ने लिखवाया ल गोत्र
प्रदान किया 2268 11577 | करमचंदही अग्रोत,गोइन्न गोत्र | साधु वाटु
अमरसेन वरित्र प्र.सं.
लिखवाया 2269 | 1579 | सोना,पद्मा,वाली | खंडेलवाल,टौंग्यागोत्र बाई पदमसिरि को प्रदान श्रीपाल चरित्र प्र.सं.
किया
लिखवाया 2270 1512 | रानी ने निज कर्म खंडेलवाल, सरस्वती | महासिरि को प्रदान श्रीपाल चरित्र प्र.सं. क्षयार्थ | गोत्र . किया
लिखवाया 2271 1584 | अमा हीरा ने
बाई मानिकी को प्रदान श्रीपाल चरित्र प्र.सं. कर्मक्षयार्थ
करने के लिए लिखवाया 2272 | 1577 | देवराजही धनराजही | गर्ग गोत्र
सुलोचना चरित्र | प्र.सं.
189
148
148
84-8
177
177
177178
192
Page #512
--------------------------------------------------------------------------
________________
490
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
।
प्र.
164
163
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि ब्रह्मवीड को प्रदान किया | यशोधर चरित्र | प्र.सं.
लिखवाया श्री प्रभाचंद्र को प्रदान यशोधर चरित्र प्र.सं. किया
लिखवाया मुनि धर्मचंद्र को प्रदान | पार्श्वनाथ चरित्र | प्र.सं. किया
लिखवाया नागकुमार चरित्र प्र.सं.
लिखवाया आर्यिका श्री विनय श्री | | प्रद्युम्न चरित्र प्र.सं. को प्रदान किया लिखवाया
22731580 | मीता,राणी,देवल,सूहो | खंडेलवाल
आदि ने लिखवाया 2274 | 1575 सोना, लोचनदे, खंडेलवाल
दूलहदे 2275 1577 लाडा सफलादे खंडेलवाल गुणसिरि
पहाडयागोत्र 2276 | 1592 सुनखी ने पंचमी इक्ष्वाकु वंश उद्यापनार्थ
भंडारीगोत्र 2277 1595 पीथी, लाडी खंडेलवाल अजमेरा
पद्मसिरि ने दसलाक्षणिक व्रत
उद्यापनार्थ 2278 | 1584 | तिपुरू, मदना, अमरी | ठोला गोत्र
131
113
138
गोत्र
147
2279
1598 | जीविणि पठनार्थ
312.
2280 | 1591 | सोमाई पठनार्थ
317
ब्र. रत्ना को प्रदान किया बाहुबली चरित्र प्र.सं.
लिखवाया कडवा खरतर श्रीवंत ऋषभदेव प्र.सं.
विवाहलु धवलबंध 44 ढाल लिखवाया षांतिजिन विवाह प्र.सं.
प्रबंध कडवा खरतर श्रीवंत
ऋषभदेव
प्र.सं. विवाहलु धवलबंध 44
ढाल लिखवाया नागेंद्र गुणसमुद्रसूरि कुंथुनाथ प्रतिमा | प्र.सं.
निर्माण
2281
1590 | देवकी पठनार्थ
312
2282
1512 | माणिकदे
श्रीमाल ज्ञा.
66
2283 | 1522 | हीरा बाई पठनार्थ
66
तपा हेम-विमलसूरि वसुदेव चौपाई | प्र.सं. द्वारा रचित तपा हेमविमलसूरि रचित | वसुदेव चौपाई | जै.गु.क. भाग 1 | 131
67
22841589 | हंसाई पठनार्थ
2285
1595 | पटुबाई पठनार्थ
19
चिहुंगति चौपाई | जै.गु.क. भाग
1 लिखवायी वैराग्य विनति जै.गु.क. भाग 1
22861580 | सशमाई पठनार्थ
172
अमरडनगणि लिखित(तपागच्छ) सहजगणि लिखित
2287 | 1569 | रज्जाई पुत्री पठनार्थ
श्री गुरूणी स्वाध्याय 14
जै.गु.क. भाग 1
251252
कडी
स्थूलीभद्र
जै.गु.क. भाग 1
169
2288 | 1580 | सुश्राविकाओं के
पठनार्थ 2289 | 1596 | धारादे,मुक्तादे,
हीरादे, पाटमदे 2290 | 1533 नैणसिरि, पुंसरी,
तेजसिरि आदि ने कर्म क्षयार्थ
सत्य श्री मुनि द्वारा
रचित, अंचलगच्छ खंडेलवाल साहगोत्र | पं.श्री पदारक को
पठनार्थ दिया | खंडेलवाल मुनिरत्नभूषण को भेंट
जीवंधर चरित्र प्र.सं. लिखवाया धन्यकुमार चरित्र | प्र.सं. लिखवाया
Page #513
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
क्र०
संवत् |
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
होली, वीराणि, टोमा | खंडेलवाल रोहिणि आदि ने
अजमेरागोत्र यशोदेवी
2292
1524
प्रेरक/प्रतिष्ठापक । प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि उत्तम पात्र को प्रदान वरांगचरित्र प्र.सं. किया
लिखवाया विमलनाथ चरित्र | प्र.सं. लिखवाया
शांतिनाथ चरित्र | प्र.सं.
लिखवाया रत्नहंसगणि
शांतिनाथ चरित्र प्र.सं. लिखवाया
1511
2293 1511 राजू, गोगा आदि ने
पंचमी उद्यापनार्थ 2294 | राजू, नांइ, लाठी प्रा.ज्ञा.
आदि ने पंचमी
उद्यापनार्थ 2295 | 1504 धांधलदे, चमकू
| प्रा.ज्ञा. स्वश्रेयार्थ 2296 |1582 | कल्हो, धारि, आदि ने | अग्रोत गर्ग गोत्र
149
जंयचंद्रसूरिको भेंट की | श्री पार्श्वनाथ प्र.सं.
चरित्र लिखवाया भविष्यदत्त शास्त्र | प्र.सं. एवं श्रुतपंचमी
ग्रंथ लिखवाया पं.सौभाग्यहर्ष सूरि के
प्र.सं. सान्निध्य में
उपदेशरत्नमाला प्रति.319 लिपिबद्ध की
2297
1585
इंद्राणि
2298 | 1525 | नेताई पठनार्थ
प्र.सं.
उपदेशरत्नकोश लिखवाया
2299
| 1563
टांकू सोमी, खीमी पठनार्थ
हेमविमलसूरि
प्र.सं.
2300
| 1592
ओ.ज्ञा.
रयणादे, सरूपां. नायकदे
श्री भावसुंदरसूरि
प्र.सं.
उपदेशरत्नमाला लिखवाया श्री अष्ट् कर्मग्रंथावचूरि लिखवाया श्री राजप्रश्नीय वृत्ति लिखवाया
2301
1597 | महिरी
ऊकेशवंश
पं.विनयराज मुनि
प्र.सं.
2302
| गुरूदे
तपा श्री सोमसुंदरसूरि
प्र.सं.
2303 | 1502
| नारू, वरसिणि साई
मुनिसुंदर
2304 | 1501
प्र.सं.
माजाटी, सोनाइ
आदि | लइतलदेवी
लावण्यशीलगणि को | प्रदान किया श्री रत्न शेखरसूरि
2305
1515
ऊ.वंश
चतुर्विशतिप्रबंध श्री हरि विक्रम प्र.सं. चरित्र लिखा नंदीसूत्र सुवर्ण अक्षर में लिखा
प्र.सं. पुष्पमालाप्रकरणम श्री पिंडनियुक्ति | प्र.सं. ग्रंथ लिखवाया गृहीधर्मरास.59 | जै.गु.क. भाग 1 कडी जंबूस्वामी रास | जै.गु.क. भाग 1
8 IN
2306
1551
मुनि महिसमुद्र गणि
| जसमाई, ललिता, वीराई दुगी
2307
| 1577
कवि जयमल्ल रचित
272273
2308 | 1541 | मणका पठनार्थ
101
101
2309
1526 | वाल्ही पठनार्थ
| जै.गु.क. भाग 1
| 132
अभयकुमार श्रेणिक रास
Page #514
--------------------------------------------------------------------------
________________
492
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
| क्र०
संवत् । श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ/आचार्य
- प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ
आदि श्रीपाल रास | जै.गु.क. भाग 1
2310 | 1597 | मानूबाई पुत्र पठनार्थ | ओसवाल ज्ञा. शाह
गोत्र
चरणनंदनगणि लिखित | कुमारपाल रास | जै.गु.क. भाग 1
2311 | 1540 | पुंजा, जातु, सुता
| कुंअरि पठनार्थ 2312 | 1596 लखा पठनार्थ
पद्महंसगणि लिखित
नेमिरास
जै.गु.क. भाग 1
....
| 133
2313 | 1523 कनकाई पुत्र पठनार्थ
तपा लब्धिमंडन मुनि | मृगांकलेखारास | जै.गु.क. भाग 1
।
लिखित 2314 | 1543 चुनाइ, अमरादे ऊकेशवंश भंडारी पुण्यजयगणि
जिनभद्रसूरि जै.गु.क. भाग 1 पठनार्थ
पट्टाभिषेकरास 2315 | 1539 चमकू, सांभू, पूरी
तपा कमलचारित्रगणिकृत | अभयकुमार जै.गु.क. भाग 1 रूपिणि, वाचनार्थ
श्रेणिक रास 2316 | 1504 | जाई, आधी
पं. तिलकवीरगणि के श्री सिद्धहेम | जै.गु.क. भाग 1 लिए
शब्दानुशासनम् को लिपिबद्ध
किया 2317 | 1520 धर्मि
श्री विशेषावश्यक | जै.गु.क. भाग 1
वृत्ति 2318 | 1582
| पवयणी, सुहावदे | खंडेलवाल साहगोत्र | मुनिहेमकीर्ति को प्रदान रत्नकरण्ड शास्त्र | जै.गु.क. भाग 1 लक्ष्मी जवणदे आदि
किया
लिखवाया
167
63
36
37
36
गोत्र
किया
198
2319 | 1582 कावलदे, लाछी, खंडेलवाल साहगोत्र | ब्रह्मवूच को प्रदान किया | सम्यक्त्व कौमुदी | जै.गु.क. भाग 1 लाडी दमयंती,
लिखवाया करणादे सरो 2320 | 1582 | पूनी, ललतादे, खंडेलवाल
ब्रह्मलाला को प्रदान राजवार्तिक | जै.गु.क. भाग 1 नौलादे बहूसिरि वाकलीवाल किया
लिखवाया 2321 | गुणसिरि, केलू
मुनिविमल कीर्ति को प्रवचनसार प्राभृत | जै.गु.क. भाग 1 प्रदान किया
वृत्ति लिखवाया 2322 | 1577 | श्रीमती, ललतादे खंडेलवाल भौंसा, मुनिधर्मचंद्र को प्रदान प्रवचनसार प्राभृत | जै.गु.क. भाग 1. नमणसिरि
वृत्ति लिखवाया 2323 | 1504 धांधलदे, चमकु प्रा.ज्ञा.
जचंद्रसूरि को प्रदान श्री पार्श्वनाथ | जै.गु.क. भाग 1 स्वश्रेयार्थ
किया
चरित्र लिखवाया 2324 | 1583 पुरी, चोखी, राता, पोखड गोत्र बाई पद्मसिरि के लिए हरिषेण चरित्र
| जै.गु.क. भाग 1 लाडी, सहजू
लिखवाया 2325 सरोज जसो रेवती ने अग्रोत, गर्गगोत्र
मृगांकलेखा प्र.सं दसलाखिणी व्रत
चरित्र उद्यापनार्थ 2326 | 17वीं जयमापठनार्थ हुंडीया गोत्र भुवनसोम रचित उत्तराध्ययन | जै.गु.क. भाग 1 सदी
गीतो 36 2327 | 1725 अखु हस्तु
हेमविजय लिखित जिन
जै.गु.क. भाग 4 खसुस्याला वाचनार्थ
प्रतिमादृढ़करण हुंडी रास
(67 कडी) 2328 | 1738 | राजकुंयरि वाचनार्थ
कनकसेन लिखित रतनपाल रास 3 | जै.गु.क. भाग 4
खंड 34 ढाल
| 1700
156
454
88
।
Page #515
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
2329
2330
2331
2332
2333
2334
2335
2336
2337
संवत्
2344
1749
2345
1795
2346
1742
2347
1722
2348
1745
2338 1739
1732
2339 1753
1752
2340 1713
1711
2341 1742
1751
2342 1756
17वीं
सदी
1726
1736
1711
1785
श्राविका नाम
| रायकुंवरबाई पठनार्थ
कल्याणी पठनार्थ
नांनी वाचनार्थ
लछो पठनार्थ
कपूरबाई पठनार्थ
रहीखाई, सहिजबाई
पूंजी वाचनार्थ
जमकादे
रायकुंवरि पठनार्थ
केसरबाई वाचनार्थ
गुलाबबाई वाचनार्थ
कोडाई पठनार्थ
तेजबाई पठनार्थ
केशर पठनार्थ
सूजा पठनार्थ
देवकीबाई ने लिखवाया
धनादे, तारादे
माणकदे, गंगा, कपुरा ने लिखवाया
जमकादे पठनार्थ
उत्तयदे, लाड़ी, | रतिसुख आदि
वंश / गोत्र
|||||
अग्रवाल
खंडेलवाल सौगाणीगोत्र
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
मुनिलाभविजय लिखित
राजविजयगणि लिखित
पं. सिद्धसोम लिखित
मनोहर लिखित
मुनि सुमतिविजय द्वारा लिखवाया गया
पं. लालजी लिखित
पं. चतुरविजय लिखित
गणि वृद्धिविजय द्वारा लिखित
दयाकमलमुनि रचित
प्रतिमा निर्माण आदि
शालिभद्रमुनि चतुष्पदिका
षालिभद्र धन्ना चौपाई
शालिभद्र धन्ना
चौपाई
चंदनमलयगिरि
चौपाई
गजसुकुमाल रास 30ढाल 500कडी
गजसुकुमाल रास 30 ढाल 500 कडी
वल्कलचीरी रास जै.गु. क. भाग 2
जै.गु.क. भाग 1
जै.गु. क. भाग 1
जै.गु.क. भाग 1
जै.गु. क. भाग 1
जै. गु. क. भाग 1
कुमार रास
द्यकुमार रा
पं. नयसागरगणि लिखित गजसुकुमाल
ऋषि रास 17 ढाल
श्रीपाल रास
श्रीपाल रास
गजसुकुमाल ऋषि रास 17
दाल
श्री महावीर
स्तवनम्
मृगापुत्र कुलक
गाथा 40
श्री आराधना बालावबोध
पंचास्तिकाय
भाषा
श्री मेघकुमार चौपाई
मनसाराम द्वारा लिपकृत ग्रंथ
संदर्भ ग्रंथ
जै.गु. क. भाग 3
जै.गु. क. भाग 3
जै.गु. क. भाग 3
जै.गु. क. भाग 3
जै... भाग 3
जै.गु. क. भाग 3
जै.गु. क. भाग 1
जै.गु. क. भाग 1
जै.गु.क. भाग 1
जै.गु. क. भाग 1
प्र.सं.
प्र.सं.
प्र.सं.
पृ.
106
106
106
182
113
113
387
375
375
141
140
320
320
266
454
238
235
220
493
77
Page #516
--------------------------------------------------------------------------
________________
494
क्र०
2349
2350
2351
2352
2353
2354
2355
2356
2357
2358
2359
2360
2361
2362
2363
2364
2366
संवत्
2368
1794
2369
1502
1507
1512
1561
1523
1509
1529
1507
1522
1518
1519
1530
1362
2365 1576
1565
1575
1579
श्राविका नाम
1582
तुलसा पठनार्थ
लूणादे, देवलदे
सीतादे, वरनू
| स्तहबदे, ह
नार्दू, पलदे, वीरा, पार्वती
दाभा, टबकू, रत्नादे,
बनादे
सशु. रत्नू हरशू
मोहाणि, लाशणदे
वारू
प्रतापदे, सुरमा
पार्वती
गणी
पाचु पुहती, मातर
2367 1579 पद्मसिरी, हेतु
सदमाई, पठनार्थ
धरण, नीनू
बाई, पार्वती
चाहू
खातू
1581 कवलादे
बाई मोली
वंश / गोत्र
श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री
श्री. श्री
उस. ज्ञा
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उकेश ज्ञा. आदित्यगोत्र
उप. ज्ञा.
श्री. श्री. वंश
उप. वंश
गंगवाल गोत्र
खंडेलवाल टोग्या
गोत्र
टोंग्या गोत्र
खंडेलवाल साह
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
हेमरत्नसूर, आगम.
रत्न शेखरसूरि तपा.
पजून्नसूरि
तपा. हेमविमलसूरि
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
पुष्पचंद्रसूरि
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
सूर
कनकसूरि
जसकेसरीसूरि, अचल
लावण्यसमय कवि ने रची थी
| अचल सावसागरसूरि
जसहर चरिउ
मसण पराजय
सिद्धचक्र कथा
श्रीपाल चरित्र
ताम्रयंत्र
रत्न करण्ड
प्रतिमा निर्माण आदि
श्रीकुमार चरित्र
विमलनाथ पंचतीर्थी
अनंतनाथ
विमलनाथ
मल्लिनाथ
शांतिनाथ
कुंथुनाथ
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
कुंथुनाथ
जै.स्क.इ.वे. म्यु
मुनिसुव्रतस्वामीच जैस्क.इ.वे. म्यु
तुर्विंशति
धर्मनाथ
जै.स्क. इ.वे. म्यु
सुमतिनाथ
संदर्भ ग्रंथ
प्र.सं.
पद्मसिरी को भेंट दी
मंडलाचार्य धर्मचंद्र
जै..इ.वे. म्यु
जै.स्क.इ.वे. म्यु
जै.स्क.इ.वे.म्यु
मुनि हेम कीर्ति को भेंट
यशोधर चरित्र की प्रति
शास्त्र लिखवाया जै. ग्रं. भ. इन.ज.ना
जै.स्क.इ.वे. म्यु
जै.स्क.इ.वे.म्यु
जै..इ.वे. म्यु
आदिनाथ विनंती एं.ले.सं.
अजितनाथ चौबीस जिनपट्ट
म. रा. जै. ध.
भ.पा.प. इ.
भट्टा प्रभाचंद्र को ख. जै. स. बृ.इ.
प्रदान की थी
ख. जै. स. बृ.इ.
भ.पा.प. इ.
ख. जै.स.बृ.इ.
ख.जै.स.बृ.इ.
ख. जै.स.बृ.इ.
ख. जै.स. बृ.इ.
पृ.
272
34
35
34
38
38
35
36
36
36
119
72
165
340
203
ཚོ། རྦུ། ཚོ
172
142
147
Page #517
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
क्र०
2370
2371
2374
2372 1590
2375
2377
2373 1595 सुनावत
2379
2376 1595
2381
2382
2383
संवत्
2384
1583
1708
2378 1722
2385
2386
2387
1590 तौला
2388
1595
1595
17वीं
सदी
1756
2380 1757 मानी
18वीं
सदी
1826
1883
1897
1899
19वी
षती
1967
श्राविका नाम
1507
गौरी
1509
तोलादे
कमलश्री
कोइल
धमला, धनश्री,
सुनरखत
लाधाजी
चामी, रूकमा मन्नी हरिकंवरी राजबाई आदि
भीवसादे
नंदादे
कवियित्री चंपाबाई
तेजकरण
इच्छाकोर
सरूपा बाई
बडी बाई
माल्लू
उनी, सुतोशता, गोमति
वंश / गोत्र
बाकलीवाल
बाकलीवाल
अग्रोत
श्री. श्री. ज्ञा.
दीवान नंदलाल गोथा की पत्नी
टोंग्या गोत्र
नागरवणिक
प्रा. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
दसलक्षण यंत्र
संभवनाथ चैत्यालय
शांतिनाथ काताम्रयंत्र
पज्जुण चरिउ
आदिनाथ का विशाल
मंदिर
प्रद्युम्न शास्त्र लिखवाया
पंचास्तिकाय ग्रंथ लिखवाया
सुकुमाल चरित्र
तपा श्री ज्ञानविमलसूरि
पंच कल्याणक
चंपाशतक की रचना की थी
पं. भाणचंद
बेखरसूरि
कुंदकुंदाचार्य
प्रतिमा निर्माण आदि
मंडलाचार्य धर्मचंद्र
पार्श्वनाथ
ख.जै.स.बृ.इ.
आर्यिका विनयश्री ख. जै. स. बृ.इ.
पठनार्थ
ख. जै.स.बृ.इ.
जै. ग्र.भ.इ.ज.ना.
यंत्र बनवाया
संभवनाथ
धर्म शाला का निर्माण मंदिर के पास किया
पदमावर्ती मूर्ति
श्री श्रीमाल सज्झाय
चंद्रप्रभु
संदर्भ ग्रंथ
ख. जै. स. बृ.इ.
भ. श्री अजितनाथ जी
ख. जै.स. बृ.इ.
जै.ग्र.भ.इ.ज.ना.
प्र. जै.ले.सं.
नया मंदिर धरमपुरा दिल्ली
ख. जै.स. बृ.इ.
प्र. जै.ले.सं.
ख.जै.स.बृ.इ.
ख.जै.स.बृ.इ.
म. जै. वि.सु.म.ग्रं.
भ.सं.
जैनी. इ. काव्य संग्रह
म.दि.जै.तीर्थ. उ
भ. श्री संभवनाथ म.दि.जै.ती.र्थ.उ
जी
म.दि.जै.ती.र्थ. उ
148
148
172
150
133
75
ہے
74
226
103
26
129
93
191
156
29
292293
29
495
Page #518
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत् | श्राविका नाम
वंश/गोत्र
|
पृ.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि आत्म श्रेयार्थ
भ. श्री
म.दि.जै.ती.र्थ.उ शीतलनाथ जी
वीर वंशी
2389 | 1513 | काऊ, चादरी,
तिलीतयो
.2390 | 1513 | तिलीतयो
प्रा. ज्ञा.
आत्म श्रेयार्थ
भ. श्री आदिनाथ म.दि.जै.ती.ई.उ
23011529
टीबू, पूरी, लाढी
प्रा. ज्ञा.
| लक्ष्मीसागरसूरि तपा
भ. श्री कुंथुनाथ
म.दि.जै.ती.ई.उ
| 30
श्री. ज्ञा.
| बुद्धिसागर सूरि
2392 | 1536 | कामलदे, चली,
नामला 2393 | 1542 | लीलादे, जालू
कुंथुनाथ पंचतीर्थी
| म.दि.जै.ती.ई.उ
प्रा. ज्ञा.
भावदेवसूरि
भ. श्री शीतलनाथ जी
म.दि.जै.ती.र्थ.उ
29
2394
| 1559 | अमरी पाती
प्रा. ज्ञा.
गुणचंद्रसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत | म.दि.जै.ती.ई.उ
39
2395
1532 | बाई षाणी
लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री
| म.दि.जै.ती.ई.उ
सुमतिनाथ जी
2396
1580 | तारू कील्ह लीलादे
भ. श्री कुंथुनाथ | म.दि.जै.ती.र्थ.उ
उपकेष ज्ञा बद्रमान | जिनहर्शसूरि गोत्र अग्रोत, गर्ग गोत्र जयमित्र लिखित
जी
2397
1600
वर्धमान काव्य | प्र.सं.
186
राणी भोभा, भागो कपूरी आदि ने स्वपठनार्थ लिखा
162
2398 | 1548 वानू, कीकी, ललतू प्रा. ज्ञा.
धर्महंस गुरु
श्री शांतिजिन |प्र. सं. अरधू वानू
चरित्र लिखवाया 2399 1612 मदना, स्वरूपदे खंडेलवाल छाबड़ा श्री ललिकीर्ति को प्रदान यषोधर चरित्र | प्र. सं. सुहागदे वाली, व्रत गोत्र
|किया उद्यापनार्थ 2400 1603 होडी नेमी लाडी खंडेलवाल
चंद्रप्रभ
प्र. सं. रोडी गुजरी आदि ने
लिखवाया 2401 11636 फूलमदे लूणांदे खंडेलवाल, पहाड्यो बाई श्री करमाई ने धनकुमार चरित्र | प्र सं.
लिखा
लिखवाया 2402 1700 सरोज जसो रेवती ने | अग्रोत, गर्गगोत्र
मृगांकलेखा प्र.सं. दसलाखिणी व्रत
चरित्र उद्यापनार्थ 2403 | 1632 | बांहू, टिबू नेमी आदि
श्रीपाल चरित्र प्र. सं.
108
गोत्र
179
2404 | 1631
श्रीपाल चरित्र
प्र. सं.
करणादे भावलदे मुक्तादे आदि असलदे केसरीदे आदि ने षोडषकारण
2405
| 1677
प्र. सं.
श्रीदेवेंद्रकीर्ति को प्रदान | सदर्षन चरित्र किया
लिखवाया
Page #519
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
संवत् । श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ/आचार्य
- प्रतिमा निर्माण
आदि
संदर्भ ग्रंथ
उद्यापनार्थ
2406
| 1631
वर्धमान चरित्र
प्र. सं.
170
| रानादे, लाली, हीरादे,
आदि
दषकलाक्षणिक व्रत निमित मुनि को भेंट
किया
2407
|1665
| भट्टा.देवेंद्रकीर्ति को प्रदान किया
भक्तामर स्तोत्र
प्र. सं.
वृत्ति
सिंगारदे नारंगदे | खंडेलवाल सौगणी लाडमदे त्रिभुवनदे गोत्र सिंगारदे पाढ़मदे, नुनसिरि, खंडेलवाल गोधा सरूपदे लहुडी, आदि | गोत्र
2408
1637
| योग्य पात्र को प्रदान किया
| प्र. सं.
132
| पंचास्ति कायप्राभृत ग्रंथ लिखवाया
2409
1884
नानी पठनार्थ
जीवाऋषि ने बनवाया
प्र. सं.
195
2410 11656
जीवविचार प्रकरणम् श्री आचार दिनकर धर्मपरीक्षा
प्र. सं.
157
2411
1666
प्र. सं.
19.21
2412
| 1630
यषोधर चरित्र
|प्र. सं.
24131632
सुदर्षन चरित्र
प्र. सं.
190
| रेखश्री अमृतदे,
कल्याणोधि सूरि को सुवर्णश्री
प्रदान किया कवलादे, तिलकादे, गंगवाल गोत्र मुनिगुणचंद्र को प्रदान तिहुसिरि बेगमदे
किया दूलहदे, लखणा, खंडलवाल ब्रह्मरायमल को प्रदान ईसरदे साहिबदे | पाटनीगोत्र किया राजी देउ बोखी । खंडेलवाल हेमचंद्र द्वारा रचित | हीरादे लाडमदे आदि ने लिखवाया चौसरदे दुर्गादे खंडेलवाल
आचार्य भाभुचंद्र को भावलदे हर्षा आदि ने
प्रदान किया लिखवाया भीला गूजरि खंडेलवाल, अजमेरा | ललितकीर्ति ने लिखा सोभागदे मुक्तादे गोत्र आदि ने लिखवाया । जयमापठनार्थ | हुंडीया गोत्र | भुवनसोम रचित
2414 | 1661
यषोधर चरित्र
प्र. सं.
50.51
2415
|1610
यषोधर चरित्र
प्र. सं.
163
2416
| 1654
| जै.गु.क.भा 1
उत्तराध्ययन गीतो 36 बारह व्रत की सज्झाय (68कडी)
2417 | 1660 | मेलाई पठनार्थ ।
तपा विनयचंद्र
| जै.गु.क.भा
2
389
2418
1855
जीउ श्रेयार्थ
खरतर गुणविनयवाचक
बार व्रत जोड़ी | जै.गु.क.भा 2
215
2419 | 1638 | रामबाई पठनार्थ
अमृतविजयलिखित
शत्रुजयरचना
| वही.
2420
| 1636 | सुखां पठनार्थ
मुनिमालिका
| वही.
158. 159
2421 | 1697 | रतनबाई पठनार्थ
77.78
पं. भावहर्ष लिखित नेमि राजुल बार | वही.
मास बेल प्रबंध
(77 कडी) पं जीवंरगगणि लिखित | साधु वंदना वही.
2422
1882 | मृगाश्री पठनार्थ
गा.88
Page #520
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत् | श्राविका नाम
वंश/गोत्र
24231657 | बाई सोमा पठनार्थ
327
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि उत्तराध्ययन 36 | जै.गु.क.भा. 1
अज्झाय खरतर श्रीवंत कडवा ऋषभदेवविवाहलु | वही
44ढाल धवलबंध जयसेन चौपाई | जै.गु.क.भा.
1
2424
1615
| वीरा पठनार्थ
312
2425 | 1642 | हरखी पठनार्थ
243
2426 | 1676 | पद्मा पठनार्थ
वही वही
259
रत्नसारकुमार चौपाई श्रावकविधि चौपाई
2427 | 1615 | लालां पठनार्थ
श्री श्री ज्ञा.
वही
309
2428 | 1677 | नयणादे .
आदीष्वर
राज.के.अभि.भा. 2
383
2429 | 1654 | कर्पूरादेवी
ओस ज्ञा. चोपडा |जिनराजसूरी गोत्र ओस ज्ञा. कावडिआ | भामाषाह के भाई पुत्र गोत्र
कपूरचंद पुण्यार्थ मुहणोतगोत्र जयमल की पत्नी
वापी का निर्माण | राज.के.अभि.भा. 2 | 356
2430 | 1683 | सरूपदे
पार्श्वनाथ
राज.के.अभि.भा. 2 | 393
24311638नांनी पठनार्थ
मुनियषसुंदर लिखित
राजय उद्धार रास
जै.गु.क.भा.2
2432
1655 | वछाई, हंसाई
जोसी रणछोड़ लिखित | महाबल रास
| जै.गु.क.भा.2
| 1108
24331659 | वीरो पठनार्थ
जै.गु.क.भा.2
314
2434 | 1686 | माना पठनार्थ
जै.गु.क.भा.2
314
2435
1662 | केसरी पठनार्थ
जै.गु.क.भा.2
314
पं कल्याणमुनि लिखित | सांबप्रद्युम्मन
प्रबंध | जोसी गंगदास लिखित | सांबप्रद्युम्मन
प्रबंध पं. सुमतिसोमगणि दान शील तप लिखित
भावना संवाद विनयवर्द्धनमुनि जिनसिंहसूरि
रास. कडी 65 देवाख्येन मुनिद्वारा अयुमुत्तारास 21 लिखित
ढाल 135 कडी जिनराजसूरि रास (ऐति.)
2436
1668 | चांपा पठनार्थ
| जै.गु.क.भा.2
387
| जै.गु.क.भा.2
2437 | 1683 बाई जीरापुत्री बाई
चोथी पठनार्थ 2438 | 1681 | धारां पठनार्थ
जै.गु.क.भा.2
214
2439 | 1644 | हर्षाई पुत्र लिखित
504
मंगलकलष रास | जै.गु.क.भा.2 पद.339
2440
1686 | मीरादे
कुहाड गोत्र
तपा. विजयसिंह सूरी
पार्श्वनाथ
रा. अ. भा. 2
402
मु. स. धा.नी.जै.सं.
189
2441 | 1644 | जसमाढे, वियलाढे
मथगलदे 2442 | 1686 | पूरां
पार्श्वनाथ, महावीर सुमतिनाथ
तपा. विजयसिंह सूरी
रा.अ.भा. 2
ओस. ज्ञा. सुराणा गोत्र
395
Page #521
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
2443 1686
2444 1677
S
2445
2446
2447
2448
2449
2450
2451
2452
2453
2454
2455
2456
संवत्
2458
2460
1617
2461
1615
1618
1613
1683
1617
1683
1624
1665
1617
1615
1618
2459 1681
1681
1684
श्राविका नाम
सहिता
भोजलदे, चतुरंगदे
धनी, प्रेमी
झमकलदेवी, मिरगादेवी
सोनी देवी
नीनू
2457 1681 चुगतू
रमादे
श्रीबाई, जीवाई
हीरादे
धरणादें, सुजाण, प्रेमलदे
मूनी, रत्नादे, वरीदे
धनी, प्रोमी
झमकलदे, मृगादे
सोनीदे
राजलदे
लाडिमदे
मनरंगदे
जयवंत, सरूपदे सोहागदे
वंश / गोत्र
श्री. ज्ञा. मंडलेचा गोत्र
श्री. ज्ञा. पातापी गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
उस. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
ओस ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा. सोनी गोत्र
राठोड वंष मुहणोत
बोहरा गोत्र
पामेचा गोत्र
उसवाल
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
नारोद्र. ज्ञानसूरी
पूर्णिमा. कमलप्रिय सूरी
तपा. विजयदान सूरी
तपा. विजयदान सूरी
विद्यााचंद्रसूरि
तपा. विजयसोम सूरी
नागेंद्र ज्ञानसागर सूरी
पू. कमलप्रभसूरी
विजयदान सूरी
तपा. श्रीविजयदेव सूरि
तपा. श्रीविजयदेव सूरि
तपा. जयसागरगणि
तपा. श्रीविजयदेव सूरि
प्रतिमा निर्माण आदि
षांतिनाथ नवलखा प्रसाद जीर्णोद्वारा आदि
आदिनाथ
विमलनाथ
चंद्रप्रभु
आदिनाथ
आदिनाथ
सुमतिनाथ
शांतिनाथ
शीतलनाथ
वासुपूज्य
पार्श्वनाथ
विमलनाथ
चंद्रप्रभु
आदिनाथ
मुनिसुव्रतस्वामी
कुंथुनाथ
शांतिनाथ
कुंथुनाथ
कुमारविहार में
महावीरचैत्य
संदर्भ ग्रंथ
रा. अ.भा. 2
रा. अ.भा. 2
जै.पु.ले.सं.
जै.पु.ले.सं.
जै.प्र.ले.सं.
जै.प्र.ले.सं.
जै.प्र.ले.सं.
जै. प्र.ले.सं.
3
जै.प्र.ले.सं.
जै. प्र.ले.सं.
जै. प्र.ले.सं.
जै.प्र.ले.सं.
जै. प्र.ले.सं.
जै.प्र.ले.सं.
स्वर्ण गिरि जालोर
स्वर्ण गिरि जालोर
स्वर्ण जा.
स्वर्ण जा.
स्वर्ण जा.
पृ.
401
381
382
73
810
79
99
97
142
138
177
179
201
209
499
208
Page #522
--------------------------------------------------------------------------
________________
500
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
| संवत् | श्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण गच्छ/आचार्य
आदि तपा. जयसागरगणि आदिनाथ
2462 | 1681 |
| जसमादे, सुहागदेवी | मुहणोत
स्वर्ण जा.
2463
1681
तपा. जयसागरगणि
महावीर
स्वर्ण जा.
2464
1681
जसमादे, राजलदे, | कोठारी दाढिमदे, लाडिमदे जयवंतदे, मनोरथदे | मुहणोत,उसवाल सरूपदे, सोहागदे मनरंगदे
पामेचा
तपा. जयसागरगणि
| महावीर
स्वर्ण जा.
2465
सुविधिनाथ
स्वर्ण जा.
2466
| जसमादे, सोहागदे
मुहणोत
आदिनाथ
स्वर्ण जा.
2467
16वीं | केलूई शती
पहाडिया गोत्र
कुमार चरिउ
| ख.जै.स.बृ.इ.
104
2468
लाडा
मुनिधर्मचन्द को भेंट
पासणाह चरिउ | ख.ज.स.बृ.इ.
104
16वीं षती
2469
| 1612 | तीलहू
सोनी गोत्र
नवकार श्रावकाचार
आर्या विजयश्री को भेंट
ख.जै.स.बृ.इ.
109
2470
1816 | सरूपा
| ब्रह्म साहू तरुइराज
महावीर
ओस. ज्ञा. चोपडा गोत्र
बी.जै.ले.सं.
3
2471
1835 | रतनबाई
रेंटीमानी सज्झाय | ऐ.ले.सं
341
पांडव पुराण भेंट की थी | आ. हेमचंद्र को
| ख.जै.स.बृ.इ.
109
| 1636 | लाडमदे, हरदमदे,
षोडषारणव्रत
उद्यापनार्थ | 1637 | स्वरुपदे
2473
गोधा गोत्र
पंचस्तिकाय प्राभृत
ख.जै.स.बृ.इ.
128
2474
| 1653 | पांची
| ऐ.ले.सं.
165
|पं विजयसेनसूरी द्वारा | हीरविजयसूरी
की प्रतिमा नदी वर की धातु मूर्ति
2475
| 1660 | ठाकुरी, रूकमी
बैनाडा गोलीय
ख.जै.स.बृ.इ.
136
2476
1667
युग श्रीजिनचंद्रसूरी
पार्श्वनाथ
युग.प्र.श्री.जि.
250
| अमोलिकद, लखमादे | ओ.फसला गोत्र
लाछलदे | चांपा पठनार्थ
2477
| 1682
पं कीर्ति विमलगणि लिखित
बारहव्रत जोडी । ऐ.ले.सं.
341
24781690 | तेज श्री
सहस्त्रकूट चैत्यालय का निर्माण
.
........
ख.जै.स.बृ.इ.
Page #523
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र० संवत् श्राविका नाम
2479
2480
2481
2482
2483
2484
2485
2486
2487
2488
2489
2490
2491
2492
2493
2495
2496
2497
2494 1518 झबक माधू.
2498
2499
2500
2501
2502
1577 जीविणि, अजीकेन
1503 गोरी, वीरमदे
1588 माणिकदे, खणदे
1559 मणकाई, हरषाई
प्रा. ज्ञा.
कप्रवाई, भीमाई,
ओशवंष
1563 अमरी, हेमाई, धपा, पार्वती ऊकेष. ज्ञा.
1575 रनू जासलदे,
श्री. श्री. ज्ञा.
ऊकेष. ज्ञा.
1506 | जेसू, पानू, कसादे, माणिकदे
1525 | कर्मादे, सुक्तादे, माणिकदे, ओषवंष, आदि
1529 कर्मादे, सिरियादे,
तरंगादे.
1507 जासलदे, भली, माद्री.
1587
1508 साधु, अकाई.
1508 रंगाई.
1569 दृबी, मणकाई, पुनाई.
1509 मेनू.
1513 मापुरि, जीविणि.
1515 भावलदे, लींबी.
1524 लाछलदे, मटकू
झबकू मानू
1510 बहली, चारू, रूपिणि,
1566 संपूरी, पारवती,
1543 | वीडू, हताई.
1505 सिंगारदे, दूदा, देवलदे
1529
वंश / गोत्र
श्री श्री ज्ञा
ऊकेष ज्ञा.
चक्रेष्वरी गोत्र
पलांडागोत्र ऊकेष. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्रीवंष
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
ओस. ज्ञा. छाजहडगोत्र श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य श्री जिनहर्ष सूरि
जयचंद्र सूरि
| श्रीसूरि
श्री विवेकरतन सूरि
श्री वृद्धतपा. श्री विद्यामंड
तपा. श्री इंद्रनंदिसूरि
पूर्णिमासागर दत्तसूरि
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
तपा. श्री लक्ष्मी सागर सूरि
तपा. श्री लक्ष्मी सागर सूरि
श्री सूरि
अंचल राज्यकेसरी सूरि
श्री सुमति रत्नसूरि
श्री सूरि
श्रीसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागर सूरि
चैत्र, श्री रत्नषेखरसूरि
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
जयचंद्रसूरि
तपा. श्री लक्ष्मी सागरसूरि
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
पल्लीवाल, उद्योतनसूरि
तपा. श्री उदयसागरसूरि
तपा. श्री जयचंद्रसूरि
प्रतिमा निर्माण आदि
वासुपूज्य पंचतीर्थी जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री सुपार्श्वनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री शांतिनाथ
जी
अभिनंदन चतुर्विषतिपट्टः
भ. श्री सुपार्श्वनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री शांतिनाथ जी
भ. श्री शांतिनाथ
जी
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्री मुनिसुव्रत
भ. श्री धर्मनाथ
जी
भ. श्री सुपार्श्वनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जी
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री शांतिनाथ
जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री शांतिनाथ
जी
भ. श्री संभवनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री संभवनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री शांतिनाथ जी
भ. श्री चंद्रप्रभु जी जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री आदिनाथ
जी
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जी
भ. श्री आदिनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं. भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
501
पृ.
1
1
2
2
3
3
4
4
4
4
4
4
5
5
6
6
6
7
7
7
7
7
7
7
Page #524
--------------------------------------------------------------------------
________________
502
क्र०
2503
2504
2505
2506
2507
2508
2511
2512
2513
2514
2509 1517 अरघू
2515
2510 1520 रांभ
2516
2517
2518
2519
2520
2522
2523
संवत्
2524
2525
1504
रूदी
1535 धनी, नाकू
2526
1504
2521 1577 राजति.
श्राविका नाम
धारू, कर्म्मणि
1511 मूंजी, करणू जइतू हीरादे ऊकेष, वंष
id
उपकेष. ज्ञा.
ओसवाल ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
1511 सुहवदे, संभलदे
1526 अहिवदे, माणिक,
वंश / गोत्र
1534 नागलदे, सिरिआदे
1553 करमादे, चांपलदे, विमलादे प्रा. ज्ञा.
1512 | जासू, कुंरि
1563 धीमी, कीवाई, सामा, कीवबाई
1515 वासू, माजू, मनू
1573 षितु बगूपुलि (त्रि) का
1515 सोनलदे, रत्नाई
1518 शिवादेवी
1513 वाच्छु, रूपिणि,
1547 पांचा, चमकू, महीया, सोमादि,
1542 जसोदई, पाती..
1570 मालहणदे..
1503 लहक शाणी.
1543 वीजू अधिक
1558 वीजलदे, लषी
ऊकेष. ज्ञा.
ओसवंष, मांडउत्रगोत्र
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ऊकेष. ज्ञा.
ऊकेष. ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
ऊकेष. वंष
ओस. ज्ञा
श्री. ज्ञा.
सांडियागोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा.ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य अंचल, जयकेसरीसूर
तपा. श्री जयचंद्रसूरि
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
ब्रह्माण श्री उदयप्रभसूरि
श्री रत्नसिंहसूर
श्री विमलसूरि
गुणसुंदरसूरि
तपा. श्री उदयसागरसूरिं
श्री सिद्धांतसागरसूरि
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
श्रीसूरि
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
श्री विजय सिंह सूरि
खरतर श्री जिनहर्षसूरि
श्री साधुरत्नसूर
श्री विमलसूरि
श्री विमलसूरि
तपा. श्री हेमविमलसूरि
आगम जिनचंद्रसूरि
आगम षिवकुमारसूरि
तपा. श्री जयचंद्रसूरि
बृहततपा श्री उदयसागर
मुनिचंद्रसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जी
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा. प्र.ले.सं. भा. 2 जी
भ. श्री शांतिनाथ
जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 जी
भ. श्री मुनिसुव्रत
जी
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जी
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी जी भ. श्री महावीर
जी
भ. श्री अनंतनाथ जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री धर्मनाथ
जी
भ. श्रीचंद्रप्रभस्वामी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 जी
भ. श्री धर्मनाथ
जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री
अभिनन्दननाथ जी भ. श्री आदिनाथ
जी
भ. श्री आदिनाथ
जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री अभिनंदन
जी
भ. श्री विमलनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री संभवनाथ
जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 10
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री अजितनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री अजितनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जी
पृ.
9
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
9
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 12
9
10
10
10
10
11
11
12
12
12
12
12
14
25
25
16
17
17
भ. श्री शीतलनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 18
जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2 19
Page #525
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य पूर्णिमा श्री मुनिचंद्रसूरि
2527
1558 | वीजलदे,लड्ढी
ओस.ज्ञा.
प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ
आदि भ. श्री संभवनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 19 | जी
भ. श्री शांतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 19 | जी म. श्री धर्मनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 20
2528
| 1517 | वरजूदेवी,कुतिगदे,अमरी
| | प्रा.ज्ञा.
श्री रत्नसिंहसूरि
25251527 | कपूरी अमरादे,
श्री. श्री. ज्ञा. | श्री रत्नदेवसूरी
2530 | 1549 | डाही,नाथी
ओस,ज्ञा.ध्रुवगोत्र | श्री रत्नसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 20
भ. श्री मुनिसुव्रतस्वामी जी भ. श्री अरनाथ
2531 | 1577 | जीवी, हीरादे
श्रीधनराजसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 20
हुंबड ज्ञा. मंत्रीष्कवरगोत्र श्री. श्री. ज्ञा.
जी
25321516 | जसमादे,आसी,
| आगम श्री हेमरत्नसूरि
भ. श्री
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 21 विमलनाथादि पंच. भ. श्री वासुपूज्य | जै.धा.प्र.ले.सं.भा2 | 21
2533 | 1508 | देमाई, कपूराई
ओस. ज्ञा.
श्री गुणसुंदरसूरि
2534 | 1516 | चांपलदे, हरषू टूबी
हुंबड ज्ञा.
श्री भुवनकीर्ति
2535 | 1525 | रूपिणि, लाकू सहिजलदे | हुंबड, ज्ञा.
विमलेंद्रकीर्ति
भ. श्रीयुगादिदेव जै.धा.प्र.ले.सं.भा.21 21 जी भ. श्री अजितनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 21चतु. भ. श्री वासुपूज्य जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 22
22
| उपकेष. ज्ञा.
संडेर श्री सालेसूरि
2536 | 1521 | लखणी, आल्हणदे 2537 | 1542 | भाकू, जसाई, लखी,
श्री. श्री. ज्ञा.
आगमश्रीसूरि
भ. श्री विमलनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 22
2538
| 1520 | फालू, अमकूसु
प्रा. ज्ञा.
जयकेसरीसूरी
भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
23
2539 | 1511 | पालहणदे, तेजू,
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री गुणसमुद्रसूरी
भ. श्री श्रेयांसनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 23
2540 | 1531 | रूपिणि, अमकू
आ. वीरसेन.....
भ. श्री वासुपूज्य
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 |
24
नारसिंह ज्ञा. हष्दसोहगोत्र श्री श्री ज्ञा.
2541 | 1523 | हाई,नोडी
तपा.श्रीलक्ष्मीसागरसूरी
| भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 24 |
जी
2542 | 1524 | नायकदे,
जिनहर्षसूरी
भ. श्री अंबिकादेवी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 |
खरतर मुहतगोत्र प्रा. ज्ञा.
2543 | 1521 | कर्मादे, फदू, पद्माई
तपा.श्रीलक्ष्मीसागरसूरी
भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जी
2544 | 1532 | वाछपु, हीरादे
तपा.श्रीलक्ष्मीसागरसूरी
भ. श्री आदिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 25
2545 | 1524 | कर्मादे, चाई
श्री. श्री. ज्ञा.
वृहद् तपा.श्रीज्ञानसागरसूरी
भ. श्री शीतलनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 25
2546 |1528 | माकू रही
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री लक्ष्मीदेवसूरी
भ. श्री आदिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 25
2547 | 1510 | हरखू, कउतिगदे,
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री पूर्णचंद्रसूरि
155555FFIFTS
भ. श्री पद्मप्रभु | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 25 जी भ. श्री पार्श्वनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 26
2548 | 1511 | रयणी, चाई,
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री रत्नषेखरसूरी
2549 | 1537 | रांकु, नयणादे
श्री सिंहदत्तसूरी
भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 26
हुंबड ज्ञा. बुधगोत्र
Page #526
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
| क्र० संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य श्री सदगुरू
प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
आदि भ. श्री शीतलनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
2550 | 1564| मानू , लखाई,
श्री. श्री. वंष
26
जी
| 2551 | 1523 | धर्मणि, भर्मादे
श्री. श्री. ज्ञा.
गुणसुंदरसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 26
2552 | 1519 | झबकू , श्रीसू, देपू, मानू | श्री. श्री. ज्ञा. | आगमश्री हेमरत्नसूरि
अजितनाथचतुर्विश | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 26 तिपट्टः भ. श्री अदिनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 27
2553 | 1519 | धर्मिणि
श्री. काणागोत्र | खरतर श्री जिनचंद्रसूरि
जी
2554 | 1513 | लूणादे, खेतू
प्रा. ज्ञा.
तपा श्रीसोमसुंदरसूरि
भ. श्री नमिनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 27 जी भ. श्री मुनिसुव्रत | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 / 27
2555 | 1579 | जीवणी, कूर्माई,
श्री. श्री. ज्ञा. | सुविहितसूरि
2556
| 1583 | पदी, झबकू
ठाकुरगोत्र
ज्ञानकीय, सिंहसेनसूरि
भ. श्री शांतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
28
2557 | 1515 | वर्जू, संपूरी,
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीरत्नषेखरसूरि
भ. श्री विमलनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.27 28
2558| 1518 | संसारदे,
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा. पुण्यरत्नसूरि
भ, श्री कुंथुनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
|
28
2559
1542 | लाडकी, माणिकी,
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री सूरि
भ. श्री अरनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
22
2560 | 1570 | धीरादे, रंगी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
2561 | 1517 | रूई, वाद
तपा. श्री रत्नशेखरसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 22
15
2562
| 1523 | मेचू, नाभलदे
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री रत्नमंडनसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
|
29
| जी
2563 | 1587 | लीलादे
ओसवाल. ज्ञा.
श्री साधुरत्नसूरि
भ. श्री वासुपुज्य
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 30
जी
2564|1507 | माकू, मूजी, अमरी
ओस. ज्ञा.
श्री सुविहितसुरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 30
आदिनाथ पंचतीर्थी भ. श्री वासुपुज्य
2565 | 1531 | भोली, मलहाई
| श्री. श्री. वंष
बृहत्तपा. श्री ज्ञानसागरसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 30
25661522 | अहवदे, अरघू, भावलदे
श्री. श्री. वंष
अंचल. श्री जयकेसरीसूरि
भ. श्रीशीतलनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 31
2567 | 1567 | खीमी, चांदू,
ओएसवंष
अंचलश्री भावसागरसूरि ।
भ. श्री पार्श्वनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 31
दामेंदामेंदामा
2568
1587 | रूपाई,जीवादे,
श्री. श्री. ज्ञा.
आगम श्री शिवकुमारसूरि
भ. श्री वासुपूज्य
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 31
2569
1519 | दूसी,मरगदि
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्रीशांतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
31
2570 | 1576 | राणी, जीवादे,
श्री. श्री. ज्ञा.
आगम श्री आणंदरत्नसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 31
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी जी भ. श्री पार्श्वनाथ
2571 | 1509 | मेलू, मेवू,
श्री. श्री. ज्ञा.
उदयनंदीसूरि
.
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 33
S
2572 | 1525 | अधूंबकी,
श्री. श्री. ज्ञा.
पिप्पल श्री गुणसागरसूरि
भ. श्री नमिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
33
F15
2573
| 1512 | लीलादे, राजलदे,
ऊकेष. वंष
तपा. उदयनंदीसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 33
Page #527
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
2574
2575
2576
2577
2578
2579
2581
2582
2583
2584
2585
2586
2580 1595 नाकू
2587
2588
2589
2590
2592
2593
2594
संवत्
2596
1533 नयनादे, सिरियादे,
पाल्हणदे
1536 संपूरी, हीराई,
1511
2597
1524
1504
वाछू हीरू
1563 कस्तुराई, नाकू
धाऊ,
2591 1520
1530 माणिकदे
1528 हर्ष
1531
श्राविका नाम
कर्मणि, माणिक
1522 अहवदे, अरघु भावलदे
1523 लाडिक, गांगी
1513
कांऊ, पूरी
1551 कुतिगदे, पूगी, माईसु, जसमादे
1598 दीवड़ि, चंगाई
1530 लीलसु, सताई
1509 पची, तिलू
गउरि, वल्हादे
1561 रंगाई, अरघाई
1563 रत्नाई, लकू
1598 करमी, देवलदे, सोभागिणि
2595 1520 धांधलदे
1549 टबकू वल्हादे
1521 चांपरसिरि, सीतादे
वंश / गोत्र
ओस. ज्ञा. बाफना
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
उकेष दंष
उकेषभंडारी गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
ऊकेष दंष ढीक गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्रीवंष
वायड़ ज्ञा.
वीरवंष
वायड़ ज्ञा.
मोढ़ वंष
श्री. श्री. ज्ञा.
डाभिलागोत्र प्रा.
ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
ऊकेष आंबलिया
गोत्र
उपकेष. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
श्री देवगुप्तसूरि
श्री विमलसूरि
श्री लक्ष्मीसागरसूरि
आगम. देवरत्नसूर
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
तपा. श्री सोमदेवसूरि
पूर्णिमा, श्रीपुण्यरत्नसूरि
श्रीसुविहितसूरि
तपा. विजयदानसूरि
नाणावाल श्री धनेष्वरसूरि
वृद्धतपा. श्री उदयसागरसूरि
ओस. ज्ञा. गांधी गुणसुंदरसूरि गोत्र
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री अरनाथ जी
बृहत्त तपा. श्री ज्ञानसागरसूरि भ. श्री पार्श्वनाथ
जी
अंचल जयकेसरीसूरि
खरतर श्रीजिनहंससूरि
तपा. भट्टा विजयदानसूरि
पूर्णिमा. देवेंद्रसूरि
खरतर श्रीजिनचंद्रसूरि
नागेंद्र. श्रीहेमरत्नसूरि
अंचल. श्रीजयकेसरीसूरि
आगम. मुनिरत्नसूरि
अंचल श्रीजयकेसरी सूरी
तपा. श्री हेमविमलसूरि
तपा. श्री विजयदानसूरि
भ. श्रीशीतलनाथ
जी
भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ
जी
भ. श्री नमिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 34
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री सुमतिनाथ जै. धा. प्र.ले.सं. भा. 2 जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्रीशीतलनाथ
जी
भ. श्रीशांतिनाथ
जी
भ. श्री संभवनाथ
जी
भ. श्री धर्मनाथ जी
भ. श्रीशांतिनाथ
जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी जी भ. श्रीशीतलनाथ जी
भ. श्री विमलनाथ जी
भ. श्रीधर्मनाथ जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्रीशांतिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री पार्श्वनाथ
जी
भ. श्री धर्मनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2 जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
505
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
पृ.
33
34
35
178
178
178
178
179
180
180
180
180
181
181
181
181
181
181
181
181
183
183
184
Page #528
--------------------------------------------------------------------------
________________
506
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य वृद्धतपा. श्रीविजय धर्मसूरि
प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ
आदि
2598 | 1510 | रत्नू, कर्माई
हुंबड़ ज्ञा.
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
185
| भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी जी भ. श्री वासुपूज्य
2599 | 1516 | वरजू , रमाई
श्री. श्री. ज्ञा.
आगम. सिंहदत्तसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
185
जी
2600 | 1576 | धर्मिणी, गंगादे
श्री. श्री. ज्ञा.
वृद्धतपा. श्रीधनरत्नसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 185 जी भ. श्रीशांतिनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 185
2601 | 1509 | रत्नीसु, राभूसु,
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा श्री गुणसमुद्रसूरि
चतु.
2602
1531 | गूजरी, मचकू
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 185 मुनिसुव्रतनाथ जी भ. श्री आदिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 185
2603
| 1510
सजूणि, रामति
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
2604
1532 | रामति, डाही
श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा, साधुसुंदरसूरि
भ. श्री विमलनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 186 जी भ. श्री सुपार्श्वनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 186
2605
| 1529 | मानू, राजू
तपा. विजयरत्नसूरि
15E5I515
2606 | 1518 | माकू
ओ. ज्ञा.
धर्मघोष. श्रीसाधुरलसूरि
भ. श्री अभिनंदन | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 187
26071507 | रूपाई, सिंगारदेवी, हर्षु
ऊ. ज्ञा.
तपा. रत्नशेखरसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 187
2608
| 1518 | सीतादे, वरजू, रामति
प्रा. ज्ञा.
| तपा. रत्नषेखरसूरि
भ. श्री अनंतनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 187
2609
| 1571 तारूसु, माणिकि सारू
ऊकेष. ज्ञा.
सुविहित सुविहितसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
187
2610 | 1529 | टीबू, कुयरि, कमली
श्री. श्री. ज्ञा.
पिप्पल. सर्वसूरि
| भ. श्री कुंथुनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 188
2611 | 1508 | पोमादे, कपूरी, रामति
ऊकेष.
तपा. रत्नषेखरसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 188
जी
2612
| 1509 | सलषू रत्नू हळूपु
| प्रा. ज्ञा.
पूर्णिमा. पुण्यचंद्रसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 189
2613 | 1566 | कउतीपु, सिकूदेपु
ओसवंष
| भावडार, श्रीविजयसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2 |
190
2614 | 1522 | कउतिगदे, लीलादे
| श्री. श्री. ज्ञा.
संडेर. सालिभद्रसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 190
भ. श्री आदिनाथ जी भ. श्री पार्श्वनाथ
2615 | 1573 | धाऊ, मरगदि, लीला
श्री. श्री. ज्ञा.
बृहत्तपा, श्री उदयसागरसूरि
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
35
26161570 | अरधू, नाई,
उप. वंष
श्री सावदेवसूरि
455
भ. श्री आदिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 36
2617 | 1508 | मल्ही
श्री. श्री. ज्ञा.
आगम. देवरत्नसूरि
भ. श्रीशांतिनाथादि | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 36 चुतर्विषंति भ. श्री पार्श्वनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 36
2618 | 1508 | महणश्री
श्री कक्कसूरि
उप. ज्ञा. सूरूआगोत्र श्री. श्री. वंष
ME5IF |
2619 | 1567 | मानूं, जीवी
बृहत्तपा. श्रीसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभु जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
उकेष, दवडा गोत्र
| खरतर, श्री जिनचंद्रसूरि
भ. श्री अजितनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
2620 || 1538 | देल्हणदे, धारू, पद्माई,
कपूराई 2621 | 1518 | रूपिणि, रमकू
37
जी
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
म. श्री वासुपूज्य
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जी
Page #529
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र० संवत्
2622
2623
2624
2625
2626
2627
2628
2631
2632
2633
2634
2629 1567 पोई, नानी, अजाई
टमकू वीरी
1506 सूल्ही, सलषु
1536 कुतिगदे, धारा, देई
1566 डाही
1592 हर्षादे, जीवादे,
2630 1584
2636
1511 जालहणदे, वारू
1525 साधू
2639
1527 गंगादे, नागलदे
1528 मचकू
2635 1567 हांसी
1512 देमई,
2641
1508 कपूरदे, सोउ
1558 पूरी, सुपारना
मल्हाई
1524
2637 1571
हीरू, माणिकदे
शमति, नाथी
1525 चांपलदे, सहिजलदे, वइजलदे 2640 1521 टबकू रामा, जीविणी
1509 चंगाई
2644
2638 1544
2645
श्राविका नाम
2642 1580
2643 1525 रमादे
श्री बाई
1530 | सूहवदे, सहिजलदे
1526 करणु चमक
वंश / गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
गउरीयागोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
ऊसवंष
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
गूर्जर ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. वंष
श्री. श्री. ज्ञा.
दायड ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
पूर्णिमा साधुसुंदरसूरि
वृद्धतपा. श्री ज्ञानसागरसूरि
श्री नन्नसूरि
अंचल श्री जयकेसरीसूरि
प्रति श्री इन्द्रनंदिसूरि
तपा. श्री ज्ञानसागरसूरि
तपा. श्री विजयहेमगणि
वृहत्तपा, श्री सौभाग्यसागरसूरि
पूर्णिमा श्री गुणसुंदरसूरि
श्री देवप्रभसूरि
तपा. श्री हेमविमलसूरि
ब्रह्माण / सूरि
तपा. श्री जयकल्याणसूरि
पीपल / श्री गुणरत्नसूर
श्री सूरि
आगम श्री जिनचंद्रसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
श्री जिनचंद्रसूरि
श्री सूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
वृद्वतपा. ज्ञानसागरसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्रीशांतिनाथ
जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्रीशांतिनाथ
चतु
जै.धा. प्र.ले.सं. भा. 2
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी
भ. श्री पद्मप्रभु जी जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री चंद्रप्रभ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 38
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 38
भ. श्री पार्श्वनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जी
भ. श्री धर्मनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 39
भ. श्री अजितनाथ
जी
भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्री अंबिका देवी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा. प्र.ले.सं. भा. 2 जी
भ. श्री पार्श्वनाथ
जी
भ. श्री सुपार्श्वनाथ जै.धा. प्र.ले.सं. भा. 2 जी
भ. श्री अजितनाथ
जी
शांतिनाथ चौबीसी चतु.
भ. श्री विमलनाथ जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री आदिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री कुंथुनाथ चतुर्विंशति
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री सुमतिनाथ जी
भ. श्री विमलनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
507
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
पृ.
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
37
37
38
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 40
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
38
388
39
39
39
40
40
40
40
40
|
42
43
43
43
44
44
44
Page #530
--------------------------------------------------------------------------
________________
508
क्र०
2647
2648
2649
2650
2651
2653
2654
2655
2652 1552
2656
2657
2658
2660
2661
2662
2664
2665
2659 1537
2666
2667
संवत् श्राविका नाम
1523 सुहवदे, मरगदे
2668
1529 सुल्हा
2669
1535 रूपी
2663 1525
2670
1537 लाछू, वल्हादे, आसीठ आदि
1503 कुतिगदे
1549
1506
1556 तेजू, कता
1587 धर्मणि
1518 लापू, हांसलदे,
1525 | मजू, हांसी, माजू
बदा, ललाई,
1592 पहुती, वीरूपु रमादे
1522 लीलादे, सोमी,
1578 षोषी, मेलादे
1505
1559
1576
आयूसु, जानूसु
ललनू जसिबा
जलदे, कुरमाई
1556
कमलश्री, पुन्नी, केलू
1525 खेतू, लाडी
1533
लष्मादे
अपूरव,
जाकु
रामति, कस्तुरी,
1503 रत्नाई
लाली, दमति,
वंश / गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
वायड ज्ञा.
श्री. श्री.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
हींगडगोत्र
श्री. श्री. झा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
ओस ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
मलधार श्री गुणनिधानसूरि
पिप्पल. श्री धर्मसागरसूरि
वृद्वतपा श्री विजयरत्नसूरि
जयचंद्रसूरि
आगम. श्री सोमरत्नसूरि
श्री बीलगुणसूरि
आगम. सिंहदत्तसूरि
तपा. श्री हेमविमलसूरि
अंचल. गुणनिधानसूरि
भट्टारक धनप्रभसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
पूर्णिमा. श्री गुणमेरूसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
आगम. विवेकरत्नसूर
उपकेष. श्री कक्कसूरि
पिप्पल श्रीविजयदेवसूरि
तलाझीया श्री षांतिसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
पूर्णिमा, श्री सुमतिरत्नसूरि
विमलसूर
श्रीरत्नसिंहसूर
आगम. श्री देवरत्नसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्रीशांतिनाथ
जी
भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जी
भ. श्री धर्मनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्रीशांतिनाथ जी
भ. श्री सुमतिनाथ पंचतीर्थी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री संभवनाथ
चतु
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री आदिनाथ
जी
भ. श्री धर्मनाथचतुर्मुख भ. श्री वासुपूज्य जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री कुंथुनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री सुपार्श्वनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जी
भ. श्रीशीतलनाथ
चतु
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री संभवनाथ चतु.
भ. श्री सुमतिनाथ जी
भ. श्री सुमतिनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 47
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
पृ.
44
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
45
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
45
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
45
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
45
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 49
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
45
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 49
47
47
48
48
भ. श्री कुथुनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री धर्मनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 51
भ. श्री वासूपूज्य जी
49
49
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 51
50
50
51
51
52
52
52
Page #531
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र० संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रतिमा निर्माण
| संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
आदि
2871 | 1529 | नाथी
प्रा. ज्ञा.
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 52
भ. श्री मुनिसुव्रत | जी भ. श्रीशांतिनाथ
2672 | 1565/ माल्हणदेवी
श्रीगुणाकरसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 53
2673|1524 कील्हणदे, धनाई,आदि
| उप. ज्ञा.
चैत्र श्री रामचंद्रसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ
।
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 53
2674 | 1532 कीकी,
ऊकेषवंष,
खरतर श्री जिनहर्षसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
53
2675
1515 | माणिकदे, चंगाई
प्रा. ज्ञा.
श्री जिनरत्नसूरि
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 53 ||
2676 | 1508 | देवलदे, कर्माई
प्रा. ज्ञा.
श्री सिंहदत्तसूरि
भ. श्री कुंथुनाथचतुर्विषति भ. श्री कुंथुनाथ जी भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी जी भ. श्री पद्मनाथ जी भ. श्री आदिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 53
श्री. ज्ञा.
तपा, श्री सुमतिसाधुसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 53
2677 | 1567 | माकु, सापा, षाणी, सांगू
आदि 2678 | 1526 | गुरी, माणिकी
| तपा. श्री सोमजयसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2] 54
जी
2679 | 1579 | कुंअरि, रंगादे.
| हुंबड ज्ञा.
| श्री सौभाग्यसागरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
54
2680
1526
धारू, हुंडी
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा श्री जयचंद्रसूरि
भ. श्री अभिनंदन
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
55
2681 | 1512 | धारू
हुंबड
बृहत्तपा. श्री विजयधर्मसूरि
भ. श्री विमलनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 55
2682 | 1508 | षेतलदे, जइतू,
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
भ. श्री अभिनंदन
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 55
2683 | 1555 | बकू, अकू
श्री. ज्ञा.
तपा. श्री हेमविमलसूरि
भ. श्री नमिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 55
जी
2684 | 1584 | नाथी, पूतलि
श्री. ज्ञा.
तपा. श्री सौभाग्यहर्षसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
55
भ. श्री मुनिसुव्रत चतु. भ. श्री संभवनाथ
2685 | 1544 | पची, वरण, डाही, रत्लादे
| हुंबड ज्ञा.
वृद्धतपा. श्री धर्मरत्नसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
55
जी
2686
1509 | कमलादे, रंगाई
प्रा. ज्ञा.
आगम. देवरत्नसूरि
2687 | 1521 | सरसई, माणिकदे,
श्री. श्री. ज्ञा.
बृहत्तपा. श्री उदयवल्लभसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 56 चतु. भ. श्री विमलनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2 56 चतु. भ. श्री सुविधिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 57
2688 | 1556 | हांसी, गुरी, कुतिगदे
श्री. श्री. ज्ञा.
| श्री हेमविमल सूरि
2689 | 1543 | जीवादे, ऊमादे, गुरी
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा श्री लक्ष्मीप्रभसूरि
भ. श्री आदिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 57
2690
1541 | कुअरि, देमति
श्री. श्री. ज्ञा.
श्रीभावदेवसूरि
भ. श्रीशीतलनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 57
2691 | 1578 | लपी, पूराई
| आगम. विवेकरत्नसूरि
| भ. श्री संभवनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 |
2692 | 1503 | फडू, चांपू
श्री. श्री. ज्ञा.
आगम. हेमरलसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 57
2893
| 1561 | नामलदे, पद्माई
श्री. श्री. ज्ञा.
वृद्वतपा. भट्टारक श्री धर्मरत्नसूरि | भ. श्री धर्मनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 58
28941554 रूडी, मणकई
श्री. श्री. ज्ञा.
| पिप्पल, श्री षांतिसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 58
भ. श्री शीतलनाथ | पंचतीर्थी
Page #532
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य आगम, हर्षातिलंकसूरि
प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ
आदि
1508| अरघू
श्री. श्री. ज्ञा.
भ. श्री श्रेयांसनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
58
2696 | 1512 | वांछू, आसि
श्री. ज्ञा.
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 59
| 1536 | नामलदे, सिंगारदे,
| श्री जिनचंद्रसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 59
ऊकेष. वंष. छाजहड श्री. श्री. ज्ञा.
2698 | 1542 | रंगाई, इंद्राणि
वृद्वतपा. श्री उदयसागरसूरि
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 59
भ. श्री अनंतनाथ | जी भ. श्री आदिनाथ
2699 | 1584 | वलहादे, लाडी
श्री. श्री.
आगम श्री षिवकुमारसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 60
2700
1533 | सांकुसु, अमकसु
वृद्धतपा. उदयसागरसूरि
भ. श्रीशीतलनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 - 60
27011547 | माणिकदे, हीरू
तपा. श्री सुमतिसाधुसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 60
27021595 कील्लाई,
श्री. प्रागवंष
तपा. श्री विजयदानसूरि
भ. श्रीशांतिनाथ | जी | भ. श्री श्री पारसनाथ जी धर्मनाथ. चतु.
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 60
27031513 | हीरादे, ताला,
प्रा. ज्ञा.
| आगम. देवरत्नसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 61
2704 | 1560| आपूपु. पद्माई,
श्री. श्री. ज्ञा.
| वृद्धतपा. श्रीलब्धिसागरसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 61
भ. श्री संभवनाथ जी भ. श्री नमिनाथ
प्रा. ज्ञा.
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
61
2705 | 1523 | मेघादे, हचीपु. 2706 | 1503 | कपूरी, वर्जूसू
जी
प्रा. ज्ञा.
तपा. जयचंद्रसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 61
27071547 | सूदी,
श्री. श्री. ज्ञा.
वृद्धतपा. श्री धर्मरत्नसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
62
भ. श्री सुमतिनाथ जी भ. श्री संभवनाथ चतु. भ. श्रीशीतलनाथ जी भ. श्री वासुपूज्य जी -
2708
श्री. श्री. ज्ञा.
अंचल श्रीसिद्वांतसागरसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 62
| 1542 | माणिकी, रूडी, परवूसु,
रूपाई | 15197 मेचू, सारू, माणिकदे
ऊकेष, ज्ञा.
श्रीदेवसुंदरसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
63
2710 | 1542 | गुरीपू नाथी, धाई, माणिकदे | प्रा. ज्ञा.
पूर्णिमा श्रीगुणतिलकसूरि
भ. श्री विमलनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.भा.2
सदा
27111557 | गंगादे, सौभागिणि,
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा श्री गुणतिलकसूरि
भ. श्रीशीतलनाथअजै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 63
2712
| 1511 | गोमति, वासुसु, रही,
| पूर्णिमा. गुणसमुद्रसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 65
भ. श्री मुनिसुव्रत चतु. भ. श्री पार्श्वनाथ
2713 | 1563 | विजलदे, भावलदे
| श्री. श्री. ज्ञा.
नागेंद्र. रत्नसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
65
2714 | 1519 | कणकू सुहागदे
श्री. वंष
खरतर. जिनचंद्रसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 65
भ. श्री कुंथुनाथ जी भ. श्री पार्श्वनाथ
2715 | 1595 | भरमादे, इंद्राणी,
| श्री श्री. ज्ञा.
| तपा. विमलआनंदसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
65
2716 | 1522 | चनूपु, चाईपु
श्री. श्री. ज्ञा.
तपा. श्री सोमदेवसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
65
2717 | 1587 | अजी, नाकू
ओसवंष
वृद्धतपा. श्री विद्यामंडनसूरि
भ. श्री अजितनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
66
27181525 | वीरू, पावूपु
वायड ज्ञा.
श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री संभवनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 66
चतु.
Page #533
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
2719
2720
2721
2722
2723
2724
2725
2726
2727
2728
2729
2730
2731
2732
2734
संवत्
2737
1518 अमरी, रत्नाई
1521 ललतादे, देकू, आसी, आदि
1512जासू, रत्नादि
1597 | मरघाई, टांकू
जीवादे, कुंअर
1597
1523
2740
2733 1515 रूदी
2741
1522 चांदूपु, भोली,
1559 सुहागदे, देवलदे
1506 | टीबू, मटकू
1561
2735 1534
डाही
माणिकदे, लाच्छी
1528 रांभू लहिकू षहादे
1515 हर्षु, देवसी
1561 ऊछी, उपाई,
1508 कर्मादे, माणिकादे, राजलदे
श्राविका नाम
1520 देवलदे, देमति
2736 1507 महगलदे, चाई
सहामणि,
1552 षाणी
2738 1573 भावलदे
2739 1578 साधु, माणिकदे,
1530 वाणी, रूडी
1518
नामलदे, रणक
वंश / गोत्र
ओस ज्ञा. धन्नागोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. वंष
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
वायड ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
गुर्जर ज्ञा. साहुगो
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा. अंबाई गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य बृहद्मलयचंद्रसूरि
पिप्पल. रत्नदेवसूरि
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
सर्वसूरि
सर्वसूरि
तपा. श्री रत्नमंडनसूरि
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
तपा. श्रीलब्धिसागरसूरि
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
वृद्धतपा, श्री लब्धिसागरसूरि
अंचल. जयकेसरीसूरि
वृद्धतपा श्री जिनरत्नसूरि
तपा श्री हेमविमलसूरि
तपा. श्रीरत्नषेखरसूरि
आगम, श्री हेमरत्नसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
खरतर श्री जिनहर्षसूरि
पूर्णिमा. गुणसुंदरसूरि
पीपल. श्री देवप्रभसूरि
आगम, सोमरत्नसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
पूर्णिमा. श्री जयचंद्रसूरि
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्रीशांतिनाथ
जी
भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्रीशांतिनाथ जी
भ. श्री अजितनाथ जी
भ. श्री मुनिसुव्रत जी
भ. श्री विमलनाथ
जी
भ. श्री अजितनाथ जी
भ. श्री अजितनाथ जी
भ. श्री सुमतिनाथ जी
भ. श्री पार्श्वनाथादि. पंचतीर्थी जी
भ. श्री आदिनाथ
चतु.
भ. श्रीशांतिनाथ जी
भ. श्रीशांतिनाथ पंचतीर्थी
भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री सुमतिनाथ जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री कुंथुनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 66
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 66
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 67
511
पृ.
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 67
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 68
भ. श्री अनंतनाथ जी
भ. श्री
वासुपज्यचतुर्मुख भ. श्री धर्मनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 70
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 68
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 68
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 68
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
67
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
67
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 69
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
688
70
70
70
71
71
71
71
72
72
72
Page #534
--------------------------------------------------------------------------
________________
512
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र० संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
प.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
प्रतिमा निर्माण
आदि
2742 | 1525] करणू रंगी
भ. श्री वासूपुज्य जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 , 72
जी . भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2 72
2743
1568 ] मानूसु, लष्माई
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा श्री लक्ष्मीसागरसूरि
2744 | 1523 | धारू, ठूसी, संपूरी, कलू
।
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री विमलनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
73
2745 | 1533 | भार्याभाई, डाही
ऊकेष, मांई
खरतर. श्री जिनवहर्षसूरि
भ. श्री विमलनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
73
ऊकेष ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
2746 1 1537 | धर्मादे, कउतिगदे, जसाई,
सीतादे 2747 | 1509 गरिनारी, सोनाई
भ. श्री सुविधिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 73 जी भ. श्री धर्मनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 / 73
खरतर. श्री जिनसागरसूरि
ऊकेष कादी गोत्र प्रा. ज्ञा.
2748 | 1527 | जाणी, रमकू, वालही
खरतर. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री नमिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 73
2749
1521 | आसूसु, भरमा,
प्रा. ज्ञा.
तपा, श्री लक्ष्मीसागरसूरि
११
भ. श्रीशीतलनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 74
27501580 पुहुति
श्री. ज्ञा.
तपा. श्री हेमविमलसारे
भ. श्री धर्मनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 74
2751
1543 | झाई, रामति
गूर्जर ज्ञा.
| आगम श्री जिनचंद्रसूरि
| भ. श्री सुविधिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 75
जी
2752
| 1520 | रांभूपु, चांपु, वालही
श्री. श्री. वंष
अंचल. श्री जयकेसरीसूरि
भ. श्री
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 75 आदिनाथचतु. जी भ. श्री धर्मनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 75
2753 | 1509 | जसमादे, झबू
| श्री. श्री. ज्ञा.
| पिप्पल, श्री उदयदेवसूरि
2754 | 1513 | सुहडादे, सांतू, गांगी
गुर्जर ज्ञा.
तपा. श्री विजयरत्नसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 75
27551519 | संपूरी
कक्लोल. गोत्र | वद्ध. कमलप्रभसूरि
भ. श्री आदिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 76
2756 | 1509 | सुहागदे
श्री. श्री. ज्ञा. .
धर्मघोष. श्री पद्मोदयसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 76
2757 | 1543 | रूडी, धरण,
श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्रीशीतलनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 76
2758
1531 | भरमादे, कपूरी, गांगी
श्री. श्री. ज्ञा.
पुण्यरत्नसूरि
भ. श्रीशांतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 76
2759 | 1507 | षीमा, सोमलदे आदि
श्री. श्री. ज्ञा.
गुणसमुद्रसुरि
भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
77
2760|1520 | सुहागदे, पल्हाई
ऊकेष. वंष
खरतर जिनहर्षसूरि
भ. श्री आदिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
77
2761 | 1523 | धनी, हर्षा
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री विमलसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 77
2762 | 1570 | वीरू, जीवणी, धारीसु
श्री. श्री. ज्ञा.
| अंचल. भावसागरसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
7
2763 | 1573 | मटकी, पिरियादे
श्री. श्री. ज्ञा.
अंचल. सोमरत्नसूरि
भ. श्री विमलनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 78
2784 | 1531 | भाऊसु, मंदोअरि आदि
|श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा. पुण्यरत्नसूरि
भ. श्री अरनाथादि | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
78
चतु, जी
2765 | 1501 | झटकू, हर्षु सुपूरी, कंपूरी,
तपा. मुनिसुंदरसूरि
भ. श्री अजितनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
78
तेलहरागोत्र
जी
Page #535
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र० संवत
2766
2767
2768
2769
2770
2771
2773
2772 1511
2774
2777
2778
2775 1523
2779
2776 1520
2780
2781
2782
2783
2784
2785
2786
2787
1528 रत्नू, साधू, जीविणी आदि
1595 करमाई
2788
1547 हर्षू, पूती, धनाई, जीवादे, सुहागदे, सकूदे, रमाई आदि
1521 देलहणीदे
1596 गंगादे, माहलण, धर्म्माई
1528 अमक, साधू, कुतिगदे,
2789
1554 साधू
1581
श्राविका नाम
मरगदि
धाका, पद्माई
हीरू, मानू, हीरा
वांऊ, पूरी,
1548 धर्मिणी,
1525 आसू, माणिकदे
1526 झबक नगलदे,
1546 गिरमू,
1505 पूरी, रूपिणि,
1561 लीलादे षीमाई,
1501 कील्हणदे,
1529 सिंगारदेवी, नामलदेवी,
1505 भर्मी, गुरी,
1596 कीबू, मांगू
1513 पूनी, जीविणी
1522 मेचू साधू
1519 नीनू
वंश / गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
बलगोत्र
ऊकेष ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ऊकेष.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री वष फोफलिया गोत्र
पीपाडगोत्र
भगाड गोत्र
प्रा. ज्ञा.
ऊकेष ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य वृद्धतपा. श्री ज्ञानसागरसूरि
तपा. आनंदविमलसूरि
तपा. सुमतिसागरसूरि
कृष्णर्षि. जयसिंहसूरि
तपा. श्री विजयदानसूरि
वृद्धतपा. श्री ज्ञानसागरसूरि
पूर्णिमा. गुणसमुद्रसूरि
आगम. विवेकरत्नसूरि
अंचल भावसागरसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
उप. श्री कक्कसूरि
ब्रह्माण श्री षीलगुणसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
ब्र. श्री सूरि
श्री सुमतिसाधुसूरि
तपा. श्री जयचंद्रसूरि
खरतर श्री जिनहंससूरि
पल्लिकी श्री यषोदेवसूरि
खरतर श्री जिनहंससूरि
तपा. श्री जसचंद्रसूरि
तपा. श्री विजयदानसूरि
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
भट्टा. श्री. सिद्धसूरि
तपा. उदयवल्लभसूरि
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्रीशीतलनाथ
चतु. जी भ. श्री पार्श्वनाथ
जी
भ. श्री नेमिनाथ जी
भ. श्री विमलनाथ
जी
भ. श्री धर्मनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री विमलनाथ जी
भ. श्रीशांतिनाथ
जी
भ. श्री सुमतिनाथ जी
भ. श्री धर्मनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्री नमिनाथ जी
भ. श्रीशीतलनाथ
जी
भ. श्री नमिनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री धर्मनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 79
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री निसुव्रतस्वामी जी भ. श्री मुनिसुव्रतस्वामी जी भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री वासुपूज्य जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री विमलनाथ
जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
$5
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री मुनिसुव्रत
जी
भ. श्री धर्मनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
513
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
पृ.
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
78
79
79
79
79
|
80
81
81
82
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 83
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
82
82
83
83
83
83
84
84
84
85
85
85
85
Page #536
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
| क्र० संवत् |
श्राविका नाम
।
वंश/गोत्र
प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य खरतर श्री जिनभद्रसूरि
आदि
2790 | 1515 | ह—सु, नीती
भ. श्री सुपार्श्वनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 86 जी भ. श्री वासुपूज्य जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 86
2791 | 1516 | जासलदे, अमकू
श्री. ज्ञा.
आगम. देवरत्नसूरि
2792
1527 | धाईसु,
प्रा. ज्ञा.
वृद्वतपा. श्री जिनरत्नसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 86
2793
1527 | करमाई, रजाई
ओएसर्वष
अंचल लयकेसरीसूरि
भ. श्रीशीतलनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 87 जी भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 87
2794
| 1584 | कीकी, इंद्राणी,
| खरतर, श्री जिनमाणिकयसूरि
श्री. श्री. ज्ञा. आचवाडीयागोत्र श्री. श्री. ज्ञा.
जी
2795 | 1561 | पूगी, सोनाई
श्री इंद्रनंदिसूरि
भ. श्री विमलनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 87 चतु. जी भ. श्री श्रेयांसनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2 87
2796 | 1525 | फडू
हुबड ज्ञा.
वृद्धतपा. श्री जिनरत्नसूरि
जी
2797 | 1531 | डाही, वईजलदे
प्रा. ज्ञा.
(द्विवंदनीकगच्छ) सिद्धसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
88
जी
2798 | 1506 | मचकू, काली
डीसावाल ज्ञा.
तपा. श्री जयचंद्रसूरि
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 88
भ. श्री श्रीमुनिसुव्रत जी भ. श्री श्रेयांसनाथ
2799 | 1527 | माल्हणदे, मांजू
श्री. श्री. ज्ञा.
हरिजगच्छ श्री महेसरसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
88
जी
2800 | 1515 | माल्हणदे, तेजू
श्री. श्री. ज्ञा.
वृद्धतपा. श्रीजिनरत्नसूरि
भ. श्री वासुपूज्य
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 88
85
2801 | 1543 | झाईसु, रामति
गूर्जर ज्ञा.
आगम. श्री जिनचंद्रसूरि
भ. श्रीशीतलनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 89
2802
1528 | देऊ,
श्री. श्री. ज्ञा.
अंचल. श्रीजयकेसरीसूरि
भ. श्री नमिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 89
2803
1531 | राजू
अंचल. श्रीजयकेसरीसूरि
भ. श्रीशांतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2| 89
नागर ज्ञा. बिंबचीयाणगोत्र ऊकेष ज्ञा.
2804 | 1509 | सलवू
खरतर जिनभद्रसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 98
2805 | 1522 | रंगाई, धाई,
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा पुण्यरत्नसूरि
भ. श्री आदिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 99
2806 | 1568 | रामति, पदमाई, पारवती
उप. ज्ञा. चीचट, | उपकेष. श्री सिद्धसूरि
भ. श्री अरनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2] 99
2807 | 1517
हीराई
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री भावदेवसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 99
2808 | 1507 | वाऊ,
श्री. श्री. ज्ञा.
| आगम. हेमरत्नसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 100
2809 | 1513 | देवलदे, गुरदेसु
श्री. श्री. ज्ञा.
तपा. श्रीरत्नसूरि
1555555555555
भ. श्री धर्मनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 100
2810 | 1519 | वीरूपु, माणिकदेवी
ओस. ज्ञा.
| श्री श्री ईष्वरसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 100
वायड. ज्ञा.
श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री पद्मप्रभु
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
100
2811 | 1525 | माल्हणदे, कउतिगदे,
सोहीगोई 2812 | 1568 | मणकाई, नाथी, पूराई
वृद्धषाखा धर्मरलसूरि
भ. श्री अजितनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 101
2813 | 1503 / लीलादे, जसमाई, श्री करण | संडेरगच्छ
श्री शांतिनाथ
भ. श्री कुंथुनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 102
F15
Page #537
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र० संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ
प्रतिमा
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य पूर्णिमा श्री गुणसुंदरसूरि
आदि
28141524 | देलहणदे,
श्री. श्री. ज्ञा.
.........
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 103
2815 | 1525 | मदीसु, लीला
| श्री. श्री. ज्ञा.
पिप्पल श्री गुणरत्नसूरि
भ. श्री नमिनाथपंचतीर्थी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 103
2816 | 1547 | रूडी. पूरी
प्रा. ज्ञा
श्री सुमतिसाधुसूरि
भ. श्री अंबिकामूर्ति
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 102
2817 | 1591 | लषा, झकू
प्रा. ज्ञा.
अंचल श्री गुणनिधानसूरि
भ. श्री अनंतनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 105
2818 | 1523 | सहिजलदे, पूतलि
श्री. श्री. ज्ञा.
| भट्टा गुणसुंदरसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
105
2819 | 1507 | कमलादे, आलहणदे
प्रा. ज्ञा.
श्री सूरि
भ. श्रीशांतिनाथ | जी भ. श्री कुंथुनाथ पंच, जी भ. श्री कुंथुनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
106
खरतर. श्रीजिनचंद्रसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 106
2820 | 1576 | देवलदे, हीरादे, पूनी, मटकू | उपकेष
कर्मदीयागोत्र 2821 | 1529 | रंगाई, कूअरि
श्री. श्री. वंष
रसोइयागोत्र 2822 | 1537 | वालही, अरघू, मणकाई | श्री. श्री. ज्ञा.
अंचल जयकेसरीसूरि
भ. श्रीशांतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 107
वृद्वतपा. श्रीउदयसागरसूरि
भ. श्री सुविधिजिन
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
108
2823
1517 | माकू
प्रा. ज्ञा.
वृद्धतपा पासचंद्रसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
108
2824 | 1521 | हीरू, धनी, कपूराई,लीलाई | ओसवंष
वृद्धतपा. उदयवल्लभसूरि
भ. श्री आदिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 108
2825 | 1512 | चापलदे, माणिकदे
खरतर, श्री जिनभद्रसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 109
जी
छक्कडियागोत्र श्री. श्री. ज्ञा.
2826 | 1508 | कपूरी, वातू
भ. श्री सुमतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 109
2827
1563 माची, जीवादे
ऊकेष ज्ञा.
तपा. हेमविमलसूरि
भ. श्री श्रीपद्मप्रभ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 109
2828 | 1520
काऊ, वानू
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
110
भ. श्री संभवनाथ चतु. जी भ. श्रीशीतलनाथ
2829 | 1544 | धीरादे, पूतलि
खरतर. श्रीजिनहंससूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 110
उपकेष . कर्मदीयागोत्र प्रा. ज्ञा.
2830 | 1522 मेचू नामलदेवी
| तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री आदिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 111
2831 | 1563 | लखाई, रत्नाई
श्री. श्री. ज्ञा.
सर्वसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 111
2832 | 1525 | सोनलदे, रत्लाई
खरतर, श्रीजिनहर्षसूरि
भ. श्री विमलनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 111
ऊकेष साहूसषागोत्र श्री. श्री. ज्ञा.
2833 | 1551 | जासू, अमकू
सद्गुरू
1545FFFFFFFFF2
भ. श्री अजितनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 112
2834 | 1512 | हंसाई
ऊकेष वंष
खरतर. जिनभद्रसूरि
भ. श्रीशीतलनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 112
2835 | 1537 | झमकू, झटकू मल्हाई,इंद्राणी | ऊकेष ज्ञा.
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्रीशीतलनाथ
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
113
2836 | 1547 हर्घकू, पूजीपु, माकू आदि
| श्री. ज्ञा.
श्री सुमतिसाधुसूरि
भ. श्री विमलनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 113
Page #538
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र० संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य आगम. भट्टा श्री षिवकुमारसूरि
प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ
__ आदि भ. श्रीशीतलनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 113
2837 | 1579 | पची, जीवणि, लीलादे
उसवंष
28381521 | लाषणदे, हीरादे
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा, श्री साधुसुंदरसूरि
भ. श्री विमलनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
113
2839
| 1510 लाडू
वृद्धतपा. श्री विजयधर्मसूरि
भ. श्री अभिनंदन | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
115
2840 | 1503 | रूदी, पाणी
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री जयचंद्रसूरि
भ. श्री संभवनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
115
2841 | 1516 | मालहणदे, मेलादे, धनी
ओस ज्ञा.
पूणिमा श्री जयचंद्रसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 116 जी भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 116
2842 | 1521 | हांसलदे, नागलदे, कर्माई
श्री. ज्ञा.
तपा. श्रीसोमदेवसूरि
2843 | 1556 | भोली, जीवासु
श्री. ज्ञा.
श्रीहेमविमलसूरि
भ. श्री विमलनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 116
|F54545455555555
2844 | 1512 | वाछी, वीरू
श्री. ज्ञा.
अंचलजयकेसरी
भ. श्री श्रेयांसनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 117
.
गूर्जरवंष
अंचल श्रीसिद्वांतसागरसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 117
2845 | 1557 | राणी, संपूरी, हीराई.
सहजलदे 2846 | 1529 | लीलू, रनाई
श्री. श्री. ज्ञा.
आगम. देवरत्नसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 - 118
2847
1518 | रूपणि, वाल्ही, पूरी
| चैत्र श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्रीशीतलनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 119
श्रीमाल. रम्यकगोत्र श्री. श्री. ज्ञा.
2848 | 1510 | साधूसु, रूपाई
| पूर्णिमा. सद्गुरू
भ. श्रीशीतलनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 119 चतु. जी भ. श्री पार्श्वनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 120
2849
1553 | सुहामणि, मनकाई
प्रा. ज्ञा.
| तपा. श्रीहेमविमलसूरि
2850
|
1565 | मगलदे, सहिजलदे आदि
श्री .श्री. ज्ञा..
| | धर्मरत्नसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 121 चतु. जी भ. श्री विमलनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 121
2851 | 1544 | मरगदि, पूरी
श्री. श्री. ज्ञा.
| श्री सूरि
2852 | 1575 नाथी
श्री. श्री. ज्ञा.
लब्धिसुंदरसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 121
दादLIL
जी
2853
| 1521 | सहजलदे, खेतू, रंगीपु
वायड, ज्ञा.
कोरंट. श्रीसर्वदेवसूरि
2854 | 1542 | कउतिगदे, रंगाई
ऊकेष
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 122 जी भ. श्री पार्श्वनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 122 जी भ. श्री श्रेयासनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 122 जी
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.21 122 मुनिसुव्रतपंचतीर्थी
2855
1549 | रूपाई लखाई
श्री. श्री. ज्ञा.
| पूर्णिमा गुणरत्नसूरि
2856
| 1520 | लाछू, कउतिगदे
श्री. श्री. ज्ञा.
आगम. हेमरत्नसूरि
भ. श्री
जी
2857 | 1567 | माल्हणदे, देमाई,रमादे
श्री. श्री. वंष
अंचल. भावसागरसूरि
भ. श्रीशीतलनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 122
2858 | 1511 | पांचू
श्रीसूरि
भ. श्री आदिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 123
गूर्जर. ज्ञा. डूगरीआ गोत्र उपकेष. वंष
2859 | 1509 | पाल्हणदे, रंगाई
सावदेवसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 123
भ. श्री वासुपूज्य चतु. जी
Page #539
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र० संवत्
2860
2861
2862
2863
2864
2865
2866
2867
2870
2868 1521
2871
2869 1507
2872
2873
2874
2875
2876
2877
2878
2879
2880
2881
2882
1528 जयतू मनी
1591 षोषी, मेलादे, वलहादे
1549
2883
1584 कुंतु, राजू
1529 चांपू, सुहगी
1532 खूबी
1551 सुहडादे, पद्माई
1564 पूनाई
1587
राजू
श्राविका नाम
1535
छाली, कुंअरि
कर्मादे, फदू, हीमति आदि
जसमाई, षीमाई, दीवी, धनाई
1548 मांकू, भोली
1523 हांसलदे, रमादे
1524 रामलदे, चमकु
1520 दूलहादे, हंसाई
1561 गुरूदे, हांसलदे
1537 लाछु, वाल्ही, आसीठ
1512 चेदू लक्ष्मी, रामति
1509 माल्हणदे
1513 वीरू, रूदी
1579 माणिकदे, जसमादे
लषमादे, जयकू
1546 धर्म्मणि, सरयादे
1552 कउतिगदे, जीजी
वंश / गोत्र
श्री. वीरवंष
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ओएसवंष
ओएसवंष
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
उप. वंष
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
वायड. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
उप. ज्ञा.
असुभगोत्र
प्रा. ज्ञा.
श्री. ज्ञा. संघवी.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य अंचल. जयकेसरीसूरि
आगम. श्री संयमरत्नसूरि
वृद्वतपा. श्री उदयसागरसूरि
तपा. हेमविमलसूरि
श्रीसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
अंचल सिद्वांतसागरसूरि
श्री लब्धिसागरसूरि
अंचल जयकेसरीसूरि
आगम. हेमरत्नसूरि
अंचल गुणनिधानसूरि
अंचल सिद्वांतसागरसूरि
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
विमलसूरि
खरतर जिनहर्षसूरि
हर्षरत्नसूर
तपा. विजयरत्नसूर
आगम. श्री हेमरत्नसूर
पिप्पल श्रीगुणरत्नसूर
वृद्वतपा श्री जिनरत्नसूरि
ब्रह्माण. मुनि श्रीवीरसूरि
ज्ञानकीय. श्री धनेष्वरसूरि
आगम. विवेकरत्नसूर
खरतर श्री जिनहर्षसूरि
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री नेमिनाथ जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री पार्श्वनाथ
जी
भ. श्रीशांतिनाथ जी
भ. श्री मुनिसुव्रत जी
भ. श्री अभिनंदन जी
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री अभिनंदन जी
भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ चतु. जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री नमिनाथ
जी
भ. श्रीशांतिनाथ
जी
भ. श्रीशीतलनाथ
जी
संदर्भ ग्रंथ
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री कुंथुनाथ चतु. जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 124
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
517
भ. श्रीशांतिनाथ
जी
भ. श्री चंद्रप्रभ जी जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
पृ.
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
124
भ. श्री सुमतिनाथ जै. धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जी
124
124
124
124
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 127 जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जी
125
125
125
125
125
126
126
127
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 129 जी
127
127
128
128
129
129
129
130
Page #540
--------------------------------------------------------------------------
________________
518
क्र०
2884
2885
2886
2887
2888
2889
2896
2897
2891 1528
2898
2899
संवत्
2890 1532 धरण
2900
2901
1520 मेचू, रूडी
1554
2895 1508
2902
1566
1530
2892 1552 कुतिगदेवी
2893 1511 भोली
2904
2894 1589 गौरी
2905
1547
1549 पूतलि
2907
ननादे वील्हणदे, गौरी
रूपाई
लाडी, लीलादे
1521
2903 1537
कउतिगदे
अरघू
1502
श्राविका नाम
1532 रूपाई
हासू, कूंअरि
सारू, मटू
1505 चंपाई
1509 देमाई, वाछुपु नेताई
2906 1519 सांपू, अरघू
1530 सोमीपु, झटकू
वंश / गोत्र
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
1560 संपूरी, गंगादे
1520 टीबू, वनादे
1524 कुतिगदे, भावलदे आदे
षाणी, सोही
डीसा. ज्ञा.
1565 लीली, चांदू, इंद्राणी, सोमाई ओस. ज्ञा.
सुतठ, वाल्हीठ, आसीठ
श्री. श्री. ज्ञा.
ऊके. ज्ञा.
श्री. ज्ञा. नाचणगोत्र
प्रा. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
ओएसवंष बाडियालगोत्र
प्रा. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
ऊकेष. ज्ञा. खाटडगोत्र
ऊकेष
ओस. ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ऊकेष. ज्ञा.
ऊकेष. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
तपा. श्रीसूरि
बुद्धिसागरसूरि
आगम. षिवकुमारसूरि
पूर्णिमा श्री विषालसूरि
सूरि
तपा. सुमितसाधुसूरि
खरतर जिनचंद्रसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
खरतर श्री जिनहर्षसूरि
मलधारिगच्छ. श्रीगुणसुंदरसूरि
द्विवंदनीक. कक्कसूरि
तपा. श्री विजयधर्मसूरि
धर्मघोष. श्री साधुरत्नसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
कक्कसूरि
श्री जिनरत्नसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
तपा. श्री जयचंद्रसूरि
वृद्धतपा. श्रीचारित्रसागरसूरि
वृद्धतपा. श्रीविजयरत्नसूरि
खरतर, श्री जिनभद्रसूरि
तपा. श्री रत्नशेखरसूरि
पूर्णिमा श्री जयप्रभसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्रीशीतलनाथ जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जी
भ. श्रीशांतिनाथ
जी
भ. श्री नेमिनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्रीशांतिनाथ
जी
भ. श्रीशीतलनाथ
जी
भ. श्री आदिजिन
जी
भ. श्री संभवनाथ
जी
भ. श्रीशांतिनाथ
जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री सुविधिनाथ जै. धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ
जी
भ. श्री आदिनाथ
जी
चतु.
भ. श्रीशांतिनाथ
जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री सुमतिनाथ जैधा.प्र.ले.सं. भा. 2 जी
भ. श्रीशांतिनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी जी
भ. श्री कुंथुनाथ चतु. जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री नमिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री अजितनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.मा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
पृ.
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
130
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
130
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 132
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
130
130
130
131
131
131
132
132
132
132
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 134
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 134
132
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 134
133
133
135
135
136
136
137
Page #541
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
2908
2909
2910
2911
2913
2912 1508
2914
2917
2918
2915 1553
2919
2916 1528
2920
2921
2922
2923
2924
2925
संवत्
2926
1528 सुहडा, देवलदे
1531 सहजलदे, मटकू
1531 हर्षसु
1503 माणिकदे
2929
1506
2931
1520 गुरूदे, ठणकू
श्राविका नाम
2927 1528
हेमादे, डाही
करमादे, अमरी
गोमति, करमादे
झांझण, लषीपु, वाल्ही
1566 षूनिरि, माकू
1518 हमीरदे
1552 धरमादे, करमादे, लीलादे
1507 सालहू, पूरी
1573 धर्मादे, सोनाई
1571 मरधू, रत्नादे
1563 | मणकाई, रूपाई
1560 रंगाई, जासलदे
1533 खीमादे, सोमी, पलहाई
1561 हर्षूपु, बीराई, गंगादे
2928 1510 वलहादे, सिरि
1517 लहिकू कुंअरि
2930 1544 हांसू, जीवादे
1521 वीझू, गउरी
भावलदेवी
वंश / गोत्र
पंचाणचा गोत्र
ओसवंष
श्री. श्री. ज्ञा.
ऊ. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री श्री वंष
ऊकेष. ज्ञा.
उप. ज्ञा.
कुकुटगोत्र
प्रा. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
ओसवंष
ओएसवंष
ऊकेष. वंष
ऊकेष. गांधी गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
"
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य श्री हीरविजयसूरि
कोरंट. श्री सावदेवसूरि
पूर्णिमा. गुणधीरसूरि
तपा. श्री जयचंद्रसूरि
संडेर. षांतिसूर
ओसवाल कक्कसूरि
चैत्र. श्री जिनदेवसूरि
पिप्पल. श्री धर्मवल्लभसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
तपा. श्री हेमविमलसूरि
उपकेष. श्री कक्कसूरि
नागेंद्र श्री हेम सिंह सूरि
सिद्वांत. सोमचंद्रसूरि
कोरंट, श्री नन्नसूरि
महीरत्नसूरि. नागेंद्र
ओसवाल, श्रीसूरि
पूर्णिमा. पुण्यरत्नसूरि
अंचल. श्री जयकेसरीसूरि
अंचल. भावसागरसूरि
खरतर, श्री जिनचंद्रसूरि
श्री सूरि
अंचल. जयकेसरीसूरि
वृद्धतपा. श्री धर्मरत्नसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जी
भ. श्री पार्श्वनाथ
जी
भ. श्री अजितनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जी
भ. श्री मुनिसुव्रत जी
भ. श्री चंद्रप्रभनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 चतु. जी
भ. श्री नमिनाथ
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 137
जी
चतु. जी
भ. श्री अंबिका जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्रीशीतलनाथ
जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्रीशांतिनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ
जी
भ. श्री अजितनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2 जी
भ. श्री धर्मनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ
जी
जै.धा.प्र.ले.सं. भा. 2
भ. श्री आदिनाथ
जी
भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री कुंथुनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2.
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जी
भ. श्री चंद्रप्रभु जी जै.धा.प्र.ले.सं. भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जी
519
पृ.
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
137
137
137
138
138
138
138
139
139
भ. श्री अजितनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 142 जी
140
140
141
141
141
141
142
142
142
143
144
144
144
Page #542
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य पूर्णिमा साधुरत्नसूरि
प्रतिमा निर्माण
आदि
संदर्भ ग्रंथ
2932
11513 रतनादे, रांक
श्री. ज्ञा.
भ. श्री आदिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 145
29331587 | हीरू, झमकी
प्रा. ज्ञा.
भ. श्री अजितनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 145
4555
2934
ऊके. ज्ञा.
तपा. श्री हेमविमलसूरि
भ. श्री अजितनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 145
1552 | वीकू, जीवादे, कमलादे,
आदि 1517 | लहिकू, कुंअरि
2935
श्री. श्री. ज्ञा.
अंचल. जयकेसरी
भ. श्री संभवनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
146
2936
| 1544 | हांसू, जीवादे,
ओस. ज्ञा.
वृद्धतपा. श्री धर्मरत्नसूरि
2937 | 1521 | वीझू गउरी,
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 144 चतु. जी भ. श्री कुंथुनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 144 चतु. जी भ. श्री आदिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2 145
2938 | 1513 | रतनादे, रांकु
श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा साधुरत्नसूरि
2939 | 1587 | हीरू, झमकी
प्रा. ज्ञा.
भ. श्री अजितनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा2 | 145
2940 | 1552 | वीकू जीवादे, कमलादे
ऊके. ज्ञा.
| तपा. श्री हेमविमलसूरि
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
145
आदि
2941 | 1517 | फदू, हर्षु
श्री. श्री. वंष
| अंचल श्री जयकेसरीसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
146
2942
1523 | गांगी, नामल
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा श्री राजतिलकसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
146
55 #555555555
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री जयकेसरी
भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
146
2943 | 1505 | चांपू. 2944 1503 | चांपालदे,
ऊकेष,
श्री रतनसिंहसूरि
भ. श्रीशांतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 146
2945
1513 | माणिकी, चांपलदे, कोई
श्री. श्री. ज्ञा.
आगम. साधुरत्नसूरि
भ. श्री अजितनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 146
2946 | 1512 | पूजा, तिली
प्रा, ज्ञा.
श्री विजयधर्मसूरि
भ. श्री अजितनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 147
2947 | 1507 | राऊंसु
सौवार्णिक ज्ञा,
वृद्वतपा. श्री रत्नसूरि
भ. श्री संभवनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 147
2948 | 1542 | नारू, मकी
गूर्जर ज्ञा.
आगम. जिनचंद्रसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 147
भ. श्री आदिनाथ चतु. जी भ. श्री मुनिसुव्रतस्वामी
2949 | 1506 | बाऊं, लाछु
श्री. ज्ञा.
श्री बुद्धिसागरसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 148
2950 | 1508 | मचकू, वीरू
ओसवंष
अंचल, जयकेसरीसूरि
भ. श्रीशांतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 148
2951 | 1516 | अरघू
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री सूरि
भ. श्री सुमतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 148
2952 | 1505 | राजूसु, रामति
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा गुणसमुद्रसूरि
| FIFIF 15515
भ. श्री संभवनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 148
2953 | 1537 | नायकदे, सूलेसरी
ऊकेष, ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्रीशांतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 148
2954
1573 | भूवदे, नाथी, मरघी
हुबड. ज्ञा. सुरगोत्र
तपा. श्री सौभाग्यसागरसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 149
Page #543
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
2955
2956
2957
2958
2959
2960
2961
2962
2963
2964
2965
2966
2967
2968
2969
2970
2972
2973
2974
2975
2976
2977
संवत् श्राविका नाम
2971 1516
2978
1520 अरघू, मीरू
1529 षाणी, फालूसू
1520
हरषू
1581 सषीसु, कामलदे
1518 राणी, लाषणदे
पोमादे, पाती
1531 कुतिगदे, कर्माई
1531
1548
धारूसु, वारूसु
1531 डाही, पाती
1506 भरमादे, सातदे
1563 भाची, जईतलदे
1508 अहविदे, चमकू
1524 करमी, मरगदि
1511 लाडी, चमकू, लीलादे
1534 माल्हणदेवी
1531 माणिकदे, बडघी
फदकू सोही
1517 मेघू, चंपाई
1506 कामलदे, जीवणि
1528 अरघू, गुरी
1504 मेघू साऊ
1563 रूपाई, कपू, विमलादे
1556 गौरी, ककू
1515 धर्म्मादे
वंश / गोत्र
श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
ओएसवंष
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ऊकेष.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ऊकेष
ऊकेष
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
डीसा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्रीवंष
श्री. श्री. ज्ञा.
उप. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
श्री विमलसूरि
पुण्यरत्नसूरि
आगम. गुणरत्नसूरि
आणंदसागरसूरि
आगम. देवरत्नसूर
नागेंद्र श्री हेमरत्नसूरि
अंचल, श्रीजयकेसरीसूरि
आगम. जिनचंद्रसूरि
तपा. सुमतिसुंदरसूरि
ब्रह्माण. श्री उदयप्रभसूरि
तपा. श्री हेमविमलसूरि
आगम. श्री विमलसूरि
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
पिप्पल. श्री धर्मसागरसूरि
वृद्धतपा. श्री विजयरत्नसूरि
संडेर. श्री ईसरसूरि
पूर्णिमा. पूर्णचंद्रसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
तपा. जयचंद्रसूरि
अंचल, भावसागरसूरि
पीपल. सर्वसूरि
श्री सोमदेवसूरि
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी जी
भ. श्री धर्मनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ
जी
भ. श्रीशांतिनाथ
जी
भ. श्री संभवनाथ
जी
भ. श्रीशीतलनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्रीशीतलनाथ
जी
भ. श्री नमिनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री विमलनाथ जी
भ. श्री पद्मप्रभु जी
भ. श्रीशांतिनाथ जी
भ. श्रीशीतलनाथ जी
भ. श्री विमलनाथ जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री पद्मप्रभ
जी
भ. श्री अनंतनाथ
जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री कुंथुनाथ
जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री संभवनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री सुविधिनाथ जै. धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जी
521
पृ.
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 152
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 153
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
149
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 153
150
150
150
151
151
151
152
152
153
153
153
153
154
154
154
154
155
155
155
156
Page #544
--------------------------------------------------------------------------
________________
522
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
| संवत् ।
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रतिमा निर्माण
संदर्भ ग्रंथ | पृ.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य तपा. श्री रत्नसूरि
आदि
2979
1517 | षाणी
श्री. श्री. ज्ञा.
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 156
2980
| 1518 | भोली
भ. श्री पार्श्वनाथ जी भ. श्री नमिनाथ | जी भ. श्री आदिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 156
2981
चंडालिया गोत्र | मलधारि. गुणसुंदरसूरि उपकेष ज्ञा. ओसवंष धर्मधोष. श्री पदमानंदसूरि सुराणागोत्र श्री. श्री. ज्ञा. नागेंद्र. श्रीगुणदेवसूरि
| 1537 | रंगाई, जीविणि, रंगाई
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 157
जी
2982 | 1527 | प्रीमलदे रंगी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा2 - 157
भ. श्री श्रेयांस नाथ जी भ. श्री सुविधिनाथ
1531
लहकू नाई. मटकू
श्री. श्री. वंष
श्री सूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
157
2984
| 1526 | वनी, झाडू
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
1158
2985 | 1532 वरजू,जीविणि, हांसी
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री नमिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 158
2986
1514 | अहिवदें
शा.
धर्मघोष श्री साधुरत्नसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 158
ऊकेष, ज्ञा. नाहरगोत्र प्रा. ज्ञा.
2987
1565 | राजलदे, धाई, रही
वृद्वतपा, धर्मरत्नसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा2 | 158 जी भ. श्री मुनिसुव्रत । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 160
2988
| प्रा. ज्ञा.
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
11523 वइजाई, बीजी, जीना,
सोनाई | 1520 धांधलदे
2989
उप. ज्ञा.
नाणावाल श्री धनेष्वरसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 183
भा.2
2990 | 1504 | करमादे नाथी
प्रा. ज्ञा.
श्री कक्कसूरि
55 545
2991 | 1521 / चांपारसिरि, सीतादे
ओस. ज्ञा. गांधी गुणसुंदरसूरि गोत्र हुंबड़. ज्ञा. वृद्धतपा. श्रीविजय धर्मसूरि
2992 | 1510 | रत्न, कर्माई
2993 | 1549 | टबकू वल्हादे
श्री. श्री. ज्ञा.
वृद्धतपा. श्री उदयसागरसूरि
जी
2994 | 1510 | रत्न, कर्माई
हुंबड़. ज्ञा.
वृद्धतपा श्री विजय धर्मसूरि
2995 | 1516 | वरजू, रमाई
श्री. श्री. ज्ञा.
आगम सिंहदत्तसूरि
2996 | 1576 | धर्मिणि, गंगादे
श्री. श्री. ज्ञा.
वृद्धतपा श्री धनरत्नसूरि
भ. श्री पद्मप्रभु पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
भा.2 भ. श्री धर्मनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. 184
भा.2 | भ. श्री
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. | 185 चंद्रप्रभस्वामी जी भा.2 भ. श्री पार्श्वनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. | 184
भा.2 भ. श्री
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. | 185 चंद्रप्रभस्वामी जी भा.2 भ. श्री वासुपूज्य पा.जै.धा.प्र.ले.सं. | 185
भा.2 भ. श्री सविधिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. 185 जी
भा.2 भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. चतु. जी
भा.2 भ. श्री विमलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 186
भा.2 भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 185
भा.2 भ. श्री विमलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
भा.2 भ. श्री सुपार्श्वनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. | 186
भा2 भ. श्री अभिनंदन ।
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं. | 187
भा.2
29971509 | रत्नीसु, राभूसु
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा श्रीगुणसमुद्रसूरि
| 185
29981531 | गूजरी, मचकू
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीविजयदेवसूरि
2999 | 1510 | सजूणि, रामति
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीरत्नषेखरसूरि
3000 | 1532 | रामति, हाही
श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा. साधुसुंदरसूरि
186
545555
3001 | 1529 | मानू, राजू
प्रा. ज्ञा.
तपा. विजयरत्नसूरि
3002 | 1518 | माकू
ओ. ज्ञा.
धर्मघोष. श्रीसाधुरत्नसूरि
Page #545
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
क्र० संवत्
3003
3004
3005
3006
3007.
3008
3009
3010
3011
3012
3013
3015
3016
3014 1508 अमकू
3017
3018
3019
3021
3022
3023
3024
3020 1568 मटकू, वलहादे
1525 पोमी, जीविणि
1528 रत्नाई, राजगेई
1530 | मूजी, सोनलदे, कुंअर
1584 षीमाई, वीराई
1536 वीजलदे, माणिकि
1529 लीलू हीराई
3025
1507 रूपाई, सिंगारदेवी, हर्षू
1518 | सीतादे, वरजू, रामति
तासु, माणिक सारू
1529 टीबू, कुंयरि, कमली
1508 पोमादे, कपूरी, रामति
1571
3026
श्राविका नाम
1509 सलषू, रत्नू, हरषूपु
1566 कतीपु, सिकूदेपु.
1522 कउतिगदे, लीलादे
1548 हीरादे, कत्थाई, रूपाई
1528 मणकी, डाही
1553 कर्माई, मिरगाई
1525 फली, रत्नादे
1525 | अमरादे, रामति
1536 | नाई, राणी
1528 माणिकिदे
1513 सिरि, पूरी
वंश / गोत्र
ऊ. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ऊकेष. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
सुविहित. सुविहितसूरि
पिप्पल. सर्वसूरि
तपा. रत्नशेखरसूरि
पूर्णिमा. पुण्यचंद्रसूरि
ओसवंष अंबिका भावडार. श्रीविजयसूरि गोत्र
ओस. ज्ञा.
तपा. श्रीविजयदेवसूरि
ओसवंष
भवसूरि
ऊकेष वंष
खरतर, श्री जिनचंद्र सूरि
ओसवंष
अंचल, सिद्धांतसागरसूरि
आगम सिंहदत्तसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
श्री कक्कसूरि
श्री वीरसूर
श्री ब्रह्माणसूरि
तपा. श्रीरत्नषेखरसूरि
श्री हेमविमलसूरि
ऊकेष.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
चिचटगोत्र
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
प्रा.ज्ञा
प्रा. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
प्रा. वंष.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
उप. ज्ञा.
गोवर्द्धनगोत्र
ऊकेष कांकरियागोत्र श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
तपा. रत्नषेखरसूरि
तपा. रत्नशेखरसूरि
| आगम. देवरत्नसूर
खरतर, जिनचंद्रसूरि
उपकेष. श्री देव गुप्तसूर
खरतर श्रीजिनमाणिक्यसूरि
भट्टारक. श्री बुद्धिसागरसूरि
| आगम देवरत्नसूरि
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री कुंथुनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भा. 2
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भा. 2
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भा. 2
पा. जै.धा.प्र.ले.सं. भा. 2
भ. श्री सुविधिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.सं. जी
भा. 2 पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
भा. 2
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भा. 2
भ. श्री अनंतनाथ
जी
भ. श्री मुनिसुव्रत
चतु.
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री धर्मनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री अनंतनाथ
जी
भ. श्री अभिनंदन नाथ जी
भा.2
पा. जै.धा.प्र.ले.सं. भा.2
पा. जै.धा.प्र.ले.सं. भा.2
भ. श्री सुविधिनाथ | पा. जै.धा.प्र.ले.सं. जी
भा. 2
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री शांतिनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भा. 2
पा. जै.धा.प्र.ले.सं. भा. 2
भ. श्री सुमतिनाथ पा. जै.धा. प्र.ले.सं. जी
भा.2
भ. श्री सुमतिनाथ पा. जै.धा. प्र.ले.सं. जी
भा.2
भ. श्री अंनतनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ
जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री धर्मनाथ
जी
भ. श्री आदिनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
भा.2
पा. जै.धा.प्र.ले.सं. भा.2
पा. जै.धा.प्र.ले.सं. भा.2
भ. श्री सुविधिनाथ पा. जै. धा.प्र.ले.सं. जी
भा.2
भ. श्री श्री श्रेयांसनाथ जी भ. श्री अभिनंदननाथ जी भ. श्री विमलनाथ जी
भ. श्री अभिनंदन
A
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
भा.2
पा. जै.धा.प्र.ले.सं. भा.2
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भा. 2
भ. श्री विमलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. जी
523
भा.2
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पृ.
187
187
187
188
188
189
190
190
164
164
164
164
166
166
166
167
168
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. 169
168
168
169
170
170
170
1
Page #546
--------------------------------------------------------------------------
________________
524
क्र०
3027
3028
3029
3030
3031
3032
3033
3034
3035
3037
3038
3036 1537
3041
3042
3043
3039 1525
3044
3045
3040 1512 रमादे
3045
संवत्
3046
3047
1515 माल्हणदे
1519 वुलदे
1553 सिंगारदे, मटकू, गुरदे
1525 रमक, दूबी
3048
1535 अमक मऊकू
1554कीकी, धनीपु श्रृंगारदे,
इंदी
1512 सिंगारदे, माजू
1508 कुतिगदे, सुलहीसु
1513 लाछू माणिक
1513
श्राविका नाम
धाऊं, नागिणि, कुतिगदे
लाडी, गांगी
1506 पातू सारू
फनूपु हांसी
1510 कर्मादे, लावू
1533हकू तेजू
1515 जइतू भर्मादे, कर्मादे
1551 कुंअरि, राजूपु रंगादे
1567 कीकी, चंगीपु पुतली,
रहीपु
1573 तू बगूकया
1517 सरसति, पोमादे
1512 | नागलदे, हर्षू
1530 बासू
वंश / गोत्र
श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
डीसा. ज्ञा
ऊसवंष
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
वाहगोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य पूर्णिमा. साधुरत्नसूरि
नागेंद्र श्री गुणदेवसूरि
वृद्धतपा. श्री उदयसागरसूरि
श्रीसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
श्री सर्वसूरि
पूर्णिमा श्री गुणसमुद्रसूरि
श्रीसूरि
वृद्धतपा. श्री उदयसागरसूरि
वृद्धतपा. श्री रत्नसिंहरि
पूर्णिमा, राजतिलकसूरि
विषालराजसूर
पूर्णिमा. श्री जयप्रभुसूरि
पूर्णिमा. श्री गुणसमुद्रसूरि
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
अंचल. श्री सिद्धांतसागरसूरि
श्री देवगुप्तसूरि
श्री विजयसिंहसूरि
नागेंद, विजयप्रभुसूरि
श्री सुविहितसूर
पूर्णिमा श्री कमलप्रभसूरि.
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री शीतलनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भा.2
भ. श्री चंद्रप्रभु जी पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भा- 2
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भा. 2
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भा. 2
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री आदिनाथ
जी
भ. श्री धर्मनाथ
जी
भ. श्री धर्मनाथ
जी
भ. श्री धर्मनाथ
जी
भ. श्री नमिनाथ
जी
भ. श्री नमिनाथ
जी
भ. श्री विमलनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 जी
भ. श्री नमिनाथ
जी
भ. श्री शांतिनाथ
जी
भ. श्री शांतिनाथ
जी
संदर्भ ग्रंथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री शीतलनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा2 पंचतीर्थी जी
भ. श्री मुनिसुव्रत जी
भ. श्री महावीर जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. 171
भ. श्री महावीर 'जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
• जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री चंद्रप्रभु जी जै. धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जी
भ. श्री शीतलनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जी
पृ.
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
171
171
171
171
171
172
172
172
172
173
173
173
173
173
173
174
174
174
174
174
175
175
Page #547
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
क्र०
3049
3050
3051
3052
3053
3054
3055
3056
3057
3058
3059
3060
3061
3062
3063
3064
3065
3066
3067
3068
3069
3070
3071
संवत्
1517 मनी, माहादि
1508 जासू, अमकू
सहिजलदे
1515 कपूरी, मानू, लीलाई
1506 नामलदे, कर्मादे
1517 कर्मादे, वनू
1508 गुरी, मागिणि
1528 दवकू अमरी, वीरू
1589 सुहवदे, गौरी, कामलदे
1519 कुतिगदे, लीलादे
1517 जमणादे
1511
श्राविका नाम
1553 मानूपु माल्हूसु
1569 हेमादे, षीमाई
1561 जालणदे
1531
कर्मणि, माणिकदे
हीरू, करमाई, कपूराई
1523 सूहवदे, कुंअरि, टबकू रत्नादे, वनादे
1525 नागलदे, विमलादे
1520
1529 कुंअरि, हेमाई
1506 | राजू रंगाई
1547 रमाई
1524 गोमति, मकांसु, कमली
1525 सूहवदे, कुंअरि, रत्नादे
वंश / गोत्र
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ऊकेष. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्रीमाल. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उपकेष. ज्ञा. मंडावंष गोत्र
श्री. श्री. वंष
श्री. ज्ञा.
ऊकेष. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
ओएसवंष
वायड ज्ञा.
ओस ज्ञा. मंडोवरा गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
वायड ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
तपा. श्री रत्नषेखर सूरि
श्री सूरि
ब्रह्माण. श्री मुनिचंद्रसूरि
तपा. रत्नषेखर सूरि
बृहत्तपा. श्रीजयचंद्रसूरि
पूर्णिमा, श्री साधुसुंदरसूरि
ब्रह्माण. विमलसूरि
पिप्पल. श्री गुणसागरसूरि
ब्रहाण. विमलसूरि
संडेर. श्री शालिभद्रसूरि
धर्मघोष. श्री साधुरत्नसूरि
पीपल. श्री धर्मवल्लभसूरि
कोरट. श्री नन्नसूरि
पूर्णिमा श्रीउदयचंद्रसूरि
नागेंद्र श्री हॅमरत्नसूरि
अंचल. जसकेसरीसूरि
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
धर्मघोष श्री साधुरत्नसूरि
वृद्धतपा. ज्ञानसागरसूरि
पूर्णिमा श्री गुणसमुद्रसूरि
पूर्णिमा श्री पुण्यरत्नसूर
श्री लक्ष्मीसागरसूरि
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री मुनिसुव्रतस्वामी
भ. श्री संभवनाथ
जी
जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जी
भ. श्री नमिनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री विमलनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ
जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री आदिनाथ
जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री मुनिसुव्रत चतु
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री शीतलनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्री शीतलनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2 जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री गोतम प्रतिमा जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा. प्र.ले.सं. भा. 2 जी
भ. श्री अमिनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री शांतिनाथ
चतु. जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
.ध.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
525
पू.
175
175
176
176
177
177
177
177
191
191
191
192
192
192
193
193
193
193
194
194
194
194
195
Page #548
--------------------------------------------------------------------------
________________
526
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य तपा. श्री......
3072 | 1541 | सिरीठी, लाडिकि
मोढ़ ज्ञा.
प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ
आदि भ. श्री संभवनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 199 चतु. जी भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 200 जी भ. श्री शांतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 - 200
3073|1534 | भीमलदे, जयतु
नाणावाल श्रीधनेष्वरसूरि
3074|1552 | काऊ, रंगी
मोढ़ ज्ञा.
वृद्धतपा. उदयसागरसूरि
जी
3075 | 1524 | सहिषलदे, कपूरी
श्री. श्री. ज्ञा.
। पूर्णिमा. गुणसुंदरसूरि
भ. श्री चतुर्विशांति | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 200 नमिनाथ जी भ. श्री पार्श्वनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 201
3076 | 1525 | रोहिण
ओस. ज्ञा.
श्री विजयदानसूरि
66)
3077 | 1529 | रूपाई, रतनाई
उपकेष, वंष
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 201
3078 | 1531 | करणू पारबती
श्री. श्री. ज्ञा.
आगम. श्री शीलवर्धनसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 201
भ. श्री वासुपूज्य | जी भ. श्री संभवनाथ जी भ. श्री नमिनाथ | जी भ. श्री सुमतिनाथ
3079 | 1573 | आसी, मंगाई, पल्हाई
| श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा सद्गुरू
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
201
3080
1510 | धर्माई, हंसाई
श्री. श्री. ज्ञा0
बृद्धतपा. श्रीरत्नसिंहसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 202
3081 | 1512 | राजलदे
श्री. ज्ञा.
| ब्रह्माण मुनिचंद्रसूरि
#5555555
भ. श्री शीतलनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 202
3082
| 1517 | वासू
श्री. श्री. ज्ञा. | श्रीसाधुसुंदरसूरि
भ. श्री विमलनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 203
3083 | 1558 | रूडीसु
ओसवंष
श्रीसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 203
3084
| 1541 | सिरीठ लाडिकि
मोढ़. ज्ञा.
तपा. श्री......
3085
1534 | भीमलदे, जयतु
नाणावला. श्रीधनेष्वरसूरि
3086
1552 | काऊ, रंगी
मोढ़. ज्ञा.
| वृद्धतपा. उदयसागरसूरि
भ. श्री संभवनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 199 चतु. जी भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 200 जी भ. श्री शांतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2, 200 जी भ. श्री चतुर्विंशाति जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 201 नमिनाथ जी भ. श्री पार्श्वनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 201
3087 | 1524 | सहिषलदे, कपूरी
श्री. श्री. ज्ञा. | पूर्णिमा. गुणसुंदरसूरि
3088 | 1525
रोहिणि
ओस ज्ञा.
श्री विजयदानसूरि
3089
1529 | रूपाई, रतनाई
| उपकेष. वंष
भ. श्री वासुपूज्य
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
201
30901531 | करणू, पारबती
श्री. श्री. ज्ञा.
आगम. श्री शीलवर्धनसूरि
भ. श्री संभवनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 201
55555
3091 | 1510 | धाई, हंसाई
श्री. श्री. ज्ञा.
बृद्धतपा. श्रीरत्नसिंह
भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 202
3092 | 1512 | राजलदे
श्री. ज्ञा.
ब्रह्माण मुनिचंद्रसूरि
भ. श्री शीतलनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 202
3093 | 1547 | संपूरी, हर्षाई
श्री. श्रीमाल ज्ञा. | भावदेवसूरि भावडार
भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 196
3094 | 1519 | राजू, संपूरी
वायड ज्ञा.
| आगम. हेमरत्नसूरी
भ. श्री धर्मनाथादि जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 196 पंचतीर्थी जी भ. श्री आदिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 196
3095 | 1512 | लूण श्री
उपकेष ज्ञा. मंडोवरा गोत्र
धर्मघोष श्रीसाधुरत्नसूरि
Page #549
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
527
क्र० संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
3096
| 1523 | लाडी, मंदोअरि
नीमा ज्ञा.
प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
आदि | भ. श्री नमिनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 196
जी भ. श्री वासुपूज्य | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 197
3097 | 1529 | आसू, माकूणदे
प्रा. ज्ञा.
बृहतपा. श्री विजयरत्नसूरि
जी
3098 | 1564| हली, अहवदे
प्रा. ज्ञा.
बृद्धतपा. श्रीलब्धिसागरसूरि
भ. श्री अजितनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 197, |
3099 | 1521 | धनाई
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
197
भ. श्री संभवनाथ | जी भ. श्री नमिनाथ
3100 | 1523 | लाही, मंदोअरि
नीमा ज्ञा.
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 197
3101 | 1529 | राजू, आसू. माकूणदे
श्री. प्रा. ज्ञा.
| | बृहतपा. श्रीविजयरत्नसूरि
| भ. श्री वासुपूज्य
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 197
31021521 | धनाई
| प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री संभवनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 197
3103
| 1513 | राणी, लाषणदे
श्री. श्री. ज्ञा.
| | आगम देवरत्नसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
197
3104
1525 | राजूपु, वानूपु, माणिकि
दीसा. ज्ञा.
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 198
3105 | 1560 | लीलू, जीवाई, चंपाई
श्री. श्री. ज्ञा.
सद्गुरू
भ. श्री धर्मनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 198
3106
| 1583 | सिआदे, सिरीयादे
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा श्रीसूरि
भ. श्री आदिनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 198
3107 | 1541 | संपूरी, हर्षाई
श्री. श्री. ज्ञा.
भावडार, भावदेवसूरी
भ. श्री सुमतिनाथ
|जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जी
3108 | 1519 | राजू, संपूरी
वायड़. ज्ञा.
भावडार, भावदेवसूरी
भ. श्री धर्मनाथादि | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 196 पंचतीर्थी जी भ. श्री आदिनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 196
3109 | 1512 | लूण श्री
धर्मघोष साधुरत्नसूरी
उपकेष. ज्ञा. मंडोवरा गोत्र प्रा. ज्ञा.
3110 | 1523 | आसू. माकूणदे
बृहत्तपा श्री विजयरत्नसूरी
55
भ. श्री वासुपूज्य
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 197
3111
1564 | हली, अहवदे
प्रा. ज्ञा.
वृद्धतपा. श्री लब्धिसागरसूरि
भ. श्री अजितनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 197
Page #550
--------------------------------------------------------------------------
________________
528
क्र०
3112
3113
3114
3115
3117
3118
3119
3120
3116 1576
3121
3122
3123
3124
3126
3127
3128
3129
3130
संवत्
3131
1549
1521
1510
3134
1516
1509
1531
3125 1571
1510
1532
1529
1518
1507
1518
1529
1508
1509
1566
1522
1589
3132 1519
3133 1517
1553
3135 1569
श्राविका नाम
बक वल्हादे
चांपरसिरि, सतादे
रत्नू कर्माई
वरजू रमाई
धर्मिणि, गंगादे
रत्नीसु, राभूसु
गूजरी, मचकू
सजूणि, रामति
रामति, डाही
मानू राजू
सल, रत्नू हरशुपु
प्रीमलदे, हर्षु, आसु
कउतिगदे, लीलादे
सुहवदे, गौरी, कामलदे
कुतिगदे, लीलादे
जमणादे
मानूपु माल्हूसु
हेमादे, खीमाई
वंश / गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
वृद्धतपा. श्री उदयसागरसूरि
ओस ज्ञा. गांधी गोत्र गुणसुंदरसूरि
हुंबड़. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा
प्रा.ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
माकू
रूपाई, सिंगारदेवी,
ह
सीतादे, वरजू, रामति प्रा. ज्ञा.
तासु मणिकि, सारू
टीबू कुरि, कमली
पोमादे, कपूर, रामति ऊकेष.
श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ओ. ज्ञा.
ऊ. ज्ञा.
ऊकेष. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा
प्रा.ज्ञा.
ओसवंष, अंबिका गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा
श्रीमाल. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
प्रा.ज्ञा.
वृद्धतपा. श्रीविजय धर्मसूरि
आगम. सिंहदन्तसूरि
ब्रह्माण
| संडेर. श्री सालिभद्रसूरि
उपकेष. ज्ञा मंडोवंष धर्मघोष. श्रीसाधुरत्नसूरि गोत्र
श्री. श्री. वंश
श्री. ज्ञा
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
वृद्धतपा. श्रीधनरत्नसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ पा. जै. धा.प्र.ले.सं.
जी पूर्णिमा. श्रीगुणसमुद्रसूरि भ. श्री शांतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.सं. चतु जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री
मुनिसुव्रतनाथ जी
तपा. श्रीरत्न शेखरसूरि
पूणिमा. साधुसुंदरसुरि
तपा. विजयरत्नसूर
धर्मघोष श्रीसाधुरत्नसूरि
तपा. रत्नषेखरसूरि
तपा. रत्नषेखरसूरि
सुविहित सुविहितसूरि
पिप्पल. सर्वसूरि
तपा. रत्नषेखरसूरि
पूर्णिमा. पुण्यचंद्रसूरि
भावडार. श्रीविजयसूरि
संडेर, सालिभद्रसूरि
पिप्पल. श्री धर्मवल्लभसूर कोरंट. श्री नन्नसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संदर्भ ग्रंथ
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री पार्श्वनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
भ. श्री धर्मनाथ
जी
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री आदिनाथ पा. जै.धा. प्र.ले.सं. जी
भ. श्री विमलनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.सं. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री सुपार्श्वनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.सं. जी
भ. श्री कुंथुनाथ
जी
भ. श्री अभिनंदन पा. जै.धा.प्र.ले.सं. जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री अनंतनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री कुंथुनाथ
जी
भ. श्री मुनिसुव्रत पा. जै.धा.प्र.ले.सं. चतु जी
भ. श्री धर्मनाथ
जी
भ. श्री सुविधिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.सं. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री कुंथुनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री कुंथुनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.सं. जी
भ. श्री आदिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.सं. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री आदिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.सं. जी
भ. श्री वासूपूज्य जी
भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. जी
भ. श्री शीतलनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.सं. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पृ.
184
184
185
185
185
185
185
185
186
186
187
187
187
187
88
188
189
190
190
191
191
191
192
192
Page #551
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
-
पृ.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
गच्छ/ आचार्य आदि पूर्णिमा. श्रीउदयचंद्रसूरि | भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
3136
| 1561 || जालणदे
ऊकेश. ज्ञा.
193
जी
31371531 | कर्मणि, माणिकदे
श्री. श्री. ज्ञा
नागेंद्र. श्री हेमरत्नसूरि
| 193
भ. श्री सुमतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. जी भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
3138
| 1520
हीरू, करमाई,
ओएसवंष
अचल जयकेसरीसूरि
193
कपूराई
जी
193
3139 | 1523 सूहवदे, कुंअरि,
टबकू, रत्नादे, वनादे 3140 | 1525 | नागलदे, विमलादे
सूरि
| 194
वायड़. ज्ञा. तपा. श्री लक्ष्मीसागर | भ. श्री मुनिसुव्रत | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
चतु ओस, ज्ञा. मंडोवरा |धर्मघोष श्री साधूरत्नसरि | भ. श्री पार्श्वनाथ | पा.ज.धा.प्र.ले.स.
जी श्री. श्री. ज्ञा
पृक्षतपा. श्री ज्ञानसागर भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. सूरि
जी पूर्णिमा श्री गुणसमुद्रसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
गोत्र
3141 | 1529 | कूसरि, हेमाई
194
3142 | 1506 | राजू, रंगाई
194
3143
1547
रमाई
श्री. श्री. ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
3144 |1524 | गेमति मकांसु कमली | वायड़, ज्ञा.
पूर्णिमा श्री पुण्यरत्नसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
194
भ. श्री गौतम प्रतिमा जी भ. श्री नमिनाथ जी भ. श्री शांतिनाथ चतु जी भ. श्री सुमतिनाथ
3145
| 1525
श्री श्रीमाल ज्ञा.
श्री लक्ष्मीसागर सूरि ।
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 195
| सूहवदे, कुंअरि, रत्नादे सपूंरी, हर्षाई
31461541
वायड, ज्ञा.
भावडार भावदेव सुरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
196
जी
3147 | 1519 | राजू, संपूरी
भ. श्री
196
3148 | 1512 | लणू श्री
उपकेष ज्ञा. मंडोवरा | आगम. हेमरत्नसूरी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. गोत्र
धर्मनाथादिपंचतीर्थी
जी | नीमा. ज्ञा. धर्मघोष श्री साधुरत्नसुरिभ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी | प्रा. ज्ञा. | तपा श्री लक्ष्मीसागर सूरि | भ. श्री नमिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 196
3149
1523
लाडी, मंदोअरि
196
जी
3150 | 1529 | आसू, माकूणदे
प्रा. ज्ञा.
197
जी
3151 | 1564| हली, अहवदे
प्रा. ज्ञा.
197
3152
1521
धनाई
नीमा. ज्ञा.
बृहतपा. श्री
भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. विजयरत्नसुरि बृद्धतपा. श्रीलब्धिसागर | भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. सूरि तपा. श्री लक्ष्मीसागर भ. श्री संभवनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. सुरि तपा. श्री लक्ष्मीसागर भ. श्री नमिनाथ पा.ज.धा.प्र.ले.सं. सुरि
जी बृहतपा. श्रीविजयरत्नसूरि भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
197
जी
3153
| 1523
लाडी, मंदोअरि
श्री प्रा. ज्ञा.
197
3154
| 1529 | राजू, आसू, माकूणदे | श्री प्रा. ज्ञा.
197
| जी
3155
| 1521 | धनाई
प्रा. ज्ञा.
197
तपा. श्री लक्ष्मीसागर सुरि आगम देवरत्नसुरि
| भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
31561513 | राणी, लाषणदे
श्री. श्री. ज्ञा
197
जी
3157
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
198
1525 | राजूपु, वानूपु. श्री. श्री. ज्ञा.
माणिक | 1560 लीलू, जीवाई चंपाई दीसावाल ज्ञा
जी
3158
सद्गुरू
पा.जे.धा.प्र.ले.सं.
198
भ. श्री धर्मनाथ | जी
Page #552
--------------------------------------------------------------------------
________________
530
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत् । श्राविका नाम
वंश/गोत्र
।
प.
3159 | 1583 | रआदे, सिरीयादे
श्री. श्री. ज्ञा.
198
31601541 | सिरीठ लाडिकि
मोढ़. ज्ञा.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि पूर्णिमा श्रीसूरि भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी तपा. श्री. ......... | भ. श्री संभवनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
चतु जी नाणावाल. श्रीधने वरसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी वृद्धतपा. उदयसागरसूरि | भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
199
3161 | 1534 | भीमलदे जयतु।
1200
3162
1552 | काऊ, रंगी
मोढ़. ज्ञा.
200
जी
3163 | 1524 | सहिजलदे, कपूरी
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा गुणसुंदरसूरि
200
चतुर्विषांति पा.जै.धा.प्र.ले.सं. नमिनाथप्रतिमा भ. श्री पार्श्वनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
3164
1525 | रोहिणि
ओस. ज्ञा.
श्री विजयदान सूरि
201
3165 | 1529 | रूपाई, रतनाई
उपकेष वंष
भ. श्री वासुपूज्य | पा.ज.धा.प्र.ले.सं.
201
3166 | 1531
करणू पारबती
श्री. श्री. ज्ञा.
आगम. श्री भीलवर्धनसूरि
1201
भ. श्री संभवनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. जी भ. श्री नमिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
3167 | 1573 | आसी, मंगाई, पल्हाई | श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा सद्गुरू
201
3168
1510 | धाई, हंसाई
श्री. श्री. ज्ञा.
बृद्धतपा. श्रीरत्नसिंहसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
202
जी
3169
1512 | राजलदे
श्री. ज्ञा.
ब्राह्मणमुनिचंद्रसूरि
भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1202
3170
1515 | जसमादे
प्रा. ज्ञा.
तपा. सोहभागसूरी
भ. श्री आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
202
जी
3171 | 1517 . | वासू
श्री. श्री. ज्ञा.
श्रीसाधुसुंदरसूरि
भ. श्री विमलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
203
3172
| 1558
| रूडीसू
ओसवंष
श्रीसूरि
भ. श्री पाष्वर्नाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
1203
जी
3173|1527 | कर्ण, अदी, समू
उप. ज्ञा.
235
भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. जी भ. श्री नमिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
3174 | 1505 | फखुदे खेतलदे
जीरावाल श्री सागरचंद्रसूरि भट्टारक श्री वीर प्रभ सूरि पूर्णिमा. श्री देवचन्द्रसूरि
श्री. श्री. ज्ञा
235
जी
3175
1516 | वीझलदे
श्री. श्री. ज्ञा.
236
| भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. | जी | भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
3176 | 1516 | कील्हणदे सुलह
।
प्रा. ज्ञा.
पूर्णिमा. श्री देवचन्द्रसूरि
236
जी
3177 | 1505
धांधलदे
प्रा. ज्ञा.
श्री विजयसिंहसूरि
236
. भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी | भ. श्री कुन्थुनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
3178
11520 | गेरी, रूपमति
श्री. श्री. ज्ञा.
पिप्पल श्री धर्मसूरि
237
| जी
3179 | 1515 | खेतलदे, जयमादे
। | श्री. श्री. ज्ञा.
237
पिप्पल श्री विजयदेवसूरि भ. श्री चन्द्रप्रभ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| जी पिप्पल श्री रत्नदेव सूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
3180
|1524 | मंजूदे, विजयदे
श्री. श्री. ज्ञा.
237
जी
| 3181 | 1529 लीलादे, पल्हादे
। उपवंष
अंचल जयके सरिसूरि
238
| भ. श्री विमलनाथ पा.जे.धा.प्र.ले.सं.
जी भ. श्री सुमतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
3182 | 1510 | झनू , मचकू
प्रा.ज्ञा.
तपा श्री रत्न शेखरसूरि
238
जी
Page #553
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र० | संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
3183 | 1507 | महगलदे
238
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि ब्रह्माण श्री मुणिचंद्रसूरि | भ. श्री कुन्थुनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी श्री वीर सूरि
भ. श्री वासुपूज्य | ज.धा.प्र.ले.स.
जी बृहत्तपा श्री रत्नसिंहसूरि | भ. श्री अजितनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
3184 | 1503 | महीदे
श्री. श्री. ज्ञा.
239
3185 | 1527 | मथू, भांजी
प्रा. ज्ञा.
239
जी
प्रा. ज्ञा.
3186 | 1515 | लालूदे, राजू 3187 | 1524 | रूपा सूडी
240
भट्टा श्री लक्ष्मीसागरसूरि पिप्पल. श्री विजयदेव
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
श्री. श्री. ज्ञा.
भ. श्री संभवनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
240
31881510 | पाल्हणदे
श्री. श्री. ज्ञा.
भावडार. श्री वीर सूरि
| भ. श्री अभिनन्दन
जै.धा.प्र.ले.स.
| 241
3189 | 1503
लाडी, पालू
ब्रह्माण श्री. श्री.
श्री पज्जूनसूरि
भ. श्री वासुपूज्य | जै.धा.प्र.ले.स.
242
3190
1527 | हमीरदे
श्री. श्री. ज्ञा.
243
3191 | 1552 | वानू वरजू, कामलदे | श्री. श्री. ज्ञा,
पूर्णिमा विजयराज सूरि भ. श्री अजितनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी तपा. श्री. लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
जी पूर्णिमा कमलप्रभसूरि भ. श्री अजितनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
243
3192
1537 | गेली, टबकू
प्रा. ज्ञा.
244
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा कमलप्रभसूरि
जी | भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
244
3193|1533 | कर्मादे, माल्हणदे,
देवकु 3194 | 1529 | भावलनदे, लाडीदे
| ब्रह्माण, श्री. ज्ञा.
श्री बुद्धिसागरसूरि
245
भ. श्री संभवनाथ | जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री अजितनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
3195
1532 | पाल्हणदे, अहिवदे
श्री. श्री. ज्ञा.
| श्री शांतिसूरि
245
जी
| 1505 | हासूदे, नयनादे
श्री. श्री. ज्ञा.
अंचल जयकेसरिसूरि
| भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
255
3197 | 1503
कामलदे, हबूंदे, देही | श्री. श्री. ज्ञा.
तपा श्री रत्नशेखरसूरि
| भ. श्री विमलनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
255
जी
3198 | 1515
ओस. ज्ञा.
श्री सूरि
भ. श्री धर्मनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
256
जसमा, देवश्री, कामलदे, सोही पोमी लांबी
3199
1515
प्रा. ज्ञा.
सिद्धान्त श्री सोमचंद्रसूरि | भ. श्री चंद्रप्रभ जी जै.धा.प्र.ले.स.
256
3200
1538
भली
| श्री. श्री. ज्ञा.
| चैत्र श्री अमरदेवसूरि
भ. श्री चन्द्रप्रभ
जै.धा.प्र.ले.स.
256
जी
3201 | 1525
आजू
गुर्जर. ज्ञा.
तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री नमिनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
257
3202 | 1533
लाछू, देसल
श्री. श्री. ज्ञा.
3203 | 1545 | नथनी, पुतली
श्री. श्री. ज्ञा.
3204 | 1503 | माल्हणदे
नागेन्द्र श्री गुणदेवसूरि भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
| जी पूर्णिमा श्री देवसुन्दरसूरि | भ. श्री नमिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी बृहद श्री पार्श्वचन्द्रसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
जी श्री सर्वदेवसूरि भ. श्री पद्मप्रभु जै.धा.प्र.ले.स.
जी पूर्णिमा श्री साधुरत्नसूरि भ. श्री चन्द्रप्रभ | जै.धा.प्र.ले.स.
जी
3205 | 1513
देवली, संसार
उप. ज्ञा.
258
3206 | 1510
| मीनल
मीनल
श्री. श्री. ज्ञा.
259
Page #554
--------------------------------------------------------------------------
________________
432
क्र०
3207
3208
3209
3211
3212
3213
3210 1518
3214
3215
3216
3217
3218
3219
3220
3221
3222
संवत्
1506
1512
1568
3227
1532
1520
3230
1581
1523
1506
1564
1503
1508
1525
153
1552
3223 1537
1538
3224 1527
3225 1516
3226 1516
1505
3228 1516
3229 1524
1529
श्राविका नाम
वाहनदे
नूंजी, सूहवदे, नाई
सलखणा
नामल, भावदे
कमीदे, द्वीपदे रत्नदे
प्रेमी लीलादे
लीलादे वीझलदे
लांपूरधू
महिगल
श्रृगारदे हेमदे
जीवदही
हेमा पोलू लक्षम्या
गाऊ आल्हू नाई
दल्हणदे मल्हादे
करआ
धर्मादे भोजा
मालादे सिवा
रामति
फरकूदे खेतलदे
वीझलदे
कील्हणदे, सूलेसिरि
धांधलदे
खेतलदे, जसमादे
मांजू, वीजू
लीलादे पल्हादे
वंश / गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
ब्रह्माण. श्री. श्री.
उप. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ब्रह्माण. श्री. श्री.
श्री. श्री. ज्ञा.
उप.
उकेष
प्रा.ज्ञा.
श्री. संडेर
उकेष. वंष.
श्री वीर वंष
उप. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री. उएसवंष
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
पिप्पल श्री धर्मशेखरसूरि
जै.धा.प्र.ले.स.
थारापद्र विजयसिंहसूरि
भ. श्री आदिनाथ जै.धा.प्र.ले.स. चतु जी
मुनिचन्द्रसूरि
जै.धा.प्र.ले.स.
भावडार श्री भावदेवसूरि भ. श्री संभवनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
उपकेष
तपा श्रीलक्ष्मी सागरसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री चन्द्रप्रभ जी
भ. श्री चन्द्रप्रभ
जी
तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री विमलनाथ जै. धा.प्र.ले.स. जी
ब्रह्माण श्रीवीरसूरि
निगम प्रभावक
श्री सानन्दसूरि
तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि
श्री पज्जूनसूरि
पूर्णिमा रत्न शेखरसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
भ. श्री शांतिनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री वासुपूज्य
जी
जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी
जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
भ. श्री
पंच जी
वासुपूज्य
भ. श्री संभवनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
भ. श्री शांतिनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
जै.धा. प्र.ले.स.
भ. श्री वासुपूज्य जी खरतर श्री जिनचंद्रसूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
तपा श्रीरत्न शेखरसूरि
जै.धा.प्र.ले.स.
| अंचल श्री जयकेसरी सूरि
भ. श्री अनन्तनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
श्री वीरप्रभसूर
भ. श्री नमिनाथ
जै.धा. प्र.ले.स.
जी पूर्णिमा श्री गुणधीर सूरि भ. श्री अजितनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
पूर्णिमा श्री देवचंद्रसूरि
श्री विजयसिंह सूरी
पिप्पल श्री शीलभद्रसूरि
श्री रत्नदेव सूरि
अंचल केसरी सूरि
भ. श्री नदमप्रभ
जी
भ. श्री शीतलनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
भ. श्री आदिनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री चन्द्रप्रभ जै.धा.प्र.ले.स.
जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी
भ. श्री विमलनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
पृ.
259
260
261
262
262
262
263
264
265
265
237
237
237
238
238
238
105
106
106
107
107
107
108
108
Page #555
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
।
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि तपा श्री रत्न शेखरसूरि भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
प्रा. ज्ञा.
3231 | 1510 | झनू, मचकू 3232 | 1503 महीदे
जी
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री वीरसूरि
भ. श्री वासुपूज्य | जै.धा.प्र.ले.स.
109
जी
3233 | 1527
मापू, राजलदे
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री. लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री संभवनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
32341515 मथू, मांजी
प्रा. ज्ञा.
वृद्धतपा. रत्नसिंह सूरि
भ. श्री अजितनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
1110
जी
3235 | 1524 | लालू, राजू
श्री. ज्ञा.
श्री लक्ष्मी देव सूरि
श्रेयांसनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.स.
110
3236 | 1506
रूपादे
श्री. श्री. ज्ञा.
पिप्पल. विजयदेव सूरि
111
भ. श्री संभवनाथ | जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री अभिनन्दन जै.धा.प्र.ले.स.
3237
1510 | पाल्हणदे
श्री. श्री. ज्ञा.
भावडार श्री सूरि
111
जी
3238 | 1503 | लाडी, पालूदे
श्री. श्री. ज्ञा.
| श्री पूजन सूरि
भ. श्री वासूपुज्य
जै.धा.प्र.ले.स.
112
3239 | 1503 | कमलादे
श्री वीरसूरि
भ. श्री नमिनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
112
3240 | 1527 | हमीरदे
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री शांतिसूरि
भ. श्री अजितनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
113
3241
| 1552 | वानू वरजू
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा. विजयराज सूरि
| भ. श्री सुमतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
113
जी
3242 | 1537 | गोली, टूंबी
श्री. प्रा. ज्ञा.
114
| तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री अजितनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी श्री कमलप्रभसूरि भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
3243 | 1533 | करमी, माल्ही, देकूनि | श्री. श्री. ज्ञा.
114.
जी
3244
1501 | जेसलदे
श्री. श्री. ज्ञा.
| नागेन्द्र श्री विनयप्रभसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी
3245
1505 | लाढी, सोनाई
लठाउरागोत्र
खरतर. श्री जिनभद्रसूरि
.
भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री शांतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
3246
|
1517 | सुहवदे
श्री. श्री. ज्ञा.
पिप्पल. श्री धर्म सागर
सूरि
जी
3247
| 1506 | पातली |
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा
3248 11511 खेतलदे, भोली,
कामलदे 3249 | 1506 | वापू
श्री जिनमाणिक्यसूरि भ. श्री नमिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी पिप्पल श्री उदयदेवसूरि भ. श्री नमिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
| जी पूर्णिमा श्री वीरप्रभसूरी भ. श्री शांतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
जी अंचल श्री जयकेसरीसूरी | भ. श्री संभवनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
श्री. श्री. ज्ञा
3250 | 1536 | रयणादे, माणिकदे
।
श्री उएसवंष
100
जी
3251
1511
मदी
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री सूरि
भ. श्री अजितनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
100
3252
1560 | रंगी, पालू
श्री. श्री. ज्ञा.
नागेन्द्र श्री हेमसिंहसूरि
भ. श्री शांतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
101.
3253 |1521 | कल्हणदे
उप. ज्ञा.
धर्मधोष श्री दयमानंद
ज.धा.प्र.ले.स.
| भ. श्री सुमतिनाथ
जी
101
सूरि
Page #556
--------------------------------------------------------------------------
________________
534
क्र०
3254
3255
3256
3257
3258
3259
3260
3261
3262
3263
3264
3265
3266
3269
3270
3272
3273
संवत्
1532
3275
1560
3276
1543
3277
1523
1536
1517
1548
3267 1508
1513
3268 1506
1527
1534
1505
1517
1535
3271 1510
1527
1571
3274 1517
1529
1516
1511
1525
1510
श्राविका नाम
सरसइ रंगी
हांसलदे अधिकादे
जीविणी माणिकी
जसू रत्नादे
रत्नादे वील्हदे
हेली
| मांजू माकू मल्हई
नोडी, कली
मणिकदे
माल्हणदे, टूंबी
सिणगार देवी
भाणी मानू
विमलादे
आषादेवी
वापलदे
बागू
लीलादे ऊमादे
लूणदे वाल्हादे
धांधलदे आसू
कमलादे
हरखू
संसारदे, नयणादे
गुरदे, हीरादे
पाल्हणदे, हीरा
वंश / गोत्र
उपकेष. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा
प्रा. ज्ञा.
श्री. ब्रह्माण.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री सिद्ध शाखीय
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
उकेष वंष
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
भावडार श्री भावदेवसूरि
तपा श्री कमलसूरि
श्री सौभाग्यरत्नसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ आदि
भ. श्री नमिनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
जी
ब्रह्माण श्री वीर सूरि
भावडार श्री वीर सूरि
भ. श्री वासुपूज्य
जी
तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री अभिनंदन जैधा.प्र.ले.स. जी
श्री बुद्धिसागर सूर
भ. श्री शीतलनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी पिप्पल श्री गुणरत्न सूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
श्री पद्मनंदी सूरि
ब्रह्माणमणिचंद्रसूरि
जै.धा. प्र.ले.स.
भ. श्री शीतलनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
पिप्पल शालिभद्रसूरि
श्री लक्ष्मीसागरसूरि
श्री पज्जुनसूरि
भ. श्री नमिनाथ
जी पूर्णिमा. श्री पुण्यरत्नसूरी भ. श्री नमिनाथ
जी
खरतर श्री जिनभद्रसूरी
पिप्पल श्री शुभचन्द्रसूरि
पिप्पल श्री उदयदेवसूरी
भ. श्री शीतलनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी पूर्णिमा श्री पुण्यरत्नसूरी भ. श्री कुंथुनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
जी
श्री आनन्दसागरसूरी
भ. श्री शांतिनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
पिप्पल क्षेम षेखर सूरि
आगम श्री अमररत्नसूर
भ. श्री पदमप्रभु जी पिप्पल श्री उदयदेवसूरि भ. श्री नमिनाथ जी
खरतर श्री जिनचंद्रसूरि
श्री धर्मसुन्दरसूरि
Y
भ. श्री आदिनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री आदिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी
भ. श्री नमिनाथ
जी
जै.धा. प्र.ले.स.
भ. श्री धर्मनाथ
जी
जै.धा.प्र.ले.स.
जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री शीतलनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
भ. श्री शांतिनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
जै.धा.प्र.ले.स.
जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री शांतिनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री अजितनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी
भ. श्री आदिनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
पृ.
101
102
102
103
103
103
103
104
104
105
86
87
87
88
88
89
89
90
9
90
90
91
91
91
92
Page #557
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
3278
3279
3280
3281
3282
3283
3284
3285
3289
3290
3291
3292
3293
3294
3286 1515
3295
3287 1528
3296
3288 1534
3297
3298
संवत्
3299
1561
3300
1530
3301
1501
1524
1517
1511
1536
1519
1533
1522
1510
1506
1517
1507
1506
1510
1528
1534
1515
1517
1535
श्राविका नाम
पावी. वरजू
ला धांधलदे
मूली, ललितादे
सीरी, पांतीदे
विल्हदे, धीरू
मदी
वंश / गोत्र
हां
तिलुश्री
माल्हण देवी
माल्हणदेवी, लाबू देमति तेजू मी
धापू
सुहवदेवी, नीनादेवी
हीरादेवी, नीनादेवी
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
चमकू अमकू
श्री. श्री.
लाछनदेवी, हमीरदेवी, श्री. श्री. ज्ञा. वयजलदेवी
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
खेतलदेवी, राजलदेवी श्री. श्री. ज्ञा. महिगलदेवी
बाहीदेवी
श्री. श्री. ज्ञा.
लखी, कीमी
लाछू देवली
साल्हीकेन
भावदेवी, हेमला
लूणादेवी
कपूरदेवी
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
उप ज्ञा श्री गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री ब्रह्माण
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
उपकेष
श्री. प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री उएस वंष
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
पिप्पल भट्टारक श्री धर्मप्रभसूर
पिप्पल श्री अमरचन्द्रसूरि
श्री पूजनसूरि
तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि
पूर्णिमा श्री मुनिसिंहसूरि
पूर्णिमा श्री राज तिलकसूर
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री नमिनाथ
जी
पिप्पलधर्मषेखरसूरि
श्रीपज्जूनसूरि
सिद्धांती सोमचन्द्रसूरि
पिप्पलधर्मषेखरसूरि
खरतर निभद्रसूरि
बृहत्तपा ज्ञानसागरसूरि
श्री सूरि
पूर्णिमा श्री साधुरत्नसूरि
श्री विजय सिंह सूरि
श्री विजयसिंह सूरि
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री वासुपूज्य
जी
जै.धा. प्र.ले.स.
भ. श्री शीतलनाथ जै.धा. प्र.ले.स.
जी
जै.धा. प्र.ले.स.
भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री सुमितिनाथ जै. धा.प्र.ले.स. जी पूर्णिमा श्री गुणधीर सूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी
पिप्पल श्री अमरचन्द्रसूरि भ. श्री शीतलनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
पिप्पल श्री चन्द्रप्रभुसूरि
चैत्र श्री ज्ञानदेवसूरि
भ. श्री आदिनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री शांतिनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी नागेन्द्र श्री गुण देवसूरि भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
| उपकेष श्री कक्कसूरि
पिप्पल धर्मषेखरसूरि
भ. श्री विमलनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री शीतलनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
भ. श्री शांतिनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
भ. श्री श्रेयांनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री अजितनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
भ. श्री शीतलनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री शांतिनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
भ. श्री नमिनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
पृ.
92
92
121
92
93
93
93
94
76
76
76
77
77
77
77
77
77
79
79
80
80
81
82
83
84
535
Page #558
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
536
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
| प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
गच्छ/आचार्य | आदि अंचल श्री जयकेसरीसूरी | भ. श्री धर्मनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
3302 | 1507 | मोटी, जयरू
वीरवंष
जी
3303 | 1501 | सुहवदेवी
बुध गोत्र श्री श्री ज्ञा | थारापद्र विजयसिंहसूरि
| भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी
3304
1511
गेली, बाऊ
श्री. श्री. ज्ञा.
चैत्र श्री लक्ष्मीदेव सूरि । | भ. श्री आदिनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
जी
3305
| 1533
डाही. रंगी
श्री. श्री. ज्ञा.
| पिप्पल श्री पद्मनंदीसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
जी श्री हेमरत्नसूरि, आगम | भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
3306
1505 | खीमलदेवी, मांजूदेवी | श्री. ज्ञा.
जी
3307 | 1515
जानू देवी
श्री. ज्ञा.
पूर्णिमासाधुरत्नसूरी
3308 | 1513 | बाईपन्नावीदे, राजू
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री सोमचन्द्रसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री श्री जै.धा.प्र.ले.स. कुंथुनाथ जी भ. श्री श्री जै.धा.प्र.ले.स. विमलनाथ जी भ. श्री पार्श्वनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
3309 | 1528 | भाणी
श्री. श्री. ज्ञा.
धर्मसागरसूरी
3310
1519 | हरखू
श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा श्री साधुरत्नसूरि
जी
3311 | 1512 | पाल्हदे, माल्हणदेवी
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री वीरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
3312 | 1583 | पुंजरी, हेमा देवी
श्री यक्षदेवसूरि
भ. श्री शांतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
जी
3313
1536 | धर्मिणी, गूरी, कुंअरी | श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा श्री पुण्यरत्नसूरि
| भ. श्री आदिनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
जी
सिका
3314
1528 | फदू
श्री. श्री. ज्ञा.
वजनात कामाला जाना
पिप्पल श्री धर्मसागरसूरि | भ. श्री शांतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
श्री जयकीर्तिसूरी
भ. श्री अजितनाथ
जै.धा.प्र.ले.स..
3315 1501 कमला देवी, अंचल
माल्हणदेवी 3316 | 1513 | कर्मादेवी, धारणदेवी | श्री. श्री. ज्ञा.
जी
चैत्र श्री लक्ष्मीदेवसूरि
भ. श्री अजितनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
3317 | 1511 | रतूदेवी
श्री. श्री. ज्ञा.
3318 | 1509 | राजी, पूरी
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
| राजतिलकसूरि, श्री सूरि | भ. श्री कुंथुनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
जी सिद्धान्ती सोमचन्द्रसूरि भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी पिप्पल श्री सामचन्द्रसूरि भ. श्री शीतलनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी श्री प्रद्युम्नसूरि भ. श्री विमलनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी बाह्माण श्री वीर सूरि भ. श्री शांतिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी अंचल श्रीजयकेसरीसूरि | भ. श्री सुविधिनाथ| जै.धा.प्र.ले.स.
3319 | 1509 हांसलदेवी,
चांपलदेवी, लूणादेवी 3320 | 1505 परमलदवा,
सिंगारदेवी 3321 1525 | कसमीर ज्ञ. फली
झाबली 3322 | 1528 | टीबू, धारिणी
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. वंष
3323 | 1513 | डाही, लाछी
पूर्णिमा जय शेखरसूरि
| भ. श्री शांतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री सुमतिरत्नसूरि
3324 | 1580 | राखीसुत, हमीरदेवी,
नीति 3325 | 1517 | वाल्ही
| भ. श्री सुपार्श्वनाथ जै.धा.प्र.ले.स. |जी
भ. श्री विमलनाथ जै.धा.प्र.ले.स. |जी
प्रा. ज्ञा.
श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
Page #559
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत् ।
श्राविका नाम
3326
1563
अमरी
74
वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ ।
गच्छ/आचार्य आदि श्री. श्री. ज्ञा. पूर्णिमा सुमतिप्रभुसुरी | भ. श्री चन्द्रप्रभु जै.धा.प्र.ले.स.
जी श्री ब्रह्माण श्री. ज्ञा | श्री वृद्धि सागर सूरि भ. श्री संभवनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
115
जी श्री. श्री. ज्ञा. श्री शांतिसूरि
भ. श्री अजितनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
115
3327
| 1529 | भावलदे
3328 | 1532 | पाल्हणदे, अहिवदे
जी
115
116
3329 | 1513 | वानू वाल्ही, गोमति |श्री मूलसंघ सरस्वती | श्री विमलेंद्र
भ. श्री शांतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
| जी 3330 | 1537 | रत्नू धन्नी श्री वीर वा अंचल जयकेसरी सूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी 3331 | 1591 लाखू, लालीदे श्री. श्री. ज्ञा ब्राह्मण श्री विमलसूरि भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
जी 3332 | 1552 | झाझु जारू, रामती | श्री. श्री. वंष अचल सिद्धांतसागरसूरि भ. श्री कुंथुनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
जी 33331515 लाछू
श्री. श्री. ज्ञा. वीरसूरि जिनदेवसूरि भ. श्री शीतलनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
116
119
119
3334
| 1547
रमकू टमकू
प्रा. ज्ञा.
जै.धा.प्र.ले.स.
121
3335
| 1517 | राणलदे, माणकदे
श्री. उएसवंष
अंचल सिंद्धान्तसागरसूरि भ. श्री शांतिनाथ
जी अंचल जयकेसरी सूरी भ. श्री चन्द्रप्रभ
जी नागेन्द्र श्री विनयप्रभसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
121
3336 | 1507 | राजलदे
श्री. श्री. ज्ञा.
जै.धा.प्र.ले.स.
121
| जी
1582
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा श्री कमलप्रभसूरि | भ. श्री संभवनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
124
| जीविनी, वइजलदे
लीला हांसू, नयणादे
जी
3338
| श्री. श्री. ज्ञा.
अंचल जयकेसरी सूरि
भ. श्री सुविधिनाथ| जै.धा.प्र.ले.स.
125
3339
| 1503 | कामलदे, हर्ष देही
श्री. श्री. ज्ञा.
तपा. श्री रत्नषेखरसूरी
| भ. श्री विमलनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
125
जी
श्री सूरि
भ. श्री धर्मनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
125
3340 | 1555 | जसमादे, देवासिरी, |श्री ओसवंष
कामलदे, सोही 3341 | 1515 | पोमी, लावी
प्रा. ज्ञा.
भ. श्री चन्द्रप्रभ
जै.धा.प्र.ले.स.
126
सिद्धान्ती श्री सोमचन्द्रसूरि चैत्र अमरदेवसूरि
जी
3342
1538 |भाली
श्री. श्री. ज्ञा.
भ. श्री चन्द्रप्रभ
जै.धा.प्र.ले.स.
126
3343 | 1525 | आसू
गुर्जर ज्ञा.
श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री नमिनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
126
1533
लाछू देसलदे
श्री. श्री. ज्ञा.
126
नागेन्द्र श्री गुणदेव सूरि भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
अ पूर्णिमा श्री देवसुंदरसूरी | भ. श्री नमनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
3345
| 1545 | नागिनी, पूतली
श्री. श्री. ज्ञा.
127
जी
3346
1503 | माल्हणादे
श्री. श्री. ज्ञा.
जै.धा.प्र.ले.स.
3347 | 1513 | देवलदे, संसारदे
।
श्री. उपकेष ज्ञा
बृहद् पार्श्वचन्द्रसूरि भ. श्री सुमतिनाथ
जी वङ श्री सर्वदेवसूरि | भ. श्री पद्मप्रभु
जी पूर्णिमा श्री साधुरत्नसूरी भ. श्री चन्द्रप्रभ
जै.धा.प्र.ले.स.
3348
1510
मीलणदे
श्री. श्री. ज्ञा.
जै.धा.प्र.ले.स.
128
जी
3349
1506 | वाहणदे
श्री. श्री. ज्ञा.
पिप्पल श्री धर्मशेखरसूरि
भ. श्री चन्द्रप्रभ
जै.धा.प्र.ले.स.
130
जी
Page #560
--------------------------------------------------------------------------
________________
538
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र. | संवत् ।
श्राविका नाम |
वंश/गोत्र
आदि
3350
1512 | पूंजी, सुहवदे, नाईदे | श्री. श्री. ज्ञा.
। प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
गच्छ/आचार्य श्री विजयसिंहसूरी भ. श्री आदिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
जी | मुनिचन्द्रसूरि भ. श्री चन्द्रप्रभ | जै.धा.प्र.ले.स.
130
3351 | 1568 | सलखू
श्री. श्री. ज्ञा.
131
3352
| 1518
आमलदे, माउदे
| उपकेष ज्ञा
भावडार श्री भावदेव सूरि | भ. श्री संभवनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
131
3353
1532 | कर्मा, दीपीदे
132
3354 | 1520 | हरखू, कुंअरि
श्री. श्री. वंष.
133
3355
1525 | प्रीमी, लीलू
श्री. श्री. ज्ञा.
133
तपा श्री लक्ष्मी सागरसूरि भ. श्री विमलनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
| जी अंचल श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री वासुपूज्य | | जै.धा.प्र.ले.स.
जी ब्रह्माण श्री वीर सूरि भ. श्री कुंथुनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी निगमप्रभावके आनंदसूरि | भ. श्री शांतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
जी तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री वासुपूज्य | जै.धा.प्र.ले.स.
जी श्री पजूनसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
3356
| 1581 | लीलादे, वीझलदे
श्री. श्री. ज्ञा.
3357
1523 | मेंहा, मरधू
प्रा. ज्ञा.
3358
1506 | महिगल
श्री. श्री. ज्ञा.
3359 | 1564 | सिंगारदे, हीमादे
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा रत्न शेखरसूरि
| जै.धा.प्र.ले.स.
135
जी
3360 | 1581 | पातमदे,
श्री. श्री. ज्ञा.
आगम श्री सोमचन्द्रसूरि
135
भ. श्री जी जै.धा.प्र.ले.स. मुनिसुव्रतनाथ भ. श्री वासूपुज्य | जै.धा.प्र.ले.स.
3361 | 1507 | वामूणादे,
श्री. श्री. ज्ञा.
पिप्पल चन्द्रसागरसूरि
135
जी
3362 | 1508 | टहीकू ,
श्री. श्री. ज्ञा.
सिद्धांतीय सोमचंद्रसूरि
| भ. श्री शांतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
136
जी
3363 | 1508 | माल्हणदे, सलखा
| श्री. श्री. वंष.
137
3364 | 1508 | दूयडी
137
अंचल श्री जयकेसरीसूरी | भ. श्री वासूपुज्य | जै.धा.प्र.ले.स.
जी जीरापल्ली उदयचंद्रसूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी पूर्णिमा मुंनिचंद्रसूरि भ. श्री जी जै.धा.प्र.ले.स.
मुनिसुव्रतनाथ पूर्णिमा श्री जयप्रभसूरी भ. श्री धर्मनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
3365
|
1553 | हY, लीलाई
प्रा. ज्ञा.
138
3366
1519 | हमीरदे, जमनादे
श्री. श्री. ज्ञा.
139
जी
श्री. श्री. ज्ञा.
139
3367 1515 | रतनादे, ललितादे
रूपिणी, झाझु 3368 | 1519 | हीमादे, चांपू
पूर्णिमा श्री साधुसुंदरसूरी | भ. श्री नमिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
जी अंचल श्री जयकेसरीसूरी भ. श्री चन्द्रप्रभ जै.धा.प्र.ले.स.
श्री. श्री. ज्ञा.
139
जी
3369
| 1520 | झबू, वारू
140
भ. श्री आदिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
जी पूर्णिमा श्री जिनहर्षसूरी | भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
3370
158
जाणी
प्रा. ज्ञा.
140
जी
3371 | 1518 | कील्हणदे
श्री. उपकेष ज्ञा
141
धर्मघोष श्री पद्मानंदसूरि भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी श्री सूरि
भ. श्री शांतिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
3372
1587 | वानू लवणदे
श्री. श्री. ज्ञा.
141
जी
3373
1519 | माई, सुलेसिरि
श्री. प्रा. ज्ञा.
अंचल श्री जयकेसरीसूरि भ. श्री संभवनाथ
|जी
जै.धा.प्र.ले.स.
142
Page #561
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
3374
| 1511 | पाल्हणदे वीकलदे | श्री. श्री. ज्ञा.
175
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ । गच्छ/आचार्य
आदि पूर्णिमा श्री
भ. श्री अजितनाथ जै.धा.प्र.ले.स. राजतिलकसूरि श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री विमलनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
जी बृहत्तपा श्री जिनरत्नसूरि | भ. श्री मुनिसुव्रत | जै.धा.प्र.ले.स.
जी
3375 | 1523 | लखमादे अमरीनाथी | प्रा. ज्ञा.
176
3376 | 1532 | आजी, झाली, रामति | प्रा. ज्ञा.
176
जी
3377
1527 | डाही, आसी
श्री. श्री. ज्ञा.
जै.धा.प्र.ले.स.
177
विमल श्री धर्मसागरसूरि भ. श्री श्री
अजितनाथ जी | पूर्णिमा श्री गुणसमुद्रसूरी | भ. श्री कुंथुनाथ
3378 | 1505 | सामलदे
श्री. श्री. ज्ञा.
जै.धा.प्र.ले.स.
177
जी
3379 | 1532 | धांधलदे फकू
श्री. श्री. वंष
अंचल जयकेसरी सूरि । भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी
3380 | 1513 | सुहडदे, अमरी
पूर्णिमा श्री कमलसूरि
1178
3381
| 1590 | सोनाई
मोढ ज्ञा
तपा श्री धनरत्नसूरि
178
3382 | 1510 | सोहगदे, मांगू
श्री. श्री. ज्ञा.
| नागेन्द्र गुण समुद्रसूरि
भ. श्री शांतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री शांतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
जी | भ. श्री कुंथुनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
जी भ. श्री नमिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
जी | भ. श्री विमलनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
178
3383 | 1582 | सुहवदे, सिरिया
श्री. श्री. ज्ञा.
चैत्र श्री विजयदेवसूरि
179
3384
| 1515 | वरजू, सोनू
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा सागरतिलकसूरि
179
3385
1505 | खीमलदे, मांजु
श्री. ज्ञा.
आगम श्री हेमरत्नसूरि
| भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
3386
1515 | जानूदे
श्री. ज्ञा.
193
3387
| 1501 | पत्रापदी, राजू
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा श्री साधुरत्नसूरी | भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी सिद्धांत श्री सोमचंद्रसूरि भ. श्री कुंथुनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
जी पिप्पल श्री धर्मसागरसूरि | भ. श्री विमलनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
194
3388
| 1528
रतनू, भाणीदे
श्री. श्री. ज्ञा.
1519 | हरखू, भवकूबाई
श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा श्री साधुरत्नसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
3390 | 1512 | पाल्हणदे, माल्हणदे | श्री. ज्ञा.
श्री वीरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
3391
| 1583 | पुजारदे, हेमादे
उप. ज्ञा.
श्री यक्षदेवसूरि
| पूर्णिमा श्री पुण्यरत्नसूरि
3392 1536 | धर्मिणी, गूरी, कुंअरी | श्री. श्री. ज्ञा.
रलमाण 3393 | 1528
श्री. श्री. ज्ञा.
भ. श्री शांतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.रा.
जी | भ. श्री आदिनाथ | जै.धा.प्र.ले.न. | जी | भ. श्री शांतिनाथ जै.धा.प्र.
पिप्पल धर्मसागरसूरि
जी
3394
1501 | कमलादे माल्हणदे
198
अंचल श्री जयकीर्तिसूरि | भ. श्री अजितनाथ जै.धा ।
जी | चित्र श्री लक्ष्मीदेवसूरि भ. श्री अजितनाथ जैसा
3395
| 1513 | कर्मादे, धारण
श्री. श्री. ज्ञा.
198
3396
1511 | रतू
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री सूरि
भ. श्री कुन्थुनाथ
198
जी
| 3397 | 1509 | राजी, पूरी
श्री. श्री. ज्ञा.
सिद्धान्त श्रीसोमचन्द्रसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ
जी
Page #562
--------------------------------------------------------------------------
________________
540
क्र० संवत्
3398
3399 1525
3400
3401
3402
3404
3406
3403 1517
3408
3409
3405 1519
3410
1505
3412
3407 1528
3413
1528
1513
1580
3417
1563
3419
1515
3411 1510 भावलदे
3421
1534
1533
1522 साल्हादे
3414 1508
1506
3415 1506
1517
3416 1510
श्राविका नाम
प्रीमलदे, सिंगारदे
काषमीरश्री, फली झाबली, पांची
टीबू, धारिणी
डाही, लाछी
राखी, हमीरदे, नीति
रूडी, वाल्ही
अमरी
लाछादे, हीमरादे
खेतलदे, राजलदे महिगलदे
वल्ही
लाखी, कीमी
लाछू देवली
3418 1534 तेजू
3420 1517
1528 माल्हवदे, लाम्ब देवमति
लूणादे
कर्पूरदे
टही, हासू
तिलश्री
1516
माल्हवदे
1515 धापू
सुहवदे
श्रीदे, नीनादे
वंश / गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. वंष
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
थिरापद्रनगर श्री
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
उप ज्ञा
श्री. श्री. ज्ञा.
थारापद्र
ब्रह्माण
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
उप भणसाली
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
श्री प्रद्युम्नसूर
श्री वीरसूरि
अंचल श्री जयकेसरीसूरि
पूर्णिमा जय शेखरसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री विमलनाथ जै.धा.प्र.ले.स. चतु. जी
भ. श्री शांतिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
चतु. जी भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा. प्र.ले.स.
जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री शांतिनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
पूर्णिमा श्री सुमतिरत्नसूरि
तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि
पूर्णिमा श्री सूमितिनाथ
पिप्पल श्री अमरचन्द्रसूरि भ. श्री शीतलनाथ जै.धा.प्र.ले.स. चत. जी
पिप्पल श्री चंद्रप्रभसूरि
चैत्र श्री ज्ञानदेवसूरि
तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि
नागेन्द्र श्री गुणदेवसूरि
उपकेष श्री कक्कसूरि
पिप्पल धर्म शेखरसूरी
पिप्पल धर्म शेखरसूरि
श्री प्रद्युम्नसूर
भ. श्री अजितनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी सिद्धान्त श्री सोमचंद्रसूरि भ. श्रीषीतलनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
जी
पिप्पल धर्म शेखरसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
खरतर श्री जिनभद्रसूरि
बृहत्तपा ज्ञानसागरसूरी
डीसावालनगर श्री सूरि
पूर्णिमा श्री साधुरत्नसूरि
पिप्पल
धर्मषेखरसागरसूर श्री विजयसिंहसूर
भ. श्री सुपार्श्वनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री विमलनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
भ. श्री चंदप्रभ जी जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री आदिनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
भ. श्री विमलनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री शांतिनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
भ. श्री सुविधिनाथ जै. धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री शीतलनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री शांतिनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री शांतिनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री शांतिनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै. धा.प्र.ले.स.
जी
जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री शांतिनाथ जै.धा. प्र.ले.स.
जी
भ. श्री नमिनाथ
जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा. प्र.ले.स. जी
पृ.
199
200
200
201
201
202
202
202
204
204
205
205
205
205
206
206
207
207
207
208
208
209
210
211
Page #563
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
541
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
।
।
पृ.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि अंचल श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री संभवनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
3422 | 1535 | हीरादे, पूर्णिमादे
उप ज्ञा.
1212
जी
3423|1507 | मोटी जयरूदे
अंचल श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री धर्मनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
213
जी
3424 | 1501 | सुहवदे
213
3425
1511 | गेली बाऊ
वराही श्री. श्री. ज्ञा. | श्री विजयसिंह सूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी श्री. श्री. ज्ञा. चैत्र श्री लक्ष्मीदेवसूरि भ. श्री आदिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी श्री. श्री. ज्ञा. पिप्पल श्री पदमानन्दसूरि भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
213
3426
1553 | डाही रंगी
1214
3427 | 1505 | श्रृंगारदे, महंगदे
श्री. श्री. ज्ञा.
जै.धा.प्र.ले.स.
214
श्री पज्जूनसूरि भ. श्री नमिनाथ
जी पूर्णिमा श्री पुण्यरत्नसूरि | भ. श्री नमिनाथ
3428 | 1517 | भानी, भानू
श्री. श्री. ज्ञा.
जै.धा.प्र.ले.स.
214
जी
3429
1535 | विमलादे
उप. ज्ञा.
खरतर श्री जिनचंद्रसूरि
जै.धा.प्र.ले.स.
| 215
भ. श्री नमिनाथ जी भ. श्रीषीतलनाथ
34301598 | कर्माद
श्री. श्री. ज्ञा.
पिप्पल श्री भानुचंद्रसूरि
जै.धा.प्र.ले.स.
215
3431 | 1506
चापलदे
श्री. श्री. ज्ञा.
पिप्पल श्री उदयदेवसूरि | भ. श्रीषीतलनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
216
3432
1527 | बागू
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा श्री रत्नसूरि
| भ. श्री कुंथुनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
217
3433
| 1581 | लीलादे, उमादे
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री आनन्दसागरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
217
3434 | 1510 | लूणादे, वाल्हीदे
श्री. श्री. ज्ञा.
218
3435
1529 | धांधलदे, आ दे
श्री. श्री. ज्ञा.
1218
पिप्पल श्री क्षेमषेखरसूरि | भ. श्री शांतिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी आगम अमर रल सूरि | भ. श्री पद्मप्रभ जै.धा.प्र.ले.स.
जी पिप्पल श्री सोमचन्द्रसूरि | भ. श्री नमिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
| जी खरतर श्री जिनचंद्रसूरि भ. श्री शांतिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
3436 | 1516 | कमलादे
श्री. श्री. ज्ञा.
218
3437
1517 | हदि
श्री. ज्ञा.
219
जी
3438 | 1511 | संसारदे, नयनादे
श्री. ज्ञा.
219
3439 | 1525 | गुरूदे, हीरादे
श्री. श्री. ज्ञा.
पिप्पल श्री धर्मसुन्दरसूरि | भ. श्री धर्मनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी ब्रह्माण श्री वीरसूरि | भ. श्री अजितनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी भावडार श्री वीरसूरि | भ. श्री आदिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
219
3440 | 1510 | पाल्हणदे
श्री. श्री. ज्ञा.
220
जी
3441 | 1561
पावी, वरजू
श्री. श्री. ज्ञा.
220
| पिप्पल श्री धर्मप्रभसूरि | भ. श्री नमिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी | पिप्पल श्री अमरचन्द्रसूरि | भ. श्री शीतलनाथ| जै.धा.प्र.ले.स.
3442 | 1530
लाछू, धांधलदे
| श्री. श्री. ज्ञा.
220
3443
| 1501 | मूला, ललिता, रत्नू
| श्री. श्री. ज्ञा.
221
श्री पज्जूनसूरि भ. श्री वासुपूज्य | जै.धा.प्र.ले.स.
जी तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि | सुविधिनाथ जी भ. जै.धा.प्र.ले.स.
3444 | 1524
श्रीदे, पांतीदे
प्रा. ज्ञा.
221
श्री
3445
1517 | विल्हणदे, धीरजदे
श्री. ज्ञा.
221
पूर्णिमा श्री मुनिसिंह सूरि | भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
| जी
Page #564
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि पूर्णिमा राजतिलकसूरि भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
3446
1511 | मदी
श्री. श्री. ज्ञा.
222
जी
3447
| 1536 | चमकू, अमकू
| श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा श्री गुणधीरसूरि
| भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
222
3448 | 1501 | जेसलदे
| श्री. श्री. ज्ञा.
नागेन्द्र विनय प्रभसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
222
जी
3449 | 1505 | लाठी सुवण
लढाऊ गोत्र
223
खरतर श्री जिनभद्रसूरि | भ. श्री सुविधिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी पिप्पल श्री धर्मसागरसूरि | भ. श्री शांतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
3450
1510 | सुहवदे
श्री. श्री. ज्ञा.
223
जी
3451
1512 | सुहवदे
श्री. श्री. ज्ञा.
224
3452 | 1506 | पतली
श्री. श्री. ज्ञा.
पिप्पल श्री धर्मसागरसूरि | भ. श्री शांतिनाथ | ज.धा.प्र.ले.स.
जी | श्री जिनमाणिक्यसूरि | भ. श्री नमिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
जी पिप्पल श्री उदयदेवसूरि भ. श्री नमिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
224
श्री. श्री. ज्ञा.
225
3453 1511 | खेतलदे भोली
कामलदे 3454 | 1506 | वापुदे
जी
श्री. श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा श्री वीर प्रभसूरि
भ. श्री शांतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
229
जी
3455
| 1536 | रयवा, माणिक
उप. ज्ञा.
अंचल श्री जयकेसरीसूरि
| 229
भ. श्री संभवनाथ | जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री अजितनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
3456 | 1511 | मदी
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री सूरि
229
3457
1560 | रंगी, पालू
| श्री. श्री. ज्ञा.
230
| नागेन्द्र श्री हेमसिंहसूरि | भ. श्री शंतिनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी धर्मघोष श्री पदमानंदसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
3458
1521 | केल्हणदे
उप. ज्ञा. नाहर
230
जी
3459
1532 | सरस्वती, रंगी
उप. ज्ञा.
भावडार श्री भावदेवसूरि
भ. श्री नमिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
230
3460 | 1560 | हासलदे, अधिकादे
तपा श्री कमलसूरि
231
| भ. श्री वासुपूज्य | जै.धा.प्र.ले.स. | जी | भ. श्री शीतलनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
3461
1543 | जीवनीदे, मणिकदे
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री सौभाग्यरत्नसूरि
231
जी
3462
15
पंगादे, मटकूदे
प्रा. ज्ञा.
वृद्धतपा जिनसुन्दरसूरि
| भ. श्री विमलनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
231
जी
3463 | 1523 | जसूदे, रतनादे
श्री. श्री. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
| भ. श्री अभिनन्दन
जै.धा.प्र.ले.स.
232
जी
3464 | 1526 | रत्नादे, वील्हणदे
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री बुद्धि सागर सूरि
भ. श्री सुमतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
232
जी
3465
1517
हेली
श्री. श्री. ज्ञा.
232
पिप्पल श्री गुणरत्नसूरि । | भ. श्री श्रेयांसनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
जी पिप्पल. पद्मानन्दसूरि | भ. श्री शांतिलनाथ जै.धा.प्र.ले.स.
3466
| 1548
| गांजूदे, गांवदू
श्री. श्री. ज्ञा.
233
मल्हादे
जी
3467
1513 | नाडी, कालीदे
श्री. श्री. ज्ञा.
बह्माण श्री मणिचन्द्रसूरि | भ. श्री आदिनाथ
जै.धा.प्र.ले.स.
233
3468
| 1527 | माणिकदे
श्री. श्री. ज्ञा.
पिप्पल शालिभद्रसूरि
| भ. श्री सुमतिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स.
234
3469 | 1534 | माल्हणदे, तूबी
श्री लक्ष्मीसागरसूरि
234
भ. श्री आदिनाथ | जै.धा.प्र.ले.स. जी
Page #565
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत्
| श्राविका नाम
वंश/गोत्र
आदि
3470
| 1537 | रामती
श्री वीर वंष
। प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण| संदर्भ ग्रंथ ।
गच्छ/आचार्य अंचल श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री अनन्तनाथ| जै.धा.प्र.ले.स. 234
जी | खरतर, श्रीजिनचंद्रसूरि भ. श्री
|पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 112 मुनिसुव्रतस्वामी
3471
1528 | वील्हणदे, देवलदे
| उकेशवंश वहुरा गोत्र
जी
3472 | 1528 | चंपाइ, हीराई
खरतर, श्रीजिनचंद्रसूरि
भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
113
उकेशवंश भंसाली गोत्र उकेश रीहडगोत्र
जी
| खरतर, श्रीजिनचंद्रसूरि
| भ. श्री सुमतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
113
3473 | 1528 | मोहणदे, लखमाई,
देवलदे 3474 | 1528 | हीरादे, झवी
प्रा.ज्ञा.
श्री सूरि
भ. श्री कुंथुनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 113
3475 | 1528
वीजलदे, देवलदे
। ऊकेश.
श्रीधर्मसागरसूरि
| भ. श्री धर्मनाथ । पा.जै.धा.प्र.ले.स.
113
जी
3476
| 1528 | बाई
श्री. ज्ञा.
पूर्णिमा सागरतिलकसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभु जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
113
3477 | 1528 | कपूरी, पूतलि
प्रा.शा.
तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
113
जी
श्री.ज्ञा.
नागेंद्र, श्रीहेमरत्नसूरि
113
3478 | 1529 | पुंजी टबकू
सहजलदे, रूपी 3479 | 1529 | पूंजी
भ. श्री विमलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी | भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
श्री.श्रा.
नागेंद्र श्री हेमरत्नसूरि
114
3480
1529 | तारू, झमकु
डीसांवाल ज्ञा.
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
114
जी
3481 | 1529 | कपूरी, निद्गदा
114
3482 | 1529 | पांचू, सुहासिणि
ऊपकेश ज्ञा. डिंडिंभ | ऊपकेश देवगुप्तसूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. गोत्री | प्रा.ज्ञा. तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी प्रा.ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ | पा.जे.धा.प्र.ले.स.
114
3483 | 1529
114
| काउ, संपुरी, शेमति,
गोइ आदि | राणी, पांचू |
3484
1529
प्रा.ज्ञा.
114
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री संभवनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी श्रीसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3485
1529 | पद्नाई, मेधाई
उपकेश ज्ञा.
115
3486
| 115
1529 | चमकू धनी, रामति, | डीसावाल ज्ञा.
हरखादि | 1529 | सोमी, पनी
प्रा.ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री नमिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3487
115
3488 | 1529 | सोमी, पनी
115
3489
| 1530 | कस्मीरदे
प्रा.ज्ञा. तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी भावडार श्री श्रीमाल | भावदेवसूरि
| पा.जै.धा.प्र.ले.स. ज्ञा.
जीवितस्वामी जी श्री श्रीमाल ज्ञा. पूर्णिमा मुनिसिंधसूरि भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री
115
3490 | 1530 | सारंगदे, गांगी
115
3491 | 1530
गणिआ, सोही
उकेश ज्ञा.
115
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री आदिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3492
| 1530 | माउ, वाल्ही
प्रा.ज्ञा.
1116
जी
Page #566
--------------------------------------------------------------------------
________________
544
क्र०
3493
3494
3495
3496
3497
3498
3499
3501
3502
3503
3504
3506
3507
3500 1531
3508
3509
3510
3511
3512
3513
3514
संवत्
3515
1530
3516
1530
3505 1531
1530
1530
1530
1530
1530
1531
1531
1531
1531
1531
1531
1531
1531
1531
1531
1531
1531
1531
1531
1531
श्राविका नाम
हेमाहे, पहनाई, पाल्हणदे हीरादे
राउ, जसी
से अमरि
वंश / गोत्र
धाधलदे, अमकु
मां अनीस
शाणी, हीरू कपूरी
तिलू, आसु
चांपू
तोलि गेलु
माई, राजू
अधू, रंगाई
पूनादे, माई
रजाई, सलखणदे
हीरू
जासी, षाणी
बड़यू, हीरा, लहिकू श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
हरी, भोली
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
आसू पूनी
कर्मिणि, माइ, हांसी, लषी, लखी लाइसादिकु
पल्लीवाल ज्ञा.
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
श्री. श्रीमाल, ज्ञा.
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
प्रा.ज्ञा.
उपकेश
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
प्रा.ज्ञा.
हुंबड़ ज्ञा. उत्रेश्वर
गोत्रे
उकेशवंश
सुहा
टबू, माणिकदे
काउ, वुलदे
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
राणी
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
करमी, नामलदे, धनीसु हुंबड़ ज्ञा. बुध गोत्रे
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छं / आचार्य चैत्र. श्रीरत्नदेवसूरि
पूर्णिमा. श्री गुणधीरसूरि
पिप्पल. गुणसागरसूरि
पूर्णिमा श्रीजयचंद्रसूरि
पिप्पल. श्रीरत्नदेवसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
सावदेवसूरि
पूर्णिमा. साधुसुंदरसूरि
पिप्पल. शालीभद्रसूरि
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
| नागेंद. श्रीसोमरत्नसूर
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री शांतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री नमिनाथ जी भ. श्री आदिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. चतु जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी सुविहितसूरि
नंदीतट श्री वीरसेन
सरस्वती, विमलेंद्र कीर्ति
मधारी गुणनिधानसूरि
ब्रह्माण, श्री वीरसूरि
चतु.
सिद्धांत श्रीसोमचंद्रसूरि भ. श्री अनंतनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री शांतिनाथ पा. जै.धा. प्र.ले.स. जी भ. श्री सुमतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जीवितस्वामी जी भ. श्री श्रेयांस मुख्य पंचतीर्थी जी
चैत्र श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
वृद्धथिरापद श्रीपूर्णभद्रसूरि
सारस्वती श्री भुवनकीर्ति
पूर्णिमा. श्रीपुण्यरत्नसूरि
वृद्धतपा. श्री ज्ञानसागरसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संदर्भ ग्रंथ
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री जिनप्रतिमा पा. जै.धा.प्र.ले.स.
जी
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री धर्मनाथ
जी
भ. श्री विमलनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
पा. जै.धा. प्र.ले.स.
भ. श्री मुनिसुव्रत पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री धर्मनाथ
जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री धर्मनाथ
जी
भ. श्री धर्मनाथ
जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री सुमतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री पद्म प्रभु पा. जै.धा. प्र.ले.स. जी
भ. श्री अनंतनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री पार्श्वनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री कुंथुनाथादि पा. जै.धा. प्र.ले.स. चतु जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
पृ.
116
116
116
116
116
117
117
117
117
117
117
117
118
118
118
118
118
118
118
119
119
119
119
119
Page #567
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
|
पृ.
| 119
120
क्र० संवत् श्राविका नाम । वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
गच्छ/आचार्य
आदि 3517 | 1532 देवलदे, धाकू श्री. श्रीमाल. ज्ञा. | सुंदरसूरि
भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जीवितस्वामी जी | 35181532 | मंदोयरि उपकेश ज्ञा. उपकेश, श्रीदेवगुप्तसूरि | भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी 3519 1532 लोली, वारू परोक्ष, उपकेश ज्ञा. उपकेश, श्रीदेवगुप्तसूरि भ. श्री मुनिसुव्रत पा.जे.धा.प्र.ले.स. सोहागदे
बागरगोत्रे 3520 1532 लाछि, रईसाही उसिवाल ज्ञा. उपकेश, श्रीदेवगुप्तसूरि भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. तातहड़ गोत्रे
जी 3521 1532 | हेमादे, मुधादे ओसवाल ज्ञा. वृद्धतपा उदयसागरसूरि भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1120
जी
| 120
120
जी
3522
1532
संपरि, करमी
प्रा. ज्ञा.
तपा श्री महिसमुद्र
भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
120
3523
1532
हीरादे, राणी
श्री. श्रीवंश
अंचल श्री जयकेसरीसूरि भ. श्री विमलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
120
35241532
श्री पदमानंदसूरि
भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
120
जी
3525
1532
121
रूपा
सुराणागोत्र
उपकेशवंश धर्मिणि, प्रसहली. प्रा. ज्ञा. देमी, पातलि तारू, जानू, राजलदे, | श्री. श्रीमाल. ज्ञा. तेजलदे
प्रा. ज्ञा.
3526
11532
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी आगम. श्रीअमररत्नसूरि भ. श्री
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
सुपार्वादिपंच जी तपा. श्री लक्ष्मी रसूरि भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
121
3527
1532
| हीरा
1121
3528
1532
गुरी, पानू, मटी, राणी | कोचर
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
121
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री वासुपूज्य
जी भ. श्री पार्श्वनाथ
35291532 नाई
प्रा. ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
121
3530
1533
वल्हादे, वइजलदे
उकेश ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री संभवनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 121
जी
35311533ड़ाही, हीरू
श्री माल ज्ञा.
121
3532 | 1533 | जीविणि रही
।
प्रा. ज्ञा.
122
122
3533 | 1533 | चमकू राणी लाडिकी, | श्री. श्रीमाल. ज्ञा,
करमादे, सोनाई 3534 | 1533 | धरधनी, गोरी, गिरसू | दीसवाल ज्ञा.
नागेंद्र, कमलचंद्रसूरि | भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी आगम. श्री देवरत्नसूरि । भ. श्री शांतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी पूर्णिमा गणतिलकसरि भ. श्री कंथनाथ । पा.ज.धा.प्र.ले.स.
चतुर्विशंति जी | तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री नमिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
चतुर्विशिंतिपट्ट जी सुविहितसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
122
3535
| 1533 | रामति, नाथी
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
122
3536
| 1533 | वीरू, मनाई
उकेश ज्ञा.
श्रीसूरि
122
35371533 हीरू, लाड़की
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
वृद्धतपा. उदयसागरसूरि | भ. श्री सभवनाथ ।
| भ. श्री संभवनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
122
जी
35381533
गोमति, हीराई
भ. श्री कंथनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| पंचतीर्थ जी अंचल. श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री नमिनाथ | पा.जे.धा.प्र.ले.स.
3539 | 1533लहिक पुंजी, खीमादे श्री. वंश.
123
3540
1533 | मटकू, रमाइ
उकेश ज्ञा.
श्री धर्मचंद्रसूरि
भ. श्री धर्मनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
123
Page #568
--------------------------------------------------------------------------
________________
546
क्र०
3541
3542
3543
3546
3544 1534
3545 1534
3549
3550
3551
3547 1534
3552
3548 1535
3553
संवत्
3554
1533
1533
1534
3558
3559
1534
1535
3563
1535
1535
1535
3555 1535
1535
3556 1535
1535
3557 1535
1535
1535
3560 1535
3561 1535
3562 1535
1536
श्राविका नाम
सहिजलदे, पहुती
रमादे, मकाइ, जीबाइ प्रा. ज्ञा.
कील्हणदे
नाउ, मलहयदे
टीबू, धाई
भरमी
चंपाई
अमकू
अम मचकू
अमक मचकू
जीविणि
रत्नादे, सारू, राजी
तू चाईना
धांधलदे, सोही
मरगादे, गोरी
माकू
मांक तेजू रामा
हरखू सनषत
सारू, कुंती
रराई, लक्षमाइ
कमलादे
रूडी, माणिक
माकू हानू
वंश / गोत्र
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
नागर ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
डीसावाल प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उकेश, भंसाली
डीसावाल गोत्र
डीसावाल गोत्र
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य आगम श्री अमररत्नसूर
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संदर्भ ग्रंथ
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री शांतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि
वृद्धतपा श्रीजिनरत्नसूरि
अंचल श्री जयकेसरीसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
खरतर श्री जिनचंद्रसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री सुमतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री अभिनंदन पा. जै.धा. प्र.ले.स. जी
श्रीसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री शीतलनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री शांतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री मुनिसुव्रत पा.जै.धा. प्र.ले.स. जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री महावीर जी पा. जै.धा. प्र.ले.स. नागेंद्र श्री सोमरत्नसूरि भ. श्री नमिनाथ जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री पद्मप्रभ जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री सुमतिनाथ पा. जे.धा.प्र.ले.स. जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री आदिनाथ पा. जै.धा. प्र.ले.स. चतुर्विशंतिपट्टः जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री श्रेयांसनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री अभिनंदननाथ जी भ. श्री सुविधिनाथ पा. जै.धा. प्र.ले.स. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री संभवनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्रीमुनिसुव्रत जी
भ. श्री विमलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
ब्रह्माण श्रीशीलगुणसूरि
भ. श्री शांतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
मुनिसुव्रतस्वामी जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री कुंथुनाथ पा. जै.धा. प्र.ले.स. जी
बुद्धिसागरसूर
भ. श्रीपद्मप्रभ जी पा. जे.धा.प्र.ले.स.
आगम श्री आनंदप्रभसूरि भ. श्री सुविधिनाथ पा.जे. धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री कुंथुनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
पूर्णिमा. श्रीकमलप्रभसूरि
पृ.
123
123
123
123
123
124
124
124
124
124
124
125
125
125
125
125
125
125
126
126
126
126
126
Page #569
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
पृ.
3564 | 1536 | तेजलदे, थाहरू
श्री. श्रीमाल, ज्ञा.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि ब्रह्माण. श्री वीरप्रभसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जे.धा.प्र.ले.स.
जी पूर्णिमा. श्री सोमसुंदरसूरि भ. श्री शीतलनाथ| पा.जै.धा.प्र.ले.स.
126
3565 | 1536 | शाणी, संपूरी पांचू
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
126
जी
3566
1536 | शाणी, संपूरी पांचू
127
3567 | 1536 | राणी, खेतलदे
127
| श्री. श्रीमाल. ज्ञा. |पूर्णिमा. श्रीसोमसुंदरसूरि | भ. श्री शीतलनाथ| पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी श्री. श्रीमाल. ज्ञा. | पिप्पल. पद्मानंदसूरि | भ. श्री नमिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी श्री. श्रीमाल. ज्ञा. पूर्णिमा. चारित्र चंद्रसूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ| पा.जै.धा.प्र.ले.स.
पंचतीर्थी जी श्री. श्रीमाल. ज्ञा. पूर्णिमा. श्रीगुणधरसूरि भ. श्री सुमतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3568 | 1536
रही
127
3569 | 1536 | चमकू लाड़ी
1127
जी
3570
1536 | जसमादे, सिरियादे
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
127
आगम.अमररत्नसूरि भ. श्री
पा.जै.धा.प्र.ले.स. अजितनाथादि
पंचतीर्थी जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री शांतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| जी |खरतर. श्री जिनचंद्रसूरि | भ. श्री नमिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3571 | 1536 | चांदू, देल्हू, नाथी
प्रा. ज्ञा.
127
उकेश वंश, रांका
127
3572 1536 | करणू हांसलदे,
कमलादे 3573 | 1536 | धन्नादे
गोत्र
जी
उकेश वंश टीकगोत्र | खरतर.श्री जिनचंद्रसूरि | भ. श्री सुविधिनाथ| पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 128
श्री वंश
अंचल. श्रीजयकेसरीसूरि | भ. श्री आदिनाथ | पा.ज.धा.प्र.ले.स.
| 128
3574 | 1536 कपूरदे, लखमादे,
पूरी जसमादे 3575 | 1536 | मरगादे
डीसावाल
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री शीतलनाथ पा.जे.धा.प्र.ले.स.
1128
3576
| 1536
| काउ, रंगाइ, गंगादे | श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
ब्रह्माण.श्रीशीलगुणसूरि ।
भ. श्री धर्मनाथ | पा.जे.धा.प्र.ले.स.
जी
3577 | 1536 | काउ, रंगाइ, गंगादे
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
ब्रह्माण, श्रीशीलगुणसुरि
भ. श्री धर्मनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी
3578 | 1536 | भरमी
प्रा. ज्ञा.
128
3579
| 1537 | मीणलदे, तेजू
प्रा. ज्ञा.
128
3580 | 1537 | संपूरी, फलकू
| प्रा. ज्ञा.
129
3581
| 1537 | गुरदे, कुंअरि
उसवाल
129
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ पा.जे.धा.प्र.ले.स.
जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
चतुर्विशति जी श्रीसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी पूर्णिमा. विनयतिलकसूरि |
पा.जै.धा.प्र.ले.स. जीवितस्वामी
धर्मनाथ जी पूर्णिमा. पुण्य रत्नसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री मुनिसुव्रत पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3582 | 1537 | रूपिणी
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
35831537 | धनी, हांसलदे
श्री श्रीमाल. ज्ञा.
129
3584
| 1538 | संपूरी, रही
प्रा. ज्ञा.
129
3585 | 1538 | नाउ, रामति, पहती
ज्ञानभूषण
भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जे.धा.प्र.ले.स.
| 129
3586 | 1540
रूषी, सुहूवदे, रत्नू जसमादे अमरी
ज्ञानभूषण
भ. श्री चंद्रप्रभु जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1130
Page #570
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
548
-
क्र०
संवत्
- श्राविका नाम
वंश/गोत्र
| प्रतिमा निर्माण
संदर्भ ग्रंथ
।
पृ.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य खरतर. श्रीजिनसमुद्र
आदि
3587 | 1540 | पंचाई, संगारदे
.
भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
130
सूरि
जी
3588
1540 | राजलदे, लखमाइ
130
उकेशवंश भणसालीगोत्र उकेशवंश बलाहीगोत्र उकेश ज्ञा. माल्हशाखा प्रा. ज्ञा.
खरतर, श्रीजिनसमुद्र | भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. सूरि खरतर श्रीजिनसमुद्र सूरि भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3589
1540 | हीराई
130
1540 | अलसी, कुंअरि ।
सूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ । पा.जै.धा.प्र.ले.स.
-
3591 | 1541 | टीसू, देपू
श्रीमाल ज्ञा.
सूरि
130
भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री सुमतिनाथ पा.जे.धा.प्र.ले.स.
3592
1541
टीसू, देपू
श्रीमाल ज्ञा.
सूरि
130
35931541 | वरजू, मची
थिरापद्र श्री श्रीमाल | शांतिसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 130
जी
35941541 | वरजू मची
थिरापद्र श्री श्रीमाल | शांतिसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
130
जी
35951542 षीमणि
कोरंट श्री सावदेव सूरि
भ. श्री धर्मनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
131
जी
3596
| 1542 | देउ
प्रा. ज्ञा.
श्री सूरि
भ. श्री वासुपूज्य
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 131
जी
3597 | 1542 |टींबू, पुहती
श्रीमाल. ज्ञा.
बृहतपा सुविहित सूरि
35981542 | अकू सारू, चापू
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीसुमतिसाधुसूरि
131
| भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी | भ. श्री विमलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. चतुर्विशंतिपट्ट
35991543 | वर्जू, रत्नाई
| श्री. श्रीमाल, ज्ञा.
|सूरि
131
3600 | 1543 | फदू, षीमाई, टबकू
श्री.. श्रीमाल. ज्ञा.
भट्टारक मुनिचंद्रसूरि
| भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
131
जी
3601 | 1543 | फदू, अमरादे
श्री.. श्रीमाल. ज्ञा. | पूर्णिमा. श्री मुनिचंद्रसूरि
| भ. श्री संभवनाथ | पा.जे.धा.प्र.ले.स.
131
जी
3602
1544 | जसोमति, लीलाई
प्रा. ज्ञा.
वृद्धतपा, उदयसागरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ
पा.ज.धा.प्र.ले.स.
132
| जी
3603 | 1544 | नीतू, हरखु, लाली
श्रीमाल. ज्ञा.
132
बृहत्तपा. भट्टारक श्रीउदयसागरसूरि पिप्पल श्रीरत्नसागरसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3604 | 1544 | सखी, अमरादे
उएसवंश
132
जी
3605 | 1544
साई. नाई
वीरवंष
अंचल. सिद्धांतसागरसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत | पा.जै.धा.प्र.ले.त.
132
3606 | 1544 | करमी
श्री श्रीमाल ज्ञा.
श्रीसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
132
3607_1546 | जागिणि, चंगी ।
श्री.श्री.ज्ञा.
सूरि
भ. श्री धर्मनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
132
3608
1546
श्री साधुरत्नसूरि
भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
133
| 1547
मंत्री
ओसवाल ज्ञा.
मंडोवरा गोत्र हण, पूंजी, माउ, सामा श्रीमाल. ज्ञा. शाणी, सांगू धनाई, जीवादे सुहागद, सकतादे धनाई रमाई ।
तपा. श्रीसुमतिसाधुसूरि
| भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
133
Page #571
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
3610
3611
3612
3613
3614
3615
3616
3617
3618
3619
3621
3622
3623
3624
3625
3626
3627
3628
संवत्
3630
1547
3620 1549
3631
1547
1547
1546
1546
1546
1548
1548
1548
1548
1549
1549
1549
1549
1549
1550
1551
3629 1551
1551
1551
1551
श्राविका नाम
झबकू लाडकी
धनाई, अमरादे,
हलकी
माकू वाल्ही, अमरी
डबलबू
चाइ, षोषू
इंद्राणी
राजू टकू
गुरदे
अमक जूठी
पूरी मानी
देमति, भीमी
वंश / गोत्र
वांछु, मकी, वरजू
दीसावाल ज्ञा.
ओसवाल ज्ञा.
डीसावाल ज्ञा.
प्रा.ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री श्रीमाल ज्ञा.
श्रीवीरवंश
श्रीमाल ज्ञा. ब्रह्माण
वायड़ ज्ञातीय
श्रीमाल ज्ञा.
उपकेश. ज्ञा.
मानू पाना
हरखू हासलदे सोभागिणि
राजलदे, नीतू, पूतलि श्री श्रीमाल
श्री श्रीमाल ज्ञा. ब्रह्माण
श्री श्री ब्रह्माण
जेठी, राजलदे, नीतू, उकेशवंश
सोनाई
वाहिणदे, कान्ही
रंगाइ, खीमाई
धर्मिणि, माणिकी
संघवी, वीरी
देवलदे, जसमादे,
पुहुती
माणिकदे, हंसाई
उकेशवंश, तलहर
गोत्र
श्री श्रीवंश
प्रा.ज्ञा.
उपकेश ज्ञा.
श्रीमाल ज्ञातीय
प्रा.ज्ञा.
प्रा.ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
तपा. श्रीसुमतिसाधु सूरि
श्रीसूरि
बृहद. बोकडिया, चंद्र
बुद्धिसागरसूरि
बुद्धिसागरसूरि
तपा. श्रीसुमतिसाधु सूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
अंचल सिद्धांतसागरसूरि भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा. प्र.ले.स. जी अंचल सिद्धांतसागरसूरि भ. श्री सुपार्श्वनाथ पा. जै. धा.प्र.ले.स. जी पा. जै.धा.प्र.ले.स.
तपा. श्री हीरविजयसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रतस्वामी जी
अंचल सिद्धांतसागरसूरि भ. श्री शीतलनाथ पा. जै.धा. प्र.ले.स. जी
वृद्धिसागरसूरि
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
आगम. सोमरत्नसूर
पूर्णिमा. श्रीभुवनप्रभसूरि
चित्रावाल, श्रीलक्ष्मीसागर सूरि
खरतर, श्रीजिनहर्षसूरि
नाणकीय, श्री धनेश्वरसूरि
अंचल सिद्धांतसागरसूरि
उदयसागरसूरि
श्री पुण्यप्रभ
पूर्णिमा, देवसुंदरसूरि
तपा. हेमविमलसूरि
तपा. हेमविमलसूरि
संदर्भ ग्रंथ
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री मुनिसुव्रत पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री नमिनाथ जी
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी जी भ. श्री जीवितस्वामी सुविधिनाथजी
भ. श्री सुमतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री शीतलनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री कुंथुनाथचतुर्विशंति पटटः जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री आदिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री वासुपूज्य जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री आदिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री आदिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
जी
भ. श्री धर्मनाथ
भ. श्री आदिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री पा. जै.धा.प्र.ले.स. चंद्रप्रभस्वामी जी भ. श्री अजितनाथ पा. जै.धा. प्र.ले.स. चतुर्विंशतिजिनपट्ट
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री विमलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
पृ.
133
133
133
134
134
134
134
134
134
134
135
135
135
135
135
136
136
136
136
136
136
137
549
Page #572
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
550
क्र०
संवत्
| श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ/आचार्य
आदि
3632
1551 | नागू, सपुरी
प्रा.ज्ञा.
तपा. हेमविमलसूरि
भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
137
3633
1551 | मेधू
प्रा.ज्ञा.
श्रीसूरि
137
3634
1552 | उमादे, करमि
प्रा.ज्ञा.
तपा.हेमविमलसूरि
भ. श्री अजितनाथ पा.ज.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. | जी
भ. श्री नमिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
137
3635 | 1552
मचकू, नाई
प्रा.ज्ञा.
तपा. हेमविमलसूरि
137
3636
1552
काउ
मोढ़ ज्ञा.
वृद्ध तपा. उदयसागरसूरि | भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
137
जी
3637 | 1552 | काऊ, डाही
मोढ़ ज्ञा.
वृद्ध तपा. उदयसागरसूरि | भ. श्री चंद्रप्रभ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
137
वृद्ध तपा. उदयसागरसूरि | भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
138
3638 | 1552 | कर्मी लखी, सुतलाई | प्रा.ज्ञा.
जीवाई 3639 | 1552 नागलदे, बिजली प्रा.ज्ञा.
जी
वृद्धतपा. जिनसुंदरसूरि
138
3640 | 1552 | षीमां, बउलदे रत्नादे | प्रा.ज्ञा. आगमगोत्र
| खरतर. जिनसमुद्रसूरि
| भ. श्री सुमतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी भ. श्री | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
वैरोट्यप्रतिमा जी | भ. श्री धर्मनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
138
3641
| 1552 | जसमादे, पोमी, लक्ष्मी | वायड. ज्ञा
आगम. श्रीसोमरत्नसूरि
138
जी
3642 | 1552 | धर्मिणि, रही, मंदुअरि | प्रा.शा.
तपा. श्री हेमविमलसूरि
| भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
138
3643 | 1553 | अमकू, लखमाई
श्रीमाल. ज्ञा.
पूर्णिमा. उदयचंद्रसूरि
| भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
138
जी
3644 | 1553 | अमकू, चंगी, मनकू | श्रीमाल. ज्ञा.
139
3645
1553
प्रा.ज्ञा.
पूर्णिमा. उदयचंद्रसूरि | भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
चतुर्विशति जी तपा. श्री हेमविमलसूरि भ. श्री शांतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी पूर्णिमा. श्रीगुणतिलकसूरि
भ. श्री वासुपूज्य
सपज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
रतन, चंद्राउली. टांकी सामली, गांगी
139
3646
|
| 1553
उसवाल ज्ञा.
139
3647 | 1553
आगम. मुनिरत्नसूरि
139
बजू, खेतलदे, धनी |श्रीमाल ज्ञा. जइतलदे नामलदे, सापू श्रीवंश
| भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी भ. श्री शीतलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3648
1553
पिप्पल.पद्मानंदसूरि
जी
3649 | 1553 | देमति
श्री श्रीमाल ज्ञा.
सर्वसूरि
139
भ. श्री
| पा.जै.धा.प्र.ले.स. पद्मप्रभस्वामी जी भ. श्री संभवनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3650 | 1553 | हर्पू, हीराइ
प्रा.ज्ञा.
पूर्णिमा.श्री चारित्रचंद्रसूरि
139
प्रा.ज्ञा.
तपा. श्री हेमविमलसूरि
140
3651 | 1553 | राणी, संपीई,
| सोभागिणि 3652 | 1553 | मांजू कुइरि
भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी | भ. श्री
पा.जै.धा.प्र.ले.स. कुंथुनाथपंचतीर्थी
श्री माल ज्ञा.
| पूर्णिमा. मुनिचंद्रसूरि
140
जी
3653 | 1554
रमकू लाड़िकि
प्रा.ज्ञा.
तपा, श्रीहेमविमलसूरि
भ. श्री नमिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
140
3654
| 1554 | कपूरी, रमाई
प्रा.ज्ञा.
बृहत्तपा. उदयसागरसूरि भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
140
जी
Page #573
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत् |
श्राविका नाम
|
वंश/गोत्र
3655
1554
सारू, पहुती
प्रा.ज्ञा.
141
3656
1554
गमी
श्री श्रीमाल ज्ञा.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि वृद्धतपा. उदयसागरसूरि | भ. श्री मुनिसुव्रत | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जे.धा.प्र.ले.स.
जी तपा. हेमविमलसूरि भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी वृद्धतपा. उदय सागरसूरि | भ. श्री नमिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
141
3657
1555
| रामति, गिरसु.
प्रा.ज्ञा.
141
सुहवदे
3658 | 1555
जीविणि, कपूराइ
प्रा.ज्ञा.
141
3659 | 1555 | वाघु, कासु, वइजू
प्रा.ज्ञा.
तपा. हेमविमलसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
141
जी
खरतर. जिनहर्षसूरि
भ. श्री अभिनंदन | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
141
3660 1555 | माला, पद्माई कपूरदे
सहवदे सरूपदे 3661 | 1555 | देमति, मानू वाल्ही | श्री. ज्ञा.
142
मलधारी लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी श्रासूर
भ. श्री मुनिसुव्रत | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3662 | 1555 | कूयरि
श्री. ज्ञा.
142
3663
1556 | घरघति
श्री. ज्ञा.
142
3664
1556 | गिरसु, हर्षा
श्री. ज्ञा.
| 142
चित्र. वीरचंद्रसूरि भ. श्री कुंथुनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी तपा. हेमविमलसूरि भ. श्री कुंथुनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी | आगम. सोमरत्नसूरि भ. श्री शांतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
पंचतीर्थी जी अंचल. सिद्धान्तसागरसूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3665
| 1556 | कुयरि, लखमाई
श्री श्रीमाल
142
36661557 | ललतू, रामति, नाथी | श्रीमाल ज्ञातीय
142
जी
3667
| 1557 | सूल्ही, पूरी, मची
प्रा. ज्ञा.
वड. देवसुंदरसूरि
भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
142
जी
3668
1558 | झमकू, मेघी
ओसवाल ज्ञा.
तपा. श्रीइंद्रदिन्नसूरि
143
भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री
पा.जै.धा.प्र.ले.स. मुनिसुव्रतस्वामी
3669
1558
वीरवंश
अंचल सिद्धांतसागरसूरि
143
गांगी, लाखणदे, पालू, मृगाइ
जी
3670 | 1558 | पूरादे, कर्मादे
महेंद्रसूरि
| 143
नाणावाल धामल गोत्र
भ. श्री
| पा.जै.धा.प्र.ले.स. मुनिसुव्रतस्वामी जी भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3671 . | 1558
संडेर गुगलियगोत्र | श्री शांतिसूरि
143
चाडू, कमनी, ललितादे मेघू, धनी
जी
3672
| 1559
श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
श्रीसूरि
भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
143
3673 |
1559
कर्मिणि, रीडी
तपा. लब्धिसागरसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
144
| जी
3674 | 1559 | मेघा, खेती
श्री श्रीमाल
श्रीसूरि
भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
144
जी
| 1559 | सूहली, धनी
श्री श्रीमाल. ज्ञा
पूर्णिमा, श्रीसूरि
144
भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स. चतुर्विशतिपट्टः
जी
3676 | 1559 | भोली
श्री श्रीमाल. ज्ञा.
श्रीसूरि
144
भ. श्री सुमतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी
Page #574
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
552
क्र०
संवत् । श्राविका नाम
वंश/गोत्र
पृ.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
गच्छ/आचार्य आदि पूर्णिमा श्रीलब्धिसुंदरसूरि | भ. श्री वासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3677
1560
पुहती
श्रीमाल ज्ञा.
1
जी
3678 | 1560 | रणादे जला मोहणदे श्रीमाल ज्ञा
अंचल, जयकेसरीसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
144
जी
3679
1561
गुरदे मिरघाइ
145
3680 | 1561
रत्नाई, कपूराई
145
प्रा. ज्ञा. तपा. श्री हेमविमलसूरि भ. श्री आदिनाथ | पा.जे.धा.प्र.ले.स.
जी श्री. ज्ञा. तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री कुंथुनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी ऊस ज्ञातीय गोवर्धन | पल्लीवाल, उज्जोयणसूरि | भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. गोत्र प्रा. ज्ञा. श्रीसूरि
भ. श्री धर्मनाथ । पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3681
1561
झमकू, मेघी
145
जी
3682
भली धांधी, सोनाई
145
अधक
3683|1561 | वइजलदे, राजलदे
श्री. ज्ञा.
| पूर्णिमा विनयतिलकसूरि
145
36841561
रत्नू, डाही
श्रीमाल ज्ञा
ब्रह्माण, मुणिचंद्रसूरि
145
3885
1561
पावी. रत्नाई
श्रीमाल ज्ञा
उपकेश, श्रीदेवगुप्तसूरि
145
| भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी |भ. श्री नमिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी | भ. श्री सुमतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी भ. श्री
| पा.ज.धा.प्र.ले.स. मुनिसुव्रतस्वामी जी भ. श्री संभवनाथ । पा.ज.धा.प्र.ले.स.
3686
1561
रंगी, कमलाई
श्रीमाल ज्ञा
सूरि
146
3687 | 1562
रमादे
श्रीमाल ज्ञा
| वृद्धतपा, श्रीसागरसूरि
3688
1563जीवणि मनाइ
146
ऊकेशवंश, भंसाली | खरतर, जिनहंससूरि गोत्र श्रीवंश
अंचल, भावसागरसूरि
3689
1563 | धनी, पूंगी
भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी | भ. श्री नमिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी भ. श्री प्रतिमा जी पा.जे.धा.प्र.ले.स.
146
3690
1563
लखमादे
श्रीमाल ज्ञा.
मधुकर श्रीमुनिप्रभसूरि
146
3691
| 1563* | वाऊदि पूरि
श्रीमाल ज्ञा
नागेंद्र.गुणरत्नसूरि
| 146
भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री धर्मनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3692
1563 | पढ़ाई
खरतर,श्री जिनहर्षसूरि
147
3693
श्रीमाल ज्ञा
तपा. श्रीइंद्रनंदिसूरि
147
मोहणदे, कुंअरि, पुतलि देमाई,रंगा लली, पधाई वाल्ही
3694
1563
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीइंद्रनंदिसूरि
| 147
1563डोमी
डीसावाल ज्ञा
सुमतिधीरगणि
भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी | भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3696
| 1564| विलुणदे
उसवाल ज्ञा.
धर्मधोष.पुण्यवर्धनसूरि
147
3697
1564| गोरी, रूपाई, रत्नादे | ऊकेश ज्ञा.
148
जीरापल्लीय. श्रीदेवरत्नसूरि जयकल्याणसूरि
3698
1564
करणू खनू, डाही
। | प्रा. ज्ञा.
भ. श्री शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
1148
3699
11564
टूबी, छलू
श्री श्रीमाल. ज्ञा.
पूर्णिमा.लब्धिसुंदरसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
148
Page #575
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत् | | प्राविका नाम
वंश/गोत्र
प
आदि
3700 | 1564 | सावित्री, लखी, हरखू | श्रीवीरवंश
। 148
3701
1564
श्रीदोसी
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
गच्छ/आचार्य अंचल.श्रीभावसागरसूरि भ. श्री विमलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी अंचल.श्रीभावसागरसूरि भ. श्री सुपार्श्वनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी | पूर्णिमा.सौभाग्यरत्नसूरि भ. श्री विमलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी सिद्धांत देवसुंदरसूरि भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
कर्मादे, लीलादे, गंगादे डाही लालु, षेतु
148
3702 | 1565
| श्री श्रीमाल ज्ञा
148
3703
1565
सपू. करमाइ
ओसवाल ज्ञा
149
जी
3704 | 1565 | सिंगारदे, वइजलदे | श्रीमाल ज्ञा
श्रीविमलसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 149
जी
3705
1565
धनी गोमति
श्रीमाल ज्ञा
भ. श्री
149
पूर्णिमा, श्री सौभाग्य रत्नसूरि
| पा.जै.धा.प्र.ले.स. जीवितस्वामी शांतिनाथचतु जी भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3706
1566 | वीरी समाई
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीहेमविमलसूरि
3707 | 1566 | कपूरी मल्हाइ
प्रा. ज्ञा.
149
तपा. श्रीहेमविमलसूरि भ. श्री पद्मप्रभ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी अंचल. श्रीभावसागरसूरि । | भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3708 | 1566 | राजलदे धाउ, रमादे | श्रीश्रीवंश
3709
श्रीमाल ज्ञा
सर्वदेवसूरि
भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
149
जी
3710
1567 | जसमादे रत्ना
लीलादे 1567 | धाधलदे, लाडी,
केल्हणदे, भोली | 1568 | कामलदे, सहजलदे
उसवंश
|150
द्विवंदनिक, श्रीदेवगुप्तसूरि श्रीभावसागरसूरि
3711
श्रीमाल ज्ञा
150
भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. चतु जी भ. श्री पा.जै.धा.प्र.ले.स. जीवितस्वामी श्री चंद्रप्रभ जी भ. श्री सुपार्श्वनाथ पा.ज.धा.प्र.ले.स.
3712 | 1568 | कुंतिगदे, हीरादे
| प्रा. ज्ञा.
जी
3713 | 1568 | कुंयरि, रंगी
प्रा. ज्ञा.
श्रीसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
150
भ. श्री वासुपूज्य
जी | भ. श्री नमिनाथ
3714
1568 | झटू अमता
प्रा. ज्ञा.
| तपा. श्रीहेमविमलसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
150
37151568 | चाई, रही
श्री वीरवंश
अंचल, भावसागरसूरि
| भ. श्री कुंथुनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
150
3716 | 1568
लाडी, कपूरी
प्रा. ज्ञा.
तपा, श्रीहेमविमलसूरि
150
| भ. श्री कुंथुनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी | भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3717
तपा, श्रीहेमविमलसूरि
151
जी
3718
1568 | पांचू, अमरि, चंगी प्रा. ज्ञा.
| लीलाइ,मघराई 1568 अमरी, उगी, लीला | प्रा. ज्ञा.
मरघाइ 1568 दुबी, हांसलदे हूं बड़ ज्ञा
तपा, श्रीहेमविमलसूरि
151
भ. श्री आदिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3719
बुधगोत्र, सुभचंद्र
151
| 1569
ह', काऊं
श्रीमाल ज्ञातीय
भ. श्री नमिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
151
चित्रावाल. श्री सामदेवसूरि
3721
1569
करमाइ, दीवी
श्रीमाल ज्ञा.
भ. श्रीयंत्र कारितः | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 151
3722
1569 | पुतली
श्रीमाल ज्ञा.
भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
151
वृद्धतपा. जिनमाणिक्यसूरि
Page #576
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
|
पृ.
3723
1569 | पानी रत्नादे
श्री वीरवंश
। प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि अंचल. श्रीभाव सागरसूरि | भ. श्री सुपार्श्वनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी अंचल. श्री भावसागरसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ | पा.ज.धा.प्र.ले.स.
151
3724|1569 | पदमलदे, माई रूपी | वीरवंश
152
जी
3725 | 1569 | चापा पदमाई लीलाई | श्रीमाल ज्ञा
श्रीसंघ एवं गुरू
152
3726 | 1570 | पहुती हर्षाई
श्रीमाल ज्ञा
सिंद्धांत देवसुंदर सूरि
| 152
3727 | 1570
| वइजु जइर
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीहेमविमलसूरि
भ. श्री विमलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी | भ. श्री वासुपूज्य पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी | भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी | भ. श्री धर्मनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी भ. श्री शांतिनाथ | पा.ज.धा.प्र.ले.स.
152
3728 | 1570 | जइतु, वइजू
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीहेमविमलसूरि
152
3729 | 1570 | फदू, मरगादे विजी
श्रीमाल ज्ञा
ब्रह्माण. श्री जयसूरि
| 153
जी
3730 | 1570
पोपटि, लाषणदे
श्रीमाल ज्ञा
सिद्धांत देवसुंदरसूरि
| भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
153
3731
| 1571 | माता श्री अचिरादेवी
श्री हीर विजयसूरि
| भ. श्रीशांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
153
3732 | 1572 | कूडरि, हीरादे
श्री श्रीमाल. ज्ञा.
पूर्णिमा श्रीसर्वसूरि
भ. श्रीपद्मप्रभ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3733
1571 | वारू, हीरी, लाछी
श्रीमाल, ज्ञा.
पूर्णिमा, चारित्रचंद्रसूरि
153
भ. श्री सुमतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री
| पा.ज.धा.प्र.ले.स. मुनिसुव्रतस्वामी
37341572 | देमाइ, रंगाइ,
वारिंगदे
खरतर.जिनचंद्रसूरि
| 153
उकेशवंश भाटीयागोत्र
जी
प्रा. ज्ञा.
154
3735 | 1572
| महलाइ कमलादे
गंगाइ 3736
कर्मादे वीरू हर्षाई
वल्हादे 3737 | 1572 | भली
1571
उसवंश
तपा. श्री हर्षविनयसूरि | भ. श्री शांतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी द्विवंदनिक. उदयगुप्तसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| जी अंचल. श्रीभावसागरसूरि भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
154
श्री श्रीवंश
154
जी
3738 | 1572 | तेजू कर्मादे श्रीसीतु श्री भणसली
श्री देवगुप्तसूरि
भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
154
3739 | 1571 | वल्हादे, कुंयरि, मंगाइ | प्रा. ज्ञा.
154
3740 | 1572 | सोमी
श्री श्रीमाल ज्ञा
द्विवंदनिक. देव गुप्तसूरि | भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी चित्रावाल.मुनितिलकसूरि भ. श्री कुंथुनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
154
3741 | 1573 | रूपी
उप. ज्ञा.
155
3742
| 1576 | संसारदे
श्रीमाल. ज्ञा.
155
पिप्पल. श्री धर्मशेखरसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी सुमतिप्रभसूरि सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
चतुर्विंशतिपट्टः
3743
1573 | भरमादे
श्रीमाल. ज्ञा.
1576 | गोरी कुंअर
श्रीमाल, ज्ञा.
पिप्पल. श्री धर्मविमलसूरि | भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
| 155
3745
1573 | जेस असप्रभनि
प्रा. ज्ञातीय
पूर्णिमा. श्रीविद्यासागरसूरि
भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी
Page #577
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
3746 1572
3747 1573
3748 1576
3749
3751
3750 1576
3752
3753
3754
3755
3756
3757
3759
3760
संवत् श्राविका नाम
3761
3762
3763
3764
1573
1573
3758 1576
1576
3768
1576
1575
1576
1576
1576
1576
1577
1578
1578
1578
1578
3765 1578
3766 1579
3767 1579
1579
सोमी
रूपी
संसारदे
भरमादे
गोरी कुंअर
जेसू असप्रभानि
रूडी मेघाई अमरादे
इंद्राणी लाडक
वनादे जसी
वइजलदे पातलि लाली
धीरू मरघाई
नामलदे सिंगारदे संसारदे रंगादे सरूपदे पधाई
पदमाई
धनी
राजु वी
कनू
माइ रती गुराइ
वीरू, वनाई, जीवाई
मलू
प्रीमलदे, लखमादे
बीमाइ चंद्राउली
लाडकी माकू
कामलदेवी
सुहासणी, फदी, सोमाई
वंश / गोत्र
श्री श्रीमाल ज्ञा
उप. ज्ञा.
श्रीमाल. ज्ञा.
श्रीमाल. ज्ञा.
श्रीमाल. ज्ञा.
प्रा. ज्ञातीय
प्रा. ज्ञा.
श्रीमाल ज्ञा.
प्रा. ज्ञा
डीसावाल ज्ञा
उसवाल ज्ञा
उसवंश छाजहड गोत्र
उसवाल ज्ञा
मोढ़ ज्ञा
श्रीमालज्ञा
श्री. ज्ञा.
उपवंश
प्रा. ज्ञा
उकेश, रेहड़गोत्र
श्री ज्ञा.
नागर ज्ञा.
डीसावाल. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
चित्रावाल. श्रीमुनितिलक
| पिप्पल, श्री धर्मशेखरसूरि
सुमतिप्रभसूर
प्रतिमा निर्माण
संदर्भ ग्रंथ
आदि
भ. श्री सुमतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री सुमतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
वेगडखरतर आ. श्री जयसिंहसूर
श्री संघ
भ. श्री कुंथुनाथ
जी
जी
पिप्पल. श्रीधर्मविमलसूरि
भ. श्री शीतलनाथ पा. जै.धा. प्र.ले.स. जी पूर्णिमा, श्रीविद्यासागरसूरि भ. श्री अजितनाथ पा.जे.धा.प्र.ले.स. जी
श्रीहेमविमलसूरि
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री सुविधिनाथ पा. जै.धा. प्र.ले.स. चतुर्विंशतिपट्टः
सुविहितसूरि
भ. श्री संभवनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी पंचतीर्थी
सर्वसूर
भ. श्री सुमतिनाथ पा. जै.धा. प्र.ले.स. जी तपा. श्री लावण्यधर्मसूरि भ. श्री वासुपूज्य पा. जै.धा.प्र.ले.स.
वृद्धतपा, श्रीजिनसाधुसूरि
जी भ. श्री विमलनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री पार्श्वनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री मुनिसुव्रत स्वामी जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
वृद्धतपा श्री लब्धिसागरसूरि
थिरापद्र विजयसंघ सूरि
श्री हर्ष विनयसूरि
| अंचल भावसागरसूरि
तपा हेमविमलसूरि
तपा श्री हेमविमल सूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी खरतर श्री जिनहंस सूरि भ. श्री धर्मनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
पूर्णिमा. मुनिचंद्रसूरि
श्रीसूर
तपा. श्री सौभाग्यनंदिसूरि भ. श्री शांतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स.
जी
भ. श्री विमलनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्रीपद्मप्रभनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री संभवनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री पार्श्वनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री संभवनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री शीतलनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री नमिनाथादि पा. जै.धा.प्र.ले.स. पंचतीर्थीपट्टः जी |
पृ.
154
155
155
155
155
155
156
156
156
156
156
156
157
157
157
157
157
157
158
158
158
158
158
555
Page #578
--------------------------------------------------------------------------
________________
556
क्र०
3769
3770
3771
3772
3773
3775
3776
3777
3778
3779
3774 1580
3780
3781
3782
संवत्
1579
1579
3787
1579
3788
1579
1579
3791
1580
1580
1580
1581
1581
1581
3783 1583
1581
3784 1583
1581
3785 1585
3786 1587
1587
3790 1587
रत्नाइ, मृगाइ
रूपा, इंद्र, हरखी
1587 चंपाई, हिर्याई, लाऊ
श्राविका नाम
1587
3789 1587 वारू, कपूरी मृगाई
वारू, कसू
हर्षू, सिंपू
खीमाई मनाई कीवाई श्री. ज्ञा.
इंद्राणी, रही, रमाई
माल्हणदे देमीसु धर
भा, देवलदे, खाइ,
गोइ
गलमदे
सारू, भरमादे
लहक कस्तुराई
देवलदे, रमाइ, गोई
रत्नादे, मुव्वाई
चंपाई, जोबाई
अरघाई
मंगाई
वंश / गोत्र
श्री. ज्ञा.
श्रीमाल वृद्धशाखा
प्रीमलदे जीविणि
सोनी धनादे हासलदे श्री. ज्ञा.
मल्हादे
पुती वीरू, राजू
श्री श्रीमाल
श्री. श्रीवंश.
उस. ज्ञा
आ. ज्ञा. कांकरियागोत्र
श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ओ. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा. वृद्धसाजनी
उकेशवंश, चोपड़ा गोत्र
प्रा. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
डीसावाल. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य तपा. श्री सौभाग्यनंदि
तपा. विद्या मंडनसूरि
श्रीसूर
सिद्धांत श्रीजय सुंदरसूरि भ. श्री धर्मनाथ
जी
विधिपक्ष, श्रीगुरू
तपा. श्री हेमविमलसूरि
खरतर श्री जिनहंससूरि भ. श्री
खरतर चारित्रप्रभसूरि
पिप्पल. श्रीधर्मविमलसूरि
आणंदसागरसूरि
ब्रह्माण हीर सूरि
श्री आनंद सागरसूरि
सिद्धांत. देवसुंदरसूरि
सिद्धांती जयसुंदरसूरि
खरतर, जिनमाणिक्यसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
वृद्धतपा, जयमाणिक्यसूरि
सिद्धांत. जयसुंदरसूरि
उपकेश. श्रीसिद्ध सूरि
संदर्भ ग्रंथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री धर्मनाथ जी
भ. श्री शीतलनाथ पा. जै.धा. प्र.ले.स.
जी
मुनिसुव्रतस्वामी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी
भ. श्री संभवनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री विमलनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री शांतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री सुविधिनाथ पा. जै. धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री शांतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री पार्श्वनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री पार्श्वनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
श्री सत्य कृपा गुरू
सिद्धांत श्रीजयसुंदरसूरि
वृद्धतपा. श्रीजयमणिसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी सिद्धांत श्रीजयसुंदरसूरि भ. श्री शीतलनाथ पा. जै. धा.प्र.ले.स. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री विमलनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री शांतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री संभवनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
पा. जै.धा.प्र.ले.स.
भ. श्री शांतिनाथ पा. जै.धा.प्र.ले.स. जी
पृ.
158
159
159
159
159
159
160
160
160
160
160
160
160
161
161
161
162
162
162
163
163
162
162
Page #579
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
संवत् ।
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
| प्रतिमा निर्माण
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य सिद्धांत.जयसुंदरसूरि
आदि
| 1587 | हरखीइ, इंद्राणी
श्री. श्रीमाल. ज्ञा
163
3793 | 1588 | हीरी, आसी
श्री. श्रीमाल, ज्ञा
आगम.ज्ञानरत्नसूरि
163
| भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्रीवासुपूज्य | पा.जै.धा.प्र.ले.स. चतुर्विंशतिपट्ट जी भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3794 | 1588 | मनी, माणिकी, लीली | श्री. श्रीमाल. ज्ञा.
| पूर्णिमा,वटपद्रीय श्री | लब्धिसुंदरसूरि
164
3795
| 1588 | हरखी
उसवाल ज्ञा.
श्रीआणंदविमलसूरि
164
जी
3796
1590
जसमादे
कोरंट श्री कक्कसूरि । | भ. श्री संभवनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
164
उपकेश प्रीमलदे गोत्र प्रा. ज्ञा.
जी
3797 | 1591 | सोनाई, वीरादे
अंचल गुणनिधान सूरि ।
| भ. श्री पार्श्वनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
165
जी
3798
| 1591 | हीरू, पन्नी
प्रा. ज्ञा.
अंचल श्री गुणनिधानसूरि | भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
165
3799
1597 | रामदेवी
| श्रीमाल ज्ञा.
आगम श्री हेमहंससूरि
165
भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. पंचतीर्थी जी भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3800 | 1598 | जीवाई, जीवी, भीमी
डीसावाल ज्ञा.
| श्री सोमविमलसूरि
जी
-3801 | 1598
भरमादे
श्री. श्री. ज्ञा.
श्रीसूरि
भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
165
3802 | 15.9
पुनाइ
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
166
ओसवंश कटारिया गोत्र नागर ज्ञा.
जी
3803 | | 15.6 | पूंजी, वाउ
श्रीजिनरत्न सूरि
शीतलनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3804
| 1500 | सोमलदे
श्री. ज्ञा.
वृद्ध थिरापद्र सर्वसूरि
भ. श्री विमलनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स. मुख्यपंचतीर्थी जी | भ. श्री शांतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3805 | 1520 | नामलदे, कर्माई
| उकेशवंश
खरतर.श्रीजिनचंद्रसूरि
जी
3806 | 1501 | तिहुणी
सुराणा गोत्र
धर्मधोष विजयचन्द्रसूरि
| भ. श्री सुमतिनाथ | जे.जै.ले.सं.
जी भ. श्री कुंथुनाथ | जे.जै.ले.सं.
3807
| 1506 | सुहवदे
श्री सर्वसूरि
जी
3808 | 1507 | जेठी
चिपड गोत्र
उपकेष. कक्कसूरि
भ. श्री शान्तिनाथ | जे.जै.ले.सं. जी भ. श्री वर्द्धमान जे.जै.ले.सं.
3809 | 1508
धरमिणि, गेलू
प्रा. ज्ञा.
तपा. रत्न शेखरसूरि
16
जी
3810 | 1509 | हीरादे, कैलू
प्रा. ज्ञा.
तपा. रत्न शेखरूसूरि
जे.जै.ले.सं.
3811 | 1510
वारू, हीसू, रूपी
हुंबड ज्ञा.
तपा. रत्नसिंह सूरि
भ. श्री सुविधिनाथ| जे.जै.ले.सं.
जी
3812 | 1511 | सहावदे, जसमादे
उप. ज्ञा. चलद गोत्र | मलयचन्द्र सूरि
| भ. श्री धर्मनाथ
जे.जै.ले.सं.
38131513 | कलश्री, धरणी श्री
धर्मधोष श्री साधुरत्नसूरि
भ. श्री शीतलनाथ| जे.जै.ले.सं.
3814
1515
वारू
उपकेष ज्ञा.
चैत्र रामदेवसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ | जे.जै.ले.सं.
जी
Page #580
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत् । श्राविका नाम
वंश/गोत्र
आदि
3815
| 1517 | गउरी, रूपिणि
प्रा. ज्ञा
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ ।
गच्छ/आचार्य तपा. श्रीलक्ष्मीसागर सूरि भ. श्री विमलनाथ | जे.जै.ले.सं.
जी तपा. श्रीलक्ष्मीसागर सूरि | आदिनाथ जी जे.जै.ले.सं.
3816 | 1523 | जमलू रीमी वात्रलदे | प्रा. ज्ञा.
3817 | 1525 | नानू
हूंबड ज्ञा. वरजा गोत्र
ज्ञानसागरसूरि
आदिनाथ जी
जे.जै.ले.सं.
3818 | 1527 | वाल्हणदे
ऊ. ज्ञा.
| चैत्र चारूचन्द्र सूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जे.जै.ले.सं.
3819
| 1529 | लूणादे, नीली
उसवाल ज्ञा.
श्री जिनचन्द्र सूरि
3820
| 1531
मानू
उप. ज्ञा.
चैत्र श्री नारचन्द्र सूरि
भ. श्री सुविधिनाथ जे.जै.ले.सं.
जी | भ. श्री सुमतिनाथ जे.जै.ले.सं.
जी | भ. श्री नमिनाथ जे.जै.ले.सं.
जी भ. श्री पाष्व थ. जे.जै.ले.सं.
1533 | हांसी, सोभी
प्रा. ज्ञा.
अंचल जयकेसरी सूरि
38221535 | रहजादे, तेजलदे
साशुला गोत्र
धर्मधोष पद्माणंद सूरि
जी
3823 | 1536 | खलतू वरजू
तेलहरा गोत्र
| षांति. सूरि
भ. श्री शीतलनाथ जे.जै.ले.सं.
जी तपा श्रीलक्ष्मीसागर सूरि | भ. श्री धर्मनाथ । जे.जै.ले.सं.
38241542 | पोमादे, जसमादे
प्रा. ज्ञा.
19
3825
| 1559 | सुहिलालदे
3826
1566 | रबकू ईडू
उसवाल ज्ञा. कनोज | देवगुप्त सूरि भ. श्री शीतलनाथ जे.जै.ले.सं. गोत्र
जी प्रा. ज्ञा. तपा. श्री हेमविमल सूरि | भ. श्री धर्मनाथ जे.जै.ले.सं.
जी । प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री नंदकल्याणसूरि भ. श्री पार्श्वनाथ | जे.जै.ले.सं.
3827 | 1566 | रूकमिणि, पीबू
जी
38281596 | दानी, मना, करम
प्रा. ज्ञा.
तपा विजयदान सूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ जे.जै.ले.सं.
जी
3829
| 1506 | हेमादे, फडु
उकेष ज्ञा
तपा श्री रत्नषेखर सूरि
| भ. श्री शीतलनाथ जे.जै.ले.सं.
जी
3830
|1522 | जसमादे, वीऊलदे
| उकेष ज्ञा
तपा सोमदेव सूरि
भ. श्री शान्तिनाथ | जे.जै.ले.सं.
3831 | 1511
मभु
मोढ़ ज्ञा.
विजयप्रभ सूरि
भ. श्री धर्मनाथ
जे.जै.ले.सं.
जी
3832
1547 | खीमाई, लाडिकि,
।
उप. ज्ञा.
पूर्णिमा श्री जयरत्न
| भ. श्री शान्तिनाथ | जे.जै.ले.सं.
जी
फूट
3833
1534 | अमरा, अरघू
मूलसंघ
ज्ञानभूषण
जे.जै.ले.सं.
38341501 प्रीमलदे, लाशणदे । प्रा. ज्ञा.
| तपा. श्री सुन्दर सूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | जे.जै.ले.सं.
3835
| 1516 | घरघति, वल्हादे
उकेष ज्ञा
श्री सूरि
भ. श्री विमलनाथ | जे.जै.ले.सं.
3836
| 1520 | आघू
उपकेष ज्ञा
उपकेष श्री कक्क सूरि
भ. श्री चन्द्रप्रभ
जे.जै.ले.सं.
Page #581
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत्
प्राविका नाम ।
वंश/गोत्र
आदि
3837 |1524 | जीविणि
श्री. श्री. वंष
सूरि
3838 | 1557 | माल्हू, देवलदे
प्रा. ज्ञा.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
गच्छ/आचार्य अंचल श्री जयकेसरी भ. श्री सुविधिनाथ| जे.जै.ले.सं.
जी मडाहड़ गुणचन्द्रसूरि भ. श्री विमलनाथ | जे.जै.ले.सं.
जी मलधारि लक्ष्मीसागर भ. श्री पार्श्वनाथ | जे.जै.ले.सं. सूरि श्री शान्ति सूरि भ. श्री नमिनाथ जे.जै.ले.सं.
3839 | 1569 | मील्हा, तिलश्री
मेडतवाल गोत्र
3840 | 1501 | सारू
उपकेष ज्ञा.
3841 | 1501 | साण्ह, दूदी
धर्मघोष विजयप्रभ सूरि
........
जे.जै.ले.सं.
3842
| 1501 | सागू, रानू, मूती
।
उ. ज्ञा.
चैत्र श्री मुनितिलक
| भ. श्री शान्तिनाथ जे.जै.ले.सं.
जी
3843
| 1502 | लाषणदे
प्रा. ज्ञा.
तपा रतन शेखर सूरि
| भ. श्री कुंथुनाथ | जे.जै.ले.सं. ।
जी भ. श्री सम्भवनाथ | जे.जै.ले.सं.
3844 | 1506 | परवाई
उकेष
श्री कक्क सूरि
जी
3845 | 1507 | गुणश्री
लोढ़ा गोत्र
खरतर. जिनसागर सूरि
भ. श्री धर्मनाथ
जे.जै.ले.सं.
जी
3846
1510
हिंगड़ गोत्र
तपा. श्री हेमहंस सूरि
28
3847 | 1512 | देवाही
उपकेष श्री कक्कसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ| जे.जै.ले.सं. जी भ. श्री अनन्तनाथ | जे.जै.ले.सं. जी भ. श्री धर्मनाथ जे.जै.ले.सं.
ओसवाल ज्ञा. आदित्यनाग गोत्र ओसवाल ज्ञा.
28
3848 | 1515 | फाई
श्री मलधारी सूरि
| 29
3849 | 1516
| लाबू
श्री. ज्ञा.
3850 | 1523 | देऊ, तेजू
पिप्पल. श्री शालिभद्रसूरि भ. श्रीशान्तिनाथ | जे.जै.ले.सं.
जी पूर्णिमा. साधुसुन्दर सूरि भ. श्री नमिनाथ जे.जै.ले.सं.
जी खरतर श्री जिनहर्ष सूरि | भ. श्री विमलनाथ | जे.जै.ले.सं.
129
मंत्रिदलीय ज्ञा.
वाकुं, रामाति
38517
जी
3852
खरतर जिनतिलक सूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ| जे.जै.ले.सं.
1528
श्री माल वंष
जूनीवाल गोत्र 1529 | मेघादे, भावलदे, मेघू | ओसवाल ज्ञा.
जी
an का भावलदै आसवाल का
3853
जज वर सूरिन भी पदमा जलेस.
| 29
प्रा. ज्ञा.
| 30
3854 | 1530 | नामलदे, सांवल, |
सीचू 3855 | 1530 | सपूरी, पाल्हणदे
वज वर सूरि भ. श्री पद्मप्रभ जे.जै.ले.सं.
जी तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री नमिनाथ | जे.जै.ले.सं.
जी तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री मुनिसुव्रत | जे.जै.ले.सं.
जी खरतर जिनभद्रसूरि भ. श्री सुपार्श्वनाथ जे.जै ले.सं.
प्रा. ज्ञा.
| 30
3856 | 1533
लीलादे
श्री. माल वंष
3857 | 1534 | ऊमकु, ताकू
| श्री माल ज्ञा.
चैत्र लक्ष्मीसागर सूरि
| भ. श्री शान्तिनाथ जे.जै.ले.सं.
an | 4 अन् त्या नीर शांटिक गोत्र की भावदेव गरिन यी मतिनाम जलेज.
3858
| 1534 | अचू, रयनादे, हमीरदे | ऊ. कांटड़ गोत्र
श्री भावदेव सूरि
भ. श्री सुमतिनाथ | जे.जै.ले.सं.
30
Page #582
--------------------------------------------------------------------------
________________
560
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र० ।
। श्राविका नाम
वंश/ गोत्र
पृ.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य अंचल श्री सूरि
3859
1545
| उनकाई, रमाई, ललनादे, इसर
श्रीमाली वंष
| प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ | आदि भ. श्री आदिनाथ जे.जै.ले.सं. जी भ. श्री नमिनाथ | जे.जै.ले.सं.
3860
| 1549
...............
उपकेष
मणिचन्द्र सूरि
जी
| 1557 | रूपी, देमी
चणकाल्या गोत्र
मलधार गुणवानसूरि
| भ. श्री धर्मनाथ
जे.जै.ले.सं.
| 31
3862 | 1562 | जिसमादे, पूनदे
|
उकेष
..................
जे.जै.ले.सं.
31
प्रा. ज्ञा.
तपा हेमविमल सूरि
| 31
1566 | रंगी, रत्नादे,
दाकिमदे | 1571
काऊ, सुहडादे,
माणिकदे हासू | 1509 | सशण
भ. श्री आदिनाथ | जे.जै.ले.सं. जी भ. श्री शान्तिनाथ जे.जै.ले.सं.
3864
उप. ज्ञा.
देवरत्न सूरि
जी
3865
उसवाल ज्ञा. सुराणा | पद्मानंद सूरि
भ. श्री कुंथुनाथ | जे.जै.ले.सं.
गोत्र
जी
3866 | 1521 | धर्माद, अली
श्री श्री माल ज्ञा.
सुविहित सूरि
भ. श्री शान्तिनाथ | जे.जै.ले.सं.
| 32
जी
3867 | 1506 | हुती माणिक
सुचन्ती गोत्र
| 34
3868
| 1513
ओसवाल, भावलदे
सावंदेव सूरि
भ. श्री वासपूज्य | जे.जै.ले.सं.
जी तपा श्री रत्नषेखर सूरि | भ. श्री सुमतिनाथ | जे.जै.ले.सं.
जी तपा श्री मुनिसुन्दर भ. श्री पार्श्वनाथ | जे.जै.ले.सं.
34
3869
| 1517 | साधू, राजू
प्रा. ज्ञा.
जी
3870 | 1549 | वरम्हा, चांदगदे, नूपा. | त्रिभुवन कीर्ति
..................
जे.जै.ले.सं.
| 34
नेना
3871
1559 | माणिक, सारू
की श्रीमाल ज्ञा। बुद्धिसागर शूरिश्री धर्मनाथ जर्जलेलं.
श्री श्रीमाल ज्ञा
साल
भ. श्री धर्मनाथ
| बुद्धिसागर सूरि
जे.जै.ले.सं.
जी
38721559 | गोपाही
3873 | 1563 | रानूरानी
श्रीमाल ज्ञा. तातहड़ | उपकेष देवगुप्ति सूरि | भ. श्री कुंथुनाथ | जे.जै.ले.सं. गोत्र
जी उसवाल पूगलिया | श्री शान्ति सूरि भ. श्री मुनिसुव्रत जे.जै.ले.सं. गोत्र सुराणा गोत्र
धर्मघोष नन्दिवर्द्धन सूरि | भ. श्री शान्तिनाथ | जे.जै.ले.सं.
3874 |1569 |धणपालही
जी
3875
1584 हर्शा, हीरा
ओसवंष गोत्र
3876
1597 | भाना, भरमा
प्रा. ज्ञा.
जिन साधु सूरि
3877
||
1703
पंखवालेचा गोत्र
तपा विजयसिंह सूरि
भ. श्री शान्तिनाथ | जे.जै.ले.सं. जी भ. श्री आदिनाथ | जे.जै.ले.सं. जी भ. श्री मुनिसुव्रत जे.जै.ले.सं.
जी | भ. श्री संभवनाथ जे.जै.ले.सं.
जी | भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3878
प्रा. ज्ञा,
पूर्णिमा पुण्यरत्न सूरि
1532 | काई, वाउं, देवलदे लाकी
अजी, बाई, सहिज्यादि
38791524
लशमादे, धारू
ऊकेष ज्ञा.
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
38
जी
हरशमदे, सीतादे
ओसवाल
खरतर जिनचन्द्रसूरि
भ. श्री अनंतनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
39
Page #583
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ/आचार्य उप. सीसोदिया गोत्र | श्री सालिसूरि
प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
आदि भ. श्रीनमिनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3881 | 1536 | देवलदे, तलदे
39
3882 | 1536 | जइतदे
भ. श्री मुनिसुव्रत | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
उपकेष ज्ञा. सिंधानिया गोत्र श्रीमाल
3883 | 1559 | देमी
3884
1570 | सहजलदे, लाभकि
प्रा. ज्ञा.
3885
1569 | गोमति, वनादे, लालू | वायड़ ज्ञा.
पूर्णिमा सिंहसूरि भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी नागेंद्र श्री हेमसिंहसूरि भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी आगम श्री सोमरत्नसूरि | भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी | ब्रह्माण मुनिचन्द्र भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी पिप्पल श्री चंद्रसूरि भ. श्री विमलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
42
3886
1511
नाऊ
श्रीमाल ज्ञा
41
3887
| 1530
श्रीयादे
श्रीमाल ज्ञा
3888 | 1531 | देल्ह, सोनी, रतनी | उसवंष लोढ़ा गोत्र |बृहद. श्री सूरि
भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3889
| 1555 | गोरादे, वल्हादे
सीधम गोत्र
तान
खरतर. श्रीजिनचंद्रसूरि
42
जी
38901525
लाशिमदे
उपकेष बाबेल गोत्र | मलधारी गुणसुंदर सुरि | श्री चन्द्रप्रभु जी | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
143
सीतोरेचा गोत्र
नाणकीय श्री धनेष्वरसूरि | भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
38911542 | सूरमादे, सहजादे,
पगमलदे, सहजा 3892 | 1510 | देल्हणदे
जी
ऊकेष
भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3893
1501
धना
उपकेषवंष
श्री जिनसागरसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ| पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी
38941504 | दोया
। जया भी रनोखरसूरि न भी सुपरस्चना परतीमाप्रलेस. |
तपा श्री रत्नशेखरसूरि | भ. श्री सुपार्श्वनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
47
जी
3895 | 1507 | लाशणदे
प्रा. ज्ञा.
श्री कक्कसूरि
भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
47
3896 | 1507 | सोना, कमलश्री
खाटड़ गोत्र
धर्मघोश हेमचन्द्रसूरि
भ. श्रीआदिनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
147
3897 | 1509
चील्ह, साल्ही
| श्री काष्ठा संघ
श्री मलय कीर्ति
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
147
am on सुगुणादे
उप. शा. आईरीगोत्र ( उप श्री कक्षनरिभ. श्रीधन्दाम जी पालाप्रलेस.
3898 | 1509 | सुगुणादे
उप. ज्ञा. आईरीगोत्र
उप. श्री कक्कसूरि
भ. श्रीचन्दप्रभ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
48
3899
1509
रंगादे
ओस वंष
3900 | 1509
रूपी
उपकेषवंष
श्री साधुसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ पा.ज.धा.प्र.ले.स.
जी खरतर श्री जिनभद्र सूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी श्री कक्क सूरि भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
148
3901 | 1509 | जइनलदे, पाल्हणदे | उपकेष. ज्ञातीय
48
जी
| save | 150 सङ्ग साणी, हीलप्र. शा.
3902
1510 | सडू, राणी, हीरू
प्रा. ज्ञा.
तपा श्री रत्नसागरसूरि । श्री धर्मनाथ पाउज या प्रलेस. ||
तपा श्री रत्नसागरसूरि
| भ. श्री धर्मनाथ
जी
| पा.जै.धा.प्र.ले.स.
49
Page #584
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
| संवत्
| प्राविका नाम
वंश/गोत्र
3903
| 1511 | अहिवदे, जानू
उपकेष ज्ञा
| प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ गच्छ/आचार्य
आदि श्री सावदेवसूरि भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी श्री कक्कसूरि भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3904 | 1512 | सोना
149
उप ज्ञा. आदित्यनाग गोत्र
3905
1512 | फसी, धीरा, तारू
प्रा. ज्ञा.
श्री रत्न शेखरसूरि
भ. श्री आदिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3906
1512 | कुंअरि.
श्री. श्री. ज्ञा
49
तपा श्री रत्नषेखर सूरि | भ. श्री सुमतिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी श्री कक्कसूरि भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
50
जी
3907 | 1512 | नीबू, गजलदे उपकेष. ज्ञा
आदित्यनाग गोत्र 3908 1513 | धारलदे, सहजलदे । गुंदेचा गोत्र
पोमादे 3910 | 1513 | वाहणादे रतनादे उपकेष. ज्ञा
बाल श्री गुणाकर सूरि भ. श्री संभवनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी श्री कमलप्रभसूरि भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी रूद्रपल्ली सोमसुंदरसूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3911 | 1517 | गुणपालही नांवलदे | उपकेष, ज्ञा
50
जी
3912 | 1519 | भोली
प्रा. ज्ञा.
श्री लक्ष्मीसागरसूरि
51
| भ. श्री शांतिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
जी भ. श्रीधर्मनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3913 | 1519 | जईती
ब्रह्माण श्रीमाल. ज्ञा | श्री विमल सूरि
51
3914
1519 | कुसुमादे
उपकेषवंष
खरतर श्री जिनचंद्रसूरि | भ. श्री आदिनाथ | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
51
जी
3915
1520
लाबलदे
उपकेष ज्ञा श्रेष्ठि
उपकेष श्री कक्कसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभु जी पा.जै.धा.प्र.ले.स.
151
3916
| 1521 | डूली
प्रा. शा.
तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्रीनेमिनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.स. 151
3917 | 1524 | ललतादे, वीजलदे
प्रा. वंष
अंचल श्री सूरि
भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
52
3918
| 1524 | सादाही
उप. श्री कक्कसूरि
भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
52
उप. ज्ञा. आदित्यनाग गोत्र उपकेष
| जी
3919
| 1524
लूणादे, कर्पूरी
कृष्णर्षि कमलचंद्रसूरि
52
भ. श्री नेमिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स. जी भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
3920 | 1527 | पूरी, देवलदे
उप. ज्ञा.
श्री जयचंद्रसूरि
52
3921
1527 | उमी, सावित्री
उपकेष
श्री सूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत | पा.जै.धा.प्र.ले.स.
52
3922
| 1527
मलधारि गुण शेखरसूरि | भ. श्री सुविधिनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
53
3923
1527 | पाल्हणदे, चांपू, नाई
प्रा. ज्ञा.
तपा. लक्ष्मीसागर सूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ| पा.जै.धा.प्र.ले.स.
153
sma on जई भात
3924
|1529
जंई मारू
जम जाग गोत्र भी कामसूरि
उप. ज्ञा.डूगड़ गोत्र | श्री मेरूप्रभसूरि
जान भी शीतलन परत याप्रलेस. ।
भ. श्री शीतलनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.स.
53
Page #585
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
प्रतिमा निर्माण
आदि मानतुंग मानवती चौपाई
| 1778 | केसर बाई पठनार्थ
राज.हस्त.ग्रं.सू.भा.1
128
2
| 1784 | सिरेकंवर बाईं लिखित
अध्यात्म
1820 बाई वीरो पठनार्थ
110
1884 बाई चंपा लिखित
अंजनासुंदरी भास वही. सुदर्षन सेठ रा कवित्त श्रीपाल. राम(सचित्र) | राज.हस्त.ग्रं.सू.भा 3 | 302 सावलिंगा री बात |वही.
310 जंवूचरित्र चौपाई | | वही. भाग 5 367
1764| श्री रूपबाई पठनार्थ
1827 बाई सरूपा पठनार्थ | 1579 | अरघाई कुंयरि पठनार्थ | 1660 गउरादे, पउमदे पठनार्थ 17वीं राजबाई लिखित.
धन्नाऋषि संधि
वही.
368
दषठाणा विचार
वही.
10
17ीं | अमरबाई लिखित
चौबीस तीर्थकर
वही. भा. 6
206
स्तुति
207
11
| 1715 | जसोदा पठनार्थ
श्रावकातिचार
वही. भा. 8
62
12
1885| सत्याजी लिखित
वही.
80
थावच्चापुत्र नो चौढालियो
| 18वीं | बाई हवाई पठनार्थ
प्रा.वि.षा.ह.ग्रं.सू
प्रज्ञापना सूत्र मूल पाठ
षती
इंद्रजीत स्वाध्याय
प्रा.वि.षा.ह.पं.सू
14 15
1706 बाई मोहनदे 1783 | अभयकुंवर बाई पठनार्थ
वही.
उपासकदषांग सूत्र पाण्डुलिपि षालीभद्र चौपाई
16
वही.
| 1751 गुलालदे | 18वीं | बाई गमत्तहादे षती
वही.
उतराध्ययन सूत्र प्रतिलिपि
18
वही.
18वीं | खीमाबाई षती
गुरूणी सज्झाय. (चातुर्मास विनंती
पत्र)
| 19107 सोनी बाई के निश्राय में 1934 | सोनी बाई के निश्राय में
अनुयोग द्वार सूत्र वाही. सूयगडांग सूत्र वाही. उपासकदशांग सूत्र | प्रा.वि.षा.ह.ग्रं.सू
1983 | सोनी बाई के निश्राय में
Page #586
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
| संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र ।
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
प्रतिमा निर्माण
आदि
22
1888 सोनी बाई के निश्राय में
नंदीसूत्र पाण्डुलिपि
प्रा.वि.षा.ह.ग्रं.सू
तपा. श्री विजयसेनसूरि | सुमतिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
--------
204
| 1654 | गंगाई | 1644 | काजई, करणी
श्री श्री ज्ञा.
तपा. श्री विजयसेनसूरि | भ. श्री अजितनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
204
जी
25
1549 | लखी, देमाई
प्रा. ज्ञा.
आगम. विवेकरत्नसूरि
भ. श्री अजितनाथ
।जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
|
205
जी
26
1521 | लबकू, मल्हाई धनी
श्री श्री वंष
अंचल जयकेसरीसरि
भ. श्री अजितनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 205
प्रा. ज्ञा.
गूर्जर ज्ञा.
श्री श्री वंष | श्री श्री ज्ञा.
आगम अमररत्नसूरि | बृहतपा. विजयधर्मसूरि अंचल सिद्धांतसागरसूरि श्री सूरि तपा. उदयनंदिसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 205 भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 205 भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 205 भ. श्री संभवनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री अनंतनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 206 भ. श्री धर्मनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
206
प्रा. ज्ञा.
1529 मटकू 1521 मचकू | 1560 | सांतू लीलादे | 1537 | रतनू, भरमादे
1506 देई, कपूरी, कमलाई 32 1547 पूरीसु, रूपाई, कबाई 33 | 1620 | हीरादे, सुव्रतारानी
(राजमाता) | 1515 | देवलदे 1509 | कपूरी, कुती
1549/टबकू, वल्हादे 37 1521 | चांपासिरि, सीतादे
206
श्री श्री ज्ञा.
206
184
श्री श्री ज्ञा. पूर्णिमासाधुसुंदरसूरि भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 गूर्जर ज्ञा. तपा. श्री रत्नषेखरसूरि भ. श्रीशांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 श्री श्री ज्ञा. वृद्धतपा. उदयसागरसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 ओस ज्ञा. गांधी मलधारिगुणसुंदरसूरि भ. श्री धर्मनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
36
184
| 184
गोत्र
38
1577 | जीविणि, अजीकेन
श्री श्री ज्ञा.
श्री जिनहर्ष सूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री वासुपूज्य पंचतीर्थी जी
39
1503 | गोरी, वीरमदे
जयचंद्र सूरि
भ. श्री सुपार्श्वनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जी
40|1588 | माणिकदे, खणदे
ऊकेष ज्ञा.
1644 | ठकराणी,
श्री श्री ज्ञा.
42
1559 मणकाई, हरषाई
प्रा. ज्ञा.
श्री सूरि
भ. श्रीशांतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा विजयसेनसूरि भ. श्रीशीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 आगम विवेकरत्न सूरि भ. श्री अभिनंदन जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
चतुर्विंशतिपट्ट जी वृद्धदतपा विद्यामंडनसूरि | भ. श्री सुपार्श्वनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| जी
43
| 1587 | कप्रवाई, भीमाई
ओषवंष
|
3
Page #587
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
|
3
क्र० संवत् । श्राविका नाम वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक । प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ
गच्छ / आचार्य । आदि 44 1643 | जासलदे
श्री श्री ज्ञा. आगम-श्री कुलवर्धनसूरि | भ. श्रीशांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 1563 | अमरी, हेमाई, धपा, पार्वती ऊके ज्ञा. तपा. श्री इंद्रनंदिसूरि भ. श्रीशांतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 46 1575 | रनू, जासलदे
श्री श्री ज्ञा. | पूर्णिमासागरदत्तसूरि भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 47 | 1506 | जेसू, पानू, कसादे, ऊकेष ज्ञा. तपा. श्री रत्नषेखरसूरि भ. श्रीशांतिनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
मणिकदे 1525 | कर्मादे, सुक्तादे, माणिकदे, ओषवंष, तपा. श्री लक्ष्मीसागर भ. श्री सुपार्श्वनाथ |जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 चक्रेष्वरी गोत्र | सूरि
| जी 49 | 1529 | कर्मादे, सिरियादे, पलांडागोत्र | तपा श्री लक्ष्मीसागर सूरि | भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
ऊकेष ज्ञा. 11507 / जासलदे, भली माद्री श्री. श्री. ज्ञा. श्री सूरि भ . श्री मुनिसुव्रत जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 1508 | साधु, अकाई
श्री श्री ज्ञा. अंचल राज्यकेसरी सूरि भ. श्री धर्मनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 1508 | रंगाई,
श्री श्री ज्ञा. श्री सुमति रत्नसूरि भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 53 | 1569 | दुबी, मणकाई, पूनाई। ओस ज्ञा. श्री सूरि
| भ. श्रीशांतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 541509 | मेनू
श्री श्री ज्ञा. श्री सूरि
| भ. श्री चंद्रप्रभु जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 55 1518 | झबकू माधू,
प्रा. ज्ञा. तपा. श्री लक्ष्मीसागर भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
आदि
तषूरंगादे
|
4
|
6
सूरि
56
श्री श्री वंष
चैत्र श्री रत्नषेखरसूरि
भ. श्रीशांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 6
प्रा. ज्ञा.
क्षा.
1513 | मापुरि, जीविणि, 1515 | भावलदे, लींबी, 1524 | लाछलदे, मटकू 1656 कान्हाबाई
श्री श्री ज्ञा. मोढ ज्ञा.
59
7
60
| 1529 | झबकू मानू |
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि भ. श्रीशांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 जयचंद्रसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. श्री विजयसेनसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. श्री लक्ष्मी भ. श्री सुविधिनाथ । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 सागरसूरि तपा. श्री रत्नषेखरसूरि भ. श्री संभवनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 पल्ली वाल उद्योतनसूरि | भ. श्री वासुपूज्य जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जी
|
7
1510 | बहली, चारू, रूपिणि 1566 | संपूरी, पारवती,
62
श्री श्री ज्ञा. ओस. ज्ञा. छाजहडगोत्र
63
श्री श्री ज्ञा.
तपा. श्री उदसागरसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 7
प्रा. ज्ञा.
|1543 | वीडू, हताई,
1505 | सिंगारदे, दूदा, देवलदे | 1504|रूदी | 1535 | धनी, नाकू
तपा. श्री जयचंद्रसूरि अंचल जयकेसरी सूरि
65
ऊकेष ज्ञा.
भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
|
9
ओसवंष, मांडउत्रगोत्र
67
| 1504 | धारू, कर्मणि
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री जयचंद्रसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
Page #588
--------------------------------------------------------------------------
________________
566
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र० संवत् श्राविका नाम वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ
गच्छ / आचार्य आदि | 1511 | मूंजी, करणूजइतू, हीरादे । ऊकेष वंषे तपा. श्री रत्नषेखरसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
1511 | सूहवदे, संभलदे उपकेष ज्ञा. ब्रह्माणी श्री उदयप्रभसूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 1526 | अहिवदे, माणिकि ओसवाल ज्ञा. | श्री रत्नसिंहसूरि भ. श्रीशांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 1517 | अरघू
श्री श्री ज्ञा. श्री विमलसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 1520 | रांभ
श्री श्री ज्ञा. गुणसुंदरसूरि | भ. श्री मुनिसुव्रत जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 731534 नागलदे, सिरिआदे श्री श्री ज्ञा. तपा. श्री उदयसागरसूरि भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
10
|
10
-
11
74 | 1553 | करमादे, चांपलदे, विमलादे | प्रा. ज्ञा.
श्री सिद्धांतसागरसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 जी
751634 | रजाई
श्री श्री ज्ञा.
1654| कोडमदे
श्री श्री ज्ञा.
1893 हीराई
|तपा. श्री हीरविजयसूरि
तपा. श्री धर्ममूर्तिसूरि तपा. श्री विजयदेवसूरि तपा. श्री रत्नशेखरसूरि श्रीसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 11 भ. श्री श्रेयांसनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 11 भ. श्रीशांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 12 भ. श्री महावीर जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 12 | भ. श्री अनंतनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
प्रा. ज्ञा.
| 1512 | जासू, कुंयरि. 79 | 1563 | धीमी, कीवाई, सामा,
कीवबाई
ऊकेष ज्ञा.
| 12
80
| ऊकेष ज्ञा.
भ. श्री धर्मनाथ जी
|जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
ओस ज्ञा.
भ. श्री विमलनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 1515 | वासू, माजू, मनू 1573 | षितु, बगूपुलि(त्रि) का 1515 | सोनलदे, रत्नाई 1518 | षवादेवी
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि | श्री विजयसूरि
खरतर श्री जिनहर्षसूरि श्री साधुरत्नसूरि
ऊकेष वंष
भ. श्री धर्मनाथ जी
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
83
ओस ज्ञा.
भ. श्री अभिनन्दननाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
84
1513 | वाच्छु, रूपिणि
श्री ज्ञा.
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
श्री विमलसूरि श्री विमलसूरि
| भ. श्री आदिनाथ जी भ. श्री सविधिनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
25
| 1547 | पांचा, चमकू, महीया,
सोमादि
86
1577 | | राजति
तपा. श्री हेमविमलसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 25 भ. श्री अजितनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 ।
87
1542 | जसोदई, पाती
सांडीयागोत्र
आगम जिनचंद्रसूरि
जी
88
| 1570 | मालहणदे
श्री श्री ज्ञा.
आगम षवकुमारसूरि
भ. श्री अजितनाथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
|
17
89
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री जयचंद्रसूरि
भ. श्री अभिनंदन जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
|
17
| 1503 | लहकू, षाणी 1543 | वीजू, अधिकू
90
श्री श्री ज्ञा.
19
श्री उदयसागर बृहत्तपा | भ. श्रीशीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 मुनिचंद्रसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
91
1558 | वीजलदे. लषी
ओस. ज्ञा.
-
19
Page #589
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
92
93
94
95
96
97
98
99
100
101
102
103
104
105
106
107
108
109
110
111
112
113
114
115
संवत्
1662 हीरादे
1605
हीरादेवी
1558 वीजलदे, लषी
1605 हीरादेवी
1517
1527
1549
1577 जीवी, हीरादे
1508
1516
1525
1516 जसमादे, आसी
1521
1511
श्राविका नाम
लखणी, आल्हणदे
1542 भाकू, जसाई, लखी
1520 फालू अमकसु
पाल्हणदे, तेजू
राजलदे
रूपिणि, अमकू
1642
वरजूदेवी, कुतिगदे, अमरी
कपूरी, अमरादे,
डाही, नाथी
1531
देमाई, कपूराई
चांपलदे, हरषू, दूबी
रूपिणि, लाकू, सहिजलदे
1528
1523 हांई, नोडी
1524 नायकदे
1521 कर्मादे, फदू पदमाई
1532 वाछपु, हीरादे
1524 कर्मादे, चाई
माकू रही
वंश / गोत्र
ओस. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
ध्रुवगोत्र
हुंबड ज्ञा.
मंत्रीष्कवरगोत्र
श्री श्री ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
हुंबड ज्ञा.
हुंबड ज्ञा.
उपकेष ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
श्री श्री ज्ञा.
श्री विजयसेनसूरि
तपा. श्री सूरि
पूर्णिमा श्री मुनिचंद्रसूरि
तपा. श्री सोमसूर
| बृहतपा श्री रत्नसिंहसूरि
श्री रत्नदेवसूरि
श्री रत्नसूरि
श्री धनराजसूरि
| आगम श्री हेमरत्नसूरि
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
नारसिंह ज्ञा. हृदसोहगोत्र
श्री श्री ज्ञा. तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि खरतर मुहतागोत्र जिनहर्षसूरि
श्री गुणसुंदरसूर
श्री भुवनकीर्ति
विमलेंद्रकीर्ति
संडेर श्री सालिसूर
आगमश्री सूरि
जयकेसरी सूरि
श्री गुणसमुद्रसूरि
तपा. श्री विजयसेनसूरि आ. वीरसेन
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि वृदद तपा. श्री ज्ञानसागरसूरि श्री लक्ष्मीदेवसूरि
प्रतिमा निर्माण
आदि
भ. श्री नमिनाथ जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्रीशांतिनाथ जी
भ. श्री धर्मनाथ जी
भ. श्री
मुनिसुव्रतस्वामी जी
भ. श्री अरनाथ जी
भ. श्री विमलनाथादिपंचतीर्थी
जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्रीयुगादिदेव जी
भ. श्री अजितनाथ
चतु. जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री विमलनाथ जी
भ. श्री सुमतिनाथ जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी भ. श्री विमलनाथ जी भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री सुमतिनाथ जी भ. श्री अर्बिकादेवी जी
भ. श्री शीतलनाथ जी भ. श्री आदिनाथ जी भ. श्रीशीतलनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ जी
संदर्भ ग्रंथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं. भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
567
पृ.
19
19
19
19
19
20
20
20
21
-
21
21
21
22
2 2 2 2 2
22
22
23
23
23
24
24
24
25
25
25
25
Page #590
--------------------------------------------------------------------------
________________
568
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रतिमा निर्माण
संदर्भ ग्रंथ
|
प.
आदि
श्री श्री ज्ञा.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य | श्री पूर्णचंद्रसूरि तपा. श्री रत्नषेखरसूरि श्री सिंहदत्त्सूरि
116 | 1510 | हरखू कातिगदे
1511 | रयणी , चाई.
25
प्रा. ज्ञा.
भ. श्री पद्मप्रभु जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
26
1181537 | रांकु, नयणादे
हुंबउ झा. बुधगोत्र
श्री श्री वंष
भ. श्रीशीतलनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
|
26
119 1564| मानू लखाई 120 | 1523| धर्मणि, भर्मादे 12115 सके. श्रीसू, देपू, मान,
श्री श्री ज्ञा. श्री श्री ज्ञा.च
श्री सदगुरू गुणसुंदरसूरि आगमश्री डेमरत्नसूरि
| भ. श्री मुनिसुव्रत जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 अजितनाथचतुर्विंशति पट्ट जी
1221519 | धर्मिणी
श्री काणागोत्र
खरतर श्री जिनचंद्रसूरि | भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 27
प्रा. ज्ञा.
1231513 | लूणादे, खेतू, 124 1579 | जीवणि, कूर्माई. 125 | 1583 | पदी, झबकू 126 1601 | लकू
| श्री श्री ज्ञा. ठाकुरगोत्र
| तपा. श्री सोमसुंदरसूरि | सुविहितसूरि भ ज्ञानकीगच्छसिंहसेनसूरि
भ. श्री नमिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 27 . श्री मुनिसुव्रत जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्रीशांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 28
श्री श्री ज्ञा.
तपा. विजयसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
127
| 1678 | आसबाई
| प्रा. ज्ञा.
भट्टा. श्री विजयसेनसूरि
भ. श्री ऋषिमंडलयंत्र | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 28
128
प्रा. ज्ञा.
28
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि | पूर्णिमा. पुण्यरत्नसूरि
भ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | भ. श्री कुंथुनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
129
ARIA
28
| 1515 | वर्जू, संपूरी,
1518 | संसारदे. 1542 | लाडकी, माणिकी 1570| धीरादे, रंगी
श्री श्री ज्ञा. श्री श्री ज्ञा.
130
श्री सूरि
भ. श्री अरनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
|
22
131
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
132
1517 | रूई. वाद
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ जी |जैधा.प्र.ले.सं.भा.2
22
133
1523 | मेचू, नाभलदे
प्रा. ज्ञा.
134
ओसवाल ज्ञा.
1587 लीलादे | 1507 | माकू मूजी, अमरी
135
ओस. ज्ञा.
|
30
136
1531 | भोली, मलहाई
श्री श्री वंष
30
तपा. श्री रत्नमंडनसूरि भ. श्री श्रेयांस जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | श्री साधुरत्नसूरि भ. श्री वासुपूज्य जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 श्री सुविहितसूरि भ. श्री आदिनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
पंचतीर्थी जी बृहत्तपा श्री ज्ञानसागरसूरि | भ. श्री वासुपुज्य जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 अंचल श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्रीशीतलनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 श्री आमदेवसूरि भ. श्री महावीर जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 अंचल श्री भावसागरसूरि भ. श्री पार्श्वनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 आगम श्री षिवकुमारसूरि भ. श्री वासुपूज्य जी। जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्रीशांतिनाथ जी । | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
137
1522 | अहवदे, अरघू, भावलदे
श्री श्री वंष
138
ओस. ज्ञा.
1210 गाहू 1567 | खीमी चांदू
139
ओएसवंष
140
श्री श्री ज्ञा.
1587 | रूपाई, जीवादे 1519 | दूसी, मरगदि
141
प्रा. ज्ञा.
Page #591
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
569
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र । प्रेरक/प्रतिष्ठापक । प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ । पृ. गच्छ / आचार्य
आदि श्री श्री ज्ञा. आगम श्री आणंदरत्नसूरि भ. श्री चंद्र प्रभस्वामी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 31
जी
1421576 | राणी, जीवादे
143
श्री श्री ज्ञा.
33
144
| 1509 | मेलू, मेवू
1525 | अधूं, बकी. 1512 | लीलादे, राजलदे
श्री श्री ज्ञा.
33
| प्रति. उदयनंदीसूरि
पिप्पल श्री गुणसागरसूरि | तपा. उदयनंदीसूरि | ककुदा. श्री देवगुप्तसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री नमिनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री अरनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
145
ऊकेष वंष
146
1533 नयनादे, सिरियादे
ओस. ज्ञा.
33
बाफना
1471511 पाल्हणदे
श्री श्री ज्ञा.
| भ. श्री शीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
34
श्री विमलसूरि श्री लक्ष्मीसागरसूरि
148
1536 संपूरी, हीराई.
प्रा. ज्ञा.
भ. श्री आदिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
149
1524 | धाऊ
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
|
35
श्री श्री ज्ञा. बृहत्त तपा. श्री
ज्ञानसागरसूरि उकेष वंष अंचल जयकेसरीसूरि उके. भंडारी गोत्र | खरतर श्री जितहससूरि
150
1504 | वाछूहीरू,
भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 178 भ. श्री कुंथुनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 178
151
| 1563 | कस्तुराई, नाकू
178
152 | 1595 | नाकू 153 11530 माणिकदे 154 11668 | बच्छू, श्रीबाई,
श्री श्री ज्ञा.
| तपा. भट्टा विजयदानसूरि पूर्णिमा. देवेंद्रसूरि तपा. श्रीविजयगणि
178
भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 शत्रुजयतीर्थावतारपट्टः जी
| 179
155
1528
हर्षु, रगांई
खरतर. श्री जिनचंद्रसूरि
भ. श्री नमिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 179
ऊके वंष दीक गोत्र श्री श्री ज्ञा.
नागेंद्र. श्रीहेमरत्नसूरि
भ. श्री वासुपूज्य जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 180
श्री श्रीवंष
अंचल श्री जयकेसरीसूरि
भ. श्री शीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 180
वायड ज्ञा.
180
156 1531 कर्मणि, माणिकि 157 | 1522
| अहवदे, अरधु, भावलदे 158 1523 | लाडिकि, गांगी 159 | 1513 | कांऊ, पूरी 160 1551 कुतिगदे, पूगी, माईसु,
जयमादे
वीरवंष
आगम. मुनिरत्नसूरि भ. श्री शांतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 अंचल. श्री जयकेसरी सूरि | भ. श्री संभवनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. श्री हेमविमलसूरि भ. श्री धर्मनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
180
वायड़ ज्ञा..
| 181
1611598 | दीवड़ि, चंगाई
मोढ़ वंष
तपा. श्री विजयदानसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 181
162
श्री श्री ज्ञा.
| आगम. देवरत्नसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 181
15301 लीलसु, सताई 163|1509 पची , तिलू
डाभिलागोत्र प्रा. | तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 181
ज्ञा.
.
जी
1641520 गुउरि, वल्हादे
प्रा.ज्ञा.
तपा. श्री सोमदेवसूरि पूर्णिमा श्रीपुण्यरत्नसूरि
| भ. श्री शीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | भ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
165
1561 रंगाई, अरधाई
श्री श्री ज्ञा.
181
Page #592
--------------------------------------------------------------------------
________________
570
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
|
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य श्रीसुविहितसूरि
आदि
166
|1563 | रत्नाई, लकू
| श्री श्री ज्ञा.
| भ. श्री श्रीधर्मनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
181
167
| 1598 करमी, देवलदे, सोभगिणि
ऊके आंबलिया | तपा. विजयदानसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
गोत्र
168
1520 धांधलदे
नाणावाल श्री धनेष्वरसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 183
169
11677
नयणी
तपा. श्री विजयदेवसूरि
183
भ. श्री मुतिसुव्रत जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री पार्श्वनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 1549 टबकू वल्हादे
श्री श्री ज्ञा.
| 184
बृद्धतपा. श्री उदयसागरसूरि गुणसुंदरसूरि
| 1521 | चामारसिरि, सतिादे
ओसज्ञा. गांधी
भ. श्री धर्मनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 184
गोत्र
172
1510 रत्नू, कर्माई
हुंबड ज्ञा.
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 185
वृद्धतपा. श्री विजय धर्मसूरि
श्री श्री ज्ञा.
173 |1516 | वरजू, रमाई 174
1578 धर्मिणि, गगांदे 175 | 1509 | रत्नीसुराभूसु
श्री श्री ज्ञा.
आगम, सिंहदन्तसूरि भ. श्री वासुपूज्य जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 185 वृद्धतपा. श्री धनरत्नसूरि भ. श्री सुविधिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 185 | पूर्णिमा. श्री गुणसमुद्रसूरि | भ. श्री शांतिनाथ चतु. जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 185
श्री श्री ज्ञा.
176
| 1531 | गूजरी, मचकू
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 185
भ. श्री मुतिसुव्रतनाथ जी
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्रीरत्नषेखरसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
|
185
177 | | 1510 सजूणि, रामति 1781677 मेघाई, मरघादे
ओ. ज्ञा.
भ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 186
179
1532
रामति, डाही
श्री ज्ञा.
तपा. श्रीरविजयदेवसूरि पूर्णिमा. साधुसुंदरसूरि तपा. विजयरत्नसूरि तपा. श्रीविजयदेवसूरि
180
प्रा. ज्ञा.
186
| 1529 | मानू राजू
1877 तेजलदे, धाई
181
ओस ज्ञा.
186
भ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री सुपार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 । भ. श्री
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 सुमतिनाथचतुर्मुख जी भ. श्री अभिनंदन जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री कुंथुनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | भ. श्री अनंतनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
182
| 1518 | माकू
ओ. ज्ञा.
| 187
183
1507 | रूपाई, सिंगारदेवी, ह'
ऊ. ज्ञा.
धर्मघोष श्री साधुरत्नसूरि तपा. रत्नषेखरसूरि तपा. रत्नषेखरसूरि
187
1841518 | सीतादे, वरजू, रामति
प्रा. ज्ञा.
187
185
1571 तारूसु, माणिकिसारू
ऊके. ज्ञा.
सुविहित सुविहितसूरि
187
भ. श्री मुनिसुव्रत चतु. | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 जी
श्री श्री ज्ञा.
पिप्पल. सर्वसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 188
186 | 1529 | टीबू, कुयरि, कमली 187 | 1508 | पोमादे,कपूरी, रामति
1800 ललतादे
ऊके.
तपाा. रत्नषेखसूरि
| 188
भ. श्री सुविधिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री शांतिनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
188
| 188
ओस ज्ञा. चोपड़ा | उपाध्याय श्री गोत्र
विधासागरसूरि
,
Page #593
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
| क्र०
संवत्
श्राविका नाम
संदर्भ ग्रंथ
पृ.
:
वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक । प्रतिमा निर्माण |
गच्छ / आचार्य आदि
प्रा. ज्ञा.
पूर्णिमा. पुण्यचंद्रसूरि
भ. श्री र्धमनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 189
1891509 | सलवू, रत्न, हरखूपु 190 1483 | प्रीमलदे, हर्पू, आसू 191 1566 | कतीपु, सिकूदे पु.
भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 190
प्रा. ज्ञा. नागेंद्र श्रीगुणसागरसूरि ओसर्वष अंबिका | भावडरास श्रीविजयसुरि गोत्र
भ. श्री कुंथुनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 190
| ओस ज्ञा.
तपा. श्रीविजयदेवसूरि
भ. श्री अंनतनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 190
192 | 1677 | षिवादे, धनाई, वल्हादे,
श्रृंगारदे
193
|1522 | कडतिगदे, लीलादे
श्री श्री ज्ञा.
भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 190
संडेर सालिभद्रसूरि हीरविजपसूरि
194
1632 सौभाग्यदे, जीवी
प्रा. ज्ञा.
भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
35
195
1573 | धाऊ मरगदि लीला,
श्री श्री ज्ञा.
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
बृहतपा श्री उदयसागरसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथादि
चतु जी
196
1573 | अरधू नाई.
उप वंष
श्रीसावदेवसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
36
1971508 मल्ही
श्री श्री ज्ञा.
आगम देवरत्नसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री आदिनाथ जी भ. श्री शांतिनाथदि चुतविंशति. जी भ, श्री पार्श्वनाथ जी
198
1508 महणश्री
|श्री कक्कसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
|
36
उप.ज्ञा. सूरूआगोत्र
199
1567 | मानूं, जीवी
श्री श्री वंष
37
बृहतपा श्रीसूरि खरतर श्री जिनचंद्रसूरि
भ. श्री चंद्रप्रभ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री अजितनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
37
उकेष दवडा गोत्रे
200 1538 देल्हणदे, धारू,
पद्माईकपूराई | 1518 | रूपिणि, रमकू 2021511 | जालहणदे, वारू
श्री श्री ज्ञा.
203
|1525 | साधू
श्री श्री ज्ञा.
204
| 1527 | गंगादे, नागलदे,
श्री श्री ज्ञा. गउरीयागोत्र
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री वासुपूज्य जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 37 तपा. श्री रत्नषेखरसूरि भ. श्री पार्श्वनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 37 | पूर्णिमा साधुसुदंरसूरि | भ. श्री शांतिनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 37
चतुर्विषांति जी वृदतया. श्री ज्ञानसागरसूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 - 38 श्री नन्नसूरि | भ. श्री पद्मप्रभ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 38 अंचल श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री चंद्रप्रभ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 38 प्रति. श्री इन्द्रनांदिसूरि भ. श्री शांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. श्री ज्ञानसागरसूरि भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
205
|
1528 | मचकू
2061508 | कपूरदे, सोउ
श्री श्री ज्ञा.
207
| 1558 | पूरी, सुपारना,
208
1524 | मल्हाई.
श्री श्री ज्ञा.
209
1567 | पोई, नानी,अजाई
ओस. ज्ञा.
तपा. श्री विजयहेमगणि
भ. श्री धर्मनाथ जी
।
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 39
2101584 | टमकू वीरी,
प्रा. ज्ञा.
|जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
बृहततपा, श्री सौभग्यसागरसूरि पूणिमा. श्री गुणसुदंरसूरि श्री देवप्रभसूरि
211
श्री श्री ज्ञा.
भ. श्री कुंथुनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 39
| 1506 | सूल्ही, सलषु,
1536 | कुतिगदे, धारा, देई
212
श्री श्री ज्ञा.
भ. श्री अंबिकादेवी जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
39
,
Page #594
--------------------------------------------------------------------------
________________
572
क्र०
213
214
215
216
217
218
219
220
221
222
223
224
225
226
227
228
229
230
231
232
233
234
235
236
237
238
239
संवत्
1566 डाही.
1592 हर्षादे, जीवादे
1644 काकी
1628 अरघाई, देवलदे.
हांसी,
1512 मई,
1567
1571
हीरू, माणिकदे,
1544 रागति, नाथी,
1632 हांसलदे, रत्नाई,
1644 कीकी.
1525 चांपलदे, सहिजलदे,
वइजलदे
1683 ऊझूरिसु
1638 पुगी,
1521 टबकू, रामा, जीविणी
1509 चंगाई,
1580
श्राविका नाम
1525 रमादे,
1530 सूहवदे, सहिजलदे,
श्री बाई,
1526 करणू चमकु
1523 सुहवदे, मरगदे, महगलदे,
जीविणि
1529 सुल्हा
1535 रूपी,
1537 लाछू, वल्हादे, आसीठ आदि
1503 कुतिगदे,
1552 आयूसु जानूसु
1677 रही.
1549
ललनू, जसिबा,
वंश / गोत्र
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
ऊसवंष
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
गूर्जर ज्ञा
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री वंष
श्री श्री ज्ञा.
वायड ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
वायड ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
श्री श्री
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
तपा. श्री हेमविमलसूरि
ब्रह्माण सूरि
श्री विजयसेनसूरि
तपा. श्री हीर विजयसूरि
तपा. श्री जयकल्याणसूरि पीपल श्री गुणरत्नसूर
श्री सूरि
आगम श्री जिनचंद्रसूरि
तपा. हीरविजयसूरि
विजयसेनसूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
तपा. श्री विजयानंदसूरि
तपा. श्री हीरविज
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
श्री जिनभद्रसूरि
श्री सूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि वृद्ध तपा. ज्ञानसागरसूरि तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
मलधार श्री गुणनिधानसूरि पिप्पल श्री धर्मसागरसूरि
वृद्ध तपा, श्री
विजयरत्नसूरि
जयचंद्रसूरि
आगम श्रीसोमरत्नसूर
तपा. विजयदेवसूरि
श्री शीलगुणसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण
आदि
भ. श्री सुविधिनाथ जी
भ. श्री सुपार्श्वनाथ जी
भ. श्री शांतिनाथ जी
भ. श्री धर्मनाथ जी भ. श्री अजितनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्री वासुपूज्य
जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी
भ. श्री मुनिसुव्रत जी
भ. श्री अजितनाथ जी
भ. श्री सुविधिनाथ जी भ. श्री आदिनाथ जी भ. श्री शांतिनाथ चौबीस चतु जी
भ. श्री विमलनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ जी भ. श्री कुंथुनाथ जी भ. श्री सुमतिनाथ जी भ. श्री विमलनाथ जी भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री सुविधिनाथ जी भ. श्री धर्मनाथ जी भ. श्री शांतिनाथ जी
भ. श्री शांतिनाथ जी भ. श्री सुमतिनाथ पंचतीर्थी जी भ. श्री सुमतिनाथ जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
संदर्भ ग्रंथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.ध.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
पृ.
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
40
40
40
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 42
40
40
40
3388
42
42
43
43
43
43
44
44
44
44
45
45
45
45
45
47
47
Page #595
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण | गच्छ / आचार्य आदि
240
1506 | जसलदे, कुरमाई
श्री श्री ज्ञा.
आगम सिंहदत्तसूरि
भ. श्री संभवनाथ चतु. | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
47
241
श्री. ज्ञा.
|
47
1556 | तेजू कता, | 1587 | धमणि
तपा. श्री हेमविमलसूरि अंचल. गुणनिधानसूरि
242
श्री श्री ज्ञा.
48
भ. श्री वासुपूज्य जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री सुपार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | भ. श्री शीतलनाथ चतु. | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जी
243
1518 |लापू. हांसलदे
श्री श्री ज्ञा.
भट्टारक धनप्रभसूरि
| 48
244 |1525 | मजू, हांसी, मांजू
श्री ज्ञा.
तपा, श्री लक्ष्मीीगरसूरि
भ. श्री वासुपूज्य जी
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 49
245
| 1537 | बदा, ललाई.
श्री श्री ज्ञा.
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
| भ. श्री संभवनाथ चतु.
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
49
जी
246 | 1592 | पहुती, वीरूपु, रमादे
श्री श्री ज्ञा.
49
247|1522 लीलादे, सोमी
श्री श्री ज्ञा.
| 49
248
| 1578 | षोषी, मेलादे
प्रा. ज्ञा.
50
249
हींगडगोत्र
| 51
| 1525 | कमलश्री. पुन्नी, केलू 1505 | लषमादे,
श्री श्री ज्ञा.
51
251
1559 | अपूरव
श्री श्री ज्ञा.
51
252
| 1525 | खेतू, लाडी
प्रा. ज्ञा.
| 51
253
| 1576 | जाकु
श्री श्री ज्ञा.
254
1556 | रामति, कस्तुरी,
श्री ज्ञा.
श्री गुणमेंरुसूरि भ. श्री
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
सुमतिनाथपूर्णिमा जी | तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
आगम विवेकरत्नसूरि | भ. श्री धर्मनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 उपकेष श्री कक्कसूरि भ. श्री वासुपूज्य जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | पिप्पल. श्री विजयदेवसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तलाझीया श्री शांतिसूरि भ. श्री संभवनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री धर्मनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 पूर्णिमा. श्री सुमतिरत्नसूरि भ. श्री वासुपूज्य जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 हेमविमलसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 श्रीरत्नसिंहसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 आगम श्री देवरत्नसूरि भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री मुनिसुव्रत जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 श्रीगुणाकरसूरि
भ. श्री शांतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 चैत्र श्री रामचंद्रसूरि भ. श्री कुंथुनाथ जी |जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 खरतर श्री जिनहर्षसूरि | भ. श्री
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
कुंथुनाथचतुर्विषति जी श्री जिनरत्नसूरि भ. श्री कुंथुनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री सिंहदतसूरि भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
52
255
1503 | रत्नाई
ओस. ज्ञा.
52
256
1533
| लाली, देमति
प्रा. ज्ञा.
52
257
| | 1529
नाथी
प्रा. ज्ञा.
| 52
258
1565 | माल्हणदेवी
259
|1524 | कील्हणदे, धनाई, आदि
।
उप, ज्ञा.
| 53
260
| 1532 | कीकी
ऊकेष वंष
| 53
1515] माणिकदे, चंगाई
प्रा. ज्ञा.
53
| 1508| देवलदे, कर्माई
प्रा. ज्ञा.
जी
श्री
ज्ञा.
तपा. श्री सुमतिसाधुसूरि
भ. श्री पदमनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 53
| 1567 माकु, सापां, पाणी, सांगू
आदि
264
1526 गुरी, माणिकी
तपा. श्री सोमजयसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 54
Page #596
--------------------------------------------------------------------------
________________
574
क्र०
265
266
267
268
269
270
271
272
273
274
275
276
277
278
279
280
281
282
283
284
285
286
287
288
संवत्
1579
1512
1661
1526
1512
1544
1521
कुंअरि, रंगादे,
पची, गुरी, डाही
1508 घेतलदे, जइतू
श्राविका नाम
रूपलदे, नागलदे, महिमादे
1555 बकू, अकू
1584 नाथी, पूतलि
धारू, हुंडी
धारू
1683
1509 कमलादे, रंगाई
सरसई, माणिकदे
1
पची, वरणू, डाही, रत्नादे
1622
वच्छी
1556 हांसी, गुरी, कुतिगदे
1543जीवादे, ऊमादे, गुरी
1541 कुंअरि, मति
1578 लपी, पूराई
1503 फडू चांपू
1561
1554 रूडी, मणकई.
नामलदे, पदमाई,
1508 अरघू
1512 वांछ, आसि
1536 नामलदे, सिंगारदे
संघाई, इंद्राणी, सहजलदे
1542 रंगाई, इंद्राणि
वंश / गोत्र
हुंबड ज्ञा.
हुंबड ज्ञा.
बुधगोत्र
ऊकेष वंष. भ.
गोत्र
श्री श्री ज्ञा.
हुंबड
प्रा. ज्ञा.
श्री ज्ञा.
श्री ज्ञा.
हुंबड ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
पोरवाड ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री ज्ञा.
ऊकेष वंष,
छाजडह
श्री श्री ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
श्री सौभाग्यसूरि
श्रीबृहत्तपा श्रीविजयधर्मसूरि
खरतर श्री सुंदर मणि
पूर्णिमा श्री जयचंद्रसूरि बृहत्तपा श्रीविजयधर्मूसरि
तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
तपा. श्रीमविमलसूरि
तपा. श्री सौभाग्यहर्षसूरि
वृद्धतपा. श्री धर्मरत्नसूरि
आगम देवरत्नसूर
बृहतपा. श्री उदयवल्लभसूरि भट्टा, श्री हीरविजयसूरि श्री हेमविमलसूरि पूर्णिमा श्री लक्ष्मीप्रभसूरि श्रीभावदेवसूरि आगम विवेकरत्नसूर
आगम हेमरत्नसूर
वृद्धतपा. भट्टा श्री
धर्मरत्नसूर
पिप्पल श्री षांतिसूरि
तपा. श्री विजयानंदमूरि आगम हर्षतिलकसूर तपा. श्रीरत्नषेखरसूरि
श्री जिनचंद्रसूरि
वृद्धतपा. श्री उदयसागरसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण
आदि
भ. श्री सुमतिनाथ जी
भ. श्री विमलनाथ जी
भ. श्री विमलनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ चतुर्वि जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री विमलनाथ जी
भ. श्री अनंतनाथ जी भ. श्री सुविधिनाथ जी भ. श्री आदिनाथ जी भ. श्री शीतलनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री अभिनंदन जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री विमलनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री अभिनंदन जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री नमिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री मुनिसुव्रत चतु जी
भ. श्री सुविधिनाथ जी
भ. श्री धर्मनाथ जी
भ. श्री शीतलनाथपंचतीर्थी जी भ. श्री शांतिनाथ जी भ. श्री श्रेयांसनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री चंद्रप्रभ जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री अनंतनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं. भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
पृ.
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
54
54
55
55
55
55
55
55
55
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 57 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 57 जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
56
56
57
བ། བ། བ། བ། བ ཐ
57
57
57
58
58
58
58
59
59
59
Page #597
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
संदर्भ ग्रंथ
वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
प्रतिमा निर्माण |
आदि
289
1584 | वलहादे, लाडी
श्री श्री
2901533 | साकुसु, अमकूसु
श्री श्री ज्ञा.
60
291 | 1615 पूतलि, विमलादे, लहूजी 292 | 1547 | माणिकदे, हीरू 293|15957 कील्लाई
60
श्री प्रागवंष
294
1513 | हीरादे, ताला
प्रा. ज्ञा.
| आगम. श्री षिवकुमारसूरि | भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 वृद्धतपा. उदयसागरसूरि | भ. श्री शीतलनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. श्री विजयदानसूरि भ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. श्रीसुमतिसाधुसूरि भ. श्री शांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. श्री विजयदानसूरि | भ. श्रीपार्श्वनाथ जी |जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 60 आगम देवरत्नसूरि भ. श्री धर्मनाथ, चतु. जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 161
जी वृद्धतपा. श्रीलाब्धिसागरसूरि | भ. श्री संभवनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | तपा. लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री नमिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | तपा. जयचंद्रसूरि भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. श्री सोमविमलसूरि भ. श्री पार्श्वनाथ जी |जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 वृद्धतपा, श्री धर्मरत्नसूरि भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
62 | अंचल. श्रीसिद्धांतसागरसूरि | भ. श्रीषीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 62
295
| 1560 | आपूप पदमाई.
श्री श्री ज्ञा.
61
296
प्रा. ज्ञा.
| 1523 | मेघादे, हचीपु | 1503 | कपूरी, वर्जूसु
297
प्रा. ज्ञा.
298
1603 | | नामलदे
299
श्री श्री ज्ञा.
| 1547 | सूदी, | 1542 | माणिकि. रूडी, परवूसु,
300
| श्री श्री ज्ञा.
रूपाई
301
1519 | मेचु, सारू, माणिकदे
ऊकेष ज्ञा.
302
1710 जीवादे
प्रा. ज्ञा.
303
प्रा. ज्ञा.
1542 | गुरीपूनाथी, धाई. माणिकदे 1557| गंगादे, सौभागिणि 1511 | गोमति, वासुसु, रही
श्री श्री ज्ञा.
63
श्री श्री ज्ञा.
| श्री देवसुंदरसूरि भ. श्री वासुपूज्य जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | तपा. विजयराजसूरि भ. श्री आदिनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 63 पूर्णिमा श्री गुणतिलकसूरि | भ. श्री विमलनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 63 पूर्णिमा श्री गुणतिलकसूरि | भ. श्री शीतलनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 पूर्णिमा. गुणसमुद्रसूरि | भ. श्री मुनिसुव्रत चतु. | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
- 65 जी नागेंद्र, रत्नसूरि भ. श्री पार्श्वनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 65 खरतर, जिनचंद्रसूरि भ. श्री कुंथुनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 65 तपा. आनंदविमलसूरि भ. श्री पार्श्वनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 श्री विजयराजसूरि भ. श्री अभिनंदन जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2. तपा. श्री सोमदेवसूरि भ. श्री कुंथुनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 वृद्धतपा. श्री विद्यामंडनसूरि | भ. श्री अजितनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
306
1563 | विजलदे, भावलदे
श्री श्री ज्ञा.
307
श्री वंष
1519 | कणकू, सुहागदे 1595 | भरमादे, इंद्राणी
308
श्री श्री ज्ञा.
65
310
66
श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री संभवनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
66
309 1710| षिवा
----------... 1522 | चनूपु, चाईपु
श्री श्री ज्ञा. 311 | 1587 | अजी, नाकू
ओसवंष 312 |1525 | वीरू, पावूपु.
| वायड ज्ञा. 313 | 1670 | | तेजबाई. 314 | 1607 | फूलबाई.
श्री ज्ञा. 315 1518 | अमरी, रतनाई
ओस. ज्ञा.
धन्नागोत्र | 316 |1521 | ललतादे, देकू. आसी, आदि | श्री श्री ज्ञा.
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
66
अंचल विजयसेनसूरि श्री विजयदेवसूरि
भ. श्रीशीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
66
बृहमलयचंद्रसूरि
| भ. श्री कुंथुनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
66
| पिप्पल रत्नदेवसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
Page #598
--------------------------------------------------------------------------
________________
576
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
-
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
।
संदर्भ ग्रंथ
| वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य प्रा. ज्ञा. तपा. श्री रत्नषेखरसूरि
प्रतिमा निर्माण
आदि
भ. श्रीशांतिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
67
317 1512 | जासू, रत्नादे 318 | 1597 मरघाई, टांकू 319 | 1597 | जीवादे, कुंअरि
प्रा. ज्ञा.
सर्वसूरि
प्रा. ज्ञा.
सर्वसूरि
320
|1523 | डाही.
प्रा. ज्ञा.
भ. श्री आदिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 167 भ. श्रीशांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
67 भ. श्री अजितनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 67 | भ. श्री मुनिसुव्रत जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री विमलनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री अजितनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 68
प्रा. ज्ञा.
322
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
तपा. श्री रलमंडनसूरि तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि तपा. श्रीलब्धिसागरसूरि | तपा. श्री रत्नषेखरसूरि वृद्धतपा. लब्धिसागरसूरि अंचल जयकेसरीसूरि वृद्धतपा. श्री जिनरत्नसूरि वृद्धतपा. श्री रत्नरि तपा. श्री हेमविमलसूरि
321 1522 | चांदूपु, भोली
1559 | सुहागदे, देवलदे, 323 1506 | टीबू मटकू 324 1561 | माणिकदे, लाच्छी 325 | 1528 | रांभू, लहिकू, षमादे 326 | 1515 हरवू, देवसी, 327 | 1509 | संपूरी, कुतिगदे, 328 1561 | ऊछी, उपाई
भ. श्री अजितनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
श्री श्री वंष
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
श्री श्री ज्ञा.
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
ओस. ज्ञा.
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
69
श्री श्री ज्ञा.
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
70
| भ. श्री सुमतिनाथ जी भ. श्री अंनतनाथ जी भ. श्रीशांतिनाथ जी । भ. श्री वासुपूज्यचतुर्मुख जी भ. श्री धर्मनाथ जी भ. श्री पार्श्वनाथ जी भ. श्री आदिनाथ चतु. |
329 11508 | कमदि, माणिकदे, राजलदे | वायड. ज्ञा.
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2
70
330
1515
रूदी
श्री श्री ज्ञा.
तपा. श्रीरत्नशेखरसूरि आगम. श्रीहेमरत्नसूरि तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
70
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
331
| 1520 | देवलदे, देमति
प्रा. ज्ञा.
'
70
332
1534
सहामणि,
खरतर. श्री जिनहर्षसूरि
भ. श्रीशांतिनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
71
गुर्जर ज्ञा. साहुगोत्र
333
1507 | महगलदे, चाई
श्री श्री ज्ञा.
पूर्णिमा. गुणसुंदरसूरि
| शांतिनाथ, पंचतीर्थी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 71
जी
334
1552
पाणी,
पीपल, श्री देवप्रभसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 71
प्रा. ज्ञा. अंबाई गोत्र
335
1573 | भावलदे
श्री श्री ज्ञा.
336
1578 | साधू, माणिकदे
प्रा. ज्ञा.
337
| 1530
| पाणी, रूडी,
प्रा. ज्ञा.
72
1518 | नामलदे, रणकू 1525 | करणू रंगी
338
आगम, सोमरत्नसूरि भ. श्री वासुपूज्य जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 71 तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 72 | तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 72 पूर्णिमाश्री जयचंद्रसूरि भ. श्री कुंथुनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री वासुपूज्य जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 72 पूर्णिमा लक्ष्मी सागरसूरि भ. श्री सुमतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 73 श्री हीरविजयसूरि | भ. श्री अनंतनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 73 खरतर श्री जिनहर्षसूरिभ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 73
339
श्री श्री ज्ञा.
| 72
340
11568 | मानूसु, लषमाई 1523 | धारू, दूसी, संपूरी, कलू 1628| श्री बाई, अमरादे वच्छाई
प्रा. ज्ञा.
341
श्री श्री ज्ञा.
342
| 1533 | डाही
ऊकेष ज्ञा.
Page #599
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
577
क्र०
संवत् ।
श्राविका नाम
|
पृ.
। वंश/गोत्र । प्रेरक/प्रतिष्ठापक - प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ गच्छ / आचार्य
आदि Tऊकेष ज्ञा.
ऊकेष ज्ञा. तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री सुविधिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
343 1537 | धर्मादे, कउतिगदे, जसाइ,
सीतादे 344 | 1509 | गरिनारी, सोनाई,
ऊकेष, कादी
खरतर श्री जिनसागर सूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 73
गोत्र
345
1527 | जाणी, रमकू वाल्ही
प्रा. ज्ञा.
खरतर श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री नमिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. श्री हरिविजयसूरि भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
346
1622 |
| हरषादे,
श्रीमाल ज्ञा.
74
347
1521 | आसूसु, भरमा
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागर सूरि | भ. श्रीशीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
1580 पुती
श्री ज्ञा.
| तपा. श्री हेमविमलसूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी
|जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
74
349
1543 | झाई, रामति
75
गुर्जर ज्ञा. ओसवाल ज्ञा. श्री श्री वंष
350 | 1624 | अरघादे, अचरंगदे 351 | 1520 | रांभूपु, चापु, वालही
आगम श्री जिनचंद्रसूरि तपा. श्री हीरविजयसूरि अंचल श्री जयकेसरीसूरि
भ. श्री सुविधिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री वासुपूज्य जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2 भ. श्री आदिनाथ चतु. | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
75
352
| 1509 | जसमादे, झबू
श्री श्री ज्ञा.
| 75
353
गुर्जर ज्ञा.
354
1513 | सुहडादे, सांतू, गांगी | 1519 | संपूरी
1509 सुहागदे.
ककूलोलगोत्र
| 76 | 76
355
श्री श्री ज्ञा.
| पिप्पल श्री उदयदेवसूरि | तपा. श्री विजयसूरि
वृद्ध कमल प्रभसूरि धर्मघोष पदमोदयसूरि श्री लक्ष्मी सागर सूरि पुण्यरत्नसूरि गुणसमुद्रसूरि खरतर. जिनहर्षसूरि
356
357
श्री श्री ज्ञा.
भ. श्री धर्मनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री धर्मनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | भ. श्रीशीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्रीशांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री धर्मनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
76
358
श्री श्री ज्ञा.
77
1543 | रूडी, धरणू 1531 | भरमादे, कपूरी, गांगी 1507 | षीमा, सोमलदे आदि
1520 सुहागदे. पल्हाई | 1523 | धनी, हर्षा | 15707 वीरू, जीवणि, धारीसु | 1573 | मटकी, पिरियादे
359
ऊकेष वंष
77
360
श्री श्री ज्ञा.
श्री विमलसूरि
| 77
361
श्री श्री ज्ञा.
| अंचल. भावसागरसूरि
362
श्री श्री ज्ञा.
78
अंचल. सोमरत्नसूरि | पूर्णिमा. पुण्यरत्नसूरि
363
1531 | भाऊसु मंदोअरि, आदि
श्री श्री ज्ञा.
78
भ. श्री अरनाथादि भ. | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 श्री चतु. जी भ. श्री अजितनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
364
|1501 | झटकू हफूं, संपूरी, कपूरी
| तपा. मुनिसुंदरसूरि
78
ऊकेष ज्ञा. तेलहरागोत्र श्री श्री ज्ञा.
365
| वृद्धतपा. श्री ज्ञानसागरसूरि भ. श्रीशीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
78 |
366
तपा. आणंदविमलसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
79
|1528 | रत्नू, साधू, जीविणि, आदि 1595 | करमाई.
ह', पूती, धनाई, जीवादे, सुहागदे, सकूदे, रमाई आदि
367
1547 हपती
श्री ज्ञा.
तपा, सुमतिसागर सूरि
भ. श्री नेमिनाथ जी
|जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 79
Page #600
--------------------------------------------------------------------------
________________
578
क्र०
368
369
370
371
372
373
374
375
376
377
378
379
380
381
382
383
384
385
386
387
388
389
390
392
393
संवत्
394
1521
देलहणीदे
1596 गंगादे, मालहण, धम्र्म्माई
अम, साधू, कुतिग
करमादे
1511 मरगदि
1554 साधू
1528
1700
1581
1523
1520
1548
1525
1526
1546
1505
1561
391 1617
श्राविका नाम
धाका, पदमाई
हीरू, मानू, हीरा,
वांऊ, पूरी,
धर्मिणी
आसू माणिकदे
झबकू नगलदे
गिरमू,
पूरी, रूपिणि
लीलादे षीमाई,
1501
कील्हणदे.
1529 सिंगारदेवी, नामलदेवी
1505 भर्मी, गुरी
1596 कीबू, मांगु
1513 पूनी, जीविणी
1522 मेचू साधू
1519 नीनू
1515 हर्षूसु, नीती
मल्हाई, हर्षाई, कोडमदे,
1516 जासलदे, अमकू
1527 धाईसु
1644 नाकू अजाई, म
वंश / गोत्र
बलगोत्र
ऊकेष ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
ऊकेष ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ऊकेष,
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री वंष फोफलिया गोत्र
पीपाडागोत्र
भगाड़ गोत्र
प्रा. ज्ञा.
ऊकेष ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री ज्ञा.
श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य कृष्णर्षि. जयसिंहसूर तपा. श्री विजयदानसूरि
वृद्धतपा. श्री ज्ञानसागरसूरि
तपा. श्री विजयदेवसूरि
पुर्णिमा. गुणसमुद्रसूरि
आगम, विवेकरत्नसूर
अंचल, भावसागरसूरि तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
उपगच्छ. श्री कक्कसूरि ब्रह्माणगच्छ षीलगुणसूरि तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
ब्रह्माण श्री सूरि
श्री सुमतिनाथ
तपा, श्री जयचंद्रसूरि
खरतर श्री जिनहंससूरि
पल्लिकीय श्री यषोदेवसूरि खरतर श्री जिनहंससूरि
तपा. श्री जयचंद्रसूरि
तपा. श्री विजयदानसूरि तपा. श्री रत्नषेखरसूरि भट्टारक श्री. सिद्धसूरि तपा. उदयवल्लभसूरि खरतर श्री जिनभद्रसूरि
तपा. विजयदानसूरि आगम देवरत्नसूर वृद्धतपा. श्री जिनरत्नसूरि अंचल, धर्ममूर्तिसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण
आदि
भ. श्री विमलनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री धर्मनाथ जी भ. श्री धर्मनाथ जी भ. श्री आदिनाथ जी भ. श्री धर्मनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 80
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री विमलनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्रीषांतिनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री सुमतिनाथ जी भ. श्री आदिनाथ जी भ. श्री नमिनाथ जी भ. श्रीशीतलनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री नमिनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं. भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री संभवनाथ जी भ. श्री मुनिसुव्रत जी
भ. श्री धर्मनाथ जी
भ. श्री मुनिसुव्रतस्वामी जी भ. श्री मुनिसुव्रतस्वामी जी भ. श्री आदिनाथ जी भ. श्री संभवनाथ जी भ. श्री वासुपूज्य जी भ. श्री विमलनाथ जी भ. श्री सुपार्श्वनाथ जी
संदर्भ ग्रंथ
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं. भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री सुविधिनाथ जी भ. श्री वासुपूज्य जी भ. श्री कुंथुनाथ जी भ. श्री सुमतिनाथ जी जै. धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
पृ.
79
79
79
1818
80
81
81
82
82
82
83
83
83
83
83
84
84
84
85
85
85
85
85
86
86
86
87
Page #601
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
395
| 1527 | करमाई, रजाई
396
1584 कीकी, इंद्राणी,
397 | 1561 | पूगी, सोनाई
वंश/गोत्र । प्रेरक/प्रतिष्ठापक प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ - पृ. गच्छ / आचार्य
आदि ओएसवंष अंचल. जयकेसरीसूरि भ. श्रीशीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 87 श्री श्री ज्ञा. खरतर श्रीजिनमाणिक्यसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 87 आचवाडीयागोत्र श्री. श्री. ज्ञा. श्री इंद्रनंदिसूरि
भ. श्री विमलनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 87
चतु. जी हुंबड. ज्ञा. वृद्धतपा. श्री जिनरत्नसूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 87 प्रा. ज्ञा. सिद्धसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 88 डीसावाल ज्ञा. तपा. श्री जयचंद्रसूरि भ. श्री श्रीमुनिसुव्रत जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 88
जी
398
| 1525 | फडू |
1531 | डाही, वईजलदे
399
400
|1506 | मचकू, काली,
401 | 1527 | माल्हणदे, मांजू
श्री. श्री. ज्ञा.
हारिजगच्छ श्रीमहेसरसूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
402
श्री. श्री. ज्ञा.
वृद्धतपा. श्रीजिनरत्नसूरि
भ. श्री वासुपुज्य जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 1515 | माल्हणदे, तेजू
1543/झाईसु रामति
403
गूर्जर ज्ञा.
आगम. श्रीजिनचंद्रसूरि
भ. श्रीशीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
404
1528 | देऊ,
श्री. श्री. ज्ञा.
अंचल, श्रीजयकेसरीसूरि अंचल. श्रीजयकेसरीसूरि
भ. श्री नमिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्रीशांतिनाथ जी |जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
405
| 1531 | राजू
नागर, ज्ञा. बिंवचीयाणगोत्र
406 | 1644| जसमादे, विमलादे आदि
श्री विजयसेनसूरि
भ. श्री चिंतामणिपार्श्व | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जी
407
1509
ऊकेष ज्ञा.
सलवू
98
खरतर जिनभद्रसूरि पूर्णिमा. पुण्यरत्नसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2 भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
408
1522 | रंगाई, धाई
श्री श्री ज्ञा.
99
| 1568 | रामति, पदमाई, पारवती
उप ज्ञा, चीचट | उपकेष श्री सिद्धसूरि श्री श्री ज्ञा. श्री भावदेवसूरि
410
1517 |
99
411
1507 | वाऊ.
श्री. श्री. ज्ञा.
| 100
412
1513 | देवलदे, गुरदेसु
श्री. श्री. ज्ञा.
भ. श्री अरनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 श्रेयांसनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री धर्मनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | भ. श्री सुमतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री सुविधिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | भ. श्री पद्मप्रभ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
100
413
| 1644| जसमादे, ललनादे
| आगम. हेमरत्नसूरि | तपा. श्रीरत्नसिंहसूरि तपा. विजयसेनसूरि श्री श्री ईष्वरसूरि श्री लक्ष्मीसागरसूरि
श्री श्री ज्ञा.
100
414
| 1519 | वीरूपु, माणिकदेवी |
ओस, ज्ञा.
415
वायड ज्ञा.
1525] माल्हणदे, कउतिगदे,
सोहीगोई
416
1566
मणकाई, नाथी, पूराई
वृद्धषाखा धर्मरत्नसूरि
भ. श्री अजितनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 101
417
1643 | जमनादे, विमलादे
श्री श्री माल ज्ञा. तपा. श्रीविजयसेनसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 101
418
1503 | लीलादे, जसमाई, श्री करण
संडेरगच्छ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 102
श्री षांतिसूरि श्री सुमतिसाधुसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी भ. श्री अंबिकामूर्ति
419
1547 | रूडी, पूरी
प्रा. ज्ञा.
।
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
102
Page #602
--------------------------------------------------------------------------
________________
580
क्र०
420
421
422
423
424
425
426
427
428
429
430
431
432
433
435
436
437
438
439
440
434 1537
441
442
संवत्
443
1524
1525
1706लीलाई, राजबाई, नारिंगदे
लषा, झकू
तेजकू
सहिजलदे, पूतलि,
देल्हणदे
मदीसु, लीला,
1591
1764
1523
1764 तेजकुंअरि,
1764
तेजकुंअरि,
1637 लीलादे, हांसलदे,
श्राविका नाम
1507
कमलादे, आलहणदे
1576 देवलदे, हीरादे, पूनी, मटकू
1656 बनाई.
1529 रंगाई, कूरि
1644 वहलदे,
1517 माकू
1508
1563
वाल्ही, अरधू, मणकाई
1521
1512 चापलदे, माणिकदे,
हीरू, धनी, कपूराई, लीलाई
कपूरी, यातू
माची, जीवादे,
1520
कांऊ, वानू
1643 भरमादे, धनादे, वाहाल,
प्रेमाई
1544 धीरादे, पूतलि,
1522 मेचू नामलदेवी
वंश / गोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
नागर. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उपकेष कर्म्मदीयगोत्र
मोढ़ ज्ञा.
श्री. श्री. वंष रसोईयागोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ओसवंष,
श्री छक्कडियांगोत्र
श्री. श्री. ज्ञा.
ऊकेष ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उपकेष, कर्म्मदीयागोत्र
प्रा. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
पूर्णिमा. श्री गुणसुंदरसूरि
पिप्पल. श्री गुणरत्नसूरि
आचार्यश्री सूरिविजयराज अंचल. श्री गुणनिधानसूरि
तपा. ज्ञानविमलसूरि
भट्टारक गुणसुंदरसूरि
तपा. ज्ञानविमलसूरि
तपा. ज्ञानविमलसूरि
तपा. श्री हीरविजयसूरि
श्री सूरि
खरतर. श्रीजिनचंद्रसूरि
भट्टारक श्री विजयसेनसूरि अंचल. जयकेसरीसूरि
तपा. श्री विजयसेनसूरि वृद्धतपा. श्रीउदयसागरसूरि
बृहद्गच्छ पासचंद्रसूरि वृद्धतपा. उदयवल्लभसूरि खरतर श्री जिनभद्रसूरि
तपा. हेमविमलसूर तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि तपा. श्री विजयसेनसूरि
खरतर, श्री जिनहंससूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण
आदि
भ. श्री
नमिनाथपंचतीर्थी जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्री अनंतनाथ जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्रीशांतिनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ पंचतीर्थी जी भ. श्री कुंथुनाथ जी भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री नमिनाथ जी भ. श्री शांतिनाथ जी
भ. श्री सुमतिनाथ जी भ. श्री श्रीपद्मप्रभ जी भ. श्री संभवनाथ जी भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्रीशीतलनाथ जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्री आदिनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री सुविधिजिन जी
भ. श्री सुमतिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 .ध.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
पृ.
103
103
103
105
105
105
105
106
106
106
106
107
107
107
108
108
108
109
109
109
110
110
110
111
Page #603
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
444
445
446
447
448
449
450
451
452
453
454
455
456
457
458
459
460
461
462
463
464
465
466
467
संवत्
1563
1637
1525
1551
जासु, अमकू
हाई
1667 धर्मादे, सषमादे
1512
1537
1547
1579
1622
श्राविका नाम
लखाई, रत्नाई
इंद्राणी
सोनलदे, रत्नाई
1612
1521
1556
1512
1557
झमकू झटकू मल्हाई,
इंद्राणी
1521 लाषणदे, हीरादे
1510 लाडू
1503 रूदी, षाणी
हर्षक, पूजीपु, माकू आदि
पची, जीवणि, लीलादे
सिवादे, अमर
टाकू सोनाई
1516 मालहणदे, मेलादे, धनी
हांसलदे, नागलदे, कर्माई,
भोली, जीवासु,
वाछी, वीरू,
राणी, संपूरी, हीराई,
सहजलदे
1604 करमादे,
1606 | वीझू
1667 सषमादे,
1529 लीलू, रानाई,
1518 रूपणि, वाल्ही, पूरी
वंश / गोत्र
श्री श्री ज्ञा.
ऊकेष
साहूसषागोत्र
श्री श्री ज्ञा.
ऊकेष वंष
ऊकेष ज्ञा.
ऊकेष ज्ञा.
श्री ज्ञा.
उसवंष
ओस ज्ञा.
मडावरागोत्र
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
श्री. ज्ञा.
गूर्जरवंष
ओस. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ऊकेष ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्रीमाल. रम्यकगोत्र
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
सर्वसूर
तपा. हीरविजयसूरि
खरतर श्री जिनहर्षसूरि
सदगुरू
खरतर जिनभद्रसूरि
तपा. श्री विमलसोमसूरि
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
तपा. श्रीसुमतिसाधुसूरि
आगम षिवकुमारसूरि श्री सोमविमलसूरि
पूर्णिमा. श्री साधुसुंदरसूरि | वृद्धतपा. श्री विजयधर्मसूरि तपा. श्री जयचंद्रसूरि श्री विजयदानसूर पूर्णिमा. श्री जयचंद्रसूरि तपा. श्री सोमदेवसूर
श्री हेमविमलसूरि
अंचलजयकेसरी सूरि अंचलश्री सिद्धांतसागरसूरि
वृद्धतपा. श्री अमररत्नसूरि
तपा. श्रीरत्नषेखरसूरि
तपा. श्री विमलसोमसूरि
आगम. देवरत्नसूरि चैत्र. श्री. लक्ष्मीसागरसूरि
प्रतिमा निर्माण
आदि
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी जै.धा. प्र.ले.सं. भा. 2
भ. श्रीशीतलनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री विमलनाथ जी
भ. श्री अजितनाथ जी
भ. श्रीशीतलनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ जी भ. श्रीशीतलनाथ जी
भ. श्री विशालनाथजी भ. श्रीशीतलनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री विमलनाथ जी भ. श्री अभिनंदन जी भ. श्री संभवनाथ जी भ. श्री आदिनाथ जी भ. श्री श्रेयांसनाथ जी भ. श्री सुमतिनाथ जी भ. श्री विमलनाथ जी भ. श्री श्रेयांसनाथ जी भ. श्री सुविधिनाथ जी
भ. श्री मुनिसुव्रतस्वामी जी भ. श्री वीर जी भ. श्री सुपार्श्वनाथ
जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्रीशीतलनाथ जी
संदर्भ ग्रंथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं. भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भ.. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2 जै.धा. प्र.ले.सं. भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं. भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं. भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
581
पृ.
111
111
111
112
112
112
113
113
113
113
113
115
115
116
116
116
116
117
117
117
118
118
118
119
Page #604
--------------------------------------------------------------------------
________________
582
क्र०
468
469
470
471
472
473
474
475
476
477
478
479
480
481
482
483
484
485
486
487
488
489
490
491
492
संवत्
1510 साधूसु, रूपाई
1667 पाचाई, मोहणदे
1604
हांसलदे,
1553 सुहामणि, मनकाई
1765 कपूरबाई
1565 मयगलदे, सहिजलदेआदि
1544
1575
1521
1542 कउतिगदे, रंगाई
1549 रूपाई, लखाई,
1520 | लाछू कउतिगदे,
श्राविका नाम
मरगदि, पूरी,
नाथी
1567 माल्हणदे, देमाई, रमादे
1632 ठकराणी, हीराई
1511 पांचू
सहजलदे, खेतू, रंगीपु
1591
1509 | पाल्हणदे, रंगाई,
1528 जयतू, मनी
1549 राजू
षोषी, मेलादे, वलहादे
1584 कुंतु राजू
1529 चांपू, सुहगी,
1532 दूबी
1551 सुहडादे, पद्माई,
1617 कुर्माई
1564 पूनाई,
वंश / गोत्र
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
वायड ज्ञा.
ऊकेष.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री वंष
मोढ़ ज्ञा.
गूर्जर ज्ञा. आगो
उपकेष वंष
श्री वीरवंष
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ओएसवंष
श्री श्री ज्ञा.
ओएसवंष
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
पूर्णिमा. सदगुरू
आगम. श्रीकुलवर्द्धनसूरि
श्री विजयदानसूरि
तपा. श्रीहेमविमलसूरि
तपा. श्री ज्ञानविमलसूरि
सुविधिनाथ चतु.
श्रीसूरि
लब्धिसुंदरसूरि
कोरंट श्रीसर्वदेवसूरि
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
पूर्णिमा गुणरत्नसूर
आगम, हेमरत्नसूरि
अंचल. भावसागरसूरि
तपा. श्री हीरविजयसूरि
श्री सूरि
सावदेवसूर
अंचल जयकेसरी सूरि
आगम. श्री संयमरत्नसूरि
वृद्धतपा. श्री उदयसागरसूरि तपा. हेमविमलसूरि श्री सूरि
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि अंचल. सिद्धांतसागरसूरि तपा. श्री हीरविजयसूरि श्री लक्ष्मीसागरसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण
आदि
भ. श्रीशीतलप्रभचतु.
जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्री सुमतिनाथ जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्री पेढ़ालनाथ जी
भ. श्री धर्मरत्नसूर
जी
भ. श्री विमलनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री कुंथुनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री मुनिसुव्रत जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री मुनिसुव्रतपंचतीर्थी जी
भ. श्रीशीतलनाथ जी
भ. श्रीशांतिनाथ चतु.
जी
भ. श्री आदिनाथ जी
संदर्भ ग्रंथ
भ. श्रीशांतिनाथ जी भ. श्री मुनिसुव्रत जी भ. श्री अभिनंदन जी भ. श्री संभवनाथ जी भ. श्री पद्मप्रभ जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री वासुपूज्य चतु जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जी
भ. श्री नेमिनाथ जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
पृ.
119
119
120
120
121
121
121
121
122
122
122
122
122
123
123
123
124
124
124
124
124
124
125
125
125
Page #605
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
क्र०
संवत् |
प्राविका नाम
संदर्भ ग्रंथ
। वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक |
गच्छ / आचार्य |
आदि
प्रा. ज्ञा.
अंचल, जयकेसरी सूरि
भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 125
493 |1521 | छाली, कुंअरि 4941507 | कर्मादे, फदू, हीमति 495 1587 || जसमाई, षीमाई, दीवी,
श्री श्री ज्ञा.
आगम. हेमरत्नसूरि
भ. श्री अभिनंदन जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 125
श्री. श्री. ज्ञा.
अंचल. गुणनिधानसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 125
धनाई
1548 | मांकू, भोली
श्री ज्ञा.
अंचल. सिद्धांतसागरसूरि
| 126
भ. श्री आदिनाथ चतु. | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 जी .
497
| 1523| हांसलदे,रमादे
प्रा. ज्ञा.
तपा. लक्ष्मीसागरसूरि
126
498
| 1683 | इंद्राणी
ओसवंष
| भ. श्री कुंथुनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ, श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 126
श्री श्री ज्ञा.
126
हर्षरत्नसूरि विमलसूरि
श्री श्री ज्ञा.
| भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
127
उप, वंष
खरतर. जिनहर्षसूरि
127
प्रा. ज्ञा.
490 | 1610 | श्रृंगारदेवी 4911524 | रामलदे, चमकू 492 | 1520 | दुलहादे, हंसाई
| 1561 | गुरूदे, हांसलदे
1537 लाटू वाल्ही , आसीठ 495 | 1626 | पूनी 496 | 1512 | चेदू, लक्ष्मी, रामति 497 | 1612 | रत्नाई, जीवादे
- 127
| भ. श्री नमिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री सुविधिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्रीशांतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
हर्षरत्नसूरि वृद्धतपा. विजयरत्नसूरि
494
-
श्री श्री ज्ञा.
- 127
श्री. श्री. ज्ञा.
तपा. श्री हीरविजयसूरि
भ. श्रीशीतलनाथ जी ।
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
127
श्री. श्री. ज्ञा.
| 128
आगम गच्छ हेमरत्नसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 कॉरट श्री नन्नसूरि भ. श्रीशांतिनाथ जी |जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
..............
128
498
1644वलादे, मंगलादे
श्री. श्री. ज्ञा.
499
1509 माल्हणदे
श्री. श्री. ज्ञा.
500
1513 | वीरू, रूदी,
वायड ज्ञा.
तपा. श्री विजयसेनसूरि | भ. श्री वासुपूज्य जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 128 पिप्पल. श्री गुणरत्नसूरि | भ. श्रीशीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 128 वृद्धतपा. श्रीजिनरत्नसूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 129 ब्रह्माण. मुनिश्रीवीरसूरि भ. श्री कुंथुनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 129 ज्ञानकीय श्री धनेष्वरसूरि भ. श्रीशांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 129
501
1579 माणिकदे, जसमादे,
श्री श्री ज्ञा.
502
1535
लषमादे, जयकू
उप. ज्ञा. उसभगोत्र
503
प्रा. ज्ञा.
504
श्री ज्ञा. संघवी
1546 | धर्मणि,सरीयादे 1552 | कउतिगदे,जीजी 1520 | मेचू, रूडी 11554 नत्नादे ,वील्हणदे, गौरी ।
505
प्रा. ज्ञा.
506
श्री. श्री. ज्ञा.
आगम विवेकरत्नसूरि भ. श्री श्री चंद्रप्रभ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 129 खरतर. श्री जिनहर्षसूरि भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 130 तपा. श्री सूरि
भ. श्रीशीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 130 बुद्धिसागरसूरि भ. श्री
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 130श्रेयांसप्रभस्वामी जी आगम. षिवकुमारसूरि भ. श्री वासुपूज्य जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 130 पूर्णिमा. विषाल राजसूरि भ. श्रीशांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 130 सूरि
भ. श्री नेमिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 130 तपा. विजयदानसूरि भ. श्री धर्मनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 - 131 |
507
| 1556 | रूपाई
508
11530 लाडी, लीलादे
श्री श्री ज्ञा. | श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा. | ओस. ज्ञा.
509
1549 पूतलि 1612 | धनाई,बुधी
510
Page #606
--------------------------------------------------------------------------
________________
584
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत् ।
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
| प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
प्रतिमा निर्माण
आदि
511
1547 | कउतिगदे
ऊकेष ज्ञा.
भ. श्री आदिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
131
तपा. सुमतिसाधुसूरि खरतर, जिनचंद्रसूरि
512
1532 | धरण
भ. श्रीशांतिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
1131
श्री ज्ञा. नाचणगोत्र
513
प्रा. ज्ञा.
131
1528 | अरघू 1552 | कुतिगदेवी
"514
श्री ज्ञा.
तपा, श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्रीशीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 खरतर. श्रीजिनहर्षसूरि भ. श्री सुविधिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 मलधारि गुणसुंदरसूरि भ. श्री आदिजिन जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 132
515
1511 भोली
132
ओएसवंष बाडलियागोत्र
प्रा. ज्ञा.
132
5161589 | गौरी 517 | 1508 | हासू, कूअरि 518 | 1532 | रूपाई
श्री.ज्ञा.
द्विवंदनीक कक्कसूरि भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | तपा. श्री विजयधर्मसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 धर्मघोष. श्री साधुरत्नसूरि | भ. श्रीशांतिनाथ जी |जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
132
132
ऊकेष ज्ञा. खाटडगोत्र
ऊकेष
132
ओस.ज्ञा.
133
519 | 1521 | सारू, मटू 520 | 1560 | संपूरी,गंगादे । 521
1677 | वलहादे 522 | 1520 | टीबू, वनादे 523 1122 रंगादे, वलहादे, वइजलदे
ओस ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 कक्कसूरि
भ. श्री कुथुनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. विजयदेवसूरि भ. श्री संभवनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
श्री जिनरत्नसूरि भ. श्री अजितनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | खरतर जिनचंद्रसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
133
ओस ज्ञा.
133
133
ओसवंष घंखवालगोत्र | प्रा. ज्ञा. डीसा. ज्ञा.
52411524 | कुतिगदे,भावलदे आदि 525 | 150 | पाणी, सोही
| तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 134 तपा. श्री जयचंद्रसूरि भ. श्री आदिनाथ चतु. | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 134
| जी वृद्धतपा. चरित्रसागरसूरि भ. श्रीशांतिनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 134 |
ओस. ज्ञा.
11565 | लीली, चांदू, इंद्राणी,
सोमाई
527
1644 ठकराणी, जीबाई
श्री श्री ज्ञा.
528
1537 | सुतठ, वाल्हीठ, आसीठ
श्री श्री ज्ञा.
तपा. श्री विजयरत्नसूरि भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 135 वृद्धतपा. विजयरत्नसूरि | भ. श्रीशांतिनाथ जी |जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 135 तपा. धर्मविमलगणि भ. श्री मुनिसुव्रतनाथ | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 135
529
1613 | कमली
प्रा. ज्ञा.
5301505 | चंगाई
ऊकेष ज्ञा.
खरतर श्री जिनभद्रसूरि | भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 135
| 1491 | सपादे, धरमाई
उप. ज्ञा.
532
| 1509 | देगई, वाछुपु, नेताई
ऊकेष
कोरंट श्री सावदेवसूरि तपा. श्री रत्नषेखरसूरि पूर्णिमा.श्री जयप्रभसूरि
भ. श्रीशीतलनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 136 भ. श्री मुनिसुव्रत जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 136 भ. श्री कुंथुनाथ चतु. | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 136
533
| | 1519 | सापू, अरघू
श्री श्री ज्ञा.
Page #607
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र |
__संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
आदि
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री नमिनाथ जी
| जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 137
137
137
537
137
5341530 | सोमीपु, झटकू 535 | 1622 | भूलाई, हरषादे 536 1528 | सुहडादे, देवलदे
| 1531 | सजलदे, मटकू 538 1531 हषूसु
1503 | माणिकदे 540 | 1508 | हेमादे, डाही 541 | 1622 | सबू, जीवादे
137
प्रा. ज्ञा. श्री लक्ष्मीसागर सूरि भ. श्री धर्मनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 पंचाणच गोत्र | श्री हीरविजयसूरि भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
ओस. वंष कोरंट श्री सावदेवसूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | श्री श्री ज्ञा. पूर्णिमा गुणधीरसूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
तपा. श्री जयचंद्रसूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 ऊ. ज्ञा. संडेर षांतिसूरि | भ. श्री अजितनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 श्री श्री ज्ञा. तपा. श्री हीरविजयसूरि | भ. श्री चतुर्विंशतिपट्ट. | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| जी
539
137
138 | 138
542
| 1520 | गुरूदे, ठणकू
प्रा. ज्ञा.
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 138
ओसवाल कक्कसूरि चैत्र श्री जिनदेवसूरि
1506 | कर्मादे, अमरी
श्री श्री ज्ञा.
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 138
भ. श्री चंद्रप्रभनाथ | चतु. जी
5441553 | गोमति, कर्मादे
श्री श्री वंष
पिप्पल श्री धर्मवल्लभसूरि | भ. श्री नमिनाथ चतु. | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 138
545
| 1528 | झांझण, लषीपु, वाल्ही
546
11660 विमलादे
श्री श्री ज्ञा.
| 139
547 | 1566 | निरि, माकू
ऊकेष ज्ञा.
| तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री अंबिका जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
तपा. श्री नयविजयगणि भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. श्री हेमविमलसूरि भ. श्री मुनिसुव्रत जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. विजयसेनसूरि भ. श्री वासुपूज्य जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 उपकेष श्री कक्कसूरि भ. श्री अजितनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
139
548
11653वीरा
प्रा. ज्ञा.
140
549
| 1518 | हमीरदे,
140
उप. ज्ञा. कुकुटगोत्र
प्रा. ज्ञा.
5501552 | धर्मादे, कर्मादे, लीलादे 551 | 1507 | सालहू पूरी 552 | 1573 | धर्मादे, सोनाई
श्री ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
| नागेन्द्र श्री हेमसिंहसूरि | भ. श्रीशीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 140 |
सिद्धांत सोमचंद्रसूरि भ. श्रीशांतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 141 | कोरंट श्री नन्नसूरि भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 141
भ. श्री आदिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 141 तपा. श्री विजयराजसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 141 ओसवाल श्री सूरि भ. श्री सुविधिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 141
553
| 1571
मरधू, रत्नादे
श्री श्री ज्ञा.
554
1721 | पाषड़
प्रा.ज्ञा.
555
1563 | मणकाई, रूपाई
कुमुटगोत्र. ऊकेष ज्ञा.
556
1604 | गोराई
| भ. श्रीशांतिनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
141
557 | 1560 | रंगाई, जासलदे
11533 | खीमादे, सोमी, पलहाई 559 | 1561 | हफूंपु, बीराई, गंगादे
श्री श्री ज्ञा. श्री श्री ज्ञा. ओस वंष ओएस वंष
विजयदानसूरि पूर्णिमा. पुण्यरत्नसूरि अंचल जयकेसरीसूरि अंचल भावसागरसूरि अंचल भावसागरसूरि
558
भ. श्री धर्मनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 142 | भ. श्री अजितनाथ जी भ. श्री आज
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 1 142
Page #608
--------------------------------------------------------------------------
________________
586
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
स
आदि
560
| 1528 | भावलदेवी
वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ | पृ.
गच्छ / आचार्य ऊकेष वंष खरतर श्री जिनचंद्रसूरि भ. श्री चंद्रप्रभु जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 7 142 प्रा. ज्ञा. तपा. श्री हीरविजयसूरि | भ. श्री पद्मप्रभु जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 143 ऊकेष गांधी श्री सूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 143
561
| 1622 | कर्मादेवी, इंद्राणी
562
1510 | वलहादे, सीरी
गोत्र
श्री श्री ज्ञा. श्री श्री ज्ञा.
563 1626 | कपूराई 564 1616 | जीवादे
1517 | लहिक कुंअरि
| 1631 | जिइतलदे, मुनी, वनाई 567 | 1544 | हांसू, जीवादे
श्री श्री ज्ञा.
144
तपा. हीरविजयसूरि भ. श्री अजितनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 143 | तपा. श्री विजयदानसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
अंचल जयकेसरीसूरि भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | तपा. श्री हीरविजयसूरि भ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 144 वृद्धतपा. श्री धर्मरत्नसूरि भ. श्री सुमतिनाथ जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 144 चतु. जी
ओस वंष
ओस ज्ञा.
568 | 1521 | वीझू, गउरी
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ चतु. | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 144
श्री ज्ञा.
तपा. श्री हीरविजयसूरि पूर्णिमा साधुरत्नसूरि
श्री ज्ञा.
569 11630 | जीवादे
| 1513 | रतनादे, रांकु 5711587 | हीरू, झमकी 572 | 1552 | वीकू, जीवादे, कमलादे
भ. श्री वासुपूज्य जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 145 भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 145 भ. श्री अजितनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 145
प्रा. ज्ञा.
ऊकेष ज्ञा.
तपा. श्री हेमविमलसूरि
भ. श्री अजितनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 |
आदि
।
ओस. ज्ञा.
तपा. श्री विजयदानसूरि | भ. श्री अनंतनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 145
5731617 मरधाई, कीबाई, टांकू
कस्तूराई 574 |1517 | फदू, हर्षु 575 1523 | गांगी, नामल
576 | 1505 | चांपू
577
1503 | चांपलदे
श्री श्री ज्ञा. अंचल श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 146 श्री श्री ज्ञा. पूर्णिमा राजतिलकसूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 - 146 प्रा. ज्ञा. | तपा. श्री जयचंद्रसूरि भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 146 ऊकेष श्री रत्नसूरि
भ. श्रीशांतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 146 श्री श्री ज्ञा. आगम साधुरत्नसूरि भ. श्री अजितनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 - 146 | प्रा. ज्ञा. | श्री विजयधर्मसूरि | भ. श्री अजितनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
सौवर्णिक ज्ञा. | वृद्धतपा. श्री रत्नसिंहसूरि | भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 147 | गूर्जर ज्ञा. आगम. जिनचंद्रसूरि | भ. श्री आदिनाथ चतु. | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 - 147
5781513 | माणिकदे चांपलदे,कोई 579 | 1512 | पूजा, तिली 580 1507 | राऊंसु
581
1542 | नारू, मकी
जी
582
श्री
.
श्री
| 1506 | बाऊ, लाछू
डा.
श्री बुद्धिसागरसूरि
| भ. श्री मुनिसुव्रत जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 स्वामी जी भ. श्रीशांतिनाथ जी |जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 148 | भ. श्री सुमतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
583
1508 | मचकू वीरू
ओसवंष
| अंचल जयकेसरीसूरि
584
1516 | अरघू
श्री श्री ज्ञा.
श्री सूरि
Page #609
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
587
क्र०
संवत
प्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण गच्छ / आचार्य
आदि
585 | 1505 | राजूसु, रामति 586 | 1537 | नायकदे, सूलेसरि 587 | 1573 | भूवदे, नाथी, मरधी
ऊकेष ज्ञा.
पूर्णिमा गुणसमुद्रसूरि भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 148 तपा, श्री लक्ष्मीसागर सूरि भ. श्रीशांतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. श्री सौभाग्यसूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 149
हुंबड ज्ञा.
सुरगोत्र
588
1520 | अरघू. मीरू
श्री ज्ञा.
श्री विमलसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 149
भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी जी
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
589 | 1529 | षाणी, फालूसु 590 1520 हरवू 591 1581 | सषीसु, कामलदे 592 | 1518 | राणी, लाषणदे
श्री श्री ज्ञा. श्री श्री ज्ञा.
593
श्री श्री ज्ञा.
1531 | पोमादे, पाती | 1531 कुतिगदे, कर्माई
594
ओएसवंष
595
श्री श्री ज्ञा.
1548 | धारूसु, वारूसु, | 1531 | डाही, पती
596
प्रा. ज्ञा.
597
1506 | भरमादे, सातदे
152
598
| 1563 | भाची, जईतलदे ऊकेष. ज्ञा. 1508 अहविदे, चमक, देल्हागदे | प्रा. ज्ञा.
पुण्यरत्नसूरि | भ. श्री धर्मनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 150 आगम. गुणरत्नसूरि भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 150 आणंदसागरसूरि | भ. श्रीशांतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 150 आगम, देवरत्नसूरि भ. श्री संभवनाथ चतु. | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
151 | जी नागेंद्र श्री हेमरत्नसूरि भ. श्रीशीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 151 अंचल श्री जयकेसरीसूरि | भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 आगम. जिनचंद्रसूरि भ. श्रीशीतलनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 152 तपा. सुमतिसुंदरसूरि भ. श्री नमिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 152 ब्रह्माण. श्री उदयप्रभसूरि | भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. श्री हेमविमलसूरि भ. श्री वासुपूज्य जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 153 आगम. श्री सिंहदनसूरि भ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 153 तपा. लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री पद्मप्रभु जी |जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 153 | तपा. श्री रत्नषेखरसूरि भ. श्रीशांतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 153
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्रीशीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 153 | पिप्पल धर्मसागरसूरि भ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
बडगच्छ उदयसिंहसूरि भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 154 वृद्धतपा. विजयरत्नसूरि | भ. श्री वासुपूज्य जी |जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 154 | संडेर श्री ईसरसूरि भ. श्री श्रेयांसचतु. जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 पूर्णिमा. पूर्णचंद्रसूरि भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 154
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री पद्मप्रभ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 155 | तपा. विजयसेनसूरि भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
599
600
11524 | करमी, मरगदि
प्रा. ज्ञा.
601 | 1511 | लाडी, चमकू, लीलादे
ऊकष
602
1534 | मालहणदेवी
ऊकेष
803|1531 माणिकदे, बडघी
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
6041639 | जीऊ 6051516 | फदकू, सोही 606 | 1517 | मेघू, चंपाई 607 1506 कामलदे, जीवणि 608 | 1528 | अरघू, गुरी 609 | 1662 | वइजलदे, तेजलदे
श्री. श्री. ज्ञा.
डीसा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
| 155
जी
610
प्रा. ज्ञा.
भ. श्री अनंतनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
155
1504 | मेघू, साऊ 1563 | रूपाई, कपू. विमलादे
| तपा. जयचंद्रसूरि | अंचल. भावसागरसूरि
611
श्री श्रीवंष
भ. श्री कुंथुनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
155
Page #610
--------------------------------------------------------------------------
________________
588
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
आदि
612' | 1556 | गौरी, ककू
613
156
1677 हाना | 1515 | धर्मादे
614
615
1517 | पाणी
616
1518 | भोली
617
| 1677 | वीगाई
618 | 1537 | रंगाई, जीवणि, रंगाई
वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक - प्रतिमा निर्माण । संदर्भ ग्रंथ
गच्छ / आचार्य श्री श्री ज्ञा. पीपल सर्वसूरि भ. श्री सुविधिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 मोढ ज्ञा. तपा. विजयदेवसूरि भ. श्री अनंतनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | उप ज्ञा. श्री सोमदेवसूरि | भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 156 श्री श्री ज्ञा. तपा. श्री रत्नसिंहसूरि भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 156 चंडालिया गोत्र | मलधारि गुणसुंदरसूरि भ. श्री नमिनाथ चतु. | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 156 उपकेष ज्ञा.
| जी उ. ज्ञा. तपा. श्री विजयदेवसूरि भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 156 ओसवंष धर्मघोष. श्रीपद्मानंदसूरि | भ. श्री आदिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 - 157 सुराणागोत्र
तपा. रविजयसूरि भ. श्रीशीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 157 श्री श्री ज्ञा. नागेंद्र श्री गुणदेवसूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 157 श्री श्री वंष श्री सूरि
| भ. श्री सुविधिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 157 प्रा. ज्ञा. तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री कुंथुनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 158 प्रा. ज्ञा. | तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री नमिनाथ जी |जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 158 ऊकेष नाहर धर्मघोष श्री साधुरत्नसूरि | भ. श्री अभिनंदन जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 158 गोत्र प्रा. ज्ञा.
भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 158 | ओस वंष श्री जिनसिंहसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 158 प्रा. ज्ञा. तपा. लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री मुनिसुव्रत चतु. | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 160
620
619 1617 | राजलदे
| 1527 | प्रीमलदे, रंगी 621 1531 | लहकू, नाई, मटकू 622 1526 | वनी, झाडू 623 | वरजू, जीविणि, हांसी 624 | 1514 | अहिवदे
| 1532
ऊकेष ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
625 1565 राजलदे, धर्माई, रही 626 1877 | जासलदे 627 | 1523 | वइजाई. बीजी, जीना,
सोनाई 628 | 1540 | सूढी, संपूरी 629 | 1516 | दूबी, माजू, साधू
अमरादे, गांगबाई | 1518 | अमक, लापूपु, रंगाई 632 1552 | मांजू, सोनाई, 633 | 1548 | मांजू, माकूसु, सौभागिणी 634 | 1576 | नाई,मटकी,इंद्राणी 635 1556 | राणी, धनाई,
630
631
श्री श्री ज्ञा. श्री श्री ज्ञा. श्री श्री वंष
162
तपा. श्री सुमतिसाधुसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 161
आगम. आणंदप्रभसूरि भ. श्री चंद्रप्रभु जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 161 | तपा. श्री विजयसेनसूरि । भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 161
श्री गुणसुंदरसूरि | भ. श्री विमलगाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 161 | आगमसोमरत्नसूरि भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 पिप्पल. पद्मानंदसूरि भ. श्री मुनिसुव्रत जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 162 सर्वसूरि
| भ. श्री अरनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 162 तपा. इंद्रनदिसूरि भ. श्री कुंथुनाथ जी । | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | श्री बुद्धिसागरसूरि । भ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 163 | श्री वीरसूरि
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 163 तपा. श्री हेमविमलसूरि भ. श्रीशांतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 163
श्री श्री वंष
श्री श्री ज्ञा.
IM.ल.ल.मा.2
162
636
|1528 | चापलदे, देवलदे,
श्री श्री ज्ञा.
637
1523 | अरघो, नामलदे
श्री श्री ज्ञा.
638
1568
रूही, रूषादे,
,
Page #611
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
589
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
| 163
639 | 1573 | मटकी, इंद्राणी 640 | 1548 | हीरादे, कत्थाई, रूपाई
श्री श्री वंष ओसवंष ।
164
| प्रेरक/प्रतिष्ठापक प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ
गच्छ / आचार्य आदि सुविहितसूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 भावसूरि
भ. श्री अभिनंदन जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
नाथ जी | खरतर श्री जिनचंद्रसूरि | भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | अंचल. सिद्धांतसागरसूरि | भ. श्री सुविधिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
आगम सिंहदत्तसूरि भ. श्रीशांतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | तपा. श्री विजयसेनसूरि | भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
641
.
ऊकेष वंष
164
1528 | मणकी, डाही 1553 कर्माई, मिरगाई
642
ओस वंष
164
643
प्रा. ज्ञा.
164
1508 | अमकू
सोहामिणि, तेजलदे
644
1651
ओस. आतूरागोत्र
645
166
तेजलदे | अमरादे, रामति
तपा. श्री विजयसेनसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | श्री कक्कसूरि
भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
646
|
1525
चिंचटगोत्र
| 166
6471536 | नाई, राणी
श्री श्री ज्ञा.
| 166
648
श्री श्री ज्ञा.
167
649
प्रा. ज्ञा.
168
650
प्रा. ज्ञा.
| श्री वीरसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | श्री ब्रह्माण
| भ. श्री कुंथुनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 तपा. श्री रत्नषेखरसूरि भ. श्री धर्मनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
श्री हेमविमलसूरि | भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | आगम देवरत्नसूरि भ. श्री सुविधिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
खरतर. जिनचंद्रसूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | उपकेष श्री देवगुप्तिसूरि | भ. श्री अभिनंदन जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
1528 | माणिकिदे | 1513 | सिरी, पूरी | 1568 | मटकू, वलहादे 1525 | पोमी, जीविणि 1528 | रत्नाई, राजगेई 11530 | मूजी, सोनलदे,कुंअरि
168
•651
श्री श्री ज्ञा.
652
प्रा. वंष
168
169
उप. ज्ञा. गोवर्द्धनगोत्र
654 | 1584 षीमाई, वीराई
खरतर जिनमाणिक्यसूरि भ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 169
उकेष कांकरियागोत्र
| 1536 | वीजलदे, माणिकि 656 | 1529 | लीलू, हीराई 657 | 1713 | सषाई, सोनाई, षीमाई
श्री श्री ज्ञा. श्री ज्ञा. ओस ज्ञा.
658
| 1515 | मालहणदे
श्री ज्ञा.
1519 | वुलदे
श्री ज्ञा.
659 660
| भट्टा. श्री बुद्धिसागरसूरि | भ. श्री विमलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 170 |
आगमदेवरत्नसूरि | भ. श्री अभिनंदन जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 170 श्री विजयप्रभुसूरि
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 170 पूर्णिमासाधुरत्नसूरि भ. श्रीशीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 171 | नागेंद्र श्री गुणदेवसूरि भ. श्री चंद्रप्रभु जी |जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 171 वृद्धतपा. श्री | भ. श्री कुंथुनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 171 उदयसागरसूरि श्री सूरि | भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.
2 171 तपा. श्री लक्ष्मीसागर भ. श्री धर्मनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 171
1553 | सिंगारदे, मटकू, गुरदे
।
श्री श्री ज्ञा.
661
| 1525 | रमकू दूबी
प्रा. ज्ञा.
662
1535
अमकू मऊकू
डीसा ज्ञा.
सूरि
Page #612
--------------------------------------------------------------------------
________________
590
क्र०
663
664
665
666
667
668
669
e70
671
672
673
674
675
676
677
678
679
680
681
682
683
684
685
686
687
संवत्
1554 कीकी, धनीपु, श्रृंगारदे,
इंदी
श्राविका नाम
1512 सिंगारदे, मांजू
1508 | कुतिंगदे, सुलहीसु
1513 लाछू, माणिक,
1537 | धाऊं, नागिणि, कुतिगदे
1513 लाडी, गांगी
1506 पातू सारू
1525 फनूपु, हांसी
1512 | रमादे
1510 कर्मादे, लाषू
1533 हक तेजू
1515 जइतू भर्मादे, कर्मादे
1551 | कुंअरि, राजूपु, रंगादे
1567 कीकी, चंगीपु, पूतली,
रहीपु
1573 | घेतू, बगूकया
1517 सरसति, पोमादे
1512 | नागलदे, हरषू
1677 हर्षमदे, मयगलदे, फूला
1530 बासू
1517 मनी, माहादि
1508
जासू अमकू
1511 सहिजलदे
1515 कपूती, मानू, लीलाई
1506 नामलदे, कर्मादे
1517 कर्मादे, वनू
वंश / गोत्र
ऊसवंष
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
वडगोत्र
श्री श्री ज्ञा
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
ओस ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
ओस ज्ञा.
ओस ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
ऊकेष ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
श्री सर्वसूरि
पूर्णिमाश्री गुणसमुद्रसूरि
श्री सूरि
वृद्धतपा. श्री
उदयसागरसूरि
वृद्धतपा. श्री रत्नसिंहसूरि पूर्णिमा. राजतिलकसूरि
विषालराजसूरि पूर्णिमा. श्री जयप्रभसूर पूर्णिमा. श्री गुणसमुद्रसूरि तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि तपा. श्री रत्नषेखरसूरि अंचल सिद्धांतसागरसूरि श्री देवगुप्तसूरि
श्री विजयसिंहसूर
नागेंद्र. विजयप्रभसूर
श्री सुविहितसूर
तपा. श्री विजयदेवसूरि पूर्णिमा श्री कमलप्रभसूरि.
तपा. श्री रत्नशेखरसूरि
श्री सूरि
ब्रह्माण श्री मुनिचंद्रसूरि तपा. रत्नषेखरसूरि बृहतपा. श्रीजयचंद्रसूरि पूर्णिमा श्री साधुसुंदरसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण
आदि
भ. श्री धर्मनाथ जी
भ. श्री धर्मनाथ जी
भ. श्री विमलनाथ जी
भ. श्री नमिनाथ जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्री नमिनाथ जी
भ. श्रीशांतिनाथ पंचतीर्थी जी
भ. श्री मुनिसुव्रत जी भ. श्रीशांतिनाथ जी
भ. श्रीशांतिनाथ जी भ. श्री नमिनाथ जी भ. श्री महावीर जी
भ. श्री सुविधिनाथ जी भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री चंद्रप्रभु जी
भ. श्री सुविधिनाथ जी
भ. श्री अभिनंदन चतु. |
जी
संदर्भ ग्रंथ
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा. प्र.ले.सं. भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं. भा. 2
भ. श्रीशीतलनाथ जी भ. श्री चंद्रप्रभस्वामी जी
भ. श्री
मुनिसुव्रतस्वामी जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री संभवनाथ जी
भ. श्री नमिनाथ जी भ. श्री संभवनाथ जी भ. श्री संभवनाथ जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
पृ.
171
172
172
172
172
173
173
173
173
173
173
174
174
174
174
174
175
175
175
175
175
176
176
176
177
Page #613
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
क्र०
688
689
690
691
692
693
694
695
696
697
698
699
700
701
702
703
704
705
706
707
708
709
710
711
संवत्
1632
1508
1528
1589
1519
1517
1531
1520
1523
श्राविका नाम
जीबाई
गुरी, मागिणि
दव, अमरी, वीरू
सुहवदे, गौरी, कामलदे
कुतिगदे, लीलादे
जमणादे
1553 मानुपु माल्हुसु
1569
हेमादे, बीमाई
1561
जालणदे
1600 रमाई, ललितादे, मनाई
कर्माणि, माणिकदे
हीरू, कर्माई, कपूराई
सूहवदे, कुंअरि, टबक,
रत्नादे, वनादे
1525 नागलदे, विमलादे
1400 नयगादेवी
1529 कूसरि, हेमाई
1632 सहिजलदे, वीराई
1506 राजू, रंगाई
1547 रमाई
1524 गोमति मकांसु कमली
1667 विजलदे
1525 सूहवदे, कंअरि, रत्नादे
1541 सिरीठ लाडिकि
1634 वसुराई, सहिजलदे
वंश / गोत्र प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
तपा. श्री हीरविजयसूरि ब्रह्माणविमलसू
मोढ ज्ञा.
श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्रीमाल ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उपकेष ज्ञा. मंडोवंष गोत्र
श्री श्री वंष
श्री ज्ञा.
ऊकेष ज्ञा.
श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
ओएसवंष
वायड ज्ञा.
ओस ज्ञा. मंडोवरा गोत्र
उप वंष
श्री श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा. श्री श्री ज्ञा.
वायड ज्ञा.
मोढ ज्ञा.
सुराणागोत्र उपकेष वंष
| पिप्पल गुणसागरसूरि
ब्रह्माण विमल सूरि
संडेर श्री सालिभद्रसूरि
धर्मघोष श्री साधुरत्नसूर
पीपल. श्री धर्मवल्लभसूरि
कोरंट श्री नन्नसूरि
पूर्णिमा श्री उदयचंद्रसूरि
| अंचल गुणनिधान नागेंद्र श्री हेमरत्नसूरि | अंचल. जसकेसरीसूरि तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
धर्मघोष श्री सारत्नसूरि
श्री कक्कसूरि वृद्धतपा. ज्ञानसागरसूरि तपा. श्री हीरविजय सूरि पूर्णिमा श्री गुणसमुद्रसूरि
तपा. श्री
प्रतिमा निर्माण आदि
भ. श्री धर्मनाथ जी
भ. श्री विमलनाथ जी
भ. श्री सुविधिनाथ जी
भ. श्री कुंथुनाथ जी
भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्रीशीतलनाथ जी
भ. श्रीशीतलनाथ जी भ. श्री वासुपूज्य जी भ. श्री आदिनाथ जी भ. श्री सुमतिनाथ जी भ. श्री सुमतिनाथ जी
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी
भ श्री मुनिसुव्रत चतु
जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्री वासुपूज्य जी भ. श्री पार्श्वनाथ जी भ. श्री सुमतिनाथ जी भ. श्री गौतम प्रतिमा जी
भ. श्री नमिनाथ जी
संदर्भ ग्रंथ
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै. धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
वृद्धतपा. सौभाग्यरत्नसूरि भ. श्री सुपार्श्वनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
पूर्णिमा श्री पुण्यरत्नसूरि अंचल श्री
कल्याणसागरसूर
प्रति. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्रीशांतिनाथ चतु जै. धा.प्र.ले.सं. भा. 2 जी
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.ध.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री चतुर्विंशतिपट्ट जै. धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जी
भ. श्री संभवनाथ चतु | जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
591
पृ.
1
177
177
177
191
191
191
192
192
192
193
193
193
193
193
193
194
194
194
194
194
195
195
199
199
Page #614
--------------------------------------------------------------------------
________________
592
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
712 | 1534 भीमलदे जयतु
| 200
713 | 1552 | काऊ, रंगी
|1524 | सहिषलदे, कपूरी
मोढ ज्ञा. श्री श्री ज्ञा.
714
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण संदर्भ ग्रंथ । पृ.
गच्छ / आचार्य आदि | नाणावाल. श्री
| भ. श्री सुमतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 धनेष्वरसूरि वृद्धतपा. उदयसागरसूरि | भ. श्रीशांतिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 - 200 पूर्णि. गुणसुंदरसूरि भ. श्री चतुर्विंशति ।जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 |
नमिनाथ जी श्री विजयदानसूरि भ. श्री पार्श्वनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 200 भ. श्री वासुपूज्य जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
| 201 | तपा. श्री विजयदानसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
आगम श्री षीलवर्धरसूरि भ. श्री संभवनाथ फु. | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 201
200
ओस. ज्ञा.
716
उपकेष वंष
| 1525 | रोहणि | 1529 | रूपाई, रतनीई | 1612 | बकू 1531 करणू, पारबती
717
201
श्री श्री ज्ञा. श्री श्री ज्ञा.
718
719 | 1573 | आसी, मंगाई, पल्हाई 720 1661 | कोटमदे, जीवा
721
1510 | धम्माई, हंसाई
722
1638 | अमरादे
723
202
अमरादे राजलदे
724
725
1515 | जसमादे
726
1612 | सोना
727
|
1627 | जासलदे
| 1677 | धनबाई
श्री श्री ज्ञा. पूर्णिमा सदगुरू भ. श्री नमिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 201 श्री श्री ज्ञा. तपा. भट्टा
भ. श्री धर्मनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 2017 श्रीविजयसेनसूरि श्री श्री ज्ञा. बृद्धतपा. श्री रत्नसिंहसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 202 ओसवंष ज्ञा. तपा. श्री हीरविजयसूरि | भ. श्री संभवनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 202 श्री श्री ज्ञा. श्री सूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 श्री ज्ञा. | ब्रह्मणमुनिचंद्रसूरि भ. श्रीशीतलनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 202 प्रा. ज्ञा. तपा. सोहाकर भ. श्री आदिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 202 श्री श्री ज्ञा. | तपा. श्री विजयदानसूरि | भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 202 गूर्जर ज्ञा. तपा. श्री हीरविजयसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 । 203
तपा. श्री विजयदेवसूरि भ. श्री पार्श्वनाथ जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 203 श्री श्री ज्ञा. श्री साधुसुंदरसूरि भ. श्री विमलनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 203 ओसवंष श्री सूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 203 श्री श्री ज्ञा. तपा. श्री विजयसेनसूरि भ. श्री वासुपूज्य जी । जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 203 श्री श्रीमाल ज्ञा. भवदेवसूरि भावडार भ. श्री सुमतिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 196 वायड ज्ञा. | आगम. हेमरत्नसूरि
| भ. श्री
जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 196
धर्मनाथदिपंचतीर्थी जी उपकेष ज्ञा. | धर्मघोष श्रीसाधुरत्नसूरि भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 मंडोवरा गोत्र नीमा ज्ञा. तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री नमिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 196 प्रा. ज्ञा. बृहत्तपा श्रीविजयरत्नसूरि | भ. श्री वासुपूज्य जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 197
729
730
731
| 1517 | वासू 1558 | रूडीसु 1644|
| कोडाई, कराणी | 1541 | संपू. हर्षाई | 1519 | राजू, संपूरी
732
733
7341512 | लणू श्री
735 |1523 लाडी, मंदोअरि
736 | 1529 | आसू. माकूणदे
Page #615
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत्
प्राविका नाम
वंश/गोत्र |
संदर्भ ग्रंथ
।
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण | गच्छ / आचार्य
आदि
737
प्रा. ज्ञा.
738
प्रा. ज्ञा.
739
नीमा ज्ञा.
740
श्री प्रा. ज्ञा.
741
प्रा. ज्ञा.
742
श्री श्री ज्ञा.
| 197
1564 | हली, अहवदे 1521 | धनाई | 1523 | लाही, मंदोअरि 1529 | राजू, आसू, माकूणदे 1521 | | धनाई 1513 | राणी, लाषणदे 1638 | वसादे, अमरादे | 1525 | राजूपु वानूपु माणिकि 1560 | लीलू, जीवाई चंपाई 1583 | पीआदे, सरीयादे 1612 | धिनाई 1600 टहिकू, अमरादे, जीवाइ
743
ओसवंष ज्ञा.
744
दीसा ज्ञा.
745
श्री श्री ज्ञा. श्री श्री ज्ञा.
746
ओस ज्ञा.
747 748
श्री ज्ञा.
वृद्धतपा. लब्धिसागरसूरि | भ. श्री अजितनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 197 | तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 197 | तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री नमिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 7 197 | बृहत्तपा श्रीविजयरत्नसूरि | भ. श्री वासुपूज्य जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 197 | तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री संभवनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | 197
आगम देवरत्नसूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 | तपा. हीरविजयसूरि भ. श्री मुनिसुव्रत जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
- 198 | तपा. लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री कुंथुनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 धर्मनाथ भ. श्री सद्गुरू जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
198 पूर्णिमा श्री सूरि | भ. श्री आदिनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 198 तपा. श्रीविजयदानसूरि भ. श्रीशीतलनाथ जी | जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 199 पूर्णिमा श्री पुण्यप्रभसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. चतुर्विशतिपट्टः जी नागेंद्र
| भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. 167 सर्वसूरि
| भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. 167 श्रीहर्षविनयसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. 168 श्री सूरि
| भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. विजयदानसूरि भ. श्री मुनिसुव्रत पा.जै.धा.प्र.ले.सं. 168
स्वामी पंचतीर्थ जी श्री सूरि
भ. श्री धर्मनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. श्री धर्मसागरसूरि भ. श्रीशांतिनाथ जी । पा.जै.धा.प्र.ले.सं. 168 तपा. पं. विजयदारसूरि | भ. श्रीशीतलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. 168 तपा. श्री सोमविमलसूरि भ. श्रीशीतलनाथ जी । पा.जै.धा.प्र.ले.सं. 169
749
1605पना
प्रा० ज्ञा०
श्री ज्ञा.
श्री ज्ञा.
750
1605 | वादू 751 1605 | सोभगिणि, रतनादे
11605 | बाईसोही, इंद्राणी 7531605 | अमरी, नामलदे, रमादे
752
प्रा. ज्ञा.
168
।
प्रा. ज्ञा.
754
श्री ज्ञा.
168
755
श्री ज्ञा.
756
| | 1808 | नाकू
1610 झटी, रंगी | 1610 | वीराइ, पाची, साधू 1610 | मरघी, अणूआदे 1612 मरधी, लाली, पूराई
लघु ज्ञा.
ऊकेष.
757 758
श्री ज्ञा.
आगम. श्री संयम रत्न
| 169
सूरि
भ. श्री अजितनाथ पा.जै.धा.प्र.ले.सं. चतुर्विशतिपट्टः जी भ. श्री पार्श्वनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 169
7591613 भुजाई, टबकाई 760 1613 | कर्मू, लीलु
श्री ज्ञा.
पूर्णिमा. श्री सूरि
भ. श्री
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
166
श्रीशीतलनाथादिपंचर्ती जी
761
श्री ज्ञा.
भ. श्रीशीतलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
। 166
1615 खीमाई 1615 खीमाई, जीवादे, मकाइ
श्रीसूरि श्री सूरि
762
प्रा. ज्ञा.
भ. श्री संभवनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
166
Page #616
--------------------------------------------------------------------------
________________
594
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
संदर्भ ग्रंथ
पृ.
प्रतिमा निर्माण
आदि
763
1615| कमलादे, कउडी, मदे
भ. श्री श्री शांतिनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
166
जी
163
764|1587 | हरखीइ, इंद्राणी 765 1588 हीरी आसी
| 1588 | मनी, माणिकि, लीली
वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य ओ. गोत्र बृहत्त खरतर श्री
जिनचंद्रसूरि | श्री श्रीमाल ज्ञा. | सिद्धांत जयसुंदरसूरि
श्री श्रीमाल ज्ञा. | आगम. ज्ञानरत्नसूरि | श्री श्रीमाल ज्ञा. | पूर्णिमा. वटमद्रीय श्री
लब्धिसुंदरसूरि उसवाल ज्ञा. श्रीआणंदविमलसूरि उपकेष प्रीमलदे | कोरंट श्री कक्कसूरि गोत्र
| 163
766
164
भ. श्री सुविधिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. | भ. श्री चतुर्विशतिपट्ट | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
श्री वासुपूज्य जी भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
767
1588 | हरखी
164
768
15907 जसमादे
| 164
769
1591 | सोनाई, वीरादे
प्रा. ज्ञा.
अंचल श्री गुणनिधान
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
165
7701591 हीरू, पन्नी
प्रा. ज्ञा.
165
771
श्रीमाल ज्ञा.
165
772
1597
| रामदेवी 1598 | जीवाई, जीवी, भीमी 1598| भरमादे
| अंचल श्री गुणनिधानसूरि | भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. | आगम श्री हेमहंससूरि | भ. श्री सुविधिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
श्री सोमविमलसूरि भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. श्रीसूरि
भ. श्रीशीतलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तपा. श्रीरत्नषेखरसूरि भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
165
773
डसावाल ज्ञा. श्री श्री ज्ञा. ओसवंष कटारिया गोत्र
165
774
| 1509 | पुनाइ
| 166
नागर. ज्ञा.
166
775 | 1506 | पूंजी, वाउ | 776 | 1500 | सोमलदे
श्रीजिनरत्नसूरि वृद्ध थिरापर सर्वसूरि
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
श्री ज्ञा.
166
भ. श्रीशीतलनाथ जी भ. श्री विमलनाथ भ. श्री मुख्यपंचतीर्थी जी भ. श्रीशांतिनाथ जी भ. श्री धर्मनाथ जी
उकेषवष
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
166
m_1520 नामलदे, कर्माई 778 1616 | सुरीइ, अजाही
खरतर. श्रीजिनचंद्रसूरि पूर्णिमा. पू. मानविरज
श्री ज्ञा.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
170
779
1616
भा.
श्री श्री ज्ञा.
भ. श्री प्रतिमा जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
170
780
1617/ रत्नादे, जवणादे
कटारियागोत्र
खरतर. श्री जिनचंद्र
भ. श्री चंद्रप्रभ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 171
781
1617 | हरखी
श्री श्री ज्ञा.
171
782
1617 | सखी
तपा. श्री विजयदान सूरि | भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तपा. श्री विजयदान सूरि भ. श्रीशांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तपा. श्री विजयदान सूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
दीसावाल ज्ञा. लघुओसवाल.
171
783
1617 | सषमाइ
171
ज्ञा.
784
1617 | काबाई, जइवंती
| प्रा. ज्ञा.
| 171
785
| 1617 | पूराई
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री विजयदान सूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तपा. श्री विजयदान सूरि भ. श्री
पा.जै.धा.प्र.ले.सं. | मुनिसुव्रतस्वामी जी
171
Page #617
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत् |
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
।
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
प्रतिमा निर्माण
आदि
786
| 1617 | हडी
172
787
172
788
1617 | सुषनाइ | 1817 | हसु, टबकाई 1817 | हर्षी
172
प्रा. झा. |तपा. श्री विजयदान सूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. लघु ओ. ज्ञा. |तपा. श्री विजयदान सूरि | भ. श्री सुविधिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. उस. ज्ञा. तपा. श्री विजयदान सूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. श्री ज्ञा. तपा. श्री विजयदान सूरि | भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री विजयदान सूरि भ. श्री अजितनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. ओ. ज्ञा. श्रीसूरि
भ. श्री पद्मप्रभस्वामी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
789
172
790
172
1617 | मंगाई | 1618 | बाई, हसू, अछबादे
जी
792 | 1624 | मलाई
श्री ज्ञा.
पूर्णिमा
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
174
793
| 1624 | माकू, करमाही
दीसावाल ज्ञा. |तपा. श्री हीरविजयसूरि
भ. श्रीशांतिनाथ जी
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
174
794
| 1624 | माली, कीकाइ
प्रा. ज्ञा.
174
795
174
796
प्रा. ज्ञा.
174
797
1624 | रूपाइ, खीमाइ | 1624 | सौभगिणि | 1624 | पुरीई | 1624 | षीबाइ
हीराई, षादकीबाई, मंगाई
प्रा. ज्ञा.
| 174 | 174
798
श्री ज्ञा.
तपा. श्री हीरविजयसूरि | भ. श्री नमिनाथ जी । पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तपा. श्री हीरविजयसूरि | भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तपा. श्री हीरविजयसूरि भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. | तपा. श्री हीरविजयसूरि भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं... तपा. श्री हीरविजयसूरि भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तपा. श्री हीरविजयसूरि भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. पूज्य विजयसेन सूरि भ. श्री चंद्रप्रभ जी |पा.जै.धा.प्र.ले.सं. पूज्य विजयसेन सूरि भ. श्री महावीर जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं. पूज्य विजयसेन सूरि भ. श्री अजितनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तपा. श्री हीरविजय सूरि भ. श्री धर्मनाथ जी |पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
799
श्री ज्ञा.
174
800
11625 | माणिकदे
175
801
| 175
1625 माणिकदे 1625 माणिकदे
802
ओ. ज्ञा.
175
803
175
| 1626 | नाकू
1626 | दीपु
804
.................
176
805
11827 | लाड़की, देउ, भरमादे
176
उकेषवंष रांकागोत्र
तपा. हीर विजय सूरि भ. श्री सिद्धचक्र जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. बृहत खरतर.
भ. श्री अनंतनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. जिनसिंहसूरि | गुरूमादुका
| भ. श्रीजिनचंद्रसूरि जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. बृहत्तमा. हीर विजयसूरि | भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तपा. श्री कल्याण भ. श्रीशांतिनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं. विजयगणि
8061627 | गोरादे 807 1628 | कनकादे, पुंजी 808 1628 | रूपी, अजाइ
176
प्रा. ज्ञा.
176
श्री ज्ञा.
177
809
1628 |चंदू
पाटण वासी
भ. श्री नमिनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
177
तपा. श्री कल्याण विजयगणि
810
1628 |चमाई, जीवाई
प्रा. ज्ञा.
177
तपा. श्री कल्याण भ. श्री नमिनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं. विजयगणि तपा, श्री हीरविजयसूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
811 | 1830 | जेठी, बाई, सुराई
प्रा. ज्ञा.
177
Page #618
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
प्राविका नाम
संदर्भ ग्रंथ
पृ. ।
। वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक । प्रतिमा निर्माण गच्छ / आचार्य
आदि
प्रा. ज्ञा.
177
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री हीरविजयसूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तपा. श्री हीर विजयसूरि | भ. श्रीशांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तपा. श्री हीर विजयसूरि भ. श्रीशांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
812 | 1630 | जेठी, सुराई 813 1630 | अच्छबादे, वाछी 814 1630 रूपाई 815 1630 | संपू
| 178
डीसवाल ज्ञा
| 178
प्रा. ज्ञा०
तपा. श्री हीर विजयसूरि | भ. श्री पद्मप्रभनाथ
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
178
| 178
178
179
816 | 1630 श्रीरति, गुराई, श्रीनाकू 817 | 1634 वाली 818 1634 वइजलदे, हीरादे
| 1643 | हरखाई, पुरी | 1643 | जीवादे | 1647 | सूहवदे रजाई
179
179
179
822
1649 नाथी
| 181
1649 | मंगाई
ऊकेष ज्ञा. अंचल. धर्ममूर्ति सूरि भ. श्री अजितनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. प्रा. ज्ञा. तपा. श्री हीरविजयसूरि भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. प्रा. ज्ञा. | तपा. श्री हीरविजयसूरि | भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.. प्रा. ज्ञा. तपा. श्री विजयसेनसूरि | भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. श्री श्री ज्ञा. तपा. श्री विजयसेनसूरि | भ. श्री धर्मनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं. उकेषवंष बृहत्त खरतर. | भ. श्री आदिनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं. गादहीयागोत्र | जिनसिंहसूरि प्रा. ज्ञा. तपा. श्री हीरविजय सूरि भ. श्रीशांतिनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं. प्रा. ज्ञा. तपा. श्री हीर विजयसूरि | भ. श्री धर्मनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं. प्रा. ज्ञा. तपा. श्री हीर विजय
भ. श्री
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
मुनिसुव्रतस्वामी जी चोपड़ा गोत्र खरतर, श्री जिनचंद्रसूरि | भ. श्री चंद्रप्रभ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं. श्री श्री ज्ञा. पूर्णिमा. ललितप्रभसूरि भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. श्री श्री. ज्ञा. श्री ललितप्रभसूरि भ. श्रीशीतलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. श्री. श्री. ज्ञा
भ. श्रीशांतिनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं. भ. श्री अजितनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. भ. श्री विमलनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
180
824
1649 कुंयरि
| 181
825
1652 | विमलादे
| 181
8526
| 1654 | वहलादे
| 181
827
| 181
828
1854 | वहलादे 1662 | रलू, वीरादे, लखमादे 1662 | लखमादे
182
829
182
830
| 1662 लखमादे
182
831
श्री. ज्ञा
तपा. श्री विजयदेव
भ. श्री कुंथुनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
183
1664 सेपू 1667 | भली, कुंती, हीरा, मांजा,
832
विजयकीर्ति
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
183
पोषा
1672 | घेतलदे, हर्षादे
श्री. ज्ञा
184
833 834
प्रा. ज्ञा.
184
1672 पुराई 11673 | मर्धाइ, सहजणदे
श्री. ज्ञा
184
तपा. विजय देवसूरि भ. श्री धर्मनाथ जी |पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तपा. विजयदेवसूरि भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तपा. भट्टा विजयदेवसूरि | भ. श्री ऋषभदेव जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. श्री विजयदेवसूरि भ. श्री अनंतनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तपा. श्री विजयदेवसूरि भ. श्री सुमितनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तपा. श्री विजयदेवसूरि भ. श्रीषीतलनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
836
| 1677 | अजाई रहिया
185
837
11877
| कनका
प्रा. ज्ञा. प्रा. ज्ञा. श्री. ज्ञा.
| 185 | 186
838-11681 रंगाइ
Page #619
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
-597
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र |
संदर्भ ग्रंथ । पृ.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
प्रतिमा निर्माण |
आदि
श्री. श्री. ज्ञा
तपा. श्री विजयदेवसूरि |भ. श्री षांतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
186
840
प्रा. ज्ञा.
186
839 1681 | मांजू
| 1682 | पाजू, देवकी 841 1683. मटका 842 | 1886 | कुंअरि
थरादरा
तपा. श्री विजयदेवसूरि भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तेजपाल
भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. | तपा. श्री विजयदेवसूरि | भ. श्री मुनिसुव्रत जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
186
186
प्रा. ज्ञा. लधुषाखीय
ओ. ज्ञा
तपा. श्री विजयसंधसूरि | भ. श्री धर्मनाथ जी
| पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
187
844
| 187
843 | 1693 षारिमी, बाइ
1693 | माणिकिदे 845 | 1693 | श्रीबाई 846 11694 चऊथी
श्री श्री ज्ञा
188
तपा. श्री विजयसिंह सूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तपा. श्री विजयसिंहसूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तपा. श्री विजयसिंहसूरि | भ. श्री आदिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तपा. श्री हीरविजयसूरि | भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
ऊकेष. ज्ञा.
188
847
| प्रा. ज्ञा.
189
1694 | बाइ पल्हाइ, कमलादे
वाल्ही
848
| 189
| 1702 | पुरी 11702 | श्रीवती
श्री कमलविजयगणि भ. श्रीसिद्धचक्रपट्ट जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. तपा. श्री विजयसिंह सूरि | भ. श्री कुंथनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
849
प्रा. ज्ञा.
189
850
|
1755
नागबाई
....munmun...
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
190
11755
रगनाइ
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
190
852
| 1755 | सुजाणदे
श्री श्री ज्ञा.
श्रीसत्यविजयगणि
भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 191
853
| 1761 | साकर
भ. श्री प्रतिमा जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
191
854
| 1765 | राम
प्रा. ज्ञा.
| सोमसूरि
भ. श्रीशांतिनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
तपा.
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
856
855 | 1768 | वेलबाई
| 1768 | नाथी 857 | 1768 | लवी
प्रा. ज्ञा.
तपा. श्री विजयरत्नसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
192
कटुकमति
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
192
भ. श्रीशांतिनाथ पंचतीर्थी जी
858
1768 | आणंदबाई
भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
192
859
1768 | कहानबाई
तपा.
भ. श्री नमिनाथ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
192
860
| 1768 | रासज्ञानबाई
तपा.
193
भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. भ. श्रीशांतिनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
861
1768 | लाडीकि
तपा.
194
श्री ज्ञा.
भ. श्री चंद्रप्रभ जी
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 194
862 | 1768 | अमुत पुरी 883 | 1768 | वालबाई केसर लीली
आ. ज्ञा.
तपा. विजयरत्नसूरि (1768 195) पतन निवासी
भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 194
Page #620
--------------------------------------------------------------------------
________________
598
क्र०
864
865
866
867
868
869
870
871
872
873
874
875
876
877
878
879
880
881
882
883
884
885
886
887
868
संवत्
श्राविका नाम
1768 | तपा, कपूर, विजयगणि
1768 माणिक्य
1774 श्रीसु
1768केसर, लीली
1768 माणिक्य
1774 श्रीसु
1774 गलबाई
1774 रहीबाई
1804
केवल बाई
1815 नाथीबाई
1903 बाई, भाग्यवान.
1903 बाई, भाग्यवान
1903 श्रीमती मोना
1903 भाग्यवान्
1983 भाग्यवान्
1904 केलवबाई
1918 हरकुंवर्यबाई
1918 | हरकुंवर्यबाई
1986 लीलादे, राणी, देमति
1589 सुहवदे, गौरी, कामलदे
1519 | कुतिगदे, लीलादे
1517 जमणदे
1553 मानूपु, माल्हूसु
1569 हेमादे, खमाई
1561 जालणदे
वंश / गोत्र
श्री. ज्ञा.
दोसी
श्री. ज्ञा.
पतन निवासी
श्री. ज्ञा.
दोसी
श्री. ज्ञा.
श्री. श्री. ज्ञा
श्रीमाली
श्रीमाली
श्रीमाली
प्रा. ज्ञा.
श्रीमाल ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उपकेष. ज्ञा. मंडोवंष गोत्र
श्री श्री वंष
श्री ज्ञा.
ऊकेष. ज्ञा.
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
श्रीविजयरत्नसूरि
विजयक्षमासूर
तपा. कपूर विजयगणि
श्रीविजयरत्नसूर
विजयक्षमासूरि
मपा. गणि श्री कपूर
विजय
तपा. विजयसूरि.
पूर्णिमा. सुसाधुसूरि ब्राह्माण. विमलसूर संडेर. श्री सालिभद्रसूरि धर्मघोष. श्रीसाधुरत्नसूरि
पीपल. श्री धर्मवल्लभसूरि कोरंट / श्री नन्नसूरि पूर्णिमा. श्रीउदयचंद्रसूरि
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संदर्भ ग्रंथ
प्रतिमा निर्माण
आदि
भ. श्री धर्मनाथ चतुर्विंशति जी
भ. श्री सुमतिनाथ जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्री धर्मनाथ चतुर्विंशति जी
भ. श्री सुमतिनाथ जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्री
चंद्रप्रभपंचतीर्थी जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री सुमतिनाथ जी
भ. श्री महावीर स्वामी
जी
45 आगमों के उधापनार्थ लेख है भ. श्री कुंथुनाथ जी भ. श्री कुंथुनाथ जी भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्रीशीतलनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री अजितनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री संभवनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री वासुपूज्य जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री महावीर जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्रीशीतलनाथ जी भ. श्री वासुपूज्य जी भ. श्री आदिनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा. प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं. पा. जै.धा.प्र.ले.सं. पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पा. जै.धा.प्र.ले.सं. पा. जै.धा.प्र.ले.सं. पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
पृ.
195
195
197
195
195
197
197
197
200
202
206
206
207
207
207
207
208
208.
220
211
191
191
191
192
192
192
Page #621
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
क्र०
संवत्
प्राविका नाम
वंश/गोत्र
श्री ज्ञा. श्री श्री ज्ञा.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य अंचल. गुणनिधानसूरि | नागेंद्र. श्री हेमरत्नसूरि अंचल, जसकेसीसूरि
192
। प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ
आदि भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
889 | 1600 | रमाई ललितादे, मनाई 890 | 1531 | कर्मणि माणिकिदे 891 | 1520 | हीरू, करमाई, कपूराई 892 | 1523 | सूहवदे, कुंअरि,
टबकू रत्नादे, वनादे
193
।
ओएसंवष
193
वायड़ ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत चतु. | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
893 |1525 | नागलदे, विमलादे
धर्मधोष श्री साधुरत्नसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
।
ओस ज्ञा. मंडोवरा गोत्र
894
श्री श्री ज्ञा.
| 1529 | कसुरि, हेमाई | 1632 | सहिजलदे, वीराई | 1506 | राजू रंगाई
194 ! 194
895
प्रा. ज्ञा.
896
श्री श्री ज्ञा.
194
897
1547 | रमाई
| वृद्धतपा. ज्ञानसागरसूरि | भ. श्री वासुपूज्य जी । पा.जै.धा.प्र.ले.सं.. तपा. श्री हीरविजयसूरि | भ. श्री पार्श्वनाथ जी । पा.जै.धा.प्र.ले.सं. पूर्णिमा श्री गुणसमुद्रसूरि भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री गौतम प्रतिमा | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
जी पूर्णिमा श्री पुण्यरत्नसूरि | भ. श्री नमिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. अंचल कल्याणसागरसूरि भ. श्री चतुर्विंशतिपट्ट | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
| 194
श्री श्री ज्ञा.
194
898 | 1524 | गोमति मकांसु कमली 899 1667 | विजलदे
श्री श्री ज्ञा.
195
900|1525 | सूहवदे, कुँअरि, रत्नादे
वायड़ ज्ञा.
प्रति. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्रीशांतिनाथ चतु. पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
196
901 | 1541 | संपू. हर्षाई 902 | 1519 | राजू,संपूरी
196
9031512 | लणू श्री
196
904|1523 | लाडी, मंदोअरि 905 | 1529 आसू, माकूणदे 906 1564| हली, अहवदे
| 197
श्री श्रीमाल ज्ञा. | भावदेवसूरि भावडार | भ. श्री सुमतिनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. वायड ज्ञा. आगम. हेमरत्नसूरी भ. श्री धर्मनाथादि पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
पंचतीर्थी जी उपकेष ज्ञा. धर्मधोष श्रीसाधुरत्नसूरि भ. श्री आदिनाथ जी । पा.जै.धा.प्र.ले.सं. मंडोरवा गोत्र नीमा ज्ञा.
तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री नमिनाथ जी पा.जै धा.प्र.ले.सं. प्रा. ज्ञा. बृहदतपा. विजयरत्नसूरि | भ. श्री वासुपूज्य जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं. प्रा. ज्ञा. वृद्धतपा. लब्धिसागरसूरि | भ. श्री अजितनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. प्रा. ज्ञा. तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि | भ, श्री संभवनाथ जी पा.जै.धा.प्र.ले.सं. नीमा. ज्ञा. | तपा. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री नमिनाथ जी । पा.जै.धा.प्र.ले.सं. श्री प्रा. ज्ञा.
| बृहतपा. श्रीविजयरत्नसूरि | भ. श्री वासुपूज्य जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. प्रा. ज्ञा. | तपा. श्री लक्ष्मीसागरसूरि | भ. श्री संभवनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
श्री. श्री. ज्ञा. | आगम देवरत्नसूरि | भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं. | ओसवंष. ज्ञा. |तपा. हीरविजयसूरि भ. श्री मुनिसुव्रत जी । पा.जै.धा.प्र.ले.सं. डीसा. ज्ञा. तपा. लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री कुंथुनाथ जी | पा.जै.धा.प्र.ले.सं.
197
907
|1521 | धनाई
197
908
197
909
197
1523 | लाही, मंदोअरि 1529 | राजू, आसू, माकूणदे 1521 | धनाई | 1513 | राणी, लाषणदे
910
197
911
197
| 1638
वसादे, अमरादे
198
913
1525 | राजूपु, वानूपु, माणिकि
198
Page #622
--------------------------------------------------------------------------
________________
600
क्र०
914
915
916
917
918
919
920
921
922
923
924
925
926
927
928
929
930
932
933
934
935
936
937
938
संवत्
939
1612
1560
1583 सवीआदे, सरीयादे
1541
1510 धर्म्माई, हंसाई
1638 अमरादे
1600 अमरादे
931 1512 राजलदे
1515 जसमादे
1612 सोना
1627
जासलदे
1677 धनबाई
1534
1552
1524
लीलू, जीवाई, चंपाई
1634 वसुराई, सहिजलदे
1525
श्राविका नाम
1531
धिनाई
सिरीठ लाडिकि
रोहिणी
1529 रूपाई, रतनीई
1612 बकू
भीमलदे जयतु
काऊ, रंगी
सहिजलदे, कपूरी
करण पारबती
1573 आसी मंगाई, पल्हाई
1661 कोटमदे, जीवा
1517 वासू
1558 रूडी
1644 कोडाई, कराणी
1591
टीबू, सूहवदे, ललितादे
वंश / गोत्र
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
ओस ज्ञा.
मोढ़ ज्ञा.
सुराणागोत्र
उपकेष
मोढ़ ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
ओस. ज्ञा.
उपकेष ष
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
ओसवंष ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
श्री ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
गुर्जर ज्ञा.
श्री श्री ज्ञा.
ओसवंष
श्री श्री ज्ञा.
उसवंष
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
सदगुरू
पूर्णिमा श्री सुरि
तपा. श्रीविजयदानसूरि
तपा. श्री
नाणावाल. श्रीधने वरसूरि वृद्धतपा. उदयसागरसूरि
पूर्णि. गुणसुंदर सूर
वृद्धतपा. सौभाग्यरत्नसूरि भ. श्री सुपार्श्वनाथ
जी
श्री विजयदानसूरि
तपा. श्रीविजयदानसूरि
आगम. श्री भीलवर्धनसूरि
पूर्णिमा सद्गुरू
तपा. भट्टा.
श्रीविजयसेनसूरि बृद्धतपा. श्रीरत्नसिंहसूरि तपा. श्री हीरविजयसूरि
श्रीसूरि
ब्रह्माण मुनिचंद्रसूरि तपा. सोहाकर
तपा. श्रीविजयदानसूरि तपा. श्री हीरविजयसूरि तपा. श्री विजयदेवसूरि श्री साधुसुंदरसूरि
श्रीसूरि
तपा. श्रीविजयसेनसूरि कक्कसूरि दणीक
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
प्रतिमा निर्माण
आदि
भ. श्री धर्मनाथ जी
पा. जै.धा.प्र.ले.सं.
भ. श्री आदिनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्रीशीतलनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री संभवनाथ चतु. जै. धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जी
भ. श्री सुमतिनाथ जी
भ. श्रीशांतिनाथ जी भ. श्री चतुर्विंशति नमिनाथप्रतिमा जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
भ. श्री संभवनाथ फु. जी
भ. श्री नमिनाथ जी
भ. श्री धर्मनाथ जी
संदर्भ ग्रंथ
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै. धा.प्र.ले.सं. भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री सुमतिनाथ जी भ. श्री संभवनाथ जी भ. श्री आदिनाथ जी
भ. श्रीशीतलनाथ जी
जै. धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा.2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा.2
भ. श्री आदिनाथ जी भ. श्री आदिनाथ जी भ. श्री पार्श्वनाथ जी भ. श्री पार्श्वनाथ जी
जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2
भ. श्री पार्श्वनाथ
भ. श्री विमलनाथ जी जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा. प्र.ले.सं.भा. 2 जै.धा.प्र.ले.सं.भा. 2 दि. जै.इ.इ.आ.अ.
भ. श्री वासुपूज्य जी
भ. श्री आदिनाथ जी
पृ.
198
198
199
199
199
200
200
200
201
201
201
201
201
201
202
202
202
202
202
202
203
203
203
203
203
Page #623
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
।
943
क्र० संवत् श्राविका नाम वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ
गच्छ / आचार्य | आदि 940 1591 पीनलदे, दीवी
श्री श्री | मुनिचंद्रसूरि पूर्णिमा भ. श्री शांतिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.आ.अ. 941 1596 | जइती
उकेष ज्ञा. | विजयदानसूरि तपा. भ. श्री श्रेयांसनाथ जी दि.जै.इ.इ.आ.अ. 942 1596 | पुहती, वीरादे, श्रीबाई प्रा. ज्ञा. | विजयदानसूरि तपा. भ. श्री पार्श्वनाथ जी | दि.जै.इ.इ.आ.अ. 1596 | अमरादे
प्रा. ज्ञा. सोमसुंदरसूरि तपा. भ. श्री अभिनंदन जी दि.जै.इ.इ.आ.अ. 944 1596 | अमरादे. हेमादे
प्रा. ज्ञा. | विद्यांचद्रसूरि, साधुपूर्णिमा | भ. श्री अरनाथ जी | दि.जै.इ.इ.आ.अ. 945 11599 | वना, रत्नादे
प्रा. ज्ञा. | श्रीसूरि
| भ. श्री आदिनाथ जी दि.जै.इ.इ.आ.अ. 946 1600 षोमी, बनाई, नावछ
अंचल. गुणनिधानसूरि भ. श्री पार्श्वनाथ जी | दि.जै.इ.इ.आ.अ. 947 1605 | अमरी
श्री श्री विजयदानसूरि | भ. श्री सुमतिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.आ.अ. | 1610 | मानू, कमलादे, लीलादे प्रा. ज्ञा. | विजयदानसूरि | भ. श्री संभवनाथ जी | दि.जै.इ.इ.आ.अ. 949 1614 | अछबादे, लीलादे
विजयसूरि तपा. भ. श्री चंद्रप्रभु जी दि.जै.इ.इ.आ.अ. 950 | 1815 | कंकू, बाई, दीवी, नानी ।
विजयदानसूरि | भ. श्री वासुपूज्य जी | दि.जै.इ.इ.आ.अ. 951 1619 रत्नादे, जालणदे
विजयसूरि तपा. | भ. श्री धर्मनाथ जी | दि.जै.इ.इ.आ.अ. 1620 मुरारि
धर्ममुनिसूरि अंचल | भ. श्री सुमतिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.आ.अ. 953 | 1623 | रत्नादे
श्रीमाल हीरविजयसूरि भ. श्री पार्श्वनाथ जी | दि.जै.इ.इ.आ.अ. 1623 भामा, रत्नादे
श्रीमाल हीरविजयसूरि तपा | भ. श्री सुमतिनाथ जी दि.जै.इ.इ.आ.अ. 9551627 | रजाई, कोडिमदे, सूरमदे । उकेषवंष जिनसिंहसूरि वृद्धतपा. भ. श्री पार्श्वनाथ जी | दि.जै.इ.इ.आ.अ.
गोदहीया गोत्र 956 | 1628 | षीमाई, तेजलदे,
हीरविजयसूरि | भ. श्री सुविधिनाथ जी | दि.जै.इ.इ.आ.अ. 957 | 1597 | कर्मी, देवलदे सोभागिणि उकेष वंष
भ. श्री आदिनाथ जी | म.दि.जै.ति. आदिलीया गोत्र
श्री श्री
954
958
1618लंगी
ओ. ज्ञा.
959
श्री विजयदानसूरि तपा. हरिविजयसूरि हरिविजयसूरि हेमविजय लिखित
भ. श्री कुंथुनाथ जी म.दि.जै.ति. भ. श्री शीतलनाथ जी | म.दि.जै.ति. भ. श्री अभिनंदन जी म.दि.जै.ति.
| 1626 | त्रवा, पूनी 960 16101 बुधी, बगाई 961 1725 | अखु हस्तु खुस्थाला
वाचनार्थ 962 | 1738 | राजकुंयरि वाचनार्थ
प्रा. ज्ञा.
जै. गु. क. भा. 4
| 88
जिनप्रतिमादृढकरण हंडी रास
कनसेन लिखित
रतनपारस 3 खंड 34 | जै. गु. क. भा. 4
| 462
ढाल
963
1487 | वाल्हादेवी
चम्म
आ. जिनचंद्रसूरि
ख. इ. प्र. ख.
179
शासन प्रभावक आचार्य जिनशासन | को समर्पित किया
964
1141 | बाहडदेवी
युग. प्र. जिनदत्तसूरि
ख. इ. प्र.
ख.
179
Page #624
--------------------------------------------------------------------------
________________
602
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ
आदि
965
|1524 कमलाटे वी
ख. पट्टा. सं.
966
ख. पट्टा, सं.
30
967
1330 | जयंतश्री 1326 कमलादेवी 1285 सिरियादेवी
ख. पट्टा. सं.
968
ख. पट्टा. सं.
ख. पट्टा. सं.
वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक ।
गच्छ / आचार्य चोमपडा गोत्र | आ. जिनहससूरि छाजहड आ. जिनकुषलसूरि छाजडह आ. जिन चंद्रसूरि
आ. जिनप्रबोधसूरि
आ. जिनवनसूरि माल्हू गोत्र आ. जिनपतिसूरि
आ. जिनचंद्रसूरि नवांगी टीकाकार
अभयदेवसूरि सेठ गोत्र | आ. जिनभक्निसूरि बुहरा गोत्र आ. जिनसौरमसूरि लुणिया आ. जिनरत्नसुरि बोधरा आ. जिनसदयसूरे
969 | 1245 लक्ष्मी 970 1210 सुहवदेवी 9711197 | देल्हण देवी 972
धनदेवी
ख. पट्टा. सं.
स. पट्टा. सं.
ख. पट्टा. स.
973
1770 | हरिसुखदेवी
य, पट्टा. सं.
974
| 1739 | सुरूपा
ख, पट्टा. सं.
975
1699 तारादेवी
ख. पट्टा. सं.
976
ख. पट्टा. सं.
70 वें | जयदेवी पाट
977
71 वें प्रभादेवी
......आ. जिनहेमसरि
ख पहा. सं.
पाट
पर 978 | 1803 | भक्तिदेवी, लाछल देवी 979 1772 | उच्छरंगदेवी
रेहड गोत्र
ख. पट्टा. सं.
खिंवसरा
ख पट्टा. सं.
आ. जिगचंद्रसूरि | आ. जिनकीर्तिसूरि
आ. जिनविजयसूरि आ. जिनहर्षशूरि
980
1742 | दाडिमदे
नाहटा गोत्र
ख. पट्टा. सं.
981
1841 | तारादेवी
ख. इ. प्र. ख.
203
मीठडिया बोहरा
982 | 1809 | केसरदेवी
ख. इ. प्र. ख.
202
983
ख.इ. प्र. ख.
200
1784 | पद्मादेवी 1770 | हरसुखदवी
984
मुहता, बच्छावत आ. जिनचंद्रसूरि बोथरा आ. जिनलाभसूरि
आ. जिनभक्तिसूरि छाजेड गोत्र आ. जिनभद्रसूरि छाजडह गोत्र | आ. जिनचंद्रसूरि
ख. इ. प्र. ख.
- 199
9851449 खेतलदेवी
ख. इ. प्र. ख,
188
986
| 1385 | सरस्वती
ख. इ. प्र. ख.
181
शासन प्रभावक पुत्रों को जन्म देने का 'सौभाग्य प्राप्त किया
1375 | धारलदेवी
ख. इ. प्र. ख.
182
| माल्हू गोत्र लूणिया गोत्र
आ. जिनोदयसूरि आ. जिनरत्नसूरि
| 988
1670 | तारादेवी
ख. इ. प्र. ख.
197
Page #625
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
989
1647 धारलदेवी
1615 चांपलदेवी
जयादेवी
1598 सिरियादेवी
1549 रयणादेवी
कमलादेवी
1862 करुणादेवी
1942 सोनादेवी
1739 सुरूपा
998 1931 नाजूदेवी
999 1972 विमलदेवी
करूणादेवी
990
991
992
993
994
995
996
997
1000
1001
1003
1004
1005
1841 तारादेवी
1002 1809 केसरदेवी
1784 पद्मादेवी
1711 सुपियारदेवी
1550 धारिणी
1006
1007
1008
1009
1010
संवत
1011
1012
1900
1524
1862
श्राविका नाम
14वीं नागाम्बिका
पती
16वीं भामक
षती
15वीं, देविले
16वीं
षती
16वीं मानिनी
ती
15वीं लोणादेवी
षती
15वीं पदमश्री
षती
16वीं
पती
समक्क
वंश / गोत्र
बोहिथरा गोत्र
चोपड़ा गोत्र
गोताणी गोत्र
रहड गोत्र
चोपडा गोत्र
चोपडा गोत्र
आ. जिनहंससूरि
कोठारी गोत्र
आ. जिनसौभाग्यसूरि
छाजेड गोत्र
आ. जिनचारित्रसूर
साहलेचा बोहरा
अस. जिनसुखसूरि
भणसाली मुहता आ. जिनकीर्तिसूरि
कोठारी
वच्छावत मुहता
बोहित्थरा
चोपडा
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
काष्यप गोत्र
भारद्वाज गोत्र
आ. जिनराजसूर
आ. जिनसिंहसूर
आ. जिनहंससूरि
आ. जिनचंद्रसूरि
आ. जिनमाणिक्य
आ. जिनसौभाग्यसूरि
आ. जिनहर्षसूरि
आ. जिनचंद्रसूरि
आ. जिनलाभसूरि
आ. जिनचंद्रसूरि
आ. जंबूस्वामी
मधुर
मंगराज तृतीय
धर्मदेव
पदमनाथ
गोविंद
प्रतिमा निर्माण
आदि
धर्मनाथ पुराण गोम्मटाष्टक
भांतिक विधि
यषोधर चरित्र
संदर्भ ग्रंथ
पुरुषार्थानुशासन
ख. इ. प्र. ख.
ख. इ. प्र. ख.
ख. इ. प्र. ख.
ख. इ. प्र. ख.
ख. इ. प्र. ख.
ख. इ. प्र. ख.
ख. इ. प्र. ख.
ख. इ. प्र. ख.
ख. इ. प्र. ख.
ख. इ. प्र. ख.
6 कृतियां उपलब्ध हैं ख. पट्टा. सं.
ख. पट्टा. सं.
ख. पट्टा. सं.
ख. पट्टा. सं.
ख. पट्टा. सं.
ख. पट्टा. सं.
ख. पट्टा. सं.
ख. पट्टा. सं.
ख. पट्टा. सं.
ख. पट्टा. सं.
ख. पट्टा. सं.
ख. पट्टा. सं.
ख. पट्टा. सं.
603
पू.
196
194
20
182
191
190
204
211
198
211
39
39
38
37
198
9
440
503
485
85
5-6
502
503
Page #626
--------------------------------------------------------------------------
________________
604
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
प्रतिमा निर्माण |
आदि
1013
| मंगराज तृतीय
6 कृतियां
ख. पट्टा. सं.
485
16वीं | देविले षती
1014
हरिचंद्र
अणत्थिमिय कहा
ख. पट्टा. सं.
431
15वीं | वील्हादेवी षती
1015
16वीं | चम्पादेवी
हुंबड जाति
रत्नचंद्र
सुभौम चक्रवर्ती चरित्र | ख. पट्टा. सं.
542
षती
1016
16वीं | गुमटाम्बा
वत्स गोत्र
नागचंद्रसूरि
ख. पट्टा. सं.
विषापहार टीका आदि भाग
पती
1017
| 17वींचंपादेवी
भट्टा. रत्नचंद्र
ख. पट्टा. सं.
542
सुभौम चक्रवर्ती चरित्र (सात सर्ग)
षती
1018
17वीं | मानिनी
धर्मदेव
शांति विधि
ख. पट्टा. सं.
षती
1019
ख. पट्टा. सं.
40
1वीं | वीणादेवी षती
अष्टमजिन पुराण
संग्रह की रचना पं. जिनदास
होली रेणुका चरित्र पांडव पुराण भेंट की थी | आ. हेमचंद्र को
ख. पट्टा. सं.
33
ख. जै. स. बृ. इ.
109
17वीं | रिषभ श्री 1021 | 1636 | लाडमदे, हरदमदेने
षोडषकारण व्रत उद्यापनार्थ
1022
1637 | स्वरूपदे
गोधा गोत्र
126
पंचास्तिकाय प्राभृत पं. विजयसेनसूरि द्वारा
ख. जै. स. बृ. इ. ऐ. जे. सं.
1023
1653/पांची
165
हीरविजसूरि की प्रतिमा
1024 1660 ठाकुरी, रूकमी 10251667 | अमोलिकदे, लखमादे,
लाछलदे
बैनाडा गोलीय धातु मूर्ति ओ. फसला श्री जिनचंद्रसूरि
ख. जै. स. बृ. इ. | भ. श्री पार्श्वनाथ जी | युग. प्र. श्री. जि.
136 | 250
गोत्र
1026 | 1682 | चांपा पठनार्थ
बारह व्रत जोड़ी
ऐ. ले. सं.
341
1027
1690 तेजश्री
पं. कीर्ति विमलगणि सहस्त्रकूट चैत्यालय का निर्माण
ख. जै. स. बृ. इ.
1028
17वीं | लाधाजी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | प्र. जै. ले. सं.
226
सदी
1708
Page #627
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
605
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
1029
| अष. गोत्र
1722 | चामी, रूकमा मन्नी
हरिकवरी राजबाई आदि
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ - पृ. गच्छ / आचार्य आदि यंत्र कारितं नया मंदिर चांदनी
चौक धरमपुरा,
दिल्ली सुकुमाल चरित्र
ख. जै. स. बृ. इ. | 103 तपा. श्री ज्ञानविमलसूरि | भ. श्री संभवनाथ जी | प्र. जै. ले. सं. 206,
1030
1756 | भीवसादे
1031
| 1757 | मानी
श्री श्री ज्ञा.
18
1032 | 18वीं | नंदादे
| ख. जै. स. बृ. इ. | 206
दीवान नंदलाल | पंच कल्याणक गोथा की पत्नी
सदी
1826
1033 | 1883 | कवियित्री चंपाबाई
टोंग्या गोत्र
चंपा षतक ही रचना की |
ख. जै. स. बृ. इ.
| 129
थी
1034 | 1897 | तेजकरण
नागरवणिक
1035
1899 | इच्छाकोर
पं. भाणचंद
धर्मशाला का निर्माण | म.जै. वि. सु.म. ग्र. | 93 मंदिर के पास पद्मावती मूर्ति भ. सं.
191 श्री श्रीमाल सज्झाय | जैनि. इ. काव्य 156
संग्रह
1036
19वीं | सरूपा बाई भाती
1037
| 1967 | बडी बाई
भ. श्री चंद्रप्रभु जी
म. दि. जै. ती.
292
293
1038 | 1507 | माल्लू
| प्रा. ज्ञा.
| भ. श्री संभवनाथ जी
म. दि. जै. ती.
षेखर सूरि कुंदकुंदाचार्य
1039 | 1509 | उनी, सुतोषता, गोमति
| भ. श्री
अजितनाथ | म. दि. जै. ती.
जी
वीरवंषी
प्रा.ज्ञा.
1040 | 1513 | काऊ, चादरी 1041
1513 | तिलीतयो 1042 | 1529 | टीबू, पूरी लाढी 1043 1536 | कामलदे चली नामला
प्रा. ज्ञा.
30
श्री. ज्ञा.
भ. श्री शीतलनाथ जी | म. दि. जै. ती. | भ. श्री आदिनाथ जी | म. दि. जै. ती.
भ. श्री कुंथुनाथ जी म. दि. जै. ती. | भ. श्री कुंथुनाथ जी म. दि. जै. ती. भ. श्री शीतलनाथ जी म. दि. जै. ती. भ. श्री मुनिसुव्रत जी म. दि. जे. ती. | सुमतिनाथ म. दि. जै. ती. कुंथुनाथ
म. दि. जै. ती.
1044 | 1542 | लीलादे जालू
आत्म श्रेयार्थ लक्ष्मीसागरसूरि तपा. बुद्धिसागर सूरि । भावदेवसूरि गुणचंद्रसूरि लक्ष्मीसागरसूरि जिनहर्षसूरि
प्रा. ज्ञा.
1045
1559 | अमरी पाती
प्रा. ज्ञा.
1046
11532 | बाड पाणी
...................
1047 | 1580 | तारू कील्ह लीलादे
»
उपकेष ज्ञा. बद्रमान गोत्र | प्रा. ज्ञा.
1048
1616 | मानी श्रेयार्थ
संयमरत्नसूरि (आगम.) | श्री विपाकसूत्रांग त्ति | श्री. प्र. सं.
112
Page #628
--------------------------------------------------------------------------
________________
606
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम .
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
पृ.
आदि
प्रेरक/प्रतिष्ठापक प्रतिमा निर्माण
गच्छ / आचार्य पं. रत्नसुंदर गणि ने भेंट | श्री योगशास्त्रम् में प्रदान की संयमरत्नसूरि (आगम.) | श्री भगवतीसूत्र
श्री. प्र. सं.
104971656 | हीरादे पुत्री चंद्रावती
पडनार्थ 1050 1615 | नाकू, कीकाइ, अहंकारदे,
158
श्री. प्र. सं.
111
धनादे
श्री. प्र. सं.
श्री. प्र. सं.
10511615 खदकू नाकू, वीराइ, प्रा. ज्ञा. संयमरत्नसूरि (आगम.) | श्री भगवतीसूत्र
पूराइ, धनादे आदि ने
लिखवाया 1052 1623 | सोना, जैसिरि, खेतलदे अजमेरा गोत्र | आर्चिका श्री मुक्ति को | उपासकाध्ययन,
सरदे आदि ने लिखवाया खंडेलवाल प्रदान की 10531612, पीला, पाटमदे, नोलादे, । खंडेलवाल आर्य नरसिंह को प्रदान | उपासकाध्ययन
उदी, सिंगारदे आदि ने अजमेरा गोत्र किया कल्याणकव्रत उद्यापनार्थ
| प्र. सं.
94
1054
1691 | हीराबाई पठनार्थ
ऋषि जै.गु. क. भा. 1 | 320
गजसुकुमाल रास. 17 ढाल
10551613 | मानिक श्री लिखित
श्रेणिक रास.
| जै. गु. क. भा. 1 | 123
जै. गु. स. भा. 1
10561628 | रत्नाई पठनार्थ
124
| पं. विनयचारित्र मुनि | यशोधर लिखित. (तपागच्छ)
10571628 | लीलाई पठनार्थ
रिषि देवीदास लिखित | सनत्कुमार रास.
जै. गु. क. भा. 2
| 45
46
1058 | 1633 | गेली पठनार्थ
जै. गु. क. भा. 2 |
162
कडी
10591692 | कोडिमदेइ ने बोहराई
202
जिनचंद्रसरि ने भेंट की| बारव्रतनो रास. 94 (खरतर) चंद्रकीर्तिगणि ने लिखा । | श्री दंडकस्तव
श्री षोभन स्तुति. कनकसोममुनि द्वारा श्री आवष्यक
बालावबोध
श्री. प्र. सं. श्री. प्र. सं.
1060
1694 | कांहांनबाई. पठनार्थ
206
1061 | 1608| जमनादे
श्री. प्र. सं.
106
1062
193
1667 | जीवी, अजाई ने
लिखवाया
रिषभदास को अर्पित | श्री तंदुलवैकालिक | श्री. प्र. सं. किया जोसी गंगदास ने लिखा | श्री गुणावलि रचना | श्री. प्र. सं.
1063
1690
| जसोदा पठनार्थ
200
1064
1660
वरांगचरित
प्र. सं.
55
देवलदे, हर्षमदे, धारादे आदि ने लिखवाया
खंडेलवाल | कासली. गोत्र
जाजणवर व्रत उद्यापनार्थ शुभचंद्र को प्रदान किया
Page #629
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक
-
संदर्भ ग्रंथ
.
| प्रतिमा निर्माण
आदि
गच्छ / आचार्य वर्धमान रेत्र
ब्रह्मसोमा ने लिखा
प्र. सं.
169
1065 1 1627 | चउसिरि, लाछि, लाडी । खंडेलवाल आदि ने
पांडया गोत्र 10661612 करमा, चंद्रा, मेला,
खंडेलवाल सरूपदे, आदि ने पंचमी सावडागोत्र व्रत उद्यापनार्थ
| नागकुमार चरित्र
समवायंग सूत्र
मंडलाचार्य
प्र. सं. ललितकीर्ति को प्रदान किया पं. लब्धिकुशल आदि | श्री. प्र. सं. मुनियों को दी संयमरत्नसूरि की श्री. प्र. सं. प्रेरणा से
10671607 | मरधी पुत्र सहित
लिखवाकर
106
1068
1615| अहंकारदे, धनादे
भगवती सूत्र
1069 | 1629 | भानां ने लिखवाया
रायप्पणियसूत्र
श्री. प्र. सं.
साध्वी सहिज श्री पठनार्थ.
।
चौधरी गोत्र
पार्श्वनाथ चरित्र
श्री. प्र. सं.
128
1070 | 1611 | भावलदे, सैणा, हरषमदे
आदि ने षोडषव्रत उद्यापनार्थ
धर्मचंद्र को प्रदान किया
मीतमगोत्र
| पद्म पुराण
10711'56 | सुहागो, मानी, भामिणी,
सुंदरी आदि
बाई जिंदो को प्रदानश्री . प्र. सं. किया
गोलछागोत्र
धन्नाऋषि सांधे
हि. ह. ग्रं. सू. भा.
5
368
10721660 गउरादे, कउति दे,
| पउमदे पठनार्थ
1073104 राधमति
1074|1678 लोगसिरि, लालमति
69
भट्टा. श्री पद्मकीर्ति भ. श्री पार्श्वनाथ जी | जि. मू. प्र. ले. (मूलमंध) भट्टा. श्री चंद्रकीर्ति तांबागोल
जि. मू. प्र. ले. (मूलमंघ) भट्टा. श्री
तांबा चौकोर जि. मू. प्र. ले. जगभूषण(मूलमंघ) भट्टा. पद्मकीर्ति श्री मेरू (बीस | जि. मू. प्र. ले. (मूलमंघ)
तीर्थकर)
1075
1689
सहि.
10761694 भानमरि, चंपा, हीरामति
53
चाता,
अग्रवाल ज्ञा.
पद्मप्रभु
जै. सि. भा. 1947
130
10771670 रंगदे, कमला, कयीती,
राईमती
मूलसंघ भट्टारक श्री शमकीर्तिगुरू मूलसंघ, भट्टा. श्री | विशाल कीर्ति की परंपरा
1078
1675 | उधा
सिद्धयंत्र
जै. सि. भा. 1935
| 17
खंडेलवाल सिंधिया गोत्र
Page #630
--------------------------------------------------------------------------
________________
608
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
-
क्र०
संवत् ।
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
प्रेरक/प्रतिष्ठापक । गच्छ / आचार्य
प्रतिमा निर्माण | संदर्भ ग्रंथ
आदि
1079
1675
उधा.
सिद्धयंत्र
जै. सि. भा. 1936
30
खंडेलवाल सिंधिया गोत्र
मूलसंघ, भट्टा. श्री विशाल कीर्ति की परंपरा
31
1080|1676 | बोपाई, चंद्राई . हंसाई
आदिनाथ, पार्श्वनाथ | जै. सि. भा. 1947 | 131
| काष्ठासंघ, नंदीगच्छ मुनि श्री भूषण
| लाड़वागच्छ, काष्ठासंघ, बोरखंडगोत्र, वघेरवाल ज्ञा.
10811683 | प्यारो.
जै. सि. भा. 1936 | 31
गोलालारान्वये खरौआ ज्ञा. कुलहा गोत्र मूलसंघ गोलारान्वये खरौआ ज्ञा. कुलहा गोत्र
1082 | 1686 | प्यारो, दर्षनदे, खिमोति,
मथरा, सुंदरि, हिमोति केवलदे, परिमलदे
जै. सि. भा. 1935 - 17
सम्यकचरित्र यंत्र (व्रत उद्यापनार्थ)
10831637 | स्वरूपदे
गोधा गोत्र
128
खं, जै. सं. का बृ इति.
10841690 | बाई तेजश्री
182
खं. जै. सं. का बृ इति.
1085
1601 रजमती
जैसवाल
जै. सि. भा. 1936 | 31
मूलसंघ श्री पद्मकीर्ति
षोडशकारण यंत्र
जै. सि. भा. 1935
| 12
10861609 | सावाई, षिवबाई 1087 1609 | सावाई, षिव 1088 | 1628 | तूरा, माणिकदेवी, भानी
राहत ज्ञा.
| जै. सि. भा. 1936
|
32
जैसवाल
जै. सि. भा. 1935
| 13
काष्ठासंघ भानुकीर्ति की | आदिनाथ षिष्या
1089
1628 | भानी
जैसवाल.
|जै. सि. भा. 1936 | 31
काष्ठासंघ
जै. सि. भा. 1940
84
1090 | 1641 | मेघा, रूपिणी, देविला 10911642 | जान्ही
जै. सि. भा. 1936
30
वासिल गोत्र अग्रोत, काष्ठासंघ
1092 | 1642 | जाही
वासलगोत्र
दषलक्षणधर्म यंत्र
जै. सि. भा. 1935
| 12
काष्ठासंघ हेमचंद्र की आम्नाय के.
Page #631
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
609
क्र.
संवत् |
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
।
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
प्रतिमा निर्माण
आदि
1093
ब्र. शांतिदास. मूलसंघ
जै. सि. भा. 1947 | 131
| 1642 | लिषाइ, जिवाइ, हासबाई, | हुंबड ज्ञा.
विलबाई गांगबाई, भोजाई, गोजाई
धातुमय प्रतिमा, समवसरण सभा.
1094
1645 | रजाई, गंगााई, सोनाई
बघेरवाल ज्ञा.
जै. सि. भा. 1947 | 130
आ. गुणचंद्र का सानिध्य | चिंतामणि पार्श्वनाथ प्रतापकीर्ति कीआम्नाय कुंदकुदाचार्य को भट्टा. भ. श्री महावीर जी श्री रत्नकीर्ति
10951662 | वीरमति
मूलसंघ
जै. सि. भा. 1935
| 14
1096
भ. श्री पद्मप्रभु जी
जे. जै. ले. सं.भा.2
151
1617 | वीरू 1097 1644 | दुलादे, जीवादे 1098 | 1682 | बाई, रूपाई
उसवाल ज्ञाति | श्री विजयदानसूरि उसवाल. ज्ञा. | श्री हीरविजयसूरि उसवाल ज्ञा. मुनिसागर तपा.
151
भ. श्री श्रेयांसनाथ जी | वही. भ, श्री शांतिनाथ जी वही. | भ. श्री मुनिसुव्रत जी | वही.
144
1099
1688 | हरषमदे, जगमादे, जीवादे,
144
हुबड ज्ञा. वजियाणा गोत्र
राणी
1100
1637
हीरविजयसूरि तपा.
भ. श्री आदिनाथ जी । वही.
178
कामलदे, हर्षादे, सहिजलदे, हीरादे
1101
1651 | मोलादे
| भ. श्री शांतिनाथ जी | वही.
179
1102 | 1656 मनाईकया
ओसवाल ज्ञा.
विजयसेन तपा.
| भ. श्री संभवनाथ जी
179
1103 | 1686 लक नवरंगदे, ललतादे,
केषरदे ललतादे 1104 | 1699 | संपूराई 1105 1628 | वाई 1106 1699 | सरूपदे, दीपा, सुषमदे
वही.
1107 | 1627 | अब्दोदे
1108
1676
श्री मूलसंघ पद्यंनंदि सूरि | भ. श्री शांतिनाथ श्री | वही.
179 जिनप्रतिमा ऊकेष ज्ञा. श्री विजयदेवसूरि भ. श्री पार्श्वनाथ जी | वही.
194 प्रा. ज्ञा. श्री हीरविजयसूरि भ. श्री धर्मनाथ जी
228 । घांघ गोत्र | उदयसागरसूरि भ. श्री ऋषभदेव जी
231 ऊकेष वंष गोत्र | श्री जिनसूरि बृहत्खरतर भ. श्री धर्मनाथ जी जे. जै. ले. सं.भा.2 | 77
गच्छ उसवाल ज्ञा. | विजयसिंहसूरि भ. श्री विमलनाथ जी | वही. वरकिया ऊकेषवंष | जिनसिंहसूरि खरतर
वही. कांगरेचा ओसवाल वंष धर्ममूर्तिसूरि
भ. श्री अनन्तनाथ जी | वही. ओस. ज्ञा. श्री विजयसूरि तपा. भ. श्री धर्मनाथ जी अंबाई गोत्र प्रा. श्री हीरविजयसूरि | भ. श्री धर्मनाथ जी वही. ज्ञा,
बृहद्गच्छ
1109 | 1690 | गारवदे
11101612 | रेनमा
1111
1624 मेलाई
1112
1628 | कनकादे, सोभागदे
Page #632
--------------------------------------------------------------------------
________________
610
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
प्रतिमा निर्माण |
संदर्भ ग्रंथ
| पृ.
आदि
1113 | 1638 विमलादे
| भ. श्री शांतिनाथ जी
वही.
40
वंश/गोत्र प्रेरक/प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य श्रीमाल ज्ञा. श्री हीरविजयसूरि
बृहद्गच्छ ऊकेष वंष | श्री जिनचंद्रसूरि पंखवाल गोत्र,
1114
| 1653 | रूपा, पूनादे, मूलादे
भ. श्री शांतिनाथ जी | वही.
36
1115 | 1624 | अमूलकदे, कुरादे
भ. श्री पद्मप्रभु जी | वही.
श्री हीरविजयसूरि तपागच्छ
1116
1615 | राणी, सिरिआदे
58
हुंबड ज्ञा. काजड़ गोत्र
1117
| 1627 | नारंगदे | 1643 | कोमकी, राजलदे
| श्री तेजरत्नसूरि तपा. श्री हीरविजयसूरि श्री विजयसेनसूरि
भ. श्री पद्मप्रभु जी | वही भ. श्री वासुपूज्य जी | वही भ. श्री आदिनाथ जी | वही
1118
प्रा. ज्ञा.
1119
1696 | गेलमा
विजयशिवसूरि तपागच्छ | भ. श्री कुंथुनाथ जी | वही
उपकेष ज्ञा. बुरा गोत्र
281
1120 | 1663 | चीबु 1121 1621 हीरादे
श्री श्रीमाल ज्ञा. | श्री ब्रह्माणगच्छ चोरड़िया गोत्र | अंचलगच्छ श्री सूरि
भ. श्री आदिनाथ जी | वही जिन बिंब
1122
1668 | भामनी
श्री लब्धिवर्धन
जिन बिंब
ओसवाल ज्ञा. सोनी गोत्र
1123
1674
सोभागदे
श्री विजयदेव सूरि
भ. श्री मुनिसुव्रत जी । वही
105
ओसवाल ज्ञा. नाहर गोत्र
महातपा.
1124
1617 | अवलादे, जइवंत
126
श्री हीरविजयसूरि | श्री विजयदानसूरि
भ. श्री कुंथुनाथ जी | वही | भ. श्री अजितनाथ | वही
1125
1816 | अमरा, संपू. मेलादे
| ऊकेष वंष
123
| जी
1126 | 1660 | भामनी, सोनी, इंद्राणी
श्री जिनवर्धनसूरि
भ. जिन प्रतिमा जी | वही
134
उसवाल, ज्ञा. अगडकबोलीगो
1127 |1671 | राजश्री
134
1128
1671 | रेख श्री,
132
स्तव्योवाल ज्ञा. श्री कल्याण सागरसूरि | भ. श्री पद्मानन जी वही लोढ़ा गोत्र अंचलगच्छ उसवाल ज्ञा. श्री कल्याण सागरसूरि, भ. श्री पार्श्वनाथ जी | वही लोढ़ा गोत्र अंचलगच्छ उसवाल ज्ञा. | श्री कल्याण सागरसूरि भ. श्री अजितनाथ | वही लोढ़ा गोत्र | अंचलगच्छ
जी लोढ़ा गोत्र श्री कल्याण सागरसूरि भ. श्री संभवनाथ जी | वही उसवाल ज्ञा.
1129 | 1671 | रेख श्री.
132
1130
1871 | रेख श्री. राजश्री
132
Page #633
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
क्र०
संवत् ।
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
1131 | 1671 | रेख श्री.
134
लोढ़ा गोत्र उसवाल ज्ञा.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण गच्छ / आचार्य
आदि श्री कल्याण सागरसूरि | जिन प्रतिमा अंचलगच्छ श्री कल्याण सागरसूरि | जिन प्रतिमा अंचलगच्छ
-
1132
1671 | रेख श्री.
वही
134
लोढ़ा गोत्र उसवाल ज्ञा.
कर्मकांड सटीक
प्र. सं.
97
1133 | 1622 | खिमाई, मांडणदे, अग्रोत वांसल
पुष्पांजली व्रत उद्यापनार्थ गोत्र
लिखवाया 1134 1674 ललतादे, धारादे, कुसभदे | खंडेलवाल
आदि ने लिखवाया अजमेरा गोत्र 1135 | 1661 धनसिरि, गात्रा
खंडेलवाल गोधा गोत्र
नेमिनाथ पुराण
हरिवंशपुराण
|प्र. सं.
आचार्य सिंहनंदि
हरिवंशपुराण
पसं
प्र. सं.
1136 | 1645 | कलही, नापु, दामु, हेमलदे | खंडेलवाल
आदि ने लिखवाया कासलीवाल
गोत्र
परमेष्ठी प्रकाशसार
प्र. सं.
127
परमेष्ठी प्रकाशसार
प्र. सं.
1137 | 1602 | नाऊ, हरखू, पूरा, लाड़ी,
| अजमेरा
श्री कमलकीर्ति को षीला आदि ने लिखवाया | माहरोव्यागोत्री प्रदान किया 1138 1636 | रयणादे, पौसिरि, कपूरदे, खंडेलवाल आचार्य श्री हेमचंद
नवलादे आदि ने लिखवाया षोडषकारण व्रत उद्यापनार्थ होली, लाछी, श्रृंगारदे, खंडेलवाल ललितकीर्ति द्वारा हटू, हीरा आदि ने
लिखित लिखवाया दष. लक्षणव्रत उद्यापनार्थ
परमेष्ठी प्रकाशसार
प्र. सं.
126
1140 | 1659भाना
1141 | 1675 | कनकादे
| श्री जिनराजसूरि
कालिकाचार्य कथा - | केट. आ. सं. ए. 254
प्रा. मेनु भ. श्री चिंतामणि जे. के.प्रा. जै. ग्रं. | 27 पार्श्वनाथ जी भं. की हस्त सूची भ. श्री अजितनाथ | वही.
1142
1675 | कनकादे
..........
.
श्री जिनराजसूरि
जी
1143
1693 | कनकादेवी
| श्री जिनराजसूरि श्री जिनराजसूरि
पार्श्वनाथ देवगृह. आदिनाथ देवगृह
वही वही ।
1144
1693
| सुहागदेवी
Page #634
--------------------------------------------------------------------------
________________
612
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
आदि
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण । संदर्भ ग्रंथ
गच्छ / आचार्य देवेंद्रकीर्ति की प्रेरणा से | आदिपुराण की प्रति | जैनि. इन. राज. | 82
1605 में भेंट की थी | 1963
1145
1607 | निकाडे
1146
.....................
आदि पुराण
प्र. सं.
1662 | चाउ, भाउ, दीपो, चंदणी,
सोभी, आदिने लिखवाया.
1147
प्र. सं.
भट्टा. श्री देवेंद्रकीर्ति को | आदि पुराण प्रदान किया
1148
प्रदान किया था
आदि पुराण
प्र. सं.
1664 महिमादे, नायकदे, आदि खंडेलवाल
ने अष्टान्हिका व्रत
उद्यापनार्थ 1662 | भीवणि, केलू, धर्मिणी खंडेलवाल आदि ने
नायकगोत्र जौणादे, गौरादे, आदि ने | खंडेलवाल पल्यव्रत उद्यापनार्थ चांदवाड़ गोत्र लिखवाया
भट्टा देवेंद्रकीर्ति ने लिखा | हरिवंशपुराण
प्र. सं.
1150
हरिवंशपुराण
1616 | हेमी, खेमी आदि ने षोडष
कारणव्रत उद्यापनार्थ लिखवाया
खंडेलवाल श्री ललितकीर्ति द्वारा सोगाणी गोत्र | लिखित
1151
1668
वर्द्धमानपुराण
प्र.
स.
जोमादे, बाई श्री हीरा ने | लिखवाया
वजीयाणगोत्र
1152
1675| केसरदे पठनार्थ
श्री कयवाकुमार का | श्री. प्र. सं.
184
हुबंड ज्ञा. म. जगत्कीर्तिमुनि ने । वजीयाणगोत्र | लिखा
रास
1153
अग्रोत
बाई माथुरी के लिए
गांकलेखा
प्र. सं.
156
1700 | सरोज, धनी, जीवणी,
जसो.
बनाया
| श्री पद्मनंदि
150
11541688 | लकु 1155 | 1639 | नानी
हुबड ज्ञा. हुंबड़ ज्ञा.
भ. श्री रत्नचंद्र
श्री शांतिनाथ प्रतिमा | भ. सं. श्री मल्लिनाथ मंदिर | भ. सं. का प्रतिष्ठा महोत्सव
164
1156
चौबीसी प्रतिमा
भ. सं.
1157
सम्यक् चरित्र यंत्र
भ. सं.
127
1158
1607 | सेमाई,
हुंबड ज्ञा. धर्मचंद्र 1688| प्यारो
खरौआ. ज्ञा. | श्री जगदभूषण देव
कुलहागोत्र 1688 | मैना
खेमिज गोत्र भ. श्री जगद्भूषण देव 16437 सोनाबाई, राजाई, गोमाई, | बघेरवाल जाति | भ. देवेंद्रकीर्ति सहित
राधाई, मन्नाई सहित 1682 | दमा, केसरि, सुभा
धर्मकीर्ति
भ. सं.
127
श्रेयांस प्रतिमा यात्रा की थी
1159
भ. सं.
1160
षोडशकारण यंत्र
भ. सं.
204
Page #635
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
क्र०
1161
1162
1164
1165
1163 1670 बोवाई
1166
1167
1168
1169
1170
1171
1172
1173
1174
1175
1176
1177
1178
1179
1180
1181
संवत्
1182
1675 पता
1681 चंदनसिरि
1622 वीरा
1671 उदयगिरि
1692 सोनादे
1607 पसाई
1603 दाडिमदे. पंचमी व्रत
उद्यापनार्थ
1626 गोमाई
1601 भानुमती
1697
इलाइ पठनार्थ
1637 कीलादे, हांसलदे
हीरा
श्राविका नाम
1689
1677 रतनबाई
1675
1692 वाल्हबाई
1685 रंभा पठनार्थ
चंपा पठनार्थ
1617 धनी, संतोषबाई किरमादे
1604
रूपा पठनार्थ
1604 मेनका पठनार्थ
करम पठनार्थ
1682 मृगाक्षी पठनार्थ
1604
वंश / गोत्र
बघेरवाल ज्ञा.
चवरिया गोत्र
हुमबड ज्ञा.
खंडेलवाल
पल्लीवाल ज्ञा.
श्री नागर ज्ञा.
ऊकेष ज्ञा.
संडेरगच्छ
ओसवाल ज्ञा.
चोपड़ा गोत्र
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
आ. श्री चंद्रकीर्ति
आ. श्री चंद्रकीर्ति
भ. श्री रामकीर्ति
भ. सुमतिकीर्ति
प्रतिमा
भ. धर्मकीर्ति
नंदीश्वर प्रतिमा
भ. श्री रत्नचंद्र
पार्श्वनाथ प्रतिमा
भ. पद्मकीर्ति
प्रतिमा
धर्मचंद्र को प्रदान किया नागकुमार चरित्र
भ. हेमकीर्ति
हीरविजय सूरि तपा.
श्री माना जी केसरी
विवेकहर्षगणि (तपा)
विनयवर्द्धन लिखित
षुभसागर लिखित
भावविजय लिखित
ब्रह्माजनाय पठनार्थ
जीबरंगगणि द्वारा
लिखित
प्रतिमा निर्माण
आदि
षोडशकारण यंत्र
सम्यक्चारित्र यंत्र
सुपार्श्वनाथ प्रतिमा
चौबीसी प्रतिमा
चंद्रप्रभु प्रतिमा
श्री शत्रुंजय उद्धार भ. श्री आदिनाथ जी
भ.
जी
आदिनाथ विवाहलो.
गा. 245 नवतत्व चोपाई बीस विरहमान जिन
गीत.
षांतिनाथ चरित्र
लिखवाया
श्री सुविधिनाथ वही
सुबाहुसंधिगा. 89
सुबाहुसंधि गा. 89
सुबाहुधिगा. 89
साधु वंदना
मुनिवरसुखेली 144 कड़ी
संदर्भ ग्रंथ
भ. सं.
भ. सं.
भ. सं.
भ. सं.
भ. सं.
भ. सं.
भ. सं.
भ. सं.
भ. सं.
भ. सं.
श्री. प्र. सं. पृ.
जे. जै. ले. संभा2
वही
जै. गु. क. भा. 3
जै. गु. क. भा. 3 जै.गु. क. भा. 3
जै. गु. क. भा. 3
जै. गु. क. भा. 3
वही
वही
जै. गु. क. भ. 2
613
पृ.
206
149
148
148
203
163
83
105
84
115
208
238
245
2
188
288
108
89
20
20
20
205
Page #636
--------------------------------------------------------------------------
________________
614
क्र०
1183
1184
1185
1186
1187
1188
1189
1190
1191
1192
1193
1194
1195
1196
संवत्
1692 जीवादे पठनार्थ
श्राविका नाम
1665जीवादे सुबोधार्थ
1668 तडनायक
1675 राजलदेवी
1625 दाड़िमदे ने परिजनों
सहित लिखवाया
1616 मानी, श्रेयार्थ लिखा गया
1601 कान्हमती
1672 डीबू, धन्नादे, कुंयरि आदि ओस वंष ने लिखवाया
1615
कीकाइ, नाकू, श्रीबाइ, | वीराइ, पुराइ आदि 1669 कोडिमदेवी
1872 कुंयरि, डीबू आदि ने स्व
श्रेयार्थ लिखवाया
1672 रतनादे, कमलादे, आदि ने
स्वपुण्यार्थ लिखवाया
1672 कमलादे ने स्वश्रेयार्थ लिखवाया
1740 सुंदरबाई, वाहालबाई
वंश / गोत्र
हुंबड ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
प्रा. ज्ञा.
उपकेष ज्ञा.
भंसाली गोत्र
ओसवंष
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
पं. जयवंत लिखित
विनिधान लिखित
बाई हीरो द्वारा लिखित
साधुजनों के पठनार्थ
क्षेमकीर्तिगणि को प्रदान
की
संयमरत्नसूर (आगमगच्छ) प्रेरक
संयमरत्नसूर (आगमगच्छ) प्रेरक
साहू रत्ना प्रेरक है
श्री आनंदमेरू (पीपलगच्छ)
प्रतिमा निर्माण
आदि सीमधर स्वामी स्तवन जै. गु. क. भा. 1
18 कडी
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
14 गुणस्थान बंधविज्ञप्ति (पार्श्वनाथ )
स्तवन, 19 कडी वर्द्धमान पुराण
भट्टारक सकलचंद्र
को प्रदान किया
आदिनाथ जी का चौमुखा मंदिर
बनवाया
श्री स्थानांगसूत्रम्
कल्पसूत्र सटीक
विपाक सूत्र
श्री भगवती सूत्रम्
श्री उतराध्ययन सूत्र
दशवैकालिक सूत्र
अनुयोगद्वार सूत्र
नंदी सूत्र
संदर्भ ग्रंथ
कल्पसूत्र व्याख्यान तथा कालकसूरि
भास.
जै. गु. क. भ. 3
पं. चं. अ. प्र. पृ.
प्रा. जै. स्मारक. पृ.
जै. सि. भ. 1936 श्री. प्र. सं. पृ.
श्री. प्र. सं. पृ.
श्री. प्र. सं. पृ.
श्री. प्र. सं. पृ.
श्री. प्र. सं. पृ.
श्री. प्र. सं. पृ.
श्री. प्र. सं. पृ.
जै. गु. क. भा. 1
पृ.
497
102
482
|
43
32
179
120
112
111
174
179
179
105.
106
Page #637
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
1197
1198
1199
1200
1201
1202
1203
1204
1205
1206
1207
1208
1209
1210
1211
1212
1213
संवत्
1786 साकरबाई पठनार्थ
1732 पूंजी पठनार्थ
1753
1780
1710
श्राविका नाम
रूपा पठनार्थ
रूपा पठनार्थ
नाना पठनार्थ
1726 देवकी बाई द्वारा
लिखवाया गया
1733 माणिकवहू पठनार्थ
1733 हीरबाई पठनार्थ
1769 गेला पठनार्थ
1781 अनोपां वाचनार्थ
1761वीर बाई पठनार्थ
1784 अनूपां पठनार्थ
1713
1784 पहपी पठनार्थ
1710 सजनां पठनार्थ
पांखडी पठनार्थ
1782 फुलबाई पठनार्थ
1778 अनोपाजी पठनार्थ
वंश / गोत्र
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
कनकविजय लिखित
मुनि श्री करण द्वारा लिखित
भावार्थ
प. खिमाहंसगणि लिखित वैदर्भी चोपाई
विनयसुंदर लिखित खरतर श्रीवंत
कड़वागच्छ
पं. वेलजी लिखित
ऋषि मनजी लिखित
आर्या यामबाई आदि
द्वारा लिखित
रंगप्रमोद मुनि रचित
प्रतिमा निर्माण आदि
बारा आरा स्तवन अथवा गौतम
प्रश्नोतर स्तवन
रत्नाकरविंशतिस्तव
सीमंधर स्तवन 125
गाथा स्वोपज्ञ
बालावबोध
दशवैकालिक सूत्र बालावबोध
| आराधना बालावबोध
ऋषभदेव विवाह धवल - बंध 44 ढ़ाल
ऋषभदेव विवाहलु धवल - बंध 44 ढ़ाल दामन्नक चोपाई वैदर्भी चोपाई वैदर्भी चौपाई 182
गुणस्थानक विचार चौपाई
संदर्भ ग्रंथ
जै. गु. क. भा. 3
जै. गु. क. भा. 5
जै. गु. क. भा. 4 जै. गु. क. भा. 4
शालीभद्र चोढालियु. 68 कड़ी जंबूस्वामी (ब्रह्मगीता) जै. गु. क. भा. 4 30 कडी
बार भावनानी
दस श्रावक गीत ऋषभदेव विवाहलु धवल-बंध 44 ढ़ाल
जै. गु. क. भा. 5
जै. गु. क. भा. 5
जै. गु. क. भा. 4
जै. गु. क. भा. 4 जै. गु. क. भा. 4 जै. गु. क. भा. 1
वही
वही
जै. गु. क. भा. 4
वही
वही
जै. गु. क. भा. 2
615
पू.
47
3
328
233
375
378
378.
380
214
76
33
312
312
312
170
177
328
51
Page #638
--------------------------------------------------------------------------
________________
616
क्र०
1214
1215
1216
1217
1218
1219
1220
1221
1222
1223
1224
1225
1226
1227
1228
संवत्
172
1701
1731
1781
1772 साईमती पठनार्थ
1761
1715
श्राविका नाम
वीपा पठनार्थ
नंदकोर पठनार्थ
मनमा पठनार्थ
वेलबाई पठनार्थ
वीरबाई पठनार्थ
यमुनाइ, एसाई, कमला,
गंगा, षक गोमाई,
कमलजा, चांदा, सीतल
1716 महिमादे, दुर्गादे पंच
1716
सुजणादे, लाडी
1716 सहलीलदे, लाडी
1716 नौलादे, लाडी
1722 हीरामनि
1726 बहुरूपिणी सुषीला
1732 राहमती, मानमती,
आसमति, दमयंती
1760 जीवनदे, बलको
वंश / गोत्र
प्रा. ज्ञा.
वघेनवाल ज्ञा.
संघवी
| खंडेलवाल
भौसा गोत्र
लंबेचु यदुवंश पचोलते गोत्र
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
कीर्तिविजय लिखित
मुनि कल्याण विजय द्वारा लिखित
पं. रंगसागर
नंदीतर गच्छ के मुनि इंद्रभूषण
श्री नरेंद्रकीर्ति परंपरा के
हैं
भट्टा श्री नरेंद्रकीर्ति
जैसवाल नायक काष्ठसंघ माथुरगच्छ
गोत्र उपरौतिया गुणभद्र
ज्ञा.
लंबक चुकान्वये रपरिया गोत्र
मूलसंघ सुरेंद्र भूषणदेव
की परंपरा के हैं
प्रतिमा निर्माण
आदि
साधु वंदना मुनिवर
सुखेली 144 कड़ी
सीमंधनस्तवन 40
कडी
सीमंधरस्वामी विनति
रूप 350 गाथा का
स्तवन 17 ढाल
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
संदर्भ ग्रंथ
दस पच्छक्खाण
गर्भित वीर स्तवन 33
कडी
सीमंधर जिन स्तवन 106 कडी
महावीर स्वामी शांतिनाथ एवं शीतलनाथ
विमलनाथतीर्थेश्वर
चैत्यालय स्वर्णकलशालंकृत त्रिकूट
शांतिनाथ
सम्यक्ज्ञान यंत्र
वही
जै. गु. क. भा. 4
जै. गु. क. भा. 4
जै. गु. क. भा. 4
जै.गु. क. भा. 4
जै. सि. भा. 1947
जै. सि. भा. 1941
जै. सि. भा. 1941
जै. सि. भा. 1941
जै. सि. भा. 1941
जै. सि. भा. 1936
जै. सि. भा. 1941
जै. सि. भा. 1947
जै. सि. भा. 1935
पृ.
205
67
68
204
175
255
199
96
97
97
97
32
96
131
18
Page #639
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
1229
1230
1231
1232
1233
1234
1235
1236
1237
1238
1239
1240
संवत्
1760
1766 सुधी, पुना, देव, उदोती,
धरती, लक्ष्मी रत्नावती
ओसुम, दवकुवंरि, उदोता
1766 लुधी
तिलका
1772 देवजान्ही, लाला कुंवरि
1791
श्राविका नाम
1772 | देवजावी, जावती संबेधी, सुमित्रा, घोका, भवानी,
जयकुवरि, लालकुवरि
1783 रायवदे, ल्होडी, गूर्जरि
दारा
1797 हीरादे, सावलदे, नैणादे
1764
1776 देवी मणि
1715 जसोदा पठनार्थ
रूपाई पठनार्थ
18वी अमराई द्वारा लिपिकृत
ती
वंश / गोत्र
लंबकचुकान्वये
रपरिया गोत्र
यदुवंश
लंबक चुकान्वये
बुढेले ज्ञा. रावत
गोत्र
चुकव
बुढेले ज्ञा. रावत
गोत्र
लंबकंचुकान्वये
बुढेल ज्ञा.
कर्कोआ गोत्र
लंबकंचुकान्वये
| बुढेल ज्ञा.
कर्कोआ गोत्र
खंडेवाल,
लुहाड्या गोत्र
गृमगोत्र बुढेल
ज्ञा.
चामराज
वोडेयर मैसूर
की रानी
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
मूलसंघ सुरेंद्र भूषणदेव
की परंपरा के हैं
पूलसंघ के श्री सुरेंद्रभूषण की परंपरा के
हैं
मूलसंघ के भट्टा ब्रह्मजगतसिंह
मूलसंघ सरस्वती देवेंद्रकीर्ति की पंरपरा के
है
मूलसंघ के भट्टा श्री महेंद्रकीर्ति देव (महेंद्र)
गुणदेवसूरि
प्रतिमा निर्माण
आदि
दशलाक्षणिक यंत्र
षोडशकारण यंत्र
सम्यक्दर्शन यंत्र
प्रतिमा
लिखवाया)
दीपस्तंभ
श्रावकातिचार
श्रीपाल रास सचित्र
संदर्भ ग्रंथ
चौबीस तीर्थकर स्तुति
जै. सि. भा. 1935
जै. सि. भा. 1935
जै. सि. भा. 1935
जै. सि. भा. 1935
षट्कर्मोपदेशरत्नमाला जै. सि. भा. 1940
(पं. गोवर्द्धरदास द्वारा
जै. सि. भा. 1935
जै. सि. भा. 1940
जै. सि. भा. 1936
जै. षि. सं. भा. 4
रा. हि. ह. ग्रं. सू.
भा.3
रा. हि. ह. ग्रं. सू.
भा.6
पृ.
21
18
31
31
19
13
31
617
83
349
राज. हि. ह. ग्रं.सू.भा.8 62
63
302
206.
207
Page #640
--------------------------------------------------------------------------
________________
618
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/ गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक | प्रतिमा निर्माण | गच्छ / आचार्य
आदि
1241
| दुर्गादेवी ने रचना की
साठी संवत्सर फल.
बी. एल. आइ. आइ. (ज. ग्र. भ) परि. सं. 5896
1242
अध्यात्मरामायण भाषा | रा. ह. ग्र.सू. भा. | 4
1784 सिरेकंवर बाई द्वारा
लिखित 1778 | केसर पठनार्थ
1243
मानतुंग मानवती
रा. ह. न. सू. भा.
| 128.
पं. राजविजयवर द्वारा लिखित
चौपाई
129
1244
| 1738 / बीबी राजकुंयरि पठनार्थ
|श्रावकातिचार
दर्षनविजयगणि द्वारा लिखित
बी. एल. आइ. आइ. (ज. ग्र. भ परि. सं. 1982
12451731 | हरबाई पठनार्थ
जै. गु. क. भा. 3
| 75
आदिश्वर विवाहलो 69 कडी
1246
1746 | वीरां पठनार्थ
जै. गु. क. भा. 3
| 108
बीस विहरमान जिनगीत
1247
विजयशेखर लिखित
चौबीसी
जै. गु. क. भा. 3
109
1749 | वीरांबाई पठनार्थ 1752 | घोलीबाई पठनार्थ
1248
दंडक स्तबक रचना
जै. गु. क. भा. 4
|
380
1249
1727 | कल्याणबाई
नवस्मरण स्तबक
जै. गु. क. भा.5
|
378
साध्वी माणिक्य श्री की प्रेरणा से श्री देवविजय गणि लिखित
1250
1780 मोटी की पठनार्थ
जै. गु. क. भा. 5
एकादशांग स्थिरीकरण
1251
1738| वीरबाई पठनार्थ
1252
1727 | नागबाई पठनार्थ
धीरविजय लिखित
जै. गु. क. भा. 5 | 3800 चौबीसी, प्रथम की 7 | जै. गु. क. भा. 4 | 371 कडी
1253
1770|ञमां पठनार्थ
पं. देवचंद्र लिखित
जै. गु. क. भा. 4
68
24 जिन गीत रास चौबीसी
1254
118वीं वेला पठनार्थ
जै. गु. क. भा. 4 | 221
पती
1255
1741 कुसुबां पठनार्थ
जै. गु. क. भा.4
अवंतीसुकुमाल स्वाध्याय 13 ढाल 102 कडी
125A
1759| झमकू पठनार्थ
वयरस्वामी ढालबंध | जै. गु. क. भा. 4 | 132,
सज्झाय 15 ढाल
Page #641
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत् |
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
प.
1257
1799 | वसुमती
जै. पि. सं. भा. 5 | 108
सोनागिरि दतिया मध्यप्रदेष का लेख है
प्रेरक/प्रतिष्ठापक प्रतिमा निर्माण |
गच्छ / आचार्य आदि भट्टारक राजेंद्र भूषण के | मंदिर नं. 4 एवं 5 के बंधु सुरेंद्रकीर्ति की बीच चौबीस तीर्थंकरों षिष्या थी
के चरणों का एक शिल्पांकित पट्ट है, उस पर वसुमति का नाम अंकित है
1725 | तड़नायक (हुंबड ज्ञाती)
पं. चं. अ. ग्रं.
482
भट्टारक
भट्टारक सकलचंद्र से सकलकीर्ति | दीक्षित बाई हीरो से लिखित वर्द्धमान | लिखवाया पुराण
भट्टारक सकलचंद्र | को वर्द्धमान पुराण लिखवाकर अर्पित किया
1259
| 1732 | राजलदेवी
सोम की पत्नी
| 43
चौमुखा आदिनाथ जी | प्रा. लै. स्मारक का मंदिर बनवाया
234
| 1260 1261
1723 | प्रेमबाई पठनार्थ 1727 | कल्याण बाई पठनार्थ
नवतत्वस्तबकः श्री. प्र. सं. |श्री नवस्मरणस्तबक | श्री. प्र. सं.
240
पं. नित्यविजयगणि ने लिखवाया साध्वी माणिक्य की प्रेरणा से
| 1262
उपदेशमाला स्तबक
श्री. प्र. सं.
287
1263
1771 | अगरबाइ ने स्वपठनार्थ
लिखवाया 11714 | कनकादेवी पठनार्थ लिखा
मान विजय ने 1703 | पदमाई
श्री चतुःशरण स्तबक | श्री. प्र. सं.
223
दया विजयगणि को प्रदान की थी
1264
बाहुबली प्रतिमा
भ. सं.
282
बघेरवाल. ज्ञा. सावला. गोत्र
1265
1760जीवनदे
रपरिया गोत्र
भ. सं.
129
सम्यज्ञान यंत्र षोड्श कारण यंत्र
12661766 | सुधी
बुढेले ज्ञा. रावत
| भ. सं.
129
गोत्र
1267
1772 | देवजावी
ब्रह्मजगतसिंह गुरू
सम्यग्दर्शन यंत्र
भ. सं.
129
1268
1783 | रायवदे
बुढेले ज्ञा. ककौआ गोत्र खंडेलवाल | लुहाड्या गोत्र बघेरवाल
प्रतिमा
भ. सं.
106
1269
1793
| नावाई
| धर्मचंद्रना
पद्मावती प्रतिमा
भ. सं.
179
1270
1797 | हीरादे
विलाला गोत्र | पं. गोवर्द्धनदास लिखित | षट्कर्मोपदेशरत्नमाला | भ. सं.
1271
1713 | दया
| भट्टा सकलकीर्ति
।
सिद्ध गोत्र सिंधई वंष
जि. मु. प्र. ले. जि. मु. प्र. ले.
1272
| 1744 | मथुरा, सोमा, हरि कुंवर
भसुरेंद्रकीर्ति (मूलसंघ)
Page #642
--------------------------------------------------------------------------
________________
620-7.
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
।
संदर्भ ग्रंथ
५.
1273
सिंधई वंष
जि. मु. प्र. ले.
54
| 1744 | मथुरा, मोती, षषि,
हरिकुंवरि 1746 | जामिनी | 1706 | ऊषु
प्रेरक/प्रतिष्ठापक । प्रतिमा निर्माण गच्छ / आचार्य
आदि भट्टा. भसुरेंद्रकीर्ति (मूलसंघ) भट्टा श्री सुरेंद्रकीर्ति विजयराजसूरि तपा. भ. श्री नमिनाथ जी
1274
जि. मु. प्र. ले. | जे. जै. ले. सं. भा. | 4
1275
प्रा.ज्ञा.
1276
| 1703
पंखवालगोत्र | विजयराजसूरि तपा.
भ. श्री मुनिसुव्रत
जे. जै. ले. सं. भा. | 36
1277
|1712 | मनरंगदे | 1778 | विष्व श्री
1278
विजयसेनसूरि विजयसूरि विजयसेनसूरि
| मुनिसुव्रत
भ. श्री अनंतनाथ जी | वही | भ. श्री सुविधिनाथ | वही
175
1279
| 1710 | कनका
233
जी
1280
1715 | अनुपमदे
श्री श्री ज्ञा.
भ. श्री पंचतीर्थी जी | वही
175
श्री रत्नाकरसूरि (नागेंद्रगच्छ)
1281
1783 | पद्माई
भ. सुरेंद्रकीर्ति
चौबीसी प्रतिमा
भ.
सं.
287
बघेरवाल गोमाल गोत्र | बघेरवाल ज्ञा. कासिलगोत्र
1282
1756 | कुडाई
केशरियाजी मंदिर
भ. सं.
288
11283
| 1718 लालमती
भव सुरेंद्रकीर्ति भ. श्री सकलकीर्ति श्री गुणकीर्तिदेव
प्रतिमा
| भ. सं०
205
1284
1768| जाल्ही. देवसिरी
पंचास्तिकायसार
भ. सं.
217
वंषिलगोत्र अग्रोत
1285
1786 | अंबाई
श्री भूषण
चंद्रप्रभु प्रतिमा
भ. सं.
273
बघेरवाल ज्ञा. बोरखंडयागोत्र
1286
1725 | नाथा पठनार्थ
इ.अ. वे. ओ.
1287
| 1721 | करमाइ, बछाई, सोनी
प्रा. ज्ञा.
श्री. प्र. सं.
230
मुनि सुबुद्धिविजयजी महावीर स्तवन लिखित राघवजी धनुआनी | श्री जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति सान्निध्य में
सूत्र एवं 45 आगम
का भण्डार मेघबाई को प्रदान की। आचारांग सूत्र मुनि उदयरत्न ने तपा श्री कर्मविपाक लिखा विजयसिंहसूरि को भेंट | श्री विपाकसूत्र की थी
श्री श्री.
| श्री. प्र. सं.
219
12881710 चंगादे 1289 1748| भाग्यवती पठनार्थ
ओस. ज्ञा.
श्री. प्र. सं.
257
1290
1705] फूला
श्री. प्र. सं.
217
Page #643
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
| क्र०
संवत्
श्राविका नाम
। वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
प्रतिमा निर्माण
आदि
| 1291
| 1710 | नानी पठनार्थ
सूत्र
श्री. प्र. सं.
219
दषवैकालिक स्तबक
| 1292
102
1789 | केषीनी पठनार्थ | 1715 | गोरबाई, वीरबाई
1293
225
दीसावाल ज्ञा. | बलभद्र द्वारा लिखित श्री. भगवतीसूत्रम् श्री. प्र. सं.
श्री उतराध्ययन सूत्र श्री. प्र. सं.
(नियुक्ति) ओसवंष ज्ञा. भवप्रभसूरि को प्रदान की | सचित्र सुवर्णाक्षरमय | श्री. प्र. सं. खंडेलवाल आचार्य षुभचंद्र ने पदमपुराण
श्री. प्र. सं. | भौंसागोत्र लिखवाया
1294
291
1295
11751
28
| 1775 | श्रीखल्ल आदि ने
बहुरंगदे, लाडी, हीरादे, आदि ने दषलक्षण व्रत उद्यापनार्थ
1704 | धनबाइ पठनार्थ
श्री
अवन्तिसुकुमाल | श्री. प्र. सं.
216
रास
1297
1795 | बाई कीना पठनार्थ | 1821 | टबकू, रामा, जीवणि
1298
1299
1864 | स्वरूपने
वही
119
श्री विनयहंस ने लिखा | श्री उपदेशमाला ग्रंथ | श्री. प्र. सं. 225 प्रा. ज्ञा. |श्री लक्ष्मीसागरसूरि भ. श्री चंद्रप्रभु जी |जे. जै. ले. सं. भा. | 60
2 उसवाल वंष | श्री जिनहर्षसूरि नाहटा गोत्र बृहत्खरतर ऊस वंष श्री षांतिसागर सूरि भ. श्री सुमतिनाथ जी | वही
116 ऊसवंष श्री जिनचंद्रसूरि भ. श्री वर्धमान जी वही
135 चोराडिया गोत्र
1298
1824 महतावो
1299
11888 ननी
1300
1877 | गिलहरी
ऊसवं डागाश्री जिनचंद्रसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | वही
136
गोत्र
उसवंष
1438
1301 1302
1888 | फूना 1822 | केसर
श्री जिनचंद्रसूरि श्री सकलसूरि
| भ. श्री आदिनाथ जी वही | भ. श्री संभवनाथ जी | वही
208
ओ. ज्ञा. साऊं सुखा गोत्र ओसवाल ज्ञा. आदि गोत्र
1303
1827 | गुलाबकुवर
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | वही
208
1304
श्री विजयराजसूरि
भ. श्री पार्श्वनाथ जी
वही
212
1808 | दामो बीबी 1839 | बीबी. सताबो
1305
चरण
219
ओसवाल वंष वीराणी गोत्र
1306
1889 | नानकी
भ. श्री सुपार्श्वनाथ
224
जी
1307
1887 | लक्ष्मी बीबी
भ. श्री पार्श्वनाथ जी | वही
223
Page #644
--------------------------------------------------------------------------
________________
622
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
-
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र |
प्रतिमा निर्माण
संदर्भ ग्रंथ
पृ.
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
आदि
13081887 | बंदो, दीनाही, सुनुना
हेमकीर्तिदेव
जे. जै. ले. सं. भा. | 238
1309
| 1865 हस्ता पठनार्थ
साधु वंदना गा. 88
| जै. गु. क. भ. 2
20
1310
11869 | उमेदा पठनार्थ
जै. गु. क. भ.4
| 329
वैदर्भी चौपाई 182कडी
| 1814 | राजूबाई पठनार्थ
जै. गु. क. भ.4
|
204
उमेदषम बेलजी द्वारा लिखित
सीमंधर स्वामी विनतीरूप 350 गाथा का स्तवन
1312
1807 | लहेरीबाई पठनार्थ
214
| पं. विनीतविजय लिपिकृत
सीमंधर स्वामी स्तवन | जै. गु. क. भ. 4 | 125 गाथा 11 ढाल
1313
1888 | फतबाई पठनार्थ
हीररत्न लिखित
जै. गु. क. भ. 3
48
बार आरा स्तवन अथवा गौतम प्रश्नोतर स्तवन 76 कडी
1314
1883 | प्रेमकुंवर पठनार्थ
चौबीसी
जै. गु. क. भ.4
| 221
लिपिकृत मुनि राजविजयगणि द्वारा
1315
1816 लक्ष्मी बाई पठनार्थ
अमृतविजय लिखित
चौबीसी
जै. गु. क. भ. 4
|
3
1316
| 1802 | वजी पठनार्थ
जै. गु. क. भ. 4
| 148
दशवैकालिक 10 अध्ययन की 10 स्वाध्याय
1317
1828 | लाडू पठनार्थ
नेमविजय लिखित
अनाथी मुनि सज्झाय | जै. गु. क. भ.4
| 273
13181885 | सत्याजी
80
थावाच्चापुत्र. नो. चौढालियो
रा. हि. ह. ग्रं. सू. भा. 8
81
1319
19वीं | राजबाई (लिपिकता)
दसठाणा विचार
रा. हि. ह. ग्रं. सू.
सदी
भा.5
1320
1884 | चंपा द्वारा लिपिकृत
रा. हि. ह. ग्रं. सू. | 101
संदर्शन सेठ रा (कक्ति) कविन
भा.1
1321
| 19वीं | परताबाई द्वारा लिपिकृत
पद्मचंद मुनि कृत
जंबूचरित्र रास
31
रा. हि. ह. ग्रं. सू. भा. 1
सदी
Page #645
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
संवत् ।
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक । प्रतिमा निर्माण गच्छ / आचार्य
आदि
1322
1827 | बाई सरूपा पठनार्थ
| मुनि राजसी लिपिकर्ता | सावलिंगा री बात. | रा. हि. ह. ग्रं. सू. | 310
भा. 3
1323
| 1883|श्री नाथी बाई पठनार्थ
जै. गु. क. भा. 4 | 113
मृगांकलेखा रास. माणकचंद लिपिकृतः
1324
श्री तुलारामजी
| पाण्डवपुराण
प्र. सं. 37
1831 अनोपमा, जगां, तारमदे
आदि ने लिखवाया
1325
11850
सुरेंद्रकीर्ति
मुनिसुव्रतपुराण
48
संतोष, सुखदे, वधूदे ने लिखवाया
1326
पुराणसार संग्रह
प्र. सं.
1824 हीरादे, तिलकादे,
भावलदे, रूपलदे आदि ने लिखवाया
खंडेलवाल गोत्र | आ. श्री क्षेमकीर्ति को
प्रदान की
1327
प्र. सं.
56
| 1804 | मलूकदे, दोलतादे, आदि | गंगवाल गोत्र |पं. कृष्णदास को प्रदान | वर्द्धमान पुराण
ने लिखवाया
किया
1328
| 1848 | ठाकुरदास जी की पत्नी
ललितप्रसाद की बेटी
भट्टा राजेंद्रकीर्ति को | जै. सि. भ. ग्रं. भा. लखनऊ में 11 के. ऑफ सं. प्रा. आदिपुराण भेंट की अप. हिं. मेनु.
परिषिष्ट. पृ. 1
1329
1839 | राम कुंवर खरगो
भारिल्ल गोत्र
जि. मू. प्र. ले.
| 38
| भट्टा श्री जिनेंद्रभूषण (मूलसंघ)
1330
1893 | हरक
जि. मू. प्र. ले.
1331
1872 | कुंवर, बसन्त कुंवर
भारिल्लगोत्र
....................
| जि. मू. प्र. ले.
1332
1865 | हस्ता पठनार्थ
साधु वंदना गा. 88
जै. गु. क. भा. 2
1333
1869 | उमेदा पठनार्थ
वैदर्भी चौपाई 182
जै. गु. क. भा. 4
| 329
कडी
| 1334
| 1814 | राजूबाई पठनार्थ
जै. गु. क. भा. 4 | 204
उमेदराम वेलजी द्वारा लिखित
सीमंधर स्वामी विनतीरूप 350 गाथा का स्तवन
1335
1807 | लहेरीबाई पठनार्थ
पं. विनीतविजय लिपिकृत
सीमंधर स्वामी स्तवन | जै. गु. क. भा. 4 | 214 125 गाथा 11 ढाल
Page #646
--------------------------------------------------------------------------
________________
624
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ .
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
संदर्भ ग्रंथ
। पृ. .
। वंश/गोत्र | प्रेरक/प्रतिष्ठापक । प्रतिमा निर्माण |
गच्छ / आचार्य
आदि
1888 | फतबाई पठनार्थ
हीररत्न लिखित
जै. गु. क. भा. 3
| 48
बार आरा स्तवन अथवा गौतम प्रजोतर स्तवन 76 कडी
| 1337
| 1883 | प्रेमकुंवर पठनार्थ
चौबीसी
जै. गु. क. भा. 4
| 221
लिपिकृत मुनि राजविजयगणि द्वारा
1338
1816 | लक्ष्मीबाई पठनार्थ
| अमृत विजय लिखित
चौबीसी
जै. गु. क. भा.
4
3
1339
1802 | वजी पठनार्थ
जै. गु. क. भा. 4
148
दशवैकालिक 10 अध्ययन की 10
स्वाध्याय
1340
1828 | लाडू पठनार्थ
नेमविजय लिखित
अनाथी मुनि सज्झाय
जै. गु. क. भा. 4 | 273
1341
| 1887 | बंदो,दीनाही, सुनुना
| हेमकीर्तिदेव
जे. जै. ले. सं. भा. | 238
1342
1883 | श्री नाथी बाई पठनार्थ
| जै. गु. क. भा. 4
113
मृगालेखा रास. माणकचंद लिपिकृत
1343
श्री तुलारामजी
पाण्डवपुराण
प्र. सं.पृ
37
| 1831 | अनोपमा, जगां, तारमदे
आदि ने लिखवाया
| सुरेंद्रकीर्ति
मुनिसुव्रतपुराण
प्र. सं.
48
| 1850 | संतोष, सुखदे वधूदे ने
लिखवाया
1824
पुराणसार संग्रह
प्र. सं.
हीरादे, तिलकादे, भावलदे, | खंडेलवाल रूपलदे, आदि ने लिखवाया
आ श्री क्षेमकीर्ति को प्रदान की
1346
पं. कृष्णदास को प्रदान | वर्द्धमान पुराण
प्र. सं.
56
1804 | मलूकदे, दोलतादे आदि ने | गंगवालगोत्र
लिखवाया
किया
1347
1885 | सत्याजी
80
थावाच्चपुत्र. नो. चौढालियो
रा. हि. ह. ग्रं. सू. भा. 8
1348
| 19वीं | राजबाई (लिपिकता)
दसठाणा विचार
रा. हि. ह. ग्रं. सू. भा.5
सदी
1884 | चंपा द्वारा लिपिकृत
रा. हि. ह. ग्रं. स.
101
सुदर्शन सेठ रा (कक्ति) कवित
Page #647
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
625
क्र०
संवत्
श्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
प्रतिमा निर्माण ।
आदि
1350
| 19वीं | परताबाई द्वारा लिपिकृत
पद्मचंद मुनि कृत
जंबूचरित्र
रा. हि. ह. ग्रं. सू.
31
सदी
भा. 1
1351
| 1827 | बाई सरूपा पठनार्थ
मुनि रालसी लिपिकर्ता | सावलिंगा री बात
रा. हि. ह. ग्रं. सू. | 310 भा. 3
1352
.......
धर्मदेव
शाति कथा विधि
ख. प. सं.
85
| 16वीं | मानिनी शती
1353
15वीं | लोणादेवी
पदमनाथ
यशोधर चरित्र
ख. प. सं.
5-6
शती
1354
गोविंद
पुरुनार्थानुशासन
ख. प. सं.
502
| 15वीं | पदमश्री शती
1355
| 16वी |
कोटि वर
ख. प. सं.
503
| समक्क शती
1356
16वी | देविले
मंगराज तृतीय
6 कृतियाँ
ख. प. सं.
485
शती
1357
| 15वी | वील्हादेवी
....... | हरिचंद्र
अणस्थिमिय कहा
ख. प. सं.
431
| शती
1358
हुंबड जाति
रत्नचंद्र
सुभौम चक्रवर्ती चरित्र | ख. प. सं.
542
16वी चम्पादेवी शती
1359
16वी गुमटाम्बा
वत्स गोत्र
नागचंदसूरि
ख. प. सं.
85
विषापहार टीका आदि भाग
शती
1360
भटटा रत्नचंद्र
सुभाम चक्रवर्ती चरित्र | ख. प. सं..
542
| 17वी | चंपादेवी शती
1361
17वी मानिनी
धर्मदेव
शांतिकथा विधि
ख. प. सं.
शती
1362
| ख. प. सं.
17वी | वीणादेवी शती
| राजा पध्नसिंह की रानी | अष्टमजिन पुराण
संग्रह की रचना
1363
17वी | रिरवश्री
पं. जिनदास
होली रेणुका चरित्र
ख. प. सं.
शती
Page #648
--------------------------------------------------------------------------
________________
626
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
क्र०
संवत्
प्राविका नाम
वंश/गोत्र
संदर्भ ग्रंथ
प्रेरक/प्रतिष्ठापक गच्छ / आचार्य
। प्रतिमा निर्माण
आदि
1364
आदिनाथ
ख. प. सं.
28
| 1597 | कर्मी देवलदे सोभागिणी | उकेषवंषआदिल
या गोत्र
1365
1618 | लंगी
| ओ. ज्ञा.
श्री वजिदानसूरि तपा | कुंथुनाथ
ख. प. सं.
1366
| 1626 | बवा, पूनी
हरिविजयसूरि
शीतलनाथ
ख. प. सं.
1367
| 1610 बुधी, बगाई
प्रा.ज्ञा.
तपा. हरिविजयसूरि
अभिनंदन
ख. प. सं.
1368
हेमविजय लिखित
1725
| अखु हस्तु खुस्थाला वाचनार्थ
जिनप्रतिमादृढ करण | ख. प. सं. हुंडी रास
1369
| 1738 | राजकुंयरि वाचनार्थ
कनकसेन लिखित
रतनपालरास 3 खंड | ख. प. सं.
462
34 ढाल
1370
| 1862 | करूणादेवी
कोठारी गोत्र
आ.जिनसौभाग्यसूरि
ख. प. सं.
204
1371
1942 | सोनादेवी
छाजेड गोत्र | आ.जिनचारित्रसूरि
ख. प. सं.
211
1372
1739 | सुरूपा
साहलेचा बोहरा | आ.जिनसुखसूरि
ख. प. सं.
198
1373
1931 | नाजूदेवी
भणसाली मुहता | आ.जिनकीर्तिसूरि
ख. प. सं.
211
1374
| 1841 | तारादेवी
| आ.जिनहर्षसूरि
ख. प. सं.
बच्चों को संस्कारित करके शासन प्रभावना में सहयोग दिया
1375
| 1809 | केसरदेवी
| वच्छावत मुहता | आ.जिनचंद्रसूरि
ख. प. सं.
38
1376
| 1784 | पद्मादेवी
बोहित्थरा
ख. प. सं.
37
| आ.जिनलाभसूरि आर्य रक्षित
1377
रूद्रसोमा
आ.ब्राह्मण
ख. प. सं.
1378
16वें | सुनंदा
गौतम
आ.वजस्वामी
ख. प. सं.
1379
1711 | सुपियारदेवी
चोपड़ा
आ.जिनचन्द्रसूरि
ख. प. सं.
198
1380
1550 | धारिणी
काश्यप गोत्र
आ.जंबूस्वामी
ख. प. सं.
1381
| 16वी | देविले
मंगराज तृतीय
ख. प. सं.
485
1382
1803 | लाछलदेवी
बुहरा गोत्र
आ.जिनयुक्तसूरि
ख. प. सं.
Page #649
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
क्र०
1383
1384
1385
1386
1387
1388
1389
1390
1391
1392
1393
1394
1395
1396
1397
1398
1399
1400
401
संवत्
1772 उच्छरंगदेवी
1747 दाडिमदे
1841 तारादेवी
1809
केसरदेवी
1784 पद्मादेवी
1770 हरसुखदेवी
1670 तारादेवी
1647 धारलदेवी
1615 चांपलदेवी
1900 जयादेवी
1598 सिरियादेवी
1549 रयणादेवी
1524 कमलादेवी
1770 हरिसुखदेवी
1739 सुरूपा
1699 तारादेवी
1803 भक्तिदेवी
16वीं शमक
शती
श्राविका नाम
16वीं देविले शती
वंश / गोत्र
खिंवसरा
नाहटा गोत्र
मीठडिया,
बोहरा
मुहता, बच्छावत
बोथरा
लूणिया गोत्र
बोहिथरा गोत्र
चोपड़ा गोत्र
गोताणी गोत्र
रहड गोत्र
चोपड़ा गोत्र
चोपड़ा गोत्र
सेठ गोत्र
बुहरा गोत्र
लुणिया
रेहड़ गोत्र
प्रेरक / प्रतिष्ठापक
गच्छ / आचार्य
आ. जिनकीर्तिसूरि
आ. जिनविजयसूरि
आ. जिनहर्शसूरि
आ. जिनचंद्रसूरि
आ. जिनलाभसूरि
आ. जिनभक्तिसूरि
आ. जिनरत्नसूरि
आ. जिनराजसूर
आ. जिनसिंहसूर
आ. जिनहंससूरि
आ. जिनचंद्रसूरि
आ. जिनमाणिक्य
आ. जिनहंससूरि
आ. जिनभक्तिसूरि
आ. जिनसौरव्यसूरि
आ. जिनरत्नसूरि
आ. जिनचंद्रसूरि
कोटिश्वर
मंगराज तृतीय
प्रतिमा निर्माण आदि
6 कृतियां उपलब्ध हैं
संदर्भ ग्रंथ
ख. प. सं.
ख. प. सं
ख. प. सं.
ख. इ. प्र. खं
ख. इ. प्र. खं
ख. इ. प्र. खं
ख. इ. प्र. खं
ख. इ. प्र. खं
ख. इ. प्र. खं
ख. इ. प्र. खं
ख. इ. प्र. खं
ख. इ. प्र. खं
ख. इ. प्र. खं
ख. प. सं.
ख. प. सं.
ख. प. सं.
ख. प. सं.
पृ.
41
41
203
202
627
200
199
197
196
194
218
182
191
190
37
36
36
41
503
485
Page #650
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #651
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
७ सप्तम अध्याय
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
७.१ आधुनिक कालीन परिस्थितियाँ :
आधुनिक काल को नारी जागरण का काल कहा जा सकता है। बीसवीं शताब्दी में भारत वर्ष अंग्रेजों की दासता से मुक्त हुआ। नारी का सोया हुआ आत्म-विश्वास, आत्म-विकास के लिए जागत हुआ । अपनी दिशाओं को नया मोड़ देने के लिए नारी की उत्सुकता बढ़ी । भारतवासियों ने स्वतंत्रता के खुले क्षितिज में अपने कदम बढ़ाए। पुरूष वर्ग में परिवर्तन आया। नये उद्योगों का विकास हुआ। ग्राम शहरों में परिवर्तित हुए। जन जीवन परिवर्तन के दौर से गुजरने लगा । स्त्रियाँ आत्मनिर्भर होने लगी। शिक्षा के क्षेत्र में आगे आई, फलस्वरूप सामाजिक ढांचे में परिवर्तन आया। सती प्रथा, बाल-विवाह, पर्दा प्रथा पर रोक लगाई गई। शोषण की मनोवत्ति, अत्याचार, परतंत्रता का बोझ ढोते ढोते नारियां थक चुकी थी । पुरूषों के समान ही अधिकारों को प्राप्त करने एवं शिक्षा प्राप्त करने की उनकी भावना प्रबल हुई ।। अपने सामाजिक राजनैतिक, आर्थिक, पारिवारिक अधिकारों की मांग करने के लिए वह प्रयत्नशील बनी। समाज सुधारकों ने भी इसमें सहयोग दिया। संपत्ति में नारी के अधिकारों की मांग एवं परिवार में उसके स्थान को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया गया। अपने पैरों पर खड़ा होना वह अपना कर्त्तव्य या दायित्व समझने लगी । गहस्थी के कार्य क्षेत्र के अतिरिक्त देश एवं समाज की समस्याओं को सुलझाने में पुरूषों के साथ वह कदम से कदम मिलाकर सहयोग देने लगी।
629
जैन इतिहास का अवलोकन करने पर ऐसी अनेक श्राविकाएँ विविध क्षेत्रों में अपना उन्नयन करती हुई नज़र आती है। पावापुरी मंदिर के निर्माण के समय उसमें चुनी जाने वाली हर ईंट को तालाब के पावन जल से शुद्ध करती हुई सुश्राविका श्रीमती महताब कुंवर को समाज कैसे भूल सकता है? मंत्रीश्वर दयालदास के साथ युद्ध में लड़ने वाली वीर रमणी सती पाटणदे, जगत सेठ घराने से संबंधित विदुषी रत्नकुंवर बीबी एवं अहमदाबाद की असाधारण नारी रत्न सेठानी हरकौर जी के प्रेरणास्पद जीवन उल्लेखनीय हैं। अनेकानेक सामाजिक अभिषप्तताओं के बावजूद समाज में अनेक नारी प्रतिभाएँ उत्पन्न हुई हैं जिनका उल्लेख आवश्यक है। अब तो वे हर क्षेत्र में नाम कमा रही हैं। समाज-सुधार, शिक्षा, साहित्य, कला, संस्कृति - संरक्षण, तकनीकी विशेषज्ञता, उद्योग व्यापार में भी नारियों ने नये कीर्तिमान स्थापित किये है। उनके जीवन प्रसंग समाज को प्रेरणा एवं नया मार्गदर्शन देनेवाले हैं। प्रस्तुत अध्याय में श्राविकाओं के विविध क्षेत्र की विकास यात्रा पर दष्टि डालने का यत्किंचित् प्रयास किया है वह अवश्य ही पठनीय है। यद्यपि आधुनिक कालीन जैन श्राविकाओं की संख्या काफी परिमाण में उपलब्ध होती है, किंतु विस्तारभय से हमने इस अध्याय को सीमित रखा है तथा कुछ श्राविकाओं का चार्ट द्वारा ही विवरण दे दिया है। इनमें श्राविकाओं को कार्य क्षेत्र के अन्तर्गत विभिन्न विभागों में विभाजित नहीं किया है, अपितु एक साथ ही उन सबका उल्लेख कर दिया है।
७. २ राजनीति के क्षेत्र में नारियों का योगदान :
आधुनिक युग के आगमन के साथ ही नारियों को राजनीति भी में महत्त्वपूर्ण और पुरूषों के बराबर के अधिकार प्रदान किये गये। पहले उन्हें मतदान का अधिकार भी प्राप्त नहीं था । पर आज के युग में शायद ही कोई ऐसा विकसित देश हो, जहाँ नारि को पुरूषों के बराबर मत का अधिकार नहीं है । अंग्रेजों के भारत में आगमन से ही पश्चिमी विचारधारा से भारतीय समाज प्रभावित
Page #652
--------------------------------------------------------------------------
________________
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
-
--
-.mram
होता रहा और यहां की महिलाओं को अनेक . .. ... ....... प्रदान की गई। इस महान समाजिक आंदोलन में कई भारतीय सुधारकों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। इस मिले-जुले प्रयत्न से नारियों को अपनी प्रतिष्ठा, बल और संगठन शक्ति का सही एहसास हुआ। यही कारण है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नारियों ने अभूतपूर्व साहस, संयम और उत्सर्ग का परिचय दिया।
दी के प्रारंभ में भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरूद्ध एक नया अभियान प्रारंभ किया गया, जिसमें भारतीय नारियों ने भी अपना बहुमूल्य योगदान दिया। अंग्रेजों के विरूद्ध क्रान्तिकारी भारतवासियों का नेतत्व करने के कारण इन्होंने न केवल ब्रिटिश शासन की यातनाएं सहीं अपितु कारावास की सजा भी भुगती,। समय-समय पर भारतीय राजनीतिक चिंतन को महत्वपूर्ण मोड देने में भी महिलाओं ने अपना सहयोग, समर्थन और दिशा निर्देश दिया। इसी परंपरा में जैन श्राविकाओं ने स्वतंत्रता संग्राम में अपने कर्त्तव्य को पहचानकर आज़ादी के यज्ञ में अपनी आहुती दी। ७.३ स्वतंत्रता संग्राम में जैन श्राविकाएँ :
आदि काल से ही सैंकड़ों की संख्या में ऐसी भारतीय महिलाएँ हुई हैं, जिन्होनें आरती उतारकर अपने पतियों को सहर्ष देश सेवा व देश की रक्षा के लिए युद्ध भूमि में भेजा। उन्होंने पुरूषों को घर की चिंताओं तथा जिम्मेदारीयों से मुक्त रखा। साथ ही उनकी अनुपस्थिति में उनके कार्य को जारी रखा। स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में कई जैन श्राविकाओं ने जिन्होंने विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया, नमक आंदोलन व सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया, शराब की दुकानों के विरोध में धरना दिया आदि सभी राजनैतिक गतिविधियों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया।
१८५७ की क्रांति अपने आप में अद्भुत थी। महारानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, मंगल पांडे, लाला हुकुमचंद जैन, अमरचंद बांठिया आदि अनगिनत शहीदों ने कुर्बानी देकर आजादी की मशाल जलाई। इसी प्रकाश में महात्मा गांधी सहित अनेक नेताओं ने आजादी के आंदोलन को दिशा दी। गांधी जी ने अहिंसा के बल पर अपनी नीति बनाई और अंततः सफलता प्राप्त की। आज़ादी की इस लड़ाई में जैनियों ने बढ़-चढ़कर " ग लिया। जहां अनेक वीर पुरुषों ने बलिदान किया वहां अनेक लोगों ने जेल की कठोर यातानाएं सही। ऐसे भी लोगों का अवदान कम नहीं है, जिन्होनें बाहर से समर्थन और सहायता देकर आंदोलन को सफल बनाया। लगभग ४०० जैन श्रावक, श्राविकाएं स्वतंत्रता आंदोलन में जेल गए। ___आज़ादी की इस लड़ाई में जैन महिलाओं ने पुरूषों के कंधे से कंधा मिलाकर कार्य किया। कुछ महिलाएं तो सीधे ही क्रांतिकारी आंदोलनों से जुड़ी रहीं तो कुछ ने जेल की कठोर यातानाएं सहीं। अनेक महिलाओं ने गहस्थ धर्म निभाते हए ही सम्पूर्ण योगदान दिया। स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाली जैन महिलाओं में श्रीमती लेखवती जैन का नाम उल्लेखनीय है। सारे हिंदुस्तान में चुनाव में निर्वाचित होने वाली यह पहली महिला सदस्या थी, जो जैन जाति की सरोजिनी नायडु के रूप में विख्यात हुई। श्रीमती विद्यावती देवड़िया तथा श्रीमती सज्जन देवी महनोत ने सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया एवं जेल की कठोर यातनाएँ सहन की थी। श्रीमती सुंदर देवी ने अपनी कविताओं के माध्यम से लोगों में देश-प्रेम की भावना भरी थी। श्रीमती धनवती बाई राँका ने खादी एवं चरखे को अपने जीवन का अंग बनाकर समस्त समाज को गौरव प्रदान किया। श्रीमती अंगूरीदेवी को गर्भवती अवस्था में होते हुए भी छ: माह जेल की सजा सुनाई गई थी। श्रीमती गोविंद देवी पटवा ने कलकत्ता के विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर धरना देनेवाले जत्थों का वीरतापूर्वक नेतत्व किया था। श्रीमती माणिक गौरी ने विदेशी कपड़ों की होली में हजारों रूपये के विदेशी कपड़े जला दिये। ब्रह्मचारिणी पंडिता चंदाबाई शिक्षा के संबंध में महात्मागांधी से विचार विमर्श करती थी। आपने 'महिलादर्श' पत्र का संपादन भी प्रारंभ किया तथा संस्था की स्थापना करते हुए पर्दाप्रथा और दास्ता की भावना को दूर करने का प्रयत्न किया। इनके अतिरिक्त और भी कई जैन-वीरागनायें हुई हैं, जिन्होनें स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। इनमें प्रमुख हैं श्रीमती कला देवी जैन दिल्ली, श्रीमती कमला सोहनराज जैन कानपुर, श्रीमती सरदार कुँवरबाई लुणिया राजस्थान, ताराबाई जैन कासलीवाल उज्जैन, आर्यिका सर्बती बाई उत्तरप्रदेश, पण्डिता सुमति बेन, श्रीमती पुष्पा देवी कोटेचा, श्रीमती बयाबाई रामचन्द्रजैन, श्रीमती मीराबाई रमणलाल शाह, श्रीमती लीलाबाई कस्तूरचंद, श्रीमती विमलाबाई गुलाबचंद, सरस्वती देवी रांका आदि। इनके अतिरिक्त यदि बहत् रूप में अनुसंधान किया जाएं तो इतिहास के पन्नों में और भी अनेक ऐसी जैन महिलायें मिल जायेंगी,
होनें अपना सर्वस्व समर्पण करके देश की आजादी का मार्ग प्रशस्त किया।
,
Page #653
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
631
७.४ साहित्यिक क्षेत्र में जैन श्राविकाओं का अवदान :
साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य को हम दो श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं:-श्रेयस्कारा आर प्रेयसकारी। श्रेयस्कारी साहित्य जीवन का कल्याण करने वाला, उसे ऊँचा उठानेवाला होता है। प्रेयसकारी साहित्य मनुष्य का मनोरंजन करनेवाला होता है। किंतु इच्छाओं, आकांक्षाओं और वासनाओं को जन्म देकर हमारे मानस को उद्वेलित कर देता है। असि और मसि (स्याही और कलम) जन-जागति के सशक्त शस्त्र हैं। श्रेयसकारी साहित्य द्वारा जीवन निर्माण की शिक्षायें मिलती हैं। यह हमारी संस्कति एवं सभ्यता के विकास का ज्ञान कराने के साथ ही वर्तमान एवं भविष्य के लिए उज्जवल मार्ग प्रशस्त करता है। प्राचीन काल से ही ज्ञान और विज्ञान कोष में नारियाँ अभिवद्धि करती आ रही हैं। वर्तमान काल में भी विद्वद जगत में स्वाध्याय में उपयोगी लोक मंगलकारी ग्रंथों के प्रणयन द्वारा श्राविकाएँ साहित्य के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान कर रही हैं।
नई दिल्ली की डॉ सुनिता जैन लेखन प्रिय व्यक्तित्व की धनी हैं। अब तक उनकी साठ कतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। आप भारत सरकार द्वारा पद्मश्री अवार्ड से विभूषित एवं भारत के अन्य साहित्यिक सम्मान से सम्मानित की गई हैं। अन्तर्राष्टीय स्तर पर अमेरिका से भी सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित विभिन्न सम्मेलनों में भी आप भाग ले चुकी हैं। राजस्थान फलौदी की डॉ. मिस कांति जैन को भारत एवं कनाड़ा में अनुसंधान कार्य करते समय अनेक प्रकार की शिक्षा-वत्तियाँ प्राप्त हुई हैं। आप जनकल्याणकारी सेवाओं में आज भी संलग्न हैं। श्रीमती रमारानी जैन ने जैन धर्म के प्राचीन ग्रंथों का सैकड़ों की संख्या में संपादन किया है। आपने ज्ञानपीठ की स्थापना की है। मैसूर विश्व-विद्यालय की जैन विद्या और प्राकत अध्ययन, अनुसंधान पीठ की भी स्थापना आपके द्वारा हुई है। ज्ञानोदय मासिक पत्र का प्रकाशन भी कर रही है। शिकोहाबाद निवासी चिरोंजाबाई ने अपना संपूर्ण जीवन शिक्षा एवं ज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए समर्पित किया था। आप अनेकों कॉलेज, विश्वविद्यालयों, गुरूकुलों, एवं पाठशालाओं की संस्थापक रही हैं। मुर्शिदाबाद निवासी रत्नकुंवर बीबी का नाम भी उल्लेखनीय है। आप संस्कत की पंडित, फारसी जुबान की ज्ञाता, युनानी तथा भारतीय चिकित्सा पद्धतियों की ज्ञाता थी। आपका भक्ति काव्य संग्रह 'प्रेमरत्न' नामक ग्रंथ प्रसिद्धि प्राप्त ग्रंथ है। प्रो. डॉ विद्यावती जैन विदुषी परंपरा में पाण्डुलिपियों का प्रामाणिक संपादन एवं अनुवाद करनेवाली संभवतः सर्वाधिक अनुभवी एवं सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। आपने महाकवि सिंह की अपभ्रंश भाषा में रचित प्रद्युम्नचरित्र एवं महाकवि बूचराज के प्रसिद्ध मदनयुद्ध काव्य नामक कति का सफल संपादन किया है। श्रीमती मनमोहिनी देवी ने 'ओसवाल-दर्शन-दिगदर्शन 'नामक बहदाकार ग्रंथ की रचना की जिसमें ओसवालों के पंद्रह सौ गौत्रों की क्रमबद्ध सूची है। डॉ. सरयू डोशी ने प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कति पर शोध कार्य किया। फलस्वरूप कला जगत् की अमूल्य धरोहर रूप कलाकतियाँ दष्टिगत हुई। 'दी इंडियन वीमेन' ग्रंथ के लेखन एवं चित्रण का प्रथम श्रेय आप ही को जाता है। भारतीय सिनेमा के संदर्भ में भी आपने शोध कार्य कर भारत की सांस्कतिक विरासत से हमें परिचित कराया है। डॉ. हीराबाई बोरदिया ने १६७६ में जैनधर्म की प्रमुख साध्वियों एवं महिलाओं पर शोध कार्य किया। भारत की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में आपके विशिष्ट लेख प्रकाशित होते रहते हैं। डॉ. वीणा जैन ने अनुसूचित जाति की महिलाओं, बच्चों एवं भाई-बहनों को कम शुल्क पर कम्प्यूटर प्रशिक्षण, शॉर्ट-हैण्ड राइटिगं, टाइप राइटिगं, इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स आदि विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण हेतु मादीपुर दिल्ली में प्रशिक्षण केन्द्र खोला है। सोनिका जैन (पदमपुर, राज०) ने तीन दिन में संस्कत का भक्तामर स्तोत्र एवं एक दिन की अल्प अवधि में आवश्यक सूत्र कंठस्थ किया। प्रतिभा जैन (रायकोट, पंजाब) ने भी तीन दिन में संस्कत का भक्तामर स्तोत्र एवं एक दिन की अल्प अवधि में आवश्यक सूत्र कंठस्थ किया। इसी प्रकार अन्य सैंकड़ों श्राविकाओं के नाम आते हैं जिन्होनें इस वर्तमान युग में विभिन्न आगमों पर, ग्रंथों एवं ज्वलंत समस्याओं पर शोध कार्य किया, साहित्य सर्जन कर साहित्यिक भंडार में श्री वद्धि की है। ७.५ समाज, संस्कति, शिक्षा, कला, ध्यान आदि विभिन्न क्षेत्रों में श्राविकाओं-अवदान :
स्त्री व पुरूष समाज के दो अविभाज्य अंग है। गाड़ी के दो पहिये हैं। वर्तमान युग में नारी का हर दष्टि से विकास हुआ है। शिक्षित महिलाओं ने संगठन बनाकर सामाजिक बुराईयों के विरूद्ध आवाज़ उठाई। फलस्वरूप बाल विवाह, मत्यु भोज, बेमेल विवाह, वद्ध विवाह, दहेज प्रथा आदि सामाजिक बुराइयाँ दूर हुईं हैं। सती प्रथा, जाति प्रथा, छूआछूत आदि कुरीतियाँ भी दूर हुई हैं। इसमें समाज सुधारक आंदोलनों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। किसी भी देश के निर्माण में नारी की विशेष भूमिका रही
For Private & Personal use only
Page #654
--------------------------------------------------------------------------
________________
632
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
है। किसी विचारक ने ठीक ही कहा है कि संसार में जितने भी महत्त्वपूर्ण कार्य हुए हैं उन सब में नारी जाती का छुपा हाथ है। एक बार नेपोलियन बोनापार्ट ने कहा था अगर तुम मुझे सुमाताएँ दे सको तो मैं तुम्हें एक महान जाति दे सकता हूँ। महात्मा गांधी ने बच्चे की प्रथम शिक्षिका माता को ही माना है जो उसके चरित्र का गठन करनेवाली है। नारी में पुरूष को मानव बनाने और बनाये रखने की अद्भुत शक्ति है। नारी स्वभाव से ही कोमल और संयत होती है। वह सेवा और त्याग की प्रतिमूर्ति है तभी तो अस्पतालों में कार्य नारियाँ (Nurses) ही करती हैं।
शिक्षा व्यक्तित्व विकास का आधार है। वह प्रगतिशीलता का पथ प्रशस्त करती है। आधुनिक युग में स्त्रियों में मध्यकाल की अपेक्षा शैक्षणिक क्रांति आई है, तथा शिक्षा के कारण आर्थिक आत्मनिर्भरता भी संभव हो पाई है। किसी भी शासकीय अथवा अशासकीय संस्था में नियुक्ति प्राप्त करने के लिए निर्धारित शैक्षणिक योग्यता चाहिए। शिक्षित महिलाओं को शैक्षणिक योग्यता के कारण सम्मानजनक नौकरी प्राप्त होती है। आज उपभोक्तावादी संस्कति के कारण भौतिक लालसा की भट्टियाँ सुलग रही हैं तथा आर्थिक आपाधापी की आंधियाँ चल रही हैं, जिसके कारण महंगाई अपने पांव पसार रही है, ऐसे समय में परिवार के पुरूषों की ही नहीं अपितु महिलाओं की आत्मनिर्भरता भी अत्यावश्यक है। यह तभी संभव है जब महिलाएँ शिक्षित हों। महिलाएं शिक्षित हों तो वह शासकीय अथवा अशासकीय किसी भी संस्था के सम्मानजनक पद पर नियुक्ति पाकर परिवार की आर्थिक प्रगति और खुशहाली में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं, तथा परिवार को आर्थिक तंगी के तूफानों से छुटकारा दिला सकती हैं। नारी पुरूष से किसी भी स्थिति में कम नहीं चाहे वह एक माँ है, बहन है, पत्नी है या बेटी है। जीवन के कर्मक्षेत्र में वह डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, अध्यापक, पायलट, वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ, संगीतज्ञ, नत्यांगना, साहित्यकार, कलाविद् बनकर अपनी सेवाएँ देश को दे रही है।
जोधपुर की श्रीमती ममता डाकलिया ने अपने सुगम संगीत और राजस्थानी लोकगीत प्रस्तुत करने में विशेष दक्षता प्राप्त की है। जोधपुर विश्वविद्यालय से ही सुगम संगीत में वह प्रथम पुरस्कार विजेता रही है। इसी कड़ी में श्रीमती प्रीति लोढ़ा ने ख्याल,
मार, तराना एवं भजनों के गायन में विशेष दक्षता प्राप्त की है। अहमदनगर की श्रीमती डॉ. सुधा कांकरिया एक श्रेष्ठ नत्य कलाकार है। उसने १२ घंटे तक लगातार (नॉन स्टॉप) नत्य कला का प्रदर्शन किया तथा नत्यांगना जयप्रदा द्वारा सम्मानित की
डॉ. सुधा क करिया ने साहित्य, आरोग्य, ग्राम विकास, शैक्षणिक, सांस्कतिक आदि विभिन्न क्षेत्रों में योगदान दिया है। उनकी इस बहुमुखी प्रतिभा संपन्नता हेतु उन्हें निर्मल ग्राम योजना के अंतर्गत राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय सम्मान महामहिम राष्ट्रपति अब्दुल कलाम द्वारा प्राप्त हो चुका है। इसी प्रकार सुश्री मल्लिका सारा भाई ने मानवीय संवेदनाएँ एवं स्त्रैण अभिषप्तताएँ आंदोलन से संबंधित नाट्य मंचन का एक अनोखा प्रयोग किया है। अन्तर्राष्ट्रीय सितारे मंच' की वह विश्वविख्यात् सितारा थी। जोधपुर की सुश्री रीता नाहटा प्रथम महिला टैक्सी चालक बनी। वह कर्मठ एवं संघर्षशील व्यक्तित्व की धनी है। सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में तथा कला के क्षेत्र में अनाथ बहनों को प्रशिक्षण देनेवाला यह विरल व्यक्तित्व है। जोधपुर की ही श्रीमती शशी मेहता प्रतिभाशाली छात्रा रह चुकी है। जितने वर्ष तक आपने विश्वविद्यालय की पढ़ाई की उतने वर्ष तक छात्रवत्ति पाती रही है। वाद-विवाद, लोकनत्य आदि प्रतियोगिताओं में भाग लेकर पुरस्कार पाती रही है। आप इंडियन एक्सप्रेस दिल्ली में संवाद दाता का कार्य करते हुए राष्ट्र एवं समाज की ज्वलंत समस्याओं पर निरन्तर लिखती रही हैं। चेन्नई की सोनिया रानी ने २२ वर्ष की छोटी उम्र में कप्तान बनकर इंडियन एअरलाइंस की उड़ान भरकर रिकार्ड स्थापित किया है।
समाज कल्याण एवं सेवा के क्षेत्र में संलग्न मौन साधिका श्रीमती प्रसन्नकुँवर ने अनाथ बच्चों के लिए, अपंग, विध्वा एवं परित्यक्त महिलाओं के लिए शिक्षा एवं आजीविका का प्रबंध किया है। उसके द्वारा मुफ्त खोले गये औषधालय में अब तक १३०० बच्चे लाभान्वित हो चुके हैं। श्रीमती रूक्मिणी देवी जैन विश्वविख्यात् नत्य संस्था 'कलाक्षेत्र की संस्थापिका एवं अध्यक्षा थी। आपने विशेष प्रकार की नत्य शैली को भरत-नाट्यम नाम से प्रसिद्ध किया था। वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ संस्था के अंतर्गत जीवरक्षा के प्रचार प्रसार में देश-विदेश में काफी प्रयास किया था। आप 'दया देवी बहन' तथा 'प्राणीमित्र' के विशिष्ट पद से अलंकत थी। लुधियाना निवासी श्रीमती जिनेंद्र जैन ने एक ओर जहां अनेक शिक्षण एवं सामाजिक संस्थाओं को पुष्ट किया वहीं दूसरी ओर गायों की सेवा में वह अग्रगण्य सक्रिय कार्यकर्ता रही हैं। चंद्रपुर मध्यप्रदेश निवासी मदनकुँवर पारख ने सर्वोदय महिला मंडल की अध्यक्षा पद
Page #655
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
पर रहते हुए जन सेवा के कई कार्यक्रम संपन्न किये। स्वर्गीय आचार्य रजनीश ने इन्हें अपनी पूर्व जन्म का नाता किया था। जम्मू की श्रीमती कलावती जैन ने ५० वर्षो तक स्त्री-सभा के मंत्री पद पर कार्यरत रहते हुए समाज में हर तरह से अपना सहयोग प्रदान किया है। साधु साध्वियों को शिक्षा के रूप में तथा विहार सेवा के रूप में भरपूर सेवायें समर्पित की हैं। लुधियाना की देवकी देवी, मोहनदेवी आदि महिलाओं की सेवायें भी चिर स्मरणीय हैं। श्रीमती शकुंतला देवी लूंकड़ ने समाज के लिए भारी दानराशि अर्पित की है। डॉ सुषमा दुग्गड़ एक सफल डॉक्टर होते हुए समाज के लिए भी बहुमूल्य सेवायें अर्पित कर रहीं है । अरूणा अभय ओसवाल (लुधियाना) ने बी. एल. एल. आई, इंस्टीटयूट के लिए सौ करोड़ रूपये की दानराशि प्रदान की। जैन मंदिरों के एवं स्थानकों के निर्माण में इनकी सेवायें अनमोल हैं।
न्यायालय के रास्ते पर बढ़नेवाली महिलाओं में दिल्ली शक्तिनगर निवासी श्रीमती पद्मा जैन का नाम उल्लेखनीय है। आप दिल्ली संभाग की प्रथम जैन महिला वकील हैं। आपने रोगियों के लिए उच्च शिक्षा तथा विवाह के लिए महिलाओं का एक छोटा क्लब भी बनाया है। श्रीमती सुनिता गुप्ता १६८० में दिल्ली हाई कोर्ट में सिविल जज नियुक्त हुई थी । वर्तमान में वह तीस हज़ारी कोर्ट में जिला एवं सत्र न्यायाधीश के पद पर कार्यरत हैं। इसी प्रकार पूना निवासी एडवोकेट श्रीमती प्रमिला ओसवाल बड़ी ही परिश्रमी हैं। हाल ही में आपको विशिष्ट सम्मान से सम्मानित किया गया है। ये सभी कामकाजी होते हुए भी सामाजिक एवं धार्मिक नियमों के प्रति पूर्ण रूप से जागरूक हैं एवं संत सेवा में भी तत्पर रहती हैं।
चिकित्सा के क्षेत्र में डॉ. सुधा कांकरिया नेत्र विशेषज्ञ हैं वे मुफ्त सेवाएं भी निःस्स्वार्थ भाव से प्रदान करती हैं। जम्मू की दंत चिकित्सक जया जैन अपने कैरियर में सम्यक् योग्यता पाने हेतु यू. के गई हुई हैं। नासिक की डॉ सुषमा दुग्गड़ भी रोगियों के प्रति दयार्द्र रहती हुई साथ में अनेक पारमार्थिक कार्य भी संपन्न कर रही हैं। उदयपुर की बाल चिकित्सा विशेषज्ञ डॉ. किरण हरपावत लेविसविले में स्थित डॉकटर्स क्लीनिक में अग्रणी बाल चिकित्सक हैं। श्रुत सेवा एवं दान में अग्रणी महिलाओं के भी सैकड़ों नाम लिये जा सकते हैं। मलेरकोटला की श्रीमती लक्ष्मी देवी एवं श्रीमती चंद्रमोहिनी जैन ने इस क्षेत्र में काफी सहयोग दिया है। बेंगलोर निवासी श्रीमती बदनी बाई सिंघवी, उनकी सुपुत्रियां मैना बहन, आरती बहन, आदि बहनें व्रत तपस्या के साथ ही श्रुत सेवा एवं दया–दान में अग्रणी रहती हैं। हाल ही पूना निवासी श्रीमती शोभा ताई रसिक धारीवाल ने तीर्थंकर महावीर के समोसरण की रचना में अपना अमूल्य सहयोग प्रदान किया है। मुंबई निवासी दिव्या जैन इंडियन हेल्थ आर्गनाइजेशन के अन्तर्गत हज़ारों गुमनाम जिंदगियों के लिए संबल है। व्यक्तिगत रूप से अनेक सुख दुखों को बांटती हैं। जयपुर की श्रीमती भंवरदेवी सुराना अपना मकान ग्रीन हाऊस हर वर्ष साधु-साध्वियों के चातुर्मास हेतु प्रदान करती हैं। वे महिला संघ में अपनी बहुमूल्य सेवायें भी अर्पित करती हैं। बैंगलोर निवासी धापू बाई पारसी बाई ने काफी दान- राशी एकत्रित कर अनेक रोगियों व अनाथों के लिए महंगी मशीनें दवाइयाँ एवं अन्य सामग्री समाज सेवाएँ प्रदान की हैं। धुलिया में धार्मिक उपकरण भंडार का संचालन श्रीमती शकुंतला देवी सांड आदि कुशल श्राविकाएँ ही करती हैं। पूना में सज्जन बाई बोथरा, डॉ रंजना लोढ़ा आदि अनेकों बहनें प्राकत साहित्य की सेवायें दे रही हैं तथा जिज्ञासुओं को सिखाने एवं तत्वज्ञान परीक्षाएं लेने में अपनी अमूल्य सेवाएँ समर्पित कर रही हैं। वर्तमान युग के इस तनावपूर्ण वातावरण में मानसिक एवं शारीरिक स्वस्थता का लाभ पहुंचाने हेतु प्राचीन ध्यान साधना के पुनर्जागरण की अति आवश्यकता महसूस की जा रही है। इस कड़ी में अनेक श्राविकाओं ने अपने जीवन को इस ध्यान साधना के अंतर्गत जोड़ा है। कुछ गहस्थ साधिकाएँ है कुछ कुमारिकाएँ भी हैं। चंडीगढ़ की कुमारी निशा जैन, जम्मू की श्रीमती ऊषा जैन, श्रीमती प्रेमलता जैन, नासिक की श्रीमती अरूणा भंडारी, लुधियाना की श्रीमती नीलम जैन, अम्बाला की ऊषा जैन, मुंबई की श्रीमती नीलम जैन, अंजली जैन आदि अनेकानेक ध्यान साधिकाओं ने स्व-पर हित के लिए ध्यान को जीवन साधना का एक अंग बनाया | कुछ साधिकाएँ स्वयं प्रतिदिन ध्यान की साधना करती हुई सजगतापूर्वक जीवन व्यतीत कर रही हैं।
हीरामणि गंगवाल ने जहाँ एक और जाप द्वारा स्वर्ण पदक प्राप्त किया है, वहीं दूसरी ओर वह साधु- संघ की आहार सेवा के लिए चौका लगाकर सेवाएँ प्रदान करती है। दिल्ली चाँदनी चौक निवासी रम्मोदेवी चोरड़िया ने वर्षो तक धार्मिक पाठशाला का संचालन किया। बेंगलोर की श्रीमती सरोज बहन भी शहर के अनेक विभागों में पाठशाला चला कर धार्मिक शिक्षण संस्था में अपनी सेवाएँ समर्पित कर रही हैं। अहमदनगर की श्रीमती पुष्पा नाहर अनेकानेक साधु साध्वियों, श्रावक-श्राविकाओं को जैन शास्त्रों का
Page #656
--------------------------------------------------------------------------
________________
634
आधुनिक काल की जन श्राविकाओं का अवदान
ज्ञान करवाती आ रही हैं। सैंकड़ों श्राविकाएँ स्वाध्याय का प्रशिक्षण ग्रहण करती हुई धर्म की प्रभावना हेतु अष्ट-दिवसीय पर्युषण पर्व की आराधना करवाने के लिए अन्य ग्राम नगरों में भी स्वाध्याय सेवाएं दे रही हैं। इस प्रकार आधुनिक युग में श्राविकाएँ पुरूषों से किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं रहीं। उन्होंने आधुनिक युग की समस्त गतिविधियों में अपने जीवन को जोड़ा है तथा विकास के क्षितिज में नये द्वार उद्घाटित किये हैं। ७.६ तप एवं संलेखना के क्षेत्र में जैन श्राविकाओं का योगदान :
जैन धर्म में मुक्ति पथ की साधना के चार सोपान बताये गये हैं, वे हैं- सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र एवं सम्यक् तप। सम्यक् तप का कतिपय आचार्यों ने सम्यक चारित्र में ही समावेश ग्रहण किया है। 'इंद्रिय निग्रहस्तपः' "जिसमें इंद्रियों का निग्रह हो वही तप है। जैन धर्म में शरीर के माध्यम से इंद्रिय निग्रह करना बाह्य तप और कषायों का उपशमन कर मन, वचन और काया को पवित्र बनाये रखना तथा सरलता विनम्रता आदि गणों का विकास करना आभ्यंतर तप है। इन दोनों के छ: छः भेद कल मिलाकर तप के बारह भेद है। प्रभु महावीर के समय में काली, सुकाली, महाकाली आदि श्रेणिक महाराजा की दस रानियों ने, रत्नावली, कनकावली आदि कठोर तप किया था। 'महावीरोत्तर काल में भी यक्षिणी, याकिणी आदि महान साध्वियों ने तप किया था। अकबर के समय में आगरा निवासिनी श्राविका चम्पा ने राजा अकबर के निग्रह में एक मास का तप किया था। वर्तमान काल में भी तप के आदर्शों पर चलने वाली तपःपूत सन्नारियां हैं। जिनका उल्लेख प्रस्तुत अध्याय में दष्टव्य है। यह तप अल्पकालिक तप है। दूसरा तप संलेखना का है जो जीवन पर्यंत का है। इस तप में अंतिम समय को सन्निकट जानकर साधक जीवन-मत्यु की आशा से रहित होकर आहार पानी का त्याग करता है। मत्यु को जीवन का आवश्यक अंग समझकर समता से व निर्भीकता से मत्यु का सामना करता है। इस संलेखना के मार्ग पर अग्रसर होने वाली अनेक जैन श्राविकाओं का वर्णन भी आगे के पष्ठों में दष्टव्य है।
तप के क्षेत्र में बैंगलोर निवासी श्रीमती स्व. धापूबाई गोलेछा का नाम उल्लेखनीय हैं जिन्होंने चार माह १२२ दिन का निरन्तर गर्म जल के आधार पर तपस्या की थी। उनके इस तप से प्रभावित होकर अनेक साधु-साध्वियों व प्रतिष्ठित श्रावक-श्राविकाओं ने उनका अभिनंदन किया था। इस तप से धापूबाई ने विश्व कीर्तिमान स्थापित किया था। विजयवाड़ा की एक जैन महिला ३० दिन की तपस्या प्रतिवर्ष संपन्न करती है। जम्मू की सविताजी ने ७२ दिन की तपस्या संपन्न की है। जयपुर की चाँदरानी जैन ने एक मासरवमण (३० दिवसीय तप) का पारणा कर के पुनः मासखमण तप अंगीकार किया है। जैन क परंपरा में सैंकड़ों श्राविकाएँ डेढ़ माह का उपधान तप अंगीकार किया करती हैं। श्राविकाएं चार-चार माह तक एकांत देव, गरू, धर्म तत्व की आराधना हेतु पालीताणां आदि तीर्थ-स्थानों में जाकर समय व्यतीत करती हैं। उदयपुर निवासी रतन बाई मेहता २८ वर्षों से वर्षीतप की आराधना कर रही है। बैंगलौर निवासी सुशीला बाई धोका का तो संपूर्ण जीवन तपस्या की विविध आराधनाओं में ही व्यतीत हुआ है। इसी प्रकार दुर्ग निवासी त्रिशला देवी जैन ने विविध तपाराधनायें की हैं। बैंगलौर निवासी आशा बाई तथा रामनगर मैसूर निवासी उगमाबाई सुराणा आदि बहनों ने वर्द्धमान आयंबिल तप की आराधना की है। जिनमें ५०० आयंबिल साधना सहित निरन्तर किये जाते हैं। इसी ओली तप की आराधना में घोड़नदी पूना निवासी श्रीमती विमलबाई बरमेचा एवं पद्मा बाई बरमेचा का नाम उल्लेखनीय है। नासिक निवासी श्रीमती सायरबाई चोपड़ा, गुलाब बाई एवं विजया बाई बरमेचा आदि का जीवन भी तप की एक दिव्य-ज्योति है।
स्वेच्छा से आहार-पानी का त्याग करते हुए संथारे के महामार्ग पर बढ़नेवाली श्राविकाओं में हरियाणा निवासी श्रीमती अनारकली का नाम उल्लेखनीय है। इन्होनें दो माह तक आत्मा और शरीर का भेद-विज्ञान करते हुए सफलापूर्वक समाधिमरण किया, जो अपने आप में अद्भुत है। राजस्थान की श्रीमती लक्ष्मीदेवी श्यामसुखा ने इक्कीस दिन का अनशन अंगीकार किया था। मनोहरीदेवी बोथरा ने अड़तीस दिन का, भंवरीदेवी ने ३६ दिन का, ऋषिबाई सेठिया ने इक्यासी दिन का, कोयला देवी बोथरा ने ५० दिनों का सुंदरी देवी बोकाड़िया ने २८ दिनों का संथारा ग्रहण किया था। श्रीमती कलादेवी आंचलिया ने तो १२१ दिन की तपस्या संपन्न की जो अपने आप में एक रिकार्ड है। श्रीमती मनोहरी देवी ने अपने जीवन में तीस बार मासखमण तप अंगीकार किया। दिल्ली वीरनगर निवासी श्रीमती कांताजी, चांदनी चौंक की रम्मोदेवी, मिश्रीबाई आदि सन्नारियों ने देह की आसक्ति का त्याग करके
Page #657
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
संथारा सहित समाधिमरण किया था। महाराष्ट्र अहमदनगर की अनेक बहनें है जो इस कड़ी में लम्बा संथारा धारण कर चुकी हैं। आधुनिक युग में समग्र जैन समाज की सुश्राविकाओं के संस्कारों का ही सुप्रभाव है कि आज जैन संप्रदाय में १३६४७ साधु-साध्वी संयम मार्ग पर अग्रसर हैं तथा शासन की महती प्रभावना में रत हैं।
635
७.७ श्रीमती सुलोचना देवी जैन :
आप इंदौर निवासी श्रीमान पुरवराज जी लूंकड़ की धर्मपत्नी हैं । १८ अक्टूबर १९२५ आपकी जन्म तिथि है । स्व. श्री मोतीलाल जी जैन एवं श्रीमती सज्जनदेवी जैन की आप सुपुत्री हैं। आपके दो पुत्र एवं तीन पुत्रियां हैं। नाम क्रमशः इस प्रकार हैं, श्री देवकुमार जी जैन, श्री राजेन्द्र कुमार जी जैन, श्रीमती देवबाला जैन, श्रीमती बसन्तबाला जैन, श्रीमती स्नेहलता जैन। आपका सेवा कार्यों में बहुत बड़ा योगदान है। श्रीमती सुलोचनादेवी जैन के नाम से स्थापित चैरिटेबल ट्रस्ट में ३१ लाख की राशि आपके द्वारा सेवा कार्यों के लिए समर्पित की गई है। जैन दिवाकर हॉस्पिटल एवं रिसर्च सैंटर के लिए दो लाख सात हजार एवं मनमाड़ में श्री आनन्द धर्मार्थ दवाखाना के लिए पच्चीस हजार तथा पार्श्वनाथ विद्याश्रम बनारस में आपने ५१ हजार का अनुदान दिया है ।' ७. ८ श्रीमती भंवरदेवी जी :
आप जयपुर निवासी श्रीमान् मन्नालाल जी सुराना की धर्मपत्नी थी। राजघराने के खजांची श्रीमान् कुंदनमल जी छाजेड़ की आप सुपुत्री थी। आपका स्वभाव सरल सहज एवं शांत था । सामाजिक व्यवस्था करने में आप निपुण थी। आपके पुत्र एवं एक पुत्री है। भारतीय संस्कति के प्रति आपका विशेष लगाव है। आपको तत्वज्ञान की गहरी रूचि है ग्रीन हाऊस जयपुर में आपका मकान है। प्रतिवर्ष साधु-साध्वी वहां चातुर्मास करते है । शय्यातर का पूरा लाभ आप ले रही हैं। आप जयपुर महिला मंडल की प्रथम अध्यक्षा तथा अ.भा. तेरापंथ महिला मंडल की कार्यकारिणी की सदस्या रह चुकी है। संस्था के प्रत्येक कार्य में आप आगे रहती हैं।
७.६ श्रीमती दिव्या जैन :
आप मुंबई निवासी है। दिव्या, 'इंडियन हेल्थ ऑर्गनाईजेशन' मुंबई हज़ारों बदनाम, गुमनाम जिंदगियों के लिए संबल है । यह संस्था बदनाम बस्तियों की वेश्याओं के उत्थान के लिए कार्य करती है। फिलहाल लालबत्ती क्षेत्र में 'भारतीय स्वास्थ्य संघठन के माध्यम से काम करते हुए दिव्या अपनी समाज सेवा से संतुष्ट है दिव्या जी व्यक्तिगत रूप से भी इनके दुःख और परेशानियों में इनकी सहायता करती हैं।
७.१० श्रीमती सुशीला जी :
बाल ब्रह्मचारिणी श्रीमती सुशीला जैन नाभा (पंजाब) निवासी श्रीमती यशोदा जैन एवं श्रीमान् मुन्नालाल जैन की सुपुत्री थी । आप सन् १९५३ तक मलेरकोटला में प्राध्यापिका रही थी । इन्हें पंजाब सरकार की ओर से 'बेस्ट टीचर' का खिताब प्राप्त हुआ था । आपका संपूर्ण जीवन समाज तथा शिक्षा के लिए समर्पित था। आप अनुशासनप्रिय तथा जैन सिद्धांतों के प्रति आस्थावान् थी । आपने अपनी संपत्ति का कुछ भाग जैन सभा को दान स्वरूप समर्पित किया था ।
७. ११ लक्ष्मीदेवी जी :
आप श्री स्वरूपचंद जैन की धर्मपत्नी हैं। आप दान, शील, तप और अहिंसामय धर्म के प्रति श्रद्धाशील हैं। आपने आचार्य विमल मुनि जी द्वारा स्थापित आदीश्वर धाम (कुप्पकलां) में महत्वपूर्ण सहयोग दिया है। जैन साहित्य के प्रकाशन में एवं साधु साध्वियों की सेवा में आप अग्रणी हैं।
७. १२ चंद्रमोहिनी जैन :
आप मलेरकोटला के पूर्व प्रधान लाला केसरीदास जैन की धर्मपत्नी हैं। आपने आदीश्वर धाम कुप्पकलां के निर्माण हेतु विपुल धनराशी दान में दी है। तीर्थंकर साधना केंद्र के निर्माण में भी आपका प्रशंसनीय सहयोग रहा है।
Page #658
--------------------------------------------------------------------------
________________
636
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
७.१३ श्रीमती सुधारानी जन :
आपका जन्म २० जून १६३२ को जबलपुर में हुआ था। आपके पिता बैरिस्टर स्व. श्री जमनाप्रसाद (कलरैया) जैन थे। आपका औद्योगिक तथा सामाजिक क्षेत्र में अग्रणी है। आप (म.प्र.) निवासी श्रीमान् डालचंद जैन (पूर्व सांसद) की धर्मपत्नी हैं। आपकी बहन मेजर डॉक्टर एवं सबसे बड़ी बहन प्राचार्या थी। विवाहोपरांत आप बड़ी बहू के रूप में ससुराल में आई। ससुराल में ६ देवर तथा ४ ननंदें थी, जिनको आपने अपने भाई-बहनों की तरह समझा । अपने सास-ससुर सहित इतने बड़े परिवार को एक धागे में पिरोना आपकी विलक्षण सूझ-बूझ तथा आत्मीयता का परिचायक था। आपकी संस्कारवान् छ: पुत्रियां हैं जो पारिवारिक परंपराओं का निर्वाह करके चलती हैं। आपने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी पहचान बनाई है। आप सागर (म.प्र.) लायन्स क्लब की डायरेक्टर एवं पूर्व अध्यक्षा तथा प्रसूति गह सागर की निरन्तर ५० वर्षों तक अध्यक्षा रही हैं। अखिल भारतीय महिला परिषद् एवं दिगंबर जैन महासमिति मध्यांचल की संरक्षिका तथा सागर महिला समिति क्लब की आप सदस्या हैं। साहित्यिक संस्थाओं एवं भारतीय लोक संस्कति के सरंक्षण एवं परिवर्धन में आपका सक्रिय योगदान रहा है। वक्षारोपण, प्रदूषण नियंत्रण को प्रभावी ढंग से लागू कराने में आपका अनुकरणीय योगदान रहा है। संपूर्ण परिवार के साथ सम्मेद शिखर की यात्रा कर आपने अपनी इच्छा की पूर्ति की। जैन अजैन सभी तीर्थों की आपने यात्रायें की साथ ही इंग्लैंड, सं. रा. अमेरिका, कनाडा, जर्मन, हाँगकाँग, सिंगापुर, कुवैत, काहिरा (इजिप्ट) दुबई आदिकी विदेश यात्रायें भी संपन्न की। देश-विदेश भ्रमण में घटित घटनाओं के संदर्भ, संस्मरण लेखन में आपका उल्लेखनीय योगदान रहा। अपने एवं जैनेतर समाज में एकता स्थापित करने तथा फिजूलखर्ची रोकने का विशेष प्रयत्न किया। सामूहिक आदर्श विवाह हेतु प्रेरणा तथा आर्थिक सहयोग भी आपने दिया। वर्तमान परिवेश में बिखरते परिवारों की अवधारणा को संबल देने में इनकी यह संस्था राष्ट्रीय स्तर पर कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। राष्ट्रीय परिदश्य में विभिन्न प्रांतों में संचालित सांस्कतिक, शैक्षणिक, आध्यात्मिक संस्थाओं के उन्नयन में आपने आर्थिक सहयोग दिया। दीन दुःखियों की पुत्रियों के विवाह हेतु, चिकित्सा सुविधा प्रदान कराने हेतु आपकी दान देने की प्रवत्ति सदैव बनी रही। एक राजऋर्षि की तरह जीवन यापन करने के बाद भी वे सदैव निरभिमानी, आत्मीय संबोधनों के साथ सहजता एवं वात्सल्य की एक सशक्त प्रतिमूर्ति हैं।" ७.१४ अरूणा जी :___अरूणा जी लुधियाना निवासी स्वर्गीय श्रीमती मोहनदेवी की पुत्रवधु हैं। भारत के सुप्रसिद्ध उद्योगपति श्रीमान् अभय ओसवाल की आप धर्मपत्नि हैं। आप एक दानवीर सुश्राविका हैं। आपने लुधियाना विजयेन्द्र नगर में भव्य स्थानक एवं जैन मंदिर का निर्माण कराया। ८०० घरों की कॉलोनी का निर्माण आपके सहयोग से हआ। दिल्ली जी.टी. रोड़ पर स्थित वल्लभ स्मारक के लिए आपने सौ करोड़ रूपये का दान दिया। अन्य कई मंदिरों के निर्माण में भी आपका महत्वपूर्ण सहयोग रहा है। ७.१५ श्रीमती हुलासी देवी भूतोड़िया :____ आपका जन्म १६६० में हुआ था। आपके पिता श्री तनसुखलाल जी वैद थे। आप श्री माणकचंद जी भूतोड़िया की धर्मपत्नी हैं। छोटी बहन के साथ-साथ आप पढ़ना सीख गई। मौसी मकवूदेवी द्वारा निमित्त मिला । आचार्य कालूगणी के सान्निध्य में हुलासी बाई एवं मिलापी बाई दोनों मौसीयों के साथ उपासना करती थी। साध्वी सानांजी उन्हें वैराग्य की प्रेरणा देती रहीं। सास की अनुमति से हुलासीबाई ने श्वेत खद्दर की साड़ी पहननी शुरू की। आलोचना हुई उसकी परवाह आपने नहीं की। आचार्य तुलसी ने अणुव्रत आंदोलन का प्रवर्तन किया । अणुव्रती बनने का आव्हान किया। श्रीमती हुलासीदेवी ने प्रथम सूची में अपना नाम दर्ज कर इतिहास में नाम कमाया है। ७.१६ सुगनीदेवी जी पुंगलिया :
आपका जन्म बीकानेर में वि०सं० १६६० में हुआ था । आपके पिता पूरणचंद जी चोपड़ा थे। आप बालचंद पुंगलिया (गंगा शहर) निवासी की धर्मपत्नी थी। आप अणुव्रती श्राविका थी। सावन भादवा एकांतर तप करती थी। व्रत, पखवाड़ा प्रतिदिन ६.७ सामायिक करना आपकी विशेषता थी। ६ वर्ष की उम्र में हरी वनस्पति मात्र का त्याग आपने कर दिया था। अ०भा० तेरा० महिला मंडल की आप सक्रिय कार्यकर्ता थी। स्वाध्याय में आपकी रूचि थी।
Page #659
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
७. १७ मनोहरी देवी आंचलिया :
आपका जन्म वि.सं १९७७ में हुआ था। आपके पिता डूंगरगढ़ निवासी श्रीमान सुगनचंद जी भादाणी तथा पति गंगाशहर निवासी सुगनचंद जी आंचलिया हैं। आप गांधीवादी विचारवाली महिला है एवं सादा जीवन व्यतीत करती थी। आप धन संपन्नता आसक्त नहीं थी । आपकी ३ पुत्रियां, १ पुत्र थे। चारों दिवंगत हो चुके हैं। आपने १५ वर्ष की अल्पायु में मासखमण तप किया था। आपने अपने जीवन काल में ३ मासखमण किये थे। दस पच्छक्खाण तीन बार किये । २५० पच्छक्खाण एक बार किया था। आपने कुरीत्तियों का विद्रोह किया। आपने बहनों में उत्साह जगाया, ५०० बहनों ने आपके पीछे घूंघट का त्याग किया | वि०सं० २००८ में मातभूमि श्री डूंगरगढ़ में ७० सदस्यों का महिला संगठन तैयार किया । वि०सं० २०१४ में घर घर जाकर १३०० अणुव्रती बनाये, विद्यालयों में संस्कारनिर्माण हेतु साधु साध्वियों के प्रवचनों का आयोजन किया। आपका स्वर्गवास वि०सं० २०५० में हुआ था ।"
७. १८ केसरी देवी छाजेड़ :
आपका जन्म सरदार शहर में वि०सं० १६६८ में हुआ था । आपके पिता का नाम श्रीमान सागरमलजी दुग्गड़ एवं माता का श्रीमती भूरीदेवी दुग्गड़ था। सरदार शहर निवासी श्रीमान् बुधमलजी छाजेड़ की आप धर्मपत्नी थी । आपने ३० थोकड़े कंठस्थ किये थे। पड़ोसियों के साथ आपका आत्मीय संबंध था। आप अनुशासन प्रिय थी। कम से कम १५ दिन तथा अधिक से अधिक चार माह तक की उपासना करती थी। बीमार होने पर भी रास्ते की सेवा का पूरा दायित्व संभालती थी । पुत्र, पुत्रियों, बहुओं को अनावश्यक हिंसा से बचने की शिक्षा देती थी । वर्षा व ओस होने पर साधु साध्वियों के आहार का पूरा ध्यान रखती थी। परिवार को भी दान के लिए प्रेरित करती थी। आपका स्वर्गवस वि.सं. २०२७ में हुआ था । २ ७. १६ श्रीमती मैना बहन :
637
आपका जन्म १८६६ में हुआ था। आप श्रीमान् हेमचंद भाई की पुत्री, अमरचंद भाई कापड़िया की पौत्री थी । आपने श्री महावीर जैन विद्यालय नामक शिक्षण संस्था की स्थापना की। पच्चीस हज़ार रूपये संस्था को जैन बाल मंदिर हेतु प्रदान किये। आप मुंबई जैन युवक संघ की आजीवन मार्गदर्शिका एवं सहयोगिनी रही। देव दर्शन, सामायिक प्रतिक्रमण, रात्रि भोजन का त्याग और अभक्ष्य चीजों का त्याग आदि नियमों का पालन करती थी । धर्मरूची, समाज सेवा और राष्ट्र प्रेम के संगम से मैना बहन का जीवन त्रिवेणी सा पावन था। गांधी जी के जीवन और कार्य का बहुत बड़ा प्रभाव इन पर था धर्मपरायणता, सात्विकता परोपकारिता तथा मधुर व्यवहार उनके जीवन मे समा गई थी। कम बोलना और पल-पल का सदुपयोग करना उनकी आदत थी। दीन दुखी बहनों के लिए आप संकट मोचक थी । १३
1
७.२० श्रीमती कलावती जैन (जम्मू) :
आपकी उम्र ८० वर्ष की है। ई. सन् १६२८ के लगभग आपका जन्म हुआ। आप जम्मू निवासी श्रीमान् बलदेव जी जैन की धर्मपत्नी हैं। आपके पिता श्रीमान् लाला नौरातारामजी जैन एवं माता श्रीमती चम्बीदेवी जैन थे। आपके एक पुत्र प्रमोदजी जैन पुत्रवधु सुजाता जैन हैं। दो पुत्रियां श्रीमती सुधा राजेन्द्र जैन - गुडगांवा (दिल्ली) एवं श्रीमती शशी सुभाष जैन लंडन हैं। आपने जैन सिद्धांत प्रभाकर, हिंदी प्रभाकर, साहित्य रत्न, आयुर्वेद रत्न आदि परिक्षाएँ उत्तीर्ण की हैं। आप विशेष रूप से श्रमण-श्रमणियों की शिक्षा, दीक्षा, विहार चर्या की सेवा आदि में तत्पर रहती हैं। सामाजिक रूढ़ियों तथा देवी देवताओं की पूजा अर्चा में आपका विश्वास नहीं है। निःस्वार्थ भावना से संघ एवं समाज के कार्यों के प्रति आप पूर्णतया समर्पित हैं। आप तत्त्वार्थ सूत्र की अच्छी शिक्षिका है। हंसमुख स्वभाव की एवं स्वतंत्र विचारों की धनी महिला रत्न हैं। आप पर उपाध्याय कवि अमरमुनि जी म.सा. के विचारों का प्रभाव है। जहां भी जाती है आप अपनी अमिट छाप छोड़ आती हैं। आप निरन्तर ५० वर्षो से जम्मू महिला संघ की महामंत्री हैं। आचार्य सम्राट् डॉ. शिव मुनि जी म.सा. के चातुर्मास में मंत्रीपद की स्वर्ण जयंति पर समारोह पूर्वक आप सम्मानित की ७.२१ मदन कुंवर पारख (मध्य प्रदेश)
198
आपका जन्म ५.११.१६१६ को हुआ था। आपकी माता जी का नाम बिरजीबाई वैद एवं पिता जी का नाम श्रीमान् चम्पालालजी
Page #660
--------------------------------------------------------------------------
________________
538
बैद था। भाई धनपतलाल जी वैद एवं वीरेंद्र कुमार जी वैद हैं। आप श्रीमान् रेखचंद जी पारख की धर्मपत्नी हैं। आपकी तीन पुत्रियाँ शारदा कुंवर, शांता कुंवर, सुशीला कुंवर एवं एक पुत्र दीपक कुमार, पुत्रवधू, ज्योति कुंवर, पौत्र द्विपेंद्र कुमार, दो पौत्री, अभीप्सा एवं भाविता हैं। आपने ढाई तीन वर्ष की उम्र में विधिसहित सामायिक के पाठ कंठस्थ कर लिए थे तथा नियमपूर्वक माला, प्रार्थना, सामायिक आदि करती थी। आपने उम्र के दसवें वर्ष से ही लेख एवं कविताओं की रचना प्रारंभ कर दी थी । ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान भी आपने प्राप्त किया । महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित होकर चरखा, टकली की कक्षायें भी चलायी जिसमें २५-३० बच्चों को शिक्षित किया। सन् ४० से ५० तक यानी १० वर्षों तक चंद्रपुर में धार्मिक पाठशाला चलाई, जिसमें ६० बालक-बालिकाओं को अहमदनगर पाथर्डी बोर्ड की धार्मिक परीक्षा दिलवाई। इसमें जैनेतर समाज के बच्चे भी शामिल थे। बच्चों में धार्मिक संस्कारों के उन्नयन के लिए सात नाटकों की रचना की तथा बच्चों से यथासमय प्रस्तुत करवाए। श्रीमती यशोधराजी बजाज की भावना में सहयोगी बनकर 'राजस्थान महिला मंडल' की स्थापना की जिसमें ब्राह्मण व अग्रवाल समाज की राजस्थानी महिलाएँ थीं। इस संस्था की अध्यक्षा पद पर रहते हुए मेहतर समाज के बच्चों के लिए बाल मंदिर खोला जिसमें सरकार ने कई नये कार्य सौंपे और मदद दी। कालांतर में सर्वोदय महिला मंडल के रूप में उसका रूपांतरण हुआ। इसके अंतर्गत बालक मंदिर, सिलाई क्लासेस, पॉलीटेकनिक कॉलेज एवं स्कूल आदि विविध गतिविधियां चलती रही। ससुरजी के स्वर्गगमन पर पति पत्नी ने विचार बनाकर 'बाल सेवा मंदिर' के नाम से अनाथालय खोला, जिसमें दो दिन, चार दिन, दस दिन के बच्चे सरकार द्वारा प्राप्त होते थे । सन् ७३ तक संस्था चली, इसमें ३०० बच्चों का पालन पोषण हुआ। परिजनों का बहुत सहयोग मिला । सन् ६० में आचार्य रजनीश से परिचय हुआ। उन्होंनें इन्हें पूर्व जन्म की माँ घोषित किया । सन् ७३ तक पत्रव्यवहार होता रहा। हर तीन माह में ३-४ दिन के लिए वे चंद्रपुर आते और उनके कई कार्यक्रमों में मदन कुंवर बाई सहयोगी बनती थी। सन् ७३ से सन् ८३ तक उनके विदेशी शिष्य हर तीन माह में आते तथा इनसे भारतीय खान पान, रसोई बनाना आदि सीखते थे। तत्पश्चात् उनका पूना में आश्रम निर्माण हुआ । आज भी श्रीमती मदन कुंवर सर्वोदय महिला मंडल की अध्यक्षा पद पर रहते हुए जन सेवा के कार्य कर रही है। ७.२२ श्रीमती लीलावती जैन :
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
आपका जन्म स्यालकोट में हुआ। आप श्रीमान् हरबंसलालजी जैन (कोटा, राज० निवासी) की धर्मपत्नी हैं। श्रीमान सुभाष जैन (प्रधान जैन दिवाकर शिक्षा समिति, कोटा) एवं श्रीमान सुधीर जैन ये आपके दो पुत्र व सुदर्शना जैन नाम की एक पुत्री हैं। आपने बाल्यावस्था में ही सामायिक प्रतिक्रमण २५ बोल का थोकड़ा सीखा। नवतत्व, गतागत, लघुदण्डक, २६ द्वार, २४ तीर्थंकरों का लेखा, देवलोक की अंगनाई, छः आरों का थोकड़ा, पाताल कलशों का थोकड़ा, २८ नक्षत्रों का थोकड़ा दान का थोकड़ा आदि कंठस्थ किये थे। बाल्यावस्था से वद्धावस्था तक सीखे हुए शास्त्रों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं। सुखविपाक सूत्र, उववाई सूत्र, सूत्रकतांग सूत्र, वीरस्तुति, नंदीसूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, श्री तत्वार्थ सूत्र, आचारांग सूत्र, साधु गुणमाला, देवाधिदेव रचना, देव रचना (८६५ सवैया कठस्थ) बाल बत्तीसी, ३३ सवैये, साधु वंदना स्तोत्र, थोकड़े शांतिनाथ चक्रवर्ती, सुदर्शन सेठ की ढाल, १२ मासा नेमि - राजुल का, बारह मासा गजसुकुमाल का, मेतार्य मुनि, निर्मोही राजा, अर्जुनमाली मगापुत्र, अंजना सती, एवंता मुनि, दशार्णभद्र राजा, मेघकुमार व कपिलमुनि की सज्झाय, अनेक चौबीसीयाँ भजन आदि आपको कंठस्थ हैं।
बचपन में ही पू. लालचंद जी म.सा. के सत्संग के कारण रात्रि भोजन, जमीकंद, होटल के भोजन, रेशमी वस्त्रों के उपयोग आदि का त्याग किया था। प्रासुक पानी का उपयोग पूर्वक सेवन करती थी । आपने अपना सांसरिक जीवन अत्यंत साद्गी एवं गरिमापूर्ण ढंग से व्यतीत किया। वर्षों से किये गये व्रतों का वे आज भी कठोरता से पालन कर रही हैं।
1
७.२३ श्रीमती टीबुबाई :
आप रतलाम निवासी श्रीमान् राजमलजी चोरडिया की धर्मपत्नी हैं। आपके सुपुत्र श्रीमान् चंदनमल जी चोरड़िया हैं। आप रतलाम के महिला कला केन्द्र, महिला स्थानक, आयंबिल खाता तथा अन्य धार्मिक संस्थाओं से सक्रिय रूप में जुड़ी हुई हैं। आप निर्भीक, सरल, शान्तस्वभावी, महिला हैं। संतों की सेवा करने में आप आगे रहती हैं। तंत्र-मंत्र एवं देवी-देवता कुछ करेंगे आप इसमें विश्वास नहीं करती।
Page #661
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
७.२४ श्रीमती सुमन जैन :
आप इंदौर के दिगंबर जैन महिला संघ की अध्यक्षा, अ.भा. दि. जैन महिला संघ की महामंत्री हैं तथा आपने इंदौर में ४३ महिला इकाइयों को एक सूत्र में बांधकर रखने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। पत्रिका के माध्यम से किये गये प्रचार प्रसार हेतु तीर्थंकर ऋषभदेव दिगंबर जैन विद्वत्त् संघ द्वारा वर्ष २००० में आपको सौ० चन्दा रानी स्मति विद्वत्त महासंघ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। आप एम. एस. जे कॉलोनाइजिंग एण्ड लीडिंग कंपनी लिमिटेड, तथा शुभलक्षमी महिला को ऑपरेटिव बैंक लिमिटेड की निदेशिका हैं। आपके कई सुविकसित फार्म हाऊस हैं। जॉइंस ग्रुप ऑफ इंदौर की पूर्व अध्यक्षा, रोटरी क्लब बालविका की वर्ष ६७-६८ की उपाध्यक्षा रही, तथा कॉर्पोरेशन बास्केट बॉल ट्रस्ट की ट्रस्टी भी रह चुकी हैं। आपने इंदौर में वर्ष २००१ में अहिंसा मेले का सफल आयोजन भी किया है। इस प्रकार श्रीमती सुमन जैन का नाम सामाजिक कार्यों के विकास में सफल व्यक्तित्व के रूप में उभर कर आया है।
७. २५ हीरामणि गंगवाल :
639
आप इंदौर के जय हो मंडल की 'सचिव' व सीताराम पार्क महिला मंडल की कोषाध्यक्ष रह चुकी हैं। इंदौर में वर्षावास हेतु पधारे मुनिराज व आर्यिका संघ आदि की आहार चर्या हेतु आप चौका लगाती रहती हैं। आपने विशेष रूप से महामंत्र नवकार को ५१,००० बार लिखकर स्वर्णपदक एवं सवा लाख बार लिखकर हीरक पदक प्राप्त किया है। इस प्रकार मुनि संघ के आहार चर्या व जप तप में आपका उल्लेखनीय योगदान रहा है। १६
७.२६ मधु जैन :
आपका जन्म १६४६ में होशियारपुर में हुआ था। आप श्रीमान् मदनलाल जैन एवं श्रीमती कश्मीरी देवी जैन की सुपुत्री हैं। श्रीमान् बंसीलाल जी भाबू एवं श्रीमती केसरा देई जी की पौत्री हैं। आपने संस्कत में एम. ए. तथा बी. एड. की शिक्षा प्राप्त की । विद्यालय में शिक्षण कार्य करते हुए आपने बच्चों को शाकाहारी भोजन, समाज सेवा, दान एवं परोपकार की शिक्षा दी। समाज के मध्यमवर्गीय धनाभाव से पीड़ित परिवारों के स्तर को ऊँचा उठाने में सहयोग दिया । पशु शालाएँ खुलवाई। आपने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया। उम्र के चौदहवें वर्ष के पश्चात् १० वर्षों तक आपने किसी भी कच्ची सब्जी व फल का सेवन नहीं किया। इस प्रकार त्याग एवं सेवा के क्षेत्र में मधु जैन का अपूर्व योगदान है । २०
७.२७ रूबी जैन :
आपका जन्म सन् १६६५ में हुआ था। आपके माता-पिता होशियारपुर निवासी श्रीमती महिमावंती जैन एवं श्रीमान् बंसीलाल जैन हैं एवं दादीजी का नाम श्रीमती केसरादेवी जैन है। आप पी.एच.डी. हैं। आप डे.ए.वी. कॉलेज में लेक्चरार हैं, धार्मिक शास्त्रों के अध्ययन में विशेष रूची है तथा सेवाभावी हैं । २१
७.२८ श्रीमती रूक्मिणी देवी जैन :
आपकी उम्र ८२ वर्ष की है। आप विश्वविख्यात नत्य संस्था 'कलाक्षेत्र की संस्थापिका एवं अध्यक्षा थी। आपने सन् १९३६ में विशेष प्रकार की नत्य शैली को 'भरत नाट्यम्' नाम से प्रसिद्ध किया था। सन् १६५६ में 'पद्म भूषण' अवार्ड तथा सन् १९८४ में कालिदास - सम्मान से आप सम्मानित की गई थी। वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ संस्था की आप सक्रिय सदस्या थी। आपका मन्तव्य था कि क्रूर से क्रूर प्राणियों में भी वात्सल्य एवं प्रेमभाव का स्त्रोत बहता रहता है। अतः उनकी रक्षा करना मानवीय धर्म है । वह मूक प्राणियों की प्राण रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहती थी। जीव रक्षा के प्रचार प्रसार के लिए देश-विदेश में आपने काफी प्रयास किया था। आपके द्वारा किये गये सक्रिय जीव रक्षा के कार्य से विदेशों में शाकाहार का भी खूब प्रचार हुआ था। जैन कांफ्रेंस के भूतपूर्व प्रधान स्व. श्री आनंदराज जी सुराणा इन्हें 'दयादेवी बहन' के प्रिय संबोधन से पुकारते थे। तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री मोरारजी देसाई उन्हें राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाना चाहते थे, किंतु आपका अटल संकल्प थ गणियों की सुरक्षा | राष्ट्रपति जी ने आपको 'प्राणिमित्र' के विशिष्ट पद
किया
Page #662
--------------------------------------------------------------------------
________________
640
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
७.२६ श्रीमती कम्पादेवी जैन
आप श्री एस. एस. जैन सभा विश्वास नगर दिल्ली के भूतपूर्वप्रधान स्व. श्री किशनलाल जी जैन की धर्मपत्नी हैं। आपके सुपुत्र अशोक जैन समाज के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन है। स्वयं कम्पादेवी ने जैन स्थानक के निर्माण करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। हर वर्ष संत सतियों के चातुर्मास करवाने में प्रयत्नशील रहती थी। दीन दुखियों के प्रति आपका हृदय करूणा वत्सल था। आपका निधन २६.४.२००३ को हुआ था। 6.३० श्रीमती मोहनबाई मेहता :
आप श्रीमान् चुन्नीलाल जी एच. मेहता की धर्मपत्नी हैं। आपकी आयु ५७ वर्ष की थी। कई संस्थाओं की स्थापना में आपकी प्रेरणा एवं द्रव्य सहयोग रहा था, कई शिक्षण संस्थायें आपके द्वारा पालित एवं पोषित थी। आप धार्मिक एवं नैतिक संस्कारों पर विशेष बल देती थी। परिवार के सभी सदस्यों के लिए आप धर्म गुरू के रूप में मार्गदर्शक थी। आप धर्मनिष्ठ, समाजसेवी, सद्गहिणी, उदारमना, आदर्श सुश्राविका थी। आपके देहावसान पर देश के अनेक राजनैतिक, सामाजिक एवं व्यावसायिक संस्थाओं के गणमान्य व्यक्तियों ने हार्दिक श्रद्धांजली समर्पित की थी।२४ ७.३१ श्रीमती फूलावंती जैन :
आपका जन्म १६२६ में हुआ था। आप नई दिल्ली निवासी श्रीमान् रोशन लाल जी जैन की धर्मपत्नी थी। आपका दो पुत्रियाँ, एक पुत्र का परिवार था। आप प्रतिदिन नित्य नियम व रात्रि भोजन का त्याग करती थी। सुबह शाम प्रतिक्रमण करती थी। प्रतिदिन संत सतियों के दर्शन करती थी आपने दस फल ही खाने के लिए रखे थे। स्यालकोट छावनी पाकिस्तान में सन् १८४१-१८४७ तक वह एक मन दही की छाछ प्रतिदिन लोगों को पिलाती थी। आप मेहमानों की दिल खोलकर सेवा करती थी। आपने जैन भवन नं. १२ नई दिल्ली, अहिंसा भवन (राजेन्द्र नगर), अहिंसा विहार (डिफेंस कॉलोनी) को खरीदने में जैन समाज को महत्वपूर्ण योगदान दिया था। आप ८ माह तक बाजु व टांग टूटने से बीमार रही। १६७८ में आपका स्वर्गवास हुआ तथा निधन से तीन दिन पूर्व ही मेहरोली दादावाड़ी के दर्शन पति के साथ आपने किये थे। त्याग तथा सेवा की वह प्रतिमूर्ति थी।५ ७.३२ श्रीमती लाभदेवी जैन :
___ आप अमतसर निवासी श्रीमान् हरजसराय जी जैन की धर्मपत्नी थी। आपकी कुल आयु ६२ वर्ष की थी। आपका विवाह १६१२ में हुआ था। आपने श्री सोहनलाल जी जैन धर्म प्रचारक समिति, श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम और श्रमण मासिक के लिए अनेक सेवाएँ प्रदान की। पिंगलवाड़ा के अपाहिज़ों, अंध विद्यालय के छात्रों, गौशालाओं तथा जीवदया मंडलियों की सुविधा सहायता का उन्हें सदा स्मरण रहा। आपने चिंतन-मनन तथा जिज्ञासा के बल पर ही अपना विकास किया। मानवता को विभाजन करने के पक्ष में आप कभी नहीं रही। आपके घर का वातावरण बहुत ही सौम्य, स्नेहिल, माधुर्यपूर्ण था आपका परिवार धर्म के प्रति अगाध निष्ठावान् व पूर्णरूपेण समर्पित था। गहस्थ जीवन से हटकर पारमार्थिक कार्यों से जुड़कर आपने आपनी महक से वातावरण को सुवासित कर दिया था।२६ ७.३३ श्रीमती शीला सोनी (खत्री) :
___ आप नालागढ़ निवासी श्रीमान् वैद्य गुरूदासमल जीसोनी तथा श्रीमती नंदरानी की सुपुत्री हैं। आपकी जन्म तिथि १७.८.५१ है। आपने बी. ए. एवं जे.बी.टी. (जुनियर बेसिक टीचर ट्रेनिंग) की शिक्षा प्राप्त की है। १७ वर्ष की आयु से ही आप वी एवं पूवीं कक्षा के छात्र-छात्राओं को पढ़ाती रही हैं। २२वें वर्ष में आपने ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया। आजीवन रात्रि को चौविहार तप तथा श्राविका के १२ व्रतों को भी इसी उम्र में ग्रहण किया। आप सुबह शाम प्रतिक्रमण तथा दो-दो सामायिक करती हैं। आपने ३० शास्त्रों का स्वाध्याय किया है। श्री रघुवरदयाल जी म० श्री के शिष्य राम मुनिजी म. सा. से आपने गुरूधारणा ली तथा जैन धर्म की सारी शिक्षा उन्हीं से ग्रहण की। स्वाध्याय के प्रति अत्यधिक रूचि होने के कारण आपने पदोन्नति के सारे प्रलोभनों का त्याग कर दिया ।२७
,
Page #663
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
७.३४ श्रीमती राजमती जैन :
आप जम्मू त्रिकुटानगर निवासी श्रीमान् विनोद कुमार जैन की धर्मपत्नी हैं। आप एम. ए. बी. एड. हैं। आप अध्यापिका पद पर कार्यरत हैं। शिक्षण कार्य में आप कर्त्तव्यनिष्ठ हैं । पारिवारिक एवं सामाजिक क्षेत्र में आप सेवा निष्ठ हैं। धार्मिक क्षेत्र में आपने बारह व्रतों को धारण किया है तथा जप, तप, सामायिक आदि अनुष्ठानों में संलग्न रहती हैं।
७.३५ श्रीमती रकोदेवी जैन :
641
आप लुधियाना निवासी श्रीमान् वेद प्रकाश जैन की धर्मपत्नी हैं। आपकी तप एवं दान में विशेष रूचि है । आपने ३० वर्षों तक वर्षीतप किया। अपने पिता श्री नौरियामल जैन की पुण्य स्मति में दो स्कूलों का निर्माण करवाया। आपने लुधियाना में चेरिटेबल डिस्पेंसरी, आचार्य सम्राट पू. श्री आत्मारामजी महाराज की समाधि, साध्वियों के लिए स्थानक, तथा अन्य अनेक संस्थाओं के निर्माण में सहयोग दिया है २६
७.३६ श्रीमती मूर्तिदेवी जैन :
आप मलेरकोटला निवासी श्रीमान् रतनलालजी जैन की धर्मपत्नी हैं। आपकी दान के प्रति विशेष रूचि है। आपने मलेरकोटला के स्थानक निर्माण में, कुप्पकलां आदीश्वर धाम के निर्माण में तथा आचार्य शिवमुनि जी, वाचनाचार्य मनोहरमुनिजी, के शास्त्र प्रकाशन में, महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया है। आप अपने नियमों के प्रति भी पूर्ण रूप से जागरूक हैं ।३०
७.३७ श्रीमती शकुंतला (मेहता) जैन :
1
आप पनवेल निवासी श्रीमान् सोहनराज जी मेहता की धर्मपत्नी हैं । २१.१०.१६५० में आपका जन्म हुआ था । श्री माणकचंद जी एवं श्रीमती उमरावबाई आपके सास ससुर हैं। श्री विरदीचन्द जी बांठिया एवं श्रीमती वर्धाबाई बांठिया आपके माता-पिता हैं । स्वाध्याय में आपकी गहरी अभिरूचि है। अखिल भारतीय श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कांफ्रैंस (महिला शाखा) कर्नाटक की आप अध्यक्षा हैं । त्रिशला महिलामंडल राजाजी नगर, बैंगलौर की आप मंत्री हैं। बैंगलौर महिला महासंघ की आप सक्रिय सदस्या हैं । १ ७.३८ श्रीमती टीबुबाई राजमलजी चोरड़िया :
आप रतलाम निवासी श्री राजमल जी चोरड़िया की धर्मपत्नी थी। श्री चंदनमल चोरड़िया आपके सुपुत्र हैं। आप रतलाम के महिला कला केन्द्र, महिला स्थानक, आयंबिल खाता तथा अन्य धार्मिक संस्थाओं के साथ जुड़ी हुई थी। आप प्रियधर्मी एवं दढ़ धर्मी सुश्राविका थी। संतों से ज्ञानार्जन करना एवं उनकी सेवा करना आपका शौक था। तंत्र-मंत्र एवं देवी देवता कुछ करेंगे आप इसमें विश्वास नहीं करती थी । ३२
७.३६ श्रीमती जिनेंद्र जैन :
आप आतमनगर लुधियाना निवासी श्रीमान् हीरालाल जैन की धर्मपत्नी थी। आपका जन्म १६३७ में हुआ था । रोपड़ निवासी श्रीमान् अमरनाथ जी जैन आपके पिता थे, तथा स्यालकोट निवासी श्रीमान् बसंतरायजी जैन आपके ससुरजी थे। आपका एक पुत्र संजीव तथा पुत्री नीरू जैन है। आप अत्यंत विनम्र, सरल एवं सुशीला सुश्राविका थी। आप धर्मनिष्ठ, कर्त्तव्यनिष्ठ, एवं सेवा भावी सन्नारी थी । श्री महावीर जैन युवक संघ, आचार्य श्री आत्माराम जैन सेवा संघ, श्री जैन मुनि श्यामविहार चैरिटेबल ट्रस्ट, देवकी देवी जैन मेमोरियल कॉलेज ऑफ वीमेन, जिनेन्द्र गुरूकुल पंचकूला, आत्म पब्लिक सीनियर सेकण्डरी स्कूल आत्मनगर लुधियाना, सन्मति मैत्री सेवा संघ जगराओं, लुधियाना ऑइल इंजन डीलरस् असोसिएशन आदि अनेक सामाजिक संस्थाओं से जुड़ी थी । ६७ वर्षीय जिनेन्द्र जैन कैंसर से पीड़ित थी। समता से पीड़ा को सहन किया। और समता पूर्वक ही इस नश्वर देह का व्याग किया । ३ ७. ४० श्रीमती सुरेन्द्र कुमारी जैन :
आप प्रसिद्ध उद्योगपति एवं समाजसेवी श्री डी०के०जैन (चैयरमैन लक्सर पार्कर पेन) की मातेश्वरी थी। करोल बाग एस०एस० जैन महासभा के अध्यक्ष श्री सुशील कुमार जैन की आप बड़ी बहन थी । वयोवद्धा श्राविका श्रीमती सुरेन्द्र कुमारी जी दिल्ली जैन
Page #664
--------------------------------------------------------------------------
________________
642
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
कॉलोनी में बड़ी ही श्रद्धा से पू० शिवाचार्य जी के दर्शन व वंदन हेतु पधारी थी। २ जुलाई २००१ को वीर नगर चार्तुमास के प्रथम दिन की ही धर्म सभा में आपका निधन हो गया । ७७ वर्षीय श्रीमती सुरेन्द्र कुमारी जी बड़ी निष्ठावान समाज सेवी व धर्म थी। आप दानवीर थी। समाज ने सदैव आपको सिर आखों पर बिठाया । ७.४१ श्रीमती आनंदी बाई :
आप घोटी (महाराष्ट्र) निवासी श्रीमान रमेश पारसमल पिंचा की माता जी तथा भंवरीलाल पिंचा की धर्मपत्नी थी। आपकी उम्र ६० वर्ष की थी। आपका अल्प बीमारी से १२ अगस्त को स्वर्गवास हुआ। स्वर्गवास के कुछ घंटे पहले जागरूकता के साथ आपने प्रत्याख्यान किये। आपने अपने जीवन में उपवास बेले तेले पंद्रह की तपस्या आडंबर रहित की। आपकी दान की भावना सदैव रही। समाज के साथ साथ जैन संतों की सेवा में आप पीछे नहीं रही। श्री कंचन कुंवरजी म.सा के वर्षावास में आपने शीलव्रत के प्रत्याख्यान अंगीकार किए। जैन अजैन सभी ने श्रद्धा से घोटी की इस सौभाग्यवती माता को अक्षुपूर्ण विदाई दी।३५ ७.४२ डॉ. जया जैन :
श्रीमती जया जैन का जन्म २७ फरवरी १६७६ को हुआ था। श्रीमती जया श्रीमान् कुलभूषणजी एवं श्रीमती कुशलजी की सुपुत्री हैं तथा जम्मू निवासी श्रीमान् रविकुमार जी एवं श्रीमती सुषमा ओसवाल की पुत्रवधु एवं श्रीमान् अमित ओसवाल की धर्मपत्नी हैं। आपने मणिपाल कॉलेज से बी.डी.एस. की डिग्री प्राप्त की है। तत्पश्चात मैसूर के एक अनुभवी डॉ. के साथ कार्य करते हुए अच्छी योग्यता प्राप्त की है। जम्मू में डेंटल विज़न' के नाम से अपना डेंटल क्लिनिक चला रही हैं। अपने व्यवसाय में अधिक निखार लाने के लिए आप अभ्यास हेतु यु.के. गई है। आप प्रसन्नचित, साहसी एवं दढ़ परिश्रमी महिला हैं। व्यवसाय के साथ ही आपका पारिवारिक, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन में भी अद्भुत सामजस्य है। ३६ ७.४३ श्रीमती मालहणा देवी :
प्रसिद्ध कवि माघ की धर्म पत्नी थी। बल्लालपंडित द्वारा रचित 'भोज प्रबंध में दोनों की परम दानशीलता का वर्णन है। लक्ष्मी की उन पर असीम कपा थी। एक बार राजा भोज कवि माघ की कीर्ति सुनकर उनका वैभव देखने श्रीमाल नगर आये। तभी से वे अनन्य मित्र बन गए। एक समय ऐसा आया जब दान देते देते माघ दरिद्र हो गया। वह राजा भोज की धारा नगरी में जा बसा। कवि माघ ने 'शिशुपालवधम्' नामक ग्रंथ की रचना की थी तथा अपनी पत्नी माल्हणादेवी के हाथ राजा भोज के पास भिजवाई। राजा भोज ने महाकाव्य खोलकर प्रथम श्लोक पढा तो मंत्रमग्ध हो गया। राजा भोज ने माल्हणादेवी को एक लाख स्वर्णमद्रायें भेंट में देकर विदा किया। जनश्रुति है कि माल्हणादेवी को राह में याचक मिल गए। उसने राजा से प्राप्त धन उनमें बांट दिया। घर पहुँचने पर उसने सारा वत्तान्त महाकवि को बताया। महाकवि ने प्रशंसा करते हुए कहा 'तुम मेरी मूर्तिमती कीर्ति हो । पतिपरायणा माल्हणादेवी ऐसी परम. दानवीर थी।३७ ७.४४ गौतमी बीबी :
आप राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द की बहन और बड़ी विदुषी जैन महिला थी। आपने 'श्रीमद् रत्नशेखर सूरि कत गुणस्थान क्रमारोहणनामक ग्रंथ की रचना की जिसमें मूल संस्कत ग्रंथ का अनुवाद और व्याख्या है। यह ग्रंथ संवत् १६५४ में प्रकाशित हुआ था। इनके बारे में अधिक विवरण उपलब्ध नहीं है। ७.४५ श्रीमती कौशल्या जैन :
आप उदयपुर निवासी श्रीमान् राजमलजी कोठारी की धर्मपत्नी हैं। आपने डॉ उदयचंद्र जैन के निर्देशन में समीर मुनि का व्यक्तित्व एवं विषय इस विचार पर पी.एच.डी. की है। आपको बेस्ट टीचर' के अवार्ड से राजस्थान बोर्ड की ओर से सम्मानित किया गया है। ७.४६ डॉ. वीणा जैन :
आप जालंधर निवासी श्रीमान् इंद्रकुमारजी जैन एवं श्रीमती पुष्पा जैन की सुपुत्री हैं। दिल्ली पश्चिम विहार निवासी इंजीनियर
,
Page #665
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
-
श्रीमान् सी.पी. जैन की धर्मपत्नी हैं। आपने मनोविज्ञान तथा संस्कत में डबल एम. ए., बी. एड., एम.एड, तथा पी. एच. डी. की शिक्षा प्राप्त की है। आपने मादीपुर में प्रशिक्षण केंद्र खुलवाया जिसमें अनुसूचित जाति की महिलाओं, बच्चों एवं भाई-बहनों को कम शुल्क पर कम्प्यूटर प्रशिक्षण, शॉर्ट-हैंड टाईप, इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स, सिलाई-कढ़ाई, ड्रेस डिजाईनिंग आदि का प्रशिक्षण दिया जाता है। आपने 'स्ट्रेटिजीस डैट फेसिलिटेट द सस्टैंड पार्टिसिपेशन ऑफ शेड्यूल कास्ट विमेन इन एडल्ट एजूकेशन प्रोग्राम इन दिल्ली' इस विषय पर अपना शोध कार्य किया है। सामाजिक क्षेत्र में आप गुरू पदम सिलाई केंद्र (पश्चिमी विहार), एवं दिल्ली प्रदेश महिला संघ की मंत्री पद पर आसीन हैं। गुरू पदम प्रशिक्षण केंद्र ( पश्चिमी - विहार) की सलाहकार पद पर रहते हुए समाज को सेवाएँ दे रही हैं |
७.४७ श्रीमती पद्मा जैन :
643
आप श्रीमान् नाहरसिंहजी जैन तथा श्रीमती केवल जैन की सुपुत्री हैं। दिल्ली निवासी श्रीमान् विद्यासागर जी एवं श्रीमती रेशमदेवी की पुत्रवधु एवं श्रीमान् होशियारसिंह जैन की धर्मपत्नी हैं। श्रीमती पद्मा जैन ने एल. एल. बी. तक की शिक्षा दिल्ली शहर में संपन्न की। आप प्रैसीडेंट ऑफ इंडिया की सरकारी वकील रही हैं, साथ ही विमन लॉयर्स कॉफ्रैंस दिल्ली में सात आठ वर्षो तक सचिव पद पर प्रतिष्ठित रह चुकी हैं। इनके कार्यकाल में महिला कोर्ट ने महिलाओं के लिए चुनावी मैदानों में आरक्षण प्रदान किये। कोर्ट में आपने बीमारी, उच्च शिक्षा तथा विवाह आदि में सहयोग देने के लिए एक छोटा सा क्लब भी बनाया है। शक्तिनगर दिल्ली में आप कई बार महिला मंडल के अध्यक्ष पद पर रह चुकी हैं। आपने बचपन रुही पंजाब प्रवर्तिनी पूज्य केसरदेवी जी म.सा. से धर्म का बोध प्राप्त किया है। सामायिक, स्वाध्याय आदि नियमों का निर्वाह करती हुई आप प्रसन्नता पूर्वक जीवन व्यतीत कर रही हैं। आप दिल्ली की प्रथम जैन महिला वकील हैं । ४१
७.४८ श्रीमती मनोरमा जैन :
आप दिल्ली निवासी हैं। श्रीमती मनोरमा जैन के माता-पिता मेरठ निवासी श्रीमती बसंती देवी जैन एवं राय बहादुर उल्फतराय जैन हैं। आपका जन्म १६३० का है। आपने बी.ए., एम.ए., पी.एच.डी., एल.एल.बी. तक की शिक्षाएँ प्राप्त की हैं। आप धार्मिक विचारों की महिला है। अपने लगभग सभी बड़े तीर्थों की यात्रा की है। देवदर्शन, स्वाध्याय आदि में भी आपकी रूचि है । ४२ ७.४६ कुमारी कुंदलता :
आप दिल्ली निवासी स्वर्गीय मेहताब सिंह जैन की सुपुत्री हैं। आपकी उम्र ३५ वर्ष की है। ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार करके आप ब्रह्मचारिणी का जीवन व्यतीत कर रही हैं। आपने एम.ए. तथा एल. एल. बी. तक की शिक्षा ग्रहण की है । रयाय तथा लेखन कार्य में आपकी विशेष रूचि है। वर्तमान में आप दिगंबर शास्त्रों पर प्रवचन लेखन के कार्य में संलग्न हैं । ४३
७.५० श्रीमती रमा रानी जैन :
आपका जन्म १४ जुलाई सन् १९७१ को कलकत्ता निवासी डालमिया परिवार में हुआ था। आप साहू श्री शांति प्रसाद जैन की धर्मपत्नी थी। आपकी शिक्षा राष्ट्रभक्त श्री जमनालाल बजाज जैन और बापू गांधी के सान्निध्य में हुई, जिसके कारण आपके हृदय में लोक कल्याण की भावना घर कर गई। श्रीमती रमारानी जी पति के प्रत्येक कार्यों में सहयोग करती थी। आप उदारता, सहिष्णुता और संवेदनशीलता के गुणों से भरपूर थी । साहित्य और संस्कति के प्रति आपकी विशेष अभिरूचि थी। आपने सैंकड़ों ग्रंथों का संपादन और प्रकाशन कराया। आपने जैन धर्म के अनेक प्राचीन ग्रंथों का संपादन किया । ८ जनवरी सन् १९४४ को आपने ज्ञान पीठ की स्थापना की। देश को सांस्कतिक और साहित्यिक पहचान दी तथा ज्ञान पीठ की अध्यक्षता पद पर रहकर सेवायें अर्पित करती रही। मैसूर विश्व विद्यालय की जैन विद्या और प्राकत अध्ययन, अनुसंधान पीठ की स्थापना भी आपके द्वारा हुई जिसकी आप मेनेजिंग ट्रस्टी होने के कारण शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वर्तमान में इस ट्रस्ट के माध्यम से जैन तीर्थों का विकास भी हो रहा है। आपने १६४६ में 'ज्ञानोदय' मासिक पत्र का प्रकाशन भी कराया । ४४
Page #666
--------------------------------------------------------------------------
________________
644
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
७.५१ श्रीमती चिरोंजाबाई जैन :
__ आप शिकोहाबाद निवासी मौजीलाल जैन की सुपुत्री तथा टीकमगढ़ (म. प्र.) निवासी श्रीमान् भैयालालजी सिंधई की धर्मपत्नी थी। आपने अपना संपूर्ण जीवन शिक्षा एवं ज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए समर्पित किया। आपने निम्नलिखित संस्थाओं की स्थापना की। यथा : काशी में संस्कत महाविद्यालय, जवलपुर तथा खुरई में वर्णी गुरूकुल महाविद्यालय, ललितपुर में वर्णी इंटर कॉलेज एवं वर्णी महिला कॉलेज की स्थापना, खतौली (उ.प्र.) में सन् १६३५ में कुंद-कुंद विद्यालय की स्थापना, शाहपुर में विद्यालय, बीना में श्री दिंगबर जैन संस्कृत महाविद्यालय, द्रोणगिरी पर गुरूकुल जैन पाठशाला, कटनी में पाठशाला, बुंदेलखंड के सागर नगर में सतर्क सुधा तरंगिणी जैन पाठशाला, इसी प्रकार पपौरा साढ़मल, मालथौन, मडावरा आदि स्थानों में विद्यालयों की स्थापना कराई। ये सारी शिक्षण संस्थायें सांप्रदायिक संकीर्णता की भावना से बहुत ऊपर उठकर स्थापित हुई। इन संस्थाओं ने धर्म, जाति, गरीब, अमीर के भेद से रहित होकर सभी वर्गों को समान रूप से सहयोग दिया है। चिरोंजाबाई का देहावसान ७५ वर्ष की आयु में हुआ था। ७.५२ विदुषी रत्नकुँवर बीबी :
आप मुर्शिदाबाद निवासी जगतसेठ गेलहड़ा गोत्रीय शाह हीरानंद की पुत्री, बनारस निवासी राजा डालचंद की पुत्रवधू एवं श्री उत्तमचंद जी जैन की धर्मपत्नी थी। आप संस्कत की पंडित थी। छहों शास्त्रों की तथा फारसी जबान की ज्ञाता थी। आपको युनानी और भारतीय चिकित्सा पद्धतियों का ज्ञान था। आपने 'प्रेमरत्न' नामक ग्रंथ संवत् १८४४ में प्रकाशित करवाया था। दी हेरीटेज ऑफ इंडिया सीरीज़ में भी आपके इस भक्ति काव्य संग्रह 'प्रेमरत्न' का वर्णन है। मुंशी देवीप्रसाद से संवत् १८६२ में प्रकाशित महिला मुदुल वाणी' में आपकी गणना महिला-रत्नों में की है। भारतीय भाषाविद् सर जी.ए. ग्रीयर्सन मार्डन वरनाकुलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान में बड़े सम्मान से आपका उल्लेख किया है। आप प्रतिदिन योगाभ्यास एवं नियमों का पालन करती थी। आपके पौत्र शिवप्रसाद सितारे हिंद, भारत सरकार में विद्यालय विभाग के तत्कालीन निदेशक रह चुके हैं। बीवी जी का स्वर्गवास १८६६ में हुआ था। उस समय आपकी उम्र लगभग ६५ वर्ष की थी।४६ ७.५३ प्रोफेसर डॉ. सुनिता जैन :
आप बंसतकुंज नई दिल्ली की रहने वाली हैं। आपने अंग्रेजी में एम.ए. न्यूयॉर्क की स्टेट यूनिवर्सिटी से किया था तथा डॉक्टरेट की उपाधि अमेरिका की लेब्रास्का विश्वविद्यालय से प्राप्त की थी। आप प्रभावशाली व्यक्तित्व वाली महिला है। अब तक साठ (६०) कतियाँ आपकी प्रकाशित हो चुकी हैं। भारत सरकार द्वारा आपको पद्मश्री अवार्ड से विभूषित किया गया है। प्रसिद्ध सामाजिक संस्था अहिंसा इंटरनेशनल द्वारा भी आपको सम्मानित किया जा चुका है। आप अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त लेखिका है। डॉ. सुनिताजी अमेरिका से 'वीलैंड' सम्मान तथा मेरीसेंडोजप्रेरी स्कूनर' सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं। इसके अतिरिक्त आप 'निराला साहित्यकार सम्मान एवं 'महादेवी वर्मा सम्मान' भी प्राप्त कर चुकी हैं। आप २००२.व२००४ के लिए इंदिरा गाँधी फेलो भी चुनी जा चुकी है। आपने अमेरिका, लंदन, नेपाल, बेंकॉक, मारीशस में प्रायोजित अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भी भाग लिया है। ७.५४ श्रीमती लाड़देवी बोथरा :
आप जयपुर निवासी श्रीमान् उग्रसिंह जी बोथरा की धर्मपत्नी थी। आपका जन्म संवत् १६८२ में हुआ था |तथा स्वर्गवास २३ फरवरी १६८३ को हुआ था। आपने १७ वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन किया था तथा ३० वर्ष तक तपस्या में लीन रही। ४२ व्रत, दो मासखमण, निरन्तर १०१ आयंबिल, वर्षों तक एकांतर तप, चप्पल जूते का त्याग, २० वर्षों तक हरी सब्जी का पूर्ण त्याग, चार द्रव्यों की मर्यादा प्रतिदिन दो विगय से ज्यादा सेवन न करने का नियम ग्रहण किया था। आप गुप्त दानी थी। आप सम्यगज्ञान प्रचारक मंडल की सहमंत्री थी। आपने जैन संप्रदाय के सभी साधु-सतियों की समान भाव से सेवा की थी। आपका अंधिकाश समय जप-तप, मौन, ध्यान, स्वाध्याय में व्यतीत होता था। ७.५५ डॉ. हीराबाई बोरडिया
आपका जन्म सम्वत १६८१ में उज्जैन (म.प्र.) में हुआ था। आपका विवाह सन् १६३२ में मुंबई के निवासी डॉ. नंदलाल जी बोरदिया के साथ संपन्न हुआ। शिक्षा के क्षेत्र में आपने बी.ए., एम.ए. तथा डावरेट की है १६७६ में शोध प्रबंध जैन धर्म की प्रमुख
Page #667
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
645
साध्वियाँ एवं महिलाएँ इस विषय पर डॉक्टरेट की उपाधि ग्रहण की। भारत की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में आपके विशिष्ट लेख प्रकाशित होते रहते हैं। आपके संस्कारों के प्रभाव से आपके सुपुत्र डॉ. ब्रह्मचारी अशोक ने सर्वस्व त्याग कर साधु जीवन अपना लिया है। समाज सेवा क्षेत्र में आपने सिटी हॉस्पिटल, क्लीवलैंड ओहियो (अमेरिका) में मेडिकल सोशल वर्कर के रूप में सेवाएँ दी तथा फ्रांस, डेनमार्क, जर्मनी, स्विटजर लैंड और ब्रिटेन आदि देशों में भी सेवा हेतु भ्रमण किया है। चार वर्ष तक इंदौर नगरपालिका की मनोनीत पार्षद रही है। आप मानसिक चिकित्सालय की सदस्या भी मनोनित हुई थी। क्षय पीड़ित सहायक संघ उत्पादन केंद्र की मंत्री, बाल-कल्याण समिति दिल्ली की कार्यकारिणी की सदस्या, भारत स्काउट एण्ड गाइड्स के जिला संघ की अध्यक्षा, तथा राबर्ट नर्सिंग होम इंदौर की कार्यकारिणी की सदस्या भी रह चुकी है। अखिल भारतीय श्वेतांबर स्थानकवासी जैन कॉन्फरेन्स की कार्यकारिणी की सदस्या तथा कॉन्फरेन्स के विभाग की अध्यक्षा रह चुकी है।४६ ७.५६ सोनियारानी जैन:
कुमारी सोनिया रानी चेन्नई निवासी श्रीमान् चंदुलाल जी एवं श्रीमती मधुबाला लूंकड़ की सुपुत्री है। आपका जन्म २१ नवम्बर सन् १९८५ का है। २२ वर्ष की छोटी उम्र में कप्तान बनने वाली एकमात्र पाइलट सोनियारानी जैन है। इन्होनें इंडियन एअर-लाइन्स से इंदिरा गांधी राष्ट्रीय युरान अकादमी द्वारा (Multi-Engine-King Air C-90A) की उड़ान भरी है। इन्हें एअर इंडिया तथा इंडियन एअर लाइन्स में कार्य करने हेतु आमंत्रण पत्र आ चुके हैं। जे. आर. डी. टाटा ट्रस्ट ने तीन लाख रूपए की छात्र-वत्ति प्रदान कर इन्हें सम्मानित किया है। आप जैन धर्म के प्रति आस्थावान है व सौम्य सुशील एवं मदु स्वभाव वाली युवती है। ५० ७.५७ श्रीमती त्रिशला जैन:
श्रीमती त्रिशला जैन के माता-पिता श्रीमती शकुंतला देवी विलायती राम जैन हैं। आपका जन्म ४.११.१६४६ को लुधियाना में हुआ था। वर्तमान में आप जगराओं में निवास कर रही हैं। आप एम.ए., बी.एड. हैं। आप शिक्षा के क्षेत्र में तथा समाज सेवा में ३५ वर्ष से सेवाएं दे रही हैं। स्वामी रूपचंद जैन सीनियर सेकण्डरी पब्लिक स्कूल की संस्थापक एवं प्रिंसीपल हैं सन्मति मात सेवा संघ व सन्मति विमल जैन सीनियर सेकंडरी स्कूल जगराओं की सेक्रेट्री, आर्य विद्या मंदिर (जगराओं) एवं जैन मुनि विमल सन्मति चेरीटेबल ट्रस्ट (कुप्पकला) की भी आप सेक्रेट्री हैं। ७.५८ सोनिका जैन:
आप जण्डियाला गुरू (पंजाब) में श्रीमान् अमन कुमार सुपुत्र श्री आजाद भूषण जैन की धर्मपत्नी हैं। आप पदमपुर राजस्थान निवासी अभय कुमार जैन की सुपुत्री है। आपने तीन दिन में भक्तामर स्तोत्र तथा एक दिन की अल्प अवधि में प्रतिक्रमण सूत्र कंठस्थ कर लिया था। ७.५६ प्रतिभा जैन (जीरा पंजाब):
आप श्री सतपाल जैन की धर्मपत्नी हैं। आप रायकोट (पंजाब) निवासी श्री तरसेम चन्द जी जैन की सुपुत्री हैं। आपने १६ वर्ष की उम्र में तीन दिन में भक्तामर स्तोत्र (संस्कत) कठस्थ किया था। इसमें उपाध्याय पूज्य केवल मुनि जी मा. सा. की प्ररणा रही थी। ७.६० डॉ सुधा कांकरियाः____ आप अहमदनगर (महाराष्ट्र) की निवासिनी है। आप अंतर्राष्ट्रीय कीर्तिप्राप्त नेत्रचिकित्सालय 'साईसूर्य नेत्रसेवा' की संचालिका हैं। 'विवाह दष्टि भेंट योजना' के अंतर्गत आप निर्धन, विवाह योग्य युवतियों के लिए चश्में का नंबर कम करने के लिए मुफ्त शिविरों का आयोजन करती हैं। इसी प्रकार अंधत्व निवारण योजना, वा नेत्रदान योजना के अंतर्गत आप ‘मान कन्हैया आई बैंक' की संचालिका हैं। इस संस्था के दारा स्वतंत्र सैनिकों के लिए मुफ्त नेत्रसुविधा उपलब्ध कराई जाती है। इसी प्रकार गहकुल योजना है। जो अंधों के लिए चलाई जाती है। पुनर्वसन योजना, निसर्गोपचार, अध्यात्म योग साधना के माध्यम से रोग प्रतिबंधक योजना, साईदष्टि यात्रा आई क्लीनिक द्वारा छोटे ग्रामों की जनता को नेत्रसेवा उपलब्ध कराने आदि सभी योजनाओं के अंतर्गत आप अपनी
Page #668
--------------------------------------------------------------------------
________________
646
सेवायें अर्पित कर रही हैं। साहित्यिक क्षेत्र में डॉ सुधा ने मराठी भाषा में नयन उत्सव, तिन्हीसाजा, स्वतंत्रता ते भगवती नामक काव्य संग्रह की रचना की है। नेत्रदान विशेषांक, पर्यावरण विशेषांक, अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेषांक, स्पंदन स्त्री मनाचे, बसंतऋतु हिरवा आदि ग्रंथों का संपादन किया है। स्वप्न आपणा सर्वाचे, पोलियो मुक्त भारताचे, नेत्र आरोग्य विषयक दष्टि ग्रंथ, याचि देहि याचि डोला, प्रिय सोनुली, पाणी सोनुली, आदि समाज को जागत करने वाली लेखमालाएँ प्रकाशित करवाई है। इसी प्रकार एड्स एक महासंकट आदि एकांकी, चित्रकाव्य प्रदर्शनी भी आपने ६ वर्षो तक प्रदर्शित की ।
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
सांस्कृतिक क्षेत्र में आप भरतनाट्यम और कुचीपुड़ी नत्य में विशारद हैं। पर्यावरण क्षेत्र में, महिला और बालकल्याण के क्षेत्र आपका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आपके द्वारा सामाजिक, सांस्कतिक साहित्यिक, आदि विविध क्षेत्रों में दी जानेवाली सेवाओं के लिए विभिन्न संस्थाओं द्वारा २४ के लगभग पुरस्कारों से सम्मानित की गई हैं। आपके नाम से साहित्य कलायात्री संस्था द्वारा डॉ सुधा कांकरिया गौरव विशेषांक प्रकाशित किया गया है। नॉन स्टॉप बारह घंटे 'नत्य आराधना' के लिए ज्येष्ठ अभिनेत्री नत्यांगना जयप्रदा द्वारा नत्यतिलका पुरस्कार के विशिष्ट पुरस्कार से आपको सम्मानित किया गया। रोटरी ऑप्रिसिएशन और बेस्ट इनरव्हील प्रेसिडेंट पुरस्कार तथा सामाजिक योगदान के लिए विजयरत्न एवं ग्लोरी ऑफ इंडिया इंटरनेशनल अवार्ड के विशिष्ट पुरस्कार द्वारा आप को सम्मानित जा चुका है। इस प्रकार छोटी उम्र में बहुमुखी कीर्ति को अर्जित करनेवाला यह व्यक्तित्व वर्तमान की श्राविकाओं के लिए एक महत्वपूर्ण प्रेरणास्त्रोत है । ५४
७.६१ डॉ पूनम जैन
आप नालागढ़ निवासी श्रीमान् स्व. डॉ. प्रवीण जैन की धर्मपत्नी हैं। आपका जन्म १६६१ में हुआ था। अपने बी. डी. एस. की शिक्षा गुरू नानक देव यूनिवर्सिटी अमतसर से प्राप्त की थी। आप वर्तमान में सिविल हॉस्पिटल नालागढ़ में सरकारी नौकरी कर रही हैं। आप डॉ. प्रवीण जैन मेमोरियल ट्रस्ट' नालागढ़ द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित फ्री आई कैंप में सहयोग देती हैं। आप हिमाचल प्रदेश स्टेट डेंटल कौंसिल की सदस्या तथा बद्दी इकाई इंडियन डेंटल एसोसिएशन के उपाध्यक्ष पद पर कार्य कर चुकी हैं । आप शुद्ध शाकाहार की प्रेरिका हैं । ५५
७.६२ श्रीमती सविता जैन
आपका जन्म रायकोट में सन् १६५५ में हुआ था । आप स्व. डॉ दीवानचंद जैन एवं अध्यापिका कमला देवी जैन की सुपुत्री - है ।। जम्मू निवासी श्रीमान् जोगेंद्रलालजी एवं श्रीमती सत्यारानी की पुत्रवधू एवं श्रीमान् सूर्यरत्न जैन की धर्मपत्नी हैं। आपने बी. ए., हिन्दी प्रभाकर, एंव ओ.टी की शिक्षा ग्रहण की है। आप लगभग २५ वर्षो से अध्ययन कार्य में सेवायें दे रही हैं।, निर्धन एवं निरक्षर बच्चों को आप पढा रही हैं। आप ३५ वर्षों से साहित्यिक रचनायें, कविताएँ, निबंध, कहानियां तथा स्वंम के बनाए गीत रचना भी प्रकाशित करवा रही हैं । २६ वर्षो से जम्मू रेडियों स्टेशन पर निरन्तर धार्मिक एवं सामाजिक कार्यक्रम प्रस्तुत करती आ रही है। इसी संदर्भ में बच्चों के अनेकों बार सांस्कतिक कार्यक्रम आपने बाल भवन दिल्ली में भी प्रस्तुत किये हैं। आप अपने पति के व्यवसाय में भी पूर्ण सहयोग देती हैं। आपने श्राविका के बारह व्रतों को ग्रहण किया है। ११ से १५ अठाईयां, ३० तथा ७२ उपवास की लम्बी तपस्यायें आपने संपन्न की हैं। इस प्रकार धर्म, समाज एवं शिक्षा के क्षेत्र में आपका समाज को अपूर्व योगदान हैं। स्वाध्याय में भी आप रूचि रखती हैं । ५६
७.६३ श्रीमती प्रेम जैन:
आप लुधियाना निवासी श्रीमान अभयकुमार जैन एवं शीलादेवी जैन की सुपुत्री तथा दिल्ली निवासी कुलभूषण जैन की धर्मपत्नी हैं। आपने १ से १६ तक की लड़ी, २१. ३१. ५१. की दीर्घ तपस्यायें ३० ७२ १०८ तथा छः माह का दीर्घ आयंबिल तप, आयंबिलों की ३० ओली तथा २० स्थानक आयंबिल तप की ओली आदि विविध तपस्यायें संपन्न की हैं। आप स्वाध्याय में विशेष रूचि रखती हैं तथा साधु साध्वियों की सेवा में अम्मा, पिउ के भाव से लगी रहती हैं। महासती कौशल्यादेवी जैन पुस्तकालय वीर नगर की आप कुशल संचालिका भी हैं । ५७
Page #669
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
७.६४ सेठानी हरकौर जी:
आपका समय वि.सं. १६०१ से १६२० तक का है। आप मुंबई के सेठ मोतीचंद नाहटा की सुपुत्री, श्रीमान् केसरी सिंह जी की पुत्रवधु एवं अहमदाबाद निवासी सेठ हठी सिंह जी की तीसरी पत्नी थी। आपने धार्मिक ज्ञान में पंच प्रतिक्रमण, जीवाजीव विचार, नवतत्व आदि का ज्ञान प्राप्त किया था। आपने पति के साथ रेशम और कीरमच के व्यापार में सफल सहायिका का काम किया था। सेठानी हरकौर ने अहमदाबाद में दिल्ली दरवाजे पर बावन जिनालयों का विशाल जैन मंदिर बनवाया तथा दूर देशों से कारीगर बुलवाकर संवत् १६०३ में सेठानी ने मंदिर का निर्माण कार्य पूरा करवाया था। समारोह पूर्वक आचार्य शांतिसागर सूरि के हाथों प्रतिमाएं स्थापित करवाई। मूर्ति प्रतिष्ठा के समय सेठानी ने एक लाख जैन धर्म के नुमाइंदों को परदेशों से आमंत्रित किया था। शत्रुजय तीर्थ की मिशाल पर बने मंदिर पर उसने आठ लाख रूपए खर्च किये थे। सम्मेदशिखर एवं अन्य तीर्थों की यात्रा के लिए उसने अनेक संघ निकाले । सरकार ने उन्हें नेक नामदार सरवावत बहादुर का खिताब बख्शा। उस युग में वो हरकौर सरकार के नाम से प्रसिद्ध हुई। संवत् १६२० तक के शिलालेख एवं प्रशस्तियों में सेठानी हरकौर का नाम उपलब्ध होता है। इस प्रकार इतने बड़े व्यापार की अनेक शाखाओं का कुशलतापूर्वक संचालन करनेवाली एवं धार्मिक संघों का नेतत्व करनेवाली यह एक मात्र नारी रत्न है, जिसमें स्त्री शक्ति के चमत्कारों के दर्शन हुए।५८ ७.६५ सती पाटणदे
आप मंत्री श्री दयालदास की धर्मपत्नी थी। बादशाह औरंगजेब की फौज ने जब चित्तौड़ पर हमला किया, तब इस वीरांगना ने स्वयं अपने पति के साथ मिलकर युद्ध में लड़ाई लड़ी। एक बार जब शत्रु सेना ने उन्हें घेर लिया तब पाटणदे ने अपने पति से कहा कि वे तलवार चलाकर उसे मार दें ताकि शत्रु उसे पकड़कर उसकी देह को अपवित्र न कर सके। इस सती के हाथों से झील की नींव रखी गई थी। ओसवाल जाति के इतिहास में वीरांगना सती पाटणदे का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है।५६ ७.६६ कंकुबाई जैनः
आप सेठ हीराचंद मेमचंद जैन की सुपुत्री था। आप अल्प आयु में ही वैधव्य को प्राप्तहो गई थी।किंतु आपने अपने जीवन को धर्म एवं साहित्य सेवा में समर्पित कर दिया। जैन महिला समाज में ज्ञान का प्रचार एवं प्रसार किया। चरित्रशुद्धिव्रतकथा, जैन
ह (१६२१) देवसेनाचार्य कत तत्वसार तथा अमतचंद्राचार्य कत समयसार टीका के श्लोक का अनुवाद (१६२३) एवं । पद्मनंदि आचार्य कत अनित्यपंचाशत् का अनुवाद (१६२५) आदि आपकी प्रकाशित रचनाएँ हैं। महावीर ब्रह्मचर्याश्रम कारंजा में आपकी स्मति में कंकुबाई धार्मिक पाठ्य पुस्तकमाला स्थापित की गई है जिसमें दस पुस्तकों का संस्करण प्रकाशित है। ६० ७.६७ मनमोहिनीदेवीः - (वि० सिं० २०३२)
अजमेर निवासिनी श्रीमती मनमोहिनी देवी ने "ओसवाल; दर्शन दिग्दर्शन" नामक एक बध्दाकार ग्रंथ का प्रकाशन कराया है। लेखिका ने बड़ी विद्वत्ता के साथ इस ग्रंथ में ओसवाल जाति के उत्पत्ति संबंधी मत मतांतरों की समीक्षा प्रस्तुत की है,तथा जाति का गौरव बढ़ानेवाले इंतिहास पुरुषों तथा विशिष्ट घटनाओं का उल्लेख भी किया है। ओसवालों के पंद्रह सौ गोत्रों की क्रमवार सूची है,। ढाई सौ बहद् पष्ठों में हजारों ओसवालों के परिचय युक्त चित्र प्रकाशित करने से यह ग्रंथ बहदाकार बना तथा नाम की उपादेयता भी सिद्ध हुई।६१ ७.६८ श्रीमती पुष्पादेवी कोटेचाः
ओसवाल श्रेष्ठि रतनलालजी कोटेचा की वह धर्मपत्निी थी। सन् १६.२ (वि. सं. १६६८) में सूरत के जन सत्याग्रह में भाग लेने के फलस्वरूप आप गिरफ्तार कर ली गई एवं दंडित हुई ! आपने दण्ड स्वरूप हुआ जुर्माना न देकर जेल जाना पसन्द किया।६२ ७.६६ श्रीमती सरस्वती देवी रांकाः
___ आप कलकत्ता में राष्ट्रीय आन्दोलन में अग्रणी श्री सरदारसिंह जी महनोत की भतीजी एवं नागपुर के प्रसिद्ध कांग्रेसी कार्यकर्ता श्रीपूरणचन्द जी रांका के अनुज की धर्मपत्नी थी। अतः राष्ट्रीय आन्दोलन से आप सहज ही जुड़ गई। गांधी जी के
Page #670
--------------------------------------------------------------------------
________________
648
असहयोग आन्दोलन में सरकारी यातनाओं की परवाह न कर आपते दो बार जेल गई। विदेशी कपड़े की दुकानों पर पिकेटिंग में आपने कई बार जत्थों का नेतत्व किया । सन् १६३० में हुए नमक सत्याग्रह में भी आप सुप्रसिद्ध ओसवाल महिला सज्जन देवी महनोत के साथ सक्रिय रही। नागपुर के सामाजिक कार्यो मे आपका अविस्मरणीय योगदान था। आपके असामयिक निधन से समाज की अपूरणीय क्षति हुई । ६३
७.७० श्रीमती धनवती बाई रांका:
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में ओसवालों के योगदान को चार चाँद लगाने वाली थी नागपुर के प्रसिद्ध समाज सेवी, श्री पूनमचन्दजी रांका की धर्म पत्नी श्रीमती धनवती बाई रांका । आप राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेनेवाली महिला थी। वे अनेक बार जेल गई। आपने खादी एवं चरखे को अपने जीवन का अंग बना कर समस्त जैन समाज को गौरव प्रदान किया ।६४ ७.७१ श्रीमती नन्दू बाई ओसवाल :
बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में महिलाओं की जिस क्रांति के दर्शन राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में हुए सामाजिक क्षेत्र भी उससे अछूता न रहा । श्रीमती नन्दू बाई ओसवाल उन अग्रगण्य महिलाओं में थी जिन पर समाज को गर्व हो सकता है। समाज सेवा और साहित्य के क्षेत्रों में आपका अवदान अविस्मरणीय है । ६५
७.७२ रमा बहन के शब्दो में:
हमारा कैम्प मिलिटरी कैम्प था । उसमें प्रत्येक प्रकार के शस्त्र संचालन और अनुशासन पालन सिखाया जाता था । 'झांसी की रानी रेजीमेंट' में दो विभाग थे। एक युद्ध विभाग और दूसरा नर्सिंग विभाग । युद्ध विभाग में मिलिटरी ड्रिल, रायफल प्रेक्टिस, पिस्तौल चलाना, मशीनगन चलाना सिखाया जाता था। नर्सिंग विभाग में घायलों की सेवा सुश्रूषा करना सिखाया जाता था। सभी बहनें निष्ठापूर्वक कार्य करती थी, इस आशा को लेकर कि हमारे प्रयत्नों से एक दिन भारत देश अवश्य स्वतन्त्र होगा । ६६ ७.७३ श्रीमती लेखवती जैन:
जैन जाति की सरोजनी नायडू कही जाने वाली श्रीमती लेखवती जैन प्रसिद्ध राजनैतिक कार्यकर्त्ता श्री सुमत प्रसाद जैन, एडवोकेट की पत्नी थी। लेखवती जी ने १६३० में कांग्रेस मे प्रवेश लिया था। उन्होंने कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में बतौर वालंटियर काम किया था । १६३१ में शिमला में असेम्बली पर पिकेटिंग की थी। श्रीमती जैन ने नमक सत्याग्रह एवं सविनय अवज्ञा आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया था । १६३३ में श्रीमती लेखवती जैन पंजाब प्रांतीय कौंसिल की मेंबर चुनी गयी थी। सारे हिन्दुस्तान में चुनाव में निर्वाचित पहली महिला सदस्य होने का गौरव उन्हें उस समय प्राप्त हुआ था। बाद में आप हरियाणा विधानसभा की स्पीकर भी रही । एक जागरुक महिला के रूप में वे सदा स्मरणीय रहेंगी । ६७
७.७४ श्रीमती विद्यावती देवड़िया :
श्रीमती विद्यावती देवड़िया विदर्भ गौरव नाम से विख्यात श्री पन्नालाल देवड़िया की पत्नी थी। देशभक्त पति की प्रेरणा से विद्यावती ने १६२६ में स्वतंत्रता आन्दोलन में प्रवेश किया । आन्दोलन मे जिस लगन और धैर्य का परिचय आप ने दिया वह नारी जगत के लिए गौरव की बात है। राष्ट्रीय आन्दोलनों से जुडी होने के कारण, आप अनेक बार जेल गयी। स्वतंत्रता आन्दोलन में सर्वप्रथम सन् १६३२ में दो आपको माह के कठोर कारावास तथा ५००० रुपये के जुर्माने या ६ सप्ताह के कारावास की सजा हुई थी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी आपको अपनी बेटी की तरह मानते थे । व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन में श्रीमती विद्यावती को ६ माह की सजा सुनाई गयी और नागपुर की सेन्ट्रल जेल में रखा गया । १६४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन में भी आप सक्रिय रहीं । फलतः आपको गिरफ्तार कर एक वर्ष तक जबलपुर जेल में रखा गया ।
७.७५ श्रीमती सरला देवी साराभाई :
श्रीमती सरला देवी साराभाई उद्योगपति श्री अंबालाल साराभाई की पत्नी थी। स्वतंत्रता आन्दोलनों में उन्होनें सक्रिय भाग लिया । १९३० में गांधीजी की दांडी यात्रा में महिलाओं का नेतत्व सरला देवी को सौंपा गया था । विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर
Page #671
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
649
धरना देने वाले जत्थों का भी वह नेतत्व करती थी। बा के निधन के बाद कस्तूरबा स्मारक ट्रस्ट का संचालन आपको सौंपा गया था ६६ ७.७६ श्रीमती सुन्दर देवी जैनः
१६४२ के स्वतंत्रता आन्दोलन में श्रीमती सुन्दर देवी जैन ने भाग लिया था। वे अपनी कविताओं से लोगों में देश-प्रेम की भावना भरती थी। ७.७८ श्रीमती अंगूरी देवीः
महान देशभक्त महेन्द्र कुमार जी जैन (आगरा) की पत्नी अंगूरी देवी स्वतंत्रता आंदोलन में अपने पति की सहयोगिनी बनी। २६ जनवरी, १६३० को पूर्ण स्वाधीनता दिवस मनाने के निर्देश पर की गई सार्वजनिक सभा में अंगूरी देवी ने सैनिक प्रेस की छत पर खड़े होकर भाषण दिया। फलस्वरुप आपको जेल भेज दिया गया। आप गर्भवती थी, फिर भी ६ माह की सजा सुनाई गई। नमक सत्याग्रह में उन्होंने सार्वजनिक रुप से नमक कानून को भंग किया। इस दौरान उनके साथ सरोजिनी नायडू भी थी, जिन्होंने जगह-जगह महिलाओं को सत्याग्रह की प्रेरणा दी। अंगूरी देवी को गिरफ्तार किया गया और ६ माह की सजा एवं जुर्माना हुआ। १६३२ के सत्याग्रह के बाद आप हिंसात्मक क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय हो गई। 'करो या मरो' आंदोलन में अंगूरी देवी ने आगरा में जुलूस का सफल नेतत्व किया। उनके साथ महिलाओं ने बड़ी संख्या में इस आंदोलन में भाग लिया। ७१ ७.७६ श्रीमती कमला देवी:
प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी एवं पत्रकार पंडित परमेष्ठीदास जैन (ललितपुर) की धर्म पत्नी श्रीमती कमला देवी ने राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेकर जैन नारियों का गौरव बढ़ाया। १६४२ के जन आंदोलन में आपने सक्रिय भाग लेकर सामाजिक परंपराओं के दायरे में नारी वर्ग को एक दिशा प्रदान की। सभाबंदी कानून भंग करके सभा में भाषण देने के कारण आपको साबरमती जेल में पांच माह रहना पड़ा/७२ ७.८०कांचन जैन मुन्नालाल शाह:
पूज्य बापू के आश्रम में अनेक वर्षों तक रहने वाली कांचन जैन मुन्नालालशाह का जन्म चिखोदरा (गुजरात) में हुआ था। बाद में वह वर्धा (महाराष्ट्र) प्रवासिनी हो गई थी, देश की आजादी को ही अपना सर्वोच्च लक्ष्य निर्धारित करने वाली कांचन जैन ने १६४२ के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रियता से भाग लिया और एक वर्ष बारह दिन का कारावास भोगा/७३ ७.८१श्रीमती केशरबाई:
भारत माता के चरणों में सर्वस्व न्यौछावर करने वाली केशरबाई ललितपुर निवासी श्री मोतीलाल जैन की धर्मपत्नी थी। महात्मा गांधी की प्रेरणा से श्रीमती केशरबाई आजादी के रणक्षेत्र में कूद पड़ी। वे नारी जाति को जागत करने में जुट गई और कांग्रेस की सक्रिय कार्यकर्ती हो गई। १६४१ का व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन प्रत्येक कार्यकर्ता को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित कर रहा था। श्रीमती केशरबाई ने तन-मन-धन से इस आंदोलन में भाग लिया। फलतः एक माह के कारावास की सजा उन्हें भोगनी पड़ी। ७.८२ श्रीमती गंगाबाई:
प्रसिद्ध देशभक्त वैद्य कन्हैयालाल जैन (कानपुर) की पत्नी श्रीमती गंगाबाई जैन अपने पति के कंधे से कंधा मिलाकर स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रही। साइमन कमीश्न वापस जाओ, दांडी यात्रा, नमक सत्याग्रह आदि आंदोलनों तथा सत्य, अहिंसा और भाईचारे की नीति ने गांधी जी को जनता के बीच में ला दिया था। इसी क्रम में १६३१ के आंदोलन के समय जब उत्तर प्रदेश कांग्रेस का जलसा श्रद्धेय पुरुषोत्तम दास जी टंडन के सभापतित्व में हुआ तो उसकी स्वागताध्यक्ष बनने के कारण श्रीमती गंगाबाई को ६ माह का कारावास झेलना पड़ा/७५
Page #672
--------------------------------------------------------------------------
________________
650
७. ८३ श्रीमती गोविन्द देवी पटवा :
जैन वीर महिलाओं में कलकत्ता की श्रीमती गोविन्द देवी पटवा का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। गांधी जी के आव्हान पर महिलाओं ने आंदालेन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। श्रीमती पटवा ने बड़ा बाजार कलकत्ता की विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर धरना देने वाले जत्थों का वीरतापूर्वक नेतृत्व किया था । सन् १९४२ में भारत छोड़ो आंदोलन में श्रीमती पटवा ने करो या मरो मंत्र के साथ बड़े उत्साह से भाग लिया । फलतः आपको गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में आपको अनेक यातनाएं सहनी पडी । ७६
७.८४ अमर शहीद जयावती संघवी :
अहमदाबाद गुजरात की कुमारी जयावती संघवी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की दीपशिखा थी, वह अपना पूरा प्रकाश दे भी नहीं पाई थी, कि उनका अवसान हो गया । ५ अप्रैल, १६४३ को अहमदाबाद नगर में ब्रिटिश शासन के विरोध में एक विशाल जुलूस निकाला जा रहा था। इसमें प्रमुख भूमिका जयावती संघवी निभा रही थी। अचानक पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़ने आरंभ कर दिए। नेतत्व करती जयावती पर इस गैस का इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि उनकी मृत्यु हो गई। भारत छोड़ो आंदोलन में भी आपने सक्रिय भाग लिया था, और इसके लिए उन्होनें एक माह की जेल यात्रा भी की थी 199
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
७.८५ श्रीमती मदुला बेन साराभाई:
श्रीमती मदुला बेन साराभाई को स्वराज्य की भावना विरासत में मिली थी। उनके पिता श्री अम्बालाल साराभाई पूज्य बापू के परम भक्त थे । माता सरला देवी ने दांडी यात्रा के समय महिलाओं का नेतत्व किया था। घर में देश भक्ति का वातावरण होने से बचपन से ही वे देश भक्ति और स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ गई थी। गुजरात की महिलाओं में जागति लाकर उन्हें संगठित एवं प्रशिक्षित करके स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढाने मे मदुला बेन सदैव सक्रिय रही। १६२७-२८ के सत्याग्रह में अहमदाबाद की युवा पीढ़ी के संचालन में उन्होंने अग्रणी भूमिका निभाई थी विदेशी कपड़ों की होली जलाने, शराब की दुकाने बंद कराने तथा धरना टोलियों के संगठन और संचालन में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी । १९४१ - ४२ में सत्याग्रहियों की देखभाल करने के लिए गांधी जी ने उन्हें नगर समिति का प्रमुख बनाया था। आंदोलनों का नेतत्व करने के कारण उन्हें दो बार जेल जाना पड़ा। कस्तूरबा गांधी के निधन के बाद गठित हुए कस्तूरबा गांधी ट्रस्ट में वे संगठन मंत्री बनीं। १९४१ के अहमदाबाद, १६४६ के मेरठ व १६४६-४७ के पंजाब व बिहार के साम्प्रदायिक दंगों के समय राहत कार्यों में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान था |
७.८६ श्रीमती माणिक गौरी:
श्रीमती माणिक गौरी प्रसाद गांधीवादी नेता श्री छोटालाल चेला भाई की धर्मपत्नी थी। श्रीमती गौरी अपने पति के कंधे से कंधा मिलाकर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेती रही। शराब बंदी के लिए उन्होंने हजारों समर्पित स्वयंसेविकाओं को तैयार किया । स्व सूत काती थी । १९२१ में जब विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई तो अपने पति के कपड़ों के साथ आपने अपने २००० रुपए के विदेशी कपडे भी जला दिए थे । ७६
७. ८७ श्रीमती राजमती पाटिल:
'राजूताई' या 'राजमती ताई' के उपनाम से विख्यात महाराष्ट्र की क्रांतिकारी महिला श्रीमती राजमती पाटिल ने अपने कार्यकलापों से क्रांतिकारियों को भरपूर सहयोग दिया। राजमती उनके पोस्टर और बुलेटिन तैयार कर के बांटने का कार्य करती थीं । ६ अगस्त १६४३ को तिलक चौक, शोलापुर में आपने तिरंगा झंडा फहराया, । फलतः आपको गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। जेल से रिहा होने के पश्चात् उन्होंने स्वेच्छा से क्रांतिकारियों की मदद करने का दायित्व संभाला। राजमती भूमिगतों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उनका सहयोग कर रही थी । यहीं उन्होनें हथियार चलाना सीखा। वे क्रांतिकारियों को खाद्य सामग्री आदि की आपूर्ति भी करती थी। अनेक अवसरों पर राजमती ताई ने क्रांतिकारियों को भरपूर सहयोग दिया । ६°
Page #673
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
651
७.८८श्रीमती लक्ष्मी देवी जैन:
सहारनपुर की श्रीमती लक्ष्मी देवी जैन संविधान निर्मात्री सभा के सुप्रसिद्ध सदस्य स्व० अजित प्रसाद जैन की पत्नी थी। १६३३ में जब स्वतंत्रता आंदोलन विभिन्न रूपों में चल रहा था, तब सहारनपुर में महिलाओं के लिए एक स्त्री समाज की स्थापना हुई जिसकी प्रमुख कार्यकर्वी लक्ष्मी देवी थी। पति के साथ ही आप भी मिलकर मातृभूमि को स्वतंत्र कराने में सक्रिय हो गई। १६४१-४२ के देशव्यापी आंदोलन में जब आपने जेल यात्रा की तो कुछ महीने की पुत्री भी आपके साथ थी। ७.८६ श्रीमती लीला बहन एवं रमा बहनः
दोनों बहनें लोकप्रिय और प्रसिद्ध डॉक्टर थी। जब अंग्रेजों ने अश्रुगैस के गोले छोड़ने आरंभ कर दिए तब नेतत्व करती जयावती पर इस गैस का इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि उनकी मत्यु हो गई। ८२ ७.६० श्रीमती नन्हींबाई जैन:
सन् १६४२ के भारत छोड़ो आंदोलन में सभी प्रांतों की महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। लथकाना (सिरोहा) जिला जबलपुर (मध्यप्रदेश) की श्रीमती नन्हीं बाई जैन ने सन १६४२ में इस आंदोलन में भाग लिया। फलस्वरुप आपको - माह १८ दिन जबलपुर जेल में गुजारने पड़े। ७.६१ श्रीमती प्रभादेवी शाहः
अपने जीवन को देशसेवा के लिए समर्पित करने वाली और मत्यु के उपरांत अपने पार्थिव शरीर को अनुसंधान के लिए मेडिकल कॉलेज को समर्पित करने की घोषणा करने वाली श्रीमती प्रभादेवी शाह को देशप्रेम की भावना विरासत में ही मिली थी। प्रभादेवी शाह के मुख्य कार्य प्रभातफेरी लगाना, सूत कातना तथा विदेशी माल का बहिष्कार करना आदि थे। १६४२ के भारत छोड़ो
आंदोलन में वे सक्रिय रही। उनकी गिरफ्तारी का वारंट निकला पर सहयोगियों ने उन्हें गिरफ्तार नहीं होने दिया। ७.६२ ब्रह्मचारिणी पंडिता चंदाबाई:
जैन समाज की सेवा में समर्पित नारी जागरण की दिशा में उल्लेखनीय कार्यकर्वी तथा जैन बाला आश्रम आरा, की संस्थापिका पंडिता चन्दाबाई ने अनवरत परिश्रम से शिक्षा प्राप्त की। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी आदरणीया कस्तरबा गांधी, डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद, पंडित ज.एल नेहरू. सभाष चन्द्र बोस. आचार्य कपलानी आदि अनेक नेतागण राष्ट्रीय आंदोलन के जमाने में जैन बाला आश्रम की शिक्षा गांधी जी के द्वारा प्रतिपादित राष्ट्रीय शिक्षा के आधार पर की जाती थी। शिक्षा के संबंध में आप महात्मा गांधी से विचार विमर्श किया करती थी। आपने महिलादर्श नामक पत्र का संपादन शुरु किया था। आश्रम में महिलाओं को आप स्वदेशी वस्त्रों को धारण करने की प्ररेणा देती थी। आश्रम की समस्त शिक्षिकाएं एवं छात्राएं चर्खा कातती और कपड़ा बुनती थी। आपके क्रांतिकारी कार्यों के कारण सदैव आपका सम्मान होता था। अखिल भारतीय जैन महिला परिषद की स्थापना करके देश की महिलाओं में पर्दाप्रथा और दास्ता की भावना को दूर करने का प्रयास भी आपने किया था। ७.६३ श्रीमती प्रेम कुमारी विशारदः
__ श्रीमती प्रेम कुमारी ने १६४२ में भारत छोड़ो आंदोलन में खुलकर भाग लिया। आप गिरफ्तार कर ली गई और आपको नागपुर जेल में रहना पड़ा। जैन संदेश (जनवरी १६४७) में लिखा था, "आप कट्टर समाज सुधारक, देश भक्त और सादा लिबास में रहनी वाली खादी-प्रिय महिला है।८६ ।। ७.६४ श्रीमती फूलकुंवर बाई चोरड़िया :
__ अपने पति श्री माधोसिंह जी की प्ररेणा से देश सेवा के कार्यों में हिस्सा लेने वाली फूलकुंवर बाई ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। श्रीमती चोरड़िया एक जागरुक महिला थीं। सत्याग्रह और पिकेटिंग के दौरान अनेक बार उन्हें पुलिस की यातनाएं सहनी पड़ी थी। अजमेर सत्याग्रह में भाग लेने के कारण श्रीमती चोरडिया को ३ माह जेल में रहना पड़ा था।
,
Page #674
--------------------------------------------------------------------------
________________
652
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
श्रीमती की पुत्री चोरड़िया रमा बहन और पुत्रवधु लीलावती बहन आजाद हिन्द फौज की रानी झांसी रेजीमेंट में सक्रिय कार्य करती थी। लीलावती बहन के शब्दों में 'जब ब्रिटिश ने रंगून छोड़ दिया और जापानियों ने रंगून पर अधिकार जमा लिया तब कुछ समय के लिए आपाधापी मच गई थी। कई मास तक भारतीय स्त्रियां घरों से बाहर नहीं निकल सकी थी। हमने अपने मकान पर एक बोर्ड लगा दिया था कि इस घर में महात्मा गांधी, पंडित नेहरु तथा अन्य भारतीय नेता आकर ठहरे हैं। इस घर में नेशनलिस्ट भारतीय रहते हैं। इसे पढ़कर सोल्जर हमें कभी किसी तरह हैरान नहीं करते थे। २१ अक्तूबर १६४३ को वर्मा और मलाया में झांसी की रानी रेजीमेंट स्थापित करने का कार्य पूरा हुआ। तब रात दिन बम वर्षा होती रहती थी । आवश्यकता पड़ने पर हम खुले मैदान में हथियारों से सुसज्जित खड़ी रहती थी। हम घायलों की सेवा-सुश्रूषा करने और अस्पताल ले जाने का कार्य भी करती थी।" ७.६५ सर्वती बाई या सरस्वती देवी :
सर्वतीबाई का जन्म १६०६ के आसपास हुआ। आपके पिता का नाम श्री सांवलदास था। शादी के कुछ दिनों बाद ही वैधव्य का दारूण दुःख आप पर आ पड़ा। अतः आप अपने पिता के घर रहने लगी। राष्ट्रीयता की भावना आप में जन्मजात थी ही। पति के निधन के बाद आपने देशसेवा का निश्चय किया और विभिन्न आन्दोलनों में सक्रिय भाग लेने लगी। जिसके कारण आपको दो बार जेल यात्रा करनी पड़ी। आपने अन्य महिलाओं को भी इन आन्दोलनों में भाग लेने के लिए प्रेरित किया था। देशप्रेम के साथ-साथ हृदय में विद्यमान धार्मिक संस्कार आपको धार्मिक कार्यों में भाग लेने के लिए प्रेरित करते रहते थे। एक बार एक मुनि-संघ आगरा आया। आपने मुनिश्री के प्रवचनों को ध्यानपूर्वक सुना और दीक्षा धारण कर ली।८।। ७.६६ श्री सरदार कुंवर लूणिया :
अजमेर (राजस्थान) के प्रसिद्ध देशभक्त श्री जीतमल लूणिया की धर्मपत्नी श्रीमती सरदार कुंवर लूणिया पर्दाप्रथा का बहिष्कार करने वाली तथा राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने वाली ओसवाल जैन समाज की एक स्त्री रत्न थी। १६३३ में राष्ट्रीय आन्दोलन में आपने भाग लिया। जब लूणिया जी जेल चले गये तो कुछ समय बाद आपने विदेशी कपड़ों की दुकानों पर पिकेटिंग की, फलस्वरूप गिरफ्तारी हुई और छह महीने की जेल की सजा पाई। आप पांच-छह महिलाओं का जत्था लेकर गई थी। सभी गिरफ्तार कर ली गई। मजिस्ट्रेट ने आपको 'ए' क्लास तथा अन्य महिलाओं को 'सी' क्लास जेल में रखा। आपने इसका विरोध किया और अपने तीन वर्षीय पुत्र के साथ 'सी' क्लास में ही रही। ७.६७ श्रीमती सज्जन देवी महनोत :
उज्जैन (म. प्र.) के प्रसिद्ध स्वाधीनता सेनानी श्री सरदार सिंह महनोत की धर्मपत्नी श्रीमती सज्जन देवी महनोत का जन्म १६०४ के आस-पास ग्वालियर राज्य के राजप्रतिष्ठित श्री सुगनचंद भंडारी के यहाँ हुआ था। तत्कालीन पर्दा-प्रथा, दिखाऊ कुलीनता की आपने चिन्ता नहीं की और मिडिल (आठवीं कक्षा) तक शिक्षा ग्रहण की। १६३० के आन्दोलन में सरकारी आदेश की अवहेलना कर आप चार माह जेल में बन्द रही। १६३२ के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भी आपने जेल यात्रा की। १६४२ में आप अनेक बार गिरफ्तार हुई और छोड़ दी गई। १६४३ में आप नजरबंद हुई और १६४६ में छूटी। आपके पुत्र श्री राजेन्द्र कुमार महनोत और भतीजे श्री तेज बहादुर महनोत ने भी जेल की दारूण यातनायें सही। ७.६७८ श्रीमती शीलवती मित्तल :
श्रीमती शीलवती मित्तल प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बाबू नेमीशरण मित्तल की धर्मपत्नी थी। अपने पति के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर दो बार जेलयात्रा की। आप कांग्रेस की प्रत्येक सभा में भाग लेती थी। आपके पुत्र भी आपकी तरह राजनैतिक कार्यों में लगे रहे।६१ ७.६६ श्रीमती विद्या देवी जैन :
दिल्ली निवासी श्रीमान् शीतल प्रसाद जैन की आप धर्मपत्नी हैं। आपकी आयु ८५ वर्ष की है। आपने एम. ए. तथा एल. एल. बी तक की शिक्षा प्राप्त की है। आप कॉग्रेस एवं गांधीवादी विचारों से प्रभावित हैं। आप ३० वर्ष की आयु से ही स्त्री शिक्षा एवं
Page #675
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
653
नारी उत्थान के कार्यों में विभिन्न शिक्षा संस्थानों से पूर्ण रूप से जुड़ी हैं। स्वाध्याय, प्रवचन आदि के धार्मिक परिवेश से भी आप सतत् जुड़ी हुई। ७.१०० सुनिता गुप्ता :
आपके माता-पिता श्रीमती विद्यावती जैन एवं प्रकाशचंद जैन हैं। कलकत्ता निवासी श्रीमान् वेद प्रकाश गुप्ता आपके पति हैं। आपका जन्म १६५४ में हुआ था। एम. ए., एल.एल.बी., एल. एल. एम तक की शिक्षा आपने संपन्न की। १६८० में आप दिल्ली हाई कोर्ट में सिविल जज नियुक्त हुई। वर्तमान में श्रीमती गुप्ता तीस हजारी कोर्ट दिल्ली में जिला व सत्र न्यायाधीश के पद पर कार्यरत हैं। आप प्रतिदिन श्री पदम प्रभु जी, श्री पार्श्वनाथ भगवान श्री महावीर चालीसा महामंत्र नवकार एवं भक्तामरजी स्त्रोत का जाप करती हैं। जैन धर्म के प्रति आज भी आपकी श्रद्धा अटुट है।" ७.१०१ कुमारी अशोका :
आप दिल्ली निवासी स्व. श्री प्रकाशचंद जैन एवं श्रीमती सरलादेवी जैन की सुपुत्री हैं। आपने एल.एल.एन. तक की शिक्षा प्राप्त की है। आपने ३१ वर्ष तक अधिवक्ता का कार्य किया तथा बच्चों को नैतिक शिक्षा का अध्ययन करवाया। जिला उपभोक्ता निवारण फार्म की आप सदस्या रही व उच्च तथा उच्चतम न्यायालयों में स्नातक कार्यकर्ता के रूप में कार्य किया। इसके साथ ही आपने जैन तीर्थ यात्रायें की तथा जैन धर्म की लगभग सभी संस्थाओं से जुड़ी हैं । सन् २००१ से सामाजिक एवं कानूनी का- भों में रेडियो टेलिविजन पर आप प्रोग्राम देती आ रही हैं।६४ ७.१०२ श्रीमती वसुधा जैन :
आप श्रीमान् वेदप्रकाश जैन तथा श्रीमती मामकँवर जैन की सुपुत्री तथा पानीपत निवासी श्रीमान् पवन जैन की धर्मपत्नी हैं। आप जैन महिला संगठन एवं अग्रवाल महिला संगठन पानीपत की सदस्या रह चुकी हैं। स्वाध्याय में आपकी विशेष रूचि है। आप निर्धन लोगों के लिए आजीविका के साधन जुटाने में सहयोग देती हैं। आप चार वर्ष तक टप्पर वेअर कंपनी की वी.आई.पी. मेनेजर रह चुकी हैं। पूरे देश में इस व्यवसाय में वह प्रथम स्थान पर रह चुकी हैं। आपका जन्म १६५६ में हुआ था।५ ७.१०३ श्रीमती कृष्णावंती जैन :
आप मुंबई की रहने वाली हैं। आपका जन्म १६४६ में हुआ था। आप श्रीमती त्रिशलादेवी एवं श्रीमान् विमलप्रकाश जी की सुपुत्री एवं श्रीमान् रविंद्रकुमार जैन की धर्मपत्नी हैं। आप केनड़ा फाइनेंशियल इन्वेस्टमैंट स्टॉक मार्किट में व्यापार करती हैं एवं ऑइल एण्ड गैस प्रोडक्शन में अकांउटैंट हैं। आप दूध, शहद आदि का सेवन नहीं करती हैं। दूध के स्थान पर आप सोयाबीन एवं सूखा मेवा का दूध शुद्ध शाकाहार के रूप में ग्रहण करती हैं। ६ ७.१०४ श्रीमती बबीता जैन :
आप बी. आर. गुप्ता एवं सुलोचना देवी गुप्ता की सुपुत्री तथा श्रीमान् जगदीप जैन की धर्मपत्नी हैं। आपका जन्म १६६५ में हुआ था। आपने एम.ए. एम. फिल., एल. एल. बी. तक की शिक्षा प्राप्त की हैं। वर्तमान में आप बिज़नेस एण्ड टेक्सटाईल में एक्सपोर्टर हैं। प्रतिदिन भक्तामर का पाठ करती है तथा अठाई तप भी कर चुकी हैं। ७.१०५ प्रो० (डॉ०) विद्यावती जैन :प्रो० डॉ० विद्यावती जैन विदुषी परंपरा में पाण्डुलिपियों का प्रमाणिक संपादन व अनुवाद करने वाली संभवतः सर्वाधिक अनुभवी
हस्ताक्षर हैं। उनकी लेखनी के संस्पर्श से आनेवाली प्राचीन अप्रकाशित साहित्य की एक यशस्वी परंपरा है। जिससे विद्वज्जगत एवं जैन समाज सुपरिचित है। अपभ्रंश भाषा में रचित महाकवि सिंह की विशालकाय रचना प्रद्युम्नचरित्र का विभिन्न पाण्डुलिपियों से प्रामाणिक संपादन एवं शब्द-अर्थ की सुसंगति से समन्वित अनुवाद डॉ विद्यावती जैन द्वारा प्रस्तुत किया जाना इस संस्करण की श्रीवद्धि करता है। पौराणिक महापुरूष प्रद्युम्न के यशस्वी जीवन चरित्र को अतिसुंदर ढंग से गूंथकर रची गयी,
Page #676
--------------------------------------------------------------------------
________________
654
यह कृति हर आयु वर्ग एवं हर स्तर के व्यक्तियों के लिए सुबोधगम्य एवं प्रेरणास्पद है । १२ वीं १३ वीं शताब्दी ईस्वी के यशस्वी साहित्यकार महाकवि बूचराज की प्रसिद्ध मदनयुद्ध काव्य नामक कृति का सम्पादन एवं सफल अनुवाद भी डॉ० विद्यावती जैन ने किया है।
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
७.१०६ श्रीमती सुशीला सिंघी :
आधुनिक युग में सामाजिक क्रांति की मशाल थाम कर सामाजिक विकास के लिए सतत संघर्ष करने वाली ओसवाल महिलाओं में सुशीलाजी ने अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की है। एक सामान्य परिवार में पिता- श्री अशर्फीलाल जैन के वात्सल्य तले पली चौदह वर्षीय कन्या के अन्तर में क्रान्ति की इस छुपी चिंगारी को महात्मा गांधी ने पहचाना एवं उनकी प्रेरणा पाकर यह बालिका सदैव के लिए सामाजिक उन्नयन के लिए समर्पित हो गई। किशोरअवस्था आते आते बाल विधवा हो जाने की नियति को निज के पुरुषार्थ से उन्होंने बदल कर रख दिया। सामाजिक क्रांति के सूत्रधार श्री भंवरमलजी ने सन् १६४६ में उनको अपनी सहधर्मिणी बना कर सामाजिक चेतना के नये युग का सूत्रपात किया ।
सन् १६५२ में पर्दा एवं दहेज विरोधी अभियानों में वे सदा अग्रणी रही । मारवाड़ी सम्मेलन के मंच से सामाजिक सुधारों के लिए सदैव संघर्षरत रहते हुए, कलकत्ता यूनिवर्सिटी से उन्होंने एम. ए. किया । राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ कर कांग्रेस के अधिवेशनों को सम्बोधित किया । सन् १६५८ से १६७२ तक अखिल भारतवर्षीय परिवार नियोजन कौंसिल एवं कलकत्ता की महिला सेवा समिती की मानद मंत्री रही। उनका कार्यक्षेत्र मारवाड़ी समाज या कलकत्ता तक ही सीमित नहीं रहा अपितु पुरुलिया के आदिवासी अंचलों, कोयलाखानों, चाय बागानों एवं कलकत्ता के स्लम क्षेत्रों के मजदूर पारिवारों के शैक्षणिक एवं सामाजिक विकास के लिए सुशीला जी सर्वदा सेवारत रही। सन १६६८ में उन्होंने 'परिवारिकी' की स्थापना की, जहाँ २ वर्ष से १६ वर्ष की उम्र के दरिद्र परिवारों के सैंकड़ों बच्चों के समुचित विकास की अपूर्व व्यवस्था है।
पश्चिम बंगाल की सरकार ने उन्हें जस्टिस ऑफ पीस (१६६३.७३) मनोनीत कर सम्मानित किया। सन् १६८५ में कलकत्ता के 'लेडीज स्टडी ग्रुप' द्वारा वे सर्वप्रमुख सामाजिक कार्यकर्त्री एवं सन् १६८७ में बम्बई के 'राजस्थान वेलफेयर एसोशियेशन' द्वारा 'सर्व प्रमुख महिला कार्यकर्त्री' चुनी गई। सम्प्रति वे महात्मा गांधी द्वारा स्थापित 'कस्तूरबा गांधी स्मारक निधि' की ट्रस्टी हैं। समाज सेवा के अतिरिक्त अनेक शैक्षणिक एवं कला संस्थानों को उनका निर्देशन उपलब्ध है। अनामिका, संगीत कला मन्दिर, अनामिका कला संगम, शिक्षायतन, यूनिवर्सिटी, महिला एसोसियेशन, महिला समन्वय समिति, गांधी स्मारक निधि, मारवाड़ी बालिका विद्यालय, आदि अनेक संस्थाएँ सुशीला जी की सेवाओं से लाभान्वित हुई हैं। ओसवाल समाज इस नारी रत्न से सदैव गौरवान्वित रहेगा। ७. १०७ सुश्री मल्लिका साराभाई :
भारतीय संस्कृति के विभिन्न आयामों को विश्व फलक पर सफलता पूर्वक रूपायित करने वाली कला जगत की विश्व विख्यात तारिका हैं मल्लिका साराभाई । आप विश्व विख्यात अणु-वैज्ञनिक डा. विक्रम साराभाई एवं विश्व विख्यात नृत्यांगना मणालिनी साराभाई की सुपुत्री हैं। कॉलेजीय शिक्षा के उपरान्त आपने मेनेजमेंट कोर्स में डॉक्टरेट हासिल की ताकि पैत्रिक साराभाई उद्योग को दिशा दे सकें । अभिनय का शौक आपको फिल्मों में भी ले गया । किन्तु न तो उद्योग की लिप्सा ही उन्हें पकड़े रख सकी, न बम्बई का फिल्मी माहौल ही उन्हें रास आया। मल्लिका जी की कलात्मक रुचि और रचनाधर्मिता उन्हें नत्य शास्त्र की ओर खींच
गई और वे नृत्य की पारम्परिक विधा से जुड़ गई। अपनी कृतियों में तलाशे नये-नये प्रयोगों से उसकी अभिव्यक्ति होती रही। नारी शक्ति की अभिव्यन्जना में मल्लिका जी ने पारम्परिक शैली के साथ बैले कोरियाग्राफी, माईन, प्रस्तर भंगिमा, संवाद आदि के सफल मिश्रण से सशक्त प्रभाव उत्पन्न कर दर्शकों को अचम्भित कर दिया। कला समीक्षकों ने उनके प्रदर्शनों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उन्होंने आधुनिक भारत में नारी शोषण एवं नारी पर होने वाले अत्याचार की घटनाओं को नत्य नाट्य द्वारा इतने मार्मिक ढंग
से प्रस्तुत किया कि वे विद्रोह की प्रतीक बन गई। श्री और शक्ति' श्रंखला में "केरला - ४" (पालघाट में आत्मघात करने वाली चार बहनों की गाथा) में सामाजिक शोषण के खिलाफ स्वर इतना बुलन्द था कि वह दर्शकों को हिला गया। इसी तरह "चिपको आन्दोलन' से सम्बंधित नाट्य मंचन भी बड़ा प्रभावशाली था ।
Page #677
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
655
हाल ही में प्रसिद्ध फिल्मकार पीटर ब्रुक ने जब 'महाभारत' का मंचन करने व फिल्म बनाने की ठानी तो 'द्रौपदी' के अन्यतम अभिनयार्थ उनकी एक अन्तर्राष्ट्रीय सितारे की तलाश मल्लिका जी पर जाकर खत्म हुई। विदेशों में जहाँ कहीं इस प्रसिद्ध कथा नाट्य का मंचन हुआ, सभी ने उनके अभिनय को सराहा। वैसे भी मल्लिका जी ने द्रौपदी का पात्र स्वयं जिया है। सभी मानवीय संवदनाएँ एवं त्रैण अभिषप्तताएँ अभिनय के द्वारा जीवंत कर देना उनकी विशेषता थी। रातों रात मल्लिका जी अन्तर्राष्ट्रीय मंच के अभिनव सितारे के रूप में स्थापित हो गई। दर्शक इस साहसी अभिनेत्री का स्वाभाविक अभिनय देख कर दंग रह गए।१०० ७.१०८ सुश्री रीता नाहटा :___ आधुनिक युग में नारी स्वातन्त्र्य का उद्घोष सभ्यता के विकास में मील का एक पत्थर है। किसी भी क्षेत्र में पुरुष का एकाधिकार अब समाप्त हो गया है। इसका एक ज्वलंत उदाहरण हैं श्रीमती रीता नाहटा । वे पचीस वर्ष की उम्र में भारत की प्रथम महिला टैक्सी चालक बनी। इस मौलिक एवं साहसिक कदम के लिए उनका संकल्प सराहनीय है।
श्रीमती रीता जोधपुर के भूतपूर्व सांसद श्री अमत नाहटा की सुपुत्री हैं। उनकी फिल्म "किस्सा कुर्सी का बहुत चर्चित हुई थी। रीता जी को कर्मठ एवं संघर्षशील व्यक्तित्व विरासत में मिला है। वे 'किस्सा कुर्सी का' के निर्माण में भी सहयोगी रही। दिल्ली दूरदर्शन के युवा-मंच में उसका प्रदर्शन हुआ। आपके चाचाजी गांधी जी के नमक सत्याग्रह में भाग ले चुके थे। ०१ ७.१०६ छगन बहन :
स्वतंत्रता संग्राम के वातावरण में बड़ी होनेवाली स्वभाव से ही निर्भीक और विद्रोहिणी छगन बहिनका जन्म नागपुर में श्री मोतीलालजी एवं श्रीमती चांदबाई बैद के घर सन १६३० में हुआ था। छगन बहिन एक विद्रोहिणी नारी होनेपर भी नारीसुलभ गुणों से विभूषित हैं और एक कुशल गहिणी का दायित्व भी भली-भाँति निभाती हैं। आपकी आत्मीयता, सरलता व आतिथ्य किसी को भी प्रभावित किये बिना नहीं रहता। आप कुशल गायिका और प्रभावशाली वक्ता भी हैं। आप के भाषण में भावुकतापूर्ण उद्बोधन और साहित्यिकता का सुखद और प्रेरणास्पद् समन्वय रहता है। वास्तव में छगन बहिन हमारे समाज का गौरव हैं।
अन्याय प्रतिरोध की क्षमता छगन बहन ने पारिवारिक परिवेश से ही प्राप्त कर ली थी। आप केवल आठवीं कक्षा तक ही शिक्षा प्राप्त कर पाई। उस कच्ची उम्र में भी स्कूल में जब अध्यापकों ने परीक्षा फल अच्छा रखने के लिए पर्चे आउट करा दिये तो आपने उनके विरुद्ध विद्रोह का झंडा गाड़ दिया। अध्यापकों के हड़ताल कर देने पर आपने होशियार छात्राओं की सहायता से स्कूल चलाकर दिखा दिया। अंत में प्रबंधकों को सभी अध्यापकों की छुट्टी करके नया स्टाफ रखने पर बाध्य होना पड़ा। आपने नाट्य व संगीत के कार्यक्रम आयोजित करके अर्जित राशि से निर्धन छात्राओं की सहायता करके उन्हें निर्भीकता पूर्वक आगे बढ़ने की प्रेरणा दी।
१६ वर्ष की आयु में आपका विवाह खींचन के श्री त्रिलोकचंदजी गोलेछा के साथ किया गया जिनका कलकत्ते में व्यवसाय था। अतः आप कलकत्ते आ गई। वहाँ उन दिनों अखिल भारतीय मारवाडी सम्मेलन के तत्त्वाधान में सर्वश्री भंवरमलजी सिंघी, सिद्धराजजी ढड्डा, विजयसिंहजी नाहर, गणेशमलजी बैद, श्रीचंदजी मेहता आदि युवाजन सामाजिक कुरीतियों के निवारण और जनचेतना जगाने का कार्य बड़े उत्साह से कर रहे थे। आप भी उन से जुड़ी, और एक समारोह में उनके साथ आपने भी केसरिया बाना पहनकर दहेज व पर्दा प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों को तोड़ने व जातपाँत के भेदभाव से ऊपर उठने का संकल्प लिया।
सन् ५६ में आप खींचन आ गई और वहाँ हरिजनों को सवर्णों के कुँए से जल दिलाने का कार्य हाथ में लिया। सन् ५७ में आप विनोबाजी के भूदान यज्ञ में सम्मिलित हुई एवं सभी रचनात्मक कार्यों में सक्रिय भाग लेने लगी। फलस्वरूप जब राजस्थान में पंचायती राज्य का प्रवर्तन हुआ तो आप प्रथम बार खीचन ग्राम की सरपंच चुनी गई और ग्रामीण जनता की सेवा में लग गई।
__ सन् ६२ में आपका परिवार जोधपुर आ गया और पति-पत्नि दोनों रचनात्मक कार्यक्रमों में भाग लेने लगे। और आप जोधपुर मंडल की उपाध्यक्षा बनी। सन् १६७८ में जब गोकुल भाई भट्ट के नेतत्व में शराब बंदी आंदोलन छिड़ा तो उस में आप अग्रणी रहीं। सन् १६७० में जब दुबारा सत्याग्रह छिड़ा तो आपने उसका नेतत्व सम्भाला। इस आंदोलन के फलस्वरूप जोधपुर, पाली व बीकानेर जिले शराबमुक्त घोषित किये गये।
Page #678
--------------------------------------------------------------------------
________________
656
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
इस आंदोलनी माहौल के बीच भी आपने वर्षों पूर्व छोड़ा हुआ अध्ययन पुनः आरम्भ किया और १९७३ में अपनी पुत्री के साथ आपने भी जोधपुर विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए.की उपाधि प्राप्त की। हालही में आपने अपने निवासस्थान पर ही मीरा संस्थान के अंतर्गत आंगनवाड़ी कार्यकर्ता प्रशिक्षण केन्द्र कायम किया है जिसमें विभिन्न गांवो से आई ५२ महिलाएँ प्रशिक्षण प्राप्त कर रही हैं। आपका घर ही उनका छात्रावास है ओर आप ही उनकी माँ हैं जिन्हें वे क्षणभर भी अपने से अलग नहीं करना चाहतीं। आप उनमें चेतना जगाने का एवं मनौवैज्ञानिक तरीके से अंध विश्वासों और रूढ़ियों से मुक्त करके सुसंस्कृत बनाने का महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं । १०२ ७.११० श्रीमती विमला मेहता :
श्रीमती विमला मेहता का जन्म जोधपुर के श्री हरखराजजी लोढ़ा के घर हुआ। जोधपुर के तत्कालीन राजमहल कॉलेज से बी.ए. की उपाधि प्राप्त करने के पश्चात् विवाह हो जाने से आप पति श्री वीरेन्द्रराज जी मेहता के साथ दिल्ली में रहने लगी। इसी बीच आपने साहित्य भूषण की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली और अपने पति एवम् उनके साहित्यसेवी मित्रों की प्रेरणा से लेखनकार्य आरम्भ किया। वैसे विमलाजी की लेखन में रूचि विद्यार्थी जीवन से ही थी और आप अपनी कॉलेज की पत्रिका 'शंखनाद' की सहसम्पादिका थी। हिंदुस्तान साप्ताहिक में 'पुरुषों के क्षेत्र में महिलाएँ' शीर्षक से आपकी एक लेखमाला प्रकाशित हुई जिसे पाठकों ने बहुत पसंद किया। उसी से प्रेरित होकर आपने अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के अवसर की ३२ महिलाओं का जीवन परिचय प्रस्तुत करनेवाले "आज की महिलाएं" ग्रंथ का प्रणयन किया। इससे पूर्व आपकी एक कृति 'भारत की प्रसिद्ध महिलाएं' प्रकाशित हो चुकी थी।
दिल्ली में रहते हुए नारी जीवन व पारिवारिक समस्याओं पर आपके लेख, सभी प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे। बाल साहित्य के क्षेत्र में भी आपने सुंदर कहानियाँ लिखी हैं जो 'रोचक कहानियाँ' शीर्षक के अन्तर्गत पुस्तक में प्रकाशित हुई हैं। साहित्य सजन के अतिरिक्त विमलाजी की रुचि के विषय हैं :- बागवानी व गहसज्जा। आपके पति श्री वी. आर. मेहता केन्द्रीय सचिवालय में जहाजरानी विभाग में उच्चाधिकारी बन गये और तद्उपरान्त वे एशियन डेवेलपमेंट बैन्क के उच्च अधिकारी बने तो आप उनके साथ मनीला चली गई।०३ ७.१११ श्रीमती सुशीला बोहरा :
सुशीलाजी हमारे समाज की उन गिनी चुनी सुशिक्षित महिलाओं में से हैं जो अर्थोपार्जन द्वारा स्वयं को आत्म-निर्भर बनाने के साथ-साथ अपना अतिरिक्त समय पीड़ित मानवता की सेवा में समर्पित कर रही हैं। आपका जन्म जोधपुर में श्री मूलकराजजी धारीवाल के यहाँ १० अप्रेल ११४० को हुआ था। आपका विवाह देवरिया (जैतारण) निवासी स्व. श्री पारसमलजी बोहरा से हुआ परन्तु युवावस्था में ही एक पुत्री के पिता बनकर वे भगवान को प्यारे हो गये। तब सुशीलाजी ने आत्मनिर्भर बनकर स्वयं को अध्यात्म साधना के साथ-साथ लोक-सेवा में लगाने का निश्चय किया। आपने जोधपुर विश्वविद्यालय से एम.ए.(राजनीतिशास्त्र) किया और फिर बी.एड. करके १६६७ में महेश शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय जोधपुर में व्याख्याता बन गई और आज भी वहीं कार्यरत हैं। यहाँ आप अपने संस्थान से निकलनेवाली शैक्षिक पत्रिका 'एज्यूकेशनल हैराल्ड' की सह-सम्पादिका भी हैं।
आप अपने जीवन का दूसरा लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अनेक आध्यात्मिक तथा मानव-कल्याणकारी सेवा संस्थानों से जुड़ी हैं। आप नेत्रहीन विकास संस्थान, जोधपुर की अध्यक्षा हैं। साथ ही आप जोधपुर के गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्षा और महावीर इंटरनेशनल जोधपुर की संयुक्त सचिव भी हैं। आप जोधपुर विश्वविद्यालय की सीनेटर हैं और अखिल भारतीय महावीर जैन श्राविका संघ, मद्रास की अध्यक्षा भी। आप भोपालगढ़ के मरुधर खादी ग्रामोद्योग संस्थान की संयुक्त सचिव हैं। इनके अतिरिक्त आप अनेक संस्थाओं की कार्यसमिति की सदस्या हैं जिनमें मुख्य है- जोधपुर नागरिक एसोसियेशन, जैन विद्वत् परिषद जयपुर, महावीर विकलांग परिषद्, सम्यक् ज्ञान प्रचारक मंडल जयपुर इत्यादि।०४
,
Page #679
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
657
७.११२ डॉ. सरयू डोसी :
भारत की सांस्कृतिक विरासत को अपनी अथक शोध एवं समीक्षाओं से उजागर करने वाली, अपरिमित सौन्दर्य की धनी एक और महिला रत्न हैं जिन्हें पाकर ओसवाल समाज गौरवान्वित हुआ है। वे हैं भारत के प्रतिष्ठित उद्योगपति श्रेष्ठी बालचन्द हीराचन्द डोसी के खानदान की पुत्रवधू श्रीमती सरयू डोसी। प्रसिद्ध समीक्षक श्री खुशवंतसिंह ने विवेक, सौन्दर्य एवं सम्पत्ति के इस ऐश्वर्यशाली संगम को एक अनुपम संयोग माना है। संवत् २०१० में बम्बई युनिवर्सिटी से कला-स्नातक होकर सरयूजी ने बम्बई के जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट में चित्रकला एवं रेखांकन में विशेष योग्यता हासिल की। 'फिएट' मोटर कार के प्रसिद्ध निर्माता बालचन्द हीराचन्द खानदान के कुल दीपक श्री विनोद डोसी से आपका परिणय हुआ। संवत् २०१५ में सरयूजी ने अमरीका की मिचिगन युनिवर्सिटी से आर्ट हिस्ट्री में स्नातकीय परीक्षा उत्तीर्ण की एवं तत्काल अपनी अभिनव रुचि के अनुरूप शोध कार्य में संलग्न हो गई। संवत् २०२८ में बम्बई युनिवर्सिटी ने "प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति" पर आपका शोध प्रबन्ध स्वीकार करते हुए आपको पीएच.डी. की उपाधि से सम्मानित किया। शिकागो युनिवर्सिटी में मुगल कालीन चित्रकला का विशेष अध्ययन कर आपने भारत की सूक्ष्म ;उपजनपद चित्रकला के विविध आयामों एवं इतिहास पर विशेषज्ञता हासिल की। आपकी अनवरत शोध के फलस्वरुप पुरातन जैन मन्दिरों एवं ग्रंथ भंडारों से अनेक विश्व-विश्रुत कलाकृतियों का उद्धार हो सका। इसी साधना की फलश्रुति हैं "मास्टर पीसेज ऑफ जैन पेंटिंग्स" (१६८५) एवं 'ए कलेक्टर्स ड्रीम' (१९८७) जैसे ग्रंथ जो कला जगत की अमूल्य धरोहर हैं।
श्रीमती डोसी विश्व की अनेक युनिवर्सिटियों द्वारा विजिटिंग प्रोफेसर' के गरिमा पूर्ण पद पर आमंत्रित होकर प्राचीन भारतीय संस्कृति की यश गाथा विश्व के कोने-कोने में फैला चुकी हैं। संवत् २०३३ में अमरीका की मिचिगन यूनिवर्सिटी एवं संवत् २०६३ में केलिफोर्निया यूनिवर्सिटी ने आपको सम्मानित किया। युरोप के अनेक शिक्षण एवं सांस्कृतिक संस्थानों ने वार्ताएँ आयोजि भारतीय आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के अतिरिक्त बी. बी. सी. लन्दन द्वारा भी ये वार्ताएँ प्रसारित की गई।
भारतीय सिनेमा के सन्दर्भ में शोध कार्य आपकी अभिनव रुचि का द्वितीय सोपान है। संवत् २०३० में आपने न्यूयार्क युनिवर्सिटी से फिल्म तकनीक एवं निर्माण में विशेषज्ञता हासिल की। भारतीय सिनेमा के सामाजिक एवं सांस्कृतिक अवदान को रेखांकित करने वाले आपके निबंध विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। छायांकन (फोटोग्राफी) भी आपका प्रिय विषय रहा है। संवत् २०३८ से २०५३ तक आपने कला जगत की अभिनव पत्रिका 'मार्ग' का सफल सम्पादन किया। जब संवत् २०४३ में भारत सरकार द्वारा विश्व को भारत की सांस्कृतिक विरासत से परिचय कराने हेतु ‘फेस्टिवल ऑफ इंडिया' का विदेशों में आयोजन किया गया तो आप उसकी मानद सदस्य मनोनीत हुई। इस सन्दर्भ में प्रकाशित "दी इंडियन वूमन" (भारतीय नारी) ग्रंथ के लेखन एवं चित्रण का श्रेय आप ही को है।०५ ७.११३ श्रीमती ममता डाकलिया :
बचपन से ही अपने विद्यालय के उत्सवों में अपने स्वरमाधुर्य और भावपूर्ण गायिकी के लिए लोकप्रियता प्राप्त करनेवाली ममताजी जोधपुर के श्री रतनचंदजी कर्णावट व श्रीमती श्यामलताजी की सुपुत्री हैं। ममताजी को संगीत में अभिरुचि अपनी पारिवारिक परम्परा से विरासत में मिली। आपके पितामह स्व. हंसराज जी कर्णावट समाज सुधार के गीतों के रचयिता व लोकप्रिय गायक थे। आपका जन्म जोधपुर में सन् १६५६ में हुआ। वहीं आपने संगीत का विषय लेकर जोधपुर विश्वविद्यालय से बी.ए. की उपाधि ग्रहण की। विवाहोपरांत आप अपने पति श्री पारसमलजी डाकलिया, सी.ए. के साथ कुछ वर्ष
। पारसमलजी डाकलिया. सी.ए. के साथ कछ वर्ष दिल्ली में रहीं और सन १६-३ में उनके बंबई आ जानेपर बंबई रहने लगी। विवाह के बाद भी आपकी संगीत-साधना चलती रही और आपने शास्त्रीय संगीत में गांधर्व महाविद्यालय बंबई से विशारद व अलंकार की उपाधि प्राप्त की। ममताजी ने ८ वर्ष की आयु में कलकत्ता दूरदर्शन पर एक राष्ट्रीय गीत पेश किया था। जिसे सभी ने बहुत पसन्द किया। १४ वर्ष की आयु से ही आप आकाशवाणी पर लोकगीत प्रस्तुत करती रही हैं। अध्ययनकाल में आपने मंडल स्तर की अनेक संगीत प्रतियोगिताएँ जीती और कॉलेज में पढ़ते समय संगीत नत्य व नाट्य प्रतियोगिताओं में भाग लेती रही हैं। आपने सुगम संगीत और राजस्थानी लोकगीत प्रस्तुत करने में विशेष दक्षता प्राप्त की है और सुगम संगीत में जोधपुर विश्वविद्यालय से भी प्रथम पुरस्कार प्राप्त कर चुकी हैं।१०६
Page #680
--------------------------------------------------------------------------
________________
658
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
७.११४ श्रीमती प्रीति लोढ़ा, एम. ए. :
जोधपुर में अत्यंत सम्पन्न और प्रतिष्ठित मेहता परिवार में जन्म लेकर भी अपनी पारिवारिक परम्पराओं और सीमाओं के बीच संगीत साधना करके अपनी स्वरलहरी को अखिल भारतीय स्तर के सम्मेलनों तक गुंजानेवाली प्रीतिजी का विवाह जोधपुर में दिनांक ६ मई १६५६ को विज्ञान वेत्ता व साहित्य-संगीत प्रेमी डॉ. गोपालसिंहजी लोढ़ा से हुआ। उससे आपकी संगीत साधना में कोई बाधा नहीं आई। आपने अपने संगीत-गुरु पंडित बी.एन. क्षीरसागर ग्वालियर वालोंसे संगीत का प्रशिक्षण प्राप्त किया और एक बार श्री रंगम मंदिर त्रिचुरापल्ली में आयोजित अखिल भारतीय रसिकवर संगीत सम्मेलन में भी भाग लिया। आपने राजस्थान विश्वविद्यालय से संगीत में प्रथम श्रेणी में एम.ए. की उपाधि ग्रहण की। साथ ही गांधर्व महाविद्यालय मंडल, बंबई की विशारद परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।
आपने राजस्थान के जोधपुर, उदयपुर एवं अजमेर के अनेक संगीत प्रतिष्ठानों द्वारा आयोजित समारोहों में अपना कार्यक्रम दिया और एक बार श्री रंगम मंदिर त्रिचुरापल्ली में आयोजित अखिल भारतीय रसिकवर संगीत सम्मेलन में भी भाग लिया। आपने विशेष रूप से ख्याल, ध्रुपद, धमार, तराना एवं भजनों की गायकी में दक्षता प्राप्त की है। ७.११५ श्रीमती प्रसन्न कुँवर भंडारी :
यश लिप्सा से कोसों दूर, समाज कल्याण एवं सेवा को अपने जीवन का ध्येय बना लेने वाली मौन साधिका श्रीमती प्रसन्न कुँवर से जैन जाति गौरवान्वित हुई है। राजस्थान के यशस्वी स्वतंत्रता सेनानी श्री केसरीसिंह बारहठ के कोटा स्थित जर्जर आवास को जोधपुर की इस प्रवासी महिला ने पुण्य स्थली बना दिया है। सन् १६५८ में समाज सेवा की उत्कट भावना से प्रेरित श्रीमती प्रसन्न कुँवर ने यहाँ अनाथ बच्चों की एक पाठशाला खोलकर अपनी रचनात्मक प्रवत्तियों का श्री गणेश किया। जल्द ही इस हेतु उन्होंने नगर विकास समिति का गठन कर उसे पंजीकृत करा लिया। इस कार्य में सेवाभावी नागरिकों एवं समाज कल्याण विभाग ने भी सहयोग किया। परिणामतः आज यह संस्थान वट वक्ष की तरह फैलकर सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय का कार्य कर रहीं हैं। पिछड़े इलाके में चल रही बालवाड़ी से ८० एवं प्राथमिक शाला में १२५ बालक-बालिकाएँ लाभान्वित हो रहे हैं। सन् १६७८ से संचालित निराश्रित बाल गह में ३१ बालक रह रहे हैं जो विभिन्न राजकीय विद्यालयों में अध्ययन रत हैं। इन्हें यहाँ वोकेशनल ट्रेनिंग भी दी जाती है एवं हीन भावना से मुक्त, स्वस्थ मन वाले, चरित्रवान नागरिक बनाने का प्रयत्न किया जाता है। संस्थान द्वारा संचालित संक्षिप्त पाठ्यक्रम में १८ एवं अनौपचारिक शिक्षा केन्द्र में २७ बालिकाएँ शिक्षा लाभ ले रही हैं। परित्यक्त शिशुओं का प्रतिपालन केन्द्र संस्थान का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। अनाथ बच्चों की इस सराहनीय सेवा के लिए जिला प्रशासन ने आपको सम्मानित भी किया है। पिछड़े क्षेत्र की महिलाओं को विभिन्न प्रकार के क्राफ्ट सिखाए जाते हैं एवं उन्हें सामाजिक बुराईयों के प्रति सचेत किया जाता है। संस्थान गर्भवती महिलाओं को आश्रय देने का शुभारम्भ भी कर चुका है। कामकाजी महिलाओं के शिशुओं की दिन भर देखभाल के लिए खोले गए पालना गह में २५ शिशुओं की देख रेख के लिए मुफ्त व्यवस्था है। संस्था द्वारा संचालित औषधालय में १३०० मरीज लाभान्वित हो चुके हैं। अपंग विधवा एवं परित्यक्त महिलाओं के लिए समाज कल्याण बोर्ड की सहायता से एक धागा रीलिंग उद्योग खोला गया हैं जिसमें २५ महिलाएँ लाभान्वित हो रही है। इन सभी कार्यक्रमों को श्रीमती भंडारी जिस समर्पित भाव से संचालित कर रही हैं वह सभी के लिए अनुकरणीय है। उनके इस अभियान में उनके पति श्री महावीरचन्द जी . भंडारी एवं अन्य परिवारीजनों का भी सराहनीय सहयोग है। ७.११६ श्रीमती शशि मेहता :
अर्थशास्त्र और सांख्यिकी जैसे रूखे विषय में सन् १६७६ में बंबई विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त कर स्नातक उपाधि धारण करनेवाली श्रीमती शशि मेहता बंबई के सहायक आयकर आयुक्त श्री गोवर्धन मलजी सिंघवी की सुपुत्री हैं। आपका जन्म जोधपुर में दिनांक ८ जुलाई १९५५ को हुआ। आप अपने स्कूली जीवन से ही प्रतिभाशाली छात्रा रहीं और जितने वर्ष कॉलेज में अध्ययन किया, आपको एकाधिक प्रतिभा सम्पन्नता की छात्रवत्तियाँ मिलती रही जैसे रमाबाई रानाडे स्कॉलरशिप, गवर्नमेंट मेरिट स्कॉलरशिप व एल्फिस्टन कॉलेज ओपन मैरिट स्कॉलरशिप। बी.ए में प्रथम आनेपर आपको राष्ट्रीय छात्रवत्ति और
Page #681
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। आप अच्छी वक्ता रहीं और अपने विद्यार्थी जीवन में वाद-विवाद के अनेक पुरस्कार जीतें। आपने सन् ७५ में अंतर-महाविद्यालय लोकनत्य में भी भाग लिया और पुरस्कृत हुई।
विवाहोपरांत आप अपने पति श्री नरेश मेहता के साथ दिल्ली आकर रहने लगी और यहाँ अंग्रेजी के प्रसिद्ध राष्ट्रीय दैनिक 'इंडियन एक्सप्रेस' में संवाददाता का कार्य करने लगी। इसके साथ-साथ आप राष्ट्र व समाज की ज्वलंत समस्याओं पर निरंतर लिखती रहती हैं। आकाशवाणी के स्पॉट लाइट कार्यक्रम में आप अनेक बार आधुनिक जीवन की विभिन्न समस्याओं जैसेमहिलाओं पर अत्याचार, परिवार नियोजन, व्यापारी मेले और मिलावटी माल इत्यादि पर प्रकाश डाल चुकी हैं।१०६ ७.११७ सुश्री प्रभा शाह :
श्रवणशक्ति से सर्वथा विहीन होनेपर भी भारत में ही नहीं, विदेशों में भी अपनी चित्रकला की छाप छोड़नेवाली सुश्री प्रभा शाह का जन्म सन् १६४७ में जोधपुर में हुआ। आपका मूल निवास स्थान सिरोही है जहाँ से आपके पितामह जोधपुर आकर बसे। आपके पिता श्री लखपतराज शाह भी कुछ वर्षों तक जोधपुर के एस.एम. के. कॉलेज में व्याख्याता व उदयपुर विश्वविद्यालय के कुल सचिव रहे । आजकल आप दिल्ली में केंद्रीय सरकार में प्रौढ़ शिक्षा के उच्चाधिकारी हैं। प्रभाजी ने अपनी शिक्षा नई दिल्ली के लेडी नॉइस मूक, बधिर ओर अंध विद्यालय में ग्रहण की और चित्रकला का प्रशिक्षण कानोड़िया महाविद्यालय जयपुर और उदयपुर में लिया। तदनन्तर, त्रिवेणी कला संगम दिल्ली में कार्य करते हुए आपकी कला में निखार आया। आप भारत सरकार के सांस्कृतिक विभाग की सदस्य (फैलो) और राजस्थान ललितकला अकादमी की कार्यकारिणी समिति की सदस्या हैं। अभी आप दिल्ली में प्रभा इंस्टीट्यूट के नाम से विकलांगों के लिए कला, कौशल और सांस्कृतिक प्रशिक्षण का केन्द्र चला रही हैं। प्रभाजी के चित्रों की एकल प्रदर्शनियाँ दिल्ली में ५ बार ओर जयपुर, बंबई, मद्रास, चंडीगढ़ और टोरंटो (कनाड़ा) में एक-एक बार लग चुकी हैं और इन्हीं शहरों में आयोजित अन्य कला-प्रदर्शनों में भी अनेक बार भाग ले चुकी हैं। एक बार लंदन में आयोजित विकलांगों की अंतर्राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी में भी आप भाग ले चुकी हैं। आप नई दिल्ली, बंबई, मद्रास, और जयपुर के प्रतिष्ठित कला-संस्थानों द्वारा आयोजित प्रदर्शनियों में भी सक्रिय सहयोग देती रही हैं। आप अपनी कलाकृतियों के लिए अनेक संस्थानों द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित की जा चुकी हैं जिनमें मुख्य हैं :
१. बधिरों की कॉमन हैल्थ सोसाइटी, लंदन। २. तूलिका कलाकार परिषद्, उदयपुर। ३. अखिल भारतीय ललित कला प्रतियोगिता एक ध्वनि, नई दिल्ली। ४. राजस्थान ललित कला अकादमी पुरस्कार १६७५
अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष पुरस्कार, बंबई १६७५ ६. महाकौशल कला परिषद, रायपुर | ७. राजस्थान सरकार द्वारा १६८१ में स्वतंत्रता दिवस पुरस्कार। ८. फैडरेशन ऑफ यूनेस्को ऐसोसियेशन, नई दिल्ली १६८१, राजस्थान संस्था संघ नई दिल्ली १६८१ राजस्थान संस्था
नई दिल्ली द्वारा सम्मान १६५१ इत्यादि। इसके अतिरिक्त भारत के अनेक संस्थानों में आपके चित्र संग्रहित हैं।११० ७.११८ डॉ. मिस कांति जैन :
सुश्री कांति जैन का जन्म फलौदी में दिनांक १० जून १६३६ को हुआ था। आपके पिता श्री चम्पालालजी व माता श्रीमती केसरबाई जैन हैं। आपने सन् १६५६ में राजस्थान विश्वविद्यालय से वनस्पति शास्त्र में एम.एस.सी. की उपाधि प्राप्त की और फिर ६ वर्ष तक महारानी सुदर्शना कॉलेज बीकानेर तथा महाराजा व महारानी कॉलेज जयुर में व्याख्याता का कार्य किया। तत्पश्चात १४ वर्ष तक कनाडा में रहकर शोध कार्य करती रही तथा सन १६७३ में टोरंटो विश्वविद्यालय से पीएच.डी की उपाधि ग्रहण की। इस अवधि में आप उसी विश्वविद्यालय में अध्यापन का कार्य भी करती रहीं। आपके शोध का विषय था मलानुरागी ककुरमुत्ते का जीवरसायनिक व शरीरवैज्ञानिक अध्ययन (बायोकेमिकल एंड फीजियोलॉजिकल स्टडीज ऑफ कोप्रोफिलस फंगी)। सन् १६७३ से
*
Page #682
--------------------------------------------------------------------------
________________
660
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
बीमारियों से ग्रसित होते देखकर
१६७६ तक आपने मधुमेह नाशक द्वीपिकाओं संबंधी शोधकार्य किया। भारत व कनाडा में अनुसंधान कार्य करते समय आपको अनेक प्रकार की छात्र-वत्तियाँ भी प्राप्त हुई जिनमें मुख्य हैं:- भारत सरकार द्वारा अनुसंधान प्रशिक्षण छात्रवत्ति, टोरंटो विश्वविद्यालय की शिक्षावत्ति व एन.आर.सी. एम. आर. सी. की शोध शिक्षा वत्तियाँ | आपके लगभग ४० शोधपरक लेख भारत, अमेरिका व यूरोप की प्रतिष्ठित शोध-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इतना अध्ययन करने के पश्चात् भी भारत लौटने पर आपने यहाँ की अज्ञानग्रसित देहाती जनता को गंदगी के बीच रहकर
होते देखकर धनोपार्जन की अपेक्षा अपने आपको जनकल्याण में लगाना अधिक श्रेयस्कर समझा और सरकारी नौकरी का मोह त्यागकर आपने अपनी जन्मभूमि फलौदी में अपने ही खर्चे से मानव कल्याण केन्द्र की स्थापना की।
उसके माध्यम से वे स्वास्थ्य संबंधी जनकल्याणकारी सेवाओं में आज भी संलग्न हैं। सर्वप्रथम आपने वहाँ स्वच्छता अभियान चलाया और स्थानीय प्रशासन व जनता को भी उसके प्रति सजग किया। इस समय आप प्रायः वहीं रहती हैं यद्यपि आपका परिवार जोधपुर में बस चुका है। आप एच.वी.एस. (मानव कल्याण सेवा) ट्रस्ट जोधपुर की प्रमुख संचालिका भी है। ७.११६ डॉ. किरण हरपावत :
बालचिकित्सा विशेषज्ञ डॉ. किरण हरपावत जोधपुर विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के एसोसियेट प्रोफेसर. डॉ. नरपतचंद सिंघवी और श्रीमती गुलाब कँवर सिंघवी की सुपुत्री हैं। आप का जन्म जोधपुर में सन् १६४८ में हुआ था। सन् १९७० में डॉ. सम्पूर्णानन्द आयुर्विज्ञान महाविद्यालय जोधपुर से एम.बी.बी.एस. करने के बाद आपका विवाह उदयपुर के डॉ. गणेश हरपावत से हो गया जो झेरॉक्स कॉर्पोरेशन रॉचेस्टर (सं.रा.अमेरिका) में वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं। अतः विवाह के तुरन्त बाद आप भी अमेरिका चली गई और वहाँ आपने बाल चिकित्सक की उपाधि प्राप्त की। अभी आप टैक्सास राज्य के लेविसविले में स्थित डॉक्टर्स क्लीनिक में अग्रणी बालचिकित्सक हैं। आप पूर्णतः शाकाहारी हैं और तन, मन, स्वभाव, सुशील से सौम्य एवम् मधुर हैं। अपने ससुराल के मूल स्थान नाई (उदयपुर) ग्राम में हरपावत दम्पति ने एक लाख से अधिक की धन राशि दान करके एक स्कूल भवन और कम्युनिटी सेंटर का निर्माण कराया है।११२ ७.१२० श्रीमती कमला सिंघवी :
. नारी जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अधिकार पूर्वक लिखनेवाली और संतुलित विचार देनेवाली कृतिकार श्रीमती कमला सिंघवी का जन्म भागलपुर (बिहार) में ५ सितंबर १६३८ को श्री सूरजमलजी व श्रीमती हीरा बैद के एक प्रवासी राजस्थानी जैन परिवार में हुआ। आपकी शिक्षा कलकत्ते में हुई और विवाहोपरांत अपने पति ख्यातनामा विधिवेत्ता एवं सम्प्रति इंगलैंड में भारत के राजदूत डॉ. लक्ष्मीमलजी सिंघवी के साथ आप कुछ वर्ष जोधपुर में रहकर दिल्ली चली गई। वहीं जाकर आपने लिखना आरंभ किया और आपकी रचनाएँ देश की सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं व साप्ताहिकों में छपने लगी। अपने पति एवं उनके साहित्यिक मित्रों के प्रोत्साहन से आपने अपनी प्रथम कृति 'नारी भीतर और बाहर' सन १६७२ में दिल्ली से प्रकाशित कराई। हिन्दी जगत में अब तक आपकी चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ___ "दाम्पत्य के दायरे", इस पुस्तक की सराहना हिन्दी के अनेक प्रतिष्ठित विद्वानों ने मुक्त कंठ से की है। आपकी एक कहानी 'वह कुछ भी तो नहीं कह गया' को प्रथम महिला-मंगल पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। आपके कुछ निबंध विश्वविद्यालयों की पाठ्यपुस्तकों में भी संकलित हुए हैं। हिन्दी की प्रसिद्ध लेखिका शिवानी ने आपकी रचनाओं को भारतीयता से ओतप्रोत बताकर उनकी सराहना की है ।११३ ७.१२१ श्रीमती डॉ. शांता भानावत :
आधुनिक जीवन की सुविधाओं से दूर एक छोटे से कस्बे में उत्पन्न होकर राजधानी जयपुर के एक महाविद्यालय के प्रिंसिपल पद को सुशोभित करनेवाली श्रीमती डॉ. शांता भानावत का जन्म ६ मार्च १६३६ को छोटी सादड़ी (जिला-चित्तौड़गढ़) में श्री
गोटीलालजी बया के घर हुआ। जब आप नवीं कक्षा में पढ़ती थी, तभी २३ वर्ष की अवस्था में आपका विवाह हो गया। अपने पति • डॉ. नरेन्द्र भानावत की प्रेरणा से आपने अपना अध्ययन जारी रखा और सन् १६६७ में राजस्थान विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.
,
Page #683
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
ए. किया । सन् १९७३ में 'ढोला मारू रा दूहा' का वैज्ञानिक अध्ययन विषय पर पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की । हिन्दी और राजस्थानी दोनों भाषाओं पर आपका समान अधिकार है। आपकी प्रकाशित मौलिक कृतियाँ हैं। हिन्दी साहित्य की प्रमुख कृति ढोला मारू रा दूहा का अर्थ व वैज्ञानिक अध्ययन तथा राजस्थानी भाषा में लिखित महावीर री ओलखाण हैं। सम्पादित कृतियाँ हैं समतादर्शन और व्यवहार, क्रान्तद्ष्टा श्रीमद् जवाहराचार्य, जैन संस्कृति और राजस्थान आदि । आप जयपुर से प्रकाशित 'जिनवाणी' मासिक पत्रिका व बीकानेर से प्रकाशित 'श्रमणोपासक' पाक्षिक की सम्पादिका हैं। आकाशवाणी जयपुर से आपकी हिन्दी व राजस्थानी में कहानियाँ तथा वार्ताएँ प्रसारित होती रहती हैं। सन् १६७५ से आप वीर बालिका महाविद्यालय जयपुर की प्रिंसिपल के रूप में शिक्षा क्षेत्र में अपनी सेवाएँ दे रही हैं। आप राजस्थान विश्वविद्यालय से सम्बद्ध डिग्री कॉलेजों के प्राचार्यों द्वारा राजस्थान विश्वविद्यालय की सीनेट की सदस्य निर्वाचित हुई हैं। आप कई सामाजिक, धार्मिक एवं शैक्षणिक संथाओं से सक्रिय जुड़ी हुई हैं। आप श्री एस. एस. जैन सुबोध बालिका उच्च माध्यमिक विद्यालय, जयपुर की प्रबंध समिति की सदस्य व महिला जैन उद्योग मंडल, जयपुर की अध्यक्षा हैं |११४
661
७.१२२ डॉ. श्रीमती किरण कुचेरिया :
जोधपुर के एक सामान्य परिवार में जन्म लेकर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली जैसे विश्वविख्यात संस्थान में अस्थि - विज्ञान के एसोसियेट प्रोफेसर पद को सुशोभित कर रही हैं। डॉ. किरण स्व. श्री नथमलजी मेहता व रूपकंवरजी की सुपुत्री हैं। आपका जन्म १२ अप्रैल १६४४ में जोधपुर में हुआ । सन् १६६४ में आप जसवंत कॉलेज जोधपुर से प्राणिशास्त्र में एम. एस.सी. में प्रथम स्थान प्राप्त कर स्वर्णपदक विजेता बनी। उसी वर्ष आपको महारानी कॉलेज जयपुर में व्याख्याता के पद पर नियुक्त किया गया । १६६५ में विवाह हो जाने पर आप अपने पति डॉ. पी. आर. कुचेरिया (लाडनूँ) के साथ आगे अध्ययन के लिए इंग्लैड चली गई जहाँ आपने १६६६ में लंदन विश्वविद्यालय से पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की। किसी विदेशी विश्वविद्यालय से यह उपाधि प्राप्त करनेवाली आप प्रथम राजस्थानी महिला थी। महाविद्यालय में अध्ययन के छहों वर्ष आपको प्रतिभासम्पन्नता की छात्रवत्ति मिलती रही और लंदन में शोधकार्य की अवधि में ब्रिटिश एम्पायर केंसर केम्पेन शिक्षावत्ति भी मिलती रही। आपको डब्लू. एच. ओ. रिसर्च व ट्रेनिंग शिक्षावत्ति ( फैलोशिप) भी प्राप्त हुई थी। आपका शोधकार्य बाल- रोगों से संबंधित था ।
भारत लौटने पर आपने एक वर्ष कौंसिल ऑफ सांईटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च ऑफ इंडिया में पूल ऑफिसर का कार्य किया और फिर आपको ए.आई.आई.एम.एस नई दिल्ली में अस्थि विज्ञान के व्याख्याता के पद पर नियुक्ति मिल गई। आज उसी संस्थान में आप एसोसिएट प्रोफेसर भी हैं और मानवीय कौशिकानुवंशिकी (ह्यूमन साइटोजैनिटिक लैब) प्रयोगशाला की अधिकारी भी हैं। भारत भर में प्रतिवर्ष लगभग ६०० कौशिकानुवंशिकी के मामले आपके पास विश्लेषण के लिए आते हैं जिनके परिणाम अन्तरर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में उद्धत किये जाते हैं। सन् १६८२ में इंडियन जेसीज ने जवलच (टैन आउटस्टैडिंग यंग पर्सन्स) के राष्ट्रीय पुरस्कार से भी आपको सम्मानित किया है। अपने संस्थान में आपने भारत में प्रथम बार गर्भस्थ भ्रूण के लिंग निर्धारण की प्रविधि पर और अन्य राज्यधारक नस खराबियों पर अनुसंधान कार्य किया जिसके परिणाम १६७३ में भारत के सभी महत्त्वपूर्ण पत्रों
प्रकाशित हुए। हाल ही में इस प्रविधि का दुरुपयोग होने लगा और लोग लड़की होने पर भ्रूण की हत्या करवाने लगे तो जागत महिला संगठनों ने इसके विरुद्ध कानून बनाने की माँग की। इस विषय में संगठनों ने और अनेक अंग्रेजी समाचार पत्रों ने भी आपका साक्षात्कार लिया । राष्ट्रीय शिक्षा एवं वैज्ञानिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद (NCERT) एन. सी. ई. आर. टी. नई दिल्ली ने भी इस विषय पर लगातार आपके भाषण कराये। उल्लेखनीय है कि आपके निजी चिकित्सालय चल रहे हैं। पति-पत्नी का ऐसा मणिकंचन संयोग सौभाग्य से ही मिलता है। वास्तव में डॉ. किरण हमारे समाज का गौरव हैं। ११५
७.१२३ डॉ. प्रो. अरुणा सिंघवी :
अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र तक अपनी प्रतिभा की रश्मियाँ बिखरने वाली सुश्री अरुणा सिंघवी जोधपुर के ख्यातनामा क्षय-रोग विशेषज्ञ डॉ. अचलमलजी सिंघवी व श्रीमती उमादेवी सिंघवी की सुपुत्री हैं। आपका जन्म सन् ११४८ में हुआ था। आप प्रतिभा संपन्न छात्रा थी। आपने बी.एस.सी. (१६६७) में व एम. एस. सी. ( प्राणीशास्त्र १६६६ ) में जोधपुर विश्वविद्यालय में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया । तथा स्वर्ण पदक से अलंकृत हुई। तत्पश्चात् आपने जोधपुर विश्वविद्यालय में ही व्याख्याता का पद ग्रहण किया और अध्यापन के
Page #684
--------------------------------------------------------------------------
________________
662
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
साथ-साथ अपना अध्ययन और शोध-कार्य भी चालू रखा। इस अवधि में आपने नार्थ वेस्टर्न विश्वविद्यालय, (अमेरिका) से एम. एस. तथा सन् १९७८ में जोधपुर विश्वविद्यालय से ही पैरेसाइटोलॉजी (परोपजीवी विज्ञान) में पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। अगले वर्ष ही बंबई से इयूनोलॉजी (प्रतिरक्षण विज्ञान) का कोर्स किया। फिर तो अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों ने आपको अनुसंधान के लिए शिक्षकवत्ति (फैलोशिप) प्रदान की। आपने पाँच अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंसों में जाकर पत्र पाठ किया तथा आपके लगभग ३६ शोधपरक लेख राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए।
जिन विश्वविद्यालयों ने आपको शिक्षा-वत्ति देकर सम्मानित किया उनमें मुख्य हैं कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय, इंग्लैंड; एकेडेमी ऑफ साइंसेज़ प्राग, चैकेस्लोवाकिया (यूनेस्को शिक्षा वत्ति); इंडियाना स्टेट विश्वविद्यालय, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, यू.जी.सी.मैरिट रिसर्च फैलोशिप, वैलकुई फाउंडेशन फैलोशिप भी प्राप्त हुई। इन शिक्षावत्तियों से आपने जिन विषयों में अनुसंधान किया वे हैंन्यूट्रीशनल फीजियोलॉजी (पोषाहार शरीर-विज्ञान) टिश्शूकल्चर (ऊतकसंवर्धन) और इम्यूनो केमिस्ट्री (प्रतिरक्षण रसायन शास्त्र) आप इंडियन सोसाइटी आफ पैरासाइटोलॉजिस्ट्स ब्रिटिश सोसाइटी ऑफ पैरासाइटोलॉजिस्ट्स एवं सिपिना पग संयुक्त राष्ट्र अमेरिका जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं की सदस्या भी हैं। जाज्वल्यमान बौद्धिक उपलब्धियों के साथ आपके व्यक्तित्व का सांस्कृतिक पक्ष भी प्रबल है। भारतीय शास्त्रीय नत्य (कत्थक) में आप विशारद हैं। चित्रकला व पर्यटन में भी आपकी गहरी रुचि है। ऐसी प्रतिभाशाली महिला वास्तव में हमारे समाज का गौरव है ।११६ ७.१२४ नन्दुबाई लोढ़ा :
आप पूना निवासी श्री घोंडीराम जी गुलाबचन्द जी खिंवसरा की सुपुत्री थी। आपका विवाह भुसावल निवासी श्री नयनसुखजी रामचन्दजी लोढ़ा से हुआ था। प्रथम महायुद्धके बाद ब्रिटिश शासन के खिलाफ देश में क्रांति की चिंगारियाँ सुलगने लगी, तो नन्दू बाई भी आन्दोलन में कूद पड़ी। वे शुद्ध खादी पहनने लगी। संवत् १९८४ में वे मालेगाँव में महाराष्ट्रीय जैन महिला परिषद की प्रमुख चुनी गई थी। संवत् १६८८ में प्रकाशित 'ओसवाल नवयुवक' के महिलांक के सफल सम्पादन का श्रेय नन्दू बाई को ही है। समाज सुधार के विभिन्न पहलुओं पर आपके प्रेरणास्पद लेख एवं कविताएँ विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में छपते रहते थे। आप की भाषा एवं शैली प्राजल थी। आपने अनेक कहानियाँ एवं गद्य गीत भी लिखे । ११७ ७.१२५ सुश्री हीराकुमारी बोथरा :
साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र को जैन महिलाओं और विदुषी जैन साध्वियों ने अपने मौलिक अवदान से रसाप्लावित किया किन्तु शोध व समीक्षा के क्षेत्र पर पुरुषों का एकाधिकार रहा। यह घेरा लांघा ओसवाल समाज की महिला रत्न हीरा कुमारी बोथरा ने। मुर्शिदाबाद के बाबू उदयचन्द जी बोथरा बड़े प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। आपके पूर्वज जसरूपजी कोडमदेसर (बीकानेर) से संवत् १८३२ में मुर्शिदाबाद आकर बसे। इनके पुत्र दयाचन्द जी ने लाखों की सम्पत्ति अर्जित की, सिद्धाचल में सदाव्रत खुलवाया एवं ३२ भारी सोने के चरण अर्पित किए। इन्हीं के पत्र उदयचन्दजी थे। उनके पुत्र बुधसिंह जी भी बड़े मिलनसार व्यक्ति थे। संवत् १६६२ में उनके घर हीरा कुमारी का जन्म हुआ। पाणिग्रहण के कुछ ही समय बाद वैधव्य की कारा ने उन्हें घेरना चाहा। परन्तु साहसी एवं बुद्धिमती हीरा कुमारी ने समस्त बाधाओं को चिर कर ज्ञान मंदिर में अलख जगाई । प्रज्ञाचक्षु पण्डित सुखलालजी संघवी के निर्देशन में उन्होंने संस्कृत भाषा व साहित्य का अध्ययन किया। भाषा शास्त्र एवं दर्शन में निष्णात होकर व्याकरण-सांख्यवेदांत-तीर्थ की उपाधियाँ हासिल की। उन्हें जैन शास्त्रों से विशेष लगाव था। शास्त्र शोध एवं समीक्षा से उनका सबंध जीवनपर्यंत रहा। उन्होंने आचारांग सूत्र के श्रुतस्कंध का बंगला भाषा में अनुवाद कर समस्त विद्वत समाज को चमत्कृत कर दिया। उनके पास हस्तलिखित शास्त्रों का अलभ्य भंडार था जिसे उन्होंने प्राकृत जैन इन्स्टीट्यूट, वैशाली को भेंट कर दिया। संवत् १६८६ में जब ओसवाल महिला सम्मेलन का समायोजन हुआ तो समाज ने समुचित सम्मान कर हीरा कुमारी जी को उसकी सभानेत्री चुना । संवत् २०२५ में उनका देहावसान हुआ।११८ ७.१२६ डॉ. कमला देवी दूगड़ :
संवत् १६६२ में इस महिला रत्न ने एक नया कीर्तिमान स्थापित कर ओसवाल समाज को गौरवान्वित किया। जयपुर की
Page #685
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
663
श्रीमती कमला देवी दूगड़ को समाज की प्रथम महिला डॉक्टर होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। दिल्ली में आपकी डिस्पेंसरी में अनेक स्त्री-पुरुषों एवं साधु-साध्वियों का समुचित इलाज होता था।'१६ ७.१२७ श्रीमती मणालिनी साराभाई :
श्रीमती मणालिनी एक उज्जवलतम नीहारिका सी भारत के सांस्कृतिक नभमंडल में चमकती रही हैं। भारत की पारम्परिक नत्य शैली को आपका अवदान प्रेरणास्पद है। आपके पिता श्री स्वामीनाथन मद्रास के लब्ध प्रतिष्ठित वकील थे। माता श्रीमती अम्म स्वामीनाथन थीं। भारतीय लोकसभा की पन्द्रह वर्ष तक सदस्य रही। बड़ी बहन डॉ लक्ष्मी ने नेताजी सुभाष की विप्लवकारी आजाद हिन्द फौज में महिला ब्रिगेड की कमान संभाली थी। मणालिनी जी ने प्रथम नत्य-पाठ श्रीमती रूक्मणि देवी अरुण्डेल के मद्रास स्थित कला क्षेत्र में सीखा। परन्तु उन्हें शीघ्र ही स्वीट्जरलैड जाना पड़ा वहाँ मणालिनी जी ने पाश्चात्य शैली के नत्यों, बैलों एवं ग्रीक नत्यों का अभ्यास किया उस वक्त उनकी आयु मात्र बारह वर्ष की थी। ____ संवत् १६६६ में भारत आकर गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर के सान्निध्य में शांति निकेतन में आपने भारतीय शैली के नत्य सीखे । यहाँ रहकर भरतनाट्यम, मोहिनी अट्टम एवं कथकली में आपने महारत हासिल की। लोकृनत्य शैली का विशेष अध्ययन किया। जावा की पारम्परिक नत्य शैली में पारंगत हुई। रंगमंच की विशिष्ट शिक्षा हेतु आप अमरीकी नाट्य कला अकादमी से जुड़ी। आपने इन अपरिमित अनुभवों का लाभ उठाकर अपनी स्वतंत्र कोरीयोग्राफी विकसित की । भारतीय एवं विदेशी रंगमंचों पर आपने अनेक बार नत्य प्रदर्शन कर प्रशंसा अर्जित की।
संवत १६६८ में बेंगलोर में आपका नत्य प्रदर्शन हुआ। तब विक्रम साराभाई डॉ.सी.बी. रमण के सान्निध्य में वहीं शोध-रत थे। मणालिनी जी का एक नत्य कार्यक्रम आपने देखा और मुग्ध हो गए। वही परिचय प्रगाढ़ होकर संवत् १६६६ में सदा सदा के लिए दोनों को परिणय सूत्र में बाँध गया। अहमदाबाद आकर संवत् २००५ में मणालिनी जी ने नत्यकला के संवर्धन हेतु "दर्पन नाट्य एवं नत्य शिक्षण संस्थान की स्थापना की। डॉ. विक्रम साराभाई के सहयोग से जल्द ही इस संस्थान ने अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की। "चंडालिका" नामक नत्य नाट्य को नवीन भावभूमि के साथ प्रस्तुत किया है। मनुष्य नत्य नाट्य में मणालिनी ने वर्तमान की पीड़ा व संघर्ष के दंश को बड़ी सफलता से मुखिरित किया है। संवत् २०२२ में भारत सरकार ने आपको “पद्मश्री" की उपाधि से सम्मान किया है। संवत् २०४३ में शांति निकेतन ने उन्हें देशिकोत्तम के सम्मान से विभूषित किया है। मेक्सिको एवं फ्रांस की सरकारों ने नत्य क्षेत्र में विशिष्ट सेवा के लिए उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान किये हैं। ओसवाल कुल इस नारी रत्न को पाकर धन्य हुआ है। सूरत के जन सत्याग्रह में भाग लेने के फलस्वरूप आप गिरफ्तार कर ली गई एवं दंडित हुई। आपने दण्ड स्वरूप जुर्माना न देकर जेल जाना पसन्द किया।१२० ७.१२८ श्रीमती कमलाबाई :
__ आप श्रीमान् सागरमल जी जैन की धर्मपत्नी है। श्रीमती कमलाबाई जैन का जन्म विक्रम संवत् १६६६ फाल्गुण शुक्ला पूर्णिमा को मध्यप्रदेश के सुजालपुर नगर में हुआ था। लगभग पन्द्रह वर्ष की आयु में आपका विवाह श्रेष्ठी राजमलजी शक्कर वाले के जयेष्ठपुत्र सागरमल जी जैन के साथ हुआ। आपके दो पुत्र और एक पुत्री वर्तमान में हैं। आप एक श्रद्धाशील और धर्म निष्ठ सुश्राविका हैं। आपने अपने श्वसुर एवं सास से प्राप्त संस्कारों का वपन अपनी संतानों में किया। आपके पति श्री सागरमल जी आपसे विवाह के समय मात्र कक्षा आठ उत्तीर्ण थे, किन्तु उनकी विद्या अभिलाषा और आपके सहयोग के कारण आज वे देश-विदेश के जैन विद्वानों में शीर्षस्थ विद्वान् माने जाते हैं। उनकी इस अध्ययन वत्ति के पीछे आपका समर्पण एवं त्याग महत्वपूर्ण है। कहते है हर महापुरूष के पीछे एक नारी होती है; यदि इस उक्ति को स्वीकार करें तो डॉ सागरमल जैन के पष्ठबल में आप ही हैं। डॉ. सागरमल जी जैन से अध्ययन हेतु साधु-साध्वी वर्ग की निरन्तर उपस्थिति रहती है। उन सबकी और विद्यार्थी एवं शोधार्थियों की सेवा में आप सदैव संलग्न रहती है। आप न केवल डॉ साहब अपितु उनके शिष्य वर्ग की सुख-सुविधाओं का भी सदैव ध्यान रखती हैं। सभीको आपकी मातछाया और वात्सल्य प्राप्त होता है। आपने शताधिक जैन साधु साध्वियों की सेवा का लाभ लिया है और आज अपनी ४७ वर्ष की वय में इस हेतु सदैव तत्पर रहती हैं।१२१
Page #686
--------------------------------------------------------------------------
________________
664
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
७.१२६ कु. निशा जैन :
आप चंडीगढ़ के पास पंचकूला में निवास करती हैं। श्रमण संघीय चतुर्थ पट्टधर आचार्य डॉ, शिवमुनि जी महाराज के सान्निध्य में चंडीगढ़, जालंधर, जम्मू चातुर्मास में आपने साधना संपन्न की। चातुर्मासों में विशिष्ट आराधना और साधना संपन्नता
के साथ साधना में विकास हुआ। चण्डीगढ़ में भक्ति और प्रार्थना का स्वरूप प्रकट हुआ । पुनः पुनः साधना करते हुए नमस्कार मंत्र, . लोगस्स और णमोत्थुणं की साधना से समाधि में प्रवेश करने की विधि प्राप्त हुई। शासनदेव एवं आचार्य श्री की कपा से सामायिक
करते हुए मन और आत्मा की शुद्धि प्राप्त हुई, तथा भेद-विज्ञान की साधना का मार्ग नज़र आया । कु. निशा जैन अपनी लघु वय में अध्यात्म मार्ग पर निरन्तर गतिशील हैं।१२२ ७.१३० चंपा बहन :
__ आप अध्यात्म मार्ग की निर्मल साधिका हैं। सौराष्ट्र सोनगढ़ निवासी गुरूदेव कानजी स्वामी के सत्संग से आपने अध्यात्म का वेग प्राप्त किया। संवत् १६६३ में आपको जातिस्मरण ज्ञान की उपलब्धि हुई। लौकिक व्यवहार से दूर रहते हुए चंपा बहन ने अपना संपूर्ण जीवन आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर किया। आपके द्वारा निस्सत ज्ञान कण बहन श्री के वचनामत के रूप में प्रकाशित है।१२३ ७.१३१ श्रीमती सुषमा दुगड़ :
आप महाराष्ट्र के नासिक शहर की निवासी हैं। आप श्रीमती मदनबाई इंदरचंद जी दुगड़ की पुत्रवधू डॉ. रिखवचंद जी दुगड़ की धर्मपत्नी एवं आनंद दुगड़ की मातेश्वरी हैं। आपने एम.डी. की शिक्षा प्राप्त की है। आप अस्थमा, टी.बी. तथा छाती रोग विशेषज्ञ हैं। आपने सामायिक, प्रतिक्रमण एवं अनेक थोकड़े कंठस्थ किये हैं। सन्मति तीर्थ पूना से आयोजित पंच वर्षीय प्राकत परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। अखिल भारतीय स्तर एवं तत्व ज्ञान की विभिन्न परीक्षाओं में विशेष पुरस्कार प्राप्त किये हैं। प्रत्येक चातुर्मास में प्रवचन श्रवण का लाभ लेती हैं। अनेक धार्मिक एवं सांस्कतिक कार्यक्रमों की संचालिका हैं। उपासिका युवा बहूमंडल की संस्थापिका हैं। आपने प्रश्नमंजूषा का पाँचवा भाग, सुखी जीवन का रहस्य, 'हास्य' पुस्तक प्रकाशित करवायी है, तथा तीस चालीस स्वरचित कविताओं (अप्रकाशित) की रचयिता हैं। आप अपने जीवन के सोलहवें वर्ष से ही समाज सेवा में अग्रसर है। इसी कड़ी में १५२० संस्थाओं के विविध पदों पर आप कार्यरत हैं। आपने स्वयं भी लिखित रूप में शादी की, दहेज प्रथा का विरोध किया तथा सिद्धांतों पर आधारित विवाह को महत्व देकर सातारा क्षेत्र में विवाह संबंधी क्रांति की।
आदिवासी क्षेत्रों में २५० बच्चों को मदद दी। लोक विकास संस्था में मेडिकल एवं कम्प्यूटर का सहयोग प्रदान किया। पल्स, पोलियों, तंबाकू, टी.बी. क्षयरोग, दहेज प्रथा, दमा आदि विषयों पर लेख, व्याख्यान तथा टी.वी. पर कार्यक्रम का प्रसारण भी संपन्न किया। लगभग उन्नीस स्थानों पर स्वास्थ सेवायें प्रदान कर रही हैं। लगभग सत्रह सामाजिक संस्थाओं में आप विविध प्रकार की सेवाएँ प्रदान कर रही हैं। इन सेवाओं को प्रदान करते हुए आपने विविध सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त किये हैं। नवरचना हाईस्कूल, नासिक से आदर्श शिक्षिका का पुरस्कार तथा विविध क्षेत्रों में ग्यारह अन्य पुरस्कार भी आपने प्राप्त किये हैं। इसी प्रकार प्रति वर्ष ५० दिन का एकासना तप करती हैं। आपने एक वर्ष एकासना तप, एकासने का वर्षीतप ११ व्रत आदि तपस्यायें संपन्न की है। आपका जीवन एक आदर्श समाज सेविका, स्वाध्यायी श्राविका एवं तपस्विनी के रूप में सर्वविदित हैं।१२४ ७.१३२ श्रीमती धापूबाई गोलेछा :
धापूबाई का जन्म १६१६ ईस्वी में उदयपुर के चित्तौड़ जिले के भदेसर के पास लसड़ावन ग्राम में हुआ था। आपके पिता लेहरूलाल जी एवं माता घीसीबाई थी। ६ वर्ष की छोटी उम्र में ही घुड़सवारी करती थी। १४ वर्ष की उम्र में आपका विवाह बेंगलोर निवासी श्रीमान् जसराजजी गोलेछा के साथ संपन्न हुआ। आपने गुरूओं के सान्निध्य में दीर्घ तपस्याओं का रिकार्ड बनाया। आपने ६१, ५१, ८२, १५१, ६१, १११, १२१, १५, २१, ३१, ११ कर्मचूर की अठाईयाँ, छ: काया का तप, चंदनबाला के तेले, नवनिधि तप, अर्जुनमाली के बेले, रस बेले मान बेले, परदेशी राजा के बेले, सिद्धि तप आदि विविध तपस्याएँ की। आपने ५१ और ६१ की तपस्या घर पर ही संपन्न की थी। लोगों ने अफवाह फैलाई कि घर पर किया हुआ तप क्या सच होगा? इस चुनौती पर चंपा बहन की
Page #687
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
तरह धापूबाई ने अनेक बहनों के साथ स्थानक में रहकर ६१ दिन की तपस्या संपन्न की थी । धापूबाई की प्रेरणा से लसड़ावन में स्थानक भवन का निर्माण हुआ । आप बड़ी ही साहसी सन्नारी थी। एक बार रेलवे स्टेशन पर मिलिटरी के एक युवक ने दो तीन बार टल्ला मारा, उसी समय आपने चप्पल से उसकी खूब पिटाई की। आखिरकर कर्नल ने आकर उनसे माफी मांगी। बेंगलोर में आप खूब रूतबा रखती थी। दिल्ली में डॉक्टरों ने इनका पूरा पेट चेक किया था, इनकी पूरी नसें सिकुड़ चुकी थी । श्रीमती धापूबाई बड़ी यशस्विनी, धर्मशीला, धैर्य और विवेक की धनी, सम्माननीया, श्रद्धा और भक्ति की प्रतिमूर्ति थी। आपका आत्मबल, • आत्मतेज, शौर्य, आन बान और शान दर्शनीय था। आप जो ठान लेती थी उसे पूरा कर देती थी । कर्त्तव्य, सेवा और धर्म साधना पर बलिदान होनेवाली आप एक यशस्विनी श्राविका थी । १६ वीं से २० वीं शताब्दी की जैन श्राविकाओं में अकबर के शासन में चम्पा बहन ने छः मास की तपस्या की थी। तत्पश्चात् धापूबाई ने ही १११, १२१, १५१ आदि का दीर्घ तप संपन्न किया था । उस समय यह दीर्घ तप एक महान् आश्चर्य था । आपने १११ जैसे दीर्घ तप में भी गुरू दर्शन यात्राएँ की । देश भर में आपको विविध प्रकार का सम्मान प्राप्त हुआ था। आपका १५.१२.१६८६ में हृदयघात से स्वर्गवास हुआ। आपकी अन्तिम यात्रा ट्रक में भव्य मंडप सजाकर जुलूस द्वारा निकाली गयी। जुलूस में चार साढ़े चार हज़ार नर नारियों के बीच गुलाल उड़ाते हुए तथा हज़ारों रूपए बिखेरते हुए आपको ले जाया गया।
दिल्ली में आपका नागरिक अभिनंदन समारोह संपन्न हुआ। प्रधान जी मोरारजी देसाई ने भावभीना स्वागत किया। तीन प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई। देश-विदेश के समाचार पत्रों में खबरें एवं उनकी जीवनी प्रकाशित हुई। इंदिरा गांधी ने अपने निवास पर आमंत्रित कर अपने हाथ से काती हुई सूत की माला पहनाकर धापूबाई के चरण छुए थे । विश्वधर्म सम्मेलन में पूज्य सुशील मुनि जी म. सा. ने आपको सम्माननीय स्थान प्रदान किया। अहमदनगर में आचार्य आनंद ऋषि जी म०सा० के सान्निध्य में लोगों ने चांदी के रथ में आपकी जुलूस यात्रा निकाली। विविध संघों ने इन्हें शासन प्रभाविका, वीर पुत्री, तपरत्ना, तप वीरांगना, तपकेसरी व जगत् माता की उपाधि से अलंकत किया । १२५ T
665
७. १३३ श्रीमती सरोज पुनमिया
आप बेंगलोर निवासी श्रीमान् कांतिलाल पुनमिया की धर्मपत्नी हैं तथा मुंबई निवासी श्रीमान् पथ्वीराज जी राजावत की पुत्री हैं। आपका जन्म १५.१.१९५४ को देसुरी (राज०) में हुआ था। मुंबई में आपने ७ वीं कक्षा तक की शिक्षा ग्रहण की थी । आपने धार्मिक शिक्षण के रूप में तत्वार्थसूत्र, अनेक थोकड़े एवं सूत्रों का ज्ञान प्राप्त किया। मामा जी छगनलाल नवरत्नमल बंब जैन धार्मिक पाठशाला एवं श्री कर्नाटक जैन स्वाध्याय संघ के तत्वावधान में बेंगलोर शहर के विभिन्न उपनगरों एवं बाज़ारों में धार्मिक शिक्षण एवं महिला मंडलों का संचालन कर रही हैं। आप स्पष्ट एवं उच्च कोटि की वक्ता, चिंतनशील, श्राविका व्रतों को स्पष्ट करने तथा विशद व्याख्या करने की कला में निपुण हैं। गत तीन वर्षों से निरन्तर एकांतर तप कर रही हैं। आपने छोटे बड़े अनेक तप तथा त्याग प्रत्याख्यान ग्रहण किये हैं। आप लौकिक एवं लोकोत्तर दोनों क्षेत्रों में विशेष उन्नतिशील सुश्राविका रत्न हैं । १२६ ७. १३४ श्रीमती बदनीबाई सिंघवी :
:
आप बैंगलोर निवासी श्रीमान् केसरीमल जी एवं रूपी बाई की पुत्रवधू एवं जुगराजजी सिंघवी की धर्मपत्नी हैं। श्रीमान् राजमलजी एवं श्रीमती छकुबाई संचेती की पुत्री हैं व सिकंद्राबाद निवासी श्रीमान् कानमल जी संचेती की बहन हैं। आपने छोटी उम्र से ही तपस्या का मार्ग अपनाया। आपने तीन वर्षीतप अठाई, ग्यारह एक माह के आयंबिल, सात वर्ष निरंतर एकासन तप, आयंबिलों की ओलियाँ २५० प्रत्याख्यान्, कल्याणक तप, रोहिणी तप, पुष्य नक्षत्र तप आदि संपन्न किये हैं तथा प्रतिदिन एकासना, बियासना, चौविहार तप, हरी वनस्पति का त्याग तथा जीवन पर्यंत प्रासुक पानी ग्रहण करने का आपका नियम है। आपने छोटी उम्र में शीलव्रत का प्रत्याख्यान् ग्रहण किया । आप प्रतिकूलता में भी सदा सहनशील, धीर गम्भीर रही हैं। दान, शील, एवं तप रूपी त्रिवेणी का संगम आपके भीतर प्रवाहित है। कई संस्थाओं, धर्मस्थानकों एवं धर्मग्रंथों को आपने दानादि से संपोषित किया है। १२७ ७. १३५ श्रीमती कमल चोरडिया :
आप श्रीमान् सुखलालजी एवं सरस्वती बाई की पुत्रवधू, श्रीमती छटाकी बाई, चौथमल जी भंडारी की सुपुत्री एवं श्रीमान्
Page #688
--------------------------------------------------------------------------
________________
666
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अपदान
हुक्मीचंद जी चोरड़िया की धर्मपत्नी हैं। आपका जन्म पूना जिला के मंचर क्षेत्र में सन् १६३३ में हुआ था। आपने छठी कक्षा तक शिक्षा ग्रहण की है। किंतु शिक्षा के प्रति आपका अत्यधिक लगाव था। जापने अपने चारों पुत्रों को उच्च शिक्षा दी। ५ किलो मसाला बनाकर स्वतंत्र व्यवसाय प्रारंभ करने में अपने पति को सहयोग दिया। अपने कौशल से उत्पादकता बढ़ाई। आज चालीस वर्षों में ४० करोड़ के टर्न ओवर से यह उद्योग फला फूला है। सात कारखाने, ६०० कार्य सेवक, व स्वतंत्र निर्यात विभाग सहित यह व्यवसाय फैला है। चोरड़िया फुड, प्रवीण फुड, प्रवीण मसाले, युनिवर्सल स्पाइसेस इनकी कंपनी के नाम हैं। साथ ही समाज सेवा में आप अग्रसर हैं। अपने स्वर्गीय सासु जी की पुण्यतिथि पर आप प्रतिवर्ष रक्त दान कैम्प का आयोजन रखते हैं । १२८ ७.१३६ श्रीमती पानी बाई बाफना :
__ आप चेन्नई निवासी श्रीमान पुखराज जी कठोड़ एवं पुरसवाल कठोड़ की सुपुत्री, कोलार निवासी श्रीमान् रिखबचंद जी बाफना की पुत्रवधू एवं श्रीमान् जयचंद जी बाफना की धर्मपत्नी हैं। आप कर्मठ स्वतंत्रता सेनानी तथा समाज सेवी थी। आपके चार पुत्र एवं दो पुत्रियां हैं। आपके पति श्रीमान् जयचंद जी बाफना भी स्वतंत्रता सेनानी थे। सन् १६३०.४० में पानी बाई ने धूंघट प्रथा का त्याग कर दिया था। राजस्थानी श्वेतांबर समाज में क्रांति लाने वाली संभवतया यह प्रथम महिला थी। यद्यपि आज इस समाज में ६० वर्षों के पश्वात् वही परिवर्तन आ चुका है। पानी बाई में उत्साह, धैर्य एवं देश भक्ति कूट-कूट कर भरी हुई थी। स्वतंत्रता सेनानी के अग्रगण्य नेताओं जैसे एस. निजलिंगप्पा, के.सी. रेड्डी, एच.सी. दासप्पा, के. टी. भाष्यम् आदि को आहार एवं निवास व्यवस्था प्रदान करने के फलस्वरूप आपको पुलिस द्वारा अनेक यातनायें सहन करनी पड़ी। आगे चलकर निजलिंगप्पा ने कर्नाटक को एकता दी एवं मुख्य मंत्री नियुक्त किये गये। पानी बाई ने पदम्नी एम. सी. मोर्दः जो हज़ारों फ्री ऑपरेशन करनेवाले नेत्र विशेषज्ञ थे, उन्हें महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया। आपने भारतीय सेवा दल के प्रधान पद पर रहते हुए, सेवादल के कार्यकर्ताओं के संग अनेक शिविर ग्रामों में सड़क निर्माण हेतु लगाए। अपने प्रथम प्रधानमंत्री श्रीमान् राजेंद्र प्रसाद जी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी, डॉ बी. आर. अम्बेडकर को उनकी के. जी. एफ. यात्रा पर अपने हाथों से भोजन बनाकर खिलाया। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् पानी बाई के. जी. एफ. में सहयोग आंदोलन को ऑपरेटिव बैंक तथा होलसेल कोऑपरेटिव सोसाईटी की डायरेक्टर (मार्गदर्शक) पद पर नियक्त की गई थी। आप के. जी. एफ. महिला समाज की संस्थापिका थी। जिसका उद्देश्य बच्चों एवं महिलाओं को शिक्षित करना था। सन १६५० में कर्नाटक सरकार संचालित कोलार जिले के सोशल वेलफेअर बोर्ड के चेअरमैन के पद पर आप नियुक्त की गई आप गाँवों में जाने के लिए प्रातः काल निकलती थी तथा देर रात तक इस संस्था से जुड़े ग्रामों की देख भाल करती थी। उन दिनों में सड़क परिवहन की व्यवस्था न होने से गाँवों में सेवाएँ प्रदान करना कठिन कार्य था। तथापि आप सोमवार से शनिवार तक ग्रामीण बहनों में स्वावलंबन की प्रवत्तियों को बढ़ाने तथा बच्चों को पौष्टिकता प्रदान करने हेतु दूध तथा अन्य वस्तुएँ ले कर जाती थी, उन्हें खिलौने आदि भी दिये जाते थे। उनमें शिक्षा अर्जन करने हेतु प्रेरणा एवं उत्साह भरा जाता था। के. जी. एफ के जनरल अस्पताल में एवं मेटरनटी अस्पताल में आप गरीबों की सुचारू देखभाल करती थी। इस प्रकार के कई अन्य जन कल्याणकारी कार्यों की संपन्नता की संगम है पानी बाई । स्वयं दमे की विमारी से ग्रस्त होते हुए भी आपने समाज
को बखूबी निभाया। इन सभी कार्यों की संपन्नता में उनके पति श्रीमान् जयचंदजी बाफना का पूरा-पूरा सहयोग रहा। पानी बाई का स्वर्गवास २८.०५.७८ को हुआ था।१२९ ७.१३७ श्रीमती मंगला श्री श्रीमाल:
___ आप हैदराबाद निवासी स्व. श्रीमान् सिताबचंद जी श्रीमाल की पुत्रवधू, श्रीमान् जयचंद जी एवं पानी बाई बाफना (दोनों स्वतंत्रता सेनानी) की सुपुत्री हैं। आपका जन्म २६ मार्च १६४४ में हुआ था। आपके चार भाई एवं एक छोटी बहन डॉ सरोज जैन है। के. जी. एफ. में आपने दसवीं कक्षा तक की पढ़ाई की। माता-पिता ने तथा आपने बी.एस.सी. की पढ़ाई के लिए बैंगलोर होस्टल में रहने का निर्णय लिया। उस समय में जबकि लड़कियों को चौथी या सातवीं कक्षा से अधिक नहीं पढ़ाया जाता था। वह जैन श्वेतांबर राजस्थानियों में कर्नाटक की संभवतः प्रथम स्नातक छात्रा थी। उनका विवाह सन १६६७ में हआ था। आपके एक पत्र एवं एक पुत्री है। आप रोगी सहायता ट्रस्ट के तहत रोगियों की सेवा करती रही। अपने पति द्वारा खोले गये भगवान् श्री महावीर विकलांग केंद्र द्वारा विकलांगों को कृत्रिम पैर प्रदान करवाती रही। पोलियों के रोगियों के लिए भी कई शिविर लगवाए। करीब दस
Page #689
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
667
हजार पोलियों के रोगीयों की चिकित्सा की गई। कईयों को स्वावलंबी बनाकर व्यवसाय का प्रशिक्षण दिया गया। स्त्रियों की शिक्षा हेतु उन्होनें नाज़ी एज्यूकेशन सैंटर खोला। धार्मिक गतिविधियों में भी आप सक्रिय भाग लेती रही हैं। आप ५० वर्षों से आयंबिल खातों की संचालिका हैं। इन सभी कार्यों में आपके पति श्रीमान् प्रकाशचंदजी का पूरा सहयोग आपको उपलब्ध है। आप मदु स्वभावी, प्रियधर्मी, दढ़धर्मी सुश्राविका हैं। अपने पति को विभिन्न जैन संस्थानों में ग्यारह लाख रूपए दान देने के लिए आपने ही प्रेरित किया।१३० ७.१३८ श्रीमती प्रमिलाबाई साकला :
आप पूना निवासी श्रीमान् नौपतलालजी सांकला की धर्मपत्नी हैं। समाज सेवा में आपका अमूल्य योगदान रहा है। आप हृदयरोग चिकित्सा हेतु किये जाने वाले ऑपरेशनों के लिए गरीबों की हर सम्भव मदद करती हैं उसका खर्च स्वयं वहन करती हैं। अंधे बच्चों के लिए पंद्रह वर्षों से आप मदद कर रही हैं। आपने चिंचवड़ के समीप अंध महिला निवास एवं प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की है। जिसमें सौ अंधी महिलाओं के रहने की पूर्ण सुविधा है। महापालिका में सीखनेवाले बच्चों के लिए पोशाक, पुस्तकें व खाने पीने की सुन्दर व्यवस्था आप की ओर से है। अपने पुत्रों को भी आपने सुसंस्कार दिए हैं। पूना के जय आनंद ग्रुप की तरफ से १६ अगस्त २००७ को आपको समाजभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। आपके सुपुत्र श्री राजेश जी और रवीन्द्र जी भी अपना धन परमार्थ में लगा रहे हैं। और अपका अनुसरण करके आपका नाम रोशन कर रहे हैं।१३१ ७.१३६ श्रीमती डॉ. शशी जैन :
आप अमतसर निवासी श्रीमान जंगीलालजी जैन की धर्मपत्नी हैं। आपने निदेशक डॉ श्री कष्णकुमार अग्रवाल के मार्गदर्शन में उत्तरप्रदेश गढ़वाल विश्वविद्यालय से 'बहत्रयी में 'रसाभिव्यक्ति' इस विषय पर शोध कार्य संपन्न किया है। धार्मिक सामाजिक गतिविधियों में भी आप अग्रणी रही हैं। आप जैन महिला संघ अमतसर की बीस वर्षों से महामंत्री हैं। चार वर्षों से जैन धार्मिक पाठशाला में अध्यापन कार्य हेतु सेवाएँ समर्पित कर रही हैं। समाज में सांस्कतिक, धार्मिक एवं सभी कार्यों में आप सक्रिय रूप से जुड़ी हुई हैं। सभी धार्मिक नियमों में जप-तप में आप सतत् जागरूक रहती हैं । १३२ ७.१४० श्रीमती विजय श्री जैन :
आपका जन्म संगरूर में सन् १६४५ में हुआ था। आप रोशनलाल जी एवं श्रीमती दयावंती ओसवाल की सुपुत्री हैं। आपने अंग्रेजी में एम.ए. की है। आप रिटायर्ड प्रिंसीपल है। बी.ए. IInd year दरनर्बर कॉलेज से संपन्न कर रही थी तभी पाँव पर वक्ष के गिरने से आप पैरापलीजिया (Paraplegia) की शिकार बनी। आप क्रीड़ा के क्षेत्र में टेबल टेनिस में गोल्ड मेडलिस्ट एवं व्हील चेअर रेस में ब्रांज मेडलिस्ट है। स्कूल में आपने प्रशासन से बेस्ट टीचर अवार्ड प्राप्त किया है। आपके जीवन में समता सहिष्णुता एवं धार्मिकता का त्रिवेणी संगम है। धार्मिक स्वाध्याय में आप निरन्तर अग्रसर हैं। वर्तमान में आप अपना अधिकांश समय चंडीगढ़ में ही व्यतीत कर रही है।३३ ७.१४१ श्रीमती मधु जैन :
आपकी उम्र ३८ वर्ष की है। आप भुज निवासी हैं। २६ जनवरी २००१ को भुज में आए भूकम्प के भयानक तांडव से बच जाने पर मधु जी ने अपने भाव व्यक्त करते हुए कहा- मुझे भगवान् महावीर स्वामी और नवकार महामंत्र की शरण ने बचा लिया। मध जैन शांत रही, जब भकंप आया तो उन्हें पता नहीं था कि पति और बच्चे कहां हैं। उन्होंने उन्हें आवाज लगाई और दौड पडी। ३८ वर्षीया यह गहिणी तेज कदमों से लगभग बाहर निकल चुकी थीं कि उनकी साड़ी एक स्कूटर में फंस गई। इतने में कंक्रीट का विशाल टुकड़ा उनके पैर पर आ गिरा और वे गिर गई, फिर तो, जैसे ईंट-पत्थरों की बारिश ही शुरू हो गई। तब भी वे घबराई नहीं और उन्होनें नवकार मंत्र का जाप और भगवान महावीर का नाम जपना शुरू कर दिया। उन्होंने अपनी ऊर्जा (शक्ति) बचाए रखी। अचानक बचाव कर्मियों ने उनके सिर के ऊपर से मलवा हटाया और उन्हें उम्मीद की किरण नज़र आई। ७२ घण्टे के बाद उन्हें ऊपर से खींचकर निकाला गया तो एक पैर की हड्डी चटकी हुई थी। वे कहती हैं, "मुझे खुद महावीर भगवान ने बचाया है। अब मेरे जीवन का एक ही उददेश्य है दूसरों की सेवा करना'। धर्म के प्रति उनकी आस्था और भी दढ़ हो गई, जब उन्होनें
Page #690
--------------------------------------------------------------------------
________________
668
सुना कि उनके पति जीवित हैं और वे पुणे के सैनिक अस्पताल में हैं। उन्हें पहले ही दिन बचा लिया गया था। यह सुनकर उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा । १३४
७. १४२ प्रज्ञा जैन :
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
२३ वर्षीय प्रज्ञा जैन उस्मानाबाद निवासी श्रीमान् विजयकुमार जी एवं श्रीमती शोभा जैन की सुपुत्री हैं। आपने लॉ कॉलेज उस्मानाबाद से बी. एस. एल. एल. बी की परिक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। आपने जज बनने की परीक्षा भी प्रदान की है तथा डिस्ट्रिक्ट कोर्ट उस्मानाबाद में दो तीन माह से अभ्यासरत हैं। जैन धर्म एवं नियमों के प्रति आपकी पूर्ण आस्था है । १३५ ७. १४३ श्रीमती नीलम जैन :
आप होशियारपुर निवासी श्रीमान् मस्तराम जी जैन एवं श्रीमती लाजवंती जैन की सुपुत्री हैं। लुधियाना निवासी श्रीमान राजेंद्र कुमार जी जैन की धर्मपत्नी हैं। आपका जन्म सन् १६४४ में हुआ था। आपकी तीन पुत्रियाँ हैं। रिजुता, विदुता एवं विभूति । श्रीमती नीलम जैन ने अपना आध्यात्मिक जीवन सन् १६६२, ६३ से श्री समुद्रसूरि जैन दर्शन शिविर के माध्यम से प्रारंभ किया था। आपके आध्यात्मिक गुरू श्रीमद् विजयजनक चंद्रसूरिश्वर जी महाराज हैं। उन्हीं के मार्गदर्शन से श्रीमती नीलमजी लुधियाना की कई सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाओं से जुड़ी थी । आपने महिला मंडल के मंत्रीपद पर रहते हुए अनेक धार्मिक शिविरों का संचालन किया एवं अध्यापन कार्य भी संपन्न किया । विपश्यना शिविर के माध्यम से ध्यान पद्धति में प्रवेश किया। महावीर की ध्यान पद्धति से • जुड़कर ध्यान शिविरों का संचालन किया, तथा सैंकड़ों साधकों को ध्यान साधना में कुशल बनाया। श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम ईडर में एकांत साधना के लिये आप लाभ लेने जाती हैं। इस प्रकार गहस्थ की जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए स्वाध्याय एवं ध्यान के मार्ग की ओर निरन्तर गतिशील हैं । १३६
७. १४४ श्रीमती कुमुद जैन :
आप चंडीगढ़ निवासी श्रीमान् राकेशजी जैन की धर्मपत्नी तथा अमतसर निवासी श्री जोगिंद्रपालजी एवं श्रीमती प्रकाशवती जैन की सुपुत्री हैं। आपकी दो पुत्रियाँ एवं एक पुत्र है। आपने भी श्री समुद्रसूरि जैन दर्शन शिविर के माध्यम से एवं श्री विजयजनक चंद्रसूरिजी की प्रेरणा से आध्यात्मिक जीवन प्रारंभ किया। महिला मंडल की मंत्रीपद पर रहते हुए स्वाध्याय कक्षाओं का संचालन किया । श्रीमद् राजचंद्र आश्रम ईडर में साधना का लाभ लेने पहुँचती है। ध्यान शिविरों में सक्रियता से भाग लेती हैं। इस प्रकार स्वाध्याय ध्यान की आपकी रूचि गहरी है। आपकी सुपुत्रियाँ भी इसी पथ पर आगे बढ़ रही हैं । ३७
७. १४५ श्रीमती भावना जी :
आप मारवाड़ (राजस्थान) निवासी श्रीमान् पारस भाई की धर्मपत्नी हैं। दोनों पति पत्नी जब अविवाहित थे तब दोनों ही विवाह बंधन में बंधने के इच्छुक नहीं थे। किंतु पारिवारिक खुशी के लिए आपने विवाह किया। विवाह के पश्चात् आप श्रीमद् राजचंद्र आगास आश्रम में आए, आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की प्रतिज्ञा ग्रहण की। आप निरन्तर स्वाध्याय - भक्ति में सर्वात्मना समर्पित होकर आश्रम में आध्यात्मिक जीवन व्यतीत कर रही हैं। भगवान् महावीर के सिद्धांतों को जीवन में यथार्थ परिपालन करने का प्रयास कर रही हैं । १३८
७. १४६ श्रीमती सुधा बहन :
आप निरंजन भाई की धर्मपत्नी हैं। आप व्यवसाय कार्यवश अमेरिका में रहते थे । श्रीमद् राजचंद्र आश्रम राजकोट में आजीवन ब्रह्मचर्य अंगीकार कर सर्वात्मा समर्पित हैं। स्वाध्याय ध्यान भक्ति में अपना आध्यात्मिक जीवन विकसित कर रही है । १३६ ७. १४७ श्रीमती सुशीलाबाई :
आप बैंगलोर निवासी श्रीमान् बंसीलाल जी धोका की धर्मपत्नी हैं। पूना निवासी श्रीमान् सुखलालजी एवं सरस्वती बाई की सुपुत्री तथा श्री हुक्मीचंद जी चोरड़िया (प्रवीण मसालेवाले) की बहन हैं। आपके ४ भाई एवं दो बहनें हैं। आपका एक पुत्र श्रीमान् कांतिलाल जी धोका तथा ६ पुत्रियाँ हैं जिनमें से दो पुत्रियों ने जैन भगवती दीक्षा अंगीकार की है। महासती श्री प्रगति श्री जी एवं
Page #691
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
महासती श्री प्रतिभा श्री जी म. सा. 'प्राची' महासती पू. श्री केसर कौशल्या जी की फुलवाड़ी के दो सुन्दर पुष्प हैं। आपने सवा लाख का जाप कई बार किया हैं। तप के क्षेत्र में आपके कदम निरन्तर आगे बढ़ते रहे हैं। आपने ५५ अठाईयाँ, दो मासखमण तप धर्मचक्र के तप ४२ बेले २१ व्रत आदि तपस्या की हैं। २७ वर्षों से निरन्तर वर्षीतप, मान बेले के १२ बेले, ५० वर्षों से निरन्तर सावन भादवा २ माह एकांतर तप, आप ४५ वर्षों से प्रत्येक दीपावली पर तेले की तपस्या करते हैं। २५० प्रत्याख्यान, १ से १६ तक की
की लड़ी, अनगिनत आयंबिल तप ओली संपन्न की हैं। २० स्थानक तप के ४८० उपवास, पखवाड़ा तप के १४५ उपवास, प्रति माह की २ चौदस, १२ वर्ष तक कुल २८८ उपवास, पौष दशमी के १२० उपवास, रोहिणी तप के ६१ उपवास, पुष्य नक्षत्र के ६१ उपवास ज्ञान पंचमी तप के ६६ उपवास, मौन ग्यारस के १४४ उपवास, बेले बेले तप के वर्षीतप ४ तेला, रत्नावली प्रहर तप, क्षीर समुद्र के ११ उपवास, कई तेले बेले एवं विविध प्रकार के तप आप संपन्न कर चुकी हैं। आप नित्य नियम पूर्वक सामायिक, प्रतिक्रमण आदि करती हैं सभी साधु सतियों की सेवा, रोगी, तपस्वी की सेवा में तत्पर रहती हैं। दान की भावना में उदार हैं। बड़ी प्रबल हैं। स्थानीय स्थानक भवन के निर्माण में भूमिपूजन का कार्य आपने अपने हाथों से प्रारंभ किया था। चारोली स्थानक (पूना) के लिए भी आपका योगदान महत्वपूर्ण रहा है। विकट से विकट परिस्थिति में भी धर्म की शरण एवं तप नहीं छोड़ा। पति के स्वर्गवास के समय भी आर्तध्यान नहीं किया अपितु प्रत्येक आगंतुक को नवकार मंत्र की माला फेरने की प्रेरणा करती रही। उन्हें संथारा करवाया और कैंसर जैसी भयंकर बीमारी के शिकार बने स्वपति की तन, धन और मन के साथ सेवा सुश्रूषा की। अल्प वय में स्वर्गवासी बनी, अपनी ज्येष्ठ पुत्री की बीमारी में बहुत सेवा की तथा उस कष्ट को हिम्मत पूर्वक सहन किया। साधु साध्वियों के विहार की सेवा में सदैव तत्पर रहती हैं। पद्मावती जैन महिला मंडल यशवंतपुर बैंगलोर की वर्षों तक उपाध्यक्षा भी रही हैं। तपस्या एवं संथारे के लिए आप अनेकों की प्रेरणा स्त्रोत रही हैं। आपकी धर्म पर अटल श्रद्धा हैं। रत्न कुक्षी माँ सुशीला का समस्त परिवार दान, शील, तप एवं भावना की अविरल साधना करते हुए जिन शासन की महती प्रभावना कर रहा है और मोक्ष मंजिल की ओर गतिमान है। वर्तमान में आपकी आयु लगभग ७० वर्ष है। हमारी भावना है कि आप हजारों साल जिएं और जिन शासन की प्रभावना करती रहें। आप साध्वियों के समान सफेद पोशाक ही पहनती हैं । १४० ७.१४८ लक्ष्मीदेवी श्यामसुखा :
आपका जन्म तारानगर (राजस्थान) में वि. सं. १६७८ में हुआ था। आप श्रीमान् भेरूदानजी बोथरा एवं दीर्घ अनशन व्रतधारी चौथी देवी बोथरा की सुपुत्री एवं श्रीमान मदनचंद जी शामसुखा की धर्मपत्नी थी। तपोमार्ग पर आप निरन्तर अग्रसर थी। आपने ३० दिन की तपस्या ५ बार संपन्न की। इसी प्रकार १ से ६४ तप की लड़ी ५ दिन का तप ५० बार, ४ दिन का तप ५१ बार ३ दिन का तप ६२ बार, २ दिन का तप ७० बार १ दिन का तप १०५७ बार, २ वर्षीतप व ५ बार, बेले के साथ एकांतर तप किया। पखवाड़ा तप (५ वर्ष) एवं कर्मचूर तप (६ माह) संपन्न किया। अंत में २१ दिन का अनशन किया। ५ महाव्रतों को धारण किया तथा स्वर्गवासी बनी। ७.१४६ त्रिशलादेवी जैन :
आपका जन्म छत्तीसगढ़ में संवत् १६८८ में हुआ था। आपके माता-पिता स्व. पानी बाई एवं स्व. श्री गणेशमल जी थे। आपने चौथी कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की। आपका विवाह दुर्ग (छत्तीसगढ़) निवासी, श्रीमान् भंवरलाल जी श्री श्रीमाल के साथ हुआ। आपने ८ साल की उम्र में गुरू मोहन ऋषि जी व गुरूणी उज्जवल कंवर जी के सान्निध्य में पच्चीस बोल व प्रतिक्रमण की शिक्षा ग्रहण की। १० वर्ष की आयु में - कोटा पधारे पू० गुरूणी जी मानकँवर जी से भक्तामर स्तोत्र, कल्याणमंदिर स्तोत्र, वीरत्थुई, दशवै-कालिकसूत्र के ४ अध्ययन, महावीर स्वामी जी का श्रीलोका तीर्थंकर का लेखा व अन्य थोकड़े कण्ठस्थ कर लिए ।
आपके तीन पुत्र व एक पुत्री हैं। श्री प्रवीण,जी श्री प्रदीप जी डा० प्रफुल्लजी व पुत्री सौ० सरोज बैद हैं। आपकी तीन पुत्रवधुएं ४ पोते व ८ पोतियां हैं। आपके दो बेटों और दो पुत्रवधुओं एवं ४ पोतों ने मासखमण किया, बाकी ने ६ तक की तपस्या की है। आपका पूरा परिवार प्रतिदिन सामायिक पक्खी प्रतिक्रमण तथा उस दिन रात्री भोजन का त्याग करते हैं। आपने हर वर्ष कुछ न कुछ तपस्या की है। नवपद की आयम्बिल की ओली, सावन में १२ बेला, एक तेला, भादवा में सात की तपस्या तथा कल्याणक
For Private & Personal use only
Page #692
--------------------------------------------------------------------------
________________
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
तप किया। विक्रम संवत् २०२१ में मासखमण की तपस्या, साथ में बीस स्थानक की ओली चालु की। १ से २१ तक की लड़ी भी की। जोड़े से ६ की तपस्या भी की। १९८७ में दो वर्षी तप आपने दोनों पोतों के होने पर किया। १६८६ में मासखमण किया। १६ शास्त्रों की वाचनी व ५०.६० थोकड़े सीखें । २४ तीर्थंकरों की २४ ओली की, ११ गणधरों की ग्यारह ओली, एक धर्म चक्र, २४ तीर्थंकर के भव के उपवास, भ० पार्श्वनाथजी के १०८ उपवास, नवकर वाली के १०८ उपवास, नवकार मंत्र के अक्षर के ६८ उपवास, ५ मेरू जिसमें एक-एक करके ६ उपवास ५ बेले किये हैं। ५.६ बार अठाई, व सिद्धितप, सर्वतोभद्र तप, ३५ उपवास, ३४ उपवास की तपस्या, ब्रह्मचर्य का नियम एवं वर्षीतप की तपस्या निरन्तर चल रही है। प्रतिदिन १६.१७ सामायिके एवं २ सूत्रों का स्वाध्याय चलता है। इस प्रकार आपका जीवन तप-जप तथा स्वाध्याय की त्रिवेणी का संगम है ।१४२ ७.१५० श्रीमती फुटरी बाई धोका :
आप आदोनी (महाराष्ट्र) निवासी दानवीर श्रेष्ठी इंदरचंद्र जी धोका की धर्मपत्नी थी। आपने पालीताणा में मासखमण (३० उपवास) तप की अराधना की, छ: वर्ष तक वर्षीतप की तपस्या की, अनेक पखवाड़ा तथा मास खमण किये। आपने अनेक तीर्थ यात्राएँ की, व्रतों का पालन किया तथा ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया। आपने धर्मशालाओं चिकित्सालयों के निर्माण में अपने पति का सहयोग दिया। आपके नाम से भोजनशाला भी प्रारंभ करवाई गई। आपके सुपुत्र श्री धर्मराजजी है।१४३ ७.१५१ श्रीमती सायरबाई जी :
__ आप नासिक (महाराष्ट्र) निवासी श्रीमान् फत्तेचंदजी बोरा की धर्मपत्नी हैं। आपने ३२ वर्ष की अल्पायु में ही ब्रह्मचर्य व्रत को ग्रहण किया। २७ वें वर्ष में सचित पानी और रात्रि भोजन का नियम ग्रहण किया। २ वर्ष तक बिना नमक का आयंबिल किया, २ वर्ष तक विगय रहित अनाज वाला एकासन वर्षीतप किया तथा ६ वर्ष निरन्तर एकासन तप किया। लगभग १२ वर्षों से वर्षीतप चल रहा हैं। नियमित रूप से आप प्रतिदिन सात सामायिक तथा १००० गाथाओं का प्रतिदिन स्वाध्याय करती हैं। आपने १२५० लोगस्स का ध्यान उपसर्गहर स्तोत्र का जप भी संपन्न किया है। इस प्रकार आपका जीवन जप-तप, स्वाध्याय एवं शील का भंडार
७.१५२ श्रीमती धरमजय जैन :
आप बलाचोर (पंजाब) निवासी श्रीमान् बनारसीदास जैन की सुपुत्री हैं। आपकी उम्र ७७ वर्ष की है। आप बाल ब्रह्मचारिणी हैं। १७ वर्ष की आयु में आपने कच्ची पक्की का त्याग पं शुक्लचंद जी मा. सा. से ग्रहण किया। रतन देई जी मा. सा. से आजीवन ब्रह्मचर्य का नियम ग्रहण किया। १८वें वर्ष से ही आपने सफेद वस्त्र पहनने शुरू कर दिए थे। तथा आभूषण पहनने का भी त्याग कर दिया था। आपने घर के मोह का त्याग कर दिया। एकांत साधना में ही अपना समय व्यतीत किया करते हैं। आपने तप के क्षेत्र में भी अपने कदम बढ़ाए। ११ व्रत, ११ अठाईयां, आयंबिल की ३ ओली संपन्न की २१ वर्षों से दीवाली का तेला करती आ रही है। आपने वर्षीतप तथा सवा लाख नवकार मंत्र का जाप भी संपन्न किया। आप प्रतिदिन पांच सामायिक करती हैं तथा दान पुण्य में भी पीछे नहीं रहती हैं।१४५ ७.१५३ श्रीमती सोनादेवी जैन :
__ आपका जन्म ई. सन् १६१६ में हुआ था। आप श्रीमान् लाला मनफूलजी जैन हिसार (हरियाणा) की धर्मपत्नी हैं। आपने हिसार में धर्मस्थानक के निर्माण में सहयोग दिया । ८५ वर्षों तक निरन्तर अठाई तप एवं चातुर्मास में एकांतर तप करती हैं। वर्तमान में एकासने से रत्नावली तप कर रही हैं। प्रतिवर्ष तेले कई बेले चोले आदि तप संपन्न करती हैं। आपके दो पुत्र हैं। भारतभूषण जी (हिसार) स्वदेशभषण जी
ण जी (दिल्ली) में रहते हैं। आपकी दो सुपुत्रियां ऊषा जी एवं आशा जी दिल्ली में रहती हैं।१४६ ७.१५४ सुमित्रा देवी जैन (हांसी हरियाणा) :___आपका जन्म ई.सन् १३.१.१६२७ को हुआ था। आपकी सुपुत्री श्रीमती प्यारी देवी नानक चंद जी जैन (टाकी वाले) एवं पुत्रवधू श्रीमती नारी खूबराम जैन है। आपके पति श्रीमान् किशोरीलाल जी जैन (हाँसी) हैं। आप प्रतिदिन एक हज़ार गाथाओं का स्वाध्याय
Page #693
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
करती थी। चौदह वर्ष की उम्र में रात्रि भोजन का त्याग किया तथा ३५ वर्षों से अपशब्द निकलने पर अगले दिन सम्पूर्ण विगय का त्याग करती थी । सप्ताह में दो बार स्नान तथा साधुवत् अल्प पानी में वस्त्र प्रक्षालन करती थी, प्रियधर्मी सुसंस्कारी आपकी चार पुत्रियाँ तथा दो पौत्रियों ने दीक्षा अंगीकार की । कुल आठ पुत्रियां तथा जय विजय दो भाई थे । आप दढ़धर्मी श्राविका थी । आचार्य महाप्राज्ञजी ने आपको श्रद्धा की प्रतिमूर्ति के नाम से संबोधित किया था। आपने सैंकड़ों उपवास ४१ बेले, ११ तेले, ५ चोले, ५ पचोले, १.११ तक की लड़ी, ४ वर्ष एकासन तप, १ पंद्रह, २ बार २५० प्रत्याख्यान किये हैं। अंतिम समय में सघारे सहित स्वर्गवास हुआ। अंतिम पांचवे दिन दीक्षा अंगीकार की तथा समाधिमरण प्राप्त किया । १४७
७. १५५ श्रीमती तारादेई जैन :
671
श्री पी. एल. जैन, अमतसर वाले (प्यारे लाल जैन) की आप धर्मपत्नी थी। आपका जन्म १६२१ (लांगा परिवार) में हुआ था। आप श्रीमती जूनी देवी एवं श्री फग्गामल जैन की सुपुत्री थी। आपके ससुर श्रीमान् देवचन्द जी जैन स्यालकोट वाले कहलाते थे । आपने तप त्याग को प्राथमिकता देते हुए कई वर्षों से शील व्रत अंगीकार किया हुआ था। सभी फलों का त्याग, कन्दमूल का त्याग ४० से ऊपर तप की लड़ियां ६ ५४, ३२, १ व्रत, आयंबिल ओली तप, भगवान पार्श्वनाथ तप लड़ी, अष्टमी पक्खी को पौषध व्रत, महामंत्र -- नवकार, तीर्थंकरों की संस्तुति आदि कर्म निर्जरा हेतु संपन्न की। आपके आदर्श हमेशा प्रेरणा देते रहेंगे। आपकी तरह ही आपकी सुपुत्री ने एक ही चातुर्मास में दो मासखमण तप संपन्न किए। आपके द्वारा प्रदत्त धर्मसंस्कारों से जयपुर निवासी श्रीमती चाँद रानी सुशील जैन के पूरे परिवार में धर्मध्यान की बलवती भावनायें नज़र आती हैं। आपके छः पुत्र है श्री अजित जैन, श्री पवन जैन, श्री दर्शनलाल जैन, श्री सुरेन्द्र कु० जैन, श्री राज कु० श्री सुशील जैन कुमार तथा दो पुत्रियाँ चाँद और सूरज हैं। आपका देवलोक २१ अप्रैल २००१ को रूप नगर दिल्ली में हुआ । १४८
७.१५६ श्रीमती धुड़ी देवी :
सुश्राविका श्रीमती धुड़ी देवी मालू का ६५ वर्ष की लम्बी आयु में स्वर्गवास हो गया। आप धार्मिक कार्यों में सबसे आगे रहती थी । ८५ वर्ष की लम्बी आयु में धर्म स्थान में आकर सामायिक व प्रतिक्रमण की आराधना करती थी। आपका १६ वर्ष की उम्र में विवाह हो गया था । विवाह के कुछ माह बाद ही आपके पति श्री हीरालाल जी मालू का स्वर्गवास हो गया था। पति विछोह के बाद आयु के अन्तिम साँस तक दान, शील, तप और भावना को ही जीवन का आधार बनाए रखा ।१४६
७. १५६ श्रीमती रतन देवी जी मेहता :
आप उदयपुर (राज०) निवासी श्रीमान् जीतमल जी मेहता (हरडिया मेहता) एवं श्रीमती कंचनबाई मेहता की पुत्री तथा स्वाध्यायी श्रीमान् आनंदीलाल जी मेहता की धर्मपत्नी एवं मं० सा० विजय श्री जी आर्या तथा मं० सा० प्रियदर्शना जी की मातेश्वरी हैं। आपकी सासु जी महासती चंद्रकंवर जी म.सा. थे । (पूर्व नाम श्रीमती लहर बाई जी) एवं ससुर जी श्रीमान् पन्नालाल जी मेहता थे। आपकी जैन धर्म में दीक्षित ननंद - महासती श्री चंद्रावती जी थी। श्रीमती रतन देवी जी परम सेवा भावी, अत्यंत नम्र स्वभावी मदुभाषी, दढ़ धर्मी, प्रिय धर्मी, तपस्विनी पतिव्रता सन्नारी हैं। आपने दो अठाई, अनेकानेक आयंबिल ओली, गौतम स्वामी का एकासना १२ माह तक प्रतिमाह एकासना, कष्ट तेला दो रस तेला (५ तेला), २७ वर्ष तक वर्षीतप किया है। मान बेला मेरू तप २४ तीर्थंकरों की ओली उपवास एवं आयंबिल के साथ संपन्न की है। आपकी छः पुत्रियाँ हैं, सभी धर्म ध्यान व तप, त्याग में अग्रणी हैं। दो दीक्षित हैं महासाध्वी श्री विजय श्री जी म. सा. "आर्या" व महासाध्वी श्री प्रियदर्शना जी म.सा. 'प्रियदा' आपके परिवार में अब तक नौ मुमुक्ष आत्माओं ने संयम ग्रहण करके स्व-पर का कल्याण किया है। वर्तमान में आप गुजरात में आगास आश्रम में रहकर धर्म जागरण में लीन हैं। हम आपकी लम्बी आयु तथा उत्तम स्वास्थ्य की मंगल कामना करते हैं ।५० आपकी दोहित्तियाँ भी जिन शासन के संयम पथ की साधिकाएं हैं वे हैं पू. श्री विजयलताजी 'प्रेरणा' म० सा० विचक्षणा श्री जी म० सा०, नवदीक्षिता श्री प्रशंसा जी म० सा० ।
७. १५७ श्रीमती देवकी बाई भंसाली :
आप चांदनी चौंक दिल्ली निवासी श्रीमान् धन्नालाल जी भंसाली की धर्मपत्नी थी। आपकी उम्र ८५ वर्ष की थी। आपने बहुत
Page #694
--------------------------------------------------------------------------
________________
672
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
समय तक महिला संघ चां० चौक की प्रधान रहकर महिला मंडल को अपनी सेवायें दी। आप अष्टमी चतुर्दशी को २४ घंटे का जाप करवाती रही। अंत में ८ घंटे का संथारा ग्रहण कर आप स्वर्गवासी बनी /१५१ ७.१५८ श्रीमती अनारकली जैन :
आप श्री फूलचंद जी एवं श्रीमती पार्वती जैन की सुपुत्री एवं गूजर खेड़ी (हरियाणा) निवासी श्रीमान् रामगोपाल जी जैन की धर्मपत्नी थी। आपने २६.०१.२००४ को संथारे का संकल्प ग्रहण किया एवं २२.०३.२००४ को आपका संथारा पूर्ण हुआ। लगभग २ माह तक आपने समाधिपूर्वक आश्चर्यजनक ढंग से संथारा सफल बनाया। आप पूज्य सुदर्शन लाल जी मं० सा० के सुशिष्यरत्न राजर्षि श्री राजेंद्र मुनि जी की सांसारिक मातेश्वरी थी।३२ ७.१५६ श्रीमती केसरादेई जी :
आप होशियारपुर निवासी श्रीमान् कन्हैयालाल जी एवं दुर्गादेई जी की पुत्रवधु एवं श्रीमान् बंसीलाल जी जैन की धर्मपत्नी थी। आपने १२ वर्ष की अल्प आयु में कच्ची सब्जी एवं फल खाने का नियम ग्रहण किया। आपने होशियारपुर महिला संघ का गठन किया। कई वर्षों तक मंडल की प्रधान रही। महिलाओं को शास्त्रों का ज्ञान कराया। मत्यु के समय गंदे ढंग से रोने (शापे) की प्रथा को तथा अनेक कुरीतियों को बंद किया। आप आजीवन रात्री चौविहार, दिन का पौरूषी तप सुबह शाम ५-५ सामायिकें, शास्त्र अध्ययन में लीन रहते हुए सादा जीवन व्यतीत किया। जीवन के अंतिम समय में २.३ वस्तुओं का सेवन करती थी। अंतिम समय में संथारे सहित आपका स्वर्गवास हुआ। सामाजिक एवं धार्मिक दष्टि से जिन शासन में आपका महत्वपूर्ण योगदान रहा। १५३ ७.१६० श्रीमती कांता जैन :
आप वीरनगर दिल्ली निवासी स्व. लाला-रामलाल जी सर्राफ की पुत्रवधू एवं श्रीमान् यशपाल जी जैन सर्राफ की धर्मपत्नी थी। बचपन से ही धार्मिक गतिविधियों में आपकी रूचि थी। आपने अध्यात्मयोगिनी महाश्रमणी पू. श्री कौशल्या देवी जी महाराज से श्राविका दीक्षा अंगीकार की थी। स्वाध्याय में ही आपका अधिकांश समय व्यतीत होता था। जीवन की सांध्य वेला को निकट देखकर आपने पूर्ण अनासक्ति पूर्वक उत्कष्ट परिणामों के साथ जैन इतिहास चंद्रिका पू. डॉ विजय श्री जी महाराज 'आर्या' के मुखारविंद से संथारा ग्रहण किया। दिन प्रतिदिन मत्यु को निकट देखते हुए भी आपके परिणामों की धारा ऊँची बढ़ती रही। भगवान महावीर निर्वाण कल्याणक दिवस दिपावली २५ अक्टूबर ई. सन् २००३ वि.सं. २०५६ में आपका मंगल भावों के साथ संथारा पूर्ण हआ। आपकी धर्म भावनाओं का प्रभाव आपके पूरे परिवार पर है।५४ ७.१६१ श्रीमती चमेली देवी जैन :
___ आपके पिता स्व. श्री गोकुलचंद जी नाहर थे, तथा आप स्व. श्री पन्नालालजी भंसाली की धर्मपत्नी थी। आपका समस्त जीवन जप-तप स्वाध्याय दान, शील, तप भावना एवं संत-सतियों की सेवा में समर्पित था। आपके ३ पुत्र गरूदेव श्री सदर्शन लाल जी मं० के सुशिष्य महास्थविर पू. श्री प्रकाशचंद जी मं० सा० श्री प्रमोदचंद जैन एवं श्री अशोक कुमार जैन । आपने संथारे के प्रत्याख्यान के साथ ३ फरवरी २००४ को इस नश्वर देह का त्याग किया।१५ ७.१६२ श्रीमती सेवावंती जैन :
आप जम्मू निवासी श्रीमान् जगदीशचंद्र जैन की धर्मपत्नी थी। आपके पिता श्री संताराम जैन (जम्मू) तथा माता लक्ष्मीदेवी जी थी। आपकी सास श्रीमती शांती देवी जैन तथा ससुर श्री भद्रीनाथ जैन (जम्मू) थे। आपके तीनों पुत्र श्री विनोदकुमार जी, श्री अशोक कुमार जी एवं श्री राकेश कुमार जी जैन उत्साही तथा धर्मनिष्ठ सुश्राविक हैं। आप नियमपूर्वक सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रवचन श्रवण आदि संपन्न करती थी। आप उदार हृदय स्वभाव व्यवहार सरल, नम्र, की सन्नारी थी। आपने कई अठाईयाँ अपने जीवन काल में संपन्न की है। जैन इतिहास चंद्रिका डॉ पूज्य विजय श्री जी म. सा. आर्या ठाणा तीन से जम्मू चातुर्मासार्थ सन् २००५ में बिराजमान थे। सेवावंती जी नियमपूर्वक प्रेरणा दायी प्रवचनों का लाभ लेती थी। ८ अक्टूबर को प्रतिदिन की तरह प्रवचन श्रवण करने के लिए सेवावंती जी सामायिक लेकर कुर्सी पर बैठ गई उन्हें अचानक घबराहट हुई। चलते हुए प्रवचन में ही महाराज श्री
Page #695
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
जी ने उनके लक्षणों को देखा । तुरन्त पास में पहुंचकर संथारे के प्रत्याख्यान हेतु उनसे स्वीकति मांगी। उन्होंने हाँ कर दी। पूज्या महासती जी ने एक हाथ मस्तक पर तथा दूसरा हाथ कलाई पर (नाडी का परीक्षण करते हुए ) रखा। प्रवचन हालणमोक्कार मंत्र के जाप से गूंज उठा। लगभग पोने नौ बजे सुश्राविका सेवावंती जी ने समाधिमरण के साथ स्वर्गगमन किया, देखने वाले दर्शक कह उठे मत्यु सेवावंती जैसी सबको आए 'गुरु पास में हों और दम निकल जाए । १५६
७. १६३ श्रीमती सिरेकंवर देवी :
673
आप श्रीमान् सुमेरचंद जी भंडारी की धर्मपत्नी थी। आपके सहयोग से ८२ व्यक्ति शिक्षा में निपुण बने । तन मन धन से उन्होंनें अपने पुत्र पुत्रियों तथा पौत्र-पौत्रियों को पढ़ाने में सहयोग दिया । चतुर्विध श्री संघ पर और जैन धर्म पर आपकी अटूट श्रद्धा थी। आप संथारा लेकर ५ फरवरी को स्वर्गवासी हुई । १५७
७. १६४ श्रीमती मिश्रीबाई चोरड़िया :
आप चाँदनी चौक दिल्ली निवासी श्रीमान् कंवरसेन जी चोरड़िया की धर्मपत्नी थी। श्रीमान् नंदिषेणजी जैन एवं चंद्रसेन जी जैन आपके दो पुत्र है तथा तीन पुत्रियां हैं। एक सुपुत्री दीक्षित है जो महासाध्वी अध्यात्म योगिनी श्री कौशल्या जी मं० सा० की सुशिष्सा हैं तथा महासती डॉ. मंजु श्री जी म. सा. के नाम से प्रसिद्ध हैं। आपका जीवन बड़ा धार्मिक था। आपने ४५ वर्षों तक निरन्तर पौरषी तप एवं रात्रि का चउविहार किया। जीवन पर्यंत अष्टमी, चतुर्दशी की दया, १२ वर्ष के एकांतर एकासन तप, १०८ एकासने की अठाई, ग्यारह व्रत तेले बेले आदि संपन्न किये। अंतिम समय में तीन घंटे के संथारे सहित देवलोक गमन हुआ। ७. १६५ श्रीमती रम्मादेवी चोरड़िया :
आप चाँदनी चौंक दिल्ली निवासी श्रीमान् लालचंद जी चोरड़िया की धर्मपत्नी थी। आपने वर्षों तक धार्मिक पाठशाला का संचालन किया एवं अध्यापन का कार्यभार संभाला। आपके द्वारा शिक्षित सात कन्याओं ने दीक्षा ली, कई श्राविकाएँ बनी। आप पंजाब की प्रसिद्व महासाध्वी स्व. पू. श्री मोहनदेई जी महाराज की संसार पक्षीय बहन थी । आपने अंतिम समय में ७२ घंटे के संथारे सहित, उत्कष्ट परिणामों से देवलोक गमन किया । १५६
७. १६६ श्रीमती प्रभा जैन :
आप जम्मू श्रमण-संस्कृति मंच की अध्यक्षा रह चुकी हैं। मंच की आप फाउंडर सदस्या हैं। आप न्यू एरा एन्वायरनमेंट स्कूल की संचालिका एवं प्राध्यापिका हैं। बच्चों को आप नैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक शिक्षा भी साथ- साथ देती हैं। आप एक कर्मठ कार्यकर्त्री हैं तथा मन के लिए सभी कार्य सुव्यवस्थित ढंग से संपन्न करती हैं। सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में आपका अभूतपूर्व योगदान रहता है । १६०
७.१६७ श्रीमती पूर्णिमा. पी. गादिया :
आप पूना निवासी हैं। आपने S. N.D. T. College of Home Science से चाइल्ड डेवेलपमेंट स्पेशलाइज़ेशन की डिग्री प्राप्त की थी। आप विभिन्न संस्थाओं का कार्य भार सम्भालती हैं। जिसका संचालन आप बड़ी कुशलता के साथ कर रही है। आपने बच्चों और महिलाओं के विकास के लिए सन् २००० में दिशा महिला विकास सेवा संस्थान की स्थापना की । सन् १६६६ में स्थापित दिशा संस्थान की आप प्रथम महिला सदस्या थी। आपने आगाखान फाउंडेशन तथा ए. आर. सी. संस्था के साथ कार्य किया है तथा सर्व सेवा संघ आदि महिला संस्थानों में सक्रिय कार्यकर्त्ता रहीं है ।
लड़कियों के विकास के लिए तथा विधवा महिलाओं के लिए नैतिक एवं भावनात्मक सहयोग प्रदान किया है। सिलाई, कढ़ाई, बुनाई आदि विभिन्न कलाओं को सिखाकर स्वावलम्बी बनाया है। आपने इन विभिन्न सेवाओं के लिए १५ से अधिक पुरस्कार सरकार एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा प्राप्त किये हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपके सामाजिक कार्यों की प्रशंसा में आपकी सूचनाएँ छपती रही हैं। इस प्रकार पूर्णिमा गादिया जी एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में उभरकर आती है । १६१
Page #696
--------------------------------------------------------------------------
________________
674
७. १६८ श्रीमती लक्ष्मी देवी जैन :
आप बड़ी साधु वंदना के रचयिता आ० श्री जयमल जी म० सा० की सांसारिक धर्मपत्नी थी । पू० जयमल जी महाराज शादी के छः महिने के बाद ही श्री भूधरजी म० सा० से जैन भागवती दीक्षा ले ली थी। दीक्षा के लगभग एक वर्ष बाद श्री भूधरजी म० एवं जयमल जी आदि सन्त उनके पैतक गाँव मेड़ता मे पधारे। श्री जयमल जी म० स्वयं गोचरी लेने अपने ही घर चले गए। माँ एवं परित्यक्ता पत्नी श्रीमती लक्ष्मी देवी ने उन्हें आहार दिया। लक्ष्मी देवी पीहर में न रहकर ससुराल में ही रहती थी। लक्ष्मी जी ने पू० जयमल जी म० सा० को विनती की - महाराज! मुझे भी दीक्षा प्रदान कीजिए। पीहर और ससुराल वाले सबकी सहमती से आचार्य भूधरजी म० ने लक्ष्मी जी को जैन भागवती दीक्षा का दिन निश्चित कर दिया । दीक्षा के दिन तक लक्ष्मी जी ने पाँच अपनी सहेलियों को भी दीक्षा के लिए तैयार कर लिया। इस प्रकार मेड़ता में एक ही दिन छ: दीक्षाएं सम्पन्न हुई। दीक्षा के दिन से ही नवदीक्षिता महासती लक्ष्मी जी ने कठिन तपस्या प्रारम्भ कर दी। एक वर्ष तक कठोर तप की अग्नि से शरीर कमजोर हो गया। अंत में संलेखना, संथारा करके आप देवलोकगामी बनी। १६२ श्रमणों की प्रेरणा व संपर्क से श्राविकाएँ धर्म मार्ग पर इस प्रकार अग्रसर होती है । १६२
७. १६६ श्रीमती पिस्ताबाई बोहरा :
आपकी उम्र बावन (५२) वर्ष की है। आपका जन्म महाराष्ट्र के जालना जिले में भोयगाँव में हुआ था । आप श्रीमान् रूपचंदजी संचेती एवं श्रीमती गीतादेवी की सुपुत्री है। आपके दो भाई एवं चार बहनें हैं। आप कई संस्थाओं के प्रतिष्ठित पदों पर सुशोभित, सुशिक्षित, श्रावकरत्न मैसूर निवासी श्रीमान् कैलाशचंद जी की पत्नी है। एक सुपुत्री, चार सुपुत्र, पुत्र वधूएं एवं पौत्र पौत्रियों से युक्त आपका भरा पूरा परिवार है।
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
सामान्य शिक्षा पाने के बावजूद भी आपने कार्य कौशल्य एवं तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता के बल पर पिस्ता बाई कई पदों पर शोभायमान हुई। आप अखिल भारतवर्षीय श्वेतांबर स्थानकवासी जैन कान्फरेंस कर्नाटक शाखा की सन् २००० से सन् २००८ तक उपाध्यक्षा पद पर कार्यरत रही । जैन मिलन मैसूर शाखा की आप पूर्व सहमंत्री रह चुकी है। चंदन बाला महिला मंडल की आप वर्तमान कोषाध्यक्षा है। राजस्थान महिला संघ की सदस्या है। ज्ञान प्रकाश योजना की आप क्षेत्रीय संयोजक रही हैं। पद के अनुरूप अपने कार्यकाल में कई सामाजिक, धार्मिक, चिकित्सक, जन सेवार्थ कार्यों में आप सक्रिय सेवाएँ देती रही। अपने निवास स्थान पर पधारने वाले साधु-सतियों की सेवा का आप भरपूर लाभ उठाती रहीं। असंप्रदायिक भावों से उनकी आहार-विहार, शिक्षा संबंधी सहयोग देती रही है। बच्चों में धार्मिक नैतिक जागरूकता जगाने में तथा महिलाओं में आध्यात्मिक बीजारोपण हेतु आप सदैव तत्पर रहती । राजनीतिक क्षेत्र से भी आप अछूती नहीं रहीं हैं।
भारतीय जनता पार्टी मैसूर नगर जिला की आप पूर्व कोषाध्यक्षा रहीं हैं। आपकी प्रमाणिकता, दक्षता, कार्यकुशलता एवं सेवाओं से अभिभूत होकर कार्नाटक सरकार ने अनेक बार आपको दशहरा महोत्सव के विभिन्न उपसमितियों की सदस्या बनाया | पिस्ताबाई बोहरा का जीवन बहुआयामी व्यक्तित्व संपन्न रहा है । १६३
७.१७० लैनों स्मिथ क्रमजर :
वोल्टपोट, ओरीगन, यू.एस.ए. (अमेरिका) निवासी श्रीमती लैनो स्मिथ क्रमजर ने "शाकाहार चित्रावली" नामक पुस्तक को पढ़ा। उस पुस्तक से प्रभावित होकर उसने आजीवन मांस-मदिरा का त्याग किया। अपने संपूर्ण परिवार को भी उसने इन अभक्ष्य वस्तुओं का त्याग करवाया। उसने एक बार भगवान महावीर एवं चंडकौशिक सर्प का प्रसंग सविस्तार समझा। इसे समझने के पश्चात् उसने जैन धर्म को स्वीकार किया । भगवान् नेमिनाथ एवं महासती राजीमती के विवाह प्रसंग को पढ़कर वह इतनी अधिक प्रभावित हुई कि उसने अपना नाम लैनोस्मिथ क्रमजर के स्थान पर राजीमती क्रमजर रख लिया । भगवान् नेमिनाथ स्वामीजी की भक्ति में उसने एक कविता भी लिखी हैं । १६४
Page #697
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
675
७.१७१ श्रीमती चंदा कोचर :
आई सी आई सी आई बैंक की मुख्य कार्यकारी अधिकारी एवं प्रबंध निदेशक चंदा कोचर बीस शीर्षस्थ महिलाओं में शामिल हैं। फोर्ब्स पत्रिका में लिखा है; इस वर्ष चंदा कोचर ने मई माह में बैंक के प्रमुख का कार्यभार संभालने के बाद बैंक के खुदरा कारोबार को नये मुकाम पर पहुँचा दिया है। जैन समाज की महिलाओं में टाइम्स ऑफ इंडिया की इंदु जैन के बाद चंदा कोचर को अन्तर्राष्ट्रीय सन्मान मिला है। समाज इस महिला से गौरवान्वित हुआ है।६५ ७.१७२ श्रीमती विलमादेवी दक :
आपका जन्म वि.सं. २००१ का है। आप उदयपुर निवासी श्रीमान् आनंदीलालजी व रतनदेवी मेहता की सुपुत्री हैं तथा श्रीमान् भेरूलालजी दक की धर्मपत्नी हैं। आपने महासती पुष्पवतीजी म.सा. से श्राविका व्रतों की दीक्षा ली। आपने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया है, कई स्तोत्र, थोकड़े, ढालें कंठस्थ हैं। आपने चार वर्षीतप सजोड़े किये। अनेक अठाइयाँ, नौ, ग्यारह, सोलह, दो वर्षीतप आयंबिल ओली आदि तप संपन्न किये हैं। कई वर्षों से रात्रिभोजन का त्याग, कंद-मूल का त्याग है। ३८ वर्ष की छोटी उम्र में वैधव्य अवस्था को प्राप्त होने पर भी आपने हिम्मत, धैर्य एवं परिश्रमपूर्वक नौ संतानों का संरक्षण, संपोषण किया। धर्म संस्कारों के साथ उन्हें स्वावलंबी बनाया। फलस्वरूप आपकी बड़ी पुत्री "विजयलता जी म.सा.” एवं पाँचवीं पुत्री "प्रशंसा श्री जी म.सा.” के रूप में दीक्षित हैं। आपने पाथर्डी बोर्ड से प्रभाकर की परीक्षा दी तथा कई शिविरों में अध्यापन कार्य सम्पन्न किया है। आपका जीवन प्रेरणास्पद है।१६६
इस अवसर्पिणी काल की प्रथम श्राविका कहलाने का श्रेय भगवान ऋषभदेव की पुत्री सुंदरी ने प्राप्त किया है। सुंदरी ने राजमहलों में रहते हुए ही साठ हजार वर्ष तक आयंबिल तप किया। अपनी दढ़ता से उसने चक्रवर्ती भरत को दीक्षा की
अनुज्ञा प्रदान करने के लिए विवश कर दिया था।
,
Page #698
--------------------------------------------------------------------------
________________
676
क्र. स. अक सन्
1 Oct. 2003
2
3
4
5
6
Dec. 2002
8
(Nov. 2002
[Oct. 2002
Sept. 2002
Aug. 2002
7 May 2002
Feb. 2001
श्राविका नाम / आयु
श्रीमती सुंदरदेवी डागा गंगाशहर (बीकानेर) श्री चंपालाल जी डागा वर्तमान में चेन्नई आयु 60 वर्ष
श्रीमती सुदंरदेवी जैन आयु 98 वर्ष
श्रीमती पुखराजबाईजी आँचलिया
पत्र-पत्रिकाओं से
श्रीमती छोटादेवी लूणिया आयु 73 वर्ष
श्रीमती पानीदेवी (87 वर्ष)
श्रीमती घूडी बाई जी लोढा
पाना देवी कुच्चा (देशनोक )
श्रीमती बदामबाई जी मेहता (चित्तौड़गढ़)
धर्मपत्नी
श्री हेमचंदजी जैन
श्री किशनलालजी आंचलिया
श्री सुंदरलाल जी लूणिया
श्री मंगलचंदजी छाजेड
श्री पूनम चंदजी कुच्चा
श्री मूलचंदजी मेहता
संथारा
13/11/02
28 Oct. सन् २००२
समाधिभाव से मृत्यु
संथारापूर्व
व्रत प्रत्याख्यान
पूर्वक स्वर्गवास
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
अवदान
१. प्रतिदिन 3-4 सामायिक
२. अठाई आदि तपस्या
३. रात्रि भोजन का त्याग
४. शीलव्रत आराधिका'
श्री सूरजकुंवर जी म. सा. की
संसारी भाभी जी थी। 2
तपस्या, तेला, अठाई, 11.3
सजोड़ेशीलव्रत की आराधना अपने
देवर की दो पुत्रियों को जैन भागवती को दीक्षा दिलवाई
वर्षों से रात्री चउविहार तप
सचित्त फल, कंद मूल, व हरी
सब्जी के त्याग थे।
कई सावन भादों के महीनों में
एकांतर तप 8,7.53 आदि तर्प'
प्लेग की महामारी के समय पीडित जनों को स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान की, इनकी पोती श्री सुयशुप्रभाजी ने जैन भगवती अंगीकार की थी।'
रात्री भोजन त्याग
आदि व्रत थे।
जिन शासन को समर्पित सुश्राविका
धर्मनिष्ठा, धर्मप्रेरिका महिला थी
Page #699
--------------------------------------------------------------------------
________________
साध्वी प्रतिभाश्री 'प्राची
क्र.स. अंक सन्
श्राविका नाम/आयु
धर्मपत्नी
संथारा
अवदान
9
Fo2001
श्रीमती लक्ष्मी देवी डागा
श्री उदयचंदजी मेहता
नवकार जप सुनते हुए देह का त्याग किया।
पिता श्री चौथमल जी तथा माता श्रीमती राजकुंवर जी ने सजोड़े दीक्षा लेकर जिन शासन की भरपूर सेवा की।
10
in2001
भंवरलालजी डागा
नेत्रदानी श्रीमती सुंदरदेवी जी आयु 7 वर्ष
10 जनवरी 2001 को संथारे सहित स्वर्गगमन
धार्मिक, सामाजिक एवं जन कल्याणकारी कार्यों में सदा तत्पर रहती थी। वे गुप्तदानी थी।
11
Jan 2001
श्री हजारीलाल जी
इनकी पोती ने दीक्षा ली।
श्रीमती लाडादेवी जी (गंगाशहर) 76 वर्ष की आयु
12 | Jan2001
श्रीमती भंवरीदेवी बॉठिया 62 वर्ष | श्री सुंदरलालजी
| 23 नवंबर देहत्याग
30,33,42 की तपस्या 7 ओलीजी, वर्षी तप, तथा 13 व 15 की तपस्याएँ की. शीला एवंसचित्त का त्याग था।
B
June-2000
समाधिपूर्वक देहावसान
श्रीमती कान्तिदेवी जैन (करौली निवासी)
श्री मुरारीलाल जी (जयपुर)
चार पुत्र उच्चपदों पर कार्यरत हैं।
4
April 2001
श्रीमती सदाबाई (नागपुर) उपनाम भंवरीदेवी सुखानी
नेमीचंद जी सुखानी
12 मार्च को तीन दिवसीय संथारे सहित पंडित मरण| को प्राप्त किया।
इनका पूरा परिवार दानवीर, धर्मवीर एवं सुस्कारी हैं।14
15
April 2001
श्री कन्हैयालालजी बोथरा
श्रीमती बिदामी देवी बोथरा हावली (असम)
शुभभावों एवं व्रत नियम सहित स्वर्गवास
वर्षीतप, मासखमण तप एवं अन्य बड़ी बड़ी तपस्याएं भी की। स्वभाव से सरल, नम्र धार्मिक, एवं उदार प्रकति की महिला थीं।
16 |hure2001
श्रीमती शामरी देवी गुंदेचा 72 वर्ष (रायपुर) छत्तीसगढ़)
संथारापूर्वक, समाधिभावों में व्रत नियम सहित स्वर्गवास
Page #700
--------------------------------------------------------------------------
________________
678
क्र.स. अंक सन्
17 June 2001
18 June 2001
19 Sept. 2001
20
Nov. 2001
21 Nov. 2001
22 25Dec 2001 10 जून 2002
23
25Jan.2002
श्राविका नाम / आयु
श्रीमती भगवतीदेवी (उदयपुर)
श्रीमती सुवादेवी (63 वर्ष)
श्रीमती विद्यादेवी (85 वर्ष)
| श्रीमती कमलादेवी (61 वर्ष) (देशनोक )
श्रीमती सोहनदेवी (88वर्ष) (इंदौर)
| श्रीमती जडावदेवी ललवाणी
श्रीमती आशादेवी लूणिया (89 वर्ष)
धर्मपत्नी
श्री भंवरलालजी नलवाया
श्री गुलाबचंदजी संचेती
श्री नेमीचंदजी गुंदेचा
श्री (भंवरलालजी )
श्री मोहनलालजी चौधरी
श्री मोहनलालजी
श्री भैरुदानजी लूणिया
स्थारा
त्याग-प्रत्याख्यान
पूर्वक देहावसान
10 दिवसीय
संथारा संलेखना
26 oct 25- मिनिट का संथारा
19 सितंबर
संथारा सहित
म्यु
4 घंटे चौविहार
संथारा सहित देह त्याग
15 दिसंबर को समाधिपूर्वक देवलोक
गमन
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
अवदान
धर्मपरायण, आदर्श
वात्सल्यमूर्ति सेवाभावी 17
चारवर्ष से सचित्त का त्याग
20 वर्ष से रात्री भोजन का
त्याग सामायिक प्रतिदिन
4-5 करना। 18
9,8,5 आदि तपस्यायें, आजीवन चौविहार
संथारा सहित स्वर्गवास "
प्रतिदिन २ सामायिक नवकारशी
रात्रि भोजन त्याग नियमित करती थी 1200
500 आयंबिल
सहित अनेक बार
3.2 आदि की
तपस्यायें संपन्न की। 21
प्रतिदिन 5 सामायिक करना
रात्रि भोजन का आजीवन
त्याग 122
सावन भादों 60 वर्षों तक
एकांतर तप एकासन निरन्तर
16 महिने तक 3 अठाईयाँ व
अन्य फुटकर तपस्यायें | 23
Page #701
--------------------------------------------------------------------------
________________
साध्वी प्रतिभाश्री 'प्राची'
679
क्र.स. अंक सन्
श्राविका नाम/आयु
धर्मपत्नी
संथारा
अवदान
41OMX2002
श्री श्यामलालजी बांठिया
12 घंटे का संथारा
श्रीमती मनोहरीदेवी बांठिया (भीनासर) वर्तमान में कलकत्ता में आयु 73 वर्ष
अठाई आदि तप एवं धर्मनिष्ठावान्
5
25Sepx2001
श्रीमती गैंरा देवी हीरावत
श्री नेमचंदजी हीरावत
पुत्री अनुपमा जी एवं पौत्री प्रभुता जी
93 वर्ष
8
25Sept2001
| श्रीमती मनोहरदेवी बंब
पं० श्री देवीलालजी बंब चिनई
10/8/ को सागारी संथारे सहित देवलोक गमन
दढ़धर्मी सुश्राविका थी। प्रायः संवर व स्वाध्याय में लीन रहती थी
2_1oSept2001
श्रीमती भूरी बाई जी डूंगरवाल (96 वर्ष आयु)
श्री हजारीलालजी डूंगरवाल (नीमच निवासी)
आजीवन रात्री चौविहार व्रत. पौषी प्रत्याख्यान, उपवास, वर्षी तप, एकांतर आयंबिल आदि तप किए आजीवन खद्दर धारी रही
8
hoseption
श्रीमती विमलादेवी सेठिया (गंगाशहर) | स्व०श्री मूलचंदजी सेठिया |
27 जुलाई
आयु 60 वर्ष
मरणोपरांत नेत्रदान किये। आजीवन संतसतीयों की अनथक सेवा की
P
OMar.2008
श्रीमती कानीदेवी डागा
श्रीकालूरामजी डागा
78 वर्ष
23 फरवरी चउविहार संलेखना संथारा
रात्रि भोजन का त्याग जमीकंद निषेध ब्रह्मचर्य व्रत कई वर्षों तक । चातुर्मास में चौंका भी लगाया।
DIOMr.2m
श्रीमती हरकूदेवी नाहटा (गंगाशहर) आयु 65 वर्ष
अनराजजीनाहटा (नीमच निवासी)
13 फरवरी 6 घंटे के संथारे सहित देह त्याग
आपकी प्ररेणा से 40 वर्ष से नियमित सामूहिक प्रार्थना नवकार जापादि धर्माराधना होती रही।
Page #702
--------------------------------------------------------------------------
________________
680
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
क्र.स.अंक सन्
श्राविका नाम/आयु
धर्मपत्नी
।
संथारा
।
अवदान
31 1OMr.2008
श्रीमती शुभकंवर जी लोढ़ा (89 वर्ष)
स्व०श्री गिरधारी सिंहजी लोढ़ा
14फरवरी 6 घंटे के संथारे सहित देवलोकगमन हुआ।
प्रतिदिन नवकारशी. जमीकंद का त्याग कुछ समय केवल. ११ द्रव्य लेती रहीं।
Ma2008
श्रीमती प्रेम कंवरीजी लोढ़ा
श्री विमलचंदजी
(58वी
29 जनवरी को सागारी संथारे सहित देवलोक गमन
प्रतिदिन सामायिक, ब्रह्मचर्य व्रत आराधिका जमीकंद व सचित का त्याग 23,8,11,15 आदि अनेक तपस्याएँ
की
3 hoFeb.2m | श्रीमती चतरबाई पामेचा
24 वर्षों से एकांतर तप. कई त्याग
प्रत्याख्यान साधुसती की सेवा में रत
AloFeb.2mm
24 वर्षों से एकांतर
श्रीमती मोहनबाई पामेचा (पिपलियामण्डी)
तप
BhoFeb. 2002
-
श्रीमती सूरजदेवी दुग्गड आयु 62 वर्ष | (सिमगा निवासी)
संलेखनापूर्वक देह त्याग (संथारा (9-1-02)
भीनासर, ब्यावर आदि में चौका खोलकर रही।
ॐ
OFeb.2mm
श्री धरमचंदजी बोरा
धर्मनिष्ठा सुश्राविका
श्रीमती मोहनदेवी बोरा सम्बलपुर (बस्तर)
10 जनवरी - संथारा सहित देवलोक
थी36
Page #703
--------------------------------------------------------------------------
________________
साध्वी प्रतिभाश्री प्राची'
क्र.स. स्वाध्यायी सेवा
37
22 वर्ष से
निरन्तर
स्वाध्यायी सेवा
देती रही।
38 20वर्ष
40
रतलाम (म०प्र०)
39 20वर्ष
18 वर्ष से निरन्तर
श्राविका नाम / आयु
श्रीमती घासीबाई आछा
रायपुर (छ०ग०)
70 वर्ष आयु
श्रीमती शांतादेवी मेहता
श्रीमती रत्ना ओसवाल
धर्मपत्नी
किशनचंदजी आधा
आछा
श्री मगनलालजी मेहता
श्री रतनदेवी मोगरा 70 वर्ष भंवरलालजी उदयपुर (राज0) मेहता
शैक्षणिक योग्यता
पांचवीं
बी० ए०
साहित्य रत्न
आठवीं
विशेषतायें
681
10 शास्त्र कंठस्थ, कई थोकडे कंठस्थ रात्री चौविहार, सचितत्याग, शीलव्रत, जमीकंदत्याग 37
शीलव्रत 14 वर्ष तक 19 वर्ष तक
रात्रि भोजन त्याग 54 वर्ष से अष्टमी चतुर्दशी को
हरी का त्याग, अ० भा.सा. जैन महिला मंडल की सहमंत्री, मंत्री, उपाध्यक्षा व सरंक्षिका हैं और अध्यक्ष पद पर रही। वर्तमान में भी संस्थाओं की सलाहकार आदि हैं। 38
प्रतिक्रमण, थोकडे की जानकार
विदुषी, व्याख्याता, 1998 में श्रेष्ठ स्वाध्यायी के रुप में सम्मानित, समाज सेवा के कार्य में "एक्सीलेंट लेडी" के रूप में
सम्मानित, बच्चों की मानसिक मनोकामना संस्थाका संचालन, समाजसेवी अन्य संस्थाओं
में सहभागी 139
एम०ए०, एम०ए०सी प्रतिक्रमण, कण्ठस्थ उत्तराध्ययन वांचन कई थोकड़ों का ज्ञान | 40 वर्ष से लिलोती त्याग, धोवन पानी ग्रहण करना । 5 वर्ष से प्रतिदिन पोरषी, धार्मिक शिविरों
का आयोजन। वर्ष 2002 में सावन भादों दो माह संघ सेवा हेतु समर्पण 140
Page #704
--------------------------------------------------------------------------
________________
682
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
क्र.स. अंक / संवत् । 41 2003 Dec
श्राविका का नाम श्रीमती सुंदरबाई धोका (बड़ी सादड़ी)
धर्मपत्नि
संथारा श्री नानालालजी | चार दिन का
तिविहारी संथारा
विशेषताएँ कई वर्षों तक चउहिार, कच्चेपानी, का त्याग, भोजन का त्याग सामायिक में दढ़ निष्ठावान +1
धींग
40 |2003 Dec
श्रीमती चौथीदेवी (80वर्ष) | पुरखलालजी लुणावत, नोखागाँव, लुणावत
24/10/2003 को 30 मि. का संथारा
वर्षों तक रात्रि चउविहार
432003 Dec
धर्मक्रियामें लगन
श्रीमती रतनदेवी बांठिया (बीकानेर)
| श्री घेवरचंदजी | 3 घंटे का तिविहार | बांठिया
संथारा
14 2003 Dec
श्रीमती संतोषदेवी बोथरा | स्व०रुपचंदजी | केंसर जैसी व्याधी (80 वर्ष) (गंगाशहर) बोथरा (गंगाशहर) | में 6 दिन के संथारे
सहित मत्यु
कई थोकड़े, स्तोत्र, सूत्र, 50 ढालें कण्ठस्थ/45
5 |2003 Dec
श्रीमती सूरजबाई (78वर्ष) | मोतीलालजी (भडगांव)
चोरडिया
संथारे सहित म्यु
संत सतियों की सेवा में अग्रणी45
4
2003 Dec
श्रीमती संपत्तबाई चोरड़िया | श्री मोतीलालजी | संथारे सहित (76 वर्ष) (भडगांव) चोरडिया मयु तपसणबाई के नाम (जि०जलगांव) से प्रसिद्ध
मासखमण, 11,
बेले, तेले, वर्षीतप • अनेक बार, ओली
तप, जावज्जीवन शील व्रता
47
2003 Dec
श्रीमती लक्ष्मीदेवी दुग्गड़ | श्री कुंदनमलजी | 6 दिन का संथारा (देशनोक) 82 वर्ष दुग्गड़ की आयु
पुत्री श्री मंजुल महासती म० सा० दोहित्री-सुबोध प्रभा जी48
48
Feb Dec
श्रीमती बदामबाई (93 वर्ष) (उदयपुर)
श्री गोठीलालजी नलवाया, (कानोड़
सामायिक प्रतिक्रमण चउविहार का नियमित रूप से पालन करती थी।
वाले)
Page #705
--------------------------------------------------------------------------
________________
साध्वी प्रतिभाश्री प्राची'
क्र.स. अंक / संवत्
Feb Dec
50
51 Feb Dec
52 Feb Dec
श्राविका का नाम
श्रीमती पुष्पादेवी बोथरा (58 वर्ष) रामपुरहाट
श्रीमती भूरीदेवी गोलेछा (97 वर्ष) (बीकानेर)
भंवरबाई सूर्या (देवारिया)
धर्मपत्नि
प्रकाशचंदजी
बोथरा (देशनोक
निवासी)
संथारा
संथारा सहित
स्वर्गवास
स्व० श्री पूनमचंदजी व्रत प्रत्याख्यान सहित | निधन हुआ।
गोलेछा
श्री ख्यालीलालजी सूर्या (देवरिया)
21 जनवरी को
सामायिक में ही देहावसान हो
गया।
विशेषताएँ
शीलव्रताराधक
सरल स्वभावी
9 उपवास आदि 50
85 वर्षे से
सामायिक रात्री चौविहार नियमित रुप से
पालन करती थी 1
शीलव्रतराधक सरल स्वभावी
9 उपवास आदि 2 तपस्याएं
उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथजी ने गृहस्थावस्था में राजकुमारी मल्लिकुँवरी के रूप में ही अपनी बौद्धिक प्रगल्भता से चोखा परिव्राजिका को तत्वचर्चा के द्वारा प्रभावित किया था। अपने जीवन साथी बनने आए छः विभिन्न देशों के राजा को देह की विनश्वरता का बोध करवाया। फलस्वरूप उन छः राजाओं ने दीक्षा अंगीकार की।
683
Page #706
--------------------------------------------------------------------------
________________
004
क्र.स. वि०संवत् / सन् श्राविका का नाम
1
2
3
4
6
7
8
5 1957
9
10
11
12
13
14
15
16
17
18
19
20
1832
21
1947
1955
1956
1960
1962
1969
1974
1975
1977
1973
1966
20वीं शती
20वीं शती
120वीं शती
20वीं शती
1978
1963
1964
20वीं शताब्दी
श्रीमती बोगीदेवी बरड़िया
श्रीमती मनोहरी देवी बोथरा
श्रीमती इचरज देवी दुगड़
श्रीमती भंवरीदेवी बैगाणी
श्रीमती गट्टूदेवी छाजेड़
श्रीमती मैनादेवी श्यामसुखा
श्रीमती कंकदेवी मरलेचा
श्रीमती छोटीदेवी वैद
श्रीमती चंद्रावल सेठिया
श्रीमतीभवरीदेवी बैद
श्रीमती गणेश देवी खरोड़
श्रीमती भीखादेवी छाजेड़
श्रीमती मक्खूदेवी सेठिया
श्रीमती राजकुंवर बाई भंडारी
श्रीमती झमकूदेवी बोरड़
श्रीमती रतनकवर कोठारी
श्रीमती धन्नीदेवी दूगड़
श्रीमती सुनहरी देवी
श्रीमती ऋषिबाई सेठिया
श्रीमती माणकदेवी सिंघी
श्रीमती सुंदरदेवी बागरेचा
श्री लाभचंद बरड़िया
पति
श्रीमोहनलाल जी बोथरा
श्रीसुमेरमल जी दुग्गड़
| श्रीजौहरी मल जी बैगाणी
श्रीगणेशलाल जी छाजेड़
श्रीकोडामल जी श्यामसुखा
श्रीजेवतराज जी मारलेचा
श्रीसूरजमल जी वैद
श्रीकोड़ामल जी सेठिया
श्रीदुलीचंद जी वैद
श्रीदीपचंद जी छाजेड़
श्रीमहालचंद जी सेठिया
श्री माणकचंद जी भंडारी
श्री पन्नालाल जी बोरड़
श्री सरदारमल जी कोठारी
श्री
श्री
बुद्धमल
जी दुग्गड़
धनकुमार जी
श्री पुखराज जी सेठिया
श्री सोहनलाल जी सिंधी
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
अवदान
8 घंटे का संथारा' आया।
38 दिन का संथारा' आया।
12 व्रती ' श्राविका थी ।
45 दिन का संथारा आया।
44 घंटे का संथारा आया।
1- 21,30-46 व्रतों की लडी' तप किया।
4 घंटे का संथारा' आया ।
धार्मिक संस्कार, स्वाध्यायशील
1 से 11 उपवास की लड़ी का तप किया।
39 दिन का संथारा 10 आया।
माँ - सास-जेठानी को संथारे में सहयोग
1 से 61 व्रतों की लड़ी" का तप किया।
5 दिन का संथारा प्राप्त किया।
तत्वज्ञानी, समाधि - मरण14 को प्राप्त किया।
4 दिन का संथारा प्राप्त किया।
समाधि-मरण" प्राप्त किया ।
5 दिन का संथारा" प्राप्त किया।
समाधि - मरण" को प्राप्त किया।
1 हजार गाथाओं का स्वाध्याय (प्रतिदिन) करती थी 81 दिन का संथारा संपन्न हुआ
विधिवत् अनशन और समाधिमरण प्राप्त किया ।
सात दिन का अनशन और समाधिमरण 21 प्राप्त हुआ
Page #707
--------------------------------------------------------------------------
________________
साध्वा प्रातभाश्री प्राचा
क्र.स. संवत
श्राविका का नाम
पति नाम
विशेषता
2. 1984
श्रीमती लिछमणदासजी
श्री लिछमणदासजी
30 दिनों तक की लड़ी संपन्न की। 22 दिन का अनशन किया।22
21996
श्रीमती सुखी देवी बोहरा
श्री जोधराज जी बोहरा
11 दिनों का अनशन तप किया।23
420mm
श्रीमती हरखी देवी खटेड श्री चंपालाल जी खदेड़
17,21 कर्मचूर तप मासखमण तप प्रति वर्ष सावन भादवा एकांतर तप किए अनेक थोकड़े कंठस्थ, चार स्कंध त्याग 24
श्रीमती कोयलादेवी बोथरा श्री तोलाराम जी बोथरा
50 दिनों का अनशन तप किया।25
श्रीमती सुंदरदेवी चोरड़िया |श्री जुहारमलजी चोरडिया
सैकड़ों गाथाओं का स्वाध्याय प्रतिदिन करती थी 15 दिनों का अनशन तप किया।26
22
2010
श्रीमती हुलासी देवी पगारिया श्री छगनमलजी पगारिया | 30 दिनों का अनशन तप किया।
28
2015
श्रीमती दुलीचंदजी बैद
28 दिन का अनशन 10 दिन
श्री दुलीचंदजी वैद
का तप किया।
92015
13 दिनों का तप, 5 दिन का
श्रीमती चाँदादेवी सांखला | श्री देवी चंदजी सांखला
संथारा किया।
0|2015
श्रीमती पेफांदेवी भंसाली
श्री ऋद्धकरण जी भंसाली ।
3 दिन तिविहार, सवा दो घंटे का चउविहार अनशन किया।30
31
2020
श्रीमती चंदा देवी दुग्गड़. श्री मौजीराम जी दुग्गड़
तात्विक बोल कंठस्थ, 16 तक लड़ी बद्ध तप किया, 2 मुहूर्त का अनशन किया।
2|2028
श्रीमती लाड़ा देवी घीया
श्री इंद्रचंदजी घीया
9दिनों का तिविहार अनशन किया।2
32039
श्रीमती चंद्रादेवी फुलफगर श्री मोहनलाल जी फुलफगर
25 दिनों का संथारा किया
42050
श्रीमती तीजूदेवी सेठिया
श्री रामलालजी सेठिया
10 दिनों का अनशन किया।4
श्रीमती धापूदेवी दूगड़
श्री मेघराज जी दुग्गड़
साढ़े चार घंटे का अनशन किया।35
श्रीमती मालादेवी बाफना |श्री तेजकरणजी बाफना
16 दिनों का लड़ीबद्ध तप, किया 85 दिन का संथारा किया।
श्रीमती मूलीदेवी चोरड़िया |श्री जयचंदलालजी चोरडिया शिविरों में साधनाभ्यास किया।
श्रीमती सुंदरीदेवी बोकाड़िया श्री प्रेमचंद जी बोकाड़िया |
28 दिनों का संथारा किया।
Page #708
--------------------------------------------------------------------------
________________
686
आधुनिक काल की जैन श्राविकाओं का अवदान
क्र.स. संवत
श्राविका का नाम
पति का नाम
विशेषताएँ
3 |20 वीं सदी
206
श्रीमती कलादेवी आंचलिया
121 दिन की तपस्या की 39
0 |20 वीं सदी
206
श्रीमती मनोहरी देवी आंचलिया
-
30 बार मासखमण तप किया।40
संदर्भ० मांगीलाल भूतोडिया इतिहास की अमरवेल ओसवाल प्रथम खण्ड प. 285
"माँ" विश्व की परम शक्ति है। तीर्थंकर माता का करोड़ों माताओं में शीर्षस्थ स्थान है। जगत के समस्त पुण्यों का पुँज एकत्रित करने पर तीर्थंकर पुत्र को जन्म देने का सौभाग्य तीर्थंकर की माता को
प्राप्त होता है।
Page #709
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
ART
शोध कार्यों में श्राविकाओं का योगदान (प्राकृत भाषा एवं साहित्य)
शोध का विषय और स्थान
क्र. १.
नाम जैन, कुसुमलता
२.
जैन, शशि प्रभा
लीलाबाई कथा के विशेष सन्दर्भ में प्राकृत कथाकाव्यों का अध्ययन इन्दौर, १६७२. अप्रकाशित। गाथा सप्तशती और बिहारी सतसईः सतसई परम्परा के परिवेश में एक तुलनात्मक अध्ययन आगरा, १६६८, अप्रकाशित।
अपभ्रंश भाषा एवं साहित्य ३. जैन, आभारानी (श्रीमती)
४.
जैन, वन्दना (श्रीमती)
मुनि रामसिंह विरचित "दोहापाहुड" ग्रन्थ का अनुशीलन। संस्कृत विद्यापीठ, २००२ अप्रकाशित नि.-डॉ. सुदीप जैन, दिल्ली। "आचार्य जोइन्दुः" एक अनुशीलन। सागर, १६६६, अप्रकाशित नि.-डॉ. भागचन्द्र जैन भागेन्दु, दमोह। "णेमिणाहचरिऊ” का सम्पादन एवं सांस्कृतिक अध्ययन । उदयपुर..., अप्रकाशित ।
५.
जैन, सरोज (श्रीमती)
६.
जैन, सूरजमुखी
अपभ्रंश का जैन रहस्यवादी काव्य और कबीर नाम से प्रकाशित । प्रका.-कुसुम प्रकाशन, आदर्श कॉलोनी, मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) प्रथम ; १६६६ २००
|संस्कत भाषा एवं साहित्य ७. जैन, अंजलि
८.
जैन, अंजू
६.
जैन, आराधना
| १०.
जैन, अनीता (श्रीमती)
| ११.
जैन उमा
१२.
जैन कल्पना (श्रीमती)
जयोदय महाकाव्य में उत्प्रेक्षा अलंकार। इन्दौर, २००३, अप्रकाशित। नि.-डॉ. संगीता मेहता, इन्दौर। जैन साहित्य के परिप्रेक्ष्य में मंगलाचरण का समीक्षात्मक अध्ययन । आगरा, १६६८, अप्रकाशित नि.-डॉ. सन्तोष कुमारी शर्मा, फिरोजाबाद। मिल रोड, गंज बसौदा (म.प्र.)। प्रका. - श्री दि. जैन मुनिसंघ सेवा समिति, गंजबासौदा (म. प्र.) एवं आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्रः व्यावर प्रथमः १६६४ ५० जैन संस्कत रूपकों का समीक्षात्मक अध्ययन मेरठ: १६६३ अप्रकाशित नि.-डा. जे. के. जैन। कालिदास कृत 'मेघदूत' तथा मेरूतुंगाचार्यकृत "जैन मेघदूत" का तुलनात्मक अध्ययन मेरठ, १६८३, अप्रकाशित।। वादिचंद्रकृत सुलोचना चरित का अध्ययन एवं सम्पादन। उदयपुर, १६६२ अप्रकाशित। नि.-डॉ. मूलचन्द्र पाठक, लाल बहादुर शास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली। "समन्त भद्रस्य संस्कृत साहित्ये योगदानम्"। संस्कृत विद्यापीठ... अप्रकाशित नि.- डॉ. रूद्रदेव त्रिपाठी १२५४-गली गुलीयान, थर्ड फ्लोर, दिल्ली-११०००६ जैनाचार्य विरचित “पचविज्ञप्तिलेखकाव्यानां सम्पादनमनुवादः" (संस्कृत) संस्कृत, संस्थान.... अप्रकाशित नि.- डॉ. रूद्रदेव त्रिपाठी। . चन्द्रप्रभचरित महाकाव्य - एक अध्ययन आगरा.... अप्रकाशित "आचार्य ज्ञानसागर के साहित्य में भारतीय संस्कृति"। बरेली, २००० अप्रकाशित नि.-डॉ. रमेश चन्द्र जैन बिजनौर (उ. प्र.) महाकवि बाग्भट्ट विरचित "नेमिनिर्वाण" का साहित्यिक मूल्यांकन। राजस्थान, १६८३, अप्रकाशित नि. डॉ. विश्वनाथ शर्मा।
१३.
जैन, कुसुम
।
१४.
जैन, जय (श्रीमती)
१५. १६.
जैन, जयदेवी जैन, नीता
१७.
जैन पुष्पा (श्रीमती)
Page #710
--------------------------------------------------------------------------
________________
688
१८.
१६.
२०.
२१.
२२.
२३.
२४.
२५.
२६.
२७.
२८.
| राजस्थानी भाषा एवं साहित्य
२६.
जैन, वन्दना
३१.
| हिन्दी भाषा एवं साहित्य
३०.
जैन अनीता
जैन अमिता (श्रीमती)
३२.
३३.
३४.
३५.
जैन प्रिया (श्रीमती)
जैन राका (श्रीमती)
जैन राजुल (श्रीमती)
जैन राजुल (कु.) जैन राजुल (कु.)
३६.
जैन, वन्दना (कुमारी)
जैन शिवा (श्रीमती)
जैन संगीता (श्रीमती)
जैन संस्कृति (कु.)
जैन सविता
जैन हर्षकुमारी
३७.
३८.
जैन अरूण लता
जैन अर्पणा (श्रीमती)
जैन इन्दुराई
जैन उषा (ब्र.)
जैन कल्पना (कुमारी)
जैन किरण
जैन कुसुमलता (श्रीमती)
शोध कार्यों में श्राविकाओं का योगदान (प्राकृत भाषा एवं साहित्य)
'उपमिति भव प्रपंच' कथा का विश्लेषणात्मक अध्ययन । चेन्नई... अप्रकाशित नि. - डॉ. एन. वासुपाल, जैनदर्शन विभाग, चेन्नई वि. वि. ।
“जीवन्धरचम्पू का समीक्षात्मक अध्ययन" । नि० - श्री रघुबीर शास्त्री प्रका. - जैन मिलन, गोमतीनगर लखनऊ (उ. प्र.) प्रथम - २००२ १००
"वीरोदय महाकाव्यः" एक अध्ययन। राजस्थान । २००३, अप्रकाशित नि० - डा. शीतल चंद जैन, जयपुर ।
"आचार्य ज्ञानसागर के साहित्य की मौलिक विशेषताएँ" । सागर, २०००, अप्रकाशित । "आचार्य ज्ञानसागर के साहित्य का समीक्षात्मक अध्ययन" सागर, २००३, प्रकाशित (सांगानेर, २००३) नि० - डॉ. के. एल. जैन, टीकमगढ़ (म. प्र. ) आचार्य सोमदेव विरचित "नीतिवाक्यामत" का समीक्षात्मक अध्ययन । इन्दौर २००३ अप्रकाशित नि. - डॉ. संगीता मेहता, इन्दौर
"संस्कृत जैन चम्पू काव्य " - एक अध्ययन सागर ... अप्रकाशित नि . - डॉ. कुसुम भूरिया ।
"अलंकार चिंतामणि" का समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन । मेरठ १६६२ अप्रकाशित । नि.- डॉ. जे. के. जैन ।
"जैन संस्कृत साहित्य में श्री कृष्ण चरित्र " - एक अध्ययन । वनस्थली १६६३ अप्रकाशित नि० - डॉ. चन्द्रकिशोर गोस्वामी ।
योदय और बहत्त्रयी का तुलनात्मक अध्ययन भोपाल, २०००, अप्रकाशित नि०डॉ. रतन चन्द जैन, भोपाल ।
"हेमचन्द्र के द्वयाश्रय महाकाव्य" (कुमारपालचरित) का सांस्कृतिक एवं साहित्यिक अध्ययन आगरा, १९७४ अप्रकाशित।
"राजस्थानी काव्य में नारी चित्र" राजस्थान १६६२ अप्रकाशित नि० - डा. नरेन्द्र भानावत ।
आचार्य विद्यासागर कृत "मूकमाटी का समीक्षात्मक एवं दार्शनिक अनुशीलन भोपाल, १६६७, अप्रकाशित नि० - डॉ. प्रदीप खरे, भोपाल (म. प्र. )
"हिन्दी महाकाव्य परम्परा में मूलमाटी का अनुशीलन" सागर, २००४ अप्रकाशित नि.- डॉ. सरोज गुप्ता, गर्ल्स डिग्री कॉलेज, सागर ।
"हिन्दी जैन काव्य में व्यवहृत दार्शनिक शब्दावली और उसकी अर्थव्यंजना " आगरा, १६७७ अप्रकाशित नि. - डॉ. महेन्द्र सागर प्रचण्डिया, अलीगढ़ “द्विवेदी युगीन महाकाव्य परम्परा और वर्धमान वाराणसी” १६६२ अप्रकाशित आधुनिक जैन हिन्दी महाकाव्य लखनऊ, १६८२. अप्रकाशित
"हिन्दी साहित्य के विकास में जैन कवियों ( १५००.१७००) का योगदान, विक्रम, १९६५ अप्रकाशित नि.–डॉ. हरिमोहन बुधौलिया ।
"आचार्य विद्यासागर का मूकमाटी महाकाव्यः " एक अनुशीलन रीवां १६६०
अप्रकाशित नि० - डॉ. के. एल. जैन टीकमगढ़ (म. प्र. )
रातिकालीन हिन्दी जैन काव्य जबलपुर (म. प्र. )
"बुधजनः बुधजन सतसई" इन्दौर २००२ अप्रकाशित नि० - डॉ. रमेश सोनी, इन्दौर |
Page #711
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
689
| ३६.
जैन, त्रिशला
४०.
जैन दीपिका
४१.
जैन प्रतिभा
जैन, पुष्पलता जैन, मीना
४४.
जैन रश्मि
___ जैन, मुन्नी (श्रीमती)
"हिन्दी के जैन महाकाव्य" (जैन महापुरुषों के जीवन, जैन दर्शन और जैन अध ययन पर आधारित हिन्दी के महाकाव्य) रूहेलखण्ड १६८५ अप्रकाशित नि.-डॉ. विद्या- धर त्रिपाठी हि. वि. बरेली कॉलेज, बरेली (उ. प्र.) "बीसवीं सदी के हिन्दी साहित्य में भगवान महावीर", इंदौर २००२ अप्रकाशित नि.- डॉ. शकुन्तला सिंह, इन्दौर। "आचार्य विद्यासागर की कृति मूकमाटी का शैक्षिक अनुशीलन"। सागर,... अप्रकाशित नि.-डॉ. वी. पी. श्रीवास्तव, विश्वविद्यालयीन शिक्षा महाविद्यालय सागर (म. प्र.) "मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य में रहस्य भावना" नागपुर, १६७५ प्रकाशित प्रकाशकः सन्मति विद्यापीठ नागपुर-४४०००१ प्रथमः- १६८४ १००,०० "मूकमाटी का शैली परक अनुशीलन" भोपाल; २००४, अप्रकाशित नि.-डा. मध् गुबाला गुप्ता, एस. एन. गर्ल्स कालेज, भोपाल। "आचार्य श्री विद्यासागर जी के साहित्य में उदात्त मूल्यों का अनुशीलन"। सागर, | २००४ अप्रकाशित नि.-डॉ. संध्या टिकेकर, बीना (म. प्र.) "हिन्दी गद्य के विकास में जैन मनीषी, पं. सदासुखदास का योगदान", वाराणसी, १६६६, प्रकाशित। भारतीय जीवन मूल्यों के सन्दर्भ में वीरेन्द्र कुमार जैन के साहित्य का अनुशीलन। विक्रम १६६१ अप्रकाशित नि.-डॉ. एस. एल. जायसवाल। देवीदास विलास नाम से प्रकाशित प्रका.-श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्थान, वाराणसी प्रथमः १६६४.२००. ०० "वीरेन्द्र जैन के साहित्य में जैन दर्शन" भोपाल, २००२, अप्रकाशित नि.-प्रो. पी. आर रत्नेश। "जैन हिन्दी साहित्य में प्रयुक्त छन्द योजना" अलीगढ़; १६८३ अप्रकाशित नि.-डॉ. महेन्द्र सागर प्रचण्डिया, अलीगढ़ पं. दौलत राम का साहित्यिक प्रदेय, ग्वालियर, २००३ अप्रकाशित । नि.-डॉ. सतीशचंद चतुर्वेदी, गुना (म. प्र.) आचार्य विद्यासागर जी कृत "मूकमाटी महाकाव्य"; "एक साहित्यिक मूल्यांकन" भोपाल १६६२ अप्रकाशित नि.-डॉ. जी. पी. नेमा। संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश भक्तिकाव्य परम्परा में जैन कवियों का हिन्दी पद साहित्यः एक समालोचनात्मक अध्ययन बिहार, १६८३, अप्रकाशित।
४६.
जैन मंजुकला (श्रीमती)
४७.
जैन विद्यावती (श्रीमती)
४८.
जैन श्वेता
नमन
४६.
जैन, सरोज
__ जैन सारिका
जैन सीमा कुमारी
५..
जैन सुनीता
भाषा विज्ञान एवं व्याकरण ५३. जैन अनीता
५४.
जैन कमलेश
५५.
जैन नीरज (कु.)
"पाणिनीय व्याकरण और जैनेन्द्र व्याकरण का तुलनात्मक अध्ययन" जबलपुर २००३ अप्रकाशित नि.-डा. राधिका प्रसाद मिश्र, दु. वि. वि., जबलपुर। जैन दार्शनिक पारिभाषिक शब्दावली का विश्लेषणात्मक अध्ययन वाराणसी, १६८६, अप्रकाशित नि.-डॉ. राधेश्याम चतुर्वेदी वाराणसी। सन्धि विषयक सिद्धान्तों का तुलनात्मक अध्ययन इन्दौर, १९६६ अप्रकाशित (टंकित) नि.-डॉ. मिथिला प्रसाद त्रिपाठी जैनागम। ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन उदयपुर... अप्रकाशित।। स्थानांग सुत्र का समालोचनात्मक अध्ययन, उदयपुर १६६६ अप्रकाशित । नि.-डॉ. उदयचंद जैन उदयपुर।
५६. |५७.
जैन, कोठारी, राजकुमारी जैन खीचा, पारसमणि
Page #712
--------------------------------------------------------------------------
________________
690
शोध कार्यों में श्राविकाओं का योगदान (प्राकृत भाषा एवं साहित्य)
५८.
जैन चोरडिया, निर्मला
५६.
जैन, अमिता Jain, Mukta
६०.
Jain, Veena
स्थानांग सूत्रः एक सांस्कृतिक अध्ययन, लाडनूं, १६६७, अप्रकाशित। नि.-डॉ. डी.एन. शर्मा। उपासकदशांगसूत्रः एक समीक्षात्मक अध्ययन, कुरूक्षेत्र, १६६८ अप्रकाशित। A cultural Study of the Bhagawati Aaradhana of Sivarya. Udaipur, 2003, Unpublished Sup.- Dr. Prem Suman Jain, Udaipur. A study of Jaina ethical ideas with special reference to Acharangasutra. Delhi, 1977, Unpublished. आचारांग सूत्रः एक आलोचनात्मक अध्ययन, पटियाला, १६६५; अप्रकाशित। नि.-डॉ. ए. एन. सिन्हा, पंजाबी वि. वि., पटियाला। आचार्य काल एवं निशीथः एक आलोचनात्मक अध्ययन लाडनूं २००४, अप्रकाशित नि.-डॉ. हरिशंकर पाण्डेय। प्रज्ञापना का समीक्षात्मक अध्ययन उदयपुर, १६६६ अप्रकाशित। नि.-डॉ. उदयचंद जैन।
जैन सुनीता
६३.
जैन पियूष प्रभा
६४.
जैन सिरोया मंजु
जैन न्याय तथा दर्शन ६५. जैन गांग, सुषमा
६६.
Jain Amara (Smt.)
जैन आशाकुमारी जैन किरण
६८.
पा
जैन, किरण कला
जैन, जैनमती (श्रीमती)
जैन नमिता
आचार्य कुन्द कुन्द के प्रमुख ग्रन्थों में दार्शनिक दष्टि दिल्ली, १६७८ प्रकाशित प्रका: भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली प्रथमः १६८२.६० A Comparative Study of the major Commentaries of the Tattavarthasutra by umasvati, Pujyapada, Haribhadra, Siddhasena, Bhattakalanka and vidyanada. Delhi, 1974, Unpublished. जैन न्याय तथा आधुनिक बहुपक्षीय शास्त्र, इलाहाबाद, १६७६, अप्रकाशित जैनदर्शन के सन्दर्भ में मुनि विद्यासागर जी के साहित्य का योगदान। सागर, १६६२, प्रकाशित नि.-डॉ. सुरेश आचार्य। स्याद्वाद मंजरीः एक समीक्षात्मक अध्ययन, कुरूक्षेत्र....प्रकाशित नि.-डॉ. (स्व.)। गो-पिका मोहन भट्टाचार्य। पंचास्तिकाय का समीक्षात्मक और तुलनात्मक अध्ययन आरा, १६६५, अप्रकाशित नि.-डॉ. डी. सी. राय एच. डी. जैन कॉलेज, आरा (बिहार)। प्रवचनसार में प्रयुक्त दार्शनिक शब्दावली का समीक्षात्मक अध्ययन बरेली.... अप्रकाशित नि. डॉ. जी. एस. गप्ता, बिजनौर। प्रमेयकमलमार्तण्ड: एक समीक्षात्मक अध्ययन (दो भागों में) वाराणसी, १६७६, अप्रकाशित नि.-स्व. डॉ. नीलमणि उपाध्याय। स्वामी समन्तभद्र एवं उनका दार्शनिक अनुचिन्तन, जबलपुर २००० प्रकाशित नि.डा. जे. पी. शुक्ला। षटखण्डागम में गणस्थान विवेचन जबलपर, १६४ प्रकाशित नि.-डॉ. विमल प्रकाश जैन, जबलपुर प्रका.-श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा ऐशबाग लखनऊ प्रथमः.../५०.०० जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्तः एक अध्ययन रोहतक, १६८६, प्रकाशित। नि.-डॉ. जयदेव विद्यालंकार, रोहतक प्रथम: १६६३/४८.०० सूत्रकृताग का दार्शनिक एवं समालोचनात्मक अध्ययन उदयपुर, १६६५| अप्रकाशित नि.-डॉ. उदयचंद जैन, उदयपुर। Jain Mythology as depicted in the Digambara Literature. Delhi, 1976, Unpublished.
जैन निर्मला (कु.)
७३.
जैन प्रभा
७४.
जैन प्रमिला
७५.
जैन मनोरमा (कुमारी)
७६.
जैन मनोरमा (श्रीमती)
७७.
Jain Manju
Page #713
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
७८.
७६.
८०.
८१.
८२.
८३.
८४.
८५.
८६.
८७.
८५.
८६.
{c.
| ६::.
६३.
६४.
६५.
६६.
€19.
जैन राका (कुमारी) जैन राजकुमारी
जैन शान्ता ( मुमुक्षु)
जैन पुराण
६.
६८.
Jain Shanti
जैन श्रद्धा (कु० )
जैन, सीमा
जैन सुनीता
जैन, सुषमा
Bothra Pushpa
जैन मंजुबाला (श्रीमती)
Shah, Jagrutian (smt)
Shah, Rekha K.
श्रीमाल, पूर्णिमा
जैन, अनीता रानी
जैन, ज्योति
जैन नीलम (श्रीमती)
जैन नीलम (कुमारी)
जैन रूक्मणि
जैन, रूबी
जैन, लक्ष्मी
जैन वन्दना
जैन परम्परा में स्वामी समन्तभद्राचार्य का योगदान कानपुर ... अप्रकाशित । जैन दर्शन में ज्ञान का स्वरूप राजस्थान, १६७८, अप्रकाशित ।
नि. - डॉ. नन्दकिशोर शर्मा ।
श्याः एक विवेचनात्मक अध्ययन लाडनूं, १६६३, प्रकाशित 'लेश्या और मनोविज्ञान' नाम से प्रकाशित प्रका.:- जैन विश्व भारती, लाडनूँ- ३४१३०६
प्रथम १६६६ / १५०.००
Jaina mysticism Udaipur, 1974, Unpublished.
जैन धर्म में मोक्ष की अवधारण वनस्थली, २००२ अप्रकाशित नि० - प्रो. प्रेमा राम
सर्वार्थ सिद्धि का दार्शनिक परिशीलन, बरेली १६६४ प्रकाशित,
डॉ. जी.एस. गुप्ता प्रका. - आ. ज्ञा. केन्द्र, व्यावार (राज.) प्रथम ... / ५००.
नि० -
00
जैन धर्म में मार्गणा स्थान जबलपुर, २००३, अप्रकाशित ।
नि.- डॉ. आर. एस. त्रिवेदी, दु. वि. वि., जबलपुर ।
जैन न्याय सम्मत स्मति प्रत्यभिज्ञा तथा तर्क प्रमाणों का अनुशीलन सागर १६६१ अप्रकाशित नि०. - डॉ. गणेशीलाल ।
691
The Jaina. Theory of Perception Kolkata, 1970,
Published Sup. Dr. J. N. Mohanty, Burdwan.
प्रशमरतिप्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन बिहार, १६६३, अप्रकाशित ।
नि० - डॉ. लाल चन्द जैन
Jain Darshan Vicharana Gujarat (L.D. Institute), 1990,...
Sup.-pt. D.D. Malvania.
The Jaina Conception of Atman Gujarat (L.D. Institute), 1985,.... Sup- Dr. N. J. Shah.
प्रशमरति और उमास्वाति का एक समीक्षात्मक - वैज्ञानिक अध्ययन | राजस्थान, १९३०, अप्रकाशित ।
जिनसेन कृत आदि पुराण का समीक्षात्मक अध्ययन मेरठ, १६६५, अप्रकाशित ि डॉ. सभापति शास्त्री, साहिबाबाद ( उ० प्र०)
आदिपुराण का समालोचनात्मक अध्ययन | आगरा, १६६६, अप्रकाशित नि . - डॉ. (श्रीमती) विद्यावती मिश्र, रीडर, क. मु. विद्यापीठ, आगरा ।
आचार्य रविषेण कृत पद्मपुराणः एक पर्यालोचन मेरठ, १६८७, अप्रकाशित । वेदव्यास एवं जिनसेन कृत हरिवंशपुराणों का तुलनात्मक अध्ययन लखनऊ, २००४, अप्रकाशित |
हरिवंशपुराण का सांस्कृतिक अध्ययन रायपुर, १६७७ अप्रकाशित
शुभचन्द्रकृत पाण्डव पुराण का समीक्षात्मक अध्ययन । मेरठ, १६६३, अप्रकाशित नि.- डॉ. कैलाशचन्द जैन, सहारनपुर ।
जैन हरिवंशपुराण का सांस्कृतिक अध्ययन सागर, १६७८, अप्रकाशित नि.- डॉ. के. डी. वाजपेयी ।
जैन संस्कृत पुराणों में निहित पुराकथाओं के स्त्रोत एवं स्वरूप जयपुर, १६६६ अप्रकाशित नि० - डॉ. विनय कुमार जैन, जयपुर ।
Page #714
--------------------------------------------------------------------------
________________
692
शोध कार्यों में श्राविकाओं का योगदान (प्राकृत भाषा एवं साहित्य)
| ६६.
जैन विद्यावती (श्रीमती)
महापुराणः एक सांस्कृतिक अध्ययन राजस्थान; १६६६, अप्रकाशित । नि.-डॉ. शीतल चन्द्र जैन, जयपुर। जैन आचार्यो के संस्कृत पुराण साहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन । मेरठ, २००० अप्रकाशित पूर्व अध्यक्ष-संस्कृत विभाग, एस. डी. कॉलेज, मुजफ्फरनगर।
|१००.
जैन सुषमा (डा.)
जैन नीति, आचार, धर्म एवं योग १०१. जैन आराधना
१०२. जैन उर्मिला (श्रीमती)
जैन, प्रतिभा
१०४. जैन, ममता
रत्नकरण्डश्रावकाचार में प्रतिपादित श्रावक धर्म और मोक्षमार्ग में उसका स्थान | भोपाल, १६८२ अप्रकाशित। प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में अनुप्रेक्षाः एक आलोचनात्मक अध्ययन मेरठ, १६६३, अप्रकाशित (टंकित) नि.- डॉ. श्रीकांत पाण्डेय। हिन्दू और जैन नैतिक आदर्शो का समालोचनात्मक अध्ययन। रांची, १६८१, अप्रकाशित। आर्यिका ज्ञानमती माता विरचित कल्पद्रुम विधानः एकअध्ययन। मेरठ, २०००. अप्रकाशित नि.-डॉ. सुशीला शर्मा, गाजियाबाद (उ. प्र.) जैन आचार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन। आगरा, १६६३.-६४, अप्रकाशित । नि.-डॉ. सन्तोष शर्मा, फिरोजाबाद (उ. प्र.) जैन गहस्थ चर्या, सागर, १६६५, अप्रकाशित नि.-प्रो. श्रीधर मिश्र, इतिहास विभाग, सागर (म. प्र.) जैन श्रावकाचारः एक अध्ययन (जैन गहस्थ की आचार संहिता) सागर, १६८८, अप्रकाशित नि.-डॉ. भागचन्द जैन भागेन्दु दमोह (म. प्र.) भगवती सूत्र में प्रतिपादित “धर्म-दर्शन का समीक्षात्मक अध्ययन"। लाडनूं २००३ अप्रकाशित नि.-डॉ के. सी. सौगानी
१०५.
जैन शैलेष (श्रीमती)
जैन सन्ध्या (श्रीमती)
१०७. जैन सुधा (श्रीमती)
| १०८. जैन डागा, तारा (श्रीमती)
जैन इतिहास, संस्कृति कला एवं
पुरातत्त्व
१०६. जैन ऊषा (श्रीमती) ११०. जैन, एकता
१११.
जैन, राजेश (श्रीमती)
११२.
जैन रेनू
११३.
जैन रेनू
मध्य प्रदेश के अभिलेखों का सांस्कृतिक अध्ययन। जबलपुर, १६८२ अप्रकाशित "भारतीय इतिहास में प्रमुख जैन आचार्यो का योगदान" | सागर २००० अप्रकाशित नि.-डॉ. के. एल. साहू, नरसिहपुर (म. प्र.) मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म वाराणसी...प्रकाशित । जैन साहित्य में नारी (ई. पू. ५वी शती से पूर्वी ईस्वी तक) मेरठ, १६६५, अप्रकाशित नि. -डॉ. के. के. शर्मा, मेरठ। जैन साहित्य में नारी (ई. पू. ५वीं शती से ५वीं ईस्वी तक) मेरठ, २००३, अप्रकाशित (टंकित) नि.-डॉ. के. के. शर्मा, मेरठ। सेरोन कलां, ललितपुर से प्राप्त मूर्तिकला का अध्ययन सागर, १६६२, अप्रकाशित नि.-डॉ. आर. एस. अग्रवाल । इन्दौर के दिगम्बर जैन मन्दिर इन्दौर, १६६७, अप्रकाशित । नि.-डॉ. हरवंश सिंह छावड़ा। मध्य प्रदेश का गुप्तोत्तरकालीन सांस्कृतिक परिवेशः जैन स्त्रोतों के आधार जबलपुर २०००, अप्रकाशित नि.-डॉ. मणिराम शर्मा, जबलपुर (म. प्र.) मालवा में जैन साहित्य का निर्माण तथा जैन साहित्यकारों का योगदान विक्रम, १६७७, अप्रकाशित।
११४.
जैन वन्दना
जैन शैलजा (कु०)
| ११६.
जैन सीमा
| ११७.
जैन सुशील (श्रीमती)
Page #715
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
जैन-बौद्ध तुलनात्मक अध्ययन ११८. जैन सुधा
"जैन योग और बौद्ध योग का तुलनात्मक अध्ययन लाडनूं: । १६६६, अप्रकाशित नि.-डॉ. राजन कुमार। जैन एवं बौद्ध योग का आलोचनात्मक अध्ययन वाराणसी १६८२ अप्रकाशित ।
११६. सांड़ मंगला (दुग्गड़)
जैन-वैदिक तुलनात्मक अध्ययन १२०. जैन अल्पना (श्रीमती)
१२१. जैन मणि प्रभा
"जैन धर्म एवं गीता में कर्म-सिद्धान्त" ग्वालियर, १६६८, प्रकाशित मोदी अशोक कुमार जैन, डॉ. शिवहरे के पास, गणेश कॉलोनी, नया बाजार, लश्कर, ग्वालियर (म. प्र.) आचार्य कुन्द कुन्द का तात्त्विक चिन्तनः प्रमुख उपनिषदों के सन्दर्भ तुलनात्मक अध्ययन। जबलपुर, १६६२, अप्रकाशित नि.-डॉ. विमलप्रकाश जैन। "जैन एवं विशिष्ट अद्वैत दर्शन में जीव का तुलनात्मक अध्ययन इन्दौर"। १६६७, अप्रकाशित नि.-डॉ. वैजामिन खान।
१२२. जैन सर्राफ अंजलि
जैन राम कथा साहित्य १२३. छाजेड़ अनुपमा
१२४.
जैन अखिलेश
"जैन रामायणों में राम का स्वरूप" इन्दौर २००२, अप्रकाशित नि.-डॉ. पुरुषोत्तम दुबे, इन्दौर। वाल्मीकि रामायण एवं पदमपुराण का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दष्टि से तुल्लात्मक अध्ययन आगरा, १६६४, अप्रकाशित नि.-डॉ. शीला गुप्ता। आचार्य रविषेण कृत पदमपुराण के विद्याधर काण्ड में वर्णित वानर एवं राक्षसवंश दयालबाग, १६६६, अप्रकाशित (टंकित) नि.-डॉ. (श्रीमती) अगम कुलश्रेष्ठ । महाकवि सिंह और उनका पज्जणचरिउ, मगध, १६८१, अप्रकाशित ।
१२५. जैन ज्योति (कु)
. जैन विद्यावती (श्रीमती) जैन विज्ञान एवं गणित १२७. जैन, प्रभा
१२८.
जैन, आरती
___
१२६. जैन इन्द्रा (श्रीमती)
१३०. जैन उषा (श्रीमती)
"वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में जैन दर्शनः" चरणानुयोग के विशेष सन्दर्भ में। जबलपुरः ૧૬૬૬ अप्रकाशित नि.-डॉ. के.के. चतुर्वेदीः जबलपुर (म. प्र) जैन साहित्य के परिप्रेक्ष्य में पंडित सदासुखदास जी कासलीवास के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का अनुशीलन । सागर- १६६८, अप्रकाशित। नि-डॉ. आशा लता पाठक, छिन्दवाड़ा (म.प्र.) श्री मद जवाहराचार्यः व्यक्तित्व एवं कृतित्व राजस्थान, १६६०, अप्रकाशित नि.-डॉ. नरेन्द्र भानावत, जयपुर। भैया भगवती दास और उनका साहित्य आगरा, १६७६, प्रकाशित (मित्तल प्रकाशन, नई दिल्ली, १६६३) नि.-डॉ. रामस्वरूप आर्य, बिजनौर (उ. प्र.) जैन दिवाकर मुनि श्री चौथमल जी म. सा., व्यक्तित्व एवं साहित्यिक कृतित्वः एक अध्ययन। इन्दौर: १६६० अप्रकाशित। आचार्य कुन्द कुन्द और उनका समयसार, रीवां, १६६२ए अप्रकाशित। नि.-डॉ. वीरेन्द्रकुमार जैन; छतरपुर असग कवि-: व्यक्तित्व एवं कृतित्व रीवां १६६१ अप्रकाशित। नि.-डॉ. मिथिलाप्रसाद त्रिपाठी आचार्य अमत चन्द्र सूरिः व्यक्तित्व एवं कतित्व सागर, १६८६, अप्रकाशित। नि.-डॉ. भागचन्द्र भागेन्दु, दमोह (म. प्र.)
१३१.
जैन कुसुमलता
१३२.
जैन चन्द्रप्रभा (श्रीमती)
१३३.
जैन प्रतिभा
१३४. जैन भारती (श्रीमती)
For Private & Personal use only
Page #716
--------------------------------------------------------------------------
________________
694
शोध कार्यों में श्राविकाओं का योगदान (प्राकृत भाषा एवं साहि य)
१३५. जैन माया (श्रीमती)
| १३६.
जैन मीनू या वीनू
१३७. जैन वन्दना १३८. जैन विनोदवाला
१३६.
जैन सावित्री
आचार्य विद्यासागरः व्यक्तित्व एवं काव्यकला उदयपुर, १६६६, अप्रकाशित। नि.-डा. पथ्वीराज मालीवाल, हिन्दी विभाग, उदयपुर। आर्यिका विशुद्धमती माताजीः व्यक्तित्व एवं कृतित्व उदयपुर, २०००, अप्रकाशित । नि.-डॉ. उदयचन्द जैन, उदयपुर। आचार्य जोइन्दुः एक अनुशीलन सागर..... अप्रकाशित । "कविवर बनारसीदास एवं अर्धकथानक इन्दौर"; १६६६, अप्रकाशित। नि.-डॉ. दिलीपकुमार चौहान, हिन्दी विभाग, इन्दौर। "श्रीतारणस्वामी: व्यक्तित्व एवं कृतित्व सागर", १६८४, अप्रकाशित नि. -डॉ. | भागचन्द्र भागेन्दु, दमोह (म. प्र.) आचार्य देवसेन और उनकी कृतियाँ मेरठ, १६६६, अप्रकाशित । नि.-डॉ. श्रेयांसकमार जैन, बडौत। "कविवर भागचन्द के व्यक्तित्व एवं कृतित्व" का अनुशीलन। सागर, १६६२ अप्रकाशित नि.-डॉ. बद्री प्रसाद "आचार्य अमितगतिः एक अनुशीलन" सागर, १६८७; अप्रकाशित। नि.-डॉ. भागचन्दजैन भागेन्दु, दमोह (म. प्र.)
जैन सुनीता (श्रीमती)
१४१.
जैन पुषमा (श्रीमती)
१४२. जैन सुषमा
जैन समाजशास्त्र १४३. जैन अलका
१४४.
जैन कोमल (श्रीमती)
984.
Jain, Poornima
इन्दौर नगर के जैन समाज में प्रमुख जैन साध्वियों की सामाजिक परिवर्तन में इन्दौर, २००२ अप्रकाशित। नि.-प्रो. आर. के. नानावटी; इन्दौर। "जैन आगमों में नारी जीवन" प्रका. पदमजा प्रकाशन; गुडलक स्टोर्स; देवास (म.प्र.) प्रथम-१६८६/७५.०० Religious Sects and Social Development with special emphasis. On Jains, christians and sikkhas. Sects in Agra city': A socialogical analysis. J. N. u. 1996, Unpublished. Ethinicity in plural Societies with special reference to Jain Oswal in Kolkata. Kolkata, 1991 published. गंजवासौदा के जैन समाज में विवाह: समाजशास्त्रीय अध्ययन भोपाल, १६८५, अप्रकाशित। Sociology of Jaina Temple Gaaras. Rajasthan, 1969, Unpublished
१४६. Jain Renu
१४७. जैन सन्ध्या
१४८. Jain Sushila
जैन अर्थशास्त्र १४६. जैन, कमल प्रभा
"प्राचीन जैन साहित्य में आर्थिक जीवन"। वाराणसी; १६८६, प्रकाशित । नि.-डा. सागरमल जैन वाराणसी प्रका.-पा. शो. वाराणसी। प्रथम-१६८८/५०, 00
जैन शिक्षाशास्त्र १५०. जैन सारिका (क.)
| १५१. जैन सुनीता
आचार्य विद्यासागर के व्यक्तित्व एवं शैक्षिक विचारों का अध्ययन सागर; १६६३, अप्रकाशित नि.-डॉ. एच. एस. वैश्य, (सागर) (म. प्र.) "श्री गणेश प्रसाद वर्णी का शिक्षा में योगदान"| सागर, १६६५, अप्रकाशित। नि.-डॉ. बी.पी. श्रीवास्वत, सागर (म.प्र.)
जैन राजनीति | १५२. जैन, उषा
"यशस्तिलकचम्पू में भारतीय राजनीति का समीक्षात्मक अध्ययन"। जबलपुर १६८८, अप्रकाशित।
Page #717
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
१५३. जैन, शकुन्तला
संगीत
१५४. Jain, Asita १५५. जैन, ज्योति
१५६. जैन रेनु, बाला
पुस्तकालय विज्ञान
१५७. Jain Upanaa (km.)
१५८. जैन रश्मि (कु.)
अन्य+अपूर्ण+ अज्ञात १५६. जैन, मीना (श्रीमती)
१६०. जैन कल्पना (श्रीमती)
१६०. जैन कल्पना (श्रीमती)
१६१. जैन, कृष्णा
१६२. जैन, विजयलक्ष्मी
१६३. जैन, सरोज (ब्र.)
पर्यावरण
१६४. जैन, मीना
शाकाहार विज्ञान १६५. जैन, अर्चना
१६६. जैन, आशा
१६७. जैन, रजनी (कुमारी)
१६८. जैन अर्चना कुमारी
"आयुर्वेद के विकास में जैनाचार्यों का योगदानः" ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में विक्रम, २०००, अप्रकाशित । नि० - डॉ. एस. पी. उपाध्याय, वि. वि. वि., उज्जैन ।
695
References to Indian Music in Jain works. Delhi, 1993, Unpublished भारतीय संगीत को देशी संज्ञक जैन संगीत की देन राजस्थान, १६६५, अप्रकाशित नि.- डॉ. सुरेखा सिन्हा, राजस्थान वि. वि., जयपुर
जैन धर्म में प्रवर्तित शास्त्रीय संगीत के परम्परागत एवं आधुनिक स्वरूप का विश्लेषणात्मक अध्ययन कुरुक्षेत्र २००४ अप्रकाशित ।
Annotated Bibliography of Jain literature in Reewa. Rewa 1992, unpublished Sup-Prof. R. K. Sharma
"इन्दौर के जैन ग्रन्थागारों में उपलब्ध पाण्डुलिपियों का सर्वेक्षण एवं सूचीकरण" । इन्दौर, १६६५, अप्रकाशित नि० - डॉ. जे. सी. उपाध्याय, इतिहास विभाग |
"जैन महिलाओं में सामाजिक धार्मिक एवं आर्थिक चेतना का स्वरूप" । सहा. प्राध्यापिका - शा. कन्या महाविद्यालय, खण्डवा (म. प्र. )
"भारत में पशु मांस निर्यात व्यापार की आर्थिक एवं सामाजिक समीक्षा" जबलपुर, १६६६, अप्रकाशित ।
भारत में पशु मांस निर्यात व्यापार की आर्थिक एवं समाजिक समीक्षा जबलपुर, २००३, अप्रकाशित ।
"जैन आगम साहित्य में प्रतिबिम्बित राजनीतिक सामाजिक जीवन" राजस्थान, १६६०, अप्रकाशित । नि . - डॉ. सुशीला अग्रवाल, राज. वि. वि., जयपुर (राज.) जैन साहित्य में निर्दिष्ट राजनैतिक सिद्धान्त (छठी से ग्यारहवीं शती) आगरा, १६७८, प्रकाशित प्रका. - आ. ज्ञा. केन्द्र, ब्यावर (राज.) प्रथमः १६६५/७५.०० प्रमुख जैन पुराणों में प्रतिपादित राजनीतिः एक समीक्षात्मक अध्ययन । इन्दौर; २००२, अप्रकाशित नि० - सुश्री डॉ. उषा तिवारी |
"महाकवि ज्ञानसागर के साहित्य में पर्यावरण संरक्षण" बरेली, २००० अप्रकाशित नि. - डॉ. रमेशचंद जैन, बिजनौर ।
"सामिष और निरामिष आहार का बच्चों के संवेगात्मक विकास पर प्रभाव" सागर, १९९६, प्रकाशित 'सवेग और आहार' नाम से प्रकाशित ।
"सागर नगर के छात्र-छात्राओं पर शाकाहारी एवं मांसाहारी भोजन का प्रभाव" प्र. सागर, २००१, अप्रकाशित नि० - डॉ. अनुराधा पाण्डे, सागर (म. प्र. ) "शाकाहार का आर्थिक जीवन" सागर; २०००, अप्रकाशित नि०. - डॉ. जे. डी. सिंह
"बालक बालिकाओं के विकास में शाकाहार की भूमिका" सागर ...अप्रकाशित नि. - डॉ. श्रीमती कामायनी भट्ट ।
Page #718
--------------------------------------------------------------------------
________________
696
मानवमूल्य
१६६.
जैन, नीलम
| आयुर्वेद / चिकित्सा
१७०. Jain Rekha
जैन राजनीति
१७१.
जैन, सन्ध्या श्रीमती
१७२. जैन, सुधा श्रीमती
१७३. जैन डागा, तारा श्रीमती
जैन इतिहास, संस्कति कला
एवं पुरातत्त्व
१७४.
१७५.
जैन, उषा श्रीमती
जैन, एकता
१७६. जैन, कमला (गर्ग)
१७७. जैन कोकिला सेठी
जैन राजनीति
| १७८. जैन, नीता (कु०)
१७६. जैन नीता
१८०. जैन मीरा
श्राविकाओं के उपरोक्त संदर्भ:
"जिनेन्द्र वर्णी के साहित्य में निहित मानवीय मूल्यों का विवेचनात्मक अध्ययन सागर, २००२, अप्रकाशित । नि. - डॉ. रमेश दत्त मिश्र, सेवानिवत्त प्राचार्य |
Contribution of Jainism to ayurveda, published
शोध कार्यों में श्राविकाओं का योगदान (प्राकृत भाषा एवं साहित्य
" जैन गहस्थ चर्या " |
सागर, १६६५ अप्रकाशित ।
"जैन श्रावकाचार " : एक अध्ययन ( जैन गहस्थ की आचार संहिता) सागर १६८८ अप्रकाशित ।
नि०
डॉ० भागचन्द जैन भागेन्द्र दमोह (म. प्र. )
"भगवती सूत्र में प्रतिपादित धर्म-दर्शन का समीक्षात्मक अध्ययन" ।
-
लाडनू २००३ अप्रकाशित ।
नि० डॉ० के० सी० सौगानी ।
मध्य प्रदेश के अभिलेखों का सांस्कतिक अध्ययन ।
जबलपुर, १९८२ अप्रकाशित ।
भारतीय इतिहास में प्रमुख जैन आचार्यों का योगदान । सागर २००० अप्रकाशित ।
नि० डॉ० के० एल० साहू नरसिंहपुर (म०प्र०)
"यशोधरा चरित्र की सचित्र पांडुलिपियों का अध्ययन ।"
मेरठ - १६७७ प्रकाशित । नि० डॉ० शिवकुमार शर्मा, मेरठ कॉलिज, मेरठ
प्रका० भा० ज्ञा० नई दिल्ली। प्रथम १६६१ ७५.००
"तीर्थंकर आदिनाथ और उनका मानवीय संस्कति के उन्नयन में योगदान " राजस्थान | १६८१ अप्रकाशित । नि० डॉ० पी० सी० जैन
" मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति पर जैन सन्तों का प्रभाव" । ग्वालियर प्रकाशित ।
प्रका० श्री काशीनाथ सराक, श्री विजय धर्माशी समाधि मंदिर शिवपुरी ( म०प्र०) प्रथम १९६१ / ३५०००
"प्राचीन उत्तर भारत में जैन साध्वियों (आर्थकाओं) का योगदान " । आगरा, १६६१ अप्रकाशित ।
" ग्वालियर की जैन चित्रकला" ग्वालियर १९६३ अप्रकाशित । नि० डॉ वी०के० सिन्हा ( ग्वालियर)
प्राकत एवं जैन विद्याः शोध संदर्भ, डॉ. कपूरचन्द जैन त. सं. २००४. श्री कैलाशचंद जैन स्मति न्यास, खतौली (उ. प्र.) २५१२०१
Page #719
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
संदर्भ ग्रन्थ सूची (अध्याय ७) १ श्री शांतिलाल छाजेड़, जैन प्रकाश अंक ७ जुलाई १६६२ अंतिम कवर पष्ठ में श्राविकाओं का अवदान । २ श्री मांगीलाल भूतोड़िया (इतिहास की अमरबेल ओसवाल से साभार) ३ गहलक्ष्मी जुलाई ११ प. स. ८८
साभार : रविन्द्र जैन मालेरकोटला।
वही।
साभार : रविंद्र जैन मालेरकोटला। संपादक सुरेन्द्र कुमारजैन, मोक्षगामी. जनवरी २००५ अंक १ प. २२.२३
साभार : रवींद्र जैन. मालेरकोटला। ६ इतिहास की अमरबेल ओसवाल।
इतिहास की अमरबेल ओसवाल। ११ इतिहास की अमरबेल ओसवाल। १२ साभार : रविंद्र जैन. मालेरकोटला।
संपादक : नीतीन देसाई, अमत समीपे। १४ संपर्क से उपलब्ध। १५ साभार : दीपक पारख (म. प्र.)
पत्राचार द्वारा उपलब्ध।
संपर्क से प्राप्त। १८ श्रीमती सुमन जैन ऋषभ देशना मार्च २००१ प. २ १६ श्रीमती सुमन जैन ऋषभ देशना मार्च २००१ वही प. १६ २० संपर्क से प्राप्त। २१ संपर्क से प्राप्त २२ अजितराज जी सुराणा. जैन प्रकाश, मार्च १६८६ प. ६.१० २३ प्रो. रतन जैन. महावीर मिशन-अप्रैल-मई २००३ २४ अजित राज सुराणा. जैन प्रकाश, जनवरी १९८६
__ हुकमचंद जैन, निर्भय आलोक. जून-जुलाई २००१ २६ सं. पंडित जैन कष्णचंद्राचार्य श्रमण जुलाई १६६०
__ संपर्क से प्राप्त। २८ संपर्क से प्राप्त।
साभार रवीन्द्र जैन - मालेरकोटला। (१. २) साभार : रवीन्द्र जैन - मालेरकोटला।
जैन प्रकाश से साभार। ३२ जैन प्रकाश से साभारं।
आत्मपथ, लुधियाना सं. एकता जैन। ३४ जैन प्रकाश से साभार। ३५ वही।
Page #720
--------------------------------------------------------------------------
________________
698
शोध कार्यों में श्राविकाओं का योगदान (प्राकृत भाषा एवं साहित्य)
३६ श्रीमती सुषमा जैन - जम्मू। ३७ ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ से साभार। ३८ वही।
संपर्क से प्राप्त। ४० वही। ४१ संपर्क से प्राप्त। ४२ श्रीमती पद्मा जैन दिल्ली। ४३ वही। ४४ डॉ. सुरेशचन्द्र जैन, जैन प्रचारक, अगस्त २००१ प. १५.१६ ४५ प्रो० डॉ० राजाराम जैन, प्राकत विद्या जुलाई-सितम्बर सन् २०० प० ४७.४६ ४६ श्री मांगीलाल भूतोड़िया इतिहास की अमरवेल ओसवाल प्रथम खंड प. ३६८३६
श्री सुभाष ओसवाल जैन प्रकाश मार्च २००४ प० ४७.४८ ४८ श्रीमान् अजितराज जी सुराणा जैन प्रकाश फरवरी १६८३ प० ३१.३२ ४६ आत्म-रश्मि महिला मंगल विशेषांक १६७६ जनवरी प.५ ५० भारतीय जैन संघटना से प्राप्त ।
पत्राचार से प्राप्त। ५२ संपर्क से प्राप्त। ५३ वही।
संपर्क से प्राप्त।
वही। पत्राचार से प्राप्त। पत्राचार से प्राप्त। ओसवाल जाति का इतिहास।
वही।
६० ६१
ओसवाल जाति का इतिहास । पं. के. भुजबल शास्त्री जैन साहित्य का बहद् इतिहास भाग प. २४१ वर्ष १६८१ ओसवाल जाति का इतिहास। जैन प्रकाश से साभार। वही। आत्मपथ से साभार। वही। आत्मपथ से साभार। वही। वही। जैन प्रकाश। वही।
६८ ६६
७१
Page #721
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
७२.७७ वही ।
७८
सवतंत्रता संग्राम में जैन, प्रथम खण्ड ।
७६
आत्मपथ से साभार ।
το
वही ।
८१. ८२ वही ।
८३
८४
८५
८६
८.७
८८
जैन प्रकाश ।
स्वतन्त्रता संग्राम में जैन, प्रथम खण्ड ।
आत्मपथ से साभार ।
वही ।
जैन प्रकाश ।
वही ।
स्वतंत्रता संग्राम में जैन, प्रथम खण्ड ।
εξ
६०. ६१ वही ।
६२
वही ।
६३.६५ श्रीमती पद्मा जैन दिल्ली ।
६६.६८ संपर्क से प्राप्त |
६६.१२१ ओसवाल नारीरत्न ।
१२२ संपर्क से प्राप्त ।
१२३ वीतराग विज्ञान शिरीष मुनि प० ६२
१२४ बहिन श्री के वचनामत प० ३.७
७.१३१ पत्राचार से प्राप्त ।
१२५ श्रीमान् पारसमलजी गोलेछा।
१२६ श्रीमती आरती समदड़िया बैंगलोर । १२७ वही ।
१२८ श्रीमान् रविन्द्र कोठारी पुणे ।
१२६ श्रीमान् कान्ति लाल जी जैन बैंगलोर ।
१३० श्रीमान् सुभाष बाफना के० जी० एफ०
१३१ श्रीमान् रविन्द्र कोठारी पुणे ।
१३२ संपर्क से प्राप्त ।
१३३ गीता जैन संगरूर ।
१३४ इंडिया टुडे १४ फरवरी २००१
१३५ संपर्क से प्राप्त ।
१३६ विदुता जैन अमतसर ।
१३७ संपर्क से प्राप्त ।
१३८ श्रीमान् फूलचंद जी मेहता उदयपुर ।
१३६
वही ।
699
Page #722
--------------------------------------------------------------------------
________________
700
श्रीमती मीरा नाहर, बैंगलोर ।
श्रीमान मांगीलाल भूतोड़िया, इतिहास की अमरबेल ओसवाल ।
१४०
१४१
१४२ श्रीमान् प्रफुल्ल जी जैन, दुर्ग ।
१४३
कर्मवीर कैलाश मार्च २००४ प. २६
१४४
पत्राचार से प्राप्त ।
१४५ संपर्क से प्राप्त ।
१४६
वही ।
१४७
तीर्थ यात्रा २००३ प० १२.३६
१४८
जैन प्रकाश ।
१४६ संपर्क से प्राप्त ।
१५० संपर्क से प्राप्त ।
१५१ वही ।
१५२ जैन प्रकाश मार्च २००४
१५३ संपर्क से प्राप्त |
१५४ जैन प्रकाश फरवरी २००४ १५५ वही ।
१५६ विनोद 'कुमार जैन जम्मू ।
१५७ श्रीमान मांगीलाल भूतोड़िया इतिहास की अमरबेल ।
१५८ - १६२ संपर्क से प्राप्त ।
१६८. वेदप्रकाशजी जैन ।
१६६. बी. ए. कैलाशचंद जैन ।
१७०-१७१. सं० राजकुमार एवं रोशनी जैन जैन समाचार. पू. २५, २४ अगस्त २००६ ।
१७२. संपर्क से प्राप्त ।
चार्ट प्रथम १-५२ चार्ट द्वितीय १-४२ चार्ट ततीय १-१५०
1
श्रमणोपासक से साभार ।
मांगीलाल भूतोड़िया – इतिहास की अमरबेल ।
-
प्राकृत भाषा एवं साहित्य से साभार ।
शोध कार्यों में श्राविकाओं का योगदान (प्राकृत भाषा एवं साहित्य)
Page #723
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
२००० अष्टम अध्याय
उपसंहार
701
जैन संस्कृति की मुख्य विशेषता उसकी चतुर्विध संघ व्यवस्था है। चतुर्विध संघ में श्रमण-श्रमणी श्रमणोपासक - श्रमणोपासिकाओं का समावेश है। श्रमणोपासिका संघ चतुर्विध संघ की नींव है। श्राविका संघ का इतिहास अतीतकाल से लेकर आज तक निरंतर प्रवाहमान है तथापि श्राविकाओं के इतिहास से संबंधित प्रामाणिक स्त्रोतों का अभाव, अपर्याप्त सीमित सामग्री, श्राविका संघ संबंधी क्रमिक विकास यात्रा की अनुपलब्धि के होते हुए उनके संपूर्ण योगदानों को संग्रहित करना दुःसाध्य कार्य है। जैन परंपरा में लाखों करोंड़ों की संख्या में श्राविकाएँ हुई हैं अधिकांश का नामों निशां ही मिट गया है, कुछ का उल्लेख मात्र रह गया है, फिर भी कतिपय श्राविकाओं के अमूल्य योगदान स्वर्ण अक्षरों में लिखे जाने योग्य हैं जो वर्तमान में भी प्रकाशित हो रहे हैं। यत्र-तत्र बिखरी हुई श्राविकाओं के जीवन एवं कतित्व संबंधी सूचनाओं को एवं उनके सांस्कतिक, धार्मिक एवं सामाजिक अवदानों को आबद्ध करने का प्रयत्न प्रस्तुत शोध प्रबंध का विषय रहा है।
తోడు
1
जैन वाङ्मय में आध्यात्मिक दृष्टि से नारी का उल्लेख हुआ है। आगम ग्रंथों में साधना की दृष्टि से नर और नारी दोनों को ही समान स्थान प्राप्त है। तीर्थंकर संघ में श्राविकाओं की संख्या श्रावकों की अपेक्षा सदैव दुगुनी ही रही है। श्राविका संघ के आचार, व्यवहार में तथा एक सामान्य गहस्थ नारी के आचार, व्यवहार में बड़ा अंतर होता है । श्राविका के बारह व्रत होते है, वह नित्य ही धर्माचरण करती है तथा दान, शील, तप, भाव की आराधना से जीवन को सुसज्जित करती है। श्राविका संबंधी आचार-व्यवहार का विवरण प्रथम अध्याय में समेटा गया है। नारी जाति का विभिन्न क्षेत्रों में अवदान एवं नारी जाति के इतिहास की आधारभूत सामग्री द्वारा श्राविकाओं के अवदान की चर्चा की गई है। इसमें साहित्यिक एवं अभिलेखीय स्त्रोतों का आधार ग्रहण करते हुए प्रागैतिहासिक काल से लेकर वर्तमान युग तक की श्राविकाओं द्वारा जैन संघ को दिये गये योगदानों की चर्चा का एक प्रयत्न अवश्य किया है। कितनी ही हस्तलिखित प्रतियाँ ग्रंथ भंडारों की पेटियों में बंद पड़ी है, जब ये सूचियों के रूप में संपूर्ण विवरण सहित प्रकाशित होगी, तब न जाने सैंकड़ों अन्य श्राविकाओं के योगदान प्रकट हो सकेंगे जो हमारे अतीत के इतिहास की अमूल्य धरोहर बन सकेगी। शोध कार्य करते हुए मुझे एक आत्मिक आनंद की अनुभूति हुई कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में उसमें भी विशेष रूप से जैन धर्म के क्षेत्र में नारी जाति को न्याय दिलाने का एक प्रयत्न मैंने अवश्य किया है। जबकि साधु और श्रावक की अपेक्षा श्राविकाओं की संख्या अत्यल्प ही उपलब्ध है। 1
जैन स्थापत्य एवं कला भारत की सांस्कृतिक निधि का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनसे संस्कृति के प्रामाणिक इतिहास के पदचिन्ह प्राप्त होते हैं। इस खण्ड में ई.पू. की तीसरी शती से ई.सन् की बीसवीं शती के लगभग ७८ चित्रों में जैन श्राविकाओं के जैन संघ में दिये गये अवदानों का चित्रांकन है। इनमें सर्वप्राचीन चित्र ओसिया तीर्थ के प्राचीन जैन मंदिर का है। इनमें जैनाचार्य उपदेश दे रहे हैं एवं श्राविकाएँ सामने बैठी उपदेश श्रवण कर रही हैं। यह संभवतः तेइस सौ तिरानबे वर्ष पुरानी प्रतिमा का चित्र है। ई.पू. की द्वितीय शती में मथुरा के कंकाली टीले में चतुर्विध संघ प्रस्तरांकन में, जिन मूर्ति की चरण चौकियों पर, मथुरा के स्तंभों पर श्राविकाओं के चित्र हैं तथा श्राविकाओं द्वारा निर्मित जिन पूजा के लिए बने आयागपट्ट एवं श्रमण कृष्णर्षि की सेवा में भक्तिमती श्राविकाओं के चित्र तथा स्तंभों पर भी श्राविकाओं के प्राचीन चित्र उपलब्ध होते हैं। राजा खारवेल की रानी सिंधुला देवी द्वारा निर्मित
Page #724
--------------------------------------------------------------------------
________________
702
उपसंहार
उदयगिरि एवं खण्डगिरि की गुफाओं की भितियों पर श्राविकाओं के चित्र दष्टिगत होते है। ई.पू.की द्वितीय-ततीय शती में राजा संप्रति के पारिवारिक चित्र में उनकी माता कंचनमाला तथा पत्नी के चित्र हैं जो धर्मानुयायिनी सुश्राविकाएँ थी। इसके अतिरिक्त ई.पू.की चतुर्थ शती की श्राविका कोशा का चित्र है जो जैन चित्र कल्पद्रुम से प्राप्त है। इसी प्रकार १०वीं शती की दक्षिण भारत की श्राविका गुलिकायज्जि का चित्र भी दष्टव्य है। बारहवीं शताब्दी के काष्ठपट्टिकाओं पर चित्रित श्राविकाओं के एवं उपदेश श्रवण करती हुई श्राविकाओं के सुंदर चित्र है। पंद्रहवीं से बीसवीं शताब्दी तक के चित्र क्रमशः इसमें उपलब्ध होते हैं, तो नौवीं से ग्यारहवीं शती के देवगढ़ से प्राप्त विविध प्रकार की भाव-भंगिमाओं में भक्तिमग्न श्राविकाओं के सुंदर मनोहर चित्र भी है, मुगल शैली के दुर्लभ चित्र भी है। इस प्रकार यह दुर्लभ चित्रखण्ड विभाग श्राविकाओं के अवदानों के पदचिन्हों को इतिहास के परिप्रेक्ष्य में प्रकट कर रहे हैं।
शोध प्रबंध के द्वितीय अध्याय में प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाओं के अवदान की चर्चा की गई है। इस अध्याय में प्रथम बाईस तीर्थंकरों की जन्मदात्री माताएँ, उनकी पत्नियाँ, व पुत्रियों का वर्णन साथ ही चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव कुलकरों आदि की पारिवारिक श्राविकाओं के योगदानों का भी विवरण प्राप्त होता है। इस अध्याय में तीर्थंकर के शासनकाल में हुई श्राविकाओं की संख्या तालिका द्वारा प्रस्तुत की गई है। इस युग में श्राविका वर्ग का अवदान तीर्थंकर की माता के रूप में सर्वाधिक गौरवपूर्ण कहा जा सकता है। प्रस्तुत अवसर्पिणी काल में मोक्ष में सर्वप्रथम जाने का कीर्तिमान स्थापित करने वाली आद्य तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की जन्मदात्री मरूदेवी ने विश्ववंदनीयता का वरण किया था। ऋषभदेव की पुत्री सुंदरी ने वर्तमान अवसर्पिणीकाल की प्रथम अणुव्रतधारिणी श्राविका बनकर सुदीर्घ तपोमार्ग का सूत्रपात किया। मल्लिकुंवरी ने गहस्थावस्था में ही पूर्वभव के छ: मित्रों को प्रतिबोध दिया तथा चोखा परिव्राजिका को सत्य धर्म का बोध दिया। महासती सीता ने सतीत्व की सुरक्षा हेतु भयंकर कष्टों का सामना किया। राजीमती ने रथनेमि को वासना के दुष्चक्र से मुक्त करके त्याग मार्ग का पथिक बनाया। मंदोदरी बारंबार रावण को नीति पथ अपनाने की आदर्श प्रेरणा देती रही। दमयंती, गांधारी, मदनरेखा, मैनासुंदरी आदि कुल मिलाकर ३२८ सुश्राविकाओं के प्रेरक जीवन चरित इस अध्याय में गुंफित हैं। यद्यपि इस काल में अभिलेखीय आधार उपलब्ध नहीं होते, तथापि साहित्यिक स्त्रोतों और अनुश्रुतियों द्वारा ही श्राविकाओं के विवरण उपलब्ध होते है। इस अध्याय का मूल आधार जैन कथा साहित्य रहा है। चाहे ऐतिहासिक दष्टि से इस पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाए, किंत संघीय आस्था और विश्वास के लिए यह तथ्यात्मक आधार के रूप में स्वीकार किया गया है। ____ शोध प्रबंध का ततीय अध्याय ई.पू. आठवीं शताब्दी से ई.पू. की छठी शताब्दी पर्यंत है। इसमें भ० पार्श्वनाथ और भ० महावीर की संघ व्यवस्था में श्राविका वर्ग के महत्वपूर्ण अवदानों की चर्चा की गई है। इस काल में भी हमे साहित्यिक स्त्रोतों और अनुश्रुतियों पर ही आधारित रहना पड़ा क्योंकि अभिलेखीय आधार प्राप्त नहीं होते। किंतु इतना अवश्य है कि इन अनुश्रुतियों को पूर्णतः अवैज्ञानिक कहकर नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि इनमें उल्लेखित अनेक नाम ऐतिहासिक आधारों पर भी प्रामाणिक माने गए हैं। जैन परंपरा में प्रभावती और यशोदा दोनों की त्यागवृत्ति को समान रूप से स्वीकार किया है भले ही विवाह संबंधी दोनों परंपराओं में अंतर्विरोध है। इसी प्रकार अर्धमागधी आगम साहित्य में वर्णित जयंति का अदभूत साहस प्रशंसनीय है, जिसने भरी धर्म सभा में भगवान् महावीर से प्रश्नोत्तर किया और समस्त सभा को तात्विक ज्ञान से परिचित करवाया। भगवान् पार्श्वकाल की अनेक साध्वियों का उल्लेख है, जो चारित्रिक दष्टि से च्युत होकर भी समाज पर अपना प्रभाव रखती थी। श्वेतांबर परंपरा के कल्पसूत्र की टीकाओं में यहाँ तक वर्णन है कि महावीर को आरक्षकों ने पकड़ लिया तब इन्होंने ही महावीर को मुक्त करवाया था। दोनों तीर्थंकरों की माताओं के अवदान को भी भुलाया नहीं जा सकता। महावीर के माँ की ममता और वात्सल्य की परिधि इतनी विशाल थी, जिसके प्रभाव से महावीर को भी उसने अपनी जीवित अवस्था तक गहस्थ जीवन में ही रोके रखा। चंदना चाहे कालांतर में महावीर की शिष्या बनी किंतु उसका दढ़ मनोबल और मूला द्वारा प्रदत्त घोर यातनाओं में भी सहनशील बने रहना अपने आप में उसकी आत्मिक ऊँचाई की प्रतीक है। सुभद्रा ने अपने सतीत्व के प्रभाव से चंपा के द्वार उद्घाटित कर दिए। सती चंदना स्वयं भगवान् महावीर द्वारा शील हेतु अनुशंसित हुई। इक्ष्वाकुवंशीय महाराजा चेटक की रानी सुभद्रा, चंद्रवंशीय महाराजा शतानीक की धर्मपत्नी मगावती, उदयन महाराजा की पत्नी प्रभावती, महाराज दधिवाहन की पत्नी धारिणी आदि महारानियों की प्रेरणा से राजागण
Page #725
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
धर्माभिमुख थे। इस प्रकार प्रस्तुत अध्याय में नारी का स्तर वद्धिंगत हुआ। वह क्रय-विक्रय की वस्तु न रहकर अपने स्वतंत्र अस्तित्व हेतु संघर्षरत थी। इस प्रकार नारी जागरण को एक अंगड़ाई लेते हुए देखा जा सकता है। प्रस्तुत ततीय अध्याय १६३ श्राविकाओं के तपः पूत व्यक्तित्व से सुशोभित है।
703
प्रस्तुत शोध प्रबंध का चतुर्थ अध्याय ई.पू. की तीसरी शती से ई. सन् की सातवी शताब्दी तक का वर्णन प्रस्तुत करता | इस काल की विशेषता यह है कि इसमें श्राविकाओं के अवदान संबंधी उल्लेखों के लिए अभिलेखीय एवं पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध होते हैं। इनमे सर्व प्राचीन है राजा खारवेल और मथुरा के अभिलेखीय पुरातात्विक साक्ष्य । इस अध्याय में तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के पश्चात् की जैन धर्म की स्थिति प्रदर्शित की गई है। तीर्थंकर महावीर का धर्म उत्तर एवं दक्षिण भारत के सुदूर अंचलों में फैला हुआ था । उड्रदेश के राजा यम ने सुधर्मा स्वामी से दीक्षा अंगीकार की तब उसकी पत्नी धनवती ने श्राविका के व्रतों को ग्रहण किया था। धनवती जैन धर्म की परम प्रचारिका एवं दढ़ श्रद्धालु थी। उसके धर्म प्रभाव से उसका परिवार ही नहीं अपितु उड्रदेश की समस्त प्रजा ही जैन धर्मानुयायिनी हो गई थी। नंदवंश के महामंत्री शकड़ाल की धर्मपत्नी लांछनदेवी जैन धर्मानुयायिनी थी, उसने स्थूलभद्र जैसे पुत्र तथा यक्षा आदि सात पुत्रियों को जन्म देकर जैन संघ की प्रभावना में अपूर्व सहयोग प्रदान किया है। ई.पू. की द्वितीयशती में चेदिवंश के सम्राट एल खारवेल की माता ऐरादेवी और पत्नी सिंधुला देवी परम जैन धर्म परायणा सुश्राविकाएँ थीं। उन्होंने राजा को बहत् मुनि सम्मेलन आयोजित करने के लिए प्रेरित किया। मुनियों की सेवा-शुश्रूषा की | सिंधुला देवी ने उदयगिरि एवं खण्डगिरि की गुफाओं का निर्माण भी किया। इस काल में अनेक गणिकाओं ने भी जैन धर्म का पालन किया था, जिनमें कोशा प्रमुख रूप से उभर कर आई है। उसने मुनि स्थूलभद्र का चातुर्मास अपने घर पर कराया। स्वयं बारह व्रतधारिणी श्राविका बन गई थी । यह तथ्य प्रमाणित करता है कि जैन संघ में पूर्व चरित्र की अपेक्षा वर्तमान जीवन की मनःस्थिति पर अधिक जोर दिया जाता था तथा स्थूलभद्र का कोशा के घर चातुर्मास करना इस तथ्य को प्रकाशित करता है कि जैनसंत नारी जाति के उत्थान के लिए तत्पर बन चुका था । कोशा एवं स्थूलभद्र की सात बहनों का कथानक इस बात को स्पष्ट करता है। मथुरा अभिलेखों से ज्ञात होता है कि अमोहिनी, लोणशोभिका, शिवामित्रा, धर्मघोषा, कसुय की धर्मपत्नि स्थिरा, जया, जितामित्रा, वसुला आदि ने जैन धर्म के उत्थान के लिए मंदिर निर्माण, मूर्ति प्रतिष्ठा, आयागपट निर्माण आदि कार्य संपन्न किये। उस युग में धर्माराधना का सबसे बड़ा साधन मंदिरों एवं मूर्तियों का निर्माण, उनकी प्रतिष्ठा करना ही माना जाता था । मथुरा के एक संस्कृत अभिलेख ओखरिका और उज्झतिका द्वारा वर्धमान स्वामी की प्रतिमा प्रतिष्ठित किये जाने एवं जिन मंदिर के निर्माण किये जाने का उल्लेख आया है। ई.पूर्व की तीसरी चौथी शताब्दी से लेकर ई.सन् की छठी शताब्दी के इतिहास में गंगवंश की रानियों ने भी जैन धर्म की उन्नति के लिए अनेक उपाय किये। ये रानियाँ मंदिरों की व्यवस्था करती, नये मंदिर और तालाब बनवाती एवं धर्म कार्यों के लिए दान की व्यवस्था करती थी। उस राज्य के मूल संस्थापक दडिग और उनकी भार्या कम्पिला ने अनेक जैन मंदिर बनवाए थे तथा मंदिरों की पूर्ण व्यवस्था की थी । श्रवणबेलगोला के शक संवत् ६२२ के अभिलेखों में नागमती, धण्णकुतारे, बिगुरवि, नमिलूर संघ की प्रभावती, दनितावती एवं व्रतशीलादि संपन्न शशीमति गोति के समाधिमरण का उल्लेख मिलता है। इन सन्नारियों ने श्राविका व्रतों का पालन किया था। ई.पू. की दूसरी तीसरी शती में सम्राट् अशोक के पौत्र सम्प्रति की माता एवं पत्नी दोनों ही जैन श्राविका थीं। उन्हीं के प्रभाव एवं संस्कारों से संप्रति ने जैन धर्म की उन्नति हेतु सैंकड़ों ऐतिहासिक कार्य किए। सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य की धर्मपत्नि सुप्रभा एवं माता मुरा दोनों जैन धर्मानुयायिनी एवं विशिष्ट गुणवती थी । अशोक की अन्य पत्नी असंध्यमित्रा भी जैन थी, उसका पुत्र कुणाल भी जैन धर्मोपासक था। इस प्रकार चतुर्थ अध्याय के महावीरोत्तर काल में उत्तर एवं दक्षिण भारत की १३० गुरुभक्त श्राविकाओं में ईश्वरी देवी, चाणक्य की माता चणकेश्वरी, वासुकी श्रीमती, कंचनमाला, कण्णकी, रानी उर्विला, श्रीदेवी, पूर्णमित्रा, भद्रा, अन्निका, कुबेरसेना, पुष्पचूला, सुनंदा, रूद्रसोमा, देवदत्ता, धारिणी, प्रतिमा, सुरसुंदरी प्रभति अनेक सन्नारियों ने श्राविका व्रतों का पालन किया तथा जैन धर्म की प्रभावना में अपना संपूर्ण सहयोग दिया। इन सबका विशेष विवरण प्रस्तुत अध्याय में किया गया है।
शोध प्रबंध का पांचवां अध्याय ई. सन् की आठवीं से ई.सन् की पंद्रहवीं शताब्दी तक की श्राविकाओं के योगदान की चर्चा से सम्पन्न होता है। इस काल में विशेष रूप से यवनों के आक्रमण के फलस्वरूप जहाँ एक ओर हमारी पुरा संपदा की भारी क्षति
Page #726
--------------------------------------------------------------------------
________________
704
हुई, उसी बीच जैन श्राविकाओं द्वारा उनके संरक्षण एवं पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण सहयोग रहा। यह काल आचार्य हरिभद्रसूरि से प्रारंभ होकर अकबर प्रतिबोधक आचार्य हीरविजयसूरि आदि जैनाचार्यों का काल रहा है। यह जैनियों की प्रतिष्ठा का पुनर्जर्जनकाल रहा है । इस काल की विशेषता यह रही कि इसमें धनी निर्धन सभी प्रकार की श्राविकाओं ने शास्त्र ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ स्वद्रव्य व्यय करके बनवाई | मंदिर निर्माण, मूर्ति प्रतिष्ठा, आदि मे जैन श्राविकाओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। इस काल में यह सत्य है कि कलापूर्ण अनेक जिन मन्दिर ध्वस्त हुए किंतु उसी काल में ओसिया, कुंभारिया, आबू, शत्रुंजय, राणकपुर के कलापूर्ण जिनमंदिरों का निर्माण हुआ। इसके पीछे तेजपाल की पत्नी अनुपमादेवी का, विमलशाह की पत्नी श्रीमती का, सांगण की पत्नी कर्पूरदे का महत्वपूर्ण सहयोग एवं प्रेरणा रही है। इस काल में उत्तर भारत में मांडवगढ़ के सेठ अमरशाह की पुत्री तथा जगडूशाह की पत्नी यशोमती आदि बारहवीं शताब्दी की दानवीर व्रतधारिणी श्राविकाएँ हुई है। इसी प्रकार इसी काल में पाहिनी देवी, भट्टी आदि सुश्राविकाओं ने महान् साहित्य के रचयिता आचार्य हेमचंद्र एवं महान् जैनाचार्य बप्पभट्टी जैसे तेजस्वी पुत्रों को शासन हेतु समर्पित किया एवं जैन धर्म की प्रभावना में महत्वपूर्ण सहयोग दिया। दक्षिण भारत में भी इस काल की श्राविकाओं का जैन संघ को जो अवदान रहा है वह अविस्मरणीय है । चामुण्डराय की माता काललदेवी ने अपने पुत्र को प्रेरित करके श्रवणबेलगोला जैसे भव्य कलाकेंद्र को विकसित किया था । श्रवणबेलगोला के निर्माण में जहाँ एक ओर काललदेवी की यह समुज्जवल यश गाथा फैल रही है, वही दूसरी ओर हम उस गुलिकायज्जी नामक श्राविका को भी विस्मत नही कर सकते, जिसकी छोटी कटोरी भर दूध ने गोम्मटेश्वर का महामस्तकाभिषेक सफल कर दिया था । उसकी भक्ति भावना की यश गाथा भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।
उपसंहार
उत्तर भारत के समान दक्षिण भारत में भी इस काल की श्राविकाओं के अवदान को विस्मत नहीं किया जा सकता । दक्षिण में भी अनेक मंदिरों के निर्माण और जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा में श्राविकाओं का महत्वपूर्ण अवदान रहा है। दक्षिण भारत के अनेक मठ और मंदिर उनके इस अवदान के प्रतीक रहे हैं। जिस प्रकार उतर भारत में इस युग का साहित्य लेखन एवं उसके प्रसार की प्रवति रही उसी प्रकार दक्षिण भारत में तमिल, कन्नड़ आदि भाषाओं में जैन साहित्य की रचना होती रही और उसके पीछे प्रेरक के रूप में ये श्राविकाएँ अपना कार्य करती रही । जैन संस्कृति के उन्नयन में मादेवी, अतिमब्बे, कुन्दाच्चि, शांतलादेवी आदि नामों के उल्लेख व इनके अवदानों को भुलाया नहीं जा सकता ।
इस युग में दक्षिण भारत में जैन साहित्यिक कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में जो कला का विकास हुआ है, इसके पीछे भी जैन श्राविकाओं का अवदान प्रमुख रहा है। अतिमब्बे ने अपने व्यय से पोन्नकृत शांतिपुराण की एक हजार प्रतियाँ और डेढ़ हजार सोने एवं जवाहरात की मूर्तियाँ बनवाई थी, धर्म प्रभाविका के रूप में अतिमब्बे का अद्वितीय स्थान है। विष्णुवर्द्धन की रानी शांतलदेवी ने सवतिगंधवारण बस्ति नामक जिनमंदिर, उसकी सुव्यवस्था के लिए एक ग्राम बनवाया तथा तालाब का भी निर्माण करवाया था। परमगुल की रानी कुन्दाच्चि ने जिनालय बनवाए तथा धर्मसेविका के रूप में प्रसिद्ध हुई। गंगवाड़ी के राजा भुजबलगंग की महादेवी भी जैनमत की संरक्षिका थी । इस अध्याय में २३०७ श्राविकाओं का उल्लेख हुआ है।
चाहे उत्तर भारत हो या दक्षिण भारत कला साहित्य और संस्कृति के विकास में जैन श्राविकाओं ने जो अपनी धर्मनिष्ठा का परिचय दिया है वह अविस्मरणीय है। इस युग में जहाँ उतर भारत में चैत्यवास और दक्षिण भारत में मठवास परंपरा विकसित हुई उन चैत्यों और मठों के संरक्षण संवर्द्धन आदि के कार्य मुख्य रूप से श्राविका वर्ग के द्वारा ही संपन्न होते रहे हैं। जिस प्रकार मंदिर का शिखर दिखाई देता है किंतु नींव ओझल रहते हुए भी उसका आधार ही है। इस अध्याय में नींव सम जैन धर्म की संरक्षिका श्राविकाओं के अवदानों को यथासंभव शब्दचित्र द्वारा चित्रित करने का विनम्र प्रयत्न अवश्य ही हुआ है।
प्रस्तुत शोध प्रबंध के छठें अध्याय में हमने सोलहवीं शती से पूर्व आधुनिक काल पर्यंत की जैन श्राविकाओं के योगदान का वर्णन किया है। पूर्व आधुनिक काल से हमारा तात्पर्य वस्तुतः मुगलों के पतन और अनेक राजपूत राजाओं एवं अंग्रेजों के शासन-तंत्र की स्थापना के काल से है। विशेष रूप से इसमें ई. सन् १८५७ के गदर के पूर्व की जैन श्राविकाओं के अवदानों का उल्लेख करने का प्रयत्न किया है। मुगल राज्य की स्थापना के साथ ही भारतीय नारी जिसमें जैन नारी भी समाहित है अपनी अस्मिता को बनाये रखने में असफल हो गई। वह घर की चार दीवारी में कैद वासना की संतुष्टि का एक साधन मात्र बनकर रह चुकी थी। इस काल में रानी दुर्गावती और लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाओं ने आगे आकर नारी जागति का शंखनाद किया। इस काल को नारी जागरण
Page #727
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
का युग कहा जा सकता है। मुगल काल के सर्वश्रेष्ठ राजा अकबर को अपने तप के प्रभाव से प्रभावित करने वाली चम्पा श्राविका का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित करने योग्य है। अकबर के निग्रह में इस श्राविका ने एक माह का दीर्घ तप कर प्रमाणित किया कि उसका तप सच्चा है तथा छ: माह का विगतकालीन कृत तप भी सच्चा तप था और इसके प्रेरक आचार्य हीर विजयसूरि है! तब आचार्य के संपर्क में आकर अहिंसा के मार्ग पर अकबर चल पड़े उनमें इस प्रेरणा के पीछे सुश्राविका चंपा बाई का ही निमित्त था। तत्पश्चात् औरंगजेब के राज्यकाल में जैनियों को भारी क्षति उठानी पड़ी। जैन मंदिरों को मस्जिदों में परिवर्तित किया गया। उसका यह परिणाम सामने आया कि मध्ययुग में अमूर्ति पूजक संप्रदायों का विकास हुआ। फलतः इस काल में मंदिर और मूर्ति की अपेक्षाकृत साहित्य संरक्षण, साहित्य सर्जन और प्रसारण का कार्य महत्वपूर्ण बन गया। अनेक ग्रंथ-भंडारों की स्थापना इस काल में हुई। लोकाशाह ने अपनी धर्म क्रांति शास्त्रों का पुनर्लेखन करते हुए ही की थी। दिगंबर परंपरा में तारणपंथ, श्वेतांबर परंपरा में स्थानकवासी एवं तेरापंथ का विकास भी इसी कालक्रम में हुआ था। तारणपंथियों ने चैत्यालयों का निर्माण कर उसमें शास्त्र प्रतिष्ठित करना प्रारंभ कर दिया था, अतः श्राविकाओं का विशेष ध्यान भी साहित्य संरक्षण की ओर ही केंद्रित हुआ। आज हमें जैन ग्रंथों की जितनी पांडुलिपियाँ उपलब्ध होती है उनका लगभग सत्तर अस्सी प्रतिशत् भाग इसी काल का है। उनकी प्रशस्तियों में सर्वाधिक नाम श्राविकाओं के ही उपलब्ध होते है। अनेक श्राविकाओं के स्वपठनार्थ लिखे जाने वाले शास्त्रों के संदर्भ यह सचित करते हैं कि इस काल में श्राविकाओं में अध्ययन की एक विशेष रूचि जागत हो चुकी थी।
श्राविका नारू, वरसिणि, साई ने मुनिसुंदरसूरि के उपदेश से श्री ह.ि विक्रम चरित्र लिखा, श्राविका माजाटी एवं श्राविका सोनाइ ने सुवर्ण अक्षरों में नंदीसूत्र की प्रति लिखकर लावण्यशीलगणि को प्रदान की। सिरेकंवरबाई ने अध्यात्म रामायण भाषा, राजबाई ने दस ठाणा विचार, बाई चंपा ने सदर्शन सेठ रा कवित्त, श्राविका खीमाबाईने गरूणी सज्झाय आदि की प्रतिलिपियाँ निर्मित कराई थी। इसी प्रकार जिन श्राविकाओं के अध्ययन के लिए ग्रंथ की प्रतिलिापे करवाई उसके भी निर्देश इस काल में ही ग्रंथ प्रशस्तियों में मिलते हैं। जैसे श्राविका अभयकुँवर बाईपठनार्थ उपासकदशांग सत्र की पाण्डुलिपि, गुलालदे पठनार्थ शालीभद्र चौपाई, बाई हबाई पठनार्थ प्रज्ञापना सूत्र मूल पाठ, रूपबाई पठनार्थ श्रीपाल-रास (सचिन), जसोदा पठनार्थ श्रावकातिचार, अरघाई कुंयरि पठनार्थ जंबूचरित्र चौपाई आदि ग्रंथों की प्रतिलिपियों के प्रसार में इन श्राविकाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इससे यह स्पष्ट प्रतिफलित होता है कि इस युग में श्राविकाओं मे भी अध्ययन की रूचि का विकास हो रहा था। इस काल में कुछ भक्तिप्रवण श्राविकाएँ भी हुई हैं, जिनकी पावन प्रेरणा पाकर उनकी संतान त्याग पथ की पायेक बनी। उन श्राविकाओं में फूलाबाई का नाम उल्लेखनीय है जिसने अपने पुत्र को जैनागमों का ज्ञान करवाने के लिए बजरंग यति जी के पास में भेजा, जिसके प्रभाव से पुत्र ने करोड़ों की संपत्ति का त्याग किया और क्रियोद्धारक लवजीऋषिजी के रूप में वेख्यात हुए। माँ हुलसा ने पुत्र नेमिचंद्र को गुरू रत्नऋषिजी के पास धार्मिक अध्ययन हेतु भेजा, पुत्र आचार्य आनंद ऋषिजी के रूप में जगत् विख्यात हुए। श्राविका बालूजी ने अपने पुत्र को वैराग्य रंग से अनुरंजित किया फलस्वरूप पुत्र नथमल आचार्य महाप्राज्ञ के रूप में शासन प्रभावक आचार्य हुए। इससे यह स्पष्ट प्रतिफलित होता है कि इस युग में श्राविकाओं में अध्ययन की रूचि का विकास हो रहा था। भावना प्रधान होने के कारण श्राविकाएँ मुख्य रूप से भक्तिप्रवण होती थी, किंतु फिर भी इनमें ज्ञान रूचि का विकास इस तथ्य का संकेत देता है कि श्रद्धा के साथ उनमें विवेक का तत्व भी विकसित हो रहा था। इस अध्याय में ५३०० श्राविकाओं का उल्लेख हुआ है।
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के अंतिम सातवें अध्याय से हमने आधुनिक काल का उत्तरार्द्ध ग्रहण किया है। इस युग में ई.सन् १८५७ गदर के पश्चात से ई.सन की बीसवीं शताब्दी तक की जैन श्राविकाओं का वर्णन हैं जिनमें उत्तर एवं दक्षिण भारत की श्राविकाएँ है। उनके द्वारा राजनीति, शिक्षा, समाज, संस्कृति, धर्म, कला, कम्प्यूटर आदि विभिन्न क्षेत्रों में दिए गए योगदानों की चर्चा की गई है। यह काल देश में राष्ट्रीय चेतना के पुनर्जागरण का काल हैं। इस काल में ही भारतीय जनता ने अंग्रेजों से अहिंसक संघर्ष कर स्वतंत्रता प्राप्त की थी। क्योंकि इस काल के प्रत्यक्ष दष्टा हमें मिल जाते हैं, अतः उनके विभिन्न क्षेत्रों के योगदान भी दिखाई देते हैं। इस अध्याय में हमने प्रत्यक्ष संपर्क द्वारा, पत्र-पत्रिकाओं द्वारा श्राविकाओं के अवदानों को गूंथने का एक यथा संभव प्रयत्न किया है। इस काल में अनेक श्राविकाओं ने एम.ए., पी.एच.डी, डी.लिट् आदि परीक्षाएँ देकर एक महत्वपूर्ण विकास शिक्षा के क्षेत्र में किया है। इनमें डॉ. हीराबाई बोरदिया का नाम उल्लेखनीय है, इन्होंने जैन धर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएँ नामक शाधग्रंथ
Page #728
--------------------------------------------------------------------------
________________
706
1
लिखा । अनेक प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में उनके विशिष्ट लेख प्रकाशित होते रहे हैं। डॉ. सरयू डोशी ने प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति पर शोध कार्य किया एवं कला जगत् की अमूल्य धरोहर स्वरूप कलाकतियाँ प्रकट हुई। डॉ वीणा जैन ने अनुसूचित जाति की महिलाओं के संबंध में शोध कार्य ही नहीं किया अपितु उस जाति की महिलाओं, बच्चों एवं भाई-बहनों को कम शुल्क पर कम्प्यूटर प्रशिक्षण, शॉर्ट-हैण्डटाइप आदि विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण हेतु मादीपुर दिल्ली में प्रशिक्षण केंद्र भी खोला है। जैन श्राविका के रूप में जीवन जीने वाली विदेशी महिलाओं में जर्मन जैन श्राविका डॉ. चारलेट क्रॉस (Dr. Charlotte Krause) का नाम विशेष उल्लेखनीय है, जो भारत में जैनाचार्य के सम्पर्क से इतनी प्रभावित हुई कि उसने अपने जीवन में श्राविका के व्रतों को अंगीकार किया तथा अपना नाम भी सुभद्रादेवी रख दिया था। उन्होंने जैन विद्या से संबंधित अनेक विषयों पर शोधपूर्ण निबंध लिखे थे। इसी प्रकार फ्रांसीसी मूल की मेडम केइया जैन धर्म के प्रति इतनी आस्थावान् थी कि उसने अपना संपूर्ण जीवन जैन विद्या के अध्ययन और शोध में व्यतीत कर दिया। इसी प्रकार अंग्रेज युग की डॉ स्टीवेंसन ने 'दी आर्ट ऑफ जैनिज़म' ग्रंथ लिखकर विश्व को जैन धर्म से परिचित कराने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। शिक्षा के प्रचार प्रसार में आरा (बिहार) की ब्रह्मचारिणी चंदाबाई का नाम विशेष उल्लेखनीय है । इसी प्रकार सोलापुर की सुमतिबाई शाह का नाम भी अग्रगण्य है। इन्होंने जैन आश्रमों और विद्यालयों की स्थापनाकी एवं नारी जाति को शिक्षित कराने में विशेष रूचि रखी। इंदौर की कमला जीजी जैन एवं लुधियाना की देवकी देवी जैन ने जैन स्कूल में एक प्राचार्या के रूप में कार्य किया और जैन विद्यालयों के क्षेत्र में अपने विद्यालय का नाम सर्वोपरि रखा। समाज सेवा के क्षेत्र में मध्यप्रदेश की श्रीमती मदनकँवर पारख का नाम उल्लेखनीय है। गौशाला, गुरूकुल तथा धार्मिक पाठशाला आदि के संचालन में इनकी सेवाएँ अपरिमित है, सादगी और सेवा ही इनका सूत्र है। आचार्य रजनीश इन्हें अपनी धर्ममाता के रूप में सम्मानित करते थे । लुधियाना की श्रीमती जिनेंद्र जैन ने अनेक शिक्षण एवं सामाजिक संस्थाओं को दान द्वारा पोषित किया तथा उन संस्थाओं की संचालिका भी रही हैं। श्रीमती सुधारानी जैन, दिव्या जैन आदि के नाम विशेष रूप से दष्टव्य है। स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में भारतीय नारियाँ जहाँ कूद पड़ी, वहीं जैन श्राविकाओं ने भी शूरवीरता के साथ इसमें अपना सहयोग दिया। उनमें अंगूरी देवी, रमा जैन, चंदाबाई, मदुला बाई, नन्हीं बाई आदि के नाम उल्लेखनीय है। इन्होनें सत्याग्रह आंदोलन व नमक आंदोलन में भाग लिया तथा स्वदेशी प्रचार हेतु कई महिलाओं ने अपने बहुमूल्य विदेशी वस्त्रों को जला कर खद्दर एवं सूती वस्त्रों को जीवन में अपनाया । इसी प्रकार साहित्य लेखन, कला, धर्म, तप तथा विविध क्षेत्रों में श्राविकाओं के कतिपय अवदानों को निम्न रूप में रेखांकित करने का प्रयत्न किया है।
उपसंहार
नई दिल्ली की डॉ. सुनिता जैन लेखन प्रिय व्यक्तित्व की धनी है। अब तक उनकी साठ (६०) कतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। आप भारत सरकार द्वारा पद्मश्री अवार्ड से विभूषित तथा भारत रत्न एवं अन्य साहित्यिक सम्मान से सम्मानित की गई, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका से भी सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं। साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित विभिन्न सम्मेलनों में आप भाग ले चुकी है। राजस्थान फलौदी की डॉ. मिस कांति जैन को भारत एवं कनाड़ा में अनुसंधान कार्य करते समय अनेक प्रकार की शिक्षा-वत्तियाँ प्राप्त हुई। आप जनकल्याणकारी सेवाओं में आज भी संलग्न हैं। श्रीमती रमारानी जैन ने जैन धर्म के प्राचीन ग्रंथों का सैंकड़ों की संख्या में संपादन किया। आपने ज्ञानपीठ की स्थापना की। मैसूर विश्व - विद्यालय की "जैन विद्या और प्राकृत अध्ययन", अनुसंधान पीठ की स्थापना आपके द्वारा हुई । ज्ञानोदय मासिक पत्र का प्रकाशन भी करवाया। शिकोहाबाद निवासी चिरोंजाबाई ने अपना संपूर्ण जीवन शिक्षा एवं ज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए समर्पित किया था । आप अनेक कॉलेज, महाविद्यालय, गुरूकुल, पाठशालाएँ आदि शिक्षण संस्थाओं की संस्थापक रही है। मुर्शीदाबाद निवासी विदुषी रत्नकुँवर बीबी का नाम भी उल्लेखनीय है । आप संस्कृत की पंडित, फारसी जबान की ज्ञाता, युनानी तथा भारतीय चिकित्सा पद्धतियों की ज्ञाता थी। आपका भक्ति काव्य संग्रह "प्रेमरत्न" नामक ग्रंथ प्रसिद्धि प्राप्त ग्रंथ है। प्रो. डॉ. विद्यावती जैन विदुषी परंपरा में पाण्डुलिपियों का प्रामाणिक संपादन एवं अनुवाद करने वाली संभवतः सर्वाधिक अनुभवी एवं सुपरिचित हस्ताक्षर है। आपने महाकवि सिंह की अपभ्रंश भाषा में रचित प्रद्युम्नचरित्र का एवं महाकवि बूचराज के प्रसिद्ध मदनयुद्ध काव्य नामक कृति का सफल संपादन किया है।
महामहीम राष्ट्रपति अब्दुल कलाम द्वारा पुरस्कृत डॉ. सुधा कांकरिया ने साहित्य, आरोग्य, ग्राम विकास, शैक्षणिक, सांस्कृतिक आदि विभिन्न क्षेत्रों में योगदान दिया है। उनकी इस बहुमुखी प्रतिभा संपन्नता हेतु उन्हें निर्मल ग्राम योजना के अंतर्गत
Page #729
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हो चुका है। इसी प्रकार जोधपुर की सुश्री रीता नाहटा प्रथम महिला टैक्सी चालक बनी थी। वह कर्मठ एवं संघर्षशील व्यक्तित्व की धनी थी। सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में तथा कला के क्षेत्र में अनाथ बहनों को प्रशिक्षण देनेवाला यह विरल व्यक्तित्व है। जोधपुर की ही श्रीमती शशी मेहता प्रतिभाशाली छात्रा रह चुकी है। जितने वर्ष तक आपने विश्वविद्यालय की पढ़ाई की उतने वर्ष तक छात्रवत्ति पाती रही हैं। वाद-विवाद, लोकनत्य आदि प्रतियोगिताओं में भाग लेकर पुरस्कार पाती रही है। आप इंडियन एक्सप्रेस दिल्ली में संवाद दाता का कार्य करते हुए राष्ट्र एवं समाज की ज्वलंत समस्याओं पर निरन्तर लिखती रही है। चेन्नई की सोनिया रानी ने २२ वर्ष की छोटी उम्र में कप्तान बनकर इंडियन एअरलाइंस की उड़ान भरकर रिकार्ड स्थापित किया है।
सोनिया जैन (पदमपुर, राज.) ने तीन दिन में संस्कृत का भक्तामर स्तोत्र एवं एक दिन की अल्प अवधि में (प्रतिक्रमण) आवश्यक सूत्र कंठस्थ किया। प्रतिभा जैन (रायकोट, पंजाब) ने भी तीन दिन में संस्कृत का भक्तामर स्तोत्र कंठस्थ किया था। अन्य भी सैंकड़ों श्राविकाओं के नाम आते हैं जिन्होंने इस वर्तमान युग में विभिन्न आगमों पर, ग्रंथों एवं ज्वलंत समस्याओं पर शोध कार्य किया एवं साहित्य सर्जन कर साहित्यिक भंडार में श्री वद्धि की है।
मनोहरीदेवी बोथरा ने अड़तीस दिन का, भंवरीदेवी ने ३६ दिन का ऋषिबाई सेठिया ने इक्यासी दिन का, कोयला देवी बोथरा ने ५० दिनों का, सुंदरी देवी बोकाडिया ने २८ दिनों का संथारा ग्रहण किया। श्रीमती कलादेवी आंचलिया ने तो १२१ दिन की तपस्या संपन्न की जो अपने आप में एक रिकार्ड है, श्रीमती मनोहरी देवी ने अपने जीवन में तीस (३०) बार मासखमण तप अंगीकार किया। दिल्ली वीरनगर निवासी श्रीमती कांता जी, चाँदनी चौक की रम्मोदेवी, मिश्रीबाई आदि सन्नारियों ने देह की आसक्ति का त्याग किया संथारा सहित समाधिमरण किया। महाराष्ट्र अहमदनगर की अनेक बहनें हैं जो इस कड़ी में लम्बा संथारा धारण कर चुकी है।
संथारे के महामार्ग पर बढ़ने वाली श्राविकाएँ वास्तव में श्राविका संघ एवं चतुर्विध संघ में रीड़ की हड्डी सदश्य है। उनका अवदान शब्दों की परिधि से ऊपर उठा हुआ है। उसका प्रकाशपुंज व्यक्तित्व विश्व-संस्कृति के हर काल को प्रत्येक क्षेत्र में जीवन जीने का कलापूर्ण नया आयाम प्रस्तुत करता आ रहा है। उसके जीवन में विचारों का ओज है तो आचार का दिव्य तेज भी है। उसके आचार की भास्वर किरणें जीवन पथ पर आलोक बिखेरती हुई तिमिराछन्न जीवन को भी प्रकाशमान करती रही है। मुक्ति प्राप्ति की उत्क्रांति का पुरूषार्थ ही उसका जीवन ध्येय होता है। नारी की आत्मा नारी देह के झरोखे में दिखती हुई भी स्वतंत्रता गुणवत्ता तथा मोक्ष पुरूषार्थ हेतु सर्वथा स्वाधीन है। अतः नारी श्राविका जीवन का निर्वाह भली भांति करती हुई अपनी संतान को सुसंस्कारों से सिंचित करते हुए उसे संयम के दर्गम मार्ग पर बढ़ने के लिए समर्पित करती रही है। स्वयं भी बारह अणव्रतधारिणी श्राविका अथवा पंचमहाव्रतधारिणी साध्वी बनकर सम्यक आचार द्वारा स्व आत्मा की उन्नति करती है। मत्य को सा जीवन के अंतिम समय में संलेखना व्रत अंगीकार कर स्वेच्छा से समाधिमरण का वरण करती है। श्रवणबेलगोला की कई श्राविकाएँ इस मार्ग पर बढ़ी थी। धर्म कत्य में कुछ श्राविकाएँ जैनाचार्यों की प्रेरणा से स्वद्रव्य द्वारा जिन मंदिरों के निर्माण में व मूर्ति की प्रतिष्ठा में अपना सहयोग देती रही है। ई. सन् की ८वीं से १५वीं शती तक की श्राविकाओं द्वारा इस दिशा में बढ़ते हुए कदम इस बात को प्रकट करते है। मध्यकाल में श्राविकाएँ सम्यक ज्ञान के पथ पर अपने मुस्तैदी कदम बढ़ाती हुई शास्त्र-ग्रंथों की पाण्डुलिपियाँ लिखने एवं लिखवाने में तथा शास्त्र अध्ययन में तीव्र रूचि लेती हुई नजर आती है। आधुनिक युग में तो श्राविकाओं का इंद्रधनुषी व्यक्तित्व विविध क्षेत्रों में बढ़ता हुआ ज्ञान-विज्ञान के विविध सोपानों पर चढ़ता हुआ नजर आता है। उसमें नारी शक्ति का प्रदीप्त पुरूषार्थ विकसित होता दष्टिगत होता है। गहस्थ जीवन की जिम्मेदारियों के अतिरिक्त भी प्रत्येक क्षेत्र में उसके उठते हुए कदम स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। यदि श्राविकाओं के विविध क्षेत्रों में किये गये योगदानों पर खोजबीन की जाएँ तो प्रत्येक क्षेत्र में उसके द्वारा दिये गए अवदानों पर विभिन्न शोध प्रबंध स्वतंत्र रूप से तैयार किये जा सकते हैं। पारिवारिक, सामाजिक एवं धार्मिक जप-तप, धर्म-श्रवण, साधुओं को शुद्ध आहार से लाभान्वित करने में तथा जन्म, विवाह, मत्यु एवं दीक्षा आदि का कोई भी प्रसंग उसके स्पर्श के बिना अधूरा है। इन सभी प्रकार के कर्तव्यों में कदम दर कदम उसका सतत् योगदान है। परिवार को सुसंस्कारों से सिंचित करने वाली, स्वयं कष्टों को सहकर भी अपने स्नेह के तले समस्त रिश्तों में वात्सल्य तथा स्नेह रस से पुष्ट
Page #730
--------------------------------------------------------------------------
________________
708
उपसंहार
करने वाली यह श्राविका सेवा, सहिष्णुता, धैर्यता, गंभीरता, सौम्यता आदि सद्गुणों से युक्त है। यदि प्रत्येक नारी श्राविका के पवित्र गुणों से अपने आप को सुसज्जित करें तो वह अवश्य ही स्व-पर कल्याण कर सकती है।
__ श्रावक और श्राविका का समान स्थान है। तथापि श्राविका जीवन की इस पवित्र भूमिका का निर्वाह करने हेतु श्रावक वर्ग के यथेष्ट सहयोग की पूर्ण अपेक्षा रहती है। क्योंकि इस पुरूष ज्येष्ठ समाज में प्रत्येक क्षेत्र में पुरूष के नाम से पहचान बनाई जाती है। श्राविकाओं के प्रत्येक क्षेत्र में अद्भुत सजनात्मक शक्ति एवं विविध अवदानों के होते हुए भी पुरूष वर्ग उसे अबला एवं हीन समझता है। किन्हीं महत्वपूर्ण कार्यों में भी किसी प्रकार की सलाह की गुंजाइश नहीं रखता है। उसे समाज में निम्न स्थान ही दिया जाता है। श्रावक के समान श्राविका की पहचान भी स्वतंत्र इकाई के रूप में प्रतिष्ठित होनी चाहिए। सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक एवं राजनीतिक पदों की प्रतिष्ठापना के अवसरों पर उससे भी सलाह ली जानी चाहिए। उसे भी सुयोग्य पदों पर प्रतिष्ठित करते हुए कार्यक्षेत्र हेतु स्वतंत्रता एवं कार्य करने के सर्वाधिकार दिये जाने चाहिए। पुरूष की पहचान से उसकी पहचान नही अपितु उसकी अपनी स्वतंत्र पहचान बनी रहनी चाहिए। इस हेतु पुरूष वर्ग में उदारता की मात्रा बढ़नी चाहिए, पुरूष वर्ग को उनके चहुमुखी विकास में सहयोग करना चाहिए। इस दिशा में समाज में विंतन बढ़े और सच्चा पथ सबको प्राप्त हो। ऐसी मेरी भावना है।
. अर्हतोपासिका साध्वी डॉ. प्रतिभा श्री "प्राची"
Page #731
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
709
-
संपूर्ण ग्रंथ की संदर्भ सूची
क्र.सं.
Foc
ग्रंथ नाम/लेखक/संपादक/प्रकाशक/प्रकाशन सन् संवत् देवगढ़ की जैन कला- एक सांस्कृतिक अध्ययन सं., डॉ भागचंद्र जैन "भागेंदु". भारतीय ज्ञानपीठ १८, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली – ११०००३ ई. सन् २००० द्वि. सं.
आस्थांजली- जैनाचार्य श्री विमलमुनि जी महाराज अभिनंदन ग्रंथ. श्रीमती मोहिनी कौल | जैन मुनि श्री विमल सन्मति चैरिटेबल ट्रस्ट सन्मति नगर पो. ओ. कुणकला जिला संगरूर, पंजाब ई. सन् १९७५ इमेजेस फ्रम अर्ली इंडिया. सं स्टेनिस लॉ जे. जुमार जु. मोर (रेखा मोरिस) क्लीवलेंड म्युजियम ऑफ आर्ट ई. सन् १६८५ | अमत समीपे- संपादक नितीन आर. देसाई, गुर्जर ग्रंथरत्न कार्यालय, रतनपोलनाका सामे अहमदाबाद मुनि श्री प्रताप अभिनंदन ग्रंथ सं श्री रमेशमुनि सिद्वांताचार्य, केसर-कस्तूर स्वाध्याय समिति, गांधी कॉलोनी, जावरा ई. | सन् १६७३ भट्टारक संप्रदाय सं., श्री विद्याधर जोहरापुरकर गुलाबचंद हीराचंद दोशी जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापुर ई. सन् | १६५८ वी. सं. २४८४
जैन श्रमणसंघ का इतिहास सं. श्री मानमल जैन. जैन साहित्य मंदिर कडक्का चौक, अजमेर (राज.) ई. सन् १६५६ (प्र.सं.) | आचारांग शीलांकवत्ति : एक अध्ययन. सं. डॉ राजश्री साध्वी. प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर ई. सन् २००१ प्र. सं.
जैन दर्शन और संस्कृति का इतिहास. डॉ भागचन्द्र भास्कर. नागपुर विद्यापीठ प्रकाशन ई. सन् १६७७ प्र. सं. जैन आचार सं. डॉ. मोहनलाल मेहता. पार्श्वनाथ विद्याश्रम वाराणसी. ई. सन् १६६६ (प्र.सं.) जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह. सं मुनि जिनविजय जी. सिंघी जैन ग्रंथमाला, मुबंई ई. सन् १६४३ | भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान. डॉ. हीरालाल जैन. मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद् भोपाल मप्र ई. सन | १६६२, प्र. सं. | भारत के प्राचीन जैन तीर्थ. सं डॉ. जगदीश चन्द्र जैन. जैन संस्कृति संशोधन मंडल, बनारस - ५ ई. सन् १९५२ | उवांगसुत्ताणि खंड १ वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी. जैन विश्व भारती, लाडनूं ई. सन् १९८७ (प्र.सं). मरुधर केसरी अभिनंदन ग्रंथ, सं पं शोभाचंद जी भारिल्ल. मरुधर केसरी प्रकाशन समिति जोधपुर / ब्याबर (राज.) ई. सन्. १६६७ (प्र.सं.) अभिनंदन ग्रंथ श्री अगरचंद नाहटा प्रकाशन समिति, बीकानेर (राज.) ई. सन् १९७७ | आवश्यक सूत्र सं युवाचार्य मधुकरमुनि. आगम प्रकाशन समिति. ब्यावर ई. सन् १९६२ (द्वि. सं) | अंगसुत्ताणि १११ भगवई, युवाचार्य महाप्राज्ञ वनमाली त्रिभुवनदास शाह, पालीताणा (सौराष्ट्र) ई. सन् १६६२ वी. नि. सं. २४८८
Page #732
--------------------------------------------------------------------------
________________
110
संपूर्ण ग्रंथ की संदर्भ ग्रंथ सूची
-
जैनाचार्य श्री आत्मानंद जन्म शताब्दी स्मारक ग्रंथ मोहनलाल दलीचंद देसाई जैनाचार्य श्री आत्मानंद जन्म शताब्दी स्मारक समिति ई. सन् १६३६ वि. सं. १६६२ जैन आचार मीमांसा आचार्य देवेंद्र मुनि "शास्त्री". तारक गुरु जैन ग्रंथालय, शास्त्री सर्कल, उदयपुर (राज.) साधना पथ की अमर साधिका, लेखिका - साध्वी सरला 'सिद्धांताचार्य' साध्वी चंदना 'दर्शनाचार्य' संपादक - श्रीचंद सुराना "सरस" प्रकाशक - जैन महिला समिति, जैन श्वेतांबर महिला स्थानक ४४६३, पहाडी धीरज, सदर बाजार, दिल्ली - ६ प्र. सं. १६७० इतिहास की अमर बेल ओसवाल (प्रथम खंड) सं मांगी लाल भूतोडिया, प्रियदर्शी प्रकाशन, ऑल्ड ऑफ स्ट्रीट कलकत्ता वि. सं. २०४५ प्र. सं. १६६८ द्वि. सं. १६६५ भाग २ ई. सन् १९६२ (प्र. सं.) खरतरगच्छ पट्टावली संग्रह. सिंधी जैन ज्ञानपीठ. सं बाबू पूरणचंद नाहर. खरतरगच्छ का बहद् इतिहास. सं महोपाध्याय विनयसागर, प्राकृत भारती अकादमी. १३.ए, मेन मालवीय नगर, जयपुर प्र.सं. २००४, द्वि. सं. २००५ खरतरगच्छ पट्टावली संग्रह श्री जिन विजय जी (अधिष्ठाता सिंधी जैन ज्ञानपीठ) बाबू पूरणचंद नाहर, नं. ४८, इंडियन मिरर स्ट्रीट कलकत्ता वि. सं. १६८८ वी. नि. सं. २४५८ खरतरगच्छ का इतिहास (प्रथम खंड) सं महोपाध्याय विनयसागर, दादा जिनदत्तसूरी अष्टम शताब्दी महोत्सव खंड, | स्वागत कारिणी समिति अजमेर ई. सन् १६५६, २० मार्च
जैन गुर्जर कविओ सं मोहनलाल दलीचंदजी देसाई, श्री महावीरा जैन विद्यालय मुम्बई भाग १ = १६८६ द्वि. सं. भाग २ = १६८७ द्वि. सं. भाग ३ = १६८७ द्वि. सं. भाग ४ = १६८८ द्वि. सं. भाग ५ = १६८८ द्वि. सं. भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा का इतिहास, सं इतिहास प्रेमी ज्ञानसुंदर जी महाराज, श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुस्तकमाला मु. पो. फलौदी, मारवाड़ वि.सं. १६६६ ई. सन १६४० तपागच्छ का इतिहास सं डॉ. शिव प्रसाद, पा. वि. सं. वाराणसी, प्राकृत भारती अकादमी, जयुपर, ई. सन् २००० प्र. सं. जैन बिब्लियोग्राफी पार्ट १ और पार्ट २ सं डॉ. ए. एन. उपाध्ये. वीर सेवा मंदिर २१ दरियागंज नई दिल्ली ई. सन १६८२ श्री प्रशस्ति संग्रह सं अमतलाल मगनलाल शाह, श्री देशविरति धर्माराधक समाज, अहमदाबाद, वि. सं. १६८३ वी. नि.
२४६३. ३२. | श्री प्रशस्ति संग्रह सं कस्तूरचंद कासलीवाल दि. जैन अतिशय तीर्थ क्षेत्र महावीर जी जयपुर ई. सन् १९५० ३३. | श्रावकाचार सं श्रीमती कमल जैन, वाराणसी पार्श्वनाथ शोध संस्थान, ई. सन् १६६४ ३४. | श्रावककर्तव्य, मुनि सुमनकुमार 'श्रमण' भगवान् महावीर स्वाध्याय पीठ, एस.एम.जैन संघ. माम्बलम्
४६, बर्किट रोड, टी. नगर, चेन्नई १७ द्वि.सं.सन् १६६५
आस्पेक्ट ऑफ जैन फिलोसफी एंड कलचर श्री सतीश कुमार जैन अहिंसा इंटरनेशनल नई दिल्ली, इंडिया ई. सन् १९८८ ३६. | संक्षिप्त जैन इतिहास द्वितीय भाग प्रथम खण्ड सं बाबू कामताप्रसाद जी जैन कापडिया भवन, सूरत वी. सं. २४५८ प्र.
Page #733
--------------------------------------------------------------------------
________________
जन श्रावकाआ का बृहद इतिहास
स.
संक्षिप्त जैन इतिहास ततीय भाग द्वितीय खण्ड सं बाबू कामताप्रसाद जैन अलीगंज एटा वी.सं. २४६४ ३८. | स्टडीज इन जैन आर्ट पी. उमाकांत शाह जैन कल्चरल रिसर्च सोसाइटी बनारस ई. सन् १९५५
खंडेलवाल जैन समाज का बहद् इतिहास. सं डॉ. कस्तूरचंद जी कासलीवाल. जैन इतिहास प्रकाशन संस्थान जयपुर. ई. सन् १९८६ राजस्थान के जैन संत डॉ. कस्तूरचंद जी कासलीवाल श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, श्री महावीर जी, जयपुर वी.नि. २४६३, ई. सन् १९६७ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास (भाग २) सं परमानंद शास्त्री रमेश चंद जैन मोटर वाले राजपुर रोड दिल्ली (पी. एस. जैन मोटर कं.) वी. नि. सं. २५०० भट्टारक संप्रदाय सं श्री विद्याधर जोहरापुरकर, जैन सं. संरक्षक संघ, संतोष भवन, फलटण गली, सोलापुर ई. सन्. १६५८ प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१ सं स्व. श्री विजय धर्म सूरि. श्री यशो विजय श्री ग्रंथमाला, भाव नगर सन् १६२६ वी. सं. २४५५ प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष एवं महिलाएं लेखक डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन भारतीय ज्ञान पीठ प्रकाशन, नई दिल्ली प्र. सं. १६७५ भारत के स्त्री रत्न, सं मुकुट बिहारी वर्मा, हिन्दी प्रकाशन मंदिर, प्रयाग ई. सन् १६४६ दक्षिण भारत में जैन धर्म पं. कैलाश चंद्र शास्त्री. भारतीय ज्ञान पीठ दिल्ली, कलकत्ता, वाराणसी ई. सन् १६६७ (प्रथम संस्करण) २४८४ आवश्यक नियुक्ति भाग १ और भाग २ हरिभद्रीय वत्ति. भेरूलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, वालकेश्वर मुम्बई, वि. सं. २०३८ भरत और भारत, डॉ. प्रेमसागर जैन, श्री कुंद कुंद भारती न्यास १८-बी, स्पेशल इंस्टीट्यूशनल एरिया नई दिल्ली, त. सं. २००० श्री प्रशस्ति संग्रह, पं. के. भुजबल शास्त्री. जैन सिद्धांत भवन, आरा (मध्यप्रदेश) वि. सं. १६६६, प्र. सं. १६४२ ऐतिहासिक लेख संगह पं. लाल चंद भगवान दास गांधी, प्राच्य विद्या मंदिर महाराजा सयाजीराव युनिवर्सिटी, बड़ोदरा वि. सं. २०१६ ई. सन् १९६३ मध्यप्रदेश के दिगंबर जैन तीर्थ (ततीय भाग), बलभद्र जैन. भा. दि. जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी हीराबाग मुम्बई ई. सन् १६७६ | भट्टारकीय ग्रंथ भंडार नागोर पी. सी. जैन राज. वि. वि. जयपुर जैन शिक्षण केंद्र ई. सन् १९७६ | श्री स्वर्णगिरि-जालोर, भंवरलाल नाहटा, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, बी. जे. फाउंडेशन कलकत्ता ई. सन् १६६५, ३० अगस्त
जैन साहित्य का बहद इतिहास - भाग - ७, पं. के. भुजबल शास्त्री पी. वी. एस. वाराणसी ई. सन् १९८१ ५५ | खरतरगच्छ बहद् गुर्वावली, आचार्य जिनविजय मुनि, सिंधी जैन शास्त्र शिक्षापीठ, भारतीय विद्याभवन, मुम्बई, वि. सं. २०१३ ५६ | जैन ग्रंथ भंडार इन जयपुर एण्ड नागपुर, प्रेम चंद जैन. जैन शिक्षण केंद्र, राजस्थान विश्व विद्यालय, जयपुर, ई. सन् १६७८ ५७ | जैनास्कल्पचर्स इन इंडियन एंड वर्ल्ड म्यूजियम्स, शांतीलाल नागर, कलिंगा पब्लिकेशन्ल नई दिल्ली, ई. सन् २०००
Page #734
--------------------------------------------------------------------------
________________
712
५८.
५६
६०
६१
६२
६३
जैनिज़म इन अर्ली मिडीवल कर्नाटक, राम भूषण प्रसाद सिंह, मोतीलाल बनारसी दास दिल्ली ई. सन् १६७५ प्र. सं. पर्ल्स आफ जैन विज़डम, दुलीचंद जैन. पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी, प्र. सं. ई. सन्. १६६७
जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन, डॉ. शिव प्रसाद, पी. वी. एस. वाराणसी, ई. सन् १६६१ प्र. सं.
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास (भाग प्रथम), बलभद्र जैन. केसरीचंद श्रीचंद चावल वाले, नया बाजार, दिल्ली वी. नि. २५०० जैन नीतिशास्त्र एक तुलनात्मक अध्ययन, सं: प्रोः सागरमल जैन, पी. वी. एस. वाराणसी, ई. सन् १९६५, प्र. सं.
जैन कला एवं स्थापत्य, सं. अमलानंद घोष, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
खण्ड १ = १६७५,
खण्ड २ = १६७५, खण्ड ३ = १९७५
६४
जैन चित्र कल्पद्रुम सं. साराभाई नवाब. साराभाई मणिलाल नवाब अहमदाबाद, ई. सन् १६४०, संवत् १९६६ ६५ हिस्ट्री ऑफ एनशेंट इंडिया. मेसर्स एम पॉल और मेसर्स कुलविंदर कौर
एम.बी.डी. हाऊस रेलवे रोड, जलंधर सिटी, प्र. सं. २००२ चतु. सं. २००५ परिष्कारित संस्करण २००६ १, २, ३ लेखक; पूरणचंद नाहर, सन् १९२६
जेसलमेर जैन लेख संग्रह भाग
-
विश्व विनोद प्रेस ४८, इंडियन मिरर स्ट्रीट, कलकत्ता । क्रमशः ई. सन् १६१८, १६२७. १६२६
६७
प्राचीन लेख संग्रह भाग १ श्री विजयधर्मसूरि, सन् १६२६, श्री यशोविजयजी ग्रंथमाला, भावनगर
६८ अर्बुद परिमण्डल की जैन धातु प्रतिमाएँ एवं मंदिरावलि. डॉ. सोहनलाल पटनी.
प्रकाशक : सेठ कल्याण जी परमानंद जी पेढ़ी, सुनारवाड़ा, सिरोही (राजस्थान), प्रकाशन तिथि १५ मई २००२ जैन कथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन श्रीचंद्र जैन, बोहरा प्रकाशन, चैनसुखदास मार्ग, जयपुर-३ ई. सन् १९७१
हरिभद्र साहित्य में समाज और संस्कृति. डॉ. कमल जैन. पी. वी. एस. वाराणसी
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मति ग्रंथ. सं. आचार्य श्री देवेंद्र मुनि श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय,
शास्त्री सर्कल, उदयपुर (राजस्थान) ई. सन्
पूज्य गुरुदेव श्री कस्तूरचंद जी महाराज जन्म शताब्दी ग्रंथ. सं. प्रवर्तक रमेश मुनि प्रतापमुनि ज्ञानालय, बड़ी सादड़ी (राजस्थान) ई. सन् १९६०
बीकानेर जैन लेख संग्रह. अगरचंद भंवरलाल नाहटा नाहटा ब्रदर्स, कलकत्ता - ७ प्र. सं. वी. सं. २४८२
लिस्ट ओपः ब्राह्मी इंस्क्रिप्शंस फ्रम द अर्लियस्ट टाइम्स. प्रो. एच. लुडर्स बर्लिन.
इंडोलॉजिकल बुक हाउज, वाराणसी एण्ड दिल्ली - ७ ई. सन् १९७३
मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म. डॉ. श्रीमती राजेश जैन. पी. वी. एस. वाराणसी ई. सन् १९६१-६२
मध्यप्रदेश के दिंगबर जैन तीर्थ - भाग ततीय. बलभद्र जैन भारतीय दिगंबर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी, हीरा बाग मुम्बई ई. सन् १६७
जैन कथाओ का सांस्कृतिक अध्ययन श्री चन्द्र जैन बोहरा प्रकाशन चैन सुखदास मार्ग. जयपुर - ३ ई. सन् १९७१ डिक्शनरी अंक पाली प्राकृत नेम्स. पार्ट -२. मलालशेखर मुंशीराम मनोहरलाल पब्लिशर्ज प्राईवेट लिमिटेड ५४, रानी झांसी रोड, नई दिल्ली ११००५५ ई. सन् १६८३ प्र. सं.
इनसाइक्लोपे डेया ऑफ जनिजम नागेंद्र कुमार सिंह, अनमोल पब्लिकेशन प्राइवेट लिमिटेड. नई दिल्ली ई. सन् २००१ प्र.
६६
६,६
lyr
७१
७२
333
७३
७४
७५
७६
७७
७८
७६
-
संपूर्ण ग्रंथ की संदर्भ ग्रंथ सूची
Page #735
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
जैन बिबलियोग्राफी डॉ. ए. एन. उपाध्ये, वीर सेवा मंदिर, दरियागंज नई दिल्ली - सन १६८२ उत्तरपुराण. श्री गुणभद्रचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ (काशी) ई. सन् १६५४ स्टडीज इन अर्ली जैनिज़म. डॉ. जगदीशचंद्र जैन. नवरंग नई दिल्ली ई. सन् १९६२ उत्तराध्ययन सूत्र सुखबोधा वत्ति. पद्मसेन विजयजी महाराज. दिव्यदर्शन ट्रस्ट मुंबई वि.सं. २०३६ पाटण जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह. लक्ष्मणमाई ही भोजक. मोतीलाल बनारसीदास प्राइवेट लिमिटेड दिल्ली. प्र. सं. ई. सन् २००० मध्य एशिया और पंजाब में जैन धर्म, हीरालाल दुगड़,
जैन प्राचीन साहित्य प्रकाशन मंदिर शाहदरा, दिल्ली ई. सन १६७६ प्र. सं. वि. सं. २०३६ बौद्ध संस्कृति का इतिहास डॉ. जैन भागचंद्र आलोक प्रकाशन ई. सन् १६७२ प्र. सं. भारत में नारी शिक्षा, डॉ. रमेश, भारद्वाज गाँधी हिंदुस्तानी साहित्य, सभा, राजघाट, नई दिल्ली – ११०००२ ई. सन् १६६४ प्र. सं. चीनी यात्रियों के यात्रा विवरण में प्रतिबिम्बित डॉ. अवधेष सिंह रामानंद विद्याभवन, दिल्ली प्र. सं. १६८७ ई. सन् सिक्ख धर्म और नारी, महिंद्र कौर, गिल वीनस पब्लिशिंग हाउस, ११/२६८, प्रैस कॉलोनी, मायापुरी, नई दिल्ली ई. सन् १६६५ प्र.सं. फूलावंती की जबानी, लेखक रोशनलाल जैन, फूलावंती जैन मेमोरियल ट्रस्ट (रजि.) पटेलनगर, नई दिल्ली - ८ सन् १९७८ के बाद केटलॉग ऑफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मेनुस्क्रिपट्स, जैसलमेर कलेक्शन, मुनि श्री पुण्यविजय जी संकलित, सं.पं. दलसुखमालवणिया एल.डी. इंस्टीटयूट ऑफ इनडॉलोजी, अहमदाबाद ई. सन् १९७२ केटलॉग ऑफ मेनुस्क्रिपट्स इन जेसलमेर जैन भंडार, मुनि जंबूविजय, मोती लाल बनारसी दास - बंगलो रोड, दिल्ली ई. सन् २००० प्र. सं. श्री जैन प्रतिमा लेख संग्रह, सं. दौलत सिंह लोढ़ा, अरविंद यतीन्द्र साहित्य-सदन, धामाणिया (मेवाड़) ई. सन् १९५१ प्र.सं. वि. सं. २००८ दि जैना इमेज इंन्सक्रिप्शंस ऑफ अहमदाबाद, डॉ. प्रवीणचंद्र सी. पारख. बी.एल. इंस्टीट्यूट ऑफ लर्निंग ऑफ रिसर्च अहमदाबाद ई. सन् १६६७ प्र. सं. जैन प्रतिमाविज्ञान डॉ. मारूतिनंदन प्रसाद तिवारी पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी. ई. सन् १९८१ जैन धर्म का मौलिक इतिहास द्वि.सं. आ. श्री. हस्तीमल जी महाराज जैन इतिहास समिति, लाल भवन, जयपुर (राज.) ई. सन् १९७४ प्र. सं. १६८७ द्वि. सं. उत्तर भारत में जैन धर्म, चिमनलाल जैचंद शाह, कस्तूरमल बांठिया सेवा मंदिर रावटी, जोधपुर, ३४२०२४ (राज.) ई. सन् १६६० प्र. सं. वि. सं. २०४७
६०
Page #736
--------------------------------------------------------------------------
________________
संपूर्ण ग्रंथ की संदर्भ ग्रंथ सूची
६६
बौद्ध धर्म के २५०० वर्ष पी.वी. बापट पब्लिकेशनस डिवीजन ओल्ड सेक्रेटेरियेट, दिल्ली - ८. ई सन १६५६
खारवेल प्रशस्ति, पुनर्मूल्यांकन चंद्रकांतबली शास्त्री, प्रतिभा प्रकाशन, दिल्ली – ११०००७ ई. सन् १९८८ प्र. सं. १०० प्राचीन भारत का राजनैतिक और सांस्कृतिक इतिहास, धनपति पाण्डेय अशोक अनन्त, मोतीलाल बनारसीदास बंगलोरोड,
दिल्ली। १०१/ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास (भाग द्वितीय) परमानंद शास्त्री राजपुर रोड दिल्ली,
रमेशचंद जैन एंड नारायण एंड सन्स, पहाड़ी धीरज दिल्ली वी. नि. सं. २५००.
श्री स्वर्णगिरी जालोर भंवरलाल जी नाहटा, प्रा. भारतीय अकादमी जयपुर नाहटा ई. सन् १९६५ १०३/ स्थानकवासी जैन इतिहास, एस. के. भंडारी पब्लिशर्ज सरदार प्रिंटिग वर्कस, इंदौर ई. सन् १६११
समीरमुनि स्मति ग्रंथ, श्रीमती कौशल्या जैन, श्री समीर साहित्य प्रकाशन समिति कुरज, जि. राजसमंद (राज.)
वि. सं. २०५५ ई. सन् १६८८ १०५/ सुशील जैन महिलाओनां संस्मरणों पंडित लालचंद्र भगवानदास गांधी रावपुरा, गंभीरा बील्डिंग बड़ोदरा ई. सन् १९६३ प्र.
१०७
१०६ | ऐतिहासिक लेख संग्रह पंडित लालचंद्र भगवानदास गांधी
प्राच्य विद्यामंदिर महाराजा सयाजीराव, युनिवर्सिटी, बड़ोदरा ई. सन् १६४१ श्रमण संस्कृति की रूपरेखा, प्रो. पुरूषोत्तमचंद्र, प्रो. पी. सी. जैन, पटियाला, ई. सन् १९५१ प्र. सं. वि. सं. २००७
नारी एक विवेचन, धर्मपाल भावना प्रकाशन १२६, पटपड़गंज दिल्ली – ११०००६, ई. सन् १६६१ प्र. सं. १०६/ मद्रास व मैसूर के प्राचीन जैन, स्मारक, शीतलप्रसाद जी, दिगंबर जैन पुस्तकालय चांदावाड़ी, सूरत वी. सं. २४५४
जैन शिलालेख संग्रह भाग - १ हीरालाल जैन, माणिकचंद दिगंबर जैन ग्रंथ समिति मुंबई ईस्वी सन् १६२८ जैन शिलालेख संग्रह भा - २ पं. विजयमूर्ति शास्त्राचार्य माणिकचंद दिगंबर जैन ग्रंथ समिति मुंबई ई. सन् १९५२ जैन शिलालेख संग्रह भाग - ३ पं. विजयमूर्ति शास्त्राचार्य माणिकचंद दिगंबर जैन ग्रंथ समिति मुंबई ई. सन् १९५७
जैन शिलालेख संग्रह भाग - ४ डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर भारतीय विद्यापीठ काशी, ई. सन् वी. नि. २४६१ | जैन शिलालेख संग्रह भाग - ५ डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर भारतीय ज्ञानपीठ काशी ई. सन् व. नि. २४६१
जैन साहित्य का बहद् इतिहास भाग - ६ पं. के भुजबल शास्त्री पी. वी. एस. वाराणसी ई. सन् १६६७ जैन साहित्य का बहद् इतिहास भाग - २, डॉ. मोहनलाल मेहता जगदीशचंद्र जैन पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी प्र. सं. १६६६ ई. सन् प्राचीन भारतीय अभिलेख संग्रह प्राक् गुप्त युगीन खण्ड-१ श्रीराम गोयल, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर (राज.) ई. सन् १६८२ प्र. सं.
प्रतिमा लेख संग्रह भाग – २. हीरालाल आदि मंडल जैन सिद्धांत भवन, आरा, बिहार ई. सन् १६३६ ११६ | भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ भाग – २ बलभद्र जैन, भारतीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी, हीरा बाग मुंबई १२०/ जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन डॉ. शिवप्रसाद पा. वि. वाराणसी १२१ | जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह (प्रथम भाग) जुगल किशोर मुख्तार, वीर सेवा मंदिर दरियागंज (दिल्ली) ई. सन् १६५४ वि. सं.
Page #737
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
२०११ जैन इंस्क्रिपशंस इन तमिलनाडु डॉ. ए. एकंबरनाथ. डॉ. सी. के. शिवप्रकाशन रिसर्च फाउंडेशन फोर जैनालॉजी मद्रास
ई. सन् १९८७ १२३! जैना लिटरेचर इन तमिलनाडु, ए चक्रवर्ती के. वी. रमेश, भारतीय ज्ञानपीठ कननॉट प्लेस, नई दिल्ली,
ई. सन् १६७४ वी. सं. २५०० १२४ | जैनीसम इन आन्ध्रा डॉ. जी. जवाहरलाल प्राकृत भारती अकादमी जयपुर ई. सन् १६६४ प्र. सं. १२५| मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति पर जैन सन्तों का प्रभाव कु. नीना जैन
श्री विजयधर्मसूरि समाधि मंदिर ई. सन् १६६४ वी. सं. २५१७ १२६ | पंडित रत्न श्री प्रेम मुनि स्मति ग्रंथ, संपादक-कीर्तिमुनि एवं उमेशमुनि १४२४, शक्ति नगर, दिल्ली, ई. सन् १९७६ १२७ | युग प्रधान श्री जिनचंद्रसूरि अगरचंद नाहटा, भंवरलाल नाहटा, श्री अभय जैन ग्रंथ माला, बीकानेर वि. सं. १६६०, ई. सन्
१६३५ १२८ राजस्थान के अभिलेख (प्रभम भाग) (द्वितीय भाग) गोविंदलाल श्रीमाली महाराजा मान सिंह पुस्तक प्रकाशन (जोधपुर)
ई. सन् २००० १२६| जैन प्राचीन स्मारक, ब्र. शीतल प्रसाद ई. सन् १६२६
उत्तर प्रदेश और जैनधर्म, डॉ. ज्योति प्रसाद जैन, ज्योति निकुंज, चार बाग, लखनऊ, प्र. सं. १६७६, वी. नि. सं. २५०१ | १३१/ उत्तर भारत में जैन धर्म, चिमनलाल जैचंद्र शाह, सेवा मंदिर रावटी, जोधपुर, ई. सन् १६६०, वि. सं. २०४७
जैनिजम इन साउथ इंडिया पी. बी. देसाई, जैन संस्कृति संरक्षक, शोलापुर ई. सन् १६५७ प्राचीन भारत में नारी, डॉ. उर्मिला प्रकाश मिश्र, मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी भोपाल, ई. सन् १९८७
आर्यिका इंदुमति अभिनंदन ग्रंथ, विजयमति माता जी, इंदुमति अभिनंदन ग्रंथ समिति, कलकत्ता, ई. सन् १९८३ १३५/ चंदाबाई अभिनंदन ग्रंथ, श्री शेरवती देवी साहित्य, अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महिला परिषद, ई. सन् १६५४ १३६ | भूपेंद्रनाथ जैन अभिनंदन ग्रंथ, डॉ. सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी, ई. सन् १९६८
नेपाली संस्कृत अभिलेखों का हिंदी अनुवाद, डॉ. कृष्णदेव अग्रवाल, अरविंद ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली, ई. सन् १६८५ मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म, डॉ. श्रीमती राजेश जैन, पी. वी. एस. वाराणसी ई. सन् १६६१-६२ | जैन लिट्रेचर इन तमिल, ए. चक्रवर्ती और के. वी. रमेश, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, ई. सन् १६७४ १४०/ भारतीय इतिहास एक दष्टि, ज्योति प्रसाद जैन, भारतीय ज्ञानपीठ काशी ई. सन् १६७४ १४१/ जैनिज़म डॉ. हरिप्रिया रंगराजन, शारदा पब्लिशिंग हाऊस, दिल्ली ई. सन् १६६७ प्र. सं. १४२] भारत की जैन गुफायें, प्रधान संपादक डॉ. सागरमल जी जैन, पी. वी. एस. वाराणसी ई. सन् १६६७ प्र. स. १४३| जैन कलातीर्थ देवगढ़ प्रो. मारूती नंदन प्रसाद तिवारी डॉ शांतिस्वरूप सिन्हा,
श्री देवगढ़ मैनेजिंग दिगंबर जैन कमेटी, ललितपुर (उ.प्र.) सन् २००२ (प्र. सं.) १४४] जैन परंपरा का इतिहास, आचार्य महाप्राज्ञ, जैन विश्व भारतीय प्रकाशन लाडनूं राजस्थान, ई. सन्. २००३ | १४५/ जैन धर्म, राजेंद्र मुनि श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय, शास्त्री सर्कल, उदयपुर वि. सं. २०३८
Page #738
--------------------------------------------------------------------------
________________
716
संपूर्ण ग्रंथ की संदर्भ ग्रंथ सूची
| १४६] आचारांग शीलाड़.कवत्ति एक अध्ययन, साध्वी डॉ. राजश्री, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर
गुरु पुष्कर साधना केंद्र, उदयपुर प्र.सं. २००१ | १४७ | आवश्यकनियुक्ति (हरिभद्रीयटीका) हरिभद्रसूरी भेरूलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, वालकेश्वर मुम्बई
वी. सं. २५०८ वि. सं. २०६८ १४८/ रइधुसाहित्य एक आलोचनात्मक परिशीलन, डॉ. राजाराम जैन
| प्राकृत जैन शास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान वैशाली विहार ई. सन् १६७४ १४६ | जैन आगम में नारी, डॉ. श्रीमती कोमल जैन, नई दुनियाँ प्रिंटर्स, बाबू लाभचंद हाजलानी मार्ग इंदौर (एम.पी.) ई. सन् १६८६ १५० रत्नकरण्ड श्रावकाचार सं. पं. सदासुखदास जी कासलीवाल, पं. सदासुखलाल ग्रंथमाला, वी. वि. भ. अजमेर,
ई. सन् १६६६ प्र. सं. १६६७ द्वि. सं. १५१ / जैन धर्म और दर्शन, एक परिचय देवेंद्रमुनि शास्त्री,
तारक गुरू जैन ग्रंथालय, शास्त्री सर्कल, उदयपुर (राज.) वि. सं. १६८२ प्र. सं. १६७६ १५२ | जिनमूर्ति प्रशस्ति लेख, कमल कुमार जैन
श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर, छतरपुरा (एम.पी.) वी. नि. २५०८ ई. सन् १९८२
ऋषभदेव एक परिशीलन आचार्य श्री देवेंद्र मुनि, सन्मति ज्ञानपीठ आगरा, ई. सन् १९६७ १५४ | हस्तिनापुर गौरव, जयचंद जैन, मेरठ श्री दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी, हस्तिानापुर, वी. सं. २५११ ई. सन् १९४८
दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति मूल छाया अनुवाद, डॉ. अशोक कुमार सिंह, पी. वी. एस. वाराणसी ई. सन् १९६८ भगवान महावीर एक अनुशीलन, आचार्य देवेंद्रमुनि शास्त्री, श्री तारकगुरू ग्रंथालय, उदयपुर जैसलमेर के प्राचीन जैन ग्रंथ भंडारों की सूची. संपादक: जंबू विजयजी
प्रकाशक: जैसलमेर लोद्रवपुर पार्श्वनाथ जैन श्वेतांबर ट्रस्ट, जैसलमेर (राज.) ई. सन्. २००० १५८ | रिलीजन एण्ड कलचर ऑफ द जैन्स, डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली, ई. सन् १९७५ १५६ | प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरूष और महिलाएँ, डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, भारतीय ज्ञानपीठ,
१८ इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली – ११०००३ ई. सन् २००० द्वि. सं. पं. चंदाबाई अभिनंदन ग्रंथ, संपादक - सुशीला सुलतान सिंह जैन, जयमाला जैनेंद्र किशोर जैन, अ. भा. दि. जैन महिला परिषद सन् १६५४
इनसाइक्लोपीडिया ऑफ वर्ल्ड विमन वो. २, एस. एम. शशी. संदीप प्रकाशन, नई दिल्ली १६८६ १६२/ जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह भाग द्वितीय लेखक, बुद्धि सागर श्री अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल, मु. पादरा, बडोदरा
राजस्थानी हस्तलिखित ग्रंथ सूची भाग - १
पुरातत्वाचार्य जिनविजयमुनि, राजस्थान प्राच्य विद्यापीठ प्रतिष्ठान, जोधपुर (राज.) ई. सन् १६६० वि. सं. २०१७ १६४ | जैन बिल्लियोग्राफी वॉल्यूम - २ ए. एन उपाध्ये, वीर सेवा मंदिर, २१, दरियागंज, नई दिल्ली ई. सन् १९८२ १६५/ एनशेंट इंडिया, आर. सी. मजूमदार, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली पांचवा सं. १६८२ १६६] प्राकृत प्रॉपर नेम्स भाग १-२, संग्राहक रिखबचंद एवं मोहनलाल मेहता,
Page #739
--------------------------------------------------------------------------
________________
717
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
एल.डी. इन्स्टीट्यूट ऑफ इंडोलॉजी, अहमदाबाद १६७०-१६७२. १६७/ वर्द्धमान महावीरस्मति ग्रंथ, डॉ. सुदीप जैन, जैन मित्र मण्डल २५१५ धर्मपुरा, दिल्ली – ११०००६ ई. सन् २००२ प्र. सं. १६८] भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, डॉ. हीरालाल जैन
मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद् भोपाल ई. सन् १६६२ प्र. सं. १६६] श्रावकाचार का मूल्यात्मक विवेचन, प्रो. सागरमल जैन पी. वी. एस. वाराणसी
जैन धर्म में श्रमण संघ, डॉ. फूलचंद जैन प्रेमी पी. वी. एस. वाराणसी १६८७ प्र. सं. भारतीय संस्कृति और श्रमण परंपरा, डॉ. हरींद्र भूषन जैन श्री बनारसी दास चतुर्वेदी, रूपाभ प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली
ई. सन् १६८४ प्र. सं. १७२| तत्वार्थ सूत्र, उपाध्याय केवलमुनि जी म., श्री जैन दिवाकर साहित्यपीठ, महावीर भवन, १५६,
इमली बाजार, इन्दौर (म. प्र.) ई. सन् १९८७ वि. सं. २०४४
अर्ली ब्राह्मी रिकॉर्ड्स इन इंडिया, हरीपद चक्रवर्ती, संस्कृत पुस्तक भंडार ३८, बिधन सरानी, ई. सन १६७४ प्र. सं. १७४ | भारतीय पुरालेखों का अध्ययन, डॉ शिवस्वरूप सहाय, ई. सन् २००० त. सं. १७५/ जैन पुराण कोष, प्रो. प्रवीणचंद्र एवं डॉ. दरबारी लाल कोठिया, जैन विद्या संस्थान,
दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी. प्र. सं. १६६३
सुखबोधावत्ति उत्तराध्ययन सूत्र, श्री पद्मसेनविजय जी, दिव्यदर्शन ट्रस्ट, ६८, गुलालवाडी, मुंबई वि. सं. २०३६ | खरतरगच्छ दीक्षानंदी सूची, सं. भंवरलाल नाहटा, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर ई. सन् १६६० इतिहास के नुपूर, साध्वी कल्पलता, आदर्श साहित्य संघ चूरू (राज.) जैन परंपरा का इतिहास, आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्वभारती प्रकाशन, लाडनूं (राज.) ई. सन् २००३ आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि स्मारक ग्रंथ, डॉ भोगीलाल जे. सांडेसरा आदि, श्री महावीर जैन विद्यालय प्रकाशन मुम्बई. २६, गोवालिया टैंक रोड, ई. सन् १६५६ प्र. सं. जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग २ आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज, सम्यग् ज्ञान प्रचारक मंडल, जयपुर सन् १९७१ (प्र. सं.) २००२ (प्र. सं.) सिद्धहेमचंद्र शब्दानुशासनम् मुनि रत्नसेन विजय, भेरूलाल कन्हैयालाल ट्रस्ट, वालकेश्वर मुम्बई जैन योग परिभाषिक शब्द कोष मुनि राकेशकुमार, जैन विश्वभारती प्रकाशन लाडनूं (राजस्थान) ई. सन् १६६१ प्र.सं. आगम शब्द कोष आचार्य तुलसी जैन विश्वभारती संस्थान लाडनूं (राजस्थान) ई. सन् १९८० बि. सं. २०३७ अभिधान राजेंद्र कोष में सूक्ति सुधारस डॉ. प्रियदर्शना, डॉ. सुदर्शना श्री सर्वोदय ऑफसेट,
प्रेम दरवाजा बाहर, अहमदाबाद ई. सन् १९६८ १८६) संस्कृत धातुकोष सहलोत अमतलाल अमरचंद वनमाली त्रिभुवनदास शाह, पालीताणा (सौराष्ट्र)
ई. सन् १९६२ वी. नि. सं. २४८८ | जैनेंद्र सिद्धांत कोश भाग – २ क्षुल्लक जिनेंद्र वर्णी भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १६७० १८८| अभिधान राजेंद्र कोष श्री विजय राजेंद्रसूरि श्री राजेंद्रसूरि जैन ज्ञान मंदिर रतनपोल, अहमदाबाद सन् १६८६ द्वि. सं.
Page #740
--------------------------------------------------------------------------
________________
संपूर्ण ग्रंथ की संदर्भ ग्रंथ सूची
१८६ धवलसार आचार्य. संभवसागर जी महाराज संकलित दिगम्बर जैन समाज राजस्थान १६०/ भारतीय संस्कृति में नारी डॉ. लता सिंह परिमल पब्लिकेशन शक्ति नगर, दिल्ली - ११०००७ ई. सन् १६६१ प्र. सं. १६० भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मय का अवदान, स्व. डॉ. नेमिचन्द शास्त्री १६२] जैन साहित्य का बहद इतिहास भाग ६, डॉ. गुलाबचंद चौधरी, पी. वि. एस. सीरिज, ई. सन् १६७३ १६३| जैन शासन पं. सुमेरचंद दिवाकर, प्राच्य श्रमण भारती, मुजफ्फरनगर चतुर्थ आवति १६६८
जैन कथाएँ भाग १-१११, लेखक - उपा गय पुष्करमुनिजी म., तारक गुरु ग्रंथालय, उदयपुर (राज.) ई. सन् १९७७-७८ १६५, आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन भार – १, राष्ट्रसंत मुनि श्री नगराज जी,
कॉनसेप्ट पब्लिशिंग कं. नई दिल्ली, प्र.सं. १६६६ द्वि. सं. १६८७ जैनिज़म इन राजस्थान, कैलाशचंद जैन, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर ई. सन् १९६३
जैन सिद्धांत भवनग्रंथावली भाग – १, ऋभचंद्र जैन, श्री जैन सिद्धांत भवन प्रकाशन, ई. सन् १६८७ प्र. स. १६८ श्वेतांबर मत समीक्षा, पं. अजित कुमार शास्त्री श्री दिगम्बर जैन युवक संघ, १६६ | हरिभद्र साहित्य में समाज और संस्कृति, लेखक डॉ. श्रीमती कोमल जैन, पा. वि. वाराणसी सन् १९६४
हिंदी जैन साहित्य का इतिहास, नाथुराम प्रेमी जैन ग्रंथ रत्नालय कार्यालय, हीराबाग, मुंबई, ई. सन् १९६७
जैन साहित्य का बहद् इतिहास भाग - १, | पं. के भुजबलशास्त्री डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर पी. वी. एस. वाराणसी ई. सन् १९६७ २०२| हिंदी जैन साहित्य का बहद इतिहास, खण्ड – ४, डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल, जैन इतिहास प्रकाशन संस्थान, जयपुर
ई. सन् १६८६ २०३| जैन संस्कृत साहित्य का इतिहास हीरालाल रसिकदास कापडिया मुक्तिकमल जैन मोहन माला, बडोदरा ई. सन् १६६८ | २०४| प्राकृत एवं जैन विद्या शोध संदर्भ, डॉ कपूरचंद जैन, श्री कैलाशचंद जैन स्मति न्यास, खतौली – २५१२०१ उ. प्र. २०५] श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्ण महोत्सव ग्रंथ भाग - १ पं. दलसुख मालवणिया आदि,
श्री महावीर जैन विद्यालय, गोवालिया टैंक रोड, मुबई ई. सन् १६६८ २०६] कन्नड़ प्रांतीय ताड़पत्रग्रंथ सूची, पं. के. भुजबलशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, बनारस, वि. सं. २००० वी. सं. २४७० । २०७| तीर्थंकरों का इतिहास, डॉ. कुंवरलाल जैन, इतिहास विा प्रकाशन, दिल्ली ई. सन् १९६१ प्र.सं.
२०१||
पत्रिकाएँ : जिनवाणी, संपादक धर्मचंद जैन, सम्यग ज्ञान प्रचारक मंडल, बापू बाजार, जयपुर, सितंबर १६६७ वि. सं. २०५४
जैन सिद्धांत भास्कर, प्रो. हीरालाल, पं. के भुजबल शास्त्री जैन सिद्धांत भवन, आरा, बिहार । शोधादर्श श्री अजितप्रसाद जैन, तीर्थंकर महावीर स्मति केंद्र समिति लखनऊ प्राकृत विद्या भारती प्रो. राजाराम जैन, कुंदकुंदभारती विद्यापीट नई दिल्ली। श्रमण - प्रो. डॉ. सागरमल जैन. पी. वी. एस. वाराणसी।
Page #741
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
२१३
स्वानुभूति प्रकाश, हीरालाल जैन, सतश्रुत प्रभावना ट्रस्ट, भावनगर (गुज.)
२१४ संघमार्ग, भगवान् महावीर स्वामी विशेषांक, सं डॉ. प्रेमचंद जैन, ई. सन् २८ नवंबर २००१, संवत २०५८ २१५ अनेकांत, साहू शांति प्रसाद जैन स्मति अंक, श्री गोकुल प्रसाद जैन, ई. १६७८ सन् जनवरी - दिसंबर | २१६ प्राकृत - विद्या, सं. राजाराम जैन, कुंदकुंदभारती विद्यापीठ, नई दिल्ली, ई. सन् १६६७ जनवरी-मार्च २१७ श्रमणोपासक, चम्पालाल डागा, अ. भा. सा. जैन संघ बीकानेर.
२१८ जैन प्रचारक, संपादक डां. सुरेशचंद जैन, श्री भारतवर्षीय अनाथरक्षक जैन सोसाइटी, दयागंज, नई दिल्ली। २१९ ऋषभ देशना, संपादिका श्रीमति सुमन जैन, अ. भा. दि. जैन महिला संगठन इंदौर
२२० वंदे वीरम्, संपादक डॉ अनिरूद्ध भट्ट श्री जैनेंद्र गुरूकुल पंचकूला
२२१ महावीरमिशन, सं. प्रो. रतन जैन आर - १ ए. शु. ब्लॉक, उत्तरी पीतमपुरा, दिल्ली
- ८२
२२२ निर्भय आलोक, संपादक हुकुमचंद जैन, मानवसेवा, जीवदया ट्रस्ट, एन. पी. मौर्य एन्कलेव पीतमपुरा, दिल्ली । २२३ मोक्षगामी, सं. सुरेंद्रकुमार जैन मोक्षगामी सेवा केंद्र, डी, २०६, दिलशाद गार्डन, दिल्ली - ६५
२२४ जैन प्रकाश, अ. भा. जैन, कॉन्फरेंस, शहीद भगतसिंह मार्ग, नई दिल्ली।
२२५ जैन सिद्धांत भास्कर, सं. जे. के. जैन. जैन सिद्धान्त भवन, आरा (बिहार)
२२६| स्वतंत्रता संग्राम में जैन, डॉ. कपूरचन्द जैन, प्राच्य श्रमण भारती मुजफ्फरनगर, प्र. वर्ष- २००३
२२७ जैन जर्नल, सत्यरंजन बेनर्जी, जैन भवन पब्लिकेशंस, कलकत्ता ।
२२८ तुलसी प्रज्ञा प्रो. हीरालाल जैन जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं (राज.)
२२६ भारतीय जैन संघटना : न्यूज बुलेटिन सं. पुखराज गोलछा.
वर्ष
५. अंक ४ जून २००७ प्र. में झाबक ट्रेक्टर्स १७ शहीद स्मारक परिसर, जी. ई. रोड, रायपुर (छ.ग.) ४६२००१.
ग्रंथ :
२३० उपाध्याय पुष्कर मुनि. जैन कथाएँ भाग २४ श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय, गुरु पुष्कर धाम उदयपुर (राज.) ३१३००१ १६६७ जनवरी. वि. सं. २०५३, द्वितीयावत्ति, प्रकाशन वर्ष सन् १६७७ जून
२३९ कर्मयोगी भावड़शाह, आचार्य विजयनित्यानंद सूरि प्र वर्ष सन् २००१ अनेकाँत फाउंडेशन
C/o. आत्म वल्लभ इंटरप्राइज़ेज़ २३६/४, इण्डस्ट्रियल इस्टेट, गुप्ता रोड, लुधियाना - ७
२३२ दानवीर जगडूशाह, आचार्य विजयनित्यानंदसूरि, प्र. वर्ष २००१ शेष. वही.
२३३ | पुण्य पुरुष पेड़ शाह, आयार्य विजयनित्यानंदसूरि प्र. वर्ष सन् २०००, शेष वही
२३४ उपाध्याय पुष्कर मुनि जैन कथाएँ भाग २१,
प्र. आ. सन् १६७७, द्वि आ १६६७. श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय पुष्कर धाम उदयपुर (राज.) ३३१००१
वही, भाग ११०, सन् १९८६, वही भाग ७. प्र. सं. १६७६, द्वि. सं. १६६०
२३५ आत्मा, सं. लता जैन (नवम्बर २००३) १३४, आतमनगर, लुधियाना
7:9
Page #742
--------------------------------------------------------------------------
________________
720
२३६ स्त्रीरत्न श्रीमती सोहनी देवी कठौतिया, श्री जैनेंद्र कुमार आदि, आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन, चुरू (राज.) प्रकाशन वर्ष
१६७८
२३७ फूलावंती की जबानी, लेखक : रोशनलाल जैन
फूलावंती जैन मेमोरियल ट्रस्ट, पटेल नगर, नई दिल्ली - ८, प्रकाशन वर्ष १९७८ के पश्चात्
२३८ श्रमण पत्रिका, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आइ. टी. आई. मार्ग. करौंदी, पो. ऑ. बी. एच. यू. वाराणसी (यू.पी.) २३६ | देवगढ़ की जैन कला एक सांस्कृतिक अध्ययन डॉ. भागचंद्र जैन "भागेंदु", भारतीय ज्ञानपीठ,
१८, इस्टिट्यूशनल एरिया. लोदी रोड़, न्यू दिल्ली
११०००३ द्वि. सं. २०००
२४० भारतीय संस्कृति में नारी, डॉ लता सिंहल, परिमल पब्लिकेशन्, शक्तिनगर, दिल्ली - प्र. सं. १६६१ २४१ वैदिक एवं धर्म शास्त्रीय साहित्य में नारी डॉ एस. कुजूर, विश्व विद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, प्र. सं. १६२ २४२ संक्षिप्त जैन इतिहास. बाबू कामताप्रसाद जैन (द्वितीय भाग, प्रथम खंड), कापड़िया भवन, सूरत. वीर संवत् - २४५८ २४३ जैन पुराण कोश. सं. प्रो. प्रवीणचंद्र जैन आदि
जैन विद्या संस्थान, दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र, श्री महावीर जी (राज.) ३२२२२० प्र. प्रकाशन् १९६३ २४४ प्राचीन भारतीय अभिलेख संग्रह (खण्ड १) डॉ. श्रीराम गोयल, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर प्र. सं. १६८२ २४५ प्राकृत विद्या. सं. राजाराम जैन, श्री कुंदकुंद भारती, १८ - बी, स्पेशल इंस्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली २४६ पउम चरिउ और श्री राम चरितमानस के पात्रों का तुलनात्मक अध्ययन. उपाध्याय डॉ. विशाल मुनि. प्राप्तिस्थान : श्री सुवालाल जी छल्लाणी मिश्री चेम्बर्स, कुशल नगर, जालना रोड औरंगाबाद ४३१००१ (महा.) सन् १९६३
११००६७
२४७ श्रावक संबोध, आचार्य तुलसी, आदर्श साहित्य संघ, चूरू ( राजस्थान) प्र. सं. १६६८
२४८ प्राकृत साहित्य का इतिहास, डॉ. जगदीश चंद्र जैन, चौखम्बा विद्याभवन चौक (बनारस स्टेट बैंक भवन के पीछे) पो. बॉ. नं. १०६६, वाराणसी २२१००१ द्वि. सं. १९८५
संपूर्ण ग्रंथ की संदर्भ ग्रंथ सूची
२६ आस्था और चिंतन. आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनंदन ग्रंथ, आचार्य श्री देशभूषण महाराज अभिनंदन ग्रंथ समिति. १६१७, दरीबा कलां, दिल्ली ११०००६. १६८७
२५० समय की परतों में. सं. उपाध्याय यशा. डॉ. नथमल टाटिया आदि. वीरायतन, यू. के. "पिटकुले" पीनर हील, पीनर, मिडिलसेक्स, HA53XU इंग्लैंड १६६८
२५१ कल्पसूत्र देवेंद्र मुनि शास्त्री श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय शास्त्री सर्कल. उदयपुर (राज.), प्र. सं. १६६८. चतुर्थ. सं. १६८५ २५२ "जिनेंदु" भगवान बाहुबली विशेषांक संपादक, जिनेंद्र कुमार जैन, १६ फरवरी
२५३ ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र सं. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि श्री आगम प्रकाशन समिति श्री ब्रज मधुकर स्मति पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज.) ब्यावर ३०५६०१ त. सं. मार्च १९६७. वी. नि. सं. २५२४
-
२५४ प्राकृत एवं जैन विद्या. शोध संदर्भ. डॉ. कपूरचंद जैन.
श्री कैलाशचंद जैन स्मति न्यास, खतौली (उ.प्र.) - २५१२०१ त. सं. ई. सन २००४ २५५ श्रीमद् ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र - सम्पादक पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल, प्रकाशक श्री तिलोक रत्न स्थानकवासी जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड पाथर्डी (अहमदनगर), प्रकाशन तिथि - सन् १९६४ (प्रथमावत्ति )
-
२५६ तीर्थंकर चरित्र भाग - ३. लेखक रतनलाल डोशी, प्रकाशक - श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ,
-
Page #743
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
जोधपुर शाखा • नेहरू गेट बाहर ब्यावर फोन नं. ०१४६२ - २५१२१६, २५७६६६, प्रकाशन सितम्बर २००४ नववीं आवत्ति । २५७ श्री विपाक सूत्र, सम्पादक नेमीचन्द बांठिया, पारसमल चण्डालिया, प्रकाशक श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा नेहरू गेट बाहर, ब्यावर
३०५६०१ फोन नं: ०१४६२ - २५१२१६, २५७६६६
जैन धर्म का मौलिक इतिहास. चतुर्थ भाग ( सामान्य श्रुतधर खण्ड
लेखक - आचार्य श्री हस्तीमल जी म.
२५८
-
-
प्रकाशक - जैन इतिहास समिती, लाल भवन चौड़ा रास्ता, जयुपर- ३०२००४ (राज.) प्रकाशन - ततीय संस्करण - २००२ २५६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास. (प्रथम भाग ) "तीर्थंकर खण्ड" श्री हस्तीमल जी म. प्रकाशक • जैन इतिहास समिती, लाल भवन चौड़ा रास्ता, जयुपर ३०२००४ (राज.)
-
प्रकाशन - षष्ठम् संस्करण
२००२
२६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास. ततीय भाग (सामान्य श्रुतधर खण्ड १) लेखक- आचार्य श्री हस्तीमल जी म. प्रकाशक चतुर्थ संस्करण : २००४ प्रकाशक सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, बापु बाजार, जयपुर ०१४१-२५७५६६७
३०२००३ (राज.) फोन :
-
-
२६१ जैन धर्म का मौलिक इतिहास. द्वितीय भाग (केवली व पूर्वधर खण्ड) लेखक आचार्य श्री हस्तीमल जी म. प्रकाशक पंचम संस्करण : २००१,
-
-
२)
नवम्बर -
२६२ कर्मयोगी भावड़शाह, लेखक विजय नित्यानंद सूरि, संपादक मुनि चिदानन्द विजय प्रकाशन तिथि २००१, प्रकाशक - अनेकांत फाउण्डेशन आत्म वल्लभ इंटरप्राइजेज २३६/४, इण्डस्ट्रियल इस्टेट, गुप्ता रोड, लुधियाना - ७ फोन : ०१६१.७०२६४०
२६३ दानवीर जगडूशाह लेखक आचार्य विजय नित्यानन्द सूरि, सम्पादक
भुनि चिदानंद विजय, प्रकाशन तिथि - अगस्त
२००१, प्रकाशक
२६४ भारतीय वाङ्मय में नारी लेखक- आचार्य देवेन्द्र मुनि, प्रकाशन तिथि - प्रथमावति २२ अप्रैल २००५, प्रकाशक तारक गुरू जैन ग्रंथालय, गुरु पुष्कर मार्ग, उदयपुर - ३१३००१ फोन : (०२६४) २४१३५१८
२६५ प्राकृत एवं जैन विद्या शोध - सन्दर्भ, लेखक - डॉ. कपूरचंद जैन, प्रकाशन तिथि, ततीय संस्करण
-
—
1
721
-
प्रकाशक :- श्री कैलाशचन्द जैन, स्मति न्यासु खतौली - २५१२०१ (उ. प्र.)
२६६ अबुर्द परिमण्डल की जैन धातु प्रतिमाएं एवं मन्दिरावली, लेखक - डॉ. सोहनलाल पटनी, प्रकाशन तिथि: - अक्षय ततिया, १५ मई २००२, प्रकाशक - सेठ कल्याणजी परमानन्दजी पेढ़ी, सुनारवाडा, सिरोही (राज.)
२००४ ई.
२६७ जिनेन्द्र (भ. बाहुबली विशेषांक) सम्पादक जिनेन्द्र कुमार जैन, प्रकाशन तिथि: १६ फरवरी, २००६, प्रकाशक - गिरधरनगर, शाहीबाग, अहमदाबाद - ३८०००४ फोनः २२८६६७८६, २२८६७७८६
सन् २००० नवम्बर, प्रकाशक :- अनेकांत फाउण्डेशन, लुधियाना ।
२६८ Dictionary of Prakrit Proper Names Part-1, Ed. Dr. M.L. Mehta and Dr. K.R. Chandra (1970), L. D. Institute of Indology, Navrangpura, Ah.nedabad-380009 (India)
श्री
२६६ Dictionary of Prakrit proper Names Part II, Ed. Dr. M.L. Mehta and Dr. K.R. Chandra (1972), L. D. Institute of INdology, Navrangpura, Ahmedabad.
२७० पुण्य पुरूष पेड़ शाह लेखक आचार्य विजय नित्यानंद सूरि, सम्पादक - मुनि चिदानन्द विजय,
प्रकाशन तिथि
Page #744
--------------------------------------------------------------------------
________________
722
संपूर्ण ग्रंथ की संदर्भ ग्रंथ सूची
२७१/ पउमचरिउ (भाग - १) संपादन : मूल डॉ. एच. सी. भयाणी, अनुवाद - डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन,
प्रकाशक :- भारतीय ज्ञानपीठ, नेता जी सुभाष मार्ग, दिल्ली - ६, प्रकाशन तिथि : सन् १६७१ (द्वितीय संस्करण)। २७२ पउमचरिउ (भाग - २) भारतीय ज्ञानपीठ काशी, अनुवादक : श्री देवेन्द्र कुमार जैन एम. ए. सिद्वांताचार्य, सम्पादक : डॉ.
हीरा लाल जैन एम. ए. डी. लिट., डॉ. आ. ने. उपाध्ये, एम.ए.डी.लिट., प्रकाशन तिथि : जनवरी १९५८ (प्रथम आवति) २७३| पउमचरिउ (भाग - ३) भारतीय ज्ञानपीठ काशी दुर्गाकुण्ड रोड़ वाराणसी – ५, अनुवादक : श्री देवेन्द्र कुमार जैन एम.
ए. सम्पादक : डॉ. हीरा लाल जैन एम. ए. डी. लिट., प्रकाशन तिथि : जनवरी १६५८ (प्रथम आवति) पउमचरिउ (भाग – ४) अनुवादक डॉ. श्री देवेन्द्र कुमार जैन, सम्पादन मूल : डॉ. एच. सी. भयाणी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नेता जी सुभाष मार्ग, दिल्ली – ६ प्रकाशन तिथि : सन् १९६६ (प्रथम संस्करण)। पउमचरिउ (भाग - ५) अनुवादक डॉ. श्री देवेन्द्र कुमार जैन, सम्पादन मूल : डॉ. एच. सी. भयाणी, भारतीय ज्ञानपीठ
प्रकाशन, दुर्गाकुण्ड मार्ग वाराणसी – ५, प्रकाशन तिथि : सन् १९७० (प्रथम संस्करण)। २७६/ जैन तत्व प्रकाश : लेखक : अमोलक ऋषि जी म., संयोजक पं. रत्न प्रवर्तक कल्याण ऋषि जी म. प्रकाशक - श्री अमोल
जैन ज्ञानालय धुले - ४२४००१ (महाराष्ट्र), प्रकाशन तिथि : (जनवरी फरवरी – २००५) | प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरूष और महिलाएं, लेखक - डॉ. ज्योति प्रसाद जैन प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ १८,
इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली – ११०००३, प्रकाशन तिथि :- सन् २००० (दूसरा संस्करण) कविराज स्वयंभूदेव रचित पउमचरिउ, मूल – डॉ. एच. सी. भायाणी, अनुवादक डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, प्रकाशन – भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन भाग - १ वाराणसी, सन् १६४४, भाग-२, काशी सन् १९५८, भाग ३, काशी सन् १६५८.. भाग-४ प्रथम संस्करण सन् १६६६ भाग - ५, प्रथम संस्करण, सन् १६७० तीर्थकर चरित्र, लेखक रतनलाल डोशी, भाग – १-२ नववीं आवत्ति प्रकाशक - श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा – नेहरू गेट बाहर, ब्यावर - ३०५६०१ सन् – २००४ कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य – त्रिषष्टि शलाका पुरूष चरित महाकाव्यम्
सम्पादक - ज्ञानसागर, संकलन कुसुम जैन, मेघ प्रकाशन, २३६, दरिबा कलां, दिल्ली – ११०००६ (भारत) २८१/ भ. अजितनाथ एवं सगरचक्री चरित – त्रिषष्टि शलाका पुरूषचरित, द्वितीय पर्व अनुवादक - श्री गणेश ललवानी एवं
श्रीमती राजकुमारी बेगानी, प्रकाशन – प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, श्री जैन श्वेताम्बर नाकोडा पार्श्वनाथ तीर्थ,
मेवानगर। २८२ त्रिषष्टि शलाका पुरूष चरित, पर्व – ३–४, भाग – ३, अनुवादक - श्री गणेश ललवानी, प्रकाशन – प्राकृत भारती
अकादमी, जयपुर, जैन श्वेताम्बर नाकोडा तीर्थ, मेवानगर। त्रिषष्टि शलाका पुरूष चरित, पर्व - ५-६, भाग – ४. अनुवादक - श्री गणेश ललवानी, एवं श्रीमती राजकुमारी बेगानी, प्रकाशन - प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, श्री जैन श्वेताम्बर नाकोडा तीर्थ, मेवानगर । त्रिषष्टि शलाका पुरूष चरित, पर्व – ७, भाग – ५, अनुवादक - श्री गणेश ललवानी, एवं श्रीमती राजकुमारी बेगानी, प्रकाशन – प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, श्री जैन श्वेताम्बर नाकोडा तीर्थ, मेवानगर । शुक्ल जैन महाभारत - प्रथम खंड, लेखक - श्री वर्द्धमान स्था. जैन श्रमण संघीय मंत्री पं. मुनि श्री शुक्लचन्द्र जी
महाराज, प्रकाशक, पूज्य श्री काशीराम स्मति ग्रन्थमाला, १२ लेडी हार्डिंग रोड, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण सन् १९५८ | २८६] शुक्ल जैन महाभारत - द्वितीय खंड, लेखक - श्री वर्द्धमान स्था. जैन श्रमण संघीय मंत्री पं. मुनि श्री शुक्लचन्द्र जी
२७६
२८३/ त्रिषधिमा
Page #745
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
महाराज, प्रकाशक - ला. त्रिलोक चन्द्र जैन सदर बाजार दिल्ली, ला. मौजीराम जैन मोतिया खान दिल्ली प्रथम संस्करण, सन् १६६३
२८७ श्रीपाल राजा का चरित्र, लेखक - जैन दिवाकर श्री चौथमलयी म. सा. प्रकाशक स्वर्गीय श्री मोतीलाल जी रूणवाल की स्मति में उनकी धर्म पत्नी श्रीमती पतासीबाई, आग्रारोड धुलिया (महाराष्ट्र)
२८८ व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र खण्ड - २, युवाचार्य मधुकर मुनि श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्रज मधुकर स्मति - भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज.) ३०५६०१ द्वि.सं. १६६३. वी. २०५० वि. नि. २५१६
२८६ व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र, खण्ड - ३ युवाचार्य मधुकर मुनि श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्रज मधुकर स्मति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज.) ३०५६०१ द्वि.सं. १६६३. वि. नि. २५२० वी. २०५० युवाचार्य मधुकर मुनि श्री आगम प्रकाशन समिति,
२६० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र ·
ब्रज -
• मधुकर स्मति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज.) ३०५६०१, ई. सन् १६८६ २६१ उत्तराध्ययन सूत्र - आचार्य आत्माराम जी म.
वि. सं. १६८२
२६२ अनुत्तरौपपातिक दशा सूत्र - युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी म ततीय संस्करण, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्रज - - मधुकर स्मति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज.) वीर नि. सं. २५२५, वि. सं. २०५६, ई. सन् १९६६ समिति, ब्रज - मधुकर स्मति
२९३ अन्तकृत्दशांग सूत्र - युवाचार्य श्री मधुकर मुनि, ततीय संस्करण श्री आगम प्रकाश
भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज.) वीर नि. सं. २५२६, वि. सं. २०५६ ई. सं. २०००
1
-
प्रथम भाग आचार्य श्री आत्माराम जैन प्रकाशन समिति, लुधियाना,
२६४ श्री स्थानांग सूत्र भाग - २ अगस्त २००१, युवाचार्य श्री मधुकर मुनि श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर, नेहरू गेट बाहर, ब्यावर (राज.) वि.सं. २०५८, वी. नि. सं. २५२७
२९५ राजप्रश्नीय सूत्र : युवाचार्य श्री मधुकर मुनि, प्रकाशन तिथि (द्वितिय संस्करण) दिसम्बर १९६१ ई.
प्रकाशक - श्री आगम प्रकाशन समिति श्री ब्रज
मधुकर स्मति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज.) पिन - ३०५६०१ २९६ उवासगदसाओ सूत्र युवाचार्य श्री मधुकर मुनि, प्रकाशन तिथि (ततीय संस्करण) जून १६६६
प्रकाशक श्री आगम प्रकाशन समिति श्री ब्रज - • मधुकर स्मति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज.) पिन : ३०५६०१, दूरभाष: ५००८७
२६७ श्री कल्प सूत्र : व्याख्याकार - • श्री चौथमल जी मः के सुशिष्य पं. मुनि श्री प्यार चंद जी म. प्रकाशक - श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय मेवाड़ी बाजार, ब्यावर (राज.) प्रकाशन तिथि : (द्वितीय संस्करण) अक्षय ततीया २०२६ २६८ श्री समवायांग सूत्र - अनुवादक - अमोलक ऋषि जी मः प्रकाशक राज बहादुर लाल सुखदेव सहाय जी ज्वालाप्रसाद जी, दक्षिण हैदराबाद निवासी शास्त्रोद्धार प्रारंभ - वीराब्द २४४२ ज्ञान पंचमी ।
२६६ प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरूष और महिलाएं - लेखक डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ १८, इस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली - ११०००३
३०० श्री निरयावलिका सूत्र : युवाचार्य श्री मिश्रीमल जी म. 'मधुकर, प्रकाशन तिथि - (द्वितिय संस्करण) जनवरी १६६४, प्रकाशन श्री आगम प्रकाशन समिति श्री ब्रज मधुकर समिति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) पिन : ३०५६०१, दूरभाष - ५००८७.
(द्वितीय संस्करण) २०००,
Page #746
--------------------------------------------------------------------------
________________
724
३०१ श्री प्रशनव्याकरण सूत्र युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी म. प्रकाशन तिथि - (द्वितीय संस्करण) १६६३ ई.,
-
संपूर्ण ग्रंथ की संदर्भ ग्रंथ सूची
प्रकाशक - श्री आगम प्रकाशन समिति, श्री ब्रज मधुकर स्मति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज.) पिन - ३०५६०१ ३०२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास ( प्रथम खण्ड) तीर्थंकर खण्ड - आचार्य श्री हस्तीमल जी म. प्रकाशन तिथि (छठा संस्करण) वर्ष २००२, प्रकाशक : जैन इतिहास समिति आचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, लाल भवन, चौड़ा रस्ता, जयपुर - ३०२००४ (राज.)
३०३ भगवान पार्श्व : एक समीक्षात्मक अध्ययन - लेखक पं. प्रवर श्रद्धेय श्री पुष्कर मुनि जी म के सुशिष्य देवेन्द्र मुनि, श्री वर्धमान श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन श्रावक संघ
प्रकाशक
जैन साधना सदन, २५६, नाना पेठ, पूना २, प्रकाशन तिथि - दिसम्बर १६६६ ३०४ आस्थांजली, जैनाचार्य श्री विमल अभिनंदन ग्रंथ श्रीमती मोहनी कोल (जम्मू) सम्पादक.
प्रकाशन : आचार्य श्री विमल अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन समिति जैन मुनि श्री विमल सन्मति चैरिटेबल ट्रस्ट सन्मति नगर, पो. ऑ. कुप्प कलां जिला संगरूर, पंजाब प्रकाशन :- १६६०
१९८१
३०७
३०५ ए. डिस्क्रिप्टिव केटेलॉग ऑफ मेनुस्क्रिप्ट्स पी. सी. जैन, जैन शिक्षण केंद्र, राज. वि. वि. जयपुर ३०६ राज. हिंदी हस्तलिखित ग्रंथ सूची, भाग-५-६-८, डॉ. पद्मधर पाठक, राज. प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर (राज.) १९८३ राज. हिंदी हस्तलिखित ग्रंथ सूची भाग ३. जितेंद्रकुमार जैन. राज प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर (राज.) १६७४ ३०८ प्रशस्ति- संग्रह बघीचंद गंगवाल दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र, श्री महावीर जी जयपुर (राज.) प्र.सं. १६५० ३०६ केटेलॉग ऑफ दी मेनुस्क्रिप्ट्स ऑफ पाटण पार्ट -४, मुनि जंबूविजय शारदाबेन चिमनभाई एजुकेशनल रिसर्च सैंटर,
प्र. सं. १६६१
३१० उपमिति भव प्रपंच कथा "एक अध्ययन" लेखिका - साध्वी डॉ. दिव्यप्रभा प्रकाशक : तारक गुरू जैन ग्रंथालय, गुरु पुष्कर मार्ग, उदयपुर (राज.) ३१३००१ प्र. सं. सन् २००१ सं. २०५८
T
३११ भगवान् पार्श्व, एक समीक्षात्मक अध्ययन. देवेंद्रमुनि शास्त्री । श्री वर्द्ध, श्वे. स्था. जैन श्रावक संघ. जैन साधना सदन, २५६, नाना पेठ, पूना २ दिसंबर १६६६
३१२ | भगवान् अरिष्टनेमि और कर्मयोगी श्री कृष्ण एक अनुशीलन आचार्य देवेंद्रमुनि..
श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय गुरू पुष्कर मार्ग, उदयपुर (राज.) ३१३००१, दि.सं. २००१ प्र. सं. १९७१
३१३ संयम कौशल्य सौरभ (अभिनंदन ग्रंथ ) प्रधान संपादक, दिनेश मुनि संपादिका: साध्वी सुदर्शन प्रभा. एम. ए. श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय. गुरु पुष्कर मार्ग, उदयपुर- ३१३००१ (राज.) प्र. सं. संवत् २०५७
३१४ भगवान महावीर : एक अनुशीलन श्री देवेंद्र मुनि शास्त्री श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय शास्त्री सर्कल, उदयपुर (राज.)
प्र. सं. १९७४
३१५ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा,
उपाचार्य श्री देवेंद्र मुनि श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय, शास्त्री सर्कल, उदयपुर (राज.) ३१३००१ प्र. सं. १६८६, वि. सं. २०४६
...
-
Page #747
--------------------------------------------------------------------------
________________
|| णमो संघस्स॥ ॥ णमो तित्थं॥
परस्परोपगहो जीवानाम्
जैन धर्म संघीय धर्म है।
संघ साधना का आधार है, साधक जीवन की गतिविधियाँ संघ रूपी भवन में ही संभव है। यह संघ इतिहास की जुबानी है, वीरों की कुर्बानी है, साधकों की साधना है। इस पुस्तक मे | प्रामाणिक ऐतिहासिक घटनाओं का विवरण वर्तमान की आँख एवं भविष्य का पथप्रदर्शित करेगा।
अर्हतोपासिका: साध्वी डॉ.प्रतिभा श्री 'प्राची'
कति-परिचय
शताब्दियों से अदृश्यमान श्राविकाओं को जीवन्त बनाने का, उनको इतिहास की पृष्ठ भमि पर अंकित करने का यह प्रेरणास्पद इतिहास है। अध्यात्मिक सरिता से ओतप्रोत जिन धर्म कथित व्रतानुचारिणी, श्रेष्ठ गुणधर्मा श्राविकाओं के अवदान को मुक्तामणियों की मालाओं में पिरोया गया, आत्म-मंजुषा से आप्लावित एक प्रेरक इतिहास है। समस्त युवा पीढ़ी के लिये यह दिशा सूचक यंत्र वत् मार्गदर्शक रहेगा "श्राविकाओं का बृहद इतिहास'' अतीत से लेकर वर्तमान कालीन श्राविका जगत की तुलनात्मक कुंजी है। " लोक में श्राविकाओं का इतिहास अनूठा रच डाला, लेखनी का अनूपम उपहार जैन जगत को दे डाला, कलम उठाई लिखने को एक बार जो गुरुवर्या श्री ने, अतित गर्भा श्राविकाओं का नाम अमर कर डाला"
-साध्वी प्रशंसा श्री 'मोक्षा
Jain Education Interational
FOCUS
Only
jainelibrary.org
Page #748
--------------------------------------------------------------------------
________________ साध्वी प्रतिभा श्री प्राची एक परिचय जन्मस्थान जन्म पिता माता दीक्षा तिथि दीक्षा स्थान दीक्षागरु बैंगलोर (कर्नाटक) - ज्येष्ठ कृ.2 वि.सं. 2024,25 मई, 1967 लब्धप्रतिष्ठित सुश्रावक श्री बंसीलालजीजैन (धोका) - तपस्विनी सुश्राविका श्रीमती सुशीलादेवी जैन - वैशाख शु. 3, सं. 2042, 23 अप्रैल, 1985 अहमदनगर (महाराष्ट्र) महामहीम आचार्य सम्राटपू. श्री आनंदऋषिजी महाराज, दादा गुरुणी-पंजाब उपप्रवर्तिनी महा. श्री केसरदेवीजीम., अध्यात्मयोगीनी महा. श्री कौशल्यादेवीजी म. - जैन इतिहास चंद्रिका पू. महासती डॉ. विजयश्रीजी म.सा. 'आर्या' / एम.ए. (अंग्रेजी माध्यम) जैन सिद्धान्ताचार्य 'सर्वोच्च श्रेणी' साहित्यरत्न 'प्रयाग', आगम ज्ञान-उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नन्दीसूत्र, सुखविपाक, अनुत्तरौपपातिक, बृहत्कल्प एवं अनेक स्तोत्र, स्तोककंठस्थ, आगम, न्याय, दर्शन, व्याकरण, छंदसाहित्य - हिंदी, गुजराती, अंग्रेजी, कन्नड, मराठी, मारवाडी, पंजाबी, संस्कृत, प्राकृत। पंजाब, उत्तरप्रदेश, हरियाणा, मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडू, हिमाचल प्रदेश। सेवाभावी, विनम्र, गम्भीर, प्रज्ञाशील, सुमधुर गायिका, प्रवचन विशारदा, कवियित्री, नवोदिता लेखिका। - साध्वी प्रशंसा श्रीजी म.सा. "मोक्षा" गुरुणी अध्ययन भाषाज्ञान विचरणक्षेत्र I / विशिष्टताएं शिष्या . इतिहासमहासागररुपीअतीत को देखने कीदुरबिन है। पूर्वजपुरुष इसप्रकारों उनका जीवन,जीया गया, कुछ कर गया, जो समयरुपी पथ की पगडंडीपर अपने निशान छोडकर आगे बढा हैं। जो घटनाएंबीत चुकी किंतु उसकी कार्यान्विति आजभीमुखरित है। इतिहास हमारी संस्कृति की धरोहर है, वर्तमान की दिशा निर्धारित करता है। उस धरोहर के पाथेय से आज नव निर्मिती बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत की जा रही है। - इतिहास की आंखा से देखते हुए यह बोध होता है कि हमने बहुत कुछ खोया है किंतु अब जो कुछ सुरक्षित है उसी से अपने जीवन का सृजन कर जीवन का नव-निर्माण करें। . इतिहास केवल घटनाक्रम नही है, जीवन की अनुभूति से जीया गया शाश्वत सत्य तथ्य है। इसके जीवनमूल्य अनमोल है। दीक्षा-रजत जयंती के पावनतम प्रसंग पर प्रस्तुत है यह उपहार। सृष्टिचक्र में सहयोग देने वाली पवित्र नारियों की जीवन गाथा। मर्यादा मे रहने वाली उत्थान की सीढ़ियो पर बढ़नेवाली,जीवन की मंजिल को ढूंढती हुई श्राविकाओं का जीवनवृत्त। Desian & Print at Akrati Offset Uiain (MP) Ph. 0734-2561720.96300-77780.98930-777831