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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
की माता का नाम उल्लेखनीय है। चौहान वंश के राजा कीर्तिपाल की पत्नी महिबलदेवी का नाम भी प्रसिद्ध है। इस देवी ने शांतिनाथ भगवान् का उत्सव मनाने के लिए भूमि का दान किया था। धर्म प्रभावना के लिए कई उत्सव भी किये थे। यह चौहान वंश ई. सन् की १३वीं शती में था। इस वंश में होने वाले पथ्वीराज द्वितीय और सोमेश्वर ने अपनी महारानियों की प्रेरणा से बिजौलिया के मंदिर में दान दिया तथा मंदिर की व्यवस्था के लिए राज्य की ओर से वार्षिक चंदा भी दिया था। परमारवंश में उल्लेख योग्य धारावंश की रानी भंगारदेवी हुई थी। इस रानी ने झालोनी के शांतिनाथ मंदिर के लिए पर्याप्त दान दिया था तथा धर्म प्रसार के लिए और भी कई कार्य किये थे। सिसोदिया शाखा के राणा हम्मीर ने १३२५ ईस्वी के लगभग पुनः चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया, राज्य का अभूतपूर्व उत्कर्ष प्रारंभ हुआ ।२६ ई. सन्. १२३४ में श्राविका पाहिणी ने भट्टारक ललितकीर्ति की प्रेरणा से एक देवी प्रतिमा का निर्माण करवाया। ई. सन् १२५८ में भट्टारक देशनंदी की प्रेरणा से श्राविका हर्षिणी ने संभवनाथ प्रतिमा का निर्माण करवाया था। मेवाड़ क्षेत्र जैन धर्म के दिगंबर एवं श्वेतांबर दोनों ही संप्रदायों का महत्वपूर्ण केंद्र था। ई. सन् १२७७ में समदा के पुत्र महणसिंह की भार्या साहिणी की पुत्री कुमारिला श्राविका ने पितामह पूना और मातामह धाड़ा के श्रेयार्थ देवकुलिका बनवाई। यह देवकुलिका चित्तौड़ में नवलख भंडार की दीवार के लेख में प्राप्त हुआ है। इनमें रानियों की उदार दानवत्ति का उल्लेख प्राप्त होता है। ई. सन् १२७८ के लेख के अनुसार मेवाड़ के महारावल तेजसिंह की रानी जयतल्लादेवी ने चित्तौड़ में श्याम पार्श्वनाथ का एक जैनमंदिर निर्मित किया था। अन्य लेख के अनुसार जयतल्लादेवी ने अपनी माता के आध्यात्मिक कल्याण हेतु कुछ भूमि भरतपुरिय जैन मंदिर को प्रदान की जिसकी प्रेरणा उन्हें साध्वी सुमला के उपदेशों से प्राप्त हुई थी। जयतल्लादेवी मेवाड़ के शासक समरसिंह की माता थी। अजमेर के राजा चौहान अजयराज ने अपने राज्य की मुद्राओं पर रानी सोमलदेवी का नाम अंकित किया था। सांडेराव के वि. संवत् १२२१ के शिलालेख के अनुसार जैन मंदिर के लिए रानी द्वारा बगीचे के दान का उल्लेख है। ई. सन् १२८६ के जैन मंदिर के एक लेख में महणदेवी द्वारा द्रमों का दान देने एवं उनके ब्याज से जैनोत्सव मनाने का उल्लेख है। ई. सन् १३०६ के अभिलेख से ज्ञात होता है कि जयतल्लादेवी के कल्याणार्थ रत्नादेवी ने तेजाक पति एवं पुत्र विजयसिंह सहित जैन प्रतिमा की स्थापना की थी। १३वीं शताब्दी के एक लेख में श्राविका वांछी ने पति दीनाक एवं पुत्र नाथ के साथ एक जिनमंदिर का निर्माण किया। नाथ की पत्नी नागश्री ने अपने पुत्र जीजु के साथ चित्तौड़ में चंद्रप्रभ मंदिर और खोहर नगर में भी एक मंदिर बनवाया था। तेरहवीं शताब्दी मे दानशूर अन्नदाता जगडूशाह हुए थे, जिन्होंने लक्ष्मी का सदुपयोग कर लक्ष्मी को गौरवान्वित कर दिया। सैंकडों नये जिनालयों का निर्माण, प्राचीन जिनालयों का पुनरूद्धार तथा सैंकड़ो अन्न सत्रों का संचालन कर अमर कीर्ति प्राप्त की थी। १२७७ ईस्वी में साह महण की भार्या सोहिणी की पुत्री श्राविका कुमरल ने अपनी मातामह की स्मति में एक देवकुलिका स्थापित की थी। तेरहवीं शताब्दी मे होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन की रानी शांतलदेवी द्वारा जैनधर्म के लिए किये गये कार्य चिरस्थायी है। विष्णुवर्द्धन की पुत्री हरियब्बरसि भी जैन धर्म की भक्त थी। नागले भी विदुषी और धर्मसेविका महिला थी, उसकी पुत्री देमति चारों प्रकारों का दान करती थी। ५.४ चौदहवीं - पंद्रहवीं शती की जैन श्राविकाएँ :
विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में मांडवगढ़ के उपकेश वंशीय श्रेष्ठी महामंत्री पद पर सुशोभित ज्ञान भंडारों की स्थापना करने वाले जैन मंदिरों की स्थापना करने वाले सेवा, उदारता आदि सद्गुणों से मंडित पेथड़शाह नामक सद्गहस्थ हुए थे, इनकी माता विमल श्री तपस्वीनी श्राविका थी तथा पत्नी प्रथमिणी दढ़ व्रती श्राविका थी। चित्तौड़ पर चौदहवीं शताब्दी में (ई. १३२५) राणा भीमसिंह की अनिंद्य विश्वप्रसिद्ध सुंदरी पद्मिनी के रूप पर लुब्ध होकर अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर भयंकर आक्रमण किया था। असंख्य राजपूत मारे गये। रानी पद्मिनी के साथ सहस्त्रों स्त्रियाँ जीवित चिता में भस्म हो गई। पुनः सिसोदिया शाखा के राणा हम्मीर ने १३२५ ईस्वीं के लगभग पुनः चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया, राज्य का अभूतपूर्व उत्कर्ष प्रारंभ हुआ। महाराणा कुम्भा के समय की कला के क्षेत्र की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि राणकपुर के अद्वितीय जिनमंदिर है। राणा के राज्य में पाली जिले के सादड़ी कस्बे से छ: मील दक्षिण पूर्व में, अरावली पर्वतमाला से घिरे राणकपुर का भगवान् ऋषभदेव मंदिर अत्यंत मनोरम एवं बेजोड़ है। महाराणा कुम्भा के कृपापात्र थे सेठ धन्नाशाह पोरवाल । धन्नाशाह ने महाराणा कुम्भा से ही इस मंदिर का शिलान्यास करवाया था। राणा ने १२ लाख रूपए का अनुदान इसके लिए दिया था। मंदिर निर्माण में संपूर्ण व्यय नब्बे (६०) लाख स्वर्ण मुद्रायें उस काल
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